वे एक ही सोफा चेयर पर बैठे थे ।
रतन चेयर पर और चांदनी उसकी गोद में ।
चांदनी ने उसे असामान्य सा महसूस किया तो कहा- - - - “क्या हुआ डार्लिंग, तुम कुछ बेचैन से हो !”
“एक मिनट चांदनी, जरा उठो।" वह बड़ी मुश्किल से कह पाया और कहने के बाद इतना इंतजार भी नहीं किया कि चांदनी वह कर सकती जो कहा था, उससे पहले ही एक ऐसी अंगड़ाई - सी ली कि चांदनी खुद ही उसकी गोद से उठ खड़ी हुई ।
ऐसा न करती तो नीचे जा गिरती ।
लंबी-लंबी सांसें लेते रतन ने हाथ आगे करके व्हिस्की से आधा भरा गिलास सेंटर टेबल पर रखा और साथ ही उठकर खड़ा हो गया।
खड़ा होने की कोशिश में वह गिरते-गिरते बचा था ।
उस क्षण, चांदनी को लगा कि ऐसा नशे की ज्यादती के कारण हुआ है परंतु जल्दी ही उसकी गलतफहमी दूर हो गई ।
रतन के दोनों हाथ अपनी गर्दन पर पहुंच गए थे।
चेहरा सुर्ख होता जा रहा था ।
दमे का मरीज भी सांस लेने के लिए क्या संघर्ष करता होगा जैसा वह करता नजर आ रहा था ।
चांदनी उसकी हालत देखकर घबरा गई ।
बौखलाकर पूछा----“क्या हुआ डार्लिंग... क्या हुआ ?”
“च...... चांदनी ।" उसके मुंह से घुटी - घुटी-सी जो आवाज निकली उसने चांदनी को डरा दिया ---- “कोई मेरी गर्दन दबा रहा है ।”
“क... क्या बात कर रहे हो ?” चांदनी हत्प्रभ ----“यहां हम दोनों के अलावा और है ही कौन ? और... कोई तुम्हारी गर्दन नहीं दबा रहा।"
“द...दबा रहा है। चांदनी, सचमुच कोई मेरी गर्दन दबा रहा है । " उसके मुंह से ऐसी आवाज निकली जैसे वाकई किसी के द्वारा गर्दन दबाई जाने के कारण मुश्किल से बोल पा रहा हो ।
" ऐसा कैसे हो सकता है?” चांदनी हैरान-- “मुझे तो कोई दिखाई नहीं दे रहा। रतन, तुम्हें हो क्या गया है ?”
“म... मुझे बचा लो । मुझे बचा लो चांदनी ।" वह मुंह से ऐसी आवाज निकालता हुआ उसकी तरफ बढ़ा जैसी केवल उसके मुंह से निकल सकती है जिसकी वाकई गर्दन दबाई जा रही हो ।
चांदनी घबरा गई ।
पीछे हटी ।
इस बार ऐसा लगा जैसे उसने बोलने की कोशिश की लेकिन बोल नहीं पाया। चांदनी को आंखों से भले ही कोई उसकी गर्दन दबाता नजर न आ रहा हो किंतु उसकी हालत देखकर लग ऐसा ही रहा था जैसे किसी के द्वारा गर्दन दबाने पर हो जाती है ।
जिस्म का सारा खून चेहरे और सिर्फ चेहरे पर इकट्ठा हो गया था। आंखें बाहर को निकल आई थीं।
'गूं-गूं' की आवाज पैदा करता वह सारे कमरे में छटपटाता फिर रहा था। सोफे से टकराया। लड़खड़ाकर गिरा। बड़ी मुश्किल से, हजार प्रयत्न करता उठा और अभी पूरी तरह उठ भी नहीं पाया था कि सेंटर टेबल पर जा गिरा | टेबल को लिए कालीन पर ।
टेबल पर रखा सारा सामान बिखर चुका था।
उसी सामान के बीच पड़ा था ---- रतन बिड़ला ।
वह अभी भी इस तरह छटपटा रहा था जैसे छाती पर बैठा कोई पूरी ताकत से उसका गला दबा रहा हो ।
आंखें पूरी तरह उबलकर बाहर आ गई थीं ।
चेहरा विभत्स और डरावना हो गया ।
“बचाओ ।” चांदनी भयाक्रांत अंदाज में चीखी---- “बचाओ।"
मगर वहां सुनने वाला कौन था ?
