गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाले, बंद बॉडी के ऑटो के पीछे उदयवीर ने कार रोकी और इंजन बंद किया तो पास बैठा शुक्रा कह उठा।
"यहां-कहां ?"
"डिनर ।" उदयवीर ने उसे देखा।
"वो तो ठीक है।" शुक्रा बोला रेस्टोरेंट की तरफ नजर मारी--- "ये जरा महंगी जगह है। कहीं और चलते हैं।"
"कोई बात नहीं। पेमेंट तो मैंने ही देनी है।"
दोनों कार से बाहर निकले।
शुक्रा की निगाह आगे खड़े बंद ऑटो पर पड़ी।
"बिस्कुट बेचने वाले यहां महंगा खाना खा सकते हैं तो मैं क्यों घबरा रहा हूं।" शुक्रा के होंठों से गहरी सांस निकली।
"उनके बिस्कुट आज ज्यादा बिक गए होंगे।" उदयवीर ने व्यंग से कहा--- " इसलिए मजे ले रहे होंगे। हमारे पास तो मजा लेने की कोई वजह नहीं है।"
जवाब में शुक्रा ने कुछ नहीं कहा।
लॉन में बिछी जिस टेबल पर शुक्रा-उदयवीर बैठे। उस टेबल से मात्र पांच कदम की दूरी पर आदमसिंह और महाराज बैठे पैग पर पैग चढ़ाए जा रहे थे। उनकी बातों की आवाजें स्पष्ट कानों में पड़ रही थीं। वे स्वर को धीमा रखने की चेष्टा कर रहे थे, परंतु जो व्हिस्की उनके भीतर पहुंच चुकी थी, उसने तो अपना कमाल दिखाना ही था।
उनके बैठते ही आदमसिंह की आवाज कानों में पड़ी।
"महाराज।" आवाज में नशे का भारीपन था--- "मैं तो करोड़ों रुपया लेकर गांव जाऊंगा। अपनी बेटी की शादी धूम-धाम से करूंगा। फिर बाकी की जिंदगी आराम से खा-पीकर वहीं बिता दूंगा।"
"हूं।" महाराज ने गिलास थामे घूंट भरते हुए कहा--- "ठीक, मजा करेगा तू तो।"
"तू क्या करेगा करोड़ों रुपये का ?" आदमसिंह ने पूछा।
"मालूम नहीं।" महाराज भी नशे में था।
"कुछ तो सोचा होगा, आखिरकार करोड़ों रुपयों को कहीं तो ठिकाने लगाएगा।"
"मेरा तो आगे-पीछे भी कोई नहीं। फुर्सत में सोचूंगा, क्या करना है।"
"मैं जानता हूं तू क्या करेगा।" आदमसिंह हंसकर कह उठा।
"क्या करूंगा ?"
"तू शादी करेगा। कड़क छोकरी के साथ और मजे लेगा। नहीं बताना तो मत बता। मैं सब जानता हूं।"
शुक्रा और उदयवीर की नजरें मिलीं।
तभी वेटर आया। पानी सर्व करके आर्डर लेकर चला गया।
आदमसिंह और महाराज की बातें जारी थीं।
"इनकी बातों से लगता है।" शुक्रा बोला--- "कहीं से मोटा माल हाथ लग गया है।"
"बातें करोड़ों की कर रहे हैं।" उदयवीर मुस्कराया--- "जब नशा उतरेगा तो फुटकर पर आ जाएंगे।"
"मुझे तो ये दोनों गोल्डी बिस्कुट वाले लगते हैं।" कहते हुए शुक्रा की निगाह, सड़क के किनारे खड़े ऑटो पर गई, फिर दोनों ने देखा--- "इनकी औकात तो नहीं लगती यहां का बिल भरने की । कपड़े देखे हैं। जैसे दो दिन से बदले न हों।"
उदयवीर ने उन दोनों पर नजर मारी।
"तूने थैले गिने हैं कितने हैं।" आदमसिंह की आवाज भरभरा रही थी।
"गिनने की होश ही कहां थी। मेरे तो हाथ-पांव फूल रहे थे तब।" महाराज का स्वर लड़खड़ा रहा था।
"सुन।" आदमसिंह ने आवाज को धीमा करने की चेष्टा की--- "पूरे नौ थैले हैं। आधे-आधे करने में वक्त बेकार होगा। नौवें थैले के बारे में टॉस कर लेंगे। हैड-टेल। जिसकी किस्मत हुई वो ले जाएगा। बोल मंजूर है।"
"मंजूर है।" महाराज ने गिलास वाला हाथ हिलाकर कहा।
शुक्रा की आंखें सिकुड़ीं।
"उदय।"
"हूं।"
"वो नब्बे करोड़, भी बड़े-बड़े नौ थैलों में थे।"
उदयवीर ने व्यंग भरी निगाहों से शुक्रा को देखा।
"तेरा मतलब कि ये दोनों उसी नब्बे करोड़ की बात कर रहे हैं।" उदयवीर का स्वर तीखा था।
"गलत क्या कह दिया, हो सकता है।"
"लेकिन तेरे उस हवलदार ने तो खबर दी है कि सफारी में भरे नब्बे करोड़ शहर से बहुत दूर जा चुके हैं।"
"हां, ये बात तो है।"
"ये दोनों।" शक्रा ने व्यंग से कहा--- "गोल्डी बिस्कुट थैलों की बात कर रहे होंगे। थैलों में भरे गोल्डी बिस्कुट बांटने की बात कर रहे होंगे। इनका अपना कोई मामला होगा।"
"लेकिन ये करोड़ों रुपयों की बात कर रहे थे कि...।"
तभी वेटर ट्रे में खाने का सामान रखे आता नजर आया।
"चुप कर, खाना खाने दे।" उदयवीर बात काटकर कह उठा--- "कहाँ की बात, कहां ले आया है। नब्बे करोड़ रुपया, जो शहर से दूर हो चुका है, वो हमारी बगल में बैठे लोगों के पास है। कुछ देर में कहेगा कि गोल्डी बिस्कुट वाले बंद ऑटो के भीतर थैलों को ठूंसा रखा हुआ है। मेरे सिर से नब्बे करोड़ का भूत उतरा तो तेरे पे चढ़ गया।"
"मेरे पे नहीं चढ़ा।" शुक्रा खीझ कर बोला।
"तेरी बातों का तो यही मतलब...।"
वेटर के पास पहुंच जाने की वजह से शुक्रा खामोश हो गया।
वेटर ने आर्डर का सामान टेबल पर लगाया।
"कुछ और सर ?"
"नहीं, अभी नहीं।"
वेटर वहां से हटा और आदमसिंह-महाराज की टेबल पर पहुंचा।
"डिनर का आर्डर, सर।" वेटर ने उनसे कहा।
"डिनर ?" आदमसिंह ने नशे से भरी आंखें मिचमिचाकर उसे देखा।
वेटर के कुछ कहने के पहले ही महाराज कह उठा।
"ये खाने के लिए पूछ रहा है। कि क्या लाऊं।"
"ओह डिनर, तो यूं बोल।" आदमसिंह ने नशे से भरा सिर हिलाया--- "जा ले आ।"
"क्या लाऊं सर ?"
"लाना क्या है। ले आ दाल को, तड़का मार के।" आदमसिंह की आवाज नशे में लड़खड़ा रही थी।
उसकी बात सुनकर वेटर दो पल के लिए अचकचा उठा।
लेकिन महाराज इतनी होश में था कि बात समझ सके।
"तेरे को इतनी अक्ल नहीं है कि किस जगह पर, किस तरह बात की जाती है।" महाराज ने आदमसिंह से कहा फिर वेटर से बोला--- "क्या है खाने को ?"
"सर मीनू आपके सामने रखा है।"
"रखा होगा, कम रोशनी में, मैं पढ़ नहीं सकता। चश्मा दुकान पर दिया है, सोने की कमानी लगाने के लिए। तू मुंह से ही बता दे क्या-क्या है खाने को।"
वेटर समझ चुका था कि दोनों ज्यादा पी गए हैं। उसने बताया खाने में क्या है।
"ठीक है।" महाराज ने गिलास में से घूंट भरा--- "आर्डर नोट कर।"
महाराज ने आर्डर नोट कराया।
"जा फटाफट ले आ।"
वेटर हिचकिचाया-सा खड़ा रहा।
"क्या हुआ, कुछ और चीजें भी हैं खाने को।"
"सर, गुस्ताखी माफ हो तो कुछ कहूं।" वेटर दबे स्वर में बोला।
"बोल-बोल, तू तो अपना यार है। तूने हमें बोतल लाकर दी है।" आदमसिंह कह उठा।
“ये जो आर्डर आपने दिया है। ये कम से कम दस आदमियों के खाने के लिए सामान है और सबकी सब आइटमें महंगी हैं और बिल भी बड़ा बनेगा। " वेटर समझाने वाले ढंग में, इज्जत भरे लहजे में कह रहा था--- "आप लोग ज्यादा पी गए हैं शायद । इसलिए...।"
"ठीक है-ठीक है। समझ गया।" महाराज ने टोका--- " तूने बढ़िया बात कही। अब तू मेरा बताया ऑर्डर कैंसिल करके, अपनी पसंद का ले आ।"
"अपनी पसंद का ?"
"मतलब समझा कर ।" महाराज ने गिलास खाली किया--- "जो तू ठीक समझता है कि इस वक्त हमें क्या और कितना खाना चाहिए, वो ही उतना ही ले आ, समझ गया ना ?"
"समझ गया सर।" वेटर सिर हिलाकर जाने लगा।
"सुन।" आदमसिंह ने टोका।
वेटर ने ठिठककर उसे देखा।
"इस बात की परवाह मत करना बिल कितना मोटा या भारी बनता है। कम मत समझना हमें। हमारे पास करोड़ों रुपया है। ये सारी जगह खरीद सकते हैं।"
महाराज मन-ही-मन हड़बड़ाया फिर वेटर से कह उठा।
"इसकी बातों पर ध्यान मत दे। पीने के बाद ये करोड़ों से कम की बात नहीं करता। तू जा...।"
वेटर चला गया।
"जुबान बंद रखा कर।" महाराज गुस्से से कह उठा--- "लोगे को क्यों बताता फिर रहा है कि हमारे पास करोड़ों रुपया है।"
आदमसिंह नशे से भरी हंसी हंसा।
"घबरा गया।"
"मरवाएगा तू।"
"पागल।" आदमसिंह हंसा--- "पीकर बोलने का यही तो फायद है कि सच भी बोलो तो सुनने वाला कहेगा नशेड़ी बोल रहा है। पीकर बोल रहा है और होश में झूठ भी बोलो तो लोग सच मानते हैं। फिक्र मत कर। मैं कितना भी कह लूं कि हमारे पास करोड़ों रुपया है। कोई नहीं मानेगा क्योंकि मैंने ढेर सारी पी रखी है।"
शुक्रा और उदयवीर की निगाहें पुनः मिलीं।
"अब तो मानता है ना, मेरी बात।" शुक्रा धीमे स्वर में कह उठा--- "इनके पास करोड़ों रुपया है। वो वाला नब्बे करोड़ हो या कोई दूसरा वाला, लेकिन है।"
उदयवीर ने सोच भरे ढंग से सिर हिलाया।
"खाना शुरू कर। इन्हें भी खा लेने दे। जब ये यहां से निकलेंगे तो इनकी गर्दन पकड़कर बात करेंगे। तब मालूम हो जाएगा कि असल मामला क्या है।" शुक्रा ने धीमे स्वर में कहा।
"लेकिन ये नौ थैलों की बात कर.....।"
"बोला तो, ये अपने मुंह से सारी बात बताएंगे। इन्हें यहां से तो निकलने दे।"
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पाली जब से होटल से निकला था, तब से पैदल ही फुटपाथ पर आगे बढ़ता जा रहा था। कंधे पर बैग लटका था। वो हड़बड़ाहट में था कि दस-बीस लाख जैसा, बड़ा हाथ उसने मार लिया है। दो-चार हजार का हाथ मारने वाले के पास, अचानक लाखों में रुपया आ जाए तो उसका बुरा हाल होगा ही।
कुछ ऐसा ही हाल पाली का था।
कहां जाना है। उसके मस्तिष्क में कुछ भी तय नहीं था। सिर्फ सड़क के किनारे मौजूद फुटपाथों पर आगे बढ़ा जा रहा था। मन में था कि उस होटल से ज्यादा-से-ज्यादा दूर हो जाए जहां सुमित और पूजा थे। वैसे वो ये भी जानता था कि बारह घंटों से पहले उनकी आंख नहीं खुलेगी।
एक घंटा हो चुका था इसी तरह, उसे चलते हुए।
थकान का एहसास हुआ तो रुका।
सिगरेट निकालकर सुलगाई। कश लिया। फिर सोचा कि अब क्या करे ?
दस-बीस लाख कम नहीं होते। पाली ने अपने आप से कहा। किसी छोटे से शहर में तीन-चार लाख की दुकान और चार-पांच लाख का मकान लेकर, बाकी की जिंदगी मजे से बिता सकता है। यही तो चाहता था वो कि बुढ़ापा कट जाए और अब बुढ़ापा काटे जाने का सारा सामान उसके पास था तो फिर सोचना क्या ?
तो सबसे पहले इस शहर से निकलने का प्रबंध करे।
बस अड्डे जाए या स्टेशन ?
नहीं, इन दोनों जगहों पर जाना ठीक नहीं। वहां पुलिस वाले गश्त लगाते रहते हैं और शक होने पर उसके सामान की तलाशी भी ले लेते हैं। अगर उसके सामान की तलाशी ले ली तो गया सीधा जेल में। पास में लाखों का माल भी गया और बुढ़ापा नर्क ? तब... ?
हाइवे । शहर से बाहर निकलने के लिए उसे ऐसी सड़क पर खड़ा हो जाना चाहिए जहां से बसें, शहर से बाहर जाती हैं। हाइवे की तरफ जाती हैं। हाथ देने पर कोई-न-कोई तो बस रुकेगी ही और वो आसानी से शहर से बाहर निकल जाएगा।
पाली जानता था कि ऐसी सड़क, हाइवे की तरफ जाने वाली सड़क, यहां से दूर है। वहां तक पहुंचने के लिए उसे कोई सवारी। सोचते-सोचते ठिठका पाली।
दूर उसे ऐसा बंद ऑटो दिखाई दिया कि देखते ही लगा, उसे कहीं देखा है। जाने क्या सोचकर वो उसकी तरफ बढ़ गया। कुछ करीब पहुंचा तो ठिठक गया। चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।
दूर होने पर भी वो इस बंद ऑटो को पहचानने में भूल नहीं कर सकता। ये तो उसी की गली में रहने वाले भूरे का ऑटो है, जो गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट बेचता है। लेकिन भूरे का ऑटो यहां कैसे ? उसकी तो बांह टूटी हुई है। वो तो चला ही नहीं सकता।
दे दिया होगा किसी को किराए पर ? पाली ने सिर झटक कर सोचा।
स्कूटर-टैक्सी किराए पर लेने से बेहतर था, भूरे के इस ऑटो को ले चले। पकड़ा गया तो कोई खतरा नहीं। भूरा कह देगा, वो अपना आदमी है। नहीं पकड़ा गया तो, दस-बारह किलोमीटर का रास्ता, पास में मौजूद दौलत के साथ सुरक्षित निकल जाएगा। क्योंकि ऐसे बंद ऑटो की किसी ने क्या तलाशी लेनी, जिस पर 'गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट' लिखा हो। पाली ने जेब में हाथ मारा, एक मास्टर चाबी तो टाटा सफारी में फंसी रह गई थी। लेकिन छिपी जेब में दूसरी थी। वो निकाली और ऑटो की तरफ बढ़ गया। पास पहुंचते ही भीतर बैठा। बिना वक्त गंवाए मास्टर चाबी से एक ही बार में उसे स्टार्ट किया और आगे बढ़ा दिया।
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'गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट' वाला ऑटो जब स्टार्ट हुआ तो नशे में धुत बे-ढंगे ढंग से खाना खाते आदमसिंह मुंह बनाकर कह उठा।
"ये भूरे को भी चैन नहीं। पागल है साला। बांह टूटी हुई है फिर भी आधी रात को ऑटो लेकर अपने स्वादिष्ट बिस्कुट बेचने, जाने कहां जा रहा है।"
"क्या करे, तीन-तीन बच्चे पालने हैं। मजबूरी में।" कहते-कहते महाराज ठिठका। नशे में तो वो भी ठीक-ठाक था, लेकिन इस हद तक नहीं कि बात न समझ सके। उसने फौरन नजरें घुमाकर सड़क के किनारे की तरफ देखा। जहां डिब्बा बंद ऑटो खड़ा था।
महाराज के देखते-ही-देखते वो आगे बढ़ गया।
महाराज की आंखें फट गईं।
"आदम-आदमसिंह।" महाराज चीखा।
"चुपकर, यहां का शाही पनीर बहुत अच्छा । खाने दे और दाल तो...।"
"हम बरबाद हो गए आदम, वो वो...।"
"बरबाद हो गए।" आदमसिंह नशे में हंसा--- "अच्छे-भले पनीर खा रहे हैं और कहता है...।"
"कोई हमारा ऑटो... नब्बे करोड़ ले जा रहा है, रोक उसे।"
आदमसिंह के मस्तिष्क को झटका लगा। वो हड़बड़ाकर इस तरह उठा कि सामने मौजूद खाने के बर्तनों से भरी टेबल बर्तनों सहित उलट गई।
वहां बैठे कई लोगों की निगाह उनकी तरफ गई।
शुक्रा और उदयवीर की नजरें तो पहले से हर तरफ थी।
"शुक्रा कोई ऑटो ले जा रहा है, गोल्डी के बिस्कुट वाला।" उदयवीर जल्दी से कह उठा--- "और ये कह रहे हैं कि कोई नब्बे करोड़ ले जा रहा है।"
"वही वाला नब्बे करोड़।" शुक्रा जल्दी से कह उठा ।
आदमसिंह खड़ा हुआ ही था कि नशे का झोंका उसके मस्तिष्क से ऐसा गुजरा कि लहराकर कुर्सी से टकराता हुआ नीचे जा गिरा।
"आदम। रोक नब्बे करोड़ को, वरना हम... ।"
"अभी रोकता हूं। ये मुझे क्या हो गया, उठा मुझे।"
महाराज इस काबिल कहां था कि आदमसिंह को फौरन उठा पाता।
तभी शुक्रा उसके पास पहुंचा और जल्दी से सहारा देकर आदमसिंह को उठाया।
"क्या हुआ ?"
