अगली सुबह नौ बजे के बाद सुनील सोकर उठा ।
उठते ही उसने सबसे पहले विश्वनगर में 43566 पर टेलीफोन किया । पिछली रात की तरह फिर कितनी ही देर घटी बजती रही लेकिन दूसरी ओर से किसी ने टेलीफोन नहीं उठाया । हार कर सुनील ने सम्बन्धविच्छेद कर दिया ।
नित्यकर्म से निवृत होकर उसने पुलिस हैडक्वार्टर रामसिंह को फोन किया । सम्बन्ध तुरन्त स्थापित हो गया ।
“सुनील बोल रहा हूं ।” - सुनील बोला ।
“बोलो ।” - रामसिंह गम्भीर स्वर में बोला ।
“मैंने कल रात तुम्हारी कोठी पर भी टेलीफोन किया था ।”
“कल कोठी का टेलीफोन खराब था ।”
“डाक्टर रंगनाथन वाले मामले में क्या कर रहे हो ?”
“कुछ नहीं कर रहा । जो कर चुका हूं, उसने ही अच्छी-खासी बेइज्जती करवा दी है ।”
“मतलब ?”
“मतलब यह, रिपोर्टर साहब, कि तुम्हारी चण्डूखाने की गप पर विश्वास करके मैंने सी आई डी के अपने सहयोगी सुपरिन्टेण्डेण्ट से बात की और उससे कहा कि वह फौरन डाक्टर रंगनाथन की हिफाजत का कोई इन्तजाम करवाये । वह फौरन इस सन्दर्भ में डाक्टर रंगनाथन से बात करने उसकी कोठी पर पहुंच गया । वहां डाक्टर रंगनाथन ने उसकी वह गत बनाई कि तौबा भली । डाक्टर रंगनाथन ने कोई अंगरक्षक रखने से साफ इन्कार कर दिया है और यह भी कह दिया है कि अगर उसे इस प्रकार खामखाह परेशान किया गया तो वह सीधे गृहमन्त्री को रिपोर्ट करेगा । सी आई डी सुपरिन्टेण्डेण्ट ने वापस आकर मुझे आड़े हाथों लिया । हजार गालियां अगर मुझे पड़ीं तो सौ-पचास तुम्हें भी पड़ी होंगी ।”
“यानी कि तुम्हारी ओर से कहानी खतम ?”
“और क्या ? अपहरण वाली परीकथा को सत्य सिद्ध करने का कोई आधार तो हो । हमने लाला तीरथराम को भी चैक करवाया है । वह विश्वनगर का एक पैसे वाला और इज्जतदार आदमी है और बेचारा आंखों से लाचार है । मैं तो हरगिज नहीं मान सकता कि ऐसा आदमी उन बदमाशों का सरगना हो जो, तुम्हारे कथनानुसार, डाक्टर रंगनाथन के अपहरण का षडयन्त्र रच रहे हों । और फिर लाला तीरथराम को ऐसी किसी हरकत से फायदा क्या ?”
“लाला तीरथराम का इस षड्यन्त्र से सम्बन्ध न हो, यह हो सकता है लेकिन यह नहीं हो सकता कि षड्यन्त्र वाली खबर झूठी हो । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि बहुत जल्दी ही कोई हंगामा खड़ा होने वाला है ।”
“कल रात इसी सन्दर्भ में पुलिस कन्ट्रोल रूम में भी एक टेलीफोन आया था कि बीच रोड पर कुछ बदमाश मौजूद हैं जो कि डाक्टर रंगनाथन के अपहरण का षड्यन्त्र रच रहे हैं । पुलिस ने उस इमारत पर छापा मारा तो क्या मिला ? एक सुनसान इमारत जो कि हफ्तों से खाली पड़ी है ।”
“लेकिन मैंने खुद...”
सुनील एकाएक चुप हो गया ।
“क्या तुमने खुद ?” - रामसिंह तीव्र स्वर से बोला - “कहीं कल रात पुलिस कन्ट्रोल रूम टेलीफोन करने वाले तुम ही तो नहीं थे ?”
“अगर मैं था भी तो अब क्या फर्क पड़ता है । चिड़िया तो उड़ गई और तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं ।”
“मुझे विश्वास नहीं लेकिन तुम्हें तो विश्वास है । सारी दास्तान अपने अखबार में छाप दो । और फिर देखो डाक्टर रंगनाथन तुम्हारी और तुम्हारे अखबार की क्या गत बनाता है ।”
“ऐग्जेक्टली । इसीलिए ‘ब्लास्ट’ में यह खबर नहीं छप पायेगी । हमारे अखबार के मालिक का दिमाग तुम्हारे दिमाग से भिन्न नहीं है । सारी कहानी सुनने के बाद उसने भी यही कहना है कि सबूत लाओ ।”
“देयर यू आर ।”
“यानी कि डाक्टर रंगनाथन की हिफाजत के लिए कतई कुछ कर पाना सम्भव नहीं ?”
“सुनील, सच्ची बात यह है कि क्योंकि बात तुमने कही है इसलिए मैंने डाक्टर रंगनाथन की हिफाजत का थोड़ा-बहुत इन्तजाम तो करवाया ही है । मैं इस ढंग से निगरानी करवा रहा हूं कि उसे खबर न होने पाये क्योंकि अगर उसे खबर हो गई तो बबाल तो वह खड़ा करेगा ही, साथ ही इस थोड़े-बहुत इन्तजाम को भी वापस लेना पड़ेगा ।”
“ठीक है रामसिंह, आखिर पुलिस वाले हो । तगड़ा इन्तजाम तो तभी करवाओगे जब इन्तजाम की जरूरत नहीं रहेगी ।”
सुनील ने सम्बन्धविच्छेद कर दिया ।
उसने अपने एक परिचित ट्रैवल एजेण्ट को फोन किया । मालूम हुआ कि विश्वनगर के लिए इन्डियन एयरलाइन्स का एक प्लेन पौने बारह बजे रवाना होने वाला था और सुनील को उसमें सीट मिल सकती थी । सुनील ने उसमें सीट बुक करवाकर टिकट एयरपोर्ट पर भेज देने के लिए कह दिया ।
उसने ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में फोन करके चार दिन की छुट्टी की मंजूरी ले ली ।
फिर उसने बिना रमाकान्त की इजाजत के उसकी बढिया-बढिया तीन-चार पोशाकें निकालीं और उन्हें उसी के एक सूटकेस में पैक करना आरम्भ कर दिया ।
पिछली रात रणजीत से हथियाई रिवाल्वर उसने वहीं छोड़ दी क्योंकि हवाई जहाज से सफर करते समय रिवाल्वर पास रख पाना सम्भव नहीं था ।
डाक्टर रंगनाथन को और सम्बन्धित अधिकारियों को अपहरण के षड्यन्त्र का विश्वास दिलाने का एक ही तरीका था ।
वह किसी भी प्रकार विश्वनगर से वाणी को तलाश करके वापस लाये और फिर वाणी ही सम्बन्धित अधिकारियों को बताये कि उसे षड्यन्त्र की खबर कैसे लगी और इसमें कितनी सच्चाई थी ।
और फिर वाणी को उस खतरे से भी सावधान करना जरूरी था जिसकी जिक्र उस गुमनाम टेलीग्राम में था ।
***
दो बजे सुनील विश्वनगर के रिट्ज होटल में मौजूद था ।
वहां से उसने फिर 43566 पर टेलीफोन किया ।
उत्तर नदारद ।
सुनील ने बड़े धीरज के साथ हर आधे-पौने घण्टे के बाद उस नम्बर पर रिंग करना आरम्भ कर दिया ।
हर बार निराशा ही हाथ लगी ।
रात के सात बजे जाकर कहीं दिन-भर की सिरखपाई का कोई नतीजा निकला ।
उस बार दो-तीन बार घण्टी बजने के बाद ही किसी ने टेलीफोन उठा लिया ।
“हल्लो !” - दूसरी ओर से एक स्त्री का स्वर सुनाई दिया ।
“वाणी ?” - सुनील व्यग्र स्वर से बोला ।
“वाणी !” - दूसरी ओर से आवाज आई - “वाणी तो यहां नहीं है । क्या उसने यहां आना था ?”
“जरूर आना होगा, जी” - सुनील बोला - “वर्ना वह मुझे यह टेलीफोन नम्बर न देती ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
“मेरा नाम सुनील है । राजनगर से आया हूं । वाणी का परिचित हूं ।”
“और वाणी ने आपको कहा था कि आप इस नम्बर पर उससे सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं ?”
“जी हां ।”
“देखिये, मेरा नाम अंजना है । वाणी मेरी सहेली है । वह अक्सर यहां आती रहती है, लेकिन पिछले कई दिनों से तो वह यहां नहीं आई है ।”
“कमाल है !”
“आप उसे उसके घर पर क्यों नहीं देखते ?”
“मुझे उसके घर का पता मालूम नहीं ।”
“वाणी ने नहीं बताया आपको ?”
“बस, जिक्र ही नहीं आया । उसने मुझे यह नम्बर बताया । मैंने सोचा यहां उससे बात तो हो ही जायेगी । घर का पता फिर पूछ लूंगा । आप तो उसके घर का पता जानती ही होंगी ?”
दूसरी ओर से उत्तर नहीं मिला ।
“अगर आप जानती हैं तो बता दीजिए । मुझे उससे एक बेहद महत्वपूर्ण बात करनी है ।”
“सी-27, प्रभातनगर ।” - दूसरी ओर से हिचकिचाहट-भरी आवाज आई ।
“थैंक्यू वैरी मच । मैं प्रभातनगर जाता हूं । अगर वाणी आपके पास आये तो उसे बता दीजियेगा कि मैं रिट्ज होटल के 217 नम्बर कमरे में हूं ।”
“कह दूंगी ।”
“थैंक्स अगेन ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
वह तुरन्त होटल से निकला, एक टैक्सी पर सवार हुआ और प्रभातनगर पहुंचा । टैक्सी उसने सी ब्लाक के कोने पर ही छोड़ दी और पैदल आगे बढा ।
सी-27 तलाश करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई ।
इमारत में अंधेरा था और इमारत के समीप के स्ट्रीट लाइट के खम्भे का बल्ब फ्यूज मालूम होता था । फिर भी सुनील को ऐसा लगा जैसे उसने एक खिड़की के शीशे में एक साया देखा हो ।
सुनील ने आसपास नजर दौड़ाई । अन्य इमारतों में बत्तियां जल रही थीं । केवल उसी इमारत में अंधेरा था ।
अंधेरी इमारत के भीतर किसी का क्या काम ?
सुनील, जो कम्पाउण्ड लांघ कर बरामदे तक पहुंच गया था, कुछ क्षण वहीं ठिठका रहा फिर वह वापस घूमा और दबे पांव बाहर की ओर बढा ।
तभी उसके पांव के नीचे आकर कोई सूखी टहनी चरमराई ।
“कौन है ?” - एकदम इमारत के भीतर से कोई बोल पड़ा ।
सुनील तुरन्त नीचे झुका और झाड़ियों के पीछे दुबक गया ।
इमारत का दरवाजा खुला ।
सुनील को बरामदे में दो साये दिखाई दिये ।
“कौन था ?” - एक बोला ।
“कोई भी नहीं था” - दूसरा तनिक चिड़चिड़े स्वर में बोला - “तुम्हारे तो कान बज रहे हैं, अमर ।”
अमर !
