मिथ्या या सच?

हर गुज़रते पल के साथ ऋचा की झुंझलाहट बढ़ती ही जा रही थी। वो 'टेक्नोपॉइन्ट' नामक कंप्यूटर सर्विसिंग सेंटर में पिछले एक घंटे से बैठी हुई थी और वहाँ रिसेप्शन पर बैठा आदमी, उसे बड़ी बेशर्मी से घूरे जा रहा था। अब तो उसने अपनी बेसुरी आवाज़ में, शृंगार रस में डूबा कोई राग अलापना भी शुरू कर दिया था। ऋचा का मन हुआ कि वो वहाँ से भाग खड़ी हो मगर वो ऐसा कर नहीं सकती थी क्योंकि अंदर उसके लेपटॉप की सर्विसिंग चल रही थी।

काफी देर तक उसके धैर्य की कठिन परीक्षा लेने के बाद, आखिरकार, ईश्वर ने उस पर अपनी दया-दृष्टि ड़ाल ही दी और अंदर से एक आदमी उसका लेपटॉप हाथ में लिए बाहर आ गया। अपने मालिक को आता देख, रिसेप्शन पर बैठे आदमी ने गिरगिट से भी ज़्यादा तेज़ी से अपना रंग बदला और एकदम शांत और सुशील बनकर अपना काम करने लगा। उसे देखते ही, ऋचा की जान में जान आ गयी और वो दौड़ते हुए उसके पास चली गयी।

“आपका लेपटॉप तो बिलकुल ठीक है, मैडम।” कहते हुए उस आदमी ने लेपटॉप ऋचा की ओर बढ़ा दिया।

“ऐसा कैसे हो सकता है, भैया?” ऋचा को बड़ी हैरानी हुई, “आपने ठीक से जाँच तो की है, न? मुझे लगता है, ज़रूर कीबोर्ड में कोई खराबी है। तभी तो कुछ शब्द गलत टाइप हो जाते हैं।”

“जी नहीं, मैडम।” वो आदमी पूरे आत्मविश्वास के साथ बोला, “मैंने पूरी जाँच-पड़ताल की है। कहीं कोई खराबी नहीं है।”

“तो फिर कल रात को...?” ऋचा अपने आप से बड़बड़ायी।

“हमारे लायक कोई और सेवा हो तो ज़रूर बताइये।”

“जी नहीं,” ऋचा ने जल्दी से लेपटॉप बैग में डाला, “शुक्रिया।”

अपने बैग को कंधे पर ड़ाल, सोच में डूबी हुई ऋचा, शोरूम से बाहर निकली और बस-स्टॉप पर आकर खड़ी हो गयी। वो कल रात की घटना के बारे में सोच ही रही थी कि एक कार उसके सामने आकर रुक गयी। उस कार से एक महिला उतरी और बड़े प्यार से मुस्कुराते हुए ऋचा के पास आयी। उस महिला के पीछे-पीछे, कार से कुछ बच्चे भी उतरे और ऋचा को चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए।

“तुम ऋचा हो, न?” उस महिला ने बड़े प्यार से पूछा।

“हाँ,” ऋचा ने अपने आस-पास जमी भीड़ को अचरज से देखते हुए कहा।

“तुम, आराध्या की सहेली हो न?” उस महिला के चेहरे पर खींची मुस्कान की रेखा का विस्तार और बढ़ गया, “उसके साथ दिल्ली में काम करती हो, न?”

“हाँ, मगर आप कैसे जानती हैं?” ऋचा ने उन सबको बारी-बारी से देखते हुए पूछा, जैसे उन्हें पहचानने की कोशिश कर रही हो।

“आराध्या मेरे दूर के रिश्ते के चाचा की बेटी है।” उस महिला ने राज़ पर से पर्दा उठाते हुए कहा, “उसने मुझे बताया था कि तुम यहाँ कोई उपन्यास लिखने के लिए आने वाली हो।”

“माफ़ कीजिये, मगर मैंने आपको पहचाना नहीं।” रहस्य के कुछ भाग, ऋचा से अब भी पर्दा किए बैठे थे।

“मेरा नाम मंजू है।” अगले पल, रहस्य का सम्पूर्ण अनावरण संपन्न हो ही गया, “मैं तुम्हारे पड़ोस में रहती हूँ। मैं पास के स्कूल में टीचर हूँ और ये मेरे बच्चे हैं।”

“अच्छा! हाँ,” बच्चों की पलटन को देखकर ऋचा बोली, “मुझे समझ जाना चाहिए था।”

“क्या?” मंजू की समझ में कुछ न आया तो उसने पूछ डाला।

“वो, मेरे घर जो लड़की काम करती है न, राधा,” ऋचा ने समझाया, “उसने मुझे आपके बारे में बताया... आह!” इससे पहले कि ऋचा अपनी बात ख़त्म कर पाती, एक लड़की ने उसके बाल खींच लिए।

“अरे, ये क्या कर रही हो?” मंजू ने अपनी बेटी से पूछा।

“देख रही थी कि आंटी के बाल असली हैं या उस हीरोइन माही की तरह विग लगा रखा है।”

