उसी पल टेबल के दूसरी तरफ कुर्सी नजर आने लगी ।

मोना चौधरी ने शांत भाव से पुनः खाना-खाना शुरु कर दिया ।

युवक अपने कामों से फारिग होकर वक्त बिताने के लिए इधर-उधर टहलने लगा तो उसकी निगाह मोना चौधरी पर पड़ी तो दो पल ठिठका उसे देखता रहा । मोना चौधरी की पीठ थी उसकी तरफ । फिर तेज-तेज कदम उठाता हुआ वह मोना चौधरी के पास पहुंचा।

मोना चौधरी ने सिर उठाकर उसे देखा । मुस्कुराई ।

"देवी ।" उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही युवक चौंका और उसके होंठो से निकला । उसके दोनों हाथ जुड़ गए।

मोना चौधरी के होठों पर बराबर मुस्कान छाई हुई थी ।

युवक अभी भी हैरानी से मोना चौधरी को देखे जा रहा था।

"बैठो।" मोना चौधरी शांत स्वर में बोली--- "खाना खाओ। यह कुर्सी तुम्हारे लिए है।"

"नहीं ।" युवक के होठों से निकला--- "मैं नहीं बैठ सकता ।" स्वर में आदर भाव था ।

"क्यों ?"

"मेरी जगह तो देवी के चरणों में है।"

कहने के साथ ही वो देखते ही देखते जमीन के पेट के बल लेट गया और दोनों हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया । मोना चौधरी मन ही मन चौंकी ।

उसे याद आया कि जंगल में मिले मुद्रानाथ ने भी देवी कहकर, उसे इसी तरह प्रणाम किया था।

मोना चौधरी ने गहरी निगाहों से युवक को देखा, जो कि अब खड़ा हो चुका था ।

"तुम, मुझे देवी कहकर, प्रणाम क्यों कर रहे हो ।" मोना चौधरी का स्वर शांत था। 

"क्योंकि तुम तिलस्मी नगरी की कुलदेवी हो । हम सब तुम्हारी ही तो पूजा करते हैं । " युवक आदर भरे स्वर में बोला ।

"तुम झूठ कहते हो । मैं तिलस्मी नगरी की कुलदेवी नहीं हूं।" मोना चौधरी मुस्कुराई ।

"मुझे नहीं मालूम था कि कुलदेवी इतनी अच्छी है कि, वो मजाक भी करती है। दालू बाबा ने सत्य ही कहा था कि एक दिन देवी तिलस्म में आएगी। सबको दर्शन देगी तुम आ गई हम...।"

"मैं कुलदेवी नहीं हूं।" मोना चौधरी उसी भाव में बोली ।

युवक ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला । फिर चुप होकर, पुनः होंठ खोले ।

"मुझे नहीं मालूम कि तुम कुलदेवी होने से इंकार क्यों कर रही हो । लेकिन मैं साबित कर सकता हूं कि तुम्हारा मजाक झूठा है ।" उसके स्वर में विश्वास के भाव कूट-कूट भरे थे ।

"साबित करो।"

"आओ । इसी महल के खंडहर में, पहली मंजिल पर मेरे साथ चलो ।" युवक बोला ।

मोना चौधरी फौरन उठ खड़ी हुई ।

"चलो।"

"आओ ।" कहने के साथ ही युवक तेज-तेज कदमों से आगे चल पड़ा । उसके चलने के ढंग से स्पष्ट महसूस हो रहा था कि वो इस महल नुमा खंडरह के जर्रे-जर्रे से वाकिफ है ।

मोना चौधरी इसके पीछे चल पड़ी ।

बाहर तूफानी बरसात ने रौद्र रूप अख्तियार कर रखा था।

युवक टूटी-फूटी पुरानी सीढ़ियां चढ़कर, मोना चौधरी को उस महल की पहली मंजिल पर ले गया, जो कि उजड़कर, बुरी हालत के कगार पर खड़ा था ।

