अगले दिन—।
सुबह सात बजे रैना बेड-टी लिए रघुनाथ के कमरे में प्रविष्ट हुई—उस वक्त रघुनाथ बेड पर पड़ा ऊंघ रहा था—रैना ने कप-प्लेट बैड की साइड टेबल पर रखे और बोली--"उठिए—सात बजे गए हैं—आज क्या सारे दिन सोते रहने का ही विचार है?"
रघुनाथ ने आंखें खोल दीं—रैना हल्के-से मुस्करा उठी।
"चाय ठंडी हो रही है।" कहने के साथ ही रैना किचन की तरफ चली गई।
रघुनाथ ने दो तकिए उठा कर पलंग की पुश्त से लगाए—उन पर पीठ टिकाकर वह चाय सिप करने लगा—दो-तीन मिनट बाद ही नौकर उसे अखबार दे गया—चाय सिप करने के साथ ही साथ अखबार भी पढ़ने लगा—उसकी आंखों ने बड़ी तेजी के साथ मुख्य पृष्ठ पर छपी अपने मतलब की खबर को खोज लिया था—खबर का शीर्षक पढ़ते ही उसका दिल गदगद हो उठा।
लिखा था—"सुपर रघुनाथ के बुद्धि चातुर्य से तोताराम दम्पत्ति का हत्यारा गिरफ्तार।"
रघुनाथ उपरोक्त शीर्षक के अन्तर्गत छपी खबर को पढ़ता चला गया—संवाददाता ने जहां दीवान को लेकर राजनैतिक सम्बन्धों को नग्न किया था, वहीं खुले दिल से सुपर रघुनाथ की प्रशंसा भी की थी—अपने फोटो को देखकर तो रघुनाथ चाय पीना ही भूल गया, क्योंकि फोटो के नीचे लिखा था—"राजनगर पुलिस के गौरव।"
इस पंक्ति को रघुनाथ बार-बार पढ़ने लगा।
सीना स्वयं ही फख्र से चौड़ा हुआ जा रहा था—एकाएक ही उसे विजय का ख्याल आया—अखबार में कहीं भी विजय का नाम नहीं था—रघुनाथ की स्थिति उस मोर जैसी हो गई, जिसकी दृष्टि नाचते-नाचते अचानक अपने पैरों पर पड़ जाती है।
¶¶
"रैना—रैना—।" रघुनाथ की यह चीख सुनकर किचन में काम करती रैना चौंक पड़ी—अभी वह ठीक से कुछ समझ भी नहीं पाई थी कि उसी तरह चीखता हुआ रघुनाथ बदहवास-सी अवस्था में अन्दर दाखिल हुआ—उसके हाथ में इस वक्त अखबार था—अखबार का तीसरा पृष्ठ खोले हुए था वह—चेहरे पर भूकम्प के से भाव थे।
रैना ने धीमे से चौंककर पूछा—"क्या बात है—आप इस तरह...?"
"य-ये देखो रैना—अखबार में क्या छपा है?"
"जानती हूं—आपने कल दीवान को गिरफ्तार किया था—वही खबर छपी होगी।"
"न-नहीं रैना—मैं उस खबर की बात नहीं कर रहा हूं।"
“तो फिर?”
"य-ये देखो।" रघुनाथ ने जल्दी से अखबार उसकी आंखों के सामने फैलाकर कहा—"मैं इस फोटो के बारे में बात कर रहा हूं—ये फोटो...।"
"ये तो किसी खोए हुए बच्चे का फोटो है—फोटो के ऊपर ही लिखा है—'गुमशुदा की तलाश'—मगर इस फोटो को देखकर आप इतने बदहवास क्यों हो रहे हैं?"
"क-क्या तुमने इस फोटो को पहचाना नहीं, रैना?"
रैना ने बच्चे के फोटो को ध्यान से देखा, बोली—"नहीं तो।"
"य-ये मेरा फोटो है रैना—मेरा फोटो।"
"अ-आपका—?" रैना के पैरों तले से धरती खिसक गई।
"हां—हां रैना—ये मेरा ही फोटो है—तुम्हें याद नहीं रहा—मेरा ये फोटो तुमने मेरी एलबम में देखा है—म-मगर इस फोटो के नीचे बड़ा अजीब मैटर लिखा है।"
"क्या लिखा है?"
रघुनाथ जल्दी-जल्दी उसे फोटो के नीचे लिखे मैटर को पढ़कर सुनाने लगा—"ऊपर जिस बच्चे का फोटो छपा है—उसका नाम इकबाल खान है—इकबाल का यह फोटो उस समय का है, जबकि वह सिर्फ बारह वर्ष का था—इकबाल को गुम हुए 30 साल हो गए। अब उसकी उम्र बयालीस साल के लगभग होगी, अतः इस फोटो को देखकर आज के इकबाल को शायद ही कोई पहचान सके—मगर हम अखबार में यही फोटो देने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि हमारे पास इकबाल का इससे बाद का कोई भी चित्र मौजूद नहीं है—सबसे बड़े दुर्भाग्य का शिकार होने के बाद इकबाल अपनी याददाश्त गवां बैठा था—जब वह गुम हुआ, तब वह स्वयं नहीं जानता था कि वह कौन है—उसका नाम क्या है या उसके मां-बाप कौन हैं?—अपने बारे में वह कुछ भी नहीं जानता है—इस फोटो की मदद से आज के इकबाल को पहचानना भी लगभग नामुमकिन ही है—फिर भी, हम अपने प्यारे इकबाल को ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं—पहचान के लिए हम इकबाल की चन्द जिस्मानी खासियतें लिख रहे हैं—
इकबाल की दाईं बगल में एक बहुत बड़ा काला मस्सा है—बाईं जांघ पर बचपन में लगी चोट का एक लम्बा और गहरा निशान है—बाएं हाथ की हथेली के ठीक बीच में एक बड़ा काला तिल है—दोनों पैरों की अंगूठे के समीप वाली उंगलियां अंगूठे से बड़ी हैं—बस, हम या कोई भी इन जिस्मानी खासियतों की वजह से ही इकबाल को पहचान सकता है—यदि किसी को उपरोक्त जिस्मानी खासियतों वाले किसी बयालीस वर्षीय व्यक्ति के बारे में कोई जानकारी हो तो उसकी खबर तुरन्त नीचे लिखे पते पर दे—यदि वह हमारा इकबाल ही हुआ तो हम उसे लाने वाले को मुंहमांगा इनाम देंगे।
अहमद खान (इकबाल का पिता)
कमरा नम्बर—सात सौ बारह
दिलबहार होटल
यह सब सुनने के बाद रैना जड़वत्-सी खड़ी रह गई—आंखें हैरत से फट पड़ी थीं—पढ़ने के बाद रघुनाथ ने दृष्टि ऊपर उठाई, बोला—"र-रैना।"
"आं—।" रैना चौंक पड़ी।
"तुम क्या सोचने लगी थीं?"
"य-ये सब क्या चक्कर है?"
"ख-खुद मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है, रैना—तुम जानती हो कि ये सभी जिस्मानी खासियतें मेरे शरीर पर हैं—मेरी एलबम में अपने माता-पिता के साथ मेरा उस वक्त का फोटो भी है, जब मैं लगभग तेरह साल का था—अखबार में छपा यह फोटो मेरे उस फोटो से बिल्कुल मिलता है।"
"तो क्या आप सचमुच इकबाल खान हैं?"
"य-ये कैसे हो सकता है—मैं रघुनाथ हूं।"
"म-मगर इसमें तो ये भी लिखा है, कि बारह वर्ष की आयु में इकबाल अपनी याददाश्त गवां बैठा था—किसी दुर्घटना में...।"
"त-तुम कहना क्या चाहती हो?"
"क-कहीं आप सचमुच इकबाल ही तो नहीं हैं?"
"ल-लेकिन—।" रघुनाथ बुरी तरह उलझ गया—"मेरे जहन में बचपन की बहुत-सी यादें सुरक्षित हैं—उनमें से एक भी याद ऐसी नहीं है, जब मैंने अपना नाम इकबाल सुना हो—मेरे पिता का नाम अमीचन्द और मां का नाम सावित्री देवी था—फिर ये अहमद खान—ये भला मेरे पिता का नाम कैसे हो सकता है?"
रैना कुछ बोल नहीं सकी—जबकि स्वयं रघुनाथ ने ही तेजी से पूछा—"मेरी एलबम कहां है रैना।"
"सेफ में।"
"जरा जल्दी से वह निकालो।"
रैना तुरन्त ही तेजी से आदेश का पालन करने के लिए किचन से निकल पड़ी—अखबार सम्भाले रघुनाथ भी उसके पीछे लपका—दोनों का दिमाग बुरी तरह झनझना रहा था—उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ये मामला क्या है—वे कमरे में पहुंचे; रैना ने सेफ खोली—पांच मिनट बाद ही उसके हाथ में एक एलबम थी—एलबम को खोलकर वे कमरे में पड़े सोफे पर बैठ गए—दो या तीन पृष्ठों के बाद ही एलबम के एक पृष्ठ पर वह चित्र नजर आया, जिसमें लगभग तेरह वर्षीय रघुनाथ अपने माता-पिता के साथ था।
उस फोटो को अखबार में छपे फोटो से मिलाते ही रैना और रघुनाथ की आंखें हैरत से फैल गईं—कभी वे अखबार में छपे इकबाल को देख रहे थे, कभी एलबम में लगे फोटो को।
¶¶
जिस वक्त विकास अपने कमरे से निकल कर रैना के कमरे की तरफ बढ़ा, उस वक्त उसके लम्बे, कसरती, आकर्षक और गोरे-चिट्टे जिस्म पर एक चमचमाती हुई सफेद बैल-बाटम और जालीदार हाफ बाजू का काला बनियान था।
छोटा-सा नया सूट पहने धनुषटंकार उसके कन्धे पर सवार था—धनुषटंकार के पैरों में चमकदार नन्हें बूट और उंगलियों के बीच एक सिगार था।
विकास कमरे के दरवाजे पर ही ठिठक गया।
एक ही सोफे पर बैठे रैना और रघुनाथ एलबम और अखबार पर झुके हुए थे—एक पल ठिठकने के बाद कमरे में कदम रखते हुए विकास ने कहा—"गुड मार्निंग, मम्मी-डैडी।"
"ग-गुड मार्निंग—।" एकदम दोनों ही उछल पड़े।
उनकी तरफ बढ़ता हुआ विकास बोला—"अरे—क्या हुआ, डैडी—आप एकदम इस तरह क्यों उछल पड़े, जैसे हमने आपको कोई बहुत बड़ी चोरी करते पकड़ लिया हो—अरे, आपके चेहरे पर ये हवाइयां क्यों उड़ रही हैं, मम्मी—आखिर बात क्या है?"
वे दोनों ही जड़वत्-से खड़े रह गए—मुंह से एक शब्द भी न निकला, जबकि समीप पहुंचते ही विकास रघुनाथ के चरणों में झुक गया—उससे पहले ही धनुषटंकार उसके कन्धे से सीधा रैना के चरणों में कूदा था।
प्रति प्रातः उनके चरणस्पर्श करना विकास और मोन्टो का नियम था—ऐसा वे पूरी श्रद्धा के साथ करते थे—जब विकास रैना के चरणस्पर्श करके सीधा खड़ा होता था तो भरी आंखों से रैना उसे बांहों में भरकर अपनी छाती से लगा लिया करती थी—बड़े प्यारे से सिर पर हाथ फेरते वक्त सैंकड़ों दुआएं दिया करती थी अपने लाल को—मगर आज—जब ऐसा न हुआ तो हल्के-से चौंककर विकास ने पूछा—"क्या बात है, मम्मी?"
"आं—क-कुछ नहीं है।" रैना ने घबराकर रघुनाथ की तरफ देखा।
एक क्षण के लिए चुप रहा विकास—इस क्षण में लड़के ने अपनी मम्मी-डैडी के चेहरों का निरीक्षण किया—चेहरों का रंग उड़ा हुआ था—इसी से विकास ने अनुमान लगा लिया कि सुबह-सुबह कोई ऐसी बात जरूर हुई है, जिसने अचानक ही उन्हें मानसिक रूप से त्रस्त कर दिया है—वह एकदम चीख पड़ा—"क्या हुआ मम्मी—आप बोलती क्यों नहीं?"
