प्रमोद ने शंकर रोड की एक पांचमंजिली इमारत के सामने टैक्सी रुकवाई ।


उस इमारत की पांचवीं मंजिल पर ओबेराय बहनें रहती थीं ।


प्रमोद को टैक्सी से निकलते ही अनुभव हो गया कि इमारत की निगरानी हो रही थी । शायद पुलिस वाले सुषमा ओबेराय के अपने फ्लैट पर लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे ।


लिफ्ट द्वारा प्रमोद पांचवीं मंजिल पर पहुंचा।


उसने कालबैल बजाई और प्रतीक्षा करने लगा । दरवाजा खुला । चौखट पर कविता ओबेराय प्रकट हुई


प्रमोद पर निगाह पड़ते ही उसकी आंखें अपार प्रसन्नता से चमक उठीं ।


"प्रमोद !" - उसके मुंह से निकला और फिर वह प्रमोद की ओर लपकी ।


प्रमोद ने उसे अपनी फैली बांहों में समेट लिया ।


"ओह, प्रमोद ।" - वह बुदबुदाई "मैं कब से तुम्हारा इन्तजार कर रही हूं । एयरपोर्ट पर आने की तो मेरी हिम्मत ही नहीं हुई थी। मैंने सोचा पुलिस...."


"आओ, भीतर चलें ।" - प्रमोद बोला ।


"ओह, हां ।"


प्रमोद एक हाथ से उसका हाथ थामे और वही हाथ उसकी कमर से लिपटाए भीतर घुसा । उसने पांव की ठोकर से दरवाजा बन्द कर दिया। दोनों ड्राईगरूम में जाकर बैठ गए ।


"प्रमोद, बड़ी भयंकर बात हो गई है । जोगेन्द्रपाल...


"मुझे मालूम है ।"


" पुलिस तो गुस्से से आगबबूला हुई हुई है। अगर जोगेन्द्रपाल उनके हत्थे चढ गया तो वे उसे मार ही डालेंगे। "


"ऐसा नहीं होगा ।" - प्रमोद आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला । 


"लेकिन उसका यूं भाग निकलने में सफल हो जाना पुलिस के लिए भारी जगहंसाई का विषय बन गया है । इससे पुलिस की लापरवाही और नाकारेपन का प्रचार हो गया है । क्या अपनी इस तौहीन का बदला वे जोगेन्द्रपाल से लेने की कोशिश नहीं करेंगे ? प्रमोद, देख लेना वे उसे गोली से उड़ा देंगे और बाद में कह देंगे कि वह गिरफ्तारी से बचने की कोशिश कर रहा था । मुझे तो बहुत डर लग रहा है । "


"उसे पुलिस की गिरफ्त से किसने निकलवाया था ?”


"सुषमा और जोगेन्द्रपाल के एक दोस्त हर्ष कुमार ने । प्रमोद, पुलिस हर्ष कुमार को तो जानती नहीं लेकिन जोगेन्द्रपाल की सुषमा से मित्रता की बात तो वे लोग बड़ी आसानी से जान गए हैं और अब वे सुषमा के पीछे भी बुरी तरह पड़े हुए हैं। सुषमा के चक्कर में वे यहां आए थे और मुझे भी धमका गए थे कि या तो मैं बताऊं कि सुषमा कहां हो सकती थी वर्ना मैं भी मुश्किल में पड़ जाऊंगी ।"


"घबराओ नहीं । कुछ नहीं होगा ।"


" प्रमोद, मुझे सुषी की बहुत फिक्र है । पता नहीं इस लड़की को कब अक्ल आएगी ! पता नहीं कब यह ऐसी बचकानी और गैरजिम्मेदाराना हरकतों से किनारा करके जिन्दगी को गम्भीरता से लेने के बारे में सोचेगी । जोगेन्द्रपाल को मौत की सजा सुनाई जाने के बाद जानते हो वह क्या कह रही थी ?"


"क्या कह रही थी ?"


"कह रही थी जिस दिन जोगेन्द्रपाल को फांसी की सजा होगी, उस दिन वह कानून की इस बेइन्साफी के खिलाफ अपना विरोध प्रकट करने के लिए अपनी जान दे देगी।"


"यह सब जवानी के जुनून की बातें हैं । खोखली नारेबाजी है। मुझे विश्वास है सुषमा ऐसा कुछ नहीं करेगी।"


“हां, शायद । और फिर अब तुम आ गए हो । शायद तुम उसे समझा सको।"


"लेकिन वह है कहां ?"