“चल, शैतान कहीं की!” मंजू ने बेटी को डाँटने की बजाय प्यार से पुचकारा।

“आंटी, आपका कोई बॉयफ्रेंड है क्या?” मंजू के सबसे बड़े बेटे ने पूछा।

“नहीं तो,” कार्तिक का चेहरा अचानक से आँखों के सामने आया तो सकपकाती हुई ऋचा ने सबसे नज़रें चुराते हुए कहा।

“झूठ मत बोलो, आंटी,” अब ऋचा पर वार करने की बारी मंजू के मँझले बेटे की थी, “आप इतनी खूबसूरत हैं, ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आपका बॉयफ्रेंड न हो।”

ये सुनकर ऋचा के पसीने छूट गए। उसने सोचा इन शैतानों से तो वो कंप्यूटर सर्विसिंग सेंटर का रिसेप्शनिस्ट हैवान ही भला था।

“देखा ना तुमने,” मंजू ने मोर्चा अपने हाथ में ले लिया, “आज-कल की फिल्में बच्चों पर कितना बुरा असर डालती हैं। सब इन फिल्म निर्माताओं की गलती है। कैसी ऊट-पटांग फिल्में बना देते हैं।”

“गलती चाहे जिसकी भी हो,” ऋचा ने मन-ही-मन सोचा, “मंजू दीदी की परवरिश की और उनके बच्चों की कतई नहीं हो सकती।”

“तुम ही बताओ, ऋचा,” ऋचा को चुप खड़े देखकर मंजू बोली, “क्या, वो लोग ‘राजा हरिश्चंद्र’ जैसी फिल्में नहीं बना सकते?”

इससे पहले कि ऋचा कुछ बोल पाती, मंजू के तीसरे साहबज़ादे ने अपनी माँ के संशय का निवारण किया, “वो बनाएंगे भी तो देखेगा कौन?”

ऋचा का मन तो हुआ कि वो उस लड़के को उदण्ड कहे पर उसकी बात में सच्चाई भी थी, इसलिए ऋचा ने चुप रहना ही ठीक समझा। तभी एक छोटा-सा हाथ आगे बढ़ा और ऋचा के बैग में कुछ टटोलने लगा।

ऋचा ने देखा कि मंजू की सबसे छोटी बेटी, हाथ घुमा-घुमाकर, ऋचा के बैग में दफन किसी खज़ाने की खोज कर रही थी।

“तुम क्या ढूँढ रही हो, बेबी?” ऋचा ने पूछा।

“मुझे चॉकलेट चाहिए।” वो बच्ची बोली।

“चॉकलेट कार में रखी है।” मंजू ने आदेश दिया, “जाकर ले लो।”

सुनते ही वानर-सेना ने कार की ओर कूच कर दिया और ऋचा ने चैन की साँस ली।

“अच्छा ये बताओ, ऋचा,” बच्चों के जाने के बाद मंजू ने पूछा, “तुम किस विषय पर उपन्यास लिख रही हो?”

“जी, अभी तो बस शुरुवात ही की है।” ऋचा ज़रा शरमाते हुए बोली, “सोच रही हूँ, परिवार और बच्चों पर कुछ लिखूँ।”

“अगर ऐसा है तो हमारे साथ स्कूल क्यों नहीं आती?” मंजू ख़ुशी से चहक उठी, “वहाँ तुम्हें बच्चों के साथ थोड़ा वक़्त बिताने का मौका मिलेगा। तुम उन्हें अच्छी तरह से समझ सकोगी, तब ही तो उनके बारे में लिख सकोगी।”

“जी?” ऋचा सोच में पड़ गयी।

“सोच क्या रही हो?” मंजू ने ऋचा का हाथ पकड़ा और खींचते हुए कार तक ले गयी, “आज बच्चों के स्कूल में ऐनुअल डे का फंक्शन है। तुम भी चलो हमारे साथ।”

मंजू अपने बच्चों की तारीफों के पुल बाँधती हुई कार चला रही थी। बगल में बैठी ऋचा ने, अपने पीछे की सीट पर, एक-दूसरे से लड़ रहे बच्चों को ध्यान से देखा। जो बच्चा कल रात उसके घर आया था, वो इनमें से तो कोई नहीं था।

“दीदी,” ऋचा की नज़र बच्चों से हटकर पास बैठी मंजू की तरफ पलट गयी, “आपका एक बेटा और है, न?”

“हाँ, है तो,” मंजू ने सड़क पर ट्रैफिक देखकर, कार के हॉर्न पर ज़ोर से हाथ दे मारा।

“वो कहाँ है?”

