जैसा कि अपेक्षित था, पुलिस दल की अगुवाई करता इन्स्पेक्टर यादव वहां पहुंचा ।
ताजा ताजा सब-इन्स्पेक्टर से इन्स्पेक्टर बना यादव एक लगभग पैंतीस वर्ष का, छ फुट से भी ऊपर निकलते कद का, हट्टा-कट्टा कड़ियल जवान था जो फ्लाइंग स्क्वाड के उस दस्ते से संबंधित था जो केवल कत्ल के केसों की तफतीश के लिए भेजा जाता था ।
मुझे वहां मौजूद पाकर उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आए ।
“तुम यहां क्या कर रहे हो ?” - वह बोला ।
“तुम्हारा इंतजार” - मैं तनिक खिसियाया सा हंसा - “बहुत दिनों से मुलाकात जो नहीं हुई ।”
“इन्स्पेक्टर साहब” - खरबन्दा हैरानी से बोला - “आप इस शख्स को जानते हैं ?”
“बखूबी” - यादव बोला - “इसका नाम सुधीर कोहली है । यह एक प्राइवेट डिटेक्टिव है ।”
“प्राइवेट डिटेक्टिव ! लेकिन यह तो अपने आपको टेलीफोन मिस्त्री बता रहा था ।”
यादव ने मेरी तरफ देखा ।
मैं बेशर्मी से हंसा ।
“इसकी असलियत कुछ भी हो” - खरबन्दा कड़े स्वर में बोला - “उससे इस हकीकत में कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह चोरों की तरह यहां घुसा है और ताजे-ताजे कत्ल हुए एक शख्स के साथ रंगे हाथों पकड़ा गया है ।”
“यह भीतर कैसे आया ?” - यादव बोला ।
“कहता है मेरी बीवी ने इसके लिए दरवाजा खोला था जो कि नामुमकिन है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मेरी बीवी यहां नहीं रहती । उसकी यहां मौजूदगी मुमकिन नहीं है । एक हफ्ता पहले मेरी बीवी तलाक हासिल करने की मंशा से मेरे से अलहदा हो चुकी है । ऊपर से यहां मौजूद किसी औरत का जो हुलिया यह बताता है वो मेरी बीवी से नहीं मिलता ।”
“ये ठीक कह रहे हैं ?” - यादव मुझे घूरता हुआ बोला ।
“मैंने उस औरत को इनकी बीवी समझा था” - मैं बोला - “उसने भी ऐसा ही जताया था जैसे वो इनकी बीवी हो । असल में वो कौन थी, मुझे नहीं मालूम ।”
“लेकिन थी यहां ऐसी कोई औरत ?”
“हां ।”
“उस औरत का किस्सा तुम्हारा मनघडन्त नहीं ?”
“नहीं ।”
यादव के चेहरे पर विश्वास के भाव न आए ।
“कत्ल किसका हुआ है ?” - वह बोला ।
“मुझे नहीं पता । मकतूल को मैं नहीं पहचानता ।”
“मैं पहचानता हूं ।” - खरबन्दा बोला ।
“अच्छा ! कौन है वो ?”
“उसका नाम सुभाष पचेरिया है । वह कभी मेरा मुलाजिम हुआ करता था । थियेटर की रकम का गोलमाल करता पकड़ा गया था । अदालत में उसका जुर्म साबित हुआ था और उसे सजा हुई थी । हाल ही में वो जेल से छूटा था ।”
“इस लिहाज से तो” - मैं बोला - “मकतूल की तुम्हारे से रंजिश हुई ।”
“मतलब ?” - खरबन्दा मुझे घूरता हुआ बोला ।
“जिस आदमी को तुमने जेल भिजवाया था, जेल से छूटने के बाद उसने तुम्हारे से बदला लेने की कोशिश की हो सकती है । वो वहां तुम्हारे फ्लैट पर आया होगा और इससे पहले कि वो तुम्हें कोई नुकसान पहुंचा सकता, तुमने उसे शूट कर दिया होगा ।”
“बदला किस बात का ?”
“शायद गबन के इल्जाम में तुमने उसे बेगुनाह फंसाया हो ।”
“तुम...तुम भांग तो नहीं खा गए हो ?”
“मैं भांग नहीं खाता । अलबत्ता विस्की पीता हूं । फेवरेट ब्रांड पीटर स्कॉट । होगी इस वक्त यहां ?”
“शट अप !”
“इन्स्पेक्टर साहब, मकतूल को शूट किया गया है और रिवाल्वर सिर्फ इनके पास है ।”
“मेरे पास रिवाल्वर का लाइसेंस है और रिवाल्वर मैं प्रोटेक्शन के लिए रखता हूं ।”
“ऐसे आदमी से प्रोटेक्शन के लिए जिसे तुमने बेगुनाह जेल भिजवाया हो ?”
“मैं तुम्हारे बाद यहां आया था ।” - खरबन्दा गुस्से से चिल्लाया ।
“वो तुम्हारा दूसरा फेरा होगा ।” - मैं पूरी ढिठाई से बोला - “पहली बार कत्ल किया किया, दूसरी बार लाश ठिकाने आए ।”
“ठहर जा साले !” - खरबन्दा दांत पीसता हुआ मेरी तरफ झपटा ।
“खबरदार !” - यादव गर्जा ।
खरबन्दा रास्ते में ही ठिठक गया । वह कुछ क्षण बड़े हिंसक भाव से मुझे देखता रहा, फिर बड़ी कठिनाई से उसने अपने आप पर जब्त किया और फिर बोला - “मैं सीधा अपने ऑफिस से यहां आया हूं । आप चाहें तो मेरी सैक्रेट्री से इस बात की तसदीक कर सकते हैं ।”
“मैं भी सीधा अपने ऑफिस से यहां आया हूं” - मैं बोला - “मेरी सैक्रेट्री भी इस बात की तसदीक कर सकती है ।”
“लेकिन यहां आए क्यों ?” - खरबन्दा बोला - “क्यों चोरों की तरह यहां घुसे ?”
“जवाब दो” - यादव बोला ।
“इनसे बात करने के लिए” - मैं बोला - “ये क्योंकि बातचीत के लिए मुझे अपने पास फटकने नहीं दे रहे थे इसलिए जबरन इनके रूबरू होने का मैंने यह तरीका निकाला । मुझे इनके यहां होने की उम्मीद थी इसलिए मैं टेलीफोन मैकेनिक के इस बहुरूप में आया था जो कि मुझे यहां दाखिला दिला सकता था और इन तक पहुंचा सकता था ।”
“कमाल है” - खरबन्दा हैरानी से बोला - “ऐसी क्या बात करना चाहते थे तुम मेरे से ?”
“मैं तुमसे तुम्हारे भूतपूर्व पार्टनर और मेरे ब्रैंड न्यू क्लायंट पंचानन मेहता से बिना कोर्ट कचहरी के पचड़े में पड़े सैटलमेंट की बात करना चाहता था ।”
“सैटलमेंट ! कैसा सैटलमेंट ?”
मैंने बताया ।
“तुम पागल तो नहीं हो ?” - खरबन्दा हैरानी से बोला ।
“क्या किस्सा है ?” - यादव बोला ।
मैंने सविस्तार कोख का कलंक के संदर्भ में पंचानन मेहता के साथ हुई संभावित धोखाधड़ी का वर्णन किया ।
“नॉनसैन्स !” - खरबन्दा मुंह बिगाड़कर बोला ।
“इस बात में कोई दमखम मान भी लिया जाए” - यादव बोला - “मान भी लिया जाए कि खरबन्दा साहब ने कोख का कलंक के मामले में तुम्हारे साथ कोई धोखाधड़ी की है तो भी इस धोखाधड़ी का सुभाष पचेरिया नाम के खरबन्दा साहब के भूतपूर्व मुलाजिम के कत्ल से क्या रिश्ता हुआ ?”
“क्या रिश्ता हुआ ?” - खरबन्दा पुरजोर लहजे से बोला ।
सबकी निगाहें मेरे पर स्थिर थीं, मेरे से कोई उत्तर अपेक्षित था लेकिन मेरे पास कोई उत्तर नहीं था । मौजूदा हालात में पंचानन मेहता के साथ हुई धोखाधड़ी से सुभाष पचेरिया नाम के शख्स की मौत का रिश्ता जोड़ पाने में मैं असमर्थ था ।
तभी पुलिस के डॉक्टर ने बैडरूम से बाहर कदम रखकर मुझे उस दुश्वारी से वक्ती निजात दिलाई ।
“मेरा सरसरी तौर पर किया गया मुआयना” - डॉक्टर बोला - “यह बताता है कि मौत बत्तीस कैलीबर की रिवाल्वर से निकली गोली से कोई दो घंटे पहले हुई ।”
“खरबन्दा साहब की रिवाल्वर बत्तीस कैलीबर की है ।” - मैंने जले पर नमक छिड़कने के अंदाज से कहा ।
“आप अपनी रिवाल्वर इधर मुझे दीजिये” - यादव बोला ।
खरबन्दा ने बड़े अनिच्छापूर्ण भाव से रिवाल्वर यादव को सौंप दी ।
यादव ने अपनी व्यवसायसुलभ दक्षता से रिवाल्वर का मुयायना किया ।
“एक चैंबर खाली है” - वह बोला - “और साफ मालूम हो रहा है कि इसमें से हाल ही में गोली चलाई गई है ।”
“मैंने रिवाल्वर” - खरबन्दा ने बिना मांगे सफाई पेश की - “सबके सामने उस मेज के दराज से निकाली थी ।”
“इससे क्या साबित होता है ?” - मैं लापरवाही से बोला - “ये रिवाल्वर चला कर उसे वापिस मेज के दराज में रख सकते हैं और फिर बड़ी मासूमियत से गवाहों के सामने दोबारा मेज के दराज से निकाल सकते हैं । इस तरीके से कत्ल करते वक्त अगर इनकी उंगलियों के निशान मर्डर वैपन पर रह गए होते तो अपनी इस लापरवाही को भी यूं ये बड़ी खूबी से कवर कर लेते ।”
“इन्स्पेक्टर साहब” - खरबन्दा यूं बोला जैसे अंगारों पर लौट रहा हो - “मैं एक इज्जतदार शहरी हूं । मेरे अपने फ्लैट में एक कुत्ता मुतवातार मेरे पर भौंक रहा है और आप उसे चुप नहीं करा सकते । ये कैसी अंधेरगर्दी है ! ये कैसा इंसाफ है !”
यादव सकपकाया ।
“यह न भूलिए कि आप यहां एक कत्ल की वजह से ही नहीं एक ऐसे शख्स की वजह से भी आए हैं जो चोरों की तरह मेरे फ्लैट में घुसा है और रंगे हाथों पकड़ा गया है । मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं कि यह शख्स आपका पुराना वाकिफ है या कोई प्राइवेट डिटेक्टिव जैसे नामालूम धंधे का नुमायन्दा । मेरी निगाह में यह महज एक चोर है जो कि कातिल भी हो सकता है । घुड़सवार की वो बेशकीमती मूर्ति इसके हाथ में थी जब कि मैं यहां पहुंचा था । गुप्ता साहब इस बात के गवाह हैं । अब मौजूदा हालात में अगर आपने इस शख्स पर कोई वाजिब एक्शन लिया तो मैं आपकी पुलिस कमिश्नर से शिकायत करूंगा, मैं होम मिनिस्टर तक पहुंचूंगा, जनाब ।”
“कौन कहता है इसके हम इस पर एक्शन नहीं लेंगे ?” - यादव दबे स्वर में बोला - “आप इसके खिलाफ कम्प्लेंट लिखाने को तैयार हैं ?”
“बखुशी । अभी । इसी वक्त ।”
मेरा दिल डूबने लगा । इस मुसीबत से आपके खादिम को अगर कोई उबार सकता था तो वह वो कटे बालों वाली युवती थी जो पता नहीं कौन थी और कहां गायब हो गई थी ।
“इनकी कम्प्लेंट दर्ज करो” - यादव तब मातहत से बोला - “और एक जीप पर एक पुलिस पार्टी को खरबन्दा साहब और कोहली के ऑफिसों की तरफ रवाना करो जो इसके इन दोनों की सैक्रेट्रीयों को वहां से लेकर आए । और हैडक्वार्टर से पैराफीन टैस्ट की किट मंगाओ ।”
“उसका क्या होगा ?” - मेरे मुंह से निकला ।
“तुम्हारे हाथों का पैराफीन टैस्ट किया जाएगा । अगर तुमने हाल में ही रिवाल्वर चलाई होगी तो उस टैस्ट से तुम्हारी चमड़ी में पेवस्त हो गए बारूद के कण पैराफीन पर आ जाएंगे ।”
“मैंने रिवाल्वर चलाई होगी ?” - मैं अचकचाया ।
“तुम यहां चोरों की तरह तो यकीनन घुसे हो । यहां मौजूद कटे बालों वाली युवती वाली तुम्हारी कहानी फर्जी हो सकती है । मकतूल तब ऊपर से यहां आया हो सकता है जब कि तुम किसी खास चीज की तलाश में यहां की तलाशी ले रहे थे । हो सकता है अपना वो अपराध छुपाने के लिए तुमने दराज में से रिवाल्वर निकाली हो और सुभाष पचेरिया को शूट कर दिया हो और फ्लैट के मालिक के यहां पहुंचने से पहले रिवाल्वर वापिस दराज में रख दी हो ।”
“क्या कहने ?” - मैं विषभरे स्वर में बोला - “अभी तुम्हारा खुद का डॉक्टर कह कर हटा है कि मकतूल को मरे दो घंटे हो गए हैं । इन्स्पेक्टर साहब, कत्ल कर चुकने के बाद मैं दो घंटे यहीं क्यों बैठा रहा ? क्या इसलिए कि फ्लैट का मालिक यहां पहुंचे और मुझे दबोच ले ? मैं आपको इतना ही अहमक लगता हूं !”
“मैंने कत्ल का वक्त अंदाजन बताया है” - डॉक्टर दबे स्वर में बोला - “उसमें घट बढ़ हो सकती है । असलियत तो पोस्टमार्टम से ही मालूम होगी ।”
“सुना !” - यादव बोला ।
“सुना ।” - मैं बोला - “लेकिन....”
“तुम्हें पैरफीन टैस्ट से एतराज है ?”
“मुझे कोई ऐतराज नहीं बशर्ते कि मेरे साथ वही टैस्ट खरबन्दा साहब का भी किया जाए ।”
“मेरा किसलिए ?” - खरबन्दा तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “मैं तो...”
“अगर आप निर्दोष हैं” - यादव बोला - “तो आपको इस मामूली टैस्ट से कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए ।”
“एग्जैक्टली” - मैंने दुक्की लगाई ।
“यू शट अप” - खरबन्दा चिल्लाया ।
चेहरे पर एक धृष्टतापूर्ण मुस्कराहट लिए मैं परे देखने लगा ।
“तो” - यादव बोला - “आपको पैराफीन टैस्ट से कोई एतराज ?”
“मुझे क्या एतराज होगा ?” - वह हाथ फैलाकर बोला - “इन्स्पेक्टर साहब, कानून की राह में रोड़े अटकाने की मेरी कतई कोई मंशा नहीं है ।”
“सैड लाइक से सॉलिड सिटीजन” - मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
खरबन्दा ने यूं मेरी तरफ देखा कि अगर निगाहों से ही किसी का कत्ल करना संभव होता तो मैं शर्तिया मरा पड़ा होता ।
पैराफीन टैस्ट हुआ । मेरे और खरबन्दा किसी की भी चमड़ी में पैवस्त जले बारूद के कण न मिले ।
जो कि कोई बड़ी बात नहीं थी ।
गोली चलाते वक्त खरबन्दा ने दस्ताने पहने हो सकते थे या अपने रिवाल्वर वाले हाथ पर रुमाल लपेटा हो सकता था ।
फिर खरबन्दा की सैक्रेट्री वहां पहुंची ।
वह कोई चौबीस पच्चीस साल की अच्छी शक्ल सूरत वाली लड़की थी, जिसका नाम श्रीलेखा बताया गया ।
यादव ने मुझे दिखा कर उससे सवाल किया कि क्या वह मुझे पहचानती थी ?
“हां” - उत्तर में श्रीलेखा बोली - “कल सारा दिन ये साहब हमारे ऑफिस के गिर्द मंडराते रहे थे । इन्हें कई बार कहा गया था कि खरबन्दा साहब के पास इनसे मिलने का वक्त नहीं था लेकिन ये टलते ही नहीं थे ।”
फिर उसने इस बात की भी तसदीक की कि फ्लैट पर पहुंचने के टाइम से आधा घंटा पहले तक खरबन्दा अपने ऑफिस में था ।”
“और” - खरबन्दा बोला - “ऑफिस से निकलते ही मुझे रूद्रनारायण जी मिल गए थे । यहां पहुंचने तक हर क्षण मैं इनके साथ था ।”
रूद्रनारायण ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कोहली की सैक्रेट्री क्यों नहीं आई ?” - यादव ने पूछा ।
“वो ऑफिस में नहीं थी ।” - एक पुलिसिए ने जवाब दिया ।
“कहां गई तुम्हारी सैक्रेट्री ?” - यादव ने मेरे से पूछा ।
“क्या पता कहां गई ?” - मैं लापरवाही से बोला - “मिलेगी तो पूछूंगा ।”
“आज तो क्या मिलेगी ?”
“क्यों ?”
“क्योंकि” - यादव सर्द स्वर में बोला - “मैं तुम्हें ब्रेकिंग एंड एंटरिंग के इल्जाम में गिरफ्तार कर रहा हूं ।”
यादव की उस घोषणा को सुनते ही खरबन्दा का चेहरा हजार वाट के बल्ब की तरह दमकने लगा । उसने एक विजेता की तरह मेरी तरफ देखा ।
आपका खादिम खून का घूंट पीकर रह गया ।
***
मैं बड़ी मुश्किल से छूटा ।
इन्स्पेक्टर यादव ने पुरानी दोस्ती का लिहाज दिखाया और अगले रोज डी सी पी के हुजूर में पेश होने का निर्देश देकर मुझे अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी पर रिहा कर दिया । मेरी रिहाई में रजनी का भी हाथ था जिससे यादव की फोन पर बात हो चुकी थी और जिसने यादव को बताया था कि मैं ऑफिस से ही सीधा खरबन्दा के फ्लैट पर पहुंचा था और यह कि कत्ल के संभावित वक्त के आसपास मैं अपने ऑफिस में था ।
मैं अपने ऑफिस में पहुंचा ।
मैंने पंचानन मेहता को फोन किया और उसे सारा वाकया सुनाया ।
“मेरे केस में” - पंचानन मेहता सारी बात सुन चुकने के बाद बोला - “और पचेरिया के कत्ल में क्या रिश्ता हुआ ?”
“यही तो मैं तुमसे पूछ रहा हूं ।” - मैं बोला ।
“मुझे तो कोई रिश्ता नहीं दिखाई देता ।”
“यानी कि इसे महज इत्तफाक माना जाए कि जब तुम मेरे पास आए और तुम्हारी खातिर मैं खरबन्दा के पीछे पड़ा, ऐन तभी ताजा-ताजा जेल से छूटा पचेरिया भी कत्ल होने के लिए खरबन्दा के फ्लैट पर पहुंच गया ।”
“हां । पचेरिया का कत्ल जरूर खरबन्दा ने ही किया होगा ।”
“उसके पास अपनी बेगुनाही सिद्ध करने के लिए बड़ी मजबूत एलीबाई है ।”
“तो करवाया होगा ।”
“क्यों ?”
