जगमोहन ने फोन पर देवराज चौहान से बात की।
“कुछ मालूम किया?” देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
“हां। सोहनलाल भी मेरे साथ है।” कहकर जगमोहन ने सारी भागदौड़ बता दी।
“ठीक है।” देवराज चौहान का स्वर कानों में पड़ा –“अभी सारे काम रोक दो। तुम सोहनलाल के साथ उसके घर पहुंची। मैं भी सोहनलाल के घर पर पहुंचता हूं मौका मिलते ही।”
“मौका मिलते ही।” जगमोहन के होंठों से निकला –“मैं समझा नहीं।”
“हां।” देवराज चौहान का शांत स्वर कानों में पड़ा –“महादेव जब मरा, उसे छोड़कर माहिम से जब मैं चला तो, महादेव की जान लेने वाला शायद मेरे पीछे लग गया था। अब वे लोग जानते हैं कि मैं यहां बंगले पर हूं। वे कोई एक नहीं, ज्यादा लोग हैं। फोन भी आया मुझे। यह पूछा गया कि महादेव ने मरने से पहले मुझे क्या बताया है। वे अब मुझे खत्म करना चाहते हैं और इस वक्त में महसूस कर रहा हूं कि वे बहुत सारे लोग हैं और बंगले को घेर रहे हैं। शायद अंधेरा होने पर वो बंगले के भीतर घुसने की चेष्टा करेंगे। मैं उनसे झगड़ा नहीं करना चाहता। क्योंकि मुझे तीन सौ दो नम्बर के बारे में जानना है। महादेव के असली हत्यारे को पकड़ना है। मैं कुछ ही देर में बंगले से निकलने जा रहा हूं। वो यही समझते रहेंगे कि मैं बंगले के भीतर हूँ। यहां से मैं सीधा सोहनलाल के घर पहुंच रहा हूं।” इसके साथ ही देवराज चौहान ने रिसीवर रख दिया था। होंठ भींचे जगमोहन ने भी रिसीवर रख दिया।
रास्ते में जगमोहन और सोहनलाल, असलम खान से मिले।
तस्वीरों वाली एलबम दिखलाकर यह बात पक्की कर लो कि वो तस्वीरें अनिता गोस्वामी की ही हैं।
☐☐☐
देवराज चौहान जब सोहनलाल के कमरे में पहुंचा तो रात के दस बज रहे थे। देवराज चौहान की बांह मामूली-सी घायल थी। जिसे देखते ही जगमोहन बोला।
“गोली लगी है?”
“रगड़ खाती निकल गई।” देवराज चौहान बैठते हुए कह उठा।
“मतलब कि जब बंगले से निकले तो उन लोगों की निगाहों में आ गये।” जगमोहन की आंखें सिकुड़ी।
“हां।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर सहमति से सिर हिलाया –“उन लोगों का घेरा बहुत तगड़ा था। वह कुल आठ के करीब आदमी थे। हर कोई पेशेवर था और अचूक निशानेबाज था। बहुत ही अच्छे ढंग से उन्होंने बंगले को घेरा था कि भीतर वाला किसी भी हालत में बच न सके।”
“मालूम नहीं हो सका कि वे किसके लोग थे?”
“नहीं। सिर्फ एक ही बार उस आदमी का फोन आया था जो तीन सौ दो को भूल जाने को कह रहा था। उसके बाद धमकी देकर उसने फोन बन्द कर दिया था। बाद में उसी के आदमियों ने बंगले का घिराव किया, मुझे खत्म करने के लिये।” देवराज चौहान के होंठ भिंच गये –“तुम दोनों अपनी सुनाओ।”
“बहुत दिक्कत आ रही है हमें यह काम करने में। क्योंकि छानबीन वाला काम हमने पहले कभी किया नहीं।” जगमोहन ने गहरी सांस लेकर कहा –“अजीब-अजीब बातों से वास्ता पड़ रहा है।”
“सच में यह काम तो भूसे में से सुई ढूंढने जैसा काम है।” सोहनलाल ने कहा।
“वो कैसे?”
“इतने बड़े मुम्बई शहर में, उस लड़की को कैसे तलाश करें जो महादेव के साथ रह रही थी। इतना ही मालूम हो सका कि उसका नाम अनिता गोस्वामी है।” सोहनलाल बोला।
“मुझे वो सब बातें बताओ, जो तुम दोनों ने मालूम की हैं।” देवराज चौहान बोला।
जगमोहन और सोहनलाल ने अपनी सारी भागदौड़ देवराज चौहान को बताई और जेबों में डाल रखा सामान टेबल पर रख दिया। सामान में सूटकेस में मिली पचपन वर्षीय व्यक्ति की तस्वीर। अनिता गोस्वामी के घर पर मिली लाश की जेब से उसका ड्राईविंग लाईसेंस। बेड के नीचे छोटा-सा लेडीज पर्स, पर्स की फोन डायरी और वो एलबम थी, जिसमें सारी तस्वीरें अनिता गोस्वामी की थी।
देवराज चौहान ने कश लेकर सोहनलाल को देखा।
“अनिता गोस्वामी मुम्बई बन्दरगाह के बारे में कुछ मालूम करना चाहती थी। साथ ही उसे गोताखोर की भी जरूरत थी।” देवराज चौहान सोचभरे स्वर में बोला।
“असलम खान का तो यही कहना है।”
“असलम खान ने यह नहीं बताया कि बतौर गोताखोर वो महादेव से समन्दर में से क्या तलाश करवाना चाहती थी?”
“यह बात असलम खान को भी नहीं पता।”
“तुमने पूछा था?”
“हां।”
सोचों में डूबे देवराज चौहान ने टेबल पर पड़ी तस्वीर को उठाया जो जगमोहन को सूटकेस में से मिली तस्वीर एक ही निगाह में लग रहा था कि वो किसी अमीर आदमी की तस्वीर है। उसने तस्वीर को पलटकर देखा। उसके पीछे कुछ भी लिखा-छपा नहीं था।
देवराज चौहान ने तस्वीर रखते हुए जगमोहन से कहा।
“अनिता गोस्वामी अपने सामान के साथ, महादेव के घर रह रही थी। जबकि उसका अपना घर भी है।”
जगमोहन ने सहमति से सिर हिलाया।
“इसका मतलब कि वो कोई खास काम कर रही थी। शायद किसी के खिलाफ कुछ कर रही थी और उसे डर था कि उसकी जान लेने की कोशिश भी की जा सकती है। महादेव के यहां रहने की एकमात्र यही वजह हो सकती थी।”
“तो फिर महादेव की जान क्यों ली गई?”
“इसलिये कि, अनिता गोस्वामी, महादेव से जो काम करवा रही थी, कुछ लोग नहीं चाहते थे कि वो ऐसा करे। मेरे ख्याल में अनिता गोस्वामी को खतरे का एहसास हो गया होगा। वो तो खुद को बचा गई, परन्तु महादेव उनकी निगाहों में ही रहा और गोली का निशाना बन गया।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा –“बन्दरगाह पर मौजूद ऐसे किसी आदमी को जानते हो, जो महादेव का वाकिफकार हो?”
“नहीं।”
“मैं भी नहीं।”
“महादेव, मुम्बई बन्दरगाह पर जो काम कर रहा था तो जाहिर है कि वहां उसका कोई सोर्स भी होगा। और महादेव ने ऐसी कोई खबर पा भी ली होगी, जो उसकी मौत की वजह बनी।” देवराज चौहान ने कहा।
“जिस तरह महादेव को शूट किया गया, हो सकता है कि उसी तरह अनिता गोस्वामी की भी हत्या कर दी गई हो।” जगमोहन ने कहा –“क्योंकि वो भी तो जान बचाती भागी फिर रही थी।”
“तुम्हारी बात सच ही मानता, अगर अनिता गोस्वामी के घर पर, उस आदमी की लाश न पड़ी होती और खून लगा लेडीज पर्स पास में न मिलता। उससे स्पष्ट जाहिर है कि वो खून अनिता गोस्वामी ने ही किया है और अभी तक वो जिन्दा है, परन्तु मौत उसके पीछे है। वो खतरे में है। अगर वो हमें मिल जाये तो हमारे सारे सवालों का जवाब मिल जायेगा। एक-एक बात आईने की तरह साफ हो जाये। परन्तु जिसे जान का डर हो, वो आसानी से मिलने वाली नहीं। वो तो अपनी परछाई से भी दूर भागेगी।”
“यह बात तो है।” सोहनलाल ने सिर हिलाया।
“सुरेश जोगेलकर का मरना, मुझे समझ में नहीं आया।” जगमोहन कह उठा।
“तुमने मुझे बताया कि उन्हें चैम्बूर ले जाने वाला टैक्सी ड्राईवर कह रहा था कि लड़की घबराई हुई थी और महादेव उसे तसल्ली दे रहा था कि सुरेश जोगेलकर सब ठीक कर देगा। वो उसका दोस्त है। यानि कि महादेव चैम्बूर में, अनिता गोस्वामी के साथ, जोगेलकर से मिला। और जब तीन सौ दो नम्बर वालों को मालूम हुआ कि महादेव जोगेलकर से मिला है, तो उन्होंने जोगेलकर को खत्म कर दिया। यानि कि महादेव या अनिता गोस्वामी जिससे भी मिलते, वो लोग उन्हें खत्म कर देते। शायद यह सोचकर कि उन दोनों ने सामने वाले को उनके बारे में जाने क्या बताया होगा। जैसे कि उन्होंने मुझे भी खत्म करने की चेष्टा की। स्पष्ट जाहिर है कि वो लोग नहीं चाहते कि तीन सौ दो नम्बर की हकीकत किसी को पता चले।”
“ये तीन सौ दो है क्या?” सोहनलाल खीझभरे स्वर में कह उठा।
“यही तो मालूम करने की चेष्ठा कर रहे हैं।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा –“अब तक जो बातें सामने आई हैं, मैं उन्हीं के आधार पर बातें बता रहा हूं। असल बात तो शायद बाद में मालूम हो, जब तीन सौ दो नम्बर के बारे में पता चलेगा कि वो किसका, किस चीज का नम्बर है।”
