गोखले मार्ग में स्थित एक सौ बारह नम्बर इमारत एक छोटी-सी दो मन्जिली कोठी थी ।
रमाकान्त ने कार इमारत के सामने रोक दी ।
सुनील कार से बाहर निकल आया ।
“निकलो न ।” - रमाकान्त को अभी स्टियरिंग पर ही बैठा देखकर सुनील बोला ।
“मैं भी चलूंगा ?” - रमाकान्त बोला ।
“क्या हर्ज है ?”
“अच्छी बात है ।” - रमाकान्त बोला और इग्नीशन लॉक करके कार के बाहर निकल आया ।
कोठी के फाटक के समीप ही फुटपाथ पर चढी हुई एक क्रीम रंग की फियेट कार खड़ी थी सुनील उस कार के सामने ठिठका ।
“क्या बात है ?” - रमाकान्त ने उसे कार के सामने ठिठकते देखकर पूछा ।
“यह क्रीम रंग की फियेट गाड़ी अलीबाबा के मैनेजर देसाई की है ।” - सुनील बोला ।
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - रमाकान्त बोला - “तुम्हारे ख्याल से राजनगर में इस रंग की फियेट सिर्फ देसाई के पास ही है ?”
“मैंने यह कार देसाई को चलाते देखा है । मैंने पिछले हफ्ते जिस समय ‘नैपोली’ से लेकर ‘अलीबाबा’ तक देसाई का पीछा किया था, उस समय वह यही कार चला रहा था ।”
“पहचान क्या है ?”
“इसका दांया भाग पिछले द्वार के पास थोड़ा पिचका हुआ है और सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे कार का नम्बर याद है - आर जे आर एक हजार ।”
“अच्छा मान लिया वह कार देसाई की है । फिर आफत क्या आ गई ?”
“कुछ नहीं” - सुनील घड़ी देखता हुआ बोला - “अभी बारह बजने में दस मिनट हैं । हम जल्दी आ गये हैं । रासबिहारी के कथनानुसार जो आदमी सवा ग्यारह बजे उससे मिलने आने वाला था, शायद वह देसाई ही था ।”
“ज्यादा शरलाक होम्ज बनने की कोशिश में अहमकों जैसी बातें कर रहे हो उस्ताद ।” - रमाकान्त बोला - “कार की इस स्थान पर मौजूदगी से यह सिद्ध नहीं होता है कि देसाई ही इस पर सवार होकर यहां तक आया है । कार का रासबिहारी की कोठी के फाटक के समीप खड़ा होना यह सिद्ध नहीं करता कि वह रासबिहारी की कोठी में आया है और फिर क्योंकि एक बार तुमने देसाई को इस कार में देखा है, इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि कार देसाई की है ।”
“तुम ठीक कह रहे हो ।” - सुनील बोला ।
दोनों फाटक खोल कर कोठी के कम्पाउन्ड में प्रविष्ट हो गये । ड्राइव वे से होते हुये वे पोर्च में पहुंच गये ।
सुनील ने आगे बढकर काल बैल के पुश पर उंगली रख दी ।
काफी देर बाद द्वार खुला । द्वार खोलने वाला एक सुगठित शरीर वाला व्यक्ति था । वह एक गर्म गाउन पहने हुये था और गले में मफलर लपेटे हुये था । उसके चेहरे पर घनी दाढी और मूछें थी और वह आखों पर एक मोटे-मोटे शीशों का चश्मा लगाये हुये था ।
“मिस्टर सुनील ?” - रासबिहारी ने प्रश्न किया ।
“जी हां ।” - सुनील शिष्ट स्वर से बोला - “सुनील कुमार चक्रवर्ती । ये मेरे मित्र मिस्टर रमाकान्त हैं ।”
“तशरीफ लाइये ।” - रासबिहारी द्वार से एक ओर हटता हुआ बोला ।
रासबिहारी उन्हें एक सजे-सजाये हाल में ले आया । उस हाल में से ही ऊपर की मन्जिल को लकड़ी की सीढियां जाती थी ।
“तशरीफ रखिये ।” - रासबिहारी कुर्सियों की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
तीनों बैठ गये ।
“मैं आप लोगों की प्रतीक्षा में ही अभी तक बैडरूम में नहीं गया था ।” - रासबिहारी बोला ।
“मैं असुविधा के लिये क्षमा चाहता हूं ।” - सुनील उसका संकेत समझता हुआ बोला - “हम आपका समय नहीं लेंगे ।”
रासबिहारी चुप रहा । जैसे वह भी यही चाहता था ।
सुनील ने अपनी जेब से वह लिफाफा निकाल कर रासबिहारी की ओर बढा दिया जिसमें उसने कृति की भेजी हुई अखबार की कटिंग और फांसी वाली तस्वीर बन्द की थी ।
रासबिहारी ने लिफाफा ले लिया ।
उसने लिफाफे का एक कोना फाड़ा और उसके भीतर मौजूद कागज निकाल लिये ।
सुनील की गिद्ध दृष्टि रासबिहारी का एक-एक एक्शन नोट कर रही थी । सबसे पहले रासबिहारी की नजर अखबार की कटिंग पर पड़ी ।
सुनील को यूं लगा जैसे उस कटिंग में छपी तस्वीर को देखकर रासबिहारी एकदम चौंका हो, लेकिन अपर्याप्त कृत्रिम प्रकाश, उसका मोटे-मोटे शीशों वाला चश्मा, बनी दाढी और मूंछे उसके चेहरे पर परिलक्षित होने वाले किसी भी प्रकार के भावों को बड़ी सरलता से छुपा सकती थीं । वह कुछ क्षण अखबार की कटिंग देखता रहा । फिर उसने दूसरा कागज देखा ।
सुनील और रमाकान्त दोनों की निगाहे उसके चेहरे पर टिकी हुई थीं ।
रासबिहारी ने कागज पर से दृष्टि हटाई और बड़ी सतर्कता से पहले सुनील को और फिर रमाकान्त को देखा ।
दोनों स्थ‍िर बैठे रहे ।
रासबिहारी फिर कागज को देखने लगा, फिर उसने भावहीन स्वर में फांसी वाली ड्राइंग के नीचे लिखे मोटे-मोटे शब्द पढने आरम्भ कर दिये - “अक्लमन्द के लिये इशारा ही काफी होता है । भूल जाओ कि तुम किसी मजूमदार को जानते हो । मजूमदार की सलामती में ही तुम्हारी सलामती है । क्या मतलब हुआ इसका ?”
फिर एकाएक उसने लिफाफा और दोनों कागज अपने सामने मेज पर फेंक दिये और फिर गम्भीर स्वर से सुनील से बोला - “यह कोई मजाक था ? पहली अप्रैल तो अभी बहुत दूर है ।”
“आपको यह मजाक मालूम होता है ?” - सुनील ने गम्भीरता से पूछा ।
“शायद हो ।” - रासबिहारी बोला - “मुझे तो यह किसी बच्चे की शरारत या किसी मूर्ख की गन्दी हरकत मालूम होती है । मेरे पास आप यह चिट्ठी लेकर आये हैं । वास्तव में आपको मालूम होना चाहिये कि यह क्या है ?”
“मुझे कैसे मालूम हो सकता है ?” - सुनील बोला - “मैंने लिफाफा खोलकर नहीं देखा था । मुझे नहीं मालूम था कि इसके भीतर क्या है ! मैंने तो लिफाफा ज्यों का त्यों आपको लाकर सौंप दिया है ।”
“वाकई ?” - रासबिहारी के स्वर में व्यंग का हल्का सा आभास था ।
“क्या वाकई ?” - सुनील ने पूछा ।
“कि आपको यह मालूम नहीं था कि इस लिफाफे के भीतर क्या है ?”
“आप मुझ पर सन्देह कर रहे हैं ?”
“मैंने आपसे एक सवाल पूछा है ।”
“उस सवाल का जवाब मैं आपको पहले ही दे चुका हूं ।”
“बड़ी अच्छी बात है । बहुत मेहरबानी आपकी । आप नाराज क्यों हो रहे हैं ?”
“आई एम सॉरी ।” - सुनील बोला । रासबिहारी ने अनजाने में ही उसे कार्नर कर लिया था ।
“मिस्टर सुनील ।” - रासबिहारी बोला - “आपको पूरा विश्वास है कि यह चिट्ठी मेरे लिये ही थी ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि शायद आप किसी गलत रासबिहारी के पास पहुंच गये हों ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । मुझे जो पता बताया गया था मैं वहीं पहुंचा हूं ।”
“मेरे लिये इस‍ चिट्ठी का कोई अर्थ नहीं है । मुझे तो यह किसी की शरारत मालूम होती है ।”
सुनील चुप रहा ।
“आप मुझे यह नहीं बतायेंगे कि यह चिट्ठी मेरे लिये किसने भेजी है ?”
“चिट्ठी भेजने वाले ने मुझे अपना नाम प्रकट करने से मना कर दिया है ।”
“आपका चिट्ठी भेजने वाले से क्या वास्ता है ?”
“कुछ नहीं ।”
“किसी ने आपको कहा कि आप ये चिट्ठी 112 - गोखले मार्ग पर रहने वाले रासबिहारी की पहुंचा दें और आपने पहुंचा दी ।”
“जी हां ।”
“आपकी तारीफ ? या शायद आप अपने बारे में भी कुछ बताना मुनासिब नहीं समझते हैं ?”
“मेरे बारे में आप जो चाहें पूछिये । नाम मैं आपको बता ही चुका हूं । मैं ब्लास्ट का क्राइम रिपोर्टर हूं ।”
रासबिहारी ने फिर एक बार घूरकर सुनील को देखा ।
“आप किसी मजूमदार को जानते हैं ?” - सुनील ने प्रश्न किया ।
“मजूमदार नाम का मेरा कोई जानकार नहीं है ।” - रासबिहारी बोला - “चिट्ठी में लिखा है कि मैं भूल जाऊं कि मैं किसी मजूमदार को जानता हूं । अच्छा है मैं पहले से ही किेसी मजूमदार को नहीं जानता । इसलिये उसे भूल जाने की जहमत से बच गया ।”
और वह ठठाकर हंस पड़ा ।
सुनील उसके चुपचाप होने की प्रतीक्षा करता रहा ।
जी भरकर हंस चुकने के बाद रासबिहारी चुप हो गया ।
“आप देसाई साहब को जानते हैं ?” - सुनील ने सहज भाव से प्रश्न किया ।
“कौन देसाई साहब ?” - रासबिहारी ने माथे पर बल डालते हुये प्रश्न किया ।
“जो अलीबाबा के मैंनेजर हैं ।”
“अलीबाबा क्या चीज है ?”
सुनील ने विचित्र नेत्रों से रासबिहारी की ओर देखा और फिर बोला - “अलीबाबा नगर के एक सुप्रसिद्ध रेस्टोरेन्ट का नाम है ।”
“नहीं साहब ! न मैंने पहले कभी अलीबाबा का नाम सुना है और न ही मैं अलीबाबा के मैनेजर देसाई को जानता हूं । दरअसल मैं जरा पुराने जमाने का आदमी हूं इसलिये आदतन होटलों, क्लबों की कथित आधुनिक जिन्दगी से थोड़ा परहेज ही रखता हूं ।”
“आई सी ।”
रासबिहारी नहीं बोला ।
“तो फिर साहब” - सुनील उठने का उपक्रम करता हुआ बोला - “आपको पूरा विश्वास है कि यह चिट्ठी आपके लिये नहीं है ?”
रासबिहारी फिर हंस पड़ा, जैसे उसकी हंसी उसका जवाब हो ।
“तो फिर हमें इजाजत दीजिये ।” - और सुनील उठ खड़ा हुआ ।
रमाकान्त और रासबिहारी भी उठ खड़े हुये ।
“आपको असमय कष्ट दिया ।” - सुनील शिष्ट स्वर से बोला - “उसके लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूं ।”
“क्षमा तो साहब आपसे मुझे मांगनी चाहिये । मैं आपकी कोई खातिर नहीं कर सका ।”
“आपने इतनी रात गये हमसे मिलना स्वीकार कर लिया, यही हमारी खातिर है साहब ।”
“फिर कभी आइयेगा ।”
“जरूर ।”
सुनील ने दरवाजे की ओर दो कदम बढाये और फिर कुछ सोचता हुआ मुड़ा ।
रासबिहारी ने प्रश्न सूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा ।
“यह चिट्ठी” - सुनील मेज से अखबार की कटिेंग और दूसरा कागज मेज से उठाता हुआ बोला - “आपके तो किसी काम की है नहीं । ऐसी सूरत में उससे प्रेषक को लौटा देना ही उचित होगा ।”
रासबिहारी ने एक गहरी सांस ली और फिर बड़ी संजीदगी से बोला - “जी हां । जी हां ।”
“ओके सर, गुड नाइट ।” - सुनील बोला ।
सुनील और रमाकांत ने उससे हाथ मिलाया और फिर इमारत से बाहर निकल आये ।
रासबिहारी ने लगभग तत्काल ही द्वार बन्द कर लिया ।
दोनों ड्राइव वे से होते हुये बाहर चल दिये ।
आधे रास्ते में पहुंचकर सुनील ने घूमकर पीछे देखा ।
इमारत के नीचे की मन्जिल की बत्तियां बुझ चुकी थीं । ऊपर की मन्जिल के सामने के एक कमरे की बत्ती अभी भी जल रही थीं । शायद रासबिहारी उन्हीं की वजह से जाग रहा था और उनके जाने के बाद एक क्षण भी नष्ट किये बिना फौरन सोने की तैयारियां करने लगा था ।
दोनों बाहर सड़क पर आ गये ।
“देसाई की फियेट गायब है ।” - एकाएक रमाकांत बोला ।
सुनील ठिठका ।
“अब भगवान के लिये इसमें से भी कोई रहस्य खोदने की कोशिश मत करना ।” - रमाकांत बोर स्वर में बोला - “देसाई अगल-बगल की किसी इमारत में किसी से मिलने आया होगा और हमारे रासबिहारी के घर से निकलने से पहले ही यहां से चला गया होगा ।”
“ऐसा ही मालूम होता है ।” - सुनील मुस्कराता हुआ बोला - “इसमें से कोई रहस्य खोद निकालने की गुंजाइश ही नहीं है ।”
“शुक्र है ।” - रमाकांत अपनी इम्पाला की ओर बढता हुआ बोला ।
“लेकिन प्यारे कल यह चैक करवाना मत भूलना कि आर जे आर एक हजार नम्बर की क्रीम रंग की फियेट कार का मालिक देसाई ही है या कोई और ।”
“नहीं भूलूंगा ।”
दोनों कार में आ बेठे ।
रमाकांत ने इग्नीशन में चाबी लगाकर इन्जन चालू किया लेकिन गाड़ी को गियर में डालने से पहले ही सुनील ने उसे टोक दिया - “जरा ठहरो ।”
“अब क्या हुआ ?” - रमाकांत झुझलाकर बोला ।
सुनील ने इग्नीशन आफ कर दिया और कार के भीतर की बत्ती जला दी ।
“क्या बात है ?”
