सलीम खान उर्फ नेताजी के उर्दू बाजार में दफ्तर से हर कोई वाकिफ निकला, नेता जी के किसी फैन ने मेरे बिना कहे मुझे वहां पहुंचा भी दिया लेकिन वहां दफ्तर के दरवाजे पर ताला झूलता मिला ।
वजह ?
कोई न बता सका ।
मेरा वहां तक का रहनुमा भी नहीं ।
दफ्तर का ताला खुलने के इन्तजार में कोई आधा घन्टा मैंने सिगरेट फूंकते, इधर-उधर भटकते, गुजारा लेकिन जब ताला न खुला तो कल फिर वहां लौट के आने का इरादा करके मैं वहां से रुख्सत हो गया ।
मैं आजादपुर पहुंचा ।
आजादपुर में पवित्तर सिंह का पता तो मैंने बड़ी सहूलियत से तलाश कर लिया, उसके रूबरू पहुंचने में भी कामयाब हो गया लेकिन ड्रग्स के विषय के मेरी जुबान पर आते ही उसने तो जैसे मेरी जुबान पकड़ ली । फिर उसने पंजाबी में ही उस पंजाबी पुत्तर का ऐसी ‘तेरी मां दी, तेरी भैन दी’ की कि वहां से पनाह मांगते ही बनी ।
कितना गलत ख्याल है दुनिया का कि कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता ? मुझे तो उसने बराबर काटा ।
सलीम खान की तरह झामनानी से मुलाकात में भी मैं कामयाब न हो सका - वो अपने बीडनपुरे वाले ठीये पर मौजूद नहीं था और उसके उस रोज वहां लौटने को भी कोई गारन्टी नहीं थी - यादव के आश्वासन पर भोगीलाल और बृजवासी का अता पता तलाशने की या उनसे मिलने की मैंने खुद ही कोशिश न की ।
बाकी का सारा दिन मैंने दिल्ली के बदनाम इलाकों में भटकते गुजारा ।
कहीं से किसी तरह का भी काई सुराग हासिल न हुआ । ड्रग्स का सबजेक्ट ही ऐसा नाजुक था कि मैं जिन बेशुमार लोगों के मुंह लगा उनमें से अधिकतर ने मुझे कोई पुलिसिया या पुलिस का भेदिया समझा, इसलिये मेरे सामने मुंह खोलना तो दूर, मेरे करीब खड़े रहने से भी परहेज बरता ।
लिहाजा सारे दिन की भाग दौड़ का कोई नतीजा निकला तो सिर्फ यह कि मैं संतोख सिंह नाम के एक सम्भावित डोप पैडलर का नाम जानता था जो कि पहाड़गंज के स्टेटस बार से ऑपरेट करता हो सकता था, जो कि पिछले छ: महीनों में मर चुका हो सकता था, कोई टांग-वांग तुड़ा कर घर या हस्पताल में पड़ा हो सकता था, अपना डोप पैडलर का धन्धा छोड़ चुका हो सकता था, अपना ठीया बदल चुका हो सकता था या ठीये पर पहुंचने का कोई वक्त तब्दील कर चुका हो सकता था ।
बहरहाल मेरे सामने कोई रास्ता खुला था तो वो संतोख सिंह की खबर लेने वाला ही था ।
शाम को घर का रुख करने से पहले मैं करोलबाग में ही स्थित पाण्डेय के घर में पहुंचा । वहां मुझे उसकी बीवी से मालूम हुआ कि पाण्डेय का अन्तिम संस्कार अगले रोज दोपहर से पहले नहीं होने वाला था क्योंकि रानीखेत से पाण्डेय के बड़े भाई और उसकी मां ने आना था जो कि अगले रोज सुबह से पहले दिल्ली नहीं पहुंचने वाले थे ।
अन्तिम संस्कार की जगह लिंक रोड पर स्थित श्मशान घाट बतायी गयी ।
करोलबाग से मैंने अपने घर का रुख किया ।
रास्ते में मैं लाजपतनगर की एक कैमिस्ट शॉप पर रुका । उसका मालिक मेरा वाकिफ था जिसको मैंने अपनी जरूरत समझाई तो उसके मुताबिक दवा की दो शीशियां उसने मुझे सौंपी ।
फिर मैं ग्रेटर कैलाश पार्ट वन पहुंचा जहां के एक किराये के फ्लैट में उन दिनों मेरा आवास था ।
मैंने कार इमारत के समाने खड़ी की । मैंने इमारत का फाटक ठेल कर भीतर कदम रखा ही था कि ग्राउन्ड फ्लोर के बरामदे में ओक साहब प्रकट हुए । बुजुर्गवार मेरे मकान मालिक थे, मुकम्मल तौर से रिटायर जिन्दगी जी रहे थे इसलिये कान खड़े ही रखते थे ये जानने के लिये कि कौन आया था, कौन गया था ।
“कैसे हैं ओक साहब ?” - मैं सीढियों की ओर बढता हुआ बोला ।
उसने सहमति में सिर हिला कर तसदीक की कि सब ठीक था, उससे आगे मैंने उन्हें वार्तालाप की दिशा में कोई मौका न दिया । गर्दन हिलाना रोक कर जब तक उन्होंने जुबान खोली, तब तक मैं पहली मंजिल की आधी सीढियां चढ भी चुका था ।
अपने फ्लैट पर पहुंचकर मैंने कैमिस्ट से मिली एक दवा की दो दो बूंदें अपने दोनों नथुनों में डाली तो जैसे भीतर आग लग गयी । मैं कई बार छींका, कई बार खांसा, कई बार नाक साफ की तो कहीं जाकर मुझे राहत महसूस हुई । मैंने पांच मिनट बाद शीशे में अपनी शक्ल देखी तो मुझे ऐन वही दिखाई दिया जो कि मैं देखना चाहता था । तब मेरे नथुने लाल हो चके थे, उनमें से रह-रह कर पानी रिस रहा था जिसको बाहर टपक पड़ने से रोकने के लिये मुझे बार-बार अपनी सांस खींचनी पड़ती थी ।
दूसरी शीशी की दवा मैंने आंखों मे डाली ।
वो आंखो के डॉक्टरों द्वारा आंखों के मुआयने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली एक्रोपीन जैसी कोई दवा थी, जिससे मेरी आंखों की कोरें लाल हो गयीं, पुतलियां सिकुड़ गयीं और निगाह धुंधला गयी ।
अब मेरी शक्ल एक ऐसे नशेड़ी जैसी बन गयी थी जो कि वक्त पर अपनी नशे की खुराक नहीं ले सका था ।
आखिर में मैंने एक सूई की नोक को सिगरेट लाइटर की लौ पर तपाया और उसे अपनी बायीं बांह पर कोहनी और कलाई के बीच भीतर की तरफ आठ-दस जगह चुभोया । तत्काल वहां ऐसे लाल निशान दिखाई देने लगे जैसे नशे का इंजेक्शन लेले की खातिर सिरंज चुभोई गयी हो ।
फिर मैंने अपना सूट उतारा और उसकी जगह एक घिसी हुई जीन, एक बदरंग सा हाइनैक का लाल पुलोवर और एक चमड़े की जैकेट पहनी । अपना पालिश से चमकता जूता उतार कर मैंने बिना जुर्राबों के एक पुराना जूता पहना । तब मैं आदमकद शीशे के सामने जाकर खड़ा हुआ तो मुझे अपनी तरफ एक पक्का नशेड़ी झांकता लगा ।
अब संतोख सिंह के रूबरू होने के लिये मैं तैयार था ।
***
स्टेटस दरम्याने दर्जे का बार न निकला, वो उससे कहीं नीचे के स्तर का ढाबे से जरा अच्छा बार निकला अलबत्ता वो खूब बड़ा था और रात की उस घड़ी खूब भीड़भरा था ।
कई क्षण मैं बाहर ही खड़ा भीतर का नजारा करता रहा ।
बार के भीतर अधिकतर विदेशी थे और वो ऐसे हिप्पियों, सैलानियों का डेरा लगा रहा था जिन्हें कि भारतीय तौर तरीकों से कुछ लेना देना नहीं था, जिन्हें ये अहसास ही नहीं था कि वे अपने वतन के उन्मुक्त और स्वछन्द वातावरण में नहीं थे ।
बार में खूब आवाजाही थी । मेरे सामने ही एक जोड़ा टैक्सी में से उतरा और बांह में बांह डाले भीतर दाखिल हुआ । उनमें पुरुष कोई तीस साल का था जो सूरत से गोवानी लगता था और जो जिस्म पर जीन जैकेट और सिर पर गोल्फ कैप पहने था । उसकी सहचरी उम्र में बीस से भी कम मालूम होती थी । वो भी जीन जैकेट में थी, अलबत्ता उसके कटे हुए बाल खुले थे । जैकेट के साथ वो एक कालर वाली कमीज पहनी थी जिसके ऊपरी तीन बटन खुले थे और जिसकी वजह से उसकी दूधिया छतियों का नजारा सहज हो रहा था । वैसे थी भी वो फिरंगयों जैसी गोरी और वैसे ही लम्बे कद-काठ वाली थी ।
कहना न होगा कि आपके खादिम की खास तवज्जो उसकी तरफ उसकी सूरत की वजह से नहीं, उसके अवार्ड विनिंग ‘पेयर’ की वजह से गयी थी जिसकी नुमायश भी वो एक विजेता के से अभियान से ही कर रही थी ।
मैं कुछ क्षण और वहीं ठिठका खड़ा रहा और फिर लापरवाही से टहलता हुआ भीतर दाखिल हुआ ।
भीतर सिगरेट के धुयें और शोर-शराबे का बोलबाला था । वहां कोई मेज खाली था तो वो कम से कम मुझे दिखाई न दी । अलबत्ता गोल्फ कैप वाला गोवानी और उसकी सामने से कोहनी तक आने वाली अभिमानिनी संगिनी जरूर खुशकिस्मत थे जो मेरे से जरा ही पहले भीतर दाखिल हुए थे, फिर भी बार काउन्टर के करीब की एक टेबल पर बैठे हुए थे, फिर भी बार काउन्टर के करीब की एक टेबल पर बैठे हुए थे । दोनों काफी ऊंची आवाज में आपस में बतिया रहे थे लेकिन उस शोर शराबे में कुछ पता नहीं लग रहा था कि वो क्या कह रहे थे ।
वहां के माहौल में मुझे एक और भी खूबी का अहसास हुआ । लगता था कि वहां हर कोई हर किसी को जानता था ।
सिवाय मेरे ।
लगता था कि एक मैं ही वहां अजनबी था ।
मैं बार पर पहुंचा । गनीमत थी कि वहां बार काउन्टर के एक कोने में खड़े हो पाने की जगह थी ।
बारमैन मेरे सामने पहुंचा ।
“विन्टेज ।” - मैं पीछे सजी विस्की की बोतलों पर निगाह डालता हुआ बोला - “लार्ज । नो आइस । ओनली कोल्ड वाटर ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया । फिर एक मिनट में विस्की का गिलास मेरे सामने था ।
“पैंतालीस ।” - वो भावहीन स्वर में बोला ।
मैंने जेब से नोटों का एक मोटा पुलन्दा खास उसे दिखाने के लिये निकाला और उसमें से एक सौ का नोट छांट कर उसे दिया ।
वो नोट लेकर चिट क्लर्क तक गया और फिर एक पचास और एक पांच के नोट के साथ वापिस लौटा । उसने दोनों नोट मेरे विस्की के गिलास के करीब रख दिये । मैंने पचास का नोट उठा लिया और धीरे से बोला - “सरदार नहीं दिखाई दे रहा ।”
“कौन सरदार ?” - बारमैन बोला ।
“संतोख सिंह । अया नहीं अभी ?”
तब जैसे पहली बार उसने गौर से मेरी सूरत देखी ।
मैंने बड़े फरमायशी अन्दाज से आंखें मिचमिचाईं और बहती नाक पर जैकेट की एक आस्तीन फिराई । विस्की का गिलास मैंने हाथ के कंपकंपी पैदा करते हुए जानबूझ कर यूं उठाया कि वो छलक गया । उसका घूंट भी मैंने यूं भरा कि विस्की मेरी ठोढी तक वह निकली ।
उसने हर बात नोट की ।
“जान पड़ गयी ।” - मैं बोला - “हां तो क्या कहा ?”
“मैंने तो कुछ नहीं कहा ।” - बारमैन बोला ।
“मैंने संतोखसिंह के बारे में सवाल किया था । कोई जवाब दिया नहीं या मुझे सुनायी नहीं दिया ?”
“मैंने तो कुछ नहीं कहा ।” - वो फिर बोला ।
“अब कह लो, यार । संतोख सिंह आया ?”
“तुम उसे जानते हो ?”
“जाती तौर से नहीं जानता । एक दोस्त ने कहा था कि रात की इस घड़ी वो यहां आता है । मुझे उसकी तलाश है । मुझे उसकी सख्त जरूरत है ।”
“क्यों ?”
“समझो, यार । तुम्हारी क्यों का जवाब क्या बहुत मुश्किल है ?”
“वो अभी नहीं आया ।”
फिर मेरे बोल पाने से पहले उसे बड़ नाशुक्रे अन्दाज से काउन्टर पर से पांच का नोट उठाया और वहां से परे हट गया ।
विस्की चुसकते हुए मैंने हॉल में निगाह दौड़ाई ।
वहां तीन-चार सिख मौजूद थे लेकिन वो सब नौजवान थे । उनमें संतोख सिंह जैसा ढीली ढाली पगड़ी वाला उम्रदराज सिख कोई नहीं था ।
मैंने गिलास खाली किया और उसके पेंदे से काउन्टर ठकठकाया । परे खड़े बारमैन ने मेरी दिशा में देखा तो मैंने ऊंचा करके अपना खाली गिलास उसे दिखाया ।
उसने तत्काल मुझे नया ड्रिंक सर्व किया, बदले में उसी का लौटाया पचास का नोट मैंने उसके हवाले किया ।
“हमेशा की तरह” - मैं बोला - “अभी भी सरदार यहां आता तो है न ?”
उसने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“फिर तो आज भी आयेगा ही ?”
“हो सकता है ।”
“वो दिखाई दे तो मुझे खबरदार कर देना ।”
सहमति में सिर हिलाता वो परे हट गया ।
मैंने फिर हॉल में निगाह दौड़ाई जो कि करीब ही बैठे गोल्फ कैप वाले गोवनी और उसकी संगिनी पर वापिस आकर रुकी । दोनों बड़ी आत्मीयता से बतिया रहे थे और रह कर हंस रहे थे ।
दस मिनट यूं ही गुजरे ।
एक बद्मजा जिम्मेदारी की तरह मैं विस्की चुसकता रहा और सिगरेट के कश लगाता रहा ।
फिर एकाएक मेरे पहलू में एक आदमी पहुंचा । मैंने सहज भाव से सिर उठा कर उसकी तरफ देखा तो मेरा दिल धड़क गया ।
जिस आदमी की फिराक में मैं वहां पहुंचा था, वो मेरे पहलू में खड़ा था ।
वालिया ने उसका बहुत सही हुलिया बयान किया था । वो वाकेई अपनी किस्म का एक ही बन्दा था जो कि हजारों की भीड़ में भी अलग-थलग ही दिखाई देता ।
“हां जी, बाउजी ।” - वह सर्द निगाहों से मुझे घूरता हुआ कुटिल स्वर में बोला - “मुझे पूछ रहे थे ?”
“संतोख सिंह ?” - मैं बोला ।
“नाम कहां से जाना ?” - वो सख्ती से बोला ।
“एक नशे... बन्दे ने दिया ।”
“कौन से बन्दे ने दिया ? कब दिया ? क्यों दिया ?”
“ऐसे तो इत्तफाक से मिल गया था । पिछले ही हफ्ते । अपनी ही राह का राही था इसलिये दिया ।”
“तुम्हारी कौन सी राह है ?”
“समझो ।”
“क्या चाहते हो ?”
“वही जो तुम्हारे पास है ।”
“माल पानी है पल्ले ?”
जवाब में मैंने उसे जेब से नोटों का बंडल निकाल कर दिखाया ।
उसने एकाएक हाथ बढा कर मेरी कलाई थाम ली ।
“ऐसे नहीं छीन सकोगे गुरमुखो ।” - मैं कड़े स्वर में बोला ।
“खामोश !” - वो फुंफकारा ।
तब मैंने देखा उसकी तवज्जो नोटों की तरफ नहीं थी । उसने अपनी खाली हाथ से मेरी कलाई पर से मेरे पुलोवर और जैकेट की आस्तीन सरका का कोहनी तक की और मेरी बांह का मुआयाना किया । बांह की नसों में बने सुई के लाल निशानों को देख कर वो आश्वस्त हुआ । उसने मेरी कलाई छोड़ दी ।
तत्काल मैंने नोट जेब में रखे और आस्तीन व्यविस्थत की । फिर उसने मेरी सूरत का मुआयना किया तो जैसे बिल्कुल ही आश्वस्त हो गया ।
“माल मिल जायेगा ।” - वो धीरे से बोला ।
“बढिया ।” - मैं यूं बोला जैसे मेरी जान में जान आ गयी हो ।
“कितना चाहिये ?”
“आम माल नहीं चाहिये । प्योर चाहिये । अनकट चाहिये ।”
“मिल जायेगा लेकिन नावां ज्यादा लगेगा ।”
“क्यों ?”