हर तरफ जाले लगे हुए थे ।

कारीगरी ने बेहद खूबसूरत नमूने दीवार पर और वहां मौजूद थम्बों पर नजर आ रहे थे । कई लाजवाब चीजें देखने लायक थी । इसमें कोई शक नहीं था कि जब यह महल रखरखाव की हालत में होगा, तब इसकी शान देखते ही बनती होगी।

इस समय वे महल के विशाल हॉल में खड़े थे । जहां फर्नीचर तो मौजूद था, परंतु अब आन लकड़ी के रूप में ही नजर आ रहा था। दीवार पर तस्वीरें लटकी हुई थी, परंतु वहां धूल एक हद तक पढ़ी थी कि वो किस चीज की तस्वीरें है, जानना कठिन हो रहा था ।

दीवारों पर पेंटिंग्स लगी हुई थी । परंतु धूल की वजह से उसका भी यही हाल था।

मोना चौधरी की निगाह हर तरफ घूमती हुई, हॉल के बीचो-बीच वहां जाकर ठहर गई, जहां शायद कोई आदमकद प्रतिमा थी। परंतु उसके ऊपर सफेद रंग का कपड़ा डाला हुआ था और मैले-धूल से अटे उस कपड़े की हालत ही बता रही थी कि जाने कितने बरसों से उसे छेड़ा ना गया हो ।

मोना चौधरी ने युवक को देखा ।

"वो क्या है ?"

"वही दिखाने के लिए तुम्हें यहां लाया हूं।" युवक ने कहा--- "आगे बढ़ो और उसका कपड़ा उतारो । दालूबाबा ने कहा था कि कुलदेवी स्वयं ही आकर, इस मूर्ति से कपड़ा उतारेगी। उसका कहा सच होने जा रहा है। आगे बढ़ो देवी ।"

मोना चौधरी ने उलझन भरी निगाहों से युवक को देखा फिर आगे बढ़ी ।

पन्द्रह कदम तय करके वो उस ढकी हुई मूर्ति के पास पहुंची फिर पलट कर युवक को देखा तो युवक ने सहमति से सिर हिला दिया । मोना चौधरी ने हाथ बढ़ाकर मूर्ति पर पड़ा कपड़ा पकड़ा और खींच दिया।

ऐसा कहते हैं कपड़े पर पड़ी घुल उड़ी तो मोना चौधरी दो कदम पीछे हट गई ।

मूर्ति पर भी धूल पड़ी नजर आ रही थी, जैसे मुद्दत से उससे साफ न किया गया हो । वहां कुछ स्पष्ट नजर नहीं आई । तभी वो युवक पास पहुंचा और जेब से रुमाल निकालकर, मूर्ति पर मौजूद धुल को झाड़ने लगा। मूर्ति दूध की तरह सफेद थी । बनाने वाले को यकीनन मूर्तियां बनाने में महारत हासिल थी ।

तब मोना चौधरी के मस्तिष्क पर जैसे बिजली गिरी ।

ऐसा हाल हो गया था उसके दिमाग का । सिर घूमता सा लगा। आँखे और मुंह हैरत से फटे के फटे रह गए। वह जड़ सी खड़ी रह गई ।

वो मूर्ति और कोई नहीं, उसका बुत था ।

बिल्कुल उसी का ।

हू-ब-हू उसी का चेहरा था । रत्ती भर भी फर्क नहीं ।

वैसे ही लंबाई | वैसी ही शरीर की फिगर ।

वही और वही थी, उस ब्रूत में।

ऐसा लगता था जैसे बूत बनाने वाले ने उसे सामने खड़ा करके बुत बनाया हो और अभीअभी ही बाहर निकाला हो। इतनी ताजगी थी सामने आ रहे बुत में ।

मोना चौधरी के मस्तिष्क में बिजलियां कौंध रही थी ।

युवक बुत को पूरी तरह साफ करके हटा और मोना चौधरी को देखा । मोना चौधरी की फटी - फटी आंखें अभी भी उस बुत से नहीं हट रही थी ।

"क्या हुआ देवी ?"

