अवंतिका, सुधा, और किरन एकसाथ ठहाका लगाकर हंस पड़ीं। अंदाज चांदनी की खिल्ली उड़ाने जैसा था।
चांदनी अभी उनका मुंह ही ताक रही थी कि अवंतिका बिड़ला ने कहा ---- “कैसी बैकवर्डों वाली बातें कर रही हो चांदनी ?”
“बैकवर्डों वाली ?”
“जिस दुनिया में इस वक्त तुम हो वहां इसे पीना फैशन होता है।"
“फ... फैशन ?”
“ और जो नहीं पीता उसे बैकवर्ड कहा जाता है ।"
“य... ये तुम... ये तुम क्या कह रही हो ?” कहने के साथ चांदनी ने बौखलाकर अशोक बजाज की तलाश में चारों तरफ नजरें दौड़ाईं ।
वह बॉर काऊंटर के नजदीक खड़ा पैग बना रहा था ।
-“अशोक, चांदनी लपककर उसके नजदीक पहुंची और बोली ----- इस पार्टी में शिरकत नहीं करनी । प्लीज... मुझे यहां से ले चलो।"
पैग तैयार कर चुका आशोक बजाज उसकी तरफ घूमा और गिलास उसकी तरफ बढ़ाता हुआ बोला ---- “लो ।”
“अ...अशोक!” चांदनी के हलक से चीख-सी निकल गई, देखती रह गई वह उसकी तरफ - - - - “य... ये तुम क्या कह रहे हो ?”
अशोक बजाज के चेहरे पर उस वक्त गंभीरता के भाव थे। उसने हुक्म देने के-से लहजे में कहा ---- ( -“इसे पकड़ो चांदनी ।”
“अशोक तुम मुझसे... तुम मुझसे शराब पीने के लिए कह रहे हो!” मारे हैरत के चांदनी का बुरा हाल था।
“छोड़ यार ।” धीरज सिहांनिया उनके नजदीक पहुंचता अशोक बजाज से बोला ---- “मैंने तुझसे पहले ही कहा था कि यह तेरा कहना भी नहीं मानेगी। असल में चांदनी उस स्टेंडर्ड की है ही नहीं जिस स्टेंडर्ड में तेरी वजह से आ गई है । "
“क्या मतलब?” चांदनी उसकी तरफ देखकर गुर्राई ।
-“ और बुरा “बुरा मत मानना चांदनी ।” रतन बिडला ने कहामानने की कोई बात है भी नहीं । असल में इस सबके लिए दिमाग खुला होना चाहिए और दिमाग खुलता है परवरिश से । ”
“बिल्कुल ठीक कहा तूने ।” संजय कपाड़िया बोला----“इंसानी दिमाग उसी स्तर तक परिपक्व होता है जिस परिवेश में वह पलकर बड़ा होता है। चांदनी उस परिवेश में पली ही नहीं जिसमें पलने के बाद दिमाग खुलते हैं। इनके परिवेश के लोगों के दिमाग आज भी बंद पड़े हैं। महज हमारे यार से शादी हो जाने के कारण तो ये तकियानूसी विचारों से बाहर नहीं आ सकती न !”
“मैंने तो अशोक से पहले ही कहा था ।” रतन बिड़ला ने उनके नजदीक आते हुए कहा ---- “तब, जबकि इसने अपने पेरेंट्स से चांदनी से शादी करने की जिद की थी। मैंने कहा था कि दोस्त, शादी अपने स्टेंडर्ड की लड़की से करनी चाहिए । बाद में, दिमाग विकसित न होने के कारण बहुत सी दिक्कतें आती हैं। पर इसने अपने परेंट्स के साथ-साथ मेरी भी एक नहीं सुनी । "
“उस वक्त मुहब्बत का भूत जो सवार था अपने इस पर।” एक बार फिर कपाड़िया ने कहा ---- “वह भूत होता ही ऐसा है कि अच्छे से अच्छे आदमी की बुद्धि हर लेता है। उस वक्त इसकी समझ में यह बात कहां आने वाली थी कि मीडियम क्लास में पली-बढ़ी लड़की इसकी कंपनी में एडजेस्ट नहीं हो सकती ।”
मारे गुस्से के चांदनी का चेहरा सुर्ख हो गया ।
अशोक बजाज की भी यही हालत नजर आ रही थी ।
लेकिन सिर्फ नजर ही आ रही थी । असल में वह गुस्से में नहीं था । वह सब तो केवल चांदनी को दिखाने के लिए था । उसने सचमुच गुस्से की आग में सुलगती चांदनी का बाजू पकड़ा और घसीटता - सा उन सबसे दूर ले जाकर दांत भिंचे लहजे में बोला- “प्लीज चांदनी | प्लीज | मेरी सोसाइटी में मेरी बेइज्जती मत कराओ।”
“अरे?” मारे हैरत के चांदनी का बुरा हाल था ---- “शराब पीने से इंकार करके मैं तुम्हारी बेइज्जती करा रही हूं?”