"मालूम नहीं।"


"उसने तुमसे सम्पर्क स्थापित नहीं किया ?"


"नहीं । लेकिन मुझे पूरा विश्वास है वह जोगेन्द्रपाल के साथ ही कहीं छुपी हुई होगी ।"


प्रमोद सोचने लगा ।


'प्रमोद, मैं भी कैसी मूर्ख हूं ! आते ही तुम्हें बातों में लगा लिया और तुमसे यह तक नहीं पूछा कि तुम क्या पियोगे ?"


"कुछ नहीं । तकल्लुफ की जरूरत नहीं । "


"लेकिन...."


"अभी कहीं बाहर चलते हैं । फिर वहीं खाने-पीने का प्रोग्राम बनायेंगे ।"


"ठीक है ।"


"तो फिर तैयार हो जाओ।"


कविता उठी और बगल के कमरे में चली गई ।


प्रमोद ने चारों ओर निगाह फिराई । वहां कविता द्वारा पेन्ट किए हुए कुछ ऐसे चित्र रखे हुए थे जो उसने पहले कभी नहीं देखे थे । प्रमोद अपने स्थान से उठा और फिर बड़ी गौर से एक-एक चित्र का अध्ययन करने लगा ।


थोड़ी देर बाद कविता वापिस लौटी ।


"कविता ।" - प्रमोद बोला- "मेरी गैरहाजिरी में तुमने काफी तरक्की की मालूम होती है। अब तुम्हारे चित्रों में पहले से कहीं अधिक परिपक्वता और गहराई दिखाई दे रही है।"


"परिपक्वता और गहराई छलनी हुए दिल से निकलती है।" - कविता धीरे से बोली- "बिल्कुल एक भावुक कवि की दुख और वियोग से भरी कविता की तरह ।"


"लेकिन तुम्हारा दुख और वियोग जबरदस्ती ओढा हुआ है। तुम जानती हो मैं तुम्हें वे तमाम खुशियां दे सकता हूं, जो तुम्हें जिन्दगी में हासिल नहीं हुई । मैं..."


"प्रमोद ।" - कविता ने उसकी बात काटी "मैं इस विषय में और बात नहीं करना चाहती । करोगे तो मेरा डिनर का सारा आनन्द मारा जाएगा। तुम्हारी सारी बातों का मेरे पास एक ही जवाब है । मैं तुम्हारे काबिल नहीं । सुषमा तुम्हारे काबिल थी, तुमसे मुहब्बत भी करती थी; तुम उससे शादी कर लेते तो मुझे खुशी होती लेकिन तुम उससे बचने के लिए अमेरिका भाग गए, बिल्कुल वैसे ही जैसे दस साल पहले मुझसे बचने के लिए चीन भाग गए थे।"


“अब सुषमा जोगेन्द्रपाल से मुहब्बत करती है । "


"सुषमा की जोगेन्द्रपाल में दिलचस्पी ऐसी ही है जैसी मेल ट्रेन निकल जाने से किसी मुसाफिर की पैसेन्जर ट्रेन में होती है । "


"लेकिन कविता, मैं तुम्हारे अलावा न किसी से शादी कर सकता हूं और न मुहब्बत । और सुषमा तो कतई बच्ची है, नादान है। मैंने तो हमेशा उसे छोटी बहन की निगाह से देखा है ।"


"लेकिन उसने तुम्हें कभी बड़े भाई की निगाह से नहीं देखा ।"


"अब देखने लगेगी। अब उसका दिल जोगेन्द्रपाल में रम चुका है। अब वह मेरा खयाल नहीं करेगी। इसी उम्मीद से मैं वापिस भारत आया हूं।"


कविता चुप रही। दोनों फ्लैट से बाहर निकल आए । कविता ने मुख्य द्वार को ताला लगा दिया ।


"कविता, तुम्हें चाउ कोह कोह की हाथीदांत की उस प्रतिमा की याद है जो मैंने अमेरिका जाने से पहले सुषमा को दी थी ?" - लिफ्ट में प्रमोद ने पूछा ।


"जिसमें एक लम्बी दाढी वाले बुजुर्गवार खच्चर के मुंह की ओर पीठ करके बैठे दिखाए गए थे ?"