“वो स्कूल नहीं जा सकता।”

“क्यों?” ऋचा चौंक गयी।

“वो बहुत छोटा है, न। मंजू मुस्कुरायी, “अभी पिछले महीने ही दो साल का हुआ है। उसे मैं घर पर उसकी आया के पास छोड़कर आयीं हूँ।”

“तब तो, वो नहीं हो सकता।” ऋचा खुद से बोली, “मैंने जिसे देखा था, वो तो पाँच-छह साल का है।”

“क्या?” मंजू ने ऋचा को कुछ बड़बड़ाते हुए देखकर पूछा।

“जी, कुछ नहीं।” ऋचा ने फौरन सर हिलाते हुए कहा।

मंजू ने अपने बच्चों के स्वभाव और गुणों की बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ़ करनी फिर से शुरू कर दी। ऋचा तो पहले ही समझ गयी थी कि मंजू की कथनी और बच्चों की करनी में ज़मीन-आसमान का फर्क था। इसलिए, उसे मंजू की बातों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी। उसका ध्यान तो उस बच्चे पर था, जिसे उसने कल रात को अपने बरामदे में देखा था।

‘तो फिर, वो कौन था?’ ऋचा सारे रास्ते बस यही सोचती रही।

“लो आ गया अपना स्कूल।”

मंजू की आवाज़, ऋचा के कानों में पड़ी तो वो अपने ख्यालों की दुनिया से बाहर आयी।

“अरे, आपका स्कूल तो बहुत बड़ा है।” स्कूल की विशाल बिल्डिंग को देखकर ऋचा ने कहा।

“आओ, मैं तुम्हें स्कूल में सबसे मिलाती हूँ।”

मंजू ने अपनी कार को एक बड़े से बरगद के पेड़ की छाव में लगा दिया और ऋचा को लेकर स्कूल के अंदर चली गयी। उसके बच्चों की फ़ौज तो अपनी-अपनी क्लास की ओर पहले से ही प्रस्थान कर चुकी थी। शाम को उन्हें एनुअल डे के कार्यक्रमों में भाग लेना था, जिसकी तैयारी बड़े ज़ोर-शोर से चल रही थी।

मंजू ने स्कूल के सभी टीचरों से ऋचा का परिचय, एक विख्यात लेखिका के रूप में खूब बढ़ा-चढ़ा कर किया। अतिशयोक्ति का प्रयोग किए बिना कोई बात कहना तो मंजू की फितरत में ही नहीं था। मंजू ने तो ये भविष्यवाणी तक कर दी कि ऋचा जो उपन्यास लिखने वाली है, उसे ही अगले वर्ष का सर्वोच्च पुरस्कार मिलने वाला है। ऋचा को उसकी बातें सुनकर शर्म आ रही थी, पर मंजू थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। स्कूल की आया से लेकर प्रिंसिपल तक ऋचा का परिचय कराने के बाद, वो उसे स्कूल घुमाने के लिए ले गयी।

स्टाफ-रूम से लेकर जो गलियारा प्रिंसिपल के ऑफिस तक जाता था, उसके दोनों तरफ कुछ बच्चों की तस्वीरें लगी हुईं थी। ऋचा के पूछने पर मंजू ने बताया कि ये वो छात्र हैं, जिन्होंने स्कूल का नाम रोशन किया है। किसी ने दसवीं कक्षा की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है, तो किसी ने कोई स्कॉलरशिप प्राप्त की है। किसी ने राष्ट्रीय स्तर पर बैडमिंटन में स्वर्ण पदक जीता है, तो किसी ने अंतर्राष्ट्रीय चित्र-रचना प्रतियोगिता जीती है। अपने छात्रों की उपलब्धियों का बखान करते हुए मंजू का सीना गर्व से फूल गया और ये देखकर ऋचा को बड़ी ख़ुशी हुई। लेकिन अंत में मंजू ने ऐसी बात कह दी जिसे सुनकर ऋचा के पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी।

“तुम देख लेना, ऋचा,” मंजू ने चुनौती भरे स्वर में कहा, “एक दिन, यहाँ मेरे बच्चों की भी तस्वीरें लगी होंगी।”

“हाँ दीदी, बिलकुल।” ऋचा ने मंजू के सुर में सुर मिलाया हालाँकि ऐसा होने की कोई सम्भावना दूर-दूर तक उसे नज़र नहीं आ रही थी।

उन तस्वीरों से कुछ हटकर, गलियारे की बायीं ओर की दीवार पर भी कुछ बच्चों के चित्र लगे हुए थे। उन चित्रों के नीचे एक मेज़ रखी हुई थी, जिस पर एक दिया जल रहा था।

“इन बच्चों की क्या उपलब्धियाँ हैं, मंजू दीदी?” ऋचा ने उन तस्वीरों की तरफ बढ़ते हुए पूछा।

“ये हमारे विद्यालय के वो छात्र हैं,” बातूनी मंजू का स्वर काफी शांत और गंभीर था, “जिनका देहांत हो चुका है।”

“क्या?” ऋचा को ये जानकर बड़ा सदमा लगा कि इतनी छोटी उम्र में ही ये बच्चें इस दुनिया से विदा हो गए।

ऋचा को उन बच्चों से बड़ी सहानुभूति हुई। वो उन तस्वीरों के पास जाकर खड़ी हो गयी और अपनी आँखें बंद कर, उनकी आत्मा की शांति के लिए मौन प्रार्थना करने लगी।

कुछ देर बाद, उसने आँखें खोली और वापस जाने को मुड़ी। उसी क्षण, ऋचा को ऐसा लगा मानो उसने उन तस्वीरों के बीच कोई ऐसा चेहरा देखा है जो बहुत जाना-पहचाना है।

ऋचा बड़े आश्चर्य से उसी तस्वीर को देखती रही। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। कुछ ही पलों में उसके माथे से पसीने की धाराएं बहने लगीं और मुरझाये हुए फूल की तरह उसके चेहरे का रंग पीला पड़ गया।

