अगले दिन ग्यारह बजे फूलचंद सोकर उठा। कमला कपड़े धो रही थी। फूलचंद ने किचन में जाकर खुद चाय बनाई और कुर्सी पर बैठकर पीने लगा। मन-ही-मन ये तय किया कि असलम के यहां एक फेरा लगा आएगा। शायद वो आ ही गया हो।
चाय समाप्त की ही थी कि कमला वहां आ पहुंची।
"उठ गए नवाब साहब।" कमला ने तीखे स्वर में कहा--- "तैयार होकर घर से निकल जा और कहीं से हजार-दो हजार लेकर आ। घर का सामान लाना है।"
"दो दिन तक असलम आ जाएगा मां, तब...।"
“दो दिन क्या तेरे को भूख नहीं लगेगी। हाथ पर हाथ रखे बैठा रहेगा।"
"ठीक है।" फूलचंद ने मुसीबत दूर करने वाले ढंग में कहा--- "चला जाता हूं। नाश्ता बना दे।" कहने के साथ ही वो उठा और बाथरूम की तरफ बढ़ गया।
एक घंटे बाद ही फूलचंद तैयार होकर, नाश्ते से फारिग हो चुका था।
"मैं जा रहा हूं।"
"जा-जा, कर लूंगी दरवाजा बंद। नोट लेकर ही घर में घुसना।"
फूलचंद ने मुंह बनाया और आगे बढ़कर, दरवाजा खोलकर बाहर निकला। बरामदे में खड़ी सफारी गाड़ी को देखा। जो चादरों से ढकी हुई थी। एक तरफ से चादर कुछ नीचे सरक आई थी। फूलचंद आगे बढ़ा और सरकी, चादर को ठीक करने की कोशिश की।
शीशे तो काले थे। परन्तु उसे लगा भीतर कुछ सामान पड़ा है। रात को तो उसने जल्दबाजी में ध्यान नहीं दिया था। उसने शीशे से भीतर देखने की कोशिश। परन्तु सफारी का पिछला हिस्सा ठसाठस भरा होने की वजह से कुछ भी स्पष्ट नजर नहीं आया।
दो पलों की सोच के बाद, फूलचंद ने जेब से मास्टर चाबी निकाली और सफारी का पीछे वाला लॉक खोल कर दरवाज खोल दिया।
सामने बोरे ही बोरे ठूंसे नजर आए।
परन्तु बोरों के मुंह पर लगी सील देखकर उसकी आंखें सिकुड़ी। एक बोरे का मुंह उस की तरफ था। उस पर लगी सील उसने देखी तो सील पर भारत सरकार की छोटी-सी मुहर लगी नजर आई। ये तो सरकारी बोरे हैं। फूलचंद का माथा ठनका।
उसकी निगाह सारे बोरों पर घूम गई।
दबा-दबाकर बोरों को भीतर ठूंसा गया था। वरना वो इतनी आसानी से सफारी गाड़ी में आने वाली नहीं थे। लेकिन ये सरकारी बोरे, उस युवक-युवती के पास कैसे आए, जो सड़क पार करते समय ट्रक के नीचे आकर कुचले गए थे। क्या है इनमें ?
फूलचंद की पैनी निगाह बोरों पर घूमने लगी कि तभी नजरें ठिठक गई।
एक बोरे का थोड़ा-सा हिस्सा कटा-सा नजर आया। जैसे किसी धारदार चीज से उसे काटा गया हो। फूलचंद ने पहले तो दोनों हाथों से बोरे को दबा-दबाकर देखा। लेकिन समझ नहीं पाया कि भीतर क्या है। फिर अपना हाथ बोरे के छोटे से कटे हिस्से में डाल दिया।
दूसरे ही पल उसके चेहरे पर भूकम्प जैसे भाव उभरे।
उसके हाथ की उंगलियां और मस्तिष्क की तरंगें धोखा नहीं खा सकती थीं। उसके हाथ की उंगलियां नोटों की गड्डी को छू रही थीं।
दूसरे ही पल उसका हाथ बाहर आया।
हाथ में पांच सौ के नोटों की गड्डी दबी हुई थी।
फूलचंद सांस लेनी भूल गया। फटी-फटी आंखों से गड्डी को देखता रहा। चेहरे पर पचासों तरह के भाव गुड़मुड़ हो रहे थे कि कोई देखे तो समझ न पाए कि वो क्या सोच रहा है।
पांच सौ रुपये की गड्डी।
यानी कि पचास हजार रुपया।
फूलचंद की रुकी हुई सांसें तेजी से चलने लगी। उसने जल्दी से आसपास देखा। वहां भला किसने होना था। आसपास घर की चारदीवारी थी। कुछ दूर गेट था। सफारी गाड़ी घर के भीतर थी।
फूलचंद ने दूसरा हाथ थैले के कटे हिस्से में डाला और हाथ जब बाहर आया तो उसमें भी नोटों की गड्डी दबी हुई थी। फूलचंद का जिस्म कांप-सा उठा। अजीब-सी हालत होने लगी उसकी। इस तरह करते-करते उसने आठ-दस गड्डियां बाहर निकाल लीं।
सब पांच सौ के नोटों की थी।
फटी आंखों से गड्डियों को देखते, सकते की-सी हालत में खड़ा रहा। जिस्म में रह-रह कर अजीब-सा करंट दौड़ रहा था। धीरे धीरे उसने खुद को संभाला। खुद को समझाया कि सब ठीक है । उसके हाथ में बोरे से निकाली पांच सौ की गड्डियां ही हैं। यह कोई मजाक नहीं है।
बात यहीं तक रहती तो ठीक थी।
लेकिन अब वो सोचने लगा था कि क्या सारे बोरों में नोटों की ही गड्डियां हैं। दूसरे बोरे भी नोटों की गड्डियों से ही भरे हुए हैं या उनमें कुछ और है ?
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"फूल, फूलचंद ।" कमला के शब्द थरथरा रहे थे--- "ये तो सारे थैलों में नो-नो-नोटों की गड्डियां हैं। वो-वो भी पा-पांच सौ की।"
दोनों सफारी गाड़ी का दरवाजा खोले, थैलों के पास खड़े थे। फूलचंद की हालत बुरी हो चुकी थी ये जानकर कि सब बोरों में नोटों की गड्डियां हैं और वो भी पांच-पांच सौ की गड्डियां । हाथ में थमी गड्डियां लेकर वापस डाल दीं।
"ये-ये क्या कर रहा है। अभी दो-चार तो बाहर ही रख ले। मैं...।"
"चुप कर मां।" फूलचंद अपने पर काबू पाने की चेष्टा कर रहा था। उसे अपनी आवाज ही पराई-सी लग रही थी। उसके चेहरे के भावों में कोई खास सुधार नहीं हुआ था।
"क्या चुपकर-चुपकर लगा रखी है। तू...।" कमला ने अजीब से स्वर में कहना चाहा।
फूलचंद ने किसी तरह उसे बांह से धकेलकर पीछे किया और दरवाजा बंद करके उसे लॉक कर दिया। यह देखकर कमला के चेहरे पर नापसंदी के भाव उभरे।
"फूलचंद तू...।" कमला ने कहना चाहा।
"अंदर चल मां, जो बात करनी हो। भीतर करना।" कहने के साथ ही फूलचंद ने सफारी को चादरों से ठीक तरह ढका और कमला के साथ भीतर पहुंच गया।
कमला अनमने मन से भीतर आई थी।
"तने तो बाप का नाम रोशन कर दिया फूलचंद । आज तेरा बाप जिंदा होता तो देखता कि उसका बेटा तरक्की की कितनी ज्यादा सीढ़ियां एक साथ चढ़ गया है।"
फूलचंद कुर्सी पर बैठा गहरी-गहरी सांस ले रहा था।
"तेरा क्या ख्याल हैं। कितना पैसा होगा, थैलों में।"
"करोड़ों।" फूलचंद ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
"तो बेटे नोटों के उन थैलो को भीतर लेकर आ । मैं तेरे साथ हाथ लगा दूंगी। वो बोरे....।"
"अभी नहीं मां।" फूलचंद अपने पर काबू पाता जा रहा था।
"क्या मतलब?"
फूलचंद ने कमला को देखा।
"याद है मां, पापा क्या नसीहत देते थे।"
"क्या ?"
"माल खाने से पहले, आस-पास के सारे खतरे दूर कर दो। कहीं ऐसा न हो कि माल मुंह में हो और जब पेट में पहुँचे तो खुद को थाने में पाओ।"
"हां, ये सीख तो तेरे को, तेरे पापा हमेशा देते थे।" कमला ने कहा—“लेकिन इस बात का इन नोटों से क्या मतलब, जो तू इस बे-मौके पर ये बात ले बैठा।"
"ये पैसा कहां से आया, इसके पीछे क्या मामला है। मुझे इससे कोई मतलब नहीं।" फूलचंद ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं जानता हूं गलती से करोड़ों पर हाथ डाल बैठा हूं। कोई बात नहीं। करोड़ों हजम कर लूंगा। लेकिन करोड़ों के साथ, एक छोटे से बोरे में लाश पड़ी है। उसे हजम नहीं कर सकता।"
"लाश ?" कमला का मुंह खुला का खुला रह गया।
"जहां करोड़ों का मामला हो। वहां लाश का होना, मामूली बात है।" फूलचंद ने अब तक अपने पर काफी हद तक काबू पर लिया--- "लाश किसकी है। किसने रखी है। मुझे कोई मतलब नहीं। मुझे तो दौलत से मतलब है। जो कि मेरे पास है। लेकिन दौलत के साथ लाश का होना खतरनाक है। लाश पास में से बरामद हो गई तो बे-भाव के, सारी उम्र के लिए जेल में जाएंगे। यही वजह थी कि पापा की नसीहत याद आ गई। पहले हर काम से फुर्सत पाओ उसके बाद तसल्ली से माल का मजा लो।"
"वो तो ठीक है। पहले नोटों के बोरे, गाड़ी से भीतर ले आते हैं, उसके बाद...।"
"नहीं मां...।" फूलचंद ने दृढ़ता से बात काटी--- "जब तक लाश इस घर में, गाड़ी में रहेगी, तब तक मैं चैन से, सामान्य होकर कोई भी काम नहीं कर सकता। पापा की नसीहत को सामने रखते हुए, सबसे पहले दौलत के साथ पड़ी लाश से छुटकारा पाना होगा।"
"लाश बोरे में है?" कमला कह उठी।
"हां।"
"बोरे में है तो किसी को क्या पता चलेगा। बोरा डाल कंधे पर और जाकर चुपके से पास के नाले में फेंक आ। मामूली-सी बात है और....।"
"ये कूड़ा-करकट नहीं है जो उठाया और पास के नाले में फेंक दिया।” फूलचंद ने सख्त नजरों से कमला को घूरा--- "ये लाश है और मेरे ख्याल में लाश का मतलब तुम ठीक से नहीं समझती कि बात पुलिस तक पहुंच जाए तो फिर बंदे का क्या हाल होता है। वो ये बाद में पूछती है कि खून किसने किया। नक्शा पहले बिगाड़ देती है कि बंदा खुद को भूल जाता है।"
"तू तो डरता नहीं था पुलिस से, अब क्यों डर....?"
