अली वली तिराहा बैरम खान पहुंचे और अपने मामू मुबारक अली के रूबरू पेश हुए ।
“लौट भी आये ?” - मुबारक अली उन्हें देखकर हैरानी से बोला ।
“खेल खत्म हो गया, मामू ।” - अली बोला ।
“क्या हुआ ?”
“हुक्म के मुताबिक मैं और वली उधर छतरपुर में झामनानी के फार्म की निगरानी कर रहे थे ।”
“क्या निगरानी की, कम्बख्तमारो ?”
“सोहल की उधर से रवानगी के दो घन्टे बाद तक उधर कुछ नहीं हुआ था, मामू ।”
“खाली चौकीदार आकर” - वली बोला - “फाटक भीतर से बन्द कर गया था ।”
“हां ।” - अली बोल - “और कोई आवाजाही उधर नहीं हुई थी ।”
“दो घन्टे का वक्फा मुकम्मल होने तक नहीं हुई थी ।” - वली बोला ।
“अरे अब क्या एक ही, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सुर गाते रहोगे” - मुबारक अली झल्लाया - “या आगे भी बढोगे ?”
“मामू” - वली बोला - “उसके बाद वहां पुलिस पहुंच गयी थी ।”
“हां ।” - अली बोला - “वर्दी पर डी.सी.पी. के फूलों वाला अफसर पहुंचा था उधर । साथ में एक इन्स्पेक्टर था । कई हवलदार थे । दो जिप्सियों पर वो वहां पहुंचे थे ।”
“फिर ?” - मुबारक अली बोला ।
“फिर क्या ?” - वली बोला - “फिर कहानी खत्म । जैसा कि सोहल चाहता था, दो घन्टे का वक्फा खत्म होने पर वहां पहुंची पुलिस और झामनानी और उसके बिरादरीभाई गिरफ्तार ।”
“बढिया । तो तुमने अपनी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, आंखों से देखा उन दादा लोगों को गिरफ्तार करके ले जाते पुलिस को ?”
वली सकपकाया, उसने अपने जुड़वें की तरफ देखा ।
“अरे, जवाब क्यों नहीं देते हो अल्लामारो ? जुबान चुहिया कुतर गयी क्या ?”
“मामू” - वली दबे स्वर में बोला - “आंखों से तो न देखा ।”
“अरे नसीबामारो, तो फिर तुम्हें कैसे मालूम है कि वो चारों बिरादरीभाई गिरफ्तार हो गये ?”
“मामू जब एक डी.सी.पी. की अगुआई में पुलिस उधर पहुंची थी तो....”
“क्या तो ?”
“तो... तो...”
“खुदा की मार तुम्हारी तो पर । पुलिस के उधर पहुंचने की सौ वजह हो सकती हैं, हजार वजह हो सकती हैं....”
“मामू” - अली दबे स्वर में बोला - “उस वक्त की वजह तो वही थी न ?”
“क्या पता तुम्हें ? कैसे पता तुम्हें ? जो बात निगाहों के सामने नहीं आयी, उसका क्या पता कि वो हुई या नहीं हुई !”
“न होने का” - वली बोला - “कोई मतलब तो दिखाई देता हो, मामू !”
“देखो, कम्बख्तमारे को ! कैसे जुबान लड़ाता है ! कैसे कतरनी चलती है दोनों की ! ऐन सुर में सुर मिला के ! इसी को कहते हैं अंग्रेजी में कि काम के न काज के ढाई मन अनाज के ।”
अली वली खामोश रहे ।
“यूं दौड़े चले आये जैसे यहां सेवईयां बंट रही थीं जो फौरन न पहुंचते तो इन्हें न मिलतीं । अल्लाह गारत करे ऐेसे नालायक भांजों को ।”
“मामू, गलती हो गयी ।” - अली दबे स्वर में बोला ।
“वो रात भर के थके हुए थे न” - वली बोला - “इसलिये....”
“इधर आ । आ मां सदके, पहले मैं तेरे ही हाथ पांव सहलाऊं और गोद में थपकी देकर सुलाऊं ।”
“खता माफ, मामू ।”
“हां, मामू ।” - अली बोला - “खता माफ । हमें अपनी आंखों से देखकर आना चाहिये था कि पुलिस बिरादरीभाइयों को गिरफ्तार करके ले जा रही थी ।”
“हम अभी अपनी गलती सुधारते हैं ।” - वली बोला ।
“कैसे ?” - मुबारक अली बोल - “अब क्या करोगे ?”
“वापिस जाते हैं और गलती सुधार के आते हैं ।”
“हां । चौकस और मुकम्मल खबर निकाल कर लाओगे तो तभी तुम्हारी खता माफ होगी, बैरंग लौटे तो खाल खिंचवा के भुस भरवा दूंगा, अल्लामारो । भले ही तुम्हारी मां रो रो के जान दे दे । समझे ?”
“हां, मामू ।”
“और हाशमी और अशरफ को भी साथ ले जाओ ।”
“उन्हें किसलिये, मामू ?”
“हाशमी पढा लिखा है, वो तार को, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, दूसरे सिरे से पकड़ेगा ।”
“दूसरा सिरा ?”
“डी.सी.पी. वाला, नामाकूलो । वो मालूम करेगा कि डी.सी.पी. किधर से आया था, लौट के किधर गया था और अब बिरादरीभाइयों की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, क्या पोजीशन थी ?”
“ओह !”
“अब दफा भी होवो । अब क्या रवानगी की कोई घन्टी बजेगी तो यहां से हिलोगे....”
अली वली सिर पर पांव रख कर भागे ।
***
जो डी.सी.पी. अपने लावलश्कर के साथ मौकायवारदात पर पहुंचा था, उसका नाम एस. पी. श्रीवास्तव था । महकमे के एक ए.सी.पी. का कत्ल अपने आप में ही बड़ी वारदात थी जबकि वहां तो कई कत्ल हुए बताये जाते थे ।
उसने स्टेनगन की गोलियों से बिंधी ए.सी.पी. प्राण सक्सेना की लाश को देखा, अमरदीप और शैलजा की लाशों को देखा और कोने के हॉल कमरे में पड़ी हुकमनी और टोकस की लाशों को देखा ।
फिर उसने एक झुंड में खड़े झामनानी, ब्रजवासी, भोगीलाल और पवित्तर सिंह को देखा, उनसे थोड़ा बाजू हट कर खड़े मुकेश बजाज और हिम्मतसिंह को देखा ।
पुलिस के वहां आगमन से पहले मैदान में पड़ा तमाम असलाह सूखे कुयें में डाल दिया गया था और उकसे जाल को घास और टहनियों से यूं ढक दिया गया था कि एक निगाह में तो मालूम भी नहीं पड़ता था कि वहां कोई कुआं था ।
तहखाने में और भी जो काबिलेएतराज सामान मौजूद था, वो वहां से हटा कर अन्यत्र छुपा दिया गया था ।
हेरोइन की खेप नसीबसिंह ने अपने अधिकार में कर ली थी । अपने ए.सी.पी. के साथ जिस जीप पर वो आया था, हेरोइन साथ लेकर उस पर वो आनन फानन कहीं गया था और फिर हेरोइन के बिना वापिस लौट आया था ।
अब पुलिस की कैसी भी जवाबतलबी का सामना करने के लिये वो सब तैयार थे ।
उस तैयारी से पहले एक मतभेद उठा था जिसको झामनानी ने ठण्डा कर दिया था ।
घिसा हुआ पुलिसिया नसीबसिंह गवाह नहीं छोड़ना चाहता था, वो बजाज और हिम्मतसिंह का भी काम तमाम करना चाहता था लेकिन झामनानी को वो मंजूर नहीं हुआ था । आखिर उन दोनों ने - खासतौर से हिम्मतसिंह ने - अपनी जान पर खेल कर बिरादरीभाइयों की जान बचाई जाने का सामान किया था ।
आखिर में डी.सी.पी. श्रीवास्तव की निगाह इन्स्पेक्टर नसीबसिंह पर पड़ी ।
“क्या हुआ था ?” - उसने पूछा ।
“ये मेरे भरोसे के आदमी थे नी ।” - जवाब झामनानी ने दिया, बरामदे के फर्श पर मरे अमरदीप और शैलजा की तरफ इशारा करता वो बोला - “भेजा उलट गया कर्मामारों का । दगाबाजी पर उतर आये । पता नहीं कैसे सोच बैठे कि यहां बहुत माल था जो यो लूट सकते थे....”
“मैंने सवाल आप से नहीं किया था ।”
“मेरे मेहमानों को भी लूटने का मन बनाये थे कम्बख्त ।”
“मेहमान ! मेहमान कहां हैं ?”
“वडी चले गये नी । खौफ खा के कूच कर गये लेकिन इस नौजवान ए.सी.पी. की बहादुरी से और इस तजुर्बेकार इन्स्पेक्टर की सूझबूझ से लुटने से बच गये । मेहमान भी और हम भी ।”
“ऐसा ही था, साहब ।” - नसीबसिंह गम्भीरता से बोला - “ए.सी.पी. साहब ने इनीशियेटिव न लिया होता तो जो हाल ए.सी.पी. साहब का हुआ है, वो आपको हम सब का हुआ मिलता । उन्होंने इन दोनों को वक्त रहते मार गिराया था लेकिन फिर भी किसी तरह से एक जना मरता मरता भी स्टेनगन का घोड़ा खींचने में कामयाब हो गया था जिसकी वजह से...”
असहाय भाव से गर्दन हिलाता नसीबसिंह खामोश हो गया ।
“ये रिवॉल्वर जो ए.सी.पी. साहब के हाथ में थमी दिखाई दे रही है, सर्विस रिवॉल्वर तो नहीं जान पड़ती ।”
“नहीं है, सर । हम यहां हथियारबन्द नहीं आये थे ।”
“ऐसी रिवॉल्वर का इनके पास क्या काम ?”
“मैंने दी थी, सर ।” - झामनानी के इशारे पर बजाज बोला ।
“तुमने दी थी ! तुम रिवॉल्वर रखते हो ?”
“नहीं, सर । मुझे तरसेमलाल ने दी थी । कहता था झाड़ियों में पड़ी मिली थी ।”
“तरसेमलाल कौन ?”
