शुक्रवार : सत्ताइस दिसम्बर (जारी)
“साहब” - डिफेंस कालोनी थाने से लूथरा के साथ आया हवलदार बोला - “यहां लाश पड़ी पायी गयी थी । आपका आदमी यहां इस लोहे की सीढियों के करीब से गुजर रहा था तो इधर सामने से उस पर गोलियां बरसाईं गयी थीं ।”
लूथरा ने लोहे की सीढियों पर निगाह डाली । सारी गली में वैसी सीढियां सिर्फ वो ही थीं । उसकी निगाह सीढियों पर से होती हुई ऊपर को उठने लगी । जब वो पहली मंजिल पर आखिरी सीढ़ी के पहलू में बने दरवाजे पर पड़ी तो उसे वो बन्द न लगा । उसने गौर से उधर देखा तो पाया कि एक आंख दरवाजे और पल्ले के बीच बनी झिरी में से बाहर झांक रही थी ।
फिर झिरी गायब हो गयी, झिरी से झांकती आंख गायब हो गयी, दरवाजा एक बार हौले से कांपा और फिर स्थिर हो गया ।
“जिस आदमी ने” - लूथरा बोला - “वारदात की खबर की थी, उसका मकान कौन-सा है ?”
हवलदार ने सीढियों से परली तरफ की कतार में गली के लगभग मध्य में बने एक मकान की ओर इशारा किया ।
“जिस मकान की ये सीढियां हैं” - लूथरा ने लोहे की सीढियों की रेलिंग को ठकठकाया - “उसमें कौन रहता है ?”
“फैमिली हैं दो । नीचे मकान मालिक रहता है । ऊपर किरायेदार हैं । मकान मालिक आजकल फैमिली सहित सिंगापुर गया हुआ है ।”
“किरायेदारों में से किसी ने गोलियों की आवाज नहीं सुनी ?”
“वो कहते तो ये ही हैं कि नहीं सुनी ।”
“कौन-कौन हैं किरायेदार की फैमिली में ?”
“एक बूढा आदमी है, एक उसका जवान बेटा है कोई तीस का साल की उम्र का और एक बेटी है कोई अट्ठारह साल की ।”
“वारदात के वक्त सब घर में थे ?”
“हां ।”
“किसी ने भी गली में गोलियां चलने की आवाज नहीं सुनी ?”
“कहते तो वो यही हैं ।”
“हूं । चलो यहां कुछ भी नहीं रखा ।”
गली से बाहर आकर लूथरा अपनी मोटर साइकिल पर सवार हुआ, हवलदार को उसने पीछे बैठाया और उसके थाने पहुंचा । हवलदार को थाने के सामने उतारकर पहाड़गंज का रुख करने के स्थान पर वो वापिस उसी गली में लौटा । वो कुछ क्षण लोहे की सीढियों के करीब खड़ा हिचकिचाता रहा, फिर दृढ कदमों से सीढियां चढता हुआ ऊपर पहली मंजिल के दरवाजे पर पहुंचा ।
उसने दरवाजे पर दस्तक दी ।
कोई जवाब न मिला ।
कई बार दरवाजा खटखटाने पर भी कोई जवाब न मिला लेकिन लूथरा बड़े सब्र के साथ बदस्तूर दरवाजा खटखटाता रहा ।
आखिरकार दरवाजा खुला । चौखट पर मनोज प्रकट हुआ ।
“बहरे हो ?” - लूथरा कड़ककर बोला - “इतनी देर से दरवाजा खटखटा रहा हूं ।”
“इधर से कोई नहीं आता ।” - मनोज कठिन स्वर में बोला - “इसलिए ध्यान नहीं गया ।”
“क्या नाम है तुम्हारा ?”
“मनोज ।”
“घर में और कौन-कौन हैं ?”
“मेरे डैडी हैं । छोटी बहन है ।”
“और ?”
“बस ।”
“रास्ता छोड़ो ।”
“क्या बात है ?”
“तफ्तीश करनी है । उसी कत्ल के बारे में जो यहां तुम्हारी सीढियों पर हुआ ।”
“सीढियों पर नहीं ।” - मनोज ने तत्काल विरोध किया - “आगे गली में ।”
“एक ही बात है ।”
“एक ही बात कैसे है ?”
“रास्ते से हटो ।”
तीव्र अनिच्छापूर्ण भाव से मनोज ने रास्ता छोड़ा ।
लूथरा ने भीतर कदम रखा तो उसने अपने-आपको एक गलियारे में पाया जिसकी बायीं ओर दो बन्द दरवाजे थे और दायीं ओर एक खुला दरवाजा था ।
“आइये ।” - मनोज खुले दरवाजे की ओर इशारा करता हुआ बोला ।
लूथरा ने सहमति से सिर हिलाया । मनोज गलियारे में आगे बढा तो लूथरा उसके पीछे एक ही कदम उठाकर ठिठक गया । उसने हाथ बढाकर अपने करीबी बायें दरवाजे को धक्का दिया तो भीतर उसे निशा बैठी दिखाई दी जिसने अपनी बड़ी-बड़ी पलकें फड़फड़ाते बड़े सशंक भाव से उसकी तरफ देखा ।
“मेरी छोटी बहन है ।” - मनोज उतावले स्वर में बोला - “आइये ।”
लूथरा आगे बढा । वो दूसरे बन्द दरवाजे के करीब पहुंचा तो वो उसके धक्का दिये बिना ही खुल गया और चौखट पर एक सफेद बालों वाला लेकिन हट्टा-कट्टा खूबसूरत आदमी प्रकट हुआ ।
“मेरे डैडी हैं ।” - मनोज बोला ।
“क्या बात है मनोज ?” - वो आदमी बोला ।
“कुछ नहीं ।” - मनोज बोला - “आप आराम कीजिए । ये गली में हुए खून की बाबत कुछ पूछताछ करने आये हैं । मैं बात कर लूंगा ।”
“हमारा उस खून से कुछ लेना-देना नहीं ।” - वो आदमी बोला ।
“जरूर नहीं होगा ।” - लूथरा सख्ती से बोला - “लेकिन पूछताछ करनी पड़ती है ।”
“ठीक है । कीजिये ।” - उसने दरवाजाकर बन्द करने का उपक्रम किया ।
“आप क्या करते हैं ?” - लूथरा जल्दी से बोला ।
“कुछ नहीं ।” - वो आदमी ठिठककर बोला - “रिटायर आदमी हूं ।”
“जब रिटायर नहीं थे, तब क्या करते थे ?”
“नौकरी । नौकरी करता था ।”
“कहां ?”
“लुधियाना में । बैंक जाब थी ।”
“कब से रिटायर हैं ?”
“छ: साल हो गए ।”
“छोड़ी क्यों नौकरी ?”
“यूं ही । बस, छोड़ दी ।”
“क्या थे आप बैंक में ?”
“असिस्टैंट । भई, इन बातों का तुम्हारी उस तफ्तीश से क्या वास्ता है जिसके लिए तुम यहां आए हो ?”
“कोई वास्ता नहीं । शुक्रिया ।”
लूथरा मनोज के साथ हो लिया ।
दायीं ओर का खुला दरवाजा एक ड्राइंगरूम का था जिसमें लूथरा और मनोज आमने-सामने जा बैठे ।
“तुम क्या करते हो ?” - लूथरा ने मनोज पर सवाल दागा ।
“मैं क्या करता हूं ?” - मनोज हड़बड़ाकर बोला ।
“हां । ऊंचा सुनते हो ?”
“गाइड हूं ।”
“टूरिस्टों को दिल्ली दिखाते हो ?”
“हां ।”
“लायसेंसधारी गाइड हो ? रजिस्टर्ड गाइड हो ?”
मनोज ने इनकार में सिर हिलाया ।
“यानी कि बेकार हो ?”
“बोला न गाइड हूं ।”
“बेकार हो ।”
मनोज ने होंठ भींच लिये । उसके चेहरे पर असन्तोष के बड़े गहरे भाव अंकित हो गये ।
“छोटी बहन तो पढती होगी ?” - लूथरा बोला ।
“हां ।”
“कौन से स्कूल में ? या कालेज में ?”
“घर पर ही पढती है ।”
“फेल हो गयी थी । स्कूल वालों ने दोबारा दाखिला नहीं दिया । प्राइवेट इम्तहान देगी ।”
“कौन-सी क्लास का ?”
“दसवीं का ।”
“बस ! दसवीं का ? लगती तो बड़ी है ।”
“वो... वो दो बार फेल हो चुकी है ।”
“यानी कि वो वैसी ही स्टूडेंट है, जैसे तुम गाइड हो । नाम के ? दिखावे के ?”
“जनाब, इन बातों का तफ्तीश से क्या रिश्ता ?”
“तुम्हारे डैडी भी यही पूछ रहे थे । आमदनी का क्या जरिया है ?”
“आमदनी क्या जरिया ?”
“हां ।”
“मैं... मैं कमाता हूं ।”
“ये तमाम ठाठ-बाठ” - लूथरा ने ड्राइंगरूम के कीमती फर्नीचर और पर्दों वगैरह की तरफ हाथ लहराया - “तुम्हारी कमाई से हैं ?”
“डैडी के पास पुश्तैनी पैसा है । विरसे में मिला । नौकरी छोड़ने पर भी पैसा मिला था ।”
“उसी से चल रही है ठाठ की जिन्दगी ?”
“हां ।”
“तुमने मुझे पहचाना नहीं मालूम होता ?”
उस नये सवाल से मनोज हड़बड़ाया ।
“आप” - फिर वो बोला - “आप दिल्ली पुलिस से हैं । सब-इंस्पेक्टर हैं...”
“ये सब तो मेरी वर्दी बता रही है । सूरत क्या कहती है ?”
“सूरत ?”
“यानी कि पहचाना नहीं ?”
“नहीं ।”
“हह मैं पहचनवाता हूं । पांच साल पहले कनाट प्लेस से एक फाइव स्टार होटल में पुलिस की एक रेड पड़ी थी जिसमें एक फर्जी ग्राहक भेजकर जो कालगर्ल गिरफ्तार की गयी थी वो” - लूथरा का स्वर एकाएक बेहद कर्कश हो उठा - “तेरी बड़ी बहन पूर्णिमा थी और तू उसका दलाल था । ठीक ?”
मनोज के चेहरे का रंग उड़ गया ।
“तब सहजपाल - जो कि तेरे घर के बाहर गली में मरा पाया गया - सब इंस्पेक्टर था और मैं उसका मातहत ए एस आई था । साले ! बहनों की कमाई खाने वाले दोजख के कीड़े । मातहत तो याद नहीं रहते लेकिन वो सब-इंस्पेक्टर तो नहीं भूला होगा जिसने तुझे और तेरी बड़ी - लेकिन तेरे से छोटी - बहन को गिरफ्तार किया था ! बोल ?”
“क... क... क्या चाहते हो ?”
“तुझे मालूम है क्या चाहता हूं । अपने मुंह से कबूल कर कि सहजपाल यहां आया था । उसने यहां से निकलकर गली में कदम रखा था जबकि वो गोलियों से भून दिया गया था ।”
“क-कौन कहता है ?”
“कोई नहीं कहता । मैं कहता हूं । और मैं इसलिए कहता हूं क्योंकि मैंने तेरे को दरवाजे की झिरी में आंख लगाकर गली में झांकता पाया था । तेरे मन में कोई चोर न होता तो तू सरेआम दरवाजा खोल के बाहर झांकता । तेरी लुका-छिपी की हरकत ने ही मुझे शक में डाला वर्ना मेरी तो तवज्जो भी न जाती तेरी तरफ या तेरे घर की तरफ । समझा ?”
मनोज ने जोर से थूक निगली ।
“अब जबकि मैंने तेरे और सहजपाल में ये लिंक खोज निकाला है तो ये हो ही नहीं सकता कि वो यहां न आया हो । वो खामखाह पिछवाड़े की गली से गुजरता नहीं हो सकता । ये उसका रास्ता नहीं । यहां उसका कोई मतलब नहीं । वो जरूर यहीं कहीं से निकला था । अब मुझे मालूम है वो जगह कौन-सी थी ।”
“वो यहां नहीं आया था ।”
“तेरे झूठ बोलने से काम नहीं चलने वाला, साले । अगर वो यहां आया था तो यहां कई जगह उसकी उंगलियों के निशान होंगे । नीचे लोहे की सीढियों की रेलिंग पर तो शर्तिया होंगे । फिर कैसे झूठ बोलेगा ?”
“म... मैं... मैं... थाने जाता हूं ।”
“क्या करने ?”
“तुम मुझे यूं हलकान नहीं कर सकते ।”
“औह ! तो तू समझता है कि थानेदार तेरी हिमायत करेगा ? क्या चढाता है उसे ? रण्डी की कमाई की चौथ देता है या रण्डी पेश करता है ? या दोनों चीजें ?”
“म... मैं... मैं...”
“क्या मैं-मैं ? साले, हरामजादे ! तू क्या समझता है कि अपने ही महकमे के एक आदमी के कत्ल के मामले में यहां का थानेदार तेरी हिमायत करेगा ? तू कुछ भी भौंक ले लेकिन अभी इतना करप्ट नहीं हुआ महकमा ।”
वो खामोश रहा ।
“तू अपनी जुबान बन्द रखने की ढिठाई दिखा सकता है लेकिन फिर तेरी जुबान की तरह तुम लोगों का वो धन्धा भी बन्द हो जायेगा जिसके दम पर तुम लोग फल-फूल रहे हो, ऐश कर रहे हो ।”
“ए... एस एच ओ साहब ऐ... ऐसा नहीं होने देंगे ।”
“क्यों ? एस एच ओ मामा लगता है तेरा ? तेरी कालगर्ल बहन जब काम पर निकला करेगी तो वो साथ जाया करेगा उसके ?”
“तु... तुम क्या चाहते हो ?”
“हां । ये समझदारी का सवाल है । लेकिन इसका जवाब तुझे मालूम है । तुझे पता है, मैं क्या चाहता हूं । अब सब बक ।”
मनोज बोलने की जगह बार-बार थूक निगलने लगा और बेचैनी से पहलू बदलने लगा ।
“अब क्या हुआ ? लकवा मार गया जुबान को ?”
“तुम” - मनोज हिम्मत करके बोला - “क्यों सब जानना चाहते हो ? ये केस तुम्हारे अन्डर तो नहीं । तुम तो डिफेंस कॉलोनी थाने के भी नहीं हो !”
