दस मिनट में ही सुनील हर्नबी रोड के मोड़ पर पहुंच गया
उसने एक सिगरेट सुलगाली और फुटपाथ पर लगी लोगे की रेलिंग पर कोहनियां टेककर खड़ा हो गया ।
एकाएक उसे अपनी मूर्खता का आभास हुआ । इतनी देर से यह तो उसने सोचा ही नहीं था कि वह जयन्ती को पहचानेगा कैसे ?
उसने आसपास की इमारतों पर दृष्टि दौड़ाई । एक रेस्टोरेन्ट पर उसे डाक तार विभाग का नीला बोर्ड लगा दिखाई दिया जिस पर लिखा था - आप यहां से स्थानीय टैलीफोन कर सकते हैं ।
सुनील रेस्टोरेन्ट में घुस गया ।
टैलीफोन का बक्स गेट की बगल में लगा हुआ था । उसने अपने फ्लैट का नम्बर डायल कर दिया ।
“हल्लो” - सुनील बोला - “मैं सुनील बोल रहा हूं । तुम जितनी जल्दी हो सके, हर्नबी रोड के मोड़ पर पहुंच जाओ ।”
“बात क्या है ?”
“वहां जयन्ती आने वाली है ।” - सुनील बोला और फौरन ही उसने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया ।
वह रेस्टोरेन्ट से बाहर निकल आया और पूर्ववत् अपने स्थान पर आ खड़ा हुआ ।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद बन्दर एक टैक्सी में से उतरा । उस समय उसके चेहरे पर फटकार नहीं बरस रही थी । उसने शेव कर ली थी पैंट पर भी क्रीज दिखाई दे रही थी और अपने काम वाले मैले से कोट के स्थान पर वह सुनील का शानदार पुलोवर पहने हुए था ।
उसके चेहरे पर से चश्मा गायब था ।
टैक्सी से उतरकर उसने एक बार आंखें मिचमिचाई और फिर उसे सुनील दिखाई दे गया ।
चश्मे के बिना वह काफी असुविधा का अनुभव कर रहा था ।
“कहां है ?” - वह सुनील के समीप आकर व्यग्र स्वर में बोला ।
“कौन ?”
“जयन्ती ।”
“अभी नहीं आई ।”
“अच्छा ।” - वह निराशापूर्ण स्वर से बोला ।
“तुमने ये मेरा पुलोवर किस से पूछ कर पहना है ?”
“मरे क्यों जा रहे हो ? आज कल मैं यतीम हूं तो क्या हुआ ? एक बार मुझे अपनी कोठी पर वापस पहुंच लेने दो, ऐसे-ऐसे सौ पुलोवर तुम्हारी गली में फेंक जाऊंगा ।” - बन्दर चिड़े हुए स्वर से बोला ।
“अच्छा, अच्छा ! अब चोंच बन्द करो और ट्रेफिक पर नजर रखो । जयन्ती आती ही होगी । तुम्हें यहां मैंने इसलिए बुलाया है क्योंकि मैं जयन्ती को पहचनाता नहीं ।”
उसी समय एक टैक्सी उनके सामने आकर रुकी और उसमें से जयन्ती निकली । उसने टैक्सी वाले को पैसे चुकाये और फुटपाथ पर उनसे थोड़ी दूर आकर खड़ी हो गई । वह बड़ी बेचैन निगाहों से अपने चारों ओर देख रही थी ।
प्रत्यक्ष था उसने बन्दर को पहचाना नहीं था ।
सुनील ने बन्दर को कोहनी मारी ।
बन्दर आगे बढा और जयन्ती के सामने आ खड़ा हुआ ।
जयन्ती ने असंजपूर्ण नेत्रों से उसे देखा ।
“हलो, बेबी !” - बन्दर चेहरे पर एक गोल्डन जुबली मुस्कराहट लाता हुआ बोला ।
“हू, हैल, यू आर (कौन हो तुम) ?” - जयन्ती चिड़े स्वर से बोली ।
“इतनी जल्दी भूल गई । अभी तो हमारी तुम्हारी मुलाकात को केवल चौबीस घण्टे ही हुए हैं । मुझे तो औरतें छः बच्चों की अम्मा बन जाने तक नहीं भूलतीं ।”
“तुम, तुम...” - जयन्ती हिचकिचाई ।
बन्दर ने जेब से चश्मा निकालकर आंखों पर चढा लिया और बोला - “अब पहचानो ।”
जयन्ती के चेहरे के भाव प्रकट कर रहे थे कि अब वह बन्दर को पहचान गई थी ।
“बन्दर !” - सुनील तीव्र स्वर से बोला ।
“अच्छा, अच्छा गलती हो गई ।” - बन्दर बोला और उसने चश्मा उतारकर जेब में रख लिया ।
“यह कौन है ?” - जयन्ती ने सुनील की ओर संकेत करके बन्दर से पूछा ।
“यह मेरा साथी है । तुम्हें फोन इसने किया था ।”
“तुम्हें मेरा फोन नम्बर कैसे मालूम हो गया ?” - जयन्ती ने सुनील से पूछा ।
“हम तो अन्तरयामी हैं ।” - बन्दर छाती फुलाकर बोला ।
“रिवाल्वर किसके पास है ?” - जयन्ती एक दम विषय बदलती हुई बोली ।
“इस के पास ।” - बन्दर ने सुनील की ओर सकेंत किया ।
“लाओ ।” - और जयन्ती ने सुनील के सामने हाथ फैला दिया ।
“यहीं ? भरी सड़क पर ?” - सुनील बोला ।
“ओह !” - जयन्ती ने हाथ खींच लिया - “चलो किसी रेस्टोरेन्ट में चलें ।”
“फाइन !” - बन्दर सन्तुष्ट स्वर से बोला ।
तीनों उसी रेस्टोरेन्ट में आ गये जहां से सुनील ने फोन किया था ।
वे एक खाली केबिन में जा बैठे । सुनील ने काफी का आर्डर दे दिया ।
“तुम्हारी तो एकदम ओवर हालिंग ही हो गई है” - जयन्ती बन्दर से बोली - “तुम तो वह आदमी ही नहीं लगते जिस से मैं कल मिली थी ।”
“खुदा की शान है ।” - बन्दर अकड़ कर बोला ।
“तुम अपने साथ, साथी क्यों ले गये थे ?” - जयन्ती ने पूछा
“तुमने यह शर्त कब रखी थी कि मुझे अकेले ही वह काम करना पड़ेगा । तुम्हें तो आम खाने से मतलब होना चाहिए था न कि पेड़ गिनने से । मैं चाहे अपने साथ फौज लेकर जाता ।”
जयन्ती चुप हो गई ।
वेटर काफी सर्व कर गया ।
सुनील हैरानी से बन्दर का मुंह देखने लगा । आज बन्दर अपनी योग्यता से कही ऊंची बाते कर रहा था ।
“उल्टे तुम यह बताओ ।” - बन्दर बोला - “कि कल आठ बजे तुम यहां आई क्यों नहीं ?”
“क्योंकि मुझे यह मालूम नहीं था, तुम रिवाल्वर ले आये हो । मैं दीपक लाज की दूसरी मंजिल पर ही लिफ्ट के सामने वाले फ्लैट में साढे चार बजे से मौजूद थी । और कमल मेहरा के फ्लैट पर दृष्टि जमाये हुए थी । मैंने तुम्हें आते देखा था । जहां मैं खड़ी थी वहां से मुझे गलियारे में खड़े तुम दोनों दिखाई दे रहे थे लेकिन कमल मेहरा और उसके फ्लैट का कोई भाग मुझे दिखाई नहीं दे रहा था । मैंने तुम लोगों का झगड़ा भी देखा था और गोली की आवाज भी सुनी थी । मैं जानती थी कि तुम लोग फ्लैट के भीतर नहीं घुस पाये, बैडरूम तक तो जाने का सवाल ही नहीं था । इसलिए मैं समझ गई कि मेरा काम नहीं हो पाया । गोली की आवाज सुनते ही मैंने द्वार बन्द कर लिया था । फिर मैंने गलियारे में भागते कदमों की आवाज सुनी थी । बहरहाल मतलब यह है कि मेरा काम तो हुआ नहीं ही था इसलिए कल आठ बजे यहां आने की मैंने जरूरत नहीं समझी थी ।”
“देखा” - बन्दर बोला - “मैं कह नहीं रहा था कि अगर नहीं आई तो इसके पीछे जरूर कोई ठोस कारण होगा ।”
“शट अप ।” - सुनील भावहीन स्वर से बोला ।
बन्दर चुप हो गया ।
सुनील जयन्ती से सम्बोधित हुआ - “मैडम, तुम ने तो मेरे साथी से कहा था कि पांच बजे कमल मेहरा अपने फ्लैट पर नहीं होगा जब कि वास्तव में वह फ्लैट पर ही मौजूद था । यह गड़बड़ कैसे हुई ?”
“मुझे खुद समझ नहीं आ रहा है” - जयन्ती परेशान स्वर में बोली - “मुझे कमल मेहरा ने खुद बताया था कि पांच बजे वह अपने एक मित्र को रेलवे स्टेशन पर रिसीव करने जाने वाला है ।”
“मतलब यह कि कमला मेहरा तुम्हारा अच्छा खासा जानकार था ?”
“हां ।” - जयन्ती हिचकिचा कर बोली ।
“और तुम अपने एक अच्छे खासे जानकार के घर में चोरी करवाना चाहती थी ?”
“हां ।”
“क्यों ।”
“मैं तुम्हारे साथी का ही जवाब तुम्हें दे रही हूं । तुम लोगों को आम खाने से मतलब होना चाहिए, न कि पेड़ गिनने से । मैं तुम्हें काम के बदले में रुपये भी तो दे रहा हूं ।”
“यह मत भूलो देवी जी” - सुनील व्यंगपूर्ण स्वर से बोला - “कि वह रिवाल्वर अभी भी हमारे पास है और तुम उस रिवाल्वर के लिये मरी जा रही हो । अगर ऐसा ना होता तो रिवाल्वर का नाम सुनते ही यहां भागी न चली आती । अब यह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है कि हम वह रिवाल्वर तुम्हें देते हैं या नहीं !”
“क्या मतलब ?”
“जब तक तुम मेरे कुछ सवालों का ठीक ठीक जवाब नहीं दोगी, रिवाल्वर तुम्हें नहीं मिलेगी ।”
“तुम क्या इसका अचार डालोगे ?” - जयन्ती बोली ।
“तुम क्या इसका मुरब्बा बनाओगी ?” - सुनील उसके स्वर की नकल करता हुआ बोला ।
“यह मत भूलो कि तुम लोगों ने कमल मेहरा की हत्या की है ।” - जयन्ती तिलमिलाकर बोली - “पुलिस को कमल मेहरा के हत्यारों की जानकारी हासिल कर के बड़ी खुशी होगी ।”
“तुम समझती हो कि कमल मेहरा की हत्या हम ने की है ?”
“और किसने की है ?”
“तुम्हें वहम हुआ है ।”
जयन्ती के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कराहट दौड़ गई ।
“अच्छा मान लिया हम ने हत्या की है लेकिन हमने जो कुछ भी किया तुम्हारे निर्देश पर किया । अगर तुम हमारे बारे में पुलिस को सूचना दोगी तो खुद भी फंसोगी ।” - बन्दर उत्तेजित स्वर से बोला ।
“भला मैं क्यों फसूंगी ।” - जयन्ती उसी कुटिल ढंग से मुस्कराती हुई बोली - “तुम लोग सात जन्म यह सिद्ध नहीं कर सकते कि मैंने तुम्हें कमल मेहरा के फ्लैट से रिवाल्वर चुराने के लिए कहा था । मैं तो तुम्हें पहचानने तक से इन्कार कर दूंगी ।”
बन्दर ने एक गहरी सांस ली और अपना शरीर कुर्सी पर ढीला छोड़ दिया ।
“लेकिन मैं तुम लोगों को फंसाने वाला कोई काम करूंगी नहीं ।” - जयन्ती नम्र स्वर से बोली - “मैं इस बात से इन्कार नहीं करती कि उस रिवाल्वर को हासिल करने में मेरी भारी दिलचस्पी है । वह रिवाल्वर तुम लोगों के लिये कोई मायने नहीं रखती । मैंने काम हो जाने पर तुम्हें तीन सौ रुपये और देने का वादा किया था । तीन सौ की जगह मैं तुम्हें पांच सौ रुपये देती हूं । रिवाल्वर निकालो ।”
जयन्ती ने सौ सौ के पांच नोट निकाल कर मेज पर रख दिये और बड़े आश्चर्यपूर्ण ढंग से बन्दर की ओर देखने लगी ।
“जिसे तुम पांच सौ रुपये का लालच दे रही हो” - सुनील भावहीन स्वर में बोला - “वह तुम्हारे जैसी सौ पचास लड़कियों को खरीद कर दान कर सकता है ।”
जयन्ती ने यूं चिहुंक कर सुनील की ओर देखा जैसे किसी ने उसे चिकोटी काट ली हो ।
“क्या बक रहे हो ?” - वह क्रोधित स्वर से बोली ।
“यह सुनील भाई तो...” - बन्दर बोला ।
“शट अप ।” - सुनील उसे घुड़क कर बोला ।
बन्दर सहम कर चुप हो गया ।
“तुम जैसे मामूली चोर-उचक्कों की हिम्मत कैसे हुई मुझ से ऐसी बातें करने की !” - जयन्ती बिफर कर बोली ।
“जब तक डाकू कहर सिंह की रिवाल्वर हमारी जेब में है तब तक तो हम तुम्हें भी उठा कर ले जाने की हिम्मत कर सकते हैं ।” - सुनील ने शान्ति से उत्तर दिया ।
“मैं तुम्हें पुलिस में दे दूंगी ।”
“हर्ज तुम्हारा ही होगा । रिवाल्वर भी पुलिस के हाथ में पहुंच जायेगी ।”
कुछ क्षण जयन्ती खा जाने वाली नजरों से सुनील को घूरती रही और फिर धीरे धीरे शान्त हो गई ।
“तुम कहीं मुझे घिस तो नहीं रहो हो ?” - अन्त में वह बोली ।
“क्या मतलब ?” - सुनील ने पूछा ।
“रिवाल्वर वाकई तुम्हारे पास है ?”
“हां वाकई मेरे पास है ।”
“दिखाओ ?”
सुनील ने कोट के बटन खोल और पैन्ट की बैल्ट में लगी रिवाल्वर खींच ली । उस ने रिवाल्वर जयन्ती के सामने मेज रख दी ।
जयन्ती ने झपट कर रिवाल्वर उठा ली । एक दो क्षण वह रिवाल्वर को उलट पलट कर देखती रही ।
सुनील की तीव्र दृष्टि उस के चेहरे पर प्रकट होने वाले हर भाव को नोट कर रही थी ।
जयन्ती ने रिवाल्वर का चैम्बर खोला । कुछ क्षण वह चैम्बर को भीतर से देखती रही और फिर उसने चैम्बर बन्द कर दिया । उसके चेहरे पर परम सन्तुष्टि के भाव थे ।
सुनील ने चुपचाप रिवाल्वर उस के हाथ से ले ली और उसे फिर बैल्ट में खोंस लिया ।
“तुम चाहते क्या हो ?” - जयन्ती मरे स्वर से बोली ।
“जैसे तुम जानती नहीं !” - सुनील बोला ।
“वह कोई ऐसी महत्वपूर्ण बात नहीं हैं ।”
“फिर तो तुम्हें बताने में कतई ऐतराज नहीं होना चाहिये ।”
“अच्छा सुनो” - जयन्ती निर्णयात्मक स्वर से बोली - “यह एक दुर्लभ रिवाल्वर है । संसार में ऐसी केवल दो ही रिवाल्वर हैं । वास्तव में वे दोनों रिवाल्वरें डाकू कहर सिंह...”