"हां ।”


“याद है । खूब याद है । सुषमा उसे हमेशा अपने पलंग के समीप की मेज पर रखा करती थी । उसको उस प्रतिमा से लगाव था । तुम्हारे और उसके बीच में सम्पर्क का वही एक सूत्र तो बाकी रह गया था । और फिर उसे चाउ कोह कोह की उस प्रतिमा के माध्यम से दर्शाई फिलासफी से भी बड़ा लगाव था।”


“आखिरी बार वह प्रतिमा तुमने कब देखी थी ?”


“वहीं । सुषमा की मेज पर । अब भी वहीं होगी वह ।"


'अब वह पुलिस के अधिकार में है । मुझे वह प्रतिमा इन्स्पेक्टर आत्माराम ने बड़े ड्रामेटिक ढंग से दिखाई थी ।


प्रतिमा पर सूख चुके खून के धब्बे साफ दिखाई दे रहे थे।”


"हे भगवान ! यह कैसे हो सकता है ? " - कविता घबरा कर बोली ।


तभी लिफ्ट रुकी। दोनों बाहर निकल आए । बाहर आकर वे कविता की कार में सवार हो गए लेकिन कविता ड्राइविंग सीट पर नहीं बैठी। स्टियरिंग प्रमोद ने सम्भाला । उसने कार को इमारत के कम्पाउन्ड से निकाला और सड़क पर डाल दिया ।


तुरन्त एक कार उनके पीछे लग गई ।


पुलिस वाले इस उम्मीद से उनका पीछा कर रहे थे कि शायद उनके माध्यम से उन्हें सुषमा या जोगेन्द्रपाल की खबर लग जाए ।


"कविता !" - प्रमोद बोला- "अब मुझे जरा ठीक से बताओ कि वास्तव में हुआ क्या था ?"


"तुम हरि प्रकाश सावंत को तो जानते ही हो ।" - कविता बोली ।


प्रमोद ने हामी भरी ।


"वह सुषमा को अपनी बेटी की तरह मानता था । उसे सुषमा से बहुत ही ज्यादा लगाव था । सुषमा के चंचल और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार से वह खूब वाकिफ था । वह जानता था कि वह अपना पैसा बुरी तरह उड़ा रही थी । जिस अन्दाज से सुषमा पैसा खर्च करती है, उससे तो कुबेर का खजाना भी खाली हो सकता है। इस बात से मैं भी चिन्तित थी लेकिन मैं उसे रोकती नहीं थी कि कहीं वह मुझे गलत न समझ बैठे। लेकिन सावंत ने न केवल उसे रोका बल्कि उसे तैयार भी कर लिया कि वह अधिक नहीं तो कम से कम बीस लाख रुपया उसके नाम से किसी धन्धे में लगाने के लिए सावंत को दे दे । सुषमा इस बात के लिए मुश्किल से ही मानी लेकिन मान गई ।"


" और उसने बीस लाख रुपया सावंत को दे दिया ?"


"हां"


"उसने सावंत से यह नहीं पूछा कि वह उसका रुपया किस धन्धे में लगा रहा था ?"


"नहीं । बीस लाख रुपया सुषमा की निजी सम्पत्ति का एक छोटा सा हिस्सा था । वह तो सावंत को देने के बाद उस रकम को भूल ही गई थी। लेकिन सावंत तो उस बीस लाख के चार लाख बनाकर सुषमा को हैरान कर देना चाहता था ।”


"फिर ?"


"तुम्हारे अमेरिका जाने के बाद कुछ अरसा तो सुषमा बहुत टूटी-टूटी और उदास रही थी । तुम्हारा जिक्र आ जाने पर उसकी सारी चंचलता और मस्ती गायब हो जाती थी लेकिन मुझे विश्वास था कि वक्त के साथ-साथ सुषमा पुरानी बातें भूल जाएगी । उसका मिजाज फिर पहले वाली तेज तर्रार, उच्छृंखल और गैरजिम्मेदार सुषमा जैसा बन जाएगा । कुछ अरसे बाद उसकी जोगेन्द्रपाल से मित्रता हो गई। सुषमा को वह लड़का बहुत भाया । इसलिए भाया क्योंकि कुछ बातों में वह भी तुम्हारे जैसा ही था । तुम्हारे जैसा ही साफ-सुथरे नयन-नक्श वाला । विदेशियों जैसा गोरा लम्बा ऊंचा नौजवान । केवल उसकी आंखें नीली नहीं थीं और बाल तुम्हारी तरह भूरे नहीं थे। सुषमा उसके साथ घूमने-फिरने लगी और एक बार फिर पहले की तरह चहकने लगी ।"


"क्या सुषमा ने उससे कभी शादी की बात की थी ?"


