इंस्पेक्टर यादव ने घूरकर मुझे देखा ।
मुझे उस वक्त उसकी निगाहें बहुत बदली-बदली लगीं ।
जो पुलिसिया मुझे वहां लाया था, उससे मैं यह जानने में कामयाब नहीं हो सका था कि मुकेश मैनी का कत्ल कब हुआ था, कहां हुआ था, कैसे हुआ था, किसने किया था ? पता नहीं उसे कुछ मालूम नहीं था या वह बताना नहीं चाहता था ।
“आज तीन बजे तुम कहां थे ?” - यादव ने कठोर स्वर में पूछा ।
“क्यों ?” - मैं बोला - “क्या हुआ था तीन बजे ?”
“जो पूछा गया है, उसका जवाब दो !”
“लेकिन मुझे पता तो चले कि यह सवाल मुझसे क्यों पूछा जा रहा है और मुझे क्यों यहां मुजरिमों की तरह पकड़कर लाया गया है ?”
“मुकेश मैनी का कत्ल हो गया है । जानते हो न मुकेश मैनी कौन है ?”
“जानता हूं । गोपाल वशिष्ठ का भूतपूर्व ड्राइवर । जो आज दोपहर में हम दोनों के बीच चर्चा का विषय था । जानकर हैरानी हुई कि उसका कत्ल हो गया है लेकिन मेरा उस कत्ल से क्या वास्ता ?”
“तुम्हारा ही वास्ता है । तुम तीन बजे दरियागंज में उसके होटल के कमरे में उसके साथ मौजूद थे । झूठ बोलने का कोई फायदा नहीं होगा, कोहली ! हमारे पास तुम्हारी मौजूदगी के चश्मदीद गवाह हैं ।”
“था तो क्या हुआ ?”
“तो यह हुआ कि ठीक तीन बजे ही मुकेश मैनी का कत्ल हुआ था ।”
“कैसे ?”
“अड़तीस कैलीबर की रिवाल्वर की गोली से जो कि उसके माथे में लगी है और उसकी तत्काल मौत का कारण बनी है ।”
“यादव साहब, मैं उससे मिलने जरूर गया था लेकिन मैंने उसका कत्ल नहीं किया । मैं उसे वहां एकदम सही सलामत, चाक चौबन्द, जिंदा छोडकर आया था । मैं भला उसका कत्ल क्यों करने लगा ? मुझे क्या जरूरत पड़ी थी उसका कत्ल करने की ?”
“यह तो तुम बताओगे । कोहली, हमारे पास तुम्हारे खिलाफ गवाह हैं । एक नहीं, तीन-तीन ।”
“अच्छा !”
“हां । क्योंकि तुम वहां गए होने से इंकार नहीं कर रहे हो इसलिए मैं उस रिसेप्शन क्लर्क को यहां नहीं बुला रहा हूं जिससे कि तुमने मुकेश मैनी के कमरे का नंबर पूछा था और जिसको तुम्हारी शक्ल बखूबी याद है । मैं दूसरा गवाह बुलाता हूं ।”
खुशीराम नाम का एक आदमी वहां तलब किया गया ।
हम दोनों ने ही एक-दूसरे को फौरन पहचान लिया ।
वह वो वेटर था जो तब लिफ्ट में से निकलकर मुकेश मैनी के कमरे वाले फ्लोर पर पहुंचा था जब मेरी मुकेश मैनी से बाकायदा धक्का-मुक्की हो रही थी ।
“यही वो साहब हैं” - पूछे जाने पर खुशीराम बोला - “जिन्हें मैंने अपनी आंखों से मैनी साहब के साथ गुत्थमगुत्था होते देखा था ।”
“ऐसा ये साहब क्यों कर रहे थे ?” - यादव ने पूछा ।
“ये जबरन मैनी साहब के कमरे में घुसना चाहते थे ।”
“तुमने दखलअन्दाजी नहीं की ?”
“मैंने कोशिश की थी साहब, लेकिन इन्होंने मुझे डांटकर भगा दिया था ।”
“और तुम भाग गये थे ?”
“साहब, तभी ये साहब घुसने में कामयाव हो गये थे और कमरे का दरवाजा बन्द हो गया था । मैं कुछ क्षण बाहर खड़ा रहा था लेकिन मुझे दोबारा कोई चीख-पुकार या उठा-पटक जैसी आवाज नहीं सुनाई दी थी तो मैंने समझा था कि इनमें और मैनी साहब में सुलह शान्ति हो गयी थी, तब मैं वहां से चला आया था ।”
“तब वक्त क्या हुआ था ?”
“पौने तीन बज चुके थे साहब । एकाध मिनट ऊपर ही होगा ।”
“ठीक है । तुम जा सकते हो ।”
“लेकिन....” - मैंने कहना चाहा ।
यादव ने घूरकर मुझे देखा और खुशीराम को फिर इशारा किया ।”
खुशीराम वहां से विदा हो गया तो मार्गरेट नाम की एक युवती को वहां तलब किया गया । वह एक अधेड़ावस्था की मर्दाना शक्ल सूरत वाली औरत थी ।
वह होटल की स्विच बोर्ड ऑपरेटर निकली ।
उसने निडर निगाहों से मेरी तरफ देखा ।
“मैडम” - यादव बोला - “आप दरियागंज के आकाश होटल में स्विच बोर्ड ऑपरेटर हैं और आज तीन बजे के आसपास स्विच बोर्ड पर आपकी ड्यूटी थी ?”
“यस ।” - वह बोली । उसकी आवाज भी मर्दों जैसी थी और स्विच बोर्ड ऑपरेटर की नौकरी के काबिल तो हरगिज भी नहीं थी ।
“तीन बजे आपने कमरा नंबर 306 से कॉल रिसीव की थी ?”
“हां ।”
“आप जानती हैं उस कमरे में कौन ठहरा हुआ है ?”
“जानती हूं । वह कमरा मुकेश मैनी नाम के साहब का है जो मंथली बेसिज पर वहां रह रहे हैं ।”
“क्या कहा गया था कॉल में ?”
“पहले तो कुछ भी नहीं कहा गया । पहले तो मुझे कुछ ऐसी आवाजें सुनाई देती रही थीं जैसे कोई कराह रहा हो, तड़प रहा हो, सांस लेने के लिये छटपटा रहा हो । मैंने कई बार “हल्लो-हल्लो” कहा तो अन्त में एक कराहती हुई आवाज मुझे सुनाई दी जिसने कहा - “डॉक्टर को बुलाओ । मुझे गोली मार दी ।”
“उसने यह नहीं बताया था कि उसे किसने गोली मार दी थी ?”
“बताया था । उसने किसी सुधीर कोहली का नाम लिया था ।”
“उसने साफ कहा था कि सुधीर कोहली ने उसे गोली मारी थी ?”
“हां ।”
“नानसेंस” - मैं कड़कर बोला - “ऐसा कैसे...”
यादव ने कहरभरी निगाहों से मुझे देखा ।
मैं खामोश हो गया । जब्त करने के अलावा कोई चारा नहीं था । यादव मुझे जबरन चुप करा सकता था ।
“फिर ?” - यादव फिर उस महिला से मुखातिब हुआ - “फिर क्या हुआ ?”
“मैंने फौरन मैनेजर को खबर की और फिर उसके कहने पर दरियागंज के एक डॉक्टर को भी फोन किया । फिर मैनेजर 306 नंबर कमरे में पहुंचा । अपनी पास की से कमरे का ताला खोलकर वह भीतर दाखिल हुआ । भीतर मुकेश मैनी मरा पड़ा था ।”
“थैंक्यू मैडम ! अब आप तशरीफ ले जा सकती हैं ।”
वह उठ खड़ी हुई । उसने एक सरसरी निगाह मेरी दिशा मे दौड़ाई ।
“इंस्पेक्टर” - फिर वह बोली - “यह सुधीर कोहली क्या बहुत खतरनाक गैंगस्टर है ?”
यादव ने मेरी तरफ देखा ।
“इंस्पेक्टर, ऐसे आदमी को छोड़ना नहीं । जितनी जल्दी हो सके इस सुधीर कोहली के बच्चे को फांसी पर लटकवाना ।”
मेरा जी चाहा की मैं तभी, वहीं, उस मरदानी औरत की गरदन मरोड़ दूं लेकिन इंस्पेक्टर की चेतावनी भरी निगाह फिर मुझ पर पड़ रही थी ।
“आप निश्चिंत रहिए, मैडम” - यादव बोला - “पुलिस और मुल्क का कायदा-कानून अपना काम जरूर करेंगे ।”
वह वहां से विदा हो गयी लेकिन लगता यूं था जैसे कि उसकी ख्वाहिश मेरी फांसी तक वहीं रुकने की हो ।
“सैडिस्ट बिच” - मेरे मुंह से निकला ।
“अब बोलो क्या कहते हो ?” - यादव मुझे घूरता हुआ बोला ।
“यह औरत झूठ बोल रही है” - मैं आवेशपूर्ण स्वर में बोला ।
“उसे क्या फायदा झूठ बोलने का ? वो तो यह जानती तक नहीं कि सुधीर कोहली कौन है ।”
“तो फिर उससे नाम सुनने में गलती हुई है ।”
“नहीं हुई । उसने साफ-साफ तुम्हारा नाम दोहराया है ।”
“मुकेश मैनी ऐसा नहीं कह सकता ।”
“उसने कहा है ।”
“अभी तुमने कहा था कि गोली उसके माथे में लगी थी और उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी थी ।”
“हां ।”
“जब उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी थी तो वह टेलीफोन पर ऑपरेटर को कुछ कहने के लिए क्यों कर जिंदा रहा ?”
यादव हड़बड़ाया ।
“अभी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट नहीं आई है” - फिर वह सावधान स्वर में बोला - “हो सकता है उसकी तत्काल मृत्यु न हुई हो ।”
“माथे पर गोली लगने के बावजूद ?”
“हां ।”
“बड़े ढीठ हो यार । न सिर्फ ढीठ हो बल्कि मुझे फंसाने के लिए पूरी तरह से कमर कसे मालूम होते हो ।”
“मेरी तुम्हारे से कोई जाती अदावत नहीं ।”
“लग तो ऐसा ही रहा है, जैसे कि हो ।”
“नहीं है । और इस बात से तुम बखूबी वाकिफ हो ।”
“तो अब हो गयी होगी ।”
“अब क्यों ?”
“अब बड़े अफसर जो हो गए हो । बड़े अफसर को बड़ी-बड़ी बातें करके दिखानी पड़ती हैं । उसे यह साबित करके दिखाना पड़ता है कि आम आदमी कीड़े-मकौड़े का दर्जा रखते हैं ।”
“बकवास मत करो” - वह बड़े सब्र से बोला - “और इस हकीकत की तरफ तवज्जो दो कि तुम पर कत्ल का इल्जाम है और तुम्हारे खिलाफ एक नहीं तीन-तीन लोगों की गवाही है ।”
“है लेकिन लचर और बेमानी । मैंने इस बात से इंकार नहीं किया है कि मैं मुकेश से मिलने गया था इसलिए होटल के रिसेप्शनिस्ट की गवाही की कोई कीमत नहीं । मैं इस बात से भी इंकार नहीं कर रहा कि मुकेश से मेरी थोड़ी धक्का-मुक्की हुई थी ।”
“क्यों हुई थी ?”
“क्योंकि वो मुझे अपने कमरे में घुसने नहीं दे रहा था ।”
“और तुम जबरन घुसना चाहते थे ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मैं उससे बात करना चाहता था और ऐसा उसके रूबरू हुए बिना मुमकिन न था । वह मुझे बाहर धक्का देकर दरवाजा बंद कर लेता तो मेरा मतलब कैसे हल होता ?”
“यानी कि तुम जबरन भीतर घुसे थे ?”
“हां । और मेरी वही कोशिश तुम्हारे उस दूसरे गवाह वेटर ने देखी थी ।”
“फिर मुकेश मैनी ने तुमसे बात की थी ?”
“जब उसने पाया था कि मैं भीतर घुस ही आया था तो की थी ।”
“क्या बात की थी ?”
मैंने अपना और मुकेश मैनी का सारा वार्तालाप दोहरा दिया ।
“इससे तो यह लगता है” - यादव बड़बड़ाया - “कि तुम बड़े सदभावना के माहौल में वहां से विदा हुए थे ।”
“लगता नहीं है, है ही ऐसा । मुझे क्या जरूरत पड़ी थी मुकेश मैनी का कत्ल करने की ?”
