मीना रमानी ने अपनी ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठकर चेहरा और बाल संवारने शुरू कर दिये ।
रंजीत ने टेबल पर करीने से सजी इम्पोर्टेड कास्मेटिक्स की दर्जनों कीमती बोतलों पर उचटती सी नजर डाली ।
बिस्तर पर बैठा दयाशंकर आश्चर्यजनक रूप से प्रसन्न था । उसने रंजीत की ओर देखा ।
–"बुरी तरह पछताओगे, इंसपेक्टर ।"
रंजीत महिला कांस्टेबल से मुखावित हुआ ।
–"सब ठीक है ?"
वह व्यंगपूर्वक मुस्करायी ।
–"यस, सर ! मुझे पहली बार पता चला है दयाशंकर जैसा विलन भी जनाना अण्डरवीयर पहनता है ।"
–"इसका धंधा ही ऐसा है ।" महिला कांस्टेबल मुंह बनाकर मीना की ओर चल दी ।
–"इतनी लीपापोती और सजधज क्यों कर रही हो ? तुम्हें पुलिस हैडक्वार्टर्स जाना है, किसी पार्टी में नहीं ।"
बालों में हेयर ब्रश चलाती मीना का हाथ रुक गया ।
–"यह बड़ा ही खास मौका है–पार्टी से भी ज्यादा ! मैं आज पुलिस विभाग के एक फसादी इंसपेक्टर के होश उड़ा दूंगी । उसकी छुट्टी हो जायेगी ।"
–"जल्दी करो ।"
–"इसे जितना वक्त लगाना है ।" रंजित हाथ उठाकर बोला–"लगाने दो । हमें भी कोई और काम नहीं है ।"
वह उन टेप्स के बारे में सोच रहा था जो किसी दूसरे कमरे में होंगे और जिनमें दिलचस्प एवीडेंस मौजूद होंगे–मीना रमानी और उसके क्लायंटों से ताल्लुक रखने वाले ।
वह ड्राइंगरूम में आ गया ।
नये हैडक्वार्टर्स फोन किया । वर्मा वहां नहीं था । इसलिये मैसेज छोड़ दिया–मीना रमानी के अपार्टमेंट की तलाशी के लिये सर्च वारंट हासिल किया जायेगा ।
वापस बेडरूम में आकर मीना के तैयार होने का इंतजार करने लगा ।
मीना रमानी और दयाशंकर सहित बेडरूम से निकलकर रंजीत ने नोट किया दयाशंकर ने चोर निगाहों से टेपरिकार्डर की ओर देखा और बड़े राजदाराना ढंग से मुस्कराता हुआ अपार्टमेंट से बाहर आ गया ।
* * * * * *
होटल एंबेसेडर में दिनेश ठाकुर के सुईट से टेप की गयी टेलीफोन वार्तालाप का विवरण ।
समय : तीन बजकर छत्तीस मिनट (रात्रि)
होटल आप्रेटर–"मिस्टर ठाकुर, यूअर कॉल टु दुबई ।"
दिनेश ठाकुर–"पुट इट थ्रू, प्लीज ।"
दुबई नम्बर–"हू इज दैट, प्लीज ?"
दिनेश ठाकुर–"इज दी मैनेजिंग डाइरेक्टर देअर ?"
दुबई नम्बर–"हू इज दैट, प्लीज ?"
दिनेश ठाकुर–दिस इज अर्जेंट ! इट्स दिनेश ! इज...?"
दुबई नम्बर–"दिनेश, व्हाई आर यू कालिंग...?"
दिनेश ठाकुर–"इज ही देअर ?"
दुबई नम्बर–"ही हैज लैफ्ट टू आवर्ज एगो ।"
दिनेश ठाकुर–"व्हेन डू यू एक्सपैक्ट हिम बैक ?"
दुबई नम्बर–"ही इज ऑन हिज वे...यू नो...!"
दिनेश ठाकुर–"ऑन दी सेम ट्रिप ही वाज प्लानिंग ?"
दुबई नम्बर–"यस...यस...व्हाट्स दी मैटर ?"
दिनेश ठाकुर–"कैन यू कांटेक्ट हिम ?"
