‘मराठा’ कोलीवाड़ा की एक पुरानी, चारमंजिली इमारत में बना एक अपेक्षाकृत आधुनिक होटल था । उसकी चौथी मंजिल पर केवल एक ही डबल रूम था जिसके पहलू में एक विशाल टैरेस थी ।
वह कमरा वागले हासिल कर चुका था । वह खुश था कि वह निर्विघ्न वहां पहुंच गया था ।
अपने पीछे लगे लोगों से पीछा छुड़ाने के लिए अपनी गाड़ी पोस्ट ऑफिस के सामने खड़ी छोड़कर पिछवाड़े से खिसक आने को अपनी चालबाजी पर वह मन-ही-मन कई बार अपने-आपको शाबाशी दे चुका था ।
विमल के लौटने तक ‘लिटल ब्लैक बुक’ को उसने सलाउद्दीन के पास ही रहने देना मुनासिब समझा था ।
कमरे के इत्मीनान के माहौल में पहुंचते ही उसे याद आया कि उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था ।
पहले उसने वेटर को बुलाकर खाना वहीं मंगाने का इरादा किया लेकिन फिर कुछ सोचकर उसने कमरे को ताला लगाया और नीचे डायनिंग हॉल में आ गया ।
लगभग खाली डायनिंग हॉल में बैठकर उसने खाना खाया ।
वह वापिस ऊपर पहुंचा ।
बिल्ट-इन लॉक में चाबी फिराकर उसने कमरे का ताला खोला ।
कमरे में कदम रखते ही किसी के पांव की भरपूर ठोकर उसकी पसलियों से टकराई ।
वह गेंद की तरह परे को उछला ।
उसके पीछे किसी ने भड़ाक से दरवाजा बंद किया और उसकी चिटकनी चढा दी ।
पसलियों में पड़ी ठोकर से वागले के शरीर में पीड़ा की ऐसी भीषण लहर दौड़ी जिससे कोई मरता तो नहीं लेकिन पीड़ा बर्दाश्त न कर पाने की वजह से तत्काल मौत की कामना जरूर करने लगता है । पीड़ा से उसका चेहरा विकृत हो गया और आंखों से आंसू छलछला आए ।
आंसूओं से धुंधलाई आंखों से उसने सामने देखा ।
अपने सामने मौजूद दोनों आदमियों को देखकर उसके नेत्र फैल गए ।
जिन लोगों से वह सायन के पोस्ट ऑफिस में पीछा छुड़ा चुका समझ रहा था, वे दोनों उस वक्त उसके कमरे में उसके सामने मौजूद थे । जरूर उन दोनों में से कोई ताले खोलने में सिद्धहस्त था । तभी तो कमरे का ताला बदस्तूर बंद था और वे कमरे के भीतर मौजूद थे ।
एक आदमी परे कुर्सी पर बैठा था और दूसरा बंद दरवाजे कके साथ पीठ लगाए खड़ा था ।
कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के हाथ में एक रिवॉल्वर थी जिसकी अपनी और झांकती नाल का मुंह वागले को तोप के मुंह जैसा लगा रहा था ।
दरवाजे के पास खड़ा व्यक्ति अपना दायां पांव पैंडुलम की तरह यूं धीरे-धीरे झुला रहा था जैसे फैसला न कर पा रहा हो कि वागले के जिस्म पर फुटबॉल जैसी ठोकर अभी जमाए या थोड़ी देर बाद में ।
“समझ गया ?” - कुर्सी पर बैठा जिमी रिवॉल्वर के घोड़े से खिलवाड़-सी करता हुआ बोला ।
“क - क्या ?”- वागले बड़ी कठिनाई से कह पाया ।
“कि डाकखाने में दिखाई तेरी होशियारी बेकार गई ?”
वागले खामोश रहा ।
“उठ !”
वागले कांखता-कराहता हुआ उठा ।
“आगे बढ !”
वागले दो कदम जिमी की तरफ बढा ।
“पलंग पर बैठ जा ।”
वागले पलंग पर बैठ गया ।
“हाथ सामने गोद में ।”
वागले ने आदेश का पालन किया ।
“निकाल !”
“क्या ?”
“डायरी ।”
“कैसी डायरी ?”
उत्तर में जिमी ने रिवॉल्वर की नाल से उसके घुटने की कटोरी पर दस्तक दी ।
वागले पीड़ा से बिलबिला गया । हालांकि पसलियों में पड़ी पांव की ठोकर के मुकाबले में वह चोट कुछ भी नहीं थी ।
“मेरे से” - जिमी कहर-भरे स्वर में बोला - “लुकाछिपी का खेल खेलने की कोशिश मत कर, हरामजादे । फौरन बोल, डायरी कहां है ?”
“लेकिन मुझे पता तो लगे कि तुम किस डायरी के बारे में सवाल कर रहे हो ?” - वागले हिम्मत करके बोला ।
वह देख रहा था कि दरवाजे के पास खड़ा व्यक्ति, जोकि बाबू था, वहां से हटकर उसके पीछे उसके सिर पर आ खड़ा हुआ था ।
“मैं लिटल ब्लैक बुक की बात कर रहा हूं ।” - जिमी बोला - “अब अगर यह पूछा कि कौन-सी लिटल ब्लैक बुक तो कसम सेंट फ्रांसिस की, भेजा निकालकर हथेली पर रख दूंगा ।”
“लिटल ब्लैक बुक का मेरे पास क्या काम ?”
“है तेरे पास काम । वह सोहल में तुझे सौंपी थी ।”
“उसका सोहल के ही पास क्या काम ?”
“ज्यादा बकबक मत कर । सोहल ने परसों बखिया के वाल्ट से लिटल ब्लैक बुक निकाली थी । आज वो उसके पास नहीं थी । जरूर वो उसने तुझे सौंपी थी ।”
“मुझे नहीं सौंपी थी ।”
“तू ऐसे नहीं मानेगा । जूते उतार ।”
“क-क्या ?”
“सुना नहीं ?”
हैरान होते हुए वागले ने जूता उतारे ।
“जुर्राबें भी ।”
वागले ने आदेश का पालन किया ।
“पांव आगे सामने स्टूल पर ।”
वागले ने वैसा ही किया ।
जिमी ने रिवॉल्वर उसके सिर पर सवार बाबू को सौंप दी और जेब से नाइयों द्वारा हजामत के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला उस्तरा निकाला ।
वागले के नेत्र फैलने लगे ।
“डायरी के बारे में सही जवाब दे ।” - जिमी कहर-भरे स्वर में बोला - “हर एक मिनट की देरी के बदले में तेरे पांव की एक उंगली काट दूंगा । तैयार हो जा, पट्ठे ।”
वागले ने बैचेनी से पहलू बदला ।
“बाबू ।”
“हां ।”
“यह चिल्लाने न पाए ।”
“चिल्लाने तो मैं इसे नहीं दूंगा, लेकिन बाप...”
“क्या है ?”
“जैसे हमने कमरे की तलाशी ली, वैसे ही यह प्रोग्राम शुरू करने से पहले क्यों न इसकी भी तलाशी ली जाए ?”
“आइडिया बुरा नहीं । उठकर खड़ा हो जा ।”
वागले बड़ी कठिनाई से उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ ।
बाबू ने पीछे से उसकी कनपटी के साथ रिवॉल्वर की नाल सटा दी ।
जिमी ने उसकी तलाशी लेनी आरंभ की ।
वागले के कोट की भीतरी जेब से काले बुकरम की जिल्द वाली एक डायरी बरामद हुई ।
डायरी पर निगाह पड़ते ही जिमी के नेत्र चमक उठे । उसने डायरी को खोलकर उसके कुछ पन्नों का मुआयना किया । फिर उसने संतुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाया और डायरी अपने कोट की भीतरी जेब में रख ली ।
“हरामजादा ।” - वह वागले के मुंह पर एक झांपड रसीद करता हुआ बोला - “कहता था, सोहल ने डायरी मुझे नहीं सौंपी ।”
वागले का चेहरा पीड़ा और अपमान से जल उठा ।
“बाबू ।” - जिमी सांप की तरह फुंफकारा- “यह राज इस आदमी के साथ ही दफन हो जाना चाहिए कि डायरी अब हमारे पास है ।”
“दुरूस्त ।” - बाबू ने सहमति प्रकट की ।
“शूट कर दे इसे ।”
वागले के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं । उसकी यह उम्मीद गलत निकली थी कि डायरी हाथ में आते ही वे लोग उसमें दिलचस्पी लेना बंद कर देंगे ।
“बाप !” - बाबू बोला - “गोली की आवाज...”
“कोई नहीं सुनने का ।” - जिमी बोला - “कोई सुन भी लेगा तो किसी के यहां पहुंचने से बहुत पहले हम इस इमारत से भी बाहर निकल चुके होंगे ।”
“फिर ठीक है ।” - बाबू बोला ।
वागले का कंठ सूखने लगा ।
अपने पीछे से उसे ऐसी आवाज आई जैसे रिवॉल्वर का कुत्ता खींचा गया हे ।
फिर रिवॉल्वर की नाल का दबाव उसकी कनपटी पर और बढा ।
“ठहरो !” - एकाएक वह विक्षिप्तों की तरह चिल्लाया ।
“अब क्या है ?” - जिमी क्रूर स्वर में बोला ।
“यह डायरी” - वागले हांफता हुआ बोला - “नकली है ।”
“कौन-सी डायरी नकली है ?” - जिमी हड़बड़ाया ।
“जो तुमने अभी मेरी जेब से बरामद की है ।”
“क्या बकता है ?”
“मैं सच कह रहा हूं । जरा डायरी की कंडीशन पर गौर करो । यह तुम्हें एकदम नई नहीं लग रही है ?”
जिमी के माथे पर बल पड़ गए । अभी भी हाथ में थमा उस्तरा उसने बंद करके जेब में डाल लिया और डायरी को उलट-पलटकर उसका मुआयना करने लगा ।
“यह डायरी” - वागले बड़े उतावले स्वर में बोला - “मैंने आज ही बांद्रा से खरीदी थी और इसे मैंने सायन के पोस्ट ऑफिस की एक लैवेटरी में बैठकर अपने हाथ से लिख-लिखकर भरा था । तुम चाहो तो मेरे हैंडराइटिंग को इस डायरी के हैंडराइटिंग से मिलाकर देख लो ! इस डायरी के तमाम नाम, पते और आंकड़े फर्ज़ी हैं और मेरे दिमाग की उपज हैं ।”
“तूने ऐसा क्यों किया ?” - जिमी बोला - “यह नकली डायरी क्यों तैयार की तूने ?”
“क्योंकि मुझे मालूम था कि तुम लोग मेरे पीछे लगे हुए थे । मुझे उम्मीद थी कि अगर मैं तुम्हारी पकड़ाई में आ गया तो इस नकली डायरी से ही तुम्हारी तसल्ली हो जाएगी ।”
“अब यह बात तू हमें इसलिए बता रहा है क्योंकि हम तेरी जान लेने वाले थे ?”
“हां । हां ।”
जिमी सोच में पड़ गया ।
कुछ क्षण बाद उसने बाबू को संकेत किया ।
बाबू ने रिवॉल्वर की नाल वागले की कनपटी पर से हटा ली ।
“बैठ जा !” - जिमी ने आदेश दिया ।
वागले ने आदेश का पालन किया ।
जिमी ने डायरी उसके हाथ में थमा दी और राइटिंग टेबल पर से एक कागज और बालप्वायंट पेन उठाकर उसे दिया ।
“इस डायरी के किसी एक पन्ने की नकल बना ।”
वागले ने वैसा ही किया ।
जिमी ने उसके हाथ डायरी और कागज ले लिए । कुछ क्षण वह कागज के हैंडराइटिंग का डायरी के हैंडराइटिंग से मिलान करता रहा, फिर उसने दोनों चीजें यूं परे उछाल दीं जैसे अहमियत कूड़े से ज्यादा न हो ।
“सूरत से” - वागले को घूरता हुआ वह बोला - “इतना होशियार तू लगता तो नहीं जितनी होशियारी का तूने काम किया ।”
वागले खामोश रहा ।
“अब बोल !”
“क्या ?”
“यह भी बताना पड़ेगा ? असली डायरी कहां है, साले ? तेरे पास तो वह है नहीं । इस कमरे में भी नहीं है । उसका क्या किया तूने ?”
वागले ने जवाब नहीं दिया ।
“असली डायरी कहां है ?”
वागले परे देखने लगा ।
जिमी ने इतना प्रचंड घूंसा उसके पेट में जमाया कि वागले दोहरा हो गया ।
बाबू ने उसकी पीठ में अपना घुटना अड़ाया और उसे गरदन से पकड़कर सीधा कर दिया ।
जिमी ने फिर उस्तरा निकाला लिया ।
“धज्जियां उड़ा दूंगा ।” - वह दांत पीसता हुआ बोला - “सॉरी चमड़ी काट-काट के रिबन बना दूंगा । एक सैकेंड में बोल, असली डायरी का क्या किया तूने वर्ना...”
“मैंने उसे पोस्ट कर दिया ।” - वागले कंपित स्वर में बोला ।
“क्या कर दिया ?”
“डाकखाने में उसे एक लिफाफे में बंद करके मैंने उसकी रजिस्ट्री करा दी ।”
“आज ? सायन के डाकखाने में ? हमारी आंखों के नीचे ?”
