गोल्फ लिंक में अमरजीत ओबराय की बहुत बड़ी कोठी थी जहां कि कमला और मैं आगे-पीछे अपनी-अपनी कार चलाते हुए पहुंचे ।
तब मैंने एक बात नोट की ।
कमला ड्राइविंग के वक्त कॉटन के दस्ताने पहनती थी ।
अपनी मारुति कार से उतरने से पहले दस्ताने उसने उतारकर भीतर कार में रख दिये थे ।
उस वक्त तक आधी रात हो चुकी थी ।
मैंने देखा कि कोठी के आगे इतना बड़ा लॉन था और ड्राइव-वे की दोनों तरफ इतने पेड़ थे कि यह कोई छोटा-मोटा पब्लिक पार्क मालूम होता था । आधी रात को भी लॉन के बीचोंबीच एक खूबसूरत फव्वारा तक चल रहा था ।
कोठी का एक साइड डोर उसने चाबी लगाकर खोला ।
हम दोनों भीतर दाखिल हुए ।
संगमरमर के फर्श वाले गलियारे पर चलते हुए हम एक बन्द दरवाजे तक पहुंचे ।
उसने वह दरवाजा खोला ।
भीतर रोशनी थी । मैंने देखा, वह एक रेलवे प्लेटफार्म जैसा विशाल, बेहद कीमती फर्नीचर वगैरह से सजा ड्राइंगरूम था । फर्श पर इतना कीमती कालीन बिछा हुआ था जिस पर कि कदम रखते हुए मुझे झिझक हो रही थी । एक ओर दीवार के साथ बार बना हुआ था जिस पर कम-से-कम तीस ब्रांड की ड्रिंक्स की बोतलें सुसज्जित थीं । उसका पृष्ठभाग सारे का सारा शीशे के दरवाजों का था जिस पर कि उस वक्त पर्दे खिंचे हुए थे । मैंने आगे बढकर एक पर्दे को थोड़ा सरकाकर बाहर झांका तो मुझे बाहर एक शानदार स्वीमिंग पूल दिखाई दिया ।
रईस होना बहुत फायदे की बात थी ।
इसलिए गरीब होना लानत की बात थी ।
इसलिए दौलत हासिल करने के लिए खतरा - जान तक का खतरा - मोल लेना आपके खादिम की आदत बन गई थी ।
“बैठो ।” - वह बोली ।
“शुक्रिया ।” - मैं बोला लेकिन मैंने बैठने का उपक्रम न किया ।
“ड्रिंक ?”
मैंने बोतलों से अटे पड़े बार पर निगाह दौड़ाई और बोला - “आई डोंट माइंड ।”
“क्या पियोगे ?”
“हैनेसी ।” - मैं निस्संकोच बोला ।
वहां मौजूद ड्रिंक्स में सबसे कीमती मुझे वही दिखाई दी थी ।
वह बार पर पहुंची ।
उसके पीछे-पीछे चलता मैं भी बार पर पहुंचा ।
उसने दो गिलासों में हैनेसी की ढ़ेर सारी मात्रा डाली ।
“वाटर ?” - वह बोली ।
“न न ।” - मैं जल्दी से बोला - “मिलावट का जमाना है लेकिन इतनी कीमती चीज में मुझे मिलावट गवारा नहीं होगी ।”
मैंने एक गिलास उठा लिया । मैंने उस उम्दा कोनियाक ब्रांडी की एक हल्की-सी चुस्की ली और फिर बोला - “इस किले में कितने आदमी रहते हैं ?”
“अब तो” - वह बोली - “मैं अकेली ही समझो ।”
“ओह !”
“वैसे नौकर-चाकर बहुत हैं ।”
तब मुझे ओबराय के वर्दीधारी शोफर का ध्यान आया ।
“साहब का शोफर” - मैंने पूछा - “यहीं रहता है या मर्सिडीज छोड़कर घर चला जाता है ?”
“यहीं रहता है ।”
“उसे बुलाओ ।”
“क्यों ?”
“उससे यह मालूम हो सकता है कि साहब छतरपुर कैसे पहुंचे थे ।”
“जरूरी नहीं, उसे मालूम हो ।”
“मैंने कहा है, मालूम हो सकता है । पूछने में क्या हर्ज है ?”
