मैं नगर में पहुंचा ।
कार वाले को मैं नगर से इतना बाहर छोड़ आया था कि कम-से-कम एक घण्टा वह पुलिस से सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकता था और जब वह पुलिस को मेरे बारे में कुछ बताता तो यही कहता कि मैं नगर से बाहर की तरफ गया था ।
यानी कि वक्ती तौर पर मैं सुरक्षित था ।
कार के डैश बोर्ड में घड़ी लगी हुई थी जिसके अनुसार उस वक्त रात के साढे आठ बजने को थे ।
कार को मैंने जयपुर रेलवे स्टेशन के पास छोड़ दिया ।
वहां कार छोड़ने के पीछे भी मेरा यही मन्तव्य था कि अगर कार वाले के बयान के अनुसार मुझे पुलिस नगर से बाहर की तरफ गया न समझे तो कार बरामद हो जाने पर समझे कि मैं शायद रेल के रास्ते वहां से खिसकने में कामयाब हो गया था ।
कार छोड़ने से पहले मैंने कार के रियर व्यू मिरर में अपनी सूरत देखी । मेरा चेहरा सूजकर फूल आया था जिसकी वजह से मेरी आंखें भीतर को धंसी लग रही थी । चेहरे पर दो दिन की शेव भी मौजूद थी और दायें गाल पर आंख के नीचे खून की पपड़ी जमी हुई थी । परेशानी और बद्हवासी ने मेरा हाल बेहाल वैसे ही किया हुआ था । उन हालात में मुझे उम्मीद नहीं थी कि कोई मेरी सूरत पहचान पाता ।
मैं पैदल एक तरफ बढा ।
एक पैट्रोल पम्प पर मुझे पब्लिक टेलीफोन बूथ दिखाई दिया ।
मैं बूथ में दाखिल हो गया । मैंने टेलीफोन डायरेक्ट्री में ठाकुर कृपाल सिंह का नाम तलाश करना आरम्भ किया । सौभाग्यवश डायरेक्ट्री में उसका नाम था । आखिर उसने नगर का बड़ा वकील होने का दावा किया था ।
मैंने उसके नाम के आगे अंकित टेलीफोन नम्बर पर फोन किया ।
थोड़ी देर बाद मुझे ठाकुर कृपाल सिंह की उनींदी-सी आवाज सुनाई दी - “हैलो । कौन है ?”
“हैलो !” - मैं उच्च स्वर में बोला - “ठाकुर साहब, क्या आपको मालूम है कि मिस्टर अल्बर्टो जयपुर में कहां ठहरे हुए हैं ?”
“कौन मिस्टर अल्बर्टो ?”
“अल्बर्टो कोटीनो डिकास्टो फ्रान्सिस ।” - मैं बोला, वह अल्बर्टो का पूरा नाम था - “जो गोवा से आये हैं और जिन्होंने आज सुबह आपको मिस्टर बसन्त कुमार का केस सौंपा था ।”
“ओह, वह ! आप कौन बोल रहे हैं ।”
“मैं उनका एक दोस्त हूं । उन्होंने कहा था कि वे जयपुर आ रहे थे और आते ही मुझसे मिलेंगे, लेकिन वे मिले नहीं । सोचा मैं ही मिलूं उनसे । उन्होंने आपका जिक्र किया था । मैंने सोचा शायद आपको खबर हो कि वे जयपुर में कहां हैं ।”
“मिस्टर अल्बर्टो राजस्थान स्टेट होटल में हैं ।”
फिर उसने सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया । न जाने क्यों मुझे लग रहा था कि मेरा घिस्सा चला नहीं था । वह खूब जानता था कि मैं कौन बोल रहा था ।
फिर मैंने राजस्थान स्टेट होटल का नम्बर देखा और उस पर टेलीफोन किया ।
मैं जानता था कि अल्बर्टो से मैंने बड़ी सावधानी से बात करनी थी । हो सकता था कि पुलिस को उसकी पूरी खबर हो । आखिर मैंने पुलिस के सामने गोवा ट्रंक कॉल करके उसे बुलवाया था इसलिए यह मुमकिन था कि पुलिस अल्बर्टो के पास मेरा टेलीफोन आने की उम्मीद कर रही हो और वे लोग टेलीफोन की लाइन टेप करवाये बैठे हों ।
दूसरी ओर से उत्तर मिला तो मैंने गोवा से आये मिस्टर अल्बर्टो से बात करने की इच्छा व्यक्त की ।
लगभग फौरन ही अल्बर्टो लाइन पर आ गया ।
“हैलो ।” - वह बोला ।
“हैलो, अल्बर्टो !” - मैं सावधानी से बोला - “कैसे हो ?”
मैं आशा कर रहा था कि वह मेरी आवाज फौरन पहचान लेगा ।
“हैलो कैशियर !” - वह भावहीन स्वर में बोला - “तुम कैसे हो ?”
वह निश्चय ही मेरी आवाज पहचान गया था ।
सोल्मर नाइट क्लब में मेरा पदार्पण वहां के कैसीनो के कैशियर के रूप में हुआ था ।
“ठीक हूं । बड़ी मुद्दत हो गई तुमसे मुलाकात हुए । क्या ख्याल है, कहीं एक-एक जाम हो जाये ?”
“कहां ?”
“चिराग तले ।” - मैं अर्थपूर्ण स्वर में बोला । मुझे पूरी उम्मीद थी कि अल्बर्टो समझ जायेगा कि मैं उसे छोटी चौपड़ पर पुलिस की नाक के नीचे मिलने का संकेत दे रहा था ।
“ओके मैं फौरन पहुंच रहा हूं ।”
“थैंक्यू । लेकिन अकेले आना । खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो ।”
“ओके ।”
वह समझ गया था कि मैं उसे कह रहा था कि वह सावधान रहे कि कोई उसका पीछा न कर रहा हो ।
मैंने रिसीवर को हुक पर टांग दिया और बूथ से बाहर निकल आया ।
पैसों के नाम पर अब एक इकलौती अठन्नी मेरे पास बाकी थी ।
एक बस पर सवार होकर मैं छोटी चौपड़ पहुंचा ।
वहां मुझे चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ होने की पूरी उम्मीद थी । पुलिस वाले सोच भी नहीं सकते थे कि मैं कोतवाली के आसपास फटकने की हिम्मत कर सकता था ।
अल्बर्टो वहां पहले ही पहुंच चुका था ।
मैं उसके समीप पहुंचा ।
उसने मुझे बड़ी कठिनाई से पहचाना ।
मैंने उसकी बांह में बांह डाली और हम दोनों किशन पोल बाजार की तरफ चलने लगे ।
“किसी ने तुम्हारा पीछा तो नहीं किया ?” - रास्ते में मैंने पूछा ।
“किसी ने ऐसी कोशिश की तो थी ।” - अल्बर्टो गम्भीरता से बोला - “लेकिन मैंने उससे पीछा छुड़ा लिया था ।”
“ओह !”
“किस्सा क्या है पार्टनर ?”
“अल्बर्टो, मैंने उस लड़की का कत्ल नहीं किया । कसम वाहे गुरू दी ।”
“जरूर नहीं किया होगा । मुझे तुम पर पूरा विश्वास है और फिर तुम्हारे जैसे आदमी को छोकरी हासिल करने की खातिर उसका कत्ल करना पड़ जाए, यह मैं नहीं मानता । लेकिन अखबार वाले, पुलिस और वकील यही कहते हैं कि कत्ल तुमने...”
“अच्छा वकील चुना तुमने मेरे लिए ! कहता था कि कत्ल मैंने किया है या नहीं किया है, मैं यह कबूल करूं कि मुझ पर पागलपन का दौरा पड़ गया था और वक्ती जुनून के हवाले होकर मैंने कत्ल कर दिया था ।”
“मैंने खूब पूछताछ करके ठाकुर कृपाल सिंह को चुना था । वह यहां का सबसे नामी वकील है वह कहता था कि इसी बात में तुम्हारे बचाव की कोई गुंजाइश थी ।”
“अब मुझे उसका बचाव नहीं चाहिए । अब मैं आजाद हूं ।”
“आजाद हो लेकिन सुरक्षित नहीं हो । अगर तुम्हारे दिमाग में जयपुर से भाग निकलने का ख्याल है तो ख्याल फिलहाल त्याग दो । पुलिस ने नगर से निकासी के तमाम रास्तों की बहुत तगड़ी नाकाबन्दी की हुई है ।”
“ठीक है । पुलिस की सरगर्मियों में ढील आने तक मैं जयपुर में छिपा रह सकता हूं, लेकिन उस दौरान मैं हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा रहना चाहता ।”
“तो क्या करना चाहते हो ?”
