गुरुवार : 20 नवम्बर
बन्दरगाह से निकासी के रास्ते पर सड़क से पार इमारतों की पहली कतार के पीछे एक चौदह मंजिला इमारत थी जो कि आसपास की सब से ऊंची इमारत थी। उस इमारत के टॉप पर, उसकी छत पर विराट पंड्या मौजूद था। वो शाम साढ़े पांच बजे से ही वहां पहुंचा हुआ था और इस बात की तसदीक कर चुका था कि वहां छत पर उसे कोई डिस्टर्ब करने वाला नहीं था। वो एक कमर्शियल इमारत थी जिसमें पचास से ज्यादा छोटे बड़े आफिस थे और जिसमें आवाजाही पर कोई रोक टोक नहीं थी। पांच बजने तक अस्सी फीसदी आफिस बन्द हो गये थे और शाम की उस घड़ी छत पर किसी की आमद का माहौल वहां नहीं दिखाई देता था और ये बात पंड्या को बहुत मुतमईन कर रही थी।
तब तक सूरज डूब चुका था लेकिन उसका प्रतिबिम्बित उजाला अभी भी आकाश पर बाकी थी। पंड्या जानता था कि वो उजाला बस थोड़ी देर ही और बरकरार रहना था, फिर वातावरण में अन्धेरा छा जाने वाला था।
उस घड़ी वो छत की उस मुंडेर के करीब खड़ा था जिस का रुख बन्दरगाह की तरफ था। उसके अधिकार में नाइट विजन ग्लासिज से लैस एक शक्तिशाली दूरबीन थी जिसके जरिये वो अन्धेरा छा जाने के बाद भी बन्दरगाह से निकासी के रास्ते पर तो बाखूबी नजर रख ही सकता था, आसपास भी दूर दूर तक निगाहबीनी कर सकता था। दूरबीन के जरिये पिछले आधे घन्टे से वो निकासी के रास्ते की जगह आसपास के इलाके को बारीकी से छान रहा था—उस बीच गाहे बगाहे निकासी के रास्ते पर भी उसकी निगाह पड़ती ही रहती थी—फिलहाल उसे लोगों का ऐसा कोई समूह अभी तक नहीं दिखाई दिया था जिसे कि वो शिशिर सावन्त के लिये बैक अप का दर्जा दे पाता। ऐसे कोई लोग वहां होते तो उसकी अक्ल कहती थी कि उन्हें निकासी के रास्ते के आसपास ही कहीं मंडराते होना चाहिये था, फिर भी उसने अपनी दूरबीन की शक्ति और नाइट विजन का फायदा उठाते दूर दूर तक निगाह दौड़ाई थी—इतनी दूर तक कि बन्दरगाह से परे एक बाजू उसे एक उजाड़, नीमअन्धेरा प्राइवेट पायर तक दिखाई दिया था—लेकिन ऐसे कोई प्यादे उसे कहीं नहीं दिखाई दिये थे जो कि उसके मौजूदा आपरेशन के तहत उसकी तवज्जो का मरकज बन पाते।
तब तक अन्धेरी रात का आसमान पर मुकम्मल कब्जा हो चुका था।
वक्त खामोशी से गुजरता रहा।
तभी उसके मोबाइल की घन्टी बजी।
उसने मोबाइल निकाल कर पहले घड़ी पर निगाह डाली।
सवा छ: बज चुके थे।
फिर उसकी स्क्रीन पर निगाह डाली।
अपेक्षानुसार काल करने वाला सुहैल पठान था।
दोनों ने पहले से अपने अपने मोबाइल पर एक दूसरे का नम्बर स्पीड डायलिंग पर लगाया हुआ था ताकि वाकी-टाकी की तरह उन में तुरन्त, अविलम्ब सम्पर्क हो पाता।
उसने काल रिसीव की।
“अभी तक तो आया नहीं हमारा भीड़ू!”—उसे पठान की आवाज आई जिस में उत्कण्ठा का पुट था।
“आ जायेगा।”—पंड्या लापरवाही से बोला।
“या मेरे को दिखाई नहीं दिया!”
“ये तेरे को मालूम हो।”
“बाहर एक ही तो जगह है, निकासी का एक ही तो रास्ता है!”
“तो फिर क्यों फिक्र करता है?”
“जहाज तो मैंने मालूम किया कि पहुंचा ठीक छ: बजे।”
“बढ़िया। अभी हमारा पैसेंजर उड़ के तो बाहर नहीं आयेगा! शिप से उतरने में ही टेम लग जाता है। फिर उसने कस्टम पर भी हाजिरी भरनी है। बोले तो उसके बाहर आने में सात-पौने सात बज जाना कोई बड़ी बात नहीं।”
“इसी वास्ते सावन्त लेट?”
“हो सकता है।”
“बैक अप का क्या बोलता है? कहीं कुछ दिखाई दिया?”
“नहीं। दूर दूर तक बारीकी से निगाह दौड़ाई। अभी वैसा कुछ दिखाई नहीं दिया।”
“बोले तो बैक अप आयेगा तो सावन्त के आगे पीछे ही आयेगा!”
“हो सकता है।”
“ठीक है। अभी देखता है। वेट करता है।”
“बढ़िया।”
इन्तजार चलता रहा।
साढ़े छ: बज गये।
अब पंड्या को भी चिन्ता होने लगी।
क्या उसे गलत टिप मिली थी?
या जो भीड़ू पैसेंजर को रिसीव करने आने वाला था, उसकी बाबत उसे गलत खबर मिली थी—वो शिशिर सावन्त नहीं, कोई और था जिसे कि वो—पठान भी नहीं—पहचानता ही नहीं था! यूं तो जो होना था हो सकता था वो हो भी चुका होता और उन को खबर ही न लगती।
नये सस्पेंस के हवाले वो पठान को फोन लगाने ही लगा था कि एकाएक ठिठका।
सामने सड़क पर एक सफेद आई-10 आ कर रुकी।
उत्सुकतावश उसने दूरबीन को उस पर फोकस किया।
पैसेंजर साइड का अगला दरवाजा खुला और शिशिर सावन्त ने बाहर कदम रख।
पंड्या ने चैन की लम्बी सांस ली।
आखिर।
लेकिन कार की ड्राईविंग सीट पर कोई था जो कि कार को चला कर वहां लाया था।
ड्राइवर!
कैसे हो सकता था?
सावन्त तो आगे से उतरा था। कार ड्राइवर चला रहा होता तो वो पीछे बैठा होता!
तो कौन?
तभी कार आगे बढ़ चली।
बाजरिया दूरबीन पंड्या उस पर अपनी निगाह टिकाये रहा।
करीब ही पार्किंग थी जिसकी ऐन्ट्री पर कार पहुंची और वहां बने अटेंडेंट के केबिन पर ठिठकी। वहां ड्राइवर को एक कम्प्यूट्राइज्ड रसीद थमाई गयी। तत्काल कार आगे बढ़ी, एक जगह पार्क हुई, ड्राइवर उसमें से बाहर निकला और व्यस्तता जताता वापिस लौटा।
पंड्या ने उस पर दूरबीन को फोकस किया।
उसने देखा वो कोई फिल्म स्टार्स जैसी पर्सनैलिटी वाला लम्बा तड़ंगा, गोरी रंगत वाला क्लीनशेव्ड नौजवान था जो डेनिम की बड़ी स्टाइलिश जींस-जैकेट और चैक की लाल शर्ट पहने था और जो ड्राइवर किसी सूरत में नहीं हो सकता था।
क्या माजरा था?
जींस-जैकेट वाला लम्बे डग भरता वहां पहुंचा जहां उसने सावंत को उतारा था। फिर वो दोनों आजू बाजू चलते बन्दरगाह की ‘डिपार्चर’ रोड पर चल पड़े और तब उन की पंड्या की तरफ पीठ हो गयी।
नहीं—पंड्या ने निर्णायक भाव से फैसला किया—वो दूसरा भीड़ू ड्राइवर नहीं हो सकता था। वो जरूर...
तभी मोबाइल की घन्टी बजी।
पंड्या की अपेक्षानुसार लाइन पर पठान था।
“अरे, सावंत के साथ तो कोई दूसरा भी है!”—उसके कान में पठान की व्यग्र आवाज पड़ी।
“हां।”—पंड्या चिन्तित भाव से बोला—“देखा मैंने।”
“बस, देखा खाली?”
“अभी तो बस देखा ही!”
“अभी क्या बोलता है?”
“तू क्या बोलता है?”
“अरे, ये बहस करने का टेम है! तू बोल क्या बोलता है?”
“मैं क्या बोलूं?”
“बोलता है मैं क्या बोलूं! अरे, जब दूसरा हो सकता है तो तीसरा हो सकता है, चौथा हो सकता है। बोले तो बैक अप डिफ्रेंट स्टाइल से हो सकता है।”
“पण मेरे को तो किधर और कुछ दिखाई नहीं दे रहा है!”
“दिखाई नहीं देने का ये मतलब कैसे होयेंगा कि कोई हैइच नहीं।”
“ठीक।”
“ठीक, तो अभी क्या करने का?”
“वेट...वेट करने का। वेट करने का और वाच करने का। यहीच बैस्ट स्टैप। क्या!”
“तू बोलता है तो... ठीक।”
“वो हमारे पैसेंजर के...वो हुसैन डाकी करके भीड़ू के...जो कोई भी वो है... इन के करीब दिखाई देने तक तो जरूर ही वेट करने का।”
“बन्दरगाह से बाहर निकला जो पैसेंजर इन दोनों के करीब दिखाई दे, वो डाकी?”
“हां।”
“मेरे को नहीं जंचता। बोले तो लोचा।”
“अभी वेट करने के, वाच करने के अलावा हम कुछ नहीं कर सकते। या कर सकते हैं?”
आवाज न आयी।
“हमें उम्मीद नहीं थी वो दो भीड़ू बन्दरगाह पर पहुंचेंगे। अभी आगे तीसरा डाकी भी उन के साथ हो सकता है। हो सकता है माल उन दोनों को सौंप कर वो नक्की न करे, उन दोनों के साथ ही बना रहे...”
“ये अब बोलने का बात है?”
“अब सूझी तो अभीच तो बोलने का! फिर तू वहम डाल रहा है कि अभी कोई और भीड़ू भी हो सकता है...और भीड़ू भी हो सकते हैं। ऐसे में वेट एण्ड वाच से बेहतर...”
“ठीक है। ठीक है।”
लाइन कट गयी।
पार्टनर गुस्से में था—पंड्या ने मन ही मन सोचा।
अब उसे बड़ी शिद्दत से अहसास हो रहा था कि उन की स्कीम शुरू से ही कमजोर थी। लेकिन अब उसको मजबूत करने का न वक्त था और न कोई जरिया था।
चिन्तित भाव से वो फिर दूरबीन से इलाके को खंगालने के काम में मशगूल हो गया।
हुसैन डाकी एक दुबला पतला, मामूली कद काठ और शक्ल सूरत वाला अधेड़ व्यक्ति था जिस का मामूली, दबा-सा व्यक्तित्व किसी लिहाज से भी उसके अन्डर वर्ल्ड का भीड़ू होने की चुगली नहीं करता था और यही उसकी कामयाबी का राज था। कहीं कैसा भी माहौल हो, वो सहज ही उसमें घुलमिल जाता था—जैसे उस घड़ी वो आम मुसाफिरों में मुसाफिर लग रहा था।
शिप से उतर कर वो खुश्की पर आ चुका था। सामान के नाम पर उसके पास एक खूब बड़ा सूटकेस और एक चमड़ा मंढ़ा महरून रंग का ब्रीफकेस था। हैंडल से सूटकेस को पकड़ कर अपने पीछे उसे लुढ़काता लाता वो कस्टम क्लियरेंस की ओर बढ़ रहा था और निश्चिन्त था कि सब कुछ ऐन ठीक कर के होने वाला था, निपटने वाला था।
बिग बॉस के इन्तजाम हमेशा ऐसे ही होते थे।
वो पहला काम नहीं था जो वो अमर नायक के लिये हैंडल कर रहा था, अलबत्ता उसको मिली जिम्मेदारी का साइज इस बार बड़ा था—अब तक की उसकी ऐसी तमाम ट्रिप्स में सबसे बड़ा था।
लेकिन इन्तजाम भी तो जिम्मेदारी के साइज के अनुरूप आगे बड़ा ही हुआ मिलना था।
लोकल डायमंड डीलर के आदमी से मोबाइल पर उसका कान्टैक्ट हो चुका था और उसे खबर मिल चुकी थी कि उसके पास कस्टम ड्यूटी की रकम और कस्टम आफिसर वीरेश हजारे को अदा किया जाने वाला गुलदस्ता तैयार था।
वो कस्टम हाल के गेट से अभी थोड़ा दूर ही था कि एक सफेद वर्दीधारी कस्टम अधिकारी उसके सामने आ खड़ा हुआ।
डाकी ठिठका, सहज भाव से उसने उसकी तरफ देखा।
“डाकी!”—सफेद वर्दी बोला—“हुसैन डाकी?”
“हां।”—डाकी पूर्ववत् सहज भाव से बोला।
“दुबई का पैसेंजर?”
“हां।”
“मैं वीरेश हजारे। कस्टम आफिसर। कुछ समझा?”
“सब कुछ समझा। मेरे को तुम्हारी खबर। जैसे तुम्हारे को मेरी खबर। सलाम बोलता है, बिरादर।”
“सलाम। इन्तजाम तैयार है?”
“हां। बरोबर। इन्तजाम वाला भीड़ू बाहर मौजूद है। मैं उसको कस्टम आफिस में पहुंचने को बोले? ताकि आके तुम्हारा गुलदस्ता तुम्हारे हवाले करे?”
“डमडम!”—हजारे फुंफकारता सा बोला।
“क्या बोला?”
“इधर नहीं।”
“तो?”
“मैं एक पता बोलूंगा, एक नाम बोलूंगा, जुबानी याद करने का। मेरा...सामान उधर शिवनाथ पाटिल करके भीड़ू को पहुंचाने का। पाटिल का मेरे पास फोन आ जायेगा कि सामान डिलीवर हो गया तभी आगे की—तुम्हारे बॉस लोगों को माफिक आने वाली—कार्यवाही होगी। समझ गया?”
“हां।”
“गुड! पाटिल का फोन मेरे को आ जाने पर मेरा सिग्नल मिलेगा तेरे को।”
“तब तक मैं कहां...”