“अच्छा । भीतर स्टडी में इण्टरकॉम है । मैं उस पर उसे यहां आने के लिए भी कहती हूं और तुम्हारा चैक भी बनाकर लाती हूं ।”
“वैरी गुड ।”
अपना ब्रांडी का गिलास हाथ में थामे वह बार के पहलू में ही बने एक बन्द दरवाजे को खोलकर भीतर दाखिल हो गई ।
मैं ब्रांडी का गिलास संभाले एक सोफे पर जा बैठा और बीस हजार की डाउन पेमंट और कुल जमा दो लाख रुपये का सपना देखने लगा ।
सपना मुझे बहुत सुखद लगा ।
सुधीर कोहली - मैंने खुद अपनी पीठ थपथपाई - दि लक्की बास्टर्ड ।
कमला वापिस लौटी । उसके हाथ में एक चैक था जो कि उसने मुझे सौंप दिया ।
“शुक्रिया” - मैंने चैक का एक बार मुआयना किया और फिर उसे दोहरा करके जेब में रख लिया - “अब यह समझ लो कि हमारे सहयोग पर सरकार की मोहर लग गई ।”
“दैट्स गुड ।”
तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
कमला ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला ।
उसी शख्स ने भीतर कदम रखा जिसे मैंने दिन में शोफर की वर्दी पहने ओबराय की मर्सिडीज चलाते देखा था । उस वक्त वह कुर्ता-पाजामा पहने था और कंधों के गिर्द एक शाल लपेटे था ।
“इसका नाम कदमसिंह है” - कमला बोली - “यह साहब का शोफर है ।”
“मुझे पहचाना, कदमसिह ?” - मैंने पूछा ।
“नहीं ।” - वह बोला ।
“मुझे सुधीर कोहली कहते हैं । मैं डिटेक्टिव हूं ।”
प्राइवेट मैंने जानबूझकर नहीं कहा ।
वह खामोश रहा । मेरे डिटेक्टिव होने का उसने कोई रोब खाया हो, ऐसा उसकी सूरत से न लगा ।
“आज दिन में तुम ओबराय साहब की गाड़ी चला रहे थे !” - मैं बोला ।
“जी हां” - वह बोला - “हमेशा ही चलाता हूं ।”
“कहां-कहां गए थे, साहब ?”
वह हिचकिचाया । उसने कमला की तरफ देखा ।
“जवाब दो, कदमसिंह ।” - कमला बोली ।
“पहले हम यहीं से मद्रास होटल गए थे” - वह बोला - “वहां से साहब को मैं लंच के लिए चेम्सफोर्ड क्लब लेकर गया था । फिर वापिस आया था । फिर राजेन्द्रा प्लेस जाना हुआ था ।”
“अकेले ? यानी कि तुम और साहब ?”
“नहीं । साथ दो आदमी और थे ।”
“तुम उन्हें जानते हो ?”
“हां । वे दोनों साहब के भरोसे के आदमी हैं । एक का नाम उमरावसिंह है और दूसरे का लच्छीराम ।”
“चितकबरे का नाम उमरावसिंह है या लच्छीराम ?”
“लच्छीराम ।” - वह हैरानी से मेरा मुंह देखता हुआ बोला ।
“फिर ? राजेन्द्र प्लेस से कहां गए तुम ?”
“नारायणा । वहां से साहब ने मुझे वापिस भेज दिया था ।”
“क्यों ?”
“वजह पूछना तो मेरा काम नहीं ।”
“नारायणा में तुम उन्हें कहां लेकर गए थे ?”
“पायल सिनेमा के पास कहीं गया था मैं ।”
“यह तो बहुत गोलमोल जवाब हुआ । पायल सिनेमा के पास कहां गए थे तुम ?”
“मैं जगह से वाकिफ नहीं ।”
“कोई नम्बर-वम्बर तो बताया होगा साहब ने ?”
“बताया था लेकिन अब वह मुझे भूल गया है ।”
“उमरावसिह और लच्छीराम का क्या हुआ ?”
“वे तो राजेन्द्रा प्लेस ही रह गए थे ।”
“वे साहब के साथ नारायणा नहीं गए थे ?”
“नहीं ।”
“तुमने साहब से पूछा नहीं कि वे पीछे क्यों रह गए थे ?”
“मैं भला क्यों पूछता ?”
“इस बाबत उन दोनों में और तुम्हारे साहब में तुम्हारे सामने कोई बात नहीं हुई थी ?”