दोनों खामोश रहे। चेहरों पर सोचों के भाव नाच रहे थे।
देवराज चौहान ने टेबल पर पड़ा ड्राईविंग लाइसेंस उठाया। उसे खोलकर देखा। मरने वाले की तस्वीर और उसका पता लिखा था। देवराज चौहान ने लाइसेंस सोहनलाल को थमाते हुए कहा।
“मरने वाले के बारे में जानकारी इकट्ठी करो। नाम-पता भीतर लिखा है। वो कैसा आदमी था। किसके लिए काम करता था। या फिर ऐसी ही कोई बात।”
सोहनलाल ने सिर हिलाकर लाइसेंस जेब में डाल लिया।
देवराज चौहान ने टेबल पर पड़ी अनिता गोस्वामी की फोन डायरी उठाई और एक-एक पन्ना पलटने लगा, उन पर लिखे फोन नम्बरों को चेक करने लगा।
पूरी डायरी चेक करने के बाद उसने जगमोहन को देखा।
“इस डायरी में एक फोन नम्बर के साथ नाम की जगह मौसी लिखा है। इस मौसी को चेक करो। इसके अलावा और भी कई नम्बर हमारे काम के हो सकते हैं। सब नम्बरों को चेक करो। शायद कोई काम की बात मालूम हो।”
जगमोहन ने फोन की डायरी ले ली।
देवराज चौहान ने अनिता गोस्वामी की तस्वीरों वाली पोस्टकार्ड साईज की एलबम उठाई और एक-एक तस्वीर को गौर से देखने लगा। कोई तस्वीर भरे बाजार में ली गई थी। तो कोई तस्वीर पार्क में। कुछ तस्वीरें समन्दर के किनारे की थीं तो चंद तस्वीरें पानी से चलने वाले बड़े-बड़े जहाजों की थीं। जिस पर बेहद खुशनुमा चेहरे में अनिता गोस्वामी खड़ी नजर आ रही है।
“तस्वीरों और एलबम की हालत बताती है कि यह तस्वीरें हाल ही में ली गई हैं। आधी से ज्यादा तस्वीरों में एक ही जैसे कपड़े हैं यानि कि कैमरे में पड़ी फिल्म एक-दो दिन में खत्म कर गई है। तो सवाल यह आता है कि तस्वीरें खींचने वाला कौन है? जो भी है, अनिता का कोई खास ही होगा।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने जगमोहन और सोहनलाल को देखा।
“हर तस्वीर में वो खुलकर मुस्करा रही है तो तस्वीरें खींचने वाला उसका खास ही होगा।” जगमोहन बोला।
“और उस खास का फोन नम्बर इस डायरी में अवश्य होगा।” देवराज चौहान ने विश्वासभरे स्वर में कहा।
“हां।” जगमोहन ने सहमति से सिर हिलाया –“मैं कोशिश करूंगा कि उसके बारे में जान सकूं।”
देवराज चौहान एलबम बन्द करने ही जा रहा था कि एकाएक ठिठक गया। अगले ही पल उसकी आंखें सिकुड़ गईं। चेहरे पर अजीब-से भाव आ गये।
तस्वीर में अनिता गोस्वामी के बाल हवा में उड़ थे। चेहरे पर दिलकश मुस्कान थी। वो जहाज के नीचे वाले डेक पर खड़ी थी। उसके नीचे, जहाज पर 302 लिखा हुआ था और तस्वीर के नीचे पानी नजर आ रहा था। देवराज चौहान अपलक जहाज पर लिखे 302 को देखता रह गया।
अगले ही पल उसके चेहरे के भाव सामान्य होने लगे।
चेहरे पर सोचभरी गम्भीरता आ टिकी।
उसने एलबम से तस्वीर निकाली और जगमोहन की तरफ बढ़ाई।
“इस तस्वीर को देखो।”
जगमोहन ने तस्वीर को हाथ में लेकर देखा।
“कुछ नजर आया?” देवराज चौहान बोला।
“सब-कुछ नजर आ रहा है तस्वीर में। लेकिन तुम क्या दिखाना चाहते हो?” जगमोहन ने तस्वीर से निगाहें हटाईं।
“अभी मालूम हो जायेगा। सोहनलाल तुम देखो।”
सोहनलाल ने जगमोहन के हाथ से तस्वीर लेकर देखी।
“मानता हूं अनिता गोस्वामी बहुत खूबसूरत है।” कुछ देर बाद सोहनलाल तस्वीर से निगाहें हटाकर कह उठा –“खुशमिजाज भी लगती है। तस्वीर भी अच्छी ली गई है और –।”
देवराज चौहान ने उसके हाथ से तस्वीर ली और टेबल पर रखी।
“इस तस्वीर में जहाज पर–पानी के जहाज पर वो खड़ी है।” देवराज चौहान ने दोनों को देखा।
दोनों ने सहमति से सिर हिलाया।
“जहां वो खड़ी है। डेक पर। यह जहाज का नीचे वाला डेक है।”
“यह कैसे कहा जा सकता है। हो सकता है कि ऊपर वाला या बीच का डेक है।” सोहनलाल कह उठा।
“यह नीचे वाला डेक है। डेक की रेलिंग के नीचे देखो। तस्वीर के सबसे नीचे –।”
दोनों की निगाह तस्वीर में सबसे नीचे गई।
जहां बेहद छोटा-सा 302 लिखा नजर आ रहा था।
दोनों चौंके।
“तीन सौ दो।”
“यह तो तीन सौ दो नम्बर है।”
“हां।” देवराज चौहान ने सोचभरे ढंग में सिर हिलाया –“इसे हम जहाज नम्बर तीन सौ दो कह सकते हैं।”
जगमोहन और सोहनलाल की निगाह, देवराज चौहान पर जा टिकी।
“तुम्हारा मतलब कि महादेव इसी जहाज नम्बर तीन सौ दो के बारे में कुछ कहना –।” जगमोहन ने कहना चाहा।
“हो भी सकता है और नहीं भी।” सोहनलाल ने फौरन कहा।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और दोनों पर निगाह मारकर बोला।
“महादेव, इसी जहाज नम्बर तीन सौ दो के बारे में कुछ कहना चाहता था।”
“यह बात तुम इतने दावे के साथ कैसे कह सकते हो। हो सकता है तस्वीर में तीन सौ दो नम्बर जहाज का दिखना महज इत्तेफाक हो। इस नम्बर को हम महादेव के साथ इसलिए जोड़ रहे हैं कि मरते वक्त महादेव के मुंह से तीन सौ दो निकला था।” जगमोहन ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।
देवराज चौहान के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान उभरी।
“तुम्हारी बात सही है कि इस वक्त हम यह जानने की चेष्टा कर रहे हैं कि तीन सौ दो नम्बर क्या है। ऐसे में जो भी तीन सौ दो नम्बर हमारे सामने आयेगा, उसे हम महादेव वाला तीन सौ दो समझने लगेंगे। इस वक्त अगर हम जहाज पर लिखे तीन सौ दो नम्बर के साथ-साथ अनिता गोस्वामी को भी साथ लें, जो कि तीन सौ दो नम्बर जहाज़ पर खड़ी है। जो आखिरी तीन-चार दिनों से महादेव के साथ रही थी और उससे मुम्बई बन्दरगाह पर कोई काम करवा रही थी, तो हमें यकीन करना पड़ेगा कि महादेव इसी जहाज नम्बर तीन सौ दो के बारे में कुछ कहना चाहता था। क्योंकि तीन सौ दो नम्बर के जहाज और अनिता गोस्वामी का एक ही जगह होना महज इत्तेफाक नहीं हो सकता।”
जगमोहन और सोहनलाल देवराज चौहान को देखने लगे।
“मैंने पहले ही कहा था कि यह तस्वीरें हाल ही में ली गई लगती हैं। यानि कि ज्यादा से ज्यादा दस-बारह दिन पहले। इसका मतलब जहाज नम्बर तीन सौ दो मुम्बई बन्दरगाह पर ही इस वक्त लंगर डाले खड़ा है। इस तस्वीर से स्पष्ट जाहिर है कि तस्वीर खड़े जहाज पर ली गई है। तस्वीर लेने वाला समन्दर में बोट पर, या अन्य किसी चीज पर सवार होगा। तस्वीर में दूर दो जहाजों की जरा-जरा झलक मिल रही है, जो कि यकीकन लंगर डाले खड़ा है।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहने के साथ दोनों को देखा –“महादेव का हत्यारे का जहाज नम्बर तीन सौ दो से वास्ता है। तीन सौ दो नम्बर जहाज के बारे में जानकारी हासिल करनी होगी, तभी महादेव के हत्यारे तक पहुंचा जा सकता है। हमारी यह कोशिश बहुत आसान हो सकती है, अगर अनिता गोस्वामी की तस्वीरें लेने वाला हमें मिल जाये या फिर उसका कोई ऐसा पहचान वाला मिल जाये, जो बता सके कि अनिता गोस्वामी किस- फेर में थी।”
“मैं उस आदमी के बारे में छानबीन करता हूं जो अनिता गोस्वामी के घर मरा पड़ा था।” सोहनलाल ने कहा –“उसके ड्राईविंग लाइसेंस पर उसका नाम-पता लिखा है।”
“और मैं अनिता गोस्वामी की फोन डायरी में लिखे, मौसी के नम्बर और अन्य नम्बरों के दम पर उसे तलाश करने की कोशिश करता हूं, जो अनिता गोस्वामी का नजदीकी है। जिसने ये तस्वीरें खींचीं।”
देवराज चौहान ने वो तस्वीर उठा ली। जिसमें जहाज पर अनिता गोस्वामी खड़ी मुस्करा रही थी। जिस जहाज के सबसे नीचे 302 लिखा नजर आ रहा था।
“मैं इस जहाज के बारे में छानबीन करता हूं।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।
“अनिता गोस्वामी खुद ही मिल जाये तो सारी कठिनाइयां दूर हो जायें।” सोहनलाल बोला।
“वो नहीं मिलेगी।” जगमोहन ने उसे देखा।
“क्यों?”