“इतिहास छोड़ो” - सुनील उसकी बात काटकर बोला - “इतिहास हमें मालूम है, तुम मोटी बात बताओ ।”
“इतिहास तुम्हें मालूम है ?” - जयन्ती हैरानी से बोली ।
“हां । और भगवान के लिये ड्रामा मत करो ।”
“ओके । मेरे डैडी एक संग्रहकर्ता हैं । विशेष रूप से उन्हें फायर करने वाले शस्त्रों के संग्रह का शौक है । डाकू कहर सिंह की एक रिवाल्वर, एक जमाना हुआ, संयोग वश ही उन के हाथ में लग गई थी ।”
“कैसे ?”
“रिवाल्वर मेरे दादा कहीं से लाये थे । रिवाल्वर उन के हाथ कहां से आई यह मुझे मालूम नहीं ।”
“अच्छा फिर ?”
“यह एक इतिहास तथ्य है कि डाकू कहर सिंह के पास ऐसी दो रिवाल्वर थीं । जब से मेरे डैडी को एक रिवाल्वर मिली है तभी से वे दूसरी रिवाल्वर की तलाश में थे लेकिन दूसरी रिवाल्वर का कोई सुराग नहीं मिल रहा था । फिर लगभग छह सात महीने पहले संयोगवश ही एक क्लब में कमल मेहरा से मेरी मुलाकात हो गई । जब उसे यह मालूम हुआ कि मेरे डैडी एक संग्रहकर्ता हैं तो उस ने भी बड़े सहज भाव से बता दिया कि उस के पास भी एक बड़ी अनोखी रिवाल्वर है एक बार वह मुझे अपने फ्लैट पर ले गया और उसने मुझे वह रिवाल्वर दिखाई । मैं फौरन पहचान गई वह डाकू कहर सिंह की दूसरी रिवाल्वर है । मैंने डैडी से जिक्र किया । मेरे डैडी ने उस रिवाल्वर के लिये कमल मेहरा से बात की लेकिन वह किसी भी कीमत पर रिवाल्वर बेचने के लिये तैयार नहीं हुआ ।”
“क्यों ?”
“कारण उसने कोई नहीं बताया । लेकिन यह हकीकत है कि उस ने उस रिवाल्वर के लिये सारी आफर अस्वीकार कर दी ।”
“इसलिये तुम ने या तुम्हारे डैडी ने कमल मेहरा के फ्लैट में से रिवाल्वर चोरी करवा लेने का इरादा कर लिया ?”
“हां ।” - जयन्ती हिचकिचा कर बोली ।
“तुम्हारे डैडी ने इस रिवाल्वर के लिये कमल मेहरा को कितने रुपये की आफिर दी थी ?”
“आखिरी आफर आठ हजार रुपये की थी लेकिन उसे तो रिवाल्वर की कोई भी कीमत स्वीकार नहीं थीं ।”
सुनील ने देखा जयन्ती के सौ सौ के पांच नोठ अब भी मेज पर रखे थे । उसने पैन्ट की बैल्ट में से रिवाल्वर फिर निकाल ली और उसे नोटों की बगल में रख दिया ।
जयन्ती का हाथ रिवाल्वर की ओर झपटा ।
“इतनी जल्दी नहीं मैडम ।” - सुनील ने उसका हाथ थाम लिया ।
“क्या मतलब ?”
“अब इस रिवाल्वर की कीमत दस हजार रुपये है ।”
“क्यों ?” - जयन्ती चिंहुक कर बोली और उसने यूं अपना हाथ सुनील की पकड़ से खींच लिया जैसे अभी तक वह अंगारा थामे हुए थी ।
“अब इस रिवाल्वर की कीमत दस हजार रुपये है ।” - सुनील ने अपना वाक्य दोहराया ।
बन्दर हैरानी से सुनील का मुंह देख रहा था ।
“तुम मजाक तो नहीं कर रहो हो ?” - जयन्ती बोली ।
“मेरा आप से मजाक का कौन सा रिश्ता है ?” - सुनील बोला ।
जयन्ती हड़बड़ा गई और फिर बोली - “तुम मुझे ब्लैकमेल करना चाहते हो ?”
“यह ब्लैकमेल नहीं सौदा है, मैडम । अगर आप कमल मेहरा को इस रिवाल्वर के आठ हजार रुपये दे सकती हैं तो आप हमें भी दस हजार रुपये दे सकती हैं और फिर इस रिवाल्वर को हासिल करने के लिये हमें भारी रिस्क भी तो लेना पड़ा है ।”
जयन्ती कई क्षण चुपचाप बैठी रही ।
वातावरण ब्लेड की धार की तरह पैना हो उठा था ।
अन्त में वह अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई और निर्णायक स्वर से बोली - “मेरे साथ चलो ।”
“कहां ?” - सुनील ने पूछा ।
“मेरे डैडी के पास । मैं तुम्हें दस हजार रुपये दिलवाऊंगी ।”
“कहां आना होगा ?”
“मेरे डैडी के आफिस में ।
“कोई गड़बड़ तो नहीं होगी ?”
“कैसी गड़बड़ ?”
“हमें पुलिस के हवाले करने की या रिवाल्वर मुफ्त में छीनने की तो कोशिश नहीं की जायेगी ?”
“नहीं ।” - जयन्ती ने आश्वासन दिया ।
“अगर आपका ऐसा कोई इरादा हो तो यह याद रखियेगा कि अभी भी इस रिवाल्वर में पांच गोलियां बाकी है और एक खून की सजा भी फांसी होती है और दस खून की सजी भी फांसी होती है ।”
“तुम हिलो तो सही यहां से ।” - जयन्ती तिक्त स्वर में बोली ।
तीनों उठ खड़े हुए । काफी किसी ने भी नहीं छुई थी ।
काउन्टर के पास पहुंच कर जयन्ती अपना पर्स खोलने का उपक्रम करने लगी ।
“नो ।” - सुनील ने टोक कर बोला - “पेमेन्ट करना मर्द का काम होता है ।”
और सुनील ने एक पांच का नोट काउन्टर पर उछाल दिया ।
जयन्ती विचित्र नेत्रों से उसे घूरने लगी ।
तीनों बाहर निकल आये ।
जयन्ती ने एक टैक्सी बुलाई ।
“बन्दर !” - सुनील बन्दर के कान में फुसफुसाकर बोला - “तुम वापिस चले जाओ ।”
“क्यों ?” - बन्दर ने वैसे ही धीमे स्वर में पूछा ।
“अगर कोई घपला हो जाये तो दोनों क्यों फंसेन ? और फिर अन्धकार होने लगा है । तुम्हें चश्मे के बिना दिक्कत होगी ।”
“अच्छा !” - बन्दर अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला ।
जयन्ती और सुनील टैक्सी की पिछली सीट पर बैठ गये ।
बन्दर फुटपाथ पर खड़ा रहा ।
“तुम्हारा साथी नहीं जायेगा ?” - जयन्ती ने पूछा ।
“नहीं । उसकी जरूरत नहीं ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
जयन्ती ने फिर प्रश्न नहीं पूछा ।
“मैजेस्टिक सर्कल ।” - जयन्ती टैक्सी ड्राईवर से बोली और उसने सीट की पीठ के साथ सिर टिका दिया ।
सुनील भी गम्भीर मुद्रा बनाये बैठा रहा ।
टैक्सी मैजेस्टिक सर्कल पहुंच गई ।
“यूको बैंक बिल्डिंग के सामने रोकना ।” - जयन्ती ने ड्राईवर को बताया ।
टैक्सी निर्दिष्ट स्थान पर आ रूकी ।
दोनों बाहर निकल आये ।
सुनील ने अपनी जेब की ओर हाथ बढाया ।
“रहने दो” - जयन्ती जले स्वर से बोली - “ज्यादा हीरो बनने की कोशिश मत करो ।”
“आल राइट ।” - सुनील कन्धे झटक कर बोला ।
जयन्ती ने टैक्सी वाले को पैसे दे दिये ।
“आओ ।” - वह इमारत की ओर बढती हुई बोली ।
सुनील उसके पीछे हो लिया ।
जयन्ती उसे तीसरी मंजिल पर स्थित एक आफिस में ले गई ।
आफिस खाली था । शायद छुट्टी हो चुकी था । बाहर के हाल में केवल एक चपरासी बैठा था ।
चपरासी जयन्ती को देखते ही उठ खड़ा हुआ और आदरपूर्ण स्वर से बोला - “सलाम मेम सहाब ।”
“साहब हैं ?” - जयन्ती ने पूछा ।
“जी हां, बैठे हैं ।” - चपरासी बोला ।
“तुम थोड़ी देर यहीं ठहरो । जयन्ती सुनील से बोली । और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना एक पतले से गलियारे की ओर बढ गई । जिसके दोनों ओर केबिननुमा आफिस बने हुए थे ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया और लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ प्रतीक्षा करने लगा ।
लगभग तीन मिनट बाद जयन्ती लौटी ।
“आओ ।” - वह सुनील से बोली ।
सुनील उसके साथ चल पड़ा ।
जयन्ती उसे एक लम्बे चौड़े सजे सजाये आफिस में ले आई ।
एक विशाल मेज के पीछे एक लम्बा चौड़ा बुलडाग से चेहरे वाला आदमी बैठा था । उसके चेहरे से क्रूरता टपक रही थी ।
“मेरे डैडी ।” - जयन्ती बोली और सुनील को मेज के सामने खड़ा छोड़ कर उस आदमी की कुर्सी की बगल में जा खड़ी हुई ।
सुनील ने हैट उतारने का भी उपक्रम नहीं किया । सिगरेट अब भी हाथ में था ।
“बैठो ।” - वह आदमी गूंजते स्वर में बोला ।
“थैंक्यू ।” - सुनील बोला और एक कुर्सी पर बैठ गया ।
वह आदमी कितनी ही देर सुनील को घूरता रहा जैसे उसे परखने का प्रयत्न कर रहा हो ।
“मेरा नाम ‘कुवंर’ नारायण सिंह है ।” - अन्त में वह बोला । उस ने ‘कुवंर’ शब्द पर विशेष जोर दिया था ।
“और बन्दे को ‘प्रिंस’ अल्फा कहते हैं ।” - सुनील प्रिंस पर विशेष जोर देता हुआ बोला ।
“मजाक नहीं ।” - कुंवर नारायण सिंह कठोर स्वर से बोले ।
“जब आपने अपना नाम कुंवर नारायण सिंह बताया था, तो क्या अपने मजाक किया था ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं । मैं मजाक पसन्द नहीं करता ।” - वह रोबदार स्वर से बोला ।
“तो फिर आपको यह वहम कैसे हो गया कि जब मैंने आपको अपना नाम बताया तो आपसे मजाक किया था ?”
कुंवर नारायण सिंह के मुंह से एक फुंफकार सी निकल गई । प्रत्यक्ष था कि वह सुनील से एक प्वायन्ट हार गया था ।
सुनील स्थिति का आनन्द लेता हुआ चुपचाप सिगरेट के कश लेता रहा ।
जयन्ती भी परेशान दिखाई देने लगी थी ।
“रिवाल्वर निकालो ।” - अन्त में कुंवर नारायण सिंह बोला ।
सुनील ने रिवाल्वर निकाल कर उसके सामने सरका दी ।
कुवंर नारायण सिंह ने रिवाल्वर उठा ली और उसे उलटता पलटता हुआ बोला - “तुम इसके दस हजार रुपये चाहते हो ?”
“ग्यारह हजार रुपये ।” - सुनील शान्ति से बोला ।
“क्या ?” - जयन्ती एकदम बोल पड़ी - “अभी तो तुम दस हजार रुपये मांग रहे थे ?”
“अभी नहीं । एक घन्टा पहले । दस हजार रुपये इस रिवाल्वर की अब से एक घन्टा पहले की कीमत थी ।”
अगर केवल नजरों से ही किसी का कत्ल कर पाना सम्भव होता तो अब तक सुनील परलोक सिधार चुका होता । जयन्ती का देखने का ढंग ऐसा ही था ।
कुंवर नारायण सिंह ने रिवाल्वर का चैम्बर खोल लिया था । उसने पांचों गोलियां बाहर निकाल लीं और एक एक गोली को परखने लगा ।
सुनील ने लापरवाही से सिगरेट का आखिरी कश लिया और बचा हुआ टुकड़ा मेज पर पड़ी ऐश ट्रे में डाल दिया ।
अन्त में खोखली गोली कुंवर के हाथ में आ गई । उसने गोली का ढक्कन उमेठ कर बड़ी व्यग्रता से खोल के भीतर झांका और अगले ही क्षण उसके चेहरे पर गहन निराशा के भाव छा गये । वह कुछ क्षण स्थिर नेत्रों से खोल के भीतर झांकता रहा फिर उसने खोल पर ढक्कन चढा दिया और पांचों गोलियां रिवाल्वर में डाल दीं । उसने एक झटके से चैम्बर बन्द किया और रिवाल्वर को मेज पर अपने और सुनील के बीच में रख दिया और बोला - “पचास रुपये ।”
“पचास रुपये क्या ?” - सुनील न समझने का अभिनय करता हुआ बोला ।
“इस रिवाल्वर के मैं तुम्हें पचास रुपये दे सकता हूं ।” - कुंवर बोला
“क्या ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“हां । अगर दूसरी बार पूछोगे तो चालीस । तीसरी बार इसे मुफ्त में भी नहीं लूंगा ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे लोहा खरीदने का शौक नहीं हैं ।”
“तो फिर आप इस रिवाल्वर को हासिल करने के लिये इतने पापड़ क्यों बेल रहे थे ?”
“ऐसा सवाल मत करो, लड़के, जिसका जवाब तुम्हें न आता हो ?” - कुंवर कठोर स्वर से बोला ।
“क्या मतलब ?”
“जिस चीज के कारण इस रिवाल्वर की कीमत थी, वह इसमें से गायब है ?”
“ऐसा क्या था इसमें ?”
“इस रिवाल्वर के खोखले कारतूस में एक हजार रुपये का नोट का आधा भाग था । वह...” - एकाएक कुवंर का स्वर बदल गया । वह तीव्र स्वर से बोला - “तुमने इस रिवाल्वर को खोला था ?”
“हां ।”
“कहीं तुमने ही तो वह आधा नोट नहीं निकाला है ?”
“मैंने ही निकाला है ।” - सुनील शान्ति से बोला ।
“क्यों ?”
“आप क्या ऊंचा सुनते हैं ?” - मैंने कहा न, वह आधा नोट मैंने निकाला है ।”
“कहां है वह ?” - कुंवर व्यग्र स्वर से बोला ।
सुनील ने हाथ बढाकर रिवाल्वर उठा ली और उसे अपने हाथों में फिराता हुआ बोला - “मेरे पास है ।”
“दिखाओ ।”
सुनील ने जैसे कुंवर की बात सुनी ही नहीं । वह वैसे ही निर्विकार भाव से बोला - “आपको कैसे मालूम है कि इस रिवाल्वर में ऐसा कोई आधा नोट था ?”
“क्योंकि वैसी ही एक रिवाल्वर मेरे पास भी है ।” - कुवंर वैसी ही व्यग्रता से बोला - “उसमें भी एक खोखली गोली थी और उस गोली में हजार के नोट का आधा भाग मौजूद था । मैं समझ गया था कि दूसरा आधा भाग अवश्य दूसरी रिवाल्वर में होगा ।”
“आपके पास वह रिवाल्वर कहां से आया ?”
“मेरे पिता का विश्वनगर में एक मित्र था । उसके पास डाकू कहर सिंह की दोनों रिवाल्वरे थीं । मेरे पिता ने केवल शौक के कारण ही उससे एक रिवाल्वर खरीद ली थी । बाद में एक बार यह रिवाल्वर मैंने देखी । मुझे रिवाल्वर बहुत पसन्द आई । मैंने अपने पिता से कहा कि वे अपने मित्र से दूसरी रिवाल्वर भी ले आयें । मेरे पिता अपने मित्र के पास गये लेकिन उस मित्र ने बताया की दूसरी रिवाल्वर उसका लड़का ले गया है और वह लड़का फौज में भरती होकर कहीं विदेश में चला गया है । उसके बाद दूसरी रिवाल्वर की बहुत तलाश की गई लेकिन वह मिली नहीं ।”
“और पिछले दिनों एकाएक आपको पता लगा की दूसरी रिवाल्वर कमल मेहरा के पास है ?”
