टेलीफोन की घन्टी बजी।
ड्राईंगरूम में बैठी सुमन ने टीवी पर से निगाह हटा कर सोफे के करीब पड़े फोन की तरफ देखा। उस फोन की पैरेलल लाइन नीलम के बैडरूम में भी थी इसलिये वो वहां से फोन उठाया जाने की प्रतीक्षा करने लगी।
वो रविवार का दिन था और उस रोज उसकी अपनी ट्रंक आपरेटर की ड्यूटी से मुकम्मल छुट्टी थी।
उस घड़ी वो सजी धजी घर से रवानगी के लिये तैयार ड्राइंगरूम में बैठी थी क्योंकि उसका ब्याय फ्रेंड प्रदीप उसे लेने वहां आने वाला था जिसके साथ कि वो ‘अल्पना’ पर मैटिनी शो देखने जाने वाली थी।
घन्टी निरन्तर बजती रही।
शायद नीलम टायलेट में थी — उसने सोचा।
शायद टेलीफोन उसके लिये था, शायद प्रदीप लेट हो गया था और अब फोन पर उसे कहना चाहता था कि वो खुद ही ‘अल्पना’ पहुंच जाये।
उसने रिसीवर उठा कर कान से लगाया।
“हल्लो।” — वो माउथपीस में बोली।
“नीलम!” — दूसरी ओर से कोई बोला।
“मैं सुमन बोल रही हूं। आप कौन?”
“मैंने नीलम से बात करनी है।”
“आप कौन?”
“मैं वो शख्स हूं जिसने नीलम से बात करनी है।”
“आपका नाम?”
“नीलम को मालूम है।”
“लेकिन आप....”
“अब खुद ही चबर चबर करती रहेगी या नीलम के लिये फोन का पीछा छोड़ेगी!”
सुमन ने हड़बड़ा कर रिसीवर को कान से परे किया। ऐसी कर्कश फटकार की अपेक्षा उसे नहीं थी।
“होल्ड कीजिये।” — वो दबे स्वर में बोली।
फिर वो उठ कर नीलम के बैडरूम में गयी।
नीलम उसे टायलेट से निकलती मिली।
“आपका फोन है, दीदी।” — सुमन बोली।
“किसका है?” — नीलम की भवें उठीं।
“पता नहीं। कोई बहुत ही बद् ...रूखा शख्स है। नाम नहीं बताता। पूछने पर नाराज होता है। कड़क कर पड़ता है।”
“मैं देखती हूं।”
नीलम पलंग के पहलू में पड़े फोन की तरफ बढ़ी।
सहमति में सिर हिलाती सुमन वापिस ड्राईंगरूम में लौट आयी जहां कि वो वहां के फोन का रिसीवर उसके पहलू में रख आयी थी। रिसीवर को वापिस क्रेडल पर रखने के लिये उसने उसे उठाया और फिर वापिस क्रेडल पर रखने की जगह झिझकते हुए अपने कान से लगा लिया।
“हल्लो।” — उसे नीलम की आवाज सुनाई दी।
“मैं बोल रहा हूं।” — लाइन पर मौजूद शख्स अपेक्षाकृत सभ्य स्वर में बोला।
“क्यों बोल रहे हो?” — नीलम झुंझलाई — “क्यों खामखाह फोन करते हो? मैंने जब पहले ही बोल दिया है कि रकम के इन्तजाम में टाइम लगेगा तो क्यों फोन करते हो? जब तक का टाइम दिया है, तब तक तो टिक के बैठो!”
“टाइम की मियाद कल शाम को खत्म हो जायेगी।”
“तो कल शाम तक तो पीछा छोड़ो।”
“तू तो खफा हो रही है।”
“कहां! मैं तो तुम्हारा फोन सुन कर निहाल हो गयी हूं, उठ के डांस करने लगी हूं और झूम-झूम के गाने लगी हूं।”
“तू मजाक कर रही है।”
“मैं एकदम संजीदा हूं।”
“तू मेरी खुश्की उड़ा रही है।”
“मेरी ऐसी मजाल कहां!”
“न ही हो तो खैरियत है।” — वो एक क्षण ठिठका और फिर उसने जोड़ा — “तेरी।”
नीलम चुप रही।
“बहरहाल मैंने फोन किसी और वजह से किया था।”
“और किस वजह से किया था?”
“वही बताने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन तू कुछ कहने तो दे! तूने तो मुंह खोलते ही मुंह पकड़ लिया मेरा!”
“मैं सुन रही हूं।”
“जो कि तेरा मेरे पर अहसान है!”
“अब कह भी चुको।”
“नीलम, मुझे लग रहा है कि कोई तेरी, तेरे घर की, निगरानी कर रहा है।”
“क्या!”
“कोई तेरे पर निगाह रखे है।”
“कौन?”
“ये मुझे नहीं मालूम लेकिन मुझे यकीन है कि ऐसा है और जरूर है।”
“तुम्हें वहम हुआ है।”
“भगवान करे ये वहम ही हो लेकिन जब तक वहम साबित नहीं हो जाता, मैं इसे नजरअन्दाज नहीं कर सकता।”
“कौन मेरी निगरानी करेगा?”
“मैं क्या बोलूं?”
“और क्यों करेगा ऐसा?”
“मैं खुद हैरान हूं। तूने किसी के सामने मुंह तो नहीं फाड़ा?”
“पागल हुए हो!”
“तो फिर ...”
“तो फिर कुछ नहीं। सिवाय इसके कि तुम्हारे पाप कांप रहे हैं।”
“बकवास मत कर और मेरी बात सुन।”
“तुम्हारी ही सुन रही हूं।”
“नीलम, मैं आइन्दा तेरे पास तो फटकने का ही नहीं हूं, फोन भी नहीं करने का हूं।”
“फोन भी नहीं?”
“हां, फोन भी नहीं। सुना है बड़े शहरों में लाइन टेप करके बीच में बात सुनने का भी इन्तजाम होता है।”
“तुम पागल हो जो ....”
“सुना है तेरे साथ जो लड़की है, वो नौकरी ही टेलीफोन एक्सचेंज में करती है।”
“वो मामूली आपरेटर है और वो भी ट्रंक एक्सचेंज में। वो किसी आम एक्सचेंज की कोई लोकल काल ...”
“हो सकता है, सुन सकती हो। हो सकता है कोई जरिया हो जिसकी तुझे खबर नहीं, मुझे खबर नहीं।”
“वो इस वक्त कहीं किसी एक्सचेंज में नहीं, घर पर है।”
“इस वक्त घर पर है। हमेशा तो नहीं होती! जब एक्सचेंज की नौकरी बजा रही होती है, तब तो घर पर नहीं होती! तब तो...”
“तुम्हारा सिर फिर गया है।”
“हो सकता है। लेकिन मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता। इसलिये रूबरू मुलाकात बन्द। फोन काल बन्द।”
“तो फिर कैसे बीतेगी?”
“मैं चिट्ठी भेजूंगा। कल शाम से पहले तुझे एक चिट्ठी मिलेगी जिसमें लिखा होगा कि रकम तूने कहां पहुंचानी है, कैसे पहुंचानी है, किसके जरिये पहुंचानी है।”
“किसी के जरिये पहुंचानी है?”
“हां। जैसे फिलहाल मैं तेरे पास नहीं फटकना चाहता, वैसे ही मैं नहीं चाहता कि तू भी मेरे पास फटके।”
“क्यों?”
“ताकि अगर वाकई कोई तेरी निगरानी कर रहा हो तो वो तेरे पीछे लगा मेरे तक न पहुंच जाये। तू घर बैठी होगी तो वो भी उधर मॉडल टाउन में ही टिका होगा। उसे उस शख्स के पीछे लगना नहीं सूझेगा जिसे तू अपनी जगह रकम के साथ मेरे पास भेजेगी।”
“हूं।”
“अब तू ने ये जानने की कोशिश करनी है कि कौन तेरे पर निगाह रखे है....”
“कोई होगा तो जानूंगी न!”
“...वो जो कोई भी होगा, तेरा भला चाहने वाला ही होगा। यानी कि तेरा वाकिफ होगा। लिहाजा तू ने जिद करनी है कि वो अपनी उस हरकत से बाज आये।”
“अव्वल तो ऐसा कोई है नहीं। है भी तो...”
“नीलम! नीलम! जैसे मैं कहता हूं, वैसे कर। इसी में तेरी भलाई है।”
“मेरी क्या भलाई है?”
“हो सकता है कि अब ये किस्सा ही खत्म हो जाये।”
“किस्सा ही खत्म हो जाये! कैसे?”
“हो सकता है ये मेरी आखिरी मांग हो।”
“पिछली बार भी तुमने यही कहा था।”
“तू पीछे की छोड़। आगे की सोच।”
नीलम खामोश रही।
“अब बोल, रकम किसके जरिये पहुंचायेगी?”
“मैं सोचूंगी इस बाबत।”
“उस लड़की के बारे में क्या खयाल है जिसका मैंने अभी जिक्र किया था? और जिसका नाम शायद सुमन है?”
“बोला न, मैं सोचूंगी इस बाबत।”
“लेकिन ...”
“बके जाओ।”
“ठीक है ठीक है। अब मेरी चिट्ठी का इन्तजार करना और जो हिदायत उसमें लिखी हो, उन पर अमल करना।”
“अच्छा।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
सुमन ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और टेलीफोन से परे हट गयी।
कुछ क्षण बाद नीलम ने ड्राईंगरूम में कदम रखा।
“किसका फोन था?” — सुमन सहज भाव से बोली।
“किसी का नहीं।” — नीलम ने अनमने स्वर में उत्तर दिया।
“किसी का नहीं?”
“मेरा मतलब है कोई खास फोन नहीं था। यूं ही कोई वाकिफकार था।”
“भाई साहब का?”
“क्या?”
“कोई कौल साहब का वाकिफकार था?”
“हां।”
“वही शख्स जो कुछ दिन पहले यहां खुद भी आया था? वो अपाहिज जो बैसाखियों के सहारे चलता था? जिसकी शक्ल विकराल थी और आंखों में काईयांपन था?”
“अरे नहीं, वो नहीं।”
“तो फिर कौन?”
“तू क्यों इतने सवाल पूछ रही है?” — नीलम झुंझला कर बोली।
“कोई खास वजह नहीं।”
“तो फिर खत्म कर ये किस्सा।”
“ठीक है।”
सुमन खामोश हो गयी। वो रकम की बाबत सवाल करना चाहती थी लेकिन कर नहीं सकती थी, क्योंकि तब ये बात उजागर हो जाती कि उसने उस टेलीफोन काल को पैरेलल लाइन पर बीच में सुनने की गुस्ताखी की थी।
शाम पांच बजे विमल दिल्ली पहुंचा।
दिल्ली के लिये सुबह की फ्लाइट वो नहीं पकड़ सका था और वो फ्लाईट भी वो काफी दौड़धूप के बाद ही पकड़ पाया था।
एअरपोर्ट से एक टैक्सी पर सवार होकर वो एम्बैसेडर होटल पहुंचा। उसने होटल में कदम रखा, कुछ देर लॉबी में बैठा और फिर बाहर निकल गया।
वो करीबी टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचा।
गनीमत थी कि मुबारक अली वहां मौजूद था।
दोनों की निगाहें मिलीं तो विमल वहां से रुख बदल कर बाहर सड़क पर आ गया और लापरवाही से एक ओर चलने लगा।
कुछ क्षण बाद मुबारक अली की टैक्सी उसके करीब पहुंची।
मुबारक अली ने हौले से हार्न बजाया और टैक्सी रोकी।
विमल तत्काल टैक्सी की पिछली सीट पर सवार हो गया।
टैक्सी आगे बढ़ चली।
“कहीं रोक।” — विमल बोला — “ऐसे बातचीत नहीं हो पायेगी।”
मुबारक अली ने सहमति में सिर हिलाया।
“सुबू नहीं पहुंचा, बाप?” — फिर वो बोला।
“बस, नहीं ही पहुंच पाया।” — विमल बोला — “कोशिश तो बहुत की थी लेकिन...”
उसने असहाय भाव से कन्धे उचकाये।
“कुछ ज्यादा ही, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मसरूफ हो गया है उधर!”
“ऐसा ही है।”
मुबारक अली ने टैक्सी को लोधी गार्डन के करीब रोका।
विमल पीछे से बाहर निकला और आगे उसके पहलू में जा बैठा। उसने खामोशी से अपना पाइप निकाल कर सुलगाया और फिर बोला — “क्या खबर है?”
“चोखी खबर तो कोई नहीं, बाप।” — मुबारक अली बोला — “वैसीच है सब जैसा मैं मुम्बई जाने से पहले इधर छोड़ के गया था। अलबत्ता तेरे हुक्म के मुताबिक उस लंगड़े की और पड़ताल की है मैंने।”
“बढ़िया। क्या जाना?”
“वो अपना नाम काशीनाथ बताता है। कश्मीरी गेट वाली चाल में वो इसी नाम से जाना जाता है। वहां उसका जो ...वो जो तू पोर पोर करके बोला ...”
