इलाहाबाद
वह सिविल लाइन्स पर स्थित पुराने जमाने के अन्दाज की इमारत में बना एक बड़ा सलीके का होटल था, जिसके एक एयरकन्डीशन्ड कमरे में विमल और नीलम जाकर ठहरे। उस शानदार नवविवाहित जोड़ी का होटल वालों ने इतना रोब खाया कि मैनेजमेंट की तरफ से उन्हें एक असाधारण आकार का बुके और बधाई कार्ड भिजवाया गया। खुद होटल के अधेड़ मैनेजर ने नीलम के हजार वॉट के बल्ब की तरह चमकते चेहरे पर एक हसरतभरी निगाह डालते हुए और उसके खूबसूरत लिबास के नीचे छुपे खूबसूरत जिस्म की कल्पना करके मन ही मन हल्कान होते हुए और विमल की तकदीर पर जलकर कबाब हो जाते हुए, उसने विमल को इतनी खूबसूरत बीवी हासिल होने की बधाई दी और ‘जोड़ी सलामत रहे’ मार्का कोई आशीर्वाद दिया। होटल वालों की निगाह में उस वक्‍त उसकी इकलौती क्‍वालीफिकेशन यह थी कि वह एक तौबाशिकन हुस्‍न की मलिका का मालिक था, एक ऐसी स्त्री का पति था, जिसे देखकर किसी वहशी दिमाग के मालिक शख्स को यह खयाल आ जाना कि वह पति का गला काटकर उसकी पत्‍नी को भगा ले जाये, कोई बड़ी बात नहीं थी।
किसको फुरसत थी विमल की सूरत की उस इश्‍तिहारी मुजरिम की तसवीर से मिलान करने की, जिसकी धुँधली-सी याद फालतू सामान डालकर भूल जाने वाली किसी कोठरी का दर्जा रखने वाले उसके दिमाग के किसी कोने में दफ्न थी।
दोपहरबाद वे नवविवाहित जोड़े जैसी ही पूरी लकदक के साथ होटल से निकले।
सुरजीत कौर की तलाश में।
एक रिक्शा पर सवार होकर सबसे पहले वे सुभाष नगर पहुँचे, जहाँ कि पोस्ट ऑफिस के समीप स्थित एक इमारत के एक फ्लैट में कभी सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल अपनी सरदारनी सुरजीत कौर के साथ रहता था।
उस इलाके में पहुँचते ही विमल का दिल बड़े जोर से धड़कने लगा।
क्‍या उसकी बीवी वहाँ होगी ?
क्‍या इतने सालों बाद उसकी बीवी से उसका दोबारा साक्षात्‍कार होने ही वाला था ?
क्‍या डोगरा भी वहीं होगा ?
अपनी बीवी के लिए एक निहायत खतरनाक इरादा लेकर उस शहर में कदम रखने वाले विमल का दिल उस घड़ी एक अनजानी आशंका से ग्रस्‍त होने लगा।
‘वाहेगुरू सच्‍चे पातशाह।’—विमल होंठों में बुदबुदाया—‘जो कर तुम दीना प्रभ धीर। ता के निकट न आवे पीर।’
नीलम विमल के भीतर चल रहे अन्तर्द्वन्द्व को समझ रही थी। उसने बड़े आश्‍‍वासनपूर्ण ढंग से विमल का हाथ दबाया और अनुराग से उसकी ओर देखकर मुस्‍कराई।
विमल भी जबरन मुस्‍कराया।
“तुम रिक्‍शा में ही बैठो।”—वह बोली—“मैं पूछताछ करके आती हूँ।”
विमल ने सहमति में सिर हिला दिया।
नीलम रिक्‍शा से उतरी और कुछ कदम पैदल चलकर इमारत में दाखिल हो गयी।
विमल बेचैनी से पहलू बदलता हुआ रिक्‍शा में बैठा रहा।
रिक्‍शावाले ने एक बीड़ी सुलगा ली और विमल को रिक्शा में बैठा छोड़कर रिक्‍शा से परे एक पेड़ की छाया में जा बैठा।
पाँच मिनट बाद नीलम वापस लौटी।
“वो अब यहाँ नहीं रहती।”—उसने बताया।
“कहाँ गयी ?”—विमल के मुँह से अपने-आप ही निकल गया।
“पता नहीं। तुम्‍हारे वाले फ्लैट में जो परिवार इस वक्‍त रह रहा है, वह कहता है कि वे वहाँ सालों से रह रहे हैं और उनसे पहले भी जो परिवार वहाँ रहता था, वह वो नहीं था, जिसकी तुम्‍हें तलाश है।”
“इसका मतलब तो यह हुआ कि मेरे जेल जाने के बाद ही उसने यह फ्लैट छोड़ दिया था !”
“ऐसा ही लगता है।”
विमल सोचने लगा।
“विमल।”—नीलम बोली—“वह यहाँ रहकर क्‍या करती ! उसकी जैसी आशनाई तुम डोगरा से बताते हो, उस लिहाज से तो तुम्‍हारे जेल चले जाने के बाद वह मामूली फ्लैट उसे अपने नाकाबिल लगने लगा होगा !”
“वह बात न भी हो”—विमल धीरे से बोला—“तो भी मेरे जेल चले जाने के बाद उनकी बद्कारियों का सिलसिला इस फ्लैट में तो चल नहीं सकता था ! अदालत में तो उनकी हर क्षण यही दुहाई थी कि यह उन पर मेरे द्वारा लगाए जाने वाला एक इन्तहाई घिनौना इल्‍जाम था कि उन दोनों के कोई अनैतिक सम्‍बन्ध थे। इस दुहाई से उन्हें हर किसी की हमदर्दी हासिल हुई थी। मेरे जेल जाने के बाद भी डोगरा यहाँ आता रहता तो लोगों की उँगलियाँ उनकी तरफ उठ सकती थीं। डोगरा से अपना नापाक रिश्‍ता बनाए रखने के लिए उसका यहाँ से कूच कर जाना ही युक्‍तिसंगत लगता है।”
“ऐसा हो सकता है कि उसने डोगरा से शादी कर ली हो ?”
“होने को क्‍या नहीं हो सकता ? कुछ भी हो सकता है। लेकिन मुझे उम्‍मीद नहीं।”
“क्‍यों ?”
“अगर डोगरा ने सुरजीत से शादी ही करनी होती तो वह उसे मेरे गले क्‍यों मंढ़ता ? वह पहले ही मुझसे सुरजीत की शादी करवाने की जगह खुद उससे शादी न कर लेता ?”
“शायद बाद में सुरजीत ने जिद की हो कि वह उससे शादी करे ?”
“ऐसी जिद जब उसने पहले नहीं की थी तो अब क्यों करती ?”
“पहले उसकी जिन्दगी बरबाद जो नहीं हुई थी। तुम्‍हारे जेल चले जाने से उसकी जिन्दगी भी तो बरबाद हुई थी।”
विमल ने उत्तर नहीं दिया। वह मन ही मन डोगरा का अक्स अपने जेहन पर उतारने की कोशिश करने लगा। डोगरा एक ऐयाश आदमी था और मुद्दत से विधुर था। अगर उसने शादी करनी होती—सुरजीत से न सही तो किसी और से—तो कब की कर ली होती।
“तुम्‍हें डोगरा का घर मालूम है ?”
“हाँ। उन दिनों वह लीडर रोड के एक फ्लैट में रहता था।”
“वहाँ चलते हैं। जो हुआ होगा, सामने आ जायेगा।”
“ठीक है।”
विमल ने दूर बैठे रिक्शावाले को आवाज दी।
वे लीडर रोड पहुँचे।
वहाँ से मालूम हुआ कि ज्ञानप्रकाश डोगरा नाम का एरिक जॉनसन कम्पनी का बड़ा साहब वह फ्लैट कब का छोड़ चुका था।
अब वह कहाँ रहता था ?
किसी को मालूम न था।
“कम्‍पनी के दफ्तर में चलो।”—नीलम बोली—“वहाँ से मालूम हो जायेगा कि अब वह कहाँ रहता है।”
“डोगरा मुझे पहचान सकता है।”—विमल धीरे से बोला—“वह सुरजीत को खबरदार कर सकता है। वह मुझे गिरफ्तार करवा सकता है।”
“तुम फिक्र मत करो। वहाँ जो करना होगा। मैं कर लूँगी।”
“ठीक है।”
उसी रिक्शा पर सवार होकर वे आगे बढे और मुट्ठीगंज पहुँचे।
जिस दोमंजली इमारत के ग्राउण्ड फ्लोर पर कभी एरिक जॉनसन कम्पनी का दफ्तर हुआ करता था, उसकी जगह अब वहाँ एक अतिआधुनिक बहुमंजिला इमारत खड़ी थी। सारी इमारत में दर्जन से ज्यादा दफ्तर थे, लेकिन उनमें एरिक जॉनसन कम्पनी का नाम नहीं था।
इमारत के सामने सड़क के पार लकड़ी के चरमराते खोखे में चलने वाला एक टी-स्टाल था, जो अभी भी अपनी उसी खस्ता हालत में वहाँ मौजूद था जिसमें विमल उसे तब रोजाना देखा करता था, जब वह सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल था और खोखे के सामने एक विलायती नाम वाली कम्पनी का इज्जतदार मुलाजिम था। वही एक चीज थी, जो उस इलाके के बेहताशा बदल जाने के बावजूद नहीं बदली थी। उस टी-स्टाल के चरमराते खोखे जैसी ही चरमराती तन्दुरुस्ती का मालिक सफेद दाढ़ी वाला मुसलमान विमल को दूर से ही भट्ठी के सामने बैठा चाय बनाता दिखाई दे रहा था। बुजुर्गवार सालों पहले भी ऐसे ही लगते थे कि अभी हैं, अभी नहीं हैं, ऐसा ही उनका खोखा लगता था कि छत गिरी कि गिरी, लेकिन विमल को यह बात करिश्‍मे से कम न लगी कि इतने सालों बाद आज भी वह खोखा और उसका मालिक दोनों सलामत थे।
‘जिसके सिर पर तू स्वामी’—वह होठों में बुदबुदाया—‘वह दुख कैसे पावे।’
रिक्शा से उतरकर वे खोखे के सामने पहुँचे।
वहाँ उस वक्‍त कोई ग्राहक मौजूद नहीं था।
वृद्ध ने अपनी भट्ठी की बुझी हुई राख जैसी निगाह उन दोनों पर डाली।
“मौलाना साहब”—विमल मीठे स्‍वर में बोला—“हम परदेस से आये हैं। आपसे कुछ पूछना चाहते थे।”
“पूछो, बाबू साहेब।”—वृद्ध बोला।
अब तक उनसे टकराया वह शायद पहला आदमी था, जिसकी निगाह विमल पर से भटककर बार-बार नीलम पर नहीं जा टिकती थी। उसकी उम्र का इस बात से कोई रिश्‍ता नहीं था। विमल ने उससे कहीं ज्‍यादा बूढ़े आदमियों को नीलम की चकाचौंध कर देने वाली खूबसूरती पर लार टपकाते देखा था।
“वहाँ सामने”—विमल ने बहुमंजिला इमारत की तरफ संकेत किया—“एरिक जॉनसन कम्पनी का दफ्तर हुआ करता था।”
“कभी हुआ करता था, बाबू साहेब”—वृद्ध बोला—“अब तो वो बन्द हो चुका है। सालों गुजर गये हैं उसे बन्द हुए।”
“बन्द हो गया है ?”
“हाँ ”
“बन्द हो गया है या इलाहाबाद में कहीं और शिफ्ट हो गया है ?”
“बन्द हो गया है, बाबू साहेब। वो दफ्तर तो पुरानी इमारत की जगह यह बड़ी बिल्‍डिंग बनने से पहले ही बन्द हो गया था।”
“वजह ?”
“वजह मैं क्‍या बता सकता हूँ ?”
“आपका तो वहाँ के स्‍टाफ से वास्‍ता पड़ता था—मेरा मतलब है पड़ता होगा—आप वहाँ चाय-वाय भिजवाते रहते रहे होंगे। लोग खुद भी अक्‍सर यहाँ आकर चाय पीते होंगे। शायद आपने कम्‍पनी के किसी कर्मचारी को कोई जिक्र करते सुना हो कि दफ्तर क्‍यों बन्द हो रहा था ?”
“मैंने नहीं सुना।”
“आपने इस बारे में कुछ जानने की भी कोशिश नहीं की ?”
“न। मुझे क्‍या जरूरत थी, बाबू साहेब ! यहाँ रोज दफ्तर खुलते हैं, रोज दफ्तर बन्द होते हैं। मैं किस-किसका हिसाब रखूँ ?”
“अन्दाजन कब बन्द हुआ था यह दफ्तर ?”
जवाब में वृद्ध ने जो तारीख बताई, वह तब की भी, जब विमल अभी इलाहाबाद में जेल में ही था। वह उसके जेल में बन्द होने के डेढ़ साल बाद की तारीख थी।
एरिक जॉनसन कम्पनी का यूँ बन्द हो जाना किसी पहेली से कम नहीं था।
क्‍यों बन्द हो गया वह दफ्तर ?
