बेचारा दरोगा
अतीक अंसारी ने घूरकर अपने सामने खड़े दरोगा अनुराग पांडे को देखा। यूं देखा कि उसके देखने भर से दरोगा के जिस्म में झुरझुरी सी दौड़ गयी, जबकि हाथ जोड़कर तो वह पहले से खड़ा था।
उसकी गलती बस इतनी थी कि अतीक की एक गाड़ी जब्त कर ली थी, जिसमें फलों की टोकरियों के बीच बहुत सारा असलहा रखा हुआ था। गाड़ी बिहार से आ रही थी जिसे मुखबिर सूर्यकांत यादव की सूचना पर परसों रात आजमगढ़ बॉर्डर पर रोक लिया था।
यादव की लाश बरामद हो चुकी थी, ट्रक ड्राईवर और खलासी के मृत शरीर मोर्ग में पड़े थे। पांडे फौरन समझ गया कि वह कारनामा अतीक अंसारी के गुर्गों का ही था, और तभी से वह भय के मारे दुबला हुआ जा रहा था। मगर अब जो वह कर चुका था उसे वापिस कैसे लौटा सकता था।
सबसे बड़ी मुसीबत उसके सामने ये आई कि ट्रक के बारे में जब अपने अधिकारियों को बताया तो उसकी पीठ थपथपाने की बजाये उन लोगों ने लानत मलानत शुरू कर दी। और स्पष्ट चेतावनी दे दी कि उस संदर्भ में किसी भी प्रकार का कोई मामला दर्ज न किया जाये। सुनकर पांडे के छक्के छूट गये। और तभी से वह अपने किसी अनिष्ट की कल्पना करने लगा था।
अतीक का माल पकड़ने का मौका उसके हाथ साल भर की मेहनत के बाद लगा था। इसलिए क्योंकि कोई उसकी मुखबिरी करने को तैयार ही नहीं होता था। सूर्यकांत यादव हुआ भी तो अब वह दूसरी दुनिया की सैर पर था और दरोगा को इस वक्त खुद अपनी जान के लाले पड़ते दिखाई दे रहे थे।
उसे जिला महिला अस्पताल के करीब पुलिस जीप से दिन दहाड़े बाहर खींचकर एक बोलरो में यूं बैठा लिया गया, जैसे वह दरोगा न होकर कोई चोर उचक्का हो, या आम आदमी हो। फिर अतीक अंसारी के आदमी उसे हवेली ले आये, वह हवेली जिसके नाम से ही लोग खौफजदा हो जाया करते थे, ऐसे में दरोगा की हालत खराब नहीं होती तो और क्या होता। हालांकि जिस वक्त उसे जीप से बाहर खींचा गया उस वक्त दो सिपाही भी गाड़ी में मौजूद थे, मगर वह सिवाय तमाशा देखने के और कुछ नहीं कर पाये। कोशिश भी करते तो दरोगा का जो होता बाद में होता, वो दोनों ठौर मार गिराये जाते।
“काहे हमारे सिर पर ब्रह्म हत्या का पाप लगाना चाहते हैं पांडे जी?”
“ब...बात क्या है सर?”
“हमारी गाड़ी रोक लिये, माल जब्त कर लिये, और पूछ रहे हैं कि बात क्या है।”
“ग...गलती हो गयी सर।”
“दो करोड़ का माल था दरोगा जी, कोई छोटी मोटी गलती थोड़े ही है।”
“माफ कर दीजिए सर, दोबारा शिकायत का मौका नहीं देंगे।”
“पहली बार भी काहे दिये बहिन...?”
वह यूं दहाड़ा कि पांडे सिर से पांव तक कांप कर रह गया।
“ह....हमें नहीं पता था सर की गाड़ी आपकी है। फिर गाड़ी का ड्राईवर और खलासी भी हमें नहीं बताये कि माल कहां जा रहा था। ऊ दोनों तो ट्रक से नीचे कूदकर भाग खड़े हुए, रुककर हमें बता दिये होते कि गाड़ी आपकी है तो मां कसम हम आंख उठाकर भी नहीं देखते। आपको यकीन न आ रहा हो तो उन्हें बुलाकर खुदे पूछ लीजिए।”
“असलम।”
“जी भईया?” एक आदमी तत्काल आगे आ गया।
“ड्राईवर और खलासी को पकड़कर लाओ।”
“माफी चाहते हैं भई, नहीं ला सकते।”
“का बक रहे हो भोस..?”
“कलंकी भईया दोनों का अंतिम संस्कार कर दिये हैं।”
“अरे अरे, ई तो तुम पांडे जी का बहुते नुकसान कर दिये, अब दरोगा जी साबित कैसे करेंगे कि जो कह रहे हैं सच कह रहे हैं, मतलब तुम ससुरों के कारण अब हमें इनकी मौत का पाप अपने सिर पर ढोना पड़ेगा।”
“ऐसा मत कहिये सर - पांडे गिड़गिड़ाया - हम सच कह रहे हैं, हमें भनक तक नहीं थी कि गाड़ी आपकी है, और जब ड्राईवर भाग ही गया तो हम जान भी कैसे सकते थे। वह दोनों भले ही मारे जा चुके हैं लेकिन कलंकी ने इतना तो जान ही लिया होगा कि वे लोग गाड़ी छोड़कर भागे थे या नहीं भागे थे।”
“ब्राह्मण आदमी हो यार, आपको झूठ बोलना क्या शोभा देता है?”
“हम कोई झूठ नहीं बोल रहे सर।”
“देखो अपना ये लोक तो बिगाड़ ही चुके हो दरोगा, अब झूठ बोलकर परलोक काहे बिगाड़ने पर तुले हो, हम क्या सूर्यकांत यादव के बारे में नहीं जानते, जिसने तुम्हें गाड़ी में हथियार होने की खबर दी थी। अगर नहीं जानते होते तो ऊ ससुरे को खत्म काहे करवाये होते?”
“खबर बेशक उसी ने दी थी सर, लेकिन उसने हमें ये नहीं बताया कि गाड़ी आपकी है। हथियार वाली बात भी नहीं बताई थी, बस ट्रक का नंबर देकर इतना बोल दिया था कि उसमें स्मगलिंग का माल मूव हो रहा था। या तो यादव उस बारे में जानता ही नहीं था, या फिर हमें फंसाकर अपना बदला पूरा करना चाहता था।”
“किस बात का बदला?”
“वह हमारा रेग्युलर मुखबिर था, इसलिए कुछ महीनों पहले जब उसकी बहन की शादी थी, तो एक लाख रूपये मांग रहा था, हमने इंकार कर दिया, तो बहुत तड़पा था। ये भी बोला कि आगे से हमारे लिये कोई काम नहीं करेगा, इसके बावजूद उसने हमें आपके ट्रक की खबर दी तो उसका मतलब यही बनता है न कि ऊ ससुरा हमें फंसाना चाहता था।”
“हां ये बात कुछ समझ में आ रही है, जरा इधर हमारे करीब तो आओ।”
सुनकर दरोगा झिझकता हुआ आगे बढ़कर उसके सामने जा खड़ा हुआ। तब अतीक ने जोर की एक लात उसके पेट में जमाई और उठकर खड़ा हो गया।
पांडे पीठ के बल धड़ाम से फर्श पर जा गिरा।
“मादर...हमें चू...समझे हो?”
“हम जानबूझकर कुछ नहीं किये सर, माफ कर दीजिए।”
“माफ तो हम बराबर कर देंगे तुम्हें, काहे कि आज जुम्मा है, और जुम्मे के दिन हम किसी की जान नहीं लेते, लेकिन थोड़ी बहुत सेवा पानी तो आपकी करनी ही पड़ेगी, क्योंकि आज तक हम अपने दरवाजे से किसी को कुछ लिये बिना वापिस नहीं जाने दिये हैं - कहकर उसने वहां खड़े अपने अपने आदमियों को इशारा किया - दरोगा जी का एक हाथ तोड़ दो, एक आंख फोड़ दो, फिर इन्हें बाईज्जत इनकी जीप तक छोड़कर आओ।”
“रहम कीजिए सर।” वह गिड़गिड़ा सा उठा।
“रहमे कर रहे हैं मादर... वरना जान से खत्म कर देते।”
अगले ही पल चार लोगों ने नीचे पड़े दरोगा को यूं जकड़ लिया कि अब वह अपनी मर्जी से हिल भी नहीं सकता था, उसके बाद पांचवें शख्स ने उकड़ू बैठकर उसका बायां हाथ अपने घुटने पर रखा और पूरी ताकत से उल्टी तरफ को झटका दे दिया।
पांडे हलाल होते बकरे की तरह डकारा, मगर वह तकलीफ उस भयानक दर्द के आगे कुछ भी नहीं थी जो दरोगा को मिलने जा रही थी। एक आदमी ने राईफल की नाल उसकी दाईं आंख पर रखा और पूरी ताकत से अंदर को दबाता चला गया।
दरोगा की दिल दहलाती चीखें हॉल में गूंजने लगीं।
“हमारी एक आखिरी बात और सुन लो ब्राह्मण देवता - अपने आदमियों को दूर हट जाने का इशारा करता हुआ अतीक अंसारी बोला - अगर बाहर जाकर जरा भी उछल कूद मचाई तो तुम्हारी बीवी सुनयना पर - जो सुना है बहुते खूबसूरत है - इतने मुस्टंडे छोड़ेंगे कि बेचारी बर्दाश्त नहीं कर पायेगी। यानि फड़फड़ाने की कोशिश तभी करना जब बीवी का मरा हुआ मुंह देखने के लिए खुद को तैयार कर लो। वैसे तो तुम्हारे दो बच्चे भी हैं, लेकिन हम वादा करते हैं कि उनको कुछ नहीं कहेंगे, इसलिए नहीं कहेंगे क्योंकि बाल हत्या को हम घोर पाप समझते हैं - फिर उसने अपने आदमियों की तरफ देखा - ले जाओ भई, दरोगा जी को सादर इनकी जीप तक छोड़कर आओ, और जीप वहां नहीं मिले तो सिविल अस्पताल ले जाना, दुर्घटनाग्रस्त आदमी की मदद हम नहीं करेंगे तो और कौन करेगा।”
“ठीक है भईया।” कहकर वो सब रोते तड़पते दरोगा को उठाकर वहां से बाहर निकाल ले गये।
अतीक अंसारी 32 साल का खूब पढ़ा लिखा युवक था, जो हमेशा दाढ़ी में ही रहना पसंद करता था। बाप तौफीक अंसारी कभी एमपी हुआ करता था, मगर पिछली बार इलेक्शन हार गया था। मगर बस इलेक्शन ही हारा था ना कि उसकी ताकत कम हो गयी थी। हवेली में दसियों लठैतों का चौबीसों घंटे का बसेरा था, बारह आदमी ऐसे थे जो हर वक्त हथियारबंद रहते थे। घर से बाहर जाता तो पांच राईफलधारी उसके साथ होते थे। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर पचासों की संख्या में मरने मारने वाले लड़के उसके लिए हर वक्त तैयार रहते हैं।
तौफीक अंसारी बाहुबली था, अपने जमाने का दुर्दांत हत्यारा था, जो एमपी का इलेक्शन जीतने के बाद बिगड़ैल सांड बन गया था। मगर अब बढ़ती उम्र के मद्देनजर उसने अपना साम्राज्य बेटे अतीक अंसारी के हवाले कर दिया था, जो बाप से कहीं ज्यादा खतरनाक था। जिसने किसी पर रहम खाना नहीं सीखा था। जिसकी कोई लिमिटेशन नहीं थी। जो कुछ भी कर सकता था।
बाप बेटे दोनों पर दर्जनों मामले दर्ज थे, मगर जेल जाने की नौबत आज तक नहीं आई थी। जबकि असल में उनके गुनाहों की फेहरिस्त उससे कई गुणा ज्यादा थी, जितना पुलिस फाईल में दर्ज था। मगर उन्हें गिरफ्तार कर के जेल भेजने का हौसला आज तक कोई नहीं कर पाया था।
दरोगा के जाने के बाद अतीक का सबसे वफादार आदमी कलंक सिंह उर्फ कलंकी वहां पहुंचा और उसका अभिवादन कर के हाथ बांधकर खड़ा हो गया। वह 40 साल का पहाड़ जैसा शख्स था, रंगत गेहुंआ और सूरत डरावनी थी। चेहरे पर पिंपल्स और तीन चार स्थाई जख्मों के निशान थे, जो उसे और ज्यादा भयानक बनाये देते थे। आंखें उसकी हर वक्त चढ़ी रहती थीं, जबकि शराब ताजिंदगी नहीं पी होगी। हां गांजा बराबर पीता था लेकिन वह भी बस रात के वक्त, जब उसके पास करने को कोई काम धंधा नहीं होता था।
“कहां थे कलंकी?” अतीक ने पूछा।
“फैक्ट्री गया था भईया, उधर का दिन में एक चक्कर न लगायें तो सब साले ढीले और लापरवाह हो जाते हैं, जबकि आजकल जो हालात हैं उसमें चाक चौबंद रहना बहुते जरूरी है।”
“इतनी चिंता मत किया करो वरना बुढ़ा जाओगे।”
“चालीस के तो हो ही गये हैं भईया, मतलब बुढ़ापा शुरू हो चुका है।”
“का सठिया गये हो, चालीस की उम्र में भी कोई बूढ़ा होता है, सुना नहीं है मर्द साठा तब पाठा, हमारे अब्बाजान को ही देख लो, 60 के हैं, लेकिन अभी भी सुबह शाम दो लीटर दूध पी जाते हैं। नाश्ता आलू के परांठे का करते हैं, मतलब सेहत को लेकर कोई सावधानी नहीं बरतते, लेकिन मजाल क्या जो शूगर बीपी की कभी कोई शिकायत हो गयी हो।”
“बड़े साहब की बात ही कुछ और है भईया, उतना दम खम हममें तो नहीं है।”
“अरे तुम अपने जैसे दस पर भारी हो कलंकी।”
“थैंक यू भईया जी।”
“तुम ससुर अंग्रेजी कब से बोलने लगे?”
“आपसे ही सीखा है भईया, अब तो हाऊ आर यू भी बोल लेते हैं।”
सुनकर अतीक ने जोर का ठहाका लगाया।
“एक खास खबर है भईया।”
“क्या?”
“बुरी खबर भी।”
“अब कुछ बोलोगे भी?”
“एसपी जयवर्धन साहब का तबादला हो रहा है।”
“क्या कह रहे हो, अभी परसों ही तो हम उनसे मिलकर आये थे, तब ऐसी कोई बात तो नहीं बताये थे। जबकि हमसे कोई छिपाव नहीं रखते हैं।”
“इसलिए नहीं बताये भईया क्योंकि वह खुद भी नहीं जानते, मगर हमें सीधा लखनऊ से जानकारी मिली है। पता लगा है उनकी जगह किसी सुखवंत सिंह को नया एसपी बनाकर भेजा जा रहा है।”
“सरदार जी हैं?”
“नाम से तो यही लगता है।”
“इसमें बुरी खबर क्या है, एसपी क्या पहली बार बदलेंगे इधर?”
“सुखवंत सिंह बहुते खतरनाक आदमी है भईया, कुछ दिनों पहले तक मुजफ्फरपुर में था जहां त्राहि त्राहि मचाकर रख दिया। हमारे जैसे धंधे में लगे लोग या तो मारे गये या जिले से पलायन कर गये। सुने हैं वहां 130 एनकाउंटर कराया था। कहता था मुजफ्फरपुर में एक ठो चोर उचक्का भी नजर आ जाये तो वह अपने मुंह पर पेशाब कराने को तैयार है।”
“इतना बड़ा बोल बोल दिया?”
“कर भी दिखाया, जब तक वह उधर तैनात रहा भईया, हर तरफ राम राज्य आ गया था। लोग बेखौफ हो गये, खासतौर से व्यापारी वर्ग की तो जैसी लॉटरी ही निकल गयी। समय समय पर उहां सुखवंत सिंह जिंदाबाद के नारे भी सुनाई देते रहे थे।”
“और कुछ?”
“हां बुरी खबर तो कुछ और ही है।”
“क्या?”
“उन्हें ये आदेश देकर भेजा जाने वाला है कि अनल सिंह को छोड़कर बाकी सबको, यानि अमरजीत त्रिपाठी, चंगेज खान और आपको नेस्तनाबूद कर दिया जाये।”
“ओह, मतलब सरकार अब अनल सिंह से हाथ मिला ली है?”
“लगता तो यही है भईया, फिर छह महीने बाद इलेक्शन हैं, और अभी तक मुख्यमंत्री साहब ने एक बार भी आपसे मुलाकात नहीं की है। इसलिए भी उनका इरादा साफ जान पड़ता है। और इतना तो आप खुदे समझ सकते हैं कि सरकार से पार नहीं पा सकते हम, कोई नहीं पा सकता।”
“साला नमकहराम।”
“कुछ गलती हो गयी भईया?” वह हड़बड़ाकर बोला।
“हम मुख्यमंत्री दामोदर राय की बात कर रहे हैं कलंकी, कितना साथ दिये हम उसका, साला आज प्रदेश का मालिक बना बैठा है तो सिर्फ हमारी वजह से, और अब हमें ही खीर में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर करना चाहता है।”
“अभी सिर्फ खबर पाये हैं भईया, इसलिए गारंटी नहीं कर सकते, लेकिन सुखवंत सिंह अगर सच में एसपी बनकर आ जाता है तो समझ लीजिए कि चल उहे रहा है जो हम बयान कर के हटे हैं।”
“आने दो घबरा काहे रहे हो, ऐसी स्थितियां तो हमारी जिंदगी में आती ही रहती हैं। हैरानी की बात ये है कि अब्बा को इस बारे में कोई खबर नहीं है, जबकि उनके सोर्स हर जगह मौजूद हैं।”
“जब षड़यंत्र आपके खिलाफ रचा जा रहा है भईया तो उन्हें खबर लगने देना कैसे मंजूर हो जाता किसी को। फिर मुख्यमंत्री और डीआईजी की मीटिंग भी बहुते गुपचुप ढंग से हुई है। तब अनल सिंह भी वहीं एक दूसरे कमरे में मौजूद था, जिसे बाद में अपनी गोद में बैठाकर सीएम साहब बोले कि अब वो खुद को आजमगढ़ का बादशाह समझना शुरू कर दें।”
“ऊ का है न कलंकी कि जब इंसान की बुद्धि भरभ्रष्ट हो जाती है तो वह ऐसे ही अनाप शनाप फैसले लेने लगता है, जैसे दामोदर राय लिए हैं। नहीं जानते कि चार अनल सिंह मिलकर भी हमारी बराबरी नहीं कर सकते।”
“नहीं कर सकते भईया, लेकिन जिले का एसपी अगर हमारे खिलाफ होगा तो प्रॉब्लम बढ़कर रहेगी। काहे कि पूरी पुलिस फोर्स उसके अंडर में काम करेगी।”
“आने दो सरदार जी को, देखें कितना दम खम है उनके अंदर - फिर थोड़ा ठहरकर बोला - क्या ऐसा हो सकता है कलंकी कि एसपी के आजमगढ़ पहुंचने से पहले ही उनके साथ हमारी एक मीटिंग हो जाये?”
“हो क्यों नहीं सकती भईया, लेकिन हासिल क्या होगा?”
“क्या पता हम उन्हें अपनी तरफ करने में कामयाब हो जायें।”
“ई कैसे संभव है भईया, ऊ का दामोदर राव का हुक्म नजरअंदाज कर देंगे?”
“ना करते हुए भी हमारा साथ दे सकते हैं। तुम एक काम करो, उनके घर बार का पता करो, और अपने दो होशियार आदमियों को उनपर नजर रखने का काम सौंप दो। फिर जैसे ही वह आजमगढ़ के लिए रवाना होंगे, हम ऑन रोड उनके साथ एक मीटिंग कर लेंगे। काहे कि बिकाऊ तो हर आदमी होता है इस दुनिया में, बस सही बोली लगाने वाला चाहिए।”
“सब इंतजाम हो जायेगा भईया, मगर इस तरह रास्ते में उनको रोकना क्या ठीक होगा, मतलब आपकी बात नहीं माने तो क्या पहले से ज्यादा खिलाफ नहीं हो जायेंगे?”
“हो जायेंगे तो हो जायेंगे, मगर कोशिश तो हम करबे करेंगे, काहे कि हवा का रुख कुछ ठीक नहीं लग रहा। अब चलो जरा जयवर्धन साहब से मिल लिया जाये चलकर, देखें उन्हें कुछ मालूम है या नहीं इस बारे में।” कहता हुआ अतीक अंसारी उठ खड़ा हुआ।
एसपी जयवर्धन उस वक्त फाईलें समेट रहा था जब अतीक और कलंकी उसके ऑफिस में दाखिल हुए। अभिवादनों का आदान प्रदान हुआ फिर अतीक उसके सामने बैठ गया जबकि कलंकी दूर दरवाजे के पास जाकर खड़ा हो गया।
“जाने की तैयारी हो रही है एसपी साहब?”
“खबर मिल गयी?”
“जी अभी अभी, हैरानी है आपने हमें इंफॉर्म करना भी जरूरी नहीं समझा।”
“मुझे भी बस आधा घंटा पहले ही पता लगा है अतीक, लेकिन निकलने से पहले हम तुम्हें फोन जरूर किये होते, वैसे अच्छा ही हुआ जो तुम खुद यहां चले आये।”
“खबर लगते ही चला आया, सुनकर दुःख भी बहुते हुआ।”
“नौकरी इसी को कहते हैं भई।”
“हमारे लायक कोई खबर?”
“हां है, तभी तो कह रहे हैं कि अच्छा हुआ तुम खुदे यहां आ गये।”
“हुक्म कीजिए।”
“इनसाईड इंफॉर्मेशन है कि नये एसपी को खास कर के तुम्हारे लिए यहां भेजा जा रहा है। साथ में अमरजीत त्रिपाठी और चंगेज खान पर भी मुसीबत मंडरा रही है। मतलब इहां बचे बस अनल सिंह रह जायेंगे क्योंकि सरकार उनकी पार्टी की है।”
“नुकसान कितना होने की संभावना है एसपी साहब?”
“बहुत ज्यादा, क्योंकि सरकार तुम चारों के सिर से अपना हाथ वापिस खींच चुकी है। जिसमें सबसे ज्यादा फेवर पहले तुम्हारा ही किया जाता था। ऐसे में गिरफ्तारी से बचने की कोशिश करोगे तो जान से हाथ धो बैठोगे। इसलिए तुम्हारे लिए हमारी सलाह यही है कि गायब हो जाओ।”
“गायब हो जायें? - अतीक बौखलाकर बोला - कहां गायब हो जायें? हम आजमगढ़ की धरती पर पल बढ़कर बड़े हुए हैं, कैसे सब छोड़कर निकल जायें, फिर बनवास का कोई वक्फा मुकर्रर हो तो एक बार हम कर भी गुजरें, जो कि नहीं है क्योंकि इलेक्शन के बाद भी सरकार बदलती नहीं दिखाई देती।”
“बात तो तुम्हारी ठीक है, भागोगे तो जीवन भर के लिए घर बार भूलना पड़ेगा, लेकिन कोई दूसरा रास्ता तो अभी हमें दिखाई नहीं दे रहा। इसलिए जो करना सोच समझकर करना।”
“ये भी तो सोचिये सर कि हम कहीं चले गये तो हमारे पीछे अब्बाजान का क्या होगा? हमारे अलावा इस दुनिया में उनका और है ही कौन?”
“उनकी चिंता मत करो, क्योंकि मुझे नहीं लगता कि उनके खिलाफ पुलिस के पास ज्यादा कुछ है, ऐन उसी वजह से उनकी गिरफ्तारी में भी किसी का कोई इंट्रेस्ट नहीं बनने वाला। और ई काहे भूल जाते हो कि वह कौन हैं, उन्हें गिरफ्तार किया गया तो इतना हंगामा खड़ा होगा कि सरकार हिल जायेगी, इसलिए अभी तो बस अपने बारे में सोचो अतीक अंसारी।”
“एक बात पूछें एसपी साहब, बुरा तो नहीं मानियेगा।”
“हम काहे बुरा मानेंगे?”
“क्योंकि आप एसपी साहब हैं।”
“ओह - जयवर्धन थोड़ा हंसकर बोला - तुम सुखवंत सिंह के बारे में कुछ कहना चाहते हो।”
“जी हां।”
“कहो, हम बुरा नहीं मानेंगे।”
“इससे पहले कि नये एसपी साहब इहां पहुंचकर हमें निबटायें, क्यों न हम उन्हीं को निबटा दें, या आप सोचते हैं ऐसा नहीं कर पायेंगे हम?”
“कर सकते हो, तुम्हारे लिए बहुत मामूली काम है ये। मगर उससे क्या हो जायेगा, एक एसपी मार दोगे तो क्या सरकार किसी दूसरे एसपी को यहां का चार्ज लेने नहीं भेज देगी, इसलिए बेकार की बातें सोचना बंद करो। तुम्हारी भलाई इस वक्त बस एक ही बात है कि जितना जल्दी हो सके आजमगढ़ छोड़ दो, सुखवंत सिंह के यहां पहुंचने से पहले छोड़ दो। आगे क्या करना है वह कहीं और बैठकर विचार कर लेना।”
“कब आ रहे हैं?”
“आज रात में पहुंच जायेंगे।”
“तब तक आप रुकियेगा न?”
“नहीं भाई, क्योंकि हमें तुरंत जाकर गाजीपुर का चार्ज लेना है जहां आज की तारीख में एसपी ऑफिस खाली पड़ा है। इसलिए दो घंटे बाद निकल जायेंगे।”
“हम पहुंचाने की व्यवस्था कर दें?”
“क्या जरूरत है, सरकारी गाड़ी से ही तो जाना है।”
“ठीक है एसपी साहब, अब हम आपका जाना तो नहीं टाल सकते लेकिन याद बहुत आयेगी आपकी हमें, इसलिए क्योंकि मुद्दतों बाद पुलिस के एक बड़े साहब के साथ ऐसा रिश्ता बन गया था जिसे हम दोस्ती का नाम दे सकते हैं। मगर कोई बात नहीं, आप बस आजमगढ़ से जा रहे हैं, ना कि हमारे दिल से। और उधर गाजीपुर पहुंचकर हमारे लायक कोई सेवा दिखाई दे जाये तो फौरन इंफॉर्म कीजिएगा, ये मत सोचियेगा कि अब आप आजमगढ़ में नहीं हैं।”
“नहीं सोचूंगा।”
तत्पश्चात अतीक अंसारी उठा और जयवर्धन से विदा लेकर कलंकी के साथ एसपी ऑफिस से बाहर निकल आया।
उसके चेहरे पर इस वक्त गहन चिंता के भाव थे, जो आज से पहले तो शायद ही किसी ने देखा होगा।
ऑफिस के कंपाउंड में ही उसकी स्कॉर्पियो खड़ी थी, जिसमें वह पिछली सीट पर जाकर बैठ गया, जबकि कलंकी आगे ड्राईवर के साथ सवार होता हुआ बोला, “घर चलना है भईया जी?”
“पहले ये बताओ कि अमरजीत त्रिपाठी और चंगेज खान की कोई खबर है या नहीं तुम्हें?”
“दोनों बहुत दिनों से आजमगढ़ में नहीं देखे गये हैं भईया, इसलिए कहना मुश्किल है कि कहां होंगे, वैसे हमारे आदमी निगाह बराबर रखे हुए हैं। मतलब दोनों के घर पहुंचते ही हमें उनकी खबर लग जायेगी।”
“एक काम करो, अपने आदमियों को वापिस बुला लो।”
“ऊ काहे भईया?”
“अरे जब सरकार हमारी तरह उन्हें भी अपना दुश्मन तस्लीम कर चुकी है तो हम काहे अपनी मैनपॉवर खर्च करें, फिर अभी तक जैसे जयवर्धन साहब की बात मानकर हम उन्हें जिंदा छोड़े हैं, वैसे ही आगे भी रहने दो। उसके बाद सुखवंत सिंह जाने या वह दोनों जानें। बल्कि एक काम करो, किसी तरह खबर भिजवा दो कि वो दोनों पुलिस के राडार पर आ चुके हैं। क्योंकि हमें नहीं लगता कि सरकार के इरादों की खबर लगी होगी उनको।”
“दुश्मन को चेताना चाहते हैं भईया?”
“दुश्मनी हमारी है कंलकी, पुलिस को उसका मजा काहे लूटने दें?”
“अगर ऐसा है भईया तो आप खुदे काहे नहीं फोन कर लेते, इसी बहाने थोड़ा तो एहसान मानेंगे आपका। फिर हो सकता है बातचीत के बाद सुखवंत सिंह नाम की मुसीबत से पीछा छुड़ाने का कोई रास्ता भी निकल आये।”
“ठीक है घर चलो, फिर कॉल लगाते हैं हम उन दोनों को।”
सुनकर ड्राईवर ने तुरंत गाड़ी आगे बढ़ा दी।
एस.पी. और डी.आई.जी. की मीटिंग
सुखवंत सिंह 35 साल का पांच फीट ग्यारह इंच का हेल्दी युवक था। सिक्ख होने के कारण उसे दाढ़ी रखने और पगड़ी पहनने की आजादी थी, इसलिए वह हमेशा दाढ़ी में ही रहता था। अलबत्ता वह ज्यादा लंबी नहीं थी, और तराशी हुई भी बराबर हुआ करती थी। आंखों पर फोटोक्रॉमिक ग्लास लगाकर रखता था, चाहे ऑफिस के भीतर ही क्यों न हो। कारण कि बाईं आंख के नीचे एक छोटा सा मस्सा था जिसे वह चश्मे की आड़ में छिपाकर रखता था, इसलिए क्योंकि उसके कारण उसे अपना लुक खराब होता महसूस होता था। और धूप का चश्मा क्योंकि ऑफिस के भीतर अजीब लग सकता था, इसलिए उसे स्पेशल ऑर्डर पर यूं तैयार कराया था कि देखने से नजर का चश्मा जान पड़ता था।
सुबह दस बजे वह डीआईजी ऑफिस पहुंचा और भगवंत सिंह को सेल्यूट करने के बाद इजाजत पाकर उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया।
“कैसे हो सुखवंत सिंह?”
“बढ़िया हूं सर, हुक्म कीजिए।”
“तुम काफी दिनों से बड़ी चैन की जिंदगी बसर कर रहे थे, जो मुझसे देखा नहीं गया, क्योंकि शेर को गुफा के अंदर रहने देना मुझे पसंद नहीं है। इसलिए सोचा क्यों न तुम्हें शिकार पर भेज दिया जाये।”
“अच्छा सोचा सर, मैं खुद भी रुटीन लाईफ से बोर हो चला हूं।”
“फिर तो तुम्हारे लिए मेरे पास एक बहुत अच्छी खबर है।”
“क्या सर?”
“ट्रांसफर।”
“कहां?”
“आजमगढ़, कोई प्रॉब्लम?”
“नो सर, पूरा इंडिया मेरा है, और आजमगढ़ इंडिया से अलग थोड़े ही है।”
“मुझे तुमसे ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी, लेकिन...”
“यानि कोई कंडीशन भी है?”
“वह तो हम लोगों के जीवन में कदम कदम पर होती है, लेकिन इस बार जो कंडीशन है वह तुम्हें पसंद नहीं आयेगी, बावजूद इसके मैं चाहता हूं कि उसे तुम पसंद करो। ये सोचकर करो कि तुम्हारे सामने चार खूंखार अपराधी खड़े हैं, ऐसे अपराधी जिनके गुनाहों का कोई ओर छोर नहीं है। और तुम्हें उनमें से तीन को मार गिराने का मौका हासिल हो रहा है।”
“चौथे को क्यों नहीं सर?”