दुबई नम्बर–"नो, वी कांट ! ही विल कांटेक्ट व्हेन ही रीयूस
देअर ।"
दिनेश ठाकुर–"ही इज आलरेडी ऑन हिज वे ?"
दुबई नम्बर–"यस...!"
दिनेश ठाकुर–"यू कांट कांटेक्ट हिम ?"
दुबई नम्बर–"नो...नो वे, दिनेश ! व्हाट इज अप ?"
दिनेश ठाकुर–"ओह, गॉड...!"
दुबई नम्बर–"टैल मी...!"
दिनेश ठाकुर–"यू नो आई कांट । नॉट ऑन दिस लाइन ।"
दुबई नम्बर–"ओ० के० !"
दुबई से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया ।
* * * * * *
फारूख हसन ने...।
खुद को स्ट्रीट लाइटों से दूर रखते हुये अंधेरे में छिपते–छिपाते करीब तीन मील का फासला पैदल चलकर तय किया । वह अभी भी मन ही मन उबल रहा था । उसके चेहरे और कपड़ों पर लगा माला का खून सूख चुका था ।
वह बंद दरवाजे के साये में खड़ा उस अपार्टमेंट हाउस को देख रहा था, जिसमें उसे जाना था ।
भोर का उजाला फैलना शुरू हो गया था और ज्यादा देर छिपा वह नहीं रह सकता था ।
सड़कों पर आमदरफ्त शुरू हो गयी थी । किसी ने भी उसे देख लेना था । हालांकि उसका कोई कसूर नहीं था फिर भी देखने वाले ने खून के बारे में जरूर पूछना था ।
उसने जल्दी–जल्दी सड़क पर दोनों ओर निगाह डाली फिर दौड़ पड़ा ।
सड़क पार करके इमारत में घुस गया ।
संयोगवश प्रवेश हॉल खाली था और लिफ्ट नीचे ही थी ।
वह लिफ्ट में सवार हुआ और सातवे खण्ड का बटन दिया । उसकी मांसपेशियां तनी थीं । दायीं कनपटी पर एक नस लगातार फड़क रही थी । मुट्ठियां भींचे वह तैयार था–दरवाज़ा खुलते ही सामने आने वाले किसी भी शख्स या चीज से टकराने के लिये ।
अचानक शुरू हुये हिंसा के तांडव वाले स्थल से पैदल सफर के दौरान वह लोगों की बजाये चीजों से डरता रहा था । लोगों की कोई परवाह अब उसे नहीं थी । वह अपने दिमाग में घुमड़ती अजीब–सी आकृतियों को लेकर परेशान था । अंधेरे में अपना पीछा करते उनकी झलक उसने देखी थी ।
फारूख हसन के लिये ये नई बात नहीं थीं । वह पहले भी रातों में उन्हें देख चुका था लेकिन इतनी साफ कभी नहीं देखी थीं । वह एक मुद्दत से यह भी जानता था कि कैसे उन्हें शांत करके अपने दिलो–दिमाग से मिटा सकता था । पहले कभी उसे ऐसा नहीं करना पड़ा था । लेकिन इस दफा करना होगा । क्योंकि यह उन छायाकृतियों की मांग थी । उसे यकीन था एक बार ऐसा करते ही वे दिमाग से मिट जायेंगी । नजर आना बंद कर देंगी । वे पहले भी उसे उकसाती रही थीं । जब भी किसी जवान छोकरी को पहलू में लिये वह गहरी नींद में सोया होता था, वे उकसाया करती थीं और वह जाग जाता, था । उसका सारा शरीर पसीने से तर हो जाया करता था ।
अब वह उनसे छुटकारा पाकर ही रहेगा । इसका सिर्फ एक ही तरीका था । वही वह करेगा । उसकी आंखों में वहशियाना चमक उभरकर रह गयी ।
लिफ्ट सातवें खण्ड पर जा रुकी ।
दरवाज़ा खुला ।
बाहर या आसपास कोई नहीं था ।
वह लिफ्ट से निकलकर अपार्टमेंट के सामने जा पहुंचा ।
डोरबैल बटन दबाया और दबाता चला गया ।
–"ओह, गॉड । कौन है ?" अंदर से आवाज़ आयी ।
चार्ली ने मैजिक आई से आँख सटाकर देखा ।
दरवाज़ा खोल दिया ।
चार्ली तौलिया लपेटे सामने हैरान खड़ा था ।
–"क्या हुआ, फारूख भाई ?"