“हां ।”
“रजिस्ट्री से किसकी भेजी वो डायरी तूने ?”
“अपने-आपको ।”
“किस पते पर ?”
“इसी पते पर । केअर ऑफ होटल मराठा ।”
“रजिस्ट्री के बदले में डाकखाने से जो रसीद मिलती है, वो कहां है ?”
“मेरे पास है ।”
“निकाल ।”
वागले ने जेब से रसीद निकालकर उसे दी ।
जिमी कुछ क्षण रसीद का मुआयना करता रहा और फिर बोला - “कम-से-कम इतना यह ठीक कह रहा है कि आज सायन के पोस्ट ऑफिस से एक रजिस्टर्ड लैटर इसने अपने ही नाम यहां के पते पर भेजा है । यह लिफाफा खोलने पर ही पता लगेगा कि भीतर इसने डायरी बंद की है या कुछ और ।”
“हमें रजिस्ट्री यहां पहुंचने तक इंतजार करना होगा ।” - बाबू बोला ।
“रजिस्ट्री कल पहुंचेगी ।” - वागले आशापूर्ण स्वर में बोला । वह अपेक्षा कर रहा था कि अगले रोज तक वे लोग उसकी छाती पर चढ बैठे नहीं रह सकते थे । तब तक विमल वहां पहुंच सकता था । तब तक कोई वेटर वहां पहुंच सकता था । तब तक सलाउद्दीन ही उसकी खैरियत जानने के लिए वहां के कई फेरे लगा सकता था ।
“सायन का वह डाकखाना ही कोलीवाड़े का भी डाकखाना है ।” - बाबू बोला - “यानी कि वहां की रजिस्ट्री के आने और जाने का, दोनों कामों का, एक ही डाकखाना है । रजिस्ट्री आज भी आ सकती है ।”
“अव्वल तो आ नहीं सकती ।” - वागले बोला - “आ सकती है तो आई नहीं । अब तक तो रजिस्ट्री का डाकिया आकर जा भी चुका होगा ।”
जिमी ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टिपात किया ।
“सान्ता मारिया ।” - वह वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “घड़ी फिर रुक गई ।”
“पौने दो बजे हैं ।” - बाबू बोला ।
“डाकिया कितने बजे आता है ?” - जिमी बोला ।
“एक बजे ।” - वागले बोला ।
“तुझे क्या पता ? तू तो आज ही इस होटल में आया है ।”
“मैं पहले भी यहां रह चुका हूं ।”
“और कइ रजिस्ट्रियां भी रिसीव कर चुका है यहां ?”
वागले खामोश हो गया ।
“बाबू !”
“हां ।”
“नीचे चला जा और आसपास कहीं से पूछकर आ कि रजिस्ट्री का डाकिया अभी आने वाला है या आकर जा चुका है ।”
“अच्छा ।”
बाबू ने रिवॉल्वर जिमी को थमा दी और वहां से बाहर निकल गया ।
वागले मन-ही-मन गणपति से प्रार्थना करने लगा कि डाकिया वहां से आकर जा चुका हो यानी कि उसकी रजिस्ट्री डिलीवरी के लिए उसी रोज न लग गई हो ।
***
होटल सी व्यू की मारको में एक शानदार इम्पाला कार आकर रुकी । वह कार एक प्राइवेट टैक्सी थी जिसे एक वर्दीधारी शोफर चला रहा था । शोफर ने धूप का चश्मा लगाया हुआ था और उसकी पीक-कैप उसकी आंखों पर जरूरत से ज्यादा नीचे झुकी हुई थी ।
वह ड्राइवर देवाराम था ।
पीछे सवारी की जगह अपने परम्परागत परिधान में एक लंबा-तड़ंगा अरब बैठा था । उसने भी काला चश्मा लगाया हुआ था और उसके चेहरे पर जो दाढी-मूंछ थी, वह गौर से देखने पर भी नकली नहीं मालूम होती थी ।
वह अरब तुकाराम था ।
लॉबी में उस वक्त होटल में ठहरे मेहमानों की और रजिस्ट्रेशन के लिए रिसैप्शन के सामने जमा लोगों की काफी भीड़ थी ।
एक डोरमैन कार का पिछला दरवाजा खोलने की नीयत से आगे बढा ।
देवाराम फुर्ती से कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकला और डोरमैन से बोला - “पहले डिकी में से साहब का सामान निकलवाओ ।”
डोरमैन का पिछले दरवाजे की तरफ बढता हाथ रास्ते में ही रुक गया । वह पीछे लॉबी के शीशे के दरवाजे की तरफ घूमा । उसने एक बैलब्वॉय को संकेत किया ।
देवाराम ने चाबी लगाकर डिकी का ताला खोला और उसका ढक्कन ऊपर उठाया । भीतर से दो बड़े-बड़े सूटकेस निकालकर उसने बाहर रखे ।
बैलब्वॉय दौड़ता हुआ करीब पहुंचा । उसने दोनों सूटकेस उठा लिए और भीतर को बढ चला ।
देवाराम ने एक छोटा-सा सूटकेस और निकाला और डिकी का ढक्कन गिरा दिया ।
सूटकेस उठाए वह बैलब्वॉय के पीछे-पीछे भीतर दाखिल हुआ ।
बैलब्वॉय ने सूटकेस लंबे रिसैप्शन काउंटर से थोड़ा परे एक ओर रख दिए ।
तभी उसे एक रिसैप्शनिस्ट की आवाज पड़ गई ।
उस बैलब्वॉय ने एक अन्य मेहमान का सूटकेस संभाला और उसके साथ लिफ्ट की तरफ बढ चला ।
रिसैप्शन पर बैलब्वॉय की कमी नहीं थी लेकिन उस वक्त की भीड़ में सबको अफरातफरी लगी हुई थी ।
देवाराम ने छोटा सूटकेस भी दो बड़े सूटकेसों के पहलू में रख दिया । फिर वह हौले से सामान से परे हट गया ।
सामान की तरफ या उसकी तरफ किसी की तवज्जो नहीं थी । वह लंबे डग भरता हुआ वहां से बाहर निकल आया ।
तभी इम्पाला के पीछे एक टैक्सी प्रकट हुई ।
हड़बडाता-सा देवाराम लपककर इम्पाला की ड्राइविंग सीट पर सवार हुआ और उसने तुरन्त इम्पाला आगे बढा दी ।
टैक्सी उसके द्वारा खाली किए स्थान पर दरवाजे के ऐन सामने आ खड़ी हुई ।
डोरमैन ने आगे बढकर टैक्सी का पिछला दरवाजा खोला और एक जगमग-जगमग करती महिला ने बाहर कदम रखा । वह जरूर कोई फिल्म स्टार थी क्योंकि एकाएक सबकी निगाहें उस पर आकर टिक गई थीं ।
रिवर व्यू मिरर में से देवाराम सारा नजारा देख रहा था ।
तुकाराम ने भी देखा कि किसी की तवज्जो इम्पाला या उसकी सवारी की तरफ नहीं रही थी ।
यानी कि वहां यह बात किसी ने नोट नहीं कि थी कि टैक्सी से पहले वहां पहुंची इम्पाला का सामान ही भीतर रिसैप्शन पर पहुंचा था, सामान के मालिक ने सामान के साथ या उसके पीछे-पीछे भीतर कदम नहीं रखा था ।
तुकाराम संतुष्ट था ।
देवाराम संतुष्ट था ।
उनके नये अभियान के अंतर्गत बखिया की खोपड़ी पर उनका पहला हथौड़ा बड़ी कामयबी से पड़ा था ।
***
दस मिनट में बाबू वापिस लौटा ।
“रजिस्ट्री वाला डाकिाया अभी तक नहीं आया है ।” - उसने आते ही घोषणा की ।
वागले ने तब भी उम्मीद न हारी । शायद उसकी रजिस्ट्री डिलीवरी के लिये डाकिये को उस रोज न मिली हो ।
“पक्की बात ? - जिमी ने पूछा ।
“एकदम पक्की बात । मैंने आस-पड़ोस से कई जनों से पूछा है ।”
“वैरी गुड ।”
“लेकिन वह आने ही वाला होगा । आज ही किसी वजह से लेट हो गया लगता है वो ।”
“हम इंतजार करेंगे । रजिस्ट्री आज की जगह कल आएगी तो भी हम इंतजार करेंगे ।
बाबू ने सहमति में सिर हिलाया ।”
“सुना !” - कुछ क्षण को खामोशी के बाद जिमी फिर वागले से संबोधित हुआ - “नाम क्या है तेरा ।”
“वागले ।” - वागले बोला ।
“वागले ।” - जिमी ने यूं नाम दोहराया जैसे वह नाम में भी कोई नुक्स निकालने का ख्वाहिशमंद हो - “तूने अभी कहा था कि तू यहां पहले भी रह चुका है और कई रजिस्ट्रियां भी रिसीव कर चुका है ?”
वागले खामोश रहा ।
“अबे, साले, कहा था कि नहीं कहा था ?”
“कहा था ।” - वागले तनिक असमंजसपूर्ण स्वर में बोला ।
“डाकिया रजिस्ट्री लेकर आता है तो क्या होता है ?”
“वह रिसैप्शन से यहां फोन करवाता है कि मेरी रजिस्ट्री आई है । मैं नीचे साइन करता हूं और रजिस्ट्री ले लेता हूं ।”
“पोस्टमैन तुझे सूरत से जानता है ?”
“पहले वाला तो जानता था ।” - वागले ने झूठ बोला - “अब पोस्टमैन बदल गया हो तो बात दूसरी है ।”
“यानी कि रजिस्ट्री तुझे खुद ही लेनी पड़ेगी ?”
“तुम कोशिश करके देख लो । हो सकता है, रजिस्ट्री वह तुम्हें दे दे ।”
“ऐसे नहीं । जब टेलीफोन पर पोस्टमैन के आगमन की खबर दी जाए तो तुम फोन पर पोस्टमैन से बात करना । तुम कहना कि तुम्हारी तबीयत खराब है जिसकी वजह से तुम नीचे नहीं आ सकते और इसलिए साइन करके रजिस्ट्री रिसीव करने के लिए तुम अपने एक दोस्त को नीचे भेज रहे हो ।”
“जवाब में अगर उसने कहा कि अगर मैं नीचे नहीं आ सकता तो वह ऊपर आ जाता है तो ?”
“तो और भी अच्छा होगा । तो तुम खुद साइन करके रजिस्ट्री ले लेना ।”
“बेहतर !” - वागले गहरी सांस लेता हुआ बोला ।
उसे स्थिति बड़ी निराशाजनक लग रही थी । उसे हर हाल में अपनी मौत लाजमी लग रही थी ।
उसकी दिमाग उस विकट स्थिति से निजात पाने की कोई तरकीब सोच रहा था लेकिन सफल नहीं हो पा रहा था ।
कमरे के स्तब्ध वातावरण में डाकिए के आगमन की प्रतीक्षा होती रही ।
और डाकिए ने पता नहीं आना भी था या नहीं ।
एकाएक टेलीफोन की घंटी बजी ।
सबने चिहुंककर टेलीफोन की तरफ देखा ।
“सुन !” - जिमी ने आदेश दिया ।
धड़कते दिल से वागले ने रिसीवर उठाकर कान से लगाया ।
“हल्लो !” - वह बोला ।
“तुम्हारी एक रजिस्ट्री आई है ।” - उसके कान में सलाउद्दीन की आवाज पड़ी ।
“मेरी तबीयत खराब है ।” - वागले बोला ।
“क्या ?”
“मैं कह रहा हूं, मेरी तबीयत खराब है । तबीयत खराब है मेरी । मैं सीढियां उतरकर नीचे नहीं आ सकता । डाकिए को ऊपर भेज दो ।”
“लेकिन...”
तभी बाबू ने आगे बढकर रिसीवर उसके हाथ से ले लिया और उसे धीरे से क्रेडल पर रख दिया ।
“आ रहा है ?” - जिमी ने पूछा ।
“हां !” - वागले फंसे स्वर में बोला ।
कुछ क्षण बाद बाहर से सीढियों पर पड़ते भारी कदमों की आवाज आई ।
कदमों की आवाज उसके कमरे के दरवाजे के सामने रुकी ।
दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
“कौन ?” - वागले ने पूछा ।
“पोस्टमैन !” - जवाब मिला ।
जिमी और बाबू लपककर दरवाजे के दायें-बायें हो गए । जिमी ने निवॉल्वर उसकी तरफ तान दी और उसे दरवाजा खोलने का संकेत किया ।
वागले ने दरवाजा खोला ।
सामने विमल खड़ा था ।
उससे दो कदम पीछे चेहरे पर आतंक के गहन भाव लिए सलाउद्दीन खड़ा था ।
“ये आपकी रजिस्ट्री है, वागले साहब !” - विमल उसके हाथ में एक रिवॉल्वर थमाता हुआ बोला ।
“शुक्रिया !” - वागले फंसे स्वर में बोला । रिवॉल्वर पर उसकी उंगलियां कस गई - “तबीयत खराब होने की वजह से मे नीचे नहीं आ सका था ।”
“कोई बात नहीं । यहां साइन कीजिए ।”
एक क्षण बाद दरवाजे से परे हटते कदमों की आवाज आई ।
जिमी ने चैन की सांस ली । उसके हाथ में थमी रिवॉल्वर पर कसी उंगलियों की पकड़ ढीली पड़ गई और नाल अपने-आप नीचे को झुक गई ।
“दरवाजा बंद कर दे” - उसने आदेश दिया - “और रजिस्ट्री इधर ला ।”
“यस, बॉस !” - वागले बोला ।
वह घूमा । उसने फायर किया ।
जिमी की अभी उसकी रिवॉल्वर पर निगाह भी नहीं पड़ी थी कि वह गोली खाकर धराशायी हुआ पड़ा था ।
वागले ने दरवाजे से परे छलांग लगाई और हाथ में सुआ लेकर उस पर झपटने को तत्पर बाबू पर दो फायर किए ।
उसका भी अपने जोड़ीदार वाला हाल हुआ ।
तभी कमरे में विमल और सलाउद्दीन घुस आए ।
सलाउद्दीन ने अपने पीछे दरवाजा बंद कर दिया ।
“मर गए ?” - विमल ने पूछा ।
“देखो !” - वागले बोला ।
विमल ने दोनों का मुआयना किया ।
बाबू मर चुका था लेकिन जिमी की सांस अभी चल रही थी ।
विमल उकडूं बैठकर उसके चेहरे के ऊपर झुक गया ।
“तुम मर रहे हो...” - वह बोला - “झूठ न बोलना । तुम एन्थोनी एल्बुकर्क के लिए काम कर रहे हो ?”
