अगले दिन दोपहर के बाद किसी समय पुलिस हैडक्वार्टर की उस कोठरी का दरवाजा खुला, जिसमें सुनील बन्द था ।
किसी ने उसे झिंझोड़ कर जगाया । वह आंखें मलता हुआ उठ कर बैठ गया ।
सामने एक सिपाही खड़ा था ।
“चलो ।” - वह बोला ।
सुनील लड़खड़ाता हुआ उठा और उसके साथ हो लिया ।
पिछली रात की पिटाई से अब भी उसका पोर-पोर दुख रहा था ।
सिपाही उसे प्रभूदयाल के कमरे में छोड़ गया था ।
सुनील ने अपने मैले से कोट में से सिगरेट का पैकेट निकाला । उसमें से उसने एक मुड़ा-तुड़ा सिगरेट निकाल कर होठों से लगा लिया और कांपते हाथों से उसे सुलगा लिया ।
“पुलिस के जिस डाक्टर ने तुम्हारी मरहम पट्टी की थी उसे तुम्हारा जिन्दा रहना करिश्मा दिखाई देता है । जितनी मार तुम्हें पड़ी है उससे तो तुम्हारे से डबल आदमी का दम निकल जाता और उस पर करामात यह कि तुम्हारी कोई हड्डी नहीं टूटी । तुम्हें इन्टरनल हैमरेज भी नहीं हुआ ।”
“यानी कि तुम स्वीकार करते हो कि गुन्डों ने मेरी पिटाई की है ।” - सुनील थरथराते स्वर में बोला ।
“यह तो तुम्हारी हालत से ही जाहिर है ।”
“तो फिर जगत नारायण के खिलाफ केस दर्ज करो ।”
“मैंने यह कब स्वीकार किया है कि तुम्हारी पिटाई में जगत नारायण का हाथ है ? तुम्हारी शिकायत के आधार पर जगत नारायण के खिलाफ कुछ भी साबित नहीं किया जा सकता ।”
“तुमने तफतीश की थी ।”
“बाई गॉड की थी और सिर्फ तुम्हारी खातिर की थी । तुम्हारी मौजूदा हालत देखकर मुझे वाकई बहुत अफसोस हुआ था और इसी वजह से बिना किसी ठोस आधार के यानी कि सिर्फ तुम्हारे कथन के दम पर मैंने रत्ना देवी जैसी रईस औरत के घर पूछ-ताछ के लिये जाने का खतरा मोल लिया था ।”
“उसने क्या कहा ?”
“उसने कहा कि तुम वहां लोलिता के बारे में पूछते हुये आये थे । उसने तुम्हें बता दिया था कि उसे याद नहीं कि लोलिता कब गई ? कहां गई ? किसके साथ गई ? उसके बाद तुम वहां से विदा हो गये ।”
“कैसे विदा हुआ मैं ?”
“कैसे विदा होते हैं ? तुमने उसका शुक्रिया अदा किया, नमस्ते की और बाहर निकल आये ।”
“मगर तुम उस पर दबाव डालते तो वह तुम्हें बताती कि मैं वहां से विदा नहीं हुआ था, बल्कि जगत नारायण के ठाकुर और देवी नाम के दो गुन्डे मुझे रिवाल्वर दिखाकर जबरदस्ती वहां से ले गये थे ।”
“मैं और बिना किसी आधार के रत्ना देवी पर हाथ डालता ? वह यूं” - प्रभूदयाल ने चुटकी बजाई - “मेरी वर्दी उतरवा देती ।”
“वैसे तो तुम बड़े सूरमा बनते हो, कि अपनी ड्यूटी निभाने के मामले में तुम किसी से नहीं डरते । अब रत्ना देवी का मामला आया है तो एकाएक तुम्हें अपनी नौकरी की फिक्र होने लगी है ।”
“बाई गॉड मैं इस वजह से नहीं डरता ।” - प्रभूदयाल गम्भीर स्वर में बोला - “इस वजह से रत्ना देवी तो क्या चीज है, मैं प्रधानमन्त्री से भी नहीं डरता लेकिन इतना भारी रसूख रखने वाली औरत पर हाथ डालने के लिये कोई आधार तो हो, कोई ठोस प्रमाण तो हो ।”
“मेरी हालत को तुम प्रमाण नहीं मानते ?”
“तुम कोई छोटे से छोटा सबूत पेश कर दो जिससे यह जाहिर हो कि तुम्हारी मौजूदा हालत की जिम्मेदार रत्ना देवी है, फिर देखो मैं उसकी क्या गत बनाता हूं । अगर मैं स्वयं होम मिनिस्टर के कहने पर भी उसके खिलाफ तफतीश से हाथ खींच लूं तो समझ लेना कि मैं अपने बाप की औलाद नहीं ।”
प्रभूदयाल सच कह रहा था । सुनील जानता था कि वह निर्भीक और कर्तव्यपरायण अफसर था ।
“और जगत नारायण क्या कहता है ?” - सुनील ने पूछा ।
“वह कहता है कि वह सुनील नाम के किसी आदमी को नहीं जानता और न ही ऐसा कोई आदमी कल रात उसके बंगले पर आया था ।”
“प्रभू ।” - सुनील जोश में बोला - “बाई गॉड मेरी यह हालत रत्ना देवी और जगत नारायण की ही वजह से हुई है ।”
“मुझे निजी रूप से तुम्हारी बात पर विश्वास है । रत्ना देवी के बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता लेकिन जगत नारायण से कुछ भी अपेक्षित है । तुम कोई छोटे से छोटा सबूत लाकर दिखाओ और फिर देखो कि मैं इन लोगों की क्या गत बनाता हूं ।”
“मैं यहां गिरफ्तार कब तक रहूंगा ?”
“तुम गिरफ्तार नहीं हो, तुम एकदम आजाद हो ।”
“यानी कि तुम्हें विश्वास हे कि रोजी की हत्या से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है ।”
“हां ।”
“हैरानी है, वह पहला मौका है जब तुम दो-दो हत्याओं के मामले में इतनी आसानी से मुझे निर्दोष मान गये हो । शायद मेरी निर्दोषिता सिद्ध करने के लिये तुम्हें वह टैक्सी ड्राईवर मिल गया था जो पिछली रात को बीच रोड़ से मुझे रोजी के फ्लैट में छोड़कर आया था ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“दरअसल हुआ यह था कि इमारत की तीसरी मंजिल पर रहने वाला एक आदमी फिल्म का शो देखकर वापिस लौट रहा था । उसने एक देव जैसे विशाल आदमी को, जो कि काले रंग का सूट पहने हुए था, रोजी के फ्लैट से निकलकर नीचे भागते देखा था । वह आदमी उस समय दूसरी और तीसरी मंजिल की सीढियों के बीच में था । उसने वापिस आकर रोजी के फ्लैट में झांका था और उसे रोजी मरी पड़ी दिखाई दी थी । उसने फौरन पुलिस को फोन कर दिया था । तुम हत्या के बाद वहां पहुंचे थे । पुलिस आने से थोड़ी देर पहले उस आदमी ने तुम्हें रोजी के फ्लैट में घुसते देखा था ।”
“शुक्र है ।”
“लेकिन उस हालत में और इतनी रात को तुम रोजी के फ्लैट में करने क्या गये थे ?”
“मैं वहां कहां गया था ? वह टैक्सी ड्राईवर एक गलतफहमी के अन्तर्गत मुझे वहां पहुंचा गया था और मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उसका विरोध कर पाता ।”
“आई सी ।”
“तुम्हारे ख्याल से रोजी की हत्या उस काले सूट वाले ने ही की है ?”
“ऐसा ही लगता है लेकिन जिस आदमी ने उसे रोजी के फ्लैट से भागते देखा था वह उसके बारे में केवल इतना ही बता सकता है कि वह एक बेहद लम्बा चौड़ा पहाड़ जैसा आदमी था जो काले रंग का अपने नाप से थोड़ा तंग सूट पहने हुए था । इतने से हुलिये की बिना पर राजनगर की चालिस लाख की आबादी में किसी को तलाश कर पाना मुझे तो सम्भव दिखाई नहीं देता ।”
सुनील को वह लम्बा चौड़ा आदमी याद आया जो पिछले दिन रोजी के फ्लैट में उससे टकरा चुका था लेकिन सुनील ने वर्तमान स्थिति के बारे में चुप रहना ही उचित समझा । क्या पता वह लम्बा चौड़ा आदमी कोई दूसरा हो और वह उसका हुलिया बताकर उसे खामखाह फंसवा दे । आखिर यह आवश्यक तो नहीं था कि काला सूट पहनने वाला विशालकाय आदमी राजनगर में एक ही हो ।
“मुझे जगत नारायण के बारे में बताओ । क्या तुम्हें इस बात पर विश्वास आता है कि अपने वक्त का सबसे बड़ा दादा और चार साल का सजायाफ्ता मुजरिम अब एकदम सुधरकर भला और शरीफ आदमी बन गया हो ?”
“मुझे विश्वास नहीं । क्योंकि मेरी राय में चोर चोरी से जा सकता है हेराफेरी से नहीं । मैं तो ‘वन्स ए थीफ आल वेज ए थीफ’ वाली थ्योरी में विश्वास रखता हूं लेकिन हर बात का अपवाद होता है । शायद जगत नारायण ने अपने जीवन से शत प्रतिशत किनारा कर लिया हो । वह रत्ना देवी जैसे लोगों की हाई क्लास सोसायटी में उठने बैठने लगा है इससे तो यही लगता है कि हमारे समाज के आधार स्तम्भ उसे एक सुधर चुके आदमी के रूप में ग्रहण करने लगे हैं ।”
“तुम्हारे ख्याल में रोजी की हत्या क्यों हुई ?”
“अभी मैंने इस बारे में कोई राय कायम नहीं की है ।”
“लेकिन मुझे रोजी की हत्या की एक ही वजह दिखाई देती है ।”
“क्या ?”
“कि मंगलवार की रात को तारकपुर की पहाड़ियों में मरने वाली लड़की लोलिता थी, हत्या करने वालों को सन्देह था कि रोजी की वजह से वह रहस्य खुल सकता था इसलिये उन्होंने रोजी की भी हत्या कर दीं ।”
“लेकिन लोलिता की तस्वीर देखकर तो तुमने कहा था कि शायद यह वही लड़की नहीं थी जो मंगलवार रात को मरी थी ।”
“अब मेरा विचार बदल गया है ।”
“सुनो !” - प्रभूदयाल तनिक आगे झुककर बोला - “पहले तुम्हें धमकी मिली थी कि अगर तुम लोलिता को न भूले तो तुम्हारा अन्जाम बुरा होगा । फिर तुम्हारा अन्जाम बुरा हुआ, तुम मरते-मरते बचे हो । अब तुम्हारा क्या इरादा है ?”
“अगर तुम्हारा ख्याल है कि मैं डरकर घर बैठ जाऊंगा तो यह तुम्हारा वहम है ।”
“मैं तुम्हारी हिम्मत की दाद देता हूं लेकिन अगर इस सारे बखेड़े के पीछे वाकई जगत नारायण का हाथ है तो मुझे इसी में तुम्हारी भलाई दिखाई देती है कि तुम चुपचाप घर बैठ जाओ ।”
“ऐसी की तैसी ! अगर हर कोई ऐसे ही डरकर घर बैठ जाये तो नगर में गुण्डों का राज हो जायेगा ।”
“फिर भी मेरी इतनी राय जरूर मानो । पहले अपने आप में इतना दम पैदा कर लो कि तुम जगत नारायण से भिड़ सको ।”
“क्या मतलब ?”
“फिलहाल तो घर जाकर आराम करो । जब पिटाई से ढीले हो चुके नट बोल्ट कुछ कस जायें तो फिर कुछ करना ।”
सुनील उठ खड़ा हुआ, जो मुड़ा-तुड़ा सिगरेट उसने सुलगाया था वह दो तीन कश के बाद ही बुझ गया था और अभी तक बुझा हुआ सुनील की उंगलियों में फंसा हुआ था । उसने वह सिगरेट दुबरा सुलगा लिया ।
“वैसे मुझे तुम्हारे काम करने का तरीका कभी पसन्द नहीं आया ।” - प्रभूदयाल बड़ी सादगी से बोला - “और इसीलिये मुझे तुम कभी पसन्द नहीं आये । लेकिन इस बार अगर तुम्हें किसी प्रकार मेरी निजी या आफिशियल मदद की जरूरत पड़ी तो मुझे जरूर बताना ।”
“जरूर बताऊंगा ।” - सुनील बोला - “थैंक्यू ।”
“लेकिन तुम्हारी किसी गैरकानूनी हरकत में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकूंगा ।”
“मैं समझता हूं । तुम्हारे मुंह से तो मदद नाम का शब्द सुनते ही मेरा कलेजा हाई जम्प करने लग जाता है ।”
और सुनील प्रभूदयाल के कमरे से बाहर निकल गया ।
***
सुनील अपने फ्लैट पर नहीं गया । पुलिस हैडक्वाटर से टैक्सी पर सवार होकर वह सीधा यूथ क्लब पहुंचा ।
शुक्रवार का बाकी का दिन और सारी रात वह यूथ क्लब में रमाकान्त के कमरे में सोया रहा ।
शनिवार की दोपहर को जब वह उठा तो उसकी तबियत काफी सुधर चुकी थी ।
“यह पियो !” - रमाकान्त ने उसकी ओर एक मग बढा दिया ।
सुनील ने एक घूंट पिया । वह ब्रांडी मिली काफी थी ।
“थैंक्यू ।” - सुनील कृतज्ञतापूर्ण स्वर में बोला ।
“रिपोर्टर साहब ।” - रमाकांत गम्भीर स्वर में बोला - “पिटे तो बहुत बार थे लेकिन ऐसा कीमा कूटने वाली मशीन में डालकर तुम्हें किसी ने नहीं घुमाया था ।”
सुनील ने कहर भरी निगाहों से रमाकांत की ओर देखा ।
“कुम्हार का गुस्सा गधे पर ।” - रमाकांत मुस्कराहट छिपाता हुआ बोला ।
“शट अप ।”
“मेरे ख्याल से तुम अपना मौजूदा धन्धा छोड़ो और मूंगफली की रेहड़ी लगा लो । आजकल मौसम भी है और उसमें ऐसी पिटाई की गुंजायश नहीं होती । बड़ी हद होती तो कोई सिपाही एकाध चपत जमा जायेगा या कोई बैल सींग मार जायेगा ।”
“जब जी भरकर बकवास कर चुको तो बता देना । तब मैं अपनी कहूंगा ।”
“यानी कि यह गत बनवा चुकने के बाद भी तुम्हारे पास कहने के लिये कुछ है ?”
