सौ से कम की रफ्तार नहीं थी उस वैन की, भीड़-भाड़ वाली सड़क पर भी । वैन के सामने की तरफ और दाएं-बाएं 'भारत सरकार' लिखा था। स्पष्ट था कि वो सरकारी वैन थी और इस तरह भीड़भाड़ वाली सड़क पर सौ की रफ्तार से भगाना, सरासर गलत बात थी।
ड्राइविंग सीट पर पचास बरस का व्यक्ति मौजूद था। जिसका नाम बाबूलाल था। इस वक्त उसके दांत भिंचे हुए थे। चेहरे पर खतरनाक भाव नाच रहे थे। दोनों हाथों की उंगलियां सख्ती से स्टेयरिंग पर लिपटी हुई थी। और आग उगलती आंखें सड़क पर थीं। गोद में रिवॉल्वर रखी हुई थी।
बाबूलाल की बगल में बैठा था वीरसिंह खत्री।
खत्री आकर्षक व्यक्तित्त्व का मालिक था। अड़तीस-चालीस की उम्र होगी। चेहरा तो इस वक्त भी उसका खूबसूरत लग रहा था, परन्तु वहां वहशी कठोरता स्पष्ट नजर आ रही थी। वह दांत भींचे हुए था। परन्तु बेचैन था। हाथ में रिवॉल्वर दबी थी, जिसकी नाल में अभी भी गर्मी थी।
वैन का दरवाजा पीछे की तरफ से खुलता था ।
और वैन के भीतर भी दो और थे।
एक था मुंशी। उम्र पचास-बावन के ही आसपास। चेहरे पर स्थाई-सी नजर आने वाली कठोरता। दूसरा था राजू उर्फ पगला । उम्र तीस बरस के आसपास। बाल लम्बे होकर गले तक झूल रहे थे। सूखा-पतला। लेकिन चुस्त-दुरुस्त । उसकी सूरत पर ही जैसे लिखा था कि तमाम जिंदगी धक्के खा-खाकर उम्र के इस मुकाम तक पहुंचा हो ।
जिक्र के खास काबिल बात तो इस समय ये थी कि चारों के पास रिवॉल्वरें थीं और नालों की गर्मी से ये बात स्पष्ट थी कि अभी-अभी ये लोग भारी खून-खराबा करके भागे हैं।
"बाबूलाल।" बगल में बैठा वीरसिंह खत्री दांत पीसकर कह उठा--- "निकाल ले जा वैन को।"
तभी सामने दुपहिया स्कूटर आ गया।
जरा भी रफ्तार कम नहीं की बाबूलाल ने वैन की। रफ्तार से आती वैन ने स्कूटर को ऐसी टक्कर मारी कि लगा जैसे स्कूटर और स्कूटर चलाने वाला, दोनों ही हवा में उड़ गए हों और देखते ही-देखते दोनों दूसरी लेन में जा गिरे।
रास्ता साफ था। वैन दौड़ती रही।
पीछे चीखो-पुकार कानों में पड़ी। जो कि मध्यम होने के साथ ही कानों में पड़नी बंद हो गई। क्योंकि पलों में ही वैन उस जगह से बहुत आगे निकल आई थी।
"चिंता मत कर।" बाबूलाल गुर्राया--- "जब तक स्टेयरिंग बाबूलाल के हाथ में है, किसी बात की परवाह नहीं। ड्राइविंग तो खेल है मेरे लिए। साला कौन रोकेगा मेरा रास्ता।"
"बचा।" एकाएक खत्री चीखा।
सामने ही एक औरत सड़क को पार कर रही थी। उसे देखकर ही खत्री चीखा था। लेकिन बाबूलाल ने रफ्तार कम नहीं की। दांत और सख्ती से भिंच गए थे। ये तो वक्त रहते औरत को समझ आ गई कि वैन उसके ऊपर चढ़ जाएगी तो वो भागकर किसी तरह फुटपाथ पर चढ़ गई और वैन तूफानी रफ्तार से फुटपाथ की बगल से गुजरती चली गई।
"अगर लोगों को बचाने की सोचने लगे तो हम खुद को नहीं बचा पाएंगे।" बाबूलाल दरिन्दगी से कह उठा--- "हमने इस वक्त खुद को बचाना है। हम हैं तो सब कुछ है। हम नहीं तो कुछ भी नहीं।"
खत्री के दांत भिंचे रहे। बोला कुछ नहीं।
तभी पीछे जाली में से राजू उर्फ पगला का कान फाड़ता स्वर उनके कानों में पड़ा ।
"हमने कितने करोड़ों पर हाथ फेरा। पचास-साठ करोड़ तो होंगे ही।"
"चुप कर उल्लू के पट्ठे।" उनके कुछ कहने से पहले ही मुंशी का तीखा स्वर कानों में पड़ा--- "पहले हमें सुरक्षित जगह पहुंच लेने दे। नोटों की माला तब जपना।"
"मैं तो सिर्फ रकम के बारे में पूछ रहा हूं।" राजू उर्फ पगले का स्वर कानों में पड़ा--- "जिस पर इस वक्त हम दोनों बैठे हैं। मालूम तो हो कि कितनी दौलत की गर्मी को इस वक्त हम सह रहे हैं।"
"नब्बे करोड़ के आसपास। अब मुंह बंद रखना।"
"नब्बे करोड़। हे भगवान! इस वक्त मैं नब्बे करोड़ की नकद दौलत के ऊपर बैठा हूँ।" राजू उर्फ पगला का असंतुलित स्वर उनके कानों में पड़ा।
बाबूलाल का पूरा ध्यान ड्राइविंग पर था।
"इस हरामजादे को जुबान बंद करने को कह।" बाबूलाल गुर्राया । खत्री ने पल भर के लिए मुंह पीछे करके कठोर स्वर में कहा।
"बातें बंद कर दो। आवाज न आए।"
तभी सामने चौराहे पर हुई लाल बत्ती नजर आई। आगे दो कारें खड़ी थीं कि उनकी वैन किसी भी सूरत में नहीं निकल सकती थी।
वैन उसी रफ्तार से आगे बढी जा रही थी।
"बाबूलाल ।" वीरसिंह खत्री आतंकित हो उठा― "सामने।"
"चुप कर।" बाबूलाल दरिन्दे की तरह गुर्राया ।"
आतंक से आंखें फाड़े खत्री सामने देखता रहा।
देखते-ही-देखते वैन ने एक कार को इस तरह साइड मारी कि कार उलटकर, दूसरी कार से जा टकराई और उनकी वैन चौराहा पार करती गई।
खत्री अभी तक आतंक से घिरा बैठा था।
बाबूलाल की आंखों में अजीब-सा पागलपन झलक रहा था।
खत्री से कुछ कहते न बना।
मौत की खामोशी उनके बीच मौजूद हो गई थी।
दो पल भी नहीं बीते होंगे कि उन चारों के शरीरों में झुरझुरी-सी दौड़ती चली गई।
पुलिस सायरन की आवाजें किसी 'पिन' की भांति उनके मस्तिष्कों से टकराने लगी। यानी कि उस चौराहे पर पैट्रोलिंग पुलिस कार मौजूद थी, जो कि वैन के पीछे लग चुकी थी। सायरन की आवाज बराबर उनके कानों में पड़ रही थी जैसे सामने बैठा कोई नाग फुंफकार रहा हो और कभी भी डस लेगा।
"पुलिस।" वीरसिंह खत्री के होंठों से घबराया स्वर निकला। उसने बाबूलाल को देखा।
बाबूलाल की दरिन्दगी भरी निगाह साइड मिरर पर गई।
वैन से तीन-चार सौ गज पीछे पुलिस जिप्सी आती दिखाई दी। जिसकी ऊपर की लाल लाइट जल-बुझ रही थी और तीखा सायरन बराबर कानों में पड़ रहा था।
"पीछे पुलिस कार आ रही है।" मुंशी का जाली में से आता व्यग्र स्वर कानों में पड़ा।
"ये पुलिस वाले चौराहे से पीछे लगे हैं।" बाबूलाल गुर्राया--- "वहां पहले से ही पुलिस कार मौजूद होगी।"
"अब-अब क्या करें ?"
"पुलिस वाले क्यों हमारे पीछे लग गए ?" राजू उर्फ पगले का परेशान स्वर सबके कानों में पड़ा।
“जब तक स्टेयरिंग मेरे हाथ में है। कोई फिक्र न करे।" बाबूलाल खतरनाक स्वर में कह उठा--- "बहुत जल्दी मैं पुलिस वालों से पीछा छुड़ा लूंगा।"
"बेवकूफों वाली बात मत करो।" जाली में से मुंशी का स्वर कानों में पड़ा--- "ये वैन उनकी निगाहों से ओझल नहीं हो सकती है। वैन बड़ी है। ये शहरी इलाका है। कभी भी- कहीं भी वैन भीड़-भाड़ में फंस सकती है और पुलिस वाले हमारे सिर पर सवार होकर हमें तसल्ली से भून सकते हैं।"
बाबूलाल गुर्राकर रह गया।
"ठिकाने पर पहुंचने की छोड़ो।" वीरसिंह खत्री ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए खतरनाक स्वर में कहा--- "वैन को खुली सड़क पर, ऐसी जगह की तरफ लो, जहां ट्रेफिक न हो। ऐसी जगह पर पहुंच कर ही, पुलिस वालों से पीछा छुड़ाने की कोई तरकीब इस्तेमाल की जा सकती है।"
बाबूलाल ने अपना खूंखारता भरा चेहरा हिलाया और सख्त स्वर में कहा।
"अभी रास्ता बदलता हूं।"
पीछे से मुंशी की आवाई आई।
"वैन के पीछे वाले दरवाजे पर दोनों पल्लों के ऊपर हवा के लिए छ: इंच चौड़ी-छ: इंच लम्बी जालियों जैसे झरोखे हैं। मैं और पगला वहां से, पुलिस कार के टायरों का निशाना लेने की कोशिश करते हैं। अगर एक गोली भी टायर पर लग गई तो मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा।"
"ये ठीक रहेगा।" वीरसिंह खत्री जल्दी से बोला--- "पुलिस कार के टायरों का निशाना लो।"
"चल पगले।" मुंशी की आवाज उनके कानों में पड़ी--- "शुरू हो जा। फालतू गोलियां हैं ?"
"बहुत हैं।" राजू उर्फ पगले का स्वर पागलपन से भरा था--- "इतनी गोलियां हैं कि हम मर जाएंगे गोलियां चलाते चलाते, लेकिन गोलियां खत्म नहीं होगी।"
तभी आगे मोड़ आया।
बाबूलाल ने दो पलों के लिए रफ्तार कम करके ब्रेक मारी और मोड़ काटते ही, एक्सीलेटर का पैडल दबा दिया। वैन पुनः गोली की तरह भाग निकली। एक साइकिल सवार सड़क पर जा रहा था, जो कि कुछ हद तक सड़क पर था। उससे बचकर निकला जा सकता था।
परन्तु बाबूलाल ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की।
खत्री ने दांत भींचकर उन दो पलों के लिए आंखें बंद कर लीं।
वैन साइकिल सवार को साइकिल सहित रौंदती, आगे बढ़ती चली गई। खून के चंद छींटे विंड शील्ड पर पड़े। खत्री ने आंखें खोल लीं। बाबूलाल के वहशी चेहरे पर निगाह मारी फिर गर्दन घुमाकर जाली की तरफ मुंह करके तेज स्वर में बोला।
"पुलिस कार पीछे है ?"
