एक साल बाद

इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी उस वक्त सब इंस्पेक्टर दीक्षित के साथ थाने के अपने कमरे में बैठा गप्पे हांक रहा था, जब एक सिपाही ने वहां पहुंचकर कंट्रोल रूम से आई कॉल की जानकारी दी, फिर बोला, “इंचार्ज साहब ने आपको जाकर देखने के लिए कहा है।”

“बस देखकर आना है?”

सिपाही हंसा।

“ठीक है न्यूज दे दी तूने अब भाग जा यहां से।”

“एक... और बात है... सर।” इस बार सिपाही थोड़ा अटक अटक कर बोला।

“क्या?”

“एक रिक्वेस्ट करनी थी सर जी।”

“अरे तो बोल न, लुगाईयों की तरह शरमाना कब से सीख लिया?”

“वो बात ये है सर जी कि अगले महीने बेटी की शादी है।”

“अरे वाह ये तो बहुत खुशी की बात है, बधाई। अब अपनी रिक्वेस्ट बोल।”

“मैंने डिपार्टमेंट में लोन की अर्जी लगाई हुई है सर, तीन महीने बीत गये लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ। आप थोड़ी कोशिश कर देते तो काम बन जाता।”

“कितने का लोन है?”

“पांच लाख का सर जी।”

“बेफिक्र रह, मैं बात कर लूंगा। फिर भी वक्त पर लोन पास नहीं हुआ तो हम हैं न, पांच लाख हमसे ले जाना।”

“तेरी बेटी हमारी बेटी है रणवीर - एसआई दीक्षित बोला - इसलिए बेफिक्र रह, कोई समस्या नहीं आने देंगे, चाहे लोन पास हो या न हो।”

“साले - अधिकारी हंसता हुआ बोला - क्यों इसकी बीवी को गाली दे रहा है।”

“मैंने कब दी?”

“इसकी बेटी को अपनी बेटी बता रहा है, ये गाली नहीं तो और क्या है, अब दोबारा मत बोल देना वरना रणवीर गोली मार देगा तुझे।”

“क्या सर आप भी।” दीक्षित झेंप सा गया, फिर तीनों ने जोर का ठहाका लगाया, उसके बाद सिपाही वहां से चला गया।

“चल भाई हीरो - अधिकारी एक गहरी सांस लेकर बोला - हमारा सुकून तो किसी साले से देखा ही नहीं जाता, जैसे इस थाने में बस हम दोनों ही काम करते हैं।”

“चाय मंगाई है सर।”

“जाने दे यार, कत्ल का मामला है, देर करना ठीक नहीं होगा।”

“ठीक है फिर चलिए।” कहता हुआ दीक्षित उठ खड़ा हुआ।

दोनों ड्यूटी रूम में पहुंचे जहां बैठे चार सिपाही और एक हवलदार किसी बात पर ठहाके लगा रहे थे। अधिकारी पर नजर पड़ते ही वह सब के सब उठकर खड़े हो गये।

“मौज हो रही है?”

“सॉरी सर।”

“अरे जी भर कर करो, मैं कौन सा मना कर रहा हूं।”

“थैंक यू सर जी।”

“कैलाश और मुकेश हमारे साथ जा रहे हैं - सुशांत अधिकारी वहां बैठे हवलदार की तरफ देखकर बोला - रोजनामचे में रवानगी दर्ज कर दे, और साहब पूछें तो बता भी देना।”

“ठीक है जनाब।”

तत्पश्चात सब थाने के कंपाउंड में खड़ी एक जीप में जाकर बैठ गये।

कंट्रोल रूम से आई कॉल में घटनास्थल मनोहर पार्क बताया गया था, जो कि वहां से बामुश्किल पांच सौ मीटर की दूरी पर था। इसलिए दो से तीन मिनट में पुलिस वहां पहुंच गयी।

