अब ऐशगाह में वह और छम्मो ही रह गए।
-'छम्मो?'
-'जी महाराज।'
-'हम तातारी बांदी का बही खाता देख कर आये हैं।'
-'जरूर देखा होगा...हम तो अनपढ़ हैं।'
-'सिर्फ तेरी ही शरारत है।'
-'क्या कह रहे हैं महाराज?'
-'हां ठीक ही कह रहे हैं। अब यह जरूरी तो नहीं है कि जो हम सलाह दें वह जाने आलम मान ही लें। लेकिन उन्हें हम सलाह जरूर देंगे कि तेरे कपड़े उतरवा कर तुझे सूली पर चढ़ाने से पहले सारे लखनऊ में घुमाया जाये।'
-'सिर्फ कपड़े ही उतरवायेंगे?'
-'जेवर, सारा सोना तेरे बदन पर ही रहेगा। अपनी इच्छा बता दे।'
-'महाराज हमारा कहीं भी कोई दोष नहीं है।'
-'हम यह पूछ रहे हैं कि तेरी लाश को दफनाया जाए या जलाया जाये?'
हाथ जोड़े छम्मो ने-'महाराज हम तो सिर्फ इतना ही जानते हैं कि अगर हमने अंगूठी चुराई हो तो अभी धरती फट जाए और हम उसमें समा जायें!'
-'बड़ी दूर की सोचती है! यानि धरती फटे तब जबकि जलजला आए। धरती फटे यानि कम से कम इस महल का...जहां की तू दारोगन बन गई है...बेड़ा गर्क हो जाए। तेरे साथ बहुत सी बेगुनाह औरतें भी खत्म हो जायें?'
-'आपको हम पर यकीन नहीं है महाराज?'
-'पूरी तरह यकीन है। सिर से पांव तक कम से कम एक सेर सोना तो तेरे बदन पर होगा ही। तातारी बांदी के बहीखाते में पचास कलदार, साल के हिसाब से तेरी तनखा है और...।'
-'तनखा तो हमने कभी ली नहीं है।'
-'जानते हैं...जरूरत ही क्या है तुझे तनखा लेने की? तो यह जेवर, बनारसी जरदोजी का लहंगा और चुनरी...?'
-'आपसे तो कुछ छुपा नहीं है।'
-'बेशक जानते हैं। कभी जाने आलम से भी ईनाम मिलता होगा...मोती और हीरे के जेवर...।'
वह मौन रही।
-'यह छुपा कर रख देती है। मुताई बेगमों से भी ईनाम मिलता है, सोने के जेवरों का ईनाम। है बड़ी चन्ट, सोना सुनार को देती है और वह उसे गला कर नया जेवर बना देता है। कोई भी यह न कह सके कि यह जेवर मैंने दिया था।'
-'महाराज...जो सच्ची बातें हैं उन्हें मानने में इन्कार नहीं है।'
-'तो फिर अंगूठी कहां है?'
छम्मो की आंखों में आंसू छलक आये-'अगर हमने जाने आलम की उंगली के अलावा अंगूठी कहीं देखी हो तो हमें नरक मिले!'
-'बात को दूसरे ढंग से कह। यह बता कि सारी नवाबी लूट लेने में तुझे कितने बरस लगेंगे।'
सचमुच ही छम्मो रो पड़ी।
पाण्डे जी मौन रहे, वह जानबूझ कर छम्मो की ओर न देख कर दूसरी ओर देख रहे थे।
-'तो चल।'
-'कहां?'
-'जाने आलम के पास।'
-'हमारा अपराध...?'
-'हां जो भी अपराध हो वह जाने आलम को बता देना।'
-'हाथ जोड़ते हैं महाराज...हमने कोई अपराध नहीं किया।'
-'बात सच्ची तो नहीं लगती। परन्तु ऐसा कहा जाता है अकबर बादशाह के नौ रत्नों में से एक बीरबल रिश्वत बहुत लिया करते थे। बादशाह ने उन्हें तंग आकर जमना के एक घाट पर बैठा दिया। माल से भरी बड़ी-बड़ी नावें इधर-उधर जाती रहती थीं...उन्हें रोक दिया। हुक्म हुआ कि राजा साहेब लहरें गिन रहे है, सो नावों का आना-जाना नहीं हो सकेगा। अब जो व्यापारी राजा साहेब की मुट्ठी गर्म करे सो जाये। कहती है कि अनपढ़ है! सचमुच अगर पढ़ी लिखी होती तो गजब ढा देती।'
आंसू पोंछते हुए वह बोली-'आपसे क्या कहें पाण्डे जी!'
-'सच-सच तो कहेगी नहीं...खैर, महल में किस तरह आई?'
-'यहां पहले मेरी मां थी।'
-'बाप कहां था?'
-'सो नहीं जानती। मां मरी तो नवाबी हुक्म के मेरा नाम बही में लिख लिया गया।'
-'मां के पास कितने जेवर थे?'
-'जेवर होते भी थे, फिर गायब भी हो जाते थे। एक दिन अधिक शराब पी ली तो चल बसी। बोली नहीं...इशारों से कुछ कहना चाहा सो मैं समझी नहीं।'
-'सामान में क्या मिला?'
-'कुछ कपड़े थे बस। उन्हें गोमती में डाल आई।'
-'कितने समय से महल की दारोगाई कर रही है?'
-'साल भर हो गया मां को मरे हुए, परन्तु हम महल की दारोगा नहीं खिदमतगार हैं।'
-'किसकी खिदमत करती है?'
-'सभी की।'
-'बस अपनी बात का फर्क यहीं समझ ले।'
-'मैं समझी नहीं।'
-'देख छम्मो, सभी की खिदमत करने के लिए तू यहां नहीं है। यहां है तू जाने आलम की खिदमत के लिए।'
-'बेशक।'
-'और उनके साथ जो गद्दारी कर रही है, वही तेरा बेड़ा गर्क कर देगी। यहां से बाहर आती जाती रहती है?'
-'जरूरत होने पर।'
-'ठीक है...आ मेरे साथ।'
ड्योढ़ीवान उस्मान दारोगा।
नौजवान व्यक्ति।
कुछ इस तरह था कि ड्योढ़ी के बराबर ही उस्मान दारोगा की रिहाइश थी। यहां दरवाजा हर समय बन्द ही रहता था।
ऊंघते हुए दारोगा ने उन दोनों को आते देखा तो तुरन्त ही दरवाजा खोल दिया।
-'पांय लागी पाण्डे जी।'
-'सो तो हुई...लेकिन यह दरवाजा क्यों खोल दिया?'
-'आप दोनों बाहर जो जा रहे हैं!'
-'पहले दरवाजा बन्द कीजिए।'
तुरन्त ही दरवाजा बन्द कर दिया गया।
-'फरमाइए क्या हुक्म है?'
-'दारोगा जी, मैं तो कभी इस रास्ते से आता जाता नहीं हूं।'
-'जानता हूं, आप तो उधर खास महल के दरवाजे से आते-जाते हैं। लेकिन आपके लिये तो कहीं भी आने जाने पर रोक नहीं हैं।'
-'मेरी बात छोड़िए...इस दरवाजे से कौन-कौन आता जाता है?'
-'छम्मो तो आती जाती रहती ही है। तातारी बांदी, हब्शी पहरे वाली आमतौर से यहीं से आती जाती हैं।'
-'आपका फर्ज क्या है?'
-'मेरा फर्ज...?'
-'सीधे-सीधे बात का जवाब दीजिए। क्या आपको यह जानकारी नहीं होनी चाहिये... कौन क्यों जा आ रहा है?'
-'अब यह सब अजनबी तो हैं नहीं।'
-'हां यह सभी अजनबी नहीं हैं, और अजनबी तो कोई आता जाता नहीं है।'
-'बजा फरमाते हैं।'
-'फिर दरवाजे को बन्द रखने की जरूरत क्या है?'
-'वह तो पाण्डे जी...शाही कायदा है।'
-'सुनिए दारोगा जी, नौजवान आदमी हैं और अभी से अफीम का अन्टा चढ़ाने लगे हैं?'
-'माफी चाहता हूं।'
-'खैर मैं तो माफ करने या सजा देने वाला कोई हूं नहीं, लेकिन आप अपना फर्ज समझ लीजिये। यहां ड्योढ़ी और दरवाजा है और उसकी दारोगाई के लिए आप हैं। मान लीजिये कि छम्मो बाहर जाना चाहती है।'
-'जाये...दरवाजा खोलूं?'
-'शाबाश।'
-'जी?'
-'क्या आप यह जानना नहीं चाहेंगे कि यह क्यों बाहर जाना चाहती है?'
-'अब यह कोई गैर तो है नहीं।'
-'हां गैर तो कोई है नहीं। सभी जानकार हैं, जानकारों के बीच ही जाने आलम की अंगूठी खो गई है।'
-'जी मैंने सुना है, बड़े अफसोस की बात है।'
-'आप छम्मो को जाने दे रहे हैं, जबकि इसके पास...।'
-'क्या अंगूठी इसके पास है?'