नशा जाने कब का हिरन हो चुका था । हाथ में मौजूद गिलास पता नहीं कब कहां गिर गया था। 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाती वह दरवाजे पर झपटी । उसे खोलकर लॉबी में आई । बगल वाले दरवाजे पर पहुंची। उसे पीट डालने वाले अंदाज में चीखी---- “दरवाजा खोलो।"
“अरे !” अंदर से धीरज सिंहानिया की आवाज आई ---- “ये तो अब भी ड्रामे कर रही लगती है ।”
“नहीं।” चांदनी चीखी---- “मैं कोई ड्रामा नहीं कर रही । रतन को कुछ हो गया है। जल्दी से दरवाजा खोलो ।”
“अरी क्यों नाटक कर रही है?” मंजू की आवाज - नहीं ले सकती तो हमें तो लेने दे।” “खुद मौज
“मंजू... धीरज ... मैं कोई नाटक नहीं कर रही ।” अब उसके चीखने में रोने की आवाज शामिल हो गई थी - - - - "मुझे लगता है रतन बिड़ला मरने वाला है। उसे बचा लो।”
लेकिन अंदर वालों ने उसकी बात पर यकीन नहीं किया ।
बदहवाश अवस्था में चांदनी दौड़कर दूसरे दरवाजे पर पहुंची।
उसे पीटा।
वही सब कहा ।
इस तरह वह तीसरे और चौथे दरवाजे पर भी पहुंची और तब तक उन्हें पीटती और चीखती-चिल्लाती रही जब तक कि अशोक अपने कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर नहीं आ गया।
वह बुरी तरह झुंझलाया हुआ था ।
बरस पड़ा चांदनी पर लेकिन चांदनी उससे लिपट गई ।
थरथर कांप रही थी वह । बोली“मैं झूठ नहीं बोल रही अशोक रतन को बचा लो । मुझे लगता है वो मरने वाला है।”
“क्या बक रही हो ?” झल्लाए हुए अशोक ने उसे झंझोड़ा।
“मेरा यकीन करो ---- पता नहीं अचानक उसे क्या हुआ, कहने लगा कि कोई मेरी गर्दन दबा रहा है.. एक ही सांस में वह सबकुछ बताती चली गई। अशोक सन्नू । दरवाजे के पीछे अर्ध-नग्न अवस्था में खड़ी अवंतिका भी सन्न् । अंततः इतना हंगामा मचा कि सभी को अपने-अपने कमरों से
बाहर आ जाना पड़ा । बदहवाश अवस्था में चांदनी एक ही बात दोहराए चली जा रही थी। यह कि उसके देखते ही देखते किसी अदृश्य शक्ति ने रतन की गर्दन दबा दी ।
वे उस कमरे में पहुंचे।
तब तक रतन बिड़ला मर चुका था ।
नशे काफूर | चेहरों पर खौफ।
आंखें फटी हुईं ।
उन्हीं फटी-फटी आंखों से वे अपने सामने पड़ी रतन बिड़ला की पूरी तरह नग्न लाश को देख रहे थे ।
औंधी पड़ी सेंटर टेबल के नजदीक पड़ी थी वह ।
करीब ही बोतल और गिलास पड़े थे। काजू, बादाम, पिश्ते और नमकीन कालीन पर बिखरी शराब के गले मिल रहे थे |
कोई बाऊल सीधी पड़ी थी, कोई औंधी ।
रतन बिड़ला के हाथ अब भी अपनी गर्दन पर थे ।
कटोरियों से आधी-आधी बाहर निकल आई आंखों से वह कमरे के लिंटर को घूरता-सा प्रतीत हो रहा था ।
पेट पर स्केच पेन से लिखा था--'क्यों' ।