“बहुत कुछ है ।”
“कहो ?”
“सुन रहे हो ?”
“हां !”
“गम्भीरता से ?”
“हां ।” - रमाकान्त सचमुच गम्भीर हो गया था ।
सुनील ने धीरे-धीरे उसे शुरू से आखिर तक सारी कहानी कह सुनाई ।
“यार क्यों खामखाह दूसरों के फटे में टांग अड़ाते फिरते हो ?” - सारी बात सुन चुकने के बाद रमाकांत चिढकर बोला - “यह पुलिस का काम था, पुलिस को करने देते । तुम क्यों बखेड़े में फंसते हो ?”
“अब तो बखेड़ा हो चुका । अब आगे की बात सोचो, पीछे की छोड़ो ।”
“यानी कि हसीना मुर्दा है या जिन्दा, तुम उसकी वजह से अपनी ऐसी तैसी जरूर करवाओगे ।”
सुनील चुप रहा ।
“और तुम्हें शायद अहसास नहीं कि तुम कितने खतरनाक आदमी से टक्कर ले बैठे हो ।”
“तुम जगत नारायण की बात कर रहे हो ?”
“हां !”
“मैं भी उससे कम खतरनाक नहीं हूं ।” - सुनील नाक फुला कर बोला ।
“उससे कम खतरनाक नहीं हो तब तो यह गत बनवा कर आये हो । अगर उससे कम खतरनाक होते तब शायद तुम्हारा पुर्जा-पुर्जा सारे राजनगर में बिखरा पड़ा होता । टांगे बीच रोड़ पर होती तो बाहें बैंक स्ट्रीट में पड़ी होती, सिर नेपियन हिल पर टंगा होता और...”
“यह तुम मेरी बात सुन रहे हो या किसी हारर फिल्म की कहानी सुन रहे हो ।”
“तुम्हारी बात सुन रहा हूं लेकिन साथ ही तुम्हें महानगर में अपने आपको सही सलामत और वन पीस कैसे रखें नाम के विषय पर भाषण भी दे रहा हूं ।”
“भाषण बन्द करो और सिर्फ मेरी बात सुनो ।”
“ओके बॉस ।”
“सुखवीर नाम के एक आदमी को लगभग एक साल पहले एक जौहरी की दुकान लूटने के इलजाम में एक साल की सजा हुई थी । मेरी सूचना के अनुसार या तो उसकी सजा की अवधि पहले ही खत्म हो चुकी है और या फिर खत्म होने वाली है । तुम एक तो कहीं से उसकी तस्वीर पैदा करो और साथ ही उसके बारे में जितनी ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल कर सकते हो करो और इस बात का विशेष रूप से पता लगाने की कोशिश करो कि क्या उसका जगत नारायण से कोई सम्बंध था ।”
“यह काम तो आसान है । सजायाफ्ता मुजरिम की तस्वीर भी और उसके बारे में जानकारी भी आसानी से हासिल हो जाती है और ?”
“डैनी नाम का एक युवक है जो सुना है राजेश खन्ना जैसा खूबसूरत है, वह लोलिता का पक्का बॉय फ्रेंड था, शायद वह किसी रूम में ‘ब्लू रूम’ से सम्बन्धित हो । सुना है वह जगत नारायण से सम्बन्धित है, तुम्हें यह पता लगाना है कि वह जगत नारायण के साथ किस रूप में सम्बन्धित है और सम्भव हो तो यह भी पता लगाने की कोशिश करो कि मंगलवार की रात को रत्ना देवी की पार्टी के बाद वह कहां गया था और किसके साथ गया था ।”
“और ।”
“और जगत नारायण की मौजूदा जिन्दगी के तो तुमने बखिये उधेड़ डालने हैं, विशेष रूप से तुमने दो बातें जाननी हैं ।”
“कौन सी ?”
“एक तो यह कि रत्ना देवी के उससे कैसे सम्बन्ध हैं और दूसरे यह कि दादागिरी से उसने सचमुच ही सन्यास ले लिया है या सम्भ्रान्त लोगों में उठने बैठने का जरिये बनाने के लिये वह ऐसा प्रचार कर रहा है ।”
“दादागिरी से सन्यास उसने नहीं लिया है, इस बात का यही सबूत काफी नहीं है कि उसने ठाकुर और देवी जैसे गुण्डे पास रखे हैं ?”
“वह अस्थाई मामला भी हो सकता है, सम्भव है उसने ठाकुर और देवी को केवल उस रात मेरी धुनाई करने के लिये विशेष रूप से अनुबन्धित किया हो । मेरा कहने का मतलब यह है कि शायद वह अभी भी लुके छिपे कई अपराध करता हो । जैसे पहले वह समगलिंग करता था और कई जुआघर चलाता था शायद अब भी वह चुपचाप ऐसा ही काम करता हो और केवल दिखावे का ही शरीफ बना हो ।”
“हो सकता है ।”
“हो सकता है तो पता करवाओ ।”
“बहुत आदमी लगाने पड़ेंगे ।”
“लगाओ ।”
“यह भी हो सकता है कि किसी किसी की तुम्हारे से भी ज्यादा पिटाई हो जाये या कोई जान से हाथ धो बैठे ।”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“कुछ नहीं । कुछ नहीं । मैं तो सिर्फ तुम्हें स्थिति समझा रहा था ।”
“स्थिति मैं समझ गया हूं लेकिन अगर तुम्हारा इशारा इस ओर है कि इस सारे काम के बदले में तुम्हें नगदऊ की भी प्राप्ति होगी तो अभी सुन लो कही से एक खोटी चवन्नी मिलने की भी गुन्जायश नहीं है ।”
रमाकांत का चेहरा लटक गया ।
“मर गई अम्मा !” - सुनील व्यंगपूर्ण स्वर में बोला ।
“वह तो तभी मर गई थी जब उसने एक बार जब मुझे एक रुपये की खरीज लेने भेजा था तो मैं पन्द्रह आने लेकर लौटा था । रुपया तुड़ाने के मामूली काम पर इकन्नी मेहनताना तो मैंने अपनी अम्मा से वसूल कर लिया था लेकिन तुमसे... खैर छोड़ो । मैं चला । तुम आराम करो । तुम्हें आराम की जरूरत है । शायद आराम करने के बाद तुम्हारा खुराफाती दिमाग कोई ऐसी तरकीब निकाल ले जिससे इस गरीब यूथ क्लब के मालिक को अपने मेहनताने के चार पैसे हासिल हो सकें ।”
“तुम और गरीब ! जितने पैसों से बीस आदमियों की रोजी रोटी चल सके उतने तो तुम पपलू खेल कर जीत जाते हो ।”
“कभी-कभी हारता भी तो हूं ।”
“सिर्फ कभी-कभी... लेकिन अक्सर जीतते हो ।”
“वह तो...”
“मग ले जाओ ।” - सुनील ने ब्रांडी मिली काफी का आखिरी घूंट पीकर मग जबरदस्ती रमाकान्त के हाथ में ठूस दिया ।
रमाकान्त बुरा सा मुंह बनाता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
सुनील फिर बिस्तर पर लेट गया ।
***
शाम को सात बजे रमाकांत फिर सुनील के पास पहुंचा ।
“कुछ गर्मागर्म खबरें आई हैं ।” - वह पलंग पर सुनील के पास बैठता हुआ बोला - “सोचा तुम्हें सुना दूं ।”
“शूट ।” - सुनील बोला । उसने लक्की स्ट्राइक का एक सिगरेट सुलगा लिया ।
रमाकांत ने भी अपना चारमीनार का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“सबसे पहले सुखवीर की तस्वीर देखो ।” - और रमाकांत ने एक पोस्टकार्ड साइज का कैमरा फोटोग्राफ निकाल कर सुनील के हाथ में दे दिया ।
सुनील ने सुखवीर की तस्वीर देखी । उसका सन्देह एकदम सच निकला था । वह वही देव समान लम्बा चौड़ा आदमी था जो रिवाल्वर की नोक पर उसे रोजी के फ्लैट में ले गया था । और इस बात की भी पूरी सम्भावना दिखाई दे रही थी कि रोजी की हत्या के बाद रोजी के फ्लैट से जो काले सूट वाला लम्बा चौड़ा आदमी भागता हुआ देखा गया था, वह सुखवीर ही था । सुखवीर जो कभी लोलिता का बॉय फ्रेण्ड रहा था और जिसने लोलिता को मोटरबोट दी थी । सुनील को याद आया, वीरवार को सुखवीर उससे भी मोटरबोट के बारे में पूछ रहा था ।
“सुखवीर जैस दिल गुर्दे वाला बदमाश सौ-पचास साल में एक बार पैदा होता है ।” - रमाकांत चारमीनार का ढेर सारा धुंआ उगलता हुआ बोला - “सशस्त्र डकैती इसकी विशेषता है और इस विशेषता से भी बड़ी विशेषता यह है कि दिन दहाड़े डाका डालने जैसा काम भी यह हमेशा अकेला ही करता था । इसने बीसियों अपराध किये हैं लेकिन सजा केवल एक ही बार भुगती है । पिछली बार जब वह पकड़ा गया था तो इसके द्वारा किये बीसियों अपराधों में से एक आखिरी अपराध के अलावा इसके खिलाफ कुछ भी साबित नहीं किया जा सका था । और इसी अपराध की इसे एक साल की सजा हो गई थी ।”
“जेल से कब छूटा वह ?”
“मंगलवार की सुबह को ।”
“पकड़ा कैसे गया था ?”
“जौहरी की दुकान की डकैती के दौरान में कई लोगों ने इसकी सूरत देखी थी, लेकिन पुलिस इसे तलाश नहीं कर पायी थी । फिर एक दिन पुलिस हैडक्वार्टर पर एक गुमनाम टेलीफोन कॉल आई कि जौहरी की दुकान पर डाका डालने वाला सुखवीर धर्मपुरे के एक मकान में रह रहा है । पुलिस फौरन वहां पहुंची । सुखवीर सचमुच वहां था और पुलिस सशस्त्र तब वहां पहुंची थी, जब वह दीन-दुनिया से बेखबर सोया पड़ा था । इतना होने के बाद भी वह निहत्था ही सात सशस्त्र पुलिस वालों से भिड़ गया था । तीन को उसने बुरी तरह घायल कर दिया था और कन्धे में दो गोलियां घुस जाने के बावजूद भी वह वहां से निकल भागने की कोशिश करता रहा था । और वह लगभग भागने में कामयाब हो ही गया था, अगर एक सिपाही ने एक लोहे की छड़ से उसकी खोपड़ी पर आधी दर्जन भरपूर वार न कर दिये होते । तुम खुद ही सोचो वह आदमी कौन सी मिट्टी का बना हुआ है जो कन्धे में दो गोलियां घुस जाने और सिर पर लोहे के डन्डे के इतने वार पड़ने पर भी तब तक वहां से निकल भागने के लिये छटपटाता रहा जब तक कि वह बेहोश नहीं हो गया ।”
सुखवीर का काले रंग का तंग सूट में फंसा विशाल शरीर सुनील की आंखों में घूम गया ।
“और एक मजेदार बात और है” - रमाकांत बोला - “आज लोग यह समझते हैं कि सुखवीर को एक साल की सजा जौहरी की दुकान लूटने के अपराध में हुई थी, लेकिन हकीकत यह है कि यह अपराध उस पर सिद्ध नहीं किया जा सका था । सजा उसे पुलिस के साथ मारपीट करने के इल्जाम में ही हुई थी ।”
“मैंने देखा है इसे । वह आदमी थोड़े ही है, वह तो राक्षस है । जब तक देख न लो तब तक विश्वास न हो कि इतने लम्बे चौड़े आकार का आदमी भी सृष्टि में हो सकता है ।”
“साला जब पैदा हुआ होगा तब भी ढाई-तीन फुट से कम नहीं होगा । और उसकी अम्मा...”
“बकवास मत करो । मतलब की बात करो ।”
“और मैंने सुना है कि वह नागरिकों को ही नहीं, लुटेरों को भी लूट लेता है ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह है कि आप कहीं डाका डाल कर माल लाये और इसने आप पर ही डाका डाल दिया । जरायमपेशा लोगों के दायरे में यह अफवाह आम है कि जेल जाने से कुछ दिन पहले इसने राजनगर के किसी बहुत बड़े बदमाश द्वारा चलाये जाने वाले जुआघर पर डाका डाला था और वहां से वह लगभग पांच लाख रुपया से उड़ा था । लोगों का कहना है कि अगर उन्हीं दिनों वह जेल की सुरक्षित चारदीवारी में न पहुंच गया होता तो वह लुटने वाला बदमाश जरूर उसके टुकड़े-टुकड़े उड़ा देता ।”
“वह बदमाश कौन था ?”