डोगरा समेत कम्पनी के तकरीबन कर्मचारी ऐसे थे, जो मूल रूप से इलाहाबाद के रहने वाले नहीं थे, खुद विमल को रिजक का चक्‍कर पंजाब से वहाँ लाया था, उसकी अपनी तरह तकरीबन लोग बाहर से आये हुए थे। कोई एकाध इलाहाबाद का ही रहने वाला था, या कम्पनी बन्द हो जाने के बाद भी इलाहाबाद में ही बसा रहा था तो विमल को उसकी खबर नहीं थी।
अब वह कैसे किसी पुराने कर्मचारी को तलाश करे और कैसे उससे मालूम करे कि कम्पनी क्‍यों बन्द हो गयी और डोगरा कहाँ दफा हो गया।
“मौलाना साहब”—विमल ने उम्‍मीद के खिलाफ उम्‍मीद करते हुए वृद्ध से पूछा—“इतना तो आपकी जानकारी में आया होगा कि कम्पनी बन्द हो जाने के बाद यहाँ के कर्मचारियों का किसी और ब्रांच में ट्रांसफर कर दिया गया था या उन्हें बर्खास्‍त कर दया गया था ?”
“हाँ !”—वृद्ध बोला—“यह तो मुझे मालूम है, बाबू साहेब। मेरी जानकारी में तो सबको बर्खास्‍त ही कर दिया गया था।”
“आपकी जानकारी में कम्‍पनी का कोई ऐसा पुराना कर्मचारी हो जो अभी भी इलाहाबाद में रहता हो ?”
वृद्ध ने उत्तर नहीं दिया।
विमल यह फैसला न कर सका कि वह जवाब सोच रहा था, या उसने उसके सवाल को सुना समझा नहीं था।
“इत्तफाकिया ही ऐसे किसी आदमी की आपको जानकारी हो ?”—विमल तनिक आग्रहपूर्ण स्‍वर में बोला।
“बाबू साहेब।”—अन्त में वृद्ध बोला—“यहाँ एक चपरासी हुआ करता था।”
“कौन-सा चपरासी ?”—विमल आशापूर्ण स्‍वर में बोला—“चपरासी तो यहाँ तीन थे।”
“आप तो इतनी पुरानी बन्द हो चुकी कम्पनी के बारे में काफी कुछ जानते मालूम होते हैं, बाबू साहेब !”
विमल हड़बड़ाया। उसने बेचैनी से पहलू बदला और फिर तनिक बेसब्रेपन से दोबारा अपना सवाल दोहराया—“कौन-सा चपरासी ?”
“बनारसी।”—वृद्ध धीरे से बोला।
“कौन ?”
“बनारसी। ऊँचा सुनते हो, बाबू साहेब ?”
बनारसी उस चपरासी का नाम था, जिसने अदालत में विमल के खिलाफ गवाही दी थी कि एक बार दफ्तर बन्द हो जाने के बाद और ‘सोहल साहब’ के रिक्शा पर सवार होकर वहाँ से कूच कर जाने के बाद उसने उन्हें वापस दफ्तर की तरफ लौटते अपनी आँखों से देखा था।
“उसका पता बताऊँ, बाबू साहेब ?”—वृद्ध बोला।
“मुझे मालूम है।”—विमल धीरे से बोला।
“अब वो सलीम सराय में नहीं रहता।”
विमल सकपकाया।
“अब वो अशोक नगर में रहता है। अशोक नगर कहाँ है, यह बताऊँ या जानते हो, बाबू साहेब ?”
“जानता हूँ।”
“मकान नम्‍बर नहीं जानते होंगे, वह याद कर लो, बाबू साहेब।”
वृद्ध ने उसे एक मकान नम्बर बताया, जो कि विमल के दिमाग पर लिख गया।
नीलम ने भी वह नम्बर याद कर लिया।
“और, बाबू साहेब”—वृद्ध यूँ बोला, जैसे बहुत रहस्‍यपूर्ण बात बता रहा हो—“वह मकान बनारसी का अपना है। सलीम सराय के झोपड़ी पट्टे में उसकी खोली किराये की थी, लेकिन अशोक नगर में मकान उसका अपना है।”
“हूँ !”—विमल एक क्षण ठिठका फिर बोला—“बहुत-बहुत शुक्रिया, मौलाना साहब।”
वृद्ध उत्तर में बड़े निर्लिप्‍त भाव से तनिक मुस्‍कराया।
“नमस्‍ते।”—विमल बोला और नीलम की बाँह थामकर वहाँ से विदा होने के लिए घूमा।
“सत श्री अकाल, जी।”
विमल को जैसे बिच्छू ने काटा। आगे बढ़ने को उठा उसका पाँव हवा में ही फ्रीज हो गया। फिर उसने धीरे से नीलम की बाँह छोड़ दी और वापस घूमा।
वृद्ध उसकी तरफ नहीं देख रहा था। वह भट्ठी पर चढ़ी केतली का ढक्‍कन उठाकर इतनी तन्मयता से उसके भीतर झाँक रहा था, जैसे चाय के लिए पानी उबालना कोई इन्तहाई पेचीदा काम था और उस घड़ी उसकी तरफ मुकम्‍मल तवज्‍जो रखना निहायत जरूरी था।
विमल खामोश उसके सामने खड़ा रहा।
“इन गुनहगार आँखों ने”—वृद्ध उसकी तरफ निगाह उठाए बिना यू बोला, जैसे ख्वाब में बड़बड़ा रहा हो—“जिन्दगी के बड़े रंग देखे है, बाबू साहेब। न सिर्फ देखे हैं, बल्‍कि हमेशा उनको उनके मुनासिब तवाजन के साथ पहचाना है।”
विमल के मुँह से बोल न फूटा। साफ जाहिर हो रहा था कि वृद्ध ने उसे शर्तिया पहचान लिया था।
“जिस कम्‍पनी के बारे में तुम इतने सवाल कर रहे हो, वहाँ कभी सुरेन्द्रसिंह सोहल नाम का एक बड़ा बांका-छबीला सिख नौजवान काम किया करता था। खुदा का नेक बन्दा था। शरीफ। ईमानदार। ऊपर वाले का खौफ खाने वाला। लेकिन बड़ी ज्‍यादती हुई बेचारे के साथ। दुश्‍मनों ने खाना-खराब कर दिया उसका। तिनका-तिनका बिखेर दिया उसकी जिन्दगी का। बेचारे को बेगुनाह जेल तक भिजवा दिया।”
“आपकी निगाह में वह बेगुनाह था ?”—विमल ने धीरे से पूछा।
“हाँ। लेकिन मेरी निगाह से क्या होता था, बाबू साहेब। एक बूढ़े, लाचार, कमजोर आदमी की वाहिद आवाज नक्‍कारखाने में तूती की आवाज से बेहतर दर्जा नहीं रखती। अल्‍लाहताला ने इन्साफ करने की कूवत और कैफियत मुझे बख्शी होती तो मैं उसका इन्साफ करता। मेरा खुदा उसका इन्साफ करता, लेकिन उसका इन्साफ तो पत्‍थर की तरह बेहिस ऐसे कानूनी पुतलों के हाथ था, जिनकी आखों पर पट्टी बँधी होती है। और ऐसे अँधे कायदे-कानून के हाथ मजबूत करने वाले जो लोग थे, उनमें से कोई खुदा का नेक बन्दा नहीं था, वो सब इबलीस की औलाद थे। बेचारे सरदार साहब को खामखाह जेल की सजा हो गयी।”
विमल ने एकाएक अपने सूख आये होंठों पर जुबान फेरी। उसने नीलम की तरफ देखा।
नीलम अवाक् अभी भी केतली में झाँकते वृद्ध को देख रही थी।
“सुना है”—वृद्ध पूर्ववत् बड़बड़ाता-सा बोलता रहा—“अब वो सरदार साहब बड़े खतरनाक डाकू हो गये हैं। सरकार तक उनके नाम से काँपती है। ऐसा हो सकता है, बाबू साहेब, कि एक चींटी न मार सकने वाला आदमी इतना खतरनाक डाकू बन जाये ?”
“होने को क्‍या नहीं हो सकता।”—विमल धीरे से बोला।
“यह भी ठीक है। लेकिन अगर यह बात सच है तो मुझे पूरा विश्‍‍वास है कि कभी न कभी वो अपने साथ जुल्‍म करने वालों से बदला लेने की नीयत से इलाहाबाद जरूर आयेंगे।”
“आप अभी उन्हें एक शरीफ, ईमानदार, खुदा का खौफ खाने वाला नेक बन्दा बता रहे थे। ऐसा आदमी क्‍या किसी से बदला ले पाने लायक कूवत पैदा कर पायेगा अपने-आप में ?”
“जरूर कर पायेगा। अगर नहीं कर पायेगा तो मैं समझूँगा कि यह खबर झूठी है कि वह एक खतरनाक डाकू बन चुका है।”
“जैसे खयालात आपके सरदार साहब के बारे में है, उनको निगाह में रखते हुए आप पसन्द करेंगे कि वे अपने साथ बुनियादी जुल्म करने वालों से बदला लें।
“सरासर करूँगा।”
“वजह ?”
“वजह तुम्हें क्या समझाऊँ, बाबू साहेब ? तुम्हारी जगह सरदार साहब खुद मेरे सामने खड़े होते तो उन्हें समझाता।”
वह बूढ़े का स्पष्ट संकेत था कि विमल को इस बात से चिन्तित होने की कोई जरूरत नहीं थी कि उसने उसे पहचान लिया था।
“मेरी जगह सरदार साहब होते तो आप उन्हें पहचान न लेते ?”
“मेरे खयाल से सरदार साहब अब तक अपनी पुरानी नासमझी और नातजुर्बेकारी के दौर से बहुत आगे निकल चुके होंगे। अब यूँ आसानी से नहीं पहचाने जा सकने वाले वो।”
विमल ने कहना चाहा कि उसने तो पहचान लिया था, लेकिन बूढ़े ने पहले ही उसके उस सवाल का जवाब दे दिया—“मुझे तो सरदार साहब बहुत अजीज थे और मैं उन्हें आज भी याद करता हूँ, इसलिए कभी उन्हें मैं पहचान लूँ तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन आज की तारीख में उनके लिए कोई प्यार-मुहब्बत का जज्बा रखने वाला या उनको आज भी याद करने वाला कोई दूसरा शख्स मौजूद नहीं, इसलिए मुझे पूरा विश्‍‍वास है कि यहाँ कोई और उन्हें नहीं पहचान पायेगा।”
“ओह !”
“वैसे, बाबू साहेब। इत्तफाक से हमारे सरदार साहब कभी आपसे टकरा जायें तो इस बूढ़े मियाँ का एक पैगाम उन्हें दे देना।”
“क्या ?”
“उन्हें कहना कि कुछ न कहने से भी छिन जाता है ऐजाजेसुखन। जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है।”
विमल का गला भर आया।
नीलम भी द्रवित हुए बिना न रह सकी।
वृद्ध अभी भी केतली में झाँक रहा था।
भाग्य की कैसी विडम्बना थी—विमल ने मन ही मन सोचा—कि प्यार, मुहब्बत और अपनापन उसे हमेशा अजनबियों से हासिल हुआ था। अपनों से तो उसे हासिल हुई थीं दगाबाजियाँ, जिल्लत, रुसवाई, दुश्‍‍वारियाँ।
“मौलाना साहब।”—विमल भर्राए स्वर में बोला—“मैं आपका पैगाम आपके अजीज सरदार साहब तक जरूर पहुँचाऊँगा, बल्कि समझिए कि आपका पैगाम उन तक पहुँच गया।”
“शुक्रिया।”—वृद्ध बोला।
“सलाम अर्ज करता हूँ, मौलाना साहब।”
“खुदा हाफिज, मेरे बच्‍चे !”—पहली बार वृद्ध की मशीनी आवाज में कोई फर्क आया—“अल्लाह ताला की रहमतों का साया हमेशा तुझ पर बना रहे।”
विमल ने नीलम का हाथ पकड़ा और भारी कदमों से चलता रिक्शा की तरफ बढ़ चला।
बूढ़े मियाँ के मुँह से निकली एक बात हथौड़े की तरह उसके जेहन में बज रही थी :
कुछ न कहने से भी छिन जाता है ऐजाजेसुखन।
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है।
वे रिक्शा के समीप पहुँचे।
उसने रिक्शावाले का भाड़ा चुकाकर उसकी छुट्टी कर दी।
नीलम ने प्रश्‍‍नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“थोड़ी देर पैदल चलने का जी चाह रहा है।”—विमल बोला।
नीलम ने बड़े सम्वेदनशील भाव से सहमति में सिर हिलाया। दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे खामोशी से चौक की तरफ बढ़ने लगे।
“देखा !”—एकाएक विमल बोला—“देखा सरदार साहब का मुकद्दर ? जो लोग उन्हें नहीं जानते, वे तो उन पर इतने मेहरबान हैं जितना क्या कोई अपने जिगर के टुकड़े पर होगा, और जो लोग उनके अपने हैं, वे उनके खून के प्यासे हैं।”
“उसने तुम्हें पहचान लिया था ?”—नीलम धीरे से बोली।
“सरासर पहचान लिया था। फौरन पहचान लिया था। लेकिन एक बार भी मुझ पर यह जताने की कोशिश नहीं की उसने कि उसने मुझे पहचान लिया था। हालाँकि इस बात का इशारा उसने मुझे साफ दिया था कि वह मेरी मौजूदा औकात से भी नावाकिफ नहीं था। उसने मुझे यह भी समझाया था कि उसी ने मुझे पहचाना था और कोई मुझे वैसी सहूलियत से नहीं पहचान पाने वाला था।”
“वह यह भी जानता होगा कि तुम्हारी गिरफ्तारी पर एक लाख रुपये का इनाम है ?”