"हां। अब डर रहा हूं। क्योंकि पहले मेरे पास दौलत नहीं थी और अब करोड़ों की दौलत आ गई है। जब दौलत पास में आ जाए तो इंसान कुछ और जी लेना चाहता है।" फूलचंद ने गंभीर स्वर में कहा।
कमला एकाएक कुछ नहीं कह सकी।
"अब तू करना क्या चाहता है ?" कमला आखिरकार पूछ बैठी।
“मैं गाड़ी को घर से बाहर ले जाऊंगा। किसी सुनसान जगह पर लाश वाली बोरी गिराकर गाड़ी को वापस ले आऊंगा। उसके बाद बोरे घर में रखकर, सफारी को कहीं छोड़ आऊंगा। तब जाकर मुझे चैन मिलेगा। पापा की नसीहत पूरी होगी और फिर आराम से करोड़ों की दौलत को देख सकूंगा। इस्तेमाल कर सकूंगा।"
"तू करोड़ों के नोटो को घर से बाहर ले जाएगा।" कमला के होंठों से निकला।
"हां, ताकि लाश को...।"
"पहले बोरे उतार ले। उसके बाद...।"
"नहीं, पहले मैं सिर पर मौजूद लाश वाले खतरे से छुटकारा पाना चाहता हूँ।" कहने के साथ ही फूलचंद उठ खड़ा हुआ।
"मैं गाड़ी ले जा रहा हूँ। आधे-पौन घंटे में लौट आऊंगा।"
कमला हड़बड़ाकर कह उठी।
"मुझे ये ठीक नहीं लग रहा कि तू करोड़ों की दौलत को ।"
"सब ठीक है। मैं लाश को कहीं फेंक कर करोड़ों के नोटों के साथ वापस आ रहा हूँ। तब तक तुम वो जगह देख लो, सोच लो, तैयार कर लो, जहां करोड़ों रुपयों से भरे बोरे रखने हैं।" कहने के साथ ही फूलचंद कमरे से बाहर निकलता चला गया।
कमला को अच्छा नहीं लग रहा था कि करोड़ों की दौलत को घर से बाहर ले जाया जा रहा है। बेशक घंटे भर के लिए ही। लेकिन इस मामले में वो फूलचंद पर दबाव नहीं डाल सकती थी। बाहर सफारी के स्टार्ट होने की आवाज आई तो कमला के होंठों से गहरी सांस निकल गई।
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सिद्ध तांत्रिक बाबा कलिंगा दास।
हर रोज जिसके इश्तिहार अखबारों में आते थे कि ऊपर-नीचे की हवा हो या भीतर-बाहर की। वो सब ठीक कर देगा। आपका पति बस में नहीं तो सप्ताह के भीतर ही वो हर काम आपसे पूछ कर करेगा। किसी ने आपको बुरे मंत्र से बांध दिया है तो वो ठीक कर देगा। किसी ने आपकी तरक्की की राह में रोड़े अटकाने के लिए, कुछ कर-करा दिया है तो चिंता मत कीजिए। वो भी ठीक हो जाएगा। आप बेऔलाद हैं तो उसके लिए इधर-उधर धक्के खाने की जरूरत नहीं। मंत्रों द्वारा जल्द ही औलाद न होने की बाधा को हटा दिया जाएगा। आपकी जमीन-जायदाद धोखे से कोई हड़प गया है तो चिंता करने की आवश्यकता नहीं। अपनी शक्ति के दम पर सिद्ध बाबा कलिंगा दास सब ठीक कर देंगे। जायदाद हड़पने वाला, खुद आपके पास आकर आपका हक आपको लौटा जाएगा। हर तरह की समस्या का समाधान है तो सिर्फ सिद्ध तांत्रिक बाबा कलिंगा दास के पास। एक बार अवश्य आजमा कर देखें।
सिद्ध तांत्रिक बाबा कलिंगा दास के ऐसे विज्ञापन हर रोज अखबारों में आते थे और अपनी किसी न किसी परेशानी से घिरे लोग, जब उन्हें कोई और रास्ता नजर नहीं आता तो सिद्ध तांत्रिक बाबा कलिंगा दास की शरण में पहुंच जाते।
बाबा कलिंगा दास ने शहर की सीमा पर स्थित, खाली जगह को घेरकर अपना ठिकाना बना रखा था। तीन कमरे तो पक्के बना रखे थे। जिनमें सिर्फ बाबा कलिंगा दास ही रहता था। आस-पास झोपड़ियां डाल रखी थीं। जहां उसके चेले मौजूद रहते थे। चेलों में मर्द भी थे और औरतें भी। काफी बड़ी जगह को घेर कर कांटेदार तारों की बाड़ लगा रखी थी और भीतर आने के लिए लकड़ी का पांच फीट ऊंचा गेट था। भीतर एक तरफ तीन कारें खड़ी थीं। वो कारे बाबा कलिंगा दास के ही इस्तेमाल में आती थी जिन्हें कि उसके यजमानों ने बाबा को खुशी से भेंट कर रखी थीं।
बाबा कलिंगा दास की उम्र पचास बरस के आसपास थी। बेहद स्वस्थ शरीर। चेहरे पर ऐसा तेज कि सामने वाले की निगाहें खुद-ब-खुद ही झुक जाए। गले में कई तरह की मालाएं और माथे पर हर वक्त नजर आने वाला चंदन और हल्दी का तिलक। बाबा के बदन पर हमेशा सफेद रंग की धोती लिपटी रहती। चौड़ा, बालों से भरा सीना चमकता नजर आता। हर रोज सुबह दो चेले शुद्ध घी से बाबा की मालिश करते। जिंदगी की तमाम सुविधाएं सिद्ध तांत्रिक बाबा कलिंगा दास के पास मौजूद थी। पिछले तीन-चार सालों से बाबा का डेरा यहां पर देखा जा रहा था।
खास यजमान होता तो बाबा उससे अपने मकान में, एकांत में बात करता। वरना बाहर खुले में पेड़ों की छाया में, चेले-चेलियों के सामने ही बातचीत होती ।
इस समय भी बाबा विशाल पेड़ की छाया में आसन लगाए, एक दुःखी आत्मा की समस्या सुन रहा था। दो चेले पास में थे। तीन लोग और वहां बैठे थे, जो कि अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि तभी तारों की बाड़ में लगे, खुले दरवाजे से महंगी कार भीतर आई और एक तरफ जा रुकी। सबकी निगाहें उधर उठीं।
कार को अट्ठाईस तीस बरस की औरत चला रही थी। वो बाहर निकली। बहुत खूबसूरत थी वो। मांग में सिन्दूर। होंठों पर लिपस्टिक। कानों में सोने के लम्बे झुमके। गले में सोने का भारी हार। हाथ की उंगली में एक सोने की अंगूठी और दूसरी में हीरा जड़ित अंगूठी। कलाइयों में सोने के दो भारी कंगन । बदन पर साड़ी ब्लाउज था, ये कपड़े इस ढंग से पहन रखे थे कि अंदाज-ए-हुस्न देखते ही बनता था।
उसे देखने के बाद बाबा कलिंगा दास की नजरें चेलों की नजरों से टकराई। उसके बाद बाबा पुनः सामने बैठे व्यक्ति की समस्या सुनने में व्यस्त हो गया।
कार से उतरने वाली औरत इसी तरफ आ रही थी। बाबा को इस बात का पूरा एहसास था। परंतु वो ऐसा दर्शा रहा था कि जैसे उसे उसके आने की खबर ही न हो।
जब वो पास पहुंची तो बाबा ने हाथ उठाकर सामने बैठे व्यक्तियों से कहा।
"अब हमारे आराम का समय हो गया है। शाम पांच बजे पुनः आसन ग्रहण करेंगे।" कहने के साथ ही बाबा ने चेलों को देखा तो एक चेला फौरन बोला।
"आइए भगवन, आपके आराम का पूरा इंतजाम कर दिया गया है।"
बाबा कलिंगा दास उठे।
वहां मौजूद सब व्यक्ति बाबा के पांव छूने लगे। बाबा ने हाथ उठाकर सबको आशीर्वाद दिया और अपने चेलों के साथ उस मकान की तरफ बढ़ गया।
तभी वो युवती अपनी मधुर खनकती आवाज में बोली।
"बाबा! मैं बहुत दूर से, बहुत आशा लेकर आपके पास आई...।"
बाबा के साथ चलता चेला, तुरंत उस औरत के पास पहुंचा।
"ये वक्त बाबा के आराम करने का...।"
"मैं मानती हूं। लेकिन मेरा वक्त पर वापस पहुंचना भी जरूरी है। मेरे पति जब घर पहुंचे तो मुझे घर पर मौजूद होना चाहिए। वरना भारी अनर्थ हो जाएगा। मेरी मजबूरी समझिए। बहुत दुःखी हूं मैं। बाबा का यश सुनकर ही इस पवित्र जगह पर बाबा के चरणों में आई हूं।" युवती अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठी--- "कुछ देर के लिए मुझे बाबा से मिलवा दीजिए। बहुत मेहरबानी होगी। मेरी मजबूरी है कि मैं रुक नहीं सकती। बहुत आशा के साथ आई हूं मैं। वरना मुझे खाली हाथ ही वापस जाना पड़ेगा।"
चेले के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
"प्लीज।"
"मैं आपकी मजबूरी समझ रहा हूं।" चेले ने अपनेपन वाले, किन्तु मजबूर स्वर में कहा--- "ये बाबा के आराम करने का वक्त है। ऐसे वक्त में वो किसी से नहीं...।"
"आप एक बार कहिए तो बाबा से। मेरी मजबूरी बताइए। शायद वो मेरी बात सुनने को तैयार हो जाएं।"
चेले ने चेहरे पर विवशता के भाव समेट लिए। फिर धीमे स्वर बोला।
"कोशिश करके देख लेता हूं। परन्तु मुझे आशा नहीं कि बात बन जाएगी।" कहने के साथ ही चेला पलटा और मकान की तरफ बढ़ गया।
वो औरत पेड़ की छाया में खड़ी हो गई।
"बाबा, पार्टी तो पैसे वाली लगती है।" चेले ने मकान के भीतर बाबा से कहा।
"और खूबसूरत भी बहुत है।" बाबा के होंठों पर मुस्कान उभरी।
चेला भी मुस्कराया।
"दस मिनट के बाद भीतर भेज देना।" बाबा ने कहा--- "और जब तक मैं घंटी न मारूं, कोई भीतर न आए।"
"समझ गया।" चेले ने सिर हिलाया और बाहर निकल गया।
बाहर आकर चेला पेड़ की छांव में खड़ी युवती के पास पहुंचा।
"बाबा जी मिलने को तैयार हुए ?" युवती ने व्याकुलता से पूछा ।
"असम्भव बात थी। परंतु कठिनता से बाबाजी को तैयार कर पाया हूं। वरना विश्राम के समय विघ्न पसंद नहीं करते बाबा। तुम दस मिनट के लिए बाबा से मिल सकती हो, आओ।"
"शुक्रिया, मैं आपका अहसान कभी नहीं भूलूंगी।" युवती के होंठों से निकला।
"आओ, वक्त बरबाद मत करो।"
चेला, युवती को लेकर मकान के दरवाजे की चौखट तक पहुंचा।
"आप भीतर जा सकती हैं। बाबा के विश्राम के वक्त, बिन बुलाए हमें भीतर जाने की इजाजत नहीं है।" कहते हुए चेले ने हाथ से दरवाजे की तरफ इशारा किया।
युवती सिर हिलाकर बिना रुके भीतर प्रवेश करती चली गई।
पहले कमरे में ही आसन लगाए तख्त पर बाबा कलिंगा दास मौजूद थे। चेहरा तेज से चमक रहा था और होंठों पर छाई मुस्कान जैसे स्थाई लग रही थी, आंखें बंद थीं।
"आओ।" बाबा के होंठ हिले--- "नंगे पांव हमारे सामने बैठ जाओ।"
युवती ने जल्दी से अपने पांवों से बैली निकाली और आगे बढ़कर बैठ गई।
"बाबा।" युवती बोली--- "मैं बहुत मुसीबत में..."
"हमें कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं।" आसन की मुद्रा में बैठे बाबा की आंखें बंद और होंठ हिल रहे थे--- "समाधि द्वारा तुम्हारी परेशानियों से हम पूरी तरह वाकिफ हो चुके हैं। परंतु तुम्हारे नाम के बारे में जाने क्यों नहीं जान सके।"
"म-मेरा नाम नीलिमा है।" वो जल्दी से बोली--- ब्याह से पहले मेरा नाम मोना था।"
"तभी, तभी हम भटक गए थे पहले और बाद के नाम के बीच।" बाबा के होंठ हिले--- "तुम्हारे दुःख को देखकर हम समझ नहीं पा रहे कि क्या करें। पति की वजह से परेशान हो तुम।"
"हां बाबा।" युवती जल्दी से कह उठी--- "साल भर ही हुआ है हमारी शादी को।"
"मत बताओ। हम सब कुछ जानते हैं नीलिमा।" बाबा ने उसी लहजे में कहा--- "लेकिन इसमें तुम्हारे पति की भी कोई गलती नहीं है। हम तो हैरान हैं कि तुम दोनों की शादी कैसे हो गई। पिछले जन्म में तुम सास थी और तुम्हारा पति बहू बना था। तुम दोनों स्त्री योनि में थे। हम सब देख रहे हैं तुम दोनों के पिछले जन्म में। तुम दोनों में झगड़ा रहता था और इस जन्म में होनी ने फिर तुम दोनों को पति-पत्नी के रूप में सामने कर दिया। झगड़ा तो होना ही था। परंतु... "
बाबा के खामोश होते ही युवती बेचैनी से कह उठी।
"परंतु क्या बाबा ?"
"मैं तुम्हारे भविष्य में झांक रहा हूं। बहुत बड़ा अनर्थ होने वाला है। कोई औरत है, जो तुम्हारी सुख-शांति नहीं चाहती। उसने ब्याह में तुम्हें सोने की कोई वस्तु भेंट के रूप में दी, परंतु उस पर जादू-टोना कर दिया कि तुम्हारी सुख-शांति छिन जाए और पति से तुम्हारी न बने। सोने की उस भेंट ने, तुम्हारे पास मौजूद सोने के सारे गहनों को अशुद्ध कर दिया। तुम जो भी सोने का आभूषण पहनोगी, वो अपवित्र होकर, तुम्हें नुकसान देता रहेगा। इसलिए अगर तुम्हारे गहनों पर से जादू-टोने की छाया न हटाई गई, तो तुम किसी भी अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हो सकती हो।"
"नहीं, बाबा नहीं, ऐसा मत कहिए, वो...।"
“ये मैं नहीं कह रहा। तुम्हारा भविष्य देख रहा हूं मैं, जो चलचित्र की तरह, मेरी बंद आंखों के पीछे घूम रहा है। इसे टाल पाना बहुत कठिन है।"
युवती के चेहरे पर घबराहट नजर आने लगी।
"मैं तो अब आपकी शरण में आई हूं।" युवती ने हाथ जोड़े--- "मेरी सारी परेशानियां ठीक कर दीजिए आप जो कहेंगे, मैं उतना ही पैसा.... "
"पैसा हमारे लिए मिट्टी है। हम तो सिर्फ इस आश्रम का खर्चा चलाने के लिए यजमानों से पैसे ग्रहण करते हैं कि हमारे साथ रहने वालों की जरूरत पूरी होती रहे।" बाबा की आंखें बंद ही थीं--- "इस वक्त कितना पैसा है तुम्हारे पास ?"
"तीस हजार।"
"उस तीस हजार को बाहर रखे दान पात्र में डाल आओ। उसके बाद हम तुम्हें उपाय बताते हैं कि कैसे तुम्हें सब परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है। ये तो अच्छा हुआ कि तुम हमारे पास आ गई। क्योंकि जो जादू-टोना सोने की उस भेंट पर किया है, जिसने तुम्हारे पास मौजूद सारे सोने को अशुद्ध करके तुम्हारी परेशानियां बढ़ा दीं, उसे बस में करना, हर कोई नहीं जानता।"
"बाबा, ये काम मेरी बुआ ने किया होगा, वो..."
"ये हम नहीं बताएंगे कि ये काम किसने किया है। हमारी तपस्या के खिलाफ है, किसी का नाम लेना, लेकिन हम तुम्हें ठीक कर देंगे। पहले दान पात्र...।"
"जी...।" युवती जल्दी से उठी और पर्स संभाले दरवाजे से बाहर निकल गई।
बाबा ने फौरन एक आंख खोलकर युवती को जाते देखा। बाहर मौजूद दानपात्र में नोटो की गड्डियां डालते देखा तो तुरंत पहले की तरह अपनी आंखें बंद कर लीं।
भीतर आकर युवती बैठते हुए बोली।
"उपाय बताइए बाबा ।"
"तुम अपने सारे सोने के गहने, जो कि अशुद्ध हो चुके हैं, उन्हें लेकर हमारे पास आओगी, ताकि हम उसे शुद्ध करके, तुम्हें जादू टोने से मुक्त कर सकें।"
"जी बाबा, मैं कल ही सारे गहने ले आऊंगी।"
"लेकिन तुम पर जो काली छाया है पूर्वजन्म की, उसे भी हटाना होगा।"
"वो कैसे हटेगी बाबा ?"
"ब्याह के पश्चात तुमने किसी पराए मर्द के साथ प्यार किया है ?"
"ये कैसी बातें कर रहे हैं बाबा। मैंने तो ब्याह के पहले भी ऐसा कुछ नहीं किया।"
"हम ब्याह के बाद की बात कर रहे हैं। पहले जन्म की काली छाया से तुम्हें मुक्ति पानी होगी। वरना जादू-टोने से मुक्ति पाने के बाद भी तुम्हारी और तुम्हारे पति के आपसी झगड़े बढ़ते रहेंगे चैन गुम हो जाएगा।"
"पिछले जन्म को छाया से कैसे मुक्ति मिलेगी बाबा ?"
"तुम्हें पराए मर्द को अपना शरीर सौंपना होगा।"
"ये कैसे हो सकता है बाबा।" युवती के होंठों से निकला।।
"ये अवश्य होकर रहेगा। वरना तुम्हारा भविष्य नर्क बनकर, तुम्हारी जान ले लेगा। पिछले जन्म की काली छाया से मुक्ति पाने का एक मात्र यहाँ एक रास्ता है। अब ये तुम्हारी इच्छा है कि तुम क्या चाहती हो।"
"मैं तो मुक्ति पाना चाहती हूँ। घर में सब कुछ ठीक और शान्ति देखना चाहती हूं।"
"तो फिर तुम्हें वही करना होगा, जो मैंने कहा है।"
"लेकिन बाबा, पराये मर्द के साथ कुछ किया और मेरे पति को मालूम हो गया तो...।"
"नहीं मालूम होगा। अगर यही समस्या है तो इसका समाधान भी हम ही करेंगे।"
"वो कैसे बाबा ?"