“सो... सो !” - उसके मुंह से निकला - “सोहल ।”
“हां । वही । मेरे सवाल का जवाब दो !”
“हां ।”
“किसलिए ?”
“डा.. डायरी... के... लिए ।”
“तुम्हें कैसे मालूम था कि डायरी मेरे हाथ लगने वाली थी ?”
जिमी उत्तर न दे सका । तभी उसकी आंखें उलट गई ।
विमल उठ खड़ा हुआ ।
“यह रही तुम्हारी रजिस्ट्री ।” - सलाउद्दीन चमत्कृत वागले को रजिस्ट्री का लिफाफा थमाता हुआ बोला - “डाकिया मेरा वाकिफकार था । ऊपर आने की जहमत उठाने की जगह वह रजिस्ट्री मुझे ही दे गया था ।”
“क्या किस्सा है ?” - विमल ने पूछा ।
वागले ने अटक-अटककर सारी कहानी सुनाई ।
“ओह !” - विमल बोला - “यानी कि यह डायरी भी नकल है । तुमने दो नकली डायरियां तैयार की थीं ?”
“हां !” - वागले बोला ।
विमल ने फर्श पर पड़ी दूसरी नकली डायरी भी उठा ली ।
“असली कहां है ?” - वह बोला ।
“मेरे पास है ।” - सलाउद्दीन बोला - “एकदम महफूज ।”
“तुम लोग ऊपर कैसे पहुंचे ?” - वागले ने पूछा ।
“डाकिए के आने के वक्त मैं इत्तफाक से ही रिसैप्शन पर मौजूद था ।” - सलाउद्दीन ने बताया - “मेरे फोन के जवाब में जब तुमने तबीयत खराब होने की बात कही तो मैं बहुत हैरान हुआ । अभी थोड़ी देर पहले तो तुम मुझे भले चंगे डायनिंग हॉल में बैठे दिखाई दिए थे । मैंने रजिसट्री के लिफाफे पर निगाह डाली तो मुझे बाहर से ही लगा कि उसमें डायरी थी । मुझे यही अंदाजा हुआ कि कोई जबरन तुम्हें यहां रोके हुए था । मैं बहुत उलझन में पड़ा । हालात पुकारकर कह रहे थे कि मुझे फौरन कुछ करना चाहिए था । बजातेखुद तो मैं कुछ कर नहीं सकता था और पुलिस को फोन करने से मैं इसलिए झिझक रहा था कि कहीं यह बात तुम्हें पसंद न हो । तभी ऐन उसी मौके पर खुदाई मददगार की तरह तुम्हारा यह दोस्त होटल में पहुंच गया ।”
“और मेरी जान बच गई !” - वागले के मुंह से निकला ।
“यह आदमी” - विमल ने जिमी की तरफ देखा - “कुछ देर और जिंदा रहता तो हमें बहुत मार्के की बातें मालूम होतीं ।”
“गोलियां चलने की आवाज किसी ने सुनी होगी ?” - वागले बोला ।
“उम्मीद नहीं ।” - सलाउद्दीन बोला - “सुनी होती तो अब तक कोई न कोई यहां पहुंच गया होता ।”
“लाशों का क्या होगा ?”
“रात तक कुछ नहीं होगा । उसके बाद मैं इन्हें ठिकाने लगवा दूंगा । बहरहाल लाशों की वजह से तुम्हें हलकान होने की जरूरत नहीं है ।”
“लेकिन मियां, क्या सिक्योरिटी है तुम्हारे होटल में ! मेरी यहां से मुश्किल से आधे घंटे की गैरहाजिरी में ये दोनों ताला खोले यहां भीतर बैठे हुए थे । चोर-उचक्के यूं घुस आते हैं तुम्हारे होटल में ?”
“घुस नहीं आते । ये यहां बुक थे ।”
“मतलब ?”
“इन्होंने होटल में एक कमरा लिया हुआ है । तीसरी मंजिल पर तुम्हें डायनिंग हॉल में जाता देखकर ये ऊपर आ गए होंगे ।”
“ओह !”
“मैं तुम्हें किसी और कमरे में शिफ्ट कर देता हूं ।”
वागले ने सहमति में सिर हिलाया ।
उसे अभी भी विश्वास नहीं आ रहा था कि वह मौत का निवाला बनने से बच चुका था ।
***
इकबालसिंह बखिया के सामने पेश हुआ ।
“वो लड़की” - उसने बताया - “पुलिस हैडक्कार्टर के लॉकअप में है और कमिश्नर की व्यक्तिगत देख-रेख में है । वहां से उसकी रिहाई की कोई सूरत मुमकिन नहीं ।”
“क्यों मुमकिन नहीं ?” - बखिया झल्लाया - “वह कोई मुजरिम तो नहीं । पुलिस चाहे तो उसे छोड़ सकती है । बखिया उसकी रिहाई की कोई भी कीमत अदा करने के लिए तैयार है ।”
“बखिया साहब, बम्बई का यह पुलिस कमिश्नर बिकने वाला नहीं । पुलिस के जो अधिकारी हमारे पे-रोल पर हैं, उनमें से कइयों से मैंने बात की है । हर किसी की यही राय है कि कमिश्नर की मर्जी के बिना नीलम की वहां से रिहाई नामुमकिन है ।”
“फिर बात क्या बनी ?”
“बात बनी है । सीधे से नहीं बनी लेकिन बनी है ।”
“क्या ?”
“हमारे खरीदे हुए एक ए.सी.पी. ने ही रास्ता सुझाया है ।”
“क्या ? क्या ?”
“बखिया साहब, आज शुक्रवार हो गया है । नीलम मंगलवार से पुलिस की हिरासत में है । अभी तक उस पर कोई चार्ज भी नहीं लगाया गया । यूं इतने दिन तक किसी को बिना चार्ज लगाए हिरासत में रखना गैरकानूनी है । ऐसा खुद पुलिस कमिश्नर भी नहीं कर सकता ।”
“लेकिन कर रहा है ।”
“इसलिए कर रहा है क्योंकि नीलम की गिरफ्तारी की किसी को खबर नहीं, क्योंकि यहां उस लड़की का कोई ऐसा सगा संबंधी नहीं जो उसकी यूं गिरफ्तारी के खिलाफ कोई आवाज उठा सके । बखिया साहब, वह आवाज हम उठा सकते हैं ।”
“कैसे ? उसके संबंधी बनकर ?”
“नहीं । अखबार वालों को नीलम के बारे में एक गुमनाम टिप देकर । नीलम की असलियत और उसकी वर्तमान स्थिति अखबार वालों के लिए बहुत बड़ा स्कूप साबित होगी । एक बार यह खबर अखबार में छप गई तो फिर कमिश्नर उसे यूं हिरासत में नहीं रख सकेगा ।”
“फिर क्या वो उसे छोड़ देगा ?”
“छोड़ नहीं देगा, साहब । फिर उसे कोई मुनासिब चार्ज लगाकर नीलम को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करना पड़ेगा और तब भी उसे अपनी ही गिरफ्त में रखने के लिए रिमांड लेना पड़ेगा ।”
“उससे हमें क्या फायदा होगा ?”
“नीलम जब रिमांड के लिए मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के लिए कोर्ट में ले जाई जा रही होगी हम उसे रास्ते में छुड़ा सकते हैं । एक पुलिस वैन को रास्ते में इंटरसैप्ट करके उसे कब्जा लेना कोई बड़ी बात नहीं जब कि जेल पर या पुलिस हैडक्वार्टर पर हमला करके नीलम को छुड़ाना हमारे लिए भी मुमकिन न होगा ।”
“ओह ! ओह !”
“पुलिस में जो हमारे आदमी हैं, उन्होंने हमसे वादा किया है कि नीलम कब, कहां और कैसे ले जाई जाएगी, इस बात की वे हमें पहले खबर कर देंगे ।”
“बढिया ।”
“कल अगर खबर अखबारों में छप गई तो सोमवार तक हर हाल में वह कोर्ट में पेश कर दी जाएगी ।”
“सोमवार तक ? कल ही नहीं ?”
“ऐसा कल भी हो सकता है लेकिन नहीं भी हो सकता ।”
“बखिया को यह देरी पसंद नहीं । इस तरीके से लिटल ब्लैक बुक एक और दिन सरदार के कब्जे में रहेगी ।”
“आपको विश्वास है कि लड़की के बदले में वह डायरी लौटा देगा ?”
“हां । विश्वास है । आाखिर उसने बखिया को जुबान दी है ।”
“वह अपनी जुबान पर खरा उतरेगा ?”
“जरूर खरा उतरेगा । इनसानी फितरत पहचानने का बखिया का बरसों का तजुर्बा कहता है कि वह अपनी जुबान पर जरूर खरा उतरेगा ।”
इकबालसिंह खामोश रहा ।
“इकबालसिंह, तुम अखबार के दफ्तरों में तो नीलम की बाबत गुमनाम टेलीफोन कॉल करा ही दो लेकिन एक काम और भी करो ।”
“क्या ?”
“अपना कोई वकील पुलिस हैडक्वार्टर भेजो जोकि वहां जाकर नीलम की गैरकानूनी हिरासत से एतराज करे और खूब हो-हल्ला मचाये । इस तरीके से नीलम के कल ही कोर्ट में पेश हो जाने की संभावना और बढ जाएगी ।”
“ख्याल बुरा नहीं ।” - इकबालसिंह उठता हुआ बोला - “मैं अभी इंतजाम करता हूं ।”
***
“देवा और तुका कहां हैं ?” - वागले ने पूछा ।
विमल ने बताया ।
“मैं भिंडी बाजार का एक चक्कर लगा आया हूं ।” - वह बोला - “वहां अकरम लॉटरीवाले की खोली तक तो मैं पहुंच गया था लेकिन खोली पर ताला झूल रहा था । अब वहां जाने पर भी अगर वहां ताला ही झूलता मिल तो खामखाह की परेड होगी ।”
“वहां मेरा एक वाकिफकार रहता है । उसके पास फोन करके पता लगवाता हूं कि क्या माजरा है ।”
“गुड । अगर वे वहां न हों तो उससे यह भी मालूम करने को कहना कि वे वहां आए ही नहीं या आकर कहीं चले गए ।”
“बेहतर ।”
वागले फोन में उलझ गया ।
“पांच मिनट बाद उसने फोन वापस क्रेडिल पर रखा ।”
“वे वहां नहीं पहुंचे ।” - उसने घोषणा की ।
“यह अकरम ने कहा है ?” - विमल बोला ।
“हां ।”
“वह खोली पर है ?”
“इस वक्त है ।”
“जब मैं गया था तो वह नहीं था । शायद वे उसकी गैरहाजिरी में आए हों !”
“अगर वे वहीं के लिए रवाना हुए थे तो अकरम की गैरहाजिरी में भी वे वहां से टल नहीं जाने वाले थे ।”
“चले तो वहीं के लिए थे । उन्होंने खुद ऐसा कहा था । फिर वे वहां पहुंचे क्यों नहीं ?” - विमल के स्वर में चिंता का पुट था - “क्या माजरा है ? किस फिराक में हैं ये दोनों भाई ?”
“क्या माजरा हो सकता है ? किस फिराक में हो सकते हैं वो ?”
“कोई घपला न करें ये ।”
“कैसा घपला ?”
“कैसा भी । मैंने बखिया से वादा किया है कि वे ‘कम्पनी’ के फिलाफ कोई कदम नहीं उठाएंगे ।”
“ओह ।”
“यह अकरम लॉटरीवाला कौन है ?”
“घड़ियों का स्मगलर है । शान्ताराम की जिंदगी में वह उसका खास दोस्त होता था । उसका बहुत अहसान मानता था । तुका और देवा के लिए यह शख्स अपनी जान दे सकता है ।”
“वह लॉटरीवाला क्यों कहलाता है ?”