“क्या हुआ, ऋचा?” ऋचा के चेहरे का रंग उतरते देख, मंजू परेशान हो गयी।

“दीदी!” ऋचा की साँस फूल गयी थी। उसने हाँफते हुए कहा, “ये बच्चा...” ऋचा ने अपनी कांपती हुई उँगली एक तस्वीर की ओर बढ़ा दी। मंजू ने पास आकर उस तस्वीर को देखा।

“इस बच्चे की मौत पिछले साल हुई थी।” कहकर मंजू ने नज़रें झुका ली।

“नहीं!” ऋचा ने अपना सर अपने हाथों में थाम लिया। उसे चक्कर आ रहे थे, “ऐसा नहीं हो सकता, दीदी। मैंने इस लड़के को कल रात अपने बरामदे में देखा था।”

“ये तुम क्या कह रही हो, ऋचा?” मंजू ने ऋचा के कंधे पर हाथ रखकर उसे शांत किया, “तुम्हें कोई ग़लतफ़हमी हुई है। क्योंकि, जो तुम कह रही हो वो तो संभव ही नहीं है।”

“नहीं दीदी, ये वही है।” ऋचा ने ज़ोर देकर कहा।

“ये भला कल रात तुम्हारे घर कैसे आ सकता है?” मंजू हैरान थी, “चिराग तो साल-भर पहले मर चुका है।”

“क्या?” ऋचा के दिल की धड़कने एकदम से तेज़ हो गयी, “इसका नाम चिराग है?”

ऋचा को वो नाम याद आया जो कल रात उसके लैपटॉप पर बार-बार, अपने आप ही टाइप हो रहा था।

“हाँ,” मंजू ने प्यार से ऋचा के सर पर हाथ फेरा, “और ये अपने परिवार के साथ पहले उसी घर में रहता था, जहाँ अब तुम रह रही हो।”

“क्या?” ऋचा को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके आस-पास कोई अलौकिक शक्ति धीरे-धीरे अपना जाल बुन रही हो। ऋचा को चिराग की वो दो मासूम आँखें नज़र आयी, जो शायद उससे कुछ कहना चाहती थी। मगर क्या? ऋचा समझ नहीं पा रही थी।

* * *

ऋचा अपने लैपटॉप के सामने न जाने कितनी देर से बुत बनी बैठी हुई थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या लिखे? और वो लिखती भी तो कैसे, उसके लिए तो ये विश्वास कर पाना ही कठिन था कि उसकी कथा का नायक जीवित ही नहीं है।

“लेकिन अगर ऐसा है, तो मैंने कल रात जो अपनी आँखों से देखा वो क्या था?” बीती रात की बात याद आते ही वो सिहर उठी। उसने अपना लैपटॉप बंद कर दिया।

रात के दो बज चुके थे। राधा रसोईघर में सो रही थी। ऋचा उठी और बिस्तर पर जाकर लेट गयी। आज उसके लिए कुछ भी लिख पाना मुश्किल था। लिखना तो दूर की बात है, उसका ध्यान तो किसी भी चीज़ में नहीं लग रहा था। आज शाम को जब वो, स्कूल में मंजू के साथ बैठकर बच्चों का कार्यक्रम देख रही थी, तब भी उसका ध्यान चिराग पर ही था। नींद तो उसे आ नहीं रही थी इसलिए वो बार-बार बस करवट ही बदलती रही।

‘आखिर, क्या है चिराग का सच?’ ऋचा सोच में पड़ गयी, ‘क्या मुझे कोई भ्रम हुआ था? नहीं... कोई और मेरी बात का विश्वास करें न करें, मैं कैसे मान लूँ कि वो सच नहीं था? ये जो मुझे भ्रम के माया-जाल जैसा लग रहा है, इसी में कहीं सच भी छुपा हुआ है। सच का पता लगाने के लिए मुझे चिराग के बारे में पूरी जानकारी हासिल करनी होगी। और सबसे पहले ये जानना होगा कि चिराग की मौत कैसे हुई?’

सोचते-सोचते ऋचा की पलकें भारी हो गयी और उसे पता ही न चला कि उसे कब नींद आ गयी। अपनी ही दुनिया में खोयी ऋचा ने, सोने से पहले, अपने कमरे की खिड़की खुली ही छोड़ दी थी। बाहर आसमान में चाँद का केवल एक छोटा-सा टुकड़ा ही नज़र आ रहा था, बाकी को तो बादलों ने अपने आँचल से ढँक रखा था।

एक तेज़ हवा का झोंका आया और ऋचा के कमरे की खिड़कियाँ खड़खड़ाने लगी। उस आवाज़ को सुनकर ऋचा की नींद टूटी। उसने आँखें खोली तो देखा कि बाहर तेज़ आँधी चल रही थी। ऋचा जल्दी से उठी और खिड़कियाँ बंद करने लगी। तभी उसकी नज़र बरामदे पर पड़ी। उसे ऐसा लगा कि बरामदे के अँधेरे कोने से कोई उसे देख रहा है। ऋचा भागती हुई गयी और उसने दरवाज़ा खोल दिया। उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाकर ध्यान से देखा मगर बरामदे में कहीं कोई हलचल नहीं थी। घना अँधेरा होने की वजह से, दूर कोने में ऋचा सिर्फ एक धुँधली सी परछाई ही देख पा रही थी, जैसे अँधेरे की ओट में कोई साँसें रोक कर खड़ा हो।

“कौन है वहाँ?” ऋचा की साँसें फूल गई थी पर फिर भी उसने हिम्मत करके पूछा, “सुनाई नहीं देता, जवाब दो?”