“यानी कि यहां अपने थाने के सारे स्टाफ को जानता पहचानता है ?”
वो चुप रहा ।
“मैं पहाड़गंज थाने से हूं । लूथरा नाम है मेरा । अजीत लूथरा । सहजपाल भी पहाड़गंज थाने से था । अपने थाने के आदमी के कत्ल में दिलचस्पी लेना मेरे लिये स्वाभाविक बात है ।”
“और कोई बात नहीं ?”
“तू” - लूथरा ने उसे घूरकर देखा - “किस फिराक में है ? देख, मेरे से सीधा-सीधा साफ-साफ पेश आ । मैं तुझे यकीन दिलाता हूं कि घाटे में नहीं रहेगा ।”
“मैं तुम्हें एक बहुत जरूरी बात बता सकता हूं । ऐसी बात अपनी कोशिशों से जिसे तुम सात जन्म तक नहीं जान पाओगे लेकिन पहले एक वादा करो ।”
“क्या ?”
“ये कि तुम हमारा पीछा छोड़ दोगे । तुम हमें एक्सपोज नहीं करोगे ।”
“और ?”
“और न ही तुम किसी को ये बताओगे कि ये बात तुम्हें कैसे मालूम हुई, कब मालूम हुई, किससे मालूम हुई ।”
“ऐसी क्या अनोखी बात है जिसके बदले में तू एकाएक अपने-आपको मेरे इतने वादों का हकदार मानने लगा है ?”
“ऐसी ही अनोखी बात है । बस, ये समझ लेना कि तुमने अपनी मंजिल पा ली ।”
“अब कुछ बोल तो सही ।”
“पहले वादा करो ।”
“मेरे वादे पर एतबार कर लेगा ?”
“कर लूंगा । वो बात ही ऐसी है । उसे सुनकर वादाखिलाफी तुम्हें बहुत ही टुच्चा काम लगने लगेगा ।”
“ठीक है । किया वादा । अब बोल । सहजपाल यहीं आया था न ?”
“वो तो वो आया ही था लेकिन मैं तुम्हें सिरे की बात बताता हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“मैं सहजपाल के कातिल को जानता हूं ।”
“क्या ?” - लूथरा बुरी तरह चौंका ।
“मैं” - मनोज ने पूरे विश्वास के साथ फिर दोहराया - “सहजपाल के कातिल को जानता हूं ।”
“कैसे ? कैसे जानता है ?”
“मैंने उसे अपनी आंखों से एक काली एम्बैसेडर कार की पिछली सीट पर से सहजपाल पर गोलियां बरसाते देखा था ।”
“कौन था वो ? कौन था वो ? ”
“उसका नाम लतीफ अहमद है ।”
“लतीफ अहमद ?”
“लेकिन हर कोई उसे लट्टू के नाम से पुकारता है ।”
“तू उसे कैसे जानता है ?”
“बस, जानता हूं ।”
“कैसे जानता है ?” - लूथरा जिद-भरे स्वर में बोला ।
“वो... वो गुरबख्शलाल का आदमी है । पूर्णिमा लोटस क्लब में कैबरे करती थी । तब मैं अक्सर आया-जाया करता था । वहां मैं दो-तीन बार लट्टू से मिला था और...”
“वो गुरबख्शलाल का आदमी है ?” - लूथरा मन्त्रमुग्ध-सा बोला ।
“हां ।”
“इसका मतलब ये हुआ कि सहजपाल का कत्ल गुरबख्शलाल ने करवाया ?”
“जाहिर है । और लट्टू की उससे क्या जाती अदावत होगी ?”
“लट्टू का कोई मौजूदा पता-ठिकाना जानता है ?”
“नहीं । अब तो मैं सालों से उससे नहीं मिला । पूर्णिमा हांगकांग चली गयी थी तो मैंने भी लोटस क्लब जाना बन्द कर दिया था ।”
“हूं ।”
“लेकिन उसका पता-ठिकाना जान लेना क्या मुश्किल काम होगा तुम्हारे लिये । लोटस क्लब में बहुत लोग उसका पता-ठिकाना जानते होंगे । बल्कि लोटस क्लब ही उसका पता-ठिकाना होगा ।”
“हूं ।” - लूथरा ने जोर की हुंकार भरी । वो कुछ क्षण खामोश बैठा रहा और फिर एकाएक उठ खड़ा हुआ ।
उसे उठता देखकर मनोज भी उठा ।
“जीता रह, बेटा ।” - लूथरा मनोज का कन्धा थपथपाता हुआ बोला - “इस एक बात से ही समझ ले तूने अपने सारे पाप बख्शवा लिये ।”
मनोज ने चैन की लम्बी सांस ली ।
“अपना वादा याद रखना ।” - फिर वो बोला ।
“फिक्र न कर ।”
फिर बहुत खुश-खुश लूथरा वहां से विदा हुआ ।
***
क्रीम कलर की एक फियेट हाउसिंग कम्पलैक्स की लाबी के सामने आकर खड़ी हुई । फियेट की छत पर एक व्हील चैयर लदी हुई थी । उसमें चार सवारियां थीं । पीछे दो स्त्रियां बैठी थीं और आगे दो पुरुष थे ।
लट्टू सावधान हो गया । परे खड़ी काली एम्बैसेडर के काले शीशे के पीछे से वो सामने देखता रहा ।
फियेट के पीछे ही एक बन्द जीप थी जो कि ऐन फियेट के पीछे आ रही थी ।
लट्टू ने देखा कि फियेट के ठीक से रुक पाने से भी पहले बन्द जीप में से दो हमशक्ल नौजवान निकले और फियेट की ड्राइविंग सीट की ओर के पहलू में जा खड़े हुए ।
एक और सफेद रंग की एम्बैसेडर कार भी हाउसिंग कम्पलैक्स के ड्राइव वे पर प्रकट हुई लेकिन वो पहली दो कारों से परे ही रुक गयी ।
लट्टू ने नोट किया कि उसमें चार आदमी सवार थे जिनमें से दो कार का पिछला दरवाजा खोलकर बाहर निकले और लापरवाही से सामने लाबी की दिशा में देखने लगे ।
“पुलसिये मालूम होते हैं ।” - ड्राइविंग सीट पर बैठा फौजी एकाएक बोला ।
लट्टू ने सहमति में सिर हिलाया और फिर तनिक चिन्तित भाव से बोला - “दोनों में से वो जो कार के हुड के साथ लगा जमहाइयां ले रहा है और अंगड़ाइयां तोड़ रहा है, वो तो शर्तिया पुलसिया है ।”
“कैसे ?”
“जूते देख साले के । कपड़े अपने पहने हैं लेकिन जूते वही हैं जो पुलिस वालों को वर्दी के साथ मिलते हैं ।”
फौजी ने फिर रावत की तरफ निगाह दौड़ाई और फिर बड़े प्रशंसात्मक भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
तभी क्रीम कलर की फियेट की अगली सीट पर बैठे दोनों पुरुष बाहर निकले ।
रामसेवक कार के करीब प्रकट हुआ । उसका एक हाथ उसके सिर के ऊपर तक उठा और फिर तत्काल नीचे गिरा ।
लट्टू सम्भलकर बैठ गया ।
दोनों हमशक्ल नौजवानों में से तो कोई कौल हो नहीं सकता था, क्योंकि वो तो साफ-साफ जुड़वें मालूम होते थे । फियेट में से निकले दोनों पुरुषों में से एक अपनी सफेद वर्दी से आर्डरली मालूम होता था इसलिये वो भी कौल नहीं हो सकता था । यानी कि फियेट को ड्राइव करके वहां पहुंचा शख्स ही कौल था ।
आर्डरली फियेट की छत पर से व्हील चेयर खोलने लगा ।
लट्टू को वो माहौल गोलीबारी के लिये मुनासिब न लगा ।
सफेद एम्बैसेडर वालों की वहां मौजूदगी उसे फिक्र में डाल रही थी । अगर दो पुलसिये थे तो जाहिर था कि उनकी निगाहों का मरकज भी कौल ही था ।
वो कौल को और उसके गिर्द मौजूद सबको शूट कर सकता था लेकिन एम्बैसेडर वालों की मौजूदगी की वजह से उसका वहां से पलायन घपले में पड़ सकता था ।
कोई बात नहीं - उसने अपने-आपको तसल्ली दी - कुछ तो हाथ लगा । अपना शिकार तो पहचाना उसने ! एम्बैसेडर वाले टल जायें तो कौल को उसके घर में घुस के शूट करके आऊंगा ।
व्हील चेयर जमीन पर पहुंच गयी तो फियेट का लाबी की और का पिछला दरवाजा खुला और फिर विमल और आर्डरली ने मिलकर नीलम को फियेट में से निकालकर व्हील चेअर पर बिठाया ।
फिर आर्डरली व्हील चेयर भीतर को लुढकाने लगा । सुमन व्हील चेयर के साथ-साथ और विमल उसके आगे चलने लगा ।
हमशक्ल युवक दायें-बायें आर्डरली के पीछे चलने लगे ।
वो लोग लाबी में दाखिल हो गये तो रावत टहलता हुआ वहां पहुंचा और लाबी में ठिठका खड़ा विमल वगैरह को लिफ्ट में सवार होता देखता रहा ।
लिफ्ट का दरवाजा बन्द होने को हुआ तो रावत भी पूरी बेशर्मी से उनके साथ लिफ्ट में दाखिल हो गया ।
लट्टू अपनी कार में खामोश बैठा रहा ।
पुलसियों ने उसका काम बिगाड़ दिया था । वो वहां न होते तो अब तक वो अपना काम निपटाकर वहां से चल भी दिया होता ।
कितना आसान साबित होता पांच लाख रुपया कमाना ।
कोई बात नहीं - उसने फिर अपने-आपको तसल्ली दी - सहज पके सो मीठा होये ।
पांच मिनट बाद रावत लाबी में प्रकट हुआ । उसने बाहर खुले में आकर परे खड़ी सफेद एम्बैसेडर कार की तरफ हाथ हिलाया । तत्काल कार से बाहर खड़ा युद्धवीर कार की पिछली सीट पर सवार हो गया । आगे ड्राइविंग सीट पर बैठे व्यक्ति ने कार को चालू किया और उसे रावत के करीब ला खड़ा किया । फिर रावत के इशारे पर उसने कार को यूं लाबी के सामने कार पार्किंग में खड़ा किया कि उसका रुख लाबी के भीतर की ओर हो गया ।
रावत कार में पीछे युद्धवीर के पहलू में जा बैठा ।
और पांच मिनट बाद व्हील चेयर लुढकता आर्डरली लाबी में प्रकट हुआ । वो वहां मौजूद रामसेवक के करीब पहुंचा । उसने रामसेवक को कुछ कहा जिसके जवाब में रामसेवक ने सहमति में सिर हिलाया । फिर आर्डरली व्हील चेयर वहीं रामसेवक के करीब छोड़कर पैदल एक तरफ को चल दिया ।
पांच मिनट बाद एक टैक्सी में सवार वो वहां लौटा, उसने व्हील चेयर को टैक्सी की छत पर लादा और फिर टैक्सी में बैठकर वहां से रुखसत हो गया ।
पन्द्रह मिनट बाद हमशक्ल नौजवानों के साथ विमल लाबी में प्रकट हुआ ।
लट्टू सम्भलकर बैठ गया ।
लेकिन विमल तत्काल ही फियेट में सवार हो गया ।
हमशक्ल युवकों में से एक विमल के साथ फियेट में सवार हो गया और दूसरा बन्द जीप में जा बैठा ।
फियेट और जीप आगे-पीछे वहां से रवाना हो गयीं ।
लट्टू ने सशंक भाव से सफेद एम्बैसेडर की ओर देखा ।
उसका इंजन तक चालू नहीं हुआ था ।
यानी कि पुलसिये जो कौल के पीछे लगे-लगे वहां तक पहुंचे थे, अब कौल के पीछे ही लगे-लगे वहां से रुखसत होने का कोई इरादा नहीं रखते थे ।
लट्टू खुश हो गया ।
एक विकट समस्या अपने आप ही हल हुई जा रही थी ।
“चल !” - वो फौजी से बोला ।
फौजी ने फौरन कार स्टार्ट की और उसे विमल की कार के पीछे डाल दिया ।
***
लूथरा लोटस क्लब पहुंचा ।
डोरमैन ने बड़े सशंक भाव से उसकी वर्दी पर निगाह डाली और फिर प्रवेश द्वार खोल दिया ।
लूथरा ने जगमग करती क्लब के भीतर कदम रखा ।
तत्काल एक स्टीवर्ड उसके पास पहुंचा और डोरमैन जैसे ही सशंक भाव से उसकी ओर देखने लगा ।
“लाल साहब से मिलना है ।” - लूथरा बोला ।
“कौन लाल साहब ?” - पेटेंट जवाब मिला ।
“गुरबख्शलाल साहब ।”
“इस नाम का कोई आदमी यहां नहीं पाया जाता ।”
“पागल हुआ है !”
स्टीवर्ट खामोश रहा ।
“कुशवाहा के बारे में क्या कहता है ? वो भी यहां पाया जाता है या नहीं ?”
“आप कुशवाहा साहब से मिलना चाहते हैं ?”
“चाहता तो हूं, भई ।”
“आइये ।”
लूथरा स्टीवर्ड के साथ हो लिया । स्टीवर्ड ने हाल पार किया और बार के पहलू में बने एक दरवाजे को खोला । आगे एक गलियारा था जिसके दाईं ओर के पहले दरवाजे को उसने खोला तो लूथरा ने पाया कि वो एक आफिसनुमा कमरा था । स्टीवर्ड उसे वहां बैठने का इशारा करके वहां से रुखसत हो गया ।
लूथरा एक कुर्सी पर जा बैठा और प्रतीक्षा करने लगा ।
थोड़ी देर बाद कुशवाहा वहां पहुंचा । लूथरा को देखकर उसके नेत्र सिकुड़े, फिर तत्काल उसके चेहरे पर एक बनावटी मुस्कराहट प्रकट हुई और वो बोला - “आइये । आइये । खुशामदीद ।”
लूथरा ने बैठे-बैठे ही भावहीन ढंग से उससे हाथ मिलाया ।
कुशवाहा उसके सामने बैठ गया । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से लूथरा को देखा ।
“मुझे पहचान तो लिया है न ?” - लूथरा बोला - “आज ही सुबह थाने में मुलाकात हुई थी ।”
“हां ।” - कुशवाहा जबरन मुस्कुराया - “लेकिन तब ये नहीं सोचा था कि आज ही शाम होते-होते फिर मुलाकात हो जायेगी ।”
“मैंने भी ।”
“कैसे आये ?”