“हां | समझने की कोशिश करो।" बजाज के दांत अब भी भिंचे थे----“हम लोग जिस सोसाइटी का हिस्सा हैं वहां व्हिस्की न पीना छोटी सोच का परिचायक है। खिल्ली मत उड़वाओ मेरी ।”
चांदनी इस तरह अशोक के चेहरे की तरफ देखती रह गई जैसे जादूगर के हाथ में जादू के जोर से पैदा हो गए कबूतर को देख रही हो। मुंह से निकला-- -- “त... तुम्हारी कहां अशोक...तुम्हारे दोस्त तो मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं। मेरी बेइज्जती कर रहे हैं और तुम..
“वही तो ।” बजाज ने उसकी बात काटी- -“वही तो कह रहा हूं मैं तुम्हारी खिल्ली उड़ना मेरी बेइज्जती होना है।" ————
“ पर वे मुझे..
“वे ठीक कह रहे हैं।" एक बार फिर अशोक बजाज ने चांदनी को नहीं बोलने दिया ---- “अब तुम मीडियम क्लास कामता प्रसाद की बेटी नहीं बल्कि अशोक बजाज की बीवी हो । इस देश के चंद बड़े घरानों में से एक बजाज घराने की बहू । तुम्हें वैसा ही बिहेव करना चाहिए। समझने और महसूस करने की कोशिश करो कि तुम क्या बन चुकी हो और किस स्टेटस के लोगों के बीच खड़ी हो।"
“अशोक ।” वह उसकी तरफ ऐसी नजरों से देख रही थी जैसे उसके चेहरे को नहीं बल्कि सिर पर अचानक नजर आने वाले सींगों को देख रही हो ---- “ये कैसा स्टेटस है! कैसा स्टेंडर्ड है जहां मुझे खुद को तुम्हारी बीवी साबित करने के लिए शराब पीनी जरूरी है !”
“जो खुद को जैसे देश वैसे वेष में नहीं ढाल सकता वह कभी तरक्की नहीं कर सकता । तुम मुझसे बहुत पीछे रह जाओगी चांदनी ।”
उसकी इस बात पर चांदनी कुछ बोल नहीं सकी।
बस देखती रह गई उसे ।
जैसे किसी अजनबी को देख रही हो ।
और फिर... उसने झपटने के-से अंदाज में अशोक बजाज के हाथ से गिलास लिया और अपने गुलाबी होठों से लगाकर एक ही सांस में पीती चली गई । उसकी यह हरकत देखकर अशोक बजाज को कहना पड़ा ---- "संभलकर... संभलकर | फंदा लग । जाएगा।”
पर अब!
