सुनील वापस बैंक स्ट्रीट की ओर बढा जा रहा था ।
ठाकुर रुद्रसिंह का चरित्र उसके मस्तिष्क को बुरी तरह मथ रहा था । अपने तमाम ऐबों के बावजूद ठाकुर उसे बुरा आदमी नहीं लगा था ।
राजनगर रेलवे स्टेशन के बाहर की सड़क के सामने से गुजरते समय उसने अपनी कार की रफ्तार जरा कम कर दी । उसने स्टेशन की क्लाक पर नजर जाली । साढे दस बज चुके थे ।
सुनील दुबारा एक्सीलेटर पर पांव का दबाव बढाने ही लगा था कि उसे सड़क के मोट पर इंस्पेक्टर प्रभूदयाल खड़ा दिखाई दिया । सुनील ने गाड़ी उसके सामने ले जाकर रोक दी ।
उसने प्रभूदयाल की ओर की खिड़की का शीशा नीचे गिराया और प्रभूदयाल को आवाज देता हुआ बोला - “यहां कैसे खड़े हो, इंस्पेक्टर साहब ?”
प्रभूदयाल ने कार के भीतर झांका । कुछ क्षण तक तो उसके चेहरे पर असमंजस के भाव छाये रहे, फिर उसने सुनील को पहचान लिया ।
“ओह तुम सुनील” - प्रभूदयाल के स्वर में से उस घड़ी पुलिस वालों का रूखापन गायब था - “इधर कैसे ?”
“घर जा रहा हूं ।” - सुनील बोला - “तुम यहां कैसे खड़े हो ?”
“यार, मेरी वाइफ बच्चों के साथ अभी सवा दस की गाड़ी से मायके से वापस लौटी है । मैं उन्हें ही लेने आया था । लेकिन स्टेशन के अहाते में कोई खानी टैक्सी ही नहीं है । सोचा बाहर सड़क से ही कोई टैक्सी खोजकर लाता हूं लेकिन टैक्सी यहां भी नहीं दिखाई दे रही है ।”
“बच्चे वगैरह कहां हैं ?” - सुनील ने पूछा ।
“स्टेशन की लाबी में खड़े हैं ।”
“तुम वहां पहुंचो, मैं गाड़ी को घुमाकर लाबी में लाता हूं । मैं घर छोड़ आऊंगा तुम्हें ।”
“अरे, तुम कहां तकलीफ करोगे, भई । अभी टैक्सी मिल जायेगी ।” - प्रभूदयाल औपचारिकता का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“तकल्लुफ छोड़ो ।” - सुनील गाड़ी को गियर में डालता हुआ बोला - “मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी । तुम लाबी में पहुंचो, मैं आ रहा हूं ।”
प्रभू का उत्तर सुने बिना ही सुनील ने गाड़ी आगे बढा दी । थोड़ी ही दूर आगे चौराहा था । उसने वहां से गाड़ी को यूं टर्न दिया और वापस स्टेशन के सामने पहुंच गया । उसने स्टेशन के ‘इन’ वाले रास्ते से गाड़ी को भीतर मोड़ दिया ।
प्रभू लाबी में पहुंच चुका था ।
सुनील ने गाड़ी उन लोगों के सामने खड़ी कर दी । वह कार से बाहर निकल आया ।
“नमस्ते भाभीजी ।” - सुनील ने प्रभू की पत्नी को नमस्कार किया ।
नमस्कार का उत्तर एक मधुर मुस्कराहट से मिला । प्रभू की पत्नी बहुत शर्मीली थी । उसके दो छोटे-छोटे लड़के अपनी मां से चिपटे खड़े थे ।
“कला, यह सुनील है ।” - प्रभू अपनी पत्नी से बोला - “राजनगर में जहां भी कोई हंगामाखेज बात होती है, वहां इसकी मौजूदगी जरूरी होती है ।”
“क्या करूं भाभीजी !”- सुनील हंसता हुआ बोला - “मेरा पेशा ही ऐसा है ।”
“यह ‘ब्लास्ट’ का स्पेशल कारस्पान्डेन्ट है ।” - प्रभूदयाल ने अपनी पत्नी को बताया ।
“लेकिन खुदा गवाह है, भाभीजी, उन हंगामाखेज बातों में मेरा दखल आपके पति को कभी पसन्द नहीं आया है ।”
“मैं भी क्या करूं” - प्रभूदयाल बोला - “मेरा पेशा भी तो ऐसा ही है ।”
प्रभूदयाल उस समय बहुत अच्छे मूड में था और शायद इसीलिये इतना सोशल हो रहा था । या फिर शायद यह इंस्पेक्टर की वर्दी की अनुपस्थिति का प्रभाव था ।
प्रभूदयाल की पत्नी के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कराहट दौड़ गई, लेकिन वह मुख से कुछ नहीं बोली ।
“खैर, बातें छोड़ो ।” - प्रभू बोला - “पीछे की चाबी दो । सामान रखना है ।”
सुनील ने कार की खिड़की में हाथ डालकर इग्नीशन में से चाबियों का गुच्छा निकाल लिया । उसने पहली बार देखा कि कला की बगल में दो सूटकेस और एक होल्डाल भी रखा था ।
“मैं कुछ मदद करूं ?” - सुनील प्रभू को चाबी थमाता हुआ बोला ।
“नहीं, मैं कर लूंगा ।” - प्रभू बोला ।
“नहीं, मैं कर लूंगा ।” - प्रभू बोला ।
प्रभू ने गाड़ी के पीछे जाकर डिकी के ताले में चाबी लगाने का प्रयत्न किया लेकिन ताला पहले ही खुला हुआ था ।
“डिकी के ढक्कन का ताला तो पहले ही खुला है ।” - प्रभू बोला ।
“अच्छा ?” - सुनील बोला - “मैं ताला लगाना भूल गया होऊंगा ।”
प्रभूदयाल ने डिकी का ढक्कन उठाया और फिर सामान लाने के लिए वापस मुड़ने ही वाला था कि ठिठककर खड़ा हो गया । एकदम उसकी आंखों की पुतलियां फैल गई । फिर उसने भड़ाक से डिकी का ढक्कन गिराया और ताला लगा दिया ।
“क्या हुआ ?” - सुनील ने हैरानी से पूछा ।
प्रभूदयाल ने उत्तर नहीं दिया । वह वापस अपनी पत्नी के समीप आया और एकदम बदले स्वर में बोला - “तुम्हें और दस-पन्द्रह मिनट इन्तजार करने पर टैक्सी मिल ही जायेगी । तुम बच्चों को लेकर घर पहुंचो । मैं अभी फौरन एक जरूरी काम से कहीं जा रहा हूं ।”
“बात क्या हो गई है ?” - कला ने हैरानी भरे स्वर में पूछा । सुनील ने उसे पहली बार बोलते सुना ।
“बात तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी । तुम, जो मैं कह रहा हूं, वह करो ।”
“अच्छा ।” - कला अनमने स्वर में बोली ।
“भई, अगर तुम्हें काम है तो भाभीजी को मैं घर छोड़ आता हूं । तुम अपना काम करके आ जाना ।” - सुनील उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“नहीं ।” - प्रभूदयाल कठोर स्वर में बोला - “तुम भी मेरे साथ चल रहे हो ।”
“कहां ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“अभी मालूम हो जायेगा । तुम कार में बैठो ।”
सुनील ने अपने कन्धों को एक झटका दिया और फिर कार के स्टेयरिंग पर आ बैठा ।
प्रभू ने भी अपनी ओर का कार का द्वार खोला और फिर सुनील की बगल में आ बैठा । उसने चाबियां सुनील को थमा दीं ।
सुनील ने इंजन स्टार्ट किया और गाड़ी को गियर में डालता हुआ बोला - “कहां चलूं ?”
“गाड़ी को यहां से बाहर निकालो ।” - प्रभूदयाल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
सुनील ने गाड़ी बाहर की ओर बढा दी ।
“किस्सा क्या है ?” - सुनील ने पूछा ।
प्रभू ने उत्तर नहीं दिया ।
“किधर चलूं ?” - सुनील ने पूछा ।
“दाईं ओर । आगे सड़क की बगल में जो मैदान है गाड़ी सड़क से उतारकर वहां रोक देना ।” - प्रभूदयाल बोला ।
प्रभूदयाल के ऐसे किसी आदेश का विरोध न करना सुनील के स्वभाव के एकदम विरुद्ध था, लेकिन न जाने क्यों सुनील चुपचाप उसकी आज्ञा का पालन करने लगा ।
“तुम तो कार की डिकी का ढक्कन उठाते ही यूं भड़के थे जैसे भीतर किसी की लाश रखी हो ।” - सुनील फिर बोला ।
प्रभूदयाल होंठ भीचे चुपचाप बैठा रहा ।
सुनील भी फिर कुछ नहीं बोला । उसने निर्दिष्ट स्थान पर गाड़ी ला खड़ी की ।
प्रभूदयाल ने इग्नीशन में से चाबी खींच ली और कार का द्वार खोलता हुआ बोला - “बाहर निकलो ।”
सुनील बाहर निकल आया ।
प्रभूदयाल ने चाबी लगाकर फिर डिकी का ढक्कन उठा दिया और फिर सुनील का ध्यान डिकी के भीतर की ओर आकर्षत करता हुआ बोला - “यह क्या है ?”
सुनील की उत्सुकतापूर्ण दृष्टि डिकी के भीतर पड़ी । फिर उसके मुंह से एक सिसकारी निकली और उसका हाथ बिजली का तेजी से डिकी के भीतर की ओर बढा ।
“हाथ मत लगाना ।” - प्रभूदयाल एकदम चिल्लाया । सुनील ने हाथ वापस खींच लिया और सीधा खड़ा हो गया ।
डिकी के भीतर एक कोने में एक हथौड़ा पड़ा था । हथौड़े में लगा लकड़ी का हैंडिल केवल सात इंच लम्बा था । लगता था जैसे बाकी का हैंडिल किसी ने किसी खुरदरे से औजार से छील-छालकर काट दिया था क्योंकि हैंडिल का कटा हुआ सिरा बेहद ऊबड़-खाबड़-सा दिखाई दे रहा था । हथौड़े पर खून के धब्बे स्पष्ट दिखाई रहे थे ।
“यह क्या है ?” - प्रभूदयाल ने कठोर स्वर में पूछा ।
“हथौड़ा है ।”
“तुम्हारा है ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“तो फिर यह यहां कैसे आया ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“तुमने सबरवाल की लाश देखी थी ?”
“देखी थी ।”
“तुम्हारे ख्याल से उसकी हत्या कैसे हुई थी ?”
“किसी ने उसकी खोपड़ी पर हथौड़े से वार कर खोपड़ी का भुर्ता बना दिया था ।”
“तुम्हें इन दोनों बातों में कोई सम्बन्ध मालूम होता है ?”
“सम्भव है कि यह वही हथौड़ा हो जिससे सबरवाल की हत्या हुई है ।” - सुनील सहज स्वर में बोला ।
“हथौड़ा यहां कैसे आया ?”
“मैंने बताया न मुझे नहीं मालूम ।” - सुनील जोर से बोला ।
“लेकिन मुझे मालूम है यह हथौड़ा यहां कैसे आया ।”
सुनील प्रभूदयाल का मुंह देखने लगा ।
“क्योंकि तुमने इसे यहां रखा है ।” - प्रभूदयाल एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला ।
“तुम पागल तो नहीं हो गये हो ? जानते हो तुम...”
“मैं पागल नहीं हुआ हूं ।” - उसकी बात काटकर प्रभूदयाल बोला - “तुम ही ने हथौड़ा यहां रखा है, ताकि बाद में तुम इसे कहीं ठिकाने लगा सको । सुनील, मैं तुम्हारी आदतें खूब जानता हूं । तुम दूसरे के बखेड़े में अपनी गरदन फंसाये बिना नहीं मानते हो । विशेष रूप से जबकि बखेड़ा किसी लड़की का हो । अरुणा की खातिर या तो सबरवाल की हत्या खुद तुमने की है या फिर हत्या अरुणा ने की है और अब तुम उसे कवर करने का प्रयत्न कर रहे हो । तुमने हथौड़ा अपनी कार की डिकी में यह सोचकर रखा कि तुम बाद में इसे ठिकाने लगा दोगे । लेकिन फिर तुम इसके बारे में भूल गये और अब पकड़े जाने पर यह जाहिर कर रहे हो कि हथौड़े की तुम्हारी कार में मौजूदगी तुम्हारी जानकारी में ही नहीं है ।”
“प्रभू !” - सुनील एकदम उत्तेजित स्वर में बोला - “तुमने जो कुछ सोचा है, सब गलत है । मैं भगवान की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि सबरवाल की हत्या न तो मैंने की है और न ही मेरी जानकारी में यह काम अरुणा ने किया है । मैं पुलिस से दो हाथ आगे चलने का प्रयत्न जरूर करता हूं लेकिन इसका हरगिज-हरगिज यह मतलब नहीं है कि मैं हत्या जैसा जघन्य अपराध भी कर सकता हूं । प्रभू, इस हथौड़े की अपनी कार में मौजूदगी से मैं तुमसे अधिक हैरान हूं । मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मुझे भी इस हथौड़े के बारे में उतना ही मालूम है जितना कि तुम्हें । तुमने देखा ही था कि डिकी का ताला नहीं लगा हुआ था । किसी ने मुझे फंसाने के लिये ही यह हथौड़ा मेरी कार में डाल दिया था ।”
“सुनील !” - प्रभू बोला - “यह मत भूलो कि सबरवाल की हत्या हुए छः घन्टे से अधिक समय नहीं हुआ है । इतनी ही देर में यह कैसे सम्भव हो सकता है कि कोई तुम्हारी कार तलाश करके तुम्हें फंसाने के लिये उसमें हथौड़ा डाल गया हो ?”
“क्यों सम्भव नहीं हो सकता ?” - सुनील ने विरोध किया - “छः-सात घन्टे क्या थोड़ा समय होता है ! और फिर कितना ही अर्सा तो मेरी कार लावारिस-सी टैम्पल रोड की पच्चीस नम्बर इमारत के सामने खड़ी रही थी ।”
“पिछले पांच-छः घन्टे में तुमने अपनी गाड़ी कहां-कहां खड़ी की थी ?”