-'किसी के पास भी हो सकती है, छम्मो जरा अपनी ओढ़नी तो हटा दो।'
-'पांव पड़ती हूं पाण्डे जी, मुझे बेइज्जत मत कीजिये।'
-'अगर बेइज्जत नहीं होना चाहती तो तेरे लहंगे में दो रेशमी रूमाल हैं...उन्हें निकाल कर मुझे दे दे।'
यकायक छम्मो का चेहरा फक हो गया।
तनिक अटकते से स्वर में दारोगा बोला-'अब पाण्डे जी रूमाल तो नहीं खोया है, खोई तो अंगूठी है।'
-'यानि दोनों मिल कर अच्छा खासा कमा खा रहे हो! रूमाल सिर्फ रूमाल ही नहीं है, रेशम पर कुछ लिखावट भी है। क्यों छम्मो?'
-'सिर्फ इस बार माफ कर दीजिए पाण्डे जी।'
-'तो इस तरह मुताई बेगमों के खत, उनके यारों के खत पहुंचते हैं। यह जानकारी आपको नहीं है...ऐसा नहीं मान सकता दरोगा जी। इन बेगमों के पास धन आता कहां से है?'
वह दोनों चुप।
-'जाहिर है कि धन बेगमों के पास आता है जाने आलम से। अब यह तो सरासर नमक हरामी है कि बेगमें महलों का सुख भी भोगें और बाहर आशनाई भी करें!'
दारोगा और छम्मो की दृष्टि झुकी हुई थीं।
-'तो दोनों की ही कलई उतर गई न? मैं यह भी जानता हूं कि इस तरह की सभी बेगमें सुखी नहीं रह सकतीं। जाहिर है कि दोष नवाबी चलन का ही है। इसके साथ उन बेगमों को क्या कहा जाये जो आप दोनों की मेहरबानी से एक साथ दो नावों पर सवार हैं।'
दोनों की दृष्टि झुकी हुई थीं।
साहस करके छम्मो बोली-'पाण्डे जी।'
-'सुन रहा हूं।'
-'दारोगा जी बाल बच्चेदार आदमी हैं।'
-'बाल बच्चेदार तो तू भी होने वाली है!'
-'सूली पर चढ़ने के लिए तैयार हूं।'
-'सूली पर चढ़ने का शौक है तो क्या मैं रोक रहा हूं? वैसे जान देने के और भी तरीके हैं।'
-'मां कहा करती थी कि अगर कोई बबूल बोएगा तो उस पर आम नहीं लग सकते।'
-'अम्मा और क्या कहती थी?'
-'मां नहीं अब मैं कह रही हूं। छम्मो को सूली पर चढ़ा दिया जाये, दारोगा जी को सजा दे दी जाये। लेकिन हम दोनों को अंगूठी का चोर मत बनाइये।'
-'तू जानती है कि अंगूठी कहां है?'
-'किसी की भी कसम ले लीजिये।'
-'मुझे तुम दोनों की कसम से कोई सरोकार नहीं है। हां तो दारोगा जी?'
-'जी।'
-'दो और दो कितने होते हैं?'
-'चार होते हैं पाण्डे जी।'
-'हां दो और दो के हिसाब से तो सब कुछ समझा जा सकता है। परन्तु तीन की बात यह है कि पहाड़ा तीन से तो शुरू होता है लेकिन इससे पहले...!'
दोनों ही पाण्डे जी की ओर देख रहे थे।
वह क्या कह रहे हैं, दोनों में से कोई भी नहीं समझ पा रहा था।
तभी वही वाली तातारी बांदी दौड़ी हुई आई।
-'हुजूर पाण्डे जी।'
-'क्या बात है?'
-'जाने आलम आपको बुला रहे हैं।'
उन दोनों की ओर कड़ी दृष्टि से देखते हुए पाण्डे जी ने बांदी से पूछा-'वह कहां हैं?'
-'अपनी ही बैठक में।'
उन दोनों से बिना कुछ कहे पाण्डे जी तातारी बांदी के साथ चले गये। उन दोनों ने सन्तोष की सांस ली।
-'अंगूठी मिली पाण्डे जी?'
-'जी खोज रहा हूं...आपने शाम तक का समय दिया है।'
-'यानि अभी अंगूठी की चोर नहीं पकड़ी गई?'
-'क्या फरमा रहे हैं! आपका इकबाल इतना बुलन्द है कि कोई चोर चोरी की हिम्मत कर ही नहीं सकता।'
-'यानि?'
-'मामूली-सी बात है जाने आलम। आमतौर से इन्सान गहरी नींद में कुछ भी कर बैठता है। यानि नींद में ही आपने अंगूठी के सख्त होने की वजह से चुभन महसूस की...अंगूठी उतार कर कहीं रख दी। जी हां, अब नींद की बात कैसे कोई जान सकता है? खोज रहा हूं, शाम से पहले अंगूठी लेकर हाजिर हो जाऊंगा।'
-'हकीकत हम भी जानते हैं पाण्डे जी।'
-'हुजूरे आला, इतनी बड़ी नवाबी है...अगर आप हकीकत नहीं जानेंगे तो कौन जानेगा?'
-'आज हमने किसी से मुलाकात नहीं की।'
-'हां दिमागी परेशानी तो होती ही है।'
-'लेट गए थे...बस कुछ पल के लिये नींद आई, और एक भयानक सपना देखा।'
पाण्डे जी मौन रहे।
-'हमने सपने में देखा...एक भयानक हाथ हमारी तरफ बढ़ रहा है।'
-'किस रंग का हाथ था?'
-'हम मतलब नहीं समझे?'
-'हुजूर हमारे यहां काले हाथ होते हैं, सांवले होते हैं, गोरे भी होते हैं। लेकिन बहुत गोरे ...ऐसे मानो जैसे किसी की चमड़ी ही उतार दी गई हो! जाने आलम ने ऐसा ही गोरा हाथ देखा होगा?'
-'हम समझे नहीं।'
-'कैसे मान लूं कि जाने अलाम समझे नहीं? मुल्क अवध हो तो, मुल्क दिल्ली की बादशाही वाला हो तो...यह पूरा हिन्दोस्तां नहीं है हुजूर। मरहूम उस्ताद असगर अली की शिष्य परम्परा में यह दस्तूर है कि जो जासूस महल में तैनात होता है, तैनाती से पहले उसे पूरा हिन्दोस्तान दिखाया जाता है। पूरब में कामरूप कामेच्छा, पश्चिम में मुम्बा देवी, उत्तर में दर्रा खैबर और दक्षिण में समुन्द्र के किनारे रामेश्वरम्। उस्तादी किताब में लिखा है कि यह है पूरा हिन्दोस्तान। तो एक हाथ है बहुत ही गोरा हाथ...वह पूरे हिन्दोस्तान की ओर बढ़ रहा है।'
-'फिरंगी की बात कह रहे हो?'
-'जी जाने आलम।'
-'अवध को क्या खतरा है?'
-'मुझसे ज्यादह आप जानते हैं।'
-'फिरंगी तो एक व्यापारिक कौम है।'
-'मैंने कहा न, जाने आलम इस मामले को मुझसे ज्यादह जानते हैं! अवध के बाद है बिहार शरीफ पटना...।'
-'हम भी जानते हैं।'
-'पटना में गंगा के घाट पर फिरंगिओं की बड़ी-बड़ी नावें आकर बंधती हैं और आस-पास के इलाके से शोरा लाकर उनमें लादा जाता है।'
-'हम जानते हैं कि शोरे से बहुत बढ़िया बारूद बनता है।'
-'जी हां, बड़े-बड़े जहाजों में शोरा लद कर सात समन्दर पार जाता है। फिर उसी से तैयार किए जाते हैं तोपों के गोले। वह गोले तोपों के काम आते हैं हिन्दोस्तान में।'
-'यह हम जानते हैं।'
-'जिसे जाने आलम व्यापारी कौम कह रहे हैं, वह क्या है हुजूर ही अच्छी तरह जानते हैं।'
-'इस मामले में हम फिर बातें कर सकते हैं पाण्डे जी।'
-'मैं तो निहायत मामूली आदमी हूं। बातें तो हुजूर को अपने वजीरों और दरबारियों से करनी है। लेकिन यह बता देना अपना फर्ज समझता हूं कि वह व्यापारी कौम यहां हिन्दोस्तान में तोपें चला देना भी अपनी शान समझते हैं।'
-'अवध में तो ऐसा नहीं होता।'
-'माफ कीजिएगा...अगर जाने आलम समय पर न चेते तो...!'
यह नवाब ने दृष्टि उठाई-'आप अच्छी तरह जानते हैं पाण्डे जी, पटना दिल्ली की बादशाहत में है।'
-'जानता हूं, अगर हुक्म देंगे तो मैं उस गोरे हाथ की अवध में क्या-क्या कारगुजारी हैं... हुजूर को उसकी जानकारी हासिल करके बता दूंगा।'
-'हमारी फौजें तैयार हैं।'
-'आपने यह भी तो फरमाया कि फिरंगी एक व्यापारी कौम है, लेकिन उन व्यापारियों ने किस तरह खास लखनऊ में शिकंजा जमा रखा है...?'
