सफेद टाटा सूमो के खेतों में पड़े होने की खबर सुनते ही पुलिस वहां पहुंचने लगी। सड़क से ही खेतों में सूमो नजर आ रही थी। किसी ने देखा, पास पहुंचकर देखा तो भीतर, दो लाशें नजर आई। तो उसने गुमनाम हैसीयत से पुलिस को फोन कर दिया।

पुलिस तो कल शाम से ही इस टाटा सूमो की तलाश कर रही थी।

कंट्रोल रूम से खबर मिलते ही, वहां से सबसे पास की पुलिस पैट्रोल कार वहां पहुंची, जिसमें दो कांस्टेबल और एक हवलदार था। पुलिस कार सड़क पर ही छोड़कर, वे तीनों सूमो के पास पहुंचे। सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे।

सूमो का कोई हिस्सा ऐसा नहीं था, जो पिचकने से न बचा हो। आगे वाली सीटों पर जीजा साहब और साली साहिबा की बुरे हाल हुई लाशें देखने को मिली। जहां पर टाटा सूमो पड़ी थी, वहां खेत के अलावा कच्ची मिट्टी भी थी।

हवलदार कुछ ज्यादा ही समझदार था अपने फर्ज के प्रति।

उसने कच्ची मिट्टी पर टायरों के स्पष्ट निशान देखे, जो कि किसी भी हाल में सूमो के नहीं थे। साथ ही उसने खेतों के कुछ हिस्से को दबे देखा। यानी कि कुल मिलाकर उसे इस बात का स्पष्ट एहसास हो गया कि सूमो की ये हालत होने के बाद, यहां पर कोई और वाहन हर हाल में आया है। सूमो के पीछे वाले दरवाजे खुले थे और भीतर कुछ भी नहीं था जबकि उसके पास पक्की खबर थी कि सफेद टाटा सूमो में थैलों के भीतर नब्बे करोड़ की दौलत मौजूद है और भीतर एक भी बोरा नहीं था।

हवलदार को यकीन होने लगा, ये वही सूमो है जिसकी तलाश की जा रही है। क्योंकि ऊपर से मिली खबर के मुताबिक नब्बे करोड़ वाली सूमो में दो व्यक्ति थे और इसमें भी दो ही मरे हुए नजर आए थे। हवलदार इसी नतीजे पर पहुंचा कि सूमो के इस हालत में पहुंचने के बाद कोई अन्य वाहन यहां आया और सूमो में मौजूद नोटों के बोरे अपने वाहन में लाद कर चलता बना।

उसने दोनों कांस्टेबलों से कहा।

"वैन से कुछ दूर हट जाओ और वो जो कच्ची मिट्टी पर टायरों के निशान नजर आ रहे हैं। उन पर पांव मत रख देना। ये टायरों के निशान सड़क तक जा रहे हैं।"

"ये वही टाटा सूमो है, जिसकी पुलिस को तलाश थी ?" एक कांस्टेबल ने पूछा।

"मेरे ख्याल में वही सूमो है।" हवलदार बोला।

"उसमें नोटों से भरे सरकारी थैले होने चाहिए। इसमें तो कुछ भी नहीं है।"

"थैले निकाले भी जा सकते हैं।" हवलदार कह उठा--- "बड़े ऑफिसर ही आकर देखेंगे कि असल बात क्या है और वे लोग भी पहुंचने वाले होंगे।"

कई पुलिस गाड़ियां वहां पहुंची।

पुलिसवालों का जमघट लग गया था वहां।

उन पुलिस वालों में सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा भी था।

हवलदार ने पहले ही उन्हें मिट्टी पर नजर आ रहे, टायरों के निशानों के बारे में बता दिया था कहीं कोई भूल से उन निशानों पर चलकर, उन्हें खराब न कर दे।

■■■

पुलिस के बड़े-बड़े ऑफिसर वहां पहुंच चुके थे। हर तरह के एक्सपर्ट वहां मौजूद थे, जरा-जरा सी बात पर, जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया जा रहा था। हर काम में सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा साथ था, क्योंकि कल शाम मुंशी, बाबूलाल, वीरसिंह खत्री और राजू उर्फ पगला को मुठभेड़ में खत्म करके, इस केस से तगड़ा ताल्लुक पैदा कर चुका था। अगर वो उस वक्त, उस वैन के पीछे न जाता, उन लोगों को न ख़त्म करता तो इस मामले में, पुलिस के लिए आगे बढ़ना कठिन हो जाता।

कल शाम टायर के निशानों के एक्सपर्ट ने, वैन के पास मिले टायरों के निशानों को जांचा था, सबसे पहले उसे टाटा सूमो के टायरों को दिखाया गया। जांचने के बाद एक्सपर्ट ने पक्का दावा किया कि ये सूमो वही है, जो कल शाम सरकारी वैन के पास मौजूद थी।

इस दावे के बाद पुलिस ने अपना काम शुरू किया।

सुबह से लेकर, दोपहर के तीन बजे तक पुलिस सूमो और उसके आसपास की तफ्तीश में व्यस्त रही। टायर एक्सपर्ट ने वहां मौजूद दूसरे वाहन के निशानों को चैक करके ये भी दावा किया कि वे मैटाडोर के ऐसे टायरों के निशान है, जो कि आधे घिसे हुए हैं।

दोपहर तीन बजे पुलिस जिस निष्कर्ष पर पहुंची। वो इस प्रकार था।

नब्बे करोड़ के नोटों से भरे थैले, इसी सूमो में मौजूद थे। सूमो के पिछले दरवाजों के पास, किसी चीज के घसीटने के स्पष्ट निशान हैं और वो निशान तिरपाल जैसे, बड़े सरकारी थैले के ही थे, जो कि नीचे गिर गया होगा। उसे मैटाडोर में डाला गया। उसके बाद टायरों के निशान के आधार पर ही, इस नतीजे पर पहुंचा गया कि मैटाडोर वैन, सूमो के पीछे वाले हिस्से से सटाकर थैलों को मैटाडोर में सरकाया गया। दो जोड़ी जूतों के निशानों को स्पष्ट पहचाना गया, जो कि कच्ची मिट्टी पर थे। एक्सपर्ट ने बताया कि एक जोड़ा मर्द के जूतों का है और दूसरा औरत के ।

क्रिस्टल का नया चाकू पुलिस ने ढूंढ निकाला।

उस चाकू की वजह से पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि मैटाडोर में जो आदमी औरत थे वे सामान्य लोग थे। उनका इस लूट से कोई वास्ता नहीं है। उन्होंने एक्सीडेंट देखा। वे पास आए। आगे मौजूद दोनों लाशों को देखने के बाद पीछे के बोरों को देखा तो चाकू से बोरा काटकर देखा होगा कि भीतर क्या है। नोट देखने पर सारे थैले मेटाडोर में डालकर ले गए। क्रिस्टल के नए चाकू से ही इस बात का अंदाजा लगाया गया कि वो आदमी-औरत बाजार से खरीददारी करके लौट रहे होंगे।

यानी कि अब पुलिस का पूरा ध्यान सूमो से हटकर मैटाडोर वैन की तरफ हो गया।

जीजा साहब और साली साहिबा के बारे में यह बात रिजर्व रखी कि वो लुटेरों के साथी थे या नोटों तक पहुंचना उनका इत्तफाक ही था। जीजा साहब के पर्स से ड्राइविंग लायसेंस बरामद कर लिया गया था और छानबीन करके, पुलिस ने जल्दी ही असल बात तक पहुंच जाना था।

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा के हाथों मरे, बीती शाम वाले चारों के बारे में पुलिस जान चुकी थी और बीस-तीस पुलिस वाले उनके घर वाले-सगे वालों, यार-दोस्तों को पकड़े बैठे थे और पूछताछ कर रहे थे कि इस लूट की उन्हें जानकारी थी या नहीं। थी तो कितनी। किस-किस को उन चारों के प्लान का पता था और-और कौन इस योजना में शामिल था।

पुलिस अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी, क्योंकि ये नब्बे करोड़ की लूट का मामला था। लूट के समय लुटेरों ने सरकारी ड्यूटी पर तैनात चार की हत्या की थी और वैन भगाने वालों ने, एक कार में मौजूद दो की जान ली फिर साइकिल सवार को कुचला गया। उसके बाद सारे लुटेरे, फौरन ही पुलिस के हाथों मारे गए और तब भी पुलिस को नब्बे करोड़ की दौलत नहीं मिली। परन्तु पुलिस हार मानने को तैयार नहीं थी।

आखिरकार सारी तफ्तीश आगे का मामला मैटाडोर वैन पर अटक गया था कि सूमो से बोरों को ले जाने वाली मैटाडोर कहां है और उसमें मौजूद आदमी-औरत कौन थे ?

जीजा साहब और साली साहिबा के बारे में छः पुलिस वालों की टुकड़ी पूछताछ करने के लिए, ड्राइविंग लायसेंस पर लिखे पते पर रवाना हो चुकी थी।

मैटाडोर वैन के बारे में, वहीं से कंट्रोल रूम को बताकर कहा गया कि शहर भर की सारी मैटाडोर को देखते ही चैक किया जाए और पुलिस वालों को खास हिदायत दी जाए कि ऐसी मैटाडोर जिसके टायर आधे घिसे हुए हों, उसकी अच्छी तरह तलाशी ली जाए। उसके भीतर कोई भी संदिग्ध चीज मिले तो मैटाडोर और मैटाडोर वाले को जब्त कर लिया जाए। क्योंकि ऐसी ही किसी मैटाडोर में नब्बे करोड़ ले जाए गए हैं।

कंट्रोल रूम द्वारा ये सब बातें पूरे शहर की पुलिस तक पहुंच गई।

और एक घंटे में ही पुलिस वालों के लिए सुखद नतीजा सामने आया।

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कल शाम जिन पुलिस वालों ने चैकिंग के दौरान मैटाडोर को रोका था। सबसे पहले तो उन्होंने ही इस केस पर काम कर रहे पुलिस वालों को इस बारे में खबर दी कि इसी सड़क पर कुछ आगे शाम को पूछताछ के दौरान एक पीले रंग की मैटाडोर को रोका था, जो कि किसी स्कूल की मैटाडोर थी और उसमें आदमी और औरत थे। वो किस स्कूल की वैन थी, ये बात वे पुलिस वाले नहीं बता सके।

फिर भी नब्बे करोड़ के केस पर काम कर रहे पुलिस वालों के लिए ये बात महत्वपूर्ण थी कि जिस मैटाडोर की उन्हें तलाश है, वो किसी स्कूल की है। ऐसे में अब मैटाडोर को तलाश कर पाना कोई कठिन काम नहीं रह गया था। इससे पहले कि पुलिस वाले अपनी भागदौड़ शुरू करते, दस मिनट पश्चात ही एक थाने से खबर आई कि उनके इलाके में एक मियां-बीवी की नृशंस ढंग से हत्या की गई हैं और मरने वाला स्कूल की मैटाडोर चलाने वाला ड्राइवर था। पीले रंग की मैटाडोर अभी भी उसके घर में खड़ी है। सुबह जब मैटाडोर लेकर ड्राइवर मांगेराम स्कूल नहीं पहुंचा तो स्कूल का चपरासी मांगेराम के यहां भेजा गया कि वो ड्यूटी पर क्यों नहीं आया। स्कूल के बच्चों को क्यों नहीं लाया। स्कूल वालों के मुताबिक मांगेराम जिम्मेवार व्यक्ति था और इस तरह कभी छुट्टी नहीं करता था। छुट्टी की जरूरत होती तो एक दिन पहले ही खबर कर देता और स्कूल वाले बच्चों को लाने के लिए मैटाडोर दूसरे ड्राइवर के हवाले कर देता। चपरासी जब घर पहुंचा तो तब ये मामला खुला कि मांगेराम और उसकी पत्नी सत्तो को किसी ने मार डाला है। ये खबर मिलते ही पुलिस वाले समझ गए कि ये स्कूल वैन मैटाडोर और वही आदमी-औरत हैं, जिनकी उन्हें तलाश है। परन्तु उनकी हत्या हो चुकी है।

बिना देरी के इस केस पर काम कर रही पुलिस टीम मांगेराम के घर पर जा पहुंची। सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा भी इस टीम में मौजूद था। तब शाम के छः बज रहे थे।

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पुलिस टीम ने मांगेराम के घर पहुंचते ही इलाके के पुलिस वालों को वहां से दूर कर दिया था ताकि वे आराम से हालातों को देख समझ सकें।

सबसे पहले वैन को देखा गया भीतर से।

परन्तु वहां कोई बोरा नहीं मिला। लेकिन वैन के फर्श की हालत बता रही थी कि वैन में भारी सामान रखा-निकाला गया। जो कि वही नोटों से भरे बोरे थे। क्योंकि खेतों की मिट्टी वैन के फर्श पर पड़ी स्पष्ट नजर आ रही थी और टायरों में कहीं-कहीं वैसी मिट्टी मौजूद थी।

मकान के भीतर भी देखा गया। परंतु बोरे कहीं नहीं मिले।

उसके बाद लाशों पर ध्यान दिया गया।

बहुत बुरी तरह मारा गया था, दोनों को।

"सर।" सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा इंस्पेक्टर से बोला--- "लाशों की हालत बता रही है कि इन्हें धोखे से मारा गया। मरने से पहले ये नहीं जानते थे कि ये मरने वाले हैं।"

"हां।" इंस्पेक्टर ने सिर हिलाया--- "इनकी हत्या करने वाला, इनका कोई करीबी रहा होगा और ये निश्चिंत थे कि वो इनकी जान नहीं ले सकता।"

"इसका मतलब नब्बे करोड़ भी वही ले गया होगा।" कमल सिन्हा ने कहा।

"हां। नब्बे करोड़ की वजह से ही इनकी हत्या की गई।" इंस्पेक्टर ने कमल सिन्हा को देखा--- "लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि वैन यहां मौजूद है, फिर नोटों से भरे बोरे कहां गए ?"

कमल सिन्हा भी यही सोच रहा था।

वहां पर पुलिस टीम के सदस्य अपने-अपने काम में व्यस्त हो चुके थे। फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट उंगलियों के निशान उठा रहे थे। कदमों के निशानों का जायजा ले रहे थे। फोटोग्राफर अपना काम कर रहे थे। खून सनी थापी कब्जे में ले ली गई थी।

बाथरूम में खून से सने कपड़े मौजूद होने की खबर पाकर इंस्पेक्टर और कमल सिन्हा वहां पहुंचे। कपड़ों को लिफाफे में पैक कर लिया गया था।

"सर।" कमल सिन्हा बोला--- "खून से सने कपड़े बाथरूम में होने से यह बात तो स्पष्ट हो गई कि हत्यारा इस घर से खास सम्बंध रखता है। दोनों हत्याएं करने के पश्चात वो आराम से नहा-धोकर कपड़े पहनकर यहां से गया। हो सकता है उसने मांगेराम के कपड़े ही पहन लिए हों।"

"तुम्हारी बात सही है।" इंस्पेक्टर ने सोच भरे स्वर में कहा--- "अब तक के हालातों से लगता है, हत्यारा एक था। अगर मैटोडोर में नोटों से भरे बोरे थे तो वो अकेला उन बोरों को निकालकर किसी दूसरे वाहन में नहीं रख सकता।" इंस्पेक्टर ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा।

कमल सिन्हा के होंठ भिंच गए। चेहरे पर सोच के गहरे भाव नज़र आने लगे।

"मैं यहां देखता हूं।" इंस्पेक्टर ने वहां व्यस्त स्टाफ के लोगों पर निगाह मारते हुए कहा--- "तुम इस कालोनी में रहने वाले लोगों से इस परिवार के बारे में पूछताछ करो। घर में और कौन-कौन हैं। यहां पर किन-किन लोगों का आना-जाना था और मरने वाले कैसे लोग थे। खासतौर से बीते हुए कल के बारे में कोई बात मालूम करने की कोशिश करो। हो सकता है, कोई नई बात मालूम हो जाए।"

"यस सर।" कमल सिन्हा ने सिर हिलाया।

"वैसे तो घर की हालत से स्पष्ट है कि ये परिवार गरीबी में जी रहा था। इससे स्पष्ट है कि स्कूल की मैटाडोर चलाकर ही घर का गुजारा चलाया जा रहा था। कोई और कमाने वाला घर में नहीं है।" इंस्पेक्टर ने कमल सिन्हा को देखा--- " सारी बातें मालूम करो। "

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा तुरन्त वहां से बाहर निकलता चला गया। बाहर भी पुलिस वाले मौजूद थे। कमल सिन्हा ने इधर-उधर नजर मारी। कुछ-कुछ फासले पर बने मकानों में खड़े लोग भी नजर आ रहे थे, जो इसी तरफ देख रहे थे। दिन की रोशनी और रात के अंधेरे का मिलन हो रहा था। लोगों ने घरों की लाइटें रोशन करनी शुरू कर दी थीं।

कमल सिन्हा उस मकान की तरफ बढ गया, जो सबसे करीब था।

■■■

कमल सिन्हा उस मकान के पास पहुंचा। बीस वर्षीय युवती मकान के खुले गेट पर खड़ी, मांगेराम के मकान की तरफ ही देख रही थी। पीछे बरामदे की लाइट के अलावा भीतर की लाइटें भी ऑन थी। उसकी निगाह पास आ चुके कमल सिन्हा पर जा टिकी।

"पानी मिलेगा पीने को।" कमल सिन्हा शांत स्वर में बोला।

"अभी लाती हूं।" कहने के साथ ही युवती पलट कर मकान के भीतर चली गई।

मिनट भर बाद ही पैंतालीस बरस की औरत पानी का गिलास लिए आई। कमल सिन्हा ने पानी पिया और गिलास लौटाते हुए कहा।

"आप जानते थे मांगेराम और उसकी पत्नी को ?" कमल सिन्हा ने सरल स्वर में पूछा।

"बहुत अच्छी तरह।" औरत के स्वर में अफसोस के भाव उभरे--- "सत्तो तो अक्सर आती रहती थी मेरे पास। मैं भी उसके पास हो आती थी।"

कमल सिन्हा सिर हिलाकर कह उठा।

"मैं उनके बारे में आपसे कुछ पूछताछ करना चाहता हूं।"

औरत के चेहरे पर कशमकश के भाव उभरे।

"सिर्फ दस मिनट लगेंगे।" उसे हिचकिचाते पाकर, कमल सिन्हा जल्दी से कह उठा।

"ठीक है। आइए।" कहने के साथ ही औरत ने बरामदे में पड़ी चारपाई बिछा दी और बेटी को आवाज देकर भीतर से कुर्सी मंगवा ली।

कमल सिन्हा कुर्सी पर बैठ गया।

वो औरत चारपाई पर बैठ गई। उसकी बेटी पुनः गेट पर खड़ी होकर मांगेराम के मकान की तरफ देखने लगी। कमल सिन्हा ने बड़ी सहजता से बात की।

"आपने उन लोगों की लाशें देखीं ?"