मर्डर स्पॉट पर दस के करीब लोग लाश को घेरे खड़े थे, मगर उनमें से ढंग का आदमी एक भी नहीं दिख रहा था, मतलब सब के सब निचले तबके के लोग थे, जबकि वसंतकुंज दिल्ली का पॉश इलाका माना जाता था। उससे अधिकारी ने यही अंदाजा लगाया कि वह सब वहां के किसी ना किसी घर में काम करते नौकर थे, जो लाश देखकर कौतूहलवश वहां ठहर गये थे।

पुलिस जीप वहां रुकती देखकर लाश के इर्द गिर्द जमा भीड़ काई की तरह फटती चली गयी। फिर सुशांत अधिकारी नीचे उतरा और लाश के करीब पहुंचकर खड़े खड़े लेकिन बड़े ही ध्यान से उसके मुआयने में जुट गया।

हत्या छुरा घोंपकर की गयी थी, जो कि अभी भी लाश के सीने में घुसा दिखाई दे रहा था। मकतूल शक्लो सूरत से मिडिल क्लॉस आदमी जान पड़ता था, जो ब्लू कलर का ट्रैक सूट पहने था। बायें हाथ में घड़ी मौजूद थी, जबकि दायां हाथ बड़े ही अस्वभाविक मुद्रा में उसकी पीठ के नीचे दबा पड़ा था। घाव से खून अभी बह रहा था, मतलब कत्ल हुए ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था।

अधिकारी को ये देखकर बहुत राहत महसूस हुई कि मृतक रईस आदमी नहीं लग रहा था। होता तो उसकी रातों की नींद हराम हो जानी थी, क्योंकि उस स्थिति में हर तरफ से पुलिस पर दबाव पड़ना शुरू हो जाता। खासतौर से मीडिया वालों ने सवाल पूछ पूछकर उसके अफसरों का दिमाग खराब कर देना था, जिसके बाद उनका सारा गुस्सा उसी पर फूटना था। आखिर डॉक्टर बरनवाल के केस में भी तो वही हुआ था।

“किसी ने कुछ देखा था?” लाश का मुआयना करने के बाद उसने भीड़ से सवाल किया।

“नहीं साहब।” कई लोग एक साथ बोल पड़े।

“क्यों अंधे हो गये थे?”

“मैं तो यहां लाश पड़ी देखकर रुक गया था सर - एक पतला दुबला लड़का बोला - कत्ल होते देखा होता तो क्या हत्यारे को भाग जाने देता?”

“सुपरमैन है तू?”

“नहीं।”

“फिर कैसे रोक लेता उसे?”

लड़का चुप हो गया।

“पुलिस को कॉल किसने किया था?”

“म...मैंने।” एक उम्रदराज शख्स आगे आ गया।

“नाम?”

“मनोहर।”

“इस पार्क का नाम कहीं तेरे नाम पर ही तो नहीं रखा गया है?”

सुनकर सब ठहाके मारकर हंस पड़े।

“जब यहां पहुंचा था तो कातिल यहीं था, है न?”

“नहीं, मैंने उसे नहीं देखा।”

“क्यों नहीं देखा?”

“क्योंकि कत्ल के बाद पहुंचा था।”

“थोड़ा पहले नहीं आ सकता था?”

भीड़ ने फिर से ठहाका लगाया।

“खैर जिस वक्त तू यहां पहुंचा था क्या कोई और खड़ा दिखा था?”

“नहीं साहब, लाश के पास तो कोई नहीं था, हां पार्क में भीतर की तरफ दौड़ते दो लोग जरूर दिखे थे, कौन थे मैं नहीं जानता, ना ही उनकी शक्ल देखी थी।”

“सबसे पहले क्या देखा था?”

“यही कि ये नीचे पड़ा तड़प रहा था, फिर मेरी निगाह पार्क की तरफ गयी तो दो लोग अंदर की तरफ भागते दिखाई दिये थे।”

“अंधेरे में भी देख लिया?”

“घुप्प अंधेरा तो नहीं ही है सर, फिर दौड़ते कदमों की आवाज भी तो आ रही थी।”

“ये तड़प रहा था, यानि जिंदा था, फिर अस्पताल क्यों नहीं ले गया?”

“म...मैं कैसे ले जाता, मेरे पास तो कार भी नहीं है।”

“अरे ये तो बहुत बुरी बात है, पहुंचा कैसे था यहां तक?”