"होना क्या है।" आदमसिंह की आवाज नशे में लहरा रही थी--- "वो बिस्कुट वाले ऑटो में नकद नब्बे करोड़ पड़ा है। उसे-उसे कोई हरामजादा ले जा रहा है। पकड़ना उसे, मैं आता हूं।"
"ऑटो गया आदमसिंह।" महाराज कुर्सी पर बैठा-बैठा रो देने वाले स्वर में कह उठा।
"नब्बे करोड़, नौ थैलों में भरे पड़े हैं।" शुक्रा जल्दी से कह उठा।
"हां, वो।"
"कहां से मिले तुम्हें ?"
"वो-वो सफारी से, टाटा सफारी से, तो...।"
"उल्लू के पट्टे, नब्बे करोड़ सड़क के किनारे रखकर, यहां बैठकर बोतल पी रहा है। सलाद खा रहा है। पनीर-शाही पनीर खा रहा है दाल की तारीफ कर रहा है। तू तो नब्बे रुपये के काबिल ही नहीं।" शुक्रा ने दांत भींचकर उसके चेहरे पर घूंसा मारा तो आदमसिंह नीचे गिरते हुए कई लुढ़कनियां खाता चला गया।
शुक्रा सड़क के किनारे खड़ी कार की तरफ दौड़ा। उदयवीर स्टेयरिंग सीट पर जम चुका था।
शुक्रा के कार में बैठते ही, उदयवीर ने फुर्ती से कार आगे बढ़ा दी।
"वो वही नब्बे करोड़ हैं, जिसके लिए हम भागदौड़ कर रहे हैं।" शुक्रा बेचैन स्वर में बोला।
"लेकिन वो तो सफारी गाड़ी में था। इस टूटे-फूटे बिस्कुट सप्लाई करने वाले ऑटो में कैसे।"
"जैसे भी आया हो, हमें नोटों से मतलब है। वो अब हमसे ज्यादा दूर नहीं है। वो पुराना-सा माल ढोने वाला ऑटो ज्यादा दूर नहीं जा सकता।" शुक्रा व्याकुल-सा उदयवीर का कंधा दबाकर कह उठा--- "ढूंढ उसे, नब्बे करोड़ जैसी बड़ी रकम है उसमें।"
कार तेजी से आगे जा रही थी।
दोनों की निगाहें गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाले ऑटो को तलाश कर रही थीं।
"हमें ऑटो जल्दी ढूंढना होगा।" शुक्रा बेचैन था--- "रेस्टॉरंट पर शोर पड़ गया था नब्बे करोड़ का। पुलिस वहां अवश्य आएगी और वो दोनों शराबी बोल देंगे कि सफारी में मौजूद नब्बे करोड़ वापस शहर में पहुंच चुके हैं, जिसे कि पुलिस ये समझ कर चल रही है कि वो नब्बे करोड़ शहर से मीलों दूर जा चुका है। ऐसे में बिस्कुट वाले ऑटो को ढूंढना पुलिस के लिए मामूली बात होगी। उस ऑटो को वहां बैठे कई लोगों ने देखा है।"
"चिंता मत कर। अभी वो बिस्कुट वाला ऑटो नजर आएगा।" उदयवीर विश्वास भरे स्वर में कह उठा।
कार आगे बढ़ रही थी।
दोनों की नजरें गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाले ऑटो को बेचैनी से ढूंढ रही थी।
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जयपाल वधवा ।
सफल बिजनेसमैन था। खानदानी बिजनेसमैन था। कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो सिर्फ एक वहम की। अपने स्टाफ पर भी शक करता था और अपनी पत्नी रागिनी पर भी। वधवा की उम्र पैंतालीस बरस के आसपास थी। पेट आगे निकला हुआ। सिर के बाल कुछ उड़े हुए। जबकि उसकी पत्नी रागिनी छरहरे बदन की, अड़तीस वर्ष की खूबसूरत थी। अगर बन-ठनकर बाहर निकले तो एक बारगी औरत न लगकर, ठीक-ठाक युवती ही लगे।
जाने क्यों जयपाल वधवा अपनी पत्नी की खूबसूरती पर जलता भी था और शक भी करता था। उसका दिमाग हमेशा इस तरफ दौड़ता कि रागिनी उसे धोखा देकर किसी और के साथ गुलछर्रे उड़ाती है। वो हमेशा इस कोशिश में लगा रहता कि रागिनी को रंगे हाथ पकड़े। यहां तक कि बाहरी गेट पर मौजूद एक मात्र दरबान ही उसके घर के नौकरों में मर्द था। वो भी पचास बरस का। वरना छः नौकरानियां घर का काम करती थीं और बाहरी आदमी को किसी भी हालत में भीतर नहीं आने देता था, बेशक वो किसी नौकरानी का रिश्तेदार ही क्यों न हो।
और रागिनी ने कहीं जाना होता तो साथ में नौकरानी को लेकर जाना पड़ता था। नहीं तो मालूम होने पर जयपाल वधवा बवाल खड़ा कर देता था। इन दिनों बिजनेस में दस-बारह करोड़ का नुकसान हो जाने की वजह से और बिजली की तारें बनाने वाली फैक्ट्री में आग लग जाने की वजह से कुछ ज्यादा ही परेशान था और घर आने पर अपनी परेशानी, गुस्से के रूप में रागिनी पर ही उतारता था। रागिनी, वधवा की आदतों से अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी थी, इसलिए उसकी कही बातों को वो खास गंभीरता से नहीं लेती थी।
जयपाल वधवा हैदराबाद से दस मिनट पहले ही लौटा था। पांच दिन से वो घर से बाहर था। पचास वर्षीय दरबान, अगर वधवा घर पर शाम को मौजूद हो तो, रात को वधवा के आदेश के मुताबिक अपने क्वार्टर में सोने चला जाता था। वधवा की गैरमौजूदगी में उसे चौबिसों घंटों की पहरेदारी देनी पड़ती थी, गेट पर।
वधवा आया तो पांच दिन से थका-टूटा, ठीक तरह से नहीं सोया दरबान, क्वार्टर में सोने चला गया। भूल से बाहरी गेट बंद करना भूल गया। वो खुला रहा।
नौकरानियों के लिए छत पर कमरा था।
रागिनी आधा घंटा पहले ही नौकरानियों को छुट्टी देकर छत पर मौजूद कमरे में भेज चुकी थी। डिनर हो चुका था। वो अपने कमरे में सिगरेट सुलगाए टहल रही थी। जयपाल वधवा के आने का उसे मालूम नहीं हुआ। हो भी जाता तो भी उसने मस्त ही रहना था।
जयपाल वधवा ने ब्रीफकेस हाल ड्राइंगरूम में रखा और हर तरफ शांति पाकर पहली मंजिल पर रागिनी के कमरे के बाहर पहुंचा। कोई नौकरानी नजर नहीं आई तो वो समझ गया कि नौकरानियों को छुट्टी देकर छत वाले कमरे में भेज चुकी है। शक्की आदत से भरे वधवा ने झुककर, दरवाजे के 'की होल' से भीतर झांका।
नाइटी डाले रागिनी को कमरे में सोच भरे अंदाज में टहलते पाया। नाइटी में उसका अंग-अंग स्पष्ट झलक रहा था। वधवा कई पलों तक देखता रहा फिर सीधा खड़ा हो गया। चेहरे पर कठोरता नजर आने लगी। होंठ भिंच से गए थे।
"नौकरानियों को छुट्टी दे चुकी है।" जयपाल वधवा बड़बड़ाया--- "खुद सजी-संवरी, नाइटी पहने किसी का इंतजार करने वाले ढंग से टहल रही है। इसे अभी पता नहीं है कि मैं आ गया हूं। गुलछर्रे तो इसके रोज उड़ते होंगे। आज रंगे हाथों पकड़ कर ही रहूंगा। चालाक तो बहुत है। अपने यार के साथ कभी पकड़ में नहीं आ सकी।"
बड़बड़ाने के साथ ही वो दबे पांव वहां से हिला और नीचे पहुंचा। ब्रीफकेस खोलकर लाइसेंस वाली रिवॉल्वर निकाली।
"आज इसे और इसके यार को, दोनों को उड़ा दूंगा।" वधवा दांत भींचकर बड़बड़ाया--- "लेकिन नहीं, इन्हें मारने पर, रिवॉल्वर शोर करेगी। वो भी तो फंसेगा। क्या फायदा।"
रिवॉल्वर थामे वधवा सोचता रहा। फिर रिवॉल्वर ब्रीफकेस में रखा और ब्रीफकेस उठाए अपने बेडरूम में पहुंचा। वहां मौजूद टेबल की ड्राअर से लैदर के केस में नफासत से सजा रखा खंजर निकाला। जो कि उसके नेपाली दोस्त ने कभी भेंट के रूप में दिया था।
"ये खंजर ठीक रहेगा। रागिनी और उसके आशिक का काम भी खत्म हो जाएगा और शोर भी नहीं होगा। लाशें ठिकाने लगाना कौन-सा बड़ा काम है।" वधवा दांत भींचकर बड़बड़ाया--- "कार में डालकर दूर फेंक आऊंगा। साली, माल मेरा खाती है और मजे दूसरों को देती है। खैर नहीं आज हरामजादी की।"
वधवा ने कपड़े बदले। नाइट सूट पहना।
इस बीच उसका दिमाग सोचों के साथ दौड़े जा रहा था। खंजर को उसने ठीक ढंग से नाइट सूट के पायजामे में अटका लिया था। इस दौरान वो तय कर चुका था कि उसे रागिनी से मिलना चाहिए कि वो आ गया है और थका हुआ है, सोने जा रहा है, बताकर उसे पूरी तरह निश्चिंत कर देना चाहिए। वरना किसी आहट से उसे मालूम हो गया कि वो बंगले पर आ गया है, तो सावधान हो जाएगी और तब वो उसे उसके आशिक के साथ रंगे हाथ नहीं पकड़ सकेगा।
वधवा, रागिनी के बेडरूम के दरवाजे पर पहुंचा। दरवाजा थपथपाया।
फौरन दरवाजा खुला।
वधवा को सामने पाकर रागिनी का खूबसूरत चेहरा हैरानी से भर उठा। वधवा चेहरे पर शांत भाव लिए, रागिनी को देखता रहा। रागिनी ने जल्दी से खुद पर काबू पाया।
"जयपाल, तुम-तुम कब आए ?" रागिनी के होंठों से निकला। वो उसे रास्ता देने के लिए पीछे हटी।
वधवा दो कदम उठाकर भीतर आया।
"किसका इंतजार हो रहा था ?" जयपाल वधवा शांत स्वर में बोला।
"इंतजार ?"
"हाँ।" वधवा धीमे ढंग से मुस्कराया--- "मेरे दरवाजा थपथपाते ही, फौरन दरवाजा खुल गया।"
रागिनी के होंठ सिकुड़े। नजरें वधवा के चेहरे पर जा टिकीं।
"जवाब नहीं दिया मेरी बात का।"
"मैं टहल रही थी।" रागिनी का स्वर शांत था--- "जब तुमने दरवाजा थपथपाया, तब दरवाजे के पास ही थी और हाथ बढ़ाकर खोल दिया।"
जयपाल वधवा ने रागिनी को सिर से पांव तक घूरकर तसल्ली से देखा।
"क्या देख रहे हो ?" रागिनी ने टोका--- "इस तरह तो बाहर की औरतों को भी नहीं देखा जाता।"
वधवा खुलकर मुस्कराया।
"हां, ठीक कहती हो। लेकिन मैं कुछ और ही देख रहा था।"
"क्या ?"
"पांच दिन के पश्चात मैं लौटा हूं। जब गया था तो तुम्हारा शरीर बहुत ठीक था। मेरे पीछे इन पांच दिनों में तुमने ऐसा क्या किया कि शरीर से फैली-सी लग रही हो।"
"ओह!" रागिनी के होंठ सिकुड़े--- "अब समझी तुम्हारे दिमाग में क्या है।"
"मैं जानता हूं तुम समझदार हो। तभी तो मुझ जैसे अमीर को फांसकर मेरी बीवी बन बैठी। वरना आज भी विमान में होस्टेज का काम कर रही होती। लोगों को खाने का सामान सर्व कर रही होती।"
"मैंने तुम्हें फांसा है।" रागिनी का स्वर कड़वा हो गया।
"नहीं, क्या ?"
"तुम मेरी खूबसूरती पर मर-मिटे थे। बार-बार मुझे फोन करते। जिस विमान में मेरी ड्यूटी होतीं, मालूम करके उसी विमान की टिकट बुक करा लेते। ताकि मेरे करीब आ सको और...।"
"छोड़ो, ये पुरानी बातें हैं। जो गलती मेरे से हो चुकी है, वो मैं सुनना भी नहीं चाहता। मुझे पुरानी बात याद करके अपनी बेवकूफी पर तगड़ा अफसोस होता है।" जयपाल वधवा ने जहरीले स्वर में कहा--- "अब की बात करो। तुम्हारी फिगर में इतना बदलाव मुझे क्यों महसूस हो रहा है।"
"तुम्हारा दिमाग खराब है। इसलिए बदलाव महसूस हो रहा है।" रागिनी ने उखड़े स्वर में कहा।
"तमीज से बात करो।" वधवा के दांत भिंच गए।
"बदतमीजी से बात तुम कर रहे हो।" रागिनी का स्वर सख्त हो गया--- "मेरी फिगर वही है, जो तुम छोड़कर गए थे। अगर तुम्हें मेरी फिगर की इतनी ही चिंता है तो जाते वक्त फीते से नाप ले लिया करो और आने पर नाप को जांच लिया करो। वास्तव में तुम घटिया इंसान हो। अपनी पत्नी से ऐसी बात करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती।"
"जब तुम्हें मौज-मस्ती करते शर्म नहीं...।"
"देखा है तुमने मुझे कभी किसी मर्द के साथ।" रागिनी भड़क उठी।
"जरूर देख लेता, अगर मेरे पास फुर्सत होती। लेकिन तुम अच्छी तरह जानती हो कि मेरे पास सांस लेने की फुर्सत नहीं है। करोड़ों के नुकसान के नीचे आ गया हूं। अब थका हुआ टूर से लौटा हूं और सुबह आठ बजे जर्मनी से आई पार्टी से मीटिंग है।" वधवा ने अपने स्वर को सामान्य बना लिया था--- "मैं सोने जा रहा हूं। सुबह जल्दी उठना है। यहां तो बेकार की बातें होती रहेंगी।"
कहकर जयपाल वधवा मुड़ा तो रागिनी ने टोका।
"खाना लगवा दूं।"
"नहीं। जोरों की नींद आ रही है।" कहने के साथ ही वधवा दरवाजे से बाहर निकल गया।
रागिनी कई पलों तक दरवाजे को देखती रही, फिर बड़बड़ा उठी।
"शक का मारा। ये कभी नहीं सुधर सकता।"
जयपाल वधवा अपने बेडरूम में पहुंचा और लाइट ऑफ करके कुर्सी पर बैठ गया। करीब पंद्रह मिनट उसने इसी तरह बिताए। उसके बाद उठा, दरवाजे के पास पहुंचकर, कान लगाकर, बाहर की आहट ली। उसके कानों ने हर तरफ चुप्पी और शांति ही महसूस की।
उसने आहिस्ता से दरवाजा खोला। बाहर झांका।
कोई भी नजर नहीं आया। रोज रात जलने वाली मध्यम-सी लाइटों में सब कुछ स्पष्ट नजर आ रहा था। उसने पायजामे में फंसा रखे खंजर को चैक किया। बाहर निकला और आहिस्ता से दरवाजा बंद करके, रागिनी के बेडरूम के दरवाजे पर निगाह मारी।
दरवाजा बंद था।
वधवा दरवाजे के पास पहुंचा और झुकते हुए 'की होल' में झांका।
रागिनी सिगरेट सुलगाने, फिर कश लेते, टहलते हुए नजर आई।
"तो अभी इसका आशिक आया नहीं।" वधवा दरवाजे के पास से हटता हुआ बड़बड़ाया--- "बेसब्री से इंतजार कर रही है, ये सोचकर कि मैं सो चुका हूँ। छोड़ने वाला आज मैं भी नहीं।" दबे पांव वधवा सीढ़ियां उतरकर नीचे के हॉल में पहुंचा और आगे बढ़कर मुख्य दरवाजे से बाहर निकलकर पोर्च पार करता हुआ, बाहरी गेट की तरफ बढ़ गया।
कुछ पास पहुंचकर गेट पर निगाह पड़ते ही जयपाल वधवा के दांत भिंच गए।
"ओह! तो बाहर का गेट भी खोल रखा है कि आशिक को आने में दिक्कत न हो। इतनी हिम्मत हो गई रागिनी की कि घर पर मेरी मौजूदगी में भी रंगरलियां मनाए। आज नहीं छोडूंगा।" जयपाल वधवा का खून खौल उठा था। उसने पायजामे में फंसा खंजर निकालकर मुट्ठी में दबाया और पास ही अंधेरे में दुबक कर बैठ गया और रागिनी के उस आशिक का इंतजार करने लगा, जो उसकी सोचों ने पैदा किया था।
वधवा ये न देख सका कि पहली मंजिल पर स्थित अपने बेडरूम की खिड़की पर खड़ी रागिनी अंधेरे में भी उसकी हरकतों को स्पष्ट देख रही थी।
कमरे में टहलते-टहलते रागिनी इत्तफाक से ही खिड़की पर पहुंची कि उसकी नजरें मेन गेट पर पड़ी। गेट को खुला पाकर ठिठक गई। उसे दरबान की लापरवाही पर गुस्सा आया। मन ही मन तय करके वो दरबान को बुलाने के लिए बेल बजाने के वास्ते पलटने ही वाली थी कि रुक गई।
उसकी निगाह वधवा पर पड़ी। पहले तो अंधेरे की वजह से उसे पहचान नहीं पाईं। परंतु दूसरे ही पल उसे पहचाना तो चेहरे पर दिलचस्पी के भाव नजर आने लगे। जयपाल तो सोने के लिए अपने बेडरूम में जा चुका है। फिर यहां अंधेरे में क्या कर रहा है। उसे झूठ क्यों बोला कि वो सोने जा रहा है। उसके बाद उसने जयपाल के हाथ में खंजर देखा फिर अंधेरे में छिपते देखा।
रागिनी के चेहरे पर दिलचस्पी से भरी उलझन ही उलझन नजर आने लगी।
मामला क्या है?