“वहां, जिधर सिग्नल मिलना आसान। बोले तो कस्टम आफिस के लाउन्ज में।”
“ठीक है।”
वो बिना एक भी अतिरिक्त शब्द बोले परे हट गया।
डाकी ने भी हाल के गेट का रास्ता छोड़ा और एक बाजू हटा।
उसने लोकल डायमंड डीलर के आदमी को—जिस का नाम हरीश निगम था—फोन लगाया और धीमी आवाज में जो कस्टम वाला भीड़ू चाहता था, वो उसे समझाया। फिर उसने फोन जेब के हवाले किया और दोबारा कस्टम हाल का रुख किया।
वो प्रस्तावित लाउन्ज में पहुंचा। उसने प्रवेश द्वार के करीब की एक सीट पर कब्जा किया और धीरज से प्रतीक्षा करने लगा।
दस मिनट गुजर गये।
फिर वीरेश हजारे उसे प्रवेश द्वार पर दिखाई दिया। दोनों की निगाह मिली। हजारे ने एक बार हौले से सहमति में सिर हिलाया और तत्काल द्वार पर से गायब हो गया।
उसका गुलदस्ता उसे डिलीवर हो चुका था।
डाकी ने हरीश निगम को फोन लगाया और उसे कस्टम के क्लियरेंस काउन्टर पर पहुंचने की हिदायत दी। फिर वो एक अलसायी सी अंगड़ाई लेता अपने स्थान से उठा, उसने अपना सामान सम्भाला, वहां से बाहर निकला और कस्टम की मेन इमारत में दाखिल हुआ।
वहां क्लियरेंस का लम्बा काउन्टर था जिस पर कई कस्टम अधिकारी मौजूद थे और सब पैसेंजर्स को अटेंड कर रहे थे। हर अधिकारी की सीट के सामने उसके नाम की तख्ती रखी हुई थी। वैसी एक तख्ती वहां वीरेश हजारे के नाम की भी थी लेकिन उसके पीछे की सीट खाली थी।
डाकी उस स्थान पर पहुंचा।
तत्काल जैसे जादू के जोर से कहीं से हजारे प्रकट हुआ और अपनी सीट पर बैठा। उसने व्यस्तता जताते हुए डाकी को सामने पड़ी इकलौती विजिटर्स चेयर पर बैठने का इशारा किया।
डाकी उसके सामने बैठा। उसने ब्रीफकेस खोल कर उसमें से शनील की एक काली थैली निकाली और उसका मुंह खोलकर थैली हजारे के सामने रखी।
“डायमंड्स!”—हजारे जानबूझ कर अंजान बनता बोला।
डाकी ने खमोशी से सहमति में सिर हिलाया।
“इवैल्युएशन होगी।”
“मेरे पास इवैल्युएशन का सर्टिफिकेट है।”
“ओह! सर्टिफिकेट है!”
“हां।”
“फिर तो...”
तभी कस्टम का एक उच्चाधिकारी हजारे के पीछे आ खड़ा हुआ।
हजारे ने घूम कर उसकी तरफ देखा और उसका खामोश अभिवादन किया। फिर वो वापिस हजारे की तरफ घूमा और तनिक उच्च स्वर में बोला—“इवैल्युएशन होगी। इधर हमारा एक्सपर्ट करेगा।”
“ठीक है।”—डाकी बोला।
उसके बाजू में एक दूसरा अधिकारी बैठा था जिसके सामने रखी पहचान पट्टी के मुताबिक उसका नाम मुकुल देशपाण्डे था। हजारे ने थैली उसको सौंप दी। उसने तुरन्त एक आई ग्लास आंख पर चढ़ाया और हीरे परखने का काम शुरू किया।
उस दौरान हरीश निगम भी डाकी के करीब आ खड़ा हुआ।
डाकी जानता था वो पूर्वनिर्धारित ड्रामा था, दिखावे की ड्रिल थी फिर भी उसमें आधा घन्टा लगा।
आखिर डाकी को कस्टम ड्यूटी की वो रकम बताई गयी जिसकी उसको पहले से खबर थी।
हरीश निगम ने कस्टम ड्यूटी अदा कर दी।
रसीद पर दर्ज करने के लिये उसे ज्वेलर की फर्म का नाम बोलने को बोला गया जो कि उसने बोला।
“पासपोर्ट!”—हजारे बोला।
डाकी ने पासपोर्ट पेश किया।
हजारे कम्प्यूटर के हवाले हुआ।
उस दौरान हरीश निगम चुपचाप वहां से रुखसत हो गया।
आखिर डाकी को डयूटी पेड की कम्प्यूट्राइज़्ड रसीद मिली। और पांच मिनट बाद उसे कस्टम क्लियरेंस सर्टिफिकेट भी मिल गया।
हजारे से एक लिफाफा मांग कर उसने दोनों डाकूमेंट लिफाफे में रखे और लिफाफे को दोहरा करके अपने कोट की एक जेब के हवाले किया।
हजारे ने शनील की थैली और पासपोर्ट उसकी तरफ सरका दिया।
डाकी ने पासपोर्ट जेब में रखा और थैली को वापिस ब्रीफकेस में डाला। उसने ब्रीफकेस को बन्द कर के उसके नम्बर्ड लाक्स पर एक नम्बर डाला और फिर उस नम्बर को नवीन सोलंके और अमर नायक के मोबाइल पर एसएमएस कर दिया।
इतनी देर से हजारे के पीछे खामोश खड़ा उच्चाधिकारी एकाएक बोला—“क्या नाम है आप का?”
“हुसैन डाकी।”—डाकी सहज भाव से बोला—“क्यों?”
“डायमंड डीलर हैं?”
“मैं नहीं। मैं डायमंड डीलर का एम्पलाई हूं। अभी एम्पलायर का आदमी ही आकर कस्टम ड्यूटी अदा कर के गया। आपने देखा होगा!”
“हां। आगे कहां जायेंगे? कहीं करीब ही या दूर?”
“दूर। मनोरी।”
“उधर रहते हैं?”
“बॉस उधर मिलेगा। जो कि डायमंड डीलर है, इम्पोर्टर है, जिस का कि मैं मुलाजिम हूं। मेरे को उस को रिपोर्ट करने का न! कनसाइनमेंट सौंपने का न! क्यों पूछ रहे हैं?”
“आजकल इधर झपटमारी की, स्नैचिंग की वारदात बहुत हो रही हैं। गुंडा एलीमेंट ने ऐसे पैसेंजर ताड़े हुए होते हैं जो गल्फ कन्ट्रीज़ से मोटा माल लेकर लौटे होते हैं—जैसे कि आप हैं—ऊपर से रात का वक्त है। मनोरी पहुंचते पहुंचते और भी रात हो जायेगी। हमारा पुलिस से कोलैबोरेशन है, ऐसे केसिज़ में इधर आप जैसे पैसेंजर को सशस्त्र गार्ड दिये जाने का इन्तजाम है।”
“जी!”
“अभी यहां से आप को पुलिस का एक हथियारबन्द सिपाही मिलेगा जो आप को सुरक्षित आप की मंजिल तक पहुंचा के आयेगा।”
“लेकिन...”
“आजकल इधर ऐसा ही हुक्म है। ये इन्तजाम आप ही के भले के लिये है। नहीं?”
डाकी ने पनाह मांगती निगाह से हजारे की तरफ देखा।
हजारे ने असहाय भाव से कन्धे उचकाये।
“नहीं?”—बड़े साहब ने पुरइसरार लहजे से दोहराया।
“जी!”—डाकी हड़बड़ाया—“जी हां। जी हां। बोले तो शुक्रिया। मेरे को ये इन्तजाम पसन्द। मेरे को ये इन्तजाम मंजूर। शुक्रिया?”
“सिपाही को वापिसी के लिये टैक्सी भाड़ा आप देंगे।”
“जी हां। जरूर।”
“गुड। अभी सब इन्तजाम होता है।”
“शुक्रिया।”
मल्टीस्टोरी बिल्डिंग की छत पर के अपने वाच स्टेशन से पंड्या ने अपने जोड़ीदार सुहैल पठान को फोन लगाया।
अपेक्षानुसार तुरन्त उत्तर मिला।
“हमेरा भीड़ू”—पंड्या बोला—“हुसैन डाकी, पहुंच गया। वो जो शिशिर सावन्त के सामने खड़ेला है। बड़े सूटकेस और ब्रीफकेस के साथ। देखा?”
“देखा।”—पठान की आवाज आयी—“पण कुछ और भी देखा।”
“क्या?”
“जैसे तेरे को मालूम नहीं। उसके साथ एक बावर्दी, हथियारबन्द पुलिस वाला है।”
“तो?”
“वो थाम लिया गया।”
“क्या?”
“पकड़ा गया। गिरफ्तार है।”
“माथा फिरेला है! जिसके पास बीस खोखा का माल हो, उसको कोई एक पुलिसवाला गिरफ्तार करता है?”
“ऐसा?”
“गिरफ्तार करता है तो आजू बाजू भटकने देता है? दूसरे भीड़ू लोगों के माथे लगने देता है?”
“नहीं।”
“तो?”
“तो क्यों है पुलिस वाला उसके साथ?”
“होगी कोई वजह। अभी सामने आयेगी।”
“वो सावंत के साथ का दूसरा भीड़ू... वो जींस-जैकेट वाला...वो मेरे को...मेरे को पिराब्लम करता है...”
“अभी कुछ नहीं करता। जब कुछ करेगा वो देखेंगे।”
“तो देखेंगे। हूं। पण अभी क्या करने का?”
“वहीच जो पहले बोला। वेट करने का। वाच करने का।”
“तू अभी उधरीच ठहरेगा?”
“हां।”
“वो...एकाएक चल दिये तो?”
“तो पीछू जाना। मेरे से कान्टैक्ट बना के रखना। मैं पहुंचेगा। इमीजियेट करके तेरे पास या आजू बाजू। बरोबर!”
“बरोबर।”
शिशिर सावंत ने हुसैन डाकी से हाथ मिलाया और उससे बगलगीर होकर मिला। उसने उसे जोकम फर्नान्डो का परिचय दिया।
जोकम ने बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया।
सावंत ने सशंक भाव से सिपाही की तरफ देखा।
“कस्टम से मिला।”—हुसैन डाकी धीरे से बोला—“उधर कोई बड़ा साहब बोला आजकल इधर ऐसा ही इन्तजाम। हाई वैल्यू कनसाइनमेंट कैरी करने वाले को पुलिस एस्कार्ट...”
“नहीं मांगता।”—जोकम तीखे स्वर में बोला।
डाकी ने असहाय भाव से कन्धे उचकाये।
“पण...सावंत, तू बोल।”
“मैं क्या बोलूं?”—सावंत हड़बड़ाया।
“अरे, इसको प्रोग्राम में चेंज का बोल न।”
“अच्छा, वो!”—सावंत तत्काल डाकी की ओर घूमा और बोला—“प्रोग्राम में चेंज है। नवीन सोलंके बाप चेंज किया।”
“क्या?”—डाकी सकपकाया सा बोला।
“भीड़ू”—सावंत सिपाही से सम्बोधित हुआ—“पिराइवेट करके बात करने का। चानस दे न?”
“हूं।”—सिपाही बोला—“पण लम्बी नहीं खींचने का।”
“अरे, खाली दो मिनट।”
“ठीक है। दो मिनट।”
सिपाही उन से चार कदम परे हट गया।
उसके मिजाज से, अन्दाज से साफ जाहिर हो रहा था कि “हैवी’ पैसेंजर के साथ अपनी मौजूदगी को वो रसमी ही समझता था, दिखावा ही मानता था, वो हरगिज उम्मीद नहीं करता था कि उसकी मौजूदगी में मसरूफ बन्दरगाह पर झपटमारी हो सकती थी।
“तू इधर क्या बोला, किधर जाने का था?”—सावंत ने पूछा।
“मनोरी।”—हुसैन डाकी बोला—“मैं मर्वे के फैरी पायर पर उतरता और सिपाही को नक्की करता, वो आगे जाने की जिद करता तो फैरी से मनोरी क्रीक पार करने के बाद पार उतरता और उधर से सिपाही को नक्की करता।”
“अभी वो आर्डर सोलंके बाप कैंसल किया। तेरे को माल इधरीच डिलीवर करने का। बोले तो हमेरे को सौंपने का और तेरी ड्यूटी, तेरी जिम्मेदारी खतम।”
“ऐसा?”
“बरोबर।”
“पण मेरे को ऐसा कोई नहीं बोला।”
“अभी मैं बोला न!
“मेरे को तुम दोनों की कोई खबर नहीं। मेरे को कोई नहीं बोला कि तुम लोगों को मेरे को इधर मिलने का था और मेरे को... माल तुम्हेरे को सौंपने का था।”
“अरे, मैं बोला न कि...”
“तेरा बोलना काफी नहीं।”
“तो सोलंके बाप को फोन लगा। बल्कि सीधे बड़ा बाप अमर नायक को फोन लगा।”
“मैं... मैं सोलंके बाप को फोन लगाता है।”
“नम्बर मालूम?”
“मालूम।”
“लगा।”
डाकी उन से थोड़ा परे सरक कर अपने मोबाइल फोन के हवाले हुआ, एक मिनट दबी जुबान में बड़ी तल्लीनता से उसने फोन पर बात की, फिर उसने फोन जेब के हवाले किया।
“ठीक है।”—वो बोला।
“क्या ठीक है?”—सावंत बोला।
“ये”—उसने ब्रीफकेस सावंत को थमा दिया—“ये ठीक है।”
“माल इसमें है?”
“हां।”
“मेरे को देखने का।”
“नहीं देखना सकता। ब्रीफकेस पर नम्बर्ड लॉक्स हैं। वो नम्बर, जिससे लॉक खुलते हैं, मैं आगे बोल के रखा। तुम्हेरा काम इसको आगे पहुंचाना खाली।”
“ओह!”
“और ये।”—डाकी ने लिफाफा आगे बढ़ाया।
“ये क्या है?”—सावंत तनिक सकपकाया।
“ड्यूटी पेड की रसीद और कस्टम क्लियरेंस सर्टिफिकेट।”
“ओह!”
सावन्त के इशारे पर लिफाफा जोकम ने ले लिया और बिना खोल कर भीतर झांके अपनी जैकेट की भीतरी जेब में रख लिया।
“सिपाही का क्या होगा?”—फिर बोला।
“मेरे को नहीं मालूम।” डाकी अनिश्चयपूर्ण भाव से बालो—“मेरे खयाल से जिधर माल, उधर वो।”
“यानी हमारे साथ लगेगा?”
“बोले तो हां।”
“नहीं मांगता।”
“अभी मैं क्या बोले! नहीं मांगता तो...”
“उसको मालूम...माल...ब्रीफकेस में है?”
“नहीं। नहीं मालूम। उसको कस्टम क्लियरेंस के बाद... बाद बुलाया गया था और मेरे साथ रवाना किया गया था। मेरे माल को ब्रीफकेस में वापिस रखने के पांच मिनट बाद वो काउन्टर पर पहुंचा था।”
“फिर क्या प्राब्लम है! बोले तो माल तुम्हेरे ही पास है। तुम्हेरे को अपने शिड्यूल के मुताबिक सिपाही के साथ मनोरी जाने का और उधर उसको फारिग करने का।”
“ऐसा?”
“हां।”
“सिपाही ब्रीफकेस के बारे में सवाल नहीं करेगा?”