“मैं कंचन के हत्यारे को तलाश करना चाहता हूं ।”
“नामुमकिन ! मौजूदा हालात में यह तुम्हारे वश का काम नहीं । खामखाह फंस जाओगे तुम । नगर के चप्पे-चप्पे में पुलिस तुम्हें तलाश करती फिर रही है और तुम असली हत्यारे की फिराक में पड़ना चाहते हो । यह तो ‘आ बैल मुझे मार’ वाली बात हो गई ।”
“जो होगा देखा जायेगा ।”
“तुम छिपोगे कहां ?”
“उसकी तुम चिन्ता मत करो । मैं कोई जगह तलाश कर लूंगा ।”
“तुम मुझसे क्या मदद चाहते हो ?”
“मिर्जा इस्माइल रोड पर मेरा मोटर मैकेनिक गैरेज है । अगर पुलिस ने उसे सील न कर दिया हो तो तुम मुझे वहां से मेरी जरूरत का कुछ सामान ला दो ।”
“क्या ?”
मैंने उसे बता दिया कि मैं क्या-क्या चाहता था । मैंने उसे गैरेज की चाबी सौंप दी ।
“और अगर वहां से कुछ लाना मुमकिन न हुआ तो ?”
“तो कल बाजार से सामान खरीद कर देना ।”
मेरा गैरेज वहां से ज्यादा दूर नहीं था । अजमेरी गेट तक मैं उसके साथ आया । फिर मैंने उसे आगे का रास्ता बताकर वहां से रवाना कर दिया और स्वयं वहीं ठहर गया ।
कोई बीस मिनट बाद वह एक सूटकेस हाथ में लटकाये लौटा ।
मेरी जान में जान आई ।
उसने सूटकेस मुझे सौंप दिया और बोला - “और यह भी रख लो ।”
उसने मेरे खाली हाथ में जबरन कोई भारी-सी चीज धकेल दी ।
मैंने देखा वह एक रिवॉल्वर थी ।
“भरी हुई है ।” - अल्बर्टो बोला - “शायद काम आये ।”
मैंने रिवॉल्वर अपने कोट की भीतरी जेब में रख ली ।
“थैंक्यू !” - मैं बोला - “अल्बर्टो, अभी तुम जयपुर से चले मत जाना । जरूरत पड़ने पर मैं तुम्हारे होटल में फोन करूंगा लेकिन बात कुछ नहीं करूंगा । मेरा फोन आने का मतलब होगा कि तुमने फौरन मुझे यहीं मिलना है ।”
“ओके ।”
“और एक बात और । दिलावर सिंह नाम के एक आदमी के बारे में कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश करो ।”
“वो कौन है ?”
मैंने उसे दिलावर सिंह के बारे में सब कुछ कह सुनाया ।
“कमाल है !” - अल्बर्टो मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला - “इस आदमी ने इतना खतरा उठाकर तुम्हें पुलिस के चंगुल से छुड़ाया तुमसे ऐसी बात पूछने के लिए जो कि तुम जानते नहीं ।”
“कमाल तो है ही ।”
“ओके । मैं दिलावर सिंह के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश करूंगा ।”
“थैंक्यू ।”
फिर मैंने अल्बर्टो से हाथ मिलाया और उससे अलग हो गया ।
मैं एक रिक्शा पर सवार हुआ और जोरावर सिंह गेट से कोई आधा मील बाहर जाकर उतर गया । सूटकेस में से पैसे निकालकर मैंने रिक्शा वाले का किराया चुकाया और वहां से पैदल आगे बढ़ा ।
थोड़ी ही दूर एक हवेली के खण्डहर थे और वही मेरी मंजिल थी । मैंने एक बार अजमेर जाते समय उस खण्डहर बनी इमारत को देखा था और मुझे उम्मीद थी कि उस वक्त वह मेरे छिपने के लिए बड़ी अच्छी जगह साबित हो सकती थी ।
चांद की रोशनी में मैं उन भुतहा-से खण्डहरों के भीतर दाखिल हुआ । मैं गिरता-पड़ता, ठोकरें खाता उसकी पहली मंजिल के एक लगभग सलामत लेकिन धूल और मकड़ी के जालों से भरे कमरे में पहुंचा ।
वहां पहुंचते ही सबसे पहले मैंने सूटकेस के भीतर झांका । अल्बर्टो खाने-पीने का काफी सामान लाया था । मैं जन्म-जन्म के भूखे की तरह खाने पर टूट पड़ा ।
उसके बाद मैंने सूटकेस में से अपना हिप्पी परिधान निकाला । मैंने अपने जिस्म के कपड़े उतार दिये और सबसे पहले कुत्ते के कानों जैसे कालरों वाली स्किन फिट काली कमीज पहनी जिसकी पीठ पर अर्धवृत्ताकार शब्दों लिखा था - बैन दी बम । अपने सिर पर मैंने क्रिकेट के खिलाड़ियों जैसी वह टोपी जमाई जिसके अग्रभाग में बने एक वृत्त में धागे से कढा हुआ था - पीस । मैंने अपने गले में वह पीतल का कण्ठा पहना जिस पर गुदा हुआ था - मेक लव नॉट वार । आखिरी काम को अंधेरे में, केवल टॉर्च की रोशनी में, अंजाम दे पाना काफी कठिन था लेकिन किसी तरह मैंने वह भी किया । मैंने अपनी आंखों की पुतलियों पर से काले कॉन्टैक्ट लैंस उतारकर उनके स्थान पर नीले लैंस लगाये और नाक की फुंगी पर तार के फ्रेम वाला, बिना नम्बर के शीशों वाला बड़ा-सा चश्मा टिका लिया । फिर मैंने अल्बर्टो की दी रिवॉल्वर अपनी जैकेट के भीतर छुपा ली ।
सूटकेस में सौ-सौ के नोटों की सूरत में पचास हजार रुपये भी मौजूद थे लेकिन वक्ती तौर पर वे मेरे किसी काम के नहीं थे । वह रुपया बीकानेर बैंक की डकैती के रुपये का एक अंश था और उसी शहर में उसे खर्च करने की कोशिश करना मुसीबत का बायस बन सकता था ।
लेकिन सूटकेस में मिले-जुले नोटों की सूरत में सात-आठ सौ रुपये और भी मौजूद थे, जो मैंने अपनी पतलून की जेब में रख लिए ।
अन्त में मैंने अपने कपड़े और अन्य सब साजो-सामान खण्डहरों में ही एक सुरक्षित स्थान पर छुपा दिया ।
मैं वहां से बाहर निकला और फिर गुलाबी नगर की तरफ बढा । जोरावर सिंह गेट से पहले मुझे किसी सवारी के दर्शन न हुए । वहां से मैं एक थ्री-व्हीलर स्कूटर पर सवार हुआ और आदर्श नगर पहुंचा ।
वहां सागर अपार्टमेंट्स तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई ।
वह एक अत्याधुनिक पांच मंजिली इमारत थी जिसमें कंचन ने बताया था कि उसका फ्लैट था । मैं हैरान था कि एक नाइट क्लब होस्टेस उस आलीशान इमारत में फ्लैट लेकर रहना कैसे अफोर्ड कर सकती थी ?
तो क्या कोई और उसे वहां उस फ्लैट में रखे हुए था ?
