लाल कोठी

दिन का उजाला किसी राक्षस के बड़े और काले साये से पराजित होकर गहरे अंधेरे में तब्दील होता जा रहा था। मैं डगमगाते कदमों से चलता हुआ घने जंगल के पगडंडियों से होता हुआ आगे बढ़ रहा था। चारों तरफ अजीब सी खामोशी थी। भयानक जंगल को पागल कर देने वाले सन्नाटे में, मैं अब बिल्कुल तन्हा था।

रह-रहकर ना जाने क्यों मुझे ऐसा क्यों महसूस हो रहा था जैसे कोई धीमी कदमों से मेरे पीछे भी चल रहा हो। मानो जैसे मेरी धड़कनों और मेरी तेज साँसों में परस्पर हौड़ लगी हो एक दूसरे से आगे निकल जाने की। अंततः अब मेरी दिल की धड़कनें तेज साँसों को भी पछाड़ने लगी थी।
जंगल में अभी तक किसी प्राणी की मौजूदगी के आसार नहीं दिखाई दे रहे थे। कोई जानवर, कोई पक्षी या हवा का झोंका, जो पत्तियों को छेड़कर थोड़ी सी सरसराहट पैदा कर दे। कुछ भी तो नहीं था वहाँ फिर मुझे अनजाना सा खौफ क्यों महसूस हो रहा था, पता नहीं।

मैं अपनी पूरी ज़िंदगी में इससे पहले कभी अंधेरे में इस प्रकार से जंगल से नहीं गुजरा  था। लेकिन शायद अब मेरा लाल कोठी तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं था।
‘क्या मैं सही दिशा में जा रहा हूँ।’ मैं खुद से ही बड़बड़ाया।
‘हाँ उस बुजुर्ग ने तो इसी दिशा की तरफ इंगित करते हुए कहा था।’ मैंने खुद को दिलासा देते हुए फिर से समझाने की कोशिश की।
लाल कोठी के वजूद को ले कर मेरे मन में संशय के बादल उमड़ने लगे थे। कहीं न कहीं मुझे इस बात का भी खौफ लग रहा था की यदि मैं लाल कोठी तक पहुँचने में भटक गया तो मेरा इसी जंगल से वापिस जाना शायद इतना आसान भी काम भी नहीं होगा। अब कहीं न कहीं मुझे अपने फैसले पर पछतावा होने लगा था। 

लेकिन मैं दिल ही दिल में यह फैसला कर चुका था की कुछ भी हो जाए मेरे कदम लाल कोठी तक पहुँचें बिना थमने वाले नहीं थे। यह मेरा दृढ़ निश्चय था। 

तभी अचानक मैंने सामने जो दृश्य देखे उसे देखते के साथ मेरे पाँव उसी स्थान पर जड़वत हो गए। मेरी आँखों की पुतलियाँ फैलने को विवश हो गईं। मैंने देखा की मुझसे कुछ दूरी पर एक सफेद रंग का साया हवा में लहरा रहा था। देखते ही देखते अब वह धीरे-धीरे मेरी ही दिशा में बढ़ती आ रही थी। मेरे हाथ-पाँव के कांपने का क्रम शुरू हो गया था और मेरी साँसे फूलने लगीं।
‘ओह! कहीं मैं जो देख रहा हूँ वह सच तो नहीं?’ मैंने घबराहट में खुद से यह सवाल किया।
अब मेरी स्थिति यह थी की देखते-देखते मेरे दिल की धड़कनें इतनी तेज हो गईं मानो जैसे छाती का पिंजड़ा तोड़ कर बाहर आ जाना चाहती हो।

अब वह साया बिल्कुल मेरे सामने थी। मेरा कालेज हलक तक आ कर फंस गया था। अगली हरकत से कुछ भी घटित हो सकता था। मैं इस अप्रयाशित घटना के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था।
तभी वह साया मेरे करीब आई और बोली, ‘क्या हुआ साहब! आप इतने खामोश से क्यों हो?’
मैंने प्रतियुत्तर में कुछ न कहा।
उसने अपनी कलाई को ऊपर उठाया और चुटकी बजाती हुई बोली, ‘कोई भूत-वूत देख लिया क्या साहब?’

मैंने अपनी सहर में बची-खुची पूरी ऊर्जा इकट्ठी की और बोला, ‘त... तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रही हो?’

‘साहब, मैं लाल कोठी में काम करती हूँ। आपको इस तरफ आते देखा तो मैं आपको लेने आ पहुंची।’ उसने बड़ी सहजता से जवाब दिया।
उसके मुख से लाल कोठी का नाम सुनते ही मेरे दिल को अजीब सा सुकून मिला और इस बात की पुष्टि भी हुई की वह कोई साया नहीं बल्कि जीती जागती युवती थी।
उसने लालटेन को ऊपर उठाया और पाने मुख के पास करती हुई बोली, ‘तो चले साहब या यहीं रुकने का इरादा है?’

यह कहती हुई उसने अपने प्रकट होती हुई हंसी को अपने हाथों से ढककर रोकने की नाकाम कोशिश की।
मेरी नजर जैसे ही उस युवती पर पड़ी मैं ठगा-सा रह गया। मैंने अपने जीवन में इतनी खूबसूरत लड़की नहीं देखी थी। मक्खन-मलाई सी रंगत, फूलों सी मासूमियत, कजरारी आँखें और गुलाबी होंठ।
‘हाँ... हाँ चलो ना। लालटेन तुम्हारी हाथ में है तो आगे तुम ही तो बढ़ोगी।’ मैंने यह जवाब देते हुए अपने भय को छिपाने की कोशिश की और उसके पीछे चल पड़ा।

अभी कुछ दूर चला ही था की तभी मेरे सामने से एक काली बिल्ली रास्ता काट रही थी, जिसकी सफेद-हरी आँख मुझे ही घूर रही थी। उसी पल
हूँऊsss! कहीं से कुत्तों के और ‘ऊँहंsss ऊँहंsss’ बिल्ली के रोने की आवाजें फिजा में घुलने लगीं।