“अगर वह कहता कि वशिष्ठ की सिखाई-पढ़ाई से ही उसने उसकी बीवी से आशनाई बढाई थी तो तुम्हारे पर फ्रॉड का इल्जाम आमद हो सकता था, यह बात मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं ।”
“लेकिन उसने ऐसा नहीं कहा था । उसने कहा था कि वशिष्ठ को खबर नहीं थी कि वह उसकी बीवी का यार था ।”
“यह तुम ही कहते हो । इस बात का क्या सबूत है कि ऐसा कुछ मुकेश मैनी ने कहा था ? उसकी मौत के बाद अब तुम उसके कुछ भी कहा होने का दावा कर सकते हो ।”
“फिर भी मेरे पास कत्ल का कोई उद्देश्य भी तो होना चाहिए । कोई खामखाह किसी का कत्ल नहीं कर देता ।”
“खामखाह भी कर देता है । अभी तुम उससे गुत्थम-गुत्था होकर हटे ही थे और जबरन उसके कमरे में घुसे थे । बाद में तकरार शुरू हो गयी होगी जिसने कोई खतरनाक रुख अख्तियार कर लिया होगा । तुमने रिवाल्वर निकालकर उसे धमकाया होगा, वह धमकी में नहीं आया होगा तो तुमने ताव में आकर उस पर गोली चला दी होगी ।”
“मैं वहां रिवाल्वर लेकर गया था ?”
“जाहिर है ।”
“यानी कि मुझे एडवांस में खबर थी कि वहां मुकेश मैनी से मेरा झगड़ा होने वाला था, झगड़ा ही नहीं ऐसा झगड़ा होने वाला था जिसमें खून-खराबे की नौबत आने वाली थी इसलिए मैं हथियारबंद होकर वहां गया था ।”
“मुमकिन है ।”
“मेरे पास लाइसेन्सशुदा रिवाल्वर है । मैं उसका ऐसा इस्तेमाल छुपा नहीं सकता । मेरी वह रिवाल्वर मेरे फ्लैट में मौजूद है । अगर मैंने कत्ल किया होता तो वह अभी भी मेरे पास होती क्योंकि अपने फ्लैट तक तो तुम्हारे सिपाही ने मुझे पहुंचने ही नहीं दिया ।”
“तुम्हारे पास कोई गैर लाइसेन्सशुदा रिवाल्वर भी हो सक्ति है जिसे कि तुमने कत्ल के फौरन बाद कहीं ठिकाने लगा दिया हो सकता है ।”
“यादव साहब, मुकेश मैनी के इस झमेले की आज दोपहर में पहली बार यहां बुलाये जाने से पहले मुझे खबर नहीं थी, इस बात के तुम भी जामिन हो । अब यह क्या हजम होने वाली बात है कि मेरे यहां से विदा होने और आकाश होटल जाने के बीच थोड़े से वक्त में मैंने एक गैर लाइसेन्सशुदा रिवाल्वर भी हासिल कर ली थी और, खामखाह, बिना वजह, मुकेश मैनी के कत्ल का इरादा भी कर लिया ।”
“कत्ल वक्ती जुनून में हुआ हो सकता है ।”
“लेकिन मेरे पास रिवाल्वर होना तो यह साबित करता है कि ऐसी किसी नौबत के आ जाने का मुझे अंदेशा था, तभी तो मैं तैयार होकर गया था । एक गैर लाइसेन्सशुदा रिवाल्वर के साथ, जो कत्ल करते ही मैंने ठिकाने लगा दी । रिवाल्वर न हुई केले, संतरे हो गए, पान-बीड़ी सिगरेट हो गए जो ठेले वाले, पटरी वाले सरेआम सजाकर बेचते हैं ।”
“तुम्हारी इन दलीलों में वजन है, लेकिन उतना वजन नहीं है जितना इस हकीकत में है कि मकतूल अपने कातिल के तौर पर साफ-साफ तुम्हारा नाम लेकर मरा है ।”
“इस बात की क्या गारंटी है कि मुकेश मैनी ने ही मेरा नाम लिया था ?”
यादव फिर हड़बड़ाया ।
“क्या मतलब ?” - वह बोला ।
“तुम्हारी उस स्विच बोर्ड ऑपरेटर ने सिर्फ एक आवाज सुनी थी, कोई सूरत नहीं देखी थी । फिर आवाज उसने तड़पती हुई, कराहती हुई बताई है, इस लिहाज से वो असपष्ट और बदली-बदली भी हो सकती है । मुकेश मैनी के कमरे के फोन पर किसी को बोलता पाकर वह कूदकर इस नतीजे पर पहुंच गयी हो सकती है कि मुकेश मैनी ही लाइन पर था ।”
“और कौन होगा लाइन पर ?”
“कोई भी दूसरा शख्स । मिसाल के तौर पर हत्यारा ।”
“लेकिन दरवाजा बंद था जिसे कि मैनेजर ने अपनी पास-की से खोला था ।”
“यादव साहब, होटलों के कमरों के दरवाजों के ताले अमूमन ऐसे होते हैं जो कि दरवाजा बंद करने पर लगते अपने आप हैं लेकिन खोलने चाबी लगाकर पड़ते हैं ।”
“वहां ताला ऐसा था ?” - वह संदिग्ध भाव से बोला ।
“मैंने ध्यान नहीं दिया था लेकिन उसके ऐसा ही होने की संभावना है ।”
“कोहली, जो कुछ मेरे पास तुम्हारे खिलाफ है, वह तुम्हें फिलहाल हिरासत में रखने के लिए काफी से ज्यादा है । मुझे फिलहाल तुम्हें बंद करना पड़ेगा ।”
“तुम मुझे कातिल समझते हो ? इस बाबत मैं तुम्हारी जाती राय पूछ रहा हूं ।”
“मेरी सरकारी ड्यूटी में मेरी जाती राय का कोई दखल नहीं ।”
“फिर भी...”
“फिर भी यह कि तुम बताओ कि क्या तुम साबित कर सकते हो तुम कातिल नहीं हो ?”
“मुझे बंद कर दोगे तो कैसे कर पाऊंगा ? मुझे कोशिश करने वक्फा हासिल हो तो मैं यकीनन असली कातिल को पकड़कर दिखा सकता हूं ।”
“मैं तुम्हें यहां से जाने नहीं दे सकता” - वह बड़ी संजीदगी से सिर हिलाता हुआ बोला - “तुम्हारे खिलाफ सबूतों को मैं नजरंदाज नहीं कर सकता । आजकल महकमे में वैसे ही बहुत सख्ती हो रही है । मैंने ऐसा कुछ किया तो मेरे पर डिपार्टमेंटल केस हो सकता है ।”
“लेकिन...”
“और फिर ऐसा क्या है जो तुम कर सकते हो और हम नहीं कर सकते ? अगर कातिल कोई और है तो उसे हम भी तो तलाश कर सकते हैं ।”
“तुम्हारी तलाश तो मेरी गिरफ्तारी के साथ खत्म हो गयी है । फिर भी तुम कुछ करोगे तो वो होते-होते होगा । आखिर यही एक वाहिद केस नहीं होगा तुम्हारे पास तफतीश के लिए ।”
“इस वक्त मेरे पास ग्यारह केस हैं ।”
“जबकि मैंने एक ही केस पर काम करना होगा और वह भी जान बचाने के लिये ।
वह खामोश रहा ।
“मुझे सिर्फ अड़तालीस घण्टे की मोहलत दो यादव साहब ! इतने अरसे में मैं हत्यारे को तुम्हारे सामने पेश न कर सका तो मुझे फांसी पर लटका देना ।”
यादव ने इनकार में सिर हिलाया ।
“यह यादव कह रहा है ?” - मैं शिकायतभरे स्वर में बोला ।
“मुझे अपनी पोस्ट और रुतबे का भी ख्याल रखना है ।”
“यादव साहब, यह न भूलो कि यह पोस्ट, यह रुतबा तुम्हें मेरी वजह से हासिल हुआ है । मैं न होता तो तुम आज इंस्पेक्टर न होते ।”
“न सही” - वह चिढ़कर बोला - “लेकिन सब-इंस्पेक्टर तो होता जो कि मैं शुरू से था । लेकिन अगर मैं न होता तो अब तक एलैग्जेंडर ने तुम्हारी लाश को छत्तीस टुकडों में तकसीम करके जमना में बहा दिया होता । इस बारे में क्या कहते हो ?”
मैं कुछ न कह सका ।
“एलैग्जेंडर आज भी तुम्हारे खून का प्यासा है । वह सब्र किये है तो सिर्फ मेरी वजह से । मैं आज उसे हरी झण्डी दिखा दूं तो लोग यही कह कर तुम्हें याद किया करेंगे कि एक समय की बात है दिल्ली शहर में सुधीर कोहली नाम का एक प्राइवेट डिटेक्टिव हुआ करता था । था । सुना था ।”
मैंने बेचैनी से पहलू बदला ।
“कहने का मतलब यह है कि दोबारा फिर कभी इस बात की धौंस न देना कि तुम्हारी वजह से मैं इन्स्पेक्टर बना । इंस्पेक्टर के आगे दुनिया खत्म नहीं लेकिन जिन्दगी के आगे दुनिया खत्म है । आज की तारीख में अगर मैं इंस्पेक्टर तुम्हारी वजह से हूं तो तुम जिन्दा मेरी वजह से हो । मैं तो आज नहीं तो कल इन्स्पेक्टर बन जाता । तुम्हारी जिन्दगी आज नहीं तो कल भी नहीं । तब तुम्हारे लिये कोई कल न होता । कोहली साहब, अगर अहसान को अहसान से तोलना चाहते हो तो मेरा अहसान तुम पर कहीं ज्यादा है । समझे !”
“समझा” - मैं मरे स्वर में बोला ।
“तुम्हें टॉयलेट जाना होगा ।”
“टॉयलेट !” - मैं सकपकाया ।
“पुलिस हैडक्वार्टर यूं तलब किए जाने पर बड़े-बड़ों का पेशाब निकल जाता है । तुम्हारी क्या हालत है ?”
“म...मेरी हालत...”
“टॉयलेट बाहर लिफ्ट के पहलू में है ।”
तब मेरी समझ में आया कि वह मुझे वहां से खिसक जाने के लिये प्रेरित कर रहा था ।
“गिरफ्तारी के तो ख्याल से ही मेरा पेशाब निकला जा रहा है” - मैं जल्दी से बोला - “मैं आभी आया ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
मैं कमरे से बाहर निकला । मैंने टायलेट की जगह लिफ्ट का रुख किया ।
तभी एक लिफ्ट उस फ्लोर पर आकर रुकी, उसका दरवाजा खुला और उसकी इकलौती सवारी, एक कोई पच्चीस-छब्बीस साल की युवती, उसमें से बाहर निकली ।
मुझे उसकी और अब दिवंगत मुकेश मैनी की शक्ल में इतनी समानता दिखाई दी कि मैं उससे सम्बोधित हुए बिना न रह सका ।
“सुनिए” - मैं बड़े अदब से बोला ।
वह ठिठकी । उसने एक प्रश्नपूर्ण निगाह मुझ पर डाली ।
“आप” - मैं बोला - “मुकेश मैनी की कोई रिश्तेदार हैं ?”
“मैं उसकी छोटी बहन हूं ।”
“आप भाई-बहनों की सूरत बहुत मिलती है ।”
“आप क्यों पूछ रहे हैं ?”
“जी वो क्या है कि...दरअसल...मेरा मतलब है...मेरा नाम सुधीर कोहली है और...”
“सुधीर कोहली” - उसने नाम दोहराया - “प्राइवेट डिटेक्टिव ?”
“वही ।”
“तुम वो शख्स हो जिसने मेरे भाई को शूट किया है ।”
“यह मुबारक ख्याल आप पर किसी पुलिसिए ने जाहिर किया होगा ?”
“हां । और...”
“देखिये किन्हीं खास वजुहात से इस वक्त मेरा यहां से फौरन कूच कर जाना निहायत जरूरी है । आप मुझे मुलाकात का मौका दीजिये, मैं निर्विवाद रूप से आपको यह सिद्ध कर दिखाऊंगा कि आपके भाई के कत्ल से मेरा कोई रिश्ता नहीं ।”
“यह भी पता लगा सकते हो कि मेरे भाई का कत्ल किसने किया ?”
“क्यों नहीं लगा सकता ? कोशिश करूं तो जरूर लगा सकता हूं । पुलिस से पहले लगा सकता हूं ।”
“फिर तो मैं खुद तुमसे मिलना चाहती हूं ।”
“दैट्स वैरी गुड । फिर बताइये कैसे मुलाकात होनी है ?”
“आप मेरे घर का जाईयेगा । मैं कालीबाड़ी मार्ग पर....”
“आपके घर आना मुनासिब नहीं होगा । वहां पुलिस हो सकती है और मेरे डॉक्टर ने कुछ अरसा मुझे पुलिस से परहेज बताया है ।”
“तो ?”
“आप कल ग्यारह बजे स्टैण्डर्ड रेस्टोरेन्ट में आ सकती हैं ?”
“आ सकती हूं । लेकिन ग्यारह बजे नहीं ।”
“जी !”
“कल सुबह मेरे भाई का अन्तिम संस्कार होगा जिसमें हो सकता है दोपहर हो जाये ।”
“तो ?”
