जगमोहन ने एक मार्किट की पार्किंग में सतीश बारू को, एक युवक से मिलते देखा। दोनों मात्र एक मिनट के लिए, युवक वाली कार में बैठे, फिर बारू उसे कार से निकलकर कुछ दूर खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ गया। युवक की कार चली गई। जगमोहन ने अपनी कार आगे बढ़ाई और बारू की कार के पास ले जाकर रोक दी।

कार स्टार्ट कर चुके बारू ने एक उड़ती निगाह जगमोहन की कार पर मारी। वो वहाँ से आगे बढ़ाने लगा कि तभी जगमोहन ने कार का हॉर्न बजाया। बारू ने पल भर के लिए, कार की ड्राइविंग सीट पर बैठे जगमोहन को देखा।

जगमोहन ने हाथ के इशारे से उसे पास आने का इशारा किया। 

बारू की आंखें सिकुड़ी। वो जगमोहन को देखने लगा।

जगमोहन ने पुनः उसे पास आने का इशारा किया।

बारू सोच भरी निगाहों से बगल में मौजूद कार में बैठे जगमोहन को देखता रहा फिर हाथ आगे बढ़ाकर कार का शीशा नीचे किया। ये देखकर उधर से जगमोहन ने भी अपनी कार का शीशा नीचे किया। अब दोनों बात कर सकते थे।

"क्या है?" सतीश बारू ने पूछा।

"तुमसे बात करनी है मेरी कार में आ जाओ।" जगमोहन ने कहा ।

"मैं तुम्हें नहीं जानता कि तुम कौन...।”

"मैं तुम्हें जानता हूं। तुम सतीश बारू हो और मैं तुम्हारे उस ठिकाने से, तुम्हारा पीछा करते आ रहा हूं।"

बारू सतर्क हुआ। उसकी आंखें सिकुड़ी।

दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे।

"आ जाओ। किसी शक-वहम में मत पड़ो।"

“नाम क्या है तुम्हारा?" बारू ने पूछा।

"जगमोहन ।"

"हम इसी तरह बात नहीं कर सकते ?"

"दूसरा सुन लेगा।"

"कितने लोग हैं तुम्हारे साथ?"

“अकेला हूं। हैरानी है तुम डर रहे हो। मैंने तो सुना है तुम बहुत बहादुर हो। कहो तो मैं आ जाऊं तुम्हारी कार में?"

बारू ने इंजन बंद किया और जेब में पड़ी रिवॉल्वर को टटोला। कुछ भी हो सकता था। उनके धंधे में दुश्मन बहुत है। क्या पता इसे जॉनी ने भेजा हो। दरवाजा खोलकर बारू कार से बाहर निकला और जगमोहन की कार का दरवाजा खोलकर उसकी बगल में आ बैठा। जेब में पड़ी रिवॉल्वर को इस तरह सैट किया कि फौरन निकाला जा सके।

"दोस्तों के बीच रिवॉल्वर की जरूरत नहीं पड़ती।" जगमोहन मुस्कुराया।

"क्या पता, कब क्या हो जाये।"

"सतर्क रहना अच्छी आदत है। इससे कभी-कभी जिन्दगी लम्बी हो जाती है।"

"जॉनी ने भेजा है तुम्हें।"

"जॉनी ?" जगमोहन ने सिर हिलाया--- "मैं किसी जॉनी को नहीं जानता।"

बारू, जगमोहन को देखता बोला।

"तो तुम मेरा पीछा कर रहे थे?"

“हां। तुम्हारे ठिकाने पर, तुमसे बात करने आने ही वाला था। तुम्हारे इन्तजार में मैं पहले से ही वहां था। परन्तु आने के दस मिनट बाद ही तुम बाहर निकले और कार लेकर चल पड़े। तो तुम्हारे पीछे आना पड़ा।"

"तो तुम मुझे जानते हो?"

"क्राइम की दुनिया में आज तक तुमने जो किया है, वो सब जानता हूं।" जगमोहन ने कहा--- “कभी तुम शंकर गोला के गैंग के नामी आदमी माने जाते थे। गैंग में तुम लोग सिर्फ छः थे और बड़े-बड़े कारनामे कर डाले थे। दो बार तुमने अपनी जान पर खेलकर शंकर गोला को बचाया था परन्तु एक वक्त ऐसा भी आया कि तुमने खुद ही शंकर गोला के सिर में गोली मार दी।"

सतीश बारू के होंठ भिंच गये। बोला।

"बहुत कुछ जानते हो तुम---।"

"ये बात छः साल पहले की है। शंकर गोला के गैंग की काफी धाक जम चुकी थी अण्डरवर्ल्ड में। मेरे ख्याल में तो ये गैंग और भी आगे जाता, परन्तु तुमने शंकर गोला को मारकर, सब कुछ खत्म कर दिया। उसके बाद तुम आपस में लड़ने लगे। पांच में से दो तो उसी वक्त मारे गये जब तुमने शंकर गोला को मारा। तुमने ही उन्हें शूट किया था। बाकी दो में से एक को तुमने तीसरे दिन शूट कर दिया। बाकी बचा एक...।"

“दीनानाथ चौखे बच गया।" सतीश बारू के दांत भिंच गये।

"वो आज तक तुम्हारे हाथ नहीं आया और जहां भी है, ज़िन्दा है। तुमने तीन साल तक उसकी तलाश जारी रखी और जब तुम्हें लगा कि वो नहीं मिलेगा तो तुम आराम से बैठ गये। इस दौरान तुम्हें कई दादाओं के ऑफर आये कि तुम उनके साथ काम करो, परन्तु तुमने किसी के साथ काम नहीं किया और अपना ड्रग्स का काम शुरू कर दिया।"

सतीश बारू के चेहरे पर कठोरता नाच रही थी।

"क्या सोच रहे हो बारू?"

"दीनानाथ चौखे की याद दिला दी तुमने।" सतीश बारू गुर्राया।

"क्या हुआ था? ये बात शायद खुल नहीं पाई कि तुमने शंकर गोला और गैंग को क्यों खत्म कर दिया?"

बारू ने जगमोहन को घूरा।

"तुम्हें क्यों बताऊँ?" बारू गुर्राया ।

"मर्जी तुम्हारी मत बताओ।"

"कौन हो तुम?"

"डकैती मास्टर देवराज चौहान का नाम तो सुना होगा ?"

"क्यों?" बारू जगमोहन को देखने लगा।

"मैं उसका खास साथी जगमोहन हूँ।"

सतीश बारू पल भर के लिए चौंका फिर संभल गया।

"ओह, तो तुम वो जगमोहन हो।" बारू जैसे अपने आप से बोला।

"तुमसे कोई काम था। बात करनी है तभी तुम तक पहुँचा।"

सतीश बारू कई पलों तक खामोश रहा फिर कह उठा।

"मैंने शंकर गोला को क्यों गोली मारी। क्यों गैंग को खत्म किया। ये जानना चाहते हो ना तुम। ये ठीक है कि शंकर गोला का नाम चलता था, परन्तु उसमें मेहनत हम सबकी ही थी। हममें ये बात तय थी कि गैंग जितनी भी दौलत इकट्ठी करेगा, उसके सब बराबर के हिस्सेदार होंगे। खर्चा-पानी हम ले लेते और दौलत को शंकर गोला संभाल के रख लेता। हमने सोचा था कि शंकर गोला दौलत को संभाले हुए है, पर वो औरतों पर दोनों हाथों से दौलत लुटा रहा था। मैंने इस बात पर एतराज करना शुरू कर दिया कि शंकर गोला हमारे पैसे बरबाद कर रहा है। परन्तु किसी ने मेरी बात नहीं मानी। सब शंकर गोला की तरफ थे। आखिरकार मैंने कहा कि इकट्ठी की दौलत से मुझे मेरा हिस्सा दे दिया जाये। मैं गैंग से अलग होना चाहता हूं। ये बात गोला को और दूसरों को पसन्द नहीं आई। वो मेरे खिलाफ हो गये। हालात ये हो गये कि शंकर गोला मेरी मौत के बारे में सोचने लगा और गैंग के बाकी चारों उसकी बात से सहमत थे। इससे पहले कि वो मेरी हत्या कर पाते, मैंने शंकर गोला को मार दिया। उस वक्त दो और पास थे। उन्हें भी मार दिया। तीसरे दिन एक और हाथ पड़ गया तो उसे भी मारा। परन्तु पांचवां दीनानाथ चौखे सतर्क हो चुका था और वो मेरे हाथ कभी नहीं लगा।"

"तो इसमें ज्यादा परेशान होने की क्या बात है ?" जगमोहन ने पूछा।

"परेशान होने की बात ये है कि गैंग की इकट्ठी की सारी दौलत वो ले भागा। चालीस-पचास करोड़ की दौलत थी और मैं उसे इसी कारण से तीन साल तक ढूंढता रहा। उसके जहां-जहां होने की खबर मिलती, उस-उस शहर गया। परन्तु वो मेरे हाथ नहीं लग सका और अब लगेगा भी नहीं।" सतीश बारू ने दांत भींच कर कहा।

“अफसोस है मुझे कि तुम इतनी बड़ी दौलत खो बैठे।" जगमोहन ने कहा।

"तुम मेरे पास क्या करने आये हो?" सतीश बारू सामान्य होने की चेष्टा करता कह उठा।

"ये पूछने आया हूं कि आखिर तुम ड्रग्स का छुट-पुट धंधा कब तक करते रहोगे। इसमें तो कदम-कदम पर खतरा है। पुलिस कभी भी पकड़ कर जेल में डाल देगी। तुम्हारा कोई दुश्मन तुम्हें पीछे से गोली मार देगा। तुम इस धंधे में सुरक्षित नहीं हो।"

सतीश बारू के चेहरे पर छोटी सी मुस्कान उभरी और लुप्त हो गई।

"तुम्हें, मेरी चिन्ता क्यों होने लगी?"

“मुझे नहीं स्वरूप पांडे को तुम्हारी चिन्ता है।"

"स्वरूप पांडे?" सतीश बारू के होठों से निकला ।

"जानते हो उसे?"

“हां। उससे मेरी अच्छी पहचान है।"

“उसी ने हमारा ध्यान तुम्हारी तरफ करवाया है। मैंने तुम्हारे बारे में जाना तो तुम बंदे ठीक लगे। देवराज चौहान की तरफ से तुम्हें उन नोटों की भरपाई करने का एक मौका मिल सकता है, जो दीनानाथ मोरे ले उड़ा था।"

सतीश बारू सतर्क दिखने लगा।

"क्या मतलब?"

"देवराज चौहान एक डकैती करने जा रहा है। अगर तुम साथ में मिलना चाहो तो मिल सकते हो। जो-जो भी साथ में होगा, देवराज चौहान उन सबको लेकर ऐसी जगह पहुंचेगा, जहां बेहिसाब नोट पड़े हैं। ये अब सब पर निर्भर होगा कि कौन कितने ज्यादा नोट वहां से समेट कर ला पाता है। जो जितने नोट समेटेगा, वो उसी के होंगे। उसी को ही उठाकर वहां से बाहर लाने होंगे।"

सतीश बारू, जगमोहन को देखे जा रहा था।

"पसन्द नहीं आई मेरी बात?" जगमोहन ने पूछा।

"पसन्द आई, परन्तु---।"

"मन है देवराज चौहान के साथ काम करने का ?"

"हां करूंगा, परन्तु---।"

"सवाल मत पूछना। अभी हम अपने काम के लोगों को इकट्ठा कर रहे हैं। उसके बाद जब सब मिलेंगे तो तब खुलकर बातें होंगी।"

“काम करना कब है?" सतीश बारू ने पूछा।

“जल्दी ही। कुछ ही दिनों में।"

सतीश बारू ने गहरी सांस ली और बोला ।

"मैं तैयार हूं। देवराज चौहान जैसे डकैती मास्टर के साथ काम करके मुझे खुशी होगी। वैसे भी अब पैसे की जरूरत है मुझे।"

"तो तुम्हें आज से ही ड्रग्स का काम छोड़ना पड़ेगा।"

"क्या ये जरूरी है?"