“आजकल इधर खरे माल का तोड़ा है ।”
“माल खरा होगा तो मैं ज्यादा कीमत भी भर दूंगा ।”
“एकदम खरा होगा । संतोख सिंह ने कभी खोटा माल नहीं बेचा । सब को मालूम है ।”
“फिर क्या बात है ?”
“कितना ?”
“दो-तीन ग्राम ।”
“दो मिल जायेगा । बीस लगेंगे । हैं पल्ले ?”
“हैं ।”
“बढिया ।”
“निकालो ।”
“पागल हुआ है ? यहां निकालूंगा तो पलक झपकते तू भी जेल में होगा और मैं भी ।”
“तो ?”
“यहां से बाहर निकल कर इम्पीरियल सिनेमा की ओर बढेगा तो रास्ते में एक संकरी गली आयेगी । उस गली में चलेगा तो दायीं तरफ एक लाल ईटों की दीवार मिलेगी जिसमें एक लकड़ी का फाटक लगा हुआ है । फाटक को ताला नहीं होता । वह धकेलने से खुल जायेगा । फाटक से आगे एक बहुत बड़ा अन्धेरा कम्पाउन्ड है यहां पहुंच कर सीटी बजाना तो मैं समझ जाऊंगा कि तू आया था ।”
“तुम पहले वहां पहुंचोगे ?”
“हां । मैं जाता हूं । मेरे जाने के पांच मिनट बाद यहां से निकलना । समझ गये ?”
“हां ।”
“वदिया ।”
फिर वो एकाएक घूमा और लम्बे डग भरता वहां से बाहर को चल दिया ।
मैंने घड़ी देखी ।
दस बजने को थे ।
ठीक पांच मिनट बाद मैं वहां से रुख्सत हुआ ।
संकरी गली तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत न हुई । मैंने पाया कि वो गली भी अन्धेरी थी जिसकी वजह से मैं एक एक कदम फूंक कर चलता हुआ लकड़ी के फाटक तक पहुंचा । फाटक से पास मुझे घुप्प अन्धेरा मिला । मैंने फाटक को धक्का दिया तो वो चरचराता हुआ भीतरद को झूल गया । झिझकते हुए मैंने उससे पार अन्धेरे कम्पाउन्ड में कदम डाला । आठ दस कदम आगे पहुंचकर एक पेड़ के करीब मैं ठिठका और फिर होंठ सिकोड़कर हौले सीटी बजाने लगा ।
“बस ।” - कोई मेरे करीब से बोला - “काफी है ।”
वो संतोख सिंह की आवाज थी ।
पता नहीं वो पहले से ही मेरे इतने करीब खड़ा था या तब दबे पांव करीब आ खड़ा हुआ था ।
मैंने तत्काल सीटी बजानी बन्द कर दी ।
“नावां किधर है ?”
मैंने जैकेट की जेब की तरफ हाथ बढाया तो एक हाथ मेरी बांह पर पड़ा, फिर एक दूसरा हाथ मेरी जैकेट की जेब में दाखिल हुआ और नोटों के बंडल के साथ बाहर निकल गया ।
“मिल गया ?” - संतोख सिंह बोला ।
तब मेरी समझ में आया कि मेरी जेब में दाखिल हुआ हाथ संतोख सिंह का नहीं था । मेरी कलाई भी संतोख सिंह ने नहीं थामी थी । वो दोनों काम उसके जोड़ीदार किसी और शख्स ने किये थे जो कि मेरी पीठ पीछे खड़ा था और जिससे अभी सरदार ने सवाल किया था । मैं दो गुण्डों के बीच में सैंडविच की तरह फंसा हुआ था और उनके इरादे मेरा माल लूट लेने से भ ज्यादा खतरनाक हो सकते थे ।
एक क्षण के लिये मेरी आंखों के आगे मोर्ग में पड़ी हरीश पाण्डेय की लाश लहराई ।
अब क्या मैं भी उसके जैसे अंजाम के ही हवाले होने वाला था ?
उस घड़ी किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मैंने अन्धेरे में सामने हाथ और पीछे टांग चलाई । मेरे दोनों ही अंग पीछे खड़े दोनों जनों से टकराये । पिछले वाले के मुंह से हैरानी भरी सिसकरी निकली, सामने वाले के - सरदार के - मुंह से ‘तेरी भैन दी ओये’ निकला । मैंने दोनों के बीच से एक बाजू छलांग लगाई और तत्काल स्थिर हो गया । उस घड़ी अन्धेरा ही मेरा रक्षक था । उस घुप्प अन्धेरे में जब वो दानों मुझे दिखाई नहीं दे रहे थे तो मैं भी उन्हें दिखाई दे रहा नहीं हो सकता था ।
कितने ही क्षण वैसे ही स्तब्धता में गुजरे ।
फिर सांस रोके, दबे पांव मैं अन्दाजन उधर बढा जिधर से कि मैं आया था, जिधर कि लकड़ी का फाटक था ।
मैं निविघ्न फाटक तक पहुंचा गया ।
वहां पहुंचते ही मुझे अपनी बेवकूफी का अहसास हुआ और मेरी समझ में आया कि मैं क्योंकर निर्विघ्न फाटक तक पहुंच गया था । मेरे दुश्मन उस जगह से बाहर निकलने का फाटक ही एक रास्ता था जहां कि मैंने पहुंचना ही था और जहां वो चुपचाप मेरे से पहले पहुंच गये थे ।
एकाएक मेरी कनपटी पर एक ऐसा भीषण प्रहार हुआ कि जमीन से मेरे पांव उखड़ गये । मेरी आंखों के आगे लाल-पीले सितारे नाच गये । मैं लड़खड़ाता हुआ पीछे हटा और बड़ी मुश्किल से स्वयं को धराशायी होने से बचा पाया ।
तभी एक करिश्मे की तरह फाटक के करीब अन्धकार में एकाएक रोशनी हुई जिसकी चमक में मुझे उकड़, दोबारा हमले को तैयार, अपनी ओर बढता सरदार दिखाई दिया ।
उस घड़ी मेरा सिर बुरी तरह चक्कर खा रहा था और मैं अपने आप में इतनी भी ताकत नहीं पा रहा था कि अपने बचाव में कुछ कर पाता ।
सरदार का राक्षसी आकार अब ऐन मेरे सामने था ।
तभी एकाएक एक फायर की आवाज हुई ।
फिर सरदार मेरी आंखो के सामने निशब्द मुंह के बल जमीन पर गिरा ।
“कोहली !” - एक तीखी, अजनबी आवाज मेरे कानों में पड़ी - “होशियार ।”
हाशियार हो पाने की स्थिति में तो मैं था ही नहीं लेकिन फिर भी ऐसी कोई कोशिश कर पाने से पहले मेरी खोपड़ी पर फिर एक बार वार हुआ, मुझे फिर एक फायर होने का आवाज आयी और फिर मेरी चेतना लुप्त हो गयी ।
***
पता नहीं कब मुझे होश आया ।
मेरे लिये ये अन्दाजा लगा पाना भी मुहाल था कि होश मुझे एक मिनट बाद आया था या एक घन्टे बाद । सोते जागते, अन्धेरे के गर्त्त में डूबते उतराते मुझे ये अहसास हुआ था कि कोई मेरी बगलों में हाथ डालकर मुझे उठा कर मेरे पैरों पर खड़ा करने की कोशिश कर रहा था । दो आवाजें मेरे झनझनाते कानों में पड़ रही थी लेकिन क्या कहा जा रहा था, ये समझ पाने की स्थिति में मैं नहीं था । उस घड़ी मैं ये तक समझ पाने में असमर्थ था कि तब भी मैं उसे अन्धेरे कम्पाउन्ड में ही था जहां कि दो बार मेरे पर हमला हुआ था या कहीं और था । मेरी कनपटियों में, सिर में, गर्दन में धाड़-धाड़ खून बज रहा था और आंखों के सामने रंगीन सितारे अभी भी रह रह कर नाच उठते थे ।
फिर हौले हौले मेरे जेहन से अन्धेरा छंटने लगा और मुझे अपनी आंखों के सामने नाचती रोशनियां दिखाई देने लगी । फिर मुझे एकाएक अहसास हुआ कि मैं तेज रफ्तार से दौड़ती एक कार में मौजूद था ।
मैंने उठकर सीधा होने की कोशिश की ।
“ही इज मूविंग ।” - एक स्त्री मेरे कानों में पड़ा - “मीनिंग ही इज अलाइव ।”
“जिन्दा है” - एक पुरुष स्वर सुनायी दिया - “और होश में आ रहा है ।”
मैंने जोर से आंखें मिचमिचाई और अपने दायें बायें देखा । तब मुझे अहसास हुआ कि मैं एक कार की अगली सीट पर मौजूद था । कार को पुरुष चला रहा था जबकि स्त्री मेरे बायें पहलू में थी । बड़ी कठिनाई से बारी बारी मैं दोनों सूरतों पर अपनी निगाहें फोकस कर पाया ।
“हैरान हो रहा है ।” - पुरुष, जो कि गोल्फ कैप वाला गोवानी था बोला ।
युवती, जो कि उसकी सामने से कोहनी तक आने वाली संगिनी थी, हंसी और फिर बोली - “अब दिमाग भी ठिकाने आ गया मालूम होता है ।”
“हां । लगता है, हमें पहचान भी रहा है ।”
“वैल !” - युवती मुझे कोहनी मारती हुई बोली ।
“क्या हुआ था ?” - मैं फंसे कण्ठ से बोला ।
“जो हुआ था तुम्हारे लिये तो अच्छा ही हुआ था ।”
“लेकिन हुआ क्या था ?”
“तुम जब बार से उठ कर बाहर को चले थे, इत्तफाक से तभी हमने भी टेबल छोड़ी थी । बाहर हमने एक गैंगस्टर से लगने वाले आदमी को तुम्हारे पीछे लगते देखा था । हमें मामला गड़बड़ लगा था, तुम हमें अपने बिरादरी भाई लगे थे इसलिये हमने खामोशी से तुम लोगों का पीछा किया था । जब तुम अन्धेरी गली में दाखिल हुए थे और वो गैंगस्टर वहां भी दबे पांव तुम्हारे पीछे गया था तो हम समझ गये थे कि आगे कहीं तुम्हारा कोई खास ही बुरा अंजाम होने वाला था ।”
“आगे यार्ड में” - पुरुष बोला - “तुम्हारे साथ जो बीती उसने साबित कर दिया कि हमारा अन्देशा सही था ।”
“समझ लो कि” - युवती बोली - “हमारी वजह से तुम्हारी जान बची ।”
“और माल भी ।” - पुरुष बोला ।
“माल भी ?”
“हां ।”
फिर युवती ने मेरे, पीछे यार्ड में छिने, नोट मेरी गोद में डाल दिये ।
“शुक्रिया ।” - मैं बोला ।
वो केवल मुस्कुराई ।
“वो दो थे ।” - फिर मैं सोचता हुआ बोला ।
“हमने तो एक ही जने का पीछा किया था ।” - युवती बोली - “दूसरा जरूर पहले से उस अन्धेरे यार्ड में मौजूद रहा होगा ।”
“वहां गये क्यों थे ?” - पुरुष ने पूछा ।
“उस आदमी से मिलने गया था ।” - मैं बोला - “जो कि पहले से वहां मौजूद था ।”
“तुम उन दोनों की मिली भगत के शिकार हुए थे । वो लोग तुम्हें लूटना चाहते थे ।”
“अब तो ऐसा ही मालूम होता है ।”
“और तुम्हें फिनिश करना चाहते थे ।” - युवती बोली ।
“हां ।” - मैं अपनी सांय सांय करती खोपड़ी और कनपटी सहलाता हुआ बोला - “अब तो ऐसा ही मालूम होता है । मैं आप लोगो का शुक्रगुजार हूं कि आपने मेरी जान बचायी ।”
“नैवर माइन्ड ।”
“अब हम कहां जा रहे हैं ?”
जवाब देने की जगह युवती ने पुरुष की ओर देखा ।
“हम तुम्हें अपने एक दोस्त के यहां ले जा रहे हैं” - पुरुष बोला - “जहां कि तुम्हारी कोई मलहम-पट्टी हो सकेगी । तुम्हें अहसास नहीं मालूम होता लेकिन तुम्हारी कनपटी पर काफी चोट आयी है । चमड़ी खुल गयी है और उसमें से अभी भी खून रिस रहा है ।”
“तुम्हें फर्स्ट एड की सख्त जरूरत है ।” - युवती बोली ।
“हमारा दोस्त डॉक्टर है ।” - पुरुष बोला ।
“सो” - युवती बोली - “जस्ट रिलैक्स मिस्टर कोह...”
तत्काल वो खामोश हो गयी ।
वो निश्चय ही मेरा नाम लेने जा रही थी । पीछे अन्धेरे कम्पाउन्ड में भी किसी ने मुझे नाम लेकर पुकारा था ।
मेरे जेहन में खतरे की घन्टी बजने लगी ।
स्टेटस बार पर मैंने उन्हें एक टैक्सी कार में सवार होकर पहुंचते देखा था लेकिन अब हम एक बड़ी कार में सवार थे । ऊपर से वो लोग बाखूबी जानते मालूम होते थे कि मैं कौन था ।
मैंने एक झटके से उठ कर सीधा होने की काशिश की ।
“कोई होशियारी नहीं मिस्टर कोहली” - युवती चेतावनी भरे स्वर में बोली - “कोई हाशियारी नहीं ।”
एक क्षण को उसने मेरी ओर वाला हाथ तनिक ऊंचा किया तो मुझे उसमें एक रिवॉल्वर दिखाई दी ।
“जरा जल्दी चेत गये ।” - वो बोली - “हमारे अपनी मंजिल पर पहुंच जाने तक बेहोश ही रहते तो अच्छा होता । खैर, कोई बात नहीं । अब बराय मेहरबानी अपने हाथों को अपने घुटनों में दबा लो और ऐसे ही बैठे रहो । कोई हाशियारी दिखाने की कोशिश करोगे तो मुझे रिवॉल्वर को काम में लाना पड़ेगा ।”
“मुझे मार डालने के लिये ?”
“नहीं । हमारी कोशिश तो तुम्हें सलामत रखने की ही होगी । बाज नहीं आओगे तो भी जान से तो नहीं मारेंगे लेकिन तुम्हारी तकलीफ बढ जायेगी । अब जो काम फर्स्ट एड से ही हो जायेगा, वो तब सर्जरी से होगा ।”
“सो देयर ।” - पुरुष बोला ।
मैं कुछ न बोला । मैंने खामोशी से आदेश का पालन किया ।
“गुड ।” - युवती बोली ।
फिर उन दोनों में कोई इशारेबाजी हुई जिसके फलस्वरूप तत्काल कार की रफ्तार तेज हो गयी ।
खामोशी से सफर कटता रहा ।
मैंने गाहेबगाहे रास्ता पहचानने की कोशिश की तो कभी कोई जगह मेरी पहचान में आयी तो कभी नहीं आयी । कुल जमा मैं ये निर्धारित न कर सका कि हम दिल्ली शहर की कौन सी दिशा में बढ रहे थे । एक दो बार मुझे ये तक अहसास हुआ कि वो जिस रास्ते से एक बार गुजरते थे, उसी पर फिर वापिस लौट आते थे । जरूर ऐसा वो मुझे कनफ्यूज करने के लिये ही कर रहे थे ।
आखिरकार कार की रफ्तार कम होनी शुरु हुई ।
मैंने सिर उठाकर बाहर झांकने की कोशिश कि तो युवती ने मेरे सिर को पकड़कर जबरन नीचे मेरे घुटनों तक झुका दिया ।
“ऐसे ही रहना है ।” - वो मेरे कान में बोली - “बस थोड़ी देर की जहमत है ।”
मैं खामोश रहा ।
थोड़ी देर बार कार रुकी तो उसने मेरी गर्दन छोड़ी । मैंने सिर उठाया तो कार को एक गैराज में खड़ी पाया ।
वो दोनों कार से बाहर निकले । पुरुष ने मुझे भी बांह पकड़कर कार से बाहर निकाला । दोनों मुझे अपने बीच में चलाते हुए एक पिछले दरवाजे की तरफ बढे । उस दरवाजे के आगे एक लम्बा नीमअन्धेरा गलियारा था जिसके एक बन्द दरवाजे के सामने हम रुके । युवती ने दरवाजे को धक्का देकर खोला तो पुरुष ने मुझे धकेल दिया ।
वो एक आम कमरों जैसा कमरा था जिसकी इकलौती खिड़की बन्द थी और जिसके आगे एक मोटा पर्दा झुल रहा था । वहां बायीं ओर एक ऑफिस टेबल लगी हुई थी और दाई ओर दीवार से सटा एक सोफा पड़ा था । कमरे में रोशनी का साधन सामने दीवार पर लगी एक ट्यूब लाइट थी ।
“बैठो ।” - युवती सोफे की तरफ इशारा करती हुई बोली ।
मैं आगे बढा और सोफे पर ढेर हो गया ।
पुरुष, जिसने चौखट लांघने की कोशिश नहीं कि थी, एकाएक घूमा और वहां से रूख्सत हो गया ।
“मैं कहां हूं ?” - पीछे मैंने पूछा ।
युवती केवल मुस्कराई ।
“इतना तो बताओ कि मुझे यहां क्यों लाया गया है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।” - वो बोली - “आनेस्ट ।”
“तुम्हारे ब्वायफ्रेंड को मालूम होगा ।”
“ब्वायफ्रेंड ?”