“हां ।”
“जयन्ती कहती है कि आपने उसे रिवाल्वर बेच देने के लिये काफी तगड़ी आफर दी थी ? क्या यह सच है ?”
जयन्ती ने धीरे से कुंवर का कन्धा दबाया लेकिन कुंवर उसके संकेत को नजर अन्दाज करता हुआ बोला - “इट्स आल राइट, बेबी । यह आदमी पहले से ही इतना जानता है कि उससे कुछ छुपाने में कोई लाभ नहीं है । ...यह गलत है मिस्टर । मैंने कमल मेहरा से कभी भी रिवाल्वर खरीदने का प्रयत्न नहीं किया ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे बाद में मालूम हुआ कि मैं कमल मेहरा मेरे पिता के उस मित्र का पोता था । जिसके पास वास्तव में दोनों रिवाल्वरें थीं । मतलब यह कि कमल मेहरा उस आदमी का लड़का था जो फौज में भरती हो गया था और रिवाल्वर लेकर विदेश चला गया था । कमल मेहरा से रिवाल्वर खरीदने के लिए बातचीत करने से इस लिये डरता था कि कहीं उसे रिवाल्वर के महत्व का आभास न हो ऐसी सूरत में वह रिवाल्वर को किसी भी कीमत पर नहीं बेचता ।”
“इसलिये आपने वह रिवाल्वर चोरी करवा लेना उचित समझा ?”
“हां ।”
“लेकिन हजार रुपये के नोट के उन दो टुकड़ों से ऐसी क्या करामात है जिसके पीछे आप बावले हो रहे हैं ? क्या उस पर गुप्त खजाने का नक्शा छपा हुआ है ?”
“इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये ।” - कुंवर बोला - “अगर तुम्हारे पास नोट का दूसरा टुकड़ा है तो निकालो । उसके लिए मैं तुम्हें ग्यारह हजार रुपये देने के लिये तैयार हूं ।
“पन्द्रह हजार रुपये ।” - सुनील स्थिति का आनन्द लेता हुआ बोला ।”
“तुम तो फटे जूते की तरह बढते ही जा रहे हो ।” - कुंवर चिड़ कर बोला ।
“क्या फर्क पड़ता है, कुंवर साहब । भगवान जाने उस टुकड़े के बदले आप कितना बड़ा खजाना हथियाने वाले हैं ।”
“अच्छा निकालो ।” - कुंवर बोला ।
सुनील ने सिर पर से हैट उतार दिया और उसके रिबन में नोट आधा टुकड़ा निकालते हुए बोला - “एक बात और बताइये ?”
“क्या ?”
“आपके पिता जी के मित्र का, मेरा मतलब कमल मेहरा के दादा का क्या नाम था ?”
“देवपाल मेहरा ।”
“क्या वह अभी जिन्दा है ?”
“कब का मर खप गया ।”
सुनील ने आधा नोट कुंवर के सामने रख दिया । कुंवर ने बड़ी व्यग्रता से नोट उठा लिया । नोट को हर कोण से देख चुकने के बाद उसने मेज पर रख दिया और उठ खड़ा हुआ । सुनील ने रिवाल्वर को बड़ी मजबूती से थाम लिया ।
कुंवर दीवार में लगी एक सेफ की ओर बढा । उसने दो तीन चाबियां लगा कर सेफ को खोला और उसमें से एक वैसा ही हजार के नोट का टुकड़ा निकाल लाया ।
वह फिर अपनी कुर्सी पर आ बैठा ।
उसने दोनों टुकड़े अपने सामने रख लिए और उनके कटे हुए किनारों के एक दूसरे से मिलाने लगा । किनारों के टेढे मेढे कटाव एकदम एक दूसरे में फिट हो गए और वह एक समूचा नोट बन गया । कुंवर ने संतुष्ट भाव से सिर हिलाया और फिर अपनी मेज के दराज में से मैग्नीफाईग लैंस निकाल लिया ।
कुंवर के हाथ में लैंस दिखाई देते ही सुनील एकदम झपटा और नोट का अपने वाला टुकड़ा उठा लिया ।
“यह क्या हरकत हुई ?” - कुंवर भड़क कर बोला ।
“कुंवर साहब, मैं भी कल पैदा नहीं हुआ था । मैं भी अपने भेजे में अक्ल रखता हूं ।” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर से बोला ।
“क्या मतलब ?”
“नोट के इस टुकड़े पर जो श्लोक लिखा हुआ है, अगर वही आपने पढ लिया तो फिर इस दो कौड़ी के कागज के मुझे पन्द्रह हजार कौन देगा ?”
“तुम्हें यह भी मालूम है ?” - कुंवर सिसकारी-सी भरता हुआ बोला ।
सुनील केवल मुस्कराया ।
“तुम्हारे नोट के टुकड़े पर क्या लिखा हुआ है ?”
सुनील फिर मुस्करा दिया ।
“अच्छा मुझे तुम्हारा सौदा मंजूर है, नोट निकाल लो ।” - कुंवर बोला ।
“पन्द्रह हजार रुपये निकालिये ।”
कुंवर ने मेज की दराज से चैक बुक निकाल ली ।
“चैक नहीं लूंगा ।” - सुनील बोला ।
“लेकिन, बरखुरदार” - कुंवर विवश स्वर से बोला - “साढे छः बज गये हैं । बैंक से इस समय रुपया मिलने का सवाल ही नहीं पैदा होता और इस समय मेरे पास नकद पन्द्रह हजार रुपये नहीं हैं ।”
“कुछ भी कीजिये । मैं चैक नहीं लूंगा ।”
“हर्ज क्या है ?”
“बहुत हर्ज है । सम्भव है आप मेरे नोट का मेरे वाला आधा भाग लेकर मुझे चैक दे दें और कल चैक की पेमैन्ट भी रुकवा दें और पुलिस को भी रिपोर्ट कर दें ।”
“मैं ऐसा नहीं करूंगा ।”
“क्या भरोसा है साहब ?”
“तो फिर तुम थोड़ी देर यहीं ठहरो । पांच छः हजार रुपया आफिस में मौजूद है, बाकी मैं अपने मित्रों से उधार मांग कर इकट्ठा करता हूं ।”
“नहीं । आप रुपया तैयार रखियेगा । कल सुबह मैं आपके आफिस हाजिर हो जाऊंगा ।”
“लेकिन थोड़ी देर रुकने में क्या हर्ज है ?”
“मुझे डर लगने लगा है ।”
“मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि...”
“समाप्त कीजिये ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “मैं कल यहां आ जाऊंगा । आप रुपया तैयार रखियेगा ।”
“आल राइट ।” - कुंवर मरे हुए स्वर से बोला ।
सुनील ने आधा नोट हैट के रिबन में खोंस लिया और हैट को सिर पर जमाता हुआ बोला - “गुडनाइट ।”
“गुड नाइट ।” - कुंवर का स्वर ऐसा था जैसे कुऐं में से आवाज आ रही हो ।
“गुड नाइट, यंग लेडी ।” - सुनील जयन्ती से बोला ।
जयन्ती ने उत्तर देने के स्थान पर मुंह बिचका दिया ।
सुनील ने एक बार फिर दोनों का अभिवादन किया और अपने चेहरे पर एक गोल्डन जुबली मुस्कराहट लिए बाहर चला आया ।
यूको बैंक बिल्डिंग से बाहर निकल कर सुनील ने टैक्सी के लिए आसपास दृष्टि दौड़ाई ।
कहीं कोई टैक्सी दिखाई नहीं दे रही थी ।
सुनील पैदल ही फुटपाथ पर चल दिया ।
एकाएक सुनील को अपनी बगल में किसी का हाथ महसूस हुआ और फिर एक कठोर-सी चीज उसकी पसलियों पर दबाव डालने लगी ।
सुनील ने एकदम घूमने का उपक्रम किया ।
“सामने देखो ।” - एक कठोर स्वर उसके कान में पड़ा - “और चुपचाप सीधे चलते रहो । कोई शरारत की तो शूट कर दूंगा ।”
सुनील चुपचाप चलने लगा । उसकी पसलियों में चुभने वाली कठोर चीज निःसन्देह रिवाल्वर थीं ।
सुनील ने कनखियों से अपनी बगल में बड़े मित्रतापूर्ण ढंग से चलते हुए आदमी को देखा । उसे ओवरकोट में उठे हुए कालरों और आंखों से भी नीचे तक झुक आई काली फैल्ट हैट के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं दिया ।
“इधर गली में चलो ।” - काली फैल्ट वाला बोला ।
वह सुनील को दो इमारतों के बीच में छुपी हुई एक पतली-सी गली में ले आया । गली में प्रकाश बहुत कम था ।
गली के मध्य में आ कर काली फैल्ट वाले ने आदेश दिया - “रुक जाओ ।”
सुनील रूक गया ।
“कोई शरारत करने की कोशिश मत करना वर्ना जान से हाथ धो बैठोगे ।” - वह बोला ।
“हाथ तो मैं हमेशा ‘सुन्दरता’ साबुन से धोता हूं, डाकू जी ।” - सुनील विनयपूर्ण स्वर से बोला ।
“बको मत ।” - वह गुर्राया और उसका एक हाथ सुनील की तलाशी लेने लगा ।
रिवाल्वर की नाल का दबाव अब सुनील की पीठ पर था ।
सुनील ने गौर किया, काली फेल्ट वाला बड़े एक्सपर्ट ढंग से उसकी तलाशी ले रहा था । जैसे पुलिस वाले जेल में लाये गये मुजरिम की तलाशी लेते है ।
“कभी आप जेल में तो नहीं रहे, भाई साहब ?” - सुनील ने भोले स्वर से पूछा ।
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - काली फेल्ट वाला तनिक हैरानी से बोला ।
“आपका मेरी तलाशी लेने का ढंग बता रहा है कि आप या तो लोगों की तालाशी लेते रहे हैं या फिर पुलिस के अधिकारी आपकी तालाशी लेते रहे हैं ।”
काली फैल्ट वाला चुप रहा । उसी क्षण उसने सुनील की पैंट की बैल्ट में लगी डाकू कहर सिंह की रिवाल्वर निकाल ली ।
कुछ क्षण के लिये सुनील की पीठ से रिवाल्वर का दबाव हट गया लेकिन सुनील का घूम पड़ने का हौसला नहीं हुआ ।
लगभग एक मिनट शान्ति रही ।
रिवाल्वर की नाल फिर सुनील की पीठ से आ लगी और उसे काली फैल्ट वाले की हुंकार सुनाई दी - “नोट कहां है ?”
“मेरी जेब में तो सिर्फ सत्ताइस रुपये हैं, भाई साहब ! मैं वित्त मन्त्रालय में क्लर्क हूं । और...”
“बकवास बन्द करो । मैं उस नोट की बात नहीं कर रहा हूं ।”
“तो फिर ?” - सुनील गहरी हैरानी का अभिनय करता हुआ बोला ।
“वह हजार रुपये के नोट का आधा भाग कहां है जो तुमने इस रिवाल्वर में से निकाला है ?”
“कौन सा आधा भाग ?”
एक लोहे जैसा हाथ सुनील के कन्धे पर पड़ा और उस हाथ ने सुनील को फिरकनी की तरह एक सौ अस्सी के कोण पर घुमा दिया । फैल्ट वाले का रिवाल्वर भड़ाक से सुनील के चेहरे से आ टकराया ।
सुनील लड़खड़ाया और पीठ धम्म से पिछली दीवार से टकराई । उसकी आंखों के सामने काले पीले सितारे नाच गये ।
“नोट देते हो ?” - काली फैल्ट वाला गुर्राया ।
सुनील को उसकी आवाज एक मील दूर से आती हुई महसूस हुई । वह अपनी आंखे झपक-झपक कर कर दृष्टि को स्थिर करने को प्रयत्न करता रहा ।
एक भरपूर घूंसा उसके पेट में आकर पड़ा ।
सुनील बिलबिला कर दोहरा हो गया । उसके चेहरे पर गहन पीड़ा के भाव उभर आये । वह हैट उसके सिर से उतर का जमीन पर आ गिरा ।
“नोट देते हो ?” - फैल्ट वाले ने फिर प्रश्न किया ।
“देता हूं, मेरे बाप !” - सुनील हांफता हुआ बोला ।
उसने सिर को एक जोरदार झटका दिया और सीधा खड़ा होने का प्रयत्न करने लगा ।
रिवाल्वर की नाल अभी भी उसकी ओर तनी हुई थी ।
सुनील ने जमीन पर गिरा हुआ हैट उठा लिया ।
“हैट बाद में उठाना ।” - काली फैल्ट वाला बेसब्री से बोला - “पहले नोट निकालो ।”
“नोट इसी में है, डाकू साहब ।” - सुनील बोला ।
उसने फैल्ट हैट के रिबन में से नोट निकाला और उठ खड़ा हुआ उसने नोट काली फैल्ट वाले की ओर बढा दिया ।
पहली बार उसकी नजर काली फैल्ट वाले के मुंह पर पड़ी ।
सुनील के मुंह से चीख निकल गई और वह हड़बड़ा कर बोला - “भू-भू... भू-भूत !”
वह कमल मेहरा का चेहरा था ।
उसी समय रिवाल्वर का एक हाथ उसकी खोपड़ी पर पड़ा । उसका शरीर रेत के बोरे की तरह जमीन पर आ गिरा ।
उसका शरीर जमीन से टकराने से पहले हजार रुपये के आधे नोट का आधा भाग उसी उंगलियों में से निकल गया ।
उसकी चेतना लुप्त हो गई ।
***
सुनील यूथ क्लब के सामने टैक्सी में से उतरा ।
यूथ क्लब के सामने के फुटपाथ पर खड़ा एक आदमी एक दम टेलीफोन बूथ की ओर लपका ।
सुनील टैक्सी के पैसे चुकाकर क्लब में घुस गया ।
सुनील ने देखा रात के साढे आठ बज चुके थे । यूथ क्लब में काफी रौनक थी और ये रौनक बढती ही जा रही थी ।
रिसेप्शन पर क्लब की सुन्दर रिसेप्शनिस्ट मौजूद थी ।
“गुड ईवनिंग, मिस्टर सुनील ।” - वह बोली और फिर एकाएक उसकी दृष्टि सुनील के सूजे हुए चेहरे पर पड़ी । वह आंतकपूर्ण स्वर से बोली - “ओह गाड व्हाट हैपन्ड टू यूअर फेस ?”
“मैं एक रेल के इंजन से टकरा गया था ।” - सुनील बोला - “रमाकांत कहां है ?”
“आफिस में ।” - रिसेप्शनिस्ट वैसे ही आंतकित भाव से सुनील को देखती हुई बोली ।
सुनील रिसेप्शन के पीछे बने रमाकान्त के ऑफिस में घुस गया ।
रमाकांत अपने विशिष्ट पोज में अपनी वीशाल मेज के पीछे बैठा था । उसका सिर कुर्सी की पीठ से टिका हुआ था और पांव मेज पर फैले हुए थे । वह बड़ी तन्मयता से आंखें बन्द किये अपने प्रिय सिगरेट चारमीनार के कश लगा रहा था ।
“रमाकांत ।” - सुनील ने उसे आवाज दी और मेज के सामने पड़ी कुर्सियों में से एक पर ढेर हो गया ।
रमाकांत ने आंखें खोल दीं । सुनील पर दृष्टि पड़ते ही वह उछल कर खड़ा हो गया । उसने जल्दी से सिगरेट एश ट्रे में डाल दिया और लपक कर सुनील के समीप पहुंचा ।
“उठो ।” - वह व्यग्र स्वर से बोला ।
“क्या हो गया है ?” - सुनील हैरानी से उसे घूरता हुआ बोला ।
“फौरन खड़े हो जाओ ।”
“लेकिन बात क्या है ?”
