अगले दिन सुबह लगभग साढे नौ बजे सुनील दफ्तर के लिये कोठी से बाहर निकल आया ।
पिछली रात इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल के जाने के बाद घर में बड़ा सस्पैंस भरा सन्नाटा छाया था । रत्ना, आरती और हरीश संदिग्ध निगाहों से सुनील को देखते रहे थे लेकिन किसी ने उससे कोई प्रश्न नहीं किया था।
कोठी के गेट के पास उसे हरीश मिल गया ।
“मार्निंग ।” - हरीश बोला ।
“मार्निंग ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“यह सुबह सवेरे कहां चले जाते हो तुम ? पिछले आठ दिनों से तुम यहां हो और मैं देख रहा हूं कि रविवार को छोड़ कर हर रोज तुम सुबह दस बजे के करीब निकल जाते हो और शाम को लौटते हो ?”
“यहां बैठकर भी क्या करूं ?” - सुनील बोला - “कोई कम्पनी तो है नहीं । यूं ही कुछ देर घूमता रहता हूं, फिर थोड़ा समय लायब्रेरी में गुजारता हूं, फिर कोई पिक्चर देखने चला जाता हूं, तब तक शाम हो जाती है घर लौट आता हूं ।”
“और ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में बिल्कुल नहीं जाते ?” - हरीश ने धीरे से पूछा ।
सुनील एकदम चौंक पड़ा लेकिन फिर संयत स्वर से बोला - “हां, कभी-कभार पुरानी फाइलें पढने के लिए वहां भी चला जाता हूं ।”
“लेकिन तुम तो वहां रोज जाते हो ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - सुनील उसे घूरता हुआ बोला ।
“मैंने कई बार तुम्हारा पीछा किया है ।” - वह बड़े इत्मीनान से बोला।
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे तुम कोई भारी फ्राड मालूम होते हो । भंडारी साहब किसी विशेष कारणवश ही तुम्हें कोठी में लाये हैं । तुम उनके दोस्त के लड़के हो, यह तो एक स्टण्ट है जिसकी सहायता से भंडारी साहब तुम्हारी वास्तविकता पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं । मेरे ख्याल से तो तुम कोई जासूस हो ।”
“अच्छा !” - सुनील यूं बोला जैसे उसे कोई नई बात मालूम हो गई हो।
“हां, और मैं इस बात कि पुष्टि भी कर के छोड़ूंगा ।”
“कैसे ?”
“तुम देखते जाओ ।”
“हरीश ।” - सुनील प्यार भरे स्वर से बोला - “तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है ?”
“अच्छा खासा स्वस्थ हूं, क्या हुआ है मुझे ?”
“क्या तुम चाहते हो इतना अच्छा खासा स्वास्थ्य होने के वावजूद भी दस पन्द्रह दिन के लिये तुम अस्पताल में पहुंच जाओ ?”
“कौन भेजेगा मुझे अस्पताल ?”
“मैं ।” - सुनील उसकी नाक के आगे घूंसा हिलाता हुआ बोला - “अगर तुम मेरा पीछा करने से बाज नहीं आओगे तो मैं उधेड़ रख दूंगा तुम्हें । समझे ?”
“ऐसे ही रुस्तम हो तुम ?”
“नमूना दिखाऊं तुम्हें ?” - सुनील उसे घूरता हुआ बोला ।
हरीश क्षण भर कसमसाया और फिर बोला - “मेरी एक बात सुनो।”
“सुनाओ ।”
“भंडारी साहब तुम्हें यहां लाये हैं और आरती से तुम्हारी बहुत बनती है । बकौल तुम्हारे तुम उसे पटा रहे हो । ठीक है न ?”
“तुम बात करो अपनी ।”
“आरती ने रत्ना का जीना दूभर कर रखा है । जब से भंडारी साहब रत्ना से शादी करके उसे घर लाये हैं, तभी से आरती उससे ऐसा व्यवहार करती है जैसे रत्ना के विरुद्ध भंडारी साहब के कान भरती रहती है । परिणाम यह होता है कि भंडारी साहब रत्ना का ख्याल नहीं करते । रत्ना मन ही मन कुढती रहती है । उसकी सेहत खराब हो गई है । एकाएक उसका ब्लड प्रेशर बढ जाता है । ये सब बातें उनकी जान ले सकती हैं और इन्हें पैदा करने वाली है आरती ।”
“यह सब तुम मुझे क्यों बता रहे हो ?”
“क्योंकि आरती से तुम्हारी अच्छी खासी दोस्ती है ।” - हरीश दोस्ती शब्द पर विशेष जोर देता हुआ बोला ।
“फिर ?”
“और रत्ना आरती का कोई अहित नहीं चाहती है ।”
सुनील विचित्र दृष्टि से उसका मुंह देखता रहा ।
“नहीं समझे ?” - हरीश बोला ।
“नहीं ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“मैंने आरती को हत्या के समय इम्पीरियल होटल के पास देखा था, यह बात मैंने इन्स्पेक्टर को नहीं बताई है । यह बात अभी तक मैंने केवल रत्ना को बताई है । रत्ना के जबान खोलने भर की देर होगी और आरती हत्या के मामले में फंस जायेगी । मैं इस बात का प्रमुख गवाह होऊंगा कि आरती उस रात को इम्पीरियल होटल के आस-पास थी । मैंने कालू नाम के उस टैक्सी ड्राइवर को भी खोज निकाला है जिसकी टैक्सी पर आरती इम्पीरियल होटल गई थी । मैं यह भी जानता हूं कि आरती को रोशनलाल ब्लैकमेल कर रहा था और वह उसे काफी धन दे भी चुकी थी । क्या यह सारी बातें आरती को फंसा देने के लिये काफी नहीं हैं ?”
“बहुत काफी हैं, लेकिन तुम इतना जानते कैसे हो ?”
“बस, जानता हूं ।” - वह लापरवाही से बोला ।
“तुम मुझ से क्या चाहते हो ?”
“मैं तुमसे यह चाहता हूं कि जब अगली बार आरती रत्ना के बारे में कोई जहर उगलने लगे तो तुम उसे समझा देना कि रत्ना उसका बेड़ा गर्क कर सकती है । अभी तक जो उसने अपनी जुबान बन्द रखी है, वह केवल इसलिये कि वह अपने पति का कोई अहित नहीं चाहती । अगर आरती पर कोई आंच आती है तो भंडारी साहब की भी तो भारी बदनामी होती है ।”
और वह लम्बे डग भरता हुआ कोठी के भीतर की ओर चल दिया ।
सुनील कुछ क्षण वहीं खड़ा रहा, फिर उसने अपने अपने सिर को एक झटका दिया और कोठी से बाहर निकल कर सड़क पर आ गया ।
वह टैक्सी स्टैंड की ओर चल दिया ।
सुनील अभी पन्द्रह बीस कदम ही चला था कि उसे अपने पीछे से एक आवाज सुनाई दी - “मिस्टर !”
सुनील रुक गया । उसने घूर कर देखा, एक लड़की उसकी ओर आ रही थी ।
“पहचाना मुझे, मिस्टर लक्ष्मीनारायण !” - वह समीप आकर बोली ।
सुनील ने देखा वह होटल इम्पीरियल की रिसेप्शनिस्ट सरिता थी ।
“नहीं ।” - वह बोला ।
“तुमने मुझे इम्पीरियल होटल में सौ रुपये की सरकारी सहयाता दी थी ।”
“मुझे याद नहीं ।” - सुनील बोला ।
“ऐसे अनजान बनने से काम नहीं चलेगा, माई डियर चम ।” - वह उत्तेजक स्वर से बोली - “बड़ी मुश्किल में फंस जाओगे ।”
“तुम चाहती क्या हो ?”
“यही तो बताने आई हूं । पहले तुम मुझे पहचानो तो सही ।”
“पहचान लिया । तुम सरिता हो । अब बोलो ।”
“हाय ! तुम तो मेरा नाम भी जानते हो ।”
“मजाक छोड़ो ।”
“तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे ।”
“वहां क्या होगा ?”
“सौदा ।”
“कैसा सौदा ?”
“यह अभी नहीं बताया जा सकता ।”
“अगर मैं न चलूं तो ?”
“तो मैं अभी हल्ला मचा दूंगी कि परसों इम्पीरियल होटल में तुम ही ने रोशनलाल की हत्या की है ।”
“चलो ।” - सुनील एकदम बोला ।
वह टैक्सी स्टैंड पर आ गए ।
तीन चार ड्राइवर बैंच पर बैठे हुये थे । उनमें वह सरदार भी था जो परसों सुनील को इम्पीरियल होटल छोड़ कर आया था ।
उसने एक भरपूर नजर सरिता पर डाली और फिर बोला - “बाऊ जी महाराज, सुलह हो गई ?”
“हां, सरदार जी ।” - सुनील बोला ।
“चलो चंगा होआ ।” - सरदार जी सन्तुष्ट स्वर से बोले - “आगे वी वाह गुरु भला करेगा । बाऊ जी जनानी नूं काबू रखना मर्द दे हथ विच होंदा है । मर्द गलती न करे तो जनानी हथ से निकल नहीं सकती ।”
“आगे से ख्याल रखूंगा, सरदार जी ।” - सुनील स्थिर स्वर में बोला - “नम्बर किसका है ?”
“चल ओये, कालू ।” - सरदार जी अपनी बगल में बैठे एक युवक की पीठ पर दोहत्थड़ जमाकर बोले - “अपने बाऊ जी नूं जित्थे कहते हैं छड़ के आ ।”
कालू उठा और उसने एक टैक्सी की ओर संकेत कर दिया ।
कालू ड्राइविंग सीट पर बैठता हुआ बोला - “कहां चलूं साहब ?”
सुनील ने सरिता की ओर देखा ।
“हर्नबी रोड ।” - सरिता बोली ।
गाड़ी के सड़के पर आते ही सुनील ने कालू से पूछा - “परसों रात को तुम जिस लड़की को इम्पीरियल होटल छोड़ कर आये थे तुम उसे दोबारा देखो तो पहचान लोगे ?”
“हां ।”
“यही ड्राइवर तुम्हें परसों इम्पीरियल होटल लेकर गया था ।” - सुनील सरिता से बोला ।
“लेकिन मैं...” - सरिता ने बोलने का उपक्रम किया । लेकिन उसी समय सुनील ने उसका पांव दबा दिया ।
सरिता विस्मय से सुनील का मुंह देखने लगी ।
कालू बोला - “यह तो वह बीबी जी नहीं थी, साहब ।”
सुनील एकदम हंस पड़ा ।
“वाह, मास्टर ।” - वह हंसता हुआ बोला - “तुम तो कहते थे कि तुम उसे फौरन पहचान लोगे ।”
“आपका मतलब है कि इन्हें ही मैं परसों इम्पीरियल होटल छोड़ कर आया था ?”
“और क्या ?”
“अच्छा, फिर मेरे से ही कोई गलती हुई होगी ।”
“अन्धेरे में तुम सूरत ठीक से देख नहीं पाये होगे ।”
“हो सकता है ।” - कालू बोला और फिर उसने रियर व्यू मिरर में से एक भरपूर दृष्टि सरिता पर डाली ।
सुनील फिर नहीं बोला ।
हर्नबी रोड पर एक स्थान पर सरिता ने टैक्सी रुकवा दी ।
सुनील ने बिल चुका दिया ।
“आओ ।” - सरिता बोला और मुख्य सड़क से उतर कर दो इलाकों के बीच में बनी हुई एक गली की ओर अग्रसर हुई ।
“तुमने मेरा पता कैसे लगाया ?” - सुनील ने उसके साथ चलते हुये कहा ।
“उस टेलीफोन नम्बर द्वारा जो पुलिस को मिला है । पुलिस ने उस नम्बर के बारे में आपरेटर से पूछताछ की थी । उस समय मैं पास ही खड़ी हुई थी । नम्बर मैंने भी सुना है और पुलिस के जाते ही मैंने एक डायरेक्ट लाइन से उस नम्बर पर फोन किया और कहा कि मैं टेलीफोन एक्सचेंज से बोल रही हूं और जानना चाहती हूं कि वह नम्बर किसके नाम है । दूसरी ओर से किसी ने बताया कि नम्बर किसी पी एन भंडारी के नाम है । फिर मैंने डायरेक्टरी में पी एन भण्डारी का पता देख लिया । शंकरदास रोड का । शाम को मैं वहां पहुंच गई और कई घण्टे उस कोठी के सामने खड़ी झक मारती रही । फिर मैंने तुम्हें उस कोठी में घुसते देखा । उस रात वाली लड़की को भी मैंने उस कोठी में देखा था जिसका पीछा करते तुम होटल आये थे । फिर मैं वहां से वापिस आ गई । आज सुबह सवेरे मैं फिर वहां पहुंच गई और तुम्हारे कोठी से निकलते ही मैंने तुम्हें दबोच लिया ।”
“बहुत होशियार हो तुम ।” - सुनील प्रशंसा पूर्ण स्वर से बोला ।
“थैंक यू ।”
उसी समय सरिता एक इमारत में घुस गई । सुनील ने देखा, नम्बर था, डी पैंतालीस ।
दूसरी मंजिल पर आकर सरिता ने चाबी लगा कर द्वार खोला ।
“प्लीज कम इन ।” - वह बोली ।
सुनील ने भीतर जाकर देखा, वह दो कमरों का साफ सुथरा फ्लैट था ।
“यहां तुम अकेली रहती हो ?” - सुनील कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।
“नहीं एक लड़की और है ।”
सरिता सुनील के सामने बैठ गई और गम्भीर स्वर से बोली - “निकट भविष्य में तुम्हारे साथ मेरे सम्बन्ध स्थापित हेने वाले हैं ।”
“कैसे ?”
“क्योंकि मैं जानती हूं जो लड़की परसों रात होटल में रोशनलाल से मिलने आई थी और जिसका पीछा करते हुए तुम होटल में आए थे वह आरती ही है ।”
“आरती कौन ?” - सुनील ने भोलेपन से पूछा ।
“जिसका पीछा करते हुए परसों रात तुम होटल में आए थे ।”
“मैं किसी लड़की का पीछा करता हुआ होटल में नहीं आया था । मैं तो रोशनलाल से मिलने आया था ।”
“मेरे से उड़ने की कोशिश मत करो, मिस्टर ।” - वह कठोर स्वर से बोली - “मैं जानती हूं जो लड़की होटल में आई थी, उसका नाम आरती है और वह दो - शंकर दास रोड पर रहती है । मैंने वहां किसी को उसे आरती के नाम से पुकारते सुना था । वहीं तुम रहते हो तो वह तुम्हारी पत्नी है या फिर बहन है । रोशनलाल आरती को ब्लैकमेल कर रहा था । तुमने उसे बचाने के लिए रोशनलाल की हत्या कर दी है ।”
“पागल हो गई हो क्या ? मैंने हत्या नहीं की है ।”
“यह बात तुम पुलिस को समझाना । उन्हें उस आकर्षक नवयुवक की बहुत तलाश है जिसने उस रात चार सौ तैंतीस नम्बर कमरा किराये पर लिया था और हत्या के बाद यूं गायब हो गया था जैसे गधे के सिर से सींग । अगर मैंने पुलिस को तुम्हारे बारे में बता दिया तो तुम्हें फांसी पर लटकाने में कोई कसर नहीं रह जायेगी ।”
“तुम चाहती क्या हो ?”
“अपनी जबान बन्द रखने की कीमत ।”
“तुम मुझे ब्लैकमेल करना चाहती हो ?”
“हां !” - सरिता निडर स्वर बोली ।
“देखो देवी जी, तुम मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकती हो । मैंने हत्या नहीं की है लेकिन” - वह एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “मैंने हत्यारे को देखा है ।”
“क्या ?” - सरिता हैरानी से चिल्लाई ।
“मैं सच कह रहा हूं मैंने हत्यारे को देखा है । मेरे चार सौ तेंतीस में आने से पहले ही रोशनलाल की अनुपस्थिति में हत्यारा चार सौ तेंतीस में से होता हुआ चार सौ बत्तीस में घुस गया था और शायद बाथरूम में छुप कर बैठा हुआ था । बीच का दरवाजा शायद रोशनलाल अपनी ओर से बन्द करना भूल गया था । मैं रोशनलाल से किसी विषय में बात करने आया था वह उस समय बिजी था । केवल उत्सुकतावश ही मैंने उस द्वार में छेद कर लिया था । छेद में से मैंने देखा था कि रोशनलाल ने उस लड़की को जिसे तुम आरती कह रही हो एक लिफाफा दिया था । आरती ने उसे एक चैक दिया था । फिर आरती बाहर चली गई थी । रोशनलाल बाथरूम की ओर बढा था । हत्यारा मेरे कमरे में आ नहीं सकता था क्योंकि बीच वाले द्वार में मैंने अपनी ओर से ताला लगा दिया था । हत्यारा फंस गया था । रोशनलाल ने बाथरूम का द्वार खोला और हत्यारे ने उसे शूट कर दिया । मैं हक्का बक्का सा देखता रहा । हत्यारा चार सौ बत्तीस का द्वार खोल कर बाहर भाग गया । मैं भी बीच के द्वार में से होता हुआ चार सौ बत्तीस के रास्ते उसके पीछे भागा लेकिन तब तक वह गायब हो चुका था । मैं लिफ्ट द्वारा दूसरी मंजिल पर आ गया और फिर सीढियां उतरता हुआ चुपचाप बाहर निकल गया ।”
“बड़ी सैंसेशनल कहानी सुनाई तुमने मुझे ।” - सरिता जम्हाई लेती हुई बोली ।
“यह कहानी नहीं है, हकीकत है मैडम । मैंने हत्यारे को अपनी आंखों से देखा है ।”
“कौन था वह ?” - सरिता ने पूछा ।
सुनील यूं हंसा जैसे उसने कोई बेहद बेवकूफी भरा सवाल पूछ लिया हो ।
“तुम पुलिस को क्यों नहीं बताते यह बात ?”