“काहे वास्ते? मैं बोले तो उसको खयाल तक नहीं आयेगा कि पहले ब्रीफकेस तुम्हेरे पास था, अब नहीं था।”
“खयाल आया तो?”
“तो बोलना कुछ। साला फॉरेन रिटर्न भीड़ू है तुम, बोलना कुछ सजता सा।”
“हूं।”
“बोलना ब्रीफकेस था ही हमेरे वास्ते। बोलना खाली। दुबई से तोहफा लाया।”
“दो भीड़ू के लिये एक तोहफा!”
“सावंत के लिये। फ्रेंड के लिये। मैं तो खाली फ्रेंड का फ्रेंड। क्या!”
“ठीक है। देखता है।”
वो घूमा और अपना सूटकेस लुढ़काता सिपाही की ओर बढ़ा।
दोनों पीछे ठिठके खड़े रहे।
डाकी सिपाही के पास पहुंचा। उसने सिपाही को कुछ कहा। सिपाही का सिर सहमति में हिला। उसने करीब से गुजरती एक टैक्सी को रोका। डाकी ने सूटकेस डिकी में रखवाने की जगह आगे पैसेंजर सीट पर रखा और फिर सिपाही के साथ टैक्सी में सवार हो गया।
टैक्सी वहां से रवाना हुई और आगे मोड़ काट के निगाहों से ओझल हो गयी।
“पार्किंग में चलें”—पीछे सावंत बोला—“या कार इधर लेकर आयेगा?”
“कार इधरीच छोड़ने का।”—जोकम सुसंयत स्वर में बोला।
“क्या?”
“अभी प्रोग्राम में एक और चेंज है।”
“बोले तो?”
“सोलंके बाप बोला कि बाई रोड मलाड नहीं जाने का...”
“तेरे को बोला?”
“हां।”
“कब?”
“अरे, बोला न कभी।”
“मेरे को क्यों न बोला?”
“तू नहीं मिला होगा! या वो सोचा होगा कि एक को बोला, दोनों को बोला, एकीच बात।”
“कमाल है!”
“अभी टेम खोटी नहीं करने का।”
“बाई रोड नहीं जाने का तो कैसे जाने का? उड़ के? हैलीकॉप्टर आयेगा इधर?”
“मसखरी नहीं, सावंत, मसखरी नहीं।”
“तो बोलता काहे नहीं, कैसे जाने का?”
“मोटरबोट से।”
“मोटरबोट से! वो किधर मिलेगी?”
“उधर बन्दरगाह के बाजू में एक प्राइवेट करके पायर है, उधर मिलेगी।”
“कमाल है! साला मेरे को ये इन्तजाम का कोई क्यों न बोला! मैं...मैं सोलंके बाप को फोन लगाता है।”
“क्या फायदा!”
“क्यों नहीं फायदा? मैं...”
“अरे, वो ही उधर पायर पर मोटरबोट लेके आ रहा है।”
“क्या बोला?”
“जो मोटरबोट उधर पहुंचेगी, उस में सोलंके बाप भी होगा। फिर जो पूछना, उसके रूबरू पूछना।”
“जब वो रूबरू होगा तो कुछ पूछने की जरूरत किधर रह जायेगी?”
“कितना श्याना है!”
“कमाल है! यकीन नहीं आता कि सोलंके बाप इधर खुद आ रहा है...”
“जब आंखों से देखेगा तो आयेगा न यकीन!”
“कुछ अजीब सा लग रहा है। मैं फिर भी फोन लगाये तो...”
“गलती करेगा। सोलंके बाप भाव खा जायेगा।”
“अभी डाकी ने भी तो फोन लगाया! तब तो भाव न खाया!”
“डाकी का कुछ पूछना, कुछ कनफर्म करना बनता था। वो परदेस से आया। वो इधर के मौजूदा माहौल से, मौजूदा हालात से नहीं वाकिफ था। दूसरे, उस पर बड़ी कनसाइनमेंट की जिम्मेदारी थी। तेरी क्या एक्सक्यूज है?”
“हूं।”—वो अनिश्चित भाव से बोला।
“अभी क्या फर्क है? खाली ये न कि कार की जगह मोटरबोट से ट्रैवल करने का! क्या लोचा है तेरे को इस में?”
उसके चेहरे पर से अनिश्चय के भाव न गये।
“फिर जब सोलंके बाप मोटरबोट के साथ खुद आ रयेला है तो ये भी तो हो सकता है हमें ट्रैवल करना ही न पड़े! वो उधर पायर पर ही ब्रीफकेस तेरे से ले ले और हमें पायर पर से ही फारिग कर दे!”
“ऐसा?”
“देखना। पांच मिनट की तो बात है!”
“हूं।”
“फिर ब्रीफकेस तेरे कब्जे में है। मैं तो खाली, बोले तो, तेरा सिपाही। वैसा भीड़ू जैसा अभी डाकी के साथ गया।”
“वो हथियारबन्द था।”
“लम्बा घसीट रहा है बात को खामखाह!”—जोकम ने चिड़ कर दिखाया—“अभी हम कार से जायेंगे तो कोई डाकू पड़ गये तो मैं निहत्था क्या कर लेगा? हम दो निहत्थे क्या कर लेंगे?”
“किसी को क्या खबर कि ये टेम हमारे पास कोई हैवी कनसाइनमेंट है?”
“अभी पड़ी बात मगज में। किसी को क्या खबर! यही है लाख रुपये की बात। हम तो दुबई से नहीं आये!”
“ठीक है, चल।”
जोकम ने चैन की लम्बी, खुफिया, सांस ली।
“इधर।”—वो बोला।
सावंत जोकम के बताये रास्ते पर उसके साथ हो लिया।
खामोशी से चलते वो बन्दरगाह की भीड़ भाड़ से निकले और उन्होंने एक नीमअन्धेरी संकरी सड़क पर कदम रखा।
उस सड़क के सिरे पर वो प्राइवेट पायर था जो उस घड़ी बिल्कुल उजाड़ था। पायर का लम्बा प्लेटफार्म समुद्र में गड़ी लकड़ी की बल्लियों पर खड़ा था, उसके आजू बाजू पानी था और सामने विशाल समन्दर था। वहां सिरे से थोड़ा परे केवल एक बिजली का खम्बा था जिसके टॉप पर लगे एक शेड के नीचे एक बीमार सा बल्ब जल रहा था जो कि वहां का अन्धेरा दूर करने के लिये सर्वदा अप्रयाप्त था।
वो पायर के सिरे पर पहुंचे।
“यहां तो कोई नहीं है!”—सावंत बोला तो उसके स्वर में सस्पेंस का पुट था।
“होगा न?”—जोकम इतमीनान से बोला—“जब सोलंके बाप खुद बोला तो होगा न!”
“तू तो बोला वो पहले इधर होगा!”
“नहीं बोला। तेरे सुनने में लोचा।”
“अरे, बोला कि नहीं बोला कि वो इधर रूबरू होगा?”
“होगा न! अभी आयेगा तो होगा न!”
“लेकिन पहले...”
वो एकाएक खामोश हो गया।
“पायर से एक बड़ी मोटरबोट लगी खड़ी है।”—फिर बोला।
“अच्छा!”—जोकम बोला—“अन्धेरे में दिखाई दे गयी?”
“हां। क्या पता सोलंके बॉस की हो!”
“उसकी है तो अन्धेरा किस लिये?”
“होगी कोई वजह! मैं आवाज लगाता है। तब मालूम पड़ेगा कि...”
“लगाना। पहले मेरे को कुछ करने दे।”
“क्या?”
“ये।”
जोकम ने उसे प्वायन्ट ब्लैंक शूट कर दिया।
सावंत को पता ही न लगा कि कब गन जोकम के हाथ में आयी।
गोली उसकी छाती में ऐन दिल के ऊपर लगी। वो पछाड़ खाकर पायर के लकड़ी के फर्श पर गिरा।
फर्श को छूने से भी पहले उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे।
पंड्या के हाथ से दूरबीन छूटते छूटते बची।
गोली की रफ्तार से उसने पठान को फोन पर लिया।
“कहां है?”—उसने व्यग्र भाव से पूछा।
“उन के पीछे।”—जवाब मिला।
“ऐन पीछे?”—उत्कण्ठा से वो चिल्लाता सा बोला।
“नहीं, ऐन पीछे नहीं। दूर।”
“कितनी दूर? कहां?”
“पायर वाली सड़क के दहाने पर। सड़क उजाड़ पड़ी है। मैं उन के पीछे और आगे बढ़ता तो उन को मेरी खबर लग जाती।”
“ये न सोचा कि वो निकल जाते?”
“कैसे निकल जाते? एक ही तो रास्ता है ...”
“ठीक, ठीक। वहीं रहना। मैं पहुंचता है बुलेट का माफिक।”
“पण हुआ क्या?”
“आके बोलता है। वहीं रहना।”
उसने दूरबीन को साथ लाये एक बैग के हवाले किया और सीढ़ियों की ओर दौड़ चला। लिफ्ट छत पर नहीं आती थी, उसके लिये एक मंजिल सीढ़ियां उतरना पड़ता था। बगूले की तरह उसने सीढ़ियां तय कीं, लिफ्ट में सवार हुआ, नीचे पहुंचा और फिर सड़क पर दौड़ चला।
चुटकियों में वो अपने जोड़ीदार के साथ था।
“क्या हुआ?”—आशंका से त्रस्त पठान बोला।
“साला बहुत बड़ा वाकया हो गया।”—पंड्या हांफता हुआ बोला।
“अरे, क्या? क्या?”
“उन दोनों में से एक ने दूसरे को गोली मार दी।”
“अरे!”
“दूसरा ठौर मारा गया।”
“कौन? किसने मारी? किसने खायी?”
“ठीक से पता नहीं चला। आगे अन्धेरा था और मैं बहुत दूर था। बावजूद दूरबीन के ठीक से कुछ न दिखाई दिया पण मेरा अन्दाजा है।”
“क्या?”
“पीछे बन्दरगाह में, मैंने देखा था, हुसैन डाकी ने ब्रीफकेस सावंत को सौंपा था। सारे रास्ते वो दोनों बाजरिया दूरबीन मेरी निगाह में थे इस वास्ते मेरे को पक्की कि ब्रीफकेस जिसके हाथ में था, हमेशा उसी के हाथ में रहा था। आगे इतना मैं ने साफ देखा कि जिसने गोली चलाई थी वो वो था जो खाली हाथ था। इस लिहाज से मैं पायर पर की सूरतें पहचाने बिना भी कह सकता हूं कि गोली खाने वाला शिशिर सावन्त था और गोली चलाने वाला वो दूसरा भीड़ू था जो उसके साथ कार चलाता बन्दरगाह पर पहुंचा था, जिसका कि हम नाम नहीं जानते।”
“पण था तो उसका जोड़ीदार ही!”
“हां। बरोबर।”
“जोड़ीदार ने उसे शूट कर दिया!”
“हां।”
“काहे?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! पूछता है काहे! अरे, भाया, क्या जाला मगज में?”
“बोले तो हीरे ब्रीफकेस में! कैरियर ने ब्रीफकेस सावंत को सौंपा तो हीरे ब्रीफकेस में?”
“अभी आयी बात समझ में।”
“दूसरा भीड़ू—जीन्स-जैकेट वाला—बेइमान हो गया, भाई लोगों से, बोले तो, गद्दारी पर उतर आया, अक्खा माल खुद कब्जाने का वास्ते जोड़ीदार को शूट कर दिया?”
“बरोबर।”
“अभी हमेरे को क्या करने का?”
“हमेरे को उससे माल छीनने का। दो के मुकाबले में एक भीड़ू को हैंडल करना ईजी। सड़क पर आगे बढ़ते हैं।”
“उसके पास गन है।”
“हमेरे पास भी है। देखेंगे।”
“अच्छा!”
“अरे, भाया, हमेरे को एडवांटेज है।”
“बोले तो?”
“उसको हमेरी खबर नहीं है, पण हमेरे को उसकी पूरी पूरी खबर है। ये भी कि उसने अपने जोड़ीदार को शूट कर दिया, ये भी कि अब वो माल के साथ अकेला है। क्या!”
“ठीक।”
“तो फिर चल आगे।”
सावधानी की प्रतिमूर्ति बने दोनों दबे पांव आगे बढ़ने लगे।
आगे पायर दिखाई देना शुरू हो गया तो वो ठिठके।
पायर खाली था।
वहां कोई नहीं था।
नीमअन्धेरे में दोनों की निगाहें मिलीं।
“कहां गया!”—पंड्या के मुंह से निकला।
पठान खामोश रहा।
दोनों सावधानी से चलते ऐन पायर के सिरे पर पहुंचे।
सिरा उजाड़ था।
“समन्दर के रास्ते निकल गया।”—पठान नाउम्मीदी से लबरेज लहजे से बोला।
“कैसे?”—पंड्या चिड़े स्वर में बोला—“तैर के?”
“जरूर इधर कोई मोटरबोट थी।”
“मोटरबोट! हां। जरूर थी। यकीनन थी। सौ टांक बोला, भाया।”
“बोले तो?”
“अरे, लाश भी तो गायब है! मैं साला बैट करता है वो लाश को ठिकाने लगाने, समन्दर में डुबोने गया। इसी वास्ते लाश यहां नहीं है, वो यहां नहीं है। यहां पायर पर डेफिनिट करके कोई बोट थी जिस पर लाद कर वो लाश को समन्दर ले के गया। भाया, अपना वो जरूरी काम करके वो इधरीच वापिस लौटेगा।”
“न लौटा तो?”
“तो मैटर फिनिश्ड। फाइल क्लोज्ड। ठण्डे ठण्डे लौट जायेंगे माल का गम खाते। जो हाथ न आया उसका मातम मनाते।”
“ठीक।”
“परे हट कर इन्तजार करते हैं।”
“कब तक?”
“तीस मिनट। बड़ी हद चालीस मिनट। क्या!”
पठान ने पस्त भाव से सहमति में सिर हिलाया।
जोकम फर्नान्डो पायर से एक किलोमीटर दूर बीच समन्दर में था।
जो मोटरबोट उसके काबू में थी, वो चोरी की थी जो कि उसने उस घड़ी के लिये बोट क्लब से चुराई थी। उस बोट में एक किश्ती भी मौजूद थी जो कि बाद में उसके काम आने वाली थी।
बोट के डैक पर शिशिर सावंत की लाश पड़ी थी।
हालांकि कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, फिर भी उसने सावन्त की तमाम जेबें खाली कर दी थीं। वो एक अतिरिक्त सावधानी थी जो उसने बरती थी। उसे यकीन था लाश बरामद नहीं होने वाली थी, फिर भी हो जाती तो कम से कम उसकी जेबों में मौजूद उसके निजी सामान की वजह से उसकी शिनाख्त न हो पाती, सूरत से शिनाख्त का तो कोई मतलब ही नहीं था क्योंकि मछलियों ने उसे शिनाख्त के काबिल छोड़ा ही न होता।
बोट पर लोहे के बड़े बड़े ब्लॉक मौजूद थे जिन में से हर एक के मिडल में एक बड़ा सा छेद था। उसके अतिरिक्त वहां लोहे की जंजीरों के कई लम्बे टुकड़े मौजूद थे। अब उसने जंजीरों की मदद से लोहे के ब्लॉक सावंत के जिस्म से बान्धने थे और फिर उसकी लाश को बोट से समन्दर में धकेल देना था, जहां वजन की वजह से वो पेंदे में ही पहुंचती और मछलियों का भोजन बनती।
पन्द्रह मिनट में उसने उस काम को अन्जाम दिया।
अब सावंत हमेशा के लिये गायब था क्योंकि उसकी नीयत बद् हो गयी थी, वो बीस करोड़ के हीरे लेकर भाग गया था।
गुड!