"बहुत जरूरी है। जब तक हमारे साथ काम करोगे, तब तक कोई और काम नहीं करोगे। इससे खामखाह के लफड़े पैदा हो जाते है। कई समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। अगर तुम्हारी हां है तो तुम अभी से हमारे साथ हो, नहीं तो साथ नहीं हो, बोलो।"

सतीश बारू के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।

कार में कुछ पल खामोशी छाई रही।

"ठीक है, ड्रग्स का काम मेरे आदमी संभाल लेंगे। मैं अभी से तुम्हारे साथ हूं।"

"अब अगर ड्रग्स के काम में दखल दिया तो तुम डकैती से बाहर कर दिए जाओगे।"

"ऐसा नहीं होगा। मैं समझता हूं। देवराज चौहान के साथ काम करने का मौका मैं नहीं छोडूंगा।" सतीश बारू ने कहा।

■■■

बजरंग कराडे नाम था उसका। कद पांच फीट छः इंच। साधारण शरीर। देखने में कोई भी नहीं सोच सकता था कि वो निशानेबाजी की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में दो बार नम्बर वन पर आ चुका है। अखबारों में तस्वीरें छपी। हीरो की तरह देश ने उसका स्वागत किया और फिर उसे सब भूल गये। देखने में वो आकर्षक था। उम्र 28 बरस थी। फिल्मों में भी उसने काम पाने की चेष्टा की, परन्तु बात नहीं बनी। खेलों के कोटे में से उसे सरकारी नौकरी ऑफर की गई, परन्तु उसके विचार ऊंचे थे। सरकारी नौकरी को तो वो बेकार की समझता था। इस तरह नौकरी भी हाथ से निकल गई। तीस साल बीत गये और वो कुछ नहीं कर सका। खाता-पीता और घूमता। यारों में बैठता। उसके निशानेबाज़ होने का गुण कभी काम नहीं आया। घरवालों ने काम-धाम करने को बहुत कहा, परन्तु उसने कोई काम नहीं किया। नतीजा ये रहा कि उसे घर से निकाल दिया गया। कुछ देर तो वो दोस्तों के घर पर रहता रहा, कभी इसके घर तो कभी उसके घर ।

परन्तु ये सिलसिला भी ज्यादा देर नहीं चला और दोस्तों ने भी नमस्ते कर दी। वो पूरी तरह से फुटपाथ पर आ गया। अब तो काम करना ही था। उसे सरकारी नौकरी की याद आई। उसे पाने को भागदौड़ करने लगा परन्तु अब किसी को भी उसकी याद नहीं थी। वो वक्त निकल चुका था। कोई और रास्ता ना पाकर एक जान-पहचान वाले की टैक्सी चलाने लगा। एक खोली किराये पर ले ली रहने को। साल भर से वो टैक्सी ही चला रहा था। शुरू-शुरू में टैक्सी चलाना उसे बुरा लगता था परन्तु अब आदत सी हो गई थी। ये ही काम उसे बढ़िया लगने लगा। साल भर से टैक्सी ही चला रहा था। कभी-कभी अपनी बीती जिन्दगी पर नज़र मारता तो मन मार कर रह जाता। कितना बढ़िया निशानेबाज़ था। यार-दोस्त थे। बढ़िया जिन्दगी बीती थी परन्तु अब पीछे की जिन्दगी पीछे छूट चुकी थी। यहां तक कि घरवाले भी छूट गये थे। पिता छः महीने पहले ही चल बसे थे। बहन की शादी हो गई थी, परन्तु उसे बाद में पता चला। अब उस किराये के मकान में उसका भाई अपने परिवार और मां के साथ रहता था। वहां उसकी कोई जगह नहीं थी। अब ये ही सोचता कि अगर उसने सरकारी नौकरी कर ली होती, तो शादी करके अपने परिवार के साथ रह रहा होता। परन्तु जो वक्त निकल गया था उस पर सोचने का क्या फायदा। इतना सबक उसे मिल गया था कि मौका कभी-कभी मिलता है और उसे छोड़ना नहीं चाहिये। इन दिनों वो पैसे जमा कर रहा था कि अपनी टैक्सी ले सके। सात-आठ सौ रुपया रोज का कमा लेता था। अच्छा सा घर लेने का उसका मन था। शादी करना चाहता था। परन्तु इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए पैसा चाहिये था और पैसा उसके पास था नहीं।

इस वक्ते वो टैक्सी स्टैण्ड पर मौजूद था और अब उसका नम्बर था। सवारी आने के इन्तजार में दूसरे टैक्सी वालों से बातें करने में व्यस्त था। शाम के चार बज रहे थे फिर सवारी भी आ गई। तीस बरस की वो खूबसूरत औरत थी जो कि सीधी साड़ी में लिपटी थी।

"झावेरी बाजार जाना है।" उस औरत ने टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंच कर कहा।

“ओ बजरंगी, झावेरी बाज़ार जायेगा या दूसरे को भेजूं ?" एक ने ऊंची आवाज में कहा।

“जाऊंगा। उधर मुझे काम भी है।" बजरंग कराड़े अपने टैक्सी की तरफ बढ़ता बोला--- “आओ मैडम जी, इधर मेरी टैक्सी में आ जाओ।"

मिनट भर में ही बजरंग कराड़े सवारी लेकर टैक्सी स्टैण्ड से निकल गया!

दस मिनट ही बीते होंगे कि जगमोहन टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचा। उसने कार कुछ पहले ही रोक दी थी और पैदल वहां पहुंचा था। दो टैक्सी वाले अपनी टैक्सी को चमकाने में लगे थे। तीन एक तरफ तख्त पर बैठे बातें कर रहे थे। जगमोहन उनके पास पहुंचा।

"बजरंग कराड़े इसी टैक्सी स्टैण्ड पर होता है?" जगमोहन ने पूछा

"आप कौन हैं?"

“मैं बजरंग की मौसी का लड़का हूं।" जगमोहन ने कहा।

"वो अभी सवारी लेकर झावेरी बाजार गया है।" एक ने कहा।

"उसका फोन नम्बर दे दो। झावेरी बाजार में उसे कहां-कहां तलाशूंगा ?”

जगमोहन ने बजरंग कराड़े का मोबाइल नम्बर लिया और वहां से चल पड़ा।

बजरंग कराड़े टैक्सी चलाते हुए, सामने लगे शीशे में से बार-बार पीछे बैठी औरत का चेहरा देख रहा था। वो औरत उसे पसन्द आई थी। ये बजरंगी की कमजोरी ही है कि उसे हर औरत पसन्द आ जाती है, जो देखने में थोड़ी भी अच्छी हो और फिर ये ही सोचता कि पता नहीं, उसकी शादी होगी भी या नहीं? या टैक्सी चलाते चलाते बूढ़ा हो जायेगा।

"मैडम जी ।" टैक्सी चलाते बजरंग कराड़े बोला--- “एक बात कहूं बुरा तो नहीं मानेंगी।"

"कहो।" पीछे बैठी औरत ने कहा।

"कुछ वक्त मैंने फिल्मी कलाकारों के लिए काम किया था। मेकअप मैन का असिस्टैंट रहा मैं। किसको कैसे ज्यादा खूबसूरत दिखाना है, ये ही मेरा काम होता था आप कहें तो मैं आपकी खूबसूरती के बारे में कुछ बातें बताऊं ?"

"हां-हां, बताओ।" औरत के चेहरे पर दिलचस्पी के भाव उभरे। वो थोड़ा आगे को सरकी।

बजरंग कराड़े शीशे में से उसके चेहरे को देखते बोला।

"वैसे तो आप खूबसूरत हैं, पर इससे भी ज्यादा खूबसूरत लग सकती हैं। आप शादीशुदा हैं ना?”

"हां।"

"वो तो लग रहा है। ज्यादा खूबसूरत लगने के लिए आपको माथे पर सिन्दूर की पतली सी लाल रेखा जरूर लगाएं और आंखों पर काजल लगाया करें, इससे आंखें बड़ी-बड़ी लगेगी और आप और भी खूबसूरत लगेगी। कानों में लम्बे झुमके, पतले वाले पहने, बालो को इस तरह बांध कर ना रखें। थोड़ा खुले रखें।" बजरंग कराड़े कहता जा रहा था--- "और नाक में बाईं तरफ पतली सी सोने की बाली पहनें। जो बातें मैंने बताई हैं वो सब करने के बाद आप उम्र में पांच साल कम लगेगी और आपके पति भी हैरान हो जायेंगे।"

औरत खुशी से हंस पड़ी।

"तुम तो सच में कमाल के बंदे हो।" वो कह उठी।

"कैसे?"

"तुमने जो बताया, साथ ही साथ मैं उन बातों की कल्पना करती जा रही थी। तुम सही कहते हो, उस तरह तो मैं शानदार लगूंगी।"

"थैंक्यू मैडम।"

"तुमने फिल्म इंडस्ट्री क्यों छोड़ दी ?"

"वहां पैसे कम मिल रहे थे और मिलने का कोई वक्त भी फिक्स नहीं होता। दो बार तो मुझे पैदल घर तक आना पड़ा, मेरे पास बस का भी किराया नहीं था। फिल्म वालों का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता।" बजरंग ने कहा।

"तुमने जैसा कहा है मैं ऐसा ही करूंगी। बाई गॉड मुझे ये ख्याल क्यों नहीं आया? तुम मुझे अपना मोबाइल नम्बर दे दो।"

"क्यों?"

"तुम्हारे कहेनुसार मेकअप करने के बाद मैं तुम्हें अपने को दिखाऊंगी। तब कोई कमी लगे तो मुझे बताना। जब मैं तुम्हें जहां भी बुलाऊं आ जाना। फिक्र मत करना। तुम्हें वहां तक आने-जाने का टैक्सी का किराया भी दूंगी। मैं तुम्हारे सम्पर्क में रहूंगी और तुमसे टिप्स लिया करूंगी अपने बारे में कि अब मुझे बढ़िया दिखने के लिए क्या-क्या करना चाहिये।"

बजरंग कराड़े सोच रहा था कि औरतों को फंसाने में उसे खास मेहनत नहीं करनी पड़ती। खासतौर से शादीशुदा औरतों को फंसाने के लिए उनकी खूबसूरती पर बातें करना शुरू कर दो तो बहुत खुश हो जाती हैं।

“मैं आपको अपना फोन नम्बर दे दूंगा मैडम।"

“मुझे मैडम मत कहो। मुझे नेहा कहो।” वो बोली ।

"ठीक है नेहा जी।"

“तुम फिल्म इंडस्ट्री में ही टिके रहते तो बहुत आगे तक जाते। क्या नाम है तुम्हारा?"

"बजरंग ।"

"तुम मुझे अच्छे लगे बजरंग। मैं तुमसे जल्दी ही दोबारा मिलूंगी।"

"शादी तो हो गई तेरी। अब मिल के क्या करेगी।" बजरंग कराड़े ने मन ही मन सोचा, बात तो तब होती जब शादी ना की होती और मिलने को कहती। तब तो पूरी तरह पटा लेता तेरे को ।

बजरंग कराड़े झावेरी बाजार के पास, मुख्य सड़क पर टैक्सी रोके बैठा था। वो जानता था कि यहां से कोई सवारी मिल जायेगी। भीड़-भरा इलाका था ये। नेहा नाम की वो औरत तो डेढ़ सौ के किराये के बदले खुश होकर पांच सौ का नोट देकर गई थी। बजरंग कराड़े सोच रहा था कि ऐसी बेवकूफ औरतें, रोज दो-चार मिल जायें तो, वो अपनी टैक्सी जल्दी खरीद लेगा।

तभी बजरंग कराड़े का मोबाइल बजने लगा ।

"हैलो ।" बजरंग कराड़े ने बात की।

"टैक्सी चाहिये।" उधर से जगमोहन की आवाज आई--- "मैं झावेरी बाजार में हूं।"

"साहब जी, मैं भी झावेरी बाजार में हूँ।" बजरंग कराड़े ने कहा--- "आप कहां पर है?"

बातचीत हुई। बजरंग ने टैक्सी का नम्बर और जगह के बारे में बताया।

पांच मिनट में ही जगमोहन वहां आ पहुंचा। टैक्सी के भीतर बैठा।

"कहां चलना है साहब जी ।" मीटर डाऊन करके, बजरंग कराड़े सीट पर बैठता बोला।

"किसी ऐसी पार्किंग में टैक्सी लगाओ, जहां पास में चाय वाला भी हो। चाय पीते हम कुछ बाते करेंगे।" जगमोहन ने कहा ।

"क्या मतलब?” बजरंग कराड़े ने गर्दन घुमाकर, पीछे बैठे जगमोहन को देखा।

“सोचो मत बजरंग कराड़े। जो कहा है, वो ही करो। तुम्हें किराये के रूप में हजार रुपये दूंगा।" जगमोहन मुस्कराया।

"आप-आप मेरा नाम भी जानते हैं।"

"सब कुछ जानता हूं तुम्हारे बारे में।” कहने के साथ ही जगमोहन ने जेब से तह कर रखी अखबार का पेज निकाला, जो कि पुराना था। उसे खोलकर, बजरंग कराड़े के सामने कर दिया।

उस पर बजरंग कराड़े की तस्वीर छपी थी और उसके बारे में खबर थी। ये तब की अखबार थी, जब कई साल पहले कराड़े ने शूटिंग प्रतियोगिता जीती थी। बजरंग कराड़े के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।

"ये तुम्हें कहां से मिला?”

“शुरू से ही मेरे पास था। संभाले रखा था। काबिल लोगों की जानकारी मैं रखता हूं और जब जरूरत पड़ती है तो उनसे मिलता हूं।"

"मैं समझा नहीं तुम क्या कहना--।"

"आराम से बातें करते हैं बजरंग। किसी पार्किंग में टैक्सी ले चलो, जहां हम चाय भी पी सकें।"

बजरंग कराड़े ने कुछ नहीं कहा। टैक्सी आगे बढ़ा दी। उसका दिमाग तेजी से काम कर रहा था कि टैक्सी में बैठा आदमी आखिर उससे चाहता क्या है। ये ठीक है कि कभी शूटिंग प्रतियोगिता में लगातार दो साल तक पहले नम्बर पर आता रहा था। तब उसकी खूब चर्चा हुई थी। अब तो उसे कुत्ते भी नहीं पूछते और ये आदमी उसकी फोटो वाला अखबार लिए घूम रहा है। वो कुछ भी नहीं समझ पाया कि मामला क्या है। झावेरी बाजार से तीन किलोमीटर दूर, काफी बड़ी पार्किंग में उसने टैक्सी ले जाकर खड़ी कर दी।

"यहां चाय वाला किधर है?"

"उस तरफ---कारों के पीछे।" बजरंग ने हाथ से इशारा किया।

"चलो, चाय लेकर आते हैं।" जगमोहन ने टैक्सी का दरवाजा खोला।

"तुम जो चाहते हो, वो बात करो।" बजरंग कराड़े बोला।

“आओ भी।" जगमोहन मुस्कराया--- “पहले चाय हो जाये। बहुत इच्छा हो रही है।"

दस मिनट बाद दोनों प्लास्टिक के गिलास में चाय पीते टैक्सी में बैठे थे।

"चाय बढ़िया है। तुमने यहां की चाय पहले भी पी रखी होगी। तभी यहां आये?"

बजरंग कराड़े ने चाय का घूंट लेकर पूछा।

"तुम कौन हो?"