“उसने पचेरिया के साथ बड़ी नाइंसाफी की थी और उसे बेगुनाह जेल भिजवाया था । वह पचेरिया को ठिकाने न लगवाता तो जरूर पचेरिया उसे ठिकाने लगवा देता ।”
“हूं । एक बात बताओ ।”
“क्या ?”
“क्या खरबन्दा की सैक्रेट्री उसकी खातिर झूठ बोल सकती है ?”
“कैसा झूठ ?”
“यही कि कत्ल के आसपास वो ऑफिस में था ।”
“बोल तो सकती है ।”
“तुम उससे वाकिफ हो ?”
“नहीं ।”
“क्यों ? क्या वो वही सैक्रेट्री नहीं जो तुम्हारी और खरबन्दा की पार्टनरशिप के दौरान उत्कल प्रकाशन की नौकरी करती थी ?”
“नहीं । वो सैक्रेट्री - प्रीति नारंग - मुझे पता लगा है वहां से नौकरी छोड़ चुकी है ।”
“वजह ?”
“कोई भी वजह हो सकती है । मुमकिन है कोई बेहतर नौकरी मिल गई हो । या शादी हो गई हो और पति पत्नी से नौकरी न करवाना चाहता हो ।”
“ओह ! तो इस नई सैक्रेट्री श्रीलेखा से तुम्हारी कोई वाकफियत नहीं ?”
“मैंने कभी सूरत भी नहीं देखी उसकी ।”
“हूं । अब खरबन्दा की बीवी के बारे में बताओ ।”
“मधुमिता के बारे में ?”
“हां ।”
“क्या बताऊं ?”
“कहां रहती है वो ?”
“कहां रहती है क्या मतलब ? वहीं रहती है जहां उसका पति रहता है ।”
“वो खरबन्दा के यहां नहीं रहती अब । खरबन्दा ने खुद बताया था कि एक हफ्ता हुआ वह उसे छोड़ गई हुई है ।”
“ओह ! मुझे पहले ही शक था कि यह शादी चलने की नहीं ।”
“शक था या गारंटी थी ?”
“क्या मतलब ?”
“कल तुम उसके खरबन्दा से तलाक के बाद उससे शादी करने की बात कर रहे थे । जरूर तुम्हें पहले से खबर थी कि मधुमिता खरबन्दा को तलाक देने की सोच रही थी ।”
“बिल्कुल गलत । मुझे ऐसी कोई खबर नहीं थी ।”
“तुम मधुमिता से कब से नहीं मिले ?”
“कई दिन हो गए हैं ।”
“एक हफ्ते से ज्यादा ?”
“बहुत ज्यादा ।”
“दो हफ्ते ! तीन हफ्ते !”
“इससे भी ज्यादा ।”
“हूं । अब वो कहां होगी ?”
“कह नहीं सकता ।”
“फिर भी !”
“शायद फरीदाबाद में अपनी मौसी रुक्मणी गुप्ता के यहां हो ।”
“तुम उसे तलाश कर के उस से मेरी मुलाकात करवा सकते हो ?”
“आज तो शायद मुमकिन न हो ।”
“कल सही ।”
“कल तुम कहां मिलोगे ?”
कल सुबह सब से पहले तो मैंने डी सी पी की कोर्ट में पेश होना है ।”
“कहां ?”
“निजामुद्दीन थाने में ।”
“वहां कब तक रहोगे ?”
“क्या पता कब तक रहूंगा । मुमकिन है सारा दिन लग जाए । मुमकिन है रिहाई हो ही नहीं ।”
“ऐसा भी अंदेशा है ?”
“पूरा पूरा ।”
“ठीक है । मैं कल किसी न किसी तरीके से कहीं ना कहीं तुम्हारी उससे मुलाकात करवा दूंगा ।”
“गुड ।”
“वैसे मुलाकात से हासिल क्या करना चाहते हो तुम ?”
“मैं उससे खरबन्दा की किसी संभावित गर्ल फ्रेंड के बारे में पूछना चाहता हूं ।”
“गर्ल फ्रेंड ?”
“हां । मुझे शक है कि जो कटे बालों वाली लड़की खरबन्दा के फ्लैट में मौजूद थी और जिसके अस्तित्व तक पर कोई विश्वास नहीं कर रहा, वह खरबन्दा की गर्ल फ्रेंड थी ।”
“जरूरी थोड़े ही है कि मधुमिता को गर्ल फ्रेंड की कोई जानकारी हो !”
“जब मियां बीवी में नौबत तलाक की आई हुई हो तो बीवी को मियां की किसी गर्ल फ्रेंड की जानकारी की संभावना बहुतेरी होती है ।”
“ओह !”
“तो तुम कल मधुमिता से मेरी मुलाकात करा रहे हो ?”
“हां ।”
“कहीं वैसे ही तो नहीं जैसे आज तुमने मेरी मानव शर्मा से मुलाकात करवाई ।”
“मानव शर्मा से मैं आज मिल नहीं पाया । मालूम हुआ है कि वह बाहर गया हुआ है ।”
“कब लौटेगा ?”
“आज ही रात की खबर है । कल सुबह तो जरूर ही लौट आएगा । कल मैं कैसे भी तुम्हारी उससे मुलाकात का प्रबंध करूंगा ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“गुड !”
मैंने रिसीवर रख दिया ।
तभी रजनी ने भीतर कदम रखा ।
थाने से ही मैंने उसे खरबन्दा की सैक्रेट्री श्रीलेखा की बाबत कोई जानकारी हासिल करने भेज दिया था ।
“क्या जाना ?” - मैं बोला ।
“किस बारे में ?” - वह बड़े भोलेपन से बोली ।
“अरे उसी बारे में जिस बारे में जानने के लिए गई थी । खरबन्दा की सैक्रेट्री के बारे में ?”
“अच्छा वो ।”
“हां, वही लंबी वाली वो । कैसी लड़की है ?”
“आप दर्शन कर तो चुके हैं उसके ?”
“अरे मैं उसके थोबड़े के बारे में सवाल नहीं कर रहा । मैं उसके रहन-सहन, कैरेक्टर वगैरह के बारे में सवाल कर रहा हूं ।”
“रहती वो कर्जन रोड पर स्थित वर्किंग गर्ल्स होस्टल के कमरा नंबर 206 में है । कैरेक्टर की भी ठीक ही होगी क्योंकि मैंने मालूम किया है कि दफ्तर से छुट्टी होते ही सीधे अपने घर जाती है ।”
“हमेशा ?”
“सिवाय बुधवार के ।”
बुधवार उसी रोज था ।
“बुधवार में क्या खूबी है ? कोई बॉययफ्रेंड जो सिर्फ बुधवार को...”
“गलत । उसका कोई बॉयफ्रेंड नहीं है, मैंने मालूम किया है ।”
“तो को खास सहेली जो...”
“वो भी नहीं ।”
“तो फिर कहां जाती है वो बुधवार को छुट्टी के बाद ?”
“मंडी हाउस । गैलेक्सी थियेटर में । खरबन्दा उस थियेटर में पार्टनर है । लड़की खरबन्दा के भेजने पर हर बुधवार को थियेटर का कोई साप्ताहिक हिसाब किताब देखने और हिसाब किताब के कुछ आंकड़े नोट करने वहां जाती है और वहां से अमूमन साढ़े आठ बजे फारिग होती है ।”
“यह भी मालूम कर लिया ।”
“जी हां” - वह बड़ी शान से बोली ।
“शाबाश अब इधर आओ ।”
“इधर कहां ?”
“यहां मेरे पास ।”
“वो किसलिए ?”
“अरे शाबाशी हासिल करने के लिए ।”
“शाबाशी अभी आप मुझे दे तो चुके हैं ।”
“अरे वो जुबानी शाबाशी थी । असल शाबाशी तो करीब आने से हासिल होती है ।”
वो हंसी ।
“सब सैक्रेट्रीज अपने एम्प्लायर के गले लग के उस से पप्पी करा के शाबाशी हासिल करती हैं ।”
“सब नहीं ।”
“हां, सब नहीं” - मैं दांत पीसता हुआ बोला - “सिवाय उस एक अहमक सैक्रेट्री के जिसका नाम रजनी है और जो बदकिस्मती से मेरे पल्ले पड़ी हुई है ।”
“ऐसा फतवा बीवियों के बारे में देते हैं जिनसे कि पल्ला झाड़ा नहीं जा सकता । सैक्रेट्री का क्या है, उसे तो आप कभी भी नौकरी से बर्खास्त करके नयी रख सकते हैं ।”
“नहीं रख सकता । पहले रख सकता था, अब नहीं रख सकता ।”
“अब क्यों नहीं रख सकते ?”
“क्योंकि अब मुझे तुम्हारी बुरी आदतों की आदत पड़ गई है ।”
“बुरी आदतें ?”
“और नहीं तो क्या ? एम्प्लायर की गोद में नहीं बैठती हो । उसे पप्पी नहीं देती हो । उसे अपने पर आशिक करवाने की कोशिश नहीं करती हो...”
“वगैरह वगैरह” - वह बोली ।
“हां । वगैरह वगैरह भी तो नहीं करती हो ।”
वह हंसी ।
“और इतनी दिलफरेब हंसी हंस कर जले पर नमक छिड़कती हो ।”
वो खुल कर हंसी और फिर बोली - “खराब आदमी हैं आप ।”
“गलत । मैं अच्छा आदमी हूं । या यूं कह लो कि जरा सा खराब अच्छा आदमी हूं ।”
“जी !”
“देखो, अच्छी अच्छाई तो है ही अच्छी लेकिन बुरी बुराई से बुरी अच्छाई फिर भी अच्छी होती है । अच्छे खराब आदमी से खराब अच्छा आदमी कई दर्जे बेहतर होता है । अब अच्छे की अच्छाई...”
“मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि आप क्या कह रहे हैं ।”
“फिर तो खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे नासमझ दो ।”
“मतलब ?”
“मेरी भी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या कर रहा हूं ।”
“बातें बढ़िया करते हैं आप । बीवी खुश रहेगी आपकी आपके साथ ।”
“वो कैसे ?”
“घर में राशन न होगा तो बातों से ही पेट भर दिया करेंगे उसका ।”
“तेरा पेट भर गया ?”
“मेरी और बात है । मैं आपकी बीवी थोड़े ही हूं ।”
“अगर यही रवैया बरकरार रखेगी, पप्पी देने से और आ कर गोद में बैठने से परहेज रखेगी तो बन भी नहीं पाएगी ।”
उसने सहमति में गर्दन हिलाई और दांतों में निचला होंठ दबा कर बड़े कुटिल भाव से हंसी ।
“अब अपनी खैरियत चाहती है तो दफा हो जा यहां से ।”
“खैरियत चाहती हूं । दफा हो रही हूं । नमस्ते ।”
और वह सचमुच ही वहां से चली गयी ।
***
मंडी हाउस दिल्ली शहर में कलाकारों का इलाका था जहां गैलेक्सी के अलावा और भी थियेटर थे ।
साढ़े आठ बजे मैं थियेटर के सामने अपनी फिएट कार में सड़क के पार मौजूद था जब कि मैंने उसे थियेटर से बाहर निकल कर पहले उसके कंपाउंड में और फिर सड़क पर आते देखा । फिर मेरे देखते-देखते तेजी से कदम उठाती हुई वह आगे सात सड़कों के विशाल राउंड अबाउट की ओर बढ़ चली ।
मैंने कार आगे बढ़ायी ।
सिकंदरा रोड पर हिमाचल भवन के सामने से जिस वक्त वह सड़क पार कर रही थी तभी मेरी कार उसके करीब पहुंची और इससे पहले कि मैं उसके सामने कार रोककर उसे आवाज दे पाता, एक अप्रत्याशित घटना घटी ।
श्रीलेखा ऐन मेरी कार के सामने मुंह के बल गिरी ।
मैंने जोर से ब्रेक लगाई । मेरी तवज्जो पहले से ही उसकी तरफ न रही होती तो मेरी कार ने उसे रौंद ही डाला होता । लेकिन फिर भी कार के पूर्णतया गतिशून्य हो पाने से पहले वह कार से टकरा गई । कार की ठोकर खाकर वह सड़क पर कार से थोड़ा परे लुढ़क गयी ।
तत्काल भीड़ जमा होने लगी ।
मैं कार से बाहर निकला और उसकी तरफ लपका ।
“अंधे होकर गाड़ी चलाते हैं साले” - भीड़ में से कोई रोषपूर्ण स्वर में बोला - “बेचारी को नीचे दे दिया ।”
“अरे उसने कहां नीचे दे दिया !” - किसी खुदा के बंदे ने मेरी हिमायत की - “यही ठोकर खा गई थी और कार के आगे आ गिरी थी ।”
“मुझे तो यूं लगा था” - कोई और बोला - “जैसे किसी ने इसे धक्का दिया हो ।”
सच पूछिए तो मुझे भी यही लगा था ।
मैं श्रीलेखा के करीब पहुंचा और उसे सहारा देने लगा । मेरे सहारे वह कराहती हुई उठकर खड़ी हुई ।
“कहीं चोट तो नहीं लगी ?” - मैंने पूछा ।
उसने इंकार में सिर हिलाया ।
“जरा हाथ पांव हिलाकर देखिये और थोड़ा चलकर देखिये ।”
मेरे सहारे वह कार के पहलू तक चली ।
मैंने पैसेंजर साइड का दरवाजा खोलकर उसे कार के भीतर धकेल दिया ।
“ल..लेकिन” - उसने कहना चाहा - “लेकिन...”
“ट्रैफिक जाम होने लगा है” - मैं बोला - “यहां से हटते हैं रास्ते में जहां चाहे उतर जायेगा ।”
“लेकिन...”
मैं उसके विरोध को नजरअंदाज करता हुआ कार में सवार हो गया । चौराहे की तरफ से ट्रैफिक पुलिस का एक कांस्टेबल मुझे उधर आता दिखाई दे रहा था । उसके करीब पहुंचने से पहले ही मैंने बड़ी दक्षता से कार को यू टर्न दिया, राउंडअबाउट की गोलाई काटी और कार को फिरोजशाह रोड पर डाल दिया । वहां मंडी हाउस जैसी पब्लिक की हाय-हाय नहीं थी । तब उसने पहली बार गौर से मेरी सूरत देखी । तुरंत उसके नेत्र फैले ।
“इत्तफाक की बात है” - मैं दार्शनिकतापूर्ण स्वर में बोला - “कि एक ही दिन में दो बार आप से मुलाकात हो गई । पहले आपके एम्प्लायर के फ्लैट पर अब यूं...यहां ।”
“ऐसा इत्तफाक क्योंकर हुआ” - वह बोली - “कि मेरी टक्कर भी हुई तो आप ही की कार से !”
“इत्तफाक को इसीलिए तो इत्तफाक कहा जाता है क्योंकि वो इत्तफाक से होता है ।”
“खरबन्दा साहब के फ्लैट पर तो आपको पुलिस गिरफ्तार कर के ले जा रही थी ?”
“अभी भी मुझे पुलिस की गिरफ्त में ही जानिए । बस यूं समझिए कि उन्होंने मुझे लॉक अप की जगह घर जाकर सोने की इजाजत दे दी है ।”
“अब हम जा कहां रहे हैं ?”
“हस्पताल ।”
“नहीं, नहीं । मुझे कुछ नहीं हुआ है । मैं हस्पताल नहीं जाना चाहती । मैं अपने घर जाऊंगी ।”
“मेरे ख्याल से आपको चैकअप करा लेना चाहिए । कोई गुप्त चोट लगी हो सकती है । आप...”
“कहा न मुझे कुछ नहीं हुआ ।”
“आपकी मेरी कार से टक्कर हुई है, मेरा फर्ज बनता है कि मैं....”
“मैं एक्सीडेंट के लिए आपको जिम्मेदार नहीं ठहरा रही । मैं बिल्कुल ठीक हूं । कोई एकाध खरोंच मुझे कहीं आई होगी तो घर जाकर मैं उस पर खुद एंटीसेप्टिक लगा लूंगी ।”
“मर्जी आपकी” - मैं बोला और आगे चौराहे पर पहुंचकर कार को बाएं कर्जन रोड पर मोड़ दिया ।
कर्जन रोड पर उसका होस्टल कहां था, मुझे मालूम था ।
“एक्सिडेंट हो कैसे गया था ?” - मैंने पूछा - “ठोकर कैसे खा गई थीं आप ?”
“पता नहीं” - वह बोली - “मुझे तो यूं लगा था जैसे...किसी ने मुझे...”
“पीछे से धक्का दिया था ! यही कहने जा रही थीं ना आप ?”
वह खामोश रही ।
“मैडम, अगर ऐसा हुआ था तो समझ लीजिये कि किसी ने आपका कत्ल करने की कोशिश की थी । मैं कार चलाते वक्त बेहद सावधान न रहा होता तो यह मामूली एक्सिडेंट एक खूनी घटना में तब्दील हो सकता था ।”
उसके चेहरे पर चिंता के भाव उभरे, उसने बड़े नर्वस भाव से अपने होंठों पर जुबान फेरी लेकिन मुंह से कुछ न बोली ।
मैंने कार को विशाल बहुमंजिले होस्टल के कंपाउंड में मोड़ा और उसके प्रवेश द्वार के करीब खड़ा कर दिया ।
अपनी ओर का दरवाजा खोलकर उसने बाहर निकलने का उपक्रम किया तो उसके मुंह से कराह निकल गयी ।
“क्या हुआ ?” - मैं संवेदनापूर्ण स्वर में बोला ।
“लगता है” - वह बोली - “पांव में हल्की सी मोच आ गई है ।”
“ओह ! तभी तो मैं कहता था कि किसी डॉक्टर को...”
“नहीं, नहीं । मैं खुद आयोडेक्स लगा लूंगी ।”
“मैं आपको आपके कमरे तक छोड़ कर आता हूं ।”
उसके विरोध के बावजूद मैंने कार से निकलकर उसे सहारा दिया और उसे इमारत के प्रवेशद्वार की तरफ ले चला । सहारा देने की कोशिश में उसका एक हाथ मेरे हाथ में था और मेरा दूसरा हाथ उसकी पतली कमर में । कमर वाला हाथ कभी नीचे को सरक जाता था तो कूल्हे के शानदार खम पर जाकर टिक जाता था, तनिक ऊंचा उठ जाता था तो उसके एक पुष्ट वक्ष की गोलाई पर दस्तक देने लगता था । प्रत्यक्षत: मेरे उस तजुर्बेकार हाथ की तजुर्बेकार हरकत से वह बेखबर थी ।
सुधीर कोहली - मैंने मन ही मन अपने आपको बधाई दी - दि लक्की बास्टर्ड ।
खाली लिफ्ट में सवार होकर हम दूसरी मंजिल पर पहुंचे । मन ही मन उसके नंगे जिस्म की कल्पना करता हुआ मैं उसके 206 नंबर कमरे के सामने ले आया ।
उसने अपने बैग से चाबी निकालकर कमरे का दरवाजा खोला और बिजली के दो-तीन स्विच ऑन किए ।
तब वह मेरे हाथों से निकली और एक कुर्सी पर ढेर हो गई । फिर वह अपनी सलवार का पायचा तनिक ऊपर सरकाकर अपने बाएं टखने का मुआयना करने लगी ।
मैं टखने से कहीं ऊपर निगाहबीनी करने की कोशिश कर रहा था ।
“आयोडेक्स मैं लगा दूं ?” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“नहीं” - वह सिर उठाकर बोली, एकाएक उसके स्वर में बड़ी अप्रत्याशित तबदीली आ गयी थी - “क्या नाम बताया था आपने अपना ?”
