वीरवार - दोपहर

‘जैम हाउस’ जनपथ पर स्थित एक चार-मंजिली इमारत थी । उसके ग्राउण्ड फ्लोर पर हीरे-जवाहरात से जड़े जेवरों से चमचमाता हुआ शो-रूम था । वैसा ही शो-रूम पहली मंजिल पर भी था, लेकिन वह केवल उन्हीं ग्राहकों के लिए था जो कम-से कम पचास हजार रुपये का एक जेवर खरीदने की हैसियत रखते हों । वहां वास्तव में उस कीमत से कम का जेवर रखा ही नहीं जाता था ।

‘जैम हाउस’ का चीफ सेल्समैन प्रदीप पुरी पहली मंजिल के शो-रूम से बाहर निकला और लिफ्ट में सवार होकर चौथी मंजिल की ओर, जहां कि कम्पनी के दफ्तर वगैरह थे, बढ चला । उसके चेहरे पर परम सन्तुष्टि के भाव थे । अभी-अभी तीन लाख रुपये की कीमत का एक हार वह ‘जैम हाउस’ के एक स्थायी ग्राहक को बेचकर हटा था, वेतन के अतिरिक्त उसे बिक्री पर कमीशन भी मिलता था, इसलिए फर्म के साथ-साथ वह उसका व्यक्तिगत लाभ भी था ।

अभी उसने लिफ्ट से निकलकर चौथी मंजिल के गलियारे में कदम ही रखा था कि कान्फ्रेंस-रूम का दरवाजा खुला और कई लोगों ने बाहर कदम रखा । सबसे आगे ‘जैम-हाउस’ का सीनियर पार्टनर और लगभग मालिक कमलनाथ व्यास था । वह लगभग पचपन साल का बड़ा धीर-गंभीर और रौबीला आदमी था और उस समय अपने नीले रंग के सूट में बहुत शानदार लग रहा था । उसकी बगल में उसकी उम्र का ‘जैम हाउस’ का जूनियर पार्टनर देवीलाल जैन चल रहा था । उसके पीछे कम्पनी का जवाहरात का विशेषज्ञ पवनकुमार था और कमलनाथ व्यास की नौजवान लड़की अपर्णा व्यास थी । सबसे पीछे ‘जैम हाउस’ का चीफ डिजाइनर विक्रम सोलंकी था ।

पवनकुमार एक सत्ताइस साल का, बड़े आकर्षक व्यक्तित्व वाला युवक था और प्रदीप पुरी जानता था कि उसकी अपर्णा से आशिकी चल रही थी । अपर्णा एक बाईस साल की निहायत खूबसूरत, बेहद आधुनिक युवती थी और कमलनाथ व्यास की इकलौती औलाद थी । जाहिर था कि अगर पवनकुमार अपर्णा से शादी करने में कामयाब हो जाता तो उसकी पांचों उंगलियां घी में होती और सिर कढाई में ।

प्रदीप पुरी को देखकर कमलनाथ बाकी ग्रुप से अलग हुआ और उसके पास पहुंचा ।

“अब आये हो ?” - वह तनिक कठोर स्वर में बोला ।

“एक बड़ा पोटेंशल कस्टमर आ गया था, साहब” - प्रदीप पुरी आदरपूर्ण स्वर में बोला - “उसको अटैण्ड करना कान्फ्रेंस से ज्यादा जरूरी था ।”

“हूं ।”

“मैंने वह पन्नों का हार बेच दिया है ।”

“ओह !” - अब कमलनाथ व्यास की आवाज में साफ-साफ नर्मी की झलक दिखाई दी - “किसे बेचा ?”

“मैजेस्टिक आटोमाबाइल्स वाले अग्रवाल साहब को ।”

“वैरी गुड । बहुत शानदार चीज पसन्द की अग्रवाल साहब ने । उनकी बीवी खुश हो जायेगी ।”

“बीवी खुश नहीं होगी, साहब ।”

“मतलब !”

“उनकी बातों से साफ जाहिर हो रहा था कि वह हार किसी बीवी से ज्यादा खुशनसीब स्त्री के लिए खरीदा गया था । जाते-जाते वे यह भी कह गये थे कि मैं किसी से जिक्र न करूं कि उन्होंने कोई इतना कीमती हार खरीदा था ।”

“ठीक है” - व्यास तनिक सकपकाकर बोला - “हमें क्या ? हमें अपना माल बेचने से मतलब है । यहां से खरीदकर हमारी ओर से चाहे वह उसे कूड़े के ढेर में डाल दे ।”

“जी हां, जी हां ।”

“और ?”

“साहब” - प्रदीप पूरी आशापूर्ण स्वर में बोला - “इस हार को मिलाकर अभी तक मैं अकेला पचास लाख रुपये की सेल कर चुका हूं और अभी साल के सात महीने बाकी हैं ।”

“मुझे मालूम है । मैं तुम्हारी मेहनत की कद्र करता इस बार मैं तुम्हें कुछ फालतू कमीशन दिलाऊंगा ।”

प्रदीप पुरी का दिल निराशा से भर उठा । जो बात सुनने को उसके कान तरस रहे थे वह बूढे की जुबान से नहीं निकली थी । वह ‘जैम हाउस’ का जूनियर पार्टनर बनने का ख्वाब देख रहा था और बूढा उसे सिर्फ फालतू कमीशन दिला रहा था ।

पीछे कान्फ्रेंस-रूम के दरवाजे पर खड़े लोगों में से पवनकुमार बहुत गौर से प्रदीप पुरी को देख रहा था । वह जानता था कि ‘जैम हाउस’ के इस चीफ सेल्समैन का फर्म के सीनियर पार्टनर कमलनाथ व्यास की नौजवान बीवी शालिनी से अफेयर था । एक क्लायन्ट के यहां हुई पार्टी में उसने अपनी आंखों से दोनों को मेन हॉल से खिसककर लॉन की तन्हाई और अंधेरे में जाकर यूं एक-दूसरे की बांहों में समाते देखा था जैसे उसी क्षण सुष्टि का अन्त हो जाने वाला था । उस घटना को तीन महीने हो चुके थे, लेकिन आज तक पवन यह फैसला नहीं कर सका था कि बात उसे अपर्णा को बतानी चाहिए थी या नहीं ।

अपर्णा से उसकी शादी होने की गारन्टी होती तो यह बात वह अर्पणा को ही क्या उसके बाप को भी बता देता लेकिन अभी तक वह शादी के मामले में व्यास की रजामन्दगी हासिल नहीं कर सका था इसलिए यह कोई बखेड़े वाली बात जुबान पर नहीं लाना चाहता था ।

पवन को वैसे भी प्रदीप पुरी खास तौर से नापसन्द था । वह उसे बड़ा काईयां, मक्कार और हर वक्त अपने ही जाती फायदे को उधेड़बुन में लगा रहने वाला आदमी लगता था ।

“क्या सोच रहे हो ?” - अपर्णा ने उसे टोका ।

“कुछ नहीं ।” - पवन हड़बड़ाकर बोला - “कुछ नहीं”

“कुछ तो सोच रहे थे । अभी तुम्हारे चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे तुम किसी भारी मानसिक उलझन में फंसे हुए थे ।”

“दरअसल मैं तुम्हारे और अपने बारे में सोच रहा था ।”

“क्या ?”

“यही कि” - वह लगभग फुसफुसाता हुआ बोला - “व्यास साहब हमारी शादी के लिए हामी भरेंगे या नहीं ।”

“तुम बात छिपा रहे हो । असल में तुम कुछ और सोच रहे थे ।”

तभी कमलनाथ व्यास ने उन्हें आवाज दी और पवन उस अप्रिय वार्तालाप से बच गया ।

सब लंच से लिए डायनिंग-रूम में चले गये ।

सिवाय प्रदीप पुरी के ।

उसने लंच से बहाना बनाया और ‘जैम हाउस’ से बाहर निकल गया । वह भुनभुनाता हुआ कुछ ही दूर स्थित इम्पारियल होटल के द्वार में पहुंचा । पांच मिनट में तीन लार्ज स्कॉच विस्की पी जाने के बाद कहीं उसका गुस्सा थोड़ा शान्त हुआ ।

‘जैम हाउस’ मैं उसे अपना भविष्य संवरता नहीं दिखाई दे रहा था । बूढा उसे घास नहीं डाल रहा था और सारी उम्र सेल्समैन ही बने रहने का उसका कोई इरादा नहीं था ।

तो फिर क्या करे वो ?

क्या वह उस इकलौते तुरुप के पत्ते को इस्तेमाल करे जो इत्तफाक से उसके हाथ लग गया था ?

लेकिन कैसे ?

अपना भविष्य सुधारने के लिए बूढे की नौजवान बीवी को वह कैसे इस्तेमाल कर सकता था ? शालिनी उससे बुरी तरह फंसी हुई थी और हर लिहाज से उसके काबू में थी ।

उसने अपने स्कॉच के चौथे पैग का एक घूंट भरा ।

गनीमत थी कि अभी तक उसकी शालिनी से रिश्तेदारी की किसी को खबर नहीं थी । कभी जरा-सी भी असावधानी हो जाने पर किसी को खबर नहीं थी कुछ मालूम हो सकता था और हो सकता था कि उसकी नौकरी पर ही आ बनती । व्यास उसको नौकरी से तो निकाल ही सकता था, साथ ही वह उसका ऐसा मुकम्मल खाना खराब कर सकता था कि प्रदीप पुरी को छठी का दूध याद आ जाता । उस धन्धे में व्यास की इतनी पूछ थी कि उसके कह देने की देर थी कि कोई भी दूसरा जौहरी प्रदीप पुरी को नौकरी पर न रखता ।

कोई भी ऐसी खतरनाक नौबत आने से पहले, बहुत पहले, उसने कुछ करना था ।

क्या ?

उसने विस्की का एक घूंट और पिया ।

उसके हक में सबसे अधिक सहूलियत की बात तो यह थी कि बूढे को मौत आ जाती । लेकिन ऐसे कैसे मौत आ जाती उसे ? वह तो हट्टा-कट्टा तन्दुरुस्त आदमी था । वह तो और चालीस साल तक इस दुनिया से हिलने वाला नहीं था ।

लेकिन उसकी तमाम मुश्किलों का हल बूढे की मौत में ही था । वह मर जाता तो शालिनी उसकी वारिस बन जाती । बूढे की दूसरी वारिस उसकी बेटी थी । बूढे की विपुल धन-राशि दोनों में बंट जाती तो भी शालिनी के हाथ करोड़ों की चल और अचल सम्पत्ति आती । फिर कुछ अरसे बाद वह शालिनी से शादी कर लेता और वह तमाम दौलत उसकी हो जाती ।

उसे अपर्णा और पवनकुमार के रोमांस की भी खबर थी और वह पवनकुमार से जलता था । पवन कुमार उससे बेहतर स्थिति में था । जो लक्ष्य वह भारी तोड़-फोड़ और खतरा उठाकर हासिल करना चाहता था, वही पवनकुमार को सहज ही हासिल था । वह जानता था बूढा लाख इनकार करता, देर-सवेर उसे अपनी इकलौती औलाद की जिद आगे झुकना ही पड़ना था । काश उसकी आशनाई शालिनी की जगह अपर्णा से होती । लेकिन यह हो नहीं सकता था । अपर्णा बाईस साल की थी और वह अड़तीस साल का । वह तो उस पर यही बहुत अहसान करती थी कि उसे अंकल नहीं कहती थी ।

इसी उधेड़बुन में उसने वहां शाम के पांच बजा दिए ।

फिर एकाएक वह अपने स्थान से उठा और बार के कोने में मौजूद एक टेलीफोन के पास पहुंचा ।

वहां से उसने दरियागंज का एक नम्बर डायल किया ।

काफी देर घण्टी बजती रहने के बाद दूसरी ओर से रिसीवर उठाया गया ।

“जग्गी ?” - वह सावधान स्वर में बोला ।

“हां” - उत्तर मिला - “कौन ?”

