आधी रात के करीब एक बन्द ट्रक जौहरी बाजार में दाखिल हुआ । ट्रक को रूपचन्द जगनानी चला रहा था । ट्रक के पृष्ठभाग में उनके द्वारा बड़ी मेहनत से मुहैया किए गए साजो-सामान के साथ विमल, वागले, मुबारक अली, जामवन्तराव और सतीश आनन्द मौजूद थे ।
बाजार उस घड़ी एकदम खाली था । थोड़ी बूंदा-बांदी हो रही थी इसलिए सड़क पर कोई इक्का-दुक्का राहगीर भी नहीं दिखाई दे रहा था ।
जार्ज सैबेस्टियन मैटाडोर वैन की ड्राइविंग सीट पर यूं अधलेटा-सा बैठा था कि आते-जाते राही को वैन खाली ही खड़ी दिखाई देती थी । आठ बजे से मैटाडोर वैन के साथ वह वहां मौजूद था । आठ बजे वहां पार्किंग की इजाजत होती थी और ऐन आठ बजे उसने सीवर के छत्तीस नम्बर मैनहोल के ऊपर वैन खड़ी कर दी थी ।
ट्रक आता देखकर वह सजग हुआ । उसने वैन का इंजन स्टार्ट किया, उसे हौले से गियर में डाला और आगे बढा दिया ।
उसके द्वारा खाली की गई जगह पर रूपचन्द ने ट्रक ला खड़ा किया । उसने इंजन आफ किया और हैडलाइट्स बुझा दीं ।
जार्ज सैबेस्टियन को ट्रक के कोई सौ गज दूर पार्किंग की जगह मिली । वह वैन को वहां खड़ी करके निशब्द वापिस लौटा ।
मुबारक अली ट्रक के भीतर उसके फर्श पर लेट गया । उसके हाथ में एक रबड़ चढी, आगे से मुड़ी हुई लोहे की मजबूत छड़ मौजूद थी जिसे उसने ट्रक के फर्श में हुए छेद से बाहर लटकाया और उसे नीचे ऐन सामने दिखाई दे रहे मैनहोल कवर में फंसाकर उमेठना शुरू किया । थोड़ी सी कोशिश से मैनहोल कवर अपने स्थान से हट गया । उसने कवर को मैनहोल के दहाने के करीब रख दिया और छड़ वापिस खींच ली ।
फिर सबसे पहले वही छेद से बाहर लटककर मैनहोल में उतरा ।
सब ने दस्ताने, गम बूट और ओवरआल पहने हुए थे और गैस मास्क यूं गले में लटकाए हुए थे कि जरुरत पड़ते ही वे चेहरों पर चढाए जा सकते थे ।
तब तक जार्ज सैबेस्टियन भी वापिस आकर ट्रक में दाखिल हो गया था ।
चार जने सीवर में उतर गए और दो जने, वागले और आनन्द, ट्रक में रह गए । मैनहोल के दहाने से सीवर तक फुट-फुट के फासले पर लोहे के रिंग लगे हुए थे जोकि नीचे उतरने के लिए सीढी की तरह प्रयोग में लाए जाते थे ।
फिर सीवर में सामान उतारा जाने लगा ।
सामान इतना ज्यादा हो गया था कि एक ही बार में सब का सब वहां पहुंचा देना मुमकिन नहीं था, इसलिए अभी आधा सामान ही लाया गया था लेकिन आधे सामान में से इस्तेमाल की कोई आइटम छूटी नहीं थी ।
विमल के पांव सीवर के घुटनों-घुटनों पानी में डूबे फर्श पर लगे तो सीवर में बहती गन्दगी उसे अपनी टांगों से लिपटती महसूस होने लगी । दुर्गन्ध का वहां इतना बुरा हाल था कि उसको फौरन ही अपने चेहरे पर गैस मास्क चढा लेना पड़ा । गैस मास्क में ही लगे हैड लैम्प को उसने आन कर लिया ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह ! - वह मन ही मन बोला - तू मेरा राखा सबनी थाहीं ।
उसने अपने दाएं-बाएं दोनों तरफ सीवर की विशाल सुरंग दौड़ती दिखाई दीं । जहां वे खड़े थे वहां क्योंकि दो सुरंगों का जोड़ था इसलिए वहां छत इतनी ऊंची थी कि बिना छत से सिर टकराए सीधे खड़े हो सकते थे ।
आधे घन्टे में ट्रक का सारा सामान नीचे सीवर में पहुंच गया और वागले और आनन्द भी सीवर में उतर आए ।
फिर सबने गैस मास्क चढा लिए और हैड लैम्प आन कर लिए ।
वे एक कतार में आगे-पीछे चलते हुए आगे बढे । उस बार उन्होंने कोई सामान साथ ले जाने की कोशिश नहीं की । अभी उन्होंने सीवर में वह स्थान तलाश करना था जो रूपचन्द के नक्शों के मुताबिक वाल्ट के पहलू के सबसे करीब से गुजरता था । फिर उसी स्थान तक सारा सामान ढोया जाना था और सुरंग खोदने के काम का श्रीगणेश किया जाना था ।
“लगता है” - मुबारक अली बोला - “सारे बम्बई शहर का, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मैला इधर ही बह रहा है ।”
“सारे बम्बई शहर का नहीं” - आनन्द बोला - “अब मैला घुटनों-घुटनों है, तब गले-गले होता ।”
किसी को हंसी न आई । बावजूद गैस मास्कों के गन्दगी के ख्याल से ही सबको उबकाइयां आ रही थीं ।
मुबारक अली ने एक बार बेध्यानी में सिर ऊंचा किया तो सिर भड़ाक से सीवर की छत से टकराया ।
“तौबा !” - उसके मुंह से निकला - “तौबा ! इससे बद और क्या होगा जहन्नुम का नजारा !”
“अभी तो कुछ भी नहीं हुआ, मियां ।” - विमल बोला - “जहन्नुम का नजारा तो तुम्हें तब दिखाई देगा जब यहां एसीटिलीन टार्च जलेगी और नाकाबिलेबर्दाश्त गर्मी पैदा होगी ।”
“तौबा !”
विमल इसलिए भी सबसे आगे था क्योंकि केवल उसी को नक्शे के स्केल के मुताबिक मालूम था कि उन्होंने कहां जाकर रुकना था ।
एकाएक उसके कन्धे से कोई चीज छुई ।
वह हड़बड़ाकर पीछे हटा और मुबारक अली के साथ जा टकराया ।
उसने छत की तरफ निगाह उठाई तो छत के एक छेद में एक असाधारण आकार के चूहे को दुबके बैठा पाया । उसी की लम्बी पूंछ नीचे लटक रही थी और विमल के कन्धे को छुई थी । चूहे की आंखें उसी पर टिकी हुई थीं । उसके देखते-देखते उसने अपनी पूंछ समेट ली और अगले पांव सिकोड़कर यूं उकडूं हो गया जैसे किसी भी क्षण सामने छलांग लगा देने को आमादा हो ।
विमल को अपने जिस्म पर रोंये खड़े होते महसूस हुए । उसके शरीर ने कई बार झुरझुरी ली, फिर उसने अपनी जेब शक्तिशाली टार्च निकाली और उसकी तीखी रोशनी चूहे पर डाली ।
“हे भगवान !” - आनन्द के मुंह से निकला - “यह चूहा है या सूअर का बच्चा ।”
टार्च की तीखी रोशनी से चूहा तनिक हड़बड़ाया और छेद में भीतर को सिमटा ।
विमल उसके ऐन नीचे से गुजरा ।
उससे पार अभी उसने एक ही कदम रखा था कि उसे लगा जैसे चूहा पीछे से उस छलांग लगाने जा रहा हो । वह घबराकर घूमा और उसने लम्बी टार्च का एक भरपूर प्रहार अन्दाजन चूहे के शरीर से टकराया, नतीजतन छत पर से उसके पंजे उखड़ गए, वह विशाल गेंद की तरह उछलकर पहले परे दीवार पर टकराया और फिर मुबारक अली के जिस्म से टरकाता हुआ नीचे गिरा । किट-किट करके वह बार-बार इतनी जोर-जोर से चीखने लगा कि सबको अपनी धमनियों में खून जमता महसूस होने लगा ।
फिर वह पानी में ही कहीं गायब हो गया ।
विमल ने फिर आगे कदम बढाया । हिम्मत करके बाकी सारे जने भी उसके पीछे चले ।
आगे उन्हें जगह-जगह छत के, दीवारों के छेदों में से सिर निकालकर बितर-बितर उनकी तरफ झांकते चूहे मिले ।
“ये सारे चूहे अगर एका कर लें” - मुबारक अली बोला - “तो दस मिनट में हमारी सिर्फ हड्डियां यहां पानी में तैर रही हों गोश्त-वोश्त सब चूहों के पेट में ।”
“बाप” - जार्ज बोला - “ऐसी भयानक बातें मत बोलो, वर्ना मैं भाग खड़ा होयेंगा !”
“मैं भी ।” - फौरन जामवन्तराव बोला ।
“तुम सब साले, वो क्या कहते हैं अंग्रजी में, डरपोक हो ।”
“अफ्रेडी ।” - जार्ज ने अंग्रजी सप्लाई की ।
उस अनोखी अंग्रजी पर विमल की अनायास हंसी निकल गई ।
“अभी यह माहौल हमारे लिए नया है” - विमल बोला - “लेकिन देख लेना, जल्दी ही हम इसके आदी हो जाएंगे ।”
कोई कुछ न बोला ।
थोड़ा और आगे पर वे एक जंक्शन पर पहुंचे जहां से दाएं-बाएं दो सीवर रूट जा रहे थे ।
विमल ने बाएं रूट पर कदम रखा ।
उस स्थान के बाद उसने जेब से एक फीता निकाल लिया और दीवार पर फासला नापता और चाक से निशान लगाता आगे बढने लगा ।
एकाएक मुबारक अली की घुटी हुई चीख स्तब्ध वातावरण में गूंजी ।
विमल ने घबराकर पीछे देखा ।
एक चूहा, जिसकी पता नहीं छत से पकड़ छूट गई थी या उसने जानबूझ कर छलांग लगाई थी, सीधा मुबारक अली के गैस मास्क से ढंके चेहरे पर आकर गिरा था और अब दांत किटकिटाता हुआ गैसमास्क के कैनवस को फाड़ने की कोशिश कर रहा था ।
मुबारक अली के दस्तानों से ढंके हाथ चूहे पर पड़े और उसने उसे गैसमास्क पर से लगभग उधेड़ कर हटाया । चूहा अब उसके हाथों को काटने की कोशिश करने लगा ।
दहशत में मुबारक अली ने चूहे के खड़े कानों के करीब से उसकी गर्दन थामी और उसे पूरी ताकत से यूं मरोड़ा जैसे गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो ।
खून के छीटे उसकी छाती और गैसमास्क से ढंके चेहरे पर आकर पड़े ।
मुबारक अली की हालत विक्षप्तों जैसी हो गई । वह चूहे को गर्दन से थामे दीवार के साथ पटकने लगा ।
चूहे की धज्जियां उड़ गईं तो उसे छोड़ा ।
“तौबा !” - वह हांफता हुआ बोला - “तौबा !”
कोई कुछ न बोला ।
उस दृष्य ने सभी को आतंकित कर दिया था ।
फिर विमल आगे बढा तो सहमते-सकुचाते बाकी सब भी उसके पीछे कदम उठाने लगे ।
फीते से दीवार नापता विमल आगे बढता रहा ।
अन्त में एक स्थान पर वह ठिठका । उसने जेब से एक छोटा-सा कम्पास निकालकर उसकी सहायता से दिशा-ज्ञान किया और फिर दीवार पर एक जगह पहले एक क्रास का निशान लगाया, उसके इर्द-गिर्द एक बड़ा-सा गोल दायरा बनाया और फिर बोला - “यहां है वो जगह जहां से हमने चार फुट व्यास की पचास फुट लम्बी सुरंग खोदनी शुरू करना है ।”
“अगर सुरंग वाल्ट तक न पहुंची” - मुबारक अली संदिग्ध भाव से बोला - “कहीं और ही पहुंच गई तो ?”
“ऐसा एक ही सूरत में हो सकता है कि जगनानी द्वारा लाए गए नक्शे गलत हों ।”
“वो नक्शे गलत कैसे हो सकते हैं ?” - आनन्द बोला - “वो तो सरकारी रिकार्ड हैं । सरकारी रिकार्ड गलत हुआ तो भला किस काम का हुआ !”
“नक्शे ठीक ही होंगे” - विमल बोला - “अलबत्ता यह सस्पैंस तब तक बरकरार रहेगा जब तक कि हमें वाल्ट के दर्शन नहीं हो जाएंगे ।”
“लेकिन...”
“अब बातों में वक्त जाया करने की जगह हमें काम शुरू करना चाहिए ।”
कोई कुछ न बोला ।
विमल ने माइन डिटेक्टर हाथ में थामा और गोलदायरे के बीच दीवार पर हौले-हौले घुमाने लगा ।
जहां कहीं ऊंची बीप की आवाज माइन डिटेक्टर से निकलती थी, वह दीवार पर एक लम्बी लकीर खींच देता था । इस प्रकार उन तमाम जगहों पर निशान लग गए जहां गोल दायरे के भीतर दीवार के बीच सरिया था ।
उसके बाद सब वापिस लौटे ।
एक घन्टे में सारा सामान उस स्थान पर पहुंचा जहां विमल ने दीवार पर गोल दायरा खींचा था ।
फिर बिजली के एक जंक्शन बाक्स से बिजली टेप कर के पावर केबल की सहायता से गोल दायरे के सामने रोशनी की गई और इलैक्ट्रिक ड्रिल चलाने के लिए प्वायन्ट बनाया गया ।
फिर आक्सी-एसिटिलान टार्च आन की गई ।
सबसे पहले विमल ने टार्च खुद हाथ में थामी ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह - विमल मन ही मन बोला - जीउ डरत है आपणा कै सिउ करी पुकार, दुख विसारण सेक्या सदा सदा दातार ।
फिर उसने टार्ट की लपट को दीवार पर उन स्थानों में से एक पर केन्द्रित किया जहां माइन डिटेक्टर ने सरिया होने की खबर दी थी ।
थोड़ी देर बाद टार्च की भीषण गर्मी से लोहा पिघलने लगा । उससे आगे की कन्क्रीट को अब क्योंकि लोहे की पकड़ उपलब्ध नहीं रही, इसलिए दीवार ढह कर गिरने लगी ।
धीरे-धीरे चाक के गोल दायरे के बीच का सारा लोहा गल गया, वहां से कन्क्रीट हट गई और उसकी जगह एक खड्डा दिखाई देने लगा ।
उसके बाद इलैक्ट्रिक ड्रिल आन की गई जोकि जार्ज सैबेस्टियन ने सम्भाली । ड्रिल को दीवार पर चलाया गया तो एसिटिलीन टार्च जलने के शोर से कहीं ज्यादा शोर उठा ।
वागले ने वायरलैस टेलीफोन आन किया ।
तुरन्त उसे बाहर सड़क पर ट्रक में बैठे रूपचन्द जगनानी की आवाज आई ।
“बाहर ड्रिल चलने की आवाज पहुंच रही है ?” - वागले ने पूछा ।
“नहीं ।” - उत्तर मिला ।
“बाहर कैसी भी कोई आवाज पहुंच रही है ?”
“नहीं ।”
“बाहर का क्या हाल है ?”