“साईकिल पर।”

“तो साईकिल पर ही ले गया होता।”

“क्यों मजाक कर रहे हो साहब जी?”

“अरे वाह तूने तो पकड़ लिया। चल छोड़ ये बता लाश देखने के बाद क्या किया था?”

“100 नंबर पर फोन कर दिया।”

“करीब पहुंचकर देखने की कोशिश नहीं की कि मरने वाला कौन था?”

“नहीं साहब, फिर पुलिस का मामला था, इसलिए भी हिम्मत नहीं हुई।”

“हूं - एक लंबी हुंकार भरकर उसने भीड़ की तरफ देखा - आपमें से कोई पहचानता है इसे?”

“मैं जानता हूं।” एक लड़का आगे आ गया।

“नाम?”

“मास्टर जी।”

“अपने नाम के आगे ‘जी’ लगाकर बोल रहा है?”

“सॉरी सर, मैंने सोचा लाश के बारे में पूछ रहे हैं, मेरा नाम तो अनीश है।”

“लेकिन ये मास्टर जी था?”

“जी सर।”

“नाम नहीं पता?”

“नहीं सर।”

“टेलर था?”

“नहीं स्कूल में पढ़ाते थे, सरकारी स्कूल में।”

“फिर तो घर भी जानता होगा?”

“हां जानता हूं।”

“पता बता।”

“नहीं जानता।”

अधिकारी ने घूरकर उसे देखा।

“इनके फ्लैट वाली बिल्डिंग पहचानता हूं साहब, क्योंकि उसी इलाके हमारी कपड़े प्रेस करने की दुकान है, लेकिन नंबर नहीं मालूम मुझे।”

“जबकि प्रेस करने वालों को सब पता होता है?”

“मैं दुकान पर बहुत कम ही होता हूं सर, तब जब पापा कहीं गये हों। फिर पिकअप और डिलीवरी के लिए एक लड़का रखा हुआ है, इसलिए किसी के घर कपड़े पहुंचाने नहीं जाता मैं, हां वह लड़का बराबर जानता होगा।”

“उसका नंबर है तेरे पास?”

“है सर।”

“फोन कर के पता कर कि मास्टर जी के फ्लैट का नंबर क्या है?”

सुनकर उसने जेब से मोबाईल निकाला और किसी को फोन लगा दिया, फिर वांछित सवाल का जवाब हासिल करने के बाद इंस्पेक्टर की तरफ देखकर बोला, “डी ब्लॉक में 201 नंबर के फ्लैट में रहते हैं।”

“अब तो क्या रह पायेगा।” कहकर उसने दीक्षित की तरफ देखा तो उसका मंतव्य समझकर उसने लड़के का बताया एड्रेस एक डायरी में नोट कर लिया।

“एक बात कहूं सर?” शिनाख्त करने वाला लड़का बोला।

“क्या?”

“इस पार्क में दो चार स्मैकिये हमेशा बैठे रहते हैं, इसलिए अंकल ने जिन दो लोगों को उधर भागकर जाते देखा था, वह नशा करने वाले भी रहे हो सकते हैं।”

वह बात अधिकारी के मन को भा गयी।

“कत्ल उन लोगों ने भी किया हो सकता है सर जी - किसी दूसरे ने अपना ज्ञान बघारा - नशे के लिए आये दिन छीना झपटी करते रहते हैं, एक बार तो किसी भले इंसान को बुरी तरह धुनकर रख दिया था। जिसके बाद कुछ दिनों तक ये जगह उनसे आजाद रही, मगर फिर से डेरा जमा लिया।”

“हीरो।”

“यस सर?”