सुनील ने उत्तर नहीं दिया । उसने अपनी जेब में से चिट्ठी के साथ ही अखबार की कटिंग निकाली और उसे स्टेयरिंग पर रखकर रमाकांत का ध्यान उसकी ओर आकर्ष‍ित करता हुआ बोला - “इसे देखो !”
“देख रहा हूं ।”
“गौर से देखने लायक क्या है इसमें ? यह एक अच्छे खासे स्वस्थ आदमी की तस्वीर है और बस ! और अगर तुम यह कहना चाहते हो कि इसकी सूरत दिलीप कुमार से मिलती है तो मैं तुमसे कतई सहमत नहीं हूं । हां यह कुछ-कुछ उस गधे जैसा जरूर मालूम होता है जो नासिर हुसैन की फिल्मों में अक्सर दिखाया जाता है और बाई गॉड मेरा इशारा शम्मी कपूर की ओर नहीं है ।”
“रमाकांत बकवास बन्द कर यार ।”
रमाकांत फौरन गम्भीर हो गया ।
“इस तस्वीर को अच्छी तरह देखो ।”
रमाकांत ने तस्वीर अपने हाथ में ले ली और बड़ी बारीकी से उसका निरीक्षण करने लगा ।
“भई मुझे तो विशेष कुछ नहीं दिखाई दे रहा इसमें ।” - अन्त में रमाकांत बोला ।
“अभी दिखाई देता है, प्यारेलाल ।” - सुनील आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला - “अब जरा रासबिहारी के चेहरे की बिना चश्मे और दाढी मूंछ के कल्पना करो ।”
“क्या मतलब ?” - रमाकांत एकदम चौंका ।
सुनील बड़े अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कराया ।
“तुम यह कहना चाहते हो कि अखबार की कटिंग में छपी हुई तस्वीर रासबिहारी की है ।”
“बिल्कुल !”
रमाकांत कुछ क्षण शून्य में घूरता हुआ रासबिहारी के दाढी, मूंछ और चश्मे रहित चेहरे की कल्पना करने का प्रयत्न करता रहा और फिर बोला - “भई मुझे तो नहीं लगता या फिर मेरी कल्पना शक्ति तुम्हारे जितनी प्रबल नहीं है ।”
“दाढी-मूंछ और चश्मे के अलावा दस बारह साल की आयु के अन्तर को भी दिमाग में रखने की कोशिश करो । यह कटिंग आठ दस साल पुरानी जरूर है ।”
“मेरे बस की नहीं है । मुझे तो रासबिहारी की सूरत में और इस अखबार में छपी तस्वीर की सूरत में कोई समानता नहीं दिखाई देती ।”
“अच्छा, ठहरो । मैं दूसरे तरीके से समानता दिखता है, तुम्हें ।”
सुनील ने अखबार की कटिंग को अपनी गोद में टिका लिया और जेब से एक सिक्स बी की पैंसिल निकाली जो वह अक्सर इन्टरव्यू और भाषण नोट करने के लिये इस्तेमाल करता था । फिर उसने धीरे-धीरे बड़ी सफाई के साथ अखबार की तस्वीर के चेहरे पर उस प्रकार की दाढी और मूंछ बनानी आरम्भ कर दी जैसी उसने रासबिहारी के चेहरे पर देखी थीं ।
रमाकांत सांस रोके अपलक तस्वीर की ओर देख रहा था ।
दाढी मूंछ बना चुकने के बाद सुनील ने रासबिहारी जैसा ही चश्मा उस तस्वीर के चेहरे पर बना दिया ।
रमाकांत के मुंह से एकाएक सिसकारी निकल गई ।
“बाई गॉड !” - वह बोला - “यह तो बिल्कुल रासबिहारी बन गया ।”
सुनील ने तस्वीर उसके हाथ में दी ।
रमाकांत कुछ क्षण तस्वीर को गौर से देखता रहा और फिर बोला - “इसका मतलब यह हुआ कि अखबार में छपी हुई तस्वीर आज से आठ दस साल पहले रासबिहारी की है, जब यह चश्मा नहीं लगता था और दाढी मूंछ नहीं रखता था ।”
“करैक्ट ।” - सुनील सहमतिपूर्ण स्वर में बोला - “और दाढी मूंछ और चश्मा उसने शायद सूरत छुपाने के लिये ही लगाना शुरु किया है ।”
“जाहिर है । लेकिन यह सब किस्सा क्या है ? वास्तव में रासबिहारी है कौन ?”
“कम से कम कोई भला और शरीफ नागरिक तो नहीं है ।”
“रासबिहारी शर्तिया कोई जरायम पेशा, सजायाफ्ता या सजा से बचकर भागा हुआ आदमी है ।
“यह तुम कैसे कह सकते हो ?”
“दूसरे कागज की फांसी पर लटके हुये आदमी की तस्वीर और उसके नीचे लिखी हुई धमकी के आधार पर । रमाकांत वर्तमान तथ्यों के साथ-साथ कृति के इस कथन को भी याद करो कि वह स्मगलरों के गैंग के बॉस को इस बात के लिये मजबूर कर सकती है कि वह चुपचाप उसके पति का पीछा छोड़ दे ।”
रमाकांत सोचने लगा ।
“मान लो ।” - सुनील फिर बोला - “कि रासबिहारी अपने पिछले जीवन में कोई बहुत भयंकर अपराधी था जो पुलिस के चंगुल में फंस गया था और फिर उसे फांसी की सजा हो गई थी । फिर शायद रासबिहारी फांसी पर चढाये जाने से पहले ही किसी प्रकार भाग निकला । पुलिस पिछले आठ दस साल में उसे तलाश कर चुकने के बाद भूल-भाल गई और अब वही रासबिहारी अपनी सूरत-शक्ल में ऐसे परिवर्तन लाकर जिससे कि वह फांसी से भागे हुये मुजरिम के रूप में पहुचाना न जा सके, यहां 112 - गोखले मार्ग पर रह रहा है ।”
“फिर ?”
“फिर यह कि किसी प्रकार कृति मजूमदार को यह मालूम हो गया कि स्मगलरों के गैंग का बॉस वही रासबिहारी है जो आठ दस साल पहले फांसी पर चढाये जाने से पहले ही भाग निकला था । इतनी गम्भीर बात की जानकारी हो जाने के बाद क्या वह रासबिहारी को धमकी नहीं दे सकती कि वह उसके पति का पीछा छोड़ दे वर्ना वह उसकी हकीकत की सूचना पुलिस को दे देगी ।”
“आई सी ।”
“रासबिहारी की दस साल पुरानी तस्वीर, फांसी पर लटके हुये आदमी की ड्राइंग और ड्राइंग के नीचे लिखे हुये यह शब्द कि अक्लमन्द के लिये इशारा ही काफी होता है, वगैरह निश्चित रूप से इस बात की ओर संकेत करते हैं कि कृति रासबिहारी के पिछले जीवन की जानकारी के दम पर उसे ब्लैकमेल करना चाहती है । साथ ही उसने खुद सामने आने के स्थान पर धमकी के लिये माध्यम मुझे चुना और उसने मुझे विशेष रूप से कहा था कि मैं रासबिहारी को यह जरूर बताऊं कि मैं ‘ब्लास्ट’ का क्राइम रिपोर्टर हूं । कृति यही धमकी खुद रासबिहारी को देती तो शायद रासबिहारी कृति की या कृति और उसके पति दोनों की हत्या करके बात को ढक सकता था । मेरे माध्यम से क्योंकि बात सारे संसार तक पहुंच सकती है । इसलिये यह इस प्रकार का कोई कदम उठाने से न डरेगा । रासबिहारी मूर्ख नहीं है । वह इस चिट्ठी से बड़ी आसानी से यह नतीजा निकाल सकता है कि चिट्ठी या तो मजूमदार ने भेजी है या फिर उसकी पत्नी ने । लेकिन अब मेरे बीच में पड़ जाने की वजह से वह उन दोनों का कोई अहित करने से फिलहाल तो डरेगा ।”
“लेकिन कृति को कैसे मालूम हो गया कि रासबिहारी वास्तव में क्या है और उसने उसकी इतनी पुरानी अखबार में छुपी तस्वीर कैसे खोज निकाली ?”
“इस सवाल का बेहतर जवाब तो कृति ही दे सकती है ।”
“और कृति पता नहीं कहां है ।”
“कृति का पता तुम सुबह होने पर लगा ही लोगे । शंकर रोड पर नैय्यर एण्ड कम्पनी के आस-पास किसी मजूमदार को तलाश करना कठिन नहीं होगा जो प्रापर्टी डीलर है, जिसकी पत्नी का नाम कृति है और जिसका एक छोटा बच्चा भी है ।”
“वह तो हो ही जायेगा ।” - रमाकांत लापरवाही से बोला - “लेकिन सुनील ।”
“क्या ?”
“यह मानना पड़ेगा कि यह साला रासबिहारी का घोड़ा बड़ा जबरदस्त एक्टर है । अपनी दस साल पुरानी सूरत वाली अखबार की कटिंग और धमकी वाले पत्र को देखकर साले की सेहत पर कोई असर ही नहीं हुआ ।”
“हां, यह सच है कि रासबिहारी को अपनी भावनाओं पर बड़ा तगडा़ कन्ट्रोल है । उसके स्थान पर कोई दूसरा आदमी होता तो वर्तमान हालत में उसके होश-हवास उड़ जाते, लेकिन आरम्भ में केवल एक क्षण के लिये चौंकने के मामूली आभास के अतिरिक्त तो ऐसा लगता था जैसे वह वाकई इस विषय में कुछ न जानता हो ।”
“यार, मुझे तो अभी भी सन्देह है ।” - रमाकांत बोला ।
“किस बात का ?”
“कहीं तुम्हारी थ्योरी एकदम थोथी ही न निकले । तुम्हारी सारी दलीलें वजनी जरूर हैं और मैं यह भी जानता हूं कि अखबार वाली तस्वीर पर दाढी-मूंछें और चश्मा बना देने से वह तस्वीर रासबिहारी की लगने लगी है, लेकिन ये सब बातें निर्विवाद रूप से यह सिद्ध नहीं करतीं कि जो तुमने सोच है बस सच है ।”
“मेरी थ्योरी में जो सन्देह की गुंजाइश रह गई है वह रासबिहारी अपने एक्शन से पूरी कर देगा ।”
“कैसे ?”
“रासबिहारी ने प्रत्यक्ष में तो यही जाहिर किया है कि हमारी लाई हुई चिट्ठी से उसका कोई वास्ता नहीं है लेकिन वास्तव में वह जानता है कि उसका रहस्य खुल गया है और वह किसी भी क्षण गिरफ्तार हो सकता है । ऐसी सूरत में युक्तिसंगत तो यही लगता है कि वह फौरन यहां से भाग खड़ा हो । रमाकांत मेरा दावा है कि वह इस वक्त भी अपना सामान समेट रहा है और किसी भी क्षण यहां से निकल जायेगा ।”
“फिर तो हमें फौरन पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिये ।”
“और अगर हमारी थ्योरी गलत हुई और रासबिहारी दस साल पहले का फांसी से भागा हुआ मुजरिम न निकला तो ?”
“तो फिर क्या किया जाये ?”
“रमाकांत तुम ऐसा करो, तुम रासबिहारी की कोठी की निगरानी करो...”
“मरवाया ।” - रमाकांत कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टिपात करता हुआ अनिच्छा पूर्ण स्वर में बड़बड़ाया ।
“और मैं अपने दफ्तर में जाकर आठ दस साल पुरानी ‘ब्लास्ट’ की फाइलें देखता हूं । मुझे याद नहीं है लेकिन यह तस्वीर आठ दस साल पहले ‘ब्लास्ट’ में जरूर छपी होगी और साथ में बाकी की घटना का भी विवरण होगा । उसमें जरूर कोई ऐसी बात होगी, जिसके दम पर रासबिहारी की पक्की शिनाख्त की जा सकती । अगर मुझे ऐसा कोई सूत्र मिल गया तो मैं पुलिस फोन कर दूंगा ।”
“और अगर न मिला तो ?”
“तो मैं सुबह होते ही अपने मित्र पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट रामसिंह को सारी घटना कह सुनाऊंगा । फिर वह जो कार्यवाही उचित समझेगा करेगा । अगर इस बीच रासबिहारी भाग निकला तो तुम उसका पीछा करना ।”
“और अगर वह न भागा तो मैं सारी रात यहां टंगा रहूं ?” - रमाकांत बुरा सा मुंह बनाकर बोला ।
“वह तो करना ही पडे़गा ।”
“मैं यूथ क्लब जा रहा हूं । मैं वहां से किसी को भेज दूंगा ।”
“और अगर उतने समय में यहां से रासबिहारी भाग निकला तो ?”