"उठो।" बाबा की आंखें बंद थीं।
युवती उठी।
"दरवाजा भीतर से बंद कर दो।"
युवती ने आगे बढ़कर दरवाजा भीतर से बंद किया।
"अब एक-एक करके अपने वस्त्र, काली छाया वाले शरीर से अलग करो। हम तुम्हें अभी काली छाया से मुक्ति दिलाकर भेजेंगे। इस काम के लिए तुम्हें किसी पराए मर्द की तलाश नहीं करनी पड़ेगी कि भविष्य में वो कभी तुम्हारी बदनामी का सबब बने। तुम हमारी शरण में दुखी होकर आई हो और हमारा फर्ज है कि हम तुम्हें यहां से सुखी करके भेजें।"
युवती हिचकिचाई।
"हमारे पास वक्त कम है। जो हम कह रहे हैं वो करो। तुम्हारा जीवन खुशियों से भर जाएगा। पिछले जन्म की छाया फिर कभी तुम्हारे जीवन में प्रवेश नहीं करेगी। वस्त्र उतारो।"
युवती ने पर्स एक तरफ रखा और एक-एक करके अपने कपड़े उतारने शुरू कर दिए। दो-तीन मिनट में ही वो बिना कपड़ों के पैदायशी ढंग में खड़ी थी।
"बाबा।" इस बार युवती का स्वर बेहद धीमा था--- "कपड़े उतार लिए।"
"चिंता मत कर समझ ले, काली छाया दूर हो गई। वो सामने तख्त बिछा है। उस पर पीठ के बल लेट जा और आंखें बंद कर ले। याद रख, जब तक मैं न कहूं, तूने आंखें नहीं खोलनी हैं और जो भी होगा, उसके लिए तुम्हें दिल से साथ देना है। लेकिन आंखें नहीं खोलनी । जब काली छाया चली जाएगी तो मैं खुद बोलूंगा तेरे को आंखें खोलने के लिए।"
"ठीक है बाबा।" युवती का स्वर धीमा था और आगे बढ़कर, तख्त पर जा लेटी। आंखें बंद कर ली। आधा मिनट बीत गया।
बाबा ने आंखें खोलीं।
आंखों में तीव्र चमक लहरा रही थी। वो आगे बढ़ा और तख्त के पास पहुंचकर युवती के खूबसूरत जवान शरीर को निहारने लगा। फिर देखते-ही-देखते शरीर पर लपेट रखी धोती उतारी और निर्वस्त्र होकर तख्त पर चढ़ गया। काली छाया उतारने के लिए।
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बाबा ने दो घंटे लगाकर, युवती के पिछले जन्म की काली छाया को दूर किया। इस दौरान युवती की आंखें बंद ही रहीं और वो उसके जिस्म से तबीयत के साथ खेलता रहा। शायद युवती को भी पहली बार किसी मर्द से ऐसा सुख मिला था। इसी कारण आंखें बंद किए ही उसने जरूरत से ज्यादा सहयोग दिया। जब इस काम से फारिग हुए। बाबा के कहने पर युवती ने आंखें खोली तो प्रसन्न लग रही थी वो। आंखों में तृप्ति से भरा नशा था। मर्द का सुख क्या होता है, पहली बार मालूम हुआ था उसे ।
बाबा समझ गया कि चिड़िया अब उड़ने वाली नहीं।
नहा-धोकर युवती ने कपड़े पहने। पर्स में से सामान निकालकर मेकअप किया। तो पहले की ही तरह सामान्य नजर आने लगी। परंतु अब वो खुश थी। उसकी आंखें और चेहरा इस बात की गवाही दे रही थी। चेहरे पर पहले जो तनाव था, वो अब कहीं नहीं था।
"मैं जाऊं बाबा।" युवती के स्वर में भरपूर मिठास थी।
"हां, जाओ।" बाबा ने आशीर्वाद देने वाले अंदाज में हाथ उठाकर कहा--- "अब काली छाया कभी भी तुम्हारे करीब नहीं आएगी। कल आना, सारे गहने लेकर, जादू-टोने से उन्हें मुक्त कर दूंगा।"
"कल किस वक्त आऊं कि आपके पास, मेरे लिए थोड़ा-सा वक्त हो।" युवती अर्थपूर्ण स्वर में बोली।
बाबा सब समझ रहा था।
"एक बजे से चार बजे तक, हमारे विश्राम का वक्त होता है। इस वक्त हम किसी से नहीं मिलते। तुम एक बजे पहुंच जाना। चार बजे तक हम तुम्हें वक्त दे सकते हैं।"
युवती ने विदा ली और चली गई।
बेल बजाकर, बाबा ने चेले को बुलाया।
"खाना लाऊं बाबा ?"
"ले आओ।"
कुछ ही देर में बाबा खाना खा रहा था।
सेवा के लिए चेला पास ही खड़ा रहा।
"ये जो आई थी।" बाबा खाना खाते-खाते बोला--- "कल अपने सारे गहने लाएगी। अमीर घर की है। दस-बीस लाख से कम के क्या गहने होंगे। उन गहनों को शुद्ध करने के लिए, उसके सामने ही पोटली बनाकर, जमीन में गाड़ना और आधे घंटे बाद पोटली निकालना और तब पोटली में सांप होगा। समझ गए, कौन-सी ट्रिक इस्तेमाल करनी है।"
"समझ गया।" चेले ने तुरंत सिर हिलाया।
"आगे का मामला मैं संभाल लूंगा।" कहते हुए बाबा खाना खाए जा रहा था— ‘‘मालदार आसामी है ये और मैंने काबू में कर लिया है। धीरे-धीरे इसे निचोड़कर, काफी माल इकट्ठा कर सकते हैं ।"
"जी।" चेले ने सिर हिलाया।
तभी दूसरे चेले ने भीतर प्रवेश किया।
"बाबा, चौधरी आया है। कुछ उखड़ा हुआ लग रहा है।"
"उसे बोलो, हम खाना खा रहे हैं। कुछ देर इन्तजार करे।" बाबा ने कहा।
चेला सिर हिलाकर चला गया।
"चौधरी उखड़ा हुआ क्यों है बाबा ?" पास खड़े चेले ने पूछा।
बाबा मुस्कराया।
"चौधरी बे-औलाद है। तुम तो जानते ही हो। छः महीनों से औलाद पाने लिए यहां चक्कर लगा रहा है। मैंने दो-तीन तरह की दवाएं भी दी कि उनका सेवन करने के बाद अपनी पत्नी के पास जाए। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। चौधरी की पत्नी में कोई कमी नहीं। उसे हम देख चुके हैं। कमी चौधरी में ही है। तभी वो बाप नहीं बन पा रहा और इस बीच चौधरी से ढाई लाख रुपया हम झाड़ चुके हैं। अब वो उखड़ेगा ही कि पैसा भी गया और औलाद भी नहीं हुई।"
"तो इसका हल क्या निकलेगा? चौधरी उल्टी खोपड़ी का इंसान है। इसे ज्यादा देर बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता।"
"अंतिम हल यही होगा कि वो अपनी पत्नी को सप्ताह-दस दिन के लिए आश्रम की सेवा के लिए यहां छोड़ेगा और हम उसकी पत्नी को बच्चा ठहराकर ही यहां से भेजेंगे। चौधरी की पत्नी को हमारे पास आने से जरा भी एतराज नहीं होगा। क्योंकि वो चौधरी की हरकतों से ज्यादा दुखी है बनिस्पत कि बच्चा न होने से। वो भी चाहेगी कि जैसे भी हो, परंतु जल्दी से वो मां बने और चौधरी सीधा हो जाए। चौधरी ने मेरे सामने अपनी पत्नी से कहा कि अपना वंश चलाने के लिए वो दूसरी शादी करेगा। परंतु मैंने ऐसा करने से मना कर दिया। ऐसे में उसकी पत्नी हर हाल में जल्द-से-जल्द बच्चा चाहेगी, बेशक वो किसी का भी हो।"
"आप ठीक कहते हैं बाबा।"
"जब हम खाने से फुर्सत पा लें तो चौधरी को भीतर भेज देना। आज का दिन उसे हम धूप में दौड़ाएंगे। उसके बाद कहेंगे कि सप्ताह-दस दिन के लिए अपनी पत्नी को आश्रम की सेवा पर लगाकर घर चला जाए। वो इस बात को अवश्य मानेगा।"
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चौधरी ! कृष्ण कुमार चौधरी !
उम्र बयालीस साल। पत्नी की उम्र पैंतीस साल। कोई बच्चा नहीं, जबकि शहर में उसके दो-तीन काम बढ़िया ढंग से चल रहे थे। हर तरफ से दौलत ही दौलत आ रही थी और उसे चिंता थी कि बाद में इस दौलत का वारिस कौन बनेगा। उसकी मौत के पश्चात कहीं रिश्तेदार ही सारा माल न खा जाएं।
कइयों ने सलाह दी कि वो बच्चा गोद ले ले।
परंतु कृष्ण कुमार चौधरी अपना बच्चा चाहता था।
सालों तक पचासों जगह धक्के खाने के बाद कृष्ण कुमार चौधरी सिद्ध तांत्रिक बाबा कलिंगादास की शरण में पहुंचा तो बाबा ने उसे पूर्ण विश्वास दिलाया कि वो उसे बहुत जल्दी बाप बनवा देगा। बाबा ने ऐसे लटके-झटके दिखाए कि बाबा में उसे भगवान दिखाई देने लगा।
परंतु छः महीने बाद भी उसे बाप बनने की आशा की किरण दिखाई नहीं दी, जबकि बाबा के कहने के मुताबिक वो दान पात्र में गड्डियां भी डालता रहा।
आज सुबह से ही चौधरी का मन उखड़ा हुआ था कि वो बाप नहीं बन पा रहा। उसकी पत्नी बच्चे को जन्म नहीं दे पा रही। मन में ये तय करके कि शीघ्र ही वो दूसरी शादी कर लेगा। आखिरी बार बात करने बाबा के पास आ पहुंचा था।
बाबा ने जब खाना खा लिया तो चौधरी को बाबा के पास पहुंचाया गया। बाबा को सामने देखते ही चौधरी का आधा गुस्सा ठंडा पड़ गया। उसने आगे बढ़कर पांव छुए।
"बैठो-बैठो। हम तुम्हारे बारे में ही विचार कर रहे थे और आज ही शिष्य को भेजकर, तुम्हें बुलाने भी जा रहे थे।" बाबा ने हमेशा की तरह मीठे स्वर में कहा।
"कोई खास बात है बाबा ?" चौधरी ने बैठते हुए पूछा।
“बहुत ही खास बात है यजमान। रात हमें सपने में देवी ने दर्शन दिए। क्योंकि तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हो, इसके लिए हम हर रात दो घंटे देवी की अर्चना-पूजा करते हैं।
"ओह! मुझे नहीं मालूम था।" चौधरी के होंठों से निकला।
"तुम्हें मालूम भी कैसे होता, हमारी तो दुनिया ही दूसरी है। यजमानों की खुशी के लिए हम जाने क्या-क्या कष्ट उठाते हैं, परंतु यजमानों को इसका ज्ञान नहीं होने देते। क्योंकि लोगों का भला तो हम अपनी शांति के लिए करते हैं, फिर ढिंढोरा क्यों पीटें।"
कृष्ण कुमार चौधरी सिर हिलाकर रह गया।
"फिर क्या हुआ बाबा ?”
"देवी ने तुम्हें पुत्र रत्न देने से पहले लौह यंत्र की बलि मांगी है।" बाबा ने कहा।
"लौह यंत्र ?" चौधरी के होंठों से निकला।
"हां लौह यंत्र की बलि के पश्चात तुम्हारी पत्नी को कुछ दिन के लिए यहां आश्रम की सेवा में रहना होगा। उसके पश्चात तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हो जाएगी यजमान।"
"आश्रम की सेवा तो ठीक है परंतु लौह यंत्र की बलि मैं नहीं समझा।"
"चलित लौह यंत्र, हम वाहन की बात कर रहे हैं।"
"वाहन-कार-। कार तो मैं नई खरीदकर....।"
"नहीं यजमान। ये लौह यंत्र की बलि, खरीदकर नहीं देनी, कहीं से लौह यंत्र ले आना है। बस।"
"मैं समझ गया, मैं कोई कार चोरी करके...।"
"जल्दी मत करो। पहले हमारी बात ध्यान से सुनो। जैसा देवी ने कहा है, तुम्हें वैसा ही करना होगा, वरना पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हो सकेगी।"
"मैं वैसा ही करूंगा बाबा।" चौधरी ने जल्दी से कहा।
बाबा ने सिर हिलाया फिर कह उठा।
"तुम यहां से निकलकर, पैदल ही पूर्व दिशा की तरफ प्रस्थान करोगे। जिस वाहन पर आए हो, उसे यहीं रहने दोगे। बाद में ले जाना। पूर्व दिशा की तरफ बढ़ते हुए, जो भी पहला लौह यंत्र तुम्हें नजर आए, उसे ले आना। देवी सिर्फ उसी लौह चलित यंत्र की बलि स्वीकार करेगी। लेकिन इसमें खतरा भी है कि देवी की इच्छा तुम पूर्ण न कर सको।"
"कैसा खतरा ?"
"तुम तो पैदल ही जा रहे होगे यजमान।" बाबा ने कहा--- "अगर सबसे पहले नजर आने वाला चलित लौह यंत्र तीव्र रफ्तार से भाग रहा होगा तो तुम उसे नहीं पा सकोगे। देवी की इच्छा नहीं पूरी हो सकेगी और तब तुम शायद पुत्र रत्न की प्राप्ति से वंचित रह जाओ।"
चौधरी के चेहरे पर व्याकुलता उभरी।
"बाबा ये तो परेशानी वाली बात हो गई।"
"हां, ये एक जटिल समस्या अवश्य है। परन्तु ऐसा होने पर इसका कोई समाधान भी अवश्य होगा। पहले तुम चलित यंत्र वाहन, लौह वाला पाने की चेष्टा करो, जो तुम्हें पूर्व दिशा की तरफ बढ़ते हुए, सबसे पहले देखने को मिले। असफल हो गए तो फिर मैं कोई कोशिश करूंगा।"
"ठीक है बाबा, मैं अभी पूर्व दिशा की तरफ...।"
"ठहरो, पहले शुद्धता का प्रसाद ले लो।" कहने के साथ ही बाबा ने आंखें बंद की कुछ देर होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाने के पश्चात पास ही रखे कमण्डल में से पानी के छींटे, चौधरी पर मारने के बाद कहा--- “अब तुम अपनी क्रिया के लिए पूर्व दिशा की तरफ बढ़ जाओ।"
चौधरी उठा और बाबा के पांव छूकर बाहर निकल गया।
बाबा ने गहरी सांस ली और आसन से उठकर, आराम करने के लिए तख्त पर जा लेटा। तभी चेले ने भीतर प्रवेश किया और बोला।
"बाबा, बाहर पांच लोग आपके इंतजार में हैं।"
"घंटा भर आराम कर लेने दो। उसके बाद उनसे बात करूंगा।"
"ठीक है।"
"सुनो, रात के लिए पीने-पाने का इंतजाम है। कल तो बोतल खत्म हो गई थी।" बाबा बोला।
"बोतल तो शायद एक भी नहीं है।" चेला बोला--- "मैं शहर जाकर ले आता हूं।"
"ले आओ। कौन-सा ब्रांड लाओगे ?"