“महात्मा गांधी रोड पर सबरवाल बिल्डिंग के सामने” - सुनील याद करता हुआ बोला - “टैम्पल रोड पर 25 नम्बर इमारत के सामने । विशालगढ हाइवे पर पेशावरी रेस्टोरेन्ट के पास और... और, बस ।”
“सुनील” - प्रभू निर्णायात्मक स्वर में बोला - “तुम्हारी स्थिति बेहद सन्देहास्पद है और अभी मैंने तुमसे बहुत कुछ पूछना है । जैसे अभी जो जगह तुमने बतायी हैं, वहां तुम क्या करने गये थे । लेकिन फिलहाल मैं ये प्रश्न स्थगित कर रहा हूं । हथौड़े पर हत्यारे की उंगलियों के निशान मिलने की काफी सम्भावना है और अगर तुम्हारे कथनानुसार हत्यारे तुम नहीं हो और किसी ने तुम्हें फंसाने के लिये हथौड़ा डिकी में डाल दिया है तो डिकी के हैंडिल पर उस कथित हत्यारे की उंगलियों के निशान भी मिल सकते हैं । मैं तुम्हारी कार हैडक्वार्टर में स्थित पुलिस लैबोरेट्री में ले जा रहा हूं । तुम्हें कोई एतराज है ?”
“सख्त एतराज है । तुम्हें इस प्रकार मेरी कार को अधिकार में कर लेने का हक नहीं पहुंचता है ।” - सुनील बोला ।
“तुम्हारा ख्याल एकदम गलत है ।” - प्रभूदयाल शांति से बोला - “जो कुछ इस समय तुम्हारी कार में बरामद हुआ है उसके आधार पर खुद तुम भी अभी गिरफ्तार किये जा सकते हो और एक बार तुम्हारे गिरफ्तार हो जाने पर हमें बहुत कुछ करने का हक मिल जायेगा । फैसला मैं तुम पर छोड़ता हूं । तुम अभी कुछ देर और आजाद रहना चाहते हो या अभी तुम्हें हैडक्वार्टर ले चलूं ?”
“तुम कार ही ले जाओ, बाबा ।” - सुनील हार मानता हुआ बोला ।
“तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“बाद में यह तो नहीं कहोगे कि हथौड़ा पुलिस ने तुम्हारी कार में रख दिया था ? अगर ऐसा हो तो मैं अभी एक-दो गवाहियां बुला लूं ।”
“पागल हो गये हो क्या ?”
“थैंक्यू ।”
प्रभू ने इग्नीशन की चाबी गुच्छे में से निकालकर गुच्छा सुनील को दे दिया । वह स्टेयरिंग पर जा बैठा ।
“गुडनाइट ।” - प्रभू बोला और उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी ।
सुनील ने उत्तर नहीं दिया । नाइट उसके लिये गुड नहीं थी ।
प्रभूदयाल गाड़ी ले गया ।
***
महात्मा गांधी रोड पर सबरवाल बिल्डिंग के सामने सुनील टैक्सी से उतर गया ।
समीप ही एक पब्लिक टेलीफोन बूथ था । सुनील बूथ में घुस गया ।
उसने डायरेक्ट्री में स्टार क्लब का नम्बर देखा । फिर उसने जेब से दस-दस के दो सिक्के निकाले । उसने वह नम्बर डायल कर दिया । दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही उसने जल्दी से सिक्के बक्से में डाल दिये ।
“अरुणा है ?” - वह भारी स्वर में माउथपीस में बोला ।
कुछ क्षण शान्ति रही और फिर उसे निरंजन का स्वर सुनाई दिया - “अरुणा है । जरा होल्ड कीजिये । अभी बुलाते हैं ।”
“थैंक्यू ।” - सुनील बोला और रिसीवर कान से लगाये खड़ा रहा ।
दो मिनट बाद उसे फोन पर अरुणा की मधुर आवाज सुनाई दी - “हल्लो, अरुणा हेयर ।”
सुनील ने उत्तर नहीं दिया ।
“हल्लो, हल्लो ! हू इज स्पीकिंग प्लीज ।”
सुनील ने धीरे से रिसीवर हुक पर सरका दिया और बूथ से बाहर निकल गया ।
उसने लक्की स्ट्राइक का एक नया पैकेट खरीदा । उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और बड़े सब्र से प्रतीक्षा करने लगा । उसकी दृष्टि सबरवाल बिल्डिंग के मुख्य द्वार पर टिकी हुई थी ।
लगभग बारह बजे अरुणा इमारत से बाहर निकली । वह अकेली थी ।
सुनील ने सिगरेट फेंक दिया और सड़क पार कर गया ।
अरुणा की कार पार्किंग में खड़ी थी । उसने द्वार को चाबी लगायी और स्टियरिंग पर जा बैठी । उसने कार स्टार्ट कर दी लेकिन तब तक सुनील उसकी कार के सामने पहुंच चुका था ।
“तुम ! इस समय !” - अरुणा उसे पहचानकर बोली ।
“दूसरी ओर का द्वार खोलो ।” - सुनील बोला - “मैं भीतर आ रहा हूं ।”
अरुणा ने अनिच्छा से द्वार खोल दिया ।
सुनील भीतर आ बैठा ।
“मैं अपने फ्लैट पर जा रही हूं ।” - अरुणा ‘मैं’ शब्द पर जोर देती हुई बोली ।
“चिन्ता मत करो । इतनी रात गये मैं तुम्हारे फ्लैट पर तुम्हारे साथ जाने की जिद नहीं करूंगा । ...वहां से लाश वगैरह उठ चुकी है ?”
“हां । तुम चाहते क्या हो ?”
“कार को यहां से निकालो और थोड़ी देर के लिये कहीं ले जाकर खड़ी कर दो । मैं कुछ बातें करना चाहता हूं ।”
सुनील बेहद गम्भीर था ।
अरुणा ने एक उड़ती-सी दृष्टि उसके चेहरे पर डाली, फिर कुछ ही क्षणों बाद गाड़ी को महात्मा गांधी रोड के एक किनारे पर पेड़ के नीचे रोक दिया । उसने इग्नीशन बन्द कर दिया और उसकी प्रश्नसूचक दृष्टि सुनील की ओर उठ गयी । न जाने क्यों वह बुरी तरह सुनील से उखड़ रही थी ।
“अरुणा देवी जी !” - सुनील उसके मन के भाव समझता हुआ रूखे स्वर में बोला - “ऐसी बेरुखी दिखाने से काम नहीं चलेगा । मैं कोई तुम्हारा आशिक नहीं हूं जो तुम्हारी बेरुखी को भी उतनी ही सम्मानपूर्ण दृष्टि से देख सकूं जितना कि तुम्हारे अच्छे मूड को ।”
अरुणा को झटका-सा लगा । फिर वह अपने स्वर को भरसक स्वाभाविक बनाने का प्रयत्न करती हुई बोली - “तुम चाहते क्या हो ?”
“कम से कम वह नहीं चाहता हूं जो तुमसे स्टार क्लब में आने वाले लोग चाहते हैं ।”
“सुनील, बकवास मत करो । मैं स्टार क्लब की होस्टेस नहीं, पार्टनर हूं । होस्टेस तो मैं केवल तुम्हारे लिये बनी थी ।”
“क्या फर्क पड़ता है ! औरत तो तुम हर हाल में हो ही ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
“क्या मुझे यही बताने के लिए आये हो यहां ?”
“नहीं । और सही मायनों में मैं बताने तो बहुत थोड़ा आया हूं । मैं तो यहां बहुत कुछ जानने आया हूं ।”
“तुम बताने क्या आए हो ।”
“मैं तुम्हें बताने आया हूं कि जिस हथौड़े से सबरवाल की हत्या की गई थी वह मेरी कार की डिकी में पाया गया है ।”
“क्या ?” - अरुणा एकदम चौंकी ।
“तुम तो यूं चौंक रही हो जैसे तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं है ।”
“सुनील, भगवान कसम ।” - अरुणा व्यग्र भाव से बोली - “मैं उस हथौड़े के बारे में कुछ नहीं जानती ।”
“देखो, अरुणा !” - सुनील उसको घूरता हुआ बोला - “मेरा दावा है कि कम से कम कोई लड़की तो मुझे घिस्सा दे नहीं सकती ।”
“कौन घिस्सा दे रहा है तुम्हें ?”
“तुम ।”
अरुणा चुप रही ।
“तुम्हें खूब मालूम था कि मेरी गाड़ी 25, टैम्ण्ल रोड पर खड़ी है । तुमने यह बात निरंजन को बताई होगी - फिर तुमने या निरंजन ने सबरवाल की हत्या कर दी होगी । हथौड़ा निरंजन के पास रहा होगा । फिर वह खुद या उसका कोई साथी मुझसे पहले 25, टैम्पल रोड पहुंच गया होगा और हथौड़ा मेरी कार में डाल आया होगा । बाद में पुलिस यही समझती कि हत्या मैंने की है और या फिर मैं तुम्हें कवर करने का प्रयत्न कर रहा हूं और यही पुलिस ने समझा भी ।”
“लेकिन, सुनील, मान लो मैंने निरंजन को तुम्हारी कार के विषय में बताया था लेकिन तुम तो सबरवाल बिल्डिंग के सामने ही मुझसे अलग हो गये थे और वहां से सीधे टैम्पल रोड गये थे । निरंजन तुमसे पहले वहां कैसे पहुंच सकता है ?”
“पहुंच सकता है । मैं टैक्सी पर गया था और टैक्सी अपनी नियमित रफ्तार पर चलती है और फिर टैक्सी मुझे मिली भी काफी देर बाद थी । इतने समय में निरंजन ठाठ से अपनी कार या किसी मोटरसाइकिल द्वारा मुझसे पहले टैम्पल रोड पहुंच सकता है ।”
अरुणा खामोश रही ।
“देखो देवीजी !” - सुनील शुष्क स्वर में बोला - “तुम्हारे साथ-साथ अब मैं भी बुरी तरह लपेटा गया हूं । इंस्पेक्टर प्रभूदयाल मुझे छोड़ेगा नहीं । मेरा, और किसी हद तक तुम्हारा भी, कल्याण इसी में है कि तुम मुझे तस्वीर का अपनी और बोला रुख भी दिखाओ ।”
सुनील रुक गया ।
“मैं सुन रही हूं ।” - अरुणा बोली ।
“सबरवाल कोई उड़कर तुम्हारे फ्लैट में नहीं गया था । फ्लैट के द्वार को ताला लगा हुआ था और सबरवाल की लाश भी भीतर थी । उसकी हत्या निश्चय ही तुम्हारे फ्लैट में हुई है । यह असम्भव है कि तुम्हारी जानकारी के बिना वह तुम्हारे फ्लैट में पहुंचा हो इसलिए जरूर ही वह तुम्हारे फ्लैट में तुमसे मिलने आया था और कत्ल कर दिया गया था ।”
“और कुछ ?”
“और यह कि जिस समय क्लब में निरंजन ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था उस समय उसके हाथ की घड़ी और दीवार की क्लॉक दोनों एक घण्टा पीछे थी ।”
अरुणा के मुंह से एकदम सिसकारी-सी निकल गई और उसके चेहरे का रंग उड़ने लगा ।
“तुम्हें यह भी मालूम है !” - वह सहमे स्वर में बोली ।
“मैं अंधा नहीं हूं । निरंजन ने घड़ियों के समय में हेरफेर खामखाह नहीं किये थे । वह शायद सबरवाल के दिमाग पर समय का गलत इम्प्रेशन डालकर कोई गड़बड़ करना चाहता था । उसने किसी प्रकार सबरवाल की कलाई की घड़ी भी एक घण्टा आगे करवा दी होगी ।”
“कैसे ?”
“यह मैं भी समझ नहीं पा रहा हूं लेकिन ऐसा हुआ जरूर होगा । निरंजन ने यह करामात कैसे की थी ?”
अरुणा कुछ क्षण दुविधा में पड़ी रही और फिर निर्णयात्मक स्वर में बोली - “सब कुछ जाने बिना तो तुम मेरा पीछा छोड़ोगे नहीं ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“सबरवाल की एक आदत थी कि जब वह क्लाकरूम में जाता था तो हाथ धोते समय घड़ी उतारकर क्लाकरूम के अटैण्डेन्ट के हाथ में थमा देता था । उस दिन भी उसने ऐसा ही किया था । निरंजन ने अटैण्डेन्ट को पहले ही कहा हुआ था कि वह सबरवाल की घड़ी चुपचाप एक घण्टा आगे कर दे । फिर किसी बहाने से निरंजन ने सबरवाल को आफिस में बुलाया था और बड़े साधारण ढंग से उसका ध्यान समय की ओर आकर्षित किया था । सबरवाल को अपनी घड़ी के समय पर अगर थोड़ा-बहुत सन्देह भी था तो वह दीवार पर लगी घड़ी और निरंजन की कली घड़ी को देखकर दूर हो गया लेकिन मिस्टर शरलाक होम्ज, जब सबरवाल की घड़ी एक घण्टा आगे थी तो वह एक घण्टा पीछे कैसे हो जायेगी ?”
“निरंजन ने उसकी हत्या की होगी और हत्या के बाद उसकी घड़ी एक घण्टा पीछे कर दी होगी ताकि वह ठीक समय दिखाने लगे लेकिन तुम्हें वह यह बात नहीं बता सका होगा कि वह घड़ी पहले ही एक घण्टा पीछे कर चुका था । तुम तो घड़ी पहनती नहीं हो । परिणामस्वरूप तुमने भी सबरवाल की घड़ी एक घंटा पीछे कर दी और इस प्रकार सबरवाल की घड़ी असली समय से एक घण्टा पीछे हो गई ।”
अरुणा चुप रही ।
“तुम्हारी चुप्पी प्रकट कर रही है कि मेरा अनुमान गलत नहीं है । अब अच्छा यही है कि बाकी किस्सा भी कह डालो ।”
“अगर मैं न बताऊं तो ?”