“वो गोल्फ कैप वालला जो तुम्हारे साथ था । जो गाड़ी चला रहा था ! जो अभी यहां से गया था !”
“उसे भी नहीं मालूम ।”
“कोई तो वजह होगी ?”
“जरूर होगी । बेवजह कहीं कोई काम होता है ? लेकिन वो वजह मुझे नहीं मालूम ।”
“तो मुझे यहां क्यों लायीं ?”
“क्योंकि मुझे ऐसा करने के लिये कहा गया था । आई आलवेज फालो आर्डर्स विदाउट आस्किंग क्वेश्चंस ।”
“किस के आर्डर फालो करती हो ?”
जवाब में वो फिर मुस्कराई ।
“कौन है तुम्हारा बॉस ?”
“खामोश बैठो । प्लीज़”
मैं खामोश हो गया ।
कुछ क्षण वैसे ही खामोशी में कटे ।
फिर दरवाजा खुला और एक औरत ने भीतर कदम रखा । उसने एक बार घूर कर देखा और फिर युवती को इशारा किया ।
युवती तत्काल वहां से कूच कर गयी ।
औरत आगे बढी और ऐन मेरे सामने आ खड़ी हुई ।
वो कोई पैंतीस साल की लम्बी ऊंची औरत थी जो कि नयन नक्श, कटे बालों और पोशाक - टखनों तक आने वाला महरून रंग का गाउन - से विदेशी मालूम होती थी ।
उसने मेरी ठोड़ी पकड़ कर मेरे सिर को पहले ऊपर और फिर दायें बायें घुमाकर मुआयना किया कि मैं किस हद तक चोटिल था !
“बहुत जुल्म ढाया कमीनों ने ।” - वो अंग्रेजी में बोली - “लेकिन इत्मीनान रखो, सब ठीक हो जायेगा ।”
युवती वापिस लौटी ।
मैंने देखा उसके हाथ में फर्स्ट एड का बक्सा और गर्म पानी की पतीली थी । अपनी बांह पर वो एक तौलिया लटकाये थी । उसने वो सब सामान सोफे के करीब पड़े एक स्टूल पर रख दिया और जैसे खामोशी से वहां पहुंची थी, वैसे ही खामोशी से वापिस लौट गयी ।
औरत ने ऑफिस टेबल के करीब से एक कुर्सी सोफे के पास घसीट ली और उस पर बैठ गयी ।
अगले पांच-सात मिनट उसने बहुत एहतियात से मेरी मलहम-पट्टी में गुजारे ।
“अब कैसा लग रहा है ?” - आखिरकार वो बोली ।
“ठीक ।” - मैं बोला ।
“खामखाह पंगा नहीं लेना चाहिये । नो ?”
“यस ।”
“गलती को सुधार लेना भी दानिशमंदी होती है । गलत रास्ते पर उठा कदम रोक लेना भी गलती को सुधारना ही होता है । नो ?”
“यस ।”
कमीनी जरूर बच्चे पढाती थी ।
“बन्द कर दो सब पंगेबाजी । ओके ?”
“ओके ।”
“गुड । आई एम ग्लैड । अब बताओ पंगेबाजी शुरु क्यों की ? किसके कहने पर की ?”
“मैं समझा नहीं ।”
उसने आगे की झुक कर मेरा गाल थपथपाया तो मुझे उसके गाउन के गिरहबान के भीतर, खूब भीतर, तक झांकने का मौका मिला ।
नजारा दिलकश था । आपके खादिम को पसन्द आया । अलबत्ता वैसा कोई नजारा एनजॉय करने का ने वो कोई वक्त था, न वैसा कोई माहौल था ।
“किसने भेजा तुम्हें ?” - फिर उसने यूं मीठे स्वर में सवाल किया जैसे कोई अध्यापिका अपने प्रिय छात्र से लाड कर रही हो - “उस शख्स का नाम बोला जिसकी वजह से तुम स्टेटस बार में पहुंचे थे ।”
“हरीश पाण्डेय ।”
“गुड । कौन है ये हरीश पाण्डेय और कहां है ये इस वक्त ?”
“हरीश पाण्डेय मेरा दोस्त है और इस वक्त एक सरकारी हस्पताल में मुर्दाघर में पड़ा है ।”
तत्काल उसने यूं मेरे गाल पर से अपना हाथ खींचा जैसे अंगारा छू गया हो । फिर उसने दान्त किटकिटाये और उसी हाथ का एक झांपड़ मेरे गाल पर रसीद किया । नफरत के शोले बरसाती आंखों से उसने मेरी तरफ देखा और फिर उठ कर खड़ी हो गयी ।
“नोरा !” - वो गला फाड़ कर चिल्लाई ।
तत्काल एथलीटों जैसे जिस्म वाला एक हट्टाकट्टा आदमी वहां पहुंचा ।
दोनों में कुछ क्षण के लिये खुसर पुसर में कुछ शब्दों का आदान प्रदान हुआ । फिर औरत वहां से रुख्सत हो गयी । उसके जाते ही दो और, सूरत से ही दादा लगने वाले, आदमी वहां पहुंच गये ।
“मिस्टर कोहली” - फिर पहले वहां पहुंचा, नोरा नाम का आदमी बड़े संजीदा लहजे से बोला - “अगर अक्ल से काम लो तो तुम हमें, और खुद अपने आपको भी, भारी जहमत से बचा सकते हो ।”
“ये सलाह दे रहे हो या धमकी दे रहे हो ?”
“है तो सलाह ही, धमकी समझो तो भी चलेगा ।”
“ऐसा ?”
“हां । जो हम जानना चाहते हैं वो तुम राजी से नहीं बताओगे तो मजबूरन हमें तुम्हारी जुबान जबरन खुलवानी पड़ेगी ।”
“अरे, पहले ये तो पता लगे की तुम जानना क्या चाहते हो ? पहले वो औरत इशारों में बात कर रही थी, अब तुम इशारों में बात कर रहे हो ।”
“तुम्हें खूब मालूम है हम क्या जानना, चाहते है !”
“मैं तुम लोगों को नहीं जानता । मैं तुम लोगों के मतलब की कोई बात कैसे जानता हो सकता हूं ?”
“तुम जानते हो और खूब जानते हो । बोलो, तुम्हारे पीठ पर कौन है ? उस पाण्डेय नाम के शख्स की पीठ पर कौन था ? तुम दोनों किसके लिये काम कर रहे हो ?”
“इसका जवाब तो आसान है और जवाब देने में मुझे कोई गुरेज भी नहीं ।”
“गुड ।”
“पाण्डेय मेरे लिये काम कर रहा था । मैं किस के लिये काम कर रहा हूं, ये मुझे नहीं मालूम ।”
“क्या बकते हो ?”
“अलबत्ता जानने का उतना ही तलबगार हूं जितने कि तुम ।”
“क्या मतलब है तुम्हारा ?”
प्रिया सिब्बल के अपने ऑफिस में आगमन की कहानी मैंने उसे सुनायी और यह भी बताया कि मैंने अपनी उस कथित क्लायन्ट के लिये पाण्डेय को किस काम से लगाया था !
केवल हेरोइन और दिनेश वालिया के जिक्र से मैंने परहेज रखा ।
“कहानी अच्छी है ।” - वो बोला - “बहुत सूझबूझ कर गढी है । कहीं-कहीं सच्चाई का छोंक भी है लेकिन इसका मकसद हकीकत छुपाना ही है ।”
“मैं जो जानता था, मैंने बता दिया ।”
“डियर ब्रदर, सब कुछ नहीं तो कुछ हम भी जानते हैं ।”
“क्या ?”
“तुम स्टेटस बार में डोप एडिक्ट का बहुरूप धारण करके गये थे । वहां तुम्हें एक नामी डोप पुशर की तलाश थी जिससे कि पहले बार में और फिर बार से बाहर तुम्हारी मुलाकात भी हुई थी । अगर बात उस प्रिया सिब्बल नाम की औरत के खाविन्द पर निगाह रखने तक ही सीमित थी तो फिर वो तमाम ड्रामा किसलिये जो कि तुमने पहाड़गंज के उस बार में किया ?”
मेरे से जवाब देते न बना ।
“मिस्टर कोहली, तुम अपनी मर्जी से वहां नहीं गये थे । तुम्हें वहां भेजा गया था । अब बोलो किसने भेजा था तुम्हें वहां ?”
“किसी ने नहीं । मैने जो किया, अपने जिम्मे से, अपनी मर्जी से किया । इसलिये किया क्योंकि मुझे हरीश पाण्डेय के हत्यारे की तलाश है । जो हकीकत है, वो ये ही है, आगे इसे मानना या न मानना तुम्हारी मर्जी पर मुनहसर है ।”
उसकी सुरत पर स्पष्ट ऐसे भाव आये जैसे न मानना ही उसकी मर्जी थी ।
“तो ये तुम्हारा फाइनल जवाब है ?” - वो बोला ।
“हां ।”
“ठीक है ।”
उसने अपने पीछे खड़े दोनों आदमियों को संकेत किया ।
तत्काल दोनों बाज की तरह मेरे पर झपटे ।
जरूर सुधीर कोहली, दि लक्की बास्टर्ड, की फेमस लक तेल लेने गयी हुई थी ।
उस रात दूसरी बार मेरे पर आक्रमण हुआ और मेरी चेतना लुप्त हुई ।
***
मुझे होश आया ।
बड़ी कठिनाई से मैं समझ पाया कि मैं एक चलते वाहन की अगली पिछली दोनों सीटों के बीच फर्श पर पड़ा था । मेरी आंखों के सामने ऐसा अन्धेरा था कि उनको खोलने या बन्द रखने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था ।
फिर वो वाहन, इंजन की आवाज से जो कि कार ही मालूम होता था, रुका ।
पिछला दरवाजा खुला ।
मैंने आंखें भींच लीं और यही जाहिर किया कि मैं तब भी बेहोश था ।
किसी ने मुझे घसीट कर कार से बाहर निकाला । उसने मुझे अपने कन्धे पर लाद लिया और आगे बढा । सावधानी से मैंने एक आंख खोली तो पाया कि उस शख्स की बगल में एक दूसरा शख्स भी चल रहा था ।
जरूर वो वही दोनों मवाली थे जो नोरा ने बुलाये थे और जिन्होंने मुझे रूई की तरह धुना था ।
मैंने दोनों आंखें खोलकर दायें-बायें झांका तो तत्काल मैंने उस जगह को पहचाना ।
हम वजीराबाद के जमना ब्रिज पर थे ।
वो दोनों एकाएक रूके । जो मुझे उठाये था, उसने मुझे अपने कन्धे पर से उतारकर पुल की रेलिंग पर टांग दिया ।
“रिवॉल्वर निकाल ।” - वो दबे स्वर में बोला ।
उनके इरादे भांपते मुझे देर न लगी । जरूर वो मुझे शूट करके पुल पर से मेरी लाश दरिया में फेंक देना चाहते थे ।
फौरन कुछ करना जरूरी था ।
उस घड़ी क्या कर सकता था मैं ?
मैं एक ही काम कर सकता था जो कि मैंने किया ।
मैने खुद ही अपने आपको पुल पर से नीचे दरिया में गिरा दिया ।
पीछे किसी ने जोर से सिसकारी भरी ।
मैं पानी से जाकर टकराया और उसमें हाथ पांव मारने लगा ।
एक फायर हुआ ।
मेरे करीब पानी जोर से फव्वारे की तरह उछला ।
मैं तेजी से जिधर सींग समाये, उधर तैरने लगा ।
उन दोनों में से कोई मेरे पीछे छलांग लगा देता, इस बात की मुझे उम्मीद नहीं थी । लेकिन वो पुल से उतर कर दरिया के किनारे पहुंच सकते थे और घात लगाये इन्तजार कर सकते थे कि मैं पानी में कहां था या मैं कहां से किनारे का रूख करता था !
भगवान से बार-बार प्रार्थना करता, कि उन्हें ऐसा करना न सूझता, मैं पूरी शक्ति से अपने सामने तैरता रहा ।
जैकेट पतलून पहने तैरना भी कौन-सा आसान काम था ?
फिर मुझे सूझा कि किनारे से घात लगाने की क्या जरूरत थी ! वो किश्ती लेकर दरिया में उतर सकते थे - वजीराबाद के पुल के नीचे छोटी किश्तियां आम उपलब्ध होती थीं - और बड़े इत्मीनान से मेरे सिर पर पहुंच सकते थे ।
मैं और भी घबरा गया और और तेजी से पानी में हाथ-पांव मारने लगा ।
जब और तैर पाना मुझे असम्भव लगने लगा तो मजबूरन मैंने किनारे का रूख किया ।
अब पता नहीं उन्होंने क्या किया या क्या नहीं किया, लेकिन न तो दोबारा कोई गोली चली और न ही मेरे किनारे पहुंचने में कोई विघ्न आया ।
किनारे पहुंच कर लड़खड़ाती चाल से मैं उधर बढा जिधर मुझे रिहायश की, आबादी की, चुगली करती रोशनियां दिखाई दे रही थीं ।
उस घड़ी वो गुन्डे मेरे सिर पर पहुंच जाते तो वो चुटकी से मच्छर मसलने जैसी सहूलियत से मेरा काम तमाम कर सकते थे ।
लेकिन ऐसा कुछ न हुआ । मैं निर्विघ्न एक कोठी के पिछवाड़े की चारदीवारी तक पहुंच गया । कोठी में सन्नाटा था इसलिये मैं हिम्मत कर के उधर की दीवार पर चढ गया और भीतर कम्पाउन्ड में कूद गया ।
कितनी ही देर मैं जहां कूदा, वहीं गिरा पड़ा रहा और हांफता हुआ अपने फट पड़ने को आमादा फेफड़ों पर काबू पाने का प्रयत्न करता रहा ।
अब उस कोठी के मालिकान मेरी कोई भी गत बनाते, कम से कम उन गुण्डों से मैं सेफ था । बद्किस्मती से अगर उन्होंने मुझे दीवार फांदते ही नहीं देख लिया था तो अब उन्हें सात जन्म खबर नहीं लग सकती थी कि मैं कहां था ?
आपके खादिम की यह भी एक ट्रेजेडी थी कि जो कुछ हो रहा था, किसी पेईंग क्लायन्ट की खातिर नहीं हो रहा था जिससे कि मैं अपनी उन तमाम दुश्वारियों की कोई मोटी उजरत या जुर्माना चार्ज कर पाता ।
कितनी ही देर कांपता ठिठुरता मैं जहां गिरा था, वहीं मुंह के बल पड़ा रहा ।
फिर आखिरकार मैं हिम्मत करके उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ ।
अब मेरा इरादा उस कोठी वालों से मदद मांगने का था । मदद करने की जगह वो मुझे पुलिस के हवाले भी कर देते तो ये बात मुझे माफिक आने वाली थी ।
मन मन के कदम रखता, लड़खड़ाता, गिरता पड़ता मैं कम्पाउन्ड में आगे बढा ।
मैं पिछले बरामदे के करीब पहुंचा तो एकाएक पिछवाड़े की एक बत्ती जली - उसका स्विच जरूर कहीं कोठी के भीतर था - और वहां रोशनी छा गयी ।
“कौन है ?” - कोई तीखे स्वर में बोला ।
“म... मैं...मैं...”
उससे आगे मैं कुछ न बोल पाया । मुझे एकाएक जोर का चक्कर आया और मैं औंधे मुंह बरामदे में जाकर गिरा । मैं फिर - चन्द घन्टों में तीसरी बार - बेहोशी की आगोश में था ।
***
उस बार मुझे होश आया तो मैंने अपने आपको एक विशाल पलंग पर लेटे पाया । मैंने उचक कर चारों तरफ निगाह दौड़ाई तो पाया कि मैं एक आलीशान बैडरूम में था जिसकी एक खिड़की पर पड़े झीने पर्दे के पीछे से बाहर भोर का उजाला फैलता होने का आभास मिल रहा था । मैंने उठकर सीधा होने की कोशिश की तो मुझे अहसास हुआ कि मेरे जिस्म पर अन्डरवियर के अलावा कोई कपड़ा नहीं था ।
फिर मेरी निगाह वार्डरोब के हैंडल के साथ लटकते एक हैंगर पर पड़ी ।
मैंने राहत की सांस ली ।
मेरी पिछली रात की पोशाक - जीन, पुलोवर, जैकेट - वहां मौजूद थे । जैसे सूखे वो दिख रहे थे, उससे लगता था कि किसी ने उन्हें सुखाने में खासी मेहनत की थी ।
वहीं फर्श पर मेरा जूतों का जोड़ा भी पड़ा था और वो भी सूखा मालूम पड़ रहा था ।
मैंने उठ कर कपड़े जूते अपने काबू में किये और अटैच्ड बाथरूम में दाखिल हुआ ।
दस मिनट बाद जब मैं वहां से बाहर निकला तो बैडरूम के प्रवेश द्वार के करीब मुझे एक युवती खड़ी दिखाई दी । युवती पर मेरी निगाह क्षण भर भी न टिक पाई क्योंकि - उसके पहलू में रजनी खड़ी थी ।
“सरपराइज़ ! सरपराइज़ !” - वो मुस्कराती हुई बोली ।
मैं हक्का-बक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“बॉस जाग गये ।” - वो नाटकीय स्वर में बोली - “कायनात स्टार्ट की जाये ।”
“त... तू... तू यहां ?”