“मैंने नहीं बताया था । वैसे सुधीर नाम है मेरा । सुधीर कोहली, दि ओनली वन ।”
“कोहली साहब, आप आयोडेक्स न लगाये, आप कुछ और कीजिये ।”
“और क्या ?”
“आप मुझे यह बताने की तकलीफ फरमाइए कि आप नाक की सीध में मुझे यहां कैसे ले आए ?”
“मतलब ?”
“मैंने तो आपको नहीं बताया था कि मैं कहां रहती हूं । जब कि आपको न सिर्फ मेरे इस होस्टल की खबर थी बल्कि मेरा कमरा नंबर तक मालूम था ।”
“वो...वो क्या है कि...”
“वो यह है कि आप वैसे ही मेरे पीछे पड़े हुए थे और वो...वो एक्सिडेंट भी आप ही की कोई सोची समझी शरारत थी ।”
“वो...वो...”
“अब अपनी वो वो कहीं और जाकर कीजिये और फौरन यहां से तशरीफ ले जाइए । मुझे आपसे डर लग रहा है ।”
“लेकिन...”
“मैं गला फाड़ कर चिल्लाने लगूंगी ।”
“ऐसा न करना ।”
“तो फिर चलते फिरते नजर आइये ।”
“मेरी बात तो सुन लो ।”
“कोई जरूरत नहीं ।”
“सुने बिना कैसे जान सकोगी कि जरूरत है या नहीं ?” - मैंने उसकी तरफ कदम बढ़ाया - “देखो मैं...”
“खबरदार !”
मैं ठिठका ।
“एक कदम भी मेरी तरफ बढ़ाया तो देखना ।”
“देखो”- मैं अनुनयपूर्ण स्वर में बोला - “मेरा तुम्हें नुकसान पहुंचाने का कोई इरादा नहीं । होता तो इतनी देर तुम अकेली मेरे साथ कार में थी, मैंने तब तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया तो अब इस भरे पूरे होस्टल में....”
“मैं तुम्हारी कोई सफाई नहीं सुनना चाहती । मुझे तो उस एक्सिडेंट में भी तुम्हारी ही कोई खतरनाक साजिश दिखाई दे रही है ।”
“साजिश ?”
“मुझे लगता है कि तुम्हारे ही किसी संगी साथी ने मुझे पीछे से तुम्हारी कार के आगे धक्का दिया था ।”
“ओह नॉनसैन्स !”
“मैं नहीं मान सकती कि मेरी तुम्हारे से यह मुलाकात महज इत्तफाक से हुई है । मुझे लगता है कि तुम मेरी फिराक में वहां मंडरा रहे थे । वहां तुम्हारी दाल न गली होती तो तुम तुम यहां भी जरूर पहुंचते ।”
“ओके” - मैं हथियार डालता हुआ बोला - “मैं कबूल करता हूं कि मैं तुम्हारी ही फिराक में मंडी हाउस गया था ।”
“और वहां जान बूझकर वो एक्सिडेंट स्टेज किया था !”
“नहीं । बाई गॉड नहीं ।”
“उस एक्सिडेंट में तुम्हारा हाथ नहीं ?”
“नहीं ।”
“अगर वो एक्सिडेंट न हुआ होता तो फिर तुम कैसे मेरे से संपर्क करते ?”
“निकालता कोई सूरत । न निकलती तो फिर यहां पहुंचता ।”
“यानी कि एक्सिडेंट ने तुम्हारा काम आसान कर दिया ?”
“सच पूछो तो हां ।” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “देखो, मेरा यकीन जानो । तुम्हें कोई नुकसान पहुंचाने का मेरा कतई कोई इरादा नहीं । तुम्हारे बॉस ने मुझे जिस दुश्वारी में फंसा दिया है, मेरा उससे निकलने की कोशिश करना तो स्वाभाविक है कि नहीं ? इस सिलसिले में मुझे तुमसे कोई उम्मीदें दिखाई दीं तो मैंने तुम्हारे घर का पता वगैरह मालूम किया, उसी कोशिश में मुझे यह भी मालूम हुआ कि उस वक्त तुम गैलेक्सी थियेटर में मौजूद हो सकती हो । नतीजतन मैं वहां पहुंच गया ।”
“किसलिए ?”
“तुमसे कोई मदद हासिल करने के लिए ।”
“मदद हासिल करने के लिए या मुझे अपने एम्प्लायर के साथ धोखाधड़ी करने का सबक देने के लिए ?”
“खरबन्दा अपने कर्मचारियों के मन में निष्ठा जगाने की किस्म का आदमी है ?”
वह कुछ क्षण सोचती रही, फिर उसका सिर अपने आप ही इंकार में हिल गया ।
“इतना तो तुम्हें पहले ही बताया जा चुका होगा कि मैं कौन हूं !”
“हां तुम एक प्राइवेट डिटेक्टिव हो ।”
“और तुम्हारा एम्प्लायर मुझे एक मामूली चोर करार देने की कोशिश कर रहा है । यह नाइंसाफी नहीं ?”
उसने उत्तर नहीं दिया ।
“तुम्हें मैं चोर लगता हूं ?”
उसने नए सिरे से एक सरसरी निगाह मेरे पर डाली और इंकार में सिर हिलाया ।
“लड़कियां तो आदतन बहुत दयावान होती हैं, फिर भी एक मजलूम की मदद करना तुम्हें मंजूर नहीं ।”
तब पहली बार वो पिघली ।
“मैं क्या मदद कर सकती हूं ?” - वह बोली ।
“पहले तो तुम मुझे बैठने को ही कह सकती हो, कब से एक टांग पर खड़ा हूं ।”
वह बात मैंने ऐसे दयनीय भाव से कही कि उसकी हंसी निकल गई ।
हंसी तो फंसी - मैं मन ही मन बोला ।
“बैठो” - वह बोली ।
“शुक्रिया” - मैं बोला और एक कुर्सी उसके करीब घसीटकर बैठ गया । मैंने जेब से अपना डनहिल का पैकेट निकाला और बोला - “अगर ऐतराज न हो तो...”
“नो । गो अहेड ।”
“थैंक यू ।”
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और बहुत तरसे हुए शख्स की तरह उसका पहला कश लगाया ।
“मेरे से क्या पूछना चाहते हो तुम ?” - वह बोली ।
“कुछ भी बताओ जो मुझे इस मौजूदा सांसत से निकाल सके । मसलन मेरे सुनने में आया है कि प्राइवेट बॉस बहुत रंगीला राजा है । तुम उसकी किसी ताजातरीन गर्ल फ्रेंड के बारे में जानती हो ?”
“नहीं ।”
“गुस्ताखी माफ, तुम खुद इतनी खूबसूरत हो, कभी उसने तुम्हारे पर डोरे डालने की कोशिश नहीं की ?”
“की । बहुत बार की ।”
“तुम्हारा जवाब देने का ढंग बताता है कि वो तुम्हारे साथ कामयाबी की कोई मंजिल न तय कर सका ।”
“दुरुस्त ।”
“वजह ?”
“कई हैं । सबसे बड़ी वजह यह है कि मुझे शादीशुदा मर्द से आशनाई मंजूर नहीं ।”
“बहुत उम्दा वजह है । इंसान के बच्चे का नीडी होना तो समझ में आता है, ग्रीडी होना नहीं ।”
वह चुप रही । प्रत्यक्षत: मेरा जो फेवरेट सब्जेक्ट था, उस पर वो ज्यादा बात नहीं करना चाहती थी ।
“पंचानन मेहता को जानती हो ?”
“सिर्फ नाम से वाकिफ हूं ।”
“वो कभी खरबन्दा का पार्टनर हुआ करता था ।”
“ऐसा सुना है मैंने । तभी तो नाम से वाकिफ हूं ।”
“पंचानन मेहता मेरा दोस्त है और मेरा क्लायंट है । मैं जो कुछ कर रहा हूं उसका वो हक दिलाने के लिए कर रहा हूं जो कि तुम्हारे बॉस ने उसे धोखा देकर खुद झपट लिया है ।”
“वो कैसे ?”
मैंने उसे कोख का कलंक को लेकर खरबन्दा द्वारा की गई बेईमानी की बाबत बताया ।
“ओह !” - वह बोली - “इतना बेईमान है मेरा बॉस ?”
“इससे ज्यादा बेईमान होगा । इतनी बेईमानी तो अभी उजागर हुई है उसकी ।”
“तुम मेरे से क्या चाहते हो ?”
“हर्षवर्धन की बाबत कोई जानकारी ।”
“वो कौन हुआ ?”
“वो कोख का कलंक का लेखक है ।” - न जाने मुझे क्यों लगा कि हर्षवर्धन की बाबत वह जान बूझकर अंजान बन रही थी ।
“आई सी !”
“वही इस बात का फैसला कर सकता है कि उसने अपनी स्क्रिप्ट खरबन्दा को पंचानन मेहता से पार्टनरशिप टूटने से पहले फर्म को सौंपी थी या बाद में । इतनी मशहूर रचना का लेखक भी गुमनाम है इसलिए उसका कहीं पता नहीं लग रहा । यह भी हो सकता है कि यह किसी और लेखक का फर्जी नाम हो । बहरहाल मुझे हर्षवर्धन का, उस शख्स का जो कोख का कलंक की स्क्रिप्ट लेकर खरबन्दा के पास आया था, पता चाहिए ।”
वह खामोश रही ।
“लेखक का पता” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला - “तुम्हारे ऑफिस में जरूर होगा ।”
“नहीं है ।”
“यह कैसे हो सकता है ?”
“हो सकता है । कुछ खास पते खरबन्दा खुद नोट करके रखता है । ऑफिस के स्टाफ की उन पतों तक पहुंच नहीं होती ।”
“लेखक कभी कभार ऑफिस में तो आता होगा ।”
“जब से मैं नौकरी कर रही हूं, तब से तो आया नहीं ।”
“ओह !” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “तुम कब से नौकरी कर रही हो ?”
“दो हफ्ते से ।”
“बस !”
“हां “
“लेखक की रॉयल्टी का चैक तो बनता होगा । वो चैक कौन बनाता है ?”
“खुद खरबन्दा ।”
“रॉयल्टी का कोई हिसाब खाता तो रखा जाता है ?”
“रखा जाता है लेकिन कोख का कलंक की रॉयल्टी का तमाम हिसाब, किताब खरबन्दा खुद देखता है ।”
“क्या इसी से साबित नहीं होता कि कोख का कलंक की बाबत खरबन्दा कुछ छुपाना चाहता है ?”
“होता तो है ।”
“तुम किसी तरीके से लेखक का पता नहीं निकाल सकती ?”
“कैसे ?”
“वो कोई वाउचर साइन करता होगा । उसका कोई कांट्रैक्ट होगा । उसके चैक क्लियर हो जाने के बाद बैंक से कोई स्टेटमेंट आती होगी । यही मालूम हो जाए कि उन चैकों को लेखक अपने कहां के खाते में जमा कराता है तो भी बैंक से उसका पता मालूम किया जा सकता है ।”
“बैंक वाले यूं अपने किसी अकाउंट होल्डर का पता बता देते हैं ?”
“नहीं बता देते । लेकिन फिर भी बैंक से पता मालूम किया जा सकता है । हम प्राइवेट डिटेक्टिवों के पास ऐसी जानकारी हासिल करने के तरीके होते हैं ।”
“ठीक है । मैं लेखक के बैंक की बाबत जानकारी हासिल करने की कोशिश करूंगी ।”
“बहुत अच्छा काम करोगी । और अगर मेरा क्लायंट खरबन्दा के खिलाफ केस जीत गया और उससे अपना हक वसूलने में कामयाब हो गया तो, यकीन जानो, उसमें तुम्हारा भी हिस्सा होगा ।”
“रिश्वत ऑफर कर रहे हो ?”
“नहीं खिदमात की उजरत । रिमीटेन्स फॉर सर्विसिज रेण्डेर्ड ।”
वह खामोश रही ।
“अब एक आखिरी बात और” - मैं बोला ।
“वो भी बोलो” - वह बोली ।
“क्यों किसी ने तुम्हें मेरी कार के आगे धक्का दिया ? क्यों किसी ने यूं तुम्हारी जान लेने की कोशिश की ?”
“अभी यह बात स्थापित नहीं हुई है कि किसी ने मेरी जान लेने की कोशिश की थी ।”
“और क्या कसर रह गई है स्थापित होने में ? तुम्हारा खुद का ख्याल है कि किसी ने तुम्हें पीछे से धक्का दिया था ।”
“यह मेरा वहम भी हो सकता है ।”
“यानी कि बताना नहीं चाहती ।”
“क्या ?”
“कि क्यों कोई तुम्हारी जान लेने पर तुला हो सकता है ?”
उसने उत्तर न दिया । अब परे देखने लगी ।
“खैर” - मैं उठता हुआ बोला - “कुछ नहीं बताना चाहती हो तो मर्जी तुम्हारी । यह मेरा कार्ड रख लो । मेरी किसी भी तरह की मदद की कभी जरूरत पड़े तो बेहिचक संपर्क करना ।”
उसने कार्ड ले लिया और सहमति में सिर हिलाया ।
मैं वहां से विदा हो गया ।
***
सुबह डिप्टी कमिश्नर की कोर्ट में हाजिरी देने के लिए मैं निजामुद्दीन थाने पहुंचा ।
कल्याण खरबन्दा और रुद्रनारायण गुप्ता दोनों मेरे से पहले वहां मौजूद थे ।
मेरी डी सी पी के सामने पेशी हुई ।
इन्स्पेक्टर यादव ने बताया कि मेरे खिलाफ क्या चार्ज था और मैं कैसे कल्याण खरबन्दा द्वारा उसके फ्लैट में पकड़ा गया था और कैसे वहां से सुभाष पचेरिया नाम के एक शख्स की लाश बरामद हुई थी ।
डी सी पी ने मेरी तरफ देखा ।
मैंने खंखार कर गला साफ किया और बड़ी शराफत से उसे अपनी कथा सुनाई । मेरे इस कथन पर डी सी पी की भवें उठी कि मेरे से पहले फ्लैट में लाश के साथ एक कटे बालों वाली सुंदर युवती मौजूद थी ।
“आप” - डी सी पी ने खरबन्दा से पूछा - “ऐसी किसी युवती को जानते हैं ?”
““जी नहीं” - खरबन्दा बड़े जोर से इंकार में गर्दन हिलाता हुआ बोला - “सच पूछिए तो ऐसी कोई युवती है ही नहीं । उस युवती की कहानी एकदम झूठी और मनघडन्त है ।”
“वो युवती आपके फ्लैट में मेरे से पहले मौजूद थी” - मैं पुरजोर लहजे से बोला - “उसकी यूं वहां मौजूदगी ही इस बात की खूब चुगली कर रही है कि आप उस से नावाकिफ नहीं हो सकते ।”
“अगर ऐसी कोई युवती वहां होती” - खरबन्दा तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “और मेरी वाकिफ होती तो यूं वहां से भाग न गई होती ।”
“युवती वहां थी और उसी ने मुझे दरवाजा खोला था और भीतर आने दिया था ।”
“नॉनसैन्स ।”
“वहां एक कत्ल हुआ था और युवती का उस कत्ल से कोई रिश्ता हो सकता था । मैं अप्रत्याशित तौर से वहां पहुंच गया था । मेरे वहां आगमन से ही घबरा कर वह वहां से भाग खड़ी हुई हो सकती है ।”
“बकवास ।” - अब मुंह बिगाड़ कर बोला ।
“तुम साबित कर सकते हो” - डी सी पी मेरे से बोला - “कि कोई युवती तुम्हारे से पहले वहां फ्लैट में मौजूद थी ?”
“मौजूदा हालात में नहीं कर सकता” - मैं असहाय भाव से बोला ।
“लेकिन कोई युवती वहां थी । सुंदर । कटे बालों वाली !”
“जी हां ।”
“तुम अपने आपको प्राइवेट डिटेक्टिव कहते हो । उसे तलाश करने की कोशिश की होती ।”
“तलाश करने का कोई जरिया भी तो होना चाहिए जनाब । दिल्ली शहर की अस्सी लाख की आबादी में कटे बालों वाली सुंदरियां हजारों की तादाद में होंगी । यह तो भूस के ढेर में सुई ढूंढने जैसा काम है ।”
“उस युवती को दोबारा देखोगे तो पहचान लोगे ?”
“फौरन । गोली की तरह ।”
“जनाब” - खरबन्दा बोला - “मैं तो नहीं मानता कि ऐसी कोई युवती थी लेकिन मान लिया जाए कि थी और अगर वो मिल भी जाती है तो उसका कोई बयान इस हकीकत को कैसे झुठला पाएगा कि यह आदमी टेलीफोन मैकेनिक का बहुरूप धार कर चोरी की नीयत से मेरे फ्लैट में घुसा था और जब मैं फ्लैट में पहुंचा था तो एक घुड़सवार की एक कीमती प्रतिमा इसके हाथ में थी ।”
“वो प्रतिमा मैंने सिर्फ आत्मरक्षा के लिए हथियार के तौर पर उठा कर हाथ में ली थी, न कि चोरी की नीयत से ।”
“तुम्हें किस से आत्मरक्षा की जरूरत थी ?”
“हत्यारे से । उस शख्स से जिसने कि सुभाष पचेरिया का खून किया था और जो उस घड़ी भी फ्लैट में हो सकता था ।”
“यानी कि तुम्हारे ख्याल से उस फर्जी युवती के अलावा अभी हत्यारा भी फ्लैट में हो सकता था ।” - खरबन्दा व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“वो युवती ही हत्यारी हो सकती थी ।”
“तुम्हें एक औरत से आत्मरक्षा की जरूरत थी ?”
“हां ।”
“अच्छे मर्द हो !”
“हां । अच्छा भी हूं और मर्द भी हूं ।”
“मकतूल का कत्ल गोली लगने से हुआ था ?”
“जाहिर है ।”
“तुम गोली का मुकाबला घुड़सवार की प्रतिमा से कर लेते ?”
“शायद न कर पाता लेकिन खाली हाथ होने से तो उस भारी प्रतिमा का मेरे हाथ में होना अच्छा ही था ।”
“लेकिन...”
“आप लोग” - डी सी पी बोला - “बरायमेहरबानी आपस में बहस मुबाहसा बंद करें ।”
“मैं तो चुप हूं जनाब” - खरबन्दा बड़े अदब से बोला - “मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि वो कटे बालों वाली युवती इस शख्स की कल्पना की उपज है । ऐसी कोई युवती वहां नहीं थी । लेकिन यह हकीकत है कि जब मैं अपने फ्लैट पर पहुंचा था तो भीतर या तो यह शख्स था, या वह लाश थी । जनाब, यह आदमी हत्यारा नहीं तो चोर तो यकीनन है क्योंकि यह फ्लैट के भीतर पाया गया था ।”
“मैं जबरन भीतर नहीं घुसा था” - मैं तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “मुझे भीतर से दरवाजा खोलकर भीतर बुलाया गया था । मैं जबरन भीतर कैसे घुस सकता था ? मेरे पास क्या फ्लैट की चाबी थी ! या फ्लैट का ताला जबरन खोला गया पाया गया था ?”
