मणिक मराठा पर झपटा। उसने उसे पकड़ने और रोकने की कोशिश की मगर जिस जुनूनी अवस्था में इस वक्त वो था उसमें आदमी आसानी से काबू में नहीं आता और उस वक्त तो हद ही हो गई जब गुस्से की ज्यादती के कारण भन्नाए हुए मराठा ने होलेस्टर से रिवाल्वर खींच लिया और... इससे पहले कि वह कोई अनर्थ कर डालता, विभा ही सिंहनी की तरह झपटी थी उस पर ।


“ये क्या कर रहे हो मराठा ?” उसके हाथ से रिवाल्वर छीनती हुई चीखी----“ये क्या बेवकूफी कर रहे हो तुम ?”


“मुझे छोड़ दीजिए विभा जी, छोड़ दीजिए मुझे । ये साले समाज में सांस लेने लायक नहीं हैं। इन्हें तो बीच चौराहे पर फांसी पर लटका देना चाहिए । लाशों को घसीटकर श्मशान ले जाना चाहिए इनकी ।”


“तुम एक सरकारी अफसर हो मराठा । तुम्हें ये सब शोभा नहीं देता । काबू में करो अपनी भावनाओं को ।”


“सरकारी अफसर क्या आदमी नहीं होता विभा?" खुद को रोकने की लाश चेष्टाओं के बावजूद मैं बोल पड़ा ---- “पुलिस में भर्ती होने के लिए क्या किसी को अपनी भावनाओं की हत्या करनी होती है? तुम बोलो... तुम्हारा दिल क्या कहता है? क्या ये समाज में रहने लायक हैं? हैं इस लायक कि सभ्य समाज में सांसें ले सकें?”


“वेद, तुम्हें हो क्या गया है?”


“आपके सामने कभी बोला नहीं हूं बहूरानी, लेकिन आज बोलने को जी चाहता है ।” मणिक ने भी अंततः कह ही दिया ।


“क्या कहना चाहते हो?” विभा ने उसे घूरा ।


“आपने मराठा को रोकने के लिए कहा, मैंने रोका | आप और भी जो कुछ कहेंगी मैं करूंगा। आप में मेरी श्रद्धा जो है लेकिन..


“लेकिन ?”


“आज यह कहने से आप मुझे नहीं रोक सकतीं कि अब इस केस की इन्वेस्टीगेशन करने को दिल नहीं चाहता । मुझे नहीं ढूंढना इन जानवरों के हत्यारे को, क्योंकि ढूंढ लिया तो आप उसे सजा करा देंगी जबकि वो सजा का नहीं, सम्मान का हकदार है। "


“मणिक ।” वह गुर्राई-- -“होश में तो हो तुम?”


“मणिक तुम्हारा मुलाजिम है विभा, तुम उसे चुप कर सकती हो ।” मेरा खून खौल रहा था ---- “लेकिन अपने दोस्त को चुप नहीं कर सकतीं। सारे जमाने को चुप नहीं कर सकतीं। मेरे ख्याल से तो पूरी दुनिया में तुम्हें एक भी आदमी ऐसा नहीं मिलेगा जो यह कहे कि जो भी इन दरिंदों का सफाया कर रहा है, वो ठीक नहीं कर रहा। "


“हत्यारा, हत्यारा होता है वेद । ”


“अगर तुम्हारी ही परिभाषा से हत्यारे तय होने लगें तो हत्यारे तो राम भी थे, हत्यारे तो कृष्ण भी थे । इस धरती को असुरों की लाशों से पाटकर गुनाह तो फिर माता दुर्गा ने भी किया था !”


“तुम देवी-देवताओं की तुलना इंसानों से कैसे कर सकते हो ?”


