ग्रे एंबेसेडर तेजी से सड़क पर दौड़ रही थी ।
वो वही पुलिस कार थी जिसमें वे विकासपुरी आये थे । ड्राइवर वर्दीधारी हैड कांस्टेबल था । उसकी बगल में राइफलधारी कांस्टेबल मौजूद था । पिछली सीट पर निरंजन सिंह और मनोहर लाल के बीच राकेश मोहन फंसा–सा बैठा था । उसका चेहरा कागज की तरह सफेद पड़ा हुआ था । सर्दी के बावजूद कपड़े पसीने से भीग रहे थे ।
मुश्किल से पांच मिनट बाद ही ड्राइवर को पता चल गया, उनका पीछा किया जा रहा था ।
–"एक सफेद मर्सीडीज हमारा पीछा कर रही है सर । कोई डेढ़ मील से बराबर पीछे लगी है ।" इंसपेक्टर ने गर्दन घुमाकर पिछली खिड़की से देखा ।
–"तेज चलाओ ।"
एंबेसेडर की स्पीड बढ़ गयी ।
मर्सीडीज भी उसी तरह उसके पीछे लगी रही ।
–"हमें पुलिस स्टेशन में ही ठहरना चाहिये था ।" मनोहर लाल बड़बड़ाता–सा बोला–"सौ करोड़ के माल की ख़ातिर कुछ भी किया जा सकता है । वे लोग कोई भी रिस्क ले सकते हैं । बड़ी बात नहीं, वे समझ रहे हों कि उस माल को हम इसी कार में ले जा रहे हैं ।"
–"तुम समझते हो, इस तरह खुलेआम हम पर हमला किया जा सकता है...?"
मर्सीडीज की रफ्तार तेज होनी शुरू हो गयी थी ।
–"एमरजेंसी कॉल करो ।" अचानक इंसपेक्टर के स्वर में बेचैनी का पुट उभर आया था–"आसपास जो भी गश्ती कारें हो हमें यहां उनकी जरूरत है ।"
कांस्टेबल ने नीचे झुककर हैंड सैट उठा लिया । उसने बोलना शुरू किया लेकिन पहला वाक्य भी पूरा नहीं कर सका ।
मर्सीडीज तेजी से यूं आगे आ चुकी थी मानो एंबेसेडर को ओवरटेक करना चाहती थी । कुछेक पल पुलिस कार की बगल में एकदम पास चलती रही ।
–"पागल ! हरामजादे !" इंसपेक्टर चिल्लाया–"रोको । साईड में रोको ।"
इंजिनों के शोर और टायरों की चीख में एंबेसेडर के पिछले हिस्से पर हुई धातु की आवाज़ दब गयी ।
इंसपेक्टर को सिर्फ इतना वक्त मिला कि पलटकर डिग्गी के ढक्कन के ऊपर देख सके ।
जब तक पुलिस कार के ड्राइवर ने ब्रेक लगाये मर्सीडीज तूफ़ानी रफ्तार से आगे जा चुकी थी ।
–"यह क्या ?" इंसपेक्टर बोला–"डिग्गी पर कोई गोल–सी चीज चिपकी है...।"
तब तक मैगनेटिक एक्सप्लोसिव डिवाइस में प्लास्टिक कंपोजीशन के साथ कसकर पैक किया गया कैमिकल फ्यूज ऑपरेट हो चुका था ।
भयंकर विस्फोट ।
आग और धुएँ का विशाल गोला आसमान की ओर लपका । पुलिस कार के पिछले हिस्से के परखच्चे उड़ गये । विस्फोट का असली जोर राकेश मोहन की पीठ पर रहा । उसकी सिर्फ आधी टांग ही बची । घुटनों से ऊपर शेष शरीर खून से सने मांस के लोथड़ों में बदल गया । दायीं ओर बैठे निरंजन सिंह और बायीं ओर मनोहर लाल के शरीर दो हिस्सों में बँट गये थे ।