"नहीं । मैंने उसे यह संकेत जरूर दिया था कि इस प्रकार ज्यादा घूमने-फिरने से बदनामी होती है, इसलिए अच्छा होगा कि वह जोगेन्द्र से फिलहाल विधिवत् सगाई तो कर ले, लेकिन सुषमा ने मेरी बात मजाक में उड़ा दी। वह करने लगी उसे ऐसी दकियानूसी बातों में विश्वास नहीं और उसे लोगों की परवाह नहीं । "


"वह केवल एक हमउम्र नौजवान से यारी-दोस्ती का ही सिलसिला था या उसे जोगेन्द्र से मुहब्बत भी थी ?" से


"मुझे नहीं मालूम । लेकिन जोगेन्द्र उस पर बुरी तरह फिदा था । वह तो एक तरह से सुषमा की पूजा करता था।"


" और इसीलिए वह हरि प्रकाश सावंत से जलने लगा कि वह आदमी सुषमा पर इतना प्रभाव क्यों रखता था ?"


कुछ क्षण चुप्पी रही । फिर कविता धीरे से बोली "मुझे नहीं मालूम ।" -


"एक बात कहूं, कविता ।"


"कहो ।”


"वैसे कोई नई बात नहीं कह रहा हूं। पहले भी कह चुका हूं।"


"क्या ?"


"झूठ बोलना तुम्हारे बस की बात नहीं । तुम्हें झूठ बोलना आता ही नहीं ।”


कविता ने गहरी सांस ली और फिर बोली- "तुमने ठीक कहा था । जोगेन्द्र सावंत से बुरी तरह जलता था ।” ।


“आगे।”


"वह सुषमा को बार-बार कहता था कि वह सावंत से अपना रुपया वापिस मांगे और या उससे सविस्तार पूछे कि सावंत ने उसके रुपये का क्या किया है । सुषमा ने जोगेन्द्र की बात को हंसी में उड़ा दिया था । उसने कहा था कि सावंत साहब एक शत-प्रतिशत ईमानदार और भरोसे के आदमी थे ।”


"फिर ?"


"लेकिन जोगेन्द्र ने सावंत का खयाल नहीं छोड़ा । वह खुद सावंत की जांच-पड़ताल करने लगा । तुम्हें याद है कि मैंने तुम्हें लिखा था कि सावंत ने सीताराम नरूला, राकेश टन्डन और जीवन गुप्ता की ईस्टर्न ट्रेनिंग कम्पनी से भागीदारी कर ली थी ।"


“हां ।”


"प्रमोद, यह कोई अच्छा सिलसिला नहीं था । वह राकेश टण्डन बहुत घटिया आदमी है । वह सूरत से ही बड़ा मक्कार और धोखेबाज आदमी लगता है। मैं तो उसका बिल्कुल भी विश्वास नहीं कर सकती । "


"इतना बुरा तो नहीं वह ।" - प्रमोद मुस्कराता हुआ बोला - "हां यह जरूर है कि वह जरा ज्यादा होशियार बनने की कोशिश करता है और हर किसी को संदिग्ध निगाहों से देखने की उसकी आदत हो गई है।"


"ठीक है। मैंने अपने आपको समझाने की भी कोशिश की लेकिन मैं यह विचार अपने मन से नहीं निकाल पाती कि वह बुरा आदमी है ।"


"खैर, फिलहाल छोड़ो इस बात को । आगे बढो । क्या सावंत ने सुषमा का रुपया भागीदारी में लगाया था ?"