"नहीं, लेकिन सुना है मारने वाले ने बड़ी बेरहमी से मारा है उन्हें ।" औरत कह उठी।

"हां, इस तरह तो हैवान ही किसी को मौत देता है। मुझसे खुद लाशें नहीं देखी गई। मांगेराम और उसकी पत्नी कैसे लोग थे ?" कमल सिन्हा ने पूछा।

"बहुत अच्छे और शरीफ लोग थे।" औरत के चेहरे पर पुनः दुःख नजर आने लगा।

"आपका क्या ख्याल है। उन्हें कौन मार सकता है। कौन उनका दुश्मन हो सकता है ?"

"ऐसे लोगों का कोई दुश्मन नहीं हो सकता।"

"हूं। कौन-कौन लोग उनसे मिलने आते थे। दोस्त-रिश्तेदार या कोई और ?"

"कोई नहीं आता था। सत्तो का आदमी मैटाडोर लेकर सुबह स्कूल चला जाता था और शाम को लौटता था। उनका बेटा मंगल भी दस बजे तक निकल जाता था। सत्तो अकेली रह जाती थी घर में। मैंने तो आज तक उनके घर में किसी को आते नहीं देखा। कोई आया हो तो मुझे नहीं मालूम।"

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा की निगाह उसके चेहरे पर जा टिकी।

"मतलब कि मांगेराम और उसकी पत्नी की औलाद भी है। लड़का मंगल, यही कहा आपने।"

"जी हां।"

"कितनी उम्र है उसकी ?"

"पच्चीस बरस का है।"

"इस वक्त वो कहां है। उसके मां-बाप मरे पड़े हैं। वो कहीं नजर नहीं आ रहा। लाशों की हालत से जाहिर है कि उन दोनों को रात को मारा गया। रात को तो मंगल घर पर होगा या लेट आया होगा।" कमल सिन्हा का स्वर पैना था--- "जो भी हो, उसे इस वक्त घर पर मौजूद होना चाहिए।"

औरत ने होंठ भींच लिए।

"क्या करता है मंगल ?" कमल सिन्हा का चेहरा बता रहा था कि उसका मस्तिष्क तेजी से काम कर रहा है।

"मेकैनिक है।" कहने के साथ ही वो हिचकिचाई।

कमल सिन्हा जल्दी से कह उठा।

"आप कुछ कहने जा रही थीं। फिक्र मत कीजिए। आप जो कहेंगी, वो । मुझ तक ही रहेगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ। किसी को पता भी न चलेगा कि आपने मुझे कुछ बताया है।"

उसने कमल सिन्हा के चेहरे पर निगाह मारी।

कुछ क्षण उनके बीच खामोशी रही।

"मंगल मेकैनिक है। परंतु उसका चरित्र ठीक नहीं था।" औरत ने कहा--- "कम उम्र से ही वो शराब पीने लगा था। कमाई का एक पैसा भी घर में नहीं देता था और रहता-खाता घर में था। बात यहीं तक रहती तो फिर भी ठीक था, लेकिन वो सपना नाम की ऐसी लड़की से ब्याह करना चाहता था जो कि बुरी लड़की है। ये सब बातें सत्तो ही बताया करती थी। सपना के खिलाफ मंगल एक शब्द भी न सुनता। सत्तो और उसका आदमी उसे समझा-समझा कर थक गए थे। लेकिन मंगल अपनी जिद्द पर था। इस वजह से मंगल का अपने मां-बाप से झगड़ा बढ़ता ही जा रहा था।"

कमल सिन्हा ने समझने वाले ढंग में सिर हिलाया।

"आपका क्या ख्याल है, सपना के मुद्दे पर मंगल गुस्से में अपने मां-बाप की जान ले सकता है।"

"इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती।"

"अच्छा एक बात बताइए। मान लिया जाए कि मांगेराम और उसकी पत्नी के पास ढेरो रुपया आ जाता है। करोड़ों रुपया आ जाता है। उस रुपये को पाने के लिए मंगल अपने मां-बाप की जान ले सकता है।"

उसने सिर उठाकर कमल सिन्हा को देखा।

"मैं समझी नहीं, आप कहना क्या चाहते हैं।"

"मैं कुछ खास नहीं कह रहा। छोटा-सा सवाल पूछ रहा हूं।"

सोचने के पश्चात वो कह उठी।

"मैं इस बारे में कोई जवाब नहीं दे सकती क्योंकि मंगल को मैं खास नहीं जानती। उसके बारे में जो भी सुना। सत्तो के मुंह से सुना और कोई भी मां अपनी औलाद की बुराई यूं ही नहीं करेगी।"

"समझा। वैसे अब मंगल कहां है। ऐसे वक्त में तो उसे यहां मौजूद होना चाहिए।"

"मुझे क्या मालूम ?"

"आपने मंगल को आखिरी बार कब देखा था ?"

"कई दिन हो गए। एक दिन सुबह काम पर जाते देखा था। यूं ही नजर पड़ गई थी। उसकी वापसी तो रात बारह से पहले नहीं होती थी। सत्तो बताती थी कि काम से वो सीधा उस लड़की सपना के पास चला जाता था। वहां से नशे में धुत रात को बारह के बाद ही लौटता था।"

"कल रात मंगल आया था ?"

"मैं नहीं जानती।"

"मांगेराम कल शाम को मैटाडोर लेकर कहीं गया था ?"

"हां, बाजार गया था सत्तो को लेकर। घर का सामान लाना था। जाने से पहले सत्तो मेरे पास आई थी कि मैंने बाजार से कुछ मंगवाना हो तो बता दूं। लेकिन मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं थी।"

"मतलब कि शाम को वे बाजार गए।"

उसने हां में सिर हिलाया।

"फिर वापस कब आए ?"

"देर से ही आए थे। नौ-साढ़े नौ बज रहे होंगे।"

"उसके बाद उनके घर की कोई खास बात ?"

"खास तो कुछ भी नहीं, इतना ही है कि उनके घर की रोशनियां देर तक जलती रहीं।"

"मतलब कि आमतौर पर उनके घर की लाइटें जल्दी बंद हो जाती थीं।"

"हां, नौ बजे तक सत्तो और उसका आदमी सो जाते थे। क्योंकि मांगेराम को सुबह पांच बजे स्कूल की मैटाडोर ले जानी होती थी। बच्चों को उनके घरों से लेकर, वक्त पर स्कूल पहुंचाना होता था। रात को जब मंगल आता तो सत्तो ही उठकर दरवाजा खोलती उसे खाना देकर फिर सो जाती।"

दो पल की चुप्पी के पश्चात कमल सिन्हा ने कहा।

"रात को जब मांगेराम और सत्तो बाजार से सामान खरीदकर लौटे तो उसके बाद वैन बाहर गई थी क्या ?"

"मुझे क्या मालूम। मैं तो खाना खाने के बाद सो गई... ।"

तभी गेट पर खड़ी बीस वर्षीय युवती फौरन पलट कर बोली।

"आधी रात को मैंने वैन के स्टार्ट होने और जाने की आवाज सुनी थी। तब बाथरूम जाने के लिए उठी थी । उस वक्त मैंने सोचा भी कि आधी रात को अंकल कहां जा रहे हैं, लेकिन इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और सो गई।"

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा सतर्क-सा हो उठा।

"मतलब कि रात को मैटाडोर घर से गई थी।" कमल सिन्हा के होंठों से निकला।

"हां।" युवती ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा।

"वैन आने की आवाज सुनी ?"

"मैं तो उसके बाद सो गई थी।"

मैटाडोर घर पर खड़ी है तो जाहिर है उसके बाद वापस आई थी। कमल सिन्हा का दिमाग तेजी से दौड़ने लगा। मैटाडोर में तब ये करोड़ रुपया मौजूद था। मंगल रात को पीकर आया और सपना या दौलत को लेकर उनके बीच तकरार हुई। इस हद तक हो गई कि नशे में और गुस्से में मंगल ने थापी उठाकर मांगेराम और सत्तो को मार डाला। उसके बाद बोरों से भरी वैन ले गया। बाद में खाली वैन को घर पर छोड़ कर, खामोशी से खिसक गया और दोबारा नहीं लौटा। अगर उसने अपने मां-बाप की हत्या नहीं की होती तो वो आया होता और इस वक्त यहां मौजूद होता ?

लेकिन करोड़ों की दौलत उसने कहां छोड़ी होगी ?

उसी लड़की के पास, जिसका वो दीवाना था। जिससे वो शादी करने वाला था। सपना नाम है उसका। कमल सिन्हा को लगा, उसकी सोचें ठीक रास्ते पर आगे बढ़ रही हैं।

"सपना कहां रहती है।" कमल ने पूछा।

"मालूम नहीं, सत्तो ने ही बताया था कि माडल टाउन के किसी मकान में अपने मां-बाप के साथ रहती है।"

"मंगल कहां पर काम करता है ?"

"शंकर रोड पर कोई गैराज है। वहीं पर काम करता है।"

"मंगल के कपड़ों की तो पहचान होगी आपको।" कमल सिन्हा ने कहा--- "अगर मैं आपको खून लगे कपड़े दिखाऊं तो क्या आप उन्हें देखकर बता सकती हैं कि वो कपड़े मंगल के हैं या नहीं ?"

"पक्का नहीं कह सकती।"

तभी युवती कह उठी।

"मैं बता सकती हूं। वो कौन से दस-बीस तरह के कपड़े पहनता है। दो-तीन जोड़े तो हैं उसके पास।"

"मैं अभी आया।" कहने के साथ ही कमल सिन्हा वहां से निकल कर मांगेराम के घर की तरफ बढ़ गया।

तीसरे ही मिनट वो लौटा।

हाथ में सीलबंद लिफाफा था, जिसमें बाथरूम में पड़े खून से सने कपड़े हिफाजत से रखे थे। 'सील' हटाकर कपड़ों को लिफाफे से निकालने की जरूरत नहीं पड़ी। लिफाफे में मौजूद कपड़ों को देखते ही मां-बेटी ने फौरन कहा कि ये कपड़े तो मंगल के हैं। वही पहनता है।

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा के होंठ भिंचते चले गए।

सारा मामला, सब कुछ सामने था और साफ था।

"इंस्पेक्टर साहब।" औरत के होंठों से उलझन भरा स्वर निकला--- "मंगल ने अपने मां-बाप की हत्या की है ?"

"हां।" कमल सिन्हा वहां से चलने को हुआ।

"उस लड़की की खातिर, जिससे वो शादी...।"

"इस बारे में मैं अभी विश्वास के साथ नहीं कह सकता।" कमल सिन्हा शांत भाव में मुस्कराया--- "पुलिस को सहयोग देने के लिए, आप दोनों का बहुत-बहुत शुक्रिया।"

■■■

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा ने अपने ऑफिसर इंस्पेक्टर मुरलीधर खाटिया से बात की जो कि लाशों की और अन्य सब कार्यवाहियों को सावधानी से अंजाम दे रहा था।

"सर, जरा अकेले में...।"

इंस्पेक्टर खाटिया ने उसे देखकर सिर हिलाया, फिर वहां काम कर रहे आदमी से बोला।

"हर जगह से फिंगर प्रिंट उठाने हैं। बाथरूम से फिंगर प्रिंट उठाते वक्त, खास सावधानी बरतना, क्योंकि हत्याएं करने के बाद हत्यारा बाथरूम में गया, वहां उसने अपने कपड़े उतारे और नहाया। ऐसे में बाथरूम से मिलने वाले फिंगर प्रिंट इस केस में बहुत महत्वपूर्ण होंगे।"

उसके बाद इंस्पेक्टर खाटिया ने कमल सिन्हा से अकेले में बात की।

"कुछ मालूम हुआ सिन्हा ?" खाटिया ने पूछा।

"बहुत कुछ सर...।"

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा ने पूछताछ की सारी बातें बताई।

"सर, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मांगेराम के बेटे मंगल ने मैटाडोर में मौजूद करोड़ों की दौलत पाने के लिए अपने मां-बाप की हत्या की और फिर सारी दौलत उस लड़की सपना के पास छोड़ आया जो मॉडल टाउन में कहीं रहती है। इस बात को आप इस तरह भी ले सकते हैं कि मंगल अपने मां-बाप से पहले ही खुन्दक में था कि उसके मां-बाप सपना से शादी करने को रजामंद नहीं हो रहे। ऐसे में करोड़ों की दौलत बीच में आ गई तो उसने मां-बाप को ही रास्ते से हटाने का फैसला कर लिया था कि दौलत के साथ और सपना के साथ ऐश से रहेगा।"

सारी बातों पर गौर करने के बाद इंस्पेक्टर खाटिया ने गम्भीर स्वर में कहा।

"सिन्हा, बिना पर्याप्त सबूतों के ये सब कहोगे तो कोई भी तुम्हारी बात नहीं मानेगा। लेकिन मैं खुद इस केस के हर पहलू पर गौर कर रहा हूं इसलिए कह सकता हूँ तुम ठीक सोच रहे हो। मैं इधर के मामले को संभालते हुए केस में आगे बढ़ता हूँ तुम मंगल को शक में रखते हुए इसी रास्ते पर बढ़ो, जो सोच रहे हो।"

"राइट सर।"

"कोई खास बात हो तो मुझे मोबाइल फोन पर खबर कर देना।" इंस्पेक्टर खाटिया ने कहा।

"राइट सर।"

"अब क्या करोगे ?"

"सर उस लड़की सपना को ढूंढ निकालना बहुत जरूरी है, जिससे मंगल शादी करना चाहता था। मंगल इस वक्त वहीं पर होगा। लेकिन उस लड़की का पता नहीं मालूम हो पाया। इसके लिए मुझे शंकर रोड पर मौजूद गैराज को ढूंढ़ना है, जहां मंगल नौकरी करता है। वहां कोई न कोई तो ऐसा होगा ही जिससे मंगल ने सपना के बारे में बातें की होंगी। बताया होगा कि वो मॉडल टाउन में कहां रहती है।"

"ठीक है। अपने साथ पुलिस टीम को... ।"

"सर। ज्यादा पुलिस वाले होने से खबर मंगल तक पहुंच सकती है कि पुलिस उसकी तलाश में है। ऐसे में वो सावधान होकर हमारे हाथों से दूर हो सकता है।"

"ठीक है। लेकिन किसी एक को अपने साथ ले जाओ। तुम्हारा अकेले जाना भी ठीक नहीं।" कहने के साथ ही इंस्पेक्टर खाटिया ने कलाई पर बंधी घड़ी देखी। रात के पौने नौ बज रहे थे--- "अभी हमें यहां से फारिग होते-होते दो घंटे लगेंगे। जरूरत पड़ी तो मुझसे मोबाइल फोन पर बात कर लेना।"

"राइट सर।"

■■■

शंकर रोड पर तीन गैराज थे।

इस वक्त रात के साढ़े नौ बज रहे थे। दो गैराज तो बंद हो चुके थे। एक पर अभी भी काम हो रहा था। मंगल कौन से गैराज पर काम करता है, यह मालूम करने में कोई परेशानी नहीं आई। वो गैराज बंद था। परन्तु रात वहीं सोने वाले तीन कर्मचारी वहीं मौजूद थे ।

कमल सिन्हा के साथ हवलदार चांद सिंह था।

गैराज के बाहर ही कमल सिन्हा ने पुलिस कार रोकी।

"चांद सिंह। गन को कार में ही छोड़ देना। मैं नहीं चाहता कि गैराज पर मौजूद लोग ये समझें कि मामला गम्भीर है और वो ये खबर मंगल तक पहुंचा दें कि पुलिस उसे पूछ रही है।"

"जी।"

दोनों ने पैदल ही गैराज में प्रवेश किया।

भीतर बल्ब की रोशनी में चारपाइयां बिछाए तीन व्यक्ति बोतल खोले बैठे, मौज-मस्ती के दौर से गुजर रहे थे कि पुलिस वालों को देखकर हड़बड़ा उठे। एक ने हाथ में पकड़ा गिलास छिपाने की चेष्टा की तो दूसरे ने जल्दी से बोतल को चारपाई के नीचे रख दिया। तीसरा हड़बड़ा कर गिलास थामें फौरन खड़ा हो गया।

कमल सिन्हा ने उनकी हालत समझी और पास पहुंचकर, मुस्कराकर बोला।

"हमें देखकर घबरा क्यों गए, कोई गलत काम किया है क्या ?"