“बताया तो। वो डरी बैठी है। कहीं छिपी हुई है। उसकी जान को खतरा है। महादेव को साथ लेकर वो बन्दरगाह पर कोई खास काम कर रही थी। लेकिन महादेव की मौत के बाद तो उसे अपनी जान की फिक्र पड़ गई होगी। ऐसे में वो सामने आने वाली कहां।” जगमोहन ने पक्के स्वर में कहा।
देवराज चौहान ने तस्वीर पर से निगाह हटाकर सोहनलाल से कहा।
“जिन्होंने महादेव की जान ली तो मेरा चेहरा जानते हैं और मुम्बई बन्दरगाह से वास्ता रखते हैं। ऐसे में सीधे-सीधे बन्दरगाह पर जाना खतरे वाला काम हो सकता है। तुम मेकअप के सामान का इन्तजाम करो। चेहरा बदलकर ही बन्दरगाह पर जाना ठीक रहेगा।”
“दो-तीन घण्टों में हुलिया बदलने का सारा इन्तजाम कर दूंगा।” सोहनलाल ने कहा।
जगमोहन ने टेबल पर से वो तस्वीर उठाई, जो पचपन वर्षीय किसी अमीर आदमी की थी और अनिता गोस्वामी के सूटकेस में से मिली थी।
“यह तस्वीर किसकी हो सकती है?” जगमोहन ने होंठ सिकोड़े।
“यह तस्वीर ऐसे किसी खास व्यक्ति की है, जो अनिता गोस्वामी के लिये खास अहमियत रखता है।” देवराज चौहान ने कहा –“क्योंकि वो सूटकेस में अपने कपड़े वगैरह लेकर महादेव के यहां आ छिपी थी। ऐसे में किसी की तस्वीर भी साथ ले आने का मतलब है कि तस्वीर खास आदमी की है।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने जगमोहन के हाथ से तस्वीर ली और अपनी जेब में डाल ली।
☐☐☐
सुबह के आठ बज रहे थे।
देवराज चौहान मुम्बई बन्दरगाह पर पहुंचा। वह मेकअप में था।
बदन पर कमीज-पैंट परन्तु चेहरा पूरी तरह बदला हुआ था। गालों पर काले-सफेद बालों की खिचड़ीनुमा दाढ़ी थी। सिर के बाल भी काले सफेद नजर आ रहे थे। भौंहों पर भी वैसे ही बाल लगा रखे थे। आंखों पर नजर का चश्मा था। जबकि उसके शीशे प्लेन थे।
देखने में इस वक्त वो पचपन वर्षीय व्यक्ति नजर आ रहा था।
बन्दरगाह की विशाल बड़ी इमारत के सामने टैक्सी पर उतरा और किराया देकर, भीतर प्रवेश कर गया। भीड़ और गरमा-गरमी वहां नजर आ रही थी। हर कोई अपने काम में व्यस्त नजर आ रहा था। वर्दी पहने बन्दरगाह के कर्मचारी कोई अकेला और कुछ ग्रुप में आ-जा रहे थे।
कुछ आगे जाकर अलग-अलग काउंटर बने हुए थे। जिन पर कर्मचारी मौजूद थे और लोग भी लाईन में खड़े थे। देवराज चौहान समझ गया कि, कोई यात्री जहाज के यह यात्री हैं। जिनकी रवानगी की तैयारी हो रही है। उन काउंटरों के बीच, साफ-सुथरी राहदारी दूर तक जा रही थी। जहाज तक जाने के लिये यात्रियों को वहां से गुजरना होता है और राहदारी के रास्ते में जगह-जगह बस स्टॉप जैसी जगहें बनी नजर आ रही थीं। जहां यात्रियों के सामान की चैकिंग होती थी। उसी राहदारी में चप्पे-चप्पे पर पुलिस वाले तैनात थे। उस तरफ यूं ही जाना, मुमकिन नहीं था।
देवराज चौहान एक ही जगह खड़ा इधर-उधर निगाहें दौड़ाता रहा। फिर एक ऐसे काउंटर पर पहुंचा, जो बिल्कुल खाली था और जहां यूनिफार्म में युवती मौजूद थी।
“वेलकम सर –।” युवती उसे देखते ही बोली।
“मैडम । मैं तीन सौ दो नम्बर जहाज के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहता हूं कि –।”
“सॉरी सर! यह पूछताछ का काउंटर नहीं है। आप उस तरफ जाईये।” युवती उसकी बात काटकर कह उठी
“मैं किसी जहाज की रवानगी के वक्त, किसी जहाज के आने का समय नहीं पूछना चाहता।” देवराज चौहान ने फौरन मुस्कराकर कहा –“मैं जहाज नम्बर तीन सौ दो के बारे में –।”
“सर! जहाज को उसके नम्बर नहीं, नाम से जाना-पहचाना जाता है।” युवती बोली –“बन्दरगाह पर इतने जहाजों का आना-जाना लगा रहता है कि नाम से जानने में भी कई बार कठिनाई हो जाती है। अगर आप जहाज का नाम बतायें, तो शायद मैं बता सकूँ जो आप पूछना चाहते हैं।”
“जहाज का नाम तो मुझे मालूम नहीं।”
“सॉरी सर! फिर मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकती।”
देवराज चौहान काउंटर से हट गया।
युवती ठीक कह रही थी कि जहाज के बारे में पूछताछ के लिये जहाज का नाम मालूम होना जरूरी है। जबकि उसके पास सिर्फ जहाज का नम्बर था।
देवराज चौहान समझ गया कि इस तरह वो 302 नम्बर जहाज के बारे में नहीं जान पायेगा। इस जानकारी को पाने के लिये उसे बन्दरगाह की गोदी पर जाना होगा। जहां सामान उतारने और लादने का काम होता है। वहां काम करने वाले मजदूर या कर्मचारी ऐसी जानकारी अवश्य रखते होंगे।
परन्तु गोदी पर जाना भी आसान काम नहीं था। इसके लिए चोर रास्ते का इस्तेमाल करना होगा। देवराज चौहान बन्दरगाह की इमारत से बाहर निकला और जेबों में हाथ डाले, इमारत के साथ-साथ ही लापरवाही से चलता हुआ आगे बढ़ता चला गया। बाहर भी खासी चहल-पहल थी।
करीब दस मिनट चलने पर बन्दरगाह की इमारत समाप्त हुई और साथ ही रेलिंग शुरू हो गई। जो करीब पांच फीट ऊंची थी और काफी दूर तक जा रही थी।
रेलिंग के पार, काफी चौड़ा रास्ता आगे जा रहा था। उधर अधिकतर मजदूर या क्लर्क टाईप के ही कर्मचारी नजर आ रहे थे। जो ट्रालियों पर सामान लादे इधर-उधर जा रहे थे। देवराज चौहान जानता था कि आगे जाकर गोदाम है, वहां दूसरे देशों से आये सामान को रखा जाता था और जहाज पर ले जाने वाले सामान को भी पहले वहां रखा जाता था, उसके बाद जहाज पर लादा जाता था।
रेलिंग का बड़ा हिस्सा पार करने के बाद, रेलिंग के बीच लोहे के गेट पर जाकर रुका। जो कि बंद था। जो कि भीतर जाने का रास्ता था। जिसके पार मेज-कुर्सी रखे, मुंशी जैसा व्यक्ति बैठा था। टेबल पर रजिस्टर और उसमें फंसा पेन नजर आ रहा था। यानि कि माल के अन्दर-बाहर जाने का खाता वो ही रखता था।
गेट पर चौकीदार टाईप का व्यक्ति खड़ा था।
“खोलो।” देवराज चौहान बोला।
चौकीदार ने उसे सिर से पांव तक देखा।
“कहां जाना हैं साहब?”
“भीतर –।”
“भीतर जाने का रास्ता यहां से नहीं, उधर से है। वो इमारत की तरफ से।” चौकीदार ने कहा।
“मैं जानता हूं।” देवराज चौहान मुस्कराया –“लेकिन मैं यहीं से भीतर जाना चाहता हूं।”
“यहां से किसी बाहरी व्यक्ति का भीतर जाना मना है।” उसने लापरवाही से कहा।
“जाने दो यार –।”
चौकीदार ने ध्यानपूर्वक देवराज चौहान के मेकअप वाले पचपन वर्षीय चेहरे को देखा।
“काम क्या है?”
“मैं उपन्यास लिखता हूं।” देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान थी।
“उपन्यास?”
“हां, नॉवेल, कभी पढ़े हैं?”
“बहुत पढ़े हैं। मेरा एक पड़ोसी भी था। वो भी बहुत पढ़ता था।” उसने गहरी सांस लेकर कहा।
“पढ़ता था, तो अब क्या हो गया उसे?”
“जेल में है। उम्र कैद की सजा भुगत रहा है, उपन्यास पढ़ने की बदौलत।”
“ये कैसे हो सकता है? मैं समझा नहीं।”
“उसकी नौकरी छूट गई थी। कहीं और नौकरी मिली नहीं। पल्ले बंधा नावां भी खा गया। अब नोटों की जरूरत थी। दो ही काम थे। भीख मांगे या चोरी करे। नौकरी मिलने की आस तो पूरी तरह खत्म हो गई थी। और वो ऐसे लेखक के उपन्यास पढ़ता था, जिसकी कहानियों में डकैती की योजनाएं होती थीं।” कहकर दो पल के लिये चौकीदार ठिठका –“साहब जी! आप लोग जो उपन्यास लिखते हो, वो कल्पना की उपज होती है। सोचों की पटरी होती है। हकीकत की हवा भी उपन्यास को छूकर नहीं गई होती। लेकिन कुछ पढ़ने वाले समझ बैठते हैं कि उपन्यास में सच लिखा है। मैंने पड़ोसी को बोत समझाया कि ये सब झूठ होता है, परन्तु वो नहीं माना। उसने उस उपन्यास लेखक के उपन्यास में से, ऐसा उपन्यास चुना, जिसमें उम्दा डकैती थी और इसी डकैती को सामने रखकर जैसे छोटे बच्चे पेपर देते हैं, वैसे ही उसने डकैती करने की कोशिश की और जेल में पहुंच गया। इतने पर भी उसे अक्ल नहीं आई। परसों ही जेल में उसकी बीवी उससे मिलने गई तो बीवी को बोला मुझे उसी लेखक के छांटकर वो उपन्यास लाकर दो, जिन उपन्यासों में उपन्यास का हीरो जेल से भागता है योजना बनाकर। मतलब कि अब वो जेल से भागने की सोच रहा है, उपन्यास के हीरो की तरह –।”
देवराज चौहान मुस्कराया।
“तो ये उपन्यास लिखने वाले की गलती हुई या पढ़ने वाले की!” देवराज चौहान बोला।
“लिखने वाले ने तो कल्पना से लोगों का मनोरंजन किया है। शायद उपन्यासों में ऐसा कुछ लिखा-छपा भी होता है कि ये नकली कहानी है। इसे मजे लेने के लिए ही पढ़ें। इस पर भी वो नहीं समझा तो गलती पढ़ने वाले की ही हुई कि नकली बातों को असली समझ कर चल दिया मुंह उठाकर –।” चौकीदार ने मुंह बनाया।
मुस्कराता हुआ देवराज चौहान उसे देखता रहा।
“आप वो ही उपन्यास-लेखक तो नहीं जो –।”
“नहीं। मैं तो प्रेम त्रिकोण पर अधिकतर उपन्यास लिखता हूँ।”
“फिर तो आप बहुत भला करते हैं।”
“किसका?”
“जवान लड़के-लड़कियों का। आपके उपन्यास पढ़कर वो प्रेम करने के कई रास्ते ढूंढ निकालते होंगे।”
“मुझे तो ऐसी कोई खबर नहीं मिली –।”
“हमारी गली में एक लड़का-लड़की घर से भाग गये हैं। लड़का प्रेम के उपन्यास ही पढ़ता था।”
“हो सकता है।”
“आपने-अपने किसी उपन्यास में लिखा कि कोई लड़का किसी लड़की को भगा ले जाता है।”
“अभी तक तो नहीं लिखा।”
“तो फिर उस लड़के ने किसी और लेखक का उपन्यास पढ़ा होगा।” उसने समझने वाले भाव में सिर हिलाया।
“तुम उपन्यासों के बहुत शौकीन लगते हो।”
“हां। बहुत उपन्यास पढ़ता था। खान-वाले के, कर्नल विनोद, कैप्टन हमीद, कासिम, इमरान के। इब्ने सफी के –।”
“पुराने पापी हो।”
वो हंसा फिर बोला।
“बहुत खुशी हुई आपसे मिलकर कि आप उपन्यास लिखते हैं। लेकिन काम क्या करते हैं?”
“उपन्यास लिखता हूं।” देवराज चौहान मुस्कराया।
“माना। सुना। लेकिन काम क्या करते हैं।” वो सिर हिलाकर बोला।
“ये काम नहीं है?”
“उपन्यास लिखना?”