“पोर्शन।”
“वही। वो दो कमरे का पोर्शन है जो उसने माहाना किराये पर हासिल किया है। वो पोर्शन चाल के, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, गिराउण्ड के फिलोर वाले माले पर है। वैसे चाल तीन मालों की है लेकिन वो लंगड़ा है न, इस वास्ते उसको गिराउण्ड के फिलोर वाला पोर्शन ही मांगता होगा।”
“ठीक।”
“गिराउण्ड के फिलोर का बैसीच एक पोर्शन हरिदत्त पंत नाम के एक भीड़ू के कब्जे में है जो कि उसका जोड़ीदार है।”
“जोड़ीदार है?”
“हां। उसी ने लंगड़े को वो पोर्शन दिलवाया था और वो ही लंगड़े को एक सफेद रंग की मारुति वैन पर जगह-जगह ले के जाता है। मैं मालूम किया है कि ये पंत करके भीड़ू उधर पुराना रहता है। पण लंगड़ा उधर दो महीने से ही है।”
“कहां से आया उधर?”
“मुम्बई से।”
“मुम्बई से?”
“ऐसीच बोलता है। असल में किधर से भी आया हो सकता है।”
“लंगड़ा कैसे हो गया?”
“मालूम नहीं।”
“क्या बैसाखियों का पूरी तरह से मोहताज है?”
“घर से बाहर तो पूरी तरह से मोहताज है अलबत्ता चाल में कभी एक बैसाखी के सहारे तो कभी बिना बैसाखियों के चलता फिरता देखा गया है।”
“उठता बैठता किन लोगों के साथ है?”
“किसी के साथ नहीं। सिवाय अपने उस जोड़ीदार पंत के।”
“वो क्या बला है?”
“क्या बोला, बाप?”
“मेरा मतलब है ये पंत क्या चीज है? क्या करता है? क्या जरिया है उसका रोजी रोटी का?”
“कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, इस्ट्रेट जरिया तो नहीं है! कोई पक्का काम धन्धा तो वो यकीनन नहीं करता! मेरे को तो वो कोई चोर उचक्का ही मालूम पड़ता है!”
“ऐसा?”
“हां। दरअसल वो चाल है ही जरायमपेशा लोगों का अड्डा। मेरे को तो वहां रहते तमाम के तमाम लोग — अकेले रहने वाले भी और, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कुनबे के साथ रहने वाले भी — सब चोर चोर मौसेरे भाई ही लगे।”
“हूं।”
कुछ क्षण खामोशी रही। विमल बड़ी संजीदगी से पाइप के कश लगाता रहा।
“और क्या करता है लंगड़ा?” — फिर वो बोला।
“क्या बोला, बाप?”
“मैंने मुम्बई में कहा था कि फोकट में हाथ आये माल को, हराम की कमाई को चमकाये बिना कोई नहीं मानता। मेरा सवाल ये है कि लंगड़ा मानता है या नहीं?”
“नहीं।” — मुबारक अली ने खीसें निपोरीं — “वो भी नहीं मानता।”
“क्या करता है?”
“अय्याशी। अय्याशी करता है।”
“किस किस्म की?”
“रण्डीबाजी। रण्डीबाजी की किस्म की।”
“अच्छा!”
“हां। अल्लामारा झोलझाल, खस्ताहाल, काबिलेरहम सूरत भीड़ू है लेकिन टॉप की बाई की सोहबत करता है। चन्द घन्टों के बीस हजार तक लेने वाली, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बुलाने से आने वाली छोकरी के साथ सोता है।”
“कालगर्ल!”
“वही। काल वाली गर्ल।”
“दिल्ली की ऐसी हाई क्लास कालगर्ल्स से वो वाकिफ है?”
“बाप, रोकड़ा अंटी में हो तो ऐसी वाकफियत बनाने में क्या वान्दा है!”
“ये भी ठीक है। ये रोज का चक्कर है उसका?”
“तकरीबन रोज का। वो ही मसरूफ हो या मूड में न हो तो बात दूसरी है वरना रोकड़े की वजह से कोई परेशानी नहीं।”
“कैसे होगी! क्या पता कितना माल झटक चुका है वो नीलम से!”
“बरोबर बोला, बाप।”
“जाता एक ही कालगर्ल के पास है या नित नयी सहेली ढूंढता है?”
“ये तो मालूम नहीं है! मालूम करना सूझा भी नहीं।”
“अब मालूम करना।”
“बरोबर। करेगा।”
“और?”
“फिलहाल तो और कुछ नहीं।”
“डोंगरे की भेजी रकम मिल गयी?”
“चौकस मिल गयी।”
“नीलम ने रकम के लिये रिमाइन्ड नहीं कराया?”
“क्या नहीं कराया?”
“याद नहीं दिलाया?”
“अच्छा, वो। नहीं, नहीं दिलाया, बाप। मैं आज शाम तक का बोल के रखा। तेरी बेगम इस बाबत कुछ बोलेगी तो कल सुबू बोलेगी।”
“अब मैं आ गया हूं। तुम रकम आज ही उसे पहुंचा देना।”
“ठीक। और हुक्म, बाप?”
“मैं उस लंगड़े की सूरत देखना चाहता हूं।”
“क्या वान्दा है? कश्मीरी गेट चलते हैं।”
“वो निकल नहीं गया होगा अपनी पसन्दीदा तफरीह पर?”
“अभी नहीं।”
“वो कालगर्ल को अपने पास बुलाता है या खुद उसके पास जाता है?”
“बाप, उस सड़ेली चाल में कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फैंसी बाई कदम डालेगी? वो भी चन्द घन्टों का बीस हजार रुपिया वसूल करने वाली!”
“यानी कि वो ही जाता है?”
“हां।”
“कहां?”
“कभी किसी बड़े होटल में, कभी किसी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, पिराइवेट ठीये पर, जैसे कोई कोठी, कोई फिलेट वगैरह।”
“फिर तो वो हर बार किसी नयी लड़की के साथ ही तफरीह करता होगा! वो किसी एक ही कालगर्ल का स्टेडी क्लायन्ट होता तो ठीया भी एक ही होता!”
“मैं मालूम करेगा, बाप।”
“ठीक है। अब, चल।”
“बाप, तू पीछू बैठ।”
“ऐसे ही ठीक है।”
“नहीं ऐसे ही ठीक। पैसेंजर को टैक्सी में पीछू ही होना मांगता है।”
“अरे, मैं पैसेंजर नहीं हूं।”
“पब्लिक के वास्ते पैसेंजर है। उधर कश्मीरी गेट पहुंचेगा तो कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, नोट करेगा।”
“ओह!”
विमल टैक्सी से निकला और जाकर पिछली सीट पर बैठ गया।
तत्काल मुबारक अली ने टैक्सी आगे बढ़ाई।
चाल एक बहुत बड़ी तीनमंजिला इमारत निकली। उसके बीच में एक बहुत बड़ा मेहराबदार फाटक था जिसकी सूरत बताती थी कि वो हमेशा खुला रहता था। फाटक से आगे एक हॉल कमरा था जिसमें बैठने के लिये एक बैंच और कुछ कुर्सियां पड़ी थीं। हॉल में दाईं ओर एक लम्बा काउन्टर था जिस पर ‘मैनेजर’ लिखी एक तख्ती टंगी हुई थी। काउन्टर के पीछे कुर्सी पर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति बैठा कोई फिल्मी पत्रिका पढ़ रहा था। उसके पीछे एक बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा था:
यहां रोजाना, हफ्तावारी और माहाना किराये पर कमरे मिलते हैं।
फाटक से बाहर सड़क के पार मुबारक अली की टैक्सी मौजूद थी।
“इधर वो एक ही टेलीफोन है” — मुबारक अली धीरे से बोला — “जो कि उस रिसाला पढ़ते भीड़ू के सामने, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फट्टे पर पड़ा है। किसी का फोन आये तो उसे इधर ही आकर सुनना पड़ता है।”
“बुलाने कौन जाता है?” — विमल बोला — “यही आदमी जो काउन्टर के पीछे बैठा है?”
“नक्को। वो फाटक के पहलू में चाय की दुकान है न?”
“है।”
“वो उधर से छोकरे को बुलाता है। जिसका फोन आया हो, उसको बुलाने जाने का काम चाय वाले का छोकरा करता है। उसे इस काम का एक रुपिया मिलता है।”
“छोकरा न हो तो?”
“तो वो फोन पर नक्की बोल देता है। या सन्देशा छोड़ने को बोल देता है या बाद में फोन करने को बोलता है।”
“हूं। फोन का जिक्र क्यों?”
“बाजू में एक पब्लिक के लिये टेलीफोन है। मैं उधर से सिक्का डाल कर चाल का फोन लगाता है और काशीनाथ को मांगता है। काशीनाथ फोन सुनने को आयेगा तो तू उसका थोबड़ा देखना।”
“टैक्सी में से ही?”
“नहीं। भीतर जा के बैठ। उधर जा के बैठने पर कोई पाबन्दी नहीं है।”
“ओह!”
विमल टैक्सी से निकला। उसने पाइप बुझा कर जेब में रख लिया और लापरवाही से टहलता हुआ फाटक की ओर बढ़ा। उसने हॉल कमरे में कदम रखा तो मैगजीन पढ़ते व्यक्ति ने उसकी तरफ आंख तक न उठाई। वो एक कुर्सी पर जा बैठा। उसने करीब एक टेबल पर पड़ा अखबार उठाया और उसे अपने सामने तान लिया।
वो प्रतीक्षा करने लगा।
दो मिनट बाद फोन की घन्टी बजी।
मैगजीन पढ़ते व्यक्ति ने बिना मैगजीन पर से निगाह हटाये फोन उठा कर कान से लगाया, उसने एक क्षण फोन सुना और फिर रिसीवर को फोन के पहलू में काउन्टर पर रख दिया।
“कालू!” — वो गला फाड़ कर चिल्लाया।
चाय की दुकान में से एक बारह-तेरह साल का मैला कुचैला छोकरा निकला और लपक कर हॉल में काउन्टर पर पहुंचा।
“सात नम्बर से काशीनाथ को बुला कर ला।”
छोकरा सहमति में सिर हिलाता दायें विंग के लम्बे गलियारे में दौड़ चला।
दो मिनट बाद एक बैसाखी के सहारे चलता कथित काशीनाथ वहां पहुंचा।
विमल ने अखबार की ओट से गौर से उसकी सूरत देखी।
लेकिन वो ज्यादा देर उसकी सूरत देखता न रह पाया। टेलीफोन की तरफ बढ़ते वक्त लंगड़े की उसकी तरफ पीठ हो गयी।
विमल बड़े धीरज से प्रतीक्षा करने लगा। आखिर अभी उसने लौट के भी तो जाना था।
लंगड़े ने रिसीवर उठा कर कान से लगाया, फिर उसके चेहरे पर वितृष्णा के भाव आये और उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर पटक दिया।
“क्या हुआ?” — मैगजीन पढ़ता व्यक्ति सकपकाया-सा बोला।
“लाइन कटी पड़ी है, माईंयवी।” — लंगड़ा बोला — “डायल टोन आ रही है।”
विमल के कान खड़े हो गये, वो तन कर बैठ गया। सूरत से पहले उसने उस शख्स को आवाज से पहचाना।
“लाइन को लम्बा होल्ड किया जाये तो अक्सर हो जाता है ऐसा।” — मैगजीन पढ़ता व्यक्ति बोला — “अभी यहीं रुके रहो। काल फिर आयेगी।”
लंगड़े का सिर सहमति में हिला। वो भुनभुनाता-सा काउन्टर का सहारा लिये वहां खड़ा रहा।
काल फिर न आयी।
झुंझलाया-सा वो वापिस लौट पड़ा।
तब विमल ने उसकी सूरत भी पहचानी।
घनी दाढ़ी मूंछ और कितनी ही और तब्दीलियों के बावजूद पहचानी।
दो साल से ऊपर का वक्फा गुजर चुका होने के बावजूद पहचानी।
दाता! — वो मन ही मन बोला — तेरे रंग न्यारे।
लंगड़ा बैसाखी ठकठकाता उसके करीब से गुजर गया। उसने विमल की तरफ आंख तक न उठाई।
तभी बाहर हौले से टैक्सी का हार्न बजा।
विमल ने सिर उठा कर बाहर झांका तो पाया कि मुबारक अली अपनी टैक्सी की ड्राइविंग सीट पर पहुंच चुका था।
विमल अपने स्थान से उठा और लापरवाही से चलता बाहर की तरफ बढ़ा।
वो पूर्ववत् टैक्सी में जा सवार हुआ।
“देखा?” — मुबारक अली उत्सुक भाव से बोला।
“हां।” — विमल संजीदगी से बोला — “देखा।”
“पहचाना?”
“हां।”
“कौन था?”
“मुम्बई में तूने ठीक कहा था, मुबारक अली। मुर्दा ही कब्र से उठ कर खड़ा हो गया है।”
“ऐसा?”
