रविवार - शाम
जोरबाग की डकैती और उसमें हुई मैजेस्टिक ऑटो मोबाइल्स के अग्रवाल की मौत की खबर प्रदीप पुरी को सी आई डी इंस्पेक्टर पंडित से सुनने को मिली ।
शाम को वह अपने फ्लैट पर ही था जब पंडित उससे मिलने वहां पहुंचा था । पिछली रात प्रदीप पुरी एक ऐसी पार्टी में शामिल था जो सुबह चार बजे तक चली थी । उसके बाद वह घर आते ही सो गया था और इंस्पेक्टर आगमन से थोड़ी ही देर पहले सोकर उठा था ।
डकैती की बात सुनते ही वह मन-ही-मन जग्गी को हजार-हजार गालियों देने लगा था । हरामजादा इतना समझाने के बाद भी अपनी करतूत से बाज नहीं आया था ।
और अब वह एक नम्बर का घाघ इंस्पेक्टर उसके सिर पर सवार था ।
“आप इस डकैती के बारे में मुझे क्यों बता रहे हैं ?” - प्रदीप पुरी हैरानी जाहिर करता हुआ बोला ।
“इसलिए” - पंडित धैर्यपूर्ण स्वर में बोला - “कि शायद आप इनवैस्टिगेशन में हमारी कोई मदद कर सकें ।”
“मैं क्या मदद कर सकता हूं ?”
“वैसे आप यह तो महसूस कर रहे हैं कि यह डकैती भी वैसी ही है जैसी चोरियों और डकैतियों का जिक्र मैंने पिछले शुक्रवार तब किया था जब मैं ‘जैम हाउस’ में आपसे मिला था ।”
“वैसी ही कैसे है ?”
“भई, आपके पन्नों का एक कीमती हार अग्रवाल साहब को बेचने की देर थी कि आनन-फानन उनके घर में डाका पड़ गया । और डाका भी ऐसे घर में पड़ा जिसकी हर किसी को खबर भी नहीं थी ।“
“यह महज इत्तफाक भी हो सकता है ।”
“नहीं भी हो सकता । मिस्टर पुरी, अब तो मेरी इस धारणा की और भी पुष्टि हो गयी है कि आपके शो-रूम का कोई कर्मचारी जवाहरात के चोरों के गैंग से मिला हुआ है यूं छांट-छांट-कर हाथ मारना चोरों के लिए तभी सम्भव हो सकता है जबकि उन्हें इनसाइड इन्फॉर्मेशन हासिल हो ।”
“ऐसा आदमी कौन हो सकता है ?”
“यह बात तो आपको मुझे बतानी चाहिए । आप ‘जैम हाउस’ के चीफ सेल्समैन हैं और वहां के हर कर्मचारी को जानते हैं । आप बताइये ऐसा आदमी कौन हो सकता है ?”
“मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता ।”
“अच्छा ! यह तो बड़े अफसोस की बात है । आप हमें कोई टिप दे सकते होते तो हमें खुशी होती । दरअसल हमें शक है कि आपके शो रूम का जो आदमी चोरों से मिला हुआ है, वही व्यास साहब की मौत के लिए भी जिम्मेदार है ।”
“क्या मतलब ?” - प्रदीप पुरी चौंका - “व्यास साहब की मौत के लिए कोई आदमी कैसे जिम्मेदार हो सकता है ? वे तो दिल का दौरा पड़ने से मेरे हैं ।”
“हां” - पंडित दार्शनिकतापूर्ण स्वर में बोला - “देखने में तो ऐसा ही लगता है ।”
“देखने में ऐसा ही लगता है ? आपका मतलब है कि हकीकत में...”
“अभी मेरा कोई निश्चित मतलब नहीं है । मैं तफ्तीश कर रहा हूं । आगे देखते हैं क्या होता है । इसी सन्दर्भ में मैंने व्यास साहब की बीवी, उनकी लड़की, उनके वकील और लड़की के होने वाले पति से बात की है । मिसेज व्यास ने आपको बताया ही होगा ।”
“मुझे बताया होगा ? वे भला मुझे ऐसी बातें क्यों बताने लगीं ?”
“भई आपके मिसेज व्यास से घनिष्ट सम्बन्ध जो हैं ।”
प्रदीप पुरी उछलकर खड़ा हो गया । वह क्रोधित स्वर में बोला - “क्या कह रहे हैं आप ? आप ये क्या उल्टी-सीधी बातें मुझे सुना रहे हैं ? कौन-से घनिष्ट सम्बन्ध...”
“बैठिये बैठिये” - पंडित शान्ति से बोला - “ताव मत खाइए । इससे कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि आपके मिसेज व्यास से सम्बन्धों की हमें निश्चित रूप से जानकारी है ।”
“क्या जानकारी है आपको ? लगता है आप किसी को कोई उल्टी-सीधी बकवास सुनकर आए हैं । मेरा व्यास साहब के घर आना-जाना है, इस वजह से मैं मिसेज व्यास से भी परिचित हूं । इससे आगे मेरा उनसे कोई वास्ता नहीं ।”
“लेकिन व्यास साहब को शायद इस बात पर विश्वास नहीं था । इसलिए उन्होंने नगर की एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी से सम्पर्क स्थापित करके आपकी और अपनी बीवी की निगरानी का इन्तजाम करवाया था । एजेन्सी वालों ने इस संदर्भ में व्यास साहब को एक रिपोर्ट भी दी थी जो कि पता नहीं कहां गायब हो गई है लेकिन उसकी एक प्रतिलिपि हमें हासिल हो गई है ।”
“कैसे ?”
“डिटेक्टिव एजेंसी वालों ने हमें खुद ही भिजवा दी । मैंने उसके संचालक सुधीर कोहली से बात की थी । वह कहता था कि मिसेज व्यास उसके पास आई थी और उसको अपने बड़े स्त्री सुलभ तरीके से मनाकर गई थीं कि वह उस रिपोर्ट को दफन कर देगा । वह कहता है कि मिसेज व्यास अगर उसके पास न आती तो वह ऐसा ही करता, लेकिन उनके आगमन ने उसे यह सोचने पर मजबूर किया कि उस रिपोर्ट की कोई खास अहमियत थी और पुलिस विभाग में अपना क्रेडिट बनाने के लिए उसने उस रिपोर्ट का एक कापी हमें भेज दी ।”
“और उस रिपोर्ट में यह लिखा है कि मेरे मिसेज व्यास से ऐसे-वैसे सम्बन्ध हैं ?”
“नाम नहीं लिखे हुए उसमें, लेकिन फिर भी मालूम यही होता है कि मिसेज व्यास के कथित ब्वॉय फ्रेंड आप ही हैं ।”
“कैसे मालूम होता है ?”
“आपके राजपुर रोड वाले फ्लैट की वजह से । एजेंसी की रिपोर्ट में उस फ्लैट का जिक्र है रिपोर्ट के मुताबिक मिसेज व्यास ऐश करने की नीयत से अपने ब्वॉय फ्रेंड से वहीं मिला करती थीं और मैंने मालूम किया है कि वह फ्लैट आपने किराए पर लिया हुआ है ।”
प्रदीप पुरी को जैसे साप सूंघ गया ।
“आप इस बात से इन्कार करते हैं कि राजपुर रोड का वह फ्लैट आपके अधिकार में है ?”
“है तो उससे क्या होता है ? मैं अविवाहित आदमी हूं । मेरी कई गर्ल फ्रेंड्स हैं जिनको मैं वहां ले जाना ज्यादा सेफ समझता हूं ।”
“और उन गर्ल फ्रेंड्स में से एक मिसेज व्यास भी हैं ?”
“हरगिज नहीं । मेरा उनसे कोई रिश्ता नहीं ।”
“लेकिन बाकी गर्ल फ्रेंड्स से तो है न ?”
“वह तो है ।”
“अभी भी ?”
“हां ।”
“तो फिर एकाएक आपने वह फ्लैट क्यों छोड़ दिया ?”
प्रदीप पुरी ने एक गहरी सांस ली और धम्म से वापिस अपने स्थान पर बैठ गया । उस हरामजादे पुलिसिये को तो पहले ही सब कुछ मालूम था ।
“और ऐसा क्योंकर हुआ कि व्यास साहब डिफेंस कालोनी से चले और हार्ट अटैक से मरने के लिए जो जगह उन्होंने चुनी, वह राजपुर रोड पर आपके फ्लैट वाली इमारत से मुश्किल से सौ गज परे थी । ऐसा क्योंकर हुआ कि व्यास साहब की मौत के ऐन तीन दिन बाद आपको उस फ्लैट की जरूरत महसूस होनी बन्द हो गई ? और क्या यह महज इत्तफाक था कि अपनी मौत से कुछ ही घण्टे पहले व्यास साहब ने अपनी वसीयत बदल दी थी और नई वसीयत में अपनी बीवी को अपनी जायदाद से लगभग बेदखल कर दिया था ? जवाब दीजिए मिस्टर पुरी ।”
“मैं क्या जवाब दूं ?” - प्रदीप ने अपने स्वर में हल्का-सा कम्पन खुद महसूस किया - “मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा ।”
“बनिये नहीं । आपकी समझ में सब कुछ आ रहा है ।”
“नहीं आ रहा” - प्रदीप तनिक दिलेरी से ही बोला - “देखिये इंस्पेक्टर साहब, यूं अंधेरे में तीर चलाने से कोई फायदा नहीं । अगर आप मुझ पर कोई इलजाम लगाना चाहते हैं तो साफ-साफ कहिए । अगर आप समझते हैं कि व्यास साहब अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरे और उनकी मौत के लिए जिम्मेदार हूं तो ऐसा साबित करके दिखाइये । व्यास साहब को अपनी बीवी के चरित्र पर शक करने का पूरा अधिकार था । मुझे नहीं पता कि उन्होंने अपनी बीवी के पीछे प्राइवेट जासूस लगाये थे या पुलिस लगाई थी । मुझे किसी दूसरे आदमी के कार्यकलापों से कोई मतलब नहीं । अगर आपके पास मेरे खिलाफ कुछ है तो मुझे गिरफ्तार कीजिए वर्ना मेरा और अपना दोनों का वक्त जाया मत कीजिये । आप मुझ पर धौंस जमाने की कोशिश करेंगे या मुझ पर पुलिस थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे तो बहुत बुरा होगा । आप सी आई डी इंस्पेक्टर हैं तो मैं भी कोई गिरा-पड़ा आदमी नहीं । आपकी ज्यादतियों के जवाब में मुझे क्या करना चाहिए, यह मैं खूब जानता हूं । सौभाग्यवश हम राजधानी में रहते हैं और सुना है कि नये गृहमन्त्री साहब, पुलिस एट्रासिटीज की दास्तान बड़ी हमदर्दी से सुनते हैं । दिल्ली पुलिस से केन्द्रीय सरकार वैसे ही कोई खास खुश नहीं ।”
“वैरी वैल सैड, सर ।” - पंडित मुस्कराकर बोला - “बहुत अच्छा भाषण दिया आपने । इतना अच्छा भाषण दिया कि समझ लीजिए कि मैं डर गया । और अब यहां से रुखसत हो जाने में ही मुझे अपनी खैरियत दिखाई दे रही है ।”
पंडित उठ खड़ा हुआ ।
फिर उसने यूं प्रदीप पुरी से हाथ मिलाया जैसे कुछ हुआ ही न हो और मुस्कराता हुआ दरवाजे की ओर बढा ।
प्रदीप उठकर उसके साथ दरवाजे तक आया ।
दरवाजे पर पंडित ठिठका, घूमा उसने चौखट के साथ अपना एक कंधा टिका लिया और बड़े मीठे स्वर में बोला - “मिस्टर पुरी, यह तो मैं आपके बिना कहे भी मानता हूं कि अगर व्यास साहब की हत्या हुई है तो वह आपने नहीं की, क्योंकि हत्या के समय आप चैम्सफोर्ड क्लब के कार्डरूम में ताश खेल रहे थे । अगर व्यास साहब की हत्या हुई है तो वह मिसेज व्यास ने भी नहीं की, क्योंकि हत्या के समय वे मिसेज जोशी नाम की महिला की कोठी पर वहां चल रही पार्टी में शामिल थीं ।”
“यानी कि आप खुद अपने मुंह से कबूल करके मान रहे हैं” - प्रदीप हत्प्रभ स्वर में बोला - “कि मेरा या मिसेज व्यास का व्यास साहब की मौत से कोई रिश्ता नहीं ।”
“मान रहा हूं । लेकिन यह नहीं मान रहा हूं कि आपका और मिसेज व्यास का भी कोई रिश्ता नहीं । आपकी जानकारी के लिए मेरे पास आप दोनों की ऐसी किसी रिश्तेदारी का एक चश्मदीद गवाह भी है ।”
“कौन ?” - प्रदीप ने सांस रोककर पूछा ।
“पवन कुमार । व्यास साहब की बेटी का होने वाला पति । उसने एक बार आपको मिसेज व्यास के साथ ऐसी सैक्सुअल हरकतें करते देखा था जो कोई शरीफ आदमी अपने एम्पलायर की बीवी के साथ नहीं करता ।”
“वह झूठ बोलता है” - प्रदीप आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “कब देखा मुझे ? कहां देखा ?”
“यह तो आप खुद ही सोचिए और सोच-सोचकर अपना दिमाग खराब कीजिए ।”
“लेकिन वो...”