जयपाल ये सब क्या कर रहा है ?
ढेरो सवाल उसके मस्तिष्क में उथल-पुथल पैदा करने लगे।
खिड़की से हटना उसने ठीक नहीं समझा। आखिर देखे तो सही जयपाल कर क्या रहा है? कमरे की लाइट ऑफ करके खिड़की पर आ खड़ी हुई कि, जयपाल उसे खिड़की पर खड़ा न देख सके। वहां खड़ी रागिनी की पैनी निगाह अंधेरे में उस जगह पर टिक गई जहां खंजर लिए वधवा छिपा था।
■■■
पाली।
गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाला ऑटो दौड़ाए जा रहा था, वो जुदा बात थी कि डिब्बा बंद ऑटो दौड़ने की अपेक्षा, अपनी हिम्मत के मुताबिक रेंगने वाली रफ्तार पर अड़ा हुआ था। आखिर अपनी हिम्मत के मुताबिक ही तो उसने आगे बढ़ना था, नब्बे करोड़ का बोझ ढोते हुए।
पाली के कंधे पर बैग मौजूद था, जिसमें जेवरात और नोटों की गड्डियां थीं।
अभी कुछ आगे ही गया होगा कि उसे शीशे में देखते हुए लगा कि पीछे दूर वही कार आ रही है, शायद जो इसी ऑटो के पीछे खड़ी थी। पाली को पकड़े जाने का जरा भी डर नहीं था। क्योंकि ये भूरे का ऑटो था। भूरे ने कह देना था कि वो उसका दोस्त हैं। और ये सब मजाक हो रहा था। परंतु पाली को एकाएक चिंता हुई, पास में मौजूद बीस लाख के माल की, जिसके दम पर उसने बुढ़ापा काटने की सोच ली थी, बात जरा भी बढ़ कर पुलिस तक पहुंची, बैग चैक किया गया तो जेवरातों और नोटों के बारे में क्या सफाई देगा कि वो कहां से आए ?
यानी कि पीछे आने वाली कार से बचना ही ठीक होगा।
इस विचार के साथ ही पाली ने सड़क के साथ लगती गली में ऑटो डाल दिया।
खस्ताहाल ऑटो की टेल लाइटें खराब थीं। इस वजह से पीछे आती कार में बैठे शुक्रा और उदयवीर को ऑटो गली में मुड़ता नजर नहीं आ सका।
ऑटो गली पार करके दूसरी तरफ की सड़क पर आ गया। इसके साथ ही पाली को लगा कि गोल्डी मार्का बिस्कुट वाला ऑटो दूर से पहचाना जा सकता है, उसे फंसा सकता है। बेहतर है इसे छोड़कर पैदल ही आगे बढ़ जाए। वरना फंसेगा।
तभी सामने से, दूर कार की हैडलाइट चमकी।
पाली को लगा, कहीं ये ही कार न हो जो उसे तलाश कर रही हैं। हड़बड़ाकर उसने आसपास देखा। एक तरफ बंगले की कतार थी और पास वाले बंगले का गेट उसे खुला नजर आया। बिना कुछ सोचे-समझे पाली ऑटो को खुले गेट के भीतर ले जाता चला गया। उससे पहले ही ऑटो का इंजन बंद कर दिया था कि उसके फटे इंजन की आवाज न गूंजे।
इंजन बंद गोल्डी मार्का ऑटो सरकता हुआ गेट के भीतर पहुंच गया।
तभी सड़क पर से उसने कार गुजरने की आवाज सुनी।
पाली ने मन ही मन चैन की सांस ली। जो भी हो ये गोल्डी मार्का ऑटो उसके लिए मुसीबत बनते-बनते रह गया था। पाली ने फौरन फैसला किया कि ऑटो को यहीं पर छोड़कर चलता बने और किसी तरह इधर से निकलने का इंतजाम करे।
पाली कंधे पर बैग लटकाए ऑटो से बाहर निकला।
ये बंगला जयपाल वधवा का ही था।
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जयपाल वधवा हाथ में खंजर लाल-लाल आंखों से पाली को घूर रहा था। उसे लगा, उसका इंतजार रंग लाया। रागिनी का आशिक आखिर हाथ आ ही गया। वेष बदलकर टूटा-फूटा ऑटो लेकर आया है और गेट से भीतर आते वक्त ऑटो का इंजन भी बंद कर दिया कि किसी को आवाज न आ सके। रागिनी ने पहले से ही इसे सब समझा रखा होगा। वरना गेट खुला होने और इस वक्त अंधेरे में, इस तरह किसी के आने का मतलब ही क्या है ?
आज नहीं छोड़ेगा। वधवा मन ही मन गुर्रा उठा।
इधर पाली ऑटो से निकला।
उधर हाथ में खंजर दबाए, गुस्से में पागल हुआ वधवा उसके सामने आ गया।
अंधेरे में भी पाली ने उसके हाथ में खंजर चमकता देखा। वो चौंका।
"कौन हो तुम?" पाली के होंठों से हैरानी भरा स्वर निकला।
"नहीं पहचाना?" वधवा ने दांत किटकिटाए।
"नहीं, मैं तो...।"
"हरामजादे, मैं वही हूं, जिसकी बीवी के साथ तू ऐश करता है और वो तेरे को ऐश कराती... ।"
"तुम....।" पाली ने कहना चाहा।
"हां मैं-मैं जयपाल वधवा, पहचाना। अंधेरा है, नहीं तो पहले ही मुझे पहचान जाता। मैं पहचान गया हूं तेरे को। एक बार तू रात को ग्यारह बजे, मटर पनीर की सब्जी देने के बहाने रागिनी के पास आया था और मेरे आ जाने और पूछने पर तूने कहा कि तू गुलशन रेस्टोरेंट से आया है। बीवी जी ने फोन पर मटर पनीर की सब्जी लाने का आर्डर दिया था। तरह-तरह के इस्तेमाल करके, बहाने बना-बनाकर तू सारी-सारी रात रागिनी के साथ...।"
"मैं-मैं वो नहीं हूं। मैं तो...।"
"पकड़े जाने पर सब हरामजादे यही कहते हैं कि वो मैं नहीं हूं। मैं भी कहीं पकड़ा जाऊं तो यही कहूंगा। ऐसे वक्त में इन शब्दों के अलावा कहने को होता...।"
"मैं सच कह रहा हूं, मैं वो नहीं हूं। मैं पाली हूं और...।"
"पाली। हूं तो पाली है तेरा नाम। रागिनी ने अपनी एय्याशी के लिए तेरे को पाल रखा...।"
"म-मैंने तो कभी आपकी पत्नी का चेहरा ही नहीं देखा, मैं तो....
"इस बार तू सच बोला कमीने। मैं मानता हूं तूने उसका चेहरा आज तक नहीं देखा होगा। देखने का मौका ही कहां मिला होगा। नजरें गले से ऊपर जाती ही कहां होगी। एक बार निगाह नीचे अटकी तो फिर सब कुछ अटक गया होगा। बता, कब से चल रहा है ये गौरखधंधा।"
"कैसा गौरखधंधा ?"
"हरामजादा। रातों को तू आता है और पूछता मेरे को है कि...।"
तभी ऊपर खड़ी रागिनी बातें सुन रही कह उठी।
"तुम पागल हो गए हो जयपाल, क्या बेवकूफी कर रहे हो ?"
जयपाल वधवा दांत किटकिटा उठा।
"तेरी सिफारिश लग रही है कि तेरे को कुछ न कहूं। देख ले, तेरे इंतजार में कमरे की खिड़की पर खड़ी है। मेरा इंतजार नहीं किया कभी खिड़की पर खड़ी होकर । किया होता तो ये दिन न देखना पड़ता।"
"होश में आओ जयपाल तुम...।" ऊपर से रागिनी ने पुनः कहना चाहा।
वधवा ने दांत किटकिटाए और खंजर थामे पागलों की तरह पाली पर झपटा।
हक्का-बक्का खड़ा पाली समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या हो रहा है, कि तभी जयपाल वधवा के हाथ में दबा खंजर उसके पेट में धंसता चला गया। पीड़ा से उसकी आंखें फैल गई।
वधवा ने झटके के साथ खंजर पेट से बाहर निकाला और गले पर फेर दिया।
गले में से ढेर सारा खून निकलने लगा और नीचे जा गिरा। जोरों से तड़पने लगा। गले से आवाज नाम की तो कोई चीज ही नहीं निकल रही थी।
पाली तड़प रहा था।
और दांत पीसते हुए, खंजर थामे, पास खड़ा वधवा सुर्ख आँखों से उसे देख रहा था। तभी पाली का शरीर जोरों से तड़पा और फिर पूरी तरह शांत पड़ गया।
"मर गया कमीना।" दांत भींचकर वधवा कह उठा--- "बहुत मजे ले लिए थे। अब भुगत भी लिया। रागिनी को भी तेरे पीछे-पीछे तेरे पास भेजता...।"
तभी भागते कदमों की आवाज आई तो वधवा ने निगाहें उठाकर उस तरफ देखा।
रागिनी नाइटी में ही वहां आ पहुंची थी।
"अच्छा हुआ जो तू यहां आ गई। वरना मैं ही तेरे पास, तेरे कर्मों का फल देने आ रहा...।"
"तुम पागल हो गए हो, जयपाल।" रागिनी दांत भीचे कठोर स्वर में कह उठी---"भगवान का शुक्र करो कि अभी मैंने पुलिस को फोन नहीं किया। तुम्हारे शक- वहम की मैंने कभी परवाह नहीं की। लेकिन मुझे क्या मालूम था कि शक में पागल होकर तुम किसी की जान ले लोगे। मेरा कोई आशिक नहीं है, जैसा कि तुम हरदम कहते रहते हो। जब से मैंने तुमसे शादी की है, तब से किसी मर्द को मैंने अपना शरीर छूने नहीं दिया। मैंने किसी को पास नहीं आने दिया। शादी से पहले का हिसाब पूछने का हक तुम नहीं रखते और...।"
"बकवास कर रही हो तुम।" वधवा गुर्रा उठा--- "तुम मुझे बेवकूफ बनाती रही हो। तुम्हारा ये आशिक तरह-तरह के बहाने बनाकर तुम्हारे पास आता...।"
"एक जान लेकर भी तुम्हारे सिर से शक वहम नहीं उतरा। मैं अभी...।"
"पंद्रह दिन पहले भी ये खुद को गुलशन रेस्टोरेंट का सप्लायर बताकर रात को ग्यारह बजे तुम्हें मटर पनीर की सब्जी देने आया था। वो तो मेरी फ्लाइट मिस हो गई और मैं घर आ पहुंचा। वरना तुम लोगों की होली-दीवाली तो वा-वा हो गई होती।"
"उस रात डिनर में अचानक ही मन कर आया था मटर- पनीर खाने का। तो मैंने रेस्टोरेंट में फोन करके सब्जी मंगवा ली। उसे मैं पेमंट देकर रवाना करने ही वाली थी कि ऊपर से तुम आ पहुंचे और शक के दो झंडे और गाड़ दिए, तुम तो हद से भी ज्यादा...।"
"तेरा मतलब कि ये वो रेस्टोरेंट वाला सप्लायर नहीं है।" वधवा गुर्राया
"नहीं, वो भी मेरे लिए अनजान था और ये भी। मत भूलो कि अब तुम खूनी बन चुके हो। पुलिस तुम्हें फांसी पर चढ़ा कर ही दम लेगी। किसी की जान लेने को तुम मजाक समझते हो। रागिनी कठोर और जहरीले स्वर में कह रही थी--- "अभी तक मेरा कोई आशिक नहीं। लेकिन जब तुम जेल में पहुंच जाओगे तो सोचो, तब मैं कितने आशिक बनाऊंगी। तब तुम मुझे कैसे रोकोगे।"
वधवा के चेहरे के भाव बदलने लगे।
"तुमने खून किया है। कत्ल किया है। मेरा आशिक क्या ये बिस्कुट बेचने वाले ऑटो में आएगा।" रागिनी पूर्ववतः लहजे में कह रही थी--- " जब मेरा आशिक आएगा तो हैलीकॉप्टर से आएगा। छत पर उतरेगा। तुम खुद को समझते क्या हो। अब भुगतो। निपटना पुलिस से । तुम्हारा पैसा भी काम नहीं आएगा। मैं देखती हूं तुम कैसे बचते हो। तंग आ चुकी हूं तुम्हारी शक-वहम की हरकतों से।"
वधवा ने खुद को कुछ और संभाला।
"ये तेरा आशिक नहीं है? ये वही मटर पनीर सप्लाई करने वाला नहीं है।"
"अभी भी तुम... ।"
"जो मैं पूछ रहा हूं, पहले उसका जवाब दो।" वधवा के स्वर में सख्ती थी ।
"ये और मटर-पनीर सप्लाई करने वाला, कोई भी मेरा कुछ नहीं लगता।"
"टार्च लाओ।"
"क्या ?"
"टार्च लाओ, मैं इसका चेहरा देखना चाहता हूं।"
दांत पीसती हुई रागिनी बंगले के भीतर गई और टार्च ले आई। उसने खुद ही टार्च ऑन करके पाली के मृत चेहरे पर रोशनी डाली।
"अच्छी तरह देख लो।" रागिनी व्यंग भरे स्वर में कह उठी।
वधवा ने पाली का चेहरा देखा तो कुछ गंभीर हुआ।
"कहीं ये तेरा दूसरा आशिक तो नहीं...।"
"फिर वही बात। मैं अभी पुलिस को फोन करती हूं। तभी तेरे सिर से आशिक का भूत...।"
"ज्यादा मत बोलो।" वधवा का स्वर कठोर हो गया--- "गेट किसने खोल रखा था ?"
