वातावरण में भोर का उजाला फैल रहा था जबकि मैंने अपने अपहरणकर्ताओं से झपटी एम्बेसडर बाराखम्बा रोड के उस होटल की लॉबी में ले जाकर रोकी, बकौल हबीब बकरा, जिसके पेंथाउस अपार्टमेंट में लेखराज मदान नाम का सुपर गैंगस्टर रहता था ।
भीतर पहुंचने पर मुझे मालूम हुआ कि तेरहवीं मंजिल पर स्थित उसके पेंथाउस तक एक लिफ्ट सीधी जाती थी जो कि उस वक्त मजबूती से बंद थी।
“ये लिफ्ट” पूछने पर रिसेप्शन पर मौजूद क्लर्क ने मुझे बताया, “मदान साहब अपने अपार्टमेंट से एक बटन दबाते हैं तो खुलती है ।”
“ऐसा कब होता है ?” मैंने पूछा ।
“नौ बजे से पहले तो कभी नही होता ।”
“ऐसा क्यों ?”
“मदान साहब देर से सो के उठते हैं । वो नौ बजे से पहले डिस्टर्ब किया जाना पसन्द नहीं करते ।”
“रास्ता यही एक है ऊपर पहुंचने का ?”
“जी हां ।”
“लेकिन मेरी तो उनसे मुलाकात बहुत जरूरी है । बहुत ही जरूरी है । हकीकत ये है कि वो ही पसंद नहीं करेंगे कि मैं देर से उन्हें रिपोर्ट करूं ।”
“ऐसा है तो आप” उसने काउंटर पर पड़ा एक फोन मेरी तरफ सरका दिया, “उन्हें फोन कर लीजिए ।”
“गुड ।” मैंने रिसीवर उठाकर हाथ में लिया, “नम्बर बोलो ।”
“वो तो” क्लर्क मुस्कराया, “आपको मालूम होना चाहिए ।”
मैंनै हौले से रिसीवर वापस क्रेडल पर रख दिया ।
यानी कि राष्टषति भवन में दाखिला आसान था दादा लोगों की डेन में दाखिला मुश्किल था ।
नौ बजे लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था ।
नौ बजने में अभी तीन घंटे बाकी थे ।
मैं मोतीबाग जाकर हबीब बकरे से वहां का नम्बर उगलवा सकता था, आखिर उसने फोन पर मदान से बात की थी, लेकिन एक तो उसमें भी ढेर वक्त लगता और दूसरे मुझे फिर ऐसे घर में कदम डालने पड़ते जहां कि गोलियों से बिंधी एक लाश मौजूद थी ।
वक्तगुजारी के लिए मैंने अपने दोस्त मलकानी के पास जाने का फैसला किया जो कि करीब ही पहाड़गंज में एक साधारण सा होटल चलाता था ।
नौ बजे तक मैं वापस होटल की लॉबी में पहुंचा तो तब मुझे सीधे पेंथाउस जाने वाली लिफ्ट लॉबी में खड़ी मिली जिसमें सवार होने से मुझे किसी ने न रोका ।
सुपरफास्ट लिफ्ट पलक झपकते तेरहवीं मजिल पर पहुंच गई ।
मैं लिफ्ट से निकला तो वहां सामने मुझे एक ही दरवाजा दिखाई दिया जिसकी चौखट में कॉलबैल का पुश लगा हुआ था । मैंने पुश को दबाया और प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ क्षण बाद दरवाजे में एक झरोखा सा खुला और मुझे उसमें से दो हिरणी जैसी काली कजरारी मदभरी आंखें दिखाई दीं ।
“यस” साथ ही एक खनकता हुआ स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“मदान साहब से मिलना है ।” मैं बोला ।
“क्यों मिलना है ?”
“उनके लिए एक संदेशा है ।”
“किसका ?”
“हबीब बकरे का ।”
“किसने मिलना है ?”
“बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं ।”
“वेट करो ।”
झरोखा बंद हो गया ।
मैं प्रतीक्षा करने लगा ।
दो मिनट बाद दरवाजा खुला ।
दरवाजे पर रेशमी गाउन में लिपटी हुई रेशम जैसी ही अनिद्य सुंदरी प्रकट हुई । उस पर एक निगाह पड़ते ही आपके खादिम की हालत बद हो गई और ओर फिर बद से बदतर हो गई । अगर वही औरत लेखराज मदान की बीवी थी तो हबीब बकरे ने गलत नहीं कहा था कि मैं उस पर एक निगाह डालूंगा और गश खा जाऊंगा, फिर पछाड़ खाकर उसके कदमों में गिरूंगा और इस फानी दुनिया से रुखसत फरमा जाऊंगा ।
मेरी पसंद की हर चीज उसमें थी, न सिर्फ थी, ढेरो में थी ।
लंबा कद । छरहरा बदन । तनी हुई सुडौल भूरपूर छातियां जो अंगिया के सहारे की कतई मोहताज नहीं थीं और अगर खाकसार की निगाहबीनी गलत नहीं थी तो अपने रेशमी गाउन के नीचे अंगिया वो पहने भी नहीं हुई थी । गोरे चिट्टे हाथ-पांव । खूबसूरत नयन-नक्श । पतली कमर । भारी नितंब । सरू सा लंबा कद । सुराहीदार गर्दन । रेशम से मुलायम सुनहरी रंगत लिये भूरे बाल। हुस्न की दौलत से मालामाल होने के अभिमान से दमकता चेहरा । कोई खराबी थी तो वो ये कि वो इतने शानदार जिस्म को लिबास से ढके हुए थी ।
उस घड़ी मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि उस मुजस्सम हुस्न की शान में मेरे मुंह से आह निकलनी चाहिये थी या वाह !
या शायद कराह !
“हो गया ?” वो अपने सुडौल मोतियों जैसे दांत चमकाती हुई उसी खनकती आवाज में बोली जो कुछ क्षण पहले मैंने बंद दरवाजे के पार से सुनी थी ।”
“क्या ?” मैं हड़बड़ाकर बोला ।
“ब्रेकफास्ट ।”
“जी !”
“आंखों ही आंखों में हज्म तो कर रहे हो मुझे ।”
“ओह ! खाकसार आपकी पैनी निगाह की दाद देता है और कबूल करता है कि ये गुनहगार आंखें उसी काम को अंजाम दे रही थीं जिसका कि आपने जिक्र किया ।”
“ब्रेकफास्ट का !” वो अपने दांतों से अपना निचला होंठ चुभलाती हुई तनिक कुटिल स्वर में बोली ।
“जी हां ।”
“पेट भर गया ?”
“पेट तो भर गया लेकिन नीयत नहीं भरी । अब बंदा ब्रेकफास्ट के फौरन बाद, हाथ के हाथ लंच और डिनर का भी तमन्नाई है ।”
“इतना खाना इकट्ठा खाओगे तो बदहजमी हो जाएगी ।”
“तो क्या होगा ?”
“मर जाओगे ।”
“तो क्या बुरा होगा ! खाली पेट मरने से तो ऐसी मौत बेहतर ही होगी ।”
“खुशबू का लुत्फ उठाओ और जायके के ख्वाब लो ।” वो अपना एक नाजुक हाथ चौखट से हटाकर अपने कूल्हे के खम पर टिकाती हुई बोली, “तुम्हारी किस्मत में बस इतना ही लिखा है ।”
“हू नोज, मैडम ! मर्द की किस्मत को तो देवता नहीं जान पाते ।”
वो हंसी और फिर बोली, “नाम क्या बताया था तुमने अपना ?”
“सुधीर कोहली” मैं तनिक सिर नवाकर बोला, “दि ओनली वन ।”
“कोई टॉप के हरामी मालूम होते हो ।”
“दोनों बातें दुरुस्त । हरामी भी हूं और टॉप का भी । आम, मामूली हरामियों से तो यह शहर भरा पड़ा है । टॉप का हरामी एक ही है राजधानी में और आसपास चालीस कोस तक । सुधीर कोहली । दि ओनली वन ।”
“बातें बढिया करते हो ।”
“और भी कई काम बढ़िया करता हूं । कभी आजमाकर देखिए ।”
“देखेंगे” एकाएक वह चौखट पर से हटी, “कम इन एंड सिट डाउन । साहब आते हैं ।”
“थैंक्यू ।” मैंने भीतर कदम रखा तो उसने मेरे पीछे अपार्टमेंटं के इकलौते प्रवेशद्वार को मजबूती से बंद कर दिया । बड़े ऐश्वर्यशाली ढंग से सुसज्जित ड्राइंगरूम की ओर मेरे लिए हाथ लहराती हुई वो पिछवाड़े का एक दरवाजा खोलकर मेरी निगाहों से ओझल हो गई ।
मैंने बैठने का उपक्रम न किया मैंने डनहिल का एक सिगरेट सुलगा लिया और मन ही मन उसके नंगे जिस्म की कल्पना करते हुए मदान की प्रतीक्षा करने लगा ।
मैं नया सिगरेट सुलगा रहा था जबकि मदान ने वहां कदम रखा ।
मदान एक लाल भभूका चेहरे वाला विशालकाय व्यक्ति था । उसके तीन-चौथाई बाल सफेद थे, कनपटी पर लंबी सफेद कलमें थीं लेकिन दाढ़ी-मूंछ सफाचट थीं । उसकी आंखों के लाल डोरे, आंखो के नीचे थैलियों की तरह लटकती खाल और खमीरे की तरह फूला हुआ अति विशाल पेट उसके दारू-कुकड़ी का भारी रसिया होने की चुगली कर रहा था । वो एक तम्बू जैसा महरून कलर का ड्रेसिंग गाउन पहने था ।
उस घड़ी में उस पहाड़ जैसे जिस्म के नीचे उस नाजुक बदन हसीना की कल्पना - बदमजा कल्पना किये बिना न रह सका जो अभी-अभी वहां बिजली की तरह चमक के गई थी ।
मैंने कभी एक मेंढक की कहानी पढ़ी थी जो शहजादी द्वारा चूमे जाने पर खूबसूरत नौजवान बन गया था । मदान उस घड़ी मुझे एक ऐसे विशालकाय मेंढक जैसा लगा जिस पर शहजादी के चुंबन का भी कोई असर नहीं हुआ था ।
वो मेरे से बगलगीर होकर मिला ।
मुझे बहुत हैरानी हुई ।
मुझे इस खौफ ने फौरन अलग हो जाने के लिए प्रेरित किया कि कहीं मैं उसकी बगल में ही न समा जाऊं ।
“कोल्ली !” वो फटे बांस जैसी आवाज में बोला, “तेरा इस घड़ी यहां मेरे सामने मौजूद होना ही साबित करता है कि मेरे पहलवान और उसके शागिर्द की सीटी वज्ज गई ।”
“दुरुस्त ।” मैं सरल स्वर में बोला ।
“कैसा है अपना हबीब बकरा ?”
“जिन्दा है ।”
“शागिर्द ?”
“मर गया ।”
“कहां ?”
“मोतीबाग वाली इमारत में ।”
“पहलवान भी वहीं है ?”
“नहीं ।”
“वो कहां है ?”
“मेरे कब्जे में ।”
मैंनै सिगरेट का लंबा कश लगाया ।
“यानी कि बताना नहीं चात्ता ।”
“जाहिर है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो अगवा का अपराधी है । अगबा एक संगीन जुर्म है । उस संगीन जुर्म की गंभीरता को कम करने के लिए और हो सके तो सजा से बचने के लिए उसे बताना होगा कि ऐसा उसने किसके कहने पर किया था ।”
“वो मेरा नाम लेगा ?”
“यकीनन लेगा । नहीं लेगा तो मैं उसकी ऐसी दुक्की पीपीटूंगा कि उसकी आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठेगी । सारी पहलवानी भूल जाएगा ।”
“कोल्ली ! तू मुझे फंसायेगा ?”
“जिसकी करतूत होगी, वो ही भुगतेगा ।”
“कोल्ली ! तू मेरा पंजाबी भ्रा...”
“अच्छा ।”
“मेरा पंजाबी भ्रा हो के तू मेरे साथ ऐसा..”
“कुत्ते का कुत्ता बैरी ।”
“तभी इतना भौंक रहा है !”
“अभी तो काटूंगा भी ।”
“तू मुझे काटेगा !”
“जब चलकर यहां आया हूं तो कुछ तो करूंगा ही ।”
“वहम है तेरा, कोल्ली पुत्तर ।”
“क्या ?”
“कि तू यहां आ के कुछ कर लेगा । गलती की तूने यहां आ के ।”
“अच्छा !”
“हां आ तो गया । अब जाएगा कैसे ?”
“'वैसे ही जैसे आ गया हूं ।क्या मुश्किल है ?”
उसके चेहरे पर उलझन के भाव आए । उसने घूरकर मुझे देखा ।
“मदान दादा, मैंने एक पूर्वनिर्धारित वक्त पर कहीं वापस पहुंचना है । जीता-जागता । सही-सलामत न पहुंचा तो मेरे साथी तुम्हारे पहलवान को सीधे पुलिस कमिश्नर के पास ले के जाएंगे जहां वो गा गाकर बता रहा होगा कि कैसे उसने तुम्हारे हुक्म पर मेरा अगवा किया था । पुलिस बहुत खुश होगी तुम्हारी गर्दन नापने का मौका पाकर ।”
“यार, तू तो खफा हो रहा है ।”
“नहीं मैं तो खुशी से पागल हुआ जा रहा हूं । मेरी नन्हीं सी जान इतने बड़े दादा के किसी काम आए, इससे ज्यादा खुशी की बात और मेरे लिए क्या हो सकती है !”