“और ताव मत खाइए । इससे ब्लड प्रेशर बढ जाता है और ब्लड प्रेशर बढ जाने से दिमाग पर ऐसा असर हो जाता है कि कभी-कभी अक्ल मारी जाती है ।”
प्रदीप ने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला, लेकिन फिर दांत भींच लिए ।
“और गृहमन्त्री तक जाने की जो धमकी आपने मुझे दी है, वह इतनी ही कारगर है कि इस वक्त मैं यहां से जा रहा हूं लेकिन” - एकाएक उसका स्वर बर्फ जैसा सर्द हो उठा - “मैं फिर आऊंगा । आई विल बी बैक, मिस्टर प्रदीप पुरी ।”
पंडित एकाएक घूमा और लम्बे डग भरता हुआ वहां से विदा हो गया ।
प्रदीप पुरी कितनी ही देर बुत बना दरवाजे पर खड़ा रहा ।
फिर उसने अपने आपको सम्भाला, दरवाजे को भीतर से बन्द किया और किचन में पहुंचा । वहां के एक सैल्फ में से उसने विस्की की एक बोतल निकाली और रेफ्रीजरेटर में से ठंडा सोडा निकाला । उसने अपने लिए विस्की का एक बड़ा-सा पैग बनाया और वहीं एक स्टूल पर बैठ गया ।
पंडित के आगमन ने उसका दिल हिला दिया था ।
प्रेत की तरह जैसे वह उस तक पहुंच गया था वैसे ही कभी वह जग्गी तक पहुंच गया तो फिर उसका बेड़ा गर्क हो जाना निश्चित था । जग्गी का कोई इन्तजाम करने का ख्याल मंगलवार शाम से ही उसके मन में घर किए हुए था, लेकिन अब उसे लग रहा था कि बात को और टाला नहीं जा सकता था । अगर कोई उसका पीछा कर रहा था तो उसने उससे पीछा छुड़ाना था । आज ही उसे जग्गी का कोई इन्तजाम करना था । देर करना मुसीबत को दावत देना था ।
उसने विस्की का गिलास खाली करके नया पैग तैयार किया और किचन का एक दराज खोला । उसमें एक सुआ पड़ा था जो कभी-कभी बर्फ काटने के काम आता था । वहीं एक रेती मौजूद थी । उसने दोनों चीजें अपने अधिकार में कीं, अपना विस्की का गिलास सम्भाला और बाहर ड्राइंगरूम में आ गया ।
उसने मेज पर एक अखबार बिछा लिया और उसके सामने बैठ गया । फिर उसने रेती की सहायता से सुए का हैंडल के पास गोलाई में घिसना आरम्भ कर दिया ।
आधे घण्टे के अनथक परिश्रम से उसने पक्के लोहे में हैंडल के पास एक खांचा-सा बना लिया । खांचे की मौजूदगी में उसने सुए को मजबूती का परखा और फिर सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाया ।
फिर वह बाथरूम में से डॉक्टरों द्वारा ड्रैसिंग में इस्तेमाल होने वाला टेप ले आया । उसने टेप को अपनी बाईं कलाई पर लपेट और उसमें सुए को धातु की तरफ से फंसा दिया । उसने दाएं हाथ से उसका हैंडल पकड़कर खींचा तो सुआ बिना किसी अवरोध के उसके हाथ में आ गया । उसने सुए को वापिस, टेप में अटका दिया और अपनी कमीज की बाह नीचे करके उसका बटन बन्द कर लिया । अब सुआ पूरी तरह कमीज के नीचे छुप गया था, लेकिन उसे बड़ी सहूलियत से वहां से निकाला जा सकता था ।
अखबार पर बिखरे पड़े लोहे के बुरादे को उसने इकट्ठा करके एक पुड़िया-सी बना ली और उसे अपनी पतलून की जेब में रख लिया । बाद में वह उसे अपने इलाके से दूर कहीं फेंक सकता था ।
फिर उसने टाई लगाई, कोट और जूते पहने और फ्लैट से बाहर निकल आया । वह अपनी फियेट में सवार हुआ और उसे चलाता हुआ मेन रोड पर ले आया ।
इंडिया गेट पहुंचते-पहुंचते उसे फिर मालूम हो गया कि उसका पीछा किया जा रहा था । जग्गी के घर का रुख करने से पहले उसने हर हालत में पीछा करने वाले से पीछा छुड़ाना था, लेकिन इस बात की अभी कोई जल्दी नहीं थी ।
वह चेम्सफोर्ड क्लब पहुंचा और जाकर कार्डरूम में जम गया ।
नौ बजे के करीब वह क्लब से निकला । वह फिर अपनी कार पर सवार हुआ । उसने कार आगे बढाई । रफी मार्ग, अशोका रोड होता हुआ वह मंदिर मार्ग पहुंचा ।
उसका पीछा बदस्तूर किया जा रहा था ।
मामूली रफ्तार से कार चलाता हुआ वह लिंक रोड पहुंचा ।
उसने अनुभव किया कि उसके पीछे लगी एम्बैसेडर कार उससे तीन-चार कारें पीछे थी ।
वह करोलबाग की तरफ घूमा ।
आगे लाल बत्ती थी ।
उसने पहले तो यूं जाहिर किया जैसे वह रुकने वाला हो, लेकिन फिर एकाएक उसने कार को तेज कर दिया और उसे बाईं आर गुरुद्वारा रोड पर घुमा दिया । उस पर थोड़ा आगे आते ही उसने उसे एक खतरनाक यू-टर्न दिया और उसे दूसरी ओर फुटपाथ के साथ-साथ एक के पीछे एक पार्क हुई खड़ी गाड़ियों में सबसे पीछे खड़ी गाड़ी के पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया । उसने इंजन बन्द कर दिया और सारी बत्तियां बुझा दीं ।
उसके पीछे लगी एम्बैसेडर कार भी लाल बत्ती पर ही उधर घूमी लेकिन कहीं अटकने के स्थान पर सीधी सड़क पर भागती चली गई ।
प्रदीप ने फौरन अपनी कार दोबारा चालू की और उसकी हैडलाइट जलाए बिना उसे आगे बढाया । चौराहे पर पहुंचकर वह फिर उधर से मुड़ गया जिधर से वह आया था ।
लिंक रोड के चौराहे पर पहुंचकर उसने हैडलाइट फिर जला दी ।
तभी एकाएक उसे याद आया कि लोहे के बुरादे वाली पुड़िया अभी भी उसकी पतलून की जेब में पड़ी थी । मन-ही-मन अपनी उस लापरवाही के लिए अपने आपको कोसते हए उसने वह पुड़िया जेब से निकाली और उसे कार की खिड़की से बाहर उछाल दिया ।
झंडेवालान, पहाड़गंज होता हुआ वह अजमेरी गेट पहुंचा ।
इस बार उसे गारण्टी थी कि कोई उसका पीछा नहीं कर रहा था ।
अजमेरी गेट में वह हौजकाजी चौक को जाती सड़क पर दाखिल हुआ और चावड़ी बाजार जामा मस्जिद होता हुआ कमरा बंगश की ओर बढा ।
और पांच मिनट बाद वह जग्गी के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था ।
जग्गी उस वक्त तीसरी मंजिल से वापिस लौटा ही था । वह नशे की तरंग में दीवान पर उनींदा-सा लेटा हुआ था । दरवाजे पर दस्तक पड़ती सुनकर वह उठा और लड़खड़ाता हुआ दरवाजे तक पहुंचा । उसने दरवाजे की चिटकनी गिराकर उसे खोला ।
प्रदीप पुरी भीतर दाखिल हुआ ।
जग्गी ने दरवाजा फिर बन्द कर दिया । वह मेज के पीछे रखी अपनी कुर्सी पर बैठ गया । प्रदीप को उसने मेज के सामने पड़ी एक कुर्सी पर बैठने का संकेत किया ।
“बाज नहीं आए न, जग्गी !” - प्रदीप पुरी ने शिकायत-भरे स्वर में बोला ।
“मतलब की बात करो ।” - जग्गी भुनभुनाया ।
प्रदीप ने नोट किया कि जग्गी काफी नशे में था । यह बात उसके हक में अच्छी थी ।
“दरअसल मैं शिकायत करने नहीं आया हूं ।” - प्रदीप सावधान स्वर में बोला ।
“तो किसलिए आये हो ?”
“अपना हिस्सा लेने के लिए ।”
“मिल जाएगा । अभी तो माल तन्दूर में लगवाया है । उस की कीमत तो चौकस होने दो ।”
“वैसे हुआ तो सब-कुछ ठीक-ठीक न ? कोई गड़बड़ तो नहीं हुई ?”
“एक गड़बड़ हुई थी ।”
“अच्छा ? क्या ?”
“एक हरामजादे मेहमान ने इमरान को शूट कर दिया था ।”
“ओह माई गॉड । मर गया वो ?”
“हां ।”
“लेकिन अखबार में तो ऐसी कोई खबर नहीं थी ।”
“मैंने उसकी लाश ठिकाने लगा दी थी ।”
“अब क्या उसकी लाश बरामद नहीं होगी ?”
“बाद में हो सो हो । अभी तो नहीं होगी ।”
“वह बहुत अच्छा किया तुमने जो उसकी लाश घटना-स्थल पर नहीं छोड़ी ।” - प्रदीप उसकी झूठी तारीफ करता हुआ बोला । मन-ही-मन वह महसूस कर रहा था कि वह लाश जब भी बरामद होती, उसे फंसवा सकती थी । सौ तरीकों से लाश की शिनाख्त हो सकती थी । लाश की शिनाख्त हो जाने से पुलिस जग्गी के गैंग के अन्य साथियों में से किसी तक भी पहुंच सकती थी । फिर पुलिस का जग्गी तक पहुंचना क्या मुश्किल था ?
और फिर अन्त में उसकी भी गरदन पुलिस के हाथ में ।
“जग्गी” - प्रदीप फिर बोला - “मैं तुम्हारे लिए एक बड़ी अच्छी खबर लाया हूं ।”
“अच्छा ! क्या ?”
“जरा यह देखो ।” - प्रदीप ने अपनी जेब से एक लिफाफा निकाला । उसने लिफाफा जग्गी की तरफ बढाया लेकिन जग्गी का हाथ उस तक पहुंचने से पहले ही उसे छोड़ दिया । लिफाफा मेज के समीप नीचे फर्श पर जाकर गिरा । जग्गी उसे उठाने के लिए नीचे झुका । प्रदीप ने बिजली की फुर्ती से अपनी आस्तीन से सुआ खींच लिया और एक ही भीषण वार में उसे मूठ तक जग्गी की बैल जैसी मोटी गर्दन में घोंप दिया । फिर उसने मूठ को एक झटका दिया तो सुआ मूठ के पास वहां से टूट गया जहां उसने रेती से घिसकर खांचा बनाया था ।
जग्गी के मुंह से एक कराह निकली । उसका शरीर एक झटके से सीधा हुआ । उसका दायां हाथ मेज के नीचे घुस गया प्रदीप ने मेज पर से आगे झुककर उसे जोर से पीछे को धक्का दिया । जग्गी कुर्सी समेत पीछे उलट गया । कोई भारी सी चीज टन्न की आवाज से जमीन पर गिरी ।
प्रदीप गौर से जग्गी को देखता रहा । जब उसे उसके शरीर में दोबारा हरकत होती दिखाई न दी तो उससे सुए का लकड़ी का हैंडल अपने कोट के जेब में डाल लिया और नीचे फर्श पर निगाह दौड़ाई ।
मेज के एक पाए के पास एक रिवॉल्वर पड़ी थी ।
प्रदीप ने झुककर रिवॉल्वर उठा ली । नीचे झुकने पर उसने देखा कि मेज के नीचे एक क्लिप लगा हुआ था । जिसमें वह रिवॉल्वर अटकाई जा सकती थी । उसने महसूस किया कि वह बाल बाल बचा था । रिवॉल्वर जग्गी के हाथ में पहुंच भी चुकी थी । अगर उसने एक क्षण की भी देर की होती तो गोली उसकी छाती के आरपार होती ।
उसने देखा कि रिवॉल्वर पूरी भरी हुई थी और उस पर से नम्बर घिसकर मिटाया हुआ था । कुछ सोचकर उसने रिवॉल्वर अपनी पतलून की बैल्ट में खोंस ली और ऊपर से बटन बन्द कर लिए ।
जमीन पर गिरा लिफाफा उसने वहीं पड़ा रहने दिया । उस में कुछ भी नहीं था ।
उसने जग्गी की जेबें टटोलीं । एक जेब में से उसके लगभग दो हजार रुपये के नोट बरामद किए जो उसने अपने अधिकार में कर लिए । उसके अतिरिक्त और कोई काम की चीज जग्गी की जेब में नहीं थी ।
फिर उसने बड़ी बारीकी से सारे कमरे की तलाशी ली ।
यह देखकर उसे बड़ी निराशा हुई कि कमरे में कहीं कोई कीमती जेवर या जवहारत या नकद माल नहीं था ।
पता नहीं जग्गी अपना नावां-पत्ता कहां रखता था ।
अन्त में उसने एक कपड़ा लिया और उसे हर उस संभावित स्थान पर फेरना आरम्भ कर दिया जहां उस बार या उससे पिछली किसी बार उसकी उंगलियों के निशान हो सकते थे ।
उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डाली ।
दस बज चुके थे ।
वह दरवाजे के पास पहुंचा । उसने कान लगाकर बाहर से आती आइट सुनने की कोशिश की लेकिन कहीं कोई आहट नहीं थी । उसने धीरे से चिटकनी गिराई, दरवाजा खोला और बाहर गलियारे के नीम अन्धेरे में कदम रखा ।
गलियारा खाली था ।
उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
तभी उसे अपने पीछे से हल्की सरसराहट की आवाज सुनाई दी और साथ ही उसे अपनी पीठ में भयंकर पीड़ा की एक लहर दौड़ती महसूस हुई ।
चाकू !
किसी ने उसे चाकू मारा था ।
वह तड़पकर वापिस घूमा । उसे अपने सामने एक साया दिखाई दिया जिसका चाकू वाला हाथ हवा को चीरता हुआ फिर उसकी ओर लपका । उसने बहुत बचने की कोशिश की, लेकिन फिर भी चाकू का फल उसकी छाती को छीलता हुआ दाई बांह से टकराया और उसके कोट की आस्तीन को चीरता हुआ गुजर गया ।
प्रदीप पुरी सिर नीचा किए अपने आक्रमणकारी से टकराया । उसका आक्रमणकारी एक भारहीन वस्तु की तरह एक ओर उलटा और दीवार से टकराया । इससे पहले कि वह सम्भलकर दोबारा आक्रमण कर पाता, प्रदीप बगोले की तरह वहां से भागा, तेजी से सीढियां फांदता हुआ नीचे सड़क पर पहुंचा, अपनी कार में सवार हुआ और अगले ही क्षण कार तोप से छूटे गोले की तरह चिलती कबर के बाजार में भागी जा रही थी ।
एक बात अपनी उस बदहवासी की हालत में भी वह बखूबी समझ रहा था ।
वह धोखे से उस आक्रमण का शिकार हो गया था । कोई जग्गी के इन्तजार में बाहर छुपा खड़ा था और अन्धेरे में उसे ही जग्गी समझकर उस पर वार कर बैठा था ।
खूनी दरवाजे के पास एक बिजली के खम्बे के नीचे उसने कार रोकी । उसकी पीठ में भयंकर पीड़ा हो रही थी । वह चिपचिपाहट भी महसूस कर रहा था । उसने डोम लाइट जलाई और कन्धे पर से गर्दन घुमाकर पीछे झांकने की कोशिश की, लेकिन वह सफल न हो सका । लेकिन इतना उसे जरूर दिखाई दिया कि सीट की पीठ खून से रंग चुकी थी ।
फिर उसने अपनी छाती का मुआयना किया । खून वहां से भी निकल रहा था, लेकिन वहां लगा जख्म निहायत मामूली था ।
अब एक नई समस्या मुंह बाये उसके सामने खड़ी थी ।
उसे डॉक्टरी सहायता की जरूरत थी ।
उसकी पीठ से निरन्तर खून बह रहा था । खून का बहना रोका जाना और घाव का मुनासिब उपचार निहायत जरूरी थी । वह कहां जाए ? किसी डॉक्टर के पास वह जाता तो वह फौरन जान जाता कि उस पर चाकू से आक्रमण किया गया था और फिर वह पुलिस को रिपोर्ट किए बिना न मानता ।
अपने को लगे चाकू की वह क्या सफाई दे सकता था ?