“आने का क्या है !” - लूथरा लापरवाही से बोला - “सोहल को गिरफ्तार कराके उसे सजा दिलाने पर तुम्हारे बॉस की मुझे छः लाख की आफर है । समझ लो एडवांस कलैक्ट करने आया हूं ।”
“वो जवाब तो तुमने सोचकर दो दिन बाद देना था ।”
“दो दिन ‘में’ देना था ।”
“यानी कि सोच लिया ?”
“अभी नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“वो भी एक काम है जिसके लिये मैं यहां आ सकता हूं लेकिन अभी मैं किसी और काम से आया हूं ।”
“वो भी बोलो ।”
“मैं जिससे यारी करता हूं, उसके भले-बुरे में शरीक होना, उसके काम आना मैं अपना फर्ज समझता हूं ।”
“बड़ी अच्छी समझ है तुम्हारी ।”
“सुबह तुम्हारे दो आदमी छुड़ाने में मैं तुम्हारे काम आया था इसीलिए मैंने अब भी यहां आना अपना फर्ज समझा ।”
“मैं समझा नहीं ।”
“मैं समझाता हूं । तुम लोगों की एक कार हिट एण्ड रन के एक केस के लिये जिम्मेदार है । दो आदमी आन दि स्पाट मारे गये हैं ।”
“हमारी कार ?”
“काली एम्बैसेडर । मार्क फोर । सारे शीशे काले ।”
“ऐसी कार क्या दिल्ली शहर में सिर्फ हमारे पास है ?”
“एक चश्मदीद गवाह का कहना है कि कार की पिछली नम्बर प्लेट के ऊपर लोटस क्लब लिखा हुआ था ।”
“उसने नम्बर भी देखा ?”
“हां ।”
“क्या नम्बर देखा ?”
“डी ई एस - 8746 ।”
“बकवास । हमारे पास इस नम्बर की कोई गाड़ी नहीं और न ही हमारी किसी गाड़ी की नम्बर प्लेट पर कहीं लोटस क्लब लिखा हुआ है ।”
“चश्मदीद गवाह ने ही नम्बर बताया था ।”
“उसने गलत बताया था ।”
“एकाध अक्षर या एकाध अंक गलत हो सकता है लेकिन...”
“सारा नम्बर गलत है ।”
“ऐसी गाड़ी तो है न आप लोगों के पास ? काले शीशों वाली, मार्क फोर वाली एम्बैसेडर ?”
“वो तो है लेकिन उसका नम्बर वो नहीं है जो तुम बता रहे हो ।”
“उसका क्या नम्बर है ?”
“डी आई एफ - 7748 ।”
“दोपहर के करीब वो कहां थी ?”
“पता नहीं कहां थी ।”
“अब कहां है ?”
“अब भी पता नहीं कहां है ।”
“किसके अधिकार में है ?”
“हमारे बहुत ही भरोसे के ड्राइवर के अधिकार में है ।”
“यानी कि वो हिट एण्ड रन में शरीक नहीं हो सकता ?”
“हो सकता है । हिट एण्ड रन में कोई भी ड्राइवर शरीक हो सकता है । गाड़ी किसी के भी काबू से बाहर जा सकती है लेकिन ये नहीं हो सकता कि ऐसी कोई वारदात कर चुकने के बाद उसने फौरन यहां खबर न की हो । तुम वारदात दोपहर की बता रहे हो । अब शाम होने को आ रही है । फौजी ने किसी को गाड़ी के नीचे दिया होता तो वो कब का यहां पहुंच चुका होता ।”
“उसके साथ और कौन था ?”
“क्या पता कौन था । आयेगा तो पूछेंगे ।”
“बिना पूछे भी तो मालूम हो सकता है ।”
“कैसे ?”
“तुमने ही उसके साथ किसी को भेजा हो ?
“मैंने नहीं भेजा ।”
“लाल साहब ने ?”
“उन्होंने नहीं भेजा ।”
“पूछ तो लो उनसे ।”
“जरूरत नहीं । जो उन्हें मालूम होता है, वो मुझे भी मालूम होता है ।”
“फिर भी...”
“क्या फिर भी ? जब मैं कह रहा हूं कि जिस गाड़ी को तुम हिट एण्ड रन में शरीक बता रहे हो, वो हमारी नहीं हो सकती तो फिर इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि उसमें कौन सवार था ! समझ लो काला चोर सवार था उसमें ।”
“यानी कि” - लूथरा बड़े असंतोषपूर्ण भाव से बड़बड़ाया - “मैं यहां बेकार ही आया ?”
“आये तो बेकार ही ।” - कुशवाहा जबरन मुस्कराया - “लेकिन जो जज्बा तुम्हें यहां लाया है, वो काबिले तारीफ है । हम फिर भी तुम्हारे शुक्रगुजार हैं ।”
लूथरा खामोश रहा ।
“एक बात गिरह बांध लो । हमारे काम आओगे, हमारे से बनाकर रखोगे तो घाटे में नहीं रहोगे । लाल साहब की यही खूबी है कि वो...”
“मैं गाड़ी पर एक निगाह फिर भी डालना चाहता हूं ।”
कुशवाहा खामोश हो गया, उसके चेहरे पर क्षण-भर को असहिष्णुता के भाव प्रकट हुए और फिर लुप्त हो गये ।
“वो किसलिये ?” - वो भरसक अपने स्वर को सुसंयत करता हुआ बोला ।
“हिट एण्ड रन के टैल-टेल साईंज होते हैं । छुपाये नहीं छुपते ऐसे निशानात । न सिर्फ छुपते नहीं, बल्कि अपनी कहानी खुद कहते हैं । मैं तुम्हारी उस गाड़ी को देखकर ये तसदीक करना चाहता हूं कि...”
“यानी कि हमारी जुबान की कोई कीमत नहीं ?”
“इस मामले में तुम्हारी जुबान का हवाला बेमानी है । जो चीज तुमने भी नहीं देखी, उसकी तुम क्या तसदीक कर सकते हो ?”
“जो शख्स हमारे भले-बुरे में शरीक होने का, हमारे काम आने का ख्वाहिशमन्द हो, उसके ये तेवर होने चाहियें ? जो आदमी हमारी तरफ हो, उसने तसदीक कर के हमारी बात मानी तो क्या खाक हमारी तरफ हुआ ?”
“मैं...” - लूथरा बड़े सब्र से बोला - “गाड़ी तुम्हारी बात की तसदीक के लिए या उस पर उंगली उठाने के लिए नहीं देखना चाहता ।”
“तो क्यों देखना चाहते हो ?”
“ये जानने के लिए देखना चाहता हूं कि मैंने तुम्हारे ऊपर कितना बड़ा अहसान किया है, कोई अहसान किया भी है या नहीं ।”
“ओह ! ओह ! तो ये बात है ?”
“हां । मैं वालन्टियर होता तो ये बात न होती ।”
“असल पुलसिये हो ।”
“हां ।” - लूथरा पूरी ढिठाई से बोला ।
“ठीक है । देख लेना गाड़ी । अब ये बताओ कि यहां बैठ के गाड़ी के लौटने का इन्तजार करना चाहते हो या लौट के आओगे ?”
“यहां तो पता नहीं कब तक इन्तजार करना पड़े । लौट के ही आऊंगा ।”
“गाड़ी लौटेगी तो मैं फोन पर तुम्हें खबर कर दूंगा ।”
“ठीक है ।” - लूथरा उठ खड़ा हुआ ।
“बैठो, कोई चाय-पानी ? ठण्डा गर्म...”
“शुक्रिया । अभी नहीं । लौटने पर ।”
“मर्जी तुम्हारी ।”
“एक बात और । जब गाड़ी लौट आये तो उसके मुसाफिरों को भी रोक के रखना ।”
“फौजी को...”
“या और जो कोई भी उसके साथ हो ।”
“वजह ?”
“कोई खास नहीं, रोक के रखना ।”
कुशवाहा ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिला दिया ।
***
वली मोहम्मद ने एक सरसरी निगाह परे सड़क पर खड़ी काले शीशों वाली काली एम्बैसेडर पर डाली जिसे वहां खड़े दस मिनट होने को हो रहे थे लेकिन तब तक न उसका कोई खिड़की-दरवाजा खुला था, न कोई उसमें से बाहर निकला था और न बाहर से आकर कोई उसमें सवार हुआ था ।
अब उसे याद आ रहा था कि वैसी काली एम्बैसेडर उसने कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स के अहाते में भी देखी थी ।
उस घड़ी वो कर्जन रोड पर स्थित उस इमारत की लाबी में मौजूद था जिसकी पांचवीं मंजिल पर स्थित गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन के आफिस तक उसका जुड़वां भाई अली मोहम्मद विमल के साथ गया था ।
क्या वो कार गोल मार्केट और कर्जन रोड के बीच के रास्ते में भी कहीं दिखाई दी थी ?
वो कोई फैसला न कर सका ।
शाम के वक्त उस रास्ते पर वाहनों की बहुत भीड़भाड़ रहती थी इसलिए बहुत मुमकिन था कि रास्ते में वो गाड़ी उसकी तवज्जो में आने से रह गयी हो ।
वो कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने लिफ्टों की तरफ निगाह डाली । दोनों लिफ्टों के इन्डीकेटर बता रहे थे कि एक इमारत की पन्द्रहवीं और दूसरी अठारहवीं मंजिल पर थी ।
यानी कि तत्काल कोई लिफ्ट नीचे लाबी में नहीं पहुंच जाने वाली थी ।
वो अपने स्थान से हटा और लापरवाही से टहलता हुआ काली एम्बैसेडर के करीब पहुंचा । उसने नोट किया कि कार के शीशे इतने काले थे कि भीतर झांक पाना कतई मुमकिन नहीं था । बहुत गौर से देखने के बावजूद वो ये फैसला भी न कर सका कि भीतर कोई था भी या नहीं ।
वो आठ-दस कदम आगे बढा, ठिठका और वापिस लौटा ।
अब उसका रुख कार की ड्राइविंग सीट की ओर था । कार की विंड स्क्रीन का शीशा क्योंकि काला नहीं था इसलिए उसके पीछे ड्राइविंग सीट पर बैठे फौजी को उसने साफ देखा ।
पिछली सीट की कोई सवारी या सवारियां उसे फिर भी न दिखाई दीं ।
वो वापिस लाबी में लौट गया ।
उसके जेहन में कहीं कोई घंटी बज रही थी, जो उसे उस काली एम्बैसेडर से सावधान रहने की चेतावनी दे रही थी ।
तभी उसने सफेद मोटर साइकिल पर सवार ट्रैफिक पुलिस के सब-इंस्पेक्टर को काली एम्बैसेडर के पहलू में पहुंचते देखा । ड्राइवर को उसने क्या कहा, ये तो फासले से वली मोहम्मद न जान सका लेकिन काली एम्बैसेडर के तत्काल स्टार्ट होकर वहां से चल पड़ने से उसने यही अन्दाज लगाया कि पुलसिया गाड़ी वहां खड़ी किये जाने पर एतराज कर रहा था ।
काली एम्बैसेडर कनाट प्लेस की दिशा में बढी और फिर निगाहों से ओझल हो गयी ।
वली मोहम्मद ने राहत की सांस ली ।
“गाड़ी पार्किंग में खड़ी कीजिये ।” - ट्रैफिक पुलिस का सब-इंस्पेक्टर सख्ती से बोला - “या यहां से हटाइये ।”
रियर व्यू मिरर में से फौजी की निगाह पीछे बैठे लट्टू से मिली ।
“जल्दी कीजिये नहीं तो मैं चालान काटता हूं ।”
लट्टू ने हौले से सहमति में सिर हिलाया ।
“अभी लो, मालिक ।” - फौजी जबरन मुस्कराता हुआ बोला । उसने तत्काल गाड़ी को आगे बढाया ।
पीछे अपनी मोटर साइकल के पहलू में खड़ा सब-इंस्पेक्टर सन्दिग्ध भाव से आगे बढती गाड़ी को देखता रहा । उसे अन्देशा था कि ड्राइवर गाड़ी को आगे बढाकर खड़ी कर देगा ।
वस्तुत: फौजी का यही इरादा था । पुलसिये के विदा होते ही वो गाड़ी को वहीं ला खड़ी करने का इरादा रखता था ।
“ये गश्त वाला पुलसिया है ।” - लूट्टू चिन्तित भाव से बोला - “चला भी गया तो फिर आ जायेगा ।”
“तो क्या किया जाये ?” - फौजी बोला
“किसी ऐसी गाड़ी का सहारा लेना पड़ेगा जिसका यूं चलती सड़क पर खड़ा होना न मना हो और न किसी को अजीब लगे ।”
“ऐम्बूलेंस ? मुर्दा गाड़ी ?”
“दोनों ठीक हैं लेकिन मेरे जेहन में एक और गाड़ी है जिसका फौरन इन्तजाम भी मुमकिन है । उसके लिए ज्यादा दूर भी नहीं जाना पड़ेगा । करीब मद्रास होटल के पिछवाड़े की एक वर्कशाप में ही खड़ी है वो । मद्रास होटल चल ।”
“इतने में ही चिड़िया फुर्र हो गयी तो ?”
“तो मजबूरी है । लेकिन कोई बात नहीं । हम फिर तलाश कर लेगे । आखिर अब हम उसकी सूरत से वाकिफ हैं, उसके घर के पते से वाकिफ हैं ।”
“वो तो है लेकिन लौटने पर हमें ये कैसे पता चलेगा कि वो अभी भीतर ही है कि हमारी गैर हाजिरी में चला गया वहां से ?”