“क्योंकि जो जानकारी मुझे अनजाने में हासिल हो गई है, उसका मैं वही इस्तेमाल करना चाहता हूं जो तुम चाहती हो ।”
“क्या ?”
“मैं इस हत्या का अकेला चश्मदीद गवाह हूं । मेरी गवाही हत्यारे को फांसी पर लटकवा सकती है जैसे कि तुम समझती थीं कि तुम्हारी गवाही मुझे फंसा सकती है हालांकि तुमने मुझे कुछ भी करते नहीं देखा था । मैं हत्यारे को ब्लैकमेल करूंगा मैडम ।”
“तुम्हें उम्मीद है कि तुम उससे रुपया हासिल कर सकोगे ?”
“पूरी-पूरी उम्मीद है ।”
“और तुम... क्या नाम है तुम्हारा ?”
“लक्ष्मीनारायण ।”
“मैं तुम्हारा सरकारी नाम नहीं, असली नाम पूछ रही हूं ।”
“मैंने तुम्हें असली नाम ही बताया है ।”
सरिता कुछ क्षण उसे संदिग्ध नेत्रों से घूरती रही और फिर बोली - “खैर लक्ष्मी नारायण ही सही । जो रुपया तुम ब्लैकमेल से हासिल करोगे, उसमें से मुझे क्या दोगे ?”
“वह तो तब है जब रुपया मिलेगा ।”
“नहीं । मैं तब तक प्रतीक्षा नहीं कर सकती । तुम मुझे अभी एक हजार रुपया दो ।”
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
“तुम मुझे रुपये दिए बिना यहां से जा नहीं सकते हो ।” - वह व्यग्रता से बोली - “एक हजार रुपया दो मुझे तुम ।”
सुनील ने अपनी जेब से एक अठन्नी निकाली और उसे सरिता को दिखाता हुआ बोला - “यह अठन्नी देख रही हो ?”
“हां ।” - वह उलझनपूर्ण स्वर से बोली ।
“यह जवाहर लाल नेहरू की अठन्नी है । पिछले बीस दिनों से मैं इसे जेब में लिए फिर रहा हूं । मैं इसे खर्च नहीं करना चहता हूं । फिलहाल मैं तुम्हें यही दे सकता हूं । बाकी के नौ सौ निन्यानवे रुपये आठ आने मुझ पर उधार रहे तुम्हारे ।”
और उसने वह अठन्नी सरिता की ओर उछाल दी ।
“यू” - वह चिल्लाई - “यू ब्लडी बास्टर्ड, सन आफ एक बिच, यू... यू स्वाइन...”
लेकिन सुनील गालियों की परवाह किये बिना लम्बे डग भरता हुआ बाहर निकल गया ।
***
शीशे के झूलने वाले द्वार पर लिखा था - डी. जे पी कश्यप, एम बी बी एस ।
सुनील द्वार ठेल कर भीतर घुस गया । वह एक छोटा सा हाल था जिसमें हस्पतालों जैसे बैंच बिछे हुए थे लेकिन उस समय वहां कोई रोगी दिखाई नहीं दे रहा था ।
हाल के दूसरे सिरे पर एक द्वार था जिस पर ‘प्राइवेट’ लिखा हुआ था ।
सुनील उस द्वार की ओर बढा ।
उसने द्वार खोलकर भीतर झांका ।
भीतर एक बड़ी सी मेज के पीछे लगभग चालीस साल का दुबला-पतला आदमी बैठा था । उसके गले में स्टेथस्कोप लटक रहा था । वह एक सफेद रंग का लम्बा सा चोगा पहने हुये था और उस समय एक पुस्तक पढ रहा था ।
“एक्सक्यूज मी ।” - सुनील उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का उपक्रम करता हुआ बोला ।
“यस ।” - वह पुस्तक से दृष्टि उठा कर बोला ।
“यह डाक्टर कश्यप...”
“मैं ही डाक्टर कश्यप हूं । भीतर आ जाइये ।”
सुनील कमरे में घुस गया और डाक्टर के सामने की एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“फरमाइये ।”
“डाक्टर ।” - सुनील बड़ी सावधानी से शब्द चयन करता हुआ बोला - “लगता है आप मुझे भूल गये हैं ।”
डाक्टर ने एक खोजपूर्ण दृष्टि सुनील पर डाली और बोला - “यूअर नेम ?”
“नाम से कोई फर्क नहीं पड़ेगा डाक्टर । मैं कोई आपका पुराना पेशेन्ट नहीं हूं ।”
“तो फिर ?”
“उस रात को याद कीजिये, डाक्टर, जब एक आदमी एकाएक मेरी कार के सामने आ गया था । आप मेरे पीछे आ रहे थे । एक आदमी मेरी कार से शायद टकरा गया था । मैं आगे निकल गया था । आपने उस आदमी को सड़क से उठाया था । और उसे यहां अपने क्लीनिक में ले आये थे । आपने मुझे अपने पीछे-पीछे आने के लिए कहा था लेकिन मैं डर गया था और... और...”
“और आप भाग निकले थे ।” - डाक्टर कठोर स्वर से बोला ।
सुनील ने सिर झुका लिया ।
“आप शराब पिये हुये थे ।” - डाक्टर फिर बोला ।
“नहीं ।” - सुनील नकारात्मक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “मैं शराब पिये हुये नहीं था ।”
“झूठ मत बोलिए । मैंने खुद आपकी सांस में शराब को सूंघा था । मैं डाक्टर हूं ऐसी मामूली बातों से मुझे धोखा नहीं हो सकता । आप शराब पिये हुये थे । उस हालत में तो आपको गाड़ी चलाने का हक ही नहीं पहुंचता था । उस शराब के नशे ने ही आपको मति भ्रष्ट की हुई थी इसीलिये आप मेरे पीछे आने के स्थान पर वहां से भाग निकले थे । कोई शरीफ और ईमानदार आदमी इस प्रकार जिम्मेदारी से पीछा नहीं छुड़ाता है और इतने दिनों बाद आप मुझे यह बताने आये हैं कि उस समय आप शराब पिये हुए नहीं थे इसलिये उस दुर्घटना में आप का कोई दोष नहीं था ।”
“डाक्टर ।” - प्रत्यक्ष में वह बोला - “मैं आपकी योग्यताओं को चैलेंज नहीं कर रहा हूं लेकिन मेरी उस समय की हालत का आपने बड़ा गलत अनुमान लगया है और न ही मैं अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा हूं । अगर ऐसी बात होती तो आज मैं यहां लौटकर न आया होता । उस दुर्घटना के बाद मैंने अपनी कार का निरीक्षण किया था । उसमें कहीं जरा सी खरोंच भी नहीं थी, कहीं जरा सा डेंट भी नहीं था इसलिए उस आदमी को गम्भीर चोटें आई हो ऐसी सम्भावना मुझे दिखाई नहीं दे रही है । मेरे ख्याल में उसे मामूली सी खरोंच लगी होगी और उसमें भी उसकी गलती थी । भगवान जाने वह कहां से एकदम मेरी गाड़ी के सामने आ कूदा था । मैंने उसे बहुत बचाने की कोशिश की थी लेकिन फिर भी वह शायद टकरा ही गया था । मुझे एक जोर-की भड़ाक की आवाज सुनाई दी थी और जब मैंने घूमकर देखा था तो वह जमीन पर लोट रहा था । मेरा ख्याल है कि वह अधिक से अधिक मेरी कार की साईड से छू भर गया था...”
“और उसे कोई गम्भीर चोट नहीं आई थी । यही कहना चाहते हैं न आप ?” - डाक्टर व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“जी हां । गम्भीर चोट आने का सवाल ही पैदा नहीं होता ।” - सुनील बोला ।
डाक्टर कश्यप एकाएक अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ । उसने अपने जेब में से एक चाबियों का गुच्छा निकाला, उसमें से एक चाबी छांटी और उसके द्वारा बगल में रखी एक लोहे की अलमारी को खोला ।
डाक्टर ने अलमारी में से एक्सरे का प्रिन्ट निकाला ।
“यहां आइये ।” - वह अक्सरे को प्रकाश की ओर करता हुआ बोला ।
सुनील डाक्टर के पीछे आ खड़ा हुआ और एक्सरे देखने लगा ।
“यह देख रहे हो ।” - डाक्टर एक स्थान पर अपनी पेन्सिल की नोंक रखता हुआ बोला - “यह वर्टिकल कालम है ।”
“वार्टिकल कालम क्या ?” - सुनील ने पूछा ।
“रीढ की हड्डी । इसका छटा जोड़ देखो । उसमें फ्रैक्चर है । जानते हो रीढ की हड्डी में फ्रैक्चर होने का क्या मतलब होता है ?” - डाक्टर यूं बोला जैसे कोर्ट में कोई वकील गवाह को धमका रहा हो ।
“आपका मतलब है कि...”
“जी हां यही है मेरा मतलब । इस आदमी की आदमी की कमर टूट गई । आप अपने आपको सौभाग्यवान समझिये कि फ्रैक्चर वर्टिकल कालम के तीसरे जोड़ में नहीं है । अगर यह तीसरा जोड़ होता तो फ्रैनिक नर्व को भारी आघात पहुंचता । रोगी रेस्परेट्री पैरेलाईसिस और सफ्फोकेशन का अनुभव करता और डायफ्रम के मोटर रिफ्लैक्सिस निकम्मे हो जाते ।”
“आपके इतने भारी-भारी के शब्द मेरी समझ में तो आ नहीं रहे । कोई मैडिकल का विद्यार्थी तो हूं नहीं ।”
“आपको इसके परिणाम तो समझ मा आ रहे हैं न ?”
“क्या ?”
“यह कि इस आदमी के प्राण निकल सकते थे । अब यह आदमी जिन्दा बच गया है लेकिन जो जिन्दगी यह जी रहा है, वह मौत से भी बदतर है । जिन्दगी भर इस आदमी को बिस्तर पर लेटा रहना पड़ेगा । इसकी टांगों को पैरेलाइसिस हो गया है और यह अपनी गरदन एक इन्च से अधिक नहीं घुमा सकता है । न ही यह खुद खा पी सकता है । मैं इस आदमी को उठा कर अपने क्लीनिक में लाया था । एक डाक्टर होने के नाते और मानवता के नाते जो सहायता मैं इसकी कर सकता था, मैंने की है । और तुम... तुम, जिसकी सबसे अधिक जिम्मेदारी थी वहां से भाग खड़े हुये और आज मुझे यह बताने आये हो कि उसे कोई गम्भीर चोट नहीं आई थी । माई डियर मैन, अगर वह मर जाता है तो तुम हत्या के अपराधी होगे । अभी भी तुम पर ड्राइविंग वाइल इन्टाक्सीकेटिड, एण्ड नैग्लिजेंट ड्राविंग और हिट एण्ड रन के इल्जाम लगाये जा सकते हैं । तुम... क्या नाम है तुम्हारा ?”
सुनील डाक्टर के प्रश्न को अनसुना करता हुआ बोला - “लेकिन डाक्टर, मैं...”
“नाम क्या है तुम्हारा ?” - डाक्टर कठोर स्वर में बोला ।
“अगर आप मेरे साथ इस ढंग से पेश आएंगे तो मैं अपना नाम गुप्त ही रखना चाहूंगा ।”
डाक्टर हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
“तुम, मिस्टर तुम...” - डाक्टर क्रोधिक स्वर में बोला - “एक इन्सान की मौत का कारण बन रहे हो और तुम उसमें इतनी भी दिलचस्पी नहीं दिखाना चाहते जितनी कोई भी शरीफ आदमी एक घायल कुत्ते में दिखा देता है । तुम इतने गैरजिम्मेदार और निकम्मे आदमी हो कि अपना नाम तक नहीं बताना चाहते मुझे । शर्म नहीं आती तुम्हें ।”
न जाने कब डाक्टर आप से तुम पर आ गया था ।
“सवाल जिम्मेदारी का नहीं है डाक्टर और न ही शर्म का है ।” - सुनील शांत स्वर में बोला - “प्रश्न तो इस बात का है कि हकीकत क्या है । मैं पिये हुए जरूर था लेकिन नशे में नहीं था । अगर उस समय आपने ढंग से मेरा एग्जामिनेशन किया होता तो आप को भी यह महसूस हो जाता कि मेरे होशोहवास कायम थे । आपने तो मेरी सांस में शराब सूंघी और एकदम कूद कर इस नतीजे पर पहूंच गए कि मैं नशे में हूं । मैंने केवल दो पैग विस्की पी थी और बस... उस समय भी मैं इतना ही होश में था जितना कि अब हूं । लेकिन आपने तो मेरी बात ही नहीं सुनी । आपने तो एकदम हल्ला मचाना शुरू कर दिया था । मैं तब भी यही कहता था और अब भी यह कहता हूं । मैं यह बात मानने के लिए तैयार नहीं कि उस आदमी को गम्भीर चोटें आई हैं । भगवान जाने आप उस समय इतने विचित्र ढंग से मेरे साथ क्यों पेश आए ? मुझे तो इस सारे किस्से में ही कोई चालबाजी मालूम होती है । मेरे ख्याल से तो वह आदमी जानबूझ कर मेरी कार के सामने आ कूदा था । सम्भव है कि वह मुझे फंसाने के लिए कोई चाल ही हो और जहां तक इस एक्सरे का सवाल है जो अभी आपने मुझे दिखाया है पचास साल पुराना भी हो सकता है । जरूरी नहीं है कि जो आदमी मेरी कार से टकराया था, उसी का यह एक्सरे भी हो ।”
डाक्टर उठ खड़ा हुआ । उसने अपना सफेद चोगा उतार कर कुर्सी की पीठ पर टांग दिया और बर्फ से ठण्डे स्वर से बोला - “इसका केवल एक ही जवाब है मेरे पास । तुम्हारी लापरवाही के शिकार उस आदमी के पास तुम्हें ले चलता हूं और फिर तुम अपनी आंखों से देख लेना कि वह गम्भीर रूप से घायल हुआ है या उसे मामूली चोटें आई हैं ।”
“कहां है वह ?” - सुनील ने सशंक स्वर से पूछा - “आपके क्लीनिक में ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“वह इस समय विशालगढ में है ।”
“विशालगढ में ?” - आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“हां ! कुछ दिन मैंने उसे अपने क्लीनिक में रखा था और जो डाक्टरी सहायता मैं उसे दे सकता था मैंने बिना पैसे के लालच के मुफ्त दी थी उसे । लेकिन उसकी तो रीढ की हड्डी में विकार आ गया था । उसके लिए मैं कुछ कर नहीं सकता हूं । मेरी योग्यता नहीं है इतनी । आप्रेशन द्वारा ही वह ठीक हो सकता है । और इतना भारी आप्रेशन करने वाला कोई सर्जन भारत में नहीं है । केवल अमेरिका में ही उसका आप्रेशन हो सकता है और उसके लिए रुपया कहां से आएगा ?”
“कितने रुपये की जरूरत है ?”
“बीस हजार रुपये की ।”
सुनील चुप रहा ।
“विशालगढ में उसका कोई दोस्त है । वह उसे अपने यहां ले गया है । इलाज तो उसका कोई भला कर नहीं सकता । उस की सारी जिन्दगी ही अब तो बिस्तर पर लेटे गुजरनी है । अब तो कोशिश केवल यह है कि उसकी हालत और न बिगड़े । मैं कभी कभार विशालगढ जाता हूं तो उसे देख आता हूं । मेरे पास कार है । उसमें तुम्हें विशालगढ ले जा सकता हूं ।”
“बहुत देर लगेगी ।” - सुनील बोला ।
“चार घंटे लगेंगे । लगभग तीन बजे हम वहां पहुंच जाएंगे । दो घण्टे गाड़ी तुम चला देना, दो घण्टे मैं चला लूंगा ।”
“आप यह सब उसके लिए क्यों कर रहे हैं ?”