“मालूम नहीं ।”
“पुलिस को उस गुमनाम कॉल करने वाले की खबर लगी थी, जिसने पुलिस को सुखवीर के धर्मपुरे वाले निवास स्थान का पता बताया था ?”
“नहीं । और न ही उनके पास वह जानने का साधन था और न ही उन्होंने यह जानने की कोशिश की थी । उन्हें तो आम खाने से मतलब था, पेड़ गिनने से नहीं ।”
“यह पता लगा सकते हो कि सुखवीर आजकल राजनगर में कहां रहता है ?”
“मैं यह पहले ही पता लगा चुका हूं । यह पता लगाना तो बहुत आसान था । वह पैरोल पर छूटा हुआ अपराधी है । उसे रोज पुलिस थाने पर अपनी हाजिरी देनी पड़ती है । ऐसी स्थिति में वह चाह कर भी पुलिस वालों से छुपा नहीं सकता कि वह कहां रहता है ।”
“कहां रहता है वह ?”
“वह अमर कालोनी के बीस नम्बर क्वार्टर में रहता है । क्वार्टर उसके किसी दोस्त का है लेकिन आजकल वह अकेला वहां रह रहा है ।”
अमर कालोनी राजनगर की घनी आबादी वाले इलाकों से एकदम बाहर समुद्र के समीप एक नई बनी कालोनी थी ।
“डैनी के बारे में कुछ पता लगा ?”
“डैनी जगत नारायण का चमचा नम्बर वन है । वह वाकई फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत है लेकिन जितना खूबसूरत है उतना ही खतरनाक है । चाकू चलाने में माहिर है और कई कत्ल कर चुका है, लेकिन आज तक वह पुलिस की हिरासत में नहीं आ सका है ।”
“पुलिस को उस पर कत्ल का शक है ?”
“बहुत तगड़ा । लेकिन शक से क्या होता है । पुलिस के सिर्फ शक करने से डैनी का कुछ बनता बिगड़ता थोड़े ही है ? और फिर ऊपर से उसे जगत नारायण की ओट है जो कि आजकल समाज में शराफत और ईमानदारी का पुतला बना हुआ है ।”
“और ?”
“और यह कि लोलिता सिर्फ उस पर मरती होगी लेकिन खुद डैनी ने कम से कम भी नहीं तो करीब एक दर्जन लड़कियां फंसाई हुई हैं ।”
“जगत नारयण के बारे में कुछ मालूम हुआ ?”
“अभी ज्यादा कुछ तो मालूम नहीं हुआ है । लेकिन एक ऐसी गर्म-गर्म बात जानकारी में आई है कि सुनोगे तो थर्रा जाओगे ।”
“क्या ?”
“जगत नारायण और रत्ना देवी में इश्क चल रहा है ।”
“नहीं ।”
“मैं हकीकत बयान कर रहा हूं ।”
“और यही नहीं, हो सकता है जगत नारायण शीघ्र ही रत्ना देवी का पांचवा पति भी बन जाये ।”
“यानी कि वे दोनों शादी करने वाले हैं ?”
“क्या अहमकों जैसा सवाल पूछा है ? अगर वे शादी नहीं करेंगे तो जगत नारायण उसका पति कैसे बनेगा ? और दूसरी बात यह है कि जगत नारायण को उसका पति बनने में इतनी दिलचस्पी नहीं है जितनी कि रत्ना देवी का पति बन कर उच्च समाज में स्थान पाने में है ।”
“जगत नारायण की रत्ना देवी को शादी के लिये फांसने की वजह तो समझ में आती है लेकिन रत्ना देवी भला जगत नारायण से शादी क्यों करना चाहती है ।”
“क्योंकि वह जगत नारायण से इश्क करती है ।”
“करती होगी । इश्क का मतलब वह थोड़ी ही है कि वह उससे शादी ही कर ले । रत्ना देवी इतनी करप्ट औरत है कि वह एक वक्त में दर्जनों नौजवानों से इश्क करती है । फिर उसकी एक अधेड़ आदमी में और वह भी सजायाफ्ता मुजरिम में इतनी दिलचस्पी क्यों कि वह उससे शादी भी करना चाहे ।”
“कोई तो वजह होगी ही ।”
“पता लगाओ वजह का ।”
“अच्छा ।” - रमाकांत अनमने स्वर में बोला ।
“और अब मुझे अपना एक सूट निकाल कर दो ।”
“किसलिये ?”
“मैं बाहर जाना चाहता हूं । मेरे अपने कपड़ों की तो धज्जियां उड़ चुकी हैं ।”
“इतना दम आ गया है तुममें ?”
“हां ।”
“श्योर ?”
“श्योर ।”
“जाओगे कहां ?”
“वह यहां से बाहर निकलकर सोचूंगा ।”
“मैं साथ चलूं ?”
“जरूरत नहीं ।”
“जरूरत पड़ सकती है ।”
“अगर जरूरत पड़ी तो तुम्हें बुला लूंगा ।”
“सूट कौन सा दूं ? पहनने का या पिट के आने का ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह है कि अगर तुमने सूट सिर्फ पहनने के लिये इस्तेमाल करना है तब तो मैं तुम्हें कोई अच्छा सा सूट दूं और अगर तुम्हें दोबारा ऐसा पिटकर आना है कि तुम्हारे साथ-साथ सूट के भी परखच्चे उड़ जायें तो वह सूट दूं जो मैं क्रिसमस पर अपने नौकर को इनाम में देने वाला हूं ।”
“लानत है तुम पर ।”
“ऑल राइट । ऑल राइट । कपड़े सामने की अलमारी में हैं । यह लो चाबियां । जाती बार मुझे नीचे चाबियां देते जाना ।”
“ओके ।”
रमाकांत वहां से विदा हो गया ।
***
सुनील यूथ क्लब से बाहर निकला ।
उस समय वह रमाकांत का एक नया सूट पहने हुये था । अपनी पतलून की बैल्ट में उसने रमाकांत की 38 कैलिबर की रिवाल्वर खोंसी हुई थी । सुनील जानता था कि रमाकांत रिवाल्वर कहां रखता था । चाबियां रमाकांत उसे दे ही गया था । सुनील ने चुपचाप रिवाल्वर निकाल ली थी क्योंकि अगर वह रिवाल्वर सीधे रमाकांत से मांगता तो रमाकांत उसकी वर्तमान स्थिति देखकर शायद रिवाल्वर देने से सरासर इन्कार कर देता क्योंकि वह यही समझता कि शायद सुनील उस आदमी का खून करने जा रहा है जिसने उसकी यह गत बनाई थी ।
अभी भी सुनील के शरीर का जोड़-जोड़ दुख रहा था । रह-रहकर उसे चक्कर आ जाता था लेकिन अब उसने फैसला कर लिया था कि अब वह बैठा नहीं रहेगा ।
सुनील यूथ क्लब के कम्पाउन्ड से निकलकर बाहर आया । फौरन उसे एक टैक्सी मिल गई । टैक्सी में सवार होते समय संयोगवश ही उसकी निगाह सड़क के पार खड़ी एक गहरे नीले रंग की फियेट पर पड़ गई । फियेट के स्टेयरिंग व्हील पर देवी बैठा था और उसकी बगल में ठाकुर बैठा हुआ था ।
“कहां चलूं साहब ?” - टैक्सी ड्रइवर ने पूछा ।
“फिलहाल तो सीधे सड़क पर चलो ।” - सुनील बोला ।
टैक्सी आगे बढ गई । साथ ही फियेट भी अपने स्थान से हिली और उनके पीछे हो ली ।
“अब किधर चलूं साहब ?” - चौराहा समीप आता देखकर टैक्सी ड्राइवर बोला ।
“फिलहाल जिधर तुम्हारा जी चाहे चलते रहो प्यारे लाल” - सुनील बोला - “लेकिन जरा भीड़-भाड़ वाले इलाके में ही रहना ।”
“क्या बात है साहब ?”
“हमारे पीछे एक नीली फियेट आ रही है न ?”
“हां साहब ।”
“उसमें सुलताना डाकू बैठा है । बचपन में मैंने उससे एक चवन्नी उधार ली थी, जो अभी तक मैंने वापिस नहीं की है । आज लगता है कि अपनी रकम वापिस लिये बिना वह मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा ।”
“साहब...!”
“गाड़ी चलाने की ओर ध्यान दो वर्ना एक्सीडेंट कर बैठोगे ।”
ड्राइवर चुपचाप गाड़ी चलाने लगा ।
आगे सड़क पर सुनील को एक पैट्रोल पम्प दिखाई दिया ।
“जरा पम्प पर गाड़ी रोकना ।” - वह बोला ।
टैक्सी ड्राइवर ने पम्प पर गाड़ी रोक दी ।
फियेट भी थोड़ी दूर पर रुक गई ।
सुनील ने एक उड़ती सी निगाह फियेट पर डाली । नम्बर प्लेट पर मोटे-मोटे उभरे अक्षरों में लिखा था - आर जे एस - 284
सुनील पम्प की बगल में बने टेलीफोन बूथ में घुस गया । उसने पुलिस कन्ट्रोल रूम का नम्बर डायल किया । सम्पर्क स्थापित होते ही वह उत्तेजित स्वर में बोला - “अभी-अभी एक नीले रंग की फियेट कार ने सड़क पर एक औरत को कुचल दिया है, कार का नम्बर है आर जे एस 284 । कार में दो आदमी बैठे हैं और इस वक्त वे बीच रोड की ओर बढ रहे हैं । कार का नम्बर फिर सुन लीजिये - आर जे एस 284 ।”
सुनील ने रिसीवर हुक पर टांग दिया ।
वह टैक्सी में आ बैठा ।
“सीधे बीच रोड की ओर चलो ।” - सुनील बोला ।
ड्राइवर ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और टैक्सी उस सड़क पर डाल दी जो बीच रोड की ओर जाती थी ।
फियेट अभी भी उनके पीछे लगी हुई थी ।
टैक्सी घनी आबादी से निकलकर समुन्द्र की ओर जाने वाली चौड़ी सपाट सड़क पर आ गई ।
फियेट और टैक्सी के बीच में फासला कम होता जा रहा था ।
सुनील ने फिर घूमकर पीछे देखा ।
उसे ठाकुर का हाथ फियेट की खिड़की से बाहर निकलता दिखाई दिया । उसे उसके हाथ में लाइट मशीनगन दिखाई दी ।
सुनील का गला सूख गया । ज्यादा होशियारी दिखाने के चक्कर में वह खामखाह मुसीबत मोल ले बैठा था ।
उसी क्षण फ्लाईंग स्क्वायड के सायरन की आवाज से वातावरण गूंज गया ।
ठाकुर ने लाइट मशीनगन वाला हाथ फौरन खिड़की से भीतर खींच लिया ।
सुनील की जान में जान आई ।
फ्लाईंग स्क्वायड की जीप फियेट की बगल में पहुंची । जीप में बैठे सब-इन्सपेक्टर ने देवी को कार रोकने का संकेत किया ।
सुनील के चेहरे पर सन्तुष्टि की मुस्कराहट आ गई । उस की झूठी टेलीफोन कॉल के दम पर ठाकुर और देवी फिलहाल तो पुलिस की गिरफ्त में आ ही गये थे । उन्हें पुलिस को यह विश्वास दिलाने में कि उन्होंने कोई एक्सीडेंट नहीं किया । कम से कम दो-तीन घन्टे तो लगने ही थे और तब तक सुनील गायब हो चुका होगा ।
फियेट सड़क के किनारे रुक चुकी थी । सब-इन्सपेक्टर जीप से उतरकर फियेट की ओर बढ रहा था ।
सुनील की ट्रिक कामयाब रही थी ।
ठाकुर और देवी से उसका पीछा छूट गया था ।
टैक्सी बीच रोड पर पहुंच गई ।
उसकी मोटर साइकिल अभी भी वहीं खड़ी थी जहां उसने उसे परसों रात को खड़ी देखा था । उनके संकेत पर टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी मोटर साइकिल की बगल में रोक दी ।
सुनील टैक्सी से बाहर निकल आया । उसने टैक्सी का बिल चुकाया और स्वयं मोटर साइकिल की ओर बढा ।
टैक्सी आगे बढ गई ।
उसी क्षण कोई चीज उसके कान के पास से सनसनाती हुई गुजर गई और अगले ही क्षण मोटर साइकिल की गद्दी में एक छेद दिखाई देने लगा ।
“टैक्सी !” - सुनील रेत में लोट गया और गला फाड़कर चिल्लाया - “वापिस आओ ।”
कोई सामने की इमारत से साइलेन्सर लगी रिवाल्वर से सुनील पर फायर कर रहा था ।
टैक्सी ड्राइवर ने सुनील को रेत पर लेटा देखा तो वह समझा कि उसे कुछ हो गया था । वह फौरन टैक्सी को बैक करता हुआ फिर मोटर साइकिल के सामने से आया ।
“क्या हुआ साहब ?” - टैक्सी वाला बोला ।
“कुछ नहीं” - सुनील उठता हुआ बोला - “जरा चक्कर आ गया था । तुम जरा वहीं ठहरो ।”
उस स्थिति में वह और उसकी मोटर साइकिल दोनों टैक्सी की ओट में थे । सुनील जानता था कि टैक्सी के हटते ही दोबारा गोली चलेगी और इस बार शायद गोली चलाने वाले का निशाना चूकेगा नहीं ।
सुनील ने सिरि झुकाये-झुकाये ही मोटर साइकिल को किक मारी और उस पर सवार हो गया ।
“चलो ।” - सुनील टैक्सी वाले से बोला ।
“कहां ?” - टैक्सी वाला हैरानी से बोला ।
“सीधे ।”
ड्राइवर ने टैक्सी आगे बढा दी ।
सुनील सिर नीचा किये टैक्सी की ओट में टैक्सी की ही रफ्तार से मोटर साइकिल चलाता हुआ आगे बढा ।
मोड़ पर आते ही उसने एकदम स्टेयरिंग घुमा दिया । मोटर साइकिल एक गहरी झोल लेकर तोप से छुटे गोले की तरह आगे बढ गई ।
टैक्सी ड्राइवर मुंह बाये उसे मोड़ काट कर गायब होता देखता रहा ।
सुनील फिर घने ट्रैफिक वाले इलाके में आ गया ।
एकाएक रियर व्यू मिरर में उसकी निगाह एक सफेद रंग की स्टैण्डर्ड पर पड़ी ।
सुनील का माथा ठनका ।
वह कम से कम तीसरा मौका था जब उसने उसी स्टैण्डर्ड कार को अपने पीछे देखा था । यूथ क्लब के सामने भी वह स्टैण्डर्ड फियेट के पीछे खड़ी थी ।
उसके मन में एक ख्याल आया ।
कहीं उसका पीछा करने का डबल इन्तजाम तो नहीं किया गया था !