डी सी पी ने इन्स्पेक्टर यादव की तरफ देखा ।
“ऐसा कुछ नहीं हुआ था” - यादव बोला - “ताला जबरन नहीं खोला गया था और मैंने कोहली की तलाशी में इसकी जेब से कोई पास की बरामद नहीं की थी ।”
“जनाब” - खरबन्दा बोला - “यह भीतर कैसे भी घुसा लेकिन किसी पराई जगह जाकर यह वहां उथल पुथल मचाने का, वहां की तलाशी लेने का, हकदार तो नहीं बन जाता ! मेरे बैडरूम की हालत ही इससे चोर करार देने के लिए काफी है ।”
“मैंने कुछ नहीं चुराया था ।” - मैं बोला ।
“चुराया था । सिर्फ चुराकर साथ नहीं ले जा पाये थे । इसलिए नहीं ले जा पाए थे क्योंकि ऐन मौके पर ऊपर से मैं आ गया था ।”
“और बैडरूम में उथल-पुथल भी मैंने नहीं मचाई थी ।”
तभी कमरे में एक निहायत शानदार औरत ने कदम रखा । वह एक सिल्क की फिरोजी साड़ी पहने थी और उसके घने काले बाल उसकी कमर के नीचे तक लहरा रहे थे ।
बालों पर निगाह पड़ते ही मुझे खरबन्दा की बीवी का ख्याल आया ।
क्या वह मधुमिता थी ?
सबकी निगाहें उस ओर उठ गईं ।
“साहेबान” - वह बोली - “जिस केस की यहां छानबीन हो रही है, मैं समझती हूं कि उसके कुछ पहलुओं पर मैं भी रोशनी डाल सकती हूं ।”
मैंने नोट किया कि उसके वहां पहुंचते ही खरबन्दा बेचैनी से पहलू बदलने लगा था ।
“आप इधर आ जाइए” - डी सी पी बोला ।
बड़ी शाइस्तगी भरी चाल चलती हुई वह डी सी पी की टेबल के करीब पहुंची । उसे एक कुर्सी ऑफर की गई लेकिन उसने बैठने का उपक्रम न किया । उसने एक सरसरी निगाह अपने पति और अंकल पर डाली और फिर बोली - “सुधीर कोहली कौन साहब हैं ?”
“बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं” - मैं बड़े अदब से बोला ।
उसने सिर से पांव तक मेरा मुआयना किया, फिर एकाएक मुस्कराई और बोली - “ओह, हल्लो ।”
“हल्लो, यूअरसेल्फ !” - मैं बोला ।
“आप की तारीफ ?” - डी सी पी बोला ।
“मुझे मधुमिता कहते हैं” - वह बोली - “और मैं खरबन्दा साहब की बीवी हूं” - वह एक क्षण ठिठकी और फिर उसने एक शब्द और जोड़ा - “फिलहाल ।”
“फिलहाल से क्या मतलब ?”
“एक हफ्ता पहले मैंने इनके साथ रहना छोड़ दिया है और अब मैं इनसे तलाक हासिल करना चाहती हूं ।”
“वजह ?”
“वजह इनकी बेवफाई है ।”
“मधुमिता” - खरबन्दा बोला - “इन बातों का यहां चर्चा....”
“बहुत सनसनीखेज साबित हो सकता है, साहब” - मैं फौरन बोल उठा - “अगर इन साहब पर बेवफाई का इल्जाम है तो फिर कल अपने फ्लैट में जिस लड़की के अस्तित्व को ये लगातार नकारते चले आ रहे हैं, वह इनकी कोई प्रेमिका हो सकती है और...”
“तुम एक मिनट चुप करो” - डी सी पी झिड़क कर बोला और फिर मधुमिता की तरफ आकर्षित हुआ - “आप केस के किसी पहलू पर रोशनी डालने की ख़्वाहिशमंद थीं ?”
“जी हां” - वह बोली - “मुझे कल के वाकयात की खबर लगी है और मालूम हुआ है कि इन साहब को” - उसने मेरी तरफ संकेत किया - “इसलिए चोर ठहराया जा रहा है क्योंकि फ्लैट के बैडरूम में बहुत बेतरतीबी और उथल-पुथल का नजारा पाया गया था । जनाब, वो उथल पुथल किसी चोर ने नहीं, मैंने मचाई थी ।”
“आपने ?”
“जी हां ।”
“वजह ?”
“पिछले हफ्ते गैर औरतों से अपने पति के ताल्लुकात को लेकर जब मेरी इनसे भयंकर तकरार हुई थी तो गुस्से में मैं खड़े पैर घर छोड़कर चली गई थी । कल दिन में मैं अपने कुछ कपड़े और कुछ और जाती सामान लेने के लिए फ्लैट पर वापस लौटी थी । मैं जल्दी में थी इसलिए मैंने इस बात की परवाह नहीं की थी कि वहां बेतरतीबी मच रही थी या उथल-पुथल ।”
“कल दिन में आप अपने पति के फ्लैट पर गई थीं ?”
“जी हां ।”
“और वहां बैडरूम में मची बेतरतीबी और उथल-पुथल के लिए आप जिम्मेदार हैं ?”
“जी हां । यही तो मैं कह रही हूं ।”
“आपको जल्दी किस बात की थी ?”
“मैं नहीं चाहती थी कि ऊपर से खरबन्दा साहब आ जाएं इसलिए मैं कम से कम वक्त वहां रुकना चाहती थी ।”
“फ्लैट को क्या ताला नहीं लगा हुआ था ?”
“लगा हुआ था ।”
“तो आप भीतर कैसे घुसीं ?”
“मेरे पास भी फ्लैट की चाबी थी । आखिर मैं फ्लैट के मालिक की बीवी हूं ।”
“अभी आपने कहा कि आपके पति के गैर औरतों से ताल्लुकात हैं ?”
“जी हां ।”
“इन बातों का मौजूदा केस से कोई रिश्ता नहीं” - खरबन्दा तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला ।
“आप जरा खामोश रहिए” - डी सी पी डपट कर बोला ।
“लेकिन जनाब....”
“आप बहरे हैं” - डी सी पी के स्वर से एकाएक कहर बरसने लगा - “सुनते नहीं आपसे क्या कहा जा रहा है ?”
खरबन्दा ने जोर से थूक निगली, उसने अपने होंठ कस कर भींच लिए, लेकिन उसके चेहरे से बेचैनी के भाव न गए ।
“हां तो” - डी सी पी मधुमिता की तरफ आकर्षित हुआ - “आप कह रही थीं कि आपके पति के गैर औरतों से ताल्लुकात थे और आपका उन पर बेवफाई का इल्जाम था !”
“जी हां” - मधुमिता बड़ी दिलेरी से बोली ।
“गहरे ताल्लुकात ?”
“जी हां ।”
“ऐसे ताल्लुकात जो किसी बीवी को उसके दर्जे के लिहाज से फिक्रमंद कर सकते हैं ?”
“जी हां ।”
“कोई खास शख्सियत आपकी जानकारी में हो ?”
“है ।” - वह आंखें तरेर कर खरबन्दा की तरफ देखती हुई बोली - “है एक साजन की सहेली ।”
“कौन ?”
“एक कटे बालों वाली मुंहजोर घोड़ी जिसे मैंने इनके साथ कई बार देखा है ।”
“जरूर वही” - मैं उत्तेजित भाव से बोला - “लड़की कल तब फ्लैट में मौजूद थी जब मैं वहां पहुंचा था ।”
“हो सकता है” - मधुमिता बड़े इत्मीनान से बोली ।
“जनाब” - मैं डी सी पी से बोला - “क्या इतने से ही साबित नहीं हो जाता कि वह कटे बालों वाली खूबसूरत लड़की मेरी कल्पना की उपज नहीं थी ? वह लड़की खरबन्दा साहब की प्रेमिका थी जो कि इनके इंतजार में इनके फ्लैट में मौजूद थी ।”
“आप” - डी सी पी मधुमिता से बोला - “जानती हैं वो लड़की कौन है ?”
मधुमिता के जवाब देने के लिए मुंह खोल पाने से पहले ही एकाएक खरबन्दा उठ खड़ा हुआ और जल्दी से बोला - “जनाब, मैं मिस्टर कोहली के खिलाफ लिखाई अपनी शिकायत वापिस लेना चाहता हूं । मैं अपनी गलती कबूल करता हूं कि मैं खामखाह कूद कर नतीजे पर पहुंच गया और कल के हालात की गर्मागर्मी में मैंने मिस्टर कोहली को चोर करार दे दिया । मैं इनसे माफी चाहता हूं ।”
“लेकिन” - इन्स्पेक्टर यादव बोला - “आपने लिख कर इनके खिलाफ शिकायत की है ।”
“मैं अपनी उस गलती के लिए भी माफी चाहता हूं और दरख्वास्त करता हूं कि मेरी वह शिकायत खारिज कर दी जाए ।”
“लेकिन....”
“इन्स्पेक्टर” - डी सी पी व्यस्त भाव से बोला - “जब शिकायत दर्ज कराने वाला ही अपनी बात से फिर रहा है तो इस तफतीश को आगे बढ़ाने से कोई फायदा नहीं ।”
“साहब” - यादव बोला - “ब्रेकिंग एंड एंटरिंग की इस शिकायत से एक कत्ल का केस भी तो जुड़ा हुआ है ।”
“हमारे पास ऐसा कुछ है जो उस कत्ल का रिश्ता मिस्टर कोहली से जोड़ सकता हो, मेरा मतलब है सिवाय इसके कि ये मौकाएवारदात पर मौजूद पाए गए थे ?”
“जी नहीं ।”
“सो देयर यू आर ।”
यादव चुप हो गया ।
“फिलहाल तुम्हारे खिलाफ कोई केस नहीं” - डी सी पी मेरे से बोला - “तुम जा सकते हो ।”
“शुक्रिया, जनाब ।” - मैंने चैन की सांस ली ।
फिर मैं लपक कर मधुमिता के पास पहुंचा ।
“मधुमिता जी” - मैं कृतज्ञ भाव से बोला - “आप बहुत ही सही मौके पर तशरीफ लाईं । आपने एक बहुत भारी दुश्वारी से मुझे निजात दिलाई है, मेरी जान बख्शी करवाई है । समझ में नहीं आता किन अलफाज में मैं आपका शुक्रिया अदा करूं ।”
वह मुस्कराई और घूम कर बाहर को चल दी ।
उसके पहलू में फुदकता सा मैं उसके पीछे लपका ।
“समझ में नहीं आता” - मैं फिर बोला - “कि मैं...”
“मैं पंचानन मेहता के अनुरोध पर यहां आई थी” - वह जल्दी से बोली - “मुझे खुशी है कि मेरी आमद कारगर साबित हुई । लेकिन मैं यहां और नहीं रुक सकती । मुझे डर है कि मेरे अंकल न पकड़ बैठें मुझे । कुछ कहना चाहते हो तो कहीं और चलो ।”
“कहां ?”
“यह मैं बताऊं ?”
“ओह ! सॉरी ! सॉरी ! आप बाहर सड़क पर पहुंचिए, मैं पार्किंग से गाड़ी निकाल कर लाता हूं ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और लंबे डग भर्ती हुई आगे बढ़ गई ।
हम कनिष्क के बार में एक कोने की टेबल पर आमने सामने बैठने की जगह अगल बगल बैठे हुए थे ।
मेरे सामने मेरी दूसरी ओर उसके सामने उसकी पहली ब्लडी मैरी मौजूद थी । मुझे इतनी सी बात ने बाग बाग कर दिया था कि उस कड़क सुंदरी ने निसंकोच ब्लडी मैरी की ऑफर स्वीकार की थी । इतने से ही मुझे निकट भविष्य में उसके साथ अभिसार की अंतहीन संभावनाएं दिखाई देने लगी थीं ।
“अब बताओ” - मैं झूमते स्वर में बोला - “कैसे मैं तुम्हारे अहसान का बदला चुका सकता हूं ?”
“अहसान करके” - वह सहज भाव से बोली ।
“मतलब ?”
“एकदम आसान है । मैं अपने पति से तलाक चाहती हूं लेकिन मेरे चाहने भर से मुझे तलाक हासिल नहीं हो सकता ।”
“बेवफाई की बिना पर तलाक जल्दी हासिल होता है ।”
“एगजेक्टली । लेकिन बेवफाई का सबूत चाहिए होता है । तुम प्राइवेट डिटेक्टिव हो, मेहता कहता है बड़े काबिल प्राइवेट डिटेक्टिव हो, तुम यह सबूत आसानी से मुहैया कर सकते हो ।”
“यकीनन कर सकता हूं । यह पंजाबी पुत्तर ऐसे मामलों में तो कहर ढा कर दिखा सकता है ।”
“वैरी गुड । फिर तो समझ लो कि अहसान उतर गया । हिसाब बराबर हो गया ।”
“हिसाब तो अभी तुम्हारे मेरे बीच कई होंगे” - मैं उसकी जांघ से अपनी जांघ सटाता हुआ बोला - “कुछ बराबर होंगे तो कुछ का बैलेंस चुकता करना पड़ेगा ।”
“किसको ?”
“किसी को भी ।”
“दो पैग में ही झूम जाते हो हमेशा ?”
“हमेशा नहीं । सिर्फ तब जब तुम्हारे जैसी परी साथ हो ।”
वह हंसी ।
मैंने उसका चुंबन लेने की कोशिश की तो उसने मुझे परे धकेल दिया और अपनी दहकती जांघ भी मेरी जांघ के साथ सटी न रहने दी ।
ईजी । ईजी, सुधीर कोहली - मैंने मन ही मन अपने आप को समझाया - ईजी डज इट ।
मैंने अपना गिलास खाली किया और वेटर को इशारा किया ।
“मेरे लिए नहीं” - वह जल्दी से बोली ।
“क्यों ?”
“मैंने एक ड्रिंक के लिए कंपनी की खातिर हामी भर दी थी । मैं दिन में ड्रिंक नहीं करती । और मैंने अपनी असाइनमेंट पर जाना है ।”
“कैसी असाइनमेंट ?”
“मैं मॉडलिंग करती हूं । कनाट प्लेस की एक एडवरटाइजिंग एजेंसी के साथ आज मेरी डेट है ।”
“वाह ! कविता भी करती हो, मॉडलिंग भी करती हो । कमाल करती हो ।”
“कमाल भी करती हूं ।”
“मैंने तो पहली बार जिंदगी में कोई खूबसूरत कवियत्री देखी है ।”
वह हंसी । फिर एकाएक उसने हंसना बंद किया और बड़ी संजीदगी से बोली - “पुलिस के सामने यह कबूल करके कि कल मैं चोरी से अपने पति के फ्लैट में गई थी, क्या मैंने गलती नहीं की ?”
“गलती ? वो कैसे ?”
“आखिर अब मेरे पर भी तो सुभाष पचेरिया के कत्ल का इल्जाम आ सकता है ।”
“नहीं आ सकता” - मैंने उसे झूठी तसल्ली दी - “पोस्टमार्टम की रिपोर्ट द्वारा निर्धारित हत्या के वक्त से तुम्हारी फ्लैट में मौजूदगी का वक्त मेल नहीं खाता ।”
हकीकतन मुझे यह पता ही नहीं था कि वह किस वक्त फ्लैट में मौजूद थी । मैंने ऐसा सिर्फ उसकी सुविधा की खातिर सोच लिया था कि उसकी मौजूदगी में कत्ल नहीं हुआ होगा । उस वक्त मैं उसके सावर्गिक संसर्ग से आनंदित हो रहा था और अभी आने वाली कई बैडरूम मार्का उम्मीदों से थर्राया जा रहा था । उससे उसकी फ्लैट में मौजूदगी के वक्त की बाबत ऊट पटांग सवाल पूछ कर मैं भला क्यों अपने मौज मेले में जहर घोलता । देर सवेर पुलिस ने उससे इस बाबत पूछताछ करनी ही थी, तब मुझे भी मालूम हो जाता कि वह क्या कहती थी ।
“ओह !” - वह बोली ।
“बाई दि वे, सुभाष पचेरिया के बारे में तुम कुछ जानती हो ?”
“खास कुछ नहीं लेकिन इतना जानती हूं कि उसने खरबन्दा को जान से मार डालने की धमकी दी थी ।”
“अच्छा ! कब ?”
“पिछले हफ्ते । मेरे खरबन्दा को छोड़ने से एक दिन पहले ।”
“क्या हुआ था ?”
“उस शाम को मैं, अंकल रूद्रनारायण और खरबन्दा गैलक्सी थियेटर से बाहर निकल रहे थे कि एकाएक सुभाष पचेरिया वहां पहुंच गया था । वह खरबन्दा को कुछ कहना चाहता था और इस कोशिश में वह खरबन्दा को बांह से पकड़कर जबरन एक ओर घसीटने लगा था । खरबन्दा ने बड़ी मुश्किल से अपने आपको छुड़ाया था और फिर खरबन्दा ने उसको दो चार हाथ रसीद कर दिये थे । फिर सुभाष को धक्के मार कर वहां से निकाल दिया था । तभी क्रोध और अपमान से पगलाए हुए सुभाष ने चिल्लाकर कहा था कि वह खरबन्दा को जान से मार डालेगा ।”
“औरों ने भी सुना होगा उसे ऐसा कहते ?”
“बहुत लोगों ने सुना था । बहुत लोग थे उस वक्त थियेटर की लॉबी में ।”
“जो कुछ हुआ था, उसमें किसी ने दखलअंदाजी नहीं की थी ?”
“अंकल ने की थी । उन्होंने बहुत कोशिश की थी कि खरबन्दा सुभाष पर हाथ न उठाए लेकिन खरबन्दा को रोकने में अंकल कामयाब नहीं हो सके थे ।”
यानी कि काफी वायलेंट आदमी है तुम्हारा पति ।”
“यही समझ लो ।”
“तुमने उससे लव मैरिज की थी ?”
“यह तुम इसलिए कह रहे हो कि ऐसे आदमी से मैंने क्यों कर शादी कर ली तो मेरा जवाब है कि गलती इंसान से ही होती है । मुहब्बत में गिरफ्तार शख्स को दूसरे में खूबियां ही खूबियां दिखाई देती हैं । उसकी खामियों की तरफ उसकी तवज्जो तभी जाती है जबकि बहुत देर हो चुकी होती है ।”
“शादी को कितना अरसा हो गया ?”
“पौने दो साल ।”
“काफी वक्त लगाया तुमने उसकी खामियों को जानने में ।”
“खामियों को जानने में वक्त नहीं लगाया, खामियां जान कर तलाक का फैसला करने में वक्त लगाया ।”
“आई सी !”