“तुम्हें मालूम है” - वह सांप की तरह फुंफकारा - “सौ बार कहा है टेलीफोन पर फालतू बकवास मत किया करो ।”

“ओह ! अच्छा, अच्छा ।”

“आज मैं आ रहा हूं । एक बजे के करीब पहुंचूंगा । सो मत जाना ।”

“ठीक है ।”

“और अकेले मिलना । तुम्हारा कोई चेला-चांटा मौजूद न हो ।”

“नहीं होगा ।”

प्रदीप पुरी ने आने एक शब्द भी बोले बिना सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया ।

***

वीरवार - शाम

उसी रात को प्रदीप पुरी अपने एम्पलायर के घर में रमी की बैठक में शामिल था ।

कमलनाथ व्यास डिफेंस कॉलोनी में स्थित एक अत्याधुनिक चारमंजिली इमारत की ऊपरली दो मंजिलों में रहता था । रमी की महफिल वहां की तीसरी मंजिल पर स्थित विशाल ड्राइंगरूम में जमी हुई थी और उसमें व्यास और प्रदीप पुरी के अलावा उसकी पत्नी शालिनी, उसका जूनियर पार्टनर देवीलाल जैन और मिसेज साराभाई नामक एक अधेड़ावस्था की महिला शामिल थी ।

अपर्णा दीप की मौजूदगी में पवन के साथ डेट पर गई थी ।

शालिनी एक लगभग तैंतीस साल की लम्बी, उंची कद्दावर और बेहद खूबसूरत औरत थी । वह व्यास की दूसरी बीवी थी और साफ जाहिर होता था कि उसकी खूबसूरती ही वह इकलौता गुण था जो शादी करते समय व्यास ने उसमें देखा था । शालिनी से उसे अभी कोई औलाद प्राप्त नहीं हुई थी । उसकी पहली बीवी अपर्णा की सूरत में अपनी जो निशानी छोड़ गई थी, वही उसकी इकलौती औलाद थी ।

मिसेज साराभाई विधवा थी और बेहद रईस थी । वह व्यास के पड़ोस में ही रहती थी और उसके यहां अक्सर आती-जाती रहती थी । वैसे भी वह ‘जैम हाउस’ की बड़ी पक्की ग्राहक थी और वहां से लाखों रुपये के जेवर खरीद चुकी थी । दुर्भाग्यवश हाल ही में उसके घर में चोरी हुई थी जिसमें उसके तमाम बेशकीमती जेवरात चोर चुराकर ले गए थे ।

“इंश्योरंस वालों से अभी आपका निपटारा हुआ या नहीं ?” - प्रदीप पत्ते बांट रहा था तो एकाएक देवीलाल जैन ने मिसेज साराभाई से पूछा ।

“अभी नहीं” - मिसेज साराभाई बोली - “लेकिन हो जायेगा । शुक्र है खुदा करे कि मेरे जेवरात इंश्योर्ड थे वर्ना मेरा तो काम हो गया था ।”

“समझ में नहीं आता क्या चक्कर है” - व्यास मुंह बिगाड़ कर बोला - “ऐसी चोरियां दिल्ली में कुछ ज्यादा ही होने लगी हैं ।”

“और ऊपर से ट्रेजेडी यह है” - जैन बोला - “कि वो चोरियां अधिकतर उन लोंगों के यहां हुई हैं जो हमारे क्लायंट हैं ।”

“वह तो इसलिए है” - प्रदीप पुरी जल्दी से बोला - “क्योंकि हमारे ही क्लायन्टों में कीमती माल खरीदने की क्षमता है ।”

“इसका मतलब तो यह हुआ कि चोर लोग हमारे ही क्लायन्टों पर घात लगाए रहते हैं ।”

“हो सकता है ।”

“यह तो बुरी बात है । ऐसे तो हमारा धन्धा बिगड़ जाएगा ।”

“पत्ता चलो ।” - एकाएक मिसेज साराभाई बोली ।

खेल फिर चल पड़ा ।

आधी रात के करीब जब खेल अभी भी चल रहा था, अपर्णा वापिस लौटी और सीधी अपने बैडरूम में चली गई ।

उसने थोड़ी देर बाद शालिनी तबीयत खराब होने का बहाना करके वहां से उठ गई । उसने प्रदीप कुमार को एक बड़ा अर्थपूर्ण संकेत किया और ड्राइंगरूम से बाहर निकल आई ।

अगली बाजी समाप्त होने पर प्रदीप क्लॉक-रूम जाने का बहाना करके वहां से उठा और ड्राइंग-रूम से बाहर निकला ।

बाहर के लम्बे गलियार के मोड़ पर उसे शालिनी दिखाई दी । बड़ा लम्बे डग भरता हुआ उसके पास पहुंचा ।

“तुम मुझे मरवाओगी ।” - वह नाराजगी भरे स्वर में बोला ।

“क्या हो गया ?” - शालिनी हड़बड़ाकर बोली ।

“मुझे यूं इशारा करना चाहिए था तुम्हें ? कोई भी देख सकता था ।”

“तुम खामखाह बात का बतंगड़ बनाते हो । मैंने यह देखकर इशारा किया था कि किसी का ध्यान न तुम्हारी तरफ था और न मेरी तरफ ।”

“फिर भी तुम्हें ऐसी हरकतें नहीं करनी चाहियें । किसी दिन तुम्हारे पति को शक हो गया तो वह हम दोनों की ऐसी-तैसी फेर देगा ।”

“मैं सारी जिन्दगी अभिनय ही करती नहीं रह सकती” - वह चिड़कर बोली - “यह भी कोई जिन्दगी है कि एक मर्द के पहलू में लेटकर मैं दूसरे मर्द के सपने देखती रहूं ? चाहकर भी मैं तुमसे मिल न सकूं ?”

“अब इसमें मैं क्या कर सकता हूं ।”

“तुम नहीं कर सकते तो और कौन कर सकता है ? अच्छे मर्द हो तुम ? कहते हो मैं क्या कर सकता हूं ।”

प्रदीप पुरी ने गहरी सांस ली । उसने चिन्तायुक्त ढंग से सिर हिलाया और फिर वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “हरामजादे को मौत भी तो नहीं आ जाती । इतना तन्दुरुस्त है वो कि जुकाम तक होता नहीं उसे ।”

“किसी को सिर्फ कोसने से ही उसकी मौत नहीं आ जाती” - शालिनी अर्थपूर्ण स्वर में बोली - “कभी-कभी हाथ-पांव भी हिलाने पड़ते हैं ।”

“तुमने असल में किसलिए बुलाया था मुझे ?”

“बुलाया था कोई बात कहने के लिए, लेकिन अब मूड नहीं रहा ।”

“मैं चलता हूं ।”

“ठीक है । लेकिन प्रदीप, कुछ सोचो । कुछ करो । मुझे इस नर्क से निकालो । मैं सारी जिन्दगी यूं ही घुट-घुटकर नहीं गुजार सकती । मैं चाहती हूं कि मेरा एक-एक क्षण तुम्हारे पहलू में गुजरे और तुम हो कि हफ्ते में एक बार भी नहीं मिलते हो । तुम...”

“अब जाओ । यह ऐसी बातें करने का वक्त नहीं ।”

और तुरन्त वह उसकी तरफ से पीठ फेरकर लम्बे डग धरता हुआ वापिस लौटा पड़ा ।

वह ड्राइंग-रूम में पहुंचा ।

आधे घण्टे उसने भी वहां से विदा ले ली ।

और आधे घण्टे बाद ताश की वह महफिल बर्खास्त हो गई ।

पीछे ड्राइंग-रूम में अकेला व्यास बैठा रह गया ।

उसने सर्विस टेबल पर से विस्की की बोतल उठाकर अपने लिए उस रात का आखिरी पैग बनाया और उसे धीरे-धीरे चुसकने लगा ।

वह अपनी बीवी के बारे में सोच रहा था ।

वहां से उठकर जाने से पहले शालिनी ने क्या वाकई प्रदीप पुरी को कोई इशारा किया था या वह उसका वहम था ?

वह गलियारे के सिरे पर स्थित अपनी स्टडी में पहुंचा । उसने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और वहां की बत्ती जलाई । कमरे में रोशनी फैल गई । कमरे की एक दीवार पर एक गिल्ट के फ्रेम वाली आयल पेंटिंग लगी हुई थी । उसने उस पेटिंग को दीवार से उतारकर एक ओर रख दिया । अब पेंटिग वाले स्थान पर एक वाल सेफ का मजबूत दरवाजा दिखाई देने लगा ।

उससे कोई तीस फुट दूर किचन की एक खिड़की में शालिनी मौजूद थी । वह अन्धकार में खड़ी थी और आंखों पर एक शक्तिशाली दूरबीन लगाए हुए थी । अपनी उस स्थिति पर वह अपने पति की स्टडी की एक शीशों वाली खिड़की के रास्ते भीतर झांक सकती थी । अपने पति की उस सेफ का कम्बीनेशन जानने के लिए वह ऐसे कई प्रयत्न पहले भी कर चुकी थी । सेफ खोलने के लिए डायल पर पांच नम्बर घुमाने पड़ते थे जिनमें चार वह जान चुकी थी । केवल एक, तीसरा, नम्बर वह अभी तक नहीं जान पाई थी जो वह आज जानना चाहती थी ।

उसे मालूम था कि उस सेफ में उसका पति अपनी वसीयत रखता था । वह यह जानने के लिए मरी जा रही थी कि उसके पति ने अपनी वसीयत में उसका कैसा जिक्र किया था ।

आज वह सेफ के कम्बीनेशन का आखिरी अंक जानने में भी कामयाब हो गई ।

उसने संतुष्टि की एक लम्बी सांस ली और दबे पांव किचन से बाहर निकलकर अपने बैडरूम में पहुंच गई । वहां जाकर उसने एक पेन्सिल तलाश करने की कोशिश की । पेन्सिल ने मिली तो उसने अपनी लिपस्टिक से ही एक कागज पर सेफ के कम्बीनेशन के पांचों अंक लिख लिए ।

अब कभी अपने पति की गैरहाजिरी में उसने सेफ खोलकर भीतर झांकना था जो कि मामूली बात थी ।

व्यास ने सेफ का भारी दरवाजा खोला । उसने भीतर से दो लिफाफे निकाले और उन्हें लेकर राइटिंग टेबल के सामने पड़ी कुर्सी पर जा बैठा ।

एक लिफाफे में से उसने एक साथ नत्थी किए हुए कई टाइपशुदा फुलस्केप कागज निकाले । वह बड़ी गम्भीरता से उन्हें पढने लगा । वह एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी की रिपोर्ट थी जो उसे दो दिन पहले भेजी गई थी । उस रिपोर्ट को उन दो दिनों में वह बीस बार पढ चुका था लेकिन फिर भी हर बार उसे पढकर वह उतना ही विचलित हुआ था जितना वह उसे पहली बार पढने पर हुआ था ।

उस रिपोर्ट में उसकी बीवी की पिछले तीन हफ्तों की एक-एक हरकत दर्ज थी । राजपुर रोड के फ्लैट का उसमें खास तौर से जिक्र था । रिपोर्ट में इस बात का पूरा रिकार्ड था किस तारीख को कितने दजे से कितने बजे तक शालिनी उस फ्लैट में रही थी । रिपोर्ट में यह भी दर्ज था कि उसकी बेवफा बीवी की रंगीनियों में उसका साथी कौन था ।

उसका चीफ सेल्समैन प्रदीप पुरी ।

प्रदीप पुरी का ख्याल आते ही उसके जबड़े भिंच गए ।

इस हरामजादे को तो वह तबाह किये बिना नहीं छोड़ेगा । उस वह ‘जैम हाउस’ से तो निकालेगा ही, साथ ही वह ऐसा इन्तजाम भी करेगा कि उस धन्धे में उसे कहीं नौकरी न मिले । शहर में व्यास की बड़ी धाक थी । ऐसा बड़ी आसानी से कर सकता था ।