"व—विकास—आज के अखबार में—।"
"हां-हां बोलिए—आज के अखबार में क्या हुआ?"
रघुनाथ ने कहा—"बैठो विकास, हम एक बहुत ही अजीब-सी उलझन में फंस गए हैं।"
"कैसी उलझन?"
"हमारी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है—बैठो—सब कुछ बताते हैं।"
असमंजस में डूबा विकास सोफे पर बैठ गया—पुश्त पर बैठे मोन्टो ने एक साथ कई तगड़े कश लगाए और फिर मुंह को एक दायरे की शक्ल में मोड़कर छल्ले बनाने लगा।
¶¶
टेलीफोन की लगातार घनघनाती घण्टी ने विजय की नींद में खलल तो डाला ही, साथ ही उसे रिसीवर उठाने के लिए भी विवश कर दिया—बुरा-सा मुंह बनाकर उसने रिसीवर उठाया और बोला—"मैंनेजर ऑफ यतीमखाना हीयर।"
"मैं विकास बोल रहा हूं, गुरू।"
विजय झल्लाए से अन्दाज में बोला—"क्यों बोल रहे हो, प्यारे?"
"आपकी आवाज बता रही है कि आप अभी-अभी सोकर उठे हैं।"
"जासूसी मत झाड़ो, प्यारे—मतलब की बको।"
"आपने अभी आज का अखबार तो नहीं पढ़ा होगा?"
"फिर भी अन्दाजा लगा सकता हूं कि मुख्य पृष्ठ तुम्हारे बापूजान की तारीफ से भरा पड़ा होगा।"
"मैं उस खबर की बात नहीं कर रहा हूं, गुरू।"
"फिर किस खबर की बात कर रहे हो प्यारे?"
"गुमशुदा की तलाश वाले एक विज्ञापन की।"
विजय झुंझला गया—"ओफ्फो—तुम कब से गुमशुदाओं की तलाश करने लगे?"
"अखबार में छपा फोटो डैडी का है, अंकल।"
"क्या मतलब?" विजय उछल पड़ा।
इसके बाद—दूसरी तरफ से विकास ने जो कुछ कहा, उसे सुनकर विजय जैसे व्यक्ति की खोपड़ी भी घूम गई—चेहरे पर असीम हैरत के भाव उभर आए—बोला—"हम आ रहे हैं, प्यारे।"
¶¶
"ये तो बड़ा अजीब चक्कर है, प्यारे।" अखबार में छपे फोटो के नीचे मजमून को पढ़ने के बाद विजय ने कहा—"खोपड़ी साली झन्नाट हुई जा रही है—अच्छा एक बात बताओ —क्या तुम्हें याद है कि तुम्हारी बाईं जांघ पर चोट का लम्बा और गहरा जख्म कब और कैसे बना था?"
रैना, विकास और मोन्टो की उत्सुक नजरें रघुनाथ के चेहरे पर चिपक गईं, जबकि दिमाग पर जोर डालते हुए रघुनाथ ने कहा—"मुझे याद नहीं आ रहा।"
सबकी नजरें मिलीं।
रघुनाथ ने कहा—"लेकिन—मैं इकबाल नहीं हो सकता।"
"क्यों नहीं हो सकते?" विजय ने पूछा।
"शायद किसी भी व्यक्ति को अपने अतीत के शुरू के चार-पांच साल याद नहीं रहते—अगर तुमसे पूछा जाए कि उस वक्त की कोई घटना सुनाओ जब तुम तीन वर्ष के थे तो शायद तुम्हें भी कुछ याद न आ सके—मुमकिन है कि यह चोट मुझे उस समय लगी हो, जब मेरी आयु एक-दो-तीन या सिर्फ चार साल की रही हो।"
"क्या तुम्हें कोई ऐसी घटना याद है, जब तुम्हारी आयु बारह साल से कम रही हो?"
"हां—याद है?"
"सुनाओ।"
"मुझे याद है उस वक्त मैं आठ साल का था—मुझे पतंग उड़ाने का बहुत शौक था—हम लखनऊ में रहते थे—कटी हुई पतंगों को लूट-लूटकर मैं बसंत पंचमी के लिए जोड़ा करता था—एक दिन मैंने बहुत बड़ी सफेद रंग की पतंग लूटी और उसे बड़े अरमानों से सम्भालकर इस मकसद से रखा कि उसे मैं बसंत पंचमी को ही उड़ाऊंगा—बसंत पंचमी की पहली रात को पिताजी अचानक ही मुझसे मजाक करते हुए बोले कि—वे मेरी सफेद पतंग को काली कर सकते हैं—उनकी बात पर मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मैं नहीं समझ सकता था कि सफेद पतंग भला काली कैसे हो सकती है—उन्होंने मुझसे काली करने के लिए पतंग मांगी—मैंने दे दी—वे मेरे ही सामने मिट्टी के तेल की जल रही कुप्पी की लौ के ऊपर उठ रहे काले धुंए के ऊपर पतंग को लहराने लगे—सफेद पतंग पर धुंआ जमा तो वह काली पड़ने लगी—मैं हैरत में डूबा दिलचस्प निगाह से अपनी सफेद पतंग को काली होते देख रहा था—अचानक जाने कैसे पिताजी का हाथ बहका—पतंग कुछ नीचे हो गई—पतंग के बारीक कागज ने तुरन्त ही कुप्पी की लौ से आग पकड़ ली—पल भर में फर-फर करके सारी पतंग जलकर राख हो गई—रो-रोकर मैंने सारा घर सिर पर उठा लिया, जबकि पिताजी ठहाकों के साथ हंसते हुए जमीन पर पड़े जले हुए कागज की तरफ इशारा करते हुए बार-बार कह रहे थे—'देख रघुनाथ, तेरी पतंग बिल्कुल काली हो गई है,'—जाने क्यों, मैं आज तक भी उस घटना को नहीं भूल पाया हूं।''
"तुम यह दावा कैसे कर सकते हो कि जब यह घटना घटी, तब तुम आठ साल के थे?"
"मुझे अच्छी तरह याद है—उस वक्त मैं सिर्फ चौथी कक्षा में पढ़ता था।"
"उम्र का कक्षा से क्या मतलब?"
"मेरे पिता ने बताया था कि मैं उस वक्त चार साल का था जबकि पढ़ने बैठा और वे हमेशा ही यह कहते थे कि मैं कभी-भी किसी कक्षा में फेल नहीं हुआ।"
"क्या तुम उस प्राइमरी स्कूल का नाम बता सकते हो, जिसमें तुम पढ़े?"
"मुझे अच्छी तरह याद है—लखनऊ में मैं 'ज्ञान भारती' में पढ़ता था।"
विजय ने कहा—"तब तो तुम इकबाल नहीं हो।"
"म-मगर—।" विकास बोला—"वैसी स्थिति में इस फोटो का क्या मतलब है, गुरू?"
"मतलब यही है प्यारे दिलजले कि यदि बात सिर्फ एकाध खासियत तक ही सीमित होती तो उसे संयोग भी माना जा सकता था, परन्तु पूरी चार खासियतें संयोग से नहीं मिल सकतीं—जरूर इस विज्ञापन के पीछे कोई बहुत बड़ा मकसद छुपा है—और यदि कोई मकसद नहीं है तो इकबाल को तलाश करना हमारे लिए इस विज्ञापनदाता से भी कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है—आखिर पता तो लगे कि दुनिया में वह कौन-सी हस्ती है, जिसकी न सिर्फ शक्ल ही बल्कि चोट का निशान, मस्सा, तिल और पैर की उंगलियां भी अपने तुलाराशि से मिलती हैं—हमारे ख्याल से या तो रघुनाथ ही इकबाल है और या इकबाल का अस्तित्व ही नहीं है—और यदि अस्तित्व नहीं है तो निश्चित रूप से इस विज्ञापन के पीछे कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र पनप रहा है।"
रैना उछल पड़ी—"कैसी षड्यंत्र?"
"इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।"
"गुरू—क्यों न हम दिलबहार होटल के कमरा नम्बर सात सौ बारह में जाकर अहमद खान नाम के इस आदमी से मिलें, जिसने यह विज्ञापन दिया है?"
"मिलना तो पड़ेगा ही, लेकिन इस तरह नहीं।"
"फिर किस तरह?"
विजय धीरे-धीरे कुछ कहने लगा।
¶¶
रघुनाथ तो सुपरिंटेंडेण्ट की यूनिफॉर्म में था ही—विकास और विजय के जिस्मों पर भी पुलिस इंस्पेक्टर के ही कपड़े थे—रैना भी पुलिस की लेडी इंस्पेक्टर नजर आ रही थी—कदम-से-कदम मिलते हुए वे सभी होटल दिलबहार की सातवी मंजिल की गैलरी में बढ़ रहे थे—धनुषटंकार उस समय भी विकास के कन्धे पर विराजमान था।
रैना को वहां चलने के लिए सबने मना किया था, किन्तु रैना ने जिद पकड़ ली और उसकी जिद के आगे किसी की एक चली—रूम नम्बर सात सौ बारह के समीप पहुंचते ही सब ठिठक गए—दरवाजा अदर से बन्द था—विकास ने सांकेतिक अन्दाज में धनुषटंकार की पीठ थपथपाई—उसके कन्धे से उछलकर एक ही जम्प में धनुषटंकार कमरा नम्बर सात सौ बारह के रोशनदान पर जा लटका।
विजय के संकेत पर रघुनाथ ने आगे बढ़कर कॉलबैल दबा दी।
कमरे के अन्दर से वॉयलिन की मधुर ध्वनि उभरी।
कुछ ही देर बाद दरवाजा खुला और दरवाजा जिसने खोला था, उसे देखते ही चारों के दिल धक्क से रह गए।
वह खूबसूरत थी—बहुत ही ज्यादा खूबसूरत—इतनी अधिक कि वे चारों दावा कर सकते थे कि इतनी खूबसूरत लड़की उन्होंने अपने पिछले जीवन में पहले कभी कहीं नहीं देखी थी—उसके दूध से गोल मुखड़े पर मासूमियत थी—बड़ी-बड़ी नीली आंखें—किसी साफ-सुथरी झील के समान गहरी—ठीक किसी गुलाब की पंखुड़ियों ने जैसे रंग के कोमल अधर—सेब के से रंग के कपोल-चौड़ा मस्तक-नुकीली नाक वाली इस लड़की के बालों का रंग आग में तपे हुए सोने के तारों जैसा था—किसी संगतराश द्वारा तराशे गए संगमरमरी जिस्म पर सलवार—कुर्ता पहने थी वह—सीने पर एक चुनरी थी—फिर भी—उसकी गोलाइयां स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी—उनमें से कोई अभी कुछ बोल भी नहीं सका था कि बड़े सलीके से उसने चुनरी से सिर ढाका और बोली—"आपको किससे मिलना है?"
जैसे कोयल बोली।
रघुनाथ तो उसकी आवाज और रूप-सौन्दर्य में ही डूबकर रह गया, जबकि विजय ने सवाल किया—"क्या अहमद खान इस वक्त कमरे में हैं?"
"जी हां—आइए।" कहने के साथ ही वह अपनी चमकती हुई आंखों से विजय को देखती हुई दरवाजे के बीच से हट गई—सबसे आगे रघुनाथ था, जबकि वही जड़वत्-सा खड़ा रह गया—विजय ने हल्के से उसे धक्का दिया।
रघुनाथ चौंका—उसने अन्दर कदम रखा ही था कि कमरे के अन्दर से किसी बूढ़े की आवाज उभरी—"अरे....कौन है बहूरानी?"