“सड़क उजाड़ पड़ी है ।”
“बढिया ।”
उसने टेलीफोन आफ कर दिया और उसे पावर केबल के लिए दीवार से ठोकी खूंटियों में से एक पर टांग दिया ।
विमल ने नोट किया कि जामवन्तराव उन लोगों से थोड़ा परे अपेक्षाकृत अन्धेरे में सरक गया था । फिर उसके देखते-देखते उसने भूरे कागज की एक पुड़िया-सी निकाली, उसे खोलकर वह अपने नथुनों तक लाया और उसने जोर से सांस खींची ।
विमल का मन वितृष्णा से भर उठा । जामवन्तराव घर से ही तरंग में आया था लेकिन अब उसे फिर दोबारा नशे की जरूरत महसूस होने लगी थी ।
जार्ज ड्रिल चलाता रहा । बाकी लोग बोरों में मलबा भरते रहे और बोरे मैनहोल के करीब पहुंचाते रहे ।
फिर जार्ज ने ड्रिल बन्द की ।
मुबारक अली ने ड्रिल की तरफ हाथ बढाया तो विमल बोला - “अब जामवन्तराव को दो ।”
जामवन्तराव, जोकि दीवार के साथ लगा ऊंघ रहा था, हड़बड़ाकर सामने आया । उसने ड्रिल सम्भाल ली ।
काम फिर चालू हुआ ।
जार्ज दीवार से लगाकर खड़ा हो गया । उसने अपनी जेब से अद्धा निकाला और हौले-हौले नीट विस्की चुसकने लगा ।
बाद में विमल को इस बात ने बड़ी तसल्ली दी कि दोनों नशेड़ियों ने काम पूरी मुस्तैदी से किया, निहायत तसल्लीबख्श किया ।
मुबारक अली ने भी अपने हिस्से के काम को बखूबी अंजाम दिया ।
सिर्फ आनन्द और वागले ने मेहनत के काम के मामले में कुछ पल्ले न डाला ।
आनन्द ने अपनी नाजुकमिजाजी की वजह से और वागले ने अपने घायल कन्धे की वजह से ।
***
रूपचन्द जगनानी ट्रक में बैठा था और सिगरेट के कश लगा रहा था । तब तक मलबा फेंकने के लिए वह एक फेरा लगा आया हुआ था । विमल ने उसे कहा था कि वह काम उसे अकेले करना पड़ना था लेकिन जब काम की नौबत आयी थी तो जामवन्तराव उसके साथ गया था । उसका रूपचन्द ने यह मतलब लगाया था कि शायद विमल को उसके बुढापे का ख्याल आ गया था लेकिन हकीकत यह थी कि भीतर विमल ने महसूस किया था कि सुरंग खोदने का काम सब लोग इकट्ठे नहीं कर सकते थे इसीलिए एक आदमी को थोड़ी देर बुजुर्गवार की मदद करने के लिए स्पेयर किया जा सकता था ।
मलबा लादा जा चुकने के बाद रूपचन्द ने ट्रक आगे बढाया था और जामवन्तराव ने ऐन ट्रक की जगह मैनहोल के ऊपर मैटडोर वैन ला खड़ी की थी । फिर वह वैन से निकलकर ट्रक में सवार हुआ था और दोनों मलबा फेंकने चले गए थे ।
फिर वापिसी में पार्किंग की वही क्रिया फिर दोहराई गई थी और जामवन्तराव वापिस सीवर में उतर गया था ।
अब ट्रक फिर यथास्थान खड़ा था और रूपचन्द सिगरेट के कश लगा रहा था ।
ट्रक में सिर्फ बैठा रहना उसे बड़ा जहमतभरा काम लग रहा था । रह-रह कर उसे ऊंघ आने लगती थी जिसकी वजह से वह सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा था । ट्रक के पृष्ठभाग में जा बैठने की उसे मनाही नहीं थी लेकिन वहां उसे डर था कि कहीं वह बैठा-बैठा लेट न जाए और फिर लेटा-लेटा सो न जाए ।
उसने कई बार इस बात पर भी विचार किया था कि क्यों न वह नीचे उतरकर सड़क पर टरलने लगे ! सड़क तो सुनसान पड़ी थी । क्या फर्क पड़ जाता !
अभी वह अपने उस इरादे को क्रियान्वित करने पर विचार ही कर रहा था कि एकाएक उसके कानों में भारी बूटों के सड़क पर पड़ने की आवाज आई । उसने हड़बड़ाकर सामने देखा तो दो पुलसियों को ट्रक की तरफ आता पाया । उसने फौरन सिगरेट बुझा दी और ट्रक की सीट पर लेट गया । अपनी उस अवस्था में वह सड़क पर से देखा नहीं जा सकता था ।
पुलिसिये ट्रक के करीब ठिठके ।
रूपचन्द के दिल की धड़कन तेज होने लगी । वह सांस रोके सीट पर लेटा रहा । वह पहला मौका था जबकि सड़क पर कोई प्रकट हुआ था ।
“बड़ी बदबू आ रही है ।” - रूपचन्द के कानों में एक आवाज पड़ी ।
“बारिश के मौसम में ऐसा होता ही है ।” - दूसरी आवाज आई।
“इतनी बरसात कहां हुई है ! जो बूंदाबांदी हुई थी, उससे तो सड़कें भी गीली नहीं हुईं ।”
“तो फिर कोई सीवर ओवरफ्लो कर रहा होगा ।”
“इस इलाके में सीवर आज तक ओवरफ्लो नहीं हुआ ।”
“साले, तुझे खुद की बदबू आ रही है । सच बता, कब से नहीं नहाया ।”
“लेकिन...”
“कोई बदबू-वदबू नहीं आ रही । तेरा दिमाग सड़ रहा है । अब चल ।”
“चलता हूं । लेकिन कसम ले लो, गू की बहुत तीखी बदबू आ रही है मुझे ।”
“अबे, आ भी रही है तो हम क्या कर सकते हैं ! हम हवलदार हैं कि जमादार !”
कुछ क्षण खामोशी रही । फिर भारी बूटों के सड़क पर पड़ने की आवाज फिर आने लगी ।
आवाज आनी बन्द हो गई तो रूपचन्द ने सावधानी से सिर उठाया और दाएं-बाएं झांका ।
सड़क फिर सुनसान पड़ी थी ।
उसने वायरलेस टेलीफोन पर भीतर सम्पर्क किया और उस घटना की खबर की ।
मैनहोल का ढक्कन थोड़ी-बहुत ताजी हवा के साधन के तौर पर खुला रखा गया था । उस घटना से उन्होंने यह सबक लिया कि ढक्कन बन्द रहना चाहिए था और ऐन जरूरत के वक्त ही खोल जाना चाहिए था ।
ढक्कन फौरन बन्द कर दिया गया ।
सुबह पांच बचे तक वे छः फुट गहरी खोद चुके थे जोकि लगाए गए वक्त के लिहाज से कोई कम प्रोग्रेस नहीं थी ।
फिर सारा सामान सुरंग में भर दिया गया और उसके दहाने पर वो स्पेशल बोर्ड फिट कर दिए गए जोकि सीवर की दीवारों के रंग से मिलते-जुलते थे और जिनकी वजह से अन्धेरे में सुरंग की दीवार में और बोर्डों में कोई फर्क नहीं लग रहा था ।
फिर थकावट से निढाल हुए वे सीवर से बाहर निकले और ट्रक में सवार हुए ।
जार्ज सैबेस्टियन ने पहले की तरह मैटाडोर वैन सम्भाली ।
दोनों वाहन वहां से रवाना हो गए ।
पहले दिन का काम निर्विघ्न सम्पन हो गया था ।
***
विमल स्कैप यार्ड के पिछवाड़े की स्टोरनुमा इमारत में दाखिल हुआ । उसने अलमारी खोली और उसके नीचे के भाग से वो बोर्ड उठाया जोकि नीचे तहखाने को जाती सीढियों के दहाने फर फिट था ।
उसने रिवाल्वर हाथ में ले ली और पहली सीढी पर कदम रखा ।
नीचे तहखाने में एक बल्ब जल रहा था जोकि एक कमजोर मोमबत्ती की तरह टिमटिमाता महसूस हो रहा था ।
“सोलंकी !” - उसने आवाज लगाई ।
“क्या है ?” - फौरन जवाब मिला ।
“ऊपर आ जाओ । थोड़ी हवा खा लो ।”
“भाड़ में जाओ ।”
“मैं दोबारा नहीं पूछूंगा । आते हो या मैं ढक्कन बन्द करूं ?”
उसने उत्तर न दिया लेकिन उसके पांव फौरन सीढियों पर पड़े ।
विमल अलमारी से निकलकर परे जा खड़ा हुआ ।
कुक्ष क्षण बाद सोलंकी का सिर छेद से बाहर निकला, फिर कन्धे और फिर उसने अलमारी से बाहर कदम रखा ।
उसके हाथ में एक कुर्सी का पाया था जिसे वह मजबूती से थामे था और अपने सामने ताने था ।
विमल ने उसे रिवाल्वर दिखाई ।
सोलंकी ठिठका । उसके माथे पर बल पड़ गए और जबड़े भिच गए । एक क्षण को विमल को यूं लगा जैसे वह पाया उस पर फेंक कर मारने लगा हो लेकिन फिर उसका हाथ नीचे झुक गया और फिर तीव्र अनिच्छापूर्ण ढंग से उसने अपनी उंगलियों की पकड़ पाये पर से ढीली कर दी ।
पाया लड़खड़ाता हुआ फर्श पर गिरा ।
“कुर्सी तोड़ दी !” - विमल बोला ।
उसने उत्तर न दिया ।
“आओ बाहर हवा में चलें ।”
दोनों स्टोर से निकलकर यार्ड में आ गए ।
तब अभी पौ फटनी शुरू हुई थी ।
“मैं नहीं चाहता” - विमल बोला - “कि हफ्ते बाद जब मैं तहखाना खोलूं तो उसमें से तुम्हारी लाश बरामद हो । मौजूदा हालात में तुम मर गए तो मेरा ही नुकसान होगा ।”
“मैं टायलेट जाना चाहता हूं ।” - सोलंकी फंसे स्वर में बोला ।
“हां । जरूर । यह भी वजह है तुम्हें बाहर निकालकर लाने की ।”
एक टायलेट यार्ड में भी था । विमल ने उसे वहां भेज दिया और स्वयं एक ड्रम पर बैठा गया । रिवाल्वर अभी भी उसके हाथ में थी ।
नींद और थकान से उसकी आंखें बन्द हुई जा रही थीं लेकिन अपनी वो मौजूदा जिम्मेदारी भुगता चुकने से पहले वह सो नहीं सकता था ।
दस मिनट गुजर गए ।
टायलेट का दरवाजा विमल के सामने था और वह पहले ही तसदीक कर चुका था कि वहां से निकासी का उस दरवाजे के अलावा और कोई रास्ता नहीं था ।
वह उठकर बन्द दरवाजे के करीब पहुंचा ।
“अगर तुम समझते हो कि तुम्हारे बाहर न निकलने पर मैं अन्दर घुसकर तुम्हें देखने आऊंगा तो यह ख्याल मन से निकाल दो । मैं तुम्हें यहीं बन्द कर जाऊंगा और यह जगह तहखाने से ज्यादा दुखदाई साबित होगी ।”
तुरन्त दरवाजा खुला ।
विमल ने रिवाल्वर दरवाजे की तरफ तान दी ।
सोलंकी को बाहर निकलकर कोई बेजा हरकत न करते पाकर उसने रिवाल्वर वाला हाथ झुका लिया ।
“तुम मुझे यूं यहां गिरफ्तार करके नहीं रख सकते ।” - सोलंकी झुंझलाया ।
विमल ने जवाब देना जरूरी नहीं समझा ।
वह उसे इमारत में ले आया ।
आंटी ने दोनों को ब्रेकफास्ट सर्व किया ।
ब्रेकफास्ट से निपटकर विमल बोला - “मैं इसे बन्द करके जा रहा हूं । दिन में इसे खाना खिला देना ।”
आंटी और खांडेकर दोनों के सिर सहमति में हिले ।
उनका हर एक्शन ऐसा था जैसे कि विमल के किसी काम आने को अपना परम सौभाग्य मान रहे हों ।
“उठो ।” - विमल बोला ।
तीव्र अनिच्छा का प्रदर्शन करता हुआ सोलंकी उठ खड़ा हुआ ।
***
दस बजे ही कमिश्नर ने सब-इन्स्पेक्टर मुश्ताक अली को बुला भेजा ।
मुश्ताक अली उस बुलावे की वजह जानता था इसलिए पहले ही दिल मजबूत करके कमिश्नर के हुजूर में पेश हुआ । भीकाराम की मौत की खबर ने उसे खूब दिलेर बना दिया था । कमिश्नर पूरे दो घण्टे उसके साथ मगज-पच्ची करता रहा, उसे विश्वास दिलाता रहा कि अगर वह फर्जी चालान काटा होना कबूल कर लेगा तो उस पर कतई कोई अनुशासनिक कार्यवाही नहीं होगी लेकिन वह अपने पहले बयान से टस से मस न हुआ ।
हारकर कमिश्नर ने उसे रुख्सत कर दिया ।
“कैसी मजबूरी की हालत है हमारी !” - कमिश्नर असहाय भाव से बोला - “हमें बखूबी मालूम है कि असल में क्या हुआ है लेकिन हम कुछ साबित नहीं कर सकते । वो मवाली, वो श्याम डोंगरे, कत्ल करके साफ छूटा जा रहा है लेकिन हम उसे कुछ कह नहीं सकते । क्या कहते हो, फाल्के ?”
इन्स्पेक्टर फाल्के बड़े संवेदनशील ढंग से गर्दन हिलाने के अलावा कुछ जवाब न दे सका ।
***
उस रात बाकी का सामान भी सीवर में सुरंग के दहाने पर पहुंचा दिया गया ।
लेसर बीम उस भी उपलब्ध न हो सकी ।
बाकी सामान के अलावा मुबारक अली और उसके शागिर्द ने एक फोल्डिंग बैड की भी जरूरत जाहिर की जोकि विमल ने नामंजूर कर दी । मुबारक अली का ख्याल था कि काम से थक कर सीवर में, जहां कि दीवार से लग कर सीधा खड़ा भी नहीं हुआ जा सकता था, फोल्डिंग बैड बिछाकर बेहतर आराम किया जा सकता था क्योंकि बैड पानी की सतह से ऊपर होती, जबकि विमल का कहना था कि ऐसा आराम करने लेटा आदमी - कोई स्मैक एडिक्ट या अल्कोहलिक - एक बार यूं बैड पर लेटने पर तभी उठता जब कि सवेरा हो चुका होता ।
फिर पिछले रोज जो काम आधी रात के बाद शुरू हुआ था, उस रोज वह नौ बजे ही शुरू हो गया ।
साढ़े ग्यारह बजे तक ट्रक एक बार मलबा फेंककर लौट चुका था ।
इस बात से रूपचन्द जगनानी ने यह अन्दाजा लगाया कि सुरंग उम्मीद से ज्यादा रफ्तार से खुद रही थी ।
तभी उसे ट्रक से परे सुनसान सड़क पर एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा और उनके साथ एक छोटा-सा झबराला कुत्ता आता दिखाई दिया । उसके देखते-देखते कुत्ता जोड़े से अलग हुआ और तेजी से आगे दौड़ने लगा ।
हल्की-सी बूंदाबांदी फिर होने लगी थी ।
“डार्लिंग” - पुरुष एकाएक सड़क पर ठिठक गया और उसका नशे में थरथराता स्वर रूपचन्द को सुनाई दिया - “काश इस वक्त मेरे पास एक छतरी होती । अब देखो न, मैं हूं, तुम हो, सुनसान रास्ता है, बारिश है लेकिन नहीं है तो छतरी नहीं है ।”
“होती तो क्या होता ?” - स्त्री बोली, उसके स्वर में विरक्ति का स्पष्ट आभास था ।
“तो मैं अभी.. अभी.. बांहों के घेरे में लेकर गा रहा होता प्यार हुआ इकरार हुआ तब प्यार से फिर क्यों डरता है दिल...”
“किसको बांहों के घेरे में लेकर गा रहे होते ? छतरी को !”