"न नहीं तो।"

"तो फिर क्यों घबरा रहे हो।" कमल सिन्हा उसी लहजे में बोला--- "पुलिस की वर्दी देखकर तो वो घबराते हैं जो गैरकानूनी काम करते हैं। बोतल क्यों छिपा दी। अन्दर बैठे आराम से पी रहे हो। कानून की निगाहों में ये गलत बात तो नहीं है।"

"जी-जी।" दूसरे ने अपने पर काबू पाने की चेष्टा की।

"कुछ पूछने आया हूं। जल्दी से जवाब दो और अपनी मौज-मस्ती जारी रखो।" कमल सिन्हा मुस्कराया।

"क्या-क्या साहब जी।"

"मंगल कहां है ?"

"मंगल ? अपने घर पर होगा।"

"घर पर नहीं है।"

"हमें क्या मालूम साहब। आज तो वो काम पर भी नहीं आया।"

ये बात कमल सिन्हा के लिए काम की थी।

"आज काम पर नहीं आया ?"

"नहीं साहब।"

"कल आया था ?"

"आया था।"

"कल जब गया तो कैसी हालत थी। गुस्से में था, सामान्य था या खुश था।"

"वैसा ही था, जैसा रोज होता है।"

"शाम को वो ज्यादा खुश होता है साहब जी ।" दूसरा कह उठा--- "पटाका छोकरी पटा रखी है उसने । बोलता है मुफ्त की पिलाती है और प्यार भी करती है। वो तो छोकरी से शादी करने को मरा जा रहा है। छोकरी भी तैयार है। लेकिन मंगल के मां-बाप छोकरी को पसन्द नहीं करते।"

"क्यों?"

"सुनी-सुनाई बात है, वो छोकरी ठीक नहीं है।"

"ठीक क्या, मैंने देखा है उसे।" तीसरा कह उठा--- "एक बार मंगल ने उसके दर्शन कराए थे। मैं तो देखकर ही दंग रह गया। हूरपरी है वो । मुझे तो विश्वास ही नहीं आया कि ऐसी तोप, मंगल जैसे फटे हुए हथगोले पर फिदा हो सकती है। भगवान ही जाने क्या मामला है। ये बात तो पक्की है कि अगर वो छोकरी ठीक होती तो मंगल जैसे बंदे से बात भी नहीं करती। लेकिन मंगल पर वो इतनी क्यों फिदा है ये बात समझ में नहीं आई। मंगल से बढ़िया उसे लाखों मिल सकते हैं और फिर मंगल के पास तो इतने नोट भी नहीं होते। वो खुद मंगल पर खर्चा करती है। मेरे को तो ऐसी कोई नहीं मिली।"

कमल सिन्हा ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था।

"क्या नाम है उस लड़की का ?"

"सपना।"

"कहां रहती है वो ?" कमल सिन्हा ने पूछा।

"मॉडन टाउन में कहीं रहती है।"

"कहीं क्या, एक बार मैं मंगल के साथ उसके घर गया था।" दूसरा कह उठा--- "वो अलग बात है कि मैं बाहर ही खड़ा रहा। घंटे भर बाद मंगल वापस आ गया था। मॉडल टाउन की चार नम्बर गली में बाईं तरफ का पांचवां-सातवां मकान है।"

"पांचवां या सातवां मकान। चार नम्बर गली।" कमल सिन्हा ने दोहराया।

"हां, अभी तक याद है मुझे।"

काम की बात मालूम हो चुकी थी।

इस वक्त रात के साढ़े दस बजने जा रहे थे।

"लेकिन बात क्या है साहब जी। मंगल ने कोई गड़बड़ की है क्या ?"

कमल सिन्हा ने मुस्कराकर शांत स्वर में कहा।

"कोई खास नहीं। वो सपना के साथ शादी करके, कहीं गायब हो गया है। उसके मां-बाप ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है कि उसे ढूंढा जाए।"

"जरूर कर ली होगी शादी।" एक ने कहा--- "सारा दिन उससे शादी करने की ही बात करता रहता था। पागल हो गया था वो उस लड़की के लिए। उन दोनों का मेल मेरी समझ से तो बाहर है ।"

"तुम लोग खाओ पियो, हम चलते हैं।" कमल सिन्हा ने कहा और हवलदार चांद सिंह के साथ गैराज से बाहर आ गया। तब रात के दस के आसपास का वक्त हो रहा था।

"सर।" हवलदार चांद सिंह कह उठा--- "सपना के बारे में मालूम हो गया कि वो कहां रहती है।"

"हां।" कमल सिन्हा के चेहरे पर सोच के भाव थे।

दोनों पुलिस कार तक पहुंचे।

"अब सपना के यहां चलना है ?"

'हां! मंगल, नब्बे करोड़ की दौलत के साथ, उसके पास ही होगा।"

"इंस्पेक्टर साहब को खबर कर दें कि....।"

"अभी नहीं, पहले हम खुद मॉडल टाउन जाकर, उस मकान को देखेंगे। कहीं ऐसा न हो कि पुलिस के साथ गलत मकान पर छापा मार दें और इतने में वो और लड़की, मौका पाकर नब्बे करोड़ की दौलत के साथ भाग जाएं। मकान की निशानदेही कर लेना ठीक रहेगा। आओ चलें।"

"सर।" हवलदार चांद सिंह ने टोका--- "ऐसे छापे, ऐसे काम, जितनी देर रात किए जाए, उतना ही बेहतर रहता है। तब अपराधी लापरवाही में नींद में होता है।"

कमल सिन्हा ने अंधेरे में हवलदार चांद सिंह पर निगाह मारी।

"क्या मतलब ?"

"सर, हमारे पास वक्त ही वक्त है। पूरी रात पड़ी है। मैंने दोपहर में भी कुछ नहीं खाया। बहुत भूख लग रही है। आधे घंटे में वो सामने वाले होटल से खाना-पीना निपट लेंगे।"

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा ने चांद सिंह को घूरा।

"आपकी मर्जी है सर।" हवलदार चांद सिंह जल्दी से कह उठा--- "मैं तो आपकी सलाह पूछ रहा...।"

"चलो, खाना खा लेते हैं।"

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा और हवलदार चांद सिंह सामने वाले होटल की तरफ बढ़ गए।

■■■

रामजीलाल और शरबती दिन भर अपने काम में व्यस्त रहे। धीरे-धीरे बोरों को गैराज में खड़ी टाटा सफारी गाड़ी पर पहुंचाते रहे। एक बोरा पहुंचाते, घंटा भर आराम कर लेते। ऐसे में उन्हें थकावट तो हुई। परन्तु न के बराबर। वैसे भी करोड़ों के नोटो का जोश-खुशी उन्हें थकान का एहसास नहीं होने दे रही थी।

शाम के पांच बजे तक वो दोनों सात बोरे टाटा सफारी के भीतर पहुंचा चुके थे।

"साली सपना ने आज रोहन को जरूर बुलाना था। वो साथ रहती तो काम आसान हो जाता।" रामजी लाल तीखे स्वर में बड़बड़ा उठा।

"छोड़ो उसे, मैं कहती हूं अच्छा हुआ जो रोहन के साथ कमरे में ही बंद है।" शरबती बोली।

"इतने घंटों से रोहन के साथ कमरे में क्या कर रही है ?"

"क्या करते हैं। तुम्हें नहीं मालूम क्या।"

"मेरा मतलब है, काम निपटाकर, रोहन को यहां से चलता कर देना चाहिए था।"

"वो उसे जी भरकर प्यार कर रही है। ये सोचकर कि आज रात उसने इस शहर से हमेशा के लिए चले जाना है।" शरबती व्यंग से बोली--- "अच्छा है। व्यस्त रहेगी तो हमारी किसी हरकत पर उसे शक भी नहीं होगा।"

"दो बोरे बाकी हैं अभी।"

"कुछ आराम कर लें। बाद में उन्हें रख देंगे। तेल है सफारी में ?"

"वो तो कहीं से भी डलवा लेंगे। यहां से चलने के लिए बहुत है।"

"मंगल की लाश को मत भूलना।" शरबती ने जैसे याद दिलाने की कोशिश की--- "बाद में सपना उस लाश को ठिकाने नहीं लगा सकेगी। लाश की बात खुली तो सपना फंसेगी और हमारा नाम भी सामने आ जाएगा। साथ में नब्बे करोड़ की बात भी। दूसरी स्थिति में हो सकता है कि हमारे जाने के बाद सपना खामोशी से हालातों से समझौता कर ले और किसी से कुछ न कहे।"

"याद है मुझे, मंगल की लाश। किसी बोरे में डालकर ले चलेंगे और रास्ते में, किसी नाले में फेंक देंगे।"

इसी तरह धीरे-धीरे काम करते हुए, वो दोनों रात होने का इंतजार कर रहे थे।

सपना और रोहन बेडरूम में।

ये सब काम कैसे करना है। रोहन और सपना शांत दिमाग से तय कर चुके थे।

"रोहन।" सपना बोली--- "तुम्हारा यहां इतनी देर तक रुकना ठीक नहीं। वो किसी तरह का शक भी कर सकते हैं।"

"क्या मतलब ?" रोहन ने सपना को देखा।

"मतलब कि उन्हें बताना होगा कि तुम जा चुके हो। जब कि तुम इसी कमरे में छिपे रहोगे।"

"ठीक है।" रोहन ने कमरे में निगाहें दौड़ाई--- "छिपने की जगह बताओ।"

"कपड़ों की अलमारी में छिपना पड़ेगा। तकलीफ तो होगी, लेकिन...।"

"तकलीफ़ की तुम फिक्र मत करो सपना। तुम्हारे लिए मैं सब कुछ सह सकता हूं।"

सपना को देखते ही शरबती के होंठों से निकला।

"रोहन गया ?"

"हां मां।" कहने के साथ ही सपना ने बदन तोड़ अंगड़ाई ली।

"मैंने तो जाते नहीं देखा।"

"तुमने ही तो कहा था कि पीछे वाले दरवाजे से उसे भेज दूं।"

"ठीक किया।" कहने के साथ ही शरबती पास आई, उसके सिर पर हाथ फेरकर बोली--- “अब तो मेरी बेटी राज करेगी। बहुत बढ़िया घराने में तुझे ब्याहूंगी।"

"नोटो के थैले सफारी में रख दिए ?"

"सात रख दिए हैं बाकी के दो भी रख देंगे। जल्दी क्या है। रात को यहां से निकलना है।"

"और वो मंगल की लाश ?"

"उसे भी बोरे में भरकर सफारी में रख लेंगे और रास्ते में फेंक देंगे। तू किसी बात की फिक्र मत कर। तेरे पापा जो हैं, सब कामों को निपटाने के लिए।" शरबती ने कहा--- "मैं काम करते-करते थक गई हूं। थोड़ा आराम कर लूं। मुझे चाय बना दे।"

"अभी बनाती हूं।"

"रोहन का साथ कैसा रहा?" शरबती ने चंचल स्वर में पूछा।

"बहुत बढ़िया।" सपना ने मुस्करा कर कहा और किचन की तरफ बढ़ गई। पलटते ही चेहरे पर नफरत के भाव नाच उठे थे। उसका तो मन कर रहा था, इन दोनों को जिंदा जला दे।

तभी एक कमरे से रामजी लाल निकला।

"रोहन गया ?" रामजी लाल ने पूछा।

"हां पापा। चाय लेंगे आप ?"

"बना दे।" कहते हुए रामजी लाल आगे बढ़ गया।

■■■

रात के नौ बज रहे थे।

नौ के नौ बोरे टाटा सफारी में आ चुके थे। फिर रामजी लाल, शरबती और सपना ने मिलकर मंगल की लाश को बोरे में डाला। देर से पड़ी लाश बहुत ज्यादा अकड़ गई थी। तोड़-मोड़ कर लाश को बोरे में डालने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी।

इस काम से फारिग होकर तीनों ने तैयार होना शुरू किया।

कपड़े बदले।

"माँ।" सपना बोली--- "कौन से शहर में जाने की सोची है ?"

"तेरे पापा को पता है। मैंने भी नहीं पूछा अभी तक।"

रामजी लाल और शरबती अकेले में मिले।

"सपना भी तैयार हो चुकी है।" शरबती धीमे स्वर में बोली--- "उससे कैसे पीछा छुड़ाएंगे ?"

"मामूली बात है। चलने से पहले चाय पिएंगे और उसकी चाय में पांच-छः नींद की गोलियां डाल दूंगा। सुबह जब उसको होश आएगी तो इस दौलत के साथ सैकड़ो मील दूर होंगे।"

"यह भी ठीक है।"

"चलना कब है ?"

"साढ़े दस के आसपास यहां से निकलेंगे।" रामजी लाल ने कहा।

तैयार होने के पश्चात सपना बेडरूम में पहुंची और दरवाजा बंद करके कपड़ों की लकड़ी की अलमारी के पास पहुंची। डेढ़ इंच अलमारी का दरवाजा खोले, रोहन भीतर मौजूद था।

पास पहुंचकर सपना धीमे स्वर में बोली।

"बाहर आ जाओ रोहन ।"

पूरा पल्ला खोलकर रोहन बाहर निकला। कई घंटों से उकड़ू सा भीतर रहने की वजह से जिस्म अकड़-सा गया था। बाहर आकर हाथ-पांव हिलाता हुआ बोला।

"काम का वक्त आ गया है ?"

"हां, यहां से चलने की तैयारी पूरी हो चुकी है।" सपना दांत भींचकर बोली--- "वे दोनों मुझे कैसे, क्या करके यहां छोड़ेंगे, ये नहीं मालूम।"

रोहन का चेहरा कठोर हो गया।

"उन्होंने जो सोचा है, मेरे होते हुए, वो पूरा नहीं हो सकेगा।" रोहन का स्वर सख्त था।

"मौके पर तुम्हारा हाथ तो नहीं कांप जाएगा।" सपना ने रोहन की आंखों में झांका।

रोहन के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभरी।

"अब कोई भी डर रोहन के कदमों को पीछे नहीं कर सकता। अपनी सपना की सारी मुसीबतें मैं अपने ऊपर ले चुका हूं। कुछ ही देर में सब ठीक हुआ, तुम देखोगी।" रोहन के दांत भिंच गए थे।

सपना की आंखों में खतरनाक चमक लहरा रही थी।

"वो कहां है ?" रोहन ने पूछा।

"तकिए के नीचे रखा है।"

रोहन आगे बढ़ा और बेड पर पड़ा तकिया हटाया तो नीचे दस इंच लम्बा और दो इंच चौड़ा छुरा पड़ा था। जिसे कि सपना किचन से लाई थी। जिससे मुर्गे वगैरह, मांस वगैरह काटकर, आने वाले कस्टमरों के लिए स्वादिष्ट भोजन तैयार किया जाता था। जो घर का बना खाना चाहते थे ।

रोहन ने छुरा पकड़ कर उसकी धार पर उंगली रखी।

ब्लेड जैसी धार थी उस छुरे की।

रोहन के चेहरे पर अब वहशी चमक उभर आई थी। आंखों में मौत के भाव नाच रहे थे।

सपना दांत भींचे रोहन को देख रही थी।

रोहन ने सपना को देखा।

"तुम यहीं रहो। उसी अलमारी में छिप जाओ। जाते हुए मैं दरवाजा भिड़ा जाऊंगी। ठीक वक्त आने पर या तो मैं खुद तुम्हें बताने आऊंगी। अगर वक्त न हुआ तो बाहर से ही दरवाजा थपथपाकर चली जाऊंगी। ये इशारा होगा तुम्हारे लिए कि तुम अपना काम करने के लिए बाहर आ सकते हो।"

रोहन की चमक भरी आंखें पुनः छुरे पर जा टिकीं।

■■■

तब रात के ठीक दस बज रहे थे। चलने की तैयारी हो चुकी थी। मंगल की लाश वाला बोरा भी सफारी में रख दिया गया था। तीनों ड्राइंगरूम में इकट्ठे हुए तो शरबती ने रामजी लाल से कहा।

"चलें अब ?"

