यात्रा का दिन
वसंत ने मुझे महेश से सम्पर्क करने के लिए कह दिया था। मै तय समय पर अपना बैग लेकर निकल पड़ा, ट्रेन दोपहर की थी इसके बावजूद मै सुबह जल्दी ही उठ गया था। दरअसल रात भर बेचैनी हो रही थी, देर रात नींद आयी, इसके बावजूद सुबह जल्दी ही आँख खुल गयी, मुश्किल से चार घंटे की नींद हुयी थी इसके बावजूद थकान वगैरह नही थी, शायद यात्रा पर जाने की उमंग थी। बैग मैंने पहले ही पैक कर रखा था, फौरन उठा नहा-धो कर महादेव की पूजा की और उनसे यात्रा में साथ बने रहने एवं हिम्मत बढाये रखने का वचन मांग लिया। फिर नाश्ते के लिए चाय-पोहें बनाये और उन्हें निपटा कर तैयार हो गया। बैग पुन: चेक करने की जरूरत नही थी तो मैंने महेश को कॉल लगाया, उसने अमुक जगह पहुँचने के लिए कह दिया। मै ऑटो करके एक घंटे में नियत स्थान पर पहुँच गया। महेश मेरा इन्तजार कर रहा था, उससे कुछ बातें हुयी, उसका भरा हुआ बैग देखकर मेरा माथा ठनक गया। मैंने पूछा इतना क्या सामान रखा है? उसने बताया सब जरूरत का ही समान है। खैर हमने वहां से एक कैब बुक की और रास्ते में ही वसंत को भी पिक अप कर लिया। वसंत ने एक रकसैक पहन रखा था और हाथ में दो झोले भी रखे थे। उन्हें देखकर वाकई मेरे माथे पर बल पड़ गए। ये ट्रेकिंग जा रहे थे या गाँव घुमने? कैब में बैठते ही मैंने उससे पूछा।
“ये दो झोले लटका कर क्यों चल रहा है? बैग भी तुम दोनों की भरी हुयी है। मैंने बस तीस लिटर का बैगपैक रखा था, जिसमे मेरी जरूरत का सारा सामान आ चुका था। उनके पचास लीटर के बैगपैक्स भी पूरी तरह ठसाठस भरे हुए थे। वसंत ने बताया कि उन झोलों में खाने पिने का सामान है, दिवाली एक हफ्ते पर है तो घर में गुझिया, लड्डू, शकर पारे, नमकीन इत्यादि बन रही थी तो मिसेज ने रखवा दिए कि खाते पीते जाना। उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ी राहत मिली, यह झोले केदारनाथ पहुँचने के पहले ही खाली हो जाने थे तो चिंता की कोई बात नही थी।
एक घंटे बाद हम बांद्रा टर्मिनस पहुँच चुके थे, ट्रेन हमारे सामने खड़ी थी। हम जाकर अपनी अपनी सीट्स पर बैठ गए, महेश की सीट दूसरी बोगी में थी, लेकिन अभी सफर शुरू नही हुआ था तो हम सभी साथ ही बैठे गप्पे लडाते रहे। यहाँ आकर उन्होंने मुझसे मेरा प्लान पूछा। मेरा अब भी निश्चित नही था कि मै कैसे जाऊँगा, मेरे दिमाग में अभी भी चल रहा था कि मै इन दोनों को केदारनाथ रवाना करके, मदमहेश्वर चला जाऊँगा और वापसी में इन्हें लेते आऊंगा। मैंने उन्हें बताया कि सबसे पहले तो हम दिल्ली पहुंचेंगे, दिल्ली में मेरी एक मित्र हैं, मुझे उनसे मिलना है। उनसे मुलाकात के बाद हम कश्मीरी गेट से दोपहर की बस पकडकर शाम तक हरिद्वार पहुँच जायेंगे और हर की पौड़ी की आरती देखेंगे, रात हरिद्वार के ही किसी होटल में बिताएंगे और सुबह सुबह वहीं से हिमगिरी बस पकड कर सोनप्रयाग, गुप्तकाशी अथवा उकिमठ चले जायेंगे।
मैंने उकिमठ इसलिए कहा क्योकि यदि पहले मदमहेश्वर जाने का मन हुआ तो वहाँ से जाना आसान पड़ता। निश्चित तौर पर अभी कोई योजना नही थी। मैंने उन्हें समझा दिया कि हरिद्वार पहुँच कर निर्णय लेते हैं, तुम दोनों को बर्फबारी भी देखनी है, इस समय बर्फबारी नही हो रही है। एक या दो तारीख को वेदर फोरकास्ट में केदारनाथ में बर्फबारी दिख रही थी, वेदर फोरकास्ट में परसों भी केदारनाथ में बर्फबारी दिख रही थी तो वसंत ने कहा कि परसों दिखाई दे रही है तो कुछ ऐसा प्लान नही कर सकते कि हम परसों ही केदारनाथ पहुँच जाए? हरिद्वार से दो ढाई सौ किलोमीटर का रास्ता है, ज्यादा से ज्यादा पांच घंटे में कवर कर लेंगे।
उसकी बात सुनकर मुझे हंसी आ गयी, मैंने समझाया कि ऋषिकेश तक रास्ता सही है, उसके बाद जो पहाड़ी घुमावदार रास्ता शुरू होगा तो अंत तक जैसे का तैसा बना रहेगा, पहाड़ों में गाड़ियां 20 से तीस किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से चलती रहती है और रात में वहाँ गाड़ियां नही चलती, हम बस से जायेंगे बस शाम को नही चलती। आज हम ट्रेन में बैठे हैं, कल सुबह नौ दस बजे तक दिल्ली पहुंचेंगे, दिल्ली से शाम तक हरिद्वार पहुंचेंगे, रात वहीं बितानी होगी। अगली सुबह सोनप्रयाग के लिए बस पकड़ेंगे, बस हमें शाम तक सोनप्रयाग पहुंचाएगी। सोनप्रयाग में ही रात बितानी होगी, तब तक तो बर्फबारी होकर खत्म भी हो जाएगी। मेरी बात मानो, मै बर्फबारी देखने के उद्देश से नही जा रहा हूँ, मुझे केदारनाथ के कपाट बंद होने का साक्षी बनना है, मै उनके द्वार बंद होने का उत्सव देखना चाहता हूँ, जो कि छह नवम्बर को होगा। इसलिए एक तारीख को ही पहुंचकर कोई मतलब नही होगा। तो तय कर लिया है कि हमे मदमहेश्वर चलना है।“ मैंने कहा तो दोनों ने सिर हिला दिया, लेकिन मुझे उनकी चिंता हो रही थी कि पहली बार इतनी ऊंचाई पर जा रहे हैं और पहली बार में ही मदमहेश्वर (लगभग बारह हजार फीट) तुंगनाथ ( बारह हजार फीट) और केदारनाथ ( ग्यारह हजार फीट) की चढाई करने वाले हैं। इनकी वजह से मुझे मेरी योजनाओं में फेरबदल ना करना पड़ जाए, पंचकेदार यात्रा कबसे पूर्ण करने का प्रयास कर रहा हूँ किन्तु अब तक केदारनाथ एवं तुंगनाथ चन्द्रशिला से आगे नही जा पाया हूँ, केदारनाथ की यह तीसरी यात्रा थी, तुंगनाथ भी तीन बार जा चुका था।