"जगमोहन नाम है मेरा।"

“मुझे क्यों ढूंढ रहे थे?" बजरंग कराड़े बोला--- "सालों पुराना मेरी फोटो वाला अखबार तुम्हारे पास कैसे ?"

"ये अखबार मेरी फाइल में लगा था। वहां से निकाल कर लाया हूं।" जगमोहन ने कहा--- "तारीफ के काबिल लोगों की जानकारी मैं अपने पास में रखता हूं और जब जरूरत पड़ती है तो उनके पास पहुंच जाता हूं। तुम बहुत अच्छे निशानेबाज़ हो।"

"कभी था।"

"एक दिन की प्रेक्टिस तुम्हें वापस उन्हीं दिनों पर ला देगी। निशानेबाज़ी भूली नहीं जाती। जैसे कि कार चलाना नहीं भूला जाता।"

"क्या चाहते हो?"

"क्या तुम अपनी जिन्दगी से खुश हो? या मन में इच्छा है कि कुछ पैसा कमा लिया जाये।"

“पैसा कौन नहीं चाहता?" बजरंग कराड़े की नज़र जगमोहन पर जा टिकी।

"तुमने देवराज चौहान डकैती मास्टर का नाम तो सुना होगा।"

"कौन ?"

"डकैती मास्टर देवराज चौहान ।"

"मैंने नहीं सुना।"

"कोई जरूरी भी नहीं कि हर कोई देवराज चौहान को जानता हो। दो-चार से इस बारे में बात करोगे तो देवराज चौहान के बारे में जान जाओगे।” जगमोहन ने शांत स्वर में कहा--- “देवराज चौहान तुम्हें काम देना चाहता है। बदले में करोड़ों की दौलत मिलेगी।”

"कैसा काम?" बजरंग कराड़े की आंखें सिकुड़ी।

"वो एक बड़ी डकैती करने वाला है, तुम्हें अपने साथ लेना चाहता है।" जगमोहन ने कहा।

"पागल हो गये हो।" बजरंग कराड़े भड़क उठा--- "मैं और डकैती...।"

"तुम अच्छे निशानेबाज़ हो।"

"तुम्हारा मतलब कि मैं लोगों की जानें लेता फिरूं।"

"एक की भी जान नहीं जायेगी। तभी तो तुम्हें साथ में लेने की सोची है।"

"क्या मतलब?"

"ये डकैती के प्लॉन का हिस्सा है। अभी तुम्हें कुछ नहीं बताया जा सकता।"

"तुम दफा हो जाओ यहां से।" बजरंग कराड़े ने तीखे स्वर में कहा।

“करोड़ों रुपया मिलेगा बजरंग। तुम्हें ऐसी जगह पहुंचा देंगे कि वहां नोट ही नोट होंगे। ये तुम पर है कि वहां से कितने नोट अपने साथ ले आते हो। जितने ला सके, वो सब तुम्हारे। इस काम में और लोग भी हैं, जो तुम्हारी तरह हैं। इस डकैती में हम चुन-चुन कर लोगों को ले रहे हैं। तुम्हारी किस्मत खुल गई, जो मैं तुम्हारे पास आया।"

"तुम कौन हो जो ।”

"मैं देवराज चौहान का सबसे खास साथी हूं। पता करोगे तो मेरे बारे में सुन लोगे।”

"तुम मुझे डकैती में शामिल होने को कह रहे हो।"

“क्योंकि तुम अच्छे निशानेबाज़ हो। तुममें गुण है और अपने गुण का इस्तेमाल करो।"

"डकैती करके?" बजरंग कराड़े ने कड़वे स्वर में कहा।

"हां, तुम तो।"

"अब मैं कुछ कहूं?" विषैले भाव थे बजरंग के चेहरे पर।

"बोल ।"

"टैक्सी का दरवाजा खोल और यहां से दफा हो जा।"

"तुम मेरी बात समझ नहीं रहे, तभी।"

"मैं सारी बात समझ रहा हूं तभी तो तुझे दफा होने को कह रहा हूं।" बजरंग कराड़े ने कठोर स्वर में कहा।

"तुम बहुत बढ़िया मौका हाथ से गवां रहे...।"

"जुबान बंद रख और चलता बन यहां से।"

"मेरा नम्बर ले लो। मन करे तो...।"

"मेरा मन नहीं करने वाला डकैती करने को। ऐसे कामों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। खिसक ले यहां से।"

जगमोहन टैक्सी का दरवाजा खोल कर बाहर निकला और दरवाजा बंद करके, नीचे झुककर बोला।

"अभी हमारी बात खत्म नहीं हुई। मैं तुम्हें दो दिन बाद फोन करूंगा और तुम्हारे विचार मालूम...।”

"भूल के भी फोन मत करना।" बजरंग कराड़े ने तीखे स्वर में कहा।

“मैं करूंगा।" कहने के साथ ही जगमोहन वहां से हटा और पार्किंग के बाहर की तरफ बढ़ गया।

बजरंग कराड़े, वहीं टैक्सी में बैठा जगमोहन को तब तक घूरता रहा, जब तक वो नज़र आता रहा।

करोड़ों रुपया ?

कोई हत्या नहीं होगी।

देवराज चौहान, डकैती मास्टर... ।

"मैं डकैती जैसा काम नहीं कर सकता।" बजरंग कराड़े बड़बड़ाया--- "शरीफ आदमी हूं। पागल, पता नहीं क्या सोचकर, मेरे पास आ गया।"

■■■

पूरन दागड़े। उम्र बयालीस बरस। गठा शरीर। छः फीट को छूता लम्बा कद। सीना चौड़ा। आज दागड़े पूना के पास, छोटे से गांव में अपने पिता के बनाये पुराने मकान में रहता था। पन्द्रह साल पहले फौज में सूबेदार हुआ करता था। उन्नीस साल की उम्र में फौज में भर्ती हो गया था और पच्चीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अपनी काबिलियत से सुबेदार बन गया और ड्यूटी लग गई, हथियारों की देख-रेख पर। उसी दौरान बाहरी लोगों के सम्पर्क में आया और डिपो से गोला-बारूद, हथियार खिसकाकर उन्हें देने लगा और मोटे नोट कमाने लगा। परन्तु ये हेराफेरी कुछ साल ही चल सकी और पकड़ा गया। कोर्ट मार्शल हुआ। फौज से निकाल दिया गया और बारह साल की सजा हुई। सजा के बारह साल बहुत तकलीफ देह रहे। परन्तु उसे ये पछतावा ना हुआ कि उसने गलत काम किया है। उसका कहना था कि सब ही हेराफेरी करते हैं। कोई शराब की बोतलें बाहर ले जाकर बेचता है तो कोई बाहर से ड्रग्स लाकर फौजियों को बेचता है। लेकिन कोर्ट में उसने इस बारे में मुंह बंद रखा था कि उसकी वजह से कोई दूसरा ना फंसे। इस बात का ध्यान रखा। सजा काटकर जब बाहर निकला तो उन्तालीस बरस का हो चुका था। सीधा अपने घर पहुंचा। पीछे से मां मर गई थी। वो मां-बाप की इकलौती औलाद था। उसने जो पैसा कमाया था, वो सब खत्म हो चुका था। मां के इलाज में पैसा लगा। अब तो पिता भी बीमार रहने लगा था। अब उसके पास सिर्फ डेढ़ लाख रुपया बचा था और गांव में खेती की थोड़ी सी जमीन थी। उसके पिता ने स्पष्ट कहा कि खेती की जमीन और मकान के अलावा उसके पास कुछ नहीं है। पूरन दागड़े को इस बात का दुःख हुआ कि फौज में हेराफेरी करने के बाद भी खाली का खाली रहा, सजा भुगती वो अलग। वो बाप के साथ रहने लगा और खेती-बाड़ी करने लगा। खेती से कमाई कुछ खास नहीं थी, परन्तु साल भर की उसकी और उसके बाप की रोटी पानी चल जाती। शादी की उम्र निकल चुकी थी परन्तु बूढ़ा बाप चाहता था कि वो शादी करके घर बसा ले। लेकिन दागड़े शादी की बात से कन्नी काट जाता था। ये ही सोचता कि पास में पैसा नहीं है तो शादी करके क्या करेगा। इसी तरह जिन्दगी बीत रही थी और वो 42 का हो गया था।

इस वक्त शाम के पांच बज रहे थे। देवराज चौहान ने पूरन दागड़े के गाँव में पहुंचकर, कार को एक दुकान के पास पहुंचा और कार वहीं खड़ी करके आगे चल पड़ा। सामने से आने वाले एक बूढ़े व्यक्ति से पूरन दागड़े के घर के बारे में पूछा।

"वो फौजी, हां, यहां से आगे जाकर बाईं तरफ मुड़ जाना। पीपल का पेड़ पूछना किसी से। उसी पेड़ के पास दागड़े रहता है।"

बीस मिनट बाद देवराज चौहान पूरन दागड़े के घर में प्रवेश कर गया। बहुत खुली जगह पर घर था। एक तरफ कतार में कमरे बने हुए थे। नीम और आम के पेड़ थे वहां। भैसें बंधी थी और चारा काटने की हाथ की मशीन लगी थी। दूसरी तरफ भूसे की कोठरी थी। एक बूढ़ा सा आदमी चारपाई पर लेटा हुआ था। इसके अलावा और कोई नहीं दिखा।

देवराज चौहान उसके पास पहुंचा और पूरन दागड़े के बारे में पूछा।

"वो मेरा बेटा है। इस वक्त खेतों में पानी दे रहा होगा। तुम वहीं चले जाओ।"

देवराज चौहान ने गांव से बाहर निकलकर पूरन के खेतों के बारे में पूछा।

पूछते-पूछते कुछ दूर पूरन दागड़े के खेतों में पहुँच गया। वहां ट्यूबवेल का कच्चा कमरा बना हुआ था। वो चल रहा था और पानी बनाये रास्तों से होता, खेतो के हर हिस्से में तेजी से जा रहा था। देवराज चौहान को पूरन दागड़े कहीं नहीं दिखा। उसे ढूंढा तो वो टयूबवेल के कमरे की दीवार से टेक लगाकर छाया में बैठा मिल गया। उसने पायजामा और बनियान पहन रखी थी। पांच-छः दिन की शेव बढ़ी हुई थी। उसने देवराज चौहान को देखा ।

"मैं तुम्हारे घर गया था, वहां से यहां आया हूं।" देवराज चौहान ने उसके पास छाया में बैठते हुए कहा ।

पूरन दागड़े ने उसे देखा। खामोश रहा।

"स्वरूप पांडे की याद है तुम्हें। तुम उससे जेल में मिले थे।" देवराज चौहान बोला।

“हां।" पूरन दागड़े ने सिर हिलाया।

"उसी ने मुझे तुम्हारा पता दिया। मेरा नाम देवराज चौहान है।"

"क्या चाहते हो?"

“स्वरूप पांडे ने बताया कि साल भर पहले तुम मुम्बई में उससे मिले थे और पैसा कमाने की बात कर रहे थे।"

"फिर?"

"मैं तुम्हारे पास पैसा कमाने का मौका देने आया हूं।" देवराज चौहान ने कहा और सिग्रेट सुलगा ली--- "करोड़ों रुपया जितना साथ ला सकते हो, ले आना, वो सब तुम्हारा होगा। कमाना चाहते हो पैसा ?"

“स्वरूप पांडे ने भेजा है तुम्हें।"

देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिलाया।

"वो मेरा अच्छा दोस्त बन गया था जेल में। अब कैसा है वो ?"

"एक्सीडेंट में दोनों टांगे टूट गई। प्लास्टर चढ़ा है और अपने घर में पड़ा है। दो-तीन महीने तो अभी हिल नहीं सकता ।"

पूरन दागड़े की नज़र देवराज चौहान पर थी।

"तुम करोड़ों रुपये की बात कर रहे थे।"

"हां।"

"ये कैसे होगा?"

"डकैतियां डालना मेरा काम है और मेरा शौक था। ये बात तुम स्वरूप पांडे से पूछ सकते हो। वो तुम्हें बता देगा। मैं एक डकैती डालने जा रहा हूं। उसके लिए कुछ लोगों को इकट्ठा कर रहा हूं। ऐसे लोग जिन्हें पैसे की जरूरत हो और ईमानदारी से मेरे साथ काम करें। दिलेर हों और हर तरह से काम कर सकें। स्वरूप पांडे ने तुम्हारे बारे में सब कुछ बताया। सुनकर लगा कि तुम मेरे काम के हो।"

"मैं तो तेरे काम का हूं पर मुझे ये कैसे पता चले कि तुम काबिल इन्सान हो।"

"बोला तो, स्वरूप पांडे से मेरे बारे में बात कर लो।"

"पैसे की मुझे सख्त जरूरत है पर जल्दबाजी में मैं कोई गलत काम में हाथ नहीं डालना चाहता।" पूरन दागड़े बोला।

देवराज चौहान ने मोबाइल निकाला और नम्बर मिला कर फोन उसकी तरफ बढ़ाया।

"स्वरूप से बात कर।"

पूरन दागड़े ने फोन लिया और वहाँ से उठकर कई कदम दूर होता चला गया।

दस मिनट तक दागड़े, फोन पर स्वरूप पांडे से बात करता रहा फिर वापस पास आ पहुँचा।

"तुमने बताया नहीं कि तुम मशहूर डकैती मास्टर देवराज चौहान हो।" पूरन दागड़े उसका फोन वापस देते मुस्करा कर बोला--- “मैं तुम्हारे साथ काम करने को तैयार हूँ। मुझे बताओ मुझे क्या करना होगा ?"

"अपना फोन नम्बर दे दो। मेरा फोन आने का इन्तज़ार करो। जल्दी फोन आयेगा। थोड़ी-सी तैयारी बनी है। कुछ दिन और लगेंगे।

"प्लॉन तैयार है कि कहाँ काम... ।”

"सब तैयार है। जब सब इकट्ठे होंगे, तभी इस बारे में बताऊंगा।"

"स्वरूप पांडे को कैसे जानते हो?"