एक सफाई सम्भव थी ।
वह कह सकता था कि उस पर आक्रमण करने वाली उसकी कोई मित्र महिला थी ।
जहां वह रहता था वहां लगभग सब जानते थे कि उसके कई स्त्रियों से सम्बन्ध थे । ऐसे में यह कोई बड़ी बात नहीं थी कि कोई स्त्री उसकी बेवफाई में भड़ककर उस पर आक्रमण कर बैठी हो । फिर उस स्त्री की ही इज्जत की खातिर प्रदीप का किसी को उसका नाम न बताना भी एकदम न्यायोचित लगता ।
उसकी जान में जान आई ।
फिर उसे याद आया कि जिस इमारत में उसका फ्लैट था, उसी के एक अन्य फ्लैट में एक डॉक्टर रहता था । वह प्रदीप की जिन्दगी के अन्दाज को जानता-समझता भी था । वह प्रदीप की उस ताजी सोची कहानी पर नि:संकोच विश्वास कर सकता था । वह यहां तक कह सकता था कि वह किसी और लड़की के साथ अपने फ्लैट में मौजूद था जबकि ऊपर से वह स्त्री भी वहां पहुंच गई थी । उसको एक अन्य लड़की की बांहों पाकर वह क्रोध से आग-बबूला हो उठी थी । वह किचन में से एक चाकू उठा लाई थी और बड़े अप्रत्याशित तौर पर उस पर आक्रमण कर बैठी थी । वह स्त्री एक बड़े आदमी की बीवी थी और अगर बात पुलिस तक पहुंची तो स्त्री और उसके पति दोनों की बड़ी इज्जत खराब होगी । इसलिए वह स्त्री का नाम नहीं बता सकता था ।
कहानी का नया संस्करण उसे और भी ज्यादा विश्वसनीय लगा ।
उसने कार दोबार स्टार्ट की और उसे सुन्दर नगर की ओर दौड़ा दिया ।
रविवार - रात
प्रदीप पुरी के धक्के से शीराजी दीवार से टकराया और फिर वहीं जमीन पर ढेर हो गया । उसकी खोपड़ी दीवार से कहीं टकराई और उनके सिर में पहले से मौजूद जख्म से दोबारा खून रिसने लगा । वह जहां गिरा था, वहीं पड़ा हांफने लगा और अपनी उखड़ी हुई सांसों पर काबू पाने की कोशिश करने लगा । उसके जेहन में भागते हुए कदमों की आवाज हथौड़े की तरह बज रही थी ।
फिर अन्त में जब इमारत में मुकम्मल सन्नाटा छा गया तो वह दीवार का सहारा लेकर उठा । उसका दिल हथौड़े की तरह उसकी पसलियों से टकरा रहा था और सिर फिरकनी की तरह चक्कर खा रहा था । लेकिन फिर भी उस वक्त उसे अपनी हालत से इतनी शिकायत नहीं थी जितनी इस बात से थी कि उसका शिकार जिन्दाबाद बच गया था । उसका बूढा शरीर चाकू का इतना शक्तिशाली वार नहीं कर सका था कि वह वहीं हलाक होकर ढेर हो जाता ।
फिर धीरे-धीरे जब वह अपने आप पर काबू पाने में कामयाब हुआ तो एक बात की उसे सख्त हैरानी भी हुई ।
उसके चाकू के वार से घायल होकर जग्गी वहां से भागा क्यों ? जग्गी ने उल्टे उस पर आक्रमण क्यों नहीं किया ? क्या ऊपर से सूरमा लगने वाला वह आदमी भीतर से कायर था नहीं, जग्गी कायर नहीं हो सकता था ।
कोई और ही बात थी ।
वह जग्गी के कमरे के दरवाजे पर पहुंचा । उसने उसे धीरे से धक्का दिया । दरवाजा खुल गया । भीतर रोशनी थी । रोशनी में उसे जो सबसे पहले चीज दिखाई दी, वह जग्गी की लाश ही थी ।
चेहरे पर दहशत और हैरानी के मिले-जुले भाव लिए वह भीतर दाखिल हुआ । वह लाश के समीप पहुंचा । उसने झुककर उसके चेहरे पर निगाह डाली ।
वह जग्गी ही था । उसकी पथराई हुई आंखें छत पर टिकी हुई थीं ।
अल्लाह ! - उसके मुंह से निकला - तो उसने चाकू से हमला किस पर किया था ?
कोई हो वो । अब क्या हो सकता था ।
फिर बूढे के शरीर में एकाएक फुर्ती आ गई । वह बाथरूम में पहुंचा । वहां चार टाइलों को एक ब्लाक था जो उसे मालूम था कि अपने स्थान से हट जाता था । यह बात उसे सुरैया ने बताई थी । एक बार सुरैया जब उसे खाना देने गई थी तो वह उसे दरवाजा खोलने बाथरूम से निकलकर आया था और जिस वक्त जग्गी का ध्यान सुरैया के नौजवान जिस्म की ओर था, उस वक्त सुरैया बाथरूम के खुले दरवाजे के भीतर एक दीवार को देख रही थी जहां से चार टाइलें गायब थीं और भीतर एक अन्धेरा-सा सुराख दिखाई दे रहा ।
शीराजी ने बड़ी सहूलियत से वे टाइलें वहां से हटा लीं । भीतर सौ-सौ के नोटों का अम्बार लगा हुआ था । उसने सारे नोट एक झोले में भर लिए और वहां से बाहर निकला । वह नीचे पहुंचा । वहां से उसने सारा सोना और उससे अलग हुए हीरे-जवाहरात भी उसी झोले में भर लिए और अपनी उम्र और खस्ता हालत के लिहाज से अप्रत्याशित फुर्ती से सीढियां फांदता हुआ वह तीसरी मंजिल पर पहुंचा ।
उसने सुरैया का दरवाजा खटखटाया और उतावले स्वर में बोला - “सुरैया ! सुरैया बेटी ! बेटी, जल्दी दरवाजा खोलो । दरवाजा खोलो जल्दी । जल्दी ।”
सुरैया ने फौरन दरवाजा खोला और घबराए स्वर में बोली - “क्या हुआ बाबा ?”
“जग्गी मर गया है” - शीराजी हांफता हुआ बोला - “हम इसी क्षण यहां से जा रहे हैं ।”
“आपने... आपने...” - सुरैया आतंकित स्वर में बोली - “मार डाला उसे ?”
“नहीं, मैंने नहीं मारा उसे । मेरे हाथों से न मर सका वह कुत्ता । मुझसे पहले किसी और न मार डाला उसे । वह अपने कमरे में मरा पड़ा है । अल्लाह करे उसे दोजख में भी चैन नसीब न हो ।”
सुरैया के मुंह से बोल न फूटा ।
बूढे ने उसकी बांह पकड़कर उसे झिंझोड़ा और तीखे स्वर में बोला - “सुरैया, होश में आओ । जरूरत का छोटा-मोटा सामान बांधो और चलो यहां से । यहां किसी के भी आने से पहले हमने यहां से बहुत दूर निकल जाना है ।”
दस मिनट बाद वे दोनों सड़क पर थे । सुरैया चमड़े का एक बड़ा-सा बैग सम्भाले थी जिसमें दोनों के कपड़े वगैरह थे । बूढा शीराजी एक अपेक्षाकृत छोटा बैग उठाए था जिसमें रोजमर्रा की जरूरत के सामान के साथ-साथ हीरे-जवाहरात, सोने और नोटों से भरा झोला भी था ।
वे तेजी से बाजार में आगे बढने लगे ।
शीराजी उस वक्त किसी तरह रेलवे स्टेशन पहुंचना चाहता था और कहीं के लिए भी रवाना होने वाली पहली उपलब्ध गाड़ी पर सवार हो जाना चाहता था ।
कहीं कोई सवारी मिल जाती - वह मन-ही-मन सोच रहा था - जो उन्हें स्टेशन पहुंचा देती । कोई रिक्शा भी तो दिखाई नहीं दे रही थी ।
वे अभी सौ ही गज आगे आए थे कि बूढे के पांव डगमगाने लगे । जिस्मानी कमजोरी की वजह से उसकी टांगें जवाब देने लगीं और बैग का बोझ उठाए चलते रहना उसे असम्भव दिखाई देने लगा ।
कुछ ही कदम और आगे बढने पर उसके मुंह से एक हल्की-सी कराह निकली । बैग उसके हाथ से निकलकर धम्म से सड़क पर गिरा । वह वहीं बैग के पास सड़क पर बैठ गया ।
“बाबा ! बाबा !” - हैरान-परेशान सुरैया आर्तनाद करती हुई बोली । वह बूढे के पास बैठ गई ।
बूढे का जिस्म दोहरा हो गया था और उसका सिर नीचे झुकता-झुकता उसके घुटनों में जा घुसा था । सुरैया रोती हुई उसे सीधा करने की कोशिश कर रही थी ।
सड़क से जो इक्के-दुक्के लोग गुजर रहे थे, वे उनके सामने ठिठकने लगे । जल्दी ही उनके गिर्द भीड़ जमा हो गई । लोग सवाल पूछने लगे, लेकिन क्योंकि सुरैया ईरानी के अलावा कोई भाषा, नहीं जानती थी और बूढा होश में नहीं था, इसलिए जवाब की नौबत न आई ।
तभी इत्तफाक से ही पुलिस की एक गश्ती गाड़ी उधर से गुजरी । भीड़ देखकर गाड़ी रुकी । एक सब-इन्स्पेक्टर गाड़ी से उतरा और भीड़ के पास पहुंचा । उसने बूढे के पास बैठी रोती हुई सुरैया पर निगाह डाली और पूछा कि क्या माजरा था । भीड़ में से ही किसी ने उसे बताया कि वे लोग विदेशी मालूम होते थे और शायद उनकी भाषा नहीं जानते थे ।
सब-इंस्पेक्टर ने बूढे का मुआयना किया । बूढा बेहोश था । उसने जीप में मौजूद दो सिपाहियों को बुलाया । उन्होंने बूढे के अचेत शरीर को सीधा किया और उसे जीप में पहुंचा दिया । सब-इंस्पेक्टर ने इशारे से सुरैया को समझाया कि वे बूढे को हस्तपताल ले जाना चाहते थे । सुरैया ने स्वीकृति में सिर हिलाया । फिर वह भी जीप में सवार हो गई । उन दोनों बैग भी जीप में लाद दिये गए ।
जीप इरविन हस्पताल पहुंची ।
बूढे को इमरेजेन्सी के डॉक्टरों के हवाले कर दिया गया ।
सुरैया ने जिद की कि वह बूढे के साथ ही रहेगी ।
सब-इंस्पेक्टर ने एतराज नहीं किया ।
वह वापिस जीप में आ बैठा । उसने देखा कि बैगों में तले नहीं लगे हुए थे । इसलिये उत्सुकतावश ही कि शायद उन दोनों विदेशियों के बारे में बैग में मौजूद पासपोर्ट वगैरह जैसे किन्हीं कागजात से कोई जानकारी हासिल हो सके, उसने बारी-बारी दोनों बैग टटोले । छोटे बैग में से एक झोला बरामद हुआ । सब-इंस्पेक्टर ने झोले के भीतर झांका तो उसके छक्के छूट गये ।
उसने वायरलैस पर फौरन अपने उच्चाधिकारियों को खबर की । पन्द्रह मिनट में हस्पताल के कम्पाउड में पुलिस को, कई गाड़िया पहुंच गई ।
बूढे शीराजी को होश आया तो उसने उपने आपको कई पुलिस अधिकारियों से घिरा पाया ।
उस पर सवालों की बौछार होने लगी ।
आधी रात तक पुलिस को न केवल जवाहरात के चोरों के गैंग की मुकम्मल जानकारी हो गई बल्कि उन्हें यह भी मालूम हो गया कि गैंग का सरगना जग्गी कमरा बंगश के एक मकान में मरा पड़ा था ।
पुलिस को दो गाड़ियां फौरन कमरा बंगश की ओर रवाना हो गई ।
तभी घटनास्थल पर सी आई डी इंस्पेक्टर पंडित भी पहुंच गया । उसी ने आकर यह राय दी कि अभी जग्गी के बारे में खामोशी बरती जाये । उसकी लाश चुपचाप वहां से हटा दी जाये और इमारत में और उसके गिर्द पुलिस का जाल बिछा दिया जाये । जग्गी मर चुका था, और इसलिए उनके किसी काम का नहीं था लेकिन इस इन्तजाम से उसके गैंग का कोई ऐसा आदमी, जिसे अभी जग्गी की मौत की खबर नहीं थी जिन्दा उनके हाथ आ सकता था ।
पुलिस किसी शिकार के फंसने की उम्मीद में जाल बिछाकर बैठ गई ।
रविवार - आधी रात
प्रदीप पुरी की कहानी कामयाब रही थी ।
डॉक्टर ने उसकी बात पर कतई शक नहीं किया था । उसने इतना जरूर पूछा था कि जो लड़की उसके साथ थी, क्या उस पर भी आक्रमण हुआ जिसके जवाब में उसने इंकार में सिर हिला दिया था । डॉक्टर ने उसकी पीठ के जख्म को टांके लगाकर ड्रेंसिंग कर दी थी । छाती और बांह की मामूली खरोचों पर दवाई लगा दी थी और उसे एन्टी-टिटनेस का इंजेक्शन दे दिया था ।
डॉक्टर के विदा हो जाने के बाद उसने अपने लिए विस्की का एक पैग बनाया और उसे चुसकता हुआ सोचने लगा ।
तमाम गड़बड़ों के बावजूद हालात बड़े उम्मीद-अफजाह थे । वह जग्गी को खतम करने में कामयाब रहा था । अब उसके सिर पर मंडराता खतरा टल गया था । उसकी पीठ पर जो चाकू का घाव था, डॉक्टर कहता था कि ज्यादा गहरा नहीं था । वह ज्यादा-से-ज्यादा दस दिन में ठीक हो जाने वाला था । छाती और बांह की खरोंचों से तो उसे अभी भी कोई शिकायत नहीं थी ।
उसने बड़े इत्मीनान से धीरे-धीरे अपना विस्की का पैग खतम किया और दूसरा पैग बनाने के लिए उठा ।
तभी एकाएक उसे ख्याल आया कि सुए का हैंडल तो अभी भी उसके कोट की जेब में मौजूद था । उस पर तो उसकी उंगलियों के निशान भी थे । उसकी फौरन ठिकाने लगाया जाना निहायत जरूरी था । वह हैंडल तो उसे फंसवा सकता था । अपने पर हुए आक्रमण की दहशत में उसे तो वह भूल ही गया था ।
कोट उपेक्षित-सा एक कुर्सी पर पड़ा था । उसने कोट उठाया, उसने उसकी दाईं जेब में हाथ डाला तो एकाएक जैसे उसे सांप सूंघ गया ।
जेब फटी हुई थी और हैंडल उसमें नहीं था ।
चाकू का जो वार उसकी दाईं आस्तीन को चीरता हुआ गुजरा था, वह उस जेब को भी काट गया था और उसमें पड़ा हैंडल कहीं गिर पड़ा था ।
कहां ?
जरूर जग्गी के मकान पर ही ।
प्रदीप धम्म से कुर्सी पर बैठ गया ।
सत्यानाश !
जग्गी की लाश की वजह से पुलिस ने देर-सवेर घटनास्थल पर पहुंचना ही था । अगर वह हैंडल पुलिस के हाथ लग गया तो ?
