शुक्रवार - शाम
साढे सात बजे के करीब अपर्णा सीढियां उतरकर नीचे ड्राइंगरूम में पहुंची । पहले उसका कहीं जाने का इरादा था, लेकिन अपने पापा से उसकी शादी में उनकी रजामन्दगी की बात सुनकर उसने फिलहाल वह इरादा छोड़ दिया ।
काशीनाथ से यह जानकर उसे बड़ी हैरानी हुई कि उसके पापा एक टेलीफोन कॉल आने पर एकाएक कहीं चले गए थे और कह गये थे कि खाने पर कोई उनका इन्तंजार न करे ।
आठ बजे के करीब पवन वहां वापिस लौटा ।
“तुम कहां चले गए थे ?” - अपर्णा तनिक झुंझलाए स्वर में बोली ।
“ठण्डी हवा खाने ।” - पवन बोला - “तुम्हारे पापा की हां सुनते ही मैं इतना खुश हो गया था कि मुझे डर लगने लगा था कहीं मैं पागल न हो जाऊं ।”
“हुए तो नहीं ?”
“बाल बाल बच गया, मेम साहब ।”
अपर्णा मुस्कराई ।
पवन ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और उसके होंठों पर एक चुम्बन जड़ दिया ।
“अरे छोड़ो” - अपर्णा उसकी पकड़ में छटपटाती हुई बोली - “नौकर-चाकर देख लेंगे ।”
पवन ने उसे छोड़ दिया ।
“अब क्या इरादा है ?” - अपर्णा ने पूछा ।
पवन फिर उसकी तरफ बढा ।
“मेरा मतलब है इसके अलावा ।”
“ओह !” - पवन ठिठका - “तुम बोलो ।”
“वी शुड सैलीब्रेट दि ओकेजन ।”
“बाई डूइंग वाट ?”
“शैम्पेन खुल जाए आज ।”
“मंजूर ।”
अपर्णा ने काशीनाथ को बुलाया और उसे आवश्यक निर्देश दिया ।
काशीनाथ ने ड्राइंगरूम से सम्बद्ध बालकनी में उनके लिए टेबल लगा दी । शैम्पेन की बोतल को वह एक चांदी की, बर्फ से ठसाठस भरी, बाल्टी में रखकर लाया ।
पवन ने शैम्पेन का कार्क उड़ाया और दो गिलासों में शैम्पेन डाली ।
उसी क्षण शालिनी वहां पहुंची ।
शैम्पेन का दौर चलता देखकर उसके नेत्र सिकुड़े, लेकिन प्रत्यक्षत: वह सहज स्वर में बोली - “क्या बात है ? आज तो जश्न मनाया जा रहा है ?”
“पापा ने हमारी शादी की इजाजत दे दी है ।” - अपर्णा प्रसन्न स्वर में बोली ।
“अच्छा ! कब ?”
“अभी थोड़ी देर पहले । तब तुम घर पर नहीं थीं ।”
“मैं मिसेज जोशी की पार्टी में गई थी । अभी सीधी वहीं से लौट रही हूं । टाइम क्या हुआ है पवन ?”
पवन ने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली और बोला - “नौ बजने को हैं ।”
“तुम्हारे पापा कहां हैं, अपर्णा ?”
“वो घर पर नहीं हैं । थोड़ी देर पहले एक टेलीफोन कॉल आ जाने पर यह कहकर कहीं गये हैं कि उन्हें मालूम नहीं वे कब लौटेगे ।”
“ओह !” - उन दोनों की शादी की बात सुनकर न जाने क्यों शालिनी का दिल बैठा जा रहा था, लेकिन प्रत्यक्षत: वह मीठे स्वर में बोली - “पवन, बधाई हो । बहुत बड़ा किला फतह कर लिया तुमने ।”
“थैंक्यू ।” - पवन बोला ।
“और शालिनी तुम्हें भी ।”
“थैंक्यू ।” - शालिनी बोली ।
शालिनी वहां से हटने वाली थी कि काशीनाथ वहां पहुंचा ।
“बड़ी मेम साहब” - वह शालिनी से बोला - “कोई पुलिस वाला आया है । आपसे बात करना चाहता है ।”
“पुलिस वाला ?” - पुलिस के नाम से ही न जाने क्यों शालिनी को चेहरा पीला पड़ गया ।
“जी हां ।”
“कहां है वो ?”
“मैंने उसे बाहर ड्राइंगरूम में बिठाया है ।”
“चलो ।”
शालिनी काशीनाथ के साथ हो ली ।
“हम भी चलते हैं ।” - अपर्णा बोली ।
वह और पवन भी उठकर उसके साथ हो लिये ।
ड्राइंगरूम में एक वर्दीधारी पुलिस सब-इंस्पेक्टर मौजूद था । उन्हें वहां पहुंचते पाकर वह उठकर खड़ा हो गया ।
“मेरा नाम सब-इंस्पेक्टर वर्मा है ।” - वह बोला ।
“मैं मिसेज व्यास हूं” - शालिनी बोली - “क्या कहना चाहते हैं आप ?”
वर्मा ने अपर्णा और पवन पर निगाह डाली ।
“ये भी घर के ही लोग हैं” - शालिनी जल्दी से बोली - “यह उन की बेटी अपर्णा है और यह इसका होने वाला पति पवन है । बात क्या है ?”
“राजपुर रोड पर एक मोटर एक्सीडेन्ट हो गया है, मिसेज व्यास” - वर्मा अपने व्यवसाय-सुलभ भावहीन स्वर में बोला - “जो आदमी कार की ड्राइविंग सीट पर मौजूद था, उसकी जेब में मौजूद कागजात से हमें पता लगा है कि वे व्यास साहब थे ।”
“थे ?” - शालिनी आतंकित स्वर में बोली - “क... क्या मतलब है आपका ?”
“मुझे अफसोस है कि यह बुरी खबर मुझे आपके पास लानी पड़ी, लेकिन हमारे घटनास्थल पर पहुंचने से पहले से पहले ही वे मर चुके थे ।”
अपर्णा के चेहरे पर से एकाएक खून निचुड़ गया । वह यूं लहराई जैसे बेहोश होकर गिर जाने वाली हो, लेकित पवन ने झपटकर उसे सम्भाल लिया ।
शालिनी भी सदमे से जड़ हो गई होने का बड़ा बढिया अभिनय कर रही थी, लेकिन मन-ही-मन वो खुश हो रही थी कि प्रदीप पुरी ने आखिर इतना बड़ा काम कर ही दिखाया था ।
“आप लोगों में से किसी को लाश की शिनाख्त के लिए मेरे साथ चलना होगा ।” - सब-इंस्पेक्टर बोला ।
“मैं चलती हूं ।” - शालिनी बोली ।
“मैं भी जाऊंगी ।” - अपर्णा आर्तनाद-सा करती हुई बोली ।
“हम सब चलते हैं ।” - पवन बोला ।
शुक्रवार - रात
मरने वाला व्यास ही था ।
शिनाख्त के बाद पवन शालिनी और अपर्णा को जबरदस्ती घर ले आया । तब तक पड़ोस के कई लोग वहां पहुंच गये थे । उनमें मिसेज साराभाई भी थी । पवन ने मिसेज साराभाई से विशेष रूप से प्रार्थना की कि वह अपर्णा का ख्याल रखे और अपर्णा से वापिस लौटकर आने का और रात को वहीं उसके पास रहने का वादा करके वह फिर पुलिस मोर्ग की तरफ रवाना हो गया जहां कि व्यास का पोस्टमार्टम होना था ।
व्यास की मौत से शालिनी मन-ही-मन खुश थी लेकिन फिर भी जब उसने मोर्ग में उसकी लाश देखी थी तो उसका दिल हिल गया था और उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे थे ।
इस बात ने देखने वालों पर बड़ा अच्छा प्रभाव छोड़ा था ।
शालिनी अपने बैडरूम में आ गई और व्यास की मौत के बारे में सोचने लगी ।
अब जबकि प्रदीप पुरी ने उसके रास्ते का रोड़ा हटा दिया था तो अब प्रदीप पुरी ही उसे अपने रास्ते का रोड़ा लगने लगा था । कल तक वह एक रईस आदमी की, उसकी मेहरबानियों पर निर्भर, बीवी थी । आज वह उसकी विधवा थी और खुद रईस औरत थी । अब उसे प्रदीप एक मामूली और अपने लिए कतई नाकबिल आदमी लगने लगा । वह अभी तैंतीस साल की थी और खूब जवान और खूबसूरत थी । उसे प्रदीप जैसे मामूली आदमी से साथ बंधे रहने की क्या जरूरत थी ! यह बड़ी अच्छी बात थी कि व्यास के कत्ल के षड्यन्त्र में उसने उसे शामिल नहीं किया था । बाद में वह तो यहां तक कह सकती थी कि उसे तो मालूम तक नहीं था कि वह व्यास का कत्ल करने का इरादा रखता था । अगर वह कहता कि उसने उसे ऐसा स्पष्ट संकेत दिया था तो वह इस बात से साफ मुकर सकती थी और कह सकती थी कि ऐसा कोई संकेत उसकी समझ में नहीं आया था ।
वैसे भी प्रदीप के साथ जिन्दगी भर बंधे रहने का तो उसने कभी भी इरादा नहीं किया था । उसने तो प्रदीप को थोड़ी मौजबहार के लिए लिफ्ट दी थी, लेकिन वह था कि आनन-फानन उस पर हावी हो गया था ।
अब उसे एकदम नहीं तो धीरे-धीरे प्रदीप पुरी का पत्ता काटना होगा ।
कम-से-कम उससे शादी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था ।
फिर उसे व्यास की स्टडी की वाल सेफ में पड़ी डिटेक्टिव एजेन्सी की रिपोर्ट का ख्याल आया ।
उसे वह रिपोर्ट हर हालत में नष्ट करनी थी ।
लेकिन अभी तो घर अफसोस करने आने वालों से भरा पड़ा था । उनके वहां से विदा होने से पहले वह स्टडी में नहीं जा सकती थी ।
उसने यह सोचकर अपने आपको तसल्ली दी कि सारी रात अपनी थी, स्टडी में जाने का कभी तो मौका लगना ही था ।
तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
“कौन है ?” - वह बोली ।
मिसेज साराभाई भीतर दाखिल हुई ।
“शालिनी” - वह बड़े हमदर्दी भरे स्वर में बोली - “मैं तुम्हारे दिल की हालत समझती हूं, लेकिन दुनियादारी तो निभाती ही पड़ती है न ?”
शालिनी ने उलझनपूर्ण भाव से उसकी तरफ देखा ।
“नीचे जाकर बैठो” - मिसेज साराभाई बोली - “लोग तुम्हें पूछ रहे हैं ।”
शालिनी ने सहमति में सिर हिलाया ।
“और अगर हो तो कोई सफेद साड़ी पहन लो ।”
तब शालिनी को पहली बार सूझा कि वह अभी भी उसी पोशाक में थी जिसमें वह मिसेज जोशी की पार्टी में गई थी । उसने मिसेज साराभाई की वहां से भेज दिया और फिर अपनी शिफॉन की भड़कीली साड़ी उतारकर उसके स्थान पर एक सादी सफेद साड़ी और ब्लाउज पहन लिया और सारे जेवर उतार दिये ।
फिर वह उजड़ी-सी सूरत बनाये नीचे पहुंची और अफसोस करने आए लोगों के बीच बैठ गई ।
तभी व्यास का फैमिली डॉक्टर देवगुण वहां पहुंचा ।
उससे शालिनी को मालूम हुआ कि उसे भी पुलिस का बुलावा आया था और उसी ने पुलिस को बताया था कि व्यास दिल का मरीज था । पुलिस की तफ्तीश के मुताबिक कार चलाते-चलाते ही व्यास को दिल का दौरा पड़ गया था और उसकी मौत हो गयी थी ।कार क्योंकि उस वक्त भी हरकत में थी इसलिये वह काबू से बाहर होकर एक बिजली के खम्बे से जा टकराई थी । पुलिस के मुताबिक मौत दिल के दौरे से हुई थी न कि एक्सीडेन्ट से ।
उसी दौरान पुलिस वहां एक बार फिर आई । उन्होंने काशीनाथ से उस टेलीफोन कॉल के बारे में कई सवाल किए जिसे सुनते ही व्यास आनन-फानन वहां से रवाना हो गया था । लेकिन काशीनाथ उस बारे में कुछ नहीं जानता था । फोन करने वाले की आवाज उसने पहले कभी नहीं सुनी थी और व्यास साहब कहां जा रहे थे, यह उन्होंने बताया नहीं था, लेकिन उनका यह कहकर जाना, कि डिनर पर उनका इन्तजार न किया जाए, जाहिर करता था कि जहां भी ते गए थे वहां उन्हें काफी देर लगने की सम्भावना दिखाई दे रही थी ।
प्रत्यक्षत: पुलिस के पास यह तक जानने का कोई साधन नहीं था कि जिस आदमी से मिलने की नीयत से व्यास साहब घर से गए थे, उससे उनकी मुलाकात हुई भी थी या नहीं ।
आधी रात होने तक अफसोस करने के लिए आए सब लोग वहां से विदा हो गये ।
डॉक्टर देवगुण अपर्णा को खुद उसके बैडरूम में लेकर गया और उसने उसे एक सिडेटिव का इंजेक्शन दे दिया ताकि वह बाकी की रात चैन से काट सके । वैसा ही एक इंजेक्शन वह शालिनी को भी देना चाहता था लेकिन शालिनी ने यह कहकर इंजेक्शन लेने से इन्कार कर दिया कि उसे इन्जेक्शन से डर लगता था । डॉक्टर ने इन्जेक्शन के बदले में उसे नींद की दो गोलियां दीं जो डॉक्टर ने तो यही समझा कि वे शालिनी ने उसके सामने खा ली थीं लेकिन वास्तव में शालिनी ने उन्हें अपनी हथेली में छुपा लिया था ।
फिर वह पलंग पर जा लेटी और नींद का बहाना करने लगी ।
डॉक्टर वहां से चला गया ।
नौकर-चाकरों के भी अपने क्वार्टरों में चले जाने के बाद शालिनी पलग से उठ खड़ी हुई । नींद की गोलियां उसने बाथरूम के सिंक में डालीं और ऊपर नलका चला दिया ।
वह अपने बैडरूम से बाहर निकली ।
हर तरफ सन्नाटा था ।
वह दबे पांव सीढियों की ओर बढी ।
सावधानी से सीढियां उतरकर वह नीचे पहुंची और व्यास की स्टडी की तरफ बढी ।
ठीक उसी वक्त पवन कुमार वापिस लौटा ।
अपर्णा ने उसे मुख्य द्वार की चाबी दे दी थी, इसलिए उसे कॉलबेल नहीं बजानी पड़ी । कोई डिस्टर्ब न हो इस नीयत से उसने धीरे से दरवाजा खोला और भीतर दाखिल हुआ । अपने पीछे दरवाजा बन्द करके नीम-अन्धेरे में चलता हुआ वह आगे बढा ।
गलियारे में पहुंचकर वह एकाएक ठिठका ।
व्यास की स्टडी के बन्द दरवाजे के नीचे उसे रोशनी की लकीर दिखाई दी ।
वहां कौन था ?
या इत्तफाक से ही भीतर की बत्ती जलती रह गई थी ।
एक बात वह उस कमरे के बारे में जानता था । उसका दरवाजा खुला हो या बन्द, उसके भीतर कदम रखने की किसी को इजाजत नहीं थी । वह दर्जनों बार वहां आया था लेकिन खुद उसने आज तक उस कमरे को कभी भीतर से नहीं देखा था ।
तभी दरवाजा धीरे से खुला ।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर पवन गलियारे से हटा और ड्राइंगरूम के विशाल दरवाजे पर पड़े भारी पर्दे की ओट में हो गया ।
पहले स्टडी की बत्ती बुझी, फिर दरवाजा बन्द हुआ और फिर गलियारे में एक हल्की - बहुत हल्की - पदचाप गूंजी ।
उसने पर्दे की ओट से गलियारे में झांका ।
शालिनी !
पवन हैरान हुए बिना न रह सका । वह इतनी रात गये व्यास साहब की स्टडी में क्या कर रही थी और वह गलियारे की बत्ती क्यों नहीं जला रही थी और वह चोरों की तरह दबे पांव क्यों चल रही थी ?
फिर उसने देखा वह अपने दोनों हाथों में सफेद दस्ताने पहने हुए थी । उसके देखते-देखते उसने हाथों से दस्ताने उतारे और उन्हें एक हाथ में थाम लिया ।
वह तेजी से सीढियों की ओर बढ गई ।
पवन की उलझन और भी बढ गई ।
आधी रात को वह दस्ताने क्यों पहने थी ?
शालिनी के सीढियां चढकर उसकी निगाहों से ओझल हो जाने के काफी देर बाद वह पर्दे की ओट से निकला ।
गैस्ट बैडरूम जहां कि उसने सोना था ऊपर की मंजिल पर था ।
गलियारा पार करके वह सीढियों तक पहुंचा और ऊपर चढने लगा ।
तीसरी ही सीढी पर वह ठिठका ।
सीढी पर एक सफेद-सी चीज पड़ी थी ।
उसने उसे उठाकर देखा तो पाया कि वह एक सूती दस्ताना था जो निश्चय ही शालिनी की पकड़ से फिसलकर वहां गिर गया था ।
उसने कुछ सोचकर दस्ताना वापिस सीढी पर डाल दिया और फिर ड्राइंगरूम के दरवाजे के पीछे पहुंच गया ।
इस बार वह एसी स्थिति में था कि सारी सीढियां ऊपरली मंजिल तक उसे साफ दिखाई दे रही थीं ।
वह प्रतीक्षा करने लगा ।
उसे अधिक समय प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी ।
ऊपरली मंजिल पर साढियों के दहाने पर शालिनी फिर प्रकट हुई । इस बार उसके हाथ में टोर्च थी जिसका प्रकाश वह केवल अपने पैरों के पास डाल रही थी ।
वह सावधानी से एक-एक सीढी उतरने लगी ।
टार्च का प्रकाश दस्ताने पर पड़ा ।
शालिनी ने झुककर दस्ताना उठाया, टार्च बुझाई और वापिस सीढियां चढने लगी ।
प्रत्यक्षत: वह दस्ताने की ही तलाश में आई थी ।
अजीब बात थी । दस्ताने में ऐसी क्या बात थी ? अगर वह वहां पड़ा रह भी जाता तो क्या आफत आ जाती ? सुबह कोई नौकर-चाकर उसे वहां पड़ा देखता तो उसे उठाकर वह उसकी स्वामिनी को लौटा देता ।
वह दरवाजे की ओट से निकला और ऊपर जाने के स्थान पर बड़े निर्णयात्मक ढंग से व्यास की स्टडी की ओर बढा ।
उसने दरवाजा खाला और दीवार पर बिजली का स्विच टटोलकर उसे ऑन किया । कमरे में प्रकाश फैल गया । उसने दरवाजा भीतर स बन्द कर लिया ।
कमरे में खिड़की के पास एक आबनूस की विशाल मेज लगी हुई थी । वह उसके समीप पहुंचा । उसने देखा उसके सारे दरवाजे बड़ी मजबूती से बन्द थे । एक ओर एक स्टील कैबिनेट थी लेकिन उसे भी ताला हुआ था ।
कमरे की एक पूरी दीवार के साथ शैल्फ लगे हुए थे जिनके भीतर किताबें, फाइलें और इसी प्रकार की कई चीजें रखी हुई थीं लेकिन पवन ने देखा कि उनके शीशे के दरवाजों को भी ताले लगे हुए थे । एक ओर शीशे के पल्लों वाला शो केस था जिसके भीतर विभिन्न प्रकार की बन्दूकें, राइफलें और पिस्तौल वगैरह रखी हुई थी ।
अजीब बात थी । हर जगह तो ताले लगे हुए थे । तो फिर शालिनी किस फिराक में वहां आई थी ?