लिटन रोड पर अग्रवाल साहब के घर में जिन दो आदमियों से वह और वाणी टकराये थे, उन्होंने भी अमर नाम के किसी व्यक्ति का जिक्र किया था । लेकिन वे दोनों तो अमर का जिक्र यूं कर रहे थे जैसे वह वाणी का हिमायती था और षड्यन्त्रकारियों से उसका कोई मित्रतापूर्ण सम्बन्ध नहीं था । लेकिन यहां हालात उलटे लग रहे थे । यहां अमर और उसका साथी जिस प्रकार वाणी के घर में छुपे बैठे थे, उससे तो ऐसा नहीं लगता था कि वे वाणी के हितचिन्तक हों ।
तभी किसी ने कम्पाउन्ड का फाटक ठेला ।
सुनील ने उस ओर निगाह उठाई ।
एक लड़की ने कम्पाउण्ड में कदम रखा ।
क्या वह वाणी थी ?
अंधेरे में कुछ पता नहीं लग रहा था । सुनील फैसला नहीं कर पा रहा था कि उसे सावधान करे या चुपचाप तमाशा देखे ।
बरामदे में खड़े अमर और उसका साथी भी एक खम्भे की ओट में हो गये थे ।
वह लड़की लम्बे डग भरती हुई सुनील के समीप से गुजर गई ।
तभी बरामदे में बत्ती जली ।
रोशनी सीधी लड़की के चेहरे पर पड़ी ।
वह वाणी नहीं थी ।
सुनील ने शान्ति की सांस ली ।
वह सरोज नाम की वह लड़की थी जो राजनगर में सुनील को शेषकुमार समझकर उसके फ्लैट से बीच रोड वाली इमारत तक लेकर गई थी ।
“सरोज !” - बरामदे में खड़े दो आदमियों में से एक बोला ।
“हल्लो, अमर” - सरोज बरामदे में पहुंच गई - “हल्लो, प्रकाश । चौंक गये न ?”
“तुम यहां कैसे आ गईं ?” - अमर के नाम से सम्बोधित किया जाने वाला व्यक्ति बोला ।
“कागजात लाई हूं ।”
“लेकिन कागजात लेने तो यहां से शेषकुमार गया था ?” - प्रकाश बोला ।
“उसे लाला का आदेश हुआ है कि वह राजनगर में ही रुके ।”
“ओह ! हम तो शेषकुमार की फिक्र कर रहे थे कि वह आया नहीं । वापसी में वह प्लेन से आने वाला था । इस हिसाब से उसे कब का यहां पहुंच जाना चाहिए था ।” - प्रकाश बोला ।
“भीतर आओ ।” - अमर बोला ।
तीनों इमारत में प्रविष्ट हो गये । दरवाजा बन्द हो गया । फिर भीतर भी बत्ती जल उठी ।
सुनील हैरान था । सरोज निश्चय ही वही कागजात वहां लाई थी जिनका जिक्र हरबर्ट ने राजनगर में किया था । तो फिर ये लोग वाणी के घर क्या कर रहे थे ?
इस रहस्य का एक ही हल सम्भव था कि वाणी भी इन्हीं की सहयोगिनी थी ।
लेकिन यह कैसे सम्भव था ?
तभी दरवाजा फिर खुला ।
सरोज बाहर निकली ।
बाहर सड़क पर एक टैक्सी खड़ी थी जो शायद उसी का इन्तजार कर रही थी । सरोज उस पर सवार हुई और वहां से रवाना हो गई ।
थोड़ी देर बाद अमर और प्रकाश दोनों बाहर निकले । प्रकाश के हाथ में एक सीलबन्द लिफाफा था जिसे दोहरा करके उसने अपनी पतलून की जेब में रख लिया ।
वह निश्चय ही वही सीलबन्द लिफाफा था जो राजनगर में सुनील के हाथ आते-आते बचा था ।
“हमेशा की तरह सरोज ने यहीं रहना है” - प्रकाश बोला - “अगर कहीं जाओ तो चाबी लैटर बाक्स में डाल जाना ।”
“अच्छा ।” - अमर बोला ।
प्रकाश ने अमर से हाथ मिलाया और आगे बढा ।
अमर ने बरामदे की बत्ती बुझाई और वापस इमारत में घुस गया । इमारत का दरवाजा फिर बन्द हो गया । फिर भीतर की बत्ती भी बन्द हो गई ।
प्रकाश सड़क पर पहुंच चुका था ।
सुनील चुपचाप झाड़ियों के पीछे से निकला और उसके पीछे हो लिया ।
अब सुनील चाहता था कि किसी प्रकार वह रहस्यपूर्ण लिफाफा उसके हाथ आ जाये ।
मोड़ पर एक टैक्सी स्टैण्ड था ।
प्रकाश एक टैक्सी में सवार हो गया ।
“महारानी ।” - सुनील ने उसे टैक्सी ड्राइवर को कहते सुना ।
टैक्सी आगे बढी ।
सुनील भी तुरन्त एक टैक्सी में सवार हो गया ।
“महारानी ।” - वह भी टैक्सी ड्राइवर से बोला ।
महारानी पता नहीं क्या बला थी लेकिन उसके सन्दर्भ में प्रकाश का पीछा करना आसान हो गया था । अब उसे इस बात की चिन्ता नहीं थी कि वहीं प्रकाश की टैक्सी उसकी दृष्टि से ओझल न हो जाये ।
महारानी एक रेस्टोरेन्ट निकला, जिसके बाहर एक शो विन्डो में लगी अर्धनग्न युवतियों की तसवीरों से जाहिर होता था कि वहां कैबरे भी होता था ।
प्रकाश रेस्टोरेन्ट में प्रविष्ट हुआ ।
सुनील ने भी उसके साथ-साथ ही भीतर कदम रखा । प्रकाश ने उसे पहले कभी नहीं देखा था, इसलिये सुनील को पहचाने जाने की चिन्ता नहीं थी ।
प्रकाश को स्टीवर्ट डान्स फ्लोर के एकदम पास वाली एक टेबल पर ले गया । प्रकाश शायद वहां अक्सर आता जाता था इसलिये स्टीवर्ट शायद उसे अच्छी तरह पहचानता था ।
इसके विपरीत सुनील को डान्स फ्लोर से बहुत परे एक टेबल मिली ।
फ्लोर पर कैब्रे चल रहा था ।
प्रकाश की कैब्र में कोई दिलचस्पी नहीं मालूम होती थी । वह बार-बर घड़ी देख रहा था ।
थोड़ी देर बाद दो अन्य आदमी रेस्टोरेन्ट में दाखिल हुए । उन्होंने मुख्य द्वार के समीप ही खड़े स्टीवर्ट से कुछ पूछा । स्टीवर्ट ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और घूमकर डान्स फ्लोर की ओर बढा । वे दोनों उसके पीछे हो लिये ।
स्टीवर्ट उन्हें प्रकाश की टेबल पर छोड़ गया ।
कैब्रे डान्सर पर पड़ती स्पाट लाइट का तीव्र प्रकाश प्रकाश की टेबल पर भी प्रतिबिम्बित हो रहा था । उस प्रकाश में सुनील ने उन दोनों आदमियों की सूरत अच्छी तरह देखी ।
वे दोनों विदेशी मालूम होते थे ।
कुछ क्षण वे आपस में बातें करते रहे, फिर वे तीनों उठ खड़े हुए ।
सुनील सावधान हो गया ।
पहले प्रकाश और उसके पीछे मेजों के बीच में से गुजरते दोनों विदेशी आगे बढे । उनका रुख रेस्टोरेन्ट के मुख्य द्वार की ओर नहीं था ।
सुनील नीम-अंधेरे में आंखें फाड़-फाड़कर उन्हें देखता रहा ।
हाल की साइड में एक भारी पर्दा लटक रहा था, जिसे एक ओर हटाकर वे तीनों सुनील की दृष्टि से ओझल हो गये ।
सुनील भी अपने स्थान से उठा और उसी ओर बढा ।
पर्दे के समीप पहुंचकर उसने पर्दा हटाया और उसके पीछे कदम रखा ।
किसी ने उसे रोका नहीं । किसी ने उसे टोका नहीं ।
बाहर कैब्रे अपनी चरम सीमा पर था इसीलिये शायद किसी को उसकी ओर ध्यान देने की फुरसत नहीं थी ।
सुनील के सामने एक लम्बा गलियारा था जिसके दोनों ओर दरवाजे थे । सुनील को आखिर के द्वार से भीतर प्रविष्ट होते एक आदमी की हल्की-सी झलक मिली ।
सुनील लपककर उस दरवाजे के समीप पहुंचा । उसने सावधानी से दरवाजे पर अपनी हथेली रखकर धीरे से भीतर को धक्का दिया ।
दरवाजा भीतर से बन्द था ।
सुनील ने आसपास दृष्टि दौड़ाई ।
गलियारा सुनसान पड़ा था ।
वह एक क्षण हिचकिचाया । फिर उसने झुककर की होल में आंख लगा दी ।
भीतर एक गोल मेज के इर्द-गिर्द उसे प्रकाश और दोनों विदेशी बैठे दिखाई दिये ।
वह सीलबन्द लिफाफा जो उसने प्रकाश को दोहरा करके अपनी पतलून की जेब में रखते देखा था, इस समय उनके बीच में मेज पर पड़ा था ।
प्रकाश जल्दी-जल्दी बोल रहा था ।
कलेजा थामे सुनील सारा दृश्य देख रहा था । उसे भय था कि कहीं उसी क्षण गलियारे में कोई आ न जाये ।
प्रकाश ने एक ब्लेड निकाला और उसकी नोक को प्रयोग में लाकर उसने बड़ी सफाई से लिफाफे पर लगी सील काट दी । फिर उसने बड़ी सावधानी से लिफाफा खोला । लिफाफे में से उसने कई बार तह किया हुआ एक कागज निकाला और उसे मेज पर फैला दिया ।
दोनों विदेशी नक्शे पर झुक गये ।
निश्चय ही वह एटामिक एनर्जी कमीशन की इमारतों का नक्शा था । राजनगर में हरबर्ट ने भी उसे यही बताया था । इसी के सन्दर्भ में उसने अपनी एटामिक एनर्जी कमीशन की चार साल की नौकरी का हवाला दिया था ।
विदेशियों ने नक्शे से अपनी निगाह हटा ली ।
वार्तालाप फिर आरम्भ हो गया ।
अन्त में तीनों सिर सहमतिसूचक ढंग से हिले । विदेशियों ने बारी-बारी प्रकाश से हाथ मिलाया और फिर उठ खड़े हुए ।
सुनील तुरन्त अपने स्थान से हट गया । गलियारे के सिर पर एक दरवाजा था । वह उसे ठेलकर बाहर निकल आया । वह दरवाजा पिछले कम्पाउन्ड में खुलता था जो सुनसान था, अंधेरा था ।
दरवाजे की ओट में से फिर सुनील ने गलियारे में झांका ।
दोनों विदेशी कमरे से बाहर निकले और आगे बढे ।
कुछ ही क्षण बाद वे परदा हटाकर दृष्टि से ओझल हो गये ।
प्रकाश उनके साथ बाहर नहीं निकला था ।
सुनील वापस अपने पहले वाले स्थान पर आ गया और की होल में से भीतर झांकने लगा ।
मेज पर एक मोमबत्ती जल रही थी ।
प्रकाश ने नक्शे को वापस लिफाफे में रखा, लिफाफा बन्द किया और फिर बड़ी सावधानी से उस पर उखाड़ी हुई सील चिपकाने लगा ।
अन्त में कार्य समाप्त करके उसने सील का निरीक्षण किया और फिर सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाया । लिफाफे को दोहरा करके उसने वापस पतलून की जेब में रख लिया और मोमबत्ती बुझा दी । वह अपने स्थान से उठा ।
सुनील भी अपने स्थान से हटा और लम्बे डग भरता हुआ परदे की ओर बढ गया । वह वापिस अपनी टेबल पर पहुंच गया ।
कैब्रे समाप्त हो चुका था । अब हाल की सारी बत्तियां जल रही थीं ।
प्रकाश भी हाल में दाखिल हुआ और वापस अपनी टेबल पर आ बैठा ।
एक वेटर उसके सामने बियर का एक बड़ा-सा जग रख गया ।
सुनील ने भी बियर का आर्डर दिया । बियर उसे तुरन्त सर्व हो गई । उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और उसके कश लेता हुआ बियर की चुस्कियां लेने लगा ।
प्रकाश के साथी दोनों विदेशी हाल में कहीं नहीं थे । वे निश्चय ही वहां से जा चुके थे ।
सुनील को प्रकाश का चरित्र बड़ा रहस्यमय लग रहा था । इस बात में तो कोई सन्देह नहीं था कि वह षड्यन्त्रकारियों का साथी था और लाला नाम के उनके सरगने का - चाहे वह लाला तीरथराम था या कोई और - विश्वासपात्र आदमी था । अगर ऐसा न होता तो कागजात का वह सीलबन्द लिफाफा राजनगर से आई सरोज उसे कभी न सौंपती । लेकिन सुनील ने पिछवाड़े के कमरे में प्रकाश को जो हरकत करते देखा था, उससे तो यही लगता था कि प्रकाश अपने साथियों के साथ कोई धोखाधड़ी करने की फिराक में था । डाक्टर रंगनाथन में एक से अधिक विदेशी शक्तियों की दिलचस्पी होनी कोई असम्भव बात नहीं थी । सम्भव था कि ‘लाला’ नाम का रहस्यपूर्ण आदमी जिन विदेशी शक्तियों की खातिर डाक्टर रंगनाथन के अपहरण का षड्यन्त्र रच रहा था, प्रकाश उनके अलावा किसी अन्य विदेशी शक्ति के एजेन्टों को वे कागजात बेचने की फिराक में था जो डाक्टर रंगनाथन के अपहरण में बड़ा महत्तवपूर्ण रोल अदा करने वाले थे ।
लेकिन इस तसवीर में वाणी कहां फिट होती थी ?