और शालिनी के लिए भी उसने बड़ी मुनासिब सजा सोची हुई थी ।

उस सन्दर्भ में सबसे पहले तो उसने अपनी वसीयत ही बदलनी थी ।

उसने एजेन्सी की रिपोर्ट वापिस लिफाफे में बन्द कर दी ।

शालिनी के खिलाफ एक आखिरी सबूत अभी वह और चाहता था । तलाक तो उसे वह एजेन्सी की मौजूदा रिपोर्ट की बिना पर भी दे सकता था, लेकिन एक बार वह शालिनी और प्रदीप पुरी को रंगे हाथों पकड़ना चाहता था । एजेन्सी वाले ने कहा था कि इस बात का इन्तजाम किया जा सकता था । अगली बार जब वे दोनों राजपुर रोड वाले फ्लैट में होंगे तो उन्होंने कहा था कि वे फोन करके व्यास को वहां बुला लेंगे ।

यानी कि थोड़ा इन्तजार और ।

उसने सेफ से निकाले दूसरे लिफाफे को खोला और उसमें से एक दस्तावेज निकाली ।

वह दस्तावेज उसकी वसीयत थी ।

उसने मेज पर से एक पैन उठाया । एक कोरे कागजों का पैड अपने सामने घसीटा और तेजी से पैड पर लिखने लगा ।

वह अपनी नई वसीयत का ड्राफ्ट बना रहा था ।

ड्राफ्ट तैयार हो जाने पर उसने वकील के नाम एक चिट्ठी लिखकर उसे भी उन कागजात के साथ लगाया और तमाम कागजात वापिस लिफाफे में डाल दिए । उसने लिफाफे को गोंद लगाकर बन्द कर दिया और उस पर अपने वकील का नाम और पता लिख दिया । उसने वह लिफाफा मेज के दराज में बन्द कर दिया । कल सुबह वह किसी नौकर के हाथ उसे अपने वकील के पास भिजवा देना चाहता था ताकि कल ही नई वसीयत तैयार हो जाती और शाम को वह वकील के पास जाकर उस पर हस्ताक्षर कर आता ।

प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी की रिपोर्ट वाला लिफाफा उसने वापिस सेफ में बन्द कर दिया और आयल पेंटिंग पूर्ववत उसके ऊपर टांग दी ।

वीरवार - रात

प्रदीप पुरी अपनी फियेट चलाता हुआ दरियागंज इलाके में पहुंचा । उसने वहां पहुंचने तक पूरी तसल्ली कर ली थी कि कोई उसका पीछा नहीं कर रहा था । इतनी रात गए रास्ते सुनसान पड़े थे । अगर कोई उसका पीछा कर रहा होता तो उसे मालूम हुए बिना न रहता ।

जग्गी से मिलने आते समय ऐसी सावधानी बरतना उसकी आदत हो गई थी ।

दिल्ली गेट से वह चितली कबर के बाजार में दाखिल हुआ और कमरा बंगश पहुंचा । वहां एक स्थान पर उसने कार रोकी और थोड़ी पैदल चलकर एन बाजार में मौजूद एक तीन मंजिली इमारत के समीप पहुंचा । उस इमारत के नीचे एक शीशे की दुकान थी और बाकी में रिहायशी फ्लैट थे । इमारत की बगल में एक पतली-सी गली थी । वह उसमें दाखिल हुआ । इमारत के उस गली में खुलने वाले इकलौते दरवाजे को उसने धक्का दिया तो वह खुल गया । वह जब भी जग्गी को अपने आगमन का खबर देता था, जग्गी वह दरवाजा खुला छोड़ देता था । वह दरवाजा ऊपर को जग्गी हुई सीढियों के दहाने पर था । उसने भीतर दाखिल होकर दरवाजा अपने पीछे बन्द किया और दूसरी मंजिल पर पहुंचा ।

वहां गलियारे में केवल एक बन्द दरवाजे के नीचे रोशनी की लकीर दिखाई दे रही थी । उसने एक दरवाजे पर दस्तक दी ।

दरवाजा खुला । चौखट पर जग्गी प्रकट हुआ ।

जग्गी एक लगभग चालीस साल का साढे पांच फुट कद का, सांड जैसा शक्तिशाली आदमी था उसके चेहरे पर क्रूरता और मक्कारी के भाव स्थायी रूप से अंकित थे । उसकी गर्दन पहलवानों जैसी मोटी थी और अपने सिर के बाल वह बहुत छोटे कटवाकर रखता था । प्रदीप पुरी के भीतर दाखिल होते ही उसने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।

“बड़ी देर लगाई आने में ।” - जग्गी शिकायतभरे स्वर में बोला ।

“तो तुम्हारी कौन-सी गाड़ी छूट गई ।” - प्रदीप पुरी के स्वर में तनिक झुंझलाहट का पुट था ।

“फिर भी...”

“क्या फिर भी ?”

“अब तो दो बजने वाले हैं ? तुम तो एक बजे आने वाले थे ।”

“मुझे और भी काम हैं दुनिया में । जब फुरसत मिलती तभी तो आता ।”

“अच्छा, मेरे बाप । ऐसे ही सही । हत्थे से मत उखड़ो ।”

प्रदीप पुरी खामोश रहा ।

“अब बैठो तो ।”

प्रदीप पुरी एक कुर्सी पर बैठ गया ।

जग्गी उसके सामने बैठ गया ।

जग्गी जवाहरात के चोरों के एक गैंग का सरगना था । गैंग में उसके अलावा इमरान और बिहारी नाम के दो ऐसे दादे थे जो अपराध के मामले में बड़े हौसलामन्द थे और किसी तरह के खूनखराबे से डरते नहीं थे । एक दिलावर नाम का बड़ा दक्ष तिजोरीतोड़ था और ऐसा कारीगर था जिसे चोरी में हासिल हुए जवाहरात को दोबारा से काटकर उनकी शक्ल तबदील करने में महारत हासिल थी । वह आदमी नासर शीराजी नाम का एक बूढा ईरानी था जो अपनी एक नौजवान पोती के साथ उसी इमारत में रहता था । तकदीर की एक बड़ी नामुराद ठोकर ने कुछ साल पहले उसे हिन्दुस्तान पहुंचा दिया था । तब वह बड़ी मुफलिसी की हालत में था और जग्गी ने उसके हुनर का फायदा उठाने की नीयत से उसे अपनी छत्रछाया में ले लिया था । बूढे शीराजी की जिन्दगी की एक ही तमन्ना थी कि कभी उसके पास इतना पैसा इकट्ठा हो जाए कि वह अपनी पोती सुरैया के साथ अपने वतन लौट सके । जग्गी ने नीचे बाजार में उसे शीशों की दुकान इसलिए खोलकर दी हुई थी ताकि हीरे काटने के औजार वगैरह वहां रखने के लिए वह दुकान ओट हो जाए ।

जवाहरात के चोरों के उस गैंग के साथ प्रदीप पुरी की यह रिश्तेदारी थी कि वह जग्गी को ‘जैम हाउस’ से होने वाली हर कीमती सेल की न केवल खबर देता था बल्कि यह भी बताता था कि उस सेल का माल किस घर में पहुंचा था, वहां सुरक्षा का क्या इंतजाम था, घर में सेफ कहां थी, वहां कोई सशस्त्र चौकिदार या कुत्ता वगैरह था या नहीं वगैरह...

प्रदीप पुरी की जानकारी जग्गी के संगी-साथियों को नहीं थी । उसकी हकीकत को केवल जग्गी जानता था । इसीलिए जग्गी से मुलाकात के मामले में वह ऐसी सावधानी बरतता था ।

“कुछ पिओगे ?” - जग्गी ने पूछा ।

“नहीं” - प्रदीप पुरी बोला - “अभी नहीं ।”

“आज कुछ ज्यादा ही उखड़ रहे हो, यार ।”

प्रदीप पुरी खामोश रहा । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।

“और क्या खबर है ? आज आना कैसे हुआ ?”

“आज मैंने मैंने मैजेस्टिक आटोमोबाइल्स के अग्रवाल को एक बहुत बढिया पन्नों का हार बेचा है । तीन लाख रुपये में । उसमें बारह बड़े-बड़े पन्ने हैं । दोबारा कांट-छांट करने के बावजूद वे बड़े पीसिज में ही शुमार होंगे । हार उसने एक रखैल के लिए खरीदा है जो कि एक मुश्किल से बीस साल की निहायत खूबसूरत छोकरी है । मुझे मालूम है वह छोकरी जोरबाग में रहती है । उसका घर मेरा खूब देखा-भाला है । कागज-पेन्सिल निकालो । मैं तुम्हें उसका जुगराफिया समझता हूं ।”

जग्गी ने उसे एक कोरे कागजों का पैन और एक बाल-पैन थमा दिया ।

अगले पन्द्रह मिनट तक प्रदीप पुरी उसे जोरबाग की एक इमारता की एक-एक डिटेल समझाता रहा ।

“वैरी गुड ।” - अन्त में जग्गी बोला - “कल ही दिलावर को छानबीन करने भेजूंगा ।”

“मिसेज साराभाई वाला माल ठिकाने लग गया ?” - प्रदीप पुरी ने उसकी ओर ध्यान दिए बिना पूछा ।

“हां ।” - जग्गी बोला । उसने चाबी लगाकर मेज का एक दराज खोला और उसमें से नोटों का एक पुलन्दा निकालकर प्रदीप पुरी को सौप दिया - “यह तुम्हारा हिस्सा है ।”

“कितना है ?”

“बीस हजार ।”

“बस ?”

“ज्यादा माल हाथ आया नहीं इस बार । बिचौलिया साला मेरी उम्मीद से ज्यादा से ज्यादा कमीशन खा गाया । शीराजी ने कटिंग भी अच्छी नहीं की थी इस बार । अगली बार मैं खुद हर बात का ध्यान रखूंगा ।”

“लेकिन फिर भी सिर्फ बीस हजार...”

“ठीक है यह रकम । मैंने आज तक कभी तुमसे धोखा नहीं किया है । विश्वास जानो कोई मोटी रकम हाथ नहीं आई । अगली बार मैं तुम्हारी शिकायत खुद दूर करने की कोशिश करूंगा ।”

“अच्छी बात है ।” - प्रदीप अनमने स्वर में बोला । उसने नोट अपने कोट की भीतर जेब में रख लिए ।

“अब बताओ” - जग्गी बड़े आत्मीयतापूर्ण स्वर में बोला - “तुम्हारा मूड क्यों बिगड़ा हुआ है ? क्या हो गया है ?”

प्रदीप पुरी तनिक हिचकिचाया और फिर दबे स्वर में बोला - “जग्गी एक आदमी है जो मेरे रास्ते की रुकावट बना हुआ है । ऐसी रुकावट बना हुआ है कि अगर मैंने उसे अपने रास्ते से जल्दी नहीं हटाया तो बड़ी गड़बड़ हो जायेगी ।”

“अगर ऐसी बात है तो देर क्यों कर रहे हो ? लगा दो साले को तंदूर में ।”

“यह मेरे करने वाला काम नहीं । इसे मैंने किया तो मुझ पर शक जरूर किया जाएगा और मेरे फंस जाने की सम्भावना बन जाएगी । मैं चाहता हूं कि मैं शक के दायरे से एकदम परे रहूं और कोई दूसरा आदमी यह काम करे ।”

“दूसरा आदमी कौन ?”

“जग्गी, तुमने जो इतने पाल रखे हैं, क्या उनमें से कोई यह काम नहीं कर सकता ?”

“क्यों नहीं कर सकता ? कत्ल करना उनके बायें हाथ का खेल है लेकिन खुदा ने उन्हें बुलन्द हौसले और ताकतवर जिस्म ही दिए हैं, बरसातियां” - वह एक उगंली से अपना भेजा ठकठकाता हुआ बोला - “खाली हैं हरामजादों की । कहीं घपला हो गया तो तुम्हें भी मरवायेंगे और मुझे भी ।”

“फिर तो वे मेरे काम के आदमी न हुए ।”

“लेकिन” - जग्गी उत्सुक स्वर में बोला - “वह आदमी कौन है जो जिसे तुम तंदूर में लगाना चाहते हो ?”