”विल्कुल ।”
मैंनै हकबका कर उसकी तरफ देखा ।
“क्या बिल्कुल ?” मैं बोला ।
“तेरी जान मेरे कम्म आए । इसीलिए तो पहलवान को तेरे पास भेजा था ।”
“क्या किस्सा है, मदान दादा ? “
“किस्सा जानना चात्ता है ?”
“तड़प रहा हूं जानने के लिए तभी तो सुबह-सवेरे यहां आया हूं ।”
“सिगरेट कौनसी पीता है ?”
मैंने उसे डनहिल का पैकेट दिखाया ।
“एक मुझे दे ।”
मैंने उसे सिगरेट दिया और लाइटर से उसे सुलगाया ।
उसने बड़े तजुर्बेकार अंदाज से सिगरेट का लंबा कश लगाया और नथुनी से धुंए की दोनाली छोड़ी ।
“बैठ ।” वो बोला ।
“ऐसे ही ठीक है ।” मैं शुष्क स्वर में बोला ।
“ओए, बै जा मा सदके । क्यों इतना खफा हो रहा है ?” उसने बांह पकडकर जबरन मुझे एक सोफे पर बिठाया और स्वयं भी मेरे सामने बैठ गया ।
“थुक दे गुस्सा ।” वह बोला ।
“क्या कहने । तुम मेरी जान के पीछे पड़े हो और मैं एतराज भी न करूं ।”
“ओए कोल्ली पुत्तर । ओए मा सदके, मेरी तेरे से कोई जाती अदावत थोड़े ही है ।”
“जाती अदावत नहीं है” मैंने व्यंगपूर्ण स्वर में दोहराया, “फिर भी मेरी जान के पीछे पड़े हो क्योकि गाहे-बगाहे अपने किसी पंजाबी भाई की जान न लो तो तुम्हारी जान में जान नहीं आती ।”
“यारा, तू तो फिर खफा हो रहा है ।”
मैंने भुनभुनाते हुए सिगरेट का लंबा कश लगाया ।
“देख ।” उसने मुझे समझाया, “सुन । ईद पर बकरा काटते हैं कि कि नहीं ? काटते हैं न ? क्यों काटते हैं ? कुर्बान करना होता है उसे । ऐसा करने वाले की बकरे से कोई जाती अदावत होती है ? बोल होती है ?”
“मैं कुर्बानी का बकरा नहीं ।”
“नहीं है l मुझे मालूम है । तू तो मेरा पंजाबी भ्रा है । अब फिर मत कह देना कुत्ते का कुत्ता बैरी ।” वो हा हा करके हंसा, “वीर मेरे मैने तो एक मिसाल दी थी ।”
“मिसाल छोड़ो । मिसालें सुबह-सवेरे मेरी समझ में नहीं आतीं । असली बात कर ।”
“वो भी करते हैं । चा पिएगा ?” फिर मेरे हां या न करने से पहले ही उसने उच्च स्वर में आवाज लगाई, “मधु ।”
वही परीचेहरा हसीना वहां प्रकट हुई ।
“ये मेरी बीवी है । मधु ।”
मैंने सिर नवाकर शहद से कहीं मीठी मधु का अभिवादन किया ।
वो बड़े मशीनीअंदाज से मुस्कराई ।
“ये अपना कोल्ली है ।” वो मधु से बोला, “सुधीर कोल्ली । जसूस है । प्राइवट किस्म का बहुत बड़ी-बड़ी जसुसियां कर चुका है । सारी दिल्ली में मशहूर है । अपना पंजाबी भ्रा है । चा पिला इसे ।”
मधु सहमति में सिर हिलाती हुई वहां से चली गई ।
“कैसी है ?” मदान ने सगर्व पूछा ।
“शानदार ।” मेरे मुंह से अपने आप निकल गया, “तौबाशिकन ।”
“मेरा माल है । सालम । कोल्ली” उसके स्वर में चेतावनी का पुट आ गया, “नीयत मैली नहीं करनी ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । मुझे क्या दिखाई नहीं देता कि हूर की रखवाली के लिए कितना बड़ा लंगूर बैठा है ।”
“क्या !”
“कुछ नहीं ।” मैं एक क्षण ठिठका और बोला, “वैसे एक बात मैं फिर भी कहना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“मेरी राय में खूबसूरत औरत का दर्जा ताजमहल जैसा होता है । उसकी खूबसूरती का आनन्द लेने का हक हर किसी को होना चाहिए । पति नाम का कोई सांप उसका मालिक बनकर उसकी छाती पर जमकर बैठ जाए, यह मुनासिब बात नहीं ।”
“पागल हुआ है ?” उसने तत्काल एतराज किया, “बेवकूफ बनाता है ! गुमराह करता है । अरे, मेरा माल, मेरा माल है । मेरे माल पर कोई दूसरा कैसे काबिज हो सकता है ?”
“सोशलिज्म में मेरा-मेरा नहीं किया जाता ।”
“बातें जितनी मर्जी बना ले । आखिर पढ़ा-लिखा है लेकिन याद रखना । नीयत मैली नहीं करनी ।”
“बिल्कुल नहीं करनी ।”
कहना आसान था । हकीकतन इतनी शानदार औरत को देखकर जिसकी नीयत मैली न ही वो या हिजड़ा होगा या नपुंसक ।
अप्सरा चाय की ट्रे के साथ वहां पहुंची और हमारे सामने बैठकर चाय बनाने लगी । जितनी देर वो वहां रुकी, उतनी देर मैं अपलक उसे देखता रहा और मदान अपलक मुझे देखता रहा ।
तभी तो कहते हैं कि खूबसूरत औरत के पति की एक जोड़ी आंखें पीठ पीछे भी होनी चाहिए ।
उसने चाय हम दोनों को सर्व की और फिर ट्रे में रखी एक डिबिया उठाकर अपने पति को सौंपी ।
“क्या है ?” मदान बोला ।
“देखो ।” वो बोली ।
उसने डिबिया को खोला । भीतर मेरी भी निगाह पड़ी । भीतर हीरों से जड़े दो टोप्स जगमगा रहे थे । सात-सात हीरे । एक मिडल में और छ: उसके गिर्द दायरे की शक्ल में । लेकिन एक में से एक हीरे की जगह खाली थी । जहां हीरा होना चाहिए था वहां खाली छेद दिखाई दे रहा था ।
“एक हीरा निकल के गिर गया है ।” वो बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में बोली, “लगवा के दो ।”
“कैसे गिर गया ?” मदान बोला ।
“क्या पता कैसे गिर गया !” वो झुंझलाई, “ढीला पड़ गया होगा ।”
“ढूंढ ले । यहीं कहीं होगा ।”
“ढूंढ लिया । नहीं है । नया लगवा के दो ।”
“आज ही ?”
“अभी । मैंने पहनने हैं । आज नहीं लगता तो नए टोप्स ला के दो ।”
“ठीक है, ठीक है । आज ही लग जाएगा हीरा लेकिन दोनों क्यों दे रही है ? वो ही दे जिसमें हीरा लगना है ।”
“सारे चेक करने हैं । कोई और भी लूज हो सकता है ।”
“अच्छा !”
वो उठकर चला गई ।
“चा पी, कोल्ली ।” मदान फिर मेरी तरफ आकर्षित हुआ ।
मैंने चाय की एक चुस्की ली और बोला, “तुम्हारा भाई मेरा इंतजार कर रहा होगा ।”
“क्या ?” वह सकपकाया ।
“ग्यारह बजे । अपनी कोठी पर । मैटकाफ रोड । दस नम्बर । भूल गए !”
“ओह ! तो सब कुछ बक दिया हमारे पहलवान ने ।”
“सिवाए इसके कि असल किस्सा क्या है । असल किस्सा, मदान दादा, जिसको सुनने के लिए मेरे कान तरस रहे हैं ।”
“यार, तू मुझे दादा क्यों कहता है मैं तेरे से इतना बड़ा थोड़े ही हूं ! कुछ कहना ही है कोई चाचा, ताया, मामा कह ले ।”
“मैंने तुम्हें दादा अपने से तुम्हारी कोई रिश्तेदारी जोड़ने के लिए नहीं कहा, बल्कि तुम्हारा दर्जा, तुम्हारा समाजी रुतबा बयान करने लिए कहा ।”
“एक बात माननी पड़ेगी, कोल्ली । एक नम्बर का हरामी है तू ।”
“शक्रिया ।” मैं तनिक सिर नवाकर बोला, “अब मेरी तारीफ के साथ-साथ अगर असली किस्से का भी जिक्र हो जाए तो...”
“मैं कपडे बदल के आता हूं ।” एकाएक वह उठ खड़ा हुआ, “वो जिक्र मेटकाफ रोड के रास्ते में करेंगे ।”
“मेरा वहां क्या काम ?”
“है काम । चलेगा तो पता चल जाएगा ।”
फिर मेरे और कुछ कह पाने से पहले ही वो वहां से उठकर चल दिया ।
मैंने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और सिगरेट और चाय चुसकते हुए उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
***
मैं मदान के साथ उसकी मर्सिडीज में सवार था जिसे कि वो खुद ड्राइव कर रहा था । मर्सिडीज पुरानी थी लेकिन थी तो मर्सिडीज ही । हाथी बूढा भी हो तो कुत्ते बिल्लियों से कमजोर नहीं हो जाता ।
उस वक्त वो सूट रहने हुए था और आकार में और भी पसरा हुआ लग रहा था । सच पूछिए तो ऐसा विशालकाय आदमी किसी मर्सिडीज जैसी कार में ही समा सकता था ।
अपने घर से निकलते ही पहले वो कनाट प्लेस मेहरासंस की दुकान पर गया था जोकि उस वक्त अभी खुल ही रही थी और जहां उसने बीवी के टॉप्स जमा कराये थे ।
उस वक्त कार सिकंदरा रोड पर दौड़ी जा रही थी ।
तिलक ब्रिज के नीचे से से गुजरकर कार आई टी ओ के चौराहे पर पहुंची । वहां से वह दाएं घूमी और पुलिस हैडक्वार्टर के जेरेसाया आगे बढ़ी ।
“कोल्ली” एकाएक वह बड़ी संजीदगी से बोला, “अजीब निजाम है इस मुल्क का । यहां अंडरवर्ल्ड के बॉस लोगों से भिड़ना आसान है, यहां कायदे कानून की मुहाफिज पुलिस से निपटना तो भौत ही आसान है लेकिन सरकारो बाउ से निपटना बड़ा मुश्किल है । ये इनकम टैक्स और कमेटी के महकमें के बाउ लोग हैं जिन्होंने आजकल मेरी बजाई हुई है । कमेटी वालों ने लाखों रुपयों की मेरे से रिश्वत खाई, फिर भी मेरी आठमंजिला इमारत गिरवा दी, हाईकोर्ट के स्टे तक की परवाह नहीं की । स्टे दिखाया तो उसे देखने की जगह मुझे पकड़कर हवालात में बंद कर दिया और तभी छोड़ा जबकि आठ मंजिला इमारत मलबे का ढेर बन गई । एक करोड़ रूपये का नुकसान हो गया । पूरा-पूरा हफ्ता चुकाते रहने के बावजूद एक महीने में चार बार बाडर पर शराब पकड़ी गई । कैब्रे हाउस पर ताले लग गए । इनकम टैक्स वाले अलग आंख में डंडा किये हैं और इतना ज्यादा जुर्माना करने पर आमादा हैं कि सब कुछ बेचकर भी शायद ही चुकता कर पाऊंगा । कुछ महीनों में ही ये सब कुछ हो गया । माईंयेवां रब्ब ही रूठ गया एकाएक लेखराज मदान का ।”
“तभी तो कहते हैं कि मुसीबत आती है तो अकेले नहीं आती है ।”
“लक्ख रुपए की बात कही,कोल्ली । इकट्ठी आई तमाम मुसीबतें । पता नहीं किस कलमुहें की नजर लग गई लेखराज मदान को । सब चौपट हो गया । आज ये हालत है कोल्ली कि होटल वाला फ्लैट तक गिरवी पड़ा है और किसी भी रोज ये मर्सरी भी बेचने की नौबत आ सकती है । अभी गनीमत है कि मधु को इन बातों की भनक नहीं ।”
“उसको भनक लगने से क्या फर्क पड़ता है ?”
“पूरा-पूरा फर्क पड़ता है वीर मेरे । तू क्या समझता है, मैं खूबसूरत बहुत हूं या नौजवान बहुत हूं जो उसने मेरे से शादी करना मंजूर किया ?”
“यानी कि दौलत की दीवानी है ?”