“रतन... रतन ।” आगे बढ़कर उसे सबसे पहले झंझोड़ने वाली अवंतिका बिड़ला थी ---- “क... क्या हुआ तुम्हें... उठो ।”
लेकिन रतन बिड़ला में कुछ हो तो उठे भी ।
अवंतिका बहुत देर तक कोशिश करती रही और जब थक गई तो लाश से लिपटकर, दहाड़े मार-मारकर रोने लगी।
किरन, सुधा और मंजू हिम्मत करके आगे बढ़ीं।
उन्होंने तीन तरफ से अवंतिका को पकड़ा।
उस वक्त वे उसे ढांढस बंधाने की कोशिश कर रही थीं जब वह एकाएक उछलकर बिजली की - सी गति से चांदनी पर झपटती हुई चीखी---- “इसने मारा है... इसने मारा है मेरे रतन को । ”
“न... नहीं ।” चांदनी घबराकर पीछे हटी -- -- “बचाओ अशोक ।”
मगर, अवंतिका के दोनों हाथ उसकी गर्दन पर आ जमे । जुनूनी अवस्था में वह चीख रही थी ---- “नहीं छोडूंगी... नहीं छोडूंगी तुझे।'
“अवि ।” अशोक ने तेजी से झपटकर उसे पकड़ा और चांदनी से अलग करता बोला ---- “क्या कर रही हो ? होश में आओ।”
“ छोड़ दो... छोड़ दो मुझे।" वह उसके बंधनों में छटपटाई।
चांदनी चीखी----“अशोक, मैंने कुछ नहीं किया ।”
“तो फिर कैसे हो गया यह सब ?” सुधा ने चांदनी को घूरा।
“मुझे नहीं पता । व्हिस्की पीते-पीते बस..
एक सांस में उसने फिर सारी बात दोहरा दी ।
मगर बात न यकीन के काबिल थी... न किसी को यकीन आया।
संजय कपाड़िया ने कहा - - - - “कहानी ही गढ़नी थी तो कम से कम ऐसी तो गढ़ लेती जिस पर किसी को यकीन आ जाता ।”
“ अब आई है मेरी समझ में यह बात कि उस दिन तू सुबह से शाम तक ही इतनी कैसे बदल गई थी !” दांतों पर दांत जमाए अशोक कहता चला गया ---- “ये सोचा था तूने...ये कि अगली पार्टी पर जो भी तेरे हिस्से में आएगा, तू उसका ये हश्र करेगी...ये।”
“य... ये तुम क्या कह रहे हो अशोक ?” चांदनी के हलक से अविश्वास भरी चीख निकली ---- “तुम सोच भी कैसे सकते हो कि मैं किसी की हत्या कर सकती हूं?”
“बेवकूफ तो मैं था जो उसी दिन तेरे तेवरों को नहीं समझ सका । तेरे द्वारा खाई गई अपनी कसम के फेर में आ गया।” चांदनी की बात पर ध्यान दिए बगैर अशोक कहता चला गया - "मैं भूल गया था कि अब तू वो चांदनी नहीं रही जो मेरी झूठी कसम नहीं खा सकती थी।”
“मैं आज भी तुम्हारी झूठी कसम..
“ये क्या बातें कर रहे हो तुम?” चांदनी की बात काटकर धीरज ने अशोक से पूछा ---- “किस दिन की बात कर रहे हो ?”
अशोक ने पिछली पार्टी से अगले दिन की बात बता दी ।
उसे सुनने के बाद भंसाली कह उठा ---- -“वाकई तुमसे बहुत बड़ी चूक हुई है अशोक, तुम्हें उसी दिन समझ जाना चाहिए था कि सुबह से शाम के बीच इसने कोई भयानक फैसला कर लिया था।”
तुम यह कहना चाहती हो कि रतन का गला किसी भूत ने दबाया था !” भंसाली गुर्राया ---- “तभी तो वह तुम्हें नजर नहीं आया!”
