विमल गाड़ी का दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हुआ । उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया और अपने सूटकेस को अपने पैरों के पास रख लिया । उसने दरवाजे के साथ पीठ सटा ली और अपनी धौंकनी की तरह चलती सांसों पर काबू पाने की कोशिश करने लगा ।
गाड़ी अब पूरी रफ्तार से भागी जा रही थी ।
दरवाजे के पास ही फर्श पर एक बुजुर्ग आदमी बीड़ी पी रहा था ।
“चौधरी साहब” - अपनी सांस व्यवस्थित हो जाने के बाद विमल ने पूछा - “यह कौन-सी गाड़ी है ?”
“अहमदाबाद मेल ।” - बुजुर्ग बोला ।
तो गाड़ी दिल्ली जा रही थी ।
विमल कुछ क्षण और वहीं दरवाजे पर खड़ा रहा । फिर उसने अपनी जैकेट की जेब से अपना पाइप और तंबाकू का पाउच निकाला और पाइप तैयार करने लगा । जब पाइप सुलग गया तो उसको अपने दांतों में दबाये कश लगाता हुआ वह सूटकेस संभाले आगे बढा ।
डिब्बा पूरी तरह भरा हुआ था । बैठने को कहीं जगह नहीं थी ।
विमल फिर डिब्बे की लम्बाई में सीटों के बीच में बनी राहदारी में रुक गया । उसने सूटकेस फिर अपने पैरों के पास रख लिया और पाइप के कश लगाने लगा ।
“कहां जा रहे हो, बाबूजी ?” - राजस्थानी पगड़ी बांधे एक वृद्ध ग्रामीण ने उससे पूछा ।
“दिल्ली ।” - विमल ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया ।
“लम्बा सफर है आपका ।”
“हां ।”
“ये साहब बान्दीकुई उतरेंगे ।” - वह अपनी बगल में बैठे एक कमसिन से लड़के की ओर संकेत करता हुआ बोला - “तब आपको जगह मिल जायेगी ।”
“मेहरबानी ।”
“अपना सूटकेस इधर दे दीजिए ।”
विमल ने हिचकिचाते हुए सूटकेस उसके हवाले कर दिया, वह ग्रामीण कोई आदतन भला आदमी लग रहा था ।
उस आदमी ने सूटकेस को अपने पैरों के पास रख लिया ।
विमल पाइप के कश लगाता खड़ा रहा ।
एक बात का उसे निहायत अफसोस था ।
उसकी यह हार्दिक इच्छा थी कि वह जयपुर से हमेशा के लिए कूच करने से पहले एक बार शीतल से मिल पाता ।
अगर उसकी शीतल से एक आखिरी मुलाकत हो जाती तो वह कम-से-कम उसे यह तो बता ही देता कि कंचन के कत्ल के इल्जाम से वह बरी कर दिया गया था और यह सिद्ध हो चुका था कि कंचन का कत्ल नाहर सिंह ने किया था । साथ ही वह उसे यह भी समझा पाता कि क्यों उसका फौरन जयपुर से कूच कर जाना जरूरी हो गया था ।
नीलम के बाद शीतल दूसरी लड़की थी जिससे विमल को दिली प्यार हासिल हुआ था ।
“धन्न करतार !” - शीतल के संसर्ग में गुजरी सुखद घड़ियां याद आते ही उसके मुंह से निकला ।
यह बात अभी भी उसे परेशान कर रही थी कि आखिर वे दो आदमी कौन थे जो जयपुर में उसके पीछे लग गये थे ।
वैसे वे जो भी थे, बहरहाल उसका उनसे पीछा छूट चुका था ।
तभी गाड़ी की रफ्तार घटने लगी ।
राजस्थानी पगड़ी वाले ग्रामीण की बगल में बैठा हुआ युवक उठ खड़ा हुआ । शायद बान्दीकुई का स्टेशन आ रहा था !
“आप इधर आ जाओ, बाबूजी ।” - ग्रामीण ने आवाज लगाई ।
विमल उसकी बगल में खाली हुई जगह पर बैठ गया ।
ग्रामीण गौर से विमल की सूरत देखने लगा ।
विमल बेचैनी का अनुभव करने लगा ।
“क्या देख रहे हो ?” - वह विचलित स्वर में बोला ।
“मेरा लड़का दिल्ली में रहता है ।” - ग्रामीण बोला - “वहीं नौकरी करता है वो । वो भी बिल्कुल आप जैसे फैशन करता है ।”
“ओह !” - विमल की जान-में-जान आई - “आप अपने लड़के के पास जा रहे हैं ?”
“जी हां । आप भी दिल्ली जा रहे हैं ?”
“हां !”
“वहीं के रहने वाले हैं आप ?”
“नहीं । मैं तो आगे चण्डीगढ की गाड़ी पकडूंगा ।”
“हूं ।”
तभी गाड़ी रुक गई ।
तब विमल को ख्याल आया कि टिकट तो उसके पास थी नहीं ।
बिना टिकट पकड़े जाने से उसका वास्ता पुलिस से पड़ सकता था । पुलिस से वास्ता न भी पड़ता तो भी बहुत लोगों का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित हो सकता था जो कि विमल नहीं चाहता था ।
“चौधरी साहब” - एकाएक विमल उठ खड़ा हुआ - “आप मेरे सूटकेस का ध्यान रखना । मैं अभी आया ।”
“हां, जी । जरूर ।”
विमल गाड़ी से उतरकर प्लेटफॉर्म पर पहुंचा ।
उसने एक कुली को पकड़ा ।
“यह गाड़ी यहां कितनी देर रुकती है ?” - उसने पूछा । 
“दस मिनट ।”
“सुनो, तुम मेरा एक काम कर दोगे ?”
“कैसा काम ?” - कुली संदिग्ध स्वर में बोला ।
“मेरा काम कर दो, बदले में मैं तुम्हें बीस रुपये दूंगा ।”
“काम क्या है ?” - कुली की निगाहें लालच से चमक उठीं ।
“काम बीस रुपये के काबिल नहीं है लेकिन फिर भी मैं तुम्हें बीस रुपये दूंगा ।”
“काम तो बोलो, बाबूजी !”
विमल ने एक दस का और एक पांच का नोट निकालकर उसकी हथेली पर रख दिया और बोला - “मुझे दिल्ली की सैकेंड क्लास की एक‍ टिकट ला दो । मेरी टिकट कहीं गुम हो गई है ।”
“बहुत अच्छा !”
“और सुनो । रुपये लेकर भाग गये तो अपना नुकसान करोगे । रुपये लेकर भागने से पन्द्रह रुपये ही हाथ में आयेंगे । वैसे बीस मिलेंगे । और पन्द्रह में से भी दो-तीन रुपये जरूर बचेंगे ।”
“तुम चिन्ता मत करो, बाबूजी । तुम बीस का नोट ढीला करके रखो मैं अभी टिकट लेकर आया ।”
“शाबाश । मैं यहीं खड़ा हूं ।”
कुली वहां से भाग खड़ा हुआ ।
पांच मिनट बाद वह वापस आ गया ।
विमल ने उससे टिकट ले ली और उसे बीस रुपये दे दिये ।
फिर वह वापस गाड़ी में आ बैठा ।
थोड़ी देर बाद गाड़ी आगे सरकने लगी ।
आउटर सिग्नल से निकलने के बाद उसने रफ्तार पकड़ ली ।
राजस्थानी पगड़ी वाला ग्रामीण बड़ी प्रशंसात्मक निगाहों से विमल को देख रहा था । शायद उसे विमल में अपने लड़के की छवि दिखाई दे रही थी जो बिल्कुल विमल जैसे फैशन करता था ।
“दिल्ली में आपका लड़का कौन-से महकमे में है ?” - विमल ने उसका ध्यान अपनी सूरत की तरफ से बंटाने के लिए निरर्थक सा प्रश्न किया ।
“किसी मिनिस्ट्री में क्लर्क है, बाबूजी ।” - ग्रामीण बोला - “बेचारा परदेस में पड़ा है । आज के जमाने में रोजी-रोटी के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता ।”
“वह तो है ।”
“राजस्थान में बड़ी गरीबी है, बाबूजी । दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाना मुहाल है यहां ।”
“गरीबी तो सारे हिन्दुस्तान में है ।” 
“अनपढ आदमी का जीना तो वैसे ही मुहाल है । उसकी तो कतई कोई जिन्दगी नहीं ।”
“जी हां ।”
“मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं कि कभी घूरे के भी दिन फिरते हैं । इस बात ने हमेशा मुझ पर बहुत रोब गालिब किया है । मैं हमेशा सोचा करता था कि कभी मेरे भी दिन फिरेंगे, कभी कोई करिश्मा होगा और मेरे पास भी इतना पैसा आ जायेगा कि मैं अपने बीवी-बच्चों के साथ जिन्दगी चैन से गुजार सकूंगा । लेकिन बाबूजी, दिन फिरने का इन्तजार करते-करते उम्र फिर गई ।”
विमल ने बड़ी हमदर्दी-भरी शक्ल बनाई । वह पाइप के कश लगाता रहा ।
“पिछले दिनों मैंने छापे में एक डाकू के बारे में पढा था । कहते हैं, उसने कई कत्ल किये हैं, कई बैंक लूटे हैं । अगर यह बात सच है तो करोड़ों रुपया होगा उसके पास ।”
“जरूर होगा ।”
“इतने रुपये का वह क्या करता होगा ?”
“क्या मालूम, चौधरी साहब ।”
“हां, जी । क्या मालूम ?”
“तुम किस डाकू की बात कर रहे हो ? क्या नाम है उसका ।”
“उसका कोई एक नाम हो तो बताऊं, साहब ! कहीं वह विमल के नाम से जाना जाता है । कहीं वह कोई सरदारजी बन जाता है । कहीं कुछ बन जाता है । कहीं कुछ बन जाता है । कहते हैं दिल्ली में तांगा भी चलाता रहा था ।”
विमल का दिल धड़क गया ।
“ऐसा लाखों पति डाकू भला तांगा क्यों चलायेगा, बाबूजी ?”
“क्या पता ?”
“वह तो ऐश करता होगा ऐश ।”
जैसे वह इस वक्त कर रहा था ।
“और नोटों का बिस्तर बिछाकर सोता होगा । नोट गिनते-गिनते वह थक जाता होगा, लेकिन नोट खत्म नहीं होते होंगे ।”
विमल को अपनी जेब में पड़े उन बाइस-तेईस सौ रुपयों का ख्याल आया जा उस वक्त उसकी कुल जमा पूंजी थी । उनमें भी दो हजार रुपये ऐसे थे जिन्हें फिलहाल खर्च करने की हिम्मत करना खतरे का बायस बन सकता था ।
उस रकम को गिनने में वह कितनी देर लगा सकता था ?
अगर वह उस वृद्ध ग्रामीण को बताता कि उस कथित डाकू के पास केवल इतनी रकम थी और उसकी औकात सैकेण्ड क्लास के भीड़-भरे डिब्बे में धक्के खाते सफर करने की थी तो क्या वह उसकी बात पर विश्वास करता !
“बाबूजी ।” - ग्रामीण फिर बोला - “सुना है, उसकी गिरफ्तारी पर पचास हजार रुपये का इनाम है ?”
“जरूर होगा ।” - विमल बोला - “आखिर इतना बड़ा डाकू है वह ।”
“अगर कोई उसे पकड़वा दे तो क्या सरकार वाकई उसे पचास हजार रुपये दे देगी ?”
“क्यों नहीं देगी ?”
“सुना है, बाद में पुलिस वाले अड़ंगे लगाने लगते हैं । टालमटोल करने लगते हैं ।”
“मुझे तो मालूम नहीं इस बारे में कुछ ।”
“वो बिल्ला-रंगा नहीं थे ?”
“हां-हां ।”
“उनको गिरफ्तार हुए कितना अरसा हो गया है ? लेकिन छापे में आया है कि उनकी गिरफ्तारी पर जो इनाम था, वह उन फौजियों को अभी तक नहीं मिला है, जिन्होंने उन्हें गिरफ्तार करवाया था ।”
“ऐसा होना तो नहीं चाहिए ।”
“लेकिन होता है बाबूजी ! गरीब का हक हर कोई दबा लेता है ।”
“यह भी ठीक है ।”
ग्रामीण एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “सुना है बिल्ला-रंगा गाड़ी में सफर करते पकड़े गए थे ।”
“हां ।”
“ऐसे ही कभी किसी सफर में वह कई नामों वाला डाकू विमल मेरे हाथ में आ जाये और मुझे उसकी गिरफ्तारी का पचास हजार का इनाम मिल जाये तो समझूं कि मेरे दिन फिर गये ।”
“अरे, यूं कहीं डाकू हाथ आते हैं, चौधरी ।” - उनके सामने बैठा एक आदमी, जो अभी तक चुपचाप उनका वार्तालाप सुन रहा था, एकाएक बोला पड़ा - “जैसे खतरनाक डाकू की तुम इस वक्त बात कर रहे हो, अगर उसे तुम इस वक्त गाड़ी में साक्षात अपने सामने देख लो तो तुम्हारा पेशाब निकल जाये । डर से तुम्हारी घिग्घी बंध जाये । मुंह से बोल न फूटे । बेहोश भी हो जाओ तो कोई बड़ी बात नहीं ।”
“अजी, क्या आफत आई हुई है ।” - वृद्ध ग्रामीण अपनी लम्बी-लम्बी सफेद मूंछों पर ताव देता हुआ बोला - “मैं राजपूत हूं । राणा सांगा का वंशज । कोई लल्लू-पंजू नहीं हूं । वह डाकू का बच्चा एक बार दीखे तो सही मुझे । न उसकी मुश्कें बांधकर उसे कन्धे पर लादकर दिल्ली भागता चला जाऊं तो मुझे ठाकुर कहरसिंह राजपूत की औलाद नहीं, किसी चिड़ीमार की औलाद कह देना ।” 
“अरे, क्यों बड़ की हांक रहे हो, चौधरी ? तुम जानते नहीं हो उस डाकू का जहूरा । सारे हिन्दुस्तान की पुलिस उसके नाम से थर-थर कांपती है ।”
जबकि हकीकत यह थी - विमल ने मन-ही-मन सोचा - कि पुलिस के एक अदना सिपाही से वह थर-थर कांपता था ।
“उसके हमपेशा डाकू तक उसकी परछाई से भागते हैं ।”
गलत । वह हर किसी की परछाई से भागता था ।
“अच्छा !” - वृद्ध ग्रामीण आंखें फैलाकर बोला - “इतना खतरनाक आदमी है वो ?”
“इससे कहीं ज्यादा ।” - दूसरा मुसाफिर बोला - “क्यों, बाबूजी ?”