कण कण केदार पुस्तक लिखने के पश्चात सर्दियों में एक बार बनारस के दो छात्रों के साथ तुंगनाथ जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। उस समय बर्फ काफी ज्यादा थी और हमने कमर तक बर्फ में तुंगनाथ की चढाई की थी, उसके पश्चात हम कार्तिक स्वामी की यात्रा पर चले गए, वहां भी काफी बर्फबारी हुयी थी, और बर्फ से ढंके घने जंगल में ही रात हो गयी, हम घंटो तक उसी अँधेरे और ठंड में भटकते रहने के पश्चात किसी तरह यात्रा अधूरी छोड़ कर वापस लौटे थे। वह काफी मजेदार यात्रा थी, उसके बाद नवम्बर में ही वापस केदारनाथ जाने का अवसर मिला, ट्रेन में एक सहयात्री मिले जो केदारनाथ जा रहे थें, दोस्तों के भरोसे पर थे और दोस्तों ने उनके दिल्ली पहुँचते पहुँचते प्लान कैंसल कर दिया तो वह मेरे साथ यात्रा पर चल दिए। उनके साथ ही केदारनाथ यात्रा हुयी और उसके पश्चात मै अकेले ही तुंगनाथ चला गया, और इस बार चन्द्रशिला चोटी पर भी पहुँच गया। खैर वह बातें आगे कभी बताऊंगा, फिलहाल मुख्य यात्रा पर आते है।
महेश ने अपने बैग से डीएसएलआर निकाला, वह पुरे तामझाम के साथ चल रहा था। मैंने उसे देख कर कहा, यात्रा में खुद का ध्यान रखोगे या इस कैमरे का? पूरी यात्रा में आधी जान तो इसी में अटकी रहेगी। वह बोला रास्तों के दृश्य इसमें खींचते चलूँगा। मैंने सोचा जाने दो, पहली बार उत्तराखंड जा रहे हैं तो इतना एक्क्साईटमेंट बनता है। फिर पता चला भाई साहब कैमरे का लेंस बैग में रखना ही भूल गए थे, बिना लेंस के कैमरे से खिंची गयी फोटोज काफी औसत आती, मैंने उसकी हालत देखकर कुछ कहा नही, मै चुप रहा, मेरे लिए तस्वीरों और वीडियों के लिए हर बार की तरह मेरा मोबाइल ही पर्याप्त था। दोनों काफी उत्साहित थे लेकिन बात फिर वही आ रही थी कि मुझे अनेक यात्राएं करनी थी और इन्हें केवल केदारनाथ जाना था। अब इनकी वजह से मेरी योजना ना खराब हो जाये यही चिंता सता रही थी, लेकिन मैंने निश्चय कर लिया था कि चाहे जो हो जाए मै अपनी यात्रा अपनी बनाई योजना के अनुसार करूंगा, यदि इन्हें कोई परेशानी हुयी या ये असमर्थ हुए तो इन्हें हरिद्वार के लिए बस पकड़ा दूंगा और रवाना करके अपनी यात्रा पूरी करूंगा, जैसा कि मैंने वसंत से शुरुवात में ही कहा था।
उन्हें शायद यह बात मजाक लग रही थी, लेकिन मै पूरी तरह गंभीर था। ट्रेन चल पड़ी, महेश घंटो से हमारे साथ ही बैठा था, मैंने उसे समझाया एक बार अपनी सीट पर चले जाओ और टीसी से टिकट चेक करवा लो, ऐसा ना हो कि तुम्हे सीट पर ना देखकर किसी और को सीट अलॉट कर दे। एक स्टेशन जा चुका है, दुसरे स्टेशन तक अगर तुम नही गए तो सीट चली जाएगी। मेरे समझाने पर वह चला गया। ट्रेन धीरे धीरे गति पकड रही थी, जाने पहचाने रास्तों पर वह दौड़ने लगी थी। मेरा हृदय अब तेज गति से धडकने लगा था, मन में एक व्याकुलता सी होने लगी थी, हर यात्रा के आरम्भ में मै ऐसी व्याकुलता का अनुभव करता था। मै हर यात्रा से कुछ ना कुछ सीखकर ही वापस आता था, झोला भर कर स्मृतियों एवं अद्भुत अनुभवों का एक भंडार मेरे साथ वापस आता था।
वसंत मुझसे बातें कर रहा था, लेकिन मेरा मन कहीं और खोया हुआ था। मुझे उसकी आधी बातें समझ में आती और आधी नही, वह बार बार मुझे टोकता तब जाकर मेरा ध्यान उस पर जाता। सामने की बर्थ पर एक व्यक्ति बैठे हुए थे, जबसे यात्रा जारी थी वे फोन पर लगे हुए थे। गुजराती में बतिया रहे थे, फोन रखकर मेरी तरफ देखा और थोड़ी बहुत औपचारिक बातों के पश्चात पता चला कि वे मुंबई में ह्यूमन राइट्स संस्था के किसी प्रकार के सदस्य थे और दिल्ली किसी मीटिंग के सिलसिले में जा रहे थे। फिर उन्होंने कुछ घटनाए बतानी आरम्भ कर दी कि कैसे वे लोगो की सहायता करते हैं, उन्होंने काफी कुछ बताया फिर मेरा परिचय पूछा। शायद उन्हें अहसास हुआ कि वो घंटो से अपने बारे में बताये चले जा रहे थे। मैंने उन्हें अपना परिचय एक लेखक के तौर पर दिया, उन्हें जानकर प्रसन्नता हुयी, फिर बातों बातों में उन्हें पता चला कि मै केदारनाथ यात्रा पर जा रहा हूँ तो वे बड़े खुश हुए। उन्होंने पूछा पहली बार जा रहे हैं? मैंने कहा तीसरी बार।
“मेरी भी केदारनाथ जाने की इच्छा है, लेकिन सुना है वहाँ की चढाई बहुत कठिन है। काफी चलना पड़ता है, और ठंड भी पड़ती है। लेकिन मै चाहकर भी नही जा सकता क्योकि एक एक्सीडेंट में मेरे पैर और पीठ में इंज्यूरी हुयी थी, पैरों में रॉड डली हुयी है, डॉक्टर ने ज्यादा चलने फिरने को मना कर रखा है और मै खुद भी ज्यादा चल नही पाता। सामान्य जीवन में चलना फिरना हो जाता है दिक्कत नही आती, लेकिन पहाड़ी चढना वगैरह मेरे बस की बात नही है। और ठंड में यह चीजें और ज्यादा तकलीफ देती हैं। आप खुशनसीब है जो तीसरी बार जा रहे हैं।“ उन्होंने कहा, मैंने उन्हें कहा यदि आपको ऐसी कोई समस्या है तो हेलीकॉप्टर वगैरह से जा सकते हैं, तो वो मुस्कुरा दिए।
“मन खराब करने की जरूरत नही है। मैंने कहीं सुना था जो व्यक्ति केदारनाथ जाने का निश्चय करता है किन्तु किसी विवशता वश नही जा पाता तो उसे भी यात्रा के बाद दर्शन का पुण्य समान रूप से प्राप्त होता है। आपका मन है, आपकी इच्छा है किन्तु आप शारीरिक रूप से स्वयं अक्षम पातें हैं तो भी आप केदारनाथ दर्शन के पुण्य के भागी हैं।“ मैंने कहा।
“आपकी बात सुनकर मुझे वाकई बड़ा अच्छा लगा। पुण्य वगैरह तो किसी ने देखा नही है, साक्षात् दर्शन की बात ही कुछ अलग होती है, मैंने सुना है कि सच्चे मन से केदारनाथ के दर्शन करनेवालों को शिव की अनुभूति होती है।“ उन्होंने कहा, उनका कथन सत्य था, कण कण केदार में मै इस बात का वर्णन कर चुका हूँ कि कैसे वहाँ पहुँचने के पश्चात सभी भावविव्हल हो जाते हैं। मै खुद रास्ता भटक कर हिम्मत हार कर बैठ गया था, चला नही जा रहा था, सामने शुभ्र केदार पर्वत अपनी पूर्ण भव्यता के साथ खड़ा था। पैर सूज गए थे, शरीर थक गया था, बदन बुखार से तप रहा था, दृष्टि धुंधली हो चुकी थी, मै निराश हो चुका था, एक कदम भी चलना कठिन हो चुका था। ऐसे में केदार पर्वत की तरफ देखकर ना जाने कैसी प्रेरणा मिली कि उठ गया और सम्पूर्ण प्रतिकूल परिस्थितियों के पश्चात् भी मंदिर पहुँच गया।