मेरे मस्तिष्क में नई-नई संभावनाएं पनपने लगीं ।
मैं झिझकता हुआ इमारत के कम्पाउंड में दाखिल हुआ ।
कम्पाउंड में ड्राइव-वे पर एक खुली छत वाली विलायती कार खड़ी थी जिसकी अगली सीट पर एक-दूसरे की बांहों में सिमटा एक जोड़ा मौजूद था ।
मैं ठिठक गया ।
मैं चाहता था कि कार वहां से हिल ले तो मैं आगे बढूं लेकिन कार में जो प्रोग्राम चल रहा था, उसको देखते हुए मुझे कार का फौरन वहां से हिलना मुमकिन नहीं लग रहा था ।
एकाएक मेरे कानों में लड़की की खनकती-सी हंसी पड़ी और फिर उसने लड़के को अपने से परे धकेल दिया । चांद की रोशनी में मैंने देखा कि लड़की अपनी कालर वाली कमीज के बटन व्यवस्थित कर रही थी ।
लड़के ने उसे दबोचने की कोशिश की लेकिन लड़की ने उसकी कोशिश कामयाब न होने दी ।
“अभी सब्र करो, अनिल ।” - वह बोली - “पहले मेरे साथ भीतर चलो ।”
“पागल हुई हो क्या ?” - लड़का बौखलाए स्वर में बोला - “मैं नहीं जाने का ।”
“तो फिर मैं खुद जाऊंगी ।” - वह धमकी भरे स्वर में बोली ।
“जाती हो तो जाओ, लेकिन मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी इस खतरनाक हरकत में शामिल नहीं होना चाहता ।”
“डरपोक !” - वह तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली । मुझे उसकी आवाज यूं लगी जैसे नशे में थरथरा रही हो ।
फिर वह कार से बाहर निकली । मैंने देखा कि वह भरपूर जवान लेकिन ज्यादा-से-ज्यादा बीस साल की लड़की थी । वह एक बैलबॉटम जीन और मुश्किल से कमर के खम तक पहुंचने वाली मरदाने कटाव की कमीज पहने हुए थी । उसके बाल कटे हुए थे और चेहरा चांद की रोशनी में चांद जैसा ही सुन्दर लग रहा था ।
“इन्तजार करने में कुछ हासिल दिखाई दे तो मेरा इन्तजार कर लेना ।” - वह लड़के से बोली ।
“कुछ क्या, सभी कुछ हासिल है, डार्लिंग ।” - लड़का बोला - “मेरी निगाह में नुक्स तुम्हारे दिमाग में है, तुम्हारे जिस्म में नहीं ।”
“डरपोक ! मैं डरपोक आदमी से मुहब्बत नहीं करती ।”
“करने लगोगी । एक-एक ड्रिंक हो जाने के बाद देखना क्या होता है !” - लड़के के स्वर में सम्पूर्ण आत्मविश्वास का पुट था ।
लड़की घूमकर आगे बढ़ी और इमारत का मुख्य द्वार ठेलकर भीतर दाखिल हो गई । दरवाजा उसके पीछे अपने आप बन्द हो गया ।
कार में बैठे लड़के ने एक सिगरेट सुलगा लिया और सीट के साथ सिर टिकाकर आसमान की ओर धुंआ उड़ाने लगा ।
मैं चुपचाप आगे बढा ।
लड़के का ध्यान मेरी तरफ नहीं था ।
उसने मुझे इमारत के भीतर दाखिल होते नहीं देखा ।
इमारत की लॉबी ट्यूब लाइटों से प्रकाशित थी । एक ओर लिफ्ट थी जिसका पिंजरा उस वक्त उस फ्लोर पर नहीं था । उसकी बगल में ही सीढियां थीं । लॉबी उस वक्त सुनसान पड़ी थी । मैं कुछ क्षण ठिठका-सा लिफ्ट के पास खड़ा रहा फिर मेरी निगाह लॉबी के पृष्ठभाग में बने एक दरवाजे पर पड़ी जिस पर कि मैनेजर लिखा हुआ था ।
मैंने दरवाजे पर दस्तक दी ।
एक थुलथुल-से आदमी ने दरवाजा खोला ।
मैं उसे जबरन पीछे धकेलता हुआ भीतर दाखिल हुआ । मैंने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
“यह क्या हरकत हुई ?” - वह क्रोधित स्वर में बोला ।
“तुम मैनेजर हो ?” - मैंने पूछा ।
“हां, लेकिन...”
“बैठ जाओ ।”
“लेकिन...”
“सुना नहीं !”
“लेकिन...”
मैंने जेब से रिवॉल्वर निकालकर उसे दिखाई ।
उसके छक्के छूट गये । वह फौरन एक कुर्सी पर ढेर हो गया । उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं । वह कम्पित स्वर में बोला - “मेरे पास कुछ नहीं है । मैं गरीब आदमी हूं ।”
“मुझे तुमसे सिर्फ जानकारी चाहिए ।”
“कैसी जानकारी ?”
“इस इमारत के एक किरायेदार के बारे में जानकारी ।”
“कौन किरायेदार ?”
“कंचन ।”
“कंचन ! वह तो मर गई ।”
“मैं यह जानना चाहता हूं कि उससे नियमित रूप से कौन मिलने आता था । उसका कोई बॉय फ्रैंड तो जरूर होगा और झूठ मत बोलना वरना प्राण शरीर से किनारा कर जायेंगे ।”
“नहीं, नहीं । मैं भला झूठ क्यों बोलूंगा ! इन रईस लोगों ने मुझे कौन-सा मैडल दे देना है जो उनकी खातिर मैं अपनी जान का खतरा उठाऊंगा !”
“शाबाश !”
“कंचन से मिलने एक आदमी यहां नियमित रूप से आया करता था ।”
“कौन आदमी ?”
“वह आदमी इस नगर की बहुत बड़ी हस्ती है । शाही खानदान से रिश्ता है उसका । प्रीवीपर्स भी मिलता था । उसकी कई मिलें हैं और वह...”
“नाम बोलो उसका ।”
“रूप सिंह शेखावत ।”
वह नाम मेरा भी सुना हुआ था । रूप सिंह शेखावत वाकई बड़ी हस्ती था ।
ऐसे आदमी की कंचन से आशनाई !
“कंचन यहां अपने फ्लैट में अकेली रहती थी ?” - मैंने पूछा ।
“हां ।” - उत्तर मिला ।
“इस वक्त उसका फ्लैट खाली पड़ा है ?”
“हां ।”
“नम्बर बोलो ।”
“ग्यारह । तीसरी मंजिल पर ।”
“चाबी निकालो ।”
“भाई साहब, उसके फ्लैट की चाबी का मेरे पास क्या काम ?”
“बको मत । चाबी निकालो ।”
उसने मेज की दराज में से एक चाबी निकालकर मेरे सामने रख दी और बोला - “यह चाबी उसके फ्लैट की है तो नहीं लेकिन मुझे उम्मीद है कि लग जायेगी ।”
“न लगी तो तुम्हारी खैर नहीं ।” - मैं चाबी उठाता हुआ बोला ।
“लग जायेगी ।” - इस बार वह विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“एक बात और बताओ ।” - मैं बोला - “हाल में ही इस रूप सिंह शेखावत और कंचन में कोई लड़ाई-झगड़ा तो नहीं हुआ था ?”
“मुझे क्या मालूम ?”
“सोच लो । शायद मालूम हो ।”
“मुझे नहीं मालूम, जनाब ।”
“कंचन से मिलने और कौन आता था ?”
“बहुत लोग आते थे, लेकिन नियमित रूप से आने वाला केवल एक ही आदमी था । शेखावत । वह हमेशा अकेला आता था और रात को आता था ।”
“कंचन उसकी रखैल थी ?”
“अब मैं क्या कहूं साहब !”
मुझे और कोई सवाल नहीं सूझा ।
उसके बाद वहां से एक रस्सी तलाश करके मैंने उसके हाथ-पांव बांध दिये और उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया । वह काम मैं करना नहीं चाहता था लेकिन मेरी मजबूरी थी । पता नहीं उसने मुझे पहचाना था या नहीं, लेकिन मैं रिस्क नहीं लेना चाहता था ।
मैं तीसरी मंजिल पर पहुंचा ।
मैंने धीरे से चाबी लगाकर कंचन के फ्लैट का मुख्य द्वार खोला और भीतर दाखिल हुआ । वह एक कई कमरों का बड़ा शानदार फ्लैट था ।
पिछवाड़े के किसी कमरे में बत्ती जल रही थी ।
मैं ठिठक गया ।
उस फ्लैट में रोशनी का क्या काम ?
फिर मुझे कहीं से पदचाप सुनाई दी ।
मैं सावधान हो गया । मैंने रिवॉल्वर फिर निकालकर अपने हाथ में ले ली ।
मैं दबे पांव गलियारे में आगे बढा ।
पदचाप मुझे उसी कमरे की तरफ से सुनाई दी थी जिसमें रोशनी थी ।
मैं उस कमरे के सामने पहुंचा ।
दरवाजा खुला था । मैं उसके सामने ठिठककर खड़ा हो गया ।
वह एक बड़े ऐश्वर्यशाली ढंग से सजा हुआ विशाल बैडरूम था । परले सिरे की सारी दीवार के साथ वार्डरोब बनी हुई थी । उसके दरवाजे उस वक्त खुले थे और उसके सामने मेरी ओर पीठ किये वही लड़की खड़ी थी जिसे थोड़ी देर पहले मैंने खुली कार में से निकलकर इमारत में दाखिल होते देखा था । वह वार्डरोब में हैंगरों पर टंगी ड्रैसें टटोल रही थी ।
एकाएक किसी प्रकार उसे मेरी उपस्थिति का आभास हो गया । वह घूमी । मुझे देखकर उसके नेत्र फैल गये और उसका मुंह यूं खुला जैसे वह चीखने लगी हो ।
“खबरदार !” - मैंने रिवॉल्वर उसकी तरफ तान दी - “आवाज न निकले ।”
चीख उसके गले में घुटकर रह गई ।
मैं भीतर दाखिल हुआ और उसकी तरफ बढा ।
उसके समीप पहुंचकर मैंने देखा कि जितनी खूबसूरत वह मुझे इमारत के बाहर चांद की रोशनी में लगी थी, वह उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत थी ।
“मुझे मारना मत ।” - वह भर्राये स्वर में बोली ।
“मैं भला क्यों मारूंगा तुम्हें ?” - मैं बोला ।
“क्योंकि... क्योंकि तुम हत्यारे हो ।”
“हत्यारा !”