"जरूर।" रामजी लाल खुशी भरे ढंग से मुस्कराया--- "चलने से पहले एक-एक कप चाय हो जाए तो ठीक रहेगा।"

"चाय का तो मेरा भी मन कर रहा था। भूख लग रही है, वो कुछ देर के लिए दब जाएगी।" कहने के साथ ही शरबती ने सपना को देखा--- "बेटी चाय तू बनाएगी या...।"

"मैं बना लाती हूं मां।" कहने के साथ ही सपना उठी और किचन की तरफ बढ़ गई।

उसके जाते ही शरबती ने धीमे स्वर में, रामजी लाल से पूछा।

"नींद की गोलियां कहां है ?"

रामजी लाल ने जेब में हाथ डाला और गोलियां निकाल लीं। पूरी छः गोलियां थीं।

"हाथ में ही पकड़े रखो। इस तरह उसकी चाय में डालना कि उसे पता न चले।"

"चिन्ता मत करो।" रामजी लाल के स्वर में जहरीलापन आ गया--- "समझो गोलियां उसकी चाय में पड़ गई। वो नींद के नशे में लुढ़क गई और हम नब्बे करोड़ के साथ दूर, किसी दूसरे शहर में पहुंच चुके हैं।"

दोनों के खुशी भरे चेहरे देखने लायक थे ।

औलाद को हमेशा के लिए छोड़ने का कहीं कोई गम नहीं था। खुशी थी तो नब्बे करोड़ की और भविष्य में मिलने वाली, जीने वाली, शानदार जिंदगी की।

■■■

सपना ने चाय से भरे प्याले बड़ी प्लेट में रखे। चाय बनाने के दौरान इस बात के प्रति सतर्क थी कि किचन में रामजी लाल उसे कोई चोट पहुंचा कर बेहोश न कर दे। चूंकि उन्होंने अब उससे पीछा छुड़ाना तो, ऐसी किसी हरकत की उसे पूरी आशा थी।

साथ-ही-साथ सपना उलझन में भी थी कि ठीक चलने के वक्त उनको चाय पीने की क्या सूझी। पक्के तौर पर कोई तो खास बात है ही।

प्लेट में चाय के प्याले रखे, सपना किचन से बाहर निकली।

रामजी लाल और शरबती की बातें करने की मध्यम-सी आवाजें उसके कानों में पड़ रही थीं। रास्ते में पड़ने वाले बेडरूम के दरवाजे के सामने पल भर के लिए वो ठिठकी। फिर दूसरे हाथ से दरवाजा खोलते हुए भीतर प्रवेश किया और अलमारी के पास पहुंचकर धीमे स्वर में बोली।

" रोहन ।"

अलमारी का पल्ला खुला और पसीने से भरा रोहन बाहर निकला। हाथ में छुरा था।

"ड्राइंगरूम में हम चाय पी रहे हैं। पांच मिनट का वक्त है तुम्हारे पास। उन दोनों को खत्म करने के लिए।" कहने के साथ ही सपना पलटी और जल्दी-जल्दी बाहर निकलती चली गई।

ड्राइंगरूम में पहुंचकर प्यालों वाली प्लेट टेबल पर रखी।

"ला बेटी, इस घर की आखिरी चाय भी पी लें।" कहते हुए शरबती ने चाय का प्याला उठाया।

रामजी लाल ने चाय का प्याला उठाते हुए सपना से कहा।

"सफारी का पीछे वाला दरवाजा चैक कर ले। ठीक तरह बंद है।"

सिर हिलाते हुए सपना ड्राइंगरूम में लगे एक दरवाजे के पास पहुंची। दरवाजा खोला तो सामने ही, मकान के भीतर की खाली जगह में, सफारी खड़ी नजर आई। उसी पल सपना ने पीछे देखा। ये वही पल थे, जब रामजी लाल जल्दी से उसकी चाय में नींद की गोलियां डाल रहा था। ये देखकर सपना के चेहरे पर घृणा और नफरत उभरी। तो उसे नींद में बेहोश करके, दौलत लेकर खिसकने की तैयारी में हैं उसके कमीने मां-बाप। लेकिन उसने तो इससे भी पक्का इंतजाम कर रखा है दोनों का।

बाहर निकलकर, सफारी के पास से होकर सपना वापस आ गई।

"बंद है।" पास आकर बोली और चाय का प्याला लेते हुए सोफा चेयर पर बैठते हुए कहा--- "साथ में कपड़े ले जाने की जरूरत तो नहीं।"

"क्या जरूरत है।" चाय का घूंट भरते हुए रामजी लाल ने लापरवाही से कहा--- "सफारी में वैसे भी जगह नहीं है। बहुत पैसा है। नए कपड़े खरीद लेंगे।"

शरबती भी बराबर चाय का घूंट भर रही थी।

दोनों इस इंतजार में थे कि सपना चाय पीनी शुरू करे। सपना ने तसल्ली भरे अंदाज में घूंट भरा। वो जानती थी कि एक-दो घूंट से नशे की गोलियां उस पर कोई असर नहीं करेंगी। क्योंकि व्हिस्की वो लेती रहती थी। नशे की आदी थी।

"जल्दी चाय खत्म कर सपना।" रामजी लाल घूंट भरते हुए बोला--- "अब चलना भी है।"

सपना ने एक और छोटा-सा घूंट भरा।

ठीक तभी मौत का पुतला बना रोहन नजर आया। उसने तूफान की भांति भीतर प्रवेश किया। सबसे पास में शरबती थी उसके। वो बाज की तरह झपटा और हाथ में पकड़ा छुरा पूरा का पूरा शरबती की गर्दन में उतार दिया।

शरबती के शरीर को तीव्र झटका लगा। चाय के प्याले के साथ ही सोफे से लुढ़क कर फर्श पर गिरती चली गई। लेकिन उससे पहले ही रोहन ने तीव्र झटके के साथ खून से सना छुरा निकाल लिया था । वहशी दरिन्दा लग रहा था वो। ये सब देखकर, रामजी लाल के हाथों से चाय का प्याला छूटकर नीचे जा गिरा था। वो हड़बड़ा कर उठा।

रोहन फुर्ती के साथ रामजी लाल पर झपट पड़ा। खून में सना छुरा इस ढंग से पकड़ा था कि वो पूरा छुरा उसके सीने में उतार देना चाहता था। जाने कैसे छूरे के हाथ वाली कलाई रामजी लाल के हाथ में आ गई और उसने पूरा जोर लगा दिया कि छुरा उसकी छाती में न धंस सके।

रोहन ने भी पूरा जोर लगा दिया कि छूरा उसकी छाती में घुसेड़ दे।

दोनों की जोर आजमाइश देखकर सपना को लगा, कहीं पासा पलट न जाए।

अगर रोहन कामयाब न हुआ तो रामजी लाल बाद में उसे भी छोड़ने वाला नहीं। ऐसे नाजुक वक्त में सपना को और तो कुछ सूझा नहीं। वो फौरन उठी और पास पहुंचकर गर्म चाय का प्याला रामजी लाल की गर्दन पर उड़ेल दिया।

गर्म चाय शरीर पर पड़ते ही रामजी लाल तड़प उठा। रोहन की कलाई से उसकी पकड़ ढीली हुई। मौके का फायदा उठाते हुए कलाई को झटका देकर, कलाई छुड़ाई और दांत भींचकर छुरा पूरा का पूरा रामजी लाल की छाती में उतार दिया।

रामजी लाल की आंखें फटती चली गईं।

रोहन दो कदम पीछे हट गया। वहशी, खूनी निगाहों से रामजी लाल को देखता रहा, जिसका शरीर बुत की तरह कुछ क्षण खड़ा रहा फिर किसी फट्टे की भांति पीठ के बल नीचे जा गिरा। वो मर चुका था। उसकी फटी आंखें छत को देखे जा रही थीं। छाती में छुरा मूठ तक धंसा हुआ था।

शरबती की सांस तो एकदम ही गायब हो गई थी।

दो लाशें सामने देखकर सपना हक्की-बक्की ठगी-सी खड़ी रह गई। हाथ में चाय का खाली प्याला था। बेजान-बुत की तरह खड़ी थी, मात्र पुतलियां हिल रही थीं जो कभी रामजी लाल की लाश पर जाती तो कभी शरबती की लाश पर ।

एकाएक उसके हाथ से प्याला गिरा तो उसके टूटने की आवाज से उसके जेहन को तीव्र झटका लगा। रोहन भी जैसे प्याला टूटने की आवाज से होश में आया।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा।

सपना ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। चेहरे पर घबराहट की वजह से पसीने की बूंदें उभर आई थीं। जबकि रोहन का गुस्से से भरा, कठोर चेहरा, धीरे-धीरे ठीक हो रहा था। परन्तु उसकी आंखों में डर और शरीर में बेचैनी घर, करने लगी थी।

"सपना।" रोहन के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला--- "मैं-मैंने ठीक किया। ठीक किया मैंने।"

"ह-हां।" सपना की आवाज में घबराहट थी--- "ठीक किया रोहन । तुमने वही किया जो मैं चाहती थी। ये दोनों मेरे मां-बाप थे। मां-बाप के नाम पर कलंक थे। इनके लिए सब कुछ पैसा था। सिर्फ पैसा। बेटी को दूसरे मर्दों के सामने बिछाकर बहुत खुश होते थे कि मशीन चालू है और इन्हें नोट मिल रहे हैं। बहुत गंदे थे और मुझे भी गंदा बना दिया था। लेकिन आज वो वो सपना मर गई रोहन। मर गई। इनकी मौत के साथ ही नई सपना ने जन्म लिया है। अच्छी और पवित्र सपना ने ।"

"सपना।" रोहन का स्वर थरथरा उठा।

वे कुछ पल एक-दूसरे को देखते रहे।

"रोहन।" सपना ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "ह-हम दो लाशों के बीच खड़े हैं।"

रोहन को जैसे पूरी तरह होश आया। उसने अपना हाथ देखा। हाथ पर ढेर सारा खून लगा था। बांह और कमीज पर भी खून के छींटे थे।

"ये खून।"

"बाथरूम में जाकर खून साफ कर लो। कमीज उतार दो। मैं तुम्हें नई कमीज देती हूं पहनने को।" सपना का स्वर घबराहट से अभी भी बेकाबू था।

अपने पर काबू पाता रोहन बाथरूम की तरफ बढ़ गया। लेकिन स्पष्ट तौर पर अपनी टांगों में कम्पन महसूस कर रहा था।

अगले बीस मिनटों में दोनों काफी हद तक अपनी घबराहट पर काबू पा चुके थे। उस डर से वे निकल चुके थे, जो हत्याओं के पश्चात एकाएक उनके सिर पर सवार हुआ था। ये जुदा बात थी कि उनके चेहरे अभी भी फक्क थे।

रोहन नई कमीज पहन चुका था। बाथरूम का फेरा लगाने के पश्चात खून की बूंद कहीं भी नजर नहीं आ रही थी।

रोहन ने सपना को और सपना ने रोहन को देखा।

"चलें रोहन।" सपना का स्वर जाने क्यों कांप उठा।

"हां-सपना।" रोहन की आवाज में थरथराहट थी।

सपना कांपती टांगों से आगे बढ़ी और पास पहुंचकर रोहन के सीने से लग गई। आंखों से आंसू बह निकले कि आज उसकी नई जिन्दगी की शुरुआत हो रही थी। रोहन ने अपने कांपते हाथों से सपना की पीठ थपथपाकर उसे अलग किया फिर सपना का हाथ पकड़कर दरवाजे की तरफ बढ़ा।

कुछ ही पलों बाद वे सफारी में बैठे। पीछे वाला हिस्सा नोटों से भरे बोरों ने घेर रखा था। रोहन ने ड्राइविंग सीट संभाली। सपना बगल में बैठ चुकी थी।

"चलें।" रोहन ने मुस्कराने की चेष्टा की।

सपना ने सहमति में सिर हिलाया। मुस्कराने की भी चेष्टा की, परंतु मुस्करा न सकी।

रोहन ने टाटा सफारी स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी। दो पलों में ही वो मकान से बाहर सड़क पर थी। और फिर टाटा सफारी मुख्य सड़क पर आ पहुंची।

"रोहन।" एकाएक सपना बोली--- "गाड़ी में मंगल की लाश भी है। बोरी में।"

"घर पर ही बता देती तो लाश वाला बोरा वहीं निकाल देता।" रोहन ने कहा।

"याद नहीं रहा। रास्ते में कहीं फेंक देंगे।" सपना ने धीमे स्वर में कहा।

रोहन सहमति में सिर हिलाने के बाद बोला।

"ठीक है। लेकिन मुझे जोरों की भूख लगी है। सुबह से कुछ खाया नहीं।"

"मुझे भी भूख लग रही है। बहुत वक्त है हमारे पास। वक्त ही वक्त है।" कहते हुए सपना ने पुनः मुस्कराने की चेष्टा की--- "जहां मन करे, खाने के लिए रोक देना।"

पौने ग्यारह का वक्त हो रहा था।

■■■

इस वक्त से कुछ घंटे पहले, शाम करीब छः बजे की बात।

फूलचंद ।

पिता का नाम गरीबचंद ।

गरीबचंद आजमगढ़, यू.पी. के गांव अतरोलियां का रहने वाला था। पड़ोस की लड़की से सत्ताईस-अट्ठाईस बरस पहले आंख लड़ गई। गांव के खेतों में कई बार प्यार-मौहब्बत भी हुई। नतीजा यह हुआ कि युवती के पेट मे बच्चा ठहर गया।

गरीबचंद और वो लड़की, कमला के हाथ-पांव फूल गए कि बच्चा ठहरने की बात खुलते ही उनकी खैर नहीं और ये बात छिप भी नहीं सकती थी। पंचायत उन्हें कैसी भी सख्त से सख्त सजा दे सकती थी। यूं दोनों परिवार आपस में बात करके एक-दूसरे की शादी भी कर देते। परंतु गरीबदास और कमला जानते थे कि ये सम्भव नहीं है क्योंकि दोनों की जात-बिरादरियों में जमीन आसमान का अंतर था। एक ऊंचे खानदान का था और दूसरा नीचे।

तब कोई और रास्ता न पाकर गांव से हमेशा के लिए नाता तोड़ते हुए दोनों भागकर, इस शहर में आ गए। इधर-उधर नौकरी करके गरीबदास ने घर की गाड़ी चलाने की कोशिश की। परन्तु किसी भी नौकरी पर टिक नहीं पाया और वैसे भी नौकरी से वक्त का भरपेट खाना भी पूरा नहीं हो पाता था।

इस बीच फूलचंद जन्म ले चुका था।

बच्चे के खर्चे अलग। तब नौकरी भी कोई हाथ में नहीं थी। गरीबचंद से बच्चे की भूख-प्यास नहीं देखी गई तो चोरी-चकारी और छीना-झपटी पर उतर आया। इस तरह घर का गुजारा चलने लगा। खाने-पीने की कमी-पेशी समाप्त हो गई।

कमला सब जानती थी। परन्तु मजबूरी थी। उसने गरीबदास को कभी न रोका।

वक्त बीतता चला गया।

फूलचंद जवान हो गया। थोड़ा-बहुत पढ़ा लिखा था। नौकरी करने की बहुत कोशिश की। जो कि मिलती नहीं थी। मिलती थी तो इतने कम पैसे कि आने-जाने में ही खर्च हो जाते थे। गरीबचंद ने ये देखकर कि बेटे को पैसे की परेशानी रहती है, आखिरकार चोरी-चकारी का, अपने वाला ही काम सिखाने का फैसला किया और उसने फूलचंद को दो-तीन सालों में सब कामों में एक्सपर्ट बना दिया।

बाप-बेटे उल्टे काम करते और घर में खुला पैसा आने लगा। इस बीच उन्होंने अपना घर भी बना लिया था और दो साल पहले एक दिन, चोरी करने के दौरान, गरीबचंद पांचवीं मंजिल के छज्जे से गिरकर जान गंवा बैठा।

अब घर में फूलचंद ही बचा, कमाने के लिए।

जैसे-तैसे घर के खर्चे-पानी की गाड़ी ठीक ही चलती रही। परंतु पिछले एक महीने से फूलचंद और कमला पैसे के मामले में बहुत तंग थे। महीने से फूलचंद एक पैसा भी घर नहीं ला पाया और कमला रोज उसे गुस्से में ताने मारती रहती ।