"वही जो आप मंगवाते हैं।"
"देख लेना, कोई उससे भी बढ़िया व्हिस्की हो तो वो ले आना। साथ में स्ट्रांग बियर भी ले आना। व्हिस्की और बियर को मिलाकर पीने का मजा ही कुछ और है।"
"ठीक है बाबा। दो स्ट्रांग बियर भी ले आऊंगा।"
"फ्रिज में बर्फ है रात के लिए।"
"बहुत है बाबा।"
"जाओ। एक घंटे तक मुझे डिस्टर्ब मत करना।" बाबा ने कहा और आंखें बंद कर लीं।
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कृष्ण कुमार चौधरी को धूप-गर्मी में आगे बढ़ते हुए डेढ़ घंटा हो गया था। पूर्व दिशा की तरफ बढ़े जा रहा था। आधा घंटा तो औलाद की खातिर जोश के साथ आगे बढ़ता रहा। परन्तु उसके बाद थकान उस पर हावी होने लगी। लेकिन बाबा की बात पूरी करनी भी जरूरी थी, जो देवी ने उन्हें सपने में आकर कही थी। औलाद, चौधरी की पहली जरूरत थी।
चलता रहा चौधरी ।
पूर्व दिशा की तरफ अधिकतर जंगल जैसा अथवा वीरान इलाका था। काफी लम्बा रास्ता तय करने के बाद सड़क आती थी। वहां ही कोई वाहन देखने को मिलेगा। चलते हुए चौधरी की सोचों में सिर्फ यही बात थी कि किसी तरह सबसे पहला नजर आने वाला वाहन उसे मिल जाए।
फूलचंद सफारी गाड़ी लेकर, शहर के बाहर, वीरान हिस्से में आ पहुंचा था। उसका दिल रह-रहकर जोरों से धड़क उठता। सफारी गाड़ी में करोड़ों की रकम थी। लाश फेंकने की वजह से उसे घर से बाहर आना पड़ा। वरना सारे बोरे घर में रखकर सफारी को किसी सड़क पर यूं ही छोड़कर, घर बैठा नोटों की गड्डियां गिन रहा होता।
सड़क को छोड़कर फूलचंद ने सफारी को कच्चे में उतारा और वीरान-सी खाली जगह को पार करता हुआ सफारी उस तरफ ले गया, जहां सूखे या हरे पेड़ नजर आ रहे थे। कुछ ही देर बाद उसने सफारी पेड़ों के बीच रोकी और बाहर आ गया।
हर तरफ देखा ।
कोई नजर नहीं आया। ऐसी जगह, तपती दोपहरी में हो भी कौन सकता था।
फूलचंद ने सफारी का पीछे वाला दरवाजा खोला, बोरे ही बोरे ठूंसे नजर आए उसे। यह सोचकर रोमांचित-सा हो उठा कि उसके सामने करोड़ों की दौलत है।
फिर हाथ बढ़ाकर उस बोरी को पकड़ा, जिसमें लाश थी। खींचकर उस बोरी को गाड़ी के बाहर गिराया और दरवाजा बंद करके उसे लॉक कर दिया।
जान छूटी।
फूलचंद मन ही मन बुदबुदाया।
गहरी सांस लेकर उसने सिगरेट सुलगाई फिर ड्राइविंग सीट की तरफ बढ़ा।
परंतु दूसरे ही पल वो ठिठका। दिल जोरों से धड़का।
गाड़ी के बोनट के पास कृष्ण कुमार चौधरी खड़ा उसे घूर रहा था।
"क-कौन हो तुम ?" खुद पर काबू पाते हुए फूलचंद के होंठों से निकला।
चौधरी मुस्कराया।
फूलचंद के माथे पर बल पड़े कि ये मुस्कराया क्यों है ?
"तुमने मेरी सारी कठिनाई हल कर दी।" चौधरी बोला--- "मेहरबानी हो तुम्हारी। भगवान तुम्हें हमेशा खुश रखे। तुम्हारी हर जरूरत पूरी हो।"
"म-मैं समझा नहीं।" फूलचंद के चेहरे पर उलझन नजर आने लगी।
"मैं गाड़ी की तलाश कर रहा था।" कहने के साथ ही चौधरी ने सफारी का बोनट थपथपाया--- "मिल ही गई आखिर ।"
फूलचंद का दिल धाड़-धाड़ बजने लगा।
ये इस गाड़ी की तलाश कर रहा है? क्या इसकी है सफारी। क्या मालूम है इसे कि गाड़ी के बीच में करोड़ों की दौलत पड़ी है ? लेकिन ये यहां कैसे आया ? क्या मेरा पीछा कर रहा था।
"देखता क्या है मुझे।" चौधरी दादाई अंदाज में बोला--- "चाबी दे गाड़ी की।"
"नहीं।" बरबस ही फूलचंद के होंठों से निकला।
कृष्ण कुमार चौधरी मुस्कराया।
"वो तो मैं जानता हूं। तू क्या, तेरे बदले कोई और भी होता तो आसानी से चाबी नहीं देगा। लेकिन ये गाड़ी मुझे हर हाल में चाहिए बेटे और लेकर भी रहूंगा।"
करोड़ों की दौलत हाथ से जाने की सोचकर, फूलचंद के दांत भिंचने लगे। चेहरे पर कठोरता दिखने लगी। सिर से पांव तक वो गुस्से में भरता चला गया।
"चला जा यहां से।" फूलचंद दांत किटकिटा उठा---"वरना...।"
कृष्ण कुमार चौधरी हंसा।
"बेटे खिसक जा।" चौधरी के चेहरे पर हंसी के साथ खतरनाक भाव भी आ ठहरे– “वरना मुर्गे की तरह गर्दन मरोड़ दूंगा। चौधरी कहते हैं मुझे। कृष्ण कुमार चौधरी। एक हाथ भी पड़ गया तो तेरी अपनी ही गाड़ी बन जाएगी। अपने बाप को पहचानता नहीं क्या ?"
"तेरी तो...।" खतरनाक गुर्राहट के साथ ही फूलचंद ने कपड़ों में छिपा चाकू निकालकर खोल लिया, लम्बा फल था चाकू का । धार बहुत पैनी थी। धूप में उसका फल चमका भी--- "मुझे गिनती भी याद नहीं कि आज तक कितने खून कर चुका हूं।" चौधरी को डराने के लिए फूलचंद बोला--- "भाग जा यहां से, वरना, आज तू भी नहीं बचेगा।"
चाकू देखकर चौधरी की आंखें सिकुड़ गईं।
"मुझे डराता है।" चौधरी ने दांत पीसकर कहा।
"मैं सच कह रहा हूं।" फूलचंद गुर्राया ।
"आज मुझे एक बात याद आ गई।" चौधरी दोनों हाथ कमर पर रखकर, फूलचंद को घूरता कह उठा--- "पंद्रह साल का था तब मैं । एक सड़क छाप ज्योतिषी मिला और जबरदस्ती मुझे अपने पास बिठाकर, मेरा हाथ देखने लगा और उसने बताया कि मेरे हाथ में एक खून लिखा है। मेरे हाथ से कभी एक खून जरूर होगा! मैंने उससे जान छुड़ाने की खातिर जेब में पड़े बीस रुपये उसके हवाले किए और चलता बना। लेकिन आज मुझे लगता है, सड़क छाप ज्योतिषी ठीक ही बोला था क्योंकि इस गाड़ी की मुझे जरूरत है। इसे तो मैं लेकर ही जाऊंगा और तूने मुझे मारने के लिए चाकू निकाल लिया। अभी भी वक्त है। चाकू जेब में रख ले और बंदा बन जा। इस गाड़ी की जो भी कीमत लगाता है, तेरे को मिल जाएगी। पता दे देता हूँ, कल आकर नोट गिन लेना।
"साले भाग जा यहां से। नहीं तो मरेगा।" फूलचंद ने चाकू काला हाथ हिलाते हुए खतरनाक स्वर में कहा--- "सड़क छाप ज्योतिषी ने ये नहीं कहा कि तू बेमौत मरेगा। भाग जा।"
कृष्णकुमार चौधरी के चेहरे पर वहशी भाव नजर आने लगे। दोनों हाथ कमर पर रखे मरने-मारने वाले अंदाज में एक कदम आगे बढ़ाया।
"मार मुझे, चला चाकू, चल-आ-आ, मार-मार।"
फूलचंद ने दांत किटकिटाए। वो किसी भी कीमत पर करोड़ों की दौलत हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। उसने आज तक किसी की जान नहीं ली थी। परंतु अब के हालात देखकर उसे लग रहा था कि सामने खड़े इंसान की जान उसे लेनी ही पड़ेगी। वरना करोड़ों हाथ से निकल जाएंगे।
फूलचंद चाकू के साथ कृष्ण कुमार चौधरी पर झपटा।
चौधरी भी जीने-मरने का फैसला कर चुका था। वो अपनी जगह पर ही खड़ा रहा। चेहरे पर मौत के भाव उभरे पड़े थे। उसके मस्तिष्क में सिर्फ ये बात थी कि अगर ये गाड़ी उसे न मिली तो वो हमेशा के लिए बे-औलाद रह जाएगा। उसके रिश्तेदार उसकी मौत के बाद, सारी दौलत आपस में बांट लेंगे। ऐसा न हो, इसके लिए औलाद चाहिए थी और औलाद के लिए इस वक्त गाड़ी।
चौधरी ने तेजी के साथ, अपनी तरफ आते चाकू वाले हाथ को पकड़ा और तुरंत ही जोरदार ठोकर, फूलचंद की टांगों के बीच दे मारी।
फूलचंद गला फाड़कर चीख उठा। चाकू उसके हाथ से छूट गया। दोनों हाथों को टांगों के बीच रख लिया और पीड़ा से तड़पता नीचे बैठता चला गया। चौधरी के चेहरे पर मौत नाच रही थी। उसने ये न सोचा कि दो ठोकरें मारकर आसानी से सफारी को ले जा सकता है। वो आगे बढ़ा और नीचे पड़ा चाकू उठाकर, पागलों की तरह फूलचंद पर झपटा।
"न हीं...।" अपनी मौत को सिर पर देखकर फूलचंद चीख पड़ा।
पागल हुए कृष्ण कुमार चौधरी को उसकी चीख सुनाई नहीं दी और दूसरा कोई वहाँ था नहीं, उसकी चीख सुनने के लिए।
पहला वार फूलचंद की पीठ पर हुआ।
फूलचंद तड़पकर नीचे गिरा तो चौधरी ने दूसरे वार में उसका पेट फाड़ दिया। सड़क छाप ज्योतिषी ने ठीक कहा था कि कभी उसके हाथों खून होगा। वो आज हो गया था। गहरी-गहरी सांसे लेते हुए चौधरी ने चाकू फेंका। हाथ में लग आए खून को, फूलचंद की कमीज से अच्छी तरह साफ किया। उसके बाद उसने फूलचंद की पैंट की जेब से चाबी निकाली, जो कि उसके मांगने पर फूलचंद ने जेब में डाल ली थी। अभी तक दांत भिंचे हुए थे चौधरी के। वो जानता था आसपास कोई नहीं है। किसी ने उसे खून करते नहीं देखा। कोई गवाह नहीं। पुलिस उसे नहीं पकड़ सकेगी।
कृष्ण कुमार चौधरी सफारी की ड्राइविंग सीट पर बैठा। चाबी लगाकर उसे स्टार्ट किया और दूसरे ही पल सफारी को बाबा कलिंगा दास के ठिकाने की तरफ बढ़ा दिया।
फूलचंद वहां मंगल की लाश फेंकने आया था। मंगल की लाश की बोरी, वहां पड़ी थी। परंतु साथ में अब उसकी लाश भी पड़ी थी।
नब्बे करोड़ की दौलत के दौड़ने की रफ्तार जारी थी।
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कृष्ण कुमार चौधरी को टाटा सफारी पर आया देखकर, बाबा के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। उसे यकीन नहीं था कि चौधरी इतनी जल्दी लौटेगा और वह भी इतनी बढ़िया गाड़ी के साथ। इस समय बाबा पेड़ के नीचे आसन लगाए, दुखी आत्माओं के किस्से सुनने और उनका निवारण करने में व्यस्त था। साथ में उसका खास चेला मौजूद था।
सफारी से निगाहें हटाकर, बाबा ने खास चेले से कहा ।
"हमारे उस यजमान को भीतर कमरे में बिठा दो। फुर्सत पाकर हम आते हैं। "
"जो आज्ञा भगवन।" खास चेले ने सिर हिलाया और कृष्ण कुमार चौधरी की तरफ बढ़ गया, जो सफारी से निकलकर, उस तरफ ही आ रहा था।
बाबा अपने भक्तों की बातें सुनता रहा। उनके कष्टों का निवारण करता रहा। परंतु उसकी निगाह बार-बार सफारी की तरफ उठ रही थी। सामने बैठे लोगों को वो जल्दी-जल्दी निपटाने लगा। आधे घंटे में ही फुर्सत पाकर बाबा कमरे में जाकर चौधरी से मिला।
"यजमान।" भीतर पहुंचकर बाबा तख्त पर बैठते हुए बोला--- "तुमने तो बहुत फुर्ती से काम किया। परंतु ये बात हमारी समझ से बाहर है कि इतनी देर में पूर्व दिशा की तरफ चलकर, तुम पैदल मुख्य सड़क तक नहीं पहुंच सकते हो तो ऐसे में ये वाहन कैसे ले आए ?"
"सब आपकी कृपा है बाबा।" कृष्ण कुमार चौधरी हाथ जोड़कर बोला--- "वीरान जगह में ही ये वाहन और वाहन वाला मिल गया। मैं वाहन ले आया। लेकिन एक पाप मेरे से हो गया।"
"कैसा पाप यजमान। दुनिया में कोई भी कर्म पाप नहीं होता। क्योंकि मनुष्य हर काम अपनी जरूरत के अनुसार करता है। फिर वो पाप कैसा ?"