“हां।”
“पण था कौन?”
“यहां से चल। बताता हूं।”
तत्काल मुबारक अली ने टैक्सी आगे बढ़ाई।
अपनी टैक्सी पर मुबारक अली मॉडल टाउन पहुंचा।
तब तक सूरज कब का डूब चुका था और रात का अन्धेरा पूरी तरह से गहरा चुका था।
वो अकेला वहां पहुंचा था।
टैक्सी से निकल कर उसने कोठी नम्बर डी-9 की कालबैल बजायी।
जवाब में दरवाजा नीलम ने खोला।
“आदाब!” — मुबारक अली अदब से बोला — “रकम लाया है।”
नीलम ने नमस्ते से आदाब का जवाब दिया और संजीदगी से बोली — “शुक्रिया।”
“डिकी में है। ले के आता है।”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया।
मुबारक अली टैक्सी में से साधारण ब्रीफकेस से आकार में जरा बड़ा एक ट्रंक निकाल लाया। नीलम उसको रास्ता देने के लिये चौखट से परे हट गयी तो मुबारक अली ने भीतर कदम रखा लेकिन उसने चौखट से आगे बढ़ने का उपक्रम न किया। उसने ट्रंक को फर्श पर रख दिया और लापरवाही से बोला — “सुमन बीबी नहीं दिखाई दे रही!”
“सिनेमा देखने गयी है।” — नीलम बोली।
“और नन्हें मियां?”
“बैडरूम में। पालने में सो रहे हैं।”
“ओह!” — वोएक क्षण ठिठका और फिर बोला — “मैं चलता है। रकम चौकस कर लेना।”
“मैं” — नीलम व्यग्र भाव से बोली — “किस मुंह से तुम्हारा शुक्रिया अदा करूं?”
“शुक्रिया अदा करने वाली तो कोई बात ही नहीं हुई है, भाभी साहिबा। आपने खादिम को खिदमत का मौका दिया, इसके लिये तो मेरे को आपका शुक्रगुजार होना चाहिये।”
“ये तुम्हारा बड़प्पन है जो...”
“पण आप मेरे को तमाम सिलसिले की कोई वजह बतातीं तो मुझे खुशी होती।”
“मैं माफी चाहती हूं लेकिन ऐसा नहीं हो सकता।”
“नहीं हो सकता तो नहीं हो सकता। क्या वान्दा है!”
नीलम खामोश रही।
“ठीक है फिर। खुदा हाफिज।”
और मुबारक अली जाने के लिये मुड़ा।
“जरा सुनो।”
मुबारक अली ठिठका, वापिस घूमा, उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से नीलम की ओर देखा।
“तुम्हें” — नीलम बोली — “मेरा सलामती की फिक्र है?”
“बहौत।” — मुबारक अली मुस्कराया — “क्या नहीं होनी चाहिये?”
“इसीलिये पिछली बार की तरह इस बार भी तुमने यहां की निगरानी के लिये अपने आदमी लगाये हुए हैं?”
“तौबा! कैसी बातें करती हैं आप?”
“यानी कि ऐसा नहीं है?”
“हरगिज भी नहीं है।”
“तुमने अपना कोई आदमी यहां इस कोठी की निगरानी के लिये तैनात नहीं किया हुआ?”
“बिल्कुल नहीं, पण आप जरूरत समझती हैं ऐसी निगरानी की तो मैं कर देता है तैनात।”
“नहीं, नहीं। वो बात नहीं। मैं कतई कोई ऐसी जरूरत नहीं समझती। कोई वजह ही नहीं है ऐसा कुछ समझने की।”
“तो?”
“मुझे ...मुझे लगता है कि कोई यहां की निगरानी कर रहा है।”
“कैसे लगता है?”
“बस ....लगता है।”
“आपको लगता है या कोई दूसरा ऐसा बोला?”
“दूसरा कौन?”
“कोई भी। मसलन सुमन बीबी!”
“नहीं, नहीं। कोई नहीं बोला।”
“तो फिर कैसे लगता है? आपने कुछ देखा?”
“देखा तो नहीं!”
“तो फिर?”
नीलम खामोश रही, उसने बैचैनी से पहलू बदला और फिर बोली — “मैं बात को और तरीके से कहती हूं।”
“जरूर।”
“फर्ज करो यहां की निगरानी हो रही है। समझ लो कि मुझे सपना आया है या इलहाम हुआ है कि यहां की निगरानी हो रही है। मुझे कोई ऐसा शख्स दिखाई नहीं देता लेकिन कोई हो सकता है जो कि इन मामलों में बहुत होशियार हो, तजुर्बेकार हो और इसलिये वो खुद को किन्हीं शक्की निगाहों से बचा कर रखना जानता हो। मेरा सवाल ये है कि अगर ऐसा कोई शख्स है तो क्या तुम उसकी पड़ताल करवा सकते हो?”
“क्यों नहीं? क्या वान्दा है?”
नीलम के चेहरे पर संतोष के भाव आये।
“पण ऐसा कोई शख्स हुआ तो क्या करने का है?”
“कुछ नहीं। मैं सिर्फ इस बात की तसदीक चाहती हूं। कोई यहां की निगरानी कर रहा है तो भी मैं तसदीक चाहती हूं, नहीं कर रहा तो भी मैं तसदीक चाहती हूं।”
“मैं करके देगा तसदीक।”
“लेकिन निगरानी करने वाले को इस बात की भनक नहीं लगनी चाहिये।”
“ऐसीच होगा।”
“शुक्रिया।”
“खुदा हाफिज।”
मुबारक अली अपनी टैक्सी पर जा सवार हुआ। टैक्सी वहां से रवाना हो गयी।
पीछे कोठी का प्रवेशद्वार बन्द हो गया।
मुबारक अली ने मोड़ के करीब पहुंच कर टैक्सी को एक पेड़ों के झुरमुट के नीचे रोका। उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और खामोशी से उसके कश लगाता प्रतीक्षा करने लगा।
प्रेत की तरह अली मुहम्मद टैक्सी के करीब पहुंचा और दरवाजा खोल कर उसके पहलू में आ बैठा।
वो कोई तेइस-चौबीस साल का दुबला पतला नौजवान था। वो और उसका जुड़वां वली मुहम्मद मुबारक अली के सगे भांजे थे।
“वली कहां है?” — मुबारक अली ने दबे स्वर में पूछा।
“इधर ही है।” — अली बोला।
“कोई काम ठीक से नहीं कर सकता? कोई काम चौकस नहीं कर सकता? न तू, न तेरा बिरादर।”
“क्या हुआ, मामू?” — अली बौखला कर बोला।
“बाई को तुम दोनों की खबर।”
“ये नहीं हो सकता।”
“वो ऐसीच बोली। बरोबर ऐसीच बोली।”
“क्या बोली?”
“बोली उसे लगता था कि कोई उसकी निगरानी पर।”
“मामू, नहीं हो सकता।”
“नहीं हो सकता तो वो क्यों ऐसा बोली? जरूर कोई कोताही की होगी!”
“हरगिज भी नहीं। मामू, वैसे चाहे सौ जूते मार लो, लेकिन हमें नालायक करार न दो। हमारे पर कोताही का इलजाम न लगाओ। ये हरगिज हरगिज नहीं हो सकता कि नीलम बीबी को या उस दूसरी मोहतरमा को हमारी खबर लगी हो।”
“तो समझ लो कि किसी और को तुम्हारी खबर लगी।”
“और किसे?”
“और उसे, जिसकी वजह से मैंने तुम्हें यहां तैनात किया।”
“उस लंगड़े को?” — अली अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला।
“या उसके जोड़ीदार को। या उन दोनों के हिमायती किसी और शख्स को। बाई को खुद तुम्हारी खबर नहीं लगी तो जरूर कोई और इस बाबत उसे कुछ बोला।”
“ओह!”
“खबरदार हो जाओ, कमबख्तमारो, वरना खाल खिंचवा के भूस भरवा दूंगा। अपनी बहन का भी खयाल नहीं करूंगा।”
“कोताही तो, कसम उठवा लो, कोई नहीं हुई, मामू” — अली दबे स्वर में बोला — “लेकिन अब हम और... और ज्यादा ...हद से ज्यादा एहतियात बरतेंगे।”
“अल्लामारो, मुझे सोहल की निगाहों में रुसवा कराओगे?”
“ऐसा नहीं होगा, मामू। ऐसा हुआ तो हम दोनों भाई ताजिंदगी तुम्हें कभी मुंह नहीं दिखायेंगे।”
मुबारक अली के चेहरे पर सन्तोष के भाव आये, फिर वो आदतन भड़का — “अब क्या पीठ ठोक के शाबाशी मिलने के इन्तजार में है जो अभी यहीं पसरा बैठा है? अरे, दफा न हो यहां से।”
बौखलाया-सा अली टैक्सी से बाहर निकला।
तत्काल मुबारक अली ने टैक्सी आगे बढ़ा दी।
विमल कश्मीरी गेट पहुंचा।
उस घड़ी वो एक साधारण सूट पहने था और आंखों पर धूप का चश्मा लगाये था। उसके हाथ में एक उस प्रकार का बैग था जैसा कि दिल्ली शहर में छोटी मोटी सरकारी या गैरसरकारी नौकरियां करने वाले सुबह सवेरे दफ्तर जाते बाबुओं के हाथों में आम देखा जाता था। उस घड़ी वो अरविन्द कौल नाम का टिपीकल वाइट कालर एम्पलाई था जिसे देख कर कौन कह सकता था कि वो मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल उर्फ विमल कुमार खन्ना उर्फ गिरीश माथुर उर्फ बनवारी लाल तांगेवाला उर्फ कैलाश मल्होत्रा उर्फ बसन्त कुमार मोटर मकैनिक उर्फ नितिन मेहता उर्फ कालीचरण उर्फ आत्माराम उर्फ पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला उर्फ राजा गजेन्द्र सिंह था।
पिछली रात उसने मौर्य शेरटन में गुजारी थी और सारी रात वो लंगड़े की बाबत ही सोचता रहा था। उस लम्बी सोच-विचार के बाद वो इसी नतीजे पर पहुंचा था कि उसे उस शख्स से कम से कम एक बार रूबरू बात करनी चाहिये थी, कम से कम एक बार उसे ऐसी कोशिश जरूर करनी चाहिये थी कि घी निकालने के लिये उसे उंगलियां टेढ़ी न करनी पड़तीं। नतीजतन उस रोज सुबह आठ बजे ही वो कश्मीरी गेट की उस चाल के सामने पहुंचा हुआ था जिसके सात नम्बर पोर्शन में लंगड़े की मौजूदा रिहायश थी।
वो निर्विघ्न सात नम्बर के सामने पहुंच गया।
दरवाजा बन्द था।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह! — वो होंठों में बुदबुदाया — तू मेरा राखा सभनी थांही।
उसने हौले से दरवाजे पर दस्तक दी।
“खुला है।” — भीतर से आवाज आयी।
उसने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर कदम रखा।
वो एक कुर्सी पर पसरा पड़ा उस रोज का अखबार पढ़ रहा था। उसने अखबार पर से सिर उठा कर विमल की तरफ देखा।
“नमस्ते, उस्ताद जी।” — विमल मधुर स्वर में बोला।
वो सकपकाया। उसने सन्दिग्ध भाव से विमल की तरफ देखा।
“दाढ़ी मूंछ रख ली! लंगड़ी चाल पकड़ ली! दो साल बाद कब्र में से मुर्दे की तरह उठके खड़े हो गये!”
“कौन हो तुम?” — वो डपट कर बोला।
“शक्ल क्या बदली, अक्ल भी बदल गयी! अपना अम्बरसर का खास जोड़ीदार याद न रहा!”
उसके नेत्र सिकुड़े।
“मेरी निगाह में थोड़ा नुक्स है।” — फिर वो बोला — “जरा करीब आओ।”
मुस्कराता हुआ विमल उसके करीब पंहुचा।
“चश्मा उतारो।”
विमल ने चश्मा उतार कर कोट की जेब में रख लिया।
तत्काल उसके चेहरे के भाव बदले।
“तुम!”
“यानी कि पहचान ही लिया आखिरकार अम्बरसर के सेठ हवेली राम के ड्राईवर रमेश कुमार शर्मा को! वैसे पाप तो विमल को याद करके भी कांपते होंगे!”
उसके हाथ से अखबार छूट कर नीचे जा गिरा, वो कुछ क्षण बड़े विचलित भाव से विमल को देखता रहा, फिर आखिरकार सम्भला।
“मेरा नाम काशीनाथ है।” — वो अपने स्वर को भरसक सन्तुलित करता हुआ बोला — “तुमने मेरे से मिलना है?”
“नहीं।” — विमल बोला।
“तो?”