दूसरे काम के लिये उसने बोट को पहले ही तैयार किया हुआ था।
विशाल बोट के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जगह जगह बारूद की छड़ें बन्धी हुई थीं और उनके डिटोनेटर को यूं वायर किया गया था कि उसे रिमोट कन्ट्रोल से एक्टीवेट किया जा सकता।
अगले रोज तक बोट क्लब से चोरी गई मोटरबोट की खबर आम हो ही जानी थी। फिर ‘भाई’ लोग खुद दो में दो जोड़ कर जवाब चार निकाल लेते कि उन का भरोसे का आदमी शिशिर सावंत माल के साथ समन्दर के रास्ते फरार हुआ था। उस से आगे उन की जांच पड़ताल का कोई नतीजा नहीं निकलने वाला था क्योंकि किसी को सावंत का या मोटरबोट का नामोनिशान नहीं मिलने वाला था।
उसने किश्ती को पानी में उतारा और चप्पू चला कर उसे खेता वो उसे किनारे की तरफ मोटरबोट से कोई सौ गज परे ले गया।
उसने चप्पू से एक हाथ आजाद कर के रिमोट का स्विच दबाया।
तत्काल मोटरबोट पर एक साथ कई धमाके हुए और वो एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक धू धू कर के जलने लगी।
अभी डीजल भी आग पकड़ता, फिर रही सही कसर भी पूरी हो जाती।
आखिर वो लाश को कम्पनी देती समन्दर की तलहटी में होती।
ग्रेट!
उसने किश्ती को वापिस खेना शुरू कर दिया।
अब एक आखिरी काम बाकी था जिस को अंजाम देने के लिये किसी का सहयोग जरूरी था। अपनी स्कीम के आखिरी कदम में उसने पायर पर पहुंच कर खुद को कन्धे में गोली मारनी थी ताकि ये जाहिर होता कि सावंत उसे शूट करके माल के साथ भाग गया था। बाद में वो यही स्टोरी करता कि सावंत ने...सावंत ने उसको बोला था कि उन को लिवा ले चलने के लिये पायर पर बॉस लोगों की भेजी मोटरबोट आने वाली थी। सावंत की बात पर यकीन करके वो उसके साथ पायर पर पहुंचा था जहां एक मोटरबोट पहले से मौजूद थी और जहां सावंत ने उसे गोली मार दी थी और माल के साथ मोटरबोट पर फरार हो गया था। ये जोकम की खुशकिस्मती थी कि अन्धेरे में चलाई गयी गोली उसके कन्धे में लगी थी, इस बात की सावंत को खबर नहीं लगी थी—लगती तो वो यकीनन फिर गोली चलाता—और वो उसे मरा जान कर, अपनी तरफ से उसकी लाश को पीछे छोड़कर वहां से भाग गया था।
उस स्कीम में फच्चर ये था कि उस उजाड़ पायर पर उसके घायल पड़ा होने की आसानी से किसी को खबर नहीं लगने वाली थी और वो अधिक खून बह जाने की वजह से—एक्सैसिव ब्लीडिंग की वजह से—वहां पड़ा पड़ा जान से जा सकता था। उस सिलसिले में असल में वो अलीशा वाज़ को अपना सहयोगी बनाना चाहता था लेकिन उसने ऐसी कोई बात उससे नहीं की थी क्योंकि वो तो जोकम के उस इरादे के ही खिलाफ थी, वो सहयोगी तो क्या बनती, फिर जिद करने लगती कि वो ही अपने उस खतरनाक इरादे से बाज आये।
आखिर इस काम के लिये उसने अपने एक जातभाई को चुना था जिसका नाम रेमंड लियो था। वो भी परनेम से था, उसका वहीं से वाकिफ था, उम्र में अभी सिर्फ बाइस साल का था और कोलाबा के एक गैराज में कार रिपेयर का धन्धा सीख रहा था। वो जोकम के कारोबार से वाकिफ था और उससे रश्क करता था कि वो एक अन्डरवर्ल्ड गैंग का पुर्जा था और कभी वो गैंग में बहुत ऊपर तक जा सकता था। वो खुद भी जोकम जैसा बनना चाहता था लेकिन जोकम ये कह कर उसका जोश ठण्डा कर देता था कि उस के धन्धे के लिहाज से अभी वो छोटा था। बहरहाल ये सोच कर वो जोकम का मुरीद बना हुआ था कि छोटे से कभी बड़ा भी तो उसने होना था।
उसके निर्देश के मुताबिक रेमंड लियो बन्दरगाह के इलाके के एक बेवड़े अड्डे पर मौजूद था, जोकम का फोन आने पर जहां से उसने पायर पर पहुंचना था और फिर पुलिस को फोन लगाना था कि पायर पर पड़ा एक भीड़ू मरता था क्योंकि उसे गोली लगी थी। पूछे जाने पर उसने बोलना था कि उसको नशा ज्यास्ती हो गया था जिसकी वजह से वाक पर निकला वो भटक कर उधर आ गया था। ऐसा उसने फोन पर ही कहना था क्योंकि बाद में फोन करने वाला पुलिस को ढ़ूंढ़े नहीं मिलने वाला था।
लियो को स्वाभाविक जिज्ञासा थी कि जोकम ने क्यों खुद को गोली मारनी थी लेकिन जोकम ने उसे ये कहकर टाल दिया था कि वो ‘भाई’ लोगों का कोई गेम था जिस पर वो अमल कर रहा था और जो लियो की समझ में नहीं आने वाला था।
किश्ती पायर की बल्लियों के साथ जाकर लगी तो जोकम ने लियो को फोन लगा दिया और बोल दिया कि उसके पायर पर पहुंचने का वक्त हो गया था।
पायर पर पानी का लैवल ऐसा था कि किश्ती तक पहुंचने के लिये पायर के एक बाजू बनी लकड़ी की सीढ़ियां उतरनी पड़ती थीं जब कि मोटरबोट के डैक पर से पायर पर सीधे कदम रखा जा सकता था।
उस घड़ी पायर सुनसान था और वहां न कोई मोटरबोट थी और न कोई दूसरी किश्ती थी।
फाइन!
ब्रीफकेस सम्भाले वो पायर पर पहुंचा और प्रतीक्षा करने लगा।
तभी एकाएक उस से कोई बीस फुट दूर दो साये प्रकट हुए।
वो चौंका।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर उसने अपना खाली हाथ अपनी जैकेट की उस भीतरी जेब की ओर बढ़ाया जिस में गन थी।
“खबरदार!”—विराट पंड्या हिंसक भाव से बोला—“तू गन की नोक पर है।”
जोकम को जैसे सांप सूंघ गया।
“हाथ ऊपर!”
एक हाथ में ब्रीफकेस था फिर भी उसने दोनों हाथ ऊपर उठाये।
अब उस की आंखें डैक के नीमअन्धेरे की अभ्यस्त हो गयी थीं, अब उसे अपने सामने आजू बाजू खड़े दो साये दिखाई दे रहे थे और ये भी दिखाई दे रहा था कि एक के हाथ में वाकेई गन थी जो मजबूती से उसकी तरफ तनी हुई थी।
कौन थे?
कैसे वो वहां थे?
क्या चाहते थे?
“ब्रीफकेस नीचे रख।”—पंड्या बोला।
“कौन हो, भई?”—जोकम हिम्मत कर के बोला—“मांगता क्या है?”
“सुना नहीं, कुतरया!”—पंड्या कड़ककर बोला।
“सुना न बरोबर, पण...”
“कोई आ रहा है।”—एकाएक सुहैल पठान व्यग्र भाव से बोला।
मरघट के से सन्नाटे में जोकम को भी करीब आते कदमों की धीमी आवाज सुनाई दी।
लियो!
पंड्या ने घूम कर पीछे देखा।
उस एक क्षण का जोकम ने बिजली की सी फुर्ती से फायदा उठाया।
उसने पायर पर से डाई लगाई।
अभी वो पायर पर था, अभी नहीं था।
एक फायर हुआ।
वातावरण में फायर की आवाज जोर से गूंजी।
पहले जैसे किसी की आमद की धीमी आवाज आ रही थी, वैसे अब दौड़ते कदमों की—करीब आती नहीं, दूर जाती—आवाज आयी।
दोनों ने दौड़ते कदमों की आहट की तरफ कोई तवज्जो न दी, बगूले की तरह लपकते वो पायर के सीढ़ियों की ओर के सिरे के उस स्थान पर पहुंचे जहां एक क्षण पहले जोकम मौजूद था और आंखें फाड़ फाड़ कर नीचे अन्धेरे में झांकने लगे।
“कहां गया?”—पठान के मुंह से निकला।
“चुप!”—पंड्या बोला।
“पीछे कौन आ रहा था जो भाग गया?”
“अरे, चुप कर।”—पंड्या फुंफकारा।
पठान के जबड़े भिंच गये। उसने देखा पंड्या के कान खड़े थे और वो उस घड़ी तन्मयता की प्रतिमूर्ति बना हुआ था।
“सुन!”—पंड्या सस्पेंसभरे लहजे से बोला।
“क-क्या?”—पठान भी वैसे ही लहजे में फुसफुसाया।
“समन्दर से कहीं से आती आवाज!”
“क-कैसी? कैसी आवाज?”
“छप छप की आवाज! जैसे चप्पू चल रहे हों!”
“चप्पू! पण वो तो मोटरबोट पर...”
“हमें मोटरबोट के इंजन की आवाज किधर सुनाई दी?”
“सुनाई तो नहीं दी! पण मैं समझा उसने पायर को सामने देख कर इंजन पहले बन्द कर दिया था। पण कहना क्या मांगता है?”
“यहां नीचे कोई किश्ती थी। वो किश्ती पर लौटा था।”
“किश्ती पर! मोटरबोट किधर गयी?”
“क्या पता किधर गयी! वो लाश के साथ मोटरबोट पर समन्दर में किधर गया और किश्ती पर वापिस लौटा, इसका एकीच मतलब।”
“क्या?”
“लाश को ठिकाने लगाने गया, बोट भी ठिकाने लगा दी।”
“अभी वो किश्ती पर! किश्ती पर गया इधर से निकल के!”
“हां।”
“हम क्या करें? बोले तो हमेरे को क्या करने का?”
“वो खुद चप्पू चलाता किश्ती से ज्यादा दूर नहीं जा सकता। समन्दर में गहरा भी नहीं जा सकता। यकीनन वो खुश्की के साथ साथ ही किश्ती चलायेगा और जहां दांव देखेगा, किश्ती से किनारा कर लेगा।”
“मोटरबोट पर पहुंच जाये...”
“माथा फिरेला है! अगर मोटरबोट इसे हासिल होती तो ये किश्ती पर सवार चप्पू चलाता पायर पर लौटता!”
“बोले तो किश्ती पर ही रहेगा?”
“जब तक रह सकेगा।”
“अब हमें क्या करने का?”
“हमें खुश्की पर निगाहबीनी करने का।”
“कहां तक?”
“जिधर वो गया है, उसके लिहाज से कम से कम गेटवे आफ इन्डिया तक।”
“हम दो जनों को?”
पंड्या से जवाब देते न बना।
“है न लोचा?”—पठान बोला।
“है।”—पंड्या कठिन स्वर में बोला—“पण कुछ करना होगा।”
“क्या?”
“इमीजियेट करके और आदमी बुलाने होंगे। अभी इधर से निकल, इधर टेम खोटी करने से कोई फायदा नहीं...”
“वो भीड़ू कौन था जिसने एकाएक इधर पहुंच कर हमेरा काम बिगाड़ा?”
“अरे, होगा कोई।”—पंड्या झुंझलाया।
“फिर भी...”
“क्या फिर भी? अरे, ये सड़क है, घर का गलियारा तो नहीं जिस पर घर वालों के अलावा कोई दूसरा कदम नहीं रख सकता!”
“हूं।”
“अब हिल इधर से। इधर अब कुछ नहीं रखा।”
“वो इधरीच लौटके आ गया तो?”
“क्या बोला?”
“बोले तो वो समन्दर में किश्ती चलाता थोड़ा दूर निकल के गया, फिर वेट किया क्योंकि मालूम हम इधर बैठे तो रह नहीं सकते थे और एक टेम के बाद इधरीच लौट आया और कहीं भी गायब हो गया तो?”
“भाया, तू तो मेरे वो फिकर लगा रहा है!”
“तो?”—पठान ने जिद की।
“तो वो जीता, हम हारे। पण मेरे को उम्मीद नहीं वो इधर लौट के आयेगा।”
“क्यों?”
“क्यों कि उसे नहीं मालूम हम कौन हैं, कितने हैं! नहीं मालूम हम क्या क्या इन्तजाम कर सकते हैं! आई बात समझ में?”
“आई। चल।”
बहुत कोशिशों के बाद पंड्या सात और आदमी इकट्ठे कर पाया जो कि गम्भीर इमरजेंसी का हवाला देने पर उन के पास गोली की रफ्तार से बन्दरगाह पहुंचे। उस काम को वारफुटिंग पर अंजाम देने के लिये उसे जरनैल के नाम का हवाला देना पड़ा जिसका नुकसान ये हुआ कि उन का खुफिया आपरेशन खुफिया न रह सका और अब पंड्या अभी से कोई सजती सी कहानी सोचने लगा था जो कि जरनैल को भरमा पाती और उसकी खता—अगर वो खता थी—माफ हो पाती।
बहरहाल वो बाद की बात थी।
उसने सब को समझाया कि उन का निशाना देखने में कैसा था और उन्हें अलग अलग वाहनों पर इलाके बांट कर उस पायर से ले कर गेटवे आफ इन्डिया तक गश्त लगाने और विजिल रखने को बोला। उसने सब को खास हिदायत दी कि किसी को वो दिखाई दे जाता तो उसने अकेले ही उसको काबू में करने की कोशिश नहीं करनी थी बल्कि सब को खबर करनी थी ताकि वो सामूहिक रूप से उस पर काबिज हो पाते।
खुद उन दोनों ने अपनी चौकसी की पोस्ट के तौर पर गेटवे आफ इन्डिया को चुना, बुलावा आने पर जहां से वो कहीं भी पहुंच सकते थे।
अब वो गेटवे से परे उसके सामने के मैदान के परले सिरे पर एक कार में मौजूद थे।
दोनों पशेमान थे, हलकान थे और उन की सूरतों से जान पड़ रहा था कि कामयाबी के दर्शन नहीं होने वाले थे।
कुछ वक्त सस्पेंस में कटा।
“वो इधर आयेगा?”—एकाएक पठान बोला।
“क्या बोला?”—पंड्या ने हड़बड़ा कर सिर उठाया।
“मैं बोला वो इधर पहुंचेगा जिधर कि हम...मौजूद हैं?”
