सोमवार ।

ये वो दिन था जबकि पर्चियां डालकर पहला नम्बर पाये प्रसिद्ध वकील लौंगमल दासानी ने वारदात की अपनी तफ्तीश का नतीजा क्राइम क्लब के मेम्बरान के सामने रखना था ।

उस शाम को हमेशा की तरह वे सभापति विवेक आगाशे की जोरबाग में सभापित विवेक आगाशे की जोरबाग में स्थित कोठी पर जमा थे । सबकी निगाहें उस शाम के हीरो दासानी पर टिकी हुई थी ।

दासानी ने अपनी नाक पर अपना चश्मा ठीक किया, अपने सामने मौजूद अपने नोट्स का मुआयना किया, खंखार कर गला साफ किया और फिर यूं बोलना आरम्भ किया जैसे अदालत में जज के सामने जिरह कर रहा हो ।

“लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - वो बोला - “कहना न होगा कि कुछ व्यक्तिगत कारणों से भी मेरी इस केस में ज्यादा दिलचस्पी है और वो व्यक्तिगत कारण क्या हैं, ये आप जानते ही हैं । पहले ठीक से नहीं जानते थे तो अब तफ्तीश के लिये मुकर्रर किये गये पिछले एक हफ्ते में जान गये होंगे कि दुष्यन्त परमार का नाम मेरी बेटी से जुड़ा है । बेपर की उड़ाने वालों ने तो ये तक उड़ाया हुआ है कि वो दोनों शादी करने वाले थे और उनकी एंगेजमैंट तो हो भी चुकी थी जब कि हकीकतन ये बात बिल्कुल बेबुनियाद है । बहरहाल मैं कहने वालों की जुबान नहीं पकड़ सकता कि जिस शख्स के कत्ल की कोशिश हुई थी वो मेरी होने वाला दामाद था । ये बात झूठी और बेबुनियाद होने के बावजूद इस केस से मेरा व्यक्तिगत सम्पर्क बनाती है । यूं मुझे जो फायदा पहुंचा है वो ये है कि जो शख्स असल में कातिल का निशाना था, उसकी बाबत कुछ ऐसी बातें मैं पहले से जानता था जो कि बाकी मेम्बरान यो तो जानते नहीं थे और या अगर अब कुछ थोड़ा-बहुत जानते हैं तो अपनी हालिया तफ्तीश के नतीजों के तौर पर ही जानते हैं ।”

“ऐसी जिन बातों का आप जिक्र कर रहे हैं” - आगाशे बोला - “उन्हें आप पिछले हफ्ते पिछली मीटिंग के दौरान भी जानते थे ?”

“जी हां । लेकिन तब मुझे ये मालूम नहीं था कि मेरी जानकारी कत्ल के हल के करीब पहुंचने में मददगार साबित हो सकती थी । अपनी जानकारी की अहमियत मुझे पिछले हफ्ते के वक्फे में केस की तह तक पहुंचने की अपनी कोशिश के दौरान ही सूझी । और अब मैं सहर्ष सूचित करता हूं कि आखिरकार मैं कत्ल के हल तक पहुंच चुका हूं ।”

कई सदस्यों ने हर्षध्वनि की ।

दासानी ने बड़े सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से अपने बाइफोकल्स में से हाजिर मेम्बरान पर निगाह दौड़ाई और फिर अपने व्यवासयसुलभ नाटकीय स्वर में बोला - “मुझे खुशी है कि, बावजूद इसके कि न चाहते हुए मैं पहला वक्ता चुना गया, आप लोगों को मेरे से मायूसी नहीं होने वाली । वैसे मुझे ज्यादा खुशी होती अगर मुझे पहले और मेम्बरान की थ्योरियों को सुनने का मौका मिला होता और फिर उनको गलत साबित करते हुये मैंने अपनी, सही - सही और सटीक - थ्योरी पेश की होती । हालांकि यही बात सन्दिग्ध है कि मेरी थ्योरी के अलावा किसी और थ्योरी का अस्तित्व सम्भव है । अलबत्ता ये हो सकता है कि मेरे वाली ही थ्योरी तक आप लोगों में से कोई या आप सब लोग, भी पहुंच चुके हों ।”

“आप कैसे पहुंचे ?” - अशोक प्रभाकर ने पूछा ।

“जादू के जोर से तो नहीं पहुंचा । किन्हीं अप्राकृतिक शक्तियों का स्वामी होने का भी मेरा कोई दावा नहीं है । कत्ल के हल की बाबत कोई इलहाम भी मुझे नहीं हुआ । मैं एक साधारण नश्वर प्राणी हूं जिसमें कोई विलक्षण प्रतिभा या असाधारण शक्ति नहीं....”

“बात को लम्बा घसीट रहे हैं ।” - रुचिका केजरीवाल छाया प्रजापति के कान में धीरे से बोली - “बात को ओवरड्रामेटाइज करने की कोशिश कर रहे हैं ।”

“वकील जो ठहरे ।” - छाया बोली ।

“....एक आम आदमी की तरह बड़े सहज स्वाभाविक तरीके से मैंने कत्ल के इस केस का हल निकालने की कोशिश की है और मुझे खुशी है कि अब मैं निर्विवाद रूप से ये साबित करने की स्थिति में हूं कि किसने ये जघन्य अपराध किया है ।” - अपने शब्दों का प्रभाव अपने श्रेताओं पर देखने के लिये दासानी एक क्षण को ठिठका और फिर आगे बढा - “अपनी तफ्तीश की शुरूआत में ही एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण सवाल मैंने अपने आप से किया था और उस सवाल का सही जवाब ही असली अपराधी की तरफ मजबूत इशारा था । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, वो सवाल है - फायदा किसको था ? दुष्यन्त परमार अगर मर जाता तो उसकी मौत से सर्वाधिक लाभांवित होने की स्थिति में कौन होता ? ये वो लाख रुपये का सवाल है जो कि इस केस के हल की असली कुंजी है । मैंने ठीक कहा, साहबान ?”