“केवल मानवता के नाते । मैं डाक्टर हूं । मेरा काम रोगियों की सेवा करना है । मैं तुम्हारी तरह नृशंस नहीं हूं कि उसे मौत के मुंह में धकेलकर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लूं । जो कुछ मेरे से हो सकता है मैं करता हूं ।”
“बड़े ऊंचे आदर्श हैं आपके !” - सुनील व्यंगपूर्ण स्वर में बोला ।
“मेरा पेशा ही ऐसा है ।” - डाक्टर ने उसके व्यंग को समझे बिना उत्तर दिया ।
सुनील कई क्षण चप रहा और फिर निर्णयपूर्ण स्वर में बोला - “मैं विशालगढ चलने के लिए तैयार हूं ।”
“चलो फिर !” - डाक्टर द्वार की ओर बढता हुआ बोला - “मैं अभी आया ।”
डाक्टर भीतर घुस गया ।
सुनील प्रतीक्षा करता रहा । लगभग पांच मिनट बाद वह वापिस लौटा और बोला - “चलो ।”
***
डाक्टर कश्यप ने विशालगढ के एक मध्यमवर्गीय इलाके में एक पुरानी सी इमारत के सामने गाड़ी रोक दी और इग्नीशन को ताला लगाकर बाहर निकल आया ।
डाक्टर ने गाड़ी के शीशे चढाये, उसे ताला लगाया और इमारत की ओर बढता हुआ बोला - “आओ ।”
सुनील उसके पीछे हो लिया ।
डाक्टर ने पहली मन्जिल पर जाकर एक बार दो बार दस्तक दी । वह कुछ क्षण प्रतीक्षा करता रहा फिर उसने द्वार को दो बार और खटखटा दिया ।
फिर भीतर से आवाज आई - “आ जाइये द्वार खुला है ।”
डाक्टर सुनील के कान में फुसफुसाया - “मैं तुम्हारा परिचय एक डॉक्टर के रूप में दूंगा ।”
“अच्छा ।” - सुनील बोला ।
डाक्टर द्वार खोलकर भीतर घुस गया ।
“चमनलाल ।” - वह भीतर जाकर बोला - “तुम्हारे लिये मैं एक दूसरे डाक्टर साहब को लाया हूं ।”
“बड़ी कृपा की आपने साहब ।” - एक क्षीण-सा स्वर सुनाई दिया ।
सुनील भी कमरे में घुस गया ।
डाक्टर ने द्वार बन्द कर दिया ।
सुनील ने देखा कमरे के एक कोने में खिड़की के पास एक लोहे का पलंग पड़ा था और उस पर मैले से बिस्तर पर एक दुबला-पतला आदमी लेटा हुआ था । उसका चेहरा एकदम पीला था । उसकी पीठ और गरदन के नीचे तीन चार तकिए लगे हुए थे । वह बिस्तर पर पीठ के बल एकदम सीधा लेटा हुआ था । बिस्तर के पास एक टूटी-सी कुर्सी पर एक और आदमी बैठा कोई फिल्मी पत्रिका पढ रहा था ।
डाक्टर कश्यप को देखते ही वह उठा खड़ा हुआ ।
“नमस्ते डाक्टर जी ।” - वह बोला ।
डाक्टर ने सिर को हल्का-सा झटका देकर नमस्ते को स्वीकर कया और बिस्तर पर खड़े व्यक्ति से, जिसे उसने चमनलाल कहकर सम्बोधित किया था, बोला - “कैसे हो ?”
चमनलाल के चेहरे पर एक विषादपूर्ण मुस्कराहट छा गई ।
“चमनलाल !” - डाक्टर कश्यप सुनील की ओर संकेत करके बोला - “यह बहुत बड़े डाक्टर हैं । यह तुम्हें ठीक कर देंगे ।”
“क्या मैं ठीक हो जाऊंगा डाक्टर साहब ?” - चमनलाल ने पूछा ।
“ओह श्योर ।” - डाक्टर बोला ।
डाक्टर कश्यप दूसरे आदमी की ओर संकेत करता हुआ सुनील से बोला - “यह मनोहर है । यही चमनलाल की देखभाल कर रहा है ।”
“नमस्ते ।” - सुनील ने उत्तर दिया । उसे मनोहर पसन्द नहीं आया ।
“चमनलाल, अब कैसा लगता है ?” - डाक्टर कश्यप ने चेहरे पर व्यवसायिक मुस्कराहट लाते हुए पूछा ।
“वैसा ही हूं डाक्टर साहब, जैसा पहले था ।” - चमनलाल बोला ।
डाक्टर ने आगे बढकर उसके पैरों पर से कम्बल हटा दिया ।
सुनील को उसके मोम जैसे सफेद और बेजान पैर दिखाई ।
डाक्टर कश्यप कुछ क्षण पंजों को घूरता रहा और फिर चमनलाला से बोला - “जरा पंजे को हिलाने की कोशिश करो ।”
चमनलाल के चेहरे पर तीव्र प्रयत्न के भाव प्रकट हुए लेकिन किसी भी पांव के पंजे में जरा-सी भी हरकत नहीं हुई ।
“वण्डरफुल ।” - डाक्टर उत्साहपूर्ण स्वर से बोला - “तुम तरक्की कर रहे हो । अब तुम्हारे पंजों में थोड़ी-सी हरकते होने लगी है । तुमने चमनलाल के पंजे को हिलते देखा था, मनोहर ?”
“हां, डाक्टर साहब ।” - मनोहर यूं बोला जैसे रिकार्ड बज रहा हो - “चमनलाल के पांव में मामूली-सी हरकत हुई थी ।”
“लेकिन ।” - चमनलाल अविश्वासपूर्ण स्वर से बोला - “मुझे तो पांव हिलता महसूस नहीं हुआ था ।”
“तुम्हें अभी महसूस नहीं होगा ।” - डाक्टर उसे विश्वास दिलाता हुआ बोला - “तुम्हें यह कुछ दिनों बाद महसूस होगा ।”
“मैं चलने योग्य कब हो जाऊंगा ?”
“मैं अभी दावा नहीं करता, लेकिन मुझे विश्वास है कि कुछ ही महीनों में तुम चलने-फिरने लगोगे ।”
“डाक्टर साहब ।” - वह रुआंसे स्वर में बोला - “मैं इतने दिनों से एक ही स्थिति में लेटा-लेटा दुखी हो गया हूं ।”
“घबराओ मत चमनलाल ।” - डाक्टर उसका हौसला हढाता हुआ बोला - “तुम तो खुशकिस्मत हो कि तुम बच गए वरना जैसा भयानक एक्सीडेंट हुआ था तुम्हारा, तुम तो मर गए होते ।”
“ऐसे जीने से मर जाना अच्छा है । आखिर मैंने उसका क्या बिगाड़ा था डाक्टर, जो मुझे इस प्रकार अपंग बनाकर चला गया । अगर ड्राइवर उस रात को इतनी लापरवाही से गाड़ी न चलाता हो आज मेरी यह दशा न होती ।” - और वह सिसकने लगा ।
डाक्टर ने अर्थपूर्ण दृष्टि से सुनील को देखा ।
सुनील ने दृष्टि झुका ली ।
“हौसला रखो चमनलाल ।” - डाक्टर बोला - “अब तो तुम ठीक हो रहे हो ।”
“डॉक्टरसाहब” - मनोहर बोला - “मेरे कान में दर्द रहता है । जरा मुझे देख लीजिए ।”
“चलो, दूसरे कमरे में देखता हूं तुम्हें ।” - डाक्टर बगल वाले कमरे की ओर बढता हुआ बोला - “चमनलाल को डिस्टर्ब मत करो ।”
डाक्टर ने सुनील को भी साथ आने का संकेत किया ।
तीनों बगल वाले कमरे में आ गए ।
मनोहर ने द्वार बन्द कर लिया ।
“डाक्टर साहब ।” - मनोहर गम्भीर स्वर में बोला - “मेरा कान बिल्कुल ठीक है । मैं तो आपसे चमनलाल के बारे में बात करना चाहता था । आप जानते हैं कि उसके पांव में जरा भी हरकत नहीं हुई थी ।”
“मुझे मालूम है मनोहर ।” - डाक्टर बोला - “उसके पांव में हरकत नहीं हुई और न ही कभी होगी । लेकिन उस पर इस प्रकार का मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ना जरूरी है कि वह ठीक हो रहा है वरना वह मर जाएगा ।”
“आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा ?”
डाक्टर ने कोई उत्तर नहीं दिया ।
“डाक्टर साहब, चमन मेरा दोस्त है । मैं यह सोचकर ही उसे अपने घर ले आया था कि वह कुछ दिनों में ठीक हो जाएगा लेकिन वह तो जीवन भर का मरीज है । मैं चौबीस घण्टे इसकी तीमारदारी नहीं कर सकता । अगर मैं घर से बाहर नहीं निकालूंगा तो कमाऊंगा कैसे, मेरा गुजारा कैसे होगा ? जो रुपया मेरे पास था वह लगभग खर्च हो गया है । अब तो यह स्थिति है कि चमनलाल तो मरेगा ही साथ ही मैं भी मरूंगा ।”
डाक्टर ने अपनी जेब में से पर्स निकाला - “कुछ दिन और यूं ही गुजारा करो मनोहर । जिस आदमी ने यह एक्सीडेंट किया है, मैं उसे तलाश करने की चेष्टा कर रहा हूं । उसके मिलते ही मैं उससे कोई सेटलमेंट कर लूंगा । मैं चमनलाल को अस्पताल भिजवा दूंगा । फिर तुम स्वतन्त्र हो जाओगे । तब तक यह नोट रखो । उनसे गुजारा करो और कोशिश यही करो कि चमनलाल को यह मालूम न होने पाए कि वह ठीक नहीं हो सकता ।”
“रुपयों के लिए धन्यवाद डाक्टर साहब ।” - मनोहर नोट लेता हुआ बोला - “आपसे रुपया लेने में मैं भारी शर्म का अनुभव कर रहा हूं । आप चमनलाल के लिए जितना कुछ कर रहे हैं उतना तो कोई अपने सगों के साथ नहीं करता । आप तो चमनलाल के लिए भगवान का अवतार हैं ।”
मनोहर का गला भर गया ।
“यह तो मेरा फर्ज है मनोहर ।” - डाक्टर सहानुभूतिपूर्ण स्वर से बोला - “मैं अपनी आंखों के सामने एक मरीज को मरते कैसे देख सकता हूं ।”
मनोहर चुप रहा ।
“हम इधर से ही बाहर चले जाते हैं । तुम चमनलाल का ख्याल रखना ।”
“ओ के डाक्टर ।” - मनोहर बोला ।
डाक्टर ने द्वार खोला और सुनील के साथ बाहर गलियारे में आ गया ।
इमारत से निकालकर वे फिर वापिस कार में आ बैठे ।
“देखा मिस्टर !” - डाक्टर गाड़ी स्टार्ट करता हुआ बोला - “यह होता है जरा सी लापरवाही का नतीजा । तुम्हारी जरा सी लापरवाही एक आदमी के जीवन और मृत्यु का प्रश्न बन गई है ।”
सुनील सोच में पड़ गया ।
“मैं न तुम्हें कोई उपदेश दूंगा न चमनलाल की वकालत का प्रयत्न करूंगा और न यह जानने का उपक्रम करूंगा कि तुम कौन हो ।”
डाक्टर फिर बोला - “मैं तुम्हें राजनगर वापिस ले जा रहा हूं जहां तुम चाहोगे तुम्हें उतार दूंगा । उसके बाद अगर तुम्हारी अन्तरात्मा, तुम्हारी मोरल तुम्हें कचोटे तो मेरे पास आ जाना वर्ना तुम्हारी इच्छा । लेकिन मैं एक चेतावनी तुम्हें दे देना चाहता हूं पुलिस इस दुर्घटना के मामल की बड़ी सरगर्मी से जांच कर रही है । एक बार तुम पुलिस के हाथ में आ गए तो फिर तुम जेल में ही पहुंच कर दम लोगे और सजा भी मामूली नहीं होगी । एकबार पुलिस के हाथ में पड़ जाने पर तुम चमनलाल से किसी प्रकार का आर्थिक समझौता नहीं कर पाओगे । जितनी देर तुम करते जाओगे उतना ही तुम जेल के पास होते जाओगे । अगर तुम अभी चमनलाल से कोई आर्थिक समझौता कर लोगे तो तुम जेल जाने से बच जाओगे चमनलाल की जिन्दगी बच जाएगी और मैं भी नैतिक कर्तव्य से मुक्त हो जाऊंगा ।”
“चमनलाल को मुझे कितना रुपया देना पड़ेगा ?”
“यह तुम्हारा और चमनलाल का मामला है । मैं नहीं जानता कि चमनलाल तुमसे कितना रुपया चाहेगा, लेकिन अगर तुम उसकी जीवन रक्षा करना चाहते हो तो तुम्हें कम से कम बीस हजार देने चाहिए । अमेरिका ले जाकर उसका आप्रेशन करवाने के लिए इतने रुपये की तो जरूरत पड़ेगी ही ।”
“अगर मैं चमनलाल को बीस हजार रुपये देकर मामला रफा दफा कर लूं तो क्या आप पुलिस से मेरा बचाव करेंगे ?”
“मैं कोई गैरकानूनी काम नहीं करूंगा । मैं तो अधिक से अधिक इतना करूंगा कि मैं यह बात गोल कर जाऊंगा कि कभी दुर्घटना के अपराधी ने मेरे साथ सम्बन्ध स्थापित किया था । दूसरे शब्दों में मैं यह भूल ही जाऊंगा कि कभी कोई एक्सीडैंट मेरी जानकारी में आया था ।”
“थैंक्यू डाक्टर । थैंक्यू वैरी मच ।” - सुनील बोला - “मुझे यहीं उतार दीजिए ।”
“क्या ?” - डाक्टर हैरान होकर बोला - “राजनगर नहीं चलोगे ?”
“नहीं, यहां मेरे कुछ मित्र हैं । मैं आया हूं तो सोचता हूं कि उनसे भी मिल लूं ।”
डाक्टर के चेहरे पर चिन्ता के लक्षण परिलक्षित होने लगे थे ।
“मिस्टर ।” - डाक्टर बोला - “राजनकर से चले पांच घण्टे से अधिक हो गए हैं । क्यों न चाय वगैरह पी लें । पास ही एक रेस्टोरेंट है ।”
“जैसा आप चाहें ।” - सुनील बोला ।
डाक्टर ने एक रेस्टोरेंट के सामने कार रोक दी ।
भीतर अधिक भीड़ न थी । डाक्टर ने जाने बूझकर एक कोने की मेज चुनी ।
आर्डर दे चुकने के बाद डाक्टर एकाएक उठा और सुनील से बोला - “मैं जरा क्लाक रूम हो आऊं ।”
“शौक से ।” - सुनील बोला ।
डाक्टर क्लाक रूम की ओर बढ गया ।
सुनील ने जेब से एक लक्की स्ट्राइक का सिगरेट निकालकर सुलगाया और विचारपूर्ण मुद्रा बनाए सिगरेट के कश लेता हुआ डाक्टर को जाता देखता रहा ।
कुछ छण बाद डाक्टर क्लाक रूम में से बाहर निकला । एक गुप्त दृष्टि सुनील की ओर डाली ।
सुनील सिगरेट पीने में मग्न था ।
डॉक्टर चुपचाप काउण्टर पर लगे पब्लिक टेलीफोन की ओर बढ गया ।
अगले ही क्षण वह किसी को फोन कर रहा था ।
कुछ क्षण बाद उसने फोन रख दिया ।
उसने एक बार फिर सुनील की दिशा मे दृष्टि दौड़ाई लेकिन सुनील को तो जैसे सिगरेट पीने के अतिरिक्त दीन दुनिया की खबर ही नहीं थी ।
डाक्टर लम्बे डग भरता हुआ वापिस लौटा आया ।
वेटर आर्डर सर्व करके जा चुका था ।
“आई एम सॉरी, आई टुक ए लिटल एक्स्ट्रा टाइम ।” - डाक्टर अपनी सीट पर बैठता हुआ बोला ।
“नैवर माइण्ड ।” - सुनील बोला ।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद वे उठ खड़े हुए और रेस्टोरेंट से बाहर निकल आये ।
“ओ के यंग मैन ।” - डाक्टर सुनील से हाथ मिलाता हुआ बोला - “लैट यूयर कंशस बी यूयर गाइड (अब तुम्हारी अन्तरात्मा ही तुम्हारा ही तुम्हारा मार्गदर्शन करेगी ) ।”
सुनील ने भी हाथ मिलाया लेकिन मुंह से कुछ नहीं बोला ।
डाक्टर गाड़ी में जा बैठा और उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी ।
सुनील ने दूसरा सिगरेट सुलगाया और डाक्टर की दूर होती हुई गाड़ी को देखता रहा ।
जब गाड़ी एकदम दृष्टि से ओझल हो गई तो सुनील रेस्टोरेंट की बगल में बने टैक्सी स्टैंड की ओर बढा ।
उसने एक टैक्सी ली और ड्राइवर को उस इलाके का पता बता दिया जहां चमनलाल का घर था ।
सुनील की टैक्सी सड़क पर आते ही एक और फियेट टैक्सी स्टैंड में से निकली और सुनील की टैक्सी के पीछे लग गई ।
सुनील ने एक उड़ती सी दृष्टि पीछे आती फियेट पर डाली और फिर बड़ी निश्चिन्तता से सिगरेट के कश लेने लगा ।
लगभग पांच मिनट बाद उसने फिर घूमकर देखा ।
फियेट अब भी पीछे आ रही थी ।
“सम्भव है यह संयोग ही हो ।” - सुनील मन ही मन बुदबुदाया ।
टैक्सी कई मोड़ काट गई ।
दो मिनट बाद सुनील ने फिर घूमकर देखा ।
फियेट अब भी दिखाई दे रही थी ।
“ड्राइवर ।” - सुनील अपनी टैक्सी के ड्राइवर से बोला - “गाड़ी की स्पीड कम कर दो । पांच मिनट बाद गाड़ी को किसी रेस्टोरेन्ट के सामने रोक देना ।”
“बहुत अच्छा जी ।” - ड्राइवर बोला ।
सुनील ने एक गुप्त दृष्टि पीछे डाली ।
फियेट की स्पीड भी कम हो गई थी ।
पांच मिनट बाद ड्राइवर ने टैक्सी एक रेस्टोरेन्ट के सामने रोक दी ।
लगभग बीस गज दूर फियेट भी रुक गई ।
“यहां मेरी प्रतीक्षा करना ।” - सुनील टैक्सी से बाहर निकलता हुआ बोला ।
सुनील रेस्टोरेन्ट के भीतर घुस गया ।
भीतर उसे सिगरेट वगैरह का स्टाल दिखाई दिया । सुनील ने लक्की स्ट्राइक का एक पैकेट खरीदा, पुराने पैकेट में से निकाल कर एक सिगरेट सुलगाया और फिर उसके कश लेता हुआ बाहर निकल आया । उसने एक लापरवाही भरी नजर दूर फियेट की ओर डाली । भीतर ड्राइवर के अतिरिक्त उसे कोई आदमी दिखाई नहीं दिया ।
सुनील अपनी टैक्सी में आ बैठा ।
“ड्राइवर साहब ।” - सुनील भीतर बैठता हुआ अपने ड्राइवर से बोला - “जो मैं कह रहा हूं उसे गौर से सुनिये ।”
“फरमाइये ।”
“जहां आप मुझे ले जा रहे थे वहां अब मैं नहीं जाऊंगा । आप इसी स्थान के आस पास मुझे तीन चार ब्लॉकों में एक दो गोल-गोल चक्कर दीजिये । फिर उस रेस्टोरेन्ट के पास चलिए जहां से आप मुझे लाये थे और फिर वहां से ले जाकर मुझे विशालगढ के सबसे शानदार होटल के सामने उतार दीजिये । समझ गये ?”