“हां । कंचन का कत्ल तुमने किया है ।”
“मुझे पहचाना कैसे तुमने ? मेरे फरार होने की खबर तो अभी कल के अखबार में छपेगी ।”
“रेडियो पर तुम्हारा हुलिया ब्रॉडकास्ट हो चुका है ।”
“इतने से ही तुमने मुझे पहचान लिया ? मैंने तो अपने में कई तब्दीलियां की हैं ।”
“मैंने पहचान लिया ।”
“बहुत होशियार हो ।”
वह खामोश रही ।
“तुम्हारे पास इस फ्लैट की चाबी कहां से आई ?”
“मुझे कंचन ने दी थी ।”
“कब ?”
“बहुत अरसा हो गया ।”
“तुम उसे जानती हो ?”
“हां । खूब अच्छी तरह से ।”
“अब तुम यहां क्या कर रही हो ?”
“यहां मेरे कुछ कपड़े मौजूद हैं । मैं उन्हें लेने आई थी ।”
मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ ।
“तुम कौन हो ?” - मैंने पूछा ।
“मैं कंचन की सहेली हूं ?”
“वह तो हुआ । नाम क्या है तुम्हारा ?”
“शीतल ।”
“कंचन जैसी लड़की तुम्हारी सहेली कैसे बन गई ?”
“बस बन गई । मैं चेतक क्लब अक्सर जाती हूं । वहीं वाकफियत हो गई ।”
“हूं ।”
“तुमने कंचन का कत्ल क्यों किया ?”
“मैंने उसका कत्ल नहीं किया ?” - मैं भड़ककर बोला ।
“लेकिन...”
“शटअप ।”
वह चुप हो गई ।
मैं भी कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “तुम कंचन की सहेली हो तो उसके बारे में बहुत कुछ जानती रही होगी ।”
“हां ।” - वह बोली ।
“उसके बॉय फ्रैंड्स तो कई होंगे ?”
“हां ।”
“तुम जानती हो उसमें से किसी को ?”
“नहीं ।”
मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ ।
“उधर एक तरफ बैठ जाओ ।” - मैं बोला ।
वह बैठ गई ।
मैंने बैडरूम का हर कोना-खुदरा टटोलना आरम्भ कर दिया ।
“क्या ढूंढ रहे हो ?” - शीतल ने पूछा ।
“पता नहीं ।” - मैं झुंझलाकर बोला - “कंचन के पास ऐसी कोई डायरी-वायरी नहीं थी जो लोग पते या टेलीफोन नम्बर लिखने के लिए इस्तेमाल करते हैं ?”
“होगी । मुझे नहीं मालूम ।”
उसके बाद मैं शीतल को ड्राइंगरूम में ले आया । मैंने वहां की भी तलाशी ली ।
शीतल को हर जगह अपने समीप रखे मैंने सारे फ्लैट की तलाशी ली ।
कुछ हाथ नहीं लगा ।
अन्त में मैंने शीतल से सवाल किया - “कंचन अपना शानदार फ्लैट छोड़कर उस कॉटेज में जाकर क्यों रही ?”
“मुझे नहीं मालूम ।” - वह बोली - “हाल ही में मेरी उससे कोई मुलाकात नहीं हुई थी ।... तुम यहां की तलाशी क्यों ले रहे हो ?”
“किसी सूत्र की तलाश में । मैं जानना चाहता हूँ कि उसका कत्ल किसने किया है ।”
“वह तो तुमने किया है ।” - वह बोली । न जाने क्यों अब वह मुझसे भयभीत नहीं लग रही थी ।
“बार-बार एक ही बात मत दोहराओ ।” - मैं चिढकर बोला - “अगर मैं कातिल हूं तो मैं तुम्हारा भी गला काट सकता हूं । समझी ?”
वह खामोश हो गई ।
“चलो ।” - मैं बोला ।
“कहां ?” - वह सशंक स्वर में बोली ।
“नीचे ।”
रिवॉल्वर से उसे कवर किये हुए मैं उसे ग्राउण्ड फ्लोर पर मैनेजर के कमरे में ले गया । मैनेजर वहां पूर्ववत बंधा पड़ा था ।
“बैठो ।” - मैं बोला ।
वह विस्फारित नेत्रों से मैनेजर को देखती हुई एक कुर्सी पर बैठ गई ।
मैनेजर की आतंकित निगाहें उसकी कटोरियों में घूम रही थीं ।
मैनेजर की हालत देखकर लड़की फिर भयभीत दिखाई देने लगी ।
“घड़ी में वक्त देख लो ।” - कठोर स्वर में बोला - “अगर अपनी जान की सलामती चाहती हो तो पन्द्रह मिनट चुपचाप यहीं बैठी रहना । उसके बाद तुम इस आदमी के बन्धन खोल देना और फिर जहां जी चाहे जाना । समझ गयीं ?”
उसने सहमति से सिर हिला दिया ।
“मैं अभी लॉबी में ही खड़ा हूं ।” - मैं रिवॉल्वर की नाल से उसके सुन्दर कपोल को टहोकता हुआ बोला - “तुमने इस दरवाजे से बाहर भी झांका तो मैं तुम्हें शूट कर दूंगा ।”
वह खामोश रही ।
मैं वहां से बाहर निकला । अपने पीछे मैंने दरवाजा बन्द कर दिया । मैंने रिवॉल्वर को जैकेट के भीतर छिपा लिया और इमारत से बाहर निकला ।
खुली विलायती कार अभी ड्राइव-वे में यथास्थान मौजूद थी और उसके अग्रभाग में वह अनिल नामक युवक अभी भी बैठा था ।
कम्पाउंड सुनसान पड़ा था ।
मैं दबे पांव कार के पास पहुंचा ।
इससे पहले कि युवक कुछ समझ पाता, मैंने एक झटके से कार का दरवाजा खोला और उसे गिरहबान से पकड़कर बाहर घसीट लिया । फिर मैंने अपने दायें हाथ का एक प्रचंड घूंसा उसके जबड़े पर जमाया । उसका एक ही घूंसे में काम हो गया । तुरन्त उसका निश्चेष्ट शरीर मेरी बांहों में झूल गया । मैंने उसे घसीटकर ड्राइव वे की अगल-बगल उगी ऊंची झाड़ियों के पीछे डाल दिया और फिर वापस कार में आ बैठा ।
कार की चाबियां इग्नीशन में लटक रही थी ।
मैंने कार स्टार्ट की और वहां से रवाना हो गया ।
अब मुझे रूप सिंह शेखावत की तलाश थी ।
रास्ते में मुझे एक पब्लिक टेलीफोन बूथ दिखाई दिया ।
बूथ में जाकर मैंने टेलीफोन डायरेक्टरी देखी । उसके अनुसार शेखावत भवानी मार्ग पर स्थित गुलाब महल मेरा देखा हुआ था । वह आधुनिक और प्राचीन वास्तुकला का सम्मिश्रण था । जो चीजें पहले महलों में नहीं होती थीं, वे उसमें अब थीं । जैसे सारा महल वातानुकूलित था और उसमें स्वीमिंग पूल और टेनिस कोर्ट था ।
मैंने डायरेक्टरी में गुलाब महल का नम्बर देखकर उस पर फोन किया ।
थोड़ी देर बाद दूसरी ओर से रिसीवर उठाया गया ।
“गुलाब महल ।” - कोई बड़े अदब से बोला ।
“मैंने रूप सिंह शेखावत साहब से करनी है ।” - मैं माउथपीस में बोला ।
“आप कौन बोल रहे हैं, साहब ?”
“ठाकुर कृपाल सिंह ।” - मैं बोला । अगर वह वाकई नगर का नामी वकील था तो शेखावत ने भी उसका नाम जरूर सुना होगा और शायद वह उसके लिए टेलीफोन पर आने से इन्कार न करता ।
मेरी चाल चल गई । थोड़ी देर बाद रूप सिंह शेखावत टेलीफोन पर आ गया ।
“रूप सिंह शेखावत ?” - मैंने पूछा ।
“हां ! तुम...”
“मैं तुमसे मिलना चाहता हूं । फौरन । तुम्हारी खातिर ।”
“तुम कौन बोल रहे हो ?” - वह तीखे स्वर में बोला । - “तुम ठाकुर कृपाल सिंह तो नहीं हो ?”
“ठीक पहचाना । मैं वह आदमी हूं जो तुमसे कंचन के बारे में बात करना चाहता है ।”
“क... कौन ?”