किसी ने उत्तर न दिया ।

यूं कोई प्रेरणा न मिलती पाकर दासानी तनिक सकपकाया और फिर आगे बढा - “साहबान, पुलिस के नुक्तानिगाह से इस क्राइम के तीन क्लू उपलब्ध हैं । चाकलेटें, उनके डिब्बे का रैपर और चिट्ठी । इनमें से रेपर पते के मामले में बेकार क्लू है क्योंकि पता किसी ने भी लिखा हो सकता था । चाकलेट भी इसी श्रेणी का क्लू है क्योंकि अब स्थापित हो चुका है कि सोराबजी एण्ड संस ने चाकलेट का कोई नया ब्रांड हाल में मार्केट में नहीं फेंका था । वास्तव में वो कम्पनी की आम चाकलेट है जो कि बाजार में सैकड़ों दुकानों पर आम बिकती है इसलिये उसके खरीददार को ट्रेस किया जाना एक असम्भव काम है । ये काम सम्भव होता तो यकीनन पुलिस ही इसे अंजाम दे चुकी होती । बहरहाल कोई मददगार क्लू उपलब्ध है तो वो या तो पोस्टमार्क है या फिर पार्सल के साथ आयी चिट्ठी है जो कि, साबित हो चुका है कि, जाली है ।”

“बीच में टोकने के लिये माफी चाहता हूं, मिस्टर दासानी” - आगाशे बोला - “लेकिन पहले ये बताइये कि आपकी अप्रोच अकैडमिक थी या प्रैक्टीकल ? मेरा मतलब है केस का जो हल, आप कहते हैं कि, आपने निकाला है, वो महज कागजी है या आपने उसके लिये कोई दौड़-धूप भी की है ?”

“मैंने दोनों ही तरीके इस्तेमाल किये हैं ।” - दासानी बोला - “अलबत्ता कुछ दौड़धूप मैंने की है तो कुछ करवायी है । वक्त बहुत सीमित होने की वजह से सभी कामों को खुद अंजाम देना मुमकिन जो न हो पाता । कागजी कार्यवाही मैंने ये की कि पहले मैंने एक ऐसी थ्योरी गढी जो कि हर टैस्ट पर खरी उतरती थी और हर शंका का माकूल जवाब पेश करती थी । फिर मैंने उन प्वायन्ट्स की लिस्ट बनायी जो कि तसदीकशुदा तो नहीं थे लेकिन अगर मेरी थ्योरी सही थी तो उनका तथ्यपूर्ण होना जरूरी था । ऐसे तमाम प्वायन्ट्स की छानबीन मेरे निर्देशानुसार कोई भी कर सकता था और अगर उनकी तसदीक हो जाती थी तो फिर मेरी थ्योरी निर्विवाद रूप से सही सिद्ध हो जाती थी ।”

“यानी कि” - क्राइम रिपोर्टर रुचिका केजरीवाल बोली - “आपका हल तथ्यों पर नहीं, गैस वर्क पर, अन्दाजों पर, आधारित है ?”

“दुरुस्त । लेकिन गैसवर्क जरूरी थी । जब तथ्य समुचित मात्रा में उपलब्ध न हों तो इन्टैलीजेंट गैसवर्क ही काम आता है । मैं एक उदाहरण देता हूं । इस बात ने मुझे सबसे अधिक उलझन में डाला था कि अपराधी के पास सोराबजी एण्ड संस के लेटरहैड की एक शीट उपलब्ध थी । मेरे सोचे अपराधी के पास न वो लेटरहैड हो सकता था और न वो उसे हासिल कर लेने की स्थिति में था । लेकिन वो लेटरहैड क्राइम का अभिन्न अंग था । उसके बिना जाली चिट्ठी का अस्तित्व नहीं बनता था । मुझे ऐसा कोई तरीका नहीं सूझ रहा था जिससे मेरा अपराधी वो लेटरहैड हासिल कर लेता और बाद में वो शक के दायरे में आने से बचा रहता । इस बात से मैंने ये नतीजा निकाल कि मेरे अपराधी को वो लेटरहैड किसी सहज स्वाभाविक तरीके से पहले से उपलब्ध था और वो लेटरहैड उपलब्ध होने की ही वजह से मेरे अपराधी ने सोराबजी एण्ड संस की बनायी चाकलेट को अपने क्राइम में इस्तेमाल करने के लिये चुना था ।”

“वैरी इन्टरेस्टिंग ।” - जासूसी उपन्यासकार अशोक प्रभाकर प्रभावित स्वर में बोला - “यानी कि आपका मतलब है कि वो लेटरहैड वो केन्द्रबिन्दु था जिसके इर्दगिर्द कत्ल की योजना का तानाबाना बुना गया ?”

“जी हां । लेकिन है ये अन्दाजा ही । एक ऐसा अन्दाजा, हासिल नतीजे ने जिसे सही और न्यायोचित ठहराया ।”

“आगे बढ़िये ।” - सभापति बोला ।

“तब मैंने सोचा कि बिना किसी की जानकारी में आये कैसे कोई वैसा एक लेटरहैड मुहैया कर सकता था । मुझे एक रास्ता सूझा । वो रास्ता ये था कि किसी सन्दर्भ में मेरे अपराधी की सोराबजी एण्ड संस से खतोकिताबत थी । वो उनका एजेन्ट हो सकता था, उनका एजेन्ट बनने का ख्वाहिशमन्द हो सकता था, उसकी सोराबजी एण्ड संस में कोई एफ. डी. हो सकती थी या ऐसी किसी भी और निर्दोष-सी वजह से उसकी सोराबजी एण्ड संस से कोई खतोकिताब हो सकती थी जिसकी वजह से उसके पास कम्पनी के उस फैंसी लेटरहैड पर टंकित और मैंनेजिंग डायरेक्टर द्वारा हस्ताक्षरों को छोड़कर सारी मूल इबारत किसी रासायनिक प्रकिया द्वारा मिटा दी गयी थी और उसकी जगह वो इबारत टाइप कर ली गयी थी जो कि चाकलेट के कम्पलीमैंट्री पैकेट में से निकली दुष्यन्त परमार को सम्बोधित चिट्ठी पर टंकित थी ।”