“समझ गया साहब ।” - ड्राइवर बोला ।
“तो फिर शुरू हो जाइये ।”
जैसे सुनील ने ड्राइवर को कहा था, ड्राइवर ने वैसा ही किया ।
फियेट हर क्षण उसके पीछे थी ।
इस बात में संदेह की कोई सम्भावना नहीं रही थी कि पीछा किया जा रहा था ।
अन्त में ड्राइवर ने टैक्सी को रायल होटल की लाबी में लाकर खड़ा कर दिया ।
सुनील टैक्सी से निककल पड़ा ।
फियेट होटल के कम्पाउन्ड से बाहर सड़क पर खड़ी थी ।
सुनील ने टैक्सी के पैसे चुकाये और होटल में घुस गया ।
वह रिसेप्शन पर पहुंचा ।
“यस सर ।” - रिशेप्शनिस्ट शिष्ट स्वर से बोला ।
“मुझे एक रूम चाहिए ।” - सुनील बोला - “जो तीसरी या चौथी मंजिल पर हो और सामने की ओर हो, मेरा मतलब है जिसकी खिड़कियां सड़क की ओर खुलती हों ।”
“आपका सामान ?” - क्लर्क ने पूछा ।
“सामान नहीं है मेरे पास । मैं राजनगर से निकलने वाले अखबार ‘ब्लास्ट’ का विशेष प्रतिनिधि हूं । एक बहुत ही आवश्यक काम से मुझे एकाएक विशालगढ आना पड़ा है । जल्दी में कुछ भी साथ नहीं ला सका मैं । यह कार्ड है ।” - और सुनील ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर क्लर्क को थमा दिया ।
क्लर्क के चेहरे पर से सन्देह के भाव मिट गये । उसने रजिस्टर निकाला और उसे खोलता हुआ बोला - “क्या करें, साहब, जब से वह राजनगर के इम्पीरियल होटल में हुई हत्या का समाचार पढा है, हम थोड़ी सावधानी बरतने लगे हैं ।”
“क्या मतलब ?”
“वहां भी हत्यारा बिना सामान के होटल में आया था । उसने, जिसकी हत्या हुई है, उसके बगल वाला कमरा किराये पर लिया था और पहला अवसर मिलते ही उसकी हत्या करके चुपचाप चलता बना था । पुलिस के अनुसार हत्यारा एक आकर्षक युवक था । बस यूं समझिये कि आप ही जैसा आदमी था वह ।”
“मैं तो नहीं था न ?” - सुनील मजाक भरे स्वर से बोला ।
“नहीं साहब, आप कैसे हो सकते हैं ?” - क्लर्क हंस कर बोला - “मैं आपको तीन सौ बीस नम्बर का कमरा दे रहा हूं । यह आपको बिल्कुल सूट करता है ।”
“ओ के थैंक्स ए लाट ।”
क्लर्क ने काउन्टर के पीछे लगे बोर्ड के एक हुक पर से चाबी निकाली और फिर मेज पर रखी घण्टी पर हाथ मारकर ऊंचे स्वर में बोला - “फ्रांक ।”
एक बैल ब्वाय सामने आ खड़ा हुआ ।
“साहब को तीन सौ बीस में ले जाओ ।” - वह बॉय को चाबी देते हुए बोला ।
“थैंक्यू !” - सुनील बोला और काउन्टर से हट गया ।
उसी समय उसकी दृष्टि होटल के मुख्य द्वार पर पड़ी ।
भंडारी आरती के साथ होटल में साथ होटल में प्रविष्ट हो रहा था ।
“चाबी मुझे दे दो ।” - उसने बैल ब्वाय से कहा - “मैं खुद चला जाऊंगा ।”
बैल ब्वाय ने चाबी सुनील के हाथ में रख दी ।
तब तक भंडारी और आरती ने भी सुनील को देख लिया था ।
“सुनील तुम !” - भंडारी लपकता हुआ उसकी ओर बढा - “तुम यहां कैसे ?”
“यही सवाल तो मैं आपसे पूछने वाला था ।” - सुनील बोला ।
“बताता हूं । पहले रूम का इन्तजाम कर लें ।” - भंडारी बोला ।
“यह लोग मेरे मित्र हैं ।” - सुनील क्लर्क से बोला - “इन्हें भी मेरे आस-पास रूम दीजिये ।”
“एकदम साथ तो रूम खाली नहीं है । मैं इन्हें तीन सौ चौबीस दे सकता हूं ।”
“दे दो ।”
भंडारी ने नाम वगैरह लिखा कर रजिस्टर पर साइन कर दिये । क्लर्क ने एक बैल ब्वाय को बुलाकर उसे चाबी सौंप दी ।
“तुम चाबी मुझे दे दो । मेरी गाड़ी बाहर खड़ी है । उसमें से सामान निकाल कर ऊपर ले आओ और गाड़ी को भी पार्क करवा दो ।”
भंडारी कार की चाबी बैल-ब्वाय को देता हुआ बोला ।
सुनील भंडारी और आरती तीन सौ चौबीस नम्बर कमरे में आ गये ।
सुनील खिड़की के पास पहुंचा । उसने पर्दे को जरा सा हटा कर नीचे झांका ।
फियेट अब भी बाहर सड़क पर खड़ी थी । उसी क्षण फियेट में से एक आदमी निकला और होटल में घुस गया । सुनील खिड़की के पास से हट गया ।
“आप एकाएक विशालगढ कैसे आ गये ?” - सुनील ने वापिस आकर भंडारी से पूछा ।
“सुनील ।” - भंडारी के स्वर में असाधारण गम्भीरता थी - “एक ऐसी अप्रिय घटना हो गई थी कि मैंने कुछ दिनों के लिए आरती का राजनगर से बाहर ही रहना उचित समझा था ।”
“क्या हो गया है ?”
भंडारी ने अपने कोट की जेब से एक रिवाल्वर निकालकर सुनील के सामने रख दिया ।
“यह आरती के कमरे से मिला था ।” - भंडारी बोला ।
सुनील ने हैरानी से पहले रिवाल्वर को और फिर भंडारी को देखा लेकिन उसने रिवाल्वर उठाने का कोई उपक्रम नहीं किया ।
“कहां था यह ?”
“वार्डरोब में कपड़ों के नीचे दबा हुआ था यह । आरती कपड़े निकालने लगी थी कि यह नीचे आ गिरा था । मैं उस समय आरती के कमरे में था । अगर मैंने खुद रिवाल्वर वहां ने देखा होता तो शायद आरती उस रिवाल्वर के भविषय में मुझे कभी भी न बताती ।”
“यह कब की बात है ?”
“आज सुबह लगभग साढे दस बजे की ।”
“रिवाल्वर तुम्हारे कमरे में कैसे आया ?” - सुनील ने आरती से पूछा ।
“मुझे नहीं मालूम ।” - आरती बोली ।
“रिवाल्वर तुम्हारा है यह ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
सुनील ने जेब से रूमाल निकालकर रिवाल्वर उठा लिया । उसने रिवाल्वर का चैम्बर खोलकर देखा, तीन छेद खाली थे । फिर उसने रिवाल्वर का हत्था देखा वहां रिवाल्वर का नम्बर नहीं था । किसी ने रेती से नम्बर घिस दिया था ।
“मैंने भी रिवाल्वर का चैम्बर खोलकर देखा था ।” - भंडारी बोला - “तीन गोलियां चलाई गई हैं इसमें से ।”
“इम्पीरियल होटल में भी रोशनलाल की हत्या के लिए तीन ही गोलियां चलाई गई थीं ।” - सुनील रहस्यपूर्ण स्वर से बोला ।
किसी ने कुछ नहीं कहा ।
“आप इस रिवाल्वर को अपने साथ क्यों लिए फिर रहे हैं ?” - सुनील ने भंडारी से पूछा ।
“मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं ? मैं पहले तुमसे राय लेना चाहता था कि मुझे इस विषय में क्या करना चाहिए । तुम कहीं मिल नहीं रहे थे । मैंने तुम्हारे आफिस फोन किया था लेकिन पता लगगा था कि तुम आज आफिस नहीं आए । मैंने यूथ क्लब भी फोन किया था ।”
“आपने अच्छा नहीं किया, भंडारी साहब ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “आपको पुलिस को फोन कर देना चाहिए था । रिवाल्वर पर हत्यारे की उंगलियों के निशान मिलने की सम्भावना थी जो आपने नष्ट कर दी है । आरती के कमरे में रिवाल्वर पाए जाने से आरती पर कोई आंच आने वाली नहीं थी ।”
“लेकिन रिवाल्वर आरती के कमरे में पाए जाने से आरती की ओर पुलिस का ध्यान तो आकृष्ट हो सकता था । अभी तक तो इंस्पेक्टर प्रभूदयाल को केवल सन्देह ही था कि मेरी कोठी में कोई आदमी रोशनलाल से सम्बन्धित था, लेकिन रिवाल्वर मिलने पर उसे विश्वास हो जाता कि आरती का जरूर इस मामले में कोई हाथ है ।”
“वह तो अब भी छिपे बिना नहीं रहेगा भंडारी साहब आप इंस्पेक्टर प्रभूदयाल के नहीं जानते । वह पुलिस फोर्स के सबसे कुशल अफसरों में से है । अभी तक वह दोबारा कोठी में नहीं घुसा है तो इसका केवल यही अर्थ हो सकता है कि वह कोठी के ही किसी आदमी के विरुद्ध घातक सबूत जुटाने में लगा हुआ है । वह वापिस आएगा और जब उसे आरती कोठी में नहीं मिलेगी तो वह सहज ही उस पर संदेह करने लगेगा ।”
“तो फिर क्या किया जाए अब ?”
“आज रात को आप यहीं ठहरिए । कल सुबह यहां से प्रस्थान कर जाइए ।”
“और रिवाल्वर का क्या होगा ?”
“इसे मेरे पास रहने दीजिए ।”
“तुम क्या करोगे ?”
“कुछ तो करूंगा ही ।”
“ओ के कल सवेरे ही हम चले जाएंगे ।”
सुनील फिर उठा और खिड़की के पास पहुंच गया । उसने पर्दा हटाकर नीचे झांका ।
फियेट अब भी खड़की थी । फियेट वाला आदमी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था । लेकिन ड्राईवर हुड के साथ पीठ टिकाए बीड़ी पी रहा था ।
“आरती, यहां आओ ।” - सुनील ने आरती को आवाज दी ।
आरती खिड़की के पास आ गई ।
“वह कम्पाउण्ड से बाहर जो अकेली फियेट टैक्सी खड़ी है, उसे देख रही हो ?”
“हां ।”
“वह पिछले दो घण्टे से मेरा पीछा कर रही है ।”
“अच्छा !” - आरती ने आश्चर्यभरे स्वर से कहा ।
“मैं इससे पीछा छुड़ाना चाहता हूं और इसके लिये मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है ।”
“मैं क्या कर सकती हूं ?”
“तुम्हें गाड़ी चलानी आती है न ।”
“हां ।”
“सुनो । आती बार मैंने देखा, इस सड़क पर लगभग एक मील आगे एक पतली-सी गली है, जो पिछली और इसी सड़क से समानान्तर एक सड़क से जा मिलती है । तुम अपनी कार को पिछली सड़क पर इस गली से लगभग पांच गज दूर ले जाकर खड़ी कर दो । मुझे गली से निकलते देखते ही कार को मेरे पास ले आना । सकोगी ?”
“कर तो सकूंगी लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन बाद में । पहले मैं जानता हूं । मेरे पांच मिनट बाद तुम होटल से निकलता ।”
“ओ के ।”
सुनील ने रूमाल से रिवाल्वर को रगड़-रगड़ कर पोंछा ताकि उस पर उंगलियों के निशान न रहें और फिर रिवाल्वर को उसी रूमाल में लपेटकर जेब में रख लिया ।
फिर वह कमरे से बाहर निकल गया ।
होटल से बाहर आकर उसने फियेट पर एक भी दृष्टि डाले बिना एक टैक्सी बुलाई और उसके भीतर जा बैठा ।
“एकदम सीधे चलो ।” - वह ड्राईवर से बोला ।
टैक्सी सीधी सड़क पर चल दी । कुछ ही देर बाद फियेट भी पीछे ही थी ।
“यहां रोक दो ।” - गली के समीप पहुंचकर सुनील बोला ।
फियेक भी रुक गई ।
सुनील टैक्सी के पैसे चुकाए और गली में घुस गया ।
अन्धकार हो चुका था और गली में किसी प्रकार के प्रकाश का कोई साधन नहीं था ।
बीस-पच्चीस कदम चलने के बाद सुनील एक मकान के सामने रुक गया और उसका नम्बर देखने लगा । उसने एक छिपी दृष्टि अपने पीछे डाली । गली में एक और साया दिखाई दे रहा था । सुनील को रुकते देखकर वह भी ठिठक गया ।
सुनील फिर सीधा चल दिया ।
साया भी उसके पीछे था ।
जब सुनील गली के दूसरे सिरे से केवल दस गज दूर रहा गया तो वह एकदम भाग निकला । सड़क पर आते ही उसे आरती की कार दिखाई दी । आरती ने एकदम कार सुनील के सामने ला खड़ी की ।
सुनील लपककर कार में चढ गया और बोला - “भागो ।”
गाड़ी तीर की तरह वहां से भाग निकली ।
सुनील ने पीछे घूमकर देखा ।
फियेट वाला आदमी हड़बडाया-सा चारों ओर देख रहा था लेकिन आस-पास कहीं भी कोई टैक्सी नहीं थी ।
“पीछा छूटा ।” - सुनील गहरी सांस लेकर बोला ।
“अब ?” - आरती ने प्रश्न किया ।
“अब यह कि गाड़ी तुम मुझे चलाने दो । जहां मैं जाना चाहता हूं, मुझे वहां का रास्ता ही मालूम है, नाम नहीं मालूम ।”
आरती ने गाड़ी रोक दी ।
***
सुनील ने गाड़ी को उसी इमारत के सामने ला खड़ा किया जिसमें उसे डाक्टर कश्यप लाया था ।
“तुम यहीं ठहरो ।” - सुनील गाड़ी से बाहर निकलकर बोला ।
“मामला क्या है ?” - आरती ने पूछा ।
“लौट कर बताऊंगा ।”
सुनील इमारत में घुस गया ।
पहली मंजिल पर जाकर उसने द्वार को दो बार खटखटाया । वह कुछ क्षण रुका और द्वार को फिर दो बार खटखटाया दिया ।
भीतर से आवाज आई - “आ जाइए, द्वार खुला है ।”
सुनील भीतर घुस गया । चमनलाल उसी प्रकार दुख और दर्द की साक्षात प्रतिमा बना बिस्तर पर लेटा था और मनोहर कुर्सी पर बैठा पत्रिका पढ रहा था ।
“तुम ?” - मनोहर हैरान होकर बोला ।
“पहचान लिया मुझे ?” - सुनील चमनलाल के बिस्तर के एक कोने में बैठता हुआ बोला ।
“हां ।” - मनोहर बोला - “डाक्टर कहां है ?”