“मेरे ख्याल से तो इसने रतन की व्हिस्की में कोई जहर मिलाया होगा ।” सुधा भंसाली ने कहा ---- “ऐसा जहर जिससे रतन ने अपना दम घुटता महसूस किया ।”
“तुम ठीक कह रही हो सुधा ।” संजय कपाड़िया बोला ---- “देखो, रतन के मुंह से झाग भी निकल रहे हैं।”
“व्हिस्की तो मैं भी पी रही थी ।” चांदनी बोली ---- “इसमें जहर होता तो मेरी हालत भी वैसी ही होती।”
“जहर जब तूने मिलाया ही रतन के गिलास में था तो तेरी हालत वैसी कैसे होती?” धीरज सिंहानिया ने कहा ।
“तुम लोग मेरी बात पर यकीन क्यों नहीं कर रहे? अशोक, तुम तो विश्वास करो ---- मैंने कुछ नहीं किया ।”
“कुछ नहीं किया तो रतन के पेट पर यह किसने लिख दिया ?” कहने के साथ रमेश भंसाली ने 'क्यों' की तरफ इशारा करके पूछा।
चांदनी के कुछ भी कहने से पहले अशोक के मुंह से जहर में बुझा लहजा निकला ---- “भूत ने... जो नजर नहीं आ रहा था । "
“ और तेरी कहानी के मुताबिक तो तब तक तुम दोनों में से किसी ने कपड़े भी नहीं उतारे थे ।” किरन सिंहानिया बोली----“फिर कपड़े क्यों नहीं हैं रतन की लाश पर ? अंडरवियर तक नहीं!”
“इन्हीं दोनों तब्दीलियों को देखकर तो मैं खुद हैरान हूं। कैसे यकीन दिलाऊं तुम लोगों को ! कैसे यकीन दिलाऊं कि जब मैं तुम्हें बुलाने इस कमरे से गई तो रतन के जिस्म पर पूरे कपड़े थे। कम से कम मेरे सामने इसके पेट पर किसी ने कुछ नहीं लिखा लेकिन जब तुम सबके साथ वापस आई तो..
“जादू हो गया!” रमेश ने व्यंग किया ---- “भूत ने कपड़े उतार लिए इसके । स्केच पेन से पेट पर 'क्यों' लिख दिया। है न !” -
“ इसका भी यही अंजाम होना चाहिए दोस्तो ।” संजय कपाड़िया ने कहा ---- “हमें इसकी लाश भी यहीं बिछा देनी चाहिए । "
“तुमने ठीक कहा कपाड़िया... ठीक कहा तुमने ।” कहने के साथ अवंतिका उस पर झपट ही जो पड़ी। उसके हाथ एक बार फिर चांदनी की गर्दन पर जा जमे थे, हलक से गुर्राहट निकली ----“मेरे दिल को तब तक चैन नहीं पड़ेगा जब तक ये भी लाश नहीं बन जाएगी।” “मारो... मार दो कमीनी को ।” लगभग एकसाथ सभी के मुंह से
ये लफ्ज निकले और गुस्से से उफनते वे सभी चांदनी पर झपट पड़े। सिर्फ रमेश भंसाली और मंजू कपाड़िया उनमें नहीं थे। बाकी लोगों ने चांदनी को इस तरह लात-घूंसों पर रख लिया था जैसे भरी सड़क पर कोई जेबकतरा पकड़ा गया हो । चांदनी के हलक से चीखें और सिर्फ चीखें निकल रही थीं । रमेश और मंजू की नजरें मिलीं। एकाएक अपने साथियों पर झपटते रमेश भंसाली ने कहा----“ये क्या बेवकूफी कर रहे हो यार, कोशिश करो समझने की- - ऐसा हो गया तो हम और बड़ी मुसीबत में फंस जाएंगे।"
गुस्से से पागल हुए जा रहे धीरज, अवंतिका, सुधा, संजय, मंजू और अशोक को वह बड़ी मुश्किल से काबू में कर सका। अवंतिका ने चीखकर कहा ---- “तुम इसे बचाने की कोशिश कर रहे हो रमेश ?”