"हां।" राजू उर्फ पगला की मध्यम-सी आवाज आई। उस वक्त वो वैन के पीछे वाले दरवाजे के पास था--- "लेकिन अभी सालों से निपट लेंगे।"
इसके साथ गोलियां चलने की आवाजें आने लगी। राजू उर्फ पगला और मुंशी पुलिस कार के टायरों का निशाना लेने के लिए, गोलियां चलाने लगे थे।
वैन अब धीरे-धीरे शहर के उस हिस्से में पहुंचती जा रही थी, जो कि अक्सर वीरान रहता था। जंगल जैसा इलाका था आगे । कच्ची-पक्की बेकार की सड़के थीं। यानी कि कुछ ही देर में वैन ऐसी जगह जा रही थी, जहां शायद ही कोई भटक कर वहां आता हो। खराब होते जा रहे रास्ते पर बाबूलाल ने वैन की रफ्तार कम नहीं की थी।
फायरिंग की आवाजें तेज होने लगी।
"शायद।" खत्री के होंठों से भिंचा स्वर निकला--- " पुलिस वालों ने भी जवाब में फायरिंग शुरू कर दी है।"
"तो तुम क्या समझते थे कि पुलिस कार मुड़कर वापस चली जाएगी।" बाबूलाल ने विषैले स्वर में कहा--- "पुलिस पीछे लगती नहीं, लग जाए तो फिर पलटती नहीं। बहुत देखा है मैंने पुलिस वालों को।"
"जहां पुलिस का खतरा था। वहां से तो बच निकले।" खत्री भी गुर्रा उठा--- " और अब पुलिस पीछे है। हमने ये तो सोचा भी नहीं था कि पुलिस वाले रास्ते में भी पीछे लग सकते हैं।"
बाबूलाल वैन को दौड़ाए जा रहा था। भिंचे दांत, कठोर चेहरा। दरिन्दा लग रहा था।
रास्ता खराब होने की वजह से वैन जोरों से अब लड़खड़ा रही थी। यहां सड़क मात्र छ: फीट के करीब चौड़ी थी और वो भी गड्ढों से भरी हुई। नाममात्र को ही उसे सड़क कहा जा सकता था। जंगल जैसा इलाका शुरू हो चुका था। कोई वाहन तो दूर, यहां किसी इन्सान का नजर आना भी आसान बात नहीं थी।
वीरसिंह खत्री बोला।
"इस रास्ते पर वैन नहीं दौड़ाई जा सकती। हमें रुकना पड़ेगा।"
फायरिंग की आवाजें बराबर उनके कानों में पड़ रही थीं।
"अपनी रिवॉल्वर संभाल ले।" बाबूलाल खतरनाक स्वर में कह उठा।
खत्री ने अपने हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर को देखा।
"वैन रुकने पर मेरे साथ मत चिपके रहना।" बाबूलाल दांत भींचे जहरीले-मौत भरे स्वर में कहे जा रहा था--- "मालूम नहीं, कितने पुलिस वाले हैं। अलग-अलग बिखरकर मुकाबला करना। सालों को उड़ा देना है। ध्यान रखना। नब्बे करोड़ की दौलत है हमारे पास इस वक्त । अगर बच निकले तो दुनिया के सारे आराम हमारे पास होंगे और ये पुलिस वाले हमारे आराम को, हमारी जिंदगी को छीनने के फेर में हैं। इन पुलिस वालों को हर कीमत पर, खत्म करना, इस वक्त हमारा मकसद होगा।"
"हां।" खत्री का खतरनाक स्वर दृढ़ता से भरा था।
"मुंशी और पगले को भी समझा दे कि पुलिस वालों का मुकाबला कैसे करना है। वैन को छोड़कर दूर हटकर, एक-एक करके पुलिस वालों को उड़ाना है। सामने रास्ता ऐसा है कि अब वैन को कभी भी रोकना पड़ सकता है।" बाबूलाल की आवाज में हिंसकता के भाव नाच रहे थे।
खत्री ने फौरन मुंह पीछे किया और जाली में ऊंचा-ऊंचा बोलकर, मुंशी और पगले को सारे हालात समझाने लगा कि अब आगे क्या कैसे करना है।
■■■
सड़क कब की खत्म हो चुकी थी।
गड्डों से भरी टूटी-फूटी जमीन पर जहाँ तक वैन ले जाई जा सकती थी, बाबूलाल ने वैन वहां तक खींची। आखिरकार उसे वैन रोकनी पड़ी। आसपास कुछ-कुछ फासले पर पेड़ थे।
वैन रुकते ही आगे के दोनों दरवाजे और पीछे का दरवाजा तूफानी ढंग से खुला। बाबूलाल, वीरसिंह खत्री, मुंशी, राजू उर्फ पगला बाहर कूदे और अलग-अलग दिशाओं में दौड़ते चले गए। हाथों में रिवॉल्वरें दबी थी। योजना के मुताबिक वैन से दूर उन्होंने पोजिशन ले ली थी और वहां से उन्हें स्पष्ट-अस्पष्ट तौर पर वैन नजर आ रही थी।
वैन को रुकते देखकर, पुलिस कार दूर ही रुक गई थी। वैन में एक कांस्टेबल के अलावा दो हवलदार और एक सब-इंस्पेक्टर मौजूद था। हवलदारों और कांस्टेबल के पास गनें थीं और सब-इंस्पेक्टर के पास रिवॉल्वर था। उन्होंने उन चारों को वैन से कूद कर दूर जाते और फिर पोजीशन लेते भी देखा।
वैन का पिछला दरवाजा खुला था और भीतर मौजूद सीलबंद सरकारी बोरे नजर आ रहे थे।
"ये लोग कहीं से वैन सहित सरकारी पैसा लूट कर आ रहे हैं।" सब-इंस्पेक्टर ने सतर्क स्वर में कहा--- "मामला क्या है ये तो बाद में मालूम होगा। इस वक्त इन चारों से निपटना जरूरी है। चारों बदमाशों ने पोजिशन ले ली है। वो हमारा मुकाबला करने को तैयार हुए बैठे हैं।"
"सर।" एक हवलदार बोला--- "वो चार हैं और हम भी चार। खुद को बचाने के लिए वो तो मरने-मारने पर उतारू हैं। ऐसे में वे हम पर भारी पड़ सकते हैं।"
"तुम ठीक कहते हो।" सब-इंस्पेक्टर का स्वर दृढ़ता से भर गया--- "लेकिन ये सोच कर हम पीछे तो नहीं हट सकते। वैसे भी मेरी बीवी ताने मारती रहती है कि मैंने कोई बड़ा काम नहीं किया। ये मौका मैं हाथ से नहीं जाने दूंगा।"
चारों की निगाहें हर तरफ घूम रही थीं।
"वायरलैस पर हैडक्वार्टर खबर कर दो कि हम कहां है और किस पोजिशन में हैं। वहां से हमारे लिए अन्य पुलिस वाले चल पड़े होंगे। मैसेज तो उन तक पहले ही पहुंच चुका है। उन्हें यहां पहुंचने में दिक्कत नहीं होगी।"
दूसरा हवलदार तुरंत वायरलैस सैट पर व्यस्त हो गया।
पुलिस हैडक्वार्टर में मैसेज देने का काम फौरन ही खत्म हो गया। चारों हथियारों के साथ पुलिस कार के बाहर खड़े थे। कांस्टेबल, दोनों हवलदारों और सब-इंस्पेक्टर के हाथ में हथियार थे।
"वो चारों छिपे हमें पक्का देख रहे हैं। लेकिन परवाह नहीं। मुझे पूरा विश्वास है कि वो वैन को छोड़कर भागने वाले नहीं। वो हमारा मुकाबला करेंगे कि हमें खत्म करके, वैन को ले जा सकें और हमें न तो अपनी जान गंवानी है और न ही, वैन को ले जाने देना है।"
"सर, गोला-बारी में वे हमें उलझाकर, वैन को ले जा सकते हैं।" हवलदार ने कहा।
सब-इंस्पेक्टर ने रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा किया और वैन के पीछे के टायर का निशाना लेकर ट्रेगर दबाया तो देखते-ही-देखते टायर के चीथड़े उड़ गए।
"अब।" सब-इंस्पेक्टर कठोर स्वर में बोला-- "वो हमें कितना भी उलझा लें। वैन नहीं ले जा सकते।"
कांस्टेबल और दोनों हवलदार सिर हिलाकर रह गए।
"हमें समझदारी और ठंडे दिमाग से काम लेते हुए उन चारों को खत्म करना है। हम दो तरफ से दो-दो के ग्रुप में उनकी तरफ बढ़ेंगे। फिर सुन लो ये लोग कोई बड़ा कांड करके निकले हैं। छोड़ना नहीं है इन्हें ।"
इस वक्त शाम के पांच बज रहे थे।
कुछ ही देर बाद वहां के वातावरण में रह-रहकर गोलियों की आवाजें गूंजने लगी।
■■■
टाटा सूमो थी वो गाड़ी।
जहां बाबूलाल ने वैन रोकी थी वहां से सिर्फ तीस कदम दूर पेड़ों के झुरमुट में इस तरह खड़ी थी कि एक ही निगाह में देख पाना सम्भव नहीं था कि वहां कोई वाहन खड़ा है।
शांत खड़ी सूमो कभी-कभी हिलने-सी लगती और भीतर से औरत-मर्द की अस्पष्ट-सी आवाजें रह-रहकर आ रही थी।
"जीजा जी, जल्दी करो। घर भी जाना है।"
"मैं हूँ तेरे साथ। फिक्र क्यों करती है तू, ऐसे ही रह।"
"दीदी पूछेगी इतनी देर कहां लगा दी तो।"
"कहां क्या लगा दी। सूमों का टायर पँचर हो गया था। वो बदला तो दूसरा पंचर हो गया। गाड़ी है तो टायर तो पैंचर होगा ही। अपनी दीदी की तू फिक्र मत कर। मेरी घरवाली है। रात को तसल्ली से उसकी भी तसल्ली करा दूंगा।"
"बहुत शरारती हैं आप। दीदी को भी ऐसे ही प्यार करते हैं। जैसे मेरे से कर रहे हैं।"
"हां।"
"तब तो दीदी को कितना मजा आता होगा रोज।"
"तू अपनी गिनती कर। दीदी की बात मत कर इस समय। तेरे को कैसा लग रहा है ?"
"बहुत अच्छा।"
"ये सूमो कितनी किस्मत वाली है।"
“वो क्यों ? हाय।"
"तू नहीं समझेगी। जो इस वक्त समझ में आ रहा है, वही समझ।"
"ध्यान से-- आह-मुंह पर निशान मत डाल देना।"
"क्यों ?""