-'हां कुछ ऐसा भी है...लेकिन हम बेफिक्र नहीं है पाण्डे जी।'
-'खुशी होगी अगर आप फिक्र करें तो, जहां तक मेरी जानकारी है...खास लखनऊ में ही हमारी फौज की टक्कर वाली ही फिरंगी फौज भी है। कितने मजाक की बात है कि यह हमारे ही जवानों को हमसे ही लड़ने के लिए तैयार कर रहे हैं।'
-'आपका क्या ख्याल है...हमारी फौजों से जिसमें बांकी और तिरछी फौज भी हैं, वह लोग जीत सकते हैं?'
-'बेशक तलवार और बरछी की लड़ाई में हमारी फौज के जवान इक्कीस हैं। लेकिन तोपखाना...?'
-'हमारा भी तोपखाना है।'
-'हुजूर आजमा कर देखें। वैसे यह भी सही है कि अभी वह उलझ नहीं रहे हैं। धीरे-धीरे उलझने की तैयारी कर रहे हैं। हुजूर की फौज का तोपखाना उतना अच्छा नहीं है।'
-'हम जांच करेंगे।'
-'बेशक...हुजूर जितनी जल्दी जांच कर लें उतना ही अच्छा होगा।'
-'शायद एक बात न जानते हों, अब वह हमारे लखनऊ से फौज में और जवान भर्ती नहीं कर सकते।'
-'माफी चाहता हूं जाने आलम। हो सकता है कि शहर लखनऊ में वह दिखावे के लिये भी न करें। वह कानपुर में भर्ती कर सकते हैं।'
-'बिठूर में नाना साहेब हैं।'
-'यह खुशफहमी है जाने आलम। जिस तरह आप लखनऊ में बेफिक्र हैं, उसी तरह नाना साहेब बिठूर में बेफिक्र हैं! और कानपुर में ठीक आपकी और नानासाहेब की नाक के नीचे फिरंगी नए तोपखाने तैयार कर रहे हैं।'
-'जानकारी देने के लिये शुक्रिया, इस मामले पर फिर भी बातें हो सकती हैं। लेकिन अंगूठी...?'
-'तलाश कर रहा हूं हुजूर, और यह तो वायदा है ही कि शाम से पहले अंगूठी लाकर आपको दे दूंगा।'
-'यही तो चाहते हैं कि आपका वायदा पूरा हो।'
-'वायदा पूरा होगा जाने आलम।'
-'जाने क्या बात है...अंगूठी खो जाने की वजह से बहुत बुरे-बुरे ख्याल आ रहे हैं।'
-'लखनऊ का हर बाशिन्दा किसी न किसी बुरे ख्याल में ही फंसा है जहांपनाह। मैं भी बहुत से बुरे सपने देखता हूं, लेकिन अंगूठी की बात बहुत मामूली है।'
-'काश आप हमारे ढंग से सोच पाते!'
-'अब कुछ भी न कहने के लिये मजबूर हूं। अगर इजाजत हो तो अंगूठी खोज लाऊं?'
-'यानि अब तक कोई सुराग नहीं है?'
-'ऐसा तो मैंने नहीं कहा। मामूली-सी बात है...अंगूठी हुजूर की ऐशगाह में ही है।'
-'यह मुमकिन नहीं है पाण्डे जी।'
-'मेरी बात का यकीन कीजिये।'
-'खैर...शाम होने में अधिक वक्त तो है नहीं।'
-'अंगूठी को तो शाम से पहले मिल ही जाना है। समझ लीजिए कि अंगूठी मिल गई।'
-'खैर आप जा सकते हैं। लेकिन हम अपने मन को समझा नहीं पा रहे हैं! अगर...।'
-'कुछ और न कहें जाने आलम।'
-'अगर सचमुच ही अंगूठी मिल जाए तो हम आप को ईनाम देने का ऐलान करते हैं।'
-'जाने आलम की मेहरबानियां कुछ कम तो नहीं हैं! लेकिन ईनाम देने की बात न कहें हुजूर।'
बरबस ही नवाब साहेब के चेहरे पर मुस्कान आ गई।
-'ऐसा ही तो बुजुर्गों से सुना है, मरहूम असगर अली साहब के शागिर्द किसी भी बड़े काम को इस तरह छोटा ही समझते हैं। खैर जाइये...शाम होने में अब अधिक वक्त नहीं है।'
पाण्डे जी ने झुक कर आदाब बजाया।
पाण्डे जी रुखसाना बेगम के दरवाजे पर रुके।
दरवाजे पर बहुत ही कीमती मखमल का गुलाबी पर्दा लटका हुआ था।
पर्दे के पीछे से ही पाण्डे जी बोले-'बेगम साहिबा, उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मानेंगी, मेरी मजबूरी समझिये। जब उस्ताद किसी को शागिर्द बनाते हैं तो उसे हुजूर नवाब साहेब के लिये जीते जी वफादारी की कसम लेनी पड़ती है।'
उन्होंने पर्दा हटाया, लेकिन दरवाजे के बीच में ही खड़े रहे।
सामने ही बेगम ओढ़नी से ढके मुख से दूसरी ओर खड़ी देख रही थीं।
-'बैठ जाइए हुजूर...मैं आपको थकाना नहीं चाहता।'
बेगम बैठ गईं। पाण्डे जी वैसे ही खड़े थे।
-'अब बेगम साहिबा मजबूरी है...नहीं जानता कि किसने तातारी बांदी को बही लिखने के लिए नियुक्त किया और किसने बही लिखने का कायदा बनाया। जबकि सभी जानते हैं कि ऐसा होना मुताई बेगमों पर अत्याचार है।'
घूंघट की ओट से आवाज आई-'आप क्या कहना चाहते हैं, बही और तातारी बांदी की बात हमें क्यों सुना रहे हैं?'
-'इसलिये कि मैं आपका भला चाहता हूं।'
-'आप हमारे भले की नहीं अपने भले की बात सोचिये।'
-'आपके भले में ही मेरा भला है। आपकी इज्जत ही मेरी इज्जत है। इसलिये कि जाने आलम की इज्जत ही हम दोनों की इज्जत है।'
-'पहेलियां मत बुझाइए, जो भी कहना है साफ-साफ कहिये!'
-'चाहता तो यही था कि साफ-साफ कुछ नहीं कहूं...सवाल वही इज्जत का है। लेकिन जब आपने साफ-साफ कहने का हुक्म दे ही दिया है तो साफ ही कहता हूं। तातारी बांदी की बही के अनुसार जाने आलम ने पांच महीने और बीस दिन पहले आपके साथ रात बिताई थी।'
-'आपको इस तरह की बातें करते हुए शर्म नहीं आती?' यह कहते हुए बेगम चौकी से उठ कर खड़ी हो गई।
-'शर्म थी इसीलिये तो बात को साफ-साफ कहने में संकोच कर रहा था।'
-'आप यहां अंगूठी की खोज में आए हैं।'
-'हां आया तो इसीलिये हूं। जानती ही हैं कि अंगूठी जैसी छोटी चीज को आसानी से तो खोजा नहीं जा सकता। इसीलिये बहुत पहले ही अपने शागिर्द को भेज चुका हूं। एक सोने का सिक्का लगेगा, तकरीबन वैसी ही अंगूठी बन कर आ जाएगी।'
-'वैसी चमक...?'
-'शायद नहीं होगी। जाने आलम से कह दूंगा कि मिट्टी में पड़ी हुई मिली, इसीलिये चमक कम हो गई।'
-'झूठ बोलेंगे?'
-'हुजूर की खुशी के लिये झूठ तो बोलना ही पड़ेगा। अब इतना है कि अंगूठी पाकर हुजूर अंगूठी को ही भूल जायेंगे...फिर उन्हें यह छोटी-सी बात याद भी नहीं रहेगी।'
-'हम आपकी बात को नहीं मानते, अगर अंगूठी न होने से हुजूर पर मुसीबत आई तो...?'
पाण्डे जी हंसे-'ऐशगाह की दूसरी तरफ रहती हैं शरबती बेगम, उनकी बात हमें पसन्द आई। आप तो अच्छे खानदान से हैं, जबकि वह खुद मानती हैं कि वह नीच खानदान से हैं। उम्र में भी मुझसे और आपसे भी छोटी हैं। लेकिन इसके बावजूद सच्ची बात उन्होंने ही कही।'
-'सच्ची बात?'
-'जी हां...उन्होंने कहा कि हीरा, पन्ना, नीलम और इस तरह की सभी चीज पत्थर ही तो हैं। पत्थर पहनने से किसी की किस्मत नहीं बदल सकती।'
-'जाहिर है कि उसे कल जब सूली की सजा दी जाएगी तो पत्थर के गुणों का पता लग जाएगा।'
-'कौन चढ़ाएगा उन्हें सूली पर?'
-'हुजूर का हुक्म होगा और जल्लाद हुक्म बजा लाएगा।'
-'इसका मतलब तो यह हुआ कि हम कुछ हैं ही नहीं?'