“हां।”
“कमाल है। उपन्यास लिखना काम कैसे हो गया। इसमें नोट कहां आते हैं।”
“थोड़े-से आ जाते हैं।”
“हैरानी है। पहली बार सुन रहा हूं कि उपन्यास लिखना काम है। थोड़े-बहुत पैसे भी मिल जाते हैं। खैर छोड़ो होगा काम। मैं तो इसे काम करना नहीं मानता।” उसने कुछ ज्यादा ही लम्बी सांस ली। थोड़ा-सा मुंह बनाया।
देवराज चौहान के होंठों पर बराबर मुस्कान छाई हुई थी।
बात आगे बढ़ाने के लिये वो पुनः बोला।
“आप कुछ कह रहे थे –?”
“मैं बता रहा था कि मैं उपन्यास लिखता हूं। और अब जो उपन्यास लिख रहा हूं उसमें मुम्बई बन्दरगाह दिखाना है। गोदी, सामान रखने की जगह और एक जहाज को अन्दर से देखना है कि वो कैसा होता है।”
“देखने के बाद ये सब चीजें आप उपन्यास में लिखेंगे?”
“हां।”
“फिर तो आपको ये भी जानना होगा कि जहाज पर कौन कर्मचारी, क्या-क्या काम करता है।”
“हां।”
“एक बात के अलावा बाकी बातें तो मैं पूरी कर सकता हूं।”
“कहां दिक्कत है?”
“जहाज भीतर से दिखाना मेरे बस से बाहर है।”
“क्यों?”
“किसी बाहरी आदमी को बन्दरगाह पर लंगर डाले जहाजों के भीतर नहीं ले जाया जा सकता। जमाना बड़ा खराब है। क्या मालूम कोई बम रखकर, जहाज को नुकसान पहुंचा दे।”
देवराज चौहान ने जेब से पांच सौ का नोट निकाला और उसकी हथेली में दबा दिया।
“यह क्या?”
“रख लो। मैं यह नोट खर्चे में डालकर फर्रा प्रकाशक को दे दूंगा कि ये पैसे उपन्यास लिखने की भागदौड़ में खर्च हुए तो वो हमें दे देता है। अब बताओ, जहाज को भीतर से देख सकता हूं?”
देवराज चौहान मुस्कराया।
“प्रकाशक आपको इस तरह के खर्चे देता है तो फिर शायद जहाज को देखा जा सकता है।” वो मुस्कराया।
“दिखाओ। नोट और मिल जायेंगे।”
“आगे का काम मुंशी करेगा। वो जो कुर्सी पर बैठा है। आप यहीं रुकिये। मैं उसको एक ही लाईन में सारी बात समझा देता हूं। आपकी बात समझने में दो दिन लगा देगा।” देवराज चौहान को वहीं खड़ा छोड़कर चौकीदार, कुर्सी लगाये मुंशी के पास पहुंचा और कान में फूंक मारकर उल्टे पांव लौट आया।
देवराज चौहान उसे ही देख रहा था।
“जाईये साहब! जाकर मुंशी साहब से बात कर लीजिये। लेखकों को तो वो खास पसन्द करते हैं।” कहने के साथ ही उसने गेट खोला तो देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश किया और चंद कदमों के फासले पर टेबल-कुर्सी पर बैठे पचास वर्षीय घिसे-पिटे व्यक्ति के पास जा पहुंचा।
उसने आंखों पर पड़े नजर के चश्मे को ठीक किया।
“लेखक हो?” वो गोला मारने वाले ढंग में बोला।
“हाँ।”
“किताबें लिखकर रोटी-पानी का खर्चा निकाल लेते हो?”
“कभी निकल आता है, कभी नहीं।”
“कभी-कभी का मतलब नहीं समझा।” मुंशी ने चश्मा ठीक किया।
“समझने की जरूरत भी क्या है?”
“जरूरत इसलिये है कि मेरी बीवी दो महीनों से साड़ी की डिमांड कर रही है। तुम्हारी जेब में इतने पैसे हैं कि, वो मुझे दो और बीवी के लिए साड़ी खरीदकर, उसके सिर पर मार सकूँ।”
“साड़ी के साथ पेटीकोट भी खरीद लेना।”
“क्या?”
“वो जो साड़ी के नीचे पहनते हैं।” देवराज चौहान ने उसे घूरा।
“समझदार हो।” कहने के साथ वो उठा –“मुझे सू-सू आ रहा है। तुम्हें भी आ रहा हो तो मेरे साथ आ जाओ। उधर खास कोना है। जहां बड़े-बड़े मसले हल हो जाते हैं।” कहने के साथ ही वो एक तरफ बढ़ गया। देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और उसके पीछे चल पड़ा।
समन्दर से टकराकर आती हवा में, नमी और महक थी।
☐☐☐
“सच में लेखक हो या कोई और चक्कर है?” वो एक खाली, अलग जगह उसे ले जाकर ठिठका।
“और क्या चक्कर हो सकता है?”
“वो तुम्हें पता होगा?”
“और कोई चक्कर नहीं है। तुम अपनी बात करो।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
“मैं, तुम्हें गोदी दिखा सकता हूं। गोदाम दिखा सकता हूं। जहाज पर कौन कर्मचारी क्या करता है, किसके जिम्मे क्या काम होता है? वो बता सकता हूं। कहोगे तो समन्दर का छोटा-सा चक्कर भी लगवा देता हूं, बोट में। लेकिन किसी जहाज के भीतर नहीं ले जा सकता। नौकरी खतरे में पड़ जायेगी।”
“तुम्हारी बीवी की साड़ी कितने की आती है?” देवराज चौहान ने पूछा।
“तीन हजार तो लगते ही। तुम पेटीकोट की बात कर रहे थे तो साढ़े तीन लगा लो।”
“इसके अलावा साड़ी के साथ-साथ और जो-जो भी कपड़े जाते हैं, उनकी कीमत लगाओ।”
“लेकिन –।”
“कीमत तो लगाओ।”
“फिर तो पांच हजार का खर्चा बैठ जायेगा।” उसने देवराज चौहान के चेहरे पर निगाह मारी।
देवराज चौहान ने जेब से दस हजार की गड्डी निकाली। उसकी आंखों के सामने फुरेरी दी और उसे वापस जेब में रखकर जेब को थपथपाया।
“इसे वापस क्यों रखा?”
“यह दस हजार मैं किसी और को दूंगा। जो मुझे किसी जहाज के भीतर भी घुमा देगा।”
“ये क्या कह रहे हो। फिर तो मेरी बीवी की साड़ी नहीं आयेगी।”
“मेरा काम करोगे तो साड़ी के साथ बाकी सामान भी आ जायेगा।” देवराज चौहान ने कहा –“दस हजार दूंगा। क्योंकि उपन्यास लिखने के लिए जहाज को भीतर से देखना बहुत जरूरी है। जो कि मैं देखकर ही रहूंगा। तुम दिखाओ नहीं तो कोई दूसरा दिखाता –।”
“दूसरे की बात मत करो। लाओ गड्डी मुझे दो।”
देवराज चौहान ने गड्डी निकालकर उसे दी, जो उसकी जेब में पहुंचकर गुम हो गई।
“सुनो, तुम्हारा काम मैं करा देता हूं। लेकिन याद रखना, तुम मेरे रिश्तेदार हो और तुमने कभी भी भीतर से जहाज नहीं देखा। तुम्हारी जिद और रिश्ते की मजबूरी में तुम्हें जहाज दिखा रहा हूं। कहीं बात हो तो ये ही कहना। कहीं दस हजार के चक्कर में मेरी नौकरी मत लुढ़का देना।
“फिक मत करो। लेकिन मैं वही जहाज भीतर से देखूंगा, जो मुझे बाहर से पसन्द आयेगा।”
“जब तक जहाज बन्दरगाह पर लंगर डाले.खड़े हैं, तब तक वो अपना ही माल है, कोई भी देख लेना। तुम रुको। मैं अपनी जगह पर किसी और को फिट करके आता हूं।”
☐☐☐
वो मुंशी, जिसका नाम रघुवीर सिंह था। उसने देवराज चौहान को गोदाम दिखाया उसके बाद डेक। देवराज चौहान वहां के माहौल को बारीकी से देख रहा था।
“सुनो।” रघुवीर सिंह बोला –“तुम्हारे उपन्यास की कहानी में लड़का बन्दरगाह पर आता है या कहानी की हीरोईन?”
“अभी यह तय करना बाकी है।” देवराज चौहान ने कहा।
“तो अभी तय नहीं किया। कहानी तैयार नहीं की अभी?”
“सब-कुछ तैयार है। जहाज के भीतर नजर मारने के बाद, बाकी बातें भी तय हो जायेंगी।” देवराज चौहान ने कहने के पश्चात सिगरेट सुलगाई।
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“रोशन कुमार –।”
“रोशन कुमार –?” रघुवीर सिंह सोचभरे स्वर में कह उठा –“शायद मैंने तुम्हारा नाम सुन रखा है।”
“मेरा उपन्यास भी देखा होगा।”
“हां-हां, वो भी देखा है। याद आ गया।” रघुवीर सिंह जैसे याद आ जाने वाले लहजे में कह उठा।
देवराज चौहान के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी।
“जहाज पर चलें?”
“हां-हां चलो। आओ, बन्दरगाह के किनारे की तरफ चलते हैं। वहां से बोट ले लेंगे। वहीं से तुम्हें लंगर डाले खड़े कई जहाज नजर आ जायेंगे। जो कहोगे, दिखा दूंगा।”
दोनों चल पड़े।
कई रास्तों से गुजरते हुए सात-आठ मिनट बाद वे दोनों बन्दरगाह के किनारे पर पहुंचे। समन्दर की सतह से टकराकर आती नमी से भरी हवा बहुत अच्छी लग रही थी। पानी की खुशबू भी सांसों से टकराकर, दिलो-दिमाग को सकून पहुंचा रही थी।
समन्दर में जगह-जगह जहाज लंगर डाले हुए थे। कुल मिलाकर वो बारह जहाज थे। कोई दूर खड़ा था, तो कोई पास खड़ा था। पास किन्तु पानी की गहराई में।
जहाजों की तरफ से माल लादकर दो बोटें आ रही थीं। जबकि एक बोट में माल लादकर जहाज में भेजा जा रहा था। शायद वो जहाज अगले कुछ घण्टों में रवाना होने वाला था।
“इधर आओ।” रघुवीर सिंह, देवराज चौहान को लेकर एक तरफ खड़ी नीले रंग की बोट के पास पहुंचा। तभी चालीस बरस का कमीज-पायजामा पहने एक व्यक्ति पास आया –
“कहां की तैयारी हो रही है रघुवीर?”
“कुछ नहीं यार।” रघुवीर लापरवाही से बोला –“ये अपने रिश्तेदार हैं। दिल्ली से आये हैं। कहते हैं, जहाज को भीतर से कभी नहीं देखा। वो दिखा दूं। तुम तो जानते ही हो कि अपने को क्या कमी है। बन्दरगाह अपना है। पूरी चलती है। तीस बरस हो गये, यहां पर मुंशीगिरी करते हुए। तरक्की नहीं मिली तो क्या हुआ। तेरी बोट खाली है।”
“हां, चल मैं ले चलता हूं।” बोट चालक बोला।
“चल भाई रोशन कुमार! तेरे को जहाज दिखाता हूं।”
अगले ही पलों में वो तीनों बोट पर थे। बोट चल पड़ी।
“कौन-सा जहाज देखना है?” रघुवीर सिंह बोला –“बता, सब अपने हैं। क्यों गोपाल?”