“वही जिसकी मैं नोकरी करता हूं । ‘जैम हाउस’ का सीनियर पार्टनर । हालात एकाएक ऐसे हो गये हैं कि मुझे लगता है कि या तो उसे मेरे कुछ कार्यकलापों पर शक हो गया है और या बहुत जल्दी होने वाला है । वह आदमी चाहे तो एक सैकेण्ड में मुझे नौकरी से निकाल सकता है और ऐसा इन्तजाम भी कर सकता है कि इस धन्धे में मुझे कहीं नौकरी न मिले ।”

“यह तो हरगिज नहीं होना चाहिए । तुम्हारे से जानकारी हासिल हुए बिना तो हम कुछ भी नहीं कर सकते । हमारा तो धन्धा चौपट हो जायेगा ।”

“अगर इस आदमी की किसी तरह छुट्टी हो जाए तो न सिर्फ तुम्हारा धन्धा चौपट होने की नौबत नहीं आयेगी बल्कि इसके और चमक उठने की सम्भावना हो जायेगी ।”

“वह कैसे ?”

“इस आदमी का काम तमाम होते ही मैं ऐसी स्थिति में आ जाऊंगा कि ज्यादा-से-ज्यादा एक साल में ‘जैम हाउस’ का कंट्रोल मेरे हाथ में होगा । अगर ऐसा हो जाये तो तुम्हारे लिए क्या यह भारी फायदे की बात नहीं होगी ?”

“वह तो होगी लेकिन ‘जैम हाउस’ का कन्ट्रोल तुम्हारे हाथ में कैसे आ जायेगा ?”

प्रदीप पुरी हिचकिचाया ।

जग्गी बड़े गौर से उसे देखता रहा ।

“दरअसल” - प्रदीप पुरी कठिन स्वर में बोला - “उस आदमी की सारी चल-अचल सम्पत्ति विरासत में उसकी बीवी को मिलेगी । मैं उसकी बीवी से शादी कर लूंगा । यह बात उसकी बीवी में और मेरे में पहले ही पक्की हो चुकी है ।”

“ओह ! तो यह भी औरत का चक्कर है ।”

“औरत का चक्कर तो होता ही है” - प्रदीप पुरी चिड़चिड़े स्वर में बोला - “उसके बिना कहीं बात बनती है ! तुम्हें जो रईस औरतों के घरों की जानकारी लाकर देता हूं, वह क्या उसने ताल्लुकात बढाये बिना, उनके घरों में घुसे बिना, हासिल हो सकती है ?”

“वह बात और है । उसमें तुम्हारे लिए उन औरतों के पतियों के कत्ल करके उनसे शादी करना जरूरी नहीं होता ।”

प्रदीप पुरी खामोश रहा ।

“इस आदमी को तुम पर शक किस बात का है ?” - जग्गी ने पूछा - “तुम्हारी हमारे साथ रिश्तेदारी का या उसकी बीवी के साथ रिश्तेदारी का ? मेरे ख्याल से तो उसकी बीवी के साथ तुम बिस्तर में जो कलाबाजियां खाते हो, वही सारे फसाद...”

“जग्गी !” - प्रदीप पुरी तीव्र स्वर में बोला - “तमीज से बात करो ।”

तुरन्त जग्गी के चेहरे ने रंग बदला । एक क्षण को तो यूं लगा जैसे वह जवाब में बहुत सख्त बात कहने जा रहा था, लेकिन फिर उसने अपना ख्याल बदल दिया और जबरन मुस्कराता हुआ बोला - “ताव मत खाओ दोस्त ! बात दोनों में से कोई भी हो, इसका कोई हल तो निकालना ही होगा, क्योंकि वह तपस्या सिर्फ तुम्हारी नहीं, हमारी भी है । अगर तुम ‘जैम हाउस’ से निकाल दिए गए तो हम भी तंदूर में लग जाएंगे । इस बारे में कुछ करना ही होगा । वक्त कितना है हमारे पास ?”

“पता नहीं । मैं हालात को और अच्छी तरह समझने की कोशिश करता हूं और फिर तुम्हें बताता हूं ।” - प्रदीप पुरी उठ खड़ा हुआ ।

“ठीक है ।” - जग्गा भी उठा ।

“वैसे मैं चाहता हूं कि वह सीधे-साधे कत्ल न कर दिया जाये । वह बड़ा आदमी है । ऐसा हो गया तो बड़ा कोहराम मचेगा । अखबार वाले ही इतनी ज्यादा हाय-तौबा मचा देंगे कि पुलिस दस गुना ज्यादा मुस्तैदी से हत्यारे की तलाश में जुट जायेगी ।”

“तो फिर क्या किया जाये ?”

“एक्सीडेंट ! अगर ऐसा लगे कि वह एक्सीडेंट में मरा था तो बात बन जायेगी ।”

“ठीक है ।”

प्रदीप पुरी वहां से विदा हो गया ।

वह मन-ही-मन अपनी जग्गी से हुई मुलाकात से खुश हो रहा था । उसे जग्गी से यही उम्मीद थी कि वह भी पसन्द नहीं करेगा कि कत्ल उसके दादे करें । लेकिन वह बात वह जग्गी के ही मुंह से कहलवाना चाहता था और अपनी इस कोशिश में वह कामयाब रहा था । अब उसे मालूम था कि वह कत्ल जग्गी खुद करने वाला था । इस प्रकार वह जग्गी के अलावा किसी और पर एक्सपोज होने से बचा रहा सकता था और जग्गी की उसे चिन्ता नहीं थी क्योंकि वह तो उसके बारे में पहले से ही सबकुछ जानता था ।

कमलानाथ व्यास का अन्त अभी हुआ नहीं था लेकिन सुनसान सड़कों पर कार चलाता हुआ वह पहले ही अपनी कल्पना ‘जैम हाउस’ के हैड के रूप में करने लगा था । उसने अभी से फैसला कर लिया था कि उस स्थिति में पहुंच जाने के बाद वह जग्गी से या उस किस्म के आदमियों से कोई भी रिश्ता नहीं रखेगा ।

लेकिन क्या जग्गी से इतनी आसानी से पीछा छुड़ा लेना आसान होगा ?

वह मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना करने लगा कि ऐसा कुछ हो जाये कि व्यास का खात्मा करने के चक्कर में जग्गी ऐसा फंसे कि खुद उसका भी खात्मा हो जाये ।

शुक्रवार - दोपहर

अगले दिन दोपहर के करीब शालिनी ने ‘जैम हाउस’ में फोन किया ।

ऑपरेटर ने उसका नाम सुनते ही तुरन्त उसका सम्पर्क कमलनाथ व्यास से स्थापित कर दिया ।

“आप कहीं जा तो नहीं रहे हैं ?” - शालिनी ने मधुर स्वर में पूछा ।

“नहीं ।” - व्यास की आवाज आई - “क्यों ?”

“मैं उधर आ रही हूं । मुझे कनाट प्लेस में थोड़ी शापिंग करनी है । कुछ रुपयों की जरूरत होगी मुझे ।”

“ठीक है । आ जाना । मैं यहीं हूं ।”

“कहीं चले मत जाना ।”

“अरे कहा न नहीं जाऊंगा ।”

“थैंक्यू ।”

शालिनी ने सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से गरदन हिलाते हुए रिमीवर रख दिया ।

वह अपने पति की सेफ खोलने जा रही थी, लेकिन ऐसा करने से पहले वह इस बात की पूरी तसल्ली कर लेना चाहती थी कि कहीं एकाएक उसका पति घर तो नहीं आ जाने वाला था ।

वह अपने बैडरूम से निकली और चुपचाप अपने पति की स्टडी में पहुंची । उसने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और खिड़कियों पर भारी पर्दे सरका दिए । फिर उसने दीवार पर से गिल्ट के फ्रेम वाली ऑयल पेंटिंग उतारी । पीछे से सेफ का दरवाजा प्रकट हुआ । उसने उसके डायल पर जल्दी-जल्दी वह नम्बर घुमाया जो उसे पिछली रात को ही पूरा मालूम हो पाया था । उसने हैंडल घुमाया घुमाकर सेफ का दरवाजा खींचा । दरवाजा खुल गया । उसने देखा भीतर कागजात से भरे भिन्न भिन्न आकार-प्रकार के कई लिफाफे थे ।

वह तेजी से उनका मुआयना करने लगी ।

वास्तव में उसे व्यास की वसीयत की तलाश थी । व्यास ने उसे हमेशा यही बताया था कि उसने अपनी सारी जमीन-जायदाद अपनी बीवी और बेटी के नाम बराबर-बराबर लिख दी थी, लेकिन हकीकतन ऐसा ही था, यह वह खुद अपनी आंखों से देखना चाहती थी ।

एक लम्बे लिफाफे पर पहुंचकर वह ठिठकी । भीतर मौजूद तमाम लिफाफों में वही एक ऐसा लिफाफा था जिस पर भेजने वाले का नाम और पता नहीं छपा हुआ था । लिफाफे पर टाइप द्वारा उसके पति का नाम और ‘जैम हाउस’ का पता लिखा हुआ था । और उसके ऊपरले, बाएं कोने में लिखा था - बाई स्पेशल मैसेंजर बी डिलीवर्ड टू दी अड्रैसी ओनली ।

उसने हिचकिचाते हुए वह लिफाफा खोला ।

भीतर एक-दूसरे के साथ नत्थी किए हुए कई टाइपशुदा, फुलस्केप कागज मौजूद थे । उसने एक सरसरी निगाह पहले पृष्ठ पर डाली । पहली कुछ लाइने पढते ही उसके मुंह से यूं सिसकारी निकली जैसे किसी ने उसकी छाती पर घूंसा मार दिया हो । उसने दहशत से जड़ हुए अपने सस्तिष्क को अपने काबू में किया और पहले पृष्ठ को फिर से पढा । लिखा था -

यूनीवर्सल इनवैस्टीगेशंस

नेहरू प्लेस

नई दिल्ली

सन्दर्भ : केस नम्बर के वी-176

डियर कलायन्ट,

जिन दो व्यक्तियों पर निगाह रखने का काम हमें सौपा गया था, उससे सम्बन्धित पिछले तीन हफतों की मुकम्मल रिपोर्ट इस पत्र के साथ आपके अवलोकनार्थ संलग्न है ।

क्योंकि अब आप गवाहों के सामने सम्बन्धित व्यक्तियों को रंगे हाथों पकड़ना चाहते हैं, इसलिए उनकी निगरानी अभी भी जारी है, जैसा कि संलग्न रिपोर्ट में दर्ज है, मौज-मेले के लिए वे दोनों जने इसी काम के लिए रखे गये राजकुमार रोड वाले फ्लैट में ही जाते हैं । अगली बार वे दोनों जब भी फ्लैट में इकट्ठे होंगे हमारा फील्ड-ऑपरेटिव टेलीफोन द्वारा आपको खबर कर देगा । गवाहों वगैरह कीही जरूरी तैयारी हम खुद करके रखेंगे । हमारा आपसे अनुरोध है कि आने वाले दो-तीन दिन आप हमारे फील्ड-ऑपरेटिव को टेलीफोन पर उपलब्ध रहें । वह सीधे आपको ही फोन करेगा ताकि वक्त बरबाद न हो ।

भवदीय,

कृते यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस

सुधीर कोहली

कितनी ही देर वह हक्की-बक्की सी उस पहले पृष्ठ को देखती रही । हालांकि पहले पृष्ठ पर किसी नाम का जिक्र नहीं था लेकिन फिर भी उसे मालूम था कि वह रिपोर्ट उसके और प्रदीप पुरी के बारे में थी । प्रत्यक्षतः उसका पति उतना सीधी-साधा नहीं निकला था, जितना कि वह सूरत से दिखाई देता था । उसे अपनी और प्रदीप पुरी की लापरवाही पर भी गुस्सा आ रहा था । तीन हफ्ते से उन दोनों की निगरानी हो रही थी और उनमें से किसी को इस बात की भनक भी नहीं पड़ी थी ।

वह धम्म से एक कुर्सी पर ढेर हो गई और जल्दी-जल्दी सारी रिपोर्ट पढ गई ।

हरामजादा ! कमीना ! जलील !