“मैंने मायाराम बावा नाम के उस दगाबाज यार से मिलाना है जो अमृतसर के भारत बैंक की डकैती में मेरा जोड़ीदार था, जिसने डकैती के बाद डकैती का पैंसठ लाख रुपया सारे का सारा खुद हड़प जाने की खातिर कर्मचन्द और लाभसिंह मटर पनीर जैसे अपने वफादार दोस्तों को वैन के नीचे कुचल कर मार डाला था, जो मुझे भी मार डालना चाहता था लेकिन मेरी तकदीर अच्छी थी कि कामयाब नहीं हो सका था, जो आखिरी बार मुझे चण्डीगढ़ में नीलम के फ्लैट पर उसके पलंग पर सोया पड़ा मिला था।”
“और जिसकी हड्डियां तोड़ कर तूने जिसे शहर से बाहर एक खाली मैदान में डाल दिया था, ये लेबल लगा कर कि मैं मायाराम बाबा अमृतसर की बैंक डकैती का इश्तिहारी मुजरिम था, मैंने खासा के पास लाभसिंह और कर्मचन्द की वैन के पहियों के नीचे कुचल कर हत्या की थी और जिसको भी मैं पड़ा मिलूं, वो मुझे पुलिस स्टेशन पंहुचा दे।”
“मुझे तुम्हारे पुलिस स्टेशन पहुंचाये जाने की गारन्टी थी। कैसे बच गये?”
“तू यहां कैसे पहुंच गया?”
“जादू के जोर से तो नहीं पहुंचा!”
“कैसे पहुंचा? नीलम ने तो नहीं बताया हो सकता। एक तो उसे खबर ही नहीं मेरे ठीये ठिकाने की, दूसरे मौजूदा हालात में मजाल नहीं हो सकती उसकी मेरी बाबत तेरे से कोई बात करने की।”
“नहीं हुई उसकी मजाल। उसे तो खबर भी नहीं कि मैं दिल्ली में हूं।”
“क्यों है दिल्ली में? कैसे पहुंच गया?”
“मेरी मौजूदा सूरत वो तो नहीं जो तुमने अमृतसर में देखी थी। तुमने मुझे कैसे पहचाना?”
उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कराहट आयी।
“तेरा इशारा” — वो बोला — “अपनी प्लास्टिक सर्जरी की तरफ है? अपने नये चेहरे की तरफ है?”
“ये भी जानते हो?”
वो अपने स्थान से उठा और बिना बैसाखियों के लेकिन लंगड़ा कर चलता पिछले कमरे में पंहुचा। जब लौटा तो उसके हाथ में तीन चार इश्तिहार थे।
“ये तेरे वो इश्तिहार हैं” — वो बोला — “जो मुम्बई में ‘कम्पनी’ के ऊंचे ओहदेदारों ने वक्त वक्त पर मुम्बई के तमाम अन्डरवर्ल्ड में बंटवाये थे। ये तेरी सरदार वाली असली सूरत है जो तू इलाहाबाद में जेल से फरार हुआ था तो अखबारों में छपी थी। ये तेरी तब की सूरत है जब कि मुझे अमृतसर में मिला था और जब कि तू इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल के नाम से मशहूर भी हो चुका था। ये तेरी फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ वाली सूरत है जब कि तू अपने आपको बड़ोदा का पीएन घड़ीवाला बताता था। और ये तेरे नये चेहरे की कम्पनी के आखिरी बिग व्यास शंकर गजरे की जारी की तसवीर है।”
“हूं।”
“बहुत तरक्की की सरदार तूने। कहां से कहां पहुंच गया! खूबियां तो बहुत थीं तेरे में जो कि अफसोस है कि सब की सब मुझे वक्त रहते दिखाई न दीं वरना मैं लाभसिंह और कर्मचन्द से पहले तुझे मारता — क्या मुश्किल काम था! वैन में मेरी बगल में तो बैठा हुआ था तू! ऊपर से तब तक मेरे इरादों से वाकिफ भी नहीं था — या तुझे अपना दुश्मन बनाने की जगह दोस्त बना के रखता।”
“फिर माल में हिस्सा बंटाना पड़ जाता।”
“पड़ ही जाता तो अच्छा होता। फिर कम से कम तू मेरे हाथ पांव तो न तोड़ता! फिर कम से कम आधा हिस्सा तो पल्ले पड़ता!”
“कहां गया सारा माल? वो तो तुम्हारे कब्जे में था!”
“पता नहीं कहां गया! वो एक लम्बी कहानी है। बहरहाल मेरे हाथ न लगा।”
“मेरे पीछे कब से पड़े हो?”
“जब से बैसाखियों के सहारे चलने फिरने के काबिल हुआ हूं। समझ ले कि कोई दस महीनों से। पिछले दस महीनों में अपनी इन्हीं कमजोर, लाचार टांगों के सहारे भटक कर बड़ी मेहनत से, बड़ी लगन से मैंने अमृतसर वाली वारदात से लेकर आज तक की तेरी केस हिस्ट्री ट्रेस की है। बड़े सब्र से तिनका तिनका जोड़ कर मैंने जाना कि कैसे एक मामूली फरार अपराधी इतनी बड़ी ताकत बन गया कि अन्डरवर्ल्ड में उसके नाम का डंका बजने लगा। सोहल सोहल सोहल होने लगा।”
“नीलम तक कैसे पहुंच गये?”
“वैसे ही जैसे डोर को थामे थामे पतंग तक पहुंचा जाता है।”
“कैसे पहुंच गये?”
“तू कैसे पहुंच गया था? कभी तू भी तो मेरी टोह में लगा नीलम तक पहुंचा था! जब कि तू उसे जानता तक नहीं था, उसके वजूद से भी वाकिफ नहीं था! जो काम तू कर सकता था वो क्या कोई दूसरा नहीं कर सकता था? एक तू ही सूरमा नहीं है इस दुनिया में।”
“मेरे पीछे पड़ने की वजह?”
“सरदारा, ऐसा भोला बन के न दिखा। तुझे सब मालूम है। न मालूम होता तो तू दिल्ली में न होता। तू मेरे सामने मौजूद न होता।”
“हूं।”
“मेरी औरत छीन के ले गया। मेरे को उम्र भर के लिये अपाहिज बना गया और पूछता है कि मैं क्यों पीछे पड़ा हूं!”
“बदला लेना चाहते हो?”
वो खामोश रहा।
“उस्ताद जी, तुम्हारे साथ जो बीती, वो खुद तुम्हारी करतूतों की वजह से बीती। तुम्हारे लालच ने तुम्हें दगाबाज न बना दिया होता तो तुम्हारी बुरी गत न बनी होती।”
“मैंने बुरा किया, गलत किया, उसकी सजा भी तो पायी!”
“कम पायी। चण्डीगढ़ में नीलम ने मेरे हाथ न बान्ध दिये होते तो आज तुम्हें जहन्नुमरसीद हुए दो साल हो चुके होते।”
“वो बीती बातें हैं जो वक्त के साथ गयीं।”
“क्यों वक्त के साथ गयीं? मैं अपना अधूरा काम आज पूरा कर सकता हूं।”
“अब नहीं कर सकता।”
“किस गलतफहमी से मुब्तला हो, उस्ताद जी? मैं तुम्हें मच्छर की तरह मसल सकता हूं।”
“कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन तू ऐसा करेगा नहीं। करेगा तो पछतायेगा।”
“पछताऊँगा?”
“हां।”
“ऐसा क्या हो जायेगा?”
“हो जायेगा कुछ।”
“क्या?”
“ताजिन्दगी नीलम की सूरत नहीं देख पायेगा।”
“क्या!”
“ताजिन्दगी उसके करीब नहीं फटक पायेगा।”
“क्या बकते हो?”
“एक विधवा औरत के पीछे पड़ेगा तो इतने जूते खायेगा कि यूं ही तेरे प्राण निकल जायेंगे।”
“विधवा औरत! कौन विधवा औरत?”
“नीलम! जो कि मेरी ब्याहता बीवी है।”
“तेरी!” — विमल भौंचक्का-सा बोला — “तेरी ब्याहता बीवी है?”
“हां।”
“कमीने!” — विमल ने उसे गिरहबान से पकड़ कर जोर से झिंझोड़ा — “वो मेरी बीवी है। माता भगवती के दरबार में मैंने विधिवत् उससे शादी की है। वो मेरे बच्चे की मां है।”
“तेरा बेटा हरामी है। नाजायज औलाद है। तेरी शादी गैरकानूनी है। नीलम को तेरे से शादी करके का कोई अख्तियार नहीं था। एक पति के होते कोई हिन्दोस्तानी औरत दूसरा पति नहीं कर सकती।”
“जुबान खींच लूंगा, कमीने।”
“जुबान क्या, प्राण भी खींच सकता है। तूने मुझे मारा तो भी नीलम तेरी बीवी नहीं, मेरी विधवा कहलायेगी। मेरी मौत भी इस हकीकत को नहीं झुठला सकेगी कि मैं नीलम का पति हूं।”
“तू बकता है।”
“गिरहबान छोड़।”
“तू झूठ बोलता है।”
“ठीक है, मैं बकता हूं। झूठ बोलता हूं। लेकिन नीलम तो तेरे से झूठ नहीं बोलेगी! तू यहां से जा और जा के नीलम से सवाल कर। अगर वो इस बात से मुकर जाये कि वो मायाराम की ब्याहता बीवी है तो आ के मेरे मुंह पर थूक देना।”
विमल के मुंह से बोल न फूटा।
“यूं जबानी जमाखर्च से कुछ नहीं होता।” — फिर वो बोला।
“जुबानी जमाखर्च किसलिये? मेरे पास सबूत है।”
“सबूत है! किस बात का सबूत है?”
“अपनी और नीलम की शादी का सबूत है और किस बात का सबूत है!”
“दिखा सकता है?”
“हां।”
“अभी?”
“हां।”
“दिखा।”
“कैसे दिखाऊं? तू गिरहबान छोड़ तब न!”
विमल ने अपने हाथ वापिस खींच लिये।
अपनी कमजोर टांगों पर फुदकता-सा मायाराम पिछले कमरे में गया और उलटे पांव वापिस लौटा।
“ये तसवीर देख।” — उसने पांच गुणा सात इंच की एक रंगीन तसवीर जबरन विमल को थमायी — “और अपना कलेजा खा।”
बड़े आन्दोलित भाव से विमल ने तसवीर पर निगाह डाली।
तसवीर इतनी पुरानी थी कि नीलम उसमें साफ-साफ एक नाबालिग बच्ची लग रही थी जबकि मायाराम तब साफ चालीस के पेटे में मालूम हो रहा था। तसवीर में दोनों एक दूसरे को वरमाला की तरह हार पहना रहे थे। तसवीर की पृष्ठभूमि में कोई प्राचीन शिवालय दिखाई दे रहा था।
विमल ने तसवीर पर से सिर उठाया तो मायाराम ने उसी साइज की एक और तसवीर उसकी तरफ बढ़ाई।
“अब इसे देख।” — वो क्रूर स्वर में बोला।
विमल ने देखा उस तसवीर में नीलम मायाराम के साथ अग्नि के गिर्द फेरे ले रही थी।
उसका दिल जोर से लरजा, उसका कलेजा मुंह को आने लगा।
“अभी ये भी देख।”
मायाराम ने जो तसवीर तब उसकी तरफ बढ़ायी, उसमें हार पहने नीलम और मायाराम अगल बगल खड़े थे और कैमरे की तरफ देख कर मुस्करा रहे थे।
“आया मजा?” — मायाराम व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला।
दाता! तेरी कुदरति तू है जाणहि अऊर न दूजा जाणै।
उसने कातर भाव से मायाराम की तरफ देखा और फिर तसवीरें वापिस उसकी तरफ बढ़ाई।
“साथ ले जा।” — मायाराम यूं बोला जैसे उसकी खिल्ली उड़ा रहा हो — “तसल्ली से देखना। मेरे पास और हैं।”
“यहीं?” — विमल बोला।
“हां, यहीं। लेकिन उनको कब्जाने का कोई फायदा नहीं होगा। नैगेटिव कहीं और हैं, जहां कि तू सात जन्म नहीं पहुंच सकता।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं।”
“बना ले। कौन सा कामयाब हो जायेगा!”
“ये शादी की तसवीरें हैं?”
“तुझे क्या दिखाई देता है?”
“जरूर कोई धोखा है।”
“क्या धोखा है? लड़की नीलम नहीं है या मैं मैं नहीं हूं?”
“एक नाबालिग लड़की से शादी करना...”
“पहाड़ में कोई गुनाह नहीं। वहां शादियां ऐसे ही होती हैं और उन पर धर्म और समाज की पक्की मोहर होती है।”
“शादी का कोई गवाह ...”
“वो पंडित है न जिसने ये शादी कराई थी। ये” — मायाराम ने उसे एक कागज थमाया — “उस पंडित के अपने हस्तलेख में जारी किये गये उस शादी के सर्टिफिकेट की फोटोकापी है जिस पर शादी की तारीख, लगन महूर्त वगैरह सब दर्ज है। इसे भी यादगार के तौर पर पास रख ले क्योंकि इसकी ओरीजिनल नैगेटिवों के साथ ही महफूज है।”
“तो ये जोर है तेरा नीलम पर?”