"बाबा, वाहन वाला मुझे वाहन नहीं दे रहा था। चाकू निकालकर मेरी जान लेने लगा तो मैंने उसी के चाकू से उसकी जान ले ली।" चौधरी धीमे स्वर में कह उठा।
बाबा कलिंगा दास मुस्कराया।
"अपनी जान बचाना पाप नहीं होता यजमान। तुमने तो कर्म किया है औलाद पाने के लिए। उसका तो दुनिया से जाने का वक्त आ गया था, तभी तो उसकी, तुमसे मुलाकात हुई।"
"मेरे लिए अब क्या आज्ञा है बाबा ?" चौधरी ने हाथ जोड़कर कहा।
"हम आज रात, देवी को तुम्हारी भेंट स्वीकार कराने के लिए, हवन करेंगे। इस हवन में कोई भी बाहरी व्यक्ति नहीं होगा। देवी तुम्हारी भेंट से प्रसन्न होगी। अवश्य होगी, क्योंकि वाहन लाने के लिए तुमने सच्चे दिल से मेहनत की है।" बाबा ने मधुर स्वर में कहा--- "कल तुम अपनी पत्नी को कुछ दिन के लिए हमारे यहां सेवा-भाव के लिए छोड़ दो और जब हमारी तरफ से खबर मिले तो आकर अपनी पत्नी को ले जाना। देवी की कृपा से तुम्हें पुत्र रत्न की अवश्य प्राप्ति हो जाएगी।"
"मेहरबानी बाबा की। मैं...।"
"सब देवी की कृपा है। जाओ यजमान सुबह अपनी पत्नी को यहां छोड़ जाना। दिन भर तो उसे यहां के कायदे-कानून समझने में लग जाएगा।
"जैसी आज्ञा बाबा।"
कृष्ण कुमार चौधरी वहां से चला गया।
बाबा ने मुस्कराकर, अपने खास चेले को देखा।
"बाबा। ये टाटा सफारी किसी और के नाम है। जो इसे चला रहा था, चौधरी उसका खून करके इस गाड़ी को यहां लाया है। ऐसे में सफारी को यहां रखना...।"
"देवी लाल।" बाबा मुस्कराकर कह उठा--- "हर बात का हल होता है और फिर ये तो मामूली बात है सफारी गाड़ी तो हमें पहले से ही पसन्द थी। तुम हमारे वो यजमान, जो अथॉरिटी में ऑफिसर हैं। उन्हें खबर भिजवा दो कि आकर वो हमसे मिले। हम उन्हें कह देंगे तो वो कागजों में हेराफेरी करके ये गाड़ी हमारे नाम लगवा देंगे।"
"ओह, ये तो मैंने सोचा ही नहीं था।" देवीलाल के होंठों से निकला।
बाबा कलिंगादास तख्त से उठ खड़ा हुआ।
"आओ। सफारी को पास से देखें।"
बाबा और देवी लाल कमरे से निकले और सामने खड़ी सफारी की तरफ बढ़ गए।
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बाबा कलिंगा दास के चेहरे पर अक्सर जो तेज देखा जाता था, वो गायब हो चुका था। होंठों पर छाई रहने वाली मुस्कान फुर्र हो चुकी थी। उसके व्यवहार में जो शांत भाव हमेशा नजर आते थे, वो व्यवहार अब बेहद अशांत हो चुका था।
देवीलाल जो कि बाबा का खास चेला था। जो कि बाबा के सारे हथकण्डों से पूरी तरह वाकिफ था। जो दूसरों के सामने बाबा को भगवन-भगवन कहता फिरता था। उसका मुंह तो ऐसे बंद हो चुका था, जैसे उसके पास जुबान ही न हो। बंद होंठ। आवाज गायब, फटी आंखें।
दोनों के हाथों में पांच-पांच सौ के नोटों की गड्डियां थीं। जो कि सामने नजर आ रहे थैले के कट में हाथ डालकर निकाली थी और उसके बाद इस बात की तसल्ली की थी कि सारा बोरा ही पांच सौ के नोटों की गड्डियों से भरा पड़ा है। इस पर दोनों की हालत बुरी हुई पड़ी थी कि इतना पैसा ?
"भगवन ?" देवीलाल के होंठों से सूखा-सा स्वर निकला।
अब जैसे भगवन को होश आया।
"देवी लाल। ये-ये तो-अथाह दौलत है।"
“हां भगवन, मैं तो स्वयं हैरान हूं कि ये ढेर सारा पैसा कहां से आया?"
"आया नहीं। बल्कि ये सब हमारे कर्मों का फल है। हम कर्म न करते। तो दौलत यहां न होती। हमारे कर्मों ने चौधरी को माध्यम बनाकर, दौलत हम तक पहुंचाई।" कहने के साथ ही बाबा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और नोटों की गड्डियां बोरे में वापस डाल दी।
देवी लाल हाथ में पकड़ी गड्डियों को आंखें फाड़े देखे जा रहा था।
"ये गड्डियां तू भी भीतर डाल।" बाबा ने कहा।
देवी लाल ने जल्दी से गड्डियां बोरे में डाल दी।
दोनों के चेहरों के रंग-बदरंग हो रहे थे।
बाबा थोड़ा आगे हुआ और अन्य बोरों को दोनों हाथों से पागलों की तरह टटोल-टटोलकर देखने लगा। मिनटों में ही वो समझ गया कि सब बोरों में नोटों की गड्डियां हैं। बाबा पीछे हटा और अपनी आश्रम जैसी जगह पर हर तरफ निगाह मारी।
सब चेले-चपाटियां कुछ दूर अपने-अपने कामों में व्यस्त नजर आ रहे थे। कुछ चेलियां रात का भोजन तैयार करने में व्यस्त थीं।
किसी का भी ध्यान इस तरफ नहीं था।
"देवीलाल ।" बाबा ने घबराए से स्वर में कहा--- "हमारा दिल जोरों से धड़क रहा है।"
"वो क्यों भगवन ?"
“इसलिए कि इन सब बड़े-बड़े थैलों में नोटों की गड्डियां ही मौजूद हैं। हम टटोलकर देख चुके हैं। एक में तो पांच-पांच सौ की गड्डियां हैं, हो सकता है सब में ही पांच-पांच सौ की गड्डियां हों। ये सारी रकम जाने कितने करोड़ों में है। इसलिए हमारा दिल जोरों से धड़क रहा है।"
"अपने पर काबू रखिए भगवन। ये वक्त होश गंवाने का नहीं है।" देवीलाल ने कहा। उसका चेहरा बता रहा था कि उसका दिमाग जल्दी से कुछ और सोच रहा है।
"तुम नहीं समझोगे देवीलाल। लाखों को देखना तो हमारे लिए मामूली बात है। लेकिन करोड़ों की दौलत देखकर हम अपने पर काबू नहीं रख पा रहे। तुम नहीं जानते, एक वो भी वक्त था कि जब कमाई न करने के कारण हमारे बाप और भाई ने जूते मारकर हमें घर से बाहर निकाल दिया था। हमारी पत्नी इसलिए दूसरे मर्द के साथ भाग गई कि उसे दो सौ रुपये की साड़ी लेकर देने के लिए, हमारे पास रुपये नहीं थे। तब मैं लोगों के सामने हाथ फैला फैलाकर दो-दो रोटी मांग कर पेट भरता था। रात को फुटपाथ पर सो जाता तो, पुलिस वाला डंडे मारकर मुझे भगा देता। ये सब था मैं। उसके बाद इत्तफाक से एक पाखण्डी बाबा के यहां सफाई का काम मिल गया। काम करके दो वक्त की रोटी मिल जाती थी मुझे और मैं उस बाबा के पाखंड देखता रहता कि कैसे वो लोगों को ठगता है। ये सब मैंने वहां से सीखा और जब बहुत कुछ सीख-समझ गया तो यहां मैंने जगह घेर कर अपनी जगह बना ली। बाबा कलिंगा दास बन गया। सोचा रोटी-पानी चलती रहेगी। सब ठीक रहा। नोटों की बरसात होने लगी। मैं मशहूर हो गया। लाखों रुपया मेरे पास है। दौलत की प्यास तब भी न बुझी। परंतु अब ये करोड़ों की दौलत देखकर लग रहा है कि दौलत पाने की मेरी कोशिश सफल रही।" बाबा के शब्दों में स्पष्टतया कंपकंपाहट भरी हुई थी।
"फिर तो आपको खुश होना चाहिए बाबा।" देवीलाल फौरन बोला।
"हम खुश हैं । बहुत खुश हैं इतनी दौलत पाकर। तभी तो हमारे होश उड़े हुए हैं।" बाबा ने कहते हुए सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "परंतु भारी बोझ हमारे सिर पर आ गया है कि करोड़ों की दौलत को अब हम कैसे संभाले। इतनी बड़ी दौलत को संभालना बहुत कठिन होता है देवीलाल ।"
"आप ठीक कह रहे हैं बाबा । परंतु फिक्र न करें। मैं हूं ना। सब संभाल लूंगा। सलाह-मशवरा करते हैं। लेकिन सफारी के दरवाजे बंद करके यहां से दूर हट जाते हैं। खामखाह किसी को शक हो जाएगा। तब गड़बड़ हो जाएगी। दौलत के तो सब भूखे होते हैं।"
"तुम ठीक कहते हो। बंद करो दरवाजे। सफारी को हर तरफ से लॉक कर दो। चाबी हमें दे दो। बहुत संभालकर रखेंगे चाबी को अपनी धोती के कोने से बांधकर रखेंगे।"
"अभी लीजिए भगवन।"
देवीलाल ने जल्दी से सफारी का पीछे वाला दरवाजा लॉक करके, आगे के सब दरवाजे अच्छी तरह लॉक किए और चाबी बाबा को थमा दी। बाबा ने चाबी को उसी वक्त अपनी धोती के किनारे से बांध लिया। बाबा के हाव-भाव अभी भी अनियंत्रित थे।
"आओ देवीलाल, भीतर चलकर, इस दौलत के बारे में वार्तालाप करें कि अब क्या करना है।" बाबा ने बेचैन स्वर में कहा--- "ये करोड़ों की दौलत अवश्य है, परंतु इस वक्त हमारे लिए समस्या बन गई है, जब तक कि इसे हम तसल्लीपूर्वक ठिकाने नहीं लगा देते।"
"अवश्य भगवन। इस समस्या का समाधान भी कोई-न-कोई निकलेगा। मैं हूं आपके पास। आपकी समस्याओं का समाधान करने के लिए। निश्चिंत रहिए। मैं अपने भगवन को किसी भी हाल में कष्ट में नहीं रहने दूंगा। परंतु पहले मुझे अपना कर्म कर लेने दीजिए।" देवीलाल का स्वर शांत था।
"कैसा कर्म ?"
"आपके लिए व्हिस्की और बियर लानी है। शाम हो चुकी है और मैं नहीं चाहता कि रात हो जाये और मेरे भगवन को व्हिस्की न मिलने पर कष्ट हो।"
"हूँ, ठीक है। व्हिस्की भी जरूरी है। जल्दी आना। हम बहुत व्याकुल हो रहे हैं, करोड़ों की दौलत देखकर।"
"आपका सेवक, आपकी सारी व्याकुलता दूर कर देगा।"
"इस बारे में किसी से जिक्र मत करना।"
"कैसी बातें करते हैं भगवन। ये बात तो मैं स्वयं ही आपसे कहने वाला था।" देवीलाल के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी--- "आपका सामान लेकर मैं घंटे भर में हाजिर हुआ। आप धोती की गांठ में बंधी चाबी को चैक करते रहिए। कहीं वो गुम न हो जाए।"
बाबा का हाथ फौरन धोती की गांठ पर गया, जहां चाबी बंधी थी।
"मैं घंटे में लौटता हूं।" कहने के साथ ही देवीलाल वहां खड़ी मारुति कार की तरफ बढ़ गया।
■■■
सुब्बो।
उम्र बीस वर्ष । लम्बा कद। छरहरा बदन । कूल्हों तक लम्बे बाल। बालों की हर वक्त वो खूबसूरत-सी चुटिया बनाकर रखती । उसकी खूबसूरती में ऐसी सादगी थी कि जो कम ही देखने को मिलती थी। अगर पैमाने से उसकी खूबसूरती को नापा जाए तो वो सादगी से भरी खूबसूरती, फिल्मों की हिरोइनों को भी पीछे छोड़ दे।
ऐसी थी सुब्बो ।
मां-बाप की इकलौती औलाद ।
बाप प्राइवेट फर्म में नौकरी करता था। थोड़ी-सी कमाई में ही गुजारा होता था। ये उम्र और ऐसी खूबसूरती में भंवरों का आ जाना लाजिमी था। सुब्बो बेवकूफ तो थी नहीं, वो हमेशा बचकर रहती कि किसी के बहकावे में न आ सके।
और महीना भर पहले दूर का रिश्तेदार आया। रिश्ता क्या था, वो तो सुब्बो भी नहीं जानती थी। महीना भर वो घर में रहा और सुब्बो हंसी-मजाक में उसके हत्थे चढ़ गई। तब उसे मालूम हुआ कि चढ़ती जवानी के खेल का मजा ही कुछ और होता है। महीना भर तो उसके पांव जमीन पर ही नहीं पड़े। रात को मां-बाप सो जाते और उसके बाद वो और दूर का रिश्तेदार।
महीने भर बाद वो रिश्तेदार चला गया।
कुछ दिन बीते तो सब्बो को अपने शरीर में बदलाव महसूस हुआ। अगले दो दिन में ही अपनी सहेली की मार्फत वो समझ गई कि पेट में बच्चा ठहर गया है। अब क्या करे ? सुब्बो की हालत दिन-ब-दिन पतली होने लगी।
मां से ये बात छिपी न रही।
मां ने बहुत पूछा कि कहां से मुंह काला कराया है। परंतु वो क्या बताती। दूर का जो रिश्तेदार आया था। उसके बारे में बताना सुब्बो को ठीक नहीं लगा। गुस्से में मां उसे पीटने भी लगती। अब सुब्बो क्या करे। मजा तो ले लिया, अब भुगते कैसे?