रमाकांत चुप हो गया ।
“तुम टेलीफोन पर अपने किसी आदमी से सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकते ? टेलीफोन बूथ तो सामने ही है ।”
“कोशिश करुंगा ।”
“मैं चलता हूं ।”
“ब्लास्ट में कितनी देर लगाओगे ?”
“दो ढाई घन्टे तो लग ही जायेंगे । कम से कम तीन चार साल के अखबारों की फाइल तो देखनी ही पड़ेंगी... और तुम कार को आगे बढाओ । सम्भव है रासबिहारी कोठी की किसी खिड़की के पीछे से हमें देख रहा हो ।”
रमाकांत ने कार स्टार्ट की ।
उसने कार को 112 नम्बर इमारत से लगभग पचास गज आगे ले जाकर रोक दिया ।
रमाकांत ने इग्नीशन आफ किया और कार के भीतर की बत्ती बुझा दी ।
रमाकांत बुरा सा मुंह बनाता हुआ टेलीफोन बूथ की ओर बढ गया ।
सुनील ने घड़ी पर दृष्टिपात किया । साढे बारह बज चुके थे ।
वह सामने चौराहे की ओर चल दिया जिधर से उसे टैक्सी मिलने की आशा थी ।
***
सुनील ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में मोर्ग (ऐसा विभाग जहां अखबार की पुरानी प्रतियां महत्वपूर्ण चित्रों और अक्सर प्रयुक्त होने वाले मैटर का रिकार्ड रखा जाता है) में बैठा था । पिछले दो घन्टे से वह लगातार ब्लास्ट की पुरानी प्रतियों की फाइलें पलट रहा था ।
बीस मई 1958 के ‘ब्लास्ट’ में उसे वह तस्वीर दिखाई दी जिसकी उसे तलाश थी । उस अखबार में रासबिहारी की वही तस्वीर छपी हुई थी जिसकी कटिंग कृति ने सुनील को भिजवाई थी । तस्वीर के साथ मोटी सुर्ख‍ियो में यह समाचार छपा था - कुख्यात डाकू सुखराज जेल से फरार
नीचे विस्तार में छपे समाचार कार सारांश यह था - सुखराज बम्बई की बड़ी जेल में कैद था । चार दिन बाद इसे फांसी की सजा होने वाली थी । रात को एक बजे उसके पेट में भयकर पीड़ा की शिकायत की थी । पहरे में मौजूद सिपाही ने जेलर को सूचित किया और जेलर ने डाक्टर को । डाक्टर जेलर के साथ सुखराज की कोठरी में उसका मुआयाना करने आया था । डाक्टर की मौजूदगी में सुखराज दो बार पीड़ा से आधिक्य से बेहोश हो गया था और एक बार उसने खूनी उल्टी की थी डाक्टर ने उसे फौरन अस्पताल ले जाने का आदेश दिया । तुरन्त दो सशस्त्र सैनिकों की निगरानी में हो नौकर उसे स्ट्रेचर पर लाद कर जेल की चारदीवारी में ही मौजूद अस्पताल में ले चले थे । अस्पताल में पहुंचने से पहले ही सुखराज स्ट्रेचर पर बेहोश हो गया था बेहोशी की हालत में ही उसे अस्पताल में डाक्टर के जांच कक्ष में पहुंचा दिया गया था ।
मजेदार बात यह थी कि उस समय तक डाक्टर को भी यह नहीं सूझा था कि वास्तव में सुखराज बीमार नहीं था । वह कोरी लेकिन बड़ी शानदार एक्टिंग कर रहा था । जांच कक्ष में जिस समय डाक्टर सुखराज के लिये इंजेक्शन तैयार कर रहा था, सुखराज एकाएक बिस्तर से उठ बैठा था । एक करिश्मे की तरह उसके हाथ में एक रिवाल्वर प्रकट हो गई थी और पलक झपकते ही उसने एक नौकर, एक नर्स, दो सशस्त्र सिपाहियों डाक्टर और जेलर को गोली से उड़ा दिया था । रिवाल्वर में साइलेन्सर लगा होने के कारण किसी ने भी गोली चलने की आवाज नहीं सुनी । उसके बाद सुखराज जेल में केवल एक बार देखा गया जब वह अपनी जेल की वर्दी के ऊपर जेलर का लम्बा ओवरकोट पहने जेल की चारदीवारी की ओर भागा जा रहा था और एक पहरेदार ने उसे देखा था और उसे रुकने के लिये आवाज दी थी । फिर इससे पहले कि पहरेदार उस पर गोली चला पाता उसने पहरेदार को अपनी साइलेन्सर लगी रिवाल्वर की गोली का निशाना बना दिया था । संयोगवश सुखराज की गोली पहरेदार के शरीर के किसी घातक स्थान पर नहीं लगी थी और वह सुखराज के जेल तोड़कर भाग जाने की उस अनोखी घटना का आखिरी अंश सुनाने के लिये जीवित रह गया था । उसी चौकीदार ने सुखराज को एक रस्सी के सहारे जेल की दीवार पर चढकर दूसरी ओर कूदते देखा था ।
पुलिस की तफ्तीश से ज्ञात हुआ था कि दीवार की दूसरी ओर एक भूसे से लदा हुआ ट्रक खड़ा था । उसी ट्रक में से जेल की दीवार पर रस्सी फेंकी गयी थी और उस रस्सी के सहारे दीवार पर चढ जाने के बाद सुखराज शायद दीवार से सीधा उस भूसे के ट्रक में कूद गया था ।
सारी घटना इतनी तेजी से घटित हुई थी कि इससे पहले कि अधिकारी स्थिति को समझ पाते, सुखराज गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गया था ।
सुखराज के इस प्रकार जेल से फरार हो जाने से नगर में सनसनी फैल गई थी और कई लोग बड़े स्पष्ट रूप से जेल के अधिकारियों पर इल्जाम लगा रहे थे कि वास्तव में सुखराज उन्हीं लोगों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहायता से जेल में से भागने में सफल हुआ था ।
ब्लास्ट ने बड़े स्पष्ट शब्दों में अपना संदेह व्यक्त किया था कि सुखराज तक रिवाल्वर पहुंचाने में जरूर किसी जेल के ही कर्मचारी का हाथ था । किसी बाहरी आदमी के लिये जेल के अधिकारियों की जानकारी में आये बिना फांसी की सजा पाये हुये कैदी के पास साइलेन्सर लगी रिवाल्वर पहुंचा देता एक असम्भव कृत्य था ।
अन्त में, जैसा कि ऐसे मामलों में हमेशा होता है, पुलिस का दावा छपा हुआ था कि वह शीघ्र ही सुखराज को दुबारा गिरफ्तार कर लेगी और यह कि घटना की जांच बहुत ऊंचे स्तर पर हो रही थी ।
सुनील ने उसने अगले दिन का अखबार देखा -
सुखराज अभी भी लापता था ।
पुलिस ने जेल में पहरे पर तैनात एक सिपाही हो सन्देह के आधार पर हिरासत में ले लिया था । केस की तफ्तीश पर तैनात असिस्टेंट सुपरिन्टेन्डेट का बयान था कि सुखराज तक रिवाल्वर जाबर सिंह‍ नाम के उसी सिपाही ने पहुंचाई थी ।
अगले अट्ठाइस मई तक के अखबारों में रोज सुखराज के फरार हो जाने के केस का जिक्र था लेकिन परिणाम रहित । पुलिस सुखरा का सुराग नहीं पा सकी थी ।
तीस मई के अखबार के अनुसार सुखराज की सहायता करने के सन्देह में गिरफ्तार सिपाही जाबरसिंह को भी रिहा कर दिया था । अधिकारी यह सिद्ध नहीं कर सके थे कि जेल में सुखराज तक रिवाल्वर उसने पहुंचाई थी ।
जाबरसिंह को जेल से मुअतल कर दिया गया था ।
ब्लास्ट के उसके अगले अंको में सुखराज का जिक्र नहीं था । प्रत्यक्ष था कि पुलिस सुखराज को दुबारा गिरफ्तार कर पाने के प्रयत्नों में मुंह के बल गिरी थी ।
उस दिन से लेकर आज तक किसी को सुखराज की भनक भी नहीं मिली थी । हर कोई उसे भूल चुका था ।
और अब वही कुख्यात डाकू और हत्यारा सुखराज दाढी मूंछ बढाकर और चेहरे पर चश्मा लगाकर रासबिहारी के नाम से बेखटके राजनगर में गोखले मार्ग जैसे सम्पन्न इलाके में रह रहा था ।
सुनील ने बीस मई 1958 से पहले के अखबार पलटने आरम्भ किये ।
नौ फरवरी 1958 के ‘ब्लास्ट’ के मुख्य पृष्ठ पर रासबिहारी उर्फ सुखराज भी उसी तस्वीर के साथ निम्नलिखित समाचार छपा था ।
कुख्यात डाकू सुखराज गिरफ्तार ।
नैशनल बैंक में दिन दहाड़े डाका डालने का प्रयत्न विफल पुलिस के साथ सशस्त्र भिड़न्त में सुखराज के चार साथी मारे गये और दो फरार हो गये ।
सब इन्सपेक्टर घोर पड़े और तीन सिपाही बुरी तरह घायल ।
नीचे छपी घटना के विवरण का सार यह था -
दिन के डेढ बजे सुखराज और उसके छ: साथी साधारण नागरिकों की तरह बैंक में प्रविष्ट हुये थे । बैंक के चौकीदार को भीतर खींचकर उन्होंने चुपचाप बैंक का द्वार बन्द कर लिया था और फिर रिवाल्वरों से बैंक के कर्मचारियों को और बैंक में मौजूद ग्राहकों को कवर कर लिया था । उन्होंने कैशियर से सारा धन छीन लिया था और फिर जबरदस्ती बैंक का खजाना खुलवा लिया था । बैंक का सारा रुपया सूटकेस में भर चुकने के बाद जिस समय वे बैंक से बाहर निकले, उसी समय सस्शत्र सिपाहियों से भरी हुई पुलिस की जीपें बैंक के सामने पहुंच गयी ।
डाकूओं का बौखला जाना स्वाभाविक था ।
उन्होंने वापिस बैंक में घुसने का प्रयत्न किया लेकिन तब चौकीदार ने भारी होशियारी का परिचय देते हुये बैंक का द्वारा भीतर से बन्द कर लिया था ।
मुठभेड़ के सिवाय डाकुओं के पास कोई चारा नहीं था ।
पन्द्रह मिनट तक पुलिस और डाकुओं में डट कर गोलियों का आदान प्रदान हुआ जिसके फलस्वरूप चार डाकू पुलिस की गोलियों से हलाल हो गये और पुलिस सब इन्सपेक्टर घोरपड़े और तीन सिपाही बुरी तरह घायल हो गये । दो डाकू किसी प्रकार भागने में सफल हो गये लेकिन सुखराज गिरफ्तार कर लिया गया । आखिरी क्षण में उसकी टांग में पुलिस की गोली लग गई थी और वह उस कार में सवार नहीं हो पाया था जिसमें उसके दो साथी भाग खड़े हुये थे ।
फरार डाकू बैंक का लूटा हुआ माल अपने साथ ले जाने में सफल नहीं हो सके थे ।
यह सबके लिये हैरानी का विषय था कि पुलिस एकाएक मौके पर कैसे पहुंच गयी थी । कैशियर अपनी सीट के नीचे लगी हुई वह अलार्म बैल इस्तेमाल नहीं कर सका था जिसका सीधा सम्पर्क पुलिस स्टेशन से था । डाकूओं ने सबसे पहले कैशियर को ही अपने अधिकार में किया था और अलार्म बैल की तारों को तत्काल काट दिया था ।
बाद में बैंक से मैनेजर के अपने बयान में प्रेस रिपोर्टरों को बताया कि क्योंकि इस प्रकार की डाकाजनी की घटनायें बड़ती जा रही थी इसलिये उसने खतरे के अलार्म का दोहरा इन्तजाम किया हुया था । कैशियर की सीट के नीचे एक अलार्म बैल का बटन लगा हुआ था और घन्टी नजदीकी पुलिस स्टेशन पर लगी हुई थी । उस बटन के दबाते ही नजदीकी पुलिस स्टेशन पर घंटी बज उठती थी और पुलिस को मालूम हो जाता था कि बैंक को लूटने की कोशिश की जा रही है । डाकूओं को उस घंटी की जानकारी पहले से थी इसलिये सबसे पहले उन्होंने कैशियर को ही दबोचा था ताकि वह घन्टी का बटन न दबा सकें लेकिन डाकूओं को यह नहीं मालूम था कि उसी घंटी का दूसरा सर्कट तब बनता था जबकि बैंक के वर्किंग आर्वस में बैंक का मुख्य द्वार बन्द किया जाता था । बैंक के मुख्य द्वार के तीनों पल्ले मिलते ही पुलिस स्टेशन पर घंटी बजने लगती थी । बैंक बन्द होने के समय मैनेजर पहले उस घंटी का सर्कट काटता था और फिर द्वार बन्द करवाता था । डाकूओं को सौभाग्यवश उस नये इन्तजाम की जानकारी नहीं थी इसलिये वे बैंक लूटने में सफल नहीं सके थे ।
अगले दिन के ब्लास्ट में छपा था कि डाकूओं के साथ मुठभेड़ में घायल तीन सिपाहियों से दो ने सब इन्सपेक्टर घोरपड़े ने हस्पताल में दम तोड़ दिया था ।
अगले तीन महीनों में पन्द्रह सोलह बार सुखराज से सम्बन्धित समाचार छपे थे ।
पुलिस सुखराज से उसके साथियों का सुराग पाने में सफल नहीं हो सकी थी ।
सुखराज पर मुकदमा चला ।
पुलिस ने पिछली दो साल में घटी कई डाकाजनी और हत्या को घटनाओं का सम्बन्ध सुखराज और उसके गिरोह से सिद्ध किया ।
सुखराज को फांसी की सजा हो गई ।
ओर फिर फांसी होने से चार दिन पहले वह बड़े अप्रत्याशित ढंग से जेल से फरार हो गया ।
और अब वही सुखराज ग्यारह साल बाद रासबिहारी के नाम से राजनगर में रह रहा था और कृति के कथनानुसार स्मगलरों के गैंग का बॉस था ।
सुनील को अब यह बात और भी अधिक महत्वपूर्ण लगने लगी की कृति को कैसे मालूम हुआ कि रासबिहारी वास्तव में ग्यारह साल पहले का फांसी की सजा पाया हुआ फरार डाकू सुखराज है ।
उसने सन् अट्ठावन से भी पहले के अखबारों में सुखराज का संदर्भ तलाश करना आरम्भ कर दिया । अब उसे सुखराज कि किसी ऐसी शिनाख्त की तलाश थी जिसके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि सुखराज ही रासबिहारी है ।
उसी क्षण एक चपरासी ने मोर्ग में कदम रखा ।
“आपका टेलीफोन है साब ।” - चपरासी बोला ।
सुनील ने अखबारों की फाइल से सिर उठाकर विचित्र नेत्रों से उसकी ओर देखा और बोला - “मेरा !”