-'आप अपनी खैर मनाइये...धोखा देने के जुर्म में यकीनन आपको सजा मिलेगी।'
-'हम बहुत ही मामूली आदमी हैं बेगम साहिबा। शायद आप न जानती हों कि उस्ताद असगर अली के शागिर्दों को गुजारे के लिए छोटी-सी जागीर दे दी जाती है। जब तक जिन्दा रहते हैं जासूसों को एक मकान लखनऊ में मिलता है, और रोज के खर्च के लिये कुछ वजीफा भी मिलता है, बस। लेकिन जाने आलम या कोई भी दरबारी यह साबित नहीं कर सकता कि उस्ताद असगर अली का कोई भी शागिर्द हुजूर नवाब साहेब से गद्दारी कर सकता है। खैर, इस बात पर आपसे बहस नहीं करेंगे। हम मामूली आदमी हैं, और मुताई ही सही...आप जाने आलम की बेगम हैं। हमें अपनी चिन्ता नहीं है, आपकी चिन्ता है। दरअसल तातारी बांदी का बहीखाता...!'
-'उसमें झूठ नहीं लिखा जाता।'
-'यही तो परेशानी की बात है कि बही में झूठ नहीं लिखा जाता।'
स्पष्ट आदेश-'आप जा सकते हैं।'
-'जो हुक्म, तो सच्ची बात ही हुजूर से कह दें?'
-'कौन-सी सच्ची बात?'
-'पांच महीने बीस दिन पहले हुजूर ने आपके साथ रात बिताई।'
-'बार-बार आप यह क्यों कह रहे हैं?'
-'हम आपकी इज्जत बचाना चाहते हैं बेगम साहिबा।'
-'जबकि हम कुछ नहीं समझ पा रहे हैं।'
-'हमें मजबूर मत कीजिये। यह तो आपको मालूम ही होगा कि शाही हकीम बुजुर्गी में आने तक कितनी शोहरत हासिल कर चुके हैं। यह भी जानती होंगी कि उनकी सिखाई हुई दाईयां औरत तो क्या उड़ती चिड़ियाओं को भी पहचान लेती हैं। कुछ हमें भी उस्ताद लोगों ने सिखाया है।'
-'क्या सिखाया है?'
-'कहते हुए भी शर्म आती है। बेगम हुजूर के पेट में जो है, उसे नवाबजादा कैसे कहें?'
तड़प उठी बेगम-'क्या मतलब?'
-'पूरे दो महीने और कुछ दिन का फर्क है। नहीं...बस हम और आपको परेशान नहीं करेंगे। साफ बात जाने आलम से जाकर कह देंगे। वह दाई को बुलायेंगे, तातारी बांदी की बही उनके सामने होगी। फिर क्या होगा...जो भी होगा उससे हमे खुशी नहीं होगी। अच्छा...सलाम।'
सचमुच ही पाण्डे जी लौट पड़े।
घबराई सी बेगम ने दरवाजे पर आकर कहा-'सुनिये।'
वह जहां थे वहीं से पलट कर कहा-'फरमाइये।'
-'मेहरबानी करके जरा पास आइए।'
पाण्डे जी बेगम के निकट आये।
आश्चर्य की बात यह थी कि अब बेगम ने घूंघट हटा दिया था।
-'फरमाइए।'
-'आप जाने आलम की इज्जत चाहते हैं न?'
-'जी हां, इसीलिए उनसे साफ कहने के लिए मजबूर हूं।'
-'मैं अपनी हकीकत समझती हूं। खानदान का घमन्ड झूठा है। महल में जैसी मैं, वैसी दूसरी मुताई बेगमें।'
-'खुशी की बात है कि आप हकीकत समझ रही हैं।'
-'इस तरह भी तो समझा जा सकता है यहां के महल की इज्जत ही जाने आलम की इज्जत है।'
-'जी हां, आपकी बात से इन्कार नहीं है।'
-'अब आप ही सोचिये कि आपका फर्ज क्या है।'
-'मैं तो यहां यही सोच कर आया था।'
-'भूल इन्सान से ही होती है।'
-'मानता हूं।'
-'आप बहुत कुछ कर सकते हैं।'
-'इन्कार नहीं है।'
-'तब आपको अपने भगवान का ही वास्ता है।'
-'भगवान और अल्लाह में मैं फर्क नहीं मानता। आप नमाज पढ़ती हैं?'
-'जी हां...पांचों वक्त।'
-'जानती ही होंगी जो व्यक्ति नमाज पढ़े, उसका मुंह मक्का शरीफ की ओर होना चाहिये। बस इतना ही फर्क है कि हमारे यहां ईश्वर का नाम लेकर पत्थर की मूर्ति के सामने प्रार्थना करते हैं। मैं समझता हूं कि हम दोनों गलत हैं। अल्लाह कहें या भगवान, वह तो हर जगह मौजूद है। यह अपने-अपने विश्वास की बात है।'
-'तब यह भी आपने मान लिया कि भगवान हर जगह है और इन्सान से गलतियां भी हो जाती हैं।'
-'बेशक।'
-'तब तो हमारी जो गलती है...क्या उसे सुधारने का मौका नहीं दिया जा चाहिये?'
-'आपको तो मौका नहीं दिया जाना चाहिये।'
-'क्यों?'
-'जानती हैं कि गलती सुधारने का मौका दिए जाने का क्या मतलब है? आप किसी को अपना एकाध जेवर देंगी और वह आपके लिए किसी हकीम से दवा ला देगा या ला देगी। आपने तो सुना ही होगा कि नीम हकीम खतराए जान और नीम मुल्ला खतराए ईमान। दवा आपकी जान भी ले सकती है।'
परेशान सी बेगम ने पूछा-'तब रास्ता आप ही सुझाइए।'
-'रास्ते तो बहुत हैं। मिसाल के लिए तातारी बांदी की बही है। अब नवाब हुजूर को तो ऐसी बातें याद रहती नहीं। हमें यह भी सिखाया जाता है कि किसी की भी लिखावट की नकल कर दें...यानि तारीखें इस तरह लिख देंगे कि जब आप नवाबजादे या नवाबजादी को जन्म दें तो खुशियां मनाई जायें। यह तो आप जानती हैं कि अगर मुताई बेगम भी किसी बच्चे को जन्म दें तो उनकी इज्जत और भी बढ़ जाती है।'
-'सचमुच आप ऐसा कर सकेंगे?'
-'जी हां, जाने आलम के लिये...आपके लिए, आप दोनों की इज्जत के लिये क्या नहीं किया जा सकता! जाने आलम की इज्जत के लिए हम जान भी दे सकते हैं।'
-'आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।'
-'इसकी जरूरत नहीं है...यह सब तो हमारा फर्ज है।'
-'लेकिन मेरा भी तो कोई फर्ज है!'
-'हो सकता है।'
-'मुझे जाने आलम ने हीरों की एक कंठी दी थी...क्या यह आपको शुक्राने के तौर पर दे सकती हूं?'
-'उस्ताद ने रिश्वत लेने के लिए मना किया है, लेकिन अपना फर्ज हम जानते हैं।'
-'यह रिश्वत नहीं है, हम खुशी से आपको ईनाम देना चाहते हैं।'
-'शरबती बेगम की बात याद आ रही है। यह कि हीरे भी पत्थर ही हैं और वह किसी की किस्मत नहीं बदल सकते। वायदा करते हैं कि आपके मामले को बिल्कुल ठीक कर देंगे। मेहरबानी होगी...अंगूठी दे दीजिये।'
सुन कर बेगम का चेहरा सफेद हो गया।
मुस्कराते हुए पाण्डे जी कह रहे थे-'ऐसी छोटी-छोटी बातों को तो शक्ल देख कर ही जान जाते हैं। यह बात पहले आपसे नहीं कही, इसका कारण था कि हम किसी के भी सामने आपको बेइज्जत नहीं करना चाहते थे। सिर्फ हां और ना में उत्तर दीजिए...अगर हां कहेगी तो सारे मामले को हम ठीक कर देंगे। अगर ना करती हैं तो मजबूरन हमें जाने आलम को हकीकत बतानी पड़ेगी। वैसी हालत में सिर्फ यही होगा कि आप दुनिया में नहीं रहेंगी। यकीन कीजिए, नवाब हुजूर यह खबर पाकर कि वह एक नवाबजादे के और अब्बा बनने जा रहे हैं, बहुत खुश होंगे।'
और सचमुच।
पाण्डे जी देख रहे थे कि बेगम सेमल रूई के तकिये में कुछ टटोल रही थी।
फिर उसमें से अंगूठी निकाल कर उसने दृष्टि झुकाये हुए पाण्डे जी के हाथ पर रख दी।
-'किसी ने नहीं देखा है, आप आराम कीजिए बेगम साहिबा। भरोसा रखिये कि आप जाने आलम की सबसे चहेती बेगम होंगी। यह हमारा यानि चतुरी पाण्डे का वायदा रहा।'
और पाण्डे जी ने अंगूठी ले जाकर जाने आलम को दे दी।
जाने आलम का चेहरा खिल उठा।
-'शुक्रिया पाण्डे जी...हम सचमुच घबरा रहे थे कि जाने क्या होने वाला है। अंगूठी कहां मिली?'