“उसकी क्रीम कलर की फियेट से पता चलेगा जिस पर सवार होकर यहां तक पहुंचा है । पार्किंग में वो हुई तो वो भी होगा । वो न हुई तो समझ लेंगे कि वो चला गया वहां से । फिर आगे की आगे देखेंगे ।”
“ठीक है ।”
***
लूथरा गोल मार्केट पहुंचा ।
उसे देखते ही रावत तत्काल कार से निकला और उसकी मोटर साइकल के करीब पहुंचा ।
“क्या खबर है ?” - लूथरा बोला ।
रावत ने बताया । ये बात उसने खासतौर से चटखारे ले-लेकर बयान की कि वो कौल और उसकी हामला बीवी के साथ एक ही लिफ्ट पर सवार होकर ऊपर सातवीं मंजिल पर गया था वहां कि कौल का फ्लैट था ।
“पट्ठा ऐसा बिफरा था” - रावत हंसता हुआ बोला - “कि उसका बस चलता तो मुझे अपने फ्लैट में घसीट के मारता ।”
लूथरा ने अनमने भाव से हंसी में उसका साथ दिया और बोला - “यानी कि अब कौल की बीवी अपने फ्लैट में है और कौल यहां से कहीं गया है ?”
“हां ।” - रावत एकाएक गम्भीर हुआ - “लेकिन एक बात है ।”
“क्या ?”
“वो अकेला नहीं था । उसके साथ दो हमशक्ल लड़के थे जो साफ-साफ उसके बाडीगार्ड बने मालूम होते थे ।”
“अच्छा !”
“जी हां । वो एक बन्द जीप में कौल की कार के पीछे-पीछे वहां पहुंचे थे और जब कौल यहां से गया था तो एक जना उसके साथ उसकी फियेट में बैठा था जो कि साफ जाहिर करता है कि वो दोनों कौल के ही साथ थे ।”
“वो हमशक्ल लड़के” - लूथरा के जेहन में उन दो लड़कों की सूरत उभरी जिन्हें उसने उसी सुबह कौल के फ्लैट के ड्राइंगरूम में बैठे देखा था - “एक ही उम्र के थे ? जैसे जुड़वां भाई हों ?”
“जी हां ।”
“और ?”
“और एक बड़ी अजीब बात है ।”
“वो क्या ?”
“मैंने एक काली एम्बैसेडर कौल की कार और उसके पीछे चलती बन्द जीप के पीछे लगती देखी थी ।”
“काली एम्बैसेडर ?”
“वैसे वो मेरा वहम भी हो सकता है क्योंकि आती बार थी...”
“शीशे भी काले थे ?”
“हां । वो...”
“नम्बर देखा था ।”
“नम्बर की तरफ तो ध्यान नहीं गया था ।”
“तेरा ध्यान नहीं गया था या किसी का भी ध्यान नहीं गया था ?”
“मेरा । मेरा ध्यान नहीं गया था ।”
“बाकी जनों से पूछकर देख । शायद किसी और का नम्बर की तरफ ध्यान गया हो ।”
रावत पूछकर आया ।
मालूम हुआ कि उस काली एम्बैसेडर का नम्बर डी आई एफ - 7748 था ।
***
वली मोहम्मद ने सड़क की ओर निगाह उठाई तो पाया कि जहां कोई दस मिनट पहले वो काले शीशों वाली काली एम्बैसेडर खड़ी थी, वहां अब एक फास्ट फूड बेचने वाली केटरिंग वैन आन खड़ी हुई थी ।
तत्काल ही उसकी निगाह वहां से परे भटक गयी ।
उस इलाके में वैसी मोबाइल केटरिंग वैन का देखा जाना आम बात थी । वहां तो सैंडविच, पकौड़ा, काफी, कोल्ड ड्रिंक्स वगैरह बेचने वाली वैसी एक वैन सरकारी काफी हाउस की भी आती थी ।
पांच मिनट बाद जब उसकी निगाह फिर वैन पर पड़ी तो उसके माथे पर असमंजस की लकीरें खिंच गयीं ।
अभी तक वैन के दोनों पहलुओं की आयताकार खिड़कियों पर लगे वो ढक्कन नहीं खुले थे जो कि खुल जाने पर सर्विस काउंटर का काम करते थे ।
और पांच मिनट बाद भी वैन पूर्ववत बन्द ही खड़ी थी ।
वली मोहम्मद का माथा ठनका ।
उसने एक बार फिर लिफ्टों के इन्डीकेटर पर निगाह डाली और लापरवाही से टहलता हुआ वैन के करीब पहुंचा । उसने वैन की एक परिक्रमा की और फिर उसके ड्राइविंग सीट की ओर वाले पहलू के करीब पहुंचा ।
ड्राइविंग सीट पर फौजी बैठा था जिसे कि उसने काली एम्बैसेडर के ड्राइवर के रूप में फौरन पहचाना ।
तत्काल उसके कानों में खतरे की घंटियां बजने लगीं ।
उसने जेब से एक पांच का नोट निकाला और बड़े सहज भाव से उसे फौजी की ओर बढाया ।
फौजी हड़बड़ाया ।
“क्या है ?” - वो बोला ।
“एक काफी ।” - वली मोहम्मद बोला ।
“क्या ?”
“अरे काफी नहीं समझता !”
“यहां काफी कहां है ?”
“तो चाय होगी । एक चाय दो ।”
“काफी दो ! चाय दो ! क्या मतलब है भई तेरा ?”
“तेरा क्या मतलब है ? इतनी बड़ी केटरिंग वैन में चाय काफी कुछ नहीं मिलती ?”
“के... केट... ओह !” - तब कहीं जाकर फौजी को याद आया कि वो फास्ट फूड बेचने वाली केटरिंग वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठा था - “अभी चाय-काफी नहीं है ।”
“तो जो तैयार है वो दो ।”
“अभी कुछ तैयार नहीं है ।”
“कोई ठण्डा-वण्डा तो होगा ?”
“नहीं है ।”
“कमाल है ! ये कैसी दुकानदारी हुई जो...”
“कान मत खा और चलता-फिरता नजर आ । अभी दुकानदारी शुरू होने में टाइम है ।”
“अरे, कुछ बना के भी तो लाते होवोगे ! कोई सैंडविच । कोई कटलेट ! कोई समोसा...”
“कहा न अभी कुछ तैयार नहीं है ।”
“हद है, भई ! इतनी बड़ी वैन लेकर आ गये और तैयार कुछ भी नहीं है...”
“अरे टल न यार” - फौजी बड़ी मुश्किल से जब्त कर पा रहा था - “क्यों अपना भी वक्त जाया कर रहा है !”
वली मोहम्मद वहां से हट गया ।
फौजी की निगाह से छुपने के लिये वो पहले वैन से परे आगे सड़क पर चला गया और फिर राहगीरों की ओट में चलता हुआ वापिस विमल के आफिस वाली इमारत की ओर बढा ।
लाबी में पहुंचकर वो पांचवीं मंजिल पर जाने के लिए लिफ्ट में सवार हो गया ।
***
विमल ने आखिरी फाइल भी निपटाई और फिर घड़ी पर निगाह डाली ।
छः बजने को थे ।
उसने मेज पर बिखरी फाइलें इकट्ठी कीं और फिर उनके साथ अपने बॉस शुक्ला के आफिस में पहुंचा ।
“ये पांच केस हैं” - वो फाइलें शुक्ला के सामने मेज पर रखता हुआ बोला - “जो जरूरी थे । इन्हें मैंने निपटा दिया है । इस वक्त कोई फौरी काम मेरे पास नहीं है ।”
“तो ?” - शुक्ला उलझनपूर्ण स्वर मे बोला ।
“वो क्या है कि मैं कुछ दिन दफ्तर नहीं आ सकूंगा ।”
“बीमार बीवी की वजह से ?”
“वो भी वजह है । कुछ और भी जाती दुश्वारियां हैं । शुक्ला साहब, न सिर्फ मैं आफिस नहीं आ सकूंगा, मैं आपको फोन पर भी उपलब्ध नहीं हो पाऊंगा ।”
“भई, घर पर तो होवोगे ?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“यानी कि कहीं बाहर जा रहे हो ?”
“यही समझ लीजिये ।”
“बड़ी मिस्टीरियस बातें कर रहे हो, भई ।”
“और ये फियेट की चाबियां ।” - विमल ने फाइलों के ऊपर चाबियों का एक गुच्छा रखा ।
“कार तो बेशक अभी पास रख लो । तुम्हें जरूरत पड़ेगी ।”
“अब जरूरत नहीं पड़ेगी, सर ।”
“पक्की बात ?”
“जी हां ।”
“ठीक है । जैसा तुम चाहो । अपने कामकाज इतमीनान से निपटा लो । आफिस जब मर्जी आना ।”
“थैंक्यू, सर ।”
विमल शुक्ला से हाथ मिलाकर बाहर निकला तो उसे रिसैप्शन पर अली-वली दोनों बड़े दिखाई दिये । वो लम्बे डग भरता उनके करीब पहुंचा ।
“जनाब” - उसके मुंह भी खोल पाने से पहले दोनों में से एक बोला - “जब तक हम दोनों में से कोई वापिस यहां आपके पास न लौटे, यहां से बाहर न निकलियेगा ।”
फिर इससे पहले कि वो कोई वजह पूछ पाता, दोनों फुर्ती से वहां से बाहर निकल गये ।
लिफ्ट द्वारा दोनों नीचे पहुंचे । वहां पहले अली मोहम्मद बाहर निकला और उस घड़ी छुट्टी करके बाहर निकलते लोगों के हुजूम के साथ बढ चला ।
दो मिनट बाद वली मोहम्मद ने बाहर कदम रखा । उसने फिर पांच का नोट अपने हाथ में ले लिया और फिर केटरिंग वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठे फौजी के करब पहुंचा । पूर्ववत उसने नोट फौजी की ओर बढाया ।
“फिर आ गया !” - फौजी भुनभुनाया - “अब क्या है ?” 
“अब तो कुछ बन गया होगा ?” - वली मोहम्मद बड़ी मासूमियत से बोला ।
“कुछ नहीं बना । भाग जा ।”
“कमाल है...”
“हां, कमाल है । चल फूट ।”
“अरे बात तो तमीज से करो ।”
“कान मत खा, बेटा । जा, जा कहीं और से अपनी जरूरत की चीज खरीद ।”
“और कहां से ?”
“कहीं से भी ।”
“कहीं से कहां से ?”
फौजी हत्थे से उखड़ गया ।
“दफा हो जा” - वो एकाएक सांप की तरह फुंफकारा - “वर्ना गर्दन मरोड़ दूंगा ।”
“गर्दन इधर मेरी मरोड़ ।”
फौजी ने चिहुंककर अपने पीछे देखा तो पाया कि पता नहीं कब को वैन का परली तरफ का दरवाजा खोलकर एक और लड़का वैन में घुस आया था और अब वो उसकी पसलियों में रिवाल्वर की नाल सटाये उसके पहलू में बैठा था । फौजी की उसकी सूरत पर निगाह पड़ी तो वो और भी भौचक्का हो गया । वो कभी अपने पहलू में मौजूद अली की तो कभी बाहर सड़क पर खड़े वली की सूरत देखने लगा । तब उसकी समझ में आया कि बाहर खड़ा लड़का उसे खामखाह की बातों में उलझा रहा था ताकि उसका जोड़ीदार दूसरी तरफ से उसके सिर पर आन सवार होता ।
“खबरदार !” - अली बोला - “आवाज न निकले ।”
“क... कौन हो तुम लोग ?”
अली ने अपने माथे की भरपूर ठोकर अपनी तरफ देखते फौजी की नाक पर जमायी । फौजी पीड़ा से बिलबिला गया ।
“मैने कहा” - अली कहभरे स्वर में बोला - “आवाज न निकले ।”
फौजी ने दांत भींच लिये ।
तभी उसे परे धकेलता हुआ वली भीतर घुस आया ।
ऐन उसी वक्त विमल के आफिस में उस की टोह लेने की गरज से लूथरा वहां पहुंचा था । केटरिंग वैन की तरफ उसकी तवज्जो हरगिज न जाती अगर उसने दो हमशक्ल लड़कों को दायें-बायें से उसके ड्राइविंग केबिन में सवार होता न देखा होता । रावत ने भी वैसे दो हमशक्ल लड़कों का जिक्र किया था जो कि उसे साफ-साफ कौल के बाडीगार्ड लगे थे ।
तो क्या कौल केटरिंग वैन में था ?
अगर वो हमशक्ल लड़के सच में ही कौल के बाडीगार्ड थे तो कौल उनसे दूर तो नहीं हो सकता था ।
लेकिन उस केटरिंग वैन में ?
क्या माजरा था ?
तभी वैन सड़क पर आगे बढ चली ।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर लूथरा फुर्ती से अपनी मोटर साइकल पर सवार हो गया और वैन का पीछा करने लगा ।
वैन के भीतर स्टेनगन लिये छुपे बैठे लट्टू ने हरकत महसूस की तो वो बोल पड़ा - “अबे कहां जा रहा है ?”
उसी घड़ी वैन वली चला रहा था और फौजी दोनों भाइयों के बीच सैंडविच हुआ बैठा था ।
“बोल” - अली उसके कान में बोला - “पुलसिया हटा रहा है, चक्कर लगाकर लौट आयेगा ।”
साथ ही उसनें उसकी पसलियों में रिवाल्वर की नाल चुभोई ।
“कहीं नहीं ।” - फौजी खंखारकर गला साफ करता हुआ उच्च स्वर में बोला - “वो पुलसिया फिर गले रहा था । मैं चक्कर काटकर यहीं वापिस लौट आऊंगा ।”
“इस गाड़ी के भी गले पड़ रहा है ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“मालूम नहीं ।”
लट्टू खामोश हो गया ।
आगे चौराहे से वली मोहम्मद ने वैन को बांयें टालस्टाय मार्ग पर मोड़ दिया ।
“भीतर एक ही आदमी है न ?” - वली फौजी के कान में बोला ।
फौजी ने सहमति में सिर हिलाया ।
“हथियारबन्द ?”
“हां ।”
“कौल को मारने के लिये ?”
“तुम लोग कौन हो ?”
“तुम्हारे ही भाईबन्द हैं । हमें भी ये ही काम मिला हुआ है ।”
“फिर भी हमारी मुखालफत कर रहे हो ?”
“मुखालफत नहीं कर रहे, तुम्हें ये काम करने से रोक रहे हैं ताकि ये काम हर पहले कर सकें ।”
“प-पहले कर सकें ?”
“ताकि इनाम हमें हासिल हो सके ।”
“ओह ! यानी कि लाल साहब ने ये काम तुम लोगों को भी सौंपा हुआ है ?”
“उन्होंने ये काम सब लोगों को सौंपा हुआ है । जो कोई भी काम पहले कर लेगा, इनाम का हकदार वो ही होगा ।”
“कमाल है । हमें तो खबर नहीं इस बात की । मैं लट्टू से पुछूं ?”