“हट, पागल । अरे छतरी को नहीं, तुम्हें । छतरी तो हमारे सिर के ऊपर होती जिसके मैं कभी भीतर होता तो कभी बाहर । लाइक राजकपूर ! आवारा ! रिमेम्बर ?”
“श्री चार सौ बीस ।” - स्त्री ने संशोधन किया ।
“हां, वही ।”
फिर पुरुष सचमुच ही जोर-जोर से गाने लगा ।
उनका कुत्ता ट्रक के करीब पहुंचा । वह कुछ क्षण ट्रक के अग्रभाग के करीब दुम हिलाता खड़ा रहा ।
रूपचन्द ट्रक की सीट पर लेट गया ।
एकाएक कुत्ता भौंकने लगा ।
रूपचन्द ने हड़बड़ाकर तनिक सिर उठाया । उसने पाया कि कुत्ता ट्रक की ड्राइविंग सीट की तरफ आ खड़ा हुआ था और अब मुंह ऊंचा करके बार-बार भौंक रहा था ।
“श... श... । चुप ! चुप !”
कुत्ता और जोर से भौंकने लगा ।
रूपचन्द घबरा गया । किसी भी क्षण वहां गश्त का कोई सिपाही पहुंच सकता था, कुत्ते की वजह से उसका ध्यान ट्रक की ओर आकर्षित हो सकता था और फिर रूपचन्द की ट्रक में उपस्थित का आभास पाकर वह हैरान हो सकता था कि आखिर कोई यूं ट्रक में छुपकर क्यों बैठा हुआ था ! वह इस बार रूपचन्द से दर्जनों सवाल कर सकता था और संतोषजनक उत्तर न मिलने पर उसे ट्रक समेत चौकी ले जा सकता था ।
उसे फौरन कुत्ते को चुप कराने के लिए कुछ करना चाहिए था ।
कुत्ता था कि भौंके ही जा रहा था और उसके मालिक स्त्री-पुरुष को अपनी चुहलबाजी से ही फुरसत नहीं थी ।
उसका जी चाहा कि वह स्त्री-पुरुष के जोड़े को पुकारकर कहे कि वे कुत्ते को चुप कराएं लेकिन फिर ऐसा करना उसे ठीक न लगा ।
कुछ सोचकर उसने ट्रक का कुत्ते की ओर का दरवाजा खोला और वह धीरे से नीचे सड़क पर उतर आया ।
कुत्ता उसे देखकर एक कदम पीछे हटा और फिर यूं उकडू हो गया जैसे रूपचन्द पर आक्रमण करने का ख्वाहिशमंद हो जाने की उम्मीद कर रहा हो ।
रूपचन्द ने सावधानी से एक बार कुत्ते के मालिकान की तरफ देखा और फिर उसने अपने एक पांव को खींचकर उसकी एक भरपूर ठोकर कुत्ते की पसलियों में जमाई ।
कुत्ते का भौंकना तुरन्त बन्द हो गया । वह फुटबाल की तरह हवा में उछला, रूपचन्द से दस फुट परे जाकर गिरा और चायं-चायं करने लगा ।
रूपचन्द लगभग दौड़ता हुआ जोड़े के करीब पहुंचा और बड़े गुस्से में बोला ­ “अरे, साहब । अपने कुत्ते को सम्भालो । अभी मुझे काटने लगा था वो ।”
पुरुष ने गाना बन्द कर दिया । उसने हैरानी से रूपचन्द की तरफ देखा ।
“कौन काटने लगा था आपको ?” ­ वह बोला ­ “डिकी ?”
“अगर यह उस झबराले कुत्ते का नाम है तो वही ।”
“लेकिन” ­ स्त्री बोली ­ “डिकी को तो काटना आता ही नहीं ।”
“अब सीख गया मालूम होता है ।” ­ रूपचन्द बोला ।
“उसने तो कभी किसी को नहीं काटा ।” ­ पुरुष बोला ।
“मुझे तो काटने लगा था ।” ­ रूपचन्द बोला ­ “मुझे तो अभी भी उससे डर लग है । साहब, आप अपने कुत्ते के गले में जंजीर डालिए वर्ना वह फिर मुझे काटने की कोशिश करेगा ।”
“डिकी ! डिकी !” ­ स्त्री ने आवाज लगाई ­ “डिकी, कम हियर ।”
कुत्ता अपनी टांगो में दुम दबाए कराहता हुआ-सा उनके पास पहुंचा ।
स्त्री ने उसके गले के पट्टे में हाथ में थमी जंजीर पिरो दी ।
“यह तो” ­ पुरुष चिन्तित भाव से बोला ­ “यूं कराह रहा है जैसे किसी ने इसे चोट पहुंचाई हो ।”
“चोट तो यह मुझे पहुंचाता ।” ­ रूपचन्द बोला ­ “अच्छा हुआ आपने इसके गले में जंजीर डाल दी ।”
“लेकिन...”
“मेरा तो डर से दम ही निकला जा रहा था ।”
“इतने नन्हे से कुत्ते के डर से आपका दम निकला जा रहा है ।”
“हां । कुत्ता नन्हा हो या बड़ा, मुझे हर कुत्ते से डर लगता है ।”
“चलो ।” ­ स्त्री पुरुष की बांह पकड़कर खींचती हुई बोली ।
पुरुष स्त्री और कुत्ते के साथ सड़क पर आगे बढ गया । प्रत्यक्षतः अब उसका गाने का मूड खत्म हो चुका था ।
रूपचन्द की जान में जान आई ।
वह वापिस ट्रक में जा बैठा ।
उस रात सुरंग चालीस फुट तक खुद गई ।
“यह तो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कमाल हो गया ।” ­ खुशी से दमकता हुआ मुबारक अली बोला ­ “इस लिहाज से तो हम आज ही रात को वाल्ट के भीतर होंगे ।”
उस वक्त वागले के अलावा सब ट्रक में सवार थे । वागले ट्रक के पीछे-पीछे आती मैटाडोर वैन चला रहा था ।
“टच वुड ।” ­ आनन्द ट्रक की लकड़ी की बाडी को छूता हुआ बोला ।
“खुदाई मेरी कल्पना से आसान निकली है ।” ­ विमल बोला ­ “लेकिन आगे वाल्ट का शैल आने से पहले री-एन्फोर्स्ड कन्क्रीट होगी । उसे छेदने में बहुत वक्त लगेगा ।”
“आज तो हमें लेसर बीम भी मिल जाएगी ।” ­ वागले बोला ।
“आज उसके मिलने की गारन्टी है ?”
“उसके तो आज मिलने की गारन्टी है लेकिन सुरंग चालीस फुट खुद चुकी होने की खबर सुनकर मुझे डर है कि कहीं आन्टी उसकी खरीद गैरजरूरी न समझने लगे ।”
“उसे जब यह समझाया जाएगा कि लेसर बीम की वजह से हम आज ही वाल्ट में होंगे तो वो हुज्जत नहीं करेगी ।”
“नहीं करेगी ।” ­ आनन्द बोला ­ “वक्त की जरूरत यह है कि काम आसानी से हो और जल्दी हो । इसके लिए हमें पैंतीस हजार के खर्चे से गुरेज नहीं करना चाहिए । खासतौर से तब जब कि कल ही हम सब लाखोंपति होंगे ।”
“एक्टर ठीक कह रहा है ।” ­ मुबारक अली बोला ।
“बाप” ­ जार्ज सैबेस्टियन बोला ­ “मेरे कू लग रहा है कि काम हर हाल में आज ही रात को खलास हो जाएंगा, वो बीम होवे या न होवे !”
“कैसे लग रहा है ?” ­ विमल ने पूछा ।
“बस लग रहा है ।” ­ जार्ज दांत निकालकर हंसा ।
“आज शाम” ­ विमल गम्भीरता से बोला ­ “हम यहां जल्दी पहुंचेंगे और आठ बजे ही यहां दाखिल होने की कोशिश करेंगे । जिस रफ्तार से सुरंग खुदी है, उसको मद्देनजर रखते हुए मुझे यह मुमकिन लगता है कि हम आधी रात तक हर हाल में वाल्ट में होंगे । उसके बाद लाकरों को जामवन्तराव की डुप्लीकेट चाबियां लग गईं तो बात ही क्या है वर्ना अगर लाकर जबरन खोलने पड़े तो भी हमारे पास बहुतेरा टाइम होगा ।”
उस खबर से सबसे ज्यादा राहत रूपचन्द जगनानी ने महसूस की है ।
***
विमल ने सोलंकी को तहखाने से निकाला ।
उस रोज वह खाली हाथ निकला और उसने विमल पर आक्रमण करने जैसी कोई नीयत न दिखाई ।
“बस दो रोज और ।” ­ विमल आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला ­ “उसके बाद हम दोनों जने सोनपुर चलेंगे ताकि हेल्गा तो तसल्ली हो जाए कि मैंने डॉक्टर स्लेटर का खून नहीं किया ।”
उसने उत्तर न दिया । उस रोज उसका चेहरा पीला लग रह था और आंखों में उदासी-सी तैर रही थी ।
“मेरे अलावा जो दो और सस्पैक्ट तुम्हारी निगाह में हैं” ­ विमल ने नया सवाल किया ­ “उनके नाम क्या हैं ? कहां रहते हैं वो ?” - उसको उत्तर देता न पाकर वह बोला ­ “और नहीं तो इतना ही बता दो कि वो बम्बई में रहते हैं या बाहर कहीं ?”
“तुमसे मतलब ?” ­ वह रुखाई से बोला ।
“सोलंकी, डॉक्टर स्लेटर के हत्यारे को तलाश करने में मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूं ।”
“मुझे तुम्हारी मदद नहीं चाहिए । मैं तुम्हारी मदद के बिना भी उन दोनों की ऐसी-तैसी फेरी सकता हूं ।”
“जैसे तुमने मेरी ऐसी-तैसी फेरी है !”
उसके चेहरे पर क्रोध के भाव आए जो कुछ क्षण बाद बेबसी में तब्दील हो गए ।
“मुझे तुम्हारी मदद नहीं चाहिए ।” ­ वह कठिन स्वर में बोला ।
“तुम्हें निस्वार्थ मदद आफर कर रहा हूं । डॉक्टर स्लेटर ने मेरा भला किया है । मैं उसका अहसानमन्द हूं । मैं दिल से उसके हत्यारे को तलाश करने में तुम्हारी मदद करना चाहता हूं ।”
सोलंकी परे देखने लगा ।
“इस ढिठाई की कोई वजह भी होगी !”
उसने कोई वजह बयान करने की कोशिश न की ।
“ठीक है । मर्जी तुहारी । टायलेट जाना चाहते हो या ब्रेकफास्ट के लिए चलें ?”
सोलंकी टायलेट की तरफ बढ गया ।
***
शाम सवा आठ बजे फिर सीवर में थे ।
कामयाबी की प्रत्याशा में उन्होंने वाल्ट की कन्क्रीट की दीवार तक दो घण्टे में ही सुरंग खोद डाली ।
फिर री-एनफोर्स्ट कन्क्रीट को ढाने के लिए पैंतीस हजार रुपए की खरीद लेसर बीम के इस्तेमाल की बारी आई ।
लेकिन लेसर को आन करते ही आफ कर देना पड़ा ।
यह तो हाथ के हाथ सामने आ गया कि उस बीम में कंक्रीट को मक्खन की तरह काटते चले जाने की क्षमता थी लेकिन उसका उस तंग सुरंग में इस्तेमाल मुमकिन नहीं था । तब उन्हें सूझा कि लेसर बीम से जो पांच हजार डिग्री सेन्टीग्रेड का टैम्प्रेचर बनता था, वह उसके आपरेटर को तन्दूरी चिकन की तरह भूनकर रख सकता था । और उसके इस्तेमाल से पैदा होने वाला धुंआ सब का दम घोंटकर रख सकता था ।
किसी को यह नहीं सूझा था कि लेसर बीम आपरेटर के लिए स्पेशल हीट प्रूफ कपड़े होते थे जिनको पहने बिना बीम आपरेट करना आत्महत्या जैसा काम होता था ।
यानी कि पैंतीस हजार रुपए की ग्लैमरस इनवैस्टमेंट बेकार गई ।
“अब !” ­ जामवन्तराव बोला । उसका स्वर ऐसा था जैसे बीम का इस्तेमाल न हो पाने के लिए वह खुद को जिम्मेदार महसूस कर रहा हो ।
“अब क्या !” ­ विमल बोला ­ “अब हमें इलैक्ट्रिक ड्रिल से कन्क्रीट में छेद करना होगा ।”
फिर कन्क्रीट में छेद करने का काम बाकी लोगों पर छोड़कर विमल और वागले अलार्म सर्कट की तारें काटने चले गए ।
रूपचन्द जगनानी से हासिल हुए नक्शे के मुताबिक विमल ने सीवर की दीवार के ऊपरी सिरे के साथ-साथ चलती केबलों में से दो तारें छांटी । उन तारों को कटर से काटने से पहले वह तनिक हिचकिचाया ।
“अगर यह पुलिस चौकी में बजने वाली अलार्म बैल की तार न हुई तो ?” ­ विमल धीरे से बोला ।
“लेकिन” ­ वागले बोला ­ “नक्शे के मुताबिक तो यही तार है अलार्म बैल की ।”
“नक्शा गलत हुआ तो ? या हमसे नक्शा पढने में गलती हो रही हुई तो ?”
वागले चुप रहा
“यह एक अलार्म बैल हमारे सारे किए-धरे पर पानी फेर सकती है । कैसे जाना जाए कि यही तारें घण्टी तक जा रही है ?”
“तारें ट्रेस करते-करते आगे चलें ?”
“आगे कहां ? पुलिस चौकी तक ?”
वागले खामोश रहा ।
विमल कुछ सोचता रहा, फिर उसने अपने ओवरआल की जेब से वायरलेस टेलीफोन निकाला । उसने बाहर ट्रक में मौजूद रूपचंद जगनानी को सिग्रल दिया । रूपचंद लाइन पर आया तो वह बोला - “वागले ट्रक में आपकी जगह लेने के लिए ऊपर आ रहा है । आप जरा नीचे मेरे पास आइए ।”
“अच्छा ।”
विमल ने वागले को संकेत किया ।
वागले सीवर में आगे मैनहोल की तरफ बढ गया ।
थोड़ी देर बाद रूपचन्द विमल के करीब पहुंचा ।
विमल ने नक्शा उसे थमा दिया और उस पर टार्च की रोशनी डालता हुआ बोला - “जरा देखिए तो इनमें अलार्म बैल की तारें कौन-सी हैं ?”
रुपचंद ने नक्शे का मुआयना किया और फिर नि:संकोच उन्ही तारों की तरफ इशारा कर दिया जो बेशुमार तारों में से विमल ने छांटी थीं ।
“पक्की बात ?” - विमल ने पूछा ।
रूपचन्द ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कई बार ऐसा इन्तजाम भी होता है कि अलार्म बैल की तारों काटने की कोशिश करने पर भी कोई अलार्म बजने लगता है ।”
“ऐसे किसी इन्तजाम की मुझे खबर नहीं ।” - रूपचन्द बोला ।
“तो यही हैं तारें ?”
“हां ।”
वाहे गुरु सच्चे पातशाह ! - विमल मन ही मन बोला - तू मेरा राखी सबनी थाहीं ।
उसने रबड़ चढे प्लायर से दोनों तारें काट दीं ।
फिर उसने वागले से फोन पर बात की ।
“ऊपर सड़क पर कोई हलचल है ?” - उसने पूछा ।
“नहीं ।” - वागले बोला ।
“कहीं कोई अलार्म नहीं बजा ?”
“बजा है तो यहां सुनाई नहीं दे रहा ।”
“कोई पुलिस की भाग-दौड़ ?”