“नहीं अवि, मैं इसे बचा नहीं रहा । इस हरामजादी को बचाने की कोशिश मैं कर भी कैसे सकता हूं लेकिन..
“लेकिन?” एकसाथ सभी ने पूछा ।
“गुस्से की ज्यादती के कारण इस वक्त असली समस्या की तरफ तुममें किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है ।”
“कौनसी असली समस्या ?"
"सबसे पहले हमें रतन की लाश के बारे में सोचना चाहिए।"
“इसके बारे में सोचने को अब रह क्या गया है ?"
“ठंडे दिमाग से सोचो धीरज, पुलिस ने ये लाश अगर यहां से यानी मेरे आऊट हाऊस से बरामद की तो क्या होगा ?” रमेश भंसाली ने आतंकित-से अंदाज में कहा था ---- “मैं और सुधा क्या जवाब देंगे पुलिस को ? जिस रतन बिड़ला को ऑन रिकार्ड हम जानते तक नहीं हैं, वह रात के इस वक्त यहां क्या कर रहा था?”
उसकी इस बात ने वहां सन्नाटा फैला दिया। ऐसा सन्नाटा जो हरेक के जेहन में सांय-सांय कर रहा था । किसी को जवाब नहीं सूझा । सुधा भंसाली चेती, अपने पति की बात के मर्म को समझते ही
उसके चेहरे पर खौफ के भाव उभरे, बोली---- “रमेश ठीक कह रहा है, जैसा कि तुम सभी जानते हो ---- हमारे तो मम्मी-पापा तक को नहीं पता कि आज यहां कोई पार्टी चल रही है ।”
“मम्मी-पापा को ही क्या, किसी को भी पता नहीं है ।”
“तुम ठीक कह रहे हो रमेश और... ।” अशोक थोड़ा रुका, फिर बोला- “ये समस्या केवल तुम दोनों की नहीं है। हम सबकी है । हम यह बात कैसे किसी के सामने आने दे सकते हैं कि यहां कोई पार्टी चल रही थी ? लाश यहां से बरामद होगी तो अनेक सवाल उठेंगे।”
बात लगभग सभी की समझ में आ गई ।
उसी का परिणाम था कि हर चेहरे पर आतंक तांडव करने लगा ।
काफी देर बाद किरन बोली----“तो फिर लाश का करेंगे क्या?
इस कमीनी ने तो हमें ऐसी समस्या में डाल दिया है कि..
“ आप लोग समझ क्यों नहीं रहे?” एक बार फिर चांदनी ने हस्तक्षेप किया----“मैंने इसे नहीं मारा । हमें इसके हत्यारे को तलाश करने की कोशिश करनी चाहिए। हम लोगों के अलावा भी यहां कोई है जिसने इसकी हत्या की, कपड़े उतारे और पेट पर 'क्यों' लिखा ।”
“चुप हो जा हरामजादी... चुप हो जा।" धीरज सिंहानिया आग बबूला होकर दहाड़ा ----“सोचने दे हमें।”
“तुम सब..