“कौन देवी-देवता विभा, कौन इंसान और कौन भगवान ! ” जाने कौन से जुनून में था मैं कि विभा के सामने इतना बोल गया-“जो अच्छे काम करे, नेक काम करे, पुण्य करे वो देवी-देवता और भगवान । राम, कृष्ण और मां दुर्गा भी शायद पहले इंसान ही थे। भगवान तो हमने उन्हें इसलिए मान लिया क्योंकि उन्होंने दुष्टों का संहार किया, पापियों को मारा, राक्षसों की लाशें बिछाईं ।”


“तुम पागल हो गए हो वेद । ”


मैं भी पूरी भड़ास निकालकर ही माना ---- “ और मेरे ख्याल से तो एक बार फिर कोई ऐसा ही जीव इस धरती पर उतर आया है जिसे भविष्य में लोग देवी-देवता मानकर पूजेंगे। भगवान का दर्जा देंगे क्योंकि वह एक-एक करके दरिंदों का संहार कर रहा


“अगर तुम्हें ऐसी ही बातें करनी हैं वेद तो मेरठ जा सकते हो ।” एकाएक ही विभा जिंदल का लहजा बहुत ही रूखा और सख्त हो गया था- - “तुम्हारा इस केस में कोई काम नहीं।”


अभी-भी मैं बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन उसके तेवर देख कर चुप रह गया। ऐसा ही शायद मराठा और शगुन के साथ हुआ था।


कमरे में काफी देर के लिए सन्नाटा छा गया।


केवल अशोक की कराहें गूंज रही थीं वहां । होठों के अलावा भी जिस्म के कई हिस्सों से खून छलक आया था।


विभा उसके करीब पहुंची । बोली---- “घबराओ नहीं, मेरे रहते तुम्हें कोई किसी किस्म का नुकसान नहीं पहुंचा सकता। मुझे यह जानना है कि ये सिलसिला रतन की हत्या तक कैसे पहुंचा ?”


उसने डरी-डरी आंखों से मुझे, शगुन और मराठा को देखा और एक बार फिर बताने लगा


चांदनी के होठों पर चित्ताकर्षक मुस्कान देखकर अशोक बजाज का दिमाग भक्कू से उड़ गया ।


अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि शाम के वक्त चांदनी ने जब नेचुरल कलर की लिपिस्टिक से सजे अपने गुलाबी होठों पर बहुत ही प्यारी मुस्कान बिखेरते हुए उसका स्वागत किया तो उसके जेहन की सभी नसें इस कदर झनझना उठीं जैसे किसी ने उनसे बिजली का नंगा तार छुआ दिया हो।


बात शाम के छः बजे की है ।


तब की, जब वह आफिस से लौटा ।


उस वक्त वह समझ नहीं पा रहा था कि चांदनी से कैसे निपटेगा?


कैसे रियेक्ट करेगी चांदनी ?


पटरी पर आ भी पाएगी या नहीं?


मगर ।


बैडरूम में कदम रखते ही वह हो गया जो ऊपर लिखा जा चुका है और जब वह हुआ तो अशोक बजाज के कानों में मानों सीटियां- सी बजने लगीं। उसे यकीन ही आकर नहीं दे रहा था कि चांदनी मुस्करा रही है ---- वह भी ऐसे अंदाज में जैसे ऑफिस से घर लौटने पर अपने पति से बहुत ज्यादा प्यार करने वाली पत्नी मुस्कराया करती है ।


इस बात को तो खैर वह अच्छी तरह जानता था कि चांदनी उससे बहुत प्यार करती है। बावजूद इसके, उसके ऑफिस से लौटने पर ऐसे अंदाज में तो उसने पहले भी कभी स्वागत नहीं किया था।


“आज देर लगा दी आपने।” चांदनी ने उसके हाथ से सूटकेस लेते हुए कहा था ---- “साढ़े पांच बजे आ जाते थे। अब छः बजे हैं।"


मेरी तो आंखें थक गईं इंतजार करते-करते।”


अशोक बजाज अवाक् !


सूटकेस उसके हाथ से यूं निकलता चला गया था जैसे चांदनी ने स्टेचू के हाथ से लिया हो । “जल्दी से फ्रेश हो जाइए। मैं कॉफी लेकर आती हूं।" बहुत प्यार से कहने के बाद वह मुड़ी और अल्मारी की तरफ बढ़ गई। अशोक बजाज के शरीर पर ही नहीं, बल्कि दिलोदिमाग पर भी अचानक फालिज गिर गया था। कंचों की मानिंद बेजान और पथराई - सी आंखों से वह अल्मारी की तरफ बढ़ रही चांदनी को देखता रह गया था ।