फिर एकाएक वह उछलकर खड़ा हो गया ।
यूं हिम्मत हारने से कोई फायदा नहीं था - उसने अपने-आपको समझाया । अभी वक्त था । अभी पुलिस वहां नहीं पहुंची होगी । हैंडल दूसरी मंजिल के गलियारे में ही कहीं पड़ा होगा । वह जाकर उसे वहां से उठा सकता था । इस बार किसी अप्रत्याशित आक्रमण से वह सावधान रह सकता था । वैसे ऐसा आक्रमण अब होने की उसे उम्मीद नहीं थी । और फिर अब उसके पास जग्गी की रिवॉल्वर भी थी । मुसीबत एकदम सिर पर आ खड़ी होने की सूरत में वह उसे इस्तेमाल कर सकता था ।
उसने विस्की का एक डबल पैग हलक से उतारा, नया सूट पहना और अपनी पीठ के दर्द को एकदम नजरअन्दाज करता हुआ फिर फ्लैट से बाहर निकला ।
वह नीचे आकर अपनी फियेट में सवार हुआ ।
कार की अपने खून से रंगी अगली सीट को वह पहले ही बड़ी अच्छी तरह साफ कर चुका था लेकिन कार की डोम लाइट जलाकर उसने फिर भी उसका अच्छी तरह मुआयना किया ।
खून का कहीं कोई निशान नहीं था ।
उसने कार स्टार्ट की और उसे कमरा बंगश की तरफ दौड़ा दिया ।
उसे हैंडल मिल जाने की पूरी उम्मीद थी ।
उसे मालूम था कि शीराजी और उसकी पोती सुरैया जल्दी सो जाने के आदी थे, इसलिए हैंडल अभी उनके हाथ लगा होने का कोई मतलब ही नहीं था । उसका आक्रमणकारी उस पर अपना आक्रमण विफल होता पाकर वहां रुकने का हौसला नहीं कर सका होगा । जग्गी मर चुका था । और किसी के इमारत में होने का सवाल हो नहीं पैदा होता ।
वह दिल्ली गेट की ओर से चितली कबर बाजार में दाखिल हुआ ! कमरा बंगश पहुंचकर भी उसने कार नहीं रोकी और उसे जामा मस्जिद तक ले गया ।
कहीं कोई संदिग्ध बात उसे दिखाई नहीं दी ।
वह वापिस लौटा ।
उसने जग्गी वाली इमारत से थोड़ा परे कार रोकी और आगे बढा ।
इमारत के पास पहुंचकर वह साइड की सीढियों से भीतर दाखिल हुआ । सीढियों की बत्ती जल रही थी । उसने वहीं से हैंडल के लिए अपनी तलाश आरम्भ कर दी । वह दूसरी मंजिल के गलियारे में पहुंचा । वहां जीरो वाट का बल्ब जलता था इसलिये हैंडल तलाश कर पाने लायक रोशनी वहां नहीं थी । वह जग्गी के कमरे के सामने पहुंचा । उसने दोनों दरवाजे पूरे खोल दिए और भीतर जाकर बिजली का स्विच ऑन किया । अब भीतर की तेज रोशनी बाहर गलियारे में ही पड़ रही थी ।
वह वापिस गलियारे में जाने के लिए घूमने ही लगा था कि एकाएक ठिठक गया ।
उसे कमरे मों जग्गी की लाश दिखाई न दी ।
वह लपककर मेज के पास पहुंचा ।
लाश फर्श पर मौजूद नहीं थी ।
उसके छक्के छूट गए । उस मौसम में भी उसका पूरा जिस्म पसीने से नहा गया ।
लाश वहां ने होने का एक ही मतलब था कि पुलिस का आगमन वहां हो चुका था ।
अब उसे वहां से फौरन भाग निकलने में ही अपनी खैरियत दिखाई देने लगी ।
वह वापिस घूमा और दरवाजे की तरफ लपका ।
लेकिन फर्श ने जैसे उसके पांव जकड़ लिए ।
दरवाजे पर एक सब-इंस्पेक्टर के साथ सी आई डी इंस्पेक्टर पंडित खड़ा था ।
उन दोनों के पीछे दो-तीन पुलसिए और भी खड़े दिखाई दे रहे थे ।
“अक्खाह !” - पंडित प्रत्यक्षतः मीठे स्वर में बोला - “ये तो पुरी साहब हैं । प्रदीप पुरी साहब । ‘जैम हाउस’ के चीफ सेल्समैन ।”
प्रदीप खामोश रहा ।
पंडित भीतर दाखिल हुआ और फिर बोला - “तो आप हैं वो साहब, जवाहरात के चोरों का जिनके साथ गंठजोड़ है ।”
“क्या कह रहे हैं आप ?” - प्रदीप नकली हैरानी जाहिर करता हुआ बोला ।
“वही जो आप सुन रहे हैं” - पंडित बोला - “आप एक ज्वेल थीफ के घर में खड़े हैं, आपको यह नहीं मालूम । मैं क्या कह रहा हूं ।”
“मुझे यहीं नहीं मालूम कि यह एक ज्वेल थीफ का घर है ।”
“इतने भोले बनकर मत दिखाओ, पुरी साहब ।”
“आप यहां क्या कर रहे हैं ?”
“पहले आप बताइए आप क्या कर रहे हैं ? यह दोबारा किसलिए आए हैं आप ? इतना हौसला कैसे हो गया आपका ?”
“दोबारा ! दोबारा कौन आया है ? मैं तो यहां पहली बार आया हूं । इस घड़ी से पहले तो मैं इस जगह के वजूद तक से वाकिफ नहीं था ।”
“आये किसलिये आप यहां ?”
“एक आदमी से मिलने ।”
“कौन आदमी ?”
“उसने अपना नाम जग्गी बताया था ।”
“आप” - पंडित तनिक हैरानी से बोला - “कबूल करते हैं कि आप जग्गी से मिलने यहां आए थे ?”
“हां, हां” - प्रदीप ने भी नकली हैरानी जाहिर की - “इसमें ना कबूल करने वाली कौन-सी बात है ? और, बाई दि वे, जग्गी है कहां ? क्या यहां नहीं रहता वो ?”
“आपको खूब मालूम है वो यहीं रहता है । आपका तो वो जिगरी दोस्त है ।”
“जिगरी दोस्त” - प्रदीप ने भवें उठाईं और उपहासपूर्ण ढंग से हंसा - “मैंने तो जिन्दगी में कभी सूरत नहीं देखी उसकी ।”
“आप झूठ बोल रहे हैं ।”
“इंस्पेक्टर साहब, क्यों खामखाह मेरे पीछे पड़े हुए हैं आप ! आपकी नीयत शुरू से ही साफ चुगली कर रही है कि आप मुझे परेशान करने के लिए उधार खाए बैठे हैं मैं आपकी इन ज्यादतियों से तंग आ चुका हूं । अगर आप समझते हैं कि मैंने कोई अपराध किया है तो आप मुझ पर चार्ज लगाकर मुझे गिरफ्तार कीजिए वर्ना मैं यहां से जा रहा हूं ।”
“आप यहां से नहीं जा रहे हैं” - पंडित बर्फ-से सर्द स्वर में बोला - “आप यहां से हिलने की भी कोशिश नहीं करेंगे ।”
प्रदीप अपना चेहरा तो निर्विकार बनाये रहा लेकिन भीतर से उसका दिल हिल गया । उसका दिमाग तेजी से उस विकट स्थिति से निकल पाने की कोई तरकीब सोच रहा था ।
“बैठ जाइए ।” - पंडित ने आदेश दिया ।
वह मेज के पीछे जग्गी की कुर्सी पर बैठ गया । मेज की वजह से उसकी कमर से ऊपर का भाग पंडित और उसके साथी सब-इंस्पेक्टर की दृष्टि से ओझल हो गया क्योंकि वे मेज की दूसरी तरफ उसके सामने खड़े थे । प्रदीप ने एक हाथ से मज के नीचे के भाग को टटोलता ।
क्लिप से उसका हाथ छुआ ।
“कहानी क्या है आपकी ?” - पंडित ने उसे घूरते हुए पूछा -”क्यों आए हैं आप यहां ?”
“जग्गी नाम के एक आदमी ने मुझे ‘जैम हाउस’ में फोन किया था” - प्रदीप प्रत्यक्षतः सहज स्वर में बोला - “उसके पास कुछ ऐन्टीक ज्वेलरी थी जो वह उसे बेचना चाहता था । कहता था कि वे राजे-महाराजों के वक्त के जेवरात थे जो पुश्त दर पुश्त उनके खानदान में चले आ रहे थे । वह लूट लिए जाने के डर से उन्हें घर से निकालने से डरता था, इसलिए उन्हें दिखाने के लिए उसने मुझे यहां बुलाया था ।”
“आधी रात को ?” - पंडित अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डालता हुआ बोला - “एक बजने वाला है, पुरी साहब ।”
प्रदीप ने अपने पतलून की बेल्ट में खुसी रिवॉल्वर को चुपचाप वहां से खींच लिया और उसे मेज के नीचे लगे क्लिप में अटका दिया । वह पूर्ववत् सहज स्वर में कहता रहा - “वह कहता था कि वह किसी होटल में वेटर का काम करता था और आधी रात से पहले घर नहीं लौट पाता था ।”
“झूठ !”
“जो कुछ मैं कह रहा हूं, आप लोग उसकी तस्दीक जग्गी से क्यों नहीं करते ? मैं दोबारा पूछ रहा हूं । वो है कहां ? क्या मुझे गलत पता बताया गधा था ? क्या यहां वहीं रहता वो ?”
“साहब” - एकाएक सब-इंस्पेक्टर का स्वर में बोला - “यह हाथ के हाथ बातें गढ रहा है । खाया-खेला आदमी मालूम होता है । पुलिस का जलवा देखे बिना यह सीधा नहीं होने वाला ।”
पंडित सोच में पड़ गया । उसने मेज पर पड़ा एक पेपरवेट उठा लिया और उसे अपने हाथ में उछालने लगा । वह कुछ क्षण गंभीर मुद्रा बनाये खामोश खड़ा रहा । अन्त में वह सब-इंस्पेक्टर से बोला - “चौहान, इसकी तलाशी लो ।”
“क्या ?” - प्रदीप हड़बड़ाकर बोला । मन-ही-मन वह भगवान का शुक्र मना रहा था कि ऐन मौके पर वह रिवॉल्वर से पीछा छुड़ाने में कामयाब हो गया था ।
“उठो ।” - चौहान आगे बढता हुआ कर्कश स्वर में बोला ।
“यह सरासर ज्यादती है आप लोगों की ।” - प्रदीप उठता हुआ बोला ।
किसी ने उसकी बात की परवाह नहीं की । चौहान ने बड़ी बारीकी से उसकी तलाशी लेनी आरम्भ की । उसका हाथ प्रदीप की पीठ पर पड़ा तो प्रदीप के मुंह से कराह निकल गई । फिर उसे कोट और कमीज उतारने के लिए कहा गया ।
“यह आपकी पीठ को क्या हुआ, पुरी साहब ?” - पंडित ने पूर्ववत् पेपरवेट हवा में उछालते हुए पूछा ।
“चोट लग गई है ।” - प्रदीप सतर्क स्वर में बोला ।
“ताजी चोट मालूम होती है ।”
“हां ।”
“कैसे लगी ?”
“इससे आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिए ।”
“हमें हर बात से मतलब है । लेकिन अगर आप जवाब ने देने में ही खुश हैं तो मत दीजिए । हमें मालूम है यह कैसी चोट है ।”
प्रदीप के जिस्म में फिर भय की लहर दौड़ गई ।
कैसे मालूम था पुलिस को ? क्या उसका आक्रमणकारी पुलिस द्वारा पकड़ लिया था ?
“कपड़े ठीक कर लो और बैठ जाओ ।” - पंडित बोला ।
प्रदीप ने आदेश का पालन किया । कुर्सी पर बैठते ही उसने रिवॉल्वर को चुपचाप क्लिप में से खींचा और उसे वापिस पतलून की बैल्ट में खोंस लिया । पहले वह रिवॉल्वर को स्थायी तौर से अलविदा कह चुका था, लेकिन अब यह महसूस कर रहा था कि वह उसके अधिकार में ही अच्छी थी । पंडित के मिजाज का ऊंट उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस करवट बैठने वाला था । गिरफ्तार वह हरगिज नहीं होना चाहता था रिवाल्वर उसकी आजादी का परवाना साबित हो सकती थी ।
पंडित जो पेपरवेट हवा में उछाल रहा था, एक बार एकाएक वह बहुत ऊंचा पंडित के हाथ से परे उछल गया । प्रदीप को यूं लगा जैसे वह पेपरवेट ऊसके सिर पर आकर गिरने वाला था । उसने दायां हाथ बढाकर पेपरवेट को अपने सिर के ऊपर हवा में लपक लिया ।
“सॉरी !” - पंडित खेदपूर्ण स्वर में बोला ।
प्रदीप ने पेपरवेट मेज पर एक ओर रख दिया ।
पण्डित ने जेब से रूमाल निकालकर अपना चेहरा पोंछा, फिर उसने वह रूमाल पेपरवेट के ऊपर गिरा दिया और पेपरवेट को उसमें लपेटकर उठा लिया ।
“मैं अभी हाजिर हुआ” - वह बोला - “आप यहीं तशरीफ फरमाइयेगा ।”
वह कमरे से बाहर निकल गया । बाहर गलियारे में मौजूद पुलसियों से वह थोड़ी देर खुसर-पुसर करता रहा और फिर वापिस लौटा । वह मेज के समीप पहुंचा और उसके एक कोने में टांगें नीचे लटकाकर बैठ गया ।
वह गौर से प्रदीप के चेहरे के भावों को पढने की कोशिश करने लगा ।
प्रदीप ने एक नकली जम्हाई ली ओर बोला - “आपको मेरे साथ ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता, इंस्पेक्टर साहब । आप एक इज्जतदार आदमी को अपनी थर्ड डिग्री का शिकार बनाने की कोशिश करें, यह कोई अच्छी बात नहीं । मैं इन्सानियत के नाते आपसे दरख्वास्त करता हूं कि या तो आप मुझे गिरफ्तार कीजिए और या फिर जाने दीजिए । मैं घायल हूं । मेरी पीठ में चाकू लगा है । मैं तकलीफ में हूं, इसलिए घर जाकर आराम करना चाहता हूं ।”
पण्डित के चेहरे पर फिर हैरानी के भाव प्रकट हुए ।
“आप कबूल करते हैं कि आपकी पीठ में जो घाव है, वो चाकू का है ?” - वह बोला ।
“हां, हां । मैं इतनी मामूली-सी बात के लिए भला झूठ क्यों बोलूंगा ?”
“यह मामूली-सी बात नहीं, गम्भीर मसला है । पुरी साहब, आपकी जानकारी के लिए हमें आपको बताए बिना भी सब मालूम है कि चाकू आपको किसने मारा है, कब मारा है, कहां मारा है, क्यों मारा है ?”
“नहीं मालूम हो सकता” - प्रदीप विश्वासपूर्ण स्वर में बोला - “वह औरत मुझ पर इस आक्रमण की बात अपनी जुबान पर हरगिज नहीं ला सकती ।”
“आप पर चाकू का वार किसी औरत ने किया था ?”
“हां ।”
“क्या कहानी है ?”
उत्तर में प्रदीप ने उसे भी वही कहानी सुना दी जो उसने डॉक्टर को सुनाई थी ।
“बहुत अच्छी कहानी गढी आपने” - पंडित प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “और अभी आप शर्तिया यह भी दावा करेंगे कि आप अपनी जान दे देंगे लेकिन उस औरत को बदनाम होने से बचाने के लिए उसका नाम अपनी जुबान पर नहीं लायेंगे ।”
“यह सच है कि मैं उस औरत का नाम अपनी जुबान पर नहीं लाना चाहता” - प्रदीप बोला - “लेकिन जरूरत पड़ने पर मैं उसे पेश कर सकता हूं और उसकी गवाही दिला सकता हूं कि आठ और बारह बजे के बीच में यहां से बहुत दूर उसके साथ कहीं और मौजूद था ।”
“ऐसी कोई जरूरत क्यों पड़ेगी भला ? और आपने आठ और बारह बजे के बीच के ही वक्त का जिक्र क्यों किया ?”
“क्योंकि मैं बेवकूफ नहीं हूं । साफ जाहिर हो रहा है कि यहां हाल ही में कोई अपराध हुआ है जिसमें आप मुझे लपेटने की कोशिश कर रहे हैं ।”
“लेकिन आठ और बारह बजे के बीच का वक्त ही आपके जेहन में क्यों आया ?”