"पुलिस है, अब्बा हुजूर—ये लोग आपसे मिलने आए हैं।"
"प-पुलिस—।" इस शब्द के साथ ही बूढ़ा उनके सामने आ गया—यह टू-रूम सैट था—बूढ़ा भीतरी कमरे से बाहर निकला था, जबकि वे चारों कमरे में बाहर से प्रविष्ट हुए थे—उन्हें देखते हुए बूढ़े ने कहा—"कैसे आना हुआ—इंशाअल्लाह—खैरियत तो है?"
उसकी तरफ बढ़ते हुए रघुनाथ ने पूछा—"क्या आप ही अहमद खान हैं?"
"जी फरमाइए, इस नाचीज को ही अहमद कहते हैं।"
रघुनाथ ने जेब से तह किया हुआ अखबार निकालते हुए पूछा—"क्या आप ही ने आज के अखबार में इश्तिहार दिया है?"
"हां-हां—मगर क्यों?" एकाएक बूढ़ा बहुत ही ज्यादा उत्सुक नजर आने लगा—"इंशाअल्लाह, क्या पुलिस ने मेरे इकबाल की कुछ खैर-खबर निकाल ली है?"
विजय ने कनखियों से लड़की की तरफ देखा, जो कि दरवाजे के समीप ही खड़ी उनकी तरफ देख रही थी—विजय ने इकबाल का नाम सुनते ही उसकी बड़ी-बड़ी नीली आंखों में बहुत ही प्यारी चमक देखी थी—विकास ने कनखियों से रोशनदान पर बैठे धनुषटंकार को देखा—उसे वहां किसी भी आकस्मिक खतरे से निपटने के लिए छुपाया गया था, परन्तु यहां किसी किस्म के खतरे की कोई गन्ध नहीं थी—अहमद खान लम्बी सफेद दाढ़ी वाला एक बेहद बूढ़ा व्यक्ति था—पीठ किसी कमान के समान झुकी हुई थी—जिस्म पर बन्द गले का काला कोट और पैरों में सफेद चूड़ीदार पायजामा पहने था—उसके हाथ में एक छड़ी थी और मुंह में दबे पान से वह लगातार जुगाली-सी कर रहा था।
उसने कहा—"आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया, इंशाअल्लाह।"
"किस सवाल का जवाब चाहते हो?" रघुनाथ ने पुलिसिया अकड़ दिखाई।
"इसी सवाल का कि क्या यहां की पुलिस ने मेरे इकबाल का कुछ—।"
"खामोश।" रघुनाथ ने घुड़की दी—"हम यहां तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब देने नहीं बल्कि, तुमसे अपने सवालों का जवाब लेने आए हैं।"
"कैसे सवाल, हुजूर?"
"ये विज्ञापन तुमने क्यों दिया?"
"या खुदा, अजीब सवाल है—अरे भई, मेरा बेटा गुम है तो क्या मुझे इतना भी हक नहीं कि मैं उसकी गुमशुदगी का इश्तिहार किसी अखबार को दे सकूं?"
"तुम्हारा कोई बेटा गुम नहीं है।"
"अजीब जबरदस्ती है—अरे भई, आप क्या जानें कि मेरा चश्मो-चिराग—"
"सीधी तरह लाइन पर आ जा, बुड्ढे—वर्ना एक ही हाथ में ये नकली जबाड़ा मुंह से निकलकर जमीन पर गिर पड़ेगा।"
रघुनाथ इस वक्त कोई जालिम पुलिस अफसर लग रहा था—"अखबार में तूने ये झूठा इश्तिहार छपवाया है।"
"इस बन्दे को माफ कर खुदा—मैं भला झूठा इश्तहार क्यों छपवाऊंगा?"
रघुनाथ ने झपटकर उसका गिरेबान पकड़ लिया और गुर्राया—"तू इस तरह नहीं मानेगा—सच तभी उगलेगा जब हवालात में तुझ पर डंडे पड़ेंगे।"
"ठहरिए—।" एकाएक लड़की कह उठी।
सभी उसकी तरफ घूम गए, वह आगे बढ़ती हुई बोली—"यदि आप सचमुच पुलिस वाले हैं तो मुझे आपकी हरकत देखकर हैरत हो रही है।"
"तो क्या तुम्हें हमारे पुलिस होने पर शक है?"
"आप लोगों की यह हरकत देखकर।"
"क्या मतलब?"
"देश-विदेश में हिन्दुस्तानी पुलिस का बड़ा नाम सुना था—मिस्र में तो लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तानी पुलिस बहुत सभ्य और समझदार है, लेकिन यहां तो सब कुछ उल्टा है—जब इस मुल्क की पुलिस मुल्क के मेहमानों के साथ ऐसा बर्ताव करती है तो...।"
"मुल्क के मेहमान?"
"विदेशी मुल्क के मेहमान ही तो होते हैं।"
रघुनाथ उसे देखता ही रह गया, जबकि विजय ने सवाल किया—“ विदेशी से क्या मतलब, क्या तुम लोग भारतीय नहीं हो...?"
"हम मिस्र से आए हैं—आप लोग हमारे कागजात देख सकते हैं।"
"ओह! तो मिस्र से यहां क्यों आए हो तुम लोग?"
"अपने इकबाल को तलाश करने।"
"इकबाल को तलाश करने!" पुलिसिया अन्दाज में ही रैना ने आगे बढ़कर व्यंग्यात्मक स्वर में कहा—"इस बुड्ढे का तो इकबाल बेटा है, लेकिन वह तुम्हारा कौन है?"
"तबस्सुम मेरी बहू है।" अहमद कह उठा।
रघुनाथ उछल पड़ा—"क्या मतलब?"
"इकबाल इस बदनसीब का शौहर है।" अहमद ने कहा। सब हैरान रह गए। बहुत ही गहरा सन्नाटा खिंच गया वहां—सुपर रघुनाथ का दिल तो अजीब-से अन्दाज में धक्-धक् कर रहा था—सबसे पहले विकास ने खुद को सम्भाला, वह अहमद की तरफ बढ़ता हुआ बोला—"अखबार में तो यह लिखा था कि तुम्हारा इकबाल बारह वर्ष की आयु में ही गुम हो गया।"
"मैं तो अब भी यही कह रहा हूं, हुजूर।"
"दूसरी तरफ तुम यह भी कह रहे हो कि यह लड़की उसकी बीवी है।"
"तो कोई गजब तो नहीं कर रहा हूं, हुजूर—तबस्सुम के मरहूम अब्बाजान और मैं ऐसे दोस्त थे कि दूर-दूर तक हमारी दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं—उस वक्त तबस्सुम सिर्फ तीन साल की थी और इकबाल ग्यारह साल का, जब इन दोनों का निकाह कर दिया गया था—बस, हम दोनों दोस्तों ने यही फैसला किया था कि इनका गौना जवान होने पर करेंगे।"
विकास यह सोचकर चुप रह गया कि मुसलमानों में इस तरह निकाह हो जाना कोई नामुमकिन बात नहीं है, जबकि आगे बढ़कर विजय ने पूछा—"इसका मतबल ये कि यह लड़की तुम्हारे इकबाल से सिर्फ आठ साल छोटी है?"
"हुजूर को कोई शक है क्या?"
रहस्यमय मुस्कान के साथ विजय ने पूछा—"बाई दे वे—इस वक्त तुम्हारे इकबाल की उम्र क्या होगी?"
"इंशाअल्लाह—अखबार में लिखी है।"
"बयालीस साल।"
"खुदा मेरे इकबाल को हजार साल की उम्र बख्शे।"
"तब तो यह लड़की करीब चौंतीस साल की होनी चाहिए।"
"तो मैंने कब कहा सरकार कि तबस्सुम साढ़े तैंतीस की है?"
"तुमने तो नहीं कहा बुड्ढे मियां, लेकिन देखने में तो तुम्हारी बहूरानी पूरे पच्चीस साल की भी नहीं लगती—ऐसा लगता है, जैसे कि अभी कुछ ही देर पहले पैदा होकर आई हो।"
"इंशाअल्लाह—नाजों में पली मेरी बहू को किसी की नजर न लगे—तबस्सुम को जो भी देखता है, यही कहता है—इसका मतलब तो ये हुआ कि बहू पर अभी तक शबाब है—या खुदा, बहू पर अपना करम यूं ही रखना—ताकि इकबाल मिले तो—तबस्सुम को देखकर खुश हो जाए।"
जाने क्यों रैना के मन में तबस्सुम के प्रति ईर्ष्या जागने लगी थी।
इस बार विकास ने आगे बढ़कर अहमद का गिरेबान पकड़ लिया और गुर्राया—"तेरी ये ड्रामेबाजी बहुत देर तक नहीं चलेगी, बुड्ढे—तुझे बकना होगा कि ये सब क्या चक्कर है?"
"ये आप क्या कर रहे हैं?" तबस्सुम चीख पड़ी।
उसकी तरफ घूमकर विकास सिंह के समान दहाड़ा—"तुम खामोश रहो।"
"क्यों खामोश रहूं?" तबस्सुम बिफर पड़ी—"क्या सिर्फ इसलिए कि तुम पुलिस वाले हो—क्या यहां की पुलिस को बेगुनाह और सीधे-सादे लोगों पर जुल्म करने का हक है—मैं शोर मचाऊंगी—सारी दुनिया को बताऊंगी कि हिन्दुस्तान की पुलिस—।"
"मुझे जुबान काटनी भी आती है।" कहने के साथ ही विकास अहमद को छोड़कर घूमा और तबस्सुम की तरफ अभी उसने दो कदम ही बढ़ाए थे कि विजय ने फुर्ती से झपटकर उसका रास्ता रोक लिया—भभकता चेहरा लिए लड़का अभी कुछ कहने ही वाला था कि विजय बोला—"ठहरो दिलजले—गर्मी से समस्या हल नहीं होगी।"
जाने क्या सोचकर विकास चुप रह गया।
"इकबाल की गुमशुदगी का इश्तिहार आप आज दे रहे हैं—तीस साल बाद।"
"आज नहीं दे रहा, बल्कि तीस सालों से लगातार दुनिया के किसी-न-किसी अखबार में देता ही रहा हूं—हां, किसी हिन्दुस्तानी अखबार में आज पहला ही इश्तिहार छपा है।"
"यानि इकबाल की तलाश में तुम पिछले तीस साल से दुनिया घूम रहे हो?"
"बेशक।"
रघुनाथ ने पूछा—"अपनी बात को साबित करने का तुम्हारे पास कोई सबूत है?"
"बिल्कुल है।"
"क्या सबूत है?"
"देश-विदेश के वे सभी अखबार, जिनमें इकबाल की गुमशुदगी का इश्तिहार छपा है—हमारे पास आज से तीस साल पहले के अखबार भी हैं।"
"दिखाओ।" विजय ने कहा।
अहमद खान के आदेश पर तबस्सुम भीतरी कमरे में गई—जब वह वापस आई तो उसके हाथ में एक काफी बड़ा सूटकेस था—पलंग पर रखकर उसने सूटकेस सबके सामने खोला—फिर विजय, विकास, रैना और रघुनाथ ने ढेर सारे भिन्न अखबारों की प्रतियां देखीं—सभी अखबारों में इकबाल की गुमशुदगी का इश्तिहार था—रैना और रघुनाथ ज्यादा भाषाएं न जानते थे—विकास उनमें कुछ ज्यादा जानता था और विजय तो लगभग सभी भाषाएं जानता था।
रूस, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन आदि बहुत से देशों के प्रसिद्ध अखबार उनके सामने थे—सभी में वह इश्तिहार उसी मुल्क की भाषा में छपा था—विजय ने आज से इकत्तीस साल पुराने मिस्री अखबार भी देखे और पढ़े—अब विजय को नहीं लग रहा था कि इकबाल नाम के किसी व्यक्ति का अस्तित्व ही नहीं है—जिसका अस्तित्व ही न हो, उसकी तलाश में भला कोई तीस साल क्यों बर्बाद करेगा?
अहमद ने कहा—"क्या अब भी आप यही कहेंगे कि मेरा कोई बेटा नहीं है?"
विजय ने अपने ही अन्दाज में कहा—"हम तुमसे अलिफ-लैला की पूरी कहानी सुनना चाहते हैं।"
"अलिफ-लैला की कहानी?"