“क्योंकि जो तुम्हें मौका दे रहा है उसकी शर्त यही है कि चौथे की तरफ तुम्हें आंख उठाकर भी नहीं देखना है। मगर यकीन जानो काम एकदम तुम्हारी पसंद का है। आजमगढ़ को तुम मुजफ्फरपुर से कम कर के मत आंकना, बल्कि कई मामलों ये वहां से ज्यादा फसादी जगह है। बड़े बड़े क्रिमिनल पैदा किये हैं आजमगढ़ की धरती ने। चोरी, अवैध शराब, डकैती, किडनैपिंग, वसूली, ऑर्म्स स्मगलिंग, नॉरकोटिक्स, हर एक मामले में बड़े बड़े महंत बैठे हुए हैं। बस वक्त के साथ उनके नाम बदल जाते हैं, मगर धंधा ज्यों का त्यों चलता रहता है।”
“और ये मौका मुझे सरकार की तरफ से हासिल हो रहा है, है न सर?”
“ठीक समझे।”
“यानि असल में जो कुछ आप मुझसे करने को कह रहे हैं, वह राजनीति का एक हिस्सा है ना कि मेरी नौकरी का?”
“तुम जो करोगे सुखवंत सिंह वह तुम्हारी नौकरी का ही हिस्सा होगा। तुमसे किसी बेगुनाह को खत्म करने के लिए नहीं कहा जा रहा, किसी ऐसे शख्स को भी गिरफ्तार करने या मार गिराने के लिए नहीं कहा जा रहा जो कोई आम मुजरिम है। नहीं जिन लोगों की बात मैं कर रहा हूं, उनपर कई दर्जनों आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से कुछ तो बेशक गोली मार देने के ही काबिल हैं।”
“जो कि अभी तक इसलिए नहीं मारी गयी सर क्योंकि सरकार उनके साथ थी?”
“हां यही सच है, फिर मैं या तुम क्या चाहकर भी गर्वनमेंट से अलग चल सकते हैं? मेरा जवाब है नहीं। हमें हर हाल में सत्तारूढ़ पार्टी का हुक्म मानना ही पड़ता है, चाहे सरकार जिस किसी की भी हो। हां इतना ख्याल रखना फिर भी जरूरी है कि कल को सरकार बदलने के बाद हमपर कोई मुसीबत न टूट पड़े।”
“मैं समझ गया सर।”
“गुड, तुम्हें वेस्ट आजमगढ़ को छोड़कर बाकी तीनों सिरों से अपराधियों का समूल नाश करना है। पश्चिमी आजमगढ़ अनल सिंह के अधिकार में है। और वही वह शख्स भी है जिसे सरकार सही सलामत देखना चाहती है।”
“जो आगे चलकर पूरे जिले पर हुकूमत करेगा, जहां से जुर्म का सफाया करने का आदेश आप मुझे दे रहे हैं। मतलब एक तरह से मुझे अनल सिंह को पांव पसारने के लिए जमीन मुहैया करानी है।”
“भविष्य का क्या पता सुखवंत सिंह? इसकी भी क्या गारंटी कि जब तुम आजमगढ़ में अपने मुहिम पर निकलोगे तो अतीक अंसारी तुम्हारी लाश नहीं गिरवा देगा, या अमरजीत त्रिपाठी और चंगेज खान वैसा कुछ नहीं कर गुजरेंगे। इसलिए आगे की मत सोचो और अपनी ड्यूटी पूरी करो, इस संतोष के साथ कि चार में तीन बड़े अपराधियों को खत्म करने का मौका तुम्हें हासिल हो रहा है।”
“यानि गिरफ्तार नहीं करना है?”
“कर सकते हो, अगर तुम्हें लगे कि उन्हें लंबी सजा दिलवाना संभव है तो बेशक उन्हें हिरासत में ले लेना, लेकिन मुझे वह काम असंभव ही जान पड़ता है। उल्टा तुम्हारी वैसी एक कोशिश पूरे जिले में बवेला खड़ा कर के रख देगी, बाकी तुम खुद समझदार हो इसलिए जैसा चाहे कदम उठाने की तुम्हें खुली छूट है। तुम एक को मार गिराओ या तीनों को खत्म कर दो, कोई तुमसे सवाल करने नहीं आयेगा। चाहो तो उनके तमाम आदमियों को भी खत्म कर सकते हो, सरकार तुमसे नहीं पूछेगी कि तुमने उन्हें गिरफ्तार करने की बजाये सीधा गोली क्यों मार दी। मगर मेरी राय यही है कि जो करना ऐसे करना कि वह कानून के दायरे में रहकर किया गया दिखाई दे। क्योंकि सरकार बदलते देर नहीं लगती, और नई सरकार हमेशा पुरानी सरकार के किये धरे पर उंगली उठाती ही उठाती है, समझ गये?”
“यस सर।”
“गुड।”
“कब जाना होगा सर?”
“जितनी जल्दी जा सको।”
“आज ही निकल जाता हूं।”
“बढ़िया, कोई समस्या दिखाई दे तो मुझे इंफॉर्म करना।”
“यस सर, थैंक यू सर।” कहकर वह उठा और डीआईजी को सेल्यूट कर के वहां से बाहर निकल गया।
अनुराग पांडे सिविल हॉस्पिटल में एडमिट था। उसकी बीवी सुनयना बेड के करीब ही एक स्टूल पर बैठी थी और पति की हालत देखकर रह रहकर सिसकने लग जाती थी। दोनों बच्चों को उसने पड़ोस के घर में छोड़ा हुआ था, क्योंकि आस-पास उनका अपना कोई नहीं था और पांडे ने रिश्तेदारों को खबर करने से साफ मना कर दिया था।
कोतवाल समर सिंह जिसके साथ अनुराग पांडे के दोस्ताना ताल्लुकात थे, बीते रोज भी एक फेरा वहां का लगा चुका था, मगर तब अनुराग की हालत ऐसी नहीं थी कि वह उससे कोई पूछताछ कर पाता, इसलिए आज फिर वहां पहुंचा। इतना वह पहले से जानता था कि पांडे की उस हालत के लिए अतीक अंसारी जिम्मेदार था, मगर असल में क्या हुआ था उसकी कोई खबर उसे नहीं थी।
वार्ड में दाखिल होकर वह बेड तक पहुंचा तो सुनयना उठ खड़ी हुई।
“आप थोड़ी देर के लिए बाहर जाकर बैठिये भाभी, हमें कुछ बात करनी है अनुराग से।”
सुनकर वह तुरंत वहां से चली गयी।
पांडे के एक हाथ पर पलस्तर बंधा था, मगर अच्छी बात ये रही कि हाथ उसका कोहुनी से टूटने की बजाये नीचे से टूटा था, जिसका इलाज कदरन आसान था। घायल आंख का ऑपरेशन कर के उसे फिर से पहले वाली जगह पर पहुंचा दिया गया था, लेकिन डॉक्टर का कहना था कि उस आंख से अब वह जीवन भर नहीं देख पायेगा।
“कैसे हो पांडे?”
“ऐसे हालात में कैसा हो सकता हूं सर?”
“मैंने मना किया था, कई बार चेतावनी देते हुए मना किया था।”
“जानता हूं सर, मगर इंसान की बुद्धि भरभ्रष्ठ हो जाये तो वह वैसे ही कदम उठाता है जैसा मैं उठा बैठा। सोचता था माल के बूते पर अतीक अंसारी को जेल की हवा खिला सकता हूं, कितना बड़ा बेवकूफ था मैं। ये तक ख्याल नहीं आया कि सुबह शाम जिसे सलाम करना हमारे अफसर लोग फख्र की बात समझते हैं उससे मैं भला मामूली सा दरोगा कैसे पार पा सकता हूं। शुक्र है बस हाथ तोड़कर, आंख फोड़कर ही छोड़ दिया वरना जान भी ले लेता तो उसका क्या बिगड़ने वाला था सर।”
“कुछ नहीं बिगड़ता, इसीलिए मैं हमेशा से तुम्हें समझाता आ रहा हूं कि भूल जाओ कभी अतीक के बाप ने तुम्हारे पिता को गोली मार दी थी। कल का बदला लेने के लिए अपने आज को बर्बाद मत करो, मगर नहीं तुमपर तो जैसे कोई जुनून ही सवार हो गया था।”
“ठीक कहते हैं सर जुनून ही सवार था, काहे कि मति मारी गयी थी।”
“अभी आंख की क्या स्थिति है?”
“डॉक्टर कहते हैं जीवन भर दाईं आंख से नहीं देख पाऊंगा।”
“रिपोर्ट दर्ज करवाना चाहते हो?”
“नहीं सर, क्योंकि अब अक्ल आ गयी है मुझे। फिर उसने धमकी भी तो दी है कि अगर मैंने किसी को भी अपनी आप बीती सुनाई तो सुनयना को उठवा लेगा। अब अपने साथ-साथ मैं उसका बुरा होते तो नहीं देख सकता न, ऊपर से दोनों बच्चों की भी तो फिक्र करनी है। जो कि नौकरी जाने के बाद कहीं ज्यादा मुश्किल हो जाने वाला है।”
“यहां के सीएमओ साहब मेरे मित्र हैं, जिनसे अभी अभी मैं मिलकर आ रहा हूं। उन्होंने बताया है कि तुम्हारी दाईं आंख को इसके अलावा कोई नुकसान नहीं पहुंचा है कि उसकी रोशनी चली गयी है। यानि देखने भर से किसी को नहीं पता लगेगा कि तुम्हें सिर्फ एक ही आंख से दिखाई देता है, या ये कि तुम्हारी एक आंख खराब है।”
“हम समझे नहीं सर।”
“रिस्क लेने को तैयार हो तो इस मामले में मैं तुम्हारी थोड़ी हैल्प कर सकता हूं।”
“कैसे हैल्प सर?”
“तुम्हारी मैडिकल रिपोर्ट में इस बात का जिक्र गोल कर दिया जायेगा कि तुम्हारी एक आंख की रोशनी चली गयी है। मतलब उस बारे में कुछ लिखा ही नहीं जायेगा। सीएमओ साहब कहे हैं कि आमतौर पर ऐसे ऑपरेशन में तुरंत इस बात का दावा करना मुश्किल होता है कि मरीज अब जीवन भर देख नहीं पायेगा। मगर तुम पुलिस ऑफिसर हो इसलिए उन्होंने ज्यादा ध्यान दिया और उन्हें पता लग गया कि तुमने अपनी दाईं आंख की रोशनी हमेशा के लिए खो दी है। रिस्क ये है कि कल को ये बात किसी और तरीके से सामने आ गयी तो तुम कहीं बड़ी प्रॉब्लम में फंस सकते हो।”
“बस सुननयना को पता है सर, वह भला किसको बतायेगी। लेकिन एक दूसरी प्रॉब्लम है, जो ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है।”
“क्या?”
“अतीक को पता लग गया कि मैं रेग्युलर ड्यूटी कर रहा हूं तो वह यही समझेगा कि मेरी आंख बच गयी है, तब वह कहीं बड़ा हमला मुझपर या मेरे परिवार पर करवा सकता है। जबकि अभी की स्थिति में एक तरह से जीवनदान दे चुका है मुझे।”
“तुम आईंदा उससे दूर रहने का वादा करो तो मैं उसका कोई रास्ता निकाल लूंगा।”
“दूर तो रहना ही पड़ेगा सर, मरना कौन चाहता है।”
“ठीक है फिर मैं सीओ साहब से बात कर लूंगा, आगे वह अंसारी को इस बात के लिए तैयार कर लेंगे कि वह तुमपर कोई नया हमला नहीं करवायेगा।”
“बहुत मेहरबानी होगी सर।”
“दोस्त हो भाई मेरे, मेहरबानी वाली क्या बात है। इसलिए अभी और इसी वक्त से भूल जाओ कि तुम्हें अपनी एक आंख से दिखाई नहीं देने वाला। कुछ दिनों में ठीक हो जाओ तो ड्यूटी जॉयन कर लेना, लेकिन मैं यही कहूंगा कि मौका मिला है तो महीना भर की छुट्टी तो मार ही लो।”
“जैसा आप ठीक समझें सर - कहकर उसने पूछा - अतीक के ट्रक का क्या हुआ?”
“वही जो हमेशा होता है, वापिस उसके पास पहुंच गया।”
“मैं अपने घायल होने की क्या वजह बताऊंगा?”
“एक्सीडेंट, मैं खुद भी सबको यही बताने वाला हूं। बाकी अपने परिवार को समझा देना अच्छी तरह से।”
“ठीक है सर थैंक यू।”
जवाब में समर सिंह ने हौले से हां में गर्दन हिलाई और उठकर वहां से बाहर निकल गया। उसके पीठ पीछे अनुराग पांडे इस बात पर खुद को कोसने लगा कि वैसा आत्मघाती कदम उसने उठाया ही क्यों? क्या सोचकर वह अतीक अंसारी से टक्कर लेने निकल पड़ा था। फिर अपने बाप का गोलियों से छलनी शरीर उसकी आंखों के सामने कौंध उठा, अंजाने में ही उसकी मुट्ठियां कसतीं चली गयीं, मगर अगले ही पल अतीक अंसारी की धमकी को याद कर के उसने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया।
जैसे उसे विश्वास हो चला था कि अपने बाप की मौत का बदला वह कभी नहीं ले पायेगा।
नये एस.पी. का आगमन
सुबह के दस बजे थे, जब डॉक्टर दिलदार सिंह आजमगढ़ के एसपी कार्यालय पहुंचा। वहां बारामदे में टेबल कुर्सी डाले तीन सिपाही बैठे हुए थे। जिन्हें अपना परिचय देकर डॉक्टर ने एसपी साहब से मुलाकात कराने को कहा तो तीनों ठठाकर हंस पड़े।
“हम कोई मजाक की बात कह दिये?” वह थोड़ा चिढ़कर बोला।
“अरे नहीं डॉक्टर साहब - एक जना बदस्तूर हंसता हुआ बोला - लेकिन का करें हंसी रुकिये नहीं रही है, मगर कोई बात नहीं पहले आप आराम से बैठ जाइये फिर बात करते हैं।”
“थैंक यू।”
“कहां से आये हैं?”
“लालगंज से।”
“बात क्या है?”
“ये हम एसपी साहब को ही बतायेंगे, काहे कि कंप्लेन बहुते बड़ी है।”
“ओह अब समझे।”
“क्या?”
“उधर के थाने की शिकायत करने आये होंगे आप?”
“देखिये हम क्या करने आये हैं, और क्या करने नहीं आये हैं, वह बस एसपी साहब को ही बतायेंगे, फिर खामख्वाह अपना और हमारा वक्त काहे बर्बाद कर रहे हैं?”
“टाईम पास कर रहे हैं।” एक जना बोला तो बाकी दोनों फिर से हंस पड़े।
“हम कोई चुटकुला सुनाये हैं?”
“अरे नहीं डॉक्टर साहब, बात बस इतनी है कि आप ऊ वाली मसल चरित्रार्थ कर दिये हैं।”
“कौन सी वाली?”
“खैरात बंटी नहीं और मंगते चले आये।”
“आप हमारी बेइज्जती कर रहे हैं।”
“कैसी बात करते हैं साहब, फिर भी ऐसा कुछ लगा हो तो माफी चाहते हैं। ऊ का है न कि पुराने एसपी साहब का तबादला हो गया है और नये एसपी साहब अभी पहुंचे नहीं है इहां, इसीलिए आपकी बात सुनकर हमें हंसी आ गयी।”
“ओह।”
“लेकिन दिल छोटा मत कीजिए, काहे कि साहब के दस बजे इहां पहुंचने की खबर है, जो कि बज चुके हैं, इसलिए किसी भी वक्त पधार सकते हैं, आप चाहें तो वेट कर लीजिए या फिर कल आ जाइयेगा, क्योंकि आज तो साहब बहुते बिजी रहेंगे।”
“फर्स्ट डे है न।” दूसरा सिपाही बोला।
“नहीं हम मिले बिना तो नहीं जायेंगे।”
“ठीक है फिर बाहर बैठकर इंतजार कर लीजिए, साहब जैसे ही आयेंगे हम आपके बारे में उनको बता देंगे, आगे उनकी मर्जी, अब जबरदस्ती तो आप दोनों की मुलाकात नहीं करा सकते न?”
सुनकर वह उठा और बाहर जाकर बेंच पर बैठ गया।
उसी वक्त एसपी की गाड़ी कंपाउंड में दाखिल होती दिखाई दी, सारा का सारा स्टॉफ अलर्ट हो उठा। सब तेजी से गाड़ी की तरफ लपके। सुखवंत सिंह नीचे उतरा, साथ में उसका अभिमन्यु नाम का एक असिस्टेंट भी था, जिसने डिक्की से निकालकर एक ट्रॉली बैग अपने हाथ में पकड़ लिया।
तमाम स्टॉफ ने तकरीबन एक साथ उसे सेल्यूट किया, फिर सब के सब उसके पीछे पीछे इमारत की तरफ चल पड़े।
सामने ऑफिस तक जाने के लिए चार सीढ़ियां चढ़नी पड़ती थी, जहां एक आदमी उस वक्त पोंछा लगा रहा था। सुखवंत सिंह को जब उसने अपनी तरफ बढ़ते देखा तो वहां रखे एक डिब्बे से ढेर सारा फिनाईल निकालकर सीढ़ियों पर डाला और जल्दी जल्दी हाथ मारकर उसे हर तरफ फैला दिया।
तभी सुखवंत सिंह वहां पहुंच गया।
पहली सीढ़ी पर कदम रखते ही उसके पैर डगमगाये, मगर दूसरी पर तो वह फिसल ही पड़ा, फिर मुंह के बल धड़ाम से नीचे गिरा, तो उसके होंठ फूट गये, शायद घुटने में भी चोट आई थी, क्योंकि सीधा नहीं हुआ जा रहा था। तभी बैग नीचे रखकर अभिमन्यु उसे उठाने दौड़ा कुछ लोग और उसकी सहायता के लिए आगे आ गये। फिर उसे उठाकर बैठा दिया गया। उसके बाद एसपी ने सबको एक तरफ कर के जमीन पर थूका तो ढेर सारा खून बाहर आ गया।
सबके हाथ पांव फूल गये।
“कोई डॉक्टर को बुलाकर लाओ प्लीज।” अभिमन्यु जोर से चींखा।
“हॉस्पिटल ले चलते हैं, पासे में तो है।”
तभी वहां बैठा डॉक्टर तेजी से चलता हुआ उनके करीब आ खड़ा हुआ।
“क्या हो गया?” उसने पूछा।
“अरे हम तो भूलिये गये थे कि आप डॉक्टर हैं - उसका मजाक उड़ाने वाले सिपाहियों में से एक बोला - जरा साहब की चोट का मुआयना तो कीजिए, अभी अभी ढेर सारा खून निकला है मुंह से।”
जवाब में उसने सुखवंत सिंह को मुंह खोलकर दिखाने के लिए कहा, फिर थोड़ी देर ध्यान से अंदर देखने के बाद बोला, “जुबान का अगला हिस्सा कट गया है, टांके लगाने पड़ेंगे।”
“आप लगा सकते हैं?” अभिमन्यु ने पूछा।
जवाब में डॉक्टर ने उसे यूं कसकर घूरा जैसे फाड़कर खा जायेगा।
“सॉरी, आप खाली हाथ हैं न इसलिए पूछ बैठा।”
“उधर - डॉक्टर ने बेंच की तरफ इशारा किया - हमारा बैग रखा है लेकर आओ, और साहब को ले चलकर कहीं लिटा दो। फिलहाल हम जीभ में टांके लगाये देते हैं, फिर कहीं ले जाकर घुटने का एक्सरे करवा देना।”
सुनते के साथ ही एक सिपाही दौड़कर स्ट्रेचर उठा लाया। फिर कई लोगों ने मिलकर एसपी को उसपर लिटाया और एक कमरे में पहुंचा दिया। तत्पश्चात डॉक्टर ने सबको बाहर जाने के लिए कहा और अपने काम में जुट गया।
बीस मिनट वह सिलसिला चला फिर डॉक्टर ने बाहर निकलकर सबको बताया कि बोलने में साहब को एक दो दिन थोड़ी परेशानी हो सकती है, उसके बाद ठीक हो जायेंगे, क्योंकि जीभ और होंठ की अंदरूनी चोटें बहुत जल्दी रिकवर हो जाती हैं। मगर अभी कम से कम भी घंटा भर उन्हें पूरी तरह आराम करने दिया जाये।
फिर सफाई कर्मचारी अलख कुमार की शामत आई। स्टॉफ ने उसपर तरह तरह के सवालों की झड़ी लगा दी। जिसका जवाब उसके पास बस एक ही था कि साहब पोंछे के बीच वहां पहुंच गये थे तो उसमें वह भला क्या कर सकता था।
“रोक नहीं सकता था?” एक इंस्पेक्टर दहाड़ता हुआ बोला।
“इतने बड़े साहब को हम रुकने के लिए कैसे कह सकते थे सर?”
लेकिन उसकी सफाई का किसी पर कोई असर नहीं हो रहा था। वे लोग तो जैसे उसे फाड़ खाने पर उतारू थे। मगर बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी क्योंकि तभी अभिमन्यु ने आकर बताया कि साहब को तेजी से सीढ़ियां चढ़ने की आदत है इसलिए फिसल गये। ना कि उसमें सफाई कर्मचारी की कोई गलती थी।
यह अलख कुमार की खुशनसीबी ही कही जायेगी कि किसी को वहां की सीसीटीवी फुटेज देखना नहीं सूझा, जो अगर सूझ गया होता तो फौरन समझ जाते कि फिनाईल उसने जानबूझकर, एसपी को उधर बढ़ता देखकर ही सीढ़ियों पर फैलाया था।
यानि उसका इरादा साफ था।
वह चाहता था कि एसपी फिसलकर गिर पड़े, क्यों चाहता था वह जुदा बात थी।
ग्यारह बजे के करीब कुछ पत्रकारों ने एसपी ऑफिस पहुंचकर सुखवंत सिंह से मिलने की कोशिश की, जिन्हें ये कहकर वापिस लौटा दिया गया कि साहब की तबियत खराब थी। तब वे लोग अगले रोज आने की बात कहकर वहां से चले गये।
साढ़े ग्यारह बजे अभिमन्यु की सहायता से एसपी ने मुंह हाथ धोया और वर्दी चेंज कर के अपने ऑफिस में जा बैठा। घुटने में थोड़ा दर्द जरूर था मगर वह इतना नहीं था कि उसे हॉस्पिटल जाने की जरूरत महसूस होती, इसलिए ऑफिस में घुसते के साथ ही वह अपने काम में जुट गया।
अगला एक घंटा उसने जिले के सभी पच्चीस थानों में तैनात पुलिसवालों के नामों की लिस्ट देखते हुए गुजारा, जिनमें से हाथ के हाथ अपने मतलब के नाम और थाना नोट करता गया। हैरानी की बात ये थी कि उसने जो चौबीस नाम नोट किये उनमें से कोई भी पुलिस की नौकरी में तीन महीने से ज्यादा पुराना नहीं था। और उन नामों में भी तीन सब इंस्पेक्टर और एक इंस्पेक्टर को छोड़कर बाकी के सब सिपाही थे।
आगे उसने अभिमन्यु के जरिये चुने गये लोगों को तुरंत एसपी ऑफिस में रिपोर्ट करने का हुक्म भिजवा दिया, जो कि चार बजते बजते पहुंच भी गये। तत्पश्चात अभिमन्यु को भेजकर एसपी ऑफिस में तैनात पूरे स्टॉफ को उन थानों में टेम्पेररी तौर पर ड्यूटी जॉयन करने का आदेश जारी करवा दिया, जहां जहां से उसने पुलिसवालों को अपने पास बुलाया था, उसके उस कदम ने सबको बहुत हैरान किया मगर जिले के सबसे बड़े अफसर से सवाल करने की हिम्मत तो कोई नहीं कर पाया।
पांच बजे सबको ग्राउंड में खड़ा कर के उसने ब्रीफ करना शुरू किया, तो उसकी आवाज थोड़ी तोतलाती सी प्रतीत हो रही थी, शायद जीभ के जख्म में दर्द भी हो रहा था, क्योंकि वह रुक रुककर बोल रहा था। कायदे से उसे एक रोज तो आराम करना ही चाहिए था, मगर वैसा करना उसकी फितरत में नहीं था इसलिए चोट के बावजूद काम पर जुटा हुआ था।
“जानते हैं हमने ऑफिसर्स को छोड़कर आप सिपाहियों को क्यों चुना? ऐसे सिपाहियों को क्यों चुना जिनको पुलिस फोर्स जॉयन किये तीन महीने भी नहीं बीते हैं?”
सन्नाटा!
“नये लोगों को इसलिए चुना ताकि आप में से कोई किसी अतीक अंसारी, अमरजीत त्रिपाठी, अनल सिंह या चंगेज खान का भेदिया न निकल आये। बावजूद इसके अगर यहां वैसा कोई शख्स मौजूद है तो उसके लिए मेरी बस एक ही चेतावनी है, या तो पुलिस की नौकरी कर ले या फिर अपराधियों की। वह दोनों तरफ बनाकर नहीं रख सकता, रखेगा तो नौकरी जायेगी, जेल भी जायेगा इस बात की गारंटी मैं अभी किये देता हूं।”
सन्नाटा!
“आप सिपाहियों को इसलिए चुना क्योंकि असल में जंग एक सिपाही ही लड़ता है। सबसे ज्यादा खतरा भी एक सिपाही की जान को ही होता है, और गोली चलाने या गोली खाने में भी आप सिपाही ही सबसे आगे होते हैं। इसलिए आप किसी भी ऑफिसर से ज्यादा बहादुर होते हैं। आज से पहले आजमगढ़ में क्या चल रहा था, मैं नहीं जानता, जानना भी नहीं चाहता। मगर कल तक जो चल रहा था, वह तारीख बदलने से पहले ही खत्म हो चुका है। अब यहां वह चलेगा जो हम चलाना चाहेंगे। और हम शुरू करने वाले हैं सफाई अभियान, जिसमें किसी को भी नहीं बख्शा जायेगा, समझ गये?”
“यस सर।” सब एक साथ बोल पड़े।
“आप में से अगर कोई इस अभियान का हिस्सा नहीं बनना चाहता तो वह जा सकता है। हम उससे कोई सवाल नहीं करेंगे, ना ही उसकी नौकरी पर कोई आंच आयेगी, क्योंकि इस बात में कोई शक नहीं है कि आगे हम जो करने वाले हैं वह बहुत ज्यादा रिस्की काम है। अब बताइये आप में से कौन कौन वापिस जाना चाहता है?”
सन्नाटा!
वह सवाल ही बेतुका था। कोई जाना चाहता भी था तो कैसे वह एसपी के सामने वह बात कबूल कर सकता था, इसलिए सब खामोश खड़े रहे।
“आप में से जितने भी लोगों के पास सर्विस रिवाल्वर है अपने हाथ खड़े करें।”
एक भी हाथ नहीं उठे।
“किसी के पास नहीं है?”
“नो सर।” सब एक साथ बोले।
“बढ़िया निशाना किसका है?”
“सारे हाथ उठ खड़े हुए।”
“गोली चलाने में झिझक तो नहीं होगी?”
“नो सर।” सब एक साथ बोले।
तब सुखवंत सिंह ने अपनी तरफ खड़े तीनों सब इंस्पेक्टर्स को देखा, “महंत चौबे जी।”
“यस सर।”
“इनमें से पांच लोगों के साथ आप अभी के अभी सादे कपड़ों में नार्थ आजमगढ़ के लिए रवाना हो जायेंगे। वहां पहुंचकर अमरजीत त्रिपाठी के बारे में जो भी पता लगा सकते हैं लगायें, जानकारियां जुटायें और हमें खबर करते रहें, फिर जैसे ही अमरजीत के बारे में पता लगेगा कि वह कहां है हम उसपर धावा बोल देंगे। इसी तरह पांच लोगों की एक टीम दक्षिण के लिए रवाना होगी और वहां चंगेज खान के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियां जुटायेगी, यानि ठीक वही काम जो पहली पार्टी उत्तर में करेगी, उसे लीड करेंगे सब इंस्पेक्टर मनीष यादव। तीसरी टीम के साथ सब इंस्पेक्टर जनार्दन मिश्रा अतीक अंसारी के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियां जुटायेंगे। जबकि बाकी के छह सिपाही हर वक्त यहीं एसपी ऑफिस में रहेंगे, ताकि यहां का कार्य बाधित न होने पाये, समझ गये?”
“यस सर।”
“ध्यान रहे आदेश मिलने से पहले आपको कहीं भी किसी पर भी कोई हमला नहीं करना है, किसी को गिरफ्तार करने की कोशिश नहीं करनी है। मतलब कि एकदम न्यूट्रल बने रहना है। आपकी आंखों के सामने कोई चोरी कर रहा हो करने दीजिए, डकैती पड़ रही हो पड़ने दीजिए। क्योंकि उसे रोकना आपका काम नहीं है, हमें बड़े मगरमच्छों का शिकार करना है, इसलिए छोटी मछलियों की तरफ ध्यान नहीं देना है, समझ गये?”
“यस सर।” इस बार सब बोले तो उनके स्वर में पहले जैसा उत्साह नहीं था।
“अभी और इसी वक्त से लेकर, ये मिशन पूरा होने तक आप सभी चौबीसों घंटे की ड्यूटी पर हैं। आपका सारा खर्चा भी पुलिस फंड से होगा, मतलब कहीं रुकने के लिए, खाने पीने के लिए आप लोगों को एक पैसा भी अपनी जेब से खर्च करने की जरूरत नहीं है। यहां से रवाना होते वक्त आप सभी को दस-दस हजार रूपये दिये जायेंगे, जो सिर्फ एक सप्ताह के लिए होंगे, उसके बाद फिर से दस हजार। लेकिन उन पैसों से सिर्फ अपनी जरूरतें पूरी करनी हैं। कोई शराब पीकर आउट हुआ, कोई गांजा पीकर बकबक करने लगा तो उसके लिए बस एक ही सजा है और वह ये है कि तुरंत सस्पेंड कर दिया जायेगा, समझ गये?”
“यस सर।”
“बढ़िया तो अब ऑफिस में अभिमन्यु के पास जाइये, पैसे लीजिए और तुरंत यहां से निकल जाइये। और इस बात का खास ख्याल रखियेगा कि कोई आपकी असल मंशा को भांपने में कामयाब न होने पाये।”
तत्पश्चात ब्रीफिंग समाप्त कर दी गयी।
शाम सात बजे सब इंस्पेक्टर जनार्दन मिश्रा एसपी के कमरे में पहुंचा और उसे सेल्यूट करने के बाद तनकर खड़ा हो गया।
“कोई खबर?”
“अतीक अंसारी कल शाम अपने राईट हैंड कलंकी और चार अन्य आदमियों के साथ अपनी स्कॉर्पियो में बैठकर लखनऊ के लिए निकला था सर, बाद में कलंकी और बाकी के आदमी तो वापिस लौट आये मगर अतीक कहां रह गया कोई नहीं जानता।”
“ये कैसे पता कि वह लखनऊ गया था?”
“इत्तेफाक से मालूम पड़ गया सर। हमारे एक मित्र हैं एसआई नंद किशोर जिनकी सास लखनऊ के जीएमके अस्पताल में एडमिट हैं, उन्हीं को देखने के लिए कल रात वह लखनऊ गये थे। थोड़ी देर पहले हमने उनकी सास का हालचाल पूछा तो बताने के बाद कहे कि अतीक अंसारी का भी कोई भर्ती था वहां, क्योंकि उधर से लौटते वक्त रात बारह बजे के करीब उन्होंने अस्पताल के सामने अतीक अंसारी को अपनी गाड़ी से उतरते देखा था। और इस बात की जानकारी अतीक की हवेली के पास के एक दुकानदार से हासिल हुई है कि वह कल शाम गाड़ी में बैठकर कहीं गया था, लेकिन तब से वापिस नहीं लौटा, लौटा होता तो उसे मालूम होता। ये भी हो सकता है सर कि उसे हमारे ऑपरेशन की भनक लग गयी हो, जिसके कारण आजमगढ़ से खिसक गया।”
“और कुछ?”