मेरे जिस्म में खौफ की एक ठंडी लहर दौड़ गई। मैं उस से आगे निकलने की हौड़ में उसके बाजू से होता हुआ आगे जा पहुंचा। दरअसल मैं उस बिल्ली को पार कर के उस से आगे निकल जाना चाहता था तभी उस युवती ने टोक दिया- ‘साहब, अभी आगे बढ़ना सही नहीं होगा।’

‘क्यों?’
‘सुना है कि यदि बिल्ली रास्ता काट जाए तो यह अशुभ संकेत होता है। वैसे भी यह आवाज सुन रहे हैं ना, कुत्ते-बिल्लियों का रोना तो वैसे भी अशुभ माना जाता है।’

‘मैं इन दकियानूसी बातों में विश्वास नहीं करता। आओ आगे बढ़ें।’
‘ठीक है फिर चलिए।’
उसका ऐसा करना ही था की तभी वह बिल्ली उस रास्ते के ठीक बीचोंबीच आकर खड़ी हो गई। मेरी नजरें उसकी सफेद और हरे रंग की पुतलियों से जा मिली। वह अपलक मुझे निहारे जा रही थी जैसे मैंने आगे निकलकर कोई गुस्ताखी कर दी हो।
तभी अगले पल उस युवती ने लालटेन आगे कर के उस बिल्ली को डराने की कोशिश की। वह बिल्ली बिजली के झटके के साथ झाड़ियों की तरफ उछली और अंधेरे में कहीं गुम हो गई।

‘साहब, आगे बढ़ो अब वह नहीं आएगी?’ उस युवती ने यह बात बड़ी गंभीर मुद्रा में कही जैसे उसने सच कहा हो।
‘यह लाल कोठी और कितनी दूर है?’ मैंने बात बदलने की कोशिश की।  
‘बस जो अगला मोड़ दिख रहा है ना उसके सामने ही है।’ उस युवती की बात सुनते ही मुझे राहत मिली।

अगले कुछ क्षणों के बाद मैं लाल कोठी के सामने था। उसे देखकर लगता था जैसे अंग्रेजों के जमाने का आधारभूत संरचना हो। उस कोठी के बाहर जलते हुए दीपक का लौ हवाओं से बहादुरी से जूझ रहा था। इस बात की गवाही दे रहा था की वह जगह अब भी इंसानों के रहने लायक थी।

मगर जैसे ही मैं उस लाल कोठी के अंदर आया मैं एकदम से चौंककर रह गया। वहाँ बहुत साफ-सफाई थी और चीजें बड़ी करीने से रखी हुईं थीं। वह बात अलग थी की वहाँ रखी हुई वस्तु काफी पुराने समय की प्रतीत हो रही थीं। 

अब मैं उस लाल कोठी के एक कमरे में था। यह जगह उतनी भी खास जगह नहीं थी परंतु एक रात गुजारने के लिए इतनी बुरी भी न थी।
अचानक मेरी नींद खुली तो मैं चौंक गया। उस कमरे के एक कोने में वह युवती खड़ी थी और मेरी तरफ ही एकटक देखे जा रही थी।
मैं झटके से उठकर बैठ गया और उससे बुलंद आवाज में कहा, ‘इस वक्त तुम यहाँ क्या कर रही हो?’
‘वो... वो साहब! यहाँ बिजली की समस्या है ना, तो मैं लालटेन आपके कमरे में रखने आई थी।’ उसने बड़ी सहजता से जवाब दिया।

मैंने देखा की वह अब भी यहीं खड़ी थी शायद उसके में कुछ और इच्छा थी। शायद वो बख्शीश के लिए रुकी हुई थी।
मैंने उससे फिर से पूछा, ‘अब तुम जा सकती हो।’
‘साहब और कुछ चाहिए क्या?’ उसने अपनी दोनों पलकें उठाकर पूछा।

‘गर्मा-गर्म कॉफी मिल जाए तो बात बन जाए। सारी थकान एक क्षण में रफूचक्कर हो जाए।’ मैंने अपने दोनों बाजूओं को खोलते हुए कहा।

‘लेकिन उसे तो शराब बहुत पसंद थी।’ उस युवती ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा।
‘किसे?’ मैंने तपाक से पूछा।
‘था कोई एक।’ यह कहते के साथ वह कहीं खो गई।

‘लेकिन मैं जानना चाहता हूँ।’ मुझे उसकी इस बात में दिलचस्पी जाग गई।

‘सब बताऊँगी साहब, पहले आपके लिए कॉफी का तो इंतजाम कर दूँ।’

‘लेकिन इतनी रात में भला कहाँ से? यहाँ तो दूर-दूर तक कोई घर नहीं?’ मैंने उससे हैरत से पूछा।
‘बस अभी आई साहब।’ यह कहती हुई वह सरपट एक दिशा की तरफ दौड़ पड़ी।
‘ओह! बेचारी मेरी कॉफी के चक्कर से बिना लालटेन के ही चली गई। ना जाने वह अंधेरे का सामना करते हुए कैसे कॉफी तक का सफर तय कर पाएगी।’ मैं उसके लिए थोड़ा चिंतित हो गया।
यह कोठी गाँव के बाहरी सीमा के बाद पड़ता था तो उसको आने जाने में अच्छा खासा समय लगने वाला था इसलिए मैं बिस्तर पर ही पसर गया। थके होने की वजह से मैं जल्द ही नींद के आगोश में समा गया।
‘चटाकsss!’