“कुछ नहीं ।”
“गुड । बुजुर्गवार आ रहे हैं, तुम वापिस आ जाओ ।”
विमल ने फोन बन्द करके ओवरआल की जेब में रख लिया और रूपचन्द से बोला - “आप जाइए ।”
रूपचन्द आगे बढा । अभी वह चार ही कदम आगे बढा कि एकाएक चीख मारकर वापिस लौट आया ।
“क्या हुआ ?” - विमल बोला ।
“चूहा !” - रूपचन्द बोला - “यह मोटा ! मेरे ऊपर कूदने लगा था ।”
विमल हंसा । प्रत्यक्षत: वहां पहुचने वक्त रूपचन्द की चूहों की तरफ तवज्जो नहीं गई थी ।
“आप मेरे पीछे-पीछे आइए ।” - वह बोला - “मैं आपके लिए चूहे भगाता हूं “
वह रूपचन्द को मैनहोल की सीढी तक लेकर गया ।
उसने फोन पर वागले को रूपचन्द के पहुंचने की खबर दी ।
दो मिनट वागले सीवर में उसके पहलू में खड़ा था और रूपचन्द वापिस ट्रक में था ।
वे दोनो वापिस सुरंग की दिशा में लौटे ।
जामवन्तराव और जार्ज उन्हें रास्ते में मिले । दोनो हथठेलों पर मलबे के दो-दो बोरे लादे थे ।
“कन्क्रीट उखड़ रही है ?” - विमल ने पूछा ।
“हां ।” - जार्ज बोला - “आसानी से तो नहीं उखड़ रही लेकिन उखड़ रही है ।”
“गुड ।”
“तुमने अलार्म की तारे काट दीं ?”
“हां ।”
“मुझे अलार्म की बड़ी दहशत हो रही है ।” - जामवन्तराव बोला ।
“वो इसलिए क्योंकि तुम वाल्ट की नौकरी कर चुके हो ।”
जामवन्तराव खामोश रहा ।
“और ये हथठेले बोरों समेत यहीं छोड़ दो ।” - विमल बोला - “अब मलबा फेंकने जाने की जरुरत नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि आज के बाद हमने यहां नहीं आना । आज के बाद सीवर ब्लाक होता है तो हमें क्या ?”
“ओह !”
चारों सुरंग के पास वापिस लौटे ।
भीतर से ड्रिल चलने की आवाज आ रही थी ।
उकडू होकर मेंढक की तरह फुदकते हुए चारों सुरंग के दूसरे सिरे पर पहुंचने जहां मुबारक अली इलैक्ट्रिक ड्रिल चला रहा था और आनन्द नीचे गिरते ईंट-पत्थर बोरों भर रहा था ।
और आधे घन्टे बाद एकाएक मुबारक अली हर्षित स्वर में चिल्लाया - “या अली !”
“क्या हुआ ?” - विमल ने पूछा ।
“वाल्ट के, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खोल की चादर दिखाई दे रही है ।”
विमल ने कलाई घड़ी पर निगाह गडाली ।
अभी ग्यारह भी नहीं बजे थे ।
शैल में छेद करना मुश्किल से पन्द्रह मिनट का काम था ।
फिर बड़ी हद दस मिनट हाइड्रॉलिक लिवर लगाकर कैबिनेट सरकाने में लगने थे और फिर वे सब के सब वाल्ट के भीतर ।
“धन्न करतार !” - उसके मुंह से निकला ।
“जामवन्तराव” - फिर वह बोला - “अगर अलार्म न कटा होगा तो इस इस्पात के खोल की हमारे दिखाई दे रही दीवार को छेड़ते ही क्या होगा ?”
“पुलिस चौकी पर अलार्म बज उठेगा ।” - जामवन्तराव सस्पेंसभर स्वर में बोला ।
विमल ने वायरलेस रेडियो आन किया और रूपचन्द जगनानी को सिग्रल दिया । वह लाइन पर आया तो विमल बोला - “आप ट्रक छोड़कर बाजार के पुलिस चौकी वाले सिर पर पहुंच जाइए । जब वहां पहुंच जाएं तो सावधानी से खबर कीजिएगा ।”
“ठीक है ।” - उत्तर मिला ।
“बाप” - मुबारक अली बोला - “किस फिराक में हो ?”
“मैंने अलार्म की तारों काट दी हैं लेकिन काटी गई तारें अलार्म की ही थीं, यह जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं । चौकी पर अलार्म बजा तो हमें यहां सुनाई नहीं देगा । अलार्म कट चुका समझकर भीतर घुसेंगे और रंगे हाथों पकड़े जाएंगे । जगनानी चौकी के करीब गया है । जो अलार्म हमें नहीं सुनाई देगा, वो अगर वहां बजेगा तो उसे जरूर सुनाई देगा । इस लिहाज से हमें कम से कम भाग निकलने लायक वार्निंग तो वो दे सकेगा ।”
“अलार्म बजेगा ?” - आनन्द सशंक स्वर में बोला ।
“नहीं बजेगा ।” - जार्ज बोला ।
“कैसे मालूम ?”
“बस, मालूम है ।”
“इसे नशा हो गया है ।” - विमल बोला ।
जार्ज खीं-खीं करके हंसा ।
तभी फोन पर सिग्नल आया ।
विमल ने फोन सुना ।
“मैं चौकी के ऐन सामने एक पेड़ के पीछे हूं ।” - रूपचन्द की आवाज आई ।
“गुड । अब वहीं रहिएगा । लाइन चालू रखिएगा । अगर चौकी में अलार्म बजे तो हमें फौरन खबर कीजिएगा ।”
“अलार्म बजेगा ?”
“फोन पर सवाल जवाब मत कीजिए । जो कहा गया है उस पर ध्यान दीजिए ।”
“ठीक है ।”
“अब लेसर बीम आन करो ।” - विमल मुबारक अली से बोला - “और सिर्फ दो सैकेण्ड के लिए खोल की चादर को छेड़ो ।”
मुबारक अली ने ऐसा ही किया ।
उतने में ही सबकी हालत पतली हो गई ।
साथ ही उतने में ही एक जगह से लोहे की चादर आधा-आधा इंच गल गई ।
“अलार्म बजा ?” - सस्पेंसभरे स्वर में विमल टेलीफोन में बोला ।
“नहीं ।” - रूपचन्द की आवाज आई ।
“फतह !” - विमल हर्षित स्वर में चिल्लाया ।
विमल के हर्षनाद से ही सब समझ गए कि अलार्म नहीं बजा था ।
“अपुन सिर्फ एक बार सिर्फ एक सैकेण्ड के वास्ते बीम फिर चलाने का है ।” - मुबारक अली बोला ।
“उससे क्या होगा ?” - विमल बोला ।
“उससे अगर चादर में छेद हो जाएंगा तो कम से कम हमेरे को पता लग जाएंगा कि हमने कितने मोटे खोल को भेदना है ।”
“ठीक है ।”
“सब लोग काफी पीछे हट जाना मांगता है ।”
सब मुबारक अली से परे हट गए ।
उसने लेसर बीम आन की और उसे वहीं केन्द्रित किया जहां से इस्पात गल कर बहा था ।
“छेद हो गया ।” - एकाएक मुबारक अली बोला ।
उसने बीम बन्द कर दी ।
तभी वातावरण एयर रेड के सायरन जैसी तीखी आवाज से गूंज उठा ।
सबको जैसे सांप सूंघ गया ।
“क-क- क्या हुआ ?” - मुबारक अली के मुंह से निकला ।
“भागो !” - विमल आतंकित स्वर में बोला ।
सब एक-दूसरे से उलझते, गिरते-पड़ते सुरंग से बाहर को लपके ।
उसी आपाधापी में वायरलैस टेलीफन विमल के हाथ से छूट गया और पता नहीं कहां जाकर गिरा ।
वे सुरंग से बाहर निकले ।
“जामवन्तराव कहां है ?” - एकाएक आनन्द बोला ।
विमल ने टार्च का प्रकाश इधर-उधर डाला ।
जामवन्तराव उसे कहीं न दिखाई दिया ।
“वो भीतर से नहीं निकला ।” - वागले बोला ।
“तुम लोग बाहर को भागो, मैं उसे देखकर आता हूं ।”
वागले के अलावा सब निकासी के रास्ते की तरफ लपके ।
विमल वापिस सुरंग में दाखिल हुआ ।
वागले सुरंग के दहाने पर ठिठका खड़ा रहा ।
जामवन्तराव विमल को सुरंग के सिरे पर घुटनों में सिर दबाए बैठा मिला । अपना गैसमास्क उसने उतारकर एक ओर डाल दिया हुआ था ।
“जामवन्तराव !” - विमल चिल्लाया ।
कोई उत्तर न मिला ।
विमल ने जबरन उसका सिर ऊंचा उठाया तो पाया कि वह चुपचाप रो रहा था । आंसुओं से उसका सारा चेहरा भीगा हुआ था ।
“यह कोई मातम मनाने का वक्त है !” - विमल तीखे स्वर में बोला - “उठके बाहर चल, नहीं तो पकड़ा जाएगा । बेवकूफ, जान है तो जहान है ।”
जामवन्तराव पर उसकी बातों का कोई असर न हुआ । वह बदस्तूर रोता रहा । हेरोइन के नशे ने और सायरन बज उठने के सदमे ने उसे जड़ कर दिया हुआ था ।
सायरन की आवाज अब पहले से तेज हो गई मालूम होती थी ।
विमल को उस क्षण एक ही काम सूझा ।
उसने ताबड़तोड़ तीन-चार झन्नाटेदार थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद किए ।
जामवन्तराव राव की जैसे तन्द्रा टूटी । उसके आंसू बहने बन्द हो गए । विमल ने उसे सुरंग से बाहर को धक्का दिया तो वह आगे बढने लगा ।
दाता !
गनीमत थी कि उस बड़ी ही नाजुक और पेचीदा स्थिति से उसे जल्दी निजात मिल गई थी ।
अपने आगे-आगे जामवन्तराव को धकेलता वह सुरंग से निकलकर सीवर में पहुंचा ।
वहां वागले ने जामवन्तराव की एक बांह थाम ली और फिर वह और विमल जामवन्तराव को अपने बीच लगभग दौड़ाते हुए सीवर में आगे बढे ।
वे मैनहोल के दहाने पर पहंचे तो खुले मैनहोल में से आता सायरन का कर्णभेदी स्वर उनके कानों में पड़ा ।
मुबारक अली, जार्ज सैबेस्टियन और सतीश आनन्द पहले ही ट्रक में सवार हो चुके थे ।
आनन्द ट्रक में लेटा हुआ था और ट्रक के तले के छेद में सिर डालकर दबे स्वर में कह रहा था - “जल्दी ! जल्दी ! जल्दी ! पुलिस के कदम बाजार में पड़ चुके हैं । जल्दी !”
विमल और वागले ने पहले जामवन्तराव को ट्रक में चढाया । वह अभी आधा मैनहोल में ही था कि आनन्द ने दोनों हाथ बढाकर उसे ट्रक में खींच लिया ।
फिर आगे-पीछे वागले और विमल ट्रक में सवार हुए ।
“जगनानी कहां है ?” - विमल हांफता हुआ बोला ।
“पता नहीं ।” - मुबारक अली बोला ।
“वो चौकी के सामने गया था...”
“वो वापिस नहीं आया । हम और इन्तजार नहीं कर सकते ।”
“हम और यहां रुके” - जार्ज बोला - “तो फंस जाएंगे । मुमकिन है पुलिस बाजार के दोनों सिरे सील कर दे ।”
“लेकिन बुजुर्गवार...”
“हमें” - आनन्द बोला - “बुजुर्गवार का पता लगाना चाहिए ।”
“बुढऊ क्या पता उधर का उधर पैदल भाग भी गया हो ।” - मुबारक अली बोला - “बाप, एक आदमी की फिक्र में हम सब फंस जाएंगे ।”
“लेकिन...”
“छोकरे !” - मुबारक अली जार्ज पर झल्लाया - “इधर क्यों बैठेला है लंगूर की माफिक । चक्के पर पहुंच ।”
“गाड़ी मैं चलाता हूं ।” - जार्ज को नशे में पेन्ड्डलम की तरह झूलता पाकर वागले बोला ।
“तो चला । देख क्या रहा है ? क्या वान्दा है तेरे गाड़ी चलाने में !”
वागले कूदकर ट्रक में से उतरा और ड्राइविंग सीट पर पहुंचा ।
अगले ही क्षण ट्रक तेज रफ्तार से सड़क पर दौड़ पड़ा ।
“हमें बुजुर्गवार को” - आनन्द विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “यूं छोड़कर नहीं जाना चाहिए ।”
“ऐसा है तो पीछे रुक जा ।” - मुबारक अली बोला ।
आनन्द खामोश हो गया लेकिन उसे चेहरे से चिन्ता और असंतोष के भाव न गए ।
सायरन की आवाज से सारा बाजार गूंजने लगा तो एक-बारगी रूपचन्द जगनानी को भी यही लगा कि हवाई हमला हो गया था ।
कुछ क्षण वह स्तब्ध पेड के पीछे छुपा खड़ा रहा ।
फिर उसने अनुभव किया कि सायरन बजने की आवाज चौकी की इमारत से नहीं, बाजार में से आ रही थी ।
फिर उसे चौकी के कम्पाउन्ड में सिपाहियों की हलचल दिखाई दी ।
वह क्या करे ? - उसने आतंकित भाव से सोचा - क्या भाग खड़ा हो ? लेकिन उसे तो ट्रक की जिम्मेदारी सौंपी गई थी । तो- तो -
भाग खड़ा होने का ख्याल मन से निकालकर वह पेड़ के पीछे से निकला और तेजी से बाजार में दाखिल हुआ ।
कुछ ही कदम उठाने पर उसे महसूस होने लगा कि सायरन की आवाज सुनारों की मार्केट से आ रही थी ।
यानी कि अलार्म नहीं कटा था । उसकी जानकारी गलत थी । खतरनाक साबित हुई थी । कैसे बज गया अलार्म ! उससे इस बाबत सवाल किया जाएगा तो वह क्या जवाब देगा !
बाजार सुनसान पड़ा था ! वह अकेला आदमी वहां था जो बिजली के खम्भों की ओट लेता हुआ ट्रक की तरफ भागा चला जा रहा था ।
सायरन की तीखी आवाज से सारे इलाके में जाग हो गई थी और दुकानों के ऊपर बने रिहायशी फ्लैटों की खिड़कियां पटापट खुलने लगी थीं ।
बस थोड़ा फासला और - हांफता, कांपता वह ट्रक की ओर दौड़ता और अपने आपको तसल्ली देता रहा - थोड़ा फासला और ।
“रुक जाओ !” - एकाएक कोई चिल्लाया ।
आवाज रूपचन्द की चेतना से यूं टकराई जैसी गोली लगी हो । उसके हाथ में थमा वायरलैस टेलीफोन उसकी उंगलियों से निकलकर फुटपाथ पर गिरा और फिर उसके अपने ही पांव को ठोकर से वह एक ओर उछल गया ।
पुलिस की एक जीप उसकी बगल से गुजरी और उसके सामने आकर रुकी । उसमें से कई पुलिसिये नीचे कूदे और फिर कई हाथों ने रूपचन्द को दबोच लिया ।
एक टार्च की तीखी रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी ।
“कौन हो तुम ? क्या नाम है तुम्हारा ?” - उस पर सवालों की बौछार होने लगी - “यहां क्या कर रहे हो ? कहां से आए हो ? कहां जा रहे हो ? आधी रात के वक्त घर से बाहर क्यों घूम रहे हो ? कहां रहते हो ? क्या काम करते हो ? नाम क्या है तुम्हारा ? बोलो ! बोलो !”
हकबकाए रूपचन्द के मुंह से बोल न फूटा ।
“इसे गिरफ्तार कर लो ।” - किसी ने आदेश दिया - “बाद में देखेंगे इसे ।”
पलक झपकते रूपचन्द जगनानी के हाथों से हथकड़ियां थीं ।
फिर उसे जीप में धकेल दिया गया ।
“अलार्म कैसे बजा ?” - जामवन्तराव एक ही बात बार-बार यूं दोहरा रहा था जैसे नींद में बड़बड़ा रहा हो - “अलार्म कैसे बजा ? अलार्म कैसे बजा ?”