"मुझे क्या मालूम। गेट खोलना-बंद करना दरबान का काम है, मेरा नहीं। बुलाकर उससे पूछ लो।" रागिनी ने कड़वे स्वर में कहा--- "पुलिस के डण्डे पड़ने पर ही तुम्हारा वहम गायब होगा। उससे पहले नहीं।" कहने के साथ ही टार्च की रोशनी में रागिनी दो कदम दूर पड़े बैग के पास पहुंची और नीचे झुकते हुए बैग की जिप खोलते हुए बोली– “अब तुम सिर्फ अपने बारे में सोचो। तुमने कत्ल किया है। खूनी बन चुके...।" रागिनी के शब्द मुंह में ही रह गए।
टार्च की रोशनी में बैग में पड़े जेवरात और नोटों की गड्डियां नजर आई। उसने जल्दी से जेवरातों को हाथ में लेकर, टार्च की रोशनी में उन्हें देखा। चेहरे पर खुशी और आंखों में चमक आ गई।
"जयपाल, ये देखो, जेवरात।"
"तुम्हारे पास कम हैं क्या, जो...।"
"ये बात नहीं जयपाल, इनके डिजाइन देखो। आजकल तो मार्किट में ऐसे डिजाइन देखने को ही नहीं मिलते। ओह, कितने खूबसूरत सैट हैं। ये झुमके, ये कड़े, क्या नक्काशी कर रखी है इन पर। सब हाथ का काम है। बहुत मेहनत लगती है ऐसे डिजाइन बनाने में। आजकल तो कोई बनाता ही नहीं। गहनों को मशीन से बना दिया।"
"क्या कमीनों वाली बातें कर रही हो। मत भूलो तुम मेरे जैसे करोड़पति की बीवी।"
"बेवकूफ हो तुम, तुम कभी भी औरत और गहनों का रिश्ता नहीं समझ सकोगे। इन्हें तो मैं भीतर जाकर आराम से देखूंगी।" कहने के साथ ही रागिनी ने बैग की जिप बंद की और उसे उठाते हुए बोली--- "बैग को मैं बेडरूम में रखकर आती हूं।" कहने के साथ ही रागिनी भीतर की तरफ बढ़ गई।
जयपाल वधवा के होंठ भिंचे हुए थे। आंखें सिकुड़ी हुईं। चेहरे पर सोच के भाव। वहीं खड़ा वो कभी पाली की लाश को देखता तो कभी ऑटो को ।
रागिनी जल्दी ही वापस आ गई।
वधवा को इस बात का एहसास था कि वो खून कर चुका है। संगीन जुर्म कर चुका है।
"गहने बहुत प्यारे हैं।" रागिनी पास आते हुए बोली--- "तुमने अभी तक खंजर पकड़ रखा है। दरबान या कोई नौकरानी आ गई तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी। अपने को ठीक करो, शुक्र करो कि अंधेरा है, वरना अब तक शोर पड़ चुका होता कि...।"
"खामोश रहो।" कहने के साथ ही वधवा गेट के पास भीतर की तरफ लगे नल के पास पहुंचा, जहां से लॉन के पेड़-पौधों को पानी दिया जाता था। उस नल से उसने हाथ और खंजर अच्छी तरह साफ किया और खंजर लॉन में ही छिपा कर वापस पहुंचा।
"टार्च देना।"
वधवा ने रागिनी के हाथ से टार्च लेकर एक बार फिर पाली के चेहरे और सिर से पांव तक उसे देखा। उसके बाद गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाले बंद ऑटो पर टार्च की रोशनी मारी।
"क्या कर रहे हो।" रागिनी कह उठी--- "लाश को यहां से हटाने की सोचो। वरना फंस जाओगे।"
जयपाल वधवा ने रागिनी को देखा। ?"
"जो बैग तुम ले गई हो, उसमें गहने हैं?" वधवा ने पूछा।
"हां, साथ में नोटों की गड्डियां भी हैं।"
"कितने नोट और कितने गहने होंगे ?"
"तुम्हारी हैसियत के हिसाब से तो खास नहीं, वैसे पंद्रह-बीस लाख के गहने-नोट होंगे।"
"और हमारे सामने जो मरा पड़ा है, वो किसी भी तरह से पंद्रह-बीस लाख की हैसियत वाला नहीं लगता।"
"तुम कहना क्या चाहते हो ?" रागिनी की आवाज में उलझन उभरी।
"ये आदमी कहीं से गड़बड़ करके भाग रहा था और किसी से बचने के लिए हमारे बंगले के खुले गेट से भीतर आ गया।" जयपाल वधवा ने सोच भरे स्वर में कहा।
"शुक्र है। मेरे आशिकों का भूत तो तुम्हारे सिर से उतरा।"
"मुझे शक है कि इसके बिस्कुट वाले ऑटों में बिस्कुट न होकर कुछ और है।"
रागिनी चौंकी।
"कुछ और? और क्या ? ओह, हो सकता है ऑटो में जेवरात भर रखे हों।"
"या फिर नोटों की गड्डियां।" कहते हुए वधवा के होंठ भिंच गए-- "कोई और चोरी-चकारी का सामान।"
रागिनी बेसब्री से भागकर ऑटो के पीछे वाले हिस्से में पहुंची।
"ओह । जयपाल, यहां तो ताला है। प्लीज खोलो इसे।" रागिनी तड़प भरे लहजे में कह उठी।
वधवा पास पहुंचा।
"तुम गेट बंद करो। मैं ताला देखता हूं।"
रागिनी जल्दी से गेट की तरफ बढ़ गई।
वधवा ने ताला चैक किया। बिना चाबी के उस ताले को खोलना आसान नहीं था।
गेट बंद करके रागिनी पास आ पहुंची।
"अभी तक तुमने ताला नहीं खोला। भीतर जेवरात... ।"
"बकवास बंद करो। मेरा काम बंद तालों को खोलना नहीं है।" उखड़े स्वर में कहने के पश्चात वो ऑटो के आगे वाले हिस्से में पहुंचा। वहां हाथ मारा तो इंगीनेशन में फंसी चाबी से उंगलियां टकराई। चाबी लेकर वो पीछे लगे ताले के पास पहुंचा। वो पाली की मास्टर 'की' थी, जो हर तरह का ताला खोल देती थी और वधवा ने यह सोचकर उस चाबी को पीछे वाले ताले में इस्तेमाल किया कि कई बार एक ही चाबी से गाड़ी के अन्य ताले खोले जा सकते हैं।
चाबी लगते ही ताला खुल गया।
"खुल गया। खुल...।" रागिनी ने खुशी से चिल्लाना चाहा।
"चुप रहो।" वधवा दांत भींचकर कह उठा--- "ढोल क्यों पीट रही हो। पास लाश पड़ी है।"
रागिनी ने होंठ बंद कर लिए।
वधवा ने ताला खोलने के पश्चात सिटकनी हटाई और ऑटो का दरवाजा खोलते हुए भीतर टार्च की रोशनी मारी तो उस रोशनी में थैले चमक उठे।
"सत्यानाश।" रागिनी ने मुंह फुला लिया--- "मैं तो सोच रही थी भीतर गहने पड़े होंगे। लेकिन ये तो जैसे पोस्ट ऑफिस के बड़े-बड़े थैले लग रहे हैं। इनमें बिस्कुट ही भरे होंगे, गोल्डी के।"
परंतु वधवा की आंखें सिकुड़ चुकी थीं।
टार्च की रोशनी एक थैले पर लगी लाख की सील पर टिक चुकी थी और एक ही निगाह में उसने महसूस कर लिया था कि ये सरकारी थैले हैं। सरकारी सामान है। परंतु ये सब इस ऑटो में क्या कर रहा है। टार्च की रोशनी पुनः धीरे-धीरे ऑटो में ठूंसे थैले पर घूमने लगी।
"जयपाल ।"
"हूं।" वधवा की आंखें टार्च की रोशनी के साथ घूम रही थी।
"इसी बिस्कुट वाले ऑटो में उस लाश को रखकर, ऑटो को यहां से दूर छोड़ आओ। सुना है लाश ज्यादा देर पड़ी रहे तो अकड़ने लगती है। लाश को जल्दी से, यहां से दूर करो। अब मुझे डर लगने लगा है। मरने वाले की आत्मा अभी भी हमारे आस-पास ही भटक रही होगी और आज के बाद किसी राह चलते को मेरा आशिक मत समझ बैठना। शक-वहम का क्या नतीजा होता है। वो तुमने देख ही लिया है।"
वधवा के हाथ में थमी टार्च की रोशनी एक थैले पर नजर आ रहे कट पर टिक चुकी थी। उसने फौरन समझा कि किसी ने थैले के इस हिस्से को उतना ही काटा है कि हाथ भीतर जा सके। वधवा जरा-सा आगे बढ़ा और थैले के कटे वाले हिस्से में हाथ डाला।
जब हाथ बाहर निकाला तो उंगलियों में पांच सौ की गड्डी दबी थी।
टार्च की रोशनी में गड्डी को देखकर रागिनी की आंखें फैल गई।
जबकि वधवा की आंखें सिकुड़ चुकी थीं।
"जयपाल, पांच सौ की गड्डी ?" रागिनी के होंठों से निकला।
"पकड़ो इसे। "
रागिनी ने गड्डी थामी।
वधवा ने एक के बाद एक दस गड्डियां निकालकर रागिनी को थमा दीं।
अब वधवा की हालत भी इतने नोट देखकर बिगड़ने लगी।
"य-ये क्या ज-जयपाल...।" रागिनी को अपना गला सूखता-सा लगा।
"ये सारा थैला पांच सौ की गड्डियों से भरा पड़ा है।" वधवा सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बोला--- "बाकी थैलों में जाने क्या है।"
रागिनी के होंठों से कोई शब्द न निकला।
वधवा रागिनी के हाथों में दबी गड्डियां लेकर, वापस थैले में डालने लगा
"ये, ये क्या कर रहे हो। मैं भीतर रख आती...।"
"चुप रहो।"
सारी गड्डियां भीतर रखने के बाद वधवा बोला।
"टार्च पकड़ो और रोशनी थैलों पर ही डालना।" वधवा की आवाज में हल्का-सा कम्पन था।
"क्या करना चाहते हो ?" रागिनी की आवाज खरखरा-सी रही थी। उसने टार्च पकड़ी।
"उसके बाद वधवा अन्य सील बंद थैलों को दोनों हाथों से जोर जोर से दबा कर चैक करने लगा। एक मिनट बाद पीछे हटा तो उसका चेहरा बदरंग-सा हो रहा था। रागिनी ने टार्च की रोशनी उसके चेहरे पर मारी तो वधवा ने हाथ से टार्च वाली कलाई नीचे कर दी।
"क्या हुआ ?" वधवा के चेहरे के भाव देखकर, रागिनी के होंठों से निकला।
"स-सब थैले नोटों की गड्डियों से भरे हुए हैं।" वधवा के होंठों से खरखराता स्वर निकला।
"क्या ?" रागिनी का मुंह कुछ पलों के लिए खुला का खुला रह गया--- "तुम तुम्हारा मतलब कि सारे थैले पांच-पांच सौ के नोटों की गड्डियों से भरे हुए हैं ।"
"मैं नहीं जानता कि सौ या पांच सौ की गड्डियों से। लेकिन सब थैलों में नोटों की गड्डियां हैं।" कहते हुए वधवा की सांसें तेज चलने लगी। एक हाथ से उसने ऑटो थाम लिया।
रागिनी के हाथ में थमी टार्च की रोशनी थैलों पर जा टिकी। परंतु टार्च की रोशनी से स्पष्ट इस बात का एहसास हो रहा था कि उसका टार्च वाला हाथ कांप रहा है।
"जयपाल ।" रागिनी की आवाज असंयत थी--- "ये-ये कितने बोरे हैं ?"
"मा-मालूम नहीं। पांच-सात थैले तो होंगे ही।" वधवा ने सूखे स्वर में कहा--- "ये करोड़ों की दौलत है।"
उनके बीच कुछ पलों के लिए खामोशी रही।
"क्या सोच रहे हो जयपाल।" इस बार रागिनी की आवाज काफी हद तक संयत थी।
वधवा के गहरी सांस लेने की आवाज आई।
"तुम्हें बिजनेस में करोड़ों का नुकसान हुआ है।" रागिनी ने सोच भरे स्वर में कहा— “ये दौलत तुम्हारे उस सारे नुकसान को पूरा कर सकती है। क्यों जयपाल ठीक बोला न मैंने।"
“ये-ये सरकारी पैसा है। थैलों के मुंह पर सरकारी मुहर ...।" वधवा ने सूखे स्वर में कहना चाहा।
"दौलत सरकारी ही होती है।" रागिनी कह उठी--- "दौलत की छपाई कोई भी अपने घर में नहीं करता। माना कि इस वक्त करोड़ों की दौलत सरकारी थैलों में है। बंद थैलों के मुंह पर सरकारी मुंहर है। लेकिन जब ये दौलत थैलों से निकलकर हमारे पास पड़ी होगी तो...।"
"मैंने आज तक ऐसा काम नहीं...।"
"नहीं किया तो अब करो। माना तुम करोड़पति हो। लेकिन ये दौलत भी तो करोड़ों की है। तुम्हारा जो करोड़ों का नुकसान हुआ है, उसे ये करोड़ों पूरा करेंगे।" रागिनी अब हिम्मत से बात कर रही थी--- "हौसला इकट्ठा करो। जब तुम खून कर सकते हो। किसी की जान ले सकते हो तो फिर बाकी रह क्या जाता है। क्या नहीं कर...।"
"मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा कि... ।" वधवा पर घबराहट हावी होने लगी, यह सोचकर कि उसने कत्ल कर दिया है और पास में करोड़ों की दौलत मौजूद है।
"तुम मेरी समझ के मुताबिक चलो जयपाल। मुझ पर भरोसा रखो। मैं सब ठीक कर दूंगी।" रागिनी उसका हौसला बढ़ा रही थी--- "इस वक्त दो चीजें यहां से हटाने की जरूरत है। एक तो ये गोल्डी बिस्कुट वाला ऑटो और दूसरी लाश। मैं बताऊं अब तुम्हें क्या करना है।"
"क्या ?" वधवा के होंठों से सूखा-सा स्वर निकला।
"इस ऑटो में से नोटों के भरे थैले निकालकर कहीं और रखने होंगे और लाश को ऑटो में डालकर, ऑटो कहीं दूर छोड़ आना। मैं तब तक जमीन पर बिखरा खून साफ कर दूंगी। उसके बाद आराम से थैलों में से नोट निकालकर खाली थैलों को कहीं दूर फेंक देंगे। जरा-सी तो बात है और...।"
"लेकिन...!" वधवा अपने स्वर पर काबू पाने की चेष्टा कर रहा था--- "थैले निकालकर रखेंगे कहां। कोई भी मुहरबंद थैलों को देखकर शक कर सकता...।"
"तुम ठीक कहते हो।" रागिनी की आवाज में सोच के भाव आ गए। उसने टार्च बंद कर दी--- "इतने थैलों को रखने के लिए कोई खास जगह चाहिए। कोई खास-ओट, अब चिंता की कोई बात नहीं जयपाल। वो वैगन है ना जो पिछले साल कोरिया से मंगवाई थी। जो कि गैराज में बंद कर रखी है कि उसका एयरकंडीशन सिस्टम ठीक से काम नहीं करता। उस वैगन में इन थैलों को।"
"चार महीनों से वो वैगन इस्तेमाल नहीं की। वो चलने के काबिल कहां होगी। जबकि मैं इस पैसे को यहां न रखकर दूसरे बंगले पर रखना चाहूंगा कि कहीं कोई रगड़ा उठे तो फंसूं ना तो....।"
"तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं कि जब तुम टूर पर थे तो कम्पनी से फोन आया था कि वैगन का नया एयरकंडीशन सिस्टम कोरिया से आ गया है। मेरे हां कहने पर कम्पनी से बंदे आए और वैगन ले गए। वैगन का एयरकंडीशन सिस्टम बदला जा चुका है और कल ही वैन सर्विस स्टेशन से वापस आई है। चलने को एकदम तैयार में खड़ी है।" रागिनी मुस्कराकर कह उठी।
"ओह!" वधवा के होंठों से निकला।
"जो मैं कहती हूं, वही करो जयपाल।" रागिनी कह उठी--- "इस ऑटो को गैराज तक ले जाना ठीक नहीं। इसे धक्का लगाना न तो तुम्हारे बस का है और न ही मेरे बस का। स्टार्ट किया तो इसकी आवाज गूंजेगी। मैं वैगन को गैराज से यहां ले आती हूं। वैगन के इंजन की आवाज न के बराबर है। कोई सुन भी नहीं सकेगा। तुम इन थैलों को वैगन में डालना। तब तक मैं चेंज कर आऊंगी। फिर तुम लाश को खाली ऑटो में डालकर ऑटो को कहीं दूर छोड़ देना और दूसरे वाले बंगले पर पहुंच जाना। मैं वैगन के साथ दूसरे बंगले पर मिलूंगी और नोटों से भरे थैले वहीं रखकर वापस आ जाएंगे।"
जयपाल वधवा का दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा था ! रागिनी जो कह रही थी, वही उसे ठीक लग रहा था। खुद को वो बेजान-सा महसूस कर रहा था।
"बोलो जयपाल। कुछ कहना चाहते हो क्या ?"