“हां-हां, क्यों नहीं।” बोट चालक ने फौरन सिर हिलाया।
“सारे जहाजों के पास से बोट निकालो। जो अच्छा लगेगा, बता दूंगा।”
“समझ गया गोपाल –।”
“बिल्कुल समझ गया।” बोट समन्दर की छाती पर दौड़ने लगी।
देवराज चौहान दूर-दूर लंगर डाले खड़े जहाजों को ध्यानपूर्वक देख रहा था कि तस्वीर में दिखाई देने वाला जहाज नम्बर 302 कौन-सा हो सकता है।
परन्तु इतनी दूर से कोई अंदाजा नहीं लग पा रहा था।
बोट चालक एक जहाज के पास पहुंचा। दूर से जहाज कोई खास बड़ा नहीं लग रहा था, परन्तु पास पहुंचने पर, जहाज की साइडें इतनी ऊंची थीं कि गर्दन पूरी पीछे को करके ऊपर को देखना पड़ता था। और पास खड़ी मोटरबोट ऐसी लग रही थी, जैसे वो छोटा-सा कोई खिलौना हो।
“क्यों रोशन भाई। ये जहाज बढ़िया रहेगा। दिखाऊँ भीतर से क्या?”
“बोट से जहाज का चक्कर लो।” देवराज चौहान बोला –“हर जहाज के पास पहुंचकर ऐसा ही करना बता दूंगा।”
“ठीक है। चल भाई गोपाल।”
बोट ने जहाज का चक्कर लिया।
लेकिन देवराज चौहान को कहीं भी 302 लिखा नजर नहीं आया।
दूसरे जहाज पर पहुंचकर भी ऐसा ही किया।
बोट जब तीसरे जहाज पर पहुंची तो देवराज चौहान की आंखों में सतर्कता के भाव आ गये। उस जहाज के ठीक सामने नीचे वाले डेक के नीचे 302 लिखा हुआ था। वो काफी विशाल जहाज था। करीब छः मंजिलें और तीन बड़े-बड़े डेक नजर आ रहे थे। जहाज के बाहरी हिस्से सिल्वर जैसी कोई मजबूत परत थी। जहाज के दोनों तरफ साईडों में मोटे-मोटे अक्षरों में ‘नीलगिरी’ लिखा था।
मोटरबोट ने 302 का चक्कर लगाया।
“यह जहाज मुझे भीतर से दिखा दो।” देवराज चौहान ने कहा।
रघुवीर सिंह ने गोपाल को देखा।
“इस जहाज के भीतर कौन होगा?”
“सफाई वाले होंगे। सप्ताह पहले सिंगापुर से आया था और तीन दिन बाद फिर सिंगापुर जायेगा।” गोपाल बोला।
“यह सरकारी जहाज है?” देवराज चौहान ने जानबूझकर पूछा।
“नहीं। ये नीलगिरी शिपिंग कॉरपोरेशन का जहाज है। इस कम्पनी के चार बड़े-बड़े जहाज हैं। ब्रूटा साहब मालिक हैं इस कम्पनी के। बहुत बढ़िया आदमी हैं।” रघुवीर सिंह ने जवाब दिया –“गोपाल, बोट को सीढ़ी के साथ लगा जो नीचे लटक रही है। वहां से हम ऊपर चले जायेंगे।”
“लेकिन जहाज देखने में तो बहुत वक्त लगेगा।” गोपाल बोट का रुख उधर मोड़ता हुआ बोला।
“ये बात तो है।” कहते हुए रघुवीर सिंह ने प्रश्नभरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
“मुझे पूरा जहाज देखना है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
रघुवीर सिंह गहरी सांस लेकर गोपाल से बोला।
“अब जितना भी वक्त लगे रिश्तेदार को जहाज तो दिखाना ही पड़ेगा। नहीं तो बिरादरी में जाकर कहता फिरेगा कि रघुवीर ने मेरी इज्जत नहीं की। तू तीन घण्टे बाद लेने आ जाना हमें।”
“पहुंच जाऊंगा।” गोपाल ने बोट को लटकती सीढ़ी के पास रोक दिया।
“तीन घण्टे बाद आना।” कहने के साथ ही रघुवीर सिंह ने सीढ़ी पकड़ी और थोड़ा-सा ऊपर चढ़ गया।
देवराज चौहान ने भी सीढ़ी पकड़ी। वो साढ़े तीन फीट चौड़ी थी। पांव रखने की पर्याप्त जगह थी। चढ़ने में कोई परेशानी नहीं थी। दोनों ऊपर चढ़ने लगे।
नीचे, गोपाल की जाती बोट की आवाज उनके कानों में पड़ती रही।
☐☐☐
उस सीढ़ी को चढ़कर, देवराज चौहान और रघुवीर सिंह जहाज के नीचे वाले डेक पर पहुंच गये। दूर-दूर तक समन्दर नजर आ रहा था। धूप थी तो नम हवा भी मजेदार लग रही थी। डेक इतना लम्बा- चौड़ा था कि वहां क्रिकेट का मैच आसानी से खेला जा सकता था।
जहाज की दीवार के साथ-साथ दूर-दूर तक लम्बी गली जाती दिखाई दे रही थी। वहां सफाई करने वाले दो कर्मचारी व्यस्त थे। देवराज चौहान की निगाह डेक की रेलिंग की तरफ गई, जहां अनिता गोस्वामी ने तस्वीर खिंचवाई थी। और रेलिंग के बाहरी तरफ सामने जहाज पर 302 लिखा था।
तभी सामने से एक आदमी उनकी तरफ बढ़ता नजर आया। वो चालीस बरस का, गठीले जिस्म का ठीक-ठाक सा दिखने वाला आदमी था।
“राजपाल तू यहां?” रघुवीर सिंह उसे देखते ही बोला।
“हां।” राजपाल पास पहुंचा –“नीलगिरी शिपिंग के सारे जहाजों की सफाई का ठेका मेरा ही है।” कहने के साथ ही उसने देवराज चौहान के, काली-सफेद दाढ़ी वाले चेहरे पर निगाह मारी फिर रघुवीर सिंह से बोला –“तू यहां कैसे? तेरे को तो इस वक्त टेबल-कुर्सी पर बैठकर, आने-जाने वाले माल को नोट करते होना चाहिये।”
“वो काम अब मेरा चमचा कर रहा है।” रघुवीर सिंह मुस्कराया –“इनसे मिल। कहने को तो यह मेरे रिश्तेदार है, परन्तु असल में लेखक हैं। उपन्यास लिखते हैं। रोशन कुमार नाम है इनका । आजकल जो उपन्यास लिख रहे हैं, वो जहाज की कहानी है। इसलिये जहाज को भीतर से देखना चाहते हैं।”
“उपन्यास लिखते हैं।” राजपाल ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान शांत भाव से मुस्कराया।
“किस नाम से लिखते हैं?”
“रोशन कुमार के नाम से।” देवराज चौहान बोला।
“मैं उपन्यास पढ़ता हूं। खूब पढ़ता हूं। जहाजों पर अपने आदमियों को काम सौंपकर उसके बाद तो फुर्सत ही फुर्सत होती है। तब पढ़ता हूं। लेकिन रोशन कुमार के नाम का उपन्यास तो मैंने आज तक नहीं सुना।”
रघुवीर सिंह ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान बराबर मुस्करा रहा था।
“किस लेखक के उपन्यास पढ़ते हो?”
“यूं तो बहुत लेखक हैं। लेकिन मेरा खास लेखक रामसिंह है। पीछे उसकी तस्वीर होती है।” राजपाल बोला।
“मुझे खुशी हुई कि तुम्हें मेरे लिखे उपन्यास अच्छे लगते हैं।”
“क्या मतलब? तुम तो रोशनलाल –।”
“रोशनलाल तो मैं हूं। लेकिन रामसिंह भी हूं। रामसिंह के सारे उपन्यास मैंने ही लिखे हैं। उनका लेखक मैं ही हूं।”
“उसके पीछे तस्वीर...?” राजपाल ने कहना चाहा।
“वो मेरे भाई रामसिंह की है। रामसिंह मेरा भाई है। उपन्यास के ऊपर नाम उसका होता है और पीछे तस्वीर उसकी होती है। असल लेखक मैं हूं। वो तो कोलाबा के सुपर बाजार में नौकरी करता है।”
“मैं समझा नहीं कि –।”
“दरअसल उसे तस्वीर छपवाने का बहुत शौक था और मैं मशहूर होने से घबराता था कि लोग फिर आराम से नहीं बैठने देंगे। ऐसे में मैंने अपने भाई के नाम से और उसकी तस्वीर के नाम से उपन्यास लिखने शुरू किए। अब हालत यह है कि कोलाबा सुपर बाजार में सामान लेने वाले कम और उसके आटोग्राफ लेने वाले ज्यादा आते हैं। वो परेशान हुआ पड़ा है। किसी को कह भी नहीं सकता कि उपन्यास मैं नहीं, मेरा भाई लिखता है। और मैं निश्चिंत होकर कहीं भी आ जा सकता हूं। उसे लेखक मानते हुए उसके घर मिलने के वास्ते जाने कितने लोग आते हैं। उसका सोना, खाना-पीना हराम हुआ पड़ा है। उसकी बीवी हमेशा उसे कहती रहती है कि आपने उपन्यास पर अपनी तस्वीर और नाम क्यों दिया। भाई साहब लेखक हैं तो उनकी ही तस्वीर-नाम रहने दिया होता।”
राजपाल ने मुस्कराकर सिर हिलाया।
“ओह! समझ गया तो यह बात है। सच में मुझे बहुत खुशी हो रही है कि मैं रामसिंह के उपन्यासों के असली लेखक से मिल रहा हूं।” उसने जबर्दस्ती वाले ढंग से, गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया –“मैं कई बार सोचता था कि ऐसे बढ़िया उपन्यास लिखने वाला रामसिंह कैसा इन्सान होगा। लेकिन आप-आप तो हम जैसे ही हैं।” कहने के साथ ही वो ठठाकर हंस पड़ा।
रघुवीर सिंह मुस्कराया।
देवराज चौहान के चेहरे पर शांत मुस्कान मौजूद थी।
“लेकिन एक बात समझ नहीं आई।” राजपाल अपनी हंसी रोकते हुए बोला।
“आप रोशन कुमार। आपका भाई रामसिंह...।”
“मेरा पूरा नाम रोशन कुमार सिंह है।”
“ओह! समझा। आईये भीतर चलते हैं। चाय लेते हैं।”
देवराज चौहान और रघुवीर सिंह, राजपाल के साथ चल पड़े।
वो सब केबिन में पहुंचे। राजपाल पांच मिनट के लिये बाहर गया और चाय के लिये कह आया। उनके बीच यूं ही इधर-उधर की बातें होती रहीं। देवराज चौहान सब्र के साथ काम ले रहा था। वह ऐसी कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहता था कि, राजपाल को किसी तरह का शक हो। उसने जहाज को भीतर से अच्छी तरह देखना था। धीरे-धीरे बातों-बातों में कई तरह की बातें पूछनी थीं। यह सब काम धीमी गति वाले थे। पहले वह राजपाल के दिलो-दिमाग में उठे उफान को ठण्डा होने देना चाहता था, अपने फेवरेट लेखक से बातें करके।
चाय और साथ में खाने-पीने का सामान आ गया।
☐☐☐
“अब बताओ मेरे लायक सेवा। मेरे से जो हो सकेगा, वो मैं तुम्हारे लिये करूंगा।” चाय के बाद राजपाल बोला।
“मैं इस वक्त जहाज से वास्ता रखती कहानी लिख रहा हूं। पूरी कहानी जहाज पर है। और मुझे जहाज के भीतरी माहौल के बारे में खास जानकारी नहीं है। इसलिये मैं जहाज को देखना चाहता हूँ कि भीतर क्या-क्या होता है। यानि कि ज्यादा से ज्यादा जितनी जानकारी हो सके, पा लेना चाहता हूं।”
“बस ये तो मामूली-सी बात है।” राजपाल ने कहा।
“मेरे लिये नहीं।” देवराज चौहान मुस्कराया –“तभी तो यहां आया हूं।”
“आओ, मैं तुम्हें सब कुछ बताऊंगा। एक-एक चीज समझाऊंगा और जब तुम्हारा जहाज वाला उपन्यास पढूंगा तो मुझे भी बहुत अच्छा लगेगा कि मेरी जानकारी पर तुमने उपन्यास को पूरा किया।” कहने के साथ ही राजपाल उठ खड़ा हुआ।
देवराज चौहान और रघुवीर सिंह भी खड़े हो गये।
उसके बाद राजपाल, देवराज चौहान को जहाज का जर्रा-जर्रा दिखाता रहा और जरूरत की हर बात समझाता रहा। इंजन रूम से लेकर, सबसे ऊपरी डेक तक उसने देवराज चौहान को दिखाये। इस सारे काम में तीन घण्टे ऊपर का वक्त लग गया था।
देवराज चौहान को अभी तक जहाज में ऐसा कुछ नजर नहीं आया कि वो सोचने पर मजबूर हो कि महादेव क्या कहना चाहता था। जहाज की दूसरी मंजिल पर ऐसा कुछ अवश्य हुआ।
दूसरी मंजिल दिखाते-दिखाते राजपाल एक बंद दरवाजे के करीब जाकर ठिठका।
“दूसरी मंजिल पर, इस दरवाजे के पास जाने की इजाजत किसी को नहीं है। वैसे भी यह दरवाजा लॉक है।” राजपाल बोला।
देवराज चौहान की निगाह दरवाजे पर जा टिकी।
“क्यों इस दरवाजे के पार क्या है?”