चांदनी ने उसकी एक न सुनी।
गिलास होठों से तभी हटाया जब खाली हो चुका ।
ऐसा करने के बाद उसने तीखी दृष्टि से अशोक बजाज की तरफ देखा और फिर गिलास को एक तरफ उछालकर बॉर काऊंटर की तरफ बढ़ गई । उस वक्त वह व्हिस्की की बोतल से एक नए गिलास में व्हिस्की डाल रही थी जब लॉन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
वहां पहले से मौजूद लगभग सभी लोग तालियां बजा रहे थे जबकि लपककर उसके नजदीक पहुंचे बजाज ने कहा ---- “इस तरह नहीं चांदनी, इसमें बर्फ, पानी या सोड़ा मिलाकर पीते हैं ।”
चांदनी ने अपनी कोहनी से उसे परे धकेल दिया ।
अब वे फार्म हाऊस की इमारत के अंदर थे।
बेशकीमती फर्नीचर से सजे एक बहुत बड़े हॉल में ।
उस हॉल की छत करीब पच्चीस फुट ऊपर थी । गुम्बदाकार छत के अंदरूनी हिस्से में, ठीक बीचों-बीच एक कुंदा लगा था और कुंदे से कनेक्टिड जंजीर के निचले सिरे में लटका हुआ था एक फानूश | क्रिस्टल का बना, लाखों रुपए की कीमत का फानूश था वह । उसमें रौशन बल्बों की रोशनी ने हॉल में दिन जैसा उजाला फैला रखा था । दीवारों पर लगी 'फैंसीज' भी रौशन थीं ।
उनकी रोशनी में साफ चमक रही थीं विभिन्न दीवारों पर लगी अनेक पेंटिंग्स। वे पेंटिंग्स दुनिया के माने हुए आर्टिस्टों द्वारा बनाई गई थीं। उनके द्वारा जिनके बारे में सबको मालूम था कि उनकी एक-एक पेंटिंग की कीमत लाखों में होती है |
सभी पेंटिंग्स में एक बात कॉमन थीं। यह कि उनमें औरत-मर्द के जिस्मों को उकेरा गया था । यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि कला के अद्भुत नमूनों के बहाने से वह सबकुछ दिखा दिया गया था जिसे अजंता-एलोरा की गुफाओं की कलाकृतियों में, उनके कलाकार दिखाने से चूक गए थे। हॉल की दीवारों में चारों तरफ अनेक कमरों के दरवाजे नजर आ रहे थे। फिलहाल वे बंद थे | जाने कहां-कहां छुपे माइक्स के जरिए, वहां धीमा-धीमा संगीत गूंज रहा था । केवल संगीत । उसमें किसी गीत के बोल नहीं थे । मगर वह संगीत ही अपने आपमें बेहद कामुक था | मौजूद जोड़े उस संगीत की धुनों पर थिरक से रहे थे । एक बॉर-काऊंटर उस हॉल में भी था | बॉर - काऊंटर के नजदीक एक ट्राली रखी हुई थी । ट्राली पर था ---- कांच का बना एक बहुत बड़ा जार। सिंहानिया उस ट्राली को धकेलता हुआ हाल के मध्य की तरफ ला रहा था। उसके कदमों में हल्की सी लड़खड़ाहट थी । उतनी लड़खड़ाहट तो वहां मौजूद हर 'जीव' के कदमों में थी। चांदनी की हालत कदमों की लड़खड़ाहट से आगे की थी । अपना सिर उसे बुरी तरह घूमता-सा महसूस हो रहा था। दोनों हाथों से वह अशोक बजाज का बाजू थामे हुए थी। कुछ ऐसे अंदाज में जैसे ऐसा खुद को गिरने से बचाने के लिए कर रखा हो । वह भले ही अपने पति के साथ हो लेकिन अन्य कोई भी उसे अपने पति के साथ नजर नहीं आ रही थी । किरन सिंहानिया रमेश भंसाली की बांहों में बांहें डाले उत्तेजक संगीत पर उत्तेजक अंदाज में थिरक रही थी तो सुधा भंसाली रतन बिड़ला की बांहों में। चांदनी अपनी आंखों से देखने के बावजूद इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रही थी कि अवंतिका संजय कपाड़िया की बांहों की शोभा बनी हुई थी। उसे लगा था कि नशे के कारण उसे सबकुछ उल्टा-पुल्टा नजर आ रहा है।
धीरज सिंहानिया ने ट्राली हाल के बीचों-बीच लाकर रोक दी और सभी को संबोधित करता हुआ ऊंची आवाज में बोला ---- “अब हम इस जार को... पूरे जार को बीयर से भरेंगे।”
“ उसके बाद क्या होगा ? ” कहने के बाद मंजू कपाड़िया ने अपनी अंगुलियों में मौजूद सिगरेट में कश लगाया था।
“जो भी होगा, सबके सामने होगा और हमेशा की तरह एकदम फेयर होगा ।” ये शब्द किरन सिंहानिया ने कहे थे----“मैंने और धीरज ने पिछली पूरी रात जागकर ये दिलचस्प खेल सोचा है । "
“बताओ तो सही सिंहानिया ।” ठहाके के बाद अवंतिका ने पूछा था----“जार में बीयर डालने के बाद क्या होगा ?”