“मैं दो बजे आ सकती हूं ।”
“ठीक है । दो बजे स्टैण्डर्ड में मैं आपका इंतजार करूंगा । फिर और बातें होंगी ।”
“ठीक है ।”
“आप यहां कैसे आयीं ?”
“पुलिस के बुलावे पर । और पोस्टमार्टम के बाद भाई की लाश क्लेम करने के लिये ।”
“ओह ! ओके ! सी यू ।”
मैंने उसका अभिवादन किया और तब वहीं खड़ी लिफ्ट में सवार हो गया ।
किसी ने मुझे टोका नहीं, किसी ने मुझे रोका नहीं ।
***
अनीता सोनी गोल मार्केट के एक फ्लैट में अकेली रहती थी ।
मैंने उसे अंगारों पर लोटती पाया ।
“एक नम्बर के हरामी हो, सुधीर कोहली” - मुझे देखते ही वह भड़की ।
“हरामी ही सही” - फ्लैट में दाखिल होता हुआ मैं विनोदपूर्ण स्वर में बोला - “लेकिन एक नंबर का तो हूं । दिल्ली शहर में बड़े घटिया हरामी भी पाये जाते हैं ।”
“शट अप !”
“क्या बात है ? क्यों उबल रही हो ?”
“जैसे तुम्हे मालूम नहीं ।”
“क्या नहीं मालूम ?”
“टाइम क्या हुआ है ?”
“नौ बजे हैं ।”
“और तुम कितने बजे यहां आने वाले थे ?”
“ओह ! थाउजेंड पार्डन्स, स्वीट हार्ट मुझे जरा देर हो गयी ।”
“जरा देर हो गयी ! नौ बजे हैं ।”
“सॉरी, मैं कहीं फंस गया था ।”
“फोन कर दिया होता ।”
“जहां मैं फंस गया था, वहां से फोन करना मुमकिन नहीं था ।”
“बकवास ।”
“सच” - मैंने उसे बांहों में लेने की कोशिश की लेकिन वह छिटककर अलग हो गयी ।
“खबरदार ! हाथ मत लगाओ मुझे ।”
“क्यों ?”
“मेरी नयी साड़ी खराब हो जाएगी ।”
“ओह !” - तब पहली बार मेरी तवज्जो उसकी सिल्क की नयी साड़ी की तरफ गयी ।
“आज ही पहली बार पहनी है । तुम्हारे लिए । सात बजे से पहने बैठी हूं और तुम साले अब आकर मरे हो ।”
“अब थूक भी दो गुस्सा” - मैंने उसे फिर बांहों में लेने की कोशिश की ।
“अरे, कहा न साड़ी खराब हो जाएगी ।”
“तो इसे उतारकर वार्डरोब में टांग क्यों नहीं देती हो ? ऐसी फौजदारी को क्यों अपने साथ चिपकाए हुए हो ।”
“तुम्हें साड़ी पसंद आई ?”
“बहुत पसंद आई ।”
“तो फिर इसकी तारीफ क्यों नहीं की ?”
“पैकिंग की क्या तारीफ करनी । जब माल काबिले तारीफ हो तो...”
“साला ! मैं लड़की हूं कि टेलीविजन !”
“अब छोड़ो ये बातें । अब जश्न हो जाये ।”
“जश्न का अब मूड नहीं रहा ।”
“नहीं रहा तो बन जायेगा । यू आर इन कंपनी ऑफ सुधीर कोहली, दि ग्रेटैस्ट । यह पंजाबी पुत्तर मूड सुधारने में बहुत माहिर है ।”
“जैसे यह कोई कला है जिसका तुमने डिप्लोमा किया हुआ है ।”
“डॉक्टरेट ।”
“मेरा मूड तब तक नहीं सुधरने वाला जब तक तुम दो घंटे लेट आने की कोई सही, जायज, वजह नहीं बताओगे ।”
“मैं गिरफ्तार था ।”
“क्या ?”
“मैं अभी भी किसी मेहरबान पुलसिये की मेहरबानी से ही रिहा हूं ।”
“क्या किस्सा है सुधीर ? जल्दी बताओ ।”
मैंने उसे मुकेश मैनी के कत्ल की दास्तान कह सुनाई ।
“ओह !” - वह चिन्तित भाव से बोली - “यानी कि कत्ल किसी और ने किया है और वह कोई और इसमें तुम्हें फंसाने की कोशिश कर रहा है ?”
“हां ।”
“अब तुम क्या करोगे ?”
“मैं असली कातिल को तलाश करने की कोशिश करूंगा ।”
“तलाश कर सकोगे ?”
“करना ही होगा । और वह भी सिर्फ अड़तालीस घण्टे में । इतनी ही मोहलत है मुझे इस काम को अंजाम देने के लिये ।”
“अगर कामयाब न हो सके ?”
“तो मैं कत्ल का इल्जाम किसी और के सिर थोपने की कोशिश करूंगा । जैसे किसी ने यह खिदमत मेरी की है, वैसे ही यह खिदमत मैं किसी की आगे कर दूंगा ।”
“खामखाह !”
“उसके खिलाफ सबूत घड़कर ।”
“फर्जी ?”
“हां ।”
“किसके खिलाफ ?”
“अभी कोई कैंडीडेट मेरी निगाह में नहीं है लेकिन तलाश कर लूंगा ।”
“तुम किसी को बेगुनाह फंसाओगे ?”
“जरूरत पड़ी तो । आखिर मैं भी तो बेगुनाह फंसाया जा रहा हूं ।”
“सुधीर कोहली, एक नम्बर के....”
“हरामी हूं । अभी बताया था तुमने । अब मैं क्या करूं ? मेरे मां-बाप मर चुके हैं । जिन्दा होते तो मैं अब उनकी शादी करा देता ।”
वह खामोश रही ।
“वैसे मुझे उम्मीद है मैं ऐसी नौबत आने से पहले ही असली हत्यारे को तलाश करने में कामयाब हो जाऊंगा ।”
“यह सब बखेड़ा मेरी वजह से हुआ” - एकाएक वह भावुक हो उठी ।
“वो कैसे ?” - मैं सकपकाया ।
“मैंने ही तो वशिष्ठ को राय दी थी तुम्हारे पास जाने की ।”
“अरे, छोड़ो । वह तो बहुत बीती बात हो गयी । अब चलो । खामखाह और वक्त जाया न करो । मंजिल खोटी न करो ।”
“कहां चलें ?”
“करीब जाना चाहती हो तो कनिष्का ।”
“ठीक है ।”
***
कनिष्का रेस्टोरेंट में हमने अपनी-अपनी बर्दाश्त के मुताबिक स्कॉच विस्की पी और डटकर खाना खाया ।
जब युयर्स ट्रूली को बारह सौ रुपये की थूक लगी लेकिन खाकसार औरत पर यूं खर्च किये पैसे को कभी पैसे की बरबादी नहीं मानता । सब कुछ बमय ब्याज वसूल हो जाता है । तृप्त होकर ही औरत सही मायनों में तृप्त कर सकती है । औरत के दिल तक पहुंचने के कई रास्ते प्रचलित हैं लेकिन आपके खादिम को वही रास्ता पसंद है जो औरत के पेट से होकर दिल तक पहुंचता है ।
और फिर आगे बैडरुम तक एक्सटैंड होता है ।
वेटरों ने मेज खाली कर दी तो हमने एक-एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“मजा आ गया” - मैं सिगरेट का एक लम्बा कश लगाता हुआ बोला ।
नशे से तमतमाये उसके चेहरे पर सहमति की मुस्कराहट प्रकट हुई ।
“अब मुझे मुकेश मैनी के बारे में कुछ और बताओ” - मैं बोला ।
“क्या बताऊं ?”
“कैसा आदमी था यह मुकेश मैनी ?”
“किस लिहाज से ?”
“किसी भी लिहाज से । उसके बारे में जो भी तुम जानती हो या जो भी तुम्हारी ओबजर्वेशन है, वह कह सुनाओ ।”
“वह आदमी कुछ अनयुजुअल तो था सुधीर ।”
“किस लिहाज से ?”
“एक तो अपने ख्यालात के लिहाज से ही । ड्राइवर की नौकरी करता था लेकिन समझता था कि वह तो बहुत बड़ा आदमी बनने के लिए पैदा हुआ था । उसने एक बार मुझे कहा भी था कि ड्राइवर की नौकरी तो वह महज वक्त गुजारी के लिये कर रहा था ।”
“अच्छा !”
“हां । वह हर वक्त किसी उधेड़बुन में लगा रहता मासलूम होता था । बड़ी-बड़ी योजनायें थी उसके पास । योजनायें क्या थीं, यह तो नहीं बताता था लेकिन उनसे उसे क्या हासिल था इसका जिक्र गाहे-बगाहे किये बिना नहीं मानता था ।”
“क्या हासिल था ?”
“पैसा । मुझे तो वह आदमी आनन-फानन दौलतमन्द बन जाने की ख्वाहिश में तड़पता मालूम होता था । वह ऐसा शख्स था, पैसे की खातिर जिससे कोई भी काम करवाया जा सकता था ।”
“क्रिमिनल माइन्डिड आदमी हुआ फिर तो ।”
“शायद ।”
“तुम्हें कभी मीरा से उसकी आशनाई का शक नहीं हुआ ?”
“न । कभी कोई हिंट तक नहीं मिला । सच पूछो तो होटल के कमरे में मैंने अपनी आंखों से उन्हें एक साथ न देखा होता तो मैं कभी यकीन न करती कि उनमें ऐसी कोई रिश्तेदारी थी । लेकिन....”
“क्या लेकिन ? रुक क्यों गयीं ?”
“मीरा मर चुकी है । सोच रही हूं कि क्या अब उसके बारे में कुछ कहना मुनासिब होगा ।”
“मुनासिब होगा । सरासर मुनासिब होगा । मीरा मर चुकी है लेकिन यह मत भूलो कि मैं अभी जिन्दा हूं और मेरे सिर पर कत्ल के इल्जाम की तलवार लटक रही है । तुम्हारी बताई कोई भी बात मुझे इस खतरे से मुक्ति दिलाने का जरिया बन सकती है ।”
“अब बोलो क्या कहने जा रही थीं तुम मीरा के बारे में ?”
“घर में एक एक शख्स और भी आता था जो आता तो परिवार के मित्र के तौर पर था लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि मीरा के लिये वह परिवार के मित्र के अलावा भी कुछ और था ।”
“चाहने वाला ?”
“हां ।”
“नाम बोलो ।”
“अनिल पाहवा ।”
“वो वकील ?”
“हां ।”
“वशिष्ठ को उनकी आशनाई की कोई भनक नहीं थी ?”
“पता नहीं भनक नहीं थी या उसे परवाह नहीं थी । अपनी बीवी में उसे कोई खास रुचि तो थी नहीं इसलिये शायद...”
“इन मामलों में यह मर्द जात बड़ी कुत्ती चीज होती है । पति लोग खुद चाहे सालों साल बीवी को हाथ न लगायें लेकिन दूसरे को हाथ लगाता देखकर खून करने पर आमादा हो जाते हैं ।”
“एक बात बताओ” - वह सोचती हुई बोली ।
“पूछो ।”
“अनिल पाहवा वकील था । बीवी का वकील था । उस बीवी का वकील था जिसका वो यार भी था । फिर भी तलाक के मुकदमे में बीवी की पैरवी के लिये अदालत में पेश क्यों नहीं हुआ था ?”
“क्योंकि ऐसी पेशी से कुछ हासिल नहीं था और इस बात को अनिल पाहवा से बेहतर और कौन समझ सकता था । उसके तलाक का विरोध करने से मीरा की ज्यादा छिछालेदारी तो सकती थी । वह एक गैरमर्द के साथ कम्प्रोमाइजिंग पोशीजन में होटल के कमरे में अपनी मौजूदगी की क्या सफाई दे सकती थी ! उसके खिलाफ सबूत थे । तलाक तो होना ही होना था । गलत पब्लिसिटी से उसे बचाने के लिये उसके वकील ने यही मुनासिब समझा होगा कि वह एक तरफा फासला हो जाने दे ।”
“पाहवा खुद मीरा का चाहने वाला था, उसे यह जानकर कैसा लगा होगा कि मीरा का कोई और भी चाहने वाला था जिसके साथ कि वह एक होटल के कमरे में गुलछर्रे उड़ाती रंगे- हाथों पकड़ी गयी थी ?”
“वैसे तो इस सवाल का सही जवाब अनिल पाहवा ही दे सकता है लेकिन इसका एक यूनीवर्सल जवाब मेरे जेहन में है ।
“क्या ?”
“औरत के मामले में कुछ शख्स बड़े आजाद ख्याल होते हैं ।”
“मतलब ?”
“पहले से छिले हुए संतरे में से एक फांक कोई और भी ले गया तो क्या फर्क पड़ता है ! फर्क क्या, पहले से छिले हुए संतरे में तो एक फांक की घट-बढ़ का पता भी नहीं लगता ।”
उसने घूरकर मुझे देखा ।
“इसी बात को अंग्रेजों की जुबान में यूं कहते हैं कि वन्स ए केक इज कट, नो बाडी मिसिज ए पीस ।”
“सुधीर कोहली !” - वह दांत भींचकर बोली ।
“एट युअर सर्विस, मैडम” - मैं तनिक सिर नवाकर बोला ।
“यू आर ए सन ऑफ बिच !”