“पता लगा रहे हैं सर लेकिन सच तो यही है कि नई कोई जानकारी हासिल होती नहीं दिखाई दे रही। हालिया जुर्म उसने कुछ किया नहीं है, और पहले की कई रिपोर्ट्स तो अलग अलग थानों में पड़ी ही होंगी।”
“तो एक काम करो, उसके खिलाफ जिस जिस थाने में एफआईआर दर्ज हुई हों, वहां से उसकी और उसके पिता दोनों की तमाम फाईलें यहां मंगवा लो, और इस काम को युद्ध स्तर पर करना है जनार्दन समझ गये?”
“जी सर, बस दो घंटा दीजिए हमें।”
“तीन ले लो, बल्कि चार ले लो, लेकिन फाईलें आज की तारीख में मेरी टेबल पर होनी चाहिएं।”
“हम समझ गये सर।” कहने के बाद वह कमरे से बाहर निकल गया।
थोड़ी देर बाद सुखवंत सिंह ने वहां मौजूद अपने इकलौते इंस्पेक्टर दिनेश राय को तलब किया।
“बैठो।”
“थैंक यू सर।”
“अतीक के बारे में क्या जानते हो?”
“ज्यादा कुछ नहीं जानते सर क्योंकि हम इस इलाके के नहीं हैं, और बहाली हुए भी अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है। मगर कुछ जानकारियां फिर भी हैं, जैसे कि अतीक का सबसे खास आदमी कलंकी है। करीब बीस लोग हर वक्त उसकी हवेली में रहते हैं, जिनमें से पांच लाईसेंसी बंदूक रखते हैं, जबकि असलहा तो हर किसी के पास होगा। इसके अलावा पचास लोग और उसके गैंग में हैं, वो कहां रहते हैं, हमें नहीं पता। लेकिन अमरजीत त्रिपाठी के बारे में सब जानते हैं, काहे कि हमारा गांव भी उधरे है।”
“नहीं अभी हम त्रिपाठी या चंगेज के बारे में नहीं सोचेंगे, तब तक नहीं जब तक कि वहां के लिए रवाना हुई हमारी टीम कोई काम की जानकारी नहीं दे देती। वैसे भी हमारा इरादा सबसे पहले इस अतीक अंसारी को ही काबू में करने का है - कहकर उसने पूछा - घर देखा है अंसारी का?”
“देख रखे हैं सर, फिर आजमगढ़ में ऐसा कौन होगा जिसे उसकी हवेली के बारे में न पता हो।”
“चलो एक चक्कर लगाकर आते हैं।”
“मैं सबको तैयार होने को कह दूं सर?”
“नहीं बस जनार्दन मिश्रा की टीम के पांचों सिपाहियों को वहां पहुंचने को बोल दो, मिश्रा को भी रहने दो क्योंकि उन्हें हमने एक खास काम सौंपा है, जिसे पूरा करने में वक्त लगेगा।”
“तौफीक अंसारी बहुते खतरनाक आदमी है सर।”
“हम भी कोई कम खतरनाक नाहीं हैं दिनेश।”
“उसके पास गुंडों की फौज है सर।”
“जो पुलिस के सामने किसी गिनती में नहीं आती। इसलिए कमर कस लो काहे कि हम आजमगढ़ की धरती को अपराधमुक्त करने का ठेका उठा लिये हैं।”
दिनेश राय बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी दबा पाया।
“क्या हुआ?”
“आप तो एकदम हमारी भाषा बोलने लगे सर।”
“काहे कि जैसा देश वैसा भेस, अब चलो।”
“यस सर।”
तत्पश्चात दोनों कमरे से बाहर निकल गये।
शाम साढ़े सात बजे एसपी सुखवंत सिंह, इंस्पेक्टर दिनेश राय और पांच सिपाही अंसारी की हवेली पर खड़े थे। गेट के दूसरी तरफ पांच गनमैन खड़े पहरा दे रहे थे। मगर पुलिस को देखकर उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।
सुखवंत सिंह अपनी गाड़ी से नीचे उतरा और गेट पर पहुंचकर भीतर खड़े उन पांचों पर एक नजर डालकर बोला, “दरवाजा खोलो।”
“ऐसे कैसे खोल दें सर, पहले भीतर से इजाजत तो ले लेने दीजिए।”
“हमने कहा दरवाजा खोलो।”
“बिना इजाजत के तो नहीं खोलेंगे सर।”
“एक मिनट, बस एक मिनट हैं तुम लोगों के पास।”
“कमाल की बात कर रहे हैं सर - चारों में से एक हैरान होता हुआ बोला - जानते नहीं हैं ये हवेली किसकी है।”
सुखवंत सिंह ने बिना कुछ कहे होलस्टर से गन निकाली और उसकी दाईं जांघ का निशाना लगाकर गोली चला दी। यूं चला दी जैसे किसी को महज थप्पड़ भर मार दिया हो। उसकी उस हरकत पर साथ आये तमाम पुलिसकर्मी भौंचक्के रह गये।
अंदर की तरफ से बाकी चारों की राईफल्स उनकी तरफ तन चुकी थीं। गोली खाया गार्ड जमीन पर गिरकर बुरी तरह से तड़पने लगा था। मगर भीतर से निकलकर कोई अन्य शख्स वहां नहीं पहुंचा।
“पुलिस के काम में रुकावट नहीं डालना चाहिए - एसपी बड़े ही आराम से बोला - गेट खोलो वरना सब मारे जाओगे।”
“पहले भीतर फोन करने दीजिए फिर इजाजत मिल गयी तो खोल देंगे।”
“मतलब जान देने पर ही उतारू हो, क्या सोचते हो चार लोग मिलकर पुलिस फोर्स का मुकाबला कर लोगे?”
“इहां चार नहीं चालीस हैं एसपी साहब, इसलिए ज्यादा बड़े बोल मत बोलिये, और शुक्र मनाइये कि अतीक भईया इस वक्त घर पर नहीं हैं, वरना पता नहीं आपका क्या हश्र करते।”
एसपी ने उसके दायें बाजू पर गोली चला दी।
गार्ड हलाल होते बकरे की तरह डकारता हुआ राईफल फेंककर जहां का तहां जमीन पर बैठ गया और बायें हाथ से अपने दायें हाथ को थामे जोर जोर से चिल्लाने लगा।
एसपी के साथ आये अमले के लिए वह एक ऐसा नजारा था जिसकी उन लोगों ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी, ऊपर से इस डर में दुबले हुए जा रहे थे कि अभी हवेली से दस बीस लोग बाहर आयेंगे और सबको गोलियों से भूनकर रख देंगे।
मगर आया बस कलंकी, वह तेज कदमों से चलता हुआ गेट तक पहुंचा, फिर अपने आदमियों को घुड़कता हुआ बोला, “तुम लोगों का दिमाग खराब हो गया है, एसपी साहब पहली बार हवेली पर आये हैं और तुम ससुर दरवाजा खोलकर इनकी मेहमाननवाजी करने की बजाये जुबानदराजी कर रहे हो - फिर उसने सुखवंत सिंह की तरफ देखा - माफ कर दीजिए सर, सब जाहिल गंवार हैं इसलिए जानते नहीं हैं कि किससे कैसे बात करनी चाहिए।”
तत्पश्चात उसने आगे बढ़कर खुद ही गेट खोल दिया।
“हमारे साथ आईये प्लीज।”
सुनकर सुखवंत सिंह ने सिपाहियों की तरफ देखा, “पूरी हवेली पर निगाह बनाये रखो, कोई यहां से भागता दिखाई दे तो उसे गोली मार देने की हमारी तरफ से खुली छूट है तुम्हें। और दिनेश तुम हमारे साथ अंदर चलो।”
भूतपूर्व एमपी तौफीक अंसारी उस वक्त बैठक में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था, एसपी को भीतर आया देखकर उसने हुक्के को थोड़ा दूसरी तरफ किया फिर बड़े ही प्रसन्नचित्त लहजे में बोला, “आईये जनाब तशरीफ रखिये।”
“हम यहां बैठने नहीं आये हैं अंसारी साहब।”
“अरे मेहमाननवाजी का मौका तो दीजिए, का हवाई घोड़े पर सवार होकर आये हैं?”
“आपका बेटा कहां है?”
“क्या पता कहां है, जवान लड़का है कहीं घूमने फिरने निकल गया होगा, उसके बारे में काहे पूछ रहे हैं?”
“काहे कि हम उसे गिरफ्तार करने आये हैं - सुखवंत सिंह उसी की टोन में बोला - अब अगर बेटे की मौत का मातम नहीं मनाना चाहते तो उसे हमारे हवाले कर दीजिए, जेल जाकर कम से कम जिंदगी तो बच ही जायेगी उसकी।”
“तुम मजाक कर रहे हो एसपी?”
“नहीं, वैसे भी आप जैसे बुजुर्ग लोगों से मजाक करना हमारी फितरत नहीं है।”
“जानते तो हो न कि किससे बात कर रहे हो?”
“हां आजमगढ़ के एक गुंडे से।”
“अपनी हद में रहकर बात करो एसपी साहब - कलंकी गुर्राता हुआ बोला - वरना पता भी नहीं लगेगा कि तुम्हारी लाश कहां दफन कर दी गयी।”
सुनकर सुखवंत सिंह ने पूरी ताकत से एक थप्पड़ उसके गाल पर खींचा और गुर्राता हुआ बोला, “बहन....दो टके के गुंडे, तुम्हारी औकात हमसे बात करने की नहीं है और कहते हो जान ले लोगे हमारी।”
दूसरी गलती कलंकी ने ये करी कि तैश में आकर कमर में खुंसी रिवाल्वर निकालकर एसपी पर तान दी, मगर बस ताना ही पाया, अगले ही पल सुखवंत सिंह ने एक जोर की लात उसके रिवाल्वर वाले हाथ पर जमाई, जो फौरन उसके हाथ से निकलकर दूर जा गिरी, तत्पश्चात उसने बायें हाथ से कलंकी के बाल थामे और दायें हाथ में थमी गन की नाल जबरन उसके हलक में घुसेड़ता हुआ बड़े ही शांत लहजे में बोला, “क्या कहते हो, गोली चला दूं?”
“अरे काहे नौकर जात पर जुल्म कर रहे हैं - तौफीक अंसारी थोड़ा बौखलाया सा बोला - हमसे बात क्यों नहीं करते आप?”
“ये कमीना बात करने कहां दे रहा है अंसारी साहब।”
“अब नौकर के सामने मालिक को धमकी देंगे तो वह खामोश खड़ा तमाशा तो नहीं देखेगा न, फिर जरा अपना रवैया भी तो देखिये, हमारे घर में खड़े होकर हमारे ही बारे में बुरे बोल बोले जा रहे हैं, पुलिस क्या ऐसे काम करती है?”
“अब तो ऐसे ही करेगी अंसारी साहब - कहते हुए उसने गन वापिस खींची फिर गुर्राता हुआ बोला - अपनी जगह से हिले भी कलंकी तो इस बार धमकी नहीं गोली देंगे हम तुम्हें, समझ गये?”
“ज...जी समझ गया।”
“गुड - कहकर एसपी ने अंसारी की तरफ देखा - हम आपके घर की तलाशी लेने जा रहे हैं, अगर आपका बेटा यहां निकल आया तो गारंटी करते हैं कि पहले उसे गोली मारेंगे उसके बाद आपसे कोई सवाल करेंगे।”
फिर उसने इंस्पेक्टर को हुक्म दिया कि बाहर से पांचों सिपाहियों को भीतर बुला ले।
सुनकर उसने फोन कर के सबको अंदर आने को कह दिया। तलाशी शुरू हो गयी, मगर घर में और कोई नहीं था, जिसकी सुखवंत सिंह को पहले से ही उम्मीद थी। असल बात तो ये थी कि वह अतीक को गिरफ्तार करने वहां आया भी नहीं था। उसके दिमाग में तो इस वक्त कुछ और ही चल रहा था।
“अब क्या करेंगे एसपी साहब - अंसारी ने जोर का ठहाका लगाया - अतीक नहीं मिला तो क्या हमको गिरफ्तार कीजिएगा?”
“हां वही करूंगा मैं, सवाल बस इतना है कि आप अपनी मर्जी से हमारे साथ चलेंगे, या आपको जबरन ले जाना पड़ेगा।”
“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है?”
“नहीं आपके दिन खराब चल रहे हैं।”
“तुम जानते नहीं हो कि तुम्हारे डीआईजी के साथ हमारा रोज का उठना बैठना है, मुख्यमंत्री साहब से भी महीने एक मुलाकात तो हो ही जाया करती है। यहां के शहंशाह हैं हम, गिरफ्तार करोगे तो शहर में ऐसा बवेला मचेगा कि ट्रांसफर तो होगा ही नौकरी भी चली जाये तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।”
“तो एक काम कीजिए सर, पहले आप डीआईजी साहब से ही बात कर लीजिए, या चाहें तो सीधा मुख्यमंत्री साहब को फोन लगा लीजिए, क्या पता उनमें से कोई हमें ये हुक्म दे दे कि आपको अरेस्ट नहीं करना है।”
सुनकर तौफीक अंसारी ने तुरंत डीआईजी को कॉल लगाया, बेल निरंतर जाती रही मगर कॉल पिक नहीं की गयी, तब उसने मुख्यमंत्री को फोन किया, वहां भी कॉल का कोई जवाब नहीं मिला।
तौफीक अंसारी के माथे पर बल पड़ गये।
“हमने कहा था न अंसारी साहब कि आपके दिन खराब चल रहे हैं, अब उठिये और हमारे साथ चलिए, और अपने इस दो टके के चमचे को समझा दीजिए कि हमारे काम में रुकावट बनने की कोशिश न करे वरना बेमौत मारा जायेगा, जबकि आज हमारा किसी की जान लेने का कोई इरादा नहीं है।”
सुनकर अंसारी बुरी तरह तिलमिला उठा, लेकिन साथ चलने से मना नहीं कर सका। कलंकी को भी उसने शांत रहने की हिदायत दे दी। तत्पश्चात एसपी ने उसे पुलिस जीप में बैठाया और खुद भी उसके साथ बैठ गया। जबकि उसकी गाड़ी खाली ही वहां से रवाना हो गयी। बाकी के सिपाही दूसरी जीप में बैठकर वहां से चल पड़े।
थोड़ा आगे जाने के बाद रास्ता बदल दिया गया।
सबकुछ बहुत आसानी से निबट गया था, मगर उतनी ही आसानी से तौफीक अंसारी को एसपी ऑफिस ले जाना पॉसिबल नहीं था, ये बात सुखवंत सिंह बहुत अच्छे से समझता था, इसलिए रूट बदल दिया था। रास्ते में दो दर्जन हथियारबंद लोगों ने एसपी की गाड़ी पर हमला बोल दिया। हमलावरों को शायद जानकारी नहीं थी कि तौफीक या सुखवंत सिंह में से कोई भी उसमें नहीं बैठा था।
एसपी की गाड़ी को बस घेरा भर गया था, उसपर कोई गोली नहीं चलाई गयी क्योंकि हमलावरों की निगाहों में तो भीतर तौफीक अंसारी बैठा हुआ था। उन लोगों ने गेट खोलकर भीतर देखा और गाड़ी को खाली पाकर बौखला से गये, अच्छी बात ये रही कि अपना गुस्सा ड्राईवर पर निकालने की कोशिश नहीं की।
पुलिस की दोनों जीपें एकदम सही सलामत, बिना किसी बवेले के एसपी ऑफिस पहुंच गयीं। बवेले की उम्मीद सुखवंत सिंह को पूरी पूरी थी इसलिए उसने वहां मौजूद तमाम स्टॉफ को इस हिदायत के साथ तैनात कर दिया कि कोई जबरन भीतर घुसने की कोशिश करे तो उसे फौरन गोली मार दी जाये।
तत्पश्चात अपने कमरे में बैठकर उसने तौफीक अंसारी से पूछताछ शुरू की, जहां उनके अलावा इंस्पेक्टर दिनेश राय और सब इंस्पेक्टर जनार्दन मिश्रा भी मौजूद थे, जो तौफीक की गिरफ्तारी पर बुरी तरह खौफजदा थे।
“आप पर बाईस मामले दर्ज हैं अंसारी साहब, जिनमें से दस वसूली के हैं, चार मर्डर के, पांच किडनैपिंग के और तीन जमीन कब्जाने के। लेकिन अभी मैं सिर्फ मर्डर की बात करूंगा, जिनमें से एक हमारा पुलिस ऑफिसर था, जिसे आपने सिर्फ इसलिए खत्म कर दिया क्योंकि उसने आपकी गाड़ी की तलाशी लेने की जुर्रत की थी, और दूसरा इसी इलाके का मानसिंह नाम का एक निर्दलीय उम्मीदवार था, उसे इसलिए खत्म किया क्योंकि आपको आशंका थी कि वह इलेक्शन में बाजी मार ले जायेगा - कहकर उसने पूछा - कोई सफाई देना चाहते हैं इन दोनों हत्यायों के बारे में?”
“नहीं लेकिन कुछ बताना जरूर चाहते हैं।”
“क्या?”
“यही कि तुम्हारी जानकारी गलत है, सरासर बेइज्जती किये दे रहे हो हमारी।”
“आपका मतलब है उन दोनों के कत्ल में आपका हाथ नहीं था?”
“था क्यों नहीं, लेकिन हम बस उन्हीं दोनों को नहीं मारे हैं एसपी। बहुतों को मारे हैं, इतनी लाशें बिछाई हैं हमने कि तुम गिनते गिनते थक जाओगे, इसलिए थक जाओगे क्योंकि वह गिनती तो खुद हमें भी याद नहीं है। हां इतना जरूर बता सकते हैं कि हमारे हाथों अगला कत्ल किसका होने वाला है।”
“बताईये।”
“तुम्हारा, काहे कि तुम अपनी औकात से बाहर निकल आये हो - अंसारी गुर्राता हुआ बोला - हम पूछते हैं पंजाब में पोस्टिंग क्यों नहीं करा लिये तुम? यूपी में, खासतौर से हमारे इलाके में आने की क्या जरूरत थी? और आ भी गये तो का अमन चैन, दोस्ती यारी में यकीन नहीं रखते क्या, जो इहां का कार्य भार संभालते ही हमारे घर में घुस आये? हम पूछते हैं इतनी मजाल कैसे हो गयी तुम्हारी?”
“आपके घर में सिर्फ घुसे नहीं हैं अंसारी साहब, आपको मुजरिमों की तरह उठाकर एसपी ऑफिस भी ले आये हैं, माने हमारे लिए आप में और किसी मामूली चोर उचक्के में कोई फर्क नाहीं है। इसलिए हमारी राय मानिये और अपना जुर्म कबूल कर के बाकी की जिंदगी जेल में गुजारिये, नहीं कबूल करेंगे, या हम किसी वजह से आपका जुर्म साबित करने में असफल रह गये तो उसमें सबसे बड़ा नुकसान आपका ही होगा, पूछिये कैसे?”
“कैसे?”
“गोली मार देंगे हम आपको, वो भी बीच चौराहे पर खड़ा कर के, यानि या तो आप जेल जायेंगे या खुदा के घर जायेंगे, अब कहिये क्या फैसला है आपका?”
“तुम तौफीक अंसारी को धमकी दे रहे हो एसपी?”
“नहीं आपका भला बुरा समझा रहे हैं, क्योंकि सरकार की तरफ से हमें खुली छूट है कि आपके साथ चाहे जैसा सुलूक कर सकते हैं, इसलिए हवा का रुख पहचानिये और अपना किया धरा कबूल कर लीजिए। फिर क्या पता हमारे यहां से जाने के बाद आप अपनी रिहाई का कोई रास्ता निकाल लें, आखिर बहुते नामचीन शख्सियत हैं आप। इसलिए अच्छी तरह से सोच विचार कर लीजिए।”
“कुछ भी सलामत नहीं बचेगा एसपी, शहर में ऐसा बवेला होगा कि तुम पनाह मांग जाओगे। हमारे आदमी तुम्हारा ऑफिस फूंककर रख देंगे, कोई आगे पीछे होगा तो उसे भी जिंदा दफ्न कर दिया जायेगा, इसलिए अभी भी वक्त है चेत जाओ और हमे जाने दो इहां से, बदले में हम वादा करते हैं कि तुम्हारी इस गुस्ताखी को भुला देंगे।”
“यानि जान गंवाने को उतावले हो रहे हैं?”
“नहीं तुम्हारी जान बचाने के लिए हो रहे हैं, काहे कि आज तक हम किसी एसपी को नहीं मारे हैं, इसलिए नहीं मारे क्योंकि किसी ने हमारे खिलाफ जाने की कोशिश नहीं की, मगर तुम मौत की तरफ कदम बढ़ा रहे हो, बस तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा, काहे कि अक्ल मारी गयी है।”
“डॉयलाग अच्छे बोल लेते हैं।”
“सिर्फ बोलते ही नहीं हैं, उसे पूरा कर के भी दिखाते हैं।”
“बात ये है अंसारी साहब कि हमारा नाम सुखवंत सिंह है, माने एक ऐसा ऑफिसर जिसने जिस किसी जिले में कदम रखा, वहां से अपराध और अपराधियों का सर्वनाश कर के ही वापिस लौटा। और अब हम आजमगढ़ में हैं, और आगे सिर्फ हमी रहेंगे इहां, ना कि गुंडे बदमाशों का राज चलने देंगे।”
“तुम बार बार हमारे साथ बदतमीजी से पेश आ रहे हो।”
“तो क्या आरती उतारें आपकी?”
“उतारोगे, तुम हमारे कदमों में सिर रखकर रहम की भीख मांगोगे एसपी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, क्योंकि हम दूसरा मौका किसी को नहीं देते। वादा करते हैं कि तुम्हारा कोई नामलेवा भी इस दुनिया में बचा नहीं रह जायेगा। अफसोस बस इस बात का होगा कि तुम्हारी अकड़ के कारण कुछ दूसरे - उसने दिनेश और जनार्दन की तरफ देखा - ऑफिसर भी अपना सर्वनाश करा बैठेंगे, क्योंकि इनकी गलती बस इतनी है कि ये लोग तुम्हारे हुक्म का पालन कर रहे हैं।”
“ठीक है फिर अपना अंजाम भुगतने को तैयार हो जाइये - कहकर उसने दिनेश राय की तरफ देखा - हवालात के दर्शन कराओ भई इन्हें, मगर अभी कोई खातिरदारी करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह काम हम अपने हाथों से करेंगे।”
“सर - दिनेश सहमता हुआ बोला - एक मिनट बाहर चलकर हमारी बात सुन लीजिए, रिक्वेस्ट कर रहे हैं हम।”
“बाद में सुनूंगा, अभी ये आदमी मुझे हवालात में चाहिए।”
सुनकर उसने गहरी सांस ली, फिर अंसारी की तरफ देखकर बोला, “हमारे साथ आईये सर।”
जवाब में एसपी को खा जाने वाली निगाहों से घूरता हुआ वह उठ खड़ा हुआ।
पांच मिनट बाद अंसारी को हवालात में बंद करके, कई बार माफी मांगकर और अपनी विवशता का प्रदर्शन करने के बाद दिनेश वापिस लौटा और एसपी की इजाजत पर उसके सामने बैठ गया जहां जनार्दन मिश्रा पहले से बैठा हुआ था।
“अब कहो क्या कहना चाहते थे?”
“आप बारूद के ढेर को चिंगारी दिखाये हैं सर। पूरा आजमगढ़ जलकर खाक हो जायेगा। बहुते खतरनाक आदमी है ये तौफीक अंसारी, वो जेल में रहे या बाहर रहे उससे उसकी ताकत कम नहीं हो जायेगी।”
“तो क्या करें छोड़ दें उसे, भूल जायें कि वर्दी किसलिए पहनी है?”
“सबकी भलाई इसी में है सर, काहे कि सजा तो आप उसे नहीं दिला पायेंगे। फिर अतीक को पता लगने की देर है कि उसका बाप गिरफ्तार कर लिया गया है, ऐसा कहर ढायेगा कि पूरे जिले में खून की नदियां बहने लगेंगी। इसलिए अपने फैसले पर एक बार फिर से गौर कर लीजिए।”
“उससे मिले हो कभी?”
“नहीं सर लेकिन साहब लोगों के साथ उसका मिलना मिलाना खूबे होता है। हमसे कोई काम आ भी निकले तो उसके लिए अंसारी की तरफ से जो आदमी सामने आता है वह कलंकी होता है, मगर उसके बारे में जानने के लिए मुलाकात जरूरी थोड़े ही है। इतना तो इहां का बच्चा बच्चा जानता है कि एक नंबर का जल्लाद आदमी है। अभी कल की ही बात है, हमारे एक दरोगा ने उसका ट्रक जब्त कर लिया, जिसपर गुस्सा होकर उसने उसका हाथ तोड़ दिया, आंख फोड़ने की भी कोशिश की, जो इत्तेफाक से बच गयी। ट्रक के ड्राईवर और खलासी को खत्म कर दिया गया, उस मुखबिर को भी बुरी मौत दी गयी जिसने अतीक के माल की खबर दरोगा को दी थी, और जानते हैं दरोगा जी ने क्या किया?”
“क्या किया?”
“कह दिये कि उनका एक्सीडेंट हो गया था, काहे कि अतीक अंसारी का ऐसा ही खौफ है। उसके खिलाफ कोई जुबान नहीं खोलना चाहता। किसी का एक बेटा मारा जाये तो वह रिपोर्ट लिखवाने की बजाये ये सोचकर खुश होता है कि अच्छा हुआ जो उसके दूसरे बेटे को अतीक ने जिंदा छोड़ दिया। ऐस में तौफीक अंसारी के खिलाफ आपको खोजे से भी कोई गवाह नहीं मिलने वाला, और एविडेंस हैं नहीं। मतलब कोर्ट से जमानत हासिल कर लेना उसके लिए बहुत मामूली बात होगी।”
“जरा दरोगा वाले मामले को विस्तार से बयान करो।”
दिनेश राय ने किया।
“फिर तो कोई रिपोर्ट भी दर्ज नहीं कराई गयी होगी?”
“नहीं सर।”
“कमाल है।”
“और कर भी क्या सकते थे सर - जनार्दन मिश्रा इतनी देर में पहली बार बोला - अतीक के खिलाफ बयान देकर आज तक कौन जिंदा बचा है जो पांडे जी रिपोर्ट लिखवाने की जुर्रत कर पाते। वह तो इसी बात की खैर मना रहा हैं कि सस्ते छूट गये, माने कि जान बच गयी।”
“फिर पता कैसे लगा कि उनपर हमला अतीक ने कराया था?”
“ऐसी बातें छिपती थोड़े ही हैं सर, ऊपर से अतीक की गाड़ी जब्त किये जाने की खबर सबको थी, इसलिए उनकी दुर्दशा देखकर बिना कहे ही समझ गये कि क्या हुआ होगा।”
“वैसे आप एक बड़ी गलती कर दिये सर।” दिनेश राय बोला।
“क्या?”
“कलंकी को खुला नहीं छोड़ना चाहिए था, क्योंकि अंसारी का सारा काम काज वही देखता है, उसके तमाम लड़के भी कलंकी के ही अंडर में काम करते हैं, ऐसे में वह कुछ न कुछ बवेला तो करबे करेगा।”
“मैंने उसे जानबूझकर गिरफ्तार नहीं किया, क्योंकि मैं चाहता हूं कि वह बवेला करे और उसी बहाने से हमें उसको खत्म करने का बहाना मिल जाये। इसलिए तुम लोगों को चिंता करने की नहीं, ईमानदारी से अपना काम करने की जरूरत है। मैं नहीं जानता कि हममें से कौन अतीक अंसारी का हुक्का भरता है, कौन यहां की अंदरूनी जानकारियां उस तक पहुंचाता है, या किसने उसे खबर दी कि हम उसे गिरफ्तार करने जा रहे हैं।”
“ई तो आप गलत कह रहे हैं सर, क्योंकि हमें पक्की जानकारी है कि कल रात का बाहर गया अतीक अभी तक वापिस नहीं लौटा है, मतलब ये नहीं हो सकता कि हममें से किसी ने उसे फोन कर के बता दिया हो तक पुलिस उसे गिरफ्तार करने आ रही है।”
“हो सकता है तुम्हारी बात सही हो, लेकिन पूरे स्टॉफ को चेतावनी फिर भी दे दो। साफ कह दो कि किसी ने भी अतीक के साथ रिश्तेदारी निभाने की कोशिश की तो फौरन सस्पेंड कर दिया जायेगा।”
“यस सर।”
“सच पूछो तो मैंने इस तरह की समस्यायों से बचने के लिए ही यहां के पूरे स्टॉफ को ऐसे स्टॉफ के साथ बदल दिया जिन्हें पुलिस फोर्स जॉयन किये ज्यादा से ज्यादा तीन महीने गुजरे हैं - फिर उसने दिनेश की तरफ देखा - सिफ एक तुम हो जिसे पुलिस की नौकरी करते पूरा साल गुजर चुका है, फिर भी मैंने तुम्हें चुना, जानते हो क्यों?”
“क्यों सर?”
“क्योंकि सब इंस्पेक्टर की पोस्ट पर बहाली के बाद महज आठ महीनों में तुम इंस्पेक्टर बना दिये गये, इतनी तुरत फुरत तरक्की तो किसी बिरले को ही नसीब होती है।”
“उसकी वजह थी सर।”
“हम जानते हैं वह वजह, तभी तो तुम्हें अपनी टीम में शामिल किये। नई जॉईनिंग होने के कारण हम उम्मीद करते हैं कि तुम लोगों में से किसी का भी अतीक अंसारी जैसे शख्स से कोई लेना देना नहीं होगा। बावजूद इसके कभी कोई रिश्ता बन गया था, तो उससे भी हमें कोई ऐतराज नहीं है, बशर्ते कि आगे तुम सब सिर्फ और सिर्फ कानून के नुमाइंदे बनकर रहो।”
“नहीं सर, हमारा उसके साथ कोई रिश्ता नहीं है। सच पूछिये तो अंसारी की गुंडागर्दी देखकर हमारा खून खौल उठता है, लेकिन अफसर लोग कभी एक बार भी आदेश नहीं दिये कि हम उसके खिलाफ कदम उठायें, ऐसे में हम कर भी क्या सकते हैं।”
“अब वह मौका तुम्हें हासिल होकर रहेगा। बहुत जल्द हम इस जिले से अपराध और अपराधियों का नामोनिशान मिटाकर रख देंगे। और वह काम मैं तुम लोगों के सहयोग के बिना नहीं कर सकता।”
“हम हमेशा आपके साथ हैं सर।”
“नहीं मेरे साथ नहीं, कानून के साथ बने रहो। क्योंकि तुम कानून के नुमाइंदे हो, ना कि एसपी सुखवंत सिंह के - कहने के बाद क्षण भर को रुककर बोला - अब एक आखिरी बात सुनो।”
“क्या सर?”