“क्योंकि वह लॉटरी की टिकटें बेचता है । पहले सिर्फ लॉटरी की टिकटें बेचता था । शान्ताराम की सोहबत में आकर स्मगलर बन जाने के बाद भी न तो उसने अपना लॉटरी की टिकटें बेचने का मामूली धंधा छोड़ा था और न ही अपनी भिंडी बाजार वाली खोली । हालांकि उसकी मौजूदा हैसियत ऐसी है कि मालाबार हिल पर बंगला लेकर रह सकता है । वे दोनों ही चीजें उसका बहुत बड़ा कवर है । क्या पुलिस और क्या बखिया कोई सपने में नहीं सोच सकता कि अकरम लॉटरीवाला बहुत बड़ा स्मगलर हो सकता है ।”
“हूं । यानी कि होशियार आदमी है ।”
“होशियार भी और दिलदार भी ।”
“तुम अपने बारे में कुछ बताओ ।”
“मैं क्या बताऊं ?”
“कुछ तो बताओ ।”
“कुछ यह सुन लो कि मैं शान्ताराम के भाइयों के पांव की जूती हूं । मेरा रोम-रोम उनका कर्जाई है ।”
“आज डायरी के बदले में तुम्हारी जान जा सकती थी ।”
“अपने मालिकान की भलाई के लिए मैं ऐसी हजार जानें कुरबान कर सकता हूं ।”
“बखिया कहता था कि आज मुहम्मद सुलेमान को उसके हैडक्वार्टर से रुख्सत हो जाने का हुक्म होने वाला था । वहां तुम्हारा एक भेदिया है । तुम मालूम कर सकते हो कि सुलेमान अभी होटल में ही है या चला गया वहां से ।”
“मैं कोशिश करता हूं ।”
वागले फिर फोन से उलझ गया ।
***
दो भारी सूटकेसों के बोझ से लदा-फदा देवाराम लिफ्ट से बाहर निकला और सुवेगा इंटरनेशनल के रिसैप्शन पर पहुंचा ।
उसने सूटकेस रिसैप्शन डैस्क के सामने रख दिए और हांफने लगा ।
उस वक्त भी वह शोफर की यूनीफॉर्म में था ।
“क्या है ?” - रिसैप्शनिस्ट ने पूछा ।
“जुहू से आया हूं ।” - देवाराम पूर्ववत हांफता हुआ बोला ।
“जुहू से कहां से ?”
“कम्पनी से, बाई ! होटल से ।”
“ओह !”
“सुलेमान साहब ने भेजा है । ये सूटकेस उनके ऑफिस में रखवाने हैं ।” - और वह वहां से जाने के लिए घूमा ।
“अरे, अरे !” - रिसैप्शनिस्ट उच्चर स्वर में बोली - “कहां भागे जा रहे हो ?”
“मैंने वापस ‘कम्पनी’ पहुंचना है, बाई ।”
“ये सूटकेस ऊपर लेकर जाओ ।”
“ऊपर कहां ?”
“चौथे माले पर । सुलेमान साहब का दफ्तर ऊपर है । क्या मालूम नहीं ?”
“बाई, अपुन के पास टाइम का तोड़ा है । किसी चपरासी को बोलना, छोड़ आएगा ।”
“नहीं, नहीं । तुम्हीं छोड़कर आओ ।”
“लेकिन...”
“सुना नहीं ?”
“अच्छा, अच्छा, लेकिन किसी को साथ तो भेजो ।”
रिसैप्शनिस्ट ने घंटी बजाई ।
तभी डाक का एक बड़ा-सा बोरा और हाथ में कई चिट्ठियां उठाए एक पोस्टमैन वहां पहुंचा ।
वह तुकाराम था ।
उसने बोरा रिसैप्शन के पहलू में दीवार के साथ टिकाकर रख दिया और परेशान-हाल स्वर में बोला - “मेरा झोला रखा है, बाई । अपुन ऊपरले मालों की डाक बांटकर आता है ।”
रिसैप्शनिस्ट ने लापरवाही से सहमति में सिर हिला दिया।
तुकाराम हाथ की डाक के पते पढता हुआ वहां से बाहर निकाला और सीढियों की तरफ बढ गया ।
एक चपरासी रिसैप्शन पर पहुंचा ।
“इसे” - रिसैप्शन देवाराम की तरफ संकेत करती हुई बोली - “सुलेमान साहब के ऑफिस तक लेकर जाओ ।”
“चलो ।” - चपरासी बोला ।
देवाराम ने दोनों सूटकेस फिर उठाए और उनके बोझ के नीचे लड़खड़ाता हुआ बाहर को चल पड़ा ।
चपरासी को उस पर तरस आने लगा ।
वे बाहर पहुंचे तो वह बोला - “लाओ, एक सूटकेस मुझे दे दो ।”
“शुक्रिया !” - देवाराम एक सूटकेस उसे थमाता हुआ बोला - “शुक्रिया !”
दोनों सीढियां चढने लगे ।
“बहुत भारी सूटकेस है ।” - रास्ते में चपरासी बोला - “क्या है इसमें ?”
“क्या मालूम क्या है, बाप !” - देवाराम बोला - “बड़े लोगों की बातें हैं । अपुन को क्या समझ आएगा ।”
चपरासी हंसा ।
“खामखाह एक्स्ट्रा काम पल्ले पड़ गया ।” - देवाराम बड़बड़ाया - “अपुन गाड़ी बहुत डेन्जरस जगह पार्क कियेला है । ‘कम्पनी’ की गाड़ी है । चालान हो गया तो अपुन की नौकरी खलास ।”
तब तक वे चौथी मंजिल पर पहुंच गए थे ।
“तुम सूटकेस यहीं छोड़ दो ।” - चपरासी बोला - “आगे, मैं पहुंचा दूंगा । तुम जाकर अपनी गाड़ी संभालो ।”
“थैंक्यू, बाप !” - देवाराम हर्षित स्वर में बोला - “गणपति तुम्हारे को सौ साल की उम्र दे ।”
उसी क्षण उस फ्लोर पर नीचे जाती लिफ्ट रुकी ।
देवाराम लिफ्ट में सवार हो गया ।
लिफ्ट नीचे को चलने लगी ।
वह दूसरी मंजिल पर रुकी तो उसमें एक पोस्टमैन दाखिल हुआ ।
देवाराम की अपने भाई से निगाह मिली ।
दोनों की आंखों में कामयाबी की चमक थी ।
बखिया की खोपड़ी पर हथौड़े की दूसरी चौट पड़ चुकी थी ।
***
बाइकुला में हेंस रोड पर बनी एक छ: मंजिली इमारत के सामने एक कार आकर रुकी ।
कार को एक वर्दीधारी शोफर चला रहा था । कार की पिछली सीट पर केवल एक ही सवारी थी - मुहम्मद सुलेमान ।
कार की अगली सीट पर शोफर के साथ उसके दो बॉडीगार्ड बैठे थे ।
गाड़ी रुकते ही शोफर और दोनों बॉडीगार्ड बाहर निकले ।
शोफर ने गाड़ी के पीछे पहुंचकर डिकी खोली ।
बॉडीगार्ड उसमें से सामान निकालने लगे ।
सड़क के पार विपरीत दिशा में मुंह किए एक कार खड़ी थी ।
कार में वागले और विमल बैठे थे ।
“पहुंच गया ।” - विमल बोला ।
“इसका फ्लैट चौथी मंजिल पर है ।” - वागले बोला ।
“मुझे याद है । तुमने बताया था ।”
दोनों बॉडीगार्ड ने दो सूटकेस संभाल लिए तो शोफर ने डिकी का ढक्कन गिरा दिया ।
तब मुहम्मद सुलेमान कार से बाहर निकला ।
शोफर फौरन कार वहां से आगे बढा ले गया ।
दो-दो सूटकेस उठाए दोनों बॉडीगार्ड और मुहम्मद सुलेमान इमारत में दाखिल हुए ।
“मैं चला ।” - विमल कार का दरवाजा खोलता हुआ बोला ।
“अच्छा होता ।” - वागले चिंतित स्वर में बोला - “अगर मुझे भी साथ लेकर चलते ।”
“कोई जरूरत नहीं ।”
“वे तीन हैं ।”
“लेकिन मूर्ख । अक्ल के अंधे ।”
“फिर भी ।”
“छोड़ो । मेरा कहना मानो ।”
“मैं कितना देर तक यहां इंतजार करूं ?”
“एक मिनट भी नहीं । तुम भिंडी बाजार पहुंचो और अगर तुका और देवा वहां अकरम की खोली पर हों तो उन्हें रोककर रखो । मैं पहुंच जाऊंगा वहां ।”
वागले ने बड़े अनिच्छापूर्ण ढंग से सहमति में सिर हिलाया ।
विमल इमारत की तरफ लपका ।
लिफ्ट का दरवाजा उसी क्षण बंद हुआ था ।
विमल सीढियों की तरफ लपका ।
दो-दो, तीन-तीन सीढियां फांदता हुआ वह ऊपर को दौड़ चला ।
वह चौथी मंजिल पर पहुंचा ।
उन लोगों ने अभी फ्लैट में कदम रखा ही था ।
विमल ने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली ।
दबे पांव वह उनके पीछे फ्लैट में दाखिल हो गया ।
“फ्रीज !” - वह क्रूर स्वर में बोला ।
तीनों ने चिहुंककर पीछे देखा ।
“खबरदार !” - विमल फुंफकारा - “सूटकेस हाथ में ही रहें । इन्हें फर्श पर रखने की कोशिश की तो गोली !”
एकाएक सुलेमान के नेत्र फैल गए ।
“सोहल !” - उसके मुंह से निकला - “सोहल” !
“लगता है, बड़े साहब ने मुझे आवाज से पहचाना ।” - विमल बोला । अपने पांव की ठोकर से उसने अपने पीछे दरवाजा बंद कर दिया - “या शायद सूरत से भी ?”
“सोहल !”
“उधर परे हटकर खड़े हो जाओ और अपने हाथ अपने सिर पर रख लो ।”
सुलेमान का मनोबल किस हद तक टूट चुका था, इसका यह भी सबूत था कि उसने फौरन बिना किसी हुज्जत के विमल के आदेश का पालन किया ।
“और तुम लोग” - वह बॉडीगार्डो से सबोधित हुआ - “जरा पीठ दिखाओ लेकिन साहब के कीमती सूटकेस हाथ से न छूटने पायें ।”
दोनों धीरे-धीरे घूमे । उनकी गरदनों की तनी हुई नसें साफ दिखाई दे रही थीं । उन्हें खूब अंदाजा था कि उनके साथ क्या बीतने वाली थी ।
विमल उनके करीब पहुंचा । उसने रिवॉल्वर को नाल की तरफ से पकड़ लिया और उसके दस्ते के दो भरपूर प्रहार बारी-बारी उनकी खोपड़ियों पर किए ।
दोनों निःशब्द कालीन बिछे फर्श पर ढेर हो गए ।
सुलेमान सिर पर हाथ रखे अपलक वह नजारा देख रहा था ।
विमल दरवाजे पर वापस लौटा । उसने भीतर से उसकी चिटकनी लगा दी ।
“इन्हें घसीटकर बेडरूम में ले चलो !” - विमल ने आदेश दिया ।
“मैं ?” - सुलेमान सकपकाया ।
“और तो मुझे कोई यहां दिखाई नहीं दे रहा ।”
वह खामोश रहा ।
“या शायद तुम यहीं मरना चाहते हो ?”
“न... नहीं !”
“तो इन्हें बेडरूम में पहुंचाओ ।”
दोनों बॉडीगार्ड हट्टे-कट्टे पहलवान थे । पहली कोशिश में तो सुलेमान से उनमें से कोई हिलाया भी न गया । लेकिन वह जानता था कि विमल के आदेश के पालन के बिना उसकी गति नहीं थी । सालों से कभी कोई मेहनत का काम न किया होने की वजह से उसने पहले अचेत शरीर को अभी तीन-चार फुट ही घसीटा था कि उसकी सांस धौंकनी की तरह चलने लगी ।
विमल खामोश खड़ा उसकी दुश्वारी का आनन्द लेता रहा ।
बहुत ही मुश्किल से सुलेमान दोनों अचेत बॉडीगार्डों को एक बेडरूम में पहुंचा पाया ।
“वार्डरोब में ।” - विमल बोला ।
बड़ी कठिनाई से सुलेमान ने अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाया और बॉडीगार्डों को वार्डरोब में पहुंचाया ।
विमल ने बाहर से वार्डरोब का दरवाजा मजबूती से बंद कर दिया ।
सुलेमान का चेहरा तब तक लाल भभूका हो चुका था और उसे सांस यूं झटकों में आ रही थी कि विमल को डर लग रहा था कि कहीं उसे हार्ट अटैक न हो जाए ।
“बैठ जाओ ।”
सुलेमानन के चेहरे पर यूं कृतज्ञता के भाव आए जैसे विमल के उस आदेश ने उसकी जान बचा दी हो । वह एक कुर्सी पर ढेर हो गया ।
“सुना था” - विमल बोला - “कि बखिया की आर्गेनाइजेशन के तुम बहुत बड़े दादा हो लेकिन आता तो तुम्हें कुछ भी नहीं । अपने बॉडीगार्डों से तुम मजदूरों का काम लेते हो । इतना भी नहीं जानते कि बॉडीगार्डों का काम साहब की बॉडी को गार्ड करना होता है न कि साहब का सामान उठाना ?”
“तुम” - सुलेमान फुसफुसाया - “यहां मेरा ही इंतजार कर रहे थे ?”