युवक का स्वर मोना चौधरी के कानों में पड़ा ।

मोना चौधरी के जहन को झटका लगा । उसकी गर्दन घूमी और युवक पर जा ठहरी ।

"आप इतनी हैरान क्यों हो रही है देवी ?" युवक की आवाज में आदर भाव था।

"य-यह बुत-इसका चेहरा तो---तो मेरे जैसा ही है ।" मोना चौधरी के होंठों से फटा-फटा सा स्वर निकला ।

"तुम जैसा नहीं, यह बुत तुम्हारा ही है। "

"असंभव।"

"ऐसा मत कहो । तुम हमारी कुलदेवी हो । तुम...।"

"तुमने मुझे पहले देखा है कभी ?" मोना चौधरी ने पूछा।

"नहीं। मैंने तुम्हारे बुत ही देखे हैं। मेरे बाप-दादा तुम्हारे बारे में बताया करते थे कि...।"

"बकवास मैं नहीं मानती, इस बात को ।" मोना चौधरी एकाएक दांत भींचकर कह उठी।

"देवी, मेरी बात का प्रमाण यही है कि तुमने, अपने बुत पर पड़ा कपड़ा हटा दिया।" युवक बोला ।

"क्या मतलब ?"

"जिस कपड़े को तुमने बुत पर से उतारा है, उस कपड़े पर तिलस्मी लकीरे थी तुम्हारे नाम की, कि इस कपड़े को कुलदेवी के अलावा और कोई नहीं हटा सकता । दालूबाबा ने सच ही कहा था । बहुतों ने दालूबाबा की चुनौती को स्वीकार किया और यहां आकर इस कपड़े उतारना चाहा। परन्तु उन तिलस्मी लकीरों ने हर उस शख्स को गायब कर के उसकी जान ले ली, जिसने भी कपड़ा उतारना चाहा । बुत पर मौजूद कपड़ों पर खींची तिलस्मी लकीरों को सिर्फ कुलदेवी ही तोड़ सकती थी । अगर तुम तिलस्मी नगरी की कुलदेवी न होती तो, तुम भी अब तक खत्म हो गई होती ।"

मोना चौधरी सिर से पांव तक अविश्वास में डूबी कभी युवक को देखती तो कभी, अपने चेहरे वाले बुत को ।

एक-दो मिनट यूं ही खामोशी में बीत गए ।

"मैं कितना भाग्यशाली हूं कि कुल देवी के दर्शन सबसे पहले मुझे हुए | "

मोना चौधरी ने घूरकर युवक को देखा ।

"क्या नाम है तुम्हारा ? "

"गीतलाल ।" युवक ने कहा ।

"गीतलाल ।" मोना चौधरी की आवाज में चुभन आ गई थी--- "तिलस्मी नगरी से मेरा दूर-दूर तक भी वास्ता नहीं। मैं तुम लोगों की कुलदेवी नहीं हूं। मैं...।"

"अगर तुम कुलदेवी न होती तो, तिलस्मी लकीरों वाली चादर बुत से नहीं हटा...।"

"बकवास करते हो तुम । मैंने चादर हटाई और वो हट गई।" मोना चौधरी खींझकर कह उठी--- "मैं पृथ्वी से आई हूं और मेरा नाम मोना चौधरी है और यहां आने का मेरा मकसद भी सुन लो । मुझे ताज चाहिए । इसलिए तिलस्मी नगरी में जो 'ताज' है मैं वो लेने आई हूं ।"

युवक ने अजीब सी निगाहों से मोना चौधरी को देखा था ।

"वो ताज तो हमारी कुलदेवी, यानी कि तुम्हारा ही है। हम उसे कुलदेवी का ताज कहते हैं ।"

मोना चौधरी ने उसे घूरा ।

"मतलब कि वह ताज मेरा है । "

"हां ।"

"तो जाओ, वो 'ताज' मुझे लाकर दो । "

"लेकिन मैंने तो कभी उसका देखा नहीं । मालूम नहीं की वो है कहां ? तिलस्म के कायदे कानून के मुताबिक उस 'ताज' के बारे में पूछताछ करना भी जुर्म है।" गीतलाल बोला ।

मोना चौधरी के होंठ भिंच गए ।

"तुम मुझे बहुत ही चालाक इंसान लगते हो ।" मोना चौधरी का स्वर सख्त हो गया

"क्या मतलब ?"

