लड़खड़ाता हुआ सीधा उस ट्राली से जाकर टकराया जिस पर बीयर से भरा जार रखा था ।
जार कालीन पर जाकर गिरा ।
टूट गया वह ।
बीयर दूर-दूर तक बिखर गई ।
उसी के बीच धीरज सिंहानिया भी जा गिरा था ।
“अशोक ! क्या हो गया है तुम्हें ? क्यों मेरी मदद नहीं की ?” बिफरी सी चांदनी झपटकर उसके नजदीक आई और बाजू पकड़कर खींचती हुई बोली“चलो... चलो यहां से । ”
सुधा भंसाली सहमकर पीछे हट गई थी ।
अशोक कुछ कह भी नहीं पाया था कि धीरज सिंहानिया उछलकर खड़ा होता हुआ दहाड़ा ---- “ये क्या बदतमीजी है यार? हम लोग यहां एंज्वॉय करने आए हैं या..
“धीरज ठीक कह रहा है बजाज ।” वह रमेश भंसाली था जिसने आगे बढ़कर कहा---- “ये तो हद हो गई बदतमीजी की। किसी को किसी का इतना अपमान करने की परमीशन नहीं दी जा सकती । तुम्हारी बीवी हमारे किसी काम की नहीं है। हमारी पार्टियों में सबकुछ खुशी से और आपसी सहमति से होता है ।”
“भंसाली ।” अशोक बोला ---- “समझने की कोशिश करो। चांदनी को यहां आने से पहले मालूम नहीं था कि..
“यही तो ।” रतन आगे बढ़ा ---- “यही तो गलती की तुमने तुम्हें चांदनी को तैयार किए बगैर यहां नहीं लाना चाहिए था । ऐसे लोग नहीं हैं हम कि किसी के साथ जबरदस्ती करें। अगर किसी की मर्जी नहीं है तो न सही । तुम अपनी इस सती सावित्री को यहां से ले जा सकते हो। हमारी पार्टी का बेड़ागर्क मत करो ।”
“पार्टी का बेड़ागर्क तो ये कर चुका है।" किरन बोली ---- “सबके मूड चौपट हो गए हैं। हमारी पार्टी में ऐसा कभी नहीं हुआ।”
“होश में आओ चांदनी... होश में आओ।” भन्नाए हुए अशोक ने उसे जोर से झंझोड़ा---- “ये क्या किया तुमने? क्या कर रही हो? तुम्हें मेरी इज्जत का कोई ख्याल है या नहीं ?”
“इज्जत !” जैसे सिंहनी गुर्राई ---- “इज्जत तुम्हारी खतरे में है या मेरी? तुम... तुम खुद अपनी बीवी की इज्जत लुटवाने पर अमादा हो। ऐसा मैंने न पहले कभी देखा, न सुना ।”
“उफ्फ् ! कूढमगज हो तुम । पूरी तरह कूढ़मगज ।” अशोक दांत भींचकर कह उठा ---- "ये बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रही कि शरीर का इज्जत से कोई ताल्लुक नहीं? क्या फर्क पड़ जाएगा इससे? क्या बिगड़ जाएगा शरीर का ? कौनसी इज्जत है वो जो धीरज के साथ वह करने से तार-तार हो जाएगी जो मेरे साथ हर रात करती हो ?”
चांदनी के मुंह से बोल न फूट सका ।
मुखड़े पर हैरत का सागर लिए वह अशोक को देखती रह गई ।
उसे
- जो उसका पति था।
उसके बारे में वैसा तो वह कभी सोच ही नहीं सकती थी ।
सबकुछ अपने कानों से सुनने के बावजूद उसे यकीन नहीं आ रहा था कि वह सब अशोक ने कहा है ---- उसके अशोक ने ।
नशे में होने के बावजूद उसके कानों में सीटियां- सी बज रही थीं और ... उसे खामोश देखकर अशोक को लगा कि वह उसकी बात सुनने को तैयार है, सो थोड़े प्यार से ... उसे समझाने वाले अंदाज में बोला----“ये इज्जत- विज्जत का फितूर अपने दिमाग से उतारो चांदनी और सोचो... ऊपर वाले ने ये जिंदगी हमें किसलिए दी है ! भरपूर मजा लूटने के लिए ही न ! देखो... दो आदमियों के प्यार करने का स्टाइल कभी एक नहीं हो सकता । मेरा अंदाज अलग है। सिंहानिया का अलग होगा। मेरे अंदाज का आनंद तो लेती ही रहती हो, आज धीरज के अंदाज का आनंद लो। मुझे सुधा भंसाली के अंदाज का आनंद लेने दो । यही जिंदगी है । जब मुझे कोई दिक्कत नहीं है तो तुम परेशान क्यों होती हो? एक रात किसी दूसरे के साथ गुजारोगी ..