“हां ।”
“तुम्हें यहां का पता कैसे लगा ? तुम्हें यही कैसे पता लगा कि मैं यहां आने वाला था ?”
“मुझे तुम्हारे बाप बखिया ने बताया था ।”
“नहीं !”
“नहीं तो मुझे कैसे पता लगता कि आज तुम ‘कम्पनी’ के हैटक्कार्टर से बाइज्जत बाहर निकाले जाने वाले थे ?”
सुलेमान खामोश रहा लेकिन उसके चेहरे पर से अविश्वास के भाव न गए ।
“अब मैं तुम्हारा क्या करूं ? तुम्हें जान से मार देना तो बहुत मामूली सजा होगी तुम्हारे लिए । जबकि तुम्हारी करतूत के लिए मैं तुम्हें मौत की सजा से कहीं ज्यादा कड़ी सजा देना चाहता हूं ।”
“सोहल ! मैंने कुछ नहीं किया ।”
“हरामजादे ! तूने नीलम की इज्जत नहीं लूटी ? उसके साथ बलात्कार नहीं किया तूने ?”
“मैंने जो किया” - वह कातर स्वर में बोला - “कम्पनी के ओहदेदार के तौर पर किया । ‘कम्पनी’ के हित को निगाह में रखते हुए किया । किसी जाती अदावत के जेरेनिगाह मैंने कुछ नहीं किया । अब मैं ‘कम्पनी’ का ओहदेदार नहीं । बखिया ने मुझे भरपूर बेइज्जत करके ‘कम्पनी’ से निकाल दिया है । तुम ‘कम्पनी’ के दुश्मन थे । मैं ‘कम्पनी’ का ओहदेदार था इसलिए मेरे भी दुश्मन थे । अब मेरा ‘कम्पनी’ से कोई वास्ता नहीं । अब मेरी-तुम्हारी क्या दुश्मनी ?”
“चलो, मान ली तुम्हारी बात !” - विमल बड़ी दयानतदारी से बोला - “मान लिया कि हम अब एक-दूसरे के दुश्मन नहीं । ओके ?”
सुलेमान ने हौले से हामी भरी ।
“अब खुश हो ?”
“हां ।”
“इसी बात पर मिलाओ हाथ ।”
विमल ने रिवॉल्वर अपने बांये हाथ से थामकर अपना दायां हाथ उसकी तरफ बढा दिया ।
सुलेमान ने झिझकते हुए उसका दायां हाथ थामा और छोड़ दिया ।
“इसी बात पर एक-एक जाम हो जाए ।”
विमल ने जेब से व्हिस्की का एक अद्धा निकाला और उसे सुलेमान के सामने मेज पर रख दिया ।
“मैं” - सुलेमान झिझकता हुआ बोला - “शराब नहीं पीता ।”
“शराब नहीं पीते !” - विमल हैरानी से बोला - “फिर जीते कैसे हो ?”
“मेरे मजहब में शराब की मनाही है । हराम शै मानी जाती है यह ।”
“आज तो तुम शराब जरूर पियोगे, मुहम्मद सुलेमान, वर्ना हमारी-तुम्हारी दोस्ती पर मोहर कैसे लगेगी ?”
“लेकिन...”
“दो में से एक चीज चुन लो !” - विमल कर्कश स्वर में बोला - “शराब पियो या गोली खाओ । फैसला दो सैकेंड में करो ।”
मुहम्मद सुलेमान के चेहरे ने कई रंग बदले । वह उसके लिए मौत की घड़ी थी ।
“एक सैकेंड हो गया ।” - विमल चेतावनी-भरे स्वर में बोला ।
“सोहल !” - सुलेमान याचनापूर्ण स्वर में बोला - “प्लीज !”
“दो सैकेण्ड हो गए । लगता है, तुम्हारी किस्मत में गोली हो लिखी है ।”
विमल ने रिवॉल्वर फिर दायें हाथ में ले ली ।
“अच्छा, अच्छा !” - सुलेमान मरे स्वर में बोला - “पीता हूं ।”
“शाबाश !”
एक तरफ एक मेज पर एक जग और दो गिलास पड़े थे । विमल वे चीजें उठा लाया । उसने दो जाम तैयार किए । उसने जबरन एक गिलास सुलेमान को थमा दिया ।
“चियर्स !” - वह अपना गिलास उसके गिलास से टकराता हुआ बोला ।
“चि-चियर्स !” - सुलेमान बोला ।
“फॉर युअर हैल्थ !”
“फॉर युअर हैल्थ !”
“मैनी हैपी रिटर्न्स ऑफ दि डे ।”
“मैनी हैपी रिटर्न्स ऑफ दि डे ।”
“पियो ।”
सुलेमान ने किसी तरह वह सजा भुगती ।
विमल ने उसका गिलास फिर भर दिया ।
दूसरे पैग को भी उसने जहर मार किया ।
लेकिन तीसरा पैग उसने बिना हुज्जत के पिया ।
पहली बार शराब पी होने की वजह से तीन पैगों ने उसका भेजा उलटकर रख दिया । वह भूल गया कि सोहल उसके सिर पर मौत बनकर सवार था ।
सोहल उसके लिए चौथा पैग बनाने लगा ।
अपने पहले पैग में से भी उसने अभी मुश्किल से एक घूंट पिया था ।
“सोहल !” - सुलेमान नशे से थरथराती आवाज में बोला - “तू मेरा दोस्त है ।”
“दुरुस्त ।” - विमल सहज भाव से बोला ।
“नहीं । तू मेरा भाई है ।”
“वह भी दुरुस्त ।”
“एक और एक मिलकर अट्ठारह होते हैं ।”
“ग्यारह ।”
“हम एक और एक मिलकर अट्ठा... ग्यारह हो सकते हैं । हम बखिया की ईंट से ईंट बजा सकते हैं ।”
“सरासर बजा सकते हैं ।”
“सोहल !”
“हां ।”
“बखिया के सारे बड़े ओहदेदार तुमने मार गिराए हैं । अब वो अकेला पड़ गया है । कमजोर पड़ गया है । हम दोनों मिलकर उसे पछाड़ सकते हैं और उसकी बादशाहत हथिया सकते हैं ।”
“जरूर । क्यों नहीं ?”
“सोहल ! मेरे भाई !” - वह एकाएक रोने लगा - “बखिया ने मुझे बहुत बेइज्जत किया । ऐसी जिल्लत और रुसवाई से तो मौत अच्छी थी । जानते हो, क्या किया उस हरामजादे ने ?”
“क्या किया ?”
“उसने जानबूझकर शान्तिलाल को मेरे पास भेजा । मेरे से दी सीढी नीचे के ओहदेदार से उसने मुझे यह कहलवाया कि ‘कम्पनी’ की छत्रछाया में अब मेरे लिए जगह नहीं थी । ऐसी बेइज्जती से तो मौत अच्छी थी ।”
“वह भी आ आएगी ।”
“क्या ?”
“हमारे दुश्मनों को ।”
“हां !” - उसने अपनी आंखें पोंछी - “हां । हमारे दुश्मनों को ।”
“लेकिन सुलेमान साहब, अभी बखिया के पास ओहदेदारों की कमी नहीं ।”
“तुम्हारा इशारा इकबालसिंह, मैक्सवैल परेरा और शान्तिलाल की तरफ है ?”
“और जोजो ?”
“वे सब बचत-खुचत हैं ।”
“फिर भी हैं तो ।”
“अरे उनका हम यूं” - सुलेमान ने चुटकी बजाने की कोशिश की जिसमें वह नाकामयाब रहा - “सफाया कर सकते हैं । मैं एक एक की पोल जानता हूं । मैं खूब जानता हूं कि कौन, कब, ऐसा असुरक्षित होता है कि बकरे की तरह हलाल किया जा सकता है ।
“अच्छा !”
“हां ।”
“विश्वास नहीं होता ।”
“मैं हकीकत बयान कर रहा हूं ।”
“फिर भी विश्वास नहीं होता । मिसाल के तौर पर शान्तिलाल के बारे में कुछ बताओ ।”
“क्या बताऊं ?”
“वो कब असुरक्षित होता है ?”
“वो मन्दिर जाता है ।” - वह बड़े रहस्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“तो ?”
“वो रोज मंदिर जाता है ।”
“तो ?”
“वो रोज एक खास वक्त पर एक खास मंदिर में जाता है । और वही एक इकलौती जगह होती है जहां वह अपने बॉडीगार्ड साथ लेकर नहीं जाता ।”
“आई सी ! आई सी !”
“विलेपार्ले में जो लक्ष्मीनारायण मंदिर है, वो तुमने देखा होगा ?”
“देखा है ।” - विमल ने झूठ बोला ।
“उस मन्दिर की तामीर में शान्तिलाल का बहुत बड़ा हाथ है । वहां उसकी बड़ी पूछ है, बड़ी कद्र है । हर शाम को आठ बड़े जब वहां आरती होती हो तो वह वहां हमेशा पहली कतार में मौजूद होता है ।”
“यानी कि वहां वह कभी बॉडीगार्डों को साथ लेकर नहीं जाता ?”
“पहुंचता तो वह बॉडीगार्डो के साथ ही है लेकिन वे मंदिर के भीतर कदम नहीं रखते । वे बाहर कार में ही बैठे रहते हैं और शान्तिलाल के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करते रहते हैं ।”
“ओह ! कहीं वह यह तो नहीं समझता कि पिस्तौल-तमंचो वाले उसके बॉडीगार्ड मंदिर के भीतर जाकर वहां के पवित्र वातावरण को भ्रष्ट कर देंगे ?”
“मुमकिन है, यही बात हो ।”
“और जोजो ! जोजो की क्या पोल है ?”
“सुनोगे तो छक्के छूट जाएंगे तुम्हारे ।”
“कोई बात नहीं । दोस्तों के छक्के छूट भी जाएं तो कोई तौहीन की बात नहीं होती ।”
“वह तो है ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“क्या पूछा था तुमने ?”
“जोजो की क्या पोल है ?”
“जरा करीब आओ । कान में सुनने की बात है ।”
“यहां और सुनने वाला कौन है !”
“अरे हां । यह तो मैं भूल ही गया था । सुनो ।”
“बोलो ।”
“जोजो की” - वह लगभग फुसफुसाता हुआ बोला - “इकबालसिंह की नौजवान बीवी से आशनाई है ।”
विमल बड़ी कठिनाई से उसकी बात सुन पाया ।
“जोजो की इकबालसिंह की बीवी से आशनाई है ?” - तसदीक के लिए उसने दोहराया ।
“हां । वो दोनों छुप-छुपकर मिलते हैं ।”
“कहां ? इकबालसिंह के घर ?”
“नहीं । मैरीन ड्राइव पर । उन्होने एक फ्लैट इसी काम के लिए ठीक किया हुआ है ।”
“फ्लैट का पता ?”
सुलेमान ने बताया ।
“वहां जोजो हमेशा अकेला जाता है ।” - वह बोला - “किसी को उस फ्लैट के करीब भी ले जाना जोजो अफोर्ड नहीं कर सकता । वह जानता है कि इकबालसिंह को यह बात पता लग गई तो वह उसका खून पी जाएगा ।”
“जोजो वहां रोज जाता है ?”
“नहीं । लेकिन दांव लगे तो रोज भी जाता है ।”
“इकबालसिंह की बीवी कहां रहती है ? होटल में ही ?”
“नहीं । खार में । खार में इकबालसिंह का अपना बंगला है । वहां रहती है वो ।”
“अकेली ?”
“नौकरों-चाकरों को न गिनो तो अकेली ।”
“नौकर-चाकर कितने हैं वहां ?”
“चार-पांच तो होंगे ।”
“बीवी का नाम क्या है ?”
“लवलीन । लेकिन” - सुलेमान एक आंख दबाकर बडी कुत्सित हंसी हंसा - “जोजो उसे लवी कहकर पुकारता है ।”
“क्रिश्चयन है वो ?”
“नहीं । पारसी ।”
“बंगले पर फोन तो होगा ?”
“है । नम्बर भी बताऊं ?”
“वाह ! नेकी और पूछ-पूछ ।”
सुलेमान ने एक फोन-नम्बर बताया जोकि विमल ने नोट कर लिया ।
“लगे हाथों बंगले का पता भी बता दो । शायद काम आ जाए ।”
सुलेमान ने वह भी बताया ।
“लवलीन को तुमने देखा हुआ है ?” - विमल ने नया सवाल किया ।
“सैंकड़ों बार ।” - सुलेमान बोला ।
“उसका हुलिया बयान कर सकते हो ?”
“यह क्या मुश्किल काम है ?”
“करो ।”
सुलेमान ने यूं लवलीन का हुलिया बयान किया जैसे वह अपनी कल्पना में उसके अंगप्रत्यंग से खिलवाड़ कर रहो हो, उसके कपड़े उतार रहा हो, उसके साथ बलात्कार कर रहा हो ।
“वाह !” - विमल बोला - “हुलिया बयान करने जैसे मामूली काम में तुमने मुझे पोर्नो फिल्म देखने जैसा मजा करा दिया ।”
सुलेमानन बड़ी वासना-भरी हंसी हंसा ।
“इकबालसिंह की बीवी के साथ कभी तुम्हारा दांव नहीं लगा ?”
“नहीं लगा ।”
“कोशिश तो बहुत की होगी ?”