और इस वक्त भी कमला के सिर पर गुस्सा सवार था ।

"बड़ा नाम रोशन कर रहा है अपने बाप का।" कमला कुढ़कर, फूलचंद से कह उठी--- "जब तेरा बाप जिंदा था तो हफ्ते में एक बार पूछने के लिए, पुलिस वाले इस घर की चौखट पर आते थे। वो भी वर्दी पहनकर । महीने में बीस दिन तेरा बाप हाथ मारने में कामयाब रहता था। कभी किसी के गले से सोने की चेन खींच लेता तो कभी किसी का पर्स निकाल लाता। कभी गाड़ी चोरी करके बेच देता तो कभी कहीं चोरी कर लेता और कुछ न हुआ तो रात को किसी पर चाकू तानकर उसकी घड़ी-पर्स वगैरह ले आता। एक बार तो तेरा बाप कुली बनकर स्टेशन पर पहुंच गया था। कुली बनकर सामान उठाया और घर ले आया। ऐसा कौन-सा काम बचा जो तेरे बाप ने नहीं किया। जब तक तेरा बाप जिंदा रहा तो मुझे कोई तकलीफ नहीं होने दी। पूरा सुख दिया। ये मकान यूं ही खड़ा नहीं कर दिया तेरे बाप ने। मोटे-मोटे हाथ मारकर लाता था। जिस दिन इस मकान का लेंटर (छत) पड़ना था, बीस हजार रुपया कम हो गया। बोलकर गया तेरा बाप कि दोस्त से लेकर आता हूं और दो घंटे में वापस आ गया, बीस हजार रुपया लेकर। हलवाई की छाती पर चाकू रखकर बीस हजार लाया था। दिल गुर्दे वाला था तेरा बाप और तू-तू तो नाक कटवा रहा है अपने बाप की। महीना हो गया, फूटी कौड़ी भी नहीं लाया। घर में खाने के दाने खत्म हो रहे हैं। अब क्या तूने मुझे ये वक्त दिखाना है कि झोली फैलाकर भीख मांगने के लिए चौराहे पर बैठ जाऊं । तू तो...।"

"मां तुम...।" फूलचंद ने कहना चाहा।

"खबरदार जो मुझे मां कहा।" कमला गुस्से से कह उठी--- "यह तो अच्छा हुआ कि तेरा बाप मर गया। नहीं तो अपनी औलाद को नकारा देखकर कितना दुःख...।"

"तुम समझती नहीं मां।" फूलचंद खींझकर कह उठा--- "कभी-कभी वक्त ही ऐसा आ जाता है कि कहीं भी हाथ ठीक नहीं लगता। परसों फंसते- फंसते बचा हूं। क्योंकि....।"

"तेरा बाप पैसा बनाता था और तू बहाने बनाता...।"

"मैं बहाने नहीं...।"

"कान खोलकर सुन ले। अगर कमा कर नहीं लाएगा तो घर में नहीं रहने दूंगी।" कमला सख्त स्वर में कह उठी--- "शाम हो रही है। निकल जा घर से। शिकार ढूंढ । खाली कर उसे और नोट लेकर आ। जब भी घर आए, पास में पैसा होना चाहिए। पैसा नहीं तो तेरे लिए घर में जगह भी नहीं।"

"मां, तुम तो यूं ही गुस्सा...।"

"मैं तेरे को, तेरे फर्ज का एहसास दिला रही हूं कि तेरे को कमाकर पैसा घर लाना है। अपने बाप की तरह। यूं हाथ पर हाथ रखकर, बिठाकर मैं तो खिलाने से रही।"

"मां।"

"निकल जा। तभी आना जब पैसा हाथ लग जाए।"

फूलचंद ने गहरी सांस ली और गुस्से से अपनी मां को देखा।

"मुझे क्या घूरता है।" कमला के माथे पर बल उभरे।

फूलचंद बिना कुछ कहे, गुस्से से पलटा और बाहर निकलता चला गया।

■■■

ग्यारह बजे के ऊपर का वक्त हो चुका था। रात के इस वक्त दिन की अपेक्षा सड़कों पर अधिकतर सुनसानी छाने लगी थी। इसके बावजूद भी अभी ढेरो वाहन आ-जा रहे थे। उन वाहनों में वो टाटा सफारी भी थी। तभी सपना कह उठी।

"वो देखो रोहन। सड़क के उस पार, खाने के दो-तीन रेस्टोरेंट एक साथ हैं। वहां डिनर ले लेते हैं।"

रोहन ने सफारी धीमी करते हुए उस तरफ देखा ।

"आगे से गाड़ी को मोड़कर, उस तरफ लाना होगा।" रोहन ने कहा।

"लम्बा चक्कर काटने का क्या फायदा।" सपना कह उठी--- "गाड़ी यहीं किनारे पर लगा दो। इस वक्त कौन-सी भीड़ है। हम सड़क पार करके रेस्टोरेंट में चले जाते हैं।"

"लेकिन, गाड़ी में इस तरह रुपया छोड़ना ठीक होगा।" रोहन ने सपना को देखा।

"कुछ नहीं होता। गाड़ी के शीशे काले हैं। भीतर क्या है, बाहर से कुछ नजर नहीं आएगा। वैसे भी ये अपने मन का चोर है। कुछ नहीं होगा।" सपना ने प्यार से रोहन के हाथ पर हाथ रखा।

कोई नहीं कह सकता था कि ये दोनों दो खून करके आ रहे हैं।

"कोई गाड़ी चोरी करके ले गया तो?" रोहन मुस्कराया।

"हम सामने ही तो हैं।" सपना हंसी--- "जो बाहर टेबल-कुर्सियां रखी हैं। हम वहां बैठेंगे। वहां से गाड़ी हमारी नजर में रहेगी।"

रोहन ने बिना कुछ कहे, सफारी को वहीं सड़क के किनारे उतारकर रोका और इंजन बंद करके, दरवाजे खिड़कियां ठीक से बंद करके बाहर आए और डोर लॉक किया। दोपहर को कुछ न खाने की वजह से दोनों को तगड़ी भूख लग रही थी और अब उन्होंने लम्बे सफर पर निकलना था, इसलिए पेट भरकर, अपना सफर शुरू करना चाहते थे ।

"चला पुत्तर चला। फिक्र न कर। तेरे को ए-वन ड्राइवर बना दूंगा। वरना सारी उम्र तू ट्रक का क्लीनर ही बना रहेगा।" कहने के साथ ही बन्ता सिंह ने हाथ में पकड़े गिलास से शराब का तगड़ा घूंट भर दूसरे हाथ में आधी भरी बोतल थाम रखी थी।

ट्रक को उन्नीस-बीस बरस का युवक चला रहा था। जिसके अभी दाढ़ी के बाल भी पूरे नहीं आए थे। जब भी स्टेयरिंग इधर-उधर होता तो पास बैठा बन्तासिंह टोक देता था।

"मेहरबानी उस्ताद जी, जो आप मुझे ट्रक चलाना सिखा रहे हैं। "

"मेहरबानी को मार गोली। कान खोलकर सुन ले बूटे। वो अक्खड़ मालिक को न पता चले कि मैं तुझे ट्रक चलाना सिखा रहा हूँ। उसे पता चल गया तो वो हम दोनों को धक्के मारकर नौकरी से निकाल देगा। तब मैं तेरा उस्ताद नहीं होऊंगा और तू मेरा चेला नहीं।"

"मैं क्यों बताने लगा उस बेवकूफ को कि....।"

"धीरे बोल। वो साला सुन न ले।" बन्तासिंह ने घूंट भरा--- "स्टेयरिंग जरा बाएं ले। हां, ऐसे।"

"उस्ताद जी, मैं ट्रक ड्राइवर बन गया तो मुझे तनख्वाह कितनी मिलेगी?" बूटे ने पूछा।

"तनख्वाह से कुछ नहीं होता। माल तो ऊपर बनाया जाता है।" बन्तासिंह ने हंसकर गिलास खाली कर दिया।

"अच्छा। अच्छा, समझ गया।"

"क्या समझ गया ?" बन्तासिंह ने बोतल से गिलास में शराब डालते हुए कहा ।

"वही ऊपर वाली बात। जैसे आप रास्ते में माल निकालकर बेच देते...।"

"जुबान बंद रख, उस्ताद की बातें एक आंख से देखते हैं और दिमाग वाली आंख से भूल जाते हैं। जब तू पूरा ड्राइवर बन जाएगा तो ये वाली पढ़ाई भी पढ़ा दूंगा। स्टेयरिंग संभालना तो सीख ले पहले।"

"आपका हाथ पीठ पर रहा तो सब सीख लूंगा।"

"जानता है मैं तेरे को ट्रक चलाना क्यों सिखा रहा हूं...।" बन्तासिंह ने घूंट भरा।

"क्योंकि मैं आपके गांव का हूं।"

"गंवार का गंवार ही रहेगा।" बन्तासिंह ने नशे से भरी तीखी आंखों से उसे देखा— “मैं तेरे को इसलिए सिखा रहा हूं कि तेरे पड़ोस में वो रहती है और अगले हफ्ते तू गांव जा रहा है।"

"समझ गया। लेकिन अगले हफ्ते गांव जाने से इस बात का क्या मतलब।"

"उल्लू के पट्टे। मुझे अपने मां-बाप से कहते शर्म आती है कि मेरी शादी, तेरी पड़ोसन से करा दो। वैसे भी मेरा बाप ओखा, (गुस्सा) किस्म का है। उसे कुछ कहना तो मुसीबत मोल लेना है। तू जाकर मेरे मां-बाप को मेरी तरफ से बोल देना कि मेरी शादी उससे करवा दें। बोलना बन्ता सिंह कह रहा था। दस हजार मैंने जमा कर रखे हैं। वो तेरे को दूंगा। ये बात कहते हुए दस हजार, उसके हाथ पर रख देना। इसलिए कि वो ओखा होने लगे तो दस हजार उसे ठंडा कर दें।"

"समझ गया।"

"तू ट्रक ड्राइवर कभी नहीं बन सकता।" बन्तासिंह घूंट भरकर उखड़ा।

"क्यों?"

"ट्रक चला रहा है या बैलगाड़ी, एक्सीलेटर दबा।"

"उस्ताद, तुमने ही तो कहा कि सीखते हुए, ट्रक को चींटी की तरह धीमा चलाना।"

"तब मैंने पी नहीं रखी थी। अब ठीक है। रेस दे। मैं बैठा हूँ तेरे साथ, संभालने के लिए। सब ठीक कर दूंगा।" कहते हुए बन्तासिंह ने तगड़ा घूंट भरा।

बूटे ने एक्सीलेटर दबा दिया।

ट्रक गोली की तरह भागा।

"शाबाश, खींच-खींच साले को। तेरे को पक्का ड्राइवर बना के रहूंगा।"

आधा मिनट भी नहीं बीता होगा कि सामने मोड़ आ गया।

ट्रक की रफ्तार वही रही।

जब मोड़ सिर पर आ गया तो बन्ता सिंह की आंखें चौड़ी हुई।

"उल्लू के पट्ठे रेस कम कर। ब्रेक मार, ट्रक मोड़ना है।" बन्तासिंह चीखा।

लेकिन बूटे के हाथ-पांव फूल गए थे। वो भला क्या जाने कि ट्रक को एकदम कैसे कंट्रोल किया जाता है। वो कुछ नहीं कर सका। गले से आवाज भी नहीं निकली। बन्तासिंह के एक हाथ में बोतल और दूसरे में गिलास था। इतनी जल्दी वो बूटे की जगह भी नहीं ले सकता था।

मोड़ आ गया।

कुछ कर पाने का वक्त भी निकल चुका था।

बोतल छोड़कर बन्तासिंह ने दांत भींचकर स्टेयरिंग को बाईं तरफ मोड़ दिया। ट्रक उलटते-उलटते बचा। मोड़ काटते ही जोरों से लहराया। बूटे ने घबराहट में अभी तक एक्सीलेटर का पैंडल दबा रखा था।

"एक्सीलेटर से पांव हटा, उल्लू के पट्टे।" बन्तासिंह चीखा।

बूटासिंह ने एक्सीलेटर से ऐसे पांव हटाया जैसे वो सांप हो। पूरी तरह घबराया पड़ा था वो। ये जो मामला बिगड़ा था। संभल जाता, अगर सामने सड़क खाली होती।

सपना और रोहन सड़क पार न कर रहे होते।

बन्तासिंह की आंखें फैलती चली गई। शराब का गिलास हाथ से छूट गया। उसे समझते देर न लगी कि सड़क पार कर रहे युवक और युवती बचने वाले नहीं। ट्रक उनके सिर पर पहुंच चुका था।

"उस्ताद।" बूटे के होंठों से कांपता स्वर निकला।

"बाड़ दित्ता तू उस्ताद नूं।"

"रोहन।" सड़क पार करते हुए, रोहन का हाथ पकड़े सपना कह उठी--- "गाड़ी में पैट्रोल है ?"

"कम है। खाना खाने के बाद टंकी फुल करवा लेंगे।"

"मालूम है रोहन।" सपना के स्वर में प्यार ही प्यार था--- "सबसे पहले मुझे क्या चाहिए ?"

"क्या ?"

"बच्चा। मैं मां बनना चाहती हूं रोहन। मां बनकर मैं पूर्ण औरत बन जाना चाहती हूं।"

जवाब में रोहन ने प्यार से उसका हाथ दबाया।

ये यही वक्त था जब रफ्तार से आता ट्रक उनके सिर पर आ पहुंचा था। उस वक्त किसी राक्षस का साया लगा वो ट्रक उन्हें। यूं कि वो ट्रक एकाएक मुड़कर उनके सामने आ गया था। इसलिए...।

इतना भी वक्त न मिला कि खुद को बचा सकें।

"रोहन !" सपना चीखी। भय से उसकी आंखें फैल गई थीं।

रोहन ने जल्दी से सपना को सीने से लगा लिया और फटी आंखें ट्रक पर थीं।

ट्रक ने वेग के साथ उन्हें टक्कर मारी। वे दोनों नीचे गिरे। इसके साथ ही ट्रक उन दोनों को कुचलता हुआ आगे बढ़ता चला गया। कुछ पलों तक तो ट्रक बेकाबू-सा सड़क पर जाता नजर आता रहा फिर एकाएक ट्रक संभला और देखते ही देखते निगाहों से ओझल हो गया। स्पष्ट था कि ड्राइविंग सीट बन्तासिंह ने संभाल ली थी।

■■■

फूलचंद !

पचास रुपये जेब में पड़े थे। सामने वाले होटल से दाल और दो रोटी खाई तो तीस रुपये ठुक गए। अब सिर्फ बीस रुपये ही बचे थे जेब में। शाम को जब घर से निकला था तब से ही शिकार की तलाश में भटक रहा था। लेकिन कोई शिकार हाथ न लगा।

इस वक्त थका-सा एक बंद दुकान के आगे बैठा, सिगरेट के कश ले रहा था। सड़क पार वही रेस्टोरेंट नजर आ रहे थे, जहां उसके तीस रुपये ठुके थे। मां गुस्से में थी। ऐसे में घर जाना ठीक नहीं था। मां की डांट सुनने का क्या फायदा? वैसे भी मां गलत तो नहीं थी। उसे घर में पैसे लाने चाहिए थे और एक महीने से वो कुछ नहीं ला पाया था। कहीं हाथ मारने का मौका ही नहीं मिला, तो वह क्या करे? मां को इस बात से क्या, उसे तो बस पैसे चाहिए थे।

तभी फूलचंद की निगाह टाटा सफारी पर जा टिकी। जो कि दाईं तरफ से आ रही थी और उसकी रफ्तार कम हो रही थी ।

वो सफारी को देखता रहा।

देखते ही देखते सफारी सड़क से उतर कर रुक गई। फूलचंद देखता रहा। सफारी से युवक और युवती उतरे। सफारी को लॉक करके, सड़क पार करने के लिए आगे बढ़ गए।

फूलचंद समझ गया कि वो रेस्टोरेंट में खाना खाने जा रहे हैं। उसकी निगाह सफारी पर जा टिकी। वो नई थी। यानी कि माल अच्छा था। असलम साठ-सत्तर हजार तो दे ही देगा। नहीं तो पचास हजार कहीं नहीं गए। फूलचंद ने फौरन फैसला किया कि सफारी को ले उड़ना है।

तभी फूलचंद चिहुंक उठा।

उसके देखते-ही-देखते वो ट्रक पास ही मोड़ से प्रकट हुआ और तोप के गोले की रफ्तार से युवक-युवती को कुचलता हुआ, निगाहों से ओझल होता चला गया।

फूलचंद अपनी जगह पर ठगा-सा बैठा रह गया।

दो पल के लिए तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। परंतु जो हुआ था वो सामने था। युवक-युवती के शरीर सड़क पर बिलकुल शांत पड़े थे। फूलचंद समझ गया कि वे दोनों अब जिन्दा नहीं रहे। जिंदा होते उनके शरीर में कोई तो हरकत होती।

जो हुआ, बुरा हुआ।

ये सोचकर, उसकी निगाहें इधर-उधर घूमीं। वह जानता था कि कुछ ही देर में यहां आते-जाते लोगों की भीड़ लग जानी थी और उसके बाद पुलिस।

फूलचंद अपनी जगह से उठा और सफारी की तरफ बढ़ गया।

इससे बढ़िया मौका नहीं था टाटा सफारी ले उड़ने का। उसकी जेब में दो-तीन ऐसी चाबियां रहती थीं, जिनसे हर वाहन के लॉक खोले जा सकते थे। गाड़ी स्टार्ट की जा सकती थी। गुप्त जेब से वो चाबियां निकाली और पलों में सफारी का दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया और दरवाजा बंद कर लिया, फिर उसे स्टार्ट किया और धीरे से सफारी को आगे बढ़ा दिया।

सड़क पर सपना और रोहन की कुचली लाशें पड़ी थीं।

कुछ आगे जाकर फूलचंद ने हैडलाइट ऑन कर ली। सफारी में पीछे क्या पड़ा है। ये देखने का उसने एक बार भी कष्ट नहीं किया था। मस्तिष्क में सिर्फ यही था कि सफारी असलम के हवाले करके पचास-सत्तर जो भी वो देगा, वो जाकर मां को थमाकर उसे खुश कर देगा।

असलम नहीं मिला।

वो वक्त-बेवक्त अपने गैराज पर मौजूद रहता था। परन्तु मालूम हुआ कि दो दिन से वो शहर से बाहर हैं और उसकी वापसी दो-चार दिन बाद होगी।

फूलचंद का मन किया कि माथा पीट ले।

कठिनता से नई-नई सफारी पर हाथ मारा था और अब असलम नहीं था। सब कुछ बेकार गया। सारी मेहनत मिट्टी में। वैसे वो एक और को जानता था जो चोरी की गाड़ियां खरीदता था, परंतु कुछ दिन पहले ही वो पुलिस के हत्थे चढ़ गया था। दे-दिलाकर छूट तो गया था, लेकिन कुछ देर के लिए उसने अपना धंधा बंद कर दिया। था ताकि पुलिस उसकी तरफ से लापरवाह हो जाए।

अब क्या करे ?