“चुप्प !” दहाड़ने के साथ वह पीछे हटी ---- “चुप हो जाओ अशोक । आज... आज मैं तुम्हें अपना पति मानने से इंकार करती हूं। तुम सब... | " ऐसा कहने के साथ उसने सुलगती हुई आंखों से सभी को घूरा था ---- -- “तुम सब राक्षस हो । जानवर हो । जैसा तुम करते हो वैसा इंसान नहीं जानवर करते हैं। मैं तुम जानवरों के बीच में नहीं रह सकती । जा रही हूं यहां से । "
कहने के बाद वह मुड़ी और लड़खड़ाते से कदमों से दरवाजे की तरफ बढ़ गई। अभी वह दो-तीन कदम ही चल पाई थी कि संजय कपाड़िया ने लपककर रास्ता रोक लिया ।
कहा- “नहीं... तुम इस तरह नहीं जा सकतीं ।”
“संजय ।” रतन उसकी तरफ बढ़ता हुआ बोला-- -- “हम किसी के साथ जबरदस्ती नहीं करते लेकिन हां, अशोक को भी इसके साथ जाना होगा। अकेला शख्स इस क्लब का मेंबर नहीं हो सकता।”
अशोक को लगा ---- चांदनी की बेवकूफी के कारण सुधा नाम का निवाला उसके होठों तक पहुंचकर लौटने वाला है।
“रतन।” कपाड़िया ने कहा ---- “मैं किसी के साथ जबरदस्ती करने को नहीं कह रहा लेकिन अगर ये लोग इस तरह यहां से चले गए तो... तो सोचो, कल क्या होगा ?
एकाएक बात सभी की समझ में आ गई ।
सनसनाकर उन्होंने एक-दूसरे की तरफ देखा ।
“संजय ठीक कह रहा है।" अवंतिका बोली- --- “हमारा राज, राज नहीं रह जाएगा और राज अगर राज नहीं रहा तो..
“नहीं।” धीरज सिंहानिया ने कहा ---- "हम इन्हें इस तरह यहां से नहीं जाने दे सकते।”
एकाएक अशोक बजाज बोला-- -“मैं यहां से जाने के बारे में सोच भी नहीं रहा हूं।"
“तो?” भंसाली ने पूछा---- “तो फिर क्या किया जाए ?”
“सिंहानिया।” अशोक उसके नजदीक पहुंचता बोला ---- “अपने पार्टनर की रजामंदी से तो तूने बहुतों के साथ बहुत कुछ किया होगा, आज थोड़ी जबरदस्ती भी सही । यह अनुभव तेरे लिए नया होगा।"
“अशोक ने ठीक कहा ।” सुधा आगे आई ---- “एक बार जब वैसा हो चुका होगा तो ये खुद ही किसी से कुछ नहीं कहेगी।”
पुनः अशोक बोला----“फिर भी अगर वैसी कोई कोशिश की तो इसे रोकने की जिम्मेदारी मेरी है ।”
धीरज सिंहानिया ने कहना चाहा--- " -“लेकिन जबरदस्ती..
