एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा

कुछ दिनों से चार लड़कों का एक गुट सुबह कोचिंग जाते समय नवल किशोर रोड पर मेरा पीछा कर रहा था और उनमें से एक साहबज़ादे साजन और बाकी लड़के देवर बने घूम रहे थे। बड़े भैय्या कुछ कह देते फिर देवर भाभी, भाभीकर अपनी बेहूदा टिप्पणी करते मेरे पीछे चलते। मैं अनसुना-अनदेखा करने की पूरी कोशिश कर रही थीलेकिन उस दिन वो साजन भैय्या हद से गुजर गये। साहबज़ादे स्कूटर पर थे, सामने बास्केट में क्रिकेट का बैट था और दाँतों से सुर्ख गुलाब का फूल दबा रखा था। पहले वो पीछे से सुनिए, सुनिएकी आवाज़ लगा रहे थे और फिर एकदम से स्कूटर मेरे ठीक सामने रोक दिया था। उसकी आँखों में वहशत थी या गुस्सा था या न जाने क्या था, पर जो भी था वो डरावना था। उसने कड़क अंदाज़ में घुड़का- इतने दिन से प्यार-मोहब्बत से समझा रहे हैं आपको, मगर आप हैं कि तनी जा रही हैं। सीधे से मानेंगी कि नहीं? तरीके वरना हमें और भी आते हैं।उसकी बातें सुनकर मेरी रूह कांप गई। उसने अपनी बात पूरी कर मुझे घूरते हुए लाल गुलाब मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। मैं अपनी जगह पर पत्थर की तरह जड़ हो गई थी।

मेरी ख़ुशकिस्मती से, उसी समय वहाँ कोचिंग के दो लड़के आ गये। उनका शुक्रिया, जो उन्होंने रुक कर पूछ लिया- क्या चल रहा है, बे?’ उन लड़कों की दखलंदाजी पर वो स्कूटर वाला लड़का मुझे घूरते हुए चला गया और मैं चुपचाप इन दो लड़कों के साथ कोचिंग पहुँच गई। पूरे रास्ते मैं चुपचाप रही और इन दोनों लड़कों ने भी मुझसे कुछ नहीं पूछा। एक कंपकंपी पूरे बदन में छूट रही थी। मुझे एसिड अटैक की वारदातें याद रहीं थी, तो कभी बलात्कार की कहानियाँ। उसकी घूरती हुई आँखें और उसकी धमकी। पापा को नहीं बता सकती, नहीं तो वो मेरी कोचिंग ही बंद करा देंगे। और क्या पता वो मेरी ही कोई गलती निकाल दें, इस कांड में? कोई बड़ा भाई भी नहीं मेरा कि उससे कहूँ। कोचिंग आने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं कि उस लफ़ंगे से बच जाऊँ। बेबसी और लाचारी से मन में रुलाई का उफान चढ़ता ही जा रहा था। कोचिंग पहुँचकर जैसे ही मैंने स्नेहा को देखा, मेरे आँसू रोके न रुके। मैं फफक-फफक कर रोने लगी। पंकज और पलाश ने देखा, तो वो भी मेरे पास आए और वजह पूछी। मैंने रोते हुए बताया बीते कुछ दिनों से जो कुछ मेरे साथ चल रहा था।

मेरे दोस्तों ने पल भर में मेरी समस्या हल कर दी। स्नेहा ने कहा कि वो रोज सुबह मेरे बस स्टॉप से मेरे साथ ही आएगी और पंकज, पलाश ने कहा कि वो रोज हमें बस में बैठा कर घर जायेंगे। उस दिन मेरे मन में उन तीनों के लिये ऐसी कृतज्ञता जगी कि वो तीनों मेरे लिये मेरे भाई-बहन जैसे ही सगे हो गये। अब मैं पलाश से दूरी रखने के बारे में सोच भी नहीं पा रही थी। अब मैं उसके मज़ाक पर हँस भी देती थी। उससे बात करती थी।

पलाश, बच्चों सा चंचल, चपल, नटखट और ऊर्जा से भरा लड़का है। बाल सुलभ मासूमियत तो उसकी अज़ीम शख्सियत का सबसे दिलकश पहलू था। उसकी बातों से पता चलता कि इस चुम्बकीय वाचाल के पास कितना ज्ञान है! बहुत इन्टेलिजेन्ट, इन्टलेक्चूअल और तेज दिमाग वाला बंदा। ऐसा हो नहीं सकता कि उसके साथ कोई पाँच मिनट बिना हँसे रह जाये। इतना गज़ब हास्य-बोध उसका। उसकी मुस्कुराहट दुनिया की सबसे खूबसूरत और निश्छल अदा। उसकी खिलखिलाहट जैसे ख़ुशियों की खनक। मुझे उसके हँसने पर वही ख़ुशी मिलती थी जो अंकल स्क्रूज कार्टून को अपने सिक्कों से भरे तहखाने में तैरने पर मिलती होगी। बहुत सालों पहले मुझे एक शब्द से प्यार हो गया था "मेसमराइजिंग"। इस शब्द को मैंने संभालकर रखा था कि जब इसके लायक कोई इंसान, जगह या बात मिलेगी, तभी इसे इस्तेमाल करूँगी। अब यह ख़ूबसूरत शब्द इंसानी रूप में ढलकर मेरे सामने खड़ा था। मैंने मन-ही-मन पलाश का नाम मेसमराइजिंग वन्डर बॉयरख दिया था।