“डाक्टर वापिस राजनगर चला गया है । उसकी यहां जरूरत नहीं थी । मैं तुमसे बात करने आया हूं, चमनलाल ।”
“क्या ?” - चमनलाल सतर्क स्वर में बोला ।
“रोशनलाल को जानते हो ?”
“मनोहर एकदम चौंक पड़ा लेकिन चमनलाल के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया ।”
“रोशनलाल कौन है ?”
“तुम नहीं जानते उसे ?”
“मैं रोशनलाल नाम के किसी आदमी को नहीं जानता ।”
“अगर तुम्हें यह मालूम होता कि रोशनलाल मर गया है तो शायद तुम इतना आसानी से रोशनलाल की जानकारी से इंकार न करते ।”
इस बार चमनालाल भी चौक पड़ा ।
“रोशनलाल कैसे मर गया ?” - मनोहर एकदम बोल पड़ा ।
“तुम चुप रहो मनोहर, मुझे बात करने दो ।” - चमनलाल बोला ।
मनोहर चुप हो गया ।
“रोशनलाल को किसी ने गोली से उड़ा दिया है ।” - सुनील बोला ।
मनोहर कुछ बोलने के लिये कसमसाया लेकिन चुप हो गया ।
“यह सब तुम हमें क्यों बता रहो हो ?” - चमनलाल बोला ।
“देखो, इस धन्धे में नब्बे प्रतिशत रिस्क तुम्हारा है । लेकिन माल खा जाते थे डाक्टर कश्यप और रोशनलाल । अब जबकि रोशनलाल मर गया है तो सारा माल डाक्टर हजम कर जाया करेगा । तुम्हें तो शायद वह पांच प्रतिशत भी नहीं देता ।” - सुनील कमरे की खराब दशा पर अर्थपूर्ण दृष्टि फिराता हुआ बोला ।
“कैसा धन्धा, कैसा माल ?”
“जो बातें तुम जानते हो वे मुझसे मत पूछो । पिछले दो महीनों मे एक ही शिकार से डाक्टर और रोशनलाल ने चासील हजार रुपये हथिया लिये है । उसने से आप लोगों को क्या मिला है ?”
“चालीस हजार रुपये !” - मनोहर हड़बड़ा कर बोला ।
“शट अप, मनोहर ।” चमनलाल डपट कर बोला ।
“मैं तो उन चालीस हजार रुपयों की बात कर रहा हूं जो उन्हें आरती से मिले हैं । आरती के अतिरिक्त उन्हें और न जाने कितने शिकारों ने रुपया दिया है । तुम तो विशालगढ में पड़े हो, तुम्हें क्या मालूम कि तुम्हारे दम पर डाक्टर राजनगर में लाखों रुपया कमा रहा है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है कि आरती ने डाक्टर को या रोशनलाल को चालीस हजार रुपये दिये हैं ?” - मनोहर ने पूछा ।
“मनोहर, गधे ।” - चमनलाल चिल्ला कर बोला - “अपनी बकवास बन्द कर । हम नहीं जानते है, यह आदमी कौन है ।”
“गधे तुम हो ।” - इस बार मनोहर चिल्ला उठा - “अगर यह आदमी रोशनलाल को जानता है, डाक्टर को जानता है और आरती वाले सारे किस्से को जानता है तो इससे कुछ छिपा कर रखने का कोई फायदा भी नहीं है । मैंने तुम्हें पहले भी कहा था कि रुपये पैसे के मामले में हमें घिस्सा दिया जा रहा है । अगर आरती से वाकई चालीस हजार रुपये लिए गये है तो या तो रोशनलाल डाक्टर को घिस्सा दे रहा था या फिर डाक्टर हमें घिस्सा दे रहा है ।”
“मनोहर, बेवकूफ यह...”
“तुम चुप रहो ।” - मनोहर चिल्लाया - “तुम डाक्टर के कहने में आ जाते हो । वह तुम्हें बेवकुफ बना कर चला जाता है । वह कहता है कि केवल चार पांच हजार रुपया मिलता है जिसमें से एक डेढ हजार वह हमें दे जाता है और तुम इसे सच मान जाते हो । जानता हूं मैं कि उन हरामजादों ने हमारे दम पर लाखों रुपये इकट्ठे कर लिये हैं और हमें यूं एक डेढ हजार रुपया दे देते हैं जैसे कुत्तों को रोटी का टुकड़ा फेक देते हों । जो यह आदमी कह रहा है, वह सच निकला तो मैं डाक्टर के बच्चे की गर्दन दबा दूंगा ।”
“तुम जरूरत से अधिक बोल रहे हो मनोहर ।” - चमनलाल बोला ।
“मैं जरूरत से कम बोल रहा हूं ।”
“डाक्टर को धमकाने से क्या होगा ?” - सुनील शान्ति से बोला - “वह पहले तो ऐसी कोई बात मानेगा ही नहीं और अगर मान ही गया तो वह कह देगा कि रोशनलाल ही सारा रुपया हजम कर गया है ।”
“कोई मजाक है !” - मनोहर भड़क कर बोला - “मैं साले के हलक में हाथ नहीं दे दूंगा ! मैं सारा भांडा फोड़ कर रख दूंगा । आखिर यह ब्लैकमेलिंग का धन्धा चल तो हमारे ही दम से रहा है । अपनी जान तो मैं ही खतरे में डालता हूं । मान लो किसी दिन मैं सचमुच कार के नीचे आ जाऊं तो ।”
“मनोहर !” - चमनलाल एकदम आतंकित स्वर से चिल्लाया - “भगवान के लिए चुप हो जाओ, बेवकूफ । यह पुलिस का आदमी भी हो सकता है वरना इसे कैसे मालूम है कि आरती ने चालीस हजार रुपये दिये हैं ।”
मनोहर को जैसे एकाएक ब्रेक लग गई ।
“तुम हो कौन ?” - मनोहर कठोर स्वर में बोला ।
उत्तर देने के स्थान पर सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“तुम जासूस हो ?” - चमनलाल ने पूछा ।
“नहीं ।” - सुनील एक गहरा कश लेकर बोला ।
“वकील ?”
“नहीं ।”
“रिपोर्टर ?”
“नहीं ।”
“तो फिर क्या हो तुम ?”
“बिजनेसमैन ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि जैसा मैं कहता हूं, अगर तुम वैसा करो तो मैं तुम्हारी खातिर डाक्टर कश्पय से कम से कम एक लाख रुपया उगलवा सकता हूं ।”
“एक लाख रुपया !” - मनोहर की आंखें फैल गई ।
“हां, और उसमें से आधा तुम्हें मुझे देना होगा ।”
“वह किस खुशी में ?” - मनोहर ने पूछा ।
“मैं मेहनत जो करूगा ।”
“क्या मेहनत करोगे तुम ?”
“जो मेहनत करूंगा, वह तुम्हारे सहयोग पर निर्भर करती है । तुम मेरा साथ दोगे तो तुम इस प्रकार फटे हाल नहीं रहोगे । फिर जितना रुपया डाक्टर को मिलता है उतना तुम्हें मिला करेगा जितना तुम्हें मिलता है उतना डाक्टर को मिला करेगा ।”
“कोई कुछ नहीं बोला ।”
“आखिर डाक्टर करता क्या है ?” - सुनील गर्म लोहे पर चोट करता हुआ बोला - “वह तो तुम्हारे दम पर फंसे हुये शिकार से केवल बाते ही बनाता है न ? उस आरती का ही उदाहरण ले लो । डाक्टर आरती को तुम्हारी दशा दिखाने के लिये लाया, आरती डर गई और तुम्हारे इलाज कके लिए रुपया देने के लिए तैयार हो गई । असूलन वह रुपया तुम्हें मिलना चाहिए और फिर तुम्हें उसमें से डाक्टर को हिस्सा देना चाहिये । लेकिन होता क्या है रोशनलाल पहले ही शिकार से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और कभी स्वयं खुद को प्राइवेट डिटेक्टिव बता कर और कभी खुद को तुम्हारा सम्बन्धी बता कर शिकार से रुपया ऐंठ लेता है । शिकार यही समझता है कि वह चमनलाल का अमेरिका में आप्रेशन कराने के लिए पैसा दे रहा है, जबकि पैसा रोशनलाल या डाक्टर या दोनों की जेब में जा रहा होता है ।”
“तुम यह भी जानते हो कि डाक्टर किस लाइन पर काम कर रहा है ?” - मनोहरलाल हैरानी से बोला ।
“यह कुछ नहीं जानते हैं ।” - चमनलाल बोला ।
“वह बहुत कुछ जानता है । यहां तक कि वह डाक्टर के यहां शिकार लेकर आने का गुप्त संकेत भी जानता है । इसने भी डाक्टर की तरह पहले दो बार द्वार थपथपाया था फिर क्षण भर रुक कर दो बार फिर द्वार खटखटाया था ।”
“तो फिर सौदा पक्का रहा ?” - सुनील बोला - “मेरे साथ काम करने के लिये तैयार हो तुम ?”
“नहीं ।” - मनोहर बोला ।
“क्यों ?” - सुनील के माथे पर बल पड़ गये ।
“अगर डाक्टर कश्पय हमें धोखा दे रहा है तो मैं खुद निपटूंगा उससे । तुम्हारे साथ पचास हजार रुपया क्यों बांटे हम ? हम पूरा एक लाख रुपया लेंगे और अगर डाक्टर ने हमें धोखा देकर इतना रुपया जमा किया है तो वह मैं उसके फरिश्तों से भी उगलवा लूगा । यह देख रहे हो ?”
मनोहर ने अपनी जेब से एक आठ इन्च लम्बे फल का चाकू निकाल कर सुनील को दिखाया ।
“इसके सामने डाक्टर का बाप भी झूठ नहीं बोल सकेगा ।” - वह बोला - “और अब तुम दफा हो जाओ यहां से ।”
“लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं । आउट ।”
सुनील चुपचाप उठा और कमरे से बाहर निकल गया ।
इमारत से बाहर निकल कर वह कार मैं बैठा और बोला - “चलो । गाड़ी तुम ड्राइव करो ।”
आरती स्टीयरिंग पर बैठ गई ।
“मामला क्या है ?” - आरती बोली ।
“फिर बताऊंगा ।” - सुनील ने कहा । उसने सीट की पीठ पर सिर टिका दिया और आंखें मूंद लीं ।
आरती ने एक बार विचित्र नजरों से सुनील को देखा और फिर गाड़ी ड्राइव करने लगी ।
***
आरती ने गाड़ी होटल के पोर्टिको में ला खड़ी की ।
सुनील द्वार खोल कर बाहर निकल आया ।
उसी समय होटल के एक खम्बे के पीछे से दो आदमी निकले और सुनील के सामने आ खड़े हुए । सुनील को उनमें से एक से एक बार पहले भी टक्कर हो चुकी थी । दूसरे को उसने कभी नहीं देखा था ।
“मुझे पहचाना ?” - पाल उसके सामने आकर बोला ।
“तुम्हें कैसे भूल सकता हूं, पाल प्यारे । तुम्हारी सूरत देखते ही तो मेरा जबाड़ा दुखने लगता है जहां तुमने मुझे घूंसा मारा था ।”
“राजनगर से तुम्हें हिरासत में ले लेने का हुक्म आया है । तुमने अच्छा किया कि होटल के रजिस्टर में अपना सही नाम लिखवाया है, वरना तुम्हें तलाश करने में बड़ी दिक्कत होती ।”
“लेकिन मैंने किया क्या है ?” - सुनील को अपनी जेब में रखे रिवाल्वर की चिन्ता होने लगी थी । उसने रिवाल्वर चुपचाप आरती की तरफ सरका दिया ।
“यह लड़की कौन है ?” - पाल उसके प्रश्न को अनसुना करता हुआ बोला ।
उसका संकेत आरती की ओर था जो हक्की-बक्की सी कार में बैठी वार्तलाप सुन रही थी ।
“मैं इन्हें जानता हूं । यह भी इसी होटल में ठहरी हुई हैं ।”
रास्ते में इन्होंने मुझे लिफ्ट दे दी थी ।”
“अब आप तशरीफ ले जाइए, श्रीमती जी ।” - पाल आरती से बोला ।
आरती ने कार को पार्किंग की ओर बढा दिया ।
“तुम्हारे पास मेरी गिरफ्तारी का वारन्ट है ?” - सुनील ने पूछा ।
“जहां मैं होता हूं वहां वारन्ट की जरूरत नहीं होती, सुनील कुमार ।”
“तुम्हें कोई गैर कानूनी काम करने का तो हक नहीं पहुंचता है ।”
“मेरे से सवाल मत करो । मैं यहां जवाब देने के लिए नहीं जवाब सुनने के लिए आया हूं । तुम राजनगर से एकाएक क्यों भाग निकले ?”
“मैं भागा नहीं, आया हूं और एकाएक नहीं आया हूं एक निश्चित प्रोग्राम के अनुसार यहां आया हूं ।”
“क्या करने ?”
“तुम्हें क्यों बताऊं ?”
“इन्सपेक्टर प्रभूदयाल ने तुम्हें कहा था कि तुम उसकी जानकारी के बिना राजनगर से बाहर नहीं जाओगे ?”
“उसके कहने से क्या होता है ? मैं एक स्वतन्त्र देश का नागरिक हूं और मुझे अपने देश के किसी भाग में जाने के लिए किसी प्रभूदयाल की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है ।”
“तुम्हारी जानकारी के लिये मै तुम्हें एक बात और बता देना चाहता हूं ।” - पाल का साथी बोला - “इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल तुम्हारी तस्वीर लेकर इम्पीरियल होटल में गया था और काउन्टर क्लर्क का कथन है कि तुम ही वही आदमी हो जिसने उस रात चार सौ तेतीस नम्बर कमरा किराये पर लिया था ।”
“तस्वीर पहचानने में गलती भी हो सकती है ।”
“क्लर्क दावा करता है कि तस्वीर वाला आदमी ही उस रात होटल में आया था । गलती की सम्भावना नहीं है ।”
“तो वह झूठ बोलता होगा ।”
“देखो, सुनील ।” - पाल गम्भीर स्वर से बोला - “यह बात मैं भी मानता हूं, किसी की तस्वीर देख कर पक्की शिनाख्त का दावा नहीं किया जा सकता । सम्भव है वह क्लर्क जो तुम्हारी तस्वीर देख कर दावे से कहता है कि तुम वही आदमी हो, तुम्हारी शक्ल देख कर इतना दावा न कर सके । इसलिये मैं तुम्हें अपने साथ राजनगर ले जाना चाहता हूं । लगभग एक घन्टे में एक प्लेन राजनगर जाने वाला है । हम उससे चल देंगे । अगर कोई गलती हुई और क्लर्क ने यह कह दिया कि तुम वह आदमी नहीं हो तो मैं अपने साथ तुम्हें वापिस विशालगढ़ ले आऊंगा । इसमें क्या ऐतराज है तुम्हें ?”
“सख्त ऐतराज है ।”
“क्या ?”
“मैं थका हुआ हूं, इस समय मैं सफर नहीं करना चाहता । मैं सुबह चल सकता हूं ।”
“ऐसी की तैसी तुम्हारी ।” - पाल चिढकर बोला - “तुम्हें चलना पडेगा ।”
“अपनी मर्जी से तो मैं जाऊंगा नहीं, पाल प्यारे । अगर जबरदस्ती ले जा सकते हो तो ले जाओ । उसके बाद परिणाम की जिम्मेदारी तुम्हारी होगी । मैं अपने अखबार की सहायता से तुम्हारी इस धांधली का मजा चखा दूंगा तुम्हें ।”
“मैं तुम्हें गिरफ्तार करके ले जा रहा हूं तुम्हारी इच्छा से नहीं ।”
“मुझ पर कोई इल्जाम लगाये बिना तुम मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते ।”
“फिलहाल मैं तुम पर कोई इल्जाम नहीं लगाना चाहता ।” - पाल धीरे से बोला ।
“तो फिर मैं सुबह चलूंगा ।”
पाल कुछ क्षण चुप रहा और फिर अपने साथी से बोला - “इस पर नजर रखना, मैं इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल को फोन करके अभी आता हूं ।”
पाल होटल में घुस गया ।
सुनील ने सिगरेट सुलगा लिया ।
लगभग पांच मिनट बाद पाल वापिस आ गया ।
“सुनील ।” - वह बोला - “मैं तुम्हें रोशनलाल की हत्या के सन्देह के आधार पर गिरफ्तार करके राजनगर ले जा रहा हूं ।”
“वारण्ट ?”
“नहीं है ।”
“यह क्या धांधली है ? मैं अभी चीफ कमिश्नर को और अपने वकील को फोन करता हूं ।” - और सुनील होटल के भीतर की ओर बढा ।
पाल ने सुनील को जीप में धकेला और ड्राइवर से बोला - “गाड़ी चलाओ हवाई अड्डे जाना है ।”
ड्राइवर ने जीप चला दी ।
“पाल यह...”