"दीदी को शक हो जाएगा और...।"
"दिमाग खराब हो गया है तेरा । गाल पर निशान देखकर शक हो जाएगा। बेवकूफ । कह देना कुत्ते ने काट लिया था। मोटा-तगड़ा इंजेक्शन लगवाकर आ रही हूं। गवाही मैं दे दूंगा।"
"दीदी को तो आप रोज ही प्यार करते हो और मेरे साथ कितनी-कितनी देर बाद । वो भी सूमो में।"
"धन्यवाद कर सूमो का। वरना ये भी मौका न मिलता।"
"जब दीदी बाहर जाए तो तब।"
"तब की तब देखेंगे। अभी तो अब की।"
उसी पल उनके कानों में गोलियां चलने की आवाज पड़ने लगी।
"आह, वज-वज गई।"
"कित्थे वज गई। गोलियां बोत दूर ने। नेई वज्जी। पर ये हो क्या रहा है। गोलियां। तू अपना बोरिया-बिस्तरा समेट। मैं भी समेटता हूं। बाकी का मामला उधार रहा। घर की बात है। आखिर तू साली है मेरी। कभी भी उधार चुकता कर लेंगे। मैं जरा बाहर देखूं। कहीं सच में ही कोई गोली हमें न वज जाये।"
उसके बाद टाटा सूमो से कोई आवाज नहीं आई।
करीब डेढ़ मिनट बाद सूमो का पीछे का दरवाजा आहिस्ता से खुला और पैंतीस बरस के व्यक्ति ने सिर निकालकर बाहर झांका। सब ठीक देखकर बोला।
"तू बाहर मत आना। मैं जरा देख लूं कि क्या हो रहा है और निकलने का रास्ता साफ है।"
"ठीक है जीजा जी।"
दरवाजा थोड़ा-सा और खोलकर वो सूमो से नीचे उतरा। दरवाजा भिड़ाकर दो कदम आगे बढ़ा और पेड़ों के झुरमुट से बाहर देखा।
सबसे पहले उसकी निगाह वैन पर पड़ी। वैन के पीछे के खुले दरवाजे के भीतर का थोड़ा-सा हिस्सा नजर आ रहा था। सीलबंद सरकारी बोरों पर उसकी निगाह पड़ी। वैन की बॉडी पर लिखे "भारत सरकार" वाले शब्दों पर निगाह पड़ी।
ये देखकर चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
रुक-रुक गोलियां चलने की आवाजें कानों में पड़ रही थीं।
सोच के भाव समेटे कई पलों तक खड़ा रहा। फिर कमीज के पूरे बटन बंद किए। आवाजों से उसे अहसास हो गया था कि गोलियां कुछ दूर चल रही हैं। लेकिन ज्यादा दूर भी नहीं।
"गड़बड़ है। " होंठों ही होंठों में वो बड़बड़ाया फिर जाने क्या सोचकर सतर्कता से कदम उठाते वैन की तरफ बढ़ा। वो फुर्ती से आसपास भी देख रहा था। वैन के पास पहुंचने पर उसकी निगाह दूर खड़ी पुलिस कार पर भी पड़ चुकी थी। जिसके पास कोई पुलिसवाला नहीं था।
वो जल्दी से वैन के भीतर पहुंचा और बोरों को टटोलने लगा। करीब आधा मिनट तक टटोलता रहा। आंखों में अजीब-सी चमक और चेहरे पर पहचाने से भाव आ गए। उसके हाथ की उंगलियां और मस्तिष्क की तरंगें धोखा नहीं खा सकती थीं। इन बोरों में नोटों की गड्डियां भरी पड़ी हैं। बोरों के बंद मुंह पर सरकारी मुहर थी, लाख की।
ये सरकारी वैन। नोटों की गड्डियों से भरे बोरे । कुछ दूर मौजूद पुलिस कार और गोलियां चलने की आवाजें । स्पष्ट था कि लूटने वाले सरकारी पैसा लूटकर भाग रहे थे कि पुलिस ने घेर लिया और अब एक-दूसरे पर गोलियां चला रहे हैं।
उसने हसरत भरी निगाहों से नोटों से भरे सारे बोरों को देखा। सोचों में सिर्फ एक ही बात आई कि ये ढेर सारी दौलत उसके पास होती तो कितना मजा आ जाता।
सोचे रुकीं।
होती क्या ? अब भी तो हो सकती है। यहां पर कोई नहीं है। दौलत उसके सामने है। परन्तु इसे लेगा कैसे ? कोई ऊपर से आ गया तो उसकी घंटी बज जाएगी ?
लेकिन उसके खुरापाती दिमाग की सोचों को चैन कहां।
वैन में आठ-दस बोरे हैं। एक भी वो ले चले तो सारे क्लेश कट जाएंगे।
वो जल्दी से नीचे उतरा। आस-पास देखा। कोई नजर नहीं आया। गोलियों की आवाजें रह-रहकर कानों में पड़ रही थीं। कभी तेज हो जाती तो कभी ठहर-ठहर कर गोलियां चलने लगती। पलटकर वो भागा-भागा वापस पेड़ों के झुरमुट में, टाटा सूमो के पास पहुंचा। जल्दी से दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया।
भीतर, कमीज-सलवार पहने, दुपट्टा लिए, सत्ताईस वर्षीय बेहद खूबसूरत युवती मौजूद थी। चेहरे पर तसल्ली और खुशी के भाव मौजूद थे। बाल अब संवरे हुए थे।
उसके चेहरे के भाव देखते ही वो मीठे स्वर में बोली।
"क्या हुआ जीजा जी।"
"मैं जो कहूंगा। तू वही करना।" उसने जल्दी से कहा।
"मैंने आपकी बात कभी मना की है।" वो शर्माकर कह उठी।
"मैं वो वाली बात नहीं कह रहा।"
"तो ? और वो गोलियां क्यों चली ?"
उसने कम शब्दों में सारी बात बताई और अपना इरादा बताया। सुनकर, वो हड़बड़ाकर जल्दी से कह उठी।
"ये उल्टे काम में हाथ क्यों डाल रहे हो जीजा जी। खामखाह फंस गए तो, दीदी को सूमो वाली बात मालूम हो जाएगी। वो चप्पलें उठाकर मुझे...।"
"हर बात में अपनी सड़ी हुई दीदी को मत घसीटा कर। ऐसा कुछ हुआ तो मैं सब संभाल लूंगा।"
"कैसे संभाल लेंगे आप ?"
"तेरे को भी अपनी दीदी की, ब्याह से पहले की कोई ऐसी-वैसी बात पता तो होगी। है या नहीं।"
"हां, पता तो है।" उसका लहजा अर्थपूर्ण हो उठा।
"क्या पता है, क्या करती थी वो ?" दो पल के लिए नोटों को भूलकर, उसके चेहरे पर दिलचस्पी उभरी।
"छोड़िए ना, आप भी क्या बात ले बैठे।"
"छोड़। ये बात फिर कर लेंगे। अब समझ गई न कि जरूरत पड़ने पर तेरी सड़ी हुई दीदी को कैसे संभालना है। मैं और तू सूमो को जल्दी से धक्का लगाकर, उस वैन के पास ले जाते हैं और एक-दो बोरे सूमो में डालकर खिसक लेते हैं। आ नीचे, धक्का लगाने के लिए।"
"मुझे डर लग रहा है।"
"मेरे होते हुए डर कैसा? चल, नीचे उतर धक्का लगा सूमो को।" उसका स्वर तीखा हो गया।
साली का जीजा के साथ जो रिश्ता बन चुका था, उसके तहत वो इंकार करने की स्थिति में नहीं थी।
"लेकिन उन थैलों में नोटों की ही गड्डियां हैं। इस बात की क्या गारंटी है। हो सकता है...।"
"चिट फंड हैं मेरी, तेरा जीजा छू कर ही बता देता है कि गड्डी सौ की है या पांच सौ की। जैसे कभी तेरे को देखकर समझ गया था कि तू बड़ी कमाल की चीज है। बहुत पारखी हूं मैं। आ-जा नीचे।"
उसके बाद दोनों जल्दी से नीचे उतरे। उसने धक्का लगाते हुए स्टेयरिंग पकड़ा। पीछे से उसकी साली ने धक्का लगाया और सूमो पेड़ों के झुरमुट से बाहर आ गई। कुछ दूरी पर वैन थी और आस-पास, दूर-दूर तक कोई भी नजर नहीं आया।
गोलियां चलने की आवाजें अवश्य कानों में पड़ रही थीं।
इसी तरह धक्का लगाते हुए दोनों टाटा सूमो को वैन के पास ले आए।
"मुझे डर लग रहा है जीजाजी।"
"मेरे होते हुए क्यों फिक्र करती है। उधर से धक्का लगा। सूमो का पिछला हिस्सा, वैन के पिछले हिस्से के पास करना है। ताकि नोटों वाला थैला डालने में आसानी हो। तू सूमो के भीतर पहुंच जाना। मैं धक्का दूंगा, तू खींचना। इस तरह आसानी से थैला सूमो में पहुंच जाएगा।"
"थैला भारी है ?"
"हां, सरकारी थैला। सरकारी नोट, भारी तो होंगे ही।"
सूमो का पिछला हिस्सा वैन के पिछले हिस्से के करीब पहुंचा दिया गया। वो सूमो के दरवाजे खोलकर, भीतर खड़ी हो गई और वो वैन पर चढ़ा एक थैला पकड़ा, खींचा। वास्तव में भारी था।
"क्या हुआ ?"
"बहुत भारी है।"
"मैं आऊं।"
"आ-जा।"
दोनों इस समय वास्तव में घबराए हुए थे। परन्तु ये काम भी कर गुजरना चाहते थे। जीजा साहब के खुरापाती दिमाग को, दौलत की खुशबू लेने के बाद चैन कहां।
वो टाटा सूमो से कूदकर, वैन में आ गई।
थैला इतना भारी था कि उसे उठाना, उन दोनों के बस का भी नहीं था। परन्तु जैसे-तैसे खींच-खांचकर उन्होंने एक थैले को सूमो में पहुंचा दिया। इतने में ही दोनों पसीने से लथपथ हो गए थे। रेल के इंजन की तरह उनकी सांसें चल रही थीं।
"च-चले जी-जा जी, थैला...।"
"अभी नहीं।"
"क्यों ?"
"एक थैला और।"
'एक ही बहुत है। ज्यादा लालच...।"
"सिर्फ एक और---"
वो जीजे के हुक्म की गुलाम थी।
पुनः जैसे-तैसे रो-पीटकर, एक थैला और सूमो में पहुंचाया गया।
साली के कुछ कहने से पहले ही जीजा बोल पड़ा।
'एक और, बोलना मत, जल्दी कर ।"
तीसरा भी सूमो में पहुंचा दिया।
"अब और नहीं।" थककर वो गहरी-गहरी सांसें लेती, थैले पर ही बैठती हुई बोली।
जीजा साहब ने बचे हुए थैलों पर निगाह मारी। बाकी छः थैले बचे थे। ये सोचकर आंखों में लालच नाच उठा कि नोटों से भरे थैलों को वो इस तरह छोड़कर कैसे जा सकता है। परन्तु वो ये भी जानता था कि अकेला उन थैलों को सूमो तक नहीं पहुंचा सकता। एक थैला उठाने के लिए तीन बंदों की जरूरत थी उन दोनों ने तीन थैले कैसे सूमो में पहुंचाए, ये वो ही जानता था।
उसने उस पर निगाह मारी।
वो पसीने से भरी हुई थी। पूरी कमीज पसीने से भीग चुकी थी, इस हद तक शरीर से चिपकी हुई थी कि शरीर की बनावट का आकार-प्रकार, इमान को हिला देने के लिए काफी था। लेकिन जीजा साहब के इमान में तो दौलत ठूंस-ठूंस कर भर चुकी थी। साली का क्या, वो तो थी ही अपनी।
कुछ दूर से गोलियां चलने की आवाजें अभी भी आ रही थीं।
"सुन।" जीजा साहब ने मिठास भरे स्वर में कहा--- "बहुत थक गई है तू ?"
"हां।" उसने गले से पसीना पौंछते हुए सहमति से सिर हिलाया।
"एक बात कहूं।"
"बाद में कह लेना जीजाजी। यहां से चलो।"
"सुन तो सही। जब तेरी शादी होगी तो मैं दहेज में तेरे को मारुति 800 दूंगा।"
"मारुति भी कोई कार है। आजकल तो हर किसी के पास मारुति है।"
"जैन VX ले लेना।"
"नहीं।"
"तो फिर बोल, क्या चाहती है तू ? तेरा जीजा, तेरे लिए सब कुछ कर देगा।"
"कम से कम दहेज में टाटा सूमो तो होनी चाहिए।"
"सूमो। ठीक है, शोरूम से निकलवा कर दूंगा। तू भी क्या याद करेगी।"
"चलानी भी सिखा देना। नहीं तो सूमो का फायदा क्या उठा पाऊंगी।"
"ये बात भी मानी और तेरा जो आदमी होगा, उसे बढ़िया सी दुकान या बढ़िया सा बिजनेस भी खुलवा दूंगा। रानी बनकर रहेगी तू । हम दोनों में प्यार वाला रिश्ता हमेशा बना रहेगा।"
"सच।" वो कुछ शर्माकर मुस्कराई--- "फिर तो मेरे मजे ही मजे होंगे।"
"हां, लेकिन ये सब तभी हो सकता है, जब तू मन से इस वक्त मेरी सहायता करे।"
"मैंने कभी किसी बात के लिए आपको मना किया है जीजा जी ?"