अब हम चारों अच्छे दोस्त बन गए थे और तरह-तरह की बातें किया करते थे। पलाश और स्नेहा की बदौलत खूब हँसते थे हम चारों। कभी-कभार पढ़ाई भी करते थे साथ में। बातों-बातों में पता चला कि पलाश कोचिंग से घर जाकर तरह-तरह के कम्प्यूटर प्रोग्राम लिखता रहता था। यही उसकी दिनचर्या थी। पलाश का कम्प्यूटर में बहुत मन लगता था और वो उसका माहिर भी था। उसके स्कूल में कम्प्यूटर भी एक विषय था और उसमें वो अव्वल था। आठवीं कक्षा में स्कूलों द्वारा आयोजित एक कम्प्यूटर प्रतियोगिता में उसने भाग लिया था और सभी स्कूलों के प्रतिभागी छात्रों में उसने पहला स्थान पाया था। पारितोषिक में उसे मिली थी- D.O.S. की किताब, जिसे उसने कितनी ही बार चाट डाला था। उसके घर पर कम्प्यूटर नहीं था, तो वो अपनी कॉपी में तरह-तरह के प्रोग्राम लिखता और अपने एक दोस्त के घर जाकर वो प्रोग्राम उसके कम्प्यूटर पर चलाता था। पलाश को बस कंप्यूटर की ही दीवानगी थी। उसने B.Sc. भी कंप्यूटर स्ट्रीम से की थी। इसी कंप्यूटर प्रेम के चलते वो M.C.A. करना चाहता था।

सितारों की मंज़िल

ऐसा लग रहा था कि सब कुछ अच्छा चल रहा है। एक दिन हम लोग बातें कर रहे थे कि कॉलेज जाकर आशीष की तरह एक दूसरे को भूल नहीं जायेंगे। एक दूसरे को मेल करेंगे और संपर्क में रहेंगे।

पलाश ने कहा- नो एक्स्पेक्टैशन। मैं किसी को मेल नहीं करूँगा। बी रियल। नई जगह नए दोस्त बन जाते हैं।

जिस लड़के से मैं सबसे ज्यादा लगाव महसूस करती थी, उससे मुझे ऐसे निर्मोही जवाब की उम्मीद नहीं थी। फिर मुझे लगा कि यह सब भगवान ने मुझे बचाने के लिये ही किया है। मैं तो बहक ही गयी, जिससे दूर रहना था उसी के मोह में उलझती चली गयी। कैसे मैं इतनी लापरवाह हो गयी? चलो अच्छा ही हुआ, क़िस्सा बिना ज्यादा तूफ़ान मचाये जल्दी निपटा। लेकिन मन में एक कोना उदास और अँधेरा भी हो गया था। मैं हूर नहीं हूँ, लेकिन क्या मैं ऐसी दोस्त तक नहीं हूँ जिससे दोस्ती रखने का किसी को मन हो!  इतनी बड़ी "बोर और फेलियर" हूँ मैं!

सब मुझसे मायूस ही रहते हैं परिवार वाले हों या दोस्त हों। क्यूँ बनाया भगवान ने मुझे ऐसी! यह सब सोचकर मैं चुपहो गई। चार दिन बाद इन लोगों को समझ आया कि कम बोलने वाली हर्षा, अब कुछ नहीं बोलती थी। मेरी बातचीत पंकज से ज्यादा थी, तो सबको लगा पंकज ने ही कुछ गड़बड़ कह दिया होगा। मेरी चुप्पी को पहचानकर और सके कारण का अंदाज़ा लगाकर मेरे दोस्तों ने आपसी सलाह मशविरा करके पलाश को मुझसे बात करने के लिये भेजा।

पलाश मेरे पास आया और बोला- तुम इतना ग़ुस्सा क्यों हो? पंकज को लड़कियों से बात करना अच्छे से नहीं आता। उसे माफ़ कर दो और ठीक हो जाओ, प्लीज़।

मैं हैरान थी कि यह क्या हो रहा था! बेचारा पंकज कहाँ से बीच में आ गया? मैंने घूरकर पलाश को देखा और कहा- वो नहीं, तुम। तुमने ऐसा क्यों कहा था उस दिन? नो एक्सपेक्टेशन्स। देखो, मुझे यह टाइम पास दोस्तीनहीं चाहिये। मैं तो तुम सबको अपना दोस्त समझती थी, इसलिये बातें करती थी।मुझे किसी की दोस्ती और किसी की मान मनुहार नहीं चाहिये। मैं ठीक हूँ।