उस वक्त तक वह अपने स्थान से हिल तक नहीं पाया था जब सूटकेस अल्मारी में रखकर चांदनी वापस घूमी। उसे ज्यों का त्यों खड़ा देखकर शिकायती अंदाज में बोली---- “अरे, आप अभी तक वहीं खड़े हैं ! जाइए न बाथरूम में, जल्दी से फ्रेश होकर आइए।"


अशोक बजाज को काटो तो खून नहीं । चांदनी का एटीट्यूट उसकी समझ से बिल्कुल बाहर था । किसी षड़यंत्र की गंध आई उसे । क्या खेल खेल रही है चांदनी ? सुबह और शाम में इस क्रांतिकारी बदलाव का आखिर मतलब क्या है ? दिमाग के कलपुर्जे चलने शुरु हों तो कुछ समझ में भी आए । वे तो यूं जाम पड़े थे जैसे लाइट जाने पर इलैक्ट्रोनिक आइटम । “ओफ्फो! लगता है अब बाथरूम तक भी आपको मुझे ही ले जाना पड़ेगा।" कहने के साथ चांदनी उसके नजदीक आई । कलाई पकड़कर बाथरूम की तरफ बढ़ती बोली -- -- “जल्दी कीजिए ।” बाथरूम के दरवाजे तक तो खैर अशोक बजाज खिंचता चला गया लेकिन दरवाजे के करीब पहुंचकर ठिठका। उसे खींच न पाने की अवस्था में चांदनी बोली----“क्या हुआ?”


“च... चांदनी ।” संभालने की लाख चेष्टाओं के बावजूद अशोक बजाज की आवाज कांप रही थी ।


“कहिए।” आंखों में चमक लिए चांदनी ने उसकी तरफ देखा ।


अशोक बहुत मुश्किल से कह सका ---- “हो क्या गया है तुम्हें ?”


“क्यों? आपको क्या लगता है? क्या हो गया है मुझे ? "


“स... सुबह और शाम में इतना फर्क ?” और... जवाब में चांदनी खिलखिलाकर हंस पड़ी ।


यह उसकी वही खनकदार हंसी थी जो अशोक को दीवाना बना दिया करती थी। अपने कानों में उसे मंदिर की घंटियां- सी बजती महसूस होती थीं मगर इस वक्त वही हंसी ऐसी लगी जैसे फिल्म के पर्दे पर रूह का किरदार निभा रही फी - मेल आर्टिस्ट हंस रही हो ।


एक लफ्ज नहीं निकल सका मुंह से ।


मुंह बाए हंसती हुई चांदनी को बस देखता रहा । उस चांदनी को जिसने दिल खोलकर हंसने के बाद कहा ---- “सुबह और शाम के बीच में तो पूरा दिन होता है अशोक बाबू, लोग तो इतनी देर में बदल जाते हैं जितनी देर में आदमी की पलक भी नहीं झपक पाती।”


“चांदनी..


“मुझे मालूम है कि तुम हैरान हो रहे हो ।” चांदनी उसे बोलने ही जो नहीं दे रही थी - - - - “ और परेशान भी । हलकान भी । यह सोचकर थोड़ी घबराहट और खौफ भी जरूर महसूस कर रहे होगे कि मेरे इस एटीट्यूट के पीछे आखिर वजह क्या है ? हो सकता है यह भी सोच रहे हो कि शायद मैं किसी षड़यंत्र पर काम कर रही हूं। है न !”


अशोक ने बोलना चाहा मगर बोल फूट नहीं सका।


एक बार फिर चांदनी ही बोली ---- “मुझे मालूम था कि अगर मैं तुम्हारे आफिस से आते ही वह सब करूं जो किया तो तुम्हारी वही हालत होगी जो हो रही है। इसीलिए तो सीधे-सीधे असल बात न बताकर यह सब किया है । "


“असल बात ?”