“खास कुछ नहीं।” राजपाल मुस्कराया –“नीलगिरी शिपिंग कॉरपोरेशन के मालिक ब्रूटा साहब इस जहाज पर अक्सर सफर करते हैं। यह जहाज उन्हें जाने क्यों बहुत अच्छा लगता है। शायद इसलिये कि उनकी शिपिंग कम्पनी का पहला जहाज यही था। इसके बाद ही उन्होंने बाकी जहाज खरीदे। इस जहाज के ब्रूटा साहब लक्की मानते हैं। दूसरी मंजिल का आधा हिस्सा उन्होंने अपने लिये रिजर्व रखा हुआ है। इस तरफ कोई यात्री, कोई कर्मचारी नहीं जा सकता। सिर्फ उनके खास आदमी ही जाते हैं। वहां की सफाई भी, उनके आदमी अपनी देख-रेख में करवाते हैं। जब भी नीलगिरी, मतलब कि यह जहाज यात्रा पर रवाना होता है तो ब्रूटा साहब अकसर इसी जहाज पर यात्रा करते हैं। कभी नहीं भी करते । परन्तु इस तरफ कोई आम आदमी नहीं जा सकता, ब्रूटा साहब भीतर हों या न हों। जहाज की रवानगी के वक्त से ही यहां सख्त पहरा लग जाता है।”
देवराज चौहान को महसूस हुआ कि उसे मतलब की बात मालूम हो रही है। इतने बड़े जहाज के एक फ्लोर के आधे हिस्से को, इस तरफ हमेशा ही रिजर्व रखना, उसकी समझ से बाहर था। यकीनन कोई बात होनी चाहिये । शिपिंग कम्पनी का मालिक ब्रूटा, पागल तो होगा नहीं।
“तुम कभी भीतर गये हो? इस दरवाजे के पार –?” देवराज ने मुस्कराकर पूछा।
“हां। दो-तीन बार ब्रूट्रा साहब के आदमियों के साथ ही गया था।” राजपाल ने बताया।
“क्या है इस दरवाजे के पार । मतलब कि भीतर के रास्ते कैसे हैं और –।”
“सॉरी।” राजपाल ने सिर हिलाकर, मुस्कराकर कहा –“ब्रूटा साहब की तरफ से सख्त हिदायत है कि जहाज के प्राईवेट हिस्से के बारे में किसी से कोई बात नहीं की जायें। और आप तो उपन्यासकार हैं। कहीं अपने उपन्यास में भीतर के रास्तों का जिक्र कर दिया तो मेरी खैर नहीं।”
“यकीन रखिये। यह बात मैं उपन्यास के लिये नहीं, अपनी जिज्ञासा के लिये पूछ रहा हूं।”
“तो भी मैं माफी चाहूंगा। ब्रूटा साहब की तरफ से, इस बारे में बात करने की इजाजत नहीं है।”
“कोई बात नहीं। मैं इस बात के लिये आप पर जोर नहीं डालूंगा। अब जहाज कब रवाना हो रहा है?”
“तीन दिन बाद । सिंगपुर के लिये। इस बार तो ब्रूटा साहब भी जहाज पर यात्रा करेंगे। आओ मैं तुम्हें जहाज की बाकी चीजें दिखाता हूं। उसके बाद तुम्हें जहाज के स्टाफ के बारे में बताऊंगा। उपन्यास लिखते समय शायद इन बातों की जरूरत पड़े।”
देवराज चौहान ने उस बन्द दरवाजे को देखा। फिर राजपाल और रघुवीर के साथ चल पड़ा। उस बन्द दरवाजे के पार, दूसरी मंजिल के, उस प्राईवेट हिस्से पर कुछ है। खास कुछ है। इसी वजह से उस तरफ किसी को जाने की इजाजत नहीं थी।
शिपिंग कम्पनी का मालिक ब्रूटा वहां क्या करता है?
क्या महादेव इसी सिलसिले के बारे में कुछ बताना चाहता था?
☐☐☐
जहाज नम्बर 302 यानि कि नीलगिरी नामक जहाज का राजपाल ने जर्रा-जर्रा दिखाया और फिर देवराज चौहान को उसी पहले वाले केबिन में ले गया।
बोरियत महसूस कर रहा रघुवीर सिंह साथ ही रहा।
साढ़े तीन घण्टों में राजपाल के हाव-भाव में जरा भी थकान नहीं आई थी। केबिन में पहुंचकर उसने पुनः चाय और खाने का सामान मंगवाया और देवराज चौहान से बोला।
“रोशन कुमार जी!”
“जी –!”
“अगर आप जहाज के भीतर के सीन लिखेंगे उपन्यास में तो कहीं भी जहाज कर्मचारियों के बारे में भी बताना पड़ सकता है। मेरे ख्याल में आपको इस बात की जानकारी होनी चाहिये कि कौन-सा कर्मचारी जहाज पर क्या करता है और उसकी पोस्ट को क्या कहा जाता है।” राजपाल ने कहा।
देवराज चौहान बहुत ठण्डे-ठण्डे काम ले रहा था। एकदम ये कहना कि वो चलता है। राजपाल की निगाहों में शक पैदा कर सकता था। उसका काम हो चुका था। जहाज को देख चुका था। और पूरे जहाज में उत्सुकता पैदा करने वाली कोई बात थी तो, वो थी जहाज की दूसरी मंजिल का आधा हिस्सा । जोकि हमेशा ही जहाज के मालिक ब्रूटा के अधिकार में रहता था। जिस तरफ अन्य किसी का जाना मना था। ब्रूटा जहाज में सफर कर रहा हो या न हो। जहाज की रवानगी के वक्त वहां पहरा आरम्भ हो जाता था कि कोई उस तरफ न जा सके। देवराज चौहान का मस्तिष्क तेजी से इसी तरफ चल रहा था।
देवराज चौहान ने मुस्कराकर राजपाल को देखा।
“हां! ये तो मालूम होना बहुत जरूरी है कि जहाज पर कौन कर्मचारी क्या करता है।”
“तो सुनो। मैं बताता हूं। चाय लो ठण्डी हो रही है।” कहकर राजपाल ने घूंट भरा फिर कह उठा –“जहाज पर आमतौर पर मुख्य तीन विभाग होते हैं। डेक विभाग। इंजन विभाग और सर्विस विभाग।”
राजपाल ठिठका तो देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
लापरवाह-सा बैठा रघुवीर सिंह प्लेटें खाली करने में लगा था।
“डेक विभाग में जहाज के कप्तान, उप-कप्तान, सहायक कप्तान, चालाक सेरंग, पत्तन मास्टर आते हैं। कप्तान को चीफ मेट या मास्टर भी कहते हैं। जहाज का सबसे बड़ा होने के नाते, कप्तान का मुख्य कार्य जहाज, उसके सारे कर्मचारियों को, जहाज के माल की और यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेवारी इस पर होती है। जहाज के चालक दल और कर्मचारियों पर इसका पूरा नियंत्रण होता है। यह जहाज के कर्मचारियों में अनुशासन बरकरार रखते हुए, सारे काम सफलता से निपटाता है। कहां, किस तरह सफर करना है। खराब मौसम में या एमरजेंसी में क्या करना है। सब कप्तान के हवाले है। जहाज पर होने वाली हर बात का हिसाब, लेखा-जोखा इसे रखना पड़ता है। अलग-अलग देशों के बन्दरगाह और कस्टम अधिकारियों से अच्छे सम्बन्ध बनाकर रखने पड़ते हैं, ताकि दूसरे देश भेजने वाले माल के लिये वे लोग उसका ही जहाज इस्तेमाल करें। इससे जहाज की आमदनी बढ़ती है। जहाज के मालिक और कर्मचारियों के बीच यह एक कड़ी का काम करता है।”
राजपाल के खामोश होते ही देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
“उसके बाद फर्स्ट मेट या उप-कप्तान जहाज का दूसरा, मुख्य अधिकारी होता है। कप्तान की सहायता करने के साथ-साथ इसका मुख्य कार्य डेक कर्मचारियों, माल लदान-ढुलाई, जैसे कामों और यात्रियों की सुविधाओं का ध्यान रखना होता है। कौन-से कर्मचारी ने क्या काम करना है, फर्स्ट मेट ही यह तय करता है। सामान कहां रखना है, कहां उतारना है, यह सब काम इसके जिम्मे ही होते हैं।”
“इसके जिम्मे तो काफी काम रहता है।” देवराज चौहान ने कहा।
“हां। उप-कप्तान को बहुत कुछ संभालना होता है। लेकिन सबका काम ही कठिन होता है। राजपाल ने सोचभरे स्वर में कहा –“उप-कप्तान के बाद सहायक कप्तान जहाज के मुख्य कामकाज करता है। मुख्य रूप से रात का काम इसे संभालना पड़ता है। क्रोमोमीटर, गाईरोकम्पास जैसे उपकरणों की देखभाल इसी के सिर होती है। कर्मचारियों की शिफ्ट ड्यूटी के मामले यही संभालता है। बन्दरगाह के बाहर खड़े होने के लिए जब जहाज को लंगर डालना होता है तो जगह का चुनाव और सारा काम इसी की देखरेख में होता है। बीमार कर्मचारियों के इलाज करने तक की जिम्मेवारी इस पर होती है।”
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।
“सबका काम अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण है।” देवराज चौहान ने कहा।