मैंने अपनी बात पूरी की और कहते-कहते अपने गले में अन्दर कोई भारी पत्थर बँधा हुआ महसूस कर रही थी। पलाश यक़ीन नहीं कर पा रहा था कि वही ज़िम्मेदार था मेरी बेरुख़ी और मेरे दुःख का! शायद मुझे एक नये दोस्त के रूप में अपने सामने देखने की ख़ुशी थी या मुझे न समझ सकने का दर्द था। उसकी चंचल आँखों में एक ठहराव तो आया था और नमी की एक छोटी सी लहर दौड़ी थी। वो भौचक्का सा मुझे देख रहा था। ख़ैर, थोड़ा संभलकर, उसने माफ़ी माँग ली। उसकी हमेशा हँसती हुई आँखों में नमी देखकर मेरा मन यूँ भी हलचल सी महसूस कर रहा था, तो मैं तुरन्त मान गयी।

पंकज, स्नेहा और पलाश अभी तक कोचिंग के 100 में से 75 लाने वाले ग्रुप में थे। मैं 90 से 95 के ग्रुप में थी और फिर भी मुझे डर लगता था कि असल परीक्षा में मेरा न जाने क्या होगा? इन तीनों के लिये मुझे लगता था, इनका ऐसे कैसे हो पायेगा? मैंने सबको सुझाव दिया- कोचिंग के बाद साथ में पढ़ लेते हैं। मैं रोज़ क्लास के बाद साथ में सवाल किया करूँगी और रोज़ कुछ सवाल घर में करने का टारगेट भी दूँगी। उसमें जो भी दिक़्क़त आये, वो मैं साथ में हल कर दूँगी। क्लास एक दिन छोड़कर होती है तो जिस दिन क्लास नहीं होती उस दिन पढ़ने मेरे घर आ जाओ।

मेरे घर में हमेशा ही कोई-न-कोई मेरे साथ पढ़ने के लिये आता ही रहा था और मेरे घर वालों को इसकी आदत थी। सब दोस्तों को सुझाव ठीक लगा और इस योजना पर काम शुरू हो गया। पलाश मेरी ज़बरदस्ती में घर जाकर मैथ्स के सवाल करने लगा था और अब पलाश अक्सर शाम को भी मेरे घर आने लगा था। हम पढ़ते और उसके बाद हमारी छत पर वो ढ़ेरों बातें करता था। मैं ठगी सी सुनती रहती थी। मुझे लगने लगा था कि पलाश से मेरी दोस्ती दोतरफ़ा हो गयी थी, वरना वो क्यूँ अक्सर ही मिलने आता और इस तरह मुझसे इतनी बातें करता!

हम सबने कई कम्पटीशन के फ़ॉर्म भरे। लेकिन पलाश ने एक ही फ़ॉर्म भरा था U.P.M.C.A.T. का। पलाश के पापा का जीवन आर्थिक संघर्षों से भरा हुआ था। पलाश के स्वभाव में पैसे खर्च ना होने देना बहुत गहरे पैवस्त हो चुका था। जब तक बहुत ही ज़रूरी ना हो, वो अपने घर पर किसी तरह की कोई माँग नहीं रखता था। संकुचित सा, छोटा-छोटा सा जीना, उसकी आदत हो गयी थी। उसने पैसे बचाए थे दूसरे फ़ोर्म्स ना भरकर।

पैसे बचाये हैं, लेकिन मौक़े नहीं गवाएँ उसने, यह उसे इसलिये लगता था क्यूँकि पलाश पढ़ने में एक औसत छात्र था और स्कूल के रिकॉर्ड ने उसका आत्मविश्वास हिलाकर रक्खा हुआ था। वो M.C.A. करना चाहता था और वो भी सरकारी कॉलेज से, कम-से-कम ख़र्च में। सरकारी कॉलेज में बड़ी कंपनियाँ आती हैं, तो अच्छी नौकरी लगने की संभावना प्राइवेट कॉलेज की तुलना में बहुत बढ़ जाती है। लेकिन गिने-चुने सरकारी कॉलेज के लिए लाखों छात्र एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा में थे। यह सब जानते हुए मैं समझती थी कि पलाश की डगर बहुत कठिन थी। उसके लिए दुआ और मेहनत दोनों कर रही थी मैं।

अप्रैल में मैंने M.P. M.C.A. की परीक्षा में ऑल इण्डिया 45 रैंक पा ली थी और इस परीक्षा की कोचिंग टॉपर बन गयी थी। जून में U.P.M.C.A.T. की परीक्षा का नतीजा आया और पलाश की ऑल इण्डिया पाँचवीं रैंक आयी।

अब हम सबके रास्ते अलग होने वाले थे। मैं D.A.V.V.(देवी अहिल्या विश्व विद्यालय) इंदौर जा रही थी, पलाश M.N.R.E.C. (मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज) इलाहाबाद जा रहा था। स्नेहा सीतापुर लौट रही थी और पंकज उसी कोचिंग में फिर से तैयारी करने वाला था।

फूँक डालो ये दुनिया

समाचार पत्रों में कोचिंग के नये इश्तिहार आने लगे थे जिसमें पलाश और मेरी फोटो थी। पलाश के पापा और मेरे पापा उस अखबार की कटिंग अपनी जेब में लिये लखनऊ शहर में घूम रहे थे। बच्चों ने तीर मार दिया था, यह तो तय था। लेकिन कौन से कद्दू में? दोनों यह नहीं बूझ पा रहे थे। दोनों शहर भर में जानकार ढूँढ रहे थे और दोनों ने एक-एक सूत्र पा भी लिया था। पलाश के पापा के किसी मित्र की बेटी कहीं से M.C.A. कर रही थी और मेरे पापा के बॉस का बेटा प्रतीक कहीं और से।