और वह दस्ताने क्यों पहने हुई थी ?
एकाएक उसे एक बात सूझी ।
उंगलियों के निशान !
उंगलियों के निशान छुपाने के लिए ।
जरूर यही बात थी । उसने जासूसी उपन्यासों में आम पढा था कि अपराधी अपनी उंगलियों के निशान घटनास्थल पर छूटने से बचाने के लिये दस्ताने पहनते थे ।
लेकिन शालिनी ने ऐसा क्यों किया ?
अपने पति की स्टडी में, विशेष रूप से उसकी मौत के बाद, उसका वहां जाना अपराध कैसे हो गया ?
पता नहीं क्या गोरखधन्धा था ।
लेकिन एक बात उसकी समझ में खूब आ रही थी ।
शालिनी यह नहीं चाहती थी कि किसी को यह मालूम हो कि वह अपने पति की स्टडी में गई थी । इसीलिए वह एक दस्ताना कहीं गिर जाने के बारे में फिक्रमन्द थी और उसे तलाश करने की खातिर उल्टे पांव लौटी थी । अब तो वह दस्ताना उसे सीढियों में ही पड़ा मिल गया था लेकिन उसकी निगाह में तो वह स्टडी में भी गिरा हो सकता था और उसका वहां पाया जाना यह पोल खोल सकता था कि वह अपने पति की स्टडी में गई थी जबकि वहां किसी के भी जाने की मनाही थी ।
वह गैस्ट बैडरूम में पहुंचा ।
सारी रात वह यही सोचता रहा कि शालिनी स्टडी में क्या तलाश कर रही थी और जिस चीज को वह तलाश कर रही थी वह उसे मिली थी या नहीं ।
शुक्रवार - रात
प्रदीप पुरी जैन हाउस से निकलते ही चैम्सफोर्ड क्लब में, जहां का कि वह सदस्य था, आ गया था और कार्डरूम में जम गया था वहां वह जिन लोगों के बीच घिरा बैठा था बाद में वही उसकी गवाही बनने वाले थे कि हत्या के समय वह घटनास्थल से बहुत दूर वहां मौजूद था ।
दस बजे के करीब उसके एक परिचित ने आकर उसे खबर दी कि उसके बॉस की मृत्यु हो गई थी । वह केवल इतना ही बता पाया कि राजपुर रोड पर व्यास की कार एक खम्भे से टकरा गई थी और उसकी मौत हो गई थी ।
राजपुर रोड !
प्रदीप पुरी का खून खौल उठा । जग्गी से उसे ऐसी गड़बड़ की उम्मीद नहीं थी । कम्बख्त ने शायद आलस में ही व्यास को शंकर रोड ले जाकर मारने के स्थान पर वहीं खत्म कर दिया । था । अब अगर पुलिस को मालूम हो गया कि जहां व्यास का कथित एक्सीडेन्ट हुआ था वहां पास ही प्रदीप पुरी ने एक फ्लैट लिया हुआ था जो कि वास्तव में उसका लव नैस्ट था तो उसके लिए मुसीबत खड़ी हो सकती थी । और डिटेक्टिव एजेन्सी की रिपोर्ट प्रकाश में आ जाने की सूरत में उसके उस फ्लैट की जानकारी पुलिस को सहज ही हो सकती थी ।
अब अगर शालिनी ने व्यास की वाल सेफ में मौजूद रिपोर्ट को नष्ट करने में कोताही दिखाई तो फिर बिल्कुल सत्यानाश हो जाना था ।
न जाने क्यों एकाएक उसके शरीर में भय की लहर दौड़ गई ।
इतनी सावधानी बरतने के बाद भी उसे अपने फंसने की सम्भावना दिखाई देने लगी थी ।
वह क्लब से बाहर निकला और अपनी फियेट में आ सवार हुआ ।
डिफेंस कालोनी जाने के स्थान पर उसने अपनी कार पुरानी दिल्ली की ओर दौड़ा दी ।
वह कमरा बंगश पहुंचा ।
इस बार गली वाला दरवाजा खुला नहीं था । कई बार खटखटाने के बाद गनीमत थी कि उसे खुद जग्गी ने आकर खोला ।
उसने मन के एक कोने में से आवाज उठ रही थी कि उसे इस प्रकार यहां नहीं आना चाहिए लेकिन क्रोध और भय के अतिरेक में प्रदीप वह विवेकपूर्ण आवाज सुन नहीं पा रहा था ।
वह भुनभुनाता हुआ जग्गी के साथ उसके कमरे में पहुंचा ।
वहां रोशनी में उसके आन्दोलित चेहरे पर निगाह पड़ते ही जग्गी हैरानी से बोला - “क्या बात है ? खैरियत तो है ?”
“खैरियत के बच्चे” - प्रदीप पुरी दांत पीसता हुआ चिल्लाया - “राजपुर रोड पर क्यों खतम कर दिया उसे ? मैंने कहा था तुम्हें कि उसे शंकर रोड पर...”
“चिलाओ नहीं ।” - जग्गी फुंफकारा ।
“क्यों न चिल्लाऊं ? तुम साले...”
“ठीक है । जी भरकर चिल्लाओ । मैं खिड़कियां खोल देता हूं ताकि तुम्हारी चिल्लाहट जामा मस्जिद तक सुनाई दे सके । लेकिन भूलकर भी दोबारा मुझे गाली मत देना । समझ गये ।”
प्रदीप पुरी ने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला और फिर बन्द कर लिया । उसने अपने होंठ काटे । जग्गी के स्वर में ऐसी तुर्षी थी कि पहले की तरह दोबारा बोलने का उसका हौसला न हुआ ।
“अगर तरीके से कुछ कहना-सुनना चाहते हो तो ठीक है” - जग्गी बोला - “वर्ना जाओ यहां से ।”
“तुम उसे शंकर रोड क्यो नहीं लेकर गए ?” - प्रदीप पुरी ने इस बार संतुलित स्वर में पूछा ।
“क्योंकि राजपुर रोड पर जब उसे बेहोश करने की नीयत से मैंने उसकी बरसाती पर दस्तक दी थी तो वह वहीं तन्दूर में लग गया था । अब मुझे क्या पता था कि बूढा यूं टें बोल जाएगा । अब उस सूरत में अगर मैं उसे शंकर रोड लेकर जाता तो लाश ठण्डी हो जाती, खून जम जाता और फिर बाद में उसे देखकर अन्धा भी कह देता कि उसकी मौत की वजह एक्सीडेन्ट नहीं थी । उस हालत में मेरा फौरन कुछ करना जरूरी था । इस लिए मैंने वहीं राजपुर रोड पर ही उसका इन्तजाम कर दिया ।”
“लेकिन मेरे लिए तो मुश्किल हो गई है न । अगर पुलिस को मेरे राजपुर रोड वाले फ्लैट की और मरने वाले की बीवी से मेरी आशनाई की खबर लग गई तो...”
“तो भी क्या होगा ? वे तुम पर कत्ल का शक तो कर नहीं सकते ! तुम्हारे पास इतनी मजबूत शहादत है ।”
“फिर भी मैं पुलिस की निगाहों में तो आ ही जाऊंगा ।”
“अब कुछ नहीं होगा । खामखाह के वहम मत पालो ।”
प्रदीप खामोश रहा । वह आश्वस्त नहीं था । वह विचारपूर्ण मुद्रा बनाये एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“विस्की पिलाऊं ?” - जग्गी ने पूछा ।
प्रदीप ने सहमति में सिर हिला दिया ।
जग्गी वाइट हार्स की एक आधी भरी बोतल, दो गिलास और एक पानी का जग ले आया । उसने दो पैग तैयार किए और एक गिलास प्रदीप को थमा दिया । प्रदीप धीरे-धीरे स्कॉच चुसकने लगा ।
“कल या परसों” - जग्गी बोला - “हम अग्रवाल की माशूक के जोरबाग वाले फ्लैट पर हल्ला बोलने की सोच रहे हैं ।”
“न-न” - प्रदीप जल्दी से बोला - “ऐसा मत करना ।”
“क्यों ?” - जग्गी के माथे पर बल पड़ गये ।
“जब तक मैं न कहूं ऐसे किसी में काम में हाय मत डालता ।”
“लेकिन क्यों ?”
प्रदीप पुरी ने उसे सी आई डी इन्स्पेक्टर पंडित के ‘जैम हाउस’ में आगमन के बारे में बताया ।
“कमाल है” - जग्गी वाला - “वह इंस्पेक्टर तुम्हें कुछ आंकड़े सुना गया और तुम डर गए ।”
“लेकिन उसने यह शक भी तो जाहिर किया था कि शायद ‘जैम हाउस’ का ही कोई कर्मचारी जवाहरात के चोरों के गैंग से मिला हुआ था ।”
“अरे शक ही तो जाहिर किया है । निश्चित रूप से तो वह कुछ नहीं जानता । और फिर ‘जैम हाउस’ में क्या तुम्हीं एक कर्मचारी हो ?”
“जग्गी, मेरे ख्याल से फिर भी हमें कुछ अरसे के लिए यह सिलसिला बन्द कर देना चाहिए । दो-तीन महीने खामोश बैठ जाने के कोई आफत नहीं आ जाएगी ।”
“जरूर आ जायेगी । मेरा गैंग टूट जाएगा । दो-तीन महीने मैं उनसे कोई काम नहीं करवाऊंगा तो वो मेरी सरपरस्ती के बिना खुद ही कहीं कोई हाथ मारने की कोशिश कर सकते हैं और अपनी नातजुर्बेकारी की वजह से पकड़े जा सकते हैं । मेरे गैंग का एक भी आदमी पकड़ा गया तो बाकी सबकी भी ऐसी तैसी फिर जायेगी ।”
“मैं तुम्हारे आदमियों का ठेकेदार नहीं । तुम्हारा गैंग मेरी जिम्मेदारी नहीं । उनको कन्ट्रोल में रखना तुम्हारा काम है ।”
“कैसे कण्ट्रोल में रखूं मैं उन्हें ? कही बन्द कर दूं उन्हें दो-तीन महीने के लिए ? या डकैती से जिस कमाई की उम्मीद वे रखते हैं, वह उन्हें अपने पल्ले से दूं ?”
“मुझे नहीं मालूम । तुम कुछ भी करो लेकिन दो-तीन महीने के लिए ज्वेल राबरीज का अपना सिलसिला सस्पैंड कर दो । अगर तुम अपने आदमियों को अपने काबू में नहीं रख सकते तो तुम उस्ताद काहे के हो !”
“मेरे ख्याल से तुम अब घर जाओ । जब तुम्हारा दिमाग ठिकाने हो तो वापिस आना । हम फिर बात करेंगे ।”
“मैं तुमसे यह वादा लिए बिना नहीं जाऊंगा कि जोरबाग वाली डकैती तुम अभी नहीं डालोगे ।”
“ठीक है, तुमसे दोबारा बात होने तक मैं कुछ नहीं करूंगा । बाद की बाद में देखी जाएगी ।”
“लेकिन...”
“अरे फिलहाल मैं तुम्हारी बात मान ही रहा हूं ।”
“लेकिन...”
“गिलास खाली करो ।”
प्रदीप पुरी ने अपना विस्की का गिलास खाली किया । जग्गी फौरन उसके लिए नया पैग बनाने में जुट गया प्रदीप खामोश तो हो गया लेकिन उसके चेहरे पर संतुष्टि और इत्मीनान के भाव न आये ।
सोमवार - शाम
शुक्रवार रात व्यास की मौत हुई थी । शनिवार शाम को दिल्ली के व्यापारी वर्ग की अपार भीड़ के बीच उसका अन्तिम संस्कार हुआ । सोमवार शाम को व्यास का वकील शान्तिस्वरूप वहां पहुंचा तो परिवार को मालूम हुआ कि व्यास की नई वसीयत उसके पास थी । व्यास की स्टडी की तन्हाई में उसने व्यास की नई वसीयत उसकी विधवा शालिनी और बेटी अपर्णा को पढ कर सुनाई ।
वसीयत के अनुसार व्यास ने अपनी लगभग सारी चल और अचल सम्पत्ति अपनी बेटी अपर्णा के नाम छोड़ी थी शालिनी के लिए उसने कोई पांच लाख की रकम इस प्रकार से बैंक में छोड़ी थी कि उसके कोई पांच हजार रुपया महीना व्यास की तो वह हकदार थी लेकिन मूल धनराशि को वह छू भी नहीं सकती थी । इसके अतिरिक्त वसीयत के अनुसार शालनी का व्यास की किसी चीज पर कोई अधिकार नहीं था ।
वसीयत सुनते ही शालिनी के तन बदन में आग लग गई । वह एकदम फट पड़ी - “यह धोखा है । फरेब है । यह वसीयत जाली है ।”
“मिसेज व्यास” - वकील आहत स्वर में बोला - “यह वसीयत एकदम असली है ।”
“लेकिन उन्होंने खुद मुझे बताया था कि वे अपनी आधी जायदाद मेरे नाम कर चुके थे ।”
“उन्होंने आपको ठीक बताया था । पहली वसीयत में व्यास साहब की सम्पत्ति में आप और शालिनी बराबर की हिम्सेदार थीं ।”
“पहली वसीयत क्या मतलब ? यह कौन-सी वसीयत है ?”
“यह नई वसीयत है जो व्यास साहब ने शुक्रवार को तैयार करवाई थी और संयागवश अपनी मौत से कुछ ही घंटे पहले उन्होंने इस पर हस्ताक्षर किए थे । पुरानी वसीयत उन्होंने मेरे सामने नष्ट कर दी थी ।”
“यह धोखा है ।”
“आप इसे कुछ भी कह सकती हैं, लेकिन कानून की निगाह में यही हकीकत है ।”
“आप यह कहना चाहते हैं कि व्यास साहब की करोड़ों की जायदाद की मालकिन अपर्णा है और मैं - उनकी बीवी - सिर्फ पांच हजार रुपये महीने के गऊशाला के चन्दे की हकदार हूं ?”
वकील ने धीरे से सहमति में सिर हिलाया ।
शालिनी इतनी जोर से उछलकर खड़ी हुई कि जिस कुर्सी पर वह वैठी हुई थी, वह पीछे को उलट गई ।
“यह मेरे साथ जुल्म है” - वह गला फाड़कर चिल्लाई - “ज्यादती है । यह धोखाधड़ी है । मैं इस वसीयत को अदालत में चैलेंज करूंगी । कोई मुझे अपने पति को जायदाद से यूं बेदखल नहीं कर सकता । व्यास साहब कोई भगाकर नहीं लाए थे मुझे । विधिवत शादी की थी उन्होंने मुझसे । वे...”
“शालिनी” - अपर्णा रुआंसे स्वर में बोली - “ये बातें बाद में भी तो हो सकती हैं ।”
“बाद में ही हो रही हैं । मैं इस वसीयत को तोड़कर दिखाऊंगी । मैं सारी जायदाद की मालकिन तुम्हें हरगिज नहीं बनने दूंगी अपर्णा ।”
वकील ने सांत्वनापूर्ण ढंग से अपर्णा की पीठ थपथपाई और शालिनी से बोला - “यह सिक्केबन्द वसीयत है । इसे कोई नहीं तोड़ सकता ।”
“मैं देख लूंगी । मैं सबको देख लूंगी ।”
और वह पांव पटकती हुई वहां से चली गई ।
पीछे कितनी ही देर मरघट का-सा सन्नाटा छाया रहा ।
फिर वकील ने खंखारकर गला साफ किया और अपर्णा की पीठ पर फिर दस्तक दी ।
अपर्णा ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा ।
वकील ने अपने ब्रीफकेस से एक लिफाफा निकला और उसे अपर्णा को सौंपता हुआ बोला - “यह लिफाफा तुम्हारे लिए है । व्यास साहब ने मुझे इस निर्देश के साथ ही यह लिफाफा दिया था कि अगर उन्हें कुछ हो जाये तो यह लिफाफा मैं तुम्हें सौंप दूं ।”
“कुछ हो जाये तो ?” - अपर्णा आशंकित स्वर में बोली - “क्या हो जाये तो ?”
“मैंने पूछा था, लेकिन उन्होंने कोई संतोषजनक जवाब मुझे नहीं दिया था । उन्होंने कहने को तो यही कहा था कि दिल के मरीज का कोई भरोसा नहीं होता इसलिए वे ऐसा कर रहे थे, लेकिन मुझे लगा था कि वे कुछ छुपा रहे थे । हकीकतन बात कुछ और ही थी ।”
“इसमें क्या है ?”
“मुझे नहीं मालूम । लिफाफा बन्द है ।”
अपर्णा ने वकील के सामने ही लिफाफे को फाड़कर खोला और उसके भीतर मौजूद पत्र बाहर निकाला । उसने पत्र पढा ।
लिखा था -
मेरी प्यारी बेटी अपर्णा,
शालिनी की वजह से मेरी जिन्दगी में पैदा हुई मुश्किलों को मेरे हल कर पाने से पहले ही अगर मेरी मौत हो गई तो तभी तुम्हें यह चिट्ठी मिलेगी वरना नहीं । बेटी, तुम्हारा बाप हूं । मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है और भले-बुरे की मैं तुमसे बेहतर समझ रखता हूं । इसीलिए शालिनी के बारे में मेरे फैसले पर किसी प्रकार का सवाल किए बिना उस पर अमल करना । उस पर तरस खाकर या उस पर मेहरबान होकर उसे एक नया पैसा भी फालतू देने की कोशिश न करना । उसके बारे मैं जो कुछ मैंने किया है बहुत सोच-समझकर किया है । मेरी स्टडी की वाल सेफ में एक भूरे रंग का लम्बा लिफाफा है जिसमें एक खास रिपोर्ट है । उसको पढना और फिर तुम खुद ही जान जाओगी कि शालिनी तरस खाने के काबिल औरत नहीं । बेटी, अगर तुमने मेरी मर्जी के खिलाफ शालिनी को कोई रुपया देने की कोशिश की, तो मेरी आत्मा को कहीं चैन नहीं मिलेगा ।
पवन से जल्द से जल्द शादी कर लेना । वह बहुत अच्छा लड़का है ।
भगवान तुम्हें सदा सुखी रखे ।
तुम्हारा पिता
कमलनाथ
अपर्णा ने अपने हाथों में अपना मुंह छुपा लिया और फफक-फफककर रोने लगी ।
वकील उसे चुप कराने का भरसक प्रयत्न करता रहा ।
थोड़ी देर बाद जब अपर्णा खामोश हुई तो वकील बोला - “बेटी, तुम्हारा बाप मेरा सिर्फ क्लायन्ट ही नहीं था वह मेरा दोस्त भी था । उसने मुझसे खास तौर से कहा था कि मैं तुम्हारी हर मुमकिन मदद करने की कोशिश करूं । इसलिए कभी भी, कैसी भी मेरी मदद दरकार हो तो बेहिचक मुझे बताना ।
अपर्णा ने ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मैं अब चलता हूं” - वह उठता हुआ बोला - “मैं फिर आऊंगा । ओ के !”