"नहीं।" वधवा के होंठों से बेहद धीमी आवाज निकली।
"वैगन लाऊं ?
"हां।" वधवा ने गहरी सांस ली--- "गैराज धीमे से खोलना। आवाज न हो।"
"फिक्र मत करो। गैराज के शटर को कल ही ग्रीस लगवाई है। शोर नहीं उठेगा।" कहने के साथ ही रागिनी तेज-तेज कदमों से गैराज की तरफ बढ़ गई।
वधवा वहीं खड़ा ऑटो में ठूंसे थैलों को अंधेरे में देखने लगा। फिर पलटकर पाली की लाश को देखा। वो समझ नहीं पा रहा था कि वक्त ने उसे कैसे फेर में डाल दिया है।
पांच मिनट में ही रागिनी क्रीम कलर की विदेशी खूबसूरत वैगन वहां ले आई। उसके इंजन की आवाज न के बराबर हो रही थी। रागिनी ने वैगन को गोल्डी मार्का बिस्कुट वाले ऑटो के पास इस तरह खड़ी की कि ऑटो में से थैले निकालकर वैगन में रखने में ज्यादा परेशानी न हो। नीचे उतरकर रागिनी ने वैगन का पीछे वाला दरवाजा खोल दिया।
"जयपाल तुम थैलों को जल्दी से वैगन में डालो मैं कपड़े चेंज करके आती हूं।" कहने के साथ ही रागिनी अंधेरे में प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ती चली गई।
वधवा ऑटो और वैगन के करीब पहुंचा। दोनों के पिछले हिस्सों में तीन फीट से ज्यादा का फासला नहीं था। परंतु ये फासला वधवा के लिए बहुत था, जिसने कभी मेहनत वाला काम न किया हो। ऑटो से एक थैला वैगन में पहुंचाने में उसकी बै-जा बै-जा हो गई। लेकिन काम से पीछे भी नहीं हट सकता था। वक्त के हिसाब से इस काम को अभी पूरा करना जरूरी था।
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शुक्रा सड़क के किनारे खड़ी कार से टेक लगाये खड़ा था। नजरें और गर्दन इधर-उधर फिर रही थीं। होंठ भिंचे हुए थे। अंधेरे में स्ट्रीट लाइटें रोशनी फैला रही थीं। उदयवीर स्टेयरिंग सीट पर बैठा, कश ले रहा था।
आखिरकार उदयवीर कार से निकला।
"अब क्या इरादा है ?"
शुक्रा ने उदयवीर पर निगाह मारी फिर दूर-दूर तक नजर आ रही, खाली सड़क को देखने लगा। यह मुख्य सड़क न होकर भीतरी सड़क थी। यहां से न के बराबर ही वाहन निकलते थे।
"गोल्डी बिस्कुट वाला ऑटो पास में ही कहीं है। यहां से कहीं दूर नहीं गया।" शुक्रा बोला ।
"वो तो मैं भी जानता हूं कि धीमी रफ्तार से चलने वाला ऑटो इतनी जल्दी कहीं दूर नहीं जा सकता। लेकिन यहां अधिकतर बंगले हैं। वो किसी बंगले में तो जाने से रहा।"
शुक्रा के होंठ भिंचे रहे।
"हो सकता है वो ऑटो किसी ऐसी जगह छिप गया हो कि हमें नजर न आ रहा हो।" उदयवीर पुनः बोला।
"यही सोचकर तो मैं यहां रुका हूं कि अगर अपनी छिपी जगह से ऑटो निकले तो नजर आ जाए। वैसे भी उसकी आवाज रात के इस समय दूर से ही सुनाई दे जाएगी।" शुक्रा के स्वर में बेचैनी आ गई।
"और अगर ऑटो न मिला तो ?"
शुक्रा ने खा जाने वाली निगाहों से उदयवीर को देखा।
"क्या हुआ ?" उदयवीर के होंठों से निकला।
"शुभ-शुभ बोल। वो नब्बे करोड़ वाला मिलेगा। अपने यार विजय के सिर में से गोली निकलवाकर उसे बचाना है। सोच जब हम विजय के सामने बारह लाख रखेंगे तो वो कितना खुश होगा।"
"हां।" दो पल के लिए तो उदयवीर का दिल खुशी से जोरों से धड़क उठा था।
दोनों की निगाहें अंधेरे में इधर-उधर फिरने लगी।
कान ऑटो की आवाज सुनने को बेचैन हो रहे थे।
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इंस्पेक्टर मुरलीधर खाटिया और सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा के बीच रात के साढ़े ग्यारह बजे इमरजेंसी मीटिंग हुई। दोनों थाने में मिले। कमल सिन्हा ने ही खाटिया के मोबाइल फोन पर बात करके पुलिस स्टेशन मिलने को कहा था, वरना इंस्पेक्टर खाटिया तो अपने घर पर सोने की तैयारी कर रहा था।
कमल सिन्हा जब पुलिस स्टेशन पहुंचा तो इंस्पेक्टर खाटिया पहले से ही वहां सादे कपड़ों में मौजूद था।
इंस्पेक्टर खाटिया, सब-इंस्पेक्टर सिन्हा को देखते ही बोला।
"ऐसी क्या इमरजैंसी पड़ गई जो मुझे यहां बुला लिया, सिन्हा।"
"सर।" कमल सिन्हा गंभीर स्वर में बोला--- "मैं नब्बे करोड़ के सिलसिले में आपसे बात...।"
"वो मामला तो हमारी हद से दूर पहुंच चुका है।" इंस्पेक्टर खाटिया ने बात काटकर कहा--- "ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि वो दौलत शहर से निकलकर, दूर पहुंच...।"
"यस सर। कुछ घंटे पहले तक हम लोगों के पास यही खबर थी और इसी खबर के आधार पर दूसरे शहरों की पुलिस को सतर्क भी कर दिया था।" कमल सिन्हा ने कहा--- "आखिरी खबर के मुताबिक नब्बे करोड़ की दौलत टाटा सफारी में थी, जिसे देवीलाल, बाबा कलिंगा दास की हत्या करके ले भागा था और शहर से तीस किलोमीटर दूर ढाबे पर देवीलाल की लाश मिली थी कि कोई नब्बे करोड़ से भरी सफारी ले उड़ा है और हड़बड़ाहट में देवीलाल सफारी के सामने आ गया और कुचला गया।"
"ठीक कह रहे हो।" इंस्पेक्टर ने सिर हिलाया। नजरें कमल सिन्हा के चेहरे पर थीं--- "लेकिन उसके बाद न तो सफारी की खबर मिली, न नब्बे करोड़ की। न सफारी ले जाने वाले की।"
"मैं आपको ये बताना चाहता हूं सर कि जाने कैसे, मैं नहीं जानता, वो नब्बे करोड़ की दौलत वापस शहर में आ पहुंची है।"
इंस्पेक्टर खाटिया चौंक कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
"क्या-क्या कह रहे हो ?" हैरानी में डूबे खाटिया के होंठों से निकला।
"मैं ठीक कह रहा हूं सर।"
"ये-ये कैसे हो सकता...।"
"सर । दो घंटे पहले गुलशन रेस्टोरेंट से फोन आया कि दो आदमी व्हिस्की पीने के बाद चिल्ला रहे हैं कि उनका करोड़ों रुपया कोई ले गया। डिब्बा बंद ऑटो में वो नोटों से भरे थैले मौजूद होने को कह रहे थे, जिसे कि उनके खाने के दौरान कोई ले गया। यह सुनते ही मैं फौरन हवलदार और सिपाहियों के साथ गुलशन रेस्टोरेंट पहुंचा। तब तक वो दोनों व्हिस्की पिए आदमी वहां से जा चुके थे। मैंने वहां पूछताछ की तो ये बात पक्के तौर पर सामने आई कि डिब्बा बंद ऑटो में वे दोनों करोड़ों रुपयों से भरे थैले होने की बात कह रहे थे। फिर एक आदमी पास की टेबल पर खाना खा रहा था, उसने उनसे पूछताछ की तो उन्होंने उसे बताया कि टाटा सफारी से वो थैले निकाले थे और...।" कमल सिन्हा ने सारी बात बताई।
सुनकर इंस्पेक्टर खाटिया सतर्क हो उठा।
"ओह, इसका मतलब वो नब्बे करोड़, इस वक्त ऐसे ऑटो में मौजूद हैं जिस पर गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट लिखा हुआ है।" खाटिया हैरान-परेशान-सा कह उठा--- "वो कौन था, जिसने उन दोनों से सफारी के बारे में पूछताछ की ?"
"उसके बारे में कुछ मालूम नहीं हो सका। उसके साथ कोई और भी था। कार में बैठकर वो चले गए।"
"उन दोनों की कोई खबर नहीं, जो ऑटो जाने पर करोड़ों रुपया कहकर, नशे में चिल्ला रहे थे।"
"नहीं।” कमल सिन्हा ने कहा--- "उनका हुलिया नोट कर लिया गया है।"
"अब तुमने क्या किया ?"
“सर, मैंने फौरन हैडक्वार्टर, कंट्रोलरूम में खबर की कि पैट्रोलिंग कारों को ऐसा ऑटो तलाश करने को कहा जाए, जिस पर गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट लिखा हो। वो ऑटो शहर की सड़कों पर ही कहीं है और अब पैट्रोलिंग कारें, उस ऑटो को तलाश करने पर लग गई होंगी।"
“गुड। वैरी गुड। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम हाथ पर हाथ रखे बैठे रहें। हमें भी उस ऑटो को तलाश करने के लिए भागदौड़ करनी है।" खाटिया सख्त से स्वर में कह उठा।
"यस सर।"
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वधवा! जयपाल वधवा ।
जो सिर्फ विदेशी कारें चलाता था, वो भी शौकियां तौर पर। वरना उसके ड्राइवर ही गाड़ियां चलाते थे और वो सिर्फ पीछे बैठा करता था। आज उसे गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाला ऑटो चलाना पड़ रहा था। उस टूटे-फूटे ऑटो को संभालना उसे भारी मुसीबत लग रहा था। ये तो गनीमत थी कि नब्बे करोड़ की दौलत का बोझ, इस वक्त उसमें मौजूद नहीं था, इसलिए कुछ आसानी से आगे बढ़ा जा रहा था। उसकी फट-फट की आवाज दूर तक जा रही थी।
पांच मिनट ही हुए थे, उसे ऑटो लेकर बंगले से निकले। उसका इरादा था कि ऑटो को चार-पांच किलोमीटर दूर छोड़ देगा। साथ में सोच रहा था कि दौलत भी क्या रंग दिखाती है। उस जैसे खानदानी करोड़पति को ऐसा खटारा ऑटो ढोना पड़ रहा है। कोई देख लेगा तो क्या कहेगा और जब उसे ध्यान आता कि वो पाली नाम के आदमी का कत्ल कर चुका है और लाश ऑटो में मौजूद है तो डर की वजह से दिल जोरों से धड़कने लगता ।
वधवा जल्दी-से-जल्दी ऑटो से छुटकारा पा लेना चाहता था।
आदमसिंह और महाराज ?
व्हिस्की का नशा तो हवा हो चुका था। अलबत्ता मस्तिष्क पर नशे का थोड़ा-बहुत असर अवश्य था । इस वक्त दोनों अंधेरी सड़क के किनारे मौजूद बस स्टाप पर लुटे-पुटे बैठे थे। कई मिनट बीत चुके थे, उनमें बात हुए।
"आदम।" महाराज ने फीके स्वर में चुप्पी तोड़ी--- "मैं ठीक कहता था कि व्हिस्की मत पी। इतनी बड़ी दौलत है हमारे पास। उसका ध्यान रखना है। लेकिन तू नहीं माना और...।"
आदमसिंह गुर्रा उठा ।
"गुस्सा दिखाने से क्या होता है।" महाराज ने थकी-सी सांस ली--- "बरबाद हो गए हम। इतनी बड़ी दौलत हाथ से निकल गई। सारे सपने मिट्टी में मिल गए। बुढ़ापा अब और भी नर्क बन जाएगा।"
"मैं उस हरामजादे को जिंदा नहीं छोड़ंगा।" आदमसिंह दांत किटकिटा उठा।
"किसे ?"