“नॉट “ए” सन ऑफ बिच । “ओरीजिनल” सन “ऑफ बिच । इस संसार प्रसिद्ध बिच ने जितने सन पैदा किये हैं उनमें सबसे बडा सन सिर्फ मैं हूं ।”
“तुम तो यूं कह रहे हो जैसे हरामी होना भी कोई फख्र की बात है ।”
“हरामी होना तो फख्र की बात नहीं लेकिन सबसे बड़ा हरामी होना फख्र की बात है । सिलसिला कोई भी हो, इन्सान का बच्चा होना उसके टॉप पर ही चाहिये ।”
“लानत है तुम पर । नशा उतार दिया । सब मजा किरकिरा कर दिया ।”
“एक ही मजा तो किरकिरा हुआ है । अभी तो कई मजे बाकी हैं । अभी तो कितनी ही रात बाकी है ।”
“मतलब ?”
“अब चलो घर चलते हैं ।”
“किसके घर ?”
“तुम्हारे और किसके ?”
“मेरे ?”
“अगर मैं अपने घर गया तो गिरफ्तार हो जाऊंगा । पुलिस जरूर वहां मेरे लौटने के इंतजार में बैठी होगी ।”
“तुम रात मेरे फ्लैट में गुजारना चाहते हो ?”
“अगर तुम्हें एतराज न हो तो ।”
वह खामोश हो गयी ।
“यानी कि एतराज है ?” - मैं अपने स्वर में ढेर सारी मायूसी घोलता हुआ बोला ।”
“नहीं । लेकिन....”
“क्या लेकिन ?”
“यू विल बिहेव ?”
“परफैक्टली । आल्सो आई विल लाइक हु हैव वन लिबर्टी ।”
“वट इज दैट ?”
“आई वुड लाइक टु कट ए पीस ऑफ केक ।”
उसने जोर से मेरी बांह पर चिकोटी काटी ।
“लेकिन अगर केक साबुत हुआ तो मैं, उसे हाथ भी नहीं लगाऊंगा ।”
उसने मेरी पसलियों में एक घूंसा जमाया और उठकर खड़ी हो गयी ।
मैंने भी उसका साथ दिया ।
***
अगली सुबह दस वज से पहले मैं कनाट प्लेस पहुंचा ।
मालूम हुआ कि अनिल पाहवा अपने ऑफिस में मौजूद था । उसकी रिसेप्शनिस्ट ने टेलीफोन का बजर बजाकर उसे मेरे आगमन की खबर दी और फिर मुझे उसके केबिन में भेज दिया ।
मैं उससे पहले कभी मिला नहीं था इसलिये यह जानकर मुझे बड़ी हैरानी हुई कि वह मेरे नाम से और मेरे धन्धे से वाकिफ था ।
वह एक कोई चालीस साल का, खूबसूरुत, निहायत खुशमिजाज आदमी निकला जो कि बहुत तपाक से मुझसे मिला ।
“हैरानी है” - मैं उसके सामने एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - “कि आप मुझे जानते हैं ।”
“भई” - वह बोला - “तुम गोपाल वशिष्ठ के वाकिफ हो । मीरा वशिष्ठ की जिन्दगी में मेरा भी उस हाउसहोल्ड में आना जाना था । यूं ऐसे इत्तफाक हो जाते हैं जबकि किसी एक शख्स को किसी दूसरे शख्स का चर्चा सुनने को मिल जाता है, सूरत देखने का इत्तफाक चाहे कभी पैदा नहीं होता ।”
“आप बजा फरमाते हैं ।”
“वशिष्ठ का और उसके मीरा से तलाक का फिर चर्चा था आज के पेपर में । तुम्हारा भी जिक्र था उसी सन्दर्भ में ।”
“मैंने आज का अखबार नहीं देखा ।”
“उसमें साफ....”
“लेकिन मुझे खबर है कि वशिष्ठ के दो साल पुराने तलाक के केस में मुझे भी लपेटने की कोशिश की जा रही है । कुछ और भी इल्जामात हैं जो मुझ पर आमद हो रहे हैं । उन में से कुछ तो बहुत गंभीर भी हैं ।”
“दैट्स टू बैड” - वह हमदर्दी भरे स्वर में बोला ।
“आप चाहें तो आप मेरी बहुत मदद कर सकते हैं । सच पूछिए तो आपकी मदद हासिल करने के लिये ही मैं यहां हाजिर हुआ हूं ।”
“अच्छा !”
“आप मीरा वशिष्ठ के वकील थे और मीरा के मित्र भी थे ।”
“मैं परिवार का मित्र था” - वह सावधान स्वर में बोला - “फैमिली फ्रेंड ।”
“यु कैन बी मोर सो विद ए पर्टिकुलर मेम्बर ऑफ दि फैमिली । से फॉर एग्जाम्पल मीरा इन दिस केस ।”
वह अपलक मुझे देखने लगा फिर उसने कुर्सी पर पहलू बदला, उसके चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे वह कोई सख्त बात कहने जा रहा हो लेकिन फिर वह बड़े सब्र के साथ मुस्कराया और बोला - “मीरा को मरे सात महीने हो गए हैं ।”
“और मुकेश मैनी कल मरा है” - मैं बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या रिश्ता है दोनों बातों में ?”
“कोई तो होगा । आखिर कल मरने वाला सात महीने पहले मीरा के तलाक की वजह था । दो साल पहले दोनों होटल के एक कमरे में इकट्ठे पकड़े गये थे ।”
एकाएक वह इतना क्रोधित हो उठा कि कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया । उसने यूं खा जाने वाली निगाहों से मुझे देखा जैसे मैंने उसे मां-बहन की गाली दी हो ।
“क्या कहा तुमने ?” - वह दांत भींचकर बोला - “मीरा और मुकेश मैनी...होटल में...एक साथ थे ?”
“जी हां” - मैं शान्ति से बोला ।
“कौन कमीना यह बेपर की उड़ा रहा है ? मुकेश मैनी महज ड्राइवर था । घर का नौकर-चाकर था ।”
“वह ड्राइवर था या शहजादा गुलफाम लेकिन हकीकत यही है कि होटल के कमरे में जो आदमी मीरा वशिष्ठ के साथ था वह मुकेश मैनी था ।”
“वह महज ड्राइवर था ।”
“वह वर्दी उतारकर खूंटी पर टांग देता होगा तो मीरा वशिष्ठ उसे बतौर ड्राइवर नहीं पहचान पाती होगी ।”
“तुम कभी मीरा से मिले थे ?”
“जी नहीं । यह फख्र कभी हासिल न हो सका । अलबत्ता एक बार एक पार्टी में उनके दर्शन का इत्तफाक जरुर हुआ था ।”
“तभी तुम ऐसा कह रहे हो । तुम नहीं जानते कि मीरा वशिष्ठ किस हस्ती का नाम था ।”
“किस हस्ती का नाम था ?”
“वह बहुत एरिस्टोक्रेटिक लेडी थी । बहुत सलीके वाली । बहुत शालीन । ऐसी औरत अपने ड्राइवर से ऐसा रिश्ता नहीं पाल सकती । वह अगर ऐसा करती तो अपनी बराबरी में अपनी क्लास में करती । एक नौकर-चाकर से उसकी ऐसी इन्टीमेट रिश्तेदारी की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।”
“बावजूद इस हकीकत के कि मुकेश मैनी ऐसा नौजवान था कि अगर वह सांड होता तो कॉरपोरेशन वाले उसे ब्रीडिंग के लिये अपने पास रख लेते ।”
“बेहूदा बातें मत करो” - वह भुनभुनाया ।
“यस सर ।”
“तुम्हें किसने कहा यह कि मीरा के साथ जो मर्द था, वो उसका ड्राइवर मुकेश मैनी था ?”
“पुलिस ने । मय सबूत कहा ।”
“सबूत ! कैसा सबूत ?”
मैंने उसे तस्वीर के बारे में बताया ।
वह वापिस कुर्सी पर बैठ गया । उसने अपने हाथों से अपना माथा थाम लिया ।
“मुझे” - वह आहत भाव से बोला - “मीरा से ऐसी उम्मीद नहीं थी ।”
“मीरा की तरफ से यूं नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं, वकील साहब ।”
“मतलब ?”
“हो सकता है जो दिखाई दे रहा है, वो हकीकत न हो ।”
“बावजूद तस्वीर के ?”
“जी हां ।”
“वो कैसे ?”
“शायद मुकेश मैनी की मीरा के साथ वहां मौजूदगी किसी मिलीभगत का नतीजा हो ।”
“वो कैसे ?”
मैंने उसे पुलिस की थ्योरी बताई ।
“अगर ऐसा कुछ हुआ है तो मुझे इसकी खबर नहीं” - वह बोला ।
“मीरा से आपके घनिष्ठ सम्बन्ध थे । उसने आपको कभी नहीं बताया कि उसके साथ जो आदमी पकड़ा गया था वह वास्तव में कौन था ?”
“नहीं । नहीं बताया ।”
“आपने पूछा भी नहीं ?”
“नहीं ।”
मुझे वह सच बोलता न लगा ।
“यह कसे हो सकता था ? आप न सिर्फ उसके मित्र थे बल्कि डिवोर्स एक्शन में उसके वकील भी थे ।”
“मैं काहे का वकील था । वकील तो तब होता जब ट्रायल की नौबत आती ।”
“आप अदालत में पेश क्यों नहीं हुए थे ?”
“मीरा ने मना किया था ।”
“यानी कि यह मीरा का फैसला था कि तलाक के मामले में एकतरफा डिग्री से जाने दी जाये ?”
“हां । जो कि उसकी समझदारी ही थी । कन्टैस्ट करने को रखा ही क्या था ?”
“वह मना न करती तो आप कन्टैस्ट करते ?”
“करता । हासिल चाहे कुछ न होता ! वकील जो ठहरा । वकील का फर्ज बनता है कि अपने क्लायंट्स की खातिर वह यही दुहाई दे कि दूसरा पक्ष जो कह रहा है, वह सब गलत है, बेबुनियाद है ।”
“आप सबूतों को झुठला पाते ?”
“क्या पता मैं क्या कर पाता । जब वह नौबत ही नहीं आई तो...”
“ओके । छोड़िये यह किस्सा । अब एक दूसरी बात पर आईये । मीरा वशिष्ठ की जिन्दगी में आपके उससे घनिष्ठ सम्बन्ध थे ।”
“घनिष्ठ सम्बन्धों से तुम्हारा क्या मतलब है ?”
“कोई स्पेशल मतलब नहीं ।”
“ठीक है । थे । तो ?”
“मैंने सुना है कि जिस रात मीरा का एक्सीडेन्ट हुआ था, उस रात वह आपके साथ थी ।”
“एक्सीडेन्ट के वक्त वह मेरे साथ नहीं थी ।”
“एक्सीडेंट के वक्त नहीं । पहले । एक्सीडेंट से पहले । आपकी उसके साथ डिनर डेट थी । डिनर के बाद वो आपसे अलग हो गयी थी । दुरुस्त ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“उसने बताया था कि आपसे अलग होकर वह कहां जा रही थी ?”
“नहीं । उसने सिर्फ यह कहा था कि उसे कोई काम था ।”
“कैसा काम ?”
“न उसने बताया था और न मैंने जानने की ज्यादा जिद की थी ।”
“एक्सीडेंट की बाबत कुछ बताइये ।”
“उसमें खास कुछ नहीं रखा बताने के लिये । उसकी कार का पहिया पंचर हो गया था । मदद के लिये उसने किसी को रोकने की कोशिश की थी । दूसरी कार वाले को वह बीच सड़क पर खड़ी, उसे रुकने का इशारा करती, दिखाई नहीं दी थी या देर से । दिखाई दी थी, नतीजन वह उसे रौंदता हुआ गुजर गया था ।”
“उसे मीरा के उसकी कार के चपेट में आने का तो पता लगा होगा ?”
“लगा था । पुलिस की तफ्तीश कहती है कि वह रुका भी था और कार को बैक करके वापस भी वहां लाया था जहां कि सड़क पर कुचली हुई मीरा पड़ी थी । उस रात मीरा ने बहुत जेवर पहने हुए थे उसने जब पाया था कि वह मर चुकी थी तो वह हरामजादा उसके सारे जेवर उतारकर ले गया था ।”
“कितनी कीमत रही होगी उन जेवरों की ?”
“तीन लाख से ज्यादा ।”
“इंश्योरेंस तो रही होगी ?”
“हां, थी ।”
“अदा हुई ?”
“हुई है ।”
“किसे ?”
“उसकी बहन अहिल्या शर्मा को ।”
“मीरा की विल थी ?”