“शादी जूता खरीदने की तरह होती है । जूता कितना ही कीमती और शानदार क्यों न हो, उसकी सूरत देख कर ही यह नहीं कहा जा सकता कि वह काटेगा या नहीं, काटेगा तो कहां काटेगा, किस हद तक काटेगा ।”
“यानी कि जूते की तरह अगर पति भी काटने वाला निकले तो उसे एकाएक तिलांजली नहीं दी जा सकती ।
“एगजेक्टली । जूते की तरह पति को की भी आदत बनानी पड़ती है, उसे सैट होने का वक्त देना पड़ता है लेकिन अगर तंगी फिर भी बरकरार रहती है तो कोई मुश्किल कदम उठाना ही पड़ता है ।”
“जैसा कि तुम पिछले हफ्ते उठा चुकी हो ?”
“हां ।”
“तुम्हारे साथ कोई बदसलूकी नहीं करता था वो ?”
“कैसी बदसलूकी ?”
“हाथ उठाता हो तुम पर...”
“मजाल है उसकी ? - वह तमक कर बोली - “मैं कोई नकेल डालकर लाई हुई बकरी हूं ।”
“यानी कि तुम्हारी उसके खिलाफ वाहिद शिकायत यही है कि वह एक बेवफा मर्द निकला है ।”
“यह कोई मामूली शिकायत है ?”
“नहीं, मामूली तो नहीं है ।”
“सो देयर यू आर ।”
“तो अब तुम तलाक चाहती हो ?”
“जितनी जल्दी हो सके ।”
“जल्दी होने वाला काम तो यह नहीं ।”
“तुम्हारी मदद से” - वह अर्ध नीमिलित नेत्रों से मेरी ओर देख कर मुस्कराई - “शायद हो जाए जल्दी ।”
मैंने सकपका कर उसकी तरफ देखा । वह कंधे सिकोड़ कर तनिक मेरी तरफ झुकी तो ब्लाउज में से मुझे उसके वक्ष की घाटियां बहुत गहराई तक दिखाई देने लगीं ।
विलायत में ऐसे मौकों पर औरतें टांग दिखाती हैं, यूयर्स ट्रूली का जाती तजुर्बा है कि हमारे यहां यह जरूरत बालकनी की चिलमन हटा कर पूरी की जाती है ।
ऐसा ही उस घड़ी वो औरत कर रही थी जो कि अपने पति की बेवफाई की वजह से उसे तलाक देना चाहती थी ।
वाह ! जवाब नहीं औरत जात का ।
“औरतों का बहुत रसिया है तुम्हारा पति ?” - प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
“हद से ज्यादा ।”- उसने उत्तर दिया ।
“यह बात तुम्हें पहले मालूम नहीं हुई थी ?”
“उसकी रसिया प्रवृत्ति का हिंट तो मुझे था - आखिर मेरे पर भी तो वह यूं ही फिदा हुआ था - लेकिन मैं समझती थी कि शादी से पहले सभी मर्द थोड़ा बहुत उस प्रवृत्ति के होते थे । भंवरे । कली कली का रस चूसने को आतुर । और समझती थी कि शादी के बाद वो सुधर जाएगा ।”
“सुधरा ?”
“कुछ अरसा तो काबू में रहा लेकिन फिर उसने फिर तांक झांक शुरू कर दी ।”
“फैन्सी वियर्स ऑफ !”
“क्या ?”
“मैंने कहा नई चीज सदा नई नहीं रहती ।”
“यह तुम मेरे बारे में कह रहे हो ?”
“और तो मुझे यहां कोई दिखाई नहीं दे रहा ।”
उसके चेहरे पर तिलमिलाहट के भाव आए । पहले मुझे लगा जैसे वह मेरे पर बरसने जा रही थी लेकिन फिर एकाएक वह मुस्कराई । वह कुछ इस प्रकार मेरी तरफ झुकी कि उसका एक पुष्ट वक्ष मेरे कंधे से सट गया । मुझे बड़ी सुखद अनुभूति हुई ।
“मैं” - वह इठला कर बोली - “नित नई दुल्हन हूं ।”
“लेकिन तुम्हारे पति को तुम्हारी इस खूबी की खबर न हुई ।”
“खबर तो हुई । कद्र न हुई । कुत्ते की जात निकला कम्बख्त ! मलाई खाकर भी चक्की चाटने का लालच न छोड़ सका ।”
“वो कटे बालों वाली लड़की भी कोई चक्की थी जिसे वह आजकल चाटने की कोशिश कर रहा है ?”
“हां ।”
“डी सी पी के आफिस में तुम्हारे पति का रवैया साफ जाहिर कर रहा था कि उस लड़की का जिक्र वह नहीं चाहता था । उस राज को राज रखने की खातिर ही उसने यूं आनन फानन मेरे खिलाफ अपनी शिकायत वापस ले ली थी ।”
“हां ।”
“तुम जानती हो उस कटे वालों वाली लड़की को ?”
“मैंने एक दो बार ऐसी एक लड़की को अपने पति की सोहबत में देखा था लेकिन मैं यह नहीं जानती कि वो है कौन ?”
“तुम्हारा पति यही समझा था कि तुम न केवल उसको जानती थीं बल्कि सबके सामने उसकी बाबत अपना मुंह भी खोलने जा रही थीं ।”
“मैं उसे नहीं जानती लेकिन तुम तो” - उसने फिर मेरी बांह को अपने वक्ष से धक्का दिया - “चुटकियों में उसके बारे में जान लोगे । आखिर प्राइवेट डिटेक्टिव हो ।”
“डिटेक्टिव हूं, जादूगर नहीं ।”
“नहीं हो तो बन जाओ । मेरी खातिर ।”
उस “खातिर” को अजमाने की गरज से मेरा उसकी तरफ वाला हाथ उसकी जांघ पर सरक गया । उसने कोई एतराज न किया ।
“समझ लो बन गया” - मैं उसकी संगमरमर जैसी जांघ सहलाता हुआ बोला ।
“यानी कि अब मैं तुम्हारी क्लायंट हुई ?”
“यही समझ लो ।”
“फिर तो तुम्हें कोई फीस भी देनी होगी ।”
“हां । लेकिन यहां कैसे दे पाओगी ?”
“क्या दिक्कत है ? मैं अपना पर्स खोलूंगी और बतौर फीस जितनी रकम तुम मुकर्रर करोगे, मैं तुम्हें सौंप दूंगी ।”
“पर्स खोलोगी ?”
“तभी तो उसमें से तुम्हारी फीस के लिए रुपए निकालूंगी ।”
“तुम फीस रुपयों में देना चाहती हो ?”
“तुम क्या चैक चाहते हो ?”
“नहीं । तुम खातिर जमा रखो । मैं कोई मुनासिब वक्त आने पर अपनी फीस खुद वसूल कर लूंगा ।”
“ठीक है !” - उसने मेरे हाथ पर हाथ रखा और उसे मेरी जांघ पर से उठा दिया ।
मैंने शिकायत भरे भाव से उसकी तरफ देखा ।
वह मुस्कराई, उसकी भवें उठीं और उसने अपना निचला होंठ अपने मोतियों जैसे सफेद दांतों में चुभलाया ।
मैं निहाल हो गया और इस बात पर मन ही मन सख्त अफसोस करने लगा कि हम एक बार में, एक पब्लिक प्लेस में, बैठे थे ।
“तुम्हारे पति की माली हालत कैसी है ?” - फिर मैं बदले स्वर में बोला ।
“क्यों पूछ रहे हो ?” - वह बोली ।
“भई, जब तलाक मिलता है तो बीवी को हर्ज खर्चा भी तो मिलता है और वह हर्जा खर्चा मियां की माली हालत के हिसाब से ही तो होता है ।”
“मुझे हर्जा खर्चा नहीं चाहिये । मुझे सिर्फ अपनी आजादी चाहिए ।”
“यह तो तुम बड़ी नासमझी की बात कर रही हो । हर्जा खर्चा तुम्हारा हक है । अपना हक छोड़ने का क्या मतलब ! खास तौर से तब जबकि तुम्हारा पति तुम्हें हर्जा खर्चा देना अफोर्ड कर सकता है । कर सकता है न ?”
“हां ! आज की तारीख में पैसा तो खूब है उसके पास ।”
“फिर क्या बात है ?”
“लेकिन वो पैसा उसने अपनी मेहनत से कमाया है, मेरा उस पर क्या हक हुआ ?”
“पति की कमाई पर पत्नी का बाकायदा हक होता है । हमारे समाज का ऐसा ही विधान है । आखिर उसने भी तो तुम्हारी दौलत को दोनों हाथों से लूटा होगा ।”
“मेरी दौलत ।”
“रूप और जवानी की दौलत ।”
“ओह !”
“जिसमें कि तुम मालामाल हो ।”
“अच्छा ।” - वह इठलाई ।
उस वक्त वो आपके खादिम की इस धारणा की पुष्टि कर रही थी कि जो कमाल औरत नासमझ बनकर कर सकती है वह वो समझदार बन कर नहीं कर सकती ।
“अब एक बात बताओ” - मैं बोला ।
“पूछो ।”
“तुम यह बात जानती हो न कि तुम्हारा पति जो आनन फानन मालामाल हुआ है वह कोख का कलंक नामक एक स्क्रिप्ट की वजह से हुआ है ।”
“हां ।”
“और उस स्क्रिप्ट पर पंचानन मेहता का भी हक बनता था जो कि तुम्हारे पति ने मार लिया हुआ है ।”
“कल फोन पर बात करते वक्त ऐसा कुछ इशारा किया तो था पंचानन मेहता ने ।”
“अब जब तुम अपने पति को तलाक ही दे रही हो तो एक पुण्य का काम करो ।”
“क्या ?”
“पंचानन मेहता को उसका हक दिलाने में मदद करो ।”
“मैं हर मुमकिन मदद करने को तैयार हूं ।”
“दैट्स ए गुड गर्ल” - मैं प्रशंसात्मक स्वर में बोला और इसी बहाने उसकी पीठ थपथपायी, थपथपाने के बहाने सहलाई और सहलाने के बहाने एक बगल के नीचे से हो कर आगे तक दबाई ।
उसने यूं जाहिर किया जैसे उसे नहीं मालूम था कि मैं क्या कर रहा था ।
“तुम कभी कोख का कलंक के लेखक से मिली हो ?”
“नहीं ।”
“तुम खुद लेखिका हो और पहले बतौर लेखिका ही उत्कल प्रकाशन के आफिस में जाया करती थीं । कभी ऐसा इत्तफाक नहीं हुआ कि कोख का कलंक के लेखक हर्षवर्धन से वहां तुम्हारी मुलाकात हुई हो ?”
“नहीं ।”
“कभी तुमने हर्षवर्धन का जिक्र तक नहीं सुना ?”
“जिक्र तो सुना है ।”
“किस से ? पति से ?”
“नहीं । अंकल से ।”
“वो कैसे ?”
“कोख का कलंक से पैसा कमा पाने की स्टेज तक पहुंचने के लिए जो पैसा दरकार था, वह अंकल रुद्रनारायण ने मेरे पति को दिया था । उसी सन्दर्भ में एकाध बार अंकल के मुंह से मैंने कोख का कलंक का और उसके लेखक हर्षवर्धन का जिक्र सुना था ।”
“तुम्हारे अंकल रईस आदमी हैं ?”
“रईस तो नहीं हैं लेकिन पैसे से मोहताज भी नहीं ।”
“बहरहाल जब किसी को कर्जा दे सकते हैं तो पैसे वाले तो हुए ।”
“हुए ।”
“करते क्या हैं ?”
“कुछ नहीं ।”
“पहले क्या करते थे ?”
“कुछ नहीं ।”
“तो फिर” - मैं सकपकाया - “पैसे वाले कैसे हो गए ?”
“अंकल रुद्रनारायण के पिता खानदानी रईस थे लेकिन उन्हें अपनी औलाद से बड़ी नाउम्मीदी थी । अंकल ने मेरी मौसी रुकमणी से शादी भी अपने पिता की मर्जी के खिलाफ की थी । अंकल के पिता अंकल की उस करतूत की वजह से उन्हें अपनी मुकम्मल जायदाद से बेदखल करना चाहते थे लेकिन फिर उन्हें अपनी इकलौती औलाद पर कुछ तरस आ गया था । उन्होंने अपनी जिन्दगी में ही अपनी तमाम चल और अचल सम्पत्ति धर्मार्थ कार्यों में लगाने के लिए एक ट्रस्ट के हवाले कर दी थी और ऐसा इन्तजाम किया था कि अंकल रुद्रनारायण को अपनी सारी जिंदगी ट्रस्ट से दस हजार रुपया माहवार मिलता रहे । वह रकम पिछले तीस सालों से अंकल को नियमित रूप से मिल रही है । तीस साल पहले आज जैसी महंगाईं नहीं थी । आज भी दस हजार रूपये कोई छोटी रकम नहीं होती । इन बातों पर सामूहिक गौर किया जाए तो वो पैसे से मोहताज तो नहीं कहला सकते न ।”
“नहीं कहला सकते” - मैंने कबूल किया ।
“फिर ?”
“वैसे मिजाज के तो काफी शाहखर्च होंगे तुम्हारे अंकल ।”
“ऐसा तो नहीं है । वो तो पैसा सोच विचार कर खर्चने वाले आदमी हैं ।”
“फिर भी उन्होंने खरबन्दा को फाइनांस किया ?”
“इस में भी उनकी कोई सोच विचार लगी हुई होगी ।”
“आई सी ! वैसे गाढ़ी छनती मालूम होती है दोनों की ?”
“आजकल ।”
“पहले नहीं ?”
“नहीं । सच पूछो तो पहले तो अंकल नापसन्द करते थे मेरे पति को । उससे मेरी शादी के भी हक में नहीं थे वो । लेकिन जब मेरे पति ने पंचानन मेहता से पार्टनरशिप तोड़ी थी तो तभी से मेरे पति की तरफ अंकल का रवैया बदला था ।”
“और फिर कोख का कलंक को हिट बनाने के लिए तुम्हारे पति की आर्थिक सहायता भी की थी ?”
“हां ।”
“अब तुम्हारे अंकल और आंटी फरीदाबाद में रहते हैं ?”
“हां । आंटी बहुत तनहाई पसन्द जो है । उन्हें तनहाई से खुशी हासिल होती है ।”
मैं हंसा ।
“क्यों हंसे ?” - वह बोली ।
“तनहाई से खुशी हासिल होने वाली बात पर हंसा । किसी महागुरु ने कहा है कि तनहाई से खुशी या पीर पैगम्बर हासिल कर सकते हैं या जंगली जानवर ।”
“तो फिर समझ लो कि मेरे अंकल आंटी पीर पैगम्बर हैं ।”
“हां । वही होंगे । क्योंकि जंगली जानवर तो....”
“शट अप !”
“पहले कहां रहते थे तुम्हारे अंकल आंटी ?”
“गोवा । वहां की आबोहवा अंकल को बहुत माफिक आती थी ।”
“गोवा छोड़ा क्यों उनहोंने ?”
“चेंज की खातिर । ऊपर से आंटी को सांस की कोई ऐसी बीमारी हो गई थी जिसकी वजह से डाक्टरों ने उन्हें खुश्क और गर्म आबोहवा में रहने की हिदायत दी थी ।”
“जो कि दिल्ली की है ?”
“हां ।”
“दिल्ली में कब से हैं वो ?”
“तीन साल से ।”
“हूं । तुम कहती हो कि खरबंदा को तुम्हारे अंकल ने फाइनेंस किया था । फिर तो कोख का कलंक की कमाई में अंकल का भी हिस्सा होगा ?”
“हां ।”
“फिर क्या बात है ! दस हजार की ट्रस्ट से लगी बंधी माहवारी । ऊपर से कोख का कलंक की कमाई में भी हिस्सा । फिर तो पांचो उंगलियां घी में हुई ।”
“यही समझ लो ।”
“तुम्हारे अंकल हर्षवर्धन के बारे में काफी कुछ जानते हो सकते हैं ।”
“हां । शायद ।”
“दिल्ली वे रोज आते हैं ?”
“न । बहुत कम आते हैं ।”
“तुम मेरी कभी उनसे मुलाकात करा सकती हो ?”
“फरीदाबाद जाना होगा ।”
“तो क्या हुआ । फरीदाबाद कौनसा काले कोस दूर है ।”
“मैं कल वहां जाने वाली हूं । तुम भी साथ चले चलना ।”
“वैरी गुड । कब ?”
“शाम को मैं वहां डिनर पर इनवाइटिड हूं ।”
“उन्हें बिन बुलाये मेहमान से एतराज तो नहीं होगा ?”
“मेहमान अगर मेरे साथ होगा तो नहीं होगा ।”
“गुड । शाम को मैं कहां मिलूं ?”
“मेरे फ्लैट पर आ जाना ।”
“वो कहां हुआ ?”
उसने मुझे गोल मार्केट का एक पता बताया जो कि मैंने नोट कर लिया ।
“एक बात बताओ ।” - वह बोली ।
“दो पूछो ।”
“तुम पंचानन मेहता का हित करने की कोशिश कर हो । उसका हित करते-करते कहीं मेरे अंकल का तो कोई अहित नहीं कर बैठोगे ?”
“तुम्हारे अंकल का क्या अहित हो सकता है ? वे तुम्हारे पति के हर बिजनेस में उसके पार्टनर थोड़े ही हैं ।”
“हर बिजनेस में तो नहीं हैं ।”
“तो क्या बात है ? मैंने यह साबित करना है कि तुम्हारे पति ने अपने भूतपूर्व पार्टनर पंचानन मेहता के साथ नाइंसाफी की है और कोख का कलंक के मामले में उसके साथ बेइमानी की है आज की तारीख में जिसके हर्जाने का पंचानन मेहता तलबगार है । तुम्हारे अंकल उत्कल प्रकाशन में तो पार्टनर हैं नहीं । फिर बताओ तुम्हारे अंकल का पंचानन मेहता वाले सिलसिले से क्या वास्ता बना ?”
“कोई भी नहीं ।”
“सो देयर ।”
वह खमोश रही ।
अब लंच हो जाए ?” - मैं बोला ।
“नही ।”
“क्यों ?”
“मैं लंच नहीं करती ।”
“क्यों ?”
“आई एम वाचिंग माई फिगर ।”
“फिगर तो तुम्हारी वाच करने के काबिल ही है । उसे तो मैं भी वाच कर रहा हूं ।”
“मस्केबाजी छोड़ो ।”
“तो क्या पकडूं ?”
“कुछ नहीं । एक काम करो ।”
“दो बताओ ।”
“एक ही काफी है । मुझे कनाट प्लेस तक छोड़ कर आओ । मुझे अपनी अपोइंटमेंट में देर हो रही है ।”
“ओके मैडम” - मैं उसे सैल्यूट मारता हुआ बोला ।
वह उठ खड़ी हुई ।
जन्नत मेरे पहलू से निकल गई ।
***
कनाट प्लेस के एक पी सी ओ से मैंने अपने ऑफिस फोन किया ।
“मैं तुम्हारा एम्पलायर बोल रहा हूं” - रजनी की आवाज सुनाई देते ही मैं बोला ।
“अभी निजामुद्दीन थाने के लाक अप में ही बन्द हैं या तिहाड़ जेल पहुंच गये ?” - वह सहज भाव से बोली ।
“जेल जाएं मेरे दुश्मन” - मैं भन्नाया ।
“यानी कि खलासी हो गई ?”