इससे आगे एक लफ्ज नहीं निकल सका चांदनी के मुंह से क्योंकि उससे पहले ही अशोक ने झपटकर उसका मुंह भींच लिया था, साथ ही गर्जा----“सुना नहीं तूने ? सुना नहीं धीरज ने क्या कहा? हमें उस समस्या का हल सोचने दे जिसमें तूने फंसा दिया है।"
सुधा भंसाली ने कहा ---- - “इसके मुंह में कपड़ा ढूंस दो, वरना इसी तरह दिमाग खराब करती रहेगी ।"
यह काम संजय कपाड़िया ने किया ।
उसने अपनी जेब से रुमाल निकाला और जबरदस्ती चांदनी का मुंह फाड़कर उसमें ठूंस दिया। उसके बाद भी जब वह छटपटाती हुई 'गूं-गूं' करती रही तो मारे गुस्से के सिंहानिया का बुरा हाल हो गया ।
उसने अपनी टाई निकाली ।
अशोक ने चांदनी के हाथ पीछे किए।
सभी ने उसे दबोच लिया ।
कुछ देर बाद चांदनी बैड के साथ बंधी पड़ी थी ।
“यह बात तो तय है कि हम इस लाश को यहां से बरामद नहीं होने दे सकते।” धीरज बहुत ही गंभीर लहजे में कह रहा था ---- “ऐसा होने का मतलब है ---- हम सबका बेड़ागर्क | पुलिस बाल की खाल निकाल लेगी । मेरा दावा है ----यह छुपा नहीं रहेगा कि हम यहां किस किस्म की पार्टी कर रहे थे और यह बात खुल गई तो..
आगे के शब्द वह खुद ही नहीं कह सका ।
ऐसी हल्दी पुती थी पट्ठे के चेहरे पर जैसी शादी से दो दिन पहले तेल - बान की रस्म करते वक्त भाभियों ने पोती थी और उसी के क्यों, सभी के चेहरों पर वैसी ही हल्दी पुती नजर आ रही थी ।
मरे-से लहजे में सुधा
ने कहा
“तुम ठीक कह रहे हो ।”
“ठीक तो कह रहा है।" अशोक बोला ---- “लेकिन करें क्या?”
“सीधी-सी बात है। " संजय ने कहा ---- “रतन की लाश को हमें यहां से कहीं दूर फैंककर आना होगा । इतनी दूर कि कोई इस बात की कल्पना तक न कर सके कि हत्या यहां हुई है । ”
“कौन करेगा ये काम ?” सवाल अशोक ने उठाया।
सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगे।
धीरज ने कहा---- “किसी को तो करना ही होगा।”
“ मेरे ख्याल से यह खतरनाक काम हममें से किसी के भी द्वारा किया जाना मुनासिब नहीं होगा।” संजय ने कहा ।
“तो फिर कैसे होगा?”
“मैं ऐसे बदमाशों को जानता हूं जो पैसे लेकर ऐसे काम करते हैं। छंगा- भूरा हैं उनके नाम ।” धीरज सिंहानिया ने कहा ।
“मान लिया कि ऐसा हो गया ।” रमेश बोला ---- “पर फिर भी, लाश मिलने पर तहकीकात तो होगी ही। यह जानने की कोशिश तो करेगी ही पुलिस कि हत्या कहां हुई, किसने और क्यों की? मैंने ऐसे ऐसे पुलिसिए देखे हैं जो अंततः जड़ में पहुंच ही जाते
“तुम क्या ये कहना चाहते हो कि लाश किसी को मिले ही नहीं ?”
“ज्यादा सुरक्षित तो यही रहेगा ।”
“लाश चाहे जहां डाल दी जाए, गारंटी से यह बात कोई नहीं कह सकता कि उस पर किसी की नजर नहीं पड़ेगी।”
“हम इसे यहीं गढ्ढा खोदकर दबा सकते हैं। कभी किसी हालत में पुलिस के हाथ नहीं लगेगी।”
“ऐसा नहीं हो सकता ।” अवंतिका ने कहा ।
धीरज ने पूछा ---- “इसमें क्या दिक्कत है ?”
“हम साथ घर से निकले थे | क्या कहूंगी लोगों से ? कहां गया?”
सब चुप ।
कुछ देर बाद अशोक बोला ---- “ बात तो ठीक है। लोगों के सामने लाश आनी जरूरी है वरना अवंतिका मुसीबत में फंस जाएगी।”
“वो तो सामने आने पर भी फसूंगी ? ”
“वह कैसे?”
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