फारूख उसे धकेलकर अंदर आया । दरवाज़ा पुनः बंद कर दिया ।
चार्ली अंदर जाने के लिये पलटा ।
फारूख ने फौरन अपने खुले हाथ का सिरा उसकी गरदन के पृष्ठभाग पर जमा दिया ।
चार्ली तेज झटका खाकर औंधे मुंह नीचे गिरा । उसका सर भड़ाक से फर्श से टकराया और चेतना गवां बैठा ।
फारूख जानता था उसे ख़त्म करना जरूरी नहीं था । लेकिन जिस केन्द्र बिन्दु पर उसका मस्तिष्क सक्रिय था उसने आदेश दिया–नृशंस कुकृत्य का कोई गवाह मत छोड़ो ।
उसके पास अपने खाली हाथों के अलावा कोई हथियार नहीं था । उन्हें ही इस्तेमाल करना होगा ।
वह चार्ली को पीठ के बल उलटकर उसकी छाती पर सवार हो गया ।
गला हाथों में दबोचकर दबाना शुरू कर दिया ।
तब तक दबाता रहा जब तक कि पूरी तरह यकीन नहीं हो गया चार्ली मर चुका था ।
फारूख धीरे–धीरे उठकर खड़ा हुआ । पलटकर बेडरुम की ओर बढ़ गया । जहां से रमोला पुकार रही थी ।
–"चार्ली, कौन है ? कौन आया है, चार्ली ?"
* * * * * *
अनवर हसन...!
कालका प्रसाद को अपने साथ हसन हाउस ले गया । शोफर गुलशन ही था । नजमा भी उनके साथ थी ।
कालका प्रसाद, करन और बद्री को भी साथ लाया था ।
उन्होंने ब्लू मून में मैसेज छोड़ दिया था ताकि उस्मान लंगड़ा पुलिस हैडक्वार्टर्स में उनके सोर्स से सम्पर्क करके उन्हें कांटेक्ट कर सके ।
अनवर हसन पुलिस की गतिविधियों को लेकर बहुत ज्यादा फिक्रमंद नहीं था, हालांकि उसके दिमाग का एक हिस्सा चेतावनी दे रहा था, उसे होना चाहिये । ठोस सूचना की जरूरत भी उसे नहीं थी । वह अपने भाई को लेकर बेहद चिंतित था ।
ब्लू मून के बाहर हुआ नरसंहार किसी को भी चिंतित करने के लिये पर्याप्त था ।
लड़की माला और मैनेजर मुजफ्फर बेग मर चुके थे । क्लब की अधिकांश खिड़कियों का कांच टूट गया था । लेकिन कांच दोनों मृतकों से ज्यादा कीमती था उसके लिये । खिड़कियों को फिर से ठीक कराने के लिये मोटा खर्चा दरकार था ।
स्वयं को शान्त रखने की कोशिश करने के बावजूद इस असलियत से मुंह फेर पाना या नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन था कि पुलिस और डिसूजा पूर्णतया सक्रिय थे ।
विस्फोट के बाद पूरे इलाके को पुलिस ने घेर लिया था । इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं थी मगर अपने आप में खतरे का सूचक जरूर था । फिर भी बार–बार एक ही अहसास होता रहता था । उसकी परेशानी और फिक्र की बड़ी वजह था–भाई । फारूख गायब था ।
एक पुलिस वाले ने यह तक संकेत दे दिया था कि वह मर गया हो सकता था । उसके चिथड़े उड़ गये हो सकते थे । हालांकि ऐसा हुआ लगता नहीं था ।
अनवर को पूरा यकीन था फारूख जिंदा है । खफा होकर अलग हो गया था और अकेला था । यही अपने आप में भारी चिंता का विषय था ।
एक और भी बात भयानक दुःस्वप्न की तरह उसे सता रही थी । डिसूजा के उनकी जिंदगी में आने से पहले तक सारा सिलसिला आसानी से और बढ़िया चल रहा था । हालात सही थे । कोई खास परेशानी नहीं थी । पुलिस का कांटा उनके अंदर चुभा रहता था लेकिन उनके धंधों में यह मामूली बात थी । देर–सबेर पुलिस से निपटारा हो ही जाता था । पैसे से मुंह बंद करके या थोड़ी कुर्बानी देकर मसलन, दो एक मामूली प्यादों को उनके हवाले कर दिया जाता । पुलिस उन पर छोटे–मोटे आरोप साबित करके उन्हें साल–दो साल के लिये जेल भिजवा देती और खाना पूरी करके कुछ अर्से के लिये खामोश बैठ जाती ।