“जरूर जानता होगा।”
“कमाल है ! इनाम हासिल करने की कोशिश में तो वह क्या कोई कदम उठाता, उसने तो तुम पर कोई अहसान तक जताने की कोशिश नहीं की कि उसने तुम्हें पहचान लिया था, लेकिन वह फिर भी खामोश था।”
“बिल्कुल !”
“वह शेर-सा क्या पढ़ा था उसने ?”
“वह शेर मेरे लिए एक सबक था, एक ऐसा सबक था, जिसने अपनी बीवी और उसके यार डोगरा के खिलाफ मेरे मन में ताजा-ताजा पनपे खतरनाक खयालात के न्यायोचित होने की तसदीक की है। मौलाना के पैगाम ने अब मेरे इरादे और मजबूत कर दिये हैं। अब तक मेरा दिल फिर भी कभी-कभार डावांडोल हो जाता था—खास इसी काम के लिए यहाँ आ चुकने के बावजूद डांवाडोल हो जाता था—और मैं सोचता था कि मैं वैर-भाव को त्याग दूँ और अपनी बीवी और डोगरा से बदला लेने का, उनको उनकी करतूतों की सजा देने का खयाल छोड़ दूँ लेकिन अब नहीं छोड़ूँगा। अब तो मैं अपने इरादे से हरगिज भी बाज नहीं आऊँगा। अब तो वही होगा, जो मेरे दकियानूसी संस्कार कहते है कि नहीं होना चाहिए, लेकिन मेरा विवेक और वक्‍त की जरूरत कहती है कि जरूर-जरूर होना चाहिए। अब डोगरा की खैर नहीं। अब मेरी बीवी की खैर नहीं।”
“लेकिन पहले वे दोनों मिलें तो सही !”
“मिलेंगे”—विमल पूर्ण आत्मविश्‍‍वास के साथ बोला—“जरूर मिलेंगे। तुम देखती रहो क्या होता है ! मैं उन्हें पाताल में से भी खोद निकालूँगा।”
नीलम कुछ न बोली।
विमल खामोशी से उसका हाथ थामे सड़क पर पैदल चलता रहा।
विमल का अगला काम बहुत पेचीदा था, बहुत नाजुक था, लेकिन वह बहुत सहूलियत से और बहुत जल्दी हो गया।
उसे कोई हथियार दरकार था।
अँधेरा होने के बाद वह नीलम के साथ होटल से बाहर निकला। उसके हाथ में एक छोटा-सा एयरबैग था, जिसमें उसका ताजा खरीदा हिप्पी परिधान था। वह परिधान अगर वह होटल से ही पहनकर निकलता तो होटल के लोगों को वह बात बड़ी अजीब और सन्देहजनक लगती, इसलिए उसे वह होटल से अपने साथ ले आया था।
नीलम होटल से ही एक अपेक्षाकृत सादी शलवार-कमीज पहनकर निकली थी।
एक निर्जन स्थान तलाश करके विमल ने अपना सूट वगैरह उतार दिया और उसके स्थान पर अपना हिप्पी परिधान पहन लिया। हिप्पी परिधान की जींस और जैकेट क्योंकि नयी थीं, इसलिए उसने बाजार से एक रेगमार खरीदा था और होटल से निकलने से पहले जींस और जैकेट के घुटने, कोहनियों जैसे कुछ स्थानों को बड़ी बेरहमी से रेगमार से रगड़-रगड़कर उसने दोनों कपड़ों का हुलिया बिगाड़ डाला था—पतलून की तो एकाध जगह से उसने पैबन्द लगाए जाने की जरूरत जैसी हालत कर दी थी। उस हिप्पी परिधान के साथ साधारणतया वह जो कुत्ते के कानों जैसे कॉलरों वाली कमीज पहना करता था, उसके स्थान पर तब उसने एक नीली धारियों वाली गोल गले की स्कीवी पहनी थी। बाकी सब कुछ वैसा ही था, जैसा पहले हुआ करता था—पैंट से मैच करती नीली जैकेट जिसकी पीठ पर एक मुट्ठीबन्द हाथ इस प्रकार बना हुआ था कि केवल उसकी बीच की उँगली मुट्ठी से बाहर सीधी उठी हुई थी और नीचे अर्धवृत्ताकार शब्दों में लिखा हुआ था—अप युअर्स। सिर पर क्रिकेट के खिलाड़ियों जैसी टोपी, जिसके अग्र भाग में बने वृत्त में धागे से कढ़ा हुआ था—पीस। गले में पीतल का कण्ठा, जिस पर लिखा था—मेक लव नॉट वार। आँखों में नीले कॉन्टैक्ट लैंस। नाक की फुँगी पर टिका तार के फ्रेम वाला बिना नम्बर के शीशों वाला चश्‍मा। मुँह में पाइप। पैरों में मामूली चप्पल।
यह था सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल का वह बहुरूप, जिसने आज तक हमेशा उसकी रक्षा की थी।
उसके बाद दोनों ने जरायमपेशा लोगों की रिहायश की किस्म के इलाकों के चक्‍कर काटने आरम्भ किये और लोगों के कानों में यह फूँकें मारनी आरम्भ कीं कि उन्हें कोई हथियार चाहिए था। किसी ने उनका इशारा समझा, किसी ने नहीं समझा। बाद में जिस तांगेवाले ने विमल का इशारा जरा मुस्तैदी से समझा, वह यही समझा कि विमल अपने साथ की ‘बीवीजी’ को कहीं से भगाकर लाया था और अब वह अपने किसी खतरनाक अँजाम से फिक्रमन्द था।
वह दोनों को कटरे के एक बड़े गन्दे मुहल्ले में ले गया।
वहाँ विमल को एक देसी रिवॉल्वर दिखाई गयी।
कीमत सात हजार रुपये।
बहुत हील-हुज्जत के बाद उस रिवॉल्वर का और पचास कारतूसों का पाँच हजार में सौदा पटा।
रिवॉल्वर बाकायदा चलती थी, वह विमल ने उसकी कीमत अदा करने से पहले परखकर देख लिया।
रिवॉल्वर खस्ताहाल ही थी, लेकिन विमल की तसल्ली थी कि अब वह हथियारबन्द था और किसी का खून कर डालने में समर्थ था। अलबत्ता वह रिवॉल्वर सूरत में बड़ी खतरनाक लगती थी।
कटरे से वे पैदल वापस निकल रहे थे कि रास्ते में उन्हें एक अजीब नजारा देखने को मिला।
एक आदमी एक नौजवान औरत को बेतहाशा पीट रहा था और मोहल्ले के लोग उनके इर्द-गिर्द जमा हुए तमाशा देख रहे थे।
विमल से वह नजारा न देखा गया।
उसने आदमी का हाथ थाम लिया और कठोर स्वर में बोला—“क्यों मार रहे हो बेचारी को ?”
“जाओ-जाओ, बाबू।”—वह आदमी जबरन अपना हाथ छुड़ाता बोला—“काम करो अपना।”
“यह इसकी औरत है।”—भीड़ में से कोई बोला—“आज सुबह इसने अपनी औरत को तीन सौ रुपये दिये थे, जो कि इसने खो दिये। अब बेचारा इसे मारे न तो क्या करे ?”
“मारने से तीन सौ रुपये इसे वापस मिल जायेंगे ?”—विमल सख्ती से बोला।
“तुम चलो न।”—नीलम उसकी आस्तीन खींचती हुई फुसफसाई—“तुम्हें क्या ?”
“बाबू !”—आततायी बोला—“जिसे तीन सौ रुपये कमाने पड़ते हैं, वही जानता कि…”
“बकवास मत करो।”—विमल बीच में बोल पड़ा। उसने जेब से सौ-सौ के तीन नोट निकाले—“यह पकड़ो तीन सौ रुपये और खबरदार जो अब बेचारी पर हाथ उठाया।”
उस आदमी ने तीन सौ रुपये थाम लिए और हैरानी से विमल का मुँह देखने लगा।
विमल ने नीलम की बाँह थामी और तेजी से वहाँ से निकल गया।
“शाबाश !”—रास्ते में नीलम व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली।
विमल खामोश रहा।
“वो औरत जरूर तुम्हारी कोई सगे वाली थी।”
“मजाक कर रही हो ?”
“तुम इलाहाबाद के पुराने रहने वाले हो। शायद बचपन में कभी तुम्हारी उसके साथ आशनाई रही होगी। अभी पुरानी मुहब्बत जोर मार गयी होगी जो...”
“क्या बकती हो ?”
“अगर ऐसी कोई बात नहीं है तो क्यों दिये उसके खसम को तीन सौ रुपये ?”
“मुझे उस बेचारी औरत पर तरस आ गया था।”
“सरदार साहब, अगर यूँ ही लोगों पर तरह खाते रहोगे तो अपने मिशन में कभी कामयाब नहीं हो पाओगे। यूँ आनन-फानन राह चलतों पर भी तरस खाने वाला दिल कभी किसी के लिए वैर भाव पाले नहीं रह सकता।”
“उस बेचारी की प्रॉब्लम थी। रुपये उसने जान-बूझकर तो खोए नहीं होंगे…”
“प्रॉब्लम किसकी नहीं होती ? प्रॉब्लम हर किसी की होती है। तुम किस-किसकी दूर कर सकते हो ? तुम क्या हर किसी के ठेकेदार हो ? मुर्गा बांग नहीं देता तो क्या सवेरा नहीं होता ?”
विमल खामोश रहा।
“तुम घर से निकले हो अपनी बीवी और उसके यार से बदला लेने की नीयत से।”—नीलम फिर बोली—“अगर तुम यूँ ही पसीजते रहोगे तो क्या यह काम कर पाओगे ? तुम्हारी बीवी भी रो-बिलखकर तुम्हें अपनी कोई मजबूरी सुना देगी और यह साबित कर दिखायेगी कि तुम्हारे से बेवफाई करना उसकी उस वक्‍त की मजबूरी थी या वह अपने कुकृत्य से शर्मिन्दा है तो तुम क्या करोगे ?”
विमल से जवाब नहीं दिया गया।
“मैंने चण्डीगढ़ में ठीक कहा था। तुम जरूर उसके पहलू से लगकर रोने लगोगे। तुम जरूर उसकी गोद में गिरकर मर जाओगे।”
“तुम मुझे शर्मिन्दा कर रही हो।”
“शर्मिन्दा नहीं कर रही हूँ, तुम्हें अक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ। तुम खुद ही सोचो, जब तुम ताव खाये होते हो तो यूँ जाहिर करते हो, जैसे सारी दुनिया को तबाह कर दोगे, लेकिन जब ऐसी नौबत आती है तो तुम मोम की तरह पिघल जाते हो। ऐसे कैसे बीतेगी, खालसाजी ?”
“मुझे विमल कहकर पुकारा करो।”—विमल झुँझलाया।
“लो। कोई जवाब नहीं सूझा तो नाम के पीछे पड़ गये !”
“ठीक है। ठीक है। मैं आइन्दा ध्यान रखूँगा।”
“अब इरादा क्या है ?”
“अब उस बनारसी के बच्‍चे की मिजाजपुर्सी का इरादा है।”
“अभी या सुबह ?”
विमल ने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली और बोला—“अभी।”
अशोक नगर में बनारसी का मकान उन्होंने बड़ी सहूलियत से तलाश कर लिया। वह आधुनिक ढंग का एक एकमंजिला मकान था जो सूरत से ही नया बना मालूम होता था।
वहाँ पहुँचने से पहले विमल ने अपना हिप्पी परिधान उतार दिया था और दोबारा सूट वगैरह पहन लिया था। नयी हासिल हुई रिवॉल्वर उसने अपनी पतलून की बैल्ट में खोंस ली थी और ऊपर से कोट के बटन बन्द कर लिये थे।
बनारसी घर पर मौजूद था।
इतने सजे-धजे आदमी को इतनी खूबसूरत स्त्री के साथ अपने घर आया देखकर वह और उसका परिवार सभी अचम्भे में पड़ गये।
“तुम्हारा नाम बनारसी है न ?”—विमल मीठे स्वर में बोला।
“जी हाँ।”—बनारसी हड़बड़ाया-सा बोला—“मेरा ही नाम बनारसी है।”
“तुम पहले कभी मुट्ठीगंज में स्थित एरिक जॉनसन कम्पनी में काम किया करते थे ?”
“हाँ।”—इस बार उत्तर देते समय बनारसी के स्वर में तनिक संशय का पुट आ गया।
“हम बाहर से आये हैं। तुमसे कुछ बातें करना चाहते हैं।”
“किस बारे में ?”
“यहीं खड़े-खड़े बतायें ?”
“आइए !”