"पुरानी पहचान है।" देवराज चौहान शांत भाव में मुस्कराया।

"तुम्हारे साथ काम करके मैं सच में नोट कमा सकूंगा? मुझे पैसों की बहुत जरूरत है।" पूरन दागड़े गम्भीर हो गया।

"अगर सब कुछ ठीक रहा तो तुम जिन्दगी भर के लिए, नोट इकट्ठे कर लोगे इस डकैती से।" देवराज चौहान ने विश्वास भरे स्वर में कहा।

■■■

बजरंग कराड़े टैक्सी स्टैण्ड पर बैठा था। जगमोहन जब मिल के गया तो उसके बाद सीधा अपने टैक्सी स्टैण्ड पर आ गया था। तब शाम के आठ बज रहे थे। उसके दिमाग में जगमोहन की बातें ही बज रही थी। वो डकैती करने को कह रहा था। साथ मिल जाने को कह रहा था। पागल हो गया है साला। क्या सोचकर उसके पास आया कि वो ये सुनकर बहुत खुश हो जायेगा। कह तो ऐसे रहा था जैसे बहुत बड़ी बात कह रहा हो। उसे जैसे इनाम देने की घोषणा कर रहा हो। वो भला डकैती जैसा काम कैसे कर सकता है? कभी नहीं कर सकता। इन्हीं बातों में उलझा कराड़े स्टैण्ड के बैंच पर आँखें बंद किए लेटा था। फिर उसे नेहा नाम की औरत का ध्यान आ गया जिसे उसने और भी खूबसूरत बनने की टिप्स दिए थे और खुश होकर उसे पांच सौ रुपये दे गई थी। अगर वो शादीशुदा ना होती तो बजरंग कराड़े जरूर उसे फंसा लेता। ऐसा कई बार होता था कि उसकी टैक्सी में जो औरतें बैठती, ज्यादातर को वो किसी ना किसी तरह प्रभावित कर लेता था। एक लड़की के साथ तो उसकी खासी दोस्ती हो गई थी। वो उसे अपने घर पर भी ले जाती थी, जब उसके घर पर कोई नहीं होता था। छः महीने तक दोस्ती रही फिर छूट गई थी। ऐसी कई लड़कियां मिली थी उसे, परन्तु लम्बा साथ चलने वाली अभी तक नहीं मिली थी।

तभी दूसरा टैक्सी ड्राइवर हरि उसके पास आता कह उठा।

"बजरंग, कल्यान की सवारी, तू ले जा।"

"मेरा मन नहीं है, किसी और को भेज दे। तू चला जा।"

"मैं सुबह से सवारियों को मुम्बई दर्शन कराता रहा। थक गया हूँ। किसी और को भेज देता हूं।” कहकर वो चला गया।

बजरंग कराड़े ने करवट ली और सड़क पर जाते वाहनों को देखने लगा। मन में बार-बार जगमोहन की सोच आ जाती कि करोड़ों रुपया मिलेगा। जितना उठा सको, वो सब तुम्हारा।

बजरंग ने दिमाग में आते विचारों को झटका।

परन्तु विचार उसका साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे।

अब सोचने लगा कि क्या इसी तरह टैक्सी चलाता रहेगा। फिर बूढ़ा हो जायेगा। ज्यादा कमाया तो अपनी टैक्सी खरीद लेगा, बस। इसी प्रकार टैक्सी स्टैंड के तख्ते पर ही अपनी जिन्दगी बिता देगा। कोई घर नहीं, कोई परिवार नहीं। सब दौलत का खेल है। जिसके पास पैसा है, दुनिया उसकी है। पास में पैसा नहीं तो जिन्दगी कुत्ते जैसी हो जाती है।

इसी तरह के विचारों में उलझा रहा। आज खोली पर जाने का मन नहीं था। हजार रुपया तो बना ही लिया था उसने। सोचा कि आज रात गहरी नींद लेगा। तभी हरि उसके पास आया। रात के साढ़े नौ बज गये थे।

"क्यों बजरंग, लगायेगा क्या?"

"है?"

"हॉफ है। आधी-आधी पी लेते हैं। डेढ़ सौ रुपया देना होगा। तीन सौ का हॉफ लाया हूं।"

“ठीक है-ठीक है, गिलास पानी नमकीन का इन्तजाम है ?"

"गिलास पानी तो टैक्सी में रखा है। तू उठ और सामने वाली दुकान से नमकीन ले के आ।"

बजरंग कराड़े उठ खड़ा हुआ। बोला।

"खाने के लिए पास के होटल में कह दूं। वो दे जायेगा यहां---।"

“पहले पी ले। उसके बाद खाना भी मंगवा लेंगे। पिछली बार खाना पहले ले आया था और ठंडा हो गया था।"

बजरंग नमकीन ले आया।

तब तक हरि ने गिलास और पानी तख्त पर रख दिया था। वहां दो ड्राइवर और भी थे परन्तु वो रात के लिए ड्यूटी पर थे। इसलिये वे शराब से दूर रहे। अभी रात के दो और ड्राइवरों ने टैक्सी लेकर आना था।

बजरंग और हरि ने पीना शुरू कर दिया।

"आज कितना कमाया ?" बजरंग ने पूछा।

"बारह सौ।” हरि बोला--- “और तेरी दिहाड़ी कितनी बनी ?"

"ये ही हजार।"

"बस ये ही हमारी जिन्दगी है।" हरि ने घूंट भरने के बाद नमकीन खाया--- "दिन-रात टैक्सी चलाओ। हजार-बारह सौ बनाओ और हफ्ते में एक बार घर जाकर, सब दे आओ।"

“तू किस्मत वाला है। तेरा घर है। मेरा तो वो भी नहीं।" बजरंग बोला।

"मुझे तो तू किस्मत वाला लगता है।” हरि हंसा।

"दूसरे की थाली हमेशा अच्छी लगती है।" बजरंग कराड़े मुस्कराया।

"ये तो है। कभी-कभी सोचता हूं कि दुकान खोल लूं। टैक्सी चलाना भी मुसीबत का सौदा है। कभी भी एक्सीडेंट हो सकता है। फिर कब तब टैक्सी चलेगी। धीरे-धीरे उम्र भी तो बढ़नी है।"

"दुकान क्यों नहीं खोलता ?"

"आसान काम नहीं है। छोटी सी दुकान के लिए भी बीस लाख रुपया चाहिये। यहां खाने के लाले हैं तो पैसा किधर से आयेगा ?"

दोनों पर अब नशा चढ़ना शुरू हो गया था।

"हरि---।” बजरंग कराड़े मस्ती में आ चुका था।

“बोल यार--।"

“तूने कभी देवराज चौहान का नाम सुना है?"

"कौन देवराज चौहान ?"

"डकैती मास्टर देवराज... ।”

“वो साला तो बहुत बड़ा डकैती मास्टर है।” हरि फौरन कह उठा।

"सच में?"

“हां। मैंने अखबारों में उसके बारे में पढ़ा है। कमाल का बंदा है वो। ऐसी-ऐसी प्लानिंग के साथ डकैती करता है कि काम हो जाने के बाद ही पता चलता है कि डकैती हो गई।"

"अच्छा।" बजरंग कराड़े, हरि को देखने लगा।

"वो हमेशा कामयाब डकैती करता है। शायद दो-चार बार असफल रहा हो, वो मुझे पता नहीं, पर जहां डकैती का जिक्र आता है, वहां देवराज चौहान का नाम आता है। एक बार पकड़ा गया था पर पुलिस हैडक्वार्टर से भाग निकला। उसके कारनामें क्या बताऊँ।” हरि ने गहरी सांस ली--- “बस एक बार वो मिल जाये कहीं ।"

नशा चढ़ रहा था हरि को।

"फिर तू क्या करेगा?"

"पांव पकड़ लूंगा और तब तक नहीं छोडूंगा जब तक कि वो मुझे अपने साथ डकैती में लेने को हां ना कर दे। उसके साथ की गई एक डकैती का मतलब है जिन्दगी भर का खाने-पीने और ऐश करने का सामान इकट्ठा कर लेना। परन्तु अपनी ऐसी किस्मत कहाँ कि वो मिले। हमें तो बस टैक्सी ही चलानी है उम्र भर।"

परन्तु हरि के शब्दों को सुनकर बजरंग कराड़े के दिमाग में धमाके फूटने लगे। उसे लगा कि वो खूबसूरत मौका छोड़ रहा पैसे वाला बनने का।

"तू सच कहता है कि वो बढ़िया डकैती मास्टर है।"

"बहुत बढ़िया ।" हरि नशे में हाथ हिलाकर बोला--- "जिसकी पीठ पर हाथ रख दे, वो तो जन्म भर के लिए तर गया।"

"वो अकेला ही डकैतियां करता है?"

"नहीं। उसका एक साथी भी है, जगमोहन नाम है उसका। मैंने अखबारों में सब कुछ पढ़ रखा है। वो दोनों मिलकर ही डकैती करते हैं। जरूरत पड़े तो एक-दो को अपने साथ और भी मिला लेते हैं। करोड़ों से कम का हाथ नहीं मारते। कसम से, अखबार में जब देवराज चौहान द्वारा की गई डकैती के बारे में छपता है तो पढ़कर दिल खुश हो जाता है। वो कभी किसी के घर में डकैती नहीं करता। किसी आदमी को नहीं लूटता। आम जनता को उससे कभी कोई शिकायत नहीं हुई, वो सिर्फ बड़े-बड़े हाथ मारता है।"

बजरंग कराड़े के दिमाग में अभी तक धमाके फूट रहे थे।

"पुलिस क्यों नहीं पकड़ती उसे?"

"क्या पता अन्दर की क्या बात है। पुलिस चाहे तो किसे नहीं पकड़ सकती। आये दिन एनकाउंटर होते हैं। अक्सर इनामी बदमाश मारे जाते हैं, पर देवराज चौहान से पुलिस का कभी कोई पंगा नहीं हुआ। नोट-वोट देता रहता होगा पुलिस को।"

बातों के साथ पीते भी जा रहे थे वो। नशा हावी था।

"तेरे पास अगर जगमोहन आकर कहे कि डकैती करनी है, साथ चल तो तू क्या करेगा ?" बजरंग कराड़े ने गम्भीर स्वर में पूछा।

"सबसे पहले तो खुशी में अपनी टैक्सी उस पर कुर्बान कर दूंगा। कौन बेवकूफ है जो ऐसा मौका छोड़ेगा। करोड़ों का हिस्सा मिलेगा और सारे दुःख दर्द जादू की तरह दूर हो जायेंगे।” गिलास थामें हरि ने दोनों हाथ फैलाये--- “पर मैं जानता हूं कि मैं इतना किस्मत वाला नहीं हूँ। टैक्सी कुर्बान करने का मौका मुझे कभी नहीं मिलेगा।"

बजरंग कराड़े के चेहरे के भाव तेजी से बदल रहे थे। वो नशे में था, परन्तु होश में था। सोचों में जाने क्या-क्या आ रहा था। जगमोहन ने भी उसे करोड़ों रुपये के बारे में कहा था और हरि भी मिलती-जुलती बात कर रहा था। उसने तो कभी देवराज चौहान का नाम नहीं सुना था, सुना भी होगा तो अनुसुना कर दिया होगा, उसे याद नहीं इस बारे में। लेकिन हरि की बातों को वो झुठला नहीं सकता था। हरि कहता है देवराज चौहान बड़ा डकैती मास्टर है तो वो जरूर है।

"तेरे को देवराज चौहान की याद कैसे आ गई आज?" हरि ने पूछा।

बजरंग ने एक ही सांस में गिलास खाली किया और नमकीन मुंह में डाला।

"बता तो, तेरे को देवराज चौहान की---।"

"वो आज एक सवारी फोन पर किसी से देवराज चौहान का नाम लेकर बात कर रही थी। उसी से देवराज चौहान की याद आ गई। तूने देखा है कभी देवराज चौहान को ?" बजरंग कराड़े ने पूछा ।

"पागल है। मैं कहां देख पाऊंगा उसे। फोटो जरूर देखी थी अखबार में।"

बजरंग कराड़े ने अपने हिस्से का क्वाटर खत्म किया, परन्तु कोई खास असर नहीं हुआ आज पीने का। जबकि हरि पूरी मस्ती में था। बजरंग की आंखों के सामने जगमोहन का चेहरा आ रहा था। उसकी बातें याद आ रही थी। जगमोहन को इनकार करके, क्या गलत किया उसने? करोड़ों की दौलत उसे मिल सकती है अगर जगमोहन की बात मान जाये। उसने कहा था कि वो उसे जरूर फोन करेगा। क्या पता फोन ना आये? बजरंग कराड़े बेचैन हो उठा। उसे लगा करोड़ रुपया हाथ से निकल गया है। क्या पता जगमोहन का फोन आ जाये? उसके मना करने पर भी उसने कहा था कि वो फोन करेगा।

"बजरंग ।" हरि उसे बुला रहा था।

"क्या है?" बजरंग कराड़े सोचों से बाहर निकला।

"और मूड है पीने का?" हरि ने कहा।

"तेरा है?"