और वह विश्वनगर में थी कहां ?
उसी क्षण सुनील की निगाह मुख्य द्वार की ओर उठ गई ।
उसके मुंह की ओर बढता हुआ बियर का मग रास्ते में ही रुका रह गया । उसका मुंह खुले का खुला रह गया । वह हक्का-बक्का-सा दरवाजे की ओर देखता रहा ।
दरवाजे पर वाणी खड़ी थी ।
वाणी ने एक सरसरी निगाह चारों ओर दौड़ाई और फिर नाक की सीध में प्रकाश की ओर बढी ।
सुनील मुंह बाये उसे आगे बढता देखता रहा ।
वाणी सीधी प्रकाश की टेबल पर पहुंची । प्रकाश की उस पर निगाह पड़ी । उसके होंठों पर एक मीठी मुस्कराहट उभरी और उसने वाणी को बैठने का संकेत किया ।
वाणी उसके सामने बैठ गई ।
रहस्य की परतें और गहरी होती जा रही थीं ।
वाणी का प्रकाश से क्या वास्ता ?
क्या प्रकाश ही वह आदमी तो नहीं था जिसने सुनील को राजनगर के पत्ते पर गुमनाम टेलीग्राम भेजा था ?
प्रकाश के संकेत पाकर एक वेटर वाणी के लिये कोका कोला ले आया ।
दोनों सिर झुकाये धीरे-धीरे बातें करने लगे । लगता था किसी गम्भीर विषय पर वार्तालाप हो रहा था ।
तभी वाणी अपने स्थान से उठ खड़ी हुई ।
सुनील ने जल्दी से वेटर को बुलाकर अपना बिल चुकाया ।
वाणी बाहर की ओर बढ रही थी ।
कुछ क्षण बाद सुनील भी अपने स्थान से उठा और तेजी से बाहर की ओर लपका ।
बाहर वाणी फुटपाथ पर आगे बढ रही थी ।
सुनील लपकता हुआ उसके समीप पहुंचा ।
“वाणी !” - उनके समीप आकर वह धीरे से बोला ।
अपना नाम सुनकर वाणी ठिठकी । उसने घूमकर पीछे देखा और फिर बुरी तरह चौंकी ।
“मिस्टर सुनील !” - वह हैरानी से बोली - “आप यहां ?”
“हां ।”
वाणी की घबराई हुई निगाह चारों ओर फिर गई जैसे वह न चाहती हो कि कोई सुनील के साथ वहां देखे ।
“आप एकाएक यहां कैसे चले आये ?”
“तुम्हारी खातिर ।” - सुनील बोला ।
“मेरी खातिर ?”
“हां ।” - सुनील ने जेब से टेलीग्राम निकालकर उसे थमा दिया ।
लैम्पपोस्ट के प्रकाश में वाणी ने टेलीग्राम पढा और फिर गहरी सांस लेकर बोली - “ओह !”
“मैंने 43566 पर फोन करके तुम्हें सावधान करने की कोशिश की थी । पहले तो वहां से कोई उत्तर ही नहीं मिला । उत्तर मिला तो वहां से कोई अंजना नाम की तुम्हारी सहेली बोली कि तुम हफ्तों से वहां नहीं आई हो । मैंने वहां तुम्हारे लिये मैसेज भी छोड़ा था । मिला ?”
“नहीं ।”
“बाद में मैं प्रभातनगर तुम्हारे घर भी गया ।”
“मेरे घर ?” - वह फिर चौंकी ।
“हां । अंजना ने मुझे तुम्हारे घर का पता बताया था ।”
“ओह !”
“यह टेलीग्राम किसने भेजा था ?”
“मालूम नहीं ।”
“मालूम नहीं या बताना नहीं चाहतीं ?”
वाणी चुप रही ।
“टेलीग्राम में तुम्हें किस खतरे से सावधान किया गया है ?”
“मुझे कोई खतरा नहीं । किसी ने मजाक किया मालूम होता है ।”
“लेकिन...”
“और फिर मैं अपनी हिफाजत खुद कर सकती हूं ।”
“और प्रकाश से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ?”
“प्रकाश ?”
“हां, हां । वही जिसके अभी तुम ‘महारानी’ में मिली हो । वह तो लाला का आदमी है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“क्या कैसे मालूम ? यह कि तुम प्रकाश से महारानी में मिली हो या कि वह लाला का आदमी है ?”
“दोनों ।”
“बस, हो गया मालूम ।”
“तुम... तुम अभी ‘महारानी’ में थे ?”
“हां ।”
“वहां कैसे पहुंच गये ?”
“इत्तफाक से ।”
“और...”
“मैडम, तुमने तो उलटे मुझसे सवाल करने आरम्भ कर दिये । देखो, रहस्य के अंधेरे में झांकते-झांकते मेरा दिमाग भन्ना गया है । भगवान के लिये अब मेरे सब्र का इम्तहान लेना बन्द करो और साफ-साफ बताओ कि किस्सा क्या है ?”
“क्या जानना चाहते हो ?”
“सब कुछ । तुम्हें अपहरण के षड्यन्त्र की खबर कैसे लगी ? तुम्हारा षड्यन्त्रकारियों से क्या सम्बन्ध है ? तुम...”
“मैं तुम्हारे हर सवाल का जवाब दूंगी । लेकिन अभी नहीं ।”
“तो फिर कब ?”
“मुनासिब मौका आने पर ।”
“और मुनासिब मौका कब आयेगा ?”
“जल्दी । बहुत जल्दी ।”
“नहीं” - सुनील दृढ स्वर से बोला - “मुझे टालने की कोशिश मत करो । अब मैं और इन्तजार नहीं कर सकता ।”
“मिस्टर सुनील, प्लीज” - वाणी याचनापूर्ण स्वर से बोली - “इस समय मुझे मत रोको । इस समय मैं बहुत जरूरी काम से कहीं जा रही हूं । कोई मेरा इन्तजार कर रहा है । तुम्हे फौरन कहीं पहुंचना है । मैं आपसे फिर मिलूंगी और आपको सब कुछ बता दूंगी ।”
“फिर कब ?”
“कल । कल शाम को ।”
“वादा ?”
“पक्का ।”
“कहां ?”
“जहां आप कहें ।”
“मैं रिट्ज होटल के 217 नम्बर कमरे में हूं ।”
“ठीक है । कल शाम मैं वहां पहुंच जाऊंगी ।”
“कितने बजे ?”
“सात बजे । ओके ?”
“ओके ।”
एक फीकी मुस्कराहट उसकी ओर फेंककर वाणी आगे बढ गई । कुछ दूर जाते ही उसे टैक्सी मिल गई ।
सुनील वापिस महारानी में लौट आया ।
कैब्रे फिर आरम्भ हो गया था । इस बार प्रकाश बड़ी दिलचस्पी के साथ कैब्रे डान्सर के एक-एक एक्शन का आनन्द ले रहा था ।
सुनील सीधा उसकी मेज पर पहुंचा और धम्म से एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“गुड ईवनिंग, मिस्टर प्रकाश ।” - वह मुस्कराता हुआ बोला ।
“गुड ईवनिंग” - प्रकाश बोला । उसके चेहरे पर उलझन के भाव उभरे - “मैंने पहचाना नहीं आपको ।”
“कैसे पहचानेंगे ? आपने पहले कभी देखा ही नहीं मुझे । हम पहले कभी नहीं मिले ।
“क्या चाहते हैं आप ?” - इस बार प्रकाश तनिक रूखे स्वर से बोला ।
“यहीं अर्ज करूं या कहीं और चलें ?”
“जो कहना है जल्दी कहिये । मेरा वक्त बरबाद न कीजिये । देखते नहीं इस वक्त कहां बैठा हूं मैं ?”
“मैं” - सुनील तनिक आगे को झुककर धीमे किन्तु स्पष्ट स्वर से बोला - “आपसे उस सीलबन्द लिफाफे के बारे में बात करना चाहता हूं जो इस वक्त आपकी पतलून की जेब में है और थोड़ी देर पहले जिसकी सील आपने पिछवाड़े के कमरे में उखाड़कर चिपकाई है । क्या यह भी अर्ज करूं कि लिफाफे में क्या है ?”
रह-रहकर कैब्रे डान्सर की ओर भटकती प्रकाश की निगाह एकदम सुनील के चेहरे पर स्थित हो गई । उसके चेहरे का रंग उड़ गया और वह हक्का-बक्का-सा सुनील का मुंह देखने लगा ।
“चेहरे की रंगत लौटाने में बियर किसी काम नहीं आयेगी” - सुनील मीठे स्वर से बोला - “मुनासिब समझें तो आपके लिए विस्की का आर्डर दूं ?”
“कौन हो तुम ?” - वह फुसफुसाया ।
“राजेश खन्ना ।”
“मजाक मत करो ।”
“भला मैं क्यों करूंगा मजाक आपसे ?”
“तुम किस लिफाफे का जिक्र कर रहे हो ?”
“यानी कि ज्यादा व्याख्या की जरूरत है । मैं उस लिफाफे का जिक्र कर रहा हूं, मिस्टर प्रकाश, जिसमें एटामिक एनर्जी कमीशन की इमारतों का नक्शा है और जो नक्शा राजनगर में हरबर्ट ने बनाया है और जो सीलबन्द लिफाफे में आज शाम को सरोज आपको प्रभातनगर में सौंपकर गई थी ।”
“कौन हो तुम ?” - प्रकाश ने भयभीत स्वर में फिर अपना प्रश्न दोहराया ।
“क्या अभी भी यह बताने की जरूरत है” - एकाएक सुनील कर्कश स्वर में बोला - “अपनी मोटी अक्ल कुरेदो तो जवाब खुद-ब-खुद मिल जायेगा ।”
प्रकाश ने अपने होंठों पर जुबान फेरी ।
“ईडियट, क्या तुम पसन्द करोगे कि तुम्हारी करतूत की जानकारी लाला तक पहुंचे ?”