उन परिस्थितियों में सदैव मुझे किसी का आभास होता था जिसकी प्रेरणा से मै चलता रहा। हां कुछ लोग कहेंगे हाई एलटीट्युड पर तबियत खराब होने और ऑक्सीजन की कमी के कारण अक्सर इल्यूजन होना आम बात है। यह सही भी है, लेकिन मै इस इल्यूजन को दिव्य अनुभूति ही रहने देना चाहता हूँ, इल्यूजन प्रेरणा नही देता लेकिन अनुभूति का आभास आपको अवश्य प्रेरित करता है, नकारात्मकता में सकारात्मकता का संचार करता है यह आभास, इसलिए मै इसे इल्यूजन नही कहूँगा। ऐसे ही बातों बातों में सफर होने लगा, वसंत ने दिल्ली से आगेका क्या प्लान है पूछा, तो मैंने दिल्ली से हरिद्वार की जनशताब्दी की टिकट बुक करने की कोशिश की लेकिन जनशताब्दी कैंसल हो चुकी थी। अब कश्मीरी गेट से बस पकडकर हरिद्वार पहुँचने के अलावा कोई रास्ता नही था।
बातों बातों में रास्ता तय हो गया, हमने पूरी यात्रा में बाहर से कुछ भी खाने पिने की चीजें नही खरीदी थी, वसंत अपने साथ पर्याप्त मात्र में खाना पीना लाया था जो दोनों समय के लिए पर्याप्त हो गया। हमने उसके दो झोलों में से एक झोला आधे से ज्यादा खाली कर दिया, बेसन के लड्डू देखकर नियन्त्रण नही रहा और मन भर खाए गए। अगली सुबह हम दिल्ली पहुँच चुके थे। सराय रोहिला स्टेशन आ चुका था, मैंने फौरन तन्वी को फोन लगाया, पता चला मैडम अभी सोकर उठी हैं।
मुझसे कहा गया कि आप कश्मीरी गेट पहुँचो हम वहीं मिलते हैं आपसे। उसकी देरी वाली आदत कोई नयी बात नही थी, हर मुलाक़ात पर एकाध डेढ़ घंटे लेट होना उसके लिए आम बात थी। तन्वी से मेरी मुलाकात कुछ साल पहले एक पुस्तक इवेंट में हुयी थी, मेरे प्रथम उपन्यास इश्क बकलोल पर ऑटोग्राफ लेने आयी थी, उसके बाद से उस इवेंट की कुछ तस्वीरें मैंने उसकी फेसबुक वाल पर देखि तो मंगवा ली। फिर धीरे धीरे जानपहचान गहरी होती चली गयी, छोटी बहन जैसी है तो हर दिल्ली यात्रा में उससे मिलना अब आम बात हो चुकी है।
इस बार भी मिलने का अवसर था तो मै उसे इन दोनों के चक्कर में गंवाना नही चाहता था। हम अपने पुरे तामझाम के साथ वहाँ से निकले। और नजदीकी शास्त्री नगर मेट्रो स्टेशन के लिए एक ई रिक्शा कर ली। वसंत और महेश दोनों पहली बार दिल्ली आये थे तो चारों तरफ देख रहे थे, मेरे लिए कुछ भी नया नही था तो मैं शांत बैठा हुआ था। अचानक आगे सडक पार करने के दौरान एक लम्बा चौड़ा गन्ना अपने पत्तियों सहित ऑटो के भीतर तक चला आया। महेश हमारे सामने वाली सीट पर बैठा था, गन्ना उसी की बगल से निकल कर ऑटों में घुस गया। मै समझ नही पाया यह क्या हो गया? महेश यह कौन सा चमत्कार दिखा रहा है जो गन्ना प्रकट हो गया। महेश और वसंत खुद भी हक्के बक्के हो गए थे। रिक्शा में अचानक गन्ना उग आना कोई सामान्य घटना भी तो नही होती। इसी के साथ रिक्शा वाले ने किसी को गालियाँ बकनी शुरू कर दी, प्रत्युत्तर में सामने से भी गालियाँ आने लगी, मैंने गन्ने के प्रवेश की दिशा में देखा तब माजरा समझ में आया। हुआ यूँ कि गन्ने एक ठेले पर लदे थे, ठेले वाले ने उस मोड़ पर अपने ठेले को मोड़ दिया था जिस मोड़ से हमारी ऑटो आ रही थी, जिस कारण ठेले के अगले हिस्से में निकले हुए गन्नों का सिरा सीधे ऑटों में चला गया। दोनों ने एकदूसरे को गालियों से भरपूर घायल किया और अपने अपने रास्ते चलते बने।
“दिल्ली में आपका स्वागत है, उम्मीद करता हूँ कि यह स्वागत आपको जिन्दगी भर याद रहेगा।“ मैंने कहा, मेरी हंसी छूट गयी, वसंत और महेश भी काफी देर तक हंसते रहे। अब शास्त्री नगर पहुँच चुके थे, मैंने ऑटो का किराया दिया और सीधे मेट्रो स्टेशन में प्रवेश कर गया, दोनों मेरे साथ पीछे पीछे दौड़ लगाने लगे। वे दोनों मेट्रो स्टेशन को पागलों की तरह घूर रहे थे, मैंने देर ना करते हुए कश्मीरी गेट के लिए टोकन लिया और उन्हें मेरे पीछे आने के निर्देश देकर चल पड़ा। फिर मेट्रो भी आ गयी।
“यहाँ तो भीड़ ही नही है, मैंने सुना था दिल्ली की मेट्रो में बड़ी भीड़ होती है।“ वसंत ने कहा।
“भाई हम मुंबई से हैं, यहाँ इसी को भीड़ बोलते हैं। मुंबई की भीड़ की परिभाषा अलग है। यहाँ इतनी ही भीड़ में लोग हैरान हो जाते है।“ मैंने कहा और तभी मेट्रो के दरवाजे बंद हो गए। वे शीशे से बाहर के नज़ारे देख रहे थे, उनके चेहरे की हैरानी को मैं साफ़ देख सकता था। फिर कश्मीरी गेट भी पहुँच चुके थे, अब हमे नीचे उतरना था, वह इस प्रकार मंजिलो वाले मेट्रो स्टेशन को देखकर भी हैरान थे, यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मुंबई में मेट्रो का कार्य चल रहा है, 7-8 मेट्रो रूट्स पर एक साथ काम चल रहा है। लेकिन कार्यरत केवल घाटकोपर अँधेरी मेट्रो ही है और वसंत महेश दोनों ने उस मेट्रो में भी कभी सफर नही किया है, इसलिए उनकी हरकतों को मै समझ सकता था। मै बैग लिए आगे बढा, सीढियों से उतरने लगा।
“फिलहाल कहीं बर्फ नही पड़ी होगी, भगवान से मनाओ कि बर्फ ना पड़े। क्योकि हमने ट्रेकिंग शूज के बजाय रनिंग शूज पहने हुए हैं जो बर्फ गिरने के बाद काफी फिसलते है।“ मैंने इतना कहा ही था कि मेरा पैर सीढियों से फिसला और तीन चार सीढियों से फिसलते चला गया, किसी प्रकार गिरते पड़ते मैंने खुद को बचाया।
“लो, यहीं से शुरुवात हो गयी।“ मैंने हंसते हुए कहा, अगर मै गिर पड़ता तो निस्संदेह आगे की यात्रा में दिक्कत हो जाती। फिर हम पहुंचे कश्मीरी गेट बस अड्डे पर जो स्टेशन से लग कर ही था, वहाँ पहुंचकर देखा तो आरटीपीसीआर हो रहा था, प्रवेशद्वार के पास ही चेकिंग के लिए पूरी टीम खड़ी थी और हर किसी के नाक मुंह में सलाइयां घुसाई जा रही थी। अब वह देखकर दिल धडक उठा कि ट्रेन से आये हैं अगर रिपोर्ट में कुछ आपत्तिजनक हुआ तो यहीं से ना भगा दें, हालांकि जाने के और भी कई तरीके थे लेकिन मै यात्रा के दौरान नियम कायदों को बिल्कुल भी नही तोड़ता।