“हां ।”
“बधाई हो ।”
“शुक्रिया ! कोई फोन काल ? कोई आया गया ? कोई मैसेज ।”
“दो मैसेज हैं आपके लिए ।”
“क्या ?”
“एक तो शाम चार बजे हर हाल में दफ्तर तशरीफ ले आइयेगा ।”
“क्यों ?”
“कल्याण खरबन्दा के वकील का फोन आया था । शाह नाम बता रहा था अपना । आप से मिलने के लिए मरा जा रहा था ।”
“दैट्स गुड न्यूज । इसका मतलब है कि खरबन्दा के छक्के छूट रहे हैं ।”
“या छूट चुके हैं ।”
“तुमने चार बजे की अपोइंटमैंट क्यों फिक्स की ?”
“और कब की करती ? पांच बजे तो मेरी छुट्टी हो जाती है ।”
“अरे, जब तक मैं आफिस नहीं लौटूं तुम्हारा फर्ज नहीं बनता कि तुम दफ्तर में बैठो ?”
“नहीं बनता । मेरे अपोइंटमेंट लैटर में आपने खुद साफ साफ लिखा है कि मेरी ड्यूटी दस से पांच है ।”
“तुम्हारा खुद का कोई फर्ज नही बनता ?”
“ऐसे फर्ज बीवियों के बनते हैं जिन्हें कि आधी-आधी रात तक थाली परोसे पलक, पावड़े बिछाये अपने पति परमेश्वर के इन्तजार का प्रशिक्षण प्राप्त होता है । इत्तफाक से वो प्रशिक्षण मैंने प्राप्त नहीं किया है, मैंने सिर्फ टाइप और शार्टहैंड सीखी है ।”
“अच्छी सैक्रेट्री हो ।”
“जी हां ।”
“क्या जी हां ?”
“अच्छी सैक्रेट्री हूं । तभी तो रिस्पेक्टेबल आवर्स में घर पहुंच जाती हूं ।”
“अच्छा, अच्छा । अब दूसरा मैसेज भौंको ।”
“भौं भौं ।”
“रजनी की बच्ची, मैं....”
“दूसरा मैसेज आपके क्लायंट का है ।”
“कौन से क्लायंट का ?”
“जैसे सौ पचास क्लायंट हों । एक मुर्गी फंस गई यही क्या कम है !”
“अब कुछ बकेगी भी ?”
“बक तो अब तक रही थी, अब बोलती हूं । पंचानन मेहता का फोन था । उसने कहा है कि उसने मानव शर्मा से आपकी अपोइंटमैंट फिक्स की है । आप दो बजे तक उसके घर पहुंच जाइएगा ।”
“किसके घर ? पंचानन मेहता के ?”
“मानव शर्मा के ।”
“उसके घर का पता ?”
“सागर अपार्टमैंट्स । फ्लैट नम्बर सात सौ एक । तिलक मार्ग नई दिल्ली वन वन जीरो जीरो जीरो वन ।”
मैंने फोन बन्द किया और घड़ी देखी ।
दो बजने में दस मिनट थे ।
कार द्वारा तिलक मार्ग का कनाट प्लेस से मुश्किल से पांच मिनट का रास्ता था ।
ठीक दो बजे मैं मानव शर्मा के निहायत आधुनिक और ऐश्वर्यशाली फ्लैट में था ।
मानव शर्मा एक अधेड़ावस्था की ओर अग्रसर होता हुआ, मंझोले कद का दुबला पतला, फैशनेबल आदमी था और आदतन अपने बाएं कान की लौ को यूं खींचता रहता था जैसे गाय का थन खींचकर दूध निकाल रहा हो ।
उसने मुझे एक बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे हुए ड्राइंगरूम में बिठाया और मुझे सिगरेट पेश किया । पेश किया जा रहा सिगरेट क्योंकि डनहिल था इसलिए मैंने फौरन ले लिया । लाइटर से उसने पहले मेरा और फिर अपना सिगरेट सुलगाया और फिर मेरी कोहनी के पास सोफे के हत्थे पर तक ऐश ट्रे यूं रख दी जैसे उसे अंदेशा हो कहीं मैं सिगरेट की राख उसके कीमती कारपेट पर न झाड़ने लगूं ।
“तो” - वह धूआं उगलता हुआ बोला - “पंचानन मेहता के दोस्त हैं, कोहली साहब !”
“जी हां ।”- मैं बड़ी संजीदगी से बोला ।
“आपको उम्मीद है यूं मेहता का हक उसे हासिल हो जाने की ?”
“यह तो आपकी मदद पर मुनहसर है ।”
“सिर्फ मेरी !”
“आपकी और हर्षवर्धन नाम के कोख का कलंक के लेखक की । लेखक तो ढूंढे नहीं मिल रहा लेकिन आप सामने बैठे हैं । इसलिए कहना न होगा कि सारा दारोमदार फिलहाल तो आप पर ही है ।”
“मैंने जब कहा है मेहता को कि मैं उसके हक में गवाही दूंगा तो जरूर दूंगा ।”
“फिर तो बात ही क्या है ?”
“असल में मेरा सवाल यह था कि क्या मेहता को खरबंदा से कोई मोटा माल हासिल होने की उम्मीद है ?”
“उम्मीद तो पूरी है । आप खास क्यों पूछ रहे हैं ?”
“आजकल मेहता की माली हालत पतली है । अपना धंधा चलाये रखने के लिए उसे फाइनांस की जरूरत है जो कि उसे कहीं से हासिल नहीं हो रहा । उसने मेरे से भी मदद मांगी थी लेकिन मैंने इन्कार कर दिया था । फिर यह कोख का कलंक वाली बात सामने आ गई थी । तब उसने मुझे एक बड़ी दिलचस्प ऑफर दी थी ।”
“क्या ?”
“बकौल उसके खरबंदा अब तक कोख का कलंक से कम-से-कम बीस लाख रुपया कमा चुका है लेकिन अगर वह इस से आधे की भी हामी भरे तो आधे का आधा मेहता को मिल सकता था । मेहता उस आधे के आधे को और आधे में मुझे; यूं कह लो कि, बेचने का ख्वाहिशमन्द था ।”
“मतलब ?”
“मतलब यह कि” - वह पहले से ज्यादा जोर से अपने कान की लौ खींचता हुआ बोला - “ढाई लाख रुपये में वह मुझे पांच लाख का प्रोनोट लिख कर देने को तैयार है ।”
“यह तो आपके लिए सौ फीसदी मुनाफे की पेशकश हुई ।”
“हुई । लेकिन इस में मेरा रिस्क भी तो है । अगर खरबंदा से वह पांच लाख रुपया न वसूल कर पाया तो मेरा ढाई लाख भी गया ।”
“कहां गया ! कर्जाई तो वह आपका पांच लाख का बन गया ।”
“उसके बिजनेस में किसी को पांच लाख रुपये अदा कर पाने की गुंजायश न अब है न आगे होने की उम्मीद है । मैं नंगे का क्या उतार लूंगा ? मुझे तो तभी फायदा है जबकि यकीनी तौर पर कोख का कलंक पर उसका दावा स्थापित हो और खरबंदा उसका हक उसे सौंपे ।”
“जो कि पांच लाख से ज्यादा भी हो सकता है । अभी आपने खुद कहा कि दस लाख तक हो सकता है ।”
“हो सकता है । लेकिन मुझे सिर्फ पांच लाख से मतलब है ।”
“इस रकम के इतने वसीह और मुतवातर जिक्र का मकसद क्या हुआ, साहब ?”
“मकसद साफ है” - उसने कान की लौ को खींचा, सहलाया, फिर खींचा - “अगर आपकी मदद से मेहता कोई पैसा कमा सकता है तो वही पैसा अब मैं भी कमा सकने की स्थिति में हूं । और इसी उम्मीद में मैं अपनी गवाही देना चाहता हूं कि आपके प्रयत्नों से खरबन्दा कोई मोटा माल झाड़ेगा ।”
“यानी कि आप अपनी गवाही की कीमत चाहते हैं ।”
“गलत । बिल्कुल गलत । वह तो तब कहते जब मैं मेहता को ढ़ाई लाख रुपया न दे रहा होता ।”
“पांच लाख का प्रोनोट लिखवा कर ।”
“कैसे भी ! जब मैं इन्वेस्टमेंट कर रहा हूं तो मैं उसकी रिटर्न भी तो चाहूंगा ।”
“सौ फीसदी रिटर्न ।”
“क्यों नहीं । मैं कोई सरकारी बैंक तो नहीं जो कि ब्याज के फिक्स्ड रेट पर कर्जा देगा ।”
“आप क्या चाहते हैं ?”
“मैं अपनी रकम को वापिसी की गारन्टी चाहता हूं ।”
“किस से ? पंचानन मेहता से ?”
“नहीं । आपसे । मैं मेहता की बातों में नहीं जाना चाहता । वो जरूरतमंद है । अपनी जरूरत पूरी करने के लिए वो झूठ भी बोल सकता है । मैं आप से हकीकत जानना चाहता हूं । आप बताइए, है कोई गारन्टी खरबंदा से कोई मोटी रकम झटक पाने की ?”
“है । बशर्ते कि आप अपनी गवाही से फिर न जाएं और मैं हर्षवर्धन को तलाश कर लेने में कामयाब हो जाऊं ।”
“जब मैं अपना ढाई लाख...”
वो बोलता बोलता रुक गया ।
एक नौकर चाय की ट्रे उठाए वहां दाखिल हो रहा था ।
उसने ट्रे सैंटर टेबल पर रख दी तो मानव शर्मा बोला - “मेमसाहब को कहना इधर आ जाएं ।”
नौकर सहमति में सिर हिलाता हुआ वहां से विदा हो गया ।
“हां ।” - मानव शर्मा बड़े दुलार से अपने कान की लौ को छूता हुआ बोला - “मैं क्या कह रहा था ? हां, मैं कह रहा था कि जब मैं अपना ढाई लाख रुपया फंसा रहा हूं तो मैं तो अपनी गवाही से फिरने से रहा ।”
“फिर क्या बात है ?” - मैं बोला ।
“लेकिन लेखक गायब है ।”
“फिलहाल गायब है ।”
“अभी आप उसे ढूंढ नहीं पाए ?”
“नहीं ढूंढ पाया । इसलिए नही ढूंढ पाया क्योंकि इस दिशा में मैंने अभी कोई खास काम नहीं किया । अभी कल से ही तो मैंने यह केस पकड़ा है । लेकिन आप खातिर जमा रखिए, मैं उसे ढूंढ कर रहूंगा ।”
“इस बात की क्या गारन्टी है कि जब वो मिल जाएगा तो खरबंन्दा के खिलाफ गवाही देने के लिए तैयार हो जाएगा ?”
“आप गारंटियां बहुत मांगते हैं ।”
वह हंसा, उसने बड़े प्यार से अपने कान कर लौ खींची और बोला - “क्या गारन्टी है ?”
“सवाल इस में किसी के हक में या किसी के खिलाफ गवाही देने का नहीं है । सवाल हकीकत बयान करने का है । वो लेखक है । लेखक तो बहुत सम्वेदनशील और मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत होते हैं । वो सच बोलने से भला क्यों इन्कार करेगा ?”
“सच बोलने से उसका नुकसान हो सकता है ।”
“नहीं हो तकता । केस खरबन्दा जीते या मेहता, उसे तो अपनी रायल्टी मिलनी ही मिलनी है ।”
“जरुरी नहीं । फर्ज करो मुकद्दमा अदालत मे पहुंचता है और अदालत यह हुक्म सुनाती है कि जब तक केस का फैसला नहीं हो जाता, कोख का कलंक के प्रकाशन पर, उस पर बनती फिल्म पर, रोक लगा दी जाए । फिर लेखक को रायल्टी कहां से मिलेगी ?”
“ऐसा नहीं होगा ।”
“क्या गारन्टी है ?”
“हालात ऐसा जाहिर कर रहे हैं । हवा का रुख यह बता रहा है । आपकी जानकारी के लिए आज ही शाम को खरबन्दा का वकील मेरे से मिलने आ रहा है । मुझे पूरी उम्मीद है कि वो किसी सैटलमैंट की ही बात करेगा । और किसलिए मिलने आ रहा होगा वो मेरे से ?”
“दैट इज गुड न्यूज” - वह अपने कान की लौ को दोहरा करके सोचता हुआ बोला - “बट इज....”
वह ठिठक गया । मैंने नोट किया कि उसकी निगाह मेरी पीठ पीछे कहीं थीं । मुझे अनुभव हुआ कि वहां तभी किसी ने कदम रखा था ।
“ओह, सारी” - मुझे अपने पीछे से एक मधुर स्त्री स्वर सुनाई दिया - “मैंने समझा था आप अकेले बैठे हैं रामू ने मुझे नहीं बताया था कि यहां कोई मेहमान...”
“आओ आओ” - मानव शर्मा बोला - “कोहली साहब अपने ही आदमी हैं । कोहली साहब, मेरी बीवी से मिलिए । और वीणा, ये कोहली साहब हैं । शहर के मशहूर प्राइवेट डिटेक्टिव ।”
होंठों पर एक मशीनी मुस्कराहट लिये मैं वापिस घूमा । मेरे दोनों हाथ अपने आप ऊपर उठ गए लेकिन इससे पहले कि वे नमस्कार की मुद्रा में जुड़ पाते, वे रास्ते में ही फ्रीज हो गए । वैसे ही मेरे चेहरे से मुस्कराहट उड़ गई और उसका स्थान गहरी हैरानी ने ले लिया ।
मेरे सामने वही कटे वालों वाली युवती खड़ी थी जिसे मैंने कल दिन में खरबन्दा के फ्लैट में देखा था और जो एकाएक वहां से गायब हो गई थी ।
युवती की हालत भी मेरे जैसी ही थी । उसका शरीर जड़ हो गया था और चेहरे का एकाएक रंग उड़ गया था ।
तब मुझे पहली बार ध्यान आया कि मानव शर्मा ने जान बूझकर मेरा अपनी बीवी से आमना सामना करवाया था । पिछले रोज से ही अखबारों के माध्यम से शहर में एक कटे बालों वाली खूबसूरत युवती का चर्चा था जो कि बकौल मेरे, बड़े संदिग्ध हालात में खरबन्दा के फ्लैट में मौजूद थी । निश्चय ही वह चर्चा मानव शर्मा के कानों तक भी पहुंचा था और निश्चय ही उसे अपनी बीवी की किन्हीं हरकतों पर पहले से शक था । तभी उसने मेरे से अपने घर पर मुलाकात फिक्स की थी और तब यूं एकाएक अपनी बीवी से मेरा सामना करवागा था ।
मुझे युवती की उस वक्त की हालत बड़ी दयनीय लगी ।
मेरी मानव शर्मा की तरफ पीठ थी इसलिए वह मेरे चेहरे के भाव नहीं देख सकता था । मैंने अपने होंठों पर एक उंगली रखकर उसे खामोशी का इशारा किया और आंखों ही आंखों में उसे आश्वासन दिया ।
वह तुरन्त संभली । उसके होंठों पर एक मशीनी मुस्कराहट उभरी ।
“नमस्ते” - मैं बोला ।
“वैलकम, मिस्टर कोहली” - वह मधुर स्वर में बोली ।
“थैंक्यू मैडम ।”
“मैं आपके लिये चाय बनाती हूं ।”
वह अपने पति के करीब आ बैठी और चाय बनाने लगी ।
मैंने एक सतर्क निगाह उसके पति पर डाली और उसके चेहरे से उसके मन के भाव पढ़ने की कोशिश करने लगा । मुझे यही लगा कि जो गड़बड़ होनी थी, वो हो चुकी थी । मानव शर्मा अन्धा नहीं था । निश्चय ही मेरी शक्ल देखकर अपनी पत्नी के मूड में आया इंकलाबी परिवर्तन उससे छुपा नहीं रहा था ।
उसने मुझे फिर सिगरेट पेश किया ।
वीणा ने चाय तैयार करके सर्व की ।
“कोहली साहब कल्याण खरबन्दा के खिलाफ एक केस में मेरी गवाही चाहते हैं ।” - मानव शर्मा सहज भाव से बोला - “कल्याण खरबंदा का ध्यान है न तुम्हें ?”
“वो पब्लिशर !” - वीणा माथे पर बल डालकर कुछ याद करने का अभिनय करती हुई बोली - “जो पहले यहां अक्सर आया करता था ?”
“वही ।”
“चाय बहुत उम्दा बनाई आपने” - विषय परिवर्तन की नीयत से मैं बोला ।
वह मुस्कराई ।
अब एक बात तो साफ हो गई थी कि क्यों खरबन्दा ने मेरे खिलाफ अपनी कम्प्लेंट वापिस ले ली थी । उसका एक शादीशुदा औरत से अफेयर था और उसकी असलियत को प्रकाश में न आने देने की कोशिश करना उसके लिए स्वाभाविक था । असल में चाहे मधुमिता वीणा को नहीं जानती थी लेकिन डी सी पी के आफिस में उसके बोलते वक्त मुझे भी यही लगा था कि वह कटे बालों वाली युवती के बारे में सब कुछ उगल देने वाली थी ।
“कैसी मजेदार सिचुएशन है” - मानव शर्मा इस बार अपना कान उमेठता हुआ बोला - “खरबन्दा ने अपने भूतपूर्व पार्टनर पंचानन मेहता को डबलक्रास किया है और उस डबलक्रास को सिर्फ मेरी गवाही साबित कर सकती है ।”
“अच्छा !” - वीणा बोली ।
“हां ।”
आप खरबंदा के खिलाफ गवाही देंगे ?”
“क्यों न दूं ?”
“मैंने यह कब कहा !” - वह हड़बड़ाकर बोली - “आप शौक से गवाही दीजिए । सच पूछिए तो” - वह मेरी ओर देखकर मुस्कराई - “मैं तो ऐसी बातों को न समझती हूं और न मेरी इनमें कोई दिलचस्पी है । ये जानें, इनके काम जानें । मैं खामखाह क्यों सिरखपाई करूं ?”
“आप ठीक कह रही हैं ।” - मैं बोला ।
“आप लोग बातें कीजिए” - वह चाय का कप मेज पर रखकर उठ खड़ी हुई - “मैंने जरा शॉपिंग के लिये जाना है ।” - वह मेरी ओर देखकर मुस्कराई - “आई होप यूं डोंट माइंड, मिस्टर कोहली ।”
“ओह नो । नाट ऐट आल । नाट ऐट आल ।”
“फिर कभी फिर आइयेगा ।”
“मैं जरूर आऊंगा । इतदी उम्दा चाय पीने के लिये तो मैं काले पानी पहुंचा सकता हूं ।”
“थैंक्यू । थैक्यू वैरी मच । नाइस मीटिंग यू, मिस्टर कोहली ।”
और वह हवा के झोंके की तरह वहां से गुजर गई ।
पीछे कुछ क्षण खामोशी रही ।
“तो” - फिर मानव शर्मा कान की लौ खींचता हुआ बोला – “तो शाम को आप खरबन्दा के वकील से मिल रहे हैं ।”
“जी हां” - मैं बोला, मेरा जी चाह रहा था कि मैं उससे पूछूं कि क्या उसमें कोई ऐसा पुर्जा फिट था कि कान की लौ खींचने से ही उसके मुंह से आवाज निकलती थी ।
“जो नतीजा सामने आए, उसकी मुझे खबर करोगे ?”