"नहीं । सुषमा का रुपया उसने तेल के धन्धे में लगाया और वह धन्धा चमक नहीं पाया था ।"


तभी प्रमोद ने कार शाहजहां की पार्किंग में ले जाकर खड़ी की ।


दोनों कार से बाहर निकले ।


"फिलहाल इतना ही काफी है, कविता ।" - प्रमोद उसके साथ होटल की ओर बढता हुआ बोला- "सिर्फ एक बात और बताओ । क्या यह हो सकता है कि सुषमा जोगेन्द्र को साथ लेकर चायना टाउन पहुंच गई हो ?"


" तुम्हारे चीनी दोस्तों की शरण में ?"


“हां ।”


“सरासर हो सकता है । "


प्रमोद चुप रहा ।


प्रमोद चायना टाउन पहुंचा ।


वह पैदल चलता हुआ एक इमारत तक पहुंचा। उस इमारत की निचली मंजिल पर चीनियों द्वारा संचालित जूतों की और चीनी ढंग से सजावट के सामान की दुकानें थीं और उन दुकानों को छूता हुआ एक जीना ऊपर की मन्जिल की ओर गया था ।


वह सीढियां चढकर पहली मंजिल पर जा पहुंचा । सीढियों के सिरे से एक लम्बा गलियारा आरम्भ होता था जिसके दूसरे सिरे पर एक भारी सागवान का बन्द द्वार दिखाई दे रहा था । वह लम्बे डग भरता हुआ उस द्वार के समीप पहुंचा गया ।


उसने कालबैल का पेनल में लगा वह बटन दबाया जो किसी अनजाने आदमी को दिखाई तक नहीं देने वाला था । भीतर अगर कहीं घण्टी बजी तो उसकी आवाज कम से कम बाहर तक नहीं आयी ।


प्रमोद धैर्यपूर्ण मुद्रा बनाए प्रतीक्षा करने लगा । उस गलियारे में सन्नाटा था । बाजार का शोर-शराबा वहां तक नहीं पहुंच रहा था ।


फिर भारी दरवाजा जैसे जादू के जोर से खुला ।


एक घुटे हुए सिर वाला चीनी दरवाजे पर दिखाई दिया । प्रमोद पर निगाह पड़ते ही उसकी आंखों में एक चमक पैदा हुई और वह चीनी में कुछ बुदबुदाया । फिर वह बड़े अदब से एक ओर हटकर खड़ा हो गया ।


प्रमोद ने भीतर कदम रखा। आगे एक और लम्बा गलियारा था जिसके फर्श पर एक मोटा गलीचा बिछा हुआ था ।


घुटे सिर वाले चीनी ने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया और एक अन्य दरवाजे से भीतर दाखिल होकर दृष्टि से ओझल हो गया ।


तभी गलियारे के आखिरी सिरे का एक दरवाजा खुला और सो हा प्रकट हुई । प्रमोद पर निगाह पड़ते ही उसके मुंह से एक प्रसन्नताभरी किलकारी निकली और वह प्रमोद की ओर लपकी ।


अगले ही क्षण सौन्दर्य और यौवन के भार से लदी वह गुड़िया सी खूबसूरत चीनी युवती प्रमोद की बांहों में समा गई ।


प्रमोद ने अपने होंठों से धीरे से उसके हाथीदांत जैसे मुलायम गाल को छुआ।


फिर सो हा सकुचाती हुई उससे अलग हट गई ।


"कैसी हो ?" - प्रमोद ने चीनी में पूछा ।


"ठीक ।" - चीनी में ही उत्तर दिया ।


"बुजुर्गवार कैसे हैं ?"


"ठीक हैं। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि आज रात तुम जरूर आओगे।"


"मैं जल्दी आ गया होता लेकिन मुझे प्लेन से उतरते ही पुलिस ने उलझा लिया था ।”


“जोगेन्द्रपाल वाले हादसे की वजह से ?"


"हां।”


"लेकिन तुमने तो अभी राजनगर में कदम ही रखा था । उस बारे में तुम्हें कोई जानकारी होने की पुलिस तुमसे कैसे उम्मीद कर सकती थी ?"


प्रमोद असहाय भाव से मुस्कराया ।


"तुमसे कुछ जान पाए वह ?"


"नहीं।"


"वैसे कुछ मालूम था तुम्हें ?"