“हर औरत होती है ।”
“फिर तुम्हारी शादी थोड़े ही हुई ! वो तो एक समझौता हुआ, करार हुआ जो तुमने एक नौजवान लड़की से किया । वो कपड़े उतारकर तुम्हारे साथ लेटेगी और तुम्हारे दो क्विंटल के जिस्म के नीचे पिसेगी, और तुम उसे दौलत से मालामाल करोगे, सोने-चांदी से निहाल करोगे ।”
उसने अनमने मन से हुंकार भरी ।
“अब जबकि तुम्हें लग रहा है कि करार के अपने हिस्से की शर्त पूरी करने की सलाहियात तुम्हारे हाथों से निकली जा रही तो ये सोच के तुम्हारा कलेजा कांप रहा है कि कहीं इतनी हसीन औरत भी तुम्हारे हाथों से न निकल जाए ।”
वो अप्रसन्न दिखाई देने लगा । प्रत्यक्षत: मेरा बात को यूं दो टूक कहना उसे रास नहीं आया था ।
“बहरहाल” मैं बोला, “हालात का खुलासा ये है कि रूपए-पैसे के मामले में तुम्हारी दुक्की पूरी तरह से पिटने वाली है ।”
“पिट चुकी है ।”
“लेकिन अपनी मौजूदा दुश्वारियों का कोई हल है तुम्हारे जेहन में ।”
“एकदम ठीक पहचाना ।”
”कहां है हल ?”
”मेरी बगल में बैठा है ।”
“यानी कि मैं ?”
“यानी कि तू ।”
“मैं कुछ समझा नहीं ।”
“कोई बड़ी बात नहीं । अभी कुछ समझाया ही कहां है मैंने ?”
“उम्मीद रखूं कि इसी हफ्ते में समझा लोगे ?”
“मैं अभी समझाता हूं । मैं बात को दूसरी ओर का सिर पकड़कर समझाता हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“शशिकांत का बीमा है । जीवन बीमा ।”
“जरूर होगा । सबका होता है ।”
“पचास लाख का ।”
“ये सबका नहीं होता ।” मैं नेत्र फैलाकर बोला, “रकम फ्यूज उड़ा देने वाली है ।”
“मेरे हक में ।”
“ठहरो, ठहरो । जरा मुझे बात को तरीके से समझने दो । तुम ये कह रहे हो कि तुम्हारे छोटे भाई की पचास लाख रुपए की लाइफ-इंश्योरेंस पॉलिसी है जिसके नामिनी तुम हो ।”
“हां ।”
“यानी कि अगर तुम्हारा भाई शशिकांत मर जाए तो तुम्हें पचास लाख रुपए का क्लेम बीमा कंपनी से मिलेगा ।”
“किसी हादसे का शिकार होकर मरे तो एक करोड़ ।”
“तुम” मैं सख्त हैरानी से उसे घूरता हुआ बोला, “अपने भाई की मौत चाहते हो ?”
“हरगिज भी नहीं ।”
“फिर क्या बात बनी ?”
“बनी ।”
“कहीं तुम ये तो नहीं कहना चाहते कि तुमने ऐसी तरकीब सोच निकाली है जिससे तुम्हारा भाई तो नहीं मरेगा लेकिन बीमे की रकम फिर भी तुम्हें मिल जाती ।”
“काबिल आदमी है तू कोल्ली । आखिर समझ गया ।”
“मैं काफी देर से एक बात कहना चाहता था । मेरा नाम कोल्ली नहीं । कोहली है !”
“वही तो मैंने कहा । कोल्ली ।”
“ये कोल्ली वाला है पंजाबी में मेरा नाम कोहली है । कोहली । को.. ह.. ली । जैसे हल से हली और शुरू में को ।”
“की फर्क पैंदा ए ।”
“मेरे को फर्क पैंदा है । मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे नाम की दुर्गत करके मेरे से मुखातिब हो ।”
“यार” वो झल्लाया “ये इतनी गंभीर बातचीत में तेरा नाम कहां से आ घुसा ?”
“मैंने घुसाया । कोहली नहीं कह सकते हो तो सुधीर कहो ।”
“ठीक है । सुधीर ।”
“अब आगे बढ़ो ।”
“देख । बात यूं है कि मैं अपनी मौजूदा जिन्दगी से ही नहीं, इस शहर से, इस मुल्क से ही किनारा कर जाना चाहता हूं । इस सिलसिले में शशिकांत सिंगापुर हो भी आया है और नकली नाम और नकली कागजात के जरिए खुद को वहां स्थापित कर भी चुका है । बीमे की रकम हासिल हो जाने के बाद उसे सिंगापुर पहुंचाने का पुख्ता इन्तजाम भी मैं कर चुका हूं । पहले शशिकांत सिंगापुर चला जाएगा । फिर बीमे की रकम का क्लेम मिल जाने के बाद मैं भी मधु को लेकर उसके पीछे वहां पहुंच जाऊंगा । यूं यहां की तमाम कानूनी पेचीदगियां और गैरकानूनी बखेड़े यहीं रह जाएंगे । आज की तारीख में ये मेरा आखिरी मकसद है । जिनका मैं कर्जाई हूं मैं उन्हें ढूंढ़े नहीं मिलूंगा । यूं मेरी जान भी सांसत से निकल जाएगी और अपनी बाकी की जिन्दगी चैन से गुजारने के लिए मेरे पास पचास लाख रुपया भी होगा ।”
“एक करोड़ ।” मैंने याद दिलाया ।
“पचास लाख । शशिकांत कोई सच में ही थोड़े मर जाएगा । आधा वो भी तो लेगा !”
“वो मरेगा नहीं तो बीमे की रकम कैसे मिलेगी ? जब मुर्दा नहीं होगा तो मौत कैसे स्थापित होगी ? इतनी बड़ी रकम का मामला है । मुर्दा तो बड़े चौकस तरीके से ठोक-बजाकर देखा जाएगा । यहां मर गया होने का कोई पाखंड या कोई एक्टिंग काम नहीं आने वाली ।”
“मुझे मालूम है ! ये तो बच्चा भी समझ सकता है कि मुर्दा होना जरूरी है, तू तो सौ सयानों का सयाना है, कोल्ली !..मेरा मतलब है सुधीर ।”
“मुर्दा कहां से आएगा ?”
“मेरा पहलवान कल रात फेल न हो गया होता तो मुर्दा आ ही गया था ।”
“तुम्हारा इशारा मेरी तरफ है !”
“जाहिर है । लेकिन मैं फिर कहता हूं । मेरी कोई जाती अदावत नहीं तेरे से ।”
“लेकिन...”
“ठहर । सुन ।” उसने जेब से एक तस्वीर निकाल कर मेरी गोद में डाल दी, “देख !”
मैंने तस्वीर देखी ।
“ये” मैं बोला, “मेरी तस्वीर...”
“ये” वो धीरे से बोला, “शशिकांत की तस्वीर है ।”
“ओह ! ओह !”
मैंने फिर तस्वीर पर निगाह डाली । इस बार मुझे अपनी और तस्वीर की सूरत में दो फर्क दिखाई दिए ।
तस्वीर में चित्रित व्यक्ति के ऊपरले होंठ पर शत्रुघ्न सिन्हा स्टाइल मूंछें थीं और हेयर स्टाइल जुदा था ।
“हेयरस्टाइल बदला जा सकता है ।” वो जैसे मेरे मन की बात भांपकर बोला, “मूंछें साफ की जा सकती हैं । बाकी कद-काठ, हड गोडे सब तेरे जैसे ही हैं शशिकांत के ।”
मैं सन्नाटे में आ गया ।
“तो ये बात है ।” मैं बोला, “मौत मेरी होगी और मरा हुआ शशिकांत समझा जाएगा ।”
“जाती कुछ नहीं, कोल्ली । जाती कुछ नहीं । तेरी शक्ल शशिकांत से न मिलती होती तो मैंने क्या लेना-देना था तेरे से !”
“मेरी जान इतनी सस्ती नहीं, मदान दादा ।”
“किसने कहा तेरी जान सस्ती है ! तेरी जान तो एक करोड़ रुपए की है ।”
“वो शशिकांत की जान है ।”
“एक ही बात है ।”
“नहीं है एक ही बात । तुम क्या समझते हो कि मैं यूं एकाएक गायब हो जाता तो मेरी कोई पूछ नहीं होती ?”
“कोल्ली । सुधीर । तेरे में ये भी एक खूबी हैं कि इस शहर में तेरा कोई सगेवाला नहीं ।”
“तो क्या हुआ ? यार-दोस्त तो हैं ।”
“लेकिन जिगरी कोई नहीं । मैंने पड़ताल की है । ऐसे यार-दोस्त किसी के एकाएक गायब हो जाने पर थोड़ा-बौत हैरान तो होते है, हलकान नहीं होते ।”
“मेरी सेक्रेट्री रजनी है जो मेरे पर जान छिड़कती है ।”
“गलत । वो तेरे पर नहीं, तू उस पर जान छिड़कता है ।”
“वहम है तुम्हारा । वो तो..”
“वहम है तो उसका भी जवाब है मेरे पास ।”
“क्या ?”
“ये चिट्ठी देख ।” जेब से एक लिफाफा निकालकर उसने मेरी गोद मे डाल दिया ।
मैंने देखा, लिफाफा बन्द था और उस पर रजनी का नाम और मेरी डिटेक्टिव एजेंसी, यूनिवर्सल इन्वेस्टिगेशंस का नाम और नेहरू प्लेस का पता लिखा हुआ था ।
“खोल ले ।” वो बोला, “इसकी जरूरत तभी थी जब पहलवान तुझे डिलीवर कर पाता, जब तू मेरे काबू में होता । अब तो ये बेकार है ।”
मैंने लिफाफा खोला ।
भीतर पाच-पाच सौ के नोटों की एक गड्डी थी और एक चिट्ठी थी । चिट्ठी टाइपशुदा थी, जिसमें लिखा था..
डियर रजनी,
एकाएक एक बहुत ही महत्वपूर्ण और पेचीदा केस हाथ लग गया है । जान जोखम का काम है लेकिन फीस लाखों में है । उस केस के सिलसिले में मैं तत्काल नेपाल जा रहा हूं । वहां से आगे बर्मा, थाईलैंड और फिर सिंगापुर जाऊंगा । कम से कम एक साल सारे योरोप के धक्के खाने का सिलसिला है । साल सुरक्षित गुजरा तो एक ही केस मुझे मालामाल कर देगा । आइंदा एक साल के दौरान तुमसे संपर्क का मौका मुझे शायद ही मिले इसलिए एक स्पेशल मैसेंजर के हाथ ये चिट्ठी भेज रहा हूं । चिट्ठी के साथ पचास हजार रुपए हैं जो एक साल तक ऑफिस का किराया और तुम्हारी तनखाह के खर्चे निकालने के लिए काफी होंगे । मेरी असाइनमेंट बहुत गोपनीय है, इसलिए इस बाबत किसी से कोई विस्तृत वार्तालाप न करना ।
शुभकामनाओं सहित ।
तुम्हारा एम्प्लायर
सुधीर कोहली ।
अपने हस्ताक्षर देख कर मेरे छक्के छूट गए ।
वो सौ फीसदी मेरे हस्ताक्षर थे ।
“अपने दस्तखत देखकर हैरान हो रहा है ?” वह बोला ।
“हो तो रहा हूं ।” मैं बोला ।
“मत हो । अरे जो जाली पासपोर्ट तैयार कर सकता हो, और सौ तरह के जाली कागजात तैयार कर सकता हो, उसके लिए तेरे दस्तखतों की नकल मार लेना क्या मुश्किल काम रहा होगा ।”
मैं खामोश रहा । मैने चिट्ठी तह कर के चिट्ठी और नोट लिफाफे में रखे । उसने बड़ी सफाई से लिफाफा मेरी गिरफ्त से निकाल लिया और वापस अपनी जेब में डाल लिया ।
“दस्तखतों का नमूना कैसे हासिल किया ?” मैं बोला ।
“क्या मुश्किल काम था ?” वह बोला, “सुधीर, कोई चिट्ठी लिखकर अगर तेरे से पूछे कि तू बतौर प्राइवेट जसूस क्या फीस ले के काम करता था तो उसे जवाब में चिट्ठी लिखेगा कि नहीं ?”
“लिखूंगा ।” मैं बोला ।
“और उस जवाबी चिट्ठी पर तेरे दस्तखत होंगे कि नहीं ?”
“होंगे ।”
“बस । मिल गया तेरे दस्तखतों का नमूना ।”
“तैयारियां, लगता है, काफी अरसे से चल रही हैं ।”
“चार महीने से । सब कुछ वाह-वाह चल रहा था । एक उस पहलवान के बच्चे की नालायकी ने सब गुड़ गोबर कर दिया । तुझे काबू में न रख सका ।”
“ये इकलौती चिट्ठी मेरे गायब हो जाने की मिस्ट्री पर लगे सब सवालिया निशान मिटा देती ?”
“इकलौती किसलिए, वीर मेरे । ऐसी एक चिट्ठी लगभग हर महीने कभी सिंगापुर से तो कभी हांगकांग से तो कभी लंदन से तेरी सैक्रेट्री के पास पहुंचती जिसमें तूने उसे ये खबर की होती कि तू कामयाबी की मंजिलें तो तय करता जा रहा था लेकिन जान-जोखम बढ़ता जा रहा था । फिर एकाएक चिट्ठियां आनी बंद हो जाती, कोल्ली... ”
“कोहली ।” मैं चिढकर बोला ।
“फिर इससे तेरी सेक्रेट्री क्या नतीजा निकालती ? वो यही सोचती न कि जोखम ने तेरी जान ले ली थी ? आखिरकार तेरी किस्मत तुझे दगा दे गई थी और तू परदेस में कहीं मर-खप गया था । कैसी रही ?”