सब सन्नाटे में आ गये ।

“साहबान, मैंने सोराबजी एण्ड संस से पूछताछ करवायी तो मालूम हुआ कि उनके यहां रिवाज है कि एफ. डी. की मैच्योरिटी पर जब कलायन्ट को रकम का चैक भेजा जाता है तो उसके साथ मैनेजिंग डायरेक्टर की साइन की हुई एक चिट्ठी नत्थी की जाती है जिस पर केवल ये लिखा होता है - ‘थैक्यू फार इनवैस्टिंग विद अस’ । साहबान, इस बात की भी तसदीक हो चुकी है कि वैसी तमाम चिट्ठियां मैनेजिंग डायरेक्टर के स्पेशल, फैंसी लेटरहैड पर ही टंकित की जाती हैं । यानी कि मेरे अपराधी ने ऐसी किसी चिट्ठी पर से केवल पांच शब्द किसी तरह से मिटाने थे और फिर जाली चिट्ठी बनाने के लिये उसके पास कम्पनी का जेनुइन लेटरहैड, कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर के जेनुइन हस्ताक्षरों के साथ तैयार था ।”

“छः महीने पहले से ?” - छाया प्रजापति बोली ।

“थैंक्यू वाली चिट्ठी उसके पास छः महीने पहले उपलब्ध होगी लेकिन उसकी थैंक्यू वाली इबारत उसने अब, जरूरत पड़ने पर, मिटाई होगी ।”

“ऐसी कोई हरकत छुपी रह सकती है ?” - रुचिका केजरीवाल ने पूछा ।

“नहीं छुपी रह सकती ।” - दासानी विजेता के-से स्वर में बोला - “नहीं छुपी रही । मैंने पुलिस हैडक्वार्टर जाकर खुद अपनी आंखों से इस चिट्ठी का दोबारा, बड़ी बारीकी से मुआयना किया है । मैं ये कबूल करता हूं कि थैंक्यू वाली मूल इबारत के पांच शब्द ही सफाई से, बहुत ही चतुराई से मिटाये गये हैं लेकिन कागज का उलटी तरफ से बहुत बारीक मुआयना करने पर इस इबारत के टाइपशुदा अक्षरों का दबाव कागज पर साफ दिखाई देता है - अलबत्ता दबाव ही दिखाई देता है, ऊपर से उल्टे हो जाने वाले वो अक्षर पढे नहीं जा सकते । लेकिन साहबान, इस बात की गारन्टी है कि उस लेटरहैड पर से एक इबारत मिटा कर उस पर दूसरी इबारत मिटा कर उस पर दूसरी इबारत टाइप की गयी है । मेरी थ्योरी के हक ये एक अत्यन्त ठोस सबूत है ।”

दासानी एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “अब मैं आपका ध्यान पोस्टमार्क की ओर आकर्षित करना चाहता हूं । पोस्टमार्क केवल ये बताता है कि चाकलेट वाला पार्सल शुक्रवार सोलह नवम्बर को पोस्ट किया गया था और इस लाइन पर पुलिस द्वारा की गयी तफ्तीश ये स्थापित करती है कि वह सवा एक और पौने तीन बजे जनपथ पर इन्डियन आयल की इमारत के सामने वाले लेटर बक्स से पोस्ट किया गया था । मेरी थ्योरी के लिये ये जरूरी था कि मैं ये साबित कर पाता कि मेरा अपराधी इस तारीख को इस वक्त के दरमयान जनपथ पर था । आप ये कह सकते हैं कि ऐसा जरूरी नहीं । जरूरी नहीं कि पार्सल अपराधी ने खुद ही पोस्ट किया हो । पार्सल उसके कहने पर किसी ने भी लेटर बक्स के हवाले किया हो सकता है और अपराधी खुद इस वक्त की अपने लिये बड़ी ठोस एलीबाई गढके रख सकता है । वैसे भी जिसे मैं अपराधी समझ रहा हूं, वो वारदात के वक्त के आसपास दिल्ली शहर में नहीं था इसलिये उसने वो पार्सल लखनऊ से दिल्ली आ रहे अपने किसी वाकिफकार को ये कहकर सौंप दिया हो सकता है कि वो दिल्ली पहुंचकर उस पार्सल को पोस्ट कर दे । यूं पार्सल अपेक्षाकृत जल्दी अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच सकता था ।”

“क्या खराबी है इस बात में ?” - अशोक प्रभाकर बोला - “हो तो सकता है ऐसा !”

“हो सकता है लेकिन मुझे एतबार नहीं कि ऐसा हुआ होगा ।”

“क्यों ?”

“क्योंकि मेरा अपराधी इस में निहित खतरा उठाना अफोर्ड नहीं कर सकता । ये तो किसी को अपना भेद देने जैसी बात होती । किसी को अपना अकम्पलिस, अपना राजदां बनाने जैसी बात होती । जिस किसी को भी वो पार्सल पोस्ट करने के लिये सौंपा जाता, जो बाद में कत्ल से सम्बन्धित घटनाक्रम की बाबत जानकर क्या दो में दो जोड़कर चार जवाब न निकाल लेता ?”

“मुमकिन है” - अशोक प्रभाकर धीरे से बोला - “पार्वती परमार की ऐसा किसी राजदां के साथ मिलीभगत रही हो । उस सूरत में तो उसका राजदां उसकी पोल न खोलता ?”

तत्काल दासानी के चेहरे ने रंग बदला ।

“मैंने किसी का नाम नहीं लिया !” - वो सावधान स्वर में बोला ।

“अभी नहीं लिया । लेकिन अपनी कहानी को अपनी चरम सीमा पर पहुंचाकर तो लेते । अन्धे को भी दिखाई दे रहा है कि तब जो नाम आप लेते वो क्या होता ?”