आग की लपटों में घिरा अगला भाग कार से अलग हो कर दूर एक मोटे पेड़ से जा टकराया और ड्राइवर और कांस्टेबल के लुगदी बने शरीर उसी में जल गये ।
इत्तिफाक ही था कि विस्फोट के वक्त एंबेसेडर के आगे दूर तक कोई वाहन नहीं था वरना जिस तरह अगला हिस्सा कार से अलग हुआ था हताहतों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ जानी थी ।
एंबेसेडर के पीछे करीब दो सौ गज के अंदर तीन कारें थीं । उनमें सवार लोगों की किस्मत अच्छी थी या फिर किसी चमत्कार ने ही उन्हें बचा दिया । हालांकि विस्फोट से उन तीनों कारों की विंडशील्ड चूर–चूर हो गयी थी और उनकी स्पीड भी तेज थी फिर भी जोर से आपस में नहीं टकरायीं । टक्कर मामूली थी । एक ड्राइवर की बाँह टूट गयी और बाकी दो के चेहरों पर हल्की खरोंचे आयीं ।
* * * * * *
एक चश्मदीद गवाह ने बाद में बताया–मर्सीडीज अचानक एंबेसेडर को ओवरटेक कर रही थी जबकि एंबेसेडर की स्पीड अपेक्षाकृत धीमी थी । जोर से ब्रेक लगाकर उसे साईड में रोकने की कोशिश की जा रही थी । ठीक उसी वक्त मर्सीडीज की पिछली सीट पर मौजूद एक आदमी ने गोल–सी कोई काली चीज एंबेसेडर के पिछले भाग पर फेंकी जो डिग्गी पर जा चिपकी और मर्सीडीज फौरन तेजी से आगे दौड़ गयी । विस्फोट से पहले मर्सीडीज करीब दो सौ गज दूर जा चुकी थी...फिर एंबेसेडर में विस्फोट हुआ...भयंकर धमाके के साथ आग और धुएँ का विशाल गोला नजर आया । कार का पिछला हिस्सा उसमें घिर गया और अगला हिस्सा राकेट की तरह निकलकर पेड़ से जा टकराया...बारूद और गोश्त जलने की मिली–जुली तेज बू फैलने लगी ।
* * * * * *
उस सड़क पर ट्रैफिक बंद कर दिया गया ।
स्थानीय पुलिस, फायर ब्रिगेड की मदद से आग बुझाने और मलबे को हटाने में व्यस्त हो गयी । सफेद मर्सीडीज के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की जा रही थी ।
* * * * * *
पूरा पुलिस विभाग सतर्क हो गया–मानों नींद से अचानक झंझोड़कर जगा दिया गया था ।
चार पुलिस वालों को अपनी ड्यूटी करते वक्त दिन–दहाड़े खुलेआम बम विस्फोट से उड़ा दिये जाने की सनसनीखेज खबर ने जहां आम जनता में दहशत फैलाने का काम किया, वहीं दूसरी ओर हर एक पुलिसमैन नफरत और गुस्से से जल उठा...अपने साथियों के खौफनाक अंजाम का बदला लेने के लिये वे कुछ भी करने को बेताब थे ।
इस भयानक कांड की प्रतिक्रिया स्वरूप सबके दिमाग में दो ही सवाल थे ।
किसने किया ?
क्यों किया ?