मैं खामोश रहा ।
“आखिर वो तेरी सेक्रेट्री ही तो है, कोई ब्याहता बीवी तो नहीं जो तेरी लाश की बरामदी के अरमान के साथ महकमा-दर-महकमा टक्करें मारती फिरती ।”
रजनी से मेरी उम्मीदें बीवी से कहीं बढ़कर थीं, लेकिन फिर भी मेरा सिर सहमति में हिला ।
“तुम्हारा भाई” फिर मैंने पूछा, “मेरा मतलब है तुम्हारे भाई की जगह मैं, मरता कैसे ?”
“गोली खा के ।” वह बड़े इत्मीनान से बोला, “पहलवान तुझे शशिकांत की कोठी में ले जाता, तुझे वहां शशिकांत की जगह स्थापित करता और तुझे शूट कर देता ।”
“स्थापित करता क्या मतलब ?”
“तुझे जबरन तैयार कर के वो पहले सारी कोठी में तेरी उंगलियों के निशान फैलाता, फिर तुझे शशिकांत की कोई पोशाक पहनने को मजबूर करता, पोशाक की जेबों में शशिकांत के जाती इस्तेमाल की चीजे रखता, तुझे उसकी चेन पहनाता अंगूठी पहनाता, शशिकांत के नाम वाला ब्रेसलेट पहनाता और फिर तुझे यूं कत्ल कर देता जैसे वो काम कोठी में जबरन घुस आए किसी मवाली का था ।”
“पुलिस को ये बात हजम हो जाती ?”
“क्यो न होती ? मेरी तरह ही शशिकांत भी कई लोगों का कर्जाई है । राजेंद्रा प्लेस में हमारी जो नाईट क्लब वो चलाता था, वो भी सिंडीकेट के दबाव की वजह से बंद पड़ी है । पुलिस जरा-सी तफ्तीश करती तो उन्हें मालूम हो जाता कि पिछले कुछ अरसे से कत्ल कर दिए जाने की धमकियां उसे मुतवातर मिल रही थी । पुलिस यही समझती कि किसी ने अपनी धमकी पर खरा उतरकर दिखा दिया था ।”
“मेरे कत्ल के दौरान शशिकांत कहां होता ?”
“वो एयरपोर्ट की तरफ दौड़ा जा रहा होता जहां से उसने काठमांडू की दोपहरबाद की फ्लाइट पकड़नी थी । वो दो दिन नेपाल ठहरता और फिर अपने जाली पासपोर्ट के सदके सिंगापुर उड़ जाता ।”
“और तुम यहा भाई की मौत पर रो-रो के जान देने को आमादा उसकी - यानी कि मेरी - चिता की राख भी ठंडी होने से पहले इन्श्योरेंस क्लेम भर रहे होते ।”
“जाहिर है । लेकिन सब गुड़-गोबर हो गया । एक लल्लू पहलवान की लापरवाही से इतनी उम्दा स्कीम का कचरा बन गया ।”
“उसकी लापरवाही से या मेरी होशियारी से ?”
“इक्को गल ए । खेल तो चौपट हो गया । सुधीर, वैसे तू अभी भी मान जाए तो बिगड़ी बात बन सकती है ।”
“मान जाऊं ! क्या मान जाऊं ?”
“लाश की जगह लेने के लिए । मैं तेरी कोई भी फीस भरने के लिए तैयार हूं ।”
“क्या कहने ! अरे, जब मैं ही नहीं रहूंगा तो फीस मेरे किस काम आएगी ?”
“कोल्ली, तू इतना बड़ा जसूस है, कोई ऐसी तरकीब सोच न जिससे लाश भी रहे, तू भी रहे और फीस भी तेरे काम आए ।”
“कहीं इसी चक्कर में तो तुम मुझे मेटकाफ रोड नहीं ले जा रहे कि मैं ऐसी कोई तरकीब सोचूं ?”
“इसी चक्कर में ले जा रहा हूं ।”
“ये काम तुम्हारे फ्लैट में ही नहीं हो सकता था ?”
“कैसे होता ? वहां शशिकांत जो नहीं था ।”
“बुलवा लेते उसे ।”
वो खामोश रहा ।
“लगता है” मैं बोला, “अपनी खूबसूरत बीवी के मामले में तुम्हे किसी का भरोसा नहीं । अपने भाई का भी नहीं ।”
उसके चेहरे पर झुंझलाहट के भाव आए ।
“तुम्हारा पहलवान ठीक कहता था ।”
“क्या?” वो उखड़े स्वर में बोला, “क्या कैत्ता था ?”
“यही कि मदान साहब बैठा है सांप की तरह कुंडली मारकर हुस्नो-शबाब की दौलत पर ।”
“लनतरानियां छोड़ कोल्ली, मतलब की बात कर । सोच कोई तरकीब जिससे लाश भी रहे, तू भी रहे और फीस भी तेरे काम आए ।”
“ऐसी कोई तरकीब मुमकिन नहीं ।”
“कोई तो होगी । अकल लड़ा । जोर दे दिमाग पर । निकाल कोई तरकीब । मैं तेरी कोई भी फीस भरने को तैयार हूं । और..”
वो ठिठका ।
“और क्या?” मैं तनिक उत्सुक भाव से बोला ।
“पहलवान को छोड़ ।”
“क्या कहने ! पहलवान छूट गया तो मेरे पास क्या रह गया तुम्हारे खिलाफ ?”
“ओए वीर मेरे, तू मेरे खिलाफ होना क्यों चात्ता है ? अब तो हम तीनों इकट्ठे हैं ।”
“तीनों ! कौन तीनों ?”
“मैं, शशिकांत और तू ।”
“मैं, शशिकांत और मधु कहा होता तो कोई बात भी होती ।”
“मैं, शशिकांत और” वो सख्ती से बोला, “तू ।”
“अफसोस । अफसोस ।”
“कोल्ली, मैंने क्या कहा था ?”
“क्या कहा था ?”
“नीयत मैली नहीं करनी । भूल गया ?”
“पहले भूल गया था । अब फिर याद आ गया है ।”
“वदिया । तो समझ गया ? अब तो हम तीनों - मैं, शशिकात और तू - इकट्ठे हैं ।”
“किसने कहा ?”
“क्या ?”
“कि हम तीनों इकट्ठे हैं ?”
“नहीं हैं ?”
“बिल्कुल भी नहीं हैं । जो शख्स मेरी जान लेने पर आमादा हो, वो तो मेरा घोर शत्रु हुआ ।”
“यार, अब तो वो कहानी खत्म हो गई ।”
“तुम्हारी तरफ से खत्म हो गई । मेरी तरफ से तो..”
“तू भी खत्म कर न, वीर मेरे । तू ऐसा कर, तू बीमे की रकम हथियाने की कोई कारआमद तरकीब सुझा और अपनी फीस खुद मुकर्रर कर ले ।”
“कोई भी फीस ?”
“कोई भी वाजिब फीस ।”
मैं सोचने लगा ।
“मेटकाफ रोड आ गई है । तीनों मिल के सोचते है कोई तरकीब ।”
मैने बेध्यानी में सहमति में सिर हिला दिया ।
मर्सिडीज एक कोठी के सामने पहुंची । कोठी एक मंजिली थी, पुराने स्टाइल की थी और बहुत बड़े प्लाट के बीच मे बनी हुई थी । कोठी के सामने एक विशाल लॉन था जिस के बीच में से गुजरता ड्राइव-वे कोठी तक पहुंचता था । ड्राइव-वे के दोनों ओर ऊचे पेड़ थे और उसके सड़क की ओर वाले सिरे पर एक आयरन गेट था जो कि उस वक्त पूरा खुला हुआ था ।
“फाटक खुला है ।” मैं बोला ।
“तो क्या हुआ ?” वो अनमने स्वर में बोला ।
“क्यों ?”
“क्यों क्या ? ये तो खुला ही रहता है । कोई खराबी है इसमें । झूल के अपने आप पूरा खुल जाता है । ताला लगा हो तो ही अपनी जगह टिकता है ।”
“ठीक क्यों नहीं कराता तुम्हारा भाई ?”
“क्या जरूरत है ? तूने सब घपला न कर दिया होता तो आज के बाद किसने रहना था यहां ।”
मैं खामोश हो गया ।
मदान ने कार को फाटक के भीतर डाला और कोठी के सामने पोर्टिको में ले जाकर रोका । हम दोनों कार से बाहर निकलकर कोठी के मुख्यद्वार पर पहुचे । मदान ने कॉलबैल बजाई ।
कोई प्रतिक्रिया सामने न आई ।
उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डाली ।
“हम जल्दी आ गए ।” वो बोला, “कहीं अभी तक सो ही न रहा हो । आलसी बहुत है शशिकांत ।”
मै खामोश रहा ।
उसने फिर कॉलबैल बजाई और दरवाजे को धक्का दिया ।
दरवाजा निशब्द खुल गया ।
मदान तनिक सकपकाया और फिर भीतर दाखिल हुआ । मैं उसके पीछे हो लिया ।
वो हमें स्टडी की तरह सुसज्जित एक कमरे में मिला । वहां एक विशाल मेज लगी हुई थी जिसके पीछे लगी एक एग्जीक्यूटिव चेयर पर वो बैठा हुआ था । उसका सिर उसकी छाती पर झुका हुआ था और लगता था कि वो कुर्सी पर बैठा बैठा ऊंघ गया था और फिर सो गया था ।
“गड़बड़ हो गई शशि” मदान एक क्षण दरवाजे की चौखट पर ठिठका और फिर आगे मेज की ओर बढ़ता हुआ बोला, “हमारा बंदा आया तो है लेकिन स्कीम के मुताबिक लाया नहीं गया । खुद चल के आया है । उस हबीब के बच्चे ने सब गुड़ गोबर कर दिया...”
तब तक मदान मेज के पीछे उसकी कुर्सी के करीब पहुंच गया था । उसने शशिकांत के कंधे पर हाथ रखा तो वो निशब्द आगे को लुढ़क गया और औंधे मुंह सामने मेज पर जाकर पड़ा ।
मदान फटी-फटी आंखो से औंधे मुंह लुढके हुए निश्चेष्ट शरीर को देख रहा था ।
“दौरा पड़ गया ।” फिर वह आतंकित भाव से बोला, “डॉक्टर को फोन करता हूं ।
“ठहरो !” मैं एकाएक बोला ।
वह ठिठका ।
मैंने झुककर अचेत शरीर का मुआयना किया । मैंने गरदन के करीब उसकी शाहरग को छुआ । मैंने उसकी नब्ज टटोली । अंत में मैंने उसे कुर्सी पर पूर्ववत सीधा किया ।
“इसे कोई दौरा-वौरा नहीं पड़ा ।” मैं बोला, “इसे शूट किया गया है ।”
उसके चेहरे पर हाहाकारी भाव प्रकट हुए ।
“मुबारक हो ।” मैं बोला ।
“किस बात की ?” वो बौखलाया ।
“करोड़पति बनने की । वो भी ऐसे कि कोई धोखाधड़ी का खेल भी नहीं खेलना पड़ा बीमा कम्पनी से । असली बीमांकित व्यक्ति की ट्वेंटी फोर कैरेट खालिस लाश तुम्हारे सामने पड़ी है यही तो था तुम्हारा आखिरी मकसद !”
“क्या बकता है ?”
“बकता कहो या फरमाता, ये हकीकत अपनी जगह कायम है कि तुम्हारे जिस भाई का तुम्हारे हक में पचास लाख का बीमा है, वो तुम्हारे सामने मरा पड़ा है ।”
“य..ये पक्की बात है कि ये मर गया है ?”
“हां ।”
“क...कैसे ?”
“कहा न इसे शूट किया गया है । एक गोली ऐन इसके दिल के ऊपर लगी है । छाती में बने सुराख से मालूम होता है कि रिवॉल्वर 22 कैलीबर की थी । बाईस कैलिबर की रिवॉल्वर जनाना हथियार माना जाता है । गोली ऐन दिल में से ही न गुजर गई होती तो ये कभी न मरता ।”
“फिर तो ये किसी पक्के निशानेबाज का काम हुआ ?”
“नहीं । ये तो किसी निपट अनाड़ी का काम मालूम होता है ।”
“क्या कहता है ! जब गोली ऐन दिल में से...”
“यहां एक नहीं, कई गोलियां चली मालूम होती हैं । लगता है किसी ने रिवॉल्वर का रुख इसकी तरफ किया और वो तब तक घोड़ा खींचता रहा जब तक कि गोलियां खत्म न हो गई ।”
“क...कैसे....कैसे कहां ?”
“रिवॉल्वर से निकली हर गोली कहीं न कहीं टकराई है । देखो, एक गोली मेज पर रखे कलमदान के चार होल्डरों में से एक को, दाएं कोने वाले को, लगी है और वो वहां से उखड़कर परे जा के गिरा है । एक गोली पीछे दीवार पर टंगे सजावटी वाललैंप से टकराई है । एक गोली बायीं दीवार पर लगी भागते घोड़ों की तस्वीर में सबसे अगले घोड़े के ऐन माथे में लगी है । एक और गोली ने कुर्सी के पीछे दीवार के साथ लगी वाल कैबिनेट के बाएं कोने में रखे सजावटी घुड़सवार का सिर उड़ा दिया है । और एक और गोली वाल कैबिनेट के दाएं कोने में रखे एटलस के बुत के सिर पर धरती के रूप में लदी घड़ी में लगी है...ये घड़ी काम करती थी ?”