प्रतीक मेरे घर आया और उसने पापा को बताया- हर्षा को कंप्यूटर की बेसिक जानकारी तो होनी ही चाहिये। M.C.A. तो अड्वान्स लेवल कोर्स है, मास्टर्स डिग्री।

शुरुवाती ज्ञान के लिये उसने एक कोचिंग बताई, जहाँ एक महीने का ऐसा एक कोर्स था। वो ख़ुद भी वहाँ जा रहा था, लेकिन किसी और ही कोर्स के लिये। उसने कहा कि वो मुझे अपने साथ ले जायेगा और सर से मिलवा देगा। पापा ने हाँ कर दी।

लखनऊ के कपूरथला इलाके के कई कॉम्प्लेक्स में से यह एक कॉम्प्लेक्स था, जिसके ठीक सामने एक चाय समोसे वाला बैठता था। आस-पास कई छोटे संस्थान होने के कारण रिक्शा स्टैन्ड भी था। यह पंद्रह जून के आस-पास का समय था, जब सड़कें दोपहर को जली हुई सी सुनसान पड़ी रहती हैं। तपती गरमी और लू से बचने के लिये लोग घरों और ऑफिस में कूलर लगाकर छुपे रहते हैं। ऐसा लगता था कि धरती को जीवन देने वाला सूरज ही धरती से जीवन सोख लेने पर तुला हुआ हो। लगभग एक महीने बाद ही मुझे इंदौर जाना था, इसलिये मैं मौसम का मुंह देखकर रूक नहीं सकती थी।

अगले ही दिन प्रतीक ने मुझे सर से मिलवाया और मेरी क्लास का समय वही रखवाया जो उसका था, शाम को पाँच बजे। गरमी के ताण्डव को देखते हुए मुझे भी यह समय ठीक लगा और मैंने हाँ कर दी। उस समय कोचिंग में दो अन्य लड़कियाँ भी थी और कोचिंग में छः कम्प्यूटर थे। मैंने प्रतीक को धन्यवाद किया और मेरी कोचिंग उसी दिन से शुरू हो गई।

उस दिन पहली बार मैंने कंप्यूटर छुआ था। क्लास पूरी कर मैं घर चलने को हुई, तो प्रतीक ज़िद पर अड़ गया कि वो मुझे घर तक छोड़ देगा। कुछ देर न करने के बाद आखिर मुझे उसकी बात माननी ही पड़ी। अब तो यह रोज़ का क़िस्सा हो गया। वो हर रोज मुझे लेने-छोड़ने आता था और फिर वापसी में मुझे चाय समोसे खिलाने की ज़िद भी करता था। उसका कहना था- लोहा ही लोहे को काटता है। तो भला गरमी में गरमागरम चाय और समोसा खाने में कैसा ऐतराज़?’

मुझे रोज की इस ज़बरदस्ती से उलझन आने लगी थी। आखिरकार, उससे निजात पाने के लिये मैंने सर से कहा कि मेरा समय बदल दें। सर ने कहा- कल से दोपहर दो बजे आ जाओ।

चिलचिलाती धूप में रिक्शे पर सवार होकर मैं वहाँ दो बजे पहुँच गई। हैरानी हुई कि उस समय कोचिंग में न रिसेप्शन वाली लड़की थी और न ही कोई दूसरा स्टूडेंट। ख़ैर, मैं अपने कम्प्यूटर के पास पहुँची और जो कुछ भी पिछली क्लास में बताया गया था, उसे करने की कोशिश करने लगी। यह कोचिंग में मेरा आठवां दिन था। मैं लकड़ी की बेंच पर बैठी थी और मेरा एक हाथ माउस पर था। तभी सर मेरे पीछे से मुझ पर लदते हुए बोले- क्या कर रही हो?’ वो मेरे इतने करीब थे कि उनकी सांसें मुझे मेरी गर्दन पर लू सी महसूस हो रहीं थीं। मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे। उस दिन की धूप बहुत काली थी। जीवन में पहली बार मुझे किसी शिक्षक से ऐसा डर लगा था। वो मेरे गुरुओं पर विश्वास और श्रद्धा के चरमराने की दोपहर थी। तभी उन्होंने अपना कांपता हुआ हाथ मेरे हाथ पर रखा और माउस हिलाने लगे। ऐसी घृणा उपज रही थी मेरे मन में, जिसके लिये शब्द नहीं हैं मेरे पास। आतंक भी हावी हो रहा था। फिर वो पीछे हट गये और सामने आकर बैठ गये। मैं घबराई सी बैठी थी और मुझमें वहाँ से उठकर जाने तक की हिम्मत नहीं हो रही थी। उनसे कुछ कहने में भी डर लग रहा था, क्योंकि समय और जगह ऐसी थी।

उन्होंने ही बातें शुरू कीं और अपना रुतबा बताते हुए कहा- ‘I.I.T. और दूसरे बड़े कॉलेज में मेरी बहुत पहचान है। जरूरत पड़ी तो तुम्हारी नौकरी भी लगवा देंगे।फिर बोले- मुझे अपना दोस्त समझो। ठीक है?’