“वह सस्पेंस बाद में खुलेगा। पहले हम सबको इसे बीयर से भरना है।” कहने के बाद वह वापस बॉर - काऊंटर की तरफ बढ़ा।
उसके पीछे लगभग सभी उस तरफ बढ़ गए थे ।
अशोक भी चांदनी को संभाले उस तरफ बढ़ा।
सभी ने ओपनर्स से बीयर की बोतलें खोलीं और जार के करीब पहुंचकर उन्हें उसमें खाली कर दिया ।
अशोक और अशोक के इशारे पर चांदनी ने भी वैसा ही किया ।
अब वह किसी भी मामले में अशोक के दोस्तों से पीछे नहीं रहना चाहती थी । नशे की तरंग में उसके जेहन पर एक ही बात सवार हुई थी ----यह कि अशोक के दोस्तों की सोसाइटी में उसे अपने पति की बेइज्जती नहीं होने देनी है।
कांच के पारदर्शी जार को पूरा भरने के लिए हरेक को कई-कई बार, बॉर - काऊंटर से लेकर जार तक के चक्कर काटने पड़े थे।
जार भर गया।
उसके ऊपरी हिस्से से बीयर के उफनते से झाग ट्राली के टॉप पर गिरने लगे तो सिंहानिया ने कहा ---- “अब हम सबको अपनी गाड़ी की चाबियां इस जार में डाल देनी हैं । इस तरह ।” कहने के साथ उसने जेब से अपनी गाड़ी की चाबी निकालकर जार में डाल दी।
“इससे क्या होगा ?” रतन बिड़ला ने पूछा ।
“चाबी उसमें डालो तो सही डार्लिंग ।” किरन बोली---- “जो होगा दिलचस्प होगा और सबको पसंद आएगा।"
“ओ. के. ।” कहने के साथ रतन बिड़ला आगे बढ़ा और जार के नजदीक पहुंचकर अपनी गाड़ी की चाबी उसमें डाल दी।
रमेश भंसाली और संजय कपाड़िया ने भी वैसा ही किया।
किरन सिंहानिया ने ने अशोक बजाज से कहा---- “अब केवल तुम रह गए हो बजाज । अपनी चाबी भी जार में डालो।”
उसने भी आगे बढ़कर अपनी चाबी जार में डाल दी।
उसके ऐसा करते ही चांदनी के अलावा बाकी सभी लोग खुशी से ताली बजा उठे थे और वह अवंतिका बिड़ला थीं जिसने तालियों की गड़गड़ाहट थोड़ी कम होने पर कहा ---- “हम सब पूरी गर्मजोशी से अपने इस क्लब में तुम्हारा स्वागत करते हैं बजाज । "
अशोक बजाज केवल मुस्कराकर रह गया ।
सिंहानिया ने ऊंची आवाज में पूछा ---- “जार में पड़ी चाबियां किसी को चमक तो नहीं रही हैं दोस्तो?”
“नहीं।” लगभग सभी ने एकसाथ कहा ।
“ अब हर लड़की जार में हाथ डालकर एक चाबी निकालेगी ।
जिसके हाथ में जिसकी चाबी आएगी, आज पूरी रात के लिए उसकी 'चाबी' उसी की हो जाएगी ।”
“हुर्रे!” एकसाथ सभी ने नारा-सा लगाया ---- “क्या गेम है!”