जाहिर था कि गाड़ी को यूं ही सड़क पर छोड़कर, उसे कोई दूसरा रास्ता देखना पड़ेगा जहां से नोट बना सके। परन्तु उसका मन नहीं कर रहा था नई सफारी को यूं छोड़ने का वो जानता था कि ऐसी बढ़िया गाड़ियां कभी-कभार ही हाथ लगती हैं।

सोचों ही सोचों में फूलचंद ने फैसला लिया कि असलम दो तीन दिन में आ जाएगा। दो-तीन दिन तो वो सफारी को अपने घर में भी रख सकता है। घर के भीतर खड़ी करके ऊपर चादरें देकर सफारी को ढांप देगा कि कोई स्पष्ट तौर पर सफारी को न देख सके। दो-तीन दिन में जब असलम लौटेगा तो सफारी उसके हवाले करके नोट खरे कर लेगा।

फूलचंद ने टाटा सफारी अपने घर की तरफ दौड़ा दी।

■■■

"ये क्या ट्रक उठा लाया है।" कमला की आंखें नींद से भरी थीं--- "माल को साइड लगाकर, तेरा बाप सिर्फ नोट लाता था और तू...।"

"चुप कर मां।" फूलचंद झल्ला उठा--- "ये ट्रक नहीं, टाटा सफारी है। लाखों की गाड़ी।"

"मुझे लाखों की गाड़ियों नहीं, लाखों देखने का शौक...।"

"चुप कर मां, चुप कर। रात का वक्त है। कोई सुन लेगा।" फूलचंद अपने गुस्से पर काबू पाता हुआ बोला--- "जो भी बात हो। वो अन्दर जाकर भी तो हो सकती है। तू कुछ पुरानी चादरें ले आ। गाड़ी को ढांपना हैं। दो-तीन दिन की बात है। जिसे सफारी बेचनी हैं, वो शहर से बाहर गया हुआ है। उसके आते ही गाड़ी उसके हवाले करके नोट ले लूंगा।"

"तेरे यही कर्म रहे तो जल्दी फंसेगा। तेरा बाप बहुत समझदार था। बाहर का काम बाहर ही निपटाकर, हाथ झाड़कर, नोट लेकर आता था। उससे कुछ सीख नहीं सका तू।" बड़बड़ाती कमला मकान के भीतर चली गई।

अपनी झुंझलाहट पर काबू पाते फूलचंद ने गेट भीतर से बंद कर लिया।

■■■

रामजी लाल के घर में पुलिस ही पुलिस नजर आ रही थी।

इस वक्त रात के बारह बजे थे।

पुलिस वाले और एक्सपर्ट अपने कामों में व्यस्त थे। रामजी लाल और शरबती की लाशों के मिलने से पुलिस वालों की हालत बुरी हो गई थी। वो जानते थे कि प्रेस वालों ने लाशों के मिलने की बात को, बहुत उछालना था अब। पुलिस की नाकामियों को जी भरकर कोसना था। इसके साथ ही ऊपर वालों को जवाब देना, अब कठिन होता लग रहा था।

इंस्पेक्टर मुरलीधर खाटिया, चिंतित, गंभीर और बेचैन नजर आ रहा था।

"सर।" गंभीरता में डूबे कमल सिन्हा ने पास पहुंचकर कहा--- "पड़ोसियों के मुताबिक जिनकी लाशें मिली हैं, वो सपना के मां बाप है। पड़ोसियों के मुताबिक ये लोग ठीक काम नहीं करते थे। खैर, इन बातों का हमारे मामले से कोई मतलब नहीं। हम यहां सपना-मंगल और नब्बे करोड़ की दौलत की तलाश में आए थे, इन तीनों चीजों में से हमें कोई नहीं मिला, मिली तो ये लाशें।"

"स्पष्ट लग रहा है कि मंगल और सपना ने इन दोनों को खत्म किया और नब्बे करोड़ लेकर चले गए।" इंस्पेक्टर खाटिया ने सख्त स्वर में कहा।

"राइट सर। पड़ोसियों से मालूम हुआ है कि इनके पास टाटा सफारी गाड़ी थी। जो कि अब मकान में नहीं है। वे लोग टाटा सफारी में ही नब्बे करोड़ लेकर गए होंगे। मैंने कंट्रोल रूम को खबर कर दी है कि शहर की सारी सीमा पर सख्त निगरानी रखी जाए, टाटा सफारी के प्रति। मुझे पूरा विश्वास है कि वे लोग दौलत के साथ शहर से बाहर निकलने की कोशिश करेंगे।"

"मुझे तो समझ नहीं आ रहा कि प्रेस वालों को और अपने ऑफिसरों को हम क्या जवाब देंगे।"

"सर, हम अपने काम को मुस्तैदी से अंजाम दे रहे हैं। कहीं भी लापरवाही नहीं की।" सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा दृढ़ स्वर में कह उठा--- "ये जुदा बात है कि घटना क्रम हमारी मुस्तैदी की अपेक्षा, कुछ ज्यादा ही तेजी से भाग रहा है। नब्बे करोड़ की लूट हुई तो पुलिस ने लुटेरों को फौरन मार गिराया। उसके बाद जो-जो भी हुआ। वो सारा घटनाक्रम हमारे हक में जाता है। हमारी रिपोर्ट देखकर कोई भी ये नहीं कह सकता कि पुलिस ने कहीं लापरवाही की है।"

"वो तो ठीक है।" इंस्पेक्टर खाटिया ने होंठ भींचकर कहा--- "लेकिन हमने किया क्या है। इसका कोई ठोस जवाब हमारे पास नहीं। इस केस में मैं कुछ कर गुजरना चाहता हूं। नब्बे करोड़ को...।"

"सर।" कमल सिन्हा ने दृढ़ता से कहा--- "हम जल्दी ही नब्बे करोड़ तक पहुंचेंगे।"

जवाब में इंस्पेक्टर खाटिया गहरी सांस लेकर रह गया।

तभी एक हवलदार ने पास आकर कहा।

"सर, यहां से आठ किलोमीटर दूर एक युवक और युवती को ट्रक ने कुचल दिया है। वायरलैस पर ये मैसेज प्रसारित हो रहा है।"

इंस्पेक्टर खाटिया और कमल सिन्हा की निगाहें मिलीं।

"युवक और युवती ?" कमल सिन्हा ने हवलदार को देखा।

"यस सर।" तभी इंस्पेक्टर खाटिया ने कहा।

"सिन्हा, एक निगाह उन लाशों पर अवश्य डालो। लेकिन उन्हें पहचानोगे कैसे ?"

"मंगल को मैं हुलिए के दम पर पहचान सकता हूं और रही बात सपना की तो उसकी तस्वीर वो सामने टेबल पर है। पड़ोसी बता चुका है कि वो तस्वीर सपना की है।" कमल सिन्हा बोला।

इंस्पेक्टर खाटिया की निगाह घूमी। टेबल पर, फ्रेम जड़ी सपना की तस्वीर पर जा टिकी।

■■■

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा के होंठ भिंचे हुए थे। चेहरे पर गम्भीरता नाच रही थी। रह-रह कर वो मुट्ठियां भींच रहा था। नब्बे करोड़ की लूट का मामला। अब उलझने लगा था।

वहां पुलिस के अलावा, लोगों की भी भीड़ थी।

सपना के चेहरे को देखते ही पहचान गया कि वो उसकी लाश है। परंतु दूसरी लाश ने उसे भारी तौर पर उलझा दिया था। वो दावे के साथ कह सकता था कि मंगल का जो हुलिया उसे बताया गया है। कईयों से पूछताछ से मंगल का जो हुलिया मालूम हुआ है, ये जो सामने कुचली हुई लाश पड़ी है, वो मंगल के हुलिए वाले युवक की नहीं है।

तो फिर कौन है ये?

मंगल कहां गया ?

इन्हें टाटा सफारी में होना चाहिए था। वो गाड़ी आसपास कहीं भी नहीं है।

ये इत्तफाक से ट्रक के नीचे आ गए हैं या इन्हें जानबूझकर कुचला गया है ? मंगल जो कि इस केस में अहमियत रख रहा था, वो कहीं भी नहीं मिल रहा था।

अब तक कमल सिन्हा को विश्वास था कि वो नब्बे करोड़ की दौलत और मुजरिमों तक जल्दी ही पहुंच जाएगा। लेकिन ये जो नए हालात उसके सामने आए थे, उससे ये बात स्पष्ट होने लगी थी कि मामला अब उलझने लगा है।

सपना मर गई।

नब्बे करोड़ की कोई हवा नहीं। मंगल की कोई खबर नहीं ? इन हालातों में तो वो यही सोच सकता था कि नब्बे करोड़ की रकम, मंगल के पास है। वो कहीं छिपा हुआ है या शहर से बाहर निकल गया है। सपना के साथ जो युवक कुचला गया है, उसके बारे में मालूम करना होगा कि वो कौन है। शायद कोई नई बात सामने आए।

कमल सिन्हा ने वहां मौजूद लाशों का पंचनामा कर रहे इंस्पेक्टर से बात की।

"ये मामला गंभीर है।" कमल सिन्हा बोला--- "नब्बे करोड़ की जो लूट हुई थी, ये लाशें उस लूट से वास्ता रखती हैं। मेरी जानकारी के मुताबिक इस वक्त इनके पास टाटा सफारी गाड़ी होनी चाहिए, जो कि आसपास कहीं भी नजर नहीं आ रही। टाटा सफारी के बारे में अच्छी तरह पूछताछ करो। अगर ये सफारी में थे। किसी वजह से सफारी से उतर कर सड़क पार कर रहे थे तो वो टाटा सफारी पर किसी की तो निगाह पड़ी होगी। सड़क पार रेस्टोरेंट वाले हैं। उनसे पक्के तौर पर पूछताछ करो। अक्सर लोग ऐसे वक्त में ये कह देते हैं कि उन्हें कुछ नहीं मालूम। वे सोचते हैं कुछ बताकर खामखाह बाद में उन्हें पुलिस वाले पूछताछ के लिए थाने बुलवाते रहेंगे। पूछताछ से पहले उन्हें विश्वास में लो कि ऐसा कुछ नहीं होगा। वर्दी का जो डर लोगों के दिमाग में भरा पड़ा है। पहले उसे निकालो। तभी कुछ जान पाओगे। उस ट्रक के बारे में भी पूछना, जिसके नीचे आकर ये दोनों कुचले गए हैं।"

इंस्पेक्टर ने कमल सिन्हा को घूरा।

"क्या हुआ ?"

"मैं ओहदे में तुमसे बड़ा हूं सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा।" उसने शांत स्वर में कहा।

"तो ?" कमल सिन्हा के माथे पर बल पड़े।

"कैसे पूछताछ करनी है, वो ढंग, तुमने ठीक बताया।" इंस्पेक्टर मुस्करा पड़ा--- "दरअसल हम लोग वर्दी पहनकर, कभी-कभार जनता पर जो रौब झाड़ देते हैं, उसकी वजह से लोग हमसे दूर रहना पसन्द करते हैं। तुम्हारी ये बात अच्छी लगी कि पहले जनता के दोस्त बनो। उनके मन से वर्दी का डर निकालो। बढ़िया, अब से मैं ऐसा ही किया करूंगा।"

"शुक्रिया। अब सफारी के बारे में मालूम करो।"

इंस्पेक्टर उसके पास से हट गया।

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा की निगाह भीड़ पर जाने लगी, जिन्हें पुलिस पीछे कर चुकी थी और पुलिस वाले जरूरी कार्यवाही के बाद, लाशों का पंचनामा करने की तैयारी कर रहे थे। आधे घंटे बाद वो इंस्पेक्टर रेस्टोरेंटों की तरफ से वापस लौटा।

"जिस ट्रक से ये दोनों कुचले गए। उसके बारे में तो कोई जानकारी नहीं मिल सकी।" इंस्पेक्टर ने कहा।

"और टाटा सफारी ?"

"ये दोनों टाटा सफारी गाड़ी से ही उतरे थे। सड़क के किनारे सफारी को रोका था जो कि लाल जैसे रंग की थी। होटल वालों की निगाह में सफारी इसलिए आई कि उनके सामने ही उसकी हैडलाइट बंद हुई थी। जब वे उतरे और सड़क पार करने के लिए कदम बढ़ाए तो वो समझ गए कि युवक-युवती खाना खाने ही उनकी तरफ आ रहे हैं। इसलिए उनकी नजरें इधर ही थीं।"

कमल सिन्हा के होंठ भिंच गए।

"फिर?"

"उसी वक्त तूफान की तरह ये सामने वाले मोड़ से ट्रक आया और इन दोनों को कुचलता हुआ भाग गया। इन दोनों को इतना भी वक्त न मिला कि ये भागकर खुद को बचा पाते। ट्रक जब इन पर चढ़ने जा रहा था, तब इन्हें पता लगा कि क्या होने जा रहा है।" इंस्पेक्टर ने गंभीर स्वर में कहा--- "ये हत्या का भी मामला हो सकता है या फिर ट्रक चालक की लापरवाही अथवा वो पिए हुए भी हो सकता है। ये तो तफ्तीश के बाद ही पता चलेगा कि असल मामला क्या है।"

"और वो सफारी कहां गई ?" कमल सिन्हा के होंठ भिंचे थे।

"रेस्टोरेंट्स से जो पांच-छः लोग इधर देख रहे थे, उनका कहना है कि ये सब देखकर वे हक्के-बक्के रह गए। उन्हें कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो गया है। वो क्या करें। तभी उनकी नज़र टाटा सफारी पर पड़ी। कोई अंधेरे से निकलकर टाटा सफारी में बैठा और फौरन ही सफारी को ले गया। यहां से रवाना होते समय उसने सफारी की हैडलाइट भी नहीं ऑन की थी और अंधेरा होने की वजह से, बीच में चौड़ी सड़क का फासला होने की वजह से वो सफारी ले जाने वाले को ठीक तरह से नहीं देख सके। उनका कहना है सफारी ले जाने वाला उनके सामने आ जाए तो वे उसे नहीं पहचान सकते।"

कमल सिन्हा होंठ भींचे सोच में डूबा रहा।

"तुम्हारा क्या ख्याल है।" कमल सिन्हा ने शब्दों को चबाकर पूछा--- "इन दोनों की हत्या और टाटा सफारी को ले जाना, सब सोच-समझकर योजनाबद्ध तरीके से किया गया है। ये सोचकर जवाब देना कि उस वक्त टाटा सफारी में नब्बे करोड़ जैसी बड़ी रकम मौजूद थी।"

कुछ पल की सोच के बाद इंस्पेक्टर ने गंभीर स्वर में कहा।

"मैं इसे योजनाबद्ध तरीके से की गई हत्याएं ही कहता। सफारी का ले जाना भी इसी योजना के तहत ही आता, लेकिन सिर्फ एक सोच इन सबमें अड़चन पैदा कर रही है।"

"कैसी सोच ?"