"तू लेगा तो मैं भी ले लूंगा ।" हरि बोला--- "चल नोट निकाल, अब हॉफ तू मंगवा। ओ सुन्दर। सुन्दर इधर आ ।" हरि ने पुकारा ।

एक टैक्सी ड्राइवर पास आ गया ।

"जा, हॉफ लेकर आ। पैसे दे बजरंग।"

"मैं नहीं जाऊंगा।" सुन्दर ने कहा।

“कैसे नहीं जायेगा साले। तेरा तो बाप भी जायेगा।" हरि भड़का--- "उस दिन मैंने तेरे को लाकर दी थी ना। तूने एक बार कहा और मैं ले आया था। पीते बंदे के मुंह नहीं लगते। चुपचाप उसका काम कर देते हैं। अकल रखा कर।"

बजरंग कराड़े ने पांच सौ का नोट निकालकर सुन्दर को दिया।

हरि खाली हॉफ उठाकर सुन्दर को दिखाता बोला।

“अच्छी तरह देख ले। ये ही लाना। बढ़िया माल है इस ब्रांड का।"

सुन्दर चला गया।

बजरंग कराड़े तो अपने ही विचारों में उलझा हुआ था। देवराज चौहान के साथ डकैती में शामिल होना अपने आपमें बड़ी बात है। हरि की बातों से उसे इस बात का एहसास हो गया था और वो कुछ बेचैन हुआ पड़ा था। ये सोचकर कि उसने जगमोहन के साथ सख्त व्यवहार किया और उसे चलता कर दिया था। कहीं वो नाराज हो गया और फोन ना करे तो? उसे बढ़िया मौका मिला था नोट कमाने का और अनजाने में उसने कहीं वो मौका गवां तो नहीं दिया?

"क्या सोच रहा है?" हरि उसके घुटने पर हाथ मारकर बोला।

“आज चढ़ नहीं रही।” बजरंग ने मुस्कराने की चेष्टा की।

"चिन्ता क्यों करता है। सुन्दर हॉफ लेकर आ रहा है। अभी चढ़ जायेगी। ये ब्रांड बढ़िया है।"

कुछ ही देर में सुन्दर हॉफ लेकर आ गया। बाकी के पैसे बजरंग कराड़े ने गिनकर जेब में रखे।

हरि हॉफ की सील खोलता, सुन्दर से बोला ।

“अच्छा बच्चा बना कर। काम को कभी मना मत किया कर। अब खड़ा मुंह क्या देख रहा है। जा यहां से। ये हमारे लिए ही कम है। तेरे को खुशबू के अलावा और कुछ नहीं मिलने वाला।” हरि हंस पड़ा।

“सुबह बात करूंगा तुमसे।” कहकर सुन्दर चला गया।

“सुना बजरंगी। कहता है सुबह बात करेगा। तब तो नशा ही उतर चुका होगा, बात क्या होगी।"

बजरंग कराड़े तो अपने ही निन्यान्वे के फेर में फंसा, सोचों में उलझा हुआ था। जगमोहन, डकैती, देवराज चौहान और करोड़ रुपया, ये ही सब कुछ सोचे जा रहा था।

■■■

अगले दिन बजरंग कराड़े को बेचैनी से जगमोहन का फोन आने का इन्तज़ार था। कराड़े देवराज चौहान के साथ मिलकर डकैती करने को तैयार था। मन बना लिया था उसने। कभी-कभी थोड़ा डर जाता, परन्तु फिर संभल जाता कि करोड़ रुपया पास में आ जाने से उसकी जिन्दगी बदल जायेगी। वो शादी कर सकेगा। उसका परिवार बन जायेगा। कोई ऐसी दुकान डाल लेगा कि परिवार का खर्चा चलता रहे। टैक्सी चलाते रहने से, उसकी जिन्दगी नहीं संवरने वाली।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल था कि क्या जगमोहन उसे फोन करेगा?

उसने कहा था कि दो दिन बाद फोन करेगा।

अभी तो एक ही दिन बीता है, लेकिन कराड़े को अब सब्र नहीं था। सब कुछ जल्दी-जल्दी हो जाये, ये बेचैनी उसके भीतर भर गई थी। अगर जगमोहन का फोन उसे नहीं आया तो? उसके बदले उसने किसी और को ढूंढ लिया तो सुनहरा मौका हाथ से निकल जायेगा। अब जगमोहन को कहां से ढूंढे ? उसे क्या पता वो कहां मिलेगा। उसका तो फोन नम्बर भी नहीं है कि... फोन नम्बर ?

एकाएक बजरंग कराड़े की सोचें थम गई।

कल शाम को फोन आया तो था जब वो झावेरी बाजार में सवारी का इन्तज़ार कर रहा था।

बजरंग कराड़े ने जल्दी से फोन निकाला और नम्बरों की लिस्ट देखने लगा और फौरन ही कल शाम आये उस फोन नम्बर पर नज़र पड़ गई, जो कि जगमोहन का फोन नम्बर था ।

बजरंग की सांसें थम गई।

जगमोहन का नम्बर उसके पास था। अब उससे बात कर सकता था।

लेकिन अगले ही पल थम गया।

क्या वो डकैती कर सकेगा? ये काम क्या उसके बस का है? फोन हाथ में थामें बजरंग कराड़े सोच में डूब गया। वो बेचैन दिख रहा था। परेशानी की झलक उसके चेहरे पर घर बना चुकी थी। उसके दिमाग में डकैती, करोड़ों रुपया, जगमोहन, देवराज और हरि की बातें आने लगी।

हरि तो उत्सुक था डकैती मास्टर देवराज चौहान के साथ काम करने को।

फिर वो क्यों नहीं कर सकता डकैती? उसने थोड़े ना डकैती करनी है, सब कुछ तो देवराज चौहान करेगा। उसने तो देवराज चौहान के साथ रहना है। जो वो कहेगा, वो ही काम करना है। फिर डर कैसा? कहीं पुलिस ने पकड़ लिया तो? बजरंग की सोचें पीछे हटने लगी। तो क्या सारी उम्र इसी तरह टैक्सी चलाता रहेगा? पुलिस तो तब भी पकड़ लेगी, जब कोई उसकी टैक्सी के नीचे आकर मर जायेगा। पांच-चार साल के लिए तब भी तो जेल जायेगा? अगर देवराज चौहान के साथ काम करके उसे करोड़ रुपया मिल जाता है तो अपनी जिन्दगी संवार सकता है। शादी कर सकता है।

बजरंगे कराड़े डर से बाहर निकला और फोन का बटन दबाकर उसे कान से लगा लिया।

दिल तेजी से धड़क उठा था। उसने सूख रहे होंठों पर जीभ फेरी ।

दूसरी तरफ बेल बजने लगी थी फिर जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।

"हैलो।"

बजरंग के होठों से कोई शब्द नहीं निकला।

"हैलो।" उधर से जगमोहन ने फिर कहा।

“ज... जगमोहन ।" बजरंग के होंठों से निकला।

"हां, तुम कौन...।"

"मैं बजरंग कराड़े।" उसके होठों से बरबस ही निकला--- "तुम कल शाम मुझसे झावेरी बाजार में मिले थे।"

“पहचाना।" जगमोहन की आवाज आई।

"तुमने कल मुझे फोन किया था। तुम्हारा नम्बर मेरे फोन में मौजूद था।" बजरंग बोला।

“ये बात मैं समझ चुका हूँ।"

"मैं तुमसे बात करना चाहता हूं।"

"करो---।"

"फोन पर नहीं, मिलकर ।" बजरंग कराड़े ने पुनः सूख रहे होंठों पर जीभ फेरी ।

"कहां मिलना है?"

"व... वहीं, उस वाली पार्किंग में ही। चाय भी पिएंगे। कितने बजे आओगे वहां?"

"जब तुम कहो।"

“दो घंटे बाद---।"

"मैं पहुंच जाऊंगा।" कहने के साथ ही उधर से जनमोहन ने फोन बंद कर दिया था।

बजरंग टैक्सी में बैठा सोचों में डूबा रहा। खुद को बता रहा था कि वो डकैती जैसा काम करने को तैयार है। परन्तु रह-रहकर डर सामने आता तो वो डर को भगा देता। वो ये काम करेगा। करोड़ रुपया मिलेगा। शादी करेगा। घर बसायेगा और टैक्सी चलाना छोड़कर एक दुकान डाल लेगा। सब ठीक हो जायेगा।

तभी मंगल ठाकरे उसके पास आया।

"फोर्ट की सवारी है, ले जा।"

"मेरी तबीयत ठीक नहीं है।" बजरंग ने ठाकरे को देखा।

"क्या हुआ तेरी तबीयत को ?"

"पता नहीं, पर टैक्सी चलाने का मन नहीं है।"

"मन कैसे होगा।" ठाकरे ने मुंह बनाया--- "सुना है रात तूने और हरि ने खूब पी।" कहकर वो चला गया।

बजरंग कराड़े टैक्सी से बाहर निकला और नहाने की सोचने लगा। स्टैण्ड पर ही नहाने का इन्तजाम था। पानी था। दो दीवारें खड़ी करके नहाने का प्रोग्राम हो जाये। ये इन्तजाम कर रखा था।

■■■

जगमोहन उस पार्किंग में पहुंचा तो बजरंग कराड़े को टैक्सी के पास खड़े इन्तजार करते पाया। जगमोहन ने कार को उसकी टैक्सी के पास ले जाकर रोका और बाहर निकलकर, बजरंग के पास पहुंचा।

बजरंग कुछ घबराहट में दिख रहा था।

“मैं चाय लाता हूं।” वो बोला--- “तुम यहीं रहो, मैं यहीं ले आता हूं।" कहकर बजरंग चला गया।

जगमोहन के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी और लुप्त हो गई।

दस मिनट बाद ही दोनों वहीं खड़े थे। हाथों में चाय के गिलास थे। बजरंग कुछ नर्वस था।

"तुम-तुमने कल मेरी बात का बुरा तो नहीं माना।" बजरंग कराड़े बोला।

"किस बात का?"

"मैंने तुमसे सख्त शब्द कहे थे। मैंने---।"

"तुम मेरी बात सुनकर बौखला गये थे। ऐसा हो जाना मामूली बात है। मैं तुम्हारे पास शादी का न्यौता लेकर तो आया नहीं था जो तुम खुश होते। कल तुमने जो भी कहा, मैं उसी वक्त भूल गया। मैंने कल तुम्हें दोबारा फोन करना था।"

बजरंग कराड़े सिर हिलाकर रह गया। फिर बोला।

"मैंने कभी डकैती नहीं की।"

"कोई बात नहीं। डकैती तो देवराज चौहान करेगा ।" जगमोहन ने कहा।

"अगर पुलिस ने मुझे पकड़ लिया तो?"

"तुम्हारी किस्मत बहुत ज्यादा बुरी होगी तो तभी पुलिस तुम्हें पकड़ सकेगी। नहीं तो पुलिस को हवा भी नहीं लगेगी कि देवराज चौहान के अलावा ये काम किस-किसने किया है।" जगमोहन ने मुस्कराकर कहा।

"सच कहते हो।"

"हां।"

“एक करोड़ रुपया मिलेगा मुझे?"

"एक से भी ज्यादा। तुम ऐसी जगह पर होगे जहां करोड़ों रुपया होगा। जितना भरकर ले आओगे वो सब तुम्हारा होगा।"

बजरंग ने सूख रहे होठों पर जीभ फेरी। नज़रें जगमोहन पर थी।

"तुम मुझे अपने साथ इसलिये ले रहे हो कि मैं निशानेबाज़ हूं।"

"हां तुम जैसे आदमी की हमारी योजना में जरूरत है। तभी...।"

“क्या मुझे लोगों पर गोलियां चलानी होंगी?"

“नहीं।"

"तो फिर निशानेबाज़ को क्यों ले रहे---?"

"पता चल जायेगा।"

"मतलब कि मुझे किसी का खून नहीं करना पड़ेगा ?” बजरंग कराड़े बोला।

“देवराज चौहान कभी भी खून बहाकर पैसा हासिल नहीं करता। इस तरह हमने कभी किसी की जान नहीं ली। पूरे काम में किसी की भी जान नहीं जायेगी। इस बारे में तुम निश्चिंत रहो।" जगमोहन ने कहा।

सोच में डूबा बजरंग कराड़े जगमोहन को देखता रहा।

"तुम घबरा रहे हो?"

"हां, थोड़ा-बहुत तो---।"

“मुझ पर और देवराज चौहान पर भरोसा रखो। मैं पहले ही कह चुका हूं कि तुम्हारी किस्मत ज्यादा बुरी हुई तो मुसीबत तुम पर आयेगी। वैसे मुझे पूरा विश्वास है कि सब ठीक रहेगा। शंकाएं अपने दिमाग से निकाल दो। तुम्हारे लिए ये नया काम है। पहला काम है, परन्तु हमारा तो जैसे रोज का ही काम है। सब ठीक रहेगा।"

“भरोसा कर लूं तुम्हारी बात का?"

"पूरी तरह ।"

"डकैती कहां करनी है?"

"ये बातें मीटिंग के दौरान सबको बताई जायेगी।"

"मीटिंग कब होगी?"

“जल्दी ही। एक दिन पहले फोन करके वक्त और जगह बता दूंगा!"

“कितने लोग हैं इस काम में?"