“ऐसे इत्तफाक फिल्मों में ही होते हैं । फिल्मों से बाहर कहीं होते हैं तो प्राइवेट डिटेक्टिव सुधीर कोहली दि ओनली वन के साथ ही होते हैं । समझ लीजिये कि आपकी फेमस लक को अब कुल जमा आठ चांद लग गये ।”
“आठ ?”
“चार तो पहले से ही लगे हुए हैं ।”
“तू यहां कैसे ?”
“बोला न इत्तफाक से ।”
“लेकिन... ये... ये कौन है ?”
“ये वैशाली है जो कि एक तरह से मेरी रिश्तेदार है ।”
“एक तरह से ?”
“हां ।”
“एक तरह से का क्या मतलब हुआ ?”
“वो क्या है कि इसके पहले हसबैंड की कजन और मेरे दूसरे कजन की पहली बीवी की मौसी की जिन दो भाइयों से शादी हुई थी, वो मेरी मां के चाचा के भांजे थे । इसका नाना और मेरी दादी आपस में दूर के रिश्ते के कजन थे और इसकी सौतेली मां ने मेरी चचेरी बहन के पति के सौतेले बाप से तब शादी की थी जबकि उसके बाप की और मेरी चचेरी बहन की मां की मौत हो गयी थी । इसके भाई ने और मेरी चचेरी बहन के भाई ने जिन दो जुड़वां बहनों से शादी की थी, उसकी मां मेरे ममेरे भाई की पहली बीवी थी । इस लिहाज से हम दोनों एक दूसरे की रिश्तेदार ही तो हुईं ।”
मैं भौचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“ये मजाक कर रही है ?” - वैशाली भी हंसती हुई बोली ।
“बहुत अच्छा कर रही है । पौ फटने से पहले का वक्त मजाक के लिये बेहतरीन वक्त होता है । मैं खुद पांच बजे का अलार्म लगाकर सोता हूं ताकि मजाक करने का ये सुनहरा वक्त मेरे हाथ से न निकल जाये ।”
“आज तो बिना अलार्म के ही जाग गये, सर्र ।” - रजनी बोली ।
“अब बोल तू यहां कैसे ?”
“पहले आप अपनी दास्ताने-दिले-हयात सुनाइये । जैसा मुंह सिर फूटा दिखाई दे रहा है, उस लिहाज से कामेडी तो आउट है, लिहाजा कोई ट्रेजेडी ही सुनने को मिलेगी । अब बताइये क्या हुआ था ?”
“एक केस पर काम कर रहा था कि जान पर आ बनी थी ।”
“ओह ! वैशाली, मैं तुझे बताना भूल गयी कि मेरे सर प्राइवेट डिटेक्टिव हैं ।”
वैशाली ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कैसे आ बनी जान पर ? क्या हुआ था ?”
मैंने बताया ।
ओह ! फिर तो यूं समझिये कि नया जन्म हुआ आपका ।”
“हां ।”
“आठवां या नौवां ?”
“क्या ?”
“नया जन्म ? ऐसी कोई पहली बार तो बीती नहीं है आप पर ।”
मैं खामोश रहा ।
“वैसे जो कहा है सच तो कहा है न आपने ?”
“क्या मतलब ?”
“किसी शादीशुदा बहनजी के पहलू में तो नहीं थे जबकि ऊपर से उसका पति आ गया हो और आपको जमना के रास्ते जान बचाकर भागना पड़ा हो ।”
“ओह, शटअप ।”
“यस, सर्र ।”
“इस कोठी में कैसे घुसे थे ?” - वैशाली बोली ।
“कोई वजह नहीं ।” - मैं संजीदगी से बोला - “पनाह मांगता फिर रहा था । यही कोठी सामने पड़ी ।”
“ओह !”
“लेकिन ये मैंने सपने में नहीं सोचा था कि यहां मेरा सामना अपनी सैक्रेट्री की कजन से होगा और खुद वो भी यहां मौजूद होगी ।”
“इट इज ए स्माल वर्ल्ड ।”
“आप यहां रहती हैं ?”
“रहती हूं लेकिन कोठी मेरी नहीं है । ऐसी औकात अभी हमारे कुनबे में किसी की नहीं बनी ।”
“तो ?”
“ये कोठी दासानी साहब की है जो कि बहुत बड़े बिजनेसमैन हैं । मैं यहीं हाउसकीपर हूं । आजकल साहब सपरिवार मुम्बई गये हुए हैं इसलिये पीछे कोठी की रखवाली और देखभाल मेरे हवाले है ।”
“ओह !”
“ऐसा इत्तफाक पहली बार हुआ है” - रजनी बोली - “कि इतना बड़ी कोठी में इसे यहां अकेले रहना पड़ा हो इसलिये रात को इसके पास रहने के लिये मैं आ गयी थी ।”
“और इलाके की बेशुमार कोठियों में पनाह पाने के लिये मुझे अपने सामने वो कोठी दिखाई दी जिसमें कि तू मौजूद थी !”
“इसी को तो कहते हैं महाइत्तफाक । जो कि आप जैसे महान सर्र के साथ ही हो सकता है ।”
उस घड़ी मुझे उस टैक्सी ड्राइवर की कहानी याद आयी जो कि इन्दिरा गान्धी एयरपोर्ट से ऑपरेट करता था । एक रोज उसने एयरपोर्ट से एक सवारी उठाई जिसने उसे राजेन्द्र नगर चलने के लिये कहा । वहां पहुंचकर सवारी ने उसे आठ नम्बर ब्लाक के बावन नम्बर मकान तक चलने के लिये कहा जो कि खुद टैक्सी ड्राइवर के घर का पता था । उसकी सवारी उसके घर में दाखिल हो गयी तो उसे पता चला कि वो कमीना उसकी बीवी का यार था ।
“मुझे इस बात पर हैरानी नहीं है” - बाद में वो अपने दोस्तों से बोला – “कि वो कमीना मेरी बीवी का यार था, हैरानी की बात ये है कि शहर में चालीस हजार टैक्सियां है और वो मेरी टैक्सी में सवार हुआ ।”
लगभग वैसा ही इत्तफाक मेरे साथ हुआ था ।
“ये दासानी साहब” - मैंने खामखाह पूछा - “सिन्धी हैं ?”
“हां ।” - वैशाली बोली ।
“बिजनेस क्या है उनका ?”
“इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का बिजनेस है ।”
“क्या इम्पोर्ट करते हैं ? क्या एक्सपोर्ट करते हैं ?”
“कई आइटमें हैं । मेन धन्धा दासानी साहब का ये ही है, वैसे कुछ और धन्धों में वे पार्टनर भी हैं ।”
“वो कौन से धन्धे हुए ?”
“एक तो रोड ट्रांसपोर्ट का ही धन्धा है । दूसरे गाजियाबाद में एक पेपर मिल है ।”
“काफी बड़े बिजनेसमैन हुए फिर तो वो ?”
“हां ।”
“बाई दि वे, ये कोठी कहां है ?”
“हैडग्वार मार्ग पर ।”
“आई सी ।”
“अब आप वापिस पलंग पर बिराजिये, मैं आपके लिये चाय लाती हूं ।”
“मैं घर जाना चाहता हूं ।”
“जरूर । चाय पी के जाइयेगा । फुर्ती आ जायेगी ।”
“ठीक है ।”
वैशाली वहां से चली गयी ।
मैंने फिर रजनी की तरफ देखा ।
वो होंठ दबा कर हंसी ।
“कमाल है ।” - मैं गर्दन हिलाता हुआ बोला - “बल्कि करिश्मा है ।”
“हो चुका न !”
“तू सृष्टि का आखिरी प्राणी है जिसकी मैं यहां होने की कल्पना कर सकता था ।”
“अब लिफाफेबाजी छोड़िये और खैर मनाइये कि जान बच गयी । आपकी कनपटी की चोट गम्भीर है । घर का रुख करने से परले किसी डॉक्टर की शरण में पहुंचियेगा ।”
“अच्छी बात है ।”
“और कुछ दिन आराम फरमाइयेगा ।”
“ये नहीं हो सकता । रजनी, जो कुछ मैं कर रहा हूं, कोई फीस कमाने के लिये नहीं कर रहा हूं ।”
“मिस्टर पाण्डेय की वजह से कर रहे हैं ?”
“हां । जब तक मैं पाण्डेय के कातिल का पता नहीं लगा लूंगा, चैन से नहीं बैठूंगा ।”
“जैसी हालत में आप हैं, चैन से तो वैसे भी नहीं बैठ पायेंगे । सर” - उसके स्वर में चिन्ता का पुट आ गया - “तन्दुरुस्त होंगे, फिजीकली फिट होंगे, तभी तो कुछ कर पायेंगे न ?”
“मैं ठीक हूं । बिल्कुल ठीक न सही लेकिन ठीक हूं । फिर भी तेरी राय पर अमल करते हुए पहले डॉक्टर के पास ही जाऊंगा ।”
“यस । दैट्स लाइक ए गुड ब्वाय ।”
फिर वो अपनी बात पर खुद ही शर्माई ।
तभी चाय की ट्रे के साथ वैशाली वहां पहुंची ।
***
दोपहर से जरा ही पहले मैं सोकर उठा ।
घड़ी पर निगाह पड़ते ही मेरे छक्के छूट गये ।
कम से कम उस रोज इतनी देर तक सोया रहना मैं अफोर्ड नहीं कर सकता था ।
दस मिनट में मैं नित्यकर्म से निवृत हुआ और फिर आंधी तूफान की रफ्तार से लिंक रोड के श्मशान घाट पहुंचा ।
तब हरीश पाण्डेय की चिता चुनी जा रही थी ।
मैंने चैन की सांस ली । प्रभु ने मेरी लाज रखी थी कि मैं सोया ही नहीं रह गया था, मैं उस शख्स के अन्तिम संस्कार में शामिल होने से वंचित नहीं रह गया था जिसकी कि मौत ही मेरी वजह से हुई था ।
बाद में श्मशान घाट के पी.सी.ओ. से ही मैंने यादव को फोन किया ।
“कोहली बोल रहा हूं ।” - मैं बोला - “डेली अटेंडेंस दर्ज कराने के लिये ।”
“गुड । जिन्दा हो ?”
“फिलहाल ।”
“आइन्दा भी ऐसे ही खबर देते रहना अपनी सलामती की । खबर न आयी तो मैं समझूंगा कि तुम भी पहुंच गये पाण्डेय वाले जहान में ।”
“तुम्हारी तरफ से क्या खबर है ?”
“कोई खास खबर नहीं । अलबत्ता शहर में हेरोइन की सप्लाई बन्द हो जाने की जो खुफिया रिपोर्ट मिली थी, उसके नतीजे सामने आने लगे हैं । पहाड़गंज और जामा मस्जिद के इलाकों में एक शूटिंग की और एक चाकूजनी की वारदात हुई है । शूटिंग के शिकार की मौकायवारदात पर ही मौत हो गयी थी, दूसरा - चाकूजनी का शिकार - हस्पताल में है और फिलहाल बयान देने के नाकाबिल है । दोनों की शिनाख्त नोन डोप पुशर्स के तौर पर हो चुकी है और दोनों वारदातें अपनी कहानी आप कहती हैं जो कि यह है कि दोनों ही अपने ऐसे नशेबाज ग्राहकों के कहर के शिकार हुए हैं जिन्हें कि वो नशे की सप्लाई देते न रह सके ।”
“आई सी ।”
“इनमें से जो आदमी पहाड़गंज में मरा है, उसके बारे में एक खास बात की खबर लगी है । संतोख सिंह नाम का वो सिख डोप पुशर तो था लेकिन पता चला है कि पिछले कुछ अरसे से वो पुड़िया पुड़िया बेचने का खुदरा धन्धा छोड़ चुका था ।”
“यानी कि उसकी धन्धे में तरक्की हो गयी थी ?”
“हां । जैसे कि वो डीलर के अन्डर डिस्ट्रीब्यूटर बन गया था ।”
“डिस्ट्रीब्यूटर ?”
“जो कि डोप पुशर्स के ऊपर होता है । जिससे कि डोप पुशर्स को सप्लाई हासिल होती है, जैसे कि डोप पुशर्स से ग्राहकों को सप्लाई हासिल होती है । ऐसी बातों की नशेबाजों को खबर होती है क्योंकि बतौर ग्राहक उनकी पहुंच डोप पुशर से आगे नहीं होती । अगर संतोख सिंह का इस व्यापार में रुतबा बुलन्द हो गया था तो ग्राहकों को इस बात की खबर होनी चाहिये थी । यानी कि ग्राहकों को मालूम होना चाहिये था कि अब इलाके में कोई दूसरा डोप पुशर ऑपरेट करने लगा था और अब संतोख सिंह से पुड़िया हासिल नहीं हो सकती थी । हैरानी है कि फिर भी किसी ने संतोख सिंह का खून किया । जब वो किसी को पुड़िया देने वाला नहीं था तो संतोख सिंह ही भला क्यों किसी ग्राहक के साथ कत्ल होने के लिये उस अन्धेरी गली में गया जिसके एक अहाते में उसकी लाश पायी गयी ।”
“क्यों गया ?”
“हैरानी है । तफ्तीश से आगे पता चला है कि उस अहाते में मरने वाला और मारने वाला, सिर्फ दो जने ही नहीं थे । वहां दो से ज्यादा जने थे और अहाते की कच्ची जमीन के मुआयने से पता चलता है कि वहां काफी छीना झपटी और हाथापायी का माहौल बना था । ये बात यूं भी साबित होती है कि खोपड़ी में गोली खाकर संतोख सिंह जहां गिरा था, वहीं मर गया था लेकिन खून अहाते में और जगह भी बिखरा पाया गया था । और कुछ पड़ोसियों का कहना है कि गोलियां भी वहां एक से अधिक चली थीं । मुझे लगता है कि वहां संतोख सिंह के साथ कोई और भी था जिसे कि गोली तो लगी थी लेकिन वो संतोख सिंह की तरह वहीं दम नहीं तोड़ गया था ।”
“यानी कि भाग निकलने में कामयाब हो गया था ?”
“हां । अगर वो गम्भीर रूप से घायल हुआ होगा तो देर सबेर हमें उसकी खबर लग जायेगी - क्योंकि गम्भीर रूप से गोली से घायल शख्स को कोई हस्पताल ही सम्भाल सकता है - अगर मामूली घायल हुआ होगा तो इतने बड़े शहर में उसका पता लग पाना नामुमकिन है ।”
“आई सी ।”
“बहरहाल ये तमाम बातें उस खाके में फिट नहीं बैठतीं जिसमें कि नशा हासिल करने के लिये मरा जा रहा, खून तक कर देने पर आमादा, कोई ड्रग एडिक्ट फिट बैठता है ।”
“कहीं ये नारकॉटिक्स के ट्रेड के कन्ट्रोल के लिये गैंगवार की तरफ इशारा तो नहीं ?”
“हो सकता है । संतोख सिंह अगर डिस्ट्रीब्यूटर बन गया था तो किसी और की उसकी पुशर्स को अपने साये में लेने की कोशिश हो सकती थी । ये बातें तो किसी आइन्दा गैंगवार की तरफ ही इशारा करती हैं ।”
“लेकिन इनका पाण्डेय से क्या वास्ता ? वो क्यों मारा गया ?”
“मिस्टेकन आइडेन्टिटी उसकी मौत की वजह हो सकती है । वो जरूर किसी दूसरे के धोखे में मारा गया था । या बद्किस्मती से किसी गलत वक्त पर गलत जगह पहुंच गया था ।”
“ओह !”
“तुम्हारी जानकारी के लिये नारकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो वाले उन लोकल दादाओं से बड़ी सख्ती से इस बाबत पूछताछ कर रहे हैं जिनकी बाबत मैंने कल तुम्हें बताया था ।”
“उनसे क्यों ?”
“क्योंकि वो सब गुरबख्शलाल के बिरादरी भाई थे और ये बात पक्की है कि अपनी जिन्दगी में गुरबख्शलाल का नारकॉटिक्स ट्रेड पर पूरा पूरा कन्ट्रोल था ।”
“लेकिन तुम तो कहते थे कि उनमें से किसी का भी, खासतौर से झामनानी का, नारकॉटिक्स ट्रेड पर काबिज होने का कोई इरादा नहीं था ।”
“मैं नहीं कहता, वो भी एन. सी.बी. वाले ही कहते हैं । अब जो कुछ आगे वाक्या हो रहा है, उनकी रू में बड़े महन्तों को फिर से टटोला जा रहा है ।”
“आई सी ।”
“तुम अपनी बोलो अब, तुम क्या कर रहे हो ?”
“अभी तो भटक ही रहा हूं ।”
“किसी मुकाम पर पहुंचो ते फौरन खबर करना । फौरन बोला मैं । चौबीस घन्टे वाली कॉल के ही वक्त नहीं । समझ गये ?”