“जी हां ।”
“कौन है ?”
“मुझे नहीं मालूम साहब ।”
“कहां ?”
“राय साहब के कमरे में ।”
“अच्छा आता हूं ।”
चपरासी चला गया ।
सुनील ने फाइल बन्द कर दी और मोर्ग से बाहर निकल आया ।
वह राय के कमरे की ओर जाने वाले गलियारे में चलने लगा ।
रोटेरी मशीन चल रही थी । अगले दिन का अखबार तैयार हो रहा था । उसने कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टिपाट किया ।
ढाई बज चुके थे ।
राय अपने कमरे में नहीं था । टेलीफोन रिसीवर क्रेडिल से हटकर मेज पर पड़ा था ।
सुनील ने हाथ बढाकर रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया और मेज के एक कोने का सहारा लेता हुआ बोला - “हैलो ।”
“सुनील ।” - दूसरी ओर से उसे रमाकांत का व्यग्र स्वर सुनाई दिया ।
“हां... रमाकांत ?”
“हां । सुनील तुम फौरन यहां आ जाओ ।”
“यहां कहां ?”
“गोखले मार्ग पर । रासबिहारी की कोठी के सामने ।”
“क्या हो गया है ?” - सुनील ने सशंक स्वर में पूछा ।
“रासबिहारी की कोठी में आग लग गई है और मालूम होता है कि रासबिहारी भी उसी आग में घिरकर जल मरा है ।”
सुनील चौंका ।
“आग कैसे लग गई ?”
“ओ बाबा तुम जल्दी यहां पहुंचो । टेलीफोन पर तुम्हारे सवालों का जवाब देने का समय नहीं है । यहां प्रभूदयाल भी मौजूद है और वह मेरी ऐसी-तैसी कर रहा है ।”
“प्रभूदयाल ।”
“हां । तुम्हार खास दुश्मन पुलिस इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल ।”
दूसरी ओर से सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
सुनील ने भी रिसीवर को क्रेडिल पर पटका और बाहर की ओर भागा ।
***
गोखले मार्ग पर रासबिहारी की सारी कोठी आग के शोलों से भरी हुई थी । फायर ब्रिगेड के तीन इन्जन वहां मौजूद थे और दस-बारह फायर फाइटर्स बड़े-बड़े हौजों के जरिये आग की लपटों पर पानी फेंककर आग बुझाने का प्रयत्न कर रहे थे ।
इमारत के सामने सड़क पर दूर-दूर तक लोगों का जमघट लगा हुआ था । पुलिस के जवान लोगों को इमारत के समीप आने से रोक रहे थे ।
ब्लास्ट के आफिस से निकलने से पहले सुनील अपना कैमरा साथ लेना नहीं भूला था । रमाकांत को तलाश करने का प्रयत्न करने से पहले उसने जलती हुई इमारत की विभिन्न कोणों से तीन चार तस्वीरे ले डाली ।
फिर उसने कैमरा लापरवाही से गले में लटकाया और भीड़ में रमाकांत को तलाश करने लगा ।
रमाकांत तो उसे नहीं मिला लेकिन भीड़ से अलग खड़ा जैसे जौहरी दिखाई दे गया ।
सुनील से नजर मिलते ही उसने सुनील को हाथ हिलाकर संकेत किया और एक ओर चल दिया ।
भीड़ से थोड़ी दूर हटकर वह खड़ा हो गया । सुनील उसके समीप पहुंच ।
“तुम यहां कैसे ?” - सुनील ने पूछा ।
“मुझे रमाकांत ने बुलाया था ।” जौहरी ने बताया ।
“इमारत की निगरानी के लिये ।”
“हां ।”
“रमाकांत भी यहीं है न ?”
“हां ।”
“तुम्हारे यहां आने के बाद भी वह यहीं रहा ?”
“हां !”
“क्यों ?”
“क्योंकि रमाकांत को बाद में मालूम हुआ था कि इस इमारत का पिछली ओर गली में भी एक रास्ता है जो सामने दिखाई नहीं देता । इमारत के पिछले रास्ते पर पहुंचने के लिये सामने की सड़क से इस ब्लाक के सिरे तक जाना पड़ता है और फिर वहां से घूमकर पिछली गली में आना पड़ता है । रमाकांत केवल मुझसे ही सम्पर्क स्थापित करने में सफल हो सका था । पिछले रास्ते की जानकारी सेसे मुझे यहां पहुंचने के बाद ही हुई थी । फिर उसका जाना असम्भव हो गया था । रमाकांत सामने सड़क पर रहा था और मैं पिछले रास्ते की निगरानी करने के लिये पिछली गली में चला गया था ।”
“तुम यहां किस समय पहुंचे थे ?”
“एक बजे के बाद ।”
“मैं यहां रमाकांत को छोड़कर साढे ग्यारह बजे गया था । तुम्हारे कथनानुसार रमाकांत को पिछले रास्ते के जानकारी तुम्हारे आने के बाद ही हुई थी । इसका मतलब तो यह हुआ कि साढे बारह और एक बजे के बीच के समय में शायद रासबिहारी पिछले दरवाजे से खिसक गया हो ।”
“हो सकता है ।” - जौहरी ने स्वीकार किया ।
“लेकिन टेलीफोन पर रमाकांत तो कह रहा था कि शायद रासबिहारी भी आग में जल मरा है ।”
“ऐसा कहते समय उसने साढे बारह और एक बजे के बीच के उस आधे घन्टे की ओर ध्यान नहीं दिया होगा जिसके दौरान इमारत के पिछले रास्ते की निगरानी नहीं हो रही थी अगर एक बजे तक रासबिहारी इमारत में था तो यह बात दावे के साथ कही जा सकती है वह अभी भी भीतर ही है क्योंकि एक बजे के बाद उसका मेरी या रमाकांत की जानकारी में आये बिना इमारत से निकल जाना असम्भव था और इस भीषण आग में किसी का इमारत में जिन्दा मौजूद रह पाना भी असम्भव है ।”
“आग कैसे लग गई ?”
“मालूम नहीं । मैंने तो केवल एक धमाका सुना था और फिर थोड़ी देर बाद ही इमारत में से आग की लपटें फूटने लगी थी ।”
“यह कितने बजे की बात है ?”
“लगभग दो बजे की ।”
“फायर बिग्रेड को आग की सूचना किसने दी थी ?”
“रमाकांत ने । दस मिनट के अन्दर-अन्दर फायर ब्रिगेड यहां पहुंच गया था । लेकिन न जाने कैसी आग है, बुझने का नाम ही नहीं ले रही है । फायर ब्रिगेड वालों को पानी फेंकते आधे घन्टे से ज्यादा हो गया ।”
“अब तो आग कुछ हल्की होती मालूम हो रही है ।” - सुनील जलती हुई इमारत की ओर दृष्टिपात करता हुआ बोला ।
जौहरी ने भी इमारत की ओर देखा फिर बोला - “हां शायद ।”
“तुम लोग आग लगने की सूचना देने के बाद भी यहीं क्यों रुके रहे ?”
“रमाकांत का ख्याल था कि शायद जलती हुई इमारत में से रासबिहारी बाहर निकले । उसी प्रतीक्षा में हम लोग ठहरे रहे । तभी फायर ब्रिगेड आ गया । साथ ही पुलिस आ गई । दुर्भाग्यवश इतनी रात गये भी पुलिस के साथ इन्सपेक्टर प्रभूदयाल आया, उसने रमाकांत को पहचान लिया । उसने रमाकांत से इतनी रात गये उसकी यहां मौजूदगी के बारे में सवाल करने आरम्भ कर दिये । मजबूरन रमाकांत को स्वीकार करना पड़ा कि हम लोग इमारत की निगरानी कर रहे थे, आग हमारे सामने ही लगी थी और हम ही ने फायर ब्रिगेड को आग को सूचना दी थी ।”
“प्रभूदयाल ने यह भी पूछा होगा कि तुम लोग इमारत कि निगरानी क्यों कर रहे थे ?”
“जरूर पूछा होगा लेकिन रमाकान्त ने क्या उत्तर दिया है, यह मुझे मालूम नहीं है ।”
“रमाकान्त है कहां ?”
“प्रभूदयाल के साथ ही कहीं है ।”
“आओ वापिस इमारत के पास चले । आग बुझती मालूम हो रही है ।”
दोनों वापिस इमारत के समीप पहुंच गये ।
थोड़ी देर बाद आग की आखिरी लपट भी पानी की तेज धार के सामने ठन्डी पड़ गई लेकिन आग बुझाने वाले ने इमारत पर पानी फेंकना बन्द नहीं किया ।
“ये लोग आग बुझ जाने के बाद भी पानी क्यों फेंक रहे हैं ?” - सुनील ने पूछा ।
“जौहरी ने एक उचटती-सी दृष्टि इमारत की ओर डाली फिर उत्तर दिया - ताकि आग से झुलसी हुई इमारत का ट्रैम्प्रेचर नीचे आ जाये । इमारत का जो भाग आग की वजह से गिरने वाला हो गया है, वह गिर जाये । उसके बाद ही पुलिस इमारत के भीतर प्रविष्ट हो पायेगी ।”
“आई सी ।” - सुनील बोला और चुप हो गया ।
अब इमारत में से धूआं निकल रहा था ।
पानी की बौछारें पूर्ववत् इमारत के हर भाग पर पड़ रही थी ।
अन्य समाचार पत्रों के रिपोर्टर भी घटना स्थल पर पहुंच चुके थे और सुनील जौहरी के समीप से हटकर रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों की भीड़ में जा मिला ।
दूर इमारत के एकदम समीप सुनील को प्रभूदयाल और उसके साथ रमाकान्त दिखाई दिया लेकिन पुलिस के सिपाहियों ने उसे आगे बढने से रोक दिया ।
“हवलदार !” - सुनील एक सिपाही से बोला - “मेरा नाम सुनील है । इन्सपेक्टर प्रभूदयाल मेरी प्रतीक्षा कर रहा है ।”
“मैं उन्हें सन्देश भिजवा देता हूं ।” - सिपाही कड़वे स्वर में बोला - “अगर इन्सपेक्टर साहब चाहेंगे तो मैं आपको उनके पास तक चला जाने दूंगा ।”
अच्छी बात है । सुनील बोला ।
लेकिन सिपाही ने प्रभूदयाल को सूचना भिजवाने की कोशिश नहीं की ।
सुनील खिन्न सा स्थिति बदलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
लगभग आधे घण्टे बाद आग बुझाने वालों के एक प्रतिनिधि ने बताया कि अब इमारत के गिरने का खतरा नहीं है और इमारत का टैम्परेचर बर्दाश्त की हद तक नीचे आ चुका है ।
रिपोर्टरों ने इमारत के समीप पहुंचने का प्रयत्न किया लेकिन पुलिस ने उन्हें आगे नहीं बढने दिया ।
फिर सुनील ने इन्सपेक्टर प्रभूदयाल को कुछ सिपाहियों और आग बुझाने वालों के साथ इमारत के भीतर प्रविष्ट होते देखा ।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद रमाकांत अकेला इमारत से बाहर निकला और भीड़ में से गुजरता हुआ सड़क के दूसरी ओर बढ़ा ।
सुनील लपककर उसके समीप पहुंचा ।
रमाकांत ने उसे देखकर उसकी बांह पकड़ी और उसे भीड़ में से निकालकर एक ओर ले आया । रमाकांत के चेहरे और कपड़ों पर कोई स्थानों पर कालख लगी हुई थी और वह बहुत परेशान दिखाई दे रहा था ।
रमाकान्त ने अपनी जेब से चारमीनार का एक पैकेट निकाला और उसमें से एक सिगरेट निकालकर सुलगा लिया । वह सिगरेट के लम्बे-लम्बे कश लेने लगा । चार-पांच कश में ही आधे से अधिक सिगरेट समाप्त कर चुकने के बाद वह बोला - “तुमने मरवा दिया यार ।”
“मैं जौहरी से मिल चुका हूं ।” - सुनील इस विषय पर सम्भावित वार्तालाप का पटाक्षेप करने के से भाव में बोला ।
“अब प्रभूदयाल सारी बात जाने बिना तुम्हें छोड़ेगा नहीं ।” - रमाकांत बोला ।
“बाद की बात में भुगतेंगे ।” - सुनील बोला - “पहले यह बताओ कि इमारत के भीतर क्या मिला ?”