“मीटिंग में देख लेना। तुम खुद को पक्का कर लो। जब पूरी तरह तैयार हो जाओ तो मुझे फोन कर देना।"

"मैं-मैं तैयार हूं।” बजरंग कराड़े पक्के स्वर में कह उठा।

■■■

महेश नागपाड़े, इकबाल एण्ड कम्पनी के सुरक्षा इन्तजामों का इंजीनियर था। अपने काम में वो पूरी तरह गम्भीर रहता था और विश्वासी आदमी था। महत्वपूर्ण सुरक्षा इन्तजामों की बागडोर उसके हाथों में ही रहती थी और कम्पनी के मालिक इकबाल साहब उस पर भरोसा करते थे। चौबिस की उम्र में उसने इकबाल एण्ड कम्पनी में नौकरी करनी शुरू की थी और अब बयालीस का हो चुका था। उसने कभी इकबाल साहब को या पार्टी को शिकायत का मौका नहीं दिया था। जिन बड़ी जगहों के सुरक्षा इन्तजाम उसके हाथ में थे उनमें से एक नैशनल बैंक भी था। दगशाही मैनशन की दूसरी मंजिल पर नैशनल बैंक का मुख्यालय (हैडक्वार्टर) था। वहां का मुख्यद्वार और भीतर मौजूद छोटे से वाल्ट की वो देखरेख करता था और हर सप्ताह जाकर सब कुछ चैक करता था। ये जिम्मेवारी वाला काम था और सालो से वो बाखूबी निभा रहा था। उसके नीचे तीन इंजीनियर काम करते थे जो उससे निर्देश लेकर, अन्य जगहों के सुरक्षा इन्तजामों को देखते थे। इकबाल साहब सप्ताह में तीन दिन ही ऑफिस आते थे। उन्होंने सब कुछ महेश नागपाड़े पर छोड़ रखा था और उसे तनख्वाह भी बढ़िया मिलती थी। कुल मिलाकर महेश नागपाड़े की जिन्दगी बहुत बढ़िया ढंग से चल रही थी। उसकी पत्नी और तीन बच्चे थे। सब बढ़िया चल रहा था।

इस वक्त शाम के साढ़े चार बज रहे थे और महेश नागपाड़े ज्योति जीवन इमारत की पांचवी मंजिल पर अपने ऑफिस में था। वो बहुत व्यस्त नज़र आ रहा था। आज इकबाल साहब भी ऑफिस आये थे और उससे स्वीटजरलैंड से मंगाये जा रहे सुरक्षा लॉक के बारे में बात करते रहे थे। जो कि एक नई कम्पनी के लिए मंगवाये जा रहे थे। स्वीटजरलैंड से मैसेज आ गया था कि लॉक्स तैयार हैं। भेज दें या आकर डिलीवरी लेंगे। परन्तु जिस कम्पनी में वो लॉक लगाने थे, वो जल्दी मचा रही थी। इकबाल साहब का कहना था कि स्वीटजरलैंड जाकर उन लॉक्स को हाथो-हाथ ले आना ठीक रहेगा और जो लेने जायेगा, वो लॉक्स का सिस्टम भी समझ लेगा।

महेश नागपाड़े ने अपने नीचे काम करने वाले इंजीनियर को अपने ऑफिस में बुलाया।

"कहिये सर ।" मानव कुमार नाम के इंजीनियर ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा ।

“बैठो। मैं तुम्हारा स्वीटजरलैंड जाने का प्रोग्राम बना रहा हूं।" महेश नागपाड़े मुस्कराकर बोला।

"वैरी गुड सर। पिछली बार स्वीटजरलैंड घूम नहीं पाया था। इस बार चार-पांच दिन तो---।"

“इस बार भी फौरन लौटना होगा। पीटर एण्ड कम्पनी से लॉक्स का बंडल लाना है। वो तैयार रखे हैं। उन्होंने भेजे तो दस दिन लग जायेंगे। यहां आते-आते तो तुम्हारा वीजा भी बना हुआ है स्वीटजरलैंड का। मैं अभी प्लेन में सीट बुक कराता हूं। मोहित से पूछ लेना कि कब की सीट बुक हुई है। अब घर जाकर सामान बांध लो। फौरन ही वापसी की टिकट भी बुक होगी।"

"ये तो ज्यादती है सर। स्वीटजरलैंड भी घूमने नहीं देते।" मानव कुमार ने गहरी सांस ली।

"तुम्हारी शादी कब की है?"

"डेढ़ महीना बाकी है सर।"

"शादी के बाद अपनी पत्नी के साथ स्वीटजरलैंड जाना। कोई मौका निकाल लूंगा तुम्हारे लिए।"

"ओह, थैंक्यू सर ।" कहने के साथ ही मानव कुमार चला गया।

महेश नागपाड़े ने दीवार पर लगी घड़ी में वक्त देखा। आज उसने जल्दी जाना था। उसके बेटे के बाहरवीं के पेपर चल रहे थे। वो ट्यूशन से आने वाला होगा और घर जाकर उसने बेटे को पढ़ाना था। उसने इन्टरकॉम पर मोहित से बात की।

"मोहित। मुझे जरूरी काम से जाना है। तुम मानव के लिए स्वीटजरलैण्ड की रिटर्न टिकट बुक कराओ। वापसी फौरन चाहिये। प्लेन के बारे में मानव को बता देना। रात की फ्लाइट हो जाये तो ज्यादा ठीक रहेगा।"

इन सब काम से निपटकर महेश नागपाड़े ने अपना ब्रीफकेस उठाया और बाहर निकल आया। ऑफिस के चौकीदार से कह दिया कि वो आज वापस नहीं लौटेगा। शाम को ठीक से ऑफिस बंद कर दे। उसके बाद लिफ्ट के नीचे आया और ग्राऊंड फ्लोर से बाहर निकलता चला गया। बाहर तीखी धूप थी। गर्मी का एहसास हुआ वो पार्किंग की तरफ बढ़ गया। अपने ही काम की सोचों में उलझा वो अपनी कार तक पहुंचा तो बगल वाली कार के पास दो लोगों को खड़े बातें करते देखा। वो सोहनलाल और हरीश खुदे थे। उन्होंने महेश नागपाड़े को देखा। महेश नागपाड़े ने अपनी कार खोली और भीतर बैठ गया। तभी हरीश खुदे ने तेजी से पीछे वाला दरवाजा खोला और भीतर बैठकर दरवाजा बंद कर लिया।

महेश नागपाड़े चौंककर पीछे को घूमा ।

“ऐ, ये क्या कर रहे हो। कार से बाहर निकलो।" नागपाड़े ने तेज स्वर में कहा।

हरीश खुदे रिवॉल्वर निकाल चुका था और उसे दिखाकर बोला।

"चुपचाप बैठे रहो। हम तुम्हारा ही इन्तज़ार कर रहे थे।"

रिवॉल्वर देखकर महेश नागपाड़े के होश गुम हो गये। उसी पल कार के आगे का दूसरी तरफ का दरवाजा खुला और सोहनलाल भीतर आ बैठा।

नागपाड़े ने सोहनलाल को देखा ।

“क... कौन हो तुम लोग?" नागपाड़े घबराया-सा कह उठा।

पीछे बैठे खुदे ने रिवॉल्वर की नाल उसके कंधे पर ठकठकाई और बोला ।

"कार स्टार्ट कर और चल यहां से।"

"लेकिन तुम लोग कौन।"

"यहां से चल, पता चल जायेगा।"

“मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं। ये कार लेना चाहते हो तो?"

“हमें ना पैसा चाहिये, ना कार।" सोहनलाल बोला--- “कुछ और बात है।"

"क्या बात?"

तभी हरीश खुदे गुर्रा उठा ।

"तेरे को सुना नहीं चल यहां से। सब कुछ अभी जानना है तुझे क्या ?"

घबराये से नागपाड़े ने कार स्टार्ट की और पार्किंग से निकालकर सड़क पर ले आया।

"सीधा चलता रह।” खुदे ने कठोर स्वर में कहा--- "रास्ता हम बताते रहेंगे किधर जाना है।"

"तु-तुम लोग चाहते क्या...।"

“जुबान बंद रख और कार चला।" खुदे ने दांत भींचकर कहा।

महेश नागपाड़े के चेहरे पर घबराहट नाच रही थी।

सोहनलाल ने देवराज चौहान को फोन करके कहा।

“नागपाड़े हमारे साथ हैं। हम आधे घंटे में पहुंच रहे हैं।"

ये सुनकर नागपाड़े और भी घबरा गया। परन्तु कहा कुछ नहीं। सोहनलाल पर नज़र मारकर रह गया। उसके कान सोहनलाल की बातों पर थे। वो कह रहा था।

"उसने कुछ बताया?" चंद पल चुप रहकर सोहनलाल ने कहा--- "गोली मार दी। ठीक किया।" कहकर सोहनलाल ने फोन बंद किया और वापस जेब में रख लिया और गोली वाली सिग्रेट निकालकर सुलगाने लगा।

“क... किसे गोली मार दी ?" उस महेश नागपाड़े ने हड़बड़ा कर पूछा।

"तुम उसे जानते हो।" सोहनलाल ने कहा।

"किसे?"

"दगशाही मैनशन में नैशनल बैंक का हैडक्वार्टर है उसमें जो सिक्योरिटी इंचार्ज दयाशंकर है, उसकी बात कर रहे थे।"

"तुम तुम लोगों ने दयाशंकर को मार दिया ।" महेश नागपाड़े हड़बड़ाकर बोला।

"हां।"

"उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा...।"

"कुछ तो बिगाड़ा ही होगा।" सोहनलाल ने महेश नागपाड़े को घूरा।

"म... मुझसे क्या चाहते हो?"

"अभी तुमसे भी बात करेंगे। तुमने हमारी बात नहीं मानी तो तुम्हारा हाल भी दयाशंकर की तरह होगा।"

"क... कैसी बात?"

"अबे ठीक से कार चला।” खुदे पीछे से उसके कान के पास गुर्रा उठा--- "ऐक्सीडेंट मारेगा क्या ।"

नागपाड़े ने कार संभालते हुए सोहनलाल से कहा।

"किस बात की, बात कर रहे हो तुम?"

"वहीं चल रहे हैं। दयाशंकर की लाश भी देख लेना और काम की बात भी हो जायेगी। आज या तो तू जिन्दा बच जायेगा या फिर मर जायेगा। हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है दो बार पूछते हैं और तीसरी बार गोली ठोक देते हैं। देवराज चौहान तो वैसे भी गुस्से वाला है। क्या पता वो एक ही बार पूछे और गोली मार दे।"

"देवराज चौहान? ये कौन है?" नागपाड़े के होंठों से निकला।

"हमारा बॉस है।"

"व-वो मेरे से क्या पूछेगा ?" नागपाड़े घबरा चुका था।

"जो दयाशंकर से पूछा था।"

"क्या ?"

"मैं नहीं बता सकता। बॉस ही तेरे से बात करेगा। उसने तो हमें कहा था कि महेश नागपाड़े को कुत्ते की तरह घसीटते हुए उसके पास ले जाओ। पर ये हमारी शराफत है कि हम तेरे को घसीट नहीं रहे।" सोहनलाल की आवाज में कठोरता थी।

तभी पीछे मौजूद खुदे उसके सिर से रिवॉल्वर की नाल लगाता गुर्राया ।

"कान खोल कर...।"

"ये रिवॉल्वर हटा लो। नहीं तो मैं रास्ते में ही मर जाऊंगा।" नागपाड़े ने घबराकर कहा।

"हटा लूं?"

"प्लीज़।"

खुदे ने उसके सिर से रिवॉल्वर की नाल हटा ली ।

"अब चैन मिला ?"

"हां।" नागपाड़े ने गहरी सांस ली।

"कान खोलकर सुन ले। मेरा काम रूकना नहीं चाहिये। ये सब कुछ मेरे लिए हो रहा है और मैं।"

“क्या तुम्हारे लिए हो रहा है?"

"जो अब हो रहा है।"

"मुझे बताओ कि क्या हो रहा है।" नागपाड़े ने खुश्क स्वर में कहा।

"वो तेरे को बॉस बतायेगा। बस इतना ध्यान रखना कि मेरा काम रुकना नहीं चाहिये। बॉस तेरे से जो पूछे, फौरन बता देना। मेरा काम होते रहना चाहिये। नहीं तो तेरी खैर नहीं।" खुदे ने खतरनाक स्वर में कहा--- "तेरा परिवार है। खार में घर है तेरा। पहली मंजिल का फ्लैट गुलाबी रंग का पेंट कर रखा है दीवारों पर। तेरी पत्नी का नाम विम्मी है। तीन बच्चे हैं। राजू, शंकर और नेहा। तीनों ही स्कूल जाते हैं। सुबह तू उन्हें कार में छोड़ने जाता है और दोपहर को विम्मी उन्हें स्कूल से लेने जाती है।"

महेश नागपाड़े की जैसी सांसें रुकती सी महसूस हुई।

"तुम लोग मेरे परिवार के बारे में कैसे जानते हो।"

"कई दिन से तुम्हारे परिवार पर नजर रख रहे हैं। हम बहुत खतरनाक लोग हैं तू अभी हमें जानता नहीं। मालूम है तेरे को तेरे परिवार के बारे में बताने का क्या मतलब था नहीं जानता तो बताऊं क्या?"

"क...क्या?"