-'जैसा मैंने सोचा था वैसा ही तो हुआ हुजूर। अंगूठी ऐशगाह के एक कोने में पड़ी मिल गई। हुजूर नींद की हालत में इन्सान जाने क्या-क्या कर बैठता है। मेरे गांव में एक बुजुर्ग हैं जिन्हें सोते-सोते ही चलने की आदत है। एक दिन तो हद हो गई, नींद में उठ कर चले तो दूसरे गांव में जा पहुंचे। वह तो अच्छा था कि गर्मी का मौसम था, अगर सर्दी होती तो कहीं रात में ही ठण्ड से अकड़ कर मर जाते। गांव के रिश्ते से उन्हें ताऊ कहता हूं...तब से मैंने ही ताई को सुझाया कि वह रात में ताऊ के पांव और अपना हाथ पतली रस्सी से बांध लिया करें। तो यही हुआ कि रात में नींद में कसी अंगूठी ने हुजूर को परेशान किया और हुजूर ने नींद में ही उसे उतार कर नीचे कालीन पर फेंक दिया।'
-'नींद में चलने वाला ताऊ और हम! खैर पाण्डे जी, आप अपनी जबान से ईनाम मांगिये।'
-'जाने आलम का दिया हुआ सभी कुछ है। कभी भी अगर जरूरत हई तो मांगने में शर्म भी नहीं करूंगा। हुजूर ने सपने में जो हाथ देखा वह गोरा था...फिरंगी से होशियार रहें, यही मेरा ईनाम होगा। मुझे कोई आदेश देंगे तो जान की बाजी लगा दूंगा।'
-'हम आपकी बात को याद रखेंगे पाण्डे जी।'
लखनऊ के शाही महलात से एक कोस दूर।
यह कहलाता था अघोरी वाला शमशान, शमशान के निकट ही छोटा-सा हनुमान मन्दिर था। मन्दिर के साथ ही दो बीघे में छोटी-सी बगीची थी। गोमती घाट तक पक्की सीढ़ियां थीं।
मैंने कभी पाण्डे जी को मन्दिर के अन्दर जाते हुए नहीं देखा, हां आते और जाते समय मन्दिर की ओर हाथ अवश्य जोड़ देते थे।
मैं वहां पाण्डे जी के कारण जाता था, उनकी और पुजारी की मित्रता थी और मित्रता पक्की होने का कारण था भांग का शौक। पाण्डे जी की खास अदा थी। बादाम पिश्ते तथा अन्य मेवे पाण्डे जी लेकर पहुंचते थे, भांग बगीची में होती ही थी। सिल बट्टे से जूझते थे पुजारी जी। खास अदा के बारे में लिख रहा था। जाते ही पुजारी से कहते...हल्की छनेगी, काम धाम तो कुछ है नहीं, बस इतनी चुटकी कि भूख बना दे। कुछ देर बाद कहते एक चुटकी और डाल लो और कुछ देर बाद यही कह देते कि पुजारी भैया गड़गच की छनेगी।
कहीं बाहर न गये हों तो रोज ही पाण्डे जी से वहीं मुलाकात होती थी। मैं था जाने आलम का खास दरबारी और पाण्डे जी जो थे वह बता ही चुका हूं।
बस हम दोनों में एक ही खास बात थी। हम दोनों के दिमाग कब्रिस्तान थे। रहस्य की बात कभी भी किसी तीसरे तक नहीं पहुंचती थी।
तो सांझ के समय उन्होंने अंगूठी की चोरी का पूरा किस्सा मुझे सुना दिया जो लिखा है। अगर यह लिखत जाने आलम तक पहुंच गई तो वह पहली बार अंगूठी की चोरी का रहस्य समझेंगे।
जब वह पूरा किस्सा सुना चुके तो मैंने टोका-'सारी बात तो समझा पाण्डे जी। परन्तु सोच कर जवाब दो कि रुखसाना का पाप छुपा लेना क्या ठीक हुआ?'
-'ठीक ही हुआ अमानत भाई। मुझे नवाब साहब की वफादारी की कसम दिलाई गई है। लेकिन यह तो मैंने गिनी नहीं कि महल में कितनी मुताई बेगमें हैं। बरसात में देखते ही होंगे कि किस तरह गोमती किनारे छोड़ कर उफनने लगती है। यह कुदरती बात है। तो वह सब बेगम एक तरह से ऐसी जेल में हैं जहां खाने और पहनने के लिए तो सब मिलता है, लेकिन जवानी का जोश एक कुदरती बात है। बरसात में उफनती हुई नदी को नहीं रोका जा सकता। बेगमें, मानता हूं कि गुनाहगार हैं...लेकिन क्यों?'
-'यह बात जाने आलम से कह सकोगे?'
-'आप कहेंगे तो कह भी दूंगा। लेकिन जो चलन चल रहा है, उसे हुजूर खत्म कर देंगे क्या आपको ऐसा विश्वास है?'
-'नहीं।'
-'तो कहने से सिवा इसके क्या फायदा होगा कि कुछ बेगमों को सजाए मौत मिल जाये! अब हुजूर के सपने की ही बात सोचिए, अपनी ओर से जो कहना था वह कह ही आया हूं... लेकिन जानता हूं कि फिरंगी का हाथ बढ़ता ही जा रहा है।'
-'वैसे जाने आलम की फौज किसी से कम नहीं है।'
-'बहुत कम है अमानत भाई, समझ का ही तो फेर है। एक तरफ हमारे बांके तिरछे जवान...समझ लो कि एक हजार तलवार और बरछी चमकाते जवान बढ़ रहे हैं, दूसरी तरफ दस तोपें हैं और चालीस आदमी हैं। क्या नतीजा होगा?'
-'मानता हूं कि तोपखाना बेशक हमारा कमजोर है। तो हुजूर को तोपखाना बढ़ाना चाहिए।'
-'अपनी जिन्दगी में यही बात जमाल उस्ताद कहते-कहते मर गये। कभी देखना भाई... हमारे कारीगरों की बनी हुई तलवार, बरछी और खंजर कितने लाजवाब हैं! ऐसी धार कि पत्थर को काट दे और ऐसा लोहा कि सौ साल के बाद भी उसमें जंग न लगे। लेकिन तोपें हम अपने कारीगरों से क्यों नहीं बनवा रहे?'
-'मुझे याद है जाने आलम से पहले वाले नवाब हुजूर ने तोपें ढलवानी चाही थीं। लेकिन फिरंगिओं ने मजबूर कर दिया कि तोपें हमसे खरीदो।'
-'हां फिरंगी कहते तो हैं। लेकिन पचास तोपों के लिए कहें तो पांच तोप देते हैं।'
-'हां ऐसा ही है।'
-'तो भैया खुद ही सोच लो कि नतीजा क्या होने वाला है।'
-'हां सचमुच फिक्र तो होती ही है। परन्तु हम दोनों ने ही नवाब हुजूर के लिये वफादारी की कसम खाई है।'
-'और कसम निभानी भी पड़ेगी। बुरा मत मानना भैया, हमने तो कसम खा रखी है... लेकिन जाने आलम ने कोई कसम नहीं खा रखी। क्या अवध के लिए उनकी कोई कसम नहीं होनी चाहिए?'
-'ठीक कहते हो पाण्डे...तुमने जो किया है, शायद ठीक ही किया है।'
-'अगर कुछ गलत कहूं तो टोक देना।'
तो यह था हमारे लखनवी जासूस चतुरी पाण्डे का पहला किस्सा।
उनके सभी कारनामे लिखे हैं। लेकिन जैसा कि बता चुका हूं पहले के बाद आखिरी किस्सा लिख रहा हूं। पहले किस्से के बाद आखिरी किस्से तक जाने कितना पानी गोमती में बह चुका है।
तब फिरंगी रेजीडेन्ट स्लीमन था, इसके बाद औटरम आया और अवध की नवाबी खत्म होकर रह गई। सुना है कि कलकत्ता में कोई मटिया बुर्ज नाम की जगह है, जहां हुजूर जाने आलम रहते हैं।
लेकिन आगे बयान करूंगा कि किस तरह पाण्डे जी...हमारे लखनवी जासूस, रेजीडेन्ट स्लीमन की आंखों में किरकिरी बन गये और मजबूर होकर जाने आलम को किस तरह उन्हें विदा करना पड़ा और किस तरह एक बार फिर उन्हें बुलाना पड़ा।
यह आखिरी किस्सा।
यह उन्होंने मुझे हनुमान मन्दिर की बगीची में नहीं, कई सवारों के साथ घोड़ा दौड़ाते हुए सुनाया था।
सरासर अंग्रेज रेजीडेन्ट को लल्लू बना कर यानि स्लीमन को उल्लू बना कर वह जा रहे थे। यह भी अपने आप में सनसनीखेज किस्सा है।
दरअसल पाण्डे जी आखिरी किस्से में समझ गये थे कि अब हुजूर जाने आलम फिरंगिओं के जाल में पूरी तरह फंस गये हैं और जरूरत है फिरंगिओं के खिलाफ बगावत की।
अफसोस की बात यही है कि उम्र हो जाने पर भी पाण्डे जी में सिपाही जैसी फुर्ती थी और सीने में वतन के लिए कुर्बानी का जज्बा था।
मैं यानि मुंशी अमानत, अपनी बैठक में बैठा इन्द्रसभा लिखने के बाद अब लखनवी जासूस के किस्से लिख रहा हूं। नहीं जानता कि मेरे छोटे भाई जैसे पाण्डे अब इस दुनिया में हैं भी या नहीं!