उनके घर से चार किलोमीटर की दूरी पर था, बाबा का स्थान। बाबा ने तब अपने स्थान पर भण्डारा करवाया था। बाबा के चेले-चेलियां भंडारे पर, कालोनी वालों को आमंत्रित कर गए थे। कालोनी वालों के साथ सुब्बो और उसकी मां भी बाबा के स्थान पर गई।
वहीं, सुब्बो की देवीलाल से आंख लड़ गई।
सुब्बो तो पहले से ही परेशान थी, पेट में ठहरे बच्चे के कारण कि इसका बाप किस को बनाए ? देवीलाल दिखने में अच्छा था। लम्बा-चौड़ा युवक था। सुब्बो को देवीलाल अच्छा लगा और सोच-समझकर उसी दिन ही एकांत में सुब्बो ने खुद को देवीलाल के हवाले कर दिया और साथ में बीसियों बार कहा कि वो उसकी जिंदगी में आया पहला मर्द है।
सुब्बो को पाकर देवीलाल धन्य हो गया। उसने तो सोचा भी नहीं था कि सुब्बो जैसी खूबसूरत लड़की कभी उसकी जिंदगी में आएगी।
उसके पंद्रह दिन बाद सुब्बो अपनी सहेली के साथ, बाबा के स्थान पर आई और सोची-समझी योजना के अनुसार उससे कहा कि उस दिन प्यार करने की वजह से गर्भ ठहर गया है। वो उसके बच्चे की मां बनने वाली है।
सुनकर देवीलाल और खुश हो गया कि अब तो सुब्बो उसके हाथ से कहीं नहीं जाने वाली। ऐसी खूबसूरत लड़की को पत्नी बनाने में कोई बुराई नहीं है। दोनों ने बातचीत में ये तय कर लिया कि वे शादी कर लेंगे। सुब्बो ने ये भी कहा कि वो घर आकर उसकी मां से मिले। बात करे कि सुब्बो उसके बच्चे की मां बनने वाली है और वो जल्दी ही उससे शादी करेगा।
देवीलाल ने अगले दिन ही सुब्बो के घर पहुंचकर उसकी मां से बात की और खुद को होने वाले बच्चे का बाप ठहराते हुए सुब्बो से शादी करने को कहा तो सुब्बो की मां फौरन मान गई। इसके अलावा उसके पास और रास्ता भी क्या था। सुब्बो के बाप ने भी कोई एतराज नहीं उठाया। कठिनता से घर का खर्चा चल रहा था। सुब्बो के ब्याह के लिए पैसे ही कहां थे। बिना खर्चा किए, बिन कर्जा लिए बेटी घर से विदा हो रही है तो इससे बढ़िया और क्या बात हो सकती है।
देवीलाल का सुब्बो के यहां चक्कर लगता ही रहता था। वे गरीब लोग, पूरी कोशिश करते कि होने वाले दामाद की सेवा में कोई कमी न रह जाए। सुब्बो जो एकांत में उसकी सेवा करती, वो अलग थी।
देवीलाल वहां से सीधा सुब्बो के घर पहुंचा। शाम के इस वक्त देवीलाल को आया देखकर सुब्बो प्रसन्न हो गई कि वो रात घर पर उसके साथ ही बिताएगा। घर में उसके मां बाप भी थे।
उन्होंने देवीलाल का सत्कार करने की कोशिश की तो देवीलाल ने कहा।
"मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है। मैं बाबा के काम से शहर जा रहा हूं।" देवीलाल का स्वर सामान्य था--- "आप सबको ये जानकर खुशी होगी कि मैंने बाबा से विदाई की इजाजत ले ली है कि सुब्बो के साथ अपना घर बसा सकूं। बाबा ने इजाजत के साथ मुझे पैसा भी दिया है।"
"सच।" सुब्बो खुश हो उठी।
"बेटे, ये तो तूने बहुत अच्छी खबर सुनाई। सुब्बो बेटी को भी इस हाल में हम अपने पास ज्यादा देर नहीं रख सकते। दो महीने का पेट हो गया है।" उसकी मां कह उठी।
"आप फिक्र न करें।" देवीलाल मुस्कराकर कह उठा--- "सुब्बो अब आपकी नहीं, मेरी है। मैं आधी रात को किसी भी वक्त आऊंगा और सुब्बो को ले जाऊंगा।"
"आधी रात को ?" सुब्बो के पिता के होंठों से निकला।
"हां, मेरी विदाई का मुहूर्त आधी रात का है। बाबा ने ही मुहूर्त निकाला है।"
"ओह, ठीक है। लेकिन सुब्बो को ले जाने की क्या जरूरत है। दो-चार दिन यहीं ठहरना।" सुब्बो के पिता ने कहा--- "रिश्तेदारों को खबर कर देंगे। मन्दिर में ब्याह करके ही सुब्बो को...।"
"आपकी बात ठीक है। परन्तु मेरे पास इतना वक्त नहीं है। बाबा के निकाले गए मुहूर्त के मुताबिक भोर का उजाला निकलने तक, उत्तर दिशा में ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाना है, सुब्बो के साथ और इस रास्ते को आने वाले दो महीनों तक वापस तय नहीं करना है। अगर ये मुहर्त निकल गया तो बाबा का कहना है कि फिर अगले दो साल तक मुहूर्त नहीं निकलेगा और मैं सुब्बो को लोगों के सामने अपना नहीं सकूंगा। इसलिए रात ही मैं, मुहूर्त के अनुसार सुब्बो को लेकर उत्तर दिशा में निकल जाना चाहता हूँ। आप फिक्र न करें। दो महीने बाद जब लौटंगा तो सुब्बो के साथ मन्दिर में मैं ब्याह कर चुका होऊंगा। इसकी मांग में आप मेरे नाम का सिन्दूर देखेंगे। "
सुब्बो के मां-बाप तो पहले ही चिंता में थे कि सुब्बो के पेट में पल रहे बच्चे का किसी को ब्याह से पहले पता न चले। ऐसे में उन्हें देवीलाल की बात माननी पड़ी।
"ठीक है, जैसा बाबा ने कहा है, वैसा ही करो। रात जब आओगे तो सुब्बो चलने के लिए तैयार मिलेगी।"
सुब्बो के पिता ने बिना किसी हिचक के कहा।
और सुब्बो, उसका चेहरा तो खुशी से चमक रहा था।
■■■
बाबा कलिंगा दास और देवीलाल मकान के भीतर थे।
वक्त रात के नौ बजे का।
अधिकतर चेले-चेलियां रात का खाना-पीना समाप्त करके झोंपड़ियों में नींद लेने के लिए जा चुके थे। कुछ बर्तनों को साफ करने और अन्य कामों को समेटने में लगे थे। बल्बों का प्रकाश यहां-वहां फैला था। बिजली के लिए तारें जाने कहां से खींचकर लाई गई थीं।
बाबा फट्टे पर टांगें लटकाए बैठा था।
सामने छोटे से टेबल पर, स्टील के जग में व्हिस्की और बियर मिलाकर, उसे भर रखा था और देवीलाल गिलास भर-भरकर बाबा को दे रहा था।
बाबा के जोर देने पर ही देवीलाल कुर्सी पर बैठा था। वरना आज से पहले वो हमेशा बाबा के चरणों में ही बैठता था। लेकिन आज की तो बात ही कुछ और थी।
" देवी।" बाबा के स्वर में हल्का-सा नशा सवार था।
"हां भगवन।"
"तू भी गिलास ले ले।"
"मैं?"
"हां, आज तू भी हमारे साथ पी। हम दोनों आज से दोस्त बनते हैं। लोगों की निगाहों में तुम चेले ही रहना।"
"ये कैसे हो सकता है भगवन। मैंने तो हमेशा आपको भगवन ही माना है। आपके सामने तो मैं मदिरा का गिलास उठा ही नहीं सकता। वो तो पहाड़ से भी भारी लगेगा।"
"आज उठा ले।"
"नहीं भगवन । इसके लिए मुझे विवश मत कीजिए। इतना अवश्य कर सकता हूं कि जो बच जाएगी वो बाहर जाकर, कोने में छिपकर पी लूंगा। परंतु उसके बाद आपके सामने नहीं आऊंगा, सुबह तक।"
"बहुत इज्जत करता है तू मेरी, ऐसा चेला तो चिराग लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा।"
"सब, भगवन की छाया का असर है।"
"सो तो है, एक काम कर... ।"
"क्या ?"
"बाहर नजर मारकर आ सफारी खड़ी है।" बाबा ने घूंट भरा।
"सफारी ने भला कहां जाना।"
“देखकर आ बेवकूफ, उसमें करोड़ों रुपया पड़ा है।"
"अभी देखता हूं भगवन।" कहने के साथ ही देवीलाल उठकर बाहर निकल गया।
कुछ ही पलों में वापस आया।
"सफारी अपनी जगह पर स्थिर है भगवन। वो चाबी तो है ना, आपके पास ?"
बाबा का हाथ फौरन धोती की गांठ पर गया, जहां चाबी बंधी थी।
"चाबी तो है।" बाबा ने गिलास खाली किया--- "देवी अब तू मेरी समस्या सुलझा । इतना रुपया, करोड़ों की दौलत लेकर मैं क्या करूं। आखिर इसका इस्तेमाल भी तो होना चाहिए।"
"ठीक कहा आपने, तब से मैं यही सोच रहा हूं।" देवीलाल ने सिर हिलाया और गिलास को पुनः भरकर बाबा के हाथ में थमा दिया―"अपने विचार मैं बाद में प्रकट करूंगा, पहले ये बताइए कि आपने क्या सोचा, कुछ तो सोचा होगा।"
बाबा की आंखें नशे से भारी और सुर्ख होने लगी थीं।
"हां, सोचा है। परंतु फैसला नहीं कर पा रहा हूँ।"
"मुझे बताइए, फैसला करने में मैं आपका सहायक बनूंगा।"
"बहुत सोच-समझकर मैंने ये विचार किया है कि मुझे सांसारिक बन जाना चाहिए।"
"उत्तम विचार है भगवन। अति उत्तम।"
"ये चोला उतार कर, सांसारिक चोला पहनकर, पूर्ण रूप से भोग-विलास करना चाहिए। मेरे कर्मों ने करोड़ों की दौलत इसलिए हमें सौंपी है। अगर मैंने ऐसा नहीं किया तो दौलत के साथ-साथ मेरा भी सर्वनाश हो जाएगा। जो कि बहुत बुरा होगा।"
"आप सांसारिक बन जाइए, सब ठीक रहेगा।"
"हां, बनूंगा, तुमसे बात करके, मेरी सोचों को पहिए मिले हैं। देवीलाल। सबसे पहले एक बड़ा बंगला खरीदूंगा। उसके बाद शादी-देवी-वो जो आज आई थी कार पर। जो कल अपने स्वर्ण-आभूषण लाने वाली है। उसके साथ शादी करना कैसा रहेगा।"
"वो, लेकिन भगवन वो तो अट्ठाईस-तीस बरस की और आप पचास के। ऐसे में...।"
"बेवकूफ, उम्र से क्या फर्क पड़ता है। औरत जितनी कम उम्र हो और मर्द जितना ज्यादा उम्र का हो, वही परिवार ज्यादा सुखी रहता है। वैसे मर्द और घोड़ा कभी बूढ़ा होता है क्या ?"
"ओह भगवन, आपने कितनी उत्तम बात कही, गिलास खाली कीजिए।"
बाबा ने गिलास खाली किया।
देवी लाल ने गिलास पुनः भर दिया।
"मुझे वो औरत पसन्द आई थी। उसके साथ ब्याह करना ठीक रहेगा।"
"लेकिन वो आपसे ब्याह करने को क्यों तैयार होगी ?"
"हमारा कमाल तो तुम जानते ही हो।" बाबा के चेहरे पर नशे से भरी, सुर्ख मुस्कान उभरी--- "जब हमारा जादू उसके सिर पर चढ़ेगा तो वो भला इंकार करने की स्थिति में ही कहां होगी। तुम नहीं जानते, आज उसने हमें बहुत सुख दिया। तन का पूर्ण आनन्द लिया भी और उसने दिया भी। वो पूर्ण औरत है। ऐसी औरत के साथ ही हम सुखी रह सकते हैं।"
"ठीक है भगवन। आपका सोचना बिलकुल सही है।" देवीलाल ने सिर हिलाया।
बाबा ने एक ही सांस में आधा गिलास खाली किया।
"खड़ा हो।"
देवी लाल तुरंत खड़ा हो गया।
"जा, देखकर आ। सफारी गाड़ी अपनी जगह पर ठीक-ठाक है।"
"सफारी ने कहां जाना है।"
"एक नजर मारकर आ उस पर। तभी हमारी तसल्ली होगी।" देवीलाल बाहर निकल गया।
बाबा ने हाथ में पकड़ा गिलास खाली किया और टेबल पर रखते हुए बड़बड़ाया।
"आज साला नशा भी नहीं चढ़ रहा। माल भी असली है। फिर गड़बड़ कहां है।"
देवीलाल भीतर आया।
"सफारी अपनी जगह पर सलामत है भगवन ।"
"उसके दरवाजे वगैरह देखें। कहीं किसी ने खोलकर नोटों से भरे थैले न निकाल लिए।"
"सब चैक कर लिया है।" देवीलाल कुर्सी पर बैठता हुआ बोला।
"अबकी बार जाना तो पहियों की हवा भी चैक कर लेना । कहीं जाना पड़ सकता है।"
"चैक कर लूंगा भगवन ।"
"गिलास भर।"
देवीलाल ने जग उठाया और गिलास में उड़ेल दिया। जग खाली हो चुका था और गिलास आधा ही भरा था।
बाबा गिलास उठाते हुए बोला ।
"माल खत्म हो गया।"
"हां भगवन। एक बोतल व्हिस्की और एक बियर डाली थी।"
"हूं, फिर भी लगता है, जैसे आज कुछ पिया ही नहीं। नशा क्यों नहीं हो रहा ?"
"आज नहीं होगा भगवन।" देवीलाल मुस्कराया।
"क्यों?"