“पार्क का एक फेरा लगाकर आ भई।”

“अभी लीजिए सर।”

कहने के बाद दीक्षित दोनों सिपाहियों के साथ पार्क में जा घुसा। अंदर चार कोनों पर चार झोपड़ेनुमा आरसीसी के शेड बने हुए थे, जिनके नीचे लोगों के बैठने के लिए सीमेंटेड बेंच लगाई गयी थीं।

दो झोपड़े एकदम खाली मिले, मगर तीसरे की तरफ बढ़ते वक्त दूर से ही वहां किसी के होने का एहसास हो गया। करीब पहुंचे तो दो लड़के कंबल ओढ़े बेसुध पड़े मिले।

सिपाहियों ने दोनों को एक एक लात जमाई तो कुनमुनाते हुए उठकर बैठ गये।

“कौन है बहन..?” एक बड़बड़ाया।

गाली सुनकर सिपाही उन्हें फिर से मारने जा ही रहे थे कि दीक्षित हाथ के इशारे से दोनों को रोकता हुआ कड़ककर बोला, “पुलिस, अब उठकर खड़े हो जाओ।”

“म...माफ कर दो साहब - उनमें से एक गिड़गिड़ाया - हमने कुछ नहीं किया।”

“क्या नहीं किया?”

“कुछ नहीं किया।”

“अभी पता लग जायेगा - कहकर उसने सिपाहियों को इशारा किया - लेकर चलो दोनों को।”

तत्पश्चात गरेबान से पकड़कर खींचते घसीटते उन्हें पार्क से निकालकर घटनास्थल पर ले जाकर खड़ा कर दिया गया।

“कितनी बद्बू आ रही है यार - अधिकारी नाक सिकोड़ता हुआ बोला - गटर में पड़े थे क्या दोनों?”

“महीनों से नहाये नहीं दिखते सर, ऐसे में परफ्यूम की खुशबू थोड़े ही आयेगी।” दीक्षित हंसता हुआ बोला।

“आप गलत कह रहे हैं सर।” दोनों में से एक बोला।

“क्या गलत कह रहा हूं?”

“यही की हम महीनों से नहीं नहाये।”

“यानि नहाया था?”

“हां।”

“कब?”

“पक्का याद नहीं लेकिन पंद्रह बीस रोज से ज्यादा नहीं हुए होंगे।”

सुनकर सब हंस पड़े।

“कत्ल इन दोनों ने किया हो सकता है सर - दीक्षित बोला - क्योंकि हमारे वहां पहुंचते ही कहने लगे कि ‘कुछ नहीं किया है’, मतलब सबकुछ किया हो सकता है।”

“कैलाश।”

“जी जनाब?” एक सिपाही तत्पर लहजे में बोला।

“इनके होशो हवास दुरुस्त कर यार।”

“अभी लीजिए जनाब।”

कहकर उसने दनादन दोनों पर लट्ठ बजाना शुरू कर दिया। कौन सी चोट कहां पड़ रही थी, ये देखने तक की कोशिश नहीं की। फिर जैसे मारना शुरू किया था वैसे ही कुछ सेकेंड बाद एकदम से रुकता हुआ बोला, “अब दोनों होश में हैं सर, जो चाहे पूछ लीजिए।”

“उठकर खड़े हो जाओ।” अधिकारी कड़ककर बोला।

“हमने कुछ नहीं किया साहब।” कहते हुए उनमें से एक ने उसका पांव पकड़ने की कोशिश की तो वह छिटककर दो कदम पीछे हट गया।

“दूर रहो सालों वरना मार मार कर चमड़ी उधेड़ दूंगा।”

“माफ कर दो साहब।” दोनों एक साथ गिड़गिड़ा उठे।

“कर दूंगा पहले बताओ क्यों मारा इसे?”

“हमने नहीं मारा।”

“सच बोलो।”

“नहीं साहब, हमने नहीं मारा।”

“फिर किसने मारा?”

“हम उसका नाम नहीं जानते साहब।”

“यानि कत्ल होते देखा था?”

“एक लड़के को इसकी लाश के पास खड़ा देखा था साहब, लेकिन छुरा भोंकते नहीं देखा था। फिर उसके जाने के बाद जब हम लाश के करीब पहुंचे और खून बहता देखा तो डर के मारे पार्क के अंदर भाग गये।”

“देखने में कैसा था?”

“खूब हट्टा कट्टा था साहब जी, बाल और दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी।”

“पहन क्या रखा था?”

“टी शर्ट और जींस।”

“और कुछ?”