“यूं किसी का नाम लेना अपवादजनक लेख की बुनियाद बन सकता है ।”

“चेतावनी का शुक्रिया ।” - अशोक प्रभाकर शुष्क स्वर में बोला - “लेकिन ये चेतावनी अगर सिर्फ मेरे लिये है तो गुजारिश है कि पत्नी द्वारा पति के कत्ल की कोशिश की कहानी लिखने का मेरा कतई कोई इरादा नहीं है । ऐसी कहानियां मैं पहले ही दर्जनों की तादाद में लिख चुका हूं । मेरी राय में आपकी चेतावनी अपवादजनक लेख चुका हूं । मेरी राय में आपकी चेतावनी अपवादजनक लेख की बाबत नहीं, किसी के खिलाफ बदनामी और अपयश फैलाने की बाबत होनी चाहिये थी, क्योंकि ऐसी स्थिति सहज ही मानहानि के मुकद्दमे की बुनियाद बन सकती है ।”

“इस बाबत” - आगाशे जल्दी से बोला - “सभापति की हैसियत से मैं कुछ कहना चाहता हूं । आप लोग जरा सुनिये । कोई भी सदस्य कृपया ये न भूलें कि गोपनीयता इस क्लब की कार्यप्रणाली की पहली शर्त है । अव्वल तो कोई बात यहां से बाहर जायेगी नहीं, जायेगी तो सदस्यों की सर्वसम्पति से जायेगी । हम आपस में दोषारोपण न करने लगें, आपस में ही एक दूसरे के गले न पड़ने लगें तो मानहानि के मुद्दे को लेकर कोर्ट कचहरी की कोई बात, मुझे यकीन है कि, हम लोगों में नहीं उठेगी ।”

“हम लोगों में नहीं उठेगी” - मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति ने राय दी - “लेकिन हम लोगों में से किसी की वजह से उठ सकती है ।”

“मैजिस्ट्रेट साहिबा का इशारा अगर मैं समझ रहा हूं तो वो इस तरफ है कि हम में से कोई गोपनीयता की कसम तोड़ सकता है और किसी के हक में या किसी के खिलाफ मानहानि के मुकद्दमे का गवाह बन सकता है । ऐसा नहीं होना चाहिये । हम सब पढे-लिखे समझदार लोग हैं और भली-भांति समझ सकते हैं कि यहां जो कुछ भी कहा सुना-जाता है वो बिना किसी पूर्वाग्रह और दुर्भावना के होता है । क्राइम से जोड़कर अगर यहां किसी का नाम लिया जाता है तो इसका मतलब ये कतई नहीं है कि नाम लेने वाले को उससे कोई खुन्दक या जाती अदावत है जिसका कि नाम लिया गया है । जैसे वकील साहब की थ्योरी में पार्वती परमार का नाम आया, वैसे ही और लोगों की थ्योरियों में और मुखतलिफ नाम आ सकते हैं । इसलिये ये इन्तहाई जरूरी है कि हर वक्ता को ये आश्वासन हो कि केस का हल पेश करने की कोशिश में वो कुछ भी निसंकोच कह सकता है, किसी का भी नाम निसंकोच ले सकता है । उसे ये सोचकर खौफ खाने की जरूरत नहीं कि जिसका वो नाम लेगा वो उसे मानहानि का गुनहगार ठहरा कर अदालत में घसीट कर ले जायेगा । जो मेम्बरान मेरे से सहमत हों, वो कृपया हाथ खड़े करें ।”

तमाम हाथ खड़े हुए ।

“गुड ।” - आगाशे बोला - “तो बाई वोट ये स्थापित हुआ कि गोपनीयता में हमारी आस्था शत-प्रतिशत है । मिस्टर दासानी, आपने जो कहना है निसंकोच कहिये और इशारेबाजी की भाषा इस्तेमाल करने की जगह साफ-साफ कहिये ।”

“जरूर ।” - दासानी बोला - “मैं मिस्टर प्रभाकर की बात की तसदीक करता हूं । बतौर अपराधी जो नाम मेरे जेहन में है और जो मेरी थ्योरी में हाथ में दस्ताने की तरह फिट बैठता है, वो नाम दुष्यन्त परमार की बीवी पार्वती परमार का ही है । अब मैं आपको अपनी थ्योरी के उस प्वायन्ट पर लौटा ले चलता हूं जहां इस बात पर बहस हो रही थी कि पार्वती परमार का कोई निर्दोष राजदां था या कोई ऐसा राजदां था जिससे कि उसकी मिलीभगत थी । साहबान, ये मिलीभगत वाले राजदां की बात मुझे भी सूझी थी । लेकिन मैंने अपनी तहकीकात से इस बात की पूरी तसल्ली कर ली है कि ऐसी कोई बात नहीं । कत्ल के मामले में पार्वती परमार ने जो कुछ भी किया है, अकेले किया है ।”

“ये कैसे हो सकता है ?” - आगाशे बोला - “इस बात की तो पुलिस ने भी तसदीक की है कि क्या केस से पहले, क्या केस के दौरान और क्या केस के बाद, पार्वती परमार तो हर बड़ी लखनऊ में थी । उसके पास यूं अपनी लखनऊ में हाजिरी की अकाट्य, एकदम सिक्केबन्द एलीबाई (गवाही) है ।”

“थी । लेकिन वो एलीबाई” - दासानी के स्वर में गर्व का पुट आ गया - “मैं छिन्न-भिन्न कर चुका हूं ।”

“कैसे ?”

“सुनिये । जहरभरी चाकलेटों वाला पार्सल पोस्ट किये जाने की तारीख से पहले पार्वती परमार इलाहाबाद से लखनऊ गयी थी जहां कि वो रविवार तक ठहरी थी । रविवार शाम को वो इलाहाबाद वापिस लौट गयी थी । लखनऊ के होटल अवध के रजिस्टर में उसके नाम की एन्ट्री है और उसके हस्ताक्षर हैं । होटल की बिलबुक में उसके नाम जारी हुए बोर्डिंग और लांजिग के बिल की कार्बन कापी है । कहने का मतलब है कि सब कुछ ठीक-ठाक है और वैसा ही है जैसा कि होना चाहिये । सिवाय इसके कि मैडम की हेयर-ड्रैसर, जो कि मैडम की ही उम्र की खूबसूरत औरत है और जिसका मैडम के साथ परछाई जैसा साथ मशहूर है, उसके साथ लखनऊ नहीं गयी थी । ये एक स्थापित तथ्य है कि पार्वती परमार अपनी हेयर-ड्रैसर रुथ के बिना कहीं नहीं जाती । मैंने खुद जांच करायी है कि रुथ अपनी मैडम के साथ लखनऊ के अवैध होटल में तो थी ही नहीं, वो पीछे इलाहाबाद में भी नहीं थी । साहबान, रुथ कहां गयी ? कहां गायब हो गयी वो ?”