“खबरदार !”
“अरे, जब हम लाल साहब के ही आदमी हैं तो क्यों न मिल के काम करें ? यूं कामयाबी की ज्यादा गारन्टी होगी ।”
“सोचते हैं इस बाबत कहीं तनहाई में चलकर । तब तक चुप रहो ।”
फौजी खामोश हो गया ।
वली ने अगले चौराहे से वैन को दायें बाराखम्बा रोड पर मोड़ा ।
“भीतर लट्टू है ?” - कुछ क्षण बाद अली फिर दबे स्वर में बोला ।
“हां ।” - फौजी बोला ।
“धीरे । धीरे ।”
“हां ।” - फौजी फुसफुसाय ।
“हथियार क्या है उसके पास ?”
“स्टेनगन ।”
“यानी कि उसकी मर्जी कौल को पिछे वहीं भून डालने की थी ? उसके आफिस से बाहर निकलते ही ?”
“हां ।”
“इतनी दिलेरी ?”
फौजी शान से हंसा ।
“बच निकलते ?” - अली बोला ।
“शर्तिया । लोगों को सूझता तक नहीं कि गोलियों की बाढ किधर से आयी थी ।”
“यूं तो कई बेगुनाह भी मारे जाते ।”
“वो तो है ।”
“कोई फर्क नहीं पड़ता !” 
“तुम बोलो, पड़ता है ?”
“तेरे पास क्या हथियार है ?”
“रिवाल्वर है । विलायती ।”
“दो उंगलियों से थाम के रिवाल्वर निकाल ।”
फौजी ने अपने कपड़ों के भीतर से कहीं से रिवाल्वर बरामद की जो कि अली ने फौरन अपने अधिकार में कर ली ।
वैन मंडी हाउस का विशाल राउन्ड अबाउट पार कर चुकी थी और अब सिकन्दरा रोड के सिरे से बांये तिलक ब्रिज को घूम रही थी ।
“कहां जा रहे हो, भाई लोगो ?” - फौजी बोला ।
“श...श” - अली गुर्राया - “खामोश ।”
आई☐ टी☐ ओ☐ के चौराहे से वैन दायें घूमी और फिर विकास मार्ग पर दौड़ चली ।
कोई दो फरलांग आगे ज्यों ही इन्दिरा गान्धी स्टेडियम के पहलू से नीचे को उतरती घुमावदार सड़क आई तो एकाएक वली ने वैन को वाहनों की भीड़ से निकालकर उस तनहा अन्धेरी सड़क पर डाल दिया ।
वली की उस हरकत ने वैन के पीछे लगे लूथरा को गड़बड़ा दिया । वैन के यूं बायें घूम जाने की वो कतई उम्मीद नहीं कर रहा था । नतीजतन जैसे एकाएक वैन मुड़ी, वैसे एकाएक वो अपनी मोटर साइकल उसके पीछे ने मोड़ पाया । ट्रैफिक के बहाव में फंसी मोटर साइकल उसे सीधे ही चलाये रखनी पड़ी ।
वो बौखला गया । आगे काफी दूर तक दोहरी सड़क के बीच की ऊंची पटड़ी में कोई ब्रेक भी नहीं था जहां से कि यू टर्न लेकर वो वापिस लौट पाता ।
तब उसने अपने पुलसिये होने का नाजायज फायदा उठाया ।
उसने मोटर साइकल को वापिस घुमाया और वन वे ट्रैफिक में उसे उलटा चलाता हार्न बजाता उस सड़क पर वापिस पहुंचा जिधर वैन गयी थी ।
वैन उसे दूर-दूर तक कहीं दिखाई न दी ।
वैन राजघाट पावर हाउस की ओर जाती उस सड़क के मध्य में पहुंची तो वली ने उसे दायें उधर मोड़ दिया जिधर जमना की ओर जाती एक टूटी-फूटी ऊबड़-खाबड़ सड़क थी । उस सड़क पर रोशनी का कोई साधन नहीं था । पीछे बड़ी सड़क से ही प्रतिबिम्बित होकर थोड़ी-बहुत रोशनी वहां पहुंच रही थी जो कि न होने के बराबर थी । इस सड़क के एक पहल में एक टूटी-फूटी चारदीवारी थी जिसके भीतर कभी एक मोटर मैकेनिक वर्कशाप चला करती थी । चारदीवारी का टीन का बना टूटा-फूटा-सा फाटक एक ओर पड़ा था जिसके ऊपर से गुजारकर वली ने वैन को चारदीवारी के भीतर दाखिल किया ।
भीतर कई तरह के कबाड़ और टूटी-फूटी गाड़ियों के जंग लगे खोलों के अलावा कुछ नहीं था ।
वली ने भीतर ले जाकर वैन रोकी ।
अली वैन से बाहर कूदा । तब उसके हाथ में फौजी की रिवाल्वर थी, अपनी रिवाल्वर उसने अपनी जेब में रख ली थी । रिवाल्वर के इशारे से उसने फौजी को नीचे उतरने को कहा ।
फौजी नीचे उतरा ।
वली भी उसी के पीछे वैन से बाहर निकला । उसने भी अपनी रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली थी ।
तीनों वैन के पिछवाड़े में पहुंचे ।
“तूने” - अली फौजी के कान में बोला - “लट्टू को बाहर बुलाना है ।”
“इरादे क्या हैं तुम लोगों के ?” - फौजी सशंक स्वर में बोला ।
“नेक हैं । न होते तो तुझे शूट कर देते और वैन को आग लगा देते । वो बाहर न निकलता तो भीतर झुलस के मर जाता । क्या समझा ?”
फौजी खामोश रहा । उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये ।
“बाहर बुला ।”
फौजी को वैन के दरवाजे के सामने खड़ा करके दोनों वैन के दोनों पहलुओं की ओट में दायें बायें हो गये ।
“लट्टू !” - फौजी उच्च स्वर में बोला ।
“क्या है ?” - भीतर से लट्टू की आवाज आई ।
“बाहर निकल ।”
“क्यों ?”
“निकलेगा तो मालूम पड़ेगा न ?”
“हम कर्जन रोड वापिस पहुंच गए ?”
फौजी ने अली की ओर देखा ।
अली ने इनकार में सिर हिलाया । दरवाजा थोड़ा-सा भी खुलता तो लट्टू को मालूम हो जाता कि वो रोशनियों से जगमगाती कर्जन रोड पर नहीं थे । दरवाजा बिना खोले भी वो ये बात समझ सकता था क्योंकि वहां कर्जन रोड पर से अपेक्षित वाहनों का या किसी और प्रकार का शोर नहीं था । 
“नहीं ।” - फौजी बोला ।
“तो फिर ?”
“हम कहीं और हैं । तू बाहर निकल ।”
खामोशी ।
“अबे, निकल रहा है कि नहीं ?”
“नहीं । अबे फौजी, ये क्या तू मुझे कब्रिस्तान में ले आया है ? जाके वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठ और ऐसी जगह ले के चल जहां रोशनियों का और ट्रैफिक का अहसास हो ।”
दोनों भाइयों की आपस में निगाह मिली ।
जाहिर था कि लट्टू उतना सीधा नहीं था जितना वो उसे समझ रहे थे ।
“सुन रहा है ?” - लट्टू बोला ।
“सुन रहा हूं ।” - फौजी बोला ।
“तो जवाब क्यों नहीं देता ?”
अली उसके करीब आकर उसके कान में फुसफुसाया ।
“गाड़ी बिगड़ गयी है ।” - फौजी बोला - “अपने आप चलती-चलती रुक गयी है । तू देख निकल के ।”
“तू कहां है ?”
“पिछले दरवाजे के सामने ।”
“वही रहना ।”
दरवाजे पर ऐसी आहट हुई जैसे वो खोला जाने लगा हो । दोनों भाई सतर्क हो गये । उनकी निगाहें दरवाजे पर टिक गयीं ।
वैन के बायें पहलू की आयताकार खिड़की का काउन्टरनुमा ढक्कन धीरे-धीरे बाहर को खुलने लगा ।
तभी दूर चारदीवारी के टूटे फाटक पर एक हैडलाइट चमकी ।
उस हैडलाइट की वजह से ही बायें पहलू में मौजूद अली की जान बची ।
अकस्मात हुई रोशनी से अचकचाया वो फाटक की दिशा में घूमा तो उसे वैन की खिड़की का उठता हुआ ढक्कन और उसमें से बाहर झांकती स्टेनगन की नाल दिखाई दी ।
उसने तत्काल स्वयं की जमीन पर गिरा दिया ।
स्टेनगन से निकली गोलियों की बाढ उसके सिर पर से गुजरी ।
कच्ची सड़क पर बचे वैन के टायरों के निशानों का अनुकरण करता उसी क्षण वहां पहुंचा लूथरा फाटक पर ही ठिठक गया । उसने हैडलाइट आफ कर दी और आंखें फाड़-फाड़कर सामने देखने लगा । वहां हो रही गोलीबारी की किस्म को वो पहचानता था और जानता था कि आगे बढना मौत को दावत देना था ।
अली बिजली की फुर्ती से कलाबाजी खाकर वैन के नीचे घुस गया । वो वैन के नीचे से परली तरफ पहुंचा, उसने वहां मौजूद अली को बांह से पकड़कर पीछे घसीटा और दबे पांव हकबकाये से फौजी के पीछे पहुंचा । फौजी की ओट लिए-लिए उसने उसे आगे को धक्का दिया तो वो आगे को लड़खड़ाया और फिर वैन के पीछे से निकलकर आगे खुले में जाकर ठिठका ।
अंधेरे में किसी एक सूरत को पहचान पाने में अक्षम लट्टू ने गोलियों की बाढ उसकी तरफ झोंक दी ।
अली ने फायर किया ।
गोली लट्टू के चेहरे से टकराई । उसके मुंह से एक चीख निकली और स्टेनगन उसके हाथ से निकल गयी ।
अली ने ताककर एक और फायर किया ।
लट्टू पके फल की तरह वैन की खिड़की में से स्टेनगन के पीछे जमीन पर टपका ।
फिर मुकम्मल सन्नाटा छा गया ।
दोनों भाई झिझकते हुई लट्टू के करीब पहुंचे ।
अली ने पांव की ठोकर से उसके जिस्म को टहोका ।
कोई हरकत न हुई ।
वैसा ही मुआयना वली ने फौजी का किया ।
दोनों मर चुके थे ।
तभी दूर फाटक पर हैडलाइट फिर चमकी तो उन दोनों की तवज्जो दोबारा उधर गयी । दोनों ने असमंजपूर्ण भाव से उधर देखा ।
“मोटर साइकल है ।” - एकाएक वली बोला ।
अली ने सहमति में सिर हिलाया और बोला - “सवार अकेला है ।”
“फिर क्या बात है ? फूट गया तो वैसे ही पिंड छूट जायेगा, करीब आया तो देख लेंगे ।”
“होगा कौन ?”
“कोई पुलसिया मालूम होता है । वर्दी में ।”
अली खामोश रहा । दोनों बड़े सब्र के साथ उस अप्रत्याशित आगन्तुक के अगले कदम की प्रतीक्षा करते रहे ।
अपनी वर्दी की धौंस में लूथरा ने हिम्मत की । उसने मोटर साइकल को फिर स्टार्ट किया और हैडलाइट को हाई बीम में लगा दिया ।
तीखी रोशनी दोनों भाइयों पर पड़ी तो उन्होंने तत्काल वैन की ओट ले ली ।
मोटर साइकिल करीब आने लगी ।
“पुलसिया है ।” - वली फुसफुसाया - “रायल एनफील्ड पर ।”
“ये एक हाथ से सम्भलने वाली मोटर साइकल नहीं ।” - अली बोला - “जब तक उसके हाथ हैंडल पर हैं, तब तक ये हथियार नहीं निकाल सकता । मोटर साइकिल रुकते ही हमने उस पर टूट पड़ना है ।”
वली ने सहमति में सिर हिलाया ।
मोटर साइकल करीब पहुंची । वो अभी पूरी तरह से गतिशून्य हुई भी नहीं थी कि दोनों भाई लूथरा के दायें-बायें पहुंच गये । दोनों की रिवाल्वरें लूथरा की तरफ तन गयीं ।
लूथरा ने इंजन बंद किया लेकिन हैडलाइट जलते रहने दी । उसने सामने का नजारा किया ।
“वैन में कौन है ?” - फिर वो बोला ।
“कोई नहीं ।” - अली बोला ।
“यही था” - वली बोला - “जो स्टेनगन के ऊपर मरा पड़ा है ।”
“कौल कहां है ?”
दोनों भाई चौंके । उन्होंने हैरानी से लूथरा की तरफ देखा ।
“कौन कौल ?” - फिर वली बोला ।
“जिसके कि तुम बाडीगार्ड हो ?”
दोनों फिर चौंके ।
“कोई खास पुलसिये हो, जनाब ।” - अली बोला ।
“हां ।” - लूथरा मोटर साइकल से उतरता हुआ बोला - “खास ही हूं ।”
“लूथरा !” - एकाएक अली अपने भाई की तरफ देखता हुआ बोला - “सब-इंस्पेक्टर ! मन्दिर मार्ग थाने का !”
“सुबह साहब के घर आया था ।” - वली बोला ।
“जल्दी पहचान लिया !” - लूथरा व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“जल्दी कहां पहचान लिया !” - वली खेदपूर्ण स्वर में बोला - “देर से पहचाना । आते ही पहचानना चाहिये था ।”
“मैंने भी पहचान लिया है तुम्हें ।”
तब दोनों भाइयों कि रिवाल्वरें और मजबूती से लूथरा की ओर तन गयीं ।
रिवाल्वरों की परवाह किये बिना लूथरा ने आगे बढकर वैन में झांका ।
“तो कौल यहां नहीं है ?” - वो घूमकर बोला ।
कोई जवाब न मिला ।
“माजरा क्या है ?”