मैंने आगे बढकर वहां खड़े वालंटियर्स को बताया कि हमारे दो वैक्सीनेशन के सर्टिफिकेट हैं, मेरे एक साथी का एक ही वैक्सीन हुआ है लेकिन उसके पास पहले से आरटीपीसीआर रिपोर्ट है, फिर भी यह करवाना पड़ेगा?” मैंने पूछा तो उन्होंने कहा करवाना पड़ेगा। अब कोई रास्ता नही था तो हम तीनों भी बाकी यात्रियों की तरह में खड़े हो गए। हमारी बारी आयी, फोन नम्बर आधार नम्बर इत्यादि दर्ज किये गए, पता लिखवाया गया और एक सलाई जीभ के पीछे रगड कर ट्यूब में डाल दी गयी।
“हो गया?” मैंने हैरानी से पूछा, उन्होंने नाक में तो चेक किया ही नही था। मुझे करवाना भी नही था लेकिन मै इस क्विक चेकिंग पर हैरान था, उन्होंने कहा हो गया, कल तक आपको मोबाइल पर एक लिंक आ जायेगा जिसमे आपकी रिपोर्ट रहेगी। वालंटियर ने बताया तो मै थोडा खुश हो गया कि चलो एक आरटीपीसीआर रिपोर्ट हो जाएगी तो आगे जाकर कोई दिक्कत होनी होगी तो वह भी नही होगी।
“तो कौन सी बस पकडनी है?” वसंत ने पूछा, मैंने घड़ी देखि साढ़े ग्यारह बज रहे थे। योजना के अनुसार एक बजे तक भी निकल जाते तो हरिद्वार की गंगा आरती देख लेते, लेकिन तन्वी का कोई अता पता नही था, मैंने उसे कॉल किया तो आ रही हूँ, निकल रही हूँ, ही चल रहा था। उसने पूछा आपने कौन सी टी शर्ट पहनी हुयी है? मैंने कहाँ वही वाली जो तुमने गिफ्ट की थी। जैसी एक तुम्हारे पास भी है। मैंने कहा और तब पता चला कि मैडम अभी निकली ही नही है, मैंने माथा पिट लिया और जल्दी आने का कहकर एक तरफ चला गया, वहाँ यात्रियों की सुविधा हेतु कुछ कुर्सियां रखी हुयी थी, मै वहीं जाकर अपना बैग रखकर बैठ गया। दोनो मेरे साथ ही आ गए। वे समझ गए मै किसी का इन्तजार कर रहा हूँ।
“तुम लोग तब तक कुछ खा पी लो, मै उसके साथ खा पी लूंगा।“ मैंने उन्हें बताया, दोनों को अब तक नही पता था मै किस से मिलने जा रहा था, उन्हें बताने की वैसे कोई आवश्यकता भी नही थी।
मैंने फोन किया और पता किया, तन्वी पहुँच चुकी थी लेकिन वह अलग अलग रास्तों पर भटक रही थी, मुझे लगा दिल्ली में रहती है तो उसे रास्तें पता होंगे लेकिन कश्मीरी गेट वह भी पहली बार आ रही थी। फिर प्रवेश द्वार पर वह दिखाई दी। उसने भी सेम वही टी शर्ट फन रखी थी जो मैंने पहनी हुयी थी, जिस पर रोमन अक्षरों में लिखा था ‘DONT QUIT’। दरअसल यह हमारा ड्रेस कोड था, जब भी हम मिलते थे एक ही तरह की टी शर्ट्स में मिलते थे, जाहिर सी बात यह यह अतरंगी योजना उसी की होती थी। वह आयी और हम दोनों गर्मजोशी से गले मिले, हम काफी अरसे बाद मिले थे। वसंत और महेश दोनों उसे देखकर हैरान थे, मैंने उन्हें कुछ नही कहा और तन्वी को अपने साथ लेकर नीचे कैंटीन की तरफ बढ़ चला, दोनों पीछे पीछे आ गए। हमने वहां पराठें वगैरह खाए, वसंत ने मना कर दिया और वह राजमा चावल खाने लगा, मुझे चाय पिने की इच्छा हुयी, तन्वी से पूछा तो उसने भी हां कहा, मुझे याद आया कि वसंत के पास बेसन के लड्डू थे और मुझे पता था वह तन्वी को बड़े पसंद थे।
“बेसन वाले लड्डू बचे हैं ना अभी?” मैंने वसंत से पूछा।
“हां, देखता हूँ।“ कहकर उसने बैग खोला, डिब्बे में अन्य लड्डूओं के बिच एक ही बेसन का का लड्डू बचा था। वसंत ने कहा एक ही है, मैंने कहा लाओ यहाँ। और वह लड्डू तन्वी को थमा दिया, बेसन का लड्डू देखकर वह खुश हो गयी। चाय के साथ लड्डू वाला अजीब सा कॉम्बिनेशन हो गया था लेकिन उस समय सब चल रहा था। तन्वी ने भी अपने बैग से एक छोटा सा पैकेट निकाल कर मुझे थमा दिया।
“ये क्या है?” मैंने पूछा।
“हलुवा है, आपके लिए बनाया था। मुझे नही पता था आप दो लोगो के साथ आ रहे हो नही तो ज्यादा लाती।“ तन्वी ने कहा, उसकी बात सुनकर मै मुस्कुरा दिया और पैकेट को चुपचाप अपने बैग के उपरी पैकेट में रख दिया।
अब समय आया बस पकड़ने का, हरिद्वार की बस प्लेटफ़ॉर्म पर लगी हुयी थी। हमने टिकट्स ली, वसंत और महेश ने जाकर सीट कवर कर ली, मै और तन्वी बातें करते रहे। तस्वीरें खींचते रहे, फिर बस स्टार्ट हुयी तो आखिकार भाऊक होकर हमने एकदूसरे को गले लगकर विदा किया। बस चलने लगी, हमने एकदूसरे की तरफ देखकर विदाई में हाथ हिलाए, जल्द ही वह नजरों से ओझल हो गयी, नजरों से दूर होते ही उसका मैसेज मिला।
“देर से आने के लिए सॉरी, हर बार की तरह।“ उसका मैसेज पढकर मैंने रिप्लाई दिया।
“गुस्सा करने के लिए भी सॉरी।“ मैंने जवाब दिया, हैप्पी जर्नी का मैसेज आया तो मै मुस्कुरा दिया, व्हाट्सएप पर ही खिंची गयी तस्वीरें भी आदान प्रदान की गयी। चेहरे पर एक मुस्कान लेकर मै दिल्ली से निकला।
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हरिद्वार
दिल्ली से निकली बस काफी देर तक ट्रैफिक में फंसी रही, दिल्ली और मेरठ के बिच एक महत्वकांक्षी योजना ‘दिल्ली मेरठ रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ चल रही है, जिसके तहत लगभग 82 किलोमीटर की एक सेमी हाई स्पीड रेल कॉरिडोर की योजना है, जो अनेक टनल्स और एलिवेटेड हेडवे से होकर गुजरेगी। यह अपनी तरह की अनूठी परियोजना है जो दिल्ली को गाजियाबाद और मेरठ से जोडती है। इस परियोजना की 2025 के आसपास तक समाप्त करना है। इसी कारण दिल्ली से निकलते ही जहां तक परियोजना थी वहां तक काफी ट्रेफिक देखने को मिल रहा था। दोपहर हो रही थी और गर्मी लगने लगी थी।