अन्त में बेवसी और क्रोध के आलम में उसके मुंह से अपने पति के लिए गालियों के अलावा कुछ न निकला ।

अब वो क्या करे ? - अपने धाड़-धाड़ बजते हुए दिल पर काबू पाने का असफल प्रयत्न करते हुए उसने सोचा ।

सबसे पहले तो उसे उस विस्फोटक स्थिति की खबर प्रदीप पुरी को देनी चाहिए थी । लेकिन कैसे ? फोन करे उसे ? लेकिन क्या पता उन हरामजादे जासूसों ने टेलीफोन को भी टेप किया हुआ हो । तो फिर शाम होने का इन्तजार करे और फिर प्रदीप के घर जाये और उसे वहीं फोन करे ? नहीं, दोनों ही बातें खतरनाक थीं । और फिर वह शाम तक इन्तजार भी नहीं कर सकती थी ।

उसने सचमुच ही ‘जैम हाउस’ जाने का फैसला कर लिया ।

उसने अपने हाथ में थमे कागजात वापिस लिफाफे में धकेले और वह लिफाफा अपने बैग में रख लिया । फिर उसने बाकी के लिफाफे सेफ में डाले और सेफ को बन्द करके उसके ऊपर ऑयल पेंटिंग टांग दी ।

एक और बात भी उसके छक्के छुड़ाये दे रही थी ।

सेफ में से दुनिया भर के कागजात बरामद हुए थे लेकिन उसमें व्यास की वसीयत नहीं थी ।

वसीयत कहां थी ?

उसने यही सोचकर अपने आपको तसल्ली दी कि वसीयत शायद उसने आफिस में या किसी सेफ डिपाजिट बॉक्स में रखी हुई थी ।

वह अपने कमरे में पहुंची ।

उसने अपने गले में लटकी सोने की जंजीर को झटका देकर इस प्रकार खींचा की उसकी दो कड़ियां खुल गई । टूटी हुई जंजीर को उसने एजेन्सी की रिपोर्ट वाले लिफाफे के साथ बैग में डाल दिया । उसने कपड़े बदले और वहां से निकल पड़ी ।

वह ‘जैम हाउस’ पहुंची ।

उसकी तकदीर अच्छी थी कि प्रदीप उसे नीचे शोरूम में ही दिखाई दे गया ।

प्रदीप !” - वह शो रूम में मौजूद कर्मचारियों को सुनाने के लिए जान-बूझकर ऊंची आवाज में बोली ।

प्रदीप फौरन उसके पास पहुंचा ।

“मेरी चेन टूट गई है” - वह बैग से चेन निकालकर उस सौंपती हुई पूर्ववत् उच्च स्वर में बोली - “जरा अभी इसकी मरम्मत करवा दो ।” - साथ ही वह दबे स्वर में बोली - “आफत आ गई है । तुमसे अभी बात करनी है ।”

प्रदीप पुरी सकपकाया और फिर एक फर्माबरदार कर्मचारी जैसे तत्पर स्वर में बोला - “तशरीफ लाइए, मिसेज व्यास ।”

वह उसके साथ हो ली ।

दोनों लिफ्ट में सवार हुए ।

संयोगवश लिफ्ट में उनके साथ कोई तीसरी आदमी सवार नहीं हुआ ।

लिफ्ट ऊपर को उठने लगी ।

“क्या आफत आ गई ?” - प्रदीप पुरी तनिक झुंझलाए स्वर में बोला ।

शालिनी ने बैग से लिफाफा निकालकर उसे थमा दिया और जल्दी से बोली - “इसे पढे लो सब समझ में आ जायेगा । लिफाफा मैंने उसकी सेफ से निकाला है और उसके घर वापिस पहुंचने से पहले इसे वापिस वहीं पहुंचाना है । जंजीर के साथ यह भी मुझे लौटा देना ।”

“ठीक है । अब तुम कहां जाओगी ?”

“उसके ऑफिस में ।”

“ठीक दस मिनट बाद गलियारे में आ जाना ।”

“अच्छा ।”

लिफ्ट चौथी मंजिल पर रुकी । दोनों बाहर निकले । प्रदीप पुरी रिपेयर शॉप की ओर और शालिनी अपने पति के ऑफिस की ओर बढ गई । अपने पति से उसने शापिंग के नाम पर दो हजार रूपये वसूल किये, जो कि उसने बिना हुज्जत किए दे दिए, और ऐन दस मिनट बाद गलियारे में कदम रखा ।

तुरन्त प्रदीप उसके पास पहुंचा । मरम्मत करवाई हुई सोने की जंजीर उसकी एक उंगली पर लटक रही थी ।

“जो मैं कह रहा हूं गौर से सुनो” - वह उत्कठापूर्ण स्वर में बोला । उसकी व्याकुल निगाहें गलियारे में दोनों ओर फिर रही थीं - “मुझे कोई बात दोहरानी न पड़े । ओ के !”

शालिनी ने सहमति से सिर हिलाया ।

उसने खाकी लिफाफा उसे लौटा दिया जो कि शालिनी ने फौरन अपने बैग में डाल दिया - “इसे वापिस वहीं पहुंचा दो जहां से तुमने इसे निकाला है और वहां के हर उस स्थान को रगड़कर पोंछ दो जहां तुम्हारी उंगलियों के निशान छूट गये हो सकते हैं । आज शाम को व्यास के या अपर्णा के घर लौटने से पहले तुम वहां से कहीं चली जाना । अपने किसी नौकर को बताकर जाना कि तुम देर से वापिस लौटोगी, लेकिन उसे यह न बताना कि तुम कहां जा रही हो । लेकिन वास्तव में जाना किसी ऐसी भीड़भाड़ वाली जगह जहां तुम्हारी पहचान के कई लोग मौजूद हों और जहां तुम उनके द्वारा लगातार देखी जाओ, जैसे क्लब में, किसी पार्टी में, या किसी के घर...”

“आगे बढो । ऐसा क्यों करना है मैंने ?”

“ताकि व्यास समझे कि तुम मुझसे मिलने गई हो, लेकिन जरूरत पड़ने पर असल में तुम साबित कर सको कि ऐसी बात नहीं थी ।”

“लेकिन ऐसा भी क्यों जरूरी है ?”

“ज्यादा सवाल मत करो । वक्त नहीं है । कोई आ जायेगा ।”

“अच्छा ।”

“बाद में नौ बजे के करीब तुम वापिस लौट जाना । कोशिश करना कि तुम्हारी कोई सहेली या उसका ड्राइवर तुम्हें घर तक छोड़कर जाये । अगर टैक्सी पर आना पड़े तो ऐसा इन्तजाम करना कि टैक्सी वाले को तुम्हारे आगमन का वक्त और तुम्हारी सूरत अच्छी तरह याद रह जायें । घर आकर भी तुम किसी नौकर-चाकर का ध्यान बहाने से वक्त की ओर आकृष्ट करना ताकि उसे याद रहे कि तुम कितने बजे घर लौटी थीं । फिर अगर तुम्हें अपने पति से सम्बन्धित कोई अच्छी खबर मिले तो रिपोर्ट को सेफ से निकालकर नष्ट कर देना ।”

“अच्छी खबर !” - वह हड़बड़ाकर बोली - “कैसी अच्छी खबर ?”

“अक्ल से काम लो स्टूपिड !” - प्रदीप दांत पीसकर बोला ।

“अच्छा, अच्छा ।”

तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला और उसमें से ग्राउण्ड फ्लोर का एक कर्मचारी बाहर निकला ।

“चेन एकदम ठीक हो गई है, मिसेज व्यास” - प्रदीप पुरी तुरन्त उच्च स्वर में बोला - “मैंने इसको पालिश भी करवा दिया है ।”

“थैंक्यू ।” - शालिनी भी उच्च स्वर में बोली । उसने चेन प्रदीप पुरी के हाथ से ले ली और लिफ्ट में सवार हो गई ।

लिफ्ट से निकला कर्मचारी गलियारे का एक दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गया ।

प्रदीप पुरी कुछ क्षण जड़-सा वहीं खड़ा रहा ।

कहने की जरूरत नहीं थी कि डिटेक्टिव एजेन्सी की रिपोर्ट पढकर उसके होश उड़ गये थे । उसको अपना भविष्य एकदम अन्धेरा लगने लगा था । तबाही और बरबादी उसे मुंह बाये अपने सामने खड़ी दिखाई दे रही थी ।

फिर बड़ी मेहनत से उसने अपने आप पर काबू किया और यह फैसला किया कि अब वक्त की जरूरत यह थी कि वह केवल सपने ही न देखे बल्कि फौरन कुछ कर डाले ।

उसने लिफ्ट का बटन दबाया और उसके वापिस लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।

एक और बात भी थी जो उसका दिल दहलाये दे रही थी ।

एजेन्सी की रिपोर्ट का जिक्र क्या व्यास ने किसी से - खास तौर से अपर्णा से - किया होगा ?

उसे उम्मीद नहीं थी कि उसने ऐसा किया हो । इसमें उसकी रुसवाई थी, तौहीन थी । व्यास जैसा समझदार और उम्रदराज आदमी अपनी तौहीन और रुसवाई का सामान खुद नहीं कर सकता था ।

उसे तनिक राहत महसूस हुई ।

वैसे भी रिपोर्ट के साथ लगी चिट्ठी बताती थी कि अभी वह उन दोनों को रंगे हाथों पकड़ना चाहता था । यानी कि अपनी बीवी की बेवफाई और अपने एक कर्मचारी की धोखाधड़ी को अपनी आंखों से देख लेने तक वह कोई अगला कदम नहीं उठाना चाहता था ।

और उसका अगला कदम उठने से पहले ही उसने अपना अगला कदम उठाना था ।

वक्त बहुत कम था ।

लिफ्ट वहां पहुंची तो वह उसमें सवार हो गया । उसने ग्राउंड फ्लोर का बटन दबाया । लिफ्ट नीचे को चल दी ।

अगर आज ही व्यास का सफाया हो जाए और शालिनी उस रिपोर्ट को नष्ट कर दे तो बाद में उन पर अगर ऐसा कोई इलजाम लगाया भी जाता तो वे मुकर सकते थे । बाद में कोई उनकी बात पर विश्वास न भी करता तो कुछ साबित न कर पाता । अपर्णा कुछ मिजाज दिखाती तो पड़ी दिखाती रहती । बाद में किसे उसकी परवाह होती ?

ग्राउन्ड फ्लोर पर वह लिफ्ट से बाहर निकला और शो-रूम के एक कोने में स्थित अपने केबिन में पहुंचा । अभी वह अपनी कुर्सी पर बैठा ही था कि इन्टरकाम का बजर बज उठा । उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया और बोला - “हल्लो ।”

“आपको व्यास साहब याद कर रहे हैं ।” - उसके कानों में व्यास की सैक्रेट्री की आवाज पड़ी - “ऑफिस में ।”

“आता हूं ।” - वह बोला ।

उसने रिसीवर रख दिया और उठ खड़ा हुआ । उसका दिल किसी अज्ञात आशंका से हिला जा रहा था । व्यास का वैसा बुलावा उसे अक्सर आता था लेकिन पता नहीं क्यों उस बार उसे ऐसी दहशत हो रही थी कि उसका जी चाह रहा था कि वह कि वह व्यास के पास जाने के स्थान पर वहां से भाग खड़ा हो ।

लेकिन अपनी हिम्मत पर काबू पाकर वह वापिस चौथी मंजिल पर पहुंचा और व्यास के ऑफिस में दाखिल हुआ ।

वहां व्यास के अलावा देवीलाल जैन और एक अपिचित व्यक्ति मौजूद था ।

प्रदीप पुरी ने सबका अभिवादन किया । फिर व्यास के संकेत पर वह अपरिचित व्यक्ति के पहलू में पड़ी एक खाली कुर्सी पर बैठ गया ।

“मिस्टर पंडित” - व्यास अपरिचित व्यक्ति से बोला - “ये मिस्टर प्रदीप पुरी हैं । हमारे चीफ सेल्समैन । और पुरी, ये मिस्टर पंडित हैं । दिल्ली पुलिस के सी आई डी इन्स्पेक्टर ।”

प्रदीप पुरी का दिल धड़क गया । सी आई डी इंस्पेक्टर का वहां क्या काम ? फिर उसने उस काईयां-से लगने वाले अधेड़ व्यक्ति से हाथ मिलाया ।