अब तो यूं लगने लगा जैसे किसी भी क्षण प्रकाश को हार्टअटैक हो जायेगा । लाला के जिक्र ने उसके छक्के छुड़ा दिये थे ।
“वेटर !” - सुनील समीप से गुजरते वेटर से बोला - “दो विस्की । फौरन ।”
फौरन विस्की सर्व हुई ।
प्रकाश ने एक ही बार में बिना सोडा मिलाये अपना पैग खाली कर दिया ।
सुनील ने अपना गिलास भी उसके आगे कर दिया ।
प्रकाश ने कातर नेत्रों से उसकी ओर देखा ।
“क्या तुम्हें यह बताने की जरूरत है” - सुनील गम्भीर स्वर से बोला - “कि अगर लाला को तुम्हारी धोखेबाजी की खबर हो जाये तो तुम्हारा क्या अंजाम होगा ?”
प्रकाश चुप रहा । उसके केवल होंठ फड़फड़ाये ।
“अपनी जान की सलामती चाहते हो ?”
प्रकाश ने जल्दी से स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिलाया ।
“तो फिर मेरे कुछ सवालों का फौरन और ठीक-ठीक जवाब दो ।”
“पूछो ।” - प्रकाश कठिन स्वर से बोला ।
“एक्शन का कौन-सा दिन निर्धारित हुआ है ?”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“उलटे मुझसे सवाल मत करो ।” - सुनील दांत पीसकर बोला ।
“सॉरी ।” - प्रकाश होंठों में बुदबुदाया ।
“एक्शन का कौन-सा दिन निर्धारित हुआ है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“बको मत ।”
“मैं सच कह रहा हूं । आप तो जानते ही होगे कि लाला अपनी योजनाओं की भनक आखिरी क्षण तक किसी को नहीं लगने देता ।”
“एटामिक एनर्जी कमीशन की इमारतों के नक्शे किस काम आने वाले हैं ?”
“यह भी मुझे नहीं मालूम । योजना को किस प्रकार कार्यान्वित किया जाना है, मेरा इससे कोई वास्ता नहीं । एक्शन में और लोग भाग लेने वाले हैं ।”
“तो तुमने क्या करना है ?”
“मेरा काम शायद योजना की सफलता के बाद शुरू होगा या शायद मुझे कोई काम सौंपा ही न जाये । अभी इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता ।”
“लेकिन तुम्हें कोई अन्दाज तो होगा कि एक्शन से सम्बन्धित सारी बातें प्रकाश में कब तक आ जायेंगी ?”
“शायद कल रात को ।”
“यानी कि योजना से सम्बन्धित लोगों को लाला ने कल रात को बुलाया है ?”
“हां ।”
“किस वक्त ?”
“दस बजे ।”
“लेकिन लाला तो राजनगर में है !” - सुनील ने सावधानी से प्रश्न किया ।
“उससे क्या फर्क पड़ता है । लाला के पास अपना प्राइवेट हैलीकाप्टर है । वह एक घन्टे में विश्वनगर पहुंच सकता है ।”
“यानी कि दस बजे तुम्हें मालूम हो जायेगा कि वास्तविक योजना क्या है और एक्शन का कौन-सा दिन निर्धारित हुआ है ?”
“उम्मीद है ।”
“तुम्हें मालूम होते ही यह बात मुझे भी मालूम होनी चाहिये ।”
“कैसे ?”
“मैं कल रात साढे ग्यारह बजे तुम्हें यहीं मिलूंगा । जरूर आना, फौरन आना और अकेले आना ।”
“बेहतर ।”
“धोखा देने की कोशिश की तो अंजाम बहुत बुरा होगा ।”
“मेरा धोखा देने का कोई इरादा नहीं, लेकिन तुम भी मुझे धोखा नहीं देना ।”
“चिन्ता मत करो ।”
प्रकाश चुप हो गया ।
“अब एक आखिरी सवाल और ।” - सुनील बोला ।
“पूछो ।”
“बॉस लाला ही है न, या इससे भी ऊपर कोई है ?”
“लाला से ऊपर कोई नहीं है । वही सब कुछ है ।”
“और वह लाला तीरथराम ही है न, जो आंखों से लाचार है और पटेल रोड पर जिसकी कोठी है ?”
“मिस्टर” - प्रकाश एकदम सन्दिग्ध हो उठा - “तुम तो अपने-आपको लाला का आदमी बता रहे थे ?”
“मैंने ऐसा कभी नहीं कहा ।”
“लेकिन मैं तो तुम्हें लाला का आदमी समझ रह था ।”
“तो यह मेरी गलती है ?”
“तुमने मुझे धोखे में रखा । तुम...”
“ठहरो, ठहरो । इधर मेरी ओर देखो । मैं लाला का आदमी हूं या नहीं हूं, इससे तुम्हारे सेहत पर कोई असर नहीं पड़ना । लाला को किसी बाहरी आदमी से भी तुम्हारी धोखाधड़ी और विश्वासघात की दास्तान मालूम होगी तो भी तुम्हारा अंजाम बुरा ही होगा । इसलिये अपनी खैरियत चाहते हो तो फौरन मेरी बात का जवाब दो ।”
“लाला वही है ।”
“वैरी गुड । मैं जा रहा हूं लेकिन कल साढे ग्यारह बजे यहां पहुंचना मत भूलना, वर्ना...”
सुनील ने जानबूझकर वाक्य आधूरा छोड़ दिया ।
“थोड़ी देर-सवेर हो सकती है ।” - प्रकाश थूक निगलता हुआ बोला ।
“मैं रेस्टोरेंट बन्द होने तक यहीं रहूंगा ।”
“फिर ठीक है ।”
“लेकिन आना जरूर । कल यहां न आये तो अगला पड़ाव खुदा के घर की चौखट ही होगी ।”
“मैं जरूर आऊंगा ।”
“थैंक्यू ।”
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
कैब्रे उस समय अनावृतता की चरम सीमा पर था ।
सुनील ‘महारानी’ से बाहर निकल गया ।
वह सीधा अपने होटल में पहुंचा ।
वहां से उसने डाक्टर रंगनाथ की कोठी पर फोन किया । जल्दी ही उसका डाक्टर रंगनाथन से सम्पर्क स्थापित हो गया ।
“सुनील कुमार चक्रवर्ती बोल रहा हूं, सर” - सुनील आदरपूर्ण स्वर से बोला - “‘ब्लास्ट’ वाला । आशा है आप मुझे भूले नहीं होंगे ।”
“नहीं भूला हूं” - डाक्टर रंगनाथन बोला । उसके स्वर से रूक्षता छुपाये नहीं छुप रही थी - “कहां से बोल रहे हो ?”
“इस वक्त मैं विश्वनगर के एक होटल में हूं, सर ।”
“इस वक्त कैसे फोन किया ?”
“बात वही है, सर...”
“यानी तुम्हें दोबारा वहम हो गया है कि लाला तीरथराम मेरा अपहरण करवाने वाला है ?”
“वहम नहीं, सर । इस बार मैं यह बात पूरी गारन्टी के साथ कह रहा हूं कि वह आपके अपहरण का षड्यन्त्र रच रहा है । वह आपका कितना ही गहरा दोस्त सही, लेकिन अब इस बात में सन्देह की रंचमात्र भी गुंजाइश नहीं है कि वह आपके अपहरण का षड्यन्त्र रच रहा है । मुझे विश्वनगर में इस बात का पक्का सबूत मिला है ।”
“नानसेंस ।”
“मैं हकीकत बयान कर रहा हूं, सर । उसका प्रकाश नाम का एक आदमी मेरे फन्दे में फंस गया है । कल रात वह मुझे अपहरण की तारीख, समय और मूल योजना की पूरी जानकारी देने वाला है ।”
“लाला को मेरे अपहरण से क्या फायदा ?”
“कोई तो फायदा होगा ही, सर । वर्ना लाला जैसा आदमी आपके साथ विश्वासघात करने पर क्यों आमादा होता ?”
“मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं । तुम अखबार वाले अपनी आदतों से मजबूर हो । तुम हर बात को सैन्सेशनल न्यूज बनाने की कोशिश करते हो ।”
“जनाब, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है । मैं केवल आपके हित की चिंता कर रहा हूं ।”
“वह छोकरी भी मिली होगी तुम्हें ? उसने भी यही कहा होगा कि डाक्टर रंगनाथन को भगाया जाने वाला है ?” - डाक्टर रंगनाथन के स्वर में व्यंग्य का पुट था ।
“वह मुझे मिली है” - सुनील सहज स्वर से बोला - “कल शाम वह मुझे मेरे होटल में दोबारा मिलेगी । तब मेरी उससे विस्तार से बात होगी ।”
“फिर तुम्हें नई बातें मालूम होंगी और मुझे सावधान करने के लिये तुम फिर मुझे फोन करोगे ?”
“जी... जी...”
“यंगमैंन, टाक सेंस । डोन्ट कीप बादरिंग मी वीद फेयरी टेल्स ।”
और डाक्टर रंगनाथन ने रिसीवर पटक दिया ।
सुनील कुछ क्षण यूं अपने हाथों में थमे रिसीवर को घूरता रहा जैसे गुनहगार वह हो । फिर उसने पलंजर दबाया और फिर रामसिंह का नम्बर डायल किया ।
दूसरी ओर घंटी बजती रही, लेकिन सम्पर्क स्थापित नहीं हुआ ।
हारकर सुनील न रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया ।
***
सुबह जब वेटर ब्रेकफास्ट लाया तो साथ में एक चिट्ठी भी लेकर आया ।
“आपकी चिट्ठी, साहब ।” - वेटर बोला ।
“मेरी !” - सुनील हैरानी से बोला । उसने बन्द लिफाफा उलट-पलटकर देखा । लिफाफे पर उसका नाम और रिट्ज होटल का पता लिखा हुआ था लेकिन उस पर टिकट या डाकखाने की मोहर नहीं लगी हुई थी ।
“यह चिट्ठी यहां कैसे पहुंची ?”
“रिसैप्शन पर कोई दे गया था, साहब ।”
“ठीक है । थैंक्यू ।”
वेटर चला गया ।
सुनील ने लिफाफा खोला । चिट्ठी में लिखा था
कृपया आज एक बजे मुझे होटल राजदूत में मिलें । मेरे बारे में रिसैप्शन पर पूछें ।
- वाणी
सुनील ने चिट्ठी लिफाफे में डालकर लिफाफा जेब में रख लिया ।
कोई नई गड़बड़ हो गई थी जिसकी वजह से शायद वाणी शाम को रिट्ज होटल में आने में असमर्थ थी । शायद इसीलिये उसने सुनील को दोपहर के बाद बुलाया था ।
सुनील ने बड़े अशान्त मन के साथ ब्रेकफास्ट किया ।
ठीक एक बजे वह होटल राजदूत पहुंच गया ।
“मेरा नाम सुनील है” - वह रिसैप्शन पर जाकर बोला - “मैं...”
“जी हां” - रिसैप्शनिस्ट जल्दी से बोला - “मुझे आपके बारे में सूचना है । आप 315 नम्बर कमरे में तशरीफ ले जाइये ।”
उसने घण्टी बजाकर एक वेटर को बुलाया । वेटर सुनील को 315 नम्बर कमरे के सामने छोड़ गया ।
सुनील धीरे से दरवाजा ठेलकर भीतर प्रविष्ट हुआ ।
कमरा खाली था । कमरे में तीन आदमियों के लिये टेबल लगी हुई थी । यानी कि कोई और भी अपेक्षित था । कौन ? शायद प्रकाश ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया और कमरे में खिड़की के समीप मौजूद एक सोफे पर बैठ गया ।
थोड़ी देर बाद कमरे का दरवाजा खुला ।
कमरे में प्रकाश ने कदम रखा ।
लेकिन उसके साथ वाणी नहीं थी ।
उसके साथ था लाला तीरथराम जो हाथ से प्रकाश की बांह थामे हुए था और दूसरे हाथ में अपनी हाथीदांत की मूठ वाली छड़ी संभाले था । उसकी आंखों पर पहले की तरह स्याह काले शीशों वाला चश्मा लगा हुआ था ।
सुनील हक्का-बक्का-सा उसका मुंह देखने लगा ।
“गुड आफ्टर नून, मिस्टर सुनील ।” - लाला तीरथराम मीठे स्वर से बोला ।
“वैरी गुड आफ्टर नून, सर ।” - सुनील हड़बड़ाया और अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ ।
प्रकाश की हालत खराब थी । शायद उसे मालूम नहीं था कि वहां उसका आमना-सामना सुनील से होने वाला था । उसकी आंखों में भय की स्पष्ट छाया तैर रही थी और वह इशारे से सुनील को कुछ कहने की कोशिश कर रहा था ।
“यह प्रकाश है” - लाला तीरथराम बोला - “इससे तो आप मिल चुके मालूम होते हैं, मिस्टर सुनील ?”