“रासबिहारी का खात्मा हो गया है ।” - रमाकांत ने बताया - “वह बैडरूम में मरा पड़ा है । लाश जलकर कोयला हो गई है । चेहरा एकदम झुलस गया है । चश्मे का सैलोलायड पिघल गया है और शीशे बाहर निकल गये हैं । केवल सैलोलायड के नीचे का मैटल का फ्रेम उसकी नाक पर लगा रह गया है । दाढी मूंछ और सिर के बाल तो जल ही गये हैं । साथ में चमड़ी तक पिघल गई है । बड़ी वीभत्स सूरत बन गई है । उसके चेहरे की ओर तो देखने भर से ही तबियत खराब होने लगती है ।”
“प्रभूदयाल तुम्हें अपने साथ भीतर क्यों ले गया था ?”
“लाश की शिनाख्त के लिये ।”
“उसे मालूम था कि भीतर कोई लाश मिलने वाली है ?”
“लाश मिलने की सम्भावना तो थी ही न । मैंने उसे बताया था कि रासबिहारी भीतर था ही और आग लगने के बाद भी बाहर नहीं निकला था ।”
“लेकिन जौहरी के यहां पहुचंने से पहले आधे घन्टे में शायद रासबिहारी पिछले दरवाजे से निकल गया हो ?”
“प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती । रासबिहारी उस समय में पिछले दरवाजे से नहीं निकल भागा था । इमारत में मौजूद उसकी झुलती हुई लाश ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है ।”
“लाश रासबिहारी की ही है न ?”
“मुझे तो उसी की मालूम हुई और फिर वर्तमान स्थिति में अगर तुम तथ्यों को सामने रखकर विचार करो तो लाश उसके अतिरिक्त किसी और की हो भी नहीं सकती, बशर्तें कि... तुम्हारा छिद्रान्वेषी मस्तिष्क एक छोटी सी बात को कोई विशेष महत्व न दे ।”
“कौन सी छोटी बात ?” - सुनील ने सजग स्वर में पूछा । इस मामले में रमाकांत का जजमेंट कोई खास अच्छा नहीं था । कई बार उसे बड़ी महत्वपूर्ण बात भी ‘छोटी सी बात’ मालूम होती थी ।
“पौने एक बजे के करीब एक लड़की रासबिहारी की कोठी के सामने आई थी ।”
“लडकी !” - सुनील के कान खड़े हो गये ।
“हां । मैं उससे दूर था और रोशनी भी काफी नहीं थी, इसलिये मैं ठीक से उसकी सूरत तो देख नहीं पाया था । लेकिन मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि वह काफी जवान और काफी खूबसूरत चीज थी ।”
“अगर वह तुम्हें दुबारा दिखाई दे तो उसे पहचान लोगे ?”
“मुश्किल ही है । मैंने बताया न मैं ठीक से उसकी सूरत नहीं देख पाया था और फिर मुझे तो सारी जवान और खूबसूरत लड़कियां एक ही जैसी मालूम होती हैं ।”
“रासबिहारी की कोठी के सामने वह क्या कर रही थी ?”
“सामने तो वह एक क्षण के लिये ही ठिठकी थी और फिर फाटक ठेलकर भीतर घुस गई थी । कम्पाउन्ड में से गुजर कर मैंने उसे इमारत की पोर्च की बत्ती जली थी, दरवाजा खुला था और फिर दूर सड़क से मुझे गाउन में लिपटे रासबिहारी की झलक सी मिली थी और फिर लड़की कोठी में प्रविष्ट हो गई थी, द्वार बन्द हो गया और तत्काल ही पोर्च की बत्ती बुझ गई थी ।”
“वह लड़की रासबिहारी की कोठी तक पैदल ही आई थी ?”
“मैंने उसे पैदल आते देखा था ।”
“वह वापिस कब लौटी ?”
“यही तो मालूम नहीं हो सका । वह मुझे इमारत से निकलती दिखाई नहीं दी । इमारत में वह रुकी भी नहीं वर्मा भीतर रासबिहारी के साथ कहीं उसकी भी जली हुई लाश मिलती ।”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं कि मैंने खिड़की को भीतर जाते हो देखा लेकिन बाहर निकलते नहीं देखा । ऐसा लगता है कि वह लड़की एक बजे से पहले ही अर्थात जौहरी के पिछले द्वार की निगरानी करने के लिये पिछली गली से पहुंचने से पहले ही वह पिछले रास्ते से बाहर निकल गई थी । इसके अतिरिक्त और कोई सम्भावना मुझे दिखाई नहीं देती । आग लगने के बाद तक में निरन्तर इमारत के सामने से निगरानी करता रहा था ।
“लड़की जरूर एक बजे से पहले के पन्द्रह मिनटों पिछवाड़े से निकल गई थी ।”
“ऐसा ही मालूम होता ।”
“आग कैसे लगी ?”
“इमारत में बम फटा था ।”
“बम !” - सुनील आश्चर्य से बोला ।
“हां ! किसी ने इमारत में टाइम बम रख दिया । ऊपर की मन्जिल में वह घड़ी भी मिली है जो टाइम बम का समय कन्ट्रोल करती है ।”
“इसका मतलब तो यह हुआ कि इमारत में लगी आग कोई दुर्घटना नहीं थी ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“शायद उसी लड़की ने ही इमारत में बम रखा हो ।”
“अगर उस लड़की ने बम रखा है तो हैरानी की बात है । वह अधिक से अधिक पन्द्रह मिनट इमारत में ठहरी थी । वह पौने एक बजे आई थी और अगर वह एक बजे के बाद इमारत के पिछवाड़े से निकली होती तो वह जौहरी को दिखाई दे गई होती रासबिहारी ने खुद उसके लिये दरवाजा खोला था । इतने अल्प समय में वह रासबिहारी को जानकारी के बिना इमारत में टाइम बम छुपाने में सफल कैसे हो गई ?”
“क्या मालूम, क्या बखेड़ा है ?” - सुनील कन्धे झटकता हुआ बोला ।
रमाकांत ने सिगरेट का आखिरी कश लगाकर बचा हुआ टुकड़ा फेक दिया ।
“एक बात और बताओ ।” - थोड़ी देर बाद सुनील बोला ।
“क्या ?”
“रासबिहारी की मृत्यु जल जाने से हुई है या वह बम फटने पर उसकी चपेट में आ गया था ।”
“रासबिहारी जल कर ही मरा है । बम की चपेट में वह नहीं आया है । लाश को उस प्रकार की क्षति नहीं पहुंची है जिसकी बम की चपेट में आ जाने से सम्भावना थी । हालात से ऐसा मालूम होता है कि बम के जहरीले धुंये से पहले रासबिहारी बेहोश हो गया था और फिर बेहोशी की हालत में ही जल मरा था लेकिन सुनील रासबिहारी जल कर मरा या बम की चपेट में आकर मरा दोनों सूरतों में यह हत्या का ही केस है और हत्यारा उस लड़की के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता जिसे मैंने पौने एक बजे के करीब इमारत में घुसते देखा था ।”
“सम्भव है ।” - सुनील बोला ।
“अब प्रभूदयाल से कैसे निपटोगे ?” - रमाकांत ने पूछा ।
“यही तो मैं सोच रहा हूं ।” - सुनील तनिक चिन्तित स्वर में बोला ।
“तुम्हें रासबिहारी के मामले में ‘ब्लास्ट’ की पिछली फाइलों में से कुछ मालूम हुआ ?”
“बहुत कुछ ।”
“क्या ?”
“फांसी होने से चार दिन पहले बम्बई की जेल तोड़कर भागा हुआ दुर्दान्त डाकू सुखराज ही रासबिहारी है ।”
“सुखराज ! कौन सुखराज !” - रमाकांत भावहीन स्वर में बड़बड़ाया और फिर एकाएक उसके नेत्र फैले गये । वह उत्तेजित स्वर में चिल्ला पड़ा - “तुम्हारा मतलब उस डाकू सुखराज से है जो नैशनल बैंक में डाका डालते समय गिरफ्तार हो गया था, जिसे फांसी की सजा हुई थी और जो बाद में बड़े करिश्मासाज ढंग से कई आदमियों की हत्या करके जेल से भाग निकल था ।”
“बिल्कुल वही ।”
“हे भगवान ! यह रासबिहारी वही डाकू सुखराज है ।”
“हां !”
“तुम्हें गलतफहमी तो नहीं हुई है ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । उसकी तस्वीर तो उसकी शिनाख्त है ही । वैसे भी सारे तथ्य इसी बात की पुष्टि करते हैं ।”
“कमाल है !” - रमाकांत बड़बड़ाया - “इतने सालों बाद सुखराज का सुराग मिला तो पुलिस के हस्तक्षेप से पहले ही किसी ने उसकी हत्या कर दी ।”
सुनील ने उत्तर नहीं दिया । उसने इमारत की ओर दृष्टि डाली । अन्य समाचार पत्रों के प्रतिनिधि जली हुई इमारत में प्रविष्ट हो रहे थे । शायद पुलिस ने उन्हें भीतर जाने को आज्ञा दे दी थी ।
“आओ ।” - सुनील बोला और तेजी से इमारत की ओर बढ़ गया ।
रमाकांत उसके पीछे था ।
सुनील भी पत्र प्रतिनिधियों की भीड़ में जा मिला ।
सब लोग सावधानी से उस कमरे में पहुंचे जिसमें लाश पड़ी थी ।
“कोई किसी चीज को हाथ न लगाये ।” - एक ए एस आई पत्र प्रतिनिधियों को चेतावनी देता हुआ बोला ।
अगले कई क्षण कमरा रह-रह कर फ्लैश बल्बों के प्रकाश से जगमगाता रहा ।
लाश बिल्कुल रमाकांत द्वारा वर्णित स्थिति में थी । जली हुई लाश का विकराल रूप देखने भर से उबकाई आने लगती थी । जले हुये चेहरे से रासबिहारी की सूरत का हल्का सा आभास मात्र ही मिलता था । जली हुई लाश के झुलसे हुए चेहरे पर टिका हुआ चश्मे का नंगा फ्रेम बड़ा वीभत्स लगता था ।
सुनील चुपचाप भीड़ में से बाहर निकल आया ।
“कहां जा रहे हो ?” - सीढियों में रमाकांत ने पूछा ।
“खिसक रहा हूं ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“प्रभूदयाल से मिले बिना ही ?”
“हां, क्योंकि इस समय मैं प्रभूदयाल के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता इसलिये तो खिसकने की जरूरत महसूस कर रहा हूं ।”
“प्रभूदयाल भड़क जायेगा । वह तुमसे बहुत कुछ पूछना चाहता है ।”
“फिलहाल तो उसे यह भी मालूम नहीं होगा कि मैं यहां आया हूं या नहीं ।”
“उसे मालूम है । मैंने उसके सामने तुम्हें फोन किया था ।”
“फिर क्या हुआ ? तुम समझना कि मैं यहां आया ही नहीं ।”
“उसे मालूम हो जायेगा ।”
“हो जाये । मुझसे तो वह नहीं मिला है । मुझे क्या ख्वाब आयेगा कि वह मुझे यहां रोकना चोहता है ।”
“मैं जो बता रहा हूं तुम्हें ।”
“और तुम क्या चीज हो ?”
रमाकांत चुप हो गया ।
बाहर कम्पाउन्ड के अपर्याप्त प्रकाश में से गुजरता हुआ सुनील बाहर आ गया ।
“प्रभूदयाल मेरी ऐसी तैसी करेगा ।” - रमाकांत चिन्तित स्वर में बोला ।
“घबराओ मत प्यारेलाल । वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता । इस सिलसिले में जो कुछ तुम्हें मालूम है, तुम बड़ी ईमानदारी से उसे बता दो, जब मेरी बारी आयेगी तो मैं भुगत लूंगा ।
“लेकीन उससे बात कर लेने में हर्ज क्या है ?”
“वह अपनी इन्सपेक्टरी ऐंठ में खामखाह मुझे परेशान करेगा मेरा वक्त बरबाद करेगा और सम्भव है कि मुझ पर कोई न कोई चार्ज लगाकर वह मुझे हिरासत में भी ले ले । मैं कृति मजूमदार से मुलाकात हो चुकने तक स्वतन्त्र रहना चाहता हूं और सबसे बड़ी बात यह है कि फिलहाल मैं सारी कहानी की जानकारी पुलिस को नहीं होने देना चाहता ।”
रमाकांत चुप रहा ।
“लेकिन जो काम मैंने तुम्हें बताये हैं, तुम उन्हें सुबह सवेरे करवाना मत भूलना ।” - सुनील बोला ।
“बशर्ते कि सुबह होने तक प्रभूदयाल मुझे अपनी चंगुल में ही न फांसे रहे ।
“आल राइट ।” - सुनील बोला । उसने रमाकांत से हाथ मिलाया और फिर उस ओर चल दिया, जिधर उसने अपनी मोटर साइकिल खड़ी की थी ।
***
अगले दिन नौ बजे तक सुनील अपने एक मित्र के घर में पड़ा सोता रहा । पिछली रात वह थोड़ी देर के लिये रिपोर्ट देने के लिये ‘ब्लास्ट’ के आफिस में गया था । वह अपने फ्लैट पर लौटने के स्थान पर अपने मित्र के घर आ गया । क्योंकि उसे भय था कि कहीं प्रभूदयाल उसे तलाश करता हुआ ‘ब्लास्ट’ का ताजा अंक क्योंकि उसके दुबारा आफिस पहुंचने तक छप चुका था, इसलिये रासबिहारी के अपनी कोठी में जल मरने का समाचार उस अंक में नहीं जा सका था ।
पन्द्रह मिनट में सुनील तैयार होकर बाहर सड़क पर आ गया ।
उसने एक पब्लिक टेलीफोन बूथ से यूथ क्लब में रमाकांत को फोन किया ।
“कुछ काम हुआ ?” - रमाकांत के लाइन पर आते ही सुनील ने सीधा प्रश्न किया ।
“हां, हुआ ।” - उत्तर में रमाकांत का चिड़चिड़ा स्वर सुनाई दिया - “एफ 18 नम्बर की कोठी में एक मजूमदार रहता है, जिसकी एक छोटी सी बच्ची भी है जो आजकल विश्वनगर में अपनी नानी के साथ गई हुई है और जिसकी कोठी शंकर रोड पर नैय्यर एण्ड कम्पनी के एकदम करीब है और कुछ ?”