“मेरे एक नये मुलाजिम का नाम है नी ।” - झामनानी बोला - “पुलिस में हवलदार था । नौकरी से निकाल दिया गया तो रोता हुआ मेरे पास आया । मैंने तरस खा कर अपनी मुलाजमत में रख लिया ।”
डी.सी.पी. ने हैरानी से पहले झामनानी की तरफ और फिर नसीबसिंह की तरफ देखा ।
“राज की बात है, साहब ।” - नसीबसिंह दबे स्वर में बोला ।
“अब कहां है ये तरसेमलाल जिसे कि झाड़ियों में पड़ी गन मिलती हैं ?”
“कल से गायब है ।” - झामनानी वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “कल रात नौ बजे के करीब एक काम से कनॉट प्लेस भेजा था, अभी तक लौट के नहीं आया कर्मामारा ।”
“हूं । तो... क्या नाम है तुम्हारा ?”
“मुकेश बजाज, सर ।”
“तो रिवॉल्वर तुम्हें तरसेमलाल ने दी थी और तरसेमलाल, जो कोई भी वो है, इस बात की तसदीक करने के लिये उपलब्ध नहीं है ?”
“फिलहाल ।”
“कभी तो लौटेगा ही ।” - झामनानी बोला - “लौटेगा नहीं तो कहों जायेगा ?”
“बहरहाल रिवॉल्वर तुमने आगे ए.सी.पी. साहब को दी ?”
“यस, सर ।” - बजाज बोला ।
“क्यों ?”
“उन्हें दुश्मनों के खिलाफ हथियारबन्द करने के लिये ।”
“दुश्मन । यानी कि ये नौजवान और ये लड़की, जो कि मरे पड़े हैं ?”
“यस, सर ।”
“कैसे दी ?”
“चुपके से छत पर पहुंचा जहां से रिवॉल्वर डोरी से लटका कर इन तक पहुंचायी ।”
“खुद ही क्यों न इस्तेमाल की ?”
“मेरा इन दोनों के करीब फटकना मुमकिन नहीं था । मैं ऐसी कोई कोशिश करता तो यकीनन जान से जाता ।”
“इसलिये तुमने ए.सी.पी. साहब को जान से जाने दिया ?”
“उस वक्त के नाजुक हालात में मैंने उन तक हथियार पहुंचाया था, सर । उसको कुबूल करना या न करना और आगे उसे इस्तेमाल करना या न करना उनकी मर्जी पर मुनस्सर था ।”
“बोल अच्छा लेते हो । ऐन किसी तजुर्बेकार वकील की तरह ।”
बजाज खामोश रहा ।
“दो आदमी और भी तो मरे पड़े हैं । उनकी क्या कहानी है ?”
“वो मेरे खास आदमी थे ।” - झामनानी बोला - “बॉडीगार्ड का काम करते थे ।”
“वो कैसे मर गये ?”
“वडी इस छोकरे के मारे ही मरे । उनको मारे बिना ये हमारे पर हावी हो ही नहीं सकते थे । तभी तो कर्मामारों ने पहले उन दोनों का काम तमाम किया और फिर हमारे गले पड़े ।”
“हूं ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
उस दौरान नसीबसिंह मुतवातर बेचैनी से पहलू बदलता रहा और डी.सी.पी. मुतवातर उसे घूरता रहा ।
“जब ए.सी.पी. साहब रिवॉल्वर पर काबिज हो रहे थे” - फिर आखिरकार वो नसीबसिंह से सम्बोधित हुआ - “तब तुम क्या कर रहे थे ?”
“मैं” - नसीबसिंह बोला - “स्टेनगन वालों का उनकी तरफ से ध्यान बंटा रहा था ।”
“कामयाब तो न हुए !”
“बराबर हुआ, साहब । कोई गड़बड़ हुई तो ए.सी.पी. साहब के उतावालेपन से हुई । उन्होंने रिवॉल्वर हाथ में आते ही गोलियां चलानी शुरू कर दीं ।”
“असल में उन्हें क्या करना चाहिये था ।”
“मैं क्या बताऊं, साहब ?”
“तुम न बताओ तो और कौन बताये ? अभी तुम्हीं तो एनकाउन्टर के ऐेसे हालात के स्पैशलिस्ट के तौर पर बोले । बोले कि ए.सी.पी. साहब उतावले हो उठे थे जो कि उनकी गलती थी, उन्होंने फौरन गोलियां चलानी शुरू कर दी थीं, जो कि उनकी और भी ज्यादा बड़ी गलती थी ।”
“उन्हें उन लोगों को हथियार डाल देने के लिये तैयार करना चाहिये था ।”
“और ?”
“और उनको जान से जाने से बचा कर गोली मारनी चाहिये थी ।”
“आई सी । आई सी । लिहाजा इस शख्स ने ए.सी.पी. साहब की जगह तुम्हें हथियारबन्द करने की कोशिश की होती तो यहां का नजारा कुछ और होता ?”
नसीबसिंह से जवाब देते न बना, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तुम यहां कैसे पहुंचे ? ए.सी.पी. साहब कैसे पहुंचे ?”
“हम इकट्ठे आये थे ।”
“वजह ?”
“वजह हमारे जोन के डी.सी.पी. मनोहरलाल जी को मालूम है ।”
“मैं भी जानना चाहता हूं । कोई एतराज ?”
“एतराज कोई नहीं लेकिन वजह इन लोगों के सामने बयान करना मुनासिब न होगा ।”
“इधर आओ ।”
नसीबसिंह करीब आया तो डी.सी.पी. उसके साथ बाकी लोगों से परे सरक गया ।
“अब बोलो ।” - वो बोला ।
“ये लोग अन्डरवर्ल्ड से बिलांग करते हैं ।” - नसीबसिंह दबे स्वर में बोला - “झामनानी इनका सरगना है ।”
“मालूम है । कोई नई बात बोलो ।”
“हवलदार तरसेमलाल इन लोगों के कैम्प में हमारा भेदिया था । झामनानी जिनको अपने मेहमान बताता है, वो हेरोइन के इन्टरनेशनल स्मगलर थे, ऐसी हमें पक्की टिप मिली थी । अपने डी.सी.पी. मनोहरलाल की अध्यक्षता में हमने यहां रेड डालने की पूरी तैयारी की हुई थी । हमें सिर्फ मुनासिब वक्त पर हवलदार तरसेमलाल की टेलीफोन काल का इन्तजार था । तरसेमलाल मुझे फोन करता तो तभी रेड होती ।”
“उसने फोन नहीं किया था ?”
“किया था लेकिन मुझे अकेले यहां पहुंचने के लिये कहा था ।”
“अकेले ?”
“जी हां ।”
“अकेले क्यों ?”
“कोई वजह उसने नहीं बतायी थी । बोलता था वो टेलीफोन पर लम्बी बात नहीं कर सकता था ।”
“उसकी हिदायत पर अमल तो न किया तुमने ! अकेले तो तुम यहां न पहुंचे !”
“मैं अकेला ही आ रहा था लेकिन तभी ए.सी.पी. साहब मिल गये थे तो मु्झे उन्हें तरसेमलाल की काल की बाबत बताना पड़ा था । तब वो भी, एक तरह से जबरन, मेरे साथ चले आये थे । मैं अपने आला अफसर से बाहर नहीं जा सकता था इसलिये...”
“आई अन्डरस्टैण्ड । कब पहुंचे थे यहां ?”
“साढे ग्यारह के करीब ।”
“बड़ी हद आधा घन्टा तुम्हें यहां पहुंचने में लगा होगा ?”
“जी हां ।”
“लिहाजा तरसेमलाल की वो कथित टेलीफोन कॉल तुम्हारे पास ग्यारह बजे के करीब आयी थी ?”
“जी हां ।”
“झामनानी तो उसे कल रात नौ बजे से यहां से गायब बताता है ?”
“जाहिर है कि उसने कॉल यहां से नहीं की थी ।”
“कैसे जाहिर है ?”
“तो वो हमें यहां फार्म के भीतर या फार्म के बाहर कहीं मिलता लेकिन ऐसा नहीं हुआ था ।”
“यहां पहुंचने के बाद के वाकयात बयान करो ।”
“हम यहां पहुंचे थे तो फाटक खुला था और इलाका सुनसान पड़ा था । हम फार्म हाउस पर पहुंचे तो ये दोनों स्टेनगनों के साथ एकाएक नमूदार हुए और इन्होंने हमें अपने काबू में कर लिया । साफ जाहिर होता था कि हमारी आमद ने इनके प्रोग्राम में विघ्न डाल दिया था ।”
“प्रोग्राम, जो कि लूटमार का था ?”
“जाहिर है ।”
“कैसे जाहिर है ?”
“झामनानी वगैरह पर इन्होंने अपना इरादा जाहिर किया था ।”
“और ?”
“और तो वही जो कि यहां हुआ । इन लोगों के मंसूबे फेल करने की कोशिश में ए.सी.पी. साहब मारे गये । ए.सी.पी. साहब की चलाई गोलियों से ये दोनों भी मारे गये ।”
“वैरी कन्वीनियंट फार ऐवरीबाडी ।”
“जी !”
“क्या लूटा ?”
“कुछ नहीं । लूट पाने की नौबत न आयी । पहले ही खूनखराबा हो गया ।”
“लूटते तो क्या लूटते ?”
“मालूम नहीं । जो काम हुआ नहीं, उसकी बाबत मैं क्या बोलूं ?”
“दरयाफ्त तो करना था ।”
“करना था, साहब, लेकिन ए.सी.पी. साहब की मौत की वजह से मैं सकते में आ गया था इसलिये फौरन कुछ न सूझा । कुछ सूझा तो बस महकमे को फोन करना सूझा ।”
“तुमने किया ?”
“क्या ?”
“फोन ?”
“जी हां ।”
“यहीं से ?”
“जी नहीं । यहां के तो तमाम फोन कटे पड़े हैं । फोन के लिये मुझे यहां से चार किलोमीटर दूर जाना पड़ा ।”
“ए.सी.पी. के पास वायरलैस फोन होता है । एस.एच.ओ. के पास भी होता है ।”
“मेरे पास नहीं था, ए.सी.पी. साहब के पास था लेकिन....”
“क्या लेकिन ?”