तुरन्त विमल की समझ में न आया कि वह आदमी उससे सम्बोधित था ।
“हां ।” - वह हड़बड़ाकर बोला - “सुना तो यही है कि वह बहुत खतरनाक है ।”
“और यह चौधरी समझ रहा है कि वह आप जैसा कोई बबुआ होगा जिसकी मुश्कें बांधकर, कंधे पर लादकर, यह दिल्ली तक भागता चला जायेगा ।”
कई मुसाफिरों ने जोर का अट्टहास किया ।
वृद्ध ग्रामीण का चेहरा लाल हो गया ।
“वह दीखे तो सही मुझे” - वह तीखे स्वर में बोला - “फिर देखना वह क्या कर सकता है और मैं क्या कर सकता हूं ।”
“वह जब दीखेगा तो तुम्हारे साथ कबड्डी नहीं खेलेगा । उसने तुम्हारी तरफ मुंह करके फूंक मार दी न तो तुम उड़ते हुए ब्यावर में जाकर गिरोगे जहां से कि तुम गाड़ी में चढे थे ।”
डिब्बा फिर लोगों के अट्टहास से गूंज गया ।
“मैं देहाती हूं” - वृद्ध गरजकर बोला - “इसलिए तुम मेरा मजाक उड़ा रहे हो, मुझे कम समझ रहे हो । लेकिन इस सारे डिब्बे में से कोई मुझे कलाई पकड़ाकर कर देखे, अगर वह मुझसे कलाई छुड़ा जाये तो मानूं ।”
“लेकिन चौधरी, वह डाकू कलाई थोड़े ही पकड़ायेगा । वह तो तुम्हारे हलक में बन्दूक की नाल घुसाकर तुम्हारा और तुम्हारे घरवालों का हालचाल पूछेगा ।”
फिर अट्टहास ।
वृद्ध ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला और फिर दांत भींच लिए ।
“क्यों, बाबूजी ?” - पहले वाला मुसाफिर विमल से बोला ।
“जी हां, जी हां ।” - विमल बोला - “ऐसा ही खतरनाक डाकू बताया जाता है वो ।” 
उस रोज विमल को पहली बार मालूम हुआ कि वह पुलिस और अखबार वालों के लिए ही चर्चा का विषय नहीं था, बल्कि उसका जिक्र तो किस्से-कहानियों की तरह हर ऐरे-गैरे की जुबान पर रहता था ।
“अलवर आ रहा है, चौधरी ।” - पहले वाला मुसफिर बोला - “तुम ऐसा करो, तुम वहां इन बाबूजी को कंधे पर उठाकर प्लेटफॉर्म पर भाग के दिखाओ । तुम प्लेटफॉर्म के सिरे तक भाग लिये तो हम मान जाएंगे कि तुम उस डाकू को दिल्ली तक ले भागोगे ।”
कुछ घुटे-से ठहाके फिर गूंजे ।
फिर वार्तालाप जैसे एकाएक आरम्भ हुआ था, वैसे ही एकाएक समाप्त हो गया ।
गाड़ी अलवर के स्टेशन पर रुकी ।
विमल ने वहां से तेल की बेहूदी बदमजा पूरियां खाई और गुड़ के गर्म शर्बत जैसी मटमैली-सी चाय पी ।
लाखों पति डाकू सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल उर्फ विमल कुमार खन्ना उर्फ गिरीश माथुर उर्फ बनवारी लाल तांगेवाला उर्फ रमेश कुमार शर्मा उर्फ कैलाश मल्होत्रा उर्फ बसन्तकुमार मोटर मैकेनिक के मुकद्दर में वही भोजन लिखा था ।
गाड़ी अलवर से चली ।
तब तक काफी रात हो चुकी थी । कुछ मुसाफिर ऊंघने लगे थे और कुछ बैठे-बैठे बाकायदा सो गए थे ।
नींद विमल को भी आ रही थी लेकिन उसकी सोने की हिम्मत नहीं हो रही थी । वह नहीं चाहता था कि वह उस रेल के डिब्बे में सोये और आंख हवालात में जाकर खोले ।
उसने अपने पाइप में फिर से तम्बाकू भरा और उसे सुलगाकर उसके छोटे-छोटे कश लेने लगा ।
अहमदाबाद मेल, उसे मालूम था, सुबह-सवेरे दिल्ली पहुंचती थी । लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि वहां से सुबह-सवेरे पंजाब की तरफ कोई गाड़ी जाती थी या नहीं । दिल्ली में वह स्टेशन से बाहर नहीं निकलना चाहता था । वह चाहता था कि स्टेशन पर उतरते ही उसे चण्डीगढ या अम्बाला की कोई गाड़ी मिल जाती । दिल्ली तक का टिकट उसके पास था । उसे आगे के सफर के लिए वह रास्ते में भी बढवा सकता था ।
चण्डीगढ में वह नीलम के साथ कुछ इन्तहाई इत्मीनान के दिन गुजारना चाहता था ।
वह नीलम को याद करता और पाइप के कश लगाता रहा ।
फिर पता नहीं कब उसे भी ऊंघ आ गई ।
“टिकट !” 
कोड़े की फटकार जैसा वह तीखा स्वर विमल के कानों में पड़ा तो उसने घबराकर आंखें खोलीं । उसने सामने देखा ।
एक वर्दीधारी टिकट चैकर मुसाफिरों को कंधों से झिंझोड़-झिंझोड़कर जगा रहा था और उनकी टिकट चैक कर रहा था ।
विमल का पाइप अभी भी उसके दांतों में दबा हुआ था लेकिन वह कब का बुझ चुका था । उसने पाइप दोबारा सुलगा लिया और जेब से अपनी टिकट निकालकर हाथ में ले ली ।
“गाड़ी कहां तक पहुंची ?” - विमल ने वृद्ध ग्रामीण से पूछा ।
“मालूम नहीं, बाबूजी ।” - वृद्ध बोला - “मुझे तो नींद आ गई थी ।”
“अभी गुड़गांव आने वाला है ।” - उसके सामने बैठा आदमी बोला ।
इसका मतलब था कि वह काफी देर तक सोता रहा था ।
टिकट चैकर सबकी टिकटें देखता-देखता उस तक पहुंचा । विमल ने अपना टिकट उसकी तरफ बढा दिया ।
टिकट चैकर ने टिकट पर निगाह डाली उसे कैंसिल करने के लिए अपने हाथ में थमी टिकटिकी उसकी तरफ बढाई और फिर ठिठक गया ।
उसने गौर से टिकट देखा ।
“कहां जा रहे हो ?” - उसने पूछा ।
“दिल्ली ।” - विमल धीरे से बोला ।
“कहां से बैठे थे ?”
“बान्दीकुई से ।”
“उठो ।”
“क्यों ?” - विमल हड़बड़ाकर बोला ।
तब तक सारे मुसाफिरों का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित हो चुका था ।
“अरे, सुना नहीं ।” - टिकट चैकर झल्लाकर बोला ।
“लेकिन वजह तो मालूम हो ।” - विमल बोला ।
“उठकर खड़े होवो ।” - टिकट चैकर कर्कश स्वर में बोला - “फिर वजह भी मालूम होती है ।”
“वजह मुझे बैठे-बैठे नहीं बताई जा सकती ?” - विमल झुंझलाकर बोला ।
टिकट चैकर एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “तुम्हारा टिकट ठीक नहीं है ।”
दाता !
क्या वह बान्दीकुई वाला कुली टिकट के मामले में उसे कोई धोखा देने में कामयाब हो गया था ?
लेकिन टिकट को तो उसने खूब ठोक-बजाकर देखा था । उस पर तारीख भी ठीक थी और दिल्ली भी लिखा था ।
“क्या खराबी है मेरे टिकट में ?” - प्रत्यक्षत: उसने पूछा ।
“इस टिकट से तुम इस गाड़ी में सफर नहीं कर सकते ।” - टिकट चैकर बोला - “यह सवारी गाड़ी का टिकट है और तुम मेल ट्रेन में बैठे हो ।”
“ओह !”
विमल को न यह बात सूझी थी और न इस बात को चैक करने का उसके पास कोई साधन था ।
“उठो !”
“लेकिन आप मुझे उठाना क्यों चाहते हैं ? किराये में जो फर्क है वह आप मुझसे चार्ज कर लो ।”
“नहीं । तुम्हें इस गाड़ी से उतरना होगा ।”
“क्यों ?”
“मेरे पास बहस करने के लिए वक्त नहीं है ।”
“लेकिन...”
“तुम उठते हो या मैं पुलिस को बुलाऊं ?”
“लेकिन जब मैं किराये का फर्क अदा करने को तैयार हूं तो...”
“हवलदार ?” - एकाएक टिकट चैकर उच्च स्वर में बोला - “जरा इधर आना ।”
विमल ने राहदारी में झांककर देखा ।
टिकट चैकर की आवाज के उत्तर में एक वर्दीधारी सिपाही उस ओर बढ रहा था ।
विमल उठ खड़ा हुआ । वह नहीं चाहता था कि उसका पुलिस से वास्ता पड़े ।
हवलदार समीप आया ।
“क्या बात है ?” - उसने पूछा ।
“यह आदमी गलत गाड़ी में बैठा हुआ है ।” - टिकट चैकर बोला - “मैं इसे अगले स्टेशन पर उतरने के लिए कह रहा हूं । यह सुन ही नहीं रहा ।”
“क्या बात है, बाबूजी ?” - हवलदार कर्कश स्वर में बोला ।
विमल ने देखा हवलदार नौजवान था और ताजा-ताजा भरती हुआ मालूम होता था क्योंकि अपनी वर्दी में वह बड़ी असुविधा का अनुभव करता लग रहा था ।
“हवलदार साहब” - विमल दबे स्वर में बोला - “ये कहते हैं कि मेरा टिकट सही नहीं है । मैं इनसे प्रार्थना कर रहा हूं कि ये मुझे सही टिकट दे दें । मैं किराया, जुर्माना, सब भरने को तैयार हूं ।”
तब तक गाड़ी की रफ्तार घटने लगी थी । शायद गुड़गावां का स्टेशन आ रहा था ।
“कोई सामान है तुम्हारे पास ?” - हवलदार यूं बोला जैसे विमल की बात उसने सुनी ही न हो ।
“लेकिन, जनाब...”
“हवालात में बन्द होना चाहते हो ?” - वह कहरभरे स्वर में बोला ।
“मेरे पास यह सूटकेस है ।” - विमल मरे स्वर में बोला ।
“उठाओ ।”
विमल ने सूटकेस उठाया और उठ खड़ा हुआ ।
“आगे बढो ।”
मुसाफिरों की टांगों से उलझता हुआ वह आगे बढा ।
वह टिकट चैकर के पास से गुजरा तो उसने विमल का टिकट उसके हाथ में थमा दिया ।
हवलदार ने विमल की बांह थाम ली और उसे डिब्बे के दरवाजे तक ले आया ।
तभी गाड़ी प्लेटफॉर्म पर रुक गई ।
हवलदार ने दरवाजा खोला और विमल को जबरन गाड़ी से बाहर धकेल दिया ।
उस धांधली के आगे लाचार विमल प्लेटफॉर्म पर उतरा । उसने अपना सूटकेस अपने पैरों के पास रख लिया और नर्वस भाव से अपना बुझा पाइप फिर सुलगाने लगा ।
टिकट चैकर के व्यवहार से वह सख्त हैरान था ।
तभी गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी ।
प्लेटफॉर्म तब तक खाली हो गया था । वहां से चढने वाले मुसफिर गाड़ी में सवार होकर गाड़ी के साथ चले गए थे और जो वहां उतरे थे, वे स्टेशन से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर बढ गए थे ।
गाड़ी प्लेटफॉर्म से निकल गई ।
‘वाहे गुरु सच्चे पातशाह !’ - विमल होंठों में बुदबुदाया - ‘तेरे रंग न्यारे ।’
“अब यह गाड़ी सीधी दिल्ली जाकर रुकेगी ।”
विमल चौंका ।
वह आवाज की दिशा में घूमा ।
उसकी बगल में एक अधेड़ावस्था का भारी-भरकम आदमी खड़ा था । वह विमल को देखकर मन्द-मन्द मुस्करा रहा था ।
“गाड़ी के दिल्ली पहुंचने तक वहां पुलिस का बहुत तगड़ा बन्दोबस्त हो चुका होगा ।”
“क्या मतलब ?” - विमल हैरानी से बोला ।
“अपने वाहे गुरु का शुक्र मनाओ, सरदार साहब” - वह आदमी धीरे से बोला - “कि जब उसने तुम्हारे लिए नई मुसीबत भेजी तो वह साथ-साथ द्वारकानाथ को भी भेजना न भूला ।”
विमल सन्नाटे में आ गया । वह पाइप पीना भूल गया । वह अपलक अपने सामने खड़े आदमी को देखने लगा ।
“कौन हो तुम ?” - फिर वह फुसफुसाकर बोला ।
“बन्दे को द्वारकानाथ कहते हैं ।” - वह आदमी सिर नवाकर बोला ।
“नाम तो हुआ लेकिन तुम...”
“तुम्हारी जानकारी के लिए पुलिस को मालूम हो चुका है कि बीकानेर बैंक की बख्तरबन्द गाड़ी बसन्त कुमार नाम के मोटर मैकेनिक के गैरेज में सर्विसिंग के लिए आती थी । उन्हें यह भी मालूम हो चुका है कि बसन्त कुमार मोटर मैकेनिक वह कुख्यात अपराधी विमल है जिसकी छ: राज्यों की पुलिस को तलाश है । जयपुर पुलिस के उच्चाधिकारी इस बात के लिए अपना सिर पीट रहे हैं कि कल तक विमल उन लोगों की हिरासत में था लेकिन वे लोग उसकी हकीकत से बेखबर किसी और ही केस के चक्कर में उसके पीछे पड़े रहे थे, एक ऐसे केस के चक्कर में जिसमें विमल को निर्दोष करार देकर खुद डी एस पी चौधरी ने उसे बाइज्जत बरी किया था । फिर उन्होंने जयपुर में यूं तुम्हारी तलाश आरम्भ करवाई, जैसे वे भुस के ढेर में सुई तलाश कर रहे हों । जिन दो आदमियों को जयपुर में डॉज देकर तुम इतने खतरनाक ढंग से अहमदाबाद मेल में सवार हुए थे, उनकी खबर तो पुलिस को लगी लेकिन बहुत देर से, इतनी देर से कि दिल्ली पुलिस को तुम्हारी खबर भिजवा देने के अलावा उनके पास और कोई चारा न रहा । हमारे रिवाड़ी पहुंचने तक अगर गाड़ी वहां से निकल गई होती या अगर मैंने तुम्हें जबरदस्ती गुड़गावां उतरवाने का इन्तजाम न किया होता तो तुम्हारा भगवान ही मालिक था । फिर दिल्ली पुलिस के सिर पर बिल्ला-रंगा की गिरफ्तारी से भी कहीं ज्यादा बड़ी कामयाबी का सेहरा बंधता ।”
विमल हक्का-बक्का-सा उसका मुंह देखने लगा ।
“वह... वह टिकट चैकर” - वह हकलाता हुआ बोला - “तु... तुम्हारा आदमी था ?”
“हां” - वह पूर्ववत् मुस्कराता हुआ बोला - “और वह हवलदार भी । मिल लो उनसे ।”
उसने सामने हाथ फैलाया ।
विमल ने उधर देखा जिधर द्वारकानाथ ने हाथ से इशारा किया था ।
प्लेटफॉर्म पर वह टिकट चैकर और हवलदार, जिन्होंने विमल को जबरदस्ती गाड़ी से नीचे उतारा था, उनकी तरफ चले आ रहे थे ।
“यह गंगाधर है” - जब वे उनके समीप पहुंच गए तो द्वारकानाथ टिकट चैकर की ओर संकेत करता हुआ बोला - “और यह...”
“बंदे को कूका कहते हैं ।” - हवलदार विनोदपूर्ण स्वर में बोला ।
विमल ने थूक निगली । वह हैरान-परेशान बारी-बारी एक-एक की शक्ल देखने लगा ।
“गनीमत समझो कि तुम छोटी लाइन की गाड़ी में सवार थे” - द्वारकानाथ बोला - “जिसे हमने आंधी-तूफान की रफ्तार से स्टेशन वैगन चलाकर रिवाड़ी में पकड़ लिया । यह कोई ब्रॉड गेज की मेल ट्रेन होती तो हम इसे कभी न पकड़ पाते ।”
“लेकिन... लेकिन” - विमल हकलाया - “तुम लोगों को यह कैसे मालूम था कि मैं ट्रेन पर सवार हुआ था ?”
“क्योंकि जयपुर में जैसे वे काली फियट में सवार दो आदमी तुम्हारे पीछे लगे हुए थे, वैसे ही हम भी तुम्हारे पीछे लगे हुए थे । मिर्जा इस्माइल रोड पर तुम्हारे गैरेज में पहुंचने में हमसे जरा-सी देर हो गई । हम वक्त पर पहुंच जाते तो यह सब हाय-तौबा जो अब मची है न मचती ।”
“मेरी टिकट में क्या नुक्स था ?” - विमल ने गंगाधर से पूछा ।
“कोई नुक्स नहीं था” - गंगाधर बोला - “लेकिन सबसे बड़ा नुक्स तो यह था कि तुम्हारे पास टिकट थी जिसकी कि मुझे तुमसे उम्मीद नहीं थी, क्योंकि हमने खुद अपनी आंखों से तुम्हें एकाएक चलती गाड़ी में सवार होते देखा था । तुम बिना टिकट होते तो तुम्हें गाड़ी से उतारना आसान था । टिकट पेश करके तो तुमने एकबारगी मेरे छक्के छुड़ा दिए । फिर तुम्हें गाड़ी से उतारने का मुझे कोई बहाना घड़ना ही था इसलिए मैंने कह दिया कि तुम्हारा टिकट सहीं नहीं था ।”
“ओह !”
“सरदार साहब” - द्वारकानाथ शिकायत-भरे स्वर में बोला - “हमने तुम्हारी जान बचाई है लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि अभी तक शुक्रिया का एक शब्द भी तुम्हारे मुंह से सुनने को नहीं मिला हमें ।”
“मुझे सरदार मत कहो ।”
“ठीक है । माफी । लेकिन फिर ये बता दो कि हम तुम्हें किस नाम से पुकारें । क्या बसन्त कुमार के नाम से ?”
“नहीं । विमल के नाम से ।”
“ठीक है ।”
“आप लोगों की मेहरबानी का शुक्रिया ।” - विमल ने नीचे झुककर सूटकेस उठाया और बोला - “आप लोगों ने मेरी जान बचाई है इसके लिए मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुजार हूं । अब मैं इजाजत चाहूंगा ।”
“कमाल है !” - द्वारकानाथ हैरानी से बोला - “यह भी नहीं पूछोगे कि हमने तुम पर यह मेहरबानी क्यों की ?”
“ओह ! तो इस मेहरबानी के पीछे कोई वजह भी है ?”
“हां ! हर मेहरबानी के पीछे कोई वजह होती है ।”
“क्या ? क्या वजह है ?” 