“हमें पूरा पूरा अंदेशा है कि कल जब तौफीक अंसारी को हम कोर्ट लेकर जायेंगे तो उसके समर्थक हमारा घेराव जरूर करेंगे। हो सकता है वे लोग पुलिस हमला कर के उसे छुड़ाने की कोशिश भी करें, मगर हमें किसी भी हाल में वैसा नहीं होने देना है, जिसके लिए किसी खास स्ट्रेटजी की जरूरत है। इसलिए अपना दिमाग दौड़ाना, सोचना कि कैसे बिना किसी बवेले के अंसारी साहब को कोर्ट तक पहुंचाया जा सकता है।”
“यस सर।”
“अब आप दोनों जा सकते हैं।”
“थैंक यू सर।” दोनों ने उठकर एसपी को सेल्यूट किया फिर उसके कमरे से बाहर निकलकर एक दूसरे कमरे में जाकर बैठ गये, जहां पहले से दो सिपाही मौजूद थे।
“चाय का इंतजाम करो राजाराम - इंस्पेक्टर दिनेश राय उठकर खड़े हो चुके दोनों सिपाहियों में से एक का नाम लेकर बोला - रजनीश से कहना कि अदरक और कालीमिर्च जरूर डाल दे, काहे कि कपार फटा जा रहा है।”
“कहें तो थोड़ी दालचीनी भी डलवाये देते हैं सर।”
“जो मर्जी डलवा दो लेकिन कालीमिर्च और अदरक जरूर होनी चाहिए।”
“ठीक है सर जी।” कहकर वह दूसरे सिपाही के साथ कमरे से बाहर निकल गया।
“हमें तो कुछ ठीक नहीं लग रहा सर।” मिश्रा उसके सामने बैठता हुआ बोला।
“अदरक और कालीमिर्च चाय में डलवाना?”
जवाब में उसने जोर से ठहाका लगाया फिर बोला, “हम तौफीक अंसारी की गिरफ्तारी के बारे में कह रहे हैं सर। बहुत बड़े बवेले की आशंका है हमें। एसपी साहब सुबह के बारे में सोच रहे हैं, जबकि हमें लग रहा है कि आज रात में ही कुछ न कुछ घटित हो जायेगा। कलंकी आजाद है तो हाथ पर हाथ धर के थोड़े ही बैठा रहेगा, फिर अब तक तो अतीक को भी अपने बाप के गिरफ्तार होने की खबर लग चुकी होगी।”
“क्या कर सकते हैं मिश्रा जी - दिनेश राय गहरी सांस लेकर बोला - अब हम या आप मिलकर एसपी साहब का फैसला तो नहीं बदल सकते न? भीतर एक बार कोशिश किये भी तो वह सुनने की बजाये उल्टा दस ठो हमीं को सुना दिये। इसलिए इंतजार कीजिए जो होगा भुगतेंगे, काहे कि दूसरा तो कोई रास्ता है नहीं।”
“एक का किया सब काहें भुगते सर? फिर एसपी साहब जो कर रहे हैं वह कानूनन जायज भी तो नहीं माना जा सकता। आप ही बताये थे कि कैसे अंसारी की हवेली पर गेट न खोलने की वजह से दो आदमियों को शूट कर दिये थे, पुलिस क्या ऐसे काम करती है? करेगी तो गुंडे बदमाशों और हमारे बीच फरके का रह जायेगा।”
“बात तुम्हारी ठीक है मिश्रा, लेकिन कर कुछ नहीं सकते, काहे कि हमारी औकात नहीं है साहब के काम में मीन मीख निकालने की, और जाकर फरियाद करें भी तो किससे करें, का डीआईजी साहब एसपी साहब के सामने हमारी सुन लेंगे, और दूसरा कौन है जो उनपर अंकुश लगा सके।”
“फिर तो मौत पक्की है सर।”
“हम तोहार बात से इंकार नाहीं करेंगे, इसलिए सावधानी बरतना बहुते जरूरी है। मतलब साहब का हुक्म मानकर कुछ भी कर गुजरने से पहले हमें ये सोचना होगा कि उसका हमपर क्या असर पड़ने वाला है। कहीं हम कोई आत्मघाती कदम तो नहीं उठाने जा रहे।”
“कैसे सोच सकते हैं सर? जब वह सिर पर खड़े हुक्म दे रहे होंगे तो हम क्या मानने से इंकार कर देंगे?”
“नहीं लेकिन समस्या तब नहीं है जब एसपी साहब हमारे साथ होंगे, क्योंकि उन हालात में तो हर कोई ये बात समझिये जायेगा कि हम जो किये मजबूरी में किये, अपने अफसर का आदेश मानकर किये, बस उनकी गैरहाजिरी में सावधानी बरतना जरूरी है, जो हम बरतेंगे, तुम भी बरतो। काहे कि इसी में हम सबकी भलाई है।”
तभी चाय वाला लड़का वहां पहुंच गया जिसके बाद दोनों की बातचीत को विराम लग गया।
उत्तरी आजमगढ़ में अमरजीत त्रिपाठी का घर आजमपुर के इलाके में था, जो कि जिले की सीमा पर सबसे आखिर में स्थित है। सब इंस्पेक्टर महंथ चौबे अपनी टीम के साथ वहां पहुंच तो गया मगर उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि शुरूआत कहां से करे। आखिर बहुत सोच विचारकर उसने सबसे पहले रहने खाने का इंतजाम किया ताकि उन्हें अपनी रात सड़क पर न गुजारनी पड़ी। उस इंतजाम के लिए आजमपुर से लगते एक गांव के प्रधान को चुना गया, जिसने बाखुशी उनके रहने और खाने की व्यवस्था कर दी।
प्रधान को असल बात उसे न बताते हुए चौबे ने बस इतना कह दिया कि एसपी साहब के हुक्म पर वे लोग गांव गांव घूमकर वहां के हालात का जायजा ले रहे थे, इसलिए दो चार दिन उस इलाके में भी रुकना जरूरी था।
तत्पश्चात उसने पांचों सिपाहियों को इस हिदायत के साथ काम पर लगा दिया कि उन्हें इधर उधर टहलने और स्थानीय लोगों से बातचीत करने के अलावा और कुछ नहीं करना था, फिर प्रधान के साथ बैठकर बातचीत करने लगा।
“आप तो खूबे जानते होंगे इस इलाके को प्रधान जी?”
“ठीक कहे दरोगा बाबू, कई पीढ़ियों से हमारा परिवार इसी गांव में रहता आया है इसलिए जानकारी तो रखते ही हैं।”
“अपराध तो सुना है इधर होते ही रहते हैं, नहीं?”
“जी हां उसका तो कोई ओर छोर नहीं है।”
“किस तरह के अपराध, छोटे मोटे या बड़े?”
“छोटे बड़े सब होते हैं दरोगा जी, माने छीना झपटी, डकैती, मर्डर, जो न हो जाये वही कम है। चौदह पंद्रह साल के लड़के खुलेआम कट्टा लेकर घूमते नजर आ जाते हैं। बाकी त्रिपाठी जी का गैंग तो है ही, जिनका इधर बहुते दबदबा है।”
“सब उनके इशारे पर होता है?”
“बड़े अपराध तो सौ फीसदी उन्हीं के आदमी किया करते हैं, मगर छोटे मोटे, जैसे कि राह चलते किसी आदमी को छुरा दिखाकर लूट लिया, या किसी घर में घुसकर चोरी कर ली, ऐसे कामों में कभी उनका नाम नहीं सुना।”
“यानि हैं बहुते खतरनाक आदमी?”
“हां, इस बात में कोई दो राय नहीं है। पहले कुछ अच्छी बातें भी उनके बारे में सुनने में आती थीं, दो साल पीछे जाकर बतायें तो तब का हाल ये था कि किसी जरूरतमंद को अपने दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटने देते थे। मगर आजकल तो वह खुदे नहीं होते घर पर, दूसरों की मदद तो भला का करेंगे।”
“आपका मतलब है पहले दान पुण्य में आस्था रखते थे?”
“नहीं, लेकिन शादी ब्याह के मामले में सबकी मदद कर दिया करते हैं। इस इलाके में शायद ही कोई ऐसा गरीब परिवार हो जिसकी बेटी की शादी में त्रिपाठी बाबा ने पचास साठ हजार की मदद न की हो, और वह सिलसिला आज भी जारी है। मतलब त्रिपाठी जी यहां रहें या कलकत्ता, खबर पाकर नजरअंदाज नहीं करते। इसीलिए आजमपुर और आस-पास के इलाके में लोग उन्हें बड़े ही सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।”
“जबकि असल में गुंडा हैं, हिस्ट्रीशीटर हैं।”
“अब का बतायें सर, दस लोग दस तरह की बातें, कोई उन्हें अच्छा कहता है तो कोई बुरा। हमारे साथ बाबा कभी कुछ गलत नहीं किये तो हम उन्हें बुरा काहे कहेंगे, ऐसे ही किसी का नुकसान कर दिये हों तो वह उन्हें गाली ही देगा, तारीफ कैसे कर सकता है।”
“बात तो ठीक है आपकी, तो क्या घर आना आजकल एकदम्मे छोड़ दिया है?”
“महीने में एक दो बार घर पर दिख जाते हैं, बाकी वक्त में कहां होते हैं कोई नहीं जानता। मगर सुनने में आया है कि अतीक अंसारी उनकी जान के पीछे पड़ा हुआ है, इसलिए सावधानी बरतते हैं। असल बात क्या है वो तो वही जानें।”
“मान लीजिए हम त्रिपाठी जी से मिलना चाहें तो?”
“तो उनके घर जाकर खबर कर दीजिए। वे लोग आपका नाम पता और मोबाईल नंबर नोट कर लेंगे, फिर आगे उसकी खबर बाबा को कर दी जायेगी, उसके बाद इंतजार करना होगा, क्योंकि उसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।”
“परिवार में कौन है उनके?”
“अपनों के नाम पर तो कोई नहीं है, काहे कि शादी किये नहीं और मां बाप सालों पहले दुनिया से चले गये, इसलिए मिलेंगे तो बस उनके आदमी ही, जिनकी संख्या कम से कम भी बारह तो होईबे करेगी।”
“खाली घर में एक दर्जन आदमी?”
“उनका धंधा भी तो वही लोग देखते हैं दरोगा जी।”
“कौन सा धंधा?”
“बहुतेरे हैं, जिसमें मुख्य रूप से हथियारों की स्मगलिंग, नशीले पदार्थों का व्यापार, किडनैपिंग, वसूली, मगर सब सुनी सुनाई बाते हैं, पक्के तौर पर हम नहीं जानते। हां इतना फिर भी देखने में आता है कि जब भी इलेक्शन होता है त्रिपाठी जी के सारे आदमी एक्टिव हो जाते हैं। कभी इस पार्टी के लिए तो कभी उस पार्टी के लिए, क्योंकि जिसके सिर पर त्रिपाठी बाबा हाथ रख दें उसकी जीत सुनिश्चत हो जाती है।”
“कैसे?”
“मान मनौव्वल, जोर जबरदस्ती, बूथ कैप्चरिंग, मतलब हर तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं, और उस आदमी को जिता दिया जाता है, जिसे त्रिपाठी जी जिताना चाहते हैं। दो बार तो ऐसा भी हुआ जब सबसे सशक्त उम्मीदवारों को खत्म करवा दिया गया, ऐसे उम्मीदवार जिनका जीत जाना सुनिश्चित था। और गलती उनकी बस इतनी थी कि त्रिपाठी बाबा अपना हाथ उनके प्रतिद्वंदी के सिर पर रख दिये थे।”
“अभी हम उनके घर पर हल्ला बोल दें तो क्या होगा?”
“सब लोग पलक झपकते ही मारे जायेंगे और क्या होगा?”
“ओह, लेकिन पुलिस अगर जिले से अपराध खत्म करने पर ही उतर आये, तो त्रिपाठी जी और उनका गैंग बचा कैसे रह जायेगा? जवाब ये सोचकर दीजिएगा कि पुलिस डिपार्टमेंट में गोली दागने वालों की संख्या किसी भी गैंग से सैकड़ों हजारों गुणा ज्यादा है।”
“ऊ सब हम नहीं जानते, लेकिन इतना जरूर समझते हैं कि त्रिपाठी बाबा को मारना आसान काम नहीं होगा, किसी के लिए भी नहीं होगा। बहुते लोग कोशिश किये और अपनी जान से हाथ धो बैठे। एक बार तो कोतवाल साहब को सरेराह गोली मार दिये थे, बहुते हड़कंप मचा था तब, लेकिन बिगाड़ उनका कोई कुछ नहीं पाया। काहे कि ऊपर से हुक्म आ गया कि त्रिपाठी जी को हाथ भी न लगाया जाये।”
“फिर तो बहुते पॉवरफुल आदमी हुए?”
“हां वह तो हैं, ना होते तो राज कैसे कर पाते।”
“उधर घूमने फिरने में तो कोई खतरा नहीं है?”
“तब तक नहीं है जब तक कि किसी को ये पता न लग जाये कि आप लोग कौन हैं, वरना तो पुलिस का आगमन ही बाबा के आदमियों के कान खड़े कर देगा, उसके बाद चाहे आप लोग उनके खिलाफ कुछ करना चाहते हों, या न करना चाहते हों, भिड़ंत होकर रहेगी।”
“नहीं करना धरना कुछ नहीं है, लेकिन एसपी साहब का हुक्म है कि इलाके की पूरी रिपोर्ट करनी है, इसलिए उधर का एक राउंड तो लगाना ही पड़ेगा।”
“तो एक काम कीजिए।”
“क्या?”
“हमारी मोटरसाईकिल ले जाइये, पैदल विचरने से तो अच्छा ही रहेगा। मगर उनके घर के सामने रुकने की कोशिश मत करियेगा। रही बात जानकारी की तो वह आप कुछ घंटा उधर घूम लेंगे तो बिना मांगे आपको मिल जायेगी। कहीं पान खा लीजिएगा, कहीं चाय पी लीजिएगा, काहे कि हमारे देश के तमाम होशियार आदमी ऐसी ही जगहों पर बैठकर बतकही करते हैं। मतलब कुछ न कुछ सुनने को जरूर मिल जायेगा आपको।”
“ठीक है फिर एक चक्कर लगाकर आते हैं, बाईक दे दीजिए।”
“चलिए।” कहता हुआ प्रधान उठकर खड़ा हो गया।
“अंसारी साहब जिंदाबाद, पुलिस प्रशासन मुर्दाबाद।” पचासों लोगों के मुंह से निकली उस आवाज ने पूरे एसपी ऑफिस को हिलाकर रख दिया। और इससे पहले कि वहां का किसी गिनती में न आने लायक स्टॉफ कुछ समझ पाता, एक के बाद एक हवाई फायर किये जाने लगे।
“नहीं चलेगी नहीं चलेगी, पुलिस की गुंडागर्दी नहीं चलेगी।”
इंस्पेक्टर दिनेश राय ने अपने कमरे से निकलकर एक नजर गेट पर पहुंच चुके लोगों पर डाली, फिर भागा भागा सुखवंत सिंह के कमरे में पहुंचा, जो उस वक्त किसी से फोन पर बात कर रहा था।
अपने ऑफिसर के उड़े हुए होश देखकर उसने ‘बाद में बात करते हैं’ कहकर कॉल डिस्कनैक्ट की, फिर दिनेश से सवाल किया, “क्या हो गया?”
“वही हो गया सर जिसका अंदेशा हमें पहले से था, अतीक के सैकड़ों आदमी यहां का घेराव कर चुके हैं। सब हथियारबंद भी जान पड़ते हैं क्योंकि हवाई फायर की आवाज साफ सुने हैं हम।”
“इसमें घबराने जैसी क्या बात है?”
“घबराने की क्या बात है! - उसने दोहराया - आप पूछ रहे हैं कि घबराने की क्या बात है। माफी के साथ कह रहे हैं सर कि जो होने वाला है वह बहुत बुरा होगा, क्योंकि यहां मौजूद दस बारह लोगों का स्टॉफ सैकड़ों हथियारबंद आदमियों का मुकाबला नहीं कर सकता। भले ही वे लोग हमारी तरह निशाना लगाना न जानते हों। आप कहें तो कोतवाली से फोर्स बुलाये लेते हैं, लेकिन उनको भी यहां पहुंचने में कुछ वक्त तो लगिये जायेगा, तब तक तो हुड़दंगी अंसारी साहब को यहां से लेकर जा भी चुके होंगे, और हमारी लाशें गोलियों से छलनी हुई पड़ी होंगी। अब पूछिये कि घबराने की क्या बात है।”
“पूछ रहा हूं, बताओ इस पूरे मामले में ऐसा क्या है जिससे तुम्हारे पसीने छूटे जा रहे हैं?”
“कुछ नहीं है?” उसने हड़बड़ाते हुए पूछा।
“तुम पुलिस में क्यों भर्ती हो गये दिनेश?”
“कोई न कोई नौकरी तो करनी ही थी न सर, इसलिए भर्ती हो गये। बल्कि ये सोचकर हो गये कि पुलिस में बहाल हो जायेंगे तो जिंदगी संवर जायेगी।”
“यानि ये कभी नहीं सोचे कि पुलिस ऑफिसर बनकर तुम आम जनता की सेवा करोगे, उनकी जान माल की हिफाजत करोगे, अतीक और त्रिपाठी जैसे बदमाशों से उन्हें सुरक्षित रखोगे?”
“नहीं सर, हम तो बस ये सोचे थे कि पुलिस में अफसर बन गये तो अच्छी तंख्वाह मिलेगी, रुतबा हासिल होगा, घर की माली स्थिति सुधर जायेगी। और हमारे बाबूजी ये सोचे थे कि बेटा अफसर बन गया तो मोटा दहेज बटोर पायेंगे, इसीलिए नौकरी लगने से पहले हमारा ब्याह नहीं किये वह, जबकि हमारे दोस्त तब तक दो तीन बच्चों के बाप बन चुके थे।”
एसपी ने घूरकर उसे देखा।
“आप पूछे तो हम बता दिये सर, काहे कि हममें लाख बुराईयां सही लेकिन अपने अफसर से झूठ बोलना नाहीं सीखे हैं। अब आपकी मर्जी है कि इसे किस रूप में देखते हैं। वैसे कोई कबूल करे या न करे लेकिन पुलिस में भर्ती सब उसी वजह से होना चाहते हैं, जिस वजह से हम पुलिस फोर्स जॉयन किये थे।”
सुनकर एसपी के चेहरे के भाव बदले, क्योंकि कुछ हद तक ही सही उसकी बातों से वह एग्री करता था। हां आज से पहले किसी ने उसके सामने इतनी साफगोई से ऐसी बातें कबूल नहीं की थी, इसलिए हैरान तो बहुत हो रहा था।
“चलो चलकर देखते हैं क्या माजरा है?” कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ।
“बाहर गये तो वे लोग गोली चला देंगे सर।”
“शटअप - इस बार सुखवंत सिंह को सच में गुस्सा आ गया - पुलिस में इंस्पेक्टर हो और मुट्ठी भर गुंडे बदमाशों से डर लग रहा है तुम्हें? अगर ऐसा है तो इस्तीफा दे दो, क्योंकि बुजदिलों के लिए इस डिपार्टमेंट में कोई जगह नहीं है।” कहकर वह तेज कदमों से चलता हुआ उस लॉकअप तक पहुंचा, जहां तौफीक अंसारी बंद था, और दरवाजा खुलवाकर उसे अपने साथ चलाते हुए कंपाउंड में ले जाकर खड़ा कर दिया।
उसके पीछे पीछे वहां मौजूद तमाम स्टॉफ बाहर निकल आया।
“दरवाजा खोल दो।” वह सिपाहियों की तरफ देखकर बोला, तो दो लोगों ने आगे जाकर फाटक का कुंडा खोल दिया। जिसके बाद बाहर खड़े लोग धड़धड़ाते हुए अंदर आ गये।
एसपी ने एक हवाई फायर किया और गन की नाल तौफीक अंसारी की कनपटी से सटाता हुआ बोला, “कोई एक कदम भी आगे बढ़ा तो अंसारी साहब को गोली मार देंगे हम। मतलब जो फैसला हम कानून के दायरे में रहकर करना चाहते हैं, वह अभी के अभी कर दिखायेंगे।”
सब जहां के तहां ठिठक गये।
“क्या है न कि हम तुम लोगों से ज्यादा सनकी इंसान हैं, करते पहले हैं और कहते बाद में है। और इससे पहले कि हमारी खोपड़ी घूम जाये, यहां से दफा हो जाओ, वरना बाद में क्या होगा हम नहीं जानते, पहले तुम लोगों के अजीज माननीय तौफीक अंसारी साहब मारे जायेंगे।”
“हम तुम्हारा पूरा ऑफिस फूंक देंगे एसपी।” कोई जोर से चिल्लाया।
“फूंक सकते हो, लेकिन वैसा कर के तुम लोग अंसारी साहब की जान कैसे बचा पाओगे? इसलिए एक मिनट का वक्त देता हूं सबको, नहीं गये तो पहली गोली इनके पैर पर मारूंगा, फिर भी नहीं गये तो दूसरी गोली पेट में, तब तक बचने की उम्मीद बराबर होगी, लेकिन अगली बार चेतावनी देने की नौबत आई तो तीसरी गोली इनके भेजे में और किस्सा खत्म।”
कंपाउंड में सन्नाटा छा गया।
“अब बस आधा मिनट बचा है।”
किसी ने अपनी जगह से हिलने की भी कोशिश नहीं की।
एसपी ने बड़े ही धैर्य के साथ इंतजार किया फिर एक मिनट बीतते के साथ ही अंसारी के दोनों पैरों के बीच गोली चला दी। वह जोर से चींखा, जबकि गोली उसे छूकर भी नहीं गुजरी थी। एक तो रात का वक्त ऊपर से लाइटें भी कुछ खास कमाल नहीं दिखा रही थीं, इसलिए डर के मारे अंसारी के मुंह से निकली चींख से सबकी समझ में यही आया कि गोली उसके पैर में ही मारी गयी थी।”
“ये तुम ठीक नहीं कर रहे एसपी।” वह गुर्राकर बोला।
“थोड़ा इंतजार कीजिए सर, फिर ठीक करने लायक कुछ बचा ही नहीं रह जायेगा - कहकर धीमें स्वर में बोला - इस बार हम आपको झूठ मूठ की गोली नहीं मारेंगे। इसलिए अपनी भलाई चाहते हैं तो सबको यहां से वापिस लौट जाने को बोल दीजिए। वैसे भी कोतवाली को खबर की जा चुकी है, बड़ी हद पांच मिनट में यहां पचासों पुलिसकर्मी मौजूद होंगे, और उसके बाद उनकी संख्या लगातार बढ़ती जायेगी, मतलब किसी को पता ही नहीं लगेगा कि आप हमारी गोली खाकर मरे या यहां अपने आदमियों द्वारा मचाये गये उपद्रव का शिकार बन गये।”
“तुम्हें हम बहुत बुरी मौत मारेंगे एसपी।” अंसारी गुर्राया।
“उसके लिए भी आपका जिंदा रहना जरूरी है, अब सबको यहां से जाने को कहिये ताकि हम आपकी जान बख्श दें, काहे कि इस वक्त तो आप पूरी तरह हमारे रहमो करम पर ही हैं।”
अंसारी हिचकिचाया।
“ठीक है फिर आपको खत्म किये देते हैं हम।”
कहते हुए उसने गन की नाल अंसारी के पेट से सटाई ही थी कि वह जल्दी से बोल पड़ा, “रुको, रुको।”
“कुछ कहना चाहते हैं?”
“हां, हमें तुम्हारी बात मंजूर है - तत्पश्चात वह अपने आदमियों से मुखातिब हुआ - सब लोग यहां से वापिस लौट जायें। ये सोचकर कि हमें यहां कोई परेशानी नहीं है। फिर पुलिस कोई खा थोड़े ही जायेगी हमें, बड़ी हद हम कल आप लोगों के सामने होंगे। इसलिए हमारा आप सभी से अनुरोध है कि अभी और इसी वक्त एसपी ऑफिस का ग्राउंड खाली कर दें।”
“हम आपको लिए बिना नहीं जायेंगे अंसारी साहब।”
“हमें आपके जज्बातों की कद्र है, ये देखकर हमारी आंखें भर आई हैं कि कैसे आप लोग हमारी खातिर अपनी जान की परवाह किये बिना यहां एसपी ऑफिस में घुस आये। लेकिन अभी मेरा कहा मानिये और वापिस लौट जाइये। तौफीक अंसारी हैं हम, कोई माई का लाल ऐसा पैदा नहीं हुआ जो हमारी मर्जी के बिना हमें गिरफ्तार कर सके, इसलिए जाइये यहां से।”
किसी ने अपनी जगह से हिलने की भी कोशिश नहीं की।
“अब आप लोग हमें निराश कर रहे हैं।”
“आपको छोड़कर कैसे चले जायें अंसारी साहब?” एक शख्स रो देने वाले स्वर में बोला।
“इसलिए चले जायें क्योंकि यही हमारा आदेश है।”
“नहीं हम नहीं जायेंगे।”
“ठीक है फिर हम खुद अपने को खत्म कर लेते हैं।” कहकर उसने एसपी की तरफ हाथ फैलाया - गन दीजिए हमें।”
जवाब में वह हौले से हंस पड़ा।
“हम अपनी जुबान के पक्के हैं एसपी, गोली या तो खुद पर चलायेंगे या किसी पर नहीं चलायेंगे। आप पर तो हरगिज भी नहीं, ये वादा है हमारा।”
सुखवंत सिंह ने वहां खड़े दिनेश राय और जनार्दन मिश्रा को आंखों से कोई इशारा किया जिसके बाद दोनों की गन्स तौफीक अंसारी पर तन गयीं। फिर एसपी अपनी सर्विस रिवाल्वर उसके हाथों में थमाता हुआ बोला, “हम आपकी ये कुर्बानी हमेशा याद रखेंगे एमपी साहब, क्योंकि आत्महत्या करते आज तक किसी को नहीं देखा। अब जल्दी से खुद को गोली मारिये ताकि ये किस्सा यहीं खत्म हो जाये।”
जवाब में कुछ कहने की बजाये उसने गन की नाल अपनी कनपटी पर रखी और भीड़ की तरफ देखकर जोर से बोला, “हम जो कहते हैं कर के दिखाते हैं, ये बात आप सभी अच्छे से जानते हैं। इसलिए आखिरी बार बोल रहे हैं कि यहां से चले जाइये वरना हम ट्रिगर दबा देंगे।”
इस बार भीड़ के बीच खलबली मच गयी, सब तुरंत बाहर की तरफ चल पड़े। और देखते ही देखते कंपाउंड खाली हो गया। जिसके बाद हर किसी ने चैन की सांस ली।
‘अंसारी साहब जिंदाबाद, पुलिस प्रशासन मुर्दाबाद’ के नारे बहुत देर तक उनकी कानों तक पहुंचते रहे, फिर दूरी बढ़ जाने के कारण आवाज सुनाई देनी बंद हो गयी।
चंगेज खान का पैतृक घर आजमगढ़ के दक्षिणी सिरे पर हैदराबाद उर्फ छवारा में था। जिससे दस किलोमीटर पहले एसआई मनीष यादव को एक कामचलाऊ लॉज मिल गया। वहां तीन कमरे किराये पर लिये गये फिर अपना सामान वहीं रखकर छह लोगों की वह टीम छवारा के लिए रवाना हो गयी।
आगे कई घंटों तक उस इलाके में भटकने के बाद उन्हें जो कुछ भी सुनने को मिला वह बड़ा ही निराशाजनक था। मतलब चंगेज आखिरी बार वहां तीन महीने पहले देखा गया था। घर में उसके मां बाप और कुछ आदमियों के अलावा अन्य कोई नहीं रहता था।
हैरानी की बात थी कि वह आदमी दूर रहकर भी उस इलाके पर राज कर रहा था। आगे एक पान वाले ने यादव को बताया कि चंगेज भईया से मुलाकात करने का कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि वह कब कहां होंगे कोई नहीं जानता था, मगर उनका बनारसी साड़ी बनाने का एक कारखाना था, जहां के मैंनेजर से मिलकर चंगेज भईया से मुलाकात का कोई रास्ता निकाला जा सकता था।
“डाईरेक्ट कोई रास्ता नहीं है?” यादव ने पूछा।
“नहीं भाई, काहे कि कोई नहीं जानता कि चंगेज भाई किस वक्त कहां होंगे, मगर तुम मिलना क्यों चाहते हो उनसे?”
“अतीक अंसारी का नाम सुना है?”
“अरे उनको कौन नहीं जानता।”
“उसने हमें और हमारे परिवार को जान से मार देने की धमकी दी है। हम पुलिस के पास भी गये मगर कोई सुनने को तैयार नहीं हुआ, फिर वहीं एक सिपाही ने अलग ले जाकर हमें बताया कि अतीक अंसारी के कहर से हमें कोई बचा सकता है तो वह हैं चंगेज भईया, इसीलिए इधर चले आये भाई।”
“अगर मुलाकात हो गयी, और चंगेज भईया तुम्हारी मदद करने को तैयार हो गये, तो इस बात में कोई शक नहीं है कि आपको अतीक अंसारी के हाथों मरने से बचा लेंगे। मगर मिल पाना इतना आसान नहीं है। हमारी मानो तो जाकर मैंनेजर साहब से एक बार मिल लो, क्या पता बात बन जाये।”
“इतनी रात को फैक्ट्री में तो नहीं होंगे?”
“नहीं लेकिन वहां का गार्ड मैंनेजर का पता बता देगा।”
“और फैक्ट्री कहां है?”
“यहां से पांच किलोमीटर दूर एक जगह है खंती, वहां पहुंचकर किसी से भी पूछोगे कि चंगेज भईया की फैक्ट्री कहां है, पता बता देगा, बल्कि खुद तुम्हें पहुंचा आयेगा वहां तक।”
“ठीक है भाई धन्यवाद।” कहकर यादव वहां से निकल गया।
फिर थोड़ा आगे जाकर यूं ही एक चायवाले की दुकान पर बैठ गया और उसे चाय बनाने को कह दिया। पांच मिनट में चाय हाजिर हो गयी तो उसने दुकानदार से पूछा, “चंगेज भईया कहां मिलेंगे चाचा?”
दुकानदार ने हैरानी से उसकी तरफ देखा, फिर पूछा, “चंगेज खान?”
“जी हां।”
“आप कौन हैं?”
“पत्रकार हैं, सिटी से आये हैं, काहे कि उनका एक इंटरव्यू लेना चाहते हैं, मगर कोई बताता ही नहीं है कि कहां मिलेंगे। इसलिए बड़ी मुश्किल में फंस गये हैं हम।”
“बस अब यही बाकी रह गया था।” दुकानदार बड़बड़ाया।
“कुछ कहे चाचा?”
“हां कहे।”
“क्या?”
“चाय पीकर जहां से आये हैं चुपचाप वहीं लौट जाइये, आप हमारे बेटे की उम्र के हैं इसलिए सलाह दे रहे हैं हम। वरना तो बस ये कहकर पल्ला झाड़ लेते कि हमें नहीं मालूम।”
“यानि जानते हैं कि वह कहां मिलेंगे?”
“नहीं हम नहीं जानते, लेकिन इसी तरह पूछताछ करते फिरेंगे तो चंगेज के आदमी आपके पीछे लग जायेंगे, जिन्हें इस बात की जरा भी परवाह नाहीं होगी कि आप कौन हैं।”
“हमारे पीछे लग जायेंगे?”
“पूछताछ आप कर रहे हैं तो और किसके पीछे लगेंगे?”
“मतलब हमें पकड़कर चंगेज भईया के पास ले जायेंगे?”
“नहीं, गंगा मईया की गोद में पहुंचा देंगे, इसलिए कहा मानिये और चाय पीकर वापिस लौट जाइये, ये इलाका आप जैसे भले और शहरी लोगों के लायक नहीं है।”
“मतलब गुंडागर्दी होती है यहां?”
“आप सुने नहीं कि हम क्या कहे?”