“तो जो कुछ मुझे मालूम है, केवल पन्द्रह मिनट में उसे इंस्पेक्टर प्रभूदयाल भी जान जायेगा ।”
“यह मत भूलो कि इस समय तुम मेरी कार में बैठे हो और यह मेरी इच्छा पर निर्भर करता है कि मैं तुम्हें लिफ्ट देना चाहती हूं या नहीं । मैं चाहूं तो अभी तुम्हें गाड़ी से बाहर धकेल सकती हूं ।”
“जरा एक बार कोशिश करके देखो ।” - सुनील चैलेंज भरे स्वर में बोला ।
अरुणा कसमसायी और फिर उसने होंठ भींच लिये ।
“अब अपना रिकार्ड चालू कर दो ।” - सुनील बोला ।
अरुणा चुप रही ।
“मेरे पास अधिक समय नहीं है ।” - सुनील बोला ।
“बकवास बन्द करो ।” - अरुणा झल्लाकर बोली - “बहुत समय है । मुझे सोचने दो । मुझे सोचने दो कि मैं अपना रिकार्ड कहां से चालू करूं ।”
“सबरवाल से ।”
“अच्छा ।” - अरुणा निर्णय-सा करती हुई बोली - “सबरवाल एक खतरनाक ब्लैकमेलर था । वह हमेशा बड़ा मुर्गा फांसा करता था । उसका काम करने का तरीका ऐसा था कि उस पर कभी भी आंच नहीं आ सकती थी । उसके शिकार तो उसकी सूरत भी नहीं पहचानते थे । वह किसी एक मोटी आसामी के पीछे पड़ जाता था और फिर बड़े सब्र के साथ उसके जीवन के अन्धेरे पक्ष के बखिये उधेड़ने शुरू कर देता था । अगर उसे कोई ऐसी बात मालूम हो जाती थी जिसके दम पर वह आसामी को ब्लैकमेल कर सकता हो तो एक दिन वह अपने शिकार को टेलीफोन करता था और उसका रहस्य खोल देने की धमकी देता था । शिकार डर जाता था और फिर सबरवाल उसे कहता था कि वह एक निश्चित रकम उसके भतीजे को दे । उसका भतीजा शिकार से सम्बन्ध स्थापित करता था और रुपया वसूल कर लेता था ।”
“तुम्हें यह सब कैसे मालूम है ?” - सुनील हैरान होकर बोला ।
“बीच में मत टोको ।” - अरुणा फिर झल्ला पड़ी ।
“अच्छा ।” - सुनील बोला ।
“सबरवाल नये-नये शिकार ढूंढने के लिये स्टार क्लब को बहुत इस्तेमाल करता था । स्टार क्लब में किस किस्म के लोग आते हैं, तुम जानते ही हो । अपने पतियों से दुःखी होकर मनोरंजन की तलाश में स्टार क्लब में आई हुई अमीर लोगों की बीवियां बड़ी आसानी से सबरवाल के जाल में फंस जाती थीं । उनकी अपने प्रेमियों के साथ मात्र एक तस्वीर उनके जीवन का नक्शा बदल देने के लिये पर्याप्त होती थी । सबरवाल उनसे खूब धन ऐंठता था । ऐसे ही वह आदमियों को भी फंसा लेता था ।”
“निरंजन या तुम इस विषय में कुछ जानते थे ?”
“अब तो सब कुछ जानते हैं लेकिन पहले हमें केवल सन्देह था ।”
“फिर ?”
“फिर एकाएक सबरवाल अपने इस खतरनाक धन्धे से घबराने लगा । आये दिन अखबार में समाचार छपते हैं कि फलां आदमी ने फलां आदमी को कत्ल कर दिया और मालूम हुआ कि हत्यारे को दूसरा आदमी ब्लैकमेल कर रहा था । तंग आकर उसने ब्लैकमेकर की हत्या कर दी । हालांकि सबरवाल को उसके शिकार पहचानते नहीं थे । ब्लैकमेलिंग के लिये पेश तो भतीजा होता था, लेकिन फिर भी खतरा तो था ही । कभी भी उसका कोई शिकार उसके भतीजे के माध्यम से उसकी वास्तविकता जान सकता था और फिर सबरवाल भी अखबार की खबर बन सकता था । परिणामस्वरूप उसने अपना धन्धा समेटमने का फैसला कर लिया । उसने अपने शिकारों से आखिरी बड़ी रकम झटककर ब्लैकमेलिंग बन्द कर देने का इरादा कर लिया ।”
“इन बातों से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ?” - सुनील ने बेसब्री से पूछा ।
“वही बता रही हूं । सबरवाल का एक शिकार राजनगर टैक्सटाइल मिल के मालिक रत्न प्रकाश की पत्नी सन्तोष भी थी ।”
“सन्तोष पर सबरवाल का क्या होल्ड था ?” - सुनील ने सतर्क स्वर में पूछा ।
“सबरवाल जानता था कि सन्तोष गुलाब नाम की एक रण्डी की लड़की थी जो पहले विशालगढ में धन्धा किया करती थी और फिर एक रईस जमींदार का ढेर सारा धन लूटकर विश्वनगर जा बसी थी और वहां सम्मानित नागरिकों जैसा जीवन बिताने का प्रयत्न करने लगी । लेकिन फिर उसके घर में डाका पड़ा था और डाकू उसका सब कुछ लूटकर ले गये थे । गुलाब खानदानी वेश्या थी इसलिये उसे अभाव का जीवन बिताने के स्थान पर अपनी लड़की सन्तोष से पेशा करवाने में कोई हर्ज नहीं दिखाई दिया, लेकिन लड़की ऐसे ख्यालों की नहीं थीं । उसने अपनी मां के इस प्रस्ताव का, कि वह भी पेशा शुरू कर दे, तीव्र विरोध किया तो गुलाब पहले तो उसे प्यार से समझाती रही और फिर लड़की पर दुलार का कोई प्रभाव न देखकर वह अपनी असलियत पर उतर आई । उसने विश्वनगर के ही एक आदमी के साथ दस हजार रुपये में सन्तोष की पहली रात का सौदा कर लिया । सन्तोष को तो अपनी मां के इरादों की भनक भी नहीं थी । उसे तो यह बात तब मालूम हुई जब मुसीबत एकदम सिर पर आ गई । वह आदमी रात को आया और गुलाब ने उसे सन्तोष के कमरे में घुमाकर बाहर से ताला लग दिया । सन्तोष ने प्रबल विरोध किया, वह खूब चीखी, चिल्लाई, रोई, लेकिन वह अपने सिर से बला न टाल सकी । उस आदमी ने रात भर उसे खूब लूटा, नोचा, खसोटा । मतलब यह कि उसने अपने दस हजार रुपये वसूल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । लेकिन अगले दिन सन्तोष घर से भाग गई और फिर गुलाब को ढूंढे नहीं मिली ।”
“वह आदमी कौन था ?”
“सबरवाल ।”
“क्या ?” - सुनील एकदम चिल्ला पड़ा ।
“धीरे बोलो । रात के साढे बारह बजे हैं ।”
“वह सबरवाल था ?”
“हां । सन्तोष का पहला ग्राहक सबरवाल था, फिर सन्तोष को न जाने कैसे रत्न प्रकाश उसे विशालगढ से राजनगर ले आया, फिर एक दिन सबरवाल की उस पर नजर पड़ गई । यह जानते ही कि सन्तोष रत्न प्रकाश जैसे लखपति आदमी की बीवी है, सबरवाल खुश हो गया । सन्तोष को ब्लैकमेल करने के लिये तो उसने अपने भतीजे की आड़ लेनी भी जरूरी नहीं समझी । उसने सीधे सन्तोष से सम्पर्क स्थापित किया और उसे ब्लैकमेल करने लगा । सन्तोष के बच निकलने का सवाल ही नहीं था । सबरवाल कभी भी रत्न प्रकाश को बता सकता था कि सन्तोष केवल विशालगढ की मशहूर रण्डी गुलाब की लड़की थी बल्कि वह स्वयं दस हजार रुपये में उसका कौमार्य खरीद चुका था । वह सन्तोष को ब्लैकमेल करता रहा । जब भी सबरवाल को रुपये की जरूरत होती थी, वह सन्तोष को स्टार क्लब में बुला लेता था और सन्तोष सिर के बल आती थी ।”
अरुणा चुप हो गई ।
“फिर ?”
“फिर सबरवाल ने अपने सारे शिकारों से एक आखिरी मोटी रकम वसूल करने के बाद ब्लैकमेलिंग बन्द कर देने का इरादा कर लिया । सन्तोष से एक मोटी रकम मूंडने की उसने एक बहुत बढिया तरकीब निकाली ।”
“क्या ?”
“उसने संतोष को मजबूर किया कि वह अपने पति से कहे कि वह सबरवाल बिल्डिंग खरीद ले । बिल्डिंग की मार्केट वैल्यू पांच लाख रुपये से अधिक नहीं है लेकिन सबरवाल ने उनकी कीमत बीस लाख रुपये लगाई है । यह मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हूं कि सबरवाल बिल्डिंग की चौथी मंजिल हमने लीज पर ले रखी है । उस लीज की एक शर्त भी मैंने तुम्हें बताई थी कि इमारत का विक्रय हो जाने की सूरत में नब्बे दिन में लीज समाप्त हो जायेगी । परिणामस्वरूम स्टार क्लब का धन्धा ठप्पा हो जायेगा । पहले मैंने तुम्हें यह बताया था कि हम सन्तोष की पोल खोलकर उस पर दबाव डालना चाहते थे लेकिन निरंजन को उस स्कीम की सफलता पर तनिक भी विश्वास नहीं था । वह चाहता था कि हम सबरवाल के पीछे पड़ें और किसी प्रकार उसके ब्लैकमेलिंग के धन्धे पर चोट पहुंचाने का प्रयत्न करें ।”
“इस सिलसिल में निरंजन के पास कोई स्कीम थी ?”
“थी और वही सफल भी हुई ।”
“क्या हुआ था ?”
“मैंने सबरवाल के भतीजे को फंसाया । वह एकदम बुद्धू-सा लड़का है । मैंने उसे लिफ्ट दी । वह मुझ पर लट्टू हो गया और किसी हद तक हमारा फिल्मी इश्क चालू हो गया । फिर एक दिन मैंने उसे शराब के नशे में डूबोकर उससे अपने चाचा के बारे में बहुत-सी बातें उगलवा लीं । सबसे महत्वपूर्ण बात हमें यह पता लगी कि सबरवाल के फ्लैट में एक गुप्त स्थान पर एक सेफ थी जिसमें सबरवाल वे सब कागजात रखता था जिनके दम पर वह अपने शिकारों को ब्लैकमेल करता था । मैंने वह सेफ साफ कर दी ।”
“तुमने ?” - सुनील फिर चिल्ला पड़ा ।
“देखो ।” - अरुणा कठोर स्वर में बोली - “अगर तुम यूं ही चीखें मारते रहोगे तो अभी यहां कोई पुलिस का सिपाही पहुंच जायेगा ।”
“तुमने सबरवाल की सेफ में से कागजात चुरा लिये ?” - सुनील नियन्त्रित स्वर में बोला ।
“हां, और जो कुछ मैं तुम्हें बता रही हूं, वह उन्हीं कागजातों से मालूम हुआ है ।”
“कब ?”
“आज शाम को ।”
“कैसे ?”
“घड़ी के मामले में सब कुछ वैसे ही हुआ था जैसा तुमने सोचा है । हमने सबरवाल की घड़ी एक घण्टा आगे कर दी थी और निरंजन ने उसे अपने आफिस में बुलाकर दीवार घड़ी और अपने हाथ की घड़ी की सहायता से यह विश्वास भी दिला दिया था कि वही ठीक टाइम था । उसके थोड़ी देर बाद ही निरंजन ने तुम्हें आफिस में बुलाया था । उससे बेवकूफी यह हुई कि तुम्हें आफिस में बुलाया था । उससे बेवकूफी यह हुई कि तुम्हें बुलाने से पहले उसे घड़ियों में वास्तविक टाइम कर देने का ख्याल नहीं रहा । समय की एक घण्टे की गड़बड़ तुमसे छुपी न रही ।”
“खैर, तुम अपनी बात बताओ ।”
“आज ही शाम मैंने सबरवाल को अपने फ्लैट पर बुलाया था ।”
“क्यों ?”
“बहाना । यह बात करने के लिये कि सबरवाल की कीमत पर बिल्डिंग तो नहीं लेकिन बारह-तेरह लाख तक में अगर हम ही बिल्डिंग खरीद लें तो क्या वह तैयार था । आखिर इस बात की कोई भारी गारन्टी तो थी नहीं कि सन्तोष के कहने से रत्न प्रकाश चौगुनी कीमत में बिल्डिंग खरीद ही लेगा ।”
“वह आया ?”
“क्यों न आता ? सौदे की बात करने में कोई हर्ज थोड़े ही होता है । वह जरूर आयेगा, इसी उम्मीद पर तो समय की गड़बड़ की गई थी ।”
“वह आया तो तुमने एक हथौड़ा लेकर उसकी खोपड़ी का तरबूज बना डाला ।” - सुनील कूदकर नतीजे पर पहुंचता हुआ बोला ।
“सुनील !”
“आलराइट ! आलराइट ! तुम्हीं बोलो । गलती हुई ।”
“सबरवाल जिस समय मेरे फ्लैट में आया था, उस समय उसकी अपनी घड़ी में साढे पांच बजे थे जबकि वास्तविक समय साढे चार का था । मैंने यूं भी उससे समय पूछ लिया और उसने घड़ी देखकर मुझे समय बता दिया । अब यह बात उसके दिमाग में जम चुकी थी कि वह मेरे फ्लैटे पर साढे पांच बजे आया था । मैंने बातचीत आरम्भ करने से पहले उसे कोका कोला पिलाया, जिसमें बेहोशी की दवा मिली हुई थी । उस दवा की एक निश्चित मात्रा मुझे निरंजन ने दी थी । उसके प्रभाव से सबरवाल एक घण्टा पन्द्रह मिनट बेहोश रह सकता था ।”
“यह तुम्हें निरंजन ने बताया था ?”
“हां ।”
“फिर ?”
“स्कीम यह थी कि सवा घण्टे में मैं सबरवाल के फ्लैट की सेफ साफ करके लौट आती । वापस आकर मैं सबरवाल की घडी एक घण्टा पीछे कर देती । होश में आने पर मैं सवरवाल से कह देती कि उसे कोई दौरा-दौरा पड़ गया था । सवरवाल घड़ी देखता तो वह समझता कि उसे वहां आये केवल पन्द्रह मिनट ही हुए थे ।”
“यह तो स्कीम थी । वास्तव में क्या हुआ था ?”
“वास्तव में भी यही हुआ था । कोका कोला पेट में पहुंचने के दो मिनट बाद ही उसकी तबियत एकदम खराब होने लगी । वह बाथरूम की ओर लपका लेकिन दवा फौरन असर करने वाली थी । वह एक बार लड़खड़ाया और फिर होश खोकर बाथ टब में जा गिरा । मैं उसकी जेब में से फ्लैट की चाबियां और उसकी डायरी निकाली । डायरी में सेफ खोलने का गुप्त नम्बर इस प्रकार लिखा हुआ था कि वह टेलीफोन नम्बर मालूम हो । यह बात मुझे उसके भतीजे से मालूम हुई थी । मैंने नम्बर नोट कर लिया और डायरी उसकी जेब में डाल दी । फिर मैं उसके फ्लैट पर पहुंची । मैंने उसकी सेफ खोली और नकद धन को छोड़कर उसमें जो कुछ भी था मैंने सब निकाल लिया । उन कागजों की अनुपस्थिति में सबरवाल का ब्लैकमेल का धन्धा रेत के महल की तरह ढह सकता था और अब हम उलटा उसे ब्लैकमेल कर सकते थे ।”
“फिर क्या हुआ ?”
“फिर मैं सीधी अपने फ्लैट पर लौट आई । वहां मुझे सबरवाल की जगह उसकी लाश मिली ।”
“फिर तुमने क्या किया ?”