तभी चाँद बादलों के पीछे से बाहर आ गया और उसकी किरणों ने उस अँधेरे कोने को रोशन कर दिया। उस रोशनी में ऋचा ने कुछ ऐसा देखा कि उसके रोंगटे खड़े हो गए। वो लड़का जिसे ऋचा ने कल रात को देखा था, वो बरामदे में खड़ा ऋचा की आँखों में आँखें ड़ालकर देख रहा था। जैसे ही ऋचा की नज़र उसके चेहरे से हटकर उसकी छाती पर पड़ी, ऋचा का दिल मानो रुक-सा गया। उसकी छाती पर ऐसा ज़ख्म था जैसे उसे गोली लगी हो और उससे खून की धारा बह रही थी। अगले ही पल, चाँद फिर बादलों के पीछे छुप गया और बरामदा अँधेरे में डूब गया। स्तब्ध खड़ी ऋचा को अचानक से होश आया और उसने अपने चारों तरफ देखा। मगर, वो लड़का कहीं पर भी नहीं था।

“चिराग! कहाँ हो तुम?” ऋचा ज़ोर से चिल्लाई और उसकी आवाज़ रात की ख़ामोशी में गूंज उठी।

“दीदी!”

पीछे से किसी की आवाज़ सुनकर ऋचा ठिठक गयी। उसने धीरे से मुड़कर देखा तो घबराई हुई राधा को अपने पीछे खड़ा पाया। ऋचा के चीखने की आवाज़ सुनकर, राधा किचन से दौड़ी चली आयी थी।

“इतनी रात को बाहर क्या कर रही हो, दीदी?”

ऋचा ने कुछ पल पहले जो भयानक दृश्य देखा था, वो अब भी उसकी आँखों के सामने घूम रहा था। वो इतनी डर गयी थी कि राधा के सवाल का जवाब नहीं दे पा रही थी। राधा ने ऋचा को शॉल ओढ़ाई और उसे कमरे के अंदर ले आयी। उसे पलंग पर बिठाया और पीने के लिए पानी दिया। पानी पीने के बाद, ऋचा थोड़ा बेहतर महसूस करने लगी थी। उसके चेहरे का रंग भी वापस आ गया था और उसका हाँफना भी बंद हो गया था। ऋचा ने एक ठंडी सांस ली और पानी का गिलास राधा के हाथ में दे दिया।

“आपको क्या हो गया था, दीदी?” राधा के चेहरे पर भी अब राहत साफ़ नज़र आ रही थी।

ऋचा के लिए अब, अपने साथ हो रहे अजीब से अनुभवों के बारे में किसी को बताना बेहद ज़रूरी हो गया था। अपने चुलबुले स्वभाव के कारण राधा ने दो ही दिनों में ऋचा का दिल जीत लिया था। दोनों एक-दूसरे के अच्छे दोस्त बन गए थे। इसलिए, ऋचा ने राधा को सब कुछ बता दिया।

“अरे, दीदी!” ऋचा की बात ध्यान से सुनने के बाद राधा मुस्कुराते हुए बोली, “तुम हर समय बस अपने उपन्यास की कहानी के बारे में ही सोचती रहती हो न, इसीलिए तुम सपने भी वैसे ही देखती हो।”

“लेकिन, राधा...”

“अब सो जाओ, दीदी।” राधा ने ऋचा को कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया, “तुम अब भी बहुत डरी हुई हो, इसलिए मैं आज रात तुम्हारे कमरे में सो जाती हूँ।”

राधा रसोईघर से अपनी चटाई ले आयी और उसे फर्श पर बिछाकर सो गयी।

“वो सपना नहीं था राधा, सच था।” कहकर ऋचा ने अपनी आँखें बंद कर ली।

* * *

रविवार की छुट्टी के दिन चहल-पहल कुछ ज़्यादा ही होती है। खासकर, जब मंजू और उसकी चिल्लर पार्टी घर पर विराजमान हो, तो फिर कहना ही क्या? अपने घर के बगीचे में मंजू मैडम बैठी चाय की चुस्कियों का मज़ा ले रही थी। पास ही उसके बच्चे खेल रहे थे।