"आज तो करोड़ों की दौलत का नशा मस्तिष्क पर सवार है।" ऐसे में व्हिस्की का नशा।"
"व्हिस्की का भी नशा होगा। तू एक बोतल व्हिस्की और एक बियर और डाल जग में। देखता हूं कैसे नशा नहीं होगा।" जबकि उसकी आवाज में लड़खड़ाहट आने लगी।
"अभी लीजिए भगवन।" देवीलाल जैसे यही सुनने को तैयार था। उसने व्हिस्की की बोतल उठाई और पूरी की पूरी जग में डाल दी। फिर बियर खोलकर वो भी जग में डाल दी--- "बर्फ लेकर आता हूं भगवन।"
"ज्यादा लाना। " बाबा की आवाज में स्पष्ट नशा झलक रहा था।
देवीलाल बाहर गया।
मिनट भर में ही बर्फ की ट्रे ले आया। पूरी ट्रे जग में डाल दी। जग छलका भी। लेकिन इस वक्त इस बात की परवाह किसे थी। जल्दी से जग ठंडा करके, देवीलाल ने गिलास भरा और बाबा को थमा दिया।
इस बार बाबा ने एक ही सांस में सारा गिलास खाली कर दिया। देवीलाल देख रहा था कि बाबा पर ठीक-ठाक नशा सवार होने लगा है। उसने फौरन बाबा के हाथ से गिलास लिया और उसे भरकर पुनः थमा दिया।
नशे की अधिकता की वजह से बाबा ने जब गिलास थामा तो ठीक से थाम नहीं पाया और व्हिस्की कुछ छलक गई। उसके बाद ठीक से गिलास थामा।
"दे-देवी...।" बाबा का स्वर लड़खड़ा रहा था।
"हां भगवन।"
"आज हम खाना नहीं खा पाएंगे। नशा ज्यादा होता लग रहा है ।"
"क्या बात कर रहे हैं भगवन।" देवीलाल कह उठा--- "गिलास आपके हाथ में है। जग भरा हुआ है और आप कह रहे हैं कि नशा हो गया है।"
"तुम्हें नहीं लगता कि नशा मुझ पर चढ़ा है।" आवाज में इतना नशा होने लगा कि बाबा के होंठों से शब्द भी स्पष्ट नहीं निकल रहे थे।
"मुझे तो ऐसा कुछ नहीं महसूस हो रहा भगवन । गिलास खाली कीजिए।"
बाबा ने गिलास होंठों तक पहुंचाया। नशे में हाथ कांप रहा था। किसी तरह होंठों से लगाकर, गिलास खाली किया। खाली होते ही गिलास छूटने लगा कि देवीलाल ने तुरंत गिलास थाम लिया। बाबा का शरीर जोरों से डोल रहा था।
देवीलाल ने गिलास पुनः भर दिया।
"भगवन, गिलास तैयार है।" देवीलाल बोला।
"नहीं।" लड़खड़ा रही थी, बाबा की आवाज--- "आज बहुत तीखी रही व्हिस्की। साले कभी बढ़िया बना देते हैं तो कभी घटिया। तभी तो ज्यादा हो जाती है।"
देवीलाल को महसूस हो चुका था कि व्हिस्की ने बाबा की घंटी बजा दी है। उसकी हालत ये हो रही थी कि अब लुढ़का के अब लुढ़का।
देवीलाल की आंखों में तीव्र चमक उभर आई थी।
"भगवन खाना लगा दूं।"
"खाना ?" बाबा ने आंखें खोलने की चेष्टा की। देवीलाल को देखने की चेष्टा की। परंतु नशे की बेहद अधिकता की वजह से देवीलाल का चेहरा भी स्पष्ट नजर नहीं आया--- "हां, थोड़ा-सा खाना खा ही लेता हूं। सुन-दे-देवी, वो लता, जाग रही हो तो भेजना उसे। वो ठीक रहती है ऐसे मौके पर, सारा नशा उतार देती है।"
"अवश्य भगवन ।” देवीलाल उठता हुआ मुस्करा कर बोला--- "पहले खाना लगाता हूं फिर लता को आपकी सेवा में हाजिर करता हूं।"
बाबा का नशे में डोलता सिर हिला।
"सुन-दे-देवी।"
"हुक्म भगवन।"
"वो वो...।" बाबा ने कहते हुए हाथ उठाने की चेष्टा की, परंतु बेकाबू-सी बांह नीचे तख्त पर वापस आ गिरी--- "वो पैसे, सफारी का-का ध्यान रखना। रा-रात में सोना नहीं।"
"जो आज्ञा, मैं सफारी के पास ही कुर्सी पर रात भर के लिए बैठ जाऊंगा।"
"ठीक-ठीक है।"
"भगवन। मैं खाना लाता हूं, तब तक आप लेटकर आराम कर लीजिए। खाने के बाद लता आकर आपका नशा ठीक कर देगी।" देवीलाल ने मीठे स्वर में कहा।
"ठीक-ठीक बोला, मु-झे लिटा दे देवी।"
देवीलाल फौरन आगे बढ़ा और बाबा को तख्त पर लिटा दिया। उसके बाद खुद जाकर दरवाजे पर खड़ा हो गया। तीखी निगाह, तख्त पर लेटे बाबा पर ही थी।
कठिनता से एक मिनट बीता।
देवीलाल को पूरा यकीन हो गया कि बाबा नशे में लुढ़क चुका है।
वो पास आया। बाबा को हिलाया, पुकारा।
"भगवन, खाना आ रहा है भगवन, भगवन...।"
परंतु बाबा तो व्हिस्की के नशे में लुढ़क चुका था। अब तो ढोल भी बजे, तो भी सुबह तक उसे होश न आए।
लुढ़कने की तसल्ली होते ही देवीलाल के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान नाच उठी। सबसे पहले तो उसने जोरदार दो चाटे बाबा के मुंह पर मारे ।
कोई फर्क नहीं पड़ा। बाबा बेसुध ही रहा।
"हरामजादा।" देवीलाल दांत भींचकर बड़बड़ा उठा--- "भगवन बनता है कुत्ता। इंसान बनने के भी काबिल नहीं है। औरतों की इज्जत से खेलना। भोले-भाले मुसीबत के मारे लोगों को बेवकूफ बनाकर उनसे पैसा ऐंठना। हर बुरा काम करना, पवित्र चोले की आड़ में। मुझे तो हैरानी है कि तेरे जैसे को कोई खत्म क्यों नहीं कर गया। लेकिन ये काम मैं करूंगा। करोड़ों की दौलत देखते ही दिमाग और भी खराब हो गया तेरा। साले दौलत की तुझे ही जरूरत है। मुझे नहीं है क्या। मेरी सुब्बो को नहीं है क्या। सांसारिक बनेगा तू । कहता तो ऐसे है जैसे अब तक स्वर्ग का मैम्बर रहा है।" देवीलाल के चेहरे पर दरिन्दगी नाचने लगी थी--- "तेरे बाप-भाई ने तेरे को जूते मारकर घर से ठीक ही निकाला था। तेरी बीवी दूसरे के साथ भाग गई। ठीक ही भागी थी। कौन रहेगा तेरे साथ। मैं तो कब से तेरे से पीछा छुड़ाने का रास्ता ढूंढ रहा था।"
दांत भींचे देवीलाल पीछे हटा और इधर-उधर नजरें दौड़ाने लगा। फिर दूसरे कमरे में चला गया मिनट भर बाद ही पलटा तो हाथ में रस्सी थी और चेहरे पर पैशाचिक मुस्कान। दोनों हाथों से रस्सी थामे वो तख्त पर बेसुध लेटे बाबा के पास पहुंचा। कई पलों तक बाबा के चेहरे को खा जाने वाली निगाहों से देखता रहा।
"हरामजादे।" देवीलाल बड़बड़ा उठा--- "तेरी जान भी लेना, अपने को गंदा करने के बराबर है। लेकिन मजबूरी है तेरे को जिंदा छोड़कर भी नहीं जा सकता। सुबह होश में आने पर तू अपनी पहचान वाले पुलिस वालों को मेरी तलाश में लगा देगा और मेरा जीना हाराम हो जाएगा। इसलिए तेरा मरना बहुत जरूरी है। मेरे साथ-साथ और भी कईयों का भला होगा, जिन्हें धोखे में रखकर पैसा ऐंठता है। उन्हें बरबाद करता है।" कहने के साथ ही दांत भींचकर देवीलाल ने बाबा के गले में रस्सी लपेटी और दोनों हाथों से फंदे की तरह कसने लगा।
आगे कोई रुकावट बाकी नहीं थी।
बाबा की सांसें टूट गईं।
वो मर गया।
पूरा विश्वास होने के बाद ही देवीलाल पीछे हटा और गहरी-गहरी सांसें लेने लगा।
"जब सांसें संयत हुई तो नफरत भरी निगाह बाबा के चेहरे पर मारी उसके बाद वहां की लाइट बंद करने के बाद बाहर निकला और दरवाजे की बाहर से सिटकनी लगा दी।
बाहर की ठंडी हवा, पसीने से भरे बदन से टकराई तो चैन मिला। सिर उठाकर आकाश की तरफ देखा तो तारे टिमटिमा रहे। थे। चंद्रमा, पूर्ण प्रकाश धरती पर फेंक रहा था। देवीलाल ने जेब से पैकिट निकाला और सिगरेट सुलगाकर कश लिया। उसके हाव-भाव से जरा भी महसूस नहीं हो रहा था कि वो अभी-अभी किसी की हत्या करके हटा है।
वहीं खड़े दो कश लिए होंगे कि एक को अपनी तरफ बढ़ते पाया। बल्ब की रोशनी में उसने स्पष्ट पहचाना तो वो भी वहीं रहने वाला बाबा का चेला है।
वो पास आया।
"भगवन ने अभी तक खाना...।"
"चुप!" देवीलाल धीमे स्वर में बोला और उसकी बांह पकड़कर, पांच-सात कदम दूर ले गया--- "धीरे बोल, भगवन अपनी खास समाधि लगाए बैठे हैं। उन्होंने कहा है कि समाधि टूटने पर बेल बजा देंगे। नहीं तो सुबह मुलाकात होगी। तू जाकर सो, मैं भगवन की सेवा में यहीं हूं, जरूरत पड़ी तो मैं खाना हाजिर कर दूंगा, तू जाकर सो।"
वो सिर हिलाकर चला गया।
हर तरफ शांति थी, परंतु देवीलाल जानता था कि अभी यहां के लोग सोए नहीं हैं। सब को सोते-सोते रात का एक बज जाएगा। अभी यहां से जाना ठीक नहीं होगा। बाबा की मौत के बारे में लोग सुबह ही जाने तो ठीक रहेगा। तब तक वो दूर निकल चुका होगा।
देवीलाल वहां से हटा और सफारी की तरफ बढ़ गया। पास जाकर सफारी को देखा। उसे थपथपाया। करोड़ों की दौलत ने उसके भीतर अजीब-सा जोश भर दिया था। तभी उसे चाबी का ध्यान आया तो वो फौरन सिटकनी हटाकर मकान के भीतर पहुंचा और बिना लाइट जलाए ही तख्त पर पड़े बाबा की धोती की गांठ तलाश की और उसे खोलकर, चाबी लेकर बाहर निकला फिर बाहर आकर दरवाजे पर पुनः सिटकनी लगा दी।
इधर-उधर टलहते हुए देवीलाल वक्त बीतने का इंतजार करने लगा। ख्यालों में थी कि वो तैयार होकर, उसके आने का इंतजार कर रही होगी।
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रात के बारह बज रहे थे।
हवलदार राजाराम ने थके-टूटे अंदाज में घर का दरवाजा थपथपाया। ड्यूटी समाप्त करके सुबह का गया अब घर लौटा था और कल दिन के बारह बजे फिर ड्यूटी पर हाजिर होना था। कल वाली ड्यूटी चौबीस घंटे लगातार चलनी थी। इसलिए वो खाना खाकर जल्दी से सो जाना चाहता था कि शरीर को कुछ आराम मिल सके।
राजाराम की उम्र तीस बरस थी।
बीस का था जब कांस्टेबल के तौर पर पुलिस में भर्ती हुआ था और दस सालों में तरक्की करके हवलदार बन चुका था और उसे पूरा विश्वास था कि अगले पांच सालों में वो सब-इंस्पेक्टर अवश्य बन जाएगा।
दो बच्चे थे। परंतु तनख्वाह कम होने की वजह से न तो उन्हें ठीक से पढ़ा पा रहा था और न ही उनका खर्चा ठीक ढंग से कर पा रहा था। ये तो अच्छा था कि साली के पास पैसे की कमी नहीं थी। घर की तंगी को पहचानकर बच्चों को वो अपने साथ ले गई थी कि अपने पास रखकर उन्हें पढ़ाएगी, क्योंकि खुद उसका बच्चा नहीं था।
दोनों ने इस पर कोई एतराज नहीं किया, पैसे से जो हाथ तंग था।
दूसरी बार दरवाजा थपथपाने पर दरवाजा खुला। पत्नी कमलेश ने दरवाजा खोला था। उसकी आंखों में नींद भरी पड़ी थी। वो नींद से उठकर आ रही थी।
"आ गए राजा राम जी।" कमलेश तीखे स्वर में कह उठी--- "पचासों बार कहा है, वक्त पर घर आया करो। चार घंटे पहले आ जाते या सिर्फ चार घंटे बाद सुबह होने पर आ जाते। कभी भी कोई काम वक्त पर किया है। हमेशा बे-वक्त ही सबकुछ ठकठकाते रहते हो।"
राजाराम ने मुंह बनाकर कमलेश को पीछे किया और सेहन पार करके, कमरे में गया और वर्दी उतारने लगा। पीछे-पीछे कमलेश भी आ गई।
"मुंह में जुबान है कि नहीं।" कमलेश मुंह बनाकर कह उठी।
"जुबान तो है।" उखड़े स्वर में राजा राम ने कहा--- "लेकिन कोई बात नहीं है कहने को।"
"बातें मैं दे देती हूं। मैं किसलिए हूं।" कमलेश ने मुंह बनाकर कहा--- "कपड़े बदलकर हाथ-मुंह धो लो। खाना खाते हुए, प्यार से बातचीत करूंगी।"
दस मिनट में ही कपड़े बदलकर, हवलदार राजाराम खाने पर बैठा।
कमलेश ने बड़े से थाल में थोड़े से चावल रखकर पेश कर दिए।
राजाराम ने कमलेश को देखा।
"ये क्या है ?"
"खाना है।" कमलेश पुनः मुंह बनाकर बोली--- "नजर नहीं आ रहा।"
"ये खाना है।" राजाराम का स्वर कड़वा हो गया--- "तुम अपनी मां के घर में ये खाती थीं।"
"मेरे मां के घर की बात न ही करो तो अच्छा है।" कमलेश के चेहरे पर गुस्सा झलका--- "वहां तो पकवान खाती थी मैं। यहां आकर मुझे मालूम हुआ कि खाना क्या होता है। घर में थोड़े से चावल पड़े थे। बना लिए। आधे मैंने खा लिए और आधे तुम्हारे सामने पड़े हैं। मेरी बहन को पता चल गया कि घर की ये हालत है तो वो मुझे यहां से ले जाएगी। बच्चों को तो वो पहले ही ले जा चुकी है। मैंने ही तुम्हें ढांप कर रखा हुआ है।"
"लेकिन मैंने तो घर का खर्चा पूरा दिया था।" राजाराम बोला--- "खत्म कैसे हो गया ?"
"खत्म कैसे हो गया, जैसे नोटों की गड्डियां दी हो मुझे। दो सूट सिलवा लिए थे उसमें से।"
राजाराम गहरी सांस लेकर रह गया।
"ये लम्बी-लम्बी सांसें क्या लेते हो। कमाई करना सीखो। नौकरी की तनख्वाह से भी भला कोई गुजारा होता है। इधर-उधर हाथ-पांव मारना सीखो। नाम तो रख दिया मां-बाप ने, राजाराम । मैंने न राजा देखा, न देखा राम। श्याम ही श्याम देखा, नोट लाओ नोट, समझे।"
राजाराम खामोशी से चावल खाने लगा।
कमलेश एक कागज ले आई।
"खाने के बाद इसे देख लेना।"
"क्या है ये ?"
"ये लिस्ट है सामान की। वरना कल से भूखे पेट सोना पड़ेगा।"
"रख ले।"
"क्या मतलब ?"
"कल मेरे साथ चलना । बारह बजे ड्यूटी पर हाजिर होना है। नौ बजे हम निकल चलेंगे।"
"नौ बजे मुझे साथ लेकर कहीं तोपें चलवाने जाना है क्या?" कमलेश के माथे पर बल नजर आए।
"तोपे मैं चलाऊंगा। तुम देखना।"
"क्या मतलब ?"
"ज्यादा मतलब मत पूछ । सुबह नौ बजे, साथ चलने के लिए तैयार रहना।" राजाराम उठते हुए बोला--- "बिस्तरा लगा और चल... ।"
"चल, कहां चल ?"
"बिस्तरे पर और कहां।"
"राजा और राम वाले काम करो। श्याम वाले काम छोड़...।"
"जल्दी कर, सोना है और सुबह उठना भी है। लिस्ट का सामान चाहिए कि नहीं।"
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सुबह के चार बजने वाले थे।
देवीलाल ने पूरी तसल्ली कर ली कि डेरे के सब चेले-चपाटे सोए पड़े हैं। अब निकलना ठीक रहेगा। वो नहीं चाहता था कि सफारी के साथ उसे जाते हुए कोई देखे ।
देवीलाल ने लकड़ी का गेट खोला फिर चाबी लगाकर सफारी की ड्राइविंग सीट संभाली और उसे स्टार्ट करके दरवाजे से बाहर लेता चला गया।
दिल की धड़कन कुछ तेज हो उठी कि पास में करोड़ों रुपया है।
कुछ ही देर में सुब्बो के घर पर था। सुब्बो सूती सूट में सजी-संवरी बेहद खूबसूरत लग रही थी। उसकी खूबसूरती देखकर कुछ पल के लिए तो देवीलाल करोड़ों की दौलत भी भूल गया। फिर जल्दी ही खुद को संभाला। सुब्बो ने अपने मां-बाप के गले लगकर विदा ली। देवीलाल ने उनसे वायदा किया कि दिन में सुब्बो के साथ पक्का ब्याह कर लेगा और सुब्बो को लेकर दो महीने पश्चात अवश्य वापस आएगा।
देवीलाल, सुब्बो को सफारी में बिठाकर चल पड़ा।
सुब्बो खुश, जैसे पंख लग गए हों। पहली बार वो किसी गाड़ी में बैठी थी। साथ में उसका होने वाला पति, दुनिया उसे खूबसूरत रंगीन नजर आने लगी।
"देवी, मेरे प्यारे देवी।" सुब्बो उसके कंधे पर हाथ रखकर प्यार से कह उठी।
देवीलाल ने सुब्बो को करीब खींचा और प्यार किया।
"मेरी प्यारी सुब्बो कैसा लग रहा है ?"