“मैंने सबरवाल के फ्लैट की चाबियां वापस उसकी जेब में डाल दीं । मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं मैंने निरंजन को क्लब में फोन किया लेकिन वह मिला नहीं । उसके घर का फोन खराब था इसलिये मैं उसके फ्लैट पर पहुंची । वहां तुमने मुझे देखा और समझा कि मैं रुद्रसिंह से मिलने आयी हूं जब कि वास्तव में मैं निरंजन को तलाश कर रही थी । तुम मुझ पर चढ दौड़े । पहले तो मैं तुमसे पीछा छुड़ाने की सोचती रही, फिर मुझे सूझा कि क्यों न प्लान में तुम्हें ही अपनी एलीबाई के रूप में इस्तेमाल करूं और तुम्हें फ्लैट पर ले जाकर यह प्रकट करूं कि उस समय मैंने पहली बार लाश देखी थी लेकिन मेरी चालाकी चली नहीं । तुम जरूरत से ज्यादा समझदार निकले ।”
“लौटकर तुमने सबरवाल की घड़ी एक घण्टा पीछे की थी ?”
“हां ।”
“सबरवाल को बेहोश छोड़कर जाते समय तुम अपने फ्लैट में ताला नहीं लगाकर गई थीं ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“मुझे निरंजन ने कहा था कि मैं द्वार को थोड़ा-सा खुला छोड़कर जाऊं ।”
“लेकिन क्यों ?”
“जाती बार मैं सबरवाल के हाथ में एक चिट थमा गई थी जिस पर लिखा था - तुम्हें कोई दौरा पड़ गया है । मैं डाक्टर की दुकान पर तुम्हारे लिये दवा लेने जा रही हूं । द्वार खुला छोड़ने का और वह चिट लिखने का मतलब यह था कि अगर दुर्भाग्य से बेहोशी की दवा अपना सम्भावित प्रभाव न दिखाये और सबरवाल समय से पहले होश में आ जाये तो उसे अपनी स्थिति पर सन्देह न हो ।”
“यह निरंजन का आइडिया था ?”
“हां ।”
“जिस समय तुम सबरवाल के फ्लैट से वापस लौटी थीं, तब भी वह चिट उसकी लाश के हाथ में थी ?”
“हां ।”
“तुमने क्या किया था उसका ?”
“मैंने उसे जला दिया था ।”
“निरंजन के कहने पर ?”
“हां ।”
“मतलब यह हुआ कि तुम तो कठपुतली की तरह वह सब करती रही जो निरंजन तुम्हें करने के लिये कहता रहा ?”
“मुझे तुम्हारा बात करने का यह ढंग पसन्द नहीं ।”
“क्या खराबी है इसमें ?”
“तुम निरंजन पर सन्देह प्रकट कर रहे हो ।”
“तो क्या गलत कर रहा हूं ?”
“तुम...”
“जानेजिगर !” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “निरंजन ने तुम्हारा मुर्गा बना दिया है । उसने तुम्हें तो सबरवाल को बेहोश करके और दरवाजा खुला छोड़कर सबरवाल के फ्लैट से कागज चुराने के लिये रवाना कर दिया और स्वयं आकर सबरवाल की हत्या कर गया । अब स्थिति ऐसी हो गयी है कि हर बात तुम ही पर सन्देह करने को बाध्य करती है । जो कुछ तुमने मुझे बताया है अगर तुम यही सब पुलिस के सामने दोहरा दो तो भी कोई तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं करेगा क्योंकि निरंजन तो इस बात से साफ मुकर जायेगा कि उसका तुम्हारे साथ रत्ती-भर भी सहयोग था ।”
अरुणा के चेहरे पर चिन्ता के भाव दिखायी देने लगे ।
“मैं तो फंस गई ।” - वह बड़बड़ाई ।
“हां ।” - सुनील कार का अपनी ओर का द्वार खोलता हुआ बोला - “और ट्रेजडी यह है कि दोनों ही सूरतों में तुम्हारी स्थिति बड़ी खराब है, चाहे तुम झूठ बोलो, चाहे सच । मैं तो चला ।”
“तुम्हारी कार कहां है ?”
“पुलिस ले गई ।”
“मैं तुम्हें तुम्हारे फ्लैट पर छोड़ आऊं ?”
“मैं अपने फ्लैट पर नहीं जा रहा हूं ।”
“रात के एक बजे और कहां जाओगे ?” - अरुणा हैरानी से बोली ।
“किसी होटल में ।”
“क्यों ? फ्लैट पर क्यों नहीं ?”
“क्योंकि जो इन्स्पेक्टर तफ्तीश के लिये मेरी कार पुलिस हैडक्वार्टर ले गया है, उसका नाम प्रभूदयाल है । अगर रात दो बजे भी उसे उस हथौड़े से या समूचे केस से सम्बन्धित कोई ऐसी बात सूझ गई जिसका रिश्ता मेरे से जोड़ना मुमकिन हो तो वह समय की परवाह किये बिना मुझे पर चढ दौड़ेगा ।”
“ऐसा करने का हक पहुंचता है उसे ?”
“भगवान जाने पहुंचता है या नहीं । लेकिन पुलिस के मामलों में मेरा रिकार्ड इतना खराब है कि किसी छोटी-मोटी बात पर भी विरोध करने का मेरा हौसला नहीं होता ।”
“तो तुम बाकी की रात मेरे फ्लैट पर क्यों नहीं गुजार लेते ?”
“यह तुम कह रही हो ?” - सुनील नकली हैरानी जाहिर करता हुआ बोला ।
“इसमें हैरानी की कौन-सी बात है ?”
“अभी थोड़ी देर पहले तो तुम मेरे से यूं परहेज कर रही थीं । जैसे मुझे कोई छूत की बीमारी हो ।”
“ओह, फारगैट इट ।”
“लेकिन मैं सुबह देर तक सोने का आदी हूं ।”
“आई डोण्ट माइन्ड ।”
“और मैं सोते हुए बहुत जोर-जोर से खर्राटे भरता हूं ।”
“आल दि सेम, आई डोण्ट माइन्ड ।”
“और फिर तुम्हारे फ्लैट में पलंग भी तो एक ही है ।”
“कीप यूअर ब्लडी माउथ शट ।”
और उसने कार स्टार्ट कर दी ।
***
अरुणा के फ्लैट में जिस समय सुनील सोकर उठा, उस समय साढे दस बजे थे । उसने एक अंगड़ाई ली और सोफे से उठ खड़ा हुआ । रात को अरुणा बैडरूम में सोई थी और सुनील बाहर ड्राइंगरूम में सोफे पर । सुनील ने जूते, कोट और नेकटाई उतार दी थी और वह पैन्ट और कमीज पहने ही सो गया था ।
बैडरूम का द्वार खुला हुआ था । उसने भीतर झांका । अरुणा बिस्तर में नहीं थी । उसने किचन, बाथरूम वगैरह में सब जगह देखा लेकिन अरुणा फ्लैट में नहीं थी ।
सुनील ने बाथरूम में आकर मुंह धोया और फिर किचन में घुस गया । उसने अपने लिये चाय बनाई और चाय लेकर ड्राइंगरूम में आ गया ।
वह शान्ति से चाय की चुस्कियां लेता रहा ।
साढे ग्यारह बज गये लेकिन अरुणा नहीं आई ।
बोर होकर सुनील उठा । उसने कोट और जूते पहने । टाई को गले में बांधने के स्थान पर कोट की जेब में ठूंसा और अपनी बढी हुई शेव पर हाथ का पिछला भाग रगड़ता हुआ बाहर निकल आया ।
बाहर आकर उसने फ्लैट का द्वार बन्द कर दिया । द्वार में आटोमैटिक लाक था जो द्वार का पल्ला चौखट से लगते ही बन्द हो गया ।
इमारत से बाहर आकर सुनील ने एक टैक्सी ली ।
“बैंक स्ट्रीट ।” - उसने ड्राइवर से कहा और टैक्सी की पिछली सीट पर सिर टिका दिया ।
उसने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
केस की बहुत-सी बातें ऐसी थीं जो उसका दिमाग किसी एक फ्रेम में फिट नहीं कर पा रहा था । यह बात स्पष्ट थी कि अरुणा के अतिरिक्त हत्यारे ने भी सबरवाल की घड़ी एक घण्टा पीछे की थी । लेकिन सबरवाल की घड़ी एक घण्टा आगे है, यह तथ्य केवल तीन ही व्यक्ति जानते थे । निरंजन, अरुणा और क्लाकरूम का वो नौकर जिसने सबरवाल की घड़ी एक घण्टा आगे की थी । नौकर के सबरवाल की हत्या करने का सवाल ही नहीं पैदा होता था । अरुणा भी उसे निर्दोष मालूम हो रही थी । सन्देह का पात्र केवल निरंजन रह जाता था । हत्या की प्लानिंग भी इसी ओर संकेत करती थी कि हत्या निरंजन ने की थी । लेकिन वह हथौड़ा, जिससे सबरवाल की हत्या हुई थी, सुनील की कार में पाया गया था । निरंजन की सुनील को फंसाने में क्या दिलचस्पी हो सकती थी, यह बात सुनील की समझ से परे थी ।
इस बात की सम्भावना नहीं के बराबर थी कि सबरवाल की ब्लैकमेलिंग का कोई और शिकार सबरवाल को पहचान गया हो । उसने सबरवाल का पीछा किया हो और अरुणा के फ्लैट में सबरवाल को अचेत पाकर उसकी हत्या कर दी हो । इस सम्भावना के विरुद्ध दो बड़ी बातें यह थीं कि एक तो ऐसे किसी हत्यारे को सबरवाल की घड़ी की गड़बड़ कैसे मालूम थी ! और अगर मालूम थी तो उसने घड़ी एक घण्टा पीछे करना क्यों जरूरी समझा था ! दूसरे, उसने हथौड़ा सुनील की कार में क्यों डाला !
“बैंक स्ट्रीट में कहां, रोकूं, बाबूजी ?” - ड्राइवर की आवाज उसके कानों में पड़ी ।
“तीन नम्बर के सामने ।” - सुनील हड़बड़ाकर बोला ।
ड्राइवर ने गाड़ी तीन नम्बर इमारत के सामने रोक दी ।
सुनील टैक्सी से बाहर निकल आया । उसने ड्राइवर को पैसे दिये और गेट की ओर बढा ।
उसी समय उसकी दृष्टि दीवार के साथ-साथ खड़ी कारों पर पड़ी । उन कारों में उसकी अपनी कार भी मौजूद थी ।
सुनील अपनी कार के पास पहुंचा । चाबी इग्नीशन में ही लगी हुई थी । उसने चाबी निकाल ली और वापस इमारत के मुख्य द्वार की ओर मुड़ गया ।
प्रभूदयाल पता नहीं कब गाड़ी उसके फ्लैट के सामने छोड़ गया था ।
***
अपने शरीर की पूरी ओवरहालिंग कर चुकने के बाद सुनील दो बजे अपने फ्लैट से बाहर निकला । उस समय वह नया सूट पहने हुए था ।
वह अपनी कार में आ बैठा और उसके कार स्टार्ट की ।
वह वापस अरुणा के फ्लैट की ओर जा रहा था ।
वह बड़ी सीमित गति से कार चला रहा था ।
एक काले रंग की कार बैंक स्ट्रीट से ही उसे अपने पीछे दिखाई दे रही थी । उसे सन्देह हुआ कि उसका पीछा किया जा रहा है ।
सुनील ने सीधे अरुणा के फ्लैट की ओर जाने वाली सड़क को छोड़कर गाड़ी एक भीड़भाड़पूर्ण रास्ते पर मोड़ दी । उसने खामखाह ही कई इलाकों का चक्कर लगा डाल ।
काली कार अब भी उसके पीछे थी ।
निश्चय ही उसका पीछा किया जा रहा था ।
“पुलिस !” - सुनील बड़बड़ाया ।
वह भीड़भरी सड़क पर गाड़ी चलाता रहा और उस कार से पीछा छुड़ाने के लिये उचित अवसर की प्रतीक्षा करता रहा ।
फिर उसे अपना अपेक्षित अवसर मिल गया ।
उसने एकदम भरी सड़क पर गाड़ी के यू टर्न दे दिया और विपरीत दिशा की ओर जाने वाली कारों की कतार में जा मिला ।
काली कार उसके सामने से विपरीत दिशा में आगे गुजर गई ।
सुनील जानता था कि ऐसे यू टर्न लेने का अवसर तो संयोग से ही मिलता था । अब वह काली कार चाहकर भी फौरन उसके पीछे नहीं आ सकती थी । जब तक काली कार का ड्राइवर कार को अगले चौराहे से घुमाकर वापस लाता तब तक तो उसे सुनील की हवा भी नहीं मिलती ।
सुनील ने गाड़ी की रफ्तार एकदम बढा दी ।
कुछ क्षण वह यूं ही अनिश्चित-सा गाड़ी चलाता रहा ।
काली कार अब उसके पीछे नहीं थी ।
सुनील ने गाड़ी राजनगर टैक्सटाइल मिल की ओर मोड़ दी ।
क्यों न रत्न प्रकाश को ही टटोल लिया जाये ? - उसने सोचा ।
राजनगर टैक्सटाइल मिल के मुख्य द्वार के समीप उसने गाड़ी रोकी और बाहर निकल आया ।
गेट पर खड़ा चौकीदार उसे कार में से निकलते देखकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । उसने सुनील को सलाम किया और मिल के कम्पाउण्ड में स्थित एक दो मंजिली इमारत की ओर संकेत करता हुआ बोला - “वहां रिसेप्शन में जाइयेगा, साहब ।”
“अच्छा ।” - सुनील बोला और चौकीदार की बताई इमारत की ओर बढ गया ।
उस इमारत के सामने वैसी ही एक और दो मंजिली इमारत थी । उस इमारत के निचली मंजिल के एक शीशे के द्वार पर लिखा था - रत्न प्रकाश, मैंनेजिंग डायरेक्टर ।
सुनील ने गेट पर खड़े चौकीदार की ओर दृष्टि डाली ।
वह मिल में प्रविष्ट होते हुए एक ट्रक को पास दे रहा था ।
सुनील रिसेप्शन की ओर जाने के स्थान पर लपककर सामने वाली इमारत के बरामदे में घुस गया ।
उस द्वार के सामने स्टूल पर बैठा चपरासी उसे देखकर उठ खड़ा हुआ । वह अनिश्चितपूर्ण ढंग से सुनील को देख रहा था ।
सुनील भरपूर आत्मविश्वास का प्रदर्शन करता हुआ आगे बढा और व्यस्त स्वर में बोला - “साहब बैठे हैं ?”