अजी खेल क्या रहे थे, ऐसा लग रहा था कि उनके बीच तो कोई घमासान महायुद्ध चल रहा हो। कभी तो वे एक-दूसरे को बगीचे की मिट्टी और घास-फूस फेंककर आहत करते, तो कभी, एक-दूसरे पर लात और घूसों से आक्रमण करते। बीच-बीच में वे शत्रु-पक्ष से रक्षा के लिए अपनी माँ को भी आवाज़ देते थे। पर, मंजू के कानों में उनकी आवाज़ पड़ती ही नहीं थी। वो तो अपने मुँह, मिया मिट्टू बनने में व्यस्त थी। आज का उसका विषय था अपने पति, मेजर विराट वर्मा की वीरता का बखान करना। फ़ौज में चाहे कितने ही सैनिक क्यों न हो, संकट की घड़ी में बस एक मेजर वर्मा ही थे जो किसी फिल्म के हीरो की तरह सारे दुश्मनों को अकेले ही मार गिराते थे। और सिर्फ हीरो ही नहीं, मंजू का तो ये भी कहना था कि उनमें तो सुपरहीरो के गुण भी मौजूद हैं। जैसे कि वे ऊँची पहाड़ियों से छलांग लगाकर बिना किसी क्षति के ज़मीन पर कूद पड़ते थे, भारी-भरकम चट्टानों को यूँ उठा लेते थे जैसे कोई लॉलीपॉप उठा लेता है और निहत्थे ही, दुश्मनों के कैंप में पहुँचकर उन्हें धूल चटा जाते थे। ऋचा उनके सामने रखी कुर्सी पर गुमसुम-सी बैठी थी। उसे मंजू की कोई बात सुनाई ही नहीं दे रही थी क्योंकि उसके मन में तो बस एक सवाल घर कर गया था।

“चिराग को गोली किसने मारी?” ऋचा ने मंजू की बात को अनसुना कर, वो सवाल पूछा जिसका जवाब जाने बिना उसे शांति मिलने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

“क्या?” मंजू दंग रह गयी, “मगर,ये बात तुम्हें कैसे पता चली?”

“बस, पता है,” ऋचा अब भी ख्यालों में खोयी हुई थी, “चिराग को गोली कैसे लगी?”

“किसने मारी ये तो नहीं पता।” मंजू ने चाय की प्याली मेज़ पर रखते हुए कहा, “हाँ, ये ज़रूर बता सकती हूँ कि उसे गोली कैसे लगी।”

“क्या मतलब?” ऋचा ने फौरन नज़रें उठाकर मंजू की आँखों में देखा।

“उसकी लाश उन जंगलों में मिली थी।” मंजू ने अपना हाथ उठाकर कुछ दूर घने पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए कहा, “पुलिस का कहना है कि कुछ लोग वहाँ शिकार करने आये थे। चिराग वहाँ खेलने चला गया था और उन्होंने गलती से उसे कोई जानवर समझकर गोली चला दी।”

“मगर, वहाँ वे किस जानवर का शिकार करने आये थे?” ऋचा उन पेड़ों के झुरमुट को देखकर बोली, “मुझे नहीं लगता वहाँ चीते या हिरन रहते होंगे।”

“अरे, आज-कल तो लोग बंदरों को भी नहीं छोड़ते।”

“फिर, क्या वो लोग गिरफ्तार हुए?”

“नहीं, वो तो उसी वक़्त वहाँ से भाग खड़े हुए। पुलिस ने बहुत छान-बीन की, पर कुछ पता न चला।”

“तब समय क्या हुआ था?”

“पुलिस के मुताबिक दिन के दो बजे होंगे।”

“आप लोगों ने कोई आवाज़ नहीं सुनी, दीदी?”

“मैं और बच्चे उस समय स्कूल में थे और वर्मा जी दफ्तर गये हुए थे।”

“तो फिर, चिराग उस दिन स्कूल क्यों नहीं गया था?” ऋचा ने अपनी भौंहें सिकोड़ी और मंजू को देखा, “आप तो उसकी क्लास टीचर हैं। आपको तो पता ही होगा।”

“उस दिन...शायद...उसकी तबीयत खराब थी।” मंजू ने अपनी याददाश्त पर ज़ोर देते हुए कहा, “शायद उसे बुखार था... नहीं... शायद उसके पेट में दर्द था।”

“एक बीमार बच्चा जंगल में कैसे पहुँच गया?” ऋचा जो सुन रही थी, उसपर विश्वास करना कठिन लग रहा था, “उसके माँ-बाप कहाँ थे?”

“वो दोनों उस वक़्त घर पर नहीं थे।”

“अपने बीमार बेटे को घर पर अकेला छोड़कर, वे कहाँ गए थे?”

“शायद, डॉक्टर को लेने गए होंगे।” मंजू खीज उठी, “मुझे क्या पता? मैं तो यहाँ थी ही नहीं। अब ये गड़े मुर्दे उखाड़कर क्या होगा? तुम क्यों ऐसे सवाल-जवाब कर रही हो? इतने सवाल तो उस हादसे के समय पुलिस ने भी नहीं पूछे थे। अब तुम्हें ये सब जानने की क्या ज़रूरत आ पड़ी?”