“अच्छा यह नहीं होगा कि पहले हम यहां से निकल चलें ?”
“कहां निकल चलें ?”
“तुमने कहीं तो तो जाना ही है ! फिलहाल हमारे साथ चलो । मुमकिन है हम फिर तुम्हारे काम आ सकें या” - द्वारकानाथ एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “तुम हमारे काम आ सको ।”
“जयपुर वापस जाने की मेरी कोई मर्जी नहीं है ।”
“जयपुर वापस जाने की खुद हमारी कोई मर्जी नहीं है ।”
“तो फिर कहां जा रहे तो तुम लोग ?”
“आगरा ।”
विमल चुप रहा ।
“कोई फैसला करते समय यह बात ध्यान में रखना, सरदार साहब” - एकाएक द्वारकानाथ का स्वर बर्फ जैसा सर्द हो उठा - “कि तुम हमारे साथ आगरा नहीं जाओगे तो पुलिस के साथ जेल जाओगे ।”
विमल ने उत्तर न दिया ।
जयपुर से निकलते समय उसके जेहन में जो अहम सवाल था, वह यही था कि वह अब कहां जाएगा ?
अब उसकी अगली मंजिल का फैसला तकदीर ने खुद कर दिया था ।
द्वारकानाथ ने साफ-साफ कुछ नहीं कहा था लेकिन विमल को उसमें किसी जयशंकर की, किसी अजीत की, किसी मायाराम बावा की, किसी ठाकुर शमशेरसिंह की साफ झलक मिल रही थी ।
नये शिकारी ! नया जाल !
दाता !
***
आगरे में बड़ी दरेसी में गंगाधर का मोटर मैकेनिक गैरेज था । गैरेज के पिछवाड़े में एक कमरा था जिसमें उस वक्त द्वारकानाथ, गंगाधर और कूका के साथ विमल मौजूद था ।
एक बड़ी-सी स्टेशन वैगन पर सवार होकर गुड़गावां से वे लोग पलवल पहुंचे थे और वहां से मथुरा के रास्ते होते हुए वे लोग निर्विघ्न आगरा पहुंच गए थे ।
शाम हो चुकी थी ।
गंगाधर ने समीप के होटल से चाय और समोसे मंगाए थे, जो उस वक्त उनके सामने मौजूद थे ।
विमल समोसे पसन्द नहीं करता था, इसलिए वह केवल चाय पी रहा था ।
“समोसा लो ।” - द्वारकानाथ बोला ।
“नहीं” - विमल बोला - “मुझे अच्छा नहीं लगता ।”
“तुम्हारे लिए कुछ और मंगायें ?”
“नहीं । जरूरत नहीं ।”
“तकल्लुफ तो नहीं कर रहे हो ?”
“नहीं । तकल्लुफ का क्या काम ?”
“हां । मैं नहीं चाहता कि हम लोगों में तकल्लुफ का दखल आये ।”
“अगर ऐसी बात है तो साफ-साफ कह डालो कि कहां डकैती डालने की फिराक में हो ?”
“जरूर कहूंगा ।”
“यानी कि मानते हो कि तुम्हारा इरादा डकैती का ही है ?”
“हां ।”
“और उस डकैती में तुम मुझे भी शामिल करना चाहते हो ?”
“जाहिर है ।”
“तो फिर लगे हाथों वह धमकी भी दोहरा डालो, जो ऐसे हालात में मैं तुम्हारे जैसे लोगों के मुंह से सुनता आया हूं ।”
“कैसी धमकी ?”
“कि अगर मैं डकैती में तुम्हारा साथ नहीं दूंगा तो तुम मुझे पुलिस के हवाले कर दोगे ।”
“मैं तुम्हें ऐसी कोई धमकी नहीं दूंगा ।”
“तुम जरूर दोगे बल्कि एक बार दे भी चुके हो ।”
“कब ?”
“आज सुबह गुड़गावां के स्टेशन पर । तुमने कहा नहीं था कि अगर मैं तुम्हारे साथ आगरा नहीं जाऊंगा तो पुलिस के साथ जेल जाऊंगा ?”
“तुमने मेरी उस बात का गलत मतलब लगाया था, विमल ।” - द्वारकानाथ बड़ी संजीदगी से बोला - “मेरी उस बात का यह मतलब नहीं था कि अगर तुम मेरे साथ चलना कबूल नहीं करोगे तो मैं” - द्वारकानाथ ने ‘मैं’ पर विशेष जोर दिया - “मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा ।”
“तो और क्या मतलब था ?”
“मेरा मतलब था कि सुबह जैसे हालात थे, उनमें तुम्हारा पुलिस की गिरफ्त में आ जाना मामूली बात थी ।”
“यानी कि तुम्हारा मुझे पुलिस के हवाले करने का कोई इरादा नहीं था ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“यानी कि मैं अपने-आपको यहां गिरफ्तार न समझूं ?”
“पागल हुए हो ? मैं कौन होता हूं तुम्हें गिरफ्तार करके रखने वाला ?”
“अगर मैं अभी यहां से उठकर चल दूं तो तुम मुझे रोकोगे नहीं ?” 
“हरगिज नहीं ।”
“कमाल है ।” - विमल अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
द्वारकानाथ खामोश रहा ।
“विश्वास नहीं होता ।”
द्वारकानाथ फिर चुप रहा ।
“बिना मुझसे जोर-जबरदस्ती किये, बिना मुझे धमकाये, तुम मुझसे कैसे उम्मीद करते हो कि मैं तुम्हारे साथ किसी डकैती में शामिल होने के लिए तैयार हो जाऊंगा ?”
“क्योंकि उसमें तुम्हारा भी फायदा है ।”
“कैसा फायदा ? रुपये-पैसे का फायदा ? लूट के माल में हिस्से का फायदा ?”
“वह भी । उसके अलावा और भी फायदा है ?”
“और कैसा फायदा ?”
“मैं तुम्हारा एक ऐसा उपकार कर सकता हूं, जो रुपये-पैसे के किसी भी फायदे से कहीं ज्यादा बड़ा साबित होगा तुम्हारे लिए ।”
“साफ-साफ बात करो । पहेलियां मत बुझाओ ।”
“सुनो । एक बात मैं खूब अच्छी तरह से जानता हूं ।”
“क्या ?”
“तुम अपराधी नहीं हो ।”
“शुक्र है ।” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “शुक्र है किसी ने तो ऐसा समझा ।”
“जो बड़े-बड़े अपराध आज की तारीख में तुम्हारे नाम के साथ जुड़े हुए हैं” - द्वारकानाथ कहता रहा - “मैं खूब जानता हूं वे तुमने अपने किसी जाती फायदे के लिए नहीं किए हैं । वे अपराध आदी मुजरिमों ने तुम्हें डरा-धमकाकर, तुम्हारी मजबूरी का फायदा उठाकर, तुमसे जबरन करवाये हैं । तुमने वह रुपया तक कभी अपने पास रखने की कोशिश नहीं की जो तुमने जरायमपेशा लोगों के साथ मिलकर लूटा । लेकिन पुलिस तुम्हारे इन अच्छे कामों की वजह से तुम्हें बख्शने वाली नहीं । पुलिस की निगाहों में, कानून की निगाहों में, तुम इतने खतरनाक अपराधी हो कि तुम्हें जितनी जल्दी फांसी पर लटका दिया जाये, समाज के लिए उतना ही अच्छा होगा ।”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं कि तुम्हारे ख्याल से पुलिस के खिलाफ तुम्हारा जो लुकाछिपी का खेल चल रहा है, इसका क्या अन्त होगा ? तुम्हारी जिन्दगी की यह दौड़, जिसे तुम कभी जीत नहीं सकते, कहां जाकर खत्म होगी ?”
“यह मेरी मौत पर जाकर खत्म होगी और कहां खत्म होगी ?” - विमल धीरे से बोला - “या तो मैं पुलिस से बचने की कोशिश में किसी आवारगर्द कुत्ते की तरह कभी गोली से उड़ा दिया जाऊंगा और या फिर, जैसा कि तुमने कहा, वे लोग मुझे पकड़कर फांसी पर लटका देंगे ।”
“बिल्कुल । सरदार साहब, मैं तुम्हारा यही फायदा कर सकता हूं कि मैं तुम्हें ऐसा रास्ता सुझा सकता हूं, जिससे तुम अपने इस निश्चित अंजाम से बच सकोगे ।”
“ऐसा क्या कर सकते हो तुम ?”
“मैं तुम्हारा कायापलट कर सकता हूं । मैं तुम्हें नया चेहरा दिलवा सकता हूं ।”
“नया चेहरा ?”
“हां । एक ऐसा चेहरा, जिसे पुलिस नहीं पहचानती । जिसे कोई नहीं पहचानता । जिसे तुम भी नहीं पहचानते । वह नया चेहरा हासिल हो जाने के बाद तुम भूल जाओगे कि तुम इलाहाबाद से जेल तोड़कर भागे हुए फरार अपराधी हो या बम्बई में तुमने लेडी शान्ता गोकुलदास का कत्ल किया था या मद्रास में अन्ना स्टेडियम पर डाका डाला था या दिल्ली में यूनियन बैंक की वैन लूटी थी या अमृतसर के भारत बैंक का अभेद्य वॉल्ट खोलकर उसमें से पैंसठ लाख रुपया उड़ाया था या गोवा में एक पुलिस इन्स्पेक्टर सहित कई दादाओं को मौत के घाट उतारा था या जयपुर में बीकानेर बैंक की बख्तरबन्द गाड़ी लूटी थी ।”
“यह कैसे हो सकता है ?”
“प्लास्टिक सर्जरी द्वारा ।”
“ओह !” - विमल निराश स्वर में बोला - “खोदा पहाड़ और निकला चूहा ।”
“गलत ख्याल है तुम्हारा । शायद तुम्हें मालूम नहीं है कि प्लास्टिक सर्जरी कितनी तरक्की कर चुकी है । शायद तुम नहीं जानते हो कि एक अच्छा प्लास्टिक सर्जन कितनी दक्षता से तुम्हारी मौजूदा सूरत बदल सकता है । एक बार तुम्हें अपनी उस सूरत से निजात मिल जाए जो सारे हिन्दुस्तान में जगह-जगह पर लगे पोस्टरों पर दिखाई देती है तो क्या वह एक तरह से तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं होगा ?”
“अगर यब बात सच है तो इसमें तुम्हारी क्या मेहरबानी है मुझ पर ? आजकल हिन्दुस्तान के हर बड़े शहर में प्लास्टिक सर्जन उपलब्ध हैं, मैं किसी के भी पास जाकर....”
“तुम मूर्खों जैसी बातें कर रहे हो । तुम हर किसी प्लास्टिक सर्जन के पास नहीं जा सकते । प्लास्टिक सर्जरी की जो सेवाएं बड़े शहरों में उपलब्ध हैं, वे शरीफ और नेक शहरियों के लिए हैं, चोरों, डाकुओं के लिए नहीं । तुम इस इरादे से किसी प्लास्टिक सर्जन के पास जाओगे तो जानते हो वह क्या करेगा ?”
“क्या करेगा ?”
“वह एक निहायत मोटी फीस की एवज में तुम्हारा काम करने के लिए फौरन तैयार हो जाएगा । फिर वह तुम्हें ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन टेबल पर लिटाएगा, तुम्हें बेहोश करेगा और फिर पुलिस को बुला लेगा । जब तक तुम्हें होश आएगा, तब तक फांसी का फन्दा तुम्हारे गले में होगा । इस तरह नया चेहरा तो तुम्हें क्या हासिल होगा, हां शायद नया जन्म हासिल हो जाए ।”
“लेकिन जो डॉक्टर तुम्हारी निगाहों में है, वह ऐसी धोखाधड़ी नहीं करेगा ?”
“हरगिज नहीं करेगा । इसलिए नहीं करेगा क्योंकि वह शरीफ और नेक शहरियों का प्लास्टिक सर्जन नहीं, चोरों, डाकुओं का प्लास्टिक सर्जन है । उसकी सेवायें केवल उन अपराधियों के लिए उपलब्ध हैं जो कानून से पनाह मांगते फिर रहे हैं । उस डॉक्टर का धन्धा ही पेशेवर अपराधियों को नये चेहरे देना है । उसके पास कोई शरीफ आदमी जाता ही नहीं । अगर वह बदमाशों के साथ बदमाशी करेगा तो मौत के घाट उतार दिया जाएगा ।”
“ओह !”
“और कहने की जरूरत नहीं कि अगर तुम सात जन्म भी लगे रहो तो उस प्लास्टिक सर्जन के बारे में खुद जानकारी हासिल नहीं कर सकते । सिर्फ मैं तुम्हें बता सकता हूं कि वह डॉक्टर कौन है और कहां है ।”
“और ऐसा तुम इस शर्त पर करोगे कि मैं तुम्हारे साथ डकैती में शामिल हो जाने के लिए तैयार हो जाऊं ?”
“हां ।”
“हूं ।”
“लेकिन मेरी ऑफर में और उन ऑफर्स में जो आज तक तुम्हें हासिल होती आई हैं, सबसे बड़ा फर्क यही है कि अगर तुम मेरी ऑफर कबूल नहीं करोगे तो मैं तुम पर किसी तरह का बेजा दबाव नहीं डालूंगा । मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर देने की धमकी से तुम्हें ब्लैकमेल नहीं करूंगा । अगर तुम्हें मेरा साथ देना कबूल नहीं तो मेरी तरफ से तुम एकदम आजाद हो । दरवाजा खुला है, चाहे अभी यहां से चले जाओ ।”
“तुम तो बड़े शरीफ बदमाश हो !”
“हां । तुम्हारे जैसा ।”
“डकैती में और कौन-कौन शामिल हैं ?”
“यहां मौजूद हम चार आदमियों के अलावा कोई नहीं ।”
“उसमें चार आदमियों का होना जरूरी है ?”
“नहीं । लेकिन मौजूदा हालात में तुम्हारा होना जरूरी हो उठा है ।”
“मतलब ?”
“असल में वह काम हम तीनों बखूबी कर सकते थे लेकिन बीच में एक अड़चन आ गई है । डकैती की मेरी योजना में दो दक्ष मोटर ड्राइवरों का होना जरूरी है । गंगाधर और कूका दक्ष मोटर ड्राइवर तो हैं लेकिन इनके मन में दहशत बैठ चुकी है कि जो काम मैं इनसे करवाना चाहता हूं और जो काम मैं खुद भी करने वाला हूं, उसमें ये जरूर जान से हाथ धो बैठेंगे । इसीलिए हमें चौथे आदमी की जरूरत आन पड़ी है । इस काम में मैं किसी ऐरे-गैरे का भरोसा करने को तैयार नहीं ।”
“और मैं कोई ऐरा-गैरा नहीं ?”
“नहीं ।”
“तुमने यह कैसे सोच लिया कि जो काम तुम्हारे साथी करने को तैयार नहीं, वह मैं करने को तौयार हो जाऊंगा ?”
“गंगाधर और कूका को उस काम से साफ-साफ इन्कार नहीं है लेकिन अब क्योंकि इनके मन में उस काम की दहशत बैठ गई इसलिए इनके अब हां कहने पर भी मैं इनका भरोसा नहीं कर सकता । ये ऐन मौके पर हिम्मत हार सकते हैं और सब गुड़-गोबर कर सकते हैं ।”
“हूं ।”
“तुमसे मुझे उम्मीद है कि तुम नहीं डरोगे ।”
“क्यों उम्मीद है ?”
“एक तो इसलिए क्योंकि तुम इनसे ज्यादा तजुर्बेकार हो, दूसरे इसलिए क्योंकि तुम मौजूदा काम से कहीं ज्यादा बड़े खतरे उठा चुके हो । और फिर सबसे बड़ी बात यह है कि जो काम मैं तुमसे करवाना चाहता हूं वह मैं खुद भी करूंगा ।”
“काम क्या है ?”
“काम ऐसा है, जैसे चलती गाड़ी की दीवार में टक्कर मारनी हो ।”
“यानी ?”
द्वारकानाथ ने धीरे-धीरे उसे अपनी योजना समझाई ।
“मेरी योजना के अनुसार हमें मिल की गाड़ी के बुलेट प्रूफ होने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हमने उस पर गोली नहीं चलानी । हमें उसके स्पैशल कंम्बीनेशन लॉक से भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ताला हमें खोलना ही नहीं है । हमें उसके दरवाजे के साथ कोई छेड़खानी नहीं करनी इसलिए भीतर से लाउडस्पीकर से आती हुई ‘चोर ! चोर ! बचाओ बचाओ !’ की आवाजों से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता । अव्वल तो मुझे उम्मीद है कि वे आवाजें निकलेंगी नहीं और अगर निकलेंगी तो आस-पास उन्हें सुनने वाला कोई नहीं होगा । वैन के पुलिस कण्ट्रोलरूम के साथ वायरलैस सम्पर्क से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जहां हमने वैन पर हाथ डालना है वहां पहुंचने में पुलिस इतना वक्त लगाएगी कि उनके आने से कहीं पहले हम अपना काम करके वहां से रफूचक्कर हो चुके होंगे । वैन के ड्राइविंग के दोहरे कण्ट्रोल से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जहां हमने वैन रोकनी है वहां से हमने उसे हिलाना ही नहीं है । वैन के बक्से में मौजूद गार्ड अगर वैन को जाम कर भी दे तो हमें परवाह नहीं ।”
“रूट ?” - विमल बोला - “रूट का क्या हल है तुम्हारे पास ?”