वसंत और महेश दोनों ट्रेन में भी अपने मोबाइल पर व्यस्त थे और यहाँ बस में भी। वे किसी तरह की क्रिकेट टीम वाली गेम में बीजी थे जिसमे हफ्ते भर पचास रूपये लगा कर साठ रूपये कमा लेते थे। मुझे उनकी इन हरकतों से थोड़ी चिढ हो रही थी, आदमी नयी जगहों पर जाता है तो थोड़ा आसपास देखता है, माहौल को समझने की कोशिश करता है लेकिन इन्हें अपने फोन की दुनिया से ही फुर्सत नही मिल रही थी। दोनों काफी देर तक लगे रहें और आखिरकार थक कर सो गए, लेकिन वसंत का बार बार फोन आ रहा था, वह लगभग हर आधे पौने घंटे पर घर में अपडेट दे रहा था। मैं श्रीमती जी को बस मुख्य पड़ाव पर पहुँच कर कॉल या मैसेज कर देता था और अगला प्लान बता दिया करता था। फोन कॉल्स से निपटते ही वह दोबारा वही क्रिकेट वाला गेम खेलने में व्यस्त हो गया। मै यात्राओं में मोबाइल में ध्यान नही देता, उसका इस्तेमाल केवल जरूरी कॉल्स या तस्वीरें खींचने के लिए ही करता हूँ। पूरी यात्रा के दौरान जब कहीं रुकना होता है तभी इंटरनेट का थोड़ा इस्तेमाल करता हूँ, वरना मै इससे भी बचता हूँ। आखिर मै इन्ही सबसे तो कुछ दिनों के लिए दूर जाना चाहता हूँ। वसंत और महेश ने ऑफिस के किसी ग्रुप में मुझे एड किया हुआ था, मैंने उस वाहियात से ग्रुप को म्यूट कर रखा था। आधे रास्तें वे दोनों ऑफिस पॉलिटिक्स ही बतियाते आ रहे थे। मुझसे जब रहा नही गया तो मैंने वसंत को साफ साफ कह दिया।
“वसंत मै यहाँ कुछ दिन शांत रहना चाहता हूँ, मै यात्रा करता हूँ ताकि कुछ दिन इस दुनियादारी के चोंचलों से खुद को दूर रख सकूं , अपने मन को थोडा डिटोक्स कर सकूँ, इसलिए मै छुट्टियों में ऑफिस के कॉल्स अटेंड नही करता और ना ही ऑफिस से रिलेटेड कोई बात करता हूँ, मै यात्राओं पर भूल जाता हूँ कि मै किसी ऑफिस में काम करता हूँ, इसलिए प्लीज यह ऑफिस पॉलिटिक्स और ऑफिस से रिलेटेड बातें मत करो। कम से कम मेरे सामने तो ना ही करो, अगर यहाँ आकर भी यही सब करना था तो क्या मतलब हुआ आकर? इससे अच्छा ऑफिस में ही रह लेते।“ मैंने कहा तो वसंत ने सिर हिला दिया, पता नही वह मेरी बात समझा या बस मन रखने के लिए मान गया।
कुछ ही घंटों बाद बस मेरठ पहुँच चुकी थी, थोड़ी ही देर में वह किसी ढाबे पर रुकी, हमे कुछ खाने पिने की इच्छा नही थी। हमने कश्मीरी गेट से ही खाने पिने की कुछ चीजें ले ली थी, एक चीज जो मैंने नोटिस की वसंत और महेश को जैसे हर चीज से अपच होती थी। कोई भी खाने पिने की चीज आ जाए तो उनका कुछ ना कुछ शुरू हो जाता था कि ये खाऊंगा तो एसिडिटी हो जाएगी, वह खाऊंगा तो कच्ची डकारें आएँगी, यह खाउंगा तो मन खराब होने लगता है, वगैरह वगैरह, और ऐसा भी नही था कि वे बस कहने के लिए कह रहे थे। उन्हें वाकई में खाने पिने की कुछ समस्याए थीं, रास्तें भर उन्हें एसिडिटी, जलन, अपच इत्यादि की समस्या हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे दोनों उम्र से पहले ही बूढ़े हो चुके थे। मै महादेव का स्मरण कर रहा था कि पता नही आगे क्या होगा। मै मना रहा था कि इनकी वजह से मेरी यात्रा अधूरी ना रह जाए। उस ढाबे पर हर चीज महंगी थी, मुझे चाय पिने की इच्छा हुयी तो मै और महेश उतर गए, वसंत भी आ गया। मैंने तीन चाय ऑर्डर की तो वसंत कहने लगा मै चाय नही पिता, एसिडिटी होती है। मैंने उसकी तरफ देखा, उसकी बातों से मुझे झुंझलाहट सी हो रही थी।
“दुनिया में कोई चीज है जिससे तुझे एसिडिटी नही होती?” मैंने कहा तो वह हंस दिया। हमने उसे छोड़ कर चाय का आनंद लेना शुरू किया, शाम के लगभग साढ़े चार बज रहे थे, अन्धेरा होना शुरू हो गया था, हवा में थोड़ी ठंडक बढ़ गयी थी जैसा कि अक्तूबर-नवम्बर में उत्तर भारत में होता है। वसंत ने मोबाइल में समय देखा और हैरानी हो गया।
“अभी तो पांच बज रहे हैं? इतना अँधेरा? अपने मुम्बई में तो ऐसा अन्धेरा शाम सात बजे के बाद होता है।“ वसंत इस बदलाव से भौंचक्का था, चूँकि मै उत्तर भारत से ही हूँ तो मुझे इन चीजों से हैरानी नही हो रही थी, मै बस उसके भाव देखकर मजे ले रहा था।
“पांच बज चुके हैं, अभी भी हम दो ढाई घंटे से पहले नही पहुँचने वाले है, इसका मतलब है कि हर की पौड़ी की गंगा आरती में शामिल नही हो पाएंगे। तो हम वापसी में आरती देखेंगे।“ मैंने कहा, दोनों मान गए। फिर बस चल पड़ी, रात हो चुकी थी और गाडी सड़कों पर अंधाधुंध भाग रही थी, बस लगभग साढ़े आठ बजे के करीब हरिद्वार पहुंची, कुम्भ मेले के पश्चात हरिद्वार का स्वरूप अच्छा खासा बदला हुआ लग रहा था। चारों तरफ दीवारों पर मनमोहक चित्रकारी की गयी थी, लग रहा था जैसे रंगों के शहर में पहुँच गया हूँ। हरिद्वार का वातावरण ही अनूठा है, यहाँ पहुँचने के बाद जैसे सब कुछ बदल जाता है। चलती बस से गंगा के प्रवाह और दोनों किनारों पर स्थित इमारतों से आती रोशनियों से झिलमिलाता गंगा का प्रवाह अद्भुत छटा बिखेर रहा था।
मैंने दोनों हाथ जोडकर माँ गंगा को प्रणाम किया, सही मायनों में अब मेरी यात्रा आरम्भ हो रही थी, हरिद्वार उत्तराखंड के चार धामों का प्रवेश द्वार है, और मै अपनी यात्रा आरम्भ करने पहुँच चुका था। खुशकिस्मती से वसंत और महेश दोनों के मोबाइल्स की बैटरी काफी कम बची थी, जिस कारण उन्होंने गेम खेलना और इंटरनेट वगैरह का प्रयोग कम कर दिया था। बस अड्डे पर पहुँचते ही हम होटल के इन्तेजाम में लग गए, आज रात तो हरिद्वार में ही बितानी थी। अगली सुबह की बस पकड कर आगे की यात्रा करनी थी। शिवमूर्ति चौराहें पर आपको दुनियाभर के होटल्स मिल जायेंगे वह भी आपके बजट में। हरिद्वार की यह बात मुझे बेहद पसंद है, यहाँ आप कम से कम संसाधन में भी काफी समय बिता सकते है।