"मैं इस वक्त के लिए कह रहा हूं।"
"इस वक्त भी मैं कहां मना कर रही हूं। इशारा तो कीजिए।"
"ये देख तीन थैले सूमो में पहुंच चुके हैं। मानता हूं बहुत भारी है। तू क्या, मैं खुद थक गया हूं। लेकिन ये वक्त थकान देखने का नहीं है। मेरे साथ लग। बाकी के छः थैले भी सूमो में पहुंचाने हैं। वक्त बहुत कम है। कोई आ गया तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। ये बाकी के छः थैले सूमो में पहुंचाएगी तो तभी तेरे को शादी में टाटा सूमो मिलेगी। तभी तू उसे चलाना सीख पाएगी। तभी तू जिन्दगी का डबल मजा लेगी। तभी तेरे आदमी को बड़ा बिजनेस खोलकर दूंगा। मतलब कि सब कुछ इन छः थैलों पर निर्भर है कि ये वक्त रहते सूमो में पहुंच पाते हैं या नहीं।"
साली साहिबा के दिलो-दिमाग पर जोश उफान मारने लगा। वो खड़ी हो गई।
"ठीक है जीजा जी। मैंने कभी आपको किसी बात के लिए इंकार किया है ?"
"ये हुई बात। कई बार सोचता हूं कि तेरी सड़ी हुई दीदी के बदले तू मेरी बीवी होती तो कितना अच्छा होता। फिर भी सूमो की मेहरबानी कि पूरी नहीं तो आधी बीवी तो तू मेरी है ही। चल, शुरू हो जा। बीच में रुकना मत। सांस-वांस बाद में ले लेना, तैयार ?"
"मैं तो हमेशा तैयार ही रहती हूं। जीजा जी के हर काम के लिए।"
उसके बाद दोनों फिर लगे बाकी के बचे छः थैलों को सूमो में पहुंचाने के लिए। इस बार दोनों ने काम को रफ्तार के साथ किया। परन्तु ये तो वो ही जानते थे कि थकान के मारे उनकी क्या हालत हो रही थी। हाथ-बांहें पीठ दर्द कर रही थीं। टांगों में थकान से भरा कम्पन हो रहा था। सिर से पांव तक पसीने में पूरी तरह नहा चुके थे। सिर के बाल भी पसीने से इस तरह गीले हो गए थे कि जैसे वे नहाकर निकले हों।
बीस मिनट लगा दिए उन छः थैलों को सूमो में पहुचांने के लिए। नौवें थैले के लिए सूमो में जगह नहीं बची थी, पिछले हिस्से में परन्तु उसे भी किसी तरह ठूंस कर, जीजा साहब ने दरवाजा बंद कर दिया। नोटों से भरे थैले सूमो में बंद हो चुके थे और वैन खाली हो चुकी थी।
और दोनों का वो बुरा हाल था कि देखते ही बनता था। जोश जोश में साली ने जीजा साहब का साथ तो दे दिया था, लेकिन पस्त हाल, वो गिरने को ऐसे तैयार थी जैसे, दो व्हिस्की की बोतलें डकार ली हो। अब मरी कि तब। ये हाल था उसका। जीजा साहब भी बुरे हाल थे। परन्तु खुराफाती दिमाग अभी होशो-हवास में था । वो जानता था कि अभी काम पूरा नहीं हुआ। यहां से चलना बाकी है। वरना सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। कांपती टांगों से वो आगे बढ़ा। थकान से कांपते हाथ भी काबू में नहीं थे। इस वक्त तो उसे सहारे की जरूरत थी। लेकिन वक्त की नजाकत देखते हुए लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ा और सूमो की बॉडी से पस्ती भरे अंदाज में टेक लगाए साली साहिबा का कंधा थपथपाते उखड़ी सांसों से कह उठा।
"चल, बैठ अंदर।"
"हिम्मत नहीं है। थक...।"
"हिम्मत तो मेरे में भी नहीं है। बैठ जा किसी तरह।" जीजा साहब असंतुलित स्वर में कह उठे--- "वरना गोलियां चलाने वाले आ गए तो जो थोड़ी-बहुत हिम्मत बची है, वो भी निकाल लेंगे।"
जीजा साहब ने प्यारी साली को किसी तरह सूमो की अगली सीट पर बिठाया और खुद भी स्टेयरिंग सीट पर कांपते हाथों से सूमो को स्टार्ट किया और घबराहट-उत्तेजना से कांपते पैरों का इस्तेमाल करते हुए हड़बड़ाए अंदाज में आगे बढ़ा दिया।
गोलियां चलने की आवाजें अभी भी आ रही थीं।
■■■
वीरसिंह खत्री, राजू उर्फ पगला और बाबूलाल के बाद पुलिस वालों का आखिरी शिकार बना मुंशी। कई गोलियां उसके शरीर में धंसी तो मौत का ये खेल रुका। सब-इंस्पेक्टर के नेतृत्व में बहुत अच्छे ढंग से उन चारों का मुकाबला करके, उन्हें खत्म किया गया था। बदले में एक हवलदार के कंधे और टांग में गोलियां धंसी थीं। परन्तु उसे जान का खतरा नहीं था।
सब-इंस्पेक्टर का नाम था कमल सिन्हा।
उसका चेहरा सख्त हुआ पड़ा था। अन्य पुलिस वालों का भी यही हाल था। वे ही जानते थे कि इन चारों का मुकाबला करते हुए, वो किस तरह बचे हैं। चारों कितने आक्रामक हुए पड़े थे। ऐसे में उन्हें निशाना बनाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगाना पड़ा था।
सब-इंस्पेक्टर कमल सिंहा ने खाली हो चुकी रिवॉल्वर को भरा। मात्र तीन गोलियां उसके पास बाकी बची थीं। ठीक वक्त पर सब कुछ निपट-सिमट गया था।
"चारो खत्म ?" सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा ने हवलदार और कांस्टेबल पर निगाह मारी।
"जी।"
"चेतराम कहां घायल पड़ा है ?"
"उधर सर।"
"तुम चेतराम के पास जाओ।" कमल सिन्हा ने कांस्टेबल से कहा--- "हम बाकी लाशों पर निगाह मार कर आते हैं।"
कांस्टेबल फौरन पलट कर एक दिशा की तरफ बढ़ गया।
सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा ने हवलदार के साथ बाबूलाल, मुंशी वीरसिंह खत्री और राजू उर्फ पगला की लाश को चैक किया। जो कि अलग-अलग जगहों पर बिखरी हुई थी।
इन सबसे मुकाबला करने में चालीस मिनट का वक्त लगा था।
"सर।" हवलदार व्याकुल-सा कह उठा--- "इन लोगों को शूट करके हमने गलत काम तो नहीं किया ?"
कमल सिन्हा की निगाह हवलदार पर जा ठहरी।
"कैसा गलत काम ?"
"कहीं ये बेकसूर हो और...।"
"होश में रहकर बात करो। चौराहे पर कार को टक्कर मारकर वैन को दौड़ा ले गए। रास्ते में साइकिल सवार को कुचला और फिर रिवॉल्वरों से हम लोगों को खत्म करना चाहा। चेतराम की हालत स्पष्ट गवाह है इस बात की।" कमल सिन्हा एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- "इनके पास सरकारी वैन थी। वैन में रखे सरकारी थैलों को हमने देखा है। उसमें यकीनन सरकारी पैसा ही होगा जिसे लेकर ये भाग रहे थे। अभी तो हमें खास कुछ नहीं मालूम। कोई बड़ा गुल खिलाकर ही ये चारों वैन को लेकर भागे होंगे।"
"बात तो आपकी सही है।"
"आओ वैन में मौजूद बोरों को देखते हैं। उनमें क्या है ?"
"चलिए सर। अभी तक हैडक्वार्टर से पुलिस सहायता नहीं पहुंची।"
कमल सिन्हा के कुछ कहने से पहले वातावरण में पुलिस सायरनों की आवाजें गूंज उठीं।
"हैडक्वार्टर से पुलिस वाले आ गए सर।"
कमल सिन्हा हवलदार के साथ वैन की तरफ बढ़ गया।
कमल सिन्हा, हवलदार के साथ जब वैन के पास पहुंचा तो दूसरी तरफ से कम से कम तीस-पैंतीस हथियारबंद पुलिस वाले भी वहां आ पहुंचे। सायरन बजने रुक चुके थे। परन्तु पुलिस कारों की लाइटें जल-बुझ रही थीं। हर तरफ पुलिस की वर्दियां ही वर्दियां नजर आ रही थीं।
पुलिस वालों की आपस में बात हुई तो कमल सिन्हा को मालूम हुआ कि ये चारों बैंक वैन लूटकर भाग रहे थे। जिसमें कि नब्बे करोड़ नगद रुपया, नौ बोरों में मौजूद है और लूट के वक्त वैन के ड्राइवर, दो सिक्योरिटी गनमैनों और वैन में मौजूद एक ऑफिसर को शूट किया था। यह जानकर कि उन चारों को शूट कर दिया गया है, सबने कमल सिन्हा की पीठ को शाबाशी वाले ढंग में थपथपाया।
कमल सिन्हा बोला।
"उधर हवलदार चेतराम घायल है। उसे तुरन्त डॉक्टरी सहायता की जरूरत है।"
कुछ पुलिस वाले फौरन उस तरफ बढ़ गए।
तभी एक पुलिस वाला पास पहुंचा।
"सर।" उसने वहां मौजूद इंस्पेक्टर से कहा--- "वैन तो खाली है।"
सब चिहुंक पड़े।
"क्या ?"
“वैन में नोटों से भरे, सरकारी मुहरबंद नौ बोरे होने चाहिए।" इंस्पेक्टर ने कहा--- "हमारे पास ये खबर पक्की है।"
"नो सर, वैन में कुछ भी नहीं है।"
"ये कैसे हो सकता है।"
सब जल्दी से वैन के पास पहुंचे।
पिछला दरवाजा खुला था और भीतर कुछ भी नहीं था ।
ठगे से रह गए सब ।
सब-इंस्पेक्टर कमल सिन्हा की हालत अजीब-सी हो रही थी।
"मैंने खुद वैन में मौजूद बोरों को देखा था।" कमल सिन्हा के होंठों से निकला।
"तो फिर बोरों में बंद नब्बे करोड़ की रकम कहां गई ?"
पुलिस वाले मक्खियों की तरह वैन के गिर्द इकट्ठे होने लगे।
"इसका मतलब।" कमल सिन्हा होंठ भींचकर कह उठा--- "इन चारों के और साथी भी थे जो वैन के पीछे आ रहे थे। परन्तु हम उनके बारे में नहीं जान सके। करीब पौन घंटा हम उन चारों का मुकाबला करते रहे और इस दौरान वैन से दूर रहे। तब इनके साथी मौका देखकर, वैन से बोरों को निकाल कर ले गए। जबकि मैं निश्चिंत था, वैन का टायर भ्रष्ट कर देने के पश्चात कोई वैन को नहीं ले जा सकता था। बस, यहीं पर मात खा गया कि इनके और भी साथी पीछे आते हुए हो सकते हैं।"
"सर। वो सूमो, टाटा सूमो। सफेद रंग वाली।" एक पुलिस वाले ने तेज स्वर में कहा--- "जब हम इधर आने के लिए मुड़े थे तो वो टाटा सूमो दूसरी तरफ जा रही थी। वो इधर से ही गई होगी। उसमें इनके साथी हो सकते हैं। वो सोरे बोरे टाटा सूमो में भी रखे जा सकते हैं।"
"सूमो का नम्बर क्या था ?" एक इंस्पेक्टर ने तेज स्वर में पूछा--- "देखा।"
"नम्बर नहीं देखा, रंग सफेद था।"
"भीतर बैठे लोगों को देखा ?"