“रूट की जो सावधानी वे लोग बरतते हैं, वह इतनी मूर्खतापूर्ण है कि हंसी आती है । कहा जाता है कि कम्पनी के हैड ऑफिस से लेकर मिल तक का फासला कई रास्तों से तय किया जा सकता है । वैन हर बार नये रास्ते से आती है और उसके रवाना होने तक किसी को नहीं मालूम होता कि ड्राइवर कौन-सा रूट अपनाएगा । लेकिन मजेदार बात यह है कि वे मुख्तलिफ रूट नगर के भीतर-भीतर ही हैं, नगर से बाहर नहीं हैं । मिल नगर से बाहर है और उस तक पहुंचने का सिर्फ एक ही रास्ता है । वैन किसी भी रूट पर चले, अपनी मंजिल का आखिरी मील उसने एक ही रास्ते से तय करना होता है । हमने वैन पर उस इकलौते रास्ते पर हाथ डालना है इसलिए हमें यह फर्क नहीं पड़ता कि वह वहां तक किस रूट पर चलती हुई पहुंची । इसी प्रकार हमें इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह हैड ऑफिस से रवाना कब होती है । वह कभी भी रवाना हो, पहली तारीख को दोपहर से पहले उसे मिल में पंहुचना ही है और इतना अरसा हम बखूबी इन्तजार कर सकते हैं ।”
“आई सी ।”
“तुम लोगों ने जयपुर में जो बीकानेर बैंक वैन लूटने का काम किया था, वह काम मेरी योजना के मुकाबले में ज्यादा साइंटिफिक जरूर था लेकिन वह पेचीदा भी ज्यादा था । मसलन अगर उस रॉबरी का चीफ ऑर्गेनाइजर ठाकुर शमशेर सिंह जयपुर पुलिस का इन्सपेक्टर न होता तो योजना की आरम्भ में ही टांग टूट जाती । वैन का ड्राइवर क्योंकि ठाकुर शमशेर सिंह को निजी तौर पर जानता था इसीलिए वह उसके कहने पर वैन को उस रास्ते पर ले गया था जहां कि तुमने उसको काबू में करने का एडवांस में इन्तजाम किया हुआ था । अगर ठाकुर शमशेर सिंह की जगह कोई अनजाना आदमी उसे रूट बदलने की राय देता तो वह उस राय को हरगिज न मानता ।”
“तुम ठीक कह रहे हो ।”
“ऊपर से तुम लोगों की कामयाबी में इस इत्तफाक का भी बड़ा हाथ था कि वह गाड़ी सर्विसिंग के लिए तुम्हारे गैरेज में आती थी । तुम्हें तो ठाकुर शमशेरसिंह ने ब्लैकमेल करके इस बात के लिए तैयार कर लिया था कि तुम गाड़ी के बुलेटप्रूफ शीशे बदल दो और उसमें और भी जरूरी हेर-फेर कर दो, कोई और आदमी ये काम करने को तैयार न होता और न ही ठाकुर की किसी और को कहने की हिम्मत होती । ऊपर तीरथ सिंह का वह ट्रक भी खामखाह तुम्हारे हाथ में आ गया था, जिसके भीतर बख्तरबन्द गाड़ी को चढाकर तुम उसे जयपुर से निकाल ले गये थे ।”
“इस वक्त सब बातों का जिक्र क्यों ?”
“ताकि तुम यह समझ सको कि क्यों मैं समझता हूं कि रत्नाकर स्टील कम्पनी की वैन लूटने में मेरा सोचा गंवारों जैसा तरीका ही कारआमद साबित हो सकता है । जयपुर वाली रॉबरी के बाद यह लोग बहुत चौकन्ने हो गए हैं । मौजूदा हालात यह हैं कि रत्नाकर स्टील कम्पनी की बख्तरबन्द गाड़ी के ड्राइवर ने जब भी रुपया ढोना होता है, वह सफर आरम्भ करने से पहले खुद चैक करता है कि गाड़ी के बुलेट प्रूफ शीशे अपने स्थान पर चौकस तो हैं । उसके कम्बीनेशन लॉक के साथ या वायरलैस सेट के साथ या वैन के डबल कण्ट्रोल के साथ या दरवाजे के हैंडल से सम्बद्ध टेपरिकॉर्डर के साथ कोई छेड़ाखानी तो नहीं की गई । कहने का मतलब यह है कि अगर किसी करिश्मासाज तरीके से मैं इन तमाम चीजों को फिक्स करवा भी लूं तो यह नहीं हो सकता कि ड्राइवर को इन बातों की खबर न लगे । इसीलिए मैंने उस बख्तरबन्द गाड़ी को प्यानो एकार्डियन बना देने जैसा जोखिम का काम करना कबूल किया है ।”
“लेकिन जैसी योजना तुमने सोची है, उससे तो लगता है कि कोई समस्या है नहीं । फिर तुमने मिल के सिक्योरिटी ऑफिसर को अपने काबू में करने का वह नाटक क्यों खेला, जिसका तुमने अभी जिक्र किया है ?”
“तुम यह भूल रहे हो कि वैन की सिक्योरिटी से सम्बन्धित अधिकतर बातें हमें उसी से ही मालूम हुई हैं ।”
“वह कोई बड़ी बात नहीं । कोशिश करने पर वे बातें और कई साधनों हमें उसी से भी मालूम की जा सकती थीं । खास उसको ही अपने काबू करने का मतलब ?”
“एक समस्या है” - द्वारकानाथ कठिन स्वर में बोला - “जो वही हल कर सकता है ?”
“कौन-सी ?”
“वैन के बक्से में मौजूद सशस्त्र गार्ड ।”
“वह क्या कर सकता है ?”
“वह हममें से किसी को या हम सबको शूट कर सकता है । मैं नहीं चाहता कि उसके हाथों हम में से किसी की जान जाए । और उस गार्ड को काबू करने की कोई तरकीब मुझे सूझ नहीं रही ।”
“वह सिक्योरिटी ऑफिसर... क्या नाम बताया था तुमने उसका ?”
“कुलश्रेष्ठ । राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ ।”
“वह इसमें तुम्हारी क्या मदद कर सकता है ?”
“वह गार्ड को पंगु बना सकता है ।”
“कैसे ?”
“उसे गार्ड की राइफल को इस प्रकार फिक्स करना होगा कि जब ऐन मौके पर वह उसे चलाने की कोशिश करे तो वह चलकर न दे ।”
“कुलश्रेष्ठ मान जायेगा ऐसा करने के लिए ?”
“उसके पुरखे भी मानेंगे । मैंने उसकी बड़ी मजबूती से अपने शिकंजे में कसा हुआ है ।”
“आई सी ।”
“चाय और हो जाये ?”
“क्या हर्ज है !”
द्वारकानाथ ने अपनी जेब से एक शीशी निकाली । उसमें से उसने सफेद रंग की छोटी-छोटी दो गोलियां निकालीं और उन्हें मुंह में रखकर चाय के साथ निगल लिया ।
“यह क्या गोली खाते हो तुम ?” - विमल ने उत्सुक भाव से पूछा ।
“ये दिल की शिकायत की गोलियां हैं ।” - द्वारकानाथ ने बताया - “इससे खून पतला रहता है । मेरा दिल कमजोर है । दिल का एक दौरा मुझे पड़ भी चुका है ।”
“ओह !”
“तो फिर क्या जवाब है तुम्हारा ? तुम्हें मेरा साथ देना मंजूर है ?”
“हां ।”
“शुक्रिया । शुक्रिया ! तुमने मेरी बहुत बड़ी चिन्ता रफा कर दी ।”
“वह प्लास्टिक सर्जन जिसका तुमने जिक्र किया था, उसके बारे में तुम मुझे अपना मतलब हल होने के बाद बताओगे ?”
“नहीं । तुम जब कहोगे बता दूंगा । विमल, मैं तुम्हारी फितरत को खूब समझता हूं । तुम किसी को धोखा देने वाले शख्स नहीं ।”
“नये चेहरे की कीमत क्या वसूल क्या करता है, वह डॉक्टर ?”
“दो लाख रुपये ।”
“दो लाख रुपये !”
“मैं जानता हूं, यह फीस बहुत ज्यादा है लेकिन वह डॉक्टर बहुत भरोसे का है, उसका काम बहुत संतोषजनक है और वहां गोयनीयता की गारण्टी है ।”
“लेकिन फिर भी दो लाख ! दो लाख तो...”
“फिर क्या हो गया ? जिस काम में तुम मेरा साथ दे रहे हो, अगर वह कामयाबी से हो गया तो लूट के माल में तुम्हारा हिस्सा कम-से कम दस लाख होगा ।”
“यानी कि तुम्हारे ख्याल से वैन में कम-से-कम चालीस लाख रुपये मौजूद होंगे ?”
द्वारकानाथ एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “पैंतालीस लाख । मैंने मालूम किया है ।”
“क्या मतलब ?” - गंगाधर जो इतनी देर से एक शब्द भी नहीं बोला था, एकाएक तीखे स्वर में बोला - “क्या लूट के माल में से हर किसी को बराबर का हिस्सा नहीं हासिल होने वाला !”
“नहीं ।” - द्वारका सहज भाव से बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि मैं अपने-आपको ज्यादा बड़े हिस्से का हकदार समझता हूं ।”
“वजह ?”
“ऐसे नादान न बनो, गंगाधर ! वजह तुम्हें मालूम है ।”
“फिर भी पता लगे ।”
“सुनो । डकैती की यह योजना किसकी है ? मेरी । इस डकैती की तैयारी में अभी तक जो खर्चा हुआ है वह किसने किया है ? मैंने । जयपुर में कुलश्रेष्ठ को जो पच्चीस हजार रुपये नकद दिए हैं और होटल में जो बेशुमार खर्चे हुए हैं उनकी भरपाई किसने की है ? मैंने । भविष्य में अभी जो और खर्चे होंगे, वह कौन भरेगा ? यह स्टेशन वैगन किसने खरीदी है ? अभी जो और दो गाड़ियों को अपने इस्तेमाल के काबिल बनाने के लिये जो खर्चा आएगा, वह कौन भरेगा ? राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ को जो अभी बीस हजार रुपये और दिए जाने हैं, वह कौन देगा ?”
“ये तमाम खर्चे डेढ-दो लाख रुपये से ऊपर नहीं जाने वाले । तुम्हें डकैती से हासिल रकम में से खर्चा घटाकर उसे बराबर बांटने की बात करनी चाहिए ।”
“और उस जोखम की तुम क्या कीमत लगाते हो जो सिर्फ मैं उठाने वाला हूं या जिसे तुम लोगों के कन्नी कतरा जाने की वजह से अब विमल उठाने वाला है ? और फिर अगर हम किसी वजह से डकैती में कामयाब न हो सके तो इन एडवांस तैयारियों में लगा जो पैसा डूबेगा, वह किसका डूबेगा ? मेरे उस नुकसान की भरपाई करने की तुम दोनों में से किसी की औकात है ?”
“गंगाधर” - कूका बोला - “द्वारका ठीक कह रहा है ।”
गंगाधर खामोश हो गया लेकिन उसके चेहरे पर से असंतोष के भाव गायब न हुए ।
“कोई और बात जिसे कोई जना जिक्र के काबिल समझता हो ?” - द्वारकानाथ बोला ।
कोई कुछ न बोला । 
“तो फिर महफिल बर्खास्त ।” - द्वारकानाथ उठता हुआ बोला - “गंगाधर ! विमल को तुमने अपने पास रखना है ।”
गंगाधर ने मशीन की तरह सहमति में सिर हिला दिया ।
***
द्वारकानाथ ने राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के घर पर टेलीफोन किया ।
दूसरी ओर निरन्तर घण्टी बजती रही लेकिन किसी ने फोन न उठाया ।
उसने सम्बन्धविच्छेद करके फिर फोन मिलाया ।
फिर वही बात ।
द्वारकानाथ ने रिसीवर वापस क्रेडल पर रख दिया और बोला - “टेलीफोन खराब मालूम होता है ।”
“शायद घर पर कोई न हो ।” - कूका बोला ।
“शायद ।”
दो घण्टे बाद द्वारकानाथ ने फिर फोन किया ।
इस बार भी सम्पर्क स्थापित न हुआ ।
“मेरा ख्याल है फोन ही खराब है ।” - द्वारकानाथ बोला - “मुझे उसके घर जाना पड़ेगा ।”
“घर जाने में कोई हर्ज तो नहीं ?” - कूका बोला ।
“क्या हर्ज है ? और मैं उससे घर में बात थोड़े ही करूंगा । बात तो मैं उससे कहीं और करूंगा ।”
“फिर ठीक है ।”
द्वारकानाथ बाहर निकला ।
बाहर गैरेज के सायबान के नीचे दो ट्रक खड़े थे, जिनमें से एक पर गंगाधर और विमल काम कर रहे थे ।
“काम कल शाम तक निपट जाएगा, गंगाधर ?” - द्वारकानाथ ने पूछा ।
“उम्मीद तो है ।” - गंगाधर बोला ।
“गुड ।”
वह स्टेशन वैगन में सवार हुआ और उसे चलाता हुआ बाहर सड़क पर ले आया ।
अपना जो विजिटिंग कार्ड कुलश्रेष्ठ ने उसे दिया था, उस पर शाहगंज का एक पता लिखा हुआ था ।
द्वारकानाथ स्टेशन वैगन पर शाहगंज पहुंचा ।
कुलश्रेष्ठ का घर तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई ।
उसने स्टेशन वैगन उसके घर के सामने न रोकी । वह उसे सड़क के एकदम परले सिरे ले गया और फिर गाड़ी को वहीं छोड़कर वापस लौटा ।
कुलश्रेष्ठ के घर के बरामदे में जाकर उसने कॉलबैल बजाई ।
जवाब में दरवाजा खुलने पर चौखट पर जो शख्स प्रकट हुआ, वो खुद कुलश्रेष्ठ था ।
द्वारकानाथ को अपने सामने देखकर वह सकपकाया । वह तुरन्त बाहर बरामदे में आ गया । उसने अपने पीछे दरवाजा सावधानी से बन्द कर दिया ।
“तुम !” - वह हैरानी से बोला - “यहां ?”
“मैंने फोन किया था” - द्वारकानाथ धीरे से बोला - “लेकिन बात न हो सकी ।”
“टेलीफोन खराब पड़ा है ।”
“मेरा भी यही ख्याल था । इसीलिए यहां आना पड़ा ।”
“क्या बात है ?”
“मैंने तुमसे बात करनी है ।”
“कैसी बात ?”