* * * * * *
पुलिस हैडक्वार्टर्स में ।
क्राइम ब्रांच का एस० पी० मदन पाल वर्मा अपने ए० सी० पी० देवराज दीवान से विचार–विमर्श में व्यस्त था ।
–"यह कंटिनजेंसी प्लान था और इसे पहले ही तय कर लिया गया था ।" ए० सी० पी० अपने ऑफिस की खिड़की से सड़क पर गुजर रहे यातायात को देखता हुआ बोला–"वे सब पेशेवर लोग हैं । हमारा मुकाबला अनाड़ी मुजरिमों से नहीं है ।"
–"खिलाड़ियों से है ।" वर्मा धीरे से बोला–"और राकेश मोहन पेशेवर नहीं था । उसका कहीं कोई रिकार्ड नहीं है । इसलिये यह मेरी समझ में नहीं आता । हमारी कोशिश जारी है । उसके हुलिये के आधार पर पूछताछ की जा रही है ।"
वह गहरी सांस लेकर चुप हो गया । उसका चेहरा गमजदा था । निरंजन सिंह और मनोहर लाल को वह अच्छी तरह जानता था । दोनों काफी अर्से से उसके मातहत थे ।
–"बेचारे निरंजन और मनोहर अच्छे अफसर थे ।" उसने यूं कहा मानों खुद से बातें कर रहा था–"बस थोड़े सख्त मिज़ाज थे । कभी–कभी ज्यादा ही सख्त हो जाते थे । लेकिन...!"
दीवान के गले से गुर्राहट–सी निकली । इससे ज्यादा अपने जज्बात को जाहिर वह नहीं करता था ।
–"मेरी समझ में अभी भी नहीं आ रहा है, इतना बड़ा कन्साइन्मेंट लेकर राकेश सीधा शहर में चला आया ।"
–"वह अकेला नहीं था, सर !"
–"ऐसा ही लगता है ।" दीवान विचारपूर्वक बोला–"ज्योहिं निरंजन उसे खुले में लेकर आया, उन लोगों ने उसे खत्म कर दिया ।"
–"साथ में हमारे दो अच्छे ऑफिसर और दो अच्छे पुलिसमैन भी मारे गये और हमारे पास रह गयी सौ किलो हेरोइन ।"
–"यह एक और खौफनाक बात है ।"
–"क्या ? इसकी कीमत ?"
–"कीमत नहीं, इसका वजन । इतनी बड़ी खेप मंगाने वाला इस शहर में कौन है ?"
–"कोई नहीं ।"
–"इतना बड़ा कन्साइन्मेंट किसी ड्रग माफिया का ही हो सकता है ओर वो यहां कोई नहीं है ।"
–"अगर वे लोग यहां मार्केट शुरू भी करना चाहते हैं तो भी उनका स्टाइल यह नहीं है । आजकल उनके काम करने का ढंग बदल गया है । वे खून–खराबे से दूर ही रहते हैं । इस तरह चार पुलिस वालों को एक साथ मार डालना तो दूर रहा किसी बेकसूर आम शहरी तक को बेवजह मारने से वे बचते हैं ।"
–"उनका स्टाइल यह नहीं है और इस शहर में ऐसा कोई नहीं है, जो इतनी बड़ी खेप मंगा सके । मुझे लगता है इस कन्साइन्मेंट को अमेरिका या रोम भेजने के लिये यहां लाया गया है ।"
दोनों कुछेक पल के लिये चुप हो गये ।
–"विकासपुरी पुलिस स्टेशन से चलने से पहले निरंजन सिंह ने अपने ऑफिस फोन किया था ।" वर्मा बोला–"उसका कहना था, उसके विचार से राकेश नहीं जानता था उसकी कार में हेरोइन है लेकिन साथ ही निरंजन सिंह को यह भी यकीन था राकेश जानता था इसके पीछे कौन है ।"