“जरूर । अब मैं इजाजत चाहता हूं ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया, उठ कर मेरे से हाथ मिलाया और मुझे मुख्यद्वार तक छोड़ने गया ।
उसने मेरे पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
मैं लिफ्ट की दिशा में बढ़ रहा था कि तभी फ्लैट का गलियारे में पड़ने वाला एक अन्य दरवाजा खुला और बड़ी सावधानी से वीणा ने बाहर कदम रखा । वह लपककर मेरे करीब पहुंची ।
“शुक्रिया” - वह बोली ।
“किस वात का ?”
“तुम्हें मालूम है ।”
“एक बात बताइए...”
“बातों के लिए यह जगह मुनासिब नहीं ।”
“सिर्फ एक बात बताइए ।”
“जल्दी पूछो ।”
“सुभाष पचेरिया को आपने शूट किया था ?”
“ओह माई गॉड ! नो ।”
“लाश वहां पहले से मौजूद थी ?”
“हां । और अगर मैं बाथरूम में कदम न रखती तो मुझे न जाने कब तक लाश की खबर न लगती । मैं वहां ! एक लाश के साथ !” - उसके शरीर ने जोर से झुरझुरी ली ।
“लाश को देख कर आपने क्या किया ?”
“मैंने क्या करना था । मुझे तो तब यही सूझा था कि मुझे फौरन वहां से कूच कर जाना चाहिए था । मैं वहां से निकलने ही वाली थी कि तुम आ गए थे ।”
“आपनें मुझे दरवाजा क्यों खोला ?”
“मैं समझी थी खरबन्दा साहब आए थे ।”
“उनका उस घड़ी वहां आगमन अपेक्षित था ?”
“हां ।”
“आपका खरबन्दा से अफेयर है ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“मुझे आपके जाती मामलात से कुछ लेना देना नहीं है लेकिन मौजूदा हालात की नजाकत को देखते हुए मैं आपको एक राय देना चाहता हूं ।”
“पहले एक बात बताइए ।”
“क्या ?”
“हालात क्या और बिगड़ सकते हैं ?”
“हां । बिगड़ सकते हैं । हालात बिगडेंगे, तभी तो सुधरेंगे न । हालात के सुधरने से पहले उनका बिगड़ना जरूरी होता है ।”
“आप क्या राय दे रहे थे मुझे ?”
“अगर आप अपने आपको एक कत्ल के केस में फंसा हुआ नहीं देखना चाहतीं तो हमेशा के लिए नहीं तो फिलहाल फौरन खरबन्दा की जिन्दगी से मुकम्मल किनारा कर लीजिए, उसके फ्लैट की जो चाबी आपके पास है, उसे जमना में फेंक आइए, और भूल जाइए कि आप कल उसके फ्लैट में थीं ।”
“मैं तो भूल जाऊंगी लेकिन सवाल यह है कि क्या तुम भी भूल जाओगे ?”
“मैं तो समझिए कि भूल भी गया ।”
“शुक्रिया । तुम बहुत अच्छे आदमी हो । तुम्हारा यह अहसान मैं उम्र भर याद रखूंगी । हालांकि मैं अभी तक हैरान हूं कि तुमने यह अहसान मुझ पर क्यों किया ?”
“आपका दिल क्या कहता है ?”
“मेरा दिल तो बहुत बुरा कहता है ।”
“क्या ?”
“कि कहीं आगे चल कर अपने इस अहसान को तुम कैश करने की कोशिश न करो ।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं ।”
“यानी कि ईमानदार आदमी हो ।”
“आदतन नहीं । लेकिन कभी कभार इतफाकन ईमानदार बन जाता हूं ।”
“ओह !”
“वैसे असल बात यह है कि खूबसूरत युवतियों पर अहसान करना मेरी हाबी है ।”
तब पहली बार उसके होंठों पर एक रंगीन मुस्कराहट आई ।
“अच्छी हाबी है” - वह बोली - “फिर मिलेंगे, मिस्टर कोहली ।”
और वह वापिस उसी दरवाजे में दाखिल हो गई जिसमें से वो बाहर निकली थी ।
***
ठीक चार बजे मै अपने आफिस में पहुंचा ।
शाह मेरे से पहले वहां मौजूद था । रजनी ने बताया कि वह मेरे आफिस में बैठा था ।
मैं अपने आफिस में दाखिल हुआ ।
शाह उठ कर यूं तपाक से मेरे से मिला जैसे मैं उसका कोई मेले में बिछुडा हुआ भाई था ।
वह कोई पचपन साल का सिर से एकदम गंजा, बाई फोकल्स लगाने वाला गोल मटोल आदमी था । वह एक तम्बू जैसा कोट पहने था जो कि सामने से खुला था । उसका गला इतना ज्यादा नीचे लटका था कि टाई की गांठ या कमीज का कालर दिखाई नहीं दे रहा था । जैसे आम लोग पतलून पेट या कूल्हे पर बांधते हैं, उसकी पतलून यूं लग रही थी जैसे छाती पर बंधी हुई हो ।
मुझसे मिलने के लिए वह उठ कर खडा हो गया था, मैंने उसे बैठने के लिए कहा और खुद भी बैठ गया । वह बैठा तो मुझे यूं लगा जैसे वह कुर्सी से बाहर बहा जा रहा हो ।
“मिस्टर कोहली” – वह बोला - “मैं जिन्दगी में पहली बार किसी प्राइवेट डिटेक्टिव से मिला हूं ।”
“हर बात की कभी तो पहल होनी ही होती है” - मैं बोला ।
“बिल्कुल ठीक कहा आपने ।”
“वैसे काश मैं भी यह कह पाता कि मैं जिन्दगी में पहली बार किसी वकील से मिला हूं ।”
वह हो हो करके हंसा । खामखाह हंसा ।
“आप कुछ पिएंगे ! कोल्ड ड्रिंक ! चाय ! काफी !”
“शुक्रिया । मैं जरा जल्दी पहुंच गया था । आपकी सैक्रेट्री ने मुझे काफी पिलाई थी ।”
“ओह !”
“खुशकिस्मत हैं आप जो इतनी एफीशेंट सैक्रेट्री मिली हुई है आपको वर्ना कहां मिलता है दिल्ली शहर में एफीशेंट स्टाफ !”
“आप खरबन्दा साहब के वकील हैं ?”
“हां ।” - वह तनिक हड़बड़ा कर बोला - “हां । मैंने फोन पर बताया था आपकी सैक्रेट्री को ।”
मैं खामोश रहा और उसके दोबारा बोलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
“हो सकता है खरबन्दा के बारे में आपका कोई जुदा ख्याल हो, मिस्टर कोहली, लेकिन हकीकत यह है कि खरबन्दा एक निहायत अमनपसन्द और झगड़ों बखेड़ों से दूर रहने वाला आदमी है । इसीलिए उसकी ख्वाहिश पर मैं यहां आया हूं ।”
“किस सिलसिले में ?”
“सिलसिला आपको मालूम है । आप दुनियादार आदमी हैं और जानते ही होंगे कि सिलसिला वही अच्छा होता है जो वकीलों को बीच में डाले बिना निपट जाए ।”
“यह बात एक वकील के मुंह से सुनकर हैरानी हुई ।”
“हैरानी नहीं खुशी होनी चाहिए । मैं खुद खरबन्दा जैसे ही मिजाज का आदमी न होता तो यकीनन उसे यही राय देता कि केस में कुछ नहीं रखा, मेहता कुछ साबित नहीं कर सकता । वो केस करता है तो कर ले । लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया । मैंने यह राय अपने क्लायन्ट को नहीं दी ।”
“जो कि आपकी मेहरबानी है ।”
“मैंने उसे यही कहा कि अगर मेहता का कोई हक बनता है तो वह हक उसे मेहता को देना चाहिए ।”
“आपकी निगाह में मेहता का कोई हक बनता है ?”
“मैं वकील हूं, मिस्टर कोहली मेरी निगाह में तो नहीं बनता । बनता तो मेरे क्लायन्ट की निगाह में भी नहीं लेकिन वह क्योंकि अपने भूतपूर्व पार्टनर के साथ कोर्ट कचहरी के बखेड़े में नहीं फंसना चाहता इसलिए एक बेहूदा मामला रफा करने की नीयत से वो कोई भी रीजनेबल रकम मेहता को देने के लिए तैयार है ।”
“दैट्स गुड न्यूज । अगर ऐसी बात थी तो आपको मेहता के पास जाना चाहिए था । मेरे पास क्यों आए ?”
“क्योंकि मेहता ऐसा चाहता था ।”
“आपने मेहता से बात की थी ?”
“हां । फोन पर । उसी ने मुझे राय दी थी कि इस सिलसिले में मैने जो कुछ कहना था, आपसे कहूं ।”
“ओह !”
“प्रभू की कृपा से खरबन्दा साहब का धन्धा आज कल करारा चल रहा है इसलिए मेहता के हक की रकम मुकर्रर करने में वो कोई कंजूसी नहीं बरतना चाहते ।”
“फिर तो वो देवतास्वरूप आदमी हुए ।”
“हां । बिल्कुल ।”
“क्या रकम मुकर्रर की उन्होने मेहता के हक की ?”
“आपको विश्वास नही होगा । बीस हजार ! पूरे बीस हजार !”
“मुझे वाकई विश्वास नहीं हुआ ।”
“आप मेहता से कोख का कलंक की रिलीज का कागज साइन करवा कर रखिये । मैं कल फिर आऊंगा, कागज ले जाऊंगा और चैक दे जाऊंगा ।”
“बीस हजार का ?”
“हां ।”
“बाकी पैसा कब मिलेगा ?”
“बाकी पैसा ! बाकी पैसा कौन सा ?”
“बीस हजार तो मेहता के हक की पहली किश्त होगी न ?”
वह हड़बड़ाया । उसने असमंजसपूर्ण नेत्रों से मेरी तरफ देखा और फिर पहली बार तनिक उखड़े हुए स्वर में बोला - “भई, यह सैटलमेंट की मुकम्मल रकम है ।”
“बीस हजार !”
“पूरे । एक पैसा कम नहीं ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
वह सकपकाया, तिलमिलाया, उसने कुर्सी पर पहलू बदलने की कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका - कुर्सी अपनी जगह से हिल गई लेकिन कुर्सी में फंसा वो कुर्सी से न हिल पाया - और कठिन स्वर में बोला - “आल राइट । पच्चीस ।”
“अब तो मुझे हंसना ही पड़ेगा । हा हा हा ।”
“तुम क्या उम्मीद कर रहे हो ?” - वह नाराजगी से बोला ।
“मेरी उम्मीद तो आपके क्लायन्ट के बिजनेस रिकार्ड की पड़ताल से जाहिर होगी । पहले मुझे यह मालूम होना चाहिए कि आपका कलायन्ट कोख का कलकं के कितने एडीशन छाप चुका है, हर एडिशन की कितनी कापियां बेच चुका है और नोवल के फिल्मराइट्स बेचकर उसने कितनी रकम हासिल की है ।”
“तुम्हारा इन बातों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए ।”
“मेरा कोई मतलब नहीं । मतलब मेहता का है । मेरा उसके मतलब से मतलब है । आप यह बात जानते हैं इसीलिए तो इस वक्त यहां मेरे सामने बैठे हैं ।”
“तुम क्या समझते हो कि खरबन्दा कोख का कलंक से कोई बीस तीस लाख रुपया कमा चुका है ?”
सैं समझता नहीं....”
“तो ?”
“...जानता हूं ।”
“क्या ?”
“कि आपका क्लायन्ट इससे भी ज्यादा कमा चुका है ।उसकी मौजूदा खुशहाली की बुनियाद ही कोख का कलंक है ।”
“किताब उसकी मेहनत से कामयाब हुई । उसे मेहता के हाथ लगते तो कचरा हो जाता ।”
“क्या पता क्या हो जाता । जो बात हुई ही नहीं उसके बारे में क्या कहा जा सकता है ।”
“मैं मेहता को एक कानी कौड़ी का हकदार नहीं मानता ।”
“आप मानते हैं । इसलिए इस वक्त यहां मौजूद हैं । इसीलिए एक चिड़िया के चुग्गे जैसी रकम की आफर भी कर चुके है और उस आफर में पच्चीस फीसदी का इजाफा भी कर चुके हैं ।”
“सिर्फ इसलिए कि मेरा क्लायन्ट एक अमनपसन्द और झगड़ों-बखेड़ों से दूर रहने वाला आदमी है और वो अपने भूतपूर्व पार्टनर के साथ दयानतदारी से पेश आना चाहता है ।”
“जो लोग अमनपसन्द और झगड़ों-बखेड़ों से दूर रहने वाले होते हैं, उनके घरों से कत्ल हुई लाशें बरामद नहीं होती ।”
“खरबन्दा साहब का उस कत्ल से कोई रिश्ता नहीं ।”
“पुलिस को शायद इससे इतफाक न हो ।”
खरबन्दा साहब ने खुद मुझे कहा है कि उनका उस कत्ल से कोई रिश्ता नहीं ।”
“और खरबन्दा साहब का कहा धर्मराज युधिष्ठर के कहे जैसा है ।”
“मिस्टर कोहली, जो बातें इस वक्त हमारे बीच हो रही हैं उनका उस कत्ल से कोई रिश्ता नहीं ।”
“कबूल ।”
“तो पच्चीस हजार रुपए की आफर तुम्हें मन्जूर नहीं ?”
“मेरा जवाब वही है जो पहले था ।”
“क्या ?”
“हा हा हा ।”
“तुम क्या चाहते हो ?”
“दस लाख ।”
“दैट इज शियर नानसेन्स” - वह भड़क कर बोला - “अटरली आउट आफ क्वेश्चन ।”
मैंने लापरवाही से कन्धे झटकाए ।
“इससे तो लगता है कि तुम्हारी और तुम्हारे क्लायन्ट की सैटलमेंट की कोई नीयत ही नहीं । इतनी रकम तो तुम्हें शायद तब भी न मिले जब कि कोर्ट में तुम्हारे क्लायन्ट के हक में फैसला हो जाए ।”
“तब शायद इससे ज्यादा मिल जाए । मेरा अन्दाजा है कि खरबन्दा ने कोख का कलंक से बीस लाख कमाए होंगे । असल में उसने चालीस लाख, पचास लाख, साठ लाख या इससे भी ज्यादा कमाए हो सकते हैं ।”
“कैसे ? जादू के जोर से ।”
“कोई बड़ी बात नहीं कि खरबन्दा जैसा एक नम्बर का हरामी आदमी कोई जादू भी जानता हो ।”
“तुम मेरे क्लायन्ट को गाली दे रहे हो ।”
“अच्छा !”
“तुमने अभी उसे हरामी कहा ।”
“लेकिन एक नम्बर का । यह दिल्ली शहर है । यहां किसी को एक नम्बर का हरामी कहा जाए तो वह इज्जत महसूस करता है ।”
“अजीब आदमी हो !”
मैंने यूं अदब से सिर झुकाया जैसे उसने मेरी तारीफ की हो ।
उसके चेहरे पर क्रोध के भाव आए और आवेग में उसकी कई ठोड़ियां हिलीं । वह उठा तो कुर्सी भी उसके साथ उठती चली गई । उसने नोच कर कुर्सी को अपने जिस्म से अलग किया ।”
“तुमसे बात करना बेकार है ।” - वह बोला ।
और मेरे क्लायन्ट से भी” – मैं बोला ।
“दस लाख रुपया तुम्हारा क्लायन्ट सात जन्म हासिल नहीं कर सकता ।”
“आपके कहने से क्या होता है ?”
“मेरे ही कहने से होता है, बेटा । मानव शर्मा की गवाही के दम पर उछल रहे हो न ?”
मैं सकपकाया ।
“वो गवाही जब सामने आएगी तो बताना ।” - वह विषभरे स्वर में बोला ।
“क्या मतलब ?”
“मैं उसके सौ बखेड़ों से वाकिफ हूं । उसने खरबन्दा के खिलाफ गवाही दी तो मैं एक एक की पोल खोल दूंगा । आए तो सही अदालत में वो । अपनी गवाही के दम पर रुपया कमाने के लिए जो गठजोड़ वो तुम्हारे क्लायन्ट के साथ कर रहा है, जब मैं अदालत में उसका पर्दाफाश करूंगा तो उसकी गवाही कूड़े के ढेर में फेंकने के काबिल रह जाएगी ।”
“कैसा गठजोड़ ।”
“जैसे तुम्हें मालूम नहीं । बच्चे, मैं साबित करके दिखाउंगा कि वो इस लिए झूठी गवाही दे रहा है, क्योंकि उसे भारी माली फायदा पहुंचने वाला है । वो यूं ही तो तुम्हारे क्लायन्ट को कर्जा देने के लिए तैयार नहीं हो गया ।”
“आपको कर्जे की बाबत मालूम है ?” - मैं हैरानी से बोला ।
“मुझे और भी बहुत सी बातों की बाबत मालूम है । यूं ही मैं दिल्ली का नामी वकील नहीं माना जाता । धज्जियां उडा कर रख दूंगा मैं तुम्हारी और तुम्हारे क्लायन्ट की । समझे !”
“समझा !”
“समझे हो तो पच्चीस हजार में केस क्लोज करो ।”
“इतना ज्यादा नहीं समझा ।”
“तो भाड़ में जाओ ।”
“एक बात आप भी समझिए ।”
“क्या ?”
“अगर आप समझते हैं कि आप मेरे से ज्यादा होशियार हैं तो गलत समझते हैं । आपकी बातों से सिर्फ इतना साबित होता है कि आप मेरे से कम बेवकूफ हैं ।”
“ओह ! बौश एण्ड नानसैस !”
और वह फर्श को रौंदता हुआ वहां से कूच कर गया ।
***
मैं अनसारी रोड पर स्थित पंचानन मेहता के कबूतर के दड़बे जैसे आफिस में पहुंचा । वह फोन पर अपने कागजी से बात कर रहा था । और उसे कागज की नकद खरीद पर रेट कम करने के लिए कह रहा था ।
मैं एक कुर्सी पर ढेर हो गया और डनहिल का एक सिगरेट निकाल कर उसके कश लगाने लगा ।
वो टेलीफोन से फारिग हुआ ।
“मानव शर्मा से कर्जा मिलने की तुम्हें पूरी गारण्टी मालूम होती है” - मैं सहज भाव से बोला ।
“क्यों कहा ?” - वह सकपका कर बोला ।
“कागज नकद जो खरीद रहे हो ।”
“ओह ! तुम्हें कर्जे की बाबत किसने बताया ?”
“खुद मानव शर्मा ने बताया । लगता है मुझे ही नहीं औरों को भी बताया ।”
“और किसे बताया ?”
“किसी को तो बताया ही होगा । तुम्हारे भूतपूर्व पार्टनर का वकील ही उस कर्जे का जिक्र कर रहा था ।”
“ओह ! यह तो ठीक नहीं किया मानव शर्मा ने कर्जे का यूं प्रचार करके ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया और सिगरेट का लम्बा कश लगाया ।
“खरबन्दा के वकील से क्या बात हुई ?” - वह आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“वह सैटलमैंट की बात कह रहा था ।” - मैं बोला ।
“यह तो अच्छी खबर है । कितने में ?”