“इक्यावन हजार रुपये की कीमत वाली बात ।”
कुलश्रेष्ठ के मुंह से हल्की-सी सिसकारी निकली । उसने घबराकर पीछे बन्द दरवाजे की तरफ देखा ।
द्वारकानाथ को ऐसा लगा, जैसे बैठक की खिड़की के पर्दे के पीछे कोई था ।
“मैं ताजमहल में तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूं ।” - वह बहुत धीमे स्वर में बोला और फिर बिना कोई बात किये घूमा और लम्बे डग भरता हुआ वहां से विदा हो गया ।
कुलश्रेष्ठ अनिश्चित सा पीछे बरामदे में खड़ा रहा ।
द्वारकानाथ फिर स्टेशन वैगन पर सवार हुआ और ताजमहल की तरफ रवाना हो गया ।
ताजमहल में उस रोज पर्यटकों की बहुत भीड़ थी । बाहर पार्किंग में खड़ी गाड़ियां देखकर ही उसे अनुभव हो गया कि राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ से मुलाकात करने के लिए ताजमहल को चुनकर उसने नादानी की थी ।
लेकिन अब कुलश्रेष्ठ के घर दोबारा जाने की कोई तुक नहीं थी ।
उसके ख्याल से तो कुलश्रेष्ठ उसके पीछे-पीछे ही अपने घर से निकल पड़ा होगा ।
बहरहाल एक बात की उसे फिर भी तसल्ली थी कि वहां अधिकतर भीड़ पर्यटकों की थी । उसे उम्मीद थी कि भीड़ के बावजूद उसे या कुलश्रेष्ठ को पहचानने वाला - खासतौर से कुलश्रेष्ठ को पहचानने वाला - कोई स्थानीय व्यक्ति वहां उनसे नहीं टकराएगा । वह हरगिज भी नहीं चाहता था कि जिस कम्पनी की बख्तरबन्द गाड़ी वह लूटने वाला था, किसी को मालूम हो कि उस कम्पनी के सिक्योरिटी ऑफिसर से उसकी सांठ-गांठ थी । उसके घर भी उसे मजबूरी में जाना पड़ा था ।
वह मुख्य द्वार के समीप बनी दुकानों के सामने ठिठक गया और उनके शो-केसों में झांकने लगा ।
ताजमहल के भीतर दाखिल होने का वही एक रास्ता था, इसलिए कुलश्रेष्ठ का वहां से गुजरना अवश्यम्भावी था ।
उसने मन-ही-मन हिसाब लगाया कि वह दिन भर में कितने सिगरेट पी चुका था और फिर बड़े संतोषजनक ढंग से सिर हिलाते हुए उसने अपना पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
तभी राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने दहलीज पर कदम रखा ।
एक क्षण के लिए दोनों की निगाहें मिलीं । उसके तुरन्त बाद द्वारकानाथ ने उसकी तरफ पीठ फेर ली और भीतर की तरफ बढा ।
उसने घूमकर नहीं देखा लेकिन उसे विश्वास था कि कुलश्रेष्ठ जरूर उसके पीछे-पीछे आ रहा होगा ।
वह ताज के समीप पहुंचा ।
दीवार के पास उसने जूते उतारे और और नंगे पांव सीढियां चढता हुआ टैरेस पर आ गया । टैरेस पर ताज की इमारत के प्रवेशद्वार के भीतर और बाहर दोनों जगह काफी भीड़ थी । द्वारकानाथ ने उस भीड़ में शामिल होने की कोशिश नहीं की । वह इमारत का घेरा काटकर संगमरमर के फर्श पर चलता हुआ पिछवाड़े में पहुंचा ।
पिछवाड़े में ऐन यमुना के किनारे तक फैली हुई टैरेस इतनी बड़ी थी कि वहां पर कई आदमियों की मौजूदगी के बावजूद भी वह खाली-खाली लग रही थी । द्वारकानाथ लम्बे डग भरता हुआ टैरेस की मुंडेर के पास पहुंचा और फिर वहां ठिठक गया । वह यमुना के पार लगभग अन्धेरी रात में साये की तरह खड़े लालकिले को देखता हुआ सिगरेट के छोटे-छोटे कश लगाता रहा ।
कुछ क्षण बाद उसे अपने पीछे पदचाप सुनाई दी ।
द्वारकानाथ ने घूमकर देखा ।
फिर कुलश्रेष्ठ उसकी बगल में आ खड़ा हुआ ।
वहां विशाल टैरेस के एक कोने में खड़े होने का यह लाभ था कि एक तो दूर से उन्हें पहचाना नहीं जा सकता था, दूसरे अगर कोई आदमी उनकी तरफ बढता तो उसके समीप पहुंच पाने से बहुत पहले उन्हें उसकी खबर लग जाती ।
“किसलिये बुलाया है मुझे ?” - कुलश्रेष्ठ ने पूछा ।
“आगरे ठीक-ठीक पहुंच गए थे ?” - द्वारकानाथ ने पूछा ।
“हां । मुझे यहां क्यों बुलाया है तुमने ?”
“क्या बात है ?” - द्वारकानाथ कर्कश स्वर में बोला - “अपना मतलब हल होते ही तेवर बदल गये ?”
“नहीं, नहीं” - वह हड़बड़ाकर बोला - “यह बात नहीं ।”
“तुम्हारी भलाई इसी में है कि यह बात न हो ।”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“और इतने नादान बनकर मत दिखाओ मुझे । तुम्हें खूब मालूम है, मैंने तुम्हें क्यों बुलाया है ।”
“मैं हाजिर हूं ।”
“हां, यह टोन ठीक है । जब तक मेरे से वास्ता है, इसी को बरकरार रखना ।”
वह खामोश रहा ।
द्वारकानाथ ने सिगरेट का आखिरी कश लगाया और फिर बड़े अनिच्छापूर्ण ढंग से बचे हुए टुकड़े को यमुना की तरफ उछाल दिया ।
“मैंने सुना है” - फिर वह कुलश्रेष्ठ से बोला - “कि तुम्हारी स्टील मिल की हफ्तावारी छुट्टी शुक्रवार को होती है ?”
“ठीक सुना है तुमने ।” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“यानी कि इतवार को मिल चलती है ?”
“हां ।”
“इतवार को तुम क्या करते हो ?”
“नौकरी करता हूं और क्या करता हूं !”
“इतवार को तुम ड्यूटी पर होते हो ?”
“हां ।”
“मिल के सिक्योरिटी विभाग के तुम इकलौते अफसर हो ?”
“हां ।”
“यानी कि तुम्हारे ऊपर बड़ा अफसर कोई नहीं है ?”
“है क्यों नहीं ? मिल का मैनेजर है ।”
“मेरा मतलब है सिक्योरिटी में ?”
“हां । उसमें मुझसे ऊपर कोई नहीं ।”
“वह जो वैन का गार्ड है, राइफल उसके पास हर वक्त रहती है ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । राइफल उसे तभी दी जाती है जब उसे वैन के साथ भेजा जाता है ।”
“बाकी वक्त राइफल कहां रहती है ?”
“मेरे कमरे में । अन्य राइफलों के साथ एक अलमारी में बन्द ।”
“और राइफलें कितनी हैं ?”
“तीन ।”
“छुट्टी वाले दिन और रात को जो गार्ड मिल की चौकीदारी करते हैं, उन्हें राइफल दी जाती है ?”
“हां । दी जाती है ।” 
“वैन के गार्ड को जरूरत पड़ने पर राइफल तुम देते हो ?”
“हां ।”
“तुम्हें राइफल चलानी आती है ?”
“हां ।”
“फिर तो तुम जानते होगे कि राइफल में एक फायरिंग पिन होता है ?”
“हां, जानता हूं ।”
“अगर वह फायरिंग पिन न हो तो राइफल से गोली नहीं चल सकती ।”
“हां । तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“तुमने ऐसा इन्तजाम करना है, कुलश्रेष्ठ, कि आने वाली पहली तारीख को जो राइफल तुम गार्ड को दो, उसका फायरिंग पिन काम न करे ।”
“यह” - वह हड़बड़ाया - “यह मैं कैसे कर सकता हूं ?”
“तुम बखूबी कर सकते हो यह काम ।” - द्वारकानाथ सांप की तरह फुंफकारा - “तुम सिक्योरिटी विभाग के इकलौते इंचार्ज हो, मिल में तुम्हारा अलग कमरा है और राइफलें तुम्हारे कमरे में रखी जाती हैं । उनमें से एक का फायरिंग पिन बिगाड़ देना तुम्हारे लिए क्या बड़ी बात है ?”
“लेकिन... लेकिन - कैसे ?”
“मामूली काम है, तुमने एक रेती से उस फायरिंग पिन को सिर्फ घिस देना है ।”
“लेकिन...”
“खामखाह हुज्जत मत करो । मैं जानता हूं तुम्हारे लिए यह मामूली काम है । और फिर तुम यह काम फोकट में नहीं कर रहे हो । मैं इस मामूली काम की बहुत बड़ी फीस अदा कर रहा हूं तुम्हें ।”
“लेकिन यह काम मुझे जेल भिजवा सकता है ।”
“कैसे ?”
“अगर मैं राइफल का फायरिंग पिन घिस दूंगा तो जाहिर है कि डकैती के वक्त गार्ड तुम लोगों पर गोली नहीं चला पायेगा । बाद में जब पुलिस तफ्तीश करेगी तो यह बात उन्हें फौरन मालूम हो जाएगी कि उस राइफल को जान-बूझकर बिगाड़ा गया था । फिर जब उन्हें यह मालूम होगा कि राइफलें मेरी हिफाजत में रहती हैं और गार्ड को राइफल मैंने दी थी तो वो मेरी ऐसी-तैसी नहीं फेर देंगे ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि डकैती के बाद वह राइफल हम साथ ले जायेंगे । पुलिस को घटनास्थल पर राइफल नहीं मिलेगी इसलिए उन्हें यह भी मालूम नहीं होगा कि राइफल के साथ शरारत की गई थी ।”
“लेकिन गार्ड तो पुलिस को यही बयान देगा कि जब उसने डाकुओं पर गोली चलाने की कोशिश की थी तो राइफल नहीं चली थी ।”
“देगा । लेकिन क्योंकि चैक करने के लिए तब राइफल मौजूद नहीं होगी इसलिए यही समझा जायेगा कि इत्तफाक से ऐन मौके पर राइफल में कोई नुक्स पैदा हो गया था ।”
“फिर भी मुझसे जवाबतलबी तो होगी कि मैंने बिना चैक किए गार्ड को राइफल क्यों दी ?”
“तुम कह सकते हो कि तुमने राइफल बखूबी चैक करके दी थी और तुमने उस वक्त राइफल को एकदम ठीक पाया था ।”
“लेकिन ...”
“खामखाह टालमटोल मत करो, कुलश्रेष्ठ ! यह काम तो तुम्हें करना ही पड़ेगा । तुम भूल रहे हो कि हमारे पास तुम्हारा एक लाख का प्रोनोट और तुम्हारे हल्फिया बयान का कागज है । अब इस वक्त यूं चालाकी की कोशिश करोगे तो मैं तुम्हें जेल भिजवाए बिना नहीं मानूंगा ।”
“मैं चालाकी करने की कोशिश नहीं कर रहा । लेकिन अगर मेरी वैसे ही जेल जाने की नौबत आ गई या मेरी नौकरी छूट गई तो ?”
“तुम्हें कुछ नहीं होने वाला । मैं तुम्हें एक ऐसा मामूली काम करने को कह रहा हूं जिसकी वजह से, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा ।”
वह खामोश रहा ।
“और फिर तुम्हें तो विश्वास है कि हम वैन लूटने में कभी कामयाब नहीं हो सकते । जब कुछ होना ही नहीं है तो तुम डरते क्यों हो ?”
वह फिर भी खामोश रहा ।
“कुलश्रेष्ठ, अपनी खैरियत चाहते हो तो रविवार शाम को या सोमवार सुबह एक रेती लेकर राइफल का फायरिंग पिन घिस देना ।”
“एक बात बताओ ।” - एकाएक कुलश्रेष्ठ बोला ।
“पूछो ।”
“यह काम मामूली है या बड़ा, इतना तो तुम मानते हो कि तुम्हारी योजना की कामयाबी का दारोमदार काफी हद तक इस काम पर है ?”
“फिर ?”
“फिर भी इस बात के तुम मुझे सिर्फ बीस हजार रुपये दे रहे हो ?”
“बीस नहीं, इक्यावन हजार रुपये । इकत्तीस हजार रुपये जो तुम जयपुर में ले चुके हो उन्हें इतनी जल्दी भूल गए ?”
“लेकिन वह रुपया था तो मेरा ही ।”
“गलत । वह रुपया हमारा था, जो हमने वक्ती तौर पर तुम्हारे हाथ लग जाने दिया था । मेरा मतलब है सिवाय उन छः हजार रुपयों के जो हमने दूसरे दिन तुमसे फ्लैश में जीते थे ।”
“फिर भी मैं महसूस करता हूं कि मुझे ज्यादा पैसा मिलना चाहिए ।”
“कितना ?”
“कम-से-कम दस प्रतिशत ।”
“क्या कहने ? यानी कि साढे चार लाख रुपया ?”
“क्या नहीं ?”
“तुम ऐसे माल में से हिस्सा चाहते हो कि जो कि तुम्हारे ख्याल से हमारे हाथ नहीं आ सकता ?”
“अगर नहीं आयेगा तो न सही । आ जाए तो देना ।”
“तुम्हारा दिमाग खराब है, कुलश्रेष्ठ ! तुम्हारा काम इतना अहम नहीं है, जो हमें अपने मिशन में कामयाब होने से रोक सके । तुम यह काम नहीं करोगे, तो क्या होगा ? उस बेचारे गार्ड की जान चली जाएगी ।”
“वह गार्ड वैन के अन्दर बन्द होता है । वैन खोले बिना तुम्हें उसकी हवा भी नहीं लग सकती और वैन तुम खोल नहीं सकते । लेकिन गार्ड वैन के भीतर से भी तुम लोगों पर गोली चला सके, वैन में ऐसा प्रबन्ध है ।”
“यह ख्याल तुम अपने मन से निकाल दो कि हम वैन नहीं खोल सकते । हमें अगर वैन खोल सकने की गारण्टी न होती तो हम उस काम में हाथ तक न डालते ।”
“फिर भी गार्ड तुममें से एकाध को शूट कर सकता है ।”
“उससे पहले हम उसे शूट कर सकते हैं ।”
“फिर भी...”
“यह बकवास बन्द करो” - एकाएक द्वारकानाथ क्रोधित हो उठा - “मैं यहां तुमसे भाव-ताव करने नहीं आया । न ही मैं तुमसे मिन्नत समाजत करने आया हूं कि तुम मेरा काम करो । मैं यहां आदेश देने आया हूं कि तुमने यह काम करना है । फौरन हां या न में जवाब दो कि तुम यह काम करोगे या नहीं ? और मैं बार-बार नहीं दोहराना चाहता कि इन्कार करने की सूरत में तुम्हारी क्या गत बनेगी ।”
कुलश्रेष्ठ कुछ क्षण खामोश रहा और फिर धीरे से बोला - “अगर बीस हजार ही देने हैं तो अभी दो ।”
“नहीं । काम हो जाने के बाद । अभी तुम्हें एक काला पैसा नहीं मिलेगा ।”
“यह तो ज्यादती है तुम्हारी ।”
“ज्यादती ही सही । बोलो क्या कहते हो ?”
“अच्छी, बात है ।”
“गुड ।”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा । 
“याद कर लो । सोमवार सुबह जो राइफल तुमने गार्ड को सौंपनी है, वह इस काबिल नहीं होनी चाहिए कि उसमें से गोली चल सके ।”
“अच्छा ।”
“यह टालमटोल वाला जवाब मत दो । जरा करारी-सी हामी भरो ।”
“कहा न, अच्छा ।”
“कुलश्रेष्ठ, अगर तुमने मुझे धोखा देने की कोशिश की तो तुम्हारी बीवी भरी जवानी में विधवा हो जाएगी । कसम दुर्गा भवानी की मैं तुम्हारी लाश का पता नहीं लगने दूंगा ।”
“अच्छा, अच्छा । सुन लिया मैंने ।”
“अब फूटो ।”
कुलश्रेष्ठ घूमा और लम्बे डग भरता हुआ वहां से चल दिया । द्वारका ने अपनी जेब से एक गोली निकाली और उसे अपने मुंह में अपनी जुबान के नीचे रख लिया ।
डॉक्टर ने उसे विशेष रूप से हिदायत दी हुई थी कि उसने उत्तेजित नहीं होना था ।
लालच का मारा वह आदमी उसे खामखाह गुस्सा दिला गया था ।
***
राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ अपने घर पहुंचा ।
उसकी बीवी शैलजा खिड़की के पास बैठी हुई थी ।
“कहां चले गये थे ?” - उसके भीतर दाखिल होते ही वह तीखे स्वर में बोली ।
“यूं ही चौक तक गया था ।” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“डेढ घण्टे में वापस लौटे हो और कह रहे हो कि यूं ही जरा चौक तक गया था ।”
“दरअसल एक दोस्त मिल गया मुझे । बड़ी मुद्दत बाद मिला था वह मुझे । इसलिए मैं जरा कॉफी हाउस में बैठ गया था उसके साथ । वहां कॉलेज के जमाने की बातें छिड़ गई । बातों में वक्त का पता नहीं लगा ।”
“और वह आदमी कौन था जो तुम्हारे यहां से जाने से थोड़ी देर पहले यहां आया था ?”
“कौन-सा आदमी ?”
“वह बूढा-सा भारी-भरकम आदमी, जिसके साथ तुमने बाहर बरामदे में खड़े होकर बात की थी ।”
“ओह वह यूं ही एक परिचित था । तुमने कब को देख लिया उसे ?”
“देख लिया । मेरी क्या आंखें नहीं हैं ?”
“मेरा मतलब है तुम तो उस वक्त रसोई में थीं ।” 
“इत्तफाक से तभी बाहर निकली थी मैं । कौन था वो ?”
“कहा न मेरा एक परिचित था ।”
“परिचित का कोई नाम-धाम भी है या नहीं ?”
“द्वारका” - कुलश्रेष्ठ हिचकिचाता हुआ बोला - “द्वारकानाथ नाम है उसका ।”
“बहुत जल्दी चला गया वह द्वारकानाथ ?”