"जो नोटों से भरा हमारा ऑटो ले गया है। मैं उसे ढूंढकर...।"
"खम्बा क्यों नोच रहा है।" महाराज ने पहले वाले स्वर में कहा--- "कोई फायदा नहीं। चिड़िया तो उड़ गई। तू क्या समझता है, जो भी ऑटो ले गया है वो अपनी या नोटों की हवा लगने देगा। भूल जा। हां, इस बात की गारंटी अवश्य ले सकता हूं कि गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाला खाली ऑटो कहीं पड़ा मिल जाएगा।"
आदमसिंह गुस्से से पुनः दांत पीसने लगा।
"इस वक्त मुझे पाली बहुत याद आ रहा है। वो साथ होता तो ठीक रहता। हम पीने में डूब गए थे, तो तब वो होश में रहता। वो तो पीता नहीं। तब करोड़ों को कोई नहीं ले जा...।"
महाराज के शब्द मुंह में ही रह गए।
आदमसिंह भी एकाएक चौंका-चौंका-सा नजर आने लगा।
दोनों की नजरें मिलीं। कानों में ऑटो की आवाज पड़ रही थी और वे दोनों उस आवाज को पहचानने में धोखा नहीं खा सकते थे। सपने में भी उस आवाज को पहचान सकते थे कि वो गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाले ऑटो की ही आवाज है।
"आदमसिंह।" महाराज का स्वर कांप उठा--- "ये तो-ये तो अपने ही ऑटो की आवाज है। जिसमें करोड़ों की दौलत भरी पड़ी है। मैं पक्का कह सकता हूं कि....।"
तभी उन्हें अंधेरे में भरी सड़क पर ऑटो की मध्यम-सी हैडलाइट दिखाई दी और अब ऑटो के फटे इंजन की आवाज और भी स्पष्ट हो उठी थी।
आदमसिंह की आंखों में तीव्र चमक लहरा उठी। उस चमक में खुशी थी। परंतु होंठ भिंचे थे। चेहरे पर गुस्सा था। वो जल्दी से उठा और जेब से रिवॉल्वर निकाल ली।
"ये क्या कर रहा है ?" महाराज उठता हुआ कह उठा।
"ऑटो तो मिल गया।" आदमसिंह भिंचे स्वर में कह उठा--- "उसमें पड़ी दौलत किस्मत ने फिर हमारे पास भेज दी है लेकिन मैं ऑटो ले जाने वाले को जिंदा नहीं...।"
"खून करेगा ?" महाराज हड़बड़ाया।
"हां। साले-हरामजादे को सजा देनी है कि हमारा ऑटो ले भागा। अगर हमने उससे ऑटो छीनकर उसे भगा दिया तो वो पुलिस को बता देगा कि ऑटो में नोट भरे पड़े हैं। वो जो कोई भी है अब तक उसने अच्छी तरह देख लिया होगा कि भीतर करोड़ों रुपया है। ऐसे में उसे जिंदा छोड़ना किसी भी तरफ से ठीक नहीं।" आदमसिंह का स्वर बेहद सख्त हो उठा था।
ऑटो करीब पहुंच चुका था।
महाराज ने कुछ कहना चाहा।
तभी आदमसिंह रिवॉल्वर थामे सामने नजर आ रहे ऑटो की तरफ दौड़ा।
"ये जगह ठीक रहेगी।" वधवा अंधेरे में भरी सड़क पर पहुंचते ही बड़बड़ा उठा--- "बंगले से तीन-चार किलोमीटर दूर तो आ ही गया हूं। यहीं इस ऑटो से छुटकारा पा लेता हूं। छोड़ देता हूं इसे यहीं। ऑटो या ऑटों में पड़ी लाश से, पुलिस मेरा रिश्ता नहीं जोड़ सकेगी।"
ऑटो को रोकने के लिए वधवा ने उसकी रफ्तार कम की। अब उसके दिलो दिमाग को राहत मिल रही थी कि ऑटो से छुटकारा मिलने वाला है। इससे पहले कि ऑटो को पूरी तरह रोक पाता, एकाएक ऑटो के सामने किसी को रिवॉल्वर के साथ आते देखा और वो रिवॉल्वर वाला हाथ आगे करके ऑटो के सामने आ जमा था।
हड़बड़ाकर वधवा ने ऑटो का ब्रेक का पैंडल दबा दिया। उसे और ऑटो को तीव्र झटका लगा। ऑटो खड़खड़ा कर रुक गया।
अभी इतना ही हुआ था कि एक के बाद एक लगातार दो गोलियां तीव्र आवाज के साथ ऑटो का शीशा तोड़ते हुए आईं और उसकी छाती में जा धंसी। और वो लुढ़क कर ऑटो की सीट से नीचे सड़क पर आ गिरा।
वधवा के गिरते ही महाराज दौड़ा-दौड़ा उसके पास पहुंचा और उसे चैक किया।
जयपाल वधवा की जान निकल चुकी थी।
"आदमसिंह।" महाराज घबराया-सा कह उठा--- "यह तो मर गया।"
"मारना ही था इसे।" क्रूर स्वर में कहते हुए आदमसिंह ने रिवॉल्वर वापस जेब में डाली--- "लाश को सड़क के किनारे कर और खिसक ले यहां से।"
महाराज ने जल्दी से वधवा की लाश की बांह पकड़कर उसे घसीटकर सड़क के किनारे किया। तब तक आदमसिंह ऑटो में बैठकर, ऑटो को स्टार्ट कर चुका था। महाराज पास पहुंचा और आदमसिंह के साथ सीट पर सटकर बैठा तो आदमसिंह ने ऑटो आगे बढ़ा दिया।
महाराज खुशी से कांपते स्वर में कह उठा ।
"मुझे तो विश्वास नहीं आ रहा कि करोड़ों रुपये फिर से हमें मिल गए हैं।"
आदमसिंह भी खुश था।
"अभी करा दूंगा विश्वास, नोटों के दर्शन कराऊं क्या?" आदमसिंह हंसा।
"दर्शन भी कर लेंगे। पहले कोई सुरक्षित जगह ढूंढनी चाहिए कि...।"
"जगह तो है। तुम्हारी वो दूर की बहन का घर।"
"हां, वहीं चलते हैं।" महाराज कह उठा--- "वहीं के लिए तो मैं बोलने वाला था।"
"रास्ता बताता जा ।"
"ठीक है।"
गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाला ऑटो आगे बढ़ा जा रहा था।
मिनट भर बीता होगा कि आदमसिंह के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला।
"महाराज।"
"हूं।"
"ये ऑटो तेज चल रहा है। कुछ हल्का-हल्का-सा लग रहा है, जैसे...।"
"हां।" उसी पल महाराज के होंठों से निकला--- "अभी गड्ढा आया था तो थोड़ा-सा उछलकर पूरी तरह खड़क उठा था। आदमसिंह रोको ऑटो को रोक तो जरा।"
आदमसिंह ने जल्दी से ऑटो को सड़क किनारे करके रोका। दोनों जल्दी से बाहर निकले और ऑटो के पीछे के दरवाजे के पास पहुंचे। वो बंद था। महाराज जल्दी से ऑटो में लगी चाबी लाया और पीछे वाला लॉक खोलकर, दरवाजे का पतला हैंडिल दबा कर खोला ।
ऑटो के भीतर स्ट्रीट लाइट की मध्यम सी रोशनी पड़ रही थी।
दोनों बुत से बने रह गए। दिल का धड़कना रुक गया, कुछ पलों के लिए।
नजरें, आंखों की पुतलियां नोटों से भरे बोरों को तलाश कर रही थीं। लेकिन वहां बोरे न होकर, लाश ही पड़ी नजर आई। लाश का चेहरा उन्हें स्पष्ट नहीं दिखा।
उसके बाद तो जैसे लम्बे समय बाद उन्हें होश आई हो।
"म-म-महाराज।" आदमसिंह के होंठों से निकला।
"बोरे-बो-बोरे कहां गए ?" महाराज की आवाज में सूखापन भरा हुआ था--- "क-करोड़ों-रुप-ये।"
आदमसिंह को लग रहा था जैसे अभी गिर पड़ेगा।
"सबकुछ खत्म हो गया।" आदमसिंह थरथराते स्वर में कह उठा।
"वो रुपये कहां गए?" आदमसिंह तड़पने वाले अंदाज में कह उठा ।
"लगता है उन रुपयों को--थैलों को ठिकाने लगाकर, अब ऑटो को ठिकाने लगाने जा रहा था, जिसे मैंने गोली मारी। जो ऑटो चला रहा था।" आदमसिंह टूटे स्वर में कह उठा--- "बहुत बड़ी गलती कर दी मैंने। उसे गोली मारने से पहले ये देख लेना चाहिए था कि नोटों से भरे थैले ऑटो में हैं या नहीं। कम से कम उससे पूछ तो लेते कि वो रुपये कहां पर हैं। सब कुछ लुट गया। खून कर डाला, वो अलग।"
"म-मतलब कि अब रुपये नहीं मिलेंगे।"
"तुम रुपयों की बात कर रहे हो।" आदमसिंह के स्वर में घबराहट थी--- ""मुझे तो अब फंसने के आसार नजर आ रहे हैं। बचना है तो अभी से इस मामले से अलग हो जाना चाहिए।"
महाराज ने फीकी निगाहों से आदमसिंह को देखा।
"तू ठीक कहता है।" महाराज ने सिर हिलाया--- "दौलत हमारी किस्मत में नहीं है।"
आदमसिंह के चेहरे पर हार के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे।
"ये-ये लाश किसकी है ऑटो में ?" महाराज ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"किसी की भी हो, हमें क्या।" आदमसिंह कह उठा--- "चल, फूट लेते हैं, नहीं तो फंसेंगे, भूल जा नोटों को।"
महाराज ने सिर हिलाया।
" चल।"
दोनों सड़क छोड़कर अंधेरे में, पास की गली में प्रवेश कर गए।
अंधेरे की वजह से, ऑटो के भीतर पड़ी पाली की लाश को भी पहचान नहीं सके थे।
"आदमसिंह।" महाराज कह उठा--- "हमसे बढ़िया तो पाली ही रहा। पल्ला झाड़कर खिसक गया और इतनी भागदौड़ करने के बाद भी हमारे हाथ कुछ न लगा।"
"अपनी-अपनी किस्मत है।" आदमसिंह ने लम्बी सांस लेकर जवाब दिया।
दोनों तेज-तेज कदमों से अंधेरे में गुम होते चले गए।
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छत्तीस दिन
बेदी ।
विजय बेदी ।
अपने वो ही बेदी साहब । जो दिमाग के दोनों हिस्सों के बीच फंसी गोली की वजह से, बे-जान से हो रहे हैं। ऊपर से मुसीबत ये कि इस वहम के शिकार हो चुके हैं कि ऑपरेशन करके, दिमाग के ठीक बीचो-बीच फंसी गोली को, ठीक-ठाक ढंग से सिर्फ डॉक्टर वधावन ही निकाल सकता है। किसी और डॉक्टर ने गोली निकालने की चेष्टा की तो वो जिंदा नहीं बच सकेगा।
और वो बूढ़ा सनकी डॉक्टर वधावन, अपने बेदी साहब से शुरू से ही इतना चिढ़ा बैठा है कि मामूली से ऑपरेशन के बारह लाख मांगता है, वो भी एडवांस। एक पैसा भी कम नहीं। जबकि ये ऑपरेशन तीस-पचास हजार में कोई भी कर सकता है। कुछ पहले तो विजय बेदी मरते-मरते बचा था, जब बारह लाख का इंतजाम करने के फेर में शांता बहन जैसी खतरनाक शख्सियत के रास्ते में जा खड़ा हुआ था। तब क्या खौफनाक नजारा उसके सामने आया था, वो तो आप पूर्व प्रकाशित दो उपन्यास - 1. खलबली, 2. चाबुक में पढ़ ही चुके हैं।
दो घंटे पहले विजय बेदी बेड पर लेटा था। उदयवीर ने अपने गैराज के पास ही एक कमरा उसे चुप्पी भरे ढंग से किराए पर ले दिया था। वहीं पर अपनी जिंदगी के शेष दिन काट रहा था। अपने किराए के फ्लैट या पुश्तैनी मकान पर तो जा नहीं सकता था। क्योंकि उस पर तिजोरी चोरी करने, सेठ पिशोरीलाल की तिजोरी और पिशोरीलाल-हेमंतलाल के अपहरण का अपराध चढ़ चुका था। इंस्पेक्टर जय नारायण सख्ती से उसकी तलाश कर रहा था।
किसी काम में मन नहीं लगता था विजय बेदी का।
कुछ देर पहले बेड पर लेटा तो मस्तिष्क में छत्तीस दिन-छत्तीस दिन टकराने लगा। सिर्फ छत्तीस दिन और बचे थे उसकी जिंदगी के। डॉक्टर वधावन ने कहा था कि मस्तिष्क के ठीक बीचो-बीच गोली फंसने के बाद वो ज्यादा से ज्यादा दो महीने तक और जिंदा रह सकता है। उन दो महीनों में से अब मात्र छत्तीस दिन बचे थे। इन छत्तीस दिनों के भीतर बारह लाख का इंतजाम न हुआ। उसके सिर का ऑपरेशन करके, मस्तिष्क के दोनों हिस्सों के बीच फंसी गोली डॉक्टर वधावन ने न निकाली तो छत्तीस दिन के भीतर उसकी मौत निश्चित है। फिर उसे कोई नहीं बचा सकता।
बारह लाख ।
छत्तीस दिन ।
विजय बेदी जल्दी से उठ खड़ा हुआ। चेहरा पसीने से भीगा हुआ था। चेहरे की चमक तो जाने कितने दिनों से गायब थी। आंखों में मौत की परछाइयां नाचती स्पष्ट नजर आ रही थीं। शायद इस बात का एहसास था उसे कि वो बारह लाख का इंतजाम नहीं कर सकता और बारह लाख के बिना डॉक्टर वधावन ऑपरेशन करके, उसके मस्तिष्क के दोनों हिस्सों के बीच में से गोली नहीं निकालेगा। यानी कि उसकी मौत निश्चित है।
लेकिन अब इसका क्या किया जाए कि विजय बेदी को अगर किसी चीज़ से प्यार था तो वो सिर्फ अपनी जान से। बेदी लम्बी से लम्बी जिंदगी जीना चाहता था। सौ साल से भी ज्यादा लम्बी जिंदगी। ऐसे में वो कैसे बर्दाश्त कर सकता था कि चंद दिनों की जिंदगी और जिए।
"नहीं।" बेदी बड़बड़ा उठा--- "मैं नहीं मर सकता। नहीं मरूंगा। मरना नहीं चाहता मैं। मेरी जिंदगी छत्तीस दिन की नहीं, एक सौ छत्तीस साल की है। कौन कहता है कि मैं छत्तीस दिन के भीतर मर जाऊंगा। विजय बेदी खत्म हो जाएगा, कभी नहीं। वधावन ऑपरेशन करके गोली निकालेगा। मैं दूंगा उसे उसकी फीस । बारह लाख । बारह लाख का जैसे भी हो इंतजाम करना पड़ेगा। चोरी करूं या डाका मारूं। जिंदगी से बढ़कर कुछ भी नहीं। मैं जीना चाहता हूं।"
ऐसे ही शब्द बड़बड़ाते हुए बेदी ने कपड़े बदले और जूते पहनने के बाद बाहर निकलता चला गया। चेहरे पर दृढ़ता और आंखों में बेचैनी बसी स्पष्ट नजर आ रही थी। वहां से कुछ दूर मौजूद उदयवीर के गैराज पर पहुंचा।
गैराज बंद था।
दोनों शटर गिरे हुए थे और बाहर का बल्ब रोशन था।
स्पष्ट था कि उदयवीर गैराज बंद करके जा चुका है। घर गया होगा अपने, घर ? विजय बेदी का चेहरा दर्द से भर उठा। आंखों के सामने अंजना का चेहरा नाच उठा। उसका भी शायद घर बस गया होता अगर अंजना ने उससे बेवफाई न की होती अगर राघव ने उस पर दोस्तों का छुरा न चलाया होता। दोनों उसे धोखा देकर, सेठ पिशोरी लाल की तिजोरी से मिले सारे बेशकीमती जेवरात से ले भागे थे। वरना अब तक तो ऑपरेशन से, दिमाग में फंसी गोली भी निकल चुकी होती।
बसने से पहले ही उसका घर उजड़ गया था।
बेदी, गैराज के बाहर, बोर्ड के ऊपर लगे जलते बल्व को देखता रहा। फिर गर्दन घुमाकर, सड़क की तरफ देखा। कुछ वाहन आ-जा रहे थे। सवा दस बज रहे थे रात के। कुछ फैसला नहीं कर पाया कि कहां जाना है। परंतु वहां से चल पड़ा, सड़क के किनारे-किनारे।
छत्तीस दिन ।
बारह लाख ।
यही चार शब्द बार-बार मस्तिष्क से टकरा रहे थे। और फिर सोचें यहां आकर रुक जाती कि बारह लाख का इंतजाम कैसे करे ? और करना भी हर हाल में था। खुद को पक्का कर चुका था बेदी कि बेशक बारह लाख के बदले बारह कत्ल ही क्यों न करने पड़े। लेकिन बारह लाख पाकर रहेगा।
एक-एक दिन गिनकर अपनी जिंदगी को काट रहा था। आज छत्तीस दिन थे और रात बीतते ही एक दिन और कम हो जाना था। यानी कि पैंतीस दिन रह जाने थे।
विजय बेदी रात के इस वक्त फुटपाथ पर आगे बढ़ता रहा। कोई मंजिल, कोई किनारा नहीं था और बारह लाख की तलाश में आगे बढ़ा जा रहा था। बारह लाख कहां से हासिल करने हैं। कुछ पता नहीं था। कोई खबर नहीं थी। लेकिन हासिल करने थे।
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रागिनी
गोल्डी के स्वादिष्ट बिस्कुट वाले ऑटो पर जयपाल वधवा को वहां से रवाना किया कि यहां से दूर इस ऑटो को छोड़कर दूसरे बंद पड़े बंगले पर पहुंचे और वो नोटों से भरी कोरियाई वैन लेकर वहां पहुंच रही है।
नीचे पड़ी पाली की लाश को ऑटो में रखने में रागिनी ने वधवा की पूरी सहायता की थी। वधवा की रवानगी के वक्त, रागिनी ने जरूरत से ज्यादा सगी बनते हुए वधवा की हिम्मत बढ़ाई थी। ऑटो गेट से बाहर निकला और रागिनी तब तक वहां शांत खड़ी रही, जब तक कि ऑटो की फटी आवाज उसके कानों में पड़ती रही।
जब आवाज कानों में पड़नी बंद हो गई तो रागिनी कड़वे स्वर में बड़बड़ा उठी।
"जयपाल, तेरे जैसे इंसान को पति बनाकर, साथ रहकर मैं जिंदगी नहीं बिता सकती। शक का मारा है तू । खामखाह के शक की वजह से एक की जान ले चुका है। ऐसे में तो तू मुझे भी कभी न-कभी मार देगा। अब मैं तेरे साथ नहीं रहूंगी। नमस्कार। वैन में पड़ी दौलत के दम पर सारी जिंदगी ऐश से बिताऊंगी। कोई ढंग का बंदा मिला तो शादी भी कर लूंगी। लेकिन तेरे को अब कभी नहीं दिखाई दूंगी। इतनी दूर चली जाऊंगी, मैं...।"