"नहीं, लेकिन जहां तक मेरा ख्याल है भीतर दो लोग बैठे थे।"
"फौरन कंट्रोल रूम खबर दो। शहर भर में नाकेबंदी करा दो और गाड़ियों को चैक किया जाए। खासतौर से सफेद रंग की टाटा सूमो को। जल्दी खबर करो।"
वो पुलिस वाला पुलिस कार की तरफ दौड़ा।
"वो लोग बच नहीं सकते।"
तभी एक पुलिस वाला बोला।
"सर, ये देखिए टाटा सूमो के टायरों के निशान।"
कुछ आगे जाकर सबने टायरों के निशान देखे। अब कोई शक नहीं रहा था कि उसी सफेद रंग की टाटा सूमो में लुटेरों के साथी थे और नब्बे करोड़ की नकद रकम से भरे सरकारी बोरे, उसी सूमो में यहां से ले जाए गए हैं। परन्तु अब वे ज्यादा दूर नहीं जा सकेंगे। पंद्रह-बीस मिनटों में ही शहर में नाकेबंदी हो जानी थी।"
"हैडक्वार्टर मैसेज दो कि यहां से लाशों को उठवाने का इन्तजाम करना है। फोटोग्राफर के साथ पूरी टीम भेजी जाए और खबर कर देना कि वैन लूटने वाले चारों लुटेरे मुठभेड़ में मारे गए हैं।"
एक पुलिस वाला वायरलैस पर खबर देने के लिए कार की तरफ बढ़ गया।
"अंधेरा होने वाला है। कारों को लाशों के पास ले जाकर, कारों की हैडलाइटें ऑन कर दो। ताकि आने वाली पुलिस टीम अपना काम पूरा कर सके। आसपास की जगह की छानबीन सुबह भी हो सकती है। चार पुलिस वाले, रात यहां पहरा देंगे। आओ, मुझे उनका लाश दिखाओ।"
कमल सिन्हा अपने ऑफिसर को लेकर, लाशों की तरफ बढ़ गया।
■■■
"चुम्मा-चुम्मा दे दे। ओ मेरी प्यारी साली, चुम्मा-चुम्मा दे दे।" जीजा साहब दौलत की मस्ती में, पूरे होशो-हवास में साली साहिबा की बांह पकड़कर बार-बार गा रहे थे। थकान अभी भी उन दोनों पर हावी थी। परन्तु अब वो थकान राहत देने वाली थी।
आखिरकार तंग आकर साली साहिबा ने कहा।
"ये गाना-वाना छोड़ो, सामने देखकर सूमो चलाओ चुम्मा लेने-देने का मन हो तो सूमो को साइड में लगा लो। मैंने आपको कभी भला मना किया है, जो दे-दे कह रहे हैं।"
“मैं तो गाना गा रहा हूं मेरी जान।" जीजा साहब मस्ती में कह उठे।
"आज से पहले तो जीजा जी आपने कभी मुझे, मेरी जान नहीं कहा।"
"यूं समझ ले, दौलत के नशे में बहक कर, सच मेरे मुंह से निकल गया।"
"कितनी दौलत होगी बोरों में ?"
"बहुत।"
"कितनी बहुत ?"
"मालूम नहीं, अभी मेरे होशो-हवास कायम नहीं हैं।" जीजा साहब उसे देखकर हंसे--- "लेकिन कुल मिलाकर एक-दो करोड़ से कम क्या होगी।"
"एक-दो करोड़ ! हे राम! मर जावां।" उसने गहरी सांस लेकर अपनी छातियों पर हाथ रखा--- "किसी को पता चल गया कि हमारे पास इतनी दौलत है तो तब क्या होगा जीजा जी।"
"कुछ नहीं होगा। अपने जीजे पर विश्वास रख। एक बात तो बता...।"
"हां पूछो।"
"तू इस बारे में क्या सोचती है। सारी जिन्दगी मेरे साथ रह गुजार सकती है।"
"ये कैसे हो सकता है। वो दीदी...।"
"ओ अपनी सड़ी हुई दीदी को मार गोली। वो रास्ता भी बताता हूं। पहले तू मेरी बात का सच-सच जवाब दे।"
"मैं तो आपके लिए जान भी दे सकती हूँ।"
"मतलब कि तू सारी जिंदगी मेरे साथ बिताने को तैयार है।"
"हां, लेकिन दीदी...।"
"दीदी-दीदी लगा रखी है। तेरी दीदी क्या तोप है। घर चल। सीधे-सीधे तेरी दीदी से बात करता हूं कि तेरी बहन यानी कि तू मेरी दूसरी बीवी बनकर साथ रहेगी। बोरों में पड़ी नोटों की झलक भी उसे दिखा दूंगा। नहीं मानी तो सूमो में बैठकर चल देंगे कहीं। पास में पैसा तो हैं ही। ब्याह कर लेंगे।"
"और अगर दीदी मान गई तो ?"
"तो कल तेरे से भी ब्याह करके, तुझे भी घर में रख लूंगा। दोनों बहनें मजे से रहना। एक रात वो तेरे को तैयार करके मेरे पास भेजेगी तो दूसरी रात तू उसे तैयार करके मेरे पास भेजना।"
"एक आइडिया है जीजा जी।"
"बोल।"
"अगर हम दोनों ही, एक साथ आपके पास आ जाया करें तो ?"
"बल्ले-बल्ले, जल्दी तरक्की की सीढ़ियां चढ़ेगी। ये भी करके देख लेंगे। पहले तेरी दीदी का रुख तो देख लें।" जीजा साहब की मस्ती पूरी तरह मस्त थी।
"लेकिन, दीदी ये बात नहीं मानेगी।"
"मानेगी, पहले चिड़-चिड़ करेगी, पर बाद में मानेगी। वो मैं संभाल लूंगा। आखिर मुझे भी बाप बनना है। छः साल हो गए, एक बच्चा तो वो पैदा न कर सकी।"
"हां, ये तो है। मैं जुड़वां बच्चे पैदा करूंगी।"
"जुड़वां क्या, सिंगल कर, कर तो सही।"
"लेकिन एक शर्त है।"
"बोल मेरी रानी।"
"ये सूमो बेचकर मारुति कार ले लेना।"
"क्यों ?"
"मेरे से शादी करने के बाद आप कहीं फिर सूमो को, किसी के साथ बेडरूम बनाना शुरू कर दें।"
"फिक्र क्यों करती है। वादा रहा। तीसरा ब्याह नहीं करूंगा।"
"शरारती, दूसरों को फंसाना तो कोई आपसे सीखे।"
"आ पास आ।"
"नहीं, अभी आप।"
"आ-तो...।"
जीजा साहब ने साली साहिबा को खींचा और बाएं हाथ से जकड़ कर, कसकर अपने साथ सटा लिया फिर चुम्मा के गाने के साथ चुम्मा भी लेने लगा। दो चुम्मे ठुकते ही, साली साहिबा की न खत्म होकर हां में बदली और फायरिंग शुरू हो गई।
"बस करो जीजा जी, वो...।"
“दो-चार मिनट की बात है। शहर में प्रवेश कर जाना है। शुरू रह, शुरू रह।"
फायरिंग शुरू हुई। एक पल भी नहीं बीता होगा कि सामने से रफ्तार से ट्रक आता नजर आया और चूमा-चपटी में सूमो का स्टेयरिंग बहक कर सूमो को सड़क के दूसरे हिस्से में ले आया था। बीच में फुटपाथ नहीं था। ट्रक की तरफ से तगड़े हॉर्न बजे। जीजा साहब को होश आया। सूमो को संभालने की कोशिश की। लेकिन तब तक ट्रक भी पास आ चुका था और अब ट्रक वाले के पास भी इतना वक्त नहीं बचा था कि ट्रक को रोक पाता। वो तो इस ख्याल में था कि सूमो वाला, अपनी गाड़ी सामने से हटा लेगा। बहरहाल ट्रक जोरों से सूमो से टकराया। सूमो फौरन पलटी और कई लुढकनियां खाती हुई सड़क से उतरकर कुछ दूर मौजूदा खेतों में जा गिरी।
टक्कर लगने के बाद एक पल के लिए ट्रक की रफ्तार धीमी हुई, परन्तु अगले ही पल ट्रक ने तूफानी रफ्तार पकड़ ली और देखते-ही-देखते निगाहों से ओझल हो गया।
सूमो खेतों में शांत पड़ी थी।
जिस वक्त ये हादसा हुआ। दूर-दूर तक कोई नहीं था।
परंतु ट्रक के काफी पीछे पीले रंग की एक मैटाडोर वैन आ रही थी। उस मैटाडोर को चलाने वाले ने सूमो को सड़क लुढ़ककर, खेतों में गिरते देख लिया था।
■■■
मयूर पब्लिक स्कूल ।
पीले रंग की वैन के दोनों तरफ मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था। वैन को चलाने वाला मयूर पब्लिक स्कूल का ही ड्राइवर था। सारी उम्र ड्राइवरी में निकाल दी। सत्तावन अट्ठावन साल की उसकी उम्र हो चुकी थी। सारी जिंदगी तंगहाली में निकाली थी। औलाद के नाम पर पच्चीस बरस का एक लड़का था, जो कि मेकैनिक था। जो भी कमाता, खा-पी जाता। घर में तो एक पैसा भी नहीं देता था। यहीं तक बात रहती तो भी ठीक था, परन्तु अब वो ऐसी लड़की से शादी करने की जिद्द पर अड़ा हुआ था, जो कि पहले से ही पूरी तरह बदनाम थी। लेकिन लड़की ने उस पर जाने क्या जादू कर दिया था कि उसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनता था और हर हाल में उससे शादी करने को कहता था। इस बात को लेकर घर में महीने भर से तगड़ा क्लेश चल रहा था।
खैर, मैटाडोर स्कूल वैन के ड्राइवर का नाम मांगेराम था और इस वक्त बगल में उसकी पत्नी सत्तो बैठी थी। बाजार से कुछ खरीददारी करनी थी, इसलिए मांगेराम स्कूल वैन ले आया था। वैसे वैन उसी के अधिकार में रहती थी। सुबह वक्त पर बच्चों को मैटाडोर वैन पर स्कूल पहुंचाता और छुट्टी होने पर बच्चों को वापस घर छोड़ता। फुर्सत पाते-पाते शाम के चार बज जाते और कोई काम न होता तो वैन लेकर घर आ जाता। दस बरस से मयूर पब्लिक स्कूल में ड्राइवरी का काम कर रहा था। इस वक्त दोनों में इस तरह की बातें हो रही थीं।
"मुझे तो समझ में नहीं आता सत्तो कि मंगल को कैसे समझाऊं।" मांगेराम ने दुखी स्वर में कहा--- "मेरी तो कुछ सुनता ही नहीं कि सब जानते हैं, वो लड़की खराब चरित्र की है।"
इस मामले पर मांगेराम की पत्नी सत्तो तो पहले ही जली-भुनी बैठी थी।
"मैं कहती हूं मंगल की बात माननी तो दूर सुनने की भी जरूरत नहीं। ऐसी लड़की को बहू बनाकर हम घर नहीं ला सकते जो पहले से ही बदनाम हो।"
"वही तो मैं कह रहा हूं। मालूम है कल मंगल ने क्या कहा।"
"क्या ?"