“हां । मैंने टाल दिया उसे । यूं ही खामखाह कान खाने वाला आदमी था ।”
“फिर क्या हुआ । कान खाने वाले आदमी तो तुम्हें बहुत अच्छे लगते हैं । अभी कॉफी हाउस में तुम ऐसे ही एक कान खाने वाले आदमी के साथ बैठकर नहीं आये हो ?”
“छोड़ो । तुम तो खामखाह फसादी बातें शुरु कर देती हो ।”
“अच्छा ! तो मैं फसादी...”
“छोड़ो न । एक बात सुनो ।”
“सुनाओ ।”
“अगर मैं कहूं कि इन गर्मियों में मैं तुम्हें श्रीनगर लेकर चलूंगा तो तुम क्या कहोगी ?”
“तो मैं कहूंगी कि तुम झूठ बोल रहे हो ।”
“शैलजा, मैं सीरियस हूं ।”
“जाने भी दो । जयपुर तक ले जाने के नाम पर तो हाय-हाय करने लगे थे, श्रीनगर जरूर लेकर जाओगे ।”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“हर बार ही कहते हो ।” - शैलजा उदास स्वर में बोली - “बस यूं ही सब्जबाग दिखाते रहते हो । जब वक्त आता है तो सौ अड़चनें गिना देते हो ।”
“लेकिन...”
“तुम मुझे कहीं नहीं ले जाने वाले, पतिदेव ! और कहीं ले जाओगे भी क्यों ? तुम मुझे बीवी थोड़े ही समझते हो । तुम तो मुझे अपना खाना पकाने वाली नौकरानी समझते हो । तीन साल हो गए हमारी शादी को । कहीं लेकर गये हो ?”
“इस बार जरूर ले जाऊंगा । प्रॉमिस ।”
“जब गर्मियां आयेंगी तो मुकर जाओगे ।”
“नहीं मुकरूंगा । बाई गॉड ।”
“तुम ले जाओगे भी तो मैं नहीं जाऊंगी ।”
“क्यों ?”
“घर से बाहर निकलने के लिए कोई ढंग का कपड़ा है मेरे पास ? इसी वजह से अभी जयपुर में अपनी बहनों और भाभियों से छीछालेदार नहीं करवाकर आई हूं मैं ?”
“शैलजा, मैं तुम्हें कपड़े भी लेकर दूंगा । ढेर सारे ।”
“सच ?”
“हां ।”
शैलजा के चेहरे पर एक क्षण के लिए खुशी की रौनक आई, लेकिन फिर वह फौरन गम्भीर हो गई - “लेकिन इन तमाम कामों के लिए पैसा कहां से आयेगा तुम्हारे पास ? क्या कोई लॉटरी निकलने वाली है ?”
“बस यही समझ लो । कुछ दिन सब्र करो । मैं नकद बीस हजार रुपया तुम्हारी हथेली पर रखूंगा । फिर उलटे तुम मुझे कहीं सैर कराकर लाना ।”
“बीस हजार रुपया ? इतना पैसा एकाएक कहां से आयेगा तुम्हारे पास ?”
“आयेगा कहां से । तुम आम खाने से मतलब रखो, पेड़ गिनने से नहीं ।”
“किसी से कर्जा-वर्जा तो नहीं ले रहे हो ?”
“नहीं ।”
“तुम बड़ी रहस्यपूर्ण बातें कर रहे हो ।”
“छोड़ो । जरा इधर पास आकर बैठो ।”
“और जब से हम जयपुर से लौटे हैं, तुम मुझे बहुत बदले-बदले लग रहे हो ।”
“अरे तुमने तो अनाप-शनाप बातें करनी शुरु कर दीं । इधर आओ ।”
“पहले एक बात बताओ ।”
“पूछो ।”
“वह द्वारकानाथ असल में कौन है ?”
“कहा न, मेरा एक परिचित है ।”
“करता क्या है वो ?”
“पता नहीं । दरअसल वह मेरे एक दोस्त का दोस्त है । वह मुझसे यारी बढाना चाहता है, लेकिन मैं नहीं चाहता कि वह खामखाह मुझसे चिपके । इसीलिए तो मैंने उसे भीतर नहीं बुलाया था ।”
“लेकिन मुझे तो ऐसा लगा था कि वह खुद ही भीतर आने का इच्छुक नहीं था ।”
वह सकपकाया ।
“और वह बात भी ऐसे अधिकार से कर रहा था जैसे वह तुम्हें आदेश दे रहा हो ।”
“तुमने उसे सुना था बात करते ?” - कुलश्रेष्ठ हड़बड़ाकर बोला ।
“नहीं । लेकिन मैंने उसके चेहरे के भाव देखे थे मुझे तो वह आदमी बड़ा खतरनाक लगा था ।”
“अरे, वह तो बहुत सीधा-सादा शरीफ आदमी है ।”
“देखने में वह सीधा-सादा शरीफ ही लगता था लेकिन, लेकिन कोई बात थी उसमें, जिससे लगता था कि जैसा वह देखने में है, वह असल में नहीं है ।”
“अब जाने भी दो । वह कैसा भी हो, हमें क्या लेना-देना है उससे ?”
“ये बीस हजार रुपये, जिनका तुमने अभी जिक्र किया है, उनका कोई रिश्ता उस आदमी से तो नहीं ?”
कुलश्रेष्ठ को जैसे सांप सूंघ गया । कितनी आसानी से उसकी बीवी ने सारी बात भांप ली थी ? द्वारकानाथ का उसके घर आना अच्छा साबित नहीं हुआ था । वह उसे जरूर मना करेगा कि वह कभी उसके घर न आये । अगली बार वह द्वारकानाथ से पूछेगा कि वह उससे कहां सम्पर्क स्थापित कर सकता था ।
फिर बड़ी कठिनाई से उसने अपने-आपको संभाला और अपने स्थान से उठा । वह आगे बढकर बीवी की बगल में जा बैठा । उसने जबरन उसे अपनी बांहों में भर लिया और बोला - “हद है, शैलजा ! तुम तो बेसिर-पैर की बातों में भी रिश्ता जोड़ लेती हो ।”
“लेकिन...”
कुलश्रेष्ठ ने उसे आगे नहीं बोलने दिया । उसने होंठ अपनी बीवी के सुर्ख लाल, रसीले होंठों पर रख दिये ।
शैलजा ने कुछ क्षण आदतन उसका विरोध किया, फिर वह भी बड़े आतुर भाव से अपने पति से लिपट गई ।
***
रविवार दोपहर तक दोनों ट्रक द्वारकानाथ की इच्छा के अनुसार ‘फिक्स’ किए जा चुके थे ।
द्वारकानाथ ने खूब ठोक-बजाकर दोनों का मुआयना किया ।
प्रत्यक्षतः उन दोनों ट्रकों को देखकर यह कहना मुश्किल था कि उनके साथ कोई छेड़खानी की गई थी ।
“वैरी गुड ।” - वह सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला - “अगर अब ये ट्रक दगा न दें तो समझो हमने किला फतह कर लिया ।”
“अब ये ट्रक थोड़े ही हैं ।” - विमल बोला - “ये तो टैंक हैं ।”
“बिल्कुल ठीक कहा तुमने ।” - द्वारकानाथ बोला - “आओ भीतर चलें ।”
चारों फिर गैरेज के पिछवाड़े वाले कमरे में आ बैठे ।
विमल ने अपना पाइप सुलगा लिया । 
द्वारकानाथ ने हिचकिचाते हुए एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“अब तो सारे काम हो गए ।” - कूका उत्साहपूर्ण स्वर में बोला - “द्वारका, आज तो जश्न हो जाये ।”
“कैसा जश्न ?” - द्वारकानाथ बोला ।
“विस्की चल जाये ।”
“हरगिज नहीं । कल सुबह हमने इतना बड़ा काम करना है । आज शराबखोरी नहीं चलेगी ।”
“क्या फर्क पड़ता है ?”
“पड़ता है । शराब मति भ्रष्ट करने वाली चीज है । हमारे कल के काम में मुश्किल से बीस घंटे बाकी हैं । ऐसे में नशा करने की राय मैं नहीं दे सकता । मैं नहीं चाहता कि आज की पी की कल तक खुमारी न उतरे और फिर कल इसलिए सब गुड़ गोबर हो जाये क्योंकि उस गोबर की वजह से हम चारों में से कोई जना अपने हिस्से के काम को पूरी चौकसी से अंजाम न दे सका ।”
विमल को मायाराम बावा और उसके संगी साथियों की याद आई । भारत बैंक में डकैती डालने वाले दिन से पहले उन्होंने शराबखोरी का खास तौर पर प्रोग्राम रखा था ।
प्रत्यक्षतः द्वारकानाथ मायाराम बावा से ज्यादा समझदार आदमी था ।
“कूका” - गंगाधर बोला - “द्वारका ठीक कह रहा है ।”
“चलो ऐसे ही सही ।” - कूका लापरवाही से बोला - “चाय की तो मनाही नहीं है ?”
“चाय की मनाही का क्या काम ?” - द्वारकानाथ बोला - “जाओ, सबके लिये चाय लेकर आओ ।”
कूका चाय लेने चला गया ।
साथ ही विमल भी उठा ।
द्वारकानाथ ने प्रश्नसूचक नेत्रों से विमल की तरफ देखा ।
विमल ने अपने बायें हाथ की कनकी उंगली ऊंची उठा दी ।
“ओह ? ठीक है ।”
विमल भी बाहर निकल गया ।
तुरन्त द्वारकानाथ गंगाधर के पास सरक आया और धीरे से बोला - “गंगाधर, यह सिख शरारती आदमी है तो नहीं लेकिन फिर भी मैं इसकी तरफ से सावधानी बरतना चाहता हूं ।”
“कैसी सावधानी ?”
“मैं ट्रक सिर्फ इसके हवाले नहीं करना चाहता । मैं चाहता हूं कि तुम इसके साथ ट्रक में मौजूद रहो ।”
“कहां ?” - गंगाधर सकपकाकर बोला - “इसकी बगल में ? आगे ड्राइविंग सीट पर ?” 
“नहीं, ट्रक के पिछले भाग में ।”
“हां, यह हो सकता है ! अगर मैंने सामने ही बैठना होता तो मैं ट्रक ही न चला लेता ! फिर उस चौथे आदमी की जरूरत क्या थी ? उसकी वजह से लूट में मेरा हिस्सा घटा जा रहा है ।”
“अगर कल यह ऐन मौके पर कोई होशियारी दिखाने की कोशिश करे तो तुम बेहिचक इसे शूट कर देना ।”
“ठीक है ।”
“लेकिन गंगाधर, मैं खामखाह की बेईमानी और बदनीयती पसन्द नहीं करता ।”
“क्या मतलब ?”
“मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि हिस्सेदार बढ जाने की वजह से तुम्हारे में असंतोष की भावना आ गई है । उस भावना की यह प्रतिक्रिया मैं नहीं देखना चाहता कि तुम विमल के साथ कोई धोखाधड़ी करके उससे उसका हिस्सा झटकने की कोशिश करो ।”
गंगाधर के चेहरे पर तीव्र विरोध के भाव आये । उसने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला लेकिन तभी विमल वापस लौट आया ।
गंगाधर ने अपने होंठ भींच लिए ।
विमल के पीछे ही कूका वहां पहुंच गया । उसने सबको चाय के गिलास थमा दिये ।
“कूका खुशकिस्मत है ।” - द्वारकानाथ विनोदपूर्ण स्वर में बोला - “इसके हिस्से में सबसे आसान काम आया है । डकैती के बाद हमने दोनों ट्रकों को घटनास्थल पर ही छोड़कर स्टेशन वैगन पर भागना है और स्टेशन वैगन इसने हैंडल करनी है ।”
“ये ट्रक चोरी के हैं ?” - विमल ने पूछा ।
“सवाल ही नहीं पैदा होता । इस अभियान में चोरी के ट्रक इस्तेमाल करना तो खामखाह मुसीबत को दावत देना है । ये ट्रक मैंने नकद पैसे देकर बरेली से खरीदे हैं ।”
“लेकिन ये अगर घटनास्थाल पर रह जायेंगे तो बाद में इनके माध्यम से पुलिस तुम तक नहीं पहुंच जाएगी ?”
“नहीं, क्योंकि ट्रक मैंने फर्जी नामों से खरीदे हैं और इनकी खरीददारी की बात करते समय मैं ऐसे मेकअप में था कि मेरी मौजूदा असली सूरत की किसी को झलक भी नहीं मिली थी । पुलिस जितनी मर्जी तफ्तीश कर ले, कम-से-कम उस ट्रकों की वजह से वह मुझ तक नहीं पहुंच सकती ।”
“और स्टेशन वैगन ? वह भी तो घटनास्थल पर देखी जाएगी ?”
“कौन देखेगा हमें ? डकैती के वक्त घटनास्थल पर कोई नहीं होगा । स्टेशन वैगन तो हम दोनों का काम समाप्त हो जाने के बाद वहां पहुंचेगी और घटनास्थल पर कोई भी आदमी हमारे वहां से कूच कर जाने के बहुत बाद पहुंचेगा । फिर कहने की जरूरत नहीं कि इसकी नम्बर प्लेटें तो हम बदल ही देंगे ।”
“ऐसी मामूली शक्ल-सूरत की स्टेशन वैगन आगरे में बहुत हैं” - गंगाधर बोला - “और फिर यह एक टूरिस्ट टाउन है । यहां बाहर से भी ऐसी बहुत गाड़ियां आती रहती हैं । अगर इसे कोई देख भी लेगा तो इसकी तरफ किसी का कोई विशेष ध्यान नहीं जाने वाला ।”
“फिर भी अगर पुलिस” - द्वारकानाथ बोला - “सारे आगरे की ही स्टेशन वैगनें चैक करने पर उतारू हो जाएगी तो गंगाधर इस बात का गवाह होगा कि घटना वाले दिन, घटना के समय यह स्टेशन वैगन यहां इसके गैरेज में बिगड़ी खड़ी थी ।”
विमल खामोश रहा । वह खामखाह की दखलअन्दाजी नहीं करना चाहता था लेकिन वह महसूस कर रहा था कि स्टेशन वैगन उनकी योजना की एक कमजोर कड़ी थी ।
द्वारकानाथ ने अपनी सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया और नाक से धुआं निकालता हुआ बोला - “हमारे हक में एक बहुत बड़ी बात यह भी है कि मिल की बख्तरबन्द गाड़ी को आज तक लूटने की कोशिश नहीं की गई । यानी कि वैन के जिन गुणों की वजह से उसे अभेद्य बताया जाता है, उन गुणों को कभी टैस्ट नहीं किया गया । हम कई बार यह सोचकर खामोश बैठे रहते हैं कि फलां काम नहीं हो सकता लेकिन जब वह काम हो जाता है तो हमें मालूम होता है कि वह काम हो सकता था । मिसाल के तौर पर राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ कहता है कि छोटी-मोटी तोप का गोला भी वैन की चादर को नहीं भेद सकता । लेकिन क्या वैन को कभी गोला मारकर देखा गया है ? नहीं । वह यह बात इसलिए कहता है क्योंकि जिस कम्पनी ने वह बख्तरबन्द गाड़ी बनाई है, वह ऐसा कहती थी । हम कई बार बाजार से कोई मशीन खरीदने जाते हैं तो दुकानदार हमें कहता है कि वह मशीन कभी नहीं बिगड़ती । वह इसलिए कहता है क्योंकि मशीन बनाने वालों ने उसे ऐसा कहने के लिए कहा है लेकिन हकीकतन ऐसा भी होता है कि मशीन घर आते ही बिगड़ जाती है । जब हमें कहा जाता है कि फलां चीज की दो साल की या पांच साल की गारण्टी है तो हम खामखाह यह समझ बैठते हैं कि वह मशीन उतना अरसा बिगड़ नहीं सकती लेकिन जब मशीन बिगड़ जाती है तो हमें पता लगता है कि गारण्टी मशीन के न बिगड़ने की नहीं है । गारण्टी यह है कि अगर मशीन बिगड़ेगी तो उसे सुधार दिया जाएगा ।”
द्वारकानाथ एक क्षण रुका और फिर बोला - “इसी प्रकार वैन के पुलिस के साथ वायरलैस सम्बन्ध के भी बड़े गुण गाये गए हैं लेकिन यह टैस्ट करने की नौबत एक बार भी नहीं आई है कि संकट की घड़ी आ जाने पर पुलिस वहां पहुंचती भी है या नहीं । किसी ने कभी यह टैस्ट करने की कोशिश नहीं की कि यहां की नाकारा, काहिल और कामचोर पुलिस एमरजेंसी में कितनी मुस्तैदी दिखा सकती है । इसी प्रकार वैन के लाउडस्पीकर वाले टेपरिकॉर्डर से जो ‘चोर ! चोर ! बचाओ ! बचाओ !’ की आवाजें निकलनी अपेक्षित हैं, उनकी वास्तविक प्रतिक्रिया क्या होती है, वह देखने की कभी कोशिश नहीं की गई । उम्मीद यह की जाती है कि पुकार सुनकर लोग मदद को दौड़े आयेंगे लेकिन मुमकिन यह भी है कि लोग उलटे इस डर से वहां से भाग खड़े हों कि कहीं वे भी डाकुओं के कहर का शिकार न हो जायें । कहने का मतलब यह है कि ऐसे इन्तजाम सुनने में तो बड़े रोबदार लगते हैं लेकिन हकीकतन वे ढोल की पोल ही साबित होते हैं ।”
विमल ने महसूस किया कि द्वारका ठीक कर रहा था ।
“इसी प्रकार आज तक इस बात की नौबत नहीं आई” - द्वारकानाथ बोला - “कि संकट की घड़ी में वैन का वह सशस्त्र गार्ड अपनी राइफल को कारआमद तरीके से इस्तेमाल भी कर सकता है या नहीं । आपने किसी के हाथ में बन्दूक तो दे दी लेकिन अगर किसी के दिल में उस बन्दूक को इस्तेमाल करने का हौसला नहीं, तो वह बन्दूक किस काम की ? वह तो लाठी से भी गयी-गुजरी हो गयी । दहशतनाक चीज बन्दूक नहीं होती । बन्दूक को संभालने वाले हाथ होते हैं । आदमी बन्दूक से नहीं डरता, मौत का पैगाम लेकर उसके भीतर से निकलने वाली गोली से डरता है । लेकिन एमरजेंसी आने पर अगर बन्दूक संभाले आदमी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाए, भय से उसकी घिग्घी बंध जाए तो क्या वह बन्दूक का घोड़ा खींच पाएगा ?”