मैंने सिर झुकाए ही धीमी आवाज़ में कहा- जी सर।

वो बोले- नवीन नाम है मेरा। तुम मुझे नाम से बुला सकती हो।

उन्होंने मुझे अपना फोन नंबर भी दिया कि हमेशा संपर्क में रहना। क्लास ख़त्म होने का समय हुआ तो उन्होंने कहा- दोस्ती की ख़ुशी में चाय समोसा खाते हैं। फिर चली जाना।

हे भगवान! जिस चाय समोसा और लंपटपने से बचने के चक्कर में मेरी यह दुर्गति हो रही थी, वो दोनों और भी वीभत्स बनकर मेरे सामने थे। मैंने जल्दी-जल्दी समोसा निगला और वहाँ से निकल पड़ी। शाम को मैंने बहुत हिम्मत जुटाकर पापा से कहा- मुझे कोचिंग नहीं जाना। बाकी का कम्प्यूटर मैं अपने कॉलेज में ही सीख लूँगी।

आश्चर्य हुआ था मुझे कि पापा बिना कुछ भी पूछे रजामंद हो गये।

न जाने आज मेरा लखनऊ बीस साल की कम बोलने वाली, सिर झुका कर चलने वाली और आसानी से दूसरों पर भरोसा कर लेने वाली लड़कियों के लिये कितना भूतहा और कितना डरावना होगा? आज भी उस समय में दोबारा जाने से कतराती हूँ भले ही वो सफ़र यादों का ही क्यूँ न हो। जब भी यह बातें और वो दौर याद आता है तो यही दुआ करती हूँ कि अब कोई मासूम लड़की रिक्शे पर अपने आँसू ज़ब्त किये यह न सोचती हो- मुझमें ऐसी क्या प्रॉब्लम है, जो मेरे साथ यह सब होता है?’

टूटा-टूटा एक परिंदा ऐसा टूटा

महीने भर बाद, जुलाई के आख़िरी हफ़्ते में, भोपाल में काउंसलिंग और D.A.V.V. में दाख़िला ले लेने के बाद हम इंदौर पहुँचे। मम्मी पापा दोनों मेरे साथ इंदौर आए और हॉस्टल, बैंक अकाउंट वगैरह का इंतेज़ाम किया। कॉलेज कैंपस घूमे और कॉलेज से हॉस्टल का रास्ता पता किया। हम लोग सरवटे बस स्टेशन के पास ही एक होटल में रुके हुए थे। होटल में कटिंग चाय सुनकर हम लोग चौंक गये। हम लोगों ने तो कौतूहल में ऑर्डर कर दी थी कि जाने कैसी ख़ास होगी!

जब चाय आई तो हम नवाबी त्रिमूर्ति ने जाना कि कम चाय को इंदौर में "कटिंग चाय" कहते हैं। यहाँ नाश्ते में पोहा था और साथ में था जीरावन मसाला। घर के बाहर भी घर जैसा सादा, बिना चटखारे का नाश्ता मिलना बहुत बड़ी मायूसी थी मेरे लिये। इंदौरवालों को एक बार लखनऊ आना चहिये। देखें और सीखें कि बाहर का नाश्ता कैसे सारी इन्द्रियाँ जागृत करके नींद को रफूचक्कर कर देता है। हमारे लखनऊ में तो नाश्ता मतलब कचौड़ी, ख़स्ता, समोसे, जलेबी-दही। हाँ, इंदौर का जीरावन लखनऊ के बुकनू का करीबी रिश्तेदार जरूर लग रहा था। कुल मिलाकर यह कि नाश्ता बोरिंग था।

तीन दिन तक हम वहाँ साथ रहे और फिर जाने से पहले पापा ने हिदायत दी- बेटा, पढ़ने के लिये छोड़ कर जा रहे हैं तुम्हें यहाँ। ध्यान रखना, कोई दाग नहीं लगना चाहिये।

मम्मी ने सेहत का ख़याल रखने, अच्छे से खाने-पीने की नसीहत की। मैं स्वभाव से डरपोक, संकोची और अंतर्मुखी लड़की अब हॉस्टल के एक कमरे में अकेली थी। मुझे पहली बार महसूस हुआ कि "अकेले रहना" किस चिड़िया का नाम है। मुझे मेरे कमरे से बाहर निकलने में डर लगता था। सीनियर भी राह तके रहते थे कि फ्रेशर दिखे और वो उसकी ऐसी तैसी कर डालें।