"तुम कहां रहते थे—कैसे रहते थे और इकबाल कैसे गुम हो गया—वह कौन-सी घटना थी, जिसकी वजह से इकबाल अपनी याददाश्त गंवा बैठा?"
"मैं बयान तो कर दूंगा, मगर...।"
"मगर क्या?"
"उससे पहले मैं आप लोगों से भी कुछ जानना चाहूंगा।"
"जरूर जानो, प्यारे।"
"यह सबकुछ आप हमसे क्यों पूछ रहे हैं—आपको ऐसा सन्देह क्यों था कि इकबाल नाम का कोई अस्तित्व नहीं है और अखबार में हमने झूठा इश्तिहार दिया था—इससे हमें लगता है कि आप हमारे इकबाल के बारे में जरूर कुछ जानते हैं।"
"बिल्कुल जानते हैं, प्यारे।"
"क...क्या जानते हैं—कैसे जानते हैं—हमारा इकबाल कहां है?"
दीवानगी के से अन्दाज में तबस्सुम कह उठी—"आप हमें उनका पता बता दीजिए—हम आपकी मुंहमांगी मुराद पूरी कर देंगे—हम कोई भी कीमत देने के लिए तैयार हैं । "
"देने के लिए तुम्हारे पास है क्या?"
"यदि इकबाल मिल जाए तो हम करोड़ों के मालिक हैं।"
विजय की आंखें सिकुड़ गईं, बोला—"क्या मतलब?"
"पहले आप हमें हमारे इकबाल का पता बताइए।"
विजय ने रघुनाथ को इशारा किया—रघुनाथ ने जेब से वह फोटो निकाला, जिसमें वह तेरह साल का अपने माता-पिता के साथ मौजूद था—फोटो उसने अहमद खान की तरफ उछाल दिया। अहमद ने फोटो को लपकने की चेष्टा की, परन्तु वह फर्श पर गिर पड़ा—अहमद ने जल्दी से झुककर फोटो उठाया, देखा और देखते ही चीख पड़ा—"अरे—यह तो मेरे इकबाल का ही फोटो है।"
फिर—उसके चेहरे पर बुरी तरह चौंकने के भाव उभरे—अहमद एकदम उछल पड़ा—"अरे—य...यह तो अमीचन्द है और ये अमीचन्द की बीवी सावित्री—म...मेरा इकबाल इनकी गोद में—देख, देख बहूरानी...।" वह छड़ी छोड़कर दीवानों की तरह तबस्सुम की तरफ लपका, बोला—"देख तबस्सुम-ये अमीचन्द और उसकी बीवी हैं कि नहीं? ओह, अब मुझे यकीन हो गया है कि वही मेरा इकबाल है, जिसे ये लोग जानते हैं।"
विजय, विकास, रैना, रघुनाथ और रोशनदान पर तैनात धनुषटंकार भी फोटो देखते ही अहमद की प्रतिक्रिया पर चौंक पड़े थे—यह कम आश्चर्य की बात नहीं थी कि अहमद अमीचन्द और सावित्री को जानता था—वह पागलों के समान जाने क्या-क्या बके जा रहा था, जबकि तबस्सुम के अन्तर्मन की खुशी उसके मुखड़े पर झलकी पड़ रही थी।
रघुनाथ ने आगे बढ़कर पूछा—"क्या आप इन्हें जानते हैं?"
"अच्छी तरह—कहां है ये कुत्ता?"
"आप किसी को गाली नहीं देंगे।" रघुनाथ गुर्राया।
"गाली—आप मुझे इस हरामी को गाली देने से रोक रहे हैं—इस फोटो को देखकर मैं सबकुछ समझ सकता हूं—इसी कमीने अमीचन्द ने मेरे बेटे को गायब किया था—मैं उसे जिन्दा नहीं छोडूंगा—मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि अमीचन्द इतना नीच निकलेगा!"
अहमद के मुंह से बार-बार अपने पिता के लिए गाली सुनकर रघुनाथ का सारा चेहरा भभक उठा। गुस्से में दांत पीसता हुआ वह आगे बढ़कर उसके जबड़े पर एक घूसा रसीद करने ही वाला था कि विजय बोल पड़ा—"आप अमीचन्द और उसकी बीवी को कैसे जानते हैं?"
"ये दोघट में हमारे पड़ोसी थे।"
"दोघट?"
"मिस्र की उस छोटी-सी बस्ती का नाम है—जिसमें हम रहते थे।"
"क्या ये अमीचन्द भी वहीं रहता था?"
"हां—हमारे बिल्कुल पड़ोस में।"
रघुनाथ की आंखें हैरत से फैलती चली गईं, जबकि विजय ने पूछा—"मतलब ये कि आज से इकत्तीस साल पहले अमीचन्द मिस्र में था।"
"जिस जलजले के बाद इकबाल गायब हुआ, तभी से अमीचन्द और उसकी बीवी भी गायब हैं।"
"हम पूरी घटना सुनना चाहते हैं।"
अहमद की बूढ़ी आंखें शून्य में जा टिकीं—वह बोलने लगा—सभी उसका एक-एक लफ्ज ध्यान से सुन रहे थे—सारे दृश्य किसी चलचित्र के समान उसकी आंखों के सामने चकरा उठे।
¶ ¶
"मेरा नाम तो आप जानते ही हैं—मेरी बीवी का नाम नाजिमा था—हम मिस्र के दोघट नामक छोटे-से कस्बे में रहते थे—जिस मकान में हम रहते थे, वह हमारा पुश्तैनी मकान था—मैं एक दुकान करता था, जो खूब चलती थी—यानि हमारी माली हालत कोई गिरी-पड़ी नहीं थी।
निकाह के एक साल बाद ही खुदा के फजल से हमारा एक लड़का हुआ, लेकिन इकबाल ऑपरेशन से हुआ था और डॉक्टर ने यह कह दिया था कि अगला बच्चा नहीं होना चाहिए—ऐसा होने पर उसने नाजिमा की जिन्दगी को खतरा बताया था।
हमने एक ही औलाद पर सब्र किया।
इकबाल अकेला होने की वजह से हमारी आंखों का तारा था—हमारे पड़ोस में ही हिन्दू परिवार रहता था—अमीचन्द से मेरी दोस्ती थी—एक-दूसरे के घरों में आना-जाना भी था।
अमीचन्द के यहां कोई औलाद नहीं होती थी—उन दोनों ने खुद को बहुत डॉक्टरों से चैक कराया था—डॉक्टरों का कहना था कि दोनों में से
किसी में भी कोई कमी नहीं थी—औलाद न होने की वजह सिर्फ कुदरत का कहर था—जब कुदरत मेहरबान होती तो बच्चा हो जाता।
अपनी कोई औलाद न होने की वजह से उन्हें इकबाल से बड़ी मुहब्बत थी।
एक दूसरा दोस्त था—इमामुद्दीन।
वह दोघट से कोई बीस मील दूर अगिया नाम के शहर में रहता था—उसके अब्बा हुजूर उसके लिए करोड़ों की जायदाद और खूब फला-फूला कारोबार छोड़कर मरे थे—इमामुद्दीन ने बड़ी होशियारी से अपने पिता का कारोबार सम्भाला था—मगर उसकी जिन्दगी में भी वही गम था—जो अमीचन्द की जिन्दगी में था, यानि उसके यहां भी कोई औलाद नहीं होती थी।
जिस दिन दुकान की छुट्टी हुआ करती थी, उस दिन मैं अक्सर नाजिमा और इकबाल को लेकर अगिया चला जाता था—नाजिमा इमामुद्दीन की बीवी से बात करती और हम दोनों के बीच शतरंज बिछ जाती।
ऐसे ही एक दिन इमामुद्दीन अफसोस करता हुआ कह बैठा कि उसके नसीब में तो औलाद की खुशी है ही नहीं—मैं भी मजाक में कह बैठा कि तुम्हारे यहां सिर्फ तभी औलाद हो सकती है, जबकि तुम उसका निकाह मेरे इकबाल से करने का वादा करो। ”
'मुझे इकबाल से निकाह करने में भला क्या उज्र है?" इमामुद्दीन कह उठा।'
हंसते हुए मैंने भी कह दिया—'तो जा—अगले साल तू भी बाप बन जाएगा।'
'देखो—।' वहीं बैठी इमामुद्दीन की बीवी ने नाजिमा से कहा—'ये तो हैं ही शेखचिल्ली—आज तो भाईजान भी शेखचिल्लियों वाली ही बात कर रहे हैं।'
'इसमें शेखचिल्ली वाली क्या बात है, भाभीजान?' मैं कह उठा।
हंसती हुई इमामुद्दीन की बीवी बोली—'सूत न कपास—जुलाहे से लट्ठमलट्ठा।'
'सूत भी होगा भाभीजान और कपास भी होगी।'
'चलो मान लिया कि आपके कहे से भाईजान की हवेली भी किसी बच्चे की किलकारियों से गूंज उठेगी।' नाजिमा बोली—'लेकिन यह क्या जरूरी है कि वह लड़की ही होगी—यदि लड़का हुआ तो क्या आप फिर भी उसका और इकबाल का निकाह कर देंगे?'
नाजिमा और भाभीजान खिलखिलाकर हंस पड़ीं।
मैं जोश में था—दिमाग में बहस-सी भी चढ़ गई थी—सिर्फ अपनी बात ऊंची रखने के लिए मैं जोश में कहता ही चला गया—'अगले साल तक मेरे यार के औलाद होगी और जरूर होगी—मेरा कौल ये भी है कि लड़की ही होगी ताकि हम उनका निकाह कर सकें।'
बात हंसी-मजाक के माहौल में सिर्फ जोश में कही गई थी, लेकिन जाने वह कौन-सी घड़ी थी कि खुदा ने मेरी बात रख ली—अगले ही महीने एक दिन अचानक इमामुद्दीन की कार हमारे घर के सामने आ रुकी—यह कोई नई बात नहीं थी—इमामुद्दीन अक्सर आ जाया करता था, मगर उस दिन तो उसका आना कहर ही ढा गया।
वह मुझे गोद में उठाकर नाचने लगा।
जब उसने बताया कि भाभीजान मां बनने वाली हैं तो मैं हैरत में रह गया—तभी वहां दौड़ता हुआ इकबाल आया जो उस वक्त सात-साढ़े सात साल का था—तुतलाती जुबान में जब उसने खुशी का कारण पूछा तो इमामुद्दीन ने उसे गोद में उठाकर नाचते हुए कहा—'आठ महीने बाद तेरी दुल्हन इस दुनिया में आने वाली है।'
सचमुच आठ महीने बाद इमामुद्दीन के यहां तबस्सुम ने जन्म लिया।
इकबाल तबस्सुम को गोद में उठाए-उठाए फिरा करता था—तबस्सुम बड़ी होने लगी—जब वह तीन साल की हुई तो इमामुद्दीन को उसकी जिद पर एक नियम बांध देना पड़ा—उस नियम के मुताबिक एक कार हर सुबह तबस्सुम को लेकर हमारे घर के सामने आ खड़ी होती थी और शाम को तबस्सुम को लेकर लौटती थी।
सारे दिन इकबाल और तबस्सुम खेल में मशगूल रहते।
इमामुद्दीन और भाभीजान तबस्सुम पर अपने से भी ज्यादा मेरा हक समझते थे—उन्हीं दिनों इनका निकाह भी कर दिया।
इकबाल का बारहवां जन्मदिन मनाए अभी एक महीना ही गुजरा था कि एक दिन इकबाल और तबस्सुम ने कार के ड्राइवर से कार में बैठकर बस्ती घूमने की जिद पकड़ ली।
ड्राइवर ने बहुत मना किया, लेकिन ये नहीं माने—खासतौर से नन्हीं तबस्सुम ने अपनी जिद नहीं छोड़ी—बचपन ही से यह बहुत ज्यादा जिद्दी स्वभाव की है—इन दोनों को कार में बैठाकर ड्राइवर बस्ती घुमाने ले गया—बदनसीबी देखिए कि कार का सामना एक स्थान पर बिगड़े हुए सांड से हो गया—उसी सांड से गाड़ी बचाने के चक्कर में वह हड़बड़ाया और गाड़ी एक पेड़ से जा टकराई—गाड़ी की स्पीड में होने के कारण टक्कर बहुत जोर से लगी थी।
इतनी जोर से कि कार की टंकी खुल गई और कार आग की लपटों में घिर गई।
ड्राइवर तत्काल मर गया।
स्टेयरिंग उसके सीने में धंस गया था।
इकबाल और तबस्सुम बुरी तरह जख्मी होने के साथ ही बेहोश हो गए थे—नसीब ही अच्छा था कि जहां यह घटना घटी, वह भीड़ भरा इलाका था—पलभर में ही कार के चारों तरफ भीड़ जमा हो गई—उसी भीड़ में से चन्द हिम्मती लोगों ने दोनों बच्चों को किसी तरह जलती कार के अन्दर से बाहर निकाला।
भीड़ इन्हें घर लाई।
दुकान पर मुझे खबर मिली।
न केवल घरों में बल्कि सारी बस्ती में कोहराम मच गया—मेरे कहने पर अमीचन्द ने इमामुद्दीन के घर जाकर दुर्घटना की खबर दी—घबराए हुए इमामुद्दीन और भाभीजान अपनी दूसरी कार से मेरे घर पहुंचे।
तबस्सुम को साधारण चोटें लगी थीं।
यूं देखने में तो इकबाल को भी कोई गम्भीर चोट नहीं लगी थी, किन्तु डॉक्टरों के अथक प्रयास के बाद जब उसे होश आया तो सभी सन्नाटे की अवस्था में रह गए।
होश में आते ही इकबाल ने पूछा था—'मैं कौन हूं?'