बनारसी उन्हें बैठक में ले आया। उसका बाकी परिवार, जो पहले बैठक में ही मौजूद था, उठकर पिछले कमरे में चला गया।
“बैठिए।”—बनारसी बोला।
“बात जरा गम्भीर है।”—विमल बोला, उसने बैठने का उपक्रम नहीं किया—“गोपनीयता से करने वाली।”
“तो ?”
“दरवाजा बन्द हो तो अच्छा रहेगा।”
बनारसी ने हिचकिचाते हुए बाहर का दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया।
“खिड़की भी।”
उसने खिड़की भी बन्द कर दी।
वैसे वह सूरत से अभी भी हड़बड़ाया हुआ लग रहा था, लेकिन विमल और नीलम के व्यक्तित्व का उस पर कुछ ऐसा रोब पड़ा था कि किसी भी बात का प्रतिवाद करने के स्थान पर वह मन्त्रमुग्ध-सा उसे जो कहा जा रहा था, करता जा रहा था।
वह पचास के पेटे में पहुँचा हुआ साधारण कद-काठ का आदमी था। उसके वहाँ से उठकर गये परिवार में चार बच्‍चे थे, जिनमें दो बड़ी लड़कियाँ थीं जो कि नौजवानी में कदम रख चुकी थीं।
मकान के अलावा बाकी रहन-सहन भी बता रहा था कि बनारसी पैसे से तंग हरगिज भी नहीं था और काफी खुशहाली की जिन्दगी बिता रहा था।
“आपकी तारीफ ?”—बनारसी ने झिझकते हुए पूछा।
“आजकल क्या करते हो बनारसी ?”—विमल उसके सवाल को नजरअन्दाज करता बोला।
“अत्तरसुईयाँ में मनियारी की दुकान चलाता हूँ।”
“अच्छी-खासी आमदनी हो जाती होगी ?”—विमल बैठक में चारों ओर निगाह दौड़ाता हुआ बोला।
“ऊपर वाले की मेहर है।”
“सिर्फ ऊपर वाले की ही या ज्ञानप्रकाश डोगरा की भी ?”
बनारसी सकपकाया।
“या तुम्हारी उस काली जुबान की भी, जिसे तुम बेगुनाह लोगों के खिलाफ झूठ बककर उन्हें जेल भिजवाने में इस्तेमाल करते हो ?”
“क्या मतलब ?”—बनारसी तीखे स्वर में बोला।
“घर के सारे महत्त्वपूर्ण फैसले तुम खुद ही करते हो या उनमें अपनी बीवी की भी राय लेते हो ?”
“क्या…क्या मतलब ?”—वह फिर बोला।
“चाहो तो अपनी बीवी को यहाँ बुला लो।”
“किसलिए ?”
“उससे यह पूछने के लिए कि क्या वह अभी विधवा हो जाना पसन्द करेगी या थोड़ी देर बाद।”
“क्या बक रहे हो ?”—बनारसी एकाएक फट पड़ा।
विमल ने एक इतना झन्‍नाटेदार थप्पड़ उसके मुँह पर रसीद किया कि बनारसी की खोपड़ी घूम गयी।
नीलम ने आगे बढ़कर बीच के दरवाजे को अपनी तरफ से चिटकनी लगा दी।
“हम इतने बेरहम नहीं”—विमल बोला—“कि तुम्हें अपने बीवी-बच्‍चों के गले मिलने का आखिरी मौका दिये बिना मर जाने दें।”
बनारसी सम्भला। उसके चेहरे पर पीड़ा या अपमान के स्थान पर गहन आश्‍‍चर्य के भाव थे।
विमल ने एक जोरदार घूँसा उसके पेट में रसीद किया। वह दोहरा हो गया। विमल ने घुटना चलाया, जो बनारसी के जबड़े से टकराया। वह फिर सीधा हुआ तो एक घूँसा उसकी नाक पर पड़ा। वह पीछे को उलटा और एक सोफाचेयर पर ढेर हो गया। उसने चिल्‍लाने के लिए मुँह खोला तो विमल ने फुर्ती से पतलून की बैल्ट में से रिवॉल्वर खींची और उसकी नाल उसके मुँह में उसके हलक तक घुसेड़ दी।
बनारसी की घिग्घी बन्ध गयी। आतंक से उसके नेत्र फट पड़े।
“क्या हुआ, जी ?”—ऊठा-पटक की आवाजों की प्रतिक्रिया स्वरूप पिछले कमरे से आती उसकी बीवी की व्याकुल आवाज सुनाई दी।
“कुछ नहीं हुआ, आँटी जी।”—नीलम मधुर स्वर में बोली—“हमारे मर्द लोग जरा एक-दूसरे का हाल-चाल पूछ रहे हैं।”
“दरवाजा क्यों बन्द है ?”
“जवाब दो !”—विमल रिवॉल्वर उसके हलक से निकालकर उसकी कनपटी से सटाता बोला—“जवाब मेरी पसन्द का होना चाहिए। ध्यान रखना।”
“तुम शान्ति से बैठो, कमला की माँ।”—बनारसी फँसे स्वर में बोला—“यहाँ कुछ नहीं हुआ है।”
“लेकिन दरवाजा क्यों बन्द है ?”
“ताकि बच्‍चे तंग न करें। साहब ने बहुत जरूरी बात करनी है।”
“मैं चाय बनाऊँ ?”
बनारसी ने विमल की तरफ देखा।
विमल ने इन्कार में सिर हिलाया।
“नहीं।”—बनारसी बोला—“अभी नहीं।”
फिर दोबारा भीतर से आवाज न आयी।
“एरिक जॉनसन में”—विमल रिवॉल्वर की नाल से उसकी कनपटी पर हौले-हौले दस्तक देता हुआ बोला—“तुम चाय और बीड़ी तक उधार पीने वाले मामूली चपरासी थे और सलीम सराय के झोपड़ पट्टे में रहते थे। अब तुम इतने सलीके के इलाके में साहबेजायदाद हो गये हो, व्यापारी हो गये हो। बनारसी सेठ हो गये हो। ऐसा क्यों कर हुआ, बनारसी ?”
“तुम !”—बनारसी घिघियाता हुआ बोला—“तुम कौन हो ?”
विमल ने अपने खाली हाथ का एक जोरदार घूँसा उसके पेट में रसीद किया और कहरभरे स्वर में बोला—“यह मेरे सवाल का जवाब नहीं, हरामजादे।”
बनारसी पीड़ा से बिलबिला गया। उसकी आँखों से आँसू छलछला आये।
समीप खड़ी नीलम ने आँखों ही आँखों में विमल को शाबाशी दी।
“अब बोलो।”—विमल ने इस बार रिवॉल्वर की नाल से उसकी नाक की हड्डी पर दस्तक दी—“सवाल कौन पूछेगा ?”
“आप !”—वह घिघियाया।
“और जवाब कौन देगा ?”
“मैं।”
“अब दोबारा यह बात भूलोगे तो नहीं ?”
“नहीं।”
“शाबाश।”
बनारसी ने अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी।
“तुम कभी एरिक जॉनसन में चपरासी की मामूली नौकरी करते थे ?”
“हाँ।”
“तुम्हारी आज की खुशहाली उस झूठी गवाही की वजह से है, जो तुमने कभी कम्पनी के मैनेजर के कहने पर कम्पनी के एकाउंटेंट के खिलाफ दी थी ?”
“ह…ह…हाँ !”
“तुमने झूठ बोला था कि दफ्तर बन्द हो जाने के बाद भी तुमने अपनी आँखों से कम्पनी के एकाउंटेंट को दफ्तर वापस लौटते देखा था ?”
“हाँ। मुझे ऐसा कहने के लिए मजबूर किया गया था।”
“सफाई देने की कोशिश मत करो।”—विमल गुर्राया।
“अच्‍छा ! अच्‍छा !”
“हरामजादे ! तुझे कभी अहसास हुआ है कि तेरी वजह से एक बेगुनाह आदमी को जेल की हवा खानी पड़ी, उसकी जिन्दगी का खानाखराब हुआ ?”
उसके मुँह से बोल न फूटा।
“आज मैं तुझे यह अहसास दिलाऊँगा। बनारसी, जी तो चाहता है कि मैं तेरी नापाक रूह को अभी तेरे जिस्म से अलग कर दूँ, लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तुझे नहीं मारूँगा। क्योंकि तेरी मौत तेरे लिए बड़ी मामूली सजा होगी। मैं जब यहाँ से जाऊँगा, तब तेरी बीवी और तेरे बच्‍चे इस रिवॉल्वर की पाँच गोलियों से हलाक हुए पड़े होगे और तू उनके सिरहाने बैठा अपना माथा पीट रहा होगा, अपने बाल नोच रहा होगा, दोहत्थड़ों से अपनी छाती कूट रहा होगा, अपनी करतूतों पर पछता रहा होगा, लेकिन कोई फायदा नहीं होगा। कोइ मुर्दा तेरी दाद-फरियाद सुन कर उठ नहीं खड़ा होगा। तेरी बद्कारियों की यही सजा है, जो मैं आज तुझे देकर जाऊँगा।”
“ऐसा न करना।”—बनारसी आर्तनाद करता बोला। वह सोफे से सरका और उसके कदमों में लोट गया—“भगवान के लिए ऐसा न करना। मुझ पर इतना जुल्म न ढाना। मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो…”
“किसी का तो कुछ बिगाड़ा है तूने।”—विमल पाँव की ठोकर मारकर उसे परे धकेलता बोला।
“लेकिन…”
“उठकर सोफे पर बैठ।”
बनारसी बड़ी कठिनाई से वापस सोफे पर बैठ पाया।
वह इतना आतंकित था कि विमल को शंका होने लगी कि कहीं उसका हार्ट फेल न हो जाये।
“कम्पनी बन्द क्यों हो गयी ?”—विमल ने सवाल किया।
“कम्पनी में एक गैरकानूनी धन्धा चलता था।”—बनारसी इतनी धीमी आवाज में लेकिन इतनी जल्दी-जल्दी बोला कि विमल को उसकी बात को समझ पाने के लिए काफी सारा आगे को झुक जाना पड़ा—“और उस धन्धे की खबर सरकार को लग गयी थी। कम्पनी पर सीबीआई की रेड होने वाली थी, लेकिन कम्पनी के मैनेजर डोगरा ने स्थानीय पुलिस के कई आदमी सांठे हुए थे, इसलिए उसे होने वाली रेड की पहले ही खबर लग गयी थी और उसने कम्पनी से वह सब माल गायब कर दिया था, जो अगर रेड में बरामद हो जाता तो कम्पनी के सारे कर्मचारी न सिर्फ गिरफ्तार हो जाते बल्कि लम्बी-लम्बी सजाएँ भी पाते।”
“बनारसी !”—विमल हैरानी से बोला—“तू कोई नशा-वशा तो नहीं करता ?”
“नहीं।”
“शायद रात को सोने से पहले तू नशे की कोई गोली-वोली खाता हो ?”
“नहीं, मालिक।”
“तो फिर यह क्या बक रहा है ? हाथीदाँत और पीतल की फैंसी आइटम्स एक्सपोर्ट करने वाली फर्म का किसी गैरकानूनी धन्धे से क्या मतलब ?”
“वह सब धोखे की टट्टी थी, मालिक। असल में कम्पनी बहुत बड़े पैमाने पर होने वाली अफीम और उसने बनने वाले रसायनिक पदार्थों और मादक द्रव्यों की स्मगलिंग का ठीया था।”
“क्या !”
“मैं सच कह रहा हूँ, मालिक।”
विमल को फिर भी विश्‍‍वास न आया। इतना अरसा उसने भी उस फर्म की लगातार नौकरी की थी। इतना कुछ ऐसे उसकी नाक के नीचे होता रहा और उसे कभी भनक तक न मिली।
“कम्पनी का पीतल और हाथीदाँत के सामान का व्यापार तो सिर्फ दिखावा था, मालिक। असल में तो वह अफीम के ही व्यापार का अड्डा था। आप अगर इस इलाके के रहने वाले होते तो आपको मालूम होता कि यहाँ से सिर्फ दो सौ किलोमीटर दूर गाजीपुर जिले में अफीम की सरकारी फैक्टरी है जो दुनिया की सबसे बड़ी अफीम फैक्टरी मानी जाती है। उस फैक्टरी में अफीम से बनने वाली मॉर्फीन, कोडीन, नार्सीन, थीमेन जैसी कई जीवनरक्षक दवाओं वगैरह का निर्माण होता है और उन्हें रूस, जापान, अमरीका तक भेजा जाता है। उस फैक्टरी के लिए यूपी और राजस्थान के इलाकों से हर साल सैकड़ों टन अफीम इकट्ठी की जाती है। बाहर के मुल्कों में अफीम और उसके रसायन हिन्दुस्तान जैसी बहुतायत और आसानी से हासिल नहीं होते। इसलिए हिन्दुस्तान से बाहर अफीम की स्मगलिंग खूब होती है। कहते हैं, अफीम की सालाना पैदावर का कम से कम एक तिहाई हिस्सा तो हर हाल में स्मगलरों के हाथ लग जाता है।”
“लेकिन अफीम का कारखाना तो सरकारी है और उसकी खेती तक सरकारी देख-रेख में होती है। फिर स्मगलिंग के लिए अफीम कहाँ से आती है ?”