“यहां से उठो । बाहर चल कर बताऊंगा ।”
सुनील अनिश्चित सा उठ खड़ा हुआ ।
रमाकांत उसकी बांह पकड़े उसे आफिस से बाहर ले आया । वह क्लब के पिछवाड़े की ओर बढ रहा था ।
सुनील ने अपना फैल्ट हैट अपने माथे पर और झुका लिया । वह असमंजसपूर्ण मुद्रा बनाये रमाकांत के साथ खिंचता चला गया ।
रमाकांत यूथ क्लब की इमारत के पिछवाड़े में बनी छोटी सी गली में आ गया । वह गली में से होता हुआ सड़क की ओर चल दिया ।
“अब कुछ बोलोगे भी, यार ।” - सुनील तिक्त स्वर से बोला ।
“यूथ क्लब की निगरानी हो रही है ।” - रमाकांत बोला ।
“क्यों ?” - सुनील ने हैरानी से पूछा ।
“मेरा ख्याल है पुलिस को तुम्हारी तलाश है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?” - सुनील अविश्वासपूर्ण स्वर में बोल ।
“छः बजे से एक आदमी यूथ क्लब के मुख्य द्वार की निगरानी कर रहा है ।”
“तुम्हें क्या मालूम है कि वह पुलिस का आदमी है ?”
“परिस्थति तो यही प्रकट करती है ।”
“यार, तुम पहेलियां मत बुझाया करो ।” - सुनील उखड़ गया - “एक ही बार में सारी बात कह डालो न ।”
“अच्छा एक ही बार में सुन लो । पुलिस इन्सपेक्टर प्रभूदयाल बन्दर को तुम्हारे फ्लैट से पकड़ कर ले गया है ।”
“गिरफ्तार करके ?”
“नहीं । फिलहाल बन्दर पर कोई इल्जाम नहीं लगाया है । फिलहाल तो वह उसे क्वेश्चनिंग के लिए हैडक्वार्टर ले गया है । क्या बन्दर को घेर लेने का मतलब यह नहीं है कि प्रभू को तुम्हारी भी तलाश होगी जहां जहां भी तुम जाते हो, उन सब जगहों पर उसने निगरानी के लिए अपने आदमी लगा रखे हैं ताकि जहां भी तुम पहुंचो प्रभू को सूचना मिल जाए ।
“लेकिन वह ऐसा क्यों कर रहा है । वह मेरे नाम वारन्ट भी तो निकलवा सकता है ?”
“शायद अभी वह केवल क्वेश्चनिंग के लिये ही तुम्हें धरना चाहता हो ।”
“लेकिन उसका ध्यान मेरे और बन्दर की ओर आकर्षित कैसे हुआ ?” - सुनील ने पूछा ।
“टैक्सी !” - उसी क्षण रमाकांत ने मुख्य सड़क पर जाती हुई एक टैक्सी को आवाज दी ।
टैक्सी रूक गई ।
दोनों टैक्सी की पिछली सीट पर जा बैठे ।
“रायल होटल ।” - रमाकांत टैक्सी ड्राइवर से बोला ।
ड्राइवर ने टैक्सी फिर से स्टार्ट कर दी ।
“वहां क्या करने जा रहे हो ?”
“वहां मैंने तुम्हारे लिए एक कमरा बुक करवा दिया है और तुम्हारा जरूरी सामान भी वहां पहुंचा दिया है । रायल होटल में प्रभूदयाल को तुम्हारी भनक भी नहीं पड़ेगी ।”
“क्या ऐसी ही गम्भीर बात हो गई है ?”
“प्रभूदयाल के रवैये से तो यही लगता है ।”
सुनील चिन्तित हो उठा ।
“वह सन्देह के आधर पर ही तुम्हारे पीछे पड़ा हुआ है । उसे अभी तुम्हारे विरुद्ध कोई ठोस सबूत नहीं मिला है वर्ना वह बहुत पहले ही तुम्हें रगड़ देता । अगर उसने बन्दर को फांस लिया तो समझ तो तुम भी गये बारह के भाव ।”
“लेकिन प्रभूदयाल का ध्याल मेरे और बन्दर की ओर आकर्षित कैसे हुआ ?” - सुनील ने फिर अपना प्रश्न दोहराया ।
“बस, उसका तुक्का भिड़ गया ।”
“कैसा तुक्का ?”
“मैने तुम्हें बताया था न कि प्रभूदयाल के हाथ में ऐसा सूत्र लग गया है जिसके द्वारा वह हत्यारों में से एक को बड़ी आसानी से शिनाख्त कर सकता है ।”
“एक ऐसे सूत्र का जिक्र तो तुमने किया था जिसे कि प्रभू बेहद गुप्त रख रहा है ।”
“वह सूत्र लक्की स्ट्राइक के सिगरेट का एक पिया हुआ टुकड़ा था ।”
“क्या मतलब ?” - सुनील चौंक कर बोला ।
“प्रभूदयाल को कमल मेहरा के फ्लैट के सामने एक लक्की स्ट्राइक का टुकड़ा मिला था ।”
“इससे क्या होता है !” - सुनील बोला - “अकेला मैं ही तो लक्की स्ट्राइक नहीं पीता हूं ।”
“ठीक है लेकिन यह एक विदेशी सिगरेट है और पिछले दिनों कई विदेशी सिगरेटों का आयात भारत में बन्द हो गया है । तुम तो लक्की स्ट्राइक के पैकेट अमरीकी दूतावास से मार लाते हो या ब्लैक में खरीद लेते हो । हर किसी को तो वह सहूलियत नहीं है । मतलब यह है प्यारे कि लक्की स्ट्राइक सिगरेट पीने वाले लोग राजनगर में बहुत कम हैं ।”
“फिर भी अकेला मैं तो नहीं हूं ।”
“भई, इसीलिए तो मैंने पहले ही कहा था कि प्रभूदयाल का तुक्का भिड़ गया । उसे कमल मेहरा के फ्लैट के सामने लक्की स्ट्राइक का टुकड़ा मिला और तुम्हारे दुर्भाग्यवश उसका ध्यान तुम्हारी ओर आकर्षित हो गया । वह कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गया कि तुम्हारा सारी गड़बड़ में कुछ न कुछ हाथ जरूर है । उसने बेहद सावधानी बरतते हुए दीपक लाज में रहने वाले लोगों से तफ्तीश की कि वे खुद या उनका कोई जानकार जो दीपक लाज में मिलने आता हो लक्की स्ट्राइक तो नहीं पीता । जवाब नकारात्मक मिला तो प्रभू का सन्देह पक्का हो गया और वह तुम पर चढ दौड़ा । वह तुम्हारे फ्लैट पर पकड़ने तुम्हें गया लेकिन मिल गया बन्दर और प्रभू को तुम्हारा दूसरा साथी भी जंच गया । अब वह बन्दर की कमल मेहरा के फ्लैट के सामने रहने वाले अंग्रेज से और सुमित्रा देवी से शिनाख्त करवायेगा ।”
“अच्छा मान लिया वह सिगरेट का टुकड़ा मैंने ही पी कर फेंका था वहां लेकिन प्रभू यह दावा कैसे कर सकता है कि मै वहां कल शाम पांच बजे ही मौजूद था । सम्भव है कि वहां कल सुबह होऊं या उससे पिछले दिन वहां गया होऊं । केवल एक सिगरेट के टुकड़े की मौजूदगी यह तो सिद्ध नहीं कर सकती कि मैं हत्या के ही समय वहां था ।”
“ठीक है भाई, तुम्हारी दलील बहुत वजनी है । लेकिन अब इसका क्या किया जाए कि प्रभू दयाल का तुक्का काम कर गया । और इस बात से तुम भी इन्कार नहीं कर सकते कि उसने एक दम सही ठिकाने पर चोट की है ।”
“उस काले हैट वाले का क्या हुआ जिसका मैंने तुम्हें यूथ क्लब के सामने से पीछा करवाने के लिए किया था ?” - सुनील ने कई क्षण बाद पूछा ।
“यार, वह काले हेट वाला तो बड़ा हरामजादा आदमी निकला ।” - रमाकांत बोला ।
“क्या हुआ ?”
“तुम्हारे क्लब में से जाने के लगभग आधे घंटे बाद वह क्लब के सामने से हिला । मैंने दिनकर को उसका पीछा करने के लिए पहले से ही कहा हुआ था । दिनकर फौरन ही एक स्कूटर लेकर उस टैक्सी वाले के पीछे लग गया । दिनकर के कथनानुसार थोड़ी देर तो टैक्सी साधारण गति से लिटन रोड की दिशा में बढती रही, फिर एकाएक शायद टैक्सी में बैठे काले हैट वाले को पत लग गया कि उसका पीछा किया जा रहा है फौरन ही टैक्सी लिटन रोड का रास्ता छोड़कर नगर की बाहरी सड़कों की ओर चल दी । दिनकर उसके पीछे स्कूटर भगाता रहा । टैक्सी विशालगढ हाइवे पर पहुंच कर एकाएक इस प्रकार रुक गई कि सामने का रास्ता एकदम ब्लाक हो गया । दिनकर इसकी अपेक्षा नहीं कर रहा था । ब्रेक लगाते भी उसका स्कूटर एकदम टैक्सी के समीप जा पहुंचा । टैक्सी की पिछली ओर से काले हैट वाला एक दम बाहर निकला और उसने दनकर पर छलांग लगा दी । दिनकर एकदम घबरा गया और इससे पहले कि दिनकर सम्भल पाता काले हैट वाले ने उसे घूंसों पर धर लिया । काले हैट वाला दिनकर की अच्छी खासी मरम्मत करके उसके अचेत शरीर को वहीं छोड़कर गायब हो गया । लगभग आधे घन्टे बाद दिनकर को होश आया और वह स्कूटर सम्भाले गिरता पड़ता वापिस क्लब लौट आया ।”
“मेरी सूरत देख रहे हो ?” - सुनील ने गम्भीर स्वर से पूछा ।
रमाकांत ने उसके चेहरे पर एक दृष्टि डाली और फिर उसके मुंह से एक आश्चर्य भरी सिसकारी निकल गई ।
“अरे !” - वह बोला - “क्या हुआ तुम्हें ? मैंने तो तुम्हारे चेहरे की ओर ध्यान ही नहीं दिया था ।”
“हां बेटा ।” - सुनील व्यंग्पूर्ण स्वर से बोला - “तुम क्यों देखोगे ?”
“यार, मैं तुम्हें रिपोर्ट देने में व्यस्त था । क्या हुआ है ?”
“उसी काले हैट वाले ने मेरे मुंह पर स्टीम रोलर फेर दिया है ।”
“क्या ? वह तुम से भी टकरा गाया ?”
“हां !”
“कहां ?”
“मैजेस्टिक सर्कल में । वह मुझे रिवाल्वर की नोक पर एक अंधेरी गली में ले गया । वहां वह तब तक पंचिंग बैग समझ कर मुझ पर घूंसे बरसाता रहा जब तक मैंने डाकू कहर सिंह का रिवाल्वर उसके हवाले नहीं कर दिया । और प्यारे जानते हो वह काले हैट वाला कौन था ?”
“कौन था ?”
“कमल मेहरा ।”
“कमल मेहरा ?” - रमाकान्त चौंक पड़ा - “असम्भव ।”
“प्यारेलाल, तुम तो केवल चौंके हो । मैं तो उसे कमल मेहरा का भूत समझ कर चीख ही पड़ा था ।”
“लेकिन सुनील ।” - रमाकान्त उत्तेजित स्वर से बोला - “यह असम्भव है । यह एक प्रमाणित तथ्य है कि कमल मेहरा मर चुका है । उसकी लाश की बीसियों विभिन्न व्यक्तियों द्वारा शिनाख्त हो चुकी है । शायद मैंने तुम्हें यह बताया नहीं कि कमल मेहरा विशालगढ की जेल में ढाई साल की सजा काट चुका है । वहां की पुलिस के पास कमल मेहरा की उगलियों के निशान उसके चित्र वगैरह हर चीज का रिकार्ड है । उस रिकार्ड से भी कमल मेहरा का मिलान किया जा चुका है । दीपक लाज के उस फ्लैट में मरने वाला और फ्लैट का मालिक निःसन्देह कमल मेहरा था ।”
“लेकिन यार हमने खुद अपनी आंखों से इसी काले हैट वाले को कमल मेहरा के फ्लैट का द्वार खोल कर निकल कर बाहर निकलते देखा था । इसी काले हैट वाले ने बन्दर की मरम्मत की थी । बाद में मैंने इसी आदमी के जबाड़े पर घूंसा जमा कर इसे अचेत कर दिया था और इसके हाथ से रिवाल्वर छीनी थी । मेरी आंखें धोखा कैसे खा सकती हैं ?”
“लेकिन जो मैं कह रहा हूं, वह भी सत्य है । कमल मेहरा मर चुका है ।”
“यार, कुछ समझ नहीं आ रहा है ।” - सुनील अपना माथा ठोकता हुआ बोला ।
“तुमने शाम का अखबार देखा है ?” - एकाएक रमाकांत बोला ।
“नहीं । क्यों ?”
“उसमें कमल मेहरा का चित्र छपा है ।”
“कौन से अखबार में ?”
“सभी में छपा है । ‘ब्लास्ट’ में भी ।”
उसी समय टैक्सी रायल होटल की लाबी में आ रुकी ।
सुनील ने टैक्सी का बिल चुका दिया ।
दोनों होटल में घुस गये ।
रमाकान्त ने काउन्टर से चाबी ले ली ।
होटल के रिसेप्शन के सामने ही बुक स्टाल था । सुनील ने स्टाल से एक ‘ब्लास्ट’ का ईवनिंग एडीशन ले लिया ।
रमाकान्त उसे तीसरी मन्जिल के एक कमरे में ले आया ।
सुनील तब तक अखबार में छपी मेहरा की तस्वीर को कई बार देख चुका था ।
“तस्वीर देखी ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“हां ।”
“क्या काले हैट वाला ही था ?”
“नहीं ।”
“फिर ?”
“इसका मतलब यह हुआ कि कल हम कमल मेहरा के फ्लैट में जिस आदमी को कमल मेहरा समझ बैठे थे, वह वास्तव में कमल मेहरा नहीं था ।”
“यह तो प्रत्यक्ष है लेकिन तुम उसे कमल मेहरा समझ कैसे बैठे ?”