"मैंने सच कहा है देवी ।"

"नहीं।"

"एक तरफ जो मुझे कुलदेवी कह रहे हो । दूसरी तरफ जब ताज की बात आई तो सीधेसीधे जवाब दे दिया ।"

मोना चौधरी कई पलों तक उस युवक को देखती रही लेकिन तय नहीं कर पाई कि वो सच कह रहा है या झूठ । या अपनी बातों में उसे फंसा रहा है। कोई मतलब साधना चाहता है।

"तो तुम्हें यह भी नहीं मालूम कि वो ताज कहां है ? "

"फिर किसे मालूम है ?"

"दालूबाबा को पता होगा ।"

"यह दालूबाबा कौन है । जिसका जिक्र तुम बार-बार कर रहे हो ।" मोना चौधरी ने उसे पूछा।

"सुना है वो 'ताज' दालू की तिलस्मी पहरेदारी में है। उस ताज को पाना तो दूर, दालूबाब की मर्जी के बिना उसे देखा भी नहीं जा सकता ।" गीतलाल ने कहा । "दालूबाबा कहां मिलेगा ?"

"उसके रहने का ठिकाना हर किसी को नहीं मालूम ।"

मोना चौधरी ने खा जाने वाले निगाहों से गीतलाल को देखा ।

"मुझे बेवकूफ बना रहे हो । बातें बड़े-बड़े करते हो और पूछने पर तुम्हारे पास बताने लायक है कुछ भी नहीं । मैं सब समझ रही हूं कि तुम मुझे बातों में लगाकर अपना कोई काम निकालना चाहते हो।"

"यह क्या कह रही हो देवी । मैं तो तुमसे झूठ बोलने की कल्पना भी नहीं कर सकता ।" गीतलाल ने कहा--- "लेकिन तुम जो जानना चाहती हो, उसका जवाब मेरे पास भी नहीं है । लेकिन तुम्हारे प्रश्नों पर मुझे हैरत है । "

"क्यों ?"

"तुम तो कुलदेवी हो । इस तिलस्म की जन्मदाता हो । भला तुम्हें सवाल पूछने की क्या जरूरत पड़ गई । तुम तो खुद ही सारे सवालों का जवाब हो।" गीतलाल ने गंभीर स्वर में कहा ।

"बेवकूफ इंसान, मैं तुम्हारी कुलदेवी नहीं हूं। मेरा चेहरा सिर्फ तुम्हारी कुलदेवी से मिलता है।"

"ऐसा है तो फिर तुमने तिलस्मी लकीरों वाली चादर कैसे इस बुत से उतार दी। तिलस्म के मुताबिक तुम्हारा भी वही हाल होना चाहिए, जो तुमसे पहले चादर उतारने की कोशिश करने वालों का हुआ।"

जवाब में मोना चौधरी दांत भींचकर रह गई । असल में वो खुद परेशान हो उठी थी अपने चेहरे वाले बुत को यहां देखकर और गीतलाल की बातें सुनकर । उसे लगा वो अपना दिमाग खराब कर रही है ।

"तुम जाओ यहां से ।" मोना चौधरी ने एकाएक कहा ।

गीतलाल, गहरी निगाहों से अब मोना चौधरी को देख रहा था ।

"तुम वास्तव में देवी नहीं हो ?" गीतलाल ने पूछा ।

"नहीं।"

"तुम पृथ्वी से पाताल लोक में आई हो ?"