वह फिर हंसा, पहले से ज्यादा कुत्सित, ज्यादा वासना-भरी हंसी ।
“सुलेमान, अब एक गम्भीर बात बताओ ।”
“दो पूछो, बिरादर ।”
“झूठ न बोलना । कसम है तुम्हें अपने अल्लाह ताला की ।”
“कुछ पूछो भी, मेरे भाई ।”
“बखिया कहता है कि नीलम मरी नहीं है । उसे तुम्हारे चंगुल से छुड़ाकर पुलिस कमिश्नर ले गया था । क्या यह बात सच है ?”
“सच है ।”
“तुम समझ रहे हो न, मैंने तुमसे क्या पूछा है ? तुम नशे में तो नहीं हो ?”
“मैं हकीकत बयान कर रहा हूं, दोस्त । वह कमिश्नर का बच्चा पता नहीं कैसे एकाएक वहां पहुंच गया । हरामजादे ने मेरे मातहतों के सामने मेरे मुंह पर तमाचा मारा । मुझे खून का घूंट पीकर रह जाना पड़ा ।”
विमल खामोश हो गया । उसके मन में एक नई उम्मीद जागने लगी ।
तो क्या नीलम जिन्दा थी ?
या यह भी उसे बहलाने की पहले से ही गढकर रखी गई कोई चाल थी ?
आखिर सुलेमान था तो ‘कम्पनी’ का ही आदमी । वह बखिया की निगाहों से ही तो गिरा था, ‘कम्पनी’ से निकाल तो नहीं दिया गया था । उसका जिन्दा रहना ही इस बात का सुबूत था कि वह ‘कम्पनी’ से निकाला नहीं गया था, उसे केवल हैडक्वार्टर की छत्रछाया से महरूम किया गया था ।
क्या गोरखधन्धा था ?
वाहेगुरू सच्चे पातशाह ! - उसने मन-ही-मन दोहराया - यह खबर सच हो । नीलम जिन्दा हो । वह किसी भी हाल में हो लेकिन जिन्दा हो ।
“दोस्त !” - सुलेमान नशे में थरथराती आवाज में कह रहा था - “इस बार हम दोनों मिलकर बखिया के खिलाफ जो मोर्चा खड़ा करेंगे, मेरा दावा है कि वह मेरी पहली कोशिश की तरह नाकामयाब नहीं होगा ।”
“तुम्हारी पहली कोशिश ?” - विमल सकपकाया ।
“हां । जो मैं ने अमीरजादा अफताब खान के साथ मिलकर की थी ।”
“अमीरजादा आफताब खान ! यह कौन हुआ ?”
“कम्पनी’ में मेरे बराबर का ओहदेदार । उसी ने शान्ताराम के भाइयों के अंधेरी फोन करके मैक्सवैल परेरा के वहां होने वाले हमले की खबर की थी । उसी ने यह खबर दी थी कि बखिया अपने भाई से मिलने कल्याण जा रहा था ।”
“लाल सूरज !” - विमल के मुंह से निकला ।
“हां ।”
“वह शख्स बखिया का ही की ओहदेदार था ?”
“मेरे बराबर का ओहदेदार । आफताब का क्या मतलब होता है ?”
“सूरज ।”
“और सूरज का रंग क्या होता है ?”
“लाल ।”
“क्या समझे ?”
“लाल सूरज ! बखिया का ही एक ओहदेदार जिसने बखिया की मौत का सामान किया था ।”
“लेकिन बखिया बच गया । मुकद्दर का सिकन्दर है हरामजादा । नहीं बच सकता था लेकिन बच गया ।”
“आफताब खान अभी सलामत है ? बखिया को उसकी करतूत की अभी खबर नहीं लगी ?”
“हो सकता है, लग गई हो । आफताब खान गायब है ।”
“कहां गायब है ?”
“बखिया तो कहता है कि वह दुबई चला गया है लेकिन मेरा दिल कहता है कि वह बखिया के कहर का शिकार बन चुका है ।”
“बखिया को यह नहीं पता चला कि उस षड्यन्त्र में आफताब खान के साथ तुम भी शामिल थे ?”
“जाहिर है कि नहीं चला वरना उसने मुझे हरगिज भी जिन्दा न छोड़ा होता ।”
“कोई बात नहीं । बखिया का कम-से-कम यह काम तो मैं किये देता हूं ।”
“क्या मतलब ?”
“अपने बनाने वाले के रूबरू पहुंचने के लिए तैयार हो जा, मुहम्मद सुलेमान !”
“क-क्या ?”
“कैसे कैरेक्टरलैस आदमी हो तुम ।” - विमल नफरत भरे स्वर में बोला - “जिस हाथ ने तुम्हें निवाला दिया, तुमने उसी को काट खाया ! अपनी जान का सौदा तुमने अपने ईमान से कर लिया । तुम्हारी जान ले लेने की मेरी एक धमकी पर तुम शराब पीने को तैयार हो गए । जितनी प्यारी तुम्हें अपनी जान है, काश उतना ही प्यारा तुम्हे अपना ईमान भी होता । ईमान पर जान दे देने वाले तो मैंने बहुत देखे-सुने थे लेकिन ईमान बेचकर जान खरीदने की कोशिश करने वाला शख्स मैंने आज ही देखा है । मुहम्मद सुलेमान, लानत है तुझ पर ! तूने अपना यह लोक तो बिगाड़ा ही, परलोक भी बिगाड़ा ।”
“मुझसे खता हुई ।” - वह कम्पित स्वर में बोला । एकाएक उसका सारा नशा हिरन हो गया - “मुझे माफ कर दो ।”
“मैं कौन होता हूं, तुम्हें माफ करने वाला ? माफी ऊपर जाकर अपने बनाने वाले से मांगना ।”
विमल की रिवॉल्वर ने एकाएक आग उगली ।
मुहम्मद सुलेमान का भेजा उड़ गया ।
विमल उठ खड़ा हुआ ।
रिवॉल्वर उसकी तरफ ताने वह अपलक सुलेमान की तरफ देखता रहा ।
फिर उसने साफ-साफ सुलेमान की आंखों से जीवन-ज्योति बुझती देखी ।
उसका रिवॉल्वर वाला हाथ अपना-आप नीचे झुक गया ।
“नीलम !” - वह भर्राये स्वर में बोला - “मैंने तेरी हत्तक का बदला ले लिया । मैंने तेरी हत्तक का बदला ले लिया, नीलम !”
***
“पुलिस हैडक्वार्टर से हमारे भेदिये की टेलीफोन कॉल आई है ।” - इकबालसिंह ने बताया - “नीलम को कल चार्ज लगाकर रिमांड के लिए कोर्ट में पेश किया जा रहा है ।”
“बढिया !” - बखिया सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला - “तरकीब कौन-सी काम आई ? अखबार वालों की गुमनाम टेलीफोन कॉल वाली या हमारे वकील के वहां पहुंचने वाली ?”
“शायद दोनों । क्योंकि अखबार वाले और हमारा वकील एक ही वक्त पर पुलिस कमिश्नर पर चढ दौड़े थे । हमारे वकील ने अखबार वालों के सामने ही नीलम को ‘अनलॉफुल कनफाइनमेंट’ का हो-हल्ला मचाया था । मजबूरन कमिश्नर को वहीं हाथ के हाथ, सबके सामने यह बयान देना पड़ा था कि नीलम को अगले ही रोज चार्ज लगाकर कोर्ट में पेश किया जाने वाला था ।”
“क्या चार्ज लगाकर ?”
“एक खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम, हत्यारे और डकैत की मददगार होने का चार्ज लगाकर ।”
“कब ? कैसे ? कहां ?”
“कल ग्यारह बजे वह कोर्ट में पेश की जाएगी । जिस वैन पर वह कोर्ट में ले जाई जाएगी, उसका नम्बर और रूट वगैरह हमारे भेदिये ने हमें अभी बता दिया है, कल सुबह दोबारा वह इसकी तसदीक भी करेगा ।”
“बढिया । इकबालसिंह, वह वैन कचहरी न पहुंचने पाए ।”
“नहीं पहुंचेगी ।”
“कल दोपहर तक सोहल की छोकरी यहां मेरे सामने मौजूद होनी चाहिए ।”
“होगी ।”
“अब क्या यह बताने की भी जरूरत है कि इस काम को तुमने कैसे अंजाम देना होगा ?”
“जरूरत नहीं, बखिया साहब ! कब पुलिस की वैन कोर्ट के रास्ते में ही इण्टरसैप्ट कर ली जाएगी और फिर लड़की आपके हुजूर में पेश कर दी जाएगी । सारा काम खुद मेरी देखरेख में पूरी मुस्तैदी से होगा । कहीं कोई गड़बड़ नहीं होने दी जाएगी ।”
“बढिया ! शान्तिलाल ने सुलेमान को बखिया का हुक्म सुना दिया ?”
“कब का । वह होटल का अपना सुइट खाली करके यहां से जा भी चुका है । अब वह...”
एकाएक इतनी जोर का धमाका हुआ कि इकलाबसिंह को होटल की बुनियाद हिलती महसूस हुई ।
“यह क्या हुआ ?” - बखिया के मुंह से निकला ।
तभी एक-दूसरे के पीछे वैसे ही गगनभेदी दो और धमाके हुए ।
“मैं मालूम करता हूं ।” - एकाएक इकबालसिंह आतंकित स्वर में बोला और फिर तोप से छूटे गोले की तरह बाहर की तरफ भागा ।
***
होटल सी व्यू की लॉबी में उस वक्त दोपहर जैसी भीड़ नहीं थी ।
रिसैप्शन के सामने का भाग तो कतई खाली पड़ा था । इसीलिए वहां पड़े तीन सूटकेस अब बड़े अटपटे लग रहे थे ।
एक रिसैप्शन क्लर्क की निगाह सूटकेसों पर पड़ी ।
उसने काउंटर पर पड़ी घंटी बजाई ।
एक बैलब्यॉय उसके समीप पहुंचा ।
“यह लगेज किसका है ?” - क्लर्क ने पूछा ।
“मालूम नहीं, साहब ।” - बैलब्वॉय बोला ।
“यहां कैसे पहुंचा ?”
“किसी मेहमान का ही होगा, साहब ।”
“मेहमान कहां है ?”
“कहीं टायलेट वगैरह चला गया होगा ।”
“साहब !” - एकाएक समीप खड़ा एक दूसरा बैलब्यॉय बोला - “ये सूटकेस तो एक घण्टे से यहां पड़े हैं ।”
“एक घण्टे से ?”
“हां ! मैं ही इन्हें एक इम्पाला गाड़ी से निकालकर यहां लाया था ।”
“इम्पाला गाड़ी से ? उसका पैसेन्जर कहां गया ?”
“मालूम नहीं, साहब ।”
“देखने में कैसा था वो ?”
“कोई अरब था, साहब ।”
“अरब था ? फिर तो जरूर उसकी यहां रिजर्वेशन होगी । वह सामान कमरे में पहुंचवाने के लिए कहकर गया होगा जोकि तुम लोगों ने किया नहीं ।”
“साहब, अरब तो एक अक्षर भी नहीं बोला था । वह तो गाड़ी से बाहर भी नहीं निकला था ।”
“कमाल है !”
“उसका ड्राइवर यह छोटा सूटकेस उठाए जरूर अन्दर तक आया था लेकिन सामान के बारे में तो वह भी कुछ नहीं बोला था ।”
“ठीक है । ठीक है । सामान यहां से हटवाओ । इसे स्टोरेज में रखवा आओ । जब वह लौटेगा तो निकलवा देंगे ।”
दोनों बैलब्वॉयज ने सहमति में सिर हिलाया । वे सामान की तरफ बढे ।
एक ने छोटे सुटकेस पर हाथ डाला ।
“तू बड़ा ले ।” - दूसरा बोला - “यह मुझे दे ।”
“फिर तू भी बड़ा ले । इसे यहीं छोड़ ।”
“मैं तेरे जैसा मरियल नहीं । मैं दोनों उठा लूंगा ।”
“यह ले ।” - उसने छोटा सूटकेस दूसरे के हाथ में धकेल दिया - “उठा फिर ।”
छोटा सूटकेस दूसरे के हाथ में आते ही जैसे कोई स्विच ऑन हुआ ।
एकाएक एक भीषण धमाका हुआ ।
फिर दूसरा ।
फिर तीसरा ।
तीनों सूटकेसों के और दोनों बैलब्वॉयज के परखच्चे उड़ गए ।
रिसैप्शन का पूरा काउण्टर उड़ गया ।
उसके पीछे मौजूद चारों क्लर्क जैसे हवा में उड़ गए ।
सामने के शीशे के दरवाजे को शीशे तो टूटे ही, उसके फ्रेम भी उखड़ गए ।
लॉबी में तबाही मच गई ।
ऐसा कोहराम मचा जैसे प्रलय आ गई हो ।
फिर एक तरफ लगे भारी पर्दो में से आग की लपटें फूटने लगीं ।
लॉबी में मौजूद जो लोग घायल नहीं हुए थे, वे आंतक में गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगे और एक-दूसरे को रौंदते हुए बाहर को भागने लगे ।
उस शानदार फाइव स्टार डीलक्स होटल की लॉबी का यह हाल हो गया जैसे वहां एयर रेड हुई हो ।
***
कफ परेड पर सुवेगा इण्टरनैशनल के ऑफिस की रिसैप्शनिस्ट पोस्टमैन का दीवार के साथ लगा पड़ा बोरा देख देखकर झुंझला रही थी ।
पता नहीं कहां मर गया था डाकिया ।
आम तौर पर वह पांच-दस मिनट में लौट आया करता था लेकिन उस रोज तो उसे एक आधा घण्टा हो गया था ।
वह उठकर बोरे के समीप पहुंची ।
उसका उसे सरकाकर काउन्टर के पीछे कर देने का इरादा था ताकि वह आने-जाने वालों को दिखाई न देता ।
उसने बोरा पकड़कर उसे सरकाने की कोशिश की तो वह अपने स्थान से हिला भी नहीं ।
“हे भगवान !” - वह बोली - “इसमें डाक है या लोहा ?”