“ठीक है चाचा - यादव गहरी आह भरकर बोला - आप कहते हैं तो निकल जायेंगे, वैसे भी अता पता तो उनका लग नहीं रहा, ऐसे में भटककर भी क्या हासिल होगा।”
दुकानदार फिर कुछ नहीं बोला।
यादव ने चाय खत्म की, पैसे चुकाये और वहां से निकल गया। वैसे भी रात हो चली थी इसलिए लॉज लौट जाना ही उचित था। वहां पहुंचा तो पाया कि पांचों सिपाही वापिस लौट आये थे, उनसे जो जानकारी हासिल हुई वह उससे ज्यादा नहीं थी जितना वह खुद हासिल कर के लौटा था।
यानि कुछ पता नहीं लगा था।
ऐसे में काम उसे हद से ज्यादा कठिन दिखाई देने लगा।
रात के नौ बजने को थे, अनुराग पांडे लगातार ड्रिंक किये जा रहा था। शाम सात बजे उसने डॉक्टर से रिक्वेस्ट कर के डिस्चार्ज बनवा लिया था क्योंकि अस्पताल में रहना उसे रास नहीं आ रहा था। वहां पूरे दिन मिलने जुलने वालों का तांता लगा रहा था, जिन्हें जवाब देते देते वह तंग आ गया था।
साढ़े आठ बजे के करीब घर पहुंचकर उसने सुनयना को पूरी सब्जी बनाने को कहा और खुद बोतल खोलकर बैठ गया और तभी से लगातार पिये जा रहा था, जैसे शराब के साथ अपना गम, अपनी बेइज्जती और अपनी दुर्दशा को हलक में उतार लेना चाहता हो। बीच बीच में सिगरेट भी सुलगा लेता था, जिसका लती बराबर था, मगर दिन भर में चार से ज्यादा नहीं पीता था, इसी तरह शराब हमेशा रात में घर बैठकर ही पिया करता था और आमतौर पर कंट्रोल में पीता था, मगर आज आम दिन नहीं था, इसलिए कोई लिमिट भी मुकर्रर नहीं थी।
साढ़े नौ बजे कोतवाल समर सिंह उससे मिलने पहुंचा।
“आईये सर - वह लड़खड़ाती आवाज में बोला - आकर हमारी कुटिया को पवित्र कीजिए, जिसको अतीक अंसारी नाम के एक शख्स की नजर लग गयी है।”
समर सिंह ने गहरी निगाहों से उसे देखा फिर कुछ दूरी पर रखी एक चेयर को खींचकर उसके सामने बैठता हुआ बोला, “खुद को काबू में करो पांडे।”
“फुल काबू में कर रखे हैं सर, तभी तो शराब पी रहे हैं, नहीं जाकर अतीक का खून नहीं पी रहे होते। साले ने हमको मां की गाली दी, बहन की गाली दी, हमारी बीवी का रेप करवाने की धमकी दी, हाथ तोड़ दिया, आंख फोड़ दी, अब उसका जश्न मनाना तो बनता है न सर।”
“अभी नहीं, वह जश्न तुम तब मनाना जब अतीक अंसारी जेल पहुंच जाये, या पुलिस एनकाउंटर में मारा जाये, तब हम भी तुम्हारे साथ जाम से जाम टकरायेंगे।”
“और वैसा वक्त इस जनम में तो क्या आयेगा सर?”
“बहुत जल्द आयेगा, जानते हो आज कितना बड़ा चमत्कार हुआ है?”
“कैसा चमत्कार सर?”
“ऐसा जो आजमगढ़ के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था।”
“किसने किया?”
“एसपी साहब ने।”
“कमाल है, ऊ तो बहुते बैलेंस करके चलने वाले इंसान हैं।”
“नहीं हम जयवर्धन साहब की बात नाहीं कर रहे हैं, उनका तो तबादला हो गया।”
“कब?”
“गये कब ये हम नहीं जानते, लेकिन नये एसपी साहब ने आज ही चार्ज लिया है, और आते के साथ ही उन्होंने अतीक के बाप को उसकी हवेली से दिन दहाड़े उठा लिया। बहुते बवेला हुआ मगर वह टस से मस नहीं हुए। क्या इतने से ही तुम्हें नहीं समझ जाना चाहिए कि रावण का अंत अब निकट आ चुका है।”
“सब दिखावा है सर, माने नौटंकी है। शुरू में थोड़ा दबदबा दिखायेंगे, हड़कायेंगे, तभी तो बाद में उन दोनों बाप बेटों से मोटा माल निकलवा पायेंगे। जैसा जयवर्धन साहब कई सालों से करते आ रहे थे।”
“ऐसा नहीं है पांडे क्योंकि उनका नाम एसपी सुखवंत सिंह है। वह सुखवंत सिंह जिसने मुजफ्फरपुर में गुंडे बदमाशों का नामो निशान मिटाकर रख दिया था, नाम सुने हो या नहीं कभी?”
“न्यूज में देखे हैं सर।”
“इसलिए हमें यकीन है कि अब अंसारी गैंग का सफाया होकर रहेगा।”
“ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई सर, कोई सिफारिश लगाकर हमें भी एसपी ऑफिस में तैनात करवा देते तो मजा आ जाता। काहे कि बहुत खबर रखते हैं हम अतीक और उसके गैंग के बारे में।”
सुनकर समर सिंह ने जोर का ठहाका लगाया।
“हम सच कह रहे हैं सर।”
“जरूर कह रहे होगे, लेकिन पुराने अफसरों से एसपी साहब की कोई खास खुंदक जान पड़ती है। उन्होंने चुन चुनकर ऐसे लोगों को एसपी ऑफिस में रखा है जिनमें से कोई भी पुलिस फोर्स में तीन चार महीने से ज्यादा पुराना नहीं है।”
“ये तो बहुत अच्छा किये एसपी साहब, क्योंकि पुरानों की अपेक्षा नये लोगों पर ज्यादा भरोसा किया जा सकता है। उनपर अतीक का रंग जो नहीं चढ़ा होगा अभी।”
“वो भी यही सोचे होंगे, और अतीक भी उस बात को भांप गया, तबहीं अंडरग्राउंड हो गया है। लेकिन एसपी साहब जब उसके पीछे पड़िये गये हैं तो बचकर सरवा कहां जायेगा। इसलिए हमारा मन कह रहा है कि बहुत जल्द उसे उसके किये की सजा मिलकर रहेगी, तब हम तुम्हारे साथ बैठकर जश्न मनायेंगे।”
“एसपी ऑफिस में कोई ऐसा आदमी नहीं है जिसे हम जानते हों?”
“सब इंस्पेक्टर जनार्दन मिश्रा, जो दो महीने से तुम्हारी ही चौकी में तैनात था, उसे भी साहब ने अपनी टीम में शामिल कर लिया है, मगर तुम क्यों पूछ रहे हो?”
“हम सोच रहे हैं अतीक गैंग के बारे में जो इंफॉर्मेशन हमारे पास है, उसे मिश्रा के जरिये एसपी साहब तक पहुंचा दें, कुछ तो हाथ मजबूत होइये जायेगा उनका।”
“खामख्वाह के बवेले में मत पड़ो पांडे, काहे कि तुम्हारे ग्रह नक्षत्र अभी ठीक नहीं हैं। हमारी मानो तो जैसा चल रहा है चलने दो। वैसे भी मैं नहीं चाहता कि अतीक तक किसी भी तरह ये बात पहुंचे कि तुम अभी भी उसके खिलाफ काम कर रहे हो।”
“ठीक है सर, आप कहते हैं तो खामोश बैठकर तमाशा देख लेंगे हम।”
“देखो, काहे कि इसी में तुम्हारी भलाई है - कहकर वह उठ खड़ा हुआ - अब हम चलते हैं, कोई जरूरत हो तो बेहिचक बता देना, भले ही वो जरूरत रूपये पैसे से ही क्यों न जुड़ी हुई हो।”
“एक पैग तो लगाकर जाइये।”
“नहीं, अभी ड्यूटी करनी है।” कहकर वह पांडे के घर से बाहर निकल गया।
समर सिंह की चेतावनी को अनुराग पांडे ने एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकालते हुए उसी वक्त जनार्दन मिश्रा को फोन खटका दिया।
“हैलो।”
“हैलो सर कैसे हैं आप?”
“ठीक हैं तुम बताओ।”
“हम भी ठीक हैं, लेकिन आपके साथ जो हुआ उसका बहुते अफसोस है हमें।”
“उसको छोड़ो और ये बताओ कि नये एसपी साहब ने क्या सच में अतीक के बाप को हिरासत में ले लिया है?”
“हां ले लिये हैं, बल्कि उसके घर पर दो लोगों को गोली भी मार दी थी। काहे कि साहब का मिजाज बड़ा कड़क मालूम पड़ता है। अभी आधा घंटा पहले...
कहकर उसने एसपी ऑफिस के घिराव का पूरा किस्सा पांडे को सुना दिया, फिर बोला, “तौफीकवा की सांसे अटक गयी थी सर जब एसपी साहब ने गोली दागी थी। बहुते डर गया था ससुरा, तभी उनकी धमकी में आकर वहां पहुंचे सभी आदमियों को भगा दिया, वरना तो आज पता नहीं क्या हो गया होता। बल्कि हम तो अपने कफन दफन की कल्पना तक करने लगे थे।”
“हमारे पास साहब के काम की एक जानकारी है।”
“क्या?”
“मुलाकात नहीं करा सकते?”
“नहीं सर, काहे कि पॉसिबले नहीं है।”
“ठीक है सुनो, अतीक के तीन ऐसे ट्रक बिहार से आजमगढ़ पहुंचने वाले थे, जिनमें हथियार बंद थे। उनमें से एक हमने 30 नवम्बर को जब्त कर लिया था, दूसरा एक दिसम्बर की रात यहां पहुंचने वाला था इसलिए पहुंच चुका होगा, और तीसरा आज आयेगा। मतलब साहब चाहें तो वह माल तुम लोग बड़ी आसानी से पकड़ सकते हो। और कहीं ड्राईवर को गवाही के लिए तैयार कर लिये तो समझ लो अंसारी का जेल जाना सुनिश्चित हो जायेगा।”
“कहीं अब तक पहुंच न गया हो।”
“नहीं, उसके ट्रक रात ग्यारह से बारह के बीच आजमगढ़ में दाखिल होते हैं, हम जो पकड़े थे वह भी साढ़े ग्यारह बजे ही पहुंचा था। इसलिए अभी वक्त है, तुम साहब को इंफॉर्म कर दो तो बात बन जायेगी।”
“कर तो दें, मगर इस बारे में क्या बतायेंगे कि जानकारी हमें कहां से मिली है, काहे कि आपका नाम तो नहीं ले सकते न।”
“हरिगज भी नहीं।”
“तभी तो पूछ रहे हैं, कोई रास्ता सुझाईये।”
“बोल देना गुमनाम टिप मिली है।”
“कैसे मिली?”
“फोन आया था।”
“कहां आया था सर, क्योंकि एसपी ऑफिस के नंबर पर आये सभी कॉल्स को रिकॉर्ड करने की व्यवस्था है इहां। मोबाईल पर आई कॉल भी नहीं बता सकते, काहे कि कल को साहब ने उस बारे में दरयाफ्त कर लिया तो हम गये काम से।”
“ठीक है फिर एक दूसरा रास्ता बताते हैं।”
“क्या?”
जवाब में पांडे उसे धीरे धीरे सब समझाता चला गया।
जनार्दन मिश्रा उस वक्त अतीक अंसारी के बारे में पूछताछ करता हुआ गली गली भटक रहा था, जब पांडे की कॉल आई थी। उसके बाद वह सीधा एसपी ऑफिस पहुंचा।
एसपी का असिस्टेंट उसे बाहर ही टहलता दिखाई दे गया।
“हमारा आजमगढ़ कैसा लगा अभिमन्यु बाबू?”
“बहुत खतरनाक।”
मिश्रा हंसा।
“ऐसा तो मैंने पहली बार देखा, जब लोग हथियार लेकर एसपी ऑफिस का घेराव करने पहुंच गये, लगता था जैसे कोई फिल्म चल रही थी। मगर साहब ने उनसे भी बड़ा कमाल कर दिखाया, जो मेरी निगाहों में असंभव था।”
“हां कमाल तो एसपी साहब बराबर किये हैं - कहकर उसने पूछा - अभी हैं अपने कमरे में?”
“हां तौफीक अंसारी की फाईल देख रहे हैं।”
“मुलाकात तो कर सकता हूं न?”
“जरूरी काम हो तो बेशक कर सकते हैं।”
“जरूरी ही है, काहे कि एक बड़ी टिप मिली है।”
“फिर तो फौरन जाइये, ऐसे कामों में लेट लतीफी साहब बर्दाश्त नहीं करते, ना ही वक्त की कोई परवाह करते हैं। मतलब सो भी रहे हों तो उन्हें जगाकर इंफॉर्मेशन दी जा सकती है।”
“बहुते कड़क हैं साहब।”
“अब आपको देर नहीं हो रही?”
“हो रही है, जाते हैं।” कहकर मिश्रा एसपी के कमरे तक पहुंचा फिर हौले से दरवाजा नॉक कर के इजाजत लेने के बाद भीतर दाखिल तो पाया कि साहब अकेले नहीं थे बल्कि इंस्पेक्टर दिनेश राय भी उनके सामने बैठा हुआ था।
“कोई खास बात?” सुखवंत सिंह ने पूछा।
“एक टिप मिली है सर।”
“कैसी टिप?”
“अतीक अंसारी का हथियारों से भरा एक ट्रक रात ग्यारह से बारह बजे के बीच आजमगढ़ में दाखिल होगा।”
“आ कहां से रहा है?”
“बिहार से।”
“ये तो बहुत अच्छी खबर है, पकड़ने का इंतजाम करो, चाहो तो यहां के तमाम स्टॉफ को साथ ले जाओ, लेकिन माल हर हाल में हमारी गिरफ्त में होना चाहिए।”
“अगर टिप सही निकली सर तो काहे नहीं होगा।”
“यानि डाउट है?”
“थोड़ा सा सर, क्योंकि जानकारी किसी मुखबिर ने नहीं दी है।”
“फिर?”
“अतीक के दो आदमी चाय की एक दुकान पर बैठे उस बारे में बात कर रहे थे, जब इत्तेफाक से हम वहां पहुंच गये, उनकी औनी पौनी बातें सुनकर ही हमारी समझ में आया कि किस्सा क्या था।”
“इट्स ओके जानकारी जैसे भी मिली हो उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, इसलिए फौरन निकल जाओ।”
“एक और खबर भी निकाले हैं सर।”
“क्या?”
“भंगेल गांव में एक बर्फ फैक्ट्री है, जो अतीक अंसारी की है। लेकिन हम ये सुनकर थोड़ा हैरान रह गये कि वहां हथियारबंद आदमी पहरा देते हैं। हमारा माथा ठनका, भला किसी बर्फ फैक्ट्री में ऐसा क्या हो सकता है जिसके लिए गनमैन खड़े किये जायें। तब हम पूछताछ किये तो पता लगा कि असल में वहां कट्टा बनाने का कारखाना लगा हुआ है।”
“अगर उसने हथियार बनाने की फैक्ट्री लगा रखी है तो बाहर से स्मगल क्यों कराता है?”
“बड़े और आधुनिक हथियार मंगवाता होगा सर, ऐसे हथियार जो कट्टा फैक्ट्री में नहीं बनाये जा सकते।”
“अच्छा पहले तुम उसके ट्रक की तरफ ध्यान दो, फिर फैक्ट्री के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियां हासिल करो, वैसे भी वह कहीं भागी नहीं जा रही, लेकिन ट्रक एक बार हाथ से निकल गया तो दोबारा उसे पकड़ा नहीं जा सकता।”
“ठीक है सर।”
“सावधानी से हैंडल करना मिश्रा जी।”
“हम ध्यान रखेंगे सर।” कहकर उसने सेल्यूट किया और वहां से बाहर निकल गया।
“हम कहां थे दिनेश?” एसपी ने पूछा।
“तौफीक अहमद के काले कारनामों की बात कर रहे थे सर, जिनका उनपर चार्ज लगाकर कल कोर्ट में पेश करना है। लेकिन एविडेंस तो कोई है ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा हम जमीन हड़पने वाले दो मामलों में उनपर मुकदमा चला सकते हैं, जिनमें से एक में तीन लोगों को मार मार कर अधमरा कर दिया गया था।”
“अभी के लिए उतना ही काफी है, एक बार अंसारी साहब जेल चले गये तो उसके बाद हम बाकी मामलों में भी एविडेंस खोज निकालेंगे, लेकिन अभी उन्हें फौरन जेल की हवा खिलाना बहुत जरूरी है। वरना यहां उत्पात होता ही रहेगा।”
“ठीक है सर, फिर कल सुबह पेश करते हैं उनको कोर्ट में।”
“जमीन के मालिक को भी खबर कर दो कि कल वक्त से कोर्ट पहुंच जाये, मगर जिस थाने में केस रजिस्टर है उन्हें भनक तक नहीं लगने देनी है, समझ गये?”
“जी सर।”
“और कल सुबह कोतवाली से फोर्स जरूर बुलवा लेना।”
“अंसारी साहब को कोर्ट ले जाने के लिए?”
“नहीं दिखावे के लिए।”
“हम समझे नहीं सर।”
“कल तुम अर्ली मॉर्निंग चार सिपाहियों के साथ तौफीक साहब को यहां से लेकर निकल जाना। उसके बाद मिश्रा जी किसी हमारे ही आदमी के सिर पर काला नकाब डालकर ढोल मजीरे के साथ, फोर्स की सुरक्षा में यहां से कोर्ट के लिए रवाना होंगे। मतलब कोई हमला हुआ भी तो वह हमपर होगा, इसलिए हमलावरों को हासिल कुछ नहीं होगा क्योंकि अंसारी साहब हमारे साथ नहीं होंगे।”
“यानि फोर्स को अदालत तक नहीं जाना है?”
“नहीं जाना, उन्हें तो बस दिखावा करना है कि वह अंसारी साहब को कोर्ट में पेश करने के लिए ले जा रहे हैं। ऐसे में कोई रुकावट आ भी गयी तो हमारे काम में उससे कोई प्रॉब्लम नहीं आयेगी।”
“कमाल का आइडिया है सर।”
“अब जाओ और जाकर आराम करो।”
“कल आप कहां होंगे सर?”
“कोर्ट में, जब तुम दस बजे वहां पहुंचोगे तो हम पहले से मौजूद होंगे।”
“ठीक है सर।” कहकर वह उठा और सुखवंत सिंह को सेल्यूट कर के वहां से निकल गया।
पुलिस अपनी तरफ से बहुत होशियारी बरत रही थी, मगर अतीक उनसे चार कदम आगे था। किसी तरह उसे वक्त रहते सूचना मिल गयी कि पुलिस उसके माल पर घात लगाने जा रही थी।
नतीजा ये हुआ कि बॉर्डर से करीब दस किलोमीटर पहले ड्राईवर ने ट्रक रोक दिया। वहां एक छोटा हाथी पहले से मौजूद था, जिसमें ट्रक से उतार उतारकर फलों की वह पेटियां जिसमें असलहा मौजूद था, भर दी गयीं। तत्पश्चात ट्रक आगे आगे और छोटा हाथी पीछे पीछे चल पड़े।
आधा घंटा बाद दोनों गाड़ियां जब आजमगढ़ बॉर्डर पर पहुंची तो छोटा हाथी जानबूझकर थोड़ा पीछे रह गया। आगे लंबा जाम लगा हुआ था, जहां अपनी टीम के साथ खड़ा जनार्दन मिश्रा एक एक ट्रक को चेक करने के बाद ही वहां से जाने दे रहा था।
इसलिए अतीक के ट्रक का नंबर आने में पूरे बीस मिनट लग गये। जिसके बाद वह बैरिकेड्स के करीब पहुंचा तो एक सिपाही ने ड्राईवर साईड में पहुंचकर उसे नीचे उतरने का हुक्म दिया।
“क्या बात है सर?”
“भोस...के सुनाई नहीं दिया कि हम क्या कहे तुमसे?”
“अरे कोई वजह भी तो हो?”
“रुक साले अभी बताते हैं।”
कहकर उसने दरवाजा खोलने की कोशिश की ही थी कि ड्राईवर ने ट्रक आगे बढ़ा दिया। और बैरिकेडिंग को टक्कर मारते हुए वहां से निकल भी गया। तत्काल मिश्रा और उसके साथ मौजूद पांच सिपाही जीप में बैठकर उसके पीछे हो लिये।
छोटा हाथी अपनी सामान्य रफ्तार से आगे बढ़ता रहा क्योंकि उसे रोकने टोकने वाला वहां कोई भी मौजूद नहीं था। फिर पुलिस तो ट्रक के पीछे थी, और बैरिकेड्स दायें बायें गिरे पड़े थे, इसलिए वहां खड़े तमाम वाहन आगे बढ़ते चले गये।
ट्रक का पीछा करीब दस मिनट चला फिर जाने क्या हुआ कि गाड़ी ड्राईवर के कंट्रोल से निकली और पगलाये सांड की तरह बाईं तरफ को झपटी। उसने पूरी ताकत से ब्रेक के पैडल दबा दिये, मगर नुकसान होकर रहा। ट्रक वहां सड़क किनारे मौजूद एक पेड़ से जा टकराया। टकराकर बंद हो गया।
पुलिस ने तत्काल उसे चारों तरफ से घेर लिया, फिर ड्राईवर और खलासी को जबरन नीचे उतारने के बाद थोड़ी मार लगायी और उन्हें डाला खोलने को कह दिया।
तत्पश्चात गाड़ी में मौजूद एक एक पेटी उठा उठाकर सड़क पर पटकी जाने लगी। इसे ड्राईवर की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि हथियारों की एक पेटी फिर भी गाड़ी में बची रह गयी थी।
जो नीचे गिरते ही टूट गयी और हथियार बिखर गये।
ड्राईवर और खलासी ने एकदम से सामने की तरफ दौड़ लगा दी, मगर मिश्रा पहले से तैयार था, वह उनके पीछे लपका, सिपाही भी दौड़े और करीब सौ मीटर आगे जाकर उन्हें दबोच लिया। फिर उनकी मरम्मत शुरू कर दी गयी। कोई सवाल नहीं, कोई जांच पड़ताल नहीं, बस मरम्मत की जा रही थी।
यूं जब दोनों अधमरे हो गये तो उन्हें घसीटकर वापिस ट्रक के पास लाया गया और तलाशी फिर से शुरू हो गयी मगर किसी और पेटी में हथियार के दर्शन उन्हें नहीं हुए।
“नाम बोल अपना।” ड्राईवर की पसलियों में कस के एक लात जमाता मिश्रा बोला।
“श...शहाबुद्दीन।”
“बाकी का माल कहां है?”
“कौन सा माल सर, हमें तो खबर ही नहीं थी कि ट्रक में लोड पेटियों में से एक में हथियार हैं, वरना हम ढोने से इंकार कर देते साहब। ऐसे में बाकी के माल के बारे में क्या बता सकते हैं आपको?”
“बेटा इतना तो कबूलकर कि ये ट्रक अतीक अंसारी का है?”
“कौन अतीक अंसारी?”
सुनकर मिश्रा ने फिर से एक लात जमाई और गुर्राता हुआ बोला, “अबहियें एनकाउंटर कर देंगे भोस...के इसलिए साफ साफ बता दे कि माल किसका है और इसे तू कहां ले जा रहा था?”
“हम तो फल ढो रहे थे सर, जिसे सुबह मंडी में डिलीवर करना है।”
“किसको डिलीवर करना है?”
“नहीं जानते, हमसे बस इतना कहा गया था कि वहां पहुंच जायें, फिर डिलीवरी लेने कोई खुद ब खुद आ जायेगा, और जिसके पास माल के पेपर होते हमने माल उसके हवाले कर देना था।
मिश्रा ने एक गहरी सांस ली, और सुखवंत सिंह को कॉल लगा दिया।
“हलो।”
“नमस्कार सर।”
“नमस्कार, कुछ हासिल हुआ?”
“चिड़िया के चुग्गे जितना हासिल हुआ सर।”
“मतलब?”
“एक दर्जन रिवाल्वर हैं, और कुछ नहीं।”
“बस एक दर्जन?”
“जी हां।”
“किसी को हिरासत में भी लिया है?”
“ड्राईवर और खलासी हैं सर, लेकिन कुछ बता नहीं रहे।”
“एक काम करो।”
“क्या सर?”
“दोनों के नाम पते की जांच कर के उन्हें आजाद कर दो, और किसी को उनपर नजर रखने को बोल दो। वैसे भी उनपर केस बनाकर हमें कुछ हासिल नहीं होने वाला। लेकिन नजर रखने का काम किसी खास आदमी को सौंपना, जो ऐसे कामों में माहिर हो, चाहो तो कोतवाली से किसी को बुला लो, मगर आदमी ईमानदार होना चाहिए। आगे दोनों अगर अतीक के आदमियों से संपर्क करते दिखाई दिये तो हम उन्हें फिर से उठा लेंगे, समझ गये?”
“यस सर, ठीक है सर।”
तब तक दूसरी तरफ से कॉल डिस्कनैक्ट कर दी गयी।
कटघरे में अंसारी
तौफीक अंसारी बिना किसी रुकावट के कोर्ट पहुंचा दिया गया। दूसरी तरफ पुलिस फोर्स के विरोध में सैकड़ों लोग सड़कों पर उतर आये थे, मगर उनमें से किसी ने उग्रता नहीं दिखाई, ना ही उनकी समझ में ये आ पाया कि अंसारी तो पहले ही अदालत पहुंचाया जा चुका था।
साढ़े दस बजे अदालत की कार्रवाई शुरू हुई, जिसमें खास बात ये रही कि पुलिस की तरफ से रिमांड की मांग नहीं की गयी। असल में सुखवंत सिंह नहीं चाहता था कि बीते रोज की तरह फिर से अंसारी के आदमी आजाद कराने की कोई कोशिश कर पाते।
रिमांड की मांग न होने पर मुलजिम को ज्यूडिशियल कस्टडी में भेज दिया गया। मतलब आजमगढ़ का चार्ज लेते के साथ ही एसपी ने एक बड़े अपराधी को उसकी औकात दिखा दी थी।
उधर चौबे और यादव की टीमें पूरी तत्परता के साथ अपने काम में जुटी हुई थीं, मगर सच यही था कि अमरजीत त्रिपाठी या चंगेज खान की कोई भनक तक उन्हें नहीं लगी थी।
वह काम इतना आसान भी नहीं था क्योंकि दोनों ही टीमें उन क्षेत्रों के लिए अंजान थीं, और उन्हें जो कुछ भी करना था गुपचुप तरीके से करना था।
मगर कोशिशें चल रही थीं।
दोपहर में मिश्रा ने खबर दी कि बर्फ फैक्ट्री में वाकई में कट्टे बनाये जाते थे, जिसके बाद सुखवंत सिंह मयफोर्स खुद वहां पहुंचा, मगर हासिल कुछ नहीं हुआ क्योंकि वहां बस बर्फ ही बनाई जा रही थी। उसके साथ वहां पहुंचे सिपाहियों ने फैक्ट्री का कोना कोना छान मारा लेकिन ऐसा कोई सुराग हासिल नहीं हो पाया जिससे पता चलता कि वहां कोई अवैध काम भी होता था। तब उनका निशाना बने काम करते मामूली मजदूर जिनसे मारपीट कर के जबरन ये जानने की कोशिश की गयी कि वहां हथियार बनाये जाते थे, मगर उस फ्रंट पर भी सुखवंत सिंह को निराशा का ही सामना करना पड़ा।
आखिरकार उसने मिश्रा को हुक्म दिया कि वह किसी भी तरह अतीक अंसारी का पता लगाये कि वह किस बिल में छिपा बैठा था, क्योंकि उसका काम तो अतीक को खत्म कर के भी पूरा हो सकता था। जब राजा ही नहीं बचता तो उसकी सेना भला क्या कर सकती थी।
वापिस ऑफिस पहुंचकर उसने इंस्पेक्टर दिनेश राय को आदेश दिया कि कलंकी को फौरन हिरासत में ले लिया जाये। जो बहुत आसान काम साबित हुआ क्योंकि वह अंसारी की हवेली पर ही उन्हें मिल गया।
इस वक्त वह एसपी ऑफिस में बाईज्जत सुखवंत सिंह के सामने एक कुर्सी पर बैठा था, और वह उससे सवाल जवाब किये जा रहा था। ऐसे सवाल जिनमें से हर एक का जवाब वह इंकार में ही दे रहा था।
“हमें नहीं पता सर कि अतीक भईया कहां हैं?”
“पता होता तो बता देते?”
“क्या कह सकते हैं सर, हो सकता है बता देते, ये भी हो सकता है कि नहीं बताते। लेकिन जब हमें मालूमे नहीं है तो आपके सवाल का जवाब कैसे दे सकते हैं।”
“बात ये है कलंकी कि हम किसी को भी बख्शने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं। तुम अतीक का पता बता दोगे तो हम उसे गिरफ्तार कर के जेल भेज देंगे, नहीं बताओगे और कहीं हम खुद उस तक पहुंच गये तो गोली मारने में एक क्षण की भी देरी नहीं करेंगे।”
“काहे मजाक कर रहे हैं एसपी साहब, आपको सच में लगता है कि आप अतीक भईया को मार सकते हैं?”
“क्यों आबेहयात पिये बैठा है वह?”
“आजमगढ़ में भूकंप आ जायेगा सर, फिर ना बचेगा एसपी ऑफिस, ना बचेंगे आप। काहे खामख्वाह की दुश्मनी मोल ले रहे हैं। आराम से काम काहे नहीं करते, जैसे आपसे पहले वाले, या उनसे पहले वाली एसपी साहब कर रहे थे।”
“मतलब हम तुम्हें इहां बैठाकर प्यार मोहब्बत से पूछताछ कर रहे हैं तो तुम पसरने लगे, साले जानता नहीं है तू कि मैं कौन हूं, सुखवंत सिंह नाम है मेरा, वह नाम जिसे सुनकर बड़े बड़े अपराधियों की पतलून गीली हो जाया करती है।”
“हमारी तो नहीं हुई, कहिये तो खड़े होकर दिखाये देते हैं।”
“चर्बी ज्यादा चढ़ गयी है इसे सर - वहां खड़े दिनेश राय को पहली बार जोश आया, या पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि वह पुलिस में इंस्पेक्टर है - आप बस हुक्म दीजिए अबहियें उतारे देते हैं।”
“उसके बाद अंतरा भाभी का क्या होगा दिनेश राय, तुम्हारी चार साल की बेटी पिंकी का भी क्या होगा, सोचा है कभी?”
“ठहर जा साले - कहकर वह कलंकी पर झपटा ही था कि एसपी ने हाथ के इशारे से उसे रोक दिया - क्यों इस दो टके के आदमी के मुंह लगते हो, शांत रहो।”
“हां शांत रहो - कलंकी बोला - क्योंकि इसी में आप लोगों की भलाई है। अंसारी साहब को गिरफ्तार कर के ई मत सोचिये कि कोई किला फतह कर लिया है, काहे कि वह बहुत जल्दी बाहर होंगे।”
“मैं आखिरी बार पूछ रहा हूं कलंकी, बता दो कि अतीक कहां है?”
“आपके पीछे ही तो खड़े हैं अतीक भईया - उसने जोर का ठहाका लगाया - का देख नहीं पा रहे?”
“मतलब?”
“अतीक भईया हर जगह होते हैं सर, हर बात की खबर रखते हैं। उन्हें तो ये तक मालूम होगा कि अभी आप लोग मुझसे क्या जानने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए हमारी एक नेक राय मानिये और उछल कूद फौरन बंद कर दीजिए। आपको अपनी फिक्र नहीं भी है तो कम से कम दूसरे लोगों की तो कीजिए, जिन्हें यहीं आजमगढ़ में रहना है। कुछ सोचा है आपके ट्रांसफर के बाद इन बेचारों का क्या होगा।”
“तुम्हें एहसास तो है न कि कहां बैठे हो इस वक्त?” सुखवंत सिंह बड़े ही शांत लहजे में बोला।
“जी हां, तबहीं तो निफिकर होकर बोल रहे हैं, काहे कि जानते हैं आप हमारा, या अतीक भईया का चाहकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते।”
“तुम्हारा भी नहीं?”