–"हमेशा यही तो होता है ।" दीवान कुढ़ता हुआ–सा बोला–"ड्रग्स हो या कोई और स्मगल्ड गुडस, बड़ी खेप तभी पकड़ी जाती है जब पहले से टिप मिल जाती है । यही इस दफा भी हुआ । अगर हमें पहले से टिप नहीं मिली होती तो, उस मनहूस बेंटले को हाथ भी हमने नहीं लगाना था और अगर वे लोग माल पकड़वाने वाले थे तो राकेश को सचमुच कुछ पता नहीं रहा होगा । ऐसी कंटिनजेंसी प्लान भी कोई नहीं रही होगी कि जिसमें पुलिस वाले और आम जनता इनवाल्व हो । इस सारे मामले में इतने पेच होने थे कि राकेश को यह तक पता नहीं चलना था कि वह किसके लिये काम कर रहा था । क्या काम कर रहा था, यह तो बहुत दूर की बात है ।"
–"मेरा ख्याल है, इस बारे में रंजीत कोई सही नतीजा निकाल सकता है ।"
ए० सी० पी० जरा भी प्रभावित नहीं हुआ ।
–"हो सकता है ।" बेमन से वह बोला ।
रंजीत मलिक भी क्राइम ब्रांच में इंसपेक्टर था । तेज दिमाग, हौसलामंद और गहरी सूझ–बूझ वाला युवक । उसके शानदार रिकार्ड के बावजूद ए० सी० पी० दीवान जैसे बड़े अफसर उस पर पूरा भरोसा नहीं करते थे । इसमें जलन या हसद का सवाल नहीं था । ज्यादातर पुलिस ऑफिसर अपने अच्छे कुलीग और अच्छे मातहत की खुलकर तारीफ किया करते हैं । रंजीत की शख्सियत में ही कुछ ऐसा था कि उस पर एतबार वे नहीं कर पाते थे । शायद इसकी वजह यह तथ्य था कि वह थोड़े समय में ही काफी कुछ कर चुका प्रतीत होता था और उसके तजुर्बात उसे विभिन्न राहों पर चलना सिखाते हुये तेजी से तरक्की और कामयाबी की ओर ले जा रहे थे जबकि एस० पी० जैसे अधेड़ पुलिस वाले बरसों पुरानी लीक पर चलने के आदी थे ।
दीवान मेहनती, ईमानदार और कुशल ऑफिसर था । ए० एस० आई० से तरक्की पाता हुआ विभागीय परीक्षा पास करते–करते वह मौजूदा पोजीशन तक पहुंचा था । उसकी सोच और कार्य प्रणाली अपने हमउम्र अफसरों जैसी थी ।
जबकि रंजीत मलिक हैंडसम युवक था । कानून की मदद करने और अपने मकसद को हासिल करने के लिये कानून को अपने हाथ में लेने से भी नहीं चूकता था । यह अलग बात थी कि इस काम को बेहद सफाई से करता था । ए० एस० आई० से तरक्की करके कुछेक सालों में ही वह इंसपेक्टर बन गया था और इतना ज्यादा तजुर्बा उसके पास था कि एस० पी० और उसके हमउम्र दूसरे अफसर इतनी उम्र में हासिल नहीं कर पाये थे ।
मसलन रंजीत के पिता इंडियन फारेन सर्विसेज में एक बड़े अधिकारी थे । फलस्वरूप रंजीत की जिंदगी के करीब बीस साल विदेशों में खासतौर पर अमेरिका और दुबई में गुजरे थे । रंजीत की मां दुबई में जा बसे एक भारतीय ईसाई परिवार से थी । इस तरह रंजीत में दो धर्मों और दो देशों की संस्कृति का समावेश होता चला गया था । इन दोनों बातों ने मिलकर उसे सबसे अलग बना दिया था ।