प्रकाश सुनील की ओर देखकर जोर-जोर ने नकारात्मक ढंग से सिर हिलाने लगा ।
“जी नहीं” - सुनील स्थिर स्वर से बोला - “मुझे ये सौभाग्य पहले प्राप्त नहीं हुआ ।”
“मैंने मिस्टर सुनील की आज पहली बार सूरत देखी है ।” - प्रकाश खोखले स्वर से बोला ।
“अच्छा !” - लाला तीरथराम बोला - “मुझे लगा था जैसे आप एक-दूसरे से मिल चुके हों ।”
“कैसे लगा था ?” - सुनील ने पूछा ।
“मिस्टर सुनील, मेरी आंखें नहीं हैं । इसलिये बहुत-सी बातें मैं स्पर्श से जान लेने की कोशिश करता हूं । जब कमरे में घुसा था तो मैं प्रकाश की बांह थामे हुए था । मुझे लगा था जैसे आप पर निगाह पड़ते ही प्रकाश की मांसपेशियां एकदम अकड़ गई हों, जैसे वह आपको देखकर चौंका हो । लेकिन लगता है, मुझे गलती लगी है ।”
“आपको, गलती लगी है ।”
“जाहिर है । बहरहाल क्या फर्क पड़ता है !”
“मैं यहां आपसे मुलाकात की उम्मीद नहीं कर रहा था, लालाजी ।”
“यानी कि आप मुझसे मिलकर खुश नहीं ?”
“सवाल खुशी का नहीं है । मैं यहां किसी और का इन्तजार कर रहा था ।”
“आप जिसका इन्तजार कर रहे हैं, वह नहीं आयेगा ।”
“मैं किसका इन्तजार कर रहा हूं ?” - सुनील चौंककर बोला - “आपको क्या मालूम ?”
“आप वाणी का इन्तजार कर रहे हैं । है न, मिस्टर सुनील ?”
सुनील मुंह बाये हर क्षण मुस्कराते दिखाई देने वाले उस बूढे को देखने लगा ।
“यानी कि...” - वह हकलाता हुआ बोला - “यानी कि...”
“चिट्ठी आपको मैंने भेजी थी । मैंने सोचा था कि मेरे बुलाये शायद आप न आयें, इसलिये मैने वाणी का नाम इस्तेमाल किया था ।”
कई क्षण सुनील के मुंह से बोल नहीं फूटा ।
“वजह ?” - अन्त में वह बोला ।
“वजह कोई विशेष नहीं । बस, आपके साथ मिल बैठने की इच्छा बलवती हो उठी थी ।”
सुनील चुप रहा । उसने अस्थिर हाथों से नया सिगरेट सुलगा लिया ।
“शैल वुई सिट डाउन, मिस्टर सुनील ।” - लाला बोला ।
“आफकोर्स” - सुनील बोला - “वाई नाट ।”
तीनों लंच के लिए विशेष रूप से लगाई मेज के इर्द-गिर्द बैठ गये ।
“प्रकाश, वेटर को बुलाओ ।” - लाला बोला ।
प्रकाश ने घण्टी का बटन दबा दिया ।
एक शानदार लंच के बाद - जिसमें विन्टेज वाइन की एक बोतल भी शामिल थी - वेटर उन्हें काफी सर्व कर गया ।
भोजन के दौरान छोटा-मोटा वार्तालाप चलता रहा था । कई बार सुनील को ऐसा लगा थ कि लाला जानबूझकर ऐसे सवाल कर रहा था जिससे यह आभास मिल सके कि क्या प्रकाश और सुनील वाकई पहले से एक-दूसरे को जानते थे ? मतलब साफ था कि लाला को सुनील की बात पर शत-प्रतिशत विश्वास नहीं हुआ था कि वह प्रकाश से पहले कभी नहीं मिला था ।
“यहां से कहां जाने का इरादा है, मिस्टर सुनील ?” - काफी के दौरान लाला बोला ।
“जी !” - सुनील बोला ।
“मेरे ख्याल तो कहीं दक्षिण की ओर निकल जाइये ।”
“क्यों ?”
“आपकी तन्दुरुस्ती के लिये अच्छा रहेगा । उधर की आबोहवा आपको माफिक आयेगी ।”
“जी नहीं” - सुनील शुष्क स्वर से बोला - “मैं राजनगर ही वापिस जाऊंगा ।”
“अच्छा ! राजनगर तो आपके लिये आजकल बहुत गर्म साबित होगा ।”
“जी !”
“मेरा मतलब है, वहां बड़ी गर्मी होगी । गर्मियों का मौसम है ।”
“मुझे गर्म मौसम की आदत है । आई कैन फेस दि हीट ।”
“फिर तो ठीक है । राजनगर जायें तो डाक्टर रंगनाथन को व्यक्तिगत रूप से भी मुझसे सावधान रहने के लिये सचेत करना न भूलियेगा । कल रात फोन पर तो आप ठीक से बात कर नहीं पाये होंगे ।”
“आपको मालूम है मैंने कल उन्हें फोन किया था ?”
“मैं उस समय वहीं था । डाक्टर रंगनाथन ने मुझे सारा वार्तालाप कह सुनाया था ।”
“सारा ?”
“जी हां । डाक्टर रंगनाथन मेरे पुराने दोस्त हैं । वे मुझसे कुछ नहीं छुपाते ।”
सुनील चिन्तित हो उठा । पिछली रात डाक्टर रंगनाथन से तो उसकी और प्रकाश की आयोजित मुलाकात का भी जिक्र आया था । उसने यह भी कहा था कि वाणी उससे शाम को मिलने आने वाली थी । उसने यह भी बताया था कि वह विश्वनगर के किसी होटल में मौजुद था । लाला के लिये यह मालूम कर लेना असम्भव नहीं था कि विश्वनगर के कौन से होटल में था । इसी प्रकार शायद वह सुनील का पता जान पाया था ।
या शायद लाला झूठ बोल रहा हो । शायद उसे इतना ही मालूम हो कि सुनील ने कल रात डाक्टर रंगनाथन को फोन किया था । वास्तविक वार्तालाप की शायद उसे खबर न हो । अगर उसे मालूम होता कि प्रकाश अपहरण के षड्यंत्र के बारे में सुनील को कितनी भयंकर जानकारी देने वाला था तो अब तक प्रकाश सही-सलामत उसके साथ न बैठा होता ।
निश्चय ही वह झूठ बोल रहा था कि डाक्टर रंगनाथन ने उसे सुनील के साथ हुए वार्तालाप के बारे में सब-कुछ बता दिया था ।
“आप भी उनसे कुछ नहीं छुपाते होंगे ?” - प्रत्यक्षत: सुनील बोला ।
“करैक्ट ।”
“तो फिर आप उन्हें यह भी क्यों नहीं बता देते कि आप उनका अपहरण करके उन्हें कौन-सी विदेशी शक्ति के हाथ बेचना चाहते हैं ।”
“राम, राम, राम” - लाला के शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई - “मैं तो ऐसी नापाक हरकत के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकता । उलटे मैंने तो डाक्टर रंगनाथन को उसकी सुरक्षा के कई तरीके सुझाये हैं ।”
“तो फिर आप मुझे दक्षिण चले जाने की और राजनगर की गर्मी से बचकर रहने की राय क्यों दे तहे हैं ?”
“क्योंकि मुझे तुम्हारी तन्दुरुस्ती की फिक्र है । मुझे फिक्र है कि तुम्हारे जैसे नौजवान को कुछ हो न जाये ।”
“सिर्फ मेरी फिक्र है आपको ?”
“तुम्हारी ही नहीं । मुझे देश के हर नवयुवक की फिक्र है ।”
“नवयुवतियों की भी फिक्र होगी ?”
“मतलब ?”
“तभी तो आप वाणी के पीछे पड़े हुए हैं ।”
“मैं नहीं । मैं तो किसी का कोई अहित करने के ख्याल से भी थर्राता हूं ।”
“आप नहीं तो आपके आदमी सही ।”
“अगर मैं कहूं कि ऐसी कोई बात नहीं तो क्या तुम मेरा विश्वास कर लोगे ?”
“नहीं ।”
“तो फिर कुछ कहना बेकार है ।”
“आपने ठीक फरमाया है । कुछ कहना बेकार है । और मिस्टर के पी अग्रवाल के बारे में तो कतई कुछ कहना बेकार है जो शायद आपके आदमियों के हाथों परलोक सिधार गये हैं ।”
“बरखुरदार, तुम...”
“छोड़िये । फायदा क्या ?”
लाला ने पहलू बदला । पहली बार उसकी मुस्कराहट में तनिक फीकापन झलका ।
“मुझे इजाजत दोजिये” - सुनील उठ खड़ा हुआ - “लंच का अति धन्यवाद ।”
“अभी जाइयेगा ?” - लाला बोला ।
“जी हां ।”
“जरा संभलकर जाइयेगा । परदेस का मामला है और विश्वनगर के इस भाग में सड़कों पर ट्रैफिक जरा ज्यादा होता है ।”
“आप मुझे धमकी दे रहे हैं !”
“बरखुरदार, बड़ा खुराफाती दिमाग है तुम्हारा । मामूली-सी बात का बड़ा भयंकर नतीजा निकाल लेते हो । मैं तो सिर्फ तुम्हें राय दे रहा था । जैसे.. जैसे मैं तुम्हें यह राय देना चालता हूं कि यह समझने की गलती हरगिज मत करना कि विश्वनगर में मेरी जानकारी में आये बिना तुम कोई काम कर सकते हो । मेरी अपनी दो आंखें नहीं लेकिन दूसरों की हजारों आंखों की सेवायें मुझे प्राप्त हैं ।
“मैं ध्यान रखूंगा ।”
“थैंक्यू । प्रकाश तुम्हें सड़क पार करवा आये या खुद चले जाओगे ?”
“मैं खुद चला जाऊंगा ।”
“वैरी गुड ।”
सुनील एक अर्थपूर्ण निगाह प्रकाश पर डालता हुआ कमरे से बाहर निकल आया ।
वह होटल से बाहर निकला और फुटपाथ पर एक ओर चल दिया ।
लाला तीरथराम उसकी अपेक्षा से अधिक खतरनाक आदमी साबित हो रहा था । विश्वनगर उसका शहर था, जहां उसकी चलती थी । वह सुनील को मच्छर की तरह मसल सकता था लेकिन क्या वह दिन-दहाड़े किसी का कत्ल कराने का हौसला कर सकता था ?