“यदि तेरे बस्का बिगड़ी हुई घोड़ी को काबू में करना नहीं है तो पहली बार अपने क्लब के नियम को तोड़कर अदला-बदली कर लेते हैं।” भंसाली बोला ---- “किरन आज रात के लिए तेरी और ये बेलगाम घोड़ी मेरी। मेरा दावा है कि सुबह तक यह हमारे क्लब की पक्की मेंबर बन चुकी होगी । ”
“ मैं तेरा मुंह नोंच लूंगी कमीने।" दांत भींचकर कहने के साथ चांदनी भंसाली पर झपटी जरूर थी लेकिन उस तक पहुंच नहीं सकी क्योंकि उससे पहले ही पीछे से झपटकर धीरज सिंहानिया ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था । वह छटपटाई लेकिन इस बार उसे मजबूती से दबोचे सिंहानिया ने कहा ---- “बात तो अशोक ने ने ठीक कही दोस्तो, रजामंदी का मजा तो अनेक बार लूटा है। बिगड़ी हुई घोड़ी पर सवारी करने का मजा कुछ अलग ही होगा।”
“ये हुई न बात ।” किरन सिंहानिया ने कहा ।
रतन उसे बांहों में भरता बोला ---- " बात तो तब बने जानेमन, जब तुम भी बिगड़ी हुई घोड़ी बन जाओ । आज से पहले ऐसी घोड़ी पर सवारी करने का ख्याल ही जेहन में नहीं आया था ।”
“तो ये लो।” अवंतिका ने संजय कपाड़िया को जोर से धक्का देकर खुद से परे हटाते हुए कहा ---- “मैं भी बिगड़ी हुई घोड़ी बन गई । आज रात तुम मेरे साथ कुछ नहीं कर सकते ।”
“मैं चला दोस्तो, मेरा काम आज तुम सबसे ज्यादा टिपिकल है ।” कहने के साथ चांदनी को दोनों बांहों में उठाए धीरज सिंहानिया एक कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ गया था।
उसकी मजबूत गिरफ्त में जकड़ी चांदनी छटपटाने और चीखने चिल्लाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पा रही थी।
नजदीक पहुंचकर उसने एक ही ठोकर में दरवाजा खोला।
चांदनी को जकड़े चौखट पार की और दरवाजा वापस बंद हो गया । उसके पार से चांदनी के चीखने की आवाजें अब भी आ रही थीं और चीखने की आवाजें केवल उसी के मुंह से नहीं निकल रही थीं। मंजू, किरन और अवंतिका भी उसी की नकल करने लगी थीं ।
रतन, भंसाली और कपाड़िया ने अपनी-अपनी शिकारों को उसी तरह गिरफ्त में जकड़ा जिस तरह धीरज सिंहानिया ने चांदनी को जकड़ा था और तीन अलग-अलग कमरों की तरफ बढ़ गए ।
सुधा अशोक से बोली- - - - “शायद हमें इस नाटक की जरूरत नहीं है। लीला कांटीनेंटल में मैंने भी तुम्हें अपनी तरफ देखते देखा था और तभी से तुम्हारी बांहों में गिरफ्त होना चाहती थी ।" अशोक ने उसे गोद में उठाया और कमरे की तरफ बढ़ गया ।
चांदनी के कानों में चिड़ियों के चहचहाने की आवाजें पड़ीं।
चिर-परिचित आवाजें ।
हर रोज आंखें खुलने पर उसे सबसे पहले यही आवाजें सुनाई देती थीं। उसके अपने बैडरूम की खिड़की 'बजाज - विला' के लंबे चौड़े किचन-लॉन में जो खुलती थी और सुबह के समय उस लॉन के पेड़ों पर रहता था ---- रंग-बिरंगी चिड़ियों का बसेरा |
एक झटके से उसके दिमाग में यह विचार उभरा कि क्या वह अपने बैडरूम में है? पिछली रात के भयानक दृश्य चलचित्र की तरह मस्तिष्क-पटल पर उभरते चले गए थे ।
आंखें खुलने के साथ ही वह एक झटके से उठ बैठी।
खुद को अपने बैड पर पाकर एक पल को तो लगा कि जो तस्वीरें जेहन में उभर रही हैं, वे शायद उसने स्वप्न में देखी थीं।