“हां ।”
***
मैं जामा मस्जिद पहुंचा ।
उस रोज सलीम खान उर्फ नेता जी का दफ्तर मुझे खुला मिला ।
वो दफ्तर काफी बड़ा था और किसी बड़े प्रापर्टी डीलर या किसी ट्रैवल एजेन्ट के ऑफिस जैसा फैंसी और सजावटी था । रिसैप्शन पर एक पठान - सूटधारी नौजवान बैठा था । उसके पीछे दीवार पर एक बहुत बड़ी रंगीन तस्वीर टंगी हुई थी जिसमें एक कोई पचास साल उम्र का, अच्छी शक्ल सूरत वाला, क्लीन शेव्ड, खद्दरधारी आदमी राजीव गान्धी को हार पहना रहा था ।
“फरमाइये ?” - रिसेप्शनिस्ट नौजवान बोला ।
“खान साहब से मिलना है ।”
“वो इस वक्त यहां नहीं हैं ।”
“कब होंगे ?”
“कुछ कहा नहीं जा सकता ।”
“मैं सलीम खान साहब की बात कर रहा हूं ।”
“मैं समझ रहा हूं, जनाब ।”
“ये पीछे राजीव भैय्या के साथ तस्वीर में वही हैं ?”
“हां ।” - नौजवान गर्व से बोला - “बहुत करीबी थे राजीव भैय्या के अपने सलीम भाई ।”
“मुझे उनसे बहुत जरूरी मिलना था ।”
“किस सिलसिले में ?”
“मैं एक डिटेक्टिव हूं ।” - ‘प्राइवेट’ मैंने जानबूझ कर न कहा - “एक खास मुद्दे पर उनसे एक सवाल करना चाहता हूं ।”
“एक सवाल ?”
“बड़ी हद दो या तीन ।”
वो सोचने लगा ।
“मैं कल भी आया था ।” - मैं व्यग्र भाव से बोला - “लेकिन ऑफिस को ताला लगा मिला था ।”
“हो जाता है कभी-कभी ऐसा ।” - वो अनमने भाव से बोला ।
“इसीलिये मैं आज फिर...”
“जरा उधर तशरीफ रखिये ।”
जो सोफा वो मुझे दिखा रहा था, वो रिसेप्शन डैस्क से काफी परे था । उसने मेरे वहां पहुंच कर बैठ जाने तक प्रतीक्षा की और फिर टेलीफोन पर एक नम्बर डायल किया । सम्पर्क स्थापित होने पर उसने दबी जुबान में कुछ खुसर पुसर की और फिर मुझे करीब आने का इशारा किया । मैं उठ कर रिसेप्शन डैस्क पर पहुंचा तो उसने फोन मुझे थमा दिया और बोला - “बात करो । सलीम भाई लाइन पर हैं ।”
“हल्लो ।” - सहमति में सिर हिलाता मैं माउथपीस में बोला ।
“तो आप डिटेक्टिव हैं ?” - दूसरी ओर से बड़ी दबंग आवाज में पूछा गया ।
“जी हां ।”
“नाम बोलिये ?”
“सुधीर कोहली ।”
“कहां से आये हैं ? थाने से, सी.आई.डी. से या किसी और महकमे से ।”
“मैं वैसा डिटेक्टिव नहीं हूं, जनाब ।”
“तो ?”
“मैं प्राइवेट डिटेक्टिव हूं ।”
“ओह ! शाहिद ने तो तुम्हें पुलिस का आदमी समझा था ।”
“उसकी समझ पर मेरा क्या जोर है, जनाब ?”
“तभी तो उसने हमें ऐसी जगह फोन लगाया जहां कि उसे नहीं लगाना चाहिये था । हम तो मोहसिना जी के यहां हैं ।”
“आई एम सॉरी ।”
“अब जो कहना है, जल्दी कहो । वो क्या एक दो तीन सवाल हैं जो तुम हमसे पूछना चाहते हो ? बल्कि पहले ये बताओ कि क्यों पूछना चाहते हो ?”
“मुझे एक लोकल अखबार ने लोकल ड्रग्स ट्रेड की इनसाइड इनफर्मेशन निकालने के लिये रिटेन किया है । इस लाइन पर काम करने पर मुझे मालूम हुआ है कि आजकल शहर में ड्रग्स की अवेलेबलिटी बहुत घट गयी है जिसकी वजह से ड्रग एडिक्ट्स में भारी खून-खराबा शुरु हो जाने का अन्देशा है । ऐसा अन्देशा आपके जामा मस्जिद के इलाके में सबसे ज्यादा बताया जा रहा है । सुनने में आया है कि शहर की ड्रग्स की सप्लाई किसी जामा मस्जिद से ऑपरेट करने वाले ड्रग लार्ड के हाथों में पहुंच गयी है । आप इस इलाके के रसूख वाले आदमी हैं, मेरा आपसे ये सवाल है कि क्या आप अपनी जात-बिरादरी के ऐसे किसी शख्स की तरफ इशारा कर सकते हैं ?”
“वो आदमी, वो ड्रग्स का सौदागर, हमारी जात बिरादरी का है ?”
“ऐसा ही मालूम पड़ा है ।”
“गलत मालूम पड़ा है । ये हमारे लोगों को बदनाम करने की बी.जे.पी. की साजिश है । ऐसे मामलात में मुसलमानों को शामिल मानने की हम जम कर मुखालफत करेंगे ।”
“जनाब, ऐसा तो मैंने नहीं कहा । ।”
“नशा क्या हिन्दू नहीं करता ? सिख नहीं करता ? ईसाई नहीं करता ? जहां जामा मस्जिद के इलाके का जिक्र आया, लगे मुसलमानों को लपेटने । हमें मालूम है कि ये बी.जे.पी. के इलाके के किस लिडर की शह पर हो रहा है । अगर इस बात को और हवा दी गयी तो हम उसका खुल कर विरोध करेंगे, जगह-जगह प्रदर्शन करेंगे, हम खुद अपने जात भाईयों का जुलूस पार्लियामेंट तक लेकर जायेंगे और...”
“जनाब, आप बात का बतंगड़ बना रहे हैं । खामखाह इसे सियासी रंग दे रहे हैं । यकीन जानिये ऐसी कोई बात नहीं है ।”
“तो क्या बात है ?”
“मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि क्या आप अपने इलाके के किसी ऐसे नामचीन और ताकतवर शख्स की तरफ इशारा कर सकते हैं जो कि दिल्ली के ड्रग लार्ड का रुतबा अख्तियार करना चाहता हो या कर चुका हो ?”
“हम नहीं कर सकते ।”
“वो शख्स आपके इलाके का न सही, भले ही कोई और हो, लेकिन क्या आप...”
“हम इस बाबत कुछ नहीं जानते ।”
“फिर तो बात ही खत्म हो गयी ।”
“हां ।”
“क्या आप से रूबरू मुलाकात हो सकती है ?”
“कैसे हो सकती है ? हम तो मोहसिना जी के यहां हैं जहां कि हम शाम तक रहेंगे । हम तुम्हें यहां कैसे बुला सकते हैं ?”
“मैं अभी की या आज की बात नहीं कर रहा । मैं तो...”
“आइन्दा दो-तीन दिनों में कभी फोन पर अप्वायन्टमेंट फिक्स करके आ जाना । हम तुम्हें टाइम दे देंगे ।”
लाइन कट गयी ।
मैंने रिसीवर वापिस नौजवान को थमा दिया और अपलक उसकी तरफ देखा ।
“क्या है ?” - वो रुखाई से बोला ।
“लगता है मैंने तुम्हे पहले कभी देखा है ।”
“क्या बड़ी बात है ? मैं सलीम भाई का खास हूं । कभी उनके साथ देखा होगा ।”
“कैसे हो सकता है ? मैंने तुम्हारे सलीम भाई को ही पहले कभी नहीं देखा ।”
“तो फिर वहम हो रहा होगा ।”
“वहम तो नहीं हो रहा लेकिन...”
“लोग कहते हैं मेरी शक्ल ‘टाइटेनिक’ के हीरो से मिलती है इसलिये...”
“मैंने ‘टाइटेनिक’ नहीं देखी, उसका हीरो नहीं देखा ।”
“तो फिर मैं क्या बोलू ?”
“कभी इत्तफाक से हम पहले कहीं मिले तो नहीं ?”
“नहीं ।”
“नाम क्या है तुम्हारा ?”
“शाहरुख खान ।”
“मजाक मत करो, यार...”
तभी टेलीफोन की घन्टी फिर बजी । तत्काल उसने मेरी तरफ से पीठ फेर ली और फोन में उलझ गया ।
एक ही बात सोचता मैं वहां से रुख्सत हुआ ।
कहां देखा था उस खूबसूरत छोकरे को मैंने !
***
मैं करोलबाग पहुंचा ।
इस बार लेखूमल झामनानी से भी मेरी मुलाकात हो गयी ।
बिना किसी अड़ंगे या आडम्बर के उसके एक आदमी ने मुझे उसके निजी कक्ष में पहुंचा दिया ।
“क्या चात्ता है, साई ।” - झामनानी अनमने भाव से बोला - “वड़ी, क्यों कल से पीछे पड़ा है, नी ?”
“जनाब” - मैं विनीत भाव से बोला - “जो मैं चाहता हूं वो बहुत मामूली है लेकिन बात को जुबान पर लाने का हौसला नहीं हो रहा ।”
“वड़ी, जब यहां आने का हौसला कर लिया तो जो कहना चात्ता है उसका भी हौसला कर ले ।”
“करता हूं । लेकिन सुन कर यहीं मेरी लाश गिराने की मर्जी बन जाये तो मेरे क्रियाकर्म का कोई डीसेंट इन्तजाम जरूर करा दीजियगा ।”
“बहुत बोलता है । कहता कुछ नहीं बस बोलता है ।”
“सॉरी । कहता हूं । जनाब गुरबख्शलाल की जिन्दगी में आप उसके बाद नम्बर दो पोजीशन पर माने जाते थे । गुरबख्शलाल तो गया, अब आपकी क्या पोजीशन है ?”
“वड़ी, क्यों पूछता है नी ?”
“गुरबख्शलाल की नम्बर वन पोजीशन के साथ लोकल नारकॉटिक्स ट्रेड पर उसका एकछात्र कब्जा भी जुड़ा हुआ था । वो कब्जा भी तो अब आगे कहीं ट्रांसफर हुआ होगा !”
“कहां ? नम्बर दो पोजीशन वाले के पास ?”
“हां ।”
“यानी कि मेरे पास ?”
“बहुत दहशत में कह रहा हूं लेकिन... हां ।”
“चड़या हुआ है ? वो धन्धा अब कहां रखा है ? वो धन्धा तो कब का गारत हो चुका है । वो कर्मामारा गुरबख्शलाल था तो धन्धा भी था, वो गया तो धन्धा भी गया ।”
“आपने जाने दिया ?”
“वड़ी, कैसे पकड़ के रखता ? कैसे करीब भी फटकता ? कैसे ख्याल भी करता ? मरना था मैंने ?”
“ऐसा क्या खतरा था ?”
“था क्या ? अभी भी है । हमेशा रहेगा ।”
“क्यों ?”
“तू नहीं समझेगा । बस, इतना समझ कि क्लास को काबू में करने के लिये मानीटर होता है, मानीटर को काबू करने के लिये मास्टर होता है और मास्टर को काबू करने के लिये हैडमास्टर होता है । तू इतना समझ कि इधर इस धन्धे पर एक कर्मामारे हैडमास्टर का साया है जिसकी हुक्मउदूली जो भी करेगा, इस दुनिया की क्लास से बाहर होगा ।”
“ऐसा सख्त हैडमास्टर है वो ?”
“हां । तभी तो सब की आंख में डण्डा किये है ।”
“यानी कि आपकी तरह किसी और बिरादरी भाई की भी मजाल नहीं हो सकती गुरबख्शलाल के छोड़े धन्धे पर काबिज होने की ?”
“वड़ी, यही बोला मैं ।”
“कौन है वो हैडमास्टर ?”
“है कोई ।”
“कोई नाम तो लीजिये ।”
“क्या फायदा ?”
“इतना ही बताइये कि वो पाया कहां जाता है ?”
“कहा जाता है कि मुम्बई में पाया जाता है ।”
“कहा जाता है ?”
“मैं उधर जाके तो नहीं देखा न उसे !”
“इतनी दूर बैठे आदमी से आपको दहशत है ?”
“पीछे मानीटर छोड़ के गया है न क्लास के ऊपर !”
“मानीटर ?”
“कुशवाहा । गुरबख्शलाल का लेफ्टीनेंट । वो हैडमास्टर का हम लोगों पर अप्वायन्ट किया मानीटर है । वो यहां की हर खबर उघर पहुंचता होगा ।”
“कुशवाहा आपका बिरादरी भाई नहीं ?”
“नहीं ।”
“जबकी उसका बॉस गुरबख्सलाल था ?”
“हां ।”
“फिर भी कुशवाहा सलामत है दिल्ली शहर में ?”
“है न कमाल ?”
“फिर तो हेडमास्टर बहुत ही ताकतवर हुआ ?”
“हां ।”
“कमाल है !”
“वही साईं, सिन्धी में कहते है दरिया किनार वेही वाधुन वैर न रखजे ।”
“जी !”
“जिस मौहल्ले कसबे में आप रहते हों, वहां के लीडर से वैर मोल न लें ।”
“ओह ! दरिया में रह कर मगर से वैर वाली बात कह रहे हैं आप ?”
“हां ।”
“कुशवाहा लीडर है ?”
“वो कर्मांमारा किधर से लीडर होगा नी ? वो तो मानीटर है । लीडर वो है जिसका चमचा बनना उसने अपनी मर्जी से कबूल किया । उसका हैडमास्टर लीडर है ।”
“जिसने कि गुरबख्शलाल का काम तमाम किया था ?”
“वो किस्सा न छेड़, साईं । मेरे दिल को कुछ होता है ।”
“बहरहाल आप ड्रग ट्रेड में नहीं हैं ?”
“अब क्या लिख के दूं ?”
“आगे का क्या इरादा है ?”
“तेरा आगे का क्या इरादा है ?” - अब तक मीठा मीठा बोलते झामनानी का स्वर एकाएक हिंसक हो उठा ।
“जी ?”
“मेरा आगे का इरादा अभी मुझे खुद नहीं मालूम लेकिन जो कुछ अभी यहां कहा सुना गया, उसका तेरी तरफ से कोई बेजा इस्तेमाल हुआ तो समझ लेना कि झूलेलाल की मेहर की छतरी तेरे सिर से हट गयी ।”
मेरे शरीर ने जोर से झुरझुरी ली ।
“कोई बेजा इस्तेमाल नहीं होगा, जनाब ।” - मैं विनयपूर्ण स्वर में बोला - “मेरे सवालात का ताल्लुक एक प्राइवेट केस से है इसलिये हासिल जानकारी भी प्राइवेट ही रहेगी ।”
“फिर तो जीता रह झूलेलाल की मेहर से ।”
***
मैं अपने ऑफिस पहुंचा ।
रजनी उस वक्त ऑफिस में नहीं थी क्योंकि वो लंच में आसपास कहीं अपनी हमउम्र लड़कियों के साथ लंच और गप्पें मारने जाती थी ।
मैं भीतर दाखिल हुआ तो मैंने फोन की घन्टी बजती पायी । मैं लपक कर अपनी टेबल पर पहुंचा और कुर्सी पर ढेर होते हुए फोन उठाकर कान से लगाया ।
“हैलो ।” - मैं माउथपीस में बोला ।
“सुधीर !” - एक स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“हां ।”
“मैं सुजाता ।”
सुजाता मोहरा से मेरी मुलाकात दिल्ली के दादा लेखराज मदान के शशिकान्त नाम के उस भाई के कत्ल के सिलसिले में हुई थी जिससे कि मेरी शक्ल हूबहू मिलती थी । सुजाता शशिकान्त की राजेन्द्रा प्लेस में स्थित नाइट क्लब में चिट क्लर्क थी और शशिकान्त से फिट थी । शशिकान्त की मौत के साथ नाइट क्लब भी बन्द हो गयी थी इसलिये वो बैठे बिठाये बेरोजगार हो गयी थी । तब यूअर्स ट्रूली ने गुड डीड ऑफ दि डे करने के अन्दाज से उसकी नौकरी अपने जैसी ही एक प्राइवेट डिडेक्टिव एजेन्सी ब्यूरो में लगवा दी थी जो कि खोसला डिटेक्टिव ब्यूरो के नाम से जाती थी । ब्यूरो का मालिक सुदीप खोसला मेरा हमपेशा होने की वजह से मेरा लिहाज करता था इसलिये उसने ने मेरी दरख्वास्त कबूल कर ली थी ।
बजातेखुद सुजाता मेरे पास नौकरी करना चाहती थी जो कि रजनी के होते सम्भव नहीं था ।
“हल्लो स्वीटहार्ट ।” - मैं बनावटी स्वर में बोला - “कैसी हो ?”
“मैं तो ठीक हूं । तुम कैसे हो ?”
“मैं भी ठीक सा ही हूं ।”
“ठीक से हो ? ठीक नहीं हो ?”
“हां ।”
“क्या हुआ ?”
“सीढियों से फिसल गया । मुंह माथा फूट गया ।”
“ओह !” - वो एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “सीढियों से ही फिसले न ! किसी बिल्ली ने पंजा तो नहीं मार दिया ?”