“नहीं ।” - कूका मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“वैन के अवधबिहारी नाम के गार्ड की मैंने खूब जांच-पड़ताल की है ।” - द्वारकानाथ बोला - “वह एक मामूली आदमी है जो मिल के किसी उच्चाधिकारी की सिफारिश से भरती किया गया है । उसे रायफल चलाने की ट्रेनिंग तो हासिल है लेकिन उसकी नौकरी में आज तक एक बार भी रायफल चलाने की नौबत नहीं आई है । यानी कि अगर उसने जिन्दगी में कभी गोली चलायी है तो ट्रेनिंग के दौरान । यह आज तक नहीं परखा गया कि किसी को जान से मार डालने की नीयत से गोली चलाने का हौसला वह कर सकता है या नहीं । गार्ड के तौर पर बख्तरबन्द गाड़ी की हिफाजत की नौकरी करते उसे बरसों हो गये हैं, लेकिन आज तक कोई अवांछित घटना नहीं घटी । एक तो इस वजह से, ऊपर से वैन के अभेद्य होने की पब्लिसिटी की वजह से यह बात उसके मन में पूरी तरह बैठ गयी हुई है कि वैन में उसकी मौजूदगी तो महज औपचारिकता है, वैन तो हरगिज नहीं लुट सकती । इसीलिए मैं पूरी उम्मीद करता हूं कि वह अपनी ड्यूटी के प्रति पूरी तरह से लापरवाह होगा ।”
द्वारकानाथ ने अपनी सिगरेट का आखिरी कश लगाया और उसे एक और उछालता हुआ फिर बोला - “आप लोगों ने बैंकों के आगे, जौहरियों की दुकानों के आगे या ऐसी और जगहों के आगे, जिनके लिए ऐसी सिक्योरिटी जरूरी समझी जाती है, बंदूकधारी चौकीदार खड़े अक्सर देखे होंगे । आप कभी भी उनकी सूरतों पर गौर करके देखो । क्या उनमें से कोई भी कभी चौकस या मुस्तैद लगता है ? क्या उनकी सूरतों से लगता है कि नौबत आने पर वे बन्दूक इस्तेमाल कर सकेंगे ? उनमें से कोई स्टूल पर बैठा ऊंघ रहा होता है । तो कोई बन्दूक को अपने जिस्म के सहारे टिकाकर खैनी फांक रहा होता है । कोई यार-दोस्त से गप्पें लड़ा रहा होता है । मैंने ऐसे गार्ड बहुत देखे हैं । अधिकतर की औकात ऐसी होती है कि कोई चाहे तो तमाचा मारकर उनसे बन्दूक छीन ले । ऐसा इसलिये है क्योंकि वे तो एक नौकरी कर रहे हैं बन्दूक का बोझा ढोने की । वे समझते हैं कि जैसे बैंक में चपरासी का काम फाइलें वगैरह इधर-उधर पहुंचाना है, क्लर्क का काम कलम घिसना है, कैशियर का काम नोट गिनना होता है, वैसे ही उसका काम बन्दूक उठाकर दरवाजे पर खड़ा होना है । इस बात की तो वह कभी कल्पना भी नहीं करता कि वह बन्दूक उसे इस्तेमाल भी करनी पड़ सकती है । वह अपनी नौकरी बन्दूक उठाने की मानता है, किसी की जान ले लेने की या अपनी जान दे देने की नहीं ।”
“सभी गार्ड तो ऐसे नहीं होते ।” - विमल बोला ।
“लेकिन अधिकतर ऐसे ही होते हैं ।” - द्वारकानाथ बोला - “आजकल जो समझदार एम्पलायर हैं, वे इस साइकोलॉजी को समझते हैं । इसीलिए वे हमेशा फौज से अवकाश प्राप्त आदमी को गार्ड की नौकरी देने की कोशिश करते हैं । क्योंकि फौजी को तो गोली चलाने की ट्रेनिंग दी ही इस भावना के अन्तर्गत जाती है कि उसने दुश्मन की जान लेनी है । और फिर मुस्तैदी और चौकन्नापन उसकी आदत होती हैं, आम आदमी की तरह मजबूरी नहीं । ऐसा आदमी किसी बदनीयत आदमी को गोली मार देने से एक सैकेण्ड के लिए भी नहीं हिचकने वाला ।”
“यानी कि हमारी खुशकिम्मती है कि अवधबिहारी ऐसा आदमी नहीं ।” - कूका बोला ।
“सरासर ।” - द्वारकानाथ ने अपना चाय का गिलास खाली करके एक ओर रख दिया और फिर बोला - “एक निहायत जरूरी बात और कहना चाहता हूं मैं ।”
“क्या ?” - गंगाधर बोला ।
“गरीब आदमी के हाथ पैसा आ जाये तो उसे फौरन उस पैसे से ऐश करनी सूझ जाती है मैं जानता हूं कि पैसे की चाह आदमी ऐश के लिए ही करता है, लेकिन जो पैसा हमें हासिल होने वाला है, उससे अगर हममें से किसी ने भी उससे फौरन ऐश करनी आरम्भ कर दी तो एक आदमी की वह हरकत सबके लिए मौत का बुलावा बन जायेगी ।”
“द्वारका” - कूका हैरानी से बोला - “तुम यह कहना चाहते हो कि मेरे पास दस लाख रुपया आ जाने के बावजूद भी मैं उसे खर्च न करूं ? उसका कोई सुख उठाने की कोशिश न करूं ?”
“हां ।” - द्वारकानाथ सहज स्वर में बोला - “यही कहना चाहता हूं मैं ।”
“क्या पागलों जैसी बात कर रहे हो ? जो पैसा मैं खर्च नहीं कर सकता उसको हासिल करने के लिए मैं इतना बड़ा खतरा क्यों मोल लूं ?”
“मैंने यह नहीं कहा कि वह पैसा तुम कभी खर्च नहीं कर सकते । मैंने कहा है कि यह पैसा तुमने फौरन खर्च करना शुरु नहीं कर देना है । मैं दर्जनों ऐसे केस जानता हूं जिनमें हमारे जैसे ही लोगों ने ढेरों माल लूटा लेकिन वे इसलिए पकड़े गए क्योंकि उन सबने या उनमें से किसी एक ने आनन-फानन रुपया उड़ाना शुरु कर दिया । दुनिया अन्धी नहीं होती, कूका । आज तुम्हारी टके की औकात नहीं, कल एकाएक तुम रईसी दिखाने लगो तो किसी का तो माथा ठनकेगा ! आज तुम बारह रुपये बोतल ठर्रा पीते हो, कल तुम सवा तीन सौ रुपये वाली स्कॉच की बोतल पीने लगो तो कोई तो महसूस करेगा ! आज तुम रिक्शा पर बैठकर सफर करते हो, कल तुम कारों पर उड़ने लगो तो कोई तो सोचेगा कि इन तमाम रईसियों के लिए तुम्हारे पास पैसा कहां से आया ! ऐसी बातें तेज रफ्तार से फैलती हैं और फैलती-फैलती उन कानों तक भी पहुंच सकती हैं जिन तक उन्हें नहीं पहुंचना चाहिये । फिर एक दिन कोई कानून का रखवाला तुमसे यह पूछने आ धमकेगा कि तुम्हारे पास इतना माल कहां से आया और तुम्हें कोई मुनासिब जवाब नहीं सूझेगा । हममें से एक की गरदन कानून की गिरफ्त में आने की देर है कि बाकी सब भी अन्दर होंगे ।”
कूका सोच में पड़ गया ।
“डकैती डालना आसान है, मेरे दोस्त ! वह सिर्फ हौसले की बात है । लेकिन उससे हासिल माल को गांठ बांधकर सब्र करके बैठे रहना कठिन काम है । वहां हौसले की नहीं, विवेक की जरूरत आन पड़ती है ।”
“यह सब्र कब तक करना होगा ?” - कूका बोला ।
“कम-से-कम एक साल तक ।”
“क्या ! मैं दस लाख रुपये साल भर रखकर बैठा रहूं । उसका कोई सुख न उठाऊं ?”
“यह काम बहुत मुश्किल है लेकिन बहुत जरूरी भी है ।” 
“लेकिन... लेकिन एक साल...”
“एक साल कोई लम्बा अरसा नहीं होता । तुम नौजवान आदमी हो और अभी भी कोई भूखे मर रहे हो ।”
“लेकिन फिर भी...”
“यह जरूरी है, कूका ।” - द्वारका कठोर स्वर में बोला - “अगर तुम साल भर सब्र नहीं कर सकते तो साफ बोलो । मैं यह सारा प्रोग्राम ही कैंसिल किये देता हूं । तुम्हारा बेसब्रापन अब मेरी बुढौती में मुझे जेल भिजवा दे, यह मुझे गवारा नहीं ।”
“अच्छी बात है ।” - कूका असहाय भाव से बोता - “जो तुम मुनासिब समझो ।”
“अपना हिस्सा हासिल हो जाने के एक साल बाद तक तुम उसमें से एक पैसा खर्च नहीं करोगे ।”
“नहीं करूंगा ।”
“शाबाश ।”
“सरदार साहब” - द्वारका विमल की तरफ घूमा - “मेरा मतलब है, विमल, तुम अपने हिस्से का क्या करोगे ?”
“क्या करूंगा, क्या मतलब ?” - विमल हड़बड़ाकर बोला - “वही करूंगा जो आम तौर पर पैसे का किया जाता है ।”
“शायद न करो ।”
“क्या मतलब ?”
“आज तक ‘ऐसे’ पैसे का तुम क्या करते आये हो, यह मुझसे छुपा नहीं है, दोस्त ! मद्रास के अन्ना स्टेडियम की डकैती की सत्तर लाख की रकम तुमने डकैती के सरगने जयशंकर सहित खुद पुलिस के हवाले कर दी थी । दिल्ली और अमृतसर की डकैतियों का माल तुम पुलिस को सौंप न सके - माल तुम्हारे हाथ में आ जाता तो शायद तुम तब भी यही करते - लेकिन दिल्ली की डकैती में शामिल सब लोगों का सफाया तुम्हारी वजह से हुआ - बीच में मत बोलो, सुनते जाओ । मैं जानता हूं तुम क्या कहोगे । तुम कहोगे कि अजीत, रश्मि और नासिर खां को तुमने नहीं मारा लेकिन मैं जानता हूं कि मरे वे तुम्हारी ही वजह से थे । इसी प्रकार अमृतसर वाली डकैती के सरगना मायाराम बावा को भी तुम्हीं ने अपाहिज किया था । जयपुर की डकैती में लुटे अड़तालीस लाख रुपयों से भरा ट्रंक तुम खुद तांगे पर लदवाकर बीकानेर बैंक तक छोड़कर आये थे और तुम्हारी ही वजह से उस डकैती के सरगने ठाकुर शमशेरसिंह का काम तमाम हुआ था ।”
गंगाधर और कूका हैरानी से विमल का मुंह देखने लगे ।
“अगर मेरी वजह से किसी की जान गई या कोई पकड़ा गया” - विमल तनिक आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “तो इसके जिम्मेदार सरासर वही लोग थे । अगर तुम मेरे बारे में इतना कुछ जानते हो तो तुम्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि जिन लोगों का अभी तुमने जिक्र किया है, उन सबने न केवल मुझे धोखा दिया था, बल्कि मुझे पुलिस के हवाले करने का या जान से मार डालने तक का सामान किया था । ठाकुर शमशेरसिंह ने तो अपनी निगाह में मुझे मरवा ही डाला था । अजीत ने दिल्ली में मुझे गिरफ्तार करवाकर यह सोच लिया था कि अब मैं फांसी के फन्दे से नहीं बच सकता था । अमृतसर में मायाराम बावा ने लाभसिंह ‘मटर पनीर’ और कर्मचन्द के साथ-साथ मुझे भी मौत के घाट उतार ही दिया था । ऐसे कमीने और धोखेबाज लोगों का अगर मेरी वजह से कोई बुरा अंजाम हुआ तो इसमें मेरी क्या गलती है ?”
“तुम्हारी कोई गलती नहीं ।” - द्वारकानाथ बोला - “ऐसी धोखाधड़ी को मैं दुनिया का सबसे जलील काम मानता हूं । और किसी की मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर उससे जबरन कोई काम करवाना मैं उससे भी जलील काम मानता हूं । मैं हरगिज नहीं चाहता कि जो अंजाम अजीत का या जयशंकर का या मायाराम बावा का या ठाकुर शमशेरसिंह का हुआ, वह मेरा भी हो । यही कारण है कि तुम्हें पहचान लेने के बावजूद भी मैंने तुम्हें ऐसी कोई धमकी नहीं दी जैसी कि तुम आज तक अक्सर सुनते आये हो, बल्कि मैंने तुम्हारे सामने एक प्रस्ताव रखा और तुम्हें बाकायदा इस बात का विश्वास दिलाया कि उसको स्वीकार कर लेने में तुम्हारा अपना फायदा था । लेकिन अगर मेरे प्रस्ताव से तुम सहमत न होते तो मैं ईश्वर की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि मैं तुम्हारे साथ कोई जोर-जबरदस्ती नहीं करने वाला था । मेरी तरफ से तुम पहले भी आजाद थे अब भी आजाद हो । विमल, मैं समर्थ आदमी की दोस्ती हासिल करने में विश्वास करता हूं, उससे दुश्मनी मोल लेने में नहीं ।”
“मैं कोई समर्थ आदमी नहीं । मैं एक निहायत मामूली आदमी हूं । मैं तकदीर की मार खाया हुआ, हालात से लाचार, सारी दुनिया से हारा हुआ, अपने-आपसे हारा हुआ, रहम के काबिल इन्सान हूं ।”
“अगर तुम यह समझते हो तो यह तुम्हारा बड़प्पन है । अगर तुम ऐसे बने रहना चाहते हो तो यह तुम्हारी नादानी है, नालायकी है ।”
“कैसे ?”
“तुम तकदीर की मार की दुहाई तो देते रहते हो लेकिन तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि लक्ष्मी ने किस कदर तुम्हें बार-बार गले लगाने की कोशिश की है लेकिन तुमने बार-बार उसे दुत्कारा है ?”
“अगर तुम्हारा इशारा उस दौलत की तरफ है, जो मैंने उसके मालिकों को हमेशा लौटाई है तो...”
“मेरा इशारा सरासर उसी तरफ है । तुमने बार-बार लक्ष्मी का अनादर किया इससे तुम्हें क्या हासिल हुआ ? कोई मैडल ? कोई प्रशस्ति-पत्र ?”
“हर काम मैडल हासिल करने की नीयत से नहीं किया जाता ।”
“तो किसलिये किया जाता है ?”
“कोई काम उसूलन भी किये जाते हैं । मेरी उस पैसे में कोई कोई दिलचस्पी नहीं, जिसे मैंने नहीं कमाया । मैं बुनियादी तौर पर एक खुदा का खौफ खाने वाला आदमी हूं । मैं दूसरे का पैसा नहीं रख सकता ।”
“मैं इन गुणों की बहुत कद्र करता हूं और इन्हें बड़ी अहमियत देता हूं । लेकिन ये गुण एक शरीफ शहरी और एक इज्जतदार सामाजिक प्राणी में तो शोभा देते हैं, एक ऐसे फरार अपराधी में, जो पकड़े जाते ही फांसी पर चढा दिया जाने वाला हो, उनकी कोई कीमत नहीं । विमल, जरा सोचो, अपने भले का ख्याल त्यागकर तुम उस समाज का भला करना चाहते हो, जो तुम्हारे खून का प्यासा है, जिसने तुम्हारी जिन्दगी तबाह कर दी । जिसकी वजह से तुम दर-दर की ठोकरें खा रहे हो, जिसने तुम्हें कहीं का न रखा ?”