“वैन !” - विमल बोला - “वैन तो पीछे ही रह गई ।”
“अब भाड़ में गई वैन ।” - मुबारक अली भुनभुनाया - “पहले किसी को ख्याल नहीं आया कि वैन भी लाने का था ।”
“उसकी चाबी...”
“मेरे पास थी” - जार्ज बोला - “लेकिन इग्रीशन में ही रह गई ।”
“अच्छा हुआ वैन चाबी समेत पीछे रह गई ।” - आनन्द बोला - “शायद वो पीछे रह गए बुजुर्गवार के काम आ जाए ।”
“यह तुम्हारे हाथ में क्या है ?” - विमल मुबारक अली से बोला ।
मुबारक अली ने अपने हाथ की तरफ देखा ।
लेसर बीम वह अभी भी हाथ में थामे हुए था ।
“तौबा !” - लेसर बीम को ट्रक के फर्श पर फेंकता हुआ वह वितृष्णापूर्ण भाव से बोला - “तौबा ! यह नामुराद बोझा मैं अभी तक उठाए हुए हूं और मेरे कू खबर ही नहीं ।”
“अलार्म कैसे बजा ?” - जामवन्तराव बोला ।
“अबे, अब छोड़ यह रट ।” - मुबारक अली कहरभरे स्वर में बोला - “साला, कैसे भी बजा, बजा । साले, शुक्र मना कि वक्त रहते हम उस, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, चूहेदान से, बाहर निकल आए ।”
“वहां जनरेटर होगा ।” - आनन्द बोला ।
“उससे क्या होता है ?” - विमल बोला - “जनरेटर का काम तो बिजली की जगह काम करना होता है । जिन लाइनों में सरकारी पावर हाउस की बिजली दौड़ रही होती है, पावर कट जाने पर उन्हीं लाइनों में जनरेटर द्वारा पैदा की बिजली दौड़ने लगती है । जब अलार्म बैल को जाती लाइन काट दी गई थी तो अलार्म नहीं बजना चाहिए था, बावजूद जनरेटर के नहीं बजना चाहिए था ।”
“शायद जनरेटर और पावर की अलग वायरिंग रही हो ।”
“लेकिन बिजली का कनैक्शन तो नहीं काटा था हमने । जनरेटर तो बिजली न होने पर बिजली की जगह काम करता है ।”
“अरे, अब छोड़ो यह बहस ।” - मुबारक अली फिर झाल्लाया - “अपुन बोलता है, घन्टी कैसे भी बजी, बजी । अब इस बात पर तबसरा करने से क्या हासिल होएंगा ! काम तो बिगड़ गया ।”
“अलार्म कैसे बजा ?” - जामवन्तराव के मुंह से फिर निकला ।
“अबे, चुप कर साले वर्ना टेंटूआ दबा दूंगा ।”
“यह हेरोइन की तरंग में है ।” - आनन्द बोला ।
“मैं साले की सब तरंग-पतंग निकाल दूंगा ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “लगता है अपुन भी साला तरंग में है जो यह, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, यह तामझाम अभी भी पहनेला है ।”
मुबारक अली तब भी घुटनों तक के गमबूट और वाटरप्रूफ ओवर आल पहने था और गले में गैसमास्क लटकाए था, जबकि बाकी सब लोग उन चीजों से सीवर में ही किनारा कर चुके थे । उसने एक-एक चीज अपने जिस्म से उधेड़कर ट्रक से बाहर फेंकनी शुरू कर दी ।
“मेरी जैकेट !” - एकाएक जार्ज सैबेस्टिनयन दोनों हाथों से अपनी छाती टटोलता हुआ बोला ।
तब हर किसी ने नोट किया कि जो जैकेट सदा जार्ज के जिस्म पर होती थी, उसे वह उस वक्त नहीं पहने हुए था ।
“क्या हुआ तेरी जैकेट को ?” - मुबारक अली भुनभुनाया - “कहां गई ?”
“कहीं पीछे तो नहीं छोड़ आया ?” - विमल बोला ।
“छोड़ आया तो क्या हुआ ?” - आनन्द बोला - “जहां पीछे इतना कीमती सामान रह गया, वहां एक डेनिम की मामूली जैकेट रह गई तो क्या आफत आ गई ?”
“आफत आ सकती है ।” - विमल बोला - “उस पर दर्जी का कोई बिल्ला हो सकता है । उस पर धोबी का कोई मार्का हो सकता है जिसकी मदद से पुलिस इस तक पहुंच सकती है और‍ फिर इसकी मदद से हम सब तक ।”
“क्यों बे छोकरे ?” - मुबारक अली बोला - “था कोई ऐसा बिल्ला, मार्का तेरी जैकेट पर ?”
“वो तो नहीं था” - जार्ज सैबेस्टियन कठिन स्वर में बोला - “लेकिन.. लेकिन...”
“क्या लेकिन ? साले, जल्दी बोल क्या था उसमें ? मेरा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी, दिल बैठा जा रहा है ।”
“उसकी एक जेब में” - जार्ज इतने दबे स्वर में बोला कि हर कोई बड़ी मुश्किल से उसकी आवाज सुन पाया - “मेरा ड्राइविंग लाइसेंस था । और टैक्सी ड्राइवर का टोकन था ।”
“क्या बकता है ?” - मुबारक अली दहाड़ा ।
“राशन कार्ड और छोड़ आना था जेब में ।” - विमल बोला ।
“मैं क्या करता ?” - जार्ज बोला - “मुझे गर्मी लग रही थी । मैंने जैकेट उतार दी । रोज उतारता था लेकिन आज... आज अलार्म की हड़बड़ी में पहनना भूल गया ।”
“साला ! हरामजादा !” - मुबारक अली बोला - “लापरवाह अहमक !”
“अगर वो जैकेट पुलिस के हाथ पड़ गई तो मैं पकड़ा जाऊंगा ।”
“देखो तो साले को ! अपनी फिक्र पड़ी है इसे ! अबे कमीने, जब तू पकड़ा जाएगा तो फिर हम सब नहीं पकड़े जाएंगे ?”
“यह” - आनन्द गमगीन स्वर में बोला - “हम सबको जेल की चक्की पिसवाएगा ।
“अब मैं क्या करूं ?”
“करना क्या है ? मुबारक अली बोला - “ट्रक के नीचे उतर, वापिस जौहरी बाजार जा और सीवर में से अपनी जैकेट निकालकर ला । जा, शाबाश, दौड़ के जा ! दौड़ेगा तो थोड़ा नशा भी उतर जाएगा ।”
“वहां तो पुलिस होगी । मैं तो फौरन पकड़ा जाऊंगा ।”
“जो जाकर कहीं छुप जा । ताजमहल कैसा रहेगा ? वहां तो पुलिस किसी मवाली को ढूंढने नहीं आएगी । या शायद ओबराय ठीक रहेगा तेरे लिए ।”
“पुलिस को सीवर का फौरन ख्याल नहीं आएगा ।” - विमल धीरे से बोला - “जो छेद वाल्ट के शैल में हमने किया था, वह लाकरों की कैबिनेट के पीछे छुपा हुआ होगा । उसकी खबर, हो सकता है, पुलिस को कई घंटों तक न लगे ।”
“लेकिन” - जार्ज बोला - “पुलिस तो वहां बहुत पहुंची हुई होगी !”
“साथ ही बतौर तमाशाई वहां इलाके के भी काफी लोग जमा होंगे । और पुलिस वाल्ट वाली इमारत के सामने जमघट लगाए होगी ।”
“मैनहोल नम्बर छत्तीस वहां से बहुत दूर है । वहां पुलिस नहीं होगी । वहां पुलिस तब तक नहीं होगी जब तक कि सीवर सिस्टम की तरफ उनकी तवज्जो नहीं जाएगी । और इसमें वक्त लगेगा ।”
“मैं पकड़ा जाऊंगा ।” - जार्ज ने फरियाद की ।
“अबे साले, हलकट ।” - मुबारक अली फिर बिफरा - “तू नहीं जाएगा तो हम सब पकड़े जाएंगे ।”
“मैं जुबान नहीं खोलूंगा ।”
“पुलिस का डण्डा परेड होगा तो तेरा बाप भी खोलेगा ।”
“लेकिन मैं...”
“चुप रह !” - मुबारक अली ने ट्रक की सामने की पैनल ठकठकाई - “वागले, ट्रक वापिस लेकर चल ।”
वागले ने ट्रक तभी वापिस मोड़ा जब विमल ने भी इस काम के लिए हामी भरी ।
अत्यन्त सस्पेंसभरे माहौल में ट्रक वापिस लौटा ।
वागले ने ट्रक जौहरी बाजार से परे रोक दिया ।
बाजार के दहाने पर पुलिस नहीं थी ।
“पुलिस तो नहीं दिखाई दे रही ।” - आनन्द बोला ।
“फिर भी क्या वापिस बाजार में घुसना मुनासिब होगा ?” - ड्राइविंग सीट से वागले बोला ।
“नहीं मुनासिब होगा ।” - मुबारक अली बोला - “यह अकेला जाएगा आगे ।”
“लेकिन बाप” - जार्ज ने आर्तनाद किया - “मैं सरेआम बाजार में मैनहोल का ढक्कन उठाकर भीतर कैसे घुसूंगा ? मेरे ऊपर ट्रक की ओट होनी चाहिए ।”
“ट्रक भीतर नहीं ले जाने का है । उसमें सबके लिए, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खतरा है ।”
“अगर तुम लोग मुझे छोड़कर भाग गऐ तो ?”
“नहीं भागेंगे ।”
“अगर...”
“चल मैं तेरे साथ चलता हूं ।”
जार्ज ने अपने उस्ताद के उस फैसले से बड़ी राहत महसूस की
विमल को हैरानी हुई ।
“फिर क्या वान्दा है, बाप !” - जार्ज बोला और ट्रक से नीचे उतरा ।
उसके पीछे ही मुबारक अली नीचे उतरा ।
“तू आगे चल” - मुबारक अली बोला - “मैं तेरे को, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में...”
“कवर ।” - जार्ज बोला ।
“हां, वही । वही करके रखूंगा । कबर ।”
“कवर ।”
“अबे हिल, साले ! यह मसखरी मरने का वक्त है ?”
जार्ज बाजार में दाखिल हुआ ।
कुछ क्षण बाद उससे दस कदम पीछे चलता हुआ मुबारक अली भी बाजार में दाखिल हुआ ।
बाजार का उस ओर का सिरा सुनसान पड़ा था । लगता था जो कोई लोग भी घरों से निकलकर सड़क पर आए थे, वे जाकर वाल्ट वाली इमारत के सामने जमा हो गए थे ।
कुछ सोचकर विमल भी ट्रक से नीचे कूदा और बाजार की तरफ बढा । वागले ने उसके साथ आने का उपक्रम किया तो विमल ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया ।
वह बाजार में दाखिल हुआ ।
“जार्ज ।” - एकाएक मुबारक अली उच्च स्वर में बोला ।
जार्ज तुरन्त ठिठका, घूमा ।
मुबारक अली ने उसे शूट कर दिया ।
***
विमल का यह ख्याल सरासर गलत निकला कि पुलिस को घण्टों पता नहीं लगने वाला था कि डकैतों ने किधर से वाल्ट में घुसने की कोशिश की थी ।
वह पता हकीकतन पुलिस को बहुत जल्द लग गया ।
पुलिस के आगमन के बाद वाल्ट को चैकअप के लिए खुलवाया गया तो वाल्ट के सारे चैम्बर में गन्दगी की बदबू बसी पाई गई । उतना ही पुलिस को सुझाने के लिए काफी था कि वह सीवर की बदबू थी जो किसी रास्ते से वाल्ट तक पहुंच रही थी ।
मामूल चैकअप वर वह रास्ता भी सामने आ गया ।
वाल्ट के शैल में एक जगह छेद दिखाई दे रहा था ।
वह छेद इत्तफाक से किसी लाकर कैबिनट के पीछे नहीं लाकरों का रिकार्ड रखने के लिए प्रयुक्त होने वाली एक फाइलिंग कैबिनेट के पीछे था जोकि एक ही गार्ड ने बड़ी सहूलियत से सरका ली ।
उस छेद से ही पुलिस की समझ में सारी कहानी आ गई ।
फिर कई पुलिसियों को सीवर में दाखिल होने का हुक्म मिला ।
***
ट्रक फिर आंटी के आवास की ओर दौड़ा चला जा रहा था ।
“जार्ज कहां रह गया ?” - आनन्द ने सवाल किया ।
“इसने” - विमल ने मुबारक अली की तरफ इशारा किया - “उसे शूट कर दिया ।”
आनन्द के चेहरे पर तुरन्त आतंक के भाव आए ।
जामवन्तराव की उनकी तरफ तवज्जो नहीं थी । वह ऊंघ रहा था और अभी भी रह-रहकर एक ही बात बुदबुदा रहा था - अलार्म कैसे बजा !
“इसी में हम सब की भलाई थी ।” - मुबारक अली सख्ती से बोला - “खुद उसकी भी ।”
“वो हमारा साथी था ।” - आनन्द बोला ।
“साथी वो होता है जो साथ दे । वो साथ देने के काबिल नहीं था इसलिए उसका साथी बना रहना गलत था । वो हम सब को गिरफ्तार करवा सकता था ।”
“यूं तो रूपचन्द जगनानी भी हम सबको गिरफ्तार करवा सकता है ।”
“अभी हमेरे कू नहीं मालूम कि वो पकड़ा गया है । हो सकता है वो आजाद हो और वहां से खिसकने में कामयाब हो भी चुका हो ।”
“अगर वो पकड़ा गया हुआ तो ?”
“तो हमारी बदकिस्मती । वो हमेरे काबू से बाहर है । जार्ज हमेरे काबू से बाहर नहीं था ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “जार्ज की मौत का मेरे कू अफसोस है । मैं फिर बोलता हूं इसी में हम सब की, वो क्या कहते है अंग्रेजी में, भलाई थी । तुम्हें खुश होना चाहिए, अपुन की तारीफ करनी चाहिए, कि अपुन ने ऐसा कदम उठाने की हिम्मत की ।”
“यह यारमारी है ।” - विमल बोला ।
“क्या !” - मुबारक अली आंखें निकालकर बोला ।
“वो तुम्हें उस्ताद कहता था । अपने शर्गिद के साथ तुमने यह सलूक किया ! जिसकी बांह थामी, खुद ही उसे जहन्नुम रसीद कर दिया । हमारे गुरु तेगबहादुर ने कहा है कि बांह जिनां दी पकड़ियै, सिर दीजै बांह ने छोड़िये ।”
“सब बकवास है ।” - मुबारक अली भड़का ।
“तुम्हारे पास पिस्तौल कहां से आई ?”
“कहां से आयी क्या मतलब ! पिस्तौल तो हमेशा अपुन पास रखता है ।”
“अगर” - आनन्द यूं बोला जैसे स्वत: भाषण कर रहा हो - “जागनानी पकड़ा गया हुआ तो ?”
“तो क्या !” - मुबारक अली बोला ।
“वो मेरे घर का पता जानता है...”