“अभी इतने बुरे दिन नहीं आये सुधीर कोहली दि ओनली वन के ।”
“जानकर खुशी हुई । वैसे कहां रहते हो आजकल ?”
“यही दिल्ली शहर में । क्यों ?”
“कभी मिले जो नहीं ।”
“मैं तो तीन चार बार” - मैं साफ झूठ बोलता हुआ बोला - “मन्दिर मार्ग तुम्हारे होस्टल का चक्कर लगा आया हूं । हमेशा तुम्हारे कमरे को दरवाजे पर ताला झूलता मिला ।”
“ओह ! फोन करके आना था ।”
“हां, ये गलती तो हुई मेरे से ।”
“आइन्दा ध्यान रखना ।”
“जरुर । फोन कैसे किया ?”
वो कुछ क्षण खामोश रही और फिर दबे स्वर में बोली - “सुधीर, यहां एक बड़ी खास बात सामने आयी है जिसमें हो सकता है कि, तुम्हारी दिलचस्पी हो ।”
“यहां , मतलब खोसला के ऑफिस में ?”
“हां ।”
“ऐसी क्या बात है ?”
“तुम्हारे मेरे पर बहुत अहसान है इसलिये सोचा कि उन अहसानों का कोई छोटा मोटा बदला चुका दूं ।”
“बात क्या है ?”
“बात पता नहीं मुझे बतानी चाहिये या नहीं क्योंकि...”
“अब जब फोन किया है तो जाहिर है कि तुम पहले ही कर चुकी हो । तुम्हारी बताने की मंशा न होती तो तुम फोन ही न करती । इस बात का जिक्र ही न चलातीं ।”
“ये भी ठीक है ।”
“ठीक है तो बोलो क्या बात है ?”
“बात यह है कि आज जब मैं एक कॉन्फीडेंशल रिपोर्ट टाइप कर रही थी तो उसमें एक जाना पहचाना नाम आ गया था ।”
“किसका ?”
“सुनोगे तो हैरान हो जाओगे ।”
“नो प्राब्लम । हैरान हो जाने का मुझे काफी तजुर्बा है ।”
“मैं कई रिपोर्ट टाइप करती हूं । हर रिपोर्ट में कई नाम होते हैं जिन्हें कि मैं मशीनी अन्दाज से टाइप करती हूं । किसी की तरफ कोई खास तनज्जो जाने की कोई वजह ही नहीं होती क्योंकि सब नाम और नाम वाले मेरे लिये अजनबी होते हैं इसलिये मैं उन्हें टाइप करते ही भूल जाती हूं लेकिन जब नाम न सिर्फ अजनबी न हो बल्कि खूब जाना पहचाना हो तो बात दूसरी होती है ।”
“आई एग्री, स्वीटहार्ट लेकिन अब आगे भी तो बढो । किस का था वो जाना पहचाना नाम ? कोई ऐसा शख्स जिसे कि मैं जानता हूं ?”
“हां । तुम से बेहतर और कौन जानता होगा । अब नाम क्योंकि जाना पहचाना था इसलिये मैंने रिपोर्ट की तरफ तवज्जो दी जो कि मैं कभी नहीं देती । जब रिपोर्ट की तरफ तवज्जो दी तो...”
हे भगवान ! हे भगवान !
खुदा ने जब औरत बनायी तो उसने उसमें हर खूबी पैदा की - उसे तौबाशिकन जिस्म दिया, दिलफरेब मुस्कराहट दी, खूबसूरत चेहरा दिया, रेशम से बाल दिये, हिरणी सी आंखें दी, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ दिये लेकिन फिर उसे कैंची जैसी जुबान दी और खुद ही अपने तमाम किये पर पानी फेर दिया ।
वो बोल रही थी, तब भी बोल रही थी । कह कुछ भी नहीं रही थी लेकिन बोल रही थी ।
अंगारोंपर लोटता, टेलीफोन को सामने की दीवार पर फेंक मारने की अपनी अभिलाषा का दमन करता मैं रिसीवर कान से लगाये रहा ।
“...तुम्हारा नाम था ।”
“क्या ?” - मैं हकबका कर सीधा हुआ - “क्या कहा ?”
“सुन नहीं रहे हो क्या ? सुधीर, जो जाना पहचाना नाम मैंने रिपोर्ट में टाइप किया था, वो तुम्हारा था ।”
“मेरा । मेरा जिक्र था उस रिपार्ट में ?”
“हां । तभी तो तुम्हें फोन किया । मैंने इस बाबत तुम्हें फोन करके बहुत तगड़ा रिस्क लिया है । अब कसम है तुम्हें जो तुमने ये बात आगे किसी को बताई ।”
“उसका तो खैर सवाल ही नहीं पैदा होता । अब उस रिपोर्ट की बाबत तो बताओ कुछ ।”
“क्या बताऊं ?”
“यही कि वो किसके लिये थी, किस बाबत थी और उसमें क्यों मेरे जिक्र था ?”
“वो कॉन्फीडेंशल रिपार्ट है ।”
“तो क्या हुआ ? आपसदारी में कॉन्फीडेंशल क्या होता है ?”
“लेकिन...”
“ओह, कम ऑन ।”
“लेकिन...”
“अब कह भी चुको ।”
“अगर मिस्टर खोसला को पता लग गया तो ?”
“कैसे पता लग जायेगा ? मैं बताऊंगा ?”
“उम्मीद तो नहीं ।”
“तुम बताओगी ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“तो फिर कैसे पता लग जायेगा ?”
“कह तो तुम ठीक रहे हो ।”
“और ये न भूलो कि वहां तुम्हारी नौकरी मेरी वजह से है ।”
“नहीं भूली हूं । तभी तो फोन किया ।”
“जो शख्स तुम्हें एक बार नौकरी दिला सकता है, वो दोबारा नहीं दिला सकता ?”
“दिला सकता है ।”
“तो फिर ? अव्वल तो खोसला को कुछ पता लगने वाला नहीं है, लग भी जायेगा तो क्या वो तुम्हें गोली मार देगा ? बड़ी हद नौकरी से ही तो डिसमिस कर देगा ? ऐसी नौबत आयी तो मैं तुम्हारे लिये इससे बढिया नौकरी ठीक कर दूंगा ।”
वो एक क्षण खामोश रही और फिर बोली - “ठीक है । सुनो ।”
“थैंक गॉड ।”
“वो रिपार्ट हमारे ब्यूरो के जिस क्लायन्ट के लिये है, उसका नाम बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी है जो कि हाल ही में दुबई से यहां आया है और यहां होटल हालीडे इन क्राउन प्लाजा में ठहरा हुआ है । उसी ने हमारे डिटेक्टिव ब्यूरो को तुम्हारी फुल पड़ताल करने के लिये रिटेन किया है ।”
“फुल पड़ताल ?”
“हां । जिसमें कि तुम्हारे व्यक्तिगत पसन्द नापसन्द और आदतें भी शामिल हों । जैसे विस्की कौन सी पीते हो, कितनी पीते हो, कहां पीना पसन्द करते हो ? सिगरेट कौन सा पीते हो ? पसन्दीदा होटल कौन सा है, रेस्टोरेंट कौन सा है ? किन लोगों के साथ उठते बैठते हो ? कोई स्टेडी गर्ल फ्रेंड है या नहीं ? मा-बाप, भाई-बहन हैं तो कहां रहते हैं ? गाड़ी कौन सी है, उसका नम्बर क्या है ? कमाई कितनी करते हो ? पल्ले चार पैसे हैं तो उनको कहां रखते हो ? वगैरह ।”
“हे भगवान । क्या वो मेरे से अपनी बेटी ब्याहना चाहता है ?”
“बेटी । ब्याह ।”
“ऐसी पड़ताल तो कोई बेटी का बाप ही अपने होने वाले दामाद की बाबत करवा सकता है ।”
“तुम मजाक कर रहो हो ।”
“तो ये सब पड़ताल हो चुकी ?”
“हां । तभी तो मुझे फाइनल रिपोर्ट टाइप करने को मिली ।”
“वो अल रशीदी का बच्चा यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस में ही आ गया होता । मैं उसका काम आधी फीस में पलक झपकते कर देता । मैं तो उसे ये भी बता देता कि मैं अन्डरवियर किस साइज का पहनता था और कन्डोम कौन से इस्तेमाल करता था ।”
“तुम फिर मजाक कर रहे हो ।”
“कोई वजह बताई उसने इस पड़ताल की ?”
“मुझे नहीं मालूम । मिस्टर खोसला को बती हो तो बताई हो, टाइप्ड रिपार्ट में तो ऐसा कोई जिक्र है नहीं ।”
“आई सी । रिपोर्ट क्लायन्ट को डिलीवर हो गयी ?”
“हां । मेरे टाइप मुकम्मल करते ही उसे एक स्पैशल मैंसेजर के जरिये होटल हालीडे इन भिजवा दिया गया था ।”
“आई सी ।”
“अब बोलो इस बाबत तुम्हें खबर करके मैंने अच्छा किया या बुरा ?”
“अच्छा किया । बहुत अच्छा किया ।”
“तो फिर शाम को मिलते हो ?”
“किसलिये ?”
“अरे, मेरे अच्छे काम की मुझे शाबाशी देने के लिये और किसलिये ?”
“अच्छा , वो ।”
“हां, वो ।”
“मैं शाम को फोन करूंगा ।”
“लेकिन...”
“और कोई प्रोग्राम पक्का करूंगा ताकि मुझे तुम्हारे होस्टल के कमरे पर फिर ताला ही लटका न मिले ।”
“पक्की बात ?”
“एकदम पक्की बात ।”
“मैं तुम्हारे फोन का इन्तजार करूंगी ।”
“जरूर ।”
तौबा करते हुए मैंने रिसीवर को क्रेडल पर पटका ।
मैंने जेब से डनहिल का पैकेट निकाल कर उसमें से अपने ताबूत की एक कील निकाली, उसे सुलगाया और सोचने लगा ।
कौन था ये बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी जो आपके खादिम के बारे में इतना कुछ जानना चाहता था ?
खोसला के आदमियों ने अगर बढिया और मुस्तैद काम किया था तो जरूर रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र रहा होगा कि शाम को कोई काम न होने की सूरत में मैं कनाट प्लेस में स्थित कोजी कार्नर नाम के बार के किसी तनहा कोने में बैठ का ड्रिंक लेना पसन्द करता था ।
कोजी कार्नर जो कि हालीडे इन से मुश्किल से एक किलोमीटर दूर था ।
उस शाम को वहां मौजूद रह कर मैं उस अल रशीदी के घोड़े का काम आसान कर सकता था ।
लेकिन कौन सा काम ?
देखेंगे । जो होगा सामने आ जायेगा ।
***
शाम को मैं कनाट प्लेस पहुंचा ।
कोजी कार्नर के करीब कहीं कार के लिये पार्किंग ढूंढने में मेरी ऐसी तैसी फिर गयी लेकिन किसी तरह वो काम हुआ ।
बड़े शहरों में पार्किंग की समस्या इतनी गम्भीर हो गयी है कि अब तो जहां ‘नो पार्किंग’ लिखा होता है, वहां भी पार्किंग की जगह नहीं मिलती । इस सिलसिले में दिल्ली शहर की हालत और भी बद् होती जा रही थी क्योंकि जितनी कारें मुम्बई, कलकत्ता , मद्रास और बंगलौर में हैं, उससे कहीं ज्यादा कारें अकेले दिल्ली में हैं ।
पार्किंग के करीब ही एक सरकारी बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा हुआ था - दिल्ली को स्वच्छ रखिये ।
मेरी जी चाहा कि मैं उसके नीचे लिख दूं - मेरठ जाकर रहिये ।
मैं कोजी कार्नर में दाखिल हुआ और सीधा बार पर पहुंचा ।
बारमैन जुत्शी मेरा वाकिफ था । मैंने उससे एक ड्रिंक हासिल किया और पूछा कि क्या मेरी बाबत दरयाफ्त करता कोई वहां पहुंचा था ?
जवाब इन्कार में मिला ।
मैं बार से हटा और अपना गिलास सम्भाले जाकर एक कोने की मेज पर बैठ गया । मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और आसपास निगाह दौड़ाई ।
शाम की उस घड़ी बार अभी आधे से ज्यादा खाली था, जो लोग वहां मौजूद थे, उनमें से मेरे जैसा अकेला बस मैं ही था । तकरीबन लोग जोड़ों में थे और एकाध टेबल पर तीन या चार लोगों का ग्रुप मौजूद था । मौजूदा हाजिरी में से एक शख्स मुझे ऐसा न दिखा जिसे कि मैं बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी जैसे फैंसी नाम से अलंकृत कर पाता ।
जो कि कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी ।
मेरी फिराक में उस शख्स के वहां मौजूद होने की अपेक्षा करना बहुत दूर की कौड़ी थी ।
बहरहाल आधा पौना घन्टा और वहां गुजारने का फैसला मैंने किया ।
मैंने विस्की का एक घूंट पिया और हॉल में निगाह दौड़ाई । इस बार हर टेबल की हर सूरत का मैंने ठिठक-ठिठक कर मुआयना किया एकाएक एक सूरत पर मेरी निगाह बरबस अटक गयी ।
वो सूरत क्या थी, चांद का टुकड़ा था, जो कि एक काली पोशाक पहने थी । पोशाक में टखनों तक आने वाली स्कर्ट थी लेकिन ब्लाउज ऐसा था कि बड़ी हद उसे कपड़े की एक धज्जी कहा जा सकता था जिसमें ऊपर - गर्दन के लिये, नीचे - कमर के लिये, दायें-बांये-बाहों के लिये चार सुराख थे । उसमें से गर्दन के नीचे उसका पुष्ट दूधिया वक्ष और वक्ष के नीचे उसकी पतली कमर साफ नुमायां हो रही थी ।
उसने तनिक पहलू बदला तो मुझे अहसास हुआ कि उसकी स्कर्ट में भी लम्बी स्लिट थी जिसमें से उसकी एक सुडौल टांग जांघ तक दिखाई देती थी ।
लिहाजा, नयनसुखअभिलाषी पुरूषों के लिये वो एकदम फिट पोशाक थी ।
उसके साथ जो पुरुष था, वो एथलीटों जैसा हट्टा कट्टा था और एक शानदार नीला सूट पहने था । वो आगे झुक कर युवती को कुछ कह रहा था लेकिन - मैंने नोट किया कि युवती की तवज्जो उसकी तरफ नहीं थी, वो तो अपनी नशीली, सुरमई आंखों से अपलक मुझे देख रही थी ।
सुधीर कोहली - मैंने खुद अपनी पीठ थपथपाई - दि लक्की बास्टर्ड ।
मैंने जबरन उसकी तरफ से निगाह हटाई, विस्की का एक घूंट पिया, सिगरेट का एक कश लगाया और जब वापिस उनकी तरफ निगाह उठाई तो पाया कि उसकी निगाहों का निशाना तब भी यूअर्स ट्रूली ही था ।
वाह ! वाह !