शूटिंग और एक्सप्लोजन के बाद पुलिस ने ढेरों सवाल किये
इसके लिये भी हरामजादा डिसूजा ही जिम्मेदार था । उस कमीने के इन्वाल्व होने के बाद से बहुत कुछ हो चुका था ।
अनवर ने हिसाब लगाया । चार दुबई वाले मारे गये थे–दो को कालका प्रसाद ने अकबर होटल में शूट किया था और दो ब्लू मून के बाहर कार विस्फोट में खत्म हो गये । उनके अपने दो आदमी मर चुके थे । बेमिसाल कार ड्राइवर जवान राकेश मोहन की मौत का उसे जितना दुःख हुआ था उतना ही उसके साथ कार विस्फोट में मारे गये पुलिस वालों को लेकर वह चिंतित था । अंडरवर्ल्ड के बाकी लोगों की तरह अनवर भी जानता था कि पुलिस वालों का इस तरह मारा जाना पुलिस विभाग कभी बर्दाश्त नहीं करता । देर–सबेर उनका कहर अपराध जगत पर टूट ही पड़ता है ।
बलदेव मनोचा के बारे में भी अनवर नाखुश था । लेकिन वो जरूरी था । उसे टाला नहीं जा सकता था । उसी तरह असगर अली के बारे में भी कुछ करना होगा । इसे भी ज्यादा देर टाला नहीं जा सकेगा ।
मुजफ्फर बेग की मौत एक इत्तिफाकिया हादसा थी ।
फिर उसे याद आया परवेज अहमद । परवेज से न तो उनका खून का रिश्ता था और न ही वह उन जैसा था । जरायम की दुनिया से कतई कोई रिश्ता उसका नहीं था । उसे इन सबसे दूर ही रखा था उन्होंने । लेकिन मादर...डिसूजा ने उस भले लड़के को भी खत्म करा दिया ।
डिसूजा हर लिहाज से निहायत कमीना आदमी था ।
लेकिन अनवर की असल चिंता अब फारूख को लेकर थी । फारूख गायब और अकेला था और यह उन सबके लिये खतरनाक साबित हो सकता था ।
कालका प्रसाद ने अपने कुछ आदमी फारूख की तलाश में लगा दिये थे लेकिन अभी तक उसका कोई पता नहीं लग सका । फिलहाल इससे ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता था ।
अनवर अपने काफ़िले के साथ हसन हाउस में दाखिल हुआ । अब रणनीति तैयार करने का वक्त आ गया था । डिसूजा से निजात पाने का तरीका सोचना जरूरी था ।
अनवर ने नजमा को ऊपर जाकर आराम करने के लिये कह दिया ।
–"तुम्हें आराम की जरूरत है, बेबी !" मुस्कराकर बोला–"यहां का काम निपटाकर मैं तुमसे निपटूंगा ।"
कालका प्रसाद, करन और बद्री जोर से हंस पड़े । हसन भाइयों के मज़ाक पर हंसना जरूरी था ।
वह चली गयी ।
नजमा को टरकाना आसान था ।
लेकिन हसीना बेगम को नहीं बहलाया जा सकता था । उसने उन लोगों को आते सुन लिया था ।
पंद्रह मिनट बाद वह दरवाजे में प्रगट हुई । कीमती गाउन पहने । इतनी रात गये भी उसके सुंदर चेहरे पर ताज़गी थी ।
–"क्या हो रहा है ?" उसने दो टूक लहजे में पूछा ।
अनवर मुस्कराया ।
–"जंग की सलाह, अम्मी ।"
–"लानत है । तुम लोग आते वक्त पहले ही बहुत शोर मचा चुके हो ।"
अनवर कुछ नहीं बोला ।
हसीना ने बारी–बारी से उन्हें घूरा ।
–"फारूख कहां है ?"