“नहीं थी । लेकिन क्योंकि अहिल्या शर्मा ही उसकी सबसे करीबी रिश्तेदार थी और किसी दूसरे रिश्तेदार ने उसकी विरासत को चैलेन्ज भी नहीं किया था इसलिये कानूनी तौर पर उसी को वारिस करार दिया गया था ।”
“फिर तो मीरा ने पीछे और भी जो कुछ छोड़ा होगा, वह भी उसकी बहन को ही मिला होगा ?”
“हां ।”
तभी एकाएक एक टेलीफोन का बजर बजा ।
अनिल पाहवा ने फोन उठाया, एक क्षण उसे सुना और फिर बोला - “उसे बाहर ही बिठाओ, मैं आता हूं ।” - उसने फोन रख दिया और फिर उठता हुआ मुझसे बोला - “मैं अभी हाजिर हुआ ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
वह लम्बे डग भरता हुआ वहां से बाहर निकल आया ।
मैं सोचने लगा ।
उससे अगर कोई मिलने आया था तो उसने उसे भीतर क्यों नहीं बुलाया था ? उसका अपना केबिन पर्याप्त बड़ा था, वहां एक से ज्यादा पार्टियों से भी बखूबी मिला जा सकता था ।
उसकी उस हरकत की हजार वजह हो सकती थीं लेकिन मुझे पता नहीं क्यों लगने लगा कि उसका एकाएक वहां से उठकर जाना कोई खास मतलब रखता था - मेरे से ताल्लुक रखता खास मतलब !
मैंने हिचकिचाते हुए हाथ बढाकर फोन उठा लिया ।
“सुधीर कोहली मेरे ऑफिस में है” - मुझे अनिल पाहवा की धीमी किन्तु स्पष्ट आवाज सुनाई दी - “मैंने आज के अखबार में पढ़ा था कि पुलिस को उसकी तलाश है ।”
“हां है ।” - मुझे एक अधिकारपूर्ण स्वर, रूखा स्वर सुनाई दिया जो कि जरूर किसी पुलिसिये का था - “उसे वहां रोककर रखना । हम आते हैं ।”
“मैं कोशिश करता हूं ।”
“अभी दो मिनट में पुलिस की गश्ती गाड़ी वहां पहुंच जायेगी ।”
“ठीक है ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
मैंने हौले से रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया ।
तभी अनिल पाहवा वापिस लौट आया ।
“सॉरी सर” - वह गुड़ से ज्यादा मीठे स्वर में बोला - “आई कैप्ट यु वेटिंग...”
“दैट्स ऑल राइट” - मैं उठता हुआ बोला - “अब खादिम को इजाजत दीजिये पाहवा साहब । मैं आपसे फिर मिलूंगा ।”
“अरे, अरे” - वह हड़बड़ाया - “बैठो तो । मैंने तुम्हारे लिये कॉफी मंगाई है ।”
“अब जाने दीजिये । वक्त कम है । दरअसल मेरी एक जगह फिकस्ड टाइम अपॉइंटमेंट है” - मैंने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली - “अब अगर मैं और यहां रुका तो उसमें गड़बड़ हो जायेगी ।”
“जहां अपॉइंटमेंट है वहां फोन कर दो ।”
“नहीं, वो लोग फोन से नहीं बहलेंगे ।”
“कहां अपॉइंटमेंट है तुम्हारी ?”
“पुलिस हैडक्वार्टर ।”
“तुम” - वह सकपकाया - “पुलिस हैडक्वार्टर जा रहे हो ?”
“फौरन ! नाक की सीध में । नमस्ते ।”
मैंने हाथ मिलाने की जगह दोनों हाथ जोड़े और उसे दोबारा मिलने का मौका दिये बिना फौरन वहां से विदा हो गया ।
नीचे आकर मैंने सड़क पार की और पालिका बाजार की छत पर बने पार्क में जा बैठा ।
तभी पुलिस की एक गश्ती गाड़ी रीगल के करीब आकर रुकी । दो पुलसिये कूदकर उसमें से बाहर निकले और उन सीढ़ियों की तरफ लपके जो अनिल पाहवा के दफ्तर को जाती थीं ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और इत्मीनान से उसके कश लगाता हुआ प्रतीक्षा करता रहा ।
दस मिनट बाद पुलिस की गाड़ी वहां से विदा हो गयी ।
और पांच मिनट बाद पाहवा सड़क पर प्रकट हुआ और पैदल एक तरफ को बढ़ा ।
मैं भी अपने स्थान से उठा और उसके पीछे हो लिया ।
वह सीधा शंकर मार्केट पहुंचा ।
जैसी कि मुझे उम्मीद थी, शंकर मार्केट में उसका लक्ष्य बलबीर साहनी का दफ्तर था ।
मैंने उसे इमारत की सीढ़ियां चढ़ जाने दिया और फिर मैं भी ऊपर पहुंचा ।
मेरा अन्दाजा सही था वह बलबीर सहनी के ऑफिस में ही गया था, क्योंकि भीतर से उसके जोर-जोर से बोलने की आवाजें आ रही थीं । बीच-बीच में वैसे ही जोर-जोर से बलबीर साहनी भी बोल रहा था । मुझे उनकी आवाजें ही सुनाई दीं, बहुत कोशिश करने पर भी मेरे पल्ले यह न पड़ा कि वे कह क्या रहे थे । कुछ सुन पाने की कोशिश बेकार जानकर मैं दरवाजे पर से हटकर गलियारे के सिर पर पहुंच गया । मैने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
थोड़ी देर बाद एक झटके से बलबीर साहनी के ऑफिस का दरवाजा खुला और गुस्से से लाल भभका हुआ चेहरा लिए अनिल पाहवा बाहर निकला । वह गलियारे के फर्श को लगभग रौंदता हुआ सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया ।
मैंने दो मिनट और प्रतीक्षा की और फिर सिगरेट फेंककर गलियारे में आगे बढ़ा ।
मैंने हौले से दरवाजा ठेलकर बलबीर साहनी के ऑफिस में कदम रखा ।
मेरे आगमन की आहट पाकर उसने मेरी तरफ देखा ।
वह कोई पैंतालीस साल का मामूली शक्ल सूरत वाला आदमी था । पहरावे से और रख-रखाव से वह कोई सरकारी मुलाजिम लगता था ।
“पहचाना ? - मैं बोला ।
उसने एक क्षण असमंजसपूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा, फिर लगभग फौरन ही उसके चेहरे से वह भाव छंट गया ।
“अरे, आओ आओ, सुधीर कोहली” - वह बोला - “वैलकम । वैलकम ।”
“थैंक्यू” - मैं बोला ।
“बैठो ।”
मैं एक कुर्सी पर ढेर हो गया ।
“जल्दी छूट गये ।”
“छूट गये ! कहां से ?”
“पुलिस के चंगुल से ।”
“तुम्हारे ख्याल से मैं गिरफ्तार था ?”
“पेपर में ऐसा ही कुछ छपा था जिससे यह उम्मीद भी की जा सकती थी । उस मुकेश मैनी के कत्ल की वजह से पुलिस तुम्हारे पीछे पड़ी हुई है न ?”
“पहले पड़ी हुई थी अब नहीं पड़ी हुई ।”
“अब क्यों नहीं पड़ी हुई ?”
“अब उन्हें अकल आ गयी है ।”
“इतनी जल्दी ?”
“हां ।”
“दिल्ली पुलिस को ?”
“हां ।”
“यहां कैसे आये ?”
“यह परखने आया हूं कि तुम्हारी याददाश्त कैसी है ?”
“मेरी याददाश्त !”
“हां । दो साल पहले की बात याद रख सकते हो या नहीं ?”
“यह तो बात-बात पर निर्भर करता है । अब तुम यह पूछो कि दो साल पहले जो लंच मैंने किया था उसमें मैंने क्या खाया था तो यह तो...”
“दो साल पहले तुमने गोपाल वशिष्ठ के लिये काम किया था । मेरी सिफारिश पर ।”
“उसके तलाक के केस पर ?”
“हां । मैं उसी बाबत कुछ पूछना चाहता था ।”
“क्या ?”
“उस बाबत पुलिस भी तुमसे सवाल कर चुकी है ना ?”
“हां ।”
“तुमने उन्हें क्या बताया ?”
“कुछ भी नहीं” - वह बड़ी धूर्तता से हंसा - “आई मीन उन्हें लगा हो तो लगा हो कि मैंने उन्हें कुछ बताया था, हकीकत तो यही है कि मैंने उन्हें कुछ भी नहीं बताया था ।”
“लोगों को यूं अपने हाथों से चुग्गा चुगाने में माहिर मालूम होते हो ।”
“तुम्हारा मुकाबला तो नहीं कर सकता, गुरु । बहरहाल कर ही लेता हूं कुछ आटा दलिया ।”
“वशिष्ठ की बीवी पर दो साल पहले काफी वक्त लगाया था तुमने । उसकी मर्दाना यारी-दोस्ती के बारे में क्या जाना था तुमने ? मुकेश मैनी के अलावा कोई और भी शख्स था जिस पर कि मीरा की नजरेइनायत होती थी ।”
“नहीं मेरी निगाह में मुकेश मैनी के अलावा और कोई नहीं आया था ।”
“होता तो आया होता ?”
“जरूर आया होता ।”
वह झूठ बोल रहा था लेकिन मैंने उसे चैलेंज नहीं किया । अगर वह सच बोल रहा होता तो कम-से-कम अनिल पाहवा का जिक्र वह जरूर करता ।
“अब होटल के कमरे में रेड वाले दिन को याद करो । तुमने मुकेश मैनी को साफ पहचाना था ?”
“हां ।”
“तुम्हें यह पता था न कि वह वशिष्ठ का ड्राइवर है ?”
“पता था ।”
“तस्वीर खींचने को तुम्हें किसने कहा था ?”
“किसी ने भी नहीं ।”
“तो ?”
“वो मेरा अपना आइडिया था । तस्वीर की मौजूदगी में बीवी न अपनी करतूत से मुकर सकती थी और न बाद में ट्रायल के दौरान बीवी का वकील यह दावा कर सकता था कि वह वास्तव में रेड हुई ही नहीं थी और पति से रिश्वत खाकर दोनों गवाह झूठ बोल रहे थे ।”
“बीवी का वकील ऐसा कहता ?”
“कहता या न कहता का मुझे नहीं पता क्योंकि ट्रायल की नौबत तो आई ही नहीं थी लेकिन अगर नौबत आती तो कह तो सकता था ।”
“वह दो गवाहों को झुठला सकता था ?”
“कोशिश तो कर सकता था ।”
“तुमने तस्वीर की बाबत वशिष्ठ को क्यों नहीं बताया ?”
“मैं तो बताना चाहता था । वह मेरा क्लायंट था और उसे कम्प्लीट रिपोर्ट पेश करना मेरा फर्ज था !”
“तो ?”
“तस्वीर का जिक्र करने से मुझे उसकी सैक्रेट्री ने मना किया था । वह कहती थी...”
“वजह मुझे मालूम है । केस के निपट जाने के बाद भी तुम उसे अपने पास क्यों रखे रहे ?”
“क्योंकि रिकॉर्ड नष्ट करने का मेरी एजेंसी में रिवाज नहीं है । यहां हर केस से ताल्लुक रखता हर डॉक्युमेंट संभाल कर रखा जाता है ।”
“अब वो तस्वीर कहां है ?”
“वहीं जहां उसे होना चाहिए” - उसने अपनी स्टील की अलमारी की तरफ एक निगाह डाली - “मेरे पास पूरी तरह से महफूज ।”
“तुमने वह तस्वीर कभी किसी को दिखाई ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“उसकी कोई प्रतिलिपि कभी किसी को दी ?”
“वाह ! क्या कहने !” - वह मुस्कराया - “जिस चीज को किसी को दिखाने से मुझे ऐतराज है, उसे भला मैं दूंगा क्यों किसी को ?” “फिर वो तस्वीर पुलिस के पास कैसे पहुंच गयी ?”
“मैं खुद हैरान हूं । पुलिस कहती है कि उन्हें तस्वीर अहिल्या शर्मा से मिली । लेकिन मैं हलकान हुआ जा रहा हूं यह सोचकर कि उस औरत को जो कि दिल्ली शहर में रहती तक नहीं, वह तस्वीर कहां से मिल गयी ? मैंने तस्वीर का एक ही प्रिन्ट बनवाया था । वह इकलौता प्रिन्ट और नेगेटिव आज भी मेरे रेकॉर्ड में सुरक्षित हैं ।”
“तुमने चैक किया है ?”
“हां । पुलिस से निपटते ही पहला काम यही किया था मैंने ।”
“तुम्हारे रेकॉर्ड तक और किसकी पहुंच है ?”
किसी की भी नहीं ।”
“पाहवा को भी तुमने यही कहा है ?”
“किसको ?
“पाहवा को । अनिल पाहवा को । उस वकील को जिसका रीगल बिल्डिंग में दफ्तर है । अब उसका कद-काठ भी बयान करूं ?”