“राजनगर पहुंचने तक तुम एक शब्द भी नहीं बोलोगे ।” - पाल सख्त स्वर में बोला - “और अपने दोनों हाथ आगे बढाओ ।”
अगले ही क्षण सुनील के हाथ में हथकड़ियां चमक रही थीं ।
जीप हवाई अड्डे पर जा खड़ी हुई ।
पाल और उसका साथी सुनील को लेकर प्लेन में जा बैठे ।
पाल ने ही सुनील की सीट बैल्ट बांधी ।
लगभग पैंतालीस मिनट बाद प्लेन राजनगर के हवाई अड्डे पर उतर रहा था ।
तीनों प्लेन से नीचे उतर आये ।
“देखो सुनील ।” - पाल बोला - “हम तुम्हें इम्पीरियल होटल ले जा रहे हैं ताकि क्लर्क तुम्हारी शिनाख्त कर सके ।”
“मैं किसी होटल में नहीं जाऊंगा ।” - सुनील सड़क पर आकर बोला - “यह कोई तरीका नहीं है शिनाख्त का । शिनाख्त का तो यह तरीका है कि तुम मेरे जैसे कद काठ के सात आठ आदमियों को एक लाइन में खड़े करो और फिर उस लाइन में से क्लर्क को कहो कि वह उस रात होटल में आये आदमी को पहचाने ।”
“तुम होटल मे चलोगे बरखुरदार ।”
“मैं किसी होटल में नहीं जाऊंगा । अधिक से अधिक तुम मुझे जेल में डाल सकते हो और वह भी मेरा चालान करने के बाद ।”
“मुझे कानून मत पढाओ ।” - पाल उसकी बांह पकड़ कर बाहर की ओर घसीटता हुआ बोला - “चलो ।”
उसी समय सुनील के कान में रमाकान्त का स्वर सुनाई दिया - “इसे कहां ले जा रहे हैं आप ?”
“तुमसे मतलब ?” - पाल झल्लाकर बोला ।
“मिस्टर चटर्जी ।” - रमाकान्त अपने साथ खड़े एक सज्जन से बोला - “इन्हें मतलब समझाइये जरा ।”
“आई एम मिस्टर चटर्जी ।” - वे सज्जन आगे बढकर बोले - “आई एम ए सीनियर पार्टनर आफ चटर्जी एण्ड मुखर्जी, ए फर्म आफ लायरज । दिस मैन इज माई क्लायण्ड । (मैं वकीलों की फर्म चटर्जी एण्ड मुखर्जी का एक सीनियर पार्टनर हूं । यह आदमी मेरा मुवक्किल है ) ।”
पाल हैरान हो उठा और फिर बोला - “काम करो अपना । यह अदालत नहीं है ।”
“काम तो मैं कर ही रहा हूं ।” - चटर्जी व्यंग्यपूर्ण स्वर से बोलो - “आपकी सेवा में मैं यह पेपर प्रस्तुत करना चाहता हूं । यह एक मजिस्ट्रेट का आर्डर है कि आप इस आदमी को अदालत में पेश करें और यह दूसरा पेपर लीजिये । इसके अनुसार आपको इस आदमी को अभी एक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना है ताकि इसकी जमानत मंजूर करवाई जा सके और मैं आपकी जानकारी के लिए यह भी बता देना चहता हूं कि रात के इस समय भी मजिस्ट्रेट साहब अपनी कोर्ट में बैठ आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ताकि जमानत तय की जा सके ।”
पाल के छक्के छूट गए । वह हक्का बक्का सा कभी रमाकान्त का और कभी चटर्जी का मुंह देखने लगा ।
“लेकिन अभी हमने इस पर कोई इल्जाम तो नहीं लगाया है ।”
“क्या ?” - रमाकांत चिल्ला पड़ा ।
“लैट मी स्पीक, मिस्टर रमाकांत ।” - चटर्जी शान्त स्वर में बोले - “यह आपने और भी बुरा किया है मिस्टर । आप बिना किसी का चालान किये उसे हथकड़ी कैसे लगा सकते हैं । आप इस आदमी को गिरफ्तार किये बिना, इसका चालान किये बिना विशालगढ से राजनगर ले कैसे आए । आप पर किडनेपिंग का मुकदमा चलाया जा सकता है और इस स्थिति में आप न केवल अपनी नौकरी से हाथ धो बैठेंगे बल्कि आप जेल भी जा सकते हैं, यू अण्डरस्टैड व्हाट आई सैड ?”
उस समय तक उन लोगों के आप-पास अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी ।
पाल के चेहरे पर फटकार बरस रही थी ।
“अब आप क्या चाहते हैं ?” - पाल बोला ।
रमाकान्त ने कुछ बोलने के लिए मुंह खोला लेकिन चटर्जी ने उसे टोक दिया ।
“प्रश्न यह नहीं है कि हम क्या चाहते हैं ।” - चटर्जी बोले - “प्रश्न है कि आप क्या चाहते हैं ?”
“मैं सुनील को होटल ले जाना चाहता हूं ताकि इसकी शिनाख्त हो सके ।”
“अगर वह नहीं जाना चाहता तो आप उसे जबरदस्ती कहीं नहीं ले जा सकते हैं ।”
“लेकिन अगर यह बेगुनाह है तो यह हमें सहयोग क्यों नहीं देता ।”
“पाल ।” - सुनील हथकड़ियां लगे हाथ ऊपर उठाया हुआ बोला ताकि आस-पास खड़े सब लोग सुन सकें - “यह तरीका है तुम्हारा सहयोह हासिल करने का ?”
आस-पास खड़े कई व्यक्तियों के मुंह से सुनील के प्रति सहानुभुतिपूर्ण शब्द निकलने लगे ।
पाल ने जल्दी से सुनील के हाथों में से हथकड़िया निकाल लीं । वह बेहद बौखला गया था ।
“तुम मुझसे क्या सहायता चाहते हो ?” - सुनील बोला ।
“मैं हजार बार बता चुका हूं कि मैं चाहता हूं कि तुम मेरे साथ होटल चलो ताकि क्लर्क यह बता सके कि हत्या की रात को चार सौ तैतीस नम्बर कमरा किराये पर लेने वाले आदमी तुम हो ।”
“क्लर्क को मालूम है कि मैं गिरफ्तार कर लिया गया हूं ?”
“हां अब तक इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल ने उसे बता दिया होगा ।”
“उसे यह भी पता है कि मैं शिनाख्त के लिए लाया जा रहा हूं ?”
“हां ।”
“उसे पता है कि वही आदमी लाया जा रहा है जिसकी उसे तस्वीर दिखाई गई थी ?”
“हां ।”
“सुना आप लोगों ने ।” - सुनील एकदम ऊंचे स्वर में बोल पड़ा - “यह पुलिस का शिनाख्त का तरीका है । मेरी पहचान के लिए पुलिस ने कैसी पृष्ठभूमि तैयार की है । गवाह को मेरी सूरत पहले दिखा दी गई है और बाद में मुझे शिनाख्त के वास्ते ले जाया जा रहा है ।”
“यह क्या तरीका हुआ ?” - भीड़ में से कोई बोला ।
“एकदम वाहियात तरीका है यह ।” - दूसरा बोला ।
“यह धांधली है पुलिस की ।”
“खामखाह एक शरीफ आदमी को परेशान कर रहे हैं ।”
“अब्सर्ड !”
“भीड़ छांटिये आप सब ।” - पाल एकदम कोधित होकर चिल्याया ।
लेकिन किसी ने जैसे सुना ही नहीं । एक भी आदमी अपनी जगह से हिला तक नहीं ।
“क्या उस क्लर्क के अतिरिक्त और कोई आदमी नहीं है जिसने कि हत्या कि रात को चार सौ तेतीस नम्बर कमरे वाले युवक को देखा हो ।”
“दो और हैं ।” - पाल बोला ।
“कौन-कौन ?”
“एक वृद्धा है जिसने उस आदमी को, बशर्ते कि वह आदमी तुम नहीं हो, गलियारे में देखा था । लेकिन हम उसकी शिनाख्त पर भरोसा नहीं कर सकते ।”
“क्यों ?”
“एक तो वह युवक से बहुत दूर खड़ी थी और दूसरी बात यह है कि उसकी नजर कमजोर है और चश्मा इस्तेमाल करती है । लेकिन उस समय उसने चश्मा नहीं लगाया हुआ था ।”
“और दूसरा कौन है ?”
“दूसरी रिसैप्शन पर युवक क्लर्क की सहयोगिनी सरिता नाम की एक युवती है ।”
“वह जानती है कि मैं गिरफ्तार किया गया हूं ?”
“नहीं ।”
“और शिनाख्त के बिना तुम मुझे छोड़ोगे नहीं ।”
“नहीं, चाहे मेरी नौकरी ही क्यों न चली जाए ।”
“तो फिर ऐसा करो, तुम मुझे सरिता के घर ले चलो । अगर वह कहती है कि हत्या के रात वाला युवक मैं हूं तो तुम मुझे रोशनलाल की हत्या के अपराध में गिरफ्तार कर लेना वरना मुझे छोड़ देना और मैं तुम्हारे खिलाफ कोई कार्यवाही आदि नहीं करूंगा ।”
“ओके ।” - पाल अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला ।
“मुझे यह बात पसन्द नहीं आई ।” - रमाकांत बोला ।
“न मुझे ।” - चटर्जी बोला - “इन्स्पेक्टर तुम्हें सुनील को एक मिनट भी अपनी हिरासत में रखने का हक नहीं है । इसे छोड़ना ही पडे़गा तुम्हें ।”
“इट्स आल राइट मिस्टर चटर्जी ।” - सुनील बोला - “आई विल गो विद हिम ।”
“तुम्हें सरिता के घर का पता मालूम है ?” - उसने पाल से पूछा ।
“नहीं ।” - पाल बोला ।
“मुझे मालूम है ।” - पाल का साथी बोला - “पता है डी - पैतालीस, हर्नबी रोड ।”
“लैट्स मूव दैन ।”
“मेरी कार एयरपोर्ट की इमारत से बाहर खड़ी है ।” - रमाकांत बोला ।
बाहर आकर सुनील, पाल, उसका साथी, चटर्जी और रमाकांत, रमाकांत की शानदार इम्पाला में सवार हो गए ।
“रास्ता बताते रहना ।” - रमाकांत गाड़ी ड्राईव करता हुआ पाल के साथी से बोला ।
“अच्छा !”
“एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही ।” - पाल उलझनभरे स्वर से बोला ।
“क्या ?” - सुनील ने पूछा ।
“तुम्हारे साथियों को ।” - पाल, चटर्जी और रमाकांत की ओर संकेत करता हुआ बोला - “पता कैसे लग गया कि मैं प्लेन द्वार तुम्हें राजनगर ला रहा हूं ।”
“यही तो कमाल है ।” - सुनील बोला हालांकि वह खुद हैरान था कि आखिर रमाकांत को पता कैसे लगा कि वह प्लेन से राजनगर लाया जा रहा है ।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद पाल सरिता के फ्लैट का द्वार खटखटा रहा था ।
“कौन है ?” - भीतर से सरिता का स्वर सुनाई दिया ।
“पुलिस ।” - पाल अधिकारपूर्ण स्वर से बोला - “दरवाजा खोलो ।”
द्वार लगभग फौरन ही खुल गया । सरिता आंख मलती हुई बाहर निकल आई ।
“रमाकांत ।” - सुनील अर्थपूर्ण स्वर से बोला - “एक हजार रुपए में से एक जवाहरलाल नेहरू की अठन्नी घटाएं तो कितने रुपए बचते हैं ?”
“नौ सौ निन्यानवे रुपए आठ आने ।” - रमाकांत उलझनपूर्ण नेत्रों से सुनील को घूरता हुआ बोला ।
“और इसमें एक हजार रुपए और जमा कर दें तो ?”
“एक हजार नौ सौ निन्यानवे रुपए आठ आने ।”
“ठीक है, मेरा भी यही ख्याल था ।”
सरिता भावहीन दृष्टि बनाए यह वार्तालाप सुन रही थी ।
“यह क्या बक रहे हो तुम ?” - पाल बोला ।
“कुछ नहीं । अपने विशालगढ से सम्बन्धित काम का हिसाब कर रहा था ।”
“चुपचाप खड़े रहो ।” - पाल बोला ।
“तुम्हारा नाम सरिता है ?” - पाल सरिता को सम्बोधित करता हुआ बोला ।
“हां ।”
“तुम इम्पीरियल होटल में रिसेप्शनिस्ट हो ?”
“हां ।”
“आज से पहले तुमने कभी इस आदमी को देखा है ?” - पाल सुनील की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
सुनील बड़े निर्लिप्त भाव से सिगरेट सुलगा रहा था ।
सरिता की दृष्टि केवल एक क्षण के लिए सुनील पर टिकी और फिर वह चटर्जी की ओर संकेत करती हुई बोली - “तुम्हारा मतलब है, यह है वह आदमी ?”
“नहीं, इसे देखो ।” - पाल सुनील की बांह पकड़कर उसे आगे करता हुआ बोला - “क्या हत्या की रात को यह आदमी होटल में आया था ?”
सुनील ने बड़े भावहीन नेत्रों से सरिता की ओर देखा और फिर एक जम्हाई ले डाली ।
सरिता स्थिर नेत्रों से कई क्षण सुनील को घूरती रही और फिर बोली - “नहीं ।”
“नहीं ?” - पाल उत्साहरहित स्वर से बोला ।
“इसका कद-काठ उस आदमी से मिलता जरूर है । लेकिन यह वह आदमी नहीं है ।”
“तुम्हें पूरा विश्वास है ?”
“गलती की कोई सम्भावना ही नहीं है । मैंने इस आदमी को अपनी जिन्दगी में पहले कभी नहीं देखा है । उस रात होटल में जो आदमी आया था, वह काम-से-कम पांच मिनट मेरे पास खड़ा रहा था । मैं उसकी सूरत कैसे भूल सकती हूं । ढांचे के अलावा इस आदमी में और उस आदमी में कोई समानता नहीं है । क्या नाम है इसका ?”
“सुनील कुमार ।” - पाल ने बताया ।
“और उसका नाम लक्ष्मीनारायण था ।” - सरिता बोली ।
“नाम से कुछ नहीं होता है ।” - पाल विरक्तिपूर्ण स्वर से बोला ।
“तुम पुलिस की गिरफ्त मे कैसे आ गए, मिस्टर सुनील कुमार ?” - सरिता सुनील से बोली ।
“ओ के सिस्टर ! थैंक्यू वेरी मच ।” - पाल सरिता से बोला और सीढियों की ओर बढ गया । बाकी लोग भी उसके साथ चल दिए । सरिता अपने फ्लैट में घुस गई ।
“अब ?” - नीचे आकर सुनील पाल से बोला ।
“अब क्या ! खैर मनाओ कि तुम्हारा बचाव हो गया ।” - पाल बोला ।
“मैं विशालगढ वापिस कैसे जाऊगा ?”
“बस से चले जाओ ।”
“पैसे कौन देगा ?”
“जो जा रहा है ।”
“तुम्हारे घर का राज है ।” - सुनील यूं बोला जैसे उसे बहुत गुस्सा आ रहा हो - “मेरा वक्त तो बरबाद हुआ ही, अब तुम चाहते हो कि मैं पैसा भी खर्च करूं, मैं चाहता हूं तुम...”
“टैक्सी ।” - पाल बगल से गुजरती हुई टैक्सी को आवाज देता हुआ चिल्लाया ।
टैक्सी रुक गई । पाल और उसका साथी उस पर चढ गए । अगले ही क्षण टैक्सी सड़क पर फर्राटे भर रही थी ।
टैक्सी के दृष्टि से ओझल होते ही सुनील रमाकांत की ओर मुड़ा ।
“रमाकांत ।” - वह बोला - “तुम हवाई अड्डे पर कैसे पहुंच गए ?”
“मुझे भंडारी साहब ने फोन किया था । उन्होंने कहा था कि आरती के सामने कुछ पुलिस के आदमी सुनील को पकड़ ले गये हैं और उसे प्लेन द्वारा राजनगर लाने वाले हैं । मैंने चटर्जी को पकड़ा और तुम्हारे स्वागत के लिए हवाई अड्डे पहुंच गया ।”
“थैंक्यू, चटर्जी साहब ।” - सुनील चटर्जी से बोला ।
“हैलो । सुनील, माई ब्वाय ।” - चटर्जी स्पष्ट स्वर में बोला - “उस साले इन्सपेक्टर ने एकदम गैरकानूनी हरकत की थी । फाल्स अरैस्ट और किडनैपिंग के केस में वह जेल जा सकता था । तुम बहुत ढीला आदमी है ।”
“अब दोबारा ऐसा नहीं करूंगा ।” - सुनील बोला ।
“ऐज यू विश !” - चटर्जी बोला ।
तीनों रमाकांत की कार में जा बैठे ।
“तुम्हें कहां छोड़ें ?” - रमाकांत ने सुनील से पूछा ।
“भंडारी साहब की कोठी पर ।”
रमाकांत ने गाड़ी लाकर भंडारी की कोठी के सामने पार्क कर दी ।
“गुड नाइट ऐवरी बाडी ।” - सुनील कार से उतरता हुआ बोला ।
“गुड नाइट ।” - रमाकांत बोला ।
“एन्ड गुड लक आलसो ।” - चटर्जी बोले ।
सुनील हंसा और कोठी में घुस गया ।
द्वार एक नौकर ने खोला ।
सुनील ने घड़ी देखी, साढे ग्यारह बजे थे । वह भीतर घुस गया ।
रत्ना के कमरे में भी अन्धकार था ।
लेकिन द्वार खुला हुआ था ।
सुनील द्वार धकेल कर भीतर घुस गया ।
भीतर हरीश नहीं था ।
सुनील कुछ क्षण रुका और फिर कमरे से बाहर निकल गया ।
हरीश गाऊन पहने हुये सीढियां चढ रहा था । उसके चेहरे पर सन्तुष्टि के भाव थे ।
सुनील चुपचाप अपने कमरे में घुस गया ।
***
सुबह आठ बजे सुनील को नौकर ने जगाया ।
“आपका फोन है साहब ।” - वह बोला ।
“कौन है ?” - सुनील ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा ।
“कोई लड़की है, साहब । नाम नहीं बताया ।”
सुनील बिस्तर में से निकल पड़ा ।
“भंडारी साहब आ गये ?” - उसने गाऊन पहनते हुए पूछा ।
“जी हां, अभी आधा घन्टा पहले आये हैं ।”
“और आरती ?”