“बन्दर के कारण, सुनील बोला, “क्योंकि वह काले हैट वाला कमल मेहरा के फ्लैट में से निकला था इसलिये बन्दर कूदकर इस नतीजे पर पहुंच गया कि वही कमल मेहरा था । अब मुझे भी बन्दर और काले हैट वाले में हुआ वार्तालाप याद आ रहा है । काले हैट वाले ने अपने मुंह से एक बार भी नहीं कहा था कि वह कमल मेहरा है । बन्दर ने उससे पूछा था कि क्या वह कमल मेहरा है ? उत्तर में उसने कहा - तुमसे मतलब ? - बन्दर ने फिर वही प्रश्न पूछा था तो उसने कहा था - मान लो, फिर ? - रमाकान्त, अब इस बात में सन्देह की रंचमात्र भी गुंजायश नहीं रह गई कि उसी आदमी ने कमल मेहरा की हत्या की थी । वह आदमी कमल मेहरा के फ्लैट में डाकू कहर सिंह का रिवाल्वर चुराने के लिये घुसा था । वह फ्लैट में से रिवाल्वर खोज पाने में सफल भी हो गया था लेकिन इससे पहले वह फ्लैट में से बाहर निकल पाता दुर्भाग्यवश कमल मेहरा वापिस आ गया । वह आदमी फंस गया । अपनी जान बचाने का उसे एक ही तरीका सूझा और वही उसने अपनाया भी । जिस समय कमल मेहरा बैडरूम में पहुंचा उसी आदमी ने डाकू कहर सिंह की ही रिवाल्वर से कमल मेहरा को शूट कर दिया । लेकिन दुर्भाग्य ने अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ा था । वह फ्लैट से बाहर निकालने ही वाला था कि बाहर हम पहुंच गये और बन्दर ने काल बैल बजानी शुरू कर दी । वह आदमी डाकू कहर सिंह की रिवाल्वर थामे चुपचाप फ्लैट के भीतर खड़ा रहा । उसका ख्याल होगा कि उत्तर न मिलने पर घन्टी बजाने वाला स्वयं ही वापिस लौट जायेगा । लेकिन बन्दर तो आया ही फ्लैट के भीतर घुसने के इरादे से था । उसने चाबी लगा कर फ्लैट का ताला खोला और भीतर घुस गया । वह आदमी अर्थात कमल मेहरा का हत्यारा फिर फंस गया लेकिन इस बार भी उसे एक शानदार तरकीब सूझ गई या यूं कहो कि बन्दर ने सुझाई । उसने बहाना किया कि वही कमल मेहरा है और उसने बन्दर को उठाकर फ्लैट से बाहर फेंक दिया । लेकिन बन्दर पर तब तक जनून सवार हो चुका था । बजाय इसके कि वह चुपचाप वहां से दफा हो जाता उसने फिर द्वार पीटना शुरू कर दिया और कथित कमल मेहरा को फाइट के लिये चेलैंज करने लगा । उस आदमी ने घबरा कर जल्दी से फिर द्वार खोल दिया क्योंकि उसे भय था कि अगर बन्दर के शोर से बाहर इमारत में रहने वाले और लोग इकट्ठे हो गये तो यह रहस्य खुल जायेगा कि वह कमल मेहरा नहीं बल्कि खुद ही कोई चोर है । इस बार उस आदमी ने बन्दर को भी शूट करके निकल भागने का विचार कर लिया । इससे पहले कि वह आदमी बन्दर को शूट कर पाता मैंने उस पर छलांग लगा दी । मैं और बन्दर उसे कमल मेहरा के फ्लैट में अचेत छोड़कर भाग आए थे और बन्दर वह रिवाल्वर भी साथ ले आया था । क्या ख्याल है ।”
“तुम्हारी थ्योरी तो वजनदार लगती है ।” - रमाकान्त प्रभावित स्वर से बोला ।
“रमाकान्त, मैं दावा करता हूं, वास्तव में यही हुआ है । यही थ्योरी है जो सारी पहेलियां हल कर देती है । पहले जब उस काले हैट वाले आदमी को ही कमल मेहरा समझ रहे थे तो मैंने कहा था कि या तो कमल डाकू कहर सिंह की रिवाल्वर से नहीं मरा या दूसरी रिवाल्वर के स्वामी कुंवर नारायण सिंह ने कोई गड़बड़ की है या फिर वैसी ही कोई तीसरी रिवाल्वर भी होनी चाहिए । वास्तव में तीनों ही बातें गलत थीं । उस समय हमे यह बात नहीं सूझी कि सम्भव है मरने वाला कमल मेहरा ही न हो ।”
“लेकिन काले हैट वाला तुम्हारे पीछे कैसे लग गया ?”
“मेरा ख्याल है काले हैट वाले का सुमित्रा देवी से कोई सम्बन्ध है क्योंकि जब मैं सुमित्रा से मिलने उसके फ्लैट पर गया था उसने चुपचाप किसी को फोन किया था । मेरे पूछने पर उसने बताया था कि उसने ‘ब्लास्ट’ के आफिस में फोन करके मेरे बारे में यह कनफर्म किया था कि मैं वाकई ‘ब्लास्ट’ का प्रतिनिधि हूं । बाद में मैंने दफ्तर फोन करके रेणु से इस विषय में पूछा था । रेणु ने बताया था कि ऐसी कोई काल नहीं आई थी । प्रकट है कि सुमित्रा ने उस समय ‘ब्लास्ट’ के आफिस को नहीं उस काले हैट वाले को ही फोन किया था ।”
“क्यों ?”
“ताकि वह मुझे वहां से पिक अप कर ले और किसी प्रकार मुझसे डाकू कहर सिंह वाली रिवाल्वर वसूल कर सके । मेरे से सबसे बड़ी भूल यह हुई रमाकात, कि मैंने समझा कि सुमित्रा देवी ने मुझे पहचाना नहीं है । वास्तव में सुमित्रा देवी मुझे देखते ही पहचान गई थी लेकिन उसने यह बात मुझ पर प्रकट नहीं होने दी थी । सुमित्रा ने पुलिस को सूचना देने के स्थान पर काले हैट वाले को फोन किया था । ताकि वह मेरे पीछे लग जाए ।”
“काले हैट वाले को तो तुम यूथ क्लब में डाज दे गये थे उसने फिर तुम्हें मैजेस्टिक सर्कल में कैसे ढूंढ लिया ?”
“बड़ा आसान ।” - सुनील सहज स्वर से बोला - “सुमित्रा मेरा नाम भी जान गई थी और यह भी जान गई थी कि मैं ब्लास्ट का रिपोर्टर हूं । झूठ मैं इसलिये नहीं बोल सकता था क्योंकि मैं जानता था कि वह फोन करके चैक कर लेगी । अब यह दूसरी बात है कि वास्तव में उसने चैक किया या नहीं । इतनी जानकारी द्वारा मेरे फ्लैट का पता पा लेना कोई कठिन काम नहीं था । काले हैट वाला मेरे फ्लैट की निगरानी कर रहा होगा । मैंने बन्दर को हर्नबी रोड के मोड़ पर आने के लिये फोन किया था । काले हैट वाले ने बन्दर को भी पहचान लिया होगा । उसने बन्दर का पीछा किया होगा और इस प्रकार मुझ तक पहुंच गया होगा । इसके बाद वह फिर मेरे पीछे लग गया और पहला मौका मिलते ही उसने मुझे दबोच लिया ।”
“इसका मतलब तो यह हुआ कि सुमित्रा भी अपराधिनी है ।” - रमाकांत विचारपूर्ण स्वर से बोला ।
“प्रत्यक्ष है ।”
“तो फिर तुम पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं करते ?”
“मेरी थ्योरी कौन मानेगा ? जो कुछ भी मैंने कहा है उसकी नींव तो अनुमान पर ही टिकी हुई है । अपनी बात ही सत्यता प्रमाणित करने के लिये सबूत कहां से लाऊंगा ?”
“अब क्या इरादा है ?”
“इरादा तो एक ही है और वह यह है कि किसी प्रकार अपनी गरदन बच जाये । और उसके लिये भी एक ही लाइन बाकी रह गई है । वह है सुमित्रा । प्यारे, सुमित्रा के पीछे हाथ धोकर पड़ जाओ । उसके पिछले जीवन के बखिये उधेड़ कर रख दो । कम से कम एक तो ऐसी बात खोद निकालो जिसके दम पर उस सुमित्रा को अपराधिनी सिद्ध कर सकें ।”
“मैं कोशिश करूंगा ।”
“अभी तुमने बताया था कि कमल मेहरा विशालगढ में ढाई साल की जेल काट चुका है ।”
“हां ।” - रमाकांत बोला - “लगभग सात साल पहले वह विशालगढ में चोरी के इल्जाम में पकड़ा गया था । जिस फर्म में वह नौकरी करता था उसकी तिजोरी में से कमल मेहरा ने लगभग एक लाख रुपया उड़ा लिया था । वह पकड़ा गया था लेकिन उसने यह नहीं बताया था कि उसने चोरी का रुपया कहां छुपाया है । उसे ढाई साल की सजा हुई थी । जेल से छूटने के बाद भी पुलिस ने उस पर कड़ी निगरानी रखी थी लेकिन छुपाये हुए धन का सुराग नहीं लग सका था । अन्त में उन्होंने यह सोचकर कमल मेहरा का पीछा छोड़ दिया था कि शायद खुद कमल मेहरा के पल्ले में कुछ नहीं पड़ा । शायद उसका कोई साथी था जो सारा माल हजम कर गया था और कमल मेहरा बगलें झांकता रह गया था । लेकिन अब तो यह लगता है कि वह कुछ साल की गुमनामी की जिन्दगी गुजर कर ठाठ से राजनगर में आ बसा था और उसी पुराने चोरी के माल के दम पर रईसों जैसी जिन्दगी गुजार रहा था ।”
“राजनगर की पुलिस को यह कैसे पता लगा था कि कमल मेहरा पुराना अपराधी है और जेल काट चुका है ?” - सुनील ने पूछा ।
“यह बात केवल संयोगवश ही पता लग गई थी । राजनगर पुलिस हैडक्वार्टर में एक आदमी है जो पहले विशालगढ में सब इन्सपेक्टर था । उसने कमल मेहरा को पहचान लिया था एक बार जरा सा सूत्र मिल जाने पर तो पुलिस गड़े मुर्दे उखाड़ने में कमाल कर देती है ।”
“तुम्हें ये सब बातें कैसे मालूम हो जाती हैं ?”
“क्या करोगे जान कर ? तुम आपने काम से काम रखो ।”
“फिर भी थोड़ा संकेत तो दो ।”
“संकेत के तौर पर केवल इतना जान लो कि रमाकांत के कनेक्शन हर जगह है और इसमें पुलिस हैडक्वार्टर भी अपवाद नहीं है ।”
सुनील चुप हो गया ।
“रमाकांत ।” - कई क्षण बाद सुनील बोला - “सुबह के अखबार में सुमित्रा देवी ने अपने बयान में केवल एक ही गोली का जिक्र किया था जबकि वास्तव में दो गोलियां चली थीं ।”
“हां” - रमाकांत बोला - “लेकिन ईवनिंग एडीशन में सुमित्रा देवी का दूसरा बयान छपा है । वह कहती है कि वास्तव में उसने दो गोलियां चलने की आवाज सुनी थी और दोनों गोलियां के चलने के समय में एक मिनट से अधिक का अन्तर नहीं था । लेकिन तुम्हारी बातों से लगता है कि पहली गोली चलने के कम से कम पांच मिनट बाद दूसरी गोली चली थी । पहली गोली बन्दर के द्वार खटखटाने से भी पहले चल चुकी थी और इस गोली का शिकार कमल मेहरा हुआ था । दूसरी गोली तुम्हारे और काले हैट वाले के अर्थात कमल मेहरा के झगड़े के दौरान में चली थी । इन दोनों घटनाओं में कम से कम पांच मिनट का अन्दर तो था ही ।”
“प्रत्यक्ष है कि सुमित्रा देवी कमल मेहरा की हत्या का अपराध हम पर लादने के लिये झूठ बोल रही है ।” - सुनील बोला ।
“और फिर एक बात और है ।” - रमाकांत बोला - “यह बात तो निर्विवाद है कि फ्लैट में दो गोलियां चली थीं । पहली गोली की आवाज तो केवल सुमित्रा देवी को सुनाई दी जबकि दूसरी गोली की आवाज उस फ्लैट पर रहने वाले हर व्यक्ति ने सुनी क्योंकि तुम और बन्दर अभी गलियों में भाग ही रहे थे कि बाकी फ्लैट के द्वार खटाखट खुलने लगे थे । आखिर पहली गोली की आवाज फ्लैट पर रहने वाली बाकी लोगों के कान में क्या नहीं पड़ी, उसे केवल सुमित्रा ने ही क्यों सुना ?”
“इसका एक उत्तर मेरी समझ में आता है ।” - सुनील बोला ।
“क्या ?”
“पहली गोली चलने के समय कमल मेहरा के फ्लैट का द्वार बन्द था और गोली फ्लैट के एकदम भीतरी भाग में चली थी । फ्लैट का द्वार बन्द होने से भीतर की आवाज बाहर बहुत कम पहुंचती है । लेकिन दूसरी गोली चलने के समय फ्लैट का द्वार खुला था और गोली भी मुख्य द्वार के एकदम पास चली थी । सुमित्रा को पहली गोली की भी आवाज इसलिये सुनाई दे गई थी क्योंकि सम्भवतः उसका ध्यान विशेष रूप से कमल मेहरा के फ्लैट की ओर था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि सुमित्रा का उस काले हैट वाले से जरूर कोई सम्बन्ध था ।”
रमाकांत गम्भीर मुद्रा बनाये चुपचाप बैठा रहा ।
“जौहरी विश्व नगर तो लौट आया है ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं ।” - रमाकांत बोला - “लेकिन उसने टेलीफोन किया था ।”
“कोई नई बात ?”
“डाकू कहर सिंह के विषय में उसने कुछ जानकारी इकट्ठी की है ।”
“क्या ?”
“जौहरी ने विश्वनगर के एक पुराने रहने वाले को खोज निकाला था । वह आदमी उन दिनों विश्वनगर के उस जागीरदार की हवेली में नौकर था, जहां डाकू कहर सिंह ने अपनी जिन्दगी का आखिरी डाका डाला था । वहीं उसकी पुलिस से आखिरी मुठभेड़ हुई थी और वही डाका डाकू कहर सिंह के गिरोह के पतन और उसकी मृत्यु का कारण बना था ।”
“किस्सा क्या है ?” - सुनील उतावले स्वर से बोला ।
“सुनो । डाकू कहर सिंह अपने दल बल के साथ विश्व नगर के उस जागीदार की हवेली में डाका डालने आया था । कहर सिंह और उसके साथियों ने हवेली के कई आदमियों को कत्ल कर दिया था और हवेली का कितना ही धन लूट लिया था । लूट में लाखों रुपये के हीरे जवाहरात, लाखों का सोना और नकद रूपया शामिल था । लेकिन किसी प्रकार विश्व नगर की पुलिस को हवेली के इस डाक की सूचना मिल गई । उन्हीं दिनों डाकू कहर सिंह के दमन के लिये पुलिस का भी एक स्पेशल दस्ता विश्व नगर में आया हुआ था । परिणाम यह हुआ था कि जिस समय डाकू कहर सिंह अपने दल बल के साथ वहां से कूच कहने का इरादा कर रहा था उसी समय पुलिस ने हवेली का घेर लिया था । विश्व नगर के नागरिक भी कहर सिंह के आतंक से बुरी तरह दुखी थे । उन्होंने भी बड़ी बहादुरी से पुलिस का साथ दिया और डाकुओं का डट कर मुकाबला किया । खूब घमासान लड़ाई हुई । कहर सिंह के दल के लगभग सभी आदमी मारे गये लेकिन जाने कैसे डाकू कहर सिंह न केवल हवेली में से निकल भागने में सफल हो गया । बल्कि वह लूट का माल भी अपने साथ ले गया । कहर सिंह के हवेली में से निकल भागने के थोड़ी देर बाद ही पुलिस को मालूम हुआ कि कहर सिंह भाग निकला है । पुलिस के सिपाही कहर सिंह की तलाश में चारों ओर फैल गये । विश्व नगर से बाहर निकलने वाले हर रास्ते पर नाकाबंदी कर दी गई और विश्व के भीतर चप्पे चप्पे में कहर सिंह की तलाश शुरू हो गई ।”
“वह मिला ?”
“नहीं । पुलिस ने हर सम्भावित स्थान खोज डाला लेकिन डाकू कहर सिंह की हवा भी नहीं मिली । अगले चार दिनों में पुलिस ने विश्व नगर का कोना कोना छान मारा लेकिन कहर सिंह को तो जैसे जमीन निगल गई । अत में पुलिस ने यह सोचकर अपनी सरगर्मियों में ढील आ जाने दी कि किसी प्रकार डाकू कहर विश्व नगर से बाहर निकल भागने में सफल हो गया है ।”
“पुलिस की इतनी तगड़ी निगरानी के बाद भी ?”
“यह पुलिस की धारणा थी लेकिन वास्तव में, जैसा कि बाद में मालूम हुआ, कहर सिंह विश्व नगर में ही छुपा हुआ था ।”
“कहां ?”