“आती है, मालिक। कारखाने से भी आती है और खेतों से भी आती है। अफीम की खेती सैन्ट्रल नॉरकॉटिक्स और आबकारी विभाग की देख-रेख में होती है। अफीम उगाने के लिए सरकार से इजाजत लेनी पड़ती है और ऐसे किसानों के नाम आबकारी विभाग में रजिस्टर्ड रहते हैं और उन्हें हर साल अफीम उगाने का बाकायदा लाइसेंस दिया जाता है। अफीम की खरीद की कीमत भी सरकार खुद निर्धारित करती है। लेकिन स्मगलर लोग किसानों को क्योंकि सरकारी कीमत से बहुत ज्यादा कीमत देते हैं, इसलिए किसान अफीम स्मगलरों को भी बेच देते हैं।”
“लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है ? तू खुद तो कह रहा है कि सबकुछ सरकारी देख-रेख में होता है ?”
“सब कुछ चल जाता है, मालिक। सरकार का कौन-सा महकमा है जो दूध का धुला है। सबकुछ आबकारी विभाग के निरक्षकों की मिलीभगत से होता है। किसान उन्हें रिश्‍‍वत देते हैं और बदले में वे फसल के उत्पादन को कम करके आँकते हैं, ताकि स्मगलरों को बेचने के लिए भी काफी सारी अफीम बच जाये। फिर कारखाने के भीतर पहुँच चुकी अफीम या उसके सत की भी चोरी-चकारी खूब होती है। कारखाने में काम करने वाले 560 आदमियों के ऊपर निगरानी रखने के लिए वहाँ 125 सुरक्षा कर्मचारी तैनात हैं, लोग पकड़े भी जाते हैं, लेकिन चोरी फिर भी होती है। और तो और एक बार तो खुद एक सुरक्षा कर्मचारी ऐसी चोरी के सिलसिले में रंगे-हाथों पकड़ा गया था। मालिक, सरकार किसान से अफीम का डोडा दो सौ रुपये फी किलो के भाव से खरीदती है, जब कि स्मगलर उसकी हजार-बारह सौ रुपये तक की कीमत भी आम देते हैं। जब कीमत का इतना फर्क हो तो स्मगलिंग और चोरी-चकारी का बोलबाला भला क्यों न हो ? सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार और रिश्‍‍वतखोरी क्यों न चले ? रिश्‍‍वतखोरी तो पहले कदम से ही शुरू हो जाती है। बिना रिश्‍‍वत दिये किसान को अफीम की खेती करने की इजाजत नहीं मिलती। फिर अफीम की खेती के रखवालों, नम्बरदार लोगों की बारी आती है। नम्बरदार रिश्‍‍वत लेकर अफीम की पैदावार कम दिखा देता है, ताकि बची हुई अफीम स्मगलरों को बेची जा सके। खेत का क्षेत्रफल भी सरकारी रिकॉर्ड में कम दर्ज किया जाता है ताकि ज्यादा क्षेत्रफल में खेती की जा सके, लेकिन कम में हुई दिखाई जा सके। फिर अफीम जब तोल के लिए सरकारी खरीद केन्द्रों में पहुँचती है तो तराजू के नीचे चुम्बक लगाकर तोल कम दिखा दिया जाता है और सरकारी कर्मचारी किसान को ही बेवकूफ बना लेते हैं। इस तरह से हाथ आयी अफीम सरकारी कर्मचारी स्मगलरों को बेचते हैं।”
“कमाल है !”—विमल मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला।
“मालिक, हाथीदाँत और पीतल की जो फैन्सी आइटम्म एरिक जॉनसन कम्पनी विदेशों को भेजती थी, उन्हीं में अफीम, मॉर्फीन और हेरोइन वगैरह को बड़ी चतुराई से पैक करके भेजा जाता था। जब से कम्पनी थी, तभी से वह सिलसिला चल रहा था। किसी को कभी शक तक नहीं हुआ।”
“फिर कुछ हुआ तो कैसे हुआ ?”
“कम्पनी के दो कर्मचारियों के मन में बेईमानी आ गयी, मालिक। बनारस में कम्पनी की एक गुप्त फैक्टरी थी, जहाँ अफीम को मॉर्फीन और फिर मॉर्फीन को हेरोइन में तब्दील किया जाता है। वहीं से ये चीजें बलिया, मोतीहारी और रक्सौल के रास्ते नेपाल भी पहुँचाई जाती हैं। कम्पनी के दो कर्मचारी, जिनको फील्ड वर्क का कोई तजुर्बा नहीं था, वहाँ से मॉर्फीन का आधा किलो निहायत उम्दा चूर्ण चुराकर गायब हो गये। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में मॉर्फीन के आधा किलो चूर्ण की कीमत कम से कम पाँच लाख रुपये होती है और अगर उसको थोड़ी-थोड़ी मात्रा में नशेबाजों में सीधे बेचा जाये तो उसके सात-आठ लाख रुपये भी उठ सकते हैं। इतनी बड़ी रकम कमाने के लालच में ही वे लोग उस चोरी के माल को नेपाल में परचून में खपाने की नीयत से घर से निकले थे—नेपाल में विदेशी हिप्पी भरे पड़े हैं, जिनको कि ऐसे खालिस माल की हमेशा जरूरत रहती है—लेकिन दोनों बलिया में ही पकड़े गये। मॉर्फीन उनके पास से बरामद हुई। दोनों डेन्जरस ड्रग्ज एक्ट के तहत पकड़े गये। पुलिस ने उन्हें खूब मार लगाई तो उन्होंने असलियत बक दी। पुलिस ने उनसे हासिल जानकारी के दम पर बनारस की गुप्त फैक्टरी पर छापा मारा। आदमी तो कोई गिरफ्तार न हुआ लेकिन लाखों, करोड़ों का माल पकड़ा गया।”
“आदमी क्यों गिरफ्तार न हुआ ?”—विमल हैरानी से बोला।
“मालिक”—बनारसी बड़े रहस्यपूर्ण स्वर में बोला—“वहाँ के कर्मचारी पुलिस से ज्यादा बढ़िया हथियारों से लैस थे। कहते हैं वहाँ उन कर्मचारियों और पुलिस में खूब जमकर मुठभेड़ हुई थी, लेकिन पुलिस की एक नहीं चली थी। सबके-सब वहाँ से भाग निकलने में कामयाब हो गये थे। उल्टे पुलिस के कई जवान जरूर बुरी तरह जख्मी हुए थे और एकाध शायद मारा भी गया था।”
“फिर ?”
“पुलिस ने जो दो आदमी बलिया में पकड़े थे, उन्हीं से उन्हें इलाहाबाद की एरिक जॉनसन कम्पनी का सारे सिलसिले में कोई हाथ होने का संकेत मिला था। बनारस वाली रेड में कोई पकड़ा जाता तो कम्पनी का भाँडा जरूर ही फूट जाता, लेकिन जब वहाँ वे कोई आदमी पकड़ न सके तो वे फिर उन पहले से ही गिरफ्तार दोनों आदमियों की तरफ आकर्षित हुए ताकि उनकी और मिजाजपुर्सी करके वे उनसे कुछ और जानकारी बकवा पाते, लेकिन उसकी नौबत न आयी।”
“क्यों ?”
“दोनों का कत्ल हो गया।”
“कैसे ?”
“पुलिस ने और रिमांड हासिल करने के लिए उन्हें कचहरी में पेश किया था। रिमांड हासिल हो जाने के बाद उन्हें जीप में थाने लाया जा रहा था कि जीप के समीप एक बन्द ट्रक पहुँचा और उसमें से बरसी मशीनगन की गोलियों ने दोनों का काम तमाम कर दिया। गोलियों से ही जीप के दो पहियों के टायर बैठ गये, जिसकी वजह से पुलिस ट्रक के पीछे न लग सकी।”
“यह काम डोगरा ने करवाया ?”—विमल दहशतनाक स्वर में बोला।
“मालिक”—बनारसी पूर्ववत रहस्यपूर्ण स्वर में बोला—“वह डोगरा के बस का काम नहीं था। वह उन्हीं लोगों का काम था, जिनके लिए वह एरिक जॉनसन कम्पनी चलाता था।”
“कौन लोग ?”
“यह तो मुझे मालूम नहीं।”
विमल ने कहरभरी निगाहों से उसकी तरफ देखा।
“मालिक”—बनारसी घिघियाया—“मुझे कसम है बजरंगबली की, इस बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, लेकिन अब्दुल रजाक कहता था कि वह सब मुम्बई के किसी बहुत बड़े गिरोह का काम था। वह गिरोह इतना बड़ा और इतना शक्तिशाली था कि वह सरकार से भी दो-दो हाथ कर सकता था।”
“अब्दुल रजाक कौन ? एरिक जॉनसन कम्पनी का पैकर ?”
“वही। मालिक, इस इलाके के कई नेता लोग तक उनकी मुट्ठी में थे। आमतौर पर तो मामला छोटी-मोटी गिरफ्तारी के बाद ही दब जाता था, लेकिन इस बार क्योंकि कत्लेआम की नौबत आ गयी थी और सीबीआई का दखल पैदा हो गया था, इसलिए बात दब न सकी। बनारस की फैक्टरी तो सरकार की गिरफ्त में आ गयी, सरकार को एरिक जॉनसन कम्पनी के एक्सपोर्ट होने वाले माल पर भी शक हो गया। कम्पनी पर सीबीआई की रेड हुई, लेकिन उनके हाथ कुछ भी न लगा। डोगरा साहब को स्थानीय पुलिस और नेताओं के माध्यम से पहले ही पता लग गया था कि ऐसा कुछ होने वाला था, इसलिए वहाँ से ऐसी हर चीज पहले ही हटा दी गयी थी, जिसे शक की निगाहों से देखा जा सकता था।”
“लेकिन जब कुछ हुआ ही नहीं था तो कम्पनी बन्द क्यों कर दी गयी ?”
“कम्पनी सरकार की शक्‍की निगाहों का शिकार जो बन गयी थी, मालिक। यहाँ की पुलिस या यहाँ के आबकारी विभाग तक की बात होती तो कम्पनी चलती रहती, लेकिन एरिक जॉनसन कम्पनी पर हल्ला बोलने के लिए तो बड़े-बड़े आला अफसर दिल्ली से आये थे। रेड के बाद भी एरिक जॉनसन कम्पनी की तरफ से उनकी तवज्जो हट नहीं गयी थी। कम्पनी के माल की पेटियाँ खोली जाने लगी थीं और उनकी भुस के ढेर में सुई तलाश करने जैसी बारीकी से तलाशी होने लगी थी। कम्पनी के मुलाजिमों की निगाहबीनी होने लगी थी। ऐसे हालात में कम्पनी का स्मगलिंग का धन्धा भला कैसे चल सकता था ? फिर ऊपर से ही डोगरा को कोई ऐसा हुक्म आया कि कम्पनी बन्द कर दी जाये। कम्पनी बन्द हो गयी। कम्पनी के सारे मुलाजिमों को तीन-तीन महीनों की तनख्वाह देकर बर्खास्त कर दिया गया।”
“डोगरा कहाँ गया ?”
“मुझे नहीं मालूम।”
विमल ने रिवॉल्वर की नाल का एक प्रहार उसकी खोपड़ी पर किया और कहरभरे स्वर में पूछा—“डोगरा कहाँ गया ?”
बनारसी उसके पैरों में लोट गया और बच्‍चों की तरह से बिलखता हुआ बोला—“मुझे कसम है बजरंगबली की, मालिक, मुझे नहीं मालूम।”
“तो किसे मालूम है ?”
बनारसी ने जवाब न दिया।
“उठकर बैठो।”
बनारसी फिर सोफे पर बैठ गया।
“उस थानेदार को मालूम है जिसने कम्पनी के सरदार एकाउंटेन्ट को जेल भिजवाने में डोगरा की मदद की थी ?”
“वह थानेदार डोगरा का अच्छा यार था। हो सकता है कि उसे मालूम रहा हो लेकिन…”
“लेकिन…”
“उसकी तो दो साल हुए मौत हो गयी है। थाने में ही उसे दिल का दौरा पड़ा था और वह चल बसा था।”
विमल सोच में पड़ गया।
नीलम के चेहरे पर भी उलझन और अनिश्‍‍चय के भाव थे।
“बनारसी।”—कुछ क्षण बाद विमल फिर बोला।
“मालिक !”—बनारसी घिघियाया-सा बोला।
“इधर मेरी तरफ देखो।”
बनारसी ने डरते-डरते विमल की तरफ आँख उठाई।
“डोगरा ने तुम्हें झूठी गवाही का इनाम दिया था ?”
“मालिक, उसने गवाही के लिए मुझे मजबूर किया...”
“बको मत।”—विमल घुड़ककर बोला।
बनारसी सहमकर चुप हो गया।
“डोगरा ने तुम्हें झूठी गवाही का इनाम दिया था ?”
“हाँ, मालिक।”
“तुम्हारी जो खुशहाली मैं देख रहा हूँ, वह उस इनाम की उपज है ?”