“जी नहीं ।”
“कदमसिंह !”
“जी, साहब ?”
“तुम झूठ बोल रहे हो ।”
“जी !”
“तुम्हें यह भी मालूम है कि वे दोनों पीछे क्यों रह गये थे और यह भी मालूम है कि तुम्हारे साहब नारायणा में कहां गए थे !”
वह खामोश रहा । उसने व्याकुल भाव से कमला की तरफ देखा ।
“तुम्हारी जानकारी के लिए तुम्हारे साहब अब इस दुनिया में नहीं हैं ।”
“जी !” - वह बुरी तरह से चौंका ।
“छतरपुर में उनके फार्म में उनका कत्ल हो गया है । और पुलिस को कातिल की तलाश है । मेरे सामने झूठ बोलने से तो कछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन अगर पुलिस के सामने झूठ बोलोगे तो हवालात में नजर आओगे । समझे ?”
उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“अब सच-सच मेरे सवालों का जवाब दो ।”
“जबाब मैडम के सामने देना मुनासिब न होगा ।”
“तुम मेरी परवाह न करो ।” - कमला बोली ।
“साहब नारायणा में जूही चावला के बंगले पर गए थे ।”
“और अपने चमचों को पीछे क्यों छोड़ गए थे ?”
“लच्छीराम का ख्याल था कि कोई आदमी उनके पीछे लगा हुआ था । वे राजेंद्रा प्लेस में यही देखने के लिए साहब से अलग हो गए थे कि उनका शक सही था या नहीं ।”
“शक सही था उनका ?”
“जी हां, था । उन्होंने खुद ही आकर बताया था कि जो आदमी साहब के पीछे लगा हुआ था, उसके साथ उनकी मारपीट भी हुई थी ।”
“मर्सिडीज तो उसी सड़क पर खड़ी थी । मारपीट तुमने नहीं देखी थी ?”
“नहीं । मैं इत्तफाक से उस वक्त गाड़ी में नहीं था । मैं जरा” - उसने सशंक भाव से कमला की तरफ देखा - “बगल की गली में गया हुआ था ।”
जो कि अच्छा ही हुआ - मैंने सोचा - नहीं तो मार-पीट में दो के मुकाबले तीन हो जाते ।
“फिर ?” - प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
“वहां हम तीनों थोड़ी देर बाहर ठहरे थे, फिर साहब ने बाहर आकर हम सबको वहां से रुखसत कर दिया था ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “साहब का कत्ल जूही मेम साहब ने किया ?”
“यह कैसे सूझा तुम्हें ?”
“यूं ही ।”
“यूं ही क्या ! हर बात की कोई वजह होती है । इस संदर्भ में जूही का ही नाम क्यों सूझा तुम्हें ?”
“मैं साहब को जूही मेम साहब के साथ छोड़कर आया था । आपने कत्ल की बात की तो मैंने सोचा कि शायद ऐसा उन्हीं ने किया हो ।”
“क्या कहने तुम्हारे सोचने के !”
वह खामोश रहा ।
“बाद में तुम साहब को लेने दोबारा नारायणा गये थे ?”
“नहीं ।”
“उन्होंने तुम्हें गाड़ी कहीं और लाने के लिये कहा था ?”
“नहीं । उन्होंने मुझे नारायणा से ही भेज दिया था ।”
“आई सी । ठीक है, तुम जा सकते हो ।”
वह चेहरे पर हैरानी और अविश्वास के भाव लिए वहां से विदा हो गया ।
“आप जूही चावला को जानती हैं” - मैंने कमला से पूछा ।
“जानती हूं । यहां की पार्टियों में वह अक्सर आया करती है और हमेशा मेरे साथ बड़े अदब से पेश आती है । लेकिन यह मुझे कभी नहीं सूझा था कि मेरे हसबैंड की उसके साथ आशनाई हो सकती थी ।”
“ऐसा कोई संकेत तो अभी भी हासिल नहीं ।”
“कैसे हासिल नहीं ? अपना ऑफिस छोड़कर उसके घर पर ओबराय साहब और किसलिए जाते ? जरूर उस कुतिया की वजह से ही वे मुझसे तलाक चाहते थे । मुझे इस बात का अन्देशा तो था कि मेरे मर्द की किसी गैर औरत से आशनाई थी लेकिन वह