उसने तकरीबन पूरी तालीम भी दुबई और न्यूयार्क में ही हासिल की थी । उसकी शुरू से से ही इंडिया में पुलिस अफसर बनने की ख़्वाहिश थी । इसलिये उसने कानून और जुर्म का गहरा अध्ययन किया । दुबई में कई पुलिस अफसरों से अभी भी उसके दोस्ताना ताल्लुकात थे । अपनी मां के परिवार और पिता की नौकरी की वजह से जिनके संपर्क से वहां वह आया था । वहां के अधिकांश कुख्यात अपराधियों को भी वह पहचानता था, जो वहां रहकर दूसरे देशों में अपने संगठनों को चला रहे थे और जिनकी फोटुएं अक्सर वहां के अखबारों, पत्रिकाओं वगैरा में छपती रहती थीं ।
पूरे करीमगंज पुलिस विभाग में ऐसी बैक ग्राउंड किसी और अफसर की नहीं थी । इसलिये विभाग का हिस्सा होते हुये भी रंजीत मलिक सबसे अलग था । एस० पी० दीवान उसकी होशियारी और काबलियत की तारीफ तो करता था लेकिन उसकी शख्सियत की बाकी खूबियों को नहीं पचा पाता था ।
* * * * * *
एक रात गुजर गयी ।
पुलिस पूर्णतया सक्रिय थी । रूटीन कार्यवाही जारी थी । चुपचाप जानकारी हासिल करने की कोशिश भी की जा रही थी–विभिन्न सोर्सेज के जरिये बेंटले में मिले सूटकेस में मौजूद कपड़ों के बारे में विभिन्न स्टोरों पर पूछताछ की जा रही थी ।
राकेश मोहन से जो मालूमात निरंजन सिंह और मनोहर लाल ने प्राप्त की थी, वो उनके साथ ही विस्फोट में उड़ गयी थी ।
कोई नया एवीडेंस पुलिस के सामने नहीं आया । न तो राकेश मोहन के बारे में पता चला कहां रहता था, क्या करता था वगैरा और न ही सफेद मसीडीज के विषय में कोई सूचना मिली ।
राकेश मोहन के बारे में जानकारी प्राप्त करने की पुलिस की तमाम उम्मीदें बेंटले पर टिकी थीं । लेकिन उसका नम्बर दिल्ली का था । करीमगंज ट्रांसपोर्ट अथारिटी में रजिस्टर्ड वो नहीं थी । ग्लोव कंपार्टमेंट में मिले कार के रजिस्ट्रेशन सर्टिफ़िकेट के मुताबिक उसका मालिक कोई विनय बजाज था । पता फ्रेंडस कालोनी नई दिल्ली का था । दिल्ली पुलिस की सहायता से विनय बजाज को कांटेक्ट करने की कोशिश की गयी तो पता चला बजाज का ढाई महीने पहले देहांत हो गया था और उसका इकलौता बेटा बरसों से विदेश में कहीं सैटल था ।
उम्मीद खत्म ।
बात जहां थी वहीं रही ।
* * * * * *
अगले रोज !
घड़ी की सुईयां अपनी रफ्तार से घूमती रहीं । कोई खास बात तो पता नहीं चल सकी अलबत्ता मामूली–सा तथ्य जरूर सामने आया ।
एक आदमी ने पुलिस को बताया कल तीसरे पहर एक सफेद मर्सीडीज को विकासपुरी के इलाके में उसने देखा था । उसमें चार आदमी सवार थे । लेकिन उनमें से किसी का भी हुलिया या कार का नम्बर वह नहीं बता सका ।
देर तक घुमा–फिराकर बात करने के बाद भी नतीजा वही रहा ।
राकेश मोहन मानों कोई भूत था । बेंटले में सवार होकर शहर में दाखिल हुआ । दो पुलिस अफसरों के साथ रहा और बम विस्फोट में उन्हें साथ लेकर हमेशा के लिये गायब हो गया ।
कोई नहीं जानता था वह कौन था, कहां रहता था और क्या करता था । उसका कोई रिश्तेदार या दोस्त तो दूर की बात थी कोई परिचित या पड़ौसी भी सामने नहीं आया ।