अचानक इस प्रतिध्वनि से कमरा गूंज उठा और मेरी आँख खुल गई। मैंने अपने गाल को छू कर देखा तो दर्द से कराह उठा। ऐसा लगा जैसे किसी ने पूरे जोर से मेरे गाल पर तमाचा रसीद किया था। सामने दीवार पर ही एक दर्पण टंगा हुआ था। मैंने जैसे ही उस दर्पण के करीब आया मेरी चीख निकलते-निकलते रह गई।
‘ओह! यह नहीं हो सकता, मेरे गाल पर उंगलियों के निशान कैसे उभर आए?’ मैंने खुद से सवाल किया।

मैं बहुत चकित था क्योंकि मेरे जिस गाल पर उंगलियों के निशान थे वह बिस्तर की तरफ थी। इस स्थिति में किसी को चांटा मारना असंभव था। ऐसा करने के लिए उस शख्स को बिस्तर के नीचे होना पड़ता।

‘आखिर कोई बिस्तर के नीचे से चांटा कैसे मार सकता है?’ यह सोचते के साथ मैं स्तब्ध रह गया।
मैंने बिस्तर के नीचे झाँककर देखा तो वहाँ कोई भी मौजूद नहीं था। मैं थक-हारकर फिर से बिस्तर पर फिर से आकर लेट गया।

अभी लेटे हुए कुछ क्षण हुए थे की तभी मेरी आँख खुल गई। मगर इस बार किसी ने चांटा नहीं मारा था, बल्कि मुझे अपनी साँसे रुकती हुई महसूस हो रही थी। मुझे अपने पेट व सीने पर किसी भारी वजन का अनुभव हो रहा था।
ऐसा लग रहा था जैसे कोई मेरी छाती पर बैठ गया है। बढ़ते वक्त के साथ उसका दबाव और भी बढ़ता चला जा रहा था। अब मेरी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा था। मेरे चेहरे का रंग सुर्ख लाल हो चुका था।
मेरे चेहरे के फूलते नस और सांस लेने की जद्दोजहद से साफ उजागर हो रहा था की मैं सांस ले पाने में बिल्कुल भी असमर्थ हूँ।उस वक्त मुझे इस तरह से आँखें फाड़कर छटपटाते हुए देखकर कोई भी एक पल के लिए तो वह भी डर सकता था।

मगर बढ़ते वक्त के साथ अब मुझे भी ऐसा एहसास होने लगा की मेरे जीवन का अंतिम क्षण निकट आ चुका है।
चाहकर भी मेरे हलक से आवाज नहीं निकल रही थी, मानो किसी ने मेरा मुंह बंद कर दिया हो। खुद को अदृश्य बंधन से मुक्त करने की चेष्टा में लगा रहा। इस कोशिश में मेरा हाथ पानी के जग से जा टकराया और वह धड़ाम से आवाज करता हुआ फर्श पर जा गिरा। 

पानी कमरे के फर्श पर फैलने लगा था। मैं अपने आपको बहुत असहाय महसूस कर रहा था। ऐसा लाचार मैं अपने जीवन में कभी नहीं हुआ था।

तभी मैंने अंतिम प्रयास किया और अपने कुल देवता को मन ही मन याद किया और अपने शरीर में बची-खुची ऊर्जा को एकत्र करते हुए जोर से धक्का देने की कोशिश की।
‘धड़ामsss!’
इस आवाज के साथ वह कमरा गूंज उठा। ऐसा लगा जैसे की वास्तव में कोई बिस्तर से नीचे गिरा था। मैं अपने आप को हल्का महसूस कर रहा था।

मैं झट से फर्श पर खड़ा हो गया। मैंने कमरे में चारों तरफ दृष्टिपात किया परंतु वहाँ लालटेन की रोशनी में मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं दिखा।
मैं कुछ देर तक अवाक खड़ा और खुद को समझाने की कोशिश में जूझता रहा। मैंने पिछले कुछ पलों में जो कुछ भी यहाँ लाल कोठी में अनुभव किए थे वो अपने जीवन में कभी नहीं किए थे। यह सब घटनाएं मेरे मानसिक पटल पर गहरा असर छोड़ रहे  थे और मैं निर्णय लेने में असमर्थ हो रहा था।

तभी बाहर कोई आहट हुई। वह आवाज दरवाजे से न आ कर खिड़की के बाहर की तरफ से आ रही थी।
‘ओह! यह आवाज कैसी है? मुझे चलकर देखना चाहिए।’ यह कहते  के साथ मैं खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया।   

तभी जो दृश्य मैंने देखा उसे देखते ही मेरे पाँव जड़वत हो गए। मुझे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वहाँ बाहर सफेद रंग की आकृति थी जो हवा की तरह लहरा रही थी।

मैं बुरी तरह आतंकित हो उठा। मैं चीखना चाहता था, मगर अत्यधिक खौफ के कारण मेरी चीख हलक में ही अटक कर रह गई। मेरे जिस्म के तमाम मसामों ने एक साथ ढेरों पसीना उगल दिया और जिस्म बर्फ-सा ठंडा पड़ गया।

मैं चाहकर भी कुछ कह और समझ पाने की स्थिति में नहीं था। तभी वह साया आगे बढ़ी और दौड़ते हुए वहाँ पास के कुवें में कूद पड़ी।
छपाकsss!
की आवाज से वहाँ का वातावरण गूंज उठा। मैं दौड़कर उस तरफ गया। मैंने कुवें में झाँककर देखा तो यह देखकर मैं अवाक रह जा हूँ की वह कुवाँ तो बिल्कुल ही खाली था। उसमें पानी का कोई नामोनिशान नहीं था।

तभी मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा हो। खौफ की एक ठंडी लहर मेरी धमनियों में दौड़ गई। पसीने की एक महीन रेखा मेरे कान के पीछे से गले के रास्ते से होते हुए छाती तक जाने लगी जिसकी वजह से मेरे बदन में सिहरन सी उठी और मैं नख से शीर्ष तक कांप उठा।

‘साहब! आप यहाँ क्या कर रहे हो?’ यह जानी पहचानी आवाज सी लगी। मैंने पीछे पलटकर देखा तो वह युवती खड़ी थी जो मुझे यह लाल कोठी तक  सफलतापूर्वक लाने में मदद की थी।
मैंने घबराते हुए कहा, ‘त... तुम तुमने अभ मेरे कंधे पर हाथ रखा था क्या?’
‘हाँ साहब! लेकिन आप उस कुवें में क्या झांक कर देख रहे थे?’ उस युवती ने अपने दोनों भौंहों को ऊपर चढ़ाते हुए पूछा था।

‘क... कुछ भी तो नहीं। दरअसल अंदर थोड़ी सी बेचैनी हो रही थी तो सोचा की क्यों ना बाहर जा के टहल लूँ।’