पठान के मुंह से ‘टेम खोटी कर रहे हैं’ निकलने लगा था, ऐन मौके पर उसने अपनी जुबान को काबू में किया था।
पंड्या ने जवाब न दिया, उसने खामोशी से पहलू बदला।
“मैं एक बात बोले?”—पठान बोला।
“बोल, भाया”—पंड्या तिक्त भाव से बोला—“कोई और बात है तो बोल वो भी।”
“हम दोनों निरे घोंचू!”
“क्या बोला?”
“जो तू सुना। ढक्कन! मगज से खाली!”
“अरे, क्या कह रहा है?”
“हमारा ये कदम ही गलत है।”
“क्या!”
“बल्कि तेरा कदम। जो कदम तूने उठाया है, मगज काम करता तो हम उससे कहीं बेहतर कदम उठा सकते थे।”
“कौन सा?”
“एक्स्ट्रा भीड़ू लोगों का इन्तजाम करने की जगह हमें सीधे, बुलेट का माफिक, इधर आना चाहिये था जिधर कि हम ये टेम हैं, इधर आकर एक मोटरबोट पकड़नी चाहिये थी और यहां से उलटा सफर शुरू करना चाहिये था।”
“उलटा सफर?”
“अरे, इधर गेटवे से वापिस बन्दरगाह की तरफ जाना चाहिये था, उस सुनसान पायर की तरफ जाना चाहिये था जिधर से कि वो किश्ती के जरिये भाग निकलने में कामयाब हुआ था। अभी बोल, चप्पू वाली किश्ती मोटरबोट की स्पीड का मुकाबला कर सकती है?”
“नहीं।”—मशीनी अंदाज से पंड्या के मुंह से निकला।
“तो वो रास्ते में कहीं हमें दिखाई देता या नहीं देता?”
पंड्या ने अवाक् उसकी तरफ देखा।
“रात के अन्धेरे में समन्दर में किश्ती पर मौजूद एक भीड़ू को हैंडल करना क्या बहुत मुश्किल काम होता?”
“उसके पास गन...”
“हमेरे पास क्या? गुलेल?”
पंड्या खामोश रहा।
“ऊपर से हमें मोटरबोट का एडवांटेज। बोट की तीखी हैडलाइट में उसको मालूम ही न पड़ता कि उस पर किस का फोकस था। हम उसको शूट कर सकते थे, बोट की ठोकर से उस की किश्ती पलट सकते थे। दिखाई दे जाता तो कैसे वो साला हमेरा मुकाबला कर पाता!”
“अरे, भाया, पहले क्यों न बोला?”
“मालूम तेरे को पहले क्यों न बोला! सब कुछ तो तू हैंडल करता था साला कमान्डर का माफिक! वार फुटिंग पर भीड़ू लोग बुलाता था, जो बात इतना एफर्ट से जरनैल से सीक्रेट रखा, उस को खुल्ला हवा देता था...”
“अरे, फिर भी पहले क्यों न बोला?”
“क्यों कि पहले ये बात साला मगज में आया थाइच नहीं। साला अभी आया तो अभी बोला।”
“हूं।”—पंड्या ने चिन्तित हूंकार भरी, कुछ क्षण खामोश रहा फिर तमक कर बोला—“हम अभी भी इस बात पर अमल कर सकते हैं।”
“क्योंकि अक्खा घौंचू का माफिक समझते हैं कि वो किश्ती खेता इधर पहुंचेगा! उस सुनसान पायर से इधर तक के फासले को मगज में लाया होता तो अपना गुज्जू भाई ऐसा कभी न समझता। या समझता?”
पंड्या का सिर अपने आप इंकार में हिला।
“एक तो फासला, ऊपर से रास्ता टेढ़ा मेढ़ा। घुमावदार। चक्कर वाला।”
“यानी वो रास्ते में कहीं किश्ती को नक्की करेगा और खुश्की पर कदम रखेगा?”
“हां।”
“फिर मेरे इन्तजाम में क्या लोचा है? वो हमेरे किसी भीड़ू की नजर में आ सकता था।”
“बशर्ते कि उसके निगाहबीनी पर पहुंचने से पहले ही वो खुश्की पर कदम न रख चुका होता।”
“ऐसा मुमकिन नहीं जान पड़ता। जिन हालात में वो भागा था, उनमें उस की मंशा पायर से ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाने की होना जरूरी।”
“इस वास्ते बीच में ही उसके हमारे किसी भीड़ू की निगाह में आ जाने का फुल चानस?”
“हां।”
“तो फिर हम इधर क्या कर रहे हैं?”
पंड्या फिर खामोश हो गया।
“ये बीच बीच में खामोशी का दौरा पड़ता है तेरे को?”
“घिस मत, भाया। हूल न दे। मैं परेशान है साला। इस वास्ते कनफ्यूज्ड है। साला इतना इन्तजाम किया, इतना एफर्ट किया, इतना रिस्क लिया, फिर भी...”
“वो रहा!”—एकाएक पठान चिल्लाया।
पंड्या को जैसे झटका लगा।
“क-क्या?”—वो बोला—“क्या?”
“हमारा भीड़ू! उधर देख! वो जो उधर टैक्सी की ओर बढ़ा जा रयेला है। वो जो...”
बाकी बात सुनने की कोशिश पंड्या ने न की, उसने तत्काल कार का इंजन चालू किया।
जोकम फर्नान्डो अन्धेरे समुद्र की छाती पर जैसे तैसे किश्ती खे रहा था लेकिन उसके हवास फना थे।
पीछे पायर पर उस की जान जाते जाते बची थी। उसकी जिन्दगी और मौत में एक सांस का फासला रह गया था जब कि रेमंड लियो के—अगर वो ही था—वहां पहुंचने की आहट हुई थी और क्षण भर को गन वाले का ध्यान उसकी तरफ से भटक गया था, वो पायर से नीचे डाई मारने में कामयाब हो गया था और नीचे मौजूद किश्ती में जा कर गिरा था। गनीमत थी कि उसके उस छोटी सी किश्ती में आ कर गिरने से वो पलट नहीं गयी थी। वो किश्ती के पेन्दे से टकराया था तो ब्रीफकेस उसके हाथ से निकल गया था और फिर गनीमत हुई कि वो पानी में जा गिरने की जगह किश्ती में ही वापिस गिरा था। फिर उसने चप्पू सम्भाले थे और शैतान की तरह किश्ती खेने लगा था।
ये सस्पेंस उस पर बुरी तरह से हावी था कि आखिर वो लोग थे कौन, कैसे, कब से वो उसकी ताक में थे? उस उजाड़ पायर पर एकाएक पहुंचे तो वो हो नहीं सकते थे। उन की तैयारी, उन का मिजाज ही बताता था कि वो खास उस की ताक में थे और उसकी हर हरकत से वाकिफ थे।
कैसे हो सकता था?
लेकिन हुआ था बराबर। जरूर वो इसी यकीन के तहत पायर पर मौजूद थे कि उसने लौट कर पायर पर ही आना था। यानी उसकी खुशकिस्मती थी कि समन्दर में जाती बार वो उन के हाथ से निकल गया था। लेकिन लौटती बार वो ऐसा नहीं होने देने वाले थे।
पर थे कौन?
जिसने उस पर गन तानी थी, वो कदरन उसके करीब था इसलिये नीमअन्धेरे में भी वो किसी हद तक उसको देख पाया था जब कि गन की दहशत में दूसरे की तरफ तो उसकी निगाह उठी ही नहीं थी। उसने देखा था कि गन वाला कोई चालीस साल का दरम्याने कद का, गठीले बदन वाला, क्लीनशेव्ड व्यक्ति था जिस की कनपटियों पर बहुत छोटे कतरे गये लेकिन सिर पर घने बाल थे। उसके नयन नक्श का कोई चौकस अन्दाजा वो नहीं कर पाया था, सिवाय इसके कि कान बड़े थे और टी-कैटल की तरह खड़े थे।
उसने दिमाग पर बहुत जोर दिया था लेकिन उसे नहीं लगा था कि उसने पहले कभी उस शख्स को देखा था।
उसके पीछे से उसकी तरफ गोली चली थी लेकिन हैरानी की बात थी कि सिर्फ एक ही बार चली थी।
जो कि उसके लिये अच्छा ही हुआ था।
वो पूरी शक्ति से चप्पू चला रहा था और उसकी मंशा पायर से जल्द से जल्द, ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाने की थी।
उत्कण्ठा से उसका शरीर तना हुआ था और पीछे से आने वाली किसी भी आहट को पकड़ने के लिये उसके कान खड़े थे।
कोई आहट उसे फिलहाल नहीं सुनाई दी थी।
अब दहशत की पकड़ से वो धीरे धीरे आजाद होने लगा था और आगे की सोचने लगा था।
आगे कहीं किनारे लगना अवश्यम्भावी था।
कहां?
जाहिर था कि पायर से ज्यादा से ज्यादा दूर।
उसके पीछे पड़े भीड़ू भी उससे यही उम्मीद करते कि वो कहीं किनारे लगेगा और उस बाबत अपना कोई कदम उठाते।
वो जानता था वो बहुत ज्यादा देर किश्ती खेता नहीं रह सकता था—उस के कन्धे अभी से दुखने लगे थे—और फिर अन्धेरे में उसे दिशा भ्रम भी हो सकता था, वो किनारे के साथ साथ चलने की जगह बेध्यानी में उस से परे हटने लग सकता था।
पीछे से अभी भी कोई आहट सुनाई नहीं दे रही थी जो कि उसे आश्वस्त कर रही थी।
तभी एकाएक उसे एक बाजू रौशनियों से झिलमिलाता एक स्टीमर दिखाई दिया।
वो जानता था वैसे स्टीमर गेटवे आफ इन्डिया पर खड़े होते थे और पर्यटकों को समुद्र भ्रमण कराते थे।
एक खयाल उसके जेहन में कौंधा।
स्टीमर उससे दूर था इसलिये चिल्लाने पर भी उस तक उसकी आवाज नहीं पहुंच सकती थी।
तो?
उसने अपना मोबाइल फोन निकाला, उसको बैटरी पर लगाया और स्टीमर की तरफ उसका रुख करके बैटरी को जलाने बुझाने लगा।
पहले तो निराशा ही उसके हाथ लगी लेकिन फिर उसे लगा कि उसका सिग्नल स्टीमर पर देख लिया गया था।
स्टीमर की रफ्तार घट रही थी और अब उसका रुख उसकी तरफ हो गया था। उसने भी अपना रास्ता छोड़ कर किश्ती को स्टीमर की तरफ खेना शुरू कर दिया।
दोनों में फासला घटा तो उसने देखा कि स्टीमर पर काफी पर्यटक सवार थे जिन में पुरुषों के अलावा स्त्रियां और बच्चे भी थे।
स्टीमर और करीब आया तो वो स्थिर हो गया और उसका इंजन बन्द हो गया।
किश्ती को खेता वो उसे स्टीमर के पास ले गया और उसने किश्ती को लम्बाई के रुख स्टीमर के साथ लगा दिया। फिर उसने चप्पुओं को तिलांजलि दी और हौले हौले डगमगाती किश्ती में उठकर खड़ा हो गया।
किसी के दो हाथ स्टीमर की रेलिंग से नीचे लटके।
उसने अपने हाथ उठाये—एक में ब्रीफकेस बदस्तूर—तो उसे बांहों से थाम लिया गया और वो ऊपर खींचा जाने लगा।
अगले ही क्षण वो स्टीमर में था।
सारे पैसेंजर हैरानी से उसे देख रहे थे।
जिस आदमी ने उसे ऊपर चढ़ाया था, वो उसे बांह से पकड़ कर आगे बढ़ा और उसके साथ ड्राइवर के केबिन पर पहुंचा।
“क्या हुआ?”—ड्राइवर ने पूछा।
“क-क्या हुआ?”—उसके मुंह से निकला।
“अरे, आप बोलो, भई! रात के अन्धेरे में समन्दर में अकेले किश्ती पर कहां भटकते थे?”
“म-मैं...मैं...”
“क्या मैं मैं? साफ बोलो।”
“बाप”—एकाएक साथ आया व्यक्ति बोला—“पहले मैं बोले?”
“बोल।”
“ये पाकिस्तानी टैरेरिस्ट। वारदात करने का वास्ते आया। साला छब्बीस ग्यारह का माफिक। वो भीड़ू लोग भी समन्दर के रास्ते आया, बोट से आया। मैं बोले तो...”
“क्या बकता है?”—जोकम चिड़ कर बोला—“वैसे अटैक के लिये कोई अकेला आता है? साला चप्पू वाली बोट पर आता है? खाली हाथ आता है? सिग्नल देकर खुद अपने को एक्सपोज करता है?”
“ताम्बे, चुप कर।”—ड्राइवर बोला।
“अभी जो मेरे मगज में आया, मैं बोला।”
“सुना मैं। चुप कर अब।”
साथ आये व्यक्ति ने होंठ भींच लिये।
“अभी तुम बोलो”—ड्राइवर फिर जोकम से मुखातिब हुआ—“मैं मैं किये बिना बोलो क्या हुआ?”
“लु-लुटेरे”—जोकम कठिन स्वर में बोला—“लुटेरे पड़ गये।”
“अरे! कहां?”
“पीछे। पायर पर। इन्दिरा डॉक के करीब के एक पायर पर।”
“जो इस्तेमाल में नहीं आता? अक्सर सुनसान पड़ा रहता है?”
“वही।”
“उस पर कैसे पहुंच गये?”
“लुटेरे—बोले तो मवाली—बन्दरगाह के सामने से ही पीछे पड़ गये थे। उनसे बचने के लिये मैं पायर वाले रास्ते पर निकल लिया था। पहले तो लगा था कि मेरे उधर होने की उन्हें खबर ही नहीं लगी थी लेकिन मेरा खयाल गलत निकला था। वो तो उधर भी मेरे पीछे थे। मुझे लूटने के वास्ते मुझे शूट करने तक को तैयार थे।”
“क्या!”
“गोली चलाई न मेरे पर!”
“देवा रे! गोली चलाई!”
“मैं बाल बाल बचा। फिर किसी तरह पायर से किश्ती में कूदने में कामयाब हो गया और उसी पर चप्पू खेता उधर से भागा।”
“उन्होंने निकल जाने दिया?”
“रोकने के लिये गोलियां चलाई न! गॉड ने सेव किया। कोई लगी नहीं मेरे को।”
“खुशकिस्मत हो। गोवानी जान पड़ते हो?”