"बहुत अच्छा। ये गाड़ी तुम्हारी अपनी है ?"
"नहीं। बाबा के किसी चेले की है। शहर जाकर उसे देनी है। लेकिन पहले अपने रहने का भी इंतजाम करना है। फिक्र मत कर। हम ऐसी ही नई गाड़ी खरीद लेंगे।"
"नई गाड़ी!" सुब्बो खुशी से बोली--- "पैसा है तुम्हारे पास।"
"हां, विदा करते समय बाबा ने इतना दे दिया कि सारी उम्र पैसे की कमी नहीं रहेगी। मैंने बहुत मना किया, लेकिन बाबा कहने लगे, देवीलाल, ये दौलत- ये माया मेरे किस काम की। यहां पड़ी-पड़ी बेकार में सड़ जाएगी। इसे ग्रहण करो और सुब्बो के साथ अपनी गृहस्थी का आरम्भ करो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम दोनों के साथ रहेगा। मैं दौलत लेने से मना नहीं कर सका।"
"ओह, सच-बाबा कितने अच्छे हैं।"
जवाब में देवीलाल खामोश रहा।
"शहर में हम कहां रहेंगे देवी ?"
"बहुत बड़ा मकान किराए पर लेंगे। बाद में दूसरा मकान हम खरीद लेंगे। लेकिन इस वक्त शहर जाकर क्या करेंगे। अभी तो दिन भी नहीं निकला।"
"लेकिन तुमने तो बाबा के कहने पर उत्तर दिशा की तरफ बढ़ना...।"
"पहले बाबा ने यही मुहूर्त निकाला था। परंतु बाद में नया मुहूर्त निकाला, जिसमें उत्तर दिशा ही नहीं, सारी दिशाएं थीं। हम किसी भी दिशा की तरफ जा सकते हैं।" देवीलाल ने कहा।
"ओह।"
"मेरे ख्याल में शहर की तरफ सात-आठ बजे बढ़ेंगे। एक घंटे में पहुंच जाएंगे। कुछ देर के लिए गाड़ी इसी वीरान जगह रोककर कुछ आराम कर लेते हैं। क्यों सुब्बो।"
सुब्बो मुस्करा पड़ी।
"जैसा तुम कहो।"
देवीलाल ने झाड़ियों के झुरमुट में सफारी को रोका। इंजन-हैड लाइट बंद की। उसके बाद आराम क्या करना था। दोनों के जवां दिल धड़के और फिर प्यार में डूबते चले गए। इस दौर में सुब्बो इंजन बन गई थी और देवीलाल मात्र इंजन का डिब्बा ही बनकर रह गया था। दौड़ में पिछड़ गया वो।
सेमी फाइनल। फाइनल भी हुआ।
विजेता सुब्बो ही रही। देवीलाल हर बार हारा। जाने क्यों खेल में, सुब्बो को खास मजा नहीं आया।
■■■
देवीलाल और सुब्बो ने सीटों पर ही जैसे-तैसे लेटकर, एक एक घंटे की नींद ली। तब सवा आठ बज रहे थे, जब उनकी आंख खुली।
"यहां से चलते हैं सुब्बो।" देवीलाल ने कहा--- "शहर जाकर रहने के लिए किसी मकान का इंतजाम करते हैं। बहुत मजे से कटेगी जिंदगी।"
"हां, मैं घर में रंगीन टेलीविजन लाऊंगी।" सुब्बो ने प्रसन्नता से कहा।
"एक क्या दो-दो लाना।"
"और भी बहुत कुछ लाऊंगी।"
"जो मन करे, वही लाना।" देवीलाल ने मुस्कराकर कहा और सफारी स्टार्ट की ।
सुब्बो ने सफारी के पिछले हिस्से पर निगाह मारी।
"इन थैलों में क्या है। ये तो बहुत बड़े-बड़े थैले हैं।"
"इनमें रुपया भरा पड़ा है।" देवीलाल ने मुस्कराकर सफारी आगे बढ़ा दी।
"रुपया, इतने बड़े थैलों में ?" सुब्बो ने हैरानी से कहा।
"हां। बाबा ने भेंट में मुझे दिया है।"
"ये तो बहुत सारा रुपया होगा।"
'हां। जिंदगी भर खत्म नहीं होगा। मेरी सुब्बो को कोई कमी नहीं रहेगी।"
ये सुनते ही सुब्बो की आंखों में रंगीन सपने तैरने लगे।
"देवी, मुझे बढ़िया-बढ़िया सूट सिलवा दोगे। गहने लेकर दोगे।"
"देखती जा सुब्बो।" देवीलाल ने हाथ बढ़ाकर उसका गाल मसला–“महारानी बनाकर रखूंगा तेरे को। नौकर होंगे तेरे आगे पीछे। दुनिया का हर आराम तेरे कदमों में होगा।"
"सच!" सुब्बो का चेहरा गुलाब के फूल की तरह खिल उठा।
"सच से भी ज्यादा सच।"
"ओह देवी, तुम कितने अच्छे हो, तुम... ।
"हमारा बच्चा।" देवीलाल ने सुब्बो के पेट की तरफ नजर मारी--- "चांदी के पालने में झूला झूलेगा। सोने के चम्मच से खाएगा। पैदायशी बादशाह होगा वो।"
"मुझे तो ये सब सपना लग रहा है।" सुब्बो ने आंखें बंद कर लीं।
"बहुत जल्दी सपने को सच होते भी देख लोगी।"
"अगर लड़की पैदा हुई तो ?"
"तो वो महारानी बनकर रहेगी। बच्चा-बच्चा होता है। लड़के-लड़की में कोई फर्क नहीं होता।"
"तुम्हें पाकर तो मेरा भाग्य चमक उठा है देवी।" सुब्बो खुशी से पागल सी हो रही थी।
सफारी सड़क पर आकर शहर की तरफ दौड़ने लगी थी।
दोनों में प्यार-मोहब्बत से भरी बातें बराबर जारी थीं।
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राजाराम, माया लगी हवलदार की कड़क वर्दी में था। साथ में कमलेश थी। दोनों सुबह नौ बजे तैयार होकर निकले। कमलेश ने नया सूट पहन रखा था।
"लिस्ट ले ली जो सामान लाना है।" राजाराम ने चलते-चलते पूछा ।
"लिस्ट तो ले ली।" कमलेश ने तीखे स्वर में कहा--- "लेकिन पैसा कहां है जो...।"
"देखती रह, अभी नोट छापता हूं।"
"कैसे?"
"बोला तो, देखती रह। "
मुख्य सड़क पर आए तो ऑटो खड़ा नजर आया।
"राजाराम जी नमस्कार।" ऑटो वाला कह उठा।
"नमस्कार-नमस्कार।" राजाराम उसकी तरफ बढ़ा--- "तेरे ऑटो की सवारी नहीं की, बहुत देर से । चल आज पांच-चार किलोमीटर घुमा दे।"
"क्यों नहीं, आपका ही तो ऑटो है।"
राजाराम और कमलेश ऑटो में बैठे। कमलेश ने तीखी निगाहों से राजाराम को देखा और राजाराम मुंह घुमाकर दूसरी तरफ देखने लगा।
"किधर को चलना है।" ऑटो स्टार्ट करते हुए वो बोला।
"सीधा ले ले। दो चौराहे छोड़कर तीसरे पर उतार देना।"
उसने ऑटो आगे बढ़ा दिया।
पांच मिनट में ही ऑटो तीसरे चौराहे पर पहुंच गया।
"बस यहीं रोक दे।"
उसने ऑटो साइड में रोका।
राजाराम, कमलेश के साथ नीचे उतरा।
"और बच्चे-बच्चे तो ठीक है ना ?" राजाराम ने मुस्कराकर ऑटो वाले से पूछा।
"दया है आपकी।"
"ठीक है, ठीक है कभी कोई दिक्कत हो तो बताना।"
"जरूर- जरूर...।"
"जा, ये तेरे धंधे का वक्त है। फुर्सत में बातें करेंगे।" राजाराम लापरवाही से बोला ।
वो चार बार सलाम ठोककर चला गया।
"उसे पैसे क्यों नहीं दिए ?" कमलेश ने उखड़े स्वर में कहा।
"उसने मांगे कहां थे।"
"वर्दी पहनकर तुम यही सब करते हो ?"
"नहीं, लेकिन आज करना पड़ा। घर में खाने को दाने न हो तो सब करना पड़ता है।" राजाराम ने गहरी सांस लेकर कहा--- "तेरे पास लिस्ट है और सामान नहीं, क्योंकि पैसे खत्म हो गए।"
"लेकिन... ।"
"अब चुप कर। वहां जाकर खड़ी हो जा। ऐसे कि तेरा-मेरा कोई रिश्ता ही न हो।"
"क्या मतलब ?"
"तू मतलब बहुत पूछती है। जो कहा है वही कर। आधे घंटे में सामान के लिए पैसे देता हूं।"
कमलेश बिना कुछ कहे खामोशी से दूर हट गई।
राजाराम ने आसपास देखा फिर सड़क के एक किनारे पर जाकर खड़ा हो गया और आते-जाते वाहनों पर नजर मारने लगा। दो मिनट भी नहीं बीतें होंगे कि एक स्कूटर वाला, बिना हैलमेट के आता नजर आया।
हवलदार राजाराम फौरन सड़क पर आया और उसे रुकने का इशारा करने लगा।
स्कूटर वाले ने स्कूटर रोका।
राजाराम पास पहुंचा।
“हैलमेट कहां है ?” राजाराम ने पुलसिया अंदाज में पूछा।
"हैलमेट।" स्कूटर सवार घबराकर बोला--- "वो कल रात चोरी हो गया था। दूसरा है नहीं। मैं हैलमेट खरीदने ही जा रहा था। एक किलोमीटर आगे, हैलमेट की दुकानों का बाजार... ।"
"लाइसेंस-स्कूटर के कागज।" राजाराम उसी ढंग में बोला।
"वो सब है।"
"दिखाओ।"
उसने स्कूटर स्टैंड पर लगाया। लाइसेंस और कागज दिखाए। वो ठीक थे।
"हूं।" राजाराम उसे देखकर पुलसिया लहजे में कह उठा--- "बिना हैलमेट स्कूटर चलाना कानूनन जुर्म है। आपने कानून तोड़ा है। बिना हैलमेट...।"
"कल चोरी...।"
"कानून को इस बात से कोई मतलब नहीं। वैसे भी पकड़े जाने पर सब यही कहते...।"
"मैं सच कह रहा हूं। मैं...।"
"सब सच ही कहते हैं। पांच सौ का चालान है। यहीं भुगतना है या चालान की रसीद दूं कोर्ट में... ?"
"ये लम्बा चक्कर क्यों करते हैं। कोर्ट जाकर चालान भुगतूंगा तो पूरा दिन खराब हो जाएगा और पांच सौ तो बहुत ज्यादा है। मैं...।"
"चालान पांच सौ का ही कटेगा। बिना हैलमेट के लिए पांच सौ का ही...।"
"कुछ कम नहीं हो सकता।" वो धीमे स्वर में बोला।
"कम...।"
उसने मूक सहमति दी।
"ठीक है, ढाई सौ निकालो।"
"दो सौ ठीक रहेगा।"
"दो सौ ही निकाल। जल्दी कर, मैं डयूटी पर हूं। नया हैलमेट जरूर खरीद लेना।"
उसने दो सौ निकालकर राजाराम को थमाए और लाइसेंस कागजात लेकर, स्कूटर के साथ वहां से चला गया।
दो सौ रुपये जेब में पहुंच चुके थे।
दूर खड़ी कमलेश सब देख रही थी।
पांच मिनट बाद ही एक और स्कूटर वाला हत्थे चढ़ा। उसने तो हैलमेट पहन रखा था, परंतु पीछे बैठी उसकी पत्नी ने हैलमेट नहीं पहना था।
राजाराम ने फौरन उसे रोका।
"कहिए।" स्कूटर वाला बोला।
"आपको मालूम है, पीछे बैठी सवारी के लिए हैलमेट पहनना आवश्यक है।"
ये सुनते ही वो पीछे बैठी अपनी पत्नी को बोलने लगा।
"सुन लिया, घर से निकलते वक्त पचास बार कहा था हैलमेट पहनने को। हैलमेट दिया भी तो उसे दूर पटक दिया, ये कहकर कि मेरा हेयर स्टाइल खराब होगा। ले ले मजा।"
"चिल्लाते क्यों हो। तुम्हीं तो कहते हो मेरा हेयर स्टाइल बहुत अच्छा...।"
"वो घर की बात है। अब इन पुलिस वाले साहब से क्या कहूं।" उसने जले-भुने स्वर में कहा।
तभी राजाराम कह उठा।
"ये झगड़ा घर जाकर कर लेना। पांच सौ रुपये का चालान है। कोर्ट जाकर भुगतना पड़ेगा। पूरा दिन खराब होगा, वो अलग। निकालिए पांच सौ रुपया, नहीं तो चालान की पर्ची...।"
"पांच सौ को छोड़ो।" वो आदमी धीमे स्वर में कह उठा--- "इसके हेयर स्टाइल की वजह से हफ्ते-दस दिन में चालान हो जाता है और मैं तीन सौ रुपया देकर बात खत्म कर देता हूँ, दूं...।"
"सोचता क्या है, दे जल्दी।" इधर-उधर देखता राजाराम कह उठा।
उसने तीन सौ रुपये दिए। जो कि फौरन राजाराम की जेब में पहुंच गए।
और वो स्कूटर आगे बढ़ाकर चलता बना।
एक घंटे बाद राजाराम ने हिसाब लगाया कि जेब में डेढ़-दो हजार इकट्ठा हो चुका है। वो जानता था कि वर्दी के दौरान इस तरह का हेराफेरी का पैसा उसे फंसवा सकता है। वो अपनी जगह से हिला और टहलता हुआ कमलेश के पास पहुंच गया।
जेब में रखे सारे नोट मुट्ठी में इकट्ठे करके कमलेश को थमाता हुआ बोला।
"ये रख।"
"कितने हैं?" कमलेश ने नोट लेकर मुट्ठी में भींचते हुए कहा।
"डेढ़-दो हजार होंगे।"
"बहुत है। मेरी लिस्ट का सामान आ जाएगा।" कमलेश ने कहते हुए सिर हिलाया--- "पनीर की सब्जी...।"
"आधा घंटा और रुक। पांच-सात सौ और इकट्ठा कर लूं। देशी घी के दो डिब्बे भी घर लेती जाना।"
"क्या जरूरत है, मैं...।"
"चुपचाप यहीं खड़ी रह।" कहने के साथ ही हवलदार राजाराम फिर चौराहे की तरफ बढ़ गया।
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