हम लोग हैरत में उसे देखने लगे।
वह किसी को भी नहीं पहचान रहा था—मुझे, नाजिमा, इमामुद्दीन, भाभीजान और यहां तक कि उसने तबस्सुम को भी नहीं पहचाना—बस्ती के लोगों की तो बात दूर—वह तो यह मानने को भी तैयार नहीं था कि उसका नाम इकबाल है।
उसके यूं पागलों के समान बातें करने पर सभी घबरा गए—नाजिमा और भाभीजान तो छाती पीट-पीटकर रोने लगीं—तब डॉक्टरों ने बताया कि वह अपनी याददाश्त गंवा बैठा था।
उसे कुछ भी याद नहीं था।
सभी लोग उसकी पिछली घटानाएं यदि दिला-दिलाकर उसे उसकी स्मृति देने की कोशिश करते, किन्तु वह दिमाग-रहित बच्चे की तरह सबकी सूरत देखा करता।
कई दिन गुजर गए।
इमामुद्दीन ने अपने खर्चे से दूर-दूर के प्रसिद्ध डॉक्टर इकबाल के इलाज के लिए लगा दिए थे—हर शाम वह कार से खुद भी इकबाल को
देखने आता था—डॉक्टरों की राय थी कि इकबाल जल्दी ही ठीक हो जाएगा—उस वक्त अमीचन्द और सावित्री भाभी अक्सर नाजिमा की तरह ही इकबाल की खाट से चिपके रहते।
कुदरत का दमनचक्र अभी रुका नहीं था।
दोपहर का समय—उस वक्त मैं अपनी दुकान पर बैठा था, जबकि अचानक ही बहुत जबरदस्त जलजला (भूकम्प) आया—इतना जबरदस्त कि सारी धरती ऐसे कांपती महसूस हुई, जैसे सागर में किसी तीव्र तूफान के बीच फंसी बेमांझी की किश्ती कांप उठती है।
बड़ी भयानक गड़गड़ाहट के साथ धरती कांप गई—कुदरत के क्रूर हाथों ने सारी बस्ती को झंझोड़ डाला—जमीन में दरारें पड़ गईं—इमारतें धड़धड़ाकर गिर गईं—मेरी दुकान की छत भी गिर पड़ी थी—मगर उसके गिरने से एक क्षण पहले ही मैं थड़े से कूदकर सड़क पर पहुंच चुका था—बहुत-सा मलबा मेरे जिस्म से आ टकराया और मैं वहीं बेहोश हो गया।
जब होश आया तो मैंने खुद को ढेर सारे मरीजों के बीच एक डेरे में पाया—पता लगा कि वह जलजला दो मिनट के अन्दर सारे दोघट में तबाही मचाकर गुजर गया।
सारा दोघट मलबे के एक बहुत बड़े ढेर में बदल चुका था। जीवित उन्हें समझा जा रहा था, जो सरकारी बिस्तरों पर पड़े थे और मृत उन्हें जिनके शव बरामद हो रहे थे।
मुझे कोई बहुत ज्यादा चोट नहीं लगी थी।
मैं पागलों की तरह अपने मकान पर पहुंचा—अपने मकान के मलबे के ढेर पर मैं बहुत देर तक चीखता रहा—रोता रहा—अपने ही सामने वह मलबा साफ कराया—मलबे में नाजिमा की लाश मिली—वह खाट मिली जिस पर इकबाल की लाश होनी चाहिए थी—मलबे में दबा मेरे घर का एक-एक सामान मिला, परन्तु इकबाल की लाश नहीं मिली।
इसी वजह से मुझे लगा कि मेरा इकबाल जिन्दा है—।
मेरी अवस्था पागलों जैसी हो गई थी—तभी मुझे इमामुद्दीन वहां से शहर ले आया—उन्होंने मुझे जबरदस्ती अपने ही साथ रखा—दिन गुजरते चले गए—अब तो मुझे भी लगने लगा कि इकबाल उस जलजले में मर गया था, क्योंकि बहुत-से लोग मुझसे कहते थे कि—उस जलजले में से इकबाल भला जिन्दा कैसे बच सकता था?
मगर—इमामुद्दीन और भाभी कहते थे कि हो न हो—इकबाल जिन्दा था—यदि वह मर गया होता तो भला उसकी लाश क्यों न मिलती—मैं तर्क दिया करता था कि जब सभी मर गए—सारी बस्ती मलबे के ढेर में बदल गई तो भला मेरा इकबाल ही क्यूं और कैसे बचा होगा—सवाल में इमामुद्दीन कहता कि—इतने जबरदस्त जलजले के बाद आखिर बस्ती के लोग जीवित बचे ही हैं—जिन्दा इंसान बचाव के लिए दौड़कर कहीं भी जा सकता है, मगर लाश तो उठकर कहीं गायब नहीं हो सकती?
मैं भी खुदा से यही दुआ करता था कि हे खुदा—इमामुद्दीन की ही बात सही हो—इकबाल की लाश न मिलना ही मुझे भी उम्मीदगार करता था।
इमामुद्दीन के घर में इकबाल का एक फोटो था—यही फोटो जो आपने अखबार के इश्तिहार में देखा—उसने गुमशुदा की तलाश के कॉलम में वही फोटो देकर इकबाल को ढूंढ निकालने की कोशिश की—मगर हमेशा नाकामी ही मिली।
वक्त गुजरता रहा।
मेरे दिल में से इकबाल के बिछुड़ने का गम कम होने लगा—मगर इमामुद्दीन के दिल में से शायद वह गम भी कम नहीं हो रहा था—वह बराबर अखबारों में इश्तिहार देता रहा।
मुझे यकीन हो गया था कि इकबाल मर चुका है और इमामुद्दीन अब अखबार आदि में इश्तिहार देता रहता था। मैं उसे समझाता था तू क्यों यूं इश्तिहार देकर बेकार ही परेशान होता है!
इमामुद्दीन कहता था—तेरे पेट में दर्द क्यों हो रहा है—क्या इकबाल तेरा ही सबकुछ है—मेरा कुछ भी नहीं है?
मैं कहता—'अगर वह जिन्दा होता तो क्या इतने इश्तिहारों के बाद भी न मिलता?'
'मुमकिन है कि हमारे इश्तिहार पर अभी तक उसकी या उसके इर्द-गिर्द के आदमियों की नजर पड़ी ही न हो।'
'वह मर गया है इमा...।'
'तू बक-बक मत कर।' वह बीच में ही मेरी बात काट कर रो पड़ता—'मैं तुझसे तो कुछ नहीं मांग रहा हूं—सिर्फ इश्तिहार ही देता हूं न—तेरे पेट में दर्द क्यों उठता है?'
ऐसा कहकर वह मुझे हमेशा शिकस्त दे डालता।
तबस्सुम की उम्र पन्द्रह साल की थी, जबकि भाभीजान हमें छोड़कर चली गईं।
समय फिर गुजरा।
तबस्सुम बीस साल की हो गई।
तब एक दिन मैंने इमामुद्दीन से कहा—'तबस्सुम जवान हो गई है और तू यूं आंखें बन्द किए घूम रहा है जैसे अन्धा हो—अरे,
अब उसके निकाह के बारे में कुछ सोचेगा या नहीं?'
इमामुद्दीन ने मुस्कराकर कहा था—'मेरी बेटी का दूसरा निकाह नहीं होगा अहमद।'
'क...क्या मतलब?' मैं उछल पड़ा।
'उसका निकाह इकबाल से हो चुका है।'
'क्या बकता है—इकबाल अब इस दुनिया में है ही कहां?'
इमामुद्दीन हंसा, बोला—'मिस्र से निकलने वाले अखबार दूसरे मुल्कों की आम रियाया तक नहीं पहुंचते—फिर तू यह दावा कैसे कर सकता है कि इकबाल दुनिया के किसी भी कोने में जिंदा नहीं है—इतने इश्तिहारों के बावजूद न मिलने पर मैं सिर्फ इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि वह मिस्र में कहीं नहीं है, लेकिन यह दावा गलत है कि वह इस दुनिया में कहीं न होगा।'
'तू पागल हो गया है क्या?'
'ऐसा ही समझ।'
'इकबाल भला मुल्क से बाहर कैसे जा सकता है?'