“क्रीम कलर की कार जे आर - 1000 नम्बर की फियेट को चैक करवाया ?”
“हां, वह कार ‘अलीबावा’ के मैनेजर देसाई की है । यह बात मैंने रजिस्ट्रेशन से चैक करवाई है । पिछली रात को गोखले मार्ग पर रासबिहारी की कोठी के समीप उस कार को देसाई खुद लेकर गया था या कोई और यह बात अभी मेरे आदमी चैक नहीं कर पाये हैं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि देसाई और उसकी कार दोनों का ही कहीं पता नहीं चल रहा है । देसाई न अलीबाबा में है और न अपनी कोठी पर है । दिनकर देसाई को चैक कर रहा है । उसके कथनानुसार देसाई की बीवी को भी उसकी कुछ खबर नहीं हैं । यही पोजीशन देसाई की कार की है ।”
“कार तो वहीं होगी जहां देसाई होगा ।”
“हां शायद । और कुछ ?”
“फिलहाल बस । धन्यवाद ।”
“परले सिरे के सूअर हो तुम ।” - रमाकांत का क्रोधित स्वर सुनाई दिया ।
“इतनी बड़ी उपाधि के योग्य कौन सा काम कर दिया है मैंने ?” - सुनील आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“सारी अपने मतलब की बात पूछो और छुट्टी । फूटे मुंह से यह नहीं पूछा गया कि पिछली रात को तुम्हारे गोखले रोड से खिसक जाने के बाद प्रभूदयाल के चक्कर में मुझ पर क्या बीती ?”
“तुम्हारे पर क्या बीती होगी, उसका अच्छा अन्दाजा मुझे तुम्हारी चिड़चिडी आवाज से ही हो गया है । प्यारे भाई, ऐसा करो, बाथरूम में चले जाओ । बाथटब में गर्म पानी भर कर उसमें बैठ जाओ सिर पर बर्फ की थैली रख लो, तबीयत फौरन न सुधर जाये तो पैसे मत देना । क्या ख्याल है ?”
रमाकांत ने अपना ख्याल रिसीवर को भड़ाक से क्रेडिल पर पटक कर जाहिर किया ।
सुनील ने भी टेलीफोन हुक पर लटकाया और बाहर निकल आया ।
वह मोटर साईकिल पर सवार होकर शंकर रोड़ की ओर चल दिया ।
शंकर रोड पर एफ 18 नम्बर की कोठी उससे बड़ी आसानी से तलाश कर ली । वह एक बड़े से यार्ड के मध्य में बनी एक दोमंजिली इमारत थी । साइड में मुख्य इमारत से थोड़ा हट कर गैरेज बना हुआ था । कोठी पर कहीं मजूमदार का नाम अंकित नहीं था और न ही वहां कोई ऐसा साइन बोर्ड था, जिससे यह जाहिर होता कि वहां कोई प्रापर्टी डीलर रहता है ।
सुनील ने मोटर साइकिल को बाहर फुटपाथ पर खड़ा किया और फिर कोठी का फाटक ठेलकर भीतर प्रविष्ट हो गया । पोर्टिको में एक काले रंग की एम्बैसेडर खड़ी थी । सुनील उसकी बगल में से होता हुआ इमारत के बाहरी बरामदे में आ गया । उसने कालबैल के पुश पर उंगली रख दी और फिर द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
कई क्षण गुजर गये । न द्वार खुला और न ही भीतर से किसी प्रकार की आहट मिली ।
कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद सुनील ने फिर घन्टी बजा दी ।
द्वार फिर भी नहीं खुला ।
वह तीसरी बार घन्टी बजाने ही वाला था, उसे भीतर से द्वार की ओर बढते हुए कदमों की आहट सुनाई दी ।
सुनील ने घन्टी की ओर बढता हुआ अपना हाथ खींच लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
द्वार खुला ।
द्वार पर एक सूटधारी हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति खड़ा था । उसने एक सरसरी नजर से सिर से पांव तक सुनील को देखा और असाधारण गम्भीरतापूर्ण स्वर में बोला - “फरमाइये ।”
“मैं मजूमदार साहब से मिलना चाहता हूं ।” - सुनील अपने चेहरे पर एक गोल्डन जुबली मुस्कराहट लाता हुआ बोला ।
“फरमाइये मेरा ही नाम मजूमदार है ।
“नमस्कार, मेरा नाम कैलाश है । आप प्रापर्टी डीलर हैं न ?”
मजूमदार ने फिर एक संदिग्ध दृष्टि सुनील पर डाली और फिर बोला - “जी हां ।”
“मैं एक घर खरीदना चाहता हूं । इस सिलसिले में मैं आपकी सहायता चाहता हूं ।”
“कैसा घर ?”
“सारे सवाल यहीं दरवाजे पर खड़े-खड़े ही पूछियेगा ?” - सुनील ने मुस्कराते हुये पूछा ।
“ओह, सारी ।” - मजूमदार तनिक हड़बड़ाया - “देखिये मिस्टर कैलाश, दरअसल मैं इस समय... अच्छा, आइये... भीतर तशरीफ लाइये ।”
और वह द्वार से एक ओर हट गया ।
सुनील भीतर प्रविष्ट हो गया ।
वह एक हाल था । जिस द्वार से सुनील भीतर प्रविष्ट हुआ था । वह एक कोने में था और उसके सामने से ही ऊपर की मंजिल के लिये जूट मैटिंग से ढकी हुई लकड़ी की सीढियां थीं । हाल के बाईं ओर के भाग को ड्राइंग रूम की सूरत दी गई थी ।
“तशरीफ रखिये ।” - मजूमदार बोला ।
“धन्यावाद ।” - सुनील बोला और एक कुर्सी पर बैठ गया।
“आपको मेरे बारे में कैसे जानकारी हुई, मिस्टर कैलाश ?” - मजूमदार ने उसके समीप बैठते हुये प्रश्न किया ।
“किसी ने जिक्र किया था ।”
“कहां ?”
“अलीबाबा में ।”
“अगर बुरा न मानें तो क्या मैं पूछ सकता हूं कि मेरा जिक्र ‘अलीबाबा’ में किसने किया ?”
“अन्जना ने ।” - सुनील बड़ी शान्ति से झूठ बोलता हुआ बोला ।
“अन्जना ।” - मजूमदार उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “मैं तो किसी अन्जना को नहीं जानता ।”
“आपकी पत्नी कृति जानती है । दरअसल अन्जना मेरी होने वाली पत्नी का नाम है और वह आपकी पत्नी कृति की परिचित है ।”
“आप मेरी पत्नी को जानते हैं ?” - मजूमदार ने संदिग्ध स्वर में पूछा ।
“नहीं जानता ।” - सुनील सहज स्वर में बोला - “दरअसल आपकी पत्नी ने किसी सन्दर्भ में आपका जिक्र अन्जना से किया होगा और जब मैंने अन्जना को बताया कि मैं उससे शादी करने से पहले उसके लिये एक घर खरीदना चाहता हूं तो उसने मुझे आपका नाम बता दिया । पिछले एक महीने से मैं आपसे सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न कर रहा हूं, लेकिन क्या करूं जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि समय ही नहीं मिलता । काम-धन्धों से फुरसत ही नहीं मिलती । रोज सोचा करता था कि शाम को फैक्ट्री से निकलकर सीधा आपके पास पहुंचूंगा लेकिन शाम होने तक हमेशा कोई न कोई घपला हो जाता था और बात कल पर टल जाती थी । इसलिये आज मैं घर से यह निश्चय करके चला था कि पहले आपसे मिलूंगा और फिर कोई दूसरा काम करूंगा ।”
“आपको मेरी कोठी का पता कैसे मालूम हुआ ?”
“अन्जना ने बताया था साहब और अन्जना को आपकी पत्नी ने बताया ।”
“ओह ! आई सी !” - मजूमदार एकाएक शांति की गहन निश्वास लेता हुआ बोला - “आई सी ।”
सुनील चुप रहा ।
“आप किस प्रकार का घर खरीदना चाहते हैं, मिस्टर कैलाश ?” - कुछ क्षण बाद मजूमदार ने प्रश्न किया ।
“कोई अच्छी सी आरामदेह जगह जो आधुनिक हो, अच्छी आबादी में हो और जिसमें मैं अन्जना, कभी-कभार आ जाने वाले एक दो मेहमान और निकट भविष्य में होने वाले हमारे छः सात बच्चे आराम से रह सकें ।”
“छः सात बच्चे ।” - मजूमदार मुस्कराता हुआ बोला - “परिवार नियोजन में आपकी कोई विशेष आस्था नहीं मालूम होती साहब ।”
“आपने एकदम ठीक कहा है । मुझे दो या तीन बच्चे बस और फिर डाक्टर की सलाह मानिये वाली बात कतई भली नहीं लगती है । मैं तो डाक्टर की सलाह नहीं मानूंगा साहब, विशेष रूप से जबकि अन्जना को भी कोई एतराज न हो । मजूमदार साहब, आखिर जब तक आधी दर्जन बच्चे मेरे सिर पर चढकर नाचेंगे नहीं, मुझे मालूम कैसे होगा कि मैं शादीशुदा हूं ।”
मजूमदार हंस पड़ा ।
सुनील भी शर्माता हुआ मुस्कराया ।
“ऐसा कोई बिकाऊ मकान आपकी नजर में है जो मेरी जरूरतें पूरी कर सके ?” - सुनील थोड़ी देर बाद बोला । मन ही मन वह कृति के बारे में सोच रहा था । वह अभी तक दिखाई नहीं दी थी ।
मजूमदार कुछ क्षण चुप रहा और फिर गम्भीर स्वर में बोला - “शंकर रोड का इलाका पसन्द है आपको ?”
“बहुत पसन्द है ।”
“यहां आपको मनपसन्द कोठी मिल जाये तो...”
“मुझे कोई एतराज नहीं होगा ।” - सुनील जल्दी से बोला - “बशर्ते कि दाम वाजिब हों और खाली कोठी का कब्जा तत्काल मिल जाये । शंकर रोड की कोई कोठी है आपकी नजर में ?”
“है ।”
“कौन सी ? क्या मैं उसे अभी देख सकता हूं ?”
“आप उसे देख रहे हैं ।”
“क्या मतलब ?” - सुनील चौंका ।
“मतलब यह है मिस्टर कैलाश ।” - मजूमदार गम्भीरता से बोला - “अपनी कुछ मजबूरियों की वजह से मैं यह शहर हमेशा के लिये छोड़कर जा रहा हूं । भविष्य में इस कोठी का मेरे लिये तो कोर्ई इस्तेमाल रह नहीं जायेगा । आपको अगर यह कोठी पसन्द हो तो बताइये ?”
सुनील कुछ क्षण सोचने का अभिनय करता रहा और फिर बोला - “क्या मैं कोठी देख सकता हूं ?”
“नीचे” - मजूमदार एक ओर हाथ फैलाता हुआ बोला - “इधर दो बैडरुम हैं, एक...”
“मैंने अर्ज किया था ।” - सुनील उसको बात काटकर अनुरोध पूर्व स्वर में बोला कि - “क्या मैं कोठी देख सकता हूं ?”
मजूमदार एक क्षण हिचकिचाया और फिर एक गहरी सांस लेता हुआ अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ ।
“आइये !” - वह बोला ।
मजूमदार ने पहले उसे नीचे के कमरे दिखाये और फिर सीढियों के रास्ते मजूमदार के पीछे-पीछे ऊपर पहुंच गया । वह ऐसी गम्भीरता से एक-एक चीज का निरीक्षण कर रहा था जैसे वह वाकई कोठी खरीदने वाला हो और जा कुछ मजूमदार उसे दिखा रहा ता वह सब उसे बेहद पसन्द आ रहा हो ।
मजूमदार उसे पहली मन्जिल के कमरे दिखाने लगा ।
अभी तक सुनील को कोठी में कृति के या किसी अन्य प्राणी के दर्शन नहीं हुये थे ।
गलियारे के एक कमरे के सामने से मजूमदार ने चुपचाप गुजर जाना चाहा ।
सुनील एक कमरे के सामने ठिठक गया ।
“आइये न ।” - मजूमदार व्यग्र स्वर में बोला ।
“यह कमरा...” - और सुनील ने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
मजूमदार ने उत्तर नहीं दिया ।
कुछ क्षण सुनील मजूमदार के उत्तर की अपेक्षा करता रहा और फिर बोला - “यह कमरा भी दिखाइये ।”
“यह बैडरूम है ।” - मजूमदार बोला - “बिल्कुल बैसा ही है जैसा ग्राउन्ड फ्लोर पर इससे एकदम नीचे का कमरा है ।”
“देखें ।” - सुनील अनुरोध पूर्ण स्वर में बोला ।
“आई एम सॉरी मिस्टर, कैलाश” - मजूमदार खेदपूर्ण स्वर में बोला - “यह कमरा मैं इस समय आपको खोलकर नहीं दिखा सकता ।”
“क्यों ?” - सुनील आश्चर्य की प्रतिमूर्ति बनता हुआ बोला ।
“इस कमरे की चाबी कृति के पास है और वह आज ही सुबह छः बजे की बस से विश्वनगर अपनी मां के पास चली गई है ।”
“ओह !” - सुनील निराशापूर्ण स्वर में बोला ।
“लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि नीचे के कमरे में और इस कमरे में कोई फर्क नहीं है ।” मजूमदार बोला ।
“फिर भी... जरा देखें शायद ताला बन्द न हो ।”
और इससे पहले कि मजूमदार कोई प्रतिक्रिया प्रकट कर पाता सुनील एकाएक आगे बढा और उसने द्वार का हैंडल पकड़कर घुमाने का प्रयत्न किया ।
हैंडल अपने स्थान से हिला भी नहीं, द्वार सचमुच बन्द था, सुनील ने हैंडल से हाथ उठा लिया लेकिन कुछ क्षण वहीं ठिठका खड़ा रहा ।
द्वार के एकदम दूसरी ओर से किसी के सांस लेने की आवाज आ रही थी ।
“आइये ।” - मजूमदार व्यग्र स्वर में बोला ।
सुनिल अनिच्छा से द्वार के समीप से हट गया और मजूमदार के साथ हो लिया ।
मजूमदार उसे फिर नीचे ड्राईंग रूम में ले आया ।
इस बार सुनील ने बैठने का उपक्रम नहीं किया और न ही मजूमदार ने आग्रह किया ।
“कहिये कोठी पसन्द आई ?” - मजूमदार ने आशापूर्ण स्वर से पूछा ।
“कोठी मुझे पसन्द है ।” - सुनील ने निर्णयात्मक स्वर में उत्तर दिया - “अब आप बताइये, आप इसका कम से कम क्या लेंगे ?”