“हां।”
“इधर के ही हो या टूरिस्ट हो?”
“इधर का ही हूं। एलआईसी में नौकरी करता हूं। फोर्ट में ब्रांच। परेल में रहता हूं।”
“हूं। तो बोले तो बाल बाल बचे!”
“हां। सेंट फ्रांसिस सेव किया।”
“बोले तो हमने कुछ नहीं किया, इत्तफाक से जिन्हें तुम, तुम्हारा साला जुगनू जैसा सिग्नल दिखाई दे गया! न खाली दिखाई दे गया बल्कि मगज में भी पड़ा कि कोई हैल्प मांगता था!”
“थैंक्यू बोलता है न!”
“थैंक्यू बोलता है खाली?”
“क्या मांगता है?”
“बोले तो एक बड़े वाला गान्धी तो होना बरोबर।”
जोकम ने बटुवा निकाला और एक पांच सौ का नोट ड्राइवर की तरफ बढ़ाया।
“अरे, भीड़ू, मैं बड़े वाला बोला।”
जोकम ने एक आह सी भरी और एक हजार का नोट उसे सौंपा।
“थैंक्यू बोलता है।”—ड्राइवर बोला, उसने इंजन चालू किया और स्टीमर को आगे बढ़ाया।
“एक हरी पत्ती इधर भी।”—उसके साथ आया व्यक्ति बोला।
जोकम की भवें उठीं।
“अरे, भाड़ा दोगे कि नहीं स्टीमर का?”
जोकम ने उसे भी सौ का नोट दिया जो कि उसने बिना शुक्रिया अदा किये कबूल किया।
“जाता किधर है?”—उसने ड्राइवर से पूछा।
“गेटवे आफ इन्डिया।”—ड्राइवर बोला—“उधरीच से रेगुलर आपरेट करता है। उधर पहुंचाता है न तुम्हेरे को। फिर आगे मालूम किधर जाने का?”
“परेल...”
“अरे, भीड़ू, पहले थाने जाने का। तुम्हेरे को मवाली पड़ गये, मुश्किल से जान बची, माल बचा, थाने रपट लिखवाने का या नहीं लिखवाने का?”
“लिखवाने का।”
“तो?”
“पहले थाने। फिर परेल।”
“अभी आयी बात मगज में। जाकर सीट पर बैठने का।”
जोकम वहां से हटा और पैसेंजर्स के बीच एक खाली सीट पर बैठ गया।
वो सन्तुष्ट था कि जो हुआ था, ठीक हुआ था। किश्ती के सफर के लिहाज से गेटवे आफ इन्डिया उजाड़ पायर से बहुत दूर था। उसे यकीन था कि गेटवे आफ इन्डिया तक उन लोगों की विजिल नहीं पहुंची हो सकती थी जो कि, अब जाहिर था कि, उस पर घात लगाये थे। तकदीर ने अच्छा साथ दिया था जो वो स्टीमर उसे मिला था।
ब्रीफकेस को दोनों हाथों से छाती से चिपकाये वो खामोश बैठा मंजिल आने की प्रतीक्षा करता रहा।
आखिर स्टीमर गेटवे ऑफ इन्डिया पहुंचा और पिछवाड़े की सीढ़ियों के साथ किनारे लगा।
पर्यटक उतरने लगे।
जोकम ने जानबूझकर उसके बीच में जगह पायी।
उसने सीढ़ियां तय कीं, ऊपर पहुंचा और फिर गेटवे का घेरा काट कर फ्रंट के विशाल मैदान में पहुंचा। सतर्कता से उसकी निगाह पैन होती एक बाजू से दूसरे बाजू घूमी और वैसे ही वापिस लौटी।
कोई उसे अपनी ताक में न लगा।
आश्वस्त वो आगे बढ़ा।
तभी परे एक टैक्सी आकर रुकी। एक पैसेंजर उसमें से निकला और भाड़ा चुकाने लगा।
जोकम टैक्सी की तरफ लपका।
पैसेंजर टैक्सी से परे हट गया तो टैक्सी का इंजन गर्जा और वो आगे बढ़ने को हुई।
“टैक्सी!”—वो उच्च स्वर में बोला—“थाम्बा!”
आगे बढ़ने को तत्पर टैक्सी स्थिर हुई लेकिन इंजन चालू रहा।
जोकम लपकता सा टैक्सी के करीब पहुंचा।
टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी से बाहर निकल कर मीटर डाउन किया और जाकर वापिस ड्राइविंग सीट पर बैठा।
जोकम ने खाली हाथ से पिछली सीट का दरवाजा खोला।
तभी इत्तफाकन उसकी निगाह पीछे मैदान की तरफ उठी। उससे काफी दूर एक नीली सान्त्रो खड़ी थी जिस पर क्षण भर को उसकी निगाह ठिठकी तो उसका कलेजा लरज गया।
उसकी ड्राइविंग सीट पर वही बड़े कानों वाला मवाली बैठा था जिसने पायर पर उस पर गन तानी थी। पैसेंजर सीट पर एक दूसरा शख्स भी मौजूद था जो जरूर उसका पायर वाला जोड़ीदार ही था।
उस घड़ी दोनों की निगाह सामने सड़क पर होने की जगह एक दूसरे की तरफ थी जिससे जोकम को लगा कि जैसे संयोग से उसकी उन पर नजर पड़ गयी थी, वैसे उन की उस पर नहीं पड़ी थी।
फुर्ती से वो टैक्सी में सवार हुआ।
ड्राइवर ने इंजन स्टार्ट किया, टैक्सी को गियर में डाल के आगे सरकाया और बिना गर्दन घुमाये बोला—“किधर जाने का, बाप?”
“अभी सीधा ले।”—जोकम बोला—“बाद में बोलता है।”
“बोले तो कोलाबा जाने का।”
“अरे, बोलता है न!”
ड्राइवर खामोश हो गया।
टैक्सी ने रफ्तार पकड़ी।
जोकम ने घूमकर पीछे सड़क पर देखा तो पाया नीली सान्त्रो भी अब पहले की तरह मैदान में बस खड़ी नहीं थी, वो अब रोड पर थी और उसकी टैक्सी से पांच छ: वाहन ही पीछे थी।
यानी उस का खयाल गलत था कि उन की उस पर नजर नहीं पड़ी थी।
घबराहट फिर उस पर हावी होने लगी।
“बन्दर रोड ने आगे सीधे नहीं जाने का।”—वो ड्राइवर से बोला—“वहां से वापिस लेकर राउन्ड अबाउट पर और आगे फ्लोरा फाउन्टेन पहुंच।”
ड्राइवर ने आदेश का पालन किया।
फ्लोरा फाउन्टेन का चौराहा करीब आया तो जोकम बोला—“दायें लेना। आगे हर्नबी रोड, फिर पलटन रोड।”
“बरोबर।”—ड्राइवर बोला।
निर्देशानुसार टैक्सी चली, पलटन रोड के सिरे पर पहुंची।
“अभी लैफ्ट लेकर उलटा घुमा के कारनाक रोड चलने का।”
टैक्सी दौड़ती रही।
फिर कारनाक रोड के सिरे पर पहुंची जहां आगे धोबी तलाव चौक था।
“बाप”—ड्राइवर बोला—“इधर ही आना था तो इतना आगे काहे वास्ते जाना था? एस्पलेनेड रोड से इधर ऐन सीधा रास्ता था। काहे वास्ते इतना बड़ा राउन्ड...”
“अरे, मीटर चलता है न तेरा?”
“वो तो चलता है पण...”
“छोड़ पण। मैं पेईंग कस्टमर। पेईंग कस्टमर का कहना मानते हैं। नहीं?”
“बोले तो हां। बरोबर।”
“अब कालबा देवी, भूलेश्वर, नागपाड़ा से तुलसी पाइप रोड पर पहुंचने का।”
“मुम्बई घूमने निकला, बाप!”
“ऐसीच समझ ले।”
“इतना कुछ जानता है तो टूरिस्ट तो न हुआ!”
“देख, भई, तू बहस न कर। मेरी कोई प्राब्लम है जिसकी वजह से मेरा सड़कों पर आजू बाजू, उलटा सीधा भटकना जरूरी है। तू टैक्सी मेरी मर्जी से चला, मैं भाड़ा तेरी मर्जी से देगा।”
“मीटर से ऊपर?”
“जितना बोलेगा?”
“फिर क्या वान्दा है!”
टैक्सी विभिन्न सड़कों पर दौड़ती रही।
नीली सान्त्रों को उसने हमेशा अपने पीछे पाया।
टैक्सी के भटक कर तुलसी पाइप रोड पहुंचने तक उसे यकीन हो गया कि वो उसी के पीछे थी। उसने बेवजह चक्कर काटे थे, सीधे रास्ते छोड़ कर घुमावदार रास्ते पकड़े थे, नीली सान्त्रो फिर भी उसे अपने पीछे दिखाई दी थी तो ऐसा बेवजह नहीं हो सकता था, इत्तफाकन तो बिल्कुल नहीं हो सकता था।
अब उसकी टेंशन बढ़ती जा रही थी।
क्या करूं?
पायर पर वो सिर पर आन खड़ी हुई निश्चित मौत से बच गया था लेकिन जान सांसत से उसकी फिर भी नहीं छूटी थी। अब तक टैक्सी उन रास्तों पर चली थी रात की उस घड़ी जिन पर हैवी ट्रैफिक होता था लेकिन आगे कहीं तो ऐसी सड़क आती ही जहां कि ट्रैफिक कम होता था या इत्तफाकन कहीं न होने जैसा होता। वहां नीली सान्त्रो टैक्सी को ओवरटेक कर के उसके रास्ते में आकर उसे जबरदस्ती रुकने पर मजबूर कर सकती थी और फिर जो गोली उसे पायर पर नहीं लगी थी, वो अब लग सकती थी। टैक्सी का ड्राइवर भी उसके साथ जान से जा सकता था।
जीसस! जीसस!
वो टी-कैटल जैसे कानों वाले को पहचानता था, उसकी वजह से उसके जोड़ीदार को पहचानता था इसलिये सान्त्रो उसके फोकस में थी जब कि हो सकता था कि वो दो ही जने उसके पीछे न होते, उनके कई साथी किसी और गाड़ी में—या गाड़ियों में—उनके साथ होते जिन की उस को भनक तक नहीं थी।
उसकी घबराहट फिर बढ़ने लगी।
टैक्सी अब तुलसी पाइप रोड पर दौड़ रही थी।
वो बड़ा एक्सप्रैसवे था इसलिये वहां तो नीली सान्त्रो का पीछे लगे रहना और भी आसान था।
गॉड! कैसे पीछा छूटे!
“अब ये रोड छोड़ने का।”—वो एकाएक बोला—“आगे राइट टर्न आ रहा है, वो लेने का और एल्फिंस्टन रोड पकड़ने का।”
“मुम्बई से अक्खा वाकिफ है, बाप!”
“जो बोला वहीच करने का।”
“वो तो मैं करता है पण ये तो वापिस जाने जैसा काम होगा!”
“वान्दा नहीं। मीटर चलता है।”
ड्राइवर खामोश हो गया लेकिन उसने निर्देश का पालन करने में कोई हुज्जत न की।
“लैफ्ट!”—जोकम व्यग्र भाव से बोला—“अम्बेडकर मार्ग। आगे खुदादाद सर्कल तक स्ट्रेट।”
पीठ पीछे से उसने ड्राइवर का सिर सहमति में हिलते देखा।
टैक्सी चलती रही, वो खामोशी से निर्देशित सड़कों पर टैक्सी चलाता रहा।
“अब”—एकाएक जोकम बोला—“मेरा बात गौर से सुनने का।”
“सुनता है न, बाप!”—ड्राइवर बोला—“पैसेंजर का बात गौर से सुनना काम मेरा।”
“तुम...नाम बोले तो?”
“जीतसिंह।”
“पंजाबी है?”
“हिमाचली।”
“तुम मेरे को भले आदमी लगे, जीतसिंह।”
“बरोबर लगा न, बाप! मैं हैइच भला आदमी।”
“इसलिये मेरे को तुम्हेरे साथ अपना एक सीक्रेट शेयर करना मांगता है।”
“मैं सुनता है न!”
“मेरे पीछे कुछ मवाली लगे हैं। शुरू से ही वो मेरे पीछे हैं।”
“नीली सान्त्रो में?”
“तो तू भी नोट किया!”
“किया न बरोबर! तुम इतना घुमा फिरा कर टैक्सी चलवाया पण वो ब्लू सान्त्रो मेरे को हर टेम पीछू दिखाई दिया।”
“निगाह तीखी है तेरी। उसी में वो मवाली हैं जो मेरे पीछे पड़े हैं।”
“काहे?”
“मेरा ब्रीफकेस छीनना मांगते हैं।”
“क्या है ब्रीफकेस में?”
“है कुछ।”
“बोलना नहीं मांगता?”
“यही समझ ले।”
“पण कीमती? बहुत कीमती?”
“हां। लेकिन उनके लिये। खाली उनके लिये। तेरे लिये नहीं।”
“ऐसा?”
“हां।”
“उन को खतरा मोल ले के भी ब्रीफकेस मांगता है? खून खराबा कर के भी?”
“हां।”
“बाप, फिर तो मैं थाने ले कर चलता है न! पुलिस सब सम्भलेगा। फिर भी पीछा नहीं छोड़ेंगे तो अन्दर होयेंगे।”
“नहीं, मैं पुलिस के पास नहीं जा सकता। यूं वक्ती तौर पर मेरा उन मवालियों से पीछा छूट जायेगा लेकिन मेरे लिये नयी मुसीबत खड़ी हो जायेगी।”
“बोले तो पुलिस को भी नहीं बता सकता कि ब्रीफकेस में क्या है?”
“हां।”
“इस वास्ते पुलिस नहीं!”
“हां।”
“अभी लगता है कोई दूसरा स्कीम आया तुम्हेरे मगज में!”
“ठीक लगता है। वो क्या है कि...”
“आगे खुदादाद सर्कल आ रहा है। पहले बोलो उसके बाद किधर चलने का?”
“इसी सड़क पर राउन्ड एबाउट तक सीधा। फिर आगे राइट टर्न लेकर किदवई मार्ग।”
“सड़कों की चौकस वाकफियत तुम्हेरे को! पण मालूम न, किदवई मार्ग पर घूमे तो जिधर से आये, उधर ही वापिस जा रहे होंगे!”
“मालूम। पण वान्दा नहीं।”
“क्यों कि कहीं पहुंचना हैइच नहीं, खाली नीली सान्त्रो को चक्कर देना! देते रहना!”
“अभी सुन मैं क्या कहने लगा था जब कि तूने मुझे टोक दिया था।”
“सुनता है, बाप।”
“मेरे को तेरा हैल्प मांगता है जिसके लिये मैं तेरे को फुल कम्पैंसेट करेगा।”
“बोले तो हैल्प की फीस भरेगा?”
“यही समझ ले।”
“क्या फीस?”