'किस्मत इन्सान को जाने कहां से कहां ले जाती है।'
'ओफ्फो—मगर इस पागलपन की खातिर आखिर तुझे तबस्सुम की जिन्दगी तबाह करने का क्या हक है—यदि वह कम्बख्त जीवित भी हो तो—तबस्सुम को यह राज बताने की जरूरत ही क्या है कि बचपन में इकबाल से उसका निकाह हो गया था।'
'तबस्सुम को मालूम है अहमद।'
'क...कैसे—?' मैं उछल पड़ा।
'अल्लाह को प्यारी होने से पहले उसकी अम्मीजान उसे सबकुछ बता चुकी थीं।'
'ओह—मगर फिर भी हमें तबस्सुम की जिन्दगी तबाह नहीं होने देनी है।'
'आप लोगों के बीच में बोलकर गुस्ताखी कर रही हूं, अब्बा हुजूर—माफ करना।' अचानक ही उस कमरे में तबस्सुम दाखिल हुई—'इकबाल सिर्फ आपका बेटा या दामाद ही नहीं—मेरा शौहर भी है—मरने से पहले अम्मीजान मुझे बता गईं कि मेरा जन्म कैसे हुआ—उसे सुनकर खुद मुझे भी यह पक्का यकीन है कि मैं सिर्फ इकबाल के लिए पैदा हुई हूं—उसके अलावा मैं अपने शौहर के रूप में किसी को देख भी नहीं सकती—मैं उसे सारी दुनिया में तलाश करूंगी—या तो वह मिलेगा—नहीं मिला तो उसे तलाश करती-करती ही खुदा को प्यारी हो जाऊंगी।'
मैंने चीखकर मुखालफत की, परन्तु इमामुद्दीन के होंठों पर गर्वीली मुस्कान थी।
मैंने बहुत चाहा—बहुत कहा—उस दिन के बाद तो जैसे मेरे लिए एक ही काम रह गया—हर वक्त इमामुद्दीन और तबस्सुम से इकबाल की उम्मीद छोड़कर निकाह कर लेने की गुजारिश करते रहना।
मैंने इस हद तक कहा कि इमामुद्दीन टूट गया—उसने कहा कि मैं तबस्सुम को निकाह के लिए तैयार कर लूं—तब वह बीच में बिल्कुल नहीं बोलेगा—उस समय मुझे कुछ ऐसा लगा था कि जैसे मैं अपने मकसद में कामयाब हो गया हूं—मगर वह मेरा बहुत बड़ा वहम साबित हुआ—लाख सिर पटकने के बावजूद भी मैं तबस्सुम को तैयार न कर सका।
फिर—दो साल बाद इमामुद्दीन भी हमें छोड़कर चला गया।
जब कम्बख्त की वसीयत खोली गई तो उसमें लिखा था—'मेरी जायदाद के जर्रे-जर्रे का वारिस सिर्फ और सिर्फ मेरा दामाद इकबाल खान है—तबस्सुम और अहमद खान इस दौलत में से सिर्फ अपने खाने, पहनने, रहने, सहने और इकबाल को तलाश करने में खर्च कर सकते हैं—तबस्सुम ने जिस सायत किसी दूसरे से निकाह किया, उसी सायत मेरी सारी दौलत और जायदाद लावारिस बच्चों की हो जाएगी और तबस्सुम का हक एक पाई पर भी नहीं रहेगा।'
वसीयत को पढ़कर मैं झुंझला उठा—धोखेबाज इमामुद्दीन को हजार गालियां दीं, मगर तबस्सुम के होंठों पर ऐसी मुस्कान थी, जैसे वसीयत उसी के नाम लिखी गई हो।
बस—तभी से इकबाल की तलाश में हमारा ये देश-विदेश में घूमने का सिलसिला जारी हो गया—हम आज तक भटक रहे हैं—यह पहला ही मौका है, जबकि अखबार में किसी ने हमारा इश्तिहार पढ़कर हमसे सम्पर्क स्थापित किया है।”
¶¶
अहमद खान के चुप होने पर दिलबहार होटल के कमरा नम्बर सात सौ बारह में गहरी खामोशी छा गई—विजय, विकास, रैना और रघुनाथ की नजरें मिलीं—रोशनदान पर बैठे मोन्टो को भी यह कहानी सुनकर सोचने पर विवश होना पड़ा।
सभी के दिमागों में एक अजीब-सा तनाव उत्पन्न हो गया था।
सबसे पहले विजय ने ही स्वयं को सम्भालकर सन्नाटा तोड़ा—"इसका मतलब ये कि अमीचन्द और सावित्री इकत्तीस साल पहले तुम्हारे पड़ोसी थे?"
"उस जलजले के बाद फोटो देखकर आज पहली बार ही उनकी याद आई है—साथ ही यह याद भी ताजा हो उठी है कि उनके मकान के मलबे से उनकी लाश नहीं मिली थी।"
"तुम यह कहना चाहते हो कि तुम्हारे इकबाल को वे उठा लाए?"
"इस फोटो को देखने के बाद यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं—वे बेऔलाद थे—इकबाल से उन्हें प्यार भी था—वैसे भी इकबाल की याददाश्त गुम थी—उनके दिमाग में यह बात आ गई होगी कि भविष्य में इकबाल उन्हीं की औलाद कहलाएगा—खुद इकबाल भी उन्हें ही अपने मां-बाप समझेगा—वे मिस्र से इतनी दूर यहां हिन्दुस्तान में आकर बस गए।"
"इतने भयानक जलजले में से वे उसे निकालकर कैसे लाए होंगे?"
"ये तो वे या उनका खुदा ही जाने।"
एक क्षण चुप रहा विजय—फिर अहमद खान को घूरता हुआ बोला—"अब तुम किसी टेपरिकार्डर की तरह एक ही सांस में यह बताते चले जाओ प्यारे कि इस गढ़ी हुई खूबसूरत कहानी के पीछे तुम्हारा मकसद क्या है?"
"क...क्या मतलब—?" अहमद उछल पड़ा—"क्या अब भी आपको हमारी यह कहानी झूठी लग रही है?"
"है ही गप।"
"हरगिज नहीं—आखिर आप हमारी बातों पर यकीन क्यों नहीं करते?"
"क्योंकि हम जानते हैं कि तुम सफेद झूठ बोल रहे हो—अमीचन्द और सावित्री कभी मिस्र से नहीं आए—वे हिन्दुस्तान में ही जन्में और जन्म से यहीं रहते थे।"
"यह झूठ है—।" अहमद चीख पड़ा—"आप मुझे उनके सामने ले चलिए—वे मुझे देखते ही पहचान लेंगे—तब उनका झूठ खुल जाएगा।"
"वे आज से दस साल पहले स्वर्ग सिधार चुके हैं।"
"ओह!" अहमद के मुंह से एक आह-सी निकली—आंखों में जो चमक उत्पन्न हुई थी, वह बुझती चली गई, जबकि तबस्सुम ने पूछा—"इकबाल कहां है?"
विजय उसकी तरफ देखकर धीमें से मुस्कराया और बोला—"हमें अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि यदि वह तुम्हारा इकबाल ही था तो अब मर चुका है।"
"क...क्या?" एक साथ दोनों उछल पड़े।
"जी हां—आज से सिर्फ एक महीने पहले हमें रेलवे लाइन पर पड़ी एक व्यक्ति की लाश मिली थी—व्यक्ति ने आत्महत्या की थी—हमने उसकी तलाशी ली तो जेब से यह फोटो और एक पता मिला, हमने उस पते पर जाकर इस व्यक्ति के बारे में मालूम किया तो पता लगा कि उसका नाम रामनाथ था और वह अमीचन्द और सावित्री का लड़का था—हमने रामनाथ के अतीत तक खोज की—उसमें हम सिर्फ इतना ही पता लगा पाए कि रामनाथ के माता-पिता राजनगर से पहले लखनऊ में रहते थे और रामनाथ ने प्राइमरी शिक्षा लखनऊ के ज्ञान भारती नामक स्कूल में प्राप्त की थी।"
"मगर—।"
"यह तलाश हमने रामनाथ की लाश के किसी वारिस की तलाश में की थी—मगर जब उसकी लाश का कोई वारिस न मिला तो हमें खुद ही उसका अन्तिम संस्कार करना पड़ा—आज जब हमने अचानक अखबार में रामनाथ के फोटो को देखा तो हम चौंक पड़े—मजमून में वे ही चार जिस्मानी खासियतें लिखी थीं, जो हमने रामनाथ का अन्तिम संस्कार करने से पहले उसके जिस्म पर से देखकर अपने रजिस्टर में दर्ज की थीं—यह सोचकर हमारा उलझन में पड़ जाना स्वाभाविक ही था कि जिसके किसी वारिस को तलाश करने में हम नाकामयाब रहे, उसका फोटो अखबार में छपा है—उस वक्त तो हैरत से हमारी आंखें ही फैल गईं—जब हमने फोटो के नीचे लिखी यह इबारत पढ़ी।"
"तो फिर आप हमारी कहानी को झूठी क्यों बता रहे थे?"
"हमें तो अब भी झूठी ही लग रही है, क्योंकि हमने उस प्राइमरी स्कूल तक का पता निकाल लिया था, जिसमें रामनाथ पढ़ा था और प्राइमरी स्कूल में बारह साल की आयु से पहले ज्ञान भारती में पढ़ता था तो वह तुम्हारा इकबाल कैसे हो सकता है?"
"म..मगर ये फोटो और जिस्मानी खासियतें?"
"इनके आधार पर तो वह इकबाल ही था।"
"नहीं।" तबस्सुम चीख पड़ी—"मेरा इकबाल मुझसे बिना मिले नहीं मर सकता—वह कोई और होगा—मेरा इकबाल जिन्दा है—वह मुझे जरूर मिलेगा।"
तबस्सुम फूट-फूटकर रो पड़ी।
बूढ़ा अहमद खान किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रह गया।
¶¶
रघुनाथ के कमरे में पहुंचते ही चारों थके से सोफों पर गिर पड़े—एक सोफे की पुश्त पर बैठकर धनुषटंकार ने जेब से पव्वा निकालकर ढक्कन खोला और पव्वा मुंह से लगा लिया।
"अब बोलिए अंकल।" विकास बोला—"आपका क्या ख्याल है?"
"अपना तो साला ख्याल ही घास चरने चला गया है, प्यारे।"
रैना ने पूछा—"क्या मतलब भइया?"
"उस साले अहमद खान और तबस्सुम ने अपनी खोपड़ी भक्क्-से उड़ा दी है—उनकी बातों से सीधा-सा मतलब ये निकलता है कि अपना तुलाराशि उसका लड़का इकबाल है, जो कि मिस्र में रहता था और बारह वर्ष की आयु में जो एक दुर्घटना का शिकार होकर अपनी याददाश्त गंवा बैठा था—जिन अमीचन्द व सावित्री को वह मां-बाप समझता था, दरअसल वो मिस्र में उसके पड़ोसी थे। उस जलजले के बाद इकबाल को उठा लाए थे—यहां तुलाराशि खुद को रघुनाथ और उनका यानि अमीचन्द और सावित्री जी का लड़का ही कहता है—जब इसकी याददाश्त ही गुम है तो स्वयं को यहां इकबाल कह भी कैसे सकता है?"
रघुनाथ झुंझलाकर चीख पड़ा—"मेरी कोई याददाश्त गुम नहीं है।"
"जिनकी याददाश्त गुम होती है, उन्हें यह भी याद नहीं रहता प्यारे कि उनकी याददाश्त गुम है।"
रघुनाथ हड़बड़ा गया—"क...कमाल है—म...मैं—यानि कि मैं—रघुनाथ नहीं हूं—मैं कैसे यकीन कर लूं—तुमने कैसे यकीन कर लिया—तुम बोलो रैना—तुम कहो विकास कि क्या मैं रघुनाथ नहीं हूं?"
"क्या तुम अपने रघुनाथ होने का कोई सबूत दे सकते हो प्यारे?"
"किस किस्म के सबूत की बात कर रहे हो?"
"क्या आप पहली से आठवीं कक्षा के बीच की कोई मार्कशीट आदि दिखा सकते हैं?" विकास ने पूछा।
"इस आयु तक भला आठवीं तक की मार्कशीट कौन सम्भालकर रखता है—उनकी मान्यता ही क्या होती है—हां, दसवीं की मान्यता होती है—उसकी मार्कशीट और सनद मेरे पास होगी।"
"वह तो आपने चौदह साल की आयु में किया होगा।" विकास ने पूछा—"आठवीं कक्षा तक किसी कक्षा का ग्रुप फोटो जरूर होता था। दादा-दादी के साथ इससे पहले का और कोई फोटो?"
"जहां तक मुझे याद है, इससे पहले का मेरा कोई फोटो नहीं है।"
विजय ने अजीब-सी मुद्रा में कहा—"सारे रास्ते ब्वॉक पड़े हैं, प्यारे।"
"सारे कहां गुरू—इस वक्त हमारे पास कम-से-कम एक रास्ता तो है ही।"
"कौन-सा?"
"डैडी के पास कोई मार्कशीट न सही, लेकिन स्कूलों में ये आठवी तक पढ़े हैं, उनके रिकार्ड रजिस्टर तो होंगे ही।"
"जब कोई रास्ता न बचेगा तो वह सब तो करना ही पड़ेगा, रैना बहन।" विजय बोला—"मेरी कोशिश यह थी कि हम आपस में विचार करके यहीं बैठे-बैठे किसी ऐसे तथ्य पर पहुंच जाएं जिससे कि उनका बयान गलत साबित कर सके।"
"गुरू।" कुछ सोचते हुए विकास ने कहा।
विजय तपाक से बोला—"हो जाओ शुरू।"
"कहीं सचमुच ऐसा तो नहीं है कि यह कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र हो।"
"हो भी सकता है, लेकिन...।"
"लेकिन क्या?"
"लगता नहीं है।"
"क्यों?"
"सोचो प्यारे—जरा दिमाग का फलूदा निकालकर सोचो कि इसमें आखिर उनकी क्या चाल हो सकती है—चलो ये मान लिया कि वे अपने तुलाराशि को इकबाल साबित करना चाहते हैं—मान लो कि साबित तो हो गया—इसी से उन्हें क्या लाभ है—उल्टे अपने तुलाराशि को करोड़ों की सम्पत्ति मिलेगी—सम्पत्ति मिल गई—अब बोलो कि उन्हें क्या लाभ हुआ?"