एक टैक्सी उसके समीप आकर रुकी ।
सुनील ने टैक्सी के पिछले दरवाजे की ओर हाथ बढाया लेकिन वह तत्काल ठिठक गया । यह टैक्सी खुद-ब-खुद उसके सामने आकर क्यों रुकी ? वह पीछे हट गया और उसने टैक्सी को आगे बढ जाने का संकेत किया ।
यह सोचकर उसका मन वितृष्णा से भर उठा कि लाला तीरथराम की धमकियों का असर उस पर होता जा रहा था ।
बस पर सवार होकर वह प्रभातनगर पहुंचा ।
वह वहां वाणी से मुलाकात की उम्मीद कर रहा था ।
वह उसे शाम को रिट्ज में आने से रोकना चाहता था । सी-27 नम्बर इमारत सुनसान पड़ी थी । इस बार उसे विश्वास था कि भीतर भी कोई नहीं छुपा हुआ था । एक पब्लिक टेलीफोन बूथ से उसने 43566 पर रिंग किया ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
उसने डायरेक्टरी में अंजना नाम तलाश करना चाहा । वह नाम डायरेक्टरी में नहीं था । निश्चय ही अंजना के घर का टेलीफोन किसी और के नाम था ।
बस पर ही सवार होकर वह टेलीफोन एक्सचेंज पहुंचा । वहां दस रुपये रिश्वत देकर वह यह जानने में सफल हो पाया कि टेलीफोन नम्बर 43566 नेहरू नगर की 12 नम्बर इमारत के फ्लैट नम्बर 14 में लगा हुआ था ।
सुनील नेहरू नगर पहुंचा ।
12 नम्बर इमारत एक चार मंजिल इमारत थी । 14 नम्बर फ्लैट चौथी मंजिल पर था ।
फ्लैट का दरवाजा बन्द था । दरवाजे में वह ताला लगा था जो दरवाजे के पल्ले में ही फिट होता था । इसलिये यह कहना कठिन था कि दरवाजा भीतर से बन्द था कि बाहर से ।
सुनील ने घंटी बजाई । भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला । शायद फ्लैट में कोई नहीं था ।
निराश होकर वह वापिस लौटा ।
जब वह होटल में वापिस लौटा, तब तक छ: बज चुके थे ।
और सात बजे वाणी वहां आने वाली थी ।
होटल में प्रविष्ट होने से पहले वह एक क्षण के लिये ठिठका ।
लाबी में हरबर्ट बैठा अखबार पढ रहा था । सुनील ने रिसैप्शन से अपने कमरे की चाबी ली और सीधा लिफ्ट की ओर बढ गया ।
हरबर्ट ने एक बार भी अखबार से सिर नहीं उठाया था । शायद उसका ध्यान सुनील की ओर नहीं था ।
लिफ्ट का दरवाजा बन्द होते ही हरबर्ट यूं उछलकर खड़ा हो गया जैसे उसे स्प्रिंग लग गये हों । वह लपककर रिसैप्शन के लम्बे काउन्टर पर रखे टेलीफोनों की ओर ।
दूसरी मंजिल पर सुनील लिफ्ट से बाहर निकला । उसे गलियारे में एक आदमी दिखाई दिया जो तेजी से उससे विपरीत दिशा में आगे बढ गया । उसे ऐसा लगा जैसे वह आदमी उसके कमरे में से निकला हो । सुनील आगे बढा ।
वह आदमी गलियारे के सिरे पर मोड़ काटकर दृष्टि से ओझल हो गया ।
सुनील अपने कमरे के सामने पहुंचा ।
दरवाजा पहले ही खुला था ।
सुनील ने धीरे से दरवाजे को धक्का दिया । दरवाजा खुल गया ।
भीतर अंधेरा था ।
सुनील ने बिजली का स्विच आन किया । कमरे में रोशनी फैल गई ।
कमरे के बीचोंबीच पीठ के बल प्रकाश पड़ा था । उसकी छाती में मूठ तक चाकू घूसा हुआ था । उसके शरीर के आसपास गहरे लाल ताजे खून का तालाब बना हुआ था ।
कितने ही क्षण सुनील दरवाजे पर ठिठका खड़ा रहा ।
फिर वह सावधानी से भीतर घुसा । उसने धीरे से प्रकाश को कलाई को छुआ । कलाई तो गर्म थी लेकिन नब्ज बंद थी । निश्चय ही उसका खून उस आदमी ने किया था जिसे सुनील ने थोड़ी देर पहले गलियारे में देखा था ।
सुनील ने खिड़की से बाहर झांका ।
बाहर सड़क से पार एक लैम्पलोस्ट के साथ लगा जीवन खड़ा था ।
जाहिर था कि प्रकाश सुनील की लाला से लंच की मुलाकात से घबराकर सुनील से मिलने वहां आया था लेकिन लाला के दूसरे आदमियों ने उसका पीछा किया था । फ्लोर वेटर को रिश्वत देकर या किसी और तरह प्रकाश सुनील के कमरे का दरवाजा खुलवाने में कामयाब हो गया था और भीतर बैठा उसके लौटने का इन्तजार कर रहा था । तभी वह लाला के किसी आदमी द्वारा कत्ल कर दिया गया था । लाला जरूर एक तीर से दो शिकार करने की फिराक में था । इस प्रकाश प्रकाश को लाला से दगाबाजी करने की सजा भी मिल गई और माहौल ऐसा बन गया कि सुनील को उसके कत्ल के इलजाम में धर लिये जाने की पूरी सम्भावना पैदा हो गई ।
सुनील ने जल्दी से अपना सामान एक सूटकेस में भरा और सूटकेस लेकर कमरे से बाहर निकल आया ।
वह नीचे पहुंचा । उसने रिसैप्शन पर चाबी रखी और बोला - “मेरा बिल बना दो ।”
“यस सर ।” - रिसैप्शनिस्ट बोला ।
सुनील ने लाबी में दृष्टि दौड़ाई ।
हरबर्ट उसे कहीं दिखाई नहीं दिया ।
अब सुनील को चिन्ता थी वाणी की । लाला के आदमी होटल की निगरानी कर रहे थे । वाणी वहां आकर मुसीबत में फंस सकती थी और उसे चेतावनी देने का कोई तरीका नहीं था ।
रिसैप्शनिस्ट ने उसका बिल उसके सामने रख दिया ।
सुनील ने बिल चुकाया और मुख्य द्वार की ओर बढा ।
“सर !” - एकाएक पीछे से आवाज आई ।
सुनील ने घूमकर देखा । हाथ से टेलीफोन लिये खड़ा रिसैप्शनिस्ट उसे पुकार रहा था ।
“आपका फोन है, सर ।” - वह बोला ।
सुनील एक क्षण हिचकिचाया । फिर आगे बढकर उसने रिसीवर ले लिया । वह टेलीफोन में बोला - “हल्लो !”
“मिस्टर सुनील ?” - सुनील के कानो में आवाज पड़ी ।
“यस ।”
“मैं वाणी बोल रही हूं ।”
“वाणी !” - सुनील के मुंह से शान्ति की गहरी सांस निकल गई - “शु्क्र है खुदा का ।”
“मिस्टर सुनील” - वाणी बोली - “मुझे खेद है कि मैं अपने वादे के अनुसार इस वक्त आपसे मिलने नहीं आ सकती ।”
“वाणी, इससे अच्छी खबर तो मैंने मुद्दत से नहीं सुनी ।”
“जी !”
“लाला के आदमी होटल की निगरानी कर रहे हैं । यहां आने से तुम भारी खतरे में पड़ सकती थी ।”
“अरे !”
“मैं खुद किसी प्रकार तुम्हें यहां आने से रोकना चाहता था । लेकिन मुझे तुम्हारा कोई पता-ठिकाना मालूम नहीं था । इस वक्त कहां हो तुम ?”
“यह मैं आपको नहीं बता सकती ।”
“मूर्ख मत बनो, वाणी । मेरा तुमसे मिलना बहुत जरूरी है ।”
“लेकिन...”
“तुम्हारी जानकारी के लिए प्रकाश का कतल हो गया है ।”
“क... क्या ?”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“कब ?”
“अभी । थोड़ी देर पहले । मेरे होटल के कमरे में ।”
“मिस्टर सुनील, मैं नेहरूनगर की 12 नम्बर इमारत के 14 नम्बर फ्लैट में हूं ।”
“कमाल है ! यह तो वही पता है जहां टेलीफोन नम्बर 43566 है ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“मैने टेलीफोन एक्सचेंज से मालूम किया था । लेकिन मैने वहां टेलीफोन भी किया था, मैं खुद भी वहां आया था । वहां तो...”
“मैं अभी यहां पहुंची हूं । पहले फ्लैट बन्द था । अंजना कलकत्ता गई है । मैं उसे गाड़ी पर चढाकर अभी यहां पहुंची हूं ।”
“आई सी । मैं आ रहा हूं ।”
“लेकिन एक बात का ख्याल रखना । लाला का काई आदमी आपका पीछा न करने पाये । अगर मेरे छुपने के इस ठिकाने की लोगों को खबर लग गई तो बहुत गड़बड़ होगी ।”
“मैं ख्याल रखूंगा ।”
सुनील ने रिसीवर रखदिया ।
वह होटल के मुख्य द्वार पर पहुंचा ।
जीवन अभी भी सड़क के पार खड़ा था । होटल से थोड़ा परे एक कार खड़ी थी जिसकी ड्राइविंग सीट पर हरबर्ट बैठा था । सुनील ने आसपास दृष्टि दौड़ाई । उसे कोई अन्य जाना-पहचाना या संदिग्ध आदमी नहीं दिखाई दिया ।
उसके संकेत पर एक टैक्सी मुख्य द्वार के सामने का रूकी ।
सुनील टैक्सी की पिछली सीट पर बैठ गया । ड्राइवर ने ज्यों ही गाड़ी को गियर में डालने का उपक्रम किया, वह बोला - “ठहरो ।”
ड्राइवर ठिठक गया । उसने सुनील की ओर देखा ।
सुनील ने एक दस का नोट तह करके उसकी गोद में डाल दिया और बोला - “पिछली सीट पर मेरा सूटकेस पड़ा है । मैं उतर रहा हूं । तुम दो मिनट यहां इन्तजार करना और फिर टैक्सी ले जाना । यहां से ब्राइट होटल मुश्किल से दो मील है । तुम मेरा सूटकेस ब्राइट होटल के रिसैप्शन पर सौंप देना और तुम्हारा काम खतम है । यानी कि दस का नोट तुम्हारा । ठीक है ?”
“ठीक है” - ड्राइवर सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “लेकिन अगर होटल वाला सूटकेस के बारे में कुछ पूछेगा तो मैं क्या बोलूंगा ?”
“तुम बोल देना, यह मिस्टर प्यारेलाल का सूटकेस है । वे बाद में आयेंगे ।”
“ठीक है ।”
सुनील टक्सी से उतरकर फिर होटल में घुस गया । उतरते समय उसने जानबूझकर जोर से दरवाजा बन्द किया ताकि उसकी निगरानी करने वालों को मालूम हो जाये कि वह टैक्सी से उतर गया था ।
सुनील होटल में पहली मंजिल पर आ गया । वहां की एक खिड़की से उसने बाहर झांका ।
कुछ क्षण बाद उसके सूटकेस वाली टैक्सी अपने स्थान से हिली और आगे बढ गई । सुनील ने देखा, किसी ने उस टैक्सी का पीछा करने की कोशिश नहीं की ।
सुनील फिर ग्राउन्ड फ्लोर पर आया और होटल के पिछवाड़े में मौजूद किचन में घुस गया ।
“साहब” - एक रसोइया उसे देखते ही बोला - “यह किचन है ।”
“मुझे मालूम है” - सुनील रूखे स्वर से बोला - “मैं सैनीटेरी इन्स्पेक्टर हूं । मैं इन्स्पेक्शन करने आया हूं । मुझे मालूम हुआ है यहां बिल्कुल सफाई नहीं रखी जाती ।”
“लेकिन साहब...”