उसने मोटर साइकिल को दांई ओर की एक सड़क पर मोड़ दिया । आगे फिर उसने दांई ओर मोड़ काटा । तीसरी बार वह फिर दांई ओर की सड़क पर घूम गया । अन्त में जब वह चौथी बार दांई ओर की सड़क पर घूमा तो वह वापस उसी सड़क पर पहुंच गया था जहां से उसने मोड़ काटने का सिलसिला आरम्भ किया था ।
स्टैण्डर्ड अभी भी उसके पीछे थी ।
“यह बात है !” - सुनील होठों में बुदबुदाया ।
उसने मोटर साइकिल को आगे ले जाकर एक जाने-पहचाने रेस्टोरेन्ट के सामने रोक दिया ।
वह मोटर साइकिल से उतरा और बिना पीछे मुड़कर देखे रेस्टोरेन्ट में प्रविष्ट हो गया । रेस्टोरेन्ट का पिछवाड़े में भी एक दरवाजा खुला था जिससे वह पिछली गली में पहुंच गया ।
पिछली गली में वह विपरीत दिशा में थोड़ा सा आगे पढा और एक पतली सी गली में से होता हुआ फिर मुख्य सड़क पर आ गया ।
स्टैण्डर्ड उससे दस कदम आगे खड़ी थी । उसकी ड्राइविंग सीट पर एक फिल्म अभिनेताओं जैसा सुन्दर युवक बैठा था । उसकी उंगलियां कार के स्टेयरिंग को थपथपा रही थी और उसकी निगाहें रेस्टोरेन्ट के दरवाजे के सामने खड़ी सुनील की मोटर साइकिल पर टिकी हुई थीं ।
सुनील दबे पांव कार की बगल में पहुंचा । कार की स्टेयरिंग वाली साइड की खिड़की के समीप पहुंच कर उसने कार के साथ टेक लगा ली और भीतर झांकता हुआ सहज स्वर में बोला - “हैल्लो डैनी ।”
युवक ने यूं हड़बड़ा कर सिर उठाया जैसे उसे बिजली का तार छुआ दिया गया हो । सुनील को कार को खिड़की से झांकता हुआ देख कर वह बुरी तरह बौखला गया । लेकिन शीघ्र ही उसने अपने आप पर काबू पा लिया ।
“कौन हो तुम ?” - वह डपट कर बोला ।
“वाह ! मेरा पीछा कर रहे हो और जानते नहीं कि मैं कौन हूं ।”
“तुम नशे में तो नहीं हो ...? कौन कर रहा है तुम्हारा पीछा ?”
सुनील यूं हंसा जैसे उसने भारी मजाक की बात सुन ली हो ।
“डैनी बेटे” - वह बोला - “तुम अभी बच्चे हो । अभी बहुत बच्चे हो ।”
युवक का हाथ अपने कोट की जेब की ओर सरकने लगा ।
“खबरदार ।” - सुनील गुर्राया । बिजली की सी फुर्ती से उसके पतलून की बैल्ट में खुंसी रिवाल्वर उसके हाथ में आ गई और रिवाल्वर उसने युवक की पसलियों में सटा दी ।
युवक का हाथ वही रुक गया ।
“परे सरको ।” - सुनील ने आदेश दिया ।
वह परे सरक गया ।
सुनील कार में उसकी बगल में आ बैठा ।
“अपने दोनों हाथ अपनी गोद में रख लो ।”
युवक ने आदेश का पालन किया ।
“तुम डैनी ही हो न ? मैंने पहचानने में गलती तो नहीं की ?
युवक चुप रहा ।
“अपने बाप जगत नारायण से कह देना कि एक बार मैं उसके हाथे चढ गया । अब दो तीन आदमियों काम नहीं चलेगा । अब वह मेरे लिये फौज बुलाकर रखे ।”
“यह बात तुम खुद जाकर जगत नारायण से कहकर देखो न ।” - युवक विषैले स्वर से बोला ।
“खुद भी जाऊंगा, लेकिन फिलहाल तो उसे यह बात अपने एक नम्बर के चमचे के मुंह से सुनने दो ।”
युवक चुप रहा ।
“तुम्हारी सहेली कहां गई ?” - सुनील ने पूछा ।
“मेरी तो कई सहेलियां हैं । तुम किसकी बात कर हो ?”
“लोलिता की ।”
“अब मुझे लोलिता से बढिया सहेली मिल गई है । अब मेरी लोलिता में कोई दिलचस्पी नहीं है ।”
अब इस बात में कोई सन्देह नहीं रहा था कि वह डैनी ही था ।
“लेकिन लोलिता तो तुम्हारे पर जान छिड़कती है ।”
“वह उसकी जान है, जिस पर चाहे छिड़कती फिरे । मैं इसमें क्या कर सकता हूं ।”
“मंगलवार रात को रत्ना देवी की पार्टी में तो तुम लोलिता के साथ गये थे ।”
“लोलिता मेरे साथ नहीं, राजपाल के साथ गई थी । हां मैं उस कार में जरूर मौजूद था जिसमें लोलिता और राजपाल थे ।”
“पार्टी के बाद लोलिता कहां गई थी ?”
“मालूम नहीं ।”
“किसके साथ गई थी ?”
“मालूम नहीं, लेकिन जहां तक मेरा ख्याल है वह वहां से अकेली ही गई थी, क्योंकि राजपाल तो उसके जाने के बाद भी पार्टी में मौजूद था ।”
“यानी कि अब तुम्हें लोलिता की कोई खोज-खबर नहीं है ?”
“नहीं । जिस लड़की में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं, उसकी मैं खोज-खबर क्यों रखूं और वैसे भी लोलिता जैसी मामूली कैब्रे डान्सर में मैं कब तक दिलचस्पी रख सकता हूं ।”
“अब क्या तुमने कोई महारानी फंसा ली है ?”
“ऐसा ही समझ लो ।”
“ओह गॉड, कहीं तुम यह तो नहीं कहना चाहते कि तुम भी रत्ना देवी के आशिकों की लिस्ट में आ गये हो ।”
डैनी चुप रहा ।
“ख्याल रखना उतनी रफ्तार से तुम अपनी कमीज नहीं बदलते होंगे, जितनी रफ्तार से वह आशिक बदलती है ।”
“अब तुम क्या चाहते हो ?”
सुनील ने हाथ बढाकर इग्नीशन में से चाबी निकाली और उसे अपनी जेब में डाल लिया ।
“यह क्या कर रहे हो ?” - डैनी तीव्र स्वर से बोला ।
“तुम्हारे जूते का तसमा खुल गया है ।” - सुनील सहज स्वर में बोला ।
डैनी ने फौरन नीचे झांका ।
सुनील ने रिवाल्वर का एक भरपूर वार उसकी कनपटी पर रसीद किया ।
डैनी का अचेत शरीर आगे को लुढक गया ।
सुनील ने रिवाल्वर बैल्ट में खोंसी और कार से बाहर निकल आया ।
“क्या हुआ, मिस्टर ?” - एक आदमी कार के समीप आकर भीतर झांकता हुआ बोला - “यह लड़का...”
“इसकी तबीयत एकाएक खराब हो गई है । शराब इसे पचती नहीं, लेकिन फिर भी ज्यादा पी जाता है । मैं डाक्टर को बुलाने जा रहा हूं ।”
और सुनील लम्बे डग भरता हुआ अपनी मोटर साइकिल की ओर बढ गया । रास्ते में डैनी की कार की चाबी उसने एक गटर में फेक दी ।
***
सुनील अमर कालोनी पहुंचा । मोटर साईकिल उसने तीस नम्बर क्वार्टर से काफी दूर खड़ी कर दी और वह पैदल क्वार्टर की ओर बढा ।
सुखवीर वहां नहीं था ।
क्वार्टर की बगल में एक बहुत बड़ा इमारती लकड़ी का यार्ड था । सुनील उस यार्ड में बल्लियों के पीछे छुपकर खड़ा हो गया और प्रतीक्षा करने लगा ।
रात के लगभग ग्यारह बजे सुखवीर वापिस आया । उसने अपने क्वार्टर का ताला खोला और भीतर प्रविष्ट हो गया ।
क्वार्टर की बत्ती जल उठी ।
सुनील दवे पांव यार्ड से बाहर निकला और सुखवीर के क्वार्टर के कम्पाउन्ड में घुस गया । बरामदे में जाकर उसने मुख्य द्वार को धीरे से धक्का दिया ।
द्वार भीतर से बन्द था ।
सुनील ने रिवाल्वर निकालकर हाथ में से ली और द्वार खटखटाया ।
“कौन है ?” - भीतर से सुखवीर की भारी आवाज आई ।
“पुलिस ।” - सुनील अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
द्वार तत्काल खुला ।
सुनील ने रिवाल्वर का रुख सुखवीर की छाती की ओर कर दिया और बोला - “पीछे हटो ।”
सुखवीर के नेत्र सिकुड़ गये । वह बिना विरोध किये पीछे हटता हुआ कमरे के बीच में पहुंच गया ।
“तुम !” - सुखवीर भावहीन स्वर में बोला ।
“पहचान गये मुझे ।”
“मैं जिसकी सूरत एक बार देख लूं उसे जिन्दगी भर नहीं भूलता हूं । तुम्हारा नाम सुनील है । मैं रविवार को तुमसे नंगी मेम साहबों के फ्लैट पर मिला था ।”
“करैक्ट ।”
“यहां क्यों आये ?”
“तुमसे कुछ बातें करने ।”
“बातें करने का वह कौन सा तरीका है ?” - सुखवीर रिवाल्वर की तरफ संकेत करता हुआ बोला ।
“जब हम पहली बार मिले थे तब से अब तक मैं तुम्हारे बहुत किस्से सुन चुका हूं । भाई साहब, अगर तुम मुझे वहां से किक मारोगे तो मैं सीधा समुद्र में जाकर गिरूंगा ।”
“बड़े डरपोक आदमी हो ?”
“मैं आदमियों से नहीं डरता ।”
“और मैं क्या हूं ?”
“तुम तो फैन्टम या सुपर मैन जैसी कोई चीज हो ।”
“क्या बाते करने आये हो ?”
“तुम्हारी वह रिवाल्वर कहां है जिसके दर्शन तुमने मुझे रविवार को नंगी मेम साहबों के फ्लैट पर करवाये थे ?”
“मेरे पास है । कोट की भीतरी जेब में ।”
“उसको नाल से पकड़कर जेब से बाहर निकालो और उसे फर्श पर फैंक दो ।”
“खुद आकर निकाल लो बेटा !” - सुखवीर बड़े प्यार भरे स्वर में बोला ।
“अगर तुम मुझे डराने की कोशिश कर रहे हो तो मैं वैसे ही स्वीकार कर लेता हूं कि मैं डरा हुआ हूं । कहीं ऐसा न हो कि डर के मारे ही मेरी उंगली ट्रेगर पर दब जाये । जो आदमी सात सशस्त्र पुलिस वालों के कब्जे में भी मुश्किल से आया हो, उससे तो छः फुट दूर खड़े होकर भी मेरी ऐसी तैसी हुई जा रही है और तुम मुझे अपने पास आने को कह रहे हो ।”
“हाथ में रिवाल्वर होते हुये भी डरते हो ।”
“हां ।”
सुखवीर ने सुनील के कहे ढंग से रिवाल्वर निकाली और उसने रिवाल्वर कमरे के एक कोने में उछाल दी ।
“तुम जबरदस्ती मेरे क्वार्टर में घुसे हो” - सुखवीर बोला - “मैं तुम्हें गिरफ्तार करवा सकता हूं ।”
“तुम पुलिस के पास जाने की हिम्मत नहीं कर सकते ।”
“क्यों ?”
“वे पहले से ही तुम्हारी तलाश में हैं ।”
“क्यों... मैंने क्या किया है ?”
“उनका ख्याल है तुमने रोजी की हत्या की है ।”
“रोजी कौन है ?”