“बढ़िया । एंटीक आइटम है । ग्लोब की तरह बनी ये घड़ी पुराने जमाने की है जिसमें कि चाबी भरी जाती है । सुइयां भी चाबी से ही आगे-पीछे सरकती हैं । इसे...इसे ये घड़ी बहुत पसन्द थी । हमेशा इसका राइट टाइम चैक करके रखता था । कभी एक सैकेंड भी आगे-पीछे नहीं होती थी ये ।”
“यानी कि गोली लगने से पहले ये चल रही होगी ?”
“यकीनन ।”
“और राईट टाइम दे रही होगी ?”
“पक्की बात ।”
“इस वक्त ये आठ अट्ठाईस पर रुकी हुई है । घड़ी, जाहिर है कि गोली लगने से ही रुकी है । इस का साफ और सीधा मतलब ये है कि ये गोलीबारी आठ अट्ठाइस पर हुई थी ।”
“कोई” वो अपनी कलाई घड़ी देखता हुआ बोला, दो घंटे पहले ।”
“लाश एकदम ठण्डी है और अकड़ी हुई है । इस हालत में लाश दो घंटे में नहीं पहुंच सकती ।”
“यानी कि” वो नेत्र फैलाकर बोला, “घड़ी पिछली शाम का वक्त देती रुकी है । ये कल रात का यहां मरा पड़ा है ।”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“तौबा ।”
जो गोली मैटल के होल्डर से टकराई थी, वो कहीं धंसी नहीं थी । वो होल्डर से छिटककर फर्श पर जा गिरी थी । मैंने घुटनों केबल बैठकर ऐन गोली तक झुककर उसका मुआयना किया ।
“मेरा अंदाज ठीक निकला ।” फिर मैं सीधा होकर बोला, “ये 22 कैलीबर की ही गोली है । ऐसी ही एक गोली मरनेवाले के ऐन दिल में से गुजर कर गई है जो कि इसकी बदकिस्मती है । 22 कैलीबर की गोली इसे कहीं भी और लगी होती तो ये हरगिज न मरा होता ।”
“इसे लगी गोली चलाई गई छ: गोलियों में से आखिरी होगी ।”
“क्यों ?” मैं सकपकाकर बोला ।
“वीर मेरे, अगर इसे पैल्ली ही गोली लग गई होती तो चलाने वाले ने और गोलियां काहे को चलाई होतीं !”
“दुरुस्त, लेकिन अगर इस आखिरी गोली से पहले पांच और गोलियां इस पर चल चुकी थीं तो भी ये कुर्सी पर टिका ही क्यों बैठा रहा ? पहली गोली चलते ही इसने उठकर भागने की या कहीं ओट लेने की या अपने हमलावर पर झपटने की कोशिश क्यों नहीं की ?”
“क्यों नहीं की ?” वो उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्योंकि इसे ऐसा कुछ करने का मौका ही नहीं मिला । गोलियां यूं आनन-फानन चलीं कि पलक झपकते ही सब खेल खत्म हो गया । किसी ने ताककर इसका निशाना लगाया होता तो वो यूं चलाई गई अपनी पहली गोली का नतीजा देखने के लिए ठिठकता और निशाना चूक गया पाकर फिर दूसरी गोली चलाता । तब मरने वाले को अपने बचाव के लिए हरकत में आने का मौका मिल जाता और वो कुछ न कुछ करता । निशाना चूका न होता तो हमलावर और गोलियां न चलाता लेकिन यहां तो ये हुआ मालूम होता है कि किसी ने रिवॉल्वर चलानी शुरू की तो तभी बंद की जबकि गोलियां खत्म हो गई । या यूं कहो कि गोलियां खत्म हो जाने पर रिवॉल्वर चलनी खुद ही बंद हो गई । यूं रिवॉल्वर का रुख ही सिर्फ मकतूल की तरफ रहा होगा, उससे कोई निशाना साधकर गोलियां चलाने की कोशिश ही नहीं की गई होगी । निशाना साधकर गोलियां चलाई गई होतीं तो बावजूद मकतूल के दिल का निशाना चूक जाने से गोलियां यूं दायें-बायें इधर-उधर बिखरती न चली गई होतीं ।”
“फिर तो ये काम किसी अनाड़ी का हुआ ?”
“या किसी औरत का जिसने कि रिवॉल्वर का रुख मरने वाले की ओर करके आंखें बंद कर ली होगी और घोड़ा खींचना शुरू कर दिया होगा ।”
“औरत !”
“बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर वैसे भी जनाना हथियार माना जाता है । यह एक नन्हीं-सी रिवॉल्वर होती है जो कि जनाना पर्स में बड़ी सहूलियत से समा जाती है । जनाना डिपार्टमेंट में क्या दखल था तुम्हारे भाई का ?”
“बहुत गहरा । औरतों का रसिया था । एक औरत से मन नहीं भरता था इसका । नाइट क्लब में जो खूबसूरत औरत आती थी, उसे पटाने के लिए उसके पीछे पड़ जाता था ।”
“कामयाब भी होता था ?”
“हां । अमूमन । आखिर खूबसूरत नौजवान था ।”
“मेरी तरह ?”
“ऐन तेरी तरह ।”
“हूं ।”
“अभी इतना ही नहीं, क्लब की होस्टेसों और डांसरों के भी पीछे पड़ा रहता था ।”
“औरतों के मामले में बाज लोगों का हाजमा कुछ खास ही तगड़ा होता है । कई हज्म कर जाते हैं । डकार भी नहीं लेते ।”
“ये औरतों के नहीं, औरतें भी इसके पीछे पड़ीं रहती थीं ।”
“अच्छा !”
“हां । सुनकर हैरान होवोगे, आजकल ऐसी एक लड़की बतौर हाउसकीपर सारा दिन इसकी खिदमत करती है । सिर्फ इसलिए क्योकि वो इस पर फिदा है ।”
“कौन है वो लड़की ?”
“सुजाता मेहरा नाम है । नाइट क्लब में चिट क्लर्क थी । क्लब बंद हो गई तो यहां आ गई । सारा घर संभालती है । शशि कहता था तो उसका और उसके मेहमानों का खाना तक पका देती थी ।”
“वो यहां रोज आती है?”
“फिलहाल तो आती ही है रोज ।”
“सारा दिन यहीं रहती है ?”
“हां । शशि कहे तो सारी रात भी ।”
“अगर शशि यहां न हो ?”
“तो भी । उसके पास यहीं की एक चावी पक्के तौर पर है ।”
“इस वक्त तो वो यहां नहीं है ।”
“अमूमन ग्यारह बजे तक आती है ।”
“कमाल है ! तुम्हारा भाई तो मेरे से भी बड़ा हरामी निकला । जरूर सूरतें मिलती हों तो फितरत भी मिलने लगती है ।”
“कोल्ली !” वो प्रशंसात्मक स्वर में बोला, “यानी कि तेरी भी कई गोपियां हैं !”
“हैं तो नहीं लेकिन हों, ऐसी ख्वाहिश रखता तो हूं । बहरहाल वो किस्सा फिर कभी । तुम ये बताओ कि इस लड़की सुजाता ने ही तो किसी बात पर इससे खफा होकर इसकी दुक्की नहीं पीट दी ?”
“अरे, नहीं । वो लड़की तो इस पर फिदा थी, इसके हाथों से चुग्गा चुगती थी । अठारहवीं सदी की बीवी की तरह इसकी खिदमत करती थी ।”
”सिर्फ करवा चौथ का व्रत रुखने की कसर रह जाती होगी ।” मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर मैं बोला ।
“शायद वो भी रखती ।”
“क्या मतलब ?”
“अभी करवा चौथ का त्योहार आया जो नहीं । कुछ ही दिन तो हुए हैं अभी क्लब को ताला पड़े ।”
“हूं । बहरहाल वो नहीं तो कोई और गोपी खास ही खफा हो गई थी इससे जो इस पर गोलियों की बरसात कर बैठी ।”
“मुझे यकीन नहीं आता ।”
“किस बात का ?”
“कि किसी औरत जात की इतनी मजाल हुई हो कि इसकी जान लेने की जुर्रत कर बैठी हो । औरतें खौफ खाती थीं इससे । औरतें क्या, हर कोई खौफ खाता था इससे । लोग क्या जानते नहीं थे कि ये किसका भाई था !”
“लेकिन बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर.....”
“होगा जनाना हथियार । जनाने हथियार के मर्द के इस्तेमाल पर कोई पाबन्दी तो नहीं ।”
“हां । पाबन्दी तो नहीं है ।”
“लेकिन सवाल ये है इसका कत्ल किसने किया ? क्यों किया ? इसका तो कोई दुश्मन नहीं था । दुश्मन तो सब मेरे थे । यूं किसी ने मुझ पर गोलियां बरसाई होतीं तो ये कतई हैरानी की बात न होती ।”
“तुमने अभी खुद कहा था कि कुछ अरसे से शशिकांत को कत्ल कर दिए जाने की धमकियां मुतवातर मिल रही थीं ।”
“कहा था लेकिन झूठ कहा था ।”
“क्या ?”
“वो झूठ मेरा ही फैलाया हुआ था ताकि पुलिस तफ्तीश करे तो बात में दम दिखाई दे । वो झूठ हमारी उस स्कीम का हिस्सा था जिस पर अमल करके हमने तुझे शशिकांत बना के तेरा कत्ल करना था और बीमे की रकम क्लेम करनी थी । असल में मेरी जरायमपेशा हरकतों से शशिकांत का कुछ लेना-देना नहीं था । इसे तो लोग ठीक से जानते तक नहीं थे । दादा मैं था, गैंगस्टर मैं था, अंडरवर्ल्ड डान मैं था, शशिकांत नहीं । वार होना था तो मुझ पर होना चाहिए था न कि इस पर ।”
“तुम पर वार बाइस कैलीबर के खिलौने से थोड़े ही होता ! तुम पर तो ए के फोर्टी सैवन राइफल की या मशीनगन की गोलियां बरसाई जातीं ।”
“दुरुस्त । यही तो मैं कह रहा हूं । इस कत्ल का रिश्ता अगर मेरे कारोबार से होता तो कत्ल यूं न हुआ होता ।”
“मैं अभी भी कहता हूं कि ये कत्ल किसी औरत का काम है ।”
“सबूत क्या है ? सबूत बता क्या है ? ये कोई सबूत नहीं है कि कत्ल बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर से हुआ है जो कि जनाना हथियार माना जाता है ।”
“लेकिन चलाई गई गोलियों का बिखरा-बिखरा पैटर्न..”
“बकवास । निशानेबाजी की सलाहियात हर किसी को हासिल नहीं होती । रिवॉल्वर कोई गुलेल नहीं होती जो चलाने के लिए हर किसी को हासिल हो । वीर मेरे, ऐसे पैटर्न में गोलियां ऐसा मर्द भी चला सकता है जिसने पहले कभी रिवॉल्वर न थामी हो ।”
मुझे मोतीबाग वाली इमारत में हामिद पर चलाई गोलियों का अपना खुद का अंदाज याद आने लगा ।
“बात तो तुम ठीक कह रहे हो ।” मैं बोला ,मेरा सिर स्वयंमेव ही सहमति में सिर हिलने लगा था ।
“कोल्ली ।” वो बोला, “मैनूं पता लगना चाहिए कि ए किस दी करतूत है ।”
“क्यों ?”
“क्यों ?” वो भड़का, “पागल है ? पूछता है क्यों ?”
“मेरा मतलब है ये मसला इतना अहमतरीन क्योंकर बन गया कि कातिल कौन है ? क्या तुम कातिल से बदला लेने के ख्वाहिश मंद हो ?”
“कातिल को उसके किए की सजा तो मिलनी ही चाहिए लेकिन ये अहमतरीन मसला किसी और वजह से है ।”
“और कौन सी वजह ?”
“असली कातिल का पता लगेगा तो ही तो मैं कत्ल के इल्जाम से बरी हो पाऊंगा ।”
“तुम पर कत्ल का इल्जाम कैसे आयद हो सकता है ?”
“क्योंकि सिर्फ मेरे पास ही कत्ल का कोई उद्देश्य है ।”
“क्या उद्देश्य है ? बीमे की रकम ?”
“हां ।”
“नॉनसैंस । यूं कोई अपने भाई का कत्ल कर देता है !”
“रकम का वजन ध्यान में रखकर बोल । उस रकम की मेरी मौजूदा जरूरत को ध्यान में रखकर बोल ।”
“वो सब ठीक है लेकिन फिर भी....”
“फिर भी ये कि ये मेरा भाई ही नहीं था ।”
मैं बुरी तरह से चौंका ।
“क्या !” हकबकाया-सा उसका मुंह देखता मैं बोला ।
“मरने वाला मेरा भाई नहीं था । मेरी इससे दूरदराज की भी कोई रिश्तेदारी नहीं थी ।”
“तो फिर... तो फिर...”