"मुमकिन है कि सचमुच उन्हें कोई लाभ हो—ऐसा लाभ जो फिलहाल नजर नहीं आ रहा हो—तब नजर आए, जबकि वे डैडी को इकबाल साबित कर सकें।"
"हम तुम्हारी बात से असहमत नहीं हैं, प्यारे दिलजले।"
"तो फिर?"
"मगर पूरी तरह सहमत भी नहीं हैं।"
"ओफ्फो—आप पहेलियां क्यों बुझा रहे हो, अंकल-साफ-साफ क्यों नहीं कहते? आप इसे किसी षड्यंत्र की शुरूआत मानते हैं या सचमुच डैडी को इकबाल?"
"फिलहाल हमें दोनों ही बातों को अपने दिमाग में रखकर चलना पड़ रहा है प्यारे—इसका भी कारण है—अपने रघु प्यारे को हमें इकबाल मानने में इसलिए हिचक है, क्योंकि वह हमारा पैन्टिया यार है और हमने कभी महसूस नहीं किया कि इसकी याददाश्त गुम है—मानना इसलिए पड़ रहा है, जिससे अपने मन को ही यह समझा सकें कि बारह साल की उम्र से पहले भी यह रघुनाथ ही था।"
"फिर परिणाम आखिर निकलेगा कैसे?"
"फिलहाल ऐसा करो प्यारे दिलजले कि शाम की गाड़ी से तुम लखनऊ के लिए रवाना हो जाओ—कल सुबह तक तुम वहां पहुंच जाओगे—सारे दिन तुम्हें वहां तुलाराशि के बचपन की तलाश करनी है—कल शाम की गाड़ी से वापस बैठ जाना—परसों सुबह यहां पहुंच जाओगे—तब जैसी भी रिपोर्ट होगी, हम उसके आधार पर बैठकर नए सिरे से विचार—विमर्श करेंगे।"
"क्यों न हम डायरेक्टरी से ज्ञान भारती का फोन नम्बर लेकर—।"
"फोन से काम नहीं चलेगा, प्यारे, तुम्हें उस मुहल्ले में जाकर भी पूछताछ करनी है, जहां रघु डार्लिंग का बचपन गुजरा है—जाने से ही बात बनेगी—इधर, मेरी नजर दिलबहार होटल के कमरा नम्बर सात सौ बारह पर रहेगी—कम-से-कम तुम्हारे लौटने तक मैं उन्हें यहां से खिसकने नहीं दूंगा—मुमकिन है कि उन पर नजर रखने से किसी नई बात का पता लगे।"
"ठीक है गुरू—मैं शाम को रवाना हो रहा हूं।"
¶¶
पूरी बात सुनने के बाद ब्लैक ब्वॉय उर्फ अजय बोला—"आपने तो सचमुच मुझे भी हैरत में डाल दिया है, सर—ऐसा कैसे हो सकता है कि रघुनाथ, रघुनाथ नहीं, इकबाल है!"
"सभी जिस्मानी खासियतें यह कहती हैं, प्यारे।"
"मगर सर—।"
"जो बात तुम कहोगे प्यारे, काले लड़के—उस पर अपने दिमाग में हम सैंकड़ों बार विचार करके दिमाग का तन्दूर बना चुके हैं—इसमें शक नहीं कि इस बार हमें अपनी खोपड़ी के भी सभी बल्ब फ्यूज होते नजर आ रहे हैं—ठीक से निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि क्या सच और क्या झूठ है? साला मामला ही ऐसा सामने आया है कि हम चकरघिन्नी बनकर रह गए हैं।"
सीक्रेट सर्विस के चीफ की कुर्सी पर बैठे ब्लैक ब्वॉय ने एक सिगार सुलगाया और धुआं हवा में उछालता हुआ बोला—"अब इस बारे में आप क्या कार्यवाही करने जा रहे हैं?"
"देखो प्यारे, तेल देखो और तेल की धार देखो।" कहने के साथ ही उसने रिसीवर उठाया और नम्बर डायल किया।
कुछ देर बाद दूसरी तरफ से रिसीवर उठाया गया, आशा की आवाज—"हैलो।"
"पवन हियर।" विजय का भर्राया हुआ स्वर।
"य...यस सर।" आशा जैसे हड़बड़ाकर सम्भली हो।
विजय ने उसी स्वर में पूछा—"क्या कर रही थीं?"
"आपके आदेश का इन्तजार, सर।"
"गुड—काफी स्मार्ट होती जा रही हो।"
"थ...थैंक्यू, सर।"
"होटल दिलबहार के रूम नम्बर सात सौ बारह में एक बूढ़ा और खूबसूरत लड़की रह रहे हैं—वे आपस में बहू और ससुर का रिश्ता बताते हैं—उन पर नजर रखो—कहां आते-जाते हैं? क्या करते हैं? या किससे मिलते हैं—मुझे पूरी रिपोर्ट चाहिए।"
"यस, सर।"
"मदद के लिए अशरफ को साथ ले सकती हो—कल सुबह सात बजे तक तुम दोनों को उन पर नजर रखनी है—उसके बाद स्वयं गुप्त भवन आकर हमें रिपोर्ट दोगी—अगर बीच में कोई विशेष बात देखो तो फोन पर तुरन्त विजय को रिपोर्ट देना।"
"ओ.के सर।"
विजय ने रिसीवर क्रेडिल पर पटका और मूर्खों की तरह आंखें मटकाने लगा।
¶¶
यूं तो अपने ऑफिस में बैठा सुपर रघुनाथ किसी पुराने केस की फाइल में खुद को डुबाने का प्रयास कर रहा था, परन्तु डूब नहीं पा रहा था—रह-रहकर उसकी आंखों के सामने बूढ़े अहमद खान और खूबसूरत तबस्सुम का चेहरा नाच उठता।
तोताराम के केस के सम्बन्ध में उसे विभिन्न लोगों से फोन पर बधाइयां दी जाती रहीं, परन्तु उसके दिमाग में एक बार भी ऐसी भावना न उभर सकी जिसे वह आन्तरिक खुशी का नाम देता—हल्के-फुल्के काम करते हुए ही शाम हो गई—फोन पर विकास ने बताया कि वह लखनऊ रवाना होने जा रहा है।
इजाजत देकर उसने रिसीवर रख दिया।
दिमाग में विचारों की उमड़-घुमड़ कुछ ज्यादा ही तेजी से होने लगी—वह सोचने लगा कि अचानक ही यह कैसा मोड़ आया, जिससे उसका व्यक्तित्व ही उलट गया।
वह रघुनाथ से कुछ और बनता जा रहा था।
क्या वह सचमुच रघुनाथ नहीं था—क्या सचमुच उसका वह परिचय गलत था, जिसे वह दूसरों को देता रहा था—जो वह खुद को आज तक समझता रहा?
ऐसा कैसे हो सकता है?
उनके पास देश-विदेश के पुराने अखबार हैं—इस बात के पूरे सबूत हैं उनके पास कि वे पिछले तीस साल से अपने इकबाल को तलाश कर रहे हैं—जिस चीज का कोई अस्तित्व ही न हो, उसके लिए कोई तीस साल बरबाद नहीं कर सकता।
इकबाल का अस्तित्व तो जरूर है।
संयोग से उसकी बचपन की शक्ल इकबाल से मिलती होगी—इत्तफाक से जिस्मानी खासियतें भी मिल गई हैं—नहीं-नहीं—ये सब तुम क्या बेवकूफी की बातें सोच रहे हो रघुनाथ—इतना बड़ा इत्तफाक भी कहीं होता है—फिर अमीचन्द और सावित्री को भी तो उन्होंने देखते ही पहचान लिया।
तो कहीं मैं इकबाल ही तो नहीं हूं?
नहीं-नहीं—मैं भला इकबाल कैसे हो सकता हूं? मैं रघुनाथ हूं—मुझे अपना पूरा बचपन याद है।
दिमाग में विचार उठा—क्यों न वह एक बार अहमद और तबस्सुम से मिलें।
मिलने से लाभ क्या होगा?
मुमकिन है कि इस बार बातचीत में वे कोई भूल कर जाएं और वह उनकी मंशा भांप ले—हां, ऐसा हो जाना स्वाभाविक ही है—रात को मैं आज ही इस उलझन से निकल जाऊं तो अच्छा ही है—रात को मैं आराम से सो सकूंगा।
एक बार मिल लेने में कोई बुराई नहीं है—यह अच्छा ही है कि वह किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाए—विजय भी इस चक्कर में उलझा हुआ है—यदि वह इस बार विजय से पहले मामले की तह में पहुंच जाए तो मजा ही आ जाए—फिर कभी विजय को यह कहने का मौका नहीं मिलेगा कि उसने स्वयं कभी कोई गुत्थी नहीं सुलझाई है।
इस गुत्थी को वह खुद ही सुलझाएगा—मामले की तह में पहुंचने की उसे पूरी कोशिश करनी है—यही सोचकर रघुनाथ एक झटके के साथ कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
¶¶
"मैं आशा बोल रही हूं, विजय।"
"हांय—।" विजय ने एकदम ऐसे अन्दाज में कहा, जैसे कोई तीर सीधा उसके सीने में जा धंसा हो, बोला—"मिस गोगिया पाशा—आजकल तुम कहां बजा रही हो ताशा—सच, तुम्हारे बिना तो हमारा दिल बन गया है पानी का बताशा।"
"विजय।" आशा का झुंझलाया हुआ स्वर—"मैंने तुम्हारी बकवास सुनने के लिए फोन नहीं किया है।"
"तो फिर किसी पार्क में बुलाने के लिए किया होगा।"
उसकी बात पर कोई ध्यान न देकर दूसरी तरफ से आशा ने कहा—"अब से कोई पन्द्रह मिनट पहले सुपर रघुनाथ कमरा नम्बर सात सौ बारह में गया है।"
"हांय—तुम उस तुलाराशि का पीछा कब से करने लगीं मेरी मटर की फली—वह तो साला शादीशुदा है—हमें बताओ—तुम हमारे इन्तजार का गुड कौन से कमरे में बैठकर खा रही हो?"
"मैं तुम्हारी बदतमीजी सहन नहीं कर सकती, विजय।"
"कमीज नहीं तो साड़ी पहनकर आ जाएंगे, डार्लिंग, लेकिन तुम-।"
उसकी पूरी बात सुने बिना ही आशा ने कहा—"मुझसे चीफ ने कहा था कि यदि यहां कोई विशेष बात देखूं तो तुम्हें फोन पर सूचित कर दूं—पता नहीं क्यों मुझे सुपर रघुनाथ का उस कमरे में जाना विशेष बात लगी—सो, फोन कर दिया है—अब तुम जानो।" कहने के साथ ही दूसरी तरफ से विजय की एक भी सुने बिना रिसीवर पटक दिया गया।
"धत्।" कहने के साथ ही विजय ने अपनी गुद्दी पर बहुत जोर से चपत मारी और स्वयं से ही बोला—"तुम साले खुद को बहुत चलतापुर्जा समझते हो विजय दी ग्रेट—दुनिया साली बहुत आगे निकल गई है—अपनी गोगिया पाशा भी तुम्हारी एक नहीं सुनती—खैर—अब सोचने की बात तो प्यारे ये है कि अपना तुलाराशि वहां क्यों गया है?"