पुलिस का प्रयास जारी था ।
विकासपुरी पुलिस स्टेशन में जिन दूसरे पुलिस वालों ने उसे देखा था । उनके द्वारा बताये गये उसके हुलिये और बेंटले की डिटेल्स को सभी अखबारों में छपवा दिया गया था । रेडियो और टेलीविजन पर प्रसारित कराया जा रहा था । जनता से अपील की जा रही थी उसके बारे में कोई भी सूचना देने को ।
कई घण्टे बाद पहली कामयाबी मिली ।
राकेश मोहन का एड्रेस पुलिस को पता चल गया ।
पिछले करीब चार साल से राकेश मोहन रिंग रोड पर एक अपार्टमेंट हाउस में रह रहा था । चार कमरों के अपार्टमेंट में प्रत्येक आधुनिक सुविधा मौजूद थी । कीमती आरामदेह फर्नीचर । किचिन में बिजली से चलने वाले वे तमाम आवश्यक उपकरण जिनका आमतौर पर विज्ञापन दिया जाता है । सुन्दर सिल्वर कटलरी । आयातित क्रॉकरी । वार्डरोब में मौजूद दर्जनों सूट और दूसरे कपड़े सब महंगे और मशहूर स्टोरों से खरीदे गये थे । इम्पोर्टेड हेल्मेट और ड्राइविंग सूट । महंगी शराब की बोतलों से सजी बार ।
कुल मिलाकर राकेश मोहन का रहन–सहन विलासपूर्ण रहा था ।
अपार्टमेंट में पहुंचे पुलिस दल के पास राकेश के फिंगर प्रिंट्स नहीं थे, इसलिये फिंगर प्रिंटिंग में समय लगना था ।
एक एस० आई० ने वहां मौजूद पुस्तकों, पेपर्स वगैरा की छानबीन शुरू कर दी । उनसे खास कुछ पता नहीं चल सका । मृतक के किसी दोस्त या रिश्तेदार या बैंक का कोई जिक्र उसमें नहीं था । ज्यादातर किताबें कारों और कार रेसिंग से सम्बन्धित थीं और बाकी वे नावल थे जो बैस्ट सेलर्स लिस्ट में रहे थे ।
एक कांस्टेबल ने इमारत के वाचमेन से बातें कीं मगर ज्यादा कुछ पता नहीं लगा सका ।
बाद में उसी पुलिस दल के इंचार्ज इंसपेक्टर विनोद गुप्ता ने वाचमैन सुन्दरलाल से पूछताछ की ।
हालांकि वाचमैन को किसी ने साफतौर पर नहीं बताया लेकिन वह समझ गया कि राकेश मोहन मर चुका था । प्रत्यक्षतः वह हैरान और गमगीन–सा था ।
–"यहां कब से काम करते हो ?" इंसपेक्टर ने पूछा ।
–"तीन साल से, साहब ।"
–"राकेश मोहन को जानते थे ?"
–"जी हां । बहुत अच्छा और खुशमिजाज आदमी था ।"
इंसपेक्टर ने उसे घूरा ।
–"तुम्हें कैसे पता चला वह मर चुका है ?"
–"आपके कांस्टेबल की बातों से साफ जाहिर था ।"
–"राकेश कब से यहां रह रहा था ?"
–"मेरे आने से भी पहले से ।"
–"तुम उसे अच्छी तरह जानते थे ?"
–"मैं मामूली चौकीदार हूँ, साहब । अच्छी तरह कैसे जान सकता था ? राकेश साहब आते जाते हालचाल पूछ लिया करते थे ।"
–"बख्शीश वगैरा भी देता था ?"
–"जी हां ।"
–"काफी पैसे वाला था ?"
–"यह तो पता नहीं लेकिन ठाठ से रहते थे । खुला खर्च करते थे ।"
–"यहां सब लोग वैसे ही ठाठ से रहते हैं ?"
–"जी नहीं । राकेश साहब सबसे अलग थे ।"
–"वह करता क्या था ?"
–"पता नहीं ।"
–"कहां काम करता था ?"