“क्योंकि सिर्फ इसी वक्त की एलीबाई मेरे पास है ।”
पंडित खामोश रहा ।
“देखिए इंस्पेक्टर साहब” - प्रदीप गंभीर स्वर में बोला - “मेरे प्रति आपका व्यवहार शुरू से ही जाहिर कर रहा है कि आप मुझे पसन्द नहीं करते । आप जो इल्जाम मुझ पर लगाने की कोशिश में हैं उन्हें आप कभी साबित नहीं कर सकते, लेकिन मुझे स्कैण्डल का शिकार जरूर बना सकते हैं और जैसी नौकरी मैं करता हूं उसमें मेरे नाम से किसी स्कैण्डल का जुड़ जाना मुझे तबाह कर सकता है । पंडित साहब, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि सिर्फ इसलिए मुझे अपने कोप का भाजन मत बनाइए क्योंकि मैं आपको पसन्द नहीं हूं । यह मेरे साथ बहुत बड़ा जुल्म होगा । बहुत बड़ी नाइन्साफी होगी ।”
“आपके साथ कोई जुल्म नहीं होगा, कोई नाइन्साफी नहीं होगी ।” - पंडित बोला - “लेकिन आपका इन्साफ ही आपको दफा 302 के तहत फांसी की सजा दिलवाएगा ।”
“नॉनसेंस” - प्रदीप मुंह बिगाड़कर बोला - “अब आप शायद फिर व्यास साहब की मौत का राग अलापना शुरू करेंगे ।”
“और मैं आपके फ्लैट की तलाशी लेना चाहता हूं ।” - पंडित उसकी बात की ओर ध्यान दिए बिना कहता रहा ।
“वो किसलिए ?”
“मुझे एक बर्फ काटने वाले सुए पर से रेतकर उतारे गए लोहे के बुरादे की आपके फ्लैट से बरामदी की उम्मीद है ।”
“कैसा सुआ ? कैसा बुरादा ?” - प्रत्यक्षतः प्रदीप हैरानी से बोला, लेकिन मन-ही-मन वह खुश हो रहा था कि उसने वक्त रहते बुरादे की पुड़िया को ठिकाने लगाने की समझदारी दिखाई थी ।
पंडित ने उत्तर नहीं दिया । वह महसूस कर रहा था कि प्रदीप पुरी किसी भी तरीके से उसके काबू में नहीं आ रहा था । वह उसकी उम्मीद से बहुत ज्यादा चालाक था । जाती तौर से पंडित को पूरी गारण्टी थी कि व्यास की मौत से उसका जरूर कोई रिश्ता था और जग्गी के कत्ल के लिए भी वही जिम्मेदार था । उसकी पीठ पर लगा चाकू का घाव और उसका इतनी रात गए घटना स्थल पर वापिसी पुकार-पुकारकर इस बार की चुगली कर रहे थे । लेकिन उसकी करतूतों का कोई पक्का सबूत पंडित अभी तक नहीं जुटा पाया था । शीराजी ने अंधेरे में जिस पर चाकू का वार किया था, उसने अन्धेरे में उसकी शक्ल नहीं देखी थी, इसलिए वह प्रदीप की शिनाख्त नहीं कर सकता था । चाकू के जख्म का जो सफाई प्रदीप पेश कर रहा था, वह संदेहजनक तो थी लेकिन सच भी हो सकती थी, वैसे भी मुसीबत सिर पर आ खड़ी होने की सूरत में वह अपने इश्क में गिरफ्तार किसी औरत को यह झूठ बोलने के लिए तैयार कर सकता था कि उसी ने गुस्से में आकर प्रदीप पर चाकू का वार किया था । और उसकी कोई एण्टीक ज्वेलरी खरीदने के लिए यहां आने की कहानी भी कौन साबित कर सकता था कि झूठी थी । आखिर वह ज्वेलरी के ही तो धन्धे में था ।
वह प्रदीप को शक की बिना पर गिरफ्तार कर सकता था, लेकिन दफा 302 के तहत उसे सजा दिलाने के काबिल एक भी सबूत उसके पास नहीं था ।
तभी एक हवलदार कमरे में दाखिल हुआ । उसने संकेत से पंडित को दरवाजे के पास बुलाया । फिर वह जल्दी-जल्दी पंडित के कान में कुछ कहने लगा । पंडित ने फुसफुसाकर उससे कुछ पूछा, उसका जवाब सुना और एकाएक उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव दिखाई देने लगे ।
वह वापिस प्रदीप के पास पहुंचा और बोला - “एक बड़ी अच्छी खबर आई है ।”
“कैसी खबर !” - प्रदीप सकपकाकर बोला ।
“लेकिन वह खबरे हमारे लिए अच्छी है, आपके लिए नहीं ।”
“कैसी खबर ?”
“उठकर हमारे साथ चलो ।”
“कहां ?”
“डिफेंस कॉलोनी । व्यास साहब के दौलतखाने पर । अभी-अभी खबर आई है कि मिसेज व्यास अपने गुनाहों को कबूल करने के लिए तैयार हो गई हैं । अपनी जान बचाने के लिए वे पुलिस को सब-कुछ कह देना चाहती हैं । और पुरी साहब, आप जानते ही होंगे कि अगर ऐसा हो गया तो आपकी क्या गत बनेगी ।”
प्रदीप भयभीत हो उठा । बड़ी कठिनाई से वह उठकर पैरों पर खड़ा हुआ । क्या हो गया था शालिनी को ? क्या कर दिया था उसने ? वह जुबान खोलती भी तो, सिवाय इसके कि प्रदीप की उसके साथ आशनाई थी, वह और क्या कह सकती थी ? व्यास का कत्ल कैसे हुआ था, इस बारे में यह कुछ भी नहीं जानती थी और जग्गी के तो वह अस्तित्व से भी वाकिफ नहीं थी ।
प्रदीप को कुछ राहत महसूस हुई ।
डरने कोई फायदा नहीं था - उसने अपने-आपको समझाया - जो होगा देखा जायेगा ।
वह चुपचाप पुलसियों के साथ हो लिया ।
रविवार - रात
रात को जिस वक्त पवन कुमार अपर्णा को घर छोड़ने आया, उस वक्त ग्यारह बज चुके थे । अपर्णा बहुत उदास रहती थी और अपने पिता को याद करके अक्सर रोती रहती थी, इसलिए आज पवन उसकी दिलजोई के लिए उसे जबरदस्ती घुमाने ले गया था ।
वे भीतर दाखिल हुए तो उन्होंने देखा कि ड्राइंगरूम में शालिनी, मिसेज साराभाई के साथ बैठी बातें कर रही थी ।
पवन ने मिसेज साराभाई का अभिवादन किया ।
“तुमने बहुत अच्छा किया जो अपर्णा को घुमाने ले गये” - मिसेज साराभाई बोली - “ऐसे वक्त में तनहाई भी इनसान को बहुत परेशान करती है ।”
पवन तनिक मुस्कराया । उसने आश्वासनपूर्ण ढंग से अपर्णा का हाथ एक बार दबाकर छोड़ दिया और फिर सामने बैठी महिलाओं से बोला - “मैं इजाजत चाहूंगा ।”
“ठहरो” - मिसेज साराभाई बोली - “मैं भी चलती हूं ।”
पवन ठिठक गया ।
मिसेज साराभाई ने शालिनी को नमस्ते की अपर्णा को गले लगाकर प्यार किया और फिर पवन के साथ हो ली ।
दोनों इमारत से निकलकर सड़क पर आ गए ।
“पवन” - मिसेज साराभाई गम्भीर स्वर में बोली - “जरा मेरे यहां चलो । तुमसे कुछ बात करनी है ।”
पवन बड़ा अजीब-सा सस्पेंस महसूस करता हुआ मिसेज साराभाई के साथ हो लिया ।
पीछे अपर्णा शालिनी से कह रही थी - “शालिनी, मैं देख रही हूं कि पापा की वसीयत पढी जाने के बाद से तुम मुझसे बहुत खफा हो और मुझसे ढंग से बात तक नहीं करती हो । हालांकि तुम जानती हो कि जो कुछ हुआ है उसमें मेरा कोई दोष नहीं है ।”
“लेकिन तुम हालात को सुधार तो सकती हो ।”
“कैसे ?”
“मुझे मेरा हक देकर ।”
“अपना हक क्या समझती हो तुम ?”
“अपने पति की जायदाद में आधा हिस्सा ।”
“यह मैं नहीं कर सकती । मैं अपने पापा की अन्तिम इच्छा के खिलाफ नहीं जा सकती ।”
“तुम्हारे पापा बुढौती में सठिया गए थे जो उन्होंने अपनी ऐसी अन्तिम इच्छा जाहिर की उनकी अक्ल ठिकाने होती तो अपनी ब्याहता बीवी के साथ ऐसा जुल्म वे हरगिज ने करते ।”
“शालिनी” - अपर्णा तीखे स्वर में बोली - “मैं पहले भी कह चुकी हूं कि मैं अपने पिता के बारे में कोई उल्टी-सीधी बात सुनने को तैयार नहीं ।”
“मैंने कोई उल्टी-सीधी बात नहीं कही । मैंने वही कहा है जो सच है । व्यास साहब सिर्फ तुम्हारे पिता ही नहीं थे, मेरे पति भी थे और उन्होंने वसीयत ने मामले में जो कुछ किया है, मैं उसे सरासर जुल्म मानती हूं ।”
“देखो” - अपर्णा अनुनयपूर्ण स्वर में बोली - “पापा तुम्हारे लिए जीवन भर पांच हजार रुपये महीने का इन्तजाम कर गए हैं । शालिनी, इतनी ही रकम हर महीने तुम्हें मैं दे दिया करूंगी । हालांकि यह बात भी पापा की मर्जी के खिलाफ होगी, लेकिन मैं फिर भी करने के लिए तैयार हूं । साथ में इस घर को चलाने में जो चर्चा होता है, वह अकेली मैं करूंगी । यानी कि तुम्हें हर महीने दस हजार रुपये मिलेंगे, लेकिन खर्चा तुम्हें कुछ भी नहीं करना होगा । मेरे ख्याल से यह रकम कम नहीं तुम्हारे लिए ।”
“शुक्रिया” - शालिनी शुष्क स्वर में बोली - “मुझे खैरात नहीं चाहिए ।”
“शालिनी, तुम खामखाह गर्म हो रही हो । गम्भीरता से सोचो तो तुम्हें बहुत कुछ मिल रहा है । जो कुछ मैं अब कह रही हूं, उसके अनुसार इस घर की तमाम शानो-शौकत, सब ठाट-बाट केवल तुम्हारे लिए होंगे ।”
“और तुम कहां जाओगी ?”
“मैं अब इस घर में नहीं रहूंगी मैं और पवन फौरन शादी कर रहे हैं । फिर मैं वहां रहूंगी जहां मेरा पति मुझे रखेगा ।”
“तुम फौरन शादी कर रही हो ?”
“हां ।”
“तुम्हारे पापा की चिता की राख अभी ठण्डी नहीं हुई और तुम शादी कर रही हो ?”
“हां । लेकिन वैसी शादी नहीं जैसी तुम समझ रही हो । मैं कोर्ट में जाकर चुपचाप शादी कर रही हूं ।”
“लेकिन इतनी जल्दी क्यों ?”
“क्योंकि अब यहां रहना मुझे दूभर लगने लगा है । यहां मेरा दम घुटता है । मुझे हर क्षण पापा की याद आती रहती है ।”
“तुमने अपना यह इरादा पवन को बता दिया है ?”
“नहीं । अभी नहीं । मैंने अभी यह फैसला किया है । मैं उससे कल बात करूंगी ।”
शालिनी कुछ क्षण खामोश रही । फिर वह अपर्णा के पास पहुंची । उसने बड़े दुलार के साथ अपर्णा की पीठ थपथपाई और बोली - “ठीक है । जो मुनासिब समझो, करो । अब जाकर सो जाओ बहुत रात हो गई है ।”
“जाती हूं” - अपर्णा उदास स्वर में बोली - “लेकिन आजकल नींद आती कहां है ?”
“क्या ? तुम आजकल ठीक से सो नहीं रही हो ?”
“नहीं ।”
“तुमने मुझे बताया होता । डॉक्टर देवगुण को बताया होता । वह कोई दवा भिजवा देता ।”
“मैंने ख्याल नहीं किया ।”
“मेरे पास नींद की गोलियां हैं । आज मैं तुम्हें एक गोली देती हूं । तुम्हें फौरन नींद आ जायेगी ।”
“थैंक्यू ।”
“तुम चलो । मैं गोली लेकर आती हूं ।”
अपर्णा सीढियों की ओर बढ गई ।
शालिनी बुत बनी वहीं खड़ी उसे देखती रही ।
अपर्णा के फौरन शादी कर लेने के इरादे ने उसे आन्दोलित कर दिया था । अगर अपर्णा शादी कर लेती उसका कानूनी वारिस पवन बन जाता और उसकी छुट्टी हो जाती । अपर्णा के शादी किए बिना मर जाने की सूरत में उसकी इकलौती वारिस शालिनी होती और सारी जायदाद उसके हाथ आ जाती ।
पिछले सोमवार प्रदीप से मुलाकात के दौरान जब से प्रदीप ने पिता के गम में पुत्री के आत्महत्या कर लेने की बात की थी, उसी से वह अपर्णा के अनिष्ट की कामना कर रही थी और ऐसे आशापूर्ण सपने देख रही थी कि शायद अपर्णा को अपने आप कुछ हो जाता या वह आत्महत्या कर ले । लेकिन अब एकाएक उसके फौरन शादी कर लेने के इरादे के बारे में सुनकर उसे लग रहा था कि अपने आप कुछ नहीं होने वाला था, अगर उसने व्यास की करोड़ो की सम्पत्ति को अपने अधिकार में देखना था तो उसे ही करना था ।
लेकिन क्या करे वो ?
उसे एक ही बात सूझी ।
लड़की नींद न आने की शिकायत कर रही थी और नींद की गोली खाने को तैयार थी ।
उसने फौरन एक खतरनाक फैसला कर लिया ।
उसने काशीनाथ को आवाज दी और उसे अपर्णा के लिए एक गिलास दूध लाने के लिए कहा ।
फिर वह जल्दी-जल्दी सीढियां चढकर अपने बेडरूम में पुहंची ।
नींद की गोलियां वह अक्सर खाती थी, इसलिए उसके पास उनकी एक लगभग भरी हुई शीशी मौजूद थी । उसने वहां शीशी निकाली । फिर वह दरवाजे के पास खड़ी हो गई और कान लगा कर सुनने लगी ।
सीढियों पर से जब काशीनाथ के कदमों की आहट आई तो वह अपने कमरे से बाहर निकली ।
काशीनाथ एक छोटी-सी ट्रे में दूध का गिलास रखकर ला रहा था ।
“लाओ” - वह बोली - “दूध मैं ले जाती हूं ।”
काशीनाथ ने ट्रे उसे सौंप दी और वापिस सीढियां उतर गया ।
शालिनी ट्रे अपने कमरे में ले आई ।
उसने दूध के गिलास का ढक्कन उठाया और उसमें दस-बारह नींद की गोलियां डाल दीं । एक लैटर ओपनर की सहायता से उसने गोलियों को अच्छी तरह से दूध में घोल दिया । फिर उसने नींद की गोलियों की शीशी भी ट्रे में दूध के गिलास की बगल में रख दी और ट्रे उठा ली ।
वह अपर्णा के कमरे में पहुंची ।
“लो” - वह ट्रे अपर्णा के पलंग के पास पड़ी मेज पर रखती हुई बोली - “एक गोली खा लो ।”
“तुमने क्यों तकलीफ की, शालिनी” - अपर्णा बोली - “कोई नौकर...”