“आज रात घर मत जा । कल मालूम हो ही जाएगा कि वो पकड़ा गया है या नहीं ।”
“वो पकड़ा भी गया होगा” - विमल बोला - “तो पुलिस उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी । पुलिस हरगिज भी यह साबित नहीं कर सकती कि डकैती में उसका भी कोई हाथ था । इतनी अक्ल उसे भी होगी ।”
“फिर भी” - आनन्द बोला - “मैं घर नहीं जाऊंगा ।”
“तो न जाना । एक रात तो तुम्हें आंटी भी अपने पास रख लेगी ।”
तभी वागले ने ट्रक को आंटी के स्क्रैप यार्ड के फाटक पर ले जाकर रोका ।
वहां पहुंचकर विमल को मालूम हुआ कि उनकी उस रात की नाकामियों और दुश्वारियों का सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ था ।
खांडेकर ने बताया कि सोलंकी भाग गया था ।
***
“जनाब” - रूपचन्द जागनानी ने फरियाद की - “मैं आपको सौवीं बार बता रहा हूं कि मुझे नींद नहीं आ रही थी इसलिए मैं सड़क पर निकल आया था । मैं बूढा आदमी हूं, मुझे अक्सर नींद नहीं आती । मैं अपने घर लौट रहा था जबकि आपके आदमियों ने मुझे धर दबोचा था ।”
उसको गिरफ्तार करते ही पुलिस वाले आनन-फानन उसे हैडक्वार्टर ले आए थे और अब एक इन्स्पेक्टर, जोकि निश्चय ही सोते से जगाया गया था, उससे पूछताछ कर रहा था ।
“जब रहते महालक्ष्मी पुल के पास हो” - इन्स्पेक्टर फाल्के सख्ती से बोला - “तो जौहरी बाजार कैसे पहुंच गए ! यही रास्ता क्यों अख्तियार किया तुमने सैर करने का ?”
“जनाब, मैंने किधर तो चलना ही था, मैं उधर चल दिया । जौहरी बाजर में कोई कर्फ्यू तो नहीं लगा हुआ था जोकि मैंने...”
“ज्यादा जुबानदराजी मत करो ।”
“मैं जुबानदराजी कहां कर रहा हूं ? मैं तो सिर्फ आपके सवालों का जवाब दे रहा हूं ।”
“और ज्यादा होशियारी दिखाने की भी कोशिश मत करो ।”
रूपचन्द चुप रहा ।
“काम क्या करते हो ?”
“कमेटी के दफ्तर में ड्राफ्ट्मैन हूं ।”
“तुम्हारे घर में कोई इस बात की तसदीक कर सकता है कि तुम्हें नींद नहीं आ रही थी, इसलिए तुम सड़क पर निकल आए थे ?”
रूपचन्द ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?”
“मैं अकेला रहता हूं ।”
“अकेले रहते हो ? परिवार नहीं है ?”
“एक लड़का है । उसकी फैमिली है लेकिन मैं उनके साथ नहीं रहता ।”
“क्यों ?”
रूपचन्द ने उत्तर न दिया
“लड़का क्या करता है ?”
वह सोचने लगा कि वह उसे बताये या न बताये कि वह भी उसी की तरह पुलिस इन्स्पेक्टर था । अभी वह इस विषय पर विचार ही कर रहा था कि एकाएक एक हवलदार बोला - “ए.सी.पी. साहब आ गए ।”
ए.सी.पी मनोहर देवड़ा ने भीतर कदम रखा ।
सब उठकर खड़े हो गए । ए.सी.पी. के रोब में रूपचन्द भी उठकर खड़ा हो गया ।
ए.सी.पी देवड़ा आ कर इन्स्पेक्टर फाल्के द्वारा खाली की गई सीट पर बैठ गया ।
“सर ।” - फालके ने रूपचन्द की तरफ संकेत किया - “यह है वो आदमी जो जौहरी बाजार में वाल्ट वाली इमारत के करीब से हिरासत में लिया गया था ।”
देवड़ा ने रूपचन्द पर निगाह डाली, तुरन्त उसके चेहरे के भाव तब्दील हुए ।
“बैठिए ।” - वह नर्मी से बोला ।
रूपचन्द वापिस बैठ गया ।
“जौहरी बाजार के वाल्ट पर डकैती डालने की कोशिश हुई है और सायरन बजते वक्त सिर्फ आप ही एक शख्स थे जो वाल्ट के करीब बाजार में मौजूद थे ।”
“मैंने वजह बताई है अपनी वहां मौजूदगी की ।” - रूपचन्द ने दबे स्वर में बोला ।
देवड़ा ने इन्स्पेक्टर फाल्के की तरफ देखा ।
फाल्के ने वजह बताई और उन हालात से भी ए.सी.पी. को अवगत कराया जिनमें वह ‘मछली’ पुलिस के जाल में फंसी थी ।
“मैं सायरन की आवाज से बौखला गया था ।” - रूपचनद बोला - “मुझे लगा था कि वहां जरूर कोई गड़बड़ हो गई थी । जनाब, गड़बड़वाली जगह से जल्दी कूच कर जाना, वो भी रात के वक्त, हर कोई चाहता है ।”
“यानी कि आपको मालूम था कि वहां कोई गड़बड़ हुई थी ?”
“मुझे ऐसा अन्देशा हुआ था ।”
“गड़बड़ तो वहां भारी हुई है । वहां वाल्ट पर डकैती डालने की कोशिश की गई है ।”
“इन्स्पेक्टर साहब ने मुझे बताया है । ये मुझे उस डकैती में शामिल समझ रहे हैं । साहब, मैं एक सरकारी मुलाजिम हूं । कमेटी के दफ्तर में ड्राफ्ट्समैन की नौकरी करता हूं । मेरा डकैत लोगों से क्या वास्ता !”
“पहले आपको नहीं मालूम था कि वहां क्या हुआ था ?”
“जी नहीं ।”
“यह तो आपको मालूम होगा कि वहां एक सुनारों की मार्केट है और उसमें एक प्राइवेट वाल्ट है ।”
“जी नहीं ।”
“नहीं !”
“जनाब मैं एक गरीब आदमी हूं । मेरी औकात नहीं कि मैं सुनारों की मार्केटों की खबर रखूं, प्राइवेट वाल्टों की खबर रखूं ।”
“हूं । ओके, यू कैन गो ।”
आदेश इतना अप्रत्याशित था कि रूपचन्द को लगा कि उससे सुनने में गलती हुई थी ।
“जी !” - वह हड़बड़ाया-सा बोला ।
“मैंने कहा आप जा सकते हैं ।”
“ओह !” - रूपचन्द चाबी लगे खिलौने की तरह उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ - “शुक्रिया । शुक्रिया ।”
“सर !” - इंस्पेक्टर फाल्के व्यग्र भाव से बोला ।
“ये” - देवड़ा बोला - “हमारे इंस्पेक्टर अशोक जगनानी के पिता हैं ।”
रूपचन्द चौंका ।
“आप मुझे जानते हैं ?” - वह बोला ।
“हां ।” - देवड़ा बोला - “एक बार मैं अशोक के घर गया था तो आप वहां मौजूद थे । मेरा आपसे परिचय भी करवाया गया था लेकिन लगता है आप भूल गए हैं ।”
“हां । मुझे अफसोस है कि...”
“अफसोस छोड़िए और सीधे घर जाइए । और यूं रात-बिरात सुनसान सड़कों पर न फिरा कीजिए । नींद न आए तो अपने इलाके में ही टहल लिया कीजिए । नींद न आए तो अपने इलाके में ही टहल लिया कीजिए ।”
“जी हां । जी हां । मैं...”
“आपने इन लोगों को यह नहीं बताया था कि आपका लड़का महकमे में पुलिस इंस्पेक्टर है ?”
“जी नहीं ।”
“क्यों ?”
“यूं ही । दरअसल मुझे अपने लड़के की नेकनामी का बड़ा ख्याल है ।”
“बड़ा उम्दा ख्याल है लेकिन अब आपने कुछ किया ही नहीं था तो लड़के की नेकनामी को क्या होने जा रहा था ?”
“दरअसल मैं... नहीं चाहता था कि अपनी किसी जाती दुश्वारी से निजात पाने के लिए मैं अपने लड़के के नाम और ओहदे का इस्तेमाल करूं ।”
“कमाल है । अगर ये लोग आपको जेल मे डाल देते ।”
“तब तो मैं जरूर अशोक का हवाला देता ।”
“पहले नहीं ?”
रूपचन्द खामोश रहा ।
ए.सी.पी. को दोबारा बोलता न पाकर वह घूमा और दरवाजे की तरफ बढा ।
“आज जार्ज सैबेस्टियन को जाते हैं ?”
रूपचन्द के सारे शरीर में सिहरन दौड़ गई । उसे यूं लगा जैसे किसी ने पीछे से उस पर आक्रमण किया हो । फिर बड़ी मुश्किल से वापिस घूमा ।
“आप जार्ज सैबेस्टियन को जानते हैं ?” - इंस्पेक्टर फाल्के ने अपना सवाल दोहराया ।
“वो कौन है ?” - रूपचंद कठिन स्वर में बोला ।
“आप बताइए ।”
“मैंने तो यह नाम आज से पहले पहले कभी नहीं सुना ।”
“जरा यह सूरत देखिए । शायद इसे किसी और नाम से जानते हों ।”
रूपचन्द ने देखा फाल्के उसके सामने एक ड्राइविंग लाइसेंस कर रहा था । रूपचंद ने उसके करीब जाकर ड्राइविंग लाइसेंस पर लगी जार्ज सैबेस्टियन की तस्वीर पर निगाह डाली ।
फिर उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“आप न इस सूरत से वाकिफ हैं” - इंस्पेक्टर फाल्के उसे घूरता हुआ बोला - “और न इस नाम से ?”
“ज... जी हां । जी हां ।”
“इस जैकेट को भी आप नहीं पहचानते ?” - फाल्के ने उसके सामने कालर पकड़कर एक जैकेट लहराई ।
“जी नहीं ।”
“इतनी जल्दी जवाब‍ न दीजिए । पहले इसे अच्छी तरह से देख तो लीजिए ।”
“मैंने देख ली है । मैं इसे नहीं पहचानता ।”
“पक्की बात ?”
“जी हां ।”
“आपने यह नहीं पूछा कि यह जैकेट आपको क्यों दिखाई जा रही है ?”
रूपचंद ने जोर से थूक निगली ।
“यह जैकेट आपको इसलिए दिखाई जा रही है क्योंकि यह जैकेट जार्ज सैबेस्टियन नाम के एक आदमी की है और जार्ज सैबेस्टियन उन डकैतों में से एक था जिन्होंने वाल्ट लूटने की कोशिश की थी ।”
“मेरा डकैतों से क्या मतलब ?” - रूपचन्द बड़ी कठिनाई से कह पाया ।
“होना भी नहीं चाहिए । खासतौर से तब जब कि आप एक पुलिस अधिकारी के पिता हैं ।”
रूपचन्द खामोश रहा ।
“आप घर खुद पहुंच जाएंगे” - ए.सी.पी. देवड़ा बोला - “या मैं आपको भिजवाने का कोई इंतजाम करूं ?”
“जी नहीं, मैं चला जाऊंगा । नमस्ते ।”
फिर पीछे से फिर आवाज लगने की आशंका से त्रस्त, मन-मन-भर के कदम रखता हुआ रूपचंद जगनानी वहां से विदा हुआ ।
***
“कैसे भाग गया ?” - विमल कलपकर बोला ।
“वो मुझे धोखा दे गया ।” - खांडेकर तनिक सहमे स्वर में बोला ।
“कैसे धोखा दे गया ? जो कहना है जल्दी-जल्दी कहो, एक ही बार में कहो ।”
“मैं उसके लिए खाना लेकर गया था । जैसा मैं पहले करता था, मैंने तहखाने का दहाना खोला और खाने की थाली दूसरी सीढी पर रख दी । फिर मैं रिवाल्वर सामने ताने उसके थाली तक पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगा । वह थाली से दो सीढी परे था कि एकाएक उसका पांव फिसला, वह सीढियों पर उलटा और लुढकनियां खाता हुआ नीचे जाकर गिरा । गिरने के बाद जब उसके शरीर में कोई हरकत न हुई तो मैंने समझा कि जरूर वो गम्भीर रूप से घायल हो गया था । वो मुझे सिर के बल गिरता दिखाई दिया था । मैंने तो यहा तक सोचा कि कहीं वो मर ही न गया हो । मैं लपकता हुआ उसके पास पहुंचा । वो तहखाने के फर्श पर निश्चेष्ट पड़ा था । उसका मुआयना करने के लिए मैं उसके चेहरे पर झुका तो उसने मुझे दबोच लिया । उसने मेरी रिवाल्वर भी छीन ली । तब मुझे सूझा कि उसने सीढ़ियों से लुढकने का महज ड्रामा किया था । फिर वह अपनी जगह मुझे तहखाने में बंद करके भाग गया ।”
“शाबाश !” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“मुझे तो मां ने आकर वहां से निकला ।”
“शाबाश !”
“अलार्म कैसे बजा ?” - जामवंतराव बोला ।
“अबे चुप कर, साले” - मुबारक अली कहरभरे स्वर में बोला - “दोबारा यही बात फिर तेरी जुबान से निकली तो जुबान खींच लूंगा । समझ गया !”
जामवंतराव खामोश रहा ।
“अपनी वो सफेद नसवार फिर से ले ले और सो जा कल को अखबार से ही मालूम होगा कि अलार्म कैसे बजा ।”
मुबारक अली ठीक कह रहा था ।
सोलंकी को कतई उम्मीद नहीं थी कि वो इतनी सहूलियत से रिहा हो जाएगा । वो छोकरा जो उसके लिए खाना लाया था, कुछ ज्यादा ही आसानी से उसके चक्कर में आ गया था । उसकी जगह सोहल होता तो उसने यूं दौड़कर उसकी नब्ज देखने आने की मूर्खता कभी न की होती ।
अब उसने सबसे पहले अपनी स्टेशनवैगन तलाश करनी थी ।
स्टेशनवैगन की चाबियां सोहल ने पहले ही दिन उसे सौंप दी थीं । उसका पर्स उसकी जेब में तब भी सही-सलामत मौजूद था । इस बात की तसदीक कर चुकने के बाद कि स्टेशनवैगन वहीं कहीं खड़ी थी, वह एक टैक्सी में सवार हुआ था और चैम्बूर पहुंचा था । उसे इतना ध्यान था कि जहां उसकी स्टेशनवैगन फुटपाथ पर चढा कर खड़ी की गई थी, वहां से करीब ही कहीं रेलवे साइन थी और बाद में वहां से रवाना होकर चैम्बूर में तुकाराम के घर पहुंचने मे उन्हें पांच मिनट के करीब का वक्त लगा था ।
चैम्बूर पहुंचकर उसने उधर से उल्टा सफर करके अपना उस रोज वाला रूट ट्रेस करने की कोशिश शुरू की ।
कितना वक्त बरबाद करने के बाद और बेशुमार सड़कों के धक्के खा चुकने के बाद उसे एक फुटपाथ पर चढी खड़ी अपनी स्टेशनवैगन दिखाई दी ।
उसने चैन की सांस ली ।
उसे डर था कि कहीं गाड़ी चोरी न हो गई हो या उसे पुलिस टो करके न ले गई हो ।
टैक्सी का कोई डेढ सौ रुपया भाड़ा भर के वह टैक्सी से उतरा ।
टैक्सी के वहां से विदा हो जाने तक वह वहीं ठिठका खड़ा रहा और फिर लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ स्टेशनवैगन के करीब पहुंचा ।
उसने उसका ताला खोला ।
ये देखकर उसे बड़ी राहत महसूस हुई कि उसका सूटकेस भी भीतर सुरक्षित मौजूद था ।
वह ड्राइविंग सीट पर आ बैठा । उसने इन्जन स्टार्ट किया । इन्जन तुरंत स्टार्ट हुआ । उसने कार को फुटपाथ से उतारा और वापिस घुमाया ।
अब उसने सस्पैक्ट नम्बर दो के पीछे पड़ना था ।
सस्पैक्ट नम्बर दो उन दिनों अहमदाबाद में रहता था और चंदानी के नाम से जाना जाता था ।
***
नौ बजे जामवंतराव की बीवी अन्जना ने उसे झिंझोड़कर जगाया ।
“मैं नौकरी पर जा रही हूं ।” - वह बोली - “दरवाजा बंद कर लो ।”
जामवंतराव ऊंघता हुआ उठा ।
“रात को कोई बुरा सपना देखते रहे थे ?” - अन्जना ने पूछा ।
“स... सपना !” - जामवंतराव बोला ।
“हां । सारी रात बड़बड़ाते रहे तुम । मेरी कम से कम बीस बार नींद खुली । जब भी मेरी नींद खुली, मैंने तुम्हें एक ही बात कहते सुना ।”
“क- क्या ?”