“मैं समझा नहीं तुम्हारी बात ।”
“मैं समझाता हूं । अभी थोड़ी देर पहले मैं अनिल पाहवा से उसके दफ्तर में मिलने गया था जहां मेरी उससे इसी केस से ताल्लुक रखती बातें हुई थीं । मेरे वहां से विदा होते ही वह नाक की सीध में तुम्हारे पास पहुंचा था ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“मैंने उसका यहां तक पीछा किया था, ऐसे मालूम ।”
“तो ?”
“इसका मतलब है कि पाहवा किसी बात से फिक्रमंद है और उस बात से तुम्हारी भी कोई रिश्तेदारी है । उसी बात को लेकर अभी तुम दोनों में बहुत तकरार हुई थी । जैसे भयानक मूड में वह यहां से विदा हुआ था उससे साफ लगता था कि वह यहां से तुम्हारी बातों से संतुष्ट होकर नहीं गया था ।”
वह खामोश रहा ।
“जवाब दो, भ्राताजी” - मैं बोला - “और नहीं तो यही जवाब दो कि तुम जवाब नहीं देना चाहते ।”
“इस जवाब से तुम टल जाओगे ?”
“फिलहाल ।”
“हमेशा के लिए नहीं ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । मैं पंजाबी पुत्तर हूं । बुरे के घर तक पहुंचकर दिखाना मेरी स्पेशलिटी है ।”
“मैं क्या अंग्रेज हूं ? मैं भी पंजाबी हूं ।”
“ऊपर से मेरे हमपेशा भी हो । कहते हैं, कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता । लगता है इस बार यह मसल झूठी साबित होने वाली है ।”
वह खामोश हो गया । उसके चेहरे पर गहरी सोच के भाव उभरे ।
“अच्छी तरह सोच लो” - मैं सहज स्वर में बोला - “मेरे पास वक्त बहुत है । चार छह महीने तो तुम्हारे जवाब का मैं मजे से इंतजार कर सकता हूं । हो सकता है इससे ज्यादा । यह कुर्सी बहुत आरामदेह है, मौसम भी कोई कम खुशगवार नहीं और...”
उसने हाथ उठाकर मुझे टोका ।
“बात को लंबा घसीटने की जरूरत नहीं” - वह गंभीरता से बोला - “इसलिए जरूरत नहीं क्योंकि बात मामूली है । मैं कबूल करता हूं कि पाहवा यहां आया था ।”
“साहनी । साहनी । कोई ऐसी बात कबूल करो जो मुझे न मालूम हो । मसलन यह बताओ कि वह आया क्यों था ?”
“तस्वीर की वजह से आया था जिसकी बाबत तुम” - उसकी इल्जाम लगाती निगाह मुझ पर पड़ी - “उसे बता आए थे । पट्ठा अंगारों पर लोट रहा था ।”
“चाहता क्या था ?”
“वह तस्वीर चाहता था । और उसका नेगेटिव चाहता था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उसकी निगाह में मैं उसका कोई बेजा इस्तेमाल कर सकता था ।”
“अब भी ! तस्वीर में दिखाई देने वाले दोनों जनों की मौत के बाद भी ?”
“देखो तो ! जो बेजा इस्तेमाल मैंने तब न किया, जब बात ताजा थी तो अब क्या करता ? कैसे करता ?”
“तुमने इंकार किया उसे तस्वीर और नेगेटिव देने से ?”
“हां । सरासर इंकार किया । तस्वीर से उसका क्या मतलब ? वो मीरा का वकील था तो मुझे क्या ? तस्वीर मेरे से वशिष्ठ मांगता होता तो कोई बात भी थी । मेरे इंकार से ही वह भड़क गया और खूब लड़ाई-झगड़ा करके यहां से गया ।”
“तस्वीर उसे हासिल हो जाती तो वह उसका क्या करता ?”
मैं कुछ क्षण सोचता रहा और फिर उठ खड़ा हुआ । मैंने अपनी जेब से अपना पर्स निकाला और बड़ी मेहनत से उसमें से एक अठन्नी बरामद की । वह अठन्नी मैंने मेज पर उसके सामने उछाल दी ।
“यह क्या है ?” - वह उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“अठन्नी है” - मैं बड़े इत्मीनान से बोला ।
“वो तो मैं देख रहा हूं लेकिन...”
“टेलीफोन करने के काम आती है । तुम्हारे ऑफिस में तो मुझे फोन दिखाई दे नहीं रहा, पब्लिक टेलीफोन पर जाओगे तो इसकी जरूरत होगी ।”
“मुझे क्यों जरूरत होगी ? यह तुम...”
“अनिल पाहवा को फोन करने के लिए जरूरत होगी ।”
“मुझे काहे को फोन करना है अनिल पाहवा को ? मैं तो उसे जानता तक नहीं । आज से पहले मैंने उसकी शक्ल तक नहीं देखी थी । कोहली, यह तुम क्या पहेलियां बुझा रहे हो ? तुम...”
“मेरे यहां से जाने के बाद बरायमेहरबानी अनिल पाहवा को फोन करना । उसे बताना कि मैं यहां तुम्हारे पास आया था । जो कुछ हमारे में बीती पहले तुम उसे वह सुनाना और फिर उसे अपने बारे में मेरा एक निजी ख्याल बताना ।”
“मेरे बारे में ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“यह कि मेरा ख्याल है कि तुम एक नंबर के झूठे हो । आगे यह भी कहना कि, कर्टसी सुधीर कोहली, तुम्हें बहुत जल्द एक वकील की सेवाओं की जरूरत पड़ सकती है । क्योंकि तुम्हारा झूठ अब कोहली कोहली एक्सपोज करने वाला है और बहुत जल्द तुम्हारी ट्रांसफर एक बहुत ज्यादा प्राइवेट बोर्डिंग हाउस में होने वाली है । उस बोर्डिंग हाउस का सरकारी नाम तिहाड़ जेल है । जब तक वहां नहीं पहुंच जाते हो तब तक गा लो, मुस्करा लो, महफिलें सजा लो । क्योंकि बहुत जल्द ये तमाम बातें तुम्हारे लिए सपना बन जाने वाली हैं ।”
“कोहली” - वह भड़ककर उठकर खड़ा हुआ - “तुम...तुम...”
“सी यू इन जेल, बलबीर साहनी । तब तक के लिए अलविदा ।”
मैं घूमा और किसी ड्रामे के सबसे अहम किरदार की तरह शान से चलता हुआ वहां से विदा हो गया ।
***
मैं गाजियाबाद पहुंचा ।
न्यू राजेन्द्र नगर में थोड़ी-सी पूछताछ करने के बाद ही मुझे अहिल्या शर्मा का मकान मिल गया ।
मेरी जेहन में उसका इमेज एक निहायत फसादी, खुंदकी, खूसट बुढिया का था लेकिन वह वैसी न निकली । वह निहायत खूबसूरत थी, अधेड़वस्था की जरूर थी लेकिन फिर भी चाक-चौबन्द औरत लग रही थी ।
मालूम हुआ कि वह प्लेन एक्सिडेंट में मारे गए एक एयरफोर्स ऑफिसर की बीवी थी और उसकी पेंशन और मकान के एक हिस्से से हासिल किराये से उसका गुजारा चलता था ।
मैंने उससे उस तस्वीर के बारे में पूछा जो बंद एक चिट्ठी रजिस्टर्ड डाक से उसके पास पहुंची थी । उसने बताया कि चिट्ठी और तस्वीर उसने दिल्ली पुलिस को सौंप दी थी ।
लिफाफा ?
लिफाफा उसने इमारत के पहलू की एक खिड़की से बाहर फेंक दिया था ।
मैं उससे बेशुमार सवाल पूछना चाहता था लेकिन क्योंकि दो बजे मुझे मुकेश मैनी की बहन से मिलना था और वक्त बहुत कम था इसलिए मैंने लिफाफे की तरफ तवज्जो दी ।
मैं उस संकरी गली में पहुंचा, इमारत की उधर पड़ती खिड़की में से जिसमें से लिफाफा फेंका गया था । गली की हालत ही बता रही थी कि वहां कई दिनों से सफाई नहीं हुई थी ।
लिफाफा मैंने बड़ी सहूलियत से तलाश कर लिया ।
लिफाफे पर बॉल-पॉइंट पेन से अहिल्या शर्मा का पता लिखा हुआ था और उस पर दरियागंज, दिल्ली के पोस्ट ऑफिस की मोहर थी ।
पते के हैंडराइटिंग ने मुझे बहुत उलझन में डाला । पता नहीं क्यों मुझे वह बहुत जाना-पहचाना लग रहा था ।
फिर एकाएक मुझे एक ख्याल आया ।
मैंने अपनी जेब से कागज का वह पुर्जा बरामद किया आलोकनाथ ने जिस पर मुझे अपनी फर्म वीनस इंवेस्टमेंट्स का पता लिखकर दिया था ।
लिफाफे के पते का हैंडराइटिंग उस पुर्जे के हैंडराइटिंग से हूबहू मिलता था ।
इसका मतलब यह था कि मुकेश मैनी और मीरा वशिष्ठ की तस्वीर अहिल्या शर्मा को आलोकनाथ ने भेजी थी । आसिफ आली रोड का बड़ा डाकखाना भी दरियागंज ही था ।
मैंने लिफाफा और वह पुर्जा जेब के हवाले किया और भीतर इमारत में पहुंचा । मैंने अहिल्या शर्मा का शुक्रिया अदा किया और एक बार फिर लौटकर जाने की उससे बाकायदा इजाजत हासिल करके मैं वहां से विदा हो गया ।
मैं वापिस दिल्ली पहुंचा जहां मैंने सीधे आसिफ अली रोड का रुख किया ।
आलोकनाथ का ऑफिस डिलाइट सिनेमा से पहली इमारत में था ।
जिस वक्त मैं वहां पहुंचा तब एक बजने को था ।
अपनी कार को पार्किंग में खड़ी करके मैं उस इमारत की तरफ बढ़ा ।
तभी आलोकनाथ मुझे उसी इमारत से बाहर निकलता नजर आया ।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मैं उससे परे होकर बरामदे के एक खंबे के पीछे हो गया ।
आलोकनाथ अपनी घड़ी पर निगाह डालता हुआ तेजी से एक तरफ बढ़ा ।
वह ज्यादा दूर न गया ।
कुछ ही कदम परे स्थित वह होटल प्रेसीडेंट में दाखिल हो गया ।
मैं जानबूझकर बाहर बरामदे में ठिठका रहा ।
मैंने देखा कि लिफ्ट की तरफ जाने के स्थान पर वह वहां के रेस्टोरेंट की तरफ बढ़ा ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और बरामदे में ही एक खंबे से टेक लगाए खड़ा रहा ।
थोड़ी देर बाद मैंने सिगरेट फेंका और होटल में दाखिल हुआ ।
मैंने रेस्टोरेंट में कदम रखा ।
लगभग भरे हुए रेस्टोरेंट के नीम अंधेरे में, मुझे वह बड़ी मुश्किल से दिखाई दिया ।
वह एक कोने की टेबल पर बैठा था और बहुत घुट-घुटकर एक कड़क सुंदरी से बातें कर रहा था । दोनों के सामने बीयर के गिलास थे । आलोकनाथ मेज पर आगे को झुककर कुछ कह रहा था जिसे लड़की बिना फर्माबरदारी से सुन रही थी । लड़की ऐसी शानदार थे कि अगर उसका मुकाबला आलोकनाथ की बीवी से किया जाता तो बीवी निश्चय ही रेत का बोरा साबित होती ।
मैंने भी बार से एक बीयर हासिल की और वहीं बार के स्टूल पर बैठकर उसे चुसकने लगा ।
मेरी निगाहों का मरकज आलोकनाथ और उसकी फुलझड़ी ही था ।
पौने दो बजे तक भी जब मैंने उन्हें वहां से उठता न पाया तो मैं उठ गया । अब मेरे पास और वक्त नहीं था, मैंने दो बजे से पहले कनाट प्लेस में स्टैंडर्ड में जो पहुंचना था ।
यह सोचता हुआ, कि वह फुलझड़ी कौन थी और आलोकनाथ को बलबीर साहनी से वह तस्वीर कैसे हासिल हुई, मैं वहां से विदा हो गया ।
दो बजने में अभी एक दो मिनट बाकी थे जब मैं रीगल सिनेमा के एन ठीक ऊपर स्थित स्टैंडर्ड रेस्टोरेंट पहुंचा ।
ठीक दो बजे मुकेश मैनी की बहन वहां पहुंची ।
मैंने उससे लंच के बारे में सवाल किया, जिसे उसने फौरन इंकार कर दिया । खुद मुझे बहुत भूख लगी हुई थी । लेकिन क्योंकि उसके सामने बैठकर अकेले लंच खाना बहुत बेहूदगी होती । इसलिए मैंने कोल्ड कॉफी का ऑर्डर दिया ।
वेटर ऑर्डर सर्व कर गया तो मैं बोला - “कल हड़बड़ी में मैं तुम्हारा नाम पूछना तो भूल ही गया ।”
“मंजु नाम है मेरा” - वह बोली - “मंजु मैनी ।”
“भाई का अंतिम संस्कार हो गया ?”