उसने फिर सहमति में सिर हिलाया ।
“और शालिनी की तुम चिन्ता मत करना । वह कुछ नहीं कर सकती ।”
अपर्णा खामोश रही ।
वकील आखिरी बार अपर्णा के सिर पर स्नेह भरा हाथ फेर कर वहां से विदा हो गया ।
उसके जाने के बाद अपर्णा ने एक बार फिर अपने पिता की चिट्ठी पढी ।
उससे वह केवल इतना ही समझ पाई कि उसके पिता के अपनी पत्नी से सम्बन्धों में बहुत कड़वाहट आ चुकी थी ।
एकाएक उसने इस बारे में शालिनी से ही बात करने का फैसला लिया ।
वह स्टडी से निकली और सीढियां चढाकर ऊपर पहुंची ।
उसने शालिनी के कमरे के बन्द दरवाजे पर दस्तक दी ।
शालिनी ने दरवाजा खोला । उसके चेहरे पर क्रोध के भाव अभी भी मौजूद थे । अपर्णा को देखकर उसके माथे पर बल पड़ गये ।
“अब क्या है ?” - वह कर्कश स्वर में बोली ।
“शालिनी” - अपर्णा रुआंसे स्वर में बोली - “तुम मुझ पर खामखाह खफा हो रही हो ।”
“भीतर आओ ।” - शालिनी एक ओर हटती हुई बोली ।
अपर्णा भीतर दाखिल हुई । शालिनी के कहने पर वह एक कुर्सी पर बैठ गई । शालिनी एक कुर्सी पर उसके सामने बैठ गई और गौर से अपर्णा की सूरत देखने लगी ।
“शालिनी” - अपर्णा धीरे से बोली - “तुम पापा की वसीयत की वजह से मुझसे खफा हो रही हो । लेकिन वह वसीयत मैंने तो नहीं लिखी । और अगर उन्होंने ऐसी वसीयत लिखी है तो जाहिर है कि उसकी कोई वजह भी होगी । तुमने उन्हें शिकायत का कोई ऐसा मौका दिया होगा जिसकी वजह से...”
“कोई वजह नहीं थी” - शालिनी तीखे स्वर में बोली - “मैंने उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था । कसूर मेरा नहीं, उनकी उम्र का था । बूढ़े आदमी अपनी जवान बीवी के कार्यकलापों पर हमेशा ही शक करते हैं । वे तो खामखाह सुलगते रहते थे । मैं किसी की तरफ आंख भी उठाती थी तो उनका खून खौलने लगता था । मैं किसी की तरफ आंख नहीं उठाती थी तो वे समझते थे कि मैं कुछ छुपाने की कोशिश में ऐसा करती थी । मेरी तो दोनों ही तरीकों से शामत थी । जैसे दिन तुम्हारे पापा के साथ मैंने काटे हैं, वैसे भगवान दुश्मन को न दिखाये ।”
“मुझे अफसोस है ।”
“बस ! सिर्फ अफसोस हैं तुम्हें ?”
“और मैं क्या कर सकती हूं ?”
“तुम चाहो तो बहुत कुछ कह सकती हो ।”
“क्या मतलब ?”
“तुम चाहो तो उस वसीयत को नजरअन्दाज कर सकती हो और मेरा हक मुझे दे सकती हो ।”
“ऐसा मैं हरगिज नहीं कर सकती । वह वसीयत मेरे पापा की अन्तिम इच्छा है और उनकी अन्तिम इच्छा पूरी करना मेरा धर्म है ।”
“नॉनसैंस । तुम जो चाहो कर सकती हो ।”
“और उन्होंने मेरे लिए अलग से भी एक चिट्ठी लिखकर छोड़ी है । उस चिट्ठी में उन्होंने मुझे खास तौर से ताकीद की है कि मैं वसीयत में कोई हेरफेर करने की कोशिश न करूं ।”
“अलग से चिट्ठी छोड़ी है ?” - शालिनी का दम खुश्क हो गया - “क्या लिखा है उसमें ?”
“वही जो मैंने बताया है । यही कि मैं वसीयत में कोई हेरफेर करने की कोशिश न करूं ।”
“और कुछ नहीं लिखा उसमें ?”
“नहीं ।”
शालिनी की जान में जान आ गई । फिर वह बड़ी दिलेरी से बोली - “लिखने लायक कुछ होता तो लिखते न । लिखते भी तो मेरे बारे में अपने वाहियत शक के अलावा और क्या लिखते ?”
अपर्णा खामोश रही ।
“तो फिर मैं यही समझूं कि मुझे तुमसे कुछ हासिल होने वाला नहीं । तुम वसीयत में लिखी बातों से ही चिपकी रहोगी ?”
“शालिनी, मैं मजबूर हूं ।”
“ठीक है । मैं पांच हजार रुपये महीने में गुजारा करने की आदत डालने की कोशिश करूंगी कम-से-कम मर तो नहीं जाऊंगी मैं ।”
“अब इतनी मेहरबानी करना मुझ पर । जब तक अपने रहने के लिए मैं कोई झोपड़ा तलाश नहीं कर लेती, मुझे अपने इस शीशमहल से मत निकालना ।”
“शालिनी, भगवान के लिए ऐसी बातें मत करो । यह तुम्हारा भी उतना ही घर है, जितना कि मेरा । तुम यहीं रहोगी ।”
“मुझे यहां रखोगी” - शालिनी व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली - “तो यह तुम्हारे पापा की इच्छाओं की खिलाफत नहीं होगी ? उनकी आत्मा बेचैन नहीं हो जाएगी ?”
“शालिनी प्लीज...”
“और फिर मुझे भी किसी की खैरात पर पलना पसन्द नहीं है । कोई मुझ पर तरस खाकर मुझ पर अहसान करे, यह...”
“शालिनी, मैं ‘कोई’ नहीं हूं । मैं...”
“छोड़ो । इस वक्त मैं बहुत परेशान हूं । फिलहाल मुझे अकेला छोड़ दो ।”
अपर्णा उठी और भारी कदमों से चलती हुई कमरे से बाहर निकल गई ।
शालिनी ने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और पलंग पर लेट गई ।
तकदीर ने बड़ी भयंकर मार मारी थी उसे । मरने से केवल चन्द घण्टे पहले वह हरामजादा अपनी वसीयत बदल गया था । अगर उस सिर्फ चन्द घण्टे पहले मौत आ जाती तो आज वह एक रईस विधवा होती । एकाएक वह मन-ही-मन प्रदीप पुरी को कोसने लगी ।
अगर उसी ने जल्दी कुछ कर डाला तो यह नौबत न आती ।
प्रदीप का ख्याल आते ही उसके जहन में एक नया ख्याल आया । अब प्रदीप पुरी का उसके प्रति क्या रवैया होगा ? जब उसे यह मालूम होगा कि व्यास उसे अपनी जायदाद से एकदम बेदखल कर गया था तो क्या तब भी वह उससे रिश्ता रखेगा ? अभी कल ही तो उसने यह सोचा था कि प्रदीप उस काबिल आदमी नहीं था और उसका उसके साथ बंधे रहना कतई जरूरी नहीं था । एक मामूली सेल्समैन का एक करोड़पति महिला से क्या मुकाबला !
लेकिन अब पासा पलट गया था ।
अब उस भय लगने लगा था कि असलियत जान जाने के बाद कहीं प्रदीप ही उससे किनारा न कर ले ।
अब वक्त की जरूरत यह थी कि वह किसी भी तरह प्रदीप को अपने काबू में रखे रहे ।
लेकिन कैसे ?
एक तरीका था ।
किसी तरह वह उससे यह कबुलवा ले कि व्यास की मौत में उसका हाथ था तो यहां बात वह अंकुश की तरह उस पर इस्तेमाल कर सकती थी ।
उसने प्रदीप पुरी से फौरन मिलने का फैसला किया ।
सोमवार - शाम
“तुम्हारी अक्ल खराब हो गई है” - प्रदीप पूरी अपनी फियेट चलाता हुआ भुनभुनाया - “अभी चार दिन नहीं हुए व्यास को मरे । जानती हो हमारा यूं मिलना कितना खतरनाक साबित हो सकता है ? लोग क्या कहेंगे ?”
शालिनी ने उसे फोन करके लोधी गार्डन बुलाया था, जहां से भी अभी कुछ ही क्षण पहले उसने उसे अपनी कार में बिठाया था और अब वह सुरक्षा के ख्याल से ही तनहा सड़कों पर कार चला रहा था ।
“भाड़ में जायें लोग” - वह झल्लाकर बोली - “जो कहते हैं कह लें ।”
“तुम पागल हो गई हो ।”
“अरे कुछ हो भी रहा है ? क्या कर रहे हैं हम ? तुम क्या मुझे भगाकर ले जा रहे हो ? मेरा पति मर गया है तो क्या मैं किसी से बात भी नहीं कर सकती ?”
“छोड़ो । मतलब की बात करो ।”
“क्या मतलब की बात करूं ?”
“डिटेक्टिव एजेन्सी वाली रिपोर्ट का क्या हुआ ?”
“वही हुआ जो होना था । मैंने शुक्रवार रात को ही उसे उसकी वाल सेफ से निकाल लिया था और उसे नष्ट कर दिया था ।”
“गुड । लेकिन इतने से ही हमारी जान नहीं छूटने वाली । अभी हमें उस एजेन्सी वालों को भी खामोश करना होगा । आखिर वे भी तो हमारी करतूतों को जानते हैं । अगर उन्होंने किसी को कुछ बता दिया तो फिर बखेड़ा खड़ा हो जायेगा ।”
“उन्हें हम कैसे खामोश कर सकते हैं ?”
“तुम कर सकती हो । उन लोगों ने धन्धा करना है । वे लोग एक रईस आदमी की विधवा को नाराज नहीं कर सकते । तुम्हें उनके पास जाना होगा और उनकी कोई भी जायज-नाजायज फीस अदा करके उन्हें खामोश करना होगा ।”
“वे फीस से न माने तो ?”
“वे जरूर मानेंगे । आखिर दफ्तर किसलिए खोलकर बैठे हुए हैं वो ? पैसा कमाने के लिए । कलायन्ट तो उनका मर गया । उनकी तरफ से केस तो उनका वैसे ही क्लोज हो गया । अब अगर उन्हें कोई फालतू फीस मिलने की सूरत दिखाई देगी तो वे उसका फायदा उठाने से भला क्यों हिचकेंगे ?”
“फिर भी...”
“फिर भी यह कि मैंने मालूम किया है कि उस डिटेक्टिव एजेन्सी का मालिक सुधीर कोहली औरतों का बड़ा रसिया है । क्या तुम एक मर्द को अपने बस में नहीं कर सकती हो ?”
उस बात के पीछे जो असली इशारा छिपा हुआ था, प्रदीप को भय था कि उसे समझते ही शालिनी एकदम भड़क उठेगी और उसे कोसने लगेगी, लेकिन उसके कान पर जूं भी न रेंगी । उल्टे उसने सहमति में सिर हिलाया और प्रशंसात्मक स्वर में बोली - “हो पक्के उस्ताद तुम । हर बात सोचकर रखते हो । व्यास का पत्ता साफ करने में भी कमाल कर दिया तुमने ।”
“क्या कह रही हो ?” - प्रदीप हड़बड़ाकर बोला ।
“वही जो तुम सुन रहे हो ।”
“क्या सुन रहा हूं मैं ?”
“मैं व्यास की बात कर रही थी ।”
“कौन-सी बात ? कुछ कहोगी भी ?”
“प्रदीप, क्यों जान-बूझकर अनजान बन रहे हो ? तुम जानते हो मैं क्या कर रही हूं । लगता है तुम हम दोनों को एक नहीं मानते ।”
प्रदीप ने कार को एक सुनसान स्थान पर फुटपाथ के साथ लगाकर कर रोक दिया । वह शालिनी की तरफ घूमा । उसने गौर से उसके चेहरे को देखा और फिर सख्त स्वर में बोला - “शालिनी, अगर तुम समझती हो कि तुम्हारे पति की मौत से मेरा कोई रिश्ता है तो यह बात तुम फौरन, अभी, इसी वक्त, अपने दिमाग से निकाल दो । व्यास की मौत को किसी रहस्य का पुट देने की कोशिश मत करो । समझ गई ?”
“लेकिन शुक्रवार जब मैं जैम हाउस में तुम्हें डिटेक्टिव एजेन्सी की रिपोर्ट दिखाने के लिए आई थी तो तुमने मुझे साफ संकेत दिया था कि रात तुम व्यास का पत्ता काटने वाले थे । तुमने मुझे यह नहीं कहा था कि रात को अगर मैं अपने पति से सम्बन्धित अच्छी खबर सुनूं तो एजेन्सी की रिपोर्ट का सेफ से निकालकर नष्ट कर दूं ?”
“कहा था, लेकिन वह कोरी लफ्फाजी थी । उस वक्त वह खतरनाक खबर तुम्हारे मुंह से सुनकर मैं उत्तेजित हो गया था, दहल गया था और फिर कई खतरनाक इरादे मेरे जहन में आने लगे थे । लेकिन शाम तक जब मैं शान्त हुआ था तो मुझे लगने लगा था कि व्यास का पत्ता काटना कोई आसान काम नहीं था । कम-से-कम मेरे बस का काम तो वह हरगिज नहीं था । फिर बस । कहानी खतम ।”
“कहानी अच्छी गढ लेते हो, प्रदीप ।”
“यह कहानी नहीं है, हकीकत है । तुम्हारे पति की मौत से मेरा कोई वास्ता नहीं है, पोस्टमार्टम की रिपोर्ट क्या सुनी नहीं तुमने ? तुम्हारा पति हार्ट फेल हो जाने से मरा है । शालिनी, जरा अकल से काम लो और सोचो । मैं तुम्हारे पति का हार्ट फेल कैसे कर सकता था ? मेरे चाहने भर से ही व्यास का दिल का दौरा पड़ सकता था ?”
शालिनी का दिल निराशा से भर उठा । प्रदीप को फंसाकर रखने की उसकी इच्छा उसकी आंख के सामने छिन्न-भिन्न हो गई । कितना चालाक था कम्बख्त ! उस पर कोई अंकुश रख पाना कहां सम्भव था !
प्रदीप खामोशी से उसे देखता रहा । वह उसके दिल के भाव पढने की कोशिश कर रहा था । वह सोच रहा था कि उसे उसके चेहरे पर वो रौनक क्यों नहीं दिखाई दे रही थी जो एक बूढे आदमी से निजात पाई एक धनवान विधवा के चेहरे पर अपने यार की मौजूदगी में होनी चाहिये थी ।
एकाएक प्रदीप का दिल डोल गया । बूढा कहीं वसीयत में कोई गड़बड़ तो नहीं कर गया था ?
“शालिनी” - वह तनिक आन्दोलित स्वर में बोला - “वसीयत तो अभी तक पढी जा चुकी होगी । तुम्हारे लिए क्या छोड़ा है तुम्हारे पति ने ?”
“अभी कुछ नहीं मालूम । उसका वकील शान्ति स्वरूप कहता था कि वह शनिवार तक वसीयत लेकर आयेगा ।”
“झूठ मत बोलो” - प्रदीप सांप की तरह फुंफकारा - “ऐसा नहीं हो सकता । वसीयत के बारे में तुम लोगों को उसने फौरन बताया होगा । बोलो क्या लिखा है वसीयत में ?”
शालिनी उससे झूठ बोलने की ताव न ला सकी । वह रोने लगी ।
“आंसू बहाने बन्द करो ।” - प्रदीप घुड़ककर बोला - “और जुबान चलाओ ।”
“वह सब कुछ अपर्णा के लिए छोड़ गया है” - वह रोती हुई बोली - “मेरे लिए तो वह पांच हजार रुपये माहवार की पेंशन का इन्तजाम कर गया है ।”
हालांकि प्रदीप ऐसी ही कोई बुरी खबर सुनने की उम्मीद कर रहा था, लेकिन फिर भी एकबारगी तो उसका दिल हिल गया । व्यास की मौत का जो इनाम उसे मिलना था, वह एकाएक एक छलावे की तरह उसको आंखों के सामने से गायब हो गया ।
“रोना-धोना बन्द करो” - वह दांत पीसकर बोला - “और तरीके से सारी बात बताओ ।”
शालिनी ने उसे पहले शान्ति स्वरूप से और बाद में अपर्णा से हुआ सारी वार्तालाप कह सुनाया ।
“सत्यानाश !” - वह होंठों में बुदबुदाया ।
“सारी गलती तुम्हारी है” - एकाएक शलिनी तमककर बोली - “तुम असली मर्द के बच्चे होते तो कब का व्यास का काम तमाम कर चुके होते । तुम्हारे टालमटोल करते रहने ने ही सारा बेड़ा गर्क किया है, मिस्टर प्रदीप पुरी, तुम तो हाथ-पांव हिलाने की जगह शायद भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि बूढ़े को मलेरिया हो जाये ।”
“बकवास मत करो ।” - प्रदीप ऐसे कहरभरे स्वर में बोला कि शालिनी सहमकर चुप हो गई । प्रदीप अपने दोनों हाथों की उंगलियों से स्टेयरिंग थपथपाता कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “जहां तक मैंने सुना है अपर्णा के अलावा व्यास का कोई दूर-दराज का भी रिश्तेदार नहीं । क्या यह बात ठीक है ?”
“ठीक है ।”
“यानी कि अपर्णा के अलावा व्यास का कोई रिश्तेदार है तो वह तुम हो ?”
“हां । तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“कुछ भी नहीं । लेकिन मैं सोच रहा था ।”
“क्या ?”
“अपर्णा तो अपने बाप की मौत से बहुत दुखी होगी ?”
“हां भारी सदमा पहुंचा है उसे ?”
“और यह बात अफसोस करने आने वाले हर शख्स ने नोट की होगी ?”
“हां । प्रदीप, क्या पहेलियां बुझा रहे हो ? जो कहना है, साफ-साफ क्यों नहीं कहते हो ?”