“पच्चीस हजार में ।”
“बस ?” - एक क्षण पहले उसके स्वर में पैदा हुआ उत्साह तुरन्त मायूसी में बदल गया ।
“इतना मायूस होने की बात नहीं, मेहता । उसके वकील का यूं चल कर आना ही अपने आप में सबूत है कि खरबन्दा अपनी पूंछ दबी हुई महसूस कर रहा था ।”
“लेकिन पच्चीस हजार...”
“किसी सैटलमैंट पर पहुचने का वकील लोगों का यही तरीका होता है । वे कम से कम रकम आफर करते है और दूसरी पार्टी ज्यादा से ज्यादा रकम की मांग करती है । फिर यूं ही बीच में कहीं जाकर फैसला होता है ।”
“तुमने कोई मांग की थी ?”
“हां ! दस लाख की ।”
“दस लाख तो मत दिए उसने ।”
“अरे दस मांगेगे तो पांच-सात मिलेंगे न ।”
“तुम्हें उम्मीद है कोई मुनासिब रकम मिलने की ?”
“हां है ! क्यों नहीं है । पूरी उम्मीद हैं । उम्मीद पर तो दुनिया कायम है ।”
“ओह ।”
“अब तुम यह किस्सा छोड़ो । यह खबर तो मैं तुम्हें फोन पर भी सुना सकता था । मैं किसी और वजह से यहां आया हूं ।”
“और किस वजह से ?”
“मुझे सुभाष पचेरिया के बारे में और कुछ बताओ ।”
“और कुछ क्या ?”
“जो कुछ भी तुम जानते हो ।”
“मुझे खास तो कुछ मालूम नहीं और जो मालूम है वो भी सुना सुनाया ही है ।”
“वही बताओ ।”
“ये सुभाष पचेरिया” - उसने कहना शुरू किया - “गैलेक्सी थियेटर का मैनेजर हुआ करता था । सुनने में यह आया था कि पचेरिया की मदद से खरबन्दा थियेटर के बिजनेस में अपने पार्टनर से धोखाधड़ी किया करता था ।”
“कैसे ?”
“जैसे शो हाउस फुल होता था फिर भी यह दिखाया जाता था कि कम टिकटें बिकीं और बहुत ज्यादा कम्पलिमेंट्री पास बांटे गए । किसी प्ले या और प्रोग्राम की परफारमेंस के लिए थियेटर बुक किया जाता था और उस बुकिंग को किताबों में कहीं दिखाया ही नहीं जाता था । यूं जिस रकम की हेराफेरी की जाती थी; उसके एक, कदरन छोटे, हिस्से का पचेरिया भी हकदार होता था ।”
“फिर ?”
“फिर कहते ये हैं कि किसी तरह से खरबन्दा के थियेटर के पार्टनर को इस हेराफेरी की खबर लग गई लेकिन साथ ही खरबन्दा को भी उस खबर की खबर लग गई । खरबन्दा जानता था कि उसकी पोल कोई खोल सकता था तो पचेरिया खोल सकता था । उसने पचेरिया पर गबन का झूठा केस बनवा कर उसे जेल भिजवा दिया ।”
“कैसे ?”
“एक दिन वह थियेटर रॉक कन्सर्ट के लिए बुक था जिसकी वजह से बाक्स आफिस पर भारी क्लैक्शन हुई थी । क्लैक्शन का वो रुपया रात को पचेरिया के केबिन में मौजूद सेफ में बन्द करके छोड़ा गया था लेकिन सुबह वो वहां से गायब पाया गया था ।”
“पचेरिया कैसे फंस गया ?”
“वो ऐसे फंस गया कि उसी चोरी के रुपये का एक बहुत बड़ा हिस्सा उसके बंगाली मार्केट में ही स्थित एक कमरे के फ्लैट में से बरामद हुआ था जहां कि वह अकेला रहता था । बेचारा पकडा गया और उसे तीन साल की सजा हुई ।”
“जबकि वो बेगुनाह था ? खरबन्दा ने उसे फंसाया था ?”
“कहने वाले तो यही कहते हैं ।”
“हूं ।” - मैं सोचता हुआ बोला - “फिर पचेरिया ने जेल से छूट कर शरेआम खरबन्दा को जान से मार डालने की धमकी दी और अपनी धमकी पर खरा उतरने की नीयत से कल खरबन्दा के फ्लैट पर पहुंचा और कत्ल कर पाने से पहले खुद कत्ल हो गया ।”
“खरबन्दा के हाथों ?”
“क्यों नहीं ?”
“उसने यह दावा क्यों न किया कि उसने आत्मरक्षा के लिए उस पर गोली चलाई थी । आखिर उसने शरेआम खरबन्दा को मार डालने की धमकी दी थी ।”
“तब उस से यह सवाल किया जाता कि आत्मरक्षा के लिए उसने पचेरिया को जान से ही मार डालना क्यों जरूरी समझा ?”
“ओह !”
“यह न भूलो कि फिलहाल पचेरिया की हत्या का उद्देश्य सिर्फ खरबन्दा के पास दिखाई देता है । खरबन्दा पचेरिया की जुबान सदा के लिए बन्द कर देना चाहता था और उसकी धमकी की वजह से अपने सिर पर मंडराते जान के खतरे से भी निजात पाना चाहता था ।”
“उसका कत्ल उस कटे बालों वाली ने भी तो किया हो सकता है जो कि तुम्हें निहायत बद्हवास हालत में फ्लैट में मिली थी और फिर इतने रहस्यपूर्ण ढंग से वहां से खिसक गई थी ।”
मैं उस हकीकत से इन्कार नहीं कर सकता था । बहुत मुमकिन था कि पचेरिया मानव शर्मा की बीवी के रूप में उसे पहचानता था और उसने उसे उसकी पोल खोल देने की धमकी दी हो जिसकी वजह से कि उसने ताव में आकर पचेरिया को शूट कर दिया हो ।
“तुम्हें कुछ मालूम हुआ” - पंचानन मेहता पूछ रहा था - “कि वो कटे बालों वाली लड़की कौन थी ?”
“नहीं” - मैं बोला - “अभी नहीं ।”
“कोशिश भी नहीं की जानने की ?”
“नहीं । अभी नहीं की ।”
“यह बात तो तुम्हारे कैरेक्टर से मेल नहीं खाती ।”
“अरे, टाइम नहीं लगा ।”
“तुम कुछ छुपा रहे हो ।”
“क्या ?”
“सोचो ।”
“अरे, क्या पहेलियां बुझा रहे हो । मैंने कहा न कि मैं उस कटे बालों वाली लड़की को अभी....”
“मैं उसकी बात नहीं कर रहा ।”
“तो और किसकी बात कर रहे हो ?”
“मधुमिता की ।”
“कौन मधुमिता ?”
“अच्छा ।” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“मधुमिता की क्या बात ?”
“तुम उस पर लाइन मारने की कोशिश कर रहे हो ।”
“मैं तो हर खूबसूरत, नौजवान लड़की पर लाइन मारने की कोशिश करता हूं । लेकिन” - मैं उसे घूरता हुआ बोला - “यह बात तुम्हें कैसे मालूम हुई ?”
“मुझे उसने फोन किया था और यह भी बताया था कि कल वह तुम्हें अपने साथ फरीदाबाद ले जा रही है ।”
“कमाल है । उसने तुम्हें फोन करके यह बात बताई ।”
“हां ।”
“कोई चक्कर है क्या ?”
“हो सकता है ।”
“शर्म करो । अपने पार्टनर को बीवी पर निगाह रखते हो ।”
“भूतपूर्व पार्टनर । भूतपूर्व बीवी ।”
“मेहता” - मैं तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “इस उम्र में ये ख्यालात ! ये लच्छन...”
“क्या हुआ है मेरी उम्र को । कितना बड़ा होऊंगा मैं तुमसे ? पांच साल । सात साल ।”
“दस पन्द्रह की बात करो ।”
“अरे तो भी क्या हुआ ? तलाकशुदा औरतों को उम्रदराज आदमियों की कद्र होती है । उसे मेरी शुरू से कद्र है ।”
“उसका तलाक अभी हो नहीं गया ।”
“नहीं हो गया तो करवाओ न । कोशिश करो न कि वो जल्दी से जल्दी आजाद हो । वैसे...”
“क्या वैसे ?”
“खरबन्दा को अगर फांसी लग जाए तो भी वो आजाद ही मानी जाएगी ।”
“तुम्हारा दिमाग हिल गया मालूम होता है” - मैं उठ खड़ा हुआ - “मैं चला ।”
“फिर कह रहा हूं, कल मधुमिता पर लाइन मारने को कोशिश मत करना ।”
“अरे मेरे बाप, मैं उसके अंकल के बारे में कोई जानकारी हासिल करने की कोशिश में उसके साथ जा रहा हूं ।”
“दैट्स लाइक ए गुड ब्वाय । बस यही भावना रखना उसके बारे में ।”
“कौन सी भावना ?”
“तुमने अभी बाप कहा है । बाकी खुद समझ जाओ ।”
“ओह हैल ।” - मैं दांत पीसने लगा – “हैल हैल हैल ।”
रात दस बजे मैं ग्रेटर कैलाश पार्ट वन में स्थित अपने दो कमरों के फ्लैट में जाकर लगा जहां कि मैं अकेला रहता था ।
मैंने कपड़े वगैरह तब्दील किए और एन ब्लाक मार्केट के एक रेस्टोरेण्ट में खाने के लिए फोन किया ।
खाना आने तक मैंने पीटर स्काट के तीन पैग पिए ।
खाना खा चुकने के बाद मैंने टी वी पर एक वीडियो फिल्म चलाई और अपने आठ गुणा आठ के अतिविशाल पलंग पर पसर गया । तब तक ग्यारह बज चुके थे ।
तभी टेलीफोन की घन्टी बजी ।
मैंने टी वी की आवाज धीमी की, हाथ बढ़ा कर टेलीफोन का रिसीवर उठाया और माउथपीस में बोला - “हल्लो ।”
“मिस्टर कोहली ?” - एक धीमा किन्तु व्यग्र स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“यस ।”
“मिस्टर सुधीर कोहली ! प्राइवेट डिटेक्टिव !”
“वही ।” - दूसरी ओर से आती आवाज बड़ी फंसी-फंसी और फुसफुसाहटभरी लग रही थी - “आप कौन ?”
“मैं श्रीलेखा बोल रही हूं ।”
“ओह ! यस । बोलो श्रीलेखा, कैसे याद किया ?”
“आप चाहते थे न कि मैं हर्षवर्धन का पता जानने की कोशिश करूं ?”
“जरा ऊंचा बोलो । आवाज साफ नहीं आ रही । कुछ समझ में नही आ रहा कि तुम क्या कह रही हो ।”
“वो...वो...मुझे लग रहा है कि कोई मेरे दरवाजे पर है और उसे जबरन खोलने की कोशिश कर रहा है । मुझे बहुत डर लग रहा है ।”
“तुम अपने होस्टल के कमरे से बोल रही हो ?”
“हां ।”
“दरवाजा मजबूती से भीतर से बन्द है न ?”
“हां लेकिन...मुझे डर लग रहा है । आप...आप यहां आ सकते हैं ।”
“मैं आता हूं ।”
“जल्दी आइए । मुझे बहुत डर लग रहा है ।”
मैंने रिसीवर क्रेडल पर पटका, टी वी आफ किया, आनन-फानन कपड़े बदले और बैडरूम और ड्राइंगरूम के फरनीचर से उलझता, बाहर को भागा ।
अपनी फियेट मैं इमारत के सामने फुटपाथ पर चढ़ा कर खड़ी करता था । मैं उस पर सवार हुआ और उसे यूं वहां से भगाया जैसे तोप से गोला छूटा हो ।
रात के उस वक्त सड़कों पर ट्रैफिक कम था इसलिए मैंने कार को काफी तेज रफ्तार से सड़क पर भगाया । वैसे भी दिल्ली शहर में स्पीडिंग के चालान रात के उस वक्त प्रायः नहीं होते थे ।
मेरी कार जब डिफेंस कालोनी के फ्लाईओवर से नीचे उतर कर आगे ओबराय होटल की तरफ दौड़ रही थी तो एकाएक मेरे कानों में फ्लाइंग स्कवायड के सायरन की आवाज पड़ी । मैंने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया । मेरा उस सायरन से क्या वास्ता !
लेकिन जल्दी ही मुझे पहले अन्देशा और फिर यकीन हुआ कि वह सायरन मेरे ही लिए बज रहा था ।
फ्लाइंग स्कवायड की एक गश्ती गाड़ी मेरे पहलू से निकल कर मेरे सामने आयी और मेरे से आगे मेरे रास्ते में तिरछी आ खड़ी हुई ।
अपनी फियेट की उस गाड़ी से टक्कर को बचाने के लिए मुझे कार की ब्रेकों पर लगभग खड़ा हो जाना पड़ा ।
गश्ती गाड़ी, जो कि चमचम करती हुई मारुति जिप्सी थी, अब टी का सिर बनी मेरी फियेट के सामने खड़ी थी ।
फिर आनन फानन तीन पुलिसिये उसमें से बाहर निकले और मेरी तरफ बढे । उनमें से जो सबसे आगे था, वह एक निहायत कठोर चेहरे वाला सब-इन्स्पेक्टर था ।
“क्या हुआ ?” - मैं हकबकाया सा बोला ।
“बाहर निकलो” - सब-इन्स्पेक्टर अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या किया है मैंने ?” - मैं विरोधपूर्ण स्वर में बोला ।
“सुना नहीं ।” - उसका स्वर कर्कश हो उठा ।
“जनाब, मेरे पास रुकने का टाइम नहीं । मैं भारी इमरजेंसी में जा रहा हूं ।”
“कैसी इमरजेंसी ?”
“एक नौजवान लड़की की जान खतरे में है ।”
“बाहर निकलो ।”
“जनाब, देर हो गई तो...”
“तुम निकलते हो या मैं तुम्हें घसीट के बाहर निकालूं ?”
“अजीब धांधली है” - मैं इन्जन बन्द करके बाहर निकलता हुआ बोला - “तुम लोग तो मेरे साथ यूं पेश आ रहे हो जैसे कोई उग्रवादी पकड़ लिया हो ।”
“तुम इतनी तेज गाड़ी क्यों चला रहे थे ?”
“ओह ! बस इतनी सी बात !”
“जवाब दो ।”
“मुझे जल्दी थी । मैंने अभी बताया तो था कि एक लड़की की जान खतरे में है । मुझे उसके पास पहुंचने की जल्दी थी ।”
“कहां ?”
“कर्जन रोड । आप पुलिस वाले हैं । आपको चाहिए कि अब आप भी मेरे साथ वहां चलें ।”
“तेरी दिलेरी को मान गए, पट्ठे । तेरे जैसा सीनाजोर चोर नहीं देखा ।”
“मैं चोर हूं ?” - मैं हैरानी से बोला ।
“तुझे नहीं मालूम ?” - सब-इन्स्पेक्टर आंखे निकाल कर बोला ।
“क्या चुराया है मैंने ?”
“कार ।”
“कार ! कौन सी कार ?”
“जिसमें से तू अभी निकला है ।”
“यह फियेट ?”
“हां ।”
“पागल हो गए हो क्या ? यह तो मेरी है ।”
“तेरी नहीं तेरे बाप की है ।”
मैं बौखला गया । मैं तो समझ रहा था कि मुझे स्पीडिंग के इलजाम में रोका गया था लेकिन वह तो और ही किस्सा था ।
“इस कार की” - मैं परेशान स्वर में बोला - “चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराई है, किसी ने ?”
“साले !” - सब-इन्स्पेक्टर बोला - “जिसकी कार चोरी होगी वो क्या रिपोर्ट दर्ज नहीं कराएगा !”
“किसने रिपोर्ट दर्ज कराई है ?”
“कहा न कार के मालिक ने ?”
“कौन है वो ?”
“सुधीर कोहली ।”
“वो तो मैं हूं । मेरा नाम सुधीर कोहली है ।”
“क्या कहने ! दीदादिलेरी तो देखो साले की । कहता है मैं ही इस कार का मालिक सुधीर कोहली हूं । यानी कि तूने खुद अपनी कार की चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराई थी ।”
“देखो ।” - मैंने फरियाद की - “मैं ही इस कार का मालिक हूं । मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं और इस वक्त एक लड़की की जान खतरे में है जो....”
“कौन लड़की ?”
“जो मेरी क्लायन्ट है ।”
“नाम क्या है उसका ?”
“श्रीलेखा ।”
“कहां रहती है ?”
“बताया तो । कर्जन रोड पर ।”
“कर्जन रोड बहुत बड़ी है । कर्जन रोड पर कहां ?”
“वर्किंग गर्ल्स होस्टल में । कमरा नम्बर दो सौ नौ में ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है कि उसकी जान खतरे में है ?”
“उसने मुझे फोन किया था । उसने कहा था कि कोई आदमी उसके कमरे का दरवाजा जबरन खोल कर भीतर घुसने की कोशिश कर रहा था । क्या पता वह अभी तक उसका कत्ल कर भी चुका हो ।”
“अगर ऐसा था तो उसने पुलिस को फोन क्यों नहीं किया ?”
“पता नहीं । शायद घबराहट में उसे मुझे ही फोन करना सूझा ।”
“ड्राइविंग लाइसेंस है ?”
“है ।”
“निकालो ।”
मैंने अपने कोट की उस भीतरी जेब में हाथ डाला जिसमें कि मैं अपना बटुवा रखता था ।
जेब खाली थी ।
तब मुझे सूझा कि हड़बडी में मैं दूसरा कोट पहन आया था, मेरा वो कोट तो मेरे फ्लैट में ही टंगा रह गया था जिसमें मौजूद बटुवे में मेरा ड्राइविंग लाइसेंस था ।
उस नाजुक घड़ी में भी मुझे यह सूझे बिना न रह सका कि गरीब होने के भी अपने फायदे थे । तब जरूरी सामान दूसरे कोट की जेब में नहीं रह जाता ।
“अब क्या हुआ ?” - सब-इन्स्पेक्टर मुझे घूरता हुआ बोला ।
“लाइसेंस घर रह गया है ।”
“घर नहीं रह गया । है ही नहीं ।”
“लेकिन...”
“चोप !”
मैंने जोर से थूक निगली ।
“खुशीराम ।”
“जी, साब” - एक तीन फीती वाला हवलदार बोला ।
“इसकी गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ जा । यह गाड़ी को हमारी जीप के पीछे पीछे थाने तक चला कर लाएगा । अगर यह कोई शरारत करने की या गाड़ी को जीप के पीछे से किसी और तरफ खिसकाने की कोशिश करे तो बेहिचक इसकी खोपड़ी खोल देना ।”
“जी, साब” - हवलदार यूं बोला जैसे उसे अपना मनमाफिक काम मिल गया हो । वह मेरी कार की तरफ बढ़ा । उसने कार का पिछला दरवाजा खोला । वह भीतर दाखिल होने ही लगा था कि हड़बड़ा कर एक कदम पीछे हट गया ।
“क्या हुआ ?” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
“साब” - हवलदार खुशीराम पिछली सीट की ओर संकेत करता हुआ तनिक कम्पित स्वर मे बोला - “लड़की ! मरी पड़ी लगती है ।”
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