“विश्व नगर की आबादी के बाहर एक बहुत पुरानी गढी से खण्डहर फेले हुए थे । उन खण्डहरों की एक चूहे जैसी सुरंग में पूरे चार दिन कहर सिंह दम साधे पड़ा रहा । पुलिस ने उन खण्डहरों की खूब तलाशी ली थी लेकिन वह सुरंग उन्हें नहीं मिल पाई थी । चार दिन डाकू कहर सिंह वहां पड़ा पड़ा भूख और प्यास से तिलमिलाता रहा । वह अधमरा हो गया । फिर पुलिस की खोज भी कुछ कम हो गई लेकिन फिर भी उसका वहां से निकलने का हौसला नहीं हुआ ।”
“लेकिन सब बातें जौहरी को कैसे मालूम हुई ?”
“बताया न,उसे हवेली के एक पुराने नौकर ने बताई हैं ।”
“और वह पुराना नौकर यह सब कुछ कैसे जानता है ?”
“भई यह बातें छुपी नहीं रहती हैं । मौके पर तो किसी को कुछ नहीं मालूम होता लेकिन बाद में किसी ने किसी रास्ते से बात की छोटी से छोटी डिटेल सामने आ जाती है । वह बूढा नौकर तो कहता है कि उन दिनों कहर सिंह के अंत की कहानी विश्व नगर का बच्चा बच्चा जानता था ।”
“खैर, फिर ?”
“चौथे दिन शाम को उन खंडहरों की बगल में से देवपाल मेहरा नाम का एक आदमी निकला । किसी तरह हौसला करके कहर सिंह अपने छुपने के स्थान में से बाहर निकल आया । उसने देवपाल मेहरा को ढेर सारे धन का लालच देकर उससे प्रार्थना की कि वह किसी प्रकार उसे उन खंडहरों से बाहर निकालकर किसी सुरक्षित स्थान पर ले चले जहां उसे खाने पीने को भी कुछ मिल सके । मोटी रकम के लालच में देवपाल मेहरा डाकू कहर सिंह की मदद करने को तैयार हो गया । दो घंटे बाद जब कि रात का काफी अंधकार छा गया देवपाल मेहरा खंडहर की बगल में से गुजरने वाली उसी सड़क पर से फिर गुजरा लेकिन इस बार वह एक गाड़ी में सवार था जिसमें भूसा और चूरी भरी हुई थी । खेती-बाड़ी ही देवपाल मेहरा का व्यवसाय था इसलिये किसी ने उस पर संदेह नहीं किया । विश्वनगर के भीतर पुलिस की सरगर्मी बहुत घट गई थी । डाकू कहर सिंह भूसे और चूरी से भरी उस बैलगाड़ी मे छुपकर वापिस विश्वनगर की आबादी में पहुंच गया । मानसिंह रोड पर देवपाल मेहरा का छोटी ईंट और पत्थर की सिलों के फर्श वाला ढाई मंजिला खानदानी मकान था । देवपाल मेहरा का इकलौता लड़का फौज में था और वह अकेला ही उस मकान मे रहता था । उस मकान के एक तहखाने में उसने डाकू कहर सिंह के मृतप्रायः शरीर में जान पड़ने लगी । वह मकान के उस तहखाने में पड़ा पुलिस की नाकाबंदी हटाने की प्रतीक्षा करता था । देवपाल मेहरा मकान को ताला लगाकर सुबह चला जाता और शाम को लौटता ।”
“जमींदार की हवेली से लूटे हुए धन का क्या हुआ ?”
“वह सब उस समय भी डाकू कहर सिंह के पास था । नकद रुपये में से कई हजार रुपया उसने देवपाल मेहरा को दे दिया था लेकिन हीरे-जवाहारात और सोना जिनकी कीमत कई लाख रुपये थी उसने अपने ही पास रखी ।”
“खैर, फिर ?”
“फिर यह कि अधिक धन के लालच में देवपाल मेहरा की नीयत खराब होने लगी । लेकिन वह स्वभाव से डरपोक आदमी था, इसलिए फौरन कुछ कर पाने की हिम्मत न कर सका । डाकू कहर सिंह कोई मूर्ख तो था नहीं । उसे भी देवपाल मेहरा के व्यवहार में अंतर दिखाई देने लगा । लेकिन उस समय वह पूरी तरह देवपाल मेहरा की दया पर था इसलिये उस ने चुप रहना ही उचित समझा ।”
“फिर ?”
“फिर एक रात देवपाल मेहरा ने डाकू कहर सिंह से कहा कि पुलिस की नाकाबंदी उठ गई है और अब वह चुपचाप विश्वनगर से बाहर निकल जाये । कहर सिंह तैयार हो गया । आधी रात को वह देवपाल मेहरा का हजार हजार धन्यवाद करके उसके मकान में से बाहर निकल आया । अभी वह मकान से पचास कमदम ही दूर गया था कि देवपाल मेहरा ने उसे गोली से उड़ा दिया ।”
“क्या ?” - सुनील हैरानी से चीख उठा ।
“मैं ठीक कह रहा हूं । देवपाल मेहरा की इस बदमाशी की दास्तान विश्वनगर के इलाके में दंत कथा की तरह मशहूर है ।”
“फिर ?”
“देवपाल मेहरा लपक कर कहर सिंह के मृत शरीर के पास पहुंचा । उसने कहरसिंह की भूरपूर तलाशी ले डाली लेकिन उसे कुछ सौ नकद रुपयों के अतिरिक्त कहर सिंह के पास कुछ भी न मिला । लेकिन वह निराश नहीं हुआ । उसने समझा कि कहरसिंह ने धन को तहखाने में ही कहीं छुपा दिया है । उसको डाकू कहरसिंह के पास उसकी केवल दो अनोखी रिवाल्वरें मिली जो उसने आनी जेब में डाल लीं । तब तक गोली की आवाज सुनकर वहां लोग इकट्ठा होने लगे । कहर सिंह जैसे डाकू को यूं सहज ही खत्म कर देने के लिए देवपाल मेहरा की बहुत तारीफें हुई । किसी ने उससे अधिक सवाल नहीं पूछे और वह वापिस अपने मकान में लौट आया । वापिस आकर उसने तहखाने का चप्पा छान माना, उसकी एक एक फुट जमीन खोद डालीं, तहखाने की एक एक दीवार ठोक बजा कर देख ली, सारे घर की तालाशी ले डाली लेकिन धन का कहीं नामोनिशान नहीं मिला । देवपाल मेहरा की नजर में यह एक करिश्मा हो गया । वह अपनी पूरी जिन्दगी में इस रहस्य को नहीं समझ सका कि डाकू कहरसिंह द्वारा लूटी हुई दौलत आखिर गई तो गई कहां ?”
“बाद में उस धन का कुछ पता चला ?”
“बाद में ? भाई साहब आज तक लाखों रुपयों की उस दौलत की हवा नहीं मिली है ।”
“और कुछ ?
“बाद में देवपाल मेहरा ने अपने खेत वगैरह बेच दिए थे । वैसे भी उसके पास डाकू कहर सिंह का दिया हुआ कई हजार रुपया था । इन्हीं दिनों विश्व नगर की तरक्की होनी शुरू हो गई थी । कस्बे को एक सुंदर नगर का रूप देने के लिये आसपास के पेड़ काटे जाने लगे थे । देवपाल ने एक पार्टनर को साथ मिलाकर जंगल काटने के ठेके लेने शुरू कर दिये ।”
“वह पार्टनर कौन था ?”
“तुम्हें सुनकर हैरानी होगी कि वह पार्टनर कुंवर नारायण सिंह का बाप था ।”
“तुम्हें यह जानकर हैरानी होगी कि मुझे तुम्हारी इस सूचना से कतई हैरानी नहीं हुई है ।”
रमाकांत हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
“तुम अपना रिकार्ड चालू रखो ।” - सुनील बोला ।
“देवापल मेहरा के पास जो डाकू कहर सिंह की दो रिवाल्वरें रह गई थीं उन्हीं में से एक उसने अपने पार्टनर कुंवर नारायण सिंह को दे दी थी और दूसरी कुछ दिनों बाद देवपाल मेहरा का वह लड़का ले गया था जो फौज में था । उसके बाद कुंवर नारायण सिंह के बाप ने वह रिवाल्वर तलाश करने का बहुत प्रयत्न किया था लेकिन उसे सफलता नहीं मिली थी ।”
“और प्यारे देवपाल मेहरा का ही पोता कमल मेहरा है ।”
“लगता तो यही है ।”
“और कुछ ?”
“और यह कि देवपाल मेहरा की मृत्यु बड़े संदिग्ध ढंग से हुई थी ।”
“क्या हुआ था ?”
“जंगल में पेड़ काटे जा रहे थे । देवापल मेहरा इन्स्पेक्शन के लिये जंगल में घूम रहा था कि एक पेड़ उसके ऊपर आ गिरा था । उसकी तत्काल मृत्यु हो गई थी । हालांकि सिद्ध कुछ भी नहीं हो सका था लेकिन लेबर की और विश्व नगर निवासियों की भी यह आम धारणा थी कि देवपाल मेहरा को कुंवर नारायण सिंह के बाप ने जानबूझ कर साजिश करके मरवाया था । देवपाल मेहरा का इकलौता उत्तराधिकारी उसका फौज वाला लड़का था लेकिन उसका कुछ पता नहीं चल पा रहा था इसलिये कुंवर नारायणसिंह का बाप सारे बिजनेस का इकलौता स्वामी बन बैठा था । बाद में पता लगा कि वह लड़का भी फौज में कहीं मर खप गया था । उसके बारे में किसी को यह भी पता नहीं था कि उसने शादी वगैरह भी की थी या नहीं । लेकिन कमल मेहरा की मौजूदगी यह सिद्ध करती है कि वह बीवी बच्चे वाला आदमी था । आज भी कमल मेहरा जीवित होता तो वह कुंवर नारायण सिंह से पार्टनरशिप की सम्पति का आधा भाग मांग सकता था ।”
“विश्व नगर में देवपाल मेहरा का पुराना मकान अब भी है ?” - सुनील ने पूछा ।
“है तो सही । लेकिन अब उसकी हालत एक खंडहर जैसी है ।”
“कहां है वह ?”
“मानसिंह रोड पर ।”
“कोई नम्बर वगैरह ?”
“मकान का पुराना नम्बर दो सौ आठ है ।”
“दो सौ आठ, मानसिंह रोड !” - सुनील बड़बड़ाया ।
“हां, क्या बात है ?”
“मैं विश्वर नगर जा रहा हूं ।”
“इस समय ?” - रमाकांत हैरानी से बोला ।
“हां, क्या हुआ समय को । अभी साढे दस ही तो बजे हैं ।”
“कैसे जाओगे ?”
“प्लेन से । तुम जरा बुकिंग एजेन्सी को फोन करके पूछो कि क्या फौरन ही विश्व नगर जान वाले किसी प्लेन में सीट मिल सकती है ।”
“मुझे तो असम्भव लगता है ।”
“तुम पूछो तो सही ।”
रमाकांत टेलीफोन की ओर बढ गया । कितनी ही देर वह टेलीफोन उलझा रहा । फिर उसने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया और सुनील से बोला - “तुम्हारी तकदीर अच्छी है । साढे ग्यारह बजे तक प्लेन विश्व नगर जा रहा है और उसमें एक सीट भी खाली है । अभी केवल आधा घंटा पहले किसी ने अपनी सीट कैंसिल करवाई है और संयोगवश वेटिंग लिस्ट में कोई नाम नहीं है । तुम फौरन एयरोड्रम पहुंच जाओ । एजेंसी का एक आदमी तुम्हारा टिकट वगैरह लिये तुम्हें गेट पर खड़ा मिलेगा ।”
“थैक्यू !” - सुनील बोला ।
“और मैंने विश्व नगर के जौहरी को भी फोन कर दिया है । वह विश्व नगर हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आ जायेगा ।”
‘फाइन !” - सुनील सन्तुष्ट स्वर से बोला और वह उठ खड़ा हुआ ।
“यूं ही जाओगे ?” - रमाकांत ने पूछा ।
“क्या मतलब ?”
“मेरा मतलब है यह पिटा हुआ मुंह लेकर जाओगे ।”
“क्या हर्ज है ? इन्डियन एयरलाइंस कारपोरेशन की कोई ऐसी शर्त तो नहीं है कि अगर यात्री का चेहरा सूजा हुआ होगा तो वह हवाई जहाज में सफर नहीं कर सकता क्योंकि उसका चेहरा देखकर एयर होस्टेस का हार्ट फेल हो जाने का खतरा है ?”
रमाकांत चुप हो गया ।
***
प्लेन लगभग डेढ बजे विश्व नगर एयरोड्रोम पर उतरा ।
रन-वे को एयरोड्रोम की मुख्य इमारत से अलग करने वाले रेलिंग के पास जौहरी खड़ा था ।
सुनील उसकी ओर बढ गया ।
“हलो !” - समीप पहुंच कर सुनील उसकी ओर अपना दायां हाथ बढाया हुआ बोला ।
“हलो, वैलकम टु विश्वनगर !” - जौहरी हाथ मिलाता हुआ बोला ।
“तुम अभी विश्व नगर में ही जमे हुए हो ?” - उसके साथ बाहर की ओर बढता हुआ बोला ।
“बस राजनगर वापिस लौटने ही वाला था कि रमाकांत का फोन आ गया कि आप विश्व नगर आ रहे हैं और मुझे आपको एयरोड्रोम पर रिसीव करना है । आप यहां कैसे आये हैं ? रमाकांत ने तो मुझे कुछ नहीं बताया ।”
“उसे खुद कुछ मालूम होता तो तुम्हें बताता न ।”
जौहरी हैरानी से सुनील का मुंह देखने लगा ।
“मैं हमेशा रमाकांत को उतना बताता हूं जितने से कम में उसका काम न चलता हो ताकि अगर अभी पुलिस रमाकांत से तफ्तीश भी करे तो वह पुलिस के लिए जरा भी लाभदायक सिद्ध न हो सके ।”
जौहरी चुप रहा ।
“मैं देवपाल मेहरा का पुराना घर देखना चाहता हूं ।”
“अच्छा ।” - जौहरी बोला ।
तब तक वे लोग एयरोड्रोम की इमारत से बाहर आ चुके थे ।
जौहरी ने एक टैक्सी को संकेत किया ।
टैक्सी उसके समीप आ खड़ी हुई ।
दोनों भीतर जा बैठे ।
“मानसिंह रोड !” - जौहरी बोला ।
टैक्सी चल पड़ी ।
“डाकू कहर सिंह के जमाने से अब तक विश्व नगर का बहुत विस्तार हो गया है ।” - जौहरी ने बताया - “जहां अब एयरोड्रोम है वहां चालीस साल पहले घना जंगल हुआ करता था और मानसिंह रोड तो वैसे भी विश्व नगर के एकदम दूसरे सिरे पर है ।”
“मतलब यह कि वहां पहुंचने में काफी समय लग जायेगा ।” - सुनील बोला ।
“घण्टा । वह भी इसलिए क्योंकि रात के दो बजने को हैं और रास्ते सुनसान पड़े हैं ।”
सुनील ने सीट की पीठ के साथ सिर टिका लिया ।
“वहां आप क्या करने जा रहे हैं ?” - जौहरी ने पूछा ।
“यूं ही जरा इमारत देखना चाहता हूं ।”
“एक बात आपको और बतानी है ।” - एकाएक जौहरी कुछ याद करता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“रात को लगभग दस बजे मैं हवेली के उस पुरानी नौकर से एक बार फिर मिला था जिसने डाकू कहर सिंह के बारे में मुझे सारी बातें बताई थीं । वह कहता था कि एक और आदमी भी उससे डाकू कहर सिंह के बारे में पूछताछ कर रहा था ।”
“अच्छा !” - सुनील चौंक कर बोला । उसके मानस पटल पर काले हैट वाले का चेहरा घूम गया ।
“जी हां ।”
“कौन था वह ?”