“अब तुम भी पुलिस वालों की तरह सवाल कर रही हो|"


"नहीं तो ।"


"हकीकत यह है, सो हा, कि पुलिस द्वारा इस बारे में कोई सवाल पूछे जाने से पहले मुझे इस बात की भनक तक नहीं थी कि जोगेन्द्रपाल पुलिस की गिरफ्त से निकल भागा था । मुझे पुलिस ने ही बताया तो पता लगा था ।”


"पुलिस पकड़ पाएगी उसे ?"


“जरूर पकड़ पाएगी । वह बच सकता ही नहीं है । पुलिस हाथ धोकर उसके पीछे पड़ी हुई है। देर-सबेर उसको पुलिस के काबू में आना ही है ।"


"ओह !"


"और उस लड़के ने फरार होकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है । वह कहता है मैं बेगुनाह हूं । हाई कोर्ट में उसकी अपील की सुनवाई होने वाली थी और वह भाग खड़ा हुआ । उसके इस एक्शन के बाद अब कौन विश्वास करेगा कि वह बेगुनाह है । इस सूरत में हाई कोर्ट भी सैशन के फैसले की पुष्टि ही कर देगा । वह फरार न होता तो शायद उसके बचाव की कोई सूरत निकल आती ।"


"आओ।" - सो हा विषय परिवर्तित करती हुई बोली"फादर इन्तजार कर रहे होंगे । "


उसने आगे बढकर गलियारे का एक दरवाजा खोला और बोली- "फादर, प्रमोद आया है ।"


प्रमोद भीतर दाखिल हुआ ।


एक कुर्सी पर बैठा एक वृद्ध अपने स्थान से उठा । उसके होंठों पर एक हल्की सी मुस्कराहट उभरी । उसने अपने दोनों हाथ अपनी छाती पर बांधकर और तनिक नीचे झुक कर चीनी अन्दाज से प्रमोद का अभिवादन किया और बोला - “मेरे बच्चे, लगता है मेरे घर में सूरज निकला है ।"


"आप ठीक से हैं, बुजुर्गवार ?" - प्रमोद ने भी उनका अभिवादन किया और फिर चीनी में ही बोला ।


"जिन्दगी इस अकिंचन पर फिलहाल मेहरबान है। तुम सुनाओ, मेरे बच्चे ।”


"मैं ठीक हूं । "


सब बैठ गए ।


"सफर ठीक से कटा ?" - चू की ने पूछा ।


" जी हां । " - प्रमोद बोला ।


तभी घुटे सिर वाला चीनी चाय ले आया । उसके चाय सर्व करने के दौरान वार्तालाप स्थगित रहा । फिर नौकर चला गया ।


“वह तुम्हारी दोस्त ।" - एकाएक चू की बोला- "पेन्टर महिला कहां है ?"


" आपको नहीं मालूम ?" - प्रमोद हैरानी से बोला ।


"नहीं ।" - उत्तर मिला ।


"लेकिन मैं तो समझा था कि... कि ऐसी संकट की घड़ी में वह आप ही की शरण में आई होगी ।"


"मेरा भी यही खयाल था कि वह मेरे पास आएगी। तुम मेरे अजीज हो इसलिए वह भी मेरी अजीज है । मेरा जो कुछ तुम्हारे लिए है, वह तुम्हारे दोस्तों के लिए भी है । "


“आपको उसकी कोई खोज-खबर भी नहीं ? उसका कोई सन्देशा भी नहीं पहुंचा आप तक ?"


"नहीं।"


कई क्षण चुप्पी छाई रही ।


चू की ने कटोरे जैसा चीनी ढंग का चाय का कप अपने दोनों हाथों में दबा लिया और तनिक अनिच्छापूर्ण स्वर में बोला- "एक अफवाह सुनी है मैंने ।"


“किस बारे में ?” - प्रमोद ने पूछा ।


"ईस्टर्न ट्रेडिंग कम्पनी के बारे में ।"


"क्या ?"


"सुना है कम्पनी नफे-नुकसान के कई दौर से गुजरी है । पहले भारी नुकसान का चर्चा सुना था, फिर हाल सुधरने का दौर आया और फिर एक भारी, अप्रत्याशित लाभ हुआ । वे लोग तरक्की कर रहे हैं क्योंकि उनमें से एक बहुत चालाक है।"


“कौन सा एक, मेरे रहनुमा ?"