“ये एक लम्बी कहानी है ।”
“मुख्तसर करके सुनाओ । बस सिर्फ ट्रेलर दिखा दो ।”
“सुन । दिल्ली शहर में मेरी शुरुआती छोटी औकात से कोई बेखबर नहीं । मकबूल लोगों की गुजश्ता जिंदगी के बखिए उधेड़कर सनसनीखेज खवरें निकालने में माहिर अखबारनवीसों की मेहरबानी से सारा शहर जानता है कि कभी मैं पांच रुपए दिहाड़ी कमाने वाला बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन वर्कर हुआ करता था, बेलदार हुआ करता था । एक बेलदार दौलतमंद कैसे बन गया ? उसका ये कायापलट कैसे हुआ ?”
“कैसे हुआ ?”
“वही तुझे बताने जा रहा हूं कोल्ली । लेकिन जो कुछ तू अभी सुनेगा, अगर तूने उसे आगे कहीं दोहराया या उसका कोई बेजा इस्तेमाल किया तो, रब दी सौं, खुद अपने हाथों से मैं तेरी बोटी-बोटी काट के फेंक दूंगा । समझ गया ?”
मैंने बड़े सशंक भाव से सहमति में सिर हिलाया । उसका उस घड़ी का रौद्र रूप मुझे सच में ही बहुत डरा रहा था । अपना डर छुपाने के लिए मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाला तो उसने भी मेरी ओर हाथ बढ़ा दिया । मैंने एक सिगरेट उसे दिया और एक खुद सुलगा लिया ।
“सुन ।” अपने विशिष्ट अंदाज से सिगरेट का लंबा कश लगाकर धुएं की दोनाली छोड़ता हुआ वह बोला, “जिस ठेकेदार के पास मैं बेलदारी का काम करता था, उसका नाम मुकंदलाल सेठी था । असल में वो स्मगलर था और ठेकेदारी उसके स्मगलिंग के धंधे की ओट थी । उसी ने मुझे एक बार कहा कि मैं ईंटें उठाने के हकीर काम में खामखाह अपनी नौजवानी बर्बाद कर रहा था । बात तू मुख्तसर में सुनना चाहता है इसलिए मैं सीधे ही तुझे बता रहा हूं कि पहले में उसका कूरियर बना फिर उसका पच्चीस फीसदी का पार्टनर । बतौर कूरियर मैं दिल्ली से चरस लेकर मुम्बई जाता था ओर सोना लेकर वापस आता था । रब्ब दी मेहर थी कि कभी पकड़ा नहीं गया । कामयाबी का ये आलम था कि मुझे अपना एक चौथाई का पार्टनर बनाने में भी मुकंदलाल सेठी को अपना ही फायदा दिखाई दे रहा था । बहरहाल आगे किस्सा यूं है कि उन दिनों ऑफिस में बिल वगैरह टाइप करने केलिए और खाता लिखने के लिए कौशल्या नाम की एक लड़की हुआ करती थी जो कि निहायत खूबसूरत थी । मैं और सेठी दोनों ही उसके दीवाने थे लेकिन वो मेरी जगह सेठी को ही भाव देती थी जबकि मैं कुंवारा था और सेठी न सिर्फ शादीशुदा था बल्कि बालबच्चेदार भी था ।”
“गरीब लड़की होगी । दौलत की दादागिरी को समझती होगी ।”
“यही बात थी । लेकिन तब गरीब तो मैं भी नहीं था ।”
“उसे मालूम हो गया होगा कि पहले तुम्हारी क्या औकात थी !”
“शायद । बहरहाल वो लड़की सेठी जैसे शादीशुदा, उम्रदराज मर्द से प्यार की पींगे बढ़ाती थी और मैं कुढ़ता था । एक दिन इसी कुढन में मैंने सेठी की बीवी को एक गुमनाम चिट्ठी लिख दी जिसमें मैने सेठी और कौशल्या की मुहब्बत का तमाम कच्चा चिट्ठा खोल दिया । सेठी की बीवी को आग लग गई । उसने सेठी की ऐसी ऐसी-तैसी फेरी कि पट्ठा पनाह मांग गया । सेठी अपनी बीवी से खौफ खाता था क्योकि वो एक बहुत बड़े गैंगस्टर की बहन थी और उस गैंगस्टर के सदके ही वो स्मगलिंग के धंधे में पड़ा था । बीवी का हुक्म नादिर हुआ कि कौशल्या को डिसमिस करो । सेठी ने कौशल्या को नौकरी से तो निकाल दिया लेकिन उसका साथ न छोड़ा । उसने कौशल्या को कालकाजी में एक फ्लैट ले दिया जहां वो उससे चोरी-छुपे मिलने जाता रहा । मैंने वो बात भी एक और गुमनाम चिट्ठी में सेठी की बीवी को लिख दी ।”
“बड़े कमीने हो, यार ।”
“बक मत और चुपचाप सुन ।”
“सुन रहा हूं ।”
“तब सेठी की बीवी ने पहले से कई गुणा ज्यादा कोहराम मचाया । सेठी को बीवी से तलाक की और साले से कत्ल की धमकियां मिलने लगीं । सेठी ऐसा हत्थे से उखड़ा कि एक दिन उसने घबराकर आत्महत्या कर ली । ऑफिस में ही उसने अपने आपको गोली मारली ।”
“ओह !”
“नतीजतन सारा कारोबार मेरे हाथ में आ गया ।”
“ओह ! ओह !”
“तब कौशल्या उम्मीद से थी । वो सेठी के बच्चे की मां बनने वाली थी । सेठी की मौत के पांच महीने बाद उसने एक बच्चे को जन्म दिया । बावजूद इसके मैंने उससे शादी की पेशकश की जो उसने साफ ठुकरा दी ।”
“दिल से चाहती होगी वो सेठी को ।”
“ऐसा ही था कुछ ।”
“आगे ।”
“बच्चा होने के दो साल बाद वो मर गई । लेकिन मरने से पहले अपने वकील के पास एक सीलबंद लिफाफे में एक चिट्ठी लिख के छोड़ गई जो कि उसके बच्चे के बालिग हो जाने के बाद उसे सौंप दी जानी थी । ऐसा ही हुआ । वो चिट्ठी पढ़कर वो बच्चा मेरे पास पहुंच गया । उसने मुझे बताया कि वो कौशल्या का बेटा था और उसके पास इस बात के सिक्केबंद सबूत थे कि मैंने मुकंदलाल सेठी का खून किया था । मेरे छक्के छूट गए ।”
“तुमने किया था ?”
“हां । बुनियादी तौर पर तो उस खून ने ही मुझे दौलत की ड्योढ़ी पर लाकर खड़ा किया था ।”
“वो लड़का शशिकांत था ?”
“एकदम ठीक पहचाना । वो बाकायदा मुझे ब्लैकमेल करके मेरा छोटा भाई बना । मैंने हर किसी को ये ही बताया कि पहले वो देहात में मेरी मां के पास रहता था, एकाएक मेरी मां मर गई थी तो मैने उसे अपने पास बुला लिया था ताकि वो शहर में आकर तरक्की कर सके, जिन्दगी मे कुछ बन सके । देख, ब्लैकमेल से इस छोकरे ने कितना कुछ हासिल किया मेरे से ? नाइट क्लब की सूरत में मैने इसे कारोबार मुहैया कराया । रहने को यहां मैटकाफ रोड पर ये कोठी लेकर दी ओर इसी के कहने पर इसकी आइन्दा जिंदगी की खुशहाली की गारंटी के तौर पर मैंने इसका पचास लाख रुपए का बीमा कराया जिसकी किस्त मैं भरता था ।”
“तुम्हें अपना नामिनी बनाने को तैयार हो गया ये ?”
“किसी को तो नामिनी बनाना ही था इसने । दोनों मर चुके मां-बाप की नाजायज औलाद का और कौन था इस दुनिया में ! वैसे भी वो तो यही समझता था कि इंश्योरेंस तो उसने खुद ही कलेक्ट करनी थी, अर्जी में नामिनी भरना तो महज एक औपचारिकता थी ।”
“आई सी ।”
“अब सूरत अहवाल ये है, वीर मेरे, कि ये सिर्फ कत्ल का ही नहीं, एक करोड़ रुपए के इंश्योरेंस क्लेम का भी मामला है । इस केस की तफ्तीश में कातिल की तलाश पुलिस ही नहीं करेगी, बीमा कंपनी के बड़े-बड़े जासूस भी करेंगे । अब अगर ये बात खुल गई कि आजकल मेरी माली हालत पतली थी और मरने वाला, जिसके बीमे का मैं नामिनी था, मेरा कुछ नहीं लगता था तो मेरी तो वज्ज जाएगी ।”
“तुमने कत्ल किया है ?”
“खोत्ता ! ओए ! अगर मैंने इसका कत्ल करना होता तो फिर तेरा अगवा करने के लिए इतने पापड़ बेलने की क्या जरूरत थी ? अगर मैने इसका कत्ल करना होता तो मैं यूं खामखाह अपनी जान सांसत में डाल बैठता ?”
“तुम क्या करते ?”
“मैं कत्ल कराता हबीब बकरे से और खुद कत्ल के वक्त थाने में ए सी पी के पास बैठा होता ।”
“असल में कत्ल के वक्त कहां थे तुम ?”
“कत्ल के वक्त ?”
“साढ़े आठ के आसपास । कल शाम । और तसदीक पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से हो जाएगी । फिलहाल टूटी घड़ी यही साबित कर रही है कि कत्ल कल शाम आठ अट्ठाइस पर हुआ था ।”
“तब मैं अपने फ्लैट में था ।
“और कौन था वहां ?”
“कोई नहीं ।”
“कोई नौकर-चाकर तो होगा ।”
“कोई नहीं । कभी होता भी नहीं । नौकर-चाकर न रखने पड़ें तभी तो होटल के फ्लैट में रहता हूं ।”
“तुम्हारी बीवी ?”
“वो अपनी बहन से मिलने गई थी ।”
“कब ?”
“घर से छ: बजे निकली थी, लेकिन पहले उसने करोल बाग अपने दर्जी के पास भी जाना था । ऐसा बोल के गई थी वो ।”
“यूं बीवी को अकेले जाने देते हो ?”
“हमेशा नहीं । हर जगह नहीं ।”
“बहन कौन है ?”
“सुधा नाम है उसका । सुधा माथुर ।”
“शादीशुदा है ?”
“हां । मधु से बहुत पहले से ।”
“बड़ी बहन है ?”
“हां । चार साल बड़ी ।”
“कहां रहती है ?”
”फ्लैग स्टाफ रोड पर ।”
“बाराखम्भा से फ्लैग स्टाफ रोड जाने के लिए तो यहीं से गुजरना पड़ता है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं । लौटी कब थी ?”
“साढ़े नौ बजे ।”
“इस बात की गारंटी है कि वो बहन के घर ही थी ?”
वो खामोश रहा ।
“क्या हुआ ?”
“आगे-पीछे ऐसी गारंटी होती थी । कल नहीं थी ।”
“क्या ?”
“ज्यादा पी गया था । तेरे अगवा की तरफ दिमाग लगा हुआ था न ! उसकी टेंशन में । फोन करने का ख्याल ही न आया ।”
“फोन ?”
“मधु जब बहन के घर जाती है तो मैं वहां फोन करके इस बात की तसदीक कर लेता हूं कि वो वहां पहुंच गई थी ।”
“कल ऐसा नहीं कर सके थे । क्योंकि ज्यादा पी गए थे !”
“हां ।”
“मैं तुम्हारे साथ शरीक था ।”
“किस काम में ?” वो सकपकाकर बोला ।
“ज्यादा पी जाने में । कल मैं तुम्हारा मेहमान था । कत्ल के वक्त, यानी कि कल शाम साढ़े आठ बजे, मैं तुम्हारे फ्लैट में तुम्हारे साथ बैठा दारू पी रहा था ।”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या हुआ ?” मैं बोला ।
“कोल्ली, इतने बड़े केस में तेरी झूठी गवाही नहीं चलने वाली । पुलिस यूं” उसने चुटकी बजाई, “पता लगा लेगी कि तू मेरा दोस्त नहीं, जोड़ीदार नहीं ।”
“तो क्या हुआ ! हर काम की कभी तो पहल होनी ही होती है । समझ लो कल शाम की बैठक दोस्ती की शुरुआत थी ।”
“नहीं चलेगा ।”
“क्यों ?”
“दारू के लिये यूं किसी को घर नहीं बुलाता मैं । सबको मालूम है ।”
“फिर भी बुलाने पर कोई सरकारी पाबंदी तो नहीं ! कोई गजट में तो नहीं छपा था कि.....”
“पिच्छा छोड़, कोल्ली ।” वो तनिक चिढे स्वर में बोला, “कोई और बात सोच । ये नहीं चलने की ।”
“लेकिन....”