“मैंने सुना है कि नौजवानी में लोगों से खास, तौर से स्त्रियों से, जब सदमा बर्दाश्त नहीं होता” - प्रदीप पुरी सहज स्वर में बोला - “तो वे आत्महत्या करने की सोचने लगती हैं । अपर्णा तो वैसे ही बड़ी भावुक लड़की है । इस वक्त भारी सदमे की हालत में भी है । मैं सोच रहा हूं बेचारी कहीं आत्महत्या न कर ले ।”
शालिनी ने नेत्र फैल गये ।
“प्रदीप पुरी” - वह दांत भींचकर बोली - “तुम इन्सान नहीं हो, पक्के शैतान हो ।”
“मैं तो यूं ही बात कर रहा था - प्रदीप लापरवाही से कन्धे उचकाता हुआ बोला - “बेचारी अपर्णा को कुछ हो जाए तो व्यास की सारी सम्पति की फिर तुम्हीं मालकिन बन जाओगी । लेकिन असल में उसे कुछ होने वाला थोड़े ही है ।”
शालिनी खामोश रही ।
“ठीक है” - एकाएक प्रदीप कार का इग्नीशन ऑन करता हुआ बोला - “भगवान से दुआ करो कि तुम्हारी सौतेली बेटी की मेहरबानी तुम पर बनी रहे और वह तुम्हारी और सूखी रोटी का निवाला फेंकने की जगह तुम्हें देसी घी का पराठा खिलाती रहे । इतनी दयावान लड़की तो, मैंने सुना है, वो है ।”
“प्रदीप” - वह फुंफकारी - “बकवास बन्द करो और मुझे मेरे घर छोड़कर आओ ।”
“तुम्हारा घर ?” - प्रदीप नकली हैरानी जाहिर करता हुआ बोला - “तुम्हारा कौन-सा घर है ? ओह ! तुम्हारा मतलब है, मैं तुम्हें अपर्णा के घर छोड़कर आऊं ?”
क्रोध, अपमान और बेबसी में शालिनी का चेहरा तमतमा उठा और उसकी मुट्ठियां भिंच गई । बड़ी मुश्किल से वह अपनी आंखों से फिर से बह निकलने को तत्पर आसुओं को रोक पाई ।
मन-ही-मन प्रदीप खुश था कि एक बेहद खुराफाती बात का बीज उसने शालिनी के जहन में बो दिया था ।
“आई एम सॉरी, डार्लिंग” - प्रत्यक्षतः वह मीठे स्वर में बोला - “मैं भावनाओं के वेग में बह गया था । लेकिन क्या करें ? मुकद्दर हम दोनों का ही बहुत खराब है ।”
शालिनी खामोश रही ।
प्रदीप ने कार डिफेंस कालोनी की दिशा में दौड़ा दी ।
मंगलवार । सुबह
मंगलवार सुबह पवन कुमार ‘जैम हाउस’ पहुंचा ।
व्यास की मौत के बाद से वह पहला दिन था जब पवन वहां आया था । उसके वहां पहुंचते ही उसका साक्षात्कार देवीलाल जैन से हो गया । जैन उससे इतनी ज्यादा मुहब्बत से पेश आया कि पवन को संकोच होने लगा । वह पवन की बांह पकड़कर उसे अपने ऑफिस में ले आया ।
“पवन” - जैन बोला - “मैं तुम्हें फर्म से ताल्लुक रखती एक बड़ी गम्भीर और गोपनीय बात बताने जा रहा हूं ।”
“मुझे क्यों ?” - वह हतप्रभ स्वर में बोला ।
“इसलिए क्योंकि ‘जैम हाउस’ मैं अब तुम्हारा दर्जा वो नहीं जो पहले था ।”
“मतलब ? क्या अब में फर्म का जैम एक्सपर्ट नहीं रहा ?”
“तुम बात को समझ नहीं रहे । भई, अपर्णा से तुम्हारी शादी होने वाली है और मैंने सुना है कि व्यास अपना सब-कुछ अपर्णा के लिए छोड़कर गया है । इसलिए...”
“मैं समझ गया आपकी बात” - पवन बीच में ही बोल पड़ा - “देखिए जैन साहब, मैं अपनी शादी का अपनी नौकरी से कोई रिश्ता नहीं जोड़ना चाहता । मैं कल भी फर्म का जैम एक्सपर्ट था, आज भी वही हूं और आगे भी वही रहूंगा । “
“तुम रिश्ता जोड़ो या न जोड़ो लेकिन ‘जैम हाउस’ में तुम्हारे रुतबे में फर्क आए बिना नहीं रह सकता । तुम हकीकत को नहीं झुठला सकते । अपर्णा के चाहने पर तुम्हें यहां व्यास की जगह लेनी पड़ सकती है ।”
“यह मुझसे नहीं होगा, जैन साहब । मैं एक रईस औरत का पति बन चुकने के बाद भी पवन कुमार, जैम ऐक्सपर्ट, ही बना रहना पसन्द करूंगा ।”
“तो फिर फर्म को कौन चलाएगा ?”
“आप चलायेंगे ।”
“लेकिन ‘जैम हाउस’ की मेजर शेयर होल्डर तो अब अपर्णा बन जाएगी । वह एतराज नहीं करेगी ?”
“मैं उसे समझा दूंगा ।”
“फिर ठीक है ।” - जैन मन-ही-मन खुश हुआ बोला । वास्तव में यही तो वह चाहता था ।
“आप कोई खास बात बताने वाले थे ?” - पवन कुमार बोला ।
उत्तर में जैन ने सी आई डी इंस्पेक्टर पंडित क आगमन की सारी कहानी कह सुनाई ।
“ओह !” - अंत में पवन बोला - “यह तो वाकई बड़ा गम्भीर मसला है । ऐसी चोरियों के साथ अगर ‘जैम हाउस’ का नाम जुड़ता रहा तो हम तो बदनाम हो जाएंगे । हमारा तो धन्धा चौपट हो जाएगा ।”
“बिल्कुल ।” - जैन बोला - “और मुझे पंडित की यह बात बहुत जंची कि ‘जैम हाउस’ का ही कोई कर्मचारी चोरों से मिला हुआ है ।”
“ऐसा कर्मचारी कौन हो सकता है ?”
“देखो, जो महंगे जेवरात होते हैं उनसे ‘जैम हाउस’ के गिने-चुने कर्मचारियों का ही वास्ता पड़ता है । जैसे हमारे सीनियर सेल्समैन, तुम, डिजाइनर, एकाउंटैंट वगैरह । ऐसे मुश्किल से छः आदमी हैं और उनमें से भी दो ही आदमी मुझे ऐसे लगते हैं जो ऐसी करतूत कर सकते हैं और उन दोनों की मैं निगरानी करवा रहा हूं ।”
“कौन हैं वे दो ?” - पवन उत्सुक स्वर में बोला ।
जैन एक क्षण हिचकिचाया और फिर बड़े रहस्यपूर्ण स्वर बोला - “एक हमारा चीफ डिजाइनर विक्रम सोलंकी और दूसरा हमारा चीफ सेल्समैन प्रदीप पुरी ।”
“सोलंकी को मैं जाती तौर से जानता हूं ।” - पवन तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “वह ऐसी नीच हरकत कभी नहीं कर सकता ।”
“फिर तो सारी करतूत प्रदीप पुरी की ही है ।”
“लेकिन, वो भी...”
“शायद निर्दोष हो । इसलिए हमारी खामोशी से उसकी जांच-पड़ताल करवाना जरूरी है । मैंने उसकी निगरानी के लिए उसके पीछे प्राइवेट डिटेक्टिव लगाए गए हैं । यहां जरा तुम उस पर निगाह रखना शुरू कर दो जरा अपने कान भी अब खुले रखा करना । कई बार इत्तफाक से भी कोई ऐसी बात सुनाई दे जाती है जो असलियत का कोई संकेत दे सकती हो ।”
“आप चाहते हैं कि मैं छिप-छिपकर यहां के कर्मचारियों की बातें सुना करूं ?” - पवन हड़बड़ाया ।
“मैंने तम्हें अपने कान खुले रखने की राय दी है ।”
“बात तो एक ही हुई । आप...”
“देखो भाई । व्यास की मौत के बाद के मौजूदा हालात में आज तुम किसी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते ।”
“ठीक है । मैं जो मुमकिन होगा करूंगा ।”
“दैट्स ए गुड ब्वाय ।”
“लेकिन एक बात बताइये ।”
“पूछो ।”
“अगर सारे फसाद की जड़ प्रदीप पुरी निकला तो आप क्या करेंगे ?”
“नौकरी से तो उसे हमें निकालेंगे ही । साथ ही ऐसा भी इन्तजाम करेंगे कि दिल्ली में हमारे ट्रेड में उसे कहीं नौकरी न मिले । उसे पुलिस में देने की भी नौबत आ सकती है ।”
“आई-सी ।” - पवन गम्भीरता से बोला ।
प्रदीप पुरी से उसे कोई हमदर्दी नहीं थी । शालिनी और उसके नाजायज सम्बन्धों की बात अभी भी हथौड़े की तरह उसके जहन में बज रही थी इस आदमी का ‘जैम हाउस’ से पत्ता कट जाता तो उस खुशी ही होती ।
प्रदीप पुरी और शालिनी में खूब गाढी छनती थी, यह बात अब जैन को भी मालूम हो चुकी थी । जो डिटेक्टिव उसने प्रदीप के पीछे लगाये हुए थे, उन्होंने रिपोर्ट भेजी थी कि पिछली शाम को शालिनी बहुत छुप-छुपकर लोधी गार्डन के पास प्रदीप से मिली थी ।
पवन ने जेन से विदा ली और वाल्ट में पहुंचा । वहां करोड़ों रुपयों के कीमती हीरे-जवारात रखे जाते थे । वह कुछ नये आए जवाहरात को परखने के काम में जुट गया ।
उस दौरान दो बार किसी काम से प्रदीप पुरी वहां आया । दोनों ही बार उस पर निगाह पड़ने भर से पवन अपने भीतर उद्वेग-सा उमड़ता महसूस करने लगा ।
क्या यह आदमी चोरों का सहयोगी हो सकता है ? - उसने अपने आपसे सवाल किया ।
सूरत से तो वह बड़ा संभ्रान्त और बड़ी शरीफ लगता था । लेकिन किसी के भीतर कौन झांक सकता था । उसने अपनी आंखों से न देखा होता तो क्या वह यह मान लेता कि उसका अपने मालिक की बीवी से अवैध सम्बन्ध हो सकता था !
अन्त में उसके दिमाग ने यही फैसला किया कि वह ऊपर से सीधा-साधा और शरीफ लगने वाला आदमी वास्तव में कुछ भी कर गुजरने में समर्थ था ।
फिर एक बड़ा नापाक ख्याल उसके जहन में आया ।
क्या यह आदमी व्यास की मौत के लिए जिम्मेदार हो सकता है ?
क्या यह हो सकता है कि व्यास दिल के दौरे से न मरा हो, वास्तव में हत्या हुई हो उसकी ?
प्रदीप के पास तो हत्या का उद्देश्य भी था ।
व्यास को उसके अपने पत्नी से अवैध सम्बन्धों की खबर लग गई हो सकती थी ।
उसको यह मालूम हो गया हो सकता था कि वह जवाहरात के चोरों के गैंग से मिला हुआ था ।
लेकिन कोई यूं आनन-फानन किसी को हत्या कैसे कर सकता था ?
किसी की हत्या करना क्या कोई बच्चों का खेल था ?
फिर प्रदीप पुरी पर इतना खतरनाक शक करने पर उसे खुद ही शर्म आने लगी ।
फिर उसे एक नई बात सूझी ।
प्रदीप को खुद कत्ल करने की क्या जरूरत थी ! अगर वह किन्हीं जवाहरात के चोरों का सहयोगी था तो वह उनसे भी कत्ल करवा सकता था !
एकाएक उसने अपना माथा ठोक लिया ।
कत्ल का यह बेहूदा ख्याल उसके जहन में आया कैसे ?
उसे महसूस होने लगा कि उसे ठण्डी हवा की जरूरत थी ।
वह वाल्ट से निकला और लिफ्ट द्वारा नीचे पहुंचा । वह इमारत से बाहर निकला । कुछ क्षण वह जनपथ पर टहलता रहा, फिर एकाएक उसका अपर्णा से मिलने को जी चाहने लगा ।
उसने एक थ्री व्हीलर स्कूटर पकड़ा और डिफेंस कालोनी पहुंचा ।
काशीनाथ ने उसे मालूम हुआ कि अपर्णा व्यास की स्टडी में थी ।
वह गलियारे में उस ओर बढा ।
स्टडी का दरवाजा खुला था और भीतर से कई लोगों के बोलने की आवाजें आ रही थीं ।
तभी अपर्णा स्टडी से बाहर निकली ।
पवन को देखकर उसके चेहरे पर रौनक आ गई ।
“अच्छा हुआ तुम गए” - वह बोली - “मैं तुम्हें ही याद कर रही थी ।”
“भीतर क्या हो रहा है ?” - पवन ने उत्सुक भाव से पूछा ।
“दीवार की वाल सेफ खोलने की कोशिश की जा रही है ।”
“वाल सेफ !” - पवन चौंका - “भीतर कोई वाल सेफ भी है ?”
“हां । एक दीवार पर टंगी विशाल आयल पेन्टिंग के पीछे है वाल सेफ । उसका कम्बीनेशन तो पापा के सिवाय किसी को मालूम नहीं था । इसलिए उसे खोलने के लिए कम्पनी से आदमी बुलाए गए हैं । शान्ति स्वरूप अपनी देखरेख में सेफ खुलवा रहा है ।”
पवन उसकी बात नहीं सुन रहा था । उसके मानसपटल पर शुक्रवार रात को व्यास की स्टडी से चोरों की तरह निकलती शालिनी की तस्वीर उभर रही थी ।
“उस सेफ का कम्बीनेशन शालिनी को भी नहीं मालूम है ?” - प्रत्यक्षतः उसने पूछा ।
“न” - वह बोली - “मैंने उससे पूछा था । वह कहती थी पापा ने उसे सेफ का कम्बीनेशन कभी नहीं बताया था ।”
“वैसे उसे मालूम था कि स्टडी में ऐसी कोई सेफ थी ?”
“यह तो मैंने उससे पूछा नहीं ।”
“जरा भीतर चलें ?”
“हां-हां । क्यों नहीं ?”
वह अपर्णा के साथ स्टडी में पहुंचा ।
तब तक वाल सेफ का गोल दरवाला खुल चुका था और सेफ कम्पनी का मैकेनिक अपने औजार समेट रहा था ।
अब शुक्रवार रात को शालिनी के वहां आने की पवन को और ही अहमियत दिखाई दे रही थी । उसने खुद देखा था कि स्टडी में और तो कोई ऐसी जगह थी नहीं जहां से कोई चीज उड़ाई जा सकती थी । उसका दिल गवाही देने लगा कि शालिनी जरूर वाल सेफ के ही चक्कर में वहां आई थी और जरूर उसे सेफ का कम्बीनेशन भी मालूम था । उसने निश्चय ही वाल सेफ खोली थी और उसमें से कुछ निकाला था ।
तभी मेकैनिक और उसका एक सहकारी वहां से चले गए । पीछे शान्ति स्वरूप और एक अन्य व्यक्ति, जो शायद शान्ति स्वरूप के साथ आया था, रह गए ।
शान्ति स्वरूप ने सेफ में से तमाम कागजात निकालकर मेज पर ढेर किए और उनका मुआयना करने लगा ।
पवन ने खंखाकर गला साफ किया और बोला - “वकील साहब, मैं कल से एक बात पूछना चाहता था ।”
“पूछो” - वकील सहज भाव से बोला ।
“क्या यह महज एक इत्तफाक था कि जस रोज व्यास साहब ने अपनी नई वसीयत पर दस्तखत किए, उसी रोज उनकी मौत हो गई ?”
“अब मैं इस बारे में क्या कह सकता हूं” - वकील हाथ फैलाकर बोला - “इत्तफाक के अलावा और क्या हो सकता है यह ?”
“मेरा मतलब है शायद कोई ऐसी बात उस रोज उन्होंने की हो जिससे उनकी मानसिक दशा का अन्दाजा लग सकता हो ।”
“बातें तो वे उस रोज कुछ निराशाजनक ही कर रहे थे । जैसे उन्होंने यही कहा था कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो मैं अपर्णा की हर मुमकिन मदद करूं ।”
“यानि कि उन्हें अन्देशा था कि उन्हें कुछ हो सकता था ?”
“बखुरदार, दिल के मरीज को तो ऐसा अन्देशा लगा ही रहता है । उसे तो अपनी जान का एक क्षण का भरोसा नहीं होता । क्या पता उस रोज उन्हें दिल की ही ऐसी कम्पलीकेशन हो गई हो जिसकी वजह से उस रोज वे अपने अन्जाम का खौफ खा गए हों और ऐसी निराशाजनक बातें करने लगे हों ।”
पवन ने बड़े विचारपूर्ण ढंग से सहमति में सिर हिलाया ।
अपर्णा जो बड़ी गौर से सेफ से निकले कागजात को देख रही थी, एकाएक बोली - “इन कागजात में एक भूरे रंग का लम्बा लिफाफा होना चाहिए था ।”
“कैसा लिफाफा ?” - पवन ने पूछा ।
“आपने पापा की जो चिट्ठी मुझे दी थी ।” - अपर्णा शान्ति स्वरूप से बोली - “उसमें ऐसे एक लिफाफे का जिक्र था, लेकिन ऐसा कोई लिफाफा निकला तो नहीं सेफ से ।”
“चिट्ठी में यह नहीं लिखा कि उस लिफाफे में क्या था ?” - पवन ने पूछा ।
“लिखा था कोई खास रिपोर्ट होनी चाहिए थीं उसमें ।”
“किस बारे में ?”
“यह तो उसमें लिखा नहीं था ।”
“वह लिफाफा गया कहां ?” - वकील बोला ।
पवन महसूस कर रहा था कि उसे मालूम था कि वह लिफाफा कहां गया था । शुक्रवार रात को जरूर वह लिफाफा गायब करने के लिए ही शालिनी वहां आई थी । लेकिन फिलहाल उसने खामोश रहना ही मुनासिब समझा । फिलहाल वह कोई ऐसी स्थिति नहीं पैदा करना चाहता था जिससे कोई बखेड़ा खड़ा हो सकता हो ।
तभी काशीनाथ वहां पहुंचा ।
“कोई पुलिस वाला आया है” - उसने बताया - “वह बड़ी मेम साहब से बात करना चाहता है, लेकिन साथ ही यह भी कह रहा है कि घर में कोई और भी हो तो मैं उसे भी उसके आगमन की खबर कर दूं ।”
“कहां है वो ?” - अपर्णा ने पूछा ।
“मैंने उसे ड्राइंगरूम में बिठाया है ।”
“तुम ऊपर से शालिनी को बुलाकर लाओ । हम उससे बात करते हैं ।”
काशीनाथ सहमति में सिर हिलाता हुआ वहां से चला गया ।
“आओ, देखें वह पुलिस वाला क्या कहता है” - अपर्णा बोली - “आइए, वकील साहब ।”
“मैं भी ?” - वकील सकपकाकर बोला ।
“क्या हर्ज है ?”