“अलार्म कैसे बजा ! अलार्म कैसे बजा !”
“ओह !”
“कौन-सा अलार्म याद आ रहा था तुम्हें ?”
“पता नहीं । सपना याद तो रहा नहीं ।”
“ठीक वक्त पर तरीके से चैन की नींद सोवो तो क्यों बुरे सपने आएं !”
जामवंतराव खामोश रहा ।
“चाय पी लो ।” - अन्जना एक तिहाई पर रखे चाय के गिलास की तरफ इशारा करती हुई बोली - “ठण्डी हो जाएगी ।”
“अच्छा ।”
“कोई पराठा वगैरह बना दूं ?”
“नहीं, नहीं । जरूरत नहीं ।”
“वैसे तुम्हारा रात का खाना पड़ा है...”
“मुझे भूख होगी तो वही खा लूंगा ।”
“गर्म कर लेना ।”
“अच्छा !”
“मैं जाती हूं ।”
जामवंतराव ने सहमति में सिर हिलाया ।
अन्जना चली गई ।
जामवंतराव ने लोटे मे पानी लेकर कुल्ला किया और मुंह धोया । फिर वह बाहर जाकर पड़ोसी से उसे रोज का अखबार मांग कर लाया ।
चाय की चुस्कियां लेते हुए उसने सारे अखबार को उल्टा-पुलटा ।
डकैती की खबर उसे कहीं दिखाई नहीं दी ।
अगले दो घंटे उसने पिछली रात का घटनाक्रम अपने मानपटल पर दोहराते हुए गुजारे ।
फिर वह खड़ा हुआ ।
अलार्म कैसे बजा ! - यह सस्पेंस उसे अभी भी खाये जा रहा था । उसे लग रहा था जैसे उसके मुंह तक आया हुआ निवाला किसी ने उससे छीन लिया था ।
फिर उसने घर से बाहर निकलने की ठानी ।
एक खूंटी पर टंगा ताला उतारकर वह बाहर जाने लगा तो एकाएक ठिठका । फिर उसने मेज पर पड़ी एक पेंसिल उठाई और एक दीवार पर मराठी के बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया:
मेरी जान, मेरा विश्वास कर ! सच ही एक दिन ऐसा आएगा जब मैं तुझे दौलत के अम्बार से ढक दूंगा ।
फिर वह अपनी खोली से बाहर निकला, उसने उसे ताला लगाया और सीढियां उतरने लगा ।
***
आंटी के घर में सतीश आनंद दोपहर के करीब सोकर उठा ।
सबसे पहले उसने अखबार ही टटोला ।
अखबार डकैती की या जार्ज सैबेस्टियन के कत्ल की या रूपचंद जगनानी की कोई खबर नहीं थी ।
वह नित्यकर्म से निवृत हुआ और वहां से बाहर निकला ।
अपने घर का रुख उसने तब भी नहीं किया । उसे बार-बार यही ख्याल आता था कि उसके फ्लैट के सामने उसी के इंतजार में पुलिसिये बैठे होंगे जोकि उसके वहां पहुंचते ही उसे गिरफ्तार कर लेंगे ।
वह अपनी कार पर सवार होकर रणजीत स्टूडियो पहुंचा ।
वहां उसकी एक फिल्म का शूटिंग शिड्यूल था ।
वहां उसे मालूम हुआ कि वहां का शिड्यूल कैंसिल हो गया था और सारा यूनिट फिल्म सिटी पहुंचा हुआ था जहां पर लगाए एक आउटडोर सैट पर फिल्म की पंद्रह दिन का निरंतर शूटिंग थी ।
वह फिल्म सिटी पहुंचा ।
वहां उसने उस सहायक निर्देशक को तलाश कराना आरंभ किया जिसने उसे फिल्म में रोल दिलाया था ।
वह उसे वहां कहीं न मिला लेकिन हर किसी ने यही बताया कि वह किसी भी क्षण वहां अपेक्षित था ।
वह कैन्टीन में जाकर बैठ गया ।
वहां पड़े अखबारों में उसे ‘डेली’ नाम का वह अखबार दिखाई दिया जो और अखबारों की तरह सुबह आने की जगह दोपहर में आता था ।
‘डेली’ के मुख्यपृष्ठ पर ही वाल्ट डकैती के उपक्रम की खबर छपी हुई थी ।
आनंद ने झपटकर अखबार उठाया और उसे पढने लगा ।
खबर में सीवर और उन द्वारा खोदी गई सुरंग के चित्रों के साथ डकैती के उपक्रम का विस्तृत वर्णन छपा था ।
खबर पढकर आनंद को मालूम हुआ कि:
जार्ज सैबेस्टियन की जैकेट बरामद हो चुकी थी ।
उसकी लाश भी बरामद हो चुकी थी ।
रूपचंद जगनानी पिछली रात पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था और पुलिस के उच्चाधिकारियों द्वारा उसकी जवाब-तलबी हुई थी । पेपर में यह भी छपा था कि उसका बेटा अशोक जगनानी बम्बई पुलिस में इंस्पेक्टर था लेकिन ऐसा कोई संकेत नहीं था कि उसकी रिहाई में उसके इंस्पेक्टर पुत्र का कोई हाथ था ।
वाल्ट के दरवाजे में टाइम लाक की व्यवस्था थी जिसकी वजह से एक बार वाल्ट बंद हो जाने के बाद वाल्ट के मालिकान की आकर वो टाइम कैंसिल कर सकते थे और समय से पहले वाल्ट खोल सकते थे । अखबार में यह संभावना व्यक्त की गई थी कि डकैतों को टाइम लाक की खबर भी इसलीलिए उन्होंने सीधे रास्ते से वाल्ट पर आक्रमण करने की कोशिश नहीं की थी । अखबार में यह भी सम्भावना व्यक्त की गई थी कि शायद वाल्ट का कोई कर्मचारी डकैतों से मिला हुआ था ।
अलार्म की तार उन्होंने एकदम सही काटी थी । इमारत की छत पर लगा शक्तिशाली सायरन किसी और ही इंतजाम से बजा था और इंतजाम ऐसा था कि उसका वाल्ट की मुलाजमत में रह चुके जामवंत राव को भी खबर न थी ।
वाल्ट के मैनेजर भौंसले के बयान के मुताबिक वह सायरन बंद वाल्ट के भीतर के हवा के दबाव में और बाहरी हवा के दबाव में फर्क के आधार पर बजता था । डकैतों द्वारा जब वाल्ट के शैल में छेद किया गया था तो बाहरी हवा एकाएक वाल्ट के बंद वातावरण में दाखिल हुई थी और ‘एयर प्रैशर में यूं आयी सडन चेंज’ से सायरन बज उठा था ।
आनंद ने अपना माथा पीट लिया ।
कितने मूर्ख थे वे लोग जो समझ बैठे थे कि अलार्म काट देने से और वाल्ट के शैल के छेद कर लेने से ही वे इतना आधुनिक वाल्ट लूटने में सफल हो जाने वाले थे ।
चार बजे अपने सहायक निर्देशक से मुलाकात हुई ।
“भई, कहां थे तुम ?” - वह उसे देखते ही बोला - “मैं तुम्हें तीन दिन से तलाश कर रहा हूं ।”
“मैं घर पर ही था ।” - आनंद सशंक स्वर में बोला ।
“मैं रोज रात को नौ बजे तुम्हें फोन करता था । एक बार भी किसी ने फोन नहीं उठाया ।”
“क्यों फोन करते थे ?”
“तुम्हारा शूटिंग शिड्यूल था ।”
“वो तो आज से था ।”
“था लेकिन यहां का सैट जल्दी तैयार हो गया, अभिताभ की डेट्स मिल गयीं इसलिए देसाई साहब ने जल्दी शूटिंग करने का फैसला कर लिया । अब तुम मिलकर नहीं दिए तो...”
“तो क्या ?”
“तो देसाई साहब ने तुम्हारी जगह किसी और को ले लिया है ।”
“नहीं, नहीं” - आनंद बोला - “ऐसा न करो ।”
“अब तो हो गया ऐसा ।”
“यार, कुछ करो ।”
“अब मैं क्या कर सकता हूं ! अब तो धीरज को लेकर तीन दिन की शूटिंग भी हो चुकी है ।”
“लेकिन...”
“तुम्हारे अभिताभ के साथ सीन थे । तुम क्या जानते नहीं कि एक जूनियर आर्टिस्ट की खातिर स्टार को - और भी अपने अभिताभ जैसे सुपर स्टार को - इंतजार नहीं करवाया जा सकता ।”
“कुछ करो, यार । प्लीज ।”
“मैं क्या करूं । देसाई साहब बहुत खफा हैं तुमसे । मैंने तुम्हारी ज्यादा तरफदारी की तो वो मुझे भी निकाल बाहर करेंगे ।”
“ओह !”
“मैं चला ।”
और वह यूं वहां से खिसका जैसे उसे डर हो कि कहीं आनंद उसे पकड़कर न खींच ले ।
मन में गहन पराजय का भाव संजोये आनंद फिल्म सिटी से वापिस लौटा ।
***
दोपहर को इकबाल सिंह उस रोज का ‘डेली’ पढ रहा था जब कि श्याम डोंगरे ने होटल सी-व्यू में उसके आफिसनुमा कमरे में कदम रखा ।
वाल्ट लूटने की कोशिश की खबर इकबाल सिंह को पिछली रात को ही लग चुकी थी, अखबार तो वह सिर्फ यह जानने के लिए पढ रहा था कि पुलिस के हाथ कुछ लगा था या नहीं ।
“यह सोहल की करतूत है ।” - डोंगरे को आया देखकर इकबाल सिंह गर्जा - “यह साफ-साफ सोहल की करतूत है ।”
“वो कैसे ?” - डोंगरे सकपकाया ।
“वो ही ऐसा जांमारी का कदम उठा सकता है । वो ही इतनी पेचीदा सेंधमारी आर्गेनाइज कर सकता है । सिर्फ वो ही ‘कम्पनी’ को यूं हिट करने का हौसला कर सकता है । बखिया साहब के वक्त भी वो यही कुछ करा करता था । याद करो कैसे हमारे जेकब सर्कल वाले आफिस में घुसकर देसाई का कत्ल किया था और सारे आफिस को तबाह किया था । कैसे उसने हमारे कफ परेड के आफिस में वाल्ट खोल लिया था और वाल्ट के सामान समेत सारा आफिस बम विस्फोटों से तबाह कर दिया था । कैसे उसने हमारी सारी सिक्योरिटी की ऐसी तैसी फेर कर ‘क्लब 29’ को हिट किया था । कैसे उसने...”
“लेकिन, साहब” - बड़ी हिम्मत करके डोंगरे ने इकबाल सिंह की बात काटी - “उसे क्या पता कि वो वाल्ट ‘कम्पनी’ की मिल्कियत है ?”
“उसे जरूर पता है । उसे न सिर्फ यह पता होगा कि वाल्ट ‘कम्पनी’ की मिल्कियत है, उसे जरूर-जरूर यह भी पता होगा कि पहले ‘कम्पनी’ का नारकाटिक्स का जो स्टाक ‘कम्पनी’ के कफ परेड वाले आफिस के वाल्ट में रखा जाता था, वो अब जोहरी बाजार वाले वाल्ट में रखा जाता है । डोंगरे, आज की तारीख में ‘कम्पनी’ की तरफ सोहल के आलावा कोई आंख नहीं उठा सकता ।”
“लेकिन साहब, यह तो सारी बम्बई में किसी को मालूम नहीं कि वो वाल्ट ‘कम्पनी’ की प्रापर्टी है ।”
“सोहल को मालूम है, तभी उसने वाल्ट को यूं हिट करने की कोशिश की ।”
“उसे कैसे मालूम हो सकता है ?”
“यह मालूम करना तेरा काम है ।”
“साहब, अभी तो इस बात की भी तसदीक नहीं हुई है कि सोहल बम्बई में है ।”
“वो बम्बई में है । वो शर्तिया बम्बई में है । और तू एक निकम्मा सिपहसालार है जो इस बात की तसदीक नहीं कर सका । वैसे अब मुझे तेरी किसी तसदीक की जरूरत नहीं । यह” - उसने फर्श पर बिखरे पड़े अखबार की ओर संकेत किया - “वाकया इस बात की तसदीक करता है कि सोहल बम्बई में है ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“सुरंग जिस रफ्तार से खोदी गई है और उसके लिए जो ढेर सारा साजोसमान इस्तेमाल किया गया है, वो साबित करता है कि सोहल ने यहां कई मददमगार जुटा लिए हैं । तू और कुछ नहीं कर सकता तो उन मददगारों की ही तलाश करने की कोशिश कर । वो मददगार तुकाराम और वागले नहीं हो सकते । हो सकते हैं तो सिर्फ वही दो नहीं हो सकते । तू और मददगारों की तलाश करने की कोशिश कर ।”
“कैसे करूं ?” - डोंगरे के मुंह से निकला ।
“यह तुझे मैं बताऊं ?” - इकबाल सिंह आंखें निकालकर बोला ।
“म.. मेरा मतलब है, इस बाबत आपकी कोई राय हो । आखिर आप मेरे से आला दिमाग रखते हैं ।”
“हां, वो तो है ।” - फिर इकबाल सिंह नर्म पड़ा - “देख । यूं कर । तूने कहा था तुकाराम के चैम्बूर वाले मकान में लोग उससे मिलने आते हैं...”
“अब कोई नहीं आता ।”
“क्या !”
“जी हां । मैं तो आपसे पूछने लगा था कि क्या अभी भी तुकाराम के मकान की निगरानी जारी रखी जाए ?”
“अब वहां कतई कोई नहीं आता ?”
“जी हां ।”
“हूं ।”
इकबाल सिंह कुछ क्षण सोचता रहा ।
“वो लड़का जिसकी लाश कल रात जौहरी बाजार में से मिली थी” - फिर इकबाल सिंह बोला - “वो जिसके ड्राइविंग लाइसेंस की तस्वीर अखबार में छपी है...”
“जार्ज सैबेस्टियन ।”
“हां, वही । वो शर्तिया सेंधमारी में शामिल था । तू उसकी बैकग्राउंड टटोल और मालूम कर कि वो किन लोगों मे उठता-बैठता था । फिर उन सब लोगों को चैक करा, यह सोचकर चैक करा कि उनमे से कोई या वो तमाम सेंधमारी में शामिल हो सकते हैं । ठीक ?”