एक रात रैगिंग में मुझे दुल्हन होने की एक्टिंग करने को कहा गया और एक दूसरी लड़की को मेरा पति बनने को कहा गया। मैं एक दुपट्टे से चेहरा छिपाकर बिस्तर पर बैठ गयी। दूसरी लड़की मेरे पास आई और उसने मेरा घूंघट उठाया। वो लगभग चीखती हुई बोली- 'हे भगवान! मेकअप में तू "और भी" बुरी दिखती है।' मेरे मन में उसका "और भी बुरी" गढ़ गया। "और भी?" मतलब इस लड़की को वैसे मैं बुरी दिखती हूँ। इस बात पर सीनियर्स ठहाके लगा रहे थे और यह उस लड़की की बात में हामी भरने जैसा लग रहा था। पहली बार किसी ने मेरी सूरत का सरेआम मज़ाक बनाया था। मैं सदमे में चुप थी। मगर सदमों का सिलसिला तो अभी शुरू ही हुआ था। तभी उस लड़की ने आगे कहा- 'तू गूंगी है क्या? बोल नहीं सकती?' एक सीनियर ने तपाक से उसमें जोड़ा- 'गाय जैसी बेजुबान बीवी मिली है तुझे।' इन बातों ने मेरी जीभ में गाँठ ही लगा दी और मुझे लगा मैं वाक़ई गूंगी हो गयी। मेरा सारा ज़ोर मेरे आंसुओं को रोकने में लगा हुआ था। उसके बाद एक सीनियर ने कहा- 'लड़की पूरी तरह कैरेक्टेर में घुस गयी है। बहुत पका रही है। अरे ओ! भारतीय नारी। अबला, बेचारी। चल उठ जा।'

मैं यंत्रवत बिस्तर से उतर आई। मैं अपने आप को बहुत बदसूरत महसूस कर रही थी। जैसे सारी दुनिया की बदसूरती मुझमें सिमट आई थी। ऐसा लग रहा था कि सब मेरी शक्ल का मज़ाक उड़ा रहे हैं। मेरी चुप्पी ने बची-कुची कसर भी पूरी कर डाली थी। मैंने उस रात ख़ुद को एक बोरिंग, बेजुबान और बदसूरत मिसाल के तौर पर कायम कर लिया था। मैं अन्दर से ख़ुद को एक बीस साल पुराना खंडहर महसूस कर रही थी।

हॉस्टल में यह मेरी पांचवी ही रात थी, जब एक सीनियर ने कहा- 'हे यू! वेट्स ऑन राइट प्लेस गर्ल, चल डांस कर।' यह सुनकर मुझे इतनी झेंप हुई कि शर्म से कान लाल हो गये। मेरी फिगर को लेकर ऐसा भद्दा कमेंट पहले कभी किसी लड़की ने नहीं किया था। एक आवाज़ उठी- 'ब्राजील बजाओ यार।' गाना शुरू हुआ। अंग्रेजी गाना? मेरी हालत और भी ख़राब हो गयी। मेरे लिये तो डांस का मतलब था हिल-डुल कर वर्ड्स के हिसाब से एक्टिंग करना। इस गाने में ब्राजील के अलावा कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। और ब्राजील की क्या एक्टिंग? मतलब क्या करूँ? कैसे करूँ? मेरे तो पैर ही जम गए थे। गाना बजे जा रहा था और मैं चुपचाप खड़ी थी। तब एक सीनियर ने कहा- 'लड़की की नहीं, लकड़ी की कमर है, यार।' फिर मेरे पास आकर उसने मेरी कमर पकड़कर झकझोरी और कहा- 'देवी जी, ठुमके।' उसके हिलाने से मेरा शरीर कुछ हरकत में आया और मैं डांस करने लगी। वर्ड्स तो समझ नहीं आ रहे थे "ला ला लाला लाला ला ब्राज़ीलइतना ही समझकर ठुमके के साथ ताली बजाते हुए गाना पूरा किया मैंने।

डांस पर तो कोई कमेंट नहीं आया, तो लगा ठीक ही किया होगा मैंने। हाँ, मेरी पतली कमर में भी कमी निकाल देने वाली सीनियर से एक खुन्दक ज़रूर महसूस हुई। 'जलती है मुझसे। मोटी, भैंस कहीं की।' मन-ही-मन उसे कोस कर गुस्सा कुछ कम हुआ मेरा।

हर रात की रैगिंग मुझमें नयी कमियाँ निकाल रही थी और मुझे नये-नये ढ़ंग से तोड़ रही थी। मेरी शक्ल का मज़ाक बनाया गया। मेरी छरहरी काया जिस पर मुझे नाज़ था, उसे सूखी लकड़ी कहा गया। मेरे जिस शांत और अन्तर्मुखी स्वभाव के लिये घर, परिवार और रिश्तेदारों ने हमेशा मेरी तारीफ़ ही की, उसका मज़ाक उड़ाया गया। मेरी बुद्धिमानी के लिये मेरे मामा मुझे "गणेश" कहते थे। और यहाँ मुझे "गणेश" नहीं "गोबर-गणेश" कहा जा रहा था। मैं तो अपने आस-पड़ोस में एक आदर्श लड़की की तरह जानी जाती थी। वो कौन सी दुनिया थी? यह कौन सी जगह है? यहाँ तो मैं बिलकुल मिस फिट हूँ। कोई मुझमें कुछ भी पसन्द नहीं करता। मेरी सारी अच्छाइयों को कूड़ेदान के लायक साबित कर दिया सबने। हर रोज़ मेरा आत्मविश्वास घटता जा रहा था। मुझे पूरी दुनिया से नफ़रत होने लगी थी। मेरा मज़ाक बनाने वाली लड़कियों को जान से मार डालने की इच्छा होती थी।

कभी मन होता था कि रोती हुई घर चली जाऊँ। मम्मी-पापा को बताऊँ कि कितनी खराब जगह है यह। फिर से अपने घर, अपने मोहल्ले में रहूँ और कुछ दूसरा कोर्स कर लूँ। लेकिन सब मुझे "भगौड़ी" कहेंगे और फिर वो भी मेरी रेस्पेक्ट नहीं करेंगे। तो क्या अब यह अपमानित जीवन ही जीना होगा मुझे?