“जोरू पर जोर नहीं आजमाया जाता, कमलया, हक जताया जाता है।”
“अमृतसर में तेरी करतूत के बाद तेरी तलाश में मैं जालंधर गया था और लाभसिंह की बीवी से मिला था। वो तुझे बाखूबी जानती थी। वो नीलम को भी जानती थी।”
“क्या बड़ी बात है? आखिर लाभसिंह मेरा जिगरी था।”
“जिगरी था तो ऐसी बुरी मौत मारा। गैर होता तो पता नहीं क्या करता!”
“मतलब की बात कर।”
“लाभसिंह की बीवी कहती थी कि तब से कोई तीन साल पहले तू नीलम को कहीं से भगाकर लाया था और उससे तेरा यही रिश्ता था। तू उसे ब्याह कर लाया होता तो लाभसिंह की बीवी को इस बात की खबर होती। फिर वो ये हरगिज न कहती कि तू उसे भगा कर लाया था।”
“क्या कहना चाहता है?”
“यही कि ये शादी वाली बात तूने अब गढ़ ली है।”
“यानी कि ये तसवीरें फर्जी हैं? ये सर्टिफिकेट झूठा है?”
“हां।”
“तेरे कहने से क्या होता है! जब तक तसदीक करने के लिये नीलम मौजूद है, तब तक तू हकीकत को नहीं झुठला सकता। तू क्या, कोई भी हकीकत को नहीं झुठला सकता।”
“तेरे जैसा फरेबी आदमी झूठ को सच और सफेद को स्याह करके दिखा सकता है।”
मायाराम उपेक्षापूर्ण भाव से हंसा।
“जालंधर से मैं सीधा चण्डीगढ़ पहुंचा था जहां कि मैं पहली बार नीलम से मिला था। बकौल उसके, तब उसने महीनों से तेरी सूरत नहीं देखी थी।”
“तो क्या हुआ? रिजक कमाने के लिये मर्द मानस बीवियों से दूर हो ही जाते हैं।”
“उसने अपनी जुबानी कबूल किया था कि तू उसे भगा कर लाया था। हीरोइन बनवा देने का झांसा देकर भगा कर लाया था। कहती थी कि तेरा उससे मन भर गया था इसलिये तूने उसे छोड़ दिया था।”
“मैं तुझे उसके घर पर उसके बैडरूम में उसके पलंग पर सोया पड़ा मिला था। क्या भूल गया? अगर ये बात सही होती तो क्या वो मुझे अपने करीब भी फटकने देती?”
“तेरी दगाबाजी की वजह से उसे पेट भरने के लिये कालगर्ल का धन्धा अख्तियार करना पड़ा था। वो तेरे से इस हद तक खफा थी कि कहती थी कि अगर तू लौट आता तो वो तेरी आंखें निकाल लेती।”
“तो निकाली क्यों नहीं? आया तो था मैं लौट के!”
“मेरी वजह से। मैंने उससे दरख्वास्त की थी कि अगर मायाराम लौट आये तो वो चुपचाप मुझे खबर कर दे। मेरी वजह से उसने तुझे अपने घर में शरण दी थी वरना वो तुझे अपने करीब भी न फटकने देती।”
“कैसे न फटकने देती! दो हाथ जमाता, सीधा हो जाती। आखिर मैं उसका मर्द हूं।”
“उसने ऐसा कुछ नहीं कहा था। कभी कुछ नहीं कहा था।”
“कैसे कहती! वो कबूल करती कि वो पहले से शादीशुदा थी तो क्या तू उसे अपनाता?”
“हां, अपनाता। जब मुझे एक कालगर्ल को अपनाने से गुरेज नहीं था तो एक छोड़ी हुई औरत को अपनाने से गुरेज भला क्यों होता?”
“मर्द के औरत से एक साल दूर रहने से औरत छोड़ी हुई नहीं हो जाती।”
“लेकिन ...”
“सुन, मेरे वीर, सुन। अभी तूने कहा था कि चण्डीगढ़ में नीलम ने तेरे हाथ न बान्ध दिये होते तो आज मुझे मर खप गये हुए दो साल हो चुके होते। क्यों उसने मेरी जानबख्शी कराई तेरे से? क्या मीठा था उसे मेरा? अगर मैं उसे भगा कर लाया था, मैंने उसे खराब किया था और फिर दुनिया भर के धक्के खाने के लिये मंझधार में छोड़ दिया था तो क्या फर्क पड़ता था उसे इस बात से कि तू मुझे जान से मारता या जिन्दा छोड़ता था?”
“क्या फर्क पड़ता था?”
“वही फर्क पड़ता था जिसे तू समझना नहीं चाहता। वो पहाड़ की अनपढ़ औरत है जिसकी निगाह में पति कैसा भी हो, उसका दर्जा परमेश्वर का होता है। वो अपनी जानकारी में अपने पति परमेश्वर को मौत के मुंह में जाने देती तो वो जानती थी कि वो घोर नरक की भागी बनती। इसीलिये उसने तेरे हाथ बान्धे।”
“ताकि उसका पति परमेश्वर, यानी कि तू, जिस हाल में भी रहता, सलामत रहता?”
“बट आफकोर्स।” — वो बड़ी शान से बोला।
“सिर्फ तेरे कह देने से वो तेरी बीवी हो जायेगी?”
“सिर्फ मेरे कह देने से क्यों? वो भी तो बैठी है यही बात कहने वाली! वो मुकर के दिखाये न?”
“बीवी को ब्लैकमेल करता है?”
“ओहो, तू तो सब जाने समझे बैठा है?”
“ब्लैकमेल करता है?”
“कैसी ब्लैकमेल?”
“जैसी तू कर रहा है।”
“गुरमुखो, कोई औरत अपने मर्द की कोई माली इमदाद करे तो ये ब्लैकमेल क्योंकर हो गयी?”
“माली इमदाद!”
“और क्या?”
“तू ...तू चाहता क्या है?”
“तेरे से क्या चाहना है मैंने? मैं जो चाहता हूं, अपनी बीवी से चाहता हूं। अगर उसके पास चार पैसे हैं तो दो अपने खाविन्द को देने में उसे भला क्या एतराज होगा? चार के चार दे देने में भी क्या एतराज होगा?”
“तेरा मिशन तो फिर पैसा हथियाना ही हुआ न?”
“नहीं। नहीं हुआ।”
“तो?”
“मेरा मिशन बदला लेना भी है।”
“किस से?”
“ये भी कोई पूछने की बात है!”
“किस से?”
“नीलम से। जिसने मेरे साथ दगाबाजी की। तेरे से। जिस ने मुझे उम्र भर के लिये अपाहिज बना दिया।
“क्या बदला लेगा?”
“वही जो ले रहा हूं और लेता रहूंगा। नीलम की जान सूली पर टंगी है न! तू भी तड़प रहा है न! समझ ले मेरे कलेजे को ठंडक पड़ रही है।”
“ऐसा कोई तरीका नहीं जिसने तू नीलम का पीछा छोड़ सके? मेरा पीछा छोड़ सके?”
“एक तरीका है।”
“क्या?”
“जैसे दो साल पहले चण्डीगढ़ में तूने मेरी हड्डियां तोड़ीं, वैसे मुझे भी अपनी हड्डियां तोड़ने का मौका दे। मुझे भी मौका दे कि मैं तेरी हड्डियां तोड़ कर तेरे छिन्न-भिन्न शरीर को किसी गटर में, किसी कूड़े के ढेर पर, किसी वीरान सुनसान जगह पर फेंक सकूं और उस पर ये तहरीर नत्थी कर सकूं कि लोगों, ये है सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल जो कि इश्तिहारी मुजरिम है। ये है महाबली विमल जिसकी गिरफ्तारी पर तीन लाख रुपये का इनाम है। ये है कम्पनी का सर्वनाश करने वाला सूरमा, सात राज्यों की पुलिस को जिसकी तलाश है। ये है रण्डी का यार ...”
“ठहर जा, साले।”
दांत किटकिटाते हुए विमल ने उसकी गर्दन दबोच ली।
मायाराम ने कोई विरोध न किया। उलटे उसने अपने हाथ पांव ढीले छोड़ दिये। नतीजतन विमल की पकड़ अपने आप ही उसकी गर्दन से ढीली पड़ गयी।
“तू मुझे नहीं मार सकता।” — मायाराम मुस्कराता हुआ बोला — “कितना बड़ा गैंगस्टर बन गया है तू! सुना है तमाम अन्डरवर्ल्ड तेरे नाम से थर थर कांपता है। बड़े से बड़ा दादा तेरे खयाल से पनाह मांगता फिरता है। लेकिन तू मुझे नहीं मार सकता। तू मुझे मारेगा तो नीलम हमेशा के लिये तेरे हाथ से निकल जायेगी।”
“क्या!”
“मैं मर गया तो मेरे गांव से पचास आदमी आयेंगे, सौ आदमी आयेंगे और मायाराम की विधवा को अपने साथ ले जायेंगे क्योंकि ऐसा ही मेरे गांव का, मेरी बिरादरी का दस्तूर है। नतीजतन फिर तुझे नीलम की कभी सूरत भी देखना नसीब नहीं होगा।”
“वो चली जायेगी?”
“घसीट के ले जायी जायेगी। कोई रोकने वाला नहीं होगा। गांव में सिर मूंड कर सफेद कफन पहना कर रखा जायेगा मायाराम की विधवा को।”
“बच्चे का क्या होगा?” — विमल के मुंह से अपने आप ही निकल गया।
“जो होगा, बुरा होगा।”
विमल खामोश रहा।
“मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड में लोग तुझे पीर पैगम्बरों जैसी सलाहियात वाला आदमी बताते थे, काल पर फतह पाया हुआ आदमी बताते थे, चलता फिरता प्रेत बताते थे, वन मैन आर्मी ...आर्मी बताते थे क्योंकि तू खालसा है जो कि अकेला ही सवा लाख होता है। मेरी दिली ख्वाहिश है कि तुझे इतने ऊंचे आसन पर बैठा कर तेरी आरती उतारने वाले लोग तेरी इस वक्त की सूरत देखें लेकिन अफसोस कि ऐसा हो नहीं सकता।”
“मैं उतना बड़ा गैंगस्टर नहीं हूं जितना बड़ा होने की किसी ने तुम्हारे सामने मेरी हवा बनायी है। होता तो मेरे सामने तुम थर थर कांप रहे होते।”
“अब तो मुझे भी यही लगता है। कितना खौफ था मुझे तेरा कि अगर तुझे मेरे मौजूदा शगल की खबर लग गयी तो तू मुझे कच्चा चबा जायेगा। अब कैसा भीगी बिल्ली बना मेरे सामने खड़ा है!” — मायाराम ने एक तिरस्कारपूर्ण निगाह उस पर डाली — “कितना गुमान है तुझे अपने इन दो हाथों पर! कैसे गोली की तरह लपकते हैं दूसरे की गर्दन दबोचने के लिये! लेकिन तेरे ये दो हाथ...”
“मेरे हजार हाथ हैं।”
“मुझे तो नहीं दिखाई देते!”
“ये तुम्हारी बद्किस्मती है।”
“सब किताबी बातें हैं, खयाली बातें हैं। तेरे दो हाथों की ताकत तो देख ली न मैंने! हजार की भी देख लूंगा।”
“शायद न देख पाओ।”
“देख लूंगा।”
“जिस प्रभु अपुना किरपा करे, सो सेवक कहु किस ते डरे।”
“लफ्फाजी छोड़ और मेरी बात सुन।”
“क्या सुनूं?”
“जैसे चुपचाप दिल्ली पहुंचा है, वैसे ही वापिस लौट जा वरना तेरी दिल्ली में मौजूदगी की भी नीलम को सजा मिलेगी।”
“ओह, नो।”
“अब और सुन।”
“और भी बोलो।”
“तेरी तरह मैं भी इश्तिहारी मुजरिम हूं। तुझे कभी सजा नहीं हुई लेकिन मैं पांच बार जेल की हवा खा चुका हूं। मैं इस हकीकत से भी बेखबर नहीं कि पंजाब पुलिस को मालूम है कि भारत बैंक की डकैती का सरगना मैं था और लाभसिंह और कर्मचन्द का कत्ल मैंने किया था। डबल मर्डर और डकैती का अपराधी मैं अगर पकड़ा गया तो यकीनन फांसी के फंदे पर झूलूंगा। दो साल से पुलिस को मेरी भनक नहीं लगी, अब जब मामला ठण्डा पड़ चुका है तो भनक लगने की उम्मीद भी नहीं। लेकिन बद्किस्मती से तू जान गया है कि ये लंगड़ा अपाहिज काशीनाथ असल में मायाराम बावा है।”
“क्या कहना चाहते हो?”