“लोलिता के साथ रहने वाली दूसरी नंगी मेम साहब ।”
“अच्छा वह । मैं तो उसके पास भी नहीं फटका ।”
“उसकी हत्या के बाद तुम उसके फ्लैट से भागते देखे गये थे ।”
“लेकिन जब मैं वहां गया था, वह वहां पहले ही मरी पड़ी थी । मैं उससे लोलिता के बारे में पूछने गया था । मैंने उसे फ्लैट में मरा पाया, इसलिये मैं वहां से भाग निकला ।”
“पुलिस को शायद ही तुम्हारी कहानी पर विश्वास हो ।”
“लेकिन अगर उन्हें मुझ पर हत्या का सन्देह है तो मैं अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया हूं ? मैं रोज पुलिस थाने पर हाजिरी देता हूं और थाने वाले जानते हैं कि मैं कहां रहता हूं...”
“अभी उन्हें तुम्हारा ध्यान नहीं आया है और मैंने उन्हें बताया नहीं है कि हत्या की रात को जो देव समान आदमी रोजी के फ्लैट से निकल कर भागता देखा गया था वह तुम हो...”
“तुमने क्यों नहीं बताया ?”
“क्योंकि मेरे ख्याल से वह हत्या तुमने नहीं की । मेरे ख्याल से यह काम जगत नारायण के आदमियों का है । शायद वे लोग नहीं चाहते कि रोजी लोलिता के बारे में किसी के सामने अपनी जुबान खोले । वे लोग पहले से ही इस बात से रोजी से नाराज थे कि वह पुलिस हैडक्वार्टर क्यों गई ।”
“मैंने रोजी सी हत्या नहीं की ।” - सुखवीर धीरे से बोला ।
“मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास है, लेकिन तुम लोलिता को इस तरह तलाश क्यों कर रहे हो ?”
“क्योंकि उस हरामजादी ने मुझको धोखा दिया था । पुलिस को मेरे धर्मपुरे वाले ठिकाने की जानकारी उसी ने दी थी । उसी की वजह से मैंने अपनी जिन्दगी में पहली बार जेल का मुंह देखा है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है कि पुलिस की फोन लोलिता ने किया था ?”
“क्योंकि उसके सिवाय किसी को मालूम ही नहीं था कि मैं कहां छुपा हूं ।”
“और वह मोटरबोट का क्या किस्सा है ?”
“मैंने उसे एक मोटरबोट दी थी जिसे मैं वापिस चाहता हूं । और क्या किस्सा होना है ?”
“लेकिन मोटरबोट को तुम लोलिता से भी ज्यादा बुरी तरह तलाश कर रहे हो ।”
“मैं दोनों को ही बुरी तरह तलाश कर रहा हूं । लोलिता से मैंने बदला लेना है और मोटरबोट की भी मुझे जरूरत है ।”
“ऐसी भारी जरूरत क्या आ पड़ी है ?”
“है कोई जरूरत । तुम्हें इससे क्या ?”
“मुझे मालूम है, वह मोटरबोट कहां है ।”
“क्या !” - सुखवीर हैरानी से बोला और वह एकदम सुनील की ओर बढा ।
“खबरदार !” - सुनील अपना रिवाल्वर वाला हाथ आगे फैलाकर चिल्लाया ।
सुखवीर ठिठक गया ।
“तुम्हें मालूम है” - वह बोला - “मोटरबोट कहां है ?”
“हां । अगर तुम मुझे यह बता दो कि मोटरबोट का असली किस्सा क्या है तो मैं तुम्हें बता दूंगा कि मोटरबोट कहां है ।”
“यह जानकारी तो मैं तुम्हारे हलक में हाथ डालकर भी निकलवा सकता हूं ।”
“जब तक मेरे हाथ में रिवाल्वर है तब तक तुम्हारा हाथ मेरे हलक तक नहीं पहुंच सकता ।”
“रिवाल्वर मामूली चीज है ।” - सुखवीर बोला और आगे बढा ।
“रुक जाओ ।” - सुनील एक कदम पीछे हटता हुआ चिल्लाया - “वरना - बाई गॉड, शूट कर दूंगा ।”
“चलाओ न गोली, बेटे ! देखता हूं तुम्हारी नन्हीं सी रिवाल्वर की गोली मेरे में कितना बड़ा सुराख कर देगी ।”
और वह निर्भीक सुनील की ओर बढा ।
सुनील की उंगलियां ट्रेगर पर कसने लगीं ।
उसी क्षण भड़ाक से क्वार्टर का दरवाजा खुला और एक अधिकारपूर्ण स्वर सुनाई दिया - “हैंड्स अप ।”
दोनों को जैसे सांप सूंघ गया ।
“रिवाल्वर फेंक दो ।”
सुनील ने फौरन रिवाल्वर फेंक दी और अपने हाथ ऊपर उठा लिये ।
दो आदमी कमरे में घुस आये । दोनों के हाथ में खतरनाक रिवाल्वरें थीं ।
“केनी ।” - सुखवीर बोला - “तुम कहां से टपक पड़े ?”
“बड़ी मुश्किल से ढूंढा तुम्हें ।” - केनी के नाम से पुकारा जाने वाला आदमी बोला ।
“मंगलवार की सुबह को मैंने तुम्हें अपने इस बन्दर जैसी शक्ल वाले साथी के साथ जेल से बाहर देखा था और मैंने समझा था कि मैंने तुम्हें डाज दे दी थी ।”
“तुमने वाकई हमें डाज दे दी थी ।” - केनी बोला - “और इसकी वजह से मुझे जगत नारायण की जितनी गालियां खानी पड़ी थीं, वह मैं जिन्दगी भर नहीं भूल सकता ।”
सुखवीर मुस्कराया ।
“यह कौन है ?” - केनी ने सुनील की ओर संकेत किया ।
“इसी से पूछ लो न ।” - सुखवीर बोला ।
“मैं तो कोई भी नहीं हूं, साहब ।” - सुनील जल्दी से बोला - “मैं तो यहां गऊशाला के लिये चन्दा मांगने आया था ।”
“रिवाल्वर हाथ में लेकर !” - केनी बोला ।
“अच्छा ! वह रिवाल्वर थी ! मैं भी इन साहब से यही पूछ रहा था कि यह क्या चीज है और ये हैं कि बताते ही नहीं थे ।”
“शटअप ।” - केनी चिल्लाया ।
सुनील फौरन चुप हो गया ।”
“इसका क्या किया जाये ?” - केनी का साथी बोला ।
“इसे यहीं शूट कर देते हैं ।” - केनी बोला ।
“घपला हो सकता है । शायद यह एक्शन जगत नारायण को पसन्द न आये ।”
“तो फिर इसे भी साथ ले चलते हैं ।”
“जगत नारायण ने सिर्फ सुखवीर को लाने के लिये कहा था ।”
“लेकिन उसने यह तो नहीं कहा था कि अगर सुखवीर के साथ कोई और हो तो हम उसे वहीं छोड़ आयें । या तो हमें इसको शुट करना पड़ेगा और या इसे साथ ले जाना पड़ेगा ।”
“ठीक है ।” - केनी का साथी बोला - “साथ ले चलो । जगत नारायण खुद इसका फैसला करेगा ।”
“आलराइट ।” - केनी अनमने स्वर से बोला - “लेकिन खामखाह काम बढ गया । अब एक की जगह दो आदमियों पर निगाह रखनी पड़ेगी ।”
केनी ने नीचे झुककर पहले सुनील की रिवाल्वर उठाकर जेब में डाल ली । फिर उसने सुखवीर की रिवाल्वर भी उठा ली । उसने अपने साथी को इशारा किया । उसका साथी क्वार्टर से बाहर निकल गया ।
“चलो ।” - केनी दोनों रिवाल्वर उनकी ओर तानता हुआ बोला ।
सुनील और सुखवीर हाथ सिर से ऊपर उठाये बाहर की ओर चल दिये ।
“मुझसे अलग रहना ।” - सुखवीर बुदबुदाया ।
सुनील घबरा गया ।
हे भगवान ! यह राक्षस जैसा आदमी कहीं इतनी रिवाल्वरों द्वारा कवर हुआ होने के बावजूद भी कोई शरारत तो नहीं करने वाला था ।
वे केबिन से बाहर आ गये ।
बाहर अन्धेरा था ।
केनी और उसका साथी सुखवीर और सुनील से केवल एक कदम पीछे हटकर उनके दांये-बांये चलने लगे । उन्होंने अपनी कार टिम्बर यार्ड से परे खड़ी थी । शायद इसलिये कि सुखवीर को उनके आगमन की खबर न लगे ।
टिम्बर यार्ड की बांसों की हजारों सीधी खड़ी बल्लियों के बीच में बने रास्ते पर थे आगे बढे ।
बल्लियों के बीच में बने रास्ते के दहाने के समीप पहुंचते ही एकाएक सुखवीर बिजली की चमक की तरह नीचे झुका और तोप से छूटे गोले की तरह उसने केनी पर छलांग लगा दी ।
केनी के हाथ में थमी मोजर रिवाल्वर ने आग उगली । गोली सुखवीर के सिर के ऊपर से गुजर गई । सुनील ने उसकी सनसनाहट अपने कान के पास महसूस की और फिर गोली बांसों में टिम्बर के ढेर में कहीं जाकर धंस गई ।
अगले ही क्षण केनी का गला सुखवीर की फौलाद जैसी गिरफ्त में था ।
केनी उसकी पकड़ से छूटने के लिये छटपटाने लगा ।
सुखवीर ने नीचे झुक कर उसकी एक टांग पकड़ ली और फिर उसे यूं सिर से ऊंचा उठा लिया जैसे वह कोई घास-फूस का बना हुआ पुतला हो ।
केनी जोर से चिल्लाया ।
केनी का साथी अभी यह भी नहीं समझ पाया था कि हो क्या गया है कि सुखवीर ने केनी को पूरी शक्ति से उसके साथी पर फेंक मारा ।
केनी का साथी छलांग मार कर एक ओर हट गया ।
केनी अपने साथी से टकराने के स्थान पर सीधा लकड़ी के मोटे-मोटे लट्ठों से जा टकराया । उसके मुंह से एक हृदय विदारक चीख निकली और वह अन्धकार में वहीं कहीं ढेर हो गया ।
केनी के साथी ने छलांग लगाने के बाद सम्भलते ही अपने हाथ में अभी तक थमी मोजर रिवाल्वर से फायर किया ।
मोजर रिवाल्वर की फाड़ कर रख देने वाली भयंकर गोली सुखवीर की दाई जांघ में कहीं टकराई । सुखवीर सुनील और केनी के साथी के बीच में मुंह के बल आ गिरा ।
सुनील ने बला की फुर्ती से उस ओर छलांग लगा दी, जिधर उसने केनी को गिरते देखा था । वह सीधा केनी के ऊपर जाकर गिरा, लेकिन उससे केनी के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई । सुनील अन्धों की तरह तेजी से केनी की जेबें और उसके आस-पास की जमीन टटोलने लगा ।
केनी के साथी ने अन्धकार में फिर फायर किया ।
गोली सुनील के ऊपर से सनसनाती हुई गुजर गई । उसी क्षण उसका हाथ केनी के जेब में पड़ी हुई रिवाल्वर से जा टकराया । उसने रिवाल्वर निकाल कर हाथ में ले ली । सुनील जमीन पर लेटा-लेटा एक लुढकनी खाकर के अचेत या शायद मृत शरीर से अलग हो गया । उसने केनी के साथी पर फायर किया । लेकिन जिस अन्धकार की वजह से केनी के साथी की गोली का शिकार होने से वह बच गया था उसी की वजह से उसकी गोली का शिकार होने से केनी का साथी बच गया ।
केनी का साथी फौरन बल्लियों के साये में कहीं कूद गया और फिर उसका साया भी सुनील की दृष्टि से औझल हो गया । केनी के साथी को इस बात का आभास हो जाना, कि अब सुनील के पास भी रिवाल्वर थी, सुनील के लिये लाभदायक सिद्ध हुआ था ।
सुनील रिवाल्वर हाथ में थामे घुटनों और हाथों के बल सरकता हुआ फिर केनी के समीप आ पहुंचा । उसे अन्धकार में पहले केनी को झिंझोड़ा और फिर उसके शरीर को टटोलना आरम्भ कर दिया ।
केनी मर चुका था । उसकी गर्दन टूट गई थी ।
“सुखवीर ।” - सुनील फुसफुसाया ।
“मैं यहां हूं ।” - उसे सुखवीर का हांफता हुआ स्वर सुनाई दिया ।
“कैसे हो ?”
“टांग के परखच्चे उड़ गये हैं ।” - सुखवीर यूं बोला जैसे वह किसी और की टांग का जिक्र कर रहा हो - “अभी तुमने भी गोली चलाई थी ?”
“हां । मेरी रिवाल्वर हाथ में आ गई है ।”
“तो फिर केनी के साथी को ढूंढो वर्ना वह हम दोनों का काम तमाम कर देगा ।”
“तुम थोड़ा बहुत हिल डुल सकते हो ?”