“बैटरी लूज थी । कहीं गिर गयी ।”
“शाबाश ! गनीमत हुई कि फोन ही न गिर गया ।”
नसीबसिंह ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तो फोन करने की खातिर तुम यहां से चार किलोमीटर दूर गये ?”
“जी हां ।” - नसीबसिंह बोला ।
“पीछे इन लोगों को अकेला छोड़ कर ?”
“जी !”
“ताकि ये लोग पीछे जैसी चाहते स्टेज सैट कर लेते । जो चीज चाहते गायब कर देते । जो चाहते बरामदी के लिये प्लांट कर देते ।”
“मजबूरी थी, साहब । मैं अकेला....”
“हां, तुम अकेले । लेकिन वो बात भी काबिलेएतराज है ।”
“साहब, ऐसा ही हुक्म हुआ था ।”
“हुक्म हुआ था ? एक हवलदार का ! हवलदार का काम एस.एच.ओ. को हुक्म देना होता है ?”
“साहब वो क्या है कि... वो क्या है कि....”
“हुक्म देने वाला कोई और था लेकिन नाम तुमने हवलदार का लिया । क्योंकि वो तुम्हारी बात की तसदीक, या उससे इनकार, करने के लिये उपलब्ध नहीं ।”
“उपलब्ध हो जायेगा, साहब ।”
“मुझे उम्मीद नहीं ।”
“साहब....”
“तुम्हारी कहानी में छलनी से भी ज्यादा छेद हैं, इन्स्पेक्टर नसीबसिंह । मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि यहां जो हुआ है, वो दिखाई नहीं दे रहा और जो दिखाई दे रहा है, वो सैट की हुई स्टेज का नमूना है....”
“साहब, आप नाहक....”
“एक मिलीभगत की सड़ांध यहां से दूर दूर तक उठ रही है । मुझे गारन्टी है कि जो ड्रामा यहां हुआ है उसको स्टेज करने में तुम्हारा अहम किरदार है ।”
“साहब, आप बेवजह....”
“कोई बात बेवजह नहीं होती ।”
“अब मैं क्या कहूं ?”
“तुम न कहो तो और कौन कहे ?”
“आप... आप को मेरे डी.सी.पी. से बात करनी चाहिये ।”
“सलाह का शुक्रिया । नाओ स्टैण्डबाई ।”
“मैंने अपने थाने वापिस लौटना है ।”
“स्टैण्डबाई एण्ड वेट फार फरदर आर्डर्स ।”
“लेकिन मैं....”
“बहरे हो ?” - डी.सी.पी. कड़क कर बोला - “ऊंचा सुनते हो ? तड़प रहे हो महकमे के इतने लोगों और इतने दादा लोगों के सामने बेइज्जत होने को ?”
बुरी तरह से तिलमिलाता नसीबसिंह खामोश हो गया ।
डी.सी.पी. झामनानी के करीब पहुंचा ।
“आप” - वो बोला - “क्या नाम है आपका ?”
“वडी मेरा नाम सारा शहर जानता है नी ।”
“सारा मुल्क भी जानता होगा । मैं नहीं जानता । क्या नाम है आप का ?”
“वडी झामनानी नी । लेखूमल झामनानी नी । मैं इधर का....”
“काफी है । नाम बोलने को बोला जो कि आपने बोल दिया ।”
“वडी बड़ा सख्त हाकिम है नी ।”
“शटअप ।”
“वडी मेरे को... मेरे को शटअप बोला नी ?”
“यस । शटअप ऑर आई विल शट यू अप ।”
“झूलेलाल !”
“एक कागज कलम लीजिये और उन साहबान के नाम पते लिखिये जो कि यहां आपके मेहमान थे और जिन्होंने इतने खूनखराबे के बावजूद पुलिस की आमद तक यहां रुकना जरूरी न समझा ।”
मरता क्या न करता के अन्दाज से झामनानी उस आदेश का पालन करने में जुट गया ।
***
अमृतलाल नाग दिल्ली सदर क्षेत्र से कांग्रेस का सिटिंग एम.पी. था । उसके दोस्त और हमदर्द उसे अमृत जी या नेताजी कह कर पुकारते थे जबकि दुश्मन नाग बल्कि शेषनाग बुलाते थे । गुंडागर्दी और दहशतगर्दी की राजनीति करने में वो प्रवीण था इसीलिये अन्डरवर्ल्ड से उसके करीबी ताल्लुकात थे । दिल्ली के टॉप बॉस गुरबख्शलाल महरूम का वो हमप्याला हमनिवाला रह चुका था और गुरबख्शलाल के ही मिलवाये वो पहली बार शरजाह के इन्डो-पाक क्रिकेट मैच के दौरान ‘भाई’ से मिला था और फिर जब तफरीहन दुबई गया था तो ‘भाई’ को उसकी खबर लग गयी थी और उसने जिद करके उसे दुबई प्रवास के दौरान अपना मेहमान बनने के लिये मजबूर किया था ।
अब ‘भाई’ फोन करके जिन लोगों की बाबत सवाल कर रहा था, वो उन सब को जानता था । पवित्तर सिंह तो एक तरह से उसका बिरादरीभाई था क्योंकि वो किंग्सवे कैम्प के इलाके से मैट्रोपालिटन काउन्सलर रह चुका था । और भोगीलाल को जानना उसकी राजनैतिक मजबूरी थी क्योंकि वो दिल्ली के झोंपड़पट्टे का बेताज बादशाह था और वहां की वोटों पर - जो कि एक बड़ा वोट बैंक कहलाता था - उसकी पकड़ थी । लेखूमल झामनानी से और माताप्रसाद ब्रजवासी से वो इसलिये खूब वाकिफ था क्योंकि दिल्ली शहर में जो शख्स पवित्तर सिंह और भोगीलाल को जानता हो, वो झामनानी और ब्रजवासी को जाने बिना रह ही नहीं सकता था । जमा ब्रजवासी के लैंडग्रैब के गैरकानूनी धन्धे में उसकी खामोश हाजिरी थी और जब भी उसे किसी हाई क्लास कालगर्ल की जरूरत होती थी तो उसे झामनानी की खिदमत हासिल करनी पड़ती थी । बहरहाल अमृतलाल नाग पर उन दिनों लगी संसद सदस्य की सरकारी मार्किंग को नजरअन्दाज किया जाता तो वो और बिरादरीभाई एक ही थैली के चट्टे बट्टे थे ।
दिल्ली में इधर उधर फोन लगाने पर दस मिनट में उसने पता लगा लिया कि बिरादरीभाई पिछले रोज की शाम से ही अपने रूटीन ठिकानों से गायब थे और उनके कहीं होने की सम्भावना थी तो वो झामनानी का छतरपुर में स्थित फार्म था ।
जो कि कोई नई बात नहीं था, क्योंकि इतना तो फोन पर उसे ‘भाई’ भी बता चुका था । फिर भी कोई नयी बात थी तो ये थी कि अगले रोज की शाम होने को आ रही थी और वो अभी भी अपनी ठीये ठिकानों से गायब थे ।
उसने छतरपुर जाने का फैसला किया ।
ड्राईवर और दो चमचों के साथ लाल बत्ती वाली जिप्सी पर, जिस पर कि लोकसभा सैक्रिटेरियेट से ईशु हुआ ‘मेम्बर पार्लियामेंट’ का स्टिकर लगा हुआ था, वो झामनानी के फार्म पर पहुंचा ।
जिप्सी फार्म के बन्द फाटक पर पहुंची तो ड्राइवर ने जोर से और जानबूझकर ज्यादा देर तक हार्न बजाया ।
फाटक की खिड़की खुली और एक वर्दीधारी सिपाही उस पर प्रकट हुआ ।
“अबे, दरवाजा क्यों नहीं खोलता, भड़वे ।” - ड्राइवर तल्खी से बोला - “देखता नहीं नेता जी आये हैं !”
तत्काल फाटक खुला, जिप्सी भीतर दाखिल हुई और अर्धवृताकार ड्राइव-वे पर दौड़ती हुई फार्म हाउस की इमारत के सामने पहुंची ।
“देखो, क्या माजरा है ?” - नेता ने आदेश दिया ।
दोनों चमचे जिप्सी से उतरकर आगे इमारत की सीढियां चढने लगे ।
पीछे नेता ने एक सिग्रेट सुलगाया और उसे आखिरी दो उंगलियों में दबा कर चरसियों की तरह उसके कश लगाने लगा ।
चमचे वापिस लौटे ।
“सब यहीं हैं ।” - एक बोला - “एक डी.सी.पी. की अगुवाई में कई पुलिसिये भी हैं । कोई पंगा पड़ा जान पड़ता है ।”
“कैसा पंगा ?” - नेता बेसब्रेपन से बोला ।
“खूनखराबा ! फौजदारी !”
“भाई लोगों ने की ?”
“पता नहीं ।”
“पता नहीं ? गया ऐसी तैसी फिराने था ?”
“डी.सी.पी. नाराज हो गया । बहुत कड़क बोला । डांटने लग गया । लौटते ही बना ।”
“देखें” - नेता सिग्रेट फेंक कर जिप्सी से उतरता हुआ बोला - “कौन है कड़क डी.सी.पी. !”
“एस. पी. श्रीवास्तव नाम है ।” - दूसरा चमचा बोला ।
“कैसे जाना ?”
“वर्दी पर लगे प्लास्टिक के बिल्ले पर लिखा था ।”
“हूं । चलो ।”
चमचों की अगुवाई में नेता इस हॉल कमरे में पहुंचा जहां सब लोग जमा थे ।
“एम. पी. साहब आये हैं ।” - एक चमचे ने घोषणा की ।
नेता पर निगाह पड़ते ही बिरादरीभाइयों के चेहरे खिल उठे । सब को लगने लगा कि डी.सी.पी. श्रीवास्तव की थर्ड डिग्री से अब उन्हें निजात मिलने ही वाली थी ।
डी.सी.पी. ने सकपका कर नेता को देखा । वो उसे जाती तौर से नहीं जानता था लेकिन सूरत और नाम से - उसकी रिप्यूट से भी - बाखूबी वाकिफ था ।
“आप !” - उसके मुंह से निकला - “यहां कैसे ?”