“वो...” ऋचा ने सर झुका लिया। वो मंजू को कैसे बताती कि उस पर क्या बीत रही है।

“अब, वो सब छोड़ो।” मंजू ने बड़े जोश के साथ कहा, “आज मेरी एक सहेली के घर, उसके जन्मदिन की पार्टी है और तुम्हें भी मेरे साथ चलना होगा। बड़े रईस लोग हैं। इसलिए, पार्टी भी बड़ी शानदार होगी। बड़ा मज़ा आएगा।”

“नहीं, दीदी।” ऋचा ने बड़े उदास स्वर में कहा, “मेरा बिलकुल मन नहीं हैं।”

“अच्छा, तो मैं वर्मा जी को साथ ले जाती हूँ।” मंजू ने थोड़ी देर सोचकर कहा।

“हाँ, ये ठीक रहेगा।” ऋचा ने सर हिलाकर हामी भरी।

“लेकिन, एक अड़चन है।” मंजू के माथे पर शिकन थी, “तब, बच्चे घर पर अकेले रह जायेंगे। एक काम करते हैं, मैं उन्हें तुम्हारे पास छोड़ जाती हूँ।”

“नहीं, दीदी!” मंजू की राक्षस-सेना को साथ रखने की बात सोचते ही, ऋचा के प्राण सूख गए, “मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ।”

“ठीक है,” मंजू मुस्कुरायी, “तो फिर बच्चों को भी साथ ले चलते हैं। उन्हें संभालना वर्मा जी के बस की बात नहीं है।”

ये जानकर की मंजू की औलादें शाम के हमसफ़र हैं, ऋचा को अपनी आँखों के आगे बस अमावस की काली रात ही नज़र आ रही थी, “दीदी!”

“क्या हुआ?”

“कुछ नहीं।” कहकर ऋचा ने मुँह लटका लिया।

* * *

“बंगले को तो दुल्हन की तरह सजा रखा है, अनाया ने।” मंजू ने अपनी कार को एक आलीशान बंगले के सामने पार्क करते हुए कहा।

“ये अनाया कौन है?” ऋचा की आँखें बंगले की चकाचौंध कर देने वाली रोशनी को निहार रही थी।

“अनाया के जन्मदिन की ही तो पार्टी है।” मंजू ने कार से एक बड़ा-सा गुलदस्ता बाहर निकालते हुए कहा, “आओ, मैं तुम्हें अनाया से मिलवाती हूँ।”

बंगले के बाहर एक बड़ा-सा लॉन था, जहाँ तरह-तरह के व्यंजनों और पकवानों के स्टॉल लगे हुए थे। मंजू के संतानो की पलटन ने कार से उतरते ही आइसक्रीम के स्टॉल पर धावा बोल दिया।

मंजू, ऋचा को बंगले के अंदर ले गयी जहाँ पार्टी पर आये मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी।

बंगले का फर्श संगमरमर का बना था और अंदर की सजावट भी संगमरमर की मूर्तियों से की गयी थी। खूबसूरती और शान-ओ-शौकत में वो बंगला, ताजमहल को टक्कर दे सकता था।

“अनाया!” मंजू ने आवाज़ दी।

“तुम आ गयी, मंजू।” बैंगनी साड़ी पहने एक औरत ने आगे बढ़कर, मंजु को गले से लगा लिया।

पास खड़ी ऋचा उस स्त्री के दिव्य-सौंदर्य को बस देखती ही रह गयी। उसके गोरे रंग, बड़ी-बड़ी खूबसूरत आँखों और हवा में लहराते रेशमी बालों से ऋचा की नज़र हटती ही न थी। अगर उसका बंगला ताजमहल के मुक़ाबले का था तो वो खुद भी किसी शहजादी से कम न थी।

“जन्मदिन बहुत-बहुत मुबारक हो।” मंजू ने अनाया से कहा और गुलदस्ता उसे दे दिया, “अरमान कहीं दिखाई नहीं दे रहे?”

“शुक्रिया,” अनाया ने वो गुलदस्ता अपनी नौकरानी को पकड़ाया और मंजू से कहा, “अरमान, बिज़नेस के सिलसिले में पेरिस गये हुए हैं।”

“ये, ऋचा है।” मंजू ने ऋचा की बाँह पकड़ते हुए अनाया से कहा, “अभी कुछ दिन पहले ही दिल्ली से आयी है। पेशे से सी. ए. है और साथ ही एक बहुत ही निपुण लेखिका भी है। हमारे बिलासपुरा के शांत-सुन्दर माहौल में, अपना पहला उपन्यास लिखने यहाँ आयी है। और ये हैं, अनाया सक्सेना, अपने यहाँ के मशहूर बिल्डर, अरमान सक्सेना की पत्नी।”

“मेनी-मेनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे, अनाया जी।” ऋचा ने अनाया से हाथ मिलाया।

“थैंक यू, ऋचा।” अनाया बड़े प्यार से मुस्कुरायी, “मुझे कहानियाँ पढ़ने का बड़ा शौक है। तुम्हारा उपन्यास भी मैं ज़रूर पढूंगी। तुम यहाँ नयी आयी हो, अगर तुम्हें किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो ज़रूर बताना। वैसे, तुम किसके यहाँ ठहरी हो? कोई दोस्त या रिश्तेदार है यहाँ तुम्हारा?”