“हां” - वह आह भरकर बोली - “लगता है मैंने यहां आकर गलती की । इस वक्त अगर किसी ने मुझे यहां देख लिया तो कोई क्या सोचेगा ? मैं यहां से जल्दी से जल्दी चली जाना चाहती हूं ।”
“जरूर । कल पुलिस ने तुम्हें परेशान तो नहीं किया ?”
“किया तो सही । बहुत सवाल पूछे उन्होंने मुझसे । बावजूद मेरे यह कहने के कि मेरा अपने भाई से कोई खास वास्ता नहीं था । हम दोनों इकट्ठे नहीं रहते थे और महीनों हो जाते थे हमें एक-दूसरे को देखे हुए ।”
“आई सी ।”
“तुम्हारे बारे में भी बहुत सवाल किए उन्होंने मुझसे ।”
“अच्छा !”
“हां । वे जानना चाहते थे कि क्या मेरे भाई के तुम्हारे साथ कोई ताल्लुकात थे । थे तो क्या थे, किस हद तक थे ।”
“तुमने क्या जवाब दिया ?”
“जो सच था, मैंने कह दिया । मुझे अपने भाई की जाती जिंदगी की कोई कतई कोई खबर नहीं ।”
“पुलिस ने अपनी तरफ से तुम्हें मेरे बारे में कुछ बताया ?”
“यही बताया कि दो साल पहले गोपाल वशिष्ठ को उसकी बीवी से तलाक दिलाने का सारा इंतजाम तुम्हीं ने किया था ।”
“यह झूठ है ।”
“तुम कल मेरे भाई से मिलने क्यों गए थे ?”
“यही जानने के लिये गया था कि तलाक के उस दो साल पुराने केस की, जो खामखाह मेरे गले में फंदे की तरह पड़ा जा रहा था, असलियत में क्या था और उसमें तुम्हारे भाई का असल रोल क्या था ।”
“हूं ।”
“तुमने कहा था कि तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे भाई के कातिल का पता लगाऊं ?”
“हां । और इस काम की खातिर मैं तुम्हारी कोई भी वाजिब फीस भरने को तैयार हूं ।”
“ऐसा तुम ऐसे भाई के लिये करना चाहती हो जिसका तुम्हारे साथ इतना भी रिश्ता बाकी नहीं था जितना किसी का अपने पड़ोसी से होता है ।”
“हां, इस सन्दर्भ में मैं उसके साथ अपने खून के रिश्ते का हवाला नहीं दूंगी । वो किसी बीमारी से मरा होता, किसी एक्सीडेंट से मरा होता, उसका हार्टफेल हो गया होता तो बात और थी । लेकिन उसका कत्ल हुआ है । किसी ने जबरन उससे उसकी जिन्दगी छीन ली है । यह जुल्म है । मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि ऐसा जुल्म ढाने वाला जालिम आजाद घूमे । मेरा भाई कितना भी बुरा आदमी क्यों न रहा हो, किसी को फिर भी उसकी जिन्दगी छीनने का हक नहीं पहुंचता ।”
“तुम्हें मालूम है कि वह बुरा आदमी था ?”
“जो मर गया उसके बारे में बुरा कहने से क्या फायदा ?”
“फायदा हो सकता है । तुम्हारे भाई की बैकग्राउंड का अगर मुझे सही ज्ञान होगा तो उसके कातिल को बेपर्दा करने में मुझे सहूलियत होगी ।”
वह सोचने लगी ।
“इतना तो मुझे पता लगा है कि वह कोई साधारण आदमी नहीं था । रूपये पैसे की उसकी चाह क्रिमिनल माइन्डिड लोगों जैसी थी और अपनी ड्राइवर की नौकरी को तो वह अपनी आइन्दा शानदार जिंदगी के इंतजार में वक्त गुजारी का काम मानता था । छ: महीने पहले उसने अपनी ड्राइवर की नौकरी छोड़ दी थी । तब से कर तो वह कुछ भी नहीं रहा था लेकिन ठाठ से रह रहा था और बड़ा खर्चीला रहन-सहन अफोर्ड करने की क्षमता उसमें दिखाई दे रही थी । इन बातों से साफ जाहिर है कि हाल ही में उसने कहीं से कोई मोटा माल पीटा था ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“यानी कि तुम्हें यह बात मालूम है ?”
“मुझे क्या, पुलिस को भी मालूम है ।”
“अच्छा ! कैसे ?”
“उन्होंने उसके होटल के कमरे में से चालीस हजार रुपये बरामद किये हैं ।”
“अच्छा ?”
“हां ।”
“फिर तो हो सकता है कि अपना मोटा माल संभालकर रखने का उसका कोई और भी ठिकाना हो ।”
“और ठिकाना क्या ?”
“मसलन किसी बैंक का लॉकर ।”
“नहीं । लॉकर-वाकर नहीं था उसके पास । क्योंकि एक महीना पहले वह मेरे पास एक ब्रीफकेस छोड़ गया था जिसकी बाबत उसने कहा था कि इसमें उसका कोई बहुत कीमती सामान था । अगर उसके पास कोई लॉकर होता तो वह कथित कीमती सामान उसने लॉकर में रखा होता ।”
“उसने बताया नहीं ब्रीफकेस में क्या था ?”
“नहीं । ब्रीफकेस में ताला लगा हुआ था लेकिन उसकी चाबी उसने मुझे नहीं दी । उसने इतना ही कहा था कि उसमें कोई कीमती सामान था इसलिये मैं ब्रीफकेस को हिफाजत से रखूं ।”
“पुलिस को बताया तुमने उस ब्रीफकेस के बारे में ?”
“नहीं ।”
“अब तो खोला होगा तुमने उसे ?”
वह हिचकिचाई ।
“उसकी मौत के बाद” - मैंने उसे आश्वासन दिया - “वह ब्रीफकेस खोलने का तुम्हें हक था ।”
मैंने ब्रीफकेस खोला था” - वह बोली - “उसमें से दो बड़ी असाधारण चीजें बरामद हुई थीं ।”
“क्या ?”
“एक तो यह देखो ।”
अपने पर्स से निकालकर उसने मुझे एक तह किया हुआ कागज थमा दिया । मैंने कागज को खोलकर सीधा किया तो पाया कि वह एक प्रोनोट था जिसके मुताबिक किसी बंसीधर ने मुकेश मैनी को एक लाख रुपये का कर्जा देना था ।
“यह बंसीधर कौन हुआ ?” - मैं बोला ।
“मुझे नहीं पता” - वह बोली ।
“तुम्हारे भाई ने कभी उसका जिक्र किया हो ? जिक्र नहीं तो कभी नाम ही लिया हो इस बंसीधर का जो कि तुम्हारे भाई का एक लाख रुपये का कर्जाई है ।”
“न ।”
“तुम्हें यह सोचकर हैरानी नहीं होती कि तुम्हारे भाई के पास किसी को कर्ज देने के लिए लाख रुपया था ?”
“और पास रखने के लिये चालीस हजार रुपया भी था, जबकि अभी कल तक वह एक मामूली ड्राइवर था ।”
“और आज तो वो भी नहीं था ।”
“हां ।”
“यह बंसीधर नाम का आदमी तुम्हारे भाई का कातिल हो सकता है । तुम्हारा भाई उससे अपनी रकम की मांग कर रहा होगा । उस मांग से पीछा छुड़ाने के लिये उसने तुम्हारे भाई को शूट कर दिया होगा ।”
“लेकिन जब प्रोनोट उसके हाथ न लगा तो कत्ल से उसे फायदा ?”
“उसे प्रोनोट होटल के कमरे से ही बरामद होने की उम्मीद रही होगी ।”
“हो सकता है ।”
“दूसरी क्या चीज है ?”
उसने मुझे एक लिफाफा थमा दिया ।
मैंने लिफाफा खोला तो उसमें से शिफान का कॉफी कलर का एक टुकड़ा बरामद हुआ जिस पर कि किसी चिकनाहट के धब्बे लगे हुए थे और धब्बों पर धूल चढ़ी हुई थी । टुकड़ा आकार में तिकोना था । उसके उसके एक कोने से ऐसा लगता था जैसे वह कहीं से जबरन फाड़ा गया था ।
“यह क्या बला है ?” - मैं उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या पता ?” - वह बोली ।
“इस मैली-कुचैली धज्जी को तुम्हारा भाई इतने जतन से संभाले हुए था ।”
वह खामोश रही ।
मैं कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “तुम एक काम करो ।”
“क्या ?”
“तुम आकाश होटल जाओ और जाकर अपने भाई के कमरे की तलाशी लो ।”
“तलाशी तो पुलिस ले चुकी है । उन्होंने पीछे कुछ छोड़ा होगा ?”
“शायद छोड़ा हो । एक बार वहां का सामान टटोल लेने में हर्ज क्या है ?”
“वे लोग मुझे ऐसा करने देंगे ?”
“तुम उन्हें बताना कि मकतूल की बहन हो और उसकी इकलौती वारिस हो । अपने भाई का सामान वैसे भी तुम्हें ही सौंपा जाना है ।”
“ठीक है । मैं जाऊंगी ।”
“ये दोनों चीजें” - मैं उसे प्रोनोट और शिफोन का टुकड़ा दिखाता हुआ बोला - “फिलहाल मैं अपने पास रख रहा हूं ।”
“ये चीजें पुलिस को नहीं सौंपी जानी चाहियें ?”
“सौंपी जानी चाहियें । पुलिस के पास भिजवाने के लिये ही इन्हें मैं अपने पास रख रहा हूं । ओके ?”
“तुम काम क्या करती हो ?”
“जनपथ पर एल आई सी के ऑफिस में स्टैनो हूं । लेकिन भाई की वजह से अभी कुछ दिन ऑफिस नहीं जाऊंगी ।”
“तो फिर घर का पता बताओ ।”
उसने कालीवाड़ी मार्ग के सरकारी क्वार्टरों में से एक नम्बर मुझे लिखवा दिया ।
“ठीक है” - मैं बोला - मैं तुमसे संपर्क करूंगा ।”
“तुम्हारी कोई फीस भी भरनी होगी मुझे” - वह बोली ।
“फीस” -रुपये पैसे के मामले में कम्प्यूटराइजड मेरा दिमाग फौरन हरकत में आया - “हां, भरनी तो होगी ।”
“कितनी ?”
“इसका एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं ।”
“क्या ?”
“तुम अपने भाई की इकलौती वारिस हो । प्रोनोट वैसे तो कागज का टुकड़ा है लेकिन अपनी मेहनत से अगर मैं इस बंसीधर को तलाश कर लूं तो हो रुकता है यह रकम मैं तुम्हारे लिये वसूल करने में कामयाब हो जाऊं ।”
“ऐसा हो सकता है ?” - वह आशापूर्ण स्वर में बोली ।
“कोशिश तो की जा सकती है । एक चालीस हजार की रकम जो तुम्हारे भाई के होटल के कमरे से पुलिस बरामद करके के गयी है, उस पर भी उसूलन तुम्हारा हक बनता है । तुम यह कबूल करो कि अगर मेरी कोशिशों से ये एक लाख चालीस हजार रुपये तुम्हें जाएं तो इसका दस फीसदी बतौर मेरी फीस तुम मुझे दोगी ।”
“दस फीसदी ?”
“वसूली पर इतनी परसेंटेज तो सरकार भी देती है ।”
“मैं बीस देने को तैयार हूं ।”
“नहीं दस ही ठीक है । बाकी हिसाब-किताब और तरीकों से कर लेंगे ।”
“और तरीके ?”
“जान जाओगी । अभी तो मिली हो सुधीर कोहली से ।”
वह परे देखने लगी ।
लड़की शरीफ भी हो तो बेहूदे इशारे का मतलब गोली की तरह समझती है, चालू हो तो कहना ही क्या ।
“ठीक है फिर ?” - मैं बोला - “मेरी ऑफर कबूल ?”
“कबूल” - वह बोली - “लेकिन बतौर फीस एक टोकन अमाउंट मैं फिर भी तुम्हें अदा करना चाहती हूं ।”
“क्या जरुरत है ?”
“न सही । फिर भी मुहर्त के तौर पर ले लो ।”
“अच्छी बात है, अगर जिद करती हो तो पांच सौ रुपये दे दो ।”
उसने अपना हैंडबैग खोला और उसमें से एकदम करारे सौ-सौ के पांच नोट निकाल कर सौंप दिये ।
“थैंक्यू” - मैं बोला ।
“अब मैं चलती हूं ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
उसके वहां से रुखसत हो जाने के बाद मेरी तवज्जो उसके कोल्ड कॉफी के गिलास की तरफ गयी ।
उसने गिलास को छुआ तक नहीं था ।
मैंने वेटर को बुलाया और लंच का आर्डर दिया ।
मैंने बड़े इत्मीनान से खाना खाया ।
रेस्टोरेन्ट के बाहर कॉफी हाउस और रेस्टोरेंट के बीच के गलियारे में एक पब्लिक टेलीफोन था । वहां से मैंने पुलिस हैडक्वार्टर में यादव को फोन किया । मैंने उसे अपना परिचय दिया तो वह सावधान स्वर में बोला - “फोन क्यों किया ?”