“हां, साब ।” - चपरासी बोला और उसने बड़ी तत्परता से द्वार खोल दिया ।
सुनील एक शान्ति की सांस लेता हुआ भीतर घुस गया । उसे भय था कि चपरासी उसे रोक देगा ।
वह डबल आफिस था । बाहर वाले आफिस में एक टाइपराइटर के सामने नीला बैठी थी ।
“तुम !” - सुनील पर नजर पड़ते ही वह चिहुंक पड़ी - “यहां ?”
“हां ।” - सुनील समीप आकर धीमे स्वर में बोला - “रत्नप्रकाश से मिलने आया हूं ।”
“क्यों ?”
“जरूरत थी ।”
“अगर उसे यह मालूम हो गया कि मैं सन्तोष के मामले में तुमसे सम्पर्क स्थापित कर चुकी हूं तो...”
“उसे कुछ मालूम नहीं होगा ।”
“लेकिन तुम ऐसे रत्न प्रकाश के पास कैसे चले जाओगे ?”
“क्यों ?”
“वह बिना अप्वायन्मैंट किसी से नहीं मिलता । वह बहुत नाराज होगा और रिसेप्शनिस्ट की, चपरासी की और मेरी कमबख्ती आ जायेगी ।”
“लेकिन जिस किस्म की बातें उससे मैं करना चाहता हूं, उसके लिये तो वह अगले दस साल तक मुझे अप्वायन्टमैंट नहीं देगा ।”
“ऐसे तो बड़ा बखेड़ा करेगा वह ?” - नीला बोला ।
“तो करने दो बखेड़ा उसे । देखो नीला, मैं अखबार का रिपोर्टर हूं । हमारे पेशे में भारी खराबी यह है कि हमें बहुत कम समय में बहुत ज्यादा काम करके दिखाना होता है, इसलिये हमने तो उसूल बना लिया है कि एक बार तो जैसे भी बन पड़े, घुस जाओ । बाद में जो होगा देखा जायेगा । बाद में चाहे वह मुझे धक्के मार कर बाहर निकाल दे ।” - सुनील बोला ।
“तुम तौहीन मसहूस नहीं करते इसमें ?”
“तौहीन कैसी ? रिपोर्टर की कभी तौहन नहीं होती है, मैडम । अगर वह तौहीन महसूस करता है तो वह रिपोर्टर के पेशे के काबिल नहीं है ।”
“लेकिन मैं रत्न प्रकाश की सैकेट्री हूं । मैं इस प्रकार तुम्हें भीतर नहीं जाने दूंगी ।” - नीला ने दबे स्वर में विरोध किया ।
“तुम्हें मालूम ही नहीं होगा कि मैं भीतर गया हूं ।”
“कैसे ?”
“तुम दो मिनट के लिये यहां से टल जाओ । जिस समय मैं आया, तुम क्लाकरूम में थीं । तुमने मुझे भीतर आते देखा ही नहीं । मैं सीधा रत्न प्रकाश के पास पहुंच गया । गलती चपरासी की थी कि उसने मुझे भीतर आने देने से पहले तुम्हें पूछा नहीं ।”
“यह ठीक है ।” - नीला बोला और क्लाकरूम में घुस गई ।
सुनील ने रत्न प्रकाश के प्राइवेट आफिस का द्वार खोला । और भीतर घुस गया ।
“गुड आफ्टरनून टू यू, सर ।” - सुनील बोला और बड़े इत्मीनान से रत्न प्रकाश की विशाल मेज के सामने एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“यू !” - रत्नप्रकाश हैरानीभरे स्वर में बोला - “हू दि हैल यू आर ?”
सुनील केवल मुस्करा दिया जैसे प्रश्न उत्तर देने के योग्य न हो ।
“तुम भीतर कैसे आये ?” - रत्न प्रकाश ने तीखे स्वर में पूछा ।
“दरवाजे के रास्ते ।”
“मेरी सैकेट्री कहां है ?”
“बाहर नहीं है ।”
रत्न प्रकाश का हाथ मेज की पैनल के साथ लगे घण्टी के बटन की ओर बढा ।
“जरा रुकिये ।” - सुनील एकदम बोल पड़ा ।
रत्न प्रकाश रुक गया ।
“देखिये !” - सुनील एक-एक शब्द तौलता हुआ बोला - “आप अपनी सैकेट्री या चपरासी को या दोनों को बुलायेंगे, और उनसे यह पूछेंगे कि मैं भीतर कैसे आ गया ! फिर आप मुझे यहां से बाहर निकलवायेंगे । मैं विरोध करूंगा । काफी हंगामा होगा । आपका मूड खराब हो जायेगा । मुमकिन है ब्लड प्रेशर भी बढ जाये और इस सारे सिलसिले में कम-से-कम पांच मिनट बरबाद हो जायेंगे । इससे अच्छा यह नहीं है कि अब जब मैं किसी प्रकार यहां आ ही गया हूं तो आप मुझे ही दो मिनट का समय दे दें । मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि एक सौ इक्कीस सैकेंड बाद मैं इस कमरे से बाहर होऊंगा ।”
और सुनील ने अपनी कलाई से घड़ी उतारकर मेज पर अपने सामने रख ली ।
रत्न प्रकाश ने बटन से हाथ खींच लिया । उसने विचित्र नेत्रों से सुनील को देखा और फिर बोला - “तुम क्या चाहते हो ?”
उसके स्वर में हल्की-सी उत्सुकता का भी आभास था ।
“आपसे केवल एक सवाल पूछना चाहता हं ।”
“क्या ?”
“आपने किस दबाव में आकर संतोष से शादी की थी ?”
प्रतिक्रिया ऐसी हुई जैसे सुनील ने कमरे में बम छोड़ दिया हो । रत्न प्रकाश का चेहरा कानों तक लाल हो गया । वह बड़ी मुश्किल से स्वयं का नियन्त्रित कर पाया । वह बोला - “यह मेरा निजी मामला है । तुम्हें इससे मतलब ?”
“माना यह आपका निजी मामला है लेकिन यह कोई गुनाह की बात तो नहीं जिसे आप छुपाते फिरें । आपने आनन-फानन उससे शादी कर डाली । इससे तो ऐसा लगता है जैसे संतोष ने आपको किसी अनुचित दबाव में लाकर फांस लिया हो ।”
“तुम्हारा दिमाग खराब है ? मैंने उससे आनन-फानन शादी नहीं की थी । मैंने सोच-समझकर संतोष से शादी की थी । मैं उससे एक अर्से से प्यार करता था । सेल्ज कांफ्रेस का तो बहाना होता था, वास्तव में विशालगढ मैं उसी से मिलने जाया करता था ।”
“तो फिर आपने नीला को क्यों अंधेरे में रखा ?”
“क्या अंधेरे में रखा मैंने उसे ?”
“आप उससे मुहब्बत का नाटक रचाते रहे जबकि आप शादी संतोष से करना चाहते थे ।”
“तो फिर क्या हुआ ? गलती नीला की थी । वह बालिग है, समझदार है । उसे समझना चाहिए था कि अगर मैं उससे प्यार जताता हूं तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं उससे शादी भी कर लूंगा । मैं एक रईस आदमी हूं । अपनी सैकेट्री से इश्क लड़ाना मैं अपना हक समझता हूं । अगर उसे मेरी यह हरकत नापसन्द थी तो वह नौकरी छोड़ जाती । उसके स्थान की पूर्ति के लिए मुझे उससे हजार गुणा अधिक खूबसूरत सैकड़ों लड़कियां मिल जाती जो मेरे इशारे पर अपना सब कुछ लुटा देने में भी अपनी इज्जत समझतीं । मिस्टर, यह सेल्जमैनशिप का जमाना है । आजकल वही आदमी कामयाब है जो अच्छा सेलजमैन है । अगर नीला में सेल्जमैनशिप वाली स्प्रिट नहीं है तो इसमें मेरा क्या अपराध है । आजकल जमाना यह है कि अगर आपके पास कोई अच्छी चीज है और उसकी मार्केट में मांग है तो आप उसे खामखाह सड़ने के लिये स्टाक करके मत रखिये, बल्कि बढिया ग्राहक हाथ में आते ही अच्छे दामों पर बेच दीजिये । एक सैक्रेट्री के लिये उसके अफसर से बढिया ग्राहक कोई नहीं हो सकता, क्योंकि वह अच्छे माल के बहुत अच्छे दाम चुकाने की क्षमता रखता है ।”
“आप” - सुनील हकबकाकर बोला - “एक कुमारी कन्या को माल का दर्जा दे रहे हैं !”
“कन्या को नहीं, उसके कौमार्य को । उसकी विरजिनिटी को ।”
“जी !”
“मिस्टर, फैमिनिन विरजिनिटी इज प्राइसलैस । बट देयर इज वन ट्रबल । दि लौंगर ए गर्ल होल्ड्स आन टु इट, दि लैसर प्राइस शी गैट्स फार इट । अन्डरस्टैण्ड ?”
“क्वाइट ! तो आपके गूढ ज्ञान का मतलब यह हुआ कि हर कुमारी कन्या को अपने कौमार्य की जल्द-अज-जल्द आप जैसे किसी सेठ से ऊंची से ऊंची कीमत वसूल कर लेनी चाहे ।”
“मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता ।”
“लेकिन...”
“वो भी नहीं । तुम्हारे दो मिनट खत्म हो गये हैं इसलिए यहां से दफा हो जाओ । गैट दि हैल आउट आफ हेयर ।”
सुनील उठ खड़ा हुआ । उसने घड़ी मेज पर से उठाकर फिर अपनी कलाई पर चढा ली ।
“एक छोटी-सी बात और कहनी है, सेठजी ।” - सुनील गेट के समीप आकर बोला ।
“बको ।”
“आप जैसा कमीना, जलील, बेमुरव्वत और बेगैरत आदमी मैंने आज तक नहीं देखा ।”
और सुनील द्वार खोलकर बाहर निकल आया । उसने भड़ाक से द्वार बन्द कर दिया ।
नीला द्वार के पास ही खड़ी थी । उसका चेहरा लाश की तरह सफेद और वह थर-थर काप रही थी । उसकी आंखों में आंसू थे ।
“आई एम सारी फार यू ।” - सुनील धीरे से उसका कंधा दबाकर बोला - “लेकिन देर से ही सही, तुम्हें इस आदमी का सही चेहरा दिखाई तो दिया । तुम्हारा भरम तो टूटा ।”
नीला कुछ नहीं बोली ।
सुनील भी चुपचाप बाहर निकल गया ।
***
सुनील एक होटल में आ बैठा । उसने भोजन का आर्डर दिया और एक बार फिर केस की उलझी हुई गुत्थियां सुलझाने का प्रयत्न करने लगा ।
खाना खाते समय एक प्रश्न हथौड़े की तरह उसके दिमाग में बज रहा था ।
हथौड़ा कब उसकी कार में डाला गया था ?
इसका सबसे अधिक सम्भावित उत्तर यही था कि जब गाड़ी टैम्पल रोड पर लावारिस-सी खड़ी थी ।
खाना समाप्त कर चुकने के बाद उसने काफी का आर्डर दिया और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
उसे फिर नीला से सम्पर्क स्थापित करने का ख्याल आया । आखिर उसे नीला को बताना तो चाहिए था कि वह संतोष की वास्तविकता जान गया था ।
उसने घड़ी पर दृष्टि डाली । चार बजने को थए ।
होटल में ही एक कोन में पब्लिक टेलीफोन बूथ लगा हुआ था । सुनील उस ओर बढ गया ।
उसने डायरेक्ट्री में रत्नप्रकाश के आफिस का नम्बर देखा और फिर उस नम्बर पर फोन कर दिया ।
“हल्लो !” - उसे रत्न प्रकाश की आवाज सुनाई दी ।
“मैं नीला से बात करना चाहता था ।” - सुनील अपनी आवाज बदलता हुआ बोला ।
“नीला छुट्टी लेकर अफने घर चली गई है । उसकी तबीयत एकाएक खराब हो गई थी ।”
“अच्छा ।” - सुनील बोला और उसने रिसीवर रख दिया ।
वह अपनी मेज की ओर वापस लौटा ।
नीला का लाश की तरह सफेद चेहरा उसकी आंखों के सामने घूम गया । रत्न प्रकाश के विचार सुनकर उसे भारी सदमा पहुंचा था ।
नीला उसकी कल्पना से अधिक भावुक लड़की निकली थी ।
एकाएक उसके दिमाग में बिजली-सी कौंध गई ।
कहीं... कहीं नीला...
उसने वहीं खड़े-खड़े वेटर को समीप बुलाया और उसके हाथ में एक दस का नोट ठूंसता हुआ बोला - “चेंज तुम रख लेना ।”
और वह बाहर की ओर लपका ।
वेटर आश्चर्य से उसका मुंह देखता रहा ।
अपनी कार की ओर बढते समय सुनील ने अपनी जेब से नीला का दिया हुआ एक कार्ड निकाला जिस पर उसके घर का पता लिखा हुआ था । लिखा था - शंकर लाज, दूसरी मंजिल, नेताजी सुभाष मार्ग ।
वह चालान की परवाह किए बिना बेहद तेज रफ्तार से गाड़ी चलाता हुआ शंकर लाज जा पहुंचा ।
एक द्वार पर नीला का नाम लिखा था ।
सुनील ने द्वार पर दस्तक की ।
भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला ।
“नीला !” - सुनील ने जोर से आवाज दी ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
सुनील ने हैण्डल घुमाकर द्वार को भीतर धकेला । द्वार खुला था ।
सुनील भीतर घुस गया ।
वह दो कमरों का फ्लैट था । बाहर का कमरा खाली था ।
सुनील दूसरे कमरे का द्वार धकेलकर भीतर घुस गया ।
पलंग पर नीला का अचेत शरीर पड़ा था । उसके बायें हाथ के पास एक शीशी पड़ी थी ।
सुनील ने शीशी उठा ली । उस पर लिखा था - ल्यूमिनल ‘Luminal’ ।
सुनील घबरा गया । उसने शीशी फेंक दी । उसने नीला की नब्ज टटोली । नब्ज गायब थी । वह केवल एक क्षण के लिये हिचकिचाया और फिर उसने नीला के ब्लाउज के बटन खोल दिये । उसने नीला के दिल पर हाथ रख दिया ।
दिल में हल्की-सी धड़कन बाकी थी ।
सुनील ने अपने आसपास चारों ओर दृष्टि दौड़ाई । टेलीफोन नहीं था ।
वह बाहर भागा । वह आनन-फानन सीढियां फांदता हुआ नीचे भागा । इमारत की बगल में ही एक टेलीफोन बूथ था ।
वह लपककर बूथ में घुसा और पुलिस का नम्बर घुमा दिया ।
दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही उसने कायन बाक्स में सिक्के डाले और व्यग्र स्वर में बोला - “हल्लो ! पुलिस स्टेशन ? देखिये, नेताजी सुभाष मार्ग पर स्थित शंकर लाज में दूसरी मंजिल के एक फ्लैट में नीला नाम की एक लड़की ने नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर ली है । लेकिन अभी उसके दिल में धड़कन बाकी है । भगवान् के लिए फौरन कुछ कीजिए ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?” - दूसरी ओर से किसी ने पूछा ।
उत्तर देने के स्थान पर सुनील ने रिसीवर हुक पर रख दिया ।
वह बूथ से बाहर निकल आया और वापस अपनी कार में आ बैठा ।
वह व्यग्रता से प्रतीक्षा करने लगा ।
तीन मिनट बाद ही हवा से बातें करती हुई एक एम्बुलेंस शंकर लाज के सामने आकर रुकी । उसके पीछे ही एक पुलिस की जीप थी ।
सुनील की जान में जान आई । उसने कार स्टार्ट कर दी ।
वह फिर राजनगर टैक्सटाइल मिल के सामने जा पहुंचा ।
वही चौकीदार गेट पर खड़ा था । इस बार उसने सुनील को रिसेप्शन पर जाने का निर्देश नहीं दिया ।
सुनील सीधा रत्न प्रकाश के कमरे के सामने जा पहुंचा ।
चौकीदार फिर उठ खड़ा हुआ और उसने द्वार खोलने के लिये हाथ द्वार के हैन्डिल की ओर बढाया ।
लेकिन उससे पहले ही सुनील ने एक झटके से द्वार खोला और भीतर घुस गया ।
रत्न प्रकाश उसे देखते ही एकदम सीट से उठ खड़ा हुआ ।
“तुम !” - वह गरजकर बोला - “फिर आ गये तुम !”