“भई, हम वैसे ही नेता नहीं हैं ।” - नेता बोला - “हमारे भीतर एक खास मीटर फिट है जो कि हमें अक्सर बताता रहता है कि कब कहां हमारी जरूरत है । हम दिल्ली की जनता के सेवक हैं और जनता - खास हमारी जनता - जहां मौजूद हो, वहां तो हमें जाना ही पड़ता है । क्या हो गया है यहां ?”
“ऐसा कुछ नहीं हुआ” - डी.सी.पी. अप्रसन्न भाव से बोला - “जिसमें आपकी दिलचस्पी हो ।”
“गलत । बिल्कुल गलत । हम दिल्ली के हैं और दिल्ली हमारी है । यहां जो भी होता है, उसमें हमारी दिलचस्पी लाजमी है ।”
“लेकिन....”
“एक खूनी होल्ड अप की वारदात हुई है यहां हमारी बदकिस्मती से ।” - झामनानी बोला - “पुलिस के एक बहादुर ए.सी.पी. ने होल्ड अप करने वाले दोनों को मार डाला लेकिन कर्मांमारा खुद भी मारा गया । अब ये डी.सी.पी. हमारे से ऐसे पेश आ रहा है जैसे सब किया धरा हमारा हो ।”
“ऐसी कोई बात नहीं ।” - डी.सी.पी. बोला ।
“तो कैसी बात है ?” - नेता बोला ।
“तफ्तीश करनी पड़ती है । सवाल करने पड़ते हैं । ये मेरा काम है जिसे करने के लिये मैं यहां मौजूद हूं । आप मेरे काम में दख्लअन्दाज न हों ।”
“हुक्म दे रहा है, भई ?”
“दरख्वास्त कर रहा हूं ।”
“डी.सी.पी. साहब, हम क्या आपके काम में आपको अड़ंगा लग रहे हैं ?”
“वो बात नहीं है...”
“तो फिर ?”
“...मैं आपकी यहां एकाएक आमद से हैरान हूं । मुझे खुशी होगी अगर आप यहां से चले जायें ।”
“बहुत कड़क बोलते हो डी.सी.पी. साहब !”
“नैवर, सर ।”
“हम पब्लिक के सर्वेंट हैं, हमें पूरा अख्तियार है ये जानने का कि सरकारी अमलदारी पब्लिक से ठीक से पेश आ रही है या नहीं !”
“कैसे जानेंगे ?”
“ये तीन सितारों वाला पुलिसिया जो हमसे निगाह नहीं मिला रहा, हम जानते हैं कि, पहाड़गंज थाने का एस. एच. ओ. नसीबसिंह हैं । इससे जानेंगे । इधर आ, भई ।”
नसीबसिंह झिझकता हुआ आगे बढा ।
डी.सी.पी. की असंतोष और विरोधपूर्ण निगाहों की परवाह किये बिना नेता ने नसीबसिंह की बांह पकड़ी और उसे बाहर बरामदे में ले गया ।
“एक मिनट में इधर का तमाम माजरा बोल ।” - नेता दान्त भींच कर फुंकारता सा बोला - “हम ने ‘भाई’ को खबर करनी है ।”
“‘भाई’ को !” - नसीबसिंह के नेत्र फैले ।
“हां, ‘भाई’ को । जो कि यहां था । उसका बिग बॉस भी यहां था । और कई ड्रग लॉर्ड्स भी यहां जमा होने वाले थे लेकिन न हो पाये क्योंकि शेरों के बीच में बब्बर शेर आ गया ।”
“बब्बर शेर !”
“सोहल ।”
“आ... आपको ये भी मालूम है ?”
“हां । इसलिये कुछ छुपाने की कोशिश बेकार होगी । हमें यहां की असली पिक्चर की वाकफियत चाहिये जिसको हासिल करने के लिये हमने तुझे चुना है ।”
“मैं आपका खादिम हूं नेताजी लेकिन....”
“क्या लेकिन ? जल्दी बोल ।”
“मेरे को कोई उलटी तो नहीं पड़ जायेगी ।”
“उलटी ?”
“ये डी.सी.पी. पहले ही मेरे खिलाफ हुआ पड़ा है । साथ साथ मिलीभगत का इलजाम लगा रहा है ।”
“जो कि नहीं है ?”
“है ।”
“तेरी शक्ल से हमें भी ऐसा लग रहा था ।”
“साहब, पीछा छुड़वा दोगे न ? आप बड़े आदमी हैं, आप जो चाहें....”
“मूर्ख !”
नसीबसिंह बौखलाया ।
“हम यहां तेरी जाती दुश्वारियां डिस्कस करने आये हैं ?”
“सॉरी, नाग साहब ।”
“थोड़े में असल माजरा बोल । बाद में तेरी बाबत भी सोचेंगे ।”
“साहब, झामनानी का और उसके जोड़ीदारों का दिल्ली और मुम्बई में हुई फौजदारी की बहुत बड़ी बड़ी वारदातों में दख्ल है । सब हेरोइन स्मगलर भी हैं और हाल ही में स्मगल की गयी छ: किलो हेरोइन यहीं उपलब्ध थी । और भी कई तरह का काबिलेएतराज साजोसामान - जैसे हथियार, गोला बारूद वगैरह - यहां उपलब्ध था । मैं और ए.सी.पी. प्राण सक्सेना सोहल के बुलाये यहां पहुंचे थे । वो हमें हुक्म देकर गया था कि यहां से हेरोइन और असलाह की बरामदी दिखाई जाये और इन लोगों को टाडा और नेशनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत गिरफ्तार करके सख्त से सख्त सजा दिलाई जाये ।”
“पालन हुआ हुक्म का ?”
“नहीं ।”
“वजह ।”
“ए.सी.पी. मारा गया, दो चश्मदीद गवाह मारे गये जिनकी गवाही के दम पर कि इन लोगों के खिलाफ एकदम पुख्ता केस बनना था ।”
“और बाकी भांजी तूने मार दी ?”
“जी ?”
“पुलिस वालों को मेरे से बेहतर कौन जानता है ? इस सारे बखेड़े हल्लेगुल्ले में अपनी रोटियां सेंकने से तू कहां बाज आया होगा ! अपनी कोई तो कारस्तानी दिखाई ही होगी जिसकी वजह से डी.सी.पी. को तेरे पर शक है । हां बोल एक सैकेंड में ।”
“हां, नाग साहब ।”
“क्या हां ?”
“झामनानी की खातिर लीपापोती की तो है मैंने ।”
“झामनानी की खातिर या अपनी खातिर ?”
“पहले झामनानी की खातिर ।”
“अब पोजीशन क्या है ?”
“पोजीशन इन लोगों के लिये तो ठीक ही है अलबत्ता मैं....”
“अपनी मैं अभी अपने पास रख । मैं यहां तेरे लिये नहीं आया ।”
“क्या असलाह, क्या हेरोइन, यहां से काबिलेएतराज कोई चीज नहीं बरामद होने वाली । एनकाउन्टर की कहानी कमजोर है लेकिन अगर भाई लोग अपने बयान से नहीं हिलेंगे, मैं अपने बयान से नहीं हिलूंगा तो डी.सी.पी. कुछ नहीं कर सकेगा ।”
“तू हिलेगा ?”
“अब तो सवाल ही नहीं पैदा होता । अब हिलूंगा तो एक की आठ पड़ेंगी, न मरता भी मरूंगा ।”
“भाई लोगों के हिलने का तो सवाल ही नहीं है ।”
“वो तो है, साहब । डी.सी.पी. का इनका पीछा छोड़ना पड़ेगा ।”
“कब तक छोड़ेगा ?”
“छोड़ ही चुका है । अब तो ये लोग तफ्तीश में सहयोग देने के लिये अपनी मर्जी से यहां मौजूद हैं ।”
“ये अच्छी खबर है । यही सुनना चाहते थे हम ।”
“नाग साहब, आप डी.सी.पी. को जरा हड़का जायेंगे तो वो बिल्कुल ही ठण्डा पड़ जायेगा ।”
“तेरी तरफ से भी ?”
“मेरी तरफ से तो नहीं ।” - नसीबसिंह चिन्तित भाव से बोला - “मेरी तो वो खूब खबर लेने का मन बनाये है । मुझ पर ऐसा जाहिर भी कर चुका है ।”
“वो तेरे जोन का डी.सी.पी. है ?”
“नहीं ।”
“तो फिर वो तेरे पीछे क्यों पड़ा है ?”
“मौकायवारदात, ये जगह, उसके जोन में आती है ।”
“तेरा डी.सी.पी. कौन है ?”
“मनोहरलाल ।”
“मैं जानता हूं उसे ।”
“फिर क्या बात है, नेता जी, आप तो एक इशारा डी.सी.पी. मनोहरलाल को मेरी बाबत कर देंगे तो मेरे तमाम कंटक कट जायेंगे ।”
“देखेंगे ।”
“नेता जी, आपके पांव पड़ता हूं, भूल न जाइयेगा, कुछ कर ही डालियेगा ।”
“अच्छा, अच्छा ।”
“शुक्रिया, हुजूर ।”
फिर नसीबसिंह ने सच में ही दोहरे होकर नेता की चरण रज ली ।
“अब बात का लुब्बोलुआब ये हुआ कि झामनानी वगैरह आजाद हैं और बाकी जो कुछ यहां हुआ, उन बदमाशों की वजह से हुआ जो कि ए.सी.पी. के साथ एनकाउन्टर में मारे गये ?”
“हां, हुजूर ।”
“बढिया । बढिया ।”
***
“सब छूट गये, मामू ।” - हाशमी बोला - “हवा की तरह आजाद हो गये ।”
“सब ?” - मुबारक अली बोला - “वो सिन्धी भाई, वो सरदार, वो भैय्यन, वो लाला, सब ?”
“हां मामू ।”
मुबाकर अली ने कहरभरी निगाहों से अली वली की तरफ देखा ।
“खता माफ, मामू ।” - अली ने फरियाद की ।
“दोबारा ऐसी कोताही नहीं होगी ।” - वली ने उसके सुर में सुर मिलाया ।
“उधर जो पुलिस का इतना, वो क्या कहते हैं अग्रेजी में, अमला पहुंचा था, बेकार पहुंचा था ? कोई केस न बनाया अल्लामारों ने ?”
“नहीं ही बनाया, मामू, वरना क्योंकर सब के सब छुट्टे घूम रहे होते ?”