मैंने उस सफेद साये वाली बात छिपाने का प्रयास करते हुए कहा। मुझे अच्छे तरीके से पता था की यदि मैंने उसे सफेद साये के कुवें में छलांग मारने वाली बात कही होती तो वह मेरी खिल्ली उड़ा सकती थी।

‘तभी मैं सोचूँ कि साहब कॉफी मँगवा के बाद कहाँ गायब हो गए?’ उसने धीमे से मुसकुराते हुए अपनी हथेली से होंठों और ठुड्डी को छिपाते हुए कहा।
‘वाह! तो तुम कॉफी ले भी आई? वाकई तुम्हारा कोई जवाब नहीं?’ यह कहते हुए मैं कमरे के अंदर दौड़ पड़ा।

सामने मेज पर कांच के गिलास में कॉफी दूर से ही दिख रही थी। मैंने झट से अपना हाथ बढ़ाया लेकिन अगले ही पल दुगनी गति से अपने हाथ को पीछे कर लिया।
यह देखकर वह युवती चौंक गई और बोली, ‘क्या हुआ साहब? कॉफी में कुछ गिर गया है क्या?’
‘न... नहीं तो। वो... वो कांच का गिलास है न तो ज्यादा गर्म होगा और ऐसे में हथेली से पकड़ने में आराम नहीं होगा ना?’ मैंने उसे रचनात्मक जवाब देते हुए कहा।

दरअसल मेरे ऐसा करने की वजह वह कॉफी का गिलास नहीं बल्कि पानी का जग था। वह जग उस मेज पर सही सलामत था और वह अब भी पानी से लबालब भर हुआ था जबकि कुछ देर पहले तो वह मेरे हाथ से अनजाने में गिर गया था। फर्श भी पूरा सूखा हुआ था जैसे वह चीख-चीख कर अपनी गवाही दे रहा हो की वह फर्श पर गिर ही नहीं था।

‘साहब हम पहाड़ी लोग तो स्टील के गिलास में ही अकसर चाय पीते हैं। उसे पीते वक्त हम लड़कियां तो दुपट्टे का इस्तेमाल कर लेती हैं।’ यह कहने के बाद वह कुछ क्षण रुकी फिर अपनी बात को पूरी करती हुई बोली, ‘आप ऐसा क्यों नहीं करते की अपने रुमाल का इस्तेमाल करें, इस से आपको कॉफी पीने में कोई तकलीफ भी नहीं होगी।’

‘वाह यह तुमने पहले क्यों नहीं बताया। यह तो बहुत अच्छी तरकीब बता दिया।’ यह कहते के साथ मैंने झट से कॉफी के गिलास को अपने हाथों में ले लिया।
मैं बिस्तर पर बैठ कर कॉफी को खत्म करने में लग गया। मुझे यह बिल्कुल भी ध्यान नहीं रहा की वह तब तक उसी कमरे में मौजूद थी। जैसे ही मैंने कॉफी खत्म करने के बाद गिलास को मेज पर रखा तो मेरी आँखें उसकी आँखों से जा टकराई।

वह मंत्रमुग्ध हो कर मुझे ही निहारे जा रही थी, मानो जैसे वह सम्मोहित हो गई हो। मैंने झट से अपनी हथेली हवा में लहराते हुए चुटकी बजाते हुए कहा, ‘अरे तुम अभी यहीं हो गई नहीं?’
मेरे इस हरकत से वह तंद्रा भंग हो गई और हड़बड़ाते हुई बोली, ‘साहब और कुछ जरूरत हो तो बेहिचक बता देना, मैं यहीं बाहर बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठी मिलूँगी।’

मैंने घड़ी में नजर दौड़ते हुए कहा, ‘हाँ ठीक है लेकिन मुझे नहीं लगता की रात क 2 बजे मुझे अब किसी चीज की जरूरत पड़ेगी। तुम निश्चिंत हो कर जा सकती हो।’
यह कहने के बाद मैंने कंबल को खींचा और अपने शरीर को ढककर सोने का उपक्रम शुरू कर दिया। तभी मुझे ऐसा एहसास हुआ जैसे उस कमरे में मेरे अलावा भी कोई मौजूद है। मैं झटके से बैठ गया और जो मैंने देखा उसे देखते कुछ पल के लिए मेरी साँसे ही रुक गई।
‘त... तुम गई नहीं अभी तक?’ मैंने सहमते हुए उस युवती से कहा।

मेरी यह बात सुनते ही वह हल्की सी मुस्कुराई और बोली, ‘साहब कुछ चाहिए आपको?’

‘अरे नहीं बाबा मुझे कुछ नहीं चाहिए और अब तुम यहाँ से जल्दी जाओ मुझे सोना भी है।’ मैंने इस बार डांटते हुए कहा।

इस बार मेरी आवाज शायद ज्यादा ही बुलंद थी जिसकी वजह से वह एक बार कांप गई थी। लेकिन मेरी बातों का उस पर कोई खास असर नहीं हुआ और वह मुसकुराती हुई मेरी तरफ बढ़ने लगी। वह मेरे पाँव के पास आने के बाद रुकी फिर बोली, ‘साहब! लाओ मैं आपके पाँव दबा देती हूँ, आप थक गए होंगे नया?’

मैंने झटके से पाँव मोड़ते हुए कहा, ‘नहीं मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता।’
‘लेकिन क्यों?’
‘क्योंकि तुम उम्र में मुझसे छोटी हो और मेरी बहन जैसी हो। हमारे यहाँ बेटियों के देवी तुल्य माना जाता है और बेटियों को पाँव छूने की इजाजत नहीं होती।’
‘ल... लेकिन साहब!’
‘तुम मुझे साहब ना कहो, मेरा नाम अटल पैन्यूली है। तुम अटल कह कर संबोधित कर सकती हो।’

‘सच साहब! आप कितने अच्छे हो।’ यह कहते के साथ उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। उसकी यह परिस्थिति देखकर मैं समझ गया था की यह सब वह आमदनी के लिए कर रही थी।
इतनी रात को दौड़कर कॉफी लाने के लिए जाना। आधी रात को किसी अजनबी के पाँव के दबाने की मंशा। यह सब उसकी गरीब होने का ही तो परिसूचक थी।
मुझे यह देखकर उस पर तरस आ गया और मैंने बिस्तर के एक कोने की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘आओ यहाँ बैठ जाओ, हमलोग कुछ देर के लिए बात करते हैं।’

वह बिना झिझकी वहाँ बैठ गई। मैंने माहौल अच्छा करने की कोशिश की और उससे बोला, ‘मेरी अगर कोई बहन होती ना तो वो बिल्कुल तुम्हारी तरह ही होती। लेकिन तुमने अपना नाम तो बताया ही नहीं?’