“आप ही बताये ।” - रुचिका केजरीवाल चैलेंजभरे स्वर में बोली ।

“मैं जरूर बताऊंगा । हालात पुकार-पुकार कर चुगली कर रहे हैं कि लखनऊ के अवध होटल में पार्वती परमार नहीं, उसकी हेयर-ड्रैसर रुथ पहुंची थी जो कि पार्वती परमार के नाम से वहां रही थी और खुद पार्वती परमार इलाहाबाद से दिल्ली आयी थी जहां कि उसने अपने पति के लिये जहरभरी चकलेटों का पार्सल तैयार किया था, उसमें फर्जी चिट्ठी रखी थी और जिसे कि जनपथ के एक लेटर बाक्स से उसने खुद पोस्ट किया था । मैंने बड़ी ही मुश्किल से पार्वती और रुथ की तस्वीरें हासिल की थीं और अपने एक आदमी को उनके साथ लखनऊ भेजा था । उसने पार्वती परमार की तस्वीर ‘अवध’ में दिखाई थी तो पता चला था उसने कभी उस होटल के कदम नहीं रखा था लेकिन रुथ की तस्वीर को वहां रिसैप्शन क्लर्क ने और दो फ्लोर वेटरों ने फौरन पहचाना था और उसे पार्वती परमार बताया था । सो देयर यू आर, लेडीज एण्ड जन्टलमैन ।”

“इस लिहाज से” - अशोक प्रभाकर बोला - “पार्वती परमार का राजदां तो हुआ न ?”

“राजदां नहीं, मददगार । वो भी निर्दोष । जिसे कि असलियत की भनक भी नहीं थी ।”

“कैसे मालूम ?”

“मेरा वही आदमी इलाहाबाद जाकर रुथ से मिला था और उसने बड़ी चालाकी से, बड़ी मेहनत से, रुथ से वो कहानी निकलवायी थी जो कि पार्वती ने उसे अपने नाम से लखनऊ के होटल में ठहरने के लिये तैयार करने की खातिर गढी थी ।”

“क्या थी वो कहानी ?”

“आप लोग जानते ही हैं कि पार्वती परमार अभिनेत्री है और टी.वी. पर उसने खासा नाम भी कमाया हुआ है । उसने अपनी हेयर-ड्रैसर को ये पुड़िया दी थी कि उसे बम्बई की एक मल्टी-स्टारर फिल्म में बहुत बड़ा ब्रेक मिल रहा था, जिसके कान्ट्रेक्ट की एक शर्त के मुताबिक नवम्बर के तीसरे सप्ताह में उसका लखनऊ में उपलब्ध रहना जरूरी था जबिक उसे बम्बई की एक मल्टी-स्टारर फिल्म में बहुत बड़ा ब्रेक मिल रहा था, जिसके कान्ट्रेक्ट की एक शर्त के मुताबिक नवम्बर के तीसरे सप्ताह में उसका लखनऊ में उपलब्ध रहना जरूरी था जबकि उसे बम्बई से पक्की खबर लग चुकी थी कि फिल्म यूनिट उस सप्ताह में लखनऊ नहीं पहुंच पाने वाला था । उसने कहा कि उसके पास दिल्ली में बनती एक वीडियो फिल्म की आफर थी जिसकी शूटिंग के लिए उसका उन्हीं तारीखों में दिल्ली मौजूद होना जरूरी था । अब ये दोनों काम इसी सूरत में हो सकते थे कि पार्वती परमार चुपचाप दिल्ली चली जाती और रुथ लखनऊ जाकर उसके नाम से अवध में ठहर जाती । अव्वल तो बम्बई वाला यूनिट वहां पहुंचने वाला नहीं था, किसी करिश्मे से पहुंच भी जाता तो रुथ उसे दिल्ली में ट्रंककाल कर देती और फिर पार्वती आनन-फानन लखनऊ पहुंच जाती और ये जाहिर करती कि यो तो शुरू से ही वहीं थी । पक्की सहेली जैसी, बल्कि सगी बहन जैसी, उसकी हेयर-ड्रैसर भला क्यों कर उसकी मदद करने से इनकार करती ।”

“आपने तो कमाल कर दिखाया, मिस्टर दासानी । बड़े-बड़े जासूसों को शर्मिन्दा कर दिया आपने तो तफ्तीश में ।”

“शुक्रिया ।”

“लेकिन क्या आपके पास इस बात का भी कोई सबूत है कि उन तारीखों में पार्वती परमार वाकई दिल्ली में थी ?”

“नहीं ।” - दासानी खेदपूर्ण स्वर में बोला - “मैं कबूल करता हूं कि ऐसा कोई सबूत मेरे पास नहीं है । लेकिन ऐसा कोई सबूत, जब पुलिस की तफ्तीश होगी तो जरूर ही निकल आयेगा । सिवाय इस एक पहलू के मेरा केस हर पहलू में मुकम्मल है । साहबान, अपनी तफ्तीश के आधार पर मैं पार्वती परमार को अंजना निगम का कातिल करार देता हूं ।”

सभा में सन्नाटा छा गया ।

फिर कई क्षण बाद उस सन्नाटे को अभिजीत घोष ने तोड़ा ।

“मेरी बधाई कबूल फरमाइये, वकील साहब” - वो संकोचपूर्ण स्वर में बोला - “केस का हल खोज निकालने में आपने वाकई कमाल कर दिखाया है । लेकिन मेरी तुच्छ राय में केस का एक पहलू ऐसा है जिस पर आपने कतई रोशनी नहीं डाली है । आपने उद्देश्य का कोई जिक्र नहीं किया । हर काम का कोई उद्देश्य होता है । इसीलिये जाहिर है कि इस कत्ल का भी होगा । आपने ये स्पष्ट नहीं किया कि जिस औरत का तलाक के जरिये अपने पति से पीछा छूट जाना महज वक्त की बात थी वो एकाएक उसकी मौत की ख्वाहिशमन्द क्योंकर उठी ? क्या उसे ये अन्देशा था कि वो तलाक का मुकदमा हार जाने वाली थी ? उसे तलाक हासिल नहीं होने वाला था ?”