"हां ।"

एकाएक गीतलाल आगे बढ़ा और करीब आकर मोना चौधरी के बदन को सूंघने लगा ।

"यह क्या कर रहे हो ?" मोना चौधरी के होठों से निकला।

गीतलाल पीछे हटता हुआ बोला ।

"तुम वास्तव में मनुष्य हो । "

"तुमने कैसे जाना ?"

"तुम्हारे बदन की महक से । तिलस्मी विद्या सिखाते वक्त हमें मनुष्यों के शरीर से निकलने वाली महक से परिचित कराया जाता है । इसलिए हम मनुष्यों को पहचाने में धोखा नहीं खा सकते ।" गीतलाल ने कहा ।

"हमारे शरीर की महक से तुम लोगों को क्यों परिचित कराया जाता है ?" मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ी।

"इसलिए कि कुलदेवी के कहे मुताबिक हमारी जाति को मनुष्य की इज्जत करनी है । किसी भी हालत में हमें मनुष्य की जान नहीं लेनी । कहीं हम धोखे से मनुष्य की जान न ले लें, इसलिए यह विद्या हमें पढ़ाई जाती है । "

"मनुष्य की जान क्यों नहीं लेते तुम लोग ?"

"यह मैं नहीं जानता। जो रीत चली आ रही है, हम उसे निभा रहे हैं।" गीतलाल ने स्पष्ट कहा।

मोना चौधरी वहां से हटी और टहलते हुए इधर-उधर देखने लगी ।

गीतलाल की निगाह, मोना चौधरी पर ही थी ।

मोना चौधरी ठिठकी और पलटकर गीतलाल से बोली

"यह जगह क्या है, महल जैसी है । "

"हैरानी है । क्या तुम्हें नहीं मालूम कि यह तुम्हारा ही महल होता था कभी ।" गीतलाल हैरानी से बोला ।

"मेरा महल ?" मोना चौधरी के होठों से निकला ।

"हां । कुलदेवी का महल । "

इस बार-जवाब में मोना चौधरी मुस्कुराई ।

"तो फिर मेरे महल को क्या हुआ ? मैं कहां गई थी ?"

गीतलाल के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे ।

"तुम सच कहती हो कि तुम कुलदेवी नहीं हो ।" गीतलाल के होठों से निकला ।

"और ये फैसला कैसे कर लिया ?" मोना चौधरी हौले से हंसी ।

"क्योंकि जो महल और अपने बारे में नहीं जानती, वो कुलदेवी नहीं हो सकती । वैसे भी तुम पृथ्वी से आई हो।"

मोना चौधरी के होठों पर बराबर मुस्कान नाच रही थी ।

"अगर ऐसा है तो फिर मैंने बुत से तिलस्मी लकीरों वाली चादर कैसे उतार दी । जबकि तुम्हारे ही कहे मुताबिक जिसने भी चादर उतारनी चाही उसे अपनी जान गंवानी पड़ी ।" मोना चौधरी के चेहरे पर मुस्कान थी ।

गीतलाल सतर्क सा नजर आ रहा था ।

"वो मैं नहीं जानता कि तिलस्मी लकीरों ने तुम्हारी जान क्यों नहीं ली । देवी के बुत से तुमने चादर कैसे उतार दी।"

"अगर तुम वास्तव में कुलदेवी होती तो, ऐसे सवाल न पूछती, जिसका जवाब तुम खुद हो । वास्तव में तुम मनुष्य हो । यह भी हो सकता है की तिलस्मी लकीरें मनुष्य की जान न लेती हो । शायद इसी वजह से तुम बच गई ।" गीतलाल की आवाज में अब भोलापन गायब हो चुका था--- "तुम किसी भी हाल में देवी नहीं हो सकती।"

मोना चौधरी मुस्कुरा रही थी ।

जबकि गीतलाल का व्यवहार बिल्कुल बदल चुका था । "इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारा चेहरा कुलदेवी से मिलता है बिल्कुल कुलदेवी ही जैसा है |"

"तुम जाओ ।" मोना चौधरी बोली--- "तुम्हारी बातों से मेरा दिमाग खराब हो रहा है।"

"मैं तुम्हें इस तरह खुला नहीं छोड़ सकता ।" गीतलाल बोला ।

"क्या मतलब ?"