“नहीं जानते साहब।”

“दोबारा देखोगे तो पहचान लोगे?”

दोनों चुप।

“कैलाश।”

“जी जनाब?”

“थोड़ी और मरम्मत कर।”

“पहचान लेंगे साहब।” एक जना चिल्लाकर बोला।

“पक्का?”

“जी साहब पक्का।”

“एंबुलेंस को फोन कर हीरो, फिर मरने वाले के घर का एक फेरा लगाकर आ, जो कोई भी मिले उसे लाश की शिनाख्त के लिए अपने साथ ले आना।”

“ठीक है सर।” कहकर दीक्षित ने अपना मोबाईल जेब से निकाला और एंबुलेंस के लिए नंबर डॉयल कर दिया।

“तुम दोनों अभी हमारे साथ थाने चलोगे।”

“साहब सच बता तो दिया हमने, फिर थाने क्यों ले जा रहे हो?”

“पहले मुझे यकीन तो आ जाये कि सच ही बोला था, उसके बाद छोड़ देंगे। और कहीं सब किया धरा तुम दोनों का ही हुआ तो इतनी मार लगाऊंगा कि जिंदगी भर के लिए स्मैक लेना भूल जाओगे।”

“वो तो नहीं भूल सकते साहब जी - दोनों में से एक सड़क से उठता हुआ बोला - मार क्या हमारे मां बाप ने कम लगाई होगी।”

“साले जुबान लड़ाता है साहब से?” कहते हुए एक सिपाही ने जोर का थप्पड़ खींच दिया उसे।

“ये आप ठीक नहीं कर रहे सर।”

“मतलब?”

“किसी बेकसूर आदमी को पुलिस नहीं मार सकती, इतना कानून तो हम भी जानते हैं।”

“साले कानून छांटता है?”

कहकर कैलाश फिर से उसे मारने ही लगा था कि अधिकारी ने रोक दिया, “जाने दे, पिनक में है, तेरी मार का तो पता भी नहीं लगेगा इसे।” कहने के बाद उसने झुककर लाश की जेबें टटोलनी शुरू कीं तो खाली पाया। पर्स या मोबाईल जो अमूमन लोगों के पास होता ही है, लाश की जेब से बरामद नहीं हुआ।

एंबुलेंस को कॉल करने के बाद एसआई दयानंद दीक्षित मकतूल अमरजीत राय के फ्लैट पर पहुंचा और उसकी बीवी मुक्ता को अपने साथ लिवा लाया।

उसने एक नजर पति की लाश पर डाली और दहाड़ें मारकर रोने लगी, इतनी जोर जोर से कि अधिकारी का दिमाग भिन्ना गया, साथ ही ये सोचकर पछताने लगा कि खामख्वाह उस औरत को वहां बुला लिया था, जबकि शिनाख्त बाद में भी कराई जा सकती थी।

मुक्ता तब तक रोती रही जब तक एंबुलेंस लाश उठा नहीं ले गयी।

उसके बाद पुलिस जीप में सवार होकर सब लोग थाने पहुंचे। कैदियों को हवालात में डाल दिया गया, जबकि मुक्ता और दीक्षित के साथ अधिकारी अपने कमरे में जा बैठा।

“चाय पानी कुछ लेंगी आप?” उसने मुक्ता से पूछा।

“न..नहीं।” वह सिसकती हुई बोली।

“देखिये हम जानते हैं कि सवाल जवाब के लिए ये सही वक्त नहीं है। लेकिन कुछ बातें तो पूछनी ही पड़ेंगी, मगर पांच मिनट से ज्यादा का वक्त नहीं लेंगे आपका।”

“किसने मारा उन्हें?”

“अभी पता नहीं लग पाया है।”

“ठीक है पूछिये क्या पूछना चाहते हैं?”

“सबसे पहले तो नाम ही बताईये मरने वाले का।”

“अमरजीत राय।”

“टीचर थे?”

“जी हां, गर्वनमेंट स्कूल में।”

“रात को मनोहर पार्क के सामने क्या कर रहे थे?”