"अगर इस मामले के पीछे लोग हैं तो उन्हें कैसे मालूम हुआ कि ये दोनों टाटा सफारी यहां रोककर सड़क पार करके खाना खाएंगे। जब ट्रक रफ्तार से आया और इन्हें कुचलते हुए भाग गया तो उसी वक्त कोई अंधेरे में प्रकट हुआ और सफारी लेकर चलता बना।"

"ये भी तो हो सकता है कि कोई पहले से ही टाटा सफारी का पीछा कर रहा हो।" कमल सिन्हा बोला।

"हो सकता है और वही पीछा करने वाला सफारी ले उड़ा हो।" इंस्पेक्टर ने सोच भरी निगाह कमल सिन्हा के चेहरे पर मारी—“लेकिन हमारे पास ऐसी कोई भी ठोस बात नहीं है कि जो हम कह रहे हैं, उन पर पक्केपन का ठप्पा लगा सकें।"

दो पल की सोच के बाद कमल सिन्हा कह उठा ।

"ये मामला सीरियस है। तुम इस केस की तफ्तीश की सारी रिपोर्ट आफिशली तौर पर मुझे या इंस्पेक्टर खाटिया को देते रहोगे। कोई भी बात हमारे काम की हो सकती है।"

"श्योर। मैं ऐसा अवश्य करूंगा।"

सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा के दिलो-दिमाग में यही था कि नब्बे करोड़ रुपये से भरी सफारी मंगल ले उड़ा है। मंगल की और सपना की, आपस में कोई बात हो गई होगी, जिससे ये नए हालात पैदा हुए होंगे। वरना वे दोनों तो आपस में शादी करने वाले थे।

"हो सकता है।" उस इंस्पेक्टर ने कहा--- “वो ट्रक पहले से ही इनके पीछे लगा हो, इनकी जान लेने के लिए और वो सफारी ले जाने वाला भी पहले से ही पीछे हो।"

"तुम ट्रक वाले को ढूंढो। उसे तलाश करो। मैं अपने तौर पर इस केस पर काम कर रहा हूं । नब्बे करोड़ रुपये और जो लोग इस मामले के साथ जुड़े हैं, उनका पकड़ा जाना बहुत जरूरी है।"

बहरहाल जो भी हो, सपना और रोहन की मौत से पुलिस उलझ गई थी।

■■■

उदयवीर ने सड़क के किनारे एम्बेसेडर कार रोकी और उतरकर कार लॉक करने के पश्चात सड़क पार करते हुए गली में प्रवेश कर गया। हाथ में दो अखबारों को गोल करके पकड़ा हुआ था। कुछ ही देर में वो शुक्रा के कमरे में उसके पास था।

तब शुक्रा चाय पी रहा था।

"कैसे हो ?" उदयवीर ने शांत स्वर में पूछा।

"ठीक हूं।" शुक्रा बोला--- "विजय से मिले ?"

"हां।" उदयवीर गंभीर हो उठा--- "वो कुछ खास ठीक नहीं है ।"

"होगा भी कैसे ?" शुक्रा ने भारी स्वर में कहा--- “जब तक उसके दिमाग के ठीक बीचोबीच गोली फंसी रहेगी। चंद दिनों की जिन्दगी का खौफ उस पर हावी रहेगा तो वो ठीक कैसे हो सकता है।"

उदयवीर ने सिगरेट सुलगाकर शुक्रा को देखा।

"बीते दो दिनों का अखबार पढ़ा ?" उदयवीर ने पूछा।

"कोई खास बात है क्या ?" शुक्रा की नजरें उदयवीर पर जा टिकीं।

"मतलब कि नहीं पढ़ा।" उदयवीर ने सिर हिलाया--- "वरना खास बात वाली बात न कहते। नब्बे करोड़ की डकैती हुई है।"

"डकैती-नब्बे करोड़ की।" शुक्रा संभलकर बैठ गया।

"हां। पर ये कोई खास बात नहीं है।" उदयवीर ने कश लिया-- "डकैती वगैरह तो होती ही रहती है। खास बात तो डकैती के बाद शुरू होती है। मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा।"

"क्या नहीं समझ में आ रहा।"

"डकैती करने वाले नब्बे करोड़ लेकर भागे। पीछे पुलिस लग गई। दिन का वक्त था। पुलिस ने डकैतों की कार का पीछा नहीं छोड़ा। आखिरकार एक जगह पर डकैतों का और पुलिस वालों का आमना-सामना हो गया। दोनों तरफ से गोलियां चलीं। आधे घंटे तक गोलियां चलती रहीं। जिससे सारे डकैत मारे गए। जिनकी संख्या कुल चार थी और एक पुलिस वाला घायल हो गया।" उदयवीर होंठ सिकोड़कर सोच भरे स्वर में कह रहा था--- "उसी वक्त हाथों-हाथ पुलिस से भरी दो गाड़ियां और वहां आ पहुंची। पुलिस वालों ने ही पुलिस कार में मौजूद वायरलैस सैट से हैडक्वार्टर अपनी स्थिति के बारे में खबर देकर, सहायता मांगी होगी। बहरहाल, पुलिस वालों ने डकैतों की गाड़ी की तलाशी ली तो उन्हें एक भी पैसा नहीं मिला।"

"ये कैसे हो सकता है।" शुक्रा के होंठों से निकला।

"जो हुआ है वही तो बता रहा हूं।"

"तुमने कहा कि वो चार डकैत नब्बे करोड़ की रकम लेकर भाग रहे थे।" शुक्रा बोला।

"हां, यही कहा था मैंने।"

"तो फिर उनके पास से पैसा क्यों नहीं मिला ?"

"यही तो सोचने की बात है।"

"हो सकता है, खुद को खतरे में पाकर, रास्ते में कहीं मौका देखकर उन्होंने नब्बे करोड़ कहीं ठिकाने लगा दिया हो कि पुलिस से छुटकारा पाकर, बाद में पैसा वहां से उठा लेंगे।"

"ऐसा सम्भव ही नहीं।" उदयवीर ने सिर हिलाया--- "वो डकैती का माल लेकर निकले कि इत्तफाक से पुलिस की कार पीछे लग गई। उसके बाद से वे पुलिस की ही नजरों में रहे। वे चार थे और चारों ही मारे गए। अखबारों में हर रोज इन बातों का जिक्र आ रहा है। रास्ते में उन्होंने कहीं भी अपनी गाड़ी नहीं रोकी। वैसे भी नब्बे करोड़ की रकम को कोई भी सड़क के किनारे नहीं फेंकता। रकम के साथ कोई तो उतरा होता। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अब इस बात को लेकर पुलिस परेशान है कि नब्बे करोड़ की रकम गई तो कहां गई ?"

शुक्रा उदयवीर को देखता रहा।

"पुलिस ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी, दौलत को तलाश करने की। लेकिन हैरान-परेशान-सी पुलिस को दौलत तो क्या उसकी खुशबू भी नहीं मिल रही कि वो किस दिशा में हो सकती है।"

"बहुत अजीब बात बता रहे हो।"

"अजीब है। तभी तो बता रहा हूं।" उदयवीर मुस्कराया।

"सारा मामला बताना कि कहां डकैती हुई और....!"

"इस वक्त मुझे कहीं पर जरूरी पहुंचना है।" उदयवीर उसकी  तरफ गोल की अखबारें बढ़ाता हुआ बोला--- "नब्बे करोड़ के बारे में बहुत हद तक जानकारी अखबारों में दी हुई है।"

शुक्रा उससे अखबारें लेता हुआ बोला।

"तुम्हें कहीं खास जाना है ?"

"खास ही समझो। मां की तबीयत कुछ ठीक नहीं। बुखार है। डॉक्टर के पास ले जाना है।"

शुक्रा सिर हिलाकर गम्भीर स्वर में कह उठा।

"उदय, नब्बे करोड़ तो अरब को छूती रकम है। अगर उसमें से हमें बारह लाख मिल जाएं तो हम विजय को बचा सकते हैं। ऑपरेशन के बाद वो लम्बी-खुशहाल जिन्दगी जी सकता है।"

"मेरे ख्याल में ये सम्भव नहीं।" उदयवीर उठता हुआ बोला।

"क्यों ?"

"अखबार पढ़ लो। मैं शाम को आऊंगा। फिर बात करेंगे। मैं तो तुमसे मिलने आया था। इन अखबारों को यूं ही ले आया।" कहने के साथ ही उदयवीर बाहर निकलता चला गया।

■■■

शुक्रा ने बीते दो दिनों की अखबारें निकालकर, नब्बे करोड़ की डकैती से वास्ता रखती एक-एक खबर पढ़ी। कमरे में रहने की वजह से दो दिनों से अखबारें न देख पाया था। वरना ये खबर तो उसके पास पहले होनी थी। डकैती से वास्ता रखती, पुलिस वालों की बातें, उनकी इंवेस्टीगेशन और अखबार वालों की तरफ से व्यक्तिगत विचार दिए गए थे।

डकैती से वास्ता रखता एक-एक शब्द जैसे शुक्रा के मस्तिष्क में आकर ठहर गया था।

अखबारों में स्पष्ट लिखा था कि नब्बे करोड़ की रकम न मिलने की वजह से पुलिस बेहद परेशान है। क्योंकि जिस वैन में नब्बे करोड़ की रकम लूटकर ले जाई जा रही थी, उसे पुलिस ने घेरा और मुठभेड़ में रकम लूटकर ले जाने वालों को मुठभेड़ के पश्चात खत्म किया। ऐसे में रकम का वैन में न होना किसी अजूबे से कम नहीं था। क्योंकि लूट की रकम ले भागने के बाद वैन रास्ते में कहीं भी नहीं रुकी।

आखिर नब्बे करोड़ गया तो, गया कहां?

लूटने वालों ने भरे बाजार में, चेहरों पर कपड़ा बांधकर, बैंक की ऐसी वैन को लूटा था जो मुख्य बैंक की वैन थी और कई बैंकों की शाखाओं को रुपया पहुंचाने जा रही थी। उन्होंने वैन के ड्राइवर, खजांची और भीतर मौजूद तीन गनमैनों को गोलियों से भून दिया था और ये काम करने से पहले लुटेरों ने उस बैंक वैन को सामने से टक्कर मारी। ताकि वैन रुके। उसके बाद उनसे झगड़ा किया। जिससे कि वैन वाले नोटों की रखवाली के प्रति कुछ लापरवाह हो गए। उनका ध्यान बंट गया। इसी मौके का फायदा उठाते हुए लुटेरों ने बैंक बैन में मौजूद पांचों को गोलियां मारी और चेहरों पर झीना-सा नकाब डालते हुए वैन लेकर फरार हो गए। लेकिन इत्तेफाक से सामने से आती पुलिस कार ने जब ये माजरा देखा तो वो पीछे लग गई और साथ ही सारे मामले की खबर हैडक्वार्टर को दी। पुलिस वालों का दावा है कि वैन उनकी निगाहों से एक पल के लिए भी ओझल नहीं हुई। ऐसे में वैन से नब्बे करोड़ रुपया किसी भी जगह पर नहीं निकाला जा सकता और न ही कोई वैन से नीचे उतरा है।

मोटे तौर पर उन खबरों का ये ही निचोड़ था। पुलिस नब्बे करोड़ को बरामद करने की भरपूर कोशिश कर रही है परन्तु आज के अखबार में पुलिस का ही ढका-छिपा ब्यान था कि अभी उन लोगों को नब्बे करोड़ की कोई खबर नहीं मिल पाई है। साथ में ये विश्वास भी जाहिर किया गया था कि जल्दी ही पुलिस नब्बे करोड़ की रकम को ढूंढ निकालेगी।

अखबारों पर नजरें टिकाए शुक्रा सोचता रहा। उसकी आंखें अब अखबार में छपे शब्दों पर जा रही थी, परन्तु दिमाग नब्बे करोड़ को ढूंढ रहा था।

लूटने वाले मारे गए। लूट के बाद से लेकर, मरने तक, लुटेरे पुलिस की नजरों में रहे। परन्तु वैन खाली मिली। एक भी पैसा वैन में नहीं था।

तो फिर नब्बे करोड़ कहां गया ?

ये बात तो वास्तव में हैरत में डाल देने वाली थी।

शुक्रा चेहरे पर गम्भीरता समेटे सोचता रहा।

नजरें अभी भी अखबारों पर थीं, परंतु सोचें कहीं और?

नब्बे करोड़?

जबकि विजय की जिन्दगी बचाने के लिए सिर्फ बारह लाख की जरूरत थी। अगर वो नब्बे करोड़ तलाश कर ले, उसे ढूंढ ले जिसके पास नब्बे करोड़ रुपया है तो उससे ज्यादा नहीं तो कम से कम बारह लाख तो वसूल कर ही सकता है।

उदयवीर शाम को आने को कह गया था। परंतु वो नहीं आया। इधर शुक्रा की आंखों में रात भर नींद लगभग गायब रही। सोचों में नब्बे करोड़ घूम रहे थे कि अगर इन रुपयों की खबर वो पा ले तो बारह लाख का इंतजाम, करोड़ों में से कर ही लेगा। विजय के दिमाग के ठीक बीचो-बीच फंसी गोली को, डॉक्टर वधावन से ऑपरेशन करवाकर निकलवा देगा। विजय की जिन्दगी बच सकती है अगर नब्बे करोड़ में से बारह लाख उसे मिल जाएं तो ?

■■■

अगले दिन ग्यारह बजे शुक्रा, उदयवीर के गैराज पर पहुंचा। उदयवीर गैराज पर ही था। छोकरे दो कारों से चिपके ठोका-ठाकी में व्यस्त थे।

उदयवीर कुछ दूर कुर्सी पर बैठा रजिस्टर खोले कुछ देख-पढ़ रहा था।

"कल शाम को तू आया नहीं।" शुक्रा पास पहुंचते हुए कह उठा।

"वक्त नहीं मिला।" उदयवीर ने उसे देखा।

"मां का बुखार कैसा है ?"

"पहले से ठीक है।"

शुक्रा ने कुछ दूर काम करते लड़कों को देखा फिर कहा।

"केबिन में चल तेरे से बात करनी है।"

"यहीं कर ले।"

"नहीं केबिन में।"

उदयवीर ने रजिस्टर बंद किया और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। तब तक शुक्रा कुछ कदमों के फासले पर मौजूद केबिन की तरफ बढ़ चुका था।

दोनों भीतर पहुंच कर कुर्सियों पर बैठे।

"क्या बात है ?" उदयवीर की नजरें शुक्रा के चेहरे पर जा ठहरीं ।

"तुम कल नब्बे करोड़ की डकैती के बारे में बता रहे थे।" शुक्रा गम्भीर हो गया।

"तो ?" उदयवीर की आंखें सिकुड़ीं।

"मैं सोच रहा हूं अगर किसी तरह उस नब्बे करोड़ में से हम बारह लाख हासिल कर लें तो अपने यार की जिंदगी बच सकती है।"

"कोई फायदा नहीं।" उदयवीर ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया--- "पुलिस रुपये को ढूंढ रही है। हो सकता है देर-सबेर में नब्बे करोड़ मिल ही जाएं।"

शुक्रा ने सिर हिलाया फिर कहा।

"मेरा यह मतलब नहीं था।"

"तो क्या मतलब था ?"