¶¶
हालांकि रघुनाथ तेज और लम्बे कदमों के साथ सातवीं मंजिल का कॉरीडोर पार करता हुआ रूम नम्बर सात सौ बारह की तरफ बढ़ रहा था, परन्तु जाने क्यों उसे अपने दिल की धड़कनें असामान्य रूप से बढ़ी हुई महसूस हो रही थीं।
अभी वह कमरे से कोई बीस कदम इधर ही था कि ठिठक गया—एक ट्रे में खाली बर्तन लिए सात सौ बारह में से एक वेटर निकला—उसे देखकर एक क्षण के लिए ही ठिठका था रघुनाथ—फिर सामान्य गति से बढ़ गया।
वेटर उसकी तरफ विशेष ध्यान दिए बिना बगल से गुजर गया।
रघुनाथ दरवाजे पर पहुंचा—दरवाजा सिर्फ ढुलका हुआ था—दोनों किवाड़ों के बीच बनी दरार से कमरे का काफी हिस्सा चमक रहा था—कदाचित् वेटर के निकलने के बाद अभी तक दरवाजा अन्दर से बन्द करने की जरूरत नहीं समझी गई थी।
एकाएक उसने महसूस किया कि कमरे के अन्दर टेलीफोन की घण्टी बज रही थी—तिपाई पर रखा फोन उसे स्पष्ट चमक रहा था, किन्तु कमरे में उसे कोई नजर नहीं आया।
अचानक टेलीफोन की घण्टी बजनी बन्द हो गई।
यह सोचकर रघुनाथ हलके-से चौंका कि बिना किसी के रिसीवर उठाए घण्टी कैसे बन्द हो गई? उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंध गया कि एक टेलीफोन भीतरी कमरे में भी होगा और यह घण्टी उसी का रिसीवर उठाए जाने पर बन्द हुई है—तुरन्त ही उसके दिमाग में यह विचार भी कौंध गया कि यहां जो भी कोई है, भीतर कमरे में ही है—एक ही क्षण में उसने निश्चय कर लिया कि टेलीफोन पर होने वाली बातें सुनने का उसके लिए यह सुनहरा मौका है।
वह बड़ी तेजी से, किन्तु दबे पांव कमरे में दाखिल हुआ।
कमरा सचमुच खाली था—रघुनाथ ने जल्दी से रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया—उसे दूसरी तरफ से आवाज सुनाई दी—"मैं अहमद बोल रहा हूं, बहूरानी।"
"कुछ पता लगा अब्बा हुजूर?" इस तरफ से तबस्सुम का स्वर।
"हमारा इकबाल मरा नहीं, बल्कि जीवित है।"
"ज...जीवित है—क...कहां—कैसा है वह?" प्रसन्नता में डूबा स्वर।
दूसरी तरफ से कहा गया—"हम उससे मिल भी चुके हैं।"
"म..मिल चुके हैं?"
"हां।"
"आप ये क्या पहेलियां बुझा रहे हैं, अब्बा हुजूर—साफ-साफ कहिए न।"
"आज सुबह हमारे पास जो चार पुलिस वाले मिलने आए थे, उनमें से वह जो उन सबका अफसर यानि जिसके जिस्म पर सुपरिंटेंडेण्ट की वर्दी थी—वही हमारा इकबाल है।"
"य...यह आप क्या कह रहे हैं, अब्बा हुजूर?"
"सच यही है तबस्सुम।"
"म...मगर—यह आपको पता कैसे लगा?"
"बहुत लम्बी कहानी है, बहूरानी—बड़ी मेहनत से पता निकल सका हूं—बस, मैं कुछ ही देर में होटल पहुंचकर तुझे सबकुछ बताऊंगा। बहुरानी, रघुनाथ ही वह व्यक्ति है—जिसकी परवरिश अमीचन्द और सावित्री ने की है—ये जानकर मैं अपनी खुशी को रोक नहीं सका, इसीलिए फोन पर ही खबर दी है।"
“ अब्बा हुजूर—कहीं आपको किसी तरह का धोखा तो नहीं हुआ है?”
"नहीं—तू फिक्र न कर।"
"लेकिन—सुबह तो उन्होंने खुद ही कहा था कि रामनाथ मारा जा चुका है।"
"उसने झूठ बोला था।"
"क्यों—क्या उन्हें मालूम था कि हमारे इकबाल वही हैं?"
"मालूम था—यदि मालूम न होता तो उन्हें हमारे पास आने की जरूरत ही क्या थी?"
"तो फिर—सब कुछ मालूम होते हुए भी उन्होंने दिल में हजारों छेद कर देने वाला झूठ क्यों बोला?"
"अभी वह खुद उलझन में है, बहू।"
"ओह—क्या मैं मास्टर को खबर कर दूं कि इकबाल मिल गया है?"
"नहीं तबस्सुम-अभी मास्टर को खबर देनी ठीक नहीं होगी।"
"क्यों?"
"मास्टर ने कहा था कि उसे वह इकबाल नहीं चाहिए, जिसे अपने शुरू के बारह वर्ष याद न हों—उसे उस इकबाल की जरूरत है, जिसे अपने बारे में सबकुछ याद हो—हम उसके पंजे से तभी आजाद हो सकेंगे, जबकि उसे सबकुछ याद दिला देंगे—यदि हम उसको सबकुछ याद दिलाने में नाकामयाब हो गए तो मास्टर सारी दुनिया में तबाही मचा देगा—मास्टर बहुत जालिम है, तबस्सुम-उसके कहर से दुनिया को बचाने के लिए रघुनाथ को सबकुछ याद दिलाना ही होगा—अभी उसे खबर मत करना—मैं पहुंच रहा हूं।"
"जल्दी आइए।"
दूसरी तरफ से सम्बन्ध विच्छेद हो गया—रिसीवर हाथ में लिए रघुनाथ हक्का-बक्का सा खड़ा रहा—फोन पर होने वाली एक-एक बात उसके जेहन में गूंजने लगी—हर बात का सिर्फ एक ही मतलब निकलता था—यह कि वही इकबाल था।
मगर—उसके दिमाग में नया विचार उभरा—'ये मास्टर कौन है?'
दुनिया को उससे कैसे तबाही का खतरा है—उसकी याददाश्त से दुनिया की उस तबाही का क्या सम्बन्ध—ये लोग किस तरह मास्टर के फन्दे में फंसे हुए हैं?
रघुनाथ अभी यह सबकुछ सोच ही रहा था कि एकदम उछल पड़ा।
उसकी समस्त आशाओं के विपरीत भीतरी कमरे से अचानक ही तबस्सुम उस कमरे में आ गई थी—उसे वहां देखकर वह भी चौंकी और उसके मुंह से जैसे बरबस ही निकला—"अ...आप?"
"ह...हां—।" बुरी तरह हड़बड़ाए हुए रघुनाथ के हाथ से रिसीवर छूट गया।
"आप यहां। "
"म...मैं आप लोगों से मिलने आया था कि दरवाजा खुला...।"
रघुनाथ एक शब्द भी आगे नहीं बोल सका—हलक सूखता चला गया उसका—सूखता भी क्यों नहीं—तबस्सुम उसकी तरफ देख ही कुछ ऐसे अन्दाज में रही थी—ऐसी नजरें जैसे वह लाख-लाख जान से उस पर कुर्बान हो रही हो।
नीली आंखों में दूर-दूर तक सिर्फ प्यार का सागर ही ठाठे लगा रहा था।
रघुनाथ जड़ हो गया—जुबान तालू से चिपक गई—आंखें पथरा गईं—वह एकटक तबस्सुम को देखता रह गया—उसे, जिसे देखकर स्वयं सौन्दर्य की देवी भी ईर्ष्या कर उठे—उस वक्त उसके जिस्म पर सिर्फ एक झीना हल्का आसमानी गाउन था—झीने गाउन के पार उसका संगमरमरी जिस्म स्पष्ट चमक रहा था—उरोजों की गोलाइयों को देखकर रघुनाथ के सारे जिस्म में चींटियां-सी रेंग गईं—सारा जिस्म पसीने से भरभरा उठा।
तबस्सुम तो मानो भूल ही गई थी कि वह लगभग नग्नावस्था में उसके सामने खड़ी थी।
रघुनाथ का दिलो-दिमाग जाने कौन-सी दुनिया में तैरने लगा—दिल ने मानो धड़कना ही बन्द कर दिया—वह किसी बहुत गहरे नशे में डूबता चला गया था।
एकाएक तबस्सुम ने उसे पुकारा—"इकबाल!"
"हूं।" उसी नशे में डूबा रघुनाथ कह उठा।
"म...मेरे इकबाल।" अधीर से मन से कहकर वह उसकी तरफ बढ़ी।
रघुनाथ के दिलो-दिमाग को एकाएक ही तीव्र झटका लगा—जैसे वह किसी मदहोश कर देने वाले नशे से बाहर निकला हो—वह एकदम चीख-सा पड़—"म..मैं इकबाल नहीं हूं।"
वह ठिठक गई—भोले मुखड़े पर एकाएक ही ऐसे भाव उभरे, जैसे किसी खिलौने से खेल रहे बच्चे का खिलौना छीन लिया गया हो—वह दृढ़तापूर्वक बोली—"आप ही इकबाल हैं।"
"नहीं।" रघुनाथ ने कमजोर-सा विरोध किया—"तुम लोग मुझे इकबाल बनाना चाहते हो।"
"इससे भला हमें क्या लाभ होगा?"
रघुनाथ ने काफी हद तक खुद को सम्भाल लिया था, बोला—"ये मास्टर कौन है?"
"ओह!" तबस्सुम का चेहरा सफेद पड़ गया—"तो आपने फोन पर होने वाली बातें सुन ली हैं?"
"हां।" कहने के साथ ही रघुनाथ ने चहलकदमी-सी की—अपना आत्मविश्वास उसे लौटता हुआ महसूस हो रहा था—हालांकि झीने गाउन में से छलक पड़ा रहा यौवन अब भी उसे विचलित किए दे रहा था, परन्तु अपनी आंखें वह सिर्फ और सिर्फ तबस्सुम के चेहरे पर ही चिपकाए बोला—"मैं सुन चुका हूं...किसी मास्टर के लिए तुम मुझे जबरदस्ती इकबाल बना देना चाहती हो।"
"आपने गलत सुना है—आप इकबाल तो हैं ही—हां, आपको उसके सामने पेश करने से पहले सारी दुनिया को तबाही से बचाने और खुद को उसके फन्दे से मुक्त करने के लिए हम आपकी याददाश्त वापस जरूर लाना चाहते हैं।"
"मेरी याददाश्त का दुनिया की तबाही से क्या मतलब?"
"प...प्लीज इकबाल-यह मत पूछो—मैं तुम्हारे इस सवाल का जवाब नहीं दे सकती।"
रघुनाथ ने जेब से रिवॉल्वर निकालकर उसकी तरफ तान दिया और बोला—"तुम्हें मेरे हर सवाल का जवाब देना होगा—याद रहे, गोली चलाते वक्त मेरा हाथ बिल्कुल नहीं कांपेगा।"
आश्चर्यजनक ढंग से तबस्सुम की आंखें भरती चली गईं—मुखड़े पर असीमित दर्द के चिन्ह उभरे—बड़े ही अजीब से स्वर में उसने कहा—"चला दो, इकबाल-गोली चला दो।"
"क्या मतलब—?" रघुनाथ हड़बड़ा गया।
"बचपन से शायद यही दिन देखने के लिए मैं तुम्हारी दीवानी थी—तुम्हारी तलाश में देश-विदेश की खाक छानती शायद इसीलिए घूम रही थी कि अन्त में तुम्हारी गोली का शिकार होना है।"
रघुनाथ को लगा कि वह आसानी से उसके इस सवाल का जवाब नहीं देगी—एकाएक ही वह तबस्सुम के पीछे देखकर बहुत ही सामान्य स्वर में कह उठा—"अरे—तुम यहीं?"
तबस्सुम ने तेजी से घूमकर देखा। तब रघुनाथ ने गजब की फुर्ती दिखाई थी—किसी गुरिल्ले की तरह झपटकर उसने रिवॉल्वर के दस्ते का वार उसकी कनपटी पर किया।
एक चीख के साथ लहराकर तबस्सुम फर्श पर गिरने ही वाली थी कि जाने किस भावना के वशीभूत रघुनाथ ने उसे बांहों में सम्भाल लिया—तराशे हुए नग्न जिस्म के स्पर्श ने रघुनाथ के होश उड़ा दिए। उस वक्त तो वह कांप ही उठा, जब अनजाने में उसकी उंगलियां तबस्सुम के कठोर वक्षस्थल से स्पर्श हुईं।
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