विमल खामोश रहा ।
“पैसे वाले आदमी की हमारे समाज में बहुत कद्र है । पैसे वाले आदमी के हमारा समाज सौ खून माफ कर देता है । तुमने अपने हाथ आया करोड़ों रुपया लोगों को लौटा दिया । वह रुपया तुमने अपने पास गांठ बांधकर रखा होता तो आज तुम वक्त के बादशाह होते । तुम अपने दकियानूसी आदर्शों को छोड़कर, अपनी कोरी भावुकता को त्यागकर, अगर जरा समझदारी और होशियारी से काम लेते तो आज वही लोग तुम्हारे कदम चूम रहे होते जो कल तुम्हें फांसी पर लटका देना चाहते थे । आज तुम वक्त के बादशाह होते और जिस दस लाख रुपये के हिस्से की खातिर हम इस वक्त यहां बैठे हैं, तुम्हारी हैसियत वह हिस्सा यूं हमारे सामने फेंक देने की होती, जैसे कोई किसी मंगते की हथेली पर एक काला पैसा रख देता है या जैसे कोई कुत्ते को एक निवाला फेंक देता है ।”
“तुम चाहते हो मैं अपनी सारी शराफत, ईमानदारी और अपने ऊंचे आदर्शों और अपने परम्परागत अच्छे संस्कारों को त्यागकर एक अनैतिक इन्सान बन जाऊं ?”
“मेरे भाई, ये तमाम इन्सान की समाज में स्थापना के लिए होते हैं, उसकी जयजयकार का साधन बनने के लिए होते हैं । जब तुम समाज में स्थापित इन्सान ही नहीं रहे, जब समाज ने तुम्हें अपने साथ चिपकी एक बीमारी की तरह अपने से झटककर अलग कर दिया तो तुम्हारा क्या फायदा ?”
“तुम मुझे ब्रेन वॉश करने की कोशिश कर रहे हो । यह सब तुम मुझे इसलिए कह रहे हो ताकि कल को मैं तुम्हारी मुखालफत में कोई काम न करने लगूं ?”
“नहीं । यह सब मैं तुम्हें सद्बुद्धि देने की खातिर कह रहा हूं । उस नीयत से कह रहा हूं, जिस नीयत से कोई बाप अपनी औलाद को सही रास्ता दिखाता है ।”
विमल खामोश रहा । वह बड़ी बेचैनी से अपने पाइप के कश लगाने लगा । वैसी बातें उसे आज तक किसी से सुनने को नहीं मिली थीं ।
“देखो” - द्वारकानाथ फिर बोला - “तुम कहते हो कि तुम एक शरीफ, ईमानदार, ऊंचे आदर्शों और अच्छे संस्कारों वाले आदमी हो । फिर भी तुम पुलिस से भागे फिरते हो । तुम्हारे में इतना हौसला फिर भी नहीं कि तुम अभी पुलिस स्टेशन जाकर अपने-आपको कानून के हवाले कर दो । तुमने गोवा में मिरांडा और इन्स्पेक्टर सोनवलकर को दिन-दहाड़े पॉइंट ब्लैंक गोली से उड़ा दिया, उस वक्त तुम्हारे हाथ क्यों नहीं कांपे ? बम्बई में तुमने लेडी शांता गोकुलदास का कत्ल कर दिया, उस वक्त तुम्हें गुनाह का अहसास क्यों न हुआ ? भोपाल में तुमने अजीत, रश्मि और नासिर खां की मौत का सामान किया, उस वक्त तुम्हारे अच्छे संस्कारों ने तुम्हारे हाथ क्यों नहीं जकड़ दिये ? तुम्हारे ऊंचे आदर्शों ने तुम्हें क्यों न धिक्कारा ? तुम्हारी वजह से ठाकुर शमशेर सिंह की जान गई, तब तुम्हारी अन्तरात्मा ने तुम्हें खूनी करार क्यों न दिया ?”
“वे सब काम मैंने इन्साफ को निगाह में रखकर किये थे ।” - विमल दर्द-भरे स्वर में बोला - “मेरी निगाह में वे सब लोग उन्हीं सजाओं के हकदार थे, जो उन्हें मिलीं ।”
“इन्साफ करने वाले तुम कौन होते हो ? किसी का भाग्यविधाता बनने का तुम्हें क्या हक है ? ठाकुर शमशेर सिंह के कत्ल का सामान करते समय तुमने सोचा था कि उसके बच्चे तुम्हारी वजह से अनाथ हो गये ! उसकी बीवी - बल्कि दो बीवियां - तुम्हारी वजह से विधवा हो गई हैं । अजीत, रश्मि और नासिर खां की मौत का सामान करते समय तुमने सोचा था कि वे नौजवान किसी मां की आंखों के तारे थे ! मिरांडा और सोनवलकर का कत्ल करते समय...”
“बस करो ।” - एकाएक विमल व्याकुल भाव से बोला ।
“मैं तुम्हें तुम्हारे कामों के लिए शर्मिंदा करने के लिए यह सब कुछ नहीं कह रहा ।” - द्वारकानाथ हमदर्दी-भरे स्वर में बोला - “मैं तुम्हें सिर्फ यह जताना चाहता हूं कि जिन कामों को तुमने ठीक समझकर किया, वे गलत भी साबित किये जा सकते हैं । भलाई और बुराई को नापने का कोई स्टैंडर्ड तरीका नहीं होता, कोई पक्का गज नहीं होता । जो काम तुम्हारी नजर में या किन्हीं हालात में ठीक है, वह किसी और की नजर में, किन्हीं और हालात में गलत भी हो सकता है । विमल, आज तक तुमने दूसरों के हिताहित का ख्याल करके अपना कर्त्तव्य निर्धारित किया है । मैं तुम्हें सिर्फ इतनी राय देना चाहता हूं कि अब एक बार अपने भले-बुरे का ख्याल करके, अपनी सलामती को प्रमुख मानकर फैसला करो कि तुमने अगला कदम क्या उठाना है ?”
“क्या फैसला करूं मैं ?”
“सबसे पहला फैसला तो यही करो कि तुमने किसी भी तरह कोई भी भला-बुरा तरीका अपनाकर अपनी इस दर-दर भटकने वाली जिन्दगी पर फुल स्टॉप लगाना है और अपने-आपको इतना समर्थवान बनाना है कि लोग तुम्हें एक अवांछित व्यक्ति समझकर तुम्हें दुत्कारना छोड़कर आदरपूर्ण ढंग से तुम्हारे सामने नतमस्तक हों ।”
“ऐसा हो सकता है ?”
“क्यों नहीं हो सकता है ? कल दोपहर तक तुम्हारे पास दस लाख रुपये होंगे । उसके बाद तुम उस प्लास्टिक सर्जन की सहायता से एक नया चेहरा हासिल कर सकते हो । वह नया चेहरा तुम्हारे लिए सिर्फ नया चेहरा नहीं होगा, बल्कि वह नई जिन्दगी की तरफ तुम्हारा पहला कदम होगा । फिर तुम चाहो तो तुम अपनी नई जिन्दगी में अपने-आपको इतना शक्तिशाली और सामर्थ्यवान बना सकोगे कि तुम नहीं चाहोगे कि लोग तुम्हारे सामने झुकें बल्कि लोग खुद-ब-खुद तुम्हारे सामने झुकेंगे - न केवल झुकेंगे बल्कि वे ऐसा करने में इज्जत महसूस करेंगे । वे इस बात के लिये भी तुम्हारे शुक्रगुजार होंगे कि तुमने उन्हें अपने सामने झुकने का मौका दिया । फिर तुम्हें अपने वे दकियानूसी ख्याल भी बदलने होंगे जिनकी वजह से तुम आज तक दर-दर ठोकरें खाते रहे हो । फिर तुम उन लोगों से गिन-गिनकर बदले ले सकोगे जिनकी वजह से तुम्हारी जिन्दगी तबाही और बरबादी की एक मिसाल बनकर रह गई है ।”
विमल के मानस-पटल पर तुरन्त अपनी बेवफा बीवी की तस्वीर उभरी । अपनी बेवफा बीवी की और उसके आशिक की, जिनकी वजह से उसे बेकसूर होते हुए भी जेल की हवा खानी पड़ी ।
“वाहे गुरू सच्चे पातशाह !” - वह होंठों में बुदबुदाया ।
कितनी ही देर कमरे में मरघट का-सा सन्नाटा छाया रहा ।
“यह बात शुरु कहां से हुई थी ?” - एकाएक विमल बोला ।
“बात इस दरख्वास्त के साथ शुरु हुई थी” - द्वारकानाथ हंसता हुआ बोला - “बन्दानवाज, कि इस बार लूट के माल में जो हिस्सा आपको हासिल होगा, बरायमेहरबानी उसे वापस लौटाने की कोशिश मत करना । आप तो साधु-महात्मा हैं । मोहमाया त्याग चुके हैं । लेकिन हम तो संसारी जीव हैं । हमें तो कल हासिल होने वाले पैसे का बहुत लालच है इसलिए अपना नहीं तो हमारा ख्याल करते हुए ऐसी कोई हरकत न करना । क्योंकि हम नहीं चाहते कि आपके शराफत दिखाने के चक्कर में हम भी पुलिस की निगाह में आ जायें और हमारा बंटाधार हो जाये ।”
“मैं ऐसा नहीं करूंगा” - विमल बड़ी संजीदगी से बोला - “हरगिज नहीं करूंगा ।”
“शाबाश । देखकर खुशी हुई कि मैंने जो इतनी देर भाषण दिया है, उसका तुम पर कोई असर हुआ है ।”
“बहुत असर हुआ है ।”
“जानकर खुशी हुई ।”
“एक बात कहना चाहता हूं, द्वारका ।”
“क्या ?”
“मैंने तुम्हारे जैसा दादा नहीं देखा । तुम्हारे व्यवहार में तो साधु-महात्माओं जैसी सादगी और मिठास है ।”
“यह बात मेरे साथ हमेशा नहीं थी ।” - द्वारकानाथ धीरे से बोला - “पहले मैं बहुत गर्म मिजाज और बहुत जल्दी गुस्सा खाने वाला आदमी था । मेरा डॉक्टर मुझे हमेशा कहा करता था कि अगर मैं अपने मिजाज पर काबू करना नहीं सीखूंगा तो जरूर मुझे ब्रेन हैमरेज हो जायेगा । ब्रेन हैमरेज तो नहीं हुआ मुझे लेकिन हार्ट अटैक हो गया । हार्ट अटैक से जान तो बच गई लेकिन दिल पर मौत की ऐसी दहशत बैठी कि दोबारा फिर कभी डॉक्टर की हुक्मउदूली करने की हिम्मत न हुई ।”
“ओह ! ”
“कल जो काम हम करने जा रहे हैं, वह मेरी जिन्दगी का आखिरी गुनाह है । कल के बाद मुझे रिटायर समझो । कल जो पन्द्रह लाख रुपये मुझे हासिल होंगे उसे तुम मेरे गुनाहभरे कैरियर का प्राविडेंट फंड समझो । मुझे उम्मीद है कि उस रकम से मैं अपनी बाकी की जिन्दगी बड़े इत्मीनान से गुजार लूंगा ।”
“तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं ?”
“बीवी-बच्चे ?” - द्वारकानाथ उठाकर हंसा - “अरे, कोई दूर का रिश्तेदार तक नहीं । मैं इतना अकेला हूं, बरखुरदार कि अगर मैं आज मर जाऊं तो मेरी चिता को आग देने वाला कोई नहीं होगा ।”
“कभी घर बसाने का ख्याल ही नहीं किया ?”
“किया । लेकिन गलत वक्त पर । जब उम्र थी, तब मैंने इन बातों की अहमियत नहीं समझी । तब तो बीवी और आस-औलाद फन्दा मालूम होती थी । अब उम्र नहीं रहीं तो वक्त अक्ल आई है कि ये बातें भी जरूरी होती हैं ।”
“अब उम्र क्यों नहीं रही ?”
“मैं छप्पन साल का हूं ।”
“लगते तो नहीं हो ।”
“लगता नहीं हूं लेकिन हूं । और दिल का मरीज हूं । अब किसी से शादी करके उसे विधवा बनाने का गुनाह क्यों करूं ?”
विमल खामोश रहा ।
“एक आखिरी बात ।” - एकाएक द्वारकानाथ बदले स्वर में बोला - “विमल, तुम्हारी घड़ी में कितने बजे हैं ?”
विमल ने घड़ी देखी और बोला - “दो बजकर दस मिनट ।”
“और तुम्हारी घड़ी में ?” - उसने कूका से पूछा ।
“दो ।” - कूका बोला ।
द्वारकानाथ ने गंगाधर की तरफ देखा ।
“तेरह ।” - गंगाधर बोला ।
द्वारकानाथ ने अपनी घड़ी देखी और बोला - “हर कोई अपनी घड़ी में दो बजकर ग्यारह मिनट बजा ले ।”
सबने द्वारकानाथ के कहे अनुसार अपनी-अपनी घड़ियों के टाइम में परिवर्तन कर लिया ।
“गंगाधर” - द्वारकानाथ गंगाधर से सम्बोधित हुआ - “तुम गैरेज बन्द करो और बाहर बोर्ड लगा दो कि गैरेज तीन दिन तक बन्द रहेगा ।”
गंगाधर सहमति में सिर हिलाता हुआ उठा और वहां से बाहर निकल गया ।
द्वारकानाथ विमल की तरफ घूमा । वह कुछ क्षण उसके चेहरे को निहारता रहा और बोला - “तुम कुछ कहना चाहते हो ?”
विमल हिचकिचाया ।
“जो कहना चाहते हो, बेहिचक कहो, आपसदारी में मुलाहजे का क्या काम ?”
“द्वारका” - विमल धीरे से बोला - “यह स्टेशन वैगन तुम्हें मरवायेगी ।”
“तुम इस बात का बहुत वहम कर रहे हो । तुम...”
“मेरी बात सुनो । देखो, यह कभी नहीं हो सकता कि दिन-दहाड़े की उस डकैती में किसी की स्टेशन वैगन पर निगाह न पड़े । मिल के बाहर का रास्ता कितना ही सुनसान क्यों न रहता हो लेकिन फिर भी इत्तफाक से भी कोई घटना के समय मिल की खिड़की से बाहर झांकता हो सकता है । मुमकिन है ड्राइवर अपने वायरलैस सैट पर पुलिस कंट्रोल को स्टेशन वैगन के बारे में बता दे । फौरन नहीं तो मुमकिन है वह घटना के बाद में पुलिस को यह खबर दे दे । या गार्ड कुछ कह दे । पुलिस ने घटनास्थल पर पहुंचना तो है ही । तुम्हारी उम्मीद के खिलाफ अगर पुलिस जरूरत से ज्यादा जल्दी वहां पहुंच गई तो फौरन हमारी स्टेशन वैगन की तलाश शुरु हो जाएगी । हमारी कामयाबी के बावजूद अगर पुलिस ने स्टेशन वैगन के फेर में पड़कर सब कुछ गुड़गोबर कर दिया तो ?”
द्वारकानाथ सोचने लगा ।
“तुम्हारा मतलब है कि घटनास्थल से निकल भागने के बाद हमें स्टेशन वैगन छोड़ देनी चाहिए ?” - अन्त में वह बोला ।
“हां । इससे तो जितनी जल्दी पीछा छुट सकेगा, उतना ही अच्छा होगा । यह स्टेशन वैगन तुम्हारी योजना की बहुत कमजोर कड़ी है और कोई भी जंजीर अपनी सबसे कमजोर कड़ी से ज्यादा मजबूत नहीं होती ।”
“इसका मतलब है कि एक गाड़ी का और इन्तजाम करना पड़ेगा ।” - वह चिन्तापूर्ण स्वर में बोला ।
“हां । और ऐसी किसी सुरक्षित जगह का भी जहां कि चुपचाप स्टेशन वैगन का माल दूसरी गाड़ी में भरा जा सके ।”
“और यह काम आज ही करना होगा ।”
“जाहिर है ।”
“इतनी जल्दी अगर यह इन्तजाम न हुआ ?”
“हो जाएगा । कोशिश करो ।”
“ठीक है ।” - द्वारकानाथ निर्णयात्मक स्वर में बोला - “मैं करता हूं कुछ ।”
सब खामोश रहे ।
“अब मैं आखिरी बार फिर याद दिला रहा हूं” - द्वारकानाथ बोला - “कि बरायमेहरबानी कल कोई दस्ताने पहनना न भूले ।”
सबने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर सभा बर्खास्त हो गई ।