“असलाह और नशा पानी के सामान की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में....”
“हेरोइन ।”
“हां । हीरोइन की । उसकी पकड़ धकड़ बरामदी तो हुई होगी ?”
“कुछ नहीं हुआ । कुछ नहीं मिला । खाली एक होल्ड अप की नाकाम कोशिश हुई जिसमें वो बेचारे अमरदीप और शैलजा मारे गये जिनकी वजह से कि सोहल और उसकी बेगम की जान बची थी ।”
“और जो” - अशरफ बोला - “बिरादरीभाइयों के खिलाफ वादामाफ गवाह बनने वाले थे ।”
“अब गवाह खत्म” - हाशमी बोला - “केस खत्म ।”
“ये तो बहुत बुरा हुआ ।”
“पुलिस का अपना किरदार है, मामू, जो कि फिर खेल खेल गया । हमेशा यही होता है । ताकतवर छूट जाता है, कमजोर मारा जाता है ।”
“अल्लाह !” - मुबारक अली असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला - “लगता है सोहल की दुश्वारियां कभी खत्म नहीं होने वाली । अब उसका एक काम और बढ गया ।”
भांजों की भवें उठीं ।
“अरे नामाकूलो, अब वो अपनी धमकी पर खरा उतर के दिखायेगा कि नहीं दिखायेगा ? बिरादरीभाइयों के छूट जाने की सूरत में वो तो कमिश्नर तक का सिर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कलम कर जाने का बड़ा बोल बोल गया, अब जो वो बोला, उस पर अमल करेगा या कान लपेट लेगा ?”
“अमल करेगा ।” - हाशमी बोला - “करना पड़ेगा ।”
“तो ? उसका काम बढा या न बढा ?”
“बराबर बढा ।”
“अब कोताही करने वालों को खामियाजा भुगतना पड़ेगा या नहीं पड़ेगा ?”
“पड़ेगा ।”
“उसे फिर इधर आने का खतरा मोल लेना पड़ेगा या नहीं पड़ेगा ?”
“क्या जरूरत है, मामू ।” - अली जोश से बोला - “हम जो हैं ।”
“हम हैं लेकिन किसलिये हैं ! उसकी मदद के लिये हैं जो कि हम रहती जिन्दगी तक करेंगे लेकिन उसका, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, दस्तूर है कि वो अपने मुजरिम को सजा खुद देता है इसलिये उसे इधर आना पड़ेगा । इधर आना पड़ेगा क्योंकि वो कभी किसी को फर्जी धमकी नहीं देता । अल्लाह ! अपने सरदार का ये गर्दिश का दौर कब खत्म होगा ! कभी खत्म होगा भी या नहीं !”
कोई कुछ न बोला ।
“पिछले जुम्मे को क्या बोला, मैं सोहल को ?”
“क्या बोला, मामू ?” - वली बोला ।
“मैं बोला जानकारी ताकत । तभी मैं तुम लोगों को इन दादाओं को और उनके तमाम के तमाम कारिन्दों प्यादों को निगाह से बीन करके रखने को बोला । अब, नामाकूलो, बोला कि न बोला ?”
“बराबर बोला, मामू ।” - हाशमी बोला - “तभी तो हम उन लोगों की ख्वातीन को थाम पाये और बाजारिया ख्वातीन सोहल और उसकी बेगम को छुड़ा पाये ।”
“वो निगाह की बीनी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में....”
“वाच ।”
“वही । अभी भी जारी रखनी है, कम्बख्तमारो । क्योंकि यूं हासिल जानकारी हमारे - सोहल के - फिर काम आयेगी, फिर फिर और फिर काम आयेगी । नहीं ?”
“हां ।”
“इसलिये निगाह की बीनी जारी रहे और, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, वाच की बीनी भी जारी रहे ।”
“बराबर जारी रहेगी, मामू ।”
“पूरी मुस्तैदी से ।”
“पूरी मुस्तैदी से, मामू ।”
“जिससे भी कोताही हुई उसके खाल की मशक ।”
“कुबूल, मामू ।”
“अब दफान होवो और मुझे बिरादरीभाइयों की आजादी की लानती खबर सोहल तक पहुंचाने की बदमजा जिम्मेदारी भुगताने दो । अरे, टलो नसीबमारो ।”
***
इन्स्पेक्टर नसीबसिंह अपने जोन के डी.सी.पी. मनोहरलाल के आफिस के सामने मौजूद था और कभी बेचैनी से टहलता तो कभी ठिठका खड़ा पहलू बदलता डी.सी.पी. के सामने अपनी पेशी का इन्तजार कर रहा था । डी.सी.पी. ने वार फुटिंग पर उसे तलब किया था लेकिन सवा घन्टा उसे वहां एड़ियां रगड़तें बीत चुका था और अभी भी वो इन्तजार का सिलसिला किसी सिरे लगता दिखाई नहीं दे रहा था ।
कोई आध घन्टा पहले डी.सी.पी. एस. पी. श्रीवास्तव वहां पहुंचा था और जाकर डी.सी.पी. मनोहरलाल के साथ उसके आफिस में बन्द हो गया था और तब तक भी वहीं था ।
ज्यों ज्यों मुलाकात में देर लगती जा रही थी, त्यों त्यों नसीबसिंह का लरजता दिल जूते में पहुंचता जा रहा था । बार बार उसे ये अहसास साल रहा था कि वो जितना चबा सकता था उसने उससे कहीं ज्यादा की बुरकी भर ली थी । लेकिन अब वो बढा हुआ कदम पीछे भी तो नहीं हटा सकता था ।
तभी आफिस का दरवाजा खुला ।
उसने आशापूर्ण नेत्रों से दरवाजे की तरफ देखा तो पाया हवलदार डी.सी.पी. श्रीवास्तव के लिये दरवाजा खोल रहा था । वो आदतन तन कर खड़ा हो गया ।
श्रीवास्तव उसकी दिशा में निगाह उठाये बिना लम्बे डग भरता वहां से रुख्सत हो गया ।
हवलदार ने पीछे दरवाजा बदस्तूर बन्द कर दिया ।
नसीबसिंह लपक कर उसके करीब पहुंचा ।
“आपके लिये अभी कोई हुक्म नहीं, इन्स्पेक्टर साहब ।” - हवलदार बोला ।
“यार” - नसीबसिंह चिन्तित भाव से बोला - “साहब कहीं भूल तो नहीं गये मुझे ? उन्हें याद तो है कि उन्होंने मुझे मुलाकात के लिये बुलाया हुआ है ?”
“मैं क्या बोलूं, साहब ?”
“उन्हें याद तो दिला कि....”
“ऐसे नहीं साहब ।”
“तो ?”
“मेरे लिये घन्टी बजेगी तो मैं आपका भी जिक्र कर दूंगा कि आप हाजिर हैं ।”
“ठीक है । ऐसा ही करना ।”
तभी घन्टी बजी ।
हवलदार स्टूल से उठ कर भीतर गया ।
दरवाजा उसके पीछे बन्द हो गया ।
वो उलटे पांव वापिस लौटा ।
“जाइये ।” - वो बोला - “साहब ने आपके लिये घन्टी बजाई थी ।”
नसीबसिंह का सिर सहमति में हिला, उसने अपनी वर्दी को दो तीन जगह से खींच-खांच कर उसकी नामालूम सिलवटें दूर कीं, सिर पर पीक कैप व्यवस्थित की और चौखट लांघ कर डी.सी.पी. के आफिस में कदम रखा ।
हवलदार ने उसके पीछे दरवाजा बदस्तूर बन्द कर दिया ।
नसीबसिंह भीतर अटेंशन हुआ, उसने एड़िया खटखटा कर, तनकर सैल्यूट मारा ।
डी.सी.पी. ने सिर उठाया, अपने रीडिंग ग्लासिज नाक पर से हटा कर मेज पर डाले और गम्भीरता से बोला - “आओ, भई ।”
मुस्तैदी से चलता नसीबसिंह मेज के करीब पहुंचा ।
“बैठो ।”
“थैंक्यू, सर ।”
नसीबसिंह बड़े अदब से एक विजिटर्स चेयर पर बैठा, उसने अपनी पीक कैप सिर पर से उतार कर अपनी गोद में रख ली ।
डी.सी.पी. ने अपलक उसकी तरफ देखा ।
नसीबसिंह उसके निगाह मिलाने की ताब न ला सका, बड़े विचलित भाव से वो परे देखने लगा ।
“रेड क्यों न हुई ?” - डी.सी.पी. बोला ।
“सर” - नसीबसिंह बड़ी सावधानी से शब्द चयन करता हुआ बोला - “तरसेमलाल की वजह से न हुई ।”
“एक्सप्लेन ।”
“उसका फोन न आया ।”
“फोन तो आया । तभी तो तुम वहां गये । ए.सी.पी. प्राण सक्सेना भी ।”
“तब न आया जब आना चाहिये था ।”
“कब आना चाहिये था ?”
“आपको मालूम है, सर ।”
“इन्स्पेक्टर, डोंट स्टार्ट क्विज प्रोग्राम । जो पूछा जाये, उसका साफ और सीधा जवाब दो ।”
“फोन रात को किसी घड़ी आना चाहिये था, सर, जबकि झामनानी की मेजबानी में एशिया के कई बड़े ड्रग लॉर्ड्स वहां उसके फार्म पर जमा हो चुके होते । रेड उन लोगों की गिरफ्तारी के लिये होनी थी जो कि एक बहुत बड़ी वारदात होती । उन लोगों के वहां पहुंच चुकने के बाद तरसेमलाल ने फोन करना था । सर, हम तैयार बैठे इन्तजार करते रहे थे लेकिन कल रात ऐसा कोई फोन नहीं आया था ।”
“वजह ?”
“वजह यही हो सकती है कि जिन लोगों की गिरफ्तारी के लिये हम तैयार बैठे थे, वो कल रात वहां नहीं पहुंचे थे ।”
“कैसे मालूम ? तरसेमलाल ने आखिरकार जब आज फोन किया था तो ऐसा कुछ कहा था ?”
“जी नहीं ।”
“तो कैसे मालूम ?”