"बोला कि घर छोड़ देगा। उस लड़की के साथ शादी करके कहीं और रह लेगा।"
"उसे कुएं में गिरना है तो गिरे। वो लड़की बहू बनकर हमारे घर नहीं आएगी।" सत्तो ने सख्त स्वर में कहा।
"ये तो मैंने भी सोच रखा है।" मांगेराम ने दुखी स्वर में कहा--- " इस बुढ़ापे में यही सब देखना बाकी रह गया था। अपना मंगल कौन-सा ठीक है। जाने आधी-आधी रात तक कहां रहता है। आता है तो शराब के नशे में धुत होता है। कितना समझा चुका हूँ लेकिन....।"
"रहता कहां है आधी रात तक वहीं रहता होगा, लड़की के पास। वो जो समझाती है, वही समझेगा। हमसे समझने की जरूरत ही क्या है।"
"जरा सोचो, मंगल को कैसे सीधे रास्ते पर लाया जा सकता है। वो हमारी औलाद... ।"
"ऐसी औलाद का तो होने से न होना ही अच्छा। जो मां-बाप की इज्जत नीलाम करने पर आ जाए।"
मांगेराम ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला कि ठिठक गया। आंखें सिकुड़ गईं। ट्रक की टक्कर से उसने टाटा सूमो को सड़क से उछलकर खेतों में लुढ़कते देख लिया था, जबकि ये सब काफी आगे हुआ था।
"ओह!" उसके होंठों से निकला।
"क्या हुआ ?" सत्तो ने फौरन अपने पति मांगेराम को देखा।
"वो देखो, टाटा सूमो को टक्कर मारकर ट्रक भाग निकला है।" बेचैन-सा मांगेराम कह उठा।
सत्तो ने सामने देखा।
"क्या कह रहे हो, टाटा सूमो है कहां ?"
"वो खेतों में जा गिरी है और ट्रक...।"
"अब ट्रक के पीछे मत चल पड़ना। सीधे घर चलो। रात का खाना बनाना है मुझे।"
"ये मैटाडोर चालीस से ऊपर तो चलती नहीं। ट्रक के पीछे कहां जाएगी।" मांगेराम की निगाह सड़क से हटकर बार-बार खेतों की तरफ जा रही थी, जहां सूमो गिरी थी।
शाम आधी से ज्यादा ढल चुकी थी। कुछ ही देर में अंधेरा हो जाना था।
मांगेराम ने सड़क के किनारे मैटाडोर रोकी और इंजन बंद कर दिया।
"रुके क्यों, घर चलो।" सत्तो बोली।
"ठहर जरा। सूमो वालों को देख लेने दे। हमारी वजह से कोई जान बच जाए तो पुण्य का काम होगा।"
"बहुत कर लिए पुण्य। क्या मिला। आवारा और बे-अकल बेटा।"
मांगेराम दरवाजा खोलकर वैन से उतरता हुआ बोला।
"मैं देखकर आता हूं।"
"यहां अकेली बैठकर क्या करूंगी। मैं भी साथ चलती हूं।" कहने के साथ सत्तो भी मैटाडोर से उतर आई।
दोनों सड़क छोड़कर, ढलान पर उतरे और सामने खेतों में पड़ी सूमो की तरफ बढ़ गए।
"भगवान जाने कोई बचा भी होगा या नहीं। ट्रक ने बुरी तरह टक्कर मारी है। सूमो की लुढ़कनियां तूने नहीं देखी सत्तो। सात-आठ बार पलटियां खाई हैं। लेकिन गलती सूमो वाले की थी। वो अपनी साइड छोड़कर गलत साइड में आ पहुंचा था। नशे में होगा सूमो चलाने वाला।"
"यही हाल होता है, नशा करने वालों का।" सत्तो ने अपने जले-भुने अंदाज में कहा।
■■■
ट्रक से टक्कर लगने और लुढ़कनियां खाने के बाद टाटा सूमो इस हद तक पिचक गई थी कि एक बारगी में पहचानी नहीं जा रही थी कि वो टाटा सूमो ही है या कोई और गाड़ी।
छत तो पिचक कर नीचे आ लगी थी। बोनट वाला हिस्सा आधे से ज्यादा दब गया था। खड़ी तो वो अभी भी सीधी थी, लेकिन पिचक जाने की वजह से, बहुत छोटी-सी लग रही थी। लगभग सारे शीशे टूटे-फूटे नजर आ रहे थे। वो हाल था सूमो का, जैसे किसी ने उसे रौंद दिया हो।
जीजा साहब और साली साहिबा एक साथ जी तो नहीं सके, लेकिन एक साथ मरने का सौभाग्य उन्हें हासिल हो चुका था। जीजा साहब की गर्दन इस तरह एक तरफ लुढकी हुई थी, जैसे पेड़ से टहनी टूटकर झूलते हुए जमीन को छूने लगती है। शरीर के और भी कई हिस्से टूट-फूट कर अजीब-सी ही शक्ल अख्तियार किए हुए थे।
साली, साहिबा का सिर इस तरह पिचक गया कि शरीर गर्दन से शुरू होता हुआ लग रहा था। बहुत ही वीभत्स दृश्य था। ये सब देखने के लिए भी हिम्मत चाहिए थी।
मांगेराम और उसकी पत्नी ने करीब से ये सब देखा। एक बारगी तो दोनों के ही दिल दहल उठे। किसी तरह उन्होंने खुद पर काबू पाया।
"मियां-बीवी लगते हैं। दोनों ही मर गए।" सत्तो गहरी सांस लेकर बोली।
"हां, बुरी मौत मरे। दोनों के ही खेलने-खाने के दिन थे।" मांगेराम ने दुःख भरे स्वर में कहा।
"ये दो ही हैं। पीछे तो कोई नहीं है।" सत्तो ने कहा।
"अच्छा है कि पीछे कोई नहीं था। वरना वो भी न बचते। पीछे बोरे पड़े हैं। कोई सामान वगैरह भर रखा होगा।"
"चलो अब घर पहुंचकर चूल्हा-चौका करना है। कोई जिन्दा होता तो उसकी सहायता कर देते।"
"कहीं से पुलिस को फोन कर देंगे इस एक्सीडेंट के बारे में।"
"जो मन में आए करना। यहां से चलो। कितनी बुरी मौत मरे हैं दोनों।"
खड़े रहने का भी कोई फायदा नहीं था। जो होना था, वो तो हो ही चुका।
दोनों वहां से चलने के लिए पलटे तो मांगेराम ठिठक गया। सूमो का पीछे का दरवाजा खुला हुआ था और एक बोरा बाहर गिरा हुआ था और बोरे के मुंह पर लगी लाख की सील को देखकर, उसके चेहरे पर अजीब से भाव आए। वो फौरन बोरे के पास पहुंचा।
"अब चलोगे, यहां से।" सत्तो उखड़े स्वर में कह उठी।
मांगेराम ने सील देखी। सील पर सरकारी मुहर थी। मांगेराम ने बोरे को ध्यान से देखा। चेहरे पर अजीब से भावों ने डेरा डाल लिया।
"ये बोरे के साथ क्या चिपक गए। घर में कई रखे हैं। चलो भी।" सत्तो तीखे स्वर में बोली।
बोरे के पास से हटा और सूमो की नम्बर प्लेटों को, आगे-पीछे से देखने लगा। सूमो को हर तरफ से चैक किया। परन्तु सूमो किसी भी तरफ से सरकारी गाड़ी नहीं लगी।
"आपकी बुद्धि तो नहीं खत्म हो गई। टूटी-फूटी गाड़ी को झुक-झुक कर क्या देख रहे हो।"
मांगेराम वापस बोरे के पास पहुंचा और उसे टटोलकर, दबाकर देखने लगा। परन्तु इस बात का एहसास नहीं कर पाया कि बोरे में क्या हो सकता है।
"अगर आपका यहीं ठहरने का इरादा है तो मैं पैदल ही घर चली जाऊं।" सत्तो कुढ़कर बोली।
चेहरे पर सोचों के भाव समेटे मांगेराम ने सत्तो को देखा।
"तेरे को तो पता ही है सत्तो कि दस साल मैंने बैंक की वैन चलाने की नौकरी की थी।" मांगेराम बोला।
"पता क्या, मैं तो उस दिन को रोती हूं कि आपकी सरकारी नौकरी देखकर, मेरे बाप ने, मेरा रिश्ता आपके साथ तय कर दिया। शादी के पांच साल पहले सरकारी बैंक वैन चलाई और शादी के पांच साल बाद। उसके बाद ऐसा एक्सीडेंट मारा कि बैंक वैन की हालत इस सूमो से भी बुरी हो गई थी। इसी वजह से नौकरी हाथ से चली गई और इधर-उधर ड्राइवरी करके मेरी जिंदगी खराब कर दी।"
उसकी बात पर ध्यान न देकर मांगेराम बोला।
"बैंक वैन में अक्सर मैं ऐसे ही सरकारी बोरे ले जाया करता था। जिनमें बड़ी-बड़ी रकमें होती थीं। सील लगे यह बोरे किसी भी हाल में सूमो जैसी प्राइवेट कार में नहीं ले जाए जा सकते। इस बात को मैं अच्छी तरह जानता हूं। एमरजेंसी में अगर ऐसा किया भी जाए तो सिक्योरिटी के लिए, एक या दो गनमैन साथ होते हैं। लेकिन यहां तो कुछ और ही नजर आ रहा है।"
"आप कहना क्या चाहते हैं ?"