“मिस्टर पंडित मुझे बड़ी अनोखी बात बता रहे हैं” - व्यास बोला - “मैंने यही मुनासिब समझा कि यह बात इन्हीं के मुंह से आप लोग” - उसने पुरी और जैन पर निगाह डाली - “भी सुन लें ।”

प्रदीप पुरी और देवीलाल जैन की निगाह पंडित पर टिक गई ।

“एक बात तो जाहिर है” - जैन बोला - “आप किसी केस की तफ्तीश कर रहे हैं और उसी सिलसिले में आप यहां भी तशरीफ लाये हैं ।”

“आपने एकदम ठीक पहचाना, जैन साहब” - पंडित बोला - “नगर की विभिन्न बीमा कम्पनियां जो जेवरात वगैरह जैसे कीमती माल का बीमा करती हैं उन्हीं की एक संयुक्त शिकायत हमारे पास पहुंची है जिसकी कि मैं आजकल तफ्तीश कर रहा हूं ।”

“आई सी ।”

“पिछले कुछ अरसे से इस शहर में ज्वेल राबरीज इतनी आम हो गई हैं कि वे हम लोगों के लिए चिन्ता का विषय बन गई हैं हमने देखा है कि अधिकतर केवल बेशकीमती जेवरात ही चोरी होते हैं और फिर बीमा कम्पनियों को अपने कलायन्टों को हर्जान की मोटी-मोटी रकमें अदा करनी पड़ती हैं । पिछले अट्ठारह महीनों में हुई ऐसी तमाम चोरियों पर जब हमने गौर किया तो एक बड़ी अजीब बात हमारे सामने आई ।”

“क्या ?” - प्रदीप पुरी संशक सबर में बोला ।

“यह कि इस प्रकार चोरी गए अधिकार जेवरात आपके शोरूम द्वारा बेचे गए थे । अभी तक बीमांकित जेवरात का जितना खामियाजा विभिन्न बीमा कम्पनियां भर चुकी हैं, उसका अस्सी प्रतिशत आपके यहां से बिके जेवरों का है और बाकी बीस प्रतीशत सारी दिल्ली में मौजूद दर्जनों अन्य जौहरियों द्वारा बेचे और दिल्ली से बाहर बिके जेवरों का है । अब दूसरी दिलचस्प बात सुनिए । और जौहरियों द्वारा बेचे माल में से लगभग साठ प्रतिशत बरामद भी हो चुका है, लेकिन ‘जैम हाउस’ द्वारा बेचे चोरी गये माल की बरामदगी मुश्किल से पांच प्रतिशत है । कहने का मतलब यह है कि ‘जैम हाउस’ द्वारा बेचे जेवरात का चोरी होने के बाद अता-पता तक नहीं मालूम होता ।

“इसमें हमारी क्या गलती है ?” - जैन तीखे स्वर में बोला ।

“मैं आपको आपकी गलती नहीं बता रहा, जैन साहब” - पंडित विनीत भाव से बोला - “मैं आपको केवल आकड़े बता रहा हूं जो कि आज भी मानेंगे कि असाधारण हैं । दिल्ली शहर में इतने जेवर बिकते हैं लेकिन अधिकतर चोरी वही होते हैं जो आपको यहां से बिके होते हैं । फिर चोरी का माल आमतौर पर पकड़ा भी तो नहीं जाता । क्या ये बातें आपको कुछ सोचने पर मजबूर नहीं करतीं ?”

“यह महज एक इत्तफाक है” - जैन बोला - “दिल्ली शहर में जेवरात का बड़ा शो-रूम और कोई नहीं । ‘जैम हाउस’ की इस मामले में पुरानी साख बनी हुई है । हम सबसे ज्यादा माल बेचते हैं । जिसका माल ज्यादा बिकेगा, हादसे भी तो उसी के साथ होंगे ।”

“मैं मानता हूं आपकी बात । लेकिन फिर आपके बेचे चोरी गए माल की बरामदी इतनी कम क्यों है ? और जौहरियों द्वारा बेचा गया माल बरामद हो जाता है । ऐसा आपके माल के साथ क्यों नहीं होता ?”

“इसलिए नहीं होता” - प्रदीप पुरी बोला - “क्योंकि हमारा माल एक्सक्लूसिव होता है । जो जेवर ‘जैम हाउस’ द्वारा डिजाइन किया जाता है, वह बेजोड़ होता है और उस पर हमारी अद्वितीयता की छाप होती है । इसी वजह से हमारा जेवर या उसमें जड़े जवाहरात सील से पहचाने जा सकते हैं । कोई चोर साधारण तरीकों से हमारे माल को बेचने की कोशिश करेगा तो शर्तिया पकड़ा जाएगा । हमारे माल को खरीदने से तो बिचौलिया भी इन्कार कर देता होगा, क्योंकि उसे मालूम है कि वह उस उसे आसानी से आगे नहीं बेच पायेगा ।”

“अगर ऐसी बात है तो आप वाला चोरी का माल जाता कहां है ? चोर उसे आसानी से बिकता न पाकर सड़क पर तो फेंक नहीं देते होंगे ।”

“अब इस बारे में हम क्या सकते हैं ? मुमकिन है कि वे जेवर उन लोगों को बेचे जाते हों जो ऐसी खरीद काले धन में करते हैं और इसलिए जेवर छुपाकर रखते हैं या शायद ऐसे जेवरात स्मगल होके देश से बाहर चले जाते हों । यह सब तो चोरों की साधनसम्पन्नता पर निर्भर करता है ।”

“आपकी साधनसम्पन्नता वाली बात मैं मानता हूं । असल में मैं खुद भी यही कहना चाहता था कि यह काम चोरों के किसी बड़े ओर्गेनाइज्ड गैंग का है जिनका साधारणतया पकड़ा जाने वाला माल भी मार्केट में खपाने का साधन है । उनकी साधन-सम्पन्नता का ही एक अंग यह भी हो सकता है कि उन्हें पहले ही मालूम हो जाता हो कि आपके यहां से अब, कौन-सा कीमती जेवर बिका और उसे किसने खरीदा है ?”

“यह कैसे हो सकता है ?” - व्यास हड़बड़ाकर बोला ।

“एक ही तरीके से” - पंडित धीरे से बोला - “आपका ही कोई कर्मचारी चोरों से मिला हुआ और वही चोरों को ऐसी टिप देता रहता हो ।”

प्रदीप पुरी के शरीर में ठंडक की लहर दौड़ गई । उसने अपने चेहरे से खून निचुड़ता हुआ महसूस किया । फिर जब उसने देखा कि व्यास और पंडित दोनों की निगाहें उस पर टिकी हुई थीं तो उसने बड़ी मेहनत से अपने आपको सम्भाला और जबरन मुस्कराता हुआ बोला - “आप तो किस्से-कहानियों जैसी बात कर रहे हैं, बन्दानवाज ।”

“बात अनोखी जरूर है” - पंडित बोला - “लेकिन असम्भव नहीं । व्यास साहब, आपके पास आने के पीछे मेरा मुख्य उद्देश्य यही था कि हकीकत की जानकारी आपको भी हो जाए । आप इस आर्गेनाइजेशन के हैड हैं । आप अगर कोशिश करें तो आपके लिए यह जान लेना बहुत मुश्किल नहीं होगा कि आपके इस शोरूम का कौन-सा कर्मचारी आपसे दगाबाजी कर रहा है । ऐसे किसी आदमी की हमें खबर लग जाए तो उसकी सहायता से हम चोरों तक भी पहुंच सकते हैं और इस प्रकार ज्वेल-थीव्स के एक बड़े साधन-सम्पन्न गैंग का सफाया हो सकता है ।”

“मैं देखूंगा इस बारे में क्या किया जा सकता है ।” - व्यास गम्भीरता से बोला ।

“चोरी के जो आकड़े मैंने आपको बताए हैं वे पब्लिक को नहीं मालूम । अगर नगर के धनाढ्य वर्ग को यह मालूम हो जाए कि आपके यहां से खरीदा गया कीमती जेवर तो जरूर-जरूर चोरी चला जाता है तो आपके धन्धे के लिए यह बड़ी बुरी बात होगी ।”

“धन्धा चौपट ही हो जाएगा जनाब ।” - व्यास चिन्तित स्वर में बोला - “मैं इस बारे में जरूर कुछ करूंगा ।”

“शुक्रिया” - पंडित उठता हुआ बोला - “और अगर कोई नतीजा हासिल हो तो फौरन हमें खबर कीजियेगा ।”

“जरूर ।”

“अब मैं इजाजत चाहूंगा ।”

पंडित ने सबसे हाथ मिलाया और वहां से विदा हो गया ।

उसके जाने के बाद उससे हाथ मिलाने को उठे व्यास और जैन दोबारा अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ गए । स्वयं को दोबारा बैठने के लिए कहा जाता न पाकर प्रदीप पुरी दोनों को अभिवादन करके वहां से बाहर निकल आया । वह वहां रुककर सुनना चाहता था कि पंडित की कही बातों के बारे में व्यास के या जैन के क्या ख्यालात थे, लेकिन उसे रुकने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिला था ।

कमरे से बाहर निकलते समय न जाने क्यों उसे लग रहा था कि व्यास की निगाह भाले की तरह उसकी पीठ में गड़ रही थी ।

बाहर गलियारे में आते ही उसके भीतर घुमड़ती बेचैनी और घबराहट फिर नुमायां होने लगी । एकाएक उसे हालात बड़े खतरनाक लगने लगे । तकदीर की मार कि सारे बखेड़े उसके खिलाफ एक ही साथ सिर उठाने लगे थे ।

उसे जल्दी ही कुछ करना था ।

क्या करे वो ?

उसे लग रहा था कि बन्द दरवाजे के पीछे बैठे व्यास और जैन उसी के खिलाफ कोई षड़यन्त्र रच रहे थे ।

क्या उस पर शक किया जा सकता था ?

खाना-खराब हो इस पंडित के बच्चे का । इसने भी इसी वक्त यहां आना था ।

उस संकट की घड़ी में उसे जग्गी ही एक सहारा दिखाई दिया ।

वह लिफ्ट पर सवार होकर नीचे उतरा और शोरूम से बाहर निकल गया । वह ईस्टर्न कोर्ट पहुंचा । वहां बने एक पब्लिक टेलीफोन बूथ से उसने जग्गी को फोन किया ।

उसकी आवाज कान में पड़ते ही न जाने क्यों उसे बड़ी राहत महसूस हुई । उसे भय था वह कहीं गया हुआ न हो ।

“जग्गी” - वह भर्राए स्वर में बोला - “एमरजन्सी आ गई है । मेरा तुमसे फौरन मिलना जरूरी हो गया है । दिन में मेरा कमरा बंगश आना खतरनाक हो सकता है । तुम फौरन गेलार्ड में पहुंचो । मैं तुम्हें वहीं मिलूंगा । थैंक्यू ।”

उसने धीरे से रिसीवर हुक पर टांग दिया ।

शक्रवार - शाम

साढे चार बजे के करीब कमलनाथ व्यास ‘जैम हाउस’ से बाहर निकला ।

वहां से वह सीधा ही स्थित टालस्टाय मार्ग पहुंचा जहां कि उसके वकील शान्तिस्वरूप का दफ्तर था ।

वहां उसने पाया कि उसके नए निर्दोश के अनुसार नई वसीयत तैयार थी । उसने पुरानी वसीयत और वकील के पास मौजूद उसकी प्रतिलिपि को नष्ट कर दिया । उसने नई वसीयत पर हस्ताक्षर किए । वकील ने उस पर दो गवाहों के भी हस्ताक्षर करवाए ।

“वसीयत अभी अपने पास ही रखो” - व्यास बोला - “कल इसकी एक प्रति तुम मेरे ऑफिस में भिजवा देना ।”

“ठीक है ।” - शान्तिस्वरूप बोला ।

व्यास ने अपनी जेब से एक लिफाफा निकाला और उसे वकील के सामने मेज पर रख दिया ।

“यह लिफाफा” - वह बोला - “अपर्णा के लिये है । अगर मुझे कुछ हो जाए तो लिफाफा उसे सौंप देना और उसकी हर मुमकिन मदद करना ।”

“कैसी मदद ?” - वकील ने पूछा ।

“जैसी भी मदद की उसे जरूरत हो ।”

“वह तो हुआ व्यास साहब, लेकिन एकाएक ऐसी निराशजनक बातें किसलिए ? क्या हार्ट की कोई नई कम्पलीकेशन हो गई है ?”