“चिल्लाने की जरूरत नहीं है, सेठ ।” - सुनील कड़ुवे स्वर में बोला - “मैं सिर्फ तुम्हें यह बताने आया हूं कि तुम्हारी सैक्रेट्री नीला मर गयी है ।”
रत्न प्रकाश के चेहरे का रंग उड़ गया ।
“क्या ?” - वह कम्पित स्वर में बोला - “कैसे ? कब ?”
“अभी कुछ देर पहले अपने फ्लैट पर उसने नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर ली है ।”
रत्न प्रकाश एकदम द्वार की ओर लपका ।
“कहां जा रहे हो ?” - सुनील तीव्र स्वर में बोला ।
“उसके फ्लैट पर ।”
“अब वहां क्या रखा है ? पुलिस लाश को पोस्टमार्टम के लिये ले जा चुकी है ।”
रत्न प्रकाश की टांगों में जैसे उसके शरीर का भार सम्भालने की शक्ति नहीं रही । वह धम्म से मेज की दूसरी ओर आगन्तुकों के लिये रखी हुई कुर्सियों में से एक कुर्सी पर ढेर हो गया । उसने हाथों से अपना सिर थाम लिया ।
सुनील ने एक अर्थपूर्ण दृष्टि उस पर डाली और फिर द्वार की ओर बढ गया ।
“ठहरो ।” - रत्न प्रकाश डूबे स्वर में बोला ।
सुनील रुक गया ।
“बैठो ।” - वह बोला ।
सुनील वापस आकर उसके बगल की कुर्सी पर बैठ गया ।
रत्न प्रकाश ने सिर उठाया । उसकी आंखें डबडबा आयी थीं । लगता था जैसे सारे जहान का दर्द उसी की आंखों में सिमट आया था ।
“तुम्हारा नीला से क्या सम्बन्ध है ?” - उसने भारी स्वर में पूछा ।
“सिवाय इसके कुछ भी नहीं कि मैं उसकी मदद करने की कोशिश कर रहा हूं ।”
“कैसी मदद ?”
“नीला तुम्हारे बारे में चिन्तित थी । उसे लगता था कि तुम्हारी पत्नी सन्तोष तुम्हें लूट रही थी । उसे विश्वास था कि सन्तोष ने तुम पर कोई अनुचित दबाव डालकर तुमसे शादी की थी । स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो तुम्हें फांसा था । वह चाहती थी कि मैं यह जानने का प्रयत्न करूं कि सन्तोष का तुम पर क्या होल्ड था । और क्या वह होल्ड अब भी था ?”
“तुम जान पाये कुछ ?”
“मैं यह नहीं जान पाया कि तुमने आनन-फानन सन्तोष से क्यों शादी कर डाली जबकि तुम प्यार नीला से करते थे, लेकिन अब तुमने बता ही दिया है कि वास्तव में प्यार तुम सन्तोष से ही करते थे । नीला को तो तुमने अपनी वासनापूर्ति के लिए फांस रखा था ।”
“वह सब झूठ था ।” - रत्न प्रकाश धीरे से बोला ।
“अच्छा !” - सुनील हैरानी से बोला ।
“मैं ईश्वर की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि मैं नीला से सच्चा प्यार करता था । मैं उससे शादी करना चाहता था और करता भी । मैंने तो कभी स्वप्न में भी अपने उससे सम्बन्धों का अनुचित लाभ उठाने का विचार नहीं किया । मैं सन्तोष को शादी से पहले न तो जानता था, न मैं उससे पहले प्यार करता था और न अब करता हूं ।”
“तुमने पहले झूठ क्यों बोला था ?”
“मैं तुम्हें जानता नहीं था । तुम बगूले की तरह आफिस में घुस आये और मुझसे आनन-फानन सवाल पूछने लगे । एक नितान्त अपरिचित के सामने किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अपनी आन्तरिक भावनाओं को मैं कैसे प्रकट कर देता ? इसलिए तुम्हें चुप कराने के लिये एक फैन्सी-सा जवाब मैंने दे दिया ।”
“अपरिचित तो मैं अब भी हूं ।”
“हां, लेकिन अब स्थिति बदल गयी है । अब नीला मर चुकी है ।”
“तुमने सन्तोष से शादी क्यों की ?”
“वह एक ट्रेजिडी थी लेकिन ऐसी ट्रेजिडी जो मेरे वकील के मतानुसार मेरी जिन्दगी में घटनी बहुत जरूरी थी ।”
“बात क्या थी ?” - सुनील ने उत्सुक स्वर में पूछा ।
“बात यह थी कि मैं उन दिनों एक सेल्ज कान्फ्रेंस में शामिल होने के लिये विशालगढ गया था । उस रोज रात को लगभग ग्यारह बजे मैं वापस अपने होटल की ओर लौट रहा था । मैं अपनी कार खुद चलाता हुआ हैली रोड से गुजर रहा था रास्तों पर इक्के-दुक्के लोग ही चल रहे थे आर व्हीकुलर ट्रैफिक भी अधिक नहीं था इसलिये मैं नार्मल से ज्यादा तेज गाड़ी चला रहा था । एकाएक न जाने कहां से एक आदमी एकदम मेरी कार के सामने आ गया । मैं कार को कन्ट्रोल नहीं कर सका । परिणाम यह हुआ कि मेरे पूरी शक्ति से ब्रेक लगाने के बावजूद वह कार की चपेट में आ गया । कार उसे रौंदती हुई गुजर गयी । मैं तब तक लाश से बीस-पच्चीस गज आगे निकल आया था । मेरे दिमाग में पहला विचार यही आया कि मैं वहां से भाग निकलूं । मैं वही करने वाला था कि रियर व्यू मिरर में मुझे लाश के पास ही सड़क के किनारे खड़ी एक लड़की दिखायी दी जो मेरी कार के पिछले भाग को देखती हुई अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी । मैं समझ गया कि वह मेरी कार का नम्बर नोट कर रही है ।”
रत्न प्रकाश रुक गया ।
“फिर ?” - सुनील ने उत्सुकता से पूछा ।
“मैं फंस गया था । अब अगर मैं वहां से भाग भी जाता तो भी पुलिस मुझे छोड़ती नहीं बल्कि उस हालत में मुझ पर दोहरा इल्जाम लगता कि मैं दुर्घटना करके वहां रुकने के स्थान पर वहां से भाग निकला । लेकिन फिर भी मैं वहां रुका नहीं । मैं गाड़ी निकाल ले गया । मोड़ घुमाने के बाद एक अन्धेरे से स्थान पर मैंने गाड़ी रोक दी और पैदल वापस लौटा । तब तक वहां पन्द्रह-बीस आदमी इकट्ठे हो चुके थे और कोई पुलिस को फोन भी कर चुका था । उसी भीड़ में वह लड़की भी खड़ी थी ।”
“वह आदमी मर गया था ?”
“हां, उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी थी ।”
“फिर ?”
“लड़की सन्दग्ध नेत्रों से मुझे घूर रही थी । शायद कार में उसने मेरी सूरत की झलक भी देख ली थी । मैं लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ भीड़ के लोगों की बातें सुनता रहा । उनकी बातों से मुझे महसूस हुआ कि लड़की ने किसी को यह नहीं बताया है कि उसने दुर्घटना करके निकल भागने वाले की कार का नम्बर नोट कर लिया था । मुझे तनिक शान्ति हुई । फिर मैं उस लड़की से प्रार्थना करके क्षण-भर के लिये उसे भीड़ से अलग ले गया । मैंने स्पष्ट शब्दों में उसे बता दिया कि मैं ही दुर्घटना करके भागा था और मैं यह भी जानता हूं कि उसने मेरी कार का नम्बर नोट कर लिया था ।”
“उस पर इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई ?”
“वह गम्भीरता से मेरी बात सुनती रही और फिर मुझसे बोली कि मैं चाहता क्या था । मैंने कहा था कि उसके अतिरिक्त जिन दो-तीन लोगों ने दुर्घटना होते देखी थी, वे मुझे पहचानना तो दूर, मेरी कार का मेक का माडल तक बयान नहीं कर सकते थे । वही अकेली ऐसी गवाह थी जो मुझे हवालात की सैर करा सकती थी । मैंने दोनों हाथ जोड़कर उससे प्रार्थना की कि वह पुलिस को अपना बयान न दे । गलती मेरी थी या मरने वाले की, बहरहाल वह तो मर ही गया था । अब उसकी जान के बदले में मैं क्यों मरूं ! पहले तो उसने मेरे पक्ष में चुप रहने से साफ इन्कार कर दिया लेकिन फिर मेरे बहुत गिड़गिड़ाने पर वह पसीज गई । उसने मेरे सामने ही डायरी में से वह पृष्ठ फाड़ दिया जिस पर उसने कार का नम्बर लिखा था और मुझे विश्वास दिलाया कि वह मेरे विरूद्ध पुलिस में बयान नहीं देगी । मैंने उसको लाख-लाख धन्यवाद दिया और फिर उसे उसके निवासस्थान तक छोड़ आया और वापस अपने होटल में आ गया । मैंने फौरन ट्रंककाल करके वापस अपने वकील को विशालगढ बुलाया और उसे सारा किस्सा कह सुनाया । वकील बोला कि लड़की की गवाही मुझे सात-आठ साल के लिये अन्दर करवा सकती है, क्योंकि मैं न केवल अपराध करके घटनास्थल से भाग निकला बल्कि मैंने घटना के इकलौते चश्मदीद गवाह को भी बरगलाने की कोशिश की ।”
“फिर ?”
“फिर अगले दिन सुबह-सवेरे मेरे वकील ने विशालगढ की एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी से बात की कि वह पता लगाये कि हैली रोड की दुर्घटना के सिलसिले में पुलिस क्या कर रही थी और वह लड़की पुलिस से या पुलिस लड़की से सम्पर्क स्थापित तो नहीं करती ! दो दिन की तफ्तीश के बाद पता लगा कि लड़की ने तो पुलिस से सम्पर्क करने का प्रयत्न नहीं किया लेकिन घटनास्थल पर मौजूद कुछ लोगों की गवाहियों के आधार पर पुलिस एक लड़की की बड़ी सरगर्मी से तलाश कर रही है जो कार का नम्बर भी नोट करती हुई देखी गई थी । मैं घबरा गया । उस लड़की तक पुलिस की पहुंच कभी भी हो सकती थी, क्योंकि घटनास्थल पर मौजूद कई लोगों ने उसे देखा था और वे उसका हुलिया भी बयान कर सकते थे । और लड़की को यह मालूम नहीं है कि पुलिस उसकी तलाश कर रही है ।”
“फिर क्या हुआ ?”
“फिर मेरे वकील ने मुझे इस खतरे से बचने का एक तरीका बताया ।”
“क्या ?”
“मेरा वकील बोला कि अगर मैं किसी प्रकार उस लड़की से शादी कर लूं तो मैं बच सकता हूं क्योंकि अदालत में पत्नी अपने पति के विरुद्ध गवाही नहीं दे सकती ।”
“मैंने उसे शादी कर ली ?”
“हां । तीन-चार दिन मैं उससे मैत्रीपूर्ण ढंग से मिलता रहा । फिर मैंने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया उसने कहा कि वह इस शर्त पर शादी के लिये तैयार हो सकती है कि एक तो मैं उसके पिछले जीवन के विषय में कोई सवाल नहीं करूं और दूसरे उसके निजी मामलों में दखल न दूं । मैंने उसकी शर्तें स्वीकार कर लीं और उसी दिन मैंने उससे शादी कर ली । अगले दिन मैं राजनगर वापस लौट आया । अब मैं किसी को क्या बताता कि मैंने इश्क की खातिर नहीं, अपनी जान बचाने के लिये उस लड़की से शादी की थी ।”
“वह लड़की संतोष है ?”
“हां ।”
“अगर यह सारा घपला नहीं होता तो आप नीला से शादी करते ?”
“फौरन । गोली की तरह । मेरे शरीर का रोम-रोम नीला की मुहब्बत के लिये तड़प रहा है ।”
“तब आपके उस बेहद शरीफ, बेहद निष्ठावान लड़की के बारे में ये ख्यालात न होते कि वो मूर्ख थी जो वक्त रहते अपने कौमार्य की ऊंची से ऊंची कीमत वसूलने का कोई जुगाड़ नहीं कर रही थी ?”
“मैं अपनी उस बकवास के लिए शर्मिन्दा हूं । मैंने बताया तो कि वो बकवास मैंने क्यों की थी ।”
“हां । मैंने सुना । तो आपको नीला के मरने का बहुत दुःख है ?”
रत्न प्रकाश ने उत्तर नहीं दिया । दो मोटे-मोटे आंसू उसकी आंखों से निकलकर उसके गालों पर लुढक गये उसने सिर झुका लिया ।
“सेठ !” - सुनील निर्णयात्मक स्वर में बोला - “जिस समय मैं नीला को छोड़कर आया था, उस समय उसके दिल की धड़कन अभी बाकी थी । उसके तीन मिनट बाद ही पुलिस और एम्बुलैंस वहां पहुंच गयी थीं । सम्भव है नीला अभी मरी न हो । शायद डाक्टरों ने उसे बचा लिया हो । अगर तुम...”