मांगेराम ने सूमो के पीछे वाले खुले दरवाजे को देखा। जिसमें और बोरे पड़े नजर आ रहे थे। उसका दिमाग तेजी से दौड़ रहा था।
"सत्तो, वो चाकू ला, जो कुछ देर पहले बाजार से खरीदा है।"
"वो क्रिस्टल का। क्या करना है उसका। छः महीनों से उस चाकू को खरीदने की सोच रही थी। आज खरीदा तो उसके पीछे पड़ गए। खराब नहीं करना है उसे सब्जी-तरकारी काटने के लिए।"
"मैंने तेरे को बोला है, वो चाकू लेकर आ ।" मांगेराम का स्वर सख्त होने लगा।
सत्तो ने घूरकर मांगेराम को देखा फिर पांव पटकने वाले अंदाज में, पलटकर, सड़क के किनारे खड़ी मैटाडोर की तरफ बढ़ गई। अब अंधेरा होने ही जा रहा था।
सत्तो चाकू हाथ में लिए वापस आई।
"ये लो। कर दो खराब चाकू।" सत्तो ने नाराजगी भरे स्वर में कहा--- "लेकिन यहां से निकल चलो। अंधेरा हो रहा है। ये खेत है। सांप वगैरह ऐसी जगहों पर ही होते हैं।"
मांगेराम ने चाकू थामा और बोरे के मुंह के पास से, उस मजबूत बोरे को सिर्फ इतना काटा कि हाथ भीतर जा सके। उसके बाद चाकू सत्तो को थमाकर, बोरे की कटी जगह से हाथ भीतर डाला और जब हाथ बाहर आया तो उसमें पांच सौ रुपयों वाली गड्डी थमी हुई थी।
गड्डी को देखते ही मांगेराम के दांत भिंच गए। चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे।
जबकि सत्तो की आंखें फैलकर चौड़ी होती चली गई।
अंधेरा घिर आया था।
■■■
"ये-ये तो नोटों की गड्डी है।" सत्तो के होंठों से हैरानी भरा असंयत-सा स्वर निकला।
मांगेराम ने बोरे की कटी जगह से गड्डी को वापस डाल दिया।
"वापस क्यों डाला। बाहर निकालो, नोटों की गड्डी को।" सत्तो के मस्तिष्क को जैसे झटका लगा।
मांगेराम ने बेचैन निगाहों से अंधेरे में, सत्तो को देखा।
"मेरे को क्या देखते हो। पांच सौ की गड्डी बाहर निकालो। मैंने आज तक पांच सौ की गड्डी को हाथ में लेकर नहीं देखा।"
"ये सरकारी पैसा है।" मांगेराम बेचैन-गम्भीर स्वर में बोला--- "कहीं भारी गड़बड़ हुई है। इस पैसे को लूटा गया है, वरना सरकारी पैसा इस तरह यहां लावारिस सा सूमो में न पड़ा होता।"
"अकल मारी गई है आपकी। पैसा कभी सरकारी होता है। पैसा तो पैसा है और जिसके पास होता है, उसी का होता है। पांच सौ की गड्डी बाहर निकालो और मुझे दो नहीं तो मैं खुद ही...।"
"सत्तो, एक पांच सौ की गड्डी की बात होती तो, मैं कुछ न कहता।" मांगेराम ने गम्भीर स्वर में कहा--- "ये बोरा और जो बाकी बोरे सूमो में भरे पड़े हैं, वो सब नोटों की गड्डियों से ही भरे पड़े हैं।"
सत्तो को अपनी सांसें रुकती सी महसूस हुई।
"क्या-क्या कहा, ये सारे बोरे नोटों की गड्डियों से भरे पड़े हैं।" सत्तो हक्की-बक्की रह गई।
"हां, तभी तो कह रहा हूं ये मामला गम्भीर है। इन नोटों को छेड़ना भी सांप के फन को छेड़ने के बराबर हैं। इस बारे में हमें फौरन पुलिस को खबर करनी चाहिए।" मांगेराम ने कहा।
सत्तो ने हाथ में दबा क्रिस्टल का चाकू दूर फेंक दिया।
"बुढ़ापा, सिर पर सवार हो गया है आपके। सठिया गए हैं आप। मैंने कहा न पैसा-पैसा होता है। जिसके पास होता है, उसी का होता है, ये सरकार कहां से आ गई और फिर हमने तो नहीं लूटा कहीं से। यहां मिला तो हमने उठा लिया, कौन-सा गुनाह कर दिया। कान खोलकर सुन लीजिए। सारी उम्र मैं आपकी ड्राइवरी और आधा-आधा किलो, ढाई-ढाई सौ ग्राम दालों को बर्दाश्त करती रही हूं। सूती साड़ियां पहन कर जिंदगी बिता दी। कहीं जाना होता है तो पांवों में रबड़ की चप्पल पहननी पड़ती है। हर रोज पैसे गिनने पड़ते हैं कि कितने रह गए। इनसे महीना पूरा कर पाऊंगी या नहीं। आपकी ड्राइवरी की तनख्वाह इतनी रही कि सारी उम्र जीवन की सुख-सुविधाओं से दूर रही। होटल तो क्या, कभी ढाबे पर भी बाहर का खाना नहीं खाया। घर में पड़े डबल बेड की हालत देखी है, जो मेरे बाप ने दहेज में दिया था। उसके ऊपर लेटो तो शरीर फर्श पर जा लगता है। कुर्सियों पर फट्टियां ठोक रखी हैं, बैठो तो कील चुभती है। घर में गैस होते हुए भी चूल्हा जलाना पड़ता है कि आपकी कम तनख्वाह में किसी तरह महीना निकल जाए। दो दिन के लिए कोई मेहमान आ जाए तो पूरे महीने का बजट बिगड़ जाता है। सारी उम्र मैं आपको बर्दाश्त करती रही और अपनी गरीबी का रोना कभी नहीं रोया। लेकिन अब और नहीं। आज पैसा आया है आपने सरकारी-सरकारी कहना शुरू कर दिया। आपको मेरा इतना भी ध्यान नहीं कि जिंदगी का आखिरी पड़ाव सत्तो दौलत के दम पर आराम से काट लेगी। दो सुख देख लेगी। रोटी के साथ मक्खन खा लेगी और आपको भी खिला देगी। अगर आपके दिल में जरा-सा भी प्यार अपनी सत्तो के लिए है तो पुलिस लूट और ईमानदारी सब भूल जाइए। सिर्फ सत्तो यानी कि मेरी तरफ ध्यान दीजिए।"
मांगेराम ने गम्भीर निगाहों से सत्तो को देखा।
"कुछ बोलोगे या मैं ही बोलती रहूंगी।"
"क्या चाहती है तू ?"
"नोटों से भरे ये सारे बोरे हम अपने साथ अपने घर ले जाएंगे और आप अपनी सत्तो के लिए खुशी से ये काम करेंगे।"
मांगेराम ने गहरी सांस ली।
"अब हां कहेंगे या वो भी मैं कहूं।"
"ठीक है सत्तो। तेरे लिए आज ये गलत काम करूंगा।" मांगेराम का गम्भीर स्वर व्याकुल था।
अंधेरे में भी सत्तो का खिलता चेहरा स्पष्ट नजर आया।
"मैं जानती थी, जानती थी मैं कि आप सत्तो के लिए कुछ भी कर सकते हैं। जानती हूं आप मुझे बहुत प्यार करते हैं। मेरी बात टालेंगे नहीं। औलाद खराब निकली तो क्या हुआ। कोई बात नहीं । आज से ये दौलत ही हमारी औलाद है। इसी के सहारे से सुख-चैन से हमारी जिंदगी कटेगी।" सत्तो का स्वर खुशी से कांप रहा था--- "वैसे ये सारा कितना पैसा होगा जी ?"
मांगेराम ने अंधेरे में सूमो में ठूसे बोरों पर निगाह मारी।
"कह नहीं सकता। लेकिन इतना है कि खुला खा-पीकर भी जब हम मर जाएंगे तो जितना खाया होगा, उससे ज्यादा बचा रह जाएगा।" मांगेराम ने गम्भीर स्वर में कहा।
"कितनी अच्छी किस्मत है हमारी। मेरे बाप ने आपसे मेरी शादी करके कोई गलती नहीं की। मेरे नसीब में दौलत थी और आपका भी संग था। आज सब कुछ पूरा हो गया। अब क्या करें ?"
"क्या ?"
"इन सब बोरों को कैसे घर ले जाएं। ये तो अच्छा हुआ अंधेरा हो गया। वरना सड़क पर आते-जाते दो-चार लोग और भी आ जाते, तो कैसे ले जाएं इन बोरों को घर पर ?"
दो पल की सोच के बाद मांगेराम ने कहा।
"इन्हें मैटाडोर में ले चलते हैं।"
"ओह! मैटोडोर का तो ध्यान नहीं रहा मुझे। जय हो, मयूर पब्लिक स्कूल की। सुनिए बाद में हम एक नई मैटाडोर वैन मयूर पब्लिक स्कूल को खरीदकर भेंट कर देंगे। सुना है दान-पुण्य करने से भगवान अपने भक्तों का पूरा ध्यान रखता है।" सत्तो तो खुशी से पागल हो रही थी।
मांगेराम का ध्यान भी अब दौलत की तरफ होने लगा था।
"मैटाडोर लेकर आता हूं।"
“जल्दी कीजिए। घर जाकर मैं पांच सौ की गड्डियां देखना चाहती हूं कि वो कैसी होती हैं। हाय राम, सच में आज तक तो सुना था कि तू जब देता है छप्पड़ फाड़ कर देता है। लेकिन तूने तो हमें सूमो तोड़-फोड़कर दिया। बहुत मेहरबान हुआ तू हम पर। देर से ही सही। लेकिन हमें कोई शिकायत नहीं तेरे से। दे दिया, ये ही बहुत है। एक मन्दिर भी बनवाऊंगी, तेरे लिए।"
मांगेराम सड़क की तरफ बढ़ गया।
"जल्दी आइएगा।"
मांगेराम सड़क पर खड़ी मैटाडोर के पास पहुंचा।
इक्का-दुक्का वाहन वहां से गुजर जाते थे। शहर का बाहरी इलाका था ये।
मांगेराम ने मैटोडोर की हैडलाइट ऑन नहीं की। उसे स्टार्ट किया और फौरन ही सड़क के नीचे उतारकर, सामने ही मौजूद सूमो की तरफ बढ़ा दी। सूमो के पास पहुंचकर, मांगेराम ने मैटाडोर रोकी और इंजन बंद करके नीचे उतरा।
"थैलों को उठाओ और भीतर रखो जी।" सत्तो ने कहा।
"जो थैला नीचे गिरा पड़ा है, पहले उसे उठाकर मैटाडोर में रखना होगा। तब इतनी जगह बन जाएगी कि मैटाडोर का पिछला हिस्सा, सूमो के पीछे वाले हिस्से से सटाकर, सूमो में मौजूद बोरों को मैटाडोर में खींच लेंगे।"
"सच में, आदमी-आदमी होता है। यूँ ही मर्दों के गुण नहीं गाये जाते। अकेली औरत के हाथों में तो नोट भी दे दो तो वो ठीक से उसकी गिनती भी नहीं कर सकती। चलिए उस बोरे को मैटाडोर में रख देते हैं।"
मांगेराम ने मैटाडोर का पिछला दरवाजा खोल दिया। फिर सत्तो के साथ नीचे गिरे बोरे के पास पहुंचा कि सत्तो खुशी से कांपते स्वर में कह उठी।
"मैंने कहा जी, इसमें सारी गड्डियां पांच-पांच सौ के नोटों की ही हैं क्या ?"
"फालतू की बातें मत करो। घर जाकर देख लेना। उठाओ बोरा।"
दोनों ने बोरा उठाया। कोशिश की, परन्तु वो भारी होने की वजह से नहीं उठाया जा सका।
"बहुत भारी है, नहीं उठेगा।"
"कैसी बात करते हो जी, सत्तो है ना आपके साथ । आपका साथ पाकर तो मैं बड़े-से-बड़ा काम कर लूं। फिर ये बोरा क्या है। चलिए, अब फिर उठाते हैं।"
"मैं मैटाडोर को पास ले आता हूं।"
मांगेराम कुछ पलों में मैटाडोर पास ले आया।
फिर दोनों ने किसी तरह बोरे को उठाया और मैटाडोर के फर्श पर खिसका दिया। इसी में ही कुछ हद तक उनकी सांस उखड़ गई ।
तभी उनके कानों में पुलिस सायरन की आवाजें पड़ने लगी। दोनों के दिल जोरों से धड़क उठे। एक-दूसरे को देखने के पश्चात उनकी निगाहें सड़क की तरफ उठीं। देखते-ही-देखते पहले एक पुलिस कार सायरन बजाती सड़क से निकली। उस पर लगी लाल बत्ती जल-बुझ रही थी। उसके पीछे-पीछे कुछ पलों बाद दूसरी कार निकली।
मांगेराम ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
सत्तो का दिल भी बेकाबू होकर बज रहा था।
सायरन की मध्यम हो रही आवाजें अभी भी उनके कानों में पड़ रही थीं।
दोनों ने एक-दूसरे को देखा।
"मुझे...।" मांगेराम ने अपनी आवाज पर काबू पाने की कोशिश की--- "पूरा विश्वास है कि बोरों में भरी इसी दौलत की वजह से, इस सूमो की वजह से पुलिस भागी फिर रही है। पुलिस...।"
"हिम्मत रखिए।" जबकि सत्तो की हिम्मत खुद डांवाडोल हो रही थी--- "पुलिस सूमो को ढूंढ रही है। इस दौलत को ढूंढ रही है। अब उन्हें क्या पता कि दौलत मयूर पब्लिक स्कूल की वैन में आ चुकी है। हमें क्या पुलिस जो भी करती रहे। हमने तो कुछ नहीं किया।"
मांगेराम कुछ नहीं बोला।
"सोच क्या रहे हैं ?"