‘शगुन... शगुन उनियाल है मेरा नाम। मेरे पिता मुझे प्यार से शुग्गु बुलाया करते थे।’ यह कहते हुए उसकी आँखों में विशेष चमक थी।
‘कहा करते थे से क्या मतलब? क्या अब वो जीवित नहीं?’ मैंने उससे प्रश्न किया।
‘वो... वो... मेरा मतलब की जब में छोटी थी न तब मुझे शुग्गु कहा करते थे। अब तो बड़ी हो गई ना साहब।’ यह कहते हुए उसके चेहरे के भाव कुछ अलग से थे जैसे वह कोई बड़ी बात मुझसे छिपा रही हो।

‘तुमने मुझसे फिर से साहब कहा। मैंने मना किया था ना?’
‘परंतु...! मैं आपका नाम कैसे ले सकती हूँ।’
‘जैसे एक बहन भाई का नाम लेती है वैसे। अच्छा चलो तुम्हें मेरा नाम लेना अजीब लग रहा है तो भईया कह कर संबोधित करो।’

‘हाँ यह ठीक कहा। मैं आपको भईया ही बोलूँगी।’ यह कहते हुए उसकी आँखों में एक विशेष प्रकार की चमक थी, यह चमक शायद उसकी खुशी को दर्शा रही थी। उसकी बातों से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि वह घर में इकलौती संतान होगी जिसके कंधे पर घर चलाने का दायित्व होगा और जिसके वजह से वह लाल कोठी के मेहमानों का ख्याल रखने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी।

‘भईया एक बात पूछूँ?’ उसने मेरी तरफ अपनी दृष्टि जमाते हुए पूछा।
मैंने हाँ में अपना सिर हिला दिया जिसके बाद वह बोली, ‘आपको लाल कोठी का पता किसने बताया और आप यहाँ किसी काम से आए हो क्या?’
‘क्यों मुझे इस लाल कोठी में नहीं आना चाहिए था क्या? या जो यहाँ जाता है वापिस नहीं जाता।’
‘मेरा मतलब वो...!’
‘अरे पागल मैं मजाक कर रहा हूँ।’ मैंने हंसने की उपक्रम शुरू कर दिया फिर अपनी बात को पूर्ण करते हुए कहा, ‘दरअसल मैं बैंक में काम करता हूँ और मैं अंकेक्षण अधिकारी हूँ। मुझे काल सुबह मसूरी के किसी बैंक मैं ऑडिटिंग करनी थी। मैंने सोचा की मैं अपनी कार से रात को ही मसूरी पहुँच जाऊँ और वहाँ से देहरादून शहर को रात में तारों की तरह टिमटिमाते देख आनंद ले सकूँ।

लेकिन ऐन वक्त पर मेरी कार आधे रास्ते में जंगल में खराब हो गई। फिर मुझे किसी बुजुर्ग ने बताया की मेन रोड को छोड़कर आगे से एक कच्ची सड़क जाती है जो लाल कोठी नामक गेस्ट हाउस तक जाती है। मुझे आज की रात वहीं गुजारनी चाहिए।
मैंने सोचा की एक रात की ही तो बात है मैं सुबह यहाँ से तो निकल ही जाऊंगा। मैं उन पगडंडियों से होता हुआ अभी थोड़ी दूर चला ही था कि तभी तुम नजर आ गई। फिर उसके बाद की कहानी तो तुम्हें पता ही है।’

यह कहने के बाद मैंने राहत भरी सांस ली।
‘शगुन तुम यहाँ अकेली ही रहती हो क्या? तुम्हारे साथ देने के लिए कोई स्टाफ नहीं है क्या?’

‘भईया अब आप आ गए हो ना, तो फिर मैं अकेले कैसे हो सकती हूँ।’

‘लेकिन मैं तो सुबह होते ही चला जाऊंगा। यह लाल कोठी की देखरेख करने वाला कोई तो होगा ना?’
‘लोग इस तरफ आना बहुत कम ही पसंद करते हैं।’
‘क्यों?’
‘वो... वो दरअसल यह लाल कोठी अंग्रेजों के समय से है और अपने खस्ता हाल से जूझ रही है। यह मेन रोड से काफी दूर है और इस तरफ आने का पैदल रास्ता ही है जिसकी वजह से लोग यहाँ आना बहुत कम पसंद करते हैं।
मेरे पिता जी का स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता और मैं उनकी इकलौती संतान हूँ जिसकी वजह से इसकी देखरेख की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर ही है। हमारी पुश्तैनी जागीर है तो इसे छोड़कर जा भी नहीं सकते।’

‘शगुन, तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि यह लाल कोठी गले की ऐसी हड्डी है जिसे ना तो निगला स सकता और ना ही उगला ही जा सकता है।’
मेरे ऐसा कहते वो खिलखिलाकर हंस पड़ी और इस हंसी में मैंने भी उसका भरपूर साथ दिया। दरअसल मैं माहौल को हल्का करना चाहता था और उसका ध्यान इस लाल कोठी की समस्याओं से बाहर निकालना चाहता था।
‘आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ?’
मैंने हाँ में अपना सिर हिला दिया जिसे दखने के बाद वह बोली, ‘क्या आपकी शादी हो गई है?’
‘नहीं।’ यह कहते के साथ मैंने अपना सिर झुका दिया था।

‘क्यों भईया? अच्छ खासी तो नौकरी है। आपको भला कौन लड़की मना कर सकती है?’