"मेरा ख्याल है कि हम कोशिश करें नब्बे करोड़ ढूंढने की। और...।"

"दिमाग तो खराब नहीं हो गया तेरा।" उदयवीर के होंठों से निकला।

"क्यों, इसमें दिमाग खराब होने वाली क्या बात आ गई।"

"ये कोई हमारा मामला तो है नहीं। नब्बे करोड़ से हमारा कोई वास्ता भी नहीं कि....।"

"मैं मानता हूं। नब्बे करोड़ से हमारा कोई वास्ता नहीं। । लेकिन, जिनका वास्ता था, वो मर चुके हैं। ऐसे में नब्बे करोड़ लावारिस हो गए हैं। अब उन पर कोई भी हाथ डाल सकता है। अगर वो पुलिस को मिल जाते हैं तो मामला खत्म। हमें उसमें से बारह लाख भी मिल गए तो हमारी मेहनत सफल हो जाएगी। विजय का ऑपरेशन हो जाएगा।" शुक्रा अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा।

उदयवीर ने गहरी सांस ली।

"मैंने तुम्हें कल भी बताया था और तुमने भी अखबारों में पढ़ लिया होगा कि लुटेरे जब नब्बे करोड़ लेकर भागे तो उसी समय पुलिस पीछे लग गई। उसके बाद वैन पुलिस की नजरों में ही रही और नब्बे करोड़ वैन में नहीं मिले। ऐसे में वो रुपये...।"

"यही तो मैं कह रहा हूं और जानना चाहता हूं कि ऐसे में नब्बे करोड़ कहां चले गए। कम से कम एक बार तो उनको तलाश करने की कोशिश तो करनी चाहिए। क्या हर्ज है। तुम्हें कोई काम हो तो, जुदा बात है। ये काम मैं खुद कर लेता हूं।"

"मुझे कोई काम नहीं है। फुर्सत में तो मैं भी हूं।" उदयवीर ने अनमने मन से कहा--- "लेकिन इस काम में हाथ डालना जरा भी अकलमंदी नहीं लग रही।"

"बेवकूफी ही सही।" शुक्रा मुस्कराया--- "कुछ वक्त ही कट जाएगा।"

"तो तुम नहीं मानोगे।"

"मैं तो घूमने-फिरने को कह...।"

"आज तीसरा दिन है, नब्बे करोड़ को लूटे हुए। इतने दिनों बाद तुम क्या समझते हो अगर इत्तफाक से वो किसी के हाथ लग गए हैं, तो क्या उसके बारे में मालूम हो सकेगा। नहीं, हरगिज नहीं।"

"न मालूम हो। इस मामले को टटोलने में क्या हर्ज है।"

उदयवीर ने शुक्रा को घूरा।

"तो तुम सोच चुके हो कि नब्बे करोड़ को तलाश करोगे।"

"हां।" शुक्रा ने पक्के ढंग से सिर हिलाया।

"ये काम हमारी औकात से बहुत बड़ा है।" उदयवीर का स्वर तीखा हो गया।

"ये बात नहीं। मैं विजय के लिए इस काम में हाथ डालूंगा।"

"तुम क्या समझते हो, मुझे विजय की चिंता नहीं है।" उदयवीर गंभीर हो गया।

"मालूम है मुझे।" शुक्रा भी गंभीर हुआ--- "सच बात तो ये है कि हम दोनों का ही चैन-नींद हराम हुई पड़ी है कि अगर वक्त रहते विजय के दिमाग में फंसी गोली न निकली तो...।"

उदयवीर होंठ भींचकर रह गया।

कुछ पलों तक उनके बीच खामोशी रही।

"अब करना क्या है ?" उदयवीर ने सोच भरे धीमे स्वर में पूछा।

"एक पुलिस वाला मेरी पहचान वाला है।" शुक्रा ने उदयवीर को देखा--- "उससे बात करके देखता हूं। इस मामले की जो ताजा जानकारी होगी। मुझे जरूर बता देगा।"

■■■

शुक्रा की वापसी शाम चार बजे गैराज पर हुई। लड़के गैराज पर नई आई कार में व्यस्त थे। उदयवीर केबिन में मौजूद था।

"क्या मालूम किया ?" उदयवीर ने उसे देखते ही पूछा।

"ये मालूम करके आया हूं कि वैन पर कहां हाथ डाला था।" शुक्रा बैठते हुए बोला--- "वो किन-किन रास्तों से निकलकर वहां तक पहुंची, जहां उन लुटेरों का पुलिस से टकराव हुआ और वे चारों मारे गए।"

"वो रास्ते मुझे बताओ।"

शुक्रा ने उन रास्तों के बारे में बताया। जहां-जहां से वैन गुजरी थी।

"बीच रास्ते में कहीं वो वैन आधे मिनट के लिए भी रुकी ?" उदयवीर ने सोच भरे स्वर में पूछा।

"ये बात मैंने खासतौर से मालूम की है।" शुक्रा कह उठा--- "वैन रास्ते में कहीं नहीं रुकी। लुटेरे वैन लेकर भागे तो इत्तफाक से पुलिस फौरन ही पीछे लग गई।"

उदयवीर सोच भरी निगाहों से शुक्रा को देखता रहा।

"मेरी मानो तो इस मामले में सिर मत खाओ। कोई फायद नहीं होगा। नब्बे करोड़ जाने कहां पहुंच गए होंगे।"

"मैं नब्बे करोड़ की तलाश अवश्य करूंगा।" शुक्रा ने दृढ़ता से कहा।

उदयवीर गहरी सांस लेकर बोला।

"उन चार लोगों के बारे में मालूम किया जो वैन लेकर भागे। थे?"

"नहीं।"

"मेरे ख्याल में उनके बारे में भी मालूम करना चाहिए। उनके बारे में जानकारी भी चाहिए। पुलिस वालों के रिकॉर्ड में ये बातें अब तक दर्ज हो चुकी होंगी। तुम अपने पहचान वाले पुलिस वाले से...।"

“ये भी मैं मालूम करता हूं। इस मामले में हमें तुरन्त शुरू हो जाना चाहिए।'' शुक्रा कह उठा--- "मेरी वापसी पर तुम यहाँ मिलोगे ?"

"हां।"

"रात हो सकती है। "

"कोई बात नहीं।" उदयवीर गम्भीर था--- "लेकिन मेरा ख्याल है कि तुम कांटेदार झाड़ी में हाथ मारकर आम निकालने की कोशिश कर रहे हो। तीन दिन पहले ये सब हुआ। लुटेरों को पुलिस ने खत्म कर दिया। नब्बे करोड़ की किसी को हवा नहीं मिली। तुम क्या समझते हो तुम्हें रुपया मिल जाएगा।"

"मुझे सारा नहीं, बारह लाख चाहिए।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा और बाहर निकल गया।

■■■

शुक्रा रात को बारह बजे के करीब लौटा।

उदयवीर लाइट ऑन किए गैराज के केबिन में ही था।

"लुटेरों के बारे में मालूम किया है।" शुक्रा थके ढंग से कुर्सी पर बैठता हुआ कह उठा।

"क्या ?"

दो पलों की चुप्पी के पश्चात शुक्रा कह उठा।

"उन चार लुटेरों के बारे में सुनो। पहले नम्बर पर लो मुंशी । नाम उसका जो भी हो। कहने वाले उसे मुंशी कहते थे। दो नम्बर के धंधे करना। इधर-उधर से हाथ मारकर रुपया बनाना उसके लिए बाएं हाथ का खेल था। चोरी-चकारी भी कर लेता था। छूरेबाजी करना उसके लिए मामूली बात थी। चोरी-चकारी और छूरेबाजी के आठ केस उस पर चल रहे थे और मुंशी इस वक्त जमानत पर छूटा हुआ था।"

“हूं, तो खेला-खाया था।" उदयवीर ने होंठ सिकोड़कर कहा।

"दूसरा।" शुक्रा बोला--- “बाबूलाल, उम्र पचास बरस, कभी कारों का बहुत बढ़िया मेकैनिक था। लेकिन ड्रग्स (नशा) लेने की आदतों का शिकार था। अपना गैराज भी खोला। लेकिन नशे ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। गैराज भी बिक गया। कोई और रास्ता न देखकर, खर्चे-पानी के लिए कारें चोरी करके बेचने लगा। अपना गिरोह बना लिया। कई बार पुलिस के हत्थे चढ़ा। चार बार जेल भी हो आया था।"

सोच भरी निगाहों से शुक्रा को देखते हुए, उदयवीर ने सिर हिलाया।

"तीसरा, वीरसिंह खत्री।" शुक्रा पुनः कह उठा-- "इसका पुलिस में कोई रिकॉर्ड नहीं था। लेकिन काम दो नम्बर के ही करता था। ड्रग्स को इधर-उधर पहुंचाना। अपने सम्बंधों के दम पर लड़कियां सप्लाई करके, मोटी कमीशन लेना। दोनों तरफ से। देखने में आकर्षक था और लम्बे समय से दिव्या नाम की युवती या औरत से इसके सम्बंध हैं और दिव्या के बारे में इतना ही मालूम हुआ है कि कई लड़कियां उसके अण्डर हैं और फोन पर ही बात करके लड़कियां भेजने का काम करती है और ठाठ से रहती है। मर्दों के सामने खुद भी पेश हो जाती है। बशर्ते कि मोटी तगड़ी रकम मिले। लेकिन वीरसिंह खत्री से इसके सम्बंध हमेशा बने रहे। बेशक वो सम्बंध बिजनेस के नाते हो या किसी और नाते।"

"चौथा ?"

"राजू उर्फ पगला था, चौथा ।" शुक्रा ने कहा--- "तीस बरस या फिर पैंतीस के करीब उसकी उम्र थी। मां-बाप कौन मालूम नहीं। बचपन भीख मांगकर, चोरी-चकारी करके बीता। तब कई बार पकड़ा गया और कम उम्र का होने की वजह से बाल सुधार गृह में रखा गया। परंतु दो बार वहां से भी भाग निकला था। बड़ा होने पर जेबकतरों के गिरोह में शामिल हो गया। शातिर जेबकतरा बन गया। जेबें काटने के दौरान दो बार शिकार पर, चाकुओं से वार किया। दोनों बार पकड़ा गया था। एक बार एक बरस की और एक बार दो बरस की कैद भी काट चुका था। पैसे के लिए ये कुछ भी कर सकता था या यूं समझ लो कि पैसे का भूखा था ये। पुलिस भी इसे खतरनाक मानती थी।"

शुक्रा कहकर चुप हो गया।

उदयवीर की निगाहें शुक्रा के चेहरे पर टिकी रही।

कुछ पलों बाद उदयवीर बोला।

"इन चारों के बारे में और क्या मालूम किया। इनके घर-परिवार। यार दोस्त या कुछ भी।"

"मुंशी और बाबूलाल का परिवार है।" शुक्रा ने बताया--- "दोनों की पत्नियां हैं। बच्चे हैं। वीरसिंह खत्री के बारे में बता ही चुका हूं कि उसका सम्बंध दिव्या से बहुत पुराना है और दिव्या क्या करती है, बता चुका हूं और राजू उर्फ पगला का कोई एक पहचान वाला नहीं है। उसकी बोलचाल हर किसी से रहती थी। ऐसे में कौन उसका खास है और कौन नहीं। कहा नहीं जा सकता।"

"चारों के पते ले आए हो कि ये कहां रहते थे?" उदयवीर ने पूछा।

“हां, इस काम पर कल सुबह लगेंगे।" शुक्रा ने सोच भरे स्वर में कहा।

एकाएक उदयवीर ने पहलू बदला।

"मेरी मानो तो छोड़ो।” उदयवीर बोला--- "लूट की रकम..."

"कल देखेंगे, सारा मामला।" शुक्रा ने बात काटकर पक्के स्वर में कहा।

"क्या देखोगे ?"

"यही कि नब्बे करोड़ कहां जा सकते हैं।" शुक्रा का स्वर बेहद पक्का था— ''हम अपने तौर पर मालूम करेंगे कि लूट के बाद वैन कहीं रुकी कि नहीं और जहां पुलिस ने वैन को रोका। जहां चारों से पुलिस की मुठभेड़ हुई, वो जगह कैसी है। हो सकता है, मुठभेड़ के दौरान जब उन्होंने देखा हो कि फिलहाल तो बचने का रास्ता नहीं तो रकम वैन से निकालकर, कहीं छिपा....।"

"वो नब्बे रुपये नहीं, नब्बे करोड़ रुपये थे। मुठभेड़ के दौरान उन्हें वैन से निकालना और छिपाए जाने की सोचना, बच्चों के सोचने जैसा है और..."

"सोचने में क्या हर्ज है।" शुक्रा ने उदयवीर की आंखों में झांका।

“वहां के चप्पे-चप्पे की तलाशी पुलिस ले चुकी है कि..."

"कोई बात नहीं। हम भी नजर मार लेंगे वहां।" शुक्रा बोला।

उदयवीर ने कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाया और आंखें बंद कर लीं।

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सुबह जब उदयवीर की आंख खुली तो शुक्रा वहां नहीं था। रात दोनों गैराज पर ही सोए थे। उदयवीर घर नहीं गया था। जब नहा-धोकर हटा तो शुक्रा आ पहुंचा।

"विजय से मिलने गया था ?" उदयवीर ने पूछा।

"नहीं।" शुक्रा ने गहरी सांस ली--- "विजय के पास तो अब बारह लाख लेकर ही जाऊंगा।"

"उस नब्बे करोड़ में से ?"

"शायद।"

उदयवीर, शुक्रा को देखने लगा।

"उस पुलिस वाले से ही मिलने गया था। कुछ और मालूम हो सके।" शुक्रा बोला।

"मालूम हुआ ?"

"हां।"

"विजय से मिल आओ। वो जरूर सोच रहा होगा कि तुम कई दिनों से उससे मिले नहीं।"

"नहीं, बाहर चलते हैं। नाश्ता भी कर लेंगे।" शुक्रा ने कहा--- “उस पुलिस वाले ने कुछ काम की बातें और बताई हैं। सुनना चाहोगे।"

"नब्बे करोड़ के बारे में?"

"ऐसा ही समझ लो।"

"क्या ?"

"इस मामले में पुलिस की जो भागदौड़ है, वो सब मालूम हुई है। उसे सुनकर शायद तुम इस मामले में नए सिरे से सोचोगे। बातें ही ऐसी हैं।"

"बोलो।" उदयवीर की निगाह शुक्रा पर टिकी।

पुलिस की सारी भागदौड़ जो शुक्रा को मालूम हुई थी वो उसने उदयवीर को बता दी।

सुनने के बाद उदयवीर सोच भरी निगाहों से शुक्रा को देखता रहा।

"ये मामला तो अजीब-सा ही लग रहा है।" उदयवीर के होंठों से निकला।

"नब्बे करोड़ का मामला है तो अजीब-सा होगा ही।"

"मैं मजाक नहीं कर रहा, गंभीर हूं।" उदयवीर ने सोच भरे स्वर में कहा--- "इस मामले में सबसे अजीब बात तो यह है कि वो नब्बे करोड़, जब से नब्बे करोड़ को लूटा गया है, तब से नब्बे करोड़ कहीं ठहरे नहीं। लुटेरों के हाथ लगे तो पुलिस ने उन्हें मार गिराया। उसके बाद सूमो वाले, युवक-युवती के हाथ लगे तो एक्सीडेंट में वो मारे गए। तब इत्तफाक से स्कूल मेटाडोर के ड्राइवर के हाथ में नब्बे करोड़ पहुंचे तो उसके बेटे ने एक लड़की के चक्कर में अपने मां-बाप को मार दिया और दौलत लेकर उस लड़की के पास पहुंच गया। उसके बाद वो लड़की उसका कोई पहचान वाला सफारी में दौलत ले जा रहे थे तो ट्रक ने उन्हें कुचल दिया और नब्बे करोड़ से भरी सफारी गाड़ी को कोई और ले उड़ा।"

"एक बात समझ में नहीं आई।" शुक्रा बोला।

"क्या ?"

"मैटाडोर ड्राइवर का बेटा मंगल कहां चला गया?"

"जो दौलत लेकर, उस लड़की के पास गया था ?"

"हां।"

"अभी तक जो सामने आया है, उसे मद्देनजर रखें तो अब तक उसे भी मर-खप जाना चाहिए। अगर वो जिंदा है तो ये पक्का है कि नब्बे करोड़ से भरी सफारी गाड़ी को वो ही ले उड़ा है।"

"मतलब कि उसी के इशारे पर उस युवती और युवक को ट्रक ने कुचला है।" शुक्रा बोला--- “तभी तो वो ठीक मौके पर सफारी गाड़ी को उड़ा ले जा सकता है।"

उदयवीर के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।

"अभी इस बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।"

शुक्रा सिर हिलाकर कह उठा।

“पुलिस की भागदौड़ भी यहीं आकर ठहर गई है। उस हवलदार ने यही सब बताया था मुझे। यहां पर आकर पुलिस उलझ गई है। कि सफारी कौन ले गया। अगर मंगल ले गया है तो फिर ट्रक ने उसी के इशारे पर युवक और युवती को कुचला है। अगर सफारी को कोई नया आदमी ले गया है तो भी मामला उलझ गया।"

"सफारी गाड़ी कैसी थी। पूछा था हवलदार से ?"

"लाल रंग में थी। मतलब कि लाल जैसा रंग था।" शुक्रा ने कहा--- "शहर की हर सीमा पर पुलिस चौकस है। सफारी गाड़ी ही नहीं बल्कि हर तरह की वैन की तलाशी लेने की कोशिश कर रही...।"

"कोई फायदा नहीं।"

"क्या मतलब ?"

"जरूरी तो नहीं कि जिसके पास वो सफारी गाड़ी हो। नब्बे करोड़ हो, वो शहर से निकलने की ही कोशिश करे। इतने बड़े शहर में उसे किसी का क्या डर। नोटों को लेकर कहीं भी बैठ जाए। कौन पूछेगा उसे। जरा भी समझदार होगा तो सारी उम्र मौज करेगा।"

"अब क्या प्रोग्राम है ?"

"प्रोग्राम कैसा ? यहां से चलते हैं। नाश्ता करके, उस सफारी के बारे में मालूम करते हैं। पता करते हैं कि उसे कौन ले गया।"

"मुझे नहीं लगता कि हम ये पता लगा सकेंगे।"

"ये तो बाद में ही पता लगेगा कि हमें क्या पता लगा। यहां से तो निकल।" उदयवीर उठ खड़ा हुआ।

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