सबने बेचैनी से पहलू बदलकर सर झुका लिये ।
–"में पूछ रही हूं, फारूख कहां है ?"
–"पता नहीं, अम्मी !" अनवर हाथ मलता हुआ–सा बोला ।
–"क्या मतलब ? अब और कौन–सी क़यामत टूट पड़ी ?"
अनवर ने ब्लू मून के बाहर हुई शूटिंग और कार विस्फोट के बारे में बताकर यह भी बता दिया कैसे मुजफ्फर बेग और एक लड़की के साथ–साथ दो दुबई के बदमाश और तीन पुलिस वाले मारे गये थे ।
हसीना बेगम एक कुर्सी खींचकर बैठ गयी । वह बहुत ही हौसलामंद और मजबूत इरादों वाली औरत थी । लेकिन अब एकाएक बूढ़ी हो गयी नजर आयी । हो सकता है इसकी वजह उसकी अपनी व्याकुलता थी या असामान्य प्रतिक्रिया या फिर आशंकित मन । लेकिन कुछेक सैकेंडों में ही वह अपने चेहरे और शरीर से कई साल ज्यादा की लगने लगी । जानदार और शानदार औरत हताश और थकी–हारी बुढ़िया में बदल गयी ।
अनवर पर चिंता सवार हो गयी । यह उसकी मां थी–जिसने अपनी जिंदगी में कभी हार नहीं मानी, हर तरह की मुसीबतों से जूझकर उन पर फतह हासिल करती रही और जिसका पूरा असर और जोर दोनों भाइयों पर था । उसने कभी बूढ़ी औरत के रूप में उसकी कल्पना तक नहीं की थी । वह उसकी मां थी । बहादुर, रंगीन मिजाज, दबंग, कभी–कभी ज़ुबान की तीखी और कभी–कभार ठोस सलाह देने वाली जो उसकी स्थानीय संगठित अपराध जगत की गहरी जानकारी और पुराने दौर के मुजरिमों के बीच जाती तज़ुर्बे पर आधारित होती थी । हसीना बेगम सबको जानती रही थी–अच्छे, बुरे और हालात की मार खाये आदमी और औरतें जो पैदाइशी इत्तिफाक या मर्जी से अचानक खून–खराबे की बेरहम दुनिया में आते हैं । सस्ती मौज–मस्ती करने वाले बगैर मेहनत किये या चाकू, छुरे, बंदूकों के खतरों से खेलकर पैसा बनाने वाले, सौदे, साजिशें करते हुये बेएतबारी के कगार पर जीने वाले वगैरा से भी वह वाक़िफ़ थी । हसीना बेगम ने अपने वक़्तों में बहुत कुछ सीखा था । पुराने दौर के दूसरे मुजरिमों की तरह वह भी कुछ खास धंधों के सख्त खिलाफ थी ।
धीरे–धीरे उसके चेहरे की रौनक लौटने लगी । पीठ सीधी हुई । वह तनकर बैठ गयी ।
–"तुम निहायत बेवकूफ़ हो, अनवर ! मैंने हमेशा कहा है और हमेशा कहती रहूँगी । तुम दुबई वालों के चक्कर में पड़े ही क्यों ?"
–"वो बढ़िया सौदा था, अम्मी !"
–"हां, बहुत बढ़िया सौदा था ।" हसीना का स्वर कटुतापूर्ण था–"यह क्यों नहीं मानते तुम लालची कुत्ते हो, अनवर हसन । जब मैंने जवानी में कदम रखा और जमाने को समझने की तमीज आनी शुरू हुई मैं भी यही समझती थी बाहर के मुल्क वालों से धंधा करना बहुत फ़ायदेमंद होता है । लेकिन जल्दी ही हकीक़त पता चल गयी । उनकी वो इमेज ख्याली और सिर्फ फिल्मों में ही होती है । असल में उनकी खुला खर्च करने वाली नीयत के पीछे बड़ी भारी कमीनगी और हरामजदगी छिपी होती है । तुम भी उन बेवकूफ़ नामर्दो की तरह हो जो ख्याली पुलाव पकाकर खुशफहमी के शिकार होते रहे हैं और ठोकरें खाकर भी नहीं संभलते । मेरे बार–बार समझाने के बावजूद कि उन लोगों के साथ धंधा करना गलत है, तुमने कभी अक्ल से काम नहीं लिया ।"
–"मैंने...हमने अक्ल से ही काम लिया था, अम्मी !" आहत अनवर कटुतापूर्वक बोला–"हमने उनके साथ समझौता किया और अब फंस गये ।"
–"किसलिये ? क्या जरूरत थी ?"