‘दरअसल मैं जिस लड़की से प्यार करता हूँ उसका नाम सारिका है और वह भी मुझसे बेपनाह मुहब्बत करती है। परंतु हम दोनों अलग धर्म से हैं तो उसके घर वाले हमारे के दुश्मन बने बैठे हैं।

ऐसा नहीं है की सारिका मुझसे प्रेम नहीं करती लेकिन वह घर से भागकर शादी करने के खिलाफ है। वह कहती है की उसकी शादी नहीं हुई तो वह अपनी जान दे देगी। मेरी समझ में नहीं आता की मैं क्या करूँ?’

‘न भईया न ऐसा बिल्कुल भी न करने देना। आत्महत्या करना बहुत बड़ा गुनाह है। देखना ईश्वर सब ठीक कर देगा।’
‘हाँ उसी के भरोसे तो अब तक बैठा हूँ, लेकिन मुझे नहीं लगता की अब वह हमारी सुनेगा। क्योंकि प्यार के इस लड़ाई में हम इंसानों ने भगवान और खुदा को शामिल कर लिया है। अब यह लड़ाई दो धर्मों की वजह से पैदा हो गई है जिसका मुझे अब कोई समाधान नहीं दिखता।’

‘लेकिन इस बार भगवान और खुदा दोनों सहमत हो जाए और उसके घर वाले मान गए तो?’ यह कहते उसने अपनी रहस्यमयी दृष्टि मेरे ऊपर टीका दी।

‘तो शादी के बाद मैं तुम्हारे इस लाल कोठी में सारिका को ले कर जरूर आऊँगा।’
‘सच भईया।’
‘हाँ बिल्कुल, लेकिन मुझे पता है यह संभव नहीं।’
‘वह सब मेरे पर छोड़ दो।’ उसकी इस बात में बहुत बड़ा आत्मविश्वास दिखा था।
मैं उसकी इस बात को बचकानी समझने की सबसे बड़ी भूल कर दी और उसकी इस बात पर हंसने लगा।

‘अच्छा चलो बहुत रात हो गई है अब मुझे सोने दो। कल सुबह उठकर मुझे मसूरी के लिए भी निकलना है।’‘हाँ, मैं तो यह बात भूल ही गई थी। ठीक है भईया लेकिन अपना वादा याद रखना?’

‘कौन सा वादा?’
‘लो इतनी जल्दी भूल भी गए?’
‘ओ... अच्छा सारिका को साथ ले कर आने की बात। अरे तुम निश्चिंत रहो मैंने जो एक बार जो बात कह दी वो पत्थर की लकीर समझो।’

मेरे ऐसा कहते ही वो खुशी से वहाँ से जाने लगी। उसकी मुस्कुराहट देखकर ऐसा लगता था जिसे उसकी मन की मुराद पूरी हो गई हो।
मैंने घड़ी में देखा तो रात के तीन बजने में कुछ समय ही शेष थें। मुझे कम से कम 6 घंटे की नींद पूरी करनी जरूरी थी इसलिए मैं कंबल तान कर सो गया।

सुबह चिड़ियों के कलरव से मेरी नींद टूटी तो देखा की सूर्योदय हुए थोड़ा वक्त हो चला था। सूर्योदय का दृश्य इतना सुन्दर और मनमोहक होता है कि इसे केवल देखते रहने का मन करता है। मनुष्य क्षण भर के लिए अपनी सारी दुख परेशानियां भूल जाता है। सूर्योदय से उसके अंदर नई ऊर्जा का संचार होता है जिससे मन अत्यंत प्रसन्न हो जाता है। 
आसमान धीरे-धीरे लाल से सफेद होता जा रहा था और उगते हुए सूर्य के दृश्य को देख मैं पुलकित हो रहा था। लम्बे-लम्बे हरे पेडों से छनती हुई प्रात: कालीन सूर्य की किरणें बडा मनोहारी दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। थोड़ी ही देर में चिडियों की चहचहाट सुनाई देने लगी और आसमान में चिड़ियों के कई झुंड उड़ते दिखाई दिए। पेडों के पीछे सूरज की लुका-छिपी बड़ी सुन्दर लग रही थी।

उन दृश्यों को थोड़ी देर तक मैं और निहारने का दिल कर रहा था परंतु अब घड़ी में सात बजे का वक्त हो रहा था। मैं नहा-धोकर वहाँ से निकलने की तैयार करने लगा था।

मैंने शगुन को उस लाल कोठी में लगभग हर जगह तलाश की लेकिन वह मुझे कहीं नहीं दिखी। मुझे मसूरी के लिए जल्द ही निकलना था जिसकी वजह से मुझे देर हो रही थी इसलिए मैंने वहाँ काउन्टर पर दो पाँच सौ के नोट रख दिए और वहाँ से पैदल मार्ग से अपनी कार की तरफ बढ़ने लगा।
‘लगता है वह सुबह-सुबह अपने घर की तरफ गई होगी। शायद मेरे लिए कॉफी लेने गई होगी। फिलहाल तो मैं उसके लिए नहीं रुक सकता लेकिन वापसी में उससे मिलता हुआ जरूर जाऊंगा।’
यह कहते हुए मैंने अपने दिल को दिलासा दिया।

तभी मेरी नजर सामने पड़ी जिसे देखते ही मेरी भृकुटी तन गई। सामने से कुछ लोग एक समूह में आ रहे थे और उन सभी के हाथों में बड़े-बड़े लट्ठ थे। देखते ही देखते वो सभी मेरे पास आ गए और मुझे रोकते हुए कहा, ‘क्या तुम ही वो अजनबी हो जो कल रात लाल कोठी में रुके थे?’
‘हाँ मगर आप सब कौन हैं और यहाँ इस तरह से...!’
‘असंभव! यह असंभव है।’ मेरी बात काटते हुए उन भीड़ में से शख्स ने कहा।
‘इसमें असंभव वाली कौन सी बात है? आपको यकीन नहीं आता तो शुग्गु से पूछ लो?’

तभी उस भीड़ में से एक व्यक्ति ने मेरी बांह पकड़कर आश्चर्यजनक रूप से पूछा, ‘तुम्हें यह नाम शुग्गु कैसे पता?’