“मेरे हाथ दो चीजें लगी हैं” - मैं बोला - “जो मुकेश मैनी के कत्ल के केस को हल करने में मददगार साबित हो सकती हैं ।”
““क्या हैं वो चीजें ?”
“देखोगे तो जान जाओगे ।”
“उन्हें यहां मेरे पास भेज दो ।”
“भेजने का इंतजाम करने में वक्त लगेगा । अगर खुद तकलीफ फरमाओ तो ?”
“कहां आना होगा ?”
“कनाट प्लेस । स्टैंडर्ड में ।”
“तुम वहां हो ?”
“हां ।”
“मैं दस मिनट में आता हूं ।”
“वर्दी पहन कर मत आना ।”
उसने लाइन काट दी ।
मैं रेस्टोरेंट में वापिस टेबल पर आ बैठा ।
यादव आठ मिनट में वहां पहुंच गया ।
कॉफी का ऑर्डर मैंने एडवांस में दिया हुआ था । उसके वहां पहुंचते ही वेटर कॉफी सर्व कर गया ।
“मैं लानत भेज रहा हूं उस घड़ी को” - वह भुनभुनाया - “जब मैंने तुम्हें अड़तालीस घंटे की मोहलत दी थी । अभी कोई यहां हम दोनों को पहचान भर ले तो मेरा तो शर्तिया जनाजा निकल जाये ।”
“पछता रहे हो ?”
“हां । मैं खामखाह तुम्हारी बातों में आ गया । मुझे अभी भी तुम्हें गिरफ्तार कर लेना चाहिए । खासतौर से मर्डर वैपन बरामद हो जाने के बाद ।”
“मर्डर वैपन बरामद हो गया ?”
“हां !”
“कहां से ?”
“तुम्हारे ऑफिस में से । तुम्हारी मेज के एक दराज में से ।”
“क्या ?” - मैं मुंह बाए उसे देखता हुआ बोला ।
“वही रिवाल्वर जिससे कि कत्ल हुआ है । रिवाल्वर की लैबोरेट्री जांच भी हो हो चुकी है । हमारा फोरेंसिक एक्सपर्ट निर्विवाद रूप से साबित कर चुका है कि मुकेश मैनी की खोपड़ी से निकली घातक गोली उसी रिवाल्वर से चलाई गई थी ।”
“और वह मेरे ऑफिस की मेरी मेज के दराज में से बरामद हुई थी ?” - मैं फिर बोला ।
“हां ।”
“पुलिस को पता कैसे लगा की वहां ऐसी कोई रिवाल्वर थी ?”
“हमें कुछ पता नहीं था । तुम्हारे फ्लैट और ऑफिस की तलाशी रूटीन के तौर पर ली गयी थी । इस केस में पुलिस की निगाह में तुम्हारा दर्जा फरार मुलजिम जैसा है । ऐसी तलाशी होना स्वाभाविक था ।”
“रिवाल्वर कैसी थी ?”
“अड़तीस कैलीबर की स्मिथ एंड वैसन जिस पर से उसका नंबर रेती से घिसकर मिटाया हुआ था ।”
“वह रिवाल्वर मेरी नहीं । वह मेरे ऑफिस में प्लांट की गयी थी ।”
“किसने की ?”
“जाहिर है कि हत्यारे ने ।”
“इस काम के लिए हत्यारा वहां तुम्हारे ऑफिस में गया होगा ?”
“जाहिर है ।”
“लेकिन तुम्हारी सैक्रेट्री रजनी कहती है कि वहां कोई नहीं आया था ।”
“कोई तो वहां जरूर आया होगा । वह टॉयलेट वगैरह के लिए कहीं इधर-उधर चली गयी होगी, तो उसके पीछे से आकर कोई वह हरकत कर गया होगा ।”
“वह ऑफिस खुला छोडकर यूं इधर-उधर चली जाती है ?”
“आम चली जाती है ।”
“कोहली, रिवाल्वर की बरामदी के रूप में मुझे तुम्हें गिरफ्तार कर लेना चाहिए ।”
“वह मुझ पर जुल्म होगा । वादा खिलाफी होगी तुम्हारी ।”
“गिरफ्तारी के मामले में मैं और कल रात तक सब्र कर भी लूं तो भी तुम गिरफ्तार हो सकते हो । पुलिस को तुम्हारी तलाश है । मेरे अलावा कोई दूसरा भी तुम्हें गिरफ्तार कर सकता है । कंट्रोल-रूम से मुझे मालूम हुआ कि आज सुबह यहां अनिल पाहवा नाम के वकील के ऑफिस में ऐसी गिरफ्तारी से तुम बाल-बाल बचे हो ।”
“हां । उस दगाबाज वकील ने...”
“छोड़ो । कौन सी दो चीजें हैं तुम्हारे पास जो तुम मुझे सौंपना चाहते हो ?”
बंसीधर का प्रोनोट और शिफान के टुकड़े वाला लिफाफा मैंने यादव को सौंप दिया ।
यादव कुछ क्षण दोनों चीजों का मुआयना करता रहा फिर बोला - “इस शिफान के टुकड़े से तो मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा लेकिन मैं पता लगाने की कोशिश करूंगा कि बंसीधर कौन है ।”
“वह हत्यारा हो सकता है । यह हत्या का उद्देश्य हो सकता है ।”
“मैं देखूंगा ।”
“दिल से देखना, यादव साहब । यह सोचकर न देखना कि हत्यारा तो अंत-पंत मैं हूं ही ।”
उसने घूरकर मेरी तरफ देखा ।
“सॉरी” - मैं हड़बड़ा कर बोला ।
उसने कॉफी का आखिरी घूंट अपने हलक में उड़ेला और यूं वहां से उठकर चला, जैसे वह गलती से किसी अजनबी की टेबल पर आ बैठा था ।
मैं कुछ क्षण और सिगरेट और कॉफी की चुसकियां लगाता रहा फिर मैंने वेटर को बुलाकर बिल मंगाया ।
चौवन रुपए ।
मैंने बटुवे में से एक सौ का नोट निकाला और उसे बिल के साथ वेटर की तश्तरी में रख दिया । वेटर बिल और नोट लेकर वहां से विदा हो गया ।
मैंने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और उसके बाकी पैसों के साथ लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
मेरा सिगरेट खत्म हो गया लेकिन वेटर न लौटा ।
मैं भुनभुनाकर उठने ही वाला था कि एकाएक वह वेटर, एक सूट-बूटधारी व्यक्ति और दो पुलिसिए मेरी टेबल पर पहुंचे ।
“यही हैं वो साहब ?” - सूट-बूटधारी व्यक्ति बोला ।
वेटर ने सहमति में सिर हिलाया ।
“आप जरा इधर तशरीफ लाइये” - पुलिसियों में से एक, जो कि नौजवान था और सब-इंस्पेक्टर की वर्दी पहने था, बोला ।
“क्यों ?”
“अभी मालूम हो जाएगा । जल्दी चलिये, होटल के बाकी ग्राहक इधर देखने लगे हैं । हमें जबरदस्ती करनी पड़ी तो खामखाह आपकी किरकिरी होगी ।”
“वो तो हो ही गयी है” - मैं उठता हुआ बोला - “चलिये ।”
मुझे यादव से ऐसी दगाबाजी की उम्मीद नहीं थी लेकिन हालात यही जाहिर कर रहे थे कि वहां से जाता-जाता वही ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों को टिप दे गया था कि मैं स्टैंडर्ड रेस्टोरेंट में मौजूद था ।
वह सूट-बूटधारी व्यक्ति रेस्टोरेंट का मैनेजर निकला और जहां मुझे ले आया गया वह उसी का ऑफिस निकला ।
वेटर और अधेड़ हवलदार ने हमारे साथ ऑफिस में कदम न रखा ।
हम बैठ गए तो युवा सब-इंस्पेक्टर ने मुझे एकदम नया नकोर एक सौ का नोट दिखाया - “यह नोट आपका है ?”
“मेरा है क्या मतलब ?” - मैं भुनभुनाया - “इस पर मेरा नाम लिखा है ?”
“यह नोट अभी आपने बिल के साथ वेटर को दिया था ?”
“हो सकता है । मुझे तो सारे सौ के नोट एक जैसे लगते हैं ।”
“यह वैसा ही है, जैसा आपने वेटर को दिया था ?”
“लगता तो है” - मैं बोला । मेरा दिमाग तेजी से काम कर रहा था, साफ जाहिर हो रहा था कि बतौर सुधीर कोहली उस सब-इंस्पेक्टर ने मुझे नहीं पहचाना था, माजरा कुछ और ही था -”बात क्या है जनाब ? अगर यह नोट मेरा है भी तो क्या हुआ ?”
“यह नोट आपके पास कहां से आया ?”
“एक क्लायंट ने दिया” - मेरे मुंह से अपने आप ही निकल गया ।
“क्लायंट ने ?”
“हां । मैं...मैं वकील हूं ।”
“नाम क्या है आपका ?”
“साहनी । अनिल साहनी ।”
“आप, अपने आपको आइडेंटिफाई कर सकते हैं ?
“कैसे ?”
“कैसे भी । आपके पास अपना ड्राइविंग लाइसेंस हो, कोई विजिटिंग कार्ड हो, कोई और डॉक्युमेंट हो जो साबित कर सकता है कि आप अनिल साहनी नाम के वकील हैं ।”
मेरे बटुवे में वैसा सबकुछ था लेकिन सब कुछ सुधीर कोहली के नाम से था ।
“जनाब” - मैं बोला - “पहले मुझे पता तो लगे कि माजरा क्या है ?”
“अपना पर्स निकालिए ।”
“क्यों निकालूं ? कोई धांधली है ? आप शायद भूल रहे हैं कि मैं वकील हूं और अपने तमाम हकूक जानता समझता हूं । मेरे साथ की गयी कोई धांधली आपको बहुत महंगी पड़ेगी ।”
सब-इंस्पेक्टर ने मैनेजर की तरफ देखा ।
“यह सौ का नोट” - मैनेजर धीरे से बोला - “जाली है ।”
“क्या !” - मेरे मुंह से निकला ।
“जी हां ।”
“आपको कैसे मालूम है कि यह जाली है ?”
“इसके सीरियल नंबर से मालूम है । इस सीरियल के नोटों के बारे में नगर के तमाम व्यापारियों को वार्निंग जारी हो चुकी है । जाली नोटों के सीरियल की लिस्ट हमारा कैशियर अपनी मेज पर लगाकर रखता है ।”
“अगर यह नोट जाली है तो इसमें मेरी क्या गलती है ? मैंने तो नहीं छापा इसे ।मुझे तो यह एक क्लायंट से मिला है । और मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे क्लायंट को भी नहीं पता होगा कि यह नोट जाली है । आप यह नोट मुझे लौटा दीजिये, मैं इसकी जगह दूसरा दे देता हूं ।”
“ऐसे नोट आपके पास और भी हैं ?” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
मैं हिचकिचाया ।
“आप इतने मामूली वकील तो नहीं होंगे कि आपकी फीस सिर्फ एक सौ का नोट है । आप बराय मेहरबानी अपने पर्स के सारे सारे सौ के नोट मुझे दिखाइए ।”
मुझे वैसा करना पड़ा ।
चार नोट और जाली निकले ।
वे पांचों नोट वे थे जो फीस की टोकन अमाउंट के तौर पर मुझे मंजू मैनी ने दिये थे ।
“आपको मेरे साथ थाने चलना होगा” - सब-इन्स्पेक्टर निर्णयात्मक स्वर में बोला ।
जहां कि फौरन मेरे असलियत की पोल खुल सकती थी ।
“काहे को ?” -मैं तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “अगर ये नोट जाली हैं तो मैं क्या कर सकता हूं इसमें ! मैंने तो नहीं छापा इन्हें !”
“जाली नोटों को अपने अधिकार में रखना भी अपराध होता है, मिस्टर ।”
“लेकिन मुझे तो नहीं मालूम था न कि ये नोट जाली हैं ।”
“आप बराय मेहरबानी बहस में वक्त न जाया कीजिये । थाने तो आपको चलना ही होगा । और आपको उस क्लायंट का नाम भी बताना होगा जिसने बतौर फीस आपको ये नोट दिए ।”
“लेकिन....”
“और अभी आपने यह स्थापित करके भी दिखाना है आप वाकई वकील हैं और आपका नाम अनिल साहनी ही है ।”
हथियार डाल देने के आलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था ।
छोकरी की टोकन फीस ने खूब फंसाया था मुझे ।