“सर, उसका फोन न आना अपने आप में इस बात का सबूत था । वो ड्रग लॉर्ड्स वहां पहुंचे होते तो फोन भी आया होता, वो न पहुंचे इसलिये....”
“क्यों न पहुंचे ?”
“सर, एक वजह मेरे जेहन में है लेकिन जुबान पर लाते झिझक होती है ।”
“क्या ?”
“तरसेमलाल सस्पेंड था, उसकी नौकरी जाने वाली थी, मेरा ख्याल है कि उसने अपना क्रेडिट बनाने के लिये वहां ड्रग लॉर्ड्स की आमद के बारे में झूठ बोल दिया था ।”
“लेकिन हैलीपैड....”
“हैलीपैड की वजह से ही वो नाहक, कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गया था कि कोई खास लोग - कोई खास लोग जिनकी गिरफ्तारी में दिल्ली पुलिस की दिलचस्पी हो सकती थी - वहां आने वाले थे ।”
“ऐसा कुछ नहीं था तो उधर आनन फानन हैलीपैड क्यों बनवाया गया ?”
“उसकी कोई दूसरी वजह भी हो सकती है ।”
“मसलन क्या ?”
“झामनानी का हैलीकाप्टर खरीदने का इरादा होगा ।”
“इसलिये उसने हैलीपैड पहले बनवा लिया ?”
“जी हां ।”
“यानी कि बटन पहले मुहैया कर लिया और उससे मैच करता कोट वो अभी तलाश करेगा ।”
नसीबसिंह खामोश रहा ।
“जवाब दो ?”
नसीबसिंह से जवाब देते न बना ।
“दिस इज शियर नानसेंस । कोई बात बेवजह नहीं होती । तरसेमलाल ने जब पहली बार ये खबर तुम तक पहुंचाई थी तो तुम ने तभी उसका मुंह क्यों नहीं पकड़ा था ? तभी क्यों नहीं कहा था कि वो अपना क्रेडिट बनाने की खातिर झूठ बोल रहा था ?”
“तब मैं यकीन से नहीं कह सकता था कि वो झूठ बोल रहा था ।”
“अब यकीन से कह सकते हो ?”
“पूरे यकीन से तो अब भी नहीं कह सकता, सर, लेकिन....”
“क्या लेकिन ?”
“शक मुझे पूरा पूरा था कि तरसेमलाल फड़ मार रहा था ।”
“अपना शक किसी पर जाहिर किया होता ।”
“मैंने किया था, सर ।”
“किस पर ?”
“अपने ए.सी.पी. साहब पर । प्राण सक्सेना साहब पर ।”
“क्या कहा उन्हें ?”
“यही कि वो एक आम पार्टी थी जिसे तरसेमलाल अपने जाती फायदे के लिये खास जाहिर करने पर तुला हुआ था ।”
“लिहाजा कोई बाहर से नहीं आने वाला था - नहीं आया था - सब लोकल मेहमान थे ?”
“जी हां । झामनानी ने डी.सी.पी. श्रीवास्तव साहब को उन लोगों की लिस्ट भी दी है ।”
“ये सब तुमने ए.सी.पी. सक्सेना को बोला था ?”
“जी हां ।”
“जो कि इस बात की तसदीक करने के लिये जिन्दा नहीं ?”
नसीबसिंह खामोश रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“मुझे क्यों न बोला ?”
“सर, मैंने सोचा था, ए.सी.पी. साहब खुद बोल देंगे ।”
“बहरहाल क्या मशवरा मिला तुम्हें अपने ए.सी.पी. साहब से ?”
“उन्होंने मुझे इन्तजार करने को बोला । वेट एण्ड वाच बोला ।”
“जो कि तुमने किया ?”
“जी ?”
“वेट किया ! वाच किया !”
“जी... जी हां । जी हां ।”
“वेट का नतीजा ये निकला कि तरसेमलाल का फोन, जो कि कल रात को आना था, आज सुबह आया ?”
“जी हां ।”
“क्या बोलने के लिये ? कि झामनानी के खास मेहमान, वो ड्रग लॉर्ड्स, आखिरकार वहां पहुंच गये थे ?”
“जी ! जी नहीं ।”
“तो फिर क्या फायदा हुआ फोन कॉल का ?”
“सर, अब तो मुझे भी उस कॉल में कोई भेद लग रहा है ।”
“अच्छा ?”
“जी हां ।”
“क्या भेद लग रहा है ।”
“मैं जब छतरपुर पहुंचा था तो तरसेमलाल वहां नहीं था । मैंने झामनानी से इस बाबत सवाल किया था तो उसने कहा था कि उसने पिछली रात नौ बजे के करीब उसे एक खास काम से कनॉट प्लेस भेजा था जहां से कि वो लौटा ही नहीं था । कल रात दस बजे के करीब तरसेमलाल मेरे पास आया था, उसने इस बात की तसदीक की थी कि वो झामनानी के काम से निकला हुआ था । उस काम को अंजाम दे चुकने के बाद उसने वापिस फार्म पर ही जाना था । वो साफ बोला था ऐसा । लेकिन अब लगता है कि वापिस न गया...”
“तो कहां गया ?”
“...गया तो झामनानी के हत्थे चढ गया ।”
“क्या मतलब ?”
“उसकी किसी नादानी की वजह से उन लोगों को उस पर शक हो गया होगा । मसलन उन्हें किसी तरह से ये ही मालूम हो गया होगा कि वो पिछली रात चोरों की तरह मेरे से मिलने आया था । नतीजतन जब वो लौटा होगा तो उन्होंने उसे थाम लिया होगा और... और...”
“और क्या ?”
“सर, बात जुबान पर नहीं आती ।”
“उन लोगों ने उसे खत्म... खत्म कर दिया होगा ।”
“सर, सच पूछें तो मुझे यही अन्देशा है ।”
“ये कि हमारा वो हवलदार अब इस दुनिया में नहीं है ? भाई लोगों ने उसका कत्ल करके उसकी लाश ठिकाने लगा दी ?”
“जी हां ।”
“तो फिर आज सुबह तुम्हें वो कॉल किसने की जिसे सुन कर तुम और ए.सी.पी. सक्सेना दौड़े दौड़े छतरपुर पहुंचे ?”
“सर, जाहिर है कि किसी बहुरूपिये ने ।”
“किसी ने तरसेमलाल बन कर उसके लहजे की नकल करके तुम्हें फोन किया ?”
“जी हां ।”
“किस हासिल की खातिर ?”
“हासिल तो, सर, तब सामने आता जबकि वहां हालात नार्मल होते । वहां तो सब उलटा पुलटा हुआ पड़ा था । वहां तो एक नया ही ड्रामा वजूद में आ गया था जिसमें कि ए.सी.पी. साहब शहीद हो गये ।”
“और तुम्हारे लिये सहूलियत कर गये ।”
“जी !”
“तुम्हें कोई भी कहानी कहने के लिये आजाद कर गये क्योंकि उस पर सवालिया निशान लगाने वाला या उसे फर्जी करार देने वाला कोई नहीं ।”
“सर, मैं हकीकत बयान कर रहा हूं ।”
“तो तुम्हें फोन पर अकेले आने के लिये कहा गया और तुम चल दिेये ?”
“नहीं, सर ।”
“नहीं ?”
“नहीं, सर । मैंने पहले अपने इमीजियेट बॉस से मशवरा किया ।”
“इमीजियेट बॉस ? यानी कि ए.सी.पी. सक्सेना ?”
“जी हां ।”
“क्या मशवरा मिला ?”
“यही कि हमें जाना चाहिये था । लेकिन मेरे अकेले जाने के हक में वो नहीं थे इसलिये वो खुद मेरे साथ चले ।”
“डी.सी.पी. श्रीवास्तव को तो तुमने कोई और ही कहानी सुनायी थी ।”
“जी !”
“उन्हें तो तुमने कहा था कि ए.सी.पी. साहब जबरन तुम्हारे साथ चिपक लिये थे, वो तुम्हारे आला अफसर थे इसलिये तुम उनके साथ से इनकार नहीं कर सके थे ?”
“मैंने ऐसा कहा था ?” - चेहरे पर दहशत के भाव लाता नसीबसिंह बोला ।
“हां ।”
“सर, डी.सी.पी. साहब को मुगालता लगा । मैंने हरगिज ऐसा नहीं कहा था ।”
“तो क्या कहा था ?”
“वही जो मैंने आपसे कहा । ये कि ए.सी.पी. साहब मेरे अकेले जाने के हक में नहीं थे इसलिये वो खुद मेरे साथ चले ।”
“तसदीक तो इस बात की ए.सी.पी. साहब से की नहीं जा सकती क्योंकि वो एनकाउन्टर में मारे गये और कहानियां कहने के लिये तुम्हें छोड़ गये ।”
“सर, आप नाहक मेरे पर शक कर रहे हैं । वहां हालात ऐसे भी बन सकते थे कि मैं मारा जाता और ए.सी.पी. साहब बच जाते ।”
“फिर शायद बतौर स्टोरी टैलर मेरे सामने ए.सी.पी. साहब मौजूद होते ।”
नसीबसिंह खामोश रहा ।
“वहां कुछ भी हालात बने, कुछ भी उलटा पुलटा हुआ, कोई भी नया ड्रामा स्टेज हुआ, ये सवाल तो फिर भी अपनी जगह कायम है कि तुम्हें वहां अकेले आने के लिये क्यों कहा गया ? क्यों कहा गया ? जवाब दो ।”
“सर, मुझे तो एक ही जवाब सूझता है ।”
“क्या ?”
“यही कि वो लोग मुझे भी खत्म कर देने का इरादा रखते थे ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि जो तरसेमलाल जानता था, वो मैं भी जानता था, एक का मुंह बन्द करने से बात खत्म नहीं होने वाली थी इसलिये... इसलिये...”
“तुम्हारा भी मुंह बन्द करने की नीयत से उन्होंने बहाने से, तरसेमलाल की फर्जी काल के जरिये, तुम्हें वहां बुलाया ताकि तरसेमलाल की तरह तुम्हारा भी मुंह बन्द किया जा सकता ! और इसीलिये उनका इसरार तुम्हारे अकेले आने पर था !”