“समझ। मेरी जान तेरे हाथों गयी या कानून के हाथों गयी, नीलम हर हाल में मेरी विधवा ही कहलायेगी। कहने का मतलब ये है कि मेरी गिरफ्तारी से तुझे कुछ हासिल नहीं होने वाला।”
“उस्ताद जी, उस मामले में हम दोनों एक ही किश्ती के सवार हैं। अगर मैं तुम्हें गिरफ्तार करा सकता हूं तो तुम भी तो मुझे गिरफ्तार करा सकते हो।”
“तुझे गिरफ्तार कराने से मेरा कोई मतलब हल नहीं होने वाला।”
“मेरी गिरफ्तारी पर तीन लाख रुपये का ईनाम है। ऐसा कोई ईनाम तुम्हारी गिरफ्तारी पर नहीं है।”
“तुझे क्या पता नहीं है?”
“होगा तो कोई छोटा मोटा इनाम ही होगा जो किस गिनती में होगा!”
“बहुत ऊंचा उड़ रहा है!”
“बाज ऊंचा ही उड़ता है। अब तुम कहो कि बाज और बटेर की एक ही औकात होती है तो इसे मैं तुम्हारी कमअक्ली ही मानूंगा।”
“बटेर कौन?”
“अच्छा! ये मैं बताऊं?”
“बात ये हो रहे थी कि तुझे गिरफ्तार कराने से मेरा कोई मतलब हल नहीं होने वाला।”
“जिसके जवाब में मैंने कहा था कि मेरी गिरफ्तारी पर तीन लाख...”
“तीन लाख चिड़िया का चुग्गा है। मैं चिड़िया के चुग्गे का तलबगार नहीं। रुपये पैसे के मामले में मुझे दायें-बायें हाथ पसारने की जरूरत नहीं क्योंकि मेरी तो बीवी ही बहुत दौलतमन्द है।” — उसने कुटिल भाव से विमल की तरफ देखा — “नहीं?”
विमल खून का घूंट पी के रह गया।
“अब कोई जवाब तो दे!”
“पुलिस को तुम्हारी खबर करने का मेरा कोई इरादा नहीं। मैं नीलम को उसके भाग्य के हवाले छोड़कर वापिस जा रहा हूं।”
“यानी कि पीठ दिखा रहा है?”
“तुम्हारी सलाह पर अमल कर रहा हूं। शाम तक मैं दिल्ली से चला जाऊंगा।”
“कैसा गुरु का खालसा है तू” — मायाराम तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला — “जो मैदान छोड़ के भाग रहा है! कहां गयी तेरे गुरुओं की सीख कि भले ही पुर्जा-पुर्जा कट्ट मरे, भले ही सिर की खोपड़ी उतरे, भले ही जिस्म चर्खी चढ़े या आरों से चिरे, कभी न छोड़े खेत सूरा सोही....”
“मैं सूरा नहीं” — विमल होठों में बुदबुदाया — “मैं मामूली इंसान हूं।”
“अभी तो हजार हाथ की धौंस दे रहा था! खुद को बाज और और मुझे बटेर बता रहा था!”
“शाम तक मैं चला जाऊंगा।”
“वदिया।”
कश्मीरी गेट से एक रिक्शा पर सवार होकर विमल तिराहा बैरम खान पहुंचा।
गनीमत थी कि मुबारक अली तब तक अभी घर था, टैक्सी लेकर निकल नहीं गया हुआ था।
मुबारक अली उसे एक करीबी टी-स्टाल पर ले आया जो कि उस घड़ी खाली पड़ा था।
“कोई खास बात है, बाप?” — मुबारक अली उत्सुक भाव से बोला।
“खास ही बात है।” — विमल बड़ी संजीदगी से बोला — “मियां, अपना कोई पढ़ा-लिखा समझदार आदमी प्लेन से फौरन कुल्लु जाने के लिये तैयार कर। कुल्लु के करीब ही एक गांव है जिसके एक पुजारी को उसने वहां तलाश करना है। ये कागज पकड़” — उसने पुजारी के सर्टिफिकेट की फोटोकापी उसे थमायी — “इस पर गांव का नाम और पुजारी का नाम पता दर्ज है। ये एक शादी का सर्टिफिकेट है। तेरे आदमी ने उस पुजारी को ढूंढ कर उससे ये पूछना है कि क्या वाकेई उसने ये सर्टीफिकेट जारी किया था! किया था तो क्यों किया था?”
“क्यों किया था?” — मुबारक अली उलझनपूर्ण भाव में बोला।
“हां। गांवों में शादियां कराने वाले पुजारी मैंने तो कभी सुना नहीं कि ऐसे सार्टीफिकेट जारी करते हैं! करते हैं तो इस बात की तसदीक करनी है कि ये सर्टिफिकेट जेनुइन है।”
“क्या है?”
“असली है।”
“ओह! असली है। यानी कि तुझे इसके नकली होने का अन्देशा है?”
“हां।”
“और?”
“और पुजारी से ये भी पूछना है कि क्या ऐसे सर्टिफिकेट शादी कराने के बाद वो आम जारी करता है, करता है तो क्या उसकी कोई कापी रखता है या किसी रजिस्टर वगैरह में उसकी कोई एन्ट्री करके रखता है! ये शादी कोई पांच या छ: साल पहले हुई थी। ये भी पता करना है कि क्या पुजारी को उस शादी की याद है! याद है तो क्या वो शादी लड़की की रजामन्दगी से हुई थी! कन्यादान किसने किया था! शादी का कोई और गवाह था या नहीं, वगैरह! समझ गया न सब कुछ?”
“बरोबर समझ गया, बाप। अपना हाशमी सब फिट कर लेगा।”
“हाशमी?”
“वो लड़का जो पिपलोनिया की मौत से पहले उसकी निगरानी पर तैनात था।”
“वो खूबसूरत, संजीदासूरत, बहुत जहीन लगने वाला, चश्मे वाला नौजवान!”
“वही। मैं उसे अभी रवाना करता हूं। लेकिन, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, माजरा क्या है, बाप?”
“बताने का अभी वक्त नहीं। मैंने बहुत जगह जाना है, बहुत कुछ करना है।”
“अकेले?”
“फिलहाल हां। मैं बाद में तेरे से मिलूंगा। अभी जाने दे।”
मुबारक अली ने सहमति में सिर हिलाया।
विमल जनपथ पहुंचा।
वहां किदवई भवन में एमटीएनएल का वो ट्रंक एक्सचेंज था जिसमें सुमन आपरेटर की ड्यूटी करती थी।
“सुमन वर्मा से मिलना है।” — रिसैप्शन पर पहुंच कर वो वहां ड्यूटी पर तैनात क्लर्क से बोला।
“कौन सुमन वर्मा?” — क्लर्क आदतन रूखे स्वर में बोला।
“जो यहां ट्रंक आपरेटर है।”
“इस वक्त ड्यूटी पर होगी?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“तो फिर क्यों यहां ...”
विमल ने उसे घूर कर देखा। क्लर्क उससे निगाह मिलाने की ताब न ला सका। तत्काल वो एक रजिस्टर के पन्ने पलटने लगा।
“वो ड्यूटी पर है।” — फिर वो रजिस्टर बन्द करता बोला।
“गुड!”
“उधर बैठ जाइये। बुलाते हैं।”
“बुलाते हैं?”
“भीतर जाना मना है। वो ही इधर आकर आपसे मिलेगी।”
“ओह!”
बैठने की जगह विमल परे जा कर खड़ा हो गया और प्रतीक्षा करने लगा।
दाता! जीऊ जन्त सभि सरण तुम्हारी, सरब चिंत तुध पासे।
सुमन वहां पहुंची। उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से रिसैप्शन क्लर्क की तरफ देखा तो क्लर्क ने विमल की तरफ संकेत कर दिया। सुमन ने संकेत का अनुसरण किया तो तत्काल उसके नेत्र फैले। वो लपक कर विमल के करीब पहुंची।
“भाई साहब!” — उसके मुंह से निकला — “आप!”
“नमस्ते।” — विमल मुस्कराता हुआ बोला — “कैसी है?”
“ठीक। लेकिन आप! यहां! एकाएक!”
“हां।”
“घर होकर आये?”
“नहीं।”
“यानी कि अभी दीदी से नहीं मिले?”
“नहीं।”
“कमाल है!”
“सुमन, इस वक्त मुझे तेरे से और सिर्फ तेरे से काम है।”
सुमन हकबकाई, उसके चेहरे पर असमंजस के भाव आये।
“क्या काम है?” — फिर वो सस्पेंसभरे स्वर में बोली।
“कुछ कहना है, कुछ सुनना है। कुछ बताना है, कुछ पूछना है। मसलन ...”
पैदल चलता विमल कस्तूरबा गांधी मार्ग पहुंचा।
वहां की एक अट्ठारह मंजिली इमारत की पांचवी मंजिल पर गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन नामक एक्सपोर्ट हाउस का आफिस था, तुकाराम की चिट्ठी के जवाब में मुम्बई रवाना होने तक जहां कि वो एकाउन्ट्स आफिसर की नौकरी करता और जहां कि वो अरविन्द कौल नामक कश्मीरी विस्थापित के तौर पर जाना जाता था। उसने आफिस में कदम रखा तो रिसैप्शनिस्ट ने उसका अभिवादन किया।
रिसैप्शन हॉल में ही गैलेक्सी का मैनेजर चान्दवानी और चीफ डिजाइनर आप्टे मौजूद थे जो कि हंस-हंस कर एक दूसरे से बतिया रहे थे।
“गुड मॉर्निंग, मिस्टर चान्दवानी।” — विमल उनके करीब पहुंच कर बोला — “गुड मॉर्निंग, मिस्टर आप्टे।”
दोनों खामोश हुए, दोनों की निगाह विमल की ओर उठी।
“कौल!” — चांदवानी के मुंह से निकला।
“कहां थे, भाई, अब तक?” — आप्टे बोला।
दोनों ने बड़ी गर्मजोशी से विमल से हाथ मिलाया।
“कहां थे?” — आप्टे ने फिर पूछा।
“घर गृहस्थी की जहमतों से जूझ रहा था, आप्टे साहब।” — विमल बोला।
“तुम्हारी बीवी बीमार थी न? बच्चा होने वाला था उसको?”
“वो तो हो भी चुका।” — चान्दवानी बोला — “बिग बॉस ने खुद बताया था।”
“अब कैसे हैं जच्चा बच्चा?” — आप्टे बोला।
“ठीक।” — विमल बोला।
“एकदम स्वस्थ?”
“जी हां।”
“तो रुतबा बुलंद हो गया तुम्हारा! बाप बन गए!”
“जी हां। ऊपर वाले की दुआ से।”
“अब फिर चुपचाप न खिसक जाना। कम से कम मुंह मीठा करा के जाना।”
“कडुवा?” — चान्दवानी बोला।
“जरूर। आज ही।” — विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “बिग बॉस आ गये?”
“हां।” — चांदवानी बोला — “अपने आफिस में हैं।”
“मैं जरा मिल के आता हूं।”
दोनों ने सहमति से सिर हिलाया।
विमल गैलेक्सी के मालिक शिव शंकर शुक्ला के आफिस की ओर बढ़ा।
उसने हौले से बिग बॉस के आफिस का दरवाजा खोला और अदब से बोला — “मे आई कम इन, सर।”
शुक्ला ने सिर उठाया, विमल पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये।
“कौल!” — उसके मुंह से निकला।
“गुड मॉर्निंग, सर।”
“गुड मॉर्निंग, आओ।”
विमल उसकी टेबल के करीब पहुंचा।
“बैठो।”
“थैंक्यू, सर।”
विमल उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया।
शुक्ला कुछ क्षण अपलक से देखता रहा और फिर बोला — “उम्मीद नहीं थी कभी लौट कर आओगे।”
“क्यों, सर?” — विमल मुस्कराता हुआ बोला — “मैं क्या अब गैलेक्सी का मुलाजिम नहीं रहा?”
“वो तो तुम हो लेकिन… अब मैं क्या कहूं?”
“जो जी में आये कहिये, सर! तकल्लुफ कैसा? मुलाहजा कैसा?”
“कुछ दिन हुए” — शुक्ला धीमे स्वर में बोला — “मेरे पास मुंबई से भौमिक नाम के किसी आदमी का फोन आया था जिसने पूछा था कि क्या मेरे पास अरविन्द कौल नाम का कोई एकाउंटेंट मुलाजिम था? मैंने जवाब हां में दिया था।”
“मैं आपका शुक्रगुजार हूं। आपके उस जवाब ने मेरी जान बचाई थी।”
“कैसे?”
“वो एक लम्बी कहानी है।”
“बहरहाल हकीकतन तो ऐसा नहीं था! अब कहां हो तुम गैलेक्सी के मुलाजिम! तब भी कहां थे जब मैंने उस शख्स को हां में जवाब दिया था!”
“सर, मैं उसी बाबत आपसे बात करने आया था।”
“क्या बात?”