“नहीं, क्योंकि आप लोगों को मुजरिम का जुर्म साबित करना पड़ता है, जिसे साबित करने के लिए निकलेंगे तो पता लगेगा अतीक भईया भगवान राम हैं, और हम उनके परम भक्त हनुमान। अब भगवान को भी कोई हिरासत में ले सकता है क्या।”
“अगर ऐसा है तो सीधा गोली ही क्यों न मार दें तुम्हें?”
“हां ये काम आप कर सकते हैं, मगर हासिल क्या होगा सर, क्या हमें खत्म कर के आप भईया तक पहुंच जायेंगे, हमारा जवाब है नहीं पहुंच सकते।”
“हमारे पास तुम्हारे लिये एक ऑफर है।”
“ये तो बहुत अच्छी बात है सर, काहे कि ऑफर में हम इंट्रेस्टवा बराबर रखते हैं, मॉल से कोई सामान खरीदने जाते हैं तो इस बात का खास ख्याल रखते हैं कि वहां कोई ऑफर चल रहा हो। बताईये आप क्या ऑफर कर रहे हैं, दस परसेंट, बीस परसेंट या उससे ज्यादा?”
“तुम्हारी जिंदगी ऑफर करना चाहते हैं। हमें अतीक की जानकारी दो और हम तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होने देंगे।”
“नमकहरामी करना कलंकी ने नहीं सीखा है सर।”
“यानि जानकारी जबरन ही निकवानी पड़ेगी तुम्हारे हलक से।”
“हमारा नाम कलंकी है सर, जानते हैं क्यों है?”
“क्यों है?”
“क्योंकि हमारे पैदा होते ही मां मर गयी, और उसके गम में कुछ दिनों बाद बाप भी चल बसा। एक बड़ी बहन थी जिसे हम तब खत्म कर दिये जब दस साल के थे, काहे कि वह हमें बहुत मारा करती थी, हमपर हुक्म चलाती थी। बस तभी से लोग हमको कलंकी बुलाना शुरू कर दिये। अगर किसी ने जीवन में हमें इज्जत दी, तो वह हैं अतीक भईया। जिनके खिलाफ आप हमारे मुंह से एक लफ्ज भी नहीं निकलवा सकते चाहे डंडे पर डंडे ही क्यों न तोड़ दें। और दूसरा कोई रास्ता आपके पास है नहीं हमारी जुबान खुलवाने का क्योंकि दुनिया में हमारे आगे पीछे कोई नहीं है, अब आपकी मर्जी है चाहे जो करें।”
“मैं वफादारी की बहुत कद्र करता हूं कलंकी, लेकिन गलत आदमी के लिए वफादारी दिखाना समझदारी तो नहीं होती न?”
“आप जो चाहे कहें एसपी साहब, या जो चाहें कर सकते हैं। बस इसके अलावा हमें और कुछ नहीं कहना।”
“अच्छा थोड़ी देर के लिए अतीक को भूल जाते हैं, ये बताओ कि अमरजीत त्रिपाठी और चंगेज खान के बारे में क्या जानते हो?”
“अनल सिंह का नाम नहीं लिए आप - कहकर उसने जोर का ठहाका लगाया, फिर बोला - ओह, अब समझे हम।”
“क्या समझे?”
“यही कि आप अनल की साईड हैं, तबहियें अतीक भईया, त्रिपाठी और चंगेज खान के पीछे पड़े हैं। मतलब असल में जो कर रहे हैं वह इसलिए कर रहे हैं कि पूरे आजमगढ़ पर अनल सिंह का अधिकार बन जाये, है न एसपी साहब यही बात?”
“नहीं ऐसा कुछ नहीं है, उसपर भी हमारी निगाह बराबर है, लेकिन उससे सबसे बाद में निबटेंगे, अभी तुम त्रिपाठी और चंगेज की बात करो, क्या जानते हो उनके बारे में?”
“आप क्या जानना चाहते हैं?”
“उनका पता ठिकाना।”
“हवा हैं दोनों एसपी साहब, और हवा किसी को दिखाई थोड़े ही देती है। लेकिन असल बात ये है कि अतीक भईया से फटती है सालों की, तबहियें लुक छिपकर रहते हैं। आप कितनी भी कोशिश कर लीजिए उन्हें खोज तो नहीं पायेंगे।”
“लेकिन तुम खोज सकते हो।”
“हम समझे नहीं।”
“देखो मैं ये नहीं कहूंगा कि तुम्हारे वैसा करने से हम अतीक को भूल जायेंगे, लेकिन इतनी गारंटी करता हूं कि त्रिपाठी और चंगेज के बारे में कोई खास इंफॉर्मेशन दे दो तो मैं तुम्हें अभी गिरफ्तार करने का अपना इरादा बदल दूंगा।”
“सोचकर देखो कलंकी - दिनेश राय बोला - उससे तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होने वाला, फिर अच्छा ही है न कि अतीक के दो दुश्मन खत्म हो जायेंगे, जिसके बाद उसकी ताकत भी जरूर बढ़ जायेगी।”
“नहीं हम नहीं जानते कि दोनों कहां मिलेंगे।”
“लेकिन पता लगा सकते हो?”
“ऊ का है न एसपी साहब कि हमें इहां बहुत परेशानी हो रही है, मतलब हमें आजाद कीजिए फिर हम जाकर खोज खबर निकालते हैं उन दोनों का, मालूम पड़ गया तो गोली की तरह आपको फोन खड़का देंगे।”
“ठीक है जाओ।”
“पीछे से कोई गोली वोली मत मार दीजिएगा, इरादा हो तो सामने से मारियेगा।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा, जाओ।”
सुनकर वह उठा और दोनों का अभिवादन कर के वहां से निकल गया।
“हम इससे अतीक का पता उगलवा सकते थे सर।” दिनेश राय बोला।
“लगता तो नहीं है, कॉन्फिडेंस देखा उस कमीने का, मरते मर जाता लेकिन कुछ नहीं बताता। जबकि अभी के हालात में उससे दो काम की जानकारियां मिलने की उम्मीद हम कर सकते हैं।”
“फरार हो जायेगा सर।”
“नहीं होगा, उसे भागना ही होता तो अंसारी साहब की गिरफ्तारी के बाद ही भाग गया होता, इसलिए उसकी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन कलंकी के मोबाईल नंबर का एक पैरलल सिम फिर भी हासिल करो, ताकि हम उसकी बातें सुन सकें। क्या पता अतीक कभी उसको कॉल कर बैठे, या वह खुद अतीक से कांटेक्ट करने की कोशिश करो। दोनों ही हालात में अतीक अंसारी हमारी गिरफ्त में होगा।”
“एक बात कहें सर।”
“क्या?”
“बुरा तो नहीं मानियेगा?”
“अब बोलो भी।”
“आपका ये पल में गरम और पल में ठंडा रवैया हमारी समझ से बाहर है।”
“इंसान को वक्त की मांग के हिसाब से कदम उठाना चाहिए दिनेश। कॉफी ठंडी हो जाये तो लोग उसे फेंक देते हैं या दोबारा गरम करते हैं, लेकिन वहीं कुछ लोग कोल्ड कॉफी भी पीते हैं, क्या समझे?”
“कुछ नहीं सर।”
सुनकर सुखवंत सिंह ने जोर का ठहाका लगा दिया।
जनार्दन मिश्रा से बीती रात की पूरी कहानी फोन पर सुनकर अनुराग पांडे बुरी तरह हैरान होता हुआ बोला, “ये कैसे हो सकता है मिश्रा, हमारी जानकारी के हिसाब से तो एक चौथाई पेटियों में हथियार होने चाहिए थे।”
“तो समझ लीजिए कि किसी तरह एडवांस में उन लोगों को नाकाबंदी की खबर लग गयी थी, जिसके बाद हथियारों वाली पेटियां ट्रक से हटा दी गयीं, और जो एक पेटी बरामद हुई वह उनकी कोताही का नतीजा था।”
“हो सकता है, लेकिन उन्हें पता कैसे लगा होगा?”
“जाहिर है कोई भेदिया है हमारे बीच।”
“एसपी ऑफिस में?”
“और कहां होगा, पूरे ऑपरेशन की खबर ही किसे थी।”
“यानि नया स्टॉफ रखना एसपी साहब के किसी काम नहीं आया?”
“आ रहा है, तभी तो तौफीक अंसारी जेल पहुंच गया।”
“टीवी पर न्यूज देखे हैं हम, लेकिन उसमें तो बस इतना बताया गया है कि उसे जमीन कब्जाने और मारपीट करने के दो मामलों में गिरफ्तार किया गया है, उससे भला अंसारी का क्या बिगड़ जायेगा।”
“एसपी साहब बहुते घाघ आदमी हैं सर, हमें क्या पता कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है।”
“अतीक का कुछ पता नहीं लगा?”
“नहीं, लेकिन परसों रात वह लखनऊ के जीएमके अस्पताल गया था, किसलिए गया था मैं नहीं जानता, ना ही साहब ने उस बारे में जानकारी निकलवाने के लिए अभी किसी को भेजा है।”
“क्योंकि वह जानते हैं कि उससे कुछ हासिल नहीं होगा, परसों का अस्पताल गया वह अभी तक वहीं थोड़े टिका बैठा होगा।”
“ठीक कहते हैं सर, अच्छा अब रखते हैं, हमारे लायक कोई और जानकारी हो तो बताना मत भूलियेगा।”
“नहीं भूलेंगे।” कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।
जानकारियां उसके पास बहुतेरी थीं क्योंकि वह सालों से अतीक के पीछे पड़ा हुआ था, मगर उन जानकारियों को सामने लाने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि उससे उसपर कोई आंच नहीं आने वाली थी। साथ ही ये भी चाहता था कि अपनी मेहनत किसी को सौंपनी हो तो सीधा एसपी को सौंपे ताकि उसका क्रेडिट हासिल कर सके।
दूसरी बात उसके जेहन में ये आई कि लखनऊ के जीएमके अस्पताल का एक फेरा लगाने में कोई बुराई नहीं थी। और कुछ नहीं तो इतना मालूम पड़ ही जाना था कि अतीक वहां क्यों गया था। मगर फिलहाल वैसा कर पाना संभव नहीं था क्योंकि उसके एक हाथ पर प्लॉस्टर चढ़ा हुआ था, आंख पर पट्टी बंधी हुई थी। और उन दोनों ही चीजों से एक हफ्ते से पहले उसे छुटकारा नहीं मिलने वाला था। इसलिए मन मसोस कर रह गया।
आगे एक घंटा उसने टीवी पर कोई पुरानी फिल्म देखते हुए गुजारा, उसके बाद बड़ी शिद्दत के साथ ये सोचने लगा कि क्या एसपी सुखवंत सिंह द्वारा शहर भर में मचाये गये हाहाकार का वह कोई फायदा उठा सकता था।
उसके दिल ने कहा कि उठा सकता था। मतलब इस दौरान अगर वह अतीक के कुछ आदमियों को खत्म करने में कामयाब हो जाता तो किसी का भी ध्यान उसकी तरफ नहीं जाने वाला था। मगर सवाल तो ज्यों का त्यों था कि अपनी मौजूदा हालत में वैसा कोई कदम वह कैसे उठा सकता था।
आखिरकार वह एक बार फिर टीवी देखने में व्यस्त हो गया।
शाम चार बजे खुशी से बल्लियों उछलता इंस्पेक्टर दिनेश राय सुखवंत सिंह के कमरे में पहुंचा और उसे सेल्यूट करने के बाद इजाजत पाकर उसके सामने बैठ गया।
“नार्थ आजमगढ़ गयी हमारी टीम ने एक खास जानकारी दी है सर।”
“क्या?”
“अमरजीत त्रिपाठी की एक रखैल है चंद्रा जो मऊ में रहती है। एसआई महंथ चौबे को हासिल जानकारी के मुताबिक वह महीने में कई फेरे वहां के लगाता है। कभी कभी तो कई दिनों तक वहीं रुक जाता है। इसलिए उस लड़की को चारा बनाकर त्रिपाठी तक पहुंचा जा सकता है। आप कहें तो निगरानी का इंतजाम करा दूं?”
“जब लड़की को तुम चारा बनाने की बात कर रहे हो तो निगरानी का क्या मतलब बनता है। और अगर चंद्रा त्रिपाठी की इतनी ही खास है तो क्या उसे उसका मौजूदा अता पता नहीं मालूम होगा?”
“मालूम हो भी सकता है सर और नहीं भी हो सकता।”
“ज्यादा चांसेज किस बात के हैं?”
“मालूम होना चाहिए।”
“तो मिलकर देख लेते हैं, एड्रेस तो है न तुम्हारे पास?”
“जी हां चौबे जी व्हॉट्सअप किये हैं।”
“बढ़िया - वह उठ खड़ा हुआ - चलो।”
उसके पांच मिनट बाद एसपी सुखवंत सिंह और इंस्पेक्टर दिनेश राय पांच सिपाहियों के साथ दो गाड़ियों में सवार होकर मऊ के लिए निकल पड़े। वह सब सिविल ड्रेस में थे और गाड़ी भी प्राईवेट नंबर वाली थीं, इसलिए किसी का खास ध्यान उनकी तरफ नहीं जाने वाला था।
आजमगढ़ से वहां की दूरी महज पचास किलोमीटर थी, इसलिए सफर में सवा घंटे से ज्यादा का वक्त नहीं लगा। आगे चंद्रा का पता तलाश लेना भी कोई मुश्किल काम साबित नहीं हुआ। जो कि मेन सिटी में बस अड्डे के करीब एक दो मंजिला घर में रहती थी।
दोनों गाड़ियों को उसके घर से दूर खड़ा कर के सब अलग अलग और पैदल आगे बढ़े, कुछ इस तरह से कि कोई उन्हें देखता भी तो उसकी समझ में ये नहीं आता कि सब किसी एक ही टीम का हिस्सा थे।
घर के आगे एक छोटी सी बाउंड्री दिखाई दे रही थी, जिसमें लोहे का गेट लगा हुआ था। उसके बाद पांच सात मीटर का खुला कंपाउंड छोड़कर मुख्य इमारत बनाई गयी थी।
बाउंड्री गेट लोहे के सींकचों से बना हुआ था जिसके बाहर दो हथियारबंद गार्ड पहरा दे रहे थे, उस बात की किसी को कोई उम्मीद नहीं थी।
सुखवंत सिंह अकेला चलता हुआ उस गेट तक पहुंचा और गार्ड की तरफ देखकर बड़े ही प्रेम भाव से बोला, “दरवाजा खोलो भाई, चंद्रा मैडम से मिलना है।”
“आप कौन हैं?”
“हम हम हैं, माने हमारा नाम दिवाकर शुक्ला है।”
“किसलिए मिलना चाहते हैं?”
“ये हम मैडम को ही बतायेंगे, काहे कि बात बहुते सीक्रेट है।”
“हमें आपके आने की कोई खबर नहीं दी गयी है इसलिए दरवाजा नहीं खोल सकते।”
“काहे किचकिच कर रहे हो यार, हम बोले तो कि बात बहुते सीक्रेट है।”
“होगी लेकिन हम आपको अंदर नहीं आने दे सकते।”
“अरे काहे जान देने पर उतारू हो रहे हो यार, प्यार की भाषा तुम दोनों की समझ में नहीं आ रही?”
“दफा हो जा यहां से।” एक गार्ड गुस्से से बोला।
“क्यों न तुम दोनों के प्राण खींच लें हम?”
“अरे तू पागल तो नहीं है, जानता नहीं कि ये त्रिपाठी जी की प्रॉपर्टी है सर।”
“उनकी प्रॉपर्टी तो मैडम जी भी हैं, मतलब तुम्हें हमारी नॉलेज बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है, अब आखिरी बार कह रहे हैं कि गेट खोल दो।”
“हम ऐसा नहीं कर सकते भाई - दूसरा गार्ड शायद पहले के मुकाबले समझदार था, इसलिए उसकी तरह गुस्सा होने की बजाये बड़े ही सभ्य लहजे में बोला - इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि यहां नौकरी करते हैं। और नौकर वह होता है जो मालिक के आदेश का हर हाल में पालन करे। और आदेश ये है कि हम किसी को भी अंदर न घुसने दें।”
“ठीक है अभी इजाजत हासिल कराये देते हैं तुम्हें।” कहकर एसपी ने ने इतनी जोर का थप्पड़ उस शख्स को खींचा कि वह खड़े खड़े अर्ध चंद्राकार आकार में घूम सा गया।
तभी दूसरी ने पिस्टल निकालकर उसपर तान दिया।
“लाईसेंस है?”
“तुम तो साले सच में पागले जान पड़ते हो।” वह हंसता हुआ बोला।
जवाब में सुखवंत सिंह ने एकदम अप्रत्याशित रूप से एक लात उसके पेट में दे मारी। गार्ड को वैसे किसी हमले का अंदेशा नहीं था इसलिए भरभराकर नीचे गिर गया। अगले ही पल वह दोनों कई हाथों की गिरफ्त में खड़े छटपटा रहे थे। फिर सुखवंत सिंह के आदेश पर सिपाही उनको साथ लेकर दूर खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ गये।
दोनों पुलिस ऑफिसर भीतर दाखिल हुए और दिनेश ने आगे बढ़कर घंटी बजा दी। कई बार बजाई तब कहीं जाकर दरवाजे की तरफ बढ़ते कदमों की आहट उन्हें सुनाई दी।
दरवाजा खुला।
सामने अपने नाम को चरित्रार्थ करती चंद्रा कानों पर हेडफोन चढ़ाये खड़ी थी। खूबसूरत तो वह थी ही, साथ ही उस वक्त साड़ी कुछ इस अंजाद में पहन रखी थी कि उसका रूप लावण्य कपड़ों के आवरण से बाहर को छलकता प्रतीत हो रहा था।
“क्या बात है?” दो अजनबी लोगों को अपने सामने खड़ा देखकर वह सकपका सी गयी।
“पुलिस, भीतर चलिए।” कहते हुए सुखवंत सिंह ने उसे जबरन अंदर की तरफ धकेल दिया।
“ये..ये..! - वह बौखलाई सी बोली - ये आप लोग ठीक नहीं कर रहे, त्रिपाठी जी को पता लगा तो जिंदा गाड़ देंगे। का जानते नहीं हैं कि हम उनकी कौन हैं।”
“रखैल है, इससे ज्यादा भला क्या औकात है तेरी।”
“नहीं बस रखैल नाहीं हैं। हम उनकी जान हैं, और अपनी जान के लिए वह क्या कर सकते हैं आपने सोचा भी नहीं होगा। इसलिए आखिरी बार समझा रहे हैं, चुपचाप वापिस लौट जाइये।”
“ये तो धमकी दे रही है सर।”
“इसलिए दे रही है क्योंकि डरी हुई है।”
“अरे हम काहे डरेंगे, डरना तो आप लोगों को चाहिए, त्रिपाठी जी को पता लग गया तो आपका पूरा खानदान साफ कर देंगे। कोई पानी देने वाला भी बचा नहीं रह जायेगा, फिर काहे अपने कुल के लिए कलंक बनना चाहते हैं।”
“त्रिपाठी को पता लगेगा तब न, अब चलकर सोफे पर आराम से बैठ जाइये।”
“चाहते क्या हैं आप लोग?”
“बतायेंगे पहले जरा कहीं बैठ तो जायें।”
फिर दिनेश ने लड़की का हाथ पकड़कर जबरन एक सोफे पर धकेला और खुद उसके करीब तनकर खड़ा हो गया। जबकि एसपी सामने वाले सोफे पर जाकर बैठ गया।
“त्रिपाठी कहां है चंद्रा मैडम?”
“हमें का मालूम?”
“दिनेश।”
“यस सर।”
“एक जोर का थप्पड़ मैडम के गाल पर खींचो।”
आदेश का पालन करने में उसने क्षण भर भी जाया नहीं किया। और मारा तो इतनी जोर से मारा कि लड़की के गाल पर उसकी पांचों उंगलियां छप कर रह गयीं।
“त्रिपाठी कहां है चंद्रा?” एसपी ने फिर से पूछा।
“हम नहीं जानते।”
“दिनेश।”
सुनकर उसने फिर से एक चांटा उसे जमा दिया, इस बार लड़की की आंखों में आंसू उमड़ आये अलबत्ता चींखने चिल्लाने की कोशिश उसने नहीं की।
“त्रिपाठी कहां है चंद्रा?”
“हम नहीं जानते।” कहते हुए उसने जल्दी से दोनों गालों पर हाथ रख लिया।
“भरी जवानी में जेल तो नहीं जाना चाहती होगी, है न?”
“हम काहे जेल जायेंगे?”
“किसी अपराधी की मदद करोगी तो और कहां जाओगी?”
“हम किसकी मदद किये हैं?”
“कर रही हो, त्रिपाठी का पता हमें न बताकर।”
“जब हम जानते ही नहीं हैं तो आपको कैसे बता सकते हैं?”
“दिनेश।”
“यस सर?”
“पांचों सिपाहियों को भीतर बुला लो, बोलना दोनों गार्ड्स को भी अपने साथ लिवा लायें।”
“ठीक है सर।” कहकर उसने फोन कर के उन्हें वहां पहुंचने को कह दिया।
थोड़ी देर बाद सब भीतर आकर खड़े हो गये।
“मुंह दबा लो दोनों का।” एसपी ने गार्ड्स की तरफ इशारा कर के कहा, तो पलक झपकते ही दो सिपाहियों ने अपनी अपनी हथेली उनके मुंह पर ढक्कन की तरफ चिपका दी। जबकि उनके हाथ पहले से ही रस्सियों में जकड़े हुए थे।
सुखवंत सिंह ने कमर में पीठ पीछे खुंसी गन निकाली फिर सोफे पर रखा कुशन उठाकर नाल को उसमें गहरा धंसाने के बाद गोली चला दी, जो कि वहां खड़े दोनों गार्ड्स में से एक के पैर में जाकर लगी और वह बुरी तरह तड़पने लगा। मगर चिल्ला नहीं पाया क्योंकि सिपाही उसका मुंह भींचे हुए था। फिर एसपी ने एक और कुशन उठाया और रिवाल्वर की नाल उसमें गड़ाकर दूसरे गार्ड के पैर में भी गोली मार दी। उस दौरान सबसे ज्यादा हालत उन दोनों सिपाहियों की खराब हुई थी जो पीछे से गार्ड्स का मुंह दबाकर खड़े थे, क्योंकि गोली जरा भी इधर उधर हो जाती तो शिकार गार्ड्स नहीं वो दोनों खुद बन गये होते।
वह नजारा देखकर चंद्रा बुरी तरह कांपने लगी।
“हां तो आप क्या कह रही थीं मैडम, त्रिपाठी को पता लग गया तो वह क्या करेगा?”
चंद्रा के मुंह से बोल नहीं फूटे।
फिर कुछ देर तक उसे कड़ी निगाहों से घूरते रहने के बाद सुखवंत सिंह ने सिपाहियों की तरफ देखा, “अब तुम लोग जरा मैडम पर ध्यान दो, ध्यान से इन्हें देखो और हमें बताओ कि ये कैसी लगीं तुम्हें।”
“हम समझे नहीं सर।” एक सिपाही झिझकता हुआ बोला।
“अरे सूरत कैसी है इनकी?”
“वह तो कमाल की है सर जी, एकदम हीरोईन लग रही हैं।”
“तो आज तुम लोगों को इस हीरोईन के साथ ऐश करने की खुली छूट है, दिनेश तुम्हें भी। मैडम को लेकर ऊपर के किसी कमरे में चले जाओ और तृप्त होने के बाद ही वापिस लौटना, तब तक हम यहीं बैठकर इंतजार करते हैं।”
सुनकर सिपाही हकबका से गये, लेकिन दिनेश ने वह इशारा तुरंत कैच किया, समझ गया कि उसका अफसर चंद्रा पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा था। इसलिए आगे बढ़ा और चंद्रा का हाथ थामकर जबरन खड़ा करता हुआ बोला, “चलो मैडम, त्रिपाठी को बहुते ऐश करा चुकीं तुम, अब तुम्हारे आनंद घट में हम लोग डुबकी मारेंगे, वैसे भी चार बच्चे जनकर हमारी बीवी ससुरी मुटिया सी गयी है, मतलब छूने का भी दिल नहीं करता।”
“ये...ये क्या कह रहे हैं आप?”
“हम नहीं कह रहे, तुम्हारे सामने बैठे हमारे एसपी साहब कह रहे हैं, जिनका आदेश हम नहीं टाल सकते।”
“अ...एसपी साहब - वह हैरानी से बोली - आप एसपी हैं?”
“तुम्हें कोई शक है?”
“हां है क्योंकि आप जैसे बड़े अधिकारी से हम इतनी घटिया हरकत की उम्मीद नहीं कर सकते। कुछ शर्म लिहाज है या नहीं आप लोगों में, जो एक औरत पर जुल्म ढाने की पिलानिंग कर रहे हैं?”
“अब इतनी दूर से चलकर तुम्हारे पास आये हैं मैडम, तो खाली हाथ थोड़े ही लौट जायेंगे। ऊपर से बेचारे सिपाही, दिन रात मेहनत करते हैं, इतनी ज्यादा मेहनत कि इंजॉय करने का कभी मौका ही नहीं मिलता इनको। आज तुम्हारी सूरत में मिल रहा है तो हम कौन होते हैं इनकी ऐश में खलल डालने वाले - कहकर उसने दिनेश की तरफ देखा - लेकर जाते क्यों नहीं मैडम को?”
“अभी लीजिए सर।”
“र..रुकिये, एक मिनट रुकिये प्लीज।”
“कुछ कहना चाहती हो?”
“इतना बड़ा जुल्म मत कीजिए हमपर, हाथ जोड़ते हैं आपके, कहें तो पांव भी पकड़े लेते हैं, मगर हमें छोड़ दीजिए, काहे कि हम कुछ नहीं किये हैं।”
“जुल्म कहां कर रहे हैं मैडम, जाओ और जाकर इन सबको खुश कर दो फिर हम यहां से चले जायेंगे। अब अपने अंडर में काम करते लोगों का ख्याल हम नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा - कहकर उसने फिर से दिनेश की तरफ देखा - लेकर जाओ भई, क्या पूरे दिन यहीं खड़े रहोगे?”
सुनकर दिनेश ने चंद्रा को अपनी तरफ खींचा ही था कि वह एकदम से उससे भिड़ गयी, जोर जोर से चिल्लाने लगी, हाथ पांव चलाने लगी। मगर था तो वह पुलिसवाला, भला एक लड़की उससे कैसे पार पा सकती थी, इसलिए जल्दी ही उसने चंद्रा को काबू में कर लिया और उसे सीढ़ियों की तरफ खींचता हुआ सिपाहियों से बोला, “सब लोग हमारे साथ चलो, यहां क्यों खड़े हो?”
“ये आप ठीक नहीं कर रहे एसपी साहब।” फर्श पर पड़ा एक गार्ड कराहता हुआ बोला।
“अरे तुम तो अभी तक जिंदा हो।” कहने के साथ ही उसने एक के बाद एक दो गोलियां चलाईं और पलक झपकने जितनी देर में दोनों को खत्म कर दिया।
चंद्रा के रहे सहे होश भी उड़ गये।
“ई तो बहुते गलत कर दिये सर - दिनेश राय बोला - बाद में मैडम ने गवाही दे दी तो बवेला मच जायेगा।”
“तुम्हें पुलिस में किसने भर्ती कर लिया दिनेश?”
“हम समझे नहीं सर?”
“अरे जाकर अपना काम पूरा करो, फिर जाते वक्त मैडम को भी जहन्नुम का रास्ता दिखा देंगे, इसमें इतना सोचने वाली क्या बात है?”
चंद्रा जैसे आसमान से गिरी, उसने जबरन खुद को दिनेश की पकड़ से आजाद किया और दौड़कर एसपी के पांव पकड़ लिये, “हमने कोई गलत काम नहीं किया है सर, और हम किसी को बतायेंगे भी नहीं कि इन दोनों को गोली किसने मारी थी, बस हमारी जान बख्श दीजिए। भगवान के लिए हमें जिंदा छोड़ दीजिए।”
“एक बार को भगवान के लिए जरूर छोड़ देते मैडम, लेकिन त्रिपाठी के लिए कैसे छोड़ सकते हैं, जिसकी तुम प्रॉपर्टी हो। अब तुम्हारा तियां पांचा करेंगे तो वह कुछ तो जरूर तड़पेगा, तड़पकर अपने बिल से बाहर भी निकलेगा, तब हमारी गोली और उसका सिर, यानि किस्सा खत्म।”
“हम त्रिपाठी जी से रिश्ता तोड़कर कहीं दूर निकल जायेंगे, आप बस हमारी जान बख्श दीजिए।” कहते हुए उसने अपना सिर एसपी के कदमों में रख दिया।
“वो तो बस एक ही सूरत में बच सकती है, त्रिपाठी का पता बता दो हमें, फिर जान तो बचेगी ही साथ में तुम्हें छह पुलिसवालों की बर्बरता भी नहीं झेलनी पड़ेगी, जो यकीनन तुपपर बहुत भारी गुजरने वाली है।”
लड़की से कुछ कहते नहीं बना।
“अच्छी तरह से सोच लो, जान से बढ़कर कोई नियामत नहीं होती। आज नहीं तो कल त्रिपाठी को पकड़ ही लेंगे हम, काहे कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। मगर तुम्हारा नुकसान तो हो जायेगा न, फिर क्यों उसे बचाने की कोशिश कर रही हो?”
“ग...गोरखपुर गये हैं सर।”
“वेरी गुड, गोरखपुर में कहां?”
“हम नहीं जानते, लेकिन शाम को वापिस आने को कहे थे।”
“यहीं आयेगा?”
“बोले तो यही थे।”
“फोन करो उसे, और ऐसे बात करो जैसे यहां कुछ हुआ ही नहीं है, जैसे हालात आम होते तो तुम उससे करतीं, और बहाने से जानने की कोशिश करो कि उसका वापिस यहां आने का प्लान पक्का है न? मगर एक बात याद रखना, अगर उसे कोई इशारा किया, या त्रिपाठी तुम्हारी वजह से वह हमारे हाथ नहीं लगा, तो तुम्हारा वही हश्र होगा जो अभी होते होते रह गया है, और मोबाईल को स्पीकर पर डालकर बात करो।”
चंद्रा ने हुक्म का पालन किया। वह कितनी बड़ी नौटंकीबाज थी इसका पता इतने से ही लग गया कि त्रिपाठी से बात करते वक्त अपने स्वर से ही उसे तीनों त्रैलोक के दर्शन करा दिये।
“कैसे हैं त्रिपाठी जी?” वह खनकते स्वर में बोली।
“काहे पूछ रही हो?”
“मन नहीं लग रहा जी आपके बिना।”
“अरे अभी सुबहे तो मिलकर आये हैं।”
“छह-सात घंटा गुजर गये हैं जी, अब और बर्दाश्त नहीं होता हमसे।”
“कहे तो थे कि शाम को लौटकर तुम्हारे पास ही आयेंगे।”
“शाम तक तो हम आपके इंतजार में सूख जायेंगे।”
त्रिपाठी ने जोर का ठहाका लगाया।
“हम सच कह रहे हैं, आपके बिना एक पल भी बड़ी मुश्किल से गुजरता है, जल्दी आ जाईये न।”
“अरे जरूरी काम से आये हैं।”
“हम भी तो जरूरी काम से ही बुला रहे हैं आपको।”
“अब फोन रखो चंदा, हम सात आठ बजे तक पहुंच जायेंगे।”
“कहिये तो हम खुदे गोरखपुर आ जाते हैं, उहें किसी होटल में रुक जायेंगे, रुककर आपकी ऐसी सेवा करेंगे कि पूरी जिंदगी याद रखेंगे आप।”
“बड़ी बेसब्री हो रही हो?”
“हां, काहे कि बदन टूटा जा रहा है।”
त्रिपाठी फिर से हंसा।
“तो हम आ जायें गोरखपुर?”