पूरे मुल्क में ही जंगे आजादी का दौर चल रहा है। लड़ाई शुरू तो हो जाती है, लेकिन खत्म कब और किस तरह होती है...इसके बारे में क्या और कैसे कहा जा सकता है!
कभी सुनता भी हूं...यह कि पाण्डे ने जंगे आजादी में यह-यह किया है। खुशी होती है कि पाण्डे तलवार का धनी है और मैं सिर्फ कलम कागज ही जानता हूं। नहीं जानता कि हम दोनों भाई कभी मिलेंगे भी या नहीं। लेकिन इस फानी दुनिया में आकर जाना तो पड़ता ही है।
कैसी बेकार की बातें लिखने लगा! कौन जाने यह, कभी जाने आलम के पास पहुंच ही जाये...तो अब सुनिए आखिरी किस्सा।
इतना सुनाने के बाद राजेश बोले-'तो यह हुआ पहला किस्सा। कहिए चचा नवाब साहेब, कैसा लगा?'
-'बहुत बढ़िया। मियां बेटे, हम तो हमेशा ही यह मानते रहे हैं कि दो सौ साल मुल्क फिरंगिओं का गुलाम रहा उसकी वजह हमारे अपने बुजुर्गों की गलतियां हैं। इसी किस्से की बात लो...अगर आखिरी नवाब हुजूर जाने आलम पाण्डे जी की सलाह मान कर अपनी तोपों को बढ़ाते और तोपखाना मजबूत करते तो तस्वीर दूसरी ही होती।'
परन्तु नवाब चची बोलीं-'रहने दीजिये, असली वजह थी महल में औरतों की फौज इकट्ठी कर लेना। भला कोई बात हुई कि जाने आलम अवध को भूल कर औरतों में गर्क हो गए। अब मेरे यहां मजाल है कि शेर अली एक के होते हुए दूसरी को ले आएं! तो फिरंगिओं ने मुल्क को लूट लिया, क्या इसकी वजह हमारे जाने आलम और दिल्ली वाले बादशाह नहीं थे?'
-'ठीक ही फरमाती हैं चची साहिबा, लेकिन उस जमाने में जो मामूली फौजी लड़के शहीद हुये उनकी तो तारीफ करनी ही होगी। अब दिल्ली के बादशाह, बिठूर के नाना साहेब, झांसी की रानी वगैरह इन सबका तो अपना स्वार्थ था...लेकिन खून बहा मामूली फौजी जवानों का। और उनमें मंगल पाण्डे और बख्त खां का नाम तो मिलता है...बाकी सभी फौजी जवान तो गुमनाम ही हैं।'
-'ठीक कहते हो राजेश बेटे।'
नवाव बोले-'खैर यह बात तो है ही, अब बेटे दूसरा किस्सा शुरू करो।'
-'दूसरा किस्सा कल। जरा बाहर जाकर देखिये कि कितनी बढ़िया पुरवाई चल रही है! आज पहली बार लखनऊ और उसके आस-पास शायद भारी वर्षा हो रही है।'
सचमुच, सभी किस्सा सुनने में ऐसे मगन थे कि वातावरण पर किसी का ध्यान ही नहीं था। अंधेरी छाई हुई थी और झमाझम वर्षा हो रही थी।
सभी उठ कर चले गए। उस कमरे में राजेश और जयन्त ही रह गए थे।
-'क्यों जयन्त, जैसे पाण्डे जी ने देख कर ही भांप लिया कि छम्मो और रुखसाना गर्भवती हैं...क्या हम ऐसा जान सकते हैं?'
-'हमें तो ऐसा सिखाया नहीं गया। वैसे भाई साहब, यह बताइए कि क्या इस किस्से को प्रमाणित मानते हैं?'
-'कागज तुम्हारे सामने हैं...देख लो। जितना पुराना किस्सा है, उतने ही पुराने कागज हैं। स्याही पुरानी होकर बदरंग हो गई है, यही आश्चर्य है कि कागजों में अभी तक दीमक क्यों नहीं लगी!'
-'बेशक मानता हूं कि कागज डेढ़ सौ वर्ष अथवा उससे अधिक पुराना है। प्रश्न दूसरा है।'
-'वह क्या?'
-'अमानत साहेब कौन थे?'
-'अमानत साहब का परिचय तो यही है कि उन्होंने नवाब वाजिदअली शाह के लिये इन्द्रसभा ऑपेरा लिखा।'
-'मानते हैं न इन्द्रसभा ऑपेरा काल्पनिक था।'
-'बेशक...उसमें राजा इन्द्र भी हैं और गुल्फाम भी है। सब्जपरी और लालपरी, लालदेव और कालादेव...सभी काल्पनिक ही हैं।'
-'ऐसा भी तो माना जा सकता है कि जिस तरह इन्द्रसभा ऑपेरा काल्पनिक है, उसी तरह यह किस्से भी काल्पनिक हो सकते हैं। अमानत साहेब एक अच्छे लेखक थे...बस।'
-'यह तर्क भी तो हो सकता है कि जब इन्द्रसभा लिखा गया, तब अमानत नवाब के आश्रित थे। परन्तु जब यह किस्से लिखे गये, नवाब को अंग्रेजों ने कलकत्ता ले जाकर एक प्रकार से नजरबन्द कर लिया था। अमानत तब किसी के भी आश्रित नहीं थे, इसलिए कि स्वतंत्रता संग्राम अथवा सिपाही विद्रोह आरम्भ हो चुका था।'
-'हां यह तो सही है। अब इसे क्या कहेंगे कि आपने मेरा विवाह बंगाली परिवार में करा दिया था। कभी नहीं बताया...आज बताता हूं कि आरम्भ में परेशानी हुई। हेमा तब हिन्दी या गुजराती नहीं जानती थी और मैं बंगाली भाषा नहीं जानता था। लगभग एक वर्ष हमारे बीच अंग्रेजी भाषा का माध्यम रहा। फिर मैं बंगाली भाषा समझने लगा और हेमा हिन्दी और गुजराती जान गई।'
-'कहना क्या चाहते हो?'
-'जब बंगाली भाषा जान गया तो हेमा जो अपने साथ बंगाली भाषा की पुस्तकें लाई थी वह भी पढ़ने लगा। शरत बाबू ने लिखा है...लेखक के अन्दर जो लेखन का विष होता है, इसी कारण लेखक तो हर स्थिति में लिखेगा ही। अगर समाज उसके लिये कोई व्यवस्था नहीं करेगा तो समाज का हित नहीं होगा।'
-'साबित हुआ कि बहुत पढ़ते हो। कोई फिल्म थी, उसके लिए सेंसर बोर्ड ने यह कहा कि पहले यह लिखिए कि यह कहानी वास्तविक नहीं है। उस समय बम्बई में एक लेखक थे, निर्देशक भी थे...जिया सरहदी, उन्होंने इस तरह लिखवाया...यह कहानी किवदन्तिओं पर आधारित है, और इतिहास ही क्या है...सर्वमान्य किवदन्तिओं को ही इतिहास कहते हैं।'
जयन्त हंसा-'ठीक है बड़े भाई, आपके साथ बहस नहीं करूंगा और यह स्वीकार करता हूं कि प्रमाणित हों या न हों...किस्से सभी दिलचस्प ही होंगे।'
बरसात का मौसम आरम्भ हो चुका था। उस रात...सारी रात वर्षा होती रही।
अगले दिन भी आकाश में घने बादल थे। नवाब साहेब बहुत खुश थे, बरसात आरम्भ होते ही आमों के भाव बढ़ जाते हैं।
अगले दिन...भोजन के बाद।
स्वयं नवाब साहेब ने आग्रह किया-'चलो बेटे, अब बड़े कमरे में बैठ कर किस्सा सुनेंगे।'
मौसम सुहावना था।
किस्से तो मेज पर बहुत से रखे हुए थे। परन्तु क्रम के अनुसार राजेश ने पहले किस्से के बाद आखिरी किस्सा आरम्भ किया।
कोई नहीं जानता था कि कामदेव के समान सुन्दर नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ की नवाबी परम्परा में अन्तिम शासक होंगे।
परन्तु शायद यह कथन गलत है, यूं कहना अधिक उचित होगा कि कोई लखनऊ प्रदेश का प्रजाजन यह नहीं जानता था कि नवाब अन्तिम नवाब होंगे।
हां, सम्भवतः कुछ ऐसे भी थे जो निश्चय ही यह जानते थे।
नवाब आंशिक रूप से ब्रिटेन की ईस्ट इन्डिया कम्पनी की आधीनता स्वीकार कर चुके थे। लखनऊ में अंग्रेजी फौजें भी थीं और अंग्रेज रेजीडेन्ट स्लीमन भी था। ईस्ट इन्डिया कम्पनी की तत्कालीन नीति के अनुसार स्लीमन प्रगट में तो नवाब का भला बना हुआ था, परन्तु अन्दर ही गुप्त रूप से विलियम फोर्ट के अंग्रेज गवर्नर जनरल को भेजने के लिए नवाब के खिलाफ अभियोग की सूची भी तैयार कर रहा था।
नवाब ने जैसे अपने आपको खुदा के हवाले कर दिया था। बेगमों की पूरी फौज भी और बेगमों से ज्यादा रखेलों और तवाइफों की रेजीमेंट थी। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए रेजीडेन्ट अक्सर वजीर अली नकी खां को शासन के कुप्रबन्ध सम्बन्धी पत्र भेजा करता था और अली नकी खां नवाब की लापरवाही के कारण कुछ अधिक स्वेच्छाचारी हो गया था। वह अपनी मस्ती में मस्त था।