“अरे, जाने भी तो । तकलीफ कैसी ?”
अपर्णा ने ट्रे पर से शीशी उठाकर एक गोली उसमें से निकाली और शीशी वापिस ट्रे में रख दी । उसने दूध का गिलास उठाया और दूध के साथ वह गोली निगल गई । बाकी का दूध उसने छोड़ देना चाहा, लेकिन शालिनी ने उसे ऐसा नहीं करने दिया । उसकी जिद पर अपर्णा सारा दूध पी गई ।
फौरन उसे नींद ने दबोच लिया ।
शालिनी अपने बैडरूम में आई ।
उसने घन्टी बजाकर काशीनाथ को बुलाया और अपने लिए भी एक गिलास दूध मंगवाया ।
काशीनाथ उसे दूध दे गया ।
शालिनी ने अपना दूध सिंक में बिखरा दिया । उसने अपने कपड़े के सफेद दस्ताने निकालकर पहन लिए और दूध का आधा गिलास उठाये फिर अपर्णा के कमरे में पहुंची ।
अपर्णा गहरी नींद सोई पड़ी थी ।
उसने सावधानी से ट्रे में से अपर्णा वाला दूध का गिलास उठाया और उस पर के उंगलियों के निशानों को छेड़े बिना उसे बाथरूम में ले आई । वहां उसने गिलास को यूं सावधानी से धोया कि उसके बाहरले भाग पर पानी की बूंद न छूने पाई । और उसने अपने गिलास वाला दूध अपर्णा के गिलास में डाल दिया और गिलास वापिस ट्रे में रख दिया ।
अब दूध के गिलास पर और नींद की गोलियों की शीशी पर अपर्णा की अपनी उंगलियों के निशान थे और गिलास में मौजूद दूध एकदम निर्दोष था ।
वह कमरे से बाहर निकली ।
गलियारे में एक ऊंचा स्टूल पड़ा था जिस पर पीतल का एक फूलों से सजा फूलदान पड़ा था ।
दस्ताने पहने हाथों से वह फूलदान उसने वहां से उठाकर गलियारे के फर्श पर रख दिया और स्टूल उठाये अपर्णा के दरवाजे पर पहुंची । उसने स्टूल पर चढकर रोशनदान की स्प्रिंगदार चिटकनी खींचकर रोशनदान खोला । फिर उसने दरवाजा बन्द कर दिया और स्टूल पर चढे-चढे बाहर की ओर से रोशनदान में हाथ डालकर दरवाजे को भीतर की ओर से चिटकनी लगा दी । फिर उसने रोशनदान का पल्खा जोर से अपनी ओर खींचा तो उसकी स्प्रिंगदार चिटकनी अपने आप भीतर की ओर से खांचे में अटक गई ।
फिर वह स्टूल से उतर आई । उसने स्टूल को यथास्थान पहुंचाया और फूलदान वापिस उस पर रख दिया ।
जो स्टेट उसने सैट की थी, वह उससे सन्तुष्ट थी ।
कल जब अपर्णा अपने कमरे से न निकलती और दरवाजे तोड़कर खोला जाता तो कोई हरगिज यह शक न कर पाता कि अपर्णा ने आत्महत्या नहीं की थी ।
एक बार फिर उसे व्यास की करोड़ों की जायदाद अपने अधिकार में दिखाई देने लगी ।
दौलत का सपना देखते ही सबसे पहले जिस आदमी के लिए लिए उसके स्वार्थी मन में, विद्वेष और तिरस्कार की भावना आई, वह प्रदीप पुरी ही था । एक बार फिर उसने फैसला किया कि उस मामूली आदमी की अब उसकी जिन्दगी में कोई जगह नहीं थी ।
अपने सुन्दर भविष्य के रंगीन सपने देखती हुई वह वापिस अपने कमरे की ओर बढ चली ।
मिसेज साराभाई पवन को अपनी कोठी के ड्राइंगरूम में ले आई ।
“बात क्या है ?” - पवन ने तुरन्त उत्सुक स्वर में पूछा ।
“पवन” - मिसेज साराभाई गम्भीर में बोली - “तुम अपर्णा से शादी करने में देर क्यों लगा रहे हो ?”
“मैं तो देर नहीं लगाना चाहता” - पवन हड़बड़ाकर बोला - “लेकिन व्यास साहब की मौत के बाद इतनी जल्दी...”
“अगर यह बात है तो धूमधाम मत करो । खाली से शादी कर लो । पवन, अगर अपर्णा की भलाई चाहते हो तो या तो उसे व्यास के घर से निकाल लो और या खुद जाकर व्यास के घर में रहने लगो ।”
“लेकिन बात क्या है, मिसेज साराभाई ?”
“बात है । सुनो, तुमने कभी अपर्णा को भारी पस्ती और बेकरारी की हालत में देखा है ? उसके व्यवहार से उसके हाव-भाव से तुम्हें कभी ऐसा लगा जैसे वो आत्महत्या कर सकती हो ?”
“नहीं तो । वह आत्महत्या क्यों करेगी भला ? अपने पापा की मौत से वह दुखी जरूर है लेकिन आत्महत्या भला क्यों करेगी वो ?”
“तो फिर शालिनी ऐसी बातें क्यों करती है ? वह हर किसी के दिमाग में चोरी-छुपे यह बात घुसाने की कोशिश क्यों कर रही है कि व्यास की मौत के गम में अपर्णा आत्महत्या कर सकती है ?”
“वह ऐसा कहती है तो बकवास करती है” - पवन आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “अपर्णा के मन में आत्महत्या कर लेने जितनी घोर निराशा घर कर गई हो और मुझे भनक तक न लगी हो, यह नहीं हो सकता ।”
“लेकिन शालिनी ऐसा प्रचार कर रही है । मेरे अलावा और भी वई लोगों को वह ऐसे संकेत दे चुकी है ।”
“लेकिन शालिनी ऐसा क्यों कह रही है ।”
“भगवान जाने । एक बात बताओ अपर्णा ने अपनी कोई वसीयत की है ?”
“नहीं तो । उसे तो वसीयत करना सूझा तक नहीं होगा । वसीयत तो वो लोग करते हैं जिन्हें अपनी मौत की आशंका होती है । अपर्णा भला...”
“पवन” - मिसेज साराभाई उसकी बात काटकर उत्तेजित स्वर में बोली - “अगर अपर्णा बिना वसीयत किये मर गई तो व्यास की सारी सम्पत्ति की वारिस खुदबखुद ही शालिनी बन जायेगी । कभी सोचा तुमने यह ?”
“मिसेज साराभाई” - पवन आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “अगर आप समझती हैं कि अपर्णा की दौलत की खातिर...”
“बात का मतलब समझने की कोशश करो, स्टूपिड । क्या भूल गए हो कि व्यास ने अपनी सम्पत्ति में से शालिनी को तकरीबन बेदखल कर दिया है । शालिनी जैसी लालची औरत, जिसने दौलत की खातिर ही अपने से दुगनी उम्र के आदमी से शादी की थी, दौलत यूं हाथ से निकली जाती देखकर क्या हाथ पर हाथ रखे बैठी रहेगी ?”
“मैं आपकी बात का मतलब समझ रहा हूं, मिसेज साराभाई” - पवन एकाएक इतना आन्दोलित हो उठा कि उठकर खड़ा हो गया - “लेकिन मेरा दिल नहीं मानता कि शालिनी इतना खतरनाक कदम उठा सकती है ।”
“शालिनी कोई खानदानी औरत नहीं । अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए वह इससे कहीं ज्यादा खतरनाक कदम उठा सकती है । तुम अभी बच्चे हो, पवन । दीन-दुनिया को उतना नहीं समझते हो जितना मैं समझती हूं । शालिनी जैसी औरतों की जात पहचानती हूं । पवन, अपर्णा की खैरियत चाहते हो तो फौरन उससे शादी कर लो और उसे उस घर से निकाल ले जाओ । अभी शादी नहीं भी कर सकते तो उसे शालिनी की पहुंच से दूर तो हर हालत में कर दो ।”
पवन खामोश रहा ।
“तुम्हारी जगह अगर मैं होती तो मैं सुबह होने का भी इंतजार न करती ।”
“यू आर राइट” - पवन बोला - “थैंक्यू मिसेज साराभाई । थैंक्यू एण्ड गुड नाइट ।”
वह बन्दूक से छूटी गोली की तरह वहां से भागा ।
शालिनी अभी अपने बेडरूम के दरवाजे से दूर ही थी कि उसे कॉलबैल बजती सुनाई दी ।
न जाने क्यों एकाएक वह आतंकित हो उठी । इतनी रात गए अब कौन आ गया था ?
वह सीढियों के दहाने पर पहुंची तो उसे काशीनाथ मुख्य द्वार की ओर बढता दिखाई दिया ।
“काशीनाथ !” - शालिनी तीव्र स्वर में बोली - “दरवाजा न खोलना ।”
काशीनाथ ठिठका ।
घंटी फिर बजी ।
“दरवाजा तो खोलना ही पड़ेगा, बड़ी मेम साहब” - काशीनाथ आदरपूर्ण स्वर में बोला - “नहीं तो घंटी तो बजती ही रहेगी ।”
“ठीक है” - शालिनी तनिक सकपकाकर बोली - “देखो कौन है, लेकिन जो भी हो उसे दरवाजे से ही चलता कर देना यह कोई वक्त है किसी के घर आने का ?”
काशीनाथ ने दरवाजा खोला ।
पवन बगोले की तरह भीतर दाखिल हुआ ।
“पवन !” - शालिनी चौंकी - “अब क्या है ?”
“मैं” - पवन हांफता हुआ बोला - “जरा अपर्णा से मिलना चाहता हूं ।”
“इस वक्त ? अपर्णा सो चुकी है । सुबह आना ।”
“आप उसे जगाइए । मैंने उससे इन्तहाई जरूरी बात करनी है ।”
“तुम पागल तो नहीं हो गए हो ? ऐसी कौन-सी बात है जो सुबह नहीं हो सकती ?”
“आप मुझे पागल कहिये या कुछ और । मैं उससे मिले बिना यहां से नहीं जाऊंगा ।”
“मैं ऐसी बेहूदगी की इजाजत नहीं दे सकती । तुम जाओ यहां से ।”
“तो फिर मुझे बिना इजाजत यह काम करना होगा ।” - और पवन दृढ कदमों से सीढियों की ओर बढा ।
“काशीनाथ” - शालिनी चिल्लाई - “रोको इसे ।”
“मैं इसे रोकूं, बड़ी मेम साहब ?” - काशीनाथ दबे स्वर में बोला - “छोटी मेम साहब खफा नहीं हो जाएंगी ?”
पवन तीन-तीन सीढियां फांदता हुआ ऊपर पहुंचा, शालिनी ने उसका रास्ता रोकने की कोशिश की लेकिन पवन ने बड़ी सहूलियत से उसे धकेल दिया । वह लगभग दौड़ता हुआ अपर्णा के दरवाजे पर पहुंचा ।
शालिनी के व्यवहार ने अब उसे और भी शक में डाल दिया था । क्यों वह उसे अपर्णा से मिलने नहीं देना चाहती थी ? उसके मन में अपर्णा के अनिष्ट की आशंका और भी घर कर गई । उसने अपर्णा के बैडरूम का दरवाजा खटखटाया और उसे नाम लेकर पुकारा ।
कोई उत्तर न मिला ।
पवन घबराकर जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगा और अपर्णा को आवाजें लगाने लगा ।
खामोशी ।
पवन ने स्टूल पर रखा गुलदस्ता एक ओर फेंका और स्टूल को दरवाजे के सामने रखा । वह स्टूल पर चढ गया । उसने रोशनदान से भीतर झांका । भीतर की बत्ती जल रही थी और अपर्णा बैड पर सोई पड़ी थी ।
“अपर्णा !” - वह गला फाड़कर चिल्लाया ।
अपर्णा के कान पर जूं भी न रेंगी ।
पवन ने अपने दाएं हाथ के एक ही घूंसे में रोशनदान का शीशा तोड़ दिया । उसका हाथ लहूलुहान हो गया, लेकिन उसने उसकी परवाह न की । उसने टूटे शीशे में से हाथ डालकर दरवाजे को चिटकनी खोली और दरवाजे का धक्का दिया । वह भीतर दाखिल हुआ और अपर्णा के पलंग के समीप पहुंचा । उसने अपर्णा के दोनों कंधे पकड़कर उसे झिंझोड़ा, लेकिन अपर्णा ने आंखें न खोलीं । उसने आंतकित भाव से उशकी नब्ज टटोली । यह देखकर उसकी जान में जान आई कि नब्ज हौले-हौले चल रही थी ।
पवन भागता हुआ बाहर निकला और सीढियों के पास गला फाड़कर चिल्लाया - “काशीनाथ ! डॉक्टर को फोन करो । पुलिस को फोन करो ।”
पुलिस के नाम पर समीप खड़ी शालिनी के हवास उड़ गए ।
“पुलिस को किसलिए ?” - वह दहशत-भरे स्वर में बोली ।
“ताकि मालूम हो सके” - पवन क्रूर स्वर में बोला - “कि तुमने क्या किया है अपर्णा को ।”
“मैंने कुछ नहीं किया ।”
“तो फिर तुम मुझे उससे मिलने क्यों नहीं दे रही थीं ?”
“वह सोई हुई थी, मैं उसे जगाना नहीं चाहती थी ।”
“वह सोई नहीं थी, नींद की गोलियां खाकर मर रही थी और या बात तुम्हें मालूम थी । इसीलिए तुम मुझे हर हालत में ऊपर जाने से रोकना चाहती थीं ।”
“झूठ !”
“शालिनी, अपनी खैरियत चाहती हो तो सच-सच बता दो क्या बात हुई थी ?”
“मैंने कुछ नहीं किया । मैंने कुछ नहीं किया ।”
“हम अपने हाथों में दस्ताने क्यों पहने हुए हो ?”
“दस्ताने !” - वह चौंकी । तब पहली बार उसके ध्यान में आया कि कपड़े के सफेद दस्ताने वह अभी भी पहने थी । उसने जल्दी दास्तने उतारे और उन्हें अपने एक हाथ की मुट्ठी में भींच लिया ।
“शालिनी, ऐसे ही दस्ताने तुम शुक्रवार की रात को तब पहने थीं जब मैंने तुम्हें व्यास साहब की स्टडी से निकलते देखा था । तब तुमने व्यास साहब की वाल सेफ खोली थी और इसलिए दस्ताने पहने थे ताकि वहां तुम्हारी उंगलियों के निशान न रह जायें । आज भी अपनी उंगलियों के निशान छुपाने के लिए ही तुम दस्ताने पहने हुए हो । ऐसी कौन-सी करतूत की है तुमने जिसमें तुम अपनी उंगलियों के निशान अपने पीछे नहीं छोड़ना चाहती थीं ? बोलो, क्या किया है तुमने ?”
“मैंने कुछ नहीं किया है ।”
“जो कुछ किया है, तुम्हीं ने किया है । मेरा दिल गवाही दे रहा है कि सारी करतूत तुम्हारी है । शालिनी, अगर अपर्णा को कुछ हो गया तो कसम है मुझे अपने पैदा करने वाले की, मैं तुम्हें भी जिन्दा नहीं छोडूंगा ।”
शालिनी एकाएक रोने लगी ।
तभी डॉक्टर देवगुण वहां पहुंच गया । वह और काशीनाथ भागते हुए ऊपर पहुंचे ।
पवन ने अपर्णा के कमरे की ओर इशारा किया । दोनों भागते हुए कमरे में दाखिल हो गए ।
पवन ने शालिनी को उसके दोनों कंधों से पकड़ लिया और उसे झिझोड़ता हुआ बोला - “अगर इन्सान की बच्ची हो तो सच-सच बता दो तुमने क्या किया है ?”