“राकेश टण्डन । वह बहुत काइयां आदमी है । मुझे वह कोई ऐसा खेल खेल रहा मालूम होता है जो प्रत्यक्षतः समझ नहीं आता। मैं उसकी जांच-पड़ताल करवा रहा हूं।"


प्रमोद चुपचाप चाय की चुस्कियां लेता रहा । अन्त में उसने अपना प्याला खाली करके मेज पर रख दिया ।


"मैं चलता हूं।" - प्रमोद उठता हुआ बोला । सो हा भी उठ खड़ी हुई ।


"राकेश टण्डन ।” - चू की बोला- "तुम तो उसे पहले से जानते हो ?"


" जी हां । " - प्रमोद बोला- "चीन में एक बार मुलाकात हुई थी ।"


“उससे सावधान रहना, मेरे बच्चे ।"


"मैं आपकी चेतावनी का पूरा खयाल रखूंगा, मेरे रहनुमा।"


प्रमोद ने चूकी का अभिवादन किया और कमरे से बाहर निकल गया । सो हा भी उसके पीछे-पीछे गलियारे में आ गई ।


"शायद कोई तुम्हारा पीछा करता हुआ यहां तक आया हो ।" - सो हा बोली - "आओ मैं तुम्हें बाहर निकलने का दूसरा रास्ता दिखाती हूं।"


प्रमोद ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और उसके साथ हो लिया । सो हा उसे लम्बे गलियारों में चलाती हुई आगे बढती रही ।


एकाएक प्रमोद ने सो हा की उंगलियों का दबाव अपनी बांह पर महसूस किया ।


“प्रमोद ।" - सो हा व्यग्र भाव से बोली- "फादर तुम्हारे बारे में चिन्तित हैं ।"


"क्यों ?"


“वजह मुझे नहीं मालूम । वे हर बात मुझे नहीं बताते । तुम्हें वाकई नहीं मालूम कि पेन्टर महिला कहां है ? "


"नहीं।"


"फिर तो वह उसी आदमी के साथ होगी जो फरार हो गया है । शायद उन्होंने ऐसी कोई कसम खाई हो कि जिएंगे तो एक साथ और मरेंगे तो एक साथ । हिन्दुस्तानी लोग ऐसी भावुकतापूर्ण बातें... ओह आई एम सॉरी ।"


"नैवर माइन्ड ।"


“तुम अभी भी उसे चाहते हो ?"


“नहीं । अब भी नहीं, पहले भी नहीं । तुम जानती हो फिर भी ऐसे सवाल पूछती हो ।"


"और वह ?"


"वह पहले मुझे चाहती थी ।”


और अब ?" "


"अब का मुझे कुछ नहीं पता । वैसे उम्मीद यही है कि वह जोगेन्द्र से पूरी तरह दिल लगा चुकी है ।"


"प्रमोद, इतने साल तुम चीनी मठों में धक्के खाते रहे और चीनी विद्वानों से मन को एकाग्र करने की कला कन्सन्ट्रेशन सीखते रहे । उन महानुभावों से तुमने हर प्रकार का ज्ञान अर्जित किया लेकिन तुम औरत को समझने की कला उनसे नहीं सीख पाए ।"


“सो हा, मैं..."


“जानते हो क्यों ?"


"क्यों ?"


"क्योंकि इस बारे में वे कथित विद्वान भी कुछ नहीं जानते थे । जो चीज उन्हें भी नहीं आती थी वे भला तुम्हें कैसे सिखा सकते थे ?"


"तुम कहना क्या चाहती हो ?"


तब तक वे एक गलियारे के सिरे पर पहुंच चुके थे । उत्तर देने के स्थान पर सो हा ने दीवार में लगा एक बटन दबाया । सामने की दीवार अपने स्थान से हट गई ।


"फिर आना ।" - सो हा बोली ।


प्रमोद ने एक बार उसके भावहीन चेहरे की ओर देखा और फिर भावहीन ढंग से सिर हिलाता हुआ आगे बढ गया ।


दीवार फिर अपने स्थान पर पहुंच गई ।


यह दीवार उस गलियारे के बीच में ही नहीं खड़ी थी, प्रमोद और सो हा की जिन्दगी के बीच में भी खड़ी थी ।


***