लेकिन सुनील की बाकी बात सुनने के लिये रत्न प्रकाश वहां मौजूद न था । वह पागलों की तरह भागता हुआ कमरे से बाहर निकल गया ।
सुनील भी चुपचाप बाहर आ गया ।
***
सुनील ने गाड़ी अरुणा के फ्लैट के समीप पार्किंग में खड़ी कर दी । उसने इग्नीशन में से चाबी निकाली और कार में से बाहर आ गया । उसने कार के द्वार को भी ताला लगाया और फिर घूमकर वह इमारत के मुख्य द्वार की ओर बढा ।
द्वार से थोड़ी ही आगे उसे एक स्टेशन वैगन के पीछे छुपी हुई पुलिस की जीप दिखाई दी ।
वह एकदम अपनी कार की ओर वापस घूमा ।
लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।
“सुनील !” - उसके कानों में एक अधिकारपूर्ण स्वर पड़ा । सुनील घूमकर खड़ा हो गया ।
प्रभूदयाल इमारत के मुख्य द्वार से बाहर निकल रहा था । उसके साथ अरुणा थी जिसके हाथों में हथकड़ियां चमक रही थीं । हथकड़ियों की जंजीर पीछे आते दो सिपाहियों में से एक के हाथ में थी ।
“सुनील !” - प्रभूदयाल उसके समीप आकर बोला - “यू आर अन्डर अरैस्ट ।”
“किस अपराध में ?”
“हत्यारे की मदद करने के अपराध में ।” - प्रभूदयाल अरुणा की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“वारन्ट है ?”
“ऐसी की तैसी वारन्ट की । हत्या के केस में मैं अपराधियों को बिना वारन्ट के गिरफ्तार कर सकता हूं ।”
“तुम जा कहां रहे हो ?”
“पुलिस हैडक्वार्टर ।”
“मैं कार लाया हूं । मैं तुम्हारी जीप के पीछ-पीछे वहां पहुंच जाऊंगा ।”
“पागल हुए हो ! कार यहीं रहेगी । जीप में बैठो ।”
पांचों जीप में आ बैठे ।
प्रभूदयाल ने चाबी लगाकर अरुणा की दायीं कलाई में से हथकड़ी निकाली और उसे सुनील की बायीं कलाई में पहना दिया । अब दोनों की कलाइयां एक ही हथकड़ी से बंधी हुई थीं ।
“चलो ।” - प्रभूदयाल ने आदेश दिया ।
जीप चल पड़ी ।
“प्रभू, जो कुछ तुम कर रहे हो, उसके लिये तुम पछताओगे ।” - वह बोला ।
“देखा जायेगा ।” - प्रभूदयाल लापरवाही से बोला ।
“अरुणा के विरुद्ध तुम्हारे पास क्या प्रमाण है ?”
“ढेर है प्रमाणों का ।” - प्रभूदयाल बोला - “लाश इसके फ्लैट में पाई गई । फ्लैट को ताला लगा हुआ था और चाबी केवल अरुणा के पास थी । इसने खुद स्वीकार किया है कि जिस समय यह फ्लैट पर पहुंची थी, इसने चाबी लगाकर ताला खोला था । हथौड़े पर इसकी उंगलियों के निशान मिले हैं । सबरवाल के भतीजे ने रिपोर्ट की है कि सबरवाल की गुप्त सेफ में से किसी ने कुछ कागजात चुरा लिये है । तफ्तीश के बाद मालूम हुआ कि सरकारी डाक्टर ने सबरवाल की हत्या का जो समय निश्चित किया है, लगभग उसी समय सबरवाल के फ्लैट में एक जवान लड़की घुसी थी । उसने द्वार का ताला बाकायदा चाबी से खोला था और वह सेफ भी एक विशेष प्रकार की चाबी से, जिसका डुप्लीकेट तैयार नहीं किया जा सकता और जो एक विशेष नम्बर घुमाने पर ही खुलती है, खोली गयी थी । चाबियां सवरवाल हमेशा अपने कोट की भीतरी जेब में रखता था और सेफ का कोड नम्बर भी केवल उसे ही मालूम था । चाबियां और कोड नम्बर कम से कम सबरवाल की जानकारी में तो उससे प्राप्त कर पाना असम्भव था । जिन लोगों ने उस लड़की को सबरवाल के फ्लैट में देखा था, उन्होंने लड़की का हुलिया बयान किया है । इसमें सन्देह की कतई गुंजाइश नहीं है कि वह लड़की अरुणा थी । इसी ने सबरवाल की अपने फ्लैट पर हत्या करके चाबियां और कोड नम्बर हासिल किया और सबरवाल के फ्लैट की सेफ लूट लाई ।”
“और हथौड़ा ?”
“हथौड़ा इसने तुम्हें कहीं ठिकाने लगाने के लिये दिया होगा और...”
“मैं भला ऐसा खतरनाक काम क्यों स्वीकार करता ?”
“क्योंकि तुम्हें यह खतरनाक काम स्वीकर करने के लिये कहने वाली एक औरत थी । अरुणा खूबसूरत है, जवान है । इसने एक बार आंखों में आंसू भरके तुम्हें अपनी सहायता के लिये कहा होगा और तुम फिसल गये होंगे ।”
“यह दलील तुम अदालत में दोगे ?”
“नहीं । अदालत के लिये इतना ही काफी है कि हथौड़ा तुम्हारी कार में से बरामद हुआ । तुमने ठिकाने लगाने के लिये हथौड़ा ले तो लिया लेकिन बाद में उसे भूल गये और वह तुम्हारी कार में पड़ा रह गया । बाद में जब संयोगवश मैंने हथौड़ा देख लिया तो तुम यह राग अलापने लगे कि कोई तुम्हें फांसने का प्रयत्न कर रहा है ।”
“मैंने सच कहा था ।”
“ऐसी की तैसी तुम्हारी । मैं जानता हूं तुम कितना सच बोलते हो ।”
सुनील चुप हो गया ।
वह जीप से बाहर झांकने लगा ।
इस बार वह बुरी तरह फंस गया था । वह चिन्तित था ।
उसने देखा गाड़ी महात्मा गांधी रोड से गुजर रही थी । जब गाड़ी सबरवाल बिल्डिंग के समीप से गुजरी तो उसकी दृष्टि अनायास ही बिल्डिंग के सामने बने टैक्सी स्टैंड पर पडीं । केवल एक क्षण के लिये उसकी दृष्टि एक बेहद भद्दे चेहरे पर पड़ी । वह आदमी एक टैक्सी के हुड के साथ टेक लगाये खड़ा था । उसकी नाक चपटी थी और एक कान गायब था ।
सुनील की चेतना से जैसे हजार मन का पत्थर आकर टकराया ।
“प्रभू !” - वह एकदम चिल्ला पड़ा ।
प्रभूदयाल एकदम बौखला गया और हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
“प्रभू, भगवान् के लिये रुक जाओ !” - सुनील बोला - “रुक जाओ और वापस सबरवाल बिल्डिंग के सामने चलो । मैं तुम्हें बताता हूं, सबरवाल का हत्यारा कौन है ?”
“मुझे मालूम है सबरवाल का हत्यारा कौन है और वह इस समय हथकड़ी पहने मेरे सामने बैठा है ।” - और उसने अरुणा की ओर संकेत कर दिया ।
“प्रभू, तुम भारी गलती कर रहे हो ।” - सुनील याचनापूर्ण स्वर में बोला - “हत्या अरुणा ने नहीं की है । अब केस मेरे दिमाग में दिन की तरह स्पष्ट हो गया है । तुम मुझे केवल पांच मिनट का समय दो और मैं तुम्हें उसका हत्यारा पकड़वाता हूं । प्रभू, मेरा रिकार्ड गवाह है कि आज तक मेरी बात मानकर तुम्हें कभी घाटा नहीं हुआ है ।”
प्रभूदयाल प्रभावित दिखाई देने लगा ।
“कहीं फिर तुम मुझे कोई यू टर्न देने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो ?” - वह संदिग्ध स्वर में बोला ।
“क्या मतलब ?”
“जैसे कुछ घण्टे पहले मैं तुम्हारा पीछा कर रहा था और तुमने मुझसे पीछा छुड़ाने के लिये अपनी गाड़ी को भरी सड़क पर यू टर्न दे दिया था और मैं मुंह देखता रह गया था ।”
“प्रभू, बहस मत करो ।”
“आलराइट ।” - प्रभूदयाल बोला - “तुम चाहते क्या हो ?”
“ड्राइवर को कहो कि गाड़ी वापस सबरवाल बिल्डिंग के सामने ले चले ।”
प्रभूदयाल ने ड्राइवर को वैसा ही अदेश दिया ।
जीप वापस चल पड़ी ।
जीप फिर सबरवाल बिल्डिंग के समीप पहुंच गई ।
“उस टैक्सी की बगल में रोक दो ।” - सुनील बोला और उसने उस टैक्सी की ओर संकेत किया जिसके हुड के साथ टेक लगाये वह भद्दे चेहरे वाला आदमी खड़ा था जिसकी नाक चपटी थी और एक कान गायब था ।
जीप के ड्राइवर ने प्रभूदयाल की ओर देख ।
प्रभूदयाल ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
ड्राइवर ने जीप निर्दिष्ट स्थान पर रोक दी ।
“एक मिनट के लिये हथकड़ी खोल दो ।” - सुनील ने प्रार्थना की ।
प्रभूदयाल ने उसके हाथ से हथकड़ी निकाल दी ।
कनकटा उत्सुकता से जीप की ओर देख रहा था ।
सुनील और प्रभूदयाल जीप से बाहर कूद पड़े ।
सुनील कनकटे के सामने जा खड़ा हुआ ।
“मुझे पहचानते हो ?” - उसने अधिकारपूर्ण स्वर में पूछा ।
कनकटे ने एक उपेक्षापूर्ण दृष्टि उस पर डाली और फिर मुंह फेर लिया । प्रत्यक्ष था कि उसने सुनील को पहचान लिया था ।
“एह !” - प्रभूदयाल उसके कन्धों पर हाथ मारता हुआ बोला - “जो पूछा जाये उसका जवाब दो ।”
“हां, जानता हूं इन्हें ।” - ड्राइवर पूर्ववत उपेक्षापूर्ण स्वर में बोला - “इन्होंने ही कल बेवकूफों की तरह अपनी कार एकदम इमारत के मुख्य द्वार के सामने खड़ी कर दी थी और मुझे लाबी से बाहर इनकी कार की बगल में टैक्सी खड़ी करके सवारी उतारनी पड़ी थी ।”
“वह सवारी आदमी थी कि औरत ?”
“औरत ।”
“उसके हाथ में कोई भारी-सा हैण्डबैग था ?”
“था ।” - कनकटा विचित्न ढंग से सुनील को देखता हुआ बोला ।
“तुमने वह सवारी कहां से बिठाई थी और वह कहां-कहां गई थी ?”
कनकटे ड्राइवर ने प्रभूदयाल की ओर देखा ।
“जवाब दो ।” - प्रभूदयाल ने आदेश दिया ।
“मैं लिबर्टी के टैक्सी स्टैंड पर खड़ा था । स्टैण्ड के पास एक कार आकर रुकी थी जिसे एक आदमी चला रहा था । कार में से वह औरत निकली और आकर मेरी टैक्सी में बैठ गई । उस औरत ने मुझे उसी कार का पीछा करने को आदेश दिया ।”
“जिसमें से वह निकली थी ?” - प्रभूयाल ने हैरानी से पूछा ।
“हां ।”
“फिर ?”
“मैं कार का पीछा करता रहा । अगली कार लिंक रोड पर छ: नम्बर इमारत के समीप रुक गई ।”
“उसी इमारत में मेरा फ्लैट है ।” - जीप में बैठी अरुणा बोली ।
“फिर क्या हुआ ?” - सुनील ने व्यग्रता से पूछा ।
“मैंने भी थोड़ी दूरी पर टैक्सी रोक दी । मेरी सवारी टैक्सी में ही बैठी रही और मुख्य द्वार की ओर देखती रही । लगभग दस मिनट बाद उस इमारत में से भागती हुई एक लड़की निकली । वह जल्दी से पार्किंग में खड़ी एक कार में जा बैठी और फिर कार को पूरी रफ्तार से भगाती हुई दृष्टि से ओझल हो गई ।”
“वह शायद मैं थी ।” - अरुणा बड़बड़ाई ।
“मेरी सवारी उस लड़की को भागती देखकर एकदम उत्तेजित हो उठी । उसने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा और वह तेज कदमों से चलती हुई लौट आई । उस समय उस के हाथ में थमा बैग बहुत भारी लग रहा था । वह वापस टैक्सी में आ बैठी और उसने मुझे यहां सबरवाल बुल्डिंग में आने के लिए कहा । वहां लाबी में एकदम गेट के सामने इन साहब की कार खड़ी थी । इसलिये टैक्सी मुझे उस कार की बगल में खड़ी करके सवारी उतारनी पड़ी ।”
“जिस समय तुम्हारी वह सवारी लिंक रोड की इमारत में घुसी थी, क्या उस समय भी उसका बैग भारी था ?”
“नहीं । लेकिन लौटती बार तो उसके बैग उठाने के ढंग से खूं लग रहा था, जैसे वह बीच में पत्थर भर लाई हो और बैग अपने चमड़े के फीते के एक ओर को काफी झुका हुआ था ।”
सुनील ने एक अर्थपूर्ण दृष्टि प्रभूदयाल पर डाली ।
प्रभूदयाल परेशान था ।
“तुम उस सवारी को दुबारा कहीं देखो तो पहचान लोगे ?” - प्रभूदयाल ने पूछा ।
“फौरन । अभी कल ही की तो बात है यह ।”
“जरा जीप मे बैठी लड़की को देखो ।” - प्रभू बोला - “क्या यह थी तुम्हारी सवारी ?”
कनकटे ड्राइवर ने गौर से अरुणा का चेहरा देखा और फिर नकारात्मक ढंग से सिंर हिलाता हुआ बोला - “नहीं । मेरी सवारी यह नहीं थी । लेकिन... लेकिन शायद यह वो लड़की है जो लिंक रोड की उस इमारत में से जल्दी से निकली थी और फिर वह कार में बैठकर तेजी से कहीं चली गई थी ।”
प्रभूदयाल के मुंह से एक बेबसी की गहरी निश्वास निकली और उसने अपने हाथ-पांव यूं ढीले छोड़ दिये जैसे उसी के कारण खेल के आखिरी मिनट में उसकी टीम पर गोल हो गया हो ।
सुनील ने अपनी जेब से रत्न प्रकाश और संतोष की तस्वीर निकाली जो उसे नीला ने दी थी ।
“जरा इस औरत को देखो ।” - वह तस्वीर ड्राइवर के सामने करता हुआ बोला - “कहीं तुम्हारी सवारी यह तो नहीं थी ?”