“लेकिन हमेशा की तरह यह नियम आज भी लागू रहेगा कि अगर इत्तफाक से किसी लड़की के हाथ में अपने पति की चाबी आ जाएगी तो उसे चाबी को वापस जार में डालकर दूसरी चाबी उठानी होगी।” यह बात किरन सिंहानिया ने कही ।
“मंजूर ।” कहने के साथ झूमती-सी मंजू कपाड़िया जार की तरफ बढ़ी- “सबसे पहले मैं चाबी निकालूंगी ।”
और फिर... उसने अपना हाथ कोहनी तक जार में डालकर घुमाया। उसकी अंगुलियां जार में पड़ी चाबियों पर थिरक रही थीं।
एक- एक बार उसने सभी पांच चाबियों को छेड़ा और फिर झटके से उनमें से एक चाबी को मुट्ठी में भींचकर हाथ बाहर निकाल लिया।
चाबी को देखा और उसे देखते ही प्रसन्नता भरे आवेग में चीख पड़ी ---- “रतन । आज रात का मेरा साजन... रतन बिड़ला ।”
“हुर्रे!” दोनों हाथ हवा में उठाकर रतन बिड़ला ने इस तरह नारा सा लगाया जैसे उसकी लाटरी निकल आई हो।
चांदनी और अशोक के अलावा बाकी सभी लोग खुश होकर तालियां बजाने लगे थे जबकि मंजू कपाड़िया दोनों बांहें पसारकर रतन बिड़ला की तरफ लपकती-सी बोली ---- -“कितनी पार्टियां हो चुकी हैं जानेमन, हर पार्टी में मेरी ख्वाहिश तुम्हें साजन बनाने की होती थी लेकिन किस्मत साली धोखा दे जाती थी मगर आज..
“ठीक कहा डार्लिंग ।” रतन बिड़ला ने उसकी तरफ लपकते हुए कहा----“आज हमारी किस्मत के दरवाजे खुल गए हैं। मैं भी पहली रात से ही तुम्हें अपनी अंकशयनी बनाने के लिए मरा जा रहा था । "
इन शब्दों के साथ दोनों गले मिले।
गले क्या मिले, दोनों ने एक-दूसरे को कसकर बांहों में भींच लिया और... यदि यहीं पर बस हो जाती तब भी शायद चांदनी के समझने में कोई कसर रह जाती मगर बात यहां से भी आगे बढ़ चुकी थी ।
एक झटके से मंजू कपाड़िया और रतन बिड़ला के होंठ मिले |
वातावरण में तालियों की गड़गड़ाहट और तेज हो गई थी।
चांदनी बौखलाई।
नशे में धुत्त अपनी आंखों से उसने अवंतिका बिड़ला और संजय कपाड़िया की तरफ देखा और... वह और ज्यादा बौखला उठी।
जो दृश्य उसने देखा उसे देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि उसकी आंखें वही देख रही हैं । वे दोनों इस तरह खुश होकर तालियां बजा रहे थे जैसे स्टेज पर चल रहे किसी कामयाब 'शो' को देखा हो ।
संजय अपनी बीवी को रतन बिड़ला की बांहों में देखकर खुश था और अवंतिका अपने पति को मंजू कपाड़िया की बांहों में देखकर।
कैसे हो सकता है ऐसा ?
चांदनी कैसे यकीन कर लेती कि वही हो रहा है जो उसकी आंखें देख रही हैं? कहां गया वह कल्चर जिसके तहत भारतीय पुरुष राह चलते अपनी पत्नी पर फब्ती कसने वाले तक को लहूलुहान कर देता था? पत्नी अपने पति को दूसरी औरत की बांहों में देखकर शर्मसार हो जाती थी ? मगर... जो हो रहा था, सो हो रहा था और चांदनी उस सबको देखने के लिए मजबूर थी ।
बस अभी तक भी यही यकीन नहीं आ रहा था उसे कि इस सबको वह साक्षात् देख रही है या सपने में ?