वकील कागजात अपने सहकारी के हवाले करके उठ खड़ा हुआ और पवन तथा अपर्णा के साथ ड्राइंगरूम में पहुंचा ।
ड्राइंगरूम में एक बड़ा काइयां-सा लगने वाला अधेड़ आयु का एक व्यक्ति बैठा था । वह पुलिस की वर्दी में नहीं था । उन्हें ड्राइंगरूम में दाखिल होते देखकर वह उठकर खड़ा हो गया ।
अभिवादनों का आदान-प्रदान हुआ ।
“मेरा नाम पंडित है” - वह बोला - “मैं सी आई डी इंस्पेक्टर हूं । हैडक्वार्टर से आया हूं ।”
“सी आई डी इंस्पेक्टर !” - पवन हैरानी से बोला ।
“जी, हां । कोई एतराज ?”
“नहीं, नहीं । एतराज कोई नहीं । दरअसल मैंने आज ही आपका जिक्र सुना था । आप हाल ही मैं एक बार ‘जैम हाउस’ में भी आए थे ।”
“आपकी तरीफ ?”
“मेरा नाम पवन कुमार है । मैं फर्म का जैम एक्सपर्ट हूं ।”
“और ये अपर्णा के” - वकील ने अपर्णा की ओर संकेत किया - “मंगेतर भी हैं ।”
“आई सी । आई सी । आप व्यास साहब की साहबजादी हैं !”
“जी ।” - अपर्णा बोली ।
“और आप ?” - उसने वकील से पूछा ।
“मेरा नाम शान्ति स्वरूप है । मैं फैमिली अटार्नी हूं ।” - वकील बोला ।
“ओह ! मिसेज व्यास घर नहीं हैं ?”
“है” - अपर्णा बोली - “नौकर उन्हें बुलाने गया है । आप तशरीफ रखिए ।”
“शुक्रिया ।” - पंडित बैठ गया ।
वे तीनों भी उसके सामने बैठ गए ।
“आप कुछ पियेंगे ?” - अपर्णा ने पूछा ।
“जी नहीं” - पंडित तनिक शुष्क स्वर में बोला - “शुक्रिया । मैं यहां अपनी ड्यूटी भुगताने आया हूं ।”
“कैसी ड्यूटी ?” - अपर्णा ने पूछा ।
“मैं यहां व्यास की मौत की तफ्तीश के सिलसिले में आया हूं ।”
“उसमें अभी कौन-सी तफ्तीश बाकी रह गई है ?”
“और अगर कोई तफ्तीश बाकी रह भी गई है” - पवन बोला - “तो उसके लिए सी आई डी के आगमन का क्या मतलब ?”
“मतलब इतना मुश्किल नहीं कि आप जैसे पढे-लिखे लोगों की समझ में न आए” - पंडित बोला - “जिन हालात में व्यास साहब की मौत हुई है, हमें वो बड़े सन्देहजनक लग रहे हैं, इसलिए केस की मुकम्मल तफ्तीश का काम सौंपा गया है और इसीलिए कुछ बड़े जरूरी सवालों का जवाब व्यास साहब के परिवार से हासिल करने के लिए मैं यहां हाजिर हुआ हूं ।”
“मसलन ?”
“मसलन क्या किसी को मालूम है कि वे घर से कहां के लिए और किसने मिलने के लिए रवाना हुए थे । मसलन क्या उनके पास उस वक्त कोई माल, जेवरात, जवाहरात वगैरह थे जो कि वे किसी ग्राहक को दिखाने के लिए अपने साथ लेकर गए हों ?”
तभी शालिनी वहां पहुंची ।
“ये मिसेज व्यास हैं ।” - वकील ने बताया ।
पंडित ने उठकर उसका अभिवादन किया । शालिनी के एक और बैठ जाने के बाद वह भी वापिस अपने स्थान पर बैठ गया । उसने गौर से शालिनी की सूरत देखी, फिर वैसी ही एक निगाह अपर्णा पर फिराई और फिर बोला - “मिसेज व्यास, आपको देखकर कोई मान नहीं सकता कि आपकी इतनी बड़ी बेटी होगी ।”
“अपर्णा मेरी बेटी नहीं” - शालिनी शुष्क स्वर में बोली - “यह व्यास साहब की पहली बीवी से है । मैं व्यास साहब की दूसरी बीवी हूं ।”
“ओह !”
“सुना है आप व्यास साहब की मौत के बारे में परिवार के सदस्यों से कुछ पूछताछ करने की नीयत से यहां आए हैं ?”
“ठीक सुना है आपने ।”
“पवन की यहां मौजूदगी तो मेरी समझ में आती है, लेकिन ये वकील साहब यहां क्या कर रहे हैं ? ये तो परिवार के सदस्य नहीं ।”
शान्ति स्वरूप हड़बड़ाया । उसके चेहरे ने कई रंग बदले । उसने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन उससे पहले अपर्णा बोल पड़ी ।
“शालिनी” - वह कठोर स्वर में बोली - “शान्ति स्वरूप जी यहां मेरे अनुरोध पर रुके हुए हैं । मुझे इनकी राय की जरूरत पड़ सकती है ।”
“आई सी ।” - शालिनी विषभरे स्वर में गोली ।
पंडित ने एक बार खंखार कर गला साफ किया और फिर बोला - “हां तो मैं, अर्ज कर रहा था कि यहां आने के पीछे मेरा मुख्य उद्देश्य यह जानने की कोशिश करना है कि शुक्रवार रात को व्यास साहब कहां गए थे, क्यों गए थे, उनके पास उस वक्त कोई कीमती जेवरात या जवाहरात या नकद रुपया तो नहीं था ? कोई साहब इस बारे में कुछ जानते हों ?”
“व्यास साहब कोई कीमती जेवरात वगैरह अपने साथ लेकर गये हों” - पवन बोला - “यह नहीं हो सकता । ‘जैम हाउस’ से ऐसी कोई चीज उन्होंने हासिल की होती तो मुझे मालूम होता । वहां वाल्ट का इंचार्ज मैं हूं । वहां से कुछ हासिल करने के लिए एक साइन की हुई रसीद व्यास साहब को भी देनी पड़ती थी ।”
“क्या यह हो सकता है कि वे अपने साथ कोई नकद मोटी रकम लेकर गए हों ?”
“सरासर हो सकता है ।” - शालिनी बोल पड़ी । हकीकतन उसे ऐसी कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन केस को उलझाने की खातिर ही वह ऐसा कहने लगी थी - “कई बार वे कोई दुर्लभ स्टोन यूं नकद कीमत अदा करके खरीदा करते थे । वे कह भी रहे थे कि एक बड़ा बेशकीमती पुखराज उनके हाथ आने वाला था ।”
“नकद कीमत अदा करके क्यों ?”
“क्या पता माल चोरी-चकौरी का रही हो । चोरी के माल की कीमत कोई चैक में थोड़े ही कबूल कर लेगा ।”
“शालिनी” - अपर्णा एकाएक क्रोधित स्वर में बोली - “तुम्हें ऐसी अनाप-शनाप बातें नहीं करनी चाहिए । तुम्हें खूब मालूम है कि पापा ऐसे सन्दिग्ध चरित्र के लोगों से वास्ता नहीं रखते थे ।”
“तो नहीं रखते होंगे” - शालिनी लापरवाही से बोली - “मैंने तो जो उनके मुंह से सुना था, वो कह दिया ।”
“व्यास साहब” - पंडित ने नया सवाल पैदा किया - “शुक्रवार को यहां किस वक्त लौटे थे ?”
उत्तर पवन ने दिया - “कोई छः बजे के करीब ।”
“उस वक्त आप यहां थे ?”
“जी हां । मुझ व्यास साहब से एक जरूरी बात करनी थी इसलिए उनसे मिलने की नीयत से मैं यहां बैठा उनका इन्तजार कर रहा था ।”
“क्या जरूरी बात करनी थी आपने ?”
“वह एकदम व्यक्तिगत बात थी । व्यास साहब के बिजनेस या उनके बाद में यहां से बाहर जाने से उसका कोई रिश्ता नहीं था ।”
“आप यहीं रहते हैं ?”
“जी नहीं । मैं तो व्यास साहब से बात करने आया था और बात करके यहां से चला गया था ।”
“लेकिन जो सब-इंस्पेक्टर यहां व्यास साहब की मौत की खबर लेकर आया था वह तो कहता था कि आप तब भी यहां थे ?”
“आठ बजे के करीब मैं यहां दोबारा वापिस लौटा था ।”
“उस शाम व्यास साहब से और किसकी बात हुई थी ?
“मेरी” - अपर्णा बोली - “वे मेरे कमरे में आये थे । हम बातें ही रहे थे कि काशीनाथ - नौकर - उन्हें बुलाने आ गया था । यहां के टेलीफोन पर उनकी कॉल थी ।”
“वही कॉल जिसे सुनकर व्यास साहब यहां से गये थे ?”
“वही होगी । मुझे और कुछ नहीं मालूम । मैं तो ऊपर थी ।”
“आप...”
“इन्स्पेक्टर साहब” - एकाएक शांति स्वरूप बीच में बोल पड़ा - “आप ये जो सवाल पूछ रहे हैं मुझे तो इनका कोई मतलब दिखाई नहीं देता ।”
“मुझे दिखाई देता है ।” - पंडित धैर्यपूर्वक स्वर में बोला फिर वह शालिनी की ओर घूमा और बोला - “शुक्रवार शाम की आपकी अपने पति से कोई बात नहीं हुई थी ?”
“जी नहीं” - शालिनी बोली - “दरअसल मैं उनके लौटने से पहले ही यहां से जा चुकी थी । मुझे मिसेज जोशी की पार्टी में जाना था ।”
“आप वापिस कब लौटी थीं ?”
“नौ बजे के करीब ।”
“उस वक्त यहां और कौन था ?”
“अपर्णा और पवन थे । इन्होंने शैम्पेन की बोतल खोली हुई थी और ये लोग जश्न मना रहे थे ।”
“जश्न मना रहे थे । किस बात का ?”
“अपनी मंगनी का ।”
“ओह ! तो इनकी शादी की बात उसी रोज पक्की हुई थी ।”
“मुझे इन लोगों ने तो यही बताया था हालांकि मुझे अच्छी तरह मालूम है कि व्यास साहब इस शादी के सख्त खिलाफ थे ।”
“शालिनी” - अपर्णा आहत भाव से बोली - “तुम्हें ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए ।”
“कैसी बातें नहीं करनी चाहिए ?” - शालिनी नेत्र फैलाकर बोली - “क्या मुझे पुलिस के सामने सच नहीं बोलना चाहिए ?”
“अपर्णा जो कहना चाह रही है” - शान्ति स्वरूप कठिन स्वर में बोला - “आप उसे खूब समझ रही हैं । आपको अपर्णा के खिलाफ यूं जहर नहीं उगलना चाहिए ।”
“मैं जहर उगल रही हूं ।” - शालिनी चिल्लाई ।
“हां । आप जान-बूझकर ऐसी बातें कह रही हैं जिनका गलत मतलब लगाया जा सकता है । आप...”
शालिनी उठकर खड़ी हो गई ।
“इंस्पेक्टर साहब !” - वह क्रोधित स्वर में बोली - “इस आदमी की मौजूदगी में मैं यहां मौजूद रहना जरूरी नहीं समझती । आपने मुझसे कुछ और पूछना हो तो ऊपर मेरे कमरे में आ जाइएगा ।”
और वह पांव पटकती हुई वहां से चली गई ।
कितनी ही देर पीछे सन्नाटा छाया रहा ।
फिर शान्ति स्वरूप ने खामोशी तोड़ी - “मिसेज व्यास के ऐसे व्यवहार के पीछे इकलौती वजह व्यास साहब की वसीयत है । वसीयत के मुताबिक व्यास साहब की जायदाद का जो हिस्सा इन्हें मिलने वाला है उससे ये सख्त असंतुष्ट हैं ।”
“इनका हिस्सा क्या है ?” - पंडित ने उत्सुक स्वर में पूछा ।
“पांच हजार रुपये महीना ।”
“बस ! व्यास साहब तो करोड़पति थे ।”
वकील ने उत्तर नहीं दिया ।
“जरूर व्यास साहब की कोई खास ही नाराजगी होगी अपनी बीवी से ।”
वकील ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“खैर, जाने दीजिए” - पंडित फिर पवन की तरफ आकर्षित हुआ - “शुक्रवार शाम को जो खास बात करने के लिए आप व्यास साहब का यहां इन्तजार कर रहे थे, वह आपकी उनकी बेटी से शादी के बारे में थी न ?”
“जी हां ।”
“आप इस बात को छिपाने को कोशिश क्यों कर रहे थे ?”
“मैं तो ऐसी कोई कोशिश नहीं कर रहा था ।” - पवन हड़बड़ाया ।
“लेकिन साफ-साफ कुछ बता भी तो नहीं रहे थे आप ।”
पवन खामोश रहा ।
“तो आप यह कहना चाहते हैं कि शुक्रवार शाम को अपनी मौत से कुछ घंटे पहले व्यास साहब ने आपकी और मिस अपर्णा की शादी की इजाजत दी थी ?”
“जी हां ।” - पवन बेचैनी से बोला । इंस्पेक्टर ने उस बात को सहज भाव से नहीं कहा था । उसने बात यूं कही थी जैसे वह पवन के किसी गुनाह से पर्दा उठा रहा हो ।
“यह अच्छी खबर सुनने के बाद आप यहां से चले गए थे ?”
“जी हां ।”
“आप खबर मिस अपर्णा को सुनाने के लिए यहां रुके नहीं ?”
“नहीं ।”
“मुझे यह बात पापा ने खुद बताई थी ।” - अपर्णा बोली ।
“कितने बजे गए थे आप यहां से ?” - पंडित ने अपर्णा की बात की ओर ध्यान नहीं दिया ।
“साढे छः बजे ।”
“और वापिस कब लौटे थे ?”
“आठ बजे ।”
“डेढ घंटे के उन वक्फे में आप कहां थे ?”
“कहीं भी नहीं था ।”
“यह कैसे हो सकता है ? कहीं तो आप जरूर रहे होंगे ।”
“मेरा मतलब है मैं किसी खास जगह पर नहीं गया था । मैं यूं ही सड़कों पर घूमता रहा था ।”
“क्यों ?”
“मेरा जी चाह रहा था ।”
“आई सी । आपका जी चाह रहा था । आपका जी चाह रहा था कि आप यूं ही बिना मतलब सड़कों पर घूमते रहे ?”
“जी हां ।” - पवन संकोचपूर्ण स्वर में बोला । जो बात उसे पहले एकदम स्वाभाविक लग रही थी, अब वही बात इंस्पेक्टर के मुंह से सुनने पर वह उसे एकदम हास्यास्पद लग रही थी ।
“आपको मालूम होगा कि व्यास साहब की मौत भी इस वक्फे के बीच किसी वक्त हुई थी ।”
“इन्स्पेक्टर साहब” - पवन आतंकित स्वर में बोला - “आप कहीं यह तो नहीं कहना चाहते कि मेरा व्यास साहब की मौत से कोई रिश्ता है ?”
“आपके पास मौत के समय की कोई एलीबाई नहीं है ।”
“ओह माई गॉड !” - पवन ने अपना माथा थाम लिया ।
“इंस्पेक्टर साहब” - अपर्णा ने पवन की हिमायत में मुंह खोला - “आप तो...”
“अब मैं आपके उस नौकर से बात करना चाहता हूं जिसने व्यास साहब को फोन कॉल की खबर दी थी ।”
काशीनाथ को बुलाया गया ।
काशीनाथ से इंस्पेक्टर को कोई नई बात न मालूम हो सकी ।
सिवाय इसके कि उस फोन कॉल के बाद साहब एकाएक बेहद क्रोधित दिखाई देने लगे थे ।
फिर इंस्पेक्टर पंडित सबका धन्यवाद करके वहां से विदा हो गया ।
शान्ति स्वरूप कुछ सोचकर उसके साथ हो लिया ।
दोनों इमारत से बाहर निकले ।
“क्या चक्कर है ?” - नीचे सड़क पर आकर वकील ने पूछा ।
“चक्कर !” - पंडित ने नकली हैरानी प्रकट की - “कैसा चक्कर ?”
“लड़के के होशो-हवास उड़ा दिए आपने ।”
“वकील साहब, व्यास के परिवार से बातचीत करने से पहले मैं और जगहों से काफी पूछताछ करके आया था । मुझे यहां आने से पहले ही मालूम था कि पवन और व्यास की लड़की की आशनाई चल रही थी और व्यास इस शादी के हक में नहीं था । व्यास के रुतबे के सामने तो पवन की हैसियत एक भिखारी जैसी थी । उसका ऐसी शादी के खिलाफ होना कोई बड़ी बात नहीं थी । हो सकता है उसने अपनी बेटी को भी धमकाया हो कि अगर उसके पवन से शादी का ख्याल न छोड़ा तो वह उसे अपनी सारी जायदाद से बेदखल कर देगा । शायद इसी बात से पवन का व्यास की हत्या के लिए प्रेरित किया हो । लेकिन ऐसी नौबत आने से पहले लड़की ने किसी तरह व्यास से नई वसीयत करवा ली और सारी जायदाद अपने नाम लिखवा ली । अपनी सौतेली मां से उसकी नफरत तो छुपाये नहीं छुप रही है उसी ने शायद बाप को ऐसी पट्टी पढाई होगी कि व्यास ने अपनी वसीयत में से अपनी नौजवान बीवी का पत्ता ही काट दिया । फिर शुक्रवार शाम को पवन यहां पहुंचा । उसने आखिरी बार व्यास से अपनी और अपर्णा की शादी की बात की और आखिरी बार इंकार सुना, तभी उसने व्यास के कत्ल का फैसला किया ! उसने वहां से जाकर किसी पब्लिक टेलीफोन से आवाज बदलकर व्यास को फोन किया और उसे किसी बहाने से राजपुर रोड पर बुलाया । वहां उसने व्यास की कनपटी पर किसी भारी चीज से प्रहार किया । चोट के ही सदमे से ही व्यास का हार्टफेल हो गया । फिर उसने वहां एक नकली एक्सीडेंट स्टेज किया और वापिस यहां आ गया । यहां वह और अपर्णा इस बात का जश्न मनाने लगे कि व्यास उसकी शादी के लिए मान गया था जबकि हकीकतन ऐसी कोई बात नहीं थी ।”
“लेकिन व्यास ने खुद अपर्णा को बताया था कि उसने उसकी शादी के लिए हामी भर दी थी ।”
“कौन कहता है ?”