ड्राइवर ने तस्वीर देखी और फिर देखते ही बोल पड़ा - “यही थी ।”
“गौर से देखो ।” - प्रभूदयाल डपटकर बोला ।
देख लिया, साहब ! यही वह औरत ।” - कनकटा विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
प्रभूदयाल ने सुनील के हाथ से तस्वीर झटक ली ।
“कौन है यह औरत ?” - प्रभूदयाल ने पूछा ।
“संतोष । राजनगर टैक्सटाइल मिल के स्वामी रत्न प्रकाश की पत्नी । साथ में रत्न प्रकाश है ।”
प्रभूदयाल ने तस्वीर जेब में रख ली और वापस जीप की ओर बढा ।
उसने अरुणा के हाथों में से हथकड़ियां निकाल लीं ।
“टैक्सी कीजिये और घर चली जाइये, देवीजी ।” - प्रभू बोला - “लेकिन अभी आप सन्देह से परे नहीं हैं । इसलिए कहीं उड़ मत जाइयेगा । और आप भी ।” - वह सुनील से बोला ।
“अच्छा साहब ।” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
अरुणा नीचे उतर आई । प्रभू जीप में जा बैठा और जीप वह जा, वह जा ।
***
अगले दिन लगभग ग्यारह बजे सुनील प्रभूदयाल के आफिस में उसके सामने बैठा हुआ था । वह केस के विषय में जो कुछ जानता था, प्रभू को बता चुका था ।
“संतोष ने बिना किसी विरोध के अपना अपराध स्वीकार कर लिया ।” - प्रभूदयाल ने बताया - “उसने बताया कि केवल सबरवाल ही उसकी वास्तविकता जानता था । वह इसी दम पर संतोष को ब्लैकमेल कर रहा था । संतोष अपने पति की दौलत का या अपने पत्नी होने के अधिकार का नाजायज फायदा नहीं उठाना चाहती थी । लेकिन वह मजबूर थी । कभी उसकी मां रुपया मांगने आ जाती थी तो कभी सबरवाल । उस दिन उसने सबरवाल का निवासस्थान जानने के लिए उसका पीछा किया था । सबरवाल उससे हमेशा स्टार क्लब में मिलता था । उसने कभी भी संतोष को यह नहीं बताया था कि वह रहता कहां है ।”
“संतोष उसका निवासस्थान क्यों जानना चाहती थी ?”
“उसका इरादा सबरवाल की हत्या करने का ही था । वह कभी मौका मिलने पर चुपचाप उसके निवासस्थान पर जा कर उसकी हत्या कर आना चाहती थी ।”
“खैर, फिर ?”
“परसों दोपहर के बाद उसने सबरवाल का पीछा किया । सबरवाल लिंक रोड पर अरुणा के घर में गया । संतोष जानती थी कि उस इमारत में अरुणा का फ्लैट था । वह बाहर टैक्सी में बैठी सबरवाल के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करती रही लेकिन सबरवाल के स्थान पर भागती हुई बाहर निकली अरुणा और अपनी कार पर बैठकर तेजी से कहीं चली गई । संतोष को संदेह हुआ कि सबरवाल बाहर क्यों नहीं निकला । वह उत्सुकतावश अरुणा के फ्लैट में झांकने चली गई । उसने देखा द्वार खुला था । उसने भीतर झांका । भीतर उसे सबरवाल दिखाई नहीं दिया । वह भीतर घुस गई । उसे बाथरूम में बाथटब में पड़ा सबरवाल का अचेत शरीर दिखाई दिया । उस के हाथ में एक चिट थमी हुई थी, जिस पर लिख था - तुम्हें कोई दौरा पड़ गया है । मैं डाक्टर की दुकान पर तुम्हारे लिए दवा लेने जा रही हूं - लेकिन संतोष जानती थी कि वह झूठ था । डाक्टर की दुकान तो बगल में ही थी लेकिन अरुणा तेजी से कार चलाती हुई कहीं गई थी । उसे सबरवाल की हत्या करने का अच्छा मौका दिखाई दिया । उसने आसपास देखा । किचन में उसे एक हथौड़ा दिखाई दिया । उसी हथौड़े से उसने सबरवाल का काम तमाम कर दिया ! फिर उसे हथौड़े की चिन्ता हुई । वह हथौड़ा वहां नहीं छोड़ना चाहती थी और उसे वहां से बाहर ले जाने का कोई साधन नहीं था । उसे किचन में एक बड़ी-सी छुरी दिखाई दी । उसी छुरी से उसने उस हथौड़े के हैन्डिल को बीच में से काट दिया और फिर दोनों हथौड़े को अपने हैन्डबैग में डालकर चुपचाप बाहर निकल गई । वह उसी टैक्सी पर बैठकर वापस स्टार क्लब चली । टैक्सी से निकलते समय उसे तुम्हारी कार की डिकी का ढक्कन खुला दिखाई दिया । उसने आसपास देखा । किसी का ध्यान उस कार की ओर नहीं था । उसने चुपचाप हथौड़ा तुम्हारी कार में डाल दिया । हथौड़े के हैन्डिल का दूसरा टुकड़ा गिरफ्तारी तक उसके उसके पर्स में मौजूद था ।”
प्रभूदयाल चुप हो गया ।
“मेरे से बेवकूफी यह हुई कि मैं यही सोचता रहा कि किसी ने मुझे फंसाने के लिए हथौड़ा मेरी कार में डाल दिया था” - सुनील बोला - “जबकि वास्तविकता यह थी कि हथौड़े से छुटकारा पाने के लिए संतोष को मेरी कार सबसे अधिक सहूलियत की जगह दिखाई दी थी । उसे मालूम नहीं था कि कार किसकी है । क्या पता कितने दिनों बाद कार के मालिक को हथौड़ा अपनी कार की डिकी में पड़ा दिखाई देता । और हथौड़े के मिलने पर भी यह कतई जरूरी नहीं था कि वह पुलिस को ही रिपोर्ट करता । तब अगर वह रिपोर्ट करता भी तो उसे अपनी जान छुड़ानी कठिन हो आती ।”
प्रभूदयाल गौर से उसकी बात सुनता रहा ।
“संतोष की ओर संकेत करने वाली और भी बातें थी लेकिन भगवान जाने मेरी अक्ल को क्या हो गया था कि मुझे वे सूझीं नहीं ।”
“क्या थीं वे ?”
“सबरवाल ब्लैकमेलर था । लेकिन उसका ब्लैकमेलिंग का तरीका ऐसा था कि उसका कोई भी शिकार उसकी सूरत नहीं पहचानता था । वह तो केवल टेलीफोन पर अपने शिकार से बात करता था । बाकी काम तो उसका भतीजा कर लेता था । यह बात मुझे स्पष्ट रूप से मालूम थी कि संतोष पर उसका कोई होल्ड था क्योंकि तभी तो संतोष रत्न प्रकाश को चौगुनी कीमत में सबरवाल बिल्डिंग खरीदने के लिये मजबूर कर रही थी । कहने का मतलब यह है कि अकेली संतोष ही यह बात जानती थी कि सबरवाल ब्लैकमेलर था । दूसरी बात यह थी कि मैं समझता था कि सबरवाल की घड़ी में समय की गड़बड़ को केवल अरुणा, निरंजन और क्लाकरूम का नौकर ही जानता था लेकिन वास्तव में घड़ी एक घण्टा आगे कर दिये जाने के बाद भी सबरवाल काफी समय तक संतोष के साथ रहा था इसलिये स्पष्ट है कि कभी तो उसकी भी नजर सबरवाल की घड़ी पर पड़ी ही होगी और उसे यह मालूम हो गया होगा कि उसकी घड़ी एक घण्टा आगे है लेकिन न जाने क्यों उसने इस बात की ओर सबरवाल का ध्यान आकृष्ट नहीं किया । फिर बाद में जब उसने अरूणा के फ्लैट पर सबरवाल की हत्या की तो उसने घड़ी एक घण्टा पीछे अर्थात ठीक समय पर कर दी । बाद में अरुणा लौटी तो उसने भी बिना सोचे-समझे घड़ी एक घण्टा पीछे कर दी । इस प्रकार घड़ी जो वास्तविक समय से एक घणटा आगे थी, वह वास्तविक समय से एक घण्टा पीछे हो गई ।”
प्रभूदयाल विचारमग्न-सा उसकी बातें सुनता रहा ।
“संतोष का क्या होगा ?” - सुनील ने पूछा ।
“सबरवाल का गन्दा चरित्र और केस की कुछ अन्य बातें संतोष के पक्ष में हैं । संतोष फांसी तो नहीं होगी लेकिन सजा काफी लम्बी होगी ।”
“और नीला का क्या हुआ ? वह...”
सुनील ने एकदम होंठ काट लिये ।
प्रभूदयाल के चेहरे पर एकदम हैरानी के भाव उभर आये ।
“तो वह तुम थे” - प्रभूदयाल कठोर स्वर में बोला - “जिसने हमें फोन पर सूचना दी थी नीला ने नींद की गोलियां खा ली हैं ।”
“मैंने यह कब कहा ?”
“हर बात कहने की जरूरत नहीं होती । अगर तुम नीला को जानते नहीं और यह बात तुम्हें मालूम नहीं कि नीला ने नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या करने का प्रयत्न किया है तो फिर तुमने यह क्यों पूछा कि नीला का क्या हुआ ? तुम्हारा प्रश्र जाहिर करता है कि तुम वास्तव में मुझसे यह पूछना चाहते हो कि नीला बच गई या मर गई ।”
सुनील चुप रहा ।
प्रभूदयाल ने उसे कुरेदा नहीं क्योंकि इस समय सुनील ने उसका केस सुलझाया था । कोई और मौका होता तो वह इसी बात पर भड़क पड़ता ।
“नीला बच नहीं सकी ।” - प्रभू ने बताया ।
“अच्छा !” - सुनील दुखभरे स्वर में बोला । नीला का भोला-भोला निश्छल चेहरा उसके नेत्नों के सामने घूम गया ।
“हां । एम्बुलेंस में डाक्टर साथ आया था । उसने फौरन ही उसे इन्जेक्शन वगैरह देने आरम्भ कर दिये थे लेकिन फिर भी वह बच नहीं पाई । डाक्टर के पहुंचने के एक या दो मिनट बाद ही उसके प्राण निकल गये थे ।”
“रत्न प्रकाश वहां पहुंचा था ?”
“हां, लेकिन तब तक नीला मर चुकी थी । रत्न प्रकाश फूट-फूटकर रोया । हम बड़ी मुश्किल से उसे वहां से हटा सके थे । वह अर्धविक्षिप्तावस्था में वहां से गया था । उसने प्रार्थना की है कि पोस्टमार्टम के बाद दाहसंस्कार के लिये लाश उसे सौंप दी जाये । नीला एकदम अनाथ है ।”
“सबरवाल का कोई होता-सोता है ?”
“उसके भतीजे के अलावा कोई नहीं । वही सबरवाल की सम्पत्ति का मालिक है ।”
“क्या वह भी सबरवाल बिल्डिंग बेचना चाहता है ?”
“सवाल ही पैदा नहीं होता । उसे बिल्डिंग की चौगुनी कीमत कौन देगा ? उसके लिए तो यही अच्छा है कि वह जिन्दगी-भर बिल्डिंग का किराया खाता रहे । ...लेकिन सुनील, उसने रिपोर्ट लिखाई है कि उसके चाचा की तिजोरी में से कुछ कागजात चुराये गए हैं और इस मामले में अरुणा बच नहीं सकती ।”
“क्यों नहीं बच सकती ?”
“उसे कई लोगों ने सबरवाल के फ्लैट का ताला खोलकर भीतर घुसते देखा है ।”
“सिर्फ इस आधार पर तुम अरुणा का कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।”
“क्यों ?”
“तुमने खुद कहा है कि अरुणा सबरवाल की ही चाबियों से ताला खोलकर भीतर घुसी थी । अरुणा तो यह दावा करेगी कि खुद सबरवाल ने चाबियां देकर उसे अपने फ्लैट पर जाने के लिए कहा था ।”
“क्यों ?”
“हजार बहाने बताये जा सकते हैं । सबरवाल को दौरा पड़ गया था और उसने अरुणा को अपने फ्लैट में से कोई विशेष दवा ले आने के लिए कहा था । अरुणा सबरवाल के ही कहने पर उसके फ्लैट में घुसी थी । अब जब कि सबरवाल मर चुका है, तुम कभी अरुणा का यह दावा झुठला नहीं सकते ।”
“लेकिन अरुणा को यह बहाना सूझेगा कैसे ?”
“मैं सुझाऊंगा उसे ।”
प्रभूदयाल ने खा जाने वाली नजरों से सुनील को घूरा ।
“प्रभू, आखिर तुम यह क्यों नहीं समझते कि जैसा हरामजादा सबरवाल था, वैसा ही उसका भतीजा भी है । जो कागजात अरुणा ने उसके फ्लैट में से चुराये हैं उनके दम पर चाचा-भतीजे का बैलैकमेलिंग का धन्धा चल रहा था । चाचा के मर जाने के बाद वह धन्धा विरासत में भतीजे को मिलता । तुम नहीं जानते उन कागजा को नष्ट करके अरुणा ने सबरवाल के कितने शिकारों को चैन की जिन्दगी बख्शी है ।”
प्रभूदयाल सोच में पड़ गया ।
“अरुणा की हरकत गैरकानूनी जरूर थी, लेकिन उससे किसी का अहित नहीं हुआ । उलटा बहुत लोगों को लाभ पहुंचा हैं ।”
“तुम्हारा मतलब है कि मैं सारी बात भूल जाऊं ?”
“हां ।”
“लेकिन तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं आओगे ?”
“मेरी हरकतें खराब नहीं हैं । ताजा नमूना तुम्हारे सामने है । तुम मुझे और अरुणा को गिरफ्तार करके ले आते और फिर तुम्हारी ऐसी दुर्गति होती कि तुम पनाह मांगते फिरते ।”
“ठीक है ।” - प्रभूदयाल स्वीकार करता हुआ बोला - “इस बार मुझसे गलती हुई । लेकिन इसका हरगिज भी यह मतलब नहीं है कि दुबारा ऐसा कोई मौका आने पर मैं तुम्हें छोड़ दुगा । फिर कभी मौका आने पर किसी मामले में मुझे तुम्हारा हाथ दिखाई दिया तो मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं । सुनील, कभी न कभी लुहार की एक पड़ेगी ही ।”
“इंतजार करते रहो ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “मुमकिन है तुम सौ साल से अधिक जी जाओ और तुम्हारी यह अभिलाषा भी पूरी हो जाये । फिलहाल तो तुम सुनार की ठक-ठक सुनो ।”
और सुनील बाहर निकल गया ।
समाप्त
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