‘अरे भाई, वह लाल कोठी शगुन उनियाल का ही तो है। उसी ने मुझे बताया था की उसके पिता उसे शुग्गु के नाम से पुकारा करते थे। लेकिन आपलोग मुझसे इस तरह का बर्ताव क्यों कर रहे हैं?’

‘इसका जवाब तुम्हें लाल कोठी जा कर ही मिलेगा? आओ चलो हमारे साथ।’ यह कहता हुआ वह आदमी मेरे बाजू को बिना छोड़े लाल कोठी की दिशा में ले जाने लगा।
मैं अब कुछ देर में ही लाल कोठी के सामने खड़ा था। लाल कोठी के हालिया दृश्य देखकर मैं एक बार कांप उठा। जिस जगह पर अभी थोड़ी देर पहले तक लाल कोठी हुआ करती थी उसकी जगह एक खंडहर ने रूप ले लिया था।
‘असंभव, यह भला कैसे हो सकता है? मैंने कल रात यहीं गुजारी थी। अभी थोड़ी देर पहले तक तो यह किसी अंग्रेजों के जमाने की कोठी नजर आ रही थी, अचानक यह खंडहर में कैसे तब्दील हो गई।’ यह कहते के साथ मैं अपना सिर पकड़कर बैठ गया।

तभी मेरे अंदर करंट स दौड़ा और मैं दौड़कर उस कमरे के अंदर गया जहां मैं कल रात सोया था। उस कमरे की दशा देखकर तो मैं और भी ज्यादा अवाक रह गया था। जिस जगह मैं सोया था वहाँ टूटी हुई चारपाई लगी हुई थी जिसके चारों ओर मकड़ों ने अपना जाल बनाया हुआ था।
परंतु मैं जैसे ही वापिस मुड़कर बाहर जाने लगा तभी मेरी नजर वहाँ धूल फाँकती मेज पर पड़ी जिसके ऊपर दो पाँच सौ के नोट हवा में फड़फड़ा रहे थे।

मैंने उन नोटों को झट से हाथ में उठाते हुए एक ग्रामीण को दिखाते हुए बोला, ‘देखो मैं कहता था न की मैंने कल रात यहाँ गुजारी है। सुबह जब शुग्गु नहीं मिली तो मैंने ही यह नोट यहाँ रखे थे। मैं... मैं बिल्कुल सच बोल रहा था।’
‘हमने कब कहा की आप झूठ बोल रहे थे।’ एक ग्रामीण बोला।

‘तो फिर इस खंडहर का अचानक से प्रकट होने के पीछे क्या रहस्य है?’ मैंने अपने दोनों भौंहों को ऊपर उठाते हुए पूछा।

‘सब बताएंगे पहले आप इस जगह से चलो।’ फिर उसी ग्रामीण ने मेरी बाजू दुबारा से पकड़ ली जो मुझे यहाँ तक ले कर आया था।

मैं कुछ ही देर में अपने कार के पास खड़ा था। सभी ग्रामीणों ने एक दूसरे का मुंह ताका फिर उनमें से एक व्यक्ति मेरे करीब आया और बोला, ‘साहब दरअसल जो बात अब हम बताने वाले हैं उसे सुनकर शायद आपको विश्वास नहीं होगा। परंतु कुछ बातें ऐसी होती हैं की जिनके आपके या मेरे ना मानने से उसकी सच्चाई नहीं बदल जाती।’

‘तुम कहना क्या चाहते हो?’ मैंने रहस्यमयी दृष्टि उस ग्रामीण के ऊपर डालते हुए कहा।
‘आप जिस लाल कोठी में कल रात ठहरे थे वह भूतिया कोठी है।’
‘क्या?’
‘हाँ साहब!’
‘लेकिन मैं इन सब चीजों में विश्वास नहीं करता। यह सब अंधविश्वास का खेल है इसलिए भूत केवल गाँव वाले लोगों को ही दिखते हैं।’
‘लेकिन कल रात आपने भी देखा है। शुग्गु कोई जीती जागती लड़की नहीं बल्कि एक भटकती आत्मा है जो अंग्रेजों के समय से अपनी मुक्ति के लिए भटक रही है।’
‘क्या?’

‘हाँ साहब! आज तक जो भी इंसान लाल कोठी में रात बिताई है वह जीवित नहीं बचा है। इस वजह से कोई उस तरफ अकेले दिन में भी जाने से कतराता है। यह तो गनीमत है की आप सही सलामत आ गए। आप पहले इंसान हो जो सही सलामत वापिस उस लाल कोठी से आए हो। जरूर आपने कोई अच्छे कार्य किए होंगे।’

उसकी बातें सुनकर मेरा माथा घूम गया। मेरे मानसिक पटल पर कल रात का एक-एक दृश्य जैसे उसकी खुशी से अकेले रात में कॉफी के लिए जाना, मेरी छाती पर कसी अजनबी साये का बैठकर मेरा दम घोंटना, कुवें में छलांग मारने वाली घटना और दोनों के कपड़ों का एक ही समान होना।
अब मैं काफी हद तक उनकी बातों से सहमत था। अब कल रात की सच्चाई और दिन के उजाले की हकीकत मेरे सामने थी जीकि वजह से मैं अब बड़ी आसानी से शुग्गु और लाल कोठी की सच्चाई जान पाने में समर्थ था।

मैंने उस ग्रामीण से पूछा, ‘मैं शुग्गु की सच्चाई जानना चाहूँगा की उसकी मौत कैसे हुई और वह वहाँ भटकने के लिए क्यों मजबूर है?’