“मैं, मंजू दीदी के पड़ोस में रहती हूँ।”

“वो, मेरे घर के आगे जो मकान हैं न,” मंजू ने अपना हाथ आगे बढ़ाकर दिशा-निर्देश दिया, “जहाँ पहले तुम रहती थी, वहीं तो ठहराया है ऋचा को।”

“आप भी उस घर में रहती थी?” ऋचा ने हैरान होकर पूछा। उसे ये जानने की जिज्ञासा हुई कि क्या अनाया को भी उस घर में ऐसे अनुभव होते थे, जैसे अब उसे हो रहे हैं।

“अरे! ये ही तो चिराग की माँ है।” मंजू ने खुलासा किया।

“क्या?” सुनकर ऋचा थोड़ी देर के लिए दंग रह गयी। पर अगले ही पल उसने अपने आप को संभाला और कहा, “आपके परिवार के साथ जो हादसा हुआ, उसका मुझे बेहद अफ़सोस है।”

ऋचा को लगा कि चिराग की याद आते ही अनाया ग़म में डूब जाएगी। पर अनाया की प्रतिक्रिया तो कुछ और ही थी। चिराग का जिक्र छिड़ते ही उसके हाथ कांपने लगे। उसके माथे से पसीने छूटने लगे और उसका सुडौल शरीर थर-थर कांपने लगा। उसकी उन हिरनी जैसी सुन्दर आँखों में ख़ौफ़ साफ़-साफ़ दिख रहा था। उसका चेहरा, बंगले में रखी संगमरमर की मूर्तियों की तरह एकदम सफ़ेद पड़ गया और उसके होंठों की कम्प-कम्पी भी साफ़ ज़ाहिर थी।

“में... रे कु...कुछ दोस्त आये हैं,” हकलाती हुई अनाया की सांसें चढ़ गयी थी, “मैं...मैं उनसे मिलकर आती हूँ। आप लोग डिनर कर लीजिये।”

इतना कहकर अनाया जल्दी से ऊपर अपने बैडरूम की ओर चल पड़ी। ऋचा को उसका ये बर्ताव बड़ा अजीब-सा लगा। जब तक अनाया आँखों से ओझल न हो गयी, ऋचा की नज़रें उसकी हर हरकत को बड़ी बारीकी से देखती रही। अपने कमरे की तरफ जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त भी अनाया के पैर कांप रहे थे। वो रेलिंग को कसकर पकडे सीढ़ियां चढ़ी और कमरे में दाखिल होते ही दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया।

“चलो, डिनर करते है।” डिनर का ख़याल आते ही मंजू की आँखें चमक उठी।

“अनाया जी को क्या हुआ?” ऋचा ने मंजू की बात को अनसुना कर के पूछा।

“बेटे की बात सोच कर दुखी हो गयी है, बेचारी।” मंजू ने सहानुभूति व्यक्त की।

मगर, ऋचा के लिए मंजू की बात को स्वीकार करना संभव नहीं था। वो जानती थी कि उसने अनाया की आँखों में जो देखा वो दुःख नहीं था। वो डर था। मगर किस बात का? ये ऋचा नहीं समझ पा रही थी।

* * *

रात के तीन बज चुके थे। ऋचा ने करवट बदली और अपने कमरे की खिड़की से बाहर फैले अनंत आकाश को देखा। जब से वो पार्टी से वापस आयी थी, उसके मन में एक संघर्ष चल रहा था। चिराग की हत्या के सिलसिले में उसे अब तक जो भी जानकारी मिली थी, उससे उसके दिमाग में कई सवाल खड़े हो गए थे। जिस दिन चिराग की हत्या हुई, उस दिन अगर वो बीमार था तो जंगल में क्या कर रहा था? जिस जंगल में शिकार करने लायक कोई जानवर है ही नहीं, वहाँ भला शिकारी क्या करने आये थे? और अनाया...वो चिराग का ज़िक्र आते ही डर क्यूँ गयी? किस बात का डर है, उसे? क्या चिराग के साथ जो हुआ वो केवल एक हादसा ही था या फिर कुछ और? क्या सच केवल वही है जो आँखों को नज़र आता है या फिर अपने अंदर कई अनखुली परतें भी छुपाये बैठा है?

“चाहे जो भी हो, मुझे सच्चाई का पता लगाना ही होगा।” ऋचा बिस्तर से उठकर खड़ी हो गयी, “मगर कैसे? सब इसे एक हादसा समझ कर भुला देना चाहतें है। बस एक मैं ही हूँ, जो इसे स्वीकार नहीं कर पा रही हूँ।”

ऋचा खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गयी और बरामदे को देखने लगी। उसे चिराग की वो दो मासूम आँखें नज़र आयी जिनमें याचना का भाव था। वो उससे शायद न्याय की गुहार लगा रहा था। और फिर उसे याद आया, चिराग की छाती पर लगी गोली का निशान और उससे बहता खून। वो खौफनाक नज़ारा याद आते ही ऋचा ने अपनी आँखें कस कर बंद कर ली। लेकिन तभी, उसके मन में एक विचार आया।

“मंजू दीदी ने कहा था पुलिस ने इस मामले की छान-बीन की थी।” ऋचा ने झट से आँखें खोल ली, “मैं कल पुलिस स्टेशन जाकर देखती हूँ। शायद, वहाँ से कुछ जानकारी मिल जाए।”

ऋचा को अपने चारों और फैले अँधेरे के जाल के बीच कहीं एक आशा की किरण टिमटिमाती हुई नज़र आयी। ऋचा का मन अब शांत हो चला था। बहुत कोशिश करने पर भी जब उसे नींद ना आयी तो उसने अपना लैपटॉप निकाला और चिराग की कहानी लिखने लगी।