यहाँ पर आपको काफी आश्रम भी मिल जायेंगे जहाँ नाम मात्र के शुल्क अथवा मुफ्त में भी ठहरने की व्यवस्था हो जाती है, किन्तु उनकी कुछ शर्तें होती हैं, या तो आप परिवार के साथ हो अथवा आप श्रद्धालु हों। अकेले और केवल लडकों को आश्रमों में ठहरने की व्यवस्था करने में थोड़ी परेशानी होती है।
बाकी खाने पिने के लिहाज से हरिद्वार काफी सस्ती जगह है, यहाँ आपको 35 रूपये से लेकर 200 रूपये तक की थाली मिल जाएगी, वह भी भरपेट। आपको यहाँ ऑनलाइन होटल्स देखने की आवश्यकता नही पड़ेगी, यदि आप बिल्कुल भी नए हैं तो भी यहाँ ऑटो वाले, रिक्शा वाले आपकी होटल की व्यवस्था करवा देंगे, बस उन्हें अपना बजट बता दीजिये। चार सौ, पांच सौ, हजार रूपये, जो भी हो, वे आपको होटल तक पहुंचा देंगे और कमरा भी दिलवा देंगे।
मै जब पहली बार हरिद्वार आया था तब मै पूर्णतया अनजान था, मेरे साले जी ने ऑनलाइन होटल बुक किया था जो गीता भवन के पास था। वह होटल स्टेशन से कुछ दो ढाई किलोमीटर दूरी पर था जिसे खोजने में नाक में दम हो गया था। दूसरी बार हरिद्वार आना हुआ था तब केदारनाथ यात्रा में मित्र बने व्यक्ति के घर पर ठहरना हुआ था जिसके विषय में मैंने कण कण केदार में सविस्तार से बताया हुआ है तो यहाँ दोहराव से बचना चाहूँगा।
शिवमूर्ति चौराहे के सामने ही गुजराती गली है, यहाँ काफी सारे सस्ते होटल्स और खाने पिने की बढिया जगहें मिल जायेंगे। इस गली में पहुंचकर आपको हैरानी होगी, यहाँ गली की शुरुवात से अंत तक अधिकतर दुकाने, होटल, रेस्टोरंट इत्यादि गुजरातियों की ही मिलेंगी।
यहाँ अनेक दुकानों पर साइन बोर्ड्स भी गुजराती में लिखे दिखाई देंगे। इस गली में पहुँचने पर एक पल को भ्रम हो जाता है कि हम हरिद्वार में है या अहमदाबाद में। मै उन दोनों को लेकर बेधडक उस गली में चला गया, होटल वालों के एजेंट्स से लेकर खुद होटलवाले तक यहाँ सडक पर खड़े होकर ग्राहकों को बुलाते हुए दिख जायेंगे, होटल वालों के बिच एक अघोषित कॉम्पटीशन सा चलता है यहाँ, कोई पांच सौ में कमरा बोलेगा तो कोई चार सौ में, तो कोई तीन सौ में भी। शुरुवात में ही एक होटल वाले ने रोक लिया चार सौ में कमरे की बात हुयी तो वसंत और महेश ने कमरा देखने का फैसला किया।
उनका होटल काफी अंदर था, एक पुरानी इमारत थी और उपर जाने के लिए पतली और घुमावदार सीढियां थी। वहाँ पहुंचकर हमने कमरा देखा, कमरा ठीक ठाक था लेकिन कुछ ख़ास पसंद नही आया, मुझे कोई फर्क नही पड़ता था क्योकि मै चोपता और कार्तिक स्वामी की यात्रा में एक स्टोर रूम नुमा कमरे में रात बिता चुका था। लेकिन वह परिस्थितियाँ अलग होती है। वहाँ आपके पास ज्यादा पर्याय नही होते, लेकिन यहाँ आपके पास पर्याय थे।
मुझसे किसी को जल्दी ना नही बोला जाता, इसलिए मै हमेशा थोड़ा संकोच करता हूँ। हालांकि इतनी यात्राओं के बाद मै अपनी इस बुरी आदत को नियंत्रित करना सीख गया हूँ, अब जो चीज नही पसंद आती उसके लिए ना कहने में मुझे कोई बुराई महसूस नही होती। फिर भी मैंने वसंत और महेश की तरफ देखा, उन्होंने इशारे से कमरे के लिए मना कर दिया, मैंने होटल वाले बन्दे की तरफ देखा।
"भाई हमे कल सुबह बड़ी लम्बी यात्रा पर जाना है। अच्छी तरह से आराम करना है, और आपके होटल में गीजर भी नही है, सुबह ही सुबह हम निकल लेंगे। मुझे नही लगता मेरे दोस्त इस कमरे में रह पायेंगे। तो हमे माफ़ कर दीजिये।" मैंने कहा, होटल वाले ने मुस्कुरा कर "कोई बात नही।" कहा।
हम तीनों फिर गली में खड़े थे, कोने में एक होटल देखा तो चल दिए अब गलियाँ सुनसान होने लगी थी, जल्द से जल्द कमरे का इंतजाम करके खाने पिने का जुगाड़ भी करना था। हम गली के आखिरी छोर वाले होटल में पहुंचे, काउन्टर पर एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे थे।
"जी हमे आज रात भर के लिए कमरा चाहिए।" मैंने कहा।
"कहाँ से हैं आप लोग?" बुजुर्ग ने पूछा।
"जी यह दोनों मुंबई से हैं और मै युपी से।" मैंने जानकारी दी, हालांकि ऑफिशियली मै भी मुंबई से ही था किन्तु अक्सर यात्राओं में मै मुंबई का उल्लेख नही करता था, वह थोड़ा ज्यादा दूर पड़ जाता है। यूपी वगैरह का बताने से थोड़ा सहूलियत होती है, आखिरकार उत्तराखंड भी कभी यूपी का ही हिस्सा था।
"अपने अपने आधार कार्ड्स दिखाइये।" बुजुर्ग ने अधर कार्ड मांगे, उन्हें दे दिए गए।
"चार सौ रूपये लगेंगे। किंग साइज बेड है, टॉयलेट बाथरूम अटेच्ड।" बुजुर्ग ने कहा।
"गीजर तो है ना?" महेश ने पूछा, मैंने उसकी तरफ देखा।
"चार सौ में तुम इनकी जान ले लो भाई। और कौन सी बड़ी ठंड पड़ रही है? 25-26 डिग्री में इन्हें गर्म पानी से नहाना है, भगवान जाने आगे यात्रा में कैसे गुजारा होगा।" मैंने मन ही मन सोचा, मुझे गीजर विजर की आदत नही थी। मै केदारनाथ अक्तूबर में की गयी पिछली यात्रा में मंदिर के पास के एक होटल में रुका था, वहां गीजर वगैरह की व्यवस्था नही थी लेकिन लगातार यात्रा में होने के कारण पानी मिला तो नहाने से खुद को रोक नही पाया और माइनस तीन डिग्री में भी कांपते हुए हर हर महादेव का जयघोष करते हुए किसी प्रकार नहा लिया था।
"गीजर है लेकिन वह नीचे से ऑन होगा, जब भी जरूरत होगी फोन कर दीजिएगा चालू कर देंगे।" बुजुर्ग ने कहा, इसी के साथ होटल का ही दुसरा व्यक्ति आया वह हमारी ही उम्र का लग रहा था।
"देखिये हमे जाना है केदारनाथ, तो हो सकता है हम अभी बस की टिकट के लिए जाये और टिकट बुक हो गया तो सुबह चार बजे के आसपास निकल जायेंगे। क्या उस समय आपको गीजर ऑन करने के लिए कहेंगे तो दिक्कत नही होगी?" मैंने पूछा, साधे तीन बजे रात में आप सो रहे हो और आपको कोई नींद से जगा कर कहें "भाई गीजर ऑन कर दे।" तो कैसा लगेगा?