“ये स्टेनगन वाला” - अली बेहिचक बोला - “उग्रवादी है जो अपने इस दूसरे साथी के साथ कनाट प्लेस में कोई बड़ी वारदात करने की फिराक में था । हुजूर को इन पर शक हो गया । इनको भी पता लग गया कि ये हुजूर की तवज्जो में आ गये थे इसलिए ये इस वैन पर सवार होकर वहां से भाग खड़े हुए । कमाल की बहादुरी दिखाते हुए हुजूर ने इनका यहां तक पीछा किया और फिर अपनी जान की परवाह किये बिना हुजूर इनसे भिड़ गए । नतीजतन हुजूर की गोलियों से स्टेनगन वाला मारा गया और स्टेनगन वाले की गोलियों से उसका अपना साथी मारा गया ।”
“मेरी गोलियों से ?” - लूथरा की भवें उठीं ।
अली उसके करीब पहुंचा । रिवाल्वर लूथरा पर ताने-ताने उसने उसके होलस्टर में से उसकी सर्विस रिवाल्वर निकाल ली और फिर उसकी सारी गोलियां लट्टू की लाश में झोंक दीं । उसने रिवाल्वर को रूमाल निकालकर पोंछा और उसे वापिस लूथरा को थमा दिया ।
“आपको गोलियों से ।” - वो पूरे विश्वास के साथ बोला ।
“तो ये पट्टी पढाना चाहते हो तुम लोग मुझे ?” - लूथरा कर्कश स्वर में बोला ।
“हुजूर की जयजयकार हो जायेगी ।” - अली बोला - “बहुत ऊपर तक नाम होगा हुजूर का । तमगों और तारीफों से रूद जायेगे, हुजूर !”
“और अगर मैं ये पट्टी न पढूं तो ?”
“नाम तो आपका फिर भी होगा । बल्कि और भी ज्यादा होगा ।” - अली सहज भाव से बोला, उसने फौजी वाली रिवाल्वर को नाल लूथरा की छाती पर टिका दी - “कल सारे शहर में हुजूर का चर्चा होगी कि कैसे हुजूर फर्ज की राह पर कुर्बान हो गये । मरे लेकिन मार के मरे ।”
लूथरा के प्राण कांप गये ।
“साले !” - प्रत्यक्षत: वो कड़का - “धमकी देता है ?”
अली ने रिवाल्वर का कुत्ता खींचा ।
कुत्ता खींचे जाने की आवाज नगाड़े की चोट की तरह उसके जेहन में पड़ी । उससे भी ज्यादा जोर से उसका दिल धड़का ।
“ठीक है । ठीक है ।” - वो खोखले स्वर में बोला ।
अली ने रिवाल्वर लूथरा की छाती पर से हटा ली ।
“असल माजरा क्या है ?” - लूथरा बोला ।
किसी ने उत्तर न दिया ।
“अरे, कुछ तो बको ।” - छाती से रिवाल्वर हटते ही लूथरा में फिर दिलेरी आने लगी - “कौल को मारना चाहते थे ये लोग ?”
अली ने सहमति में सिर हिलाया ।
“हैं कौन ये ? पहचानते हो इन्हें ।”
अली ने इंकार में सिर हिलाया ।
“ये गुरबख्शलाल के आदमी हैं ?”
अली ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकये ।
“अगर ये कौल को मारना चाहते थे तो ये गुरबख्शलाल के ही आदमी होंगे !”
अली खामोश रहा ।
“तुममें से किसी ने पहले इन्हें एक काले शीशों वाली काली एम्बैसेडर में भी देखा था ? नम्बर डी आई एफ - 7748 ?”
वली का सिर सहमति में दिलने ही लगा था कि उसने देखा उसका भाई उसे बड़े चेतावनी पूर्ण भाव से घूर रहा था । वली सम्भला । उसने आंखों-ही-आंखों में अपने भाई को आश्वासन दिया कि वो उसकी ये मंशा समझ गया था कि उन्होंने उस पुलसिये से उतनी ही बात करनी थी जितनी के बिना गुजारा नहीं था ।
“जवाब दो, भई !” - लूथरा उतावले स्वर में बोला ।
दोनों भाइयों के सिर एक साथ इंकार में हिले ।
“हो कौन तुम लोग ?”
कोई जवाब न मिला ।
“अरे, कम से-कम नाम तो बोलो अपने ।”
चुप्पी ।
“ये तो बको कि अब तुम लोग क्या करोगे ?”
“हमने तो जो करना था, कर दिया ।” - अली बोला - “अब सवाल तो ये है कि हुजूर क्या करेंगे?”
“मैं क्या करूंगा” - लूथरा वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “वो तो तूने मेरी रिवाल्वर स्टेनगन वाले के जिस्म में खाली करके ही तय कर दिया है । अब और क्या करूंगा मैं ? वैसा ही कुछ करूंगा, जैसा तुम लोग चाहते हो ।”
“शुक्रिया ।”
“फूटो अब ।”
वहां से टलने से पहले अली ने अपने हाथ में थमी रिवाल्वर को अच्छी तरह से रूमाल से पोंछा और उसे ले जाकर जमीन पर मरे पड़े फौजी के दायें हाथ में फंसा दिया ।
फिर दोनों भाई वैन की ओर बढे ।
“उधर कहां ?” - लूथरा बोला - “वैन कैसे ले जा सकते हो ?”
“सिर्फ बाहर तक ही ले के जायेंगे ।” - अली बोला - “आप वापिस ले आइयेगा ।”
“पैदल जाओ ।”
“हमने पीठ पर गोली नहीं खानी ।”
“अरे मेरी रिवाल्वर तो खाली कर दी तूने !”
“बोला न, हमने पीठ पर गोली नहीं खानी ।”
“सालो !” - लूथरा खोखली हंसी हंसा - “किसी बड़े पहुंचे हुए उस्ताद के शार्गिद लगते हो !”
बिना उत्तर दिये दोनों भाई वैन में सवार हो गये । फिर वली ने वैन को फाटक की ओर दौड़ा दिया ।
***
आठ बजे विमल कनाट प्लेस की अन्डरग्राउन्ड पार्किंग में वहां पहुंचा जहां पिछले रोज उसने पिपलोनिया की काली एम्बैलेडर खड़ी देखी थी ।
एम्बैसेडर वहां मौजूद नहीं थी ।
“काली एम्बैसेडर ।” - वो बन्द जीप में अपने साथ आये अली-वली से बोला - “नम्बर डी आई ए - 7766 । पार्किंग की तीनों मंजिलों पर तलाश करनी है । हम तीनों एक-एक मजिल देखते हैं ।”
दोनों भाइयों ने सहमति में सिर हिलाया ।
तालाश आरम्भ हुई ।
पन्द्रह मिनट बाद वे बन्द जीप के करीब जमा हुए ।
पिपलोनिया की काली एम्बैसेडर अन्डरग्राउन्ड पार्किंग में कहीं नहीं थी ।
इसका क्या मतलव था ? - विमल ने मन-ही-मन सोचा - वो कार को कहीं और खड़ी कर आया था या वहां आके कार ले चा भी चुका था ?
दूसरी बात की सम्भावना उसे कम लगी । तब तक सिर्फ सवा आठ बजे थे । पिपलोनिया के पिछले कारनामे बताते थे कि शाम डलते ही इतनी जल्दी वो अपना अभियान नहीं शुरू कर देता था ।
अगर उसने पार्किग की जगह बदल दी थी तो घर से ही उसके पीछे लगकर नयी जगह पहुंचा जा सकता था ।
वो माडल टाउन पहुंचे ।
वहां पिपलोनिया की कोठी बन्द थी और उसके सामने से उसकी नीली फियेट नदारद थी ।
इतने बड़े शहर में पिपलोनिया को तलाश कर पाना असंभव कृत्य था, फिर भी विमल ने अगले दो घन्टे ऐसी कई जगहों के चक्कर काटने में बर्बाद किये जो कि पिपलोनिया का सम्भावित कार्यक्षेत्र हो सकती थीं ।
नतीजा सिफर निकला ।
पौने ग्यारह बजे उसने पिपलोनिया की कोठी का फिर चक्कर लगाया ।
फियेट नदारद । पिपलोनिया नदारद ।
तब विमल का लोटस क्लब का चक्कर लगाने का मन बना ।
पिछली रात वहां की बारमेड मोनिका उससे बहुत प्रभावित हुई थी और अब विमल के मन में मोनिका को मोहरा बनाकर गुरबख्शलाल तक पहुंचने का खयाल करवटें बदल रहा था ।
बन्द जीप लोटस क्लब के सामने पहुंची ।
“मैं क्लब के भीतर जाना चाहता हूं ।” - विमल बोला ।
दोनों भाइयों ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अकेला ।”
दोनों ने तत्काल इनकार में सिर हिलाया ।
“वजह ?”
दोनों चुप रहे ।
“देखो ।” - विमल ने समझाया - “ये ठीक है कि ये गुरबख्शलाल का ठीया है लेकिन साथ ही ये एक पब्लिक प्लेस भी है । एक हाई क्लास नाइट क्लब है ये जो कि रात के इस वक्त मेहमानों से खचाखच भरी होती है । ऐसी जगह में अव्वल तो खास मेरी तरफ किसी की तवज्जो नहीं जायेगी, जायेगी तो वो लोग यहां मेरे पर हाथ डालकर अपना धन्धा चौपट नहीं करना चाहेंगे ।”
“आपके लिये वो धन्धा चौपट हो जाने का रिस्क ले सकते हैं ।” - वली मोहम्मद बोला ।
“ऐसा रिस्क वो तुम्हारे साथ होने पर भी ले सकते हैं ।” - विमल तनिक अप्रसन्न स्वर में बोला - “जो लोग एक आदमी को सम्भाल सकते हैं, वो तीन को भी सम्भाल सकते हैं ।”
“देखेंगे ।” - अली दबे स्वर में बोला ।
“कैसे देखोगे ? तुम्हारे पास तोप है ?”
अली खामोश रहा ।
“तो फिर ?”
“हम साथ जायेंगे ।” - वली दृढ स्वर में बोला ।
“ठीक है । पहले मुझे जाने दो । तुम लोग पांच मिनट बाद आना ।” - दोंनो भाइयों को प्रतिवाद में मुंह खोलता पाकर विमल जल्दी से बोला - “अब बहस नहीं । पांच मिनट में कोई तबाही नहीं आ जायेगी ।”
“लेकिन..””
“अरे कमबख्तो ! क्यों मेरा इमेज एक ऐसे बुजदिल आदमी जैसा बनाना चाहते हो जो कि बाडीगार्डों में सैन्डविच होकर ही कहीं आ-जा सकता है ।”
“हमें मामू का हुक्म है जहां जाना है आपके साथ जाना है ।”
“म... मामू !” - विमल सकषकाबा - “मुबारक अली तुम्हारा मामू है ?”
“हां ।”
“सगा ?”
“हां ।”
विमल ने गहरी सांस ली ।
कैसा जांनिसार आदमी था मुबारक अली जो उसकी सलामती की खातिर अपने सगे भांजों की जानों को जोखम में डाले हुए था - और वो भी विमल को बिना ये जताये कि वो लड़के उसके सगे भांजे थे ।
“पांच मिनट में कुछ नहीं होता ।” - प्रत्यक्षतः विमल बोला - “पांच मिनट बाद आना । कहना मानो ।”
“लेकिन क्यों ?” - वली बोला ।
“साथ जाने से मेरी वजह से तुम्हारी भी शिनाख्त हो जायेगी । बिना मेरे साथ जुड़े मेरे पर निगाह रखोगे तो मेरी बेहतर हिफाजत कर सकोगे । दूसरे जिससे मैंने मिलना है वो मुझे अकेला न पाकर हो सकता है मेरे से कतराने लगे ।”
वली ने अली की तरफ देखा ।
“ठीक है ।” - अली बोला - “पांच मिनट । लेकिन एक सैकेण्ड भी ऊपर नहीं ।”
“मंजूर ।”
विमल जीप से निकला और आगे बढकर क्लब में दाखिल हुआ ।
क्लब में पिछली रात जैसी ही लगभग रोनक थी ।
वो बार पर पहुंचा ।
मोनिका वहां नहीं थी ।
वो उस घड़ी वहां मौजूद बारमेड से मोनिका की बाबत सवाल करने ही लगा था कि एकाएक बार के पहलू में बना बन्द दरवाजा खुला और उसमें से निकलती मोनिका उसे दिखाई दी । उस घड़ी वो अपनी बारमेड वाली, लो ब्लाउज और हाई स्कर्ट वाली ड्रेस के स्थान पर एक डेनिम की टाइट जीन, काली स्कीवी और जमड़े की जैकेट पहने थी और चेहरे पर बारमेड वाले खिलन्दड़ेपन की जगह बहुत जिम्मेदारी के भाव थे । वो बिना दायें-बाएं देखे, एड़ियां ठकठकाती वहां से बाहर चल दी । उसकी बदली हुई पोशाक और उसके हाव-भाव साफ बता रहे थे कि कम-से-कम उसी रात वो वहां नहीं आने वाली थी ।
“यस, सर ।” - बारमेड बोला - “मे आई हैव योर आर्डर सर ।”
“लेटर ।” - विमल बोला और घूमकर बाहर को चल दिया ।
वो क्लब से बाहर निकला तो उसने मोनिका को क्लब के प्रवेशद्वार के सामने ही खड़ी एक सफेद एन ई 118 में बैठते देखा जिसकी ड्राइविंग सीट पर एक वर्दीधारी शोफर बैठा दिखा दे रहा था । मोनिका के पीछे कार में सवार होते ही शोफर ने गाड़ी आगे बढा दी ।
विमल लपककर बन्द जीप के पास पहुंचा । वो जल्दी से जीप सें सवार हुआ और वोला - “उस सफेद गाड़ी के पीछे चलो ।”
ड्राइविंग सीट पर बैठे वली ने तत्काल जीप आगे बढाई ।
सफेद गाड़ी मंथर गति से चलती हुई कनाट सर्कस की वृताकार सड़क पर आगे बढती रही ।
वली बहुत सावधानी से और बहुत समझदारी से जीप उसके पीछे लगाये रहा ।
आखिरकार सफेद कार मिन्टो रोड पर स्थित बहुखंडीय इमारत के सामने रुकी । कार के रुकते ही मोनिका बाहर निकली और इमारत में दाखिल हो गयी ।
“पीछे जा ।” - विमल जल्दी से बोला ।
अली जीप से निकला और आगे बढा ।
सफेद कार वहां से वापिस लौट गयी । प्रत्यक्षतः वो कार मोनिका को वहां छोड़ने के लिये ही आई थी ।
विमल ने पाइप सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
थोड़ी देर बाद अली वापिस लौटा ।
“छठी मंजिल के एक फ्लैट में गयी है ।” - वो बोला - “उसने फ्लैट का दरवाजा चाबी लगाकर खोला था ।”
“यानी कि” - विमल बोला - “वो एक खाली फ्लैट में दाखिल हुई है ?”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“गुड ।” - विमल जीप का दरवाजा खोलता हुआ बोला - “मैंने इसी लड़की से मिलना था । अच्छा है कि वो यहां अकेली है ।”
वो बाहर निकलकर इमारत की तरफ बढा तो अली उसके साथ हो लिया ।
वली पीछे जीप में ही बैठा रहा ।
लिफ्ट द्वारा विमल और अली छठी मंजिल पर पहुंचे ।
उस मंजिल पर दो ही फ्लैट थे जिनके प्रवेश द्वारा एक-दूसरे के आमने सामने थे ।
अली ने बाईं ओर के बन्द दरवाजे की तरफ इशारा किया । विमल सहमति में सिर हिलाता हुआ दरवाजे की तरफ बढा । अली सीढियों के दहाने के करीब सरक गया । वहां से वो दरवाजे को देख सकता था लेकिन दरवाजा खुलने पर उसमें से उसे नहीं देखा जा सकता था ।
विमल ने दरवाजे के सामने पहुंचकर काल बैल बजायी ।
बिना किसी सवाल के दरवाजा तत्काल खुला जो इस बात का सबूत था कि इतनी रात गये भी वहां किसी का आगमन अपेक्षित था । फिर चौखट पर जिस पोशाक में मोनिका प्रकट हुई उससे ये भी जाहिर हो गया कि आगन्तुक को वहां से क्या हासिल होने वाला था ।
किसी विलायती सैंट में रची-बसी मोनिका गुलाबी रंग की एक बहुत ही झीनी नाइटी पहने हुए थी । मेहन्दी के रंग के अपने खोल लिये हुए थे जो कि उसके चेहरे पर बिखरे उसके गुलाबी गालों से अठखेलियां कर रहे थे । उसके होंठों पर ऐसी आवाहन भरी मुस्कराहट खेल रही थी किसी नौजवान औरत के चेहरे पर उसने पहले कभी नहीं देखी थी ।
विमल पर निगाह पड़ते ही सबसे पहले उसके होंठो से मुस्कराहट ही गायब हुई । फिर मुकम्मल सैक्स अपील यूं बुझी जैसे बिजली का स्विच आफ कर देने से रोशनी बुझ जाती है ।
“हल्लो !” - विमल मुस्कराता हुआ बोला ।
“कौन हो तुम ?” - वो बड़े रुक्ष स्वर में बोली ।
“दोस्त !”