उस ग्रामीण ने कहा, ‘शुग्गु और उसके पिता की मौत तकरीबन 100 साल पहले हो चुकी है। एक समय था जब शगुन उनियाल उर्फ शुग्गु उस लाल कोठी का दायित्व बखूबी अंजाम दे रही थी। परंतु एक बार उस लाल कोठी में अंग्रेज अधिकारी ठहरने के लिए आए। शुग्गु ने सोचा की उनकी खिदमत कर के वह अच्छा खासा बख्शीश पा लेगी तो उन पैसों का इस्तेमाल वो अपने बीमार माँ के इलाज में कर लेगी।
लेकिन किसे पता था की उसका यह फैसला उसके जीवन का सबसे बुरा फैसला हो जाएगा जिसकी वजह से वह आजीवन उसी लाल कोठी में भटकने को मजबूर हो जाएगी जिसकी देखरेख वह हमेशा से करती आ रही है।

उसी रात जब शुग्गु अंग्रेज अधिकारी के कमरे में खाना देने गई तो वह देखकर अवाक रह जाती है की वह कमरा धुवें के गिरफ्त में था। वह अंग्रेज अधिकारी शिगार पीने में मशरूफ़ था। शुग्गु ने उस कमरे की खिड़कियों को खोला तो कमरे का माहौल थोड़ा थी हुआ। जैसे ही उसकी नजर सामने मेज पर पड़ी तो वह यह देखकर चकित रह गई की वह अंग्रेज अधिकारी नशे में पूरी तरह धुत्त था और दो शराब की बोतल खाली कर चुका था।

शुग्गु को देखते ही उसकी बाँछें खिल गईं और उसने उसे अपने पैर दबाने को कहा। गरीबी क्या ना करवाए, न चाहते हुए भी वह उसके पैर दबाने के लिए आगे बढ़ी। क्योंकि शुग्गु को पैसों की जरूरत थी और उसके माँ के इलाज के लिए बहुत जरूरी थे। उस लाल कोठी की देख रेख करने से मात्र उसके परिवार के रहने और खाने का ही मुश्किल से इंतजाम होता था इसलिए वह उस अंग्रेज अधिकारी को नाराज भी नहीं कर सकती थी।
तभी अचानक उस अंग्रेज अधिकारी की नियत फिसली और उसने शुग्गु को अपने बाहों में दबोच लिया। शुग्गु ने लाख कोशिश की लेकिन वह अपने आप को उस वहशी जानवर से मुक्त नहीं करवा पाई और उसकी इज्जत तार-तार करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी।

सुबह जब शुग्गु को होश आया तो उसकी दुनिया उजाड़ चुकी थी। जीते जी यह अपनी इस अपमान को पचा ना सकी और उसी लाल कोठी के कुवें में छलांग मार कर खुदकुशी कर ली।’

कुवें वाली घटना सुनकर मैं एक बार नख से लेकर शीर्ष तक कांप उठा। मेरे मानसिक पटल पर फिर से उस साये के कुवें में छलांग मरने की घटना ताजा हो चली।

‘इसका मतलब मैंने कल रात जो-जो चीजें देखी और जो भी 

मेरे साथ घटित हुआ वह सौ टका खरी थी। वो कुवें में शुग्गु का कूदना और...!’

‘हाँ साहब! इतना ही नहीं जब अगले दिन उसके पिता को शुग्गु की मौत की असलियत पता चली तो उस अंग्रेज अधिकारी ने इसी सड़क के चौक पर उसके पिता को अपनी गाड़ी से रौंध डाला।
उस घटना को बीते हुए तकरीबन 100 साल से अधिक का समय हो गया ही परंतु सूर्यास्त के बाद जब भी कोई अजनबी या कोई राहगीर यहाँ से गुजरता है तो उसके पिता की आत्मा लाल कोठी की तारीफ कर के एक रात बिताने की बात लिए विवश कर देता है।

बाकी का काम उस लाल कोठी में शुग्गु आए राहगीर को मौत के घाट उतारकर पूरा कर देती है। लेकिन साहब आपको उसने जीवित क्यों छोड़ा यह तो मैं नहीं बता सकता लेकिन मौत के इस भयावह खेल से हम सभी ग्रामीण मुक्ति चाहते हैं जिसकी वजह से आज भी हम हाथ में लट्ठ लिए बारी-बारी से इस क्षेत्र में पहरा देते हैं।’
इस से पहले की मैं कुछ कहता तभी मेरे मोबाईल पर किसी की कॉल आई। उधर से जो आवाज आई वह मैं मंत्रमुग्ध हो कर बस सुनता ही चला गया। थोड़ी देर में कॉल कट गई और मेरे चेहरे पर भय की जगह मुसकुराहट ने अपना स्थान ले लिया था।

मैंने एक ठंडी आह भरी और बोला, ‘मैं यह तो नहीं कहता की यह मेरी खुशनसीबी थी जिसकी वजह से मेरे प्राण बच गए लेकिन इतना जल्द कहूँगा की अब वह किसी भी राहगीर की जान नहीं लेगी। मैं बहुत जल्द यहाँ फिर आऊँगा और शुग्गु की आत्मा की अंतिम इच्छा पूरी करूंगा जिसकी वजह से उसे मुक्ति भी मिल जाएगी।’

यह कहने के बाद मैंने अपनी कार की चाभी घुमाई तो वह झट से खिसियानी बिल्ली की तरह आवाज करती हुई स्टार्ट हो गई। मैं मसूरी की तरफ जाने वाले राजमार्ग की तरफ अपनी कार बढ़ा चला था।

दरअसल वह कॉल और किसी की नहीं बल्कि खुद शुग्गु की थी। उसने मुझे बताया की उसके अब्बू और अम्मी हम दोनों की शादी के लिए मान गए थे। अचानक यह चमत्कार एक रात में कैसे हुआ यह तो नहीं पता लेकिन मैं अब भी एक बात से भय खा रहा था की हो न हो यह शुग्गु का ही काम था क्योंकि उसने कल रात खुद कहा था की मेरी और सारिका की जल्दी शादी होगी। तब मैंने उसकी यह हरकत बचकानी समझी थी क्योंकि तब मैं उसे जीती जागती इंसान समझने की भूल कर बैठा था।
लेकिन इस वक्त मेरी परिस्थिति और मनोदशा ऐसी थी की समझ में नहीं आ रहा था की मैं अपने जीवित बचे रहने की खुशी मनाऊँ या सारिका से मेरा विवाह तय हो जाने की का जश्न मनाऊँ? क्योंकि शुग्गु की कही बात आखिर सत्य हो गई थी और उसकी शर्त के मुताबिक मुझे विवाह के बाद सारिका के साथ उस लाल कोठी में शुग्गु से मिलवाने ले कर जाना था।

***समाप्त***