लखनऊ के प्रतिष्ठित नागरिक दो भागों में बंटे हुए थे। एक भाग ऐसा था जिसकी वफादारी हर हालत में नवाब के लिए थी। दूसरा भाग ऐसा था जो रेजीडेन्ट की खुशामद में आमद समझता था।
ऐसा ही था सौदागर नबी बख्श।
दूर-दूर तक नबी बख्श के ऊंट और शिकरमें चलती थीं। नबी बख्श नवाब से अधिक रेजीडेण्ट का कृपा पात्र था।
यह घटना आज से ठीक दो सप्ताह पहले घटी कि नबी बख्श की हवेली से लाल लबादा पहने कुछ नकाबपोश जबरन नबी बख्श की जवान सड़की आयशा को ठीक आधी रात के वक्त उठा कर ले गये। नकाबपोश हवेली के पिछवाड़े से दीवार पर कमन्द डाल कर चढ़े और चोर होते हुए भी साहूकार की तरह हवेली के दरवाजे से गये। दोनों चौकीदार डर से ऐन मौके पर भाग गये।
नबी बख्श की लड़की का फौरन पता लगाया जाये।
अगर नबी बख्श की लड़की का पता नहीं लगाया गया तो आपकी शिकायत नवाब साहेब हुजूर बादशाह वाजिद अली बहादुर से की जायेगी।
चूंकि आपके सिपाही अभी तक नबी बख्श की लड़की का पता नहीं लगा सके हैं। लिहाजा तीसरे पहर बाद ठीक चार बजे आप शाही हुजूर में पहुंचें। मैं भी वहां पहुंच रहा हूं। हुजूरे आली से वक्त मुकर्रर किया जा चुका है।
इस प्रकार के तीन पत्र रेजीडेन्ट स्लीमन ने वजीर अली नकी खां को भेजे।
तीसरे पहर के बाद चार बजे।
केसर बाग स्थित बावन बुर्ज महलों की शाही बैठक में।
रेजीडेन्ट स्लीमन पहुंच चुके थे, वजीर अली नकी खां भी आ गये थे। दोनों के बीच दुआ सलाम भी हुई थी, परन्तु दोनों ही एक-दूसरे को शंकित दृष्टि में देख रहे थे।
परन्तु अभी तख़्त खाली था।
सारी बैठक वैभव का प्रतीक थी। फर्श पर लाल-गलीचे बिछे हुये थे। औरों के लिये गद्देदार कुर्सियां थीं, चांदी के तख्त पर विशुद्ध रेशम की बनी मसनद और गाव तकिये लगे थे।
कुछ देर बाद नक्कारे गूंजे। नकीब ने आवाज लगाई।
यह माघ का महीना था, सर्दी से दांत किटकिटाते थे...परन्तु केवल ढाके की मलमल का अंगरखा और सफेद चूड़ीदार पाजामा पहने नवाब वाजिद अली शाह ने बैठक में प्रवेश किया। हाथ में सटक थी, एक अफगानी बांदी सोने और चांदी के गंगा जमनी काम से बने हुक्के को साथ-साथ उठाये चल रही थी। बैठक खास खमीरी तम्बाकू की महक से भर गई।
रेजीडेन्ट स्लीमन और वजीर वली नकी खां ने आदाब बजाया।
नवाब मसनद पर बैठे।
रेजीडेन्ट की ओर देख कर बोले-'तशरीफ रखिये स्लीमन साहब, आप भी तशरीफ रखिये वजीरे आला।'
धन्यवाद देते हुये दोनों बैठ गये।
नवाब की आंखों में पड़े गुलाबी डोरे इस बात का प्रमाण थे कि शाही बैठक में आने से पहले वह किसी खूबसूरत साकी के हाथों से पी रहे थे।
नवाब बोले-'स्लीमन साहब...मंशा बयान कीजिये।'
स्लीमन उठे, फिर आदाब बजाया-'मैं एक शिकायत लेकर आया हूं हुजूर।'
मुस्कराये नवाब-'हमें आपसे यही उम्मीद है स्लीमन साहब। आप जब भी आयेंगे सिर्फ शिकायत ही लेकर आयेंगे। कभी बिना शिकायत के भी आया कीजिये। बहरहाल शिकायत बताइये।'
-'नबी बख्श सौदागर की जवान लड़की को कुछ बदमाश उठा कर ले गये। अरसा पन्द्रह दिन हुआ। तीन बार वजीर साहब को खत भेजा...लेकिन अभी तक उस लड़की का पता नहीं लगा।'
-'हूं।' नवाब ने दृष्टि फेर कर वजीर की ओर देखा।
-'बेशक जहांपनाह, साहब के तीन खत मुझे मिले। लेकिन कम से कम दस बार मैंने शहर कोतवाल को हुक्म दिया है कि शहर का, देहातों का चप्पा-चप्पा छाना जाए। कोशिशें जारी भी हैं। चूंकि साहब को इस मामले में दिलचस्पी है, इसलिये मैं खुद इसमें दिलचस्पी ले रहा हूं।'
-'हूं! लेकिन वजीरे आला, तुम्हारी दिलचस्पी का यकीन साहब को कैसे आये?'
-'मेरी लगातार दिलचस्पी को जाना जा सकता है कोतवाली का रोजनामचा देख कर। उसमें आला हजरत मेरे दस दस्तखत पायेंगे।'
-'लेकिन सवाल दस्तखतों का नहीं है, सवाल उस मामले का है जिसमें साहब की दिलचस्पी है।'
-'कोशिशें जारी है आला हजरत। अगर सौदागर की लड़की नदी में डूब कर मर नहीं गई है, अगर उसकी लाश को पानी के जानवर खा नहीं गये हैं तो एक दिन जरूर वह जिन्दा या मुर्दा बरामद कर ली जाएगी।'
-'हूं।' नवाब ने रेजीडेन्ट स्लीमन की ओर दृष्टि फेरी।
ऊंची गहरे रंग की कामदानी चूड़ीदार पाजामे जैसी पतलून, और लम्बी बालोंदार टोपी पहने रेजीडेन्ट साक्षात भेड़िया नजर आ रहा था।
-'स्लीमन साहब, हम अभी तक यह नहीं समझ पाये हैं कि आपने यहां आने की तकलीफ क्यों गंवारा की है? आपने वजीरे आला को खत भेजे...ठीक किया, खतों के जवाब भी आपको जरूर मिले होंगे। हम इस मुलाकात का साफ मकसद जानना चाहते हैं?'
-'हुजूर मकसद साफ है। मैं गवर्नर जनरल आफ इण्डिया का खादिम और कम्पनी बहादुर का नमकख्वार आपका ध्यान नवाबी में फैली बदइन्तजामी की ओर दिलाना अपना फर्ज समझता हूं।'
-'हूं।'
-'सौदागर की बेटी का मामला तो खास शहर में गुजरा बदइन्तजामी की एक मिसाल है।'
-'हूं।' यकायक नबाब का चेहरा तमतमा उठा। परन्तु दूसरे ही क्षण वह मुस्कराये और सटक मुंह से लगा कर पेचवान से कुछ कश लिये।
-'सुनिये स्लीमन साहब।'
अदब से स्लीमन झुका-'जी फरमाइये।'
-'मैं मानता हूं कि बदइन्तजामी है, लेकिन उसके जिम्मेदार न तो वजीरे आला हैं और न मैं। उसके जिम्मेदार हैं आप। अगर आप पसन्द करें तो गर्वनर जनरल साहब बहादुर को मैं एक खरीता भेजूं और बताऊं कि लखनऊ अमलदारी की बदइन्तजामी के जिम्मेदार हैं रेजीडेन्ट।'
-'हुजूर!' रेजीडेन्ट का चेहरा फक पड़ गया।
-'जब बात जबान पर आ ही गई है तो हमें कह लेने दीजिये स्लीमन साहब। हम वह कहते हैं जो आप कहना चाहते हैं। आप कहना चाहते हैं कि नवाब हर वक्त नशे में डूबे रहते हैं, बजा है। आप कहना चाहते हैं कि नवाब हर वक्त बेगमों और रखेलों से घिरे रहते हैं, यह भी ठीक है। लेकिन अब आप यह पूछिये कि ऐसा क्यों होता है? क्यों हम अमलदारी के काम में दिलचस्पी न लेकर अमानत के साथ इन्दरसभा का खेल खेलते हैं। वजह है...वजह यह है कि एक-एक करके आपने हकूमत की गाड़ी के पहिये निकाल दिये हैं। जिनके बूते पर हकूमत चलती थी। जो शख्स ईमानदार और जानशीन थे वह आपको न भाये और नतीजा यह हुआ कि आपकी वजह से वह लखनऊ शहर ही छोड़ कर चले गये।'
स्लीमन चुप। अलबत्ता चेहरे पर रोष था।
नवाब अब भी उत्तेजित थे।
वह कहे जा रहे थे-'सौदागर नबी बख्श के साथ जो बीती है, उसका मुझे रंज है और मलाल भी। लेकिन फिर सवाल वही पैदा होता है कि बदइन्तजामी का जिम्मेदार कौन है? हमने सारी अमलदारी को आपके और आपके कारिन्दों के हवाले कर दिया है...इसलिये कि आप ऐसा चाहते थे और शायद खुदा को भी ऐसा ही मन्जूर था। वजीरे आली...अली नकी खां के बारे में हम जानते है कि यह कोई बहुत बढ़िया वजीर नहीं हैं। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि आपकी नाराजगी इसलिये नहीं है कि यह नाकाबिल हैं, आपकी नाराजगी इनसे इसलिये है कि यह आपकी हां में हां नहीं मिलाते।'
-'हुजूर।' स्लीमन की मुखमुद्रा कठोर हो गई-'हुजूर, मैं सिर्फ बदइन्तजामी की शिकायत लेकर हाजिर हुआ हूं। मैं...!'