“कौन दोस्त ? किसके दोस्त ? घन्टी क्यों बजाई ? कौन हो तुम ?”
“बल्ले ! एक ही सांस में इतने सवाल ?”
मोनिका ने उसके मुंह पर दरवाजा बन्द करने की कोशिश की ।
विमल ने चौखट में पांव अटकाकर ऐसा करने से उसे जबरन रोका ।
“ये क्या बदतमीजी है ?” - वो क्रोधित स्वर में बोली ।
“क्या बात है ?” - विमल बोला - “क्लब में ड्यूटी पर ही अच्छा-अच्छा पेश आती हो ? वहां तो मेरी असली सूरत देखने को मरी जा रही थीं, अब दिखाई दे रही है असली सूरत तो ऐसे दिल तोड़ने वाले तरीके से पेश आ रही हो ? स्वीट हार्ट, पहले से टूटा दिल ये नया झटका कैसे बरदाश्त करेगा ?”
वो सकबकाई । उसने दरवाजे का पल्ला छोड़ दिया और गौर से विमल की ओर देखा ।
विमल बड़े डिफेंसलैस अन्दाज से मुस्कराया ।
“तुम” - वो अनिश्चित-सी बोली - “तुम...”
“विमल । सूटिंग वाला ।”
“तुम” - वो विस्फारित नेत्रों से उसे देखती हुई बोली - “तुम वो आदमी हो ?”
“पहले यकीन दिलाया कि मैं दाढी बिना खूबसूरत लगूंगा अब जबकि मैं दाढी के बिना सामने खड़ा हूं तो पहचानती नहीं हो ।”
“तुम वही आदमी हो ? विमल ?”
“शुक्र है । पहचाना तो ।”
“यहां कैसे आ गये ?”
“तुम्हारे पीछे-पीछे चला आया ।”
“क्या मतलब ?”
“मैं लोटस क्लब पहुंचा था तो तुम वहां से निकल रही थी । मैंने आवाज दी तो तुमने सुनी नहीं । सो पीछे-पीछे यहां चला आया ।”
“तुम्हें यहां नहीं आना चाहिये था ।”
“क्यों ?”
उसने उतर न दिया । वो कुछ क्षण बेचैनी से पहलू बदलती रही और फिर बोली - “अब चाहते क्या हो ?”
“क्या बात है ?” - विमल शिकायतभरे स्वर में बोला - “तमाम बातें चौखट पर खड़े-खड़े ही होंगी ?”
“हां । बल्कि होंगी ही नहीं । तुम जाओ यहां से ।”
“बड़ी बेमुरव्वत हो । कल क्लब में तो आसमान पर चढा दिया मुझे । राजा इन्दर बनाने में कसर न छोड़ी । अब ऐसे पेश आ रही हो जैसे मेरी सूरत से बेजार हो । कल आओ-आओ । आज जाओ-जाओ । ये क्या बात हुई ?”
“तुम पागल हो । बात को समझते नहीं हो ।”
“कौन-सी बात नहीं समझता मैं ?”
“तुम्हें मेरे पीछे यहां नहीं आना चाहिये था । तुम जानते नहीं हो तुम कहां पहुंच गये हो ! तुम्हारा एक सैकेन्ड भी और यहां ठहरना खतरनाक साबित हो सकता है ।”
“मेरे लिये ?”
“तुम्हारे लिये भी और मेरे लिये भी । तुम खुद तो मरोगे ही, साथ में मुझे भी मरवाओगे ।”
“कौन मारेगा मुझे ?”
“वो, जिसकी जगह ये जगह है ।”
“किसकी जगह है ? ये तुम्हारा घर नहीं है ?”
“पागल हुए हो ? मैं एक मामूली बारमेड ! इतना शानदार फ्लैट में सात जन्म अफोर्ड नहीं कर सकती ।”
“मुझे क्या पता ये कितना शानदार फ्लैट है ! मैं तो फ्लैट से बाहर खड़ा हूं ।”
“मैं तुम्हें भीतर नहीं बुला सकती । मैं यहां चौखट पर भी तुम्हारे करीब नहीं खड़ी हो सकती । वो बस आता ही होगा ।”
“कौन ? नाम तो लो उसका ।”
“गुरबख्शलाल ।”
“तुम्हारा बास ?”
“हां ।”
“ये फ्लैट उसका है ?”
“हां ।”
“तुम यहां क्या कर रही हो ?”
“इतने सीधे तो नहीं लगते हो कि इतना भी न समझ सको, वक्त देखो, मुझे देखो, मेरी पोशाक देखो और सोचो ।”
“ओह !”
“बड़ी लम्बी ‘ओह’ की ?”
विमल खामोश रहा ।
“अब कोई फिल्मी डायलाग न बोलना कि तुमने मुझे क्या समझा था और मैं क्या निकली ? तुमने मुझे कुछ भी समझा हो मैं वो ही हूं जो मैं हूं । बारमेड । गुरबख्शलाल की मुलाजिम । उसकी प्रापर्टी । एक बिकी हुई औरत । कोई और हकीर नाम देना चाहो तो वो भी कबूल ।”
“मैं कौन-सा आसमान से उतरा हूं ! कोई उन्नीस-बीस का फर्क हो तो हो वर्ना मैं खुद ऐसा हूं ।”
“कैसे हो ?”
“चोर । डकैत । खूनी । इश्तिहारी मुजरिम ।”
“सच कह रहे हो ?”
“हां । तभी तो कल कहा था कि खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो ।”
“मिल बैठेंगे । लेकिन अभी नहीं । आज नहीं । यहां नहीं । यहां से जाओ ।”
“मैं जाने के लिये नहीं आया । बन्दा जहां पहुंच गया, पहुंच गया ।”
“अरे क्यों अपनी जान के दुश्मन बने हो । गुरबख्शलाल ने यहां तुम्हें मेरे करीब भी देख लिया तो तुम्हारी खैर नहीं । मेरी भी ।”
“या उसकी खैर नहीं ।”
विमल ने जेब से रिवाल्वर की झलक दिखाई ।
“ओह !” - मोनिका नेत्र फैलाकर बोली - “तो ये इरादे हैं तुम्हारे ?”
“कोई एतराज ?”
“मुझे क्या एतराज होगा ? मेरी तरफ से वो भैंसा कल मरता आज मर जाये । अगली सांस न आये कमीने को ।”
“ये तेवर हैं ?”
“हां ।”
“फिर तो मुझे तुम्हारी ख्वाहिश पूरी करने के लिये यहां रुकना पड़ेगा ।”
“तुम तो यूं कह रहे हो जैसे कोई मक्खी मसलने जैसा आसान काम हो ।”
“नहीं है ?”
वो हंसी ।
“मिस्टर” - फिर वो गम्भीरता से बोली - “मक्खी तुम हो । वो नहीं । यहां कोई मक्खी की तरह मसला जायेगा तो वो तुम होगे ।”
“देखते हैं ।” - विमल बोला । उसने एकाएक मोनिका को पीछे धकेला और भीतर दाखिल हो गया । इससे पहले कि वो सम्भल पाती विमल ने दरवाजे को भीतर से बन्द कर दिया था और उसके साथ पीठ लगाकर खड़ा हो गया ।
मोनिका के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“अब” - वो कम्पित स्वर में बोली - “मेरी मौत निश्चित है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अब तुम्हारी मौत निश्चित है ।”
“पहले भी कहा तुमने ।”
“ठीक कहा । तुम क्या समझौते हो कि वो यहां अकेला आयेगा, आ के कालबैल बजायेगा, मैं दरवाजा खोलूंगी, वो भीतर दाखिल होगा और तुम उसे शूट कर दोगे ?”
“ऐसा नहीं होगा ?” - विमल बड़ी मासूमियत से बोला ।
वो हंसी ।
“हंस क्यों रही हो ?”
“क्योंकि समझ नहीं पा नहीं पा रही हूं कि तुम दिलेर ज्यादा हो या मूर्ख ज्यादा हो । जरा सोचो । इतना बड़ा गैंगस्टर, अन्डरवर्ल्ड का इतना सुपर बास कहीं अकेला जायेगा ? मिस्टर, वो जहां भी जाता है, कम-से-कम आधी दर्जन बाडीगार्ड साथ ले के जाता हूं ।”
“यहां भी वो लाव-लश्कर के साथ आयेगा ।”
“हां ! जब वो यहां आता है तो पहले फ्लैट में उसके दो-तीन बाडी गार्ड साथ दाखिल होते हैं जो कि फ्लैट को अच्छी तरह खंगालकर तसल्ली करते हैं कि यहां कोई छुपा तो नहीं बैठा । कुछ समझे ?”
“समझा ।”
“अभी वो लोग यहां पहुंच जायें तो तुम्हारी सारी दिलेरी धरी की धरी रह जायेगी ।”
“सुनो । ये फ्लैट गुरबख्शलाल की ऐशगाह है । ठीक ?”
“हां ।”
“तुम यहां उसकी ऐश के लिये मौजूद हो । कबूल ?”
“कबूल ।”
“यानी कि रात को गुरबख्शलाल जो कुछ यहां तुम्हारे साथ करेगा, अपने बाडीगार्डों की निगरानी में करेगा ? तुम्हारा बास जब तुम्हारे साथ हमबिस्तर होगा तो उसके बाडीगार्ड पलंग के चारों ओर खड़े होकर नजारा करेंगे ? जैसे अखाड़े के गिर्द खड़े होकर पहलवानों की कुश्ती का नजारा किया जाता है ?”
“स्टूपिड ।”
“तो फिर ?”
“जब गुरबख्शलाल यहां होता है तो और कोई यहां नहीं होता ।”
“फिर क्या प्राब्लम है ? फिर तो...”
“पहले पूरी बात सुनो । यूं पहले ही कूदकर किसी गलत नतीजे पर मत पहुंच जाओ ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“इस इमारत के इस फ्लोर पर दो ही फ्लैट हैं । एक ये और एक इसके सामने वाला । वो दूसरा फ्लैट भी गुरबख्शलाल का है । गुरबख्शलाल जब यहां आता है तो उसके सारे बाडीगार्ड सामने वाले दूसरे फ्लैट में चले जाते हैं और जब तक गुरबख्शलाल यहां रहता है पलक भी झपकाये बिना इस फ्लैट की निगरानी करते हैं ।”
“ओह !”
“अभी आगे सुनो । इस फ्लैट में दाखिल होने का इस दरवाजे के अलावा, जिसके सामने कि तुम खड़े हो, और कोई रास्ता नहीं है । बाडीगार्डों की निगाह इस दरवाजे पर न भी हो तो भी मैं रात के किसी वक्त जब भी गुरबख्शलाल घोड़े बेचकर सो चुका हो, किसी को भीतर घुसाने के लिये इस दरवाजे को नहीं खोल सकती ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि दरवाजा बाहर से बन्द होता है । गुरबख्शलाल के गार्ड ऐसा करते हैं ।”
“उसी ने बाहर जाना हो तो ?”
“तो वो दूसरे फ्लैट में फोन करता है ।”
“ओह ! ओह !”
“यहां से निकल भागना मुमकिन हो तो मैं ही साले मोटे भैंसे का रात को सोये-सोये का गला काट दूं ।”
विमल ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
“कमीना ऐसे रोंदता है” - एकाएक मोनिका की आवाज भर्रा गई - “ऐसे गीले कपड़े की तरह निचोड़ता है, ऐसे बेइज्जत करता है ।”
“क्यों करवाती हो ऐसी दुरगत ?”