“खाना खाना के बाद टहलने निकले थे, रोज ही जाते थे।”

“किसी के साथ कोई रंजिश?”

“नहीं थी।”

“मोबाईल घर पर छोड़कर निकले थे?”

“नहीं।”

“और पर्स?”

“नहीं मालूम, घर पर देखना पड़ेगा।”

“अगर लेकर गये हों तो पैसे कितने रहे होंगे उनके पास?”

“पक्का नहीं बता सकती, लेकिन हजार दो हजार से ज्यादा नहीं होंगे।”

“हाल फिलहाल किसी के साथ झगड़ा हुआ हो?”

“नहीं सर, ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था।”

“कोई और वजह जिसके कारण उनका कत्ल कर दिया गया हो?”

“मैं नहीं जानती, फिर झगड़ा लड़ाई से हमेशा दूर रहते थे। स्कूल से लौटकर कहीं आते जाते भी नहीं थे। और आजकल तो कोई मिलने जुलने भी नहीं आता था उनसे।”

“पहले आता था?”

“जी हां।”

“कौन?”

“उनके एक दोस्त थे बालकृष्ण।”

सुनकर अधिकारी सकपकाया, “पूरा नाम?”

“बालकृष्ण बरनवाल, डॉक्टर थे, इसी इलाके में उनका क्लिनिक भी हुआ करता था।”

अधिकारी ने दीक्षित की तरफ देखा, “हम मरने वाले की सूरत क्यों नहीं पहचान पाये हीरो?”

“पार्क के सामने ज्यादा रोशनी नहीं थी सर, फिर अमरजीत साहब से बस एक मुलाकात ही तो हुई थी हमारी, वह भी सालों पहले।”

“आप दोनों मेरे हस्बैंड को जानते थे?” मुक्ता ने पूछा।

“हां, डॉक्टर के कत्ल के बाद उन्हें पूछताछ के लिए थाने बुलाया गया था।”

“ओह।”

“कोई दूसरा दोस्त?”

“स्कूल में कोई रहा हो सकता है, मगर ऐसा कोई नहीं था जिससे रेग्युलर मिलना मिलाना होता हो।”

“डॉक्टर के कत्ल के बारे में कुछ बताया था मास्टर साहब ने आपको?”

“जी नहीं।”

“मैं डॉक्टर बालकृष्ण बरनवाल की बात कर रहा हूं मैडम - उसने नाम पर खासा जोर दिया - जो पटना का रहने वाला था, अब याद आया कुछ?”

“मैं जानती हूं आप किसकी बात कर रहे हैं, लेकिन नहीं उनके कत्ल के बारे में अमरजीत को कुछ नहीं मालूम था, फिर वह मुझे क्या बताते। हां डॉक्टर साहब आदमी बहुत अच्छे थे, इस इलाके में फ्लैट की डील भी उन्होंने ही कराई थी। बल्कि बेचने वाले पर दबाव डालकर दस लाख कम भी करा दिये थे।”

“फिर तो वाकई अच्छे आदमी हुए - कहकर उसने सवाल किया - आप हस्बैंड वाईफ में कैसी बनती थी?”

“अच्छी बनती थी, कभी कभार तकरार भी हो जाती थी, मगर ओवरऑल सब बढ़िया चल रहा था।”

“शादी को कितने साल हो गये होंगे?”

“दस साल।”

“बच्चे?”

“नहीं हैं।”

“वजह?”

“कोई मेडिकल कॉम्प्लिकेशन है।”

“आप में?”

“जी हां।”

“उस बात का अफसोस तो बहुत होता होगा?”

“जी हां, सबको होता है।”

“कभी बच्चा गोद लेने के बारे में नहीं सोचा?”

“ये क्या सवाल हुआ?”

“मामूली सवाल है मैडम।”

“नहीं कभी ख्याल तक नहीं आया।”

“थैंक यू, आगे बात ये है मैडम कि कत्ल बहुत भयानक वाकया होता है जो कभी भी बेवजह घटित नहीं होता। आप कहती हैं कि आपके हस्बैंड की किसी के साथ कोई रंजिश नहीं थी। मैं मान लेता हूं कि आप सच ही बोल रही हैं, ऐसे में सवाल ये है कि उनका कत्ल क्यों हो गया?”