“हाँ, मालिक।”
“फिर तो इनाम जरूरत से ज्यादा बड़ा है। झूठी गवाही देकर जो सेवा तुमने डोगरा की की है, उसके लिहाज से यह इनाम बहुत बड़ा है।”
बनारसी ने अपने सूखे होठों पर जुबान फेरी।
“तुम जरूर उसके किसी और भी काम आते रहे हो।”
बनारसी उससे निगाहें चुराने लगा।
“और क्या सेवा करते थे तुम डोगरा की ?”
“पैकिंग।”—बनारसी बड़ी मुश्‍किल से कह पाया—“पैकिंग।”
“ओह ! एक्सपोर्ट के माल में अफीम वगैरह की जो पैकिंग गोपनीय रूप से होती थी, वह तुम करते थे ?”
बनारसी ने सहमति में सिर हिलाया।
“तुम चपरासी से पैकर कैसे बन गये ?”
“कम्पनी में दो ही पैकर थे।”—बनारसी फँसे स्वर में बोला—“एक अब्दुल रजाक और दूसरा कन्हैयालाल चतुर्वेदी। चतुर्वेदी की मौत हो गयी थी। डोगरा साहब को उसकी जगह लेने के लिए किसी भरोसे के आदमी की जरूरत थी।”
“और भरोसे के आदमी के तौर पर उसने तुम्हें चुना ?”
“हाँ, मालिक।”
“हूँ। इसीलिए तुम कम्पनी की स्मगलिंग की हरकतों के बारे में इतनी जानकारी रखते हो !”
वह खामोश रहा।
“तुम डोगरा के इतने खास आदमी बन गये थे। फिर भी तुम्हें नहीं मालूम कि कम्पनी बन्द हो जाने के बाद डोगरा कहाँ गया !”
“मुझे नहीं मालूम, मालिक।”—बनारसी कातर भाव से बोला।
“डोगरा की जिस औरत से आशनाई थी, जिसके मर्द को जेल भिजवाने के लिए तुमने अदालत में झूठी गवाही दी थी, उसके बारे में तो जानते होगे कि वह कहाँ गयी ?”
“मालिक, मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि पहले तो वह अपना सुभाष नगर का फ्लैट छोड़कर मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरींग कॉलेज की कालोनी के एक फ्लैट में रहने लगी थी और बाद में जब डोगरा ने यह शहर छोड़ा था तो वह भी यह शहर छोड़ गयी थी।”
“यानी दोनों जहाँ गये थे, इकट्ठे गये थे ?”
“हो सकता है।”
“इस बारे में तुम्हें पक्का कुछ नहीं पता ?”
“नहीं।”
“किसी और को पता हो ?”
“मैं नहीं जानता, मालिक।”
“अब्दुल रजाक तुमसे बहुत पहले से कम्पनी का पैकर था, इसलिए जरूर वह डोगरा का तुमसे कहीं ज्यादा भरोसे का आदमी रहा होगा। उसे तो डोगरा की खोज-खबर जरूर होगी ?”
“हो सकता है।”
“वह यहाँ कहाँ रहता है ?”
“वह तो यहाँ नहीं रहता, मालिक।”
“क्या ?”—विमल आँखें निकालकर बोला—“वह तो पक्का इलाहाबाद का रहने वाला था ?”
“था, मालिक, लेकिन अब नहीं रहता। मालिक, गाजीपुर की अफीम की सरकारी फैक्टरी जैसी ही एक फैक्टरी मध्य प्रदेश में नीमच शहर में भी है। जैसे गाजीपुर फैक्टरी की छत्रछाया में यहाँ अफीम की स्मगलिंग होती है, वैसे ही नीमच वाली फैक्टरी की छत्रछाया में उधर भी अफीम की स्मगलिंग होती है। अब्दुल रजाक को उधर भेज दिया गया था।”
विमल को याद आया कि एरिक जॉनसन कम्पनी का एक ऑफिस भोपाल में भी था।
“ऐसा कैसे हो सकता है”—वह बोला—“कि एरिक जॉनसन कम्पनी यहाँ और बनारस में तो बन्द कर दी गयी हो, लेकिन भोपाल में चलती रहने दी गयी हो ?”
“एरिक जॉनसन कम्पनी तो सब जगह से बन्द हो गयी है, मालिक। नीमच वाली फैक्ट्री से चोरी की अफीम की स्मगलिंग का सिलसिला किसी और ओट में चलता है, जिसकी कि मुझे खबर नहीं।”
“यानी कि किसी और नाम से कोई और एक्सपोर्ट फर्म ?”
“हाँ, मालिक।”
“और यह भी जरूरी नहीं कि वह भोपाल में ही हो ?”
“हाँ, मालिक।”
“एरिक जॉनसन की जगह लेने के लिए इधर नाम बदलकर कोई नयी कम्पनी नहीं चलाई गयी ?”
“नहीं, मालिक। अगर चलती तो मुझे जरूर खबर लगती। मुझे पूरा विश्‍वास था, डोगरा साहब अपने इस पुराने खिदमतगार को नजरअन्दाज नहीं कर सकते थे।”
“बको मत।”
बनारसी ने दाँत भींच लिये।
“डोगरा की दो लड़कियाँ थीं”—विमल कुछ क्षण खामोश रहने के बाद एक नयी उम्मीद के साथ बोला—“जो नैनीताल के किसी रेजीडेन्शल स्कूल में पढ़ती थीं ?”
“वह तो बहुत बीती बात हो गयी, मालिक।”—बनारसी बोला—“उन दोनों की तो शादियाँ हो चुकी हैं। दोनों की तो तभी शादियाँ हो गयी थीं, जब डोगरा साहब इलाहाबाद में ही रहते थे। अलबत्ता कम्पनी तब तक बन्द हो चुकी थी।”
“कहाँ हुई हैं दोनों की शादियाँ ?”
“विलायत में। डोगरा साहब के दोनों दामाद विलायत में कहीं रहते हैं।”
“ओह !”
डोगरा का पता लगने का कोई जरिया हाथ में नहीं आ रहा था। उसने असहाय भाव से नीलम की तरफ देखा।
“बनारसी”—नीलम मीठे स्वर में बनारसी से सम्बोधित हुई—“अगर तुम डोगरा और सुरजीत कौर दोनों में से किसी की तलाश का तरीका, कोई भी कारआमद तरीका, सुझा सको तो मैं तुमसे वादा करती हूँ कि साहब न तुम्हें कोई खतरनाक सजा देने का खयाल छोड़ देंगे, बल्कि ये तुम्हें इतना बड़ा इनाम देंगे, जितना कभी तुम्हें डोगरा से भी हासिल नहीं हुआ होगा।”
“लेकिन, मालकिन”—बनारसी गिड़गिड़ाकर बोला—“मैं कुछ जानता तो होऊँ !”
“कोई फायदा नहीं।”—नीलम विमल की तरफ घूमी और निर्णयात्मक स्वर में बोली—“अब वक्‍त की बरबादी के अलावा यहाँ से कुछ हासिल नहीं होने वाला।”
विमल बनारसी से दो कदम परे हट गया और फिर बड़े आत्मीयतापूर्ण स्वर में बोला—“तुम कुछ नहीं जानते तो न सही, अब एक आखिरी बात और बताओ।”
“कौन-सी बात मालिक ?”
“घर में आम कौन-सा लाते हो ?”
“सफेदा या चौसा।”—बनारसी उलझनपूर्ण स्वर में बोला—“कभी-कभी दशहरी।”
“आम मौसमी फल है। बारह महीने तो मिलता नहीं। यहाँ से जाने से पहले मैं तुम्हारे घर वालों के लिए एक ऐसा इन्तजाम करके जाना चाहता हूँ कि एक आम उन्हें घर में बारह महीने दिखाई दिया करे।”
“कौन-सा ?”
“बनारसी लंगड़ा।”
इससे पहले कि बनारसी कुछ समझ पाता, विमल ने रिवॉल्वर से एक फायर किया और उसका एक घुटना फोड़ दिया। बनारसी ने चिल्लाने की कोशिश की तो उसने रिवॉल्वर की नाल उसके हलक में घुसेड़ दी।
“मैंने कहा, जी”—भीतर से बनारसी की बीवी की व्याकुल आवाज आयी—“यह कैसी आवाज थी ?”
“कुछ नहीं, आँटी जी।”—नीलम बड़े आश्‍‍वासनपूर्ण स्वर में बोली—“बाहर गली में कोई पटाखा फूटा मालूम होता है।”
बनारसी के घुटने की कटोरी के परखच्‍चे उड़ गये थे और वहाँ से भल-भल करके खून बह रहा था। हलक में रिवॉल्वर की लम्बी नाल फँसी होने के कारण उसके मुँह में से केवल घों-घों की आवाज निकल रही थी और उसकी मुँदती हुई आँखों से लग रहा था कि उस पर बेहोशी तारी होती जा रही थी।
“बनारसी।”—विमल बड़े कटु स्वर में बोला—“जो मैं कह रहा हूँ, उसे गौर से सुनना और हमेशा याद रखना। मैं तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक इरादा लेकर यहाँ आया था, लेकिन मैं तुम्हें बहुत मामूली सजा देकर यहाँ से जा रहा हूँ। अपने बजरंगबली की खैर मनाओ कि मुझे तुम्हारे बाल-बच्चों पर तरस आ गया, खैर मनाओ कि तुमने अपनी एक टांग ही खोई है, अपनी नौजवान लड़कियों की इज्जत-आबरू नहीं खोई, अपने समेत सबकी जिन्दगी नहीं खोई। मैं जा रहा हूँ, लेकिन बाद में अगर मुझे पता लगा कि मेरे बारे में तुमने किसी के सामने—अपनी बीवी तक के सामने—जुबान भी खोली है तो मुझे खबर हुए बिना नहीं रहेगी। मुझे यहाँ दोबारा लौटना पड़ा तो समझते हो न तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का क्या अँजाम होगा ?”
बनारसी बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिला पाया।
“तुमने मुझे पहचाना नहीं है, लेकिन बाद में तुम बहुत सोचोगे। बाद में सोच-सोचकर हलकान होवोगे, इसलिए बताकर जा रहा हूँ कि मैं वही एरिक जॉनसन कम्पनी का एकाउंटेंट सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल हूँ, जिसको दो साल की जेल की सजा दिलवाने में तुम्हारी झूठी गवाही का भी हाथ था। मेरी तरफ से तुम्हें पुलिस के पास जाने की या कर सकते होवो तो अपने बाप डोगरा को खबरदार करने की पूरी इजाजत है, लेकिन ऐसा करते वक्‍त अपना अँजाम याद रखना, अपने बीवी-बच्‍चों का अँजाम याद रखना।”
तभी बनारसी की आँखें मुँद गयीं।
वह बेहोश, हो गया था।
विमल ने रिवॉल्वर उसके हलक से खींच ली।
नीलम ने आगे बढ़कर यूँ बीच के दरवाजे की कुण्डी खोली कि कुण्डी खुलने की आवाज भीतर न जाती।
फिर वे वहाँ से विदा हो गये।
“कितनी हैरानी की बात है”—विमल बोला—“कि मैं इतने साल एरिक जॉनसन कम्पनी में नौकरी करता रहा और मुझे कभी भनक भी नहीं लगी कि वह कोई एक्सपोर्ट फर्म नहीं, बल्कि अफीम की स्मगलिंग का अड्डा था और डोगरा स्मगलरों के किसी बहुत बड़े गैंग का मामूली पुर्जा था।”
वे दोनों होटल वापस लौट चुके थे और उस वक्‍त सोने की तैयारी कर रहे थे।
“अफीम के बारे में बनारसी ने जो बातें कही थीं”—नीलम ने पूछा—“सच कही थीं ?”
“सच ही कही होंगी। ऐसी बातें गढ़ लेने लायक काबलियत वाला आदमी लगता था वह तुम्हें ?”
“नहीं।”
“बड़ा नामुराद नशा है अफीम। मेरा मामा अफीम खाया करता था। उसकी सूरत आज भी मुझे याद आ जाती है तो मुझे यूँ लगता है जैसे मैंने प्रेत देख लिया हो। अफीम के नशे में आदमी जिन्दा ही मुर्दा जैसा लगने लगता है। रंगत में कालापन आ जाता है। आँखों के पपोटे इतने भारी हो जाते हैं कि लटकते मालूम होते हैं। पुतलियाँ सिकुड़ जाती हैं। भूख-प्यास मारी जाती है। भीतर से जिस्म खोखला हो जाता है। वक्‍त पर अफीम का अँटा न मिलने पर हाथ-पाँव काँपने लगते हैं, मुँह से झाग निकलने लगता है और शरीर यूँ ऐंठने लगता है, जैसे उस आवारागर्द कुत्ते का ऐंठता है, जिसे कमेटी वालों ने मार डालने के लिए जहर दिया हो।”
“अफीम खाई कैसे जाती है ?”