“अपर्णा ।”
“और कौन कहता है ?”
“और तो कोई नहीं कहता ।”
“देअर यू आर । अगर यह अपर्णा और पवन की मिलीभगत का नतीजा तो अपर्णा वही तो कहेगी जो पवन उसे कहने के लिए कहेगा ।”
“लेकिन पोस्टमार्टम की रिपोर्ट साफ कहती है कि व्यास दिल का दौरा पड़ने से मरा है ।”
“रिपोर्ट ठीक कहती है लेकिन दिल का दौरा कैसे पड़ा ? वह कनपटी के प्रहार के सदमे से पड़ा ।”
“आपको कैसे मालूम हुआ कि उसकी कनपटी पर ऐसा कोई प्रहार पड़ा था ?”
“सब-इंस्पेक्टर वर्मा ने लाश देखी थी । वह कहता है कि उसकी कनपटी पर एक अंडे जितना गूमड़ निकला हुआ था ।”
“वह गूमड़ तो एक्सीडेंट के दौरान सिर कार में कहीं टकरा जाने का नतीजा हो सकता है ।”
“हो सकता है लेकिन वो भी हो सकता है जो मैं सोच रहा हूं ।”
“लेकिन यह तो...”
“देखिए, वकील साहब । मैं एक सी आई डी ऑफिसर हूं, और मेरी सारी जिन्दगी ऐसे ही केसों की तफ्तीश करते गुजरी है जो देखने में बड़े सीधे-सादे लगते हैं और जिनमें फाउल प्ले की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई दे रही होती । ऐसे ही मामलों की तफ्तीश में मैंने ऐसे कई लोगों के लिए फांसी के फंदे का सामान किया है जो सूरत से एक मक्खी मार सकने के काबिल नहीं लगते थे । हत्यारे के सिर पर कोई सींग तो उसे नहीं होते जिन्हें देखकर उन्हें फौरन पहचाना जा सके । और किसी के अन्तर में झांकने में मदद करने वाली मशीन अभी बनी नहीं । मेरा जाती तजुर्बा है कि सूरत से बड़ा भोला भाला और शरीफ लगने वाला शख्स भी खतरनाक अपराधी हो सकता है । मेरा काम तफ्तीश करना है जो मैं कर रहा हूं । मैं किसी के कहने भर से यह नहीं मान सकता कि फलां आदमी अपराधी नहीं हो सकता ।”
शान्ति स्वरूप खामोश रहा ।
“बाई द वे, यह वसीयत, जिसमें व्यास साहब ने अपनी बीवी को अपनी बीवी को अपनी जायदाद से लगभग बेदखल कर दिया है, कब लिखी गई थी ?”
वकील हिचकिचाया ।
“वकील साहब !” - इंस्पेक्टर शिकायत भरे स्वर में बोला - “यह क्या कोई छुपी रहने वाली बात है ?”
“शुक्रवार ।” - वकील कठिन स्वर में बोला ।
“क्या कहने ? यानि कि व्यास साहब नई वसीयत करने के लिए ही जिन्दा थे । इधर इन्होंने नई वसीयत पर साइन किए, उधर किसी की सहूलियत के लिए उन्हें दिल का दौरा पड़ गया ।”
वकील ने असहाय भाव से एक गहरी सांस ली ।
“इससे पहली वसीयत में क्या था, वकील साहब ?”
“उसमें व्यास साहब ने अपनी सारी चल-अचल सम्पति अपनी बीवी और बेटी के लिए बराबर-बराबर छोड़ी थी ।”
“वो वसीयत अब कहां है ?”
“वो तो व्यास ने नई वसीयत साइन करने के बाद नष्ट कर दी थी ।”
“हूं । यानी कि अपर्णा और पवन के लिए सारा सिलसिला बड़ी सहूलियत का रहा ।”
“इंस्पेक्टर साहब, आप खामखाह उन दोनों पर शक कर रहे हैं ।”
“खामखाह भी कभी कोई बात होती है ? हर बात की कोई वजह होती है, कोई बुनियाद होती है ।”
“लेकिन फिर भी...”
“जाने दीजिए । आई नो माई बिजनेस । दि वे यू नो युअर बिजनेस ।”
वकील खामोश हो गया ।
मंगलवार - शाम
प्रदीप पुरी को शालिनी की फोन कॉल द्वारा सी आई डी इंस्पेक्टर पंडित के उनके घर से आगमन की खबर मिली ।
शालिनी कभी उसे फोन नहीं करती थी लेकिन वह खतरनाक बात उसे बताने के लिए उसने फोन करने का खतरा उठाना गवारा कर लिया था ।
प्रदीप के छक्के छूट गए ।
जो काम उसे सीधा-सादा और आसान लग रहा था, उसमें खामखाह धीरे-धीरे पेचीदगियां रेंगती आ रही थीं । केस में सी आई डी की दखलअन्दाजी साफ जाहिर कर रही थी कि पुलिस को शक था कि व्यास अपनी स्वभाविक मौत नहीं मरा था ।
सी आई डी इंस्पेक्टर पंडित की गिद्ध जैसी शक्ल प्रदीप की आंखों के सामने घूम गई ।
क्या पता वह एक नम्बर का काइयां इंस्पेक्टर व्यास की मौत का कोई तालमेल उन ज्वेल रॉबरीज के साथ बिठाने की कोशिश कर रहा हो जिनकी तफ्तीश के चक्कर में वह शुक्रवार को ‘जैम हाउस’ में आया था ।
वैसे एक अच्छी खबर भी शालिनी ने उसे दी थी ।
वह यूनिवर्सल इनवैस्टिगेशन के संचालक सुधीर कोहली से मिली थी और अपने कथनानुसार, उसे ‘फिक्स’ कर आई थी । प्रदीप ने उससे यह नहीं पूछा था कि उसने उसे कैसे फिक्स किया था ।
लेकिन वह अच्छी खबर उसे कोई खास तसल्ली न दे पाई । उसका मन एकाएक वितृष्णा से भर उठा । कोई काम भी तो योजनानुसार नहीं हुआ था । पहले जग्गी ने व्यास को राजपुर रोड पर उसके फ्लैट के नजदीक ही मारकर घपला कर दिया फिर वह हरामजादा व्यास का बच्चा ऐन मौके पर वसीयत बदल गया और अब यह साला सी आई डी इंस्पेक्टर पता नहीं क्या सूंघता फिर रहा था । क्या हाथ लग गया था उससे ?
वह गम्भीरता से अपनी मौजूदा स्थिति पर विचार करने लगा ।
सबसे अहम सवाल एक ही था ।
क्या वह फंस सकता था ?
कैसे फंस सकता था वो ? - उसने अपने आपसे सवाल किया ।
उससे पास तो इस बात का सिक्केबन्द सबूत था कि हत्या के समय वह घटनास्थल से बहुत दूर कई लोगों के हुजूम में मौजूद था ।
वैसी ही एलीबाई शालिनी भी अपने बचाव में पेश कर सकती थी ।
लेकिन एक कड़ी थी जो उसका संबंध व्यास की मौत से छोड़ सकती थी ।
जग्गी !
पुलिस जवाहरात के चोरों की तलाश में वैसे ही बड़ी सरगर्मी दिखा रही थी । अगर जग्गी पकड़ा गया तो उसके गैंग से उसका सम्बन्ध भी प्रकट हो सकता था ।
जग्गी दोनों तरीकों से उसके अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो सकता था ।
इससे पहले कि जग्गी की वजह से उसका कल्याण हो जाए उसे जग्गी का कल्याण करना जरूरी दिखाई देने लगा ।
उसने अपनी घड़ी पर निगाह डाली ।
आठ बज चुके थे ।
उसने अपने फ्लैट को ताला लगाया और इमारत से बाहर निकला । वह सुन्दर नगर में स्थित एक दो कमरों के फ्लैट में रहता था । प्लैट के साथ उसे गैरेज की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, इसलिए उसे अपनी कार गली में ही खड़ी करनी पड़ती थी । गली में आकर वह अपनी कार में सवार हुआ और उसे चलाता हुआ मेन रोड पर ले आया ।
अभी वह पुराने किले तक पहुंचा था कि उसे ऐसा लगने लगा कि उसका पीछा किया जा रहा था । एक पुरानी-सी काली एम्बेसडर उसे लगातार अपने पीछे दिखाई दे रही थी ।
उसने दो-तीन बार इस नीयत से अपनी कार को रफ्तार कम की कि एम्बेसडर आगे निकल जाये लेकिन ऐसा न हुआ । हर बार एम्बेसडर की रफ्तार भी कम हो गई ।
कौन लगा हुआ था उसके पीछे ?
क्या पुलिस ?
चिन्ता से उसका दिल डूबने लगा ।
वह हाडिग ब्रिज के समीप वाले चौराहे पर पहुंचा तो कार को आगे पुरानी दिल्ली की ओर बढाने का उसका हौसला न हुआ । दरियागंज की ओर जाने के स्थान पर उसने कार को सिकन्दरा रोड पर मोड़ दिया ।
काली एम्बेसडर भी उधर ही मुड़ गई ।
मंडी हाउस के चौराहे से प्रदीप बंगाली मार्केट की ओर घूम गया । वहां बाबर रोड पर उसका एक दोस्त रहता था । उसने अपने पीछे लगी गाड़ी वालों की झांसा देने के लिए वहीं जाने का फैसला कर लिया ।
अभी तो जग्गी के घर की ओर का रुख भी करना खतरे से खाली नहीं था ।
मंगलवार - रात
कमरा बंगश में शीशों की दुकान वाली इमारत की तीसरी मंजिल पर जग्गी का हीरे-जवाहरात तराशने वाजा ईरानी कारीगर नासर शीराजी अपनी पोती के साथ रहता था । वहां किचन वगैरह के अलावा दो छोटे-छोटे कमरे थे जो दादा-पोती के रहने के काम आते थे, शीराजी किचन में अपनी पोती सुरैया के साथ बैठा खाना खा रहा था । सुरैया ने ईरानी अन्दाज की मछली बनाई थी जो बूढा हमेशा ही बड़े चाव से खाता था ।
सुरैया एक लगभग बाईस साल की मामूली शक्ल-सूरत वाली लेकिन भरपूर जवान लड़की थी । उस घर से वह कभी बाहर नहीं निकलती थी और मन-ही-मन हमेशा उस मुबारक दिन का इन्तजार करती रहती थी जब उसका दादा उसे अपने वतन वापिस लेकर जाने वाला था । अभी आज ही उसके दादा ने उसे बताया था कि इन्तजार की घड़ियां अब बस खतम होने ही वाली थीं । अब वे कुछ ही दिन और वहां के मेहमान थे । फिर अपना वतन । अपने लोग ।
उसी खबर की वजह से सुरैया आज खुश थी ।
बूढा खाना समाप्त करके उठ खड़ा हुआ ।
“वह इस वक्त शायद अपने कमरे में नहीं है ।” - वह सुरैया से ईरानी भाषा में बोला - “मछली का पतीला उसके कमरे में रख आओ । रोटियां वह कहता था कि वह जरूरत पड़ने पर होटल से मंगवा लेगा ।”
सुरैया ने सहमति में सिर हिलाया ।
जग्गी के कुछ दोस्त उससे मिलने आने वाले थे । उन्हीं के लिए जग्गी ने विशेष रूप से मछली बनवाई थी ।
“मुझे अभी थोड़ा काम है” - बूढा बोला - “मैं नीचे दुकान पर जा रहा हूं ।”
सुरैया ने फिर सहमति में सिर हिलाया । उसने अपने हाथ धोए और फिर एक तौलिए की सहायता से मछली से ऊपर तक भरा हुआ भारी पतीला उठा लिया । वह दरवाजे की तरफ बढी ।
“बेटी !” - एकाएक वृद्ध व्यग्र स्वर में बोला ।
सुरैया ठिठकी ।
“वो तुम्हें कभी कुछ कहता तो नहीं ।”
“नहीं, बाबा ।” - सुरैया धीरे से बोली ।
“वो आदमी मुझे पसन्द नहीं । मुझे हमेशा ही उस पर शक रहता है कि कहीं वह तुम्हारे साथ कोई शरारत करने की कोशिश न करे ।”
“वो मुझे कुछ नहीं कहता, बाबा ।”
“अगर कभी कुछ कहे तो फौरन मुझे बताना । मैं... मैं ।”
सुरैया खामोश रही । वह जानती थी बूढे की बेबसी ने ही उसे चुप करा दिया था । वह उस राक्षस जैसे आदमी का जिसकी मेहरबानियों पर वह आश्रित था, वह जानती थी कि वह कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था । जग्गी उसे मच्छर की तरह मसल सकता था ।
बूढा उससे पहले सीढियां उतर गया ।
सुरैया भी पतीला उठाए छोटे-छोटे कदम रखती हुई आगे बढी ।
जग्गी का खाना क्योंकि उन्हीं के साथ बनता था इसलिए उसे जग्गी के कमरे में जाना तो पड़ता था लेकिन साधारणतया उसकी यही कोशिश होती थी कि वह तभी वहां जाये जब वह कमरे में न हो । वह कमरे में होता था तो वह दरवाजे से ही लौट आती थी, कभी भीतर दाखिल नहीं होती थी । लेकिन फिर भी दो-तीन बार ऐसा इत्तफाक हुआ था कि जग्गी ने उसे पकड़ लिया था । वह बड़ी मुश्किल से उसकी मजबूत पकड़ से छूट पाई थी और वहां से भाग गई थी । वैसी कोई बात उसने बूढे शीराजी को कभी नहीं बताई थी । वह पतले से ही दुख और परेशानी से पिसे हुए अपने बूढे बाबा के लिए और बोझ का बायस नहीं बनना चाहती थी ।
वह दूसरी मंजिल पर पहुंची और पैर से दरवाजा खोलकर जग्गी के कमरे में दाखिल हुई ।
उसके बाबा का ख्याल गलत था । जग्गी अपने कमरे में ही था ।
अपने दोनों हाथों में थमा पतीला वह जमीन पर तो फेंक नहीं सकती थी इसलिए से मजबूरन कमरे में ठिठका रहना पड़ा ।
“मछली लाई हो ?” - जग्गी अपनी खरखराती आवाज में भरसक मिठास भरने का प्रयत्न करता हुआ टूटी-फूटी ईरानी भाषा में बोला । वह जानता था सुरैया को अपनी भाषा के अलावा और कोई भाषा नहीं आती थी ।
सुरैया ने सहमति में सिर हिलाया ।
“उधर मेज पर रख दो ।”
“जिस मेज की तरफ जग्गी ने इशारा किया था वह कमरे के पार खिड़की के पास थी ।”
सुरैया आतंकित-सी आगे बढी । वह मेज के पास पहुंची । उसने पतीला उस पर रखा और फिर वापिस जाने के लिए घूमी ।
तभी जग्गी उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“क्या बात है ?” - वह बोला - “तुम तो मुझसे यूं खौफ खाती हो जैसे मैं कोई जिन्न-भूत होऊं ।”
“मुझे जाने दो ।” - सुरैया फंसे स्वर में बोली ।
“चली जाना । जल्दी क्या है ? देखे सुरैया, तुम यहां अकेली हो । मैं भी यहां अकेला हूं । हम दोनों खामखाह बोर होते रहते हैं । तुम चाहो तो हम दोनों की ही जिन्दगी बड़ी दिलचस्प बन सकती है ।”
“मुझे जाने दो । बाबा मेरा इन्तजार कर रहे हैं ।”
“झूठ मत बोलो, सुरैया । शीराजी तो नीचे दुकान पर गया है । मैंने खुद उसे अभी नीचे जाते देखा था । आज ठहर जाओ सुरैया । वह समझता है कि मैं घर में नहीं हूं । आज उसे कुछ पता नहीं लगेगा ।” - एकाएक जग्गी ने उसे अपनी बांहों में भर लिया - “तुम कितनी अच्छी हो सुरैया ।”
“छोड़ो ! छोड़ो !” - सुरैया उसकी रीछ जैसी पकड़ में छटपटाती हुई बोली ।
“अभी छोड़ता हूं मेरी जान” - जग्गी उसका चुम्बन लेने का उपक्रम करता हुआ बोला - “जल्दी क्या है ?”
लेकिन इतना बलिष्ठ होने के बावजूद जग्गी उसे पकड़े न रह पाया, पता नहीं कैसे वह उसकी पकड़ से निकली और बगोले की तरह वहां से बाहर निकल गई । जग्गी को पहले सीढियों पर उसके धप्प-धप्प पड़ते कदमों की और फिर एक दरवाजा खुलने और बन्द होने की आवाज आई ।
क्रोध में भुनभुनाता, हाथ मलता, जग्गी धम्म से एक कुर्सी पर बैठ गया ।
सालो दो टके की छोकरी - वह मन-ही-मन झल्लाया - कितना अकड़ती है । देखता हूं कब तक अकड़ेगी । मैंने भी तुझे तन्दूर में नहीं लगाया तो मेरा नाम भी जग्गी नहीं ।
सुरैया को कोसते-कोसते जग्गी ने दस बजा दिए ।
ठीक दस बजे, जैसा कि उसे अपेक्षित था, इमरान, बिहारी और दिलावर वहां पहुंच गए ।
“मैंने सब मालूम कर लिया है, खलीफा” - दिलावर आते ही बोला - “जोरबाग वाली इस इमारत, जिसमें वह छोकरी रहती है, उसके यार अग्रवाल की ही है । मुझे मालूम हुआ है वहां राग-रंग के अलावा जुए की महफिलें चलती हैं । तगड़ा जुआ होता है वहां । इस शनिवार को कम-से-कम आठ रईस अपनी बीवियों या माशुकाओं के साथ वहां जमा होने वाले हैं । औरतों के जिस्म जेवरों से लदे होंगे और मर्दों की जेबें नोटों से । खलीफा, हाथ मारने का ऐसा शानदार मौका दोबारा हाथ नहीं आने वाला ।”
“बिहारी ने वहां की एक नौकरानी, फंसा ली है” - इमरान बोला - “इमारत और वहां के रहने वालों की एक-एक भीतरी-बाहरी बात यह पहले ही समझ चुका है ।”
“यही नहीं” - बिहारी बोला - “शनिवार का उन लोगों का मुकम्मल प्रोग्राम मुझे मालूम है । मुझे यह तक मालूम है कि उनका रात का खाना कौन से होटल से वहां आने वाला है ।”
“खलीफा” - दिलावर बोला - “यह मौका हाथ से जाने देना जहालत की इन्तहा होगी ।”
जग्गी खामोश रहा । वह प्रदीप पुरी की चेतावनी के बारे में सोच रहा था । उनके ख्याल से उन्हें फिलहाल खामोश बैठे रहना चाहिए था ।
“क्या बात है खलीफा ?” - इमरान हैरानी से बोला - “जवाब क्यों नहीं दे रहे हो ? जुबान पर ताला क्यों लगा हुआ है ?”