"हमारा यही काम है सर। यहाँ आने वाले आधे से ज्यादा लोग चारधाम यात्रा के लिए ही आते है, वे सभी तीन बजे से ही निकलने की तैयारियां करते है।" उस शख्स ने मुस्कुराते हुए कहा, उनकी बात सुनकर मेरे दिल पर से एक भारी बोझ सा हट गया।
"हम पहले कमरा देखेंगे।" वसंत ने कहा, मुझे उस समय उसकी इस हरकत पर थोड़ा गुस्सा आया। लेकिन मैंने कुछ नही कहा, हम उपरी मंजिल पर पहुंचे, कमरा खोल कर दिखाया गया किंग साइज बेड जो हम तीनों के लिए पर्याप्त था। अटेच्ड वाशरूम टॉयलेट, सब कुछ साफ़ सुथरा था, अब यदि इसे वसंत नापसंद करता तो मैं उन्हें कह देता जाकर अपने लिए कमरा देख लो मै तो यहीं रुकुंगा। लेकिन उसकी नौबत नही आई, दोनों ने कमरा पसंद कर लिया।
हमने अपने बैग्स कमरे में रखे और फौरन काउन्टर पर आकर खानापूर्ति करके पैसे वगैरह पहले ही दे दिए।
"मै सबसे पहले नहाऊंगा, चौबीस घंटे हो चुके है नहाए बगैर।" मैंने कहा, महेश और वसंत भी नहाने के मूड में थे तो उन्होंने गीजर ऑन करने के लिए कह दिया। मुझे तो गीजर वगैरह से कोई फर्क नही पड़ता था इसलिए मै फौरन जाकर नहाने धोने में जुट गया। मैंने जो कपडे पहन रखे थे मौक़ा देखकर उन्हें धोकर टांग भी दिया कि सुबह तक सूख जायेंगे। आगे कपडे धोने के लिए कुछ मिले या ना मिले क्या पता, इसलिए जहाँ अवसर मिलता है मै यह सबसे जरूरी काम पहले निपटाता हूँ।
मेरे नहाने के बाद महेश नहाने चला गया, मैंने कपडे वगैरह बदल लिए तब जाकर मुझे तन्वी के दिए गए हलवे की याद आई। मैंने बैग के उपरी जेब से पैकेट निकाला, अब उस बेचारी ने मेरे प्रति अपने अपनेपन की वजह से केवल मेरे हिसाब से ही हलुवा बनाया था। मैंने उसमे से थोड़ा खाया और थोडा वसंत की तरफ बढा दिया।
"प्रसाद है।" मैंने झूठ कहा।
वसंत ने थोड़ा सा निकाला और माथे पर लगा कर प्रणाम करके खा लिया। महेश बाहर निकला तो उसे भी यही कहा, उसने भी थोड़ा सा प्रसाद ग्रहण किया। उसके बाद भी थोडा बच गया तो मैंने खा लिया।
"तो अब प्लान क्या है? और ये आपने कपड़े भी धो दिए?" महेश ने मेरे कपड़ो को सूखता देखकर कहा, मै उसकी बात पर मुस्कुरा दिया।
"हम जहाँ जा रहे है वहाँ नहाने की भी दिक्कत है, ठंड भी होगी। कपडे वगैरह ढोने का मौक़ा नही मिलेगा, मिला भी तो सूखेंगे नही। इसलिए यहाँ धो दिया, वैसे भी दो तीन कपडे ही लेकर चल रहा हूँ तो धुले रहेंगे तो अच्छा ही रहेगा।" मैंने बताया।
"तो अब क्या करना है?" वसंत ने पूछा।
"पहले चलकर बस का पता करते हैं, फिर खाना खाकर घाट पर टहलते हैं कुछ देर।" मैंने अपनी योजना बताई।
"और अपने बैग का सारा सामान खोलकर मत फैलाओ, जो जरूरी है वही निकालो। सुबह सुबह हडबडी होगी तो आधी चीजें यहाँ वहां रह जाएँगी।" मैंने कहां और बाहर निकल गया। बाहर ठंडी हवा चल रही थी लेकिन इतनी भी नही कि जैकेट पहनना पड़े, मै अपनी टी शर्ट में ही आ गया, बाकी दोनों ने स्वेट शर्ट पहन लिए। हरिद्वार स्टेशन से घाट की तारफ जानेवाली दिशा से उलटी तरफ यानी बस अड्डे की दिशा में कुछ मीटर दूर जाने पर हिमगिरी बसेस मिल जाती है। G.M.O.U की बस एजेंसी का ऑफिस मिल जाता है, वहां से आप बस के लिए अग्रिम बुकिंग कर सकते है। दोनों मेरे पीछे चलते रहें।
वहाँ पहुंचा तब तक एजेंसी का ऑफिस बंद हो चुका था। एक ड्राइवर खड़ा था, उसकी तेज नजरों ने पहचान लिया कि हमे बस टिकट्स की आवश्यकता है, वह हमारे करीब आया।
"कहाँ जाना है आपको?" ड्राइवर ने पूछा।
"सोनप्रयाग।" मैंने कहा।
"कितने लोग हैं?"