“हां। पुर्जा छोटा हो या बड़ा। अपनी जगह वह महत्वपूर्ण ही होता है।” राजपाल ने सयानेपन से कहा।
देवराज चौहान के होंठों पर शांत मुस्कान उमरी।
“फिर बारी आती है थर्ड मेट की। इसका काम सिग्नल उपकरणों, सुरक्षा से वास्ता रखती बातें और लाईफ बोट्स की देखभाल इसके ऊपर होती है। यह कप्तान के आदेशों को इंजन रूम तक भी पहुंचाता है और अपने सामने उनका पालन करवाता है।”
देवराज चौहान की निगाह राजपाल पर थी।
रघुवीर सिंह प्लेटें खाली करने के बाद पुनः बोर होने लगा था।
“उसके बाद पायलट ऑफ शिप की बारी आती है। इसके ऊपर जिम्मेवारी होती है, यह जानना कि जहाज के लायक कहां पानी है और वहां जहाज की गति कितनी होनी चाहिए। कई बार ऐसी जगहों पर से गुजरना पड़ता है, जहां पानी कम गहरा होता है तो जहाज की गति धीमी रखनी पड़ती है। कितनी धीमी रखनी है गति, इस बात को पायलट ऑफ शिप ही तय करता है।”
देवराज चौहान ने कश लिया। उसकी पूरी तवज्जो राजपाल पर थी। देवराज चौहान इस बात में हमेशा विश्वास रखता था कि कोई भी जानकारी बेकार नहीं होती। कभी न कभी काम आती है।
“इसके बाद पोस्ट आती है सेरंग की। सेरंग, कर्मचारियों पर नियंत्रण रखता है। उन पर नजर रखता है और सुपरवाईजरी करता है; ताकि सारा काम ठीक-ठाक ढंग से चले।” राजपाल बोल रहा था –“जहाज पर इंजन विभाग होता है। इस विभाग पर जहाज के इंजन और उसके उपकरणों की पूरी जिम्मेवारी होती है। खराबी पैदा होते ही तुरन्त उसे ठीक कर देते हैं। यह लोग मामूली मैकेनिक न होकर अधिकारी कहलाते हैं। जहाज में शिप इंजीनियर भी होता है। मुख्य अधिकारी होने के नाते इसे सभी इंजनों, बॉयलरों, इलेक्ट्रिकल, प्रशीतन, सैनिटरी उपकरणों, डेक मशीनरी और स्टीम कनेक्शनों के सही और सहज संचालन की जिम्मेवारी निभानी होती है। यह इंजन रूम का प्रभारी होता है। वहां होने वाली गड़बड़ की जवाबदेही इसे ही देनी पड़ती है।”
देवराज चौहान, राजपाल को देख रहा था।
“वास्तव में।” रघुवीर सिंह कहा उठा –“जहाज पर काम करने वालों को कठिन जीवन गुजारना पड़ता है।”
“उसके बाद इलेक्ट्रिकल ऑफिसर होता है। इंजन रूम के सभी इलेक्ट्रिकल उपकरणों को संभालने की जिम्मेवारी इसी पर होती है। फिर रेडियो ऑफिसर होता है। यह मुख्य रूप से डेक पर काम करने वालों को कंट्रोल करता है। इसके लिए वायरलैस, कम्प्यूटर और अन्य अत्याधुनिक उपकरणों के संचालन और कोर्ड वर्ड के सन्देशों में एक्सपर्ट होता है। जहाज पर सीकॉनी होता है। जिसका अहम काम जहाज की गति-दिशा पर कंट्रोल करना और सिग्नल सिस्टम की देख-रेख करना होता है। बन्दरगाह पर खड़े जहाज की सुरक्षा भी इसके ऊपर ही होती है। जहाज पर सेवा विभाग होता है। जहाज की मरम्मत करने से लेकर उस पर काम करने वाले कर्मचारियों, अधिकारियों, यात्रियों के लिये भोजन, रहने, जरूरत के हर सामान को मुहैया कराना इस विभाग का काम है। इसमें मुख्य स्टीवर्ड पूरे काम की देखभाल करता है और मुख्य रसोईया भोजन आदि का ध्यान रखता है। इस विभाग में कर्मचारियों की संख्या बहुत ज्यादा होती है। जहाज पर ड्रेस डाइवर होता है। इसे स्किन डाइवर भी कहते हैं। यह समन्दर में उतरकर जहाज के पेंदे, पंखों,पाईप वगैरह की जांच करता है।”
“हर तरह की फौज होती है, जहाज पर।” रघुवीर सिंह ने देवराज चौहान को देखकर कहा।
“हां।” राजपाल ने सिर हिलाया –“जहाज में लाइट कीपर होता है। जहाजों के मार्ग-निर्देशन, सिग्नल लेने-देने का महत्वपूर्ण काम उसका लाइट हाऊस करता है। यह मौसम, तापमान, हवा का बहाव और समन्दरी हरकतों के आंकड़ों का भी हिसाब रखता है, ताकि रात में, समन्दरी तूफान में या फिर किस माहौल में जहाज को कैसे चलाया जाये। मुसीबत के वक्त मदद मांगने का काम भी यही करता है।”
“सब किसी को अपना काम जिम्मेवारी से करना होता है।” रघुवीर सिंह ने कहा –“एक की भी लापरवाही सबकी मेहनत पर पानी फेर सकती है। किसी का भी काम हल्का नहीं होता।”
देवराज चौहान ने उसे देखा। कहा कुछ नहीं।
राजपाल कहे जा रहा था।
“एक जगह नॉटिकल सर्वेयर की होती है। इसका काम सागर के खास-खास हिस्सों के नक्शे तैयार करना होता है; ताकि बीच समन्दर में जहाज कहीं भटक न जाये या फिर समुद्री पर्वत या चट्टान से टकरा न जाये। इन सबके अलावा हर विभाग में अलग-अलग कई कर्मचारी और सफाई कर्मचारी होते हैं। मोटे तौर पर जहाज में होने वाले कर्मचारियों के बारे में जानकारी यही है।”
राजपाल ने अपनी बात समाप्त की।
देवराज चौहान आभारभरे ढंग से मुस्कराया।
“वास्तव में आपने अपना कीमती वक्त देकर बहुत काम की जानकारी दी। मैं आपका शुक्रिया अदा...।”
“अजी क्या बात करते हैं रोशन कुमार जी।” राजपाल बात काटकर हंसा –“मैं आपके किसी काम आ सका क्या यह कम है। आप तो उपन्यास लिखकर, लोगों को मनोरंजन देते हैं। उसके मुकाबले तो मैं आपके काम कुछ भी नहीं आया।”
“खैर, ये आपकी सोच है।” देवराज चौहान मुस्कराते हुए उठ खड़ा हुआ –“अब मुझे इजाजत दीजिये। कभी जरूरत पड़ी तो फिर मिलूंगा आपसे।”
“जरूर-जरूर । मुझे खुशी होगी मिलकर। और बाजार में, कुछ वक्त के बाद मैं आपका उपन्यास भी तलाश करूंगा, जिसमें जहाज की कहानी होगी।” राजपाल मुस्कराकर खड़ा हुआ।
“मैं कॉपी, भिजवा दूंगा।”
“यह तो और भी खुशी की बात है। लेकिन आप लोग यहां से जायेंगे कैसे?”
“वो गोपाल बोट वाले ने आना था तीन घण्टे बाद।” रघुवीर सिंह बोला –“अब तो चार घण्टे से ऊपर हो चुके हैं। कहीं आने के बाद वो वापस न चला गया हो।”
“चला गया हो तो बन्दरगाह तक पहुंचाने का इन्तजाम मैं करा दूंगा।” राजपाल ने कहा।
लेकिन गोपाल बोट के साथ, वहीं सीढ़ी के पास मौजूद था।
राजपाल से विदा लेकर दोनों बोट में बैठे तो बोट बन्दरगाह की तरफ दौड़ पड़ी। इस वक्त दोपहर के तीन बज रहे थे। सूर्य सिर पर चढ़ा था। चारों तरफ शांत समन्दर था।
“रघुवीर –!” देवराज चौहान बोला।
“हां।”
“बाकी सब तो समझ में आ गया। एक बात समझ में नहीं आई।” देवराज चौहान ने उसे देखा।
“कौन-सी बात?”
“जहाज की दूसरी मंजिल के आधे हिस्से को, जहाज के मालिक ब्रूटा साहब ने प्राईवेट क्यों बना रखा है? ऐसा प्राईवेट कि, उधर कोई न जाये, वहां की पहरेदारी रखी जाती है।”
“तेरे को इससे क्या। वो जहाज के मालिक हैं जो भी करें।”
“मेरा मतलब था कि अगर मालूम हो जाये कि वहां ब्रूटा साहब क्या करते हैं, तो हो सकता है इससे मेरे उपन्यास की कहानी को दम मिले और ‘हिट’ जाये।”
“ज्यादा हिट कहानी भी ठीक नहीं होती।” रघुवीर सिंह ने लापरवाही से कहा –“तुम्हारा काम हो गया। काम खत्म। अब मैं भी छुट्टी लेकर चलूंगा। बीवी के लिये साड़ी वगैरह भी खरीदनी है। रोज चिड़-चिड़ करती रहती है। आज तो साड़ी देखकर, अपने सड़े दांत फाड़ ही देगी।”
☐☐☐
देवराज चौहान जब सोहनलाल के कमरे में पहुंचा तो शाम के छः बज रहे थे। कुर्सी पर बैठा, गोली वाली सिगरेट के कश लेता मिला।
“मालूम किया, अनिता गोस्वामी के घर पर मरने वाला कौन था?” देवराज चौहान ने बैठते हुए पूछा।
“पता करने जा रहा था कि रास्ते में असलम खान से मुलाकात हो गई।”
“असलम खान?”