और ऐसा तब हो रहा था जब कि मैं अपनी आंखों में मिकनातीसी सुरमा लगाना भी भूल गया था ।
फिर, उसके साथी नीले सूट वाले ने भी उसकी दृष्टि का अनुसरण किया । तत्काल उसकी पेशानी पर उभर आये बलों ने मुझे बताया कि जो कुछ उसने देखा, वो उसे पसन्द न आया । वो तीखे स्वर में कुछ बोला जिसके कि फासले से मुझे सुनाई देने का सवाल ही नहीं था । युवती ने मेरी तरफ से निगाहें हटाकर उसकी तरफ देखा, उसे बड़े चित्ताकषर्क ढंग से मुस्करा कर दिखाया और बड़े आश्वासनपूर्ण ढंग से उसका हाथ थपथपाया ।
पुरुष की पेशानी पर से बल गायब हो गये, वो भी मुस्कराया और फिर बतियाने लगा । उसके बोलना शुरु करते ही युवती की निगाह फिर मेरी तरफ भटक गयी ।
अगर सिर्फ निगाहों से कुछ हो पाना सम्भव होता तो हनीमून ही वहां वाकया हो गया होता लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो सकता था । फिर भी उसने मेरी रगों में दौड़ती 93-ओक्टेन को ऐसा भड़काया कि मैंने अपने विस्की के गिलास में ही पनाह पायी ।
तभी एकाएक युवती के चेहरे पर तीव्र वेदना के भाव आये । मैंने तत्काल उसकी सूरत से निगाह हटा कर उसके साथी की तरफ देखा तो पाया कि उसने युवती की कलाई दबोच ली हुई थी और अब वो उसे मरोड़ कर मेज की ओट में ले जाने की कोशिश कर रहा था । वो ऐसा करने में कामयाब हो गया तो युवती कराहती हुई मेज पर दोहरी हो गयी । पुरुष दान्त पीसता हुआ बड़े हिंसक भाव से उसके कान में कुछ बोला । युवती के चेहरे पर वेदना के भाव और गहन हो गये ।
आपका ये पंजाबी पुत्तर अपनी आंखों के सामने किसी परी चेहरा हसीना पर ऐसा जुल्म होता न देख पाया । एक झटके से मैं अपने स्थान से उठा और लम्बे डग भरता उनकी टेबल पर पहुंचा । मैं पुरूष के पीछे जा खड़ा हुआ और सख्ती से बोला - “बांह छोड़ो ।”
“गो अवे ।” - पुरूष गुस्से से बोला और उसने फिर युवती की बांह उमेठी ।
मैंने उसके कन्धे पर यूं हाथ रखा कि मेरा अंगूठा उसकी गर्दन की एक खास जगह पर एक खास रग पर जाकर टिका । कोई वो नजारा देखता तो यही समझता कि एक दोस्त दूसरे दोस्त का कंधा थपथपा रहा था लेकिन असल में मैं उसकी खास रग में अंगूठा यूं गड़ा रहा था कि वो वहीं हॉस्पिटल केस बन सकता था ।
“बांह छोड़ो ।” - मैं फिर बोला - “वरना पछताओगे ।”
उसने तत्काल बांह छोड़ दी ।
मैंने उसके कन्धे पर से अपना हाथ न हटाया ।
“उठो ।” - मैं बोला ।
उसने तत्काल आदेश का पालन किया ।
वो उठा तो मेरा हाथ अपने आप ही उसकी गर्दन पर से हट गया । वही बांह मैंने उसकी बांह में पिरो दी और बोला - “हम सैर करने चल रहे हैं ।”
मैंने एक कदम दरवाजे की तरफ बढाया तो वो भी मेरे साथ खिंचता चला गया । यूं ही बांह में बांह डाले, जैसे दो तफरीह के बाद बार से विदा हो रहे हों, हम बार से बाहर पहुंचे । वहां मैंने उसकी बांह से बांह निकाली और चेतावनीभरे स्वर में बोला - “ए वर्ड टू दि वाइज । डोंट कम बैक । ओके ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया और भारी कदमों से वहां से रुख्सत हो गया । ये मेरे लिये हैरानी की बात थी कि उसने ये तक न पूछा कि मैं कौन था और क्यों वो हुक्म दनदना रहा था ।
कुछ क्षण मैं उसे जाता देखता रहा और फिर बार में वापिस दाखिल हुआ । अपनी टेबल पर लौटने की जगह मैं युवती की टेबल पर पहुंचा ।
वो मुस्कराई, उसने नीले सूट वाले द्वारा खाली की गयी कुर्सी की तरफ इशारा किया ।
“थैक्यू ।” - मैं उसके सामने कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला ।
वो फिर मुस्काराई, एक चमचम स्पेशल मुस्कराहट जो सौन्दर्य की सम्राज्ञियां खास लोगों के लिये सुरक्षित रखती हैं ।
मैंने करीब से उसके चौखटे का मुआयना किया तो पाया कि जैसी हसीन वो मुझे फासले से दिखाई दी थी, वो उससे कहीं ज्यादा हसीन थी । उसके गालों पर साटन जैसी फिनिश थी और सेब जैसी लाली थी । उसके होंठ ऐसे सुर्ख लाल थे जैसे उनको दबाने से उनमें से खून निचुड़ सकता हो । उसके बाल सोने की महीन तारों जैसे थे । उसकी आंखों से मद टपक रहा था । वो लड़की ओरीजनल हव्वा थी जिसकी वजह से अदन के बाग में आदम ने सेब खाया था ।
क्या अख्तियार था किसी औरत को इतनी हसीन होने का । हसीन होने का और फिर इस पंजाबी पुत्तर की पहुंच से पकड़ से दुर रहने का ।
“थैंक्यू ।” - वो बोली तो जैसे बिलौरी गिलास से बर्फ टकराई - “बाज लोग उंगली पकड़ने का मौका मिलते ही पाहुंचा पकड़ने पर उतर आते हैं ।”
“जैसे कि वो साहब” - मैं बोला - “जो अभी यहां से रुख्सत हुए ?”
“हां ।”
“वैसे तो जितनी की जाये कम होगी लेकिन फिर भी आपकी तारीफ ?”
“मुझे लैला कहते हैं ?”
“लैला ।”
“अल रशीदी ।”
मेरे कान खड़े हो गये ।
“लैला अल रशीदी ?” - मैं बोला ।
“दि सेम ।” - वो सिर को नतिक नवा कर बड़ी अदा से बोली ।
तो ये माजरा था । एक मामूली प्राइवेट डिटेक्टिव से कान्टैक्ट बनाने के लिये ये रास्ता अख्तियार किया गया था ।
जीती रह पट्टी - मैं मन ही मन सुजाता मेहरा को याद करता हुआ बोला - तेरी स्पेशल ट्रीट पक्की ।
बहुत मौके पर उसने मुझे फोन किया था । नतीजतन अब मैं अपने से पार के पाले वाले लोगों से एक कदम आगे था ।
“मैं सुधीर कोहली ।” - मैं बोला - “कहीं बाहर से आना हुआ होगा ?”
“हां । दुबई से ।”
“अकेले ?”
“नहीं । अपने अब्बा के साथ ।”
“आपके अब्बा ।”
“बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी ।”
“बाशा ?”
“बादशाह का संक्षिप्त संस्करण है ।”
“गोया आपके अब्बा हुजूर बादशाह हैं ?”
“मिजाज के । सच में होते तो बाशा न कहते अपने आपको । बादशाह ही कहते ।”
“और आप अपने आपको शहजादी लैला कहतीं ।”
वो हंसी, चूड़ियां खनकने जैसी दिलकश हंसी हंसी ।
“जिन्दगी में दो ही ख्वाहिशें थीं । एक ताजमहल देखने की और एक किसी शहजादी से मिलने की । आगरे अभी मैं पिछले हफ्ते होकर आया हूं और अब देखिये, दूसरी ख्वाहिश भी पूरी हो गयी । आप से मुलाकात हो गयी ।”
“अरे, मैं कोई शहजादी वहजादी नहीं हूं ।”
“नहीं हैं तो भी हम तो आपको शहजादी ही कहेंगे । प्रिंसेस लैला । असली शहजादियां जिसके पांव की धोवन भी नहीं होंगी ।”
“क्या करते हैं आप ?”
“ऐश करते हैं, साहब ।”
“आई मीन वाट इज युअर लाइन ऑफ बिजनेस ?”
“मेन बिजनेस तो लाइन मारना ही है - जो कि मैं इस घड़ी भी मार रहा हूं - वैसे कुछ आजू बाजू के बिजनेस भी हैं ।”
“काफी दिलचस्प आदमी हैं आप ।”
“तारीफ का शुक्रिया ।”
“मुझे दिलचस्प आदमी पसन्द हैं ।”
“जिसके साथ आप अभी थीं वो कैसा आदमी था ?”
“दिलचस्प नहीं था । इसलिये अच्छा हुआ, पीछा छूटा ।”
“था कौन ?”
“अब्बा का कोई वाकिफकार था । मुझे ड्रिंक के लिये इनवाइट करने लगा तो ये सोच कर हामी भर दी कि शाम बढिया गुजरेगी लेकिन वो तो कम्बख्त बद्तमीजी पर उतर आया । आप न आ जाते तो जरूर मेरी बांह तोड़ कर ही मानता ।”
“फूलों की टहनी को थामता हर किसी को नहीं आता ।”
“आपको आता है, मिस्टर कोहली ?”
“आता तो है ।”
“जरा” - उसने अपनी गोरी मरमरी कलाई मेरी तरफ बढाई - “थाम के दिखाइये ।”
मैंने वैसी कोई कोशिश न की । मैं क्या पागल था जो थामने के लिये सामने एक खूबसूरत पेयर मौजूद पाकर भी कलाई थामता ! मैं केवल हंसा ।
वो भी हंसी, उसने बड़ी नजाकत से अपनी कलाई वापिस खींच ली ।
“कब से हैं आप दिल्ली में ?” - मैं बोला ।
“यही कोई दो हफ्तों से ।” - वो एक क्षण ठिठकी और बोली - “वैसे दुबई से आये हमें डेढ महीना हो गया है । यहां आने से पहले एक महीना हम मुम्बई में ठहरे थे ।”
“आई सी ।”
“अपनी लाइन ऑफ बिजनेस के बारे में आपने अभी भी नहीं बताया, मिस्टर कोहली ।”
“बन्दा प्राइवेट डिटेक्टिव है ।”
“प्राइवेट डिटेक्टिव !” - उसके गले से हैरानीभरी सिसकारी निकली - “लाइक चार्ली चान ! लाइक हरक्यूल पोयरेट ! लाइक साम स्पेड ! लाइक डोनाल्ट लैम्ब ! लाइक फीलो वांस ! नो ?”
“यस । लगता है जासूसी नॉवल बहुत पढती हैं आप ?”
“यस । आई लव पी. डी. नॉवल्स । लेकिन ये कभी नहीं सोचा था कि जिन्दगी में कभी किसी असली प्राइवेट डिटेक्टिव से भी मुलाकात होगी । मिस्टर कोहली, मेरी ये जानने की दिली ख्वाहिश है कि रीयल लाइफ में प्राइवेट डिटेक्टिव कैसे फंक्शन करते हैं । सो आई मस्ट सी मोर आफ यू, ताकि आप मुझे अपनी कारगुजारियों की बाबत ज्यादा से ज्यादा बता सकें ।”
लड़की बहुत उथले स्टाइल से मेरे पर ढेर होने की कोशिश कर रही थी और समझ रही थी कि में कुछ नहीं समझ रहा था ।
“मैडम, बहुत बोर धन्धा है प्राइवेट डिटेक्टिव का । वो फिल्मों और नॉवलों में ही कलरफुल लगता है जिनमें के वो बीस-पच्चीस आदमियों को अकेला मार गिराता है, गोलियों की बौछार से भी बच निकलता है और खूबसूरत लड़कियां उस पर ढेर हुई जाती हैं ।”
“आल दि सेम वुई मस्ट सी मोर ऑफ ईच अदर ।”
“एज यू विश, मैडम ।”
एकाएक उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली और बोली - “ओह माई गॉड ! इतना टाइम हो गया ? मुझे अब जाना चाहिये । बाशा इन्तजार करते होंगे ।”
“मैं छोड़ कर आऊं ?”
“वो तो बहुत जरूरी है । मेरे जोड़ीदार को तो आपने भगा दिया और यहां खुद उसकी जगह ले ली । अब जो काम उसने करना था वो तो आपको करना ही होगा ।”
“आपका एस्कार्ट बनना मेरे लिये भारी इज्जतअफजाई की बात होगी ।”
“ग्रेट । बाशा को भी आप से मिल कर खुशी होगी ।”
मुझे भी । - मैं मन ही मन बोला - यूं पता तो चलता कि कौन था ये बाशा जो प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी से मेरी पड़ताल करवाता था ?
हम वहां से बाहर निकले । मैंने अपनी कार का हवाला दिया तो उसने पैदल चलने को तरजीह दी क्योंकि उसने करीब ही, हालीडे इन तक ही, जाना था ।
हालीडे इन में हमारी मंजिल सोलहवीं मंजिल पर स्थित एक डीलक्स सुइट था जिसके ड्राइंगरूम की फ्रेंच विंडो से पूरी नयी दिल्ली का नजारा होता था ।
वहां मेरी बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी से मुलाकात हुई ।
वो ड्राइंगरूम के एक नीमअन्धेरे कोने में बैठा किन्हीं कागजात का मुआयना कर रहा था । हमारे आगमन की आहट पाकर उसने आंखों पर से निगाह का चश्मा उतारा और उसकी जगह एक बड़ा स्टाइलिश बड़े बड़े सुर्मई रंगत के लैंसों वाला चश्मा आंखों पर चढा लिया । उतारा हुआ चश्मा और कागजात उसने सामने मेज पर डाल दिये और उनके करीब रखी काले फुंदने वाली लाल तुर्की टोपी सिर पर पहन ली ।
मैंने देखा उसके चेहरे पर बड़े स्टाइल से तराशी गयी घनी दाढी-मूंछ थी । नीमअन्धेरे में उसकी उम्र का अन्दाजा लगा पाना मेरे लिये मुश्किल था लेकिन जब वो पढने के लिये रीडिंग ग्लासिज इस्तेमाल करता था और एक जवान बेटी का बाप था तो पचास से कम तो भला वो क्या होता ? उसकी दाढी-मूंछ की रंगत काली थी लेकिन उसकी वजह खिजाब हो सकती थी ।
लैला मुझे लेकर उसके करीब पहुंची ।
“बाशा” - लैला बोली - “दिस इज मिस्टर सुधीर कोहली ।”
उसने उठ कर बड़ी गर्मजोशी से मेरे से हाथ मिलाया ।
“मिस्टर कोहली प्राइवेट डिटेक्टिव हैं ।” - लैला बोली ।
“ए रीयल लाइफ पी. डी ।” - बाशा बोला - “ये तो बड़ा अच्छा इत्तफाक हुआ ।”
“वो कैसे ?”
बाशा ने अपनी बेटी की तरफ देखा ।
“मैं अभी आयी ।” - लैला बोली और वहां से रुख्सत हो गयी ।
“मुझे एक प्राइवेट डिटेक्टिव की सर्विसिज की जरूरत है ।” - पीछे बाशा बोला - “लेकिन मैं नहीं जानता कि आपके यहां पी.डी. कैसे फंक्शन करते हैं ? मसलन अपने कलायन्ट से कैसे चार्ज करते हैं वो ?”
“वैसे ही जैसे वकील लोग चार्ज करते हैं । पूरे केस की फ्लैट फीस या तब तक साप्ताहिक किश्तें जब तक कि केस क्लोज न हो जाये ।”
“आई सी ।”
“आपकी क्या प्रॉब्लम है ?”
“प्रॉब्लम ?”
“जिसके लिये आपको पी.डी. को सेवाओं की जरूरत है ?”
“अच्छा, वो । बहुत सी बातें हैं जिनको डिसकस करने के लिये ये वक्त मुनासिब नहीं । हम फिर मिलेंगे, मिस्टर कोहली । सो लांग टिल दैन ।”
और वो बिना मेरे से नजर मिलाये लम्बे डग भरता वहां से रुख्सत हो गया ।
मैं हकबकाया सा उसे जाता देखता रहा ।
अजीब आदमी था । कोई बात नहीं करनी थी तो भूमिका बान्धने की क्या जरूरत थी ? बेटी को मोहरा बना कर मेरे से जबरन मुलाकात का माहौल पैदा करने की क्या जरूरत थी ?
और फिर असल में था कौन वो बाशा का बच्चा ?
मालूम करूंगा । मालूम करके रहूंगा । आखिर मैं भी प्राइवेट डिटेक्टिव वैसे ही नहीं हूं । न बुरे के घर तक पहुंच कर दिखाया तो...
तभी एक दरवाजा खुलने की आवाज हुई और उसकी चौखट पर लैला प्रकट हुई । मैंने उधर देखा तो मुझे उसके पीछे एक सुसज्जित बैडरूम दिखाई दिया । उसने दरवाजा बन्द कर दिया और, फिर लम्बे डग भरती मेरे करीब पहुंची ।
“बाशा को कहीं जाना था ।” - वो बोली - “इसलिये मजबूरन उन्हें तुम्हें अकेला छोड़ना पड़ा । मुझे उनकी खास अप्वायन्टमेंट की खबर होती तो मैं तुम्हें उनके रूबरू लाने का कोई और मौका चुनती । मिस्टर कोहली, आई एम सॉरी आन हिज बिहाफ ।”
“नैवर माइन्ड दैट लेकिन वजह तो यही है न कि आपके बाशा ने कहीं जाना था ?”
“और क्या वजह होगी ?”
“आप बताओ ।”
“यही वजह है ।”
“यानी कि उन्हें ये अन्देशा नहीं था कि मुझे तपेदिक थी जो कि उनके मेरे करीब ज्यादा देर खड़े होने पर उन्हें हो सकती थी ?”
“मिस्टर कोहली ।” - वो त्योराये स्वर में बोली ।
“सॉरी ।”
तब मैंने नोट किया कि उसने अपनी पोशाक बदल ली थी । अपनी काली पोशाक की जगह अब वो एक गुलाबी रंग का सिल्क का गाउन पहने थी जिसमें से उसके उत्तेजक जिस्म के हर मोड़, हर कटाव की झलक मुझे मिल रही थी । उस गाउन का गिरहबान तो इतना खुला था कि वो जरा सा भी आगे झुकती थी तो मुझे उस रूट से नाभि तक उसका गाउन जैसा ही गुलाबी जिस्म दिखाई देता था । उस गाउन के नीचे वो अंगिया नहीं पहने थी इसलिये नजारा ऐसा था कि कलेजा मुंह को आता था ।
वो कुछ क्षण अपना निचला होंठ चुभलाती मुझे देखती रही और फिर बोली - “तुम वाकेई फिल्मों और नॉवलों के पी. डी. से जुदा हो ।”
“अच्छा ।”
“मौजूदा सिचुएशन में तुम्हारी जगह माइक हैमर होता, साम स्पेड होता या डोनाल्ड लैम्ब होता तो वो कब का मुझे अपनी बांहों में जकड़ चुका होता और मेरे गाउन को उधेड़ कर मेरे जिस्म से अलग कर चुका होता । नो ?”
“यस । लेकिन हमारे यहां के रिवाज कुछ जुदा हैं । हम पहले ढील देते हैं और फिर खींचते हैं ।”
“लिहाजा इस वक्त तुम ढील दे रहे हो ?”