“कंचन । कंचन । मैं कंचन के बारे में तुमसे बात करना चाहता हूं । तुम मेरे पास आते हो या मैं तुम्हारे पास गुलाब महल पहुंचूं ?”
“मैं इतनी रात गये कहीं नहीं जा सकता ।”
“तो फिर मैं आ जाता हूं, लेकिन मैं कंचन के बारे में तुमसे बात करने से पहले तुम्हारी बीवी से बात करूंगा । मैं उसे बताऊंगा कि कंचन तुम्हारी रखैल थी और तुमने उसे सागर अपार्टमैंट्स में एक फ्लैट...”
“तुम हो कौन ?” - वह घबराकर बोला ।
“काला चोर ।”
“कहां आना होगा ?”
“मेडिकल कॉलेज के कम्पाउण्ड में । अकेले ।”
“ठीक है ।”
“कैसे आओगे ?”
“कार पर ।”
“कौन-सी कार ?”
“सफेद रंग की मर्सिडीज ।”
“कितनी देर में पहुंचोगे ?”
“आधे घण्टे में ।”
मुझे दाल में काला दिखाई देने लगा । जहां मैंने उसे बुलाया था, अपने गुलाब महल से वह वहां दस मिनट में पहुंच सकता था ।
“ठीक है ।” - प्रत्यक्षतः मैं बोला - “आधे घण्टे में । मेडिकल कॉलेज के कम्पाउण्ड में ।”
मैंने रिसीवर हुक पर टांग दिया । बूथ से निकलकर मैं वापिस कार में सवार हुआ । मैंने कार गुलाब महल की तरफ भगा दी ।
मैं गुलाब महल के समीप पहुंचा । उसके विशाल कम्पाउण्ड के विशाल लोहे के फाटक से थोड़ा परे मैंने कार खड़ी कर दी और उसकी हैडलाइट्स और इंजन बन्द कर दिया ।
कोई दस मिनट बाद मुझे महल में से बाहर को आती एक कार दिखाई दी । मैंने गौर से देखा, वह सफेद रंग की मर्सिडीज थी । मैंने अपनी कार चालू की और उसे फाटक के सामने ले जाकर इस प्रकार खड़ा कर दिया कि बाहर निकलने का रास्ता रुक गया । तभी मर्सिडीज फाटक के पास पहुंची । मैं रिवॉल्वर हाथ में लिए कार से बाहर कूदा और झपटकर मर्सिडीज के पास पहुंचा ।
रूप सिंह शेखावत भयभीत भाव से खिड़की से बाहर झांक रहा था ।
मैंने रिवॉल्वर उसकी तरफ तान दी और कहरभरे स्वर में बोला - “बाहर निकलो । जल्दी ।”
वह दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया । वह अधेड़ अवस्था का, लेकिन फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत व्यक्ति था । वह नीले रंग का बड़ा शानदार सूट पहने हुए था ।
“क- क्या...” - उसने कहना चाहा - “कौन हो तुम ?”
“मैं वह आदमी हूं, जिसने तुम्हें फोन किया था ।” - मैं बोला ।
“मुझे रिवॉल्वर क्यों दिखा रहे हो ?”
“चलकर मेरी कार में बैठो ।”
उसने आज्ञा का पालन किया । मैं उसकी बगल में ड्राइविंग सीट पर बैठ गया । मैं कार को कोई सौ गज आगे बढाकर ले गया । वहां मैंने कार को सड़क के नीचे उतार दिया और उसे एक विशाल पेड़ के पीछे लाकर खड़ा कर दिया । मुझे उम्मीद थी कि रात के अंधेरे में वहां खड़ी कार सड़क से दिखाई नहीं देने वाली थी ।
फिर मैं उसके साथ उसकी मर्सिडीज की तरफ वापस लौटा ।
मेरे आदेश पर वह मर्सिडीज के स्टियरिंग के पीछे बैठ गया । मैं दूसरी तरफ का दरवाजा खोलकर उसकी बगल में आ बैठा ।
“यह क्या चक्कर है ?” - वह बोला - “फोन पर तो तुम कह रहे थे कि तुम मुझे मेडिकल कॉलेज में कम्पाउण्ड में मिलोगे ।”
“मैंने अपना ख्याल बदल दिया है ।” - मैं बोला - “गाड़ी आगे बढाओ और...”
एकाएक मैं बोलता-बोलता रुक गया ।
सड़क पर हैडलाइट्स की रोशनी पड़ी । कोई गाड़ी हमारी ही तरफ आ रही थी ।
गाड़ी मर्सिडीज के सामने आकर खड़ी हुई । मर्सिडीज की हैडलाइट्स की रोशनी में मैंने देखा कि वह एक पुलिस जीप थी जिसे एक वर्दीधारी पुलिसिया चला रहा था ।
जीप में तीन चार पुलिसिये और भी थे ।
फिर जीप में से एक आदमी उतरा और लम्बे डग भरता हुआ मर्सिडीज की ओर बढा ।
मैंने उसे फौरन पहचान लिया ।
महिपाल सिंह ।
मैं सीट से नीचे सरक गया और डैशबोर्ड के नीचे फर्श पर दुबक गया ।
“सावधान !” - मैं फुसफुसाया - “फिर कोई होशियारी दिखाने की कोशिश की तो शूट कर दूंगा ।”
उसने एक निगाह अपनी ओर तनी रिवॉल्वर की ओर डाली और स्टियरिंग पर रखे उसके हाथ कांपने लगे । प्रत्यक्षत: उसे मेरी धमकी में दम दिखाई दे रहा था और वह मुझसे भयभीत था ।
तभी महिपाल सिंह कार के पास पहुंचा । शेखावत ने खिड़की की तरफ सिर घुमाया ।
“नमस्ते शेखावत साहब ।” - मुझे महिपाल सिंह का आदरपूर्ण स्वर सुनाई दिया - “मैं उड़ता हुआ यहां पहुंचा हूं ।”
मैं अपने आप में और सिकुड़ गया और भगवान से प्रार्थना करने लगा कि महिपाल मुझे देख न ले ।
“शुक्रिया ।” - शेखावत बड़ी मुश्किल से कह पाया ।
“अब आप उस ब्लैकमेलर से निर्धारित स्थान पर मिलने चले जाइए । हम आपकी निगाहों से ओझल आपके पीछे-पीछे ही आ रहे होंगे । जीप की बत्तियां नहीं जल रही होंगी, लेकिन होंगे हम हर क्षण आपके एकदम करीब । इसलिए आप पीछे घूमकर देखने की कोशिश न कीजिएगा । जब वह ब्लैकमेलर आपसे बातें कर रहा होगा तो हम ऊपर से आकर उसे पकड़ लेंगे ।”
शेखावत ने सहमति में सिर हिलाया । वह मुंह से कुछ न बोला ।
एक क्षण खामोशी रही । फिर महिपाल सिंह हमदर्दीभरे स्वर में बोला - “आप कुछ भयभीत लग रहे हैं, साहब । लेकिन भयभीत होने की कोई बात नहीं है । हम हर क्षण आपके पास होंगे । विश्वास जानिए वह ब्लैकमेलर आपका ख्याल तक करना भूल जायेगा । अब आप रवाना हो जाइए ।”
फिर मुझे महिपाल सिंह के मर्सिडीज से परे जाते कदमों की आवाज सुनाई दी । शेखावत ने गरदन घुमाकर मेरी तरफ देखा । उसके चेहरे पर उत्कंठा के गहरे भाव थे । मैंने रिवॉल्वर की नाल से उसके पेट को टहोका और उसे इशारा किया कि वह सामने देखे । वह तुरन्त गरदन घुमाकर विंडस्क्रीन के पार देखने लगा ।
थोड़ी देर बाद जीप स्टार्ट होने की आवाज आई ।
“गाड़ी चलाओ ।” - मैं बोला - “और मेडिकल कॉलेज की तरफ चलो ।”
उसने तुरन्त आज्ञा का पालन किया ।
“अब तुम चाहते क्या हो ?” - वह बोला ।
“तुम निर्धारित स्थान पर मुझसे मिलने जाओगे ।” - मैं बोला - “लेकिन मैं वहां नहीं होऊंगा इसलिए तुम वहां थोड़ा इन्तजार करके वापस लौट जाओगे ।”
वह खामोश रहा ।
“रूप सिंह शेखावत । मैं फिर कह रहा हूं, कोई होशियारी दिखाने की कोशिश मत करना । तुम्हारे पुलिस को फोन करने की वजह से मैं पहले ही तुमसे बहुत खफा हूं ।”
उसके मुंह से एक अजीब-सी घरघराहट निकली । मुझे लगा जैसे वह कुछ कहने जा रहा था लेकिन फिर उसने अपना ख्याल बदल दिया था ।
“और मुझे नहीं मालूम था कि यहां की पुलिस तुम्हारी जरखरीद लौंडी है ।”
“ऐसी कोई बात नहीं ।” - वह विरोधपूर्ण स्वर में बोला ।
“सरासर यही बात है । साफ जाहिर हो रहा है कि वह इन्स्पेक्टर महिपाल सिंह तुम्हारे और कंचन के रिश्ते की पूरी जानकारी रखता है और अब तुम्हारी हिफाजत करने की कोशिश कर रहा है ।”
“ऐसी बात नहीं है । पुलिस पहले से कुछ नहीं जानती थी । कंचन के कत्ल की तफ्तीश के दौरान ही उन्हें मेरे और कंचन के रिश्ते की जानकारी हुई है । लेकिन वे जानते हैं कि मैंने कंचन का कत्ल नहीं किया है ।”
“कैसे जानते हैं ?”