“बहस मत करो । मैनेजर को बुलाओ ।”
“मैनेजर साहब तो इस वक्त होटल में नहीं हैं ।”
“तो फिर किसी और जिम्मेदार आदमी को बुलाओ ।”
रसोइया दौड़कर शैफ को बुला लाया ।
“मैं आपकी किचन चैक करने आया हूं ।” - सुनील अधिकारपूर्ण स्वर से बोला ।
“लेकिन अब तो किचन एकदम परफैक्ट है” - शैफ बोला - “पिछले हफ्ते आप लोगों ने जो खराबियां निकाली थीं, वे सब दूर कर दी गई हैं ।”
“मुझे दिखाइये ।”
“जरूर ।”
अगले दस मिनट सुनील किचन का मुआयना करता रहा और हर जगह छोटे-मोटे नुक्स निकालता रहा ।
“मैं फिर आऊंगा” - अन्त में वह बोला - “अगली बार मुझे कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिये ।”
“हरगिज नहीं मिलेगी ।”
बाहर एक टैम्पो खड़ा था जिस पर से सब्जियां उतारी जा रही थीं ।
“आइये, थोड़ा जलपान हो जाये ।” - शैफ खुशामद-भरे स्वर में बोला ।
“नहीं” - सुनील बोला - “इस समय मुझे टाइम नहीं । यह टैम्पो कहां जायेगा ?”
“हमारे सप्लायर का टैम्पो है । वापस सब्जी मंडी जायेगा ।”
“क्या मुझे इस पर सब्जी मंडी तक लिफ्ट मिल सकता है ?”
“कमाल करते हैं, साहब । मैं आपकी हाटल की एयंर कन्डीशंड कार पर भिजवाता हूं ।”
“नहीं । यही ठीक है ।”
“लेकिन...”
“अरे साहब, कहा न ठीक है ।”
“ओके । ओके ।”
तब तक सब्जियां उतारी जा चुकी थी । शैफ ने आगे बढकर टैम्पो वाले से जल्दी-जल्दी कुछ कहा । फिर उसने सुनील को संकेत किया ।
सुनील टैम्पो में ड्राइवर की बगल की सीट पर बैठ गया ।
ड्राइवर भी अपने स्थान पर आ बैठा ।
टैम्पो आगे बढा । पिछवाड़े से ही होता हुआ टम्पो काफी आगे निकल गया और तब जाकर वह मुख्य सड़क पर पहुंचा ।
“मुझे नेहरू नगर जाना है” - सुनील बोला - “तुम्हें जहां सहूलियत हो, मुझे उतार देना ।”
“मुझे हर जगह सहूलियत है, मालिक” - टैम्पो वाला खीसें निपोरता हुआ बोला - “मैं आपको नेहरू नगर ही उतारकर जाऊंगा ।”
सुनील चुप हो गया । हालांकि उसे कतई उम्मीद नहीं थी कि कोई उसका पीछा कर रहा होगा, लेकिन फिर भी सारे रास्ते उसकी निगाह अपना पीछा करते किसी व्यक्ति की तलाश में भटकती रही ।
कोई टैम्पो का पीछा नहीं कर रहा था ।
सुनील नेहरूनगर टैम्पो से उतर गया ।
वह अंजना के फ्लैट पर पहुंचा ।
उसने कालबैल बजाई ।
“कौन ?” - दरवाजा खुलने से पहले भीतर से वाणी की आवाज आई ।
“मैं” - सुनील बोला - “सुनील ।”
तुरन्त दरवाजा खुला ।
सुनील भीतर प्रवि☐ष्ट हुआ ।
वाणी ने फौरन उसके पीछे मजबूती से दरवाजा बन्द कर दिया ।
“किसी ने तुम्हारा पीछा तो नहीं किया ?” - उसने घबराये स्वर से पूछा ।
“नहीं ।” - सुनील बोला ।
“प्रकाश का क्या हुआ ?”
सुनील वाणी के साथ एक सोफे पर बैठ गया । उसने धीरे-धीरे प्रकाश के अपनी पहली मुलाकात से लेकर उसकी मौत तक की सारी दास्तान कह सुनाई ।
“अब, वाणी” - अन्त में सुनील बोला - “चुप रहने से कोई फायदा नहीं । मुझे साफ-साफ बताओ, क्या किस्सा है प्रकाश से तुम्हारा क्या सम्बन्ध था ?”
“वह... वह” - वाणी झिझकती हुई बोली - “मुझसे मुहब्बत करता था ।”
“ओह !”
“लेकिन मुझे वह कतई पसन्द नहीं था” - वाणी जल्दी से बोली - “मैं जरायमपेशा लोगों को पसन्द नहीं करती । वह लाला के गैंग का आदमी था ।”
“प्रभातनगर का सी-27 तुम्हारा घर है न ?”
“हां ।”
“मैंने प्रकाश को अमर नाम के एक दूसरे आदमी के साथ वहां देखा था । वे दोनों वहां क्या कर रहे थे ?”
वाणी एक क्षण हिचकिचाई और फिर धीमे स्वर में बोली - “अमर मेरा भाई है ।”
“आह ! तो फिर वह गुमनाम टेलीग्राम मुझे जरूर उसने भेजा होगा ?”
“हां ।”
“वह भी लाला के गैंग का आदमी है ?”
“हां । वह और प्रकाश बड़े गहरे दोस्त थे । प्रकाश का उस पर बड़ा तगड़ा प्रभाव था । प्रकाश जो कहता था, अमर वही करता था । उसी के चक्कर में पड़कर अमर लाला के गैंग में शामिल हो गया था ।”
“तुम्हें अपहरण की योजना की खबर कैसे लगी ?”
“मैं लाला की प्राइवेट सैक्रेटरी थी और काफी समय उसी की कोठी पर गुजारती थी । वहीं मुझे मालूम हुआ कि लाला अपनी मेहनत की कमाई से सम्पन्न नहीं बना था । वह स्मगलिंग और काला बाजार के धन्धों से रईस बना था । पहले मैं यह सोचकर चुप रही कि लाला के रुपया कमाने के तरीकों से मुझे क्या वास्ता । जब तक वह मेरे साथ शराफत से पेश आता है तब तक वह मेरी बला से जो कुछ मर्जी करे । लेकिन फिर किसी विदेशी शक्ति के एजेण्टों ने उसे एक बेहद मोटी रकम के लालच मे डाक्टर रंगनाथन के अपहरण के लिये तैयार कर लिया । लाला के देशद्रोह के इस काम की जानकारी हो जाने के बाद भी चुप बैठे रहना मुझे गवारा न हुआ । मैं राजनगर अग्रवाल साहब के पास पहुंची लेकिन तब तक लाला को भी मेरे इरादों की खबर हो चुकी थी । उसने अपने आदमी मेरे पीछे लगा दिये । लाला के आदमियों से बचती-बचाती मैं तुम्हारे तक पहुंची । बाद में क्या हुआ तुम्हें मालूम ही है ।”
“तुम सारी बात की सूचना पुलिस को अमर की वजह से नही देना चाहती थीं ?”
“हां । मेरा अपना भाई षड्यन्त्र में शामिल था । उसकी भलाई की खातिर मैं पुलिस में नहीं जा सकती थी ।”
“लाला को अभी भी तुम्हारी तलाश होगी ?”
“जरूर होगी और वह मेरे अभी तक बरामद न होने की वजह से अपने आदमियों पर बहुत लाल-पीला हो रहा होगा ।”
“तुम यहां स्वयं को सुरक्षित समझती हो ?”
“एकदम । इस फ्लैट की जानकारी किसी को नहीं है । अंजना बहुत दिन कलकत्ता रहने वाली है । जब तक खतरा टल नहीं जाता तब तक मेरा यहीं रहने का इरादा है ।”
“तुम ‘महारानी’ में प्रकाश से क्यों मिलने गई थीं ?”
“मैंने पहले ही बताया था कि अमर और प्रकाश गहरे दोस्त हैं । अमर पर प्रकाश का बहुत गहरा प्रभाव है । मैं प्रकाश से प्रार्थना करने गई थी कि वह अमर को इस खतरनाक रास्ते को छोड़ देने की सीख दे । प्रकाश का कहना अमर कभी नहीं टालता । इसलिये मैं अमर की भलाई के लिये प्रकाश के पास गई थी ।”
“प्रकाश ने क्या उत्तर दिया ?”
“उसने मेरी बात कम सुनी और आशिकी ज्यादा झाड़ी । कहने लगा, मैं तुम पर मरता हूं । अगर तुम मुझसे शादी करना स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हारे लिये कुछ भी करने के लिये तैयार हूं ।”
“यानी कि वह अमर की भलाई की आड़ में तुम्हें ब्लैकमेल करना चाहता था ।”
“जाहिर है ।”
“तुमने क्या किया ?”
“मैंने कहा, मैं सोचूंगी और चली आई ।”
“फिर क्या सोचा ?”
“अब प्रकाश की मौत के बाद इस सन्दर्भ में सोचने के लिये रह ही क्या गया है ।”
“हूं ।”
“तुम्हें अग्रवाल साहब के बारे में कुछ खबर लगी ?”
“मैं गारण्टी से तो कुछ नहीं कह सकता, लेकिन मुझे ऐसे संकेत मिले हैं जिनसे लगता है कि उनका दुश्मनों द्वारा सफाया किया जा चुका है ।”
“ओह !” - वाणी के मुह से एक दुख भरी आह निकली ।
“विश्वनगर आने के बाद तुम्हारी अमर से मुलाकात हुई ?” - कुछ क्षण बाद सुनील ने पूछा ।
“हां । एक बार” - वाणी बोली - “मैंने उसे सब कुछ बताया कि कैसे मैं राजनगर में अखबार के माध्यम से सम्बन्धित अधिकारियों को अपहरण के षड्यन्त्र से सचेत करने के इरादे से तुमसे मिली थी । अमर मुझ पर बहुत नाराज हुआ । वह बोला कि लाला न तो अपने इरादों से टलेगा और न ही उसे कोई कामयाब होने से रोक सकेगा । केवल मैंने खामखाह बैठे बिठाये मुसीबत ले ली थी । अमर कहता है कि अधिकारियों को षड्यन्त्र की लाख खबर लग जाये और वे डाक्टर रंगनाथन की लाख हिफाजत कर लें, वह अपने मिशन में जरूर कामयाब होगा ।”
“अमर तुम्हारे लिये चिन्तित नहीं ?”
“बेहद चिन्तित है । मेरे पर आये संकट की वजह से ही एक बार मैंने उसे पश्चाताप में कहते सुना था कि क्यों वह प्रकाश के कहने में आकर इस खतरनाक धन्धे में शामिल हुआ ।”
“अमर अब कहां है ?”
“खबर नहीं । आज रात लाला तीरथराम की कोठी पर मीटिंग है । शायद वह वहां हो ।”
“उसे मालूम है, तुम यहां हो ?”
“नहीं । मेरी यहां मौजूदगी की जानकारी या तो इस फ्लैट की मालकिन को है और या फिर तुम्हें है ।”
उसी क्षण फ्लैट की घण्टी बजी ।
सुनील ने प्रश्नसूचक नेत्रों से वाणी की ओर देखा ।
वाणी के चेहरे पर भय और असमंजस के भाव थे ।
घण्टी फिर बजी ।
“कोई अंजना का परिचित होगा” - वाणी फुसफुसाई - “जवाब न मिलता पाकर चला जायेगा ।”
“भीतर जलती बत्ती की रोशनी का आभास बाहर मिल रहा होगा ?” - सुनील बोला ।
वाणी ने तुरन्त उठकर बत्ती बुझा दी ।
घण्टी फिर बजी । साथ ही आवाज आई - “वाणी, दरवाजा खोलो । मैं अमर हूं । मुझे मालूम है, तुम भीतर हो ।”
“अमर ही है ।” - वाणी बोली । उसने बत्ती दोबारा जला दी और आगे बढकर दरवाजा खोला ।
अमर भीतर प्रविष्ट हुआ ।
वाणी ने तुरन्त उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
अमर सुनील को देखकर ठिठका ।
“ये मिस्टर सुनील हैं” - वाणी जल्दी से बोली- “मैंने तुम्हें बताया था इनके बारे में ।”
“ओह” - अमर शान्ति की सांस लेकर बोला - “तो आप हैं मिस्टर सुनील ?”