“क्या कहते हो ?” - बिहारी ने पूछा - “हल्ला हो जाए या नहीं ?”
“ठीक ?” - एकाएक जग्गी निर्णयात्मक स्वर में बोला - “हो जाए ।”
“वाह, खलीफा” - इमरान खुशी से बोला - “दिल खुश कर दिया । इसी बात पर बोतल निकाल लो ।”
जग्गी ने बोतल निकाली ।
फिर शराब और मछली के दौर के साथ शनिवार रात को जोरबाग वाली चोरी की बारीकी से योजना तैयार होने लगी ।
शनिवार - रात
जोरबाग की वह दोमंजिली इमारत, जिसमें उस रात पार्टी का आयोजन था, वास्तव में मेजेस्टिक आटोमोबाइल वाले अग्रवाल की मिल्कियत थी, यह बात उसकी बीवी तक को नहीं मालूम थी । लोगों की निगाह में वह इमारत कलकत्ते के किसी सेठ की थी जिसमें उन दिनों रंजना नाम की एक युवती किराये पर रहती थी ।
रजना अग्रवाल की रखैल थी ।
उस रात जो आठ सज्जन वहां आमन्त्रित थे, वे सब अधेड़ उम्र के थे, लेकिन सबके साथ नौजवान युवतियां थीं जो कि उनकी बीवियां नहीं थीं ।
आधी रात तक वहां ड्रिंक्स और राग-रंग का दौर चला । अब किसी भी क्षण समीप के चायनीज रेस्टोरेन्ट से वहां खाना पहुंचने वाला था । खाने के बाद पुरुषों की जुए की महफिल जमने वाली थी और स्त्रियों की मर्जी थी कि वे उनके पास बैठती थीं, अपनी महफिल अलग जमाती थीं या सोती थीं ।
रंजना वह पन्नों का हार पहने हुए थी जो पिछले सप्ताह अग्रवाल ने उसे लाकर दिया था । हार उसकी खूबसूरती को चार चांद लगा रहा था । बाकी की युवतियां मुंह से उसकी और हार की तारीफ कर रही थीं, लेकिन मन-ही-मन जलकर कोयला हुआ जा रही थीं और रंजना की मौत की कामना कर रही थीं । कोई यह सोच रही थी कि कम्बख्त को कुछ हो जाए तो क्या पता अग्रवाल जैसा दिलदार यार उस पर मेहरबान हो जाए ।
तभी एक स्टेशन वैगन वहां पहुंची । वह कम्पाउंड में दाखिल हुर्ई और इमारत के पहलू से होती हई पिछवाड़े में मौजूद किचन के दरवाजे के सामने आकर रुकी ।
स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट पर बैठ इमरान ने हौले से हॉर्न बजाया ।
किचन के जाली वाले दरवाजे में से एक नौकर ने बाहर झांका ।
“चायनीज इन से खाना आया है ।” - इमरान बोला ।
“ओह !” - नौकर बोला । उसने दरवाजा खोला और बोला - “जल्दी लाओ ! साहब लोग खफा हो रहे हैं ।”
“क्यों खफा हो रहे हैं ? खामखाह !” - इमरान हैरानी जाहिर करता हुआ बोला - “हम तो वक्त से पहले आये हैं ।”
“ठीक है । ठीक है । बहस मत करो ।”
इमरान स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट से नीचे उतरा । वह रेस्टोरेन्ट के एक वेटर की वर्दी पहने हुए था और उसने अपनी टोपी अपने माथे पर इस प्रकार झुकाई हुई थी कि उसका चेहरा उसकी ओट में हो जाये, वैसे भी वहां नीमअन्धेरा था । वह स्टेशन वैगन के पृष्ठ भाग में पहुंचा । उसने उसके पिछले दरवाजे पर दस्तक दी ।
फौरन जग्गी, दिलावर और बिहारी बाहर निकल आए । वे भी इमरान जैसे ही लिबास में थे ।
“अरे, इतने आदमी” - नौकर हड़बड़ाया - “यहां सिर्फ एक ही वेटर की जरूरत है ।”
इमरान वापिस घूमा । वापिस घूमने तक वह अपने चेहरे पर एक रूमाल बांध चुका था । उसने अपनी वर्दी में से रिवॉल्वर निकाली और उसे नौकर की पसलियों में चुभोता हुआ बोला - “खबरदार ! आवाज न निकले ।”
तब तक नौकर को बाकी तीनों के चेहरों पर भी नकाब की तरह बंधे रूमाल और हाथों में रिवाल्वरें दिखाई दीं । भय से उसकी घिग्घी बंध गई ।
“दूसरा नौकर कहां है ?” - बिहारी ने पूछा । उसे मालूम था वहां दो नौकर थे ।
“वह आज छुट्टी पर है ।” - नौकर ने घिघियाते हुए जवाब दिया ।
“और नौकरानी ?”
“वह डायनिंग हॉल में टेबल लगा रही है ।”
“साहब लोग कहां हैं ?”
“नीचे के हॉल में ।”
“और उनकी मेमें ?”
“ऊपर ।”
“तुम क्या चाहते हो ? जिन्दा रहना या निगम बोध घाट पहुंचना ?”
“मैं गरीब आदमी हूं” - वह लगभग रोता हुआ बोला - “मुझे कुछ न कहना ।”
“ठीक है । नहीं कहेंगे । लेकिन मुंह से आवाज न निकले ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
उन्होंने उसकी मुश्कें कसीं, उसके मुंह में एक नैपकिन ठूंसा और उसे पैंट्री की एक अलमारी में बन्द कर दिया ।
बिहारी और दिलावर चुपचाप डायनिंग हॉल में गए और वहां से नौकरानी को पकड़ लाये । उन्होंने उसकी भी नौकर जैसी हालत बनाई और उसे भी उसी अलमारी में बन्द कर दिया ।
“मैं और दिलावर ऊपर जाकर औरतों की खबर लेंगे” - जग्गी बोला - “तुम दोनों नीचे आदमियों को संभालना । बिहारी और इमरान” - जग्गी सख्त स्वर में बोला - “जरा होशियारी से काम लेना ।”
“होशियारी ही होगी, खलीफा ।” - इमरान बोला । हमेशा की तरह वह चरस का दम लगाकर आया था और उस वक्त तरंग में था । चरस लिये बिना वह अपने आप में चोरी पर जाने लायक हिम्मत नहीं पैदा कर पाता था ।
चारों दबे पांव पैंट्री से बाहर निकले ।
हॉल में आठों पुरुष मौजूद थे । सबके हाथ में ड्रिक्स के गिलास थे और उनके अट्टाहासों से हॉल गूंज रहा था ।
वे हाल में दाखिल हुए ।
“खबरदार !” - जग्गी कहरभरे स्वर में फुंफकारा - “कोई अपनी जगह से न हिले ।”
अट्टहास फौरन यूं बन्द हुए जैसे सबका सामूहिक रूप से गला घोंट दिया गया हो । वे हक्के-बक्के-से उन लोगों की ओर देखने लगे ।
“जो साहिबान जिन्दा रहना चाहते हो” - जग्गी फिर बोला - “अपने हाथ ऊपर उठा लें ।”
सात जोड़ी हाथ फौरन छत की और उठे । केवल अग्रवाल ने हाथ नहीं उठाये । वह यूं क्रोधित भाव से जग्गी और उसके साथियों को ओर देख रहा था जिसे निगाहों से ही उन्हें भस्म कर देना चाहता हो ।
“तुम जिन्दा नहीं रहना चाहते ?” - जग्गी रिवाल्वर उसकी ओर तानता हुआ कहर-भरे स्वर में बोला ।
“हरामजादो !” - अग्रवाल चिल्लाया - “मैं तुम सबको देख लूगा । मैं तुम सबको जेल की हवा खिलाऊंगा । मैं..”
तब तक जग्गी आगे बढकर उसके सामने जा पहुंचा था । उसने रिवॉल्वर की नाल का एक जोरदार प्रहार उसके मुंह पर किया ।
अग्रवाल फौरन चुप हो गया ।
“दोबारा आवाज निकाली” - जग्गी फुंफकारा - “तो भेजा उड़ा दूंगा ।”
अग्रवाल फिर न बोला । शायद नशे में ही वह अकड़ने की हिम्मत कर गया था, क्योंकि अब एक ही प्रहार से उसका नशा हिरण हो गया मालूम होता था ।
“हाथ ऊपर ।” - जग्गी ने आदेश दिया ।
अग्रवाल ने भी हाथ उठा दिए ।
“सब लोग दीवार के पास पहुंचे और उसकी तरफ मुंह करके खड़े हो जाएं ।”
सबने आदेश का पालन किया - अग्रवाल ने भी ।
फिर इमरान उन्हें रिवाल्वर से कवर करके खड़ा हो गया और बिहारी आगे बढकर उनकी नकदी और कीमती सामान अपने काबू में करने लगा । उन रईस लोगों का कीमती सामान भी तो मामूली नहीं था । कोई बीस हजार रुपये की घड़ी पहने था तो कोई पचास हजार रुपये की नीलम की अंगूठी या हीरे का टाई पिन ।
जग्गी ने दिलावर को इशारा किया । वे दोनों खामोशी से हॉल से बाहर निकले और दबे पांव सीढियां चढने लगे ।
ऊपर एक विशाल बैडरूम में आठों स्त्रियां मौजूद थीं । कुछ अपना मेकअप ठीक कर चुकी थीं और कुछ कर रही थीं । हल्की-फुल्की बातों की आवाज से कमरा गूंज रहा था ।
उन्हें वहां पहुंचा पाकर एकाध ने चीखने की कोशिश की, लेकिन जग्गी की घुड़की में कुछ ऐसा दम था कि वैसी कोई चीख कोशिश करने वाली के गले में ही घुटकर रह गई ।
फिर दिलावर ने उन्हें रिवॉल्वर से कवर कर लिया और जग्गी उनके जेवर उतरवाने में जुट गया । सारे जेवर वह अपने गले में लटके एक झोले में डालता जा रहा था ।
सारे जेवर काबू में आ जाने के बाद उसने अपनी जेब से नायलोन की एक पतली लेकिन मजबूत रस्सी निकाली और सबको फर्श पर लिटाकर उनके हाथ पांव बांध दिए । फिर उसने पलंग से एक चादर खींची और उसमें से टुकड़े फाड़कर उन्हें उनके आतंक से खुले मुंहों में ठूंस दिया ।
“सुनो” - अन्त में वह सांप की तरह फुंफकारा - “हम नीचे जा रहे हैं लेकिन अभी इमारत से नहीं जा रहे । अगर तुममें से किसी ने कैसी भी कोई शरारत करने की कोशिश की तो मैं वापिस आ जाऊंगा और शरारत करने वाली की ऐसी दुक्की पीटूंगा कि सारी उम्र कोई झल्ली वाला भी साथ लेटने को तैयार नहीं होगा । समझ गई ?”
सबने आतंकित भाव से सिर हिलाया ।
दोनों बाहर निकले और सीढियां उतरकर नीचे पहुंचे ।
नीचे अभी काम खत्म नहीं हुआ था । बिहारी अभी छः ही आदमियों का माल झपट पाया था । जग्गी और दिलावर वहां पहुंचे तो उन्होंने उसे सातवें आदमी की जेबें टटोलते पाया ।
आठवां आदमी अग्रवाल था । वह एक कोने में दरवाजे के पास खड़ा था ।
तभी एक बड़ी अप्रत्याशित, बड़ी नामुराद, घटना घटित हो गई ।
एकाएक बत्ती चली गई और सारी इमारत में अन्धेरा छा गया ।
जग्गी के मुंह से एक गन्दी गाली निकली । उसने झपटकर अपनी जेब से एक टॉर्च निकाली और उसे जलाकर उसकी रोशनी सामने फेंकी । साथ ही इमरान और बिहारी की अपने शिकारों के लिए चेतावनी की आवाजें गूंजीं । रोशनी सामने पड़ी तो जग्गी ने पाया कि उस क्षणिक अन्धकार का लाभ उठाकर अग्रवाल दरवाजे से बाहर खिसका जा रहा था । इमरान ने भी टार्च की अपर्याप्त रोशनी में उसे खिसकते देखा । उसने उसको निशाना बनाकर एक फायर किया लेकिन भागते हुए अग्रवाल की गति में कोई अन्तर न आया !
अन्धेरे में कहीं एक दराजे के खुलने और बन्द होने की आवाज आई ।
इमरान बगोले की तरह उधर भागा जिधर अग्रवाल गया था ।
जग्गी बिहारी और दिलावर पीछे मौजूद सातों लोगों को कवर किए खड़े रहे । टार्च की रोशनी उन पर पड़ रही थी और उनमें से किसी की हिलने की हिम्मत नहीं हो रही थी । सब हाथ ऊपर उठाए बुत बने खड़े थे ।
तभी एक के पीछे एक दो फायरों की आवाज से वातावरण गूंज गया ।
जग्गी घबराकर फौरन भागा ।
तभी बत्ती जैसे एकाएक गई थी, वैसे ही वापिस आ गई । जग्गी ने देखा इमारत के मुख्य द्वार के सामने पोर्टिको में खड़ी चार कारों में से एक के खुले दरवाजे के पास जमीन पर अग्रवाल पड़ा था । उनकी दाएं हाथ की आधी खुली उंगलियों में अभी भी एक छोटी-सी पिस्तौल लटकी हुई थी । उनकी छाती से खून बह रहा था ।
पोर्टको के एक खम्भे के साथ लगा इमरान खड़ा था । उसने अपने दाएं हाथ से अपना बायां कंधा पकड़ा हुआ था और उसकी उंगलियों से खून बहता साफ दिखाई दे रहा था । उसके चेहरे पर गहरी पीड़ा के भाव थे ।
“क्या हुआ ?” - जग्गी आतंकित भाव से बोला ।
“हरामजादे ने मुझे गोली मार दी ।” - इमरान बड़ी कठिनाई से कह पाया । फिर वह वहीं जमीन पर ढेर हो गया ।
साफ जाहिर हो रहा था कि पिस्तौल अग्रवाल ने उस कार में से निकाली थी । पिस्तौल उसके पास पहले से होती तो उसने रोशनी गुल होते ही भीतर ही गोलियां चलानी शुरू कर दी होनी थीं ।
जग्गी झपटकर अग्रवाल के पास पहुंचा । यह जानने में उसे केवल एक सैकेण्ड लगा कि वह मर चुका था ।
जग्गी के छ्क्के छूट गए । उसने आज तक इतनी चोरियों-डकैतियों में हिस्सा लिया था लेकिन कभी कत्ल की नौबत नहीं आने दी थी । अब न केवल कत्ल हो गया था, एक बड़े रईस, दिल्ली को ऊंची सोसाइटी के एक आधार-स्तम्भ का कत्ल हो गया था । कल ही इतना हो-हल्ला मचना था कि दिल्ली पुलिस ने भुस के ढेर से सुई तलाश करने जैसी बारीकी से उनकी तलाश शुरू कर देनी थी ।
और अभी उसे इमरान को भी सम्भालना था । वह बुरी तरह जख्मी था । उसे तीमारदारी की जरूरत थी जो कोई दक्ष डॉक्टर ही कर सकता था । और उसे डॉक्टर के पास ले जाने की कोशिश से वे सब तन्दूर में लग सकते थे ।
उस संकट की घड़ी में जग्गी के दिमाग ने काम करना बन्द नहीं किया था । उसने फौरन एक फैसला किया ।
उसने इमरान को गिरहबान से पकड़ा और उसकी चीख-पुकार की परवाह किए बिना उसे जमीन पर घसीटता हुआ इमारत के पहलू के अन्धेरे में ले गया । वहां वह घुटनों के बल नीचे बैठा, अपने दोनों हाथों में उसका सिर थामा और अपनी शक्तिशाली बांहों के एक ही झटके से उसकी गर्दन तोड़ दी । फिर वह लाश को घसीटता हुआ पिछवाड़े खड़ी स्टेशन वैगन तक ले गया । उसने लाश को दोनों हाथों से उठाया और उसे स्टेशन वैगन में लाद दिया ।
तूफानी रफ्तार से भागता हुआ वह फिर इमारत के सामने पहुंचा । उसने वहां जमीन पर पड़ी इमरान की रिवॉल्वर उठाकर अपने अधिकार में की और वापिस इमारत में दाखिल हुआ ।
सब कुछ दो मिनट से भी कम समय में हो गया था ।
जिस इलाके में वह इमारत थी, वहां बड़े-बड़े प्लाटों में बनी होने की वजह से इमारत एक-दूसरे से काफी दूर थीं, इसलिए वह भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि गोलियां चलने का आवाज किसी ने न सुनी हो और अगर सुनी हो तो किसी को यह न सूझा हो कि वे गोलियां चलने की आवाजें थीं । लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ था तो हो सकता था कि कोई पड़ोसी पुलिस को फोन कर भी चुका हो और पुलिस वहां किसी भी क्षण पहुंचने वाली हो ।
उनका फौरन वहां से कूच कर जाना इन्तहाई जरूरी था ।
वह वापिस बैठक में पहुंचा ।
“क्या हुआ ?” - बिहारी और दिलावर ने एक साथ पूछा ।
“कुछ नहीं” - जग्गी बोला - “सब-कुछ कन्ट्रोल में है ।”
“लेकिन” - बिहारी बोला - “गोलियां चलने की आवाज...”
“अभी तुम इन आदमियों की मुश्कें कसो और भागने की कोशिश करो ।”
दोनों ने फुर्ती से आदमियों की मुश्कें कसीं और उनके मुहं में कपड़े ठूंसे ।
फिर तीनों तेजी से पिछवाड़े की तरफ भागे ।
“अब बताओ क्या हुआ है ?” - रास्ते में बिहारी ने पूछा ।
“बिजली जाने पर जो आदमी बाहर भागा था” - जग्गी ने बताया - “उसके पास पिस्तौल थी । उसने इमरान को शूट कर दिया था । इमरान ने उसे शूट कर दिया था । दोनों मर गए हैं ।”
“हे भगवान !” - बिहारी आतंकित स्वर में बोला - “इमरान मर गया ?”
“हां” - जग्गी बोला - “मैंने उसकी लाश स्टेशन वैगन में लाद दी है ।”
वे तीनों स्टेशन वैगन की अगली सीट पर जा सवार हुए । जग्गी स्टियरिंग पर बैठा ।
तुरन्त स्टेशन वैगन वहां से भाग खड़ी हुई ।
बाहर मेन रोड पर आकर जग्गी ने स्टेशन बैगन को दाएं तुगलक रोड पर मोड़ने के स्थान पर बाईं ओर मोड़ दिया ।
“इधर कहां जा रहे हो ?” - बिहारी हड़बड़ाकर बोला ।
“इमरान की लाश तंदूर में लगानी है ।” - जग्गी दांत भींच-कर बोला ।
“कहां ले जाओगे ?”
“तुगलकाबाद के जंगल में ।”
“इतनी दूर ?”