-'आप!' उपेक्षा से नवाब मुस्कराये-'आप सिर्फ यही चाहते हैं न कि नबी बख्श की लड़की का पता लग जाये?'
-'जी मैं...!'
-'आप शायद यह भी चाहते हैं कि नबी बख्श की लड़की को बरामद करने की मुद्दत तय हो जाये?'
-'बेशक हुजूर...मैं यही चाहता हूं।'
-'जो नबी बख्श की लड़की का पता लगाएगा...क्या सचमुच आप उसे लायक आदमी मानेंगे?'
-'बेशक हुजूर।'
-'हम आज आपसे वायदा करते हैं कि एक महीना की मुद्दत के अन्दर नबी बख्श की लड़की बरामद करा दी जायेगी।'
-'शुक्रिया हुजूर।'
शतरंज के विजेता खिलाड़ी की भांति मुस्कराते हुये नवाब मसनद से उतर कर खड़े हो गये और वजीर की ओर देख कर बोले-'अली नकी खां?'
-'हुक्म बन्दा परवर।'
-'हमारे नाम से एक खत लिखो। मौजा पाण्डे पुरवा के चतुरी पाण्डे के नाम।
चतुरी पाण्डे का नाम सुन कर रेजीडेन्ट स्लीमन की भौंहों में बल पड़ गये।
-'जो हुक्म आलीजहां।'
-'चतुरी पाण्डे को लिखो कि पाण्डे, नवाब ने तुम्हें याद किया है। उनकी किसी मामले को लेकर शर्त लगी रेजिडेन्ट स्लीमन साहब से। अगर खाना पाण्डे पुरवा में खाते हो तो पानी लखनऊ में आकर पियें। अकेल न आयें, अपने किसी शागिर्द को भी लेते आयें। खत अभी फ़ौरन घुड़सवारों के जरिये भेजो, हम कल सुबह आंखें खोलें तो अपने सामने पाण्डे को पायें।'
-'जो हुक्म।'
-'स्लीमन साहब।'
-'जी हुजूर।'
-'मेरा ख्याल है कि चतुरी पाण्डे को आप भूले नहीं होंगे। अमलदारी के कुछ सच्चे आदमियों में एक वह बूढ़ा भी था, शायद आपको यह भी याद होगा कि आपने ही अपनी सिफारिश पर नवाबी नौकरी से बरतरफ कराया था। जाने ऐसे कितने आदमियों से आपने लखनऊ छुड़वा दिया। सिर्फ इसलिए कि वे मेरे वफादार थे आपके नहीं। अब देखियेगा लखनऊ के मशहूर जासूस चतुरी पाण्डे का करिश्मा।'
रेजीडेन्ट को अपने निर्णय पर पछतावा हुआ।
अक्सर ऐसा होता था कि जब भी वह आता था नवाब गहरे नशे में होते थे और उसकी बात का निर्णय उसी के पक्ष में होता था। आज वह वजीर को अपमानित करना चाहता था... परन्तु हुआ कुछ और।
चतुरी पाण्डे।
पाण्डे पुरवा के चतुरी पाण्डे।
लखनऊ की नवाबी में एक हुए थे असगर अली जासूस। नवाब सादत खां के जमाने में। कहा जाता है कि सिर्फ एक बाल देख कर हजारों के बीच उस बाल वाले को पहचान लेना असगर अली के लिए मामूली बात थी।
असगर अली की ही शिष्य परम्परा में थे चतुरी पाण्डे।
उम्र थी लगभग पचास के आस-पास। रंग सांवला, कद ऊंचा, परन्तु बदन इकहरा। निगाहें धूर्तता भरी, किन्तु चेहरे पर सदा मुस्कान।
पूरे तीस वर्ष चतुरी पाण्डे लखनऊ की नवाबी सरकार की सेवा में रहे। एक चतुरी पाण्डे ही थे जिनके नाम से ठग घबराते थे, चोरों का दम खुश्क होता था और डकैत लखनऊ की ओर मुंह करके भी न सोते थे। परन्तु एक घटना ऐसी घटी जिसके कारण पाण्डे जी को लखनऊ छोड़ कर अपने पैतृक स्थान पाण्डे पुरवा में आकर बूढ़े होने से कुछ पहले ही बस जाना पड़ा। यूं अपनी स्थिति से असन्तुष्ट नहीं थे पाण्डे जी, नवाब का दिया हुआ बहुत कुछ था। नगद एक सौ एक मुहरें विदाई के समय दी थीं। इसके अतिरिक्त पाण्डे जी के अपने दो आम के बाग थे, दो हल की खेती थी। घर की बैठक के बाहर ही छोटा-सा अपना ताल था जिसमें सिंघाड़े लगते थे, कमल खिलते थे। पुत्र था, पुत्रवधु थी। यूं बेटी भी थी, नाती भी था। एक पोती थी, सारा दिन उसी को खिलाते बहलाते बीतता था। द्वार पर दो बढ़िया नस्ल के घोड़े बंधे रहते थे...यह चतुरी पाण्डे की सम्पन्नता के प्रतीक थे।
इनका लखनऊ छोड़ना भी लखनऊ के लिए एक कहानी बन कर रह गया था।
पिछले साल की बात है, दिन दहाड़े एक बूढ़ी औरत को जो कमर से चांदी के कलदार की न्यौली बांध कर गांव से लखनऊ आने के लिए चली थी। रास्ते में किसी ने कत्ल कर दिया और लूट लिया। वह घटना लखनऊ के निकट ही केवल आधे कोस के फासले पर हुई थी।
मामला चतुरी पाण्डे को सौंपा गया। चतुरी पाण्डे ने बड़ी सफाई से कातिल को ढूंढ निकाला।
कातिल था बेली गारद का एक गोरा सैनिक। उसके पास से चतुरी पाण्डे ने बुढ़िया का माल भी बरामद किया और माल सहित गोरे को लखनऊ के शहर कोतवाल के सुपुर्द कर दिया।
एक गोरा काजी की अदालत से सजा पाये...यह रेजीडेन्ट को गंवारा न हुआ। रेजीडेन्ट ने वजीर अली नकी खां पर दबाव डाल कर गोरे को हाजत से छुड़वा लिया।
बात चतुरी पाण्डे को अखर गई।
और!
एक दिन किसी अपरिचित ने उसी गोरे की नाक जड़ से साफ कर दी। रोता झींकता गोरा रेजीडेन्ट के पास पहुंचा। बात बढ़ी। परन्तु चतुरी पाण्डे ने डंके की चोट कहा-'नाक काटने वाले को ढूंढने का सवाल ही नहीं पैदा होता। नाक किसी और ने काटी है, लेकिन नाक कटवाई हमने है। हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि हमारे होते हुए बेइन्साफी हो। जो मुजरिम हो उसे सजा मिलनी ही चाहिये।'
इस बात को लेकर बड़ा घपला मचा। रेजीडेन्ट स्लीमन इस बात पर तुल गये कि चतुरी पाण्डे को उनके हवाले किया जाये। अली नकी खां चुप्पी लगा गये। परोक्ष रूप से चतुरी पाण्डे ने रेजीडेन्ट को चेतावनी दी कि अगर उसने कोई गड़बड़ की तो वह उसकी भी नाक कटवा लेंगे।
बात बढ़ी और बढ़ती ही गई।
अन्त में रेजीडेन्ट ने नवाब को झुकने के लिए बाध्य कर ही दिया।
निर्णय हुआ कि चतुरी पाण्डे को सरकारी सेवा से मुक्त कर दिया जायेगा और सेवा से मुक्त होने के बाद चतुरी पाण्डे लखनऊ में नहीं रहेंगे।
मजबूर थे नवाब वाजिद अली शाह।
अलबत्ता उन्होंने जो चतुरी पाण्डे के लिए किया, वह उन्होंने उससे पहले और उसके बाद कभी किसी सरकारी मुलाजिम के लिए नहीं किया।
चतुरी पाण्डे के लिए नवाब ने एक खास जलसा किया था जिसमें पाण्डे जी को बड़ी स्नेहपूर्ण विदाई के साथ-साथ एक सौ एक मोहरें चांदी की थाली में अपने हाथ से भेंट की और खिताब दिया...फरजन्दे खास, दौलते लखनऊ।
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