"मनुष्य के बारे में हम लोगों को खासतौर से आदेश है कि अगर किसी मनुष्य को देखा जाए तो उसे तिलस्मी रास्तों पर भेज दिया जाए। तुम्हें तिलस्मी रास्ते में कैद करना मेरा फर्ज है ।"

मोना चौधरी के होठों पर दिलकश मुस्कान उभरी ।

"अभी तो तुम मुझे देवी कह रहे थे और अब कैद की बातें करने लगे ।" मोना चौधरी बोली ।

"हां । ऐसा करके मैं अपना फर्ज पूरा करूंगा।"

ऐसा करके किसे दिखाओगे अपना फर्ज । मुझे यहीं रहने दो और तुम अपने रास्ते जाओ।" जवाब में गीतलाल होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाने लगा ।

मोना चौधरी मन ही मन सतर्क हुई । समझ गई थी गीतलाल अपनी विद्या से उसके साथ कुछ बुरा करने जा रहा है । मोना चौधरी फुर्ती के साथ गीतलाल पर झपटी ।

अभी आधा रास्ता ही तय कर पाई थी कि एकाएक उसे चक्कर आया । वह बुरे हाल हो कर नीचे गिरने लगी कि गीत लाल ने फौरन उसे थाम लिया । मोना चौधरी को सब होश था, परन्तु खुद को वह कुछ भी करने में असमर्थ पा रही थी।

गीतलाल ने उसे कंधे पर लादा और उन्हें सीढ़ीयों की तरफ बढ़ गया, जहां से वे दोनों ऊपर आए थे । सीढ़ियां तय कर के, वो नीचे उतरा । बाहर अभी भी तूफानी बरसात हो रही थी ।

पानी की मोटी-मोटी बूंदें पेड़ों के पत्तों से टकराकर शोर पैदा कर रही थी ।

गीतलाल, मोना चौधरी को कंधे पर लादे, खंडहर महल के ही एक हिस्से की तरफ बढ़ गया । महल बहुत बड़ा था । जो कि अब खंडहर के रूप में हर तरफ फैला हुआ था।

गीतलाल, मोना चौधरी को उठाए आगे बढ़ता रहा ।

मोना चौधरी सब देख-समझ रही थी । परंतु चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी। उसे ऐसे लग रहा था, जैसे किसी ने उसके शरीर को बांध रखा हो ।

दस मिनट बाद गीतलाल, मोना चौधरी को कंधे पर लादे, ऐसी जगह पर पहुंचा जो कभी महल का पीछे वाला हिस्सा रहा होगा। वहीं एक टूटे-फूटे कुएं के पास पहुंच कर ठिठका । खुली जगह होने की वजह से वो बरसात में पूरी तरह भीग गए थे । बरसात का रुख भी कुछ ऐसा था कि स्पष्ट लग रहा था कि वो रुकेगी नहीं।

तभी गीतलाल का स्वर कानों में पड़ा ।

"मैं तुम्हें तिलस्मी कैद में भेज रहा हूं । अगर तुम देवी हो तो मैं अपने किए की पहले ही माफी मांग लेता हूं कि मैं तुम्हें मनुष्य जाति का मान कर कैद में भेज रहा हूं । क्योंकि तुम्हारे बदन से निकलने वाली महक, पृथ्वी के लोगों के शरीर से आने वाली महक से मिलती है और मनुष्यों को तिलस्मी कैद में भी देने के आदेश के साथ ही में हमें तिलस्मी विद्या सिखाई जाती है और विद्या के दौरान सिखाई गई बातों कि हम बहुत इज्जत करते हैं

मोना चौधरी बोल नहीं पा रही थी । कहती भी तो क्या ?