“ओये वीर मेरे, इतने बड़े केस में तेरी झूठी गवाही नहीं चलने की । तेरी झूठी गवाही मुझे तो बचा नहीं सकेगी, तुझे जरूर साथ फंसा देगी । ओये, तेरे जैसे प्राइवेट जसूस को बड़े आराम से खरीदा जा सकता है । कह कि मैं झूठ कह रहा हूं ।”
मैं कसमसाया, तिलमिलाया, भुनभुनाया लेकिन ये न कह सका कि वो झूठ कह रहा था ।
“ऊपर से अभी और सुन ।” वो बड़ी संजीदगी से बोला, “सुन और सोच । तेरी झूठी गवाही का खरीददार कौन है ? क्या चीज हूं मैं ? मैं एक अंडरवर्ल्ड डान हूं । दिल्ली का नामचीन दादा हूं । स्मगलर हूं । रेकेटीयर हूं । बुर्दाफरोश हूं । इन बातों से सोसायटी में खौफ तो बनता है, रुतबा नहीं बनता । मेरे जैसे आदमी का कोई हमदर्द नहीं होता सोसायटी में । एक बार फंस जाए तो हर कोई ये ही कहता है कि अच्छी हुई साले के साथ । बहुत कहर बरपाया हुआ था कमीने ने । ऐसी रिप्युट वाले आदमी का एक कत्ल में दखल बन जाता है । मुझे तो उधेड़ के रख देंगे मेरे दुश्मन । कत्ल के इल्जाम से पुलिस ने बख्श भी दिया तो बीमा कम्पनी वाले पसर जाएंगे । वो इसे डिस्प्यूट वाला केस बना देंगे और रकम की अदायगी में इतने अडंगे लगा देंगे कि सालों मुझे रकम के दर्शन नहीं होंगे । कोर्ट कचहरी के चक्कर में पडूंगा तो और मिट्टी खराब कराऊंगा । पल्ले से पैसा लगाकर केस लड़ना पडेगा, दीवानी का केस होगा, सालों फैसला नहीं होगा । तब तक कुछ मेरे वकील मुझे नंगा कर देंगे और कुछ वैसे ही मेरे दाने बिक जाएंगे । वीर मेरे, मौजूदा हालात से मेरी निजात का एक ही रास्ता है कि असली कातिल पकड़ा जाए । ठीक ?”
“ठीक ।”
“तो पकड़ ।”
“क्या ?” मैं हड़बड़ाया ।
“असली कातिल और क्या ?”
“उसे तो पुलिस ही पकड़ लेगी । आखिर पुलिस.....”
“खौत्ते ! पुलिस कोशिश तक नहीं करेगी । वो तो ये ही जान के बाग-बाग हो जाएगी कि कत्ल के इल्जाम में मैं” उसने अपनी तेल के बड़े वाले ड्रम जैसी छाती ठोकी, “लेखराज मदान फंस रहा था । अव्वल तो उनके किए कुछ होगा नहीं, उनको शर्म आ गई, लिहाज आ गया और कुछ हो गया तो तो तब होगा जवकि मेरी वैसे ही वज्ज चुकी होगी ।”
“वो कैसे ?”
“कौशल्या की उस चिट्ठी की वजह से जिसमें इस बात का सबूत है कि मुकन्दलाल सेठी का कातिल मैं था ।”
“वो चिट्ठी अभी तक शशिकान्त रखे हुए होगा ?”
“बिल्कुल रखे हुए होगा । कलेजे से लगाकर जान से ज्यादा अजीज वनाकर रखे हुए होगा ।”
“वो चिट्ठी कोठी में ही कहीं होगी । ढूंढ लेते हैं । क्या मुश्किल काम है ! ऐसी तलाश से हमें रोकने वाला तो मरा पड़ा है ।”
“कोल्ली आज तेरा ऐसा कोई बरत-वरत तो नहीं जिसमें अक्ल इस्तेमाल करने पर वरत टूट जाता हो ।”
“क्या हुआ ?”
“अरे, चौदह साल तक ये कुत्ती दा पुत्तर मेरी छाती पर हिमालय पहाड़ की तरह जमा रहा, इतने अरसे में मैंने कोई कसार छोड़ी होगी, कोई कोशिश उठा रखी होगी उस चिट्ठी की तलाश में । चार बार सुई की तलाश जैसी महीन तलाशी कर चुका हूं मैं इस कोठी की । यहां के अलावा क्लब को और और भी हर उस मुमकिन जगह को, जहां शशिकांत का दूर-दराज का भी दखल हो, मैं खंगाल चुका हूं । लेकिन वो चिट्ठी मेरे हाथ नहीं लगी ।”
“किसी बैंक के लॉकर में होगी । किसी वकील के दफ्तर में होगी ।”
“कहीं तो होगी ही । फेंकने वाला तो वे था नहीं उसे । आखिर वो चिट्ठी ही तो थी जो मेरी नाक की नकेल बनी हुई थी । कोल्ली, मेरी सलामती इसी में है कि वो चिट्ठी नुमाया होने से पहले असल कातिल पकड़ा जाए ।”
“वो तो फौरन नुमायां हो सकती है ।”
“मुझे उम्मीद नहीं । जिस किसी के पास भी वो चिट्ठी होगी, वो कुछ अरसा तो देखेगा ही कि पुलिस की सरगर्मियों का क्या नतीजा निकलता है । अगर उसे मालूम होता है कि कातिल मैं नहीं हूं और जो कातिल है उसकी पीठ पर मेरा हाथ भी साबित नहीं होता तो फिर वो क्यो भला उस चिट्ठी को आम करेगा ।”
“हूं ।”
“कोल्ली, सारी कथा का निचोड़ यही है कि कातिल को पकड़ फौरन पकड़, फौरन से पेश्तर पकड़ ।”
“कहां मिलेगा ?”
“मजाक मत कर बकवास भी मत कर ।”
“फोकट में पकडूं ?”
“फोकट में क्यों वीर मेरे, तू कोई वालंटियर है !”
“ऐन मेरे मन की बात कही ।”
“अपनी कीमत खुद बोल ।”
“रजनी के नाम वाला जो लिफाफा तुम्हारी कोट की जेब में है, वो मुझे दो ।”
“ज्यादा है ।”
“क्या बात है, मेरी औकात अपने पहलवान हबीब बकरे जितनी भी नहीं समझते हो ?”
“वो रकम जिक्र के लिए थी, देने के लिए नहीं ।”
“यानी कि मुझे यहां लाकर जब वो मेरा खून कर देता तो खुद तुम उसका पत्ता साफ कर देते ?”
“जरूरी था । ऐसे मामलों में गवाह नहीं छोड़े जाते ।”
“मेरे बारे में भी तो ऐसा ही कुछ नहीं सोचे बैठे हो ?”
“अब नहीं । अब मुझे तेरी जरुरत है ।”
“ऐसे तुम्हारी जरूरत कैसे पूरी होगी, लिफाफा तो अभी भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा ।”
“कम से नहीं मानेगा ?”
“वक्त खराब कर रहे हो जबकि जानते हो कि एक-एक मिनट कीमती है ।”
उसने एक आह सी भरी और जेब से लिफाफा निकाला । चिट्ठी समेत ही उसने वो लिफाफा मुझे सौंप दिया ।
सुधीर कोहली - मैंने मन ही मन खुद अपनी पीठ थपथपाई लक्की बास्टर्ड ।
मेरे और पुलिस के कारोबार में जो भारी फर्क है, वो यह कि उनका काम लोगों को सजा दिलाना है जबकि मेरा काम उन्हें सजा से बचाना होता है । उन्होंने अपनी तनख्वाह को जस्टिफाई करने के लिए बेगुनाह को भी मुजरिम मानना होता है जवकि मुझे अपनी फीस को जस्टीफाई करने के लिए मुजरिम को भी बेगुनाह साबित करके दिखाना होता है । इसीलिए मेरी फीस उनकी तनख्वाह से कहीं ज्यादा है ।
मेरी इस मोटी लेकिन वक्ती कमाई का रोब खाकर जो कोई साहब प्राइवेट डिटेक्टिव का धंधा अख्तियार करने का इरादा कर रहे हों तो उनसे मेरी दरख्वास्त है कि वे गरीब रिश्तेदार की तरह फौरन इस इरादे से किनारा कर लें । मोटी रकम मुझे कभी-कभार ही हासिल होती है । अमूमन तो मुझे अपने ऑफिस में बैठकर किसी क्लायंट के इंतजार में मक्खियां मारनी पड़ती हैं । और अगर क्लायंट आ भी जाए तो मुझे क्या हासिल होता है । पांच सौ रुपये जमा खर्चे । मेरी मौजूदा फीस । जो कि मेरे तकरीबन क्लायंट को ज्यादा लगती है जबकि इससे ज्यादा पैसे तो मैंने सुना है कि लोग-बाग करोल बाग या चांदनी चौक में गोलगप्पे बेचकर कमा लेते हैं ।
और इस रकम का ख्याल करते हुए साहबान उस जान को न भूलें जो कि आपके खादिम की थी और जाते-जाते बची था ।
“क्या सोच रहा है ?” मदान तनिक उतावले स्वर में बोला ।
“कुछ नहीं ।” मेरी तन्द्रा टूटी, “इंश्योरेंस के बारे में और कौन जानता है ? मेरा मतलब है तुम्हारे, शशिकान्त और इंश्योरेंस कम्पनी के अलावा ।”
“मेरा वकील ।” वो बोला ।
“पुनीत खेतान !”
“तू कैसे जानता है ?”
“क्या ?”
“कि पुनीत खेतान मेरा वकील है ?”
“आल इंडिया रेडियो से घोषणा हुई थी । और कौन जानता है ?”
“कोई नहीं ।”
“तुम्हारी बीवी भी नहीं ?”
“नहीं ।”
“पुनीत खेतान का पता ठिकाना ?”
“क्यों चात्ता है ?”
“बहस न करो ।”
“ऑफिस शक्ति नगर में । घर शालीमार बाग में ।”
“दोनों जगहों का पता बताओ । फोन नम्बर भी ।”
उसने बताया । मैंने नोट किया ।
“वो सामने” फिर मैंने पूछा, “वाल केबिनट की बगल में जो बंद दरवाजा है, उसके पीछे क्या है ?”
“बाथरूम ।” वो बोला, “क्यों ?”
“कुछ नहीं ।” मैंने कुर्सी पर पड़े शशिकांत की ओर इशारा किया, “घर ये ऐसे ही रहता था ?”
“क्या मतलब ?”
“ये सूट-बूट पहने तैयार बैठा है ।”
“कहीं जाने की तैयारी में होगा । या कहीं से लौटा होगा ।”
“ये अपनी स्टडी में बैठा है ।”
“तो क्या हुआ? साफ-साफ बोल क्या कहना चाहता है !”
“इसका यहां मौजूद होना साबित करता है कि हत्यारा न सिर्फ इसके लिए अपरिचित नहीं था बल्कि वो इतना जाना-पहचाना था कि हत्प्राण उसे यहां स्टडी में लेकर आया । ऐसा न होता तो उसने आगंतुक को ड्राइंगरुम में बिठाया होता या बाहर से ही टरका दिया होता ।”
“इसका क्या मतलब हुआ ?”
“इसका ये मतलब हुआ कि हत्यारा कोई अजनबी नहीं था । वो मरने वाले का खूब जाना-पहचाना था और उसे कतई उम्मीद नहीं थी कि वो यूं उस पर गोली चला सकता था ।”
“हूं ।”
“ऐसा बंदा कौन हो सकता है ? या बंदी कौन हो सकती है ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“वो लड़की.. .सुजाता मेहरा...मकतूल की मुफ्त की हाउस कीपर, वो शाम को यहां से वापस कब जाती थी ?”
“कोई पक्का नहीं । जल्दी भी जाती थी । देर से भी जाती थी । नहीं भी जाती थी । शशि के मूड की बात थी । मैंने बताया तो था ।”
“हां, बताया था ।”
“वो कोई मुलाजिम तो नहीं थी न जो...”
“आई अडरस्टैंड । यानी कि हो सकता है कि कातिल के यहां आगमन के वक्त वो यहीं हो ।”
“कैसे हो सकता है ? कातिल इतना अहमक तो नहीं होगा कि यू अपने पीछे कत्ल का एक गवाह छोड़ जाता ।”
“उसे पता नहीं लगा होगा कि कोठी में कोई और भी था । आखिर इतनी बड़ी कोठी है ये ।”
“लेकिन अंधाधुंध गोलियां चलने की आवाज सुनकर वो लड़की क्या भीतर खामोश बैठी रही होगी ।”
“अपनी जान की खैर चाहती होगी तो खामोश ही बैठी होगी !”
“लेकिन बाद में...बाद में भला कैसे वो यूं शशि को पीछे मरा छोड़कर यहां से खिसक गई होगी ?”
“कत्ल के केस में इन्वोल्व्मेंट से हर कोई बचना चाहता है ।”
“कोल्ली, वो लड़की हर कोई नहीं थी, वो शशि की दीवानी थी । वो शशि को पीछे मरा छोड़कर यूं खिसक नहीं सकती थी । खिसक भी सकती थी तो कत्ल के” उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली, “चौदह -पंद्रह घंटे बाद तक वो खामोश नहीं रह सकती थी । और कुछ नहीं तो वो कम से कम पुलिस को एक गुमनाम टेलीफोन कॉल ही कर तकती थी । आज यहां तेरे कत्ल का प्रोग्राम न होता और उसकी वजह से मेरा यहां आना लाजिमी न होता तो यूं तो पता नहीं कब तक ये यहां मरा पड़ा रहता !
“तुम कहते हो कि लड़की ग्यारह बजे के आसपास यहां आती है ?”