“यह मालूम नहीं हो सका है । बूढा कहता है कि वह लम्बा ओवरकोट पहने हुए था । जिसके कालर उठे हुए थे और उसके सिर पर काले रंग की फैल्ट हैट थी जो माथे पर इतनी अधिक झुकी हुई थी कि उठे हुए कालरों और फैल्ट के बीच में बूढे नौकर को उस आदमी को केवल आंखें दिखाई दे रही थी । उस आदमी ने जानकारी के बदले में बूढे को सौ रुपये दिये थे ।”
“और बूढे ने उसे सब कुछ बता दिया ।”
“वह एक बेहद बातूनी आदमी है, सुनील साहब । अगर वह अजनबी उसे एक पैसा न देता तो भी वह केवल किस्सागोई के शौक में और अपना महत्व जताने के लिये मशीन की तरह सारी दास्तान फिर दोहरा देता ।”
सुनील चुप हो गया ।
हजार रुपये के नोट के आधे भाग पर जो कुछ लिखा था, वह उसे अभी तक याद था । मन ही मन उसने वे शब्द फिर दोहराये ।
चौथी... उत्तरी... हाल कमरा... दो सौ... मानसिंह ।
दो सौ और मानसिंह के आगे के शब्दों का संकेत देने का मसाला उसे जौहरी द्वारा प्रेषित सूचनाओं से मिल गया था । देवपाल मेहरा के मकान का नम्बर दो सौ आठ था और मकान मानसिंह रोड पर स्थित था । अर्थात दो सौ और मानसिंह के आगे से जो शब्द कटकर कुंवर सिंह वाले नोट के टुकड़े पर पहुंच गये वे अवश्य ‘आठ’ और ‘रोड’ थे । लेकिन चौथी, उत्तरी और हाल कमरा इन तीन शब्दों का रहस्य अभी भी सुनील की समझ से परे था । हाल कमरे के बारे में उसने सोचा कि सम्भव है देवपाल मेहरा के मकान में कोई हाल कमरा हो लेकिन चौथी और उत्तरी का क्या अर्थ हो सकता है ?
सुनील ने अपने सिर को एक झटका दिया और उसने जेब में से लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाल लिया ।
दोनों ने सिगरेट सुलगा लिया ।
सिगरेट समाप्त होने तक टैक्सी मानसिंह रोड में प्रविष्ट हो गई
“यहां रोक दो ।” - जौहरी एकाएक टैक्सी ड्राइवर से बोला ।
टैक्सी रूक गई ।
दोनों बाहर निकल आए ।
सुनील ने टैक्सी का बिल चुका दिया ।
टैक्सी चल पड़ी । टैक्सी दृष्टि से ओझल होने तक वे लोग वहीं खड़े रहे ।
“आइये ।” - अन्त में जौहरी बोला ।
दोनों एक ओर चल दिए ।
“चालीस साल पहले यह विश्व लगर का सम्पन्न इलाका था ।” - जौहरी ने बताया - “लेकिन अब डवैलपमैन्ट के बाद यह विश्व नगर का घटिया इलाका हो गया है ।”
“हूं !” - सुनील ने हुंकार भरी ।
“यह मकान है ।” - जौहरी एक उजड़े से मकान की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
स्ट्रीट लाइट के धुंधले प्रकाश में सुनील उस मकान का निरीक्षण करने लगा ।
“ताला टूटा हुआ है ।” - एकाएक वह बोल पड़ा ।
“अच्छा !” - जौहरी आश्चर्यपूर्ण स्वर से बोला ।
वे मकान की टूटी सीढियां चढ कर मुख्य द्वार के सामने जा पहुंचे । वह एक पुराने जमाने का ताला था जिसमें चूड़ियों वाली चाबी इस्तेमाल होती है । किसी ने कुंडे में लोहे की छड़ डाल कर ताले को उमठ दिया था ।
सुनील ने द्वार को धकेल कर खोल दिया ।
“ऐसे भीतर जाना ठीक नहीं ।” - जौहरी उसका मंतव्य समझ कर बोला ।
“तुम आओ तो सही, यार ।” - सुनील बोला और भीतर घुस गया ।
जौहरी क्षण भर हिचकिचाया और फिर सुनील के पीछे हो लिया ।
उन्होंने अपने पीछे द्वार बन्द कर दिया ।
भीतर घुफ अंधेरा था ।
“तुम्हारे पास फ्लैश लाइट है ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं ।” - जौहरी बोला - “लेकिन छोटी सी पैन्सिल टार्च है ।”
“वही निकालो ।”
जौहरी ने फाउन्टेन पैन के आकार की एक टार्च अपनी जेब से निकाल कर सुनील को दे दी ।
सुनील ने टार्च जलाई । गहन अन्धकार में उस छोटी टार्च का सीमित प्रकाश भी पर्याप्त से अधिक मालूम हो रहा था ।
सुनील ने टार्च का प्रकाश आसपास डाला ।
वे एक बहुत बड़े आंगन में खड़े थे । आंगन की छत मकान की पूरी ऊंचाई जितनी ऊंची थी । एक ओर ऊपर की मन्जिल की ओर ले जाने वाली सीढियां थी । फर्श पर एक एक इंच मोटी धूल की पर्त जमी हुई थी और उस धूल में मरदाने जूतों के निशान स्पष्ट दिखाई दे रहे थे ।
“इस मकान में कोई हाल कमरा होना चाहिए ।” - सुनील बड़बड़ाया ।
“आपको कैसे मालूम ?” - जौहरी ने पूछा ।
सुनील चुप रहा । वह बड़ी गौर से धूल में बने बूटों के निशानों का अवलोकन करता रहा ।
उसने देखा धूल में कदमों के दो प्रकार के निशान थे । एक मरदाने बूटों के और दूसरे ऊंची एड़ी वाली सैन्डिल के । बूटों के निशान तो अव्यवस्थित ढंग से सारे आंगन में फैले हुए थे और अन्त में सीढियों की ओर बढ गए थे लेकिन सैन्डिल के निशान केवल मुख्य द्वार से सीढियों की ओर ही जाते दिखाई दे रहे थे । कई स्थानों पर सैन्डिल के निशान जूतों के निशानों के एक दम ऊपर बने हुए थे ।
“देखा कुछ ?” - सुनील बोला ।
“क्या ?” - जौहरी ने पूछा ।
“हाल ही में यहां एक पुरूष और एक स्त्री का आगमन हुआ है आदमी पहले आया था और औरत बाद में ।”
“यह आप कैसे कह सकते हैं ? सम्भव है दोनों साथ आये हों या स्त्री पहले आई हो ।”
“नहीं । अगर स्त्री पहले आई होती तो कहीं तो जूतों के निशान से सैन्डिल के निशान दबे दिखाई देते । अगर वे दोनों साथ आये होते तो जूतों के निशानों की तरह सैन्डिल के निशान भी सारे आंगन में फैले दिखाई देते और कई स्थानों पर दोनों निशान एकदम गडमड हो गये दिखाई देते । एक बात और गौर करने की है । सैन्डिल के निशान मुख्य द्वार से सीधे सीढियों की ओर गये हैं । अगर पुरूष बाद में आया होता तो उसने भी यह बात मार्क की होती और उसकी पहली प्रतिक्रिया यह होती कि वह आंगन में भटकने के स्थान पर सीढियों की ओर जाता । वास्तव में हुआ यह है कि आदमी किसी विशेष वस्तु की तलाश में सारे आंगन में घूमा है और जब वह वस्तु उसे नीचे नहीं मिली तो वह ऊपर की मंजिल की ओर बढ गया है । औरत शायद उसका पीछा कर रही थी । उसने भी यह देखा होगा कि अन्त में आदमी ऊपर गया है इसलिए वह इधर-उधर भटकने के स्थान पर सीधी सीढियों की ओर बढ गई थी ।”
जौहरी ने प्रशन्सात्मक दृष्टि से सुनील को देखा ।
“आओ ऊपर चलें ।” - सुनील बोला - “लेकिन एक दम किनारे पर चलना । इन निशानों पर पांव न पड़े ।”
“अच्छा ।” - जौहरी बोला ।
दोनों सीढियों की ओर बढ गए
सीढियों में भी उसी प्रकार धूल में कदमों के निशान दिखाई दे रहे थे । सुनील गौर से सीढियों पर बने सैन्डिल और जूतों के निशान देख रहा था ।
“जौहरी साहब !” - सुनील विचित्र स्वर से बोला - “एक शाक के लिए तैयार हो जाइए ।”
“क्या मतलब ?” - जौहरी चौंका ।
“ऊपर हमें एक लाश मिलने वाली है ।”
“आपको कैसे मालूम ?” - जौहरी हैरानी से बोला ।
“ऊपर चलो । बताऊंगा ।”
दोनों सीढियों के एकदम किनारे पर चलते हुए ऊपर पहुंच गये ।
सीढियां एक छज्जे पर खत्म होती थीं । जिसके उपर लकड़ी का रेलिंग लगा हुआ था और दूसरी ओर कमरों के द्वार दिखाई दे रहे थे । बीच एक कमरे का द्वार खुला हुआ था और उससे आगे कदमों के निशान दिखाई नहीं दे रहे थे ।
सुनील उस कमरे के पास पहुंचा । उस ने टार्च का प्रकाश भीतर डाला । वह हाल कमरा था और कमरे के बीचों बीच धूल भरे पत्थर की सिलों के फर्श पर रक्त के तालाब में डूबा हुआ एक मानव शरीर पड़ा हुआ था । शरीर एक गहरे रंग के ओवरकोट से ढका हुआ था ।
“तुम यहीं खड़े रहो ।” - सुनील जौहरी से बोला और सावधानी से लाश के समीप पहुंचा ।
उसने लाश के चेहरे पर प्रकाश डाला । वह वही आदमी था जिसने मैजेस्टिक सर्कल पर सुनील से डाकू कहरसिंह का रिवाल्वर और हजार रुपये के नोट का आधा टुकड़ा छीना था और जिसे वह और बन्दर कमल मेहरा के फ्लैट में कमल मेहरा समझ बैठे थे ।
सुनील ने देखा फर्श पर फैला हुआ रक्त अभी भी गीला था लेकिन वह गाढा हो चुका था और उसकी रंगत भी गहरी कालिमा लिये हुए थी ।
“हत्या हुए चार घन्टे से अधिक समय नहीं हुआ है ।” - सुनील बोला ।
सुनील ने प्रकाश को कमरे के आसपास घुमाया ।
कमरे की उत्तरी दीवार के समीप से सिल उखड़ी हुई थी । और उस सिल के स्थान पर एक छोटा सा खड्डा दिखाई दे रहा था । उखड़ी हुई सिल उस खड्डे की बगल में रखी थी ।
सुनील ने समीप जाकर खड्डे के भीतर प्रकाश डाला । खड्डा एकदम खाली था लेकिन एक कोने से प्रकाश की एक चकमदार किरण सी फूट रही थी । सुनील ने बैठकर उंगलियों से उस स्थान को टटोला एक कठोर सी वस्तु उस के हाथ में आ गई । वह एक छोटा सा हीरा था ।
सुनील ने हीरा उठाकर जेब में रख लिया ।
उस के मस्तिष्क में नोट के आधे भाग पर लिखे शब्दों का मतलब दिन की तरह स्पष्ट हो उठा था । उखड़ी हुई सिल उत्तरी दीवार से चौथी थी । अवश्य ही ‘चौथी’ और ‘उत्तरी’ के आगे के शब्द थे ‘सिल’ और ‘दीवार’ । इस प्रकार सम्भवत: पूरा वाक्य यह था ।
चौथी सिल, उत्तरी दीवार, हाल कमरा, पहली मन्जिल, दो सौ आठ, मानसिंह रोड ।
इस वाक्य में से आधे शब्द अर्थात चौथी - उत्तरी - हाल कमरा दो सौ मानसिंह कमल मेहरा वाली रिवाल्वर में रखे हजार के नोट के आधे टुकड़े पर थे और बाकी के आधे शब्द अर्थात सिल दीवार पहली मन्जिल और रोड कुंवर नारायण सिंह वाले नोट के शब्द तो एकदम निरर्थक थे । इसीलिये कुंवर सिंह दूसरा नोट का टुकड़ा किसी भी कीमत पर हासिल करने के लिये उत्सुक था ।
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
कमरे में जहां जहां उसके पांव के निशान बने थे सुनील ने वहां वहां अपने पांव इस प्रकार घसीटना आरम्भ कर दिया कि उस के पैरों के निशानों परधूल में एक चौड़ी सी लकीर ही बाकी रह जाये ।
“चलो ।” - वह बोला और उसने हाथ में रुमाल ले लिया ।
वे फिर मुख्य द्वार के पास जा पहुंचे ।
रास्ते पर सुनील उसी ढंग से अपने और जौहरी के निशानों पर झाड़ू सा फेरता चला गया । उस ने हर उस स्थान को रूमाल से साफ कर दिया जहां उनके उंगलियों के निशान रह जाने की सम्भावना थी ।
वे दोनों इमारत से बाहर निकल आये ।
सड़क पहले की तरह सुनसान पड़ी थी ।
“टैक्सी कहां से मिलेगी ?” - सुनील ने पूछा ।
“थोड़ी दूर चलना पड़ेगा ।” - जौहरी बोला - “मुझे एक टैक्सी स्टैन्ड मालूम है ।”
“आल राइट ।”
“लेकिन सुनील साहब ।” - जौहरी ने पूछा - “आप को पहले ही कैसे पता लग गया था कि ऊपर एक लाश मिलेगी ?”
“तुमने सीढियों पर बने कदमों के निशानों पर ध्यान नहीं दिया । सीढियों पर जूते के ऊपर को जाते हुए निशान थे । सैन्डिल के ऊपर को जाते हुए निशान थे । सैन्डिल के नीचे को आते हुए निशान भी थे लेकिन जूते के नीचे को आते हुए निशान नहीं थे । इसका मतलब यह हुआ कि आदमी ऊपर जा कर वापिस नहीं लौटा । ऐसा तभी संभव हो सकता है जब आदमी इस योग्य न रहा हो कि वह नीचे आ सके । अतः इस बात की काफी सम्भावना थी कि जो औरत आदमी का पीछा करती हुई यहां तक आई थी उसने आदमी की हत्या कर दी हो ।”
“अब कहां जायेंगे आप ?”
“मैं किसी प्रकार जल्दी से जल्दी राजनगर पहुंचना चाहता हूं ।”
“जल्दी क्या है ?”
“क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हत्यारी को भगाने का मौका मिले । अगर हत्यारी उड़ गई तो सुनील खलीफा जेल के सींखचों के पीछे नजर आयेंगे ।”
“आप जानते हैं हत्या किसने की है ?”