बड़बड़ाने के साथ ही रागिनी कोरियाई वैन के पास पहुंची। बदन पर कमीज-सलवार और दुपट्टा था। हाथ में दबी चाबी से वैन की साइड का दरवाजा खोला तो अंधेरे में नोटों भरे बोरे स्पष्ट नजर आए। अजीब-सी मुस्कान नाच उठी। साइड का दरवाजा बंद करके रागिनी स्टेयरिंग सीट पर बैठी। वैन स्टार्ट की। पैट्रोल सुई पर नजर मारी। वो फुल थी। गले में छोटा-सा बैग लटका रखा था। जिसमें कुछ नोटों की गड्डियां और ढेर सारे जेवरात थे। रागिनी ने वैन आगे बढ़ाई और देखते-ही-देखते गेट से बाहर आ गई। फिर उसने हैडलाइट ऑन की और बंगले की तरफ देखकर हंसी ।
"बाय जयपाल। मैं तो चली, करोड़ों के साथ।"
इसके साथ ही वैन तेजी से आगे बढ़ती चली गई।
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बिल्लौरी आंखें थी उसकी। उन आंखों में चमक ऐसी कि जैसे रात के अंधेरे में बिल्ली की आंखें चमकती हैं। वो कार चला रही थी। रात की खाली सड़क पर सत्तर-अस्सी की स्पीड होगी। बदन पर साड़ी थी। जो कि इस ढंग से बांध रखी थी कि बदन छिपने की अपेक्षा ज्यादा से ज्यादा मारक अंदाज में दिखे। बदन न तो छरहरा था और न ही भरा हुआ। कुल मिलाकर वो खूबसूरत थी। सामान्य खूबसूरती से कहीं ज्यादा खूबसूरत। बालों को संवारकर पीछे की तरफ बांध रखा था। जबकि उसके बाल कूल्हों तक लम्बे थे। उम्र तीस बरस ।
इस वक्त उसके चेहरे पर शांत भाव थे। खूबसूरत चेहरा सपाट था। ड्राइविंग के दौरान उसकी बिल्लौरी चमकती आंखें फुर्ती से रास्ते पर घूम रही थी कि उसी पल पटाके की हल्की-सी आवाज हुई और कार लड़खड़ा गई। हवा निकलने का स्वर वहां गूंजा।
उसने फुर्ती से ब्रेक लगाए और कार सड़क के बीचो-बीच रुक गई।
आगे-पीछे कोई वाहन आता-जाता नजर नहीं आ रहा था।
इंजन बंद करके वो दरवाजा खोलकर बाहर निकली तो लगा जैसे कयामत जमीन पर उतर आई हो। ऐसी थी वो। कद पांच फीट नौ इंच। कुल मिलाकर उस कयामत को देखते ही बनता था। जरूरत के मुताबिक छातियों के उभार और ठीक इसी तरह जरूरत के मुताबिक ही मामूली से उभार कूल्हों के थे। किसी को भी पागल कर देने का पूरा सामान थी वो।
उसने कार के चारों टायर देखे।
पीछे वाला टायर बैठा हुआ था। पँचर हो गया था।
ये देखकर उसके होंठ सिकुड़े। परंतु हाव-भाव में लापरवाही ही रही। उसने इधर-उधर निगाह मारी। परंतु दोनों तरफ से कोई वाहन आता न दिखा। निश्चिंत सी वो पीठ पर हाथ बांधे सड़क के बीचो-बीच टहलने लगी। जैसे उसे कोई जल्दी न हो। स्टेपनी कार में मौजूद थी। लेकिन उसे लगाने की तकलीफ उसने जरा भी नहीं की।
यूं ही सड़क पर टहलती रही।
कभी पांच-सात कदम इधर तो कभी उधर ।
रात के इस वक्त अकेली होने का खौफ कहीं भी नहीं झलक रहा था। जबकि औरत होने के नाते उसके दिल में डर अवश्य होना चाहिए था। लेकिन उसमें कहीं भी नहीं था।
कठिनता से पांच मिनट ही बीते होंगे कि सड़क पर दूर किसी वाहन की तीव्र हैड-लाइट चमकती नजर आने लगी। वो ठिठक गई। एक तरफ उसकी कार खड़ी थी और खुद वो सड़क पर इस तरह खड़ी हो गई कि आने वाले वाहन को रुकना ही पड़े।
वो हैडलाइट पास आती जा रही थी।
फिर वो इतनी पास पहुंचने लगी कि आने वाले वाहन से हार्न बजने लगे।
परंतु वो शांत-सी पीठ पर हाथ बांधे खड़ी रही।
वो हैडलाइट वाला आने वाला वाहन और कोई नहीं। कोरियाई वैन थी, जिसे रागिनी ड्राइव कर रही थी। हैडलाइट में सड़क पर खड़ी औरत स्पष्ट नजर आ रही थी। पास में कार देखकर इतना तो वो समझ गई कि इस औरत की गाड़ी खराब हो गई है। परंतु इस तरह उसे रास्ते में नहीं खड़े होना चाहिए था, किसी से लिफ्ट लेने के लिए। साथ ही रागिनी ने मन-ही-मन उसकी खूबसूरती की तारीफ भी की।
हार्न बजाने पर भी वो नहीं हटी।
जबकि रागिनी इस वक्त रुकने के मूड में जरा भी नहीं थी। वैन बिलकुल उसके सिर पर पहुंच गई। तब भी वो उसी तरह शांत मुद्रा में खड़ी रही।
झल्लाकर रागिनी ने ब्रेक लगाए।
वैन उससे सिर्फ चार फुट पर रुकी।
सड़क पर खड़ी हुस्न से लदी औरत के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान उभरी और गायब हो गई।
रागिनी ने उखड़े अंदाज में सिर खिड़की से बाहर निकालकर कहा।
"मैडम ये भी कोई लिफ्ट मांगने का ढंग है।"
वो अपनी जगह से हिली और चार कदम चलकर रागिनी के पास पहुंची।
"मेरी कार का टायर ब्रस्ट हो गया है।" उसकी आवाज मीठी और शांत थी।
"लिफ्ट चाहिए।"
उसने हाथ बढ़ाकर, वैन का दरवाजा झटके से खोला।
"ये क्या कर रही हैं आप ?" रागिनी के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला।
"नीचे आइए। कुछ दिखाना है।" कहते हुए उसने कार की तरफ इशारा किया।
"सॉरी मैडम।" रागिनी की आवाज में तीखापन आ गया--- "मेरे पास फालतू बातों के लिए...।"
तभी उस औरत ने अपना हाथ बढ़ाया और रागिनी की कोहनी पकड़कर वैन से नीचे खींचा। रागिनी को पल भर के लिए ऐसा लगा जैसे कोहनी पर पकड़ किसी हाथ की न होकर लोहे के शिकंजे की हो। तीव्र झटके के पश्चात वो सड़क पर हक्की बक्की-सी खड़ी थी।
"मेरी कार का टायर ब्रस्ट हो गया है।" उसने पहले वाले मीठे-शांत स्वर में कहा--- "स्टैपनी कार के भीतर ही है। उसे लगा लेना। गाड़ी में कहीं कागज होंगे। उन पर मेरा पता है। मेरी कार उस पते पर ले आना और अपनी वैन ले जाना।"
"क्या मतलब।" रागिनी गुस्से से भर उठी--- "तुम...।"
उसी पल औरत का हाथ उठा और रागिनी के गाल पर जा पड़ा।
रागिनी को लगा जैसे हथौड़ा किसी ने मारा हो। उसके पैर उखड़े और वो पास खड़ी उसकी कार से टकराकर नीचे जा गिरी। सिर जोरों से घूम रहा था। होशो-हवास बेकाबू से हो रहे थे। इसी समय के दौरान उसने अपनी कोरियाई वैन बागे बढ़ने की आवाज सुनी। साथ ही ये शब्द उसके कानों में पड़े--- "गॉड इन ग्रेट।"
मन-ही-मन वो छटपटा उठी। करोड़ों रुपया उस वैन में था। परंतु वो इस वक्त वैन को रोक पाने की हालत में नहीं थी।
वैन के मध्यम से इंजन की आवाज़ दूर होती चली गई।
दो मिनट लग गए रागिनी को अपने होश दुरुस्त करने में। जब पूरी तरह होश आया तो थैलों में भरे करोड़ों रुपयों की चिंता दिलो-दिमाग में जा घुसी। करोड़ों की दौलत से भरी वैन, वो औरत ले गई है। कह रही थी उसका पता कार में मौजूद कागजों में है। स्टैपनी बदलकर कार ले आए और अपनी वैन ले जाए।
जब उसे मालूम होगा कि वैन में करोड़ों रुपया है तो क्या वो उस सारी दौलत को वैन में रहने देगी। नहीं, वो दौलत तो वैन से निकाल लेगी। खाली वैन ही उसे देगी। ये भी हो सकता है कि वैन को वो खाली करके यूं ही सड़क पर छोड़ दे, कह दे कि उसने तो वैन ली ही नहीं। आखिर उसके पास सबूत ही क्या है कि वो औरत उससे वैन छीनकर ले गई है। सबूत हो भी, तब भी वो क्या कर लेगी। कैसे कहेगी कि वैन में करोड़ों की दौलत मौजूद थी। अगर उसने पुलिस बुला ली तो करोड़ों की दौलत का जिक्र कैसे कर पाएगी। पुलिस ने सबसे पहले यही पूछना है कि वो करोड़ों की दौलत उसके पास कहां से आई ?
रागिनी ने महसूस किया कि वो अजीब-सी मुसीबत में फंस चुकी है।
चंद पलों की सोच के पश्चात वो उठी और कार का दरवाजा खोलकर भीतर की डोम लाइट ऑन करके, जल्दी से कार के कागजात तलाश करने लगी।
ज्यादा देर नहीं लगी।
कर के डॅशबोर्ड में से कार के पेपर्स मिल गए। रागिनी को मन ही मन कुछ राहत मिली उसने जल्दी से पेपर्स को खोलकर देखा।
कार सुजीत ओबराय के नाम से रजिस्टर्ड थी। सुजीत ओबराय का पता पढ़ते ही रागिनी के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। कई पलों तक उसकी नजरें उस पते पर ही फिरती रहीं। वो पता दूसरे शहर का था और वो शहर चार सौ किलोमीटर दूर था।
रागिनी के चेहरे पर गुस्से उलझन और झुंझलाहट के भाव स्पष्ट दिखने लगे। वो कुछ भी समझ नहीं पाई कि क्या करे ? क्या मालूम चार सौ किलोमीटर दूर, उसके पास जाने पर क्या हो ? वैन में रखे करोड़ रुपये तो वो निकाल ही चुकी होगी। ऐसे में वो क्या करेगी? कुछ भी तो नहीं।
कुछ भी नहीं कर सकती वो ?
उस लोहे की औरत से वो रुपये वसूलने का दम नहीं रखती। रागिनी पहले ही महसूस कर चुकी थी कि वो खतरनाक औरत है। एकाएक रागिनी खुद को अकेला महसूस करने लगी। अचानक ही उसे महसूस हुआ कि मुसीबत भरे मोड़ों पर, औरत को हर हाल में मर्द की जरूरत पड़ती है, जैसे कि अब वह किसी मर्द जैसे सहारे की जरूरत महसूस कर रही थी।
यहां, रात के इस वक्त, इस तरह रुकना भी ठीक नहीं था। गाड़ी के कागज थामे वो कार से निकली और पीछे वाले पहिए के पास पहुंची। जो पैंचर था। उसने अपनी जिंदगी में कभी कार की स्टैपनी नहीं बदली थी और इस कार को वो यूं छोड़कर भी नहीं जा सकती थी। क्योंकि उसने कहा था कि कार ले आए और वैन ले जाए। हो सकता है, शायद.... । शायद करोड़ों की दौलत वैन में ही पड़ी रहे। वो देखे ही नहीं कि वैन के भीतर क्या पड़ा है ?
रागिनी को लगा कि ऐसा भी हो सकता है।
तभी उसके कानों में कदमों की आहट पड़ी। वो चौंकी। हाथ फौरन गले में लटक रहे छोटे से बैग पर पहुंच गया, जिसमें कीमती जेवरात और कुछ नोटों की गड्डियां थीं। साथ ही साथ आहट की तरफ गर्दन घूमी तो फुटपाथ पर किसी को जाते देखा।
वो विजय बेदी था।
रात के इस वक्त कसी को बुलाना ठीक नहीं था। परंतु रागिनी के लिए मजबूरी थी।
"सुनिए मिस्टर ।"
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सोचों में गुम विजय बेदी आगे बढ़ा जा रहा था कि आवाज सुनकर ठिठका और नजरें घुमाकर कार के पास खड़ी रागिनी को देखा। अंधेरे में वो ज्यादा स्पष्ट नजर नहीं आ रही थी। दूसरे ही पल बेदी तेज-तेज कदमों से रागिनी की तरफ बढ़ा।
विजय बेदी को इस तरह पास आते पाकर रागिनी हड़बड़ उठी।
"क्या कहा।" पास पहुंचकर ठिठकते हुए बेदी अपनी ही सोचों में गुम कह उठा--- "बारह लाख दे रही हैं आप मुझे। ओह थैंक्स मैडम। मैनी-मैनी थैंक्स। मैं आपका एहसान कभी नहीं भूलूंगा। मैं...।"
"दिमाग तो ठीक है आपका।" रागिनी अजीब से लहजे में कह उठी--- "मैंने कब कहा मैं आपको बारह लाख दे रही हूं। मैंने तो आपको सिर्फ पुकारा था।"
बेदी ने सिर इस तरह झटका कि जैसे होश में आया हो। उसने गहरी सांस ली और परेशान से ढंग से सिर इस तरह हिलाया कि क्या करे ?
रागिनी की निगाह विजय बेदी पर थी।
"सॉरी मैडम।" बेदी ने थके स्वर में कहा--- "मैं जाने क्या कह गया।" इसके साथ ही पलटने लगा कि रागिनी ने टोका।
"सुनिए।"
बेदी ठिठका। नजरें रागिनी के चेहरे पर गईं।
"मेरी कार का टायर पैंचर हो गया है। प्लीज आप स्टैपनी लगा देंगे।"
बेदी ने पँचर हुए टायर को देखा। फिर रागिनी को ।
"कर दीजिए।" रागिनी के स्वर में आग्रह था--- "रात के इस वक्त इस काम के लिए किसे कहूंगी। मुझे पहिया बदलना नहीं आता। प्लीज...।"
विजय बेदी ने सहमति में सिर हिलाया ।
"डोंट वरी मैडम।" बेदी का लहजा सामान्य हो गया था--- "मैं अभी पहिया बदल देता हूं। चाबी दीजिए।"
रागिनी ने इंगीनेशन में फंसी चाबी निकालकर बेदी को दी।
बेदी ने चाबी लगाकर डिग्गी खोली और टूल किट, जैक और स्टेपनी निकालने और पहिया बदलने के काम में व्यस्त हो गया।
इस दौरान रागिनी की निगाह विजय बेदी पर ही रही।
कई दिनों के बाद बेदी ने सुबह शेव की थी। ऐसे में उसका खूबसूरत-सा चेहरा और भी चमक रहा था। कपड़े भी हमेशा की तरह उसके शरीर पर बढ़िया थे। व्यक्तित्व तो आकर्षक था ही।
अच्छे और इज्जतदार खानदान का भी तो वह था ही और यही आभा उसके चेहरे से झलक रही थी। स्ट्रीट लाइट की कम रोशनी में रागिनी, बेदी को जितना भी देख पाई, वो सब उसे जंचा। । इस वक्त उसे मर्द की जरूरत थी जो मुसीबत के वक्त उसे सहारा दे पाए और जो उसे अच्छा भी लगे। इसके लिए बेदी साहब, रागिनी को फिट लगे।
दस मिनट में ही पहिया बदलकर बेदी फारिग हो गया। सामान वगैरह डिग्गी में रखा और डिग्गी बंद करके चाबी रागिनी की तरफ बढ़ाता हुआ बोला ।
"लीजिए मैडम।"
"थैंक्स मिस्टर ... ?" रागिनी ने शब्द अधूरे छोड़ने के ढंग में चाबी थामी।
"बेदी। विजय बेदी।" सब कुछ भूलकर, कुछ पलों के लिए बेदी सामान्य अवस्था में नजर आने लगा था। होंठों पर सदाबहार मुस्कान नाच उठी थी। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में वो रागिनी की जितनी खूबसूरती देख सकता था वो देखी।
"मुझे रागिनी कहते हैं।" रागिनी एकाएक मुस्कराते हुए आंखें फैलाकर कह उठी। वो जानती थी कि मामूली-सी आंखें फैलाने से, उसकी खूबसूरती को चार चांद लग जाते हैं।
"अच्छा नाम है।" बेदी के होंठों पर सदाबहार मुस्कान नाच रही थी।
"एक बात पूछूं।" रागिनी ने उसी लहजे में कहा ।
"श्योर मैडम।"
"आप कुछ परेशान लग रहे हैं।"
"परेशान ?" बेदी के चेहरे पर मुस्कान स्थाई रही--- "नो मैडम, मैं ठीक हूं।"
रागिनी खुलकर मुस्कराई।
"हम दोस्त बन सकते हैं।"
"क्यों नहीं।" बेदी ने तुरंत सिर हिलाया।
"मिलाओ हाथ।"
दोनों ने गर्मजोशी से हाथ मिलाए।
"तो अब हम दोस्त बन गए विजय।"
"श्योर मैडम।"
"मैडम नहीं, रागिनी ।"
"ओह, यस रागिनी।" बेदी हौले से हंसा।
"और दोस्तों में झूठ नहीं चलता।"
"नहीं चलता।" बेदी इस वक्त बेहद सामान्य नजर आ रहा था।
"तो सच बताओ तुम्हें क्या परेशानी है ?" रागिनी के होंठों पर मुस्कान थी।
बेदी ने कम रोशनी में रागिनी की आंखों में झांका।
"बताओ, दोस्ती में पर्दा नहीं होना चाहिए। मैंने जब तुम्हें पुकारा तो तुम परेशान थे और पास आते ही बारह लाख की बात करने लगे। तब तुम सामान्य अवस्था में नहीं थे।" रागिनी का स्वर अब शांत था।
बेदी ने गहरी सांस ली।
"क्या फायदा बताने का।"
"बताने में नुकसान है क्या ?"
"न नहीं, नुकसान तो नहीं।" बेदी गंभीर-सा नजर आने लगा।
"फिर बताने में क्या हर्ज है।"
दो पल की चुप्पी के पश्चात बेदी गम्भीर स्वर में कह उठा।
"कुछ पहले की बात है कि मैं बैंक गया तो वहां डकैती पड़ रही थी और डकैती के दौरान, डकैतों द्वारा चलाई गई गोली मुझे लग गई। मेरे सिर में। दिमाग के दोनों हिस्सों के बीच वो गोली फंस गई और वो गोली वहां से कभी भी स्लिप होकर निकल सकती है। अपनी जगह छोड़ सकती है। जब भी ऐसा हुआ, गोली का जहर फैल जाएगा और मैं मर जाऊंगा। डॉक्टर के मुताबिक अगर वो गोली अपनी जगह फंसी भी रही तो उस स्थिति में मैं ज्यादा-से-ज्यादा दो महीने तक ही जिंदा रह सकूंगा। तब भी गोली का जहर मेरे मस्तिष्क में फैल जाएगा और दो महीने का वक्त पूरा होने में अब छत्तीस दिन पड़े हैं। कल दिन निकलने के साथ ही पैंतीस दिन रह जाएंगे।"
"ओह!" रागिनी के होंठों से निकला--- "मुझे नहीं मालूम था ये सब... ।"
बेदी का मन भारी हो उठा।
"ऑपरेशन कराके तुम गोली क्यों नहीं निकलवा लेते विजय।"
"इसके लिए मुझे बारह लाख रुपये चाहिए।"
"बारह लाख।" रागिनी ने अजीब से स्वर में कहा--- "इस ऑपरेशन के लिए बारह लाख ?"