“जी हां ।”
“लेकिन तुमने इस बाबत अपने इमीजियेट बॉस से मशवरा किया, बावजूद इसके कि तब अभी तुम्हें उस कॉल के फर्जी होने पर शक भी नहीं हुआ था । शक हुआ होता तो हो सकता था तुम जाते ही नहीं, जाते तो भारी लावलश्कर के साथ जाते । जवाब दो ।”
“जी... जी हां । जी हां ।”
“तुम्हें मशवरा ये मिला होता कि तुम्हें वहां बीस हथियार बन्द लोगों के साथ जाना चाहिये था, पचास हथियार बन्द लोगों के साथ जाना चाहिये था तो तुम यूं जाते ?”
“सर, आला अफसर का हुक्म तो मानना पड़ता । उसके सुपीरियर जजमेंट पर एतबार तो लाना पड़ता ।”
“सुपीरियर जजमेंट । वैरी वैल सैड । वैरी वैल सैड इनडीड । तो तुम ए.सी.पी. सक्सेना के सुपीरियर जजमेंट के सामने नतमस्तक हुए और निर्देश के मुताबिक अकेले जाने की जगह ए.सी.पी. सक्सेना के साथ छतरपुर गये ?”
“जी हां ।”
“तो फर्जी कॉल के पीछे मंशा तुम्हें अकेले छतरपुर बुला कर तुम्हारा कत्ल करना था ताकि जो राज तरसेमलाल जानता था और आगे तुम्हें ट्रांसफर कर चुका था, वो राज राज रह पाता ?”
“ऐसा ही लगता है, सर ।”
“ये जानते बूझते तुम शहीद होने चल दिये ! अकेले ! अनआर्म्ड !”
“ए.सी.पी. साहब के साथ, सर, ए.सी.पी. साहब के साथ ।”
“ए.सी.पी. साहब के पास तोप थी ?”
नसीबसिंह के मुंह से बोल न फूटा ।
“तरसेमलाल से उन लोगों को यू मालूम हुआ कि वो तुम्हें अपना राजदां बना चुका था तो उन लोगों को तुम्हारा कत्ल करना सूझा । तुम्हारे से उन्हें मालूम होता कि हकीकत तुम्हारे जरिये ए.सी.पी. भी जान चुका था तो उन्हें उसको भी एलीमीनेट करना जरूरी लगने लगा । ए.सी.पी. क्योंकि मुझे रिपोर्ट करता था इसलिये मैं भी जहन्नुम की राह पर । यूं सीढी-दर-सीढी ये सिलसिला कमिश्नर तक तो पहुंच ही जाता । नहीं ?”
नसीबसिंह ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“इन्स्पेक्टर, यू आर ए गुड स्टोरी टैलर बट यू आर नॉट ए ग्रेट स्टोरी टैलर । इसलिये ये समझने में मुझे कोई दिक्कत महसूस नहीं हो रही कि असल कहानी कोई और है जिस पर कि पर्दा डालने की हरचन्द कोशिश तुम कर रहे हो । मुझे पूरा पूरा शक है कि हमारे ए.सी.पी. समेत जो जानें वहां गयीं, वो भी इस पर्दादारी के मिशन के तहत ही गयीं । पुलिस का महकमा नीचे से ऊपर तक किस कदर रिश्वतखोरी से लिप्त है, ये किसी से नहीं छुपा । लेकिन डायन भी सात घर छोड़ देती है । अपने ए.सी.पी. के खून से रंगी दौलत बतौर रिश्वत तुमने कुबूल की है तो तुम्हारा खुदा तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा ।”
“सर, ये मेरे पर बेजा इलजाम है । मैंने कोई रिश्वत नहीं खायी । मैं ए.सी.पी. साहब की मौत के लिये हरगिज भी जिम्मेदार नहीं, ऐन वैसे ही जैसे उनकी जगह अगर मैं मर गया होता तो वो मेरी मौत के लिये जिम्मेदार न होते । मैंने जो किया, अपने आला अफसर की हिदायत के मुताबिक किया इसलिये....”
“ए.सी.पी. सक्सेना की मौत को तुम खूब कैश कर रहे हो, इन्स्पेक्टर । वो क्योंकि तुम्हारा मुंह पकड़ने नहीं आ सकता इसलिये तुम जो चाहो उस पर थोप सकते हो ।”
“सर, ऐसा कुछ नहीं है ।”
“तुमने और कुछ कहना है ?”
“जी ! जी नहीं । जी नहीं ।”
“तो फिर मैं अपना फैसला सुनाता हूं ।”
नसीबसिंह घबराया, वो मुंह बाये डी.सी.पी. की तरफ देखने लगा ।
“फ... फैसला ?” - उसके मुंह से निकला ।
“इन्स्पेक्टर नसीबसिंह, आई एम पुटिंग यू अन्डर सस्पेंशन । पैंडिंग डिपार्टमेंटल इंक्वायरी यू आर हेयरबाई सस्पेंडिड फ्रॉम यूअर पोस्ट आफ स्टेशन हाउस आफिसर, पहाड़गंज पुलिस स्टेशन विद इमीजियेट इफेक्ट ।”
नसीबसिंह आसमान से गिरा ।
“सर” - उसने आर्तनाद किया - “ये जुल्म है ।”
“अपनी मुअत्तली के दौरान थाने में कदम रखने की तुम पर पाबन्दी लागू की जा रही है ।”
“लेकिन चार्ज देने के लिये तो मुझे....”
“थाने नहीं जाना पड़ेगा । वहां तुम्हारा काम काज ए. एस. एच. ओ. सम्भाल चुका है ।”
“सम्भाल चुका है ?”
“इसलिये चार्ज तुम यहीं दोगे, मुझे दोगे ।”
“सर, ये गरीबमार हो रही है ।”
“हो नहीं रही है । हो चुकी है । नौजवान ए.सी.पी. प्राण सक्सेना पर । तुम्हारे सदके । कोई बड़ी बात नहीं कि तुम्हारे किये ।”
“सर, मैं बेगुनाह हूं ।”
“न हो, न हो सकते हो । तमाम वारदात में तुम्हारा अहम रोल अन्धे को दिखाई दे रहा है । अफसोस मुझे इस बात का है कि तुम्हारे खिलाफ फौरन कुछ साबित नहीं किया जा सकता । ऐसा न होता तो तुम्हें सस्पेंड करने की जगह सीधा तिहाड़ भेज कर मुझे बहुत खुशी होती ।”
“सर, रहम । रहम ।”
“मैं तुम्हें अन्धेरे में नहीं रखना चाहता । आज के बाद से तुम्हारी हर मूवमेंट को वाच किया जायेगा । तुम्हारी टेलीफोन कॉल्स को टेप किया जायेगा । झामनानी एण्ड कम्पनी से तुम्हारे प्रत्यक्ष या परोक्ष ताल्लुकात पर खास निगाह रखी जायेगी । और ये सिलसिला तब तक चलेगा जब तक कि तुम अपनी जुबानी तमाम हकीकत कह सुनाने को तैयार नहीं हो जाओगे और गुनहगार साबित नहीं कर दिये जाओगे ।”
“सर, मैं बेगुनाह भी तो साबित हो सकता हूं ।”
“जब तक डी.सी.पी. मनोहरलाल इस कुर्सी पर बैठा है, तब तक नहीं हो सकते ।”
“ये तो अन्धेर है । आपने तो मेरे गुनाह का फैसला पहले ही कर लिया हुआ है । जब आप मेरी इंक्वायरी करेंगे तो...”
“मैं नहीं करूंगा । इंक्वायरी आफिसर कोई और होगा । उसको नियुक्त किये जाने से पहले उसकी बाबत तुम्हारी रजामन्दी ले ली जायेगी ।”
“अगर मैं रजामन्द न हुआ तो ?”
“किसी पर तो रजामन्द होगे । तुम्हारा इंक्वायरी आफिसर उसी को नियुक्त किया जायेगा जो तुम्हें कुबूल होगा । समझ गये ?”
“जी हां । समझ तो गया लेकिन....”
“ये सस्पेंशन आर्डर रिसीव करो ।”
“ये धान्धली है, जुल्म है । मैं कोर्ट में जाऊंगा, मैं बहुत ऊपर तक अपील लकाऊंगा, मैं....”
“इन्स्पेक्टर !” - डी.सी.पी. कड़क कर बोला - “रिसीव दि आर्डर्स दिस वैरी मिनट ऑर यू विल बी इन ग्रेवर ट्रबल ।”
कांपते हाथों से नसीबसिंह ने आर्डर रिसीव किया ।
“आफिस कापी के पीछे दर्ज करो कि तुमने अपना चार्ज मुझे सौंपा ।”
नसीबसिंह ने वो भी किया ।
“नाओ गैट दि हैल आउट आफ माई साइट ।”
बुरी तरह से हिले हुए और अपमानित नसीबसिंह ने उठ कर सैल्यूट मारा और वहां से रुख्सत हुआ ।
एक करोड़ रुपये का तसव्वुर उसे अब पहले जैसा लुभावना नहीं लग रहा था ।
***
विमल के मोबाइल की घन्टी बजी ।
उसने कॉल रिसीव की ।
“सलाम, बाप ।” - उसे मुबारक अली की आवाज सुनाई दी - “खादिम बोलता है दिल्ली से ।”
“कैसे हो, मुबारक अली ?”
“बढिया । तू बोल, बाखैरियत है उधर ?”
“हां ।”
“बेगम भी ? साहबजादा भी ?”
“हां । फिलहाल तो मेहर है वाहेगुरु की ।”
“मेहर ही रहनी चाहिये ।”
“फोन कैसे किया ?”
“तेरे लिये खबर है । बात, वो क्या करते हैं अंग्रेजी में, खास किस्म की थी इसलिये तेरे जेबी फोन पर कॉल लगायी ।”
“कोई मुजायका नहीं । बोलो, क्या बात है ?”
“बात यहां के बिरादरीभाइयों से ताल्लुक रखती है । मैं झामनानी वगैरह की बात कर रहा हूं जिन्हें तू यहां पुलिस के हवाले करके गया था ।”
“मैं, समझ रहा हूं । अब सब जेल में हैं न ?”
“छुट्टे घूम रहे हैं । हवा की माफिक आजाद ।”
“अच्छा !”