“देखिये” - मजूमदार विशुद्ध व्यवसायिक स्वर में बोला - “मैं आपके सामने एक बड़ा सीधा और सच्चा सौदा पेश करता हूं । बाहर मेरी कार खड़ी है । उसके अतिरिक्त मैं किसी चीज को हाथ नहीं लगाऊंगा । जैसा आपके सामने खड़ा हूं वैसा ही मैं आपके सामने चलकर कोठी से बाहर खड़ा हो जाऊंगा, कोठी सारे साजो-सामान सहित कोठी आपकी और आप मुझे पिच्चासी हजार रुपये दे दीजिये ।”
“पिच्चासी हजार रुपये तो ज्यादा हैं ।” - सुनील मन ही मन स्थिति का जायजा लेता हुआ बोला ।
“चलिये आप अगर नगद सौदा करें तो मैं पांच हजार और तोड़ता हूं । अगर आप आज ही नगद रुपया दें तो कोठी अस्सी हजार में आपकी । वैसे आपकी जानकारी के लिये इसके आसपास आफर मुझे खाली कोठी की मिल चुकी है ।”
“डन ।” - सुनील बोला - “हाथ मिलाइये ।”
मजूमदार ने बड़ी गर्मजोशी से सुनील से हाथ मिलाया ।
“लेकिन मैं पहले कोठी अन्जना को दिखा लूं । आखिर कोठी मैं खरीद तो उसी के लिये रहा हूं । अगर उसे ही पसन्द न आई तो...”
“ओह !” - मजूमदार का उत्साह आधा ही रह गया - “अच्छी बात है ।”
“तो फिर मैं अन्जना को लेकर किस वक्त यहां आ सकता हूं ?”
“जब आपका जी चाहे ।”
“आप यहीं होंगे ?”
“जी हां !”
“अच्छी बात है । मैं जल्दी ही लौटूंगा नमस्कार ।”
सुनील इमारत से बाहर निकल आया ।
मजूमदार कुछ क्षण उसे बाहर जाता देखता रहा और फिर उसने द्वार बन्द कर लिया ।
सुनील ने पब्लिक टेलीफोन बूथ के लिये आसपास दृष्टि दौड़ाई । बूथ कहीं नहीं था । सुनील मोटर साइकिल पर सवार हो गया और शंकर रोड मार्केट में आ गया । मार्केट में अभी तक दुकानें नहीं खुली थी । मजबूरन उसे नैय्यर एण्ड कम्पनी के ही फोन के लिये जाना पड़ा । सौभाग्यवश काउन्टर पर रात वाला क्लर्क नहीं था । सुनील सीधा टेलीफोन बूथ में प्रविष्ट हो गया ।
उसने यूथ क्लब का नम्बर डायल कर दिया ।
रमाकांत आशा से अधिक जल्दी लाईन पर आ गया ।
“रमाकांत ।” - सुनील बोला - “मजूमदार का पता बताने के लिये धन्यवाद । एफ-18 वाला मजूमदार ही कृति का पति है ।”
“बड़ी खुशी की बात है ।” - रमाकांत का भावहीन स्वर सुनाई दिया - “कृति से मुलाकात हुई ?”
“नहीं, उसके कथनानुसार वह आज सुबह छः बजे की बस से अपनी मां के पास विश्वनगर चली गई है ।”
“फिर ?”
“फिर यह कि मजूमदार की कोठी की निगरानी के लिये तुम भेजो किसी को ।”
“क्यों ?”
उत्तर में सुनील ने कम से कम शब्दों में मजूमदार की कोठी पर घटित सारी घटना सुना दी ।
“तो तुम्हारा ख्याल है कि ऊपर की मन्जिल में जो कमरा मजूमदार ने तुम्हें दिखाया नहीं, उसमें कृति और कृति के छः बजे की बस से विश्वनगर चले जाने की कहानी झूठी है ।”
“सम्भावना तो है ही ।”
“फिर तो पुलिस में रिपोर्ट कर दो ।”
“और अगर मेरा ख्याल गलत निकला तो ? उस कमरे के भीतर तो वाकई कोई था लेकिन सम्भव है वह भीतर अपनी मर्जी से मौजूद हो ।”
रमाकांत कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “सुबह छः बजे विश्वनगर के लिये डीलक्स बस जाती है । लम्बे रूट की बस है । उसमें सीटें बहुत थोड़ी होती हैं और उतनी आरामदेह बस राजनगर से विश्वनगर तक दिन में एक ही चलती है इसलिये उस बस में सीट हासिल करने कि लिये लोग तीन-तीन चार-चार दिन पहले अपनी सीटें बुक करवा लेते हैं । अगर कृति आज सुबह विश्वनगर गई होगी तो इस बात की पूरी सम्भावना है, उस बस की पैसेन्जर लिस्ट में उसका नाम होगा और उस लिस्ट की एक कापी ट्रांसपोर्ट कम्पनी के लोकल आफिस में भी रहती है ।”
“वैरी गुड । वह लिस्ट चैक करवाओ ।”
“अब तो शंकर रोड पर आदमी भेजने की जरूरत नहीं है न ?”
“है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मजूमदार भी तो खिसकने वाला है । रमाकांत जरा सोचो जो आदमी घर के सारे सामान समेत मकान बेच रहा हो, क्या वह किसी भी क्षण यहां से खिसक नहीं जायेगा ?”
रमाकांत चुप रहा ।
“और फिर उसकी कोठी के बन्द कमरे में जो कोई भी मौजूद है, अगर उसकी हत्या करके खिसक गया तो बाद में मजूमदार को तलाश कर पाना भुस के ढेर में सूई ढूंढने जैसा कठिन काम होगा ।”
रमाकांत कुछ क्षण चुप रहा और फिर निर्णयात्मक स्वर में बोला - “अच्छा मैं राकेश को भेजता हूं ।”
“थैंक्यू ।” - सुनील बोला और उसने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया ।
बाहर आकर वह फिर मोटर साइकिल पर सवार हुआ और मोटर साइकिल को धीमी गति से चलाता हुआ फिर शंकर रोड की ओर चल दिया ।
राकेश के वहां पहुंचने तक मजूमदार की कोठी की निगरानी उसी ने करनी थी ।
उसने शंकर रोड पर पर मोटर साइकिल मोड़ दी और दांये-बांये कोई ऐसी जगह तलाश करने लगा जहां रुककर वह राकेश के आने तक मजूमदार की कोठी की निगरानी कर सकता था ।
उसी क्षण सुनील की दृष्टि मजूमदार की कोठी की दिशा में उठी और फिर एकाएक उसके नेत्र फैल गये ।
एक कार बड़ी तेजी से इमारत के फाटक से बाहर निकली, ब्रेकों की चरचराहट की आवाज वातावरण में गूंजी और फिर कार इतनी तेजी से बाईं ओर घूमी कि दाईं ओर के दोनों पहिये उठ गये । फौरन ही गाड़ी सड़क पर सीधी हुई और फिर बंदूक में से छूटी हुई गोली की तरह सामने की ओर भाग निकली ।
सुनील ने तत्काल एक्सीलेटर घुमाया और अपनी मोटर साईकिल को उसके पीछे भगा दिया । मजूमदार की कोठी के सामने से गुजरते समय उसने एक दृष्टि भीतर यार्ड में डाली ।
पोर्टिको में मजूमदार की काली एम्बैसेडर नहीं खड़ी थी
सुनील ने मोटर सार्ईकिल की रफ्तार और बढा दी ।
अगली कार मजूमदार की काले रंग की एम्बैसेडर ही थी लेकिन ड्राइवर सुनील को दिखाई नहीं दे रहा था ।
काली कार ने एकदम दायीं ओर मोड़ काटा और फिर बिना गाड़ी की रफ्तार जरा भी कम किये अगले चौराहे के ट्रेफिक में से तीर की तरह निकल गई । अगली कार का ड्राइवर बहुत दक्ष था और सुनील को मोटर साईकिल पर उसका पीछा करने में बहुत दिक्कत हो रही थी ।
सुनील सोच रहा था कि अगर मजूमदार भाग रहा है तो वह ऐसे गाड़ी क्यों चला रहा है जैसे उसके पीछे भूत लगे हुये हो
कहीं वह वाकई बन्द कोठी के कमरे के भीतर मौजूद व्यक्ति की हत्या तो नहीं कर आया है ।
उसके नेत्रों के सामने कृति का खूबसूरत चेहरा घूम गया ।
काली कार मोड़ काटकर महात्मा गांधी रोड पर दौड़ने लगी ।
सुनील ने मोटर साईकिल की रफ्तार और बढा दी । लेकिन आशद कार के ड्राइवर को मालूम हो चुका था कि सुनील उसका पीछा कर रहा है । कार की रफ्तार भी बढ गई ।
सौभाग्यवश आगे ट्रेफिक क्रासिंग पर लाल बत्ती चमक रही थी और उसके आगे मोटर गाड़ियों की लम्बी कतार लगी हुई थी । मजबूरन काली कार वाले को कार की रफ्तार कम करनी पड़ी ।
काली कार के मोटर गाड़ियों की कतार के पिछले सिरे पर पहुंचने तक ट्रेफिक की बत्ती हरी हो गई और मोटरों की कतार चौराहे से आगे सरकने लगी ।
सुनील की मोटर सार्ईकिल के काली कार के समीप आ पाने से पहले ही काली कार फिर चलने लगी थी । शीघ्र ही उसने चौराहा पार किया और दुबारा गति पकड़ ली ।
उतने समय में केवल एक ही क्षण के लिये सुनील की मोटर साईकिल काली कार के थोड़ी समीप आई और उतने समय में सुनील केवल इतना देख पाया कि कार का ड्राइवर कोई औरत थी ।
कृति ।
सुनील के मन में फौरन ख्याल आया ।
शायद वह मजूमदार की कैद में से निकलने में सफल हो गई थी और अब उसी की गाड़ी में जान छुड़ाकर भाग रही थी ।
सुनील को उसका यूं अन्धाधुन्ध गाड़ी चलाना युक्तिसंगत लगने लगा ।
वह पूर्ववत् काली कार का पीछा करता रहा और उसके समीप होने का प्रयत्न करता रहा ।
कार एकाएक बिना सिग्नल के दाईं ओर घूम गई । उसके पीछे आती हुई एक फियेट उससे टकराती-टकराती बची । उसी बखेड़े में सुनील को भी ब्रेक लगानी पड़ी और जब तक वह दाईं सड़क पर पहुंचा तब तक काली कार बहुत आगे निकल गई थी ।
सुनील ने एक्सीडेन्ट की परवाह किये बिना एक्सीलेटर घुमा दिया । साढे सात हार्स पावर की मोटर साईकिल का इन्जन जोर से गर्जा और मोटर साईकिल पूरी रफ्तार से काली कार के पीछे भागी ।
शीघ्र ही सुनील कार के काफी समीप पहुंच गया ।
उसी क्षण अगले चौराहे की ट्रेफिक लाइट लाल हो गई ।
सुनील आशान्वित हो उठा ।
लेकिन कार का चालक शायद जानता था कि कोई उसका पीछा कर रहा है और वह उससे पीछा छुड़ाने के लिये तुला हुआ था । काली कार के ड्राइवर ने लाल बत्ती पर कार रोकने का उपक्रम नहीं किया । काली कार दांये-बांये से आती हुई कई बसों और कारों की चपेट में आने से बचती हुई सर्र से चौराहे से पार निकल गई ।
सुनील ने भी लाल बत्ती की परवाह किये बिना चौराहे से मोटर साईकिल पार कर जाने की कोशिश की लेकिन वह सफल न हो सका ।
पेटियों से लदा हुआ एक ट्रक एकदम उसके सामने आ गया और सुनील सौभाग्यवश ही उससे भिड़ने से बच गया ।
“अबे ओ उल्लू के पट्ठे ।” - ट्रक का ड्राइवर खिड़की में से सिर निकाल कर क्रोधित स्वर से चिल्लाया - “मरेगा, साले ।”
मोटर साईकिल का हैंडल उसने एकदम बाईं ओर घुमाया, मोटर साईकिल ट्रक की साइड को छूती हुई गुजरी और फिर उसके पिछली ओर से घुसकर आगे बढ गयी ।
एक कार वाले ने पूरी शक्ति से ब्रेक लगाई और उसका सामने का भाग मोटर साईकिल के पिछले भाग से टकराते-टकराते बचा ।
मोटर साईकिल तब तक सुनील के काबू में आ चुकी थी । उसने मोटर साईकिल को उस सड़क पर डाल दिया जिधर काली कार गई थी ।
पीछे ट्रेफिक पुलिस के सिपाही की सीटी गूंज रही थी ।
सुनील ने मोटर साइकिल की रफ्तार बढा दी ।
काली कार उस सड़क पर कहीं दिखाई नहीं दे रही थी । जितना समय चौराहे पर ट्रेफिक में उलझा रहा था उतने समय में काली कार का पता नहीं कहां गायब हो गई थी ।
अगले पन्द्रह मिनटों में सुनील ने आस-पास की सड़कों की खूब खाक छानी लेकिन काली कार के उसे दुबारा दर्शन नहीं हुये ।
थक हार कर वह वापिस शंकर रोड लौट चला ।
शंकर रोड के मोड़ पर उसे रमाकांत की इम्पाला खड़ी दिखाई दी ।
सुनील ने मोटर साइकिल इम्पाला की बगल में ले जाकर रोक दी ।
“तुम तो राकेश को भेजने वाले थे ?” - सुनील ने पूछा ।
“राकेश ऐन मौके पर कहीं गायब हो गया था और दूसरा कोई आदमी था नहीं ।” - रमाकांत बुरा-सा मुंह बनाकर बोला ।
“और इसलिये तुम खुद चले आये ?” - सुनील बोला ।
“और क्या ? तुम्हारे बाबा का नौकर जो ठहरा ।” - रमाकांत झल्लाया ।
“तुम्हारा दम क्यों निकला जा रहा है ?”