“यह कि मैंने पूरे दिन सोचा ---- मैं आखिर कर क्या रही हूं? अपने पतिदेव की बातों और भावनाओं को समझ क्यों नहीं रही? और... न समझने पर होगा क्या? अंजाम क्या होगा मेरा? एक बार फिर गरीबी और आभावों की उसी गंदी कीचड़ में जा गिरुंगी जहां से निकालकर तुम मुझे इस महल में लाए थे । यह भी सोचा अशोक कि आखिर क्या फर्क पड़ गया मेरे जिस्म पर ? लगा----वाकई, कोई फर्क नहीं पड़ा । तुमने ठीक कहा था। बेवजह रूढ़ीवादी विचारधारा में फंसी हूं मैं। भगवान ने अगर यह जिस्म दिया है तो इससे उतना आनंद उठाना चाहिए जितना उठा सकते हैं। मुझे अपने दिमाग के 'बंध' खोलने होंगे। तुम्हारे और तुम्हारी सोसाइटी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होगा । ढेर सारे सोच-विचारों के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची कि यदि मैं ऐसा नहीं करूंगी तो अपना ही नुकसान करूंगी। किसी और का कुछ नहीं बिगड़ेगा।"


इतना कहकर जब वह खामोश हुई तब भी अशोक उसे उन्हीं नजरों से देखता रह गया था जिनसे तब देखना शुरू किया था जब उसने 'स्पीच' शुरु की थी। उस पर कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था ।


उसे ऐसी अवस्था में देखकर पुनः चांदनी ही बोली ----“तुम्हें मेरी बातों पर यकीन नहीं आ रहा है न मेरे राजा!”


अशोक ठस्स।


“जानती थी कि एकदम मेरी इन बातों पर तुम यकीन करोगे भी नहीं ।” पुनः वही बोली- - - -“लेकिन इससे ज्यादा और कह भी क्या सकती हूं कि यकीन करो ---- तुम्हारी बातें पूरी तरह मेरी समझ में आ गई हैं। भरपूर मजा लूटना ही हमारे जीवन का मकसद है।”


अशोक अब भी सशंक भाव से उसकी तरफ देखता रहा।


चांदनी ने चंचल मुस्कान के साथ कहा ---- “लगता है, जितनी हकीकत बता चुकी हूं उससे आगे की हकीकत भी सुनना चाहते हो ।”


“मतलब?”


“झेल पाओ तो कहूं!”


“ झेल पाने से क्या तात्पर्य ?”


“धीरज ने मेरे जिस्म का पोर-पोर तोड़ डाला ।” चांदनी ने बहुत ही मादक अंगड़ाई लेते हुए कहा था - - - - “सुनना ही चाहते हो तो सच्चाई ये है अशोक कि पिछली रात से पहले मुझे यही पता नहीं था कि चर्मोत्कर्ष क्या होता है । तुम कभी मुझे वहां तक नहीं पहुंचा सके।”


“अब शायद तुम मुझे जलाना चाहती हो !” उसे गौर से देखता हुआ अशोक बजाज पहली बार हौले से मुस्कराया।


“ हकीकत बता रही हूं जनाब।" उसने दोनों बांहें उसके कंधे पर रख दीं----“सिर्फ वह, जो मैंने महसूस किया ।”


“तुमने भी मुझे कभी वैसी कलाबाजियां नहीं खिलाईं जैसी सुधा ने खिलाईं।” अशोक ने जैसे को तैसा वाली बात कही ---- “वाकई, वह जीवन का एक अलग ही अनुभव रहा । ”


“सचमुच, तुमने ठीक कहा था अशोक ।” चांदनी कहती चली गई ---- “दो व्यक्तियों का अंदाज एक-सा नहीं होता और हमें अलग अलग अंदाजों का अनुभव लेने का राइट है।"


“अगर तुम वाकई इस बात को समझ गई हो तो मुझे खुशी है ।” ऐसा कहते वक्त भी अशोक उसे सशंक भाव से देख रहा था ।


उसकी तरफ बहुत प्यार से देखती चांदनी बोली ---- “अब मेरी हिम्मत वह कहने की पड़ रही है जिसे कहने से डर रही थी । ”


“क... क्या?”