“उनका तो बाल भी बांका न हुआ जबकि पुलिस वालों को तू बोल के गया था कि बाल ही बांका हो जाने से रह जाये तो रह जाये और कुछ सलामत न बचे । वो नामोनिहाद वादामाफ गवाह जान से गये, ए.सी.पी. जान से गया और दूसरे पुलिसिये ने, उस इन्स्पेक्टर ने, पीछे असलाह या नशा पानी की कोई बरामदी न दिखाई । अपने बड़े साहब लोगों को बोल दिया कि वहां ऐसा कुछ था ही नहीं ।”
“साहब लोगों को यकीन आ गया ?”
“मुकम्मल तौर से तो जाहिर है कि न आया क्योंकि नसीबसिंह, वो इन्स्पेक्टर, मुअत्तल हो गया है । अब उसकी जगह थाने में दूसरा इन्स्पेक्टर ड्यूटी भर रहा है । आजकल इधर थानों में दो इन्स्पेक्टर थाना चलाते हैं न ! एक असलवाला जो कि नसीबसिंह था और दूसरा जुड़वा ।”
“जुड़वा !”
“जोड़ के रखा जाने वाला । जैसे एक बैल थक जाये तो दूसरा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, रहट में जोता जाता है ।”
“ओह ! एडीशनल । एडीशनल स्टेशन हाउस आफिसर । ए. एस. एच. ओ. कहते हैं उस दूसरे इन्स्पेक्टर को ।”
“वही । बहरहाल बात का लुब्बोलुआब ये है कि पीछे पुलिस पर तेरी धमकी कारगर नहीं हुई । इधर बिरादरीभाई आजाद हैं और उन पर कोई केस नहीं है ।”
“ये तो अच्छा नहीं हुआ ।”
“नहीं हुआ । सरदार, तूने पीछे खामखाह नर्माई दिखाई । उन्हें पुलिस के हवाले करने की जगह अल्लाह ताला के हवाले करके जाता तो टंटा ही खत्म हो जाता ।”
“ठीक कहा, मुबारक अली । मैं ही मूर्ख था जो उम्मीद कर रहा था कि मुल्क का कायदा कानून उन्हें बेहतर सजा दे सकता था ।”
“बाप, पुलिस वालों की और ताकत और रसूख वाले बड़े मवालियों की तो आजकल एक ही जमात है ।”
“समरथ को नहीं दोष गुसाईं ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“कुछ नहीं ।”
“अब तू क्या करेगा ? आइन्दा क्या पिरोगराम होगा तेरा ?”
“प्रोग्राम तो यूं खुल्ले छूट गये बिरादरीभाइयों की हस्ती मिटाना ही होगा ।”
“बाप वो भी तो तेरे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मंसूबे से बेखबर न होंगे !”
“क्या मतलब ?”
“उनकी भी तो ऐसीच कोशिश होगी !”
“मेरी हस्ती मिटाने की ?”
“क्या वान्दा है ? न रहे बांस न बजे बांसुरी । मारने वाले को मार डालो, ये भी तो मरने से बचने का तरीका होता है ।”
“तुम्हारी बात सोलह आने सच है, मियां । मैं खबरदार रहूंगा ।”
“बिरादरीभाई क्या कम खबरदार रहेंगे ? वो क्या नहीं जानते होंगे कि उनकी आजादी की बाबत सुनकर तू कैसा तड़पेगा और कैसा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, पलट के वार करेगा ! बाप, जानकारी ताकत । उनको मालूम तू वार करेगा, ये उनकी ताकत ।”
“क्या कहना चाहते हो ?”
“इस बार उन पर वार करना इतना आसान न होगा ।”
“क्यों भला ?”
“अक्ल वाले होंगे तो वक्ती तौर पर गायब हो जायेंगे । तेरे को ढूंढे नहीं मिलेंगे ।”
“ओह ! अभी हो तो नहीं गये गायब ?”
“नहीं । अभी तो नहीं हो गये । अभी तो भांजों ने उन्हें निगाह से बीन के रखा हुआ है ।”
“मियां, ये बहुत दानिशमन्दी का काम किया तुमने । अब बरायमेहरबानी ये सिलसिला जारी रखना ।”
“जारी रहेगा पण तू इधर का रुख कब करेगा ?”
“बहुत जल्द ।”
“मेरे को खबर कैसे लगेगी ?”
“टैक्सी स्टैण्ड पर फोन करूंगा ।”
“बरोबर । मैं उधर न मिलूं तो पीछे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सन्देशा छोड़ना । अपना करतारा करके एक टैक्सी डिरेवर भाई हमेशा उधर होता है ।”
“हमेशा ?”
“तकरीबन हमेशा । उसके पास मैसेज छोड़ेगा तो वो मुझे पाताल से भी ढूंढ कर खबर करेगा ।”
“ठीक है ।”
“इस बार तो मैं जरूर अपने लिये एक, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, आल इन्डिया जेबी फोन का इन्तजाम करता है । तब तक के लिये खुदा हाफिज, बाप ।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया ।
वही खास खबर ‘भाई’ को अमृतलाल नाग उर्फ नेता जी से मिली ।
“शुक्रिया ।” - ‘भाई’ कृतज्ञ भाव से बोला - “शुक्रिया, बिरादर । ये बहुत बड़ा काम किया तुमने मेरा । बन्दा मशकूर है । बदले में कभी भी कोई खिदमत बोलना ।”
“देखेंगे ।” - नेता बोला - “देखेंगे ।”
“पहली फोन कॉल के वक्त मैं एक अहम बात कहना भूल गया था, बरायमेहरबानी वो अब सुनो ।”
“बोलो ।”
“कल झामनानी के फार्म के रास्ते में दुश्मनों ने मेरी कार का एक्सीडेंट करा दिया था जिसमें कि मेरा गार्ड और ड्राइवर मारे गये थे । गाड़ी किराये की थी और गार्ड और ड्राइवर लोकल थे इसलिये उनकी परवाह नहीं पण मेरा मोबाइल उधर कहीं गिर गया है ।”
“तो ?”
“देर सबेर वो हादसा पुलिस की जानकारी में जरूर आयेगा । मुझे अन्देशा है कि तब मेरा मोबाइल भी पुलिस के हाथ पड़ जायेगा जो कि ठीक न होगा ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो ‘भाई’ का मोबाइल है । समझे, बिरादर ?”
“कुछ समझा, कुछ नहीं समझा ।”
“उसमें मुम्बई के, पूना के, दिल्ली के, कराची के, दुबई के, काठमाण्डू, हांगकांग, सिंगापुर वगैरह के मेरे कई कान्टैक्ट्स के नम्बर दर्ज हैं । यूं मेरे कान्टैक्ट्स का पुलिस की जानकारी में आ जाना उनके लिये खतरनाक साबित हो सकता है । देर सबेर मेरे लिये भी ।”
“मेरा भी नम्बर है उसमें ?”
“है तो सही ।”
“‘भाई’, ऐसा फोन तुम्हें नहीं खोना चाहिये था ।”
“नहीं खोना चाहिये था लेकिन मुझे वैसे एक्सीडेंट का कोई इमकान नहीं था जैसा कि हुआ था । यही गनीमत थी कि जान बच गयी थी ।”
“हूं ।”
“बहरहाल गुजारिश ये है कि वो मोबाइल किसी तरह से ढुंढवाओ ।”
“न मिला तो ?”
“मिल जायेगा । उसका नम्बर तुम्हें मालूम है । जो कोई भी मौकायवारदात पर पहुंचे उसको उस नम्बर पर काल लगाने को बोलना, मोबाइल जहां होगा, अपने आप बोलेगा ।”
“बशर्ते कि चालू हुआ ।”
“मैं खुदाबन्द करीम से दुआ करूंगा कि चालू ही मिले, गिर कर बन्द न हो गया हो ।”
“मिल गया तो ?”
“तो उसे एक्सप्रैस कूरियर से मेरे पास भिजवाना ?”
“कहां ? पूना ?”
“मुम्बई । मैं पता बोलता हूं, नोट करो ।”
‘भाई’ ने पता लिखवा कर सम्बन्धविच्छेद किया और फिर हासिल खबर को आगे ट्रांसफर करने के लिये काठमाण्डू में रीकियो फिगुएरा को फोन लगाया ।
उस बार खुद फिगुएरा ने उससे बात की ।
“बिरादरीभाई सेफ हैं, ये अच्छी खबर है” - वो बोला - “लेकिन ये अच्छी खबर तुम्हारे लिये है ।”
“जी !”
“क्योंकि तुम वक्ती तौर पर दिल्ली वालों का कोई आल्टरनेटिव तलाश करने से बच गये । मेरे लिये अच्छी खबर ये होती कि सोहल खत्म हो गया ।”
“ओह !”
“अब उसका खत्म होना जरूरी है । क्योंकि दिल्ली में मुझे उसका जवाब मिल चुका है कि उसे ‘कम्पनी’ की गद्दी कुबूल नहीं । ‘भाई’, तुम्हें फिर से ताकीद है कि एक महीने के वक्त की मियाद खत्म होने से पहले मुझे ये गुडन्यूज मिल जाये कि सोहल इस दुनिया में नहीं है । फालोड ?”
“यस, सर ।”
“दूसरे, दिल्ली वालों ने जो छ: किलो हेरोइन हमसे हासिल की थी उसका उन्होंने आगे अभी तक कोई बिजनेस किया नहीं मालूम होता । मैंने उन्हें वक्त रहते उस फार्म हाउस से हेरोइन किसी ज्यादा सेफ जगह पर शिफ्ट कर देने की ताकीद की थी जिस पर कि उन्होंने अमल जरूर किया होगा क्योंकि अगर हेरोइन पकड़ी जाती तो वो लोग, जैसी कि तुमने तसदीक की, आजाद न घूम रहे होते । उनको बोलो कि एक महीने के भीतर वो माल का रिपीट आर्डर करें । और बोलो कि वो ऐसा न कर पाये तो वो हमारे किसी काम के नहीं । अन्डरस्टैण्ड ?”
“यस, सर ।”
“गुड नाइट ।”
लाइन कट गयी ।
‘भाई’ ने फोन बन्द किया और माथा थाम लिया ।
अब पहले उसने सोहल के खिलाफ कोई स्ट्रेटेजी खड़ी करनी थी ताकि वक्त रहते वो उसकी हस्ती मिटा पाता ।
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