“मैं चाहता हूं कि आपके जेरेसाया मेरी मुलाजमत बरकरार रहे।”
“चाहे आफिस में तुम्हारे कभी कदम न पड़ें?”
“जी हां।”
उस अप्रत्याशित जवाब पर शुक्ला सकपकाया, फिर बोला — “ऐसा क्योंकर होगा?”
“आप चाहेंगे तो होगा, नहीं चाहेंगे तो नहीं होगा।”
“मैं क्यों चाहूंगा?”
विमल ने जवाब न दिया।
कुछ क्षण खामोशी रही।
शुक्ल ने बेचैनी से कई बार कुर्सी में पहलू बदला और फिर पहले से ज्यादा धीमे स्वर में बोला — “शिव नारायण पिपलोनिया मेरा जिगरी दोस्त था जो अपनी दर्दनाक मौत से पहले बाकायदा साइंड और विटनेस्ड वसीहत करके तुम्हें अपना वारिस करार दे कर गया था। तुम्हें, अरविन्द कौल नाम के उस शख्स को, जिसे पिछले साल मेरी कोठी पर हुई क्रिसमस पार्टी से पहले वो जानता तक नहीं था। पिछले साल अट्ठाइस दिसम्बर को हुई उसकी मौत के अगले रोज के अखबारों में छपी खबर से ही मुझे, और तमाम दुनिया को, पता चला कि वो ही ‘खबरदार शहरी’ के नाम से मशहूर वो शख्स था जिसने गुण्डे, बदमाशों, मुजरिमों की हस्ती मिटा देने के लिए जेहाद छेड़ा हुआ था, जो प्रेत की तरह रातों को शहर में विचरता था और सिंगल हैंिडड खतरनाक मवालियों, खूनियों और बलात्कारियों से टक्कर लेता था। आखिरकार मरा भी वो वन्दना नाम की एक लड़की को पांच गुंडों से बचाने की कोशिश में था जो कि सरेराह उसको अगवा करके ले गए थे। उसने एक नौजवान लड़की की जान और शील की रक्षा अपनी जान दे कर की थी। कौन सोच सकता था कि जुल्म और नाइंसाफी की टोह में रात-ब-रात अंधेरी, तारीक सड़कों पर विचरने वाला शख्स मेरा जिगरी दोस्त रिटायर्ड कॉलेज प्रोफेसर शिव नारायण पिपलोनिया हो सकता था। वो अकेला शख्स...”
“जो शख्स इंसाफ के लिए लड़ता है, वो कभी अकेला नहीं होता।” — विमल धीरे से बोला — “उसका ईश्वर उसके साथ होता है, उसकी वजह से जुल्म की शिकार होने से बाल बाल बचे सैकड़ों हजारों लोगों की दुआएं उसके साथ होती हैं। ऐसा इंसान खत्म भी हो जाता है तो उसके साथ उसकी परिकल्पना खत्म नहीं हो जाती। आदमी मर सकता है, खयाल नहीं मर सकता, मिशन नहीं मर सकता।”
“ऐसा ही कुछ उसकी मौत के अगले रोज अखबार में भी छपा था। मरने से पहले मेरा दोस्त मेरे सामने ये अभिलाषा जाहिर करके गया था कि उसका अंतिम संस्कार तुम्हारे हाथों हो, तुम उसे मुखाग्नि दो। तुमने उसकी ये अभिलाषा पूरी की थी और उसकी वसीयत के मुताबिक उसका वारिस बनना कबूल किया था। मैं नहीं जनता कि उसका तुम्हारी तरफ ऐसा खास झुकाव क्यों था? लेकिन वो दाना आदमी था, संजीदा आदमी था, कॉलेज प्रोफेसर था, उसने ऐसा कोई कदम उठाया था तो उसकी कोई माकूल वजह तो जरूर रही होगी! कोई तो खूबी उसने तुम्हारे में देखी ही होगी जो उसे किसी दूसरे शख्स में नहीं दिखाई देती थी! वो खूबी क्या है, मैं नहीं जानता। जानना भी नहीं चाहता। लेकिन इतना मैं बिना किसी के जनवाये भी जानता हूं कि तुम कोई मामूली आदमी नहीं हो। तुम्हारे में ऐसा कुछ है जो प्रत्यक्षतः किसी को दिखाई नहीं देता। तुम मेरे पास एकाउंटेंट की मामूली नौकरी करते थे। लेकिन मेरा दिल गवाही देता है कि तुम्हारी हस्ती एक मामूली अकाउंटेंट से कहीं ऊंची है, तुम्हारी औकात किसी की भी औकात से कहीं बड़ी है। तुम कहते हो कि तुम अरविन्द कौल नाम के एक कश्मीरी विस्थापित हो, अब मुझे इस बात पर यकीन नहीं लेकिन असल में तुम क्या हो मैं नहीं जानना चाहता। पहले जानना चाहता था, अब नहीं जानना चाहता।”
“पहले जानना चाहते थे?”
“हां। इसीलिए तुम्हारी बाबत मैंने सीबीआई के एन्टीटैरेरिस्ट स्क्वायड में पुलिस की डिप्टी कमिश्नर के बराबर का दर्जा रखने वाले अपने दोस्त योगेश पाण्डेय से भी बात की थी जिसकी सिफारिश पर कि मैंने तुम्हें, बिना तुम्हारे कोई क्रिडेन्शल्स देखे, अपने यहां मुलाजिम रखा था।”
“क्या जवाब मिला था?”
“कोई जवाब नहीं मिला था। लेकिन फिर मिला भी था।”
“क्या?”
“कि मैं तुम्हारी बाबत कोई सवाल न करूं। मैं ये सोच के खामोश रहूं और तुम्हारे प्रति सहयोग की भावना बनाये रखूं कि मैं जो कुछ कर रहा था, उसमें सर्वत्र का भला निहित था। दैट बाई एक्सटेंडिंग माई कोऑपरेशन टुवर्ड्स यू, आई वाज कन्ट्रीब्यूटिंग टू ए नोबल कॉज। वो नोबल कॉज क्या है जिसमें मेरी कन्ट्रीब्यूशन का कोई रोल है, मैं नहीं जानता। लेकिन मुझे अपने दोस्त पाण्डेय की बात पर यकीन है। मुझे अपने दोस्त पिपलोनिया की तुम्हारी बाबत अपनी अंतिम इच्छा पर ऐतबार है। मुझे मुकम्मल ऐतबार है कि वो काम अच्छा ही होगा जिसके होने में कि तुम निमित्त हो। इसीलिए मैं तुम्हारी असलियत भी नहीं जानना चाहता।”
“शुक्ला साहब, जो आपको दिखाई दे रहा है, मेरी असलियत उससे जुदा नहीं है।”
“है। बराबर है। तुम कोई आम आदमी नहीं हो। हो ही नहीं सकते हो। ये सृष्टि बनाने वाला प्राणिमात्र के लिए जब किसी सद्कार्य की जरूरत महसूस करता है तो जरूरी नहीं होता की वो खुद ही अवतरित हो। वो किसी को अपना प्रतिनिधि बना सकता है, किसी को अपनी पावर्स डेलीगेट कर सकता है। ऐसी ऑनर के लिए हो सकता है इस बार तुम्हें चुना गया हो।”
“मै अकिंचन...”
“ये भी माया है।”
“प्रभु की?”
“या तुम्हारी। या उसकी शह पर तुम्हारी।”
“जो तिसु भावे सोई करसी, हुक्म न करना जाई।”
शुक्ला ने एक क्षण उलझनपूर्ण भाव से विमल की तरफ देखा और फिर बोला — “बहरहाल जो तुम चाहते हो, वही होगा। तुम गैलेक्सी के मुलाजिम हो और रहोगे। इस बाबत जब भी, जहां से भी कोई सवाल होगा, यहां से वही जवाब मिलेगा जो तुम चाहते हो कि मिले।”
“ऑफिस में मुतावातर गैरहाजिरी का क्या जवाब होगा?”
“वो सब मैनीप्युलेट हो जाएगा। मेरा सारे भारत में व्यापार है और सब बड़े शहरों में ब्रांचे हैं। मेरे अकाउंटेंट को दिल्ली से बाहर कहीं भी जाना पड़ सकता है, कितने भी लम्बे अरसे के लिये जाना पड़ सकता है।”
“गुड। सर, आई एम थैंकफुल टु यू दैट…”
“नो। नन ऑफ दैट। नो थैंक्स। आई हैव डन माई ड्यूटी टुवर्ड्स ए कॉज।”
“अबाउट विच यू नो नथिंग!”
“बट आई नो दैट यू नो। दैट्स एनफ फॉर मी।”
“मेहरबानी, जनाब। मुझे खुशी है कि मेरी एक प्रॉब्लम इतनी आसानी से हल हो गयी।”
वो खामोश रहा।
“अब मैं” — विमल उठता हुआ बोला — “इजाजत चाहता हूं।”
उसने सहमति से सर हिलाया।
“नमस्ते।” — िवमल बोला।
“नमस्ते।”
विमल उठा और घूम कर दरवाजे की ओर बढ़ा।
“एण्ड कौल!” — पीछे से शुक्ला व्यग्र भाव से बोला।
“सर!” — विमल ठिठक कर बोला।
“टेक वैरी गुड केयर ऑफ यूअरसेल्फ। अगर तुम्हारा भी अंजाम पिपलोनिया जैसा हुआ तो मुझे दिली अफसोस होगा।”
विमल ने सहमति से सर हिलाया और वहां से रुखसत हो गया।
काल-बैल बजी।
साधारणतया नीलम दिन में दरवाजा खोलने से पहले सवाल नहीं करती थी लेकिन तब बरबस उसके मुंह से निकला — “कौन?”
“कूरियर सर्विस।” — जवाब मिला।
“क्या है?”
“नीलम कौल के नाम चिट्ठी है।”
नीलम ने दरवाजा खोला।
हरकारे ने हस्ताक्षर की खानापूरी मुकम्मल करके उसे एक बंद लिफाफा सौंप दिया और वहां से विदा हो गया।
नीलम ने दरवाजा बदस्तूर भीतर से बंद कर लिया और फिर बंद लिफाफे की ओर आकर्षित हुई। चिट्ठी भेजने वाले की बाबत उसे पूरा पूरा अंदाजा था, फिर भी बड़ी उत्कंठा से उसने लिफाफा खोला।
उसका अंदाजा ठीक था।
चिट्ठी उसी की थी।
रकम की डिलीवरी की बाबत हिदायात से भरी चिट्ठी।
उसने चिट्ठी को बड़े गौर से पढ़ा।
फिर पढ़ा।
तभी काल बैल फिर बजी।
नीलम ने हड़बड़ा कर चिट्ठी को अपने ब्लाउज में खोंस लिया और दरवाजा खोला।
सुमन आई थी।
“क्या हुआ?” नीलम हैरानी से बोली — “उलटे पांव लौट आई आज तो!”
“कोई नेता मर गया।” — सुमन बोली — “छुट्टी हो गयी।”
“अच्छा हुआ। सच पूछे तो मैं तुझे ही याद कर रही थी।”
“अच्छा!”
“हां।”
“वजह?”
“सुमन, तूने मेरा एक काम करना है।”
“एक क्या, सौ काम बोलो, दीदी।”
“एक खास काम करना है। एक बहुत ही खास काम करना है।”
“क्या?”
“बैठ। बताती हूं।”
दोनों एक सोफे पर अगल बगल बैठ गईं।
फिर चिट्ठी में लिखे निर्देशों के मुताबिक नीलम उसे समझाने लगी कि उसने क्या खास काम करना था।
पैदल चलता विमल कनॉट प्लेस में स्थित लोटस क्लब में पहुंचा।
दिल्ली के भूतपूर्व अंडरवर्ल्ड डॉन गुरबख्श लाल की जिन्दगी में लोटस क्लब उसका हैडक्वार्टर होता था। पिछले नए साल की रात को गुरबख्श लाल को उसके फरीदाबाद स्थित आवास पर जहन्नुमरसीद करने के बाद विमल उसके वफादार लेफ्टीनेंट कुशवाहा को उसकी जगह गद्दीनशीन करके गया था।
तब तक अभी दोपहर भी नहीं हुई थी इसलिए क्लब में सन्नाटा था और इसीलिए विमल कदरन सहूलियत से, कदरन कम जवाबतलबी के कुशवाहा तक पहुंच गया।
कुशवाहा एक कोई पैंतालीस साल का, कठोर चेहरे वाला, गठीले जिस्म वाला, दरम्याने कद का, िसर से अधगंजा आदमी था।
विमल पर निगाह पड़ते ही कुशवाहा के नेत्र फैले, वो स्प्रिंग लगे खिलौने की तरह अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर से उठा।
“नमस्ते।” — विमल मधुर स्वर में बोला।
“वैलकम!” — कुशवाहा बोला — “वैलकम!”