उसने उत्तर नहीं दिया ।
“कैसे जानते हैं ?” - मैंने अपना प्रश्न दोहराया ।
“उन्हें मालूम है कि वास्तव में कत्ल किसने किया है ।”
“किसने किया है ?”
“एक... एक बसन्त कुमार नामक आदमी ने ।” - वह जल्दी से बोला । उसने मुझसे निगाह नहीं मिलाई - “क्योंकि पुलिस यह केस हल कर चुकी है इसलिए वह जरूरी नहीं समझती कि इस संदर्भ में मेरा नाम अखबारों में घसीटा जाए या कोई मुझ पर कीचड़ उछाले या मुझे ब्लैकमेल करने की कोशिश करे । मैं यहां एक बेहद इज्जतदार आदमी हूं ।”
मैं खामोश रहा । यह जानकर मेरा मन मसोस गया कि पुलिस को पहले से ही मालूम था कि कंचन रूप सिंह शेखावत की रखैल थी और पुलिस उस पर कत्ल का शक तक नहीं कर रही थी ।
शेखावत ने मेडिकल कॉलेज के कम्पाउंड में ले जाकर कार रोकी ।
मैं पूर्ववत फर्श पर डैशबोर्ड के नीचे दुबका बैठा रहा ।
मेरे आदेश पर शेखावत ने कार की बत्तियां बुझा दीं और प्रतीक्षा करने लगा ।
पन्द्रह मिनट गुजर गये ।
फिर पुलिस की जीप वहां पहुंची और कार की बगल में आकर रुकी । मुझे उसमें से किसी के निकलकर कार के पास पहुंचने की आहट मिली ।
मैं रिवॉल्वर शेखावत की तरफ ताने खामोश बैठा रहा ।
मुझे महिपाल सिंह का निराश स्वर सुनाई दिया - “साहब लगता है किसी ने आपके साथ मजाक किया है । अगर फोन करने वाला इस मामले में गम्भीर होता तो अब तक कब का यहां पहुंच चुका होता ।”
“हां ।” - शेखावत खोखले स्वर में बोला - “मुझे खामखाह तंग करने के लिए किसी ने शरारत की मालूम होती है ।”
“या शायद फोन किसी ने ब्लैकमेल की नीयत से ही किया था लेकिन ऐन मौके पर उसकी हिम्मत दगा दे गई और वह हम लोगों के यहां पहुंचने से पहले ही यहां से खिसक गया । अगर वह डरकर भागा है तो हो सकता है कि वह फिर आपसे सम्पर्क स्थापित करे । अगर ऐसा हो तो आप मुझे फिर खबर कर दीजिएगा, लेकिन उससे ऐसी कोई बात न कहिएगा जिससे वह फिर भयभीत हो उठे ।”
“अच्छा । तकलीफ के लिए शुक्रिया । मैंने खामखाह तुम लोगों को परेशान किया ।”
“परेशानी की कोई बात नहीं, साहब मैं तो हर वक्त आपकी सेवा के लिए हाजिर हूं ।”
“शुक्रिया ।”
“नमस्ते साहब ।”
“नमस्ते ।”
थोड़ी देर बाद मुझे जीप के वहां से रवाना होने की आवाज सुनाई दी ।
मैं फर्श से उठा और शेखावत की बगल की कार की सीट पर बैठ गया ।
“अब ठीक है ।” - मैं इतमिनान से बोला - “अब जरा प्यार की बातें हो जायें । तुम इतना तो समझ ही गये होंगे कि मैं कौन हूं । नहीं ?”
“मैं नहीं जानता तुम कौन हो ?” - वह बोला । वह झूठ बोल रहा था - शायद इसलिए कि मेरे बारे में जानकारी जाहिर करने कहीं वह अपनी मौत न बुला रहा हो ।
“इतना तो जानते हो कि मैं तुमसे किस बारे में बात करना चाहता हूं ?”
“नहीं । मैं नहीं जानता ।”
“मैंने तुम्हारी रखैल का कत्ल नहीं किया और तुम शायद जानते हो कि मैंने उसका कत्ल नहीं किया । लेकिन तुमने पुलिस को कैसे विश्वास दिलाया कि कातिल तुम नहीं हो ?”
“मैं हूं ही नहीं कातिल ।” - वह तीखे स्वर में बोला - “मैं भला कंचन का कत्ल क्यों करूंगा और फिर कत्ल के समय मैं अपने घर पर अपनी बीवी और नगर के कई गणमान्य व्यक्तियों के साथ मौजूद था । उस रात हमारे यहां एक पार्टी थी जो रात के दो बजे तक चली थी । मैं दर्जनों ऐसे गवाह पेश कर सकता हूं जिन्होंने हत्या के समय मुझे अपनी आंखों के सामने गुलाब महल में देखा था ।”
“तुम्हारे जैसे साधन-सम्पन्न लोगों के लिए अपने हक में दर्जनों गवाह पैदा कर लेना क्या मुश्किल बात है ! और फिर जरूरी थोड़े ही है कि तुमने खुद अपने हाथों से कंचन का गला घोंटा हो ! तुम दौलतमंद आदमी हो । दौलत से एक अदद कातिल खरीद लेना क्या बहुत मुश्किल काम है ?”
“मैंने ऐसा कुछ नहीं किया । मैं भला कंचन की हत्या क्यों करवाऊंगा ?”
उस सवाल का फिलहाल मेरे पास कोई जबाव नहीं था । मैं बोला - “मैंने सुना है तुम्हारी रातें अक्सर कंचन के साथ उसके फ्लैट पर गुजरा करती थीं ?”
“ठीक सुना है तुमने ।” - वह सहज भाव से बोला ।
मुझे फिर बड़ी निराशा हुई । मेरा ख्याल था कि मेरे ऐसा कहने से वह सकपकायेगा, बौखलायेगा और उस बात से इन्कार करेगा ।
“हत्या की रात तुम उसके साथ क्यों नहीं थे ?”
“मैं पहले ही बता चुका हूं कि उस रात हमारे यहां एक पार्टी थी और फिर कंचन ने मुझे दिन में फोन करके कहा था कि वह एक हफ्ते के लिए कहीं बाहर जा रही थी ।”
“क्यों ?”
“यह तो उसने नहीं बताया था ।”
“और तुमने पूछा भी नहीं ?”
“नहीं ।”
मुझे विश्वास नहीं हुआ ।
“उसने तुम्हें यह नहीं बताया था कि वह एयरपोर्ट के पास के आई टी डी सी के काटेजों में कॉटेज नम्बर नौ में रहने जा रही थी या रह रही थी ?”
“नहीं ।”
“बड़ी अजीब बात नहीं है यह ?”
“है । मैं खुद हैरान हूं कि वह अपना फ्लैट छोड़कर उस कॉटेज में रहने के लिए क्यों गई ?”
“वह कहती थी कि वह कभी शहर में बोर हो जाती थी तो अक्सर यूं तनहाई में रहने वहां चली जाती थी ।”
“वह गलत कहती थी । ऐसा उसने पहले कभी नहीं किया था ।”
मैं अंधेरे में टक्करें मार रहा था । मेरे हाथ कुछ नहीं लग रहा था । मैंने उसे धमकाने का फैसला किया । मैं बोला - “देखो, या तो मुझे तुम सब कुछ सच-सच बताओ या फिर मैं तुम्हारी बीवी के पास जाता हूं और उसे तुम्हारे कंचन के नाजायज रिश्ते के बारे में बताता हूं ।”
“जाओ बता दो ।” - शेखावत शान्ति से बोला - “मेरी बीवी पहले से ही जानती है । मुद्दत हो गई है उसे मेरे इस रिश्ते की खबर लगे ।”
दाता ! क्या कहीं दाल नहीं गलने वाली थी !
“मुझे अपने और कंचन के बारे में और बताओ ।” - मैं बोला ।
“तुम इतने सवाल क्यों पूछ रहे हो मुझसे ? क्या हक है तुम्हें मुझसे सवाल करने का ?”