“बिल्कुल नहीं ।” - दासानी बोला - “बरखुरदार, उसे तो उलटे ये अन्देशा था कि वो मुकद्दमा जीत जाने वाली थी । उसे तलाक हासिल हो के रहना था । इसीलिये वो अपने पति की मौत की ख्वाहिशमन्द हो उठी थी ।”

“मैं कुछ समझा नहीं ।”

“मैं समझाता हूं । देखो, मैंने शुरू में ही कहा था कि दुष्यन्त परमार से सम्बन्धित कुछ बातें ऐसी थी जिन्हें सिर्फ मैं जानता था और जो मुझे केस के हल तक पहुंचाने में मेरी बहुत मददगार साबित हुई थीं । अब मैं बताता हूं कि ऐसी एक अहमतरीन बात क्या थी ? इतना तो आप जानते ही हैं कि पिछले दिनों दुष्यन्त परमार और मेरी बेटी विभा की शादी की अफवाह शहर में खूब गर्म थी । उन्हीं दिनों परमार एक बार मेरे पास आया था और तब उसने मेरी बेटी से शादी करने के लिये मेरी रजामन्दगी चाही थी । बकौल उसके, अपनी बीवी से तलाक होते ही वो मेरी बेटी से शादी कर लेना चाहता था । तब उसी ने मेरे पर ये तथ्य उजागर किया था कि उसकी बीवी असल में वो तलाक नहीं होने देना चाहती थी और उसमें वो हर मुमकिन अड़ंगा लगा रही थी । देर से आजिज आकर उसने अपनी बीवी को माली लालच दिया था जो कि कारआमद साबित हुआ था । लेकिन परमार कोई दौलतमन्द आदमी नहीं था । उसके पास या तो नैनीताल में कुछ जमीन जायदाद थी और या फिर उसकी मोटी रकम की लाइफ इंश्योरेंस थी । बकौल परमार, तलाक के बदले में उसने वो सब कुछ अपनी पत्नी के नाम पर देना कबूल कर लिया ।”

“यूं सब कुछ बीवी ही समेटकर ले जाती तो आपकी बेटी को क्या दे पाता वो ?”

“कुछ भी नहीं । और ये बात उसने मेरे सामने अपनी जुबानी कबूल की थी ।”

“लेकिन वसीयत तो कभी भी तब्दील की जा सकती है !”

“परमार ने अपनी बीवी को ये कहकर भरमाया था कि वसीयत अगर रजिस्टर्ड हो तो तब्दील नहीं की जा सकती । हकीकत सिर्फ ये है कि ऐसी वसीयत साधारण वसीयत से कैंसिल नहीं होती । रजिस्टर्ड वसीयत को कैन्सिल करने के लिए रजिस्टर्ड वसीयत ही चाहिए होती है । बाद में ये बात किसी ने पार्वती परमार को सुझा दी होगी । उसे दिखाई दे रहा होगा कि तलाक होते ही परमार अपनी वसीयत भी बदल देगा और वो दोतरफा बेवकूफ बन जाएगी । कहने का मतलब ये है कि पार्वती को मोटा आर्थिक लाभ तभी हो सकता था जबकि वसीयत बदले बिना दुष्यन्त परमार परलोक सिधार जाता । और साहबान, ऐसा ही इन्तजाम बड़ी चतुराई से उस औरत ने किया । उसका लालची चरित्र तो इसी बात से उजागर हो जाता है कि उसने वसीयत की रिश्वत की कीमत में तलाक की हामी भरी । और वो रिश्वत हाथ में निकली जाती पाकर उसने कत्ल का इरादा बनाया । लेडीज एण्ड जण्टलमैन, मानिटेरी गेन, आर्थिक लाभ था कत्ल कर उद्देश्य । मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मेरे से सहमत होंगे ।”

“उद्देश्य आपने” - मैजिस्ट्रेट साहिबा बोली - “एकदम सही बयान किया है ।”

“चाकलेट्स का जिक्र आपने नहीं किया ।” - जासूसी उपन्यासकार बोला - “आप ये बताइये कि जहर वाली चाकलेट्स, पार्वती परमार इलाहाबाद से तैयार करके अपने साथ लाई या दिल्ली पहुंचकर उसने उनका इन्तजाम किया ?”

“ये कोई अहम बात नहीं ।” - दासानी लापरवाही से बोला - “खुद चाकलेट ही कोई अहम मुद्दा नहीं ।”

“ये आप ठीक नहीं कह रहे । आखिर चाकलेट ही तो वो कड़ी है जो कातिल का कत्ल में इस्तेमाल हुए हथियार से रिश्ता जोड़ती है ।”

“ऐसा तब माना जाता जब वो चाकलेट उपलब्ध करना कोई कठिन काम होता या इस्तेमाल में लाया गया जगह कोई दुर्लभ और अनुपलब्ध किस्म का होता । ये पहले ही स्थापित हो चुका है कि नाइट्रोबेंजीन नाम का जहर, जो कि कत्ल के लिए इस्तेमाल किया गया था, कन्फेक्शनरी और डाई एण्ड कैमीकल इन्डस्ट्री में इस्तेमाल होने वाली आम आइटम है जो कि किसी को भी आम उपलब्ध है ।”

“चलिये, मान ली आपकी बात” - अशोक प्रभाकर बड़े इत्मीनान से बोला - “आपकी थ्योरी पर अब मैं एक और एतराज पेश करता हूं ।”

“वो भी बोलो ।”

“वकील साहब, अपनी थ्योरी से वास्तव में आपने पार्वती परमार के खिलाफ कुछ भी साबित नहीं किया है ।”

“क्या !”