“वह भी भंडारी साहब के साथ आई हैं ।”
सुनील आरती के कमरे में पहुंचा और उसने रिवाल्वर की तलाश में इधर-उधर हाथ मारे । रिवाल्वर उसे दराज में मिली ।
वह हाल में जाने के लिये आगे बढ़ा, रास्ते में वह हरीश के कमरे के सामने ठिठका । उसने कमरे के अन्दर प्रवेश किया और इधर-उधर झांका, कमरे में कोई नहीं था । 
सुनील नीचे हाल में आ गया ।
उसने मेज पर रखा रिसीवर उठा लिया ।
“हैलो ।” - वह बोला ।
“सुनील कुमार ?” - दूसरी ओर से सरिता का स्वर सुनाई दिया ।
“यस !”
“मुझे पहचाना ?”
“हां । तुम...”
“नाम लेने की जरूरत नहीं है ।”
“कहो ।”
“मैंने तो जो कहना था, पिछली रात कह दिया । अब तुम कहो ।”
“क्या कहूं ?”
“वह एक हजार नौ सौ निन्यानवे रुपये आठ आने कब दे रहे हो मुझे ?”
सुनील चुप रहा ।
“यह मत भूलो, मिस्टर कि जितनी आसानी से मैंने तुम्हें कल रात बचा लिया है, उतनी आसानी से तुम्हें फंसा भी सकती हूं ।” - सरिता का चेतावनी भरा स्वर सुनाई दिया - “मेरा बयान अब भी तुम्हें फांसी के फन्दे तक ले जा सकता है ।”
“अगर अब तुम अपना बयान बदलोगी तो...”
“तो कुछ भी नहीं होगा । मैं कह दूंगी कि मैं सोती हुई उठी थी और गलियारे में रोशनी भी कम थी । दिन के प्रकाश में मैं शायद सुनील कुमार और लक्ष्मी नारायण में फर्क महसूस न करूं ।”
“लेकिन तुम ही तो अकेली गवाह नहीं हो । वह वृद्धा भी तो है ।”
“उसे रात को चश्मे के बिना आदमी और औरत में फर्क महसूस नहीं होता, तुम्हें तो क्या पहचानेगी वह ?”
“और वह तुम्हारा साथी क्लर्क ?”
“उसने तुम्हें गौर से नहीं देखा था । वह कभी भी यह दावा नहीं कर सकता कि तुम्हीं उस रात वाले आदमी हो । मिस्टर, तुम्हारी शिनाख्त के मामले में मैं ही अकेली ठोस गवाह हूं ।”
सुनील चुप रहा ।
“यू देयर ?” - सरिता का व्यग्र स्वर सुनाई दिया ।
“यस !”
“मैं उत्तर की प्रतीक्षा कर रही हूं ।”
“तुम चाहती क्या हो ?”
“अभी बताया तो था एक हजार नौ सौ...”
“इससे कम में काम नहीं चलेगा ?”
“नहीं ।”
“मैं कल तुम्हारे फ्लैट आऊंगा ।”
“कल नहीं आज ।”
“ओ के । आज रात को आऊंगा । तुम्हारी ड्यूटी रात की तो होती नहीं ।”
“ठीक है लेकिन खाली हाथ मत आना...” - सरिता ने जान बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“ओ के माई ग्रेंड मदर ।” - और सुनील ने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया और वापिस जाने के लिए घूमा ।
सामने भंडारी खड़ा हुआ था ।
“कल क्या किस्सा था ?” - भंडारी ने पूछा ।
“फिर बताऊंगा ।” - सुनील टालने के ढंग से बोला ।
“तुम्हारे होटल में से ले जाये जाने के फौरन बाद ही आरती ने मुझे सब कुछ कह सुनाया था । मैंने रमाकांत को फोन कर दिया था ।”
“भारी समझदारी का काम किया था आपने । आपकी उस दूरदर्शिता के कारण ही बचाव हो गया था कल ।”
“लेकिन बात क्या थी ?”
“कहा न फिर बताऊंगा ।”
“और उस रिवाल्वर का क्या हुआ ?” - भंडारी बेहद धीमे स्वर से बोला ।
“उसकी चिंता मत कीजिये । वह ठिकाने लगा दिया है मैंने ।”
“चाय पी ली तुमने ?” - भंडारी विषय बदलता हुआ बोला ।
“अभी नहीं ।”
“तो आओ फिर । बाकी लोग डाइनिंग रूम में बैठे हैं ।”
सुनील भंडारी के साथ डाइनिंग रूम में आ गया ।
आरती, रत्ना और हरीश बैठे शायद भंडारी की ही प्रतीक्षा कर रहे थे ।
“मार्निंग एवरी बाडी ।” - सुनील एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।
“मार्निंग ।” - केवल आरती ने उत्तर दिया ।
नौकर ने ब्रेकफास्ट सर्व करना आरम्भ कर दिया ।
“हाऊ आर यू मिस्टर हरीश ?” - सुनील चाय एक घूंट पीकर हरीश से बोला ।
“फाइन ।” - हरीश जले भुने स्वर से बोला - “थैंक्यू फार आस्किंग ।”
“आप कैसी हैं मिसेज भंडारी ?” - उसने रत्ना से पूछा ।
उत्तर देने के स्थान पर रत्ना ने मुंह में एक सैंडविच ठूंस ली ।
“आपका ब्लड प्रेशर कैसा है ?” - सुनील फिर बोला ।
“ठीक है ।” - रत्ना शुष्क स्वर से बोली ।
उसी समय जैसे तूफान आ गया ।
इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल तीन सिपाहियों के साथ धमधमाता हुआ कमरे में आ घुसा । उसके साथ इम्पीरियल होटल का काउन्टर क्लर्क भी था ।
प्रभूदयाल लम्बे डग भरता हुआ सुनील की कुर्सी के पीछे पहुंचा और उसने सुनील की बांह पकड़ कर उसे एक झटके के साथ खड़ा कर दिया ।
“यह क्या बदतमीजी है ?” - भंडारी एक दम क्रोधित स्वर से बोला - “क्या हंगामा फैला रहे हैं आप ?”
“आप चुप रहिये, जी ।” - प्रभू ऊंचे स्वर में बोला ।
“तुमने बिना इजाजत मेरी कोठी में घुसने की हिम्मत कैसे की ?”
“मैंने कहा है आप चुप रहिए ।” - प्रभू गरजा ।
भंडारी एक दम चुप हो गया ।
“तुम” - प्रभू क्लर्क का ध्यान सुनील की ओर आकृष्ट करता हुआ बोला - “इधर देखो ।”
क्लर्क सुनील की ओर देखने लगा ।
“पहचानते हो इसे ?” - प्रभू अधिकार पूर्ण स्वर में बोला ।
“यही है वह ।” - क्लर्क दबे स्वर में बोला ।
“यही कौन ? और जरा इन्सान की तरह बोलो, बकरी की तरह मिमियाओ मत ।”
“जो हत्या की रात को होटल में आया था और जिसने चार सौ, तेंतीस नम्बर कमरा किराये पर लिया था ।”
“तुम्हें पूर्ण विश्वास है ?”
“शत प्रतिशत ।”
प्रभू ने एक विजयपूर्ण दृष्टि सुनील के चेहरे पर डाली और फिर गर्व भरे स्वर से बोला - “तुम पाल को बेवकूफ बना सकते हो, प्रभूदयाल को नहीं ।”
“लेकिन मैंने किया क्या है ?”
“यह भी मुझे बताना पड़ेगा ?” - प्रभूदयाल व्यंग्यपूर्ण स्वर से बोला ।
“और क्या किसी को बाहर से बुलाना पड़ेगा ?” - सुनील जल कर बोला ।
“तुमने रोशनलाल की हत्या की है ।” - प्रभू बोला ।
आरती के चेहरे का रंग उड़ गया ।
“क्या ?” - भंडारी आश्चर्य चकित स्वर से बोला - “इसने हत्या की है ?”
“जी हां ।”
रत्ना भी हैरानी से सुनील का मुंह देखने लगी थी ।
“लेकिन इसने रोशनलाल की हत्या क्यों की ?” - रत्ना बोली ।
“यह तो अभी यह खुद बतायेगा ।”
“इसकी उंगलियों के निशान लें, इन्स्पेक्टर साहब ?” - एक सिपाही ने पूछा ।
“लो, मैं अभी मिलान करना चाहता हूं ।” - प्रभू बोला ।
सिपाही सुनील की ओर बढा ।
सुनील ने अपने हाथ पीठ पीछे बांध लिये ।
“कोई फायदा नहीं है, सुनील ।” - प्रभू बोला - “हमें रोशनलाल के कमरे में तुम्हारी उंगलियों के निशान मिल चुके हैं ।”
और प्रभू ने अपनी जेब से उंगलियों के निशानों के एनलार्ज प्रिंट निकाल कर दिखाये ।
“तुम्हें पूरा विश्वास है कि यह मेरी उंगलियों के निशान हैं ?” - सुनील ने पूछा ।
“पहले नहीं था लेकिन अब इस क्लर्क द्वारा शिनाख्त हो चुकने के बाद हो गया है ।”
“लेकिन मैं तुम्हें अपनी उंगलियों के निशान नहीं लेने दूंगा ।” - सुनील हाथों को गाऊन की जेब में ठूंसता हुआ बोला ।
“तुम्हारा तो बाप भी लेने देगा ।” - और उसने सिपाहियों को इशारा किया ।
दो सिपाहियों ने आगे बढ कर सुनील को जकड़ लिया और उसके दोनों हाथ जेबों में से बाहर निकाल दिये । तीसरे सिपाही ने एक विशेष प्रकार के पेपर पर सुनील की उंगलियों के निशान ले लिये ।
सुनील ने भी हाथ पांव झटकने बन्द कर दिये ।
सिपाही ने वह पेपर प्रभूदयाल को सौंप दिया ।
प्रभू उस पेपर के निशानों को फोटोग्राफ के निशानों से मिलाने लगा । उसके चेहरे पर चिंता के भाव प्रकट होने लगे ।
सुनील ने आपार निर्लिप्तता का भाव प्रदर्शित करते हुए एक सिगरेट सुलगा लिया ।
प्रभूदयाल ने अपनी जेब से एक मैग्नीफाईंग ग्लास निकाला और दुगनी बारीकी से उंगलियों के निशान मिलाने लगा ।
“तुमसे इस आदमी की शिनाख्त में कोई गलती तो नहीं हो गई ?” - प्रभू ने चिंतित स्वर से पूछा ।
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।” - क्लर्क विश्वासपूर्ण स्वर से बोला ।
“उंगलियों के निशान नहीं मिलते न, प्यारेलाल ।” - सुनील सहज स्वर से प्रभूदयाल से बोला ।
प्रभूदयाल ने खा जाने वाली नजरों से सुनील को देखा लेकिन मुंह से कुछ नहीं बोला ।
“तुम्हारा आर्केस्ट्रा एकदम बन्द क्यों हो गया है, इन्स्पेक्टर साहब ?”
प्रभू नर्वस हो उठा ।
“अब तक तो तुमने अपनी ही हांकी है, अब एक काम मेरे कहने पर भी करो ।” - सुनील बोला ।
“क्या ?” - प्रभू संदिग्ध स्वर से बोला ।
“होटल के कमरे में मिले उंगलियों के निशान को जरा हरीश की उंगलियों के निशानों से मिला कर देखो तो ?”
“लेकिन हमें तो एक तुम्हारे कद-काठ के आदमी की तलाश है । हरीश का हुलिया तो उस आदमी से नहीं मिलता है जो होटल में देखा गया था ।”
“जो मैं कहता हूं, वह करो तो सही ।”
शायद प्रभूदयाल सुनील की बात न ही मानता अगर उसकी नजर हरीश के चेहरे पर न पड़ गई होती । हरीश का चेहरा राख की तरह सफेद हो उठा था ।
“माफ कीजियेगा ।” - प्रभू हरीश से बोला - “केवल रुटीन चैक-अप के लिए आप अपनी उंगलियों के निशान दे दीजिए ।”
“पागल हुये हो क्या ?” - हरीश एकदम चिल्ला पड़ा - “तुम इस बेवकूफ के बहकावे में आ गये हो । मैं कोई निशान-विशान नहीं दूंगा ।”
प्रभू और अधिक संदिग्ध हो उठा । वह नेत्रों में दृढ विश्वास लिये हरीश की ओर बढा ।
“हाथ मत लगाना मुझे ।” - हरीश चिल्लाया ।
प्रभू ने सिपाहियों को इशारा किया ।
सिपाहियों ने हरीश को पकड़ लिया । हरीश हाथ पांव झटकता रहा लेकिन प्रभू ने उसकी उंगलियों के निशान ले लिये ।
वह हरीश की उंगलियों के निशान फोटोग्राफ वाले निशानों से मिलाने लगा ।
अगले ही क्षण उसने फोटोग्राफ और दूसरे पेपर को जेब में ठूंसा और हथककड़ियों का जोड़ा निकाल लिया ।
“हरीश ।” - रत्ना तेज स्वर से बोली - “क्या मामला है ?”
“यह लोग मुझे फंसाने की चेष्टा कर रहे हैं ।” - हरीश दहशत भरे स्वर से चिल्लाया और फिर एकाएक द्वार की ओर भागा ।
“भागने की कोशिश मत करो ।” - प्रभूदयाल गरजा ।
लेकिन हरीश की गति में कोई अन्तर नहीं आया । वह डाईनिंग रूम का द्वार धकेल कर बाहर की ओर लपका ।
प्रभू ने होल्स्टर में से रिवाल्वर खींच लिया ।
रिवाल्वर पर नजर पड़ते ही रत्ना की चीख निकल गई ।
“रुक जाओ ।” - प्रभू चिल्लाया - “वरना गोली मार दूंगा । रुक जाओ । माई गॉड, आई विल शूट ।”
हरीश के भागते कदम एकदम रुक गए ।
प्रभू उसकी ओर बढा ।
प्रश्नों की बौछार से बचने के लिए सुनील डाइनिंग रूम से बाहर निकल गया ।
***
दोपहर को सुनील पुलिस स्टेशन पहुंचा साथ में भंडारी भी था ।
अब प्रभूदयाल के व्यवहार में भारी अन्तर था । वह सम्मानपूर्ण ढंग से सुनील से पेश आया ।
“हरीश ने अपराध स्वीकार कर लिया है ?” - सुनील बैठता हुआ बोला ।
“नहीं । लेकिन वह बच नहीं सकता । रोशनलाल के कमरे में उसकी उंगलियों के निशान मिले हैं । उसके कमरे की तलाशी ली गई है और वहां से जानते हो क्या मिला है हमें ?”
“क्या ?”
“एक रिवाल्वर । उस रिवाल्वर से तीन फायर किये गए हैं बैलेस्टिक एक्सपर्ट का कथन है कि रोशनलाल के शरीर में लगी गोलियां उसी रिवाल्वर में से चलाई गई हैं । रिवाल्वर के हत्थे पर से नम्बर घिसकर मिटा दिया गया है और विचित्र बात यह है कि उस पर किसी प्रकार की उंगलियों के निशान नहीं मिले हैं ।”
भंडारी ने आश्चर्यजनक दृष्टि से सुनील की ओर देखा और कुछ कहने के लिए मुंह खोला ।
सुनील ने मेज के नीचे भंडारी के पांव पर अपना पांव रख दिया ।
भंडारी के जबड़े कस गये ।
“लेकिन तुम्हें हरीश पर कैसे सन्देह हुआ ?”
“जब तुमने हरीश का बयान लिया था तो उसने कहा था कि वह हत्या की रात को इम्पीरियल होटल की ओर कतई नहीं गया था जबकि उसने मुझे यह कहा था कि उसने आरती को इम्पीरियल होटल के पास देखा था । अगर वह स्वयं वहां नहीं था तो उसने आरती को वहां कैसे देख लिया ?”
“तो होटल में उस रात देखी गई लड़की आरती थी ?” - प्रभू ने पूछा ।
“हां ।”
“और जो युवक उसके पीछे पीछे आया था ?”
“वह मैं था ।”
प्रभू हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
“तुम थे ?”