“यह है हक ।” - मैं गुस्से में उसकी पसलियों में रिवॉल्वर की नाल धकेलता हुआ बोला ।
वह यूं उछला जैसे एक क्षण के लिए वह रिवॉल्वर के बारे में भूल गया था ।
“तुम्हारी कंचन से वाकफियत कैसे, कब और कहां हुई थी ?” - मैंने पूछा ।
“चेतक क्लब में । कोई डेढ साल पहले । मेरा एक दोस्त मुझे वहां ले आया था । कंचन वहां होस्टेस थी । वहीं से मुलाकात का सिलसिला शुरु हो गया था । वह बहुत आजादख्याल थी । मैं बीवी से भरपूर बोर हुआ आदमी था । हमारी पटने लगी और फिर बात बढती-बढती मौजूदा सिलसिले तक बढ गई ।”
“फिर वह तुम्हारी रखैल बन गई । तुमने उसे फ्लैट ले दिया और उसका हर खर्चा उठाने लगे ?”
“गलत । मैं हमेशा चाहता था कि मैं उसे कुछ रुपया-पैसा दूं लेकिन उसने कभी स्वीकार नहीं किया । वह फ्लैट उसने खुद लिया था । उसका किराया वह खुद देती थी । मैंने उसे कभी कोई उपहार लेकर दिया हो तो दिया हो मुझसे नकद पैसा लेना उसने कभी स्वीकार नहीं किया था ।”
“यह मानने की बात नहीं । जितने शानदार फ्लैट में वह रहती थी, उसका खर्चा उठाना कम-से-कम क्लब की होस्टेस के बस की बात नहीं थी । इतना तुम्हें भी सूझना चाहिए था ।”
“मुझे सूझा था लेकिन यह हकीकत है कि उसने कभी मुझसे नकद पैसा स्वीकार नहीं किया था । उस फ्लैट में वह मुझसे मुलाकात होने से पहले से रहती थी ।”
“तुमने उससे पूछा नहीं कि उस फ्लैट का खर्चा वह कैसे उठाती थी ?”
“मैंने पूछा तो नहीं था, पूछना मुझे अच्छा नहीं लगा था, लेकिन मेरा ख्याल था कि कोई पुरानी खानदानी जमा पूंजी होगी उसके पास ।”
“या शायद उसने कोई और, तुमसे ज्यादा सम्पन्न यार पाला हुआ हो ?”
उसने सख्त नाराजगी से मेरी ओर देखा और फिर गुस्से में बोला - “नामुमकिन । मेरे सिवा उसकी जिन्दगी में कोई मर्द नहीं था । हम दोनों बहुत करीब थे । होता तो मुझे मालूम होता ।”
“शायद तुम्हें बड़ी देर बाद, अब, मालूम हुआ और तुमने ईर्ष्या की भावना से प्रेरित होकर कंचन का कत्ल कर दिया शायद तुमसे उसकी दगाबाजी बर्दाश्त न हुई और तुमने उसे मार...”
“बकवास !” - वह गुस्से में बोला - “मैं उससे मुहब्बत करता था । उसके बिना मुझे अपनी जिन्दगी खोखली मालूम हो रही है । मैं उसका कत्ल कैसे कर सकता था ?”
वह सच बोलता लग रहा था, लेकिन मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं करना चाहता था । आखिर किसी ने तो कंचन का कत्ल किया ही था ।
किसने ? किसने ?
“तुम चेतक क्लब में अक्सर जाते हो” - एकाएक मैंने पूछा - “तो क्लब के मालिक नाहर सिंह से भी तुम्हारी वाकफियत होगी ?”
“है ।” - वह हड़बड़ाकर बोला ।
“गाड़ी चलाओ । “
“कहां चलूं ?”
“कम्पाउंड से गाड़ी निकालो । बताता हूं ।”
उसने गाड़ी स्टार्ट की ।
मैं उसे उस टेलीफोन बूथ पर ले आया, जहां से मैंने उसे उसके महल में फोन किया था । वहां से उसके चेतक क्लब फोन किया और मेरे हाथ में थमी रिवॉल्वर की धमकी में ऐन मेरे कहे मुताबिक नाहर सिंह से बात की । उसने नाहर सिंह से कहा कि उसने उससे कोई जरूरी बात करनी थी जो क्लब में नहीं हो सकती थी इसलिए वह तब से ठीक पन्द्रह मिनट बाद उसे रेडियो-स्टेशन के सामने मिले । उसने नाहर सिंह को यह भी बताया कि वह अपनी सफेद रंग की मर्सिडीज कार में वहां पहुंच रहा था ।
जयपुर में शेखावत के रसूख का यह भी बहुत बड़ा सबूत था कि नाहर सिंह ने उस मुलाकात के लिए फौरन हामी भर दी ।
हम फिर मर्सिडीज में सवार हुए । इस बार ड्राइविंग सीट पर मैं बैठा । मैंने कार को एयरपोर्ट की तरफ भगा दिया ।
“अरे भाई” - शेखावत हड़बडाकर बोला - “चेतक क्लब का यह रास्ता नहीं है । तुम उल्टी तरफ जा रहे हो ।”
“खामोश बैठो ।” - मैं घुड़ककर बोला ।
मैं कार को नगर से बाहर एकदाम उजाड़ में वहां ले आया जहां मैंने पहले एम्बेसेडर वाले को छोड़ा था । मैंने शेखावत को वहां कार से उतार दिया । वहां से पैदल चलकर एक घण्टे से पहले वह वापस शहर में नहीं पहुंच सकता था । इतना वक्त मेरे लिए काफी था ।
फिर मैंने कार को पूरी रफ्तार से वापस नगर की तरफ दौड़ा दिया ।
मैंने कार को सीधे रेडियो-स्टेशन के सामने ले जाकर रोका । वहां से थोड़ी ही दूर चेतक क्लब था । मैं रिवॉल्वर गोद में रखे प्रतीक्षा करने लगा । मुझे ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी । कुछ ही देर बाद मुझे क्लब की तरफ से एक इकलौता आदमी उधर आता दिखाई दिया । कार के भीतर अंधेरा था इसलिये वह मुझे नहीं देख सकता था लेकिन मैं उसे साफ देख सकता था । वह एक मोटा, ठिगना आदमी था जो एक शानदार डिनर सूट पहने था । वह कार के समीप पहुंचा और मेरी साइड में आकर खिड़की पर झुकता हुआ बोला - “नमस्ते, शेखावत साहब । क्या बात थी आप क्लब में क्यों नहीं...”
एकाएक वह बोलता-बोलता रुक गया । एक तो उसे दिखाई दे गया था कि मैं शेखावत नहीं था और दूसने उसने खुली खिड़की में से अपनी ओर झांकती हुई रिवॉल्वर की नाल देख ली थी ।
उसके नेत्र फट पड़े ।
“कार में बैठो ।” - मैं कठोर स्वर में बोला - “पीछे ।”
वह कार का पिछला दरवाजा खोलकर भीतर बैठ गया ।
मैंने रिवॉल्वर का रुख उसकी ओर फेर दिया ।
“शेखावत साहब कहां हैं ?” - वह खोखले स्वर में बोला ।
“उनकी फिक्र मत करो तुम ।” - मैं बोला - “अपनी फिक्र करो । यह रिवॉल्वर पूरी भरी हुई है ।”
“जरूर होगी इसीलिए तो प्रार्थना कर रहा हूं कि जरा इसे जिम्मेदारी से थामे रहना । मैं इतनी जल्दी नहीं मरना चाहता ।”
“तो फिर मुझे कुछ सवालों का सच-सच जबाव दो । झूठ बोले तो...” - मैंने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से रिवॉल्वर को एक झटका दिया ।
“मैं बिल्कुल सच बोलूंगा ।” - वह घबराकर बोला - “क्या पूछना चाहते हो ?”
“कंचन का कत्ल किसने किया है ?”
वह बौखलाया और फिर घबराये स्वर में बोला - “पुलिस कहती है कि...”
“मैंने यह नहीं पूछा कि पुलिस क्या कहती है । मैं पूछ रहा हूं तुम क्या कहते हो ?”
“किसी मोटर मैकेनिक ने किया है उसका कत्ल ।”
“तुम्हें विश्वास है इस बात पर ?”
“अखबार में छपा है कि...”
“फिर वही बात ! अगर मुझे अखबार की राय जाननी होती तो मैं अखबार वालों के पास जाता । मैं तुम्हारे पास आया हूं ।”
“लेकिन भाई साहब” - वह विनीत स्वर में बोला - “बजात-ए-खुद मुझे क्या पता कि कंचन का कत्ल किसने किया है !”
“वह काफी अरसे से तुम्हारे पास काम कर रही थी । तुम उसे बहुत अच्छी तरह जानते थे ।”
“हां ।”
“तुम्हारे ख्याल से कौन उसका कत्ल कर सकता है ?”