“हां ।”
“तो सरक कर बल्लियों की ओट में हो जाओ । मैं उसे तलाश करता हूं ।”
“अच्छा ।”
सुखवीर बड़ी मेहनत से अपने पहाड़ जैसे शरीर को बल्लियों की ओर सरकाने लगा । वातावरण में केवल सुखवीर के जमीन पर घिसटने की आवाज आ रही थी ।
सुनील आंखें फाड़-फाड़ करर अपने चारों ओर देखने लगा ।
केनी के साथी की कहीं हवा भी नहीं मिल रही थी ।
सुनील उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हो गया । उसने एक ही छलांग से वह छोटा सा टुकड़ा पार कर लिया जहां चांद की रोशनी पड़ रही थी ।
तत्काल एक फायर हुआ ।
सुनील बाल-बाल बचा ।
वह उस गलियारे के दाहने पर बल्लियों से चिपक कर खड़ा हो गया जिसके भीतर से फायर हुआ था । सुनील ने गलियारे के अन्धकार में फायर झोंक दिया ।
भीतर से फौरन एक फायर हुआ ।
केनी का साथी गलियारे में भीतर कहीं था ।
सुनील वहां से हट गया । वह दबे पांव वापिस घूमा और फिर बल्लियों की पिछली कतार के साथ बने गलियारे में पहुंच गया । वह दबे पांव भागता हुआ उस गलियारे के सिरे पर पहुंचा । वहां से वह दांयी ओर घूमा । कुछ कदम चलने पर ही वह खड़ी बल्लियों के बीच बने गलियारे में पहुंच गया जिस में केनी के साथी होने की सम्भावना थी ।
सुनील रिवाल्वर अपने सामने ताने बल्लियों के साथ लगता हुआ दबे पांव आगे बढा ।
उसी क्षण वह अन्धकार में जमीन पर पड़े एक लकड़ी के टुकड़े से टकराया । उसके हाथ सहारे के लिये हवा में फैले और रिवाल्वर वाला हाथ खट्ट से बांसों से टकराया ।
उससे मुश्किल से दस फुट दूर कहीं हरकत हुई ।
एक शोला सा लपका ।
सुनील ने स्वयं को जमीन पर गिरा दिया ।
उसने अपने रिवाल्वर वाले हाथ की कोहनी जमीन से टिकाकर फायर किया ।
वातावरण में एक चीख गूंज उठी ।
उसे एक साया लड़खड़ाता सा दिखाई दिया ।
सुनील ने फिर फायर किया ।
साया धड़ाम से जमीन पर गिरा और फिर शान्ति सी छा गई ।
सुनील लपक कर वहां पहुंचा ।
केनी का साथी जमीन पर मरा पड़ा था । सुनील की चलाई एक गोली उसकी दांई पसलियों में लगी थी लेकिन दूसरी ने उसका भेजा उड़ा दिया था ।
सुनील केनी के साथी की लाश को फांद कर गलियारे में भागता हुआ फिर वापिस उस स्थान पर पहुंचा जहां से हंगामे की शुरुआत हुई थी ।
सुखवीर उसे कहीं दिखाई नहीं दिया ।
“सुखवीर !” - सुनील ने आवाज लगाई ।
“मैं यहां हूं” - उसे सुखवीर का क्षीण स्वर सुनाई दिया, लेकिन उसमें पीड़ा का सर्वदा अभाव था ।
सुनील उसके पास पहुंचा । वह एक अन्धेरे कोने में बल्लियों के साथ पीठ लगाकर बैठा हुआ था । उसकी दांई टांग उसके सामने फैली हुई थी । टांग और उसके आस-पास की जमीन खून से तर थी ।
“केनी के साथी का काम तमाम हुआ ?” - उसने पूछा ।
“हो गया ।” - सुनील बोला ।
“पुलिस यहां आती ही होगी । किसी न किसी पड़ोसी ने गोलियों की आवाज सुन कर अभी तक जरूर पुलिस को फोन कर दिया होगा । तुम मुझे यहां से किसी प्रकार निकाल ले चलो ।”
“कहां ?”
“मेरे एक दोस्त के पास । वह मुझे छुपा कर रख लेगा ।”
“लेकिन तुम्हारा फौरन हस्पताल जाना जरूरी है ।”
“कोई जरूरी नहीं है । मेरा दोस्त मुझे सम्भाल लेगा । तुम्हारे पास कार है ?”
“नहीं । मैं मोटर साइकिल पर आया था, लेकिन टिम्बर यार्ड के बाहर बदमाशों की कार खड़ी है । हम उसे इस्तेमाल कर सकते हैं ।”
“मुझे सहारा दो ।”
सुनील ने रिवाल्वर पतलून की बैल्ट में खोंस ली और अपना हाथ सुखवीर की ओर बढा दिया । लेकिन उस पहाड़ जैसे आदमी को सहारा देना भी कौन-सा आसान काम था । बड़ी कठिनाई से वह सुनील की गरदन में हाथ डालकर उठ खड़ा हुआ । सुनील उसके भार के नीचे बुरी तरह दबा जा रहा था लेकिन उसे किसी तरह कार तक और फिर हस्पताल तक ले जाना जरूरी था वर्ना यह वहीं मर जाता ।
दोनों लड़खड़ाते हुये आगे बढे । सुखवीर की टांग से इतना खून बह रहा था कि उसका जूता भी खून से भर गया था ।
अभी ये दस कदम ही आगे बढे थे कि एक टार्च का तीव्र प्रकाश उन पर पड़ा ।
सुनील ने सुखवीर को छोड़ दिया और उसका हाथ रिवाल्वर की ओर झपटा ।
सुखवीर जमीन पर गिर पड़ा ।
“खबरदार !” - कोई चेतावनी भरे स्वर में बोला ।
“पुलिस !” - सुखवीर जमीन पर पड़ा हांफता हुआ निराशा भरे स्वर में बोला ।
सुनील ने अपनी रिवाल्वर अपने सामने टार्च वाले के पैरों में फेंक दी ।
एक सब-इन्सपेक्टर उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“मेरा नाम सुनील है” - सुनील सब इन्स्पेक्टर के कुछ कहने से पहले ही जल्दी से बोल पड़ा - “मैं ‘ब्लास्ट’ का रिपोर्टर हूं । तुम चाहो तो मेरे बारे में इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल से या पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट रामसिंह से पूछ सकते हो । कुछ भी करने से पहले इस आदमी को हस्पताल ले जाने का इन्तजाम करो वर्ना यह मर जायेगा ।”
“मैं हस्पताल नहीं जाऊंगा ।” - सुखवीर कराह कर बोला ।
“मूर्ख मत बनो सुखवीर ।” - सुनील डपट कर बोला ।
सब इन्स्पेक्टर के संकेत पर एक आदमी ने सुनील के हाथों में हथकड़ियां डाल दी ।
दो अन्य सिपाहियों ने सुखवीर को जमीन से उठाया । उन्होंने उसके दांये-बांये खड़े होकर उसकी दोनों बांहें अपने कन्धों पर डाल ली और उसे दूर खड़ी पुलिस की जीप की ओर ले चले । दोनों सिपाही सुखवीर के असीमित भार से लड़खड़ा रहे थे ।
वे लोग सुखवीर को लेकर जीप के समीप पहुंचे ।
सभी एक अप्रत्याशित घटना घटी ।
सुखवीर ने दोनों सिपाहियों की गरदने अपनी बगलों में दबोची और फिर उनके सिर एक दूसरे से भिड़ा दिये । दोनों सिपाही जमीन पर ढेर हो गये । सुखवीर अपनी घायल टांग घसीटता हुआ जीप की ओर लपका । वह जीप की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । बिजली की फुर्ती से उसने इग्नीशन ऑन किया लेकिन इससे अधिक वह कुछ नहीं कर सका ।
जिस सिपाही के हाथ में टार्च थी, उसने डण्डे जैसी लम्बी, भारी टार्च का प्रहार सुखवीर की खोपड़ी पर किया ।
एक क्षण के लिये ऐसा लगा जैसे उस भारी प्रहार का सुखवीर पर कोई असर नहीं हुआ हो ।
सिपाही ने फिर एक वैसा ही भारी हाथ उसकी खोपड़ी पर जमाया ।
सुनील ने एक क्षण के लिये आंखें बन्द कर ली ।
सुखवीर के हाथ स्टेयरिंग पर से हट गये । उसका शरीर आगे को लहराया और फिर वह मुंह के बल जीप के पास जमीन पर आ गिरा ।
केवल दस सैकेण्ड का अन्तर पड़ा था । अगर उसे दस सैकेण्ड का समय और मिल जाता तो वह अपनी उस मृतप्राय अवस्था में भी पुलिस की ही जीप में वहां से भाग निकला होता ।
“वाट ए मैन !” - सुनील होठों में बुदबुदाया ।
***
सुनील को सारी दास्तान दो बार दोहरानी पड़ी ।
पहले सिर्फ पुलिस के सामने ।
फिर सुनील के उच्चाधिकारियों... जिनमें प्रभूदयाल भी शामिल था - सरकारी वकील, जगत नारायण और जगत नारायण के वकील के सामने ।
सुनील ने कसम खाकर कहा कि केनी और उसका साथी जगत नारायण के सुखवीर को पकड़कर लाने के लिये भेजे गुन्डे थे और यह केवल एक संयोग था कि अब वे सुखवीर के क्वार्टर पर पहुंचे थे उस समय सुनील भी वहां मौजूद था । सुनील के पास अपने कथन को सिद्ध करने का इकलौता साधन सुखवीर था लेकिन जगत नारायण के वकील के अनुसार सुखवीर जैसे खतरनाक और सजायाफ्ता मुजरिम के शब्दों की कोई कीमत नहीं थी । सुखवीर के पुलिस जीप पर निकल भागने के दौरान में दो सिपाहियों को घायल कर देने की वजह से पुलिस को सुखवीर से कोई हमदर्दी नहीं थी इसलिये वे भी सुखवीर के बयान को कोई विशेष महत्व नहीं देना चाहते थे ।
सारे वार्तालाप के दौरान में जगत नारायण एक शब्द नहीं बोला । वह केवल खा जाने वाली निगाहों से पुलिस को घूरता रहा ।
उसी दौर में सुनील ने बीच रोड पर अपने पर गोली चलाई जाने वाली बात का भी जिक्र किया और प्रमाण स्वरूप अपनी मोटर साइकिल ही प्रस्तुत कर दी जिसकी गद्दी में अभी भी गोली घुसी हुई थी लेकिन वह जगत नारायण के खिलाफ कही अपनी बातों में से एक को भी सिद्ध नहीं कर सका ।
अन्त में जगत नारायण और उसका वकील वहां से विदा हो गये ।
जाती बार जगत नारायण का वकील उसे धमकी देता गया - “अगर तुमने आज के बाद फिर कभी मेरे कलायन्ट के खिलाफ कोई बेबुनियाद चार्ज लगाने की कोशिश की तो फिर बात कचहरी में मजिस्ट्रेट के सामने ही होगी और अगर मैंने मानहानि के मुकदमे में हार जाने के तौर पर तुम्हारे कपड़े तक न उतरवा लिये या तुम्हें जेल न भिजवाया तो मैं प्रेक्टिस करना छोड़ दूंगा ।”
“वह तो तुम जब छोड़ोगे तब छोड़ोगे लेकिन कल के ब्लास्ट में तुम्हें यह हैडलाईन जरूर दिखाई देगी - “एक्स-कनविक्ट के वकील की ‘ब्लास्ट’ के रिपोर्टर को धमकी ।”
“हम तुम्हें अखबार में भी देख लेंगे ।”
“जरूर देख लेना ।”
जगत नारायण और उसका वकील दनदनाते हुये वहां से निकल गये ।
सारे सिलसिले में सुनील को केवल इतना लाभ हुआ कि पुलिस के दिमाग में इस संशय का तगड़ा बीजारोपण हो गया कि जगत नारायण सुधरा-वुधरा कुछ नहीं था । अब भी दादागिरी में उसका पूर्ण दखल था । फर्क इतना पड़ा था कि अब वह खुद कुछ नहीं करता था बल्कि आगे अपने चमचों से काम करवाता था । रत्ना देवी जैसे लोगों के संसर्ग में रहकर वह अपने आपको ऊंची सोसाइटी का एक अंग बनाने का पूरा प्रयत्न कर रहा था ।
केनी और उनके साथी के मर जाने का किसी को अफसोस नहीं था । दोनों भयंकर अपराधी थे लेकिन कभी पकड़े नहीं गये थे । दोनों के मर जाने से पुलिस की अनायास ही भारी सिरदर्दी खत्म हो गई थी ।
सारे हंगामे से नुकसान हुआ तो सुखवीर को । जिस समय वह घायल अवस्था में हस्पताल लाया गया था उस समय भी वह काला सूट पहने हुये था । इन्सपेक्टर प्रभूदयाल ने उसके विशाल डील-डौल और उसके काले सूट पर निगाह डाली और उसने फौरन उस आदमी को बुला भेजा जो नाइट शो देखकर वापिस आ रहा था और जिसने रोजी के फ्लैट से सुखवीर जैसे एक आदमी को भागते देखा था ।
उस आदमी ने सुखवीर को फौरन पहचान लिया ।
सुखवीर पर रोजी की हत्या का पक्का चार्ज लग गया ।
सुखवीर की इच्छा पर उसे सुनील से मिलने दिया गया ।
सुखवीर विक्टोरिया हस्पताल के एक कमरे में पड़ा था । उसकी टांग पर प्लास्तर चढ चुका था और टांग ट्रेक्शन पर पैंतालिस अंश के कोण पर लटकी हुई थी । कमरे में एक कुर्सी पर एक सशस्त्र सिपाही बैठा था । पुलिस सुखवीर से इतना त्रस्त हो चुकी थी कि उसको उसकी उस असहाय हालत में भी वे अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे, चाहे कमरे को बाहर से मन भर का ताला ही क्यों न लगा हुआ हो ?