“मैं ठीक कह रहा हूं । आपने सिर्फ उद्देश्य स्थापित किया है और अवसर स्थापित किया है । इन दो बातों से ही कत्ल का केस साबित नहीं हो जाता । किसी की कत्ल की नीयत हो सकती है, उसे कत्ल करने का मौका भी हासिल हो सकता है, फिर भी जरूरी नहीं कि उसने कत्ल किया हो । आपने वसीयत का जिक्र करके ये साबित करके दिखाया कि पार्वती परमार के पास कत्ल का उद्देश्य था । लखनऊ में उसकी जगह उसके हेयर-ड्रेसर की मौजूदगी से आपने स्थापित कर दिखाया कि कत्ल का अवसर उसके पास था लेकिन ऐसी एक भी बात आपने नहीं कही, ऐसा एक भी सबूत आपने पेश नहीं किया जो ये जाहिर करता हो कि वास्तव में भी कत्ल उसी ने किया था ।”

“ऐग्जैक्टली” - छाया प्रजापति तनिक उत्तेजित स्वर में बोली - “मैं खुद यही कहने जा रही थी । हकीकतन जो कुछ दासानी साहब ने कहा है, वो सिर्फ शक की सुई ही पार्वती परमार की ओर घुमाने के लिए काफी है, उसे निर्विवाद रूप से अपराधी सिद्ध करके सजा दिलाने के लिए काफी नहीं है । मेरी अदालत में अगर ऐसा कोई केस पेश होता तो मैं यकीनन मुजरिम को सन्देह लाभ देकर छोड़ देती । मैं तो ये तक कहने को तैयार हूं कि आपने जैसे-तैसे कत्ल का कोई हल निर्धारित समय में क्राइम क्लब के सामने पेश करने की खातिर जबरन अपनी थ्योरी में पार्वती परमार को फिट कर लिया है और ऐसा करके आप उसके साथ भारी ज्यादती कर रहे हैं । आपकी जिरह में दम हो सकता है, आखिर आप नामी वकील हैं और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अपने हक में कर दिखाने की कला में माहिर हैं लेकिन मेरी जाती राय ये है कि जो कुछ आपने कहा है, वो भ्रान्तिपूर्ण है और उससे जो नतीजा आपने निकाला है, वो गलत है ।”

“लेकिन कैसे... कैसे गलत है ?”

“कैसे-वैसे मुझे नहीं मालूम लेकिन मेरा दिल गवाही दे रहा है कि आपका निकाला नतीजा गलत है ।”

“दिल गवाही दे रहा है !” - दासानी ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में दोहराया ।

“एक बात तो मैं भी कहना चाहता हूं ।” - सभापति विवेक आगाशे बोला - “फर्जी चिट्ठी के लिए जिस तरीके से आपने अपराधी को सोराबजी एण्ड संस के लेटरहैड का कागज हासिल बाताय है, वैसे तो वो कागज हजारों लोगों को उपलब्ध हो सकता है । सोराबजी एण्ड संस में फिक्सड डिपाजिट कोई भी करा सकता है । खुद मेरा ऐसा फिक्सड डिपाजिट उस कम्पनी में है । दासानी साहब की ये बात हम मान लेते हैं कि जाली चिट्ठी असली चिट्ठी पर से मूल इबारत हटाकर उसकी जगह नयी इबारत टाइप करके तैयार की गयी थी लेकिन हत्यारा कोई भी होता, चिट्ठी पैदा करने का उसने ये ही रास्ता अख्तियार किया होता । फिर ये सबूत वाहिद पार्वती परमार के खिलाफ ही किसलिये ? पार्वती परमार की सोराबजी एण्ड संस में एफ.डी. होना महज इत्तफाक की बात हो सकती है । इसे उसके खिलाफ पुख्ता सबूत का दर्जा कैसा दिया जा सकता है ?”

“क्योंकि” - दासानी गरजकर बोला - “उसी के पास कत्ल का तगड़ा उद्देश्य भी है ।”

“वो भी इत्तफाक है ।”

“जब सब कुछ इत्तफाक है तो इत्तफाक से ही ये कबूल कीजिए कि वो ही कातिल है ।”

“हमारे कबूल कर लेने से कोई कातिल साबित नहीं हो जाने वाला । कोर्ट में अपराधी का अपराध साबित करके दिखाया जाना होता है ।”

“अक्यूज्ड हैज टु बी प्रूवन गिल्टी बियांड आल रीजनेबल डाउट्स ।” - छाया प्रजापति बोली ।

“वो पुलिस का काम है ।” - दासानी पूर्ववत् गरजता हुआ बोला - “मेरा काम सम्भावित कातिल की तरफ मजबूत इशारा करना था जो कि मैंने, बमय सबूत, कर दिखाया है ।”

“मिस्टर दासानी” - क्राइम रिपोर्टर रुचिका केजरीवाल बोली - “आप इस बात का कोई सबूत नहीं पेश कर सके हैं कि कत्ल के वक्त के आसपास पार्वती परमार दिल्ली में थी ।”

“लेकिन मैंने ये साबित करके दिखाया है कि वो उस वक्त लखनऊ में नहीं थी जबकि वो कहती है कि वो वहां थी ।”

“ऐसी दलीलें सर्फ जासूसी नावलों में चलती हैं, जनाब, कि कोई एक जगह नहीं था तो वो जरूर दूसरी जगह था जब कि हकीकतन वो किसी तीसरी, चौथी, दसवीं, सौवीं, हजारवीं जगह भी हो सकता था । ये जासूसी उपन्यासों के जासूस का काम होता है कि जब उसके सामने दो बन्द लिफाफे ये कहकर रखे जाते हैं कि एक में रखी पर्ची पर ‘हां’ लिखा है और दूसरी में रखी पर्ची पर ‘न’ लिखा है, वो एक लिफाफा खोलकर उसमें ‘हां’ की पर्ची पाता है तो दूसरा लिफाफा खोले बिना ही वो घोषित कर देता है कि उसमें ‘न’ की पर्ची होगी जब कि हकीकतन हो सकता है कि दूसरे लिफाफे में भी ‘हां’ की ही पर्ची हो, उसमें कोरा कागज हो या उसमें कुछ भी न हो । जासूसी उपन्यासों का नायक उन तीन सम्भावनाओं पर विचार नहीं करता, वो उनमें से केवल उस सम्भावना पर विचार करता है जिस पर कि अपनी कहानी की जरूरत के मुताबिक उसका सृजनकर्ता उससे विचार करवाना चाहता है । एम आई राइट, मिस्टर प्रभाकर ?”

अशोक प्रभाकर ने बड़ी धूर्तता से मुस्कराते हुए सहमति में सिर हिलाया और बोला - “मेरी राय में तुम्हें जासूसी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में अपने जौहर दिखाने चाहिए ।”

“मैने ऐसा किया तो आपका क्या होगा ?”