बड़ा ही भयानक सपना था ।
मगर अगले ही पल एहसास हुआ कि नहीं, वह सपना नहीं था ।
जो कुछ हुआ, वास्तव में हो गया है ।
इससे ज्यादा वह अभी कुछ सोच तक नहीं पाई थी कि कानों में तेजी से किसी पर्दे के सरकने की आवाज आई।
बौखलाकर खिड़की की तरफ देखा ।
मगर ठीक से कुछ देख न सकी ।
सूर्य-रश्मियां सीधे-सीधे उसकी आंखों में आ धंसी थीं ।
यही तो खूबी थी उसके और अशोक के बैडरूम की । अगर लॉन की तरफ खुलने वाली खिड़की का पर्दा हटा दिया जाए तो जिस्म को सकून पहुंचाने वाली सुबह की सूर्य - रश्मियां सीधी उनके बैड पर पड़ती थीं और ...हर सुबह अशोक को वह जगाया भी तो इसी तरह करती थी। बैड टी लेकर आया करती थी वह । तब तक अशोक सोता रहता था । उठता तभी था जब वह पर्दा सरका दिया करती थी ।
जिस तरह वह आंखें मिचमिचाता था उस तरह आज वह आंखें मिचमिचा रही थी और जब आंखें देखने काबिल हुईं तो हाथों में वही ट्रे लिए अशोक खड़ा नजर आया जो उसके हाथों में होती थी।
“गुड मार्निंग ।” कहता हुआ वह बैड के नजदीक आया ।
उसके होठों पर चित्ताकर्षक मुस्कान थी ।
चांदनी अपने होठों के बीच से कोई आवाज न निकाल सकी ।
बैड के नजदीक आकर अशोक ने ट्रे साइड - ड्राज पर रखी ।
चांदनी पथराई-सी आंखों से उसे बस देख रही थी ।
उसके देखते ही देखते अशोक ने केतली से ठीक उस तरह दो कपों में चाय डाली जिस तरह वह डालती थी 1
एक कप उसकी तरफ बढ़ाता बोला ---- “लो।”
चांदनी का हाथ यंत्र - चलित अंदाज में आगे बढ़ा।
“प्यार तो हम एक-दूसरे से बेइंताह करते ही हैं।” अशोक ने कप को उसके हाथ में लगभग फंसाते हुए कहा ---- “मैं समझता हूं कि आज से हमारे बीच विश्वास और समझदारी भी बहुत गहरे तक कायम हो जाएगी। इतनी, कि हम कभी एक-दूसरे पर शक नहीं करेंगे।”
इस बार चांदनी ने कुछ कहना चाहा ।
मगर गले से आवाज नहीं निकल सकी।
जेहन पर रात के दृश्य कुछ स्पष्ट होकर उभरे।
कमरे के अंदर धीरज सिंहानिया से बचने के लिए जब वह दौड़ती - भागती थक गई, निढाल हो गई । चीखते-चीखते गला थक गया लेकिन जब तब भी मदद के लिए कोई नहीं आया तो उसने खुद को धीरज सिंहानिया के हवाले कर दिया था ।
अंतिम बार बैड की ड्राज की तरफ लपकी थी वह और वहां रखी व्हिस्की की बोतल को खोलकर अपने मुंह से लगा लिया था।
हांफता - झांपता सिंहानिया आंखें फाड़े उसे देखता रह गया था और उसके बाद ... उसके बाद चांदनी ने हर विरोध बंद कर दिया था।
उसे नहीं पता कि क्या-क्या हुआ ?
आंखें खुलने पर यहां थी ।
अपने बैडरूम में ।
“चांदनी, चाय पियो न ।” कहने के साथ अशोक बजाज ने अपने कप से एक शिप लिया था ।
चांदनी न कुछ बोल सकी, न कप को होठों की तरफ बढ़ा सकी।
जबकि अशोक ने कहा ---- “उम्मीद है रात तुमने एक नए अनुभव का एहसास किया होगा ! "
वह इस बार भी कुछ न कह सकी । बल्कि अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि अशोक से आंखें तक नहीं मिलाईं उसने । चाय से भरा कप वापस ड्राज पर रखा और बैड से उतरकर कमरे में बिछे कालीन पर खड़ी हो गई। उसके जिस्म पर अब तक भी रात वाला लिबास था। उस वक्त वह बाथरूम के दरवाजे की तरफ बढ़ रही थी जब अशोक ने पूछा----“कहां जा रही हो ?”