"जी हम तीन।"
"टिकट मिल जायेगी। वह रही बस, आ जाओ देख लो, पर्ची कटा लो।" कहकर ड्राइवर आगे बढ़ गया, लेकिन मेरा मन नही था। मै एजेंसी से ही टिकट लेने के पक्ष में था, यह बन्दा जो भी था उसके मुंह से शराब की गंध आ रही थी।
वह बस के पास ले गया, दरवाजा खुला हुआ था। उसने तीन सीटें दिखाई।
"यह हैं जी, देख लीजिये और अभी टिकट कर रसीद बनवा लीजिये। यह आखिरी बस है सोनप्रयाग की। वह भी भर रही है" ड्राइवर ने कहा, वसंत और महेश मेरी तरफ देखने लगे। मै जानता था यह कोई आखिरी बस नही है, सुबह ग्यारह बारह बजे तक बस आराम से मिल जाती है। वह हमे एकदम से नया समझकर कुछ भी कहे जा रहा था।
"अभी हमने फैसला नही किया है कि हमें कहाँ जाना है, हमें दो तीन जगहों पर जाना है। फैसला हो जायेगा तो आयेंगे वापस।" कहकर मैंने दोनों को चलने का इशारा कर दिया।
"जल्दी आना, वरना टिकट नही मिल पायेगी।" ड्राइवर ने कहा।
"वो तो कह रहा है यह लास्ट बस है?" महेश ने कहा।
"देख भाई, मै उसे बेवडे पर विश्वास करके अपने पैसे उसे नही देने वाला। कल को वो नही मिला तो? क्या पता वह उस बस का ड्राइवर नही हुआ तो? छोडो, टिकट या तो ऑफिस से लो या सीधे बस में बैठकर। इस तरह हवाबाजी करने वालों के पास मत जाओ।" मैंने समझाया।
"सुबह बस मिल तो जाएगी ना?" वसंत को चिंता हुयी।
"यहाँ से नही मिली तो ऋषिकेश चले जायेंगे, वहां से आराम से मिल जाएगी। मै जानता हूँ, तुम फिर्क ना करो। चलो पहले खाना खाते है फिर घाट पर चलेंगे।" मैंने कहा तो हम फिर से लगभग डेढ़ दो किलोमीटर चलते हुए मुख्य मार्किट में पहुँच गए। गंगा घाट की तरफ जाने वाले मार्ग के दोनों तरफ पुरानी शैली की काफी इमारतें हैं जो प्रमुखतया आश्रम हैं। इन इनमे से कुछ इमारतें काफी ज्यादा पुरानी हैं।
उसी मार्ग में खाने पिने की दुकानें सैकड़ों की तादाद में मिल जाएँगी। एक होटल में हमने कुछ खाने का ऑर्डर दिया और बैठ गए। यहाँ था थाली सिस्टम, रोटियाँ तंदूर वाली मिलती थीं, जिसमे दुनिया भर का मक्खन लगाया होता है। हमने भी तीन थाली ऑर्डर कर दी, बड़ी बड़ी तीन थालियाँ सजा दी गयीं, उसमे दाल मखनी, सब्जी, जीरा राईस इत्यादि चीजें थी, रोटियाँ जैसे जैसे सेंकी जा रही थी भेज रहे थे, पांच के आसपास रोटियाँ एक थाली में थी।
वसंत और महेश का तीन रोटियाँ खाने में ही दम निकल गया। पुरे गले तक भर चुके थे वो, तो मैंने होटल वाले को रोटियाँ ना भेजने का निर्देश दिया। फिर चावल शुरू हुए, मैंने दबा कर खाया, जितनी थाली की कपेसिटी थी मैंने वह पूरी वसूल की, वसंत और महेश ने बामुश्किल आधी थाली ही खाई। वे चावल छोड़ने की फिराक में थे।
"देखो भाई, जितनी भूख हो उतना ही खाना मंगवाया करो, मुझसे खाने की बर्बादी बिल्कुल भी बर्दाश्त नही होती तो भाई अपने चावल खत्म करो।" मैंने कहा।
"अरे पेट भर चुका है भाई, नहीं खाया जाएगा।" वसंत ने कहा।
"खा लो, अभी घाट पर घूमोगे ना तो सब पच जाएगा।" मैंने कहा तो उन्होंने ना नुकुर करना शुरू किया।
"ठीक है, आधे चावल मुझे पास करो। बाकी के खत्म करो।" मैंने कहा तो फ़ौरन उन्होंने आधे चावल मुझे दे दिए, मैंने उन्हें भी खत्म कर दिया हालांकि मेरी भूख से ज्यादा ही खा चुका था। किसी तरह रोते कलपते दोनों ने भोजन समाप्त किया। होटल वाले को उसके स्वादिष्ट भोजन के लिए मैंने धन्यवाद दिया और बिल पे किया। उसके बाद आधे किलोमिटर तक चलकर हम घाट पर पहुंचे। घाट इस बार पहले से ज्यादा बदल चुका था, कुम्भ मेले के दौरान काफी चीजों में बदलाव हुए थे। घाट के किनारे पर इस बार बाउंड्री वाल दिखाई दे रही थी जो इससे पहले नही थी। उनमे रंगबिरंगी लाइटिंग के प्रयोग से चलचित्र दिखाए जा रहे थे, जो काफी आकर्षक प्रतीत हो रहे थे, हम दीपावली के पहले पहुंचे थे तो इस समय घाटों की सफाई के लिए भीम गौड़ा बैराज से पानी रोक दिया जाता है, इसलिए घाटों में पानी नाममात्र का था।
मुझे गंगा नदी के पात्र से गोल पत्थर लेने थे, तो मै किनारे पर पहुंचा और कुछ बढिया दिखाई देने वाले पत्थर ले लिए, यह केवल स्मृति के लिए था। मै हर धार्मिक स्थल, तीर्थ इत्यादि से कुछ ना कुछ चीजें अपने साथ ले जाता हूँ। पिछली बार की केदारनाथ यात्रा से पहले मैं यहाँ से छोटी शीशी में बालू लेकर गया था, केदारनाथ से कुछ पत्थर लिए थे, उसी दौरान तुंगनाथ और चन्द्रशिला यात्रा में भी शीर्ष से स्मृति चिन्ह के रूप में कुछ पत्थर उठा लिए थे।
वसंत और महेश मेरी हरकतों को देख रहे थे तो उन्हें उत्सुकता हुई, मैंने उन्हें कारण बताया तो उन्होंने भी कुछ पत्थर ले लिए। हम काफी देर तक घाट पर चलते रहे, टहलते रहे। गंगा के बहाव के स्वरों से एक संगीत सा बज रहा था, हवा में ठंडक थी। हम लगभग पौने बारह बजे तक घाट पर टहलते रहे, कुछ तस्वीरें भी खिंचवाई। और यहीं पर मैंने श्रीमती जी को फोन करके अपडेट भी दे दी।
अब वापस होटल में चलकर आराम करने का समय था। तो हम निकल पड़े।
"यहाँ किसी एटीएम से पैसे निकाल लेते है, आगे दिक्कत हो सकती है।" मैंने बताया और हम एटीएम खोजने लगे, एटीएम के लिए हमे लगभग दो किलोमीटर चलना पड़ा। वसंत और महेश दोनों इस तरह पैदल चलने से थक गए।
"समझों कि कल से यात्रा शुरू होगी उसके लिए वार्म अप अभी से कर रहे हैं, और खाना भी तो भारी खाया है हमने तो थोडा पच जायेगा।" मैंने कहा, दो तीन एटीएम में पैसे नही थे, एक में मिला तो जरूरत भर का निकाल लिया। वापसी में दोनों थक कर चूर हो चुके थे। कपडे बदल कर हम बिस्तर पर पड़ गए, मैंने लाईट बंद कर दी। वसंत और महेश मोबाइल में लगे पड़े थे।
"मोबाइल में घुसना बंद करो और सो जाओ। आज की रात ही चैन से सो पाओगे। कल के बाद नींद का कोई ठिकाना नही रहेगा। शरीर को आराम दो।" मैंने डपट दिया तो दोनों ने मोबाइल बंद कर दिया।
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