–"पता नहीं ।"
–"यहां कोई उसका दोस्त या इतना नज़दीकी रहा है कि उसके बारे में बता सके ?"
–"मेरी जानकारी में तो नहीं है ।"
–"बाकी लोगों की तरह वह भी रोजाना काम पर जाया करता था ?"
–"उसके जाने–आने का कोई निश्चित समय नहीं था ।"
–"कोई खास शौक था उसे ?"
–"यह मुझे नहीं मालूम लेकिन राकेश साहब को कारों और कार रेस में बेहद दिलचस्पी थी ।"
"तुम्हें कैसे पता ?"
–"इन विषयों की किताबें, मैगजीन वगैरा अक्सर उनके पास हुआ करती थीं । कई बार इसी बारे में बातें भी करते थे ।"
–"उसके पास ये कलर की कार थी ?"
–"जी हां, बेंटले । करीब पांच महीने पहले खरीदी थी । मुझे यह बात बड़ी अजीब लगी...।"
–"क्यों ?"
–"क्योंकि राकेश साहब ने फोर्ड बेचकर यह खरीदी थी । इतनी बड़ी और भारी कार उसके मिजाज और शख्सियत से मेल नहीं खाती थी । जबकि बाकी हर एक मामले में उसकी पसंद लाजवाब होती थी । मेरी इस बात से वह भी सहमत था ।"
–"तो फिर उसने यह कार खरीदी ही क्यों ?"
–"जरूर कोई खास वजह रही होगी ।"
–"क्या ?"
–"यह मुझे नहीं मालूम । लेकिन एक शाम वह बहुत ही अच्छे मूड में था तो मैंने कहा कि फोर्ड की जो शान थी, वो इस कार की नहीं है । वह हंसकर बोला–सुन्दरलाल, कभी–कभी दूसरों की खुशी के लिये अपनी पसंद को भी मारना पड़ता है–मैं समझ गया किसी को खुश करने के लिये ही उसने वो कार खरीदी थी ।"
–"किसे ? किसको खुश करने के लिये ?"
–"यह उसने नहीं बताया ।"
–"तुमने पूछा था ?"
–"मैंने किसलिये पूछना था, साहब ! मैं मामूली दरबान हूं उसका कोई यार–दोस्त नहीं । मेरे लिये उसका हंसकर बोलना और तगड़ी टिप देना ही काफी था ।"
–"उसके किसी दोस्त को जानते हो ?"
–"जी नहीं ।"
–"यहां कोई उससे मिलने आता था ?"
–"बहुत ही कम लोग आते थे । अक्सर मिलने आने वाली सिर्फ एक लड़की थी ।"
–"उसका नाम ?"
–"वो मैं नहीं जानता लेकिन बहुत ही ज्यादा खूबसूरत थी ।"
–"उसका हुलिया ।"
–"ऊंचा कद, इकहरा सुडौल शरीर, गोरा रंग, काले–घने बाल और सुंदर नैन–नक्श । वह अक्सर पूरी रात भी यहां गुजारती थी ।"
–"राकेश मोहन शहर से बाहर भी जाता था ?"
–"यह तो नहीं मालूम लेकिन कई–कई रोज गायब जरूर रहता था ।"
–"गायब ?"
–"मेरा मतलब है, कई–कई रोज यहां नजर नहीं आता था ।"
इंसपेक्टर ने घुमा–फिराकर और भी कई सवाल किये लेकिन कोई नई बात पता नहीं चल सकी ।
सुबह तक भी वह पहेली ही बना रहा ।
अगले सारा दिन पुलिस की कोशिशें जारी रहीं ।
पुलिस ने प्रत्येक संभव प्रयत्न किया लेकिन नतीजा वही रहा ।
कोई ताजा लीड नहीं मिल सकी ।
लेकिन उसी रात होटल अकबर में हुई एक वारदात ने इस मामले को बड़ा ही अनपेक्षित मोड़ दे दिया ।
0 Comments