“जी हां ।”
“और सोहल को - सोहल को ढूंढ । सोहल को ढूंढ । वो बम्बई में है और जौहरी बाजार वाली सारी करतूत उसकी है । डोंगरे, किसी तरह मेरे हाथ उसकी गर्दन तक पहुचा नहीं तो उसके हाथ मेरी गर्दन पर होंगे ।”
“ऐसा नहीं हो सकता । वो बम्बई में होगा भी तो वो आपके करीब भी नहीं फटक सकता ।”
“बखिया भी यही समझता था । ज्ञान प्रकाश डोगरा भी यही समझता था । उसके और कितने ओहदेदार भी यही समझते थे । याद कर उनका क्या अंजाम हुआ । उनकी तबाही से ही मैंने यह सबक लिया है कि दुश्मन को कभी कमजोर न समझो और उसका वार बचाने के इंतजामात करने की जगह उससे पहले उस पर वार करो ।”
“जी हां ।”
“डोंगरे, सोहल को ढूंढ कर ला, मैं तेरी जिन्दगी बना दूंगा । मैं तुझे अपने बराबर का दर्जा दूंगा । मैं तुझे बम्बई का बादशाह बना दूंगा ।”
“मैं जरूर ढूंढ कर लाऊंगा और लाकर उसे आपके कदमों में डालूंगा ।”
“हां, यह जवाब पसंद है मुझे । शुक्र है कि तूने इस बार भी मुंडी नहीं हिलाई या यह नहीं कहा कि तू कोशिश करेगा । मैं तेरा और सोहल की बाबत किसी अच्छी खबर का इंतजार करूंगा । अब जा वक्त न जाया कर ।”
डोंगरे उसका अभिवादन करके वहां से विदा हो गया ।
***
रूपचंद जगनानी आफिस से बाहर निकला और सड़क पर उस दिशा में चलने लगा जिधर बस स्टैंड था ।
उसने बड़ी मुश्किल से आफिस में सारा दिन गुजारा था, किसी काम में उसका कतई मन नहीं लगा था । जार्ज सेबेस्टियन की बाबत पुलिस के सवाल अभी उसके जेहन में हथौड़े की तरह बज रहे थे और अभी भी इस ख्याल से ही उसका दिल लरज जाता था कि पिछली रात उसकी कितनी दुर्गति हो सकती थी ।
“बुजुर्गवार, क्या भूल भी गए अपने पुराने दोस्तों को !”
रूपचंद ने चौंककर सिर उठाया ।
आनंद की काली फियेट उसके पहलू में उसी की चाल से सरक रही थी ।
रूपचंद ठिठका । उसके होंठों पर एक मशीनी मुस्कुंराहट आयी ।
आनंद ने कार रोकी और उसकी तरफ का अगला दरवाजा खोल दिया ।
रूपचंद हिचकिचाता हुआ कार में सवार हुआ ।
“मैंने तो अखबार पढकर जाना” - आनंद बोला - “कि कल रात आप पकड़ लिए गए थे लेकिन उन्हें आपको छोड़ देना पड़ा था ।”
रूपचंद ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अच्छा हुआ वर्ना बहुत मुश्किल हो जाती । उन्होंने ज्यादा तंग तो नहीं किया आपको ?”
रूपचंद ने इनकार में सिर हिलाया ।
“फिर भी आसानी से तो नहीं छोड़ा होगा ।”
“छोड़ना तो उन्होंने मुझे था ही ।” - रूपचंद बोला - “देर-सवेर उन्हें मानना ही पड़ना था कि मेरी तरह कोई भी वारदात के वक्त वहां हो सकता था । ऊपर से जब उन्हें यह पता लगता कि...” - रूपचंद ठिठका ।
“कि आपका बेटा पुलिस इंस्पेक्टर है ।” - आनंद बोला - “यही कहने जा रहे थे न आप ?”
रूपचंद ने उत्तर न दिया । उसने आनंद की तरफ देखा भी नहीं ।
“आपने कभी हिंट तक नहीं दिया कि आप एक पुलिस इंस्पेक्टर के पिता हैं ?” - आनंद शिकायतभरे स्वर में बोला ।
“अगर मैं ऐसा कुछ कहता तो तुम लोग मुझे अपने ग्रुप में शामिल करते ?” - रूपचंद बोला ।
“शायद नहीं ।”
“इसीलिए मैं खामोश रहा ।”
“लेकिन यह हमारे साथ, खास तौर से मेरे साथ, धोखा नहीं कि...”
“मेरी वजह से तुम्हारा कोई अहित नहीं हो सकता । मैं गारंटी करता हूं, मैं अपनी जुबान देता हूं कि मेरे बेटे के पुलिस इंस्पेक्टर होने की वजह से तुम्हारे पर या तुम्हारे साथियों पर कोई आंच नहीं आएगी । मैं तुम लोगों की बाबत कभी अपना मुंह नहीं खोलूंगा । मेरा यकीन करो, बेटा ।”
“बजातेखुद मुझे आपका पूरा यकीन है, बुजुर्गवार, लेकिन अखबार तो और लोगों ने भी पढा होगा ।”
“तुम उन्हें यकीन दिलाना कि मैं उनके खिलाफ जुबान खोलने वाला नहीं ।”
“जरूरी नहीं कि वो आपका या मेरा यकीन करें । मेरे ख्याल से उनको तो एक ही बात आपकी नेकनीयती का यकीन दिला सकती है ।”
“क्या ?”
“कि आप अभी भी हम लोगों के साथ हैं ।”
“लेकिन साथ बनाए रखने के लिए अब क्या बाकी बच गया है ? स्कीम तो फेल हो गई । और ऊपर से... ऊपर से उस बेचारे छोकरे... जार्ज के साथ इतनी बेरहमी से पेश आया गया ।”
“वो जरूरी थी ।” - आनंद आश्वासनहींन स्वर में बोला - “उसकी लापरवाही हम सब को फंसवा सकती थी । अपनी जैकेट और उसमें मौजूद ड्राइविंग लाइसेंस की वजह से पकड़े जाने के बाद वह इस बात से इनकार नहीं कर सकता था कि वह सुरंग खोदने वालों का साथी था । वह एक बात कबूल करता तो उसके बाद वह हर बात कबूल करता ही चला जाता । अपनी जैकेट पीछे छोड़कर उसने खुद अपनी मौत के परवाने पर मोहर लगाई थी ।”
रूपचंद खामोश रहा । फिर उसने बड़े अवसादपूर्ण ढंग से सहमति में गर्दन हिलाई ।
“अब अपनी चालीस हजार रुपए की उस रकम के बारे में आप क्या करेंगे जिसकी आपको इतनी जरूरत थी ?”
“पता नहीं क्या करूंगा लेकिन अगर पच्चीस तारीख तक मैं वो रकम न जुटा पाया तो...” - एकाएक रूपचंद के शरीर ने जोर की झुरझुरी ली ।
“तो क्या होगा ?” - आनंद बोला ।
“तो फिर मेरी वैसी ही धुनाई फिर होगी जैसी से तुमने मुझे छुड़वाया था । फर्क सिर्फ यह होगा कि इस बार मुझे छुड़ाने वाला कोई नहीं होगा ।”
“आपका सगा बेटा पुलिस इंस्पेक्टर है । क्या आप उसे...”
“वो आजकल गोवा गया हुआ है । पता नहीं कब लौटैगा ?”
“उसके नाम के सदके भी तो आप पुलिस की मदद हासिल कर सकते हैं । जब आप पुलिस को बताएंगे कि आप किसके बेटे हैं तो...”
“कोई फायदा नहीं होगा । जो लोग मेरे पीछे पड़े हुए हैं वो पुलिस का खौफ खाने वाले नहीं ।”
“फिर भी...”
“और फिर जिस मुसीबत में मैं फंसा हुआ हूं, उसका जिक्र मैं अपने बेटे से नहीं कर सकता ।”
“वजह !”
“है कोई वजह ।”
“जो आप मुझे बताना नहीं चाहते ।”
“यही समझ लो ।”
आनंद ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा ।
“बेटा” - रूपचंद बड़े दयनीय स्वर में बोला - “मैं नाशुक्रा आदमी नहीं । मेरी निगाह में इस बात की बहुत कीमत है कि तुमने मेरी जान बचाई । बात कुछ है ही ऐसी कि वो जुबान पर लाने के काबिल नहीं । लेकिन अगर तुम जिद करते हो तो मैं...”
“जाने दीजिए । बुजुर्गवार, मैं आपकी कोई मदद कर सकता तो मुझे बहुत खुशी होती । वजह मुझे नहीं मालूम लेकिन यकीन जानिए मुझे मेरे अंदर से ऐसी प्रेरणा होती है कि मैं आपकी मदद करूं । इसीलिए कहता हूं कि अगर मेरे पास चालीस हजार रुपए होते तो मैं उन्हें आपके हवाले कर देने में एक क्षण के लिए भी न हिचकिचाता ।”
रूपचंद ने बड़े कृतज्ञ भाव से उसकी तरफ देखा ।
“कल रात खामखाह हमारी बाजी पिट गई । ऐन वही हुआ जो कहते हैं न कि किस्मत की खूबी देखिए टूटी कहां कमदं, दो-चार हाथ जब कि लबेबाम रह गए । कल उस अनोखे अलार्म ने हमारी ऐसी-तैसी न फेर दी होती तो हम सब मालामाल हो चुके होते ।”
“हां ।” - रूपचंद आह भरकर बोला ।
“बहरहाल अभी से दिल छोटा न कीजिए, बुजुर्गवार । अभी तो पच्चीस तारीख में आठ दिन बाकी हैं ।”
“अब आठ दिनों में कोई करिश्मा थोड़े ही हो जाएगा ! बाजी तो पिट गई ।”
“शायद मुकम्मल तौर से न पिटी हो ।”
“क्या मतलब ?”
“इस काम में हमारा जो कमाण्डर था, उसे सोहल कहते हैं । हमारी बाजी पिटना और उसकी बाजी पिटना एक ही बात नहीं । मैं आज ही रात उससे मिलूंगा । फिर शायद कल ही मैं आपको कोई अच्छी खबर सुनाऊं ।”
“अभी किसी अच्छी खबर की गुंजाइश है ?”
“उम्मीद तो बरकरार रखिए । आखिर उम्मीद पर दुनिया कायम है । है न, बुजुर्गवार ?”
रूपचंद फीकी-सी हंसी हंसा ।
“अब बोलिए मैं आपको कहां उतारूं ?”
“यहीं ।” - रूपचंद अपनी ओर के दरवाजे का हैंडल थामता हुआ बोला ।”
***
“हमारा बहुत नुकसान हो गया ।” - खांडेकर गहन असंतोषपूर्ण स्वर में बड़बड़ाया ।
आंटी ने सिर उठाकर अपने बेटे की तरफ देखा ।
“अभी तो शुक्र मना” - वो बोली - “कि ट्रक बच गया ।”
“लेकिन मैटाडोर वैन पकड़ी गई । खामखाह पकड़ी गई । उन लोगों की लापरवाही से पकड़ी गई ।”
“तुझे कैसे पता है कि वैन पकड़ी गई है । अखबार में तो इस बाबत कुछ नहीं छपा । क्या पता वैन अभी भी वहीं खड़ी हो ?”
“नहीं खड़ी । मैं अभी सीधा वहीं से आ रहा हूं । मैंने आसपास पूछताछ भी की थी । वैन को पुलिस ले गई हुई है ।”
“क्या पता ट्रैफिक पुलिस ले गई हो । वहां दिन में पार्किंग मना है । शायद वैन ट्रैफिक पुलिस की क्रेन ने चालान के लिए उठाई हो ।”
“यूं उठाई गई गाड़ियां चालान भर कर जहां से वापिस मिलती हैं, मैं वहां गया था । वैन वहां नहीं थी ।”
“ओह !”
“अगर रात को ट्रक वहां से लाया जा सकता था, तो वैन भी लाई जा सकती थी । वे लोग जानबूझ कर उसे वहां छोड़ आए ।”
“जानबूझ कर !”
“और नहीं तो क्या ? उनका क्या जाता था ! नुकसान तो हमारा हुआ । दो लाख रुपए पिट गए हमारे ।”
“तू ही बराबर के हिस्से के लालच में पड़ा था ।”
“तब मुझे यह थोड़े ही पता था कि ये लोग इतनी अनाड़ी निकलेंगे !”
“अनाड़ी नहीं निकले हैं ये लोग । काम तो हो ही गया था । वो कम्बख्त नई किस्म का अलार्म अगर आड़े न आ गया होता तो...”
“वो सब बेकार की बातें हैं अब । खास बात यह है कि हमारे दो लाख रुपए कैसे वसूल हों ?”
“वो रुपये अब वसूल नहीं हो सकते । उन्हें भूल जा ।”
“वसूल हो सकते हैं ।”
“हो सकते हैं तो और खर्चा करके वसूल हो सकते हैं । तभी वसूल हो सकते हैं जब वो लोग कोई नई स्कीम बनाएं । और नई स्कीम को फाइनान्स करने के लिए वो फिर हमसे रोकड़ा मांगेगे । मेरे को फिर रोकड़ा देने का नहीं है । इसलिए जो हुआ उसे भूल जा और इस बात से यह सबक ले कि खामखाह आसमान पर उड़ना बेकार है । हमारा पहले वाला धंधा ही ठीक है ।”
“मैं कहता हूं वो रुपए वसूल हो सकते हैं ।”
“कैसे ?”
“सोहल को गिरफ्तार करवा के ।”
“क्या ?” - आन्टी भौंचक्की-सी अपने बेटे का मुंह देखने लगी ।
“सोहल इश्तिहारी मुजरिम है । उसके सिर पर दो लाख रुपए का इनाम है ।”
“नहीं । नहीं । खबरदार ! तू यह ख्याल भी अपने दिल से निकाल दे । जानता नहीं वो कितना खतरनाक आदमी है ।”
“अरी, माई, जब वो गिरफ्तार हो जाएगा तो फिर काहे का खतरनाक रह जाएगा ।”
“ऐसे खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम का गिरफ्तार हो जाना कोई हंसी-खेल नहीं । और तू ही अकेला सूरमा नहीं बच गया है उसके सिर पर लगे इनाम को हासिल करने के लिए ।”
“अरे, जब वो जेल में होगा तो...”
“ऐसे लोग जेल में भी राज करते हैं । ऐसे लोगों का जेल से भी बाहरी दुनिया में हुक्म चलता है । तू मेरी इकलौती औलाद है । मैं अब इस बुढौती में अपनी औलाद का मरा मुंह नहीं देखना चाहती । सोहल को गिरफ्तार करवाकर इनाम हासिल करने का ख्याल अपने मन से निकाल दे, विट्ठलराव, कसम है तुझे अपने मरे बाप की ।”
“अरी, माई, तू खामखाह...”
“विट्ठलराव, अगर तूने अपना यह आत्मघाती इरादा न छोड़ा तो मैं बहुत खतरनाक कदम उठाऊंगी ।”
“तू ! तू खतरनाक कदम उठाएगी ?”
“हां ।”
“मेरे खिलाफ !”
“हां । हां ।”
“क्या करेगी तू ?”
“मैं सोहल को तेरे इरादों की खबर कर दूंगी ।”
“क्या !”
“हां ।” - आंटी दृढ स्वर में बोली ।
“जानती है तू क्या कह रही है ?”
“जानती हूं, तभी तो कह रही हूं ।”
“यह भी जानती है कि यह सुनकर सोहल मेरी क्या गत बनाएगा ?”
“जानती हूं । लेकिन वो तुझे जो भी सजा देगा, वो उस सजा से कम होगी जो तू उसे गिरफ्तार करवा के खुद अपने लिए मुकर्रर करेगा । एक विधवा माई की फरियाद पर वो तुझे मारेगा नहीं । तब तू जिंदा रहेगा, बेटा, जिंदा रहेगा ।”
“तू तो यूं दीनहींन हो रही है जैसे हम मक्खी-मच्छर हैं और वो सारी दुनिया का बादशाह है । भगवान है । इतना खौफ कैसे खा गई तू उसका ?”
“उसका नहीं, उसकी आंखों का । जब वो तेरे पर पहली बार खफा हुआ था तो मुझे उसकी आंखों में ऐसी ज्वाला धधकती दिखाई दी थी कि मुझे लगा था कि वो आदमी तो अकेला, निहत्था, सारी दुनिया को तबाह करके रख सकता था ।”
खांडेकर हंसा ।
“हंस मत । और खुद अपनी जुबान से कह कि तूने सोहल को पकड़वाने का खतरनाक ख्याल छोड़ा ।”
“अच्छी बात है, छोड़ा ।”
“मेरी कसम खाकर कह ।”
“तेरी कसम, छोड़ा !”
आंटी ने यूं चैन की सांस ली जैसे बहुत बड़ा संकट टल गया था ।
वो नहीं जानती थी कि उसके बेटे के लिए झूठी कसम खाना मामूली बात थी ।