“जी हां” - सुनील बोला । फिर वह वाणी की ओर घूमा - “तुम तो कहती थीं, तुम्हारी यहां मौजूदगी की किसी को जानकारी नहीं थी ?”
“वाणी ठीक कहती थी” - वाणी के बोलने से पहले ही अमर बोल पड़ा - “मैं वाणी को तलाश कर रहा था । हर सम्भव ठिकाने पर तलाश कर रहा था । मुझे मालूम था, अंजना उसकी सहेली है । मैं तो उम्मीद के सहारे ही यहां चला आया था कि शायद वाणी यहां हो या यहां से मुझे वाणी की खबर मिल सके । मैंने जब पहली बार घण्टी बजाई तो बाहर साफ आभास मिल रहा था कि भीतर बत्ती जल रही थी । तभी बत्ती बुझ गई । मैं समझ गया कि भीतर वाणी थी । और कोई भला ऐसी हरकत क्यों करता ?”
“तुम मुझे तलाश क्यों कर रहे थे ?” - वाणी ने पूछा ।
“मैं यहां से जा रहा हूं ।” - अमर गम्भीर स्वर से बोला - “हमेशा के लिए ।”
“अमर !”
“मैं सच कह रहा हूं, वाणी । मैं इस गुनाह की जिंदगी से तंग आ गया हूं । चाहता तो मैं हूं कि तुम्हें भी अभी साथ ले जाऊं लेकिन डरता हूं कि कहीं तुम मेरी वजह से छोटी मुसीबत से निकलकर किसी बड़ी मुसीबत में न फंस जाओ । मैं यहां से कार द्वारा बम्बई जा रहा हूं, वाणी ! वहां मेरा एक स्मगलर दोस्त मोटरबोट के द्वारा मुझे बसरा तक ले जायगा । वहां वह मेरे लिए जाली पासपोर्ट भी जुटा देगा । एक बार हिन्दुस्तान की धरती से किनारा कर जाने के बाद मुझे लाला का डर नहीं होगा ।”
“यानी कि तुम लाला के गैंग को छोड़ रहे हो ?”
“हां । प्रकाश के कत्ल ने मेरी आंखें खोल दी हैं । अभी लाला को मालूम नहीं कि मेरा इरादा क्या है । अपने इरादे की जानकारी उसे होने से पहले ही मैं उसके चंगुल से बहुत दूर निकल जाना चाहता हूं ।”
अमर एक क्षण रुका और बोला - “वाणी, तुम ऐसा करो । तुम अगले तीन-चार दिनों में जब भी रास्ता साफ पाओ, ट्रेन या प्लेन द्वारा बम्बई के लिए रवाना हो जाओ । मैं वहां तुम्हारा इन्तजार कर लूंगा । बम्बई का मेरा ठिकाना तुम्हें मालूम ही है । ठीक है ?”
“मैं सोचूंगी ।”
“इसमें सोचना क्या है ? यहां तो हर क्षण तुम्हारे सिर पर खतरे की तलवार लटकती रहेगी ।”
“अमर, मेरे भाई” - वाणी बोली - “तुम मेरी फिक्र मत करो । मैं अपनी सुरक्षा का इन्तजाम कर लूंगी, लेकिन मुझे खुशी है कि तुम लाला के चंगुल से निकल रहे हो ।”
“तुम अपनी सुरक्षा का क्या इन्तजाम कर लोगी ?”
“मुझे पूरा विश्वास है, लाला अपने नापाक इरादे में कामयाब होने वाला नहीं । एक बार उसके पुलिस की गिरफ्त में आने की देर है, फिर मुझे कोई खतरा नहीं होगा ।”
“तुम सपना देख रही हो । लाला अवश्य कामयाब होगा । दुनिया की कोई ताकत उसे कामयाबी से दूर नहीं रख सकती । तुम लाला की शक्ति को नहीं पहचानतीं ।”
वाणी ने सुनील की ओर देखा ।
“अमर, आज रात को लाला की कोठी पर क्या होने वाला है ?” - सुनील ने पूछा ।
“मुझे क्या मालूम ?” - अमर बोला - “मैं लाला का इतना विश्वासपात्र आदमी नहीं कि वह मुझे हर राज में हिस्सेदार बनाये मैं तो केवल इतना जानता हूं कि आज लाला के यहां बहुत आदमी आमन्त्रित हैं । आज ही एक्शन का दिन और समय निर्धारित होने वाला है और आज ही यह फैसला होने वाला है कि आपरेशन की रूपरेखा क्या होगी और किसने क्या करना होगा ।”
“और तुम्हें गारण्टी है कि लाला कामयाब होगा ?”
“जरूर कामयाब होगा, वर्ना मैं देश छोड़कर भागने का ख्याल न करता । सुनो” - वह सुनील की ओर झुककर बोला - “मैंने लाला कि कोठी में एक ऐसी करामाती चीज देखी है जिसे तुम देख लो तो मान जाओ कि लाला जैसी प्लानिंग कोई नहीं कर सकता । इसीलिए मुझे विश्वास है, लाला कामयाब होगा ।”
“क्या देखा है तुमने ?”
“मैंने एक दस गुणा दस फुट की मेज पर बना एक विशाल माडल देखा है जिसमें एटामिक एनर्जी कमीशन की एक-एक इमारत हूबहू बनी हुई है । क्या लेबोरेटरी, क्या प्रशासन ब्लाक क्या स्टोर क्या डाक्टर रंगनाशन और अन्य सीनियर वैज्ञानिकों की कोठियां, एक-एक गलियारा, एक-एक खिड़की-दरवाजा, एक-एक झरोखा हूबहू उस माडल में बना हुआ है । कहां-कहां सिक्योरिटी के आदमी खड़े होते हैं, कहां-कहां उनकी चैकपोस्ट है, हर बात उस माडल में अंकित है और वह माडल उन चित्रों के आधार पर तैयार किया गया है जो सिक्योरिटी वालों की नाक के नीचे खींचे गये, लेकिन उन्हें खबर नहीं लगी ।”
“यह सारा काम हरबर्ट ने किया ?”
“तुम जानते हो हरबर्ट को ?”
“मिल चुका हूं उससे । सुना है, वह कई साल लेबोरेटरी में नौकरी कर चुका है ।”
“बिल्कुल ठीक सुना है । इस आपरेशन की तैयारी में हरबर्ट का बहुत बड़ा योगदान है । मिस्टर, तुम्हें यह सोचकर हैरानी नहीं होगी कि लाला अन्धा है, फिर भी वह एटामिक एनर्जी कमीशन की इमारतों के चप्पे-चप्पे से वाकिफ है ?”
“वह वहां जाता जो रहता है । वह डाक्टर रंगनाथन का दोस्त जो है ।”
“जो भी है । लाला कामयाब होगा और जरूर कामयाब होगा । इसीलिए तुम्हें राय देता हूं दोस्त, उसके रास्ते में न आओ मुझे तुम्हारी चिन्ता इसलिए है क्योंकि मेरी बहन की वजह से तुम इस बखेड़े में फंसे हो ।”
“राय के लिए धन्यवाद ।” - सुनील शुष्क स्वर में बोला ।
“अमर” - वाणी बोली एक - “एक बात सच बताओ । कसम है तुम्हें जो झूठ बोलो ।”
“पूछो ।” - अमर सशंक स्वर से बोला ।
“सरोज से कब से नहीं मिले हो ?”
“सरोज का जिक्र क्यों छेड़ दिया तुमने ?” - अमर नाराजगी-भरे स्वर में बोला ।
“क्योंकि वह भी इस समय विश्वनगर में है । अगर जाती बार तुम्हारा उससे भी मिलने का ख्याल है तो यह ख्याल छोड़ दो ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वह एक बेहद खतरनाक नागिन है । मुझे मालूम है तुम उससे मुहब्बत करते हो लेकिन, भाई, वह भरोसे के काबिल लड़की नहीं । तुम उससे मिलने गये तो उसे तुम्हारे भाग निकलने के इरादे की खबर हुए बिना नहीं रहेगी । वह लड़की जादूगरनी है । पेट से बात निकाल लेती है । एक बार तुम उससे दो-चार हो गये तो तुम्हारे सारे इरादे धरे-के-धरे रह जायेंगे । तुम कभी भी इस शहर से बाहर कदम नहीं रख पाओगे ।”
“मैं नहीं मानता ।”
“यानी कि तुम उससे जरूर मिलोगे ?”
“जाती बार उससे एक बार मिल लेने में हर्ज क्या है ?”
“हर्ज ही हर्ज है । अमर, अपनी भलाई चाहते हो तो वही करो जो करने का तुमने इरादा किया है । सरोज के चक्कर में एक भी क्षण बरबाद किये बिना फौरन यहां से कूच कर जाओ । अमर, प्लीज ! वह लड़की बहुत जहरीली नागिन है, तुम्हें डस लेगी ।”
“अच्छी बात है ।” - अमर अनमने स्वर में बोला ।
“ओह, अमर” - वाणी हर्षित स्वर से बोली - “मेरे भाई ।”
“मैं चलता हूं” - अमर उठ खड़ा हुआ - “अगर तुम्हारा बम्बई आने का इरादा बने तो मुझे टेलीग्राम दे देना ।”
“जरूर ।”
“एक बात तो बताओ अमर ।” - एकाएक सुनील बोला ।
“पूछो ।” - अमर सुनील की ओर मुड़ा ।
“एटामिक एनर्जी कमीशन की इमारतों के जिस माडल का तुमने जिक्र किया है, उसका डाक्टर रंगनाथन के अपहरण से क्या रिश्ता है ?”
“मुझे नहीं मालूम । लेकिन कुछ तो रिश्ता होगा । लाला कोई काम बिना मतलब नहीं करता ।”
“मुझे तो कोई रिश्ता सम्भव नहीं दिखाई देता । अगर उन तमाम तैयारियों का कोई रिश्ता है तो मैं तो यही कहूंगा कि यह चींटी मारने के लिए तोप लाने जैसा काम है । जो आदमी अपनी सुरक्षा के लिए एक अंगरक्षक तक रखने को तैयार नहीं, उसका अपहरण करना क्या कठिन है । और फिर वह लाला का दोस्त है । उसे तो लाला जब चाहे ले जा सकता है ।”
“मैं कुछ नहीं जानता ।”
सुनील चुप हो गया ।
“मैं चला ।” - अमर बोला और फ्लैट से बाहर निकल गया ।
सुनील कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाये बैठा रहा और फिर उठ खड़ा हुआ ।
“मैं भी चलता हूं ।” - वह बोला ।
“कहां जाओगे ?” - वाणी ने पूछा ।
“पटेल रोड । लाला तीरथराम के घर ।”
“ओह नो !”
“मेरा वहां जाना जरूरी है । एकाएक मुझे दाल में कुछ काला दिखाई देने लगा है । आज रात दस बजे लाला की कोठी में जो फाइनल मीटिंग होने वाली है, उसमें मुझे बहुत महत्वपूर्ण बातें मालूम होने की सम्भावना है ।”
“तुम चोरों की तरह उसके घर घुसोगे ?”
“घुसना ही पड़ेगा । और क्या वह मीटिंग के दौरान मुझे अपनी बगल में बैठने का मौका देगा ?”
“सुनील, तुम जरूर पकड़े जाओगे । तुम्हारा बहुत बुरा अंजाम होगा । लाला से टकराना कोई आसान काम नहीं ।”
“देखा जायेगा ।”
“लेकिन...”
“छोड़ो । अपनी बात करो । तुम यहां सुरक्षित हो न ?”
“मेरी चिन्ता मत करो ।”
“ठीक है फिर । मैं चलता हूं ।”
सुनील भी फ्लैट से बाहर निकल आया ।
पीछे फ्लैट का दरवाजा मजबूती से बन्द हो गया ।
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