प्रभूदयाल उसके कमरे में सुनील के साथ आया ।
“सुनो मिस्टर” - सुखवीर सीधे और सच्चे स्वर में बोला - “तुम मुझे भले आदमी मालूम होते हो । पहले मैं तुम्हें जगत नारायण का ही कोई चमचा समझा था जो कि मेरी गलती थी । इस शहर में तो क्या इस दुनिया में भी मेरा कोई अपना नहीं है जिसे मैं अपना हमदर्द या मददगार कह सकूं । मेरे पास अपना कहने के लिये सिर्फ यह अंगूठी है ।” - सुखवीर अपने बांये हाथ की एक उंगली से एक हीरे की अंगूठी निकालता हुआ बोला - “इसकी कीमत दो हजार रुपये है और यह चोरी की नहीं है । इन्स्पेक्टर चाहे तो भीम जी सोहराब जी जौहरी से इस बात की पुष्टि कर लें अगर तुम यह सिद्ध कर दो कि रोजी की हत्या मैंने नहीं की तो यह अंगूठी तुम्हारी । और कहने की जरूरत नहीं कि मैं हमेशा तुम्हारा अहसानमन्द हूंगा ।”
सुनील चुप रहा ।
“और यह बात मैं इसलिये नहीं कह रहा हूं क्योंकि मैं मौत से या किसी से डरता हूं । यह बात मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि अपनी वर्तमान हालत में मैं जगत नारायण से भिड़ नहीं सकता, लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है कि रोजी की मौत में और लोलिता के गायब हो जाने में उस कुत्ते के पिल्ले का जरूर कोई हाथ है ।”
“मैं अपनी ओर से तुम्हें बेगुनाह साबित करने में कोई कसर नहीं उठा रखूंगा ।” - सुनील सच्चे दिल से बोला ।
“बशर्ते कि यह सचमुच बेगुनाह हो ।” - प्रभूदयाल बोला ।
“मैं अपनी मरी हुई मां की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि मैंने रोजी की हत्या नहीं की ।” - सुखवीर बोला ।
“तुम इतनी रात गये रोजी के फ्लैट पर क्यों गये थे ?”
“इससे तुम्हें क्या मतलब ? मैं अपनी ऐसी की तैसी कराने गया था । तुम्हें क्या ।”
“ऐसी की तैसी तो तुम्हारी होगी ही ।”
“ऑल राइट ।” - सुनील बोला, उसने अंगूठी लेने का उपक्रम नहीं किया - “मैं चलता हूं ।”
“अंगूठी रख लो ।” - सुखवीर बोला ।
“इसकी जरूरत नहीं ।”
“फिर भी रख लो वर्ना कोई पुलिस वाला इसे मार लेगा । और बाद में कहेगा कि अंगूठी नाम की कोई चीज मेरे पास थी ही नहीं । मुझे पुलिस वालों का कोई भरोसा नहीं ।”
प्रभूदयाल के चेहरे पर क्रोध के भाव दिखाई देने लगे । उसने कोई सख्त बात कहने के लिये मुंह खोला लेकिन फिर कुछ सोचकर चुप रह गया ।
सुनील सुखवीर के कमरे से बाहर निकल आया ।
***
बाकी की रात सुनील ने अपने फ्लैट पर बिताई । अभी भी उसका सारा शरीर दुख रहा था और उसे आराम की सख्त जरूरत थी ।
सुबह लगभग आठ बजे के करीब उसका फोन बज उठा ।
सुनील ने काल रिसीव की । दूसरी ओर से रत्ना देवी बोल रही थी । फोन पर रत्ना देवी की आवाज सुनकर सुनील को भारी आश्चर्य हुआ लेकिन वह अपने स्वर को भरसक भावहीन बनाता हुआ बोला - “कैसे याद फरमाया ?”
“मैं तुमसे फौरन मिलना चाहती हूं ।” - दूसरी ओर से रत्ना देवी का मीठा किन्तु व्यग्र स्वर सुनाई दिया - “मैंने तुमसे बहुत जरूरी बात करनी है । क्या तुम फौरन यहां आ सकते हो ?”
“यहां कहां ?”
“मेरे बंगले पर !”
“सॉरी । पहली बार आपके बंगले पर मेरी जैसी खातिर हुई थी, उसे मैं अभी भूला नहीं हूं ।”
“मुझे उसका अफसोस है । वह सब एक गलतफहमी की वजह से हुआ जो कि मैं तुम्हें मुलाकात होने पर समझा दूंगी ।”
“सॉरी । आप ही यहां तशरीफ ले आइये ।”
“लेकिन...”
“मुझे आपके पड़ोसियों से डर लगता है । आप यहां आ सकती हैं तो ठीक है वर्ना...”
और सुनील भाड़ में जाइये कहता-कहता रुक गया ।
“आल राइट, मैं आती हूं ।”
“और अकेली ही आइयेगा । इस बार अपने रिवाल्वरों वाले हिमायती साथ लेकर मत आइयेगा ।”
“अकेली ही आऊंगी ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा ली ।
आधे घण्टे के बाद रत्ना देवी उसके फ्लैट पर पहुंच गई ।
उसने सुनील के खरोंचों से भरे चेहरे पर निगाह डाली और हैरानी से बोली - “माई गॉड, यह तुम्हारे चेहरे को क्या हुआ ?”
“मैंने आंखें बन्द करके आपके बंगले की चारदीवारी से टक्कर दे मारी थी !” - सुनील भावहीन स्वर में बोला ।
“कहीं... कहीं तुम्हारी यह हालत उन बदमाशों की वजह से तो नहीं हुई जो...”
“शुक्र है आपको याद तो आया । अब वह भी बता दीजिये कि अपनी इस दुर्गति का ज्यादा शुक्र गुजार मैंने जगत नारायण का होता है या आपका ?”
“मिस्टर, बाई गॉड, आई एम सारी । मुझे मालूम नहीं था कि ये लोग तुम्हारे साथ इस बुरी तरह पेश आने वाले थे । यह सब एक गलतफहमी की वजह से हो गया था ।”
“जगत नारायण के गुण्डे जो मुझे आधा घन्टा फुटबाल की तरह इस्तेमाल करते रहे थे उसकी वजह महज एक गलतफहमी थी ?”
“बिल्कुल ।”
“ऐसी कौन सी गलतफहमी थी ?”
“मुझे कोई ब्लैकमेल कर रहा था और मैं समझ बैठी थी कि तुम्हीं वह ब्लैकमेलर हो ।”
“आई सी । तो फिर आपको यह कब पता लगा और कैसे पता लगा कि मैं ब्लैकमेलर नहीं हूं ?”
“क्योंकि तुम्हारे उन दो बदमाशों के साथ मेरे बंगले से विदा होने के थोड़ी देर बाद ही वह आदमी वहां पहुंच गया जो कि वास्तव में ब्लैकमेलर था ।”
“जगत नारायण के आदमियों ने उसकी मेरे से भी बुरी गत बनाई होगी ।”
“नहीं । तुम्हारे जाने के बाद मैं तो निश्चित हो गई थी कि ब्लैकमेलर से मेरी जान छूट गई है । जब वास्तविक ब्लैकमेलर वहां पहुंचा तो मैं हैरान हो गईं । तब जगत नारायण को फोन करने का मौका ही नहीं मिला । वह मुझसे रुपया भी ले गया और साफ बचकर भी निकल गया ।”
“जगत नारायण इस तस्वीर में कैसे फिट होता है ?”
“कोई मुझे ब्लैकमेल कर रहा था । मैं इस विषय में पुलिस के पास जाना चाहती थी । जगत नारायण मेरी पड़ोसी है । मेरे उससे अच्छे सम्बन्ध हैं । मैंने उससे जिक्र किया । उसने मुझे कहा कि मैं घबराऊं नहीं, ब्लैकमेलर मेरे बंगले पर आये तो मैं फौरन उसे फोन कर दूं । अब मैं ब्लैक मेलर को पहचानती तो थी नहीं । तुमने मंगलवार की रात को मेरे बंगले पर हुई पार्टी के बारे में और लोलिता के बारे में सवाल पूछने आरम्भ कर दिये । मैं समझी कि तुम्हीं ब्लैकमेलर हो और मैंने जगत नारायण को फोन कर‍ दिया ।”
“मेरे मंगलवार की पार्टी और लोलिता के बारे में सवाल पूछने से आपने मुझे ब्लैकमेलर कैसे समझ लिया ?”
“क्योंकि लोलिता खुद ब्लैकमेलरों की सहयोगिनी थी और मंगलवार रात वाली पार्टी में ही मेरी वह तस्वीर खींची गई थी जिसकी वजह से मुझे ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई ।”
“किस्सा क्या है ?”
“किस्सा इतना ही है कि मंगलवार की रात मैं जरा जरूरत से ज्यादा पी गई थी और आपे से बाहर हो गई थी । लोलिता के किसी साथी के पास एक कैमरा था । वह किसी प्रकार मेरी एक बड़ी खराब तस्वीर खींचने में कामयाब हो गया और मुझे खबर भी नहीं हुई । अगले दिन यानी बुधवार को यह तस्वीर लेकर लोलिता मेरे पास पहुंची और उसने उस तस्वीर की सारी कापियों और नैगेटिव के बदले में मुझसे पच्चीस हजार रुपये की मांग की ।”
“बुधवार को लोलिता आपके पास आई थी ?”
“हां ।”
“आप लोलिता को अच्छी तरह पहचानती हैं न ?”
“बहुत अच्छी तरह से । वह राजपाल और डैनी के साथ कई बार मेरी पार्टियों में आ चुकी है ।”
सुनील सोचने लगा । अगर लोलिता बुधवार को जीवित थी तो मंगलवार रात को मरने वाली लड़की लोलिता नहीं हो सकती थी । इस बात की काफी सम्भावना थी कि रुपया हासिल हो जाने के बाद लोलिता अपने ब्लैकमेलर साथी के साथ राजनगर से कूच कर गई थी ।
“फिर ?” - सुनील बोला ।
“वीरवार रात को तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद ब्लैकमेलर बंगले पर आया । मुझे उसको पच्चीस हजार रुपये देने पड़े ।”
“और तस्वीरें ?”
“वह बोला, तस्वीरें अगले दिन मेरे लेटर बक्स में पड़ी होंगी । लेकिन तस्वीरें मुझे आज तक वापिस नहीं मिली हैं और कल शाम की डाक से मुझे यह पत्र मिला है ।”
उसने सुनील की ओर एक पत्र बढा दिया ।
सुनील ने देखा, पत्र पर बम्बई की शुक्रवार की मोहर थी, उसने पत्र निकालकर खोला । भीतर एक तस्वीर और एक चिट्ठी थी । सुनील ने पहले तस्वीर देखीं ।
तस्वीर में रत्ना देवी डैनी की गोद में बैठी हुई थी । रत्ना देवी का बाजू डैनी की गरदन से लिपटी हुई थी । डैनी का एक हाथ रत्ना देवी के वक्ष पर था । दूसरा हाथ तस्वीर में दिखाई नहीं दे रहा था ।
दोनों पूरे कपड़े पहने हुए थे ।
सुनील ने पत्र देखा । पत्र में लिखा था ।
रत्ना देवी ।
अगर पहले जितनी ही रकम ड्राफ्ट द्वारा तुमने फौरन मुरारी लाल मार्फत बम्बई जी पी ओ के नाम न भेजी तो ये तस्वीर तुम्हारे भूतपूर्व पति डाक्टर बहल को सौंप दी जायेंगी ।
नीचे किसी के हस्ताक्षर नहीं थे ।
सुनील ने चिट्ठी और तस्वीर लिफाफे में डालकर लिफाफा रत्ना देवी को वापिस सौंप दिया ।
“यह तस्वीर इतनी खराब तो नहीं है” - सुनील बोला - “कि इसके दम पर कोई लम्बा चौड़ा ब्लैकमेल किया जा सके ।”
“मुझे इस तस्वीर की इसलिये चिन्ता नहीं है क्योंकि यह मेरे चरित्र को धब्बा लगाती है । मुझे इसकी किसी और वजह से चिन्ता है ।”
“और वजह क्या है ?”
“अपने चौथे पति डाक्टर बहल से मेरा एक लड़का है जो इस समय छ: साल का है । जब मैंने डाक्टर बहल से तलाक लिया था तो इस बारे में बहुत फसाद हुआ था कि लड़का किसके पास रहेगा । मेरा पति हर हालत में लड़के को अपने अधिकार में रखना चाहता था लेकिन मेरा वकील किसी प्रकार यह सिद्ध करने में सफल हो गया था कि डाक्टर बहल का गैर लड़कियों से सम्बन्ध था और उसका चरित्र ऐसा नहीं था कि एक छ: साल की आयु के लड़के को उसके संसर्ग में छोड़ा जा सके । मेरा पति आज तक इस कोशिश में है कि लड़के को अपने पास रखने का अधिकार किसी तरह उसे मिल जाये । तस्वीर में जो आदमी मेरे... मेरे साथ है, वह एक बहुत खतरनाक अपराधी है और पुलिस उनकी असलियत को अच्छी तरह जानती है । अगर यह तस्वीर मेरे पति के पास पहुंच गई तो वह दोबारा कोर्ट में अपील करके इस तस्वीर के आधार पर ही मुझे भारी चरित्रहीन औरत साबित कर सकता है और मेरा बेटा मुझसे छीन सकता है ।”
“लड़का कहां है ?”
“वह सेंट लारेन्स स्कूल सनायर में पढता है ।”
“वीरवार को मेरे बाद जो आदमी, यानी कि ब्लैकमेलर, आप के पास आया था, आप उसका हुलिया बयान कर सकती हैं ?”