“पवन” - शालिनी का मनोबल एकाएक पूर्णतया छन्नभिन्न हो गया । वह रोती हुई बोली - “मुझे माफ कर दो मुझे पुलिस के चंगुल में फंसने से बचा लो ।”
“वह बाद की बात है । पहले यह तो बको कि तुमने किया क्या है ?”
वह हिचकिचाई ।
“शालिनी, तुम्हारी ढेर सारी करतूतों से मैं पहले ही वाकिफ हूं । मुझे तुम्हारी और प्रदीप पुरी की आशनाई की भी खबर है । अभी पुलिस यहां पहुंचेगी तो वे लोग वैसे भी तुमसे जबर सब कुछ कबुलवा लेगे । इसलिए चुप रहने से फायदा ?”
“तुम मुझे पुलिस से बचा लोगे ?”
“अगर अपर्णा बच गई तो बचा लूंगा ।”
शालिनी ने धीरे-धीरे सब-कुछ कह दिया ।
“तुम यहीं ठहरना” - अन्त में पवन बोला - “मैं अभी आता हूं ।”
शालिनी ने सहमति में सिर हिलाया ।
पवन ने पहले गलियारे में ही रखे टेलीफोन से पुलिस हैडक्वार्टर फोन किया । उसने कहा कि शालिनी अपने पति की मौत से सम्बन्धित कुछ बातें बताना चाहती थी और अपना बयान रिकार्ड कराना चाहती थी । और कहा कि क्योंकि सी आई डी इंस्पेक्टर पंडित को केस की बेहतर जानकारी थी इसलिए किसी भी तरह उसे इस बात की खबर कर दी जाए ।
फिर वह अपर्णा के कमरे में पहुंचा ।
डॉक्टर देवगुण उसे देखकर सीधा हुआ और बोला - “चिन्ता की कोई बात नहीं है । यह अब खतरे से एकदम परे है । नींद की सारी गोलियां अभी इसे पच नहीं पाई थीं । मैंने स्टामेक पम्प द्वारा पेट में से सब-कुछ निकाल दिया है ।”
“लेकिन यह होश में तो नहीं दिखाई देती ।” - पवन व्यग्र स्वर में बोला ।
“अभी होश में भी आ जाएगी । तुम कतई चिन्ता मत करो । मैं तुम्हें इसके साथ बातें करता छोड़कर जाऊंगा ।”
“थैंक्यू डॉक्टर !” - पवन कृतज्ञ स्वर में बोला ।
वह फिर बाहर निकल आया निकल आया और शालिनी के पास पहुंचा ।
“शालिनी” - वह बोला - “शुक्र मनाओ कि अपर्णा बच गई है ।”
शालिनी ने शांति की गहरी सांस ली ।
“अभी पुलिस यहां आती ही होगी । शालिनी, तुम्हें पुलिस को वो सब-कुछ बताना होगा जो तुमको प्रदीप के बारे में मुझे बताया है । बदले में मेरा तुमसे वादा है कि पुलिस को मैं या अपर्णा या कोई भी नहीं बताएगा कि तुमने अपर्णा को नींद की गोलियां खिलाकर उसकी जान लेने की कोशिश की थी । पूछा जाने पर पुलिस ने यही बताया जाएगा कि अपर्णा अनजाने में नींद की गोलियां खा गई थी । बोलो, क्या कहती हो ?”
“ठीक है” - शालिनी टूटे स्वर में बोली - “जैसा तुम कहो ।”
“गुड । अपर्णा की खातिर मैं तुम्हें बचाने को तैयार हूं, लेकिन उस हरामजादे प्रदीप पुरी को तो अपनी करतूतों की सजा मिलनी ही जाहिए ।”
शालिनी खामोश रही ।
पवन वापिस अपर्णा के बेडरूम में पहुंचा ।
अपर्णा न केवल होश में आ गई थी बल्कि डॉक्टर का सहारा लेकर चल रही थी ।
“कम-से-कम दो घंटे और इसे सोने नहीं देना है” - डॉक्टर ने बिना पूछे ही पवन को बताया - “अगर इसे हरकत में न रखा गया तो यह फिर सो जाएगी ।”
“इसे नीचे हॉल में क्यों न ले चलें ?” - पवन बोला - “हॉल में यह ज्यादा सहूलियत से चल-फिर सकेगी ।”
“ठीक है । तुम सम्भालो इसे ।”
पवन ने आगे बढकर अपर्णा को सहारा दिया । वह उसे चलाता हुआ बाहर को ले चला ।
“पवन” - अपर्णा क्षीण स्वर में बोली - “मुझे क्या हुआ था ? मैंने तो सिर्फ एक नींद की गोली खाई थी । मैं...”
“ज्यादा बातें मत करो, अपर्णा” - पवन बोला - “अभी खामोश रहो । अभी इस बारे में किसी से कोई बात मत करो । बाद में मैं तुम्हें बताऊंगा कि तुमने क्या कहना है ।”
“लेकिन बात क्या है ?”
“कोई बात नहीं है । तुम चुप हो जाओ ।”
वे नीचे हॉल में पहुंचे । उनके पीछ-पीछे शालिनी, डॉक्टर देवगुण और काशीनाथ भी नीचे पहुंचे । काशीनाथ फौरन किचन में चला गया और सबके लिए कॉफी बना लाया ।
कुछ देर बाद अपर्णा बिना किसी के सहारे के हॉल में टहल रही थी । बीच-बीच में वह रुककर कॉफी के एक दो घूंट पी लेती थी ।
तभी कॉल बेल बजी ।
काशीनाथ ने आगे बढकर दरवाजा खोला ।
इंस्पेक्टर पंडित और सब-इंस्पेक्टर चौहान के साथ प्रदीप पुरी ने भीतर कदम रखा ।
“हैडक्वार्टर से मुझे जब यहां की खबर मिली थी” - पंडित बोला - “उस वक्त मैं किसी और केस के सिलसिले में इन साहब की” - उसने प्रदीप पुरी की ओर इशारा किया - “संगत में था । इसलिए मैं इन्हें साथ ही ले आया हूं । वैसे भी अच्छा है शालिनी जी ने जो कहना है इनकी मौजूदगी में कहें ।”
“तशरूफ रखिये ।” - पवन बोला ।
सब लोग बैठ गए अपर्णा हॉल मे टहलती रही ।
पंडित ने एक खोजपूर्ण निगाह अपर्णा पर डाली और फिर बोला - “पहले यह बताइए यहां क्या हुआ था ?”
“खास कुछ नहीं हुआ” - पवन जल्दी से बोला - “बल्कि यूं कहिये कि जो होना था, वो होने से बच गया । अपर्णा को नींद आ रही थी । इसने नींद की गोलियां खा लीं । पहले कभी खाई नहीं थीं इसीलिए इसे यह नहीं मालूम था कि कितनी गोलियां खाई जाती है । इसी चक्कर में गलती से यह ज्यादा गोलियां खा गई ।”
“गलती से ?” - पंडित की भवें तन गई ।
“जी हां ।”
“फिर ?”
“इत्तफाक से मैं वापिस लौट आया । मैं हालात को समझ गया । मैंने फौरन डॉक्टर साहब को फोन कर दिया । इन्होंने आफर हालत सम्भाल ली ।”
“लेकिन आपने पुलिस को भी फोन किया था । पुलिस को किसलिए ?”
“उस वक्त मुझे असली बात मालूम नहीं थी इसलिए घबराहट में मैंने पुलिस को भी फोन कर दिया । लेकिन बाद में जब अपर्णा ने मुझे असली बात बताई तो मैंने महसूस किया कि पुलिस को फोन करने वाली हकीकत में कोई बात नहीं थी ।”
“नैवर माइण्ड यहां तो मैंने फिर भी आना था ।”
पवन खामोश रहा ।
“मैं अपर्णा जी से चन्द सवाल पूछना चाहता हूं ।” - पंडित अपर्णा की ओर देखता हुआ बोला ।
“इस वक्त मैं इस बात की इजाजत नहीं दूंगा” - डॉक्टर देवगुण जल्दी से बोला - “अपर्णा अभी दिमाग पर जोर दे पाने की स्थिति में नहीं है ।”
“कोई बात नहीं” - पंडित लापरवाही से बोला - “फिर सही । जल्दी क्या है ?”
प्रदीप पुरी शालिनी की ओर देख रहा था । वह चाहता था कि शालिनी उसकी ओर देखे और उसकी समझ में आ सके कि असल में माजरा क्या था, लेकिन शालिनी जान-बूझकर उससे निगाह नहीं मिला रही थी ।
“मैडम” - पंडित शालिनी से सम्बोधित हुआ - “मुझे मालूम हुआ है कि आप पुलिस को कुछ बताना चाहती हैं । आप ही की बातें सुनने के लिए मैं खुद इतनी रात गए यहां हाजिर हुआ हूं ।”
शालिनी ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“पहले एक बात मैं आपको प्रदीप पुरी के बारे में बात दूं” - पंडित बोला - “आज रात हमने इसे जवाहरात के चारों के सरगने के ठिकाने पर पकड़ा है । इस वक्त यह पुलिस की हिरासत में है और हम दफा तीन सौ दो के तहत इस पर कत्ल का इल्जाम लगाने वाले हैं । हम इसे यहां साथ इसलिए लाए हैं ताकि हमें यह मालूम हो सके कि आपके बारे में जो बातें यह कहता है, वो सच है या नहीं ।”
“शालिनी” - प्रदीप पुरी तीखे स्वर में बोला - “इनकी बातों पर मत जाना । मैंने इन्हें कुछ नहीं बताया है और तुम्हारे लिए भी अक्लमन्दी इस बात में होगी कि तुम भी जुबान बन्द रखो ।”
“चौहान” - पंडित सहज भाव से सब-इंस्पेक्टर से सम्बोधित हुआ - “अगर ये साहब दुबारा अपना मुंह खोलें तो बेशक इनका जबड़ा तोड़ देना ।”
“यस सर ।” - चौहान यूं तत्पर स्वर में बोला जैसे उसे उसकी पसन्द का काम बता दिया गया हो ।
“आप अपनी बात कहिए, मैडम” - पंडित शालिनी से बोला - “वैसे आपकी जानकारी के लिए आपके इस आदमी से सम्बन्धों की जानकारी हमें पहले से हैं । हमें राजपुर रोड वाले उस फ्लैट की भी खबर है जहां आप छुप-छुपकर एक-दूसरे से मिलते रहे हैं । लेकिन फिर भी आप अपनी बात शुरू से शुरू कीजिए ।”
शालिनी ने एक गुप्त निगाह प्रदीप पर डाली । इन्स्पेक्टर न अभी जब उस पर कत्ल का इल्जाम लगाने के बारे में कहा था तो वह यही समझी थी कि व्यास के कत्ल की बात हो रही थी । उसे न जग्गी के कत्ल की खबर थी और न यह मालूम था कि प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी की उन दोनों से सम्बन्धित रिपोर्ट इन्स्पेक्टर के हाथ पड़ चुकी थी । शालिनी यही समझी कि प्रदीप अपना गुनाह उसके सिर थोपने की कोशिश में पुलिस को कोई खुराफाती बात कह चुका था ।
उसने धीरे-धीरे सारी दास्तान कह डाली । उसने जब यह बताया कि व्यास की वालसेफ से उसने एजेन्सी की रिपोर्ट निकाली थी और उसे ‘जैम हाउस’ में ले जाकर प्रदीप को दिखाया था और फिर उसी की सलाह पर हत्या की रात को वह बिना किसी को साफ-साफ बताए फ्लैट से खिसक गई थी, तो प्रदीप आग बबूला हो उठा । यह औरत तो बिल्कुल ही उसका सत्यानाश करने पर तुली हुई थी । उसको यह तो मालूम नहीं था कि उसने अपर्णा का कत्ल करने की कोशिश की थी और वह अपनी खाल बचाने के लिए वह सब कुछ कर रही थी । वह यही समझा कि शालिनी को या तो धमकाया गया था और या फिर वह प्रदीप में इस बात से खफा होकर सब कुछ उगल रही थी कि वह पिछले कुछ दिनों से उससे पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहा था ।
“मेरे यहां लौटने के थोड़ी देर बाद यहां वर्मा नाम का एक सब-इसंपेक्टर आया था” - शालिनी कह रही थी - “उसी ने आकर हमें व्यास साहब की मौत की खबर सुनाई थी । इसके अलावा मैं और कुछ नहीं जानती ।”
“बस ?” - पंडित मायूस स्वर में बोला ।
“जी हां ।” - शालिनी बोली ।
और वह उम्मीद कर रहा था कि शालिनी कोई ऐसी बात बतायेगी जिससे निर्विवाद रूप से यह सिद्ध किया जा सकेगा कि व्यास की मौत कत्ल का केस था । और उसके लिए प्रदीप पुरी जिम्मेदार था ।
“तुम क्या कहते हो ?” - पंडित प्रदीप से सम्बोधित हुआ ।
शालिनी की बातों से प्रदीप के क्षीण होते हुए आत्मविश्वास को बल मिला था । वह सन्तुष्ट था कि वह कोई ऐसी बात नहीं कह सकी थी, जो कि उसके खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल की जा सकती हो । प्रत्यक्षत वह बोला - “ये झूठ बोल रही है, इन्होंने मुझे कोई प्राइवेट एजेन्सी की रिपोर्ट नहीं दिखाई थी । अगर ऐसी कोई रिपोर्ट थी तो मुझे उसके अस्तित्व का भी ज्ञान नहीं था । मैंने कभी नहीं कहा था कि व्यास की मौत वाली रात का ये यहां से कहीं चली जायें । उस रोत ये शो रूम में एक टूटी हुई चेन लेकर आई थी । चेन की एक कड़ी टूटी हुई थी जिसे जुड़वाने के लिए चेन इन्होंने मुझे दी थी और जो मैंने जुड़वाकर इन्हें लौटा दी थी । चेन के संदर्भ में हुई बातों के अलावा मेरी इनसे और कोई बात नहीं हुई थी । इस बात की तसदीक आप शोरूम के दर्जनो कर्मचारियों से कर सकते हैं । हालांकि मुझे विश्वास नहीं, लेकिन अगर इनके पति का कत्ल हुआ है तो यह इनकी अपनी करतूत है और जिसे ये अब मुझ पर थोपने की कोशिश कर रही है ।”
“तुम इस बात से इन्कार करते हो कि तुम्हारे इनसे नाजायज ताल्लुकात हैं ?” - पंडित बोला ।
“अब नहीं हैं पहले थे । लेकिन मैं ही वो इकलौता शख्स तो नहीं जिसके साथ इनके नाजायज ताल्लुकात हैं ।”
“क्या मतलब ?”
“मुझे क्या मालूम मेरे अलावा दिल्ली के और कितने मर्द इनकी मेहरबानियों के तलबागर हैं ? ये...”
“यू बास्टर्ड !” - शालिनी गला फाड़कर चिल्लाई और प्रदीप पर झपटी, लेकिन पंडित ने उसे रास्ते में ही पकड़ लिया और वापिस कुर्सी पर धकेल दिया ।
“मैंडम” - पंडित बोला - “अब आप कुर्सी से हिलियेगा नहीं । समझ गई आप ?”