“तू बोल।”
“तुम्हीं बोलो, बाप। ये केस में मेरे को पक्की तुम्हीं अच्छा अच्छा बोलेगा।”
“ये चार हजार रुपये हैं।”—जोकम ने अगली सीट पर हजार हजार के नोट डाले—“इसमें तेरा भाड़ा भी और तेरी हैल्प की फीस भी। ओके?”
“मोर दैन ओके, बाप। थैंक्यू बोलता है।”
“मैं आगे कहीं एकाएक टैक्सी से उतर जाऊंगा....”
“ऐसा?”
“ये ब्रीफकेस पीछे छोड़ के।”
“अरे! जिसमें तुम बोला कि बहुत कीमती माल है?”
“हां। मैं फिर बोलता है कि कीमती हर किसी के लिये नहीं। खाली उनके लिये।”
“ऐसा क्या माल है? जब एतबार किया है तो, बाप, कुछ तो हिन्ट दो!”
“ठीक है, सुन। सलमान गाजी मालूम?”
“वो बड़ा मवाली! डॉन! बोले तो भाई!”
“वही। मेरे पीछे लगे भीड़ू उसी के गैंग के प्यादे हैं।”
“पण वो तो सुना रिटायर हो गया!”
“कहने का बात है। गोवा कोर्ट को भुलावे में डालने का बात है, जहां उसके खिलाफ बड़ा केस है। बड़ी मुश्किल से जमानत पर छूटा है। उसके आइन्दा के लिये ऐसे इन्तजाम हैं कि उसके खिलाफ केस कमजोर पड़ जायेगा क्योंकि गवाह या तो मुकर जायेंगे या गायब हो जायेंगे। फिर देर सबेर वो कोर्ट से बैनिफिट आफ डाउट पा कर छूट जायेगा। बैनिफिट आफ डाउट समझता है?”
कैसे न समझता! वो खुद ऐसे ही तो कोर्ट से छूटा था!
“समझता है न, बाप।”—प्रत्यक्षत: वो बोला—“सन्देहलाभ। क्या?”
“वही।”
“अभी एक दूसरा डॉन है जो नहीं चाहता कि सलमान गाजी छूटे। मैं उस दूसरे डॉन के गैंग से है। इस ब्रीफकेस में कुछ ऐसे सबूत हैं जो कि कोर्ट में पेश हो गये तो सलमान गाजी का छूट पाना सपना बन जायेगा और उसे लम्बी सजा हो के रहेगी। इसी वजह से उसके हुक्म पर उसके आदमी ये ब्रीफकेस मेरे से झपटना मांगते हैं। अभी समझा?”
“अब तो समझा, बाप, पण खाली दो भीड़ू!”
“और भी हो सकते हैं। मेरे को खाली दो की खबर जो कि पीछे नीली सान्त्रो में।”
“पण और भी हो सकते हैं!”
“हां।”
“किधर?”
“पीछे। सान्त्रो के आजू बाजू, पीछे कहीं।”
“कितने?”
“क्या मालूम कितने! अन्दाजा ही तो बोला मैं कि हो सकते हैं! अभी क्या मालूम कितने!”
“अन्दाजा बोला तो ये भी हो सकता है कि न हों!”
“अरे, वो जो नीली सान्त्रो में हैं...”
“उन के अलावा न हों!”
हूं। बोले तो हो तो सकता है ये भी!”
“यहीच बोला मैं।”
“न होने में ही मेरी भलाई है पण...क्या पता लगता है! पक्की कर के क्या पता लगता है!”
“गॉड से दुआ करो कि न हों। खाली सान्त्रो वाले ही दो हों!”
“अगर ये टेम दुआ काम आ सकती है तो... करता है।”
“बढ़िया।”
“जीतसिंह... यही नाम बोला न!”
“हां, बाप। बरोबर।”
“जीतसिंह, अभी मेरे को अपना ये ब्रीफकेस तेरे को सौंपना मांगता है।”
“म-मेरे को?”
“हां।”
“और तुम?”
“मैं आगे कहीं दांव लगाकर यूं टैक्सी से उतर जाऊंगा कि वो लोग मेरे पीछे नहीं लगे रह पायेंगे।”
“ओह! कर लेगा ऐसा, बाप?”
“कर लूंगा। करना ही पड़ेगा। मरता क्या न करता!”
“बरोबर बोला, बाप। मरता क्या न करता!”
“ब्रीफकेस को मैं पीछे दोनों सीटों के बीच में फर्श पर छोड़ता है।”
“अभी यहीच ठीक। बाद में मैं डिकी में रखेगा। पण...”
“क्या पण?”
“बाप, मेरे को सस्पेंस! खोल के दिखाओ न, भीतर क्या है!”
“अरे, जो चीज मैंने ही नहीं देखी, वो तेरे को कैसे दिखाऊं?”
“क्या बोला, बाप!”
“ब्रीफकेस लॉक्ड है। इस पर नम्बरों वाले लॉक हैं। मेरे को वो नम्बर नहीं मालूम जिस को लगा कर ये लॉक बन्द किये गये हैं और जिससे ये खुलेंगे। वो नम्बर खाली बॉस को मालूम है जो जब ब्रीफकेस डिलीवर हो जायेगा तो बॉस आगे पब्लिक प्रासीक्यूटर को या गोवा पुलिस के किसी बिग बॉस को बोलेगा।”
“ओके! अभी तुम टैक्सी से नक्की करेगा, किस्मत साथ देगा तो सेफली किधर निकल लेगा। फिर मेरे को ब्रीफकेस किधर पहुंचाने का? कब पहुंचाने का?”
“किधर भी नहीं। सलामत रहा—या जैसे तू बोला किस्मत ने साथ दिया—तो ब्रीफकेस कलैक्ट करने का वास्ते मैं तेरे पास पहुंचेगा।”
“किधर? कोई जगह है मगज में?”
“है। तेरा पक्का स्टैण्ड कौन सा है? सारे टैक्सी वालों का कोई पक्का स्टैण्ड होता है, तेरा भी है या नहीं?”
“है।”
“कौन सा?”
“नागपाडा में अलैग्जेन्ड्रा सिनेमा का टैक्सी स्टैण्ड।”
“अलैग्जेन्ड्रा! वो जो कब से बन्द पड़ा है? जो बोलते हैं अब मस्जिद बन गया!”
“ऐसीच है। पण टैक्सी स्टैण्ड बहुत टेम से है उधर और अभी भी बरोबर है। उसको सिनेमा के बन्द होने से कोई लोचा नहीं। वहीच मेरा टैक्सी स्टैण्ड पक्की करके। बरोबर?”
“नहीं, नहीं बरोबर। मेरे को ज्यास्ती रश वाला, ज्यास्ती बिजी टैक्सी स्टैण्ड मांगता है। बोले तो मुम्बई सैन्ट्रल। जीतसिंह, तू ब्रीफकेस के साथ मेरा उधर वेट कर सकता है?”
जीतसिंह हिचकिचाया।
“अरे, भई, प्लीज बोलता है। जब इतना हैल्प मंजूर तो...”
“ओके, मुम्बई सैंट्रल।”—जीतसिंह बोला—“पण वो बड़ा स्टैण्ड। उधर ढूंढ लेगा मेरे को?”
“उधरीच होगा तो क्यों नहीं?”
“बोले तो ढूंढ़ लेगा।”
“हां।”
“बढ़िया। मेरे को उधर कब तक वेट करने का?”
जोकम ने उस बात पर विचार किया।
“अभी साढ़े नौ बजे हैं।”—फिर बोला—“तू बारह बजे तक उधर मेरा वेट करना।”
“इतना टेम! बाप, पैसेंजर ढ़ोना होता है। साला धन्धा खोटी होयेंगा।”
“ऐसे तेरा जो नुकसान होगा, मैं उसका भी जिम्मेदारी लेता है। वो नुकसान मैं कवर करेगा। बोले तो अभी करता है।”
“नहीं, अभी नहीं। बाद में करना। जब बारह बजे मिलो, तब करना। तभी मेरे को अन्दाजा होयेंगा कि मेरा कितना नुकसान हुआ। क्या!”
“ठीक! तो रोकड़ा बाद में। मुम्बई सैन्ट्रल पर बारह बजे।”
“हां। पण, बाप...”
“अब क्या है? कोई और नुकसान याद आ गया?”
“नहीं, बाप। मेरे को कुछ और बोलने का था।”
“सॉरी। बोल।”
“अभी तुम बोला सलामत रहा तो मेरे पास पहुंचेगा। बाप, बुरा बोल बोलता है, न सलामत रहा तो?”
वो खामोश रहा।
“या किसी और वजह से मुम्बई सैन्ट्रल न पहुंच सका तो? मैं साला अक्खी रात उधरीच तो नहीं टंगा रहेगा न!”
“नहीं, ऐसा नहीं होगा। तेरे को किसी भी हालत में बारह के बाद वेट नहीं करना पड़ेगा।”
“ऐसा?”
“हां।”
“कैसे होयेंगा?”
“बोलता है। टैक्सी में कागज पैंसल रखता है?”
“रखता है न, बाप!”
जीतसिंह ने उसे एक छोटे साइज का पतला सा नोट पैड और एक बाल पैन सौंपा।
जोकम ने बाल पैन से पैड के ऊपरले पेज पर कुछ शब्द घसीटे और फिर उस कागज को फाड़ कर जीतसिंह को सौंपा।
“देख।”—वो बोला—“टैक्सी चलाते पढ़ सकता है तो पढ़, क्या लिखा है!”
“अभी।”—जीतसिंह ने बोल बोल कर पढ़ा—“अलीशा वाज़, फ्लैट नम्बर बी-44, ग्राउन्ड फ्लोर, लिटल गोवा, जोगेश्वरी ईस्ट।”
“करैक्ट। जीतसिंह, अगर मैं बारह बजे तक मुम्बई सैन्ट्रल तेरे पास न पहुंचे तो ब्रीफकेस इस पते पर पहुंचाना, अलीशा तेरे को जोगेश्वरी जाने आने का भाड़ा देगी और तेरा वो लॉस भी कवर करेगी जो तेरे को टू एण्ड ए हाफ आवर मुम्बई सैंट्रल पर वेट करने से होगा।”
“तुम इसको—अलीशा को, अलीशा वाज़ को—बोल के रखेगा?”
“हां।”
“बढ़िया। ये है कौन?”
“ये भी मेरा माफिक बिग बॉस के गैंग से है। और तेरे को कुछ जानना जरूरी नहीं।”
“वो पूछेगी ब्रीफकेस कौन दिया तो मैं क्या बोलेगा?”
“नहीं पूछेगी।”
“फिर भी! अपना नाम बोलने में कोई वान्दा, बाप!”
वो हिचकिचाया।
“जोकम।”—फिर बोला—“जोकम फर्नांडो।”
“हूं। अब आगे क्या करने का?”
“आगे वेट करने का। फिर चांस लेने का।”
“कैसा चांस?”
“देखना!”
“हूं।”
टैक्सी सड़क पर दौड़ती रही।
रह रह कर जीतसिंह रियरव्यू मिरर के जरिये पीछे निगाह डालता था तो नीली सान्त्रो कभी उसे पीछे दिखाई देती थी, कभी नहीं दिखाई देती थी।
थोड़ा वक्त और गुजरा।
अब टैक्सी बैरीस्टर नाथ पाई मार्ग पर दौड़ रही थी।
तब ऐसा इत्तफाक हुआ कि जीतसिंह की टैक्सी के ऐन पीछे एक बस आ गयी और उसे नीली सान्त्रो दिखनी बन्द हो गयी।
“रोक!”
जीतसिंह हड़बड़ाया।
“बाप, एक्सीडेंट हो जायेगा।”
“रोक!”—जोकम फुंफकारता सा बोला।
जीतसिंह ने टैक्सी को ब्रेक लगाई।
पीछे जोर का हार्न बजा।
हार्न की परवाह किये बिना जीतसिंह पूरे जोर से ब्रेक का पैडल दबाये रहा।
जोकम ने टैक्सी का रोड डिवाइडर की ओर का दरवाजा खोला...
“अरे क्या करता है, बाप!”
... और टैक्सी से बाहर छलांग लगा दी।
बड़ी मुश्किल से वो औंधे मुंह सड़क पर गिरने से बचा, सन्तुलन बनाये रखने के लिये कुछ क्षण टैक्सी के साथ साथ भागा, फिर एकाएक परे हटा और डिवाइडर को फांदकर परली तरफ की सड़क पर कूद गया जिधर कि ट्रैफिक उलटा आ रहा था।
तब जीतसिंह की समझ में आया कि उसके पैसेंजर का क्या इरादा था!
तत्काल उसने टैक्सी की रफ्तार बढ़ाई।
जोकम एक कार से टकराने से बाल बाल बचा, ड्राइवर के मुंह से निकली एक भद्दी गाली उसके कानों में पड़ी।
कार के ड्राइवर को उस की अप्रत्याशित हरकत की वजह से ब्रेक के पैडल पर जैसे खड़े हो जाना पड़ा था।
पीछे आती कार उस से टकराने से बाल बाल बची।
वैसा ही हादसा उसके पीछे आती बैस्ट की बस के साथ होने से बचा।
हार्नों का चौतरफा शोर मचा।
जोकम झपट कर बस के करीब पहुंचा और उस में सवार हो गया।
जैसे एकाएक ट्रैफिक में व्यवधान आया था, वैसे ही वो दूर हो गया। वाहन फिर सुचारु रूप से सड़क पर दौड़ने लगे।
जोकम को परली सड़क पर सान्त्रो की एक झलक दिखाई दी, जो अगला क्रॉसिंग आने से पहले घूम कर उस सड़क पर नहीं आ सकती थी। जब तक ऐसा होता, तब तक बस कहीं की कहीं पहुंच चुकी होती। दूसरे, उन को खयाल भी न आता कि वो चलते ट्रैफिक में बस में सवार हुआ था।
उसने देखा कन्डक्टर उसके सामने आ खड़ा हुआ था। और यूं उसकी तरफ देख रहा था जैसे वो कोई अजूबा था।
“रोड पर आसमान से आकर गिरा, भीड़ू?”—उसे घूरता कन्डक्टर बोला।
जोकम खिसियाया सा हंसा।
“अभी रोड पर मरा पड़ा होता।”
“स-सॉरी!”
“बोलता है सॉरी। टिकट बोलने का।”
“बस किधर जाता है?”
“अरे, तुम बोलो, तुम्हेरे को किधर जाने का?”
“फोर्ट?”
“जाता है। पन्द्रह रूपिया।”
जोकम ने रकम अदा की और टिकट हासिल की।
फोर्ट जाने का उसका कोई इरादा नहीं था। बड़ी हद दो स्टाप आगे जाकर उसने बस से उतर कर किसी टैक्सी में पनाह पानी थी।
वो अपनी स्कीम की कामयाबी से खुश था लेकिन अब एक नयी आशंका से ग्रस्त था।
क्या वादे के मुताबिक टैक्सी ड्राइवर जीतसिंह उसे मुम्बई सैन्ट्रल स्टेशन के टैक्सी स्टैण्ड पर मिलेगा?
अमर नायक ने घड़ी पर निगाह डाली।
दस बजने को थे।
त्योरी चढ़ाये उसने अपने डिप्टी की ओर देखा।
नवीन सोलंके हड़बड़ाया, फिर परे देखने लगा।
“क्या!”—नायक भुनभुनाया।
“क्या... क्या बोलेगा, बॉस!”—सोलंके दबे स्वर में बोला—“शायद ट्रैफिक में...”
“ढ़ाई घन्टे ट्रैफिक में? सवा सात बजे हुसैन डाकी का तेरे को सावंत और फर्नान्डो की बाबत दरयाफ्त करता फोन आया, तेरे से ओके मिला तो उसने माल उन दोनों को सौंप दिया। क्या मतलब हुआ?”
सोलंके ने सवालिया शक्ल बनाई।
“कहीं कोई फच्चर न पड़ा, ये मतलब हुआ। कस्टम पर कोई फच्चर न पडा...”
“बरोबर। मैं कनफर्म किया। वीरेश हजारे को फोन लगाया, डायमंड डीलर के भीड़ू हरीश निगम से भी बात किया जो कि उधर जरूरी रकम के साथ पहुंचा था। दोनों ने कनफर्म किया था कि सब कुछ ऐन करैक्ट करके हुआ था।”
“माल बन्दरगाह से बाहर! सावंत और फर्नान्डो के हवाले!”
“बरोबर। मैं हुसैन डाकी से फिर कनफर्म किया।”
“कब कनफर्म किया?”
“आधा घन्टा पहले।”
“कहां था वो?”
“कल्याण।”
“बोले तो वो कल्याण पहुंच गया, तेरे भीड़ू मलाड न पहुंचे!”
“रास्ते में कहीं ट्रैफिक जाम... पीक आवर्स में ऐसा होना आम है।”
“वो जाम में फंसे हैं?”
“शायद।”
“दो घन्टे से? और भी ऊपर?”
“हो जाता है कभी कभी।”
“मोबाइल पर काल क्यों नहीं सुनते? तू बोला कि नहीं बोला कि दोनों की घन्टी बजती है...”
“एक की।”
“क्या बोला?”
“सावंत के मोबाइल की घन्टी खाली एक बार बजी, फिर बजाने पर हर पर उसका फोन स्विच्ड ऑफ मिला।”
“और जोकम का?”
“उस का फोन हर बार बरोबर बजा पण....”
“जवाब न मिला?”
“हां।”
“क्यों? क्यों?”
“अभी क्या बोलेगा, बॉस!”
नायक ने भारी अप्रसन्नता जताने उसे घूर कर देखा।
सोलंके निगाह चुराने लगा, बेचैनी से पहलू बदलने लगा।
“एक्सीडेंट!”—फिर एकाएक तमक कर बोला—“रोड एक्सीडेंट। बॉस, यही वजह हो सकती है जवाब न मिलने की।”
नायक ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“एक्सीडेंट का पता लगाना क्या बहुत मुश्किल?”—फिर बोला।
“न-हीं। मैं...मैं करता हूं कुछ।”
सोलंके उठके बाहर चला गया।
दस मिनट में वो वापिस लौटा।
“मैंने पुलिस के सैन्ट्रल कन्ट्रोल रूम से पता किया है।”—वो बोला—“एक वाकिफ पुलिस इन्स्पेक्टर से भी इस बाबत मदद हासिल की है। मालूम पड़ा है। पिछले तीन घन्टों में बन्दरगाह से ले कर मलाड तक के रूट पर कोई एक्सीडेंट नहीं हुआ है।”
“हूं।”—नायक चिन्तित भाव से बोला—“इसका एक ही मतलब।”
“क्या?”—सोलंके सशंक भाव से बोला।
“इसका एक ही मतलब मुमकिन।”
“क्या, बॉस?”
“वो दोनों माल ले के भाग गये।”
“नामुमकिन!”
“मोटा माल! बीस करोड़ के हीरे! ऐसा माल काबू में हो तो क्या देर लगती है नीयत बद् होने में?”
“बॉस, नहीं हो सकता। सावंत मेरा परखा हुआ भीड़ू! तुम्हेरा वफादार भीड़ू! उसकी नीयत बद् नहीं हो सकती।”
“और दूसरा?”
“जोकम फर्नांडो भी परखा हुआ भीड़ू। सावंत जितना परखा हुआ नहीं पण फिर भी परखा हुआ भीड़ू। उन में से कोई अमानत में खयानत नहीं कर सकता। दोनों तो हरगिज नहीं कर सकते!”
“तो फिर क्या हुआ? किधर गर्क हो गये वो मेरे माल के साथ?”
“मैं... और पड़ताल करवाता है न!”
“जो करना है, खुद कर। साथ जितने मर्जी प्यादे रख पण खुद कर।”
“ठीक।”
“सोलंके, ये माल हाथ से निकल गया तो ये हमेरे पर बहुत बड़ी चोट होगी। तो मुझे फिर भाई लोगों में आपसी दुश्मनी खड़ी होने लगने का अन्देशा सतायेगा। क्योंकि अगर हमेरे वफादार भीड़ुओं ने नीयत बद् नहीं की तो फिर ये किसी दूसरे गैंग के झपट्टे के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।”
“ऐसा?”
“हां। बड़े माल पर बड़ा झपट्टा बड़ा कारनामा। जो कि किसी ऐरे गैरे के बस का काम नहीं हो सकता। अगर ये किसी हमेरे से मुखालिफ गैंग का काम है तो देख लेना, देर सबेर तेरे दोनों भीड़ुओं की लाशें ही बरामद होंगी।”
“देवा!”
“अब एक नयी फिक्र मेरे सामने खड़ी है। कौन हो सकता है मुखालिफ गैंग?”
“बॉस, किधर से होयेंगा! होने लायक कोई है किधर! बल्लू कनौजिया फिनिश। महबूब फिरंगी फिनिश। सलमान गाजी गेम से बाहर। तो बाकी तो बेजान मोरावाला बचा जो कि हम जानते हैं कि बहरामजी कान्ट्रैक्टर का फ्रंट है, कवर है।”
“बहरामजी से मेरी कोई खुन्नस नहीं, कोई मुखालफत नहीं। सी-रॉक एस्टेट में बम फटे और बहरामजी के ब्लास्ट में जान से जाने से बाल-बाल बचे होने को एक महीना हो गया है। बम ब्लास्ट के सिलसिले में सब अन्डरवर्ल्ड बिग बासिज़ पर शक किया गया था पण मेरे पर से फोकस सबसे पहले हटा था। बल्लू कनौजिया बम ब्लास्ट के लिये जिम्मेदार निकला था और उसे और उसके अन्डर में चलने वाले इम्पॉर्टेंट करके भीड़ू लोगों को उनके किये की सजा मिल गयी थी और उसके साथ ही सी-रॉक एस्टेट से उठा तबाही का वो तूफान थम गया था। मेरी बहरामजी से कोई मुखालफत नहीं। मोरावाला मेरे माल पर दांत नहीं गड़ा सकता। कोई वजह ही नहीं ऐसा करने की। ऊपर से बहरामजी अभी भी—वारदात के एक महीने बाद भी—बम ब्लास्ट के हादसे से पूरी तरह से नहीं उबरा है और मेरे को पक्की टिप मिली है कि आजकल उस पालिसी पर अमल कर रहा है, फिरंगियों की जुबान में जिसे ‘गो स्लो’ कहते हैं।”
“ठीक। पण बॉस, मैं नहीं जानता या तुम नहीं जानता कि इधर आये दिन नवें मवाली सिर उठाते हैं और कई तो आनन फानन बड़े गैंगस्टर बन जाते हैं, बोले तो भाई बन जाते हैं।”
“ऐसा कोई भीड़ू ताकत बना रहा है तो उसकी हमें खबर क्यों नहीं है?”
“अब निकालेंगे न!”
“उस बाबत जो करना, बाद में करना। अभी वो कर जो ये टेम जरूरी। मालूम कर, कोई जानकारी निकाल या निकलवा कि तेरे दोनों भीड़ू कहां गर्क हो गये!”
“अभी।”
“लगता नहीं कि आज रात मुझे नींद आ पायेगी। इसलिये जैसी जानकारी हाथ आये, उसके साथ जब जी चाहे इधर आना और बात करना।”
“बरोबर। जाता है, बॉस।”
बारह बज गये।
जीतसिंह को अपने पैसेंजर के दर्शन न हुए।
तब तक का सारा वक्त उसने रेलवे स्टेशन के टैक्सी स्टैण्ड पर सिग्रेट फूंकते गुजारा था।
पता नहीं कहां अटक गया था भीड़ू! क्यों अटक गया था!
पीछे बैरीस्टर नाथ पाई मार्ग पर नीली सान्त्रो से तो उसने बड़ी होशियारी से पीछा छुड़ा लिया था!
क्या माजरा था?
अब वो क्या करे?
जोगेश्वरी का रुख करे या थोड़ा और इन्तजार करे?
उसने और इन्तजार करने का फैसला किया।
अनमने भाव से उसने नया सिग्रेट सुलगाया और एक बेमजा शगल की तरह उसके छोटे-छोटे कश लगाने लगा।
पिछले दिनों बतौर रौशन बेग उसके सिर पर जो मौत का साया मंडराया था, उससे निजात पाये उसे एक महीना हो गया था लेकिन ये सवाल तब भी उसके सामने खड़ा था कि आइन्दा वो कौन सा धन्धा अख्तियार करे? जीतसिंह बन कर जम्बूवाड़ी की खोली में ही बना रहे और टैक्सी ही चलाता रहे—जिसे कि रौशन बेग बन कर रहने की मजबूरी में उसने थामा था—या चिंचपोकली लौट जाये और क्रॉफोर्ड मार्केट का अपना ताला-चाबी का ठीया फिर आबाद करे!
बहुत सोच विचार के बाद उसने टैक्सी ड्राइवर ही बने रहने का फैसला किया था, अलबत्ता आइन्दा दिनों में वो वापिस चिंचपोकली जाकर रहने के बारे में सोच सकता था।
उसे किराये की टैक्सी दिलाने में उसके भाइयों जैसे दोस्त और हर दुख सुख के साथी गाइलो ने बड़ा रोल अदा किया था। उस काम में गाइलो उसका जमानती बना था। और उसने धारावी की एक वाकिफ रैंटल एजेंसी से अपनी टैक्सी के कागजात जमा करा के उसे टैक्सी दिलाई थी। उसने एजेन्सी के गुजराती मालिक को अपनी फुल जिम्मेदारी पर बोला था कि टैक्सी उसके फ्रेंड बद्रीनाथ को मांगता था और उसके गारन्टर के तौर पर वो अपनी टैक्सी को कलैक्टोरेल के तौर पर पेश करता था।
बद्रीनाथ एक फर्जी नाम था जो अपनी बदनाम शिनाख्त को छुपाने के लिये जीतसिंह पहले भी तीन चार बार इस्तेमाल कर चुका था। पिछले दिनों कितने ही ऐसे वाकयात हुए थे—मसलन उसका वारन्ट गिरफ्तारी निकला था, उसकी गिरफ्तारी पर बीस हजार रुपये के ईनाम की घोषणा पुलिस ने अखबारों में जारी की थी, उस पर तोहमत आयी थी कि टॉप डॉन-कम-नेताजी बहरामजी कान्ट्रैक्टर के खण्डाला के बंगले की सेफ खोलने की और उसमें से सत्तर लाख रुपया चुराने की जुर्रत उसने की थी, वगैरह—जिनकी भनक भी रैंटल एजेंसी के मालिक को लग जाती, वो जान जाता कि वो वो जीतसिंह था तो वो यकीनन उसे टैक्सी सौंपने से इंकार कर देता। गाइलो इस बात को बाखूबी समझता था इसलिये उसने गुजराती मालिक को सेफ नाम बताया था, बोला था ‘मंथली भाड़े पर टैक्सी उस के फिरेंड बद्रीनाथ को मांगता था’।
ताला-चाबी के धन्धे से वो कुछ अरसा दूर रहना चाहता था क्योंकि हाल में उस पर दो बार जो मुसीबतों का पहाड़ टूटा था, वो इसी धन्धे की वजह से टूटा था। वो ये तो नहीं कह सकता था कि वो सुधर गया था लेकिन पिछले दिनों बहरामजी कान्ट्रैक्टर के कैम्प के कोप का भाजन बन जाने की वजह से जो उसकी जान पर आ बनी थी, वो उसे यही सुझाती थी कि कुछ अरसा जरूर उसे पंगों से दूर रहना चाहिये था।
अब बड़ा बाप और उसमें अमन शान्ति का रिश्ता था, अपनी जानबख्शी के लिये उसने बाजरिया सोलोमन कान्ट्रैक्टर बहरामजी के लिये बड़ा काम किया था जिस के इनाम के तौर पर उसकी जानबख्शी ही नहीं हुई थी, उसे बाकायदा बीस लाख रुपये के नकद ईनाम से भी नवाजा गया था जो कि मिलते ही उसके हाथ से निकल गया था। पक्या नाम के उन के अपने एक साथी ने और चाल-मेट ने दगाबाजी की थी और ईनाम की रकम के साथ चम्पत हो गया था। तुरन्त बाद उसने और उसके बाकी साथियों ने—गाइलो, डिकोस्टा, शम्सी, अबदी, जो कि सब टैक्सी ड्राइवर थे और जम्बूवाडी की एक ही चाल में रहते थे—दगाबाज यार पक्या को तलाश करने की भरपूर कोशिशें की थीं लेकिन कोई कोशिश कामयाब नहीं हुई थी।
यानी एक बार फिर इतिहास ने अपने आप को दोहराया था, जीता हमेशा की तरह जीत कर भी नहीं जीता था।
उसने सिग्रेट का आखिरी कश लगाकर उसे टैक्सी की खिड़की से बाहर उछाल दिया और डैशबोर्ड पर लगी घड़ी पर निगाह डाली।
एक बज चुका था।
ब्रीफकेस का मालिक तब भी नहीं आया था।
उसने असहाय भाव से गर्दन हिलाई।
और इन्तजार बेमानी था लेकिन अब उसके सामने बड़ा सवाल ये था कि क्या वो ब्रीफकेस को उसकी मंजिल पर पहुंचाने के लिये निकले?
जोगेश्वरी वहां से मुम्बई का दूसरा सिरा था। फिर लौटना भी उसने उधर ही था क्योंकि उसकी मौजूदा रिहायश धोबी तलाव के इलाके में जम्बूवाडी की एक चाल में थी। तभी वो जोगेश्वरी का रुख करता तो वापिस चाल में पहुंचने तक तीन बज जाना लाजमी था जो कि उस घड़ी उसे कबूल नहीं था।
उसने जोगेश्वरी जाना सुबह तक मुल्तवी करने का फैसला किया।
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