“हां ।”
“अगर वो ग्यारह बजे यहां आ गई तो इसका मतलब ये होगा कि कत्ल की उसे कोई खबर नहीं यानी कि कल रात कत्ल के दौरान वो वहां मौजूद नहीं थी ।”
“न आई तो भी तो ये मतलब नहीं होगा कि उसे कत्ल की खबर थी । सौ और वजह हो सकती हैं, उसके यहां न आने की ।”
“ये भी ठीक है । वो रहती कहां है ?”
“मंदिर मार्ग । वर्किंग गर्ल्ज होस्टल में ।”
“अब तुम एक काम करो ।”
“क्या ?”
“यहां से फूट जाओ ।”
“कहां फूट जाऊं ?”
“अपने घर । चुपचाप । समझ लो कि तुम यहां आए ही नहीं । घर जाकर अपनी बीवी को समझाओ कि कल शाम से तुम घर से नहीं निकले । तुम्हारी तबीयत खराब थी । तुम्हारे पेट में, पसली में, कान में, कहीं दर्द था । या ऐसी ही कोई और अलामत सोच लो जिसकी वजह से डॉक्टर को तो नहीं बुलाना पड़ता लेकिन आराम जरूरी होता है, बल्कि मजबूरी होता है ।”
“मुझे कभी-कभी गठिया का दर्द होता है ।”
“बढ़िया । एन वही कल शाम को तुम्हें हो गया था । अभी भी है । मदान दादा, ये जरूरी है कि तफ्तीश के लिए जब तुम्हारे यहां पहुंचे तो वो तुम्हें हाय-हाय करता बिस्तर के हवाले पाए और तुम्हारी बीवी इस बात की तस्दीक करे कि वो हाय-हाय कल शाम से जारी थी । कहना मानती है वो तुम्हारा ?”
“कैसे नहीं मानेगी ? खौफ खाती है वो मेरा ।”
“बढ़िया । कहने का मतलब ये है कि अगर मेरी झूठी गवाही नहीं चल सकती तो तुम्हारी बीवी की झूठी गवाही तो चल सकती है ।”
“तुमसे बेहतर चल रुकती है लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“वो शाम को घर पर नहीं थी । अगर किसी को ये बात पता हुई या ऐन कत्ल के समय उसे किसी ने कहीं और देखा हुआ हो तो ?”
“उससे बात करो । मालूम करो कि ऐसी कोई सम्भावना है या नहीं ।”
“अगर हुई तो ?”
“तो अपनी ये जिद फिर भी बरकरार रखना कि गठिया वाले दर्द की वजह से तुम घर पर थे, अलबत्ता अपने खस्ताहाल की वजह से तुम्हें ये खवर नहीं थी कि बीवी वीच में थोड़ी देर के लिए कहीं चली गई थी ।”
“मुझे बिना बताए ?”
“क्या हर्ज है ?”
“तू मरवाएगा, कोल्ली । यूं तो वो भी शक के दायरे में आ जाएगी ।”
“तो क्या बुरा होगा ? बतौर मर्डर सस्पेक्ट पुलिस की तवज्जो अगर किसी और की तरफ जाती है तो तुम्हें फायदा ही है ।”
“लेकिन मधु....”
“ये न भूलो कि कत्ल के वक्त वो घर पर नहीं थी और तुम्हें मालूम भी नहीं कि वो कहां थी ।”
“कोल्ली तू पागल है । तेरा दिमाग चल गया है । अरे, मधु तो शशि को ठीक से जाननी-पहचानती तक नहीं वो भला क्यों इसका कत्ल करेगी ?”
“ये खोजबीन का, जांच-पड़ताल का मुद्दा है ।”
“मां के सिर का मुद्दा है तेरी ।”
“मदान दादा, मेरे से गाली-गलौज की जुबान बरतोगे तो फीस बढ़ जाएगी ।”
“उसने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला और फिर कुछ सोचकर चुप हो गया ।”
“अब हिलो यहां से सुजाता मेहरा के आने का वक्त हो रहा है ।”
“तू भी तो हिल ।”
“नहीं, मैं अभी यहीं ठहरूंगा ।”
“क्यों ?'
“एक तो मैं ये देखना चाहता हूं कि निर्धारित वक्त पर वो लड़की यहां आती है नहीं । दूसरे मैं यहां रिवॉल्वर तलाश करना चाहता हूं ।”
“क्या !”
“मैं यहां भीतर और बाहर, और कोठी के आसपास भी, बाईस कैलिबर की वो रिवॉल्वर तलाश करना चाहता हूं जिससे कि कत्ल हुआ है ।”
“वो यहीं होगी ?”
“उम्मीद तो है । अगर वाकई कत्ल किसी औरत जात ने किया है जिसने कि रिवॉल्वर का रुख मकतूल की तरफ किया और आंखें बन्द करके रिवॉल्वर उस पर खाली कर दी तो फिर इस बात की भी काफी सम्भावना है कि कत्ल के बाद वो रिवॉल्वर यहीं कहीं फैंक गयी होगी ।”
“दम तो है तेरी बात में । मैं मदद करूं तेरी रिवॉल्वर की तलाश में ?”
“नहीं । जरूरत नहीं । तुम फिलहाल वही करो जो मैंने कहा है । फूटो यहां से ।”
“बाहर राहदारी में मर्सरी के टायरों के निशान हैं । उन निशानों से साफ पहचाना जाएगा कि कोई मर्सरी यहां आई थी और मर्सरी सिर्फ मेरे पास...”
“वो निशान पुलिस को नहीं मिलेंगे तुम्हारे जाते ही उन्हें मैं मिटा दूंगा ।”
उसके चेहरे पर प्रशंसा और कृतज्ञता के भाव आए ।
“पहलवान का क्या होगा ?” एकाएक वह बोला ।
“वो मोती बाग वाले मकान में ही है ।” मैं बोला “किसी भरोसे के आदमी को वहां भेजकर उसे वहां से छुड़वा लो ।”
“मैं खुद जाता हूं ।”
“खुद जाते हो तो जल्दी जाओ क्योंकि अपने फ्लैट पर तुम्हारी हाजिरी जरूरी है । तुम उसे वहां से छुड़ाकर हो सके तो कुछ दिन के लिए इस शहर से रुखसत कर दो ।”
“हो सकता है क्यों नहीं हो सकता ?”
“तो जाके हो सकने का इंतजाम करो ।”
एक आखिरी निगाह मकतूल पर डालकर वो वहां से विदा हो गया ।
हाथी दांत की मूंठ वाली बाईस कैलीवर की नन्ही-सी खूबसूरत रिवॉल्वर मुझे सफेदे के एक पेड़ की जड़ में उगी लंबी घास में पड़ी मिली । मुझे उस पर से उंगगलियों के कोई निशान मिलने की कतई उम्मीद नहीं थी फिर भी मैंने उसे बड़ी सावधानी से रूमाल में लपेटकर उठाया और उसका सीरियल नम्बर देखा ।
फायरआर्म्स रजिस्ट्रेशन के आफिस मेरा पुराना पटाया हुआ एक जमूरा था जो कि स्कॉच व्हिस्की की एक बोतल या पीटर स्कॉट की दो बोतल की एवज में चुपचाप मुझे बता देता था कि किस सीरियल का कौनसा हथियार किसके नाम रजिस्टर्ड था ।
ड्राइंगरूम के फोन से हाथ में रुमाल लपेटकर मैंने उसे फोन किया और उसे वो नम्बर बता दिया । उसने मुझे एक घंटे बाद फोन करने को कहा ।
फिर मैंने ड्राइव-वे पर से मर्सडीज के टायरों के निशान मिटाने का काम आरम्भ किया । ड्राइव-वे के दोनों ओर ऊंचे पेड़ उगे होने की वजह से मुझे काफी ओट हासिल थी लेकिन फाटक की ओर से कोई भीतर झांकता तो वो साफ देख सकता था कि मैं क्या कर रहा था ।
लेकिन पचास हजार रूपये फीस देने वाले क्लायंट के लिए इतना रिस्क तो मैंने लेना ही था ।
टायरों के निशान मिटाने की अपनी प्रक्रिया मैंने शुरू ही की थी कि एकाएक मैं ठिठका ।
ड्राइव-वे के बीचों-बीच मझे एक जोड़ी टायरों के निशान और दिखाई दिए । वे निशान बाइसिकल के टायर से ज्यादा चौड़े नहीं थे और कार के टायरों की तरह ही समानांतर बने हुए थे ।
मुझे साइकिल रिक्शा का ख्याल आया ।
लेकिन वे निशान संकरे थे, साइकिल रिक्शा की चौड़ाई के हिसाब से एक-दूसरे के ज्यादा करीब थे ।
व्हील चेयर ।
अपाहिजों के काम आने वाली पहियों वाली कुर्सी ।
निश्चय ही वे व्हील चेयर के निशान थे ।
व्हील चेयर के ताजा बने निशान ।
क्या मतलब था उनका !
किसी संभावित मतलब पर सिर धुनते हुए मैंने मर्सिडीज के टायरों के निशान मिटाने का काम आगे बढाया ।
मैं ड्राइव-वे के मिडल में पहुंचा तो मुझे जमीन पर एक जुगनु-सा चमकता दिखाई दिया ।
मैंने झुककर उसका मुआयना किया तो पाया कि वह एक नन्हा-सा हीरा था ।
हीरा !
तुरंत मेरा ध्यान मदान की बीवी के टॉप्स की ओर गया । मैंने हीरा उठाकर जेब के हवाले किया ।
टायरों के निशान मिटाने के चक्कर में मैं झुका हुआ न होता और मेरी निगाह पहले से ही जमीन पर न होती तो वो हीरा शायद ही मुझे दिखाई दे पाता ।
मैंने जल्दी-जल्दी टायरों के बाकी निशान मिटाए ।
तब तक ग्यारह बज चुके थे लेकिन सुजाता मेहरा के कदम वहां नहीं पड़े थे ।
मैंने उसका थोड़ी देर और इन्तजार करने का फैसला किया । वक्तगुजारी के लिए मैंने सारी इमारत के हर कोने खुदरे का चक्कर लगाया ।
कहीं कोई असाधारण बात मुझे दिखाई न दी ।
मैं वापस स्टडी में पहुंचा ।
वहां मैंने देखा कि एक चाबियों का गुच्छा मेज के दराजों के ताले में लगी एक चाबी सहारे लटक रहा था । जाहिर था कि अगर मालिक मर न गया होता तो दराजों को मजबूती से ताला लगा होता और चाबी मालिक के अधिकार में होती ।
फिंगर प्रिंट्स का खास ध्यान रखते हुए मैंने बारी-बारी मेज के तीनों दराज खोले ।
सबसे नीचे के दराज में मुझे एक वीडियो कैसेट दिखाई दिया ।
मैं सोचने लगा ।
पिछले बैडरूम में जहां कि टीवी और वीडियो था, मैंने कम से कम सौ विडियो कैसेट एक शैल्फ में बड़े करीने से सजे देखे थे ।
तो फिर वो एक कैसेट मेज की दराज मे क्यों !
मैंने कैसेट को अपने अधिकार में किया और पिछले बैडरूम में पहुंचा । मैंने टीवी और वीडियो का स्विच ऑन किया, कैसट को वीडियो में लगाया, उसे थोड़ा रीवाइंड किया और ऑन का स्विच दबा दिया ।
स्क्रीन पर अनिद्य सुन्दरी का अक्स उभरा ।
उसके जिस्म पर कपड़े की एक धज्जी भी नहीं थी ।
लड़की बहुत जवान थी और यौवन की दौलत से मालामाल थी । उसकी आंखों में एक वहशी चमक थी, चेहरे पर अजीब-सी तृप्ति के भाव थे और उसे अपनी नग्नता से कोई एतराज नहीं मालूम होता था ।
फिर स्क्रीन पर उसके करीब सूट बूट से लैस एक व्यक्ति प्रकट हुआ ।
मैंने उसे तुरंत पहचाना ।
न पहचानने का कोई मतलब ही नहीं था आखिर वो मेरा हमशक्ल था ।
वो मकतूल शशिकान्त था ।
उसने नंगी लड़की को अपने आगोश में ले लिया ।
मैंने वीडियो ऑफ करके कैसेट निकाल लिया । मुझे मजा तो बहुत आ रहा था फिल्म देखकर लेकिन उस पर और बरबाद करने के लिए उस घड़ी मेरे पास वक्त नहीं था ।
तब तक सवा ग्यारह वज गए थे और सुजाता मेहरा का कहीं पता नहीं था । अब वहां और ठहरना बेमानी था । बेमानी और खतरनाक भी ।
मैने बिजली का स्विच ऑफ किया और वापस स्टडी में पहुंचा । वहां मेज पर मेंने एक इकलौती चाबी पड़ी देखी थी। उस चाबी को वहां से उठाकर मैंने कोठी के मुख्यद्वार के ताले में ट्राई किया तो पाया कि चाबी उसी ताले की थी ।
वो ताला स्प्रिंग लॉक था जो खोलना चाबी से पड़ता था लेकिन जो पल्ले के चौखट के साथ लगते ही खुद ही बंद हो जाता था । मैंने वहां से निकलकर दरवाजा बन्द किया ड्राइव-वे को पार करके बाहर का फाटक भी बंद किया और वहां से रुखसत हो गया ।
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