“वो तो आप पता लगायेंगे न इंस्पेक्टर साहब।”

“हां ये भी ठीक कहा - अधिकारी भुनभुनाया - उसका ठेका तो हमारे ही पास है - फिर उसने दयानंद की तरफ देखा - मैडम को घर छोड़ आ हीरो, कुछ पूछना हुआ तो कल पूछ लेंगे।”

“ठीक है सर।” कहते के साथ ही वह उठ खड़ा हुआ।

“एक और बात है मैडम।”

“क्या?”

“मीडिया के लोग आप तक पहुंचकर रहेंगे, और खोद खोदकर सवाल भी करेंगे। कोशिश कीजिएगा कि हस्बैंड के दोस्त के रूप में डॉक्टर बरनवाल का नाम आपकी जुबान पर न आये।”

“उससे कोई नुकसान है?”

“आपको हो सकता है, क्योंकि डॉक्टर का कत्ल पहले से ही विवादों के घेरे में रहा है। ऐसे में ज्यों हीं आप डॉक्टर का नाम लेंगी, मीडिया आपके घर के सामने अपना ठीया बना लेगी। मतलब आपकी जिंदगी का बचा खुचा सुकून भी खत्म हो जायेगा।”

“ठीक है मैं उस बात का जिक्र किसी से नहीं करूंगी।”

“अच्छा करेंगी, अब जाईये।”

तत्पश्चात दीक्षित उसे लेकर कमरे से निकल गया।

अधिकारी इंतजार करता रहा, सिगरेट फूंकता रहा।

फिर पंद्रह मिनट बाद वापिस लौटकर दयानंद उसके सामने बैठ गया।

“पहुंचा आया?”

“जी सर।”

“क्या लगता है, अमरजीत के कत्ल का कोई लिंक डॉक्टर बरनवाल की हत्या से जुड़ा हो सकता है?”

“लगता तो नहीं है सर।”

“यानि मामला लूट का भी हो सकता है?”

“मुझे तो वही लगता है सर।”

“ऐसी चिंदीचोरी वाला काम तो कोई छोटा आदमी ही कर सकता है, मेरा मतलब है इस इलाके में रहने वाला कोई शख्स तो कातिल नहीं ही हो सकता।”

“नहीं सर, सब बड़े लोग रहते हैं इधर, फिर भी अगर हत्यारा वसंतकुंज में रहता कोई शख्स था, तो समझ लीजिए कत्ल की वजह कुछ और रही होगी।”

“इस मामले को जल्दी निबटाना होगा। मृतक का पहनावा और शक्लो सूरत देखकर पहले मैं ये सोच रहा था कि इधर का नहीं होगा। अब निकल आया है तो दबाव भी खूब बनाया जायेगा, समझ रहा है न?”

“जी सर।”

“डॉक्टर बरनवाल का कातिल भले ही आजाद है, लेकिन बार बार वैसा नहीं चलने वाला, वरना करियर पर ऐसे दाग लगेंगे कि मिटाये नहीं मिटेंगे।”

“डोंट वरी सर, मुझे नहीं लगता कि इस मामले को हल करना कठिन काम होगा, ये पक्का किसी चरसी का ही काम है, जो अगर हमारे हत्थे चढ़ गया तो ठीक वरना जिन दो लोगों को गिरफ्तार किया है उन्हें ही लपेट देंगे, किसे पड़ी है जो उन्हें बचाने की कोशिश करे।”

“मजाक मत कर यार, किसी को झूठे इल्जाम में फंसाना आसान काम नहीं होता।”

दीक्षित हंसा।

“मेरा मतलब है बार बार ऐसा नहीं किया जा सकता।”

“आपके लिए सब मुमकिन है सर, शैतान का दिमाग जो पाया है।”

“बेईज्जती कर रहा है हीरो।”

“अरे नहीं सर, तारीफ कर रहा हूं।”

“फिर ठीक है।” कहकर उसने जोर का ठहाका लगा दिया।