शालिनी बड़ी कठिनाई से हसमति में सिर हिला पाई ।
“अब एक बात बातइए ।”
“क्या ?”
“आप एकाएक इतनी बातें हमें बताने के लिए कैसे तैयार हो गईं ? आपके पति की मौत के फौरन बाद आप से इतना कुछ पूछा गया, लेकिन आपने कुछ बताकर न दिया । लेकिन अब आप खुद व्यग्र हैं कि आप पुलिस को सब कुछ बता दें । ऐसा क्योंकर हुआ ?”
“मैंने इन्हें ऐसा कहने के लिए तैयार किया था” - पवन जल्दी से बोला - “मैंने उन्हें समझाया था कि अगर ये निर्दोष हैं तो इन्हें पुलिस से कोई बात छुपानी नहीं चाहिए ।”
“तुम्हीं ने समझाया सही । फिर भी ये कैसे मान गई ? आपके समझाने की इतनी कद्र इन्होंने क्योंकर की ?”
“आप तो बाल की खाल निकाल रहे हैं, इंस्पेक्टर साहब ।”
“कोशिश कर रहा हूं, लेकिन कामयाब रहीं हो पा रहा हूं । मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि कोई बात है जो आप लोग मुझसे छुपा रहे हैं । मैं सोच रहा हूं कि मिस अपर्णा की मौजूदा हालत...”
तभी दीवार के साथ लगी एक मेज पर पड़े एक टेलीफोन की घड़ी घनघना उठी ।
किसी के भी उठने से पहले पंडित उठ खड़ा हुआ और बोला - “यह फोन मेरे लिए होगा । मैं एक बेहद जरूरी कॉल का इन्तजार कर रहा हूं ।”
वह लम्बे डग भरता हुआ टेलीफोन के पास पहुंचा । उसने रिसीवर उठाकर कान में लगाया । वह कुछ क्षण दूसरी ओर से आती आवाज सुनता रहा और फिर संतुष्टिपूर्ण स्वर में बोला - “वैरी गुड । अच्छी खबर सुनाने का शुक्रिया ।”
उसने रिसीवर रख दिया और वापिस घूमा । उसकी निगाह हॉल में मौजूद तमाम लोगों के चेहरों से फिसलती हुई अन्त में प्रदीप पुरी पर आकर टिक गयी । फिर वह शान्त स्वर में बोला - “प्रदीप पुरी, वो हैंडल जिसका सुआ तुमने जग्गी की गरदन में मारकर तोड़ दिया था, हमें उसके कमरे के बाहर वाले गलियारे में सीढियों के पास पड़ा मिला था । वह तब तुम्हारी जेब में से गिर गया था । जब शीराजी ने तुम्हें जग्गी समझकर तुम पर वार किया था ।”
“लेकिन मैं...”
“खामोश रहो । मुझे मालूम है तुमने क्या कहना है । तुम यही कहोगे कि वो आदमी तुम नहीं थे, लेकिन अभी आई टेलीफोन कॉल से निर्विवाद रूप से साबित हो चुका है कि तुम्हीं वो आदमी थे जग्गी के कमरे में तुमने मेरे हाथ से निकला जो पेपरवेट हवा में लपका था और मेज पर रख दिया था हैंडल के साथ-साथ वह पेपरवेट भी मैंने पुलिस के फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट के पास भिजवा दिया था ताकि पेपरवेट पर मौजूद तुम्हारी उंगलियों के निशानों का मिलान हैंडल पर मौजूद उंगलियों के निशानों से किया जा सके । अभी-अभी मुझे रिपोर्ट मिली है कि उस हैंडल पर तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी, उंगलियों के निशान हैं । अब तुम बच नहीं सकते मिस्टर प्रदीप पुरी । मैं तुम्हें दफा तीन सौ दो के तहत जग्गी के कत्ल के इल्जाम में गिरफ्तार करता हूं ।”
खेल खत्म - प्रदीप पुरी ने सोचा - फांसी का फंदा अब उसे अपनी आंखों के सामने झूलता दिखाई देने लगा । अब क्या करे वो ? क्या समर्पण कर दे ? नहीं । एक कोशिश और । जब तक सांस तब तक आस ।
इंस्पेक्टर उसकी ओर बढ रहा था ।
वह उठकर खड़ा हो गया ।
एकाएक बिजली की फुर्ती से उसने दो काम किए ।
उसने अपने पतलून की बैल्ट में खुसी रिवॉल्वर खींच ली और समीप ही ठिठकी खड़ी अपर्णा की बांह पकड़कर उसे अपनी ओर घसीट लिया । उसने रिवॉल्वर अपर्णा की कनपटी से लगा दी और कहर-भरे स्वर में बोला - “खबरदार ! कोई अपनी जगह से न हिले । किसी ने कोई गलत हरकत की तो मैं इस लड़की का भेजा उड़ा दूंगा ।”
सबको जैसे सांप सूंघ गया ।
“प्रदीप” - पंडित कठोर स्वर में बोला - “तुम बच नहीं सकते ।”
“देखेंगे” - प्रदीप बोला - “फिलहाल यह लड़की मेरी सुरक्षा की गारण्टी है यह मेरे साथ जा रही है इंस्पेक्टर । इसके सहारे मैं इस शहर से कहीं दूर निकल जाने वाला हूं । जान मैं अपने आपको सुरक्षित पाऊंगा तो मैं उसे छोड़ दूंगा । लेकिन अगर तुमने खुद मेरे पीछे आने की या किसी को मेरे पीछे लगाने की कोशिश की तो मैं इसे जान से मार डालूंगा अगर लड़की की खैरियत चाहते हो तो कोई होशियारी दिखाने की कोशिश मत करना ।”
कोई कुछ नहीं बोला ।
“मेरी कार की चाबियां निकालो” - प्रदीप फिर बोला - “न न । उठने की जरूरत नहीं । चाबियां वहीं से मेरी ओर उछाल दो ।”
“प्रदीप” - पंडित कहरभरे स्वर में बोला - “तम्हारा यह ब्लफ नहीं चलने वाला । तुम इस लड़की को शूट नहीं कर सकते । अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो लड़की को छोड़ दो ।”
“अपनी खैरियत चाहता हूं” - प्रदीप विष-भरे स्वर में बोला - “इसीलिए मैं लड़की को नहीं छोडूंगा । तुम लड़की की खैरियत चाहते हो तो मेरी कार की चाबियां मुझे वापिस करो ।”
“इंस्पेक्टर” - एकाएक पवन बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “जो यह कहता है, करो ।”
“लेकिन...”
“लेकिन वेकिन कुछ नहीं । वह अपर्णा की जिन्दगी का सवाल है । अगर तुमने प्रदीप पर झपटने की कोशिश की तो सुन लो, उससे पहले मैं तुम पर झपट पडूंगा । यह जो कहता है करो । इसे कार का चाबियां लौटाओ ।”
पंडित ने असहाय भाव से जेब से चाबियां निकालीं और उन्हें प्रदीप की ओर उछाल दिया । प्रदीप ने चाबिया हवा में ही लपक ली । फिर उसने अपर्णा को आदेश दिया - “चलो ।”
अपर्णा ने कातर भाव से पवन की ओर देखा ।
“चली जाओ, अपर्णा” - पवन अश्वासनपूर्ण स्वर में बोला - “लेकिन मेरा विश्वास करो, तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा ।”
“पवन” - प्रदीप बोला - “अगर अपनी मंगेतर की खैरियत चाहते हो तो इन पुलिसियों को समझाकर रखना कि ये मेरे पीछे आने की कोशिश न करें ।”
पवन ने सहमति में सिर हिलाया ।
प्रदीप उलटे कदमों से चलता हुआ अपर्णा के साथ बाहर के दरवाजे की ओर बढा ।
“अच्छी तलाशी ली थी तुमने इसकी ।” - पंडित वितृष्णापूर्ण स्वर में सब-इंस्पेक्टर चौहान से बोला ।
“लेकिन साहब” - चौहान तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “मैंने तो इसकी ऐसी बारीकी से तलाशी ली थी कि उसके पास एक सुई नहीं छुपी रह सकती थी ।”
“तो फिर रिवॉल्वर कहां से आ गई इसके पास ?”
“यही तो मेरी समझ में नहीं आ रहा । मैं खुद हैरान हूं ।”
प्रदीप अपर्णा के साथ वहां से बाहर निकल गया । उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया । साथ ही बाहर से कुंडी लगाये जाने की आवाज आई ।
पवन फौरन अपने स्थान से उठा और गलियारे की ओर भागा ।
“कहां जा रहे हो ?” - पंडित ने पूछा ।
पवन ने जवाब नहीं दिया । पलक झपकते ही उसने गलियारा पार किया और बगोले की तरह व्यास की स्टडी में दाखिल हुआ । वह उस शीशे के शो केस के पास पहुंचा जिसमें विभिन्न प्रकार की बन्दूकें, रायफलें और पिस्तौंले सजी हुई थीं ।
कभी जब वह एन सी सी में था तो उसे रायफल से निशानेबाजी में पहला इनाम मिला था । आज उसने अपने आपको एक बार फिर पहले इनाम का हकदार साबित करके दिखाना था ।
उसने एक कुर्सी उठाई और उसे शो केस पर दे मारा । शो केस के शीशों के परखच्चे उड़ गए । उसने भीतर हाथ डालकर एक टेलीस्कोपिक साइट वाली रायफल निकाली । उसने उसे खोलकर इस बात की तसदीक की कि वह भरी हुई थी और फिर बाहर भागा ।
वह ड्राइंगरूम की बालकनी में पहुंचा ।
कोई पचास फुट नीचे ड्राइव वे में पुलिस की एक जीप के पीछे प्रदीप पुरी की फिएट खड़ी थी । उसने रेलिंग का सहारा ले लिया और रायफल उस ओर तान दी ।
वह मन-ही-मन भगवान को याद करने लगा ।
यह उसके लिए ऐसे इम्तहान की घड़ी थी जिस पर उसकी सारी जिन्दगी का दारोमदार था । नीचे पर्याप्त रोशनी भी नहीं थी और उसने इतने फासले से एक ही वार में अपनी कोशिश मे कामयाब होना था ।
उसने टेलीस्कोप घुमाकर उसे कार के फासले पर फोकस कर लिया ।
उसका चेहरा पसीने से नहा रहा था और ट्रीगर से लिपटी उंगली कांप रही थी ।
प्रदीप अपर्णा की बांह दबोचे उसके साथ इमारत से बाहर निकला और अपनी कार की तरफ बढा ।
पवन ने अपनी कांपती उंगली को स्थिर किया और प्रदीप को टेलीस्कोपिक साइट की क्रासवायर के बीच में लाने की कोशिश करने लगा ।
प्रदीप ने चाबी लगाकर कार का स्टियरिंग की ओर का दरवाजा खोला और उसने अपर्णा को भीतर धकेल दिया । फिर वह स्वयं भी नीचे झुककर कार में दाखिल होने ही लगा था कि पवन ने हौले से रायफल का घोड़ा खींच दिया ।
सोमवार - सुबह
काशीनाथ एक ट्रे उठाये ड्राइंगरूम में पहुंचा । उसमें कॉफी के उफनते हुए कप रखे थे । उसने डॉक्टर देवगुण, पवन, अपर्णा और मिसेज साराभाई को कॉफी सर्व की ।
मिसेज साराभाई को पवन ने विशेष रूप से वहां बुलवाया था और उस वक्त वही अपर्णा को सम्भाले हुए थी । ऊपर एक नौकरानी एक सूटकेस में अपर्णा के कुछ कपड़े और जरूरी सामान पैक कर रही थी । मिसेज साराभाई ने इस बात की जिद की थी कि जब तक पवन और अपर्णा अपने रहने का कोई ज्यादा मनासिब इन्तजाम नहीं कर लेते थे, वे उसके यहां मेहमान बन कर रहें ।
पवन ने ऐसा करना सहर्ष स्वीकार कर लिया था ।
अपर्णा सकते की हालत में थी, लेकिन डॉक्टर देवगुण ने पवन को आश्वासन दिया था कि वह बहुत जल्द ठीक हो जाने वाली थी ।
तभी इंस्पेक्टर पंडित वहां पहुंचा ।
काशीनाथ ने उसे कॉफी का कप थमा दिया और वहां से परे सरक गया ।
“क्या हुआ ?” - पवन ने पूछा ।
“मैं सीधा अस्पताल से आ रहा हूं” - पंडित बोला - “प्रदीप की जान नहीं बच सकी । रायफल बहुत शक्तिशाली थी । गोली उसकी पीठ में लगी थी और उसके फेफड़ों को फाड़ती हुई सामने से निकल गई थी ।”
“ओह !”
“तुम तो कमाल के निशानेबाज निकले । इतनी टैंस हालत मैं तुमने इतना शानदार निशान लगा लिया, जबकि तुम्हारा दायां हाथ भी घायल था ।”
“घायल हाथ की वजह से ही तो मैंने उस हरामजादे का भेजा उड़ाने की कोशिश नहीं की थी ।
“जो मर चुका है, अब उसे कोसने से क्या फायदा ? अपने किये की सजा मिल गई उसे ।”
पवन खामोश रहा ।
“मरने से पहले अपने अपराध वह कबूल कर गया है । उसने अपने मुंह से माना है कि वहीं ‘जैम हाउस’ का वो कर्मचारी थी जो जवाहरात के चोरों के उस गैंग को जवाहरात की बिक्री की खुफिया जानकारी देता था, जिसका सरगना जग्गी नाम का एक आदमी था । उसी ने जग्गी से व्यास साहब का कत्ल करवाया था । और बाद में जग्गी को अपने लिए खतरा मानकर उसने अपने हाथों से जग्गी का खून किया था । अच्छा हुआ तुम्हारी गोली खाकर वह मर गया और भारी जिल्लत और रुसवाई से बच गया । जिन्दा भी रहता तो दफा तीन सौ दो के तहत फांसी की सजा से वो हरगिज न बच पाता ।”
“शक्ल से कैसा शरीफ आदमी लगता था” - मिसेज साराभाई मन्त्रमुग्ध स्वर में बोली - “लेकिन एकदम राक्षस निकला ।”
कोई कुछ न बोला ।
“मिसेज व्यास कहां है ?” - पंडित ने पूछा ।
“ऊपर” - पवन ने बताया - “अपने कमरे में ।”
“आप अभी भी यही कहना चाहते हैं कि अपर्णा गलती से नींद की ज्यादा गोलियां खा गई थी ?”
“जी हां । यही सच है ।”
“सच तो मैं खूब समझता हूं क्या है मिस्टर पवन कुमार । पुलिस की अपनी इतनी लम्बी नौकरी में मैंने घास नहीं खोदी है । मैं खूब समझ रहा हूं कि आधी रात को एकाएक मिसेज व्यास पर सच बोलने का दौरा क्यों पड़ गया था । लेकिन... खैर । मैं आप ही की बात माने लेता हूं । इस वक्त बड़े जनरस मूड में हूं, इसलिए जिद नहीं करता कि आप मुझे सच्ची बात बतायें ।”
“जो बात मैंने आपको बताई है, वही सच्ची बात है ।” - पवन शुष्क स्वर में बोला ।
“जी हां । जी हां । क्यों नहीं ?”
तभी नौकरानी अपर्णा का सूटकेस लेकर वहां पहुंची ।
इन्स्पेक्टर पंडित अपने पीछे बड़ा बोझिल वातावरण छोड़कर वहां से विदा हो गया ।
समाप्त
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