“नहीं, रात को आ तो रहे हैं हम, और अब फोन रखो काहे कि हम बहुते जरूरी बातचीत में व्यस्त हैं। ऐसे में तुम्हारी कॉल जितनी लंबी चलेगी हमें शाम को वापिस लौटने में उतना ही ज्यादा वक्त लग जायेगा।”
“ना, हम तो नहीं काटेंगे।”
“तो हम काटे देते हैं, शाम को मिलेंगे।” कहकर त्रिपाठी ने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।
“हम आपका काम कर दिये एसपी साहब, अब तो हमारी जान बख्श दीजिए - कहने के बाद उसका लहजा एकदम से धीमा पड़ गया - आप कहेंगे तो हम आपकी सेवा भी कर देंगे, वैसी सेवा जैसी त्रिपाठी जी की किया करते हैं।”
एसपी हड़बड़ाया।
“क्या कहते हैं? - सुखवंत सिंह की आंखों में झांकती हुई वह फुसफुसाकर बोली - चलें ऊपर के कमरे में? या कहीं और जहां आप चाहें।”
“हम अपने वादे के पक्के हैं चंद्रा - बौखलाया सा एसपी सबको सुनाता हुआ बोला - इसलिए अब तुम खुद को सेफ समझ सकती हो, लेकिन अभी तुम यहां से जा नहीं सकती, तब तक तो हरगिज भी नहीं जब तक कि त्रिपाठी हमारे हाथ नहीं लग जाता।”
“अरे हम कौन सा यहां से जाने को कह रहे हैं, या आप हमारी बात नहीं समझे?”
“एक काम करो दिनेश - अपने भीतर उमड़ते जज्बातों को जबरन काबू में करता हुआ सुखवंत सिंह बोला - दोनों लाशों को यहां से निकालकर जीप में डालो और आजमगढ़ भिजवा दो, दिखावे को बाकी लोगों के साथ तुम भी यहां से निकल जाओ, फिर छह बजे लौटकर इस पूरे इलाके को घेर लेना। मिश्रा को भी बुला लो, क्योंकि आज मैं अमरजीत त्रिपाठी का चैप्टर हमेशा के लिए क्लोज कर देना चाहता हूं।”
“और मैडम का क्या करना है सर?”
“इनपर निगाह रखने के लिए हम यहीं रुकेंगे, ये जानने के लिए भी रुकेंगे कि बीच में कोई और नहीं पहुंच गया यहां, जैसे कि त्रिपाठी का कोई आदमी, इसलिए इनकी चिंता मत करो तुम।”
“ठीक है सर।”
“बल्कि एक सिपाही को घर के आस-पास कहीं तैनात कर के जाओ ताकि कोई यहां आता दिखाई दे तो वह हमें खबर कर सके, क्योंकि हम बार बार अंदर बाहर करना अफोर्ड नहीं कर सकते। कहीं किसी पड़ोसी को शक हो गया, और उसने पुलिस को कॉल कर दिया तो हमारा बना बनाया खेल बिगड़ जायेगा। उन हालात में किसी न किसी तरह त्रिपाठी को भी मामले की भनक लग जायेगी जिसके बाद वह हरगिज भी यहां का रुख नहीं करेगा।”
“कहीं पहले ही किसी ने उसे फोन न कर दिया हो सर, क्योंकि यहां आवगमन तो खूबे किया है हमने। ऊपर से गोली की आवाज भी लोगों ने सुनी ही होगी।”
“सुनी बराबर होगी, मगर ये समझना आसान नहीं होगा कि वह गोली की ही आवाज थी, फिर इस इलाके में घर भी दूर दूर बने हुए हैं, इसलिए मुझे नहीं लगता कि अभी तक किसी को कोई सुबहा हुआ होगा। होता तो कम से कम पुलिस को इत्तिला जरूर कर दिया गया होता। मगर हमें तुम्हारी बात से इत्तेफाक है, यहां ज्यादा लोगों का आवागमन हमारा खेल बिगाड़ सकता है, इसलिए तुम लोग एक एक कर के पांच-पांच मिनट के अंतराल पर यहां से निकलोगे। और गार्ड्स की डेडबॉडी उठाने के लिए एक गाड़ी सीधा भीतर लाकर खड़ी कर दो, क्योंकि बड़ी प्रॉब्लम वही दिखाई दे रही है।”
बीस-पच्चीस मिनट के भीतर चंद्रा का घर खाली हो गया। लाशें दो सिपाहियों के साथ आजमगढ़ रवाना कर दी गयीं, जबकि दिनेश राय एक सिपाही को वहीं छोड़कर बाकी दोनों के साथ उस इलाके से निकला और सब इंस्पेक्टर जनार्दन मिश्रा को तीन चार सिपाहियों के साथ शाम छह बजे तक वहां पहुंच जाने के लिए कह दिया।
उसके बाद सुखवंत सिंह ने घर का दरवाजा अंदर से बंद किया और चंद्रा के करीब पहुंचा, फिर कुछ क्षण उसकी खूबसूरती का रसास्वादन करने के बाद उसकी दोनों कलाईयां थामीं और उठाकर खड़ा कर दिया।
अगले ही पल चंद्रा लता की भांति उसके साथ लिपट गयी, लिपटकर अपने होंठ उसके होंठों पर रख दिये। सुखवंत सिंह के जिस्म में जैसे आग सी लग गयी। उसने थोड़ा झुककर लड़की को अपनी बाहों में उठाया और हॉल के आखिरी सिरे पर दिखाई दे रहीं सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला।
घर में बैठकर टीवी देख रहे एसआई अनुराग पांडे पर लखनऊ जाने का भूत निरंतर हावी होता चला गया। उसने बार बार खुद को समझाने की कोशिश की कि अभी उसकी हालत सफर करने के लायक नहीं थी, मगर मन की बेचैनी थी कि उसे बलात बाहर की तरफ धकेले जा रही थी।
आखिरकार जब उससे नहीं रहा गया तो वह उठ खड़ा हुआ। आईने के सामने खड़े होकर उसने आंख पर बंधी पट्टी उतारी, और आलमारी से निकालकर अपना नजर का चश्मा पहन लिया जिसका इस्तेमाल वह बस किताबें पढ़ते वक्त किया करता था, वरना उसकी आंखों की बिनाई में हमले से पहले कोई समस्या नहीं थी।
तत्पश्चात वह वर्दी पहन ही रहा था कि सुनयना वहां पहुंच गयी और हैरानी से उसे देखती हुई बोली, “कहां जा रहे हैं जी?”
“जरा घूम फिरकर आते हैं, घर में बैठे बैठे बोर हो गये हैं।”
“आंख की पट्टी काहे हटा दिये?”
“क्योंकि अब उसकी कोई जरूरत नहीं है।” कहकर उसने वर्दी पहनी और घर से बाहर निकलने ही लगा था कि सुनयना ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“आप सच में घूमने ही जा रहे हैं न?”
“ऐसी हालत में और कहां जाऊंगा?”
“हमें कुछ ठीक नहीं लग रहा।”
“अरे थोड़ी देर में, बड़ी हद घंटा दो घंटा में वापिस लौट आऊंगा, परेशान क्यों हो रही हो?”
“काहे कि आपकी हालत अभी ठीक नहीं है।”
“कुछ नहीं हुआ है, प्लॉस्टर भी खामख्वाह ही चढ़ा रखा है।”
“पैदल जा रहे हैं?”
“और क्या बाईक से जायेंगे?”
“जाना भी क्या जरूरी है, घर में आराम काहे नहीं करते, कहें तो पकौड़े तल देती हूं, या कुछ और खाना चाहें तो बनाये देते हैं।”
“नहीं खाने पीने का मन नहीं है।” कहकर वह दरवाजे से बाहर निकला और दाईं तरफ को पैदल आगे बढ़ता चला गया। प्लास्टर उसकी कोहनी से ऊपर तक बंधा था और ऐन उसी कारण से एक डोरी के सहारे उसे गर्दन से लटकाकर रखना पड़ता था। बावजूद इसके उसे यकीन था कि बाईक ड्राईव कर लेगा, मगर सुनयना के सामने मोटरसाईकिल से निकलता तो वह सौ सवाल करती बल्कि जाने ही नहीं देती, इसलिए पैदल चल पड़ा।
उसी इलाके में थोड़ी दूरी पर विपिन भारद्वाज नाम का उसका एक दोस्त रहता था, जिसके पास कार थी। पांच मिनट बाद वहां पहुंचकर उसने दोस्त से कार उधार मांगी तो उसने बिना कोई सवाल किये चाबी उसे थमा दी।
जो कि आजमगढ़ से लखनऊ के सफर के लिए बेहद सहूलियत वाली बात थी, और बाईक के मुकाबले प्लॉस्टर बंधे हाथ से कार ड्राईव करना ज्यादा आसान काम भी था।
अगले ही पल वह लखनऊ के लिए रवाना हो गया।
शाम साढ़े छह बजे तक पुलिस चंद्रा के घर को सामने से पूरी तरह कवर कर चुकी थी। वह भी कुछ इस तरह से कि प्रत्यक्षतः कोई घेराबंदी वहां दिखाई नहीं दे रही थी।
एसपी अभी भी घर के अंदर ही था, मगर एक सावधानी उसने जरूर बरती कि दो सिपाहियों को वहां ड्यूटी देने वाले गार्ड्स जैसे कपड़े पहना कर गेट पर तैनात कर दिया था। इस चेतावनी के साथ कि अव्वल तो उन्हें बाहर की तरफ चेहरा कर के खड़ा ही नहीं होना था, फिर भी जरूरत पड़े तो गर्दन बस इतनी ही घुमायें कि दूर से उन्हें देखकर कोई ये अंदाजा न लगा पाये कि वह दोनों वो आदमी नहीं थे जो हमेशा वहां तैनात रहा करते थे।
चंद्रा के घर तक आने जाने के लिए बस एक ही रास्ता था जो मुख्य सड़क पर पहुंचकर टी प्वाइंट बनाता था। एसआई जनार्दन मिश्रा को दो सिपाहियों के साथ स्टैंड बाई पर वहां तैनात कर दिया गया। इस हिदायत के साथ कि उसने तभी हरकत में आना था जब किसी तरह त्रिपाठी भागने का प्रयास करता, मतलब उसे चंद्रा के घर की तरफ बढ़ते वक्त रोकने की कोई कोशिश नहीं करनी थी।
देखते ही देखते अंधेरा घिर आया लेकिन बाहर की लाईट जलाने की कोई कोशिश नहीं की गयी। हां एसपी सुखवंत सिंह जरूर इमारत से निकलकर बाउंड्री के पास अंदर की तरफ छिपकर बैठ गया था। दरवाजा जानबूझकर खुला रखा गया ताकि ऐन वक्त पर एसपी को वहां से बाहर निकलने में कोई समस्या न आये।
चंद्रा भीतर पड़ी थी, जिसके हाथ पांव बंधे हुए थे और मुंह पर टेप लगा दिया गया था। हालांकि उसकी तरफ से अब किसी गलत हरकत की उम्मीद सुखवंत सिंह को नहीं रह गयी थी।
तैयारी पूरी थी, और इंतजार शुरू था, जो उबाऊ भी महसूस हो रहा था क्योंकि सात बजे वहां पहुंचने को कहने वाला अमरजीत त्रिपाठी आठ बजने के बाद भी अभी नदारद ही था। ऐसे में ऑपरेशन फेल होने का अंदेशा कहीं न कहीं सबके जेहन में मंडराना शुरू हो चुका था।
मगर वैसा नहीं हुआ।
ठीक साढ़े आठ बजे टी प्वाइंट पर खड़े जनार्दन मिश्रा ने एसपी को खबर दी कि त्रिपाठी की थार ने अभी अभी उधर को टर्न लिया था। जिसके बाद उसने इशारे से सबको सावधान रहने को कह दिया।
अगले ही पल थार की हेडलाईट में पूरी गली जगमगा उठी, मगर किसी ने अपनी जगह से हिलने की भी कोशिश नहीं की। मतलब जहां के तहां बुत माफिक मगर सावधान खड़े रहे।
गाड़ी गेट के करीब पहुंची तो गार्ड के बहुरूप में खड़े दोनों सिपाहियों ने उन्हें सलाम किया, इस तरह से किया कि हाथ के आगे उनका चेहरा छिप सा गया फिर अगले ही पल दोनों अपना सिर झुकाकर खड़े हो गये।
थार की हेडलाईट बंद हुई और अमरजीत त्रिपाठी अपने राईट हैंड पहलवान के साथ नीचे उतर आया। गाड़ी में उस वक्त बस वो दोनों ही थे इसका पता पुलिस टीम को फौरन लग गया था।
“हम बाहरे रुकते हैं भईया।” पहलवान बोला।
“अरे थके मांदे आये हो, अंदर चलकर थोड़ा आराम कर लो, फिर क्या पता कि अंदर हमें कितना वक्त लगेगा - कहने के बाद उसने गार्ड्स से सवाल किया - बाहर अंधेरा किये काहे बैठे हो?”
“बल्ब फ्यूज हो गया है सर।” एक सिपाही धीरे से बोला।
सुनकर त्रिपाठी और अमरजीत एक साथ चौंककर रह गये, क्योंकि गार्ड उन्हें सर की बजाये भईया कहा करते थे। बल्कि उसके सारे आदमी भईया ही कहते थे। अगले ही पल पहलवान ने अपनी गन निकालकर उन दोनों की तरफ तान दिया, “हमारी तरफ देखो।”
“देख तो रहे हैं सर।”
“सही से देखो वरना गोली मार देंगे।”
अब सिपाहियों की मजबूरी थी, दोनों ने बेखौफ उनकी तरफ देखा।
“मादर...
तब तक देर हो चुकी थी।
भीतर खड़े सुखवंत सिंह ने बिना किसी चेतावनी के गोली चला दी। मगर पहलवान को उसका एहसास वक्त रहते हो गया, जिसके कारण वह एकदम से त्रिपाठी के आगे आ गया। गोली उसके सीने में लगी और वह जमीन पर गिर गया।
त्रिपाठी ने गोलियां चलानी शुरू कर दी, शुक्र था सुखवंत सिंह की योजना के मुताबिक गेट पर खड़े दोनों सिपाही पहली गोली चलते ही दायें बायें भाग खड़े हुए थे, वरना पक्का मारे जाते।
गोलियां चलाता हुआ त्रिपाठी उल्टे पांव चलता हुआ अपनी थार की तरफ बढ़ा। इस बात से बेखबर कि पुलिस बस सामने ही नहीं थी, उसके दायें बायें और पीछे भी मौजूद थी। ऐसे में उसका बच निकलना असंभव काम था।
मगर वह कोशिश बराबर कर रहा था।
तभी सुखवंत सिंह ने उसके दायें पैर में गोली मारी और गेट खोलकर बाहर निकल आया। त्रिपाठी नीचे गिर चुका था, गन खाली हो चुकी थी, जिसे उस वक्त वो फिर से लोड करने की कोशिश कर रहा था।
सुखवंत सिंह बड़े ही आराम से चलता हुआ उसके करीब पहुंचा।
“खेल खत्म हो गया बाबा।” कहते हुए उसने गन त्रिपाठी के हाथों से छीनकर दूर फेंक दी।
“क...कौन हो तुम?”
“आजमगढ़ के नये एसपी, क्या पहचान नहीं पा रहे?”
त्रिपाठी के चेहरे पर गहन हैरानी के भाव उभरे, जैसे उसे यकीन ही न हो रहा हो कि वह पुलिस की गिरफ्त में था। फिर पलक झपकते ही उसके जेहन में चंद्रा की वह फोन कॉल कौंध गयी जो उसने गोरखपुर में बैठकर अटैंड की थी।
“मरने के लिए तैयार हो जाओ।”
“त...तुम...
“सुखवंत सिंह।” कहकर उसने त्रिपाठी के माथे में तीसरी आंख बना दी।
नार्थ आजमगढ़ अमरजीत त्रिपाठी के आतंक से मुक्त हो चुका था।
पुलिस के लिए यह बड़ी कामयाबी थी, जिसके लिए बाद में खुद मुख्यमंत्री दामोदार राय ने फोन कर के सुखवंत सिंह को बधाई दी, डीआईजी ने उसकी तारीफों के पुल बांध दिये।
और मीडिया ने सुखवंत सिंह को हीरो बना दिया।
जीएमके अस्पताल अनुराग पांडे का देखा हुआ था, इसलिए नाक की सीध में चलता वहां तक पहुंच गया। फिर गाड़ी को हॉस्पिटल के बाहर पार्क कर के वह गेट पर पहुंचा जहां दो वर्दीधारी गार्ड ड्यूटी पर एहसान सा करते हुए आपस में गप्पे हांक रहे थे।
“कैसे हो भाई?” उसने पूछा।
“ठीक हैं सर, नमस्कार।” दोनों के मुंह से एक साथ निकला।
“नमस्कार, परसों रात ड्यूटी पर तुम्हीं लोग थे?”
“कितने बजे?”
“बारह बजे के आस-पास?”
“नहीं सर आजकल हमारी ड्यूटी दो से दस की है।”
“ये तो जानते होगे कि कौन था?”
“पता कर के बताते हैं सर।” कहकर उसने अपने सुपरवाईजर को फोन किया और पुलिस पूछताछ का हवाला देकर उस बारे में सवाल किया तो पता लगा कि उस रात किशनचंद और मलेच्छ सिंह नाम के दो गार्ड वहां तैनात थे।
“अभी कहां मिलेंगे ये दोनों?”
“घर पर होंगे सर।”
“और घर कहां है?”
“हम नंबर दिये देते हैं आपको, काहे कि एड्रेस तो नहीं जानते।”
“ठीक है नंबरे बता दो।”
तत्पश्चात पांडे ने दोनों का नंबर नोट किया और गेट से हटकर वहां बने पार्क में जाकर बैठ गया, फिर सबसे पहले उसने किशन को फोन लगाया।
“हैलो।”
“किशनचंद?”
“बोल रहे हैं?”
“हम दरोगा अनुराग पांडे।”
“नमस्कार दरोगा जी।”
“नमस्कार, एक जानकारी चाहिए, जो तुम फोन पर दे दिये तो ठीक वरना सिपाही भेजकर थाने बुलवाना पड़ेगा, काहे कि मामला बहुते गंभीर है।”
“जानते होंगे तो काहे नहीं बतायेंगे सर, पूछिये क्या जानना चाहते हैं?”
“अतीक अंसारी को पहचानते हो?”
“जी पहचानते हैं।”
“परसों रात बारह बजे के करीब जब वह अस्पताल आया था तो उस वक्त ड्यूटी पर तुम्हीं थे, है न?”
“जी सर।”
“और कौन था उसके साथ?”
“एक आदमी था तो जरूर सर, लेकिन हम उसका नाम नहीं जानते, हां इतना बता सकते हैं कि एकदम पहलवान जैसा दिखाई दे रहा था।”
“दोनों अस्पताल में गये थे?”
“जी हां।”
“अस्तपताल में कहां?”
“ये हम कैसे बता सकते हैं सर, लेकिन अतीक भईया को दूसरे आदमी से इतना कहते जरूर सुना था कि ‘कोई प्रॉब्लम नहीं है, चिंतामणि सब संभाल लेगा।”
“चिंतामणि कौन है?”
“होने को तो सर कोई भी हो सकता है, लेकिन इस नाम के एक डॉक्टर साहब भी हैं अस्पताल में, क्या पता उन्हीं से मिलने आये हों अतीक भईया।”
“और कुछ?”
“नहीं सर, बस इतना ही पता है हमें।”
“दोनों वापिस कितने बजे लौटे थे?”
“भोर में, हमारे ख्याल से पांच बज रहे होंगे।”
“ठीक है अपनी जुबान बंद रखना वरना प्रॉब्लम में पड़ जाओगे।”
“हम समझे नहीं सर।”
“अरे किसी से ये मत कहना कि पुलिस ने तुमसे अतीक के बारे में पूछताछ की थी, वरना जानते ही हो कि वह कितना खतरनाक आदमी है।”
“हम ख्याल रखेंगे सर।”
पांडे ने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।
तत्पश्चात वह अस्पताल में दाखिल हुआ और रिसेप्शन पर पहुंचकर डॉक्टर चिंतामणि के बारे में सवाल किया तो पता चला उस वक्त वह हॉस्टिपल के भीतर ही था।
पांडे ने डॉक्टर का मोबाईल नंबर हासिल कर के उसे फोन लगाया तो पता लगा वह उस वक्त वार्ड के राउंड पर था। पांडे ने उसे एक जरूरी काम का हवाला देकर मुलाकात की बात कही तो उसने आधा घंटा वेट करने को कह दिया। जो कि पूरे पचास मिनट का साबित हुआ जिसके बाद वह डॉक्टर के साथ एक केबिन में जाकर बैठ गया।
“क्या बात है दरोगा जी?”
“बात तो बहुते भयानक है।”
“किसके लिए?”
“आपके लिए।”
“हम समझे नहीं।”
“लेकिन स्थिति अभी कंट्रोल में है - पांडे उसकी बात को नजरअंदाज कर के बोला - क्योंकि हमारे एसपी साहब इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं कि आप जैसा एक प्रतिष्ठित डॉक्टर अतीक अंसारी जैसे अपराधी का साथी हो सकता है।”
“क्या कह रहे हैं आप?”
“लेकिन हमें लगता है कि आप हैं।”
“अरे कैसी बात कर रहे हैं दरोगा जी, मैं और अतीक अंसारी का साथी, ये कैसे संभव है? फिर हम पूरे पूरे दिन, कभी कभी रात में भी यहां रुककर मरीज देखते हैं, बीमार लोगों का उपचार करते हैं, माने मरते को बचाते हैं, ऐसे आदमी से आप किसी अपराध की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।”
“मिलने आया था न परसों रात आपसे, और उसके बाद से ही गायब है, इसलिए साहब को लगता है कि आपने ही उसे कोई ठिकाना मुहैया करा रखा है।”
“आप गलत सोच रहे हैं।”
“हमारी जानकारी पक्की है डॉक्टर साहब नहीं तो डंके की चोट पर ये बात आपसे नहीं कह रहे होते।”
“हम आपकी बात नहीं काट रहे दरोगा जी - डॉक्टर थोड़ा नर्वस भाव से बोला - हां आया था वह हमसे मिलने, लेकिन हम उसे हम उसे कोई ठिकाना वकाना नहीं मुहैया कराये हैं।”
“यानि चाहता वही था?”
“आप कंफ्यूज मत कीजिए मुझे।”
“हम कहां कर रहे हैं?”
“और मुझे अपने हिसाब से बोलने दीजिए।”
“ठीक है बोलिये।”
“ये सच है कि मैं अतीक को जानता हूं, इसलिए जानता हूं क्योंकि मैं खुद भी आजमगढ़ के उसी इलाके का रहने वाला हूं जहां अतीक की पुश्तैनी हवेली है। इसके अलावा मेरा उसके साथ कोई रिश्ता नहीं है। यानि मैं नहीं जानता कि वह कहां है, या कहां हो सकता है।”
“वह आपसे मिलने क्यों आया था डॉक्टर साहब?”
“कुछ मेडिकल ट्रीटमेंट चाहिए थी उसे।”
“जो उसे आजमगढ़ में नहीं मिल सकती थी, है न?”
“आप कहां के हैं?”
“आजमगढ़ के।”
“लेकिन इस वक्त लखनऊ में हैं। भगवान न करें यहां आपका कोई एक्सीडेंट वगैरह हो जाये लेकिन फिर भी हो जाता है, तो क्या इलाज कराने आजमगढ़ जायेंगे, वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि आप वहीं के रहने वाले हैं?”
“एक्सीडेंट हुआ था उसका?”
“नहीं, चोट देखकर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी चाकू वगैरह से उसके हाथ में कट लग गया हो, उसी को ऑपरेट करवाने के लिए वह मेरे पास आया था, वैसे ना भी आया होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि खून बहना बंद हो चुका था, और घाव भी कोई खास गहरा नहीं था।”
“अगर बात बस इतनी ही थी डॉक्टर साहब तो बाहर उसने अपने आदमी से ये क्यों कहा कि चिंतामणी सब संभाल लेगा? उससे तो ऐसा लगता है जैसे मामला बहुत गंभीर था, जिसमें बतौर डॉक्टर आपका कोई बड़ा रोल उसे दिखाई दे रहा था।”
“मुझे नहीं पता कि उसने क्या कहा था और क्या नहीं कहा था, लेकिन ‘संभाल लेगा’ से उसका मतलब ये भी रहा होगा कि मैं बिना पुलिस को इंफॉर्म किये उसे ट्रीटमेंट दे सकता था। वैसे भी चोट बहुत मामूली थी, और कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा था कि वह किसी के साथ झगड़ा फसाद करके आया था। ऐसे में पुलिस को इंफॉर्म करने का क्या मतलब था।”
“नहीं था, तभी तो उसका ये कहना हमें खटक रहा है कि ‘चिंतामणी सब संभाल लेगा’ इसलिए अपना भला चाहते हैं डॉक्टर साहब तो सच बोलिये।”
“कमाल की बात करते हैं आप, उसने क्या कहा, क्यों कहा, और उसका क्या मतलब बनता है, ये बात आप उसी से जाकर क्यों नहीं पूछ लेते। हमें काहे परेशान कर रहे हैं?”
“इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि आप जैसा शरीफ आदमी अतीक अंसारी जैसे अपराधी के चक्कर में पड़कर अपने लिए मुसीबतें खड़ी करे।”
“थैंक यू कि आपको मेरी फिक्र है, मगर सच यही है दरोगा जी कि मैंने उसका ट्रीटमेंट करने के अलावा और कुछ नहीं किया था। और वह भी ऑफिशियल ढंग से किया था, जिसकी उसने फीस भी भरी थी। आप चाहें तो जाकर एमआरडी से उसका रिकॉर्ड निकलवाकर देख सकते हैं।”
“बस ट्रीटमेंट दिया था?”
“हां वह भी बहुत मामूली, खून वगैरह साफ कर के दो चार टांके लगाये, बेंडेज किया, और टिटनस का इंजेक्शन दे दिया। किसी प्रकार के दर्द से वह इंकार कर रहा था, मगर कुछ दवाइयां मैंने फिर भी लिख दीं ये कहकर कि अगर बाद में तकलीफ महसूस हो तो वह उन्हें ले सकता था।”
“ये सब तो बहुत मामूली काम था, बड़ी हद आधा घंटा में निबट गया होगा, नहीं?”
“हां उससे ज्यादा का वक्त नहीं लगा था।”
“बावजूद इसके वह हॉस्पिटल में कई घंटों तक बना रहा, क्यों?”
“क्योंकि मैं फ्री था, इसलिए बहुत देर तक इसी जगह पर आमने सामने बैठे इधर उधर की बातें करते रहे थे। तब उसने मुझे ये भी बताया था कि आजमगढ़ के हालात जल्दी ही बहुत खराब हो जाने वाले थे। कहता था नये एसपी को खासतौर से उसे खत्म करने के लिए भेजा जा रहा था।”
“मतलब उसे एडवांस में उस बात की खबर थी?”
“हमें तो यही लगा था।”
“तो भी चार-पांच घंटा तो आप लोगों की बातचीत नहीं ही चली होगी?”
“नहीं, मेरे ख्याल से मलहम पट्टी के बाद वह बड़ी हद एक घंटा और रुका होगा यहां।”
“जबकि हॉस्पिटल से कई घंटे बाद बाहर जाता देखा गया था।”
“अगर सच में ऐसा हुआ था दरोगा जी तो समझ लीजिए मुझे उसकी कोई जानकारी नहीं है।”
“कोई अंदाजा कि यहां से निकलकर वह कहां गया होगा?”
“नहीं जानता, वैसे आजमगढ़ के अलावा और कहां जाता।”
पांडे को किसी भारी गड़बड़ी का एहसास बराबर हो रहा था, मगर वह गड़बड़ी क्या थी, ये उसकी समझ से बाहर था। उसे इस बात पर भी यकीन नहीं आ रहा था कि हाथ पर लगे किसी मामूली कट के कारण वह हॉस्पिटल पहुंच गया था। क्योंकि वैसी घटनायें तो उस जैसे लोगों की जिंदगी में घटित होती ही रहती हैं।
मगर डॉक्टर से जबरन कुछ कबूल करवा पाना उसके बूते से बाहर का काम था इसलिए उठकर खड़ा हो गया, “थैंक यू डॉक्टर साहब, अब चलते हैं हम।”
कहकर वह केबिन से बाहर निकला ही था कि डॉक्टर ने तुरंत अपना मोबाईल निकाला और अतीक अंसारी से हासिल उसका एक नया नंबर डॉयल कर दिया।
“कैसे हो चिंतामणी?”
“ठीक हैं अतीक भईया।”
“कोई खास बात?”
“एक दरोगा आया था यहां?”
“किसलिए?”
“आपके बारे में पूछताछ कर रहा था, परसों वाली रात के बारे में।”
“तुमने क्या बताया?”
“यही कि आप बहुत मामूली मेडिकल ट्रीटमेंट लेने के लिए आये थे हमारे पास। अब आपकी असल बीमारी के बारे में तो उसे नहीं बता सकता था न? - कहकर वह हौले से हंसा फिर बोला - उसके बाद दरोगा पूछने लगा कि क्या मुझे खबर है कि यहां से निकलकर आप कहां गये थे, होती तो भी नहीं बताते हम, लेकिन अभी तो मालूमे नहीं है। वैसे हैं कहां भईया आप?”
“अपने काम से काम रखो चिंतामणी, काहे कि जानकारी कभी कभी दुःख का कारण भी बन जाती है - कहकर उसने पूछा - नाम क्या था दरोगा का?”
“अनुराग पांडे, उसकी नेम प्लेट पर पढ़े थे हम।”
लाईन पर सन्नाटा छा गया।
“हैलो।” डॉक्टर बड़े बेसब्रे अंदाज में बोला।
“सुन रहे हैं।”
“हम तो किसी मुसीबत में नहीं पड़ेंगे न भईया?”
“काहे पड़ोगे, गलत क्या किया है तुमने?”
“किये तो कुछ नहीं हैं भईया, लेकिन दरोगा बता रहा था कि आप फरार चल रहे हैं, और उसे इस बात का भी शक है कि हम जानते हैं आप कहां है। ऐसे में कहीं पुलिस ने हमें गिरफ्तार कर लिया तो क्या होगा?”
“दरोगा की चिंता हमपर छोड़ दो, और गिरफ्तारी की नौबत आ जाये तो बेशक सच बोल देना, मगर तभी बोलना चिंतामणी जब उसके बिना काम बनता न दिखाई दे रहा हो, समझ गये?”
“जी भईया।”
तत्पश्चात दूसरी तरफ से कॉल डिस्कनैक्ट कर दी गयी।
चंगेज खान उस वक्त गोरखपुर में अपने भाई के घर में बैठा था, जब टीवी पर त्रिपाठी के मौत की खबर उन्हें देखने को मिली। दोनों भाई एकदम से सन्न रह गये।
“अतीकवा एकदम सही बोला था अकबर - चंगेज खान एक गहरी सांस खींचकर बोला - सुखवंत सिंह को पक्का हमारा सफाया करने के लिए ही भेजा गया है। इसलिए वक्त रहते इस एसपी का कोई इंतजाम करना बहुते जरूरी है।
“वो तो ये भी बोला था न कि सरकार अनल सिंह को आजमगढ़ की गद्दी सौंपने का फैसला कर चुकी है?”
“हां बोला तो था।”
“यानि त्रिपाठी के बाद एसपी की हिट लिस्ट में बस दो नाम रह गये हैं, एक तुम और दूसरा अतीक अंसारी, तो क्या अंसारी खुद को बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहा होगा?”
“मतलब?”
“अरे समझो भाई, वह हाथ पर हाथ धरकर तो बैठा नहीं होगा, काहे कि किसी के आगे झुकना या हार मानना उसने नहीं सीखा है।”
“कहना क्या चाहते हो?”