“तो मैं जासूसी उपन्यास लिखने छोड़कर अखबार की नौकरी कर लूंगा ।”

“जो कि हम दोनों के लिए बुरा होगा ।”

अशोक प्रभाकर हंसा ।

“बहरहाल” - रुचिका केजरीवाल आगे बढी - “अपनी थ्योरी में मिस्टर दासानी भी मिस्टर अशोक प्रभाकर के जासूसी नावलों के नायक जैसा ही रवैया अख्तियार कर रहे हैं । ये भी ऐन वैसे ही दावा कर रहे हैं कि क्योंकि पार्वती परमार लखनऊ में नहीं थी - बल्कि यूं कहिये कि लखनऊ के अवध होटल में नहीं थी - इसलिए वो दिल्ली में थी । ऐसी ही एक और बात भी है जो काबिलेगौर है ।”

“वो क्या ?” - दासानी अनमने स्वर में बोला ।

“आपने चिट्ठी पर तो बहुत रिसर्च की, ये पता लगाने में कमाल कर दिखाया कि वो एक इबारत को मिटाकर उस पर दूसरी इबारत टाइप करके तैयार की गयी थी । लेकिन मिस्टर दासानी, क्या आपने टाइपशुदा चिट्ठी की टाइपराइटिंग को भी महत्व दिया ? क्या आपने ये पता लगाने की कोशिश की कि जिस टाइपराइटर पर वो चिट्ठी टाइप की गयी थी, वो किस किस्म का था, कहां उपलब्ध था और किसकी मिल्कियत था ?”

“मेरे पास इतनी बारीकी में जाने का वक्त नहीं था लेकिन इस काम को बाद में पुलिस भी अंजाम दे सकती है ।”

“और अगर पुलिस की तफ्तीश से ये जाहिर हुआ कि जिस टाइपराइटर पर वो चिट्ठी टाइप की गयी थी, उसके साथ पार्वती परमार का कोई दूर-दराज का भी रिश्ता जोड़ना मुमकिन नहीं था तो फिर आपकी थ्योरी का क्या होगा ?”

“ऐसा नहीं होगा । पार्वती परमार का ऐसे टाइपराइटर से रिश्ता जरूर निकलेगा ।”

“न निकला तो ?”

“जरूर निकलेगा ।”

“न निकला तो?” - रुचिका जिदभरे स्वर में बोली ।

“अगर तो तो ही करनी है” - दासानी चिढकर बोला - “तो मैं कह देता हूं कि अगर निकल आया तो ?”

“आप पार्वती परमार को जानते हैं ?”

“नहीं ।”

“कभी मुलाकात का इत्तफाक नहीं हुआ ?”

“नहीं ।”

“कभी टीवी पर देखा होगा ?”

“मैं टीवी नहीं देखता ।”

“किसी से कभी उसकी बाबत सुना भी नहीं ?”

“नहीं । क्या कहना चाहती हो ?”

“यहीं कि तभी आपने उसे अपनी थ्योरी में एक दौलत की दीवानी ऐसी औरत के रूप में चित्रित किया जो कि दौलत की खातिर कुछ भी कर सकती है । अपने पति का कत्ल भी ।”

“तो क्या हुआ ?”

“पार्वती परमार तो ऐसी औरत नहीं, मिस्टर दासानी । आप उसे जानते होते तो आप भी ये भी कहते ।”

“तुम जानती हो उसे ?”

“खूब अच्छी तरह से । इतना ज्यादा जानती हूं कि मेरी कही एक ही बात आपकी मुकम्मल थ्योरी की बुनियाद हिला के रख सकती है ।”

“ऐसी क्या बात है ?”

“ऐसी बात ये है, वकील साहब, कि कत्ल के वक्त के आसपास मैं भी लखनऊ में थी और शुक्रवार सोलह नवम्बर को दोपहरबाद जिस वक्त चाकलेट वाला पार्सल जनपथ के एक लेटर बाक्स में डाला गया बताया जाता है, उस वक्त मैं गोमती कि किनारे शहीद स्मारक के सामने पार्वती परमार के साथ खड़ी थी ।”

दासानी जैसे आसमान से गिरा । उसका निचला जबड़ा लटक गया और वो हकबकाया-सा रुचिका केजरीवाल का मुंह देखेने लगा ।

“मुझे अफसोस है” - रुचिका बोली - “कि ये बात मैंने पहले छिपाकर रखी । लेकिन पहले मैं ये देखना चाहती थी कि आप पार्वती परमार के खिलाफ किस किस्म का केस खड़ा करने में कामयाब होते थे । वैसे केस आपने यकीनन बहुत बढिया गढा और इसके लिए आप बधाई के हकदार हैं । पार्वती परमार की लखनऊ में ही मौजूदगी की असलियत मुझे मालूम न होती तो आपकी थ्योरी की एक्यूरेसी पर मुझे भी यकीन आ गया होता ।”

“लेकिन... लेकिन ये कैसे हो सकता है ? अगर वो खुद भी लखनऊ में ही थी तो क्यों उसकी हेयर-ड्रैसर रुथ उसके नाम से होटल में ठहरी ?”

“क्योंकि अपने पति से बिगड़ जाने के बाद माला लेकर जोगन बन जाने का इरादा उसका नहीं था । क्योंकि तलाक के बाद नयी शादी करने को उतावला सिर्फ दुष्यन्त परमार ही नहीं था । फर्क सिर्फ इतना था कि दुष्यन्त परमार अपने अफेयर्स को छुपाकर रखना जरूरी नहीं समझता था जबकि पार्वती चाहती थी कि फिलहाल उसके अफेयर की भनक कसी को न लगे । खासतौर से उसके पति को जो कि तलाक के केस में उसकी बेवफाई की दुहाई देकर हर्जे-खर्चे की जिम्मेदारी से निजात पाने की कोशिश कर सकता था । दासानी साहब, पार्वती ने कत्ल करने के लिए दिल्ली आने के लिये नहीं, अपने लव अफेयर पर पर्दा डालकर रखने के लिए रुथ की सहायता से ये स्थापित किया था कि वो होटल अवध में ठहरी हुई थी जबकि असल में वो लखनऊ में कहीं और अपने प्रेमी की बांहों में थी । अब बोलिये, अब क्या कहते हैं आप ?”

दासानी से कुछ कहते न बना ।

फिर मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।