"कुछ नहीं। मैटाडोर के भीतर आओ। बोरे को खींचकर पीछे करना है, ताकि बाकी के बोरों को भीतर रखा जा सके।" मांगेराम बोला।
दोनों मैटाडोर के भीतर गए। बोरे को खींचकर और भीतर किया।
"तुम यहीं रुको। भीतर ही मैं, मैटाडोर को बैक करके, सूमो के पिछले हिस्से के साथ लगाता हूं।"
"ठीक है। इतनी जगह छोड़ देना कि आप दोनों गाड़ियों के पिछवाड़े से भीतर आ सकें।"
मांगेराम ने मैटाडोर को बैक किया। मैटाडोर का पिछवाड़ा, सूमो के पिछवाड़े से लगाया। सूमो के दरवाजे तो पहले से ही खुले पड़े थे। दोनों गाड़ियों के दोनों पिछवाड़ों में जो थोड़ी जगह बची थी। वहां से होकर मांगेराम भीतर पहुंचा। घुप्प अंधेरा था। हाथ को हाथ नजर नहीं आ रहा था।
मैटाडोर का फर्श थोड़ा-सा नीचे था और सूमो का कुछ ऊंचा। ऐसे में उन्हें बोरों को मैटाडोर में पहुंचाने के लिए कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी। बोरे को पकड़कर, जोर लगाकर, दोनों पूरी ताकत से खींचते तो बोरा मैटाडोर के फर्श पर आ लुढ़कता। जिसे खींचकर वे और पीछे कर देते।
एक-एक करके नौ के नौ बोरे मैटाडोर में पहुंच गए।
दोनों थक कर चूर हो गए थे।
मांगेराम वहीं बोरे पर बैठकर गहरी-गहरी सांस लेने लगा।
"मैं घर जाकर आपकी टांगें दबा दूंगी।" जबकि सत्तो खुद थकी हुई थी।
मांगेराम कुछ नहीं बोला।
"जरा एक बार सूमो के भीतर नजर मार लीजिए। कहीं एक आध बोरा रह गया हो।"
"रह गया है तो रहने दो। बहुत है ये...।"
"कैसे रहने दूं। हराम की दौलत है क्या। नोट छापने वाले ने इतनी मेहनत नहीं की होगी, जितनी हम कर रहे हैं।" कहने के साथ ही सत्तो मैटाडोर के फर्श से कदम आगे बढ़ाकर, सूमो में पहुंच गई। दोनों हाथों से अंधेरे में टटोल-टटोल कर अच्छी तरह देखा। लेकिन सब बोरे तो मैटाडोर में पहुंच चुके थे।
सत्तो, मैटाडोर में आ पहुंची।
मांगेराम बेचैन स्वर में बोला।
"यहां ज्यादा देर ठहरना ठीक नहीं। अब निकल चलना चाहिए।"
"मैं भी यही कह रही थी, चलिए। वो क्रिस्टल का चाकू अंधेरे में जाने किधर फेंक दिया। वरना मेरा इरादा तो घर पहुंचकर, क्रिस्टल के चाकू से सब्जी काटकर बनाने का था। खैर, कोई बात नहीं। चूल्हे पर दाल चढ़ा दूंगी। आज तो ऐसे ही काम चला लेंगे। कल आपको मटर पनीर की सब्जी बनाकर.... I"
" चलो।" मांगेराम उठा।
दोनों बाहर निकले।
मांगेराम ने वैन को स्टार्ट करके थोड़ा आगे सरकाया फिर मैटाडोर का पिछला दरवाजा बंद करके उसे लॉक किया। उसके बाद ड्राइविंग सीट पर आ बैठा। सत्तो पहले ही बगल वाली सीट पर आ चुकी थी।
"मैटाडोर का दरवाजा अच्छी तरह बंद कर लिया ?" सत्तो ने पूछा।
"हां।"
"मैं चैक कर लूं। कहीं...!"
"खामखाह के वहम मत पालो दरवाजा बिल्कुल ठीक तरह से बंद है।"
"चाबी लगा दी। कहीं झटके से दरवाजा खुल न जाए। एक आध बोरा नीचे गिर गया तो...।"
"पूरे नौ बोरे हैं और घर पर जाकर गिनती कर लेना।" मांगेराम ने गहरी सांस ली और मैटाडोर स्टार्ट करके आगे बढ़ाई, मोड़ा, फिर सड़क की तरफ बढ़ा दी।
हैडलाइट अभी भी बंद रखी थी।
कुछ ही देर में मैटाडोर सड़क पर आ चुकी थी।
दोनों ने चैन की सांस ली।
"देखा।" सत्तो खुद को शाबाशी देने वाले ढंग में कह उठी--- "आप तो खामखाह ही सरकारी-सरकारी कहकर, नोटों को छोड़ रहे थे। मैं साथ न होती तो आपकी बुद्धि ने सब कुछ बिगाड़ देना था।"
मांगेराम ने शांत मुस्कान के साथ सत्तो को देखा।
"आज तो तेरे में बड़ी हिम्मत आ गई थी। वैसे कपड़े धोते हुए कहती है कि पीठ दर्द करती है।"
"छोड़िए पुरानी बातें। अब तो कपड़े धोने के लिए ओनिडा की ऐटोमैटिक वाशिंग मशीन लाऊंगी। नहीं, अभी नहीं। पहले बढ़िया सा मकान खरीदेंगे। उसके बाद सामान लाऊंगी। वो प्रताप है ना, चौधरी, सुना है उसने अपना मकान बेचने पर लगाया हुआ है । अच्छा मकान है। मैंने कई बार भीतर से देखा है। वही मकान खरीद लेंगे। काफी खुला बना हुआ है।"
मांगेराम ने स्टेयरिंग में कोहनी फंसा कर बीड़ी सुलगाई।
"और आप अब बीड़ी की आदत छोड़कर, कोई महंगी सिगरेट पीने की आदत डालिए। बीड़ी की बदबू से तो बुरा हाल हो जाता है। जाने इतने बरस मैं इस बदबू को कैसे सह गई।"
"पैसे के साथ ही अब तुम्हारे सुर भी बदलने लगे हैं सत्तो।" मांगेराम ने कश लिया।
"सुर न बदले तो पैसा किस काम का। आपने सुना नहीं कि पैसा बोलता है। चुप रहकर सत्तो ने बहुत सह लिया अब तो सत्तो का पैसा बोलेगा। हां...।"
"इस तरह की बातें मत करो।" मांगेराम शांत स्वर में समझाने वाले ढंग में बोला— “इस तरह का पैसा, बहुत संभलकर खर्च किया जाता है कि सालों-साल किसी को हवा भी न लगे। अगर नोटों की गड्डियां नई हुई तो उन्हें खर्चने का मतलब है, जेल में पहुंच जाना। बहुत अनजान हो इन बातों से। तुम तो मिनटों में ही चौधरी का मकान खरीदने पहुंच गई। अगर पैसे का वास्तव में सही मजा लेना है तो दो-चार साल इसी तरह रहो जैसे रह रही हो। मैं भी इसी तरह नौकरी करता रहूंगा। तुम नहीं जानती पुलिस को। पुलिस तो ऐसे कार्यों में अंत तक पीछा नहीं छोड़ती और मैं जेल नहीं पहुंचना चाहता।"
"ऐसा भी होता है।"
"ऐसा ही होता है सत्तो। अब क्या कैसे करना है। मुझसे पूछ कर करना। गलती मत कर बैठना। इन बातों की तेरे को समझ नहीं है। भूल से भी कोई गलती मत कर बैठना।"
दो पलों की खामोशी के बाद सत्तों ने सहमति में सिर हिलाया।
"ठीक है जी, जैसे आप कहेंगे। मैं वैसा ही करूंगी। ऐसी बातों की तो आपको समझ ज्यादा होगी।"
मांगेराम मेटाडोर चलाता रहा। बोरों के बोझ की वजह से वो पुरानी मेटाडोर अब तीस की रफ्तार से ज्यादा नहीं चल रही थी।
"अब देखूंगी मंगल को कि कैसे वो उस बुरे चरित्र वाली लड़की से शादी करने की जिद्द पर कायम रहता है। उस लड़की को उसे छोड़ना ही होगा। वरना इस पैसे में से उसे फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगी।"
"तुम मंगल को बताओगी, इस पैसे के बारे में।"
"बताना तो पड़ेगा ही। बोरे घर में ही रखते हैं। उससे ये बोरे छिपेंगे नहीं। नोटों की धौंस पर ही सही, लेकिन उस लड़की से उसका पीछा छुड़वाकर, किसी अच्छी लड़की से शादी करवा कर ही रहूंगी।"
"जो तुम ठीक समझो।"
तभी सामने पुलिस कार की हैडलाइट में चार-पांच पुलिस वाले नजर आए। पुलिस कार सड़क के किनारे टेढ़ी होकर खड़ी थी और एक पुलिस वाला उन्हें रुकने का इशारा कर रहा था।
दोनों के दिल उछल-उछलकर मुंह को आने लगे।
"मैंने कहा जी, पु-पुलिस, ह-हमें रोक रही है।" सत्तो का स्वर भय से कंपकंपा उठा।
भीतर ही भीतर मांगेराम की हालत भी बुरी हो रही थी।
"हमने जो भी किया है। उसका पता किसी को नहीं चल सकता।" मांगेराम अपने पर काबू पाते हुए बोला--- “तुम अपने होशो-हवास कायम रखो। पुलिस वालों को किसी तरह का शक न हो।"
"लेकिन ये हमें क्यों रुकने को कह रहे हैं ?"
"तुम खुद को सामान्य रखो।"
मैटाडोर, पुलिसवालों के पास पहुंच चुकी थी।
मांगेराम ने मैटाडोर को रोका।
पुलिस वाला फौरन मांगेराम के पास पहुंचा।
"तुम लोगों ने किसी टाटा सूमो को इस रास्ते पर जाते देखा है। सफेद रंग की टाटा सूमो।" पुलिस वाले ने पूछा।
दो पल की चुप्पी के बाद मांगेराम ने शांत स्वर में और धड़कते दिल से कहा।
"नहीं। पास से अगर गुजरी भी होगी तो मेरा ध्यान उस पर नहीं गया होगा।"
पुलिस वाले ने सत्तो पर निगाह मारी।
"मैडम आपने देखा है ?"
"मैंने।" सत्तो ने सूखे से घबराए स्वर में कहा--- "मैंने कहां देखा है। मेरी तो नज़रें कमजोर हैं। रात के वक्त तो वैसे भी ठीक तरह से नहीं दिखता। डॉक्टर से आंखें टेस्ट कराकर आ रही हूं। परसों चश्मा देगा कि ठीक से देख सकूं।"
पुलिस वाला पीछे हटता हुआ बोला।
“जाओ।"
"कोई खास बात हो गई साहब जी।" मांगेराम गियर डालता हुआ कह उठा।
"तुम्हारे काम की बात नहीं है। जाओ।"
मांगेराम ने मैटाडोर आगे बढ़ा दी।
दोनों के दिल अभी भी रफ्तारी के साथ धड़क रहे थे।
"बच गए।" सत्तो कांपते स्वर में बोली--- "मेरी जान तो अभी भी निकल रही है। देखो तो दिल कैसे बज रहा है।"
मांगेराम ने कुछ नहीं कहा। चेहरे पर बेचैनी नाच रही थी।
■■■
0 Comments