"अगर तुमने बॉस की बात नहीं मानी तो तेरे परिवार को भी उठा लायेंगे उन सब को भी मार। बॉस तो वैसे ही पागल है। हम खुद उससे परेशान है। पर क्या करें उसके बिना हमारा काम भी नहीं चलता। वो...।"

"त-तुम लोग मेरे परिवार को कुछ नहीं कहोगे। जो जो बात हो मुझसे करना।" नागपाड़े हांफ उठा।

"पता नहीं अब क्या होने वाला है। दयाशंकर को तो मार दिया। अब तू ज़िन्दा रहता है या नहीं, देखना है। बॉस तो कह रहा था कि तेरे परिवार को भी घसीट कर लाया जाये, परन्तु हमने सोचा एक बार तेरे से बात कर।"

"लेकिन बात क्या है?" नागपाड़े घबराकर खीज उठा ।

"वो बॉस बतायेंगे पर तेरे को पहले बता देता हूं कि मेरा काम बिगाड़ना नहीं। ये सारा काम बॉस मेरे लिए कर रहा है। इस मौके का इन्तजार मुझे कब से था। बॉस तेरे से जो भी पूछे तुरन्त हां कर देना। इसी में तेरी भलाई है और मेरा काम भी हो जायेगा। नहीं तो मरने के बजाय ये बात याद रखना कि तेरा परिवार भी, तेरे पास ऊपर, पीछे-पीछे आ रहा।"

"आखिर मैंने किया क्या है जो ।"

"अभी चुप रह। मैं ज्यादा कह गया। बाकी बात तेरे से बॉस करेगा। आगे से बाईं तरफ मोड़ लें। आज सुबह तूने किसकी सूरत देखी थी जो तेरा दिन इतना बुरा होने वाला है। शायद आज ही तेरे को मरना पड़े।"

"मैंने किया क्या है?" नागपाड़े की आंखें भर आई घबराहट से ।

“ठीक तरह कार चला, थोड़ी देर में हम बॉस के पास पहुंच जायेंगे।" खुदे ने नाल से उसका कंधा ठकठका कर कहा ।

■■■

देवराज चौहान और जगमोहन इस वक्त सुनसान जगह पर मौजूद थे। ये ऐसी वीरान जगह थी जहां कोई नहीं आता था। जगह-जगह सूखे पेड़ खड़े नजर आ रहे थे। किसी-किसी पेड़ पर ही पत्ते थे नहीं तो वो गंजे और सूखे हुए थे। जमीन पर पेड़ों की पत्तियों बिखरी हुई थी। एक टूटी-सी, पतली सड़क इस तरफ से निकलती थी जो कि आगे जाकर बंद थी। आसपास झाड़ियां भी फैली थी। जगमोहन कमीज-पैंट में था, परन्तु इस वक्त उसने अपना हाल बुरा कर रखा था। पीठ की तरफ से कमीज पर तीन छेद नजर आ रहे थे। और सारी कमीज खून से रंगी पड़ी थी। एक नज़र देखने में ऐसा लगता था। जैसे उसे गोलियां लगी हों, परन्तु ऐसा कुछ नहीं था। ये सब तो महेश नागपाड़े को दिखाने के लिए ड्रामा रचा था। देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा कर कश लिया। उसकी नजर उस टूटी-फूटी सड़क की तरफ बार-बार आ रही थी।

“वो आ गये।" एकाएक देवराज चौहान ने दूर से आती कार को देखा।

जगमोहन फौरन पीछे हटा और जमीन पर पेट के बल ऐसे गिर गया जैसे उसे गोलियां मारी गई हो। चेहरा नहीं दिख रहा है।

पीठ की तरफ से खून से रंगी कमीज और तीन गोलियों के छेद दिख रहे थे।

कार को करीब आते पाकर देवराज चौहान ने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली।

कार सामने आकर रुकी।

खुदे सबसे पहले बाहर निकला फिर सोहनलाल और खुदे ने नागपाड़े की तरफ का दरवाजा खोलकर, उसे बांह से पकड़कर बाहर निकाला। महेश नागपाड़े बुरी तरह डरा हुआ था। चेहरा फक्क था। उसने देवराज चौहान को देखा। देवराज चौहान खतरनाक निगाहों से उसे ही देख रहा था। सोहनलाल फौरन देवराज चौहान के पास आकर इस तरह खड़ा हो गया जैसे मालिक के पास कुत्ता आकर दुम दबा लेता है।

“चल ।” खुदे ने नागपाड़े को धक्का दिया--- “बॉस को सलाम कर।"

नागपाड़े कांपती टांगों से आगे बढ़ा।

“इसका परिवार कहां है।” देवराज चौहान गुर्राया--- "इसकी पत्नी और तीनों बच्चे....।"

“उन्हें भी मैं अभी ले आता हूं बॉस।” हरीश खुदे ने कहा--- "मैंने सोचा पहले इससे बात कर ली जाये। शायद ये मान जाये। नहीं माना तो इसे गोली मारकर, उन्हें उनके घर पर ही शूट कर देंगे।”

महेश नागपाड़े का चेहरा पीला पड़ चुका था।

"सलाम कर बॉस को ।” खुदे ने डांट भरे लहजे में कहा।

"सलाम बॉस!" नागपाड़े घबराया-सा कह उठा। देवराज चौहान को देखकर उसे डर लग रहा था। तभी उसकी निगाह कुछ दूर जमीन पर पड़े जगमोहन पर पड़ी। चेहरा तो नज़र नहीं आ रहा था। परन्तु उसकी जानकारी में वो नेशनल बैंक के हैडक्वार्टर का सिक्योरिटी इंचार्ज दयाशंकर था। उस लाश को देखते ही जैसे उसके होश उड़ गये।

“ये महेश नागपाड़े है?" देवराज चौहान गुर्राया ।

“हां बॉस ।" पास खड़ा सोहनलाल हाथ बांधे कह उठा।

नागपाड़े की निगाह बार-बार लाश बने जगमोहन की तरफ उठ रही थी।

"देखता क्या है वो दयाशंकर है।" खुदे बोला--- "जा, पास जाकर उसके गले मिल ले। पर फिक्र मत कर। तूने बॉस की बात नहीं मानी तो तू भी अभी उसके पास पहुंच जायेगा। हुक्म करें बॉस।"

"वो ब्रीफकेस ला।" देवराज चौहान ने कुछ दूर रखे ब्रीफकेस की तरफ इशारा किया।

खुदे दौड़ा-दौड़ा गया और ब्रीफकेस ले आया।

"दिखा इसे।" देवराज चौहान गुर्राया।

खुदे ने तुरन्त ब्रीफकेस खोला और नागपाड़े के सामने कर दिया।

ब्रीफकेस में हजार-हजार के नोटों की गड्डियां भरी थी।

"ये देख नागपाड़े। ये बीस लाख हैं। ये ही नोट दयाशंकर को भी दिखाये थे, पर उसकी समझ में बात नहीं आई और बॉस ने गोली मार दी। बॉस जब किसी को नोट दिखाता है तो इसका मतलब होता है वो प्यार से बात कर रहा है। ये बॉस का अंदाज है प्यार जताने का। बॉस को जब अपनी बीवी के ऊपर भी प्यार आता है। तो उसे सौ-पांच सौ या हजार का नोट देता है।"

नागपाड़े ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर नोटों को देखा। उस दयाशंकर की लाश पर नज़र मारी।

"इससे पूछ ये बीस लाख लेना चाहता है?" देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा।

“सुना बॉस ने क्या कहा, हां कह दे बेवकूफ, जान बच जायेगी। नहीं तो गोली...।"

“हां... हां...।" नागपाड़े घबराकर कह उठा ।

"बॉस इसने बीस लाख ले लिया।" खुदे ने गम्भीर स्वर में कहा--- "ये अब आपकी बात का जवाब देगा।"

“क...क... कौन-सी बात का जवाब?" नागपाड़े के होंठों से निकला।

“चुप। बीच में मत बोल। बस, बॉस जो पूछे, उसका जवाब फटाफट देते जाना। पूछिये बॉस।"

देवराज चौहान आगे बढ़ा और हाथ में दबा रखी रिवॉल्वर की नाल, नागपाड़े की छाती पर रख दी।

नागपाड़े सिर से पांव तक कांप उठा।

"म-मुझे मत मारो---मैं-मैं...।"

"अभी गोली नहीं चला रहे बेवकूफ। बॉस तेरा मुआयना कर रहे हैं। ऐसा करके वो तय करते हैं कि अगर गोली मारनी पड़े तो शरीर के कौन से हिस्से में मारें।" खुदे उसे तसल्ली देने वाले स्वर में कह उठा।

देवराज चौहान, नागपाड़े से तीन कदम पीछे हटता गया।

इतने में ही नागपाड़े की हालत बुरी हो गई।

सोहनलाल हाथ बांधे खामोश खड़ा था।

"मुआयना हो गया बॉस।” खुदे ने पूछा।

“हाँ।" देवराज चौहान गुर्राया--- "इसके ठीक दिल वाले हिस्से पर गोली मारूंगा।"

"सिर में नहीं बॉस ।"

“सिर में बाद में। जब इससे मर जायेगा। पहले दिल वाले हिस्से पर ।"

"मुझे क्यों मार रहे हो।" नागपाड़े की आंखों में आंसू आ गये--- “मैंने किसी का क्या बिगाड़ा...।"

"चुप। अभी बॉस तेरे से खुश है। तेरे को बीस लाख दिए हैं। अभी नहीं मार रहे हैं। अभी तो बॉस सिर्फ सोच रहे हैं।" फिर खुदे देवराज से बोला--- "जो पूछना है, पूछ लो बॉस। शाम हो रही है। अभी इसके परिवार को भी खत्म करना पड़ सकता है। उसमें भी दो घंटे तो लग ही जायेंगे और रात को मैंने पीनी भी है। कल की बोतल बची पड़ी है। पहले गोली मारेंगे या पूछेंगे ?"

“मुझे क्यों मारने जा रहे...।"

"पूछूंगा पहले ।” देवराज चौहान ने दरिन्दगी से कहा।

"बच गया तू। बॉस तेरे को बाद में गोली मारेंगे, अगर तू सही नहीं बोला तो। पूछो बॉस।"

देवराज चौहान ने खतरनाक अन्दाज में, नागपाड़े की आंखों में झांका।

नागपाड़े जैसे थर्रा उठा ।

“नैशनल बैंक के हैडक्वार्टर, दगशाही मैनशन की दूसरी मंजिल पर तू सिक्योरिटी देता है।" देवराज चौहान गुर्राया ।

"हां, कम्पनी ने मुझे नियुक्त कर---।"

"स्टोरी मत सुना।” खुदे बोला--- “हां-ना में जवाब दे। बॉस फालतू की बात नहीं सुनता।"

"ह... हां।" नागपाड़े ने फक्क स्वर में कहा।

"तेरे को सब पता है कि बैंक में कैसी सिक्योरिटी है और उसे कैसे खोलना है।"

"हां-हां।"

"उधर में एक स्ट्रांग रूम भी है।"

"स्ट्रांग रूम? नहीं। छो-छोटा वाल्ट है।"

"वो ही, वो ही, तेरे को उधर की सब सिक्योरिटी ही पता है?"

नागपाड़े ने सिर हिला दिया।

“अबे मुंह से बोल, गोली लग जायेगी ।"

"ह-हां। मुझे सब पता है।" नागपाड़े ने सूखे स्वर में कहा।

"ये कहता है इसे सब पता है बॉस। दयाशंकर तो कहता था उसे नहीं मालूम तभी तो गोली खा गया।"

"दयाशंकर को सच में नहीं मालूम था।" नागपाड़े बोला ।

"चुप। बॉस के सामने फालतू मत बोला कर।" फिर खुदे ने देवराज चौहान से कहा--- "बच्चा है बॉस, अभी आपको जानता नहीं।"

“दूसरी मंजिल के प्रवेश दरवाजे को खोलने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है?" देवराज चौहान गुर्राया ।

“व... वहां चाबी लगाकर उसे घुमाने के बाद, कम्बीनेशन नम्बर मिलाना...।"

"कम्बीनेशन नम्बर क्या है?" देवराज चौहान ने दांत भींचकर पूछा।

“क्या?" नागपाड़े हक्का-बक्का रह गया--- "ये तो सीक्रेट है। किसी को नहीं बता सकता।”

तभी देवराज चौहान ने रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा किया।

“मर जायेगा। बॉस गोली चलाने जा रहे हैं, बता दे।” खुदे चीखा।

"2-2-9-8-9-1।” नागपाड़े के होंठों से निकल गया।

"बता दिया बॉस अब गोली मत चलाना ।” खुदे चीखा।

देवराज चौहान ने रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे कर लिया।

नागपाड़े मुंह खोले गहरी-गहरी सांसें लेने लगा।

“उसके बाद क्या करना पड़ता है?" देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली।

नागपाड़े, देवराज चौहान को देखने लगा।

"देख क्या रहा है, गोली चल जायेगी।"

"क्या करूं?" नागपाड़े की समझ में जैसे कुछ नहीं आया।

"कम्बीनेशन नम्बर मिलाने के बाद क्या करना पड़ता है।"

“वहां, दीवार पर 0 से 9 तक बटन लगे हुए हैं उनमें से कुछ बटन दबाने पड़ते।"

"कुछ का नाम नहीं होता, बता क्या-क्या नम्बर दबाना होता है, गोली मत चलाना बॉस, ये बता देगा।" खुदे ने देवराज चौहान की तरफ इस तरह हाथ किया, जैसे वो गोली चलाने जा रहा हो।

"4-8-6-1।" नागपाड़े कह उठा।

“खुल गया बॉस। हम बैंक के अन्दर चले गये।" खुदे ने कहा--- "अब वाल्ट किधर है, उसे भी तो खोलना है।"

"वाल्ट ।” महेश नागपाड़े ने खुदे को देखा।

“वो भी तो खोलना है। बॉस पूछो इससे।” खुदे ने नागपाड़े की तरफ उंगली करके कहा।

“नहीं। मैं वाल्ट के बारे में नहीं बता सकता।” नागपाड़े एकाएक तेज स्वर में बोला।

"सुना बॉस। ये कहता है वाल्ट के बारे में नहीं बतायेगा। गोली मार दो। शूट बॉस... फौरन ।”

देवराज चौहान ने खतरनाक अन्दाज में रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा किया। नागपाड़े की तरफ ।

“दिल पर मारना बॉस । जब मर जायेगा तो सिर पर। ऐसा ही आपने कहा था।" खुदे चिल्लाया।

महेश नागपाड़े का चेहरा फक्क पड़ गया। आंखों में मौत का खौफ उभरा।

“आप गोली मारो बॉस।” खुदे पलटता हुआ कह उठा--- "मैं इसकी पत्नी विम्मी और तीनों बच्चों को मार के आता...।”

"नहीं।" नागपाड़े के शरीर में सिरहन दौड़ी--- "उन्हें मत मारना। मुझे भी मत मारो ठहरो, मैं वाल्ट के बारे में बताता।"

"बता रहा है बॉस, क्या मैं रुक जाऊं?” खुदे ठिठका पलटा ।

"वाल्ट के बारे में बता रहा है?" देवराज चौहान गुर्राया ।

"हां-हां। पर तुम मुझे और मेरे परिवार को नहीं मारोगे ।" नागपाड़े की आवाज कांप रही थी।

"तेरे को बीस लाख दे रहे हैं कि तू अपने परिवार के साथ मौज करे।” खुदे ने कहा--- “तू बतायेगा तो फिर क्यों मारेंगे?"