“कुछ दिनों के लिए अंडरग्राउंड हो जाओ, अभी तक जो सावधानियां अतीक के कारण बरतते आये हो, उसे कई गुना बढ़ा दो, और इंतजार करो कि अतीक अंसारी एसपी को खत्म कर दे, तब तुम्हारी मुसीबत खुद ब खुद दूर हो जायेगी, ऐसे में आगे बढ़कर पंगा लेने की क्या जरूरत है। जबकि अतीक यही चाहता है कि तुम आगे बढ़ो और कुछ कर गुजरो।”
“तुम्हें कैसे पता?”
“साफ तो दिखाई दे रहा, बस तुम आंखें बंद किये बैठे हो।”
“अकबर जो कहना है खोलकर कह, ये पहेली जैसी बातें हमारी समझ में नहीं आतीं।”
“देखो अतीक को जैसे ही पता लगा कि तुम तीनों को खत्म करने के लिए सरकार की तरफ से एक नया एसपी भेजा जा रहा है, उसने तुरंत तुम्हें और त्रिपाठी को इत्तिला कर दिया, अब सोचकर बताओ कि क्यों कर दिया, जबकि तुम दोनों के साथ उसकी दुश्मनी जगविदित बात है।”
“इसलिए कर दिया क्योंकि जानता था हमें उसकी फौरन खबर नहीं लगेगी। साथ में ये भी कहा था कि आपस में चाहे जितनी दुश्मनी सही लेकिन मुकाबला जब पुलिस से हो तो हम तीनों दोस्त हैं।”
“बुड़बक हो तुम।”
“वो कैसे?”
“अरे इतनी सी बात तुम्हारे भेजे में काहे नहीं आ रही कि असल में वह ये चाहता था कि खुद को बचाने के लिए तुम और त्रिपाठी किसी तरह एसपी रास्ते से हटा दो, या हटाने की कोशिश करो। आगे नतीजा चाहे जो भी होता, मतलब एसपी तुम्हारे हाथों मारा जाता या तुम दोनों एसपी के हाथों मारे जाते, फायदा तो उसका हर हाल में होकर रहना था।”
“ओह ऐसा तो हमने सोचा ही नहीं था अकबर।”
“जबकि फौरन सोचना चाहिए था। दुश्मन जब पुच पुच कर के बात करने लगे, तुम्हें अपना दोस्त और भाई तस्लीम करने लगे, तो तुरंत समझ जाना चाहिए कि वह तुम्हारे खिलाफ कोई जाल बुन रहा है। इसलिए हमारी बात मानों और कुछ दिनों के लिए गायब हो जाओ। आगे एसपी का जो करना होगा वह अतीक खुद कर लेगा, क्योंकि उसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं होगा उसके पास।”
“हम कुछ कहें भाईजान?” वहां मौजूद तीसरा शख्स अशरफ अहमद बोला जो चंगेज खान का भाई जैसा राईट हैंड था। उसके तमाम गुनाहों में शरीक था, जो उसके एक इशारे पर किसी की जान ले सकता था, तो अपनी जान दे भी सकता था।
“बोलो भाई हम क्या तुम्हारी जुबान पकड़कर बैठे हैं?”
“दाल में कुछ काला लग रहा है।”
“मतलब?”
“कहीं इस सबके पीछे अतीक का ही तो हाथ नहीं है?”
“कैसे हो सकता है? जबकि पुलिस ने उसके बाप को जेल भेज दिया है, और वह खुद गायब है। अगर उसकी कोई मिलीभगत होती तो आराम से अपनी हवेली में नहीं बैठा होता?”
“नहीं उस स्तर पर मिली भगत की बात हम नाहीं कर रहे हैं।”
“फिर?”
“क्या पता दोगलापन दिखा रहा हो? एक तरफ हमें सावधान रहने को कहा और दूसरी तरफ पुलिस को त्रिपाठी की खबर कर दी, वरना जिले में नये नये आये एसपी को भला क्या मालूम हो सकता था कि त्रिपाठी की रखैल कहां रहती है, या ये कि त्रिपाठी आज रात उससे मिलने जा रहा था।”
“उसे कैसे पता हो सकता है कि त्रिपाठी की रखैल का घर कहां था?”
“मऊ में कहीं रखे थे इतना तो हम भी जानते थे भाईजान।”
“लेकिन पक्का पता नहीं जानते थे।”
“लेकिन पता लगा लेना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था।”
“बेशक नहीं था अशरफ लेकिन हमें नहीं लगता कि त्रिपाठी की खबर अतीक ने पुलिस को दी होगी, काहे कि वह अपना बदला खुद लेने वालों में से है, जैसे कि हम हैं। क्या आज तक हमने अपने किसी दुश्मन को खत्म करने के लिए पुलिस का सहारा लिया? नहीं लिया न? जबकि चाहते तो ले बराबर सकते थे। हां अकबर का ये अंदाजा सही हो सकता है कि अतीक ने हमें एसपी के बारे में ये सोचकर चेतावनी दी थी कि अगर हम उसे खत्म करने में कामयाब हो गये, तो साथ ही साथ उसके सिर से भी मौत का खतरा हमेशा के लिए टल जायेगा।”
“यानि अतीक अंसारी गद्दार नहीं है?”
“गद्दार! - चंगेज खान ने जोर का ठहाका लगाया - वह हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है अशरफ, उसका बस चले तो हमें सुबह का सूरज न देखने दे। ऐसे आदमी से वफादारी या गद्दारी की उम्मीद क्या करना? फिर हम कोई उससे अलग थोड़े ही हैं। क्या हमें मौका मिलेगा तो हम अतीक की लाश गिराने से पीछे हट जायेंगे? लेकिन इतना हमें यकीन है कि वह पुलिस के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना साधने वालों में से नहीं है।”
“चलिए वही सही, लेकिन आगे क्या करना है?”
“अकबर की सलाह मानेंगे, मतलब कुछ दिनों के लिए गायब हो जायेंगे, काहे कि उसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।”
“बिहार क्यों नहीं निकल जाते?” अकबर ने पूछा।
“सोचते हैं, लेकिन गोरखपुर तो हमें फौरन छोड़ना पड़ेगा। हम नहीं चाहते कि हमारी वजह से तुमपर कोई आंच आये, इसलिए हम जा रहे हैं यहां से और आगे कुछ दिनों तक...”
“हमें मत बताओ।”
“क्यों?”
“क्योंकि हम नहीं चाहते कि तुम्हारा पता ठिकाना हमें मालूम हो, और जब मालूमे नहीं होगा तो पुलिस कितना भी जोर डालकर हमसे क्या उगलवा पायेगी।”
“ठीक है फिर निकलते हैं अब।” कहकर वह उठ खड़ा हुआ।
दोनों भाई गले लग कर मिले, फिर चंगेज खान अपने राईट हैंड अशरफ अहमद के साथ बाहर निकलकर वहां खड़ी फॉर्च्यूनर में सवार हो गया। तत्पश्चात ड्राईवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
रात बारह बजे अनुराग पांडे ने दोस्त की कार वापिस की, फिर वहीं खड़े होकर एक सिगरेट सुलगाया और लंबे लंबे कस लगाता पैदल अपने घर की तरफ चल पड़ा। तब तक सुनयना उसे दसियों बार फोन कर चुकी थी। और आखिरी कॉल में उसने बताया था कि एक आदमी उसे पूछता हुआ घर आया था, जो कहता था कि उसे एसपी साहब ने भेजा था, जो उससे मिलना चाहते थे। वह बात पांडे के गले से नीचे तो नहीं उतरी, लेकिन ये सोचकर ज्यादा दिमाग नहीं खपाया कि सुबह जनार्दन मिश्रा को फोन कर के दरयाफ्त कर लेगा। क्या पता उसी ने एसपी को उसके बारे में बता दिया हो।
मगर थोड़ी देर बाद जब वह गली में दाखिल होने ही लगा था, उसकी निगाह अपने घर से थोड़ा परे खड़ी एक बोलेरो पर पड़ी और वह जहां का तहां ठिठक गया। मन में खटका सा हुआ तो वहीं खड़े खड़े गाड़ी पर निगाह रखनी शुरू कर दी।
फिर जल्दी ही उसे इस बात का एहसास भी हो गया कि बोलेरो में चार लोग बैठे हुए थे। इतनी रात गये उनकी वहां मौजूदगी ने ही पांडे को समझा दिया कि वह उसी की राह देख रहे थे। और अगर सच में देख रहे थे तो अतीक अंसारी के आदमियों के अलावा और कोई नहीं हो सकते थे। फिर उसे एसपी के बुलावे की खबर देने घर पहुंचे शख्स में भी कोई भेद दिखाई देने लगा। जरूर वह ये जांचने पहुंचा था कि पांडे घर पर था या नहीं।
उसका दिमाग भन्नाकर रह गया। समर सिंह ने तो कहा था कि वह सीओ साहब से कहकर अतीक को उसके खिलाफ कोई कदम उठाने से रोक देगा, तो क्या उनकी बात नहीं हो पाई थी अभी।
‘नहीं ही हुई होगी क्योंकि अतीक अंसारी तो अंडरग्राउंड था।’
‘क्या पता किसी और वजह से खड़े हों?’
उसने सोचा, मगर उसका दिल नहीं माना।
फिर जैसे उसके शक को सही साबित करने के लिए ही एक आदमी गाड़ी से नीचे उतर आया। उतरकर गली किनारे बनी नाली तक गया और वहां खड़े होकर पेशाब करने के बाद वापिस जाकर गाड़ी में बैठ गया।
पांडे ने उसे साफ पहचाना, वह उन आदमियों में से एक था जिसने हाथ तोड़े जाते समय उसे जकड़कर रखा था। अब समस्या ये थी कि उनके रहते वह अपने घर नहीं जा सकता था। और डर इस बात का था कि इंतजार से आजिज आकर वह कमीने कहीं उसके बीवी बच्चों को न उठा ले जायें।
आखिरकार खुद को मन ही मन तौलते हुए उसने होलस्टर से सर्विस रिवाल्वर निकालकर पीठ पीछे किया और जमीन पर बैठकर धीरे धीरे गाड़ी की तरफ बढ़ने लगा।
अच्छी बात ये रही कि वह निर्विघ्न बोलेरो तक पहुंच गया और भीतर बैठे लोगों को उस बात का एहसास तक नहीं हुआ। फिर उसी तरह वह गाड़ी के दायें हिस्से में पहुंचा। दो लोग फ्रंट सीट पर बैठे थे जबकि बाकी के दो पिछली सीट पर, और खिड़कियां सारी की सारी खुली पड़ी थीं, ये बात वह पहले ही नोट कर चुका था।
अगले ही पल वह उठकर खड़ा हो गया। आगे बैठे लोग कुछ समझ पाने से पहले ही दुनिया छोड़ गये, पिछली सीट वालों ने हमले का एहसास होते ही अपनी अपनी गन निकालने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो सके, क्योंकि तभी दरोगा ने एक एक कर के उनको भी शूट कर दिया।
गोली की आवाज से पूरा मोहल्ला गूंज उठा था, इसलिए जल्दी ही लोग अपने अपने घरों से बाहर भी निकल आने वाले थे। नहीं भी निकलते तो खिड़कियों से झांकना तो अवश्यंभावी बात थी, इसलिए वक्त बिल्कुल नहीं था उसके पास।
उसने ड्राईविंग सीट पर मौजूद डेडबॉडी को पैसेंजर सीट पर पड़े लड़के के ऊपर धकेला, फिर उसके पैर भी उठाकर उस तरफ कर दिये। दिक्कतें बहुत आईं उसके सामने क्योंकि सारा काम एक ही हाथ से करना पड़ रहा था, मगर आखिरकार कामयाब हो गया।
अगले ही पल वह बोलेरो की ड्राईविंग सीट पर सवार हुआ और उसे बैक करता हुआ गली से निकाल ले गया। तब तक आस-पास के घरों में जाग हो चुकी थी, लोगों ने खिड़की दरवाजे खोलकर बाहर झांकना शुरू कर दिया था। ऐसे में ये कहना मुश्किल था कि किसी ने उसे देखा था या नहीं, और देखा था तो पहचान पाया था या नहीं।
करीब पांच किलोमीटर आगे जाकर उसने गाड़ी रोकी, मर चुके लोगों में से एक का शर्ट उतारा और उसे फाड़कर एक लंबी डोरी तैयार करने के बाद डीजल के टैंक में धकेलना शुरू किया, मगर कामयाब नहीं हो पा रहा था। तब उसने मोबाईल का टार्च जलाकर इधर-उधर देखा और नीचे पड़ी एक पतली सी लकड़ी उठाकर उसके जरिये अपना काम पूरा किया। अब डोरी कम से कम डेढ़ फीट अंदर पहुंच चुकी थी। तत्पश्चात उसने जेब से लाईटर निकालकर बाहर लटक रही डोरी को आग लगाई और वहां से भाग खड़ा हुआ।
थोड़ी देर बाद अपने पीठ पीछे उसे जोर का धमाका सुनाई दिया, आग की लपटें आसमान को छूतीं जान पड़ीं, फिर सबकुछ शांत होता चला गया। मगर पांडे आगे बढ़ता रहा।
करीब दो किलोमीटर पैदल चलते रहने के बाद एक टैंपो सड़क से गुजरता दिखाई दिया तो उसने हाथ देकर रुकवाया और भीतर बैठकर अपने घर की तरफ चल पड़ा। फिर गली के बाहर टैंपो से उतरकर किराया चुकता करने के बाद गली में दाखिल हुआ तो वहां उसे मजमा सा लगा दिखाई दिया।
सुनयना भी बाहर ही खड़ी थी।
“क्या हो गया?” उसने पूछा।
“पता नहीं शायद गोली चली थी।”
“कहां?”
“मुझे क्या पता, लेकिन तुम कहां रह गये थे?”
“बाद में बतायेंगे, अभी भीतर चलकर खाने पीने का इंतजाम कर।”
“जहां गये थे वहां खाना नहीं मिला?”
“नहीं मिला।”
“जबकि हम सोचे कि हमारी सौत के पास गये होगे।” कहती हुई वह किचन में जा घुसी।
“पागल हो गयी है?”
“आदमी घर से बहाना बनाकर तभी कहीं जाता है जब दूसरी रख ली हो, हम क्या इतना भी नहीं समझते।”
“अरे मेरी हालत तो देख कम्बख्त, ऐसे में तेरी सौत के पास जाकर भी मैं क्या कर लेता?”
“यानि पाल पक्का ली है कोई?”
“अब खाना लायेगी या नहीं?” कहते हुए पांडे बोतल खोलकर बैठ गया।
“काहे, दो रोटी उस छिनाल से नहीं बनवा सकते थे?”
“नहीं बनवा सकते थे, क्योंकि गैस चूल्हे से एलर्जी है उसे, और नाजुक इतनी है कि रोटी बेलने से उसकी कलाई में मोच पड़ जाती है। आंटा गूंथती है तो कमर दर्द होने लगता है, और मसालों की खुशबू से जुखाम हो जाता है।”
“फिर तो तुम्हारे साथ सोते वक्त मरिये जाती होगी बेचारी।”
“नहीं, एक वही तो काम है जो उसे बहुत अच्छे से करना आता है।”
सुनकर सुनयना दबे कदमों से उसके पीछे पहुंची और हाथ में थमें बेलन को हल्के हाथों से उसकी पीठ पर दे मारा।
“अरे लग रही है।”
“तो हमारा जिया काहे जलाते हो?”
“शुरूआत तो तूने की थी।”
“रोटी कितनी बनायें?”
“चार, नहीं पांच बना दे।”
सुनकर वह वापिस किचन में जा घुसी।
दरोगा ने गिलास से पहला घूंट भरा।
अतीक के आदमियों का उसके घर पर घात लगाना कोई आम बात नहीं थी। इसलिए पांडे का ध्यान उधर से हट ही नहीं रहा था। आगे उस घटना की कई वजहें उसे सूझीं मगर उनमें से कोई एक भी उसे मुतमईन नहीं कर पाई। फिर उसका ध्यान डॉक्टर चिंतामणी की तरफ चला गया।
‘क्या उसी ने अतीक को फोन कर के उसके बारे में बता दिया था?’
‘जरूर यही बात थी।’
वह ख्याल दिमाग में आते ही वह सिर से पांव तक कांप कर रह गया।
ये सोचकर पछताने लगा कि खामख्वाह उसके चार आदमियों को मार गिराया था, जबकि अतीक से तो वह ये कहकर भी बच सकता था कि लखनऊ वह एसपी साहब के भेजे गया था, उसे भला क्या पता लगता कि वह एसपी की टीम में नहीं था।
फिर थोड़ा और सोच विचार किया तो जैसे उसे यकीन ही आ गया कि वह चारों लोग बस उसे अतीक के पास लिवा ले जाने के लिए आये थे, ना कि उनका इरादा उसे खत्म कर देने का था। और अतीक उसके लखनऊ जाने वाली बात पर चाहे कितना भी गुस्सा क्यों न करता, ये सुनने के बाद कि वह अपने अफसर का हुक्म बजा रहा था, उसने हर हाल में शांत हो ही जाना था।
‘हे भगवान! ये मैंने क्या कर डाला?’
अब वह ये सोचकर डर गया कि चारों आदमी जब वापिस हवेली नहीं पहुंचेंगे तो अतीक या कलंकी समझ जायेंगे कि उनके साथ कोई हादसा हो गया था, फिर जली हुई बोलेरो से बाकी की कहानी भी उन लोगों को समझ में आ ही जानी थी, यानि अपनी कब्र वह अपने ही हाथों खोद बैठा था।
तभी सुनयना ने खाना लगा दिया। निवाले बड़ी मुश्किल से वह अपने गले से नीचे उतार पा रहा था, मगर खाना खत्म किये बिना नहीं उठा। फिर उसने सुनयना को तैयार होने के लिए कह दिया।
“किस बात की तैयारी करनी है जी?”
“तू अपने मायके जा रही है।”
“किसलिए?”
“सवाल मत कर।”
“बात क्या है जी, साफ साफ क्यों नहीं बताते?”
“यहां तू और बच्चे सेफ नहीं हैं।”
“अतीक के कारण?”
“हां।”
“तो कल सुबह निकल जायेंगे।”
“नहीं अभी जाना होगा, दस मिनट में तैयार हो जा। बस जरूरी सामान एक बैग में रख ले, बाकी का मैं बाद में पहुंचा दूंगा।”
“हमें कुछ ठीक नहीं लग रहा जी।”
“जी की बच्ची जो कहा है कर।”
“आप साथ चलोगे न?”
“बस अड्डे तक।”
“ठीक है हम चले जायेंगे, लेकिन एक बात बताओ।”
“क्या?”
“हमारा मायका कहां है, ये बात क्या किसी से छिपी हुई है?”
पांडे का दिमाग भिन्ना गया, उस बारे में तो उसने सोचा ही नहीं था।
“मतलब जो खतरा यहां है वही गोरखपुर में भी है। बल्कि हम वहां हुए तो हमारे साथ-साथ माई-बाबू और भईया भी अपनी जान से हाथ धो बैठेंगे। नहीं हम इतने लोगों के मौत की वजह नहीं बनना चाहते, इसलिए यहीं रहेंगे। भाग्य में जो बदा होगा वह होकर रहेगा।”
“हमारे भाग्य में बुरा कुछ नहीं बदा है, इसलिए खामख्वाह की बातें सोचना बंद कर।”
“अगर नहीं बदा तो डर काहे रहे हैं?”
“क्योंकि कोशिश करना इंसान की फितरत होती है।”
“हम मायके तो नहीं जायेंगे।”
“तेरी बात सुनने के बाद तो मैं खुद तुझे वहां नहीं भेजने वाला।”
“फिर?”
“तू तैयार तो हो, मैं कुछ सोचता हूं।”
जवाब में वह बड़े ही भारी मन से बैग पैक करने में जुट गयी, जबकि दोनों बच्चे अभी भी सो रहे थे।
बहुत सोच विचार के बाद आखिरकार पांडे ने फैसला किया कि दोनों को कुछ दिनों के लिए अपनी बहन के पास दिल्ली भेज दे। हालांकि उसकी बहन के बारे में भी बहुतेरे लोगों को पता था, लेकिन यूपी के मुकाबले दिल्ली पहुंचकर उसकी फेमिली को नुकसान पहुंचाना मुश्किल काम था। कोई कोशिश भी करता तो कुछ दिन तो यही जानने में लग जाते कि उसका परिवार गया कहां था।
मगर टिकट?
खड़े पैर उसका इंतजाम भला कैसे मुमकिन था?
उसने मोबाईल पर दिल्ली की ट्रेन का शेड्यूल चेक किया तो पाया कि आजमगढ़ से कोई ट्रेन नहीं थी लेकिन जौनपुर से सियालदह सुपरफास्ट एक्सप्रेस में वह अपने परिवार को बैठा सकता था, जो कि आठ घंटा देरी से चलती होने के कारण, सवा तीन बजे के करीब जौनपुर पहुंचने वाली थी।
आजमगढ़ से वहां की दूरी करीब सत्तर किलोमीटर थी, और उसके एक हाथ में प्लॉस्टर बंधा था। मगर उसके पास और कोई रास्ता नहीं था, इसलिए वह बाईक पर बैठकर ही वहां से रवाना हो गया। एक बच्चे को उसने आगे टंकी के पास बैठाया, दूसरा बीच में बैठा और सुनयना सबसे पीछे बैग गोद में रखकर बैठ गयी।
रात का वक्त होने के कारण सड़क एकदम खाली थी, इसलिए सत्तर किलोमीटर के उस सफर में पांडे को डेढ़ घंटे से ज्यादा का वक्त नहीं लगा।
ढाई बजे वह जौनपुर स्टेशन पर था।
बाईक को बाहर खड़ी कर के वह बीवी बच्चों के साथ अंदर दाखिल हुआ और दिल्ली की एक जनरल टिकट खरीदकर प्लेटफॉर्म पर उस जगह जाकर खड़ा हो गया जहां एसी कोच लगना था। ट्रेन तीन बीस पर वहां आ खड़ी हुई। दरोगा व्याकुल भाव से किसी टीटी को इधर उधर तलाशने लगा, जो आखिरकार उसे मिल ही गया।
“आप इसी कोच में चल रहे हैं?” पांडे ने पूछा।
“जी हां।”
“दिल्ली की एक सवारी है सर, मदद कर दीजिए।”
“बहुत भीड़ है भाई।”
जवाब में पांडे ने पांच सौ के चार नोट उसकी मुट्ठी में जबरन ठूंस दिये, फिर बोला, “सोने की जगह ना भी मिली तो कोई बात नहीं, बस बैठने का इंतजाम कर दीजिएगा, मेहरबानी होगी।”
टीटी ने सहमति में सिर हिला दिया।
कुछ देर बाद ट्रेन जब ट्रेन ने धीरे धीरे खिसकना शुरू किया, और आखिरकार उसकी आंखों से ओझल हो गयी, तब वह बाहर निकला और अपनी बाईक पर सवार हो गया। इस फैसले के साथ कि आगे उसने आर पार की लड़ाई लड़नी थी, इसलिए लड़नी थी क्योंकि अतीक अंसारी के कहर से खुद को, अपने परिवार को, बचाना नामुमकिन दिखाई देने लगा था।
डर की एक खास बात ये होती है कि पराकाष्ठा पर पहुंचकर वह अपना वजूद खो बैठता है। हम किसी को डरा सकते हैं, बहुत ज्यादा डरा सकते हैं। मगर हमेशा डराते नहीं रह सकते, तब तो हरगिज भी नहीं जब डरे हुए इंसान को मौत के कगार पर ले जाकर खड़ा कर दिया जाये।
पांडे की दशा भी इस वक्त कुछ कुछ वैसी ही हो रही थी। खौफ के साये में जीते हुए उसने अपनी मौत को निश्चित जानकर पलटवार करने का फैसला कर लिया। कर पाता या नहीं वह बाद की बात थी, मगर कोशिश उसने कर के रहना था, क्योंकि दूसरा कोई रास्ता उसके सामने नहीं था।
आधी रात बीच चुकने के बाद भी जब पांडे की फिराक में गये चारों आदमियों में से किसी का भी फोन कलंकी के पास नहीं पहुंचा तो उसे थोड़ी हैरानी सी हुई, अलबत्ता उनके किसी बुरे अंजाम की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता था।
आखिरकार उसने रतन को फोन लगाया।
मोबाईल ऑफ!
फिर उसने एक एक कर के बाकी तीनों के नंबर भी ट्राई कर लिए, मगर कांटेक्ट किसी से नहीं हुआ, जो कि उसके लिए बेहद आश्चर्य की बात थी। तब उसने खुद पांडे के घर जाने का फैसला किया और दो आदमियों के लेकर उसी वक्त एक बोलेरो में सवार हो गया।
रास्ते में एक जगह पुलिस की कई जीपें खड़ी देखकर उसने अपनी गाड़ी रुकवाई फिर करीब जाकर देखा तो वहां एक जली हुई बोलेरो खड़ी थी, जो तकरीबन खाक हो चुकी थी, मगर उसका आगे का बंपर वाला हिस्सा इतना सही सलामत जरूर था, कि उसे गाड़ी का नंबर दिखाई दे गया।
हवेली की गाड़ी पहचानकर वह एकदम से सन्न रह गया। फिर एक सिपाही से पूछताछ की तो पता चला कि भीतर चार आदमी भी मौजूद थे जो गाड़ी में आग लगने की वजह से जलकर खाक हो गये, इतनी बुरी तरह कि उनमें से किसी का भी चेहरा शिनाख्त के काबिल नहीं बचा था।
“आग कैसे लग गयी?” वह हड़बड़ाया सा बोला।
“हमें क्या पता कलंकी भईया कि कैसे लग गयी। साहब लोग जांच कर रहे हैं, अभी थोड़ी देर में फॉरेंसिक टीम भी आने वाली है, वही लोग बता पायेंगे कि असल में क्या हुआ था - कहकर उसने पूछा - आप क्यों जानना चाहते हैं?”
“क्योंकि गाड़ी हमारी है राम आसरे।”
“क्या कह रहे हैं?”
“सच कह रहे हैं, इसलिए भीतर आदमी भी हमारे ही होंगे।”
“फिर तो आग एक्सीडेंटलिए लगी होगी भईया, भला आप लोगों की गाड़ी जलाने की हिम्मत कौन कर सकता है।”
“हमें भी यही लगता है, कल रतन नाम के एक लड़के ने डीजल का टैंक लीक होने की बात भी कही थी, अगर बाद में उसने वैल्डिंग वगैरह करा ली हो तो नहीं कह सकते, वरना आग उसके कारण भी लगी हो सकती है।”
“साहब लोगों को बता काहे नहीं देते?”
“क्या जरूरत है, करने दो उन्हें अपना काम।”
“जैसी आपकी मर्जी।”
कलंकी वापिस अपनी गाड़ी में जा बैठा।
क्या आग इत्तेफाकन लग गयी थी?
या उसमें पांडे का कोई रोल था?
निष्कर्ष निकालना आसान काम नहीं था, क्योंकि पांडे से वह इतनी बहादुरी की उम्मीद नहीं रखता था कि वह गाड़ी समेत उसके चार आदमियों को काबू में करता और उन्हें आग के हवाले कर देता।
इत्तेफाक ही रहा होगा।
डीजल लीक होने वाली बात उसने सिपाही से यूं ही कह दी थी, ये सोचकर कि क्या पता उसी बहाने पुलिस उस घटना को एक्सीडेंट मान ले।
अतीक अंसारी की नाक बहुत ऊंची थी, फिर उसके धंधे के लिए दहशत का बाजार गर्म कर के रखना भी बेहद जरूरी था, इसलिए जब भी उनका कोई आदमी मारा जाता था, तो 99 फीसदी मामलों में वे लोग लाशें गायब कर देते थे, ताकि किसी को ये न पता लगता कि आजमगढ़ में किसी के अंदर इतना जिगरा भी था कि वह अतीक के आदमियों को खत्म कर सकता था।
दस मिनट बाद सब लोग पांडे के घर पहुंचे तो वहां ताला लटका देखकर कलंकी का शक पहले से ज्यादा गहरा उठा। पांडे ना सही उसकी फेमिली ने तो वहां होना ही चाहिए था।
यानि कोई न कोई गड़बड़ बराबर थी।
उसने अपने आदमियों को हुक्म दिया कि पास पड़ोस में रहते कुछ लोगों को उसके सामने पेश करें। रात के एक बजे यूं किसी का दरवाजा खटखटाना सरासर नाजायज बात ही मानी जायेगी, मगर कलंकी को वैसी बातों की खाक परवाह नहीं थी।
थोड़ी देर बाद अलग अलग घरों से चार लोगों को निकालकर उसके सामने खड़ा कर दिया गया। जिनके पीछे पीछे उनका पूरा परिवार गली में आ खड़ा हुआ।
“क्या हो गया कलंकी भईया?” एक ने पूछा।
“यही तो हम तुमसे पूछ रहे हैं, बताओ क्या हुआ था यहां?”
“हम समझे नहीं भईया।”
“भोस...के हम क्या अंग्रेजी बोल रहे हैं जो तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा? एक सेकेंड में जवाब दो कि यहां घंटा दो घंटा पहले क्या घटित हुआ था, वरना सबके पिछवाड़े में बुलेट घुसेड़ देंगे हम।”
“ग..गोली चली थी।” एक आदमी डरता डरता बोला।
“कितने बजे?”
“बारह से थोड़ा ऊपर का वक्त रहा होगा।”
“कितनी गोलियां चली थीं?”
“हमारे ख्याल से तीन।”
“नहीं गोली चलने की आवाज हम चार बार सुने थे।” दूसरे आदमी ने बताया।
“किसने चलाई थी?”
“मां कसम भईया हम नहीं जानते।”
“ससुर के तुम्हारी गली में चार गोलियां चल गयीं, और तुमने बाहर निकलकर देखा भी नहीं कि किसने चलाई थी?”
“यहां अंधेरा था भईया इसलिए खिड़की से झांकने के बाद भी कोई दिखाई नहीं दिया। हां एक बोलेरो को बैक होते हम बराबर देखे थे, ऊ भी गोली चलने के तुरंते बाद।”
“और क्या देखा?”
“कुछ नहीं देखा भईया, हम तो इस बात की भी गारंटी नहीं कर सकते कि गोली बोलेरो वालों ने चलाई थी, क्योंकि ऊ तो बस हमें बैक होती ही दिखाई पड़ी थी।”
“दरोगा अनुराग पांडे कहां हैं?”
“घर पर ही होंगे, रात को और कहां जायेंगे।”
“वहां तो ताला लगा है।”
“फिर तो हम नहीं बता सकते भईया, काहे कि गोली चलने के करीब बीस मिनट बाद दरोगा जी को घर लौटते हम अपनी आंखों से देखे थे। फिर गेट के बाहर खड़े होकर वह अपनी मेहरारू से दो चार सवाल किये और भीतर चले गये। उसके बाद वह कब निकले, कहां गये, हम नहीं जानते, क्योंकि उनके अंदर चले जाने के दो चार मिनट बाद यहां खड़े सब लोग, हम भी, अपने घर में जा घुसे थे।”
माजरा अब धीरे धीरे कलंकी की समझ में आने लगा था। मगर इस बात पर उसका ऐतबार फिर भी नहीं बन रहा था कि जो किया पांडे ने किया, क्योंकि उसके हाथ पर तो प्लॉस्टर चढ़ा हुआ था। कैसे वह उसके चार होशियार आदमियों को खत्म करने में कामयाब हो सकता था, और किसी तरह हो भी गया था तो ऐसा क्योंकर मुमकिन हुआ कि जवाब में उसके लड़कों ने एक गोली तक नहीं चलाई थी?
“वापिस जली हुई गाड़ी के पास चलो।” कहकर वह बोलेरो की पिछली सीट पर सवार हो गया।
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