“वो ही, जिसने महादेव को अनिता गोस्वामी के साथ मिलाया था।” सोहनलाल ने कहा।
देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
“अनिता गोस्वामी आज सुबह ही असलम खान के पास गई थी। उससे मिली थी।” सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा –“चाहती थी कि असलम खान फिर किसी ऐसे आदमी से मुलाकात करवाये, जो बन्दरगाह के बारे में जानकारी रखता हो।”
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं।
“असलम खान ने मना कर दिया कि महादेव को उससे मिलवाकर वो पहले ही मुसीबत मोल ले चुका है। महादेव की मौत के बाद, उसके दोस्त उसके हत्यारे को ढूंढ रहे हैं। असलम खान ने अनिता गोस्वामी से कहा कि, महादेव के दोस्त खतरनाक हैं और किसी कीमत पर उसके हत्यारे को नहीं छोड़ेंगे।”
देवराज चौहान का पूरा ध्यान सोहनलाल के शब्दों पर था।
“यह सुनकर उसने कहा कि महादेव के हत्यारे इस तरह नहीं मिलेंगे। अगर वो वास्तव में महादेव के हत्यारों तक पहुंचना चाहते हैं तो मुम्बई बन्दरगाह से तीन दिन बाद नीलगिरी जहाज सिंगापुर के लिये रवाना होगा। उस जहाज को तीन सौ दो नम्बर से भी जाना जाता है। वो नीलगिरी शिपिंग कॉरपोरेशन का जहाज है और उसका मालिक फेमस आदमी मिस्टर ब्रूटा है। महादेव को हत्यारे को पाने के लिये उस जहाज पर सिंगापुर के लिये सफर करना पड़ेगा। वो भी उस जहाज पर होगी। तब वो बता देगी कि जहाज पर हत्यारा कहां है।”
देवराज चौहान ने सोचभरे ढंग से सिगरेट सुलगा ली।
“ऐसा है तो वो जहाज पर हमें कहां मिलेगी?”
“असलम खान के पूछने पर उसने बताया था कि सफर की पहली रात को ठीक ग्यारह बजे, छठी मंजिल के डेक पर, वो मिलेगी। असलम खान से वो मेरा-तुम्हारा नाम पूछ गई है।” सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा –“असलम खान ने उसे एक घण्टा जबर्दस्ती बिठाये रखा; ताकि जान सके कि मामला क्या है। लेकिन अनिता गोस्वामी उसे यही कहती रही कि ये मामला तुम्हारे जानने लायक नहीं है। उसने पूरी कोशिश कर ली। लेकिन वो कुछ नहीं बोली।”
सोहनलाल के खामोश होते ही वहां खामोशी छा गई।
“तो –।” देवराज चौहान ने चुप्पी तोड़ी –“अनिता गोस्वामी हमें नीलगिरी जहाज यानि कि 302 नम्बर जहाज में उस दिन की रात को मिलेगी जिस दिन जहाज सिंगापुर के लिये मुम्बई बन्दरगाह छोड़ेगा।”
“असलम खान तो मुझे ऐसा ही बोला।” सोहनलाल बोला।
देवराज चौहान कश लेता सोच में डूबा रहा।
“बन्दरगाह से जहाज के बारे में तुम्हें कुछ मालूम हुआ?” सोहनलाल ने एकाएक पूछा।
“नीलगिरी जहाज को मैं पूरी तरह भीतर से देखकर आया हूं।”
“ओह!” सोहनलाल ने सिर हिलाया –“कोई खास बात?”
“सिर्फ यह कि जहाज की दूसरी मंजिल का आधा हिस्सा पूरी तरह से प्राईवेट है। वहां पर जहाज के मालिक ब्रूटा की इजाजत के बिना कोई नहीं जा सकती। उस हिस्से की तरफ जाने के लिये ऐसे दरवाजों में से गुजरना पड़ता है। जोकि लॉक रहते हैं। जहाज की रवानगी के वक्त वहाँ पहरा लग जाता है। ब्रूटा और उसके खास आदमी ही उस हिस्से में जा सकते हैं। यात्री उस तरफ नहीं आ सकते।”
“अजीब बात है।”
“वास्तव में अजीब बात ही है।” देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़े –“जहाज के मालिक ब्रूटा ने दूसरी मंजिल के आधे हिस्से को प्राइवेट बना रखा है। इसमें कोई खास सोचने की बात नहीं है। बड़े लोग। पैसे वाले लोग, अक्सर ऐसी सनकपन की हरकतें करते रहते हैं। सोचने और गौर करने लायक बात तो यह है कि यहां पर इतना सख्त पहरा क्यों लगा दिया जाता है जब जहाज अपनी यात्रा पर रवाना होता है। इस पहरे से इस बात का वास्ता नहीं है कि ब्रूटा जहाज में सफर कर रहा है या नहीं। उन लोगों की अहम तवज्जो इस तरफ रहती है कि कोई जहाज के प्राईवेट हिस्से में न आने पाये। इतनी सावधानी, सख्ती किस वास्ते। जाहिर है कि वहां ऐसा कुछ है कि ब्रूटा नहीं चाहता कि उस बारे में कोई जाने।”
सोहनलाल चेहरे पर अजीब-से भाव लिए, देवराज चौहान को देख रहा था।
“तुम जहाज पर गये थे। तब भी जहाज के प्राइवेट हिस्से को नहीं देख पाये?” सोहनलाल बोला।
“नहीं। जहाज दिखाने वाले ने स्पष्ट तौर पर मना कर दिया। वैसे भी उधर का रास्ता बंद था। मजबूत दरवाजा लॉक था। और उस इंसान की बातों से साफ लग रहा था कि वो ब्रूटा से खौफ खाता है। उसके बात करने के ढंग से में समझ गया था कि उसे कैसा भी लालच दे दो। वो मानने वाला नहीं। वैसे भी उस दरवाजे की चाबी उसके पास नहीं हो सकती।”
सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट का कश लिया।
“वो जहाज बेशक ब्रूटा की शिपिंग कम्पनी का है। लेकिन वो कई देशों के बन्दरगाह पर जाता होगा। ऐसे में बन्दरगाह के अधिकारी जहाज के हर हिस्से की तलाशी लेने का हक रखते हैं और लेते भी होंगे।”
देवराज चौहान मुस्कराया।
“तो ब्रूटा को क्यों इंकार होगा। वह बिना किसी एतराज के तलाशी लेने देता होगा। और उससे पहले वहां एतराज के काबिल जो भी चीज होती होगी हटा देता होगा।”
देवराज चौहान की इस बात पर, सोहनलाल ने फौरन सिर हिलाया।
“यकीनन ऐसा ही होता होगा।”
“सोहनलाल।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा –“बन्दरगाह पर, चो 302 नम्बर जहाज कहां खड़ा है, मैं देख आया हूं। आज रात मैं उस जहाज के, दूसरी मंजिल वाले प्राईवेट हिस्से को भीतर से देखना चाहता हूं। आखिर वहां है क्या? ऐसी क्या चीज है कि ब्रूटा उसे सबकी निगाहों से बचाकर रखना चाहता है?”
सोहनलाल ने बेचैनी से पहलू बदला।
“यह खतरे वाला काम होगा।”
“क्यों?”
“दिन में वहां क्या इन्तजाम था, मैं नहीं जानता। लेकिन रात को कम से कम उस प्राईवेट हिस्से में, ब्रूटा पहरा अवश्य रखवाता होगा। यूँ ही वो जहाज लंगर डालें नहीं खड़ा रहता होगा।” सोहनलाल ने कहा।
“मैं इस बारे में सोच चुका हूं और जो भी खतरा सामने आयेगा, उससे निपटा जायेगा।” देवराज चौहान के दांत भींचते चले गये –“लेकिन जहाज नम्बर 302 पर स्थित ब्रूटा के उस प्राईवेट हिस्से को देखना बहुत जरूरी है। मुझे पूरा विश्वास है कि महादेव की हत्या की वजह वही जगह है।”
सोहनलाल ने सिगरेट को ऐश-ट्रे में मसला।
“लेकिन उस जगह को किसी तरह तब भी देखा जा सकता है, जब जहाज रवाना हो और तुम जहाज पर हो।”
“बेवकूफों वाली बातें न करो। तब सख्त से सख्त पहरा होगा और इस वक्त अगर पहरा होगा तो सामान्य पहरा होगा। हो सकता है, जहाज की रवानगी के बाद हम उस तरफ फटक भी न सकें।” देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा –“जैसे भी हो। आज रात ही जहाज के प्राईवेट हिस्से को देखा जायेगा। तुम साथ चलोगे। क्योंकि प्राईवेट हिस्से में जाने के लिये, रास्ते में बंद तालों को तुमने खोलना है। अपना सामान तैयार कर लो। कोई भी औजार छूटना नहीं चाहिए। क्योंकि जाने उस हिस्से में क्या है। समझ गये?”
“पूरी तरह समझ गया । उस जहाज तक पहुंचने के लिये किसी मोटरबोट का इन्तजाम करना पड़ेगा। इन्तजाम भी इस तरह कि बाद में छानबीन पर भी मालूम न हो सके क्रि बोट को इस्तेमाल किसने किया था।” सोहनलाल बोला।
“बोट का इन्तजाम ठीक नहीं रहेगा।” देवराज चौहान गम्भीर सोच भरे स्वर में कह उठा।
“क्यों?”
“वो शोर करेगी। उसके इंजन की आवाज, अगर रात को जहाज पर कोई होगा तो, उसे सावधान कर देगी कि कोई इस तरफ आ रहा है। बोट का इस्तेमाल, गले में घण्टी बांधने जैसा होगा।” देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा –“इस काम में, जहाज तक पहुंचने के लिये, हम नाव का इस्तेमाल करेंगे।”
“नाव?”
“हां। कश्ती। छोटी-सी। पानी में चप्पू चलाकर, बिना किसी शोर के हम जहाज तक पहुंच सकते हैं।” कहते हुए देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ गये –“दिन में तो जहाज पर आने-जाने के लिये सीढ़ी लटक रही थी। लेकिन रात के वक्त यकीनन सीढ़ी उठा ली जाती होगी। हमें मजबूत रस्से का इन्तजाम करना होगा, जो हमारा बोझ बर्दाश्त कर सके। ऐसा कांटा भी होना चाहिये होगा, जिसे रस्सी के सहारे ऊपर फेंककर, जहाज की ऊपरी दीवार के किनारे पर फंसाकर रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ा जा सके। इन सब चीजों का इन्तजाम तुम्हें अभी करना होगा। शाम हो चुकी है। कुछ और वक्त बीत गया तो फिर इन्तजाम करने में दिक्कत आयेगी।”
सोहनलाल फौरन खड़ा हो गया।
“मैं एक घण्टे में यह सामान लेकर आता हूं।”
“रिवॉल्वर पर लगाने के लिए साईलेंसर भी लेते आना।”
सोहनलाल ने प्रश्नभरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान के चेहरे पर कठोर-सपाट भाव थे।
“जहाज पर अगर फायरिंग की जरूरत पड़ी तो, रिवॉल्वर पर साईलेंसर लगा होना जरूरी है। नहीं तो उस जगह से गोली की आवाज के धमाके, बन्दरगाह के तट तक जा सकते हैं और ऐसे कई लोग हों, जिन्हें गोली की आवाजों की पहचान होगी। बन्दरगाह पर जाहिर है कि रात को पुलिस वालों की भी ड्यूटी होगी।”
“साईलेंसर का इन्तजाम भी हो जायेगा।”
“जगमोहन आया?”
“नहीं।”
“तुम सामान का इन्तजाम करो।” देवराज चौहान ने नई सिगरेट सुलगा ली।
सोहनलाल बाहर निकलता चला गया।
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