"मैं-मैं बता दूंगा।”

देवराज चौहान ने रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे किया और गुर्राकर सोहनलाल से बोला ।

“तू पूछ।”

“बॉस फालतू बात नहीं करते।" खुदे बोला--- “वो सिर्फ गोली मारने का काम करते हैं।"

सोहनलाल, थर-थर कांपते नागपाड़े के पास पहुंचा।

"वाल्ट कैसे खुलता है?"

"वो छोटा वाल्ट है। 18 बाई 18 का स्टील का कमरा है।" नागपाड़े लड़खड़ाते स्वर में कह उठा--- "मैंने अपनी देख-रेख में तैयार करवाया है। वो खास तरह का स्टील है। उस पर बारूद का भी असर नहीं होता।" नागपाड़े ने कहकर लम्बी सांस ली।

"बता रहा है बॉस। ये दयाशंकर की तरह बेवकूफ नहीं है।" खुदे बोल पड़ा।

"उसके दरवाजे को 6-1-6-8-8-9 पर सैट करके हर नम्बर का लॉक खोलना पड़ता है तो दरवाजा खुल जाता है। उस पर कोई चाबी नहीं लगती। नम्बर मालूम न हो तो उसे खोलना कठिन है।" नागपाड़े हांफ रहा था।

"जो नम्बर तूने बताये हैं, उन्हीं पर छोटे वाल्ट का दरवाजा खुलता है?" सोहनलाल ने शांत स्वर में पूछा।

"हां।"

“उन नम्बरों को सैट कौन करता है?"

"म-मैं।"

" हमेशा एक ही नम्बर रहते हैं?"

"नहीं। सुरक्षा के नाते हर सप्ताह नम्बरों को बदला जाता है।" नागपाड़े का गला सूख रहा था।

सोहनलाल, देवराज चौहान की तरफ देखकर बोला।

"कोई फायदा नहीं। तुम इसे गोली मार सकते हो बॉस।"

“अब मैंने क्या किया है।" नागपाड़े चीख उठा।

"अबे बॉस के सामने आवाज नीची रख।"

“क्या हुआ?" देवराज चौहान गुर्राया ।

“ये वापस जाकर कम्बीनेशन नम्बर बदल देगा। सब कुछ इसके हाथ में है। इस छोटे वाल्ट का कम्बीनेशन नम्बर ये हर सप्ताह बदल देता है। जब हम वहां वाल्ट को लूटने पहुंचेंगे तो नम्बर बदला होगा और हमारे बारे में पुलिस को भी खबर कर देगा। इसके जिन्दा रहने का हमें कोई फायदा नहीं होगा।" सोहनलाल ने कहा।

"तो क्या करूं?" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।

"इसे गोली मार दो।"

"नहीं, मत मारो।" नागपाड़े चीखा--- "तुम लोग जो कहोगे, मैं वहीं करूंगा।"

"बॉस ये हमारा आदमी बनने को तैयार है।” खुदे कह उठा।

“बाद में चालाकी कर गया तो ?” सोहनलाल ने खुदे से कहा।

“इसके बारे में तो बॉस ही कुछ कहेंगे।” खुदे ने देवराज चौहान को देखा।

तभी नागपाड़े की निगाह जगमोहन पर पड़ी।

तब उसने जगमोहन को थोड़ा हिलते देखा था।

"वो जिन्दा है।" नागपाड़े जल्दी से चीख उठा।

सबकी निगाह जगमोहन पर पड़ी।

जगमोहन का शरीर शांत औंधे मुंह पड़ा था।

“मरा हुआ इन्सान कभी नहीं हिल सकता।” खुदे बोला--- "वो ढाई घंटे से मरा पड़ा है।"

“म-मैंने उसे हिलते देखा था।"

"तेरी आंखों को भ्रम हुआ है बेटे। जब तू मरेगा तो तू भी इसी तरह हिलेगा। लाश कभी-कभी हिलती है। उसमें अकड़ाहट आ जाती है तो ऐसा लगता है जैसे लाश हिली हो।” खुदे बोला--- “अब तेरा भी काम होने वाला है दयाशंकर की तरह।"

“मुझे मत मारना। तुम लोग जो कहोगे, मैं वो ही करने को तैयार हूं।" नागपाड़े हाथ जोड़कर कह उठा।

"बात करो बॉस।" खुदे ने कहा--- "मुझे तो लगता है चालाकी कर रहा है हमारे साथ ।"

"नहीं-नहीं। मैं सच कह रहा हूं।"

चंद पल शान्ति रही।

देवराज चौहान भस्म कर देने वाली निगाहों से नागपाड़े को देख रहा था। एकाएक वो आगे बढ़ा और रिवॉल्वर वाला हाथ उठाकर नाल, नागपाड़े के ठीक दिल वाले हिस्से पर रख दी।

नागपाड़े सिर से पांव तक कांप उठा। चेहरा जर्द पड़ गया।

"प्लीज़। मुझे मत मारना। मेरा परिवार है, मैं... मैं...।"

"हम वो स्ट्रांग रूम लूटने वाले हैं। तू मेरा साथ देगा।" देवराज चौहान गुर्राया ।

"ह... हां... दूंगा।"

"यहां से छूटते ही तूने चालाकी की तो...?"

"मैं-मैं कोई चालाकी नहीं करूंगा।" नागपाड़े थरथरा रहा था।

"अगर चालाकी करे तो हम तेरे परिवार को मार दें। ठीक ?" देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी के भाव थे।

नागपाड़े के होंठों से बोल नहीं फूटा ।

"बोल तू बोलेगा तो तभी तेरे परिवार को खत्म करेंगे बोल।" देवराज चौहान गुर्राया ।

“म... मैं कोई चालाकी करूं तो मेरे परिवार को मार देना।" नागपाड़े की आवाज थरथरा रही थी।

"बचेगा तो तू भी नहीं।" खुदे कह उठा।

“ठीक है।" देवराज चौहान ने रिवॉल्वर की नाल उसके दिल वाले हिस्से पर ठकठकाई और पीछे हटता बोला--- "तेरी बात का भरोसा किया। अगर तूने हमसे चालाकी की तो तेरा परिवार उसी वक्त खत्म। तू सुन।" देवराज चौहान ने खुदे से कहा--- "अभी से गंजे और मेमन को उसके परिवार की निगरानी पर लगा दे। दोनों से कहना कि हमारे अगले आदेश का इन्तजार करें। जब हम कहें तभी उन्हें मारना है। उससे पहले नहीं। अभी बोल दे दोनों को और उसके घर का पता बता देना ।"

"ओ.के. बॉस।” खुदे ने कहा और जेब से फोन निकालता, वहां से कुछ दूर चला गया।

नागपाड़े की हालत देखते ही बनती थी। वो जल्दी से खुदे की तरफ पलट कर चिल्लाया।

“उन्हे अभी मारने को मत कह देना। मैं तुम लोगों की बात मान रहा हूं।"

"जब तक मेरा आर्डर नहीं होगा, तेरा परिवार नहीं मरेगा।" देवराज चौहान ने गुर्राकर कहा--- "तेरा परिवार तभी मरेगा जब तू हमसे चालाकी करेगा। समझ गया ना। तेरे परिवार की जान तेरे हाथ में है। है। पुलिस भी तेरे को, तेरे परिवार को नहीं बचा सकती। सिर्फ हम ही बचा सकते हैं। तुझे और तेरे परिवार को। हमसे झूठ बोलेगा तो तू ।”

“मैं झूठ नहीं कह रहा। तुम लोग जो कहोगे, वो ही करूंगा।" नागपाड़े हाथ जोड़कर बोला। आंखों में आंसू आ गये।

"अपनी और अपने परिवार की चिन्ता है तो हमसे गद्दारी नहीं करेगा तू। सुन अब। सब काम वैसे ही करता रह, जैसे कर रहा है। सप्ताह में एक बार कम्बीनेशन नम्बर बदलता है तो बदलता रह और हम फोन करेंगे, तू वो नये नम्बर हमें बता देना। नम्बर बदलने का कोई दिन तय होता है या कभी भी...।"

"सोमवार... सोमवार को।" नागपाड़े जल्दी से बोला ।

"तो हर सोमवार दोपहर को तेरे से फोन करके, नम्बर पूछ लेंगे।" देवराज चौहान गुर्राया--- "जहां तूने गड़बड़ की, मिनटों में तेरा परिवार खत्म हो जायेगा।"

नागपाड़े ने सहमति से सिर हिलाया।

"और दयाशंकर के मरने की बात तू किसी से नहीं करेगा। अभी दयाशंकर छुट्टी पर है पन्द्रह दिन की। किसी को पता नहीं चलेगा कि वो मर गया है। जा अब, अपनी कार ले और निकल जा। हमारी नज़र तेरे पर... ।"

तभी खुदे पास आता कह उठा ।

“बॉस। मैंने गंजे और मेमन को इसके घर भेज दिया है। घंटे भर में वो वहां होंगे और इसके परिवार पर नज़र रखेंगे। उन्हें सब समझा दिया है कि अभी नज़र रखनी है, मारना नहीं।"

नागपाड़े की हालत बुरी हो रही थी।

“चल।” देवराज चौहान गुर्राया--- “अब निकल ले तू ।”

“तुम लोगों ने छोटे वाल्ट में डकैती की तो पुलिस मुझे भी लपेटे में ले लेगी।” नागपाड़े रो देने वाले स्वर में बोला--- "क्योंकि बैंक के ऑफिसरों के अलावा मैं भी तो वॉल्ट के नम्बर जानता हूं। वो।"

"चिन्ता मत कर।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर बोला--- “बात तेरे पर नहीं आयेगी। हम कम्बीनेशन लॉक की ऐसी हालत कर देंगे कि पुलिस समझ नहीं सकेगी कि दरवाजे को किस प्रकार से खोला गया है।"

नागपाड़े ने सिर हिलाया ।

"जा, निकल जा। मैं तेरे को फोन करूंगा। अपना नम्बर दें जा।"

खुदे ने नागपाड़े का नम्बर लिया फिर नागपाड़े ब्रीफकेस के साथ कार लेकर चला गया।

नीचे पड़ा जगमोहन उठ खड़ा हुआ। वहां का माहौल गम्भीर था ।

"नागपाड़े हमारा साथ देगा देवराज चौहान ?” खुदे ने गहरी सांस लेकर पूछा।

“वो बहुत डर गया है।" देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब में रखी--  "मेरे ख्याल में हमारी बात मानेगा।"

"मेरा भी ये ही ख्याल है।" सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा--- “वो साथ देगा। नागपाड़े को ये नहीं बताना है कि हमने किस दिन काम करना है। उसे खबरों से ही पता लगाना चाहिये कि उस बैंक के वाल्ट का काम हो गया।"

"ऐसा क्यों?" खुदे ने पूछा।

"अगर वो ऐन मौके पर गड़बड़ करने की सोचे तो ऐसा ना कर सके और हम फंस ना सकें।"

"मैं सब बातें सुन रहा था।" जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अभी तो नागपाड़े सीधा था और सच में हमारा साथ देने को कह रहा था। परन्तु बाद में उसके विचार ना बदले, इसके लिए उसे दिन में दो फोन करके हमें अपनी मौजूदगी का एहसास कराते रहना होगा। जब तक डर उस पर सवार रहेगा, वो हमारी बात मानेगा।"

"ये ठीक कहा।" देवराज चौहान बोला--- "मैं ऐसा ही करूंगा।"

“कार ला सोहनलाल ।" देवराज चौहान ने कहा और सिग्रेट सुलगा ली।

सोहनलाल, कुछ दूर खड़ी कर रखी कार लेने चला गया।

"हमें नागपाड़े पर नज़र भी रखनी होगी कि कहीं वो पुलिस के पास ना चला जाये।" देवराज चौहान बोला--- “अगर वो कल तक पुलिस के पास नहीं गया तो फिर वो बाद में भी पुलिस के पास नहीं जायेगा। खुदे तुम नागपाड़े पर नज़र रखो।"

"ठीक है।" मैं सीधा नागपाड़े के घर की तरफ निकल जाता हूं।" खुदे बोला--- “वैसे हमारी डकैती कब तक शुरू होगी ?”

"चार या पांच दिन लगेंगे।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

सोहनलाल कार ले आया।

जगमोहन ने पहनी हुई कमीज बनियान उतारकर झाड़ियों में फेंकी और कार से नई कमीज निकालकर पहनी फिर वे साथ कार में बैठे और वहां से चल पड़े, सोहनलाल कार ड्राइव कर रहा था।

"मुझे ऐसी जगह उतार देना, जहां से टैक्सी मिल सके।” खुदे ने कहा--- "मैंने नागपाड़े पर नज़र रखी है। वो जरूर घर ही गया होगा।"

“पुलिस स्टेशन भी जा सकता है।" सोहनलाल बोला।

“वो बहुत डरा हुआ था। उसे अपनी और परिवार की चिन्ता है। ये तो पक्का है कि वो अपने परिवार के पास ही गया होगा।" खुदे ने सोच भरे स्वर में कहा--- “उसकी कार से पता चल जायेगा कि वो घर पर है या नहीं।"

“वो घर ही गया होगा।” देवराज चौहान बोला--- “क्योंकि वो समझता है कि दो आदमी उसके घर के बाहर परिवार पर नज़र रख रहे हैं। ऐसे में वो अपने परिवार को अकेला नहीं छोड़ना चाहेगा।"

"अभी तो बहुत लम्बा सफर तय करना है। भगवान करे, डकैती ठीक-ठाक ढंग से निपट जाये।” खुदे कह उठा।

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