"इस कुएं में पहुंचते ही तुम्हारा शरीर पहले की तरह सामान्य हो जाएगा ।" इतना कहने के साथ ही गीतलाल ने कंधे पर पड़े उसके शरीर को कुएं में उछाल दिया ।

मोना चौधरी को लगा, अब वो जिंदा नहीं बचने वाली । तेजी से उसका शरीर नीचे जा रहा था और अभी जमीन से टकराएगा और उसकी सांसे टूट जाएंगी।

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । उसकी सारी सोचे बेकार गई । करीब मिनट भर बाद मोना चौधरी को लगा जैसे उसके गिरते शरीर को किन्हीं दो हाथों ने थाम लिया हो । उसका शरीर थम गया । फिर जैसे थामने वाले हाथों ने उसे पैरों पर खड़ा किया । मोना चौधरी लड़खड़ाई फिर संभल गई ।

वहां घुप्प अंधेरा था ।

मोना चौधरी को कुछ भी नजर नहीं आया ।

"कौन है ?" मोना चौधरी ने ऊंचे स्वर में पूछा।

परंतु कोई भी जवाब या आहट नहीं मिली, सुनने को ।

अगले ही पल मोना चौधरी ने खंजर पर हाथ रखा और बुदबुदाई।

"खंजर, यहां का अंधेरा दूर करो ।

दो पल में वहां रोशनी फैल गई।

दो पलों के लिए मोना चौधरी की आंखें चौधियां गई। फिर बीतते पलों के साथ वह देखने के काबिल हुई तो उसने खुद को बेहद खूबसूरत कमरे में पाया।

वहां कोई भी नहीं था ।

कमरे में आराम करने के लिए बेड बिछा था । बैठने के लिए कुर्सियां और टेबल थी । एक तरफ दीवार में शीशा लगा था । पास ही टेबल पर मेकअप का सामान रखा था। मोना चौधरी मन ही मन हैरान हुई कि वह कुएं से कहां आ पहुंची है। वो हाथ कहां है, जिन्होंने उसके गिरते शरीर को थामा था फिर उसे खड़ा किया था । मोना चौधरी का मस्तिष्क तेजी से दौड़ रहा था । गीतलाल के मुताबिक इस वक्त वह तिलस्मी कैद में थी । ऐसे में उसके साथ कोई भी हादसा पेश आ सकता था ।

उस कमरे में कोई दरवाजा न होकर, एक गैलरी नजर आई। जिसमें घुप्प अंधेरा नजर आ रहा था । मोना चौधरी कई पलों तक गैलरी को देखती रही । फिर कमरे में नजरें दौड़ाने लगी ।

वो आगे बढ़ी और दीवार पर लगे शीशे के सामने पहुंची । खुद को देखा । कुएं में गिरने से पहले वो बरसात में भीग गई थी, परंतु इस वक्त वो सूखी हुई थी । उसके बाद मोना चौधरी ने टेबल पर पड़े मेकअप के सामान को देखा। उसे खोल कर चैक किया ।

परंतु किसी भी चीज का इस्तेमाल नहीं किया। मेकअप का सारा सामान उम्दा था ।

मोना चौधरी समझ नहीं पा रही थी कि आखिर वह है कहां पर ? आखिरकार उसने गैलरी में जाने का इरादा बनाया और आगे बढ़ी ।

गैलरी में प्रवेश करते ही ठिठकी ।

आगे गहरा अंधेरा था।

मोना चौधरी ने कमर पर लगा रखे मुद्रानाथ के दिए हुए तिलस्मी खंजर को छूकर बोली।

"खंजर । ये रोशनी मेरे साथ-साथ रहे।"