"हां, डॉक्टर वधावन, बहुत बड़ा डॉक्टर है। उसके हाथों में जादू है। वो इस बात की गारंटी लेता है कि ऑपरेशन के दौरान मुझे कुछ नहीं होगा। वो मेरे दिमाग के दोनों हिस्सों के बीच फंसी गोली को निकाल देगा और मैं जिंदा रहूंगा। ये बात वो लिखकर देने को तैयार है। लेकिन दूसरा कोई भी डॉक्टर ठोक-बजाकर गारंटी देने को तैयार नहीं कि ऑपरेशन सफल रहेगा।" बेदी गंभीर स्वर में कह रहा था--- "और डॉक्टर वधावन इस ऑपरेशन की फीस बारह लाख मांगता है।"
रागिनी कुछ न कह सकी। बेदी को देखती रही।
बेदी का खूबसूरत चेहरा फीका सा नजर आने लगा था।
"ये बात है तो...।" रागिनी की सोचें तेजी से दौड़ रही थीं--- "फिर तुम्हें कहीं से भी हर हाल में बारह लाख का इंतजाम करना चाहिए। जान से प्यारा तो कुछ भी नहीं होता।"
"तुम ठीक कहती हो रागिनी।" बेदी थके स्वर में कह उठा--- "मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि वक्त पर बारह लाख का इंतजाम हो जाए, लेकिन बारह लाख कम भी तो नहीं होता। समझ में नहीं आता कि कहां से बारह लाख लाकर खुद को बचाऊं ?"
रागिनी का मस्तिष्क तेजी से काम कर रहा था। इसे बारह लाख की सख्त जरूरत थी और उसे इस वक्त ऐसे इंसान की सहायता की जरूरत थी, जो उसका साथ दे सके। जैसा वो चाहे, वैसा ही वो कर सके। ये उसके काम का आदमी साबित हो सकता है।
"हिम्मत से काम लो।" रागिनी अपनी सोचों के अंतिम छोर पर पहुंचती हुई बोली--- "सब ठीक हो जाएगा। वक्त कभी भी एक-सा नहीं रहता।"
बेदी ने रागिनी को देखा फिर मुंह फेर लिया। कोई शब्द नहीं था उसके पास कहने को। मौत तो उसके सिर पर सवार थी। हरदम वो मौत के करीब आते एहसास के साथ वक्त बिता रहा था। किसी को क्या मालूम कि छत्तीस दिन की जिंदगी जब सामने हो तो दिल पर क्या बीतती है।
रागिनी की आवाज ने उसकी सोचों को तोड़ा।
"विजय।" रागिनी ने पुकारा।
बेदी ने रागिनी को देखा। रागिनी मुस्करा रही थी।
"बारह लाख पाने या फिर अपनी जाती जिंदगी को बचाने के लिए तुम क्या कर सकते हो ?"
"सब कुछ।" बेदी के होंठों से निकला--- "तुम नहीं जानती रागिनी कि मुझे अपनी जान से कितना प्यार है। मैं छत्तीस दिन नहीं एक सौ छत्तीस साल जीना चाहता हूं। खुद को बचाने के लिए, बारह लाख पाने के लिए मैं सब कुछ कर सकता हूं। लेकिन मैं मरना नहीं चाहता।"
"मैं तुम्हें पचास लाख दूंगी।"
"क्या ?" बेदी मुंह खोले रागिनी को देखने लगा।
रागिनी ने प्यार से बेदी की कलाई थामी और मीठे स्वर में बोली।
"दोस्त पर विश्वास करो विजय।"
"तुम-तुम मुझे पचास लाख दोगी।" बेदी का चेहरा अविश्वास से भरा पड़ा था।
"हां।" रागिनी ने उसका हाथ दबाया।
"ले-लेकिन क्यों ?"
"इस क्यों का जवाब भी दे दूंगी। यह बताओ पचास लाख पाने के लिए कुछ करना पड़े तो करोगे।"
"क्या करना पड़े?"
"खास नहीं।" रागिनी ने बेदी का हाथ दोनों हाथों में थामा--- "मेरा करोड़ों रुपया अभी-अभी कुछ देर पहले ही कोई ले गया। है। वैसे तो वो दे देगा। नहीं दिया तो उससे रुपया वसूल करना होगा।"
"करोड़ों रुपया ? तुम करोड़ों रुपया क्या सड़क पर लेकर खड़ी थी जो...।"
"वो सब बता दूंगी। पहले जवाब दो, इस काम के लिए तैयार हो। बारह के बदले पचास लाख मिलेंगे तुम्हें। पचास लाख से तुम अपनी जिंदगी बचा सकते हो और ऑपरेशन के बाद बाकी बचे रुपये से बाकी की जिंदगी यानी कि भविष्य संवार सकते हो।" रागिनी अपनेपन से मुस्कराई।
"हां।" बेदी के होंठों से निकला--- "मैं-मैं तैयार हूं। तुम जो कहोगी, वो करने के लिए मैं तैयार हूं। मुझे पचास लाख नहीं तो कम से कम बारह लाख जरूर दे देना।"
"दोस्त पर विश्वास रखो। पचास ही दूंगी विजय। " हंसकर के साथ ही रागिनी दो कदम आगे बढ़ी और बेदी के होंठों पर प्यार से किस की।
बेदी हड़बड़ाया ।
"क्या हुआ ?" रागिनी पुनः हंसी ।
"कुछ नहीं।" बेदी मुस्करा पड़ा।
"कुछ तो हुआ है।" रागिनी के स्वर में चंचलता आ गई।
"अभी तो नहीं हुआ।" बेदी की आवाज में शरारत आ गई--- "जब होगा बता दूंगा।"
"मेरे साथ रहोगो तो सब कुछ होगा और बढ़िया होगा। दोस्तों में रुकावट कैसी।"
"सच में, मुझे लग रहा है कि अनजाने में मुझे अच्छी दोस्त मिल गई।"
"मुझे भी यही महसूस हो रहा है।"
बेदी खुश था कि ऑपरेशन के लिए रुपये का इंतजाम होने जा रहा है।
और रागिनी खुश थी कि मुसीबत के इस वक्त उसे ऐसे इंसान का साथ मिल गया जो जरूरतमंद था और सब कुछ करने को तैयार था। उसे विश्वास होने लगा कि करोड़ों मिल जाएंगे।
"ड्राइविंग जानते हो ?" रागिनी ने पूछा।
"हां।"
"लो।" रागिनी ने कार की चाबी उसकी हथेली पर रखी--- "कार ड्राइव करो।"
हथेली पर पड़ी चाबी को देखते हुए बेदी ने पूछा।
"जाना कहां है ?"
"देवली शहर।"
"देवली ?" बेदी के होंठों से निकला।
"हां। क्यों-सोचने क्या लगे ?"
"कुछ नहीं।" बेदी ने चाबी को उंगलियों में फंसाया--- "मैंने सोचा था, पास ही में कहीं जाना होगा।"
दोनों कार में बैठे। बेदी ने ड्राइविंग सीट संभाली। रागिनी उसकी बगल में बैठ गई। गले में बैग का फीता डाल रखा था और छोटा-सा बैग गोदी में था।
बेदी ने कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी।
"जरूरत पड़े तो रास्ते में पैट्रोल डलवा लेना।" रागिनी ने कहा।
बेदी ने सिर हिलाया और कुछ पलों की चुप्पी के बाद बोला।
"मुझे अभी तक तुम्हारी बात पूरी समझ में नहीं आई।"
"कौन-सी बात ?"
"करोड़ों रुपये वाली कि कोई तुम्हारा करोड़ों रुपया ले गया है और...।"
"ड्राइविंग की तरफ ध्यान दो।" रागिनी ने गहरी सांस ली--- "मैं बहुत थकी हुई हूं। इस वक्त मुझसे कोई भी सवाल मत करो। मुझे अपने करोड़ों की चिंता हो रही है।"
"मैं ये नहीं पूछ रहा कि तुम करोड़ों कहां से लाई। मैं तो पूछ रहा हूं कि तुम करोड़ों रुपया लेकर सड़क पर क्या कर रही थी कि कोई छीनकर ले गया।" बेदी ने सामान्य स्वर में कहा--- "और फिर करोड़ों रुपया रखने के लिए ठीक-ठाक जगह चाहिए। इस कार में तो आने से रहा।"
रागिनी ने बेदी को देखा। कई पलों तक देखती रही फिर एकाएक मुस्कराकर उसके कंधे पर हाथ रखा। हौले से कंधा धपधपाया, दबाया।
"विजय, इस वक्त मैं खुद को बहुत थका महसूस कर रही हूँ फिर बात करना।"
बेदी ने भी मुस्कराकर सिर हिला दिया।
कुछ ही देर बाद रफ्तार से दौड़ती कार, शहर से बाहर हो गई।
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रात के ढाई का वक्त होगा।
जब बेदी को लगा कार कुछ ठीक नहीं चल रही। फिर कार का बैलेंस बिगड़ने लगा तो सड़क के किनारे की तरफ करते हुए बेदी कार को रोकता चला गया।
आंखें बंद किए, पुश्त से सिर टिकाए रागिनी ने आंखें खोलीं।
"क्या हुआ ?"
"गड़बड़ लग रही है। शायद पहिए में कोई गड़बड़ है।"
"हे भगवान, कहीं टायर पैंचर तो नहीं हो गया ?" रागिनी के होंठों से निकला।
"देखता हूं।" बेदी कहने के साथ ही कार से निकला और आगे के दोनों पहियों को चैक किया।
अगला पहिया पँचर था।
बेदी ने आसपास देखा। हाइवे की ये वीरान सड़क थी। रात के इस वक्त गोली की-सी रफ्तार से रह-रहकर वाहन निकल रहे थे।
"पहिया ठीक है ?" रागिनी ने खिड़की से जरा-सा सिर निकालकर पूछा।
"नहीं।" बेदी दो कदम उठाकर पास आया--- "पैंचर है।"
"ओह, अब क्या होगा।" रागिनी झल्ला-सी गई--- "स्टैपनी पहले ही बेकार हुई पड़ी है और रात के इस वक्त सुनसान सड़क पर पँचर लगाने वाला कहां मिलेगा ?"
"रात के इस वक्त तो कोई भला आदमी हमारे पास भी नहीं रुकेगा।"
उखड़े अंदाज में रागिनी कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकल आई।
"क्या करें अब ?" रागिनी का स्वर व्याकुल था।
"इस वक्त कुछ नहीं किया जा सकता।" बेदी ने कार के पहिए पर निगाह मारी--- "जो भी हो सकेगा। सुबह ही हो सकेगा। रात का जो वक्त बचा है वो आराम करके बिताना चाहिए।"
रागिनी ने ये सोचकर खुद पर काबू पाया कि रात के इस वक्त कुछ नहीं हो सकेगा।
"मैं तो सोच रही थी कि सुबह तक देवली सिटी पहुंच जाएंगे।" रागिनी ने कहा।
"सोचा तो मैंने भी था।" बेदी ने आसपास देखा।
कुछ ही दूरी पर पेड़ों के पार, गांव-सा नजर आया। दो-चार रोशनियां चमक रही थीं।
"सामने गांव है। वहां देखते हैं, सोने को, आराम करने को कोई जगह मिल जाए।"
"और ये कार ?" रागिनी ने कार को देखा--- "ये कार किसी को वापस करनी है, तभी वो करोड़ों रुपया वापस मिल पाएगा। मेरे लिए बहुत कीमती है ये कार।"
"कमाल है। कार वापस करने पर करोड़ों रुपया मिलेगा।" बेदी ने अजीब से स्वर में कहकर, रागिनी को देखा--- "मैं समझा नहीं, तुम क्या कहना चाहती हो।"
"मैं बहुत थकी हुई हूं। कोई सवाल मत पूछो। कार का क्या करें कि...।"
"कार को कोई नहीं ले जाएगा। पैंचर है। पहिया बैठ चुका है। फिर भी इसे मैं सड़क किनारे ढलान पर उतार देता हूं।" कहने के साथ ही बेदी आगे बढ़ा और कार में बैठने के पश्चात उसे स्टार्ट करते हुए सड़क किनारे ढलान पर उतार कर उसे रोका। इंजन बंद किया। चाबी निकालकर जेब में डाली और कार को अच्छी तरह बंद करके सड़क पर आ गया।
"आओ चलें। गांव में कहीं तीन-चार घंटे आराम करने की जगह मिल जाएगी।"
दोनों अंधेरे में ढलान पर उतरे और आगे बढ़ने लगे।
चंद कदमों पश्चात ही रागिनी को ठोकर लगी कि गिरते-गिरते बची।
"अंधेरा है, कुछ भी नजर नहीं आ रहा।" कहते हुए रागिनी ने बेदी की बांह पकड़ ली।
"दो-चार मिनट बाद तुम अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो जाओगी।" बेदी ने कहा।
रागिनी ने बेदी की बांह पकड़ रखी थी। रह-रहकर उसकी छातियां, बांह से रगड़ खा रही थी। पहले तो ये सब इत्तफाक से था लेकिन फिर बेदी को महसूस होने लगा कि अब छातियां रगड़ नहीं खा रहीं, बल्कि रगड़ाई जा रही हैं। रागिनी की सांसों की आवाज भी तेज सी महसूस होने लगी। दोनों धीमे-संभलकर आगे बढ़ रहे थे। खुली जगह में ठंडी हवा से उन्हें राहत मिल रही थी। इस वक्त वो खेतों के बीच में से गुजर रहे थे।
सामने गांव नजर आ रहा था।
"विजय।" रागिनी के स्वर में भारीपन था ।
"हूं।"
“मैं थक गई हूं।”
"कुछ मिनटों में हम गांव में...।"
रागिनी ठिठक गई।
बेदी भी रुका, उसे देखा।
वो उसे ही देख रही थी।
"तुम बेवकूफ तो नहीं हो।" रागिनी का स्वर भारी हो रहा था।
"क्यों ?"
"महा-बेवकूफ हो।"
चंद्रमा की रोशनी में बेदी, रागिनी का चमकता चेहरा देखता रहा।
रागिनी आगे बढ़ी और बेदी के साथ लिपट गई। उसकी गर्म सांसें बेदी ने अपने सीने पर महसूस कीं। बेदी ने ठोड़ी से पकड़कर उसका चेहरा ऊपर उठाया और झुकते हुए उसके होंठ अपने होंठों के बीच दबा लिए। रागिनी पंजों के बल ऊपर उठती चली गई। बेदी के हाथ मुनासिब जगहों पर हरकत कर रहे थे और रागिनी की तपन बढ़ती जा रही थी।
जब वे अलग हुए तो रागिनी जोरों से सांसें लेने लगी। उसका सिर बेदी की छाती पर था।
"विजय।" उसके शब्द टूट रहे थे।
"हूं।" रागिनी का नशा बेदी पर भी हो गया था।
"वो देखो। आम के पेड़ के नीचे।"
बेदी ने गर्दन घुमाकर देखा। कुछ दूरी पर खेतों के बीच आम के पेड़ के नीचे चारपाई पड़ी दिखी। रात बिताने के लिए वो चारपाई काफी थी।
"कुछ घंटे बिताने के लिए वो चारपाई बढ़िया रहेगी।" बेदी ने मुस्कराकर उसकी कमर दबाई।
दोनों एक-दूसरे में सिमटे-सिमटे आम के पेड़ की तरफ बढ़े।
रागिनी के हाथ फिर रहे थे और जहाँ से हाथ गुजरता, उसकी उंगलियां जादुई अंदाज में बेदी के कपड़े खोले जा रही थी।
आम के पेड़ तक पहुंचते-पहुंचते बेदी के कपड़े खुल चुके थे। रागिनी उससे अलग हुई और अपने कपड़े उतारने लगी। बेदी ने अपने जिस्म पर मौजूद बचे-खुचे कपड़े भी उतार दिए।
तब तक रागिनी अपने कपड़े उतार चुकी थी। उसने दोनों हाथ आगे करके बेदी को धक्का दिया तो बेदी लड़खड़ाकर पीछे मौजूद चारपाई पर जा गिरा। इससे पहले कि वो संभल पाता। रागिनी ने बिल्ली की तरह झपट्टा मारा और बेदी को चूहा समझकर नोंचने-खसौटने लगी। बिल्ली अपना काम कर रही थी और चूहा अपना काम। दोनों बेहद व्यस्त थे। दूसरी बात का होश ही कहां था उन्हें। कभी चूहा ऊपर तो कभी बिल्ली।
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