“हां ।”
“खींचने का वक्त आ गया है, ये जाहिर करने के लिये क्या कोई घन्टी बजेगी ?”
“घन्टी ही बजेगी लेकिन वो आपको सुनायी नहीं देगी । वो सिर्फ मुझे सुनायी देगी ।”
“अच्छा !”
“हां । आप समझिये कि घन्टी बज गयी और मुझे सुनायी दे गयी ।”
“रियली ?” - वो इठला कर बोली ।
मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया । तत्काल वो लता की तरह मेरे जिस्म से लिपट गयी । तत्काल मेरे तजुर्बेकार हाथों की तजुर्बेकार दस्तक उसके जिस्म के हर मोड़ पर, हर खम पर पड़ने लगी । मेरे होंठ उसके मदभरे होंठों का रसपान करने लगे और मेरा एक हाथ उसके गिरहबान में घुस कर उसके दूधिया उरोजों का आटा गूंथने लगा ।
मेरे भीतर कहीं से फिर आवाज उठ रही थी कि, वो औरत कोई आम औरत नहीं, हव्वा थी जो कि आदम को वर्जित फल खाने पर मजबूर करना चाहती थी, डिलेला थी जो सैमसन के बाल काटकर उसकी शक्ति का हरण करना चाहती थी । लेकिन मैं, जो कि उस वक्त सातवें आसमान पर उड़ रहा था, उस आवाज की तरफ तवज्जो देने को तैयार नहीं थी ।
वो अनोखी औरत थी जिसके होंठ ही नहीं, जिस्म का हर अंग मर्द के जिस्म के हर अंग का चुम्बन ले सकता था । वो यूं मेरे पर हावी होती जा रही थी जैसे अपने उत्तेजक जिस्म को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हुए मेरी हस्ती मिटा देना चाहती थी ।
मुझे त्रिलोक के दर्शन होने लगे ।
उसकी जुबान की तीखी नोक मेरे दान्तों के पास घुस गयी और पता नहीं क्या करने लगी ।
जब मुझे यकीन आने लगा कि मैं उसकी बांहों में ही मर जाने वाला था तो कहीं टेलीफोन की घन्टी बजने लगी ।
वो मेरे से अलग हुई ।
“काफी कुछ जानते हो ।” - वो तनिक हांफती हुई बोली - “लेकिन अभी काफी कुछ सीखोगे ।”
“कौन सिखायेगा ?”
“सोचो ।”
“कब सिखायेगा ?”
“जल्दी ही । तालिबइल्म , अभी जो पहला सबक सीख कर हटे हो, उसे पक्का करो और दूसरे सबक के लिये उस्ताद की वापिसी का इन्तजार करो ।”
“कब होगी वापिसी ?” - मैं व्यग्र भाव से बोला ।
“जल्दी ही । मैं फोन करूंगी ।”
फिर मुझे दोबारा बोलने का मौका दिये बिना वो लपक कर बैडरूम में घुस गयी और उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
तत्काल फोन की घन्टी बजनी बन्द हो गयी ।
पीछे मैंने अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाया, अपने कपड़े व्यवस्थित किये, बालों में कंघी की तरह उंगलियां फिराई और फिर वहां से रुख्सत हुआ ।
लिफ्ट द्वारा मैं नीचे लॉबी में पहुंचा ।
लॉबी में उस घड़ी काफी चहल पहल थी । वहां मैंने उस दरवाजे का रुख किया जो पिछवाड़े से फायर ब्रिगेड लेन की तरफ ले जाता था । उधर मैं अभी कुछ ही कदम बढा था कि एकाएक थमक कर रूक गया । मेरी निगाहों के सामने एक जानी पहचानी सूरत आयी जोकि मुझे होटल की बाबर रोड की ओर की एंटरेंस की तरफ बढती दिखाई दी ।
मैं झपटकर उसके करीब पहुंचा । मैंने पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रखकर उसे रोका और हांफता हुआ बोला - “मिसेज सिब्बल ! होल्ड आन, मिसेज प्रिया सिब्बल !”
वो घूमी, उसकी निगाह मेरी निगाह से मिली, तत्काल उसके चेहरे पर उत्कण्ठा के भाव आये । उसने व्याकुल भाव से यूं दायें-बायें देखा जैसे समझने की कोशिश कर रही हो कि उसे किधर पनाह मिल सकती थी ।
मैंने उसकी बांह पकड़ कर हल्के से झटका दिया और व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “जानेमन, पहचाना अपने खादिम को ?”
उसकी पुतलियां फिर व्याकुल भाव से कटोरियों में घूमीं ।
“अब कोई जवाब तो दो ।” - मैं कर्कश भाव से बोला ।
“क... क्या है ?”
“तुम्हें नहीं पता क्या है ?”
“क्या चाहते हो ?”
“यहां से निकलो । फिर बताता हूं क्या चाहता हूं ।”
“ठीक है । अब बांह तो छोड़ो ।”
मैंने बांह छोड़ दी और दृढता से उसके साथ आगे बढा । वो बड़े सहज भाव से कुछ कदम मेरे साथ चली, फिर एकाएक मेरे से अलग हुई और करीब खड़े दो सूटबूटधारी अतिसम्भ्रान्त व्यक्तियों के पास पहुंची ।
“प्लीज सर ।” - वो दबे स्वर में फरियाद करती हुई बोली - “भगवान के लिये मेरी मदद कीजिये । ये आदमी नशे में है और मेरे से बद्सलूकी करने पर आमादा है । प्लीज , आप सिर्फ इतनी देर इसे यहां रोक लीजिये कि मैं यहां से निकल सकूं ।
वो दोनों तत्काल प्रभावित दिखाई देने लगे । फिर दोनों दृढता से मेरे और प्रिया सिब्बल के बीच में आ खड़े हुए ।
प्रिया तत्काल वहां से बाहर को लपकी ।
मैंने पीछे लपकने की कोशिश की तो उन दोनों ने मुझे ऐसा न करने दिया ।
“औरत से जबरदस्ती नहीं करते, भाई साहब” - एक, अतिसयाने ने मुझे राय दी - “उसे प्यार से हैंडल करते हैं ।”
“कल जब नशा उतर जाये” - दूसरा अपने साथी के सुर में सुर मिलाता हुआ बोला - “तो फिर मिलियेगा और सॉरी बोलियेगा । सब ठीक हो जायेगा ।”
मैंने फिर उनसे पार पाने की कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका ।
“बस दो मिनट और ।” - पहला बोला ।
“प्लीज ।” - दूसरा बोला ।
“अरे मूर्खों !” - मैं कलप कर बोला - “मैं नशे में नहीं हूं । वो औरत एक कत्ल के केस में गवाह है जिसे कि तुमने फरार हो जाने दिया ।
“क्या ।”
“आदत है आजकल तुम जैसे लोगों की । किसी खूबसूरत औरत ने जरा मनुहार की कि लगे उसकी हिमायत करने ।”
“तुम” - पहला हकबकाया सा बोला - “तुम कौन हो ?”
“मैं प्राइवेट डिटेक्टिव हूं । ये देखो मेरा आई. कार्ड जो कि पुलिस का डी.सी.पी. एनडोर्स करके देता है ।”
तत्काल दोनों ने मेरे पर सॉरी-सॉरी की झड़ी लगा दी और फिर दायें-बायें हट के मुझे रास्ता दिया ।
प्रिया सिब्बल के दोबारा दिखाई देने की मुझे कोई उम्मीद नहीं थी, फिर भी मैं बाहर को लपका ।
बाहर प्रिया का दूर दूर तक कोई नामोनिशान नहीं था ।
इतनी जल्दी वो एक ही सूरत में उस इलाके से गायब हो सकती थी कि वहां तक या तो वो कार पर - खुद चलाकर या ड्राइवर के साथ - आयी हो या बाहर निकलते ही वो होटल के टैक्सी स्टैण्ड से टैक्सी पर सवार हो गयी हो । अगर पहली बात सही थी तो मैं कुछ भी नहीं कर सकता था, दूसरी बात सही थी तो टैक्सी स्टैण्ड से पूछताछ करने पर कोई नतीजा हासिल हो सकता था ।
वो बहुत सैक्सी औरत थी और बहुत भड़कीली शलवार कमीज पहने मैंने उसे होटल में देखा था । अपने चूड़ियों जितने बड़े बाले वो तब भी पहने थी । वैसी औरत किसी ने हाल ही में देखी हो तो वो उसे आसानी से तो नहीं भूल सकता था ।
मैं टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचा ।
वहां जिस पहले टैक्सी ड्राइवर से मैंने उसकी बाबत सवाल किया उसी को वो बाखूबी याद थी, उसे ये भी याद था कि वो एक टैक्सी पर सवार होकर गयी थी लेकिन उसे ये याद नहीं था कि उसको बिठाते वक्त कौन सी टैक्सी का नम्बर था ।
“मालूम कर न, यार ।” - मैं याचनापूर्ण स्वर में बोला ।
“कैसे मालूम करूं ?” - ड्राइवर बोला - “तब से और टैक्सियां भी तो यहां से जा चुकी हैं । क्या पता वो कौन सी टैक्सी पर गयी ?”
“मालूम करेगा तो मालूम पड़ जायेगा ।”
“लेकिन...”
“कोशिश तो कर ।” - मैं एक पचास का नोट जबरन उसकी मुट्ठी में खोंसता हुआ बोला - “कोशिश तो कर । जो तुझे याद नहीं, वो तेरे किसी और बिरादरी भाई को याद हो सकता है । तू कोशिश तो कर ।”
सहमति में सिर हिलाता वो उस तख्तपोश की तरफ बढा जिस पर पांच ड्राइवर लोग बैठे हुए थे ।
मैंने उसके पीछे जाने का उपक्रम न किया । मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और उसके कश लगाता उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
पांच मिनट बाद वो लौटा ।
“वो अपने शकील भाई की टैक्सी पर गयी है ।” - वो बोला ।
“पक्की बात ?”
“हां । टैक्सी का नम्बर डी एल टी 1202 है । पुरानी फियेट है ।”
“अब उस टैक्सी को कहां ढूंढूं मैं ?”
“कहीं ढूंढने की जरूरत नहीं । यह शकील का पक्का अड्डा है । देर-सबेर वो यहीं लौट कर आयेगा ।”
“वो लौट तो तुम मुझे उसकी खबर कर दोगे ?”
“कैसे कर दूंगा ? उसके लौटने से पहले मेरा नम्बर लग गया तो मैं यहां थोड़े ही होऊंगा ?”
“तो मैं क्या करूं ?”
“टैक्सियों की कतार के सिरे पर होटल के अहाते का वो परला गेट देख रहो हो ?”
“देख रहा हूं ।”
“जब वो लौटेगा तो उधर से ही भीतर दाखिल होगा और पीछे कतार में फिर नम्बर आने के लिये अपनी टैक्सी लगायेगा । उस गेट पर जाकर खड़े हो जाओ ।”
“भले ही वो एक घन्टे में लौटे ? दो घन्टे में लौटे ?”
“तीन घन्टे में भी लौट सकता है । और सवारी उठाने का ख्वाहिशमन्द न होने पर कल सुबह भी लौट सकता है ।”
“मरवाया ।”
“लेकिन लौटेगा जरूर । इतनी गारन्टी है ।”
“अच्छा भाई” - मैं गहरी सांस लेकर बोला - “देता हूं मैं पहरा ।”
भुनभुनाता हुआ मैं निर्दिष्ट गेट की ओर बढा ।
आपके खादिम की किस्मत उतनी खराब न निकली जितनी की कि मैं उम्मीद कर रहा था ।
मुझे सिर्फ आधा घन्टा इन्तजार करते हुआ था जबकि डी एल टी 1202 नम्बर की टैक्सी वहां लौट आयी ।
उसके गेट में दाखिल होने से पहले ही मैंने उसे हाथ के इशारे से रोका ।
“शकील ?” - मैं अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या है ?” - वो धृष्ट भाव से बोला ।
उसके मिजाज से मुझे लगा कि उस पर पचास का - या कोई दूसरा भी - नोट कारगर नहीं होने वाला था ।
“जो पूछा है” - मैं कर्कश स्वर में बोला - “उसका जवाब दे ।”
“कौन है भार्ई तू ?” - वो बोला, तब बी उसकी धृष्टता में बाल बराबर ही फर्क आया ।
“मैं डिटेक्टिव हूं । ये मेरा आइडेन्टिटी कार्ड देख ।” - मैंने उसे अपने आई कार्ड की एक झलक दिखाई - “अब बाकी बात यहां करेगा या थाने चल के ?”
“क्या बाकी बात ?” - इस बार वो दबे स्वर में बोला ।
“मैंने तेरे से एक सवाल पूछा था ?”
“हां । मैं शकील हूं ।”
“गाड़ी को बैक करके सड़क पर ले ।”
उसने आदेश का पालन किया ।
गाड़ी बाबर रोड पर पहुंच गयी तो मैं उसके पहलू में बैठ गया ।
“अभी तूने होटल से एक जनाना सवारी बिठाई थी ।” - मैं बोला - “लाल सूट । कानों में बड़े बड़े बाले । गोरी रंगत । बाल कटे हुए । भरे भरे हाथ पांव । कद कोई साढे पांच फुट । कुछ याद आया ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“उसे कहां छोड़ा ?”
“निजामुद्दीन ईस्ट ।”
“निजामुद्दीन ईस्ट कहां ।”
“बी ब्लाक में । हर्षा लेन में ।”
“अरे वहां कहां गयी वो ?”
“मुझे नहीं मालूम कहां गयी ?”
“क्यों नहीं मालूम ? अपने ठिकाने पर ही तो जाकर उतरी होगी । वो जहां जाना चाहती थी, वहीं पहुंच कर ही तो उसने टैक्सी रुकवाई होगी ।”
“नहीं ।”
“क्या नहीं ?”
“उसके कहने पर मैंने बी ब्लाक का रुख किया था । मेरे हर्षा लेन में दाखिल होने से भी पहले उसने मुझे कह दिया था कि मैं वहां कहीं भी टैक्सी रोक दूं । मैंने ऐसा ही किया था । मैंने कहीं भी टैक्सी रोक दी थी । वो टैक्सी से उतरी थी, उसने मेरा किराया भरा था लेकिन किसी कोठी का रुख करने की जगह वहीं खड़ी रही थी । मैं रियरव्यू मिरर में उसे देखता रहा था । जब तक मैं आगे गोल चक्कर से मोड़ नहीं काट गया था तब तक वो वहां से नहीं हिली थी ।”
“वो इलाका मेरा देखा हुआ है । हर्षा लेन के साथ तो दस बारह कोठियां ही हैं । वो गयी होगी तो उन्हीं में से किसी में गयी होगी ।”
“उम्मीद तो है ।”
“तू उस लेन में किधर से दाखिल हुआ था ? गोल चक्कर की तरफ से या हर्षा रोड की तरफ से ?”
“हर्षा रोड की तरफ से । गोल चक्कर की तरफ से तो निकला था ।”
“रुका कहां था ? दाखिल होते ही, आगे जाकर या परले, गोल-चक्कर वाले, सिरे पर पहुंच कर ?”
वो कान खुजाता सोचने लगा ।
“उसने मुझे दाखिल होते ही रुकने को कहा था” - फिर वो बोला - “लेकिन मेरे रोकते भी टैक्सी काफी आगे निकल आयी थी ।”
“कितनी आगे ? क्या ब्लाक के मिडल में पहुंच गयी थी ?”
“नहीं । मिडल में तो नहीं पहुंची थी ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“ठीक है ।” - मैं टैक्सी का अपनी ओर वाला दरवाजा खोलता हुआ बोला - “शुक्रिया ।”
“मैंने कोई शुक्रिया बोलने वाला मामा नहीं देखा ।”
“मैं मामा नहीं हूं इसलिये मैंने तेरी बात का बुरा नहीं माना ।”
“मामा नहीं हो ? लेकिन तुमने बोला था कि...”
“क्या बोला था ? डिटेक्टिव बोला था । हूं मैं डिटेक्टिव । लेकिन प्राइवेट ।”
“कमाल है । और जो मुझे थाने ले जाने की धमकी दे रहे थे ?”
“धमकी नहीं दे रहा था । पूछ रहा था कि बाकी बात यहां करेगा या थाने चल के । तू थाने चलने की हामी भरता तो मैं चलता बनता ।”
“एक नम्बर के हरामी मालूम होते हो ।”
“एक नम्बर का ही होना चाहिये आदमी के बच्चे को । दो नम्बर किस काम का ? तीन नम्बर किस काम का ?”
“यानी कि मानते हो कि हरामी हो ?”
“एक नम्बर का बोला इसलिये मानता हूं ।”
“कमाल है ।”
“खास दिल्ली का नहीं मालूम होता । इसलिये नहीं जानता कि यहां किसी को एक नम्बर का हरामी कहा जाये तो वह इज्जत महसूस करता है ।”
वो फिर न बोला ।
मैं बाहर निकला तो वो टैक्सी को आगे होटल की तरफ बढ़ा ले गया ।
अब मैंने मुकन्दलाल नाम के उस हवलदार से सम्पर्क करना था जो कि हाल ही में रिश्वत लेने के इलजाम में रंगे हाथों पकड़ा गया था, जो कोर्ट से जमानत पाकर छूटा हुआ था और जो महकमे से सस्पैंड किया जा चुका था ।
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