उसके साथ ही वो आगे बढ़ी । गैलरी फौरन रोशनी से चमक उठी ।

मोना चौधरी आगे बढ़ी। सोचों में मुद्रानाथ आ गया था । जिसने जबरदस्ती ही तिलस्मी खंजर उसे दिया था कि ये उसके काम आएगा । उसकी सहायता करेगा । वास्तव में वो उसकी सहायता कर रहा था । कौन था वो मुद्रानाथ । उसने क्यों उसे तिलस्मी खंजर दिया । क्या चाहता था उससे ? (यह बातें जाने के लिए पढ़े, अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'जीत का ताज)

अपनी सोचों का जवाब मोना चौधरी के पास नहीं था । उसने दिमाग से इन सोचों को निकाला । मुद्रानाथ ने कहा था कि वो तिलस्मी नगरी में मिलेगा । जब मिलेगा तो इन बातों का जवाब पूछेगी ।

वो आगे बढ़ती रही ।

पांच मिनट के बाद ही उसे रुकना पड़ा गया ।

गैलरी आगे से बंद थी । आगे दरवाजा न होकर दीवार थी। दो पलों के लिए मोना चौधरी अचकचा उठी । समझ न आया कि क्या करे दरवाजा होता तो उसे पार करने के लिए कुछ सोचती है, परन्तु आगे तो दीवार थी, जिसे तोड़ने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं था।

मोना चौधरी ने रास्ते में आने वाली दीवार को थपथपाया । ठोक-बजाकर देखा । कोई फायदा नहीं हुआ । जो कि होना भी नहीं था । वो भारी तौर पर उलझन में पड़ चुकी थी कि अब क्या करें? इस तरह खड़े रहने का कोई फायदा नहीं था। सोचो में डूबे वो नीचे बैठ गई।

तभी उसकी निगाह दीवार पर बनी शेर की छोटी-सी मूर्ति पर गई । आधे फीट के दायरे में शेर की मूर्ति बनी हुई थी, जो कि दीवार का ही हिस्सा लग रही थी । दीवार पर इस तरह से की मूर्ति का होना मोना चौधरी को अजीब सा लग रहा था । वो फौरन उठी और शेर की मूर्ति को ध्यान से देखने लगी ।

उसमें कुछ भी खास नहीं था सिवाय, शेर की मूर्ति की लाल सुर्ख आंखों के।

लाल सुर्ख आंखे वास्तव में मोना चौधरी को अजीब सी लगी । उसका हाथ खुद-ब-खुद ही उठा और उंगलियां शेर की आंखों को छूने लगी । मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव आ गए । होंठ सिकुड़ गए । क्योंकि शेर की मूर्ति की एक आंख तो बर्फ की तरफ ठंडी थी और दूसरी इतनी गर्म थी जैसे अभी-अभी खौलते पानी से निकली हो ।

मोना चौधरी समझ नहीं पाई कि एक आंख ठंडी और दूसरी आंख गर्म क्यों ? जबकि गरम आंख को छूते हुए जाने क्यों उसके मन को सुकून मिल रहा था । मोना चौधरी ने गर्म आंख को कई बार छुआ और इसी दौरान उसकी उंगली का दबाव आंख पर पड़ गया।

देखते ही देखते वो आंख भीतर धंसती चली गई । इसके साथ ही वो गैलरी शेर की दहाड़ से कांप उठी । मोना चौधरी हड़बड़ा कर पीछे हटी और दीवार से जा टकराई | दहाड़ के साथ ही आंधी जैसी तीव्र हवा का झोंका गैलरी में आया । जाने उस हवा में क्या था, जो मोना चौधरी को अपना मस्तिक सुन्न - सा महसूस होता हुआ लगा । उसे लगा जैसे आंखें नींद से भारी हो रही हो ।

मोना चौधरी को बेहोश होने से पहले ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी पहिए की भांति वो गैलरी घूम रही हो और उसका शरीर ठक-ठक दीवारों के साथ बज रहा हो । दूसरे ही पल उसने खुद को ठंडे पानी में महसूस किया ।

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