“मेरे ख्याल से तो कोई भी नहीं । मेरा मतलब है कि कंचन के जितने वाकिफकारों को मैं जानता हूं उनमें से कोई कंचन का कत्ल नहीं कर सकता था ।”
“उसका कोई पक्का दोस्त था ?”
“हां । शेखावत साहब थे ।”
“उनके अलावा कोई और ?”
“न ।”
“शेखावत कंचन का खून कर सकता था ?”
“मुझे विश्वास नहीं । वे भला ऐसा क्यों करेंगे ? दोनों को एक-दूसरे से बहुत लगाव था ।”
“शेखावत की बीवी को दोनों के रिश्ते की खबर थी ?” - मैंने पूछा । मुझे अभी भी विश्वास नहीं था कि शेखावत इस बारे में सच बोला था ।
“थी ।” - वह सहमति में सिर हिलाता हुआ बोला - “वह सब जानती थी । कंचन कहती थी कि शेखावत साहब की बीवी बड़ी ठण्डी औरत है । सैक्स में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं । बीस-बाईस साल पहले शादी होते ही उसने शेखावत के लिए एक बच्चा पैदा कर दिया था और समझ लिया था कि एक पत्नी के लिहाज से उसकी जिम्मेदारी खत्म । वह औरत क्योंकि खुद सैक्स से विरक्त थी इसलिए वह परवाह नहीं करती थी कि उसका पति अपनी सैक्स की भूख कहां जाकर मिटाता था !”
“लेकिन मर्द का एक ही औरत से लम्बा और पक्का रिश्ता तो ठण्डी बीवियों को भी काबिलेएतराज लगता है ।”
“मुझे इस बारे में कुछ नहीं मालूम ।”
“शेखावत की बीवी को कंचन की खबर लगी कैसे थी ?”
“सुना है जब शेखावत साहब ने एकाएक रातों को घर आना बन्द कर दिया था तो उनकी बीवी ने उनके पीछे जासूस लगा दिये थे ।”
“यह कब की बात है ?”
“कोई एक साल पहले की ।”
“हूं । मिसेज शेखावत को कंचन की खबर लग गई फिर भी उसने कोई कोई फसाद नहीं खड़ा किया ?”
“जाहिर है कि नहीं किया । अगर किया होता तो एक साल के वक्फे में कोई हल्लागुल्ला न हो गया होता ? कोई तलाक वगैरह की नौबत आ गई होती ?”
“शेखावत की बीवी इस बात पर उसे तलाक दे सकती थी ?”
“दे तो सकती थी लेकिन देती क्यों ? वह इतने बड़े आदमी की बीवी है । उसका शाही खानदान से रिश्ता जुड़ा है । दुनिया-भर की ऐशोइशरत उसे हासिल है । शेखावत साहब को तलाक देकर वह इतनी शानोशौकत भरी जिंदगी से किनारा क्यों करेगी भला ?”
“शायद उसने इसी डर से कंचन का कत्ल कर दिया हो कि कहीं कंचन की खातिर उसका पति उसे तलाक न दे दे ।”
“यह मुमकिन नहीं । वह कंचन को बड़े लम्बे अरसे से जानती है । अगर उसने कंचन का कत्ल करना होता तो वह इतना लम्बा इन्तजार क्यों करती ?”
“शायद पहले उसने इस मसले पर ज्यादा गम्भीरता से विचार न किया हो या शायद पहले उसे मौका न लगा हो ?”
“नहीं । मुझे विश्वास नहीं ।”
लेकिन मुझे विश्वास था । औरतों के सोचने का ढंग बिल्कुल अनोखा होता है । जरूरी नहीं कि जिस बात से उसे पहले एतराज न रहा हो, उससे बाद में भी एतराज पैदा न हो । मेरी निगाह में शेखावत की बीवी हत्यारी हो सकती थी ।
और शेखावत भी ।
शायद कंचन ने कोई मर्द चुन लिया था और यह बात उसे गवारा नहीं हुई थी । शायद उसने कंचन की बेवफाई की सजा उसकी मौत को ही माना था ।
लेकिन कंचन अपना फ्लैट छोड़कर उस कॉटेज में रहने के लिए क्यों गई ?
और दिलावर सिंह उस तस्वीर में कहां फिट होता था ?
“दिलावर सिंह कौन है ?” - एकाएक मैंने उससे सवाल किया ।
“कौन ?” - वह उलझनपूर्ण ढंग से पलकें झपकाता हुआ बोला ।
“दिलावर सिंह ।”
“वह कौन है ?”
“तुम नहीं जानते उसे ?”
“नहीं ।”
“लेकिन कंचन उसे जानती थी ।”
“जानती थी तो कम-से-कम मेरे सामने उसने कभी किसी दिलावर सिंह का जिक्र नहीं किया था ।”
“कंचन कब से तुम्हारे लिए काम कर रही थी ?”
“शुरु से ही । जब से मैंने यह क्लब खोली है । कोई तीन साल पहले से ।... अब एक बात मुझे भी तो बताओ, भाई साहब । तुम कौन हो और इतने सवाल क्यों पूछ रहे हो ?”
मैंने उसकी बात की ओर ध्यान नहीं दिया । मैंने पूछा - “क्या उसका कोई दुश्मन था ? क्या वह किसी से भयभीत थी ?”
“उसका कोई दुश्मन नहीं था । वह बहुत अच्छी लड़की थी । हर कोई उसे पसंद करता था । क्लब में वह हर किसी को अच्छे मूड में रखने की कोशिश करती थी । मुझे उसकी मौत का बेहद अफसोस है । मेरा तो धन्धा चौपट हो जायेगा, भाई साहब ।”
“हर कोई तो पसन्द नहीं करता था उसे, वरना उसका कत्ल न होता ।”
“यह भी ठीक है ।”
“औरतें भी पसन्द करती थीं उसे ?”
“नहीं ।” - वह हंसा - “औरतें तो जलती थीं उससे । उनके मर्द कंचन पर बिखरे जो पड़ते थे ।”
“फिर भी क्या यह मानने वाली बात है कि वह शुरु से एक ही मर्द से - रूप सिंह शेखावत से - सम्बन्ध रखे हुए थी ?”
वह खामोश रहा ।
“तुम उसके मालिक थे । खुद तुमने उस पर कभी हाथ साफ करने की कोशिश नहीं की थी ? झूठ मत बोलना ।” - मैंने उसे चेतावनी दी ।”
“कंचन पहले कई मर्दों में दिलचस्पी रखती थी । उनमें से मैं भी एक था । लेकिन जब से उसका शेखावत से परिचय हुआ था उसने हर किसी को, मुझे भी, लिफ्ट देनी बन्द कर दी थी ।”
“यानी कि कंचन को शेखावत से सच्ची मुहब्बत थी ?”
“ऐसा ही लगता था ।”
“किसी नौजवान लड़की की एक अधेड़, विवाहित, बाल-बच्चेदार आदमी से सच्ची मुहब्बत कैसे हो सकती है ?”
“अब मैं क्या कहूं, भाई साहब । लेकिन कंचन शेखावत साहब के प्रति लगती तो पूरी ईमानदार थी ।”
“जिस कॉटेज में उसका कत्ल हुआ था, वह वहां क्या कर रही थी ?”
“मुझे क्या मालूम था ?”
“उस रात क्या उसे तुम्हारी क्लब में नहीं होना चाहिए था ?”
“उसने मुझसे दो हफ्ते की छुट्टी ली थी । वह कह रही थी कि वह अजमेर में अपनी किसी सहेली से मिलने जाना चाहती थी ।”
“तुमने छुट्टी दे दी उसे ?”
“और क्या करता ? छुट्टी मांगने की सजा के तौर पर उसे नौकरी से निेकाल देता ? भाई साहब, मेरे धंधे की सारी बरकत उसी की वजह से थी । मैं उसे छुट्टी लेने से नहीं रोक सकता था ।”
“हूं ।” - मैं बोला । मुझे उससे पूछने लायक और कोई बात नहीं सूझी । फिर मैं बोला - “ओके । कार से निकलो और धीरे-धीरे चलते हुए अपनी क्लब की ओर बढ जाओ ।”
“अरे भाई साहब, इतना तो बता दो कि तुम कौन हो और इतने सवाल मुझसे क्यों पूछे जा रहे थे ?”
“आउट ।”
वह कार से बाहर निकला और फुटपाथ पर चलता हुआ अपनी क्लब की ओर बढ गया ।
मैं वहां से फौरन कूच कर गया ।
हो सकता था कि तब तक शेखावत पुलिस को फोन करने में कामयाब हो चुका हो । पुलिस किसी भी क्षण वहां पहुंच सकती थी ।
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