“मैं साफ कुछ नहीं बता सकती । वह एक लम्बा ओवरकोट पहने हुए थे । उसने रात में भी काला चश्मा लगाया हुआ था और उसने अपने सिर पर पहनी फैल्ट हैट बहुत नीचे तक झुकाई हुई थी ।”
“यह कोई हुलिया थोड़े ही हुआ ?”
“मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं बता सकती । मैं बहुत घबराई हुई थी । हां जब वह मुझसे रुपये वसूल करके वापिस लौट रहा था तो मैंने देखा कि उसकी चाल में हल्की सी लंगड़ाहट थी ।”
“आप मुझसे क्या चाहती हैं ?”
“मैं चाहती हूं कि तुम कोई ऐसी तरकीब करो कि मुझे तस्वीर और उनका निगेटिव भी हासिल हो जाये और मुझे ब्लैकमेलिंग का शिकार भी न होना पड़े ।”
“बदले में मुझे क्या मिलेगा ?”
“यह ।” - और रत्ना देवी ने सौ सौ के नोटों की रबड़ पैड में बन्धी हुई एक मोटी गड्डी निकालकर सुनील के सामने रख दी - “ये पच्चीस हजार रुपये हैं ।”
“ये तो बहुत ज्यादा है” - सुनील बोला । उसने नोटों की ओर हाथ बढाने का कोई उपक्रम नहीं किया - “इतनी ही रकम तो आपके ब्लैकमेलर मांग रहा है ।”
“लेकिन ब्लैकमेलर तो यह रकम हासिल करने के बाद मुझसे फिर रुपया मांग लेगा । वह तो जिन्दगी भर मेरा खून चूसता रहेगा जबकि तुम्हें तो यह रकम मुझे एक बार ही देनी पड़ेगी ।”
“आई सी ।”
“और अगर तुम्हें मुनासिब लगे तो ब्लैकमेलर से आमना-सामना करने की तरकीब भी मैं बता सकती हूं तुम्हें ।”
“अच्छा ! आपके पास कोई तरकीब भी है ? यह तो और भी अच्छा है । जरूर बताइये ।”
“मुझे चिट्ठी में मुरारी लाल को जी पी ओ बम्बई की मार्फत ड्राफ्ट भेजने के लिये लिखा गया है । तुम बम्बई चले जाओ और जी पी ओ में मुरारी लाल की प्रतीक्षा करो । मैं यहां से मुरारी लाल को जी पी ओ बम्बई की मार्फत चिट्ठी लिख देती हूं लेकिन मैं उसमें ड्राफ्ट नहीं रखूंगी जो आदमी जी पी ओ में मुरारी लाल की चिट्ठी लेने आयेगा, वह या तो खुद मुरारी लाल होगा या फिर वह चिट्ठी लेकर मुरारी लाल के पास पहुंचेगा । उस आदमी के माध्यम से तुम ब्लैक मेलर का पता लगा सकते हो ।”
“आप यह काम अपने दोस्त जगत नारायण को क्यों नहीं कहतीं ? उसके पास तो ऐसा काम करने के लिये बड़े-बड़े काबिल लोग हैं ।”
“मुझे जगत नारायण पर विश्वास नहीं है । मैं उसका काम करने का तरीका देख चुकी हूं जो कि मुझे पसन्द नहीं, तुम्हारी जो हालत उसने बनाई है उससे मुझे विश्वास है कि वह जरूर कोई बखेड़ा कर देगा और फिर मेरा नाम और भी गन्दगी में घसीटा जायेगा । जगत नारायण ने तुम्हें जो ट्रीटमेंट दिया था, उससे तुम मर भी सकते थे । मुझे ख्वाब में भी उम्मीद नहीं थी कि जगत नारायण इस हद तक आगे बढ सकता था । मैं कोई सलीके का साफ-सुथरा तरीका चाहती हूं जिसमें बखेड़ा न हो ।”
“यानी सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे ।”
“करैक्ट ।” - रत्ना देवी जोश से बोली ।
“जबकि यह काम अगर जगत नारायण करेगा तो आपको लगता है कि सांप तो बचकर निकल भागेगा और लाठी टूट जायेगी ?”
“करैक्ट ।” - इस बार रत्ना के स्वर में पहले जैसा जोश नहीं था । वह तनिक सन्दिग्ध भाव में सुनील को देख रही थी ।
सुनील ने एक गहरी सांस ली । उसने मेज से लक्की स्ट्राइक का पैकेट उठाया । उसने पैकेट झटककर एक सिगरेट बाहर निकला और पैकेट रत्ना देवी की ओर बढा दिया - “सिगरेट ?”
“मैं सिगरेट नहीं पीती ।” - रत्ना देवी अनमने स्वर से बोली ।
“बहुत अच्छा करती हैं ।” - सुनील वही सिगरेट अपने होठों से लगाता हुआ बोला - “सुना है इससे कैन्सर हो जाता है ।”
रत्ना देवी चुप रही ।
सुनील ने सिगरेट का एक गहरा कश लगाया और फिर ढेर सारा धुंआ उगलता हुआ बोला - “आप फिल्मों में काम क्यों नहीं करती, रत्ना देवी ?”
“क्या मतलब ?” - रत्ना देवी तीव्र स्वर में बोली ।
“मेरा मतलब है कि अगर आप अभिनेत्री बन जायें तो मीना कुमारी जैसी एक आध दर्जन अभिनेत्रियों की आप बड़ी आसानी से ऐसी-तैसी कर सकती हैं ।”
“यह तुम क्या ऊंट-पटांग बोल रहे हो ?”
“शादी कब हो रही है ?” - सुनील रत्ना देवी के नेत्रों में झांकता हुआ बोला ।
“किसकी ?”
“आपकी और जगत नारायण की । यानी कि आप दोनों की ।”
“तुम पागल तो नहीं हो गये हो ? अभी तक तो तुम अच्छे भले थे । अब एकाएक तुम पता नहीं क्या ऊंट-पटांग बकने लगे हो ।”
“मैडम !” - सुनील कर्कश स्वर में बोला - “सिर उठाइये । मेरी ओर देखिये । मेरी सूरत पर निगाह डालिये और फिर बताइये कि मेरे चेहरे पर आपकी मेहरबानी से पड़ी खरोंचों के अलावा क्या आपको कहीं मूर्खता के लक्षण भी दिखाई दे रहे हैं ?”
रत्ना देवी असमंजस पूर्णनेत्रों से उसकी ओर देखने लगी ।
“मैडम, मैं आप जैसा रजिस्टर्ड रईस तो नहीं हूं लेकिन मैंने जिन्दगी में बहुत पैसा कमाया है । कई खुदगर्ज लोगों ने अपनी भलाई को निगाह में रखते हुये मुझे पच्चीस हजार रुपये से बड़ी बड़ी रकम की ऑफर दी है । इसलिये पच्चीस हजार रुपये मेरी निगाह में कोई खास अहमियत नहीं रखते । विश्वास रखिये मैं इनके लालच में आकर राजनगर छोड़कर दौड़ा-दौड़ा बम्बई नहीं चला जाऊंगा ।”
“यानी कि तुम मेरा कान नहीं करोगे ?”
“कौन सा काम ? कैसा काम ? आपका कोई काम नहीं है आपको कोई ब्लैकमेल नहीं कर रहा है । आप केवल जगत नारायण की खातिर ब्लैकमेल की एक कहानी गढकर मेरे पास ले आई हैं और कहानी को दम देने के लिये साथ में एक अपनी और डेनी की पोज की हुई तस्वीर ले आई हैं । आपका और जगत नारायण का ख्याल था कि मैं पच्चीस हजार रुपये के लालच में फौरन बम्बई रवाना हो जाऊंगा और वहां जी पी ओ में मुरारीलाल नामक एक ऐसे आदमी की इंतजार में सड़ता रहूंगा जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, जिसने कभी जी पी ओ नहीं आना है । बम्बई में कई दिन झक मारने के बाद जब मैं राजनगर लौटूंगा तब तक सारा मामला ठण्डा हो चुका होगा । तब तक पुलिस का ध्यान इस ओर से हट चुका होगा कि जली हुई लाश लोलिता की है ।
“लेकिन यह लाश लोलिता की नहीं है । लोलिता बुधवार को मुझसे मिली थी ।”
“आपकी ब्लैकमेल की कहानी की तरह बुधवार को लोलिता से आपकी मुलाकात की कहानी भी झूठी है । मैडम, बहुत लोग वह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि लोलिता जिन्दा है । आपकी तरह ‘ब्लू रूम’ का मालिक राजपाल भी कहता है कि उसने टेलीफोन पर लोलिता से बात की थी । जब कि मुझे पूरा विश्वास हो चुका है कि कार एक्सीडेंट में जली हई लाश लोलिता की थी । अब मैं जरूर जानकर रहूंगा कि इतने लोग लोलिता को जीवित साबित करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं ? पहले मुझे अपने आसपास के कई लोगों पर शक था लेकिन आप पर नहीं था । आपका यहां आना आपको भी मेरे शक के दायरे में ले आया है ।”
“तुम पागल हो । लोलिता जैसी मामूली लड़की जिन्दा है या मर गई, मुझे इससे क्या फर्क पड़ता है ?”
“यही तो मैंने जानना है कि आपको इससे क्या फर्क पड़ता है ? कोई तो फर्क पड़ता ही होगा वरना आप जगत नारायण के कहने पर दौड़ी-दौड़ी मेरे पास न चली आती ।”
“मेरे यहां आने से जगत नारायण का क्या वास्ता है ?”
“उसी का तो सारा वास्ता है । उसी ने तो आपको यहां भेजा हूं । जगत नारायण नहीं चाहता कि मैं लोलिता के मामले में गड़े मुर्दे कुरेदूं । उसी वजह से पहले उसने मुझे टेलीफोन पर धमकी दिलवाई, फिर मुझे अपने गुन्डों से बुरी तरह पिटवाया । बीच रोड पर मुझे शूट करने की कोशिश की लेकिन वह मुझे हतोत्साहित करने में सफल नहीं हो सका है । मैं पुलिस के सामने जगत नारायण के खिलाफ कोई सबूत नहीं पेश कर सका लेकिन फिर भी एक नागरिक के नाते पुलिस की निगाहों में जगत नारायण के मुकाबले में मैं ज्यादा विश्वसनीय आदमी हूं, अगर अब मेरी हत्या हो गई तो जगत नारायण पुलिस की निगाहों में सस्पैक्ट नम्बर वन बन जायेगा और पुलिस पहाड़ की तरह उस पर टूट पड़ेगी । फिर यह पर्दा उठते देर नहीं लगेगी कि जगत नारायण जेल भुगतकर शरीफ वरीफ कुछ नहीं बना है । वह अब भी पहले जैसा बदमाश है । फर्क सिर्फ इतना पड़ गया है कि आप जैसे समाज के आधार स्तम्भों की मित्रता की वजह से उस पर शराफत की नकली परत इतनी गहरी चढ गई है कि बहुत गहरा खरोंचने पर ही अन्दर से उसकी बदमाशी की कालख की झलक दिखाई देगी । मैडम, यह बात जगत नारायण भी समझता है कि अब मेरी हत्या करवाना उसके लिये खतरनाक साबित हो सकता है । इसलिये उसने आपको भेजा कि आप पच्चीस हजार रुपये के लालच में लिपटी हुई चिकनी चुपड़ी बातें बनाकर मुझे बम्बई रवाना कर दें । लेकिन मुझे अफसोस है कि आपकी और जगत नारायण की चाल कामयाब नहीं हुई ।”
“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है । लगता है तुम चरस का सिगरेट पी रहे हो ।”
“एक कश लगाकर देखिये न” - सुनील उसकी ओर सिगरेट बढाता हुआ बोला - “मालूम हो जायेगा । जहां इतने एब करती हो वहां एक और सही ।”
“तुम तो पागलखाने से फरार भयंकर पागल मालूम होते हो ।” - रत्ना देवी अपने स्थान से उठती हुई बोली - “मेरी ही अक्ल खराब थी जो मैं मदद के लिये दौड़ी तुम्हारे पास चली आई ।”
“सोहबत का असर हो ही जाता है ।”
रत्ना देवी दनदनाती हुई द्वार की ओर बढी । वह इतनी क्रोधित हो रही थी कि अपनी पच्चीस हजार रुपये की गड्डी उठाना भूल गई ।
सुनील ने गड्डी उठाई और उसे हवा में उछाल दिया । गड्डी रत्ना देवी के सिर के ऊपर से होती हुई उसके पैरों के पास जाकर गिरी ।
“आपके हर मजे की दवा नहीं छूटी जा रही थी ।” - सुनील पीछे से बोला ।
रत्ना देवी ने झुककर नोटों की गड्डी उठा ली ।
“और एक बात और सुनती जाइये ।”
रत्ना देवी ठिठक गई ।
“जगत नारायण से कह दीजियेगा कि वह मुझे तो राजनगर से निकालने में कामयाब नहीं हो सकता । इसलिये अच्छा यही होगा वह जल्दी से जल्दी खुद कहीं खिसक जाये ।”
“बास्टर्ड !” - रत्ना देवी दांत पीसकर बोली ।
“कौन ? जगत नारायण ?”
“नहीं तुम ।”
सुनील ने जोर का अट्टाहस लगाया ।
“जाती दरवाजा बन्द करना मत भूलियेगा ।”
रत्ना देवी ने इतनी जेर से दरवाजा चौखट पर मारा कि पिछले कमरे की खिड़कियों के पल्ले हिल गये ।
सुनील ने सिगरेट का आखिरी कश लगाकर उसे एश ट्रे में मसल दिया ।
उसके चेहरे पर एक सन्तोषपूर्ण मुस्कराहट थी ।
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