चांदनी ने अशोक बाजाज के कोट की जेब में हाथ डाला। उसमें से सिगरेट का पेकिट और लाइटर निकाला। एक सिगरेट सुलगाई और चहलकदमी-सी करती बोली---- “यह सच है अशोक कि एक ही व्यक्ति से सेक्स करते-करते हम ऊबने लगते हैं । रुटीन जो हो जाता है वह सब | यह बात मेरी समझ में पिछली रात आई । तब, जब धीरज के बिस्तर पर थी । सुबह तुमसे यह बात कहने से मैं डरी । यह सोचकर कि मेरे मुंह से ऐसा सुनने के बाद तुम मेरे बारे में क्या सोचोगे लेकिन दिन भर इसी बारे में सोचती रही और अभी-अभी तुमसे बात करने के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि मुझे डरने की जरूरत नहीं है। अब हम इस बारे में खुलकर बातें कर सकते हैं।"


चांदनी ठीक वही कह रही थी जो सिंहानिया ने कहा था ।


उसे लगा----सिंहानिया का अनुभव बेमिसाल था।


अगर ऐसा है ! यदि चांदनी सच बोल रही है तो उसकी तो सभी समस्याएं दूर हो गईं मगर... कहीं कुछ था जो बार-बार अशोक से कह रहा था कि चांदनी के इस रूप में कोई फेर है


इसी कारण वह अभी-भी उसे शक भरी निगाहों से देखता हुआ बोला- “तुम सच कह रही हो न !”


“तुम्हारी कसम ।” कहने के साथ चांदनी उसकी तरफ घूमी।


“जियो जानेमन। जियो।” खुशी से झूमते-से अशोक ने लपककर उसे अपनी बांहों में भर लिया। जानता जो था कि चांदनी और भले ही चाहे जो कर ले लेकिन उसकी कसम झूठी नहीं खा सकती ।


“अब तो मुझे अगली पार्टी का इंतजार है।” चांदनी ने उससे लिपटते हुए कहा----“देखना जो चाहती हूं कि इस बार मेरे हिस्से में कौन आता है और उसका अंदाज क्या होगा ? ”


यह सब बताने के बाद जब अशोक चुप हुआ तो कमरे में ऐसा सन्नाटा छा गया जैसे वहां कोई हो ही नहीं ।


किसी पर कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था और किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि चांदनी में आए उस बदलाव का आखिर मतलब क्या हुआ? मराठा, शगुन, मणिक और मैंने एक-दूसरे की तरफ देखा। सबके चेहरों पर उससे आगे जानने की जिज्ञासा थी जितना अशोक बता चुका था। कुछ देर तो यही इंतजार करते रहे कि शायद खुद ही कुछ बोले लेकिन जब वह नहीं बोला और अति हो गई तो शगुन ने पूछा---- “उसके बाद क्या हुआ ?”


चार दिसंबर की रात ।


स्थान ---- न्यू रोहतक रोड स्थित भंसाली का विशाल बंगला ।


वे ही लोग । वही माहौल ।


बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा खुशनुमा ।


ज्यादा बिंदास |


ज्यादा इसलिए क्योंकि चांदनी बाकी सभी 'लड़कियों' से कहीं ‘आगे' नजर आ रही थी । इतनी सेक्सी ड्रेस पहनकर आई थी वह कि पहनी-न-पहनी बराबर थी । सभी से इतने खुलेपन के साथ मिली कि एक बार को तो वे बौखला से गए ।


कभी लगता - - - - वह पूरी तरह उनके रंग में रंग चुकी है।


कभी लगता ---- अशोक को जलाने... उससे प्रतिशोध लेने के लिए इतनी 'एग्रेसिव' नजर आ रही है ।


उनकी नजर में अगर वह ऐसा कर रही थी तो बेवकूफी कर रही थी । वे दिमागी स्तर पर 'इतने आगे निकल चुके थे कि अपनी बीवी को दूसरे की बांहों में देखकर 'जलेस फील' करने का सवाल ही नहीं उठता था। उनकी नजरें तो दूसरों की बीवी पर होती थीं ।


चांदनी पैग पर पैग पिए चली जा रही थी ।


इस कदर कि बुरी तरह लड़खड़ाने लगी ।


सबने और पीने से मना किया। अशोक ने रोकने की कोशिश की लेकिन मजाल है जो उसने उस सहित किसी की सुनी हो !