पलटकर अशोक की तरफ देखा उसने और उस वक्त तो उसके देवता ही कूच कर गए जब उसे भी खुश होकर ताली बजाते पाया ।
इससे पहले कि वह कुछ कहती, हॉल में अवंतिका बिड़ला की आवाज गूंजी ---- “अब मेरा नंबर है ।”
चांदनी की निगाह उसकी तरफ उठी।
अवंतिका इस तरह हाथ उठाए बीयर से भरे जार की तरफ बढ़ रही थी जैसे क्लास में किसी स्टूडेंट ने टीचर के किसी सवाल का जवाब देने के लिए हाथ उठा रखा हो ।
जार के चारों तरफ खड़े वे हंसी-ठट्ठे के साथ तरह-तरह के कामेंट्स कर रहे थे। हजार सस्पेंस बनाती अवंतिका ने जार में हाथ डाला। बहुत देर तक उसे उसी में घूमाती रही।
जब काफी देर हो गई तो किरन सिंहानिया ने कहा ---- “अरी जल्दी कर, मुझे बेताबी से अपने नंबर का इंतजार है ।”
“ ढूंढने दो किरन ।” रमेश भंसाली बोला ---- “वो मेरी चाबी ढूंढ रही है। पिछली बार उसने कहा था कि जो मजा मैंने दिया है वो उसने पहले कभी किसी से नहीं पाया ।”
एक बार फिर चारों तरफ ठहाके ।
अवंतिका ने जार से जब अपना हाथ निकाला तो उसकी मुट्ठी बंद थी । उसी हाथ के अंगूठे से उसने रमेश भंसाली को ठेंगा दिखाया।
“अरे खोल न मुट्ठी । ” मंजू कपाड़िया ने कहा ।
अवंतिका ने मुट्ठी खोली ।
चाबी को देखा, लेकिन नाम की घोषणा नहीं की।
‘वॉव' कहकर चाबी को वापस मुट्ठी में भींचा। दोनों हाथ अपने वक्ष-स्थल पर रख लिए और अशोक बजाज की तरफ बढ़ने लगी।
वह वासनामयी नजरों से अशोक को देख रही थी ।
सभी समझ गए ---- उसके पास अशोक की गाड़ी की चाबी है ।
और अशोक बजाज का दिल यूं पसलियों पर सिर टकराने लगा था जैसे वह अभी-अभी देहरादून से दौड़कर मसूरी पहुंचा हो ।
चांदनी जैसे कुछ समझ ही नहीं पा रही थी ।
अशोक की आंखों में झांकती अवंतिका उसके नजदीक पहुंची ।
बेहद नजदीक ।
अशोक की नजरें भी उसी पर जमीं थीं और दिलोदिमाग में चल रही थी आंधी---- इस विचार की आंधी कि अवंतिका बिड़ला जब उससे लिपटेगी तो चांदनी की क्या प्रतिक्रिया होगी !
मगर ।
ऐन वक्त पर अवंतिका ने पेंतरा बदला और अशोक के ठीक बगल में खड़े संजय कपाड़िया से जा लिपटी ।
तब लोगों की समझ में आया कि उसके पास अशोक की नहीं बल्कि संजय की कार की चाबी है। सभी तालियां बजा उठे । संजय ने अवंतिका का स्वागत उसे अपनी बांहों में भरकर किया था।
इस तरह, किरन सिंहानिया के हिस्से में रमेश भंसाली आया ।
अशोक बजाज को जब यह पता लगा कि सुधा भंसाली के हाथ उसकी गाड़ी की चाबी लगी है तो... उसे तो मानों मनचाही मुराद मिल गई । बहरहाल 'लीला कांटीनेंटल' में उसे देखने के कारण ही तो वह यहां था! यह तो उसने सोचा भी नहीं था कि उसकी मुराद पहली बार में ही पूरी हो जाएगी। सुधा ने उसके नजदीक आकर जब अपने सुलगते होंठ उसके होठों पर रखे और चांदनी जंगली बिल्ली की मानिंद उस पर झपटने ही वाली थी कि ----
“हुर्रे !” अपने स्थान से उछलकर सबसे जोरदार नारा सिंहानिया ने लगाया था ----“बगैर चाबी निकाले आज की इस महफिल की मलिका मेरी हुई क्योंकि अब जार में केवल मेरी चाबी है । ”
इससे पहले कि चांदनी कुछ समझ पाती धीरज सिंहानिया ने उसे कुछ यूं झपटकर दबोच लिया जैसे बाज ने कबूतरी को दबोचा हो ।
“क... क्या कर रहे हो ये ? हटो । छोड़ो मुझे ।” चीखने के साथ चांदनी नाम की कबूतरी उसके बंधनों में छटपटाई ।
मगर धीरज भला उसे कहां छोड़ने वाला था ? उस वक्त वह अपने होंठ चांदनी के होठों पर रखने की नाकाम कोशिश कर रहा था जब चांदनी चिल्लाई ---- “बचाओ। अशोक... बचाओ मुझे।”
पर अशोक की बांहों में तो सुधा थीसुधा भंसाली ।
जिसने उसकी रातों की नींद उड़ाकर रख दी थी ।
वह खामोश खड़ा धीरज की बांहों में मचलती अपनी पत्नी को देखता रहा और एक वक्त ऐसा आया जब चांदनी ने धीरज को जोर से धक्का दिया। इतनी जोर से कि धीरज खुद को संभाल नहीं सका।
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