–"अपनी आमदनी बढ़ाने के लिये, अम्मी ! तुम्हीं तो अक्सर समझाती रही हो सियासतदान, सरमायेदार और आला अफसर सब लूटकर ले जाते हैं और हम जैसों के लिये कुछ नहीं बचता ।"
–"मैंने तो कभी तुम्हें भूखा मरते नहीं देखा ।"
–"मैं कभी भूखा रहा ही नहीं । क्योंकि मैंने हमेशा खुद अपनी देखभाल की है । अपनी किस्म का अलग हूं । जो हसन भाइयों के लिये वफ़ादार होते हैं उन्हें किसी से डरने की जरूरत नहीं लेकिन जो दगाबाजी करते हैं उनका अल्लाह ही मालिक है ।"
–"और अल्लाह तुम्हारी मदद करता है क्योंकि तुम्हारी वजह से बेगुनाह और मासूम को जान गँवानी पड़ती है । तुम्हें अब तक अपने ही धंधों में मसरूफ रहने की अक्ल आ जानी चाहिये थी ।"
अनवर समझ गया यह परवेज की मौत की ओर इशारा और उस पर ताना था ।
–"हम नये धंधे में पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे ।"
–"और ?"
–"और क्या ?"
–"तुम्हें इसकी जरूरत क्या थी ?"
–"कारोबार में नये धंधे जोड़ना बुरी बात तो नहीं है । इस शहर में जितने भी शराब, जुए, जिस्मफरोशी, वगैरा के नाजायज धंधे हैं वे सब हमारे हैं । उन सबमें अब कोई खास मुनाफ़ा नहीं रहा । अब जमाना बदल गया है । आजकल सबसे मोटा मुनाफ़ा एक ही धंधे में है ।"
–"मुझसे कहलवाने की जरूरत नहीं है, जानती हूं ड्रग्स की बात कर रहे हो । इस बात पर ज्यादा जोर मत दो ।"
–"अफीम, चरस, गांजा वगैरा का धंधा तो हम आज भी करते हैं मगर उसमें बचता क्या है ?"
–"मैं जानती हूं मोटी बचत इन नये ड्रग्स में है ।"
–"तो ?"
–"उस मोटी बचत के लिये उन्हें बेचना होता है और बेचने के लिये लोगों को इन नशों की लत लगानी होती है ।"
–"यह बिज़नेस है, अम्मी ! कारोबार है । धंधा है । उन दुबई वालों ने ए ग्रेड का प्योर माल मुहैय्या कराना है और हमने उसमें मिलावट करके उसे चार गुना बना लेना है । इस तरह जितना हम अब पूरे महीने में अपने तमाम मौजूदा धंधों से कमा रहे हैं उससे कई गुना ज्यादा एक हफ्ते में कमा लेंगे...सिर्फ एक हफ्ते में ।"
–"और बदले में उतने ही ज्यादा लोगों की जानें भी लोगे । उन्हें तबाह करके मार डालोगे । हम इस सब पर पहले भी बहस कर चुके हैं ।"
–"जानता हूं, अम्मी ! और तुम इस बारे में कोई और बात करना नहीं चाहतीं क्योंकि तुम जानती हो मैं सही…!"