“किसी शौक की खातिर तो नहीं करवाती । मिस्टर, जूता जिसके पांव में हो, वो ही जानता है कि वो उसे कहां काटता है । मेरी अपनी मजबूरियां हैं, मेरी अपनी दुश्वारियां हैं, जिनकी कथा करने के लिये ये मुनासिब वक्त नहीं । बस समझ लो कि सलीब मेरे कन्धों पर लदा है, उसे मैंने ही ढोना है । गुरबख्शलाल के हाथों रौंदा जाना, निचौड़ा जाना, बेइज्जत होना ही मेरी नियति है ।”
“मैं तुम्हे इस नियति से निजात दिला सकता हूं ।”
“नहीं दिला सकते । मेरी नियति से तो मुझे खुदा भी नहीं निजात दिला सकता । क्योंकि मेरी नियति खुद उसी ने तो लिखी है ।”
“जो लिखता है, वो ही मिटाता है । आप साजे आपे रंगे आपे नदरि करेड । उसने अपने गुनहगार बन्दों का इम्तहान लेना होता है तो वो लिखता है । बन्दे इम्तहान में पास हो जाते हैं तो उसका लिखा खुद ही मिट जाता है ।”
“नियति तो अटल है ।”
“तो समझ लो कि तुम्हारी नियति, जो कि अटल है, ये है कि बहुत जल्द तुम अपनी तमाम मुश्किलों से निजात पा जाओगी ।”
“कैसे ? जादू के जोर से ?”
“जब होगा तो कोई जादू ही होगा । होगा नहीं तो लगेगा जरुर ऐसा लिखा है जैसे जादू हुआ हो ।”
“बड़ी रहस्यमयी बातें कर रहे हो, मिस्टर ।”
विमल हौले से हंसा ।
“हो कौन हो तुम ?”
“विमल । सूटिंगवाला ।”
“नाम तो हुआ । वैसे कौन हो तुम ?”
“हूं मैं तुम्हारे ही जैसा खुदा का एक गुनहगार बन्दा जो तुम्हारी ही तरह अपनी नियति से लड़ रहा है, जो अपने बनाने वाले से अपने गुनाह बख्शवाने का ख्वाहिशमन्द है ।”
“चलो, फिलहाल मान ली मैंने तुम्हारी बात । अब भगवान के लिए यहां से चले जाओ, ये सोच के चले जाओ कि जो काम तुम करना चाहते हो, उसका होना नामुकिन है । बाकी बातें फिर होंगी ।”
“कब ? कहां ?”
मोनिका ने उसके कोट की ऊपरी जेब से उसका साइन पैन निकला और उसका हाथ पकड़कर उस पर कुछ अंक घसीट दिए ।
“ये यहां का टेलीफोन नम्बर है ।” - वो बोली - “कल दोपहर बाद फोन करना ।”
“तब वो यहां होगा ?”
“उम्मीद नहीं । वो दोपहर तक चला जाता है । फिर भी होगा तो फोन तो हर हाल में मैं ही उठाती हूं । मैं रांग नम्बर कहकर फोन बन्द कर दूं तो समझ लेना कि वो यहां है । फिर एक घंटे बाद फोन करना ।”
“ठीक है ।”
“अब जाओ ।”
“जाता हूं । एक बात बताओ । एक आखिरी बात बताओ ।”
“पूछो !”
“धोखा तो नहीं दोगी ?”
“धोखा ?”
“गुरबख्शलाल की तारीफी निगाहों का हकदार बनने के लिए सब कुछ उसे कह तो नहीं डालोगी ? मुझे फंसवा तो नहीं दोगी ?”
“तुम समझते हो यूं मुझे गुरबख्शलाल से कोई मैडल मिल जाएगा ?”
“मिल जाएगा । मैडल क्या, जो मांगोगी वो मिल जायेगा ।”
“कुछ ज्यादा ही तोप समझ रहे हो अपने आपको !”
“तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया ।”
“पहले तुम मेरे सवाल का जवाब दो । अगर मेरी धोखा देने की नीयत होगी तो तुम्हारे पूछ लेने भर से मैं इस बात को अपनी जुबानी कबूल कर लूंगी ? अपनी गलत नीयत को कोई कबूल कर लेता है ऐसे ?”
“नहीं ।”
“जब ये बात समझते हो तो क्यों एक बेमानी सवाल पूछते हो ?”
“बात तो ठीक है तुम्हारी लेकिन फिर भी न जाने क्यों मुझे लगा रहा है कि तुम मुझे झूठा या फरेबी जवाब नहीं दोगी ।”
“ऐसा है तो सुन लो मेरा जवाब । मेरी जान पर भी आ बनी तो मैं तुम्हें धोखा नहीं दूंगी ।”
“शुक्रिया ।”
“अब जाओ ।”
विमल जाने को घूमा । उसने दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढाया ।
“ठहरो ।”
विमल ठिठका और मोनिका की ओर वापिस घूमा ।
मोनिका रेशम की गठरी की तरह उस पर ढेर हो गयी । उसके नौजवान जिस्म की तपिश विमल को अपना जिस्म झुलसाती लगी । उसकी लम्बी गोरी बाहें विमल के गले का हार बन गईं और उसके गुलाब की पंखड़ियों जैसे होंठ विमल के होठों पर चस्पां हो गए ।
फिर जैसे एकाएक वो उससे लिपटी थी, वैसे ही एकाएक उससे अलग हो गयी ।
“क्यों ?” - विमल हांफता हुआ बोला - “क्यों किया ?”
“जी चाहा ।” - वो धीरे से बोली - “अन्दर से आवाज उठी । दिल से ख्वाहिश जागी । ऐसा मेरी जिन्दगी में पहले कभी नहीं हुआ ।” - उसने एक आह भरी - “अब जाओ ।”
विमल फ्लैट से बाहर निकल गया ।
उसकी पीठ पीछे फ्लैट का दरवाजा बन्द हो गया ।
***
साढे ग्यारह बजे के करीब हमेशा की तरह ‘शहनशाह’ में सलोमी की चौंका देने वाली आइटम को घोषणा हुई और फिर सलोमी के मादक नृत्य के साथ तमाम मेजों पर कागजी मोमबत्तियां पहुंच गयीं । जो लोग वहां पहले भी आ चुके थे, वो अपने वहां नये आए साथियों को फुसफुसाते हुए बताने लगे कि कैसे सलोमी अभी रिमोट कंट्रोल इस्तेमाल करेगी और तमाम मेजों पर पड़ी मोमबत्तियां गुलदस्ते बनती चली जायेंगी ।
विस्मित नये मेहमान कभी सलोमी को तो कभी सामने पड़ी मोमबत्तियों को देखने लगे ।
फिर बैंड के शोर-शराबे के साथ लगभग नग्न सलोमी घूम-घूमकर नाचते हुए रिमोट दबाना शुरू किया ।
नीम अन्धेरे में रिमोट अपना काम करने लगा ।
लेकिन उस रोज कोई मोमत्ती गुलदस्ता न बनी । उस रोज हर मोमबत्ती गुलदस्ते की तरह खुलने के स्थान पर एक मिनी फव्वारा बन गयी और उसमें से एक तरल पदार्थ की फुहार चारों तरफ उड़ी जो मोमबत्ती पर झुके चेहरों पर पड़ी ।
एक मेहमान ने अपना नैपकिन अपने मुंह पर फिराकर वापिस मेज पर रखा तो ये देखकर उसे सख्त हैरानी हुई कि सफेद नैपकिन एकदम काला लग रहा था । उसने मेज पर अपने साथ बैठे अपने साथियों के चेहरों पर निगाह डाली तो उसके छक्के छूट गये ।
अपने साथियों के चेहरे उसे यूं काले दिखाई दिए जैसे उन पर स्प्रे पेंट किया गया हो ।
बाकियों के साथ भी यही प्रतिक्रिया हुई । सब नैपकिन अपने चेहरों पर फिराने लगे । लेकिन जितना वो चेहरा को पोंछते थे उतना ही काला रंग और तरतीब से चेहरों पर हावी होता चला जाता था ।
हाल में खलबली मच गयी । लोग जोर-जोर से चिल्लाने लगे ।
सलोमी को अपना डांस क्लाइमेक्स से पहले ही रोक देना पड़ा । बैंड भी एकाएक बन्द हो गया ।
फिर हाल की मध्यम बत्तियां तीखी हुई और वहां तेज रोशनी फैली ।
सलोमी ने आतंकित भाव से देखा कि हाल में मौजूद हर व्यक्ति के चेहरे पर कालिख की स्याह परत चढी हुई थी जो पोंछने पर उतरना तो दूर, हलकी भी नहीं हो रही थी ।
वो चीखें मारती हुई स्टेज की ओर भागी ।
शहनशाह का मैनेजर सचदेवा दौड़ता हुआ हाल में पहुंचा ।
“जनाबे हाजरीन” - एकाएक हाल में एक ऊंची आवाज गूंजने लगी - “आपके काले मुंह हफ्तों आपकी ‘शहनशाह’ में हाजिरी के गवाह रहेंगे । हफ्तों जो कोई भी आपकी सूरतों पर निगाह डालेगा, बेहिचक कह देगा कि ये कल मुंहा ‘शहनशाह’ का ग्राहक है । इस जिल्लत से बचिये और अपने दोस्तों को भी बचाइये क्योंकि आज के बाद जो कोई भी यहां कदम रखेगा, मुंह पर कालिख पुतवा के जायेगा ।”
आवाज जैसे एकाएक हाल में गूंजी थी, वैसे ही एकाएक शान्त हो गयी ।
हाल में मरघट का-सा सन्नाटा छा गया ।
“कौन है ?” - फिर सचदेवा के मुंह से निकला - “कौन है ये ?”
“तू कौन है ?” - एक ग्राहक कड़ककर बोला ।
“मैं यहां का मैनेजर हूं । ये अभी कौन बोला...”
“मैनेजर ! यही जिम्मेदार है हमारी फजीहत का !”
“हां । मारो साले को !”
सचदेवा के छक्के छूट गये । वो फौरन वहां से वापिस भागा ।
फिर हाल में एकाएक जैसे प्रलय आ गयी ।
पोर्टेबल पब्लिक अड्रैस सिस्टम का माइक लिये एक भारी पर्दे की ओट में मुबारक अली खड़ा था । कोहराम मचते ही उसने बड़े सन्तुष्टिपूर्ण भाव से गर्दन हिलाई और फिर पब्लिक अड्रैस सिस्टम को वहीं फेंककर चुपचाप वहां से खिसक गया ।
***
आधी रात को लूथरा के घर में उसके फोन की घंटी बजी ।
उसने भुनभुनाते हुए फोन की तरफ हाथ बढाया । यमुना किनारे वाली वारदात के सौ बखेड़ों से निपटकर साढे ग्यारह बजे वो घर पहुंचा था । थका-हारा वो बिस्तर के हवाले हुआ ही थी कि फोन बजने लगा था ।
“हल्लो !” - वो उनींदे स्वर में बोला - “कौन ?”
“मैं ध्यानचन्द बोल रहा हूं ।” - आवाज आयी - “कन्ट्रोल रूम से ।”
“हां, भई ध्यानचन्द । बोल ।”
“अभी कोई दस मिनट पहले धौला कुआं के करीब हुई एक वारदात की खबर आयी है । डी टी सी के रूट पर चलने वाली एक प्राइवेट बस के ड्राइवर और कन्डक्टर...”
लूथरा ऊंघता-सा रिसीवर कान से लगाये रहा । जो कुछ ध्यानचन्द कह रहा था, वो न उसकी समझ में आ रहा था और न वो उसे समझने की कोशिश कर रहा था । लेकिन खबरदार शहरी के किसी कारनामे की कोई खबर उसे फौरन हासिल होने की अब कोई अहमियत नहीं रह गयी थी । यूं उसका जो मकसद हल होना था, वो पहले ही हल हो चुका था ।
सोहल उसके चंगुल में था ।
एक बार रकम हाथ लग जाये - लूथरा ने मन-ही-मन सोचा - फिर साले को गिरफ्तारी से भी नहीं छोडूंगा । फिर सरकारी इनाम भी झटक लूंगा और गुरबख्शलाल का घोषित इनाम भी । इतने बड़े इश्तिहारी मुजरिम को गिरफ्तार करने पर जो जय-जयकार होगी वो अलग । वाह-वाह हो जायेगी सारी दिल्ली पुलिस में सब-इन्स्पेक्टर अजीत लूथरा की । कोई बड़ी बात नहीं कि हाथों हाथ ही इन्स्पेक्टरी मिल जाये ।
स्पेशल इनवैस्टिगेटिंग आफिसर के तौर पर उस वारदात की, जो कि ध्यानचन्द उसे सुना रहा था, तहकीकात करने का जिम्मा लूथरा का था लेकिन जिस थाने के इलाके में वारदात हुई होती थी वहां से उसके पास खबर आते-आते आती थी क्योंकि थाने वालों ने पहले ये निर्धारित करना होता था कि वो कोई आम वारदात थी या खबरदार शहरी का कारनामा था । यूं वारदात की अधिकृत खबर उसे कल दोपहर से पहले शायद ही मिल पाती । तब वो बड़े आराम से जाकर अपनी तफ्तीश कर सकता था ।
एकाएक उसने अनुभव किया कि ध्यानचन्द चुप हो गया था ।
“और ?” - वो बोला ।
“और बस ।” - जवाब मिला ।
“ठीक है । शुक्रिया । ...और ध्यानचन्द !”
“जी साहब ।”
“अब आइन्दा ऐसी किसी वारदात की मुझे फौरन खबर करने की कोई जरूरत नहीं ।”
“जैसा आपका हुक्म हो ।”
“शुक्रिया ।”
लूथरा ने रिसीवर क्रेडल पर रखा और करवट बदलकर सो गया ।
***
कनाट प्लेस के एक पब्लिक टेलीफोन से विमल ने 7217116 पर फोन किया ।
“शिवनारायण जी ?” - उत्तर मिला तो वो बोला ।
“हां । कौन ?”
“पिपलोनिया साहब ?”
“भई बोला न हां । कौन बोल रहे हो ?”
विमल ने रिसीवर वापिस रख दिया ।
फिर वो अली वली के साथ अन्डरग्राउन्ड पार्किंग में पहुंचा । वहां पहले की ही तरह तीनों ने मिलकर पार्किंग के तीनों फ्लोर खंगाले ।
पिपलोनिया की डी आई ए - 7766 नम्बर वाली एम्बेसेडर कार वहां कहीं नहीं थी ।
उसका साफ मतलब था कि उसने जानबूझकर पार्किंग की जगह तब्दील कर दी थी । अब उसकी एम्बैसेडर इतने बड़े शहर में कहीं भी खड़ी हो सकती थी ।
अगले रोज सुबह-सवेरे से ही पिपलोनिया की मुतवातर निगरानी कराने का निर्णय लेकर विमल ने वापिस गोल मार्केट का रुख किया ।