“हां । चुपचाप बैठो ।”
बिहारी खामोश हो गया ।
सुनसान सड़कों पर स्टेशन वैगन भागते हुए वे तुगलकाबाद फोर्ट के पीछे के जंगल में पहुंचे । जग्गी ने स्टेशन वैगन रोकी । वह गाड़ी में ही बैठा रहा । उसने बिहारी और दिलावर को लाश गाड़ी से निकालकर बाहर फेंक देने का संकेत किया ।
दोनों नीचे उतरे । गाड़ी के पृष्ठ भाग में जाकर उन्होंने भीतर पड़ी इमरान की लाश निकाली ।
“खलीफा” - एकाएक बिहारी बोल पड़ा - “इसकी तो गर्दन टूटी हुई है ।”
“फिर ?” - जग्गी सहज भाव से बोला ।
“गर्दन कैसे टूट गई इसकी ?”
“मुझे क्या पता कैसे टूट गई ?”
“खलीफा, गोली तो इसके कंधे में लगी है । इसकी गर्दन...”
“तुमने सुना नहीं मैंने क्या कहा ?” - जग्गी कहरभरे स्वर में बोला ।
“लेकिन खलीफा...”
“बिहारी” - इस बार जग्गी मीठे स्वर में बोला - “तुम्हारी अपनी गर्दन का क्या हाल है ? कहीं से दुखती-वुखती तो नहीं ?”
“मेरी गर्दन ठीक है ।” - वह हड़बड़ाकर बोला ।
“शायद न ठीक हो । शायद कहीं बल-वल पड़ गया हो और अभी तुम्हें उसकी खबर न हुई हो ।”
बिहारी ने उत्तर नहीं दिया । उसने दिलावर को इशारा किया । दोनों ने लाश को थोड़ा परे ले जाकर एक खड्डे में फेंक दिया ।
वे वापिस स्टेशन वैगन में आ बैठे ।
तब तक जग्गी ने लूट का सारा माल दो झोलों में से निकालकर एक सूटकेस में भर लिया था ।
उसने सूटकेस बिहारी के हवाले किया और स्टेशन वैगन आगे बढाई ।
वे पुरानी दिल्ली पहुंचे ।
अजमेरी गेट पर उन्होंने स्टेशन वैगन छोड़ दी । वह स्टेशन वैगन चोरी की थी जो उन्होंने वहीं से उठाई थी । वे उसमें से निकले और तब पहली बार तीनों ने अपने हाथों पर चमड़ी की तरह मढ़े पतले रबड़ के दस्ताने उतारे ।
फिर वे तीनों एक रिक्शा पर सवार हुए और कमरा बंगश की ओर रवाना हो गये ।
अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा हाथ मारने वे कामयाब रहे थे ।
इमरान मर गया था लेकिन उसकी मौत की किसे परवाह थी ।
रविवार - शाम
चार बजे के करीब जग्गी सोकर उठा ।
पिछली रात वहां लौटने के बाद भी बिहारी और दिलावर के साथ वह कितनी देर बैठा लूट के माल का जायजा लेता रहा था । नकदी का बंटवारा उन्होंने कर लिया था, जेवर बिहारी और दिलावर जग्गी के पास छोड़ गए थे क्योंकि उन्हें पिघलाकर उनका सोना अलग करवाना और उनमें जड़े जवाहरात का हुलिया तब्दील करना जग्गी का ही काम था ।
पिछली रात डैकेती के बाद की टेंशन को दफा करने की कोशिश में वे तीनों दो बोतल विस्की पी गए थे जिसकी वजह से उसकी तबीयत अब मिचला रही थी । इसलिए उसने उठते ही सबसे पहले विस्की का एक बड़ा-सा पैग बनाकर पिया ताकि हैंगोवर से उसे कुछ राहत मिलती । फिर वह नीचे सड़क पर जाकर सांध्य टाइम्स की एक प्रति खरीद लाया ।
अखबार के मुखपृष्ठ पर ही जोरबाग की डकैती और अग्रवाल की हत्या का जिक्र था । अखबार ने उसे पिछले बारह सालों में राजधानी में पड़ी सबसे सैन्सेशनल डकैती की संज्ञा दी थी ।
जग्गी ने सारा अखबार टटोला ।
उसमें इमरान की लाश की बरामदी का कही जिक्र नहीं था ।
न ही अजमेरी गेट पर खड़ी स्टेशन वैगन का रिश्ता डकैती से जोड़ा गया था ।
अलबत्ता अखबार में चायनीज इन नामक रेस्टोरेन्ट के उन दो कर्मचारियों का जिक्र जरूर था जो सोलह आदमियों के खाने के साथ रेस्टोरेन्ट की एक स्टेशन वैगन में बेहोश पड़े पाए गए थे । दोनों के सिरों पर किसी भारी चीज से प्रहार किए गए थे ।
अखबार के अनुसार पुलिस बहुत सरगर्मी से डकैतों को तलाश कर रही थी ।
उसने अखबार एक ओर फेंक दिया और एक नया पैग बनाया ।
पिछली रात हाथ लगे माल से वह बहुत खुश था और इसलिए अब वह गम्भीरता से सोच रहा था कि फिलहाल वह अपना गैंग भंग कर दे और कमरा बंगश को सदा के लिए नमस्कार करके वहां से दूर कहीं चला जाए । इमरान मर गया था । बिहारी हत्थे से उखड़ रहा था और इमरान की टूटी गर्दन की वजह से उस पर शक कर रहा था । प्रदीप पुरी से भविष्य में जानकारी हासिल होने की उम्मीदें भी धुंधलाने लगी थीं । ऊपर से नासर शीराजी अब किसी भी दिन ईरान लौट जाने वाला था । ऐसे माहौल में गैंग वैसे भी नहीं चलने वाला था । तो फिर वह क्यों न उस माहौल से ही किनारा कर ले ?
उसने एक पैग और पिया और फिर दरवाजे के पास जाकर शीराजी को आवाज दी ।
एक मिनट बाद बूढा वहां पहुंचा ।
जग्गी ने पिछली रात की लूट में हासिल हुए सारे जेवर उसे सौंप दिए और बोला - “तुम्हारे लिए यह आखिरी काम है, बुजुर्गवार । इसे तन्दूर में जल्दी लगाओ ताकि तुम्हारी भी खलासी हो और मेरी भी ।”
वृद्ध ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कितने दिन लगाओगे ?”
“एक हफ्ता ।”
“एक हफ्ता ! पागल हुए हो ?”
“मैं जल्दबाजी करूंगा तो जवाहरात का सत्यानाश हो जाएगा और इनकी कीमत घट जायेगी । यह बड़े धीरज से करने वाला काम है । पिछली बार तुमने जल्दबाजी मचाई थी तो तुमने देखा ही था कि माल की कितनी कीमत घट गई थी ।”
“अच्छी बात है । एक हफ्ता ही सही ।”
वृद्ध जवाहरात समेटकर उठ खड़ा हुआ ।
“मुझे भूख लगी है” - जग्गी सहज भाव से बोला - “सुरैया को कहना खाना बना दे और मुझे यहां दे जाए ।”
वृद्ध ने सहमति में सिर हिलाया और फिर वहां से विदा हो गया । अपने पीछे वह दरवाजा बन्द करता गया ।
जग्गी ने अपनी खाली गिलास में फिर विस्की डाल ली ।
तब तक उसकी हैंगोवर दूर हो चुकी थी और नशे की तरंग फिर महसूस करने लगा था ।
कोई आधे घंटे बाद जब उसके दरवाजे पर दस्तक पड़ी तब वह पौनी बोतल हजम कर चुका था ।
“दरवाजा खुला है, सुरैया ।” - वह उच्च स्वर में बोला ।
दरवाजा खुला ।
दरवाजे पर हाथ में एक ट्रे लिए शीराजी खड़ा था ।
“तुम्हारा खाना ।” - वह बोला ।
जग्गी का दिल निराशा से भर उठा । उसका जी चाहने लगा कि वह बूढे के हाथ से ट्रे लेकर उसे उसके सिर पर पटक दे । बड़ी मुश्किल से उसने अपने मन से भावों को अपने चेहरे पर प्रकट होने से रोका और प्रत्यक्षत: सहज भाव से बोला - “उधर रख दो ।”
बूढा ट्रे को खिड़की के पास की मेज पर रखकर चला गया । अपने पीछे दरवाजा वह फिर बन्द करता गया । जग्गी अपनी बोतल और गिलास उठाए खाने की ट्रे के पास पहुंचा । बाकी बची विस्की के साथ एक बदमजा जिम्मेदारी की तरह उसने थोड़ा-सा खाना खाया । नशे में थरथराते उसके जहन में एक ही बात बज रही थी - खाना लेकर सुरैया क्यों नहीं आई थी ? वह हरामजादा बूढा क्यों आया था ? जब उसने कहा था कि खाना सुरैया लाए को खाना सुरैया को ही लाना चाहिए था । बूढे की यह मजाल कि वह उसकी हुक्मउदूली करे !
नशे की वजह से उसके विवेक पर तो पर्दा पड़ चुका था इसलिये उसका गुस्सा खामखाह बढता जा रहा था ।
फिर उसने गिलास में से विस्की का आखिरी घूंट पिया और उठ खड़ा हुआ । वह कमरे से बाहर निकला और सीढियों के पास कान लगा कर सुनने लगा ।
नीचे दुकान के पिछवाड़े से शीराजी के काम करने की आवाजें आ रही थीं ।
वह दबे पांव सीढियां चढता हुआ तीसरी मंजिल पर पहुंचा । वहां सुरैया का कमरा उसे मालूम था कि कौन-सा था । उसने उसे धीरे से धक्का दिया तो पाया कि वह भीतर से बन्द था ।
उसने दरवाजे पर हौले से दस्तक दी और अपनी आवाज भरसक शीराजी जैसी बनाने की कोशिश करता हुआ धीरे से बोला - “सुरैया ।”
“बाबा !” - भीतर से सुरैया की आवाज आई ।
“हां” - जग्गी ईरानी भाषा में बोला - “जरा दरवाजा खोलना, बेटी ।”
भीतर से चिटकती गिराये जाने की आवाज आई । फिर सांकल हटाई गई और फिर दरवाजा थोड़ा-सा खुला ।
जग्गी ने दरवाजे को इतनी जोर का धक्का दिया कि पल्ला सुरैया के हाथ से छूट गया । वह बगोले की तरह भीतर दाखिल हुआ । उसने बाज की तरह लड़की को दबोच लिया और दरवाजे को पांव की ठोकर मारकर बन्द कर दिया ।
“नहीं” - सुरैया आतंकित भाव से चिल्लाई - “नहीं ।”
जग्गी ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया । उसने अपनी पकड़ में छटपटाती हुई सुरैया को यूं अपनी बलिष्ठ बाहों में उठा लिया जैसे उसका कोई वजन ही न हो और उसे ले जाकर उसके पलंग पर पटक दिया ।
खाना लेकर सुरैया आ गई होती तो जग्गी उससे थोड़ी हाथापाई करके ही सन्तुष्ट हो जाता । लेकिन उसके न आने से ही क्रोध से उसके सिर पर शैतान सवार हो गया था और वह, वह काम करने पर तुल गया था जिसकी उसने पहले कभी कोशिश तक नहीं की थी ।
नीचे दुकान के पिछवाड़े में शीराजी जेवरों में में जवाहरात अलग करके उनका सोना एक साथ पिघलाने के काम में लगा हुआ था ।
न जाने क्यों आज उसका काम में मन नहीं लग रहा था । एक बार हथौड़े की तरह उसके दिमाग में बज रही थी ।
खाना उसको लाया देखकर जग्गी तैश क्यों खा गया था ?
क्या वह सुरैया के साथ कोई जोर-जबरदस्ती करने का हौसला कर सकता था ।
ऐसी नौबत पहले तो कभी नहीं आई थी ।
या शायद आई हो और किसी अंजाम की दहशत खाकर सुरैया ने उस बारे उसे बताया न हो ।
थोड़ी देर बाद उसने काम से हाथ खींच लिया ।
उसने ऊपर जाकर सुरैया को यह कहकर आने का फैसला किया कि वह अपने कमरे के दरवाजे को भीतर से मजबूती से बन्द करके रखे ।
वह उठा और सीढियां चढता हुआ दूसरी मंजिल पर पहुंचा । जग्गी के कमरे में रोशनी थी, लेकिन भीतर से कोई आहट नहीं आ रही थी । वह कुछ क्षण कान लगाकर कुछ सुनने की कोशिश करता रहा, फिर हिम्मत करके उसने दरवाजे को धकेल कर थोड़ा-सार खोला और झांका ।
जग्गी भीतर नहीं था ।
कहां गया था वो ?
क्या बाजार ?
फिर एकाएक एक अज्ञात आशंका से उसका दिल कांपने लगा ।
आमतौर पर जग्गी रात को पीता था । आज उसने शाम से ही पीनी शुरू कर दी थी । नशे में कहीं वह ऊपर की सीढियां तो नहीं चढ गया था ?
बूढा गिरता पड़ता आनन-फानन एक मंजिल सीढियां चढ गया और सुरैया के दरवाजे पर पहुंचा ।
तभी उसके कानों में सुरैया के सिसकियां भरने की आवाज पड़ी ।
उसने भड़ाक से दरवाजा खोला ।
फिर वह दरवाजे पर ही जड़ हो गया ।
सुरैया पलंग पर पड़ी थी उसका सूजा हुआ चेहरा आंसुओं से भींगा हुआ था और जिस्म के कपड़े तार-तार हो रहे थे ।
जग्गी अपने कपड़े व्यवस्थित करके वहां से कूच की तैयारी कर रहा था । उसका काम हो चुका था । उसका नशा हिरण हो चुका था ।
चौखट पर खड़े शीराजी को देखकर वह सकपकाया ।
बूढे के मुंह से एकाएक एक पशु जैसी घरघराहट निकली और वह आंखों में खून लिए जग्गी पर झपटा ।
लेकिन बूढे बकरे का जवान सांड से क्या मुकाबला था । जग्गी ने उसे यूं परे झटक दिया जैसे जिस्म पर से मक्खी उड़ाई हो । शीराजी भरभराकर एक ओर गिरा । उसका सिर दीवार से टकराया और उसमें से खून बहने लगा ।
“बाबा ! बाबा !” - सुरैया एकाएक अपनी हालत भूल गई और पलंग से उठकर व्याकुल भाव से वृद्ध की ओर भागी । उसने वृद्ध को सहारा देकर सम्भाला और अपने फटे हुए दुपट्टे से उसके सिर से बहता खून पोंछने लगी । वृद्ध अचेत हो गया मालूम होता था, लेकिन उनकी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी ।
जग्गी एक लापरवाही की निगाह उन दोनों पर डालता हुआ वहां से निकल गया ।
सुरैया किचन में से गर्म पानी ले आई और उसमें कपड़ा भिगो भिगोकर वृद्ध के चेहरे पर वह आया खून साफ करने लगी ।
थोड़ी देर बाद वृद्ध को होश आया । उसने व्याकुल भाव से चारों ओर देखा और फिर क्षीण स्वर में बोला - “वह... वह शैतान...”
“चला गया, बाबा” - सुरैया - बोली - “बाबा, तुम उठकर पलंग पर लेट जाओ ।”
वृद्ध उठकर बैठ गया और कहरभरे स्वर में बोला - “मैं उसका खून कर दूंगा । मैं उसे जिन्दा नहीं छोड़ूंगा । वह शैतान मेरे हाथों बच नहीं सकता ।”
“बाबा, चुप रहो । तुम्हें चोट लगी है । तुम्हारी तबीयत खराब है ।”
वृद्ध खामोश हो गया । वह अपनी उखड़ी हुई सांसों पर काबू पाने की कोशिश करने लगा । फिर सुरैया के अनुरोध पर वह उठा और पलंग पर जा लेटा । सुरैया ने उसके सिर पर पट्टी बांध दी और उसके लिए गर्मागर्म कॉफी तैयारी कर लाई ।
आधे घंटे बाद वृद्ध की हालत सुधरी ।
सुरैया ने तब तक कपड़े बदल लिए थे । शीराजी उससे आंख नहीं मिला पा रहा था । शर्म का मारा वह अपनी पोती से पूछ भी नहीं सकता था कि उस राक्षस ने उस पर क्या जुल्म ढाया था ।
“बेटी” - अन्त में वह बोला - “अब मेरी तबीयत ठीक है । आज तुम मेरे कमरे में जाकर सो रहो । भीतर से दरवाजा मजबूती से बन्द कर लेना और जब तक तुम्हें पूरा भरोसा न हो जाये कि मैं तुम्हें पुकार रहा हूं, दरवाजा न खोलना ।”
“बाबा, तुम्हारी तबीयत खराब है” - सुरैया कातर स्वर में बोली - “मुझे यहीं अपने पास रहने दो ।”
“कहना मानो बेटी । मैं बिल्कुल ठीक हूं । तुम जाओ । ...या चलो, मैं तुम्हें छोड़कर आता हूं । तुम मेरी आंखों के सामने दरवाजा भीतर से बन्द कर लोगी तो मुझे तसल्ली हो जाएगी ।”
वृद्ध पलंग से उठा । वह सुरैया का सहारा लेकर चलता हुआ वहां से बाहर निकला । सुरैया बगल कमरे में चली गई । दरवाजा बन्द हो जाने के बाद जब तक वृद्ध को चिटकनी चढाई जाने की और सांकल लगने की आवाज न आ गई, तब तक वह वहां खड़ा रहा । फिर वह दीवार का सहारा लेकर चलता हुआ किचन में पहुंचा ।
वहां से उसने गोश्त काटने के काम आने वाला एक कम-से-कम छ: इंच लम्बे फल का चाकू तलाश किया । उसने उसकी धार को परखकर देखा । चाकू तेज था ।
उसने चाकू अपनी जेब में डाल लिया और किचन से बाहर निकला । सीढियों के दहाने पर पहुंचकर उसने अपने जूते उतार दिए और दबे पांव सीढियां उतरने लगा ।
वह दूसरी मंजिल पर जग्गी के कमरे के दरवाजे के पास पहुंचा ।
भीतर से जग्गी की कमरे में मौजूदगी की चुगली करने वाली आवाजें आ रही थीं ।
उसके कमरे की बगल में एक और दरवाजा था जो कि एक छोटे से स्टोर का था । शीराजी जानता था कि वह स्टोर खाली पड़ा रहता था । वह स्टोर का दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गया । उसने दरवाजे को इस प्रकार भिड़काया कि उसमें थोड़ी-सी झिरी बनी रहे और वह बाहर झांक सके । उसने चाकू जेब से निकालकर खोला और उसे मजबूती से अपनी मुट्ठी में भींच लिया ।
वह जग्गी के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
उसे कोई जल्दी नहीं थी । बहुत वक्त था उसके पास । वह कयामत के दिन तक जग्गी का इन्तजार कर सकता था ।
उसकी बूढी उदास आंखें झिरी पर टिकी रहीं ।
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