“मैं सब कुछ एक बहुत तगड़े अनुमान के उपर कर रहा हूं अगर मेरा अनुमान सच है तो मैं हत्यारी को जानता हूं ।”
वे टैक्सी स्टैंड पर जा पहुंचे ।
उन्होंने एक टैक्सी ली और आई. ए. सी. (इन्डियन एअर लाइन्स कारपोरेशन) के लोकल आफिस में जा पहुंचे ।
वहां उन्हें पता लगा कि सुबह आठ बजे से पहले कोई प्लेन राजनगर जाने वाला नहीं है ।
सुनील ने उस प्लेन पर दो सीट बुक करवा लीं ।
“जौहरी” - सुनील उसे एक ओर ले जा कर बोला - “मैंने तुम्हारी भी सीट बुक करवा ली है । अब तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं है । तुम दो काम करो । एक तो होटल से अपना सामान उठा लाओ और दूसरे पुलिस को एक गुमनाम टेलीफोन कर दो कि सौ आठ मानसिंह रोड पर एक हत्या हो गई है ।”
“ओके ।” - जौहरी बोला और वहां से बाहर निकल गया ।
***
लगभग दस बजे सुनील और जौहरी राजनगर हवाई अड्डे पर उतरे ।
दोनो आई. ए. सी. की बस में बैठ कर आई. ए. सी. के लोकल आफिस में पहुंच गये । वहां सुनील पिछले दिन की आई. ए. सी. के प्लेनों की राजनगर और विश्वासनगर के बीच की सारी उड़ानों की पैसेन्जर लिस्ट देखता रहा । पिछली शाम को साढे आठ बजे की फ्लाइट पैसेन्जर लिस्ट में उसे सुमित्रा देवी का नाम मिल गया ।
“जौहरी ।” - सुनील जौहरी से बोला - “मैं लिटन रोड जा रहा हूं । तुम रमाकांत को जा कर रिपोर्ट करो ।”
“ओके ।” - जौहरी बोला ।
सुनील जौहरी को छोड़ कर बाहर निकल आया । उसने एक टैक्सी ली और लिटन रोड पर दीपक लाज के सामने जा पहुंचा ।
इमारत के सामने एक बिजली से खम्बे से पीठ टिकाये एक आदमी खड़ा था । सुनील को देखते ही वह बगल के एक रेस्टोरेन्ट में घुस गया जिस पर पब्लिक टेलीफोन का नीला बोर्ड लगा हुआ था ।
सुनील लापरवाही से इमारत में घुसा और लिफ्ट द्वारा दूसरी मन्जिल पर जा पहुंचा ।
उसने सुमित्रा के फ्लैट की घन्टी बजाई ।
भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला ।
वह कितनी ही देर घन्टी के पुश पर उंगली रखे रहा लेकिन भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला ।
उसने आसपास गलियारे में दृष्टि दौड़ाई । गलियारा खाली था । उसने जेब में से एक पास की निकाली और उसकी सहायता से द्वार पर लगा स्प्रिंग लाक खोलने का प्रयत्न करने लगा ।
कुछ ही क्षणों में क्लिक की आवाज से लिवर घूम गया ।
सुनील भीतर घुस गया । उसने अपने पीछे द्वार बन्द कर लिया । स्प्रिंग लाक एक क्लिक की आवाज के साथ फिर बन्द हो गया । सुनील ने फ्लैट में दृष्टि दौड़ाई । ड्राईंग रूम खाली पड़ा था । वह ड्राईंग रूम को लांघता हुआ बैडरूम में घुस गया । बैड रूम के फर्श पर चार सूट केस और एक होल्डाल पड़ा था । पलंग पर बिस्तर नहीं था और ड्रेसर वार्डरोब वगैरह में कोई कपड़ा नहीं दिखाई दे रही था ।
शायद सुमित्रा फ्लैट छोड़ रही है - वह बड़बड़ाया ।
सुनील ने बड़ी फुर्ती से अपनी नकली चाबियों के सैट की सहायता से चारों सूटकेस खोल डाले और फिर वह बारी-बारी एक-एक सूट केस को टटोलने लगा । एक सूट केस में उसे एक टीन का गोल डब्बा दिखाई दिया । सुनील ने डिब्बा सूट केस से बाहर निकाल लिया और उसका चूड़ियों वाला ढक्कन खोल डाला ।
डिब्बे के भीतर जैसे बिजलियां कौंध उठी थीं ।
डिब्बा हीरे जवाहरातों और सोने से ठसाठस भरा पड़ा था ।
“हैंड्स अप !” - एक तलवार की धार की तरह पैना और ठण्डा स्वर उसके कानों में पड़ा ।
सुनील चिहुंक कर वापिस घूमा ।
बैडरूम के द्वार पर उसे सुमित्रा देवी खड़ी दिखाई दी । उसके हाथ में एक खिलौने जैसा खूबसूरत रिवाल्वर था जिसकी नाल सुनील की ओर तनी हुई थी ।
सुनील ने डिब्बा पलंग पर रख दिया और हाथ ऊपर उठाकर उठ खड़ा हुआ । पलंग सुमित्रा और सुनील के बीच में था ।
“हूं ।” - सुमित्रा बोली - “तो यह तुम हो ।”
“मुझे पहचान लिया आपने !” - सुनील व्यंग्य पूर्ण स्वर से बोला ।
“हां । मैं जो सूरत एक बात देख लूं उसे दुबारा भूलती नहीं हूं । तुम ‘ब्लास्ट’ के रिपोर्टर जरूर हो लेकिन साथ ही अपराधी भी हो । कमल मेहरा की हत्या और मेरे फ्लैट में चोरी करने के अपराध में पुलिस तुम्हें गिरफ्तार करके बहुत खुश होगी ।”
सुनील चुप रहा । वह फंस गया ।
“मैं तो बरखुरदार, कल उसी क्षण पहचान गयी थी जब तुम मेरा इंटरव्यू लेने के बहाने मेरे पास आये थे ।”
“लेकिन फिर भी पुलिस को फोन करने के स्थान पर आपने अपने उस साथी को मेरे पीछे लगा दिया जिसकी आप विश्व नगर में हत्या कर आयी हैं ।”
सावित्री देवी एक दम चौंक पड़ी । रिवाल्वर पर उनके हाथ की पकड़ और भी कठोर हो गई ।
“क्या बक रहे हो ?” - वह स्वयं को सन्तुलित करने का प्रयत्न करती हुई बोली ।
“मैं बक नहीं रहा हूं, सच कह रहा हूं । आपका साथी शायद सारा माल खुद ही हड़प जाना चाहता था लेकिन आपको उस पर पहले ही सन्देह हो गया था । आपने विश्वनगर में दो सौ आठ मानसिंह रोड तक उसका पीछा किया और जब वह माल तलाश करने में सफल हो गया तो अपने उसकी हत्या कर डाली और सारा माल खुद ले उड़ी ।”
“यह झूठ है ।” - वह बोली ।
“यह सच है ।” - सुनील बोला - “आप पुलिस की वैज्ञानिक कार्य प्रणाली से परिचित नहीं हैं । मानसिंह रोड के उस मकान में हर जगह आपकी सैन्डिलों के निशान हैं । जूते के निशान भी उतनी सहूलियत से मिलाये जा सकते हैं जितनी सहूलियत से पैरों के ।”
“बशर्ते कि उन्हें मेरी वे सैन्डिल मिल जाये ।” - सुमित्रा देवी व्यग्य पूर्ण स्वर में बोली - “मैं उन सैन्डिलों की धज्जियां उड़ा कर समुद्र में बहा आयी हूं । मैंने इस बात का विशेष ध्यान रखा था कि उस मकान मेरी उंगलियों के निशान न रह पायें । पुलिस कभी मुझ पर हाथ नहीं डाल सकती ।”
“आप भूल रही हैं । अगर मैं यह बात जान सकता हूं कि आप कल रात साढे आठ बजे के प्लेन से विश्वनगर गई थीं तो पुलिस भी जान सकती है ।”
सुमित्रा देवी के चेहरे पर चिन्ता के लक्षण परिलक्षित होने लगे ।
“और फिर यकीन मानिये पुलिस उन टैक्सी ड्राइवरों को भी खोज निकालेगी जो आपको एयरोड्रोम से मानसिंह रोड और मानसिंह रोड से एयरोड्रोम लेकर गए थे । और तब यह बात भी छुपी नहीं रहेगी कि आप किसी अन्य टैक्सी का पीछा करती हुई मानसिंह रोड पहुंची थीं ।”
“मिस्टर ।” - सुमित्रा देवी निर्णयात्मक स्वर में बोली- “मेरा इरादा तो तुम्हें पुलिस में देने का था लेकिन अब लगता है तुम्हारी भी हत्या करनी पड़ेगी ।”
“फिर भी आप बच नहीं सकेंगी ।” - सुनील लापवाही का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“वहम है तुम्हारा ।” - सुमित्रा बोली - “कुछ ही घन्टों में मैं यह फ्लैट छोड़ रही हूं । प्लेन में मेरी सीट बुक है । कुछ ही घन्टों में मैं वहां पहुंच जाऊंगी जहां किसी को मेरी हवा भी नहीं मिलेगी ।”
सुनील को बच निललने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था ।
“एक बात तो बताइये, देवी जी ।” - सुनील उसको बातों में लगाने का प्रयत्न करता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“परसों शाम कमल मेहरा की हत्या करने के बाद जब हम लोगों के आगमन के कारण तुम्हारा साथी कमल मेहरा के फ्लैट में फंस गया था, तो आपने पुलिस को फोन क्यों कर दिया था ।”
“मैंने केवल गोली की आवाज सुनी थी ।” - मुझे सूरतें तो दिखाई दे नहीं रही थीं । मैंने समझा था कि मेरे साथी को गोली लग गई है । इस बहम के कारण मैंने पुलिस को फोन किया था लेकिन गोली वास्तव में फर्श में लगी थी ।”
“आप लोगों को कैसे मालूम हुआ था कि कमल मेहरा के पास कोई ऐसी रिवाल्वर है जिस में रखे हजार रुपये के नोट के टुकड़े की सहायता से डाकू कहरसिंह के छुपाये हुए धन तक पहुंचा जा सकता है ?”
“मेरा साथी विश्वनगर में कमल मेहरा के साथ जेल में रहा था । वहीं उसने मेरे साथी से डाकू कहरसिंह की विचित्र रिवाल्वर का जिक्र किया था । कमल मेहरा जेल से पहले छूट गया था, मेरा साथी बाद में निकला था । बाद में हमें कमल मेहरा का पता लगते ही हम ने उससे रिवाल्वर हथियाने के प्रयत्न आरम्भ कर दिये थे और इसीलिये...”
उसी समय फ्लैट की कालबैल बजने लगी और साथ ही द्वार भड़भड़ाया जाने लगा ।
सुमित्रा देवी व्याकुल दिखाई देने लगी । उसका ध्यान क्षण भर के लिए मुख्य द्वार की ओर मुड़ गया ।
सुनील ने सुमित्रा देवी पर छलांग लगा दी ।
सुमित्रा देवी ने एकदम सुनील की ओर मुड़ कर फायर कर दिया । गोली ड्रेसर के शीशे से टकराई और शीशे के परखचे उड़ गये ।
सुनील का शरीर पेट के बल पलंग पर आ गिरा । सुमित्रा देवी के रिवाल्वर वाले हाथ की कलाई सुनील के हाथ में आ गई ।
द्वार पूर्ववत् भड़भड़ाया जा रहा था ।
एक फायर हुआ । गोली फर्श में धंस गई ।
“दरवाजा खोलो ।” - दरवाजे की भड़भड़ाहट के साथ सुनील को प्रभूदयाल की आवाज सुनाई दी - “कानून के नाम पर दरवाजा खोलो ।”
“दरवाजा तोड़ कर भीतर घुस आओ, प्रभू ।” - सुनील चिल्लाया ।
सुमित्र देवी भी कमजोर औरत नहीं थी । उसने अपने दूसरे हाथ से सुनील का मुंह नोच डाला । वह रिवाल्वर की नाल सुनील के शरीर के लैवल में लाने का प्रयत्न करने लगी ।
सुनील पूरी शक्ति से उसकी कलाई थामे रहा ।
एक और फायर हुआ ।
गोली फिर फर्श में धंस गई ।
उसी क्षण एक और रिवाल्वर का जोरदार धमाका हुआ । गोली बाहर से चली थी । एक फायर और हुआ और फ्लैट के मुख्य द्वार पर लगे ताले के परखचे उड़ गये ।
प्रभूदयाल हाथ में सरविस रिवाल्वर लिये दनदनाता हुआ फ्लैट में घुस आया । उसके पीछे-पीछे चार सिपाही थे ।
“प्रभू ।” - सुनील उसे देखते ही आंतकपूर्ण स्वर से बोला- “यह औरत मेरी हत्या करने का प्रयत्न कर रही है ।”
“दोनों अलग हो जाओ और अपने हाथ ऊपर उठा लो वरना शूट कर दूंगा ।” - प्रभू अधिकारपूर्ण स्वर से बोला ।
सुनील ने डरते-डरते सुमित्रा का हाथ छोड़ दिया ।
“रिवाल्वर जमीन पर फेंक दो ।” - वह सुमित्रा से बोला ।
सुमित्रा ने रिवाल्वर गिरा दिया ।
“दोनों को हथकड़ियां पहना दो ।” - प्रभू फिर गर्जा ।
पलक झपकते ही सिपाहियों ने दोनों को हथकड़ियां पहना दी ।
“क्या हो रहा है यहां ?” - प्रभू ने पूछा ।
“यह आदमी चोरी के इरादे से जबरदस्ती मेरे फ्लैट में घुसा था । सुमित्रा देवी सर्वदा अधिकारहीन स्वर से बोली - “और इसी आदमी ने अपने एक साथी के साथ परसों कमल मेहरा की हत्या की थी ।”
“यह औरत सरासर झूठ बोल रही है प्रभू ।” - सुनील बोला -“इस के साथी ने कमल मेहरा की हत्या की थी और कल रात को इस ने अपने उस साथी को विश्वनगर में दो सौ आठ मानसिंह रोड पर कत्ल कर दिया और वहां से यह ये हीरे जवाहरात चुरा कर लाई है । क्योंकि मैं इसकी वास्तविकता जान गया था इसलिये यह मुझ भी कत्ल करने का प्रयत्न कर रही थी । अपनी बात की सत्यता को प्रमाणित करने के लिये मैं पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत कर सकता हूं ।”
प्रभूदयाल हाथ में रिवाल्वर थामे सन्दिग्ध नेत्रों से बारी-बारी दोनों को घूरता रहा । अन्त में वह निर्णयात्मक स्वर से बोला - “मैं तुम दोनों को हैडक्वार्टर ले जा रहा हूं ।”
सिपाहियों ने हथकड़ियों की जंजीर को झटका दिया और सुनील और सुमित्रा देवी को फ्लैट से बाहर ले चले ।
गलियारा तमाशाइयों से भरा हुआ था ।
“तुम्हारे अकस्मात आगमन से मेरी जान बच गई प्रभू ।” - सुनील प्रभूदयाल से बोला ।
“यह आगमन अकस्मात नहीं हुआ था रिपोर्टर बेटे ।” - प्रभू बोला - “मैंने हर ऐसे स्थान पर निगरानी के लिए आदमी लगाये हुए थे जहां तुम्हारे आगमन की सम्भावना थी । तुम्हारे दीपक लाज में प्रवेश करते ही मुझे सूचना मिल गई थी । कल तो किसी प्रकार यूथ क्लब से निकल भागे लेकिन आज फंस गये ।”
सुनील चुप हो गया । वह सफाई देने के लिये उचित अवसर नहीं था ।
***
सुनील बड़ी मुश्किल से बचा ।
सुमित्रा देवी ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया । उसे फांसी की सजा हो गई ।
केस के सिलसिले में सुनील ने जो गैरकानूनी काम किये थे उनकी ओर से प्रभूदयाल ने इसलिए आंखें मून्द ली थीं कि सुनील ने वादा किया कि वह इस केस को हल करने का सारा श्रेय प्रभूदयाल को देगा और सारी घटना को अखबार के लिए कवर करते समय वह इस बात का कतई जिक्र नहीं करेगा कि केस सुलझाने में उसका भी कोई हाथ था और साथ ही वह अखबार में प्रभूदयाल को एक कर्तव्यपरायण पुलिस अफसर के रूप में मास्टर पब्लिसिटी देगा ।
प्रभू के लिए वह लालच पर्याप्त था । उसने सुनील को वार्निंग देकर छोड़ दिया ।
सुनील ने अपना वादा पूरा किया । ‘ब्लास्ट’ में उसने प्रभू की कार्यदक्षता की तारीफों के पुल बांध दिये । प्रभू को बहुत वाहवाही मिली।
केस की समाप्ति के कई दिनों बाद तक सुनील बन्दर से यूं कतराता रहा जैसे वह कोई छूत की बीमारी हो ।
डाकू कहर सिंह की छुपाई हुई दौलत सरकारी खजाने में जमा हो गई ।
समाप्त