–"बचपना छोड़ो, मेरे बच्चे ! लालच का कोई अंत नहीं होता । दौलत जितनी ज्यादा आती है उसे पाने की हवस उतनी ही और ज्यादा बढ़ जाती है । जहां तक सही–गलत का सवाल है । तुम्हारी बात सही नहीं है, तुम खुद भी जानते हो । सही हो भी कैसे सकती है ? जब तुम पहली खेप लेकर आये कानून ने उसे दबोच लिया तब तुम पागलों ने क्या किया ? तुमने पुलिस वालों को मार डाला ।" हसीना का चेहरा गुस्से से सुर्ख था । स्वर तेज होता गया–फिर तुमने और कत्ल किये और फिर जवाबी हमलों में पैराडाइज क्लब जला दिया गया, हमारे प्यारे परवेज को मार डाला और ब्लू मून को उड़ाने की कोशिश में हुये खून–खराबे में मुजफ्फर और वो रंडी मार दिये गये । फारूख अकेला कहीं भटक रहा है और अल्लाह जाने क्या करता फिर रहा है । इस तमाम तबाही के बाद तुम परेशान हो वे लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं ? इसे सही ठहरा रहे हो तुम ? अगर यह सही है तो इस वक्त यहां बैठकर क्यों उन्हें खत्म करने की प्लानिंग कर रहे हो ? बदला लेने के लिये क्यों उन्हें सीधा करना चाहते हो ? इसकी सिर्फ एक ही वजह है–पागलपन । तुम सब पागल हो ।" वह खड़ी हो गयी–"मुझे बरसों पहले तुमको जेल भिजवा देना चाहिये था...!"
–"बस करो, अम्मी !" गुस्से से उबलता अनवर चिल्लाया ।
–"शांत हो जाओ, अनवर भाई ।" कालका प्रसाद ने टोका ।
–"तुम इससे अलग ही रहो, कालका ! सुनो, अम्मी, यह मेरा और फारूख का कारोबारी मामला है । जहां तक तुम्हारा सवाल है, तुम्हारे हर एक ऐशोआराम का ध्यान हमने हमेशा रखा है जब भी जो भी तुमने चाहा, पाती रही हो । किसी भी चीज को लेने से तुम्हें इंकार नहीं किया...!"
–"सीधा–सीधा जरायमपेशा होना या गैरकानूनी धंधे करना अलग बात है...!"
–"कभी एक पैसे से भी तुमने इंकार नहीं किया । इसलिये हमारे कारोबारी मामले में दखल देने का कोई हक तुम्हें नहीं हैं...।"
–"मुझ को कुछ भी देने की कोई जरूरत तुम्हें नहीं है, अनवर ! अब तुमसे कुछ और मुझे नहीं चाहिये...कुछ भी नहीं । खून–खराबे और पागलपन ने मेरा सब छीन लिया । सब खत्म कर दिया । तुम्हारे अब्बा को गँवा दिया फिर परवेज को भी गँवा बैठी । पूरी दुनिया में मुझे वे ही दोनों सबसे ज्यादा अजीज थे । अगर तुम और फारूख ठीक होते । तोड़फोड़ और मारामारी का पागलपन नहीं करते तो उस रात तुम्हारे अब्बा और मैं उस सरहदी गांव में नहीं होते और तुम्हारे अब्बा, मेरी बहन और जीजा को मरना नहीं पड़ता । फारूख यतीम नहीं होता । मुझे तुम दोनों को झेलना नहीं पड़ता और अगर तुमने और फारूख ने उन दुबई वालों से कोई वास्ता नहीं रखा होता तो मेरा परवेज आज भी जिंदा होता । तुम दोनों की वजह से मेरा सब कुछ लुट गया । मेरी दुनिया तबाह हो गयी । उन दोनों को खो देने का अफसोस मुझे मरते दम तक रहेगा । तुम्हें और फारूख को गँवाने का कतई कोई दुःख मुझे नहीं होगा । अजाब बन गये हो तुम दोनों मेरे लिये...।"
वो मन की भड़ास नहीं हकीक़त थी । जिस ढंग से वह पाँव पटकती हुई दरवाजे से बाहर गयी अनवर समझ गया अम्मी ने एक–एक लफ्ज सच कहा था ।
टेलीफोन की घण्टी बजने लगी ।
–"फोन सुनो, कालका ।" अनवर बड़ी ही थकी–सी आवाज़ में बोला ।
वह यूं महसूस कर रहा था मानों पहाड़ की चोटी से गहरी खाई में धकेल दिया गया था । डिसूजा ने वाकई उन्हें तबाही दिया । अम्मी ने कड़वी सच्चाई बयान की थी उन्हें दुबई वालों से दूर ही रहना चाहिये था ।
कालका प्रसाद ने रिसीवर उठा लिया ।
फोन कर्ता उस्मान लंगड़ा था ।
उसने अच्छी और बुरी दोनों ख़बरें दे दी ।
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