“कई तरीके हैं अफीम को नशे के लिए जिस्म में पहुँचाने के। कई लोग वैसे ही उसकी गोली-सी बनाकर बर्फी या किसी और मीठी चीज में रखकर खा जाते हैं तो कोई घोलकर पीते हैं। कुछ लोग अफीम को तम्बाकू की तरह आँच पर तपाकर उसके कश लगाते हैं। ऐसी अफीम को चंडू कहते हैं। चंडू बनाने का एक खास तरीका होता है। इसके लिए अफीम को पानी में उबालकर, मैल काछकर फेंक देते हैं। फिर उसे सुखाकर रख लेते हैं। पीने के लिए उसे एक लोहे की सलाई पर जरा-सा निकालकर उसे किसी लौ में गर्म करते हैं और तब फिर उसे एक विशेष नली में रखकर उसका धुवाँ पीते हैं। ज्यादा बड़े नशेड़ी ढेर सारा चंडू चिलम में रखकर भी पीते हैं। इसका नशा फौरन होता है।”
“तुम इन बातों के बारे में इतना कुछ कैसे जानते हो ?”
“हमारे गाँव में इस नशे का बड़ा प्रचलन था। मैंने अफीम के सारे नजारे अपनी आँखों से देखे हुए हैं।”
“ये विलायती हिप्पी जो नशा करते है, वो क्या होता है ?”
“वो भी यही कुछ होता है। वे लोग क्योंकि समृद्ध देशों से आते हैं, इसलिए वे इसके हर आधुनिक रूप से भी वाकिफ हैं। दरअसल अफीम का स्वाद बेहद कड़ुवा होता है और उसके जुबान पर लगने भर से उबकाई आने लगती है, इसलिए इस नशे का आनन्द लेने के लिए ज्यादा सहूलियत के तरीके ढूँढ निकाले गये हैं। अफीम से मॉर्फीन बनती है, जो अफीम से कई गुणा अधिक शक्तिशाली होती है। नशे के लिए मॉर्फीन का इन्जेक्शन लिया जा सकता है। थोड़ी मात्रा में मॉर्फीन और अफीम से निकाले गये अन्य रसायन जीवनरक्षक दवा—लाइफ सेविंग ड्रग—का काम करते हैं, लेकिन अधिक मात्रा में इसका सेवन केवल नशे के लिए, इससे हासिल होने वाली तरंग के लिए और मानसिक क्लेश या चिन्ता से छुटकारा पाने के लिए करते हैं।”
“ओह !”
“मॉर्फीन का और संशोधित संस्करण हेरोइन होता है, जो एक सफेद रंग का पाउडर होता है। उससे भी कई कदम आगे की चीज एलएसडी है। विदेशों में हेरोइन और एलएसडी का प्रचलन ज्यादा है। नशेबाज लोग खुद ही वह पाउडर घोलकर उसका इंजेक्शन तैयार कर लेते हैं और उसकी पिचकारी अपने शरीर की किसी रग में छोड़ देते हैं। ये इतने खतरनाक नशे हैं कि अफीम के मुकाबले में इनमें आनन्द अगर सौ गुणा है तो जिन्दगी ये हजार गुणा कम कर देते हैं। ऐसा नशा करने वाले का आखिरी अँजाम मौत है, जिसके वह बहुत जल्द करीब पहुँच जाता है।”
“सरकार”—नीलम के शरीर ने झुरझुरी ली—“इस बारे में कुछ नहीं करती ?”
“करती है। हर मुल्क की सरकार करती है। योरोप और अमेरिका में तो ऐसे नशों की रोकथाम के लिए स्पेशल पुलिस होती है और ऐसे नशेबाजों के इलाज के लिए स्पेशल अस्पताल होते हैं। वहाँ चौकसी ज्यादा है, इसीलिए तो ऐसे नशों के आदी हिप्पी हिन्दुस्तान और नेपाल की तरफ भागते हैं। यहाँ पर तो...”
“अब छोड़ो यह किस्सा। मेरे तो दिल को कुछ होने लगा है।”
“कमाल है। खुद ही सवाल करती हो और खुद ही जवाब नहीं सुनना चाहती हो।”
“इस बारे में इतना कुछ तुम कैसे जानते हो ?”
“पढ़ा हैं मैंने। अखबारों में और पत्रिकाओं में इन मादक पदार्थों से सम्बन्धित लेख वगैरह मैंने पढ़े हैं।”
“हूँ। वैसे तुम्हारा बनारसी से पेश आने का तरीका मुझे बहुत पसन्द आया।”
“शुक्रिया।”
“तुमने उसे अपना नाम क्यों बताया ? उसने पहचाना तो तुम्हें था नहीं ?”
“लगता तो यही था कि उसने मुझे पहचाना नहीं था, लेकिन फिर भी वह मक्‍कारी करता हो सकता था। मुझ पर जाहिर करना कि उसने मुझे पहचान लिया था, उसके लिए खतरनाक साबित हो सकता था, स्मगलरों की सोहबत में इतनी अक्ल तो उसे जरूर ही आ गयी होगी। और अगर उसने मुझे अब नहीं पहचाना था तो सारी घटना पर फिर से सोच-विचार करने पर उसे बाद में सूझ सकता था कि मैं सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल था, कि मैं सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल के अलावा और कोई हो ही नहीं सकता था। इसीलिए अपना नाम मैंने उसे खुद बताया। ऐसा करके मैंने उस पर एक ऐसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ा है कि वह मेरे बारे में जुबान खोलने की कभी हिम्मत नहीं कर सकेगा। वह जब-जब अपनी लंगड़ी टाँग को देखेगा, तब-तब इस बात के लिए खुदा का शुक्र मनायेगा कि उसके बीवी-बच्चे सलामत हैं और वह सिर्फ एक टाँग खोकर बहुत सस्ता छूट गया है। नीलम, देख लेना वह तो यह तक छुपाने की कोशिश करेगा कि उसकी टाँग लंगड़ी कैसे हुई !”
नीलम की केवल आँखों में ही प्रशंसा का भाव न आया, बल्कि उसने बाकायदा विमल की पीठ ठोककर उसे शाबाशी दी।
वक्‍त-वक्‍त की बात थी—विमल ने मन ही मन सोचा—कभी नीलम ने ही उससे यह वादा लिया था कि वह मायाराम बावा का कत्ल न करे और आज वही औरत उसके भीषण कृत्यों के लिए उसे शाबाशी दे रही थी और उसे और ज्यादा रौद्र रूप धारण करने के लिए प्रेरित कर रही थी।
“एक बात और बताओ।”—कुछ क्षण की खामोशी के बाद नीलम बोली।
“पूछो।”
“उस भरे-पूरे इलाके में तुम्हारी गोली चलाने की हिम्मत कैसे हुई ? गोली की आवाज सुनकर अगर वहाँ लोग जमा हो जाते तो ?”
“वहाँ कोई आया था ?”
“नहीं आया था लेकिन...”
“तुमने बनारसी की बीवी को कहा था कि कहीं पटाखा छूटा था तो उसने जिद की थी कि नहीं, गोली चली थी, पटाखा नहीं छूटा था ?”
“नहीं।”—नीलम बोली। इस बार उसने अपने इंकार के साथ प्रतिवाद सूचक ‘लेकिन’ न लगाया।
“ऐसा फिल्मों में और जासूसी उपन्यासों में ही होता है कि एक गोली चली और ‘क्या हुआ, क्या हुआ’ करते लोगों की भीड़ जमा हो गयी। हकीकतन ऐसा कुछ नहीं होता। सौ में से निन्यानवे आदमी नहीं जानते कि गोली चलने की आवाज कैसी होती है। हजार में से नौ सौ निन्यानवे आदमियों ने कभी जिन्दगी में असली रिवॉल्वर की सूरत नहीं देखी होती। गोली चलने की आवाज तोप का गोला चलने की या बादल गरजने की आवाज नहीं होती। सोडे की बोतल का ढक्कन खोले जाने की आवाज उससे जरा ही कम होती होगी। कार या ट्रक के बैकफायर करने की आवाज तो गोली की आवाज से ज्यादा ऊँची होती है। और फिर पिस्तौल-तमंचे क्या रिहायशी इलाकों में रोज चलते हैं जो घर-घर अपने कामकाज में लगे लोगों को सूझेगा कि कहीं गोली चली थी। ऊपर से...”
“बस-बस !”—नीलम हाथ बढ़ाकर उसका मुँह बन्द करती बोली—“तुमने तो लैक्चर ही झाड़ना शुरू कर दिया।”
विमल खामोश हो गया। उसने हौले से उसकी लम्बी, सुडौल, गोरी उँगलियों पर एक चुम्बन अँकित कर दिया।
“अब आगे क्या इरादा है ?”—नीलम ने पूछा।
“डोगरा का पता लगता तो मालूम नहीं हो रहा।”—विमल तनिक मायूस स्वर में बोला—“इस शहर में ऐसा कोई तरीका नहीं दिखाई दे रहा, जिसके माध्यम से डोगरा का पता मालूम हो सके। मैं तो डोगरा की लड़कियों की फिराक में नैनीताल तक जाने का इरादा कर रहा था, लेकिन बनारसी कहता है कि दोनों लड़कियों की कब की शादी हो चुकी थी। अब तो एक ही तरकीब से डोगरा का पता मालूम होने की उम्मीद हो सकती है।”
नीलम ने प्रश्‍नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“बनारसी कहता है कि इस शहर से सुरजीत डोगरा के साथ ही विदा हुई थी। इस लिहाज से अगर सुरजीत का पता मालूम हो जाये तो भी डोगरा का पता मालूम हो सकता है।”
“और सुरजीत का पता कैसे मालूम होगा ?”
“उसके माँ-बाप से या उसकी उस सहेली से, जिसके घर जाने या जिसके साथ सिनेमा देखने जाने के बहाने वह मुझे बेवकूफ बनाया करती थी। वह उसकी बहुत पक्‍की सहेली थी और माँ-बाप आखिर माँ-बाप होते हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि सुरजीत का इन लोगों से सम्पर्क जरूर होगा।”
“और अगर न हुआ तो ?”
“तो कोई और तरीका सोचेंगे।”
“कोई और तरकीब है तुम्हारे दिमाग में ?”
“इस वक्त नहीं है, लेकिन निकालनी पड़ेगी। आज की तारीख में सुरजीत और डोगरा को ढूँढ निकालना मेरी जिन्दगी का पहला और आखिरी मिशन है।”
“तुम्हें कामयाबी जरूर हासिल होगी।”—नीलम दृढ़ स्वर में बोली।
“हमारे धर्म ग्रंथ में लिखा है कि सोचै सोचि‍ न होवई जे सोची लख वार। अपनी तरफ से तो मैं अपने मिशन में कामयाब होने के लिए जमीन-आसमान एक कर दूँगा, आगे वाहेगुरु की मर्जी है कि वह मेरी सोची सोच होने देना चाहता है या नहीं।”
“सरदारजी, अगर यह बात सही है कि मजलूम और सताए हुए लोगों का मददगार खुदा होता है तो तुम अपने मिशन में जरूर कामयाब होवोगे।”
विमल खामोश रहा।
नीलम ने अपनी बाँहें फैलाईं और उसे यूँ अपने अँक में भर लिया जैसे कोई माँ अपने अबोध शिशु को कलेजे से लगा लेती है—दुनिया-जहान की बलाओं से उसकी हिफाजत करने के लिए, उसकी मुसीबतें अपने सिर ले लेने के लिए।
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सुरजीत का मायका यमुना नदी के पार नैनी बाजार में था।
सुबह-सवेरे ही विमल और नीलम नैनी बाजार पहुँच गये। विमल ने दूर से ही नीलम को समझा दिया कि सुरजीत के माँ-बाप का मकान कौन-सा था।
“जोर-जबरदस्ती का जैसा सलूक मैंने बनारसी के साथ किया था”—विमल ने नीलम को बताया—“वैसा मैं अपने सास-ससुर के साथ नहीं कर सकूँगा। ऊपर से अगर उन्होंने मुझे पहचान लिया तो वे अपनी लड़की को खबर किये बिना नहीं मानेंगे कि मैं उसकी तलाश में यहाँ आया था। हो सकता है वे पुलिस को भी मेरी खबर कर दें। इसलिए वहाँ तुम अकेली ही जाओ।”
“ठीक है।”—नीलम बोली।
“तुम अपने-आपको सुरजीत की सहेली बताना, ऐसी सहेली, जिसका पति फॉरेन में रहता है और जो बरसों बाद इलाहाबाद लौटी है। तुम उन्हें कहना कि तुम सुरजीत से मिलने सुभाष नगर गयी थीं लेकिन वह वहाँ...”
“बस करो। मुझे बिल्कुल ही मिट्टी का माधो मत समझो। मैं सब सम्भाल लूँगी।”
“वैरी गुड।”
नीलम विमल को सड़क पर खडा छोड़कर आगे बढ़ गयी।
विमल समीप ही स्थित एक टी स्टॉल में जा बैठा। उसने अपने लिए चाय बनवाई।
अपनी चाय की अभी उसने एक ही चुस्की भरी थी कि नीलम वापस लौट आयी।
विमल ने चाय छोड़ दी, उसके पैसे चुकाये और सड़क पर आ गया।
दोनों सड़क पर अगल-बगल चलते आगे बढ़े।
“क्या हुआ ?”—विमल ने तनिक व्यग्र भाव से पूछा।
“सुरजीत के माँ-बाप अब वहाँ नहीं रहते।”—नीलम बोली—“उन्हें वह मकान छोड़े कई साल हो चुके हैं।”
“ओह !”—विमल के स्वर में निराशा का स्पष्ट पुट था।
“मैंने आसपास से पूछताछ की थी। किसी को भी ठीक से मालूम नहीं है कि वे लोग कहाँ चले गये हैं। कोई कह रहा था कि उनका कोई भतीजा इंग्लैंड में रहता है और वे उसके पास चले गये तो कोई लुधियाने के पास किसी गाँव का नाम ले रहा था, जहाँ के कि वे मूलरूप से रहने वाले हैं। बहरलाल यह सम्भावना किसी ने भी व्यक्त नहीं की है कि वे इलाहाबाद में ही कहीं और रह रहे हो सकते हैं।”
“यहाँ मकान उनका अपना था। अगर उन्होंने यहीं रहना था वे यहीं अपने मकान में रहते।”
“बिल्कुल ठीक। खासतौर से जबकि वे लोग यह मकान बेचकर यहाँ से गये हैं।”
“यानी कि कामयाबी की राह का एक दरवाजा और बन्द।”
नीलम ने बड़ी हमदर्दी के साथ विमल का हाथ दबाया और बोली—“अब उसकी सहेली के यहाँ चलें ?”