“दम न निकले तौ और क्या हो ? रात भर रासबिहारी के चक्कर में लगाये रखा और दिन को मैं यहीं झक मार रहा हूं ।”
“तुम्हारी सहायता के लिये मैं तुम्हारा दिल से शुक्रगुजार हूं ।”
“दिल का क्या मैं अचार डालूंगा । बटुवे से शुक्रगुजार होवे तो कुछ बात भी बने ।”
“वह भी होगा । सभी कुछ होगा बेटे ।” - सुनील मोटर साइकिल को स्टैंड पर खड़ी करता हुआ बोला - “तुम गाड़ी से बाहर निकलो ।”
रमाकांत बाहर निकल आया ।
“क्या है ?” - वह बोला ।
“मजूमदार के पास चलते हैं ।”
“क्यों ?”
“कृति मजूमदार की कोठी के ऊपरले बन्द कमरे में से निकल कर भाग गई मालूम होती है ।” - सुनील ने बताया ।
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
सुनील ने उसे सारी घटना सुना दी ।
“वह थी कृति ही ?” - रमाकांत ने पूछा ।
“मैंने ठीक से तो सूरत नहीं देखी थी लेकिन वह मुझे कृति ही मालूम हुई थी और फिर वर्तमान हालत में सम्भावना भी यही है कि वह कृति थी और कौन हो सकता है ?”
“लेकिन सुनील ।” - रमाकांत बोला - “सुबह छः बजे विश्व नगर जाने वाली डीलक्स बस में कृति का नाम है ।”
“तुमने चैक किया है ?” - सुनील ने संदिग्ध स्वर से पूछा ।
“हां ।”
सुनील के चेहरे पर उल्झन के भाव दिखाई देने लगे ।
“इसका मतलब तो ये हुआ” - कुछ क्षण बाद वह बोला - “कि काली कार एम्बैसेडर में भागती हुई जिस औरत का मैंने अभी पीछा किया था, वह कृति नहीं थी ।”
रमाकांत चुप रहा ।
“तो फिर वह कौन थी ? वह मजूमदार की कार क्यों ले गई ? और कार को वह ऐसी तूफानी रफ्तार से भगाती हुई मजूमदार की कोठी से क्यों निकली थी ?”
रमाकांत ने अनभिज्ञतापूर्ण ढंग से कन्धे उचकाये ।
“मजूमदार से बात करते हैं ।” - सुनील निर्णयात्मक स्वर से बोला ।
“वह भला इस विषय में क्यों बात करेगा तुमसे ?”
“अरे कोशिश करने में क्या हर्ज है ? शायद मेरी पुड़िया काम कर जाये ।”
“ओके ?” - रमाकांत बोला और सुनील के साथ हो लिया ।
“अलीबाबा के मैनेजर देसाई का कुछ पता लगा ?”
“नहीं । और इतनी जल्दी क्या पता लग सकता है ?”
“लेकिन वह चला कहां गया ?”
“क्या पता कहां चला गया ? अपनी कार साथ लेकर गया है । शायद कहीं दूसरे शहर में निकल गया हो ।”
“इस साले को भी अभी गायब होना था ।” - सुनील बड़बड़ाया ।
रमाकांत चुपचाप उसके साथ चलता रहा ।
दोनों मजूमदार की कोठी में प्रविष्ट हो गये ।
सुनील ने घण्टी बजाई ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
थोड़ी देर बाद उसने फिर घण्टी बजाई ।
वे कई क्षण प्रतीक्षा करते लेकिन भीतर से किसी प्रकार की आहट सुनाई नहीं दी ।
सुनील ने फिर घण्टी की ओर हाथ बढाया ।
“दरवाजा खुला मालूम होता है ?” - रमाकांत बोला ।
सुनील एक क्षण हिचकिचाया फिर उसने हाथ बढाकर द्वार को भीतर की ओर धकेला और साथ ही ऊंची आवाज से बोला - “मजूमदार साहब ।”
“सु.. नी.. ल !” - एकाएक रमाकांत बौखलाया और उसने कसकर सुनील की बांह पकड़ ली ।
सुनील को रमाकांत की बौखलाहट की वजह पूछने की जरूरत नहीं पड़ी । तब तक उसकी भी दृष्टि सीढ़ियों के समीप औंधे मुंह पड़े हुए मानव शरीर पर पड़ चुकी थी ।
“मजूमदार ।” - उसके मुंह से निकला और वह आगे बढा ।
“रमाकांत ने उसकी बांह पकड़ कर उसे रोक लिया और बोला, बेवकूफ मत बनो । वह मर चुका है । आओ खिसकें यहां से ।”
“एक मिनट ठहरो यार ।” - सुनील बांह छुड़ा कर बोला - “तुम गेट के समीप ठहरो, यार मैं जरा भीतर जाता हूं । अगर कोई इधर आने लगे तो मुझे सिग्नल कर देना ।”
“अच्छा ।” - रमाकांत अनिच्छापूर्ण स्वर में बोला ।
सुनील सावधानी से भीतर प्रविष्ट हो गया ।
लाश के आसपास शरीर से निकला हुआ ढेर सारा खून इकट्ठा हो चुका था । उसकी पीठ में दो सुराख दिखाई दे रहे थे । खून अभी गीला और चमकदार था । उसने झुककर लाश के चेहरे को छुआ । शरीर अभी ठण्डा नहीं हुआ था ।
मजूमदार को मरे तीस चालीस मिनट से ज्यादा नहीं हुए थे ।
सुनील ने ऊपर की मंजिल की ओर जाती हुई सीढियों पर दृष्टिपात किया । सीढियों पर नीचे लाश तक खून की लकीर सी खींची हुई थी । शायद मजूमदार को तब गोली मारी गई थी जब वह ऊपर की मंजिल से नीचे जाने के लिये सीढियों की ओर भाग रहा था । वह रास्ते में ही गोली का शिकार हो गया था और फिर उसका शरीर सीढियों से लुढकता हुआ नीचे आ गिरा था ।
सुनील खून के धब्बों से बचता हुआ बड़ी सावधानी से सीढियां चढने लगा ।
ऊपर की मंजिल का वह कमरा जो पहले बन्द था और मजूमदार के कथनानुसार जिसकी चाबी कृति अपने साथे ले गई थी, उस समय खुला था ।
सुनील कमरे में प्रविष्ट हो गया । उसकी खोजपूर्ण दृष्टि कमरे में घूमने लगी । उसे अन्दर कोई लाल चमकती चीज दिखाई दी ।
सुनील समीप पहुंचा । चमकदार चीज लाल कांच की चूड़ी के छोटे-छोटे दो तीन टुकड़े थे । सुनील ने उन्हें छूने का प्रयत्न नहीं किया । वह कुछ क्षण उन्हें देखता रहा और उठ खड़ा हुआ ।
वह कमरे से बाहर निकला और फिर पूर्ववत सावधानी से सीढियां पार करता हुआ नीचे आ गया और मजूमदार की लाश का एक अन्तिम दृष्टि डालता हुआ इमारत से बाहर निकल गया ।
रमाकांत गेट के समीप खड़ा था । उसके चेहरे पर ऐसे भाव में जैसे वह किसी भी क्षण वहां से खूंटा तुड़ाई गाय की तरह भाग निकलेगा ।
“आओ चलें ।” - सुनील उनके समीप आकर बोला ।
रमाकांत ने छुटकारे की गहरी सांस ली और उसके साथ हो लिया ।
“अब ?” - रास्ते में रमाकांत ने पूछा ।
“तुम कार में बैठो ।” - सुनील बोला - “मैं पुलिस को फोन करके आता हूं ।”
“अच्छा ।”
सुनील नैय्यर एण्ड कम्पनी के टेलीफोन बूथ में पहुंच गया ।
उसने पुलिस हैडक्वार्टर का नम्बर डायल किया ।
दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही सुनील के कायन बाक्स में दस-दस पैसे के दो सिक्के डाले और फिर भर्राई आवाज से बोला - “शंकर रोड पर एफ-18 नम्बर कोठी में खून हो गया है । कृपया जल्दी आइये ।”
और प्रत्युत्तर में कुछ सुनने से पहले ही उसने रिसीवर को हुक पर टांग दिया ।
वह वापिस रमाकांत के समीप पहुंच गया और फिर बोला - “अब फूटो यहां से । पुलिस यहां पहुंचने वाली है ।”
रमाकांत ने फौरन कार स्टार्ट कर दी ।
“और तुम ?” - उसने पूछा ।
“तुम यहां से तो हिलो” - सुनील बोला - “मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहा हूं ।”
रमाकांत ने कार आगे बढा दी । सुनील ने भी मोटर साइकिल उसकी कार के पीछे डाल दी ।
शंकर रोड पर काफी दूर निकल आने पर उउने रमाकांत को रुकने का संकेत किया । रमाकांत ने कार एक ओर रोक दी । सुनील ने भी मोटर साइकिल को फुटपाथ पर चढा कर खड़ा किया और फिर कार में रमाकांत की बगल में आ बैठा । उसने अपनी जेब से अपने प्रिय सिगरेट लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाला । रमाकांत ने भी अपना चारमीनार का पैकेट निकाल लिया । दोनों ने सिगरेट सुलगा लिये ।
“अब क्या ख्याल है ?” - रमाकांत ने ढेर सारा धुआं उगलते हुये प्रश्न किया ।
“किस बारे में ?” - सुनील बोला ।
“कृति मजूमदार के बारे में । शायद तुम इस बात को झुठलाने का प्रयत्न नहीं करोगे कि उसी ने अपने पति की हत्या की है ।”
“लेकिन अगर कृति सुबह छः बजे की डीलक्स बस से विश्व नगर को रवाना हो चुकी हो तो यह कैसे सम्भव है कि दस बजे के आस-पास उसने राजनगर में अपने पति की हत्या कर दी हो । यह बात प्रत्यक्ष है कि मजूमदार की हत्या छः बजे से पहले नहीं हुई । साढे नौ बजे तक मजूमदार जिन्दा था, इस बात का मैं खुद गवाह हूं ।”
“लेकिन तुम्हीं तो कह रहे थे कि मजूमदार की कोठी से काली कार में जिस औरत को तुमने भागते देखा था, वह कृति थी ।”
“मैंने कहा था कि वह मुझे कृति जैसी लगी थी । मैंने ठीक से उसकी सूरत नहीं देखी थी ।”
“लेकिन सुनील” - रमाकांत सोचता हुआ बोला - “छः बजे वाली डीलक्स बस की पैसेंजर लिस्ट में कृति का नाम मौजूद होने से यह तो सिद्ध नहीं हो पाता कि वह बस में सवार भी हुई थी । सम्भव है सीट बुक करवा लेने के बावजूद भी वह वस में चढी न हो ?”
“सम्भव है ।” - सुनील ने स्वीकार किया ।
रमाकांत चुप रहा ।
“इस सारे गोरखधन्धे को सुलझाने का एक ही तरीका है ।” - कुछ क्षण बाद सुनील बोला ।
“क्या ?”
“वह बस विश्वनगर कितने बजे पहुंचती है ?”
“शाम को चार बजे ।”
“और अभी ग्यारह भी नहीं बजे हैं ।” - सुनील घड़ी पर दृष्टिपात करता हुआ बोला - “रमाकांत, किसी प्रकार यह पता लगाओ कि कृति उस बस पर है या नहीं । अगर कृति उस बस पर हुई तो इसका मतलब यह होगा कि मजूमदार की कोठी से भागते देखा था, वह कृति नहीं थी ।”
“लेकिन यह पता कैसे लगेगा कि कृति उस बस पर सवार है या नहीं ?”
“सीधा तरीका है । उस बस के विश्वनगर पहुंचने से पहले तुम विश्वनगर या रास्ते के किसी स्टेशन पर पहुंच जाओ ।”
“मैं ?”
“खुद जाओ या अपने किसी आदमी को भेज दो ।”
“कैसे ?”
“हवाई जहाज द्वारा ।”
“इतनी जल्दी टिकट कैसे मिलेगी ?”
“यार कोशिश करोगे तो सब कुछ हो जायेगा । यहां बैठे-बैठे मुझसे बहस करते रहोगे तो कुछ भी नहीं होगा ।”
“और खर्चा कौन देगा ?”
“मैं ही दूंगा, और कौन देगा ?”
“अच्छी बात है ।” - रमाकांत अनिच्छापूर्ण स्वर में बोला ।
सुनील फिर नहीं बोला । वह गम्भीरता से सिगरेट के गहरे कश लगाने लगा ।