हॉस्टल में एक रात सीनियर्स ने एक नया नाटक रचा और कहा कि वो सब लड़के हैं और एक लड़की रीमा को छेड़खानी का शिकार बनाया। रीमा ने कमरे में चलना शुरू किया। किसी ने सीटी बजाई, किसी ने आँख मारी और एक ने कहा- 'गज़ब! ट्रांसपेरेंट टॉप में तेरी ब्लैक ब्रा मस्त लग रही है, जानेमन।' यह सब देख कर मेरा गला सूख रहा था। 'बेचारी रीमा! उसको कैसा लगा होगा' यह सोचकर मुझे उसके लिये बहुत दुःख हो रहा था। लेकिन तभी कमाल हो गया। विक्टिम रीमा ने उस दूसरी लड़की की तरफ़ तुनककर देखा और कहा- पैंटी भी मस्त है मेरी। कलर बताऊँ उसका?' उसकी इस बात पर मेरा तो मुँह खुला रह गया और सारे सीनियर्स ने ख़ूब तालियाँ बजाई।

उस रात रीमा पर फ़िदा हो गए सीनियर्स। उसके बाद से सीनियर्स उसे इज्ज़त देते थे और प्यार से बात करते थे। मैं ख़ुद भी उसकी बेबाकी की कायल हो गयी थी। ऐसा लगा था जैसे उसने मेरी तरफ़ से उन सारे लड़कों से बदला ले लिया, जिन्होंने मेरे साथ कभी बदतमीज़ी की थी। वाह! यह है जवाब। ऐसा जवाब देने के लिये कितनी हिम्मत चाहिये और बेशर्मी भी। मेरी तो आवाज़ ही गुम हो जाती है, जब कोई मुझे तंग करता है। लड़के तो क्या, मैं तो इन दबंग सीनियर्स को भी कुछ नहीं कह पाती। रीमा ने कैसे कह लिया ऐसे? रिस्क लिया उसने, तभी तो उसको इज्ज़त और प्यार मिल रहा है। यह इज्ज़त, प्यार और ख़ुशी जो रीमा महसूस कर रही थी, क्या मैं कभी महसूस कर सकूँगी?

ज़िन्दा है, तो प्याला पूरा भर ले

मैं इस उधेड़बुन में फंसी थी कि जो आज तक सीखा है, उस पर अविश्वास करना ठीक है? लेकिन एक बात साफ़ थी कि मुझे इस गन्दी सी इमेज के साथ नहीं जीना। मैं अब तक जहाँ थी बेस्ट थी और अब जहाँ हूँ, वहाँ भी बेस्ट ही रहूँगी। घर पर एक बहन और एक बेटी की तरह जी रही थी और मुझे प्यार, सम्मान ही मिला। जब उस बहन, बेटी के क़िरदार को छोड़कर कुछ घंटों के लिये केवल हर्षा होकर घर से बाहर निकलती थी, तो डरी सहमी ही मिली दुनिया से मैं। मैने अब तक अपना जीवन कभी भी, सिर्फ़ हर्षा बनकर इतने लम्बे समय के लिये जिया ही नहीं था।

अपने भाई बहन में सबसे बड़ी होने के कारण हर काम करने से पहले सोचना होता था कि भाई बहन पर मेरी बातों और मेरे फ़ैसलों का क्या असर होगा? मेरी देखा-देखी अगर वो भी वही करने लगे तो? इस सोच के चलते मेरे पास कभी अधिकार नहीं था ज़िद करने का या अपनी मर्जी करने का। कपड़ों का मामला हो, तो पापा की मान्यता की मुहर चाहिये होती थी। उन्हें जो ठीक लगता था, वही कपड़े पहन सकती थी मैं। हम चार भाई बहन हैं और सब चिल्लम-चिल्ली करें तो घर का माहौल क्या होगा? इसलिये बचपन से मैंने शान्त रहने और धीरे बोलने का आदर्श अपने भाई बहनों के लिये रखा। ख़ैर, भाई बहन का अपना ही व्यक्तित्व होता है, जो अक्सर बड़े भाई या बड़ी बहन से उलट ही होता है। लेकिन फिर भी समाज और परिवार की अपेक्षा होती है कि बड़ा हर काम संभल कर ही करे। इसी के चलते दब्बूपना, और शांत रहना धीरे-धीरे मेरी शख्सियत का अटूट हिस्सा हो गये।