उसने घण्टी बजाकर चपरासी को बुलाया ।
“यह बोरा जरा काउण्टर की ओट में कर दो ।” - उसने आदेश दिया - “यहां सामने रखा बुरा लग रहा है ।”
“अच्छा, बाई ।”
चपरासी बोरे के करीब पहुंचा ।
उसने बोरे को उसके मुंह से पकड़ा ।
“बाई !” - एकाएक वह बोला - “इसमें तो घड़ी चलने जैसी टिक-टिक की आवाज आ रही है ।”
चपरासी के मुंह से निकले वे आखिरी शब्द थे । उसके बाद वह इस फानी दुनिया से रुख्सत हो गया ।
एक गगनभेदी धमाके के साथ बोरे में रखा बम फटा ।
लगभग उसी समय ऊपर मोटलानी के ऑफिस में रखे दो सूटकेसों में मौजूद बम फटे ।
पहले सुवेगा के ऑफिस वाली मंजिल में और फिर सारी इमारत में तहलका मच गया ।
बम्बई के दो सिरों पर बखिया के दो ठिकाने जहन्नुम का नजारा बने हुए थे ।
बखिया का जैसे दिमाग हिल गया । घूंसे बरसा-बरसाकर उसने अपने सामने मौजूद मेज तोड़ डाली । उसने अपने बाल नोच लिए ।
“किसकी ?” - वह दहाड़ा - “किसकी करतूत है यह ?”
तब तक कफ परेड पर मची तबाही की खबर भी वहां तक पहुंच चुकी थी । लगता था कि वहां होटल से ज्यादा तबाही मची थी । बम-बिस्फोट के तुरन्त बाद रिसैप्शन और सुलेमान के ऑफिस में आग लग गई थी जोकि खबर आई थी कि अभी तक बुझाई नहीं जा सकी थी ।
आग होटल की लॉबी में भी लगी थी लेकिन गनीमत थी कि फायर बिग्रेड वहां पहुंचने से पहले होटल के कर्मचारियों ने ही उसे बुझा लिया था । होटल के चार कर्मचारी बम-बिस्फोट में मारे गए थे और कई कर्मचारी और मेहमान गम्भीर रूप से घायल हुए थे ।
लेकिन वहां जान और माल से भी बड़ा नुकसान यह हुआ था कि होटल में ठहरे लोगों में उस हादसे का ऐसा आतंक फैला था कि वे आनन-फानन होटल छोड़-छोड़कर जाने लगे थे । मैनेजमेंट ने उन्हें बहुत विश्वास दिलाया कि उनकी जान और माल को कोई खतरा नहीं था लेकिन लॉबी की हालत को देखकर कोई भी यह विश्वास करने को तैयार नहीं था कि वह वहां सुरक्षित था ।
बम कहां फटा, कैसे फटा, कैसे वह वहां पहुंचा इस बारे में अभी कुछ पता नहीं लगा था । अलबत्ता पुलिस तफतीश कर रही थी ।
“किसकी करतूत है यह ?” - उत्तर न मिलता पाकर बखिया ने पहले से भीषण दहाड़ के साथ अपना प्रश्न दोहराया ।
“सोहल की ।” - मैक्सवैल परेरा ने झिझकते हुए सुझाया ।
“उसे अब ऐसी हरकतों से क्या फायदा ?” - बखिया बोला - “लिटल ब्लैक बुक की सूरत में जब बखिया की गरदन ही वह अपने पंजे में दबोचे हुए है तो इस छोटी-मोटी चोट से उसे क्या हासिल होने वाला है ?”
“ऊपर से हम उसके दिल में एक नयी उम्मीद जगा चुके हैं ।” - इकबालसिंह बोला - “उसकी सहेली की जिन्दगी की उम्मीद ।”
“दुरुस्त ।” - बखिया बोला - “अपनी छोकरी की बाबत हमसे नाउम्मीद हो जाने के बाद अगर उसने यह हरकत की होती तब भी कोई बात थी । यहां से निकलते ही उसने ऐसा कोहराम मचा दिया हो, यह बात बखिया को हजम नहीं होती ।”
“तो फिर शान्ताराम के भाई ?” - परेरा बोला ।
“अव्वल तो वो ऐसा कर नहीं सकते । अगर वो इतने ही हौसलामन्द होते तो उन्होंने वैसा कुछ तब न किया होता जब वे चार थे ? ऊपर से सोहल ने बखिया का अपनी जुबान दी है कि वे अब कभी ‘कम्पनी’ के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाएंगे ।”
कोई कुछ न बोला ।
“फिर भी शान्ताराम के भाइयों को दोबारा तलाश करो ।” - बखिया ने हुक्म दनदनाया ।
“कहां से तलाश करें ?” - परेरा के मुंह से निकला ।
“यह तुम बखिया से जानना चाहते हो ?” - बखिया कहरभरे स्वर में बोला ।
“नहीं, नहीं ।” - परेरा हड़बड़ाकर बोला - “मैं उन्हें ढूंढ लूंगा । मैं उन्हें पाताल से भी खोज निकालूंगा ।”
“अच्छा करोगे । अपने लिए ।”
परेरा सहमकर चुप हो गया ।
वह उसके लिए भारी संकट की, भारी इम्तहान की, घड़ी थी ।
“मेरी निगाह में” - इकबालसिंह बोला - “शान्ताराम के भाइयों की तलाश का एक तरीका है ।”
“क्या ?” - परेरा आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“बालेराम और जीवाराम की लाशें अभी भी पुलिस के अधिकार में हैं । कल से दोनों लाशें उनके अधिकार में हैं । पोस्टमार्टम जैसी पुलिस की खानापूरी या तो कल हो चुकी होगी, या आज हो जाएगी । उसके बाद तो लाशें अन्तिम संस्कार के लिए रिश्तेदारों को ही सौंपी जाएंगीं ।”
“लेकिन” - परेरा बोला - “जरूरी तो नहीं कि पुलिस से लाशें क्लेम करने कि लिए दोनों जीवित भाइयों में से ही कोई आए ?”
“कबूल । कबूल कि यह काम उनका कोई संगी-साथी भी कर सकता है ।”
“बशर्ते कि पुलिस को एतराज न हो ।” - बखिया बोला ।
“जी हां । लेकिन अपने मृत भाइयों के अन्तिम संस्कार भी तुकाराम और देवाराम अपने किसी संगी-साथी से करवाए, यह बात मेरे गले से नहीं उतरती ।”
“ओह !” - परेरा के मुंह से निकला ।
“कहने का मतलब यह है कि वे दोनों भाई लाशें क्लेम करने के लिए अगर मोर्ग में न भी उपस्थित हुए तो श्मशानघाट में जरूर उपस्थित होंगे ।”
“श्मशानघाट बम्बई में कोई एक तो नहीं ।” - परेरा बोला ।
“लेकिन एक हजार भी नहीं ।”
“परेरा !” - बखिया तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “हमारे पास क्या इतने भी आदमी नहीं कि हम बम्बई के सारे श्मशानघाटों की निगरानी करवा सकें ?”
“ऐसी बात तो नहीं ।” - परेरा हड़बड़ाकर बोला ।
“तो ?”
“मुझे इकबालसिंह की तरकीब पसन्द आई है । समझ लीजिए कि आज रात तक दोनों भाई फिर आपके हुजूर में पेश हो गए ।”
“बढिया !”
***
होटल सी व्यू की बाउण्ड्रीवाल के बाहर के फुटपाथ पर दीवार पर से भीतर झांकता हुआ विकराल चेहरे वाला वह बूढा सरदार खड़ा था जिसने विमल को अपना नाम सूबेदार मेजर लहनासिंह बताया था । हमेशा की तरह सकी मैली-कुचैली सफेद दाढी उसकी छाती पर उड़ रही थी और पगड़ी खुलकर आधी उसके गले में लटकी हुई थी ।
वह सी व्यू की जलती हुई लॉबी को देख रहा था ।
उस वक्त उसकी आंखों में खुशी की चमक थी और चेहरे पर परम संतुष्टि के भाव थे ।
बखिया के हाथों अपने दो नौजवान बेटों की मौत के बाद से वह पहला मौका था जबकि वह नशे में नहीं था ।
उसको आंखों के आगे विमल की सूरत घूम रही थी ।
“शाबाशे !” - एकाएक बड़े जोशीले स्वर में उसके मुंह से निकला - “शाबाशे ! ज्यून्दा रह पुतरा ! ज्यून्दा रह ! बाबे दी मेहर दी छतरी तेरे सिर ते सदा सलामत रहे । ऐसे ही तबाह करके रख दे बाखिया की सारी बादशाहत ! किसी आततायी को न छोड़ना, मेरे बच्चे ! किसी को न छोड़ना ! किसी को न छोड़ना !”
एकाएक सूबेदार मेजर सरदार लहनासिंह आपे से बाहर होकर जलते हुए होटल सी व्यू के सामने भंगड़ा नाचने लगा ।
***
विमल भिण्डी बाजार पहुंचा ।
अकरम लॉटरीवाले की खोली पर उसने तब भी ताला झूलता पाया ।
उसने आसपास वागले को तलाश किया तो उसने उसे एक ढाबे पर बैठे चाय पीता पाया ।
उसे देखते ही बागले उठ खड़ा हुआ ।
दोनों करीब ही खड़ी कार में जा बैठे ।
“मेरे यहां पहुंचने से थोड़ी देर पहले दोनों भाई यहां आए थे ।” - वागले ने बताया - “अकरम उस वक्त यहां था । लेकिन वे यहां रुके नहीं थे । वे फौरन ही अकरम को और उसके कुछ आदमियों को साथ लेकर यहां से चले गए थे ।”
“कुछ आदमियों को साथ लेकर ?” - विमल सशंक स्वर में बोला ।
“हां ।”
“क्यों ?”
“क्या पता क्यों ? “
“और गये कहां वे ?”
“यह भी मालूम नहीं ।”
“वागले, मुझे इन दोनों भाइयों के इरादे नेक नहीं मालूम होते । वे बखिया के खिलाफ कोई खतरनाक कदम उठाने की फिराक में मालूम होते हैं ।”
“खतरनाक कदम ?”
“हां । कोई ऐसा खतरनाक कदम जो उन्हें नहीं उठाना चाहिए । वागले, हमें उन्हें उनके खतरनाक इरादों से रोकना होगा ।”
“रोकना तो होगा लेकिन कैसे ? क्या पता वे कहां हैं ।”
“उनकी तलाश का कोई तरीका ?”
“मुझे तो दिखाई नहीं देता ।”
“हमें बखिया के सारे ठिकानों के चक्कर लगाने चाहिए ।”
“यूं खामखाह भटकने से कोई फायदा नहीं होगा, सरदार साहब । बखिया का कोई एक ठिकाना है ? उसके सारे ठिकानों के चक्कर लगाते-लगाते अगला दिन हो जाएगा और फिर ऐसे क्या मालूम होगा कि वे कहां पहुंचने वाले हैं और कहां से होकर जा चुके हैं ।”
विमल ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“यूं खामखाह भटकने से कोई फायदा नहीं । इतना एक्सपोजर तुम्हारे लिए भी खतरनाक हो सकता है । तुम शायद भूल रहे हो कि तुम्हारी गिरफ्तारी के लिए सवा लाख रुपये का इनाम है और सारे शहर में तुम्हारे पोस्टर लगे हुए हैं ।”
विमल खामोश रहा ।
“और फिर जो तुम सोच रहे हो, वह तुम्हारे मन का वहम भी हो सकता है ।”
“जब उन्होंने ऐसा कहा था तो वे सीधे यहां क्यों नहीं पहुंचे ?”
“इसकी सैंकड़ों वजह हो सकती हैं - सिवाय उस वजह के जो तुम्हारे जेहन पर हावी है ।”
विमल कई क्षण कुछ न बोला ।
“अब हम करें क्या ?” - अन्त में वह बोला ।
“वापिस कोलीवाड़े चलते हैं ।” - वागले बोला - “मैंने यहां पर अकरम के बड़े खास आदमी के पास सन्देशा छोड़ दिया है । वे लोग वापिस लौटेंगे तो हमें ‘मराठा’ में टेलीफोन कॉल आ जाएगी । ओके ?”
“ओके ।” - विमल बड़े अनिच्छापूर्ण स्वर में बोला ।
वागले ने फौरन कार आगे बढा दी ।
“एक बात बताओ ?” - रास्ते में विमल बोला ।
“पूछो ।” - वागले बोला ।
“तुम मैरीन ड्राइव के एक फलैट की चौबीस घण्टे निगरानी का इन्तजाम करवा सकते हो ?”