जवाब देना तो दूर, चांदनी ने मुड़कर उसकी तरफ देखा तक नहीं। उसके तेवरों पर अशोक जैसे थोड़ा सा ताव खा गया | अपना कप वह भी ड्राज पर रखकर खड़ा होता हुआ बोला ---- “चांदनी।"
उसके लहजे की तल्खी को महसूस करके चांदनी रुक गई।
वह उसके नजदीक पहुंचा।
पीछे से दोनों हाथ उसके कंधों पर रखे और हौले से अपनी तरफ घुमाता हुआ संयत स्वर में बोला ---- “चांदनी, तुम आर्थिक रूप से कमजोर परिवार की बेटी भले ही हो लेकिन पढ़ी-लिखी हो । फिर इस बात को समझ क्यों नहीं रहीं कि कुदरत ने औरत - मर्द के बीच कोई रिश्ता नहीं बनाया । उसने धरती पर केवल आदम और हव्वा उतारे थे, जिनके शारीरिक संपर्क से मानव संतति आगे बढ़ी। मतलब यह हुआ कि 'उसने' दो तरह
के जिस्म इसलिए बनाए ताकि हम इन जिस्मों से आनंद के चर्मोत्कर्ष को छू सकें। इन जिस्मों को इस बंदिश में तो हम लोगों ने... हमारे समाज ने बांधा कि हमबिस्तर केवल पति पत्नी ही हो सकेंगे। यह बकवास भी हमारे दिमागों में इस समाज ने ही ढूंसी कि अगर किसी और के साथ वैसा किया गया तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा, इज्जत लुट गई मान ली जाएगी। कोई लॉजिक नहीं है इस बात का और हम पढ़े-लिखे लोग बगैर लॉजिक की इस बात को क्यों मानें? क्यों बंधे रहें समाज की सड़ी-गली परंपराओं से ?”
चांदनी अब भी कुछ नहीं बोली।
हां, अशोक की तरफ देखते वक्त इस बार उसकी उदास - सी आंखों में हल्का-सा तीखापन जरूर उभर आया था ।
“तुम कुछ बोल क्यों नहीं रहीं?” एक बार फिर अशोक के लहजे में झुंझलाहट झलकी ---- - “तुम्हारी समझ में कुछ आ रहा है या नहीं?”
अपनी आंखों से उसकी आंखों में शूल चुभाती जब वह बोली तो शब्द ब्लेड की धार जैसे पैने थे ---- “एक बात कहूं अशोक ?”
“कहो।”
“जिस्म तो ठीक मेरे ही जैसा तुम्हारी बहन के पास भी है।”
“चांदनी ।” वह गुर्रा उठा।
“सारे ही रिश्ते इंसानों के बनाए हुए हैं... समाज के बनाए हुए हैं । अगर हमारी पढ़ाई-लिखाई उन्हें नकारने की ही तालीम देती है तो सभी को क्यों न नकारें? अगर तुम उसके साथ हमबिस्तर..
“बंद कर।” आपे से बाहर होकर अशोक ने उसके बाल पकड़े और उसके चेहरे को सिर सहित पीछे को खींचता हुआ दांत भींचकर गुर्राया ---- “बंद कर अपनी गंदी जुबान ।”
हालांकि पीड़ा के कारण चांदनी के हलक से चीख निकल जाना चाहती थी लेकिन उसे रोके उसने उसी हालत में कहा ----“बिफर क्यों रहे हो अशोक ? समाज द्वारा बनाए गए रिश्तों को जब तुम मानते ही नहीं हो तो बिफर क्यों रहे हो? तुम्हारी बहन भी तो एक औरत..