“हाँ। फिलहाल तो वहीं एक आखिरी उम्मीद बाकी है।”
सुरजीत की कथित पक्‍की सहेली का नाम कुमुद जोशी था। वह जॉर्ज टाउन के इलाके में महात्मा गाँधी मार्ग के पास जिस मकान में रहती थी, वह उसके पति की जाती मिल्कियत था। उसका पति उनके घर के समीप ही स्थित यूनाइटेड बैंक में काम करता था। गनीमत थी कि इतने सालों में उसका नगर से बाहर कहीं ट्रांसफर नहीं हुआ था और वे लोग अभी भी वहीं उपस्थित थे।
वे लोग नवविवाहित जोड़े के ही बहुरूप में वहाँ पहुँचे।
उस वक्त कुमुद घर में अकेली थी। उसका पति ऑफिस जा चुका था और बच्‍चे अगर थे, तो वे भी स्कूल जा चुके थे।
नीलम ने उसे अपना परिचय चण्डीगढ़ से आयी सुरजीत की बचपन की सहेली के रूप में दिया, उसे बताया कि अभी पिछले महीने ही उसकी शादी हुई थी और शरमाने-सकुचाने की बेमिसाल अदाकारी का नमूना पेश करते हुए उसने अपने ‘पति’ का कुमुद से परिचय कराया।
विमल ने बड़े अदब से उसका अभिवादन किया।
कुमुद ने बड़े प्रेम भाव से दोनों को बैठक में बिठाया और उनके लिए चाय बना कर लायी।
“मैंने उसे शादी का कार्ड भेजा”—नीलम बड़े शिकायतभरे स्वर में बोली—“उसे अलग से चिट्ठी भी लिखी लेकिन वह आयी ही नहीं। अब इत्तफाक से इनका इलाहाबाद आने का प्रोग्राम बन गया—सेल्समैन की नौकरी करते हैं न ये, शहर-शहर घूमते हैं—जिस करके मैं भी इनके साथ आ गयी, लेकिन यहाँ आकर पता लगा कि सुरजीत के घर में तो कोई और ही रह रहा था। हम नैनी बाजार उसके माँ-बाप के घर पहुँचे तो मालूम हुआ कि वे भी अब वहाँ नहीं रहते थे। बहुत पशोपेश में पड़े हम। फिर मुझे आपका खयाल आया, अपनी चिट्ठियों में सुरजीत आपका अक्सर जिक्र किया करती थी। बड़ी मुश्‍किल से आपका पता तलाश करके हम यहाँ तक पहुँचे हैं। अब आप ही बताइए कि हम सुरजीत से कहाँ मिलें ?”
कुमुद ने उत्तर न दिया। उसकी आँखों में अवसाद की छाया तैर गयी।
“क्या बात है, दीदी ?”—नीलम व्याकुल भाव से बोली—“खैरियत तो है ?”
“है भी और नहीं भी।”—कुमुद कठिन स्वर में बोली।
“क्या मतलब ?”
“वैसे तो सुरजीत सही-सलामत है, लेकिन…लेकिन अब वह इलाहाबाद में नहीं रहती।”
“अच्छा ! ट्रांसफर हो गया होगा जीजाजी का।”
“वो बात नहीं।”
“तो ?”
“आपको सुरजीत ने खुद कभी कुछ नहीं लिखा ?”
“किस बारे में ?”
“अपनी जिन्दगी की किसी बुरी वारदात के बारे में ?”
“बुरी वारदात !”—नीलम और भी अकुलाई—“जीजाजी तो सही-सलामत हैं, दीदी ?”
“सही-सलामत ही होंगे।”
“होंगे क्या मतलब ?”
“दरअसल…दरअसल सुरजीत अब अपने पति के साथ नहीं रहती।”
“ओह ! कहीं तलाक-वलाक तो नहीं हो गया ?”
“यही समझ लो।”
“लगता है, आप कोई बात जुबान पर लाने से झिझक रही हैं। दीदी, अब तो जब तक मैं सुरजीत से मिल नहीं लूँगी, मेरे दिल को चैन नहीं आयेगा। आपको तो सुरजीत का ताजा पता मालूम ही होगा ! आप मुझे बताइए अब वह कहाँ रहती है ! मैं खुद उससे पूछकर आती हूँ कि असल माजरा क्या है ! मुझे तो पहले ही लग रहा था कि जरूर कोई खास ही वजह हो गयी होगी, जो वह मेरी शादी में नहीं आयी।”
“वह अब इलाहाबाद में नहीं रहती।”
“वह तो आपने अभी बताया ही था। अब कहाँ रहती है वो ?”
“मुम्बई।”
“मुम्बई !”—नीलम ने अपने स्वर में निराशा का पुट देते हुए दोहराया—“वह तो बहुत दूर है।”
कुमुद चुप रही।
“मुम्बई कैसे पहुँच गयी ?”—नीलम ने पूछा।
“तकदीर ले गयी।”—कुमुद धीरे से बोली।
“आपके पास उसका मुम्बई का पता तो होगा ?”
“है।”
“आप मुझे उसका पता बताइए। मैं उसे चिट्ठी लिखूँगी और जिद करके सब हाल मालूम करूँगी। शादी के चक्‍कर में इनकी सारी छुट्टियाँ खत्म हो गयी हैं, इसलिए मुम्बई जाने के लिए ये और छुट्टी नहीं ले सकते। इतनी दूर अकेले जाने का मेरा हौसला नहीं होता। वैसे ये भी मुझे अकेले नहीं भेजेंगे। क्यों, जी ?”
“इतनी दूर”—विमल एक निहायत जिम्मेदार पति की तरह बड़ी गम्भीरता से बोला—“एक अजनबी शहर में तुम्हारा अकेले जाना तो ठीक नहीं !”
“देखा !”—नीलम बोली—“वैसे दीदी, दूरी की और शहर अजनबी होने की तो यह ओट ले रहे हैं, असल बात तो यह है कि ये मेरे बिना रह ही नहीं सकते। क्यों जी, गलत कह रही हूँ मैं ?”
विमल बड़े संकोचपूर्ण ढंग से हँसा।
“आप मुझे मुम्बई का पता बताइये, दीदी।”—नीलम फिर कुमुद से सम्बोधित हुई—“हमारा जब दाँव लगेगा, हम उससे मिलने मुम्बई जरूर जायेंगे। लेकिन चिट्ठी तो मैं उसे अभी लिखूँगी। जवाब तो देती है न वो ?”
“मुझे तो देती है।”
“फिर तो मुझे भी देगी।”
“मैं आपको सुरजीत का पता लिखकर देती हूँ।”—क्षणिक हिचकिचाहट के बाद कुमुद अपने स्थान से उठती हुई बोली।
वह उठकर बगल के कमरे में चली गयी तो नीलम ने विमल को आँख मारी और हँसती हुई बोली—“बन गया काम, सरदारजी।”
“श…श।”—विमल ने दबे स्वर में घुड़की दी—“वह सुन लेगी।”
दो मिनट बाद कुमुद वापस लौटी। उसने नीलम को एक कागज थमा दिया, जिस पर मुम्बई का एक पता लिखा हुआ था।
नीलम ने एक सरसरी निगाह कागज पर डाली और उसे विमल को थमाती हुई बोली—“इसे सम्भालकर रखना, जी। तुम्हें चीजें खो देने की बड़ी बुरी आदत है।”
“यह चीज नहीं खोयेगी।”—विमल निश्‍‍चयपूर्ण स्वर में बोला।
उसने कागज पर लिखे पते एक निगाह डाली, लिखा था:
सुरजीत कौर,
फ्लैट नम्बर चार, दूसरा माला
रूपा बाई मैंशन
22, हिल रोड, बान्द्रा वैस्ट
मुम्बई 400 050
उसने कागज तह करके अपने कोट की भीतरी जेब में रख लिया।
“दीदी।”—नीलम बड़े सम्वेदनशील स्वर में बोली—“आपको जो चिट्ठियाँ वह लिखती है, उससे क्या लगता है ? वह सुख-चैन से तो है ?”
“सुख-चैन से क्यों नहीं होगी ?”—कुमुद अवसादपूर्ण स्वर में बोली—“मुम्बई जैसे महँगे शहर में वह अपने फ्लैट में रहती है, हर सुख-सुविधा हासिल है उसे। इन्हीं सब चीजों की तो हमेशा से चाह थी उसे !”
“अगर यह बात है”—विमल पहली बार बोला—“तो आपकी आवाज से ऐसा क्यों नहीं लगता कि आप अपनी सहेली की मौजूदा खुशहाल जिन्दगी से खुश हैं ?”
“नहीं-नहीं।”—कुमुद हड़बड़ाई—“ऐसी तो कोई बात नहीं। मुझे तो खुशी है कि उसने तरक्‍की की है और वह मुम्बई में यहाँ की जिन्दगी से कहीं बेहतर जिन्दगी जी रही है।”
“दीदी।”—नीलम बोली—“कोई बात है, जो आप हमें बताना नहीं चाहतीं।”
“आप चिट्ठी लिखेंगी ही सुरजीत को।”—कुमुद बोली—“आपकी पक्‍की सहेली है, वह खुद ही सब कुछ बता देगी।”
“चलिए ऐसे ही सही।”—नीलम पटाक्षेप-सा करती बोली—“अब एक आखिरी प्रार्थना और है आपसे।”
“क्या ?”
“आप अगर आजकल में ही सुरजीत को चिट्ठी लिखें तो उसे यह मत लिखिएगा कि आपने उसकी चंडीगढ़ वाली सहेली नीलम को उसका मुम्बई का पता बताया था।”
“वह किसलिए ?”—कुमुद संशयपूर्ण स्वर में बोली।
“मैं उसे सरप्राइज देना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि मुम्बई में जब एकाएक मेरी चिट्ठी उसके पास पहुँचे तो वह हैरान हो जाये कि मुझे कैसे पता लग गया कि आजकल वह कहाँ थी !”
“ओह !”—कुमुद ने शान्ति की साँस ली।
“अब हम चलते हैं, दीदी।”—नीलम उठती हुई बोली—“अभी इन्होंने अपने एक-दो दोस्तों से भी मिलने जाना है और फिर कम्पनी का काम भी करना है।”
नीलम के उठते ही विमल भी उठ खड़ा हुआ।
कुमुद उनको दरवाजे तक छोड़ने आयी।
“आप शाम को खाने पर आइए।”—कुमुद औपचारिक स्वर में बोली—“तब ‘वो’ भी घर होंगे।”
“इस बार तो मुमकिन नहीं, दीदी।”—नीलम बड़े विनयशील स्वर में बोली—“इस बार तो हमें बहुत काम है और वक्‍त बहुत कम है। अगली बार सही।”
“जैसी आपकी मर्जी।”
“शाम को वैसे भी”—नीलम विमल की पसलियों में कोहनी चुभोती हुई बोली—“हमारे ये बहुत उतावले हो जाते हैं। अभी नयी-नयी शादी है न ?”
विमल खिसियाई-सी हँसी हँसा।
कुमुद बड़े शिष्ट भाव से हँसी।
फिर वे आखिरी बार अभिवादन करके वहाँ से विदा हो गये।
“फतह !”—कुमुद का आवास दृष्टि से ओझल हो जाने के बाद नीलम प्रसन्न भाव से बोली।
“तुम्हारी परफारमेंस बहुत शानदार थी।”—विमल प्रशंसात्मक स्वर में बोला—“खासतौर से वह आखिरी टच, जिसमें तुमने कुमुद को सुरजीत को यह लिखने से मना किया था कि उसने हमें उसका पता बताया था।”
“मना किया ही तो है”—नीलम तनिक चिन्तित स्वर में बोली—“यह मना हो भी जाये तो बात बने न ?”
“न भी मना होगी तो खास फर्क नहीं पड़ेगा। यह सुरजीत को तार देने से तो रही ! उसने ऐसा करना होता तो वह हमें पता ही न बताती। कोई भी बहाना करके टाल देती हमें। अपनी चिट्ठी में यह तुम्हारा जिक्र कर भी देगी तो उसकी चिट्ठी से पहले हम मुम्बई पहुँच जायेंगे।”
“यह ठीक रहेगा।”
उसी रोज वे इलाहाबाद से मुम्बई के लिए कूच कर गये।