“यही समझ लो । तुम जानते हो कि मैं दिल का मरीज हूं और दिल के मरीज को तो कुछ-न-कुछ हुआ ही रहता है ।”

“व्यास साहब, मुझे लग रहा है कि आप कुछ छुपा रहे हैं ।”

“ऐसी कोई बात नहीं ।”

“वसीयत बदलकर भी आपने मुझे उलझन में डाल दिया है । आप अपनी पत्नी के साथ अन्याय कर रहे हैं, व्यास साहब आप...”

“शान्तिस्वरूप” - व्यास कठोर स्वर में बोला - “इट्स नन् ऑफ युअर बिजनेस । बीवी मेरी है । वसीयत मेरी है । मैंने दोनों के बारे में क्या करना है, इसके लिए मुझे तुम्हारी राय की जरूरत नहीं ।”

“आई एम सॉरी ।” - वकील हड़बड़ाकर बोला ।

“नैवर माईण्ड ।”

उससे बाद वह वहां से विदा हो गया ।

अपनी कार खुद चलाता हुआ वह डिफैंस कॉलोनी पहुंचा ।

घर पहुंचते ही सबसे पहले उसका सामना अपने नौकर काशीनाथ से हुआ ।

“मेम साहब कहां है ?” - व्यास ने शालिनी के बारे में पूछा ।

“वे पार्टी में गई हैं, साहब ।” - काशीनाथ आदरपूर्ण स्वर में बोला ।

“अच्छा ! कब गई ?”

“अभी कोई आधा घण्टा पहले । आपको कहने को बोल गई हैं कि वे नौ बजे के करीब वापिस आयेंगी ।”

“यह नहीं बताया कि वे पार्टी में किसके यहां गई हैं ?”

“जी नहीं ।”

तभी उसे ड्राइंग-रूम के एक कोने में बैठा पवनकुमार दिखाई दिया । व्यास लम्बे डग भरता हुआ उसके पास पहुंचा । उसे देखते ही पवन उठखर खड़ा हो गया ।

“क्या बात है ?” - व्यास ने पूछा - “अपर्णा घर में नहीं है ?”

“वो ऊपर अपने बैडरूम में है ।” - पवन आदरपूर्ण स्वर में बोला ।

“यहां गुमसुम क्यों बैठे हो ? क्या उसे मालूम नहीं है कि तुम आए हो ?”

“मैंने काशीनाथ को मना किया था” - वह दबे स्वर में बोला - “कि वह मेरे आगमन की खबर अपर्णा को को न दे ।”

“वजह ?”

“साहब, आज मैं वहां अपर्णा से मिलने नहीं आया ।”

“तो ?”

“आज मैं आपसे मिलने आया हूं ।”

“अच्छा ! कोई खास बात है ?”

“जी हां । बहुत खास बात है ।”

“तुम इतने घबरा क्यों रहे हो ?”

“जी ! जी, कुछ नहीं । ऐसी कोई बात नहीं ।”

“बैठ जाओ ।”

“थैंक्यू सर ।” - वह वापिस सोफे पर बैठ गया ।

व्यास उसके सामने बैठ गया ।

“कुछ पियोगे ?” - व्यास ने पूछा ।

“जी ! जी नहीं । जी नहीं ।” - पवन हड़बड़ाया ।

व्यास कुछ क्षण गौर से उसे देखता रहा और फिर भावहीन स्वर में बोला - “पवन, कम्पोज युअरसैल्फ ।”

पवन ने थूक निगली, बेचैनी से पहलू बदला ।

“क्या कहना चाहते हो ?” - व्यास बोला ।

साहब, बात यह है सा... बात यह है कि मैं...”

“हकलाना बन्द करो और जो कहना है साफ-साफ कहो ।”

“मैं अपर्णा से शादी करना चाहता हूं ।” - पवन एकाएक फूट पड़ा ।

“तुम मेरी लड़की से शादी करना चाहते हो ?” - व्यास ने उसे घूरकर देखा ।

“जी... जी... जी... हां ।”

“तुम अपनी औकात को समझते हो ?”

“जी हां ।” - इस बार पवन स्थिर स्वर में बोला - “मेरी औकात को मेरे से ज्यादा और कौन समझ सकता है !”

“और यह भी जानते हो कि अपर्णा का क्या रुतबा है ?”

“जी हां ।”

“फिर भी तुम उससे शादी करने के ख्वाब देख रहे हो ?”

“जी हां ।”

“अपर्णा मेरी इकलौती बेटी है । अपनी इक‍लौती बेटी के पति में जो खूबियां मैं देखना चाहता हूं, वे मुझे तुममें तो दिखाई नहीं दे रहीं ।”

“लेकिन अपर्णा अपने पति में जो खूबियां देखना चाहती है; वे उसे मुझमें दिखाई देती हैं ।”

“वो अभी बच्ची है, नादान है । वो अभी नहीं समझती कि उसकी भलाई किस बात में है ।”

“आपकी निगाह में तो वो कयामत के दिन तक बच्ची और नादान रहेगी, लेकिन हकीकतन वो न बच्ची है और न नादान है । अपर्णा बाईस साल की है और अपनी भलाई खूब समझती है और, माफ कीजिएगा, आपसे बेहतर समझती है । सामाजिक स्तर में, मैं जानता हूं कि, मेरा आपका कोई मुकाबला नहीं । मैं आपका एक मामूली कर्मचारी हूं लेकिन मैं अपर्णा के लिए एक अच्छा पति बनकर दिखा सकता हूं ।”

“तुम किससे शादी के ख्वाब देख रहे हो ? मेरी बेटी से या मेरी दौलत से ?”

“आपकी बेटी से । आपकी दौलत से मुझे कोई सरोकार नहीं ।”

“यह बात तुम इसलिए कह रहे हो क्योंकि तुम जानते हो कि अपर्णा मेरी इकलौती औलाद है । अपनी दौलत मैं उसे नहीं दूंगा तो किसे दूंगा ।”

“यह बात नहीं है, साहब ।” - पवन पूरी संजीदगी से बोला ।

“मुझे कैसे मालूम हो कि यह बात नहीं है ।”

“अब मैं आपको कैसे समझाऊं !” - वह असहाय भाव से बोला ।

“अगर मैं अपनी बेटी की शादी तुमसे क‍रने से इनकार कर दूं तो तुम क्या करोगे ?”

“मैं क्या कर सकता हूं ?” - वह रुआंसे स्वर में बोला ।

“तुम मेरी बेटी को लेकर भाग नहीं जाओगे ?”

“जी !”

“अपने कथित प्यार की दुहाई देकर तुम अपर्णा को अपने साथ भाग चलने के लिए मजबूर नहीं कर दोगे ?”

“मैं ऐसा हरगिज नहीं करूंगा । आपकी शान-बान और रुतबे को बट्टा लगाने वाला कोई काम करने की मैं कल्पना नहीं कर सकता ।”

“आई सी ।”

“और फिर आप अपनी बेटी को भी गलत समझ रहे हैं । वह ऐसी किसी हरकत के लिए हरगिज तैयार नहीं होगी । उसकी निगाह में जो अहमियत आपकी है, वो मेरी नहीं है । आपकी रजामन्दगी के बिना वह मुझसे हरगिज शादी नहीं करेगी ।”

“ऐसा अपर्णा ने कहा है ?”

“जी हां ।”

“तुम मेरी बेटी को सुख से रख सकोगे ? उस सुख से रख सकागे जिसकी वो आदी है ?”

“साहब, मैं आपसे झूठ नहीं बोलूंगा । जो सुख अपर्णा को आपके घर में हासिल है, वो शायद मैं उसे नहीं दे पाऊंगा । मेरी औकात आपको मालूम है । मेरे सीमित साधनों से आपकी वाकफियत है...”

“तो फिर...”

“लेकिन एक चीज है जो अपर्णा को मैं दे सकता हूं, सिर्फ मैं । और वह चीज उन तमाम कमियों को पूरा कर देगी जो अपर्णा को मेरे साथ रहने पर झेलनी पड़ेगी ।”

“क्या ? प्यार ?”

“नहीं । प्यार तो उसे किसी भी पुरुष से मिल सकता है ।”

“तो तुम क्या दोगे उसे ?”

“निष्ठा । ईमानदारी । लायलटी । सिन्स‍ियरिटी ।”

“हूं” - व्यास कुछ क्षण सोचता रहा और फिर उठता हुआ बोला - “ठीक है ।”

“क्या ठीक है ?” - पवन सशंक स्वर बोला ।

“वही जो तुम कह रहे हो ।”

“यानी कि आप... आप हमें शादी की इजाजत दे रहे हैं ?”

“हां भई । अब क्या लिखकर देना होगा ?”

पवन हक्का-बक्का-सा व्यास का मुंह देखने लगा । उसकी सूरत से यूं लग रहा था जसे उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था । फिर एकाएक वह चाबी लगे खिलौने की तरह उछलकर खड़ा हो गया । उसका चेहरा हजार वाट के बल्ब की तरह रौशन हो उठा । उसने झपटकर व्यास का हाथ थामा और उसे हैंड पम्प की तरह ऊपर-नीचे चलाता हुआ बोला - “थैंक्यू । थैंक्यू, सर । थैक्यू वैरी मच, सर ।”

“अरे, अरे” - व्यास हड़बड़ाकर बोला - “क्या मेरी बांह उखाड़ोगे ?”

पवन ने तुरन्त उसका हाथ छोड़ दिया और शर्मिन्दगी-भरे स्वर में बोला - “सॉरी !”

व्यास मुस्कराया । लड़के का वह बेपनाह जोशोखरोश उसे बहुत अच्छा लगा ।

“मैं इजाजत चाहता हूं ।” - एकाएक पवन बोला ।

“अपर्णा से मिलकर नहीं जाओगे ?” - व्यास ने पूछा ।

“अभी नहीं ।”

“उसे वह खबर नहीं दोगे जिसे सुनकर तुम खुद आपे से बाहर हुए जा रहे हो ?”

“साहब, यह खबर आपके मुंह से सुनकर वह ज्यादा खुश होगी ।”

“ठीक है । मैं सुना देता हूं, लेकिन तुम कहां जा रहे हो ?”

“मैं हजार मीटर की रेस लगाने जा रहा हूं । मैं हवा में कलाबाजियां खाने जा रहा हूं । मैं जोर-जोर से गाने और चिल्लाने जा रहा हूं । मैं...”

“तुम्हारा दिमाग ठिकाने नहीं है ।”

“जी हां । यही बात है । यही बात है, साहब । मैं अपना दिमाग ठिकाने लगाकर अभी वापिस लौटता हूं । थैंक्स अगेन, सर ।”

और वह वहां से सरपट भागा । ड्राइंग-रूम के दरवाजे पर उसने किसी चीज से ठोकर खाई । वह औंधे-मुंह गिरने से बाल-बाल बचा और फिर सम्भल गया । लेकिन फिर भी उसकी रफ्तार में कमी न आई ।

व्यास सीढियों की ओर बढा ।

वह ऊपर अपर्णा के कमरे में पहुंचा ।

वह ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी बाल संवार रही थी और शायद कहीं जाने की तैयारी कर रही थी ।

“हल्लो पापा !” - वह बोली ।

“हल्लो” - व्यास बोला - “अभी पवन‍ आया था ।”

“अच्छा ! मुझसे तो मिला नहीं ।”

“वह जरा जल्दी में था । लेकिन वह तुम्हें एक जरूरी सन्देशा देने का काम मुझे सौंप गया है ।”

“कैसा सन्देशा ?”

“उसने कहलवाया है कि अपर्णा के पिता ने उन दोनों की शादी के लिए हां कर दी है ।”

अपर्णा के हाथ से कंघी निकल गई । वह अपलक अपने पिता का मुंह देखने लगी । एकाएक उसके होंठ कांपने लगे और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे ।

व्यास एक स्टूल खींचकर उसके सामने बैठ गया । उसने उसके आंसू पोंछे और प्यार-भरे स्वर में बोला - “रोती क्यों है, पगली ? मैं क्या तुमसे बाहर हूं ? तुम्हारी खुशी क्या मेरी खुशी नहीं ?”