उस रात पांचों ‘लड़कियों के नाम की पांच पर्चियां बनाई गईं ।


उन्हें इस तरह 'रिला - मिला' दिया गया कि किसी को पता नहीं रहा किस पर्ची पर किसका नाम लिखा है ।


चांदनी, सुधा, अवंतिका, मंजू और किरन से कहा गया कि वे एक-एक पर्ची उठाकर अपने वक्षस्थल में रख लें।


वैसा ही किया गया ।


अब ---- किसी को नहीं मालूम था कि किसके वक्षस्थल में रखी पर्ची पर किसका नाम लिखा है। अशोक बजाज से किरन के वक्षस्थल में रखी पर्ची निकालने को कहा गया ।


उसने ऐसा किया तो अवंतिका की पर्ची निकली ।


उस सुधा भंसाली के वक्षस्थल से रतन बिड़ला को जो पर्ची मिली, पर लिखा था ---- 'चांदनी बजाज ।'


इस तरह चांदनी उस रात रतन के हिस्से में आई ।


और ... नशे में झूमती चांदनी ने सबके सामने रतन बिड़ला से लिपटकर ऐसी-ऐसी हरकतें कीं, ऐसे-ऐसे शब्द बोले जिन्हें यहां लिखना भी संभव नहीं है परंतु अशोक ने उन पर जरा भी ध्यान नहीं दिया ।


वह तो अवंतिका में मस्त था ।


उसके बाद सभी जोड़े अलग-अलग पांच कमरों में चले गए।


कमरा अंदर से बंद करने के बाद रतन बिड़ला घूमा तो उसने चांदनी को सेंटर टेबल के नजदीक पाया ।


वह पैग बना रही थी ।


“प्लीज चांदनी ।” वह लपका ---- " और रहने दो ।”


“क्यों?” उसने नशे में सराबोर आंखों से उसे देखा ।


“तुम पहले ही काफी ले चुकी हो ।”


“तो क्या हुआ डार्लिंग ?” चांदनी ने जैसे उसके मनोभाव पढ़ लिए थे ---- “तुम्हें क्या ये डर है कि अगर मैं और पी गई तो तुम्हारे किसी काम की नहीं रहूंगी! नहीं... ऐसा नहीं होगा। ये मेरा वादा है कि तुम्हारी सभी जायज - नाजायज इच्छाएं पूरी करूंगी ।”


“स... सच ! सच कह रही हो तुम !” रतन रोमांचित हो उठा।


“बिल्कुल सच |”


रतन ने अपने बाएं हाथ की तर्जनी में मौजूद डायमंड की अंगूठी घुमाई | बोला ---- “ये साली बहुत दुखी करती है। चुभती है उंगली में लेकिन अवि है कि उतारने ही नहीं देती। कहती है, इसे नहीं उतारोगे, ये हमारी इंगेजमेंट रिंग है । पर सुबह तक के लिए तो उतार ही सकता हूं।" कहने के बाद उसने अंगूठी सेंटर टेबल पर रख दी थी और बांहें पसारकर बोला ---- “तो आओ, दोनों मिलकर एक हो जाएं।"


“होगा डार्लिंग, आज रात ऐसा जरूर होगा । इसीलिए तो आज तुम्हारे हाथ मेरे नाम की पर्ची लगी है लेकिन..


“लेकिन?”


" उससे पहले हम एक खेल खेलेंगे ।”


“कैसा खेल ?”


“एक-एक पैग करके पिएंगे | बराबर-बराबर ।”


“तुम और पियोगी तो निढाल हो जाओगी । ”


“खेल के बारे में पूरा तो सुनो।”


“बोलो।”


“जो पहले तौबा करेगा। यानी यह कहेगा कि वह और नहीं पी सकता, हारा माना जाएगा और 'नीचे' रहेगा ।”


“मंजूर डार्लिंग... तुम्हारा ये दिलचस्प खेल मंजूर ।” कहने के साथ वह यह सोचकर हंसा था कि दो पैग बाद ही तौबा कर लेगा ।


और ... उस वक्त दोनों का दूसरा पैग ही चल रहा था, आधा भी रतन बिड़ला के पेट में नहीं पहुंच पाया था कि वह इस तरह लंबी लंबी सांसें लेने लगा जैसे सांस लेने में दिक्कत महसूस कर रहा हो ।