“वह किसलिए ?”
विमल ने वजह बताई ।
“ओह ।” - वागले बोला ।
“निगरानी करने वाला आदमी ऐसा होना चाहिए जो जोजो को पहचानता हो । मैं चाहता हूं कि इकबालसिंह की बीवी से मिलने के लिए जोजो के अपने उस लव नैस्ट में कदम रखते ही मुझे इसकी खबर लग जाए ।”
“तुम वहां उस पर हाथ डालना चाहते हो ?”
“हां । और किसी जगह तो यह काम मुझे मुमकिन नहीं लकता ।”
“ऐसा कोई इन्तजाम तो तुकाराम ही कर सकेगा । उसके लौटने तक तुम्हें इन्तजार करना होगा ।”
“ठीक है ।”
कई क्षण खामोशी रही ।
कार मंथर गति से कोलीवाड़े की तरफ दौड़ती रही ।
“वागले !” - एकाएक विमल बोला - “एक बात और बताओ ।”
“वह क्या ?” - वागले ने तनिक सकपकाकर पूछा ।
“यह खबर मुझे शान्ताराम के भाइयों से ही सुनने को मिली थी कि नीलम ने होटल की आठवी मंजिल से नीचे छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली थी । वागले, क्या तुम्हारे उस्ताद लोगों ने झूठ बोला हो सकता है ?”
“झूठ ! वो किसलिए ?”
“किसी भी वजह से ।”
“मुझे तो उनके झूठ बोलने की - और वह भी तुमसे - कोई वजह दिखाई नहीं देती । तुम्हें शक क्यों है कि उन्होंने झूठ बोला होगा ?”
“क्योंकि बखिया कहता है कि नीलम जिन्दा है । उसने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि उसे होटल से पुलिस पकड़कर ले गई थी ।”
“बखिया भी तो झूठ बोलता हो सकता है !”
“लेकिन यही बात अभी थोड़ी देर पहले मुहम्मद सुलेमान ने भी कही थी ।”
“वो और बखिया हैं तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे । वह भी झूठ बोल सकता था ।”
“जिन हालात में उसने यह बात कही थी, उनमें नहीं । वह नशे में था जिसकी वजह से उसकी वाणी मुखर हो उठी थी । और उसके सिर पर मौत सवार थी । ऐसे में वह झूठ नहीं बोल सकता था ।”
“बाप, शान्ताराम के भाइयों ने झूठ बोला था या नहीं, यह तुम उन्हीं से क्यों नहीं पूछते ?”
“मैं जरुर पूछूंगा लेकिन वे मिलें तो सही ।”
“कभी तो मिलेंगे ?”
“हां । कभी तो मिलेंगे ।”
***
मारियो ‘मराठा’ के रिसैप्शन पर पहुंचा ।
“बाबू महेन्द्रू और जिमी डिकोस्टा कौन-से कमरे में हैं ?” - उसने पूछा ।
“संयोगवश ही उस वक्त सलाउद्दीन भी रिसैप्शन पर मौजूद था ।”
“वे रुम नम्बर 204 में थे ।” - रिसैप्शन क्लर्क के मुंह खोलने से पहले ही वह बोला पड़ा - “लेकिन वे तो चले गए यहां से ।”
“चले गए ?” - मारियो हैरानी से बोला - “कहां चले गए ?”
“हमें क्या पता कहां चले गए ?”
“लेकिन...”
“वे रुम खाली कर गए हैं ।”
“लेकिन अभी दोपहर को तो वे यहां आए थे ।”
“दोपहर को आकर शाम को रूम खाली कर जाने पर यहां कोई पाबन्दी नहीं है । दोपहर को आकर दोपहर को ही रुम खाली कर जाने पर भी यहां कोई पाबन्दी नहीं है ।”
“अजीब बात है !” - मारियो भुनभुनाया ।
जिमी ने खुद ‘बॉस’ के टेलीफोन पर रिंग करके अपनी ‘मराठा’ में मौजूदगी की खबर दी थी लेकिन अपने यूं आनन-फानन वहां से विदा होने की खवर उसने नहीं की थी ।
उसने घड़ी पर निगाह डाली ।
सात बजने को थे ।
“उन्हें यहां से गए कितनी देर हुई ?” - उसने पूछा ।
“दो घण्टे हो गए हैं ।” - सलाउद्दीन भी घड़ी पर निगाह डालता हुआ बोला ।
दो घण्टों में जिमी का यकीनन ‘बॉस’ के पास फोन आ जाना चाहिए था कि वह होटल छोड़ रहा था ।
जरूर दाल में कुछ काला था ।
“मुझे भी कमरा चाहिए ।” - वह बोला - “रुम नम्बर दो सौ चार आप मुझे दे दीजिए ।”
“वह कमरा तो” - सलाउद्दीन खेदपूर्ण स्वर में बोला - “पहले ही किसी और को दिया जा चुका है । आप कोई और कमरा...”
“इन्डैक्स पर तो 204 नम्बर कमरे की विंडो खाली है !”
सलाउद्दीन की निगाह यन्त्रचालित-सी रिसैप्शन के पीछे लगे इन्डैक्स की ओर उठ गई ।
“जावेद !” - वह रिसैप्शनिस्ट पर झल्लाया ।
“हां, जी ।” - रिसैप्शनिस्ट हड़बड़ाया ।
“अरे, तुझ पर अल्लाह की मार । चौकस काम क्यों नहीं करता ?”
“क्या नहीं किया मैने ?”
“दो सौ चार की विण्डो में वागले साहब का नाम लिखकर क्यों नहीं लगाया ?”
“वागले साहब !” - रिसैप्शनिस्ट उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“हटो ।” - सलाउद्दीन ने उसे परे धकेला - “मैं खुद लगाता हूं ।”
उसने एक कार्ड रिसैप्शन के दराज से निकाला, उस पर वागले का नाम लिखा और उसे 204 की विण्डो में सरका दिया ।
फिर वह वापस मारियो की तरफ घूमा ।
“आप कोई और कमरा...”
“चलेगा ।” - मारियो बोला - “कोई भी चलेगा ।”
“आपका सामान ?”
“गाड़ी में है । बाद में मंगवा लूंगा ।”
“ठीक है । मैं आपको तीन सौ एक देता हूं ।” - उसने रजिस्टर का रुख घुमाकर मारियो की तरफ कर दिया - “आप जरा खानापूरी कर दीजिए ।”
“जरुर ।”
मारियो ने सलाउद्दीन के हाथ से बाल प्वाइंट पेन ले लिया ।
उसने देखा, इत्तफाक से उस तारीख की सारी एण्ट्रियां उसी पेज पर थीं । उनमें बाबू और जिमी का नाम तो था लेकिन किसी वागले का नाम नहीं था ।
“सॉरी !” - एकाएक पेन उसने वापस सलाउद्दीन के हाथ में धकेल दिया - “मुझे रूम नहीं चाहिए । मेरा इरादा बदल गया है ।”
सलाउद्दीन के नेत्र सिकुड़ गए ।
“थैंक्यू ऑल दि सेम !” - मारियो बोला ।
“यू आर वैलकम !” - सलाउद्दीन जबरन मुस्कराया ।
मारियो लम्बे डग भरता हुआ वहां से बाहर निकल गया ।
तभी विमल और वागले ने वहां कदम रखा ।
उन्हें देखते ही सलाउद्दीन रिसैप्शन के पीछे से बाहर निकल आया । वह लपककर उन दोनों के पास पहुंचा ।
“यह तो मारियो था !” - विमल हड़बड़ाये स्वर में बोला ।
“तुम जानते हो इस आदमी को ?” - सलाउद्दीन बोला ।
“जानता हूं । यह उन दोनों का संगी-साथी है जिन्हें ऊपर वागले ने शूट...”
“श-श !” - वागले हड़बड़ा कर बोला ।
“यह मेरे पीछे लगा हुआ था । लेकिन मैंने तो इसे बड़ी कामयाबी से डॉज दे दी थी । फिर इसे कैसे मालूम हो गया कि मैं यहां हूं ?”
“इसने तुम्हारे बारे में कोई सवाल नहीं किया था । यह उन दोनों आदमियों के ही बारे में पूछताछ कर रहा था । जरूरी नहीं, इसे तुम्हारी यहां मौजूदगी की खबर हो ।”
“ओह ! लाशें” - वह दबे स्वर में बोला - “अभी...”
“ऊपर ही पड़ी हैं ।”
“दाता ! फिर तो घोटाला हो सकता है । मुझे आसार अच्छे नहीं लग रहे ।”
सलाउद्दीन के चेहरे पर भी चिन्ता के भाव आए ।
“इस आदमी को कोई शक तो नहीं हुआ ?” - वागले बोला ।
“हुआ हो सकता है ?”
“पूछ क्या रहा था यह ?”
सलाउद्दीन ने जल्दी-जल्दी सारा वार्तालाप दोहराया ।
“ओह !” - विमल बोला - “ओह ।”
“मियां !” - वागले फुसफुसाकर बोला - “लाशें ?”
“तुम उनकी फिक्र मत करो । वे मेरी सिरदर्द हैं ।”
“मारियो” - विमल बोला - “हो सकता है, यहां से आसानी से न हिले । अगर यह रात-भर यहीं मंडराता रहा तो लाशें यहां से कैसे निकालोगे ?”
“मैं निकालूंगा ही नहीं ।” - सलाउद्दीन बड़े इत्मीनान से बोला ।
“तो क्या करोगे ?”
“सालों का कीमा कूट के कबाब बनाऊंगा और होटल के ही रेस्टोरेंट में परोस दूंगा ।”
“धीरे ।” - विमल चेतावनी-भरे स्वर में बोला - “रिसैप्शनिस्ट सुन रहा है ।”
“रिसैप्शनिस्ट मेरा बड़ा लड़का है ।”
“ओह ।”
“कहने का मतलब यह है कि तुम लाशों की फिक्र मुझ पर छोड़ दो । तुम्हारा वह आदमी रात-भर तो क्या साल-भर भी होटल के बाहर मंडराता रहा तो लाशें उसे दिखाई नहीं देने वालीं । लेकिन वागले !”
“क्या ?”
“तुम जरा रजिस्टर साइन करो । वो हरामजादा अगर पुलिस बुला लाए तो खानापूरी तो मुकम्मल दिखाई दे ।
वागले ने तुरन्त आदेश का पालन किया ।
“पांच बजे से तुम इस कमरे में हो ।” - सलाउद्दीन बोला - “याद रखना ।”
“वागले ने सहमति में सिर हिलाया ।”
“और मैं ?” - विमल ने पूछा ।
“तुम ! कौन हो ? मैं तुम्हें जानता । मेरे होटल में तुम नहीं ठहरे हुए हो ।”
“आई सी ! आई सी !”
***
बाहर मारियो अपने साथ आए आदमियों को पास पहुंचा ।
“आसपास फैल जाओ ।” - उसने आदेश दिया - “और जिमी की गाड़ी तलाश करो । मार्क थ्री एम्बेसेडर । क्रीम कलर । सामना बम्फर गायब । नम्बर एम डी आर - 7311 ।”
“कितनी दूर तक देखें ?” - एक ने सवाल किया ।
“कम-से-कम एक किलोमीटर के दायरे में देखो ।”
“लेकिन” - दूसरा बोला - “अगर वे यहां ठहरे हुए हैं तो गाड़ी भी तो यहीं होनी चाहिए । होटल के सामने नहीं तो आस-पास ।”
मारियो ने उसे घूरकर देखा ।
“साले !” - मारियो गुर्राया - “मुझे बातें सिखाता है ?”
“सॉरी, बाप । अपुन तो बस यूं ही...”
“शटअप !”
वह सहमकर चुप हो गया ।
“चलो । काम करो ।”
चार आदमी चार दिशाओं में फैल गए ।
जिमी की गाड़ी कोलीवाड़ा रेलवे स्टेशन के सामने पार्किंग में खड़ी मिली ।
आसपास पूछताछ करने से मालूम हुआ कि गाड़ी दोपहर बाद से ही वहां खड़ी थी ।
“घोटाला ।” - मारियो बोला - “गाड़ी यहां छोडकर वे होटल से कैसे चले गए ?”
“शायद वे” - कोई बोला - “टैक्सी पर किसी के पीछे लगे हों !”
“हो सकता है । गाड़ी दूर खड़ी है इसलिए बराबर हो सकता है । लेकिन फिर होटल वाला यह क्यों कहता है कि वे दोनों चैक आउट कर गए ? उनके पास सामान नहीं । उन्होंने कमरे का पूरे दिन का भाड़ा एडवांस में भरा होगा । फिर यूं चैक आउट करने का क्या मतलब ? यूं कमरा छोड़ने से उन्हें क्या हासिल ?”
कोई कुछ न बोला ।
“घोटाला है ।” - मारियो निर्णयात्मक स्वर में बोला - “शर्तिया घोटाला है ।”
“क्या घोटला है ?”
“उन लोगों की असलियत का राज खुल चुका हो सकता है और वे होटल के भीतर गिरफ्तार हो सकते हैं । जरूर इस होटल वाले की सोहल से कोई सांठ-गांठ है । क्या ?”
सबने सहमति में सिर हिलाया ।
“तुम लोग जाकर होटल की निगरानी करो । मैं ‘बॉस’ को हालात की खबर करता हूं ।”
चारों सिर फिर सहमति में हिले ।
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