“थैंक्यू, पापा ।” - वह पूर्ववत रोती हुई बोली ।

तभी काशीनाथ वहां पहुंचा । वह दरवाजे पर ठिठककर खड़ा हो गया और धीरे से बोला - “साहब !”

“क्या है ?” - व्यास ने सिर उठाकर पूछा ।

“नीचे ड्राइंगरूम वाले फोन पर आपकी कॉल है, साहब ।” - उसने बताया ।

“कौन है ?”

“कोई आदमी है । नाम नहीं बता रहा । सिर्फ आपसे बात करना चाहता है ।”

“मैं आता हूं ।”

काशीनाथ सहमति से सिर हिलाता हुआ वहां से चला गया ।

व्यास उठा । उसने बड़े प्यार से अपर्णा का कंधा थपथपाया और मीठे स्वर में बोला - “आई विश यू आल दि बैस्ट, माई चाइल्ड ।”

“थैंक्यू, पापा ।” - वह भर्राए में बोली ।

व्यास नीचे ड्राइंगरूम में पहुंचा ।

उसने क्रेडिल से अलग पड़ा टेलीफोन का रिसीवर उठाकर कान से लगाया और बोला - “हल्लो !”

“व्यास साहब !” - दूसरी ओर से किसी ने सावधान स्वर में पूछा ।

“हां, बोल रहा हूं ।”

“व्यास साहब, मैं केस नम्बर के वी-176 के सन्दर्भ में यूनीवर्सल इनवेस्ट‍िगेशंस का फील्ड आपरेटिव बोल रहा हूं । हमारे साहब ने पत्र में आपको बताया ही होगा कि मैं आपको सीधे फोन करूंगा ।”

“हां-हां, बताया था” - व्यास व्यग्र स्वर में बोला - “क्या खबर है ?”

“जिन दो जनों की निगरानी का काम आपने हमें सौंपा हुआ है, वे दोनों इस वक्त राजपुर रोड वाले फ्लैट में मौजूद हैं ।”

“तुमने अपनी आंखों से उन्हें देखा है ?” - व्यास उत्तेजित स्वर में बोला ।

“मैंने उन्हें फ्लैट के भीतर तो नहीं देखा, लेकिन वहां पहुंचते हुए मैंने उन्हें अपनी आंखों से देखा था । इस वक्त भी वे फ्लैट में मौजूद हैं । आप अभी यहां आ जायें तो उन्हें रंगे हाथों पकड़ सकते हैं ।”

“मैं फौरन आ रहा हूं । क्या किसी गवाह को भी साथ लाऊं ?”

“नहीं, आप अकेले ही आइये । एक गवाह तो मैं ही हूं । दूसरा एक फोटोग्राफर भी मेरे साथ है ।”

“ओ के ।”

“आप यहां कैसे आएंगे ?”

“कार पर ।”

“उसे खुद चलाकर ?”

“हां ।”

“आप मुझे कहां मिलेंगे ?”

“तुम बताओ ।”

“आप लुडलो कैसल रोड की तरफ से आइयेगा और उसका और राजपुर रोड का चौराहा पारा करने के बाद राजपुर रोड पर कार को एक किनारे लगाकर रोक दीजियेगा । मैं खुद आपके पास पहुंच जाऊंगा ।”

“ठीक है ।”

“मैं आपको पहचानता नहीं । अन्धेरे में आपको पहचानना और भी मुश्क‍िल होगा इसलिए आप मुझे अपनी कार का हुलिया बता दीजिए । मेरे लिए कार पहचानना आसान होगा ।”

“कार चाकलेट रंग की नई एम्बैसेडर है । मार्क फोर । नम्बर डी जे एल 3434 है ।”

“शुक्रिया मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूं । फौरन पहुंचिये । देर हो जाने पर पंछी उड़ जाएगा और फिर पिंजरा खाली मिलेगा ।”

“मैं फौरन आ रहा हूं ।”

व्यास ने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया ।

कमीनी - उसके मुंह से निकला - कहती थी किसी की पार्टी में जा रही हूं । और मना रही है यार के साथ रंगरलियां । आज मैं कहानी खत्म करता हूं इसकी ।

उसने काशीनाथ को बुलाया ।

“मैं बाहर जा रहा हूं” - वह बोला - “वापिसी के बारे में कोई पूछे तो कह देना कि तुम्हें पता नहीं है कि मैं कब लौटूंगा । और कोई खाने पर मेरा इन्तजार न करे ।”

काशीनाथ ने सहमति से सिर हिलाया ।

व्यास इमारत से बाहर निकला, अपनी कार पर सवार हुआ और राजपुर रोड की ओर उड़ चला । वह साधारण गति से बहुत ज्यादा तेज कार चला रहा था । राजपुर रोड का वहां से काफी फासला था और वह वहां जल्द-से-जल्द पहुंचना चाहता था ।

पुराने किले के पास से उसने गाड़ी रिंग रोड पर डाल दी । उस रास्ते पर प्राय: केवल तेज चलने वाले वाहन ही चलते थे । इसलिए वह वहां अपेक्षाकृत तेज कार चला सकता था ।

लुडलो कैसल रोड से होता हुआ वह राजपुर रोड वाले चौराहे पर पहुंचा । उसने कार को थोड़ा आगे बढाया और फिर उसे एक ओर रोक दिया । उसने कार की हैडलाइट बन्द कर दी लेकिन इंजन चालू रहने दिया ।

सड़क पर तेज रफ्तार ट्रैफिक की आवाजाही जारी थी ।

भारी उत्कंठा का अनुभव करते हुए व्यास प्रतीक्षा करता रहा ।

तभी एक भारी-भरकम आदमी कार के समीप पहुंचा । उसने कार का परली तरफ का दरवाजा खोला और भीतर दाखिल होकर व्यास की बगल में बैठ गया ।

“व्यास साहब !” - वह आदरपूर्ण स्वर में बोला ।

“हां” - व्यास बोला - “फोन तुमने किया था ?”

“जी हां ।”

“वे दोनों अभी भी फ्लैट में हैं ?” - व्यास ने पूछा । उसने उस आदमी की आवाज अब पहचान ली थी । फोन निश्चय ही उसने किया था ।

“जी हां । मैं फोटाग्राफर को फ्लैट की निगरानी के लिए छोड़कर आया हूं ।”

“तुमने मेरी बीवी को ठीक से पहचाना था ?”

“जी हां ।”

“और प्रदीप पुरी को भी ?”

“जी हां । ऐसे मामलों में हमसे भूल होने लगेगी तो हमारा धन्धा कैसे चलेगा ?”

“गुड । नाम क्या है तुम्हारा ?”

“बन्दे को जग्गी कहते हैं ।”

“जग्गी, अब क्या करना है ?”

“अब फ्लैट पर चलते हैं और उन दोनों को रंगे हाथों पकड़ते हैं ।”

“ठीक है ।” - व्यास दांत पीसकर बोला । उसने कार को गियर में डालने की नीयत से हाथ आगे बढाया ।

तभी जग्गी का हाथ हवा में अर्धवृत-सा बनाता हुआ घूमा और उसके उस हाथ में थमें लोहे के डण्डे का प्रहार व्यास की कनपटी पर पड़ा । व्यास के मुंह से हल्की-सी कराह निकली और वह स्टीयरिंग पर ढेर हो गया ।

जग्गी कुछ क्षण डण्डा उसके सिर पर ताने रहा, लेकिन फिर जब उसने देखा कि दूसरे प्रहार की जरूरत नहीं थी तो उसने डंडा वापिस अपने कोट की जेब में डाल लिया । उसने व्यास के शरीर को स्टियरिंग पर से उठाकर सीधा किया और उसकी पीठ कार की सीट की पीठ के साथ टिका दी ।

वह नहीं चाहता था कि समीप से गुजरते किसी वाहन के ड्राइवर को कार के भीतर कोई असाधारण बात दिखाई दे ।

एक बार जब सड़क खाली हुई तो उसने व्यास के शरीर को स्ट‍ियरिंग के पीछे हटाने को अपने को अपनी ओर खींचा ।

एकाएक वह ठिठक गया ।

व्यास का सिर गेंद की तरह उसकी छाती पर लुढका पड़ रहा था ।

उसने झपटकर उसकी कलाई थामी और उसकी नब्ज टटोली ।

नब्ज गायब थी ।

उसने उसके दिल पर हाथ रखा ।

दिल की धड़कन भी गायब थी ।

वह मर चुका था ।

मारने तो जग्गी उसे आया ही था, लेकिन उसका यूं एकाएक मर जाना उसकी योजना में शामिल नहीं था । प्रदीप पुरी से उसका यह फैसला हुआ था कि वह वहां व्यास पर एक प्रहार करके उसे बेहोश कर देगा और फिर इसे रिज की पहाड़ी पर ले जाएगा । वहां वह उसे कार के स्ट‍ियरिंग के पीछे बिठाकर कार को इस प्रकार शंकर रोड की ढलवां सड़क पर लुढका देगा कि कार किसी बस या ट्रक की चपेट में आ जाए और बाद में यूं लगे कि व्यास कार एक्सीडेंट में मारा गया था ।

लेकिन अब उस बात की गुंजाइश नहीं रही थी । शंकर रोड का वहां से काफी फासला था । वहां पहुंचने तक लाश एकदम ठण्डी हो सकती थी और बाद में पोस्टमार्टम होने पर यह मालूम हो सकता था कि वह एक्सीडेंट से बहुत पहले मर चुका था ।

अब उसने जो करना था, वहीं राजपुर रोड पर करना था और फौरन करना था ।

व्यास को राजपुर रोड बुलाना इसलिए जरूरी था कि क्योंकि वहां के अतिरिक्त उसे और कहीं बुलाने का उनके पास कोई बहाना नहीं था । वहां तो वह राजपुर रोड वाले फ्लैट पर छापा मारने की नीयत से दौड़ा चला आया था ।

उसने व्यास के सिर को उस स्थान पर टटोला जहां उसने डंडे से प्रहार किया था । यह देखकर उसे बड़ी रात महसूस हुई कि सिर फटा नहीं था । केवल वहां खाल रगड़ी गई थी और वह भी बालों के बीच छुपी हुई थी ।

अब वह क्या करे ?

क्या वह लाश को वहां यूं ही छोड़ जाए ?

लेकिन ऐसे तो अन्धे को भी दिखाई दे जाता कि वह हत्या का मामला था ।

फिर उसे याद आया कि प्रदीप पुरी ने कहा था कि बूढा दिल का मरीज था ।

वह बात याद आते ही उसने फौरन अपना अगला कदम निर्धारित कर लिया ।

हालात जाहिर कर रहे थे कि बूढा उसके डण्डे की चोट नहीं मरा था बल्कि उस अप्रत्याशित आक्रमण के शॉक से उसने कमजोर, पहले ही बीमार, दिल की धड़कन रुक गई थी ।

उसने व्यास का लाश को स्ट‍ियरिंग के पीछे ही पड़ा रहा दिया और उसका एक पांव एक्सीलेटर पर टिका दिया । उस उस पर से झुककर कार गियर में डाला, क्लच आपरेट किया और एक्सीलेटर पर रखे व्यास के पांव पर अपना पांव रखकर दबाया ।

कार आगे बढी ।

उसने दूसरा गियर लगाया ।

कार ने जरा और रफ्तार पकड़ी तो वह कार का अपनी तरफ का दरवाजा खोलकर बाहर कूद गया ।

कार आगे को भागी ।

वह एक कंधे के बल सड़क से टकराया और फिर तत्काल उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया ।

कार अन्धकार में उसकी दृष्ट‍ि से ओझल हो गई ।

कुछ क्षण बाद एक जोर की धड़ाम की आवाज उसके कान में पड़ी ।

कार प्रत्यक्षत: आगे जाकर किसी चीज से टकरा गई लेकिन जग्गी यह देखने के लिए वहां रुका नहीं कि कार किस चीज से टकराई थी ।