क्लास में मेरी पढ़ाई ने ज़रूर मेरा साथ दिया और सहपाठियों से इज्ज़त, स्वीकार्यता और दोस्ती दिलवाई। दोस्ती की शुरुवात तो हमेशा ही पढ़ाई में मेरे रुतबे को लेकर ही हुई। लेकिन यहाँ? यहाँ तो पढ़ाई को कोई तवज्जोह ही नहीं देता था! ख़ैर, यह भी बात थी कि यहाँ सभी अपने क़िस्म के धुरंधर ही थे। और क्या जीवन भर, हर जगह मैं यह पढ़ाई का रौला गाँठ कर दोस्त बना पाऊँगी? ज़ाहिर था, नहीं। अब मेरी दुनिया उस दायरे से बाहर हो चुकी थी। अब मुझे एक आत्मनिर्भर लड़की की तरह जीना सीखना था।

मुझे हर्षा बनकर जीने के एहसास को ख़ूबसूरत बनाना था। मुझे ख़ुद से और दुनिया से प्यार था, जिसे मैं कायम रखना चाहती थी। नफ़रत की बदसूरती से बचना चाहती थी। अब अपनी मुश्किलों का हल मुझे ख़ुद ही ढूँढना था। घर के बाहर जीने के लिये एक ही रिश्ता काम आता है - दोस्ती का। लखनऊ में मैंने कभी किसी से दोस्ती करने की पहल नहीं की थी क्यूँकि मेरा अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव मुझे इसकी इजाज़त नहीं देता था। यहाँ भी पहले मैं राह देख रही थी कि कोई ख़ुद मेरी तरफ़ बढ़कर आये और दोस्ती हो जाये। लेकिन फिर लगा- कोई क्यों मुझसे दोस्ती करेगा? ऐसा क्या खास है मुझमें? चुप रहने वालों की संगत भला कितनों को भाती है?

मुझे समझ आ गया था कि लोगों को मेरी संगत में मज़ा आना चाहिये, जैसा मुझे आता था अपने दोस्तों के साथ। वरना, लोग, जहाँ मज़ा आता है वहाँ चले जायेंगे और मैं अकेली ही रह जाऊँगी। मेरे लिये अंतर्मुखी स्वभाव को बहिर्मुखी में बदलना ज़रूरी हो गया था। अनुभवों ने सिखा दिया था कि जो डर गया वो मर गया। और जो हो रहा था, उससे बुरा और क्या होता? अब मैंने ठान लिया- 'डर के आगे जीत है। मैं जीतकर रहूँगी।

शुरुवात मैंने निडर होने के अभिनय से की। अंदर डर से हालत खराब होती, लेकिन बाहर से पूरी तरह बेफिक्र और मनमौजी दिखना शुरू कर दिया मैंने। नतीजे के तौर पर मेरी इमेज सुधरने लगी थी। पहले मैं सोचती थी- मुझमें क्या प्रॉब्लम है, जो लड़के परेशान करते हैं। अब मुझे समझ में आने लगा कि मुझमें जो है उसे समस्या नहीं, आकर्षण कहते हैं। लड़के मेरी छरहरी काया, पतली कमर, मेरी नज़ाकत और मेरी मासूम सी शक्ल पर फिसल जाते हैं। बीस साल की एक जवान लड़की आसान शिकार भी लगती है, तो सभी चांस मारते हैं।

लखनऊ में, मेरा लड़की होना मुझे हमेशा से मेरी कमजोरी लगता रहा था। न मैं लड़की होती और न यह सब मेरे साथ होता। लेकिन रीमा को देखा तो मुझे दिव्य ज्ञान मिला- मेरा लड़की होना, दरअसल, लड़कों की कमजोरी थी, और मेरी ताक़त। मेरी ताक़त जिसे मैंने कमजोरी मानकर हमेशा ख़ुद को ही चुटहिल किया, अब मैं उसे इस्तेमाल करना सीख रही थी। लड़कों से डरने की जगह उनको क़ाबू में करने की कोशिश कर रही थी। अब मैं नौसिखिया तलवार बाज नहीं, बल्कि एक प्रशिक्षित और कुशल योद्धा बन रही थी।

मुझे गाने का शौक था, लेकिन पापा को लगता था कि नाचने-गाने का शौक पढाई में बहुत बड़ा रोड़ा होता है। मैं अपने घर में गुनगुनाती तक नहीं थी। लेकिन हॉस्टल आकर यह सारे बंधन छूट गये थे और निषेधित आसमान भी मेरा हो गया था। नयी चुनौतियों के साथ ही नये अवसर भी थे। मैं अपनी मर्जी के कपड़े पहनती और अपने फैसले भी ख़ुद लेती। गाती थी और नाचती भी थी। पहली बार मेरे दो-तीन दोस्तों की जगह लगभग साठ दोस्त थे। पहली बार मेरी इमेज एक चुलबुली, ख़ुशमिज़ाज़ और सेक्सी लड़की की बनी थी। अब मैं वो पढ़ाकू लड़की नहीं थी, जिससे पलाश को डर लगता था। स्वछन्द और उन्मुक्त जीवन मिल गया था मुझे। मेरी ख्वाहिशों की पतंग को एक निर्बाध गगन मिल गया था, जिसमें मगन होकर वो कहीं भी उड़ सकती थी। अपनी ही नज़रों में मेरी इज्ज़त बहुत बढ़ गयी थी। मेरी सेक्सी फ़िगर और मस्त कपड़ों के कारण मैं कॉलेज में उर्मिला मातोंडकरऔर ग्लोबस गर्लके नाम से मशहूर हो गई थी।