“ठीक कहा था मेरे दोस्तों ने।" एक बार फिर वह उसकी बात पूरी होने से पहले ही गुर्र उठा- - “तुम अपने दिमाग का दायरा नहीं बढ़ा सकतीं। भैंस के आगे बीन बजा रहा हूं मैं । "
इस बार वह बोली नहीं ।
पीड़ा से तड़पती चांदनी के होठों पर स्वतः ही ऐसी मुस्कान दौड़ती चली गई जो नश्तर बनकर अशोक के अंदर तक उतर गई थी ।
तिलमिलाता-सा वह बोला ---- “कान खोलकर सुन लो, अपने दिमाग का विस्तार तुम्हें करना ही होगा । इस खुशफहमी में मत रहना कि तुम मुझे छोड़कर चली जाओगी और मैं जाने दूंगा। कान खोलकर सुनो ---- अगर तुमने हमारी पार्टियों का जिक्र किसी से किया तो कुछ भी हो सकता है। कुछ भी । जान तक से हाथ थो सकती हो तुम ।”
खुद पर काबू नहीं रख सका गोपाल मराठा ।
झपटकर दोनों हाथों से गिरेबान पकड़ लिया अशोक का और लगा दहाड़ने----“हरामजादे, जिंदा नहीं छोडूंगा तुझे। जमीन में गाड़ दूंगा | तुम सब आदमी नहीं जानवर हो । जानवर | मेरी मासूम बहन को... मेरी गुड़िया जैसी बहन को तुमने अपनी गंदगी की ऐसी दलदल में... ऐसी दलदल में धकेल दिया जिसके बारे में सोचने तक से शरीफ आदमी को घृणा होती है । तुम्हें तो सचमुच मार देना चाहिए। एक-एक को गोली से उड़ा देना चाहिए ।”
कहने के साथ उसने अशोक के जबड़े पर इतनी जोर से घूंसा मारा था कि वह पीछे वाली दीवार से जा टकराया ।
होंठ फट गया था उसका ।
खून बहने लगा ।
मगर मराठा को होश कहां?
उस पर तो जैसे जुनून सवार था, जैसे पागल हो गया था वह ।
एक बार फिर झपटा।
कालीन पर पड़े अशोक के बाल पकड़े और पूरी बेरहमी से ऊपर उठाने के साथ अपने घुटने की चोट उसकी टांगों के जोड़ पर की।
अशोक डकराकर दुहेरा हो गया ।
गोपाल मराठा इस पर भी बस कर देता तो शायद गनीमत हो जाती लेकिन उसने तो रुकने का नाम ही नहीं लिया।
अशोक बजाज को अपने घूंसों, ठोकरों और टक्करों पर रख लिया उसने। यूं धुन रहा था वह उसे जैसे अशोक हाड़-मांस का नहीं बल्कि भूसे का बना पुतला हो ।
जुनून ने गोपाल मराठा की हालत दरिंदे जैसी कर दी थी ।
सुईट में सिर्फ और सिर्फ अशोक की चीखें गूंज रही थीं।
जब अति हो गई तो विभा ने कहा - - - - “वेद, रोको उसे।”
मैं हिला तक नहीं ।
वह शायद पहला मौका था जब मैंने विभा का कहना नहीं माना ।
“वेद ।” वह चीखी----“क्या हो गया है तुम्हें ? उसे रोकते क्यों नहीं? देखो, वह उसे मार डालेगा । "
“मार डालने दो | मार ही डालने दो आंटी ।" गुस्से के ज्वालामुखी में तब्दील हुआ शगुन दहाड़ उठा ---- “इसी लायक है वो जलील कुत्ता । ये सब साले इसी लायक हैं। छोड़ना नहीं मराठा अंकल । भूसा भर दो साले की खाल में । मैं तो कहता हूं गोली से उड़ा दो।”
“अरे, ये क्या हो गया तुम लोगों को । वेद, सुनते क्यों नहीं?”
फर्क सिर्फ इतना ही था कि शगुन ने कह दिया था और मैं कह नहीं पा रहा था। दिमाग मेरा भी घृणा और गुस्से की आग से भरा पड़ा था। खुद को रोकने के लिए जबड़े भींच लिए थे मैंने ।
मुट्ठियां कस ली थीं ।
मराठा अशोक पर पिला पड़ा था ।
शगुन उसे उक्साए जा रहा था, उसमें जोश भर रहा था ।
“मणिक ।” विभा दहाड़ी ---- “तुम रोको उसे ।”
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