विमल उसके सामने एक कुर्सी पर ढेर हो गया।
“इधर आ के बैठिये।” — कुशवाहा व्यग्र भाव से अपनी कुर्सी की ओर इशारा करता बोला।
“यहीं ठीक है, भाई। वो कुर्सी तुम्हें ही मुबारक।”
“लेकिन…”
“मेरे पास वक्त की कमी है।”
कुशवाहा तत्काल वापिस अपनी कुर्सी पर बैठा।
“कैसा चल रहा है?” — विमल बोला।
“फिलहाल तो ठीक ही चल रहा है!”
“लाल साहब की बिरादरी के खलीफाओं के तेवर कैसे हैं?”
“फिलहाल तो काबू में हैं!”
“आइन्दा कोई अन्देशा है?”
“है तो सही।”
“वजह?”
“वजह पेचीदा है।”
“थोड़े में बताओ।”
“वो क्या है कि मुंबई के अन्डरवर्ल्ड की तमाम खबरें इधर भी पहुंचती हैं। वहां ‘कम्पनी’ और उसके बड़े आकाओं का क्या हश्र हुआ है, और वो हश्र किसके किये हुआ है, उससे इधर भी कोई नावाकिफ नहीं। इधर सब लोग इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि ‘कम्पनी’ आपके या किसी और के जेरेसाया फिर से सिर उठाती है या नहीं। ‘कम्पनी’ का दबदबा सारे हिंदुस्तान में है इसलिये इधर दिल्ली में भी है। ‘कम्पनी’ फिर जलाल में आ गयी तो इधर की अंडरवर्ल्ड बिरादरी काबू में रहेगी वर्ना कोई न कोई जरूर उछाल मारेगा।”
“गुरबख्श लाल की जिंदगी में तो ‘कम्पनी’ पूरे जलाल में थी! वो क्यों ‘कम्पनी’ का रौब नहीं मानता था?”
“लाल साहब भी ‘कम्पनी’ का बराबर रौब मानते थे लेकिन नॉरकॉटिक्स के धंधे के मामले में उनका ‘कम्पनी’ से एग्रीमेंट था कि वो एक खास फील्ड तक ही अपने धंधे की पहुंच रखेंगे और वो नॉरकॉटिक्स ट्रेड से अपनी आमदनी का बीस फीसदी हिस्सा ‘कम्पनी’ की नजर करते थे।”
“ओह! वैसे कौन है इधर उछाल मारने की तैयारी में? लेखूमल झामनानी? सलीम खान? पवित्तर सिंह? भोगीलाल? या माता प्रसाद ब्रजवासी?”
“झामनानी। वो ही शुरू से ही लाल साहब का खामोश मुखालिफ था और वो ही लाल साहब की जिंदगी में भी नॉरकॉटिक्स के धंधे पर काबिज होने की ताक में था।”
“मैं सबको वार्निंग दे के गया था कि कोई नॉरकॉटिक्स के धंधे में हाथ डालने की कोशिश न करे। न्यू इयर ईव पर मैंने उन पांचों दादाओं की जानबख्शी ही इस शर्त पर की थी की कोई ड्रग डीलर बनने की कोशिश नहीं करेगा।”
“वो वार्निंग उन लोगों में से भूला कोई नहीं होगा। लेकिन क्योंकि तब से अब तक आपके दिल्ली में पांव नहीं पड़े, आप कभी उनमें से किसी के रूबरू नहीं हुए, आपने ये तक जानने की कोशिश नहीं की कि कौन क्या कर रहा था इसलिए वो धीरे धीरे निश्चिंत होते जा रहे हैं और दिन-ब-दिन दिलेरी पकड़ते जा रहे हैं।”
“आई सी।”
“आज की तारीख में अगर उन तक ये खबर पहुंचे की गजरे की मौत के बाद ‘कम्पनी’ के निजाम पर आप काबिज हो गए हैं तो वो आपके बिना कुछ किये भी खुद-ब-खुद झाग की तरह बैठ जायेंगे।”
“दैट इज आउट ऑफ क्वेश्चन। मेरा ‘कम्पनी’ के निजाम पर काबिज होना और उसका पुराना कारोबार चलाये रखना न मुमकिन है और न आइन्दा कभी मुमकिन होगा। ‘कम्पनी’ अब खत्म है। ‘कम्पनी’ अब किस्से कहानियों की बात है।”
“फिर तो ये बात इधर पैबस्त होते ही आपकी वार्निंग को नजरअंदाज करके कोई न कोई जरूर सिर उठाएगा।”
“क्यों?”
“क्योंकि उनको ये गलत सिग्नल पहुंचेगा की आप ‘कम्पनी’ की गद्दी पर काबिज नहीं हुए थे तो उसकी असल वजह ये थी कि काबिज हो ही नहीं सकते थे। वो समझेंगे कि उधर का कोई और ऐसा अंडरवर्ल्ड डॉन ये कदम उठाने वाला था जो की आप पर भारी पड़ सकता था।”
“ओह! और ऐसे किसी मौके की ताक में जो सबसे ज्यादा है, वो झामनानी है?”
“हां। वो कई बार मुझे खुफिया तौर पर ये इशारा दे चुका है कि मेरा सोहल के अंगूठे के नीचे रहना और परोक्ष में उसका चमचा — आई रिपीट, चमचा — बना रहना मेरी बेवकूफी है। जनाब, यहां के दादा लोग मुझे आपके और उनके बीच की कड़ी मानते है और ये कड़ी आइन्दा दिनों में तोड़ी जा सकती है।”
“यानी कि तुम्हें रास्ते से हटाया जा सकता है?”
“हां।”
“ये जानते हुए भी तुमने मुझे कभी हालात की खबर नहीं की?”
“अभी हालात इतने बेकाबू नहीं। अब आप आ गए हैं तो जो थोड़ी बहुत जमीन खिसकी थी वो फिर ठिकाने पर आ जाएगी।”
“कुशवाहा, मैं उन लोगों की वजह से दिल्ली नहीं आया।”
“अच्छा!”
“मुझे कोई और ही वजह दिल्ली लायी है और वो वजह मेरी एक पर्सनल प्रॉब्लम है, मेरी जाती दुश्वारी है। मेरा तो उनमें से किसी के मत्थे लगने का भी कोई इरादा नहीं। मैं तो तुमसे भी न मिलने आता अगरचे कि मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत न होती।”
“मदद! मेरी!”
“हां।”
“हुक्म कीजिये। बन्दा हाजिर है।”
“तुम्हे उस सब-इंस्पेक्टर अजीत लूथरा की याद है जिसने गुरबख्श लाल से मेरे सिर का सौदा किया था?”
“छब्बीस लाख में। बीस लाख जमा छः लाख में।”
“यानी कि याद है?”
“हां। बाखूबी।”
“मेरे दिल्ली से रवाना होने के वक्त वो गिरफ्तार था। अब क्या पोजीशन है?”
“पोजीशन खस्ता ही है। उस पर नॉरकॉटिक्स स्मग्लर लेखराज मूंदड़ा का सहयोगी होने का इलजाम है। उसके घर पर हुई रेड में दो किलो चरस और पांच लाख रुपये की रकम आपकी दिल्ली में मौजूदगी के दौरान ही बरामद हुई थी। उस पर गम्भीर मुकदमा है जिसकी रू में पहले वो सस्पेंड हुआ था लेकिन अब तो बाकायदा नौकरी से बर्खास्त किया जा चुका है। बड़ी मुश्किल से जमानत हुई थी उसकी।”
“यानी कि आजकल आजाद है?”
“आजाद तो है लेकिन तभी तक जब तक कि मुकद्दमे का फैसला नहीं सुनाया जाता। उसके खिलाफ ओपन एंड शट केस है, सजा तो उसे हो के रहेगी।”
“रहता अभी भी वहीं ईस्ट पटेल नगर में ही है?”
“हां।”
“मैं उससे मिलना चाहता हूं लेकिन उसके घर नहीं जाना चाहता।”
“क्या जरूरत है जाने की? मैं उसे यहां बुला लूंगा। वो दौड़ा आयेगा।”
“गुड। मोनिका का क्या हाल है? अभी भी यहां बारमेड की नौकरी बजाती है?”
“नहीं। नौकरी तो वो तभी छोड़ गयी थी जब आपने उसे उसकी जिंदगी संवारने के लिए छः लाख रुपये दिए थे। अब तो मेरे खयाल से वो दिल्ली में भी नहीं रहती।”
“यानी कि सुधर गयी?”
“यही समझ लीजिये।”
“और वो दूसरी लड़की सीमा जिसकी सुधरने की कोई मंशा ही नहीं थी?”
“वो तो अभी अपनी पुरानी राह पर ही चल रही है।”
“यानी कि अभी भी जिस्म को अपना हथियार और जिस्मफरोशी को अपनी ताकत मानती है?”
“हां। दिल्ली की टॉप की काल गर्ल के तौर पर मशहूर है अब तो वो। एक रात के पच्चीस तीस हजार रुपये वसूलती है।”
“पाई कहां जाती है?”
“मालूम नहीं। लेकिन मालूम करना कोई मुश्किल काम नहीं।”
“मालूम करो और उससे भी मेरी यहीं मुलाकात करवाओ।”
“उसने आपसे मिलना कबूल न किया तो?”
“वो ऐसा कर सकती है?”
“वो खुदगर्ज लड़की है। मतलब बिना कोई काम नहीं करती। क्या पता चलता है उसकी अक्ल का!”
“ऐसी अक्ल तो ठिकाने लगायी जानी चाहिए!”
“जी!”
“कुशवाहा, मैंने उससे मिलना ही नहीं है, उसे अपनी तरफ भी करना है। उसे अपना मददगार, अपना राजदां बनाना है।”
“ऐसा?”
“हां।”
“फिर तो ऐसा ही होगा।”
“दैट्स मोर लाइक इट। मुझे तो तुमसे नाउम्मीदी हो गयी थी! इतने बड़े दादा का लेफ्टिनेंट और अपना कोई दबदबा ही नहीं रखता दिल्ली शहर में! एक मामूली कालगर्ल को उसकी जात-औकात नहीं दिखा सकता!”
“दिखा सकता हूं। दिखाऊंगा। आप खातिर जमा रखिये, वो भीगी बिल्ली की तरह आपको यहां आप का इन्तजार करती मिलेगी। वो आपका हर हुक्म अपने सिर माथे लेगी।”
“गुड।”
“गुस्ताखी की माफी के साथ पूछ रहा हूं, आपको उसकी जरूरत क्यों है?”
“बताया तो! क्योंकि मैंने उसे अपना मददगार बनाना है। उसे भी और लूथरा को भी।”
“लेकिन क्यों?”
“क्योंकि वाहेगुरु ने मुझे जो दो हाथ दिये हैं, वो मौजूदा हालात में नाकाफी हैं। मेरा हर मददगार मेरे दो अतिरिक्त हाथ है। लिहाजा मेरे सौ हाथ हैं, हजार हाथ हैं।”
“ओह!”
“मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड में मुझे वन मैन आर्गेनाइजेशन के नाम से जाना जाता है। लेकिन कोई एक जना क्या कर सकता है? क्या अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है? दिल्ली में भी क्या मैं गुरबख्श लाल से अकेला मुकाबिल था? धोबियों की पलटन मेरी तरफदार न होती, झामनानी ने विभीषण का रोल अदा न किया होता तो क्या मैं गुरबख्श लाल नाम के रावण को मार पाया होता? मोनिका ने मुझे उसके फरीदाबाद वाले किले जैसे घर में घुसाने का सामान न किया होता तो क्या मैं गुरबख्श लाल के करीब भी फटक पाया होता? राजा रामचन्द्र क्या अकेले लंका पर चढ़ दौड़े थे? उनके लिये उस गिलहरी की भी अहमियत थी जो समझती थी कि समुद्र में रेत के कुछ कण डाल कर वो भी लंका तक पुल बनाने में मदद कर रही थी।”
कुशवाहा का सिर सहमति में हिला।
“इसीलिये मैं कहता हूं कि मेरे हजार हाथ हैं। जब हजार हाथ दो हाथों से मुकाबिल हों तो सोचो जीत किसकी होगी?”
“हजार हाथ वाले की!”
“बाकी सब ऊपर वाले की मर्जी पर निर्भर है। परमात्मा हर जीव की लाज रखता है, मेरी भी रखेगा। हमेशा रखी है, इस बार भी रखेगा। जन की पैज रखी करतारे!”
“सही फरमाया आपने।”
“मिन्टो रोड पर जो गुरबख्श लाल के दो फ्लैट थे, उनका क्या हाल है?”
“उनकी मौत के बाद से वैसे के वैसे खाली पड़े हैं।”
“मैं उनमें से एक में चन्द दिन रहना चाहता हूं।”
“इन्तजाम हो जायेगा।”
“उसमें, जो कभी गुरबख्श लाल की ऐशगाह था।”
“ठीक है।”
फिर एकाएक विमल उठ खडा हुआ।
“मैं चलता हूं।” — वो बोला — “कोई ऐसा इन्तजाम करके छोड़ना कि मेरी यहां आमद बेरोकटोक हो।”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया।
*****
0 Comments