“तो सरिता झूठ बोल रही थी ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“ताकि उसके हाथ में ब्लैकमेल करने का हथियार आ जाये ।”
“किस्सा क्या है ?” - प्रभू उकता कर बोला ।
“किस्सा मैं तुम्हें शुरू से बताने आया हूं ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “रोशनलाल, डॉक्टर जे पी कश्यप, मनोहर और चमन इन चार आदमियों का एक गुट था जिन्होंने ब्लैकमेलिंग की एक मास्टर पीस तरकीब निकाल रखी थी । ये लोग ऐसे आदमियों पर नजर रखते थे जो शराब पीकर गाड़ी चलाते हों । शराब पीकर गाड़ी चलाते समय आदमी साधारणतया जरूरत से अधिक सावधानी बरतता है । वह गाड़ी को कम से कम रफ्तार पर चलाता है ताकि कहीं एक्सीडेंट न कर बैठे । डॉक्टर कश्यप शराब पीकर गाड़ी चलाते हुये किसी आदमी के पीछे लग जाता था । फिर मनोहर नकली एक्सीडेंट ड्रामा करता था ।”
“कैसे ?”
“उदाहरण के लिए आरती का केस सुनो । एक रात आरती एक दो पैग विस्की पिये घर लौट रही थी । डाक्टर कश्यप की गाड़ी उसके पीछे थी । एकाएक आरती को अपनी गाड़ी के एकदम सामने एक आदमी दिखाई देता है । और आरती घबरा जाती है । वह उसको बचाने के लिए गाड़ी को एकदम बाएं मोड़ देती है और फिर उस आदमी के गिर्द एक अर्द्ध-वृत्त सा काटती हुई गाड़ी को दांए मोड़ देती है । उसे एक भड़ाक की आवाज सुनाई देती है । वह गाड़ी को रोकती है और घूमकर देखती है कि उसे वह आदमी सड़क के बीच गिरा दिखाई देता है और डाक्टर कश्यप उसे उठा रहा होता है । आरती समझती है कि आदमी उसकी गाड़ी से टकरा गया है । वास्तव में होता यह है कि एक नपी तुली स्कीम के अनुसार मनोहर एकदम गाड़ी के सामने आ जाता है । आरती या कोई भी दूसरा ब्लैकमेलिंग का भावी शिकार मनोहर को बचाने के लिए गाड़ी बांए मोड़ता है । मनोहर स्वयं ही कूद कर गाड़ी के रास्ते से अलग हट जाता है । वह गाड़ी के हुड पर जोर से एक मुक्का मारता है । और फिर एक चीख के साथ सड़क पर लेट जाता है, डाक्टर कश्यप अपनी गाड़ी रोक कर उसे उठाने के लिए दौड़ता है, तब तक आरती भी वहां पर पहुंच जाती है और कश्यप आरती पर बरसने लगता है कि उसकी लापरवाही से एक्सीडेंट हुआ है उसे शराब पीकर गाड़ी चलाते शर्म आनी चाहिए वगैरह वगैरह । आरती वास्तव में ही स्वयं को भारी दुर्घटना का अपराधी समझने लगती है । डाक्टर मानवता का अवतार बनकर मनोहर को अपने क्लीनिक में ले जाने के लिए कार में लाद देता है और आरती को कहता है कि वह उसके पीछे-पीछे आए । यह बात मार्क करने वाली है कि डाक्टर आरती को अपने पीछे आने के लिए कहता है ताकि अगर आरती भागना चाहे तो भाग निकले ।”
“क्यों ?”
“इसलिए कि मनोहर को वास्तव में कोई चोट तो आई नहीं होती । अगर आदमी को वह अपनी ही गाड़ी में क्लीनिक ले आता तो सारी पोल ही खुल जाती । इसलिए पहले तो वह आरती पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है कि उसने बहुत भारी एक्सीडैंट कर डाला है और उसके बाद उसे भाग निकलने की पूरी छूट दे देता है । ऐसे में हर आदमी यही सोचता है कि क्यों न झंझट से पीछा छुड़ाने के लिए भाग निकला जाए और आरती भी भाग निकलती है ।”
“लेकिन मान लो अगर आरती डाक्टर के पीछे-पीछे सचमुच ही क्लीनिक पहुंच जाती ?”
“तो डाक्टर मनोहर का मुआयना करता और आरती से कह देता कि उसकी तकदीर अच्छी थी । आदमी को कोई विशेष चोट नहीं आई । किस्सा खत्म ।”
“खैर, आरती भाग निकली है फिर ?”
“फिर तीन चार दिनों बाद रोशनलाल आरती से सम्बन्ध स्थापित करता है । वह कभी स्वयं को प्राइवेट डिटैक्टिव, कभी दुर्घटना के शिकार का सम्बन्धी और कभी भाई बताता है । वह कहता है कि फलां दिन फलां स्थान पर आरती ने जो एक्सीडैंट किया था उसमें उस आदमी को भारी चोट आई है और पुलिस अपराधी की तलाश कर रही है और आरती घबरा जाती है । वह दुर्घटना के शिकार को डाक्टर कश्यप के क्लीनिक में देखने जाती है । वहां उसे मनोहर के स्थान पर चमनलाल दिखा दिया जाता है । चमन एक ऐसा अपंग इंसान है जिसकी रीढ की हड्डी पहले से ही सदा-सदा के लिए बेकार हो चुकी है । आरती को बताया जाता है कि यही वह आदमी हे जो उसकी कार से टकराया था इसलिए वह मनोहर और चमनलाल में फर्क नहीं जान पाती । डाक्टर उसे बताता है कि इस आदमी के बचने की एक सूरत है । वह यह कि इसे अमरीका ले जाकर इसका आप्रेशन कराया जाए जिसके लिए बीस हजार रुपये की जरूरत है । आरती वह खर्चा देना स्वीकार कर लेती है और एक बार रुपया देने भर की देर है और फिर ब्लैकमेलिंग की जाती है ।”
“लेकिन तुम्हें यह सब कैसे पता लगा ?”
“मैंने यह सोचा कि दुर्घटना के बाद सरिता की तरह डाक्टर कश्यप अपने शिकारों को भाग निकलने का अवसर देता है । लोग भाग निकलते हैं । उसके बाद आवश्यक नहीं है कि रोशनलाल ऐसे भागे हुए हर आदमी की जानकारी निकाल ही ले । कइयों का पता भी नहीं लगता होगा । मैं डाक्टर के पास गया और स्वयं को ऐसा ही एक आदमी कहा जो दुर्घटना के बाद डाक्टर के पीछे पीछे उसके क्लीनिक तक आने के स्थान पर भाग निकला था । डाक्टर समझता है कि अच्छा हुआ कि एक मुर्गी खुद घर फंसने आ गई है । वह मुझ पर भी अपना स्टंट आजमा देता है और मुझे भी चमनलाल के दर्शन करा देता है । डाक्टर मुझे चमनलाल को दिखाने विशालगढ ले गया । एक बार तो चमन से मिल लेने के बाद मैंने डाक्टर से पीछा छुड़ाया और दोबारा चमन और मनोहर से मिला । उनसे कुछ देर बातें करने पर ही मुझे उसकी सारी स्थिति समझ में आ गई ।”
“खैर छोड़ो । तुम आरती की बात करो ।”
“पहले हरीश की बात सुनो । रत्ना हरीश को अपना ममेरा भाई बताती है जो कि वास्तव में शायद रतना का भंडारी साहब से शादी से पहले का आशिक है । रत्ना एक नपी तुली स्कीम के अनुसार भण्डारी साहब को फांस कर उनसे शादी कर लेती है । हरीश भी श्रीनगर से राजनगर की कोठी में रत्ना के इर्द गिर्द गुजार देता है । आरती पर किसी प्रकार रत्ना और हरीश के सम्बन्ध प्रकट हो जाते हैं । वह शायद कभी उन दोनों को कोई ऐसी हरकत करते देख लेती है जो शायद बहन भाई के सम्बन्ध में अपेक्षित नहीं होती । आरती स्पष्ट शब्दों में तो कुछ नहीं कहती है लेकिन रत्ना के विरुद्ध वह भंडारी साहब के कान भरती रहती है । रतना और हरीश चिन्तित हो उठते हैं । क्योंकि भण्डारी साहब खुद भी अपने आपको रत्ना द्वारा फांसे हुए महसूस करते हैं । अगर उन्हें रत्ना और हरीश के सम्बन्धों का पता चल जाता है तो वह बदचलनी का इलजाम लगा कर रत्ना से तलाक ले सकते हैं । ऐसी सूरत में रत्ना को भंडारी साहब की जायदाद का एक पैसा भी नहीं मिल सकता । फिर न जाने कैसे हरीश को पता लग जाता है कि आरती को रोशनलाल ब्लैकमेल कर रहा है । वह समझता है कि रोशनलाल के पास शायद कुछ ऐसे कागजात हैं जो आरती के किसी कुकर्म से सम्बन्धित हैं । वह रोशनालाल से सम्पर्क स्थापित करता है और उसे पर्याप्त धन देकर यह कहता है कि रोशनलाल जिस ग्राउण्ड पर आरती को ब्लैकमेल कर रहा है वह रोशनलाल उसे भी बता दे ताकि वह आरती को रत्ना के मामले में अपना मुंह बन्द रखने के लिए मजबूर कर सके । रोशनलाल सोचता है कि एक उल्लू और फंसा । वह हरीश से रुपया तो लेता रहता है लेकिन बताता उसे कुछ भी नहीं । हरीश सोचता है कि ऐसे तो कुछ हासिल होगा नहीं । क्यों न वह रोशनलाल की अनुपस्थिति में उसके होटल के कमरे की तलाशी ले और वे कागजात खोज निकाले जिसके दम पर रोशन लाल आरती को ब्लैकमेल कर रहा है जबकि वास्तव में ऐसे कोई कागजात थे ही नहीं । हत्या की रात को हरीश होटल में जाता है । वह रोशनलाल को अपने कमरे में नहीं पाता । उस समय चार सौ तैंतीस नम्बर खाली था । वह चार सौ तैंतीस के रास्ते चार सौ बत्तीस में घुस जाता है और रोशनलाल की एक-एक चीज की तलाशी लेने लगता है । उसी समय रोशनलाल आ जाता है । वह घबराहट में बाथरूम में घुस जाता है । कुछ ही देर बाद आती भी वहां आ जाती है । उस समय तक मैं चार सौ तेंतीस नम्बर कमरा किराये पर ले चुका होता हूं । बाथरूम में से आरती को हरीश भी देखता है और अपने कमरे में से दरवाजे में छेद करके मैं भी देखता हूं । आरती रोशनलाल को चैक देकर बाहर निकल जाती है । रोशनलाल उसके साथ जाता है और अपने कमरे का द्वार बाहर से बन्द कर जाता है । बीच के द्वार को मैं अपनी ओर से ताला लगा देता हूं । परिणाम यह होता है कि हरीश चूहे की तरह रोशनलाल के कमरे में फंस जाता है । उसी समय रोशनलाल वापिस आ जाता है । वह बाथरूम में हरीश को पकड़ लेता है । हरीश उसे गोली मार देता है और भाग निकलता है । संयोग से कोई उसे होटल से भागता हुआ देखता नहीं । बाद में हरीश सोचता है कि इस हत्या में आरती को आसानी से फंसाया जा सकता है । इसलिए वह कह देता है कि हत्या के थोड़ी ही देर बाद उसने आरती को इम्पीरियल होटल के पास देखा था । उस समय यह भूल जाता है कि ऐसा कहने में वह स्वयं ही सिद्ध कर रहा है कि हत्या के समय वह भी इम्पीरियल होटल के आस पास था । वह सोचता है कि उसकी गवाही और रोशनलाल की जेब में पड़ा हुआ आरती का चैक यही सिद्ध करेंगे कि आरती ने ही रोशनलाल की ब्लैकमेलिंग की मांगों से परेशान होकर उसकी हत्या कर दी है । लेकिन हरीश के दुर्भाग्य से रोशनलाल की जेब में से वह चैक मैं निकाल लाया ।”
“लेकिन, सुनील ।” - प्रभूदयाल बोला - “दो बातें समझ में नहीं आतीं । एक तो यह कि हरीश वह रिवाल्वर हत्या के बाद अपने कमरे में क्यों रखे रहा ? दूसरी बात यह कि अगर वह आरती के सिर ही हत्या का अपराध थोपना चाहता था तो उसने वह रिवाल्वर आरती के कमरे में क्यों नहीं रख दी ?”
“यही तो किया था उसने ।”
“तो फिर रिवाल्वर हरीश के कमरे में कैसे पहुंच गया ?”
सुनील ने उसे आंख मार दी ।
“सुनील ।” - प्रभूदयाल बौखलाकर बोला - “तुम... तुम मरोगे किसी दिन ।”
“जब मरेंगे तब देखेंगे । अभी तो जिन्दा है ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “चलिए भंडारी साहब ।”
***
शाम को प्रभूदयाल का फोन आया ।
“सुनील ।” - वह बोला - “दो बड़ी गरमा-गरम खबरें हैं ।”
“क्या ?”
“एक तो यह कि हरीश ने अपना अपराध कबूल कर लिया है और उसने भी वही कहानी सुनाई है जो तुमने सुनाई थी । अन्तर केवल इतना है कि उसकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि रिवाल्वर उसके कमरे में कैसे आ गया ?”
“और दूसरी खबर क्या है ?”
“मनोहर नाम के एक आदमी ने डाक्टर कश्यप का खून कर दिया है । उसने एक आठ इंच लम्बे फल का चाकू एक दम डाक्टर के दिल में घुसेड़ दिया है । मनोहर पकड़ा गया है । उसने ब्लैकमेलिंग की स्कीम की एक दम तुम्हारे जैसी बातें सुनाई हैं । हमने चमनलाल को भी गिरफ्तार कर लिया है । डाक्टर कश्यप के क्लीनिक में लगी एक गुप्त तिजोरी में से लगभग पन्द्रह लाख रुपये बरामद हुए हैं । जो ब्लैकमेलिंग वाली बात की पुष्टि करते हैं ।”
“अब मैं दो खबरे सुनाता हूं तुम्हें ?” - सुनील बोला ।
“क्या ?”
“दो दिन बिना सूचना आफिस से गैरहाजिर रहने के कारण मलिक साहब ने मुझे नोटिस दे दिया है कि अगर मैंने दोबारा यही काम किया तो मैं नौकरी से निकाल दिया जाऊंगा ।”
“और ?”
“और यह कि भंडारी साहब ने अपनी पत्नी से तलाक लेने के लिए अदालत में अर्जी दे दी है ।”
“मेरी क्या दिलचस्पती है इन बातों से, मुझे क्यों बता रहे हो यह ?”
“तुम्हारी जनरल नालेज बढाने के लिये ।”
“लानत है तुम पर ।” - और सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
अभी सुनील ने रिसीवर रखा ही था कि फोन की घन्टी फिर बज उठी ।
“हैलो !” - वह बोला ।
“सुनील, मैं आरती बोल रही हूं ।” - दूसरी ओर से आरती का मधुर स्वर सुनाई दिया ।
“तुम्हें यह नम्बर कैसे मालूम हो गया ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“माई डियर ब्रदर डैडी ने मुझे सब कुछ बता दिया है ।”
“खैर, कैसे याद किया मुझे ?”
“मैं तुमसे अपने दुर्व्यवहार की माफी मांगना चाहती हूं ।”
“तुमने कोई दुर्व्यवहार नहीं किया मुझसे ।”
“मैंने तुम्हें परखने में गलती की ।”
“नैवर माइन्ड ।”
“और...”
“और क्या ?”
“सुनील, मेरे उन कागजों का क्या होगा ?”
“कौन से कागज ?”
“वही जो रोशन लाल के पास थे जिनके स्थान पर उसने मुझे कोरे कागज देकर बेवकूफ बना दिया था जिसमें मेरी दुर्घटना की जिम्मेदारी के विषय में स्वीकृति पत्र और चमनलाल से मेरे समझौते का पत्र था ?”
“अब उनकी चिन्ता मत करो तुम । जब सारा मामला ही झूठा सिद्ध हो चुका है तो तुम्हारे पर उस नकली एक्सीडेंट की जिम्मेदारी कैसे आ सकती है ? अब उन कागजों की कीमत रद्दी जितनी नहीं है । उल्टे डाक्टर कश्यप की सेफ में से निकले धन में से तुम्हारे चालीस हजार रुपये वापिस मिल सकते हैं ।”
“लेकिन वे कागज गये कहां ?”
“वे कागज अब तक पुलिस के हाथ लग चुके होंगे चाहे वे रोशन के पास रहे हों या डाक्टर कश्यप के पास । बहरहाल वे किसी के पास भी हों तुम्हें चिन्त‍ित होने की आवश्यकता नहीं है ।”
टेलीफोन में आरती ने एक गहरी सांस खींची ।
“सुनील ।” - वह बोली - “मैं कैसे तुम्हारा शुक्रिया अदा कर सकती हूं ?”
“टेलीफोन बन्द करके ।” - सुनील ने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया ।
केस का सारा विवरण ब्लास्ट में छपा । आरती ने फिर कभी सुनील से सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा नहीं की ।
समाप्त