दूसरे दिन कैप्टन फ़ैयाज़ ने इमरान को अपने घर बुलाया। हालाँकि कई बार के अनुभव ने यह बात साबित कर दी थी कि इमरान वह नहीं है जो ज़ाहिर करता है। न वह अहमक़ है और न ख़ब्ती! लेकिन फिर भी फ़ैयाज़ ने उसे मूड में लाने के लिए जज साहब की कानी लड़की को भी बुला लिया! हालाँकि वह इमरान की इस हरकत को भी मज़ाक़ ही समझा था, लेकिन फिर भी उसने सोचा कि थोड़ी तफ़रीह ही रहेगी। फ़ैयाज़ की बीवी भी इमरान से अच्छी तरह परिचित थी और जब फ़ैयाज़ ने उसे उसके ‘इश्क़’ की दास्तान सुनायी तो हँसते-हँसते उसका बुरा हाल हो गया।
फ़ैयाज़ उस वक़्त अपने ड्रॉइंग-रूम में बैठा इमरान का इन्तज़ार कर रहा था। उसकी बीवी और जज साहब की एक आँख वाली लड़की राबिया भी मौजूद थीं।
‘अभी तक नहीं आये, इमरान साहब!’ फ़ैयाज़ की बीवी ने कलाई पर बँधी हुई घड़ी की तरफ़ देखते हुए कहा।
‘क्या वक़्त है?’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘साढ़े सात!’
‘बस दो मिनट बाद वह उस कमरे में होगा।’ फ़ैयाज़ मुस्कुरा कर बोला।
‘क्यों। यह कैसे?’
‘बस उसकी हर बात अजीब होती है! वह इसी क़िस्म का वक़्त तय करता है। उसने सात बज कर बत्तीस मिनट पर आने का वादा किया था। लिहाज़ा मेरा ख़याल है कि वह इस वक़्त हमारे बँगले के क़रीब ही खड़ा अपनी घड़ी देख रहा होगा।’
‘अजीब आदमी मालूम होते हैं।’ राबिया ने कहा।
‘अजीबतरीन कहिए! इंग्लैण्ड से साइन्स में डाक्टरेट ले कर आया है। लेकिन उसकी हरकतें...वह अभी देख लेंगी। इस सदी का सबसे अजीब आदमी...लीजिए, शायद वही है।’
दरवाज़े पर दस्तक हुई।
फ़ैयाज़ उठ कर आगे बढ़ा!...दूसरे लम्हे में इमरान ड्रॉइंग-रूम में दाख़िल हो रहा था।
औरतों को देख कर वह ज़रा झुका और फिर फ़ैयाज़ से हाथ मिलाने लगा।
‘शायद मुझे सबसे पहले यह कहना चाहिए कि आज मौसम बड़ा ख़ुशगवार रहा।’ इमरान बैठता हुआ बोला।
फ़ैयाज़ की बीवी हँसने लगी और राबिया ने जल्दी से काले शीशों वाली ऐनक लगा ली।
‘आपसे मिलिए, आप मिस राबिया सलीम हैं। हमारे पड़ोसी जज साहब की साहबज़ादी और आप मिस्टर अली इमरान, मेरे महकमे के डायरेक्टर जनरल रहमान साहब के साहबज़ादे।’
‘बड़ी ख़ुशी हुई।’ इमरान मुस्कुरा कर बोला। फिर फ़ैयाज़ से कहने लगा, ‘तुम हमेशा गुफ़्तगू में ग़ैर ज़रूरी अल्फ़ाज़ ठूँसते रहते हो। जो बहुत बुरे लगते हैं...रहमान साहब के साहबज़ादे! दोनों साहिबों का टकराव बुरा लगता है। उसके बजाय रहमान साहब के ज़ादे...या सिर्फ़ रहमान ज़ादे कह सकते हैं।’
‘मैं लिटरेरी आदमी नहीं हँ।’ फ़ैयाज़ मुस्कुरा कर बोला।
दोनों ख़वातीन भी मुस्कुरा रही थीं। फिर राबिया ने झुक कर फ़ैयाज़ की बीवी से कुछ कहा और वे दोनों उठ कर ड्रॉइंग-रूम से चली गयीं।
‘बहुत बुरा हुआ।’ इमरान बुरा-सा मुँह बना कर बोला।
‘क्या? शायद वह बावर्चीख़ाने की तरफ़ गयी हैं?’ फ़ैयाज़ ने कहा, ‘बावर्ची की मदद के लिए आज कोई नहीं है।’
‘तो क्या तुमने उसे भी बुलाया है।’
‘हाँ भई, क्यों न बुलाता। मैंने सोचा कि इस बहाने से तुम्हारी मुलाक़ात भी हो जाये।’
‘मगर मुझे बड़ी कोफ़्त हो रही है।’ इमरान ने कहा।
‘क्यों?’
‘आख़िर उसने धूप का चश्मा क्यों लगाया है।’
‘अपना नुक़्स छुपाने के लिए।’
‘सुनो मियाँ! दो आँखों वालियाँ मुझे बहुत मिल जायेंगी। यहाँ तो मामला सिर्फ़ इस आँख का है। हाय क्या चीज़ है...किसी तरह उसका चश्मा उतरवाओ। वरना मैं खाना खाये बग़ैर वापस चला जाऊँगा।’
‘बको मत।’
‘मैं चला!’ इमरान उठता हुआ बोला।
‘अजीब आदमी हो...बैठो!’ फ़ैयाज़ ने उसे दोबारा बैठा दिया।
‘चश्मा उतरवाओ, मैं इसका क़ायल नहीं कि महबूब सामने हो और अच्छी तरह दीदार भी नसीब न हो।’
‘ज़रा आहिस्ता बोलो।’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘मैं तो अभी उससे कहूँगा।’
‘क्या कहोगे।’ फ़ैयाज़ बौखला कर बोला।
‘यही जो तुम से कह रहा हूँ।’
‘यार, ख़ुदा के लिए...’
‘क्या बुराई है इसमें?’
‘मैंने सख़्त ग़लती की।’ फ़ैयाज़ बड़बड़ाया।
‘वाह...ग़लती तुम करो और भुगतूँ मैं! नहीं फ़ैयाज़ साहब! मैं उससे कहूँगा कि बराहे-करम चश्मा उतार दीजिए। मुझे आपसे मरम्मत हो गयी है...मरम्मत...शायद मैंने ग़लत लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है। बोलो भई...क्या होना चाहिए।’
‘मुहब्बत...’ फ़ैयाज़ बुरा-सा मुँह बना कर बोला।
‘जियो! मुहब्बत हो गयी है...तो वह इस पर क्या कहेगी?’
‘चाँटा मार देगी।’ फ़ैयाज़ झुँझला कर बोला।
‘फ़िक्र न करो, मैं चाँटे को चाँटे पर रोक लेने के आर्ट से बख़ूबी वाक़िफ़ हूँ। तरीक़ा वही होता है जो तलवार पर तलवार रोकने का हुआ करता था।’
‘यार, ख़ुदा के लिए कोई हिमाक़त न कर बैठना!’
‘अक़्लमन्दी की बात करना एक अहमक़ की खुली तौहीन है, अब बुलाओ न...दिल की जो हालत है, बयान कर भी सकता हूँ और नहीं भी कर सकता...वह क्या होता है जुदाई में...बोलो न यार कौन-सा लफ़्ज़ है?’
‘मैं नहीं जानता।’ फ़ैयाज़ झुँझला कर बोला।
‘ख़ैर होता होगा कुछ...डिक्शनरी में देख लूँगा...वैसे मेरा दिल धड़क रहा है, हाथ काँप रहे हैं, लेकिन हम दोनों के दरमियान धूप का चश्मा हायल है। मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।’
चन्द लम्हे ख़ामोशी रही। इमरान मेज़ पर रखे हुए गुलदान को इस तरह घूरता रहा था जैसे उसने उसे कोई सख़्त बात कह दी हो।
‘आज कुछ नयी बातें मालूम हुई हैं।’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘ज़रूर मालूम हुई होंगी।’ इमरान अहमक़ों की तरह सिर हिला कर बोला।
‘मगर नहीं! पहले मैं तुम्हें उन ज़ख़्मों के बारे में बताऊँ। तुम्हारा ख़याल सही निकला। ज़ख़्मों की गहराई बिलकुल बराबर है।’
‘क्या तुम ख़्वाब देख रहे हो?’ इमरान ने कहा।
‘क्यों?’
‘किन ज़ख़्मों की बात कर रहे हो?’
‘देखो इमरान, मैं अहमक़ नहीं हूँ।’
‘पता नहीं, जब तक तीन गवाह न पेश करो य़कीन नहीं आ सकता।’
‘क्या तुम कल वाली लाश भूल गये?’
‘लाश! अरे...हाँ, याद आ गया। और वह तीन ज़ख़्म बराबर निकले...हा....’
‘अब क्या कहते हो’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘संगो-आहन बेनियाज़े-ग़म नहीं, देख हर दीवारे-दर से सर न मार।’ इमरान ने गुनगुना कर तान मारी और मेज़ पर तबला बजाने लगा।
‘तुम संजीदा नहीं हो सकते।’ फ़ैयाज़ उकता कर बेदिली से बोला।
‘उसका चश्मा उतरवा देने का वादा करो तो मैं संजीदगी से गुफ़्तगू करने को तैयार हूँ।’
‘कोशिश करूँगा बाबा! मैंने उसे नाहक़ बुलाया।’
‘दूसरी बात यह कि खाने में कितनी देर है?’
‘शायद आधा घण्टा...वह एक नौकर बीमार हो गया है।’
‘ख़ैर...हाँ जज साहब से क्या बातें हुईं?’
‘वही बताने जा रहा था! कुंजी उनके पास मौजूद है और दूसरी बात यह कि वह इमारत उन्हें विरासत में नहीं मिली थी।’
‘फिर?’ इमरान ध्यान और दिलचस्पी से सुन रहा था।
‘वह दरअस्ल उनके एक दोस्त की मिलकियत थी और उस दोस्त ने ही उसे ख़रीदा था।। उनकी दोस्ती बहुत पुरानी थी, लेकिन रोज़गार की फ़िक्र ने उन्हें एक-दूसरे से जुदा कर दिया। आज से पाँच साल पहले अचानक जज साहब को उसका एक ख़त मिला जो इसी इमारत से लिखा गया था। उसने लिखा था कि उसकी हालत बहुत ख़राब है और शायद वह ज़िन्दा न रह सके। लिहाज़ा वह मरने से पहले उनसे बहुत ज़रूरी बात कहना चाहता है।। तक़रीबन पन्द्रह साल बाद जज साहब को उस दोस्त के बारे में कुछ मालूम हुआ था! उनका वहाँ पहुँचना ज़रूरी था। बहरहाल वे वक़्त पर न पहुँच सके। उनके दोस्त का इन्तक़ाल हो चुका था। मालूम हुआ कि वहाँ तन्हा ही रहता था। हाँ, तो जज साहब को बाद में मालूम हुआ कि मरने वाले ने वह इमारत क़ानूनी तौर पर जज साहब के नाम कर दी थी। लेकिन यह न मालूम हो सका कि वह उनसे क्या कहना चाहता था...’
इमरान थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा फिर बोला।
‘हाँ’ और इस कमरे के पलास्टर के बारे में पूछा था?’
‘जज साहब ने उससे लाइल्मी ज़ाहिर की। अलबत्ता उन्होंने यह बताया कि उनके दोस्त की मौत इसी कमरे में हुई थी।’
‘क़त्ल?’ इमरान ने पूछा।
‘नहीं, कूदरती मौत, गाँव वालों के बयान के मुताबिक़ वह अर्सा से बीमार था।’
‘उसने इस इमारत को किससे ख़रीदा था?’ इमरान ने पूछा।
‘आख़िर इससे क्या बहस! तुम इमारत के पीछे क्यों पड़ गये हो?’
‘महबूबा यकचश्म के वालिद बुज़ुर्गवार से यह भी पूछो।’
‘ज़रा आहिस्ता! अजीब आदमी हो, अगर उसने सुन लिया तो?’
‘सुनने दो। अभी मैं उससे अपने दिल की हालत बयान करूँगा।’
‘यार इमरान, ख़ुदा के लिए...कैसे आदमी हो तुम?’
‘फ़िज़ूल बातें मत करो।’ इमरान बोला, ‘ज़रा जज साहब से वह कुंजी माँग लाओ।’
‘ओह, क्या अभी...?’
‘अभी और इसी वक़्त!’
फ़ैयाज़ उठ कर चला गया। उसके जाते ही वे दोनों ख़वातीन ड्रॉइंग-रूम में दाख़िल हुईं।
‘कहाँ गये?’ फ़ैयाज़ की बीवी ने पूछा।
‘शराब पीने।’ इमरान ने बड़ी संजीदगी से कहा।
‘क्या?’ फ़ैयाज़ की बीवी मुँह फाड़ कर बोली। फिर हँसने लगी।
‘खाना खाने से पहले हमेशा थोड़ी-सी पीते हैं।’ इमरान ने कहा।
‘आपको ग़लत-फ़हमी हुई है...वह एक टॉनिक है।’
‘टॉनिक की ख़ाली बोतल में शराब रखना मुश्किल नहीं!’
‘लड़ाना चाहते हैं आप।’ फ़ैयाज़ की बीवी हँस पड़ी।
‘क्या आपकी आँखों में कुछ तकलीफ़ है।’ इमरान ने राबिया को सम्बोधित किया।
‘जी...जी...जी नहीं।’ राबिया नर्वस नज़र आने लगी।
‘कुछ नहीं।’ फ़ैयाज़ की बीवी जल्दी से बोली, ‘आदत है, तेज़ रोशनी बर्दाश्त नहीं होती। इसीलिए यह चश्मा...’
‘ओह अच्छा!’ इमरान बड़बड़ाया, ‘मैं अभी क्या सोच रहा था!’
‘आप ग़ालिबन यह सोच रहे थे कि फ़ैयाज़ की बीवी बड़ी फ़ूहड़ है। अभी तक खाना भी नहीं तैयार हो सका।’
‘नहीं, यह बात नहीं है, मेरे साथ बहुत बड़ी मुसीबत यह है कि मैं बड़ी जल्दी भूल जाता हूँ! सोचते-सोचते भूल जाता हूँ कि क्या सोच रहा था। हो सकता है मैं अभी यह भूल जाऊँ कि आप कौन हैं और मैं कहाँ हूँ? मेरे घर वाले मुझे हर वक़्त टोकते रहते हैं।’
‘मुझे मालूम है।’ फ़ैयाज़ की बीवी मुस्कुरायी।
‘मतलब यह कि अगर मैं कोई हिमाक़त कर बैठूँ तो बिला तकल्लुफ़ टोक दीजिएगा।’
अभी यह गुफ़्तगू हो ही रही थी कि फ़ैयाज़ वापस आ गया।
‘खाने में कितनी देर है?’ उसने अपनी बीवी से पूछा।
‘बस ज़रा-सी।’
फ़ैयाज़ ने कुंजी का कोई तज़किरा नहीं किया और इमरान के अन्दाज़ से भी ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वह भूल ही गया हो कि उसने फ़ैयाज़ को कहाँ भेजा था।
थोड़ी देर बाद खाना आ गया।
खाने के दौरान इमरान की आँखों से आँसू बह रहे थे। सबने देखा, लेकिन किसी ने पूछा नहीं। ख़ुद फ़ैयाज़, जो इमरान की रग-रग से वाक़िफ़ होने का दावा रखता था, कुछ न समझ सका। फ़ैयाज़ की बीवी और राबिया तो बार-बार कनखियों से उसे देख रही थीं। आँसू किसी तरह रुकने का नाम ही न लेते थे। ख़ुद इमरान के अन्दाज़ से ऐसा मालूम हो रहा था जैसे उसे भी इन आँसुुओं का इल्म न हो। आख़िर फ़ैयाज़ की बीवी से बर्दाश्त न हो सका और वह पूछ ही बैठी।
‘क्या किसी चीज़ में मिर्चें ज़्यादा हैं।’
‘जी नहीं, नहीं तो।’
‘तो फिर यह आँसू क्यों बह रहे हैं।’
‘आँसू...कहाँ?’ इमरान अपने चेहरे पर हाथ फेरता हुआ बोला ‘लल...लाहौल विला क़ूवत। शायद वही बात हो...मुझे क़तई एहसास नहीं हुआ।’
‘क्या बात?’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘दरअस्ल मुर्ग़ मुसल्लम देख कर मुझे अपने एक अज़ीज़ की मौत याद आ गयी थी।’
‘क्या! मुर्ग़ मुसल्लम देख कर!’ फ़ैयाज़ की बीवी हैरत से बोली।
‘जी हाँ...’
‘भला मुर्ग़ मुसल्लम देख कर क्यों?’
‘दरअस्ल ज़ेहन में दोज़ख़ का तसव्वुर था! मुर्ग़ मुसल्लम देख कर आदमी के मुसलमान का ख़याल आ गया। मेरे उन अज़ीज़ का नाम अस्लम है। मुसलमान पर अस्लम आ गया...फिर उनकी मौत का ख़याल आया। फिर सोचा कि अगर वे दोज़ख़ में फेके गये तो अस्लम मुसलमान...मआज़ल्लाह...!’
‘अजीब आदमी हो।’ फ़ैयाज़ झुँझला कर बोला।
जज साहब की लड़की राबिया बेतहाशा हँस रही थी।
‘कब इन्तक़ाल हुआ उनका?’ फ़ैयाज़ की बीवी ने पूछा।
‘अभी तो नहीं हुआ।’ इमरान ने सादगी से कहा और खाने में मशग़ूल हो गया।
‘यार, मुझे डर है कि कहीं तुम सचमुच पागल न हो जाओ।’
‘नहीं, जब तक कोकाकोला बाज़ार में मौजूद है, पागल नहीं हो सकता।’
‘क्यों!’ फ़ैयाज़ की बीवी ने पूछा।
‘पता नहीं!...बहरहाल, महसूस यही करता हूँ।’
खाना ख़त्म हो जाने के बाद भी शायद जज साहब की लड़की वहाँ बैठना चाहती थी, लेकिन फ़ैयाज़ की बीवी उसे किसी बहाने से उठा ले गयी। शायद फ़ैयाज़ ने उसे इशारा कर दिया था। उनके जाते ही फ़ैयाज़ ने इमरान को कुंजी पकड़ा दी और इमरान थोड़ी देर तक उसका जायज़ा लेते रहने के बाद बोला—
‘अभी हाल ही में इसकी एक नक़ल तैयार की गयी है। इसके सूराख़ के अन्दर मोम के ज़र्रे हैं! मोम का साँचा— समझते हो न!’
***
रात अँधेरी थी...और आसमान में स्याह बादलों के टुकड़े चक्कर लगाते घूम रहे थे।
कैप्टन फ़ैयाज़ की मोटर साइकिल अँधेरे का सीना चीरती हुई चिकनी सड़क पर फिसलती जा रही थी। कैरियर पर इमरान उल्लू की तरह बैठा था। उसके होंट भिंचे हुए थे और नथुने फड़क रहे थे। अचानक वह फ़ैयाज़ का कन्धा थपथपा कर बोला-
‘यह तो तयशुदा बात है कि किसी ने एक आँख वाली के वालिद की कुंजी की नक़ल तैयार करवायी है।’
‘हूँ! लेकिन आख़िर क्यों?’
‘पूछ कर बताऊँगा।’
‘किससे?’
‘नीले आसमान से, तारों भरी रात से, हौले-हौले चलने वाली ठण्डी अदाओं से....लाहौल वला...हवाओं से!’
फ़ैयाज़ कुछ न बोला। इमरान बड़बड़ाता रहा। ‘लेकिन शहीद मियाँ की क़ब्र की साफ़-सफ़ाई करने वाले की कुंजी...उसको हासिल करना आसान रहा होगा...बहरहाल हमें इस इमारत की तारीख़ मालूम करनी है। शायद हम उसके आसपास पहुँच गये हैं। मोटर साइकिल रोक दो।’
फ़ैयाज़ ने मोटर साइकिल रोक दी।
‘इंजन बन्द कर दो।’
फ़ैयाज़ ने इंजन बन्द कर दिया। इमरान ने उसके हाथ से मोटर साइकिल ले कर एक जगह झाड़ी में छुपा दी।
‘आख़िर करना क्या चाहते हो।’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘मैं पूछता हूँ, तुम मुझे क्यों साथ लिये फिरते हो?’ इमरान बोला।
‘वह क़त्ल...जो इस इमारत में हुआ था...’
‘क़त्ल नहीं हादसा कहो।’
‘हादसा...क्या मतलब?’ फ़ैयाज़ हैरत से बोला।
‘मतलब के लिए देखो डिक्शनरी, पेज एक सौ बारह...वैसे एक सौ बारह पर बेगम पारा याद आ रही है। बेगम पारा के साथ अमृत धारा ज़रूरी है। वरना डेविड की तरह चँदिया साफ़।’
फ़ैयाज़ झुँझला कर ख़ामोश हो गया।
दोनों आहिस्ता-आहिस्ता उस इमारत की तरफ़ बढ़ रहे थे। उन्होंने पहले पूरी इमारत का चक्कर लगाया, फिर मुख्य दरवाज़े के क़रीब पहुँच कर रुक गये।
‘ओह।’ इमरान आहिस्ता से बड़बड़ाया, ‘ताला बन्द नहीं है।’
‘कैसे देख लिया तुमने...मुझे तो सुझाई नहीं देता।’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘तुम उल्लू नहीं हो।’ इमरान बोला, ‘चलो, इधर से हट जाओ।’
दोनों वहाँ से हट कर फिर मकान के पीछे आये। इमरान ऊपर की तरफ़ देख रहा था। दीवार काफ़ी ऊँची थी...उसने जेब से टॉर्च निकाली और दीवार पर रोशनी डालने लगा।
‘मेरा बोझ सँभाल सकोगे?’ उसने फ़ैयाज़ से पूछा।
‘मैं नहीं समझा।’
‘तुम्हें समझाने के लिए तो बाक़ायदा ब्लैकबोर्ड और चॉक चाहिए। मतलब यह कि मैं ऊपर जाना चाहता हूँ।’
‘क्यों? क्या यह समझते हो कि कोई अन्दर मौजूद है।’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘नहीं यूँही झक मारने का इरादा है। चलो, बैठ जाओ। मैं तुम्हारे कन्धों पर खड़ा हो कर...’
‘फिर भी दीवार बहुत ऊँची है।’
‘यार, फ़िज़ूल बहस न करो।’ इमरान उकता कर बोला, ‘वरना मैं वापस जा रहा हूँ।’
मजबूरन फ़ैयाज़ दीवार की जड़ में बैठ गया।
‘अमाँ जूते तो उतार लो।’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘ले कर भागना मत।’ इमरान ने कहा और जूते उतार कर उसके कन्धों पर खड़ा हो गया। ‘चलो, अब उठो।’
फ़ैयाज़ आहिस्ता-आहिस्ता उठ रहा था...इमरान का हाथ रोशनदान तक पहुँच गया...और दूसरे ही लम्हे में वह बन्दरों की तरह दीवार पर चढ़ रहा था...फ़ैयाज़ मुँह फाड़े हैरत से उसे देख रहा था। वह सोच रहा था कि इमरान आदमी है या शैतान, क्या यह वही अहमक़ है जो कभी-कभी किसी केचुए की तरह बिलकुल बेज़रर मालूम होता है।
जिन रोशनदानों की मदद से इमरान ऊपर पहुँचा था, उन्हीं के ज़रिये दूसरी तरफ़ उतर गया। चन्द लम्हे वह दीवार से लगा खड़ा रहा, फिर आहिस्ता-आहिस्ता उस तरफ़ बढ़ने लगा जिधर से कई क़दमों की आहटें मिल रही थीं।
और फिर उसे यह मालूम कर लेने में मुश्किल न हुई कि वे अपरिचित आदमी उसी कमरे में थे जिसमें उसने लाश देखी थी। कमरे का दरवाज़ा अन्दर से बन्द था, लेकिन दरवाज़ों से मोमबत्ती की हल्की पीली रोशनी छन रही थी। उसके अलावा दालान में बिलकुल अँधेरा था।
इमरान दीवार से चिपका हुआ आहिस्ता-आहिस्ता दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगा, लेकिन अचानक उसकी नज़र शहीद आदमी की क़ब्र की तरफ़ उठ गयी। उसका पत्थर ऊपर उठ रहा था। पत्थर और फ़र्श के बीच की जगह में हल्की-सी रोशनी थी और इस जगह से दो ख़ौफ़नाक आँखें अँधेरे में घूर रही थीं।
इमरान सहम कर रुक गया। वह आँखें फ़ाड़े क़ब्र की तरफ़ देख रहा था। अचानक क़ब्र से एक चीख़ बुलन्द हुई। चीख़ थी या किसी ऐसी बन्दरिया की आवाज़ जिसकी गर्दन किसी कुत्ते ने दबोच ली हो।
इमरान झपट कर बराबर वाले कमरे में घुस गया। वह जानता था कि इस चीख़ की प्रतिक्रिया दूसरे कमरे वालों पर क्या होगी। वह दरवाज़े में खड़ा क़ब्र की तरफ़ देख रहा था। पत्थर अभी तक उठा हुआ था और वे ख़ौफ़नाक आँखों अब भी चिनगारियाँ बरसा रही थीं। दूसरी चीख़ के साथ ही बराबर वाले कमरे का दरवाज़ा खुला। एक चीख़ फिर सुनाई दी जो पहली से अलग थी। शायद यह उन्हीं अपरिचित आदमियों में से किसी की चीख़ थी।
‘भूत भूत!’ कोई काँपती हुई आवाज़ में बोला और फिर ऐसा लगा जैसे कई आदमी मुख्य दरवाज़े की तरफ़ भाग रहे हों।
थोड़ी देर बाद सन्नाटा हो गया। क़ब्र का पत्थर बराबर हो गया था।
इमरान ज़मीन पर लेट कर सीने के बल रेंगता हुआ मुख्य दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा। कभी-कभी वह पलट कर क़ब्र की तरफ़ भी देख लेता था लेकिन फिर पत्थर नहीं उठा।
मुख्य दरवाज़ा बाहर से बन्द हो चुका था। इमरान अच्छी तरह इत्मीनान कर लेने के बाद फिर लौट पड़ा। लाश वाले कमरे का दरवाज़े खुला हुआ था। लेकिन अब वहाँ अँधेरे की हुक़ूमत थी। इमरान ने आहिस्ता से दरवाज़ा बन्द करके टॉर्च निकाली। लेकिन रोशनी होते ही...
‘इन्ना लिल्लाहि वइन्ना इलैहि राजिऊन’, वह आहिस्ता से बड़बड़ाया, ‘ख़ुदा तुम्हारी भी मग़फ़िरत करे।’
ठीक उसी जगह, जहाँ वह पहले भी एक लाश देख चुका था, दूसरी पड़ी हुई दिखाई दी...उसकी पीठ पर भी तीन ज़ख़्म थे जिनसे ख़ून बह कर फ़र्श पर फैल रहा था। इमरान ने झुक कर उसे देखा। यह एक हट्टा-कट्टा और काफ़ी ख़ूबसूरत जवान था और लिबास से किसी ऊँची सोसाइटी का शख़्स मालूम होता था।
‘आज उनकी कल अपनी बारी है।’ इमरान साधुओं के अन्दाज़ में बड़बड़ाता हुआ सीधा हो गया। उसके हाथ में काग़ज़ का एक टुकड़ा था जो उसने मरने वाले की मुट्ठी से बहुत मुश्किल से निकाला था।
वह चन्द लम्हे उसे टार्च की रोशनी में देखता रहा। फिर अर्थपूर्ण अन्दाज़ में सिर हिला कर उसने काग़ज़ को कोट की अन्दरूनी जेब में रख लिया। कमरे के बाक़ी हिस्सों की हालत वैसी थी जो उसने पिछली बार देखी थी। कोई ख़ास फ़र्क़ नज़र नहीं आ रहा था।
थोड़ी देर बाद वह फिर पिछली दीवार से नीचे उतर रहा था। आख़िरी रोशनदान पर पैर रख कर उसने छलाँग लगा दी।
‘तुम्हारी यह ख़ुसूसियत भी आज ही मालूम हुई।’ फ़ैयाज़ आहिस्ता से बोला। ‘क्या अन्दर किसी बन्दरिया से मुलाक़ात हो गयी थी?’
‘आवाज़ पहुँची थी यहाँ तक।’ इमरान ने पूछा।
‘हाँ! लेकिन मैंने इस तरफ़ बन्दर नहीं देखे!’
‘इनके अलावा कोई दूसरी आवाज़?’
‘हाँ...शायद तुम डर कर चीख़े थे,’ फ़ैयाज़ बोला।
‘लाश इसी वक़्त चाहिए या सुबह!’ इमरान ने पूछा।
‘लाश!’ फ़ैयाज़ उछल पड़ा। ‘क्या कहते हो? कैसी लाश?’
‘किसी शायर ने दो ग़ज़ला अर्ज़ कर दिया है।’
‘ऐ दुनिया के अक़्लमन्द अहमक़ साफ़-साफ़ कहो।’ फ़ैयाज़ झुँझला कर बोला।
‘एक दूसरी लाश...तीन ज़ख़्म...ज़ख़्मों का फ़ासला पाँच इंच, पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट के मुताबिक़ उनकी गहराई भी बराबर निकलेगी।’
‘यार, बेवक़ूफ़ मत बनाओ।’ फ़ैयाज़ परेशान हो कर बोला।
‘जज साहब वाली कुंजी मौजूद है। अक़्लमन्द बन जाओ।’ इमरान ने ख़ुश्क लहजे में कहा।
‘लेकिन यह हुआ किस तरह?’
‘उसी तरह जैसे शेर होते हैं...लेकिन यह शेर मुझे भरती का मालूम होता है जैसे मीर का यह शेर-
मीर के दीनो-मज़हब को क्या पूछते हो अब उनने तो
क़श्क़ा खींचा देर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
भला बताओ देर में क्यों बैठा जल्दी क्यों नहीं बैठ गया?’
‘देर नहीं दैर है। यानी बुतख़ाना!’ फ़ैयाज़ ने कहा। फिर बड़बड़ा कर बोला, ‘लाहौल विला क़ूवत। मैं भी उसी बेहूदगी में पड़ गया। वह लाश इमारत के किस हिस्से में है।’
‘उसी कमरे में और ठीक उसी जगह जहाँ पहली लाश मिली थी।’
‘लेकिन वह आवाज़ें कैसी थीं।’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘ओह, न पूछो तो बेहतर है। मैंने इतना हँसी वाला मंज़र आज तक नहीं देखा।’
‘यानी।’
‘पहले एक गधा दिखाई दिया। जिस पर एक बन्दरिया सवार थी...फिर एक दूसरा साया नज़र आया जो य़कीनन किसी आदमी का था। अँधेरे में भी गधे और आदमी में फ़र्क़ किया जा सकता है। क्यों तुम्हारा क्या ख़याल है?’
‘मुझे अफ़सोस है कि तुम हर वक़्त ग़ैरसंजीदा रहते हो।’
‘यार फ़ैयाज़ सच कहना! अगर तुम एक आदमी को किसी बन्दरिया का मुँह चूमते देखो तो तुम्हें ग़ुस्सा आयेगा या नहीं।’
‘फ़िज़ूल वक़्त बर्बाद कर रहे हो तुम।’
‘अच्छा चलो...’ इमरान उसका कन्धा थपकता हुआ बोला।
वे दोनों सदर दरवाज़े की तरफ़ आये।
‘क्यों ख़ामख़ा परेशान कर रहे हो?’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘कुंजी निकालो!’
दरवाज़ा खोल कर दोनों लाश वाले कमरे में आये। इमरान ने टॉर्च रोशन की। लेकिन वह दूसरे ही लम्हे इस तरह सिर सहला रहा था जैसे दिमाग़ पर अचानक गर्मी चढ़ गयी हो।
लाश ग़ायब थी।
‘ये क़्या मज़ाक़ है?’ फ़ैयाज़ भन्ना कर पलट पड़ा।
‘हूँ। बाज़ अक़्लमन्द शायर भरती के शेर अपनी ग़ज़लों से निकाल दिया करते हैं।’
‘यार इमरान मैं बाज़ आया तुम्हारी मदद से।’
‘मगर मेरी जान, यह लो देखो...नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़िए तहरीर का...लाश ग़ायब करने वाले ने अभी ख़ून के ताज़ा धब्बों का कोई इन्तज़ाम नहीं किया। मिर्ज़ा इफ़्तेख़ार रफ़ी सौदा या कोई साहब फ़रमाते हैं—
क़ातिल हमारी लाश को तश्हीर दे ज़रूर
आइन्दा ता ने कोई किसी से वफ़ा करे’
फ़ैयाज़ झुक कर फ़र्श पर फैले हुए ख़ून को देखने लगा।
‘लेकिन लाश क्या हुई?’ वह घबराये हुए लहजे में बोला।
‘फ़रिश्ते उठा ले गये। मरने वाला बहिश्ती था...मगर लाहौल विला...बहिश्ती....सक़्क़े को भी कहते हैं...ओहो फ़िरदौसी था...लेकिन फ़िरदौसी...तो महमूद ग़ज़नवी की ज़िन्दगी ही में मर गया था....फिर क्या कहेंगे...भई, बोलो ना।’
‘यार, भेजा मत चाटो।’
‘उलझन। बताओ जल्दी...क्या कहेंगे...सर चकरा रहा है दौरा पड़ जायेगा।’
‘जन्नती कहेंगे...इमरान तुमसे ख़ुदा समझे।’
‘जियो!....हाँ तो मरने वाला जन्नती था...और क्या कह रहा था मैं...?’
‘तुम यहीं रुके क्यों नहीं रहे।’ फ़ैयाज़ बिगड़ कर बोला, ‘मुझे आवाज़ दे ली होती।’
‘सुनो यार! बन्दरिया तो क्या, मैंने आज तक किसी मक्खी का भी बोसा नहीं लिया।’ इमरान मायूसी से बोला।
‘क्या मामला है। तुम कई बार बन्दरिया का हवाला दे चुके हो।’
‘जो कुछ अभी तक बताया है बिलकुल सही था...उस आदमी ने गधे पर से बन्दरिया उतारी उसे कमरे में ले गया...फिर बन्दरिया दोबारा चीख़ी और वह आदमी एक बार...उसके बाद सन्नाटा छा गया...फिर लाश दिखााई दी। गधा और बन्दरिया ग़ायब थे!’
‘सच कह रहे हो।’ फ़ैयाज़ भर्रायी हुई आवाज़ में बोला।
‘मुझे झूठा समझने वाले पर क़हरे-ख़ुदावन्दी क्यों नहीं टूटता।’
फ़ैयाज़ थोड़ी देर तक ख़ामोश रहा, फिर थूक निगल कर बोला।
‘तो....तो...फिर सुबह पर रखो।’
इमरान की नज़रें फिर क़ब्र की तरफ़ उठ गयीं। क़ब्र का पत्थर उठा हुआ था और वही ख़ौफ़नाक आँखें अँधेरे में घूर रही थीं। इमरान ने टॉर्च बुझा दी और फ़ैयाज़ को दीवार की ओट में धकेल ले गया। न जाने क्यों वह चाहता था कि फ़ैयाज़ की नज़र उस पर न पड़ने पाये।
‘क...क...क्या?’ फ़ैयाज़ काँप कर बोला।
‘बन्दरिया!’ इमरान ने कहा।
वह कुछ और भी कहना चाहता था कि वही चीख़ एक बार फिर सन्नाटे में लहरा गयी।
‘अरे बाप...’ फ़ैयाज़ किसी ख़ौफ़ज़दा बच्चे की तरह बोला।
‘आँखें बन्द कर लो।’ इमरान ने संजीदगी से कहा, ‘ऐसी चीज़ों पर नज़र पड़ने से हार्टफ़ेल भी हो जाया करता है। रिवॉल्वर लाये हो?’
‘नहीं...नहीं...तुमने बताया कब था।’
‘ख़ैर कोई बात नहीं! अच्छा ठहरो!’ इमरान आहिस्ता-आहिस्ता दरवाज़े की तरफ़ बढ़ता हुआ बोला।
क़ब्र का पत्थर बराबर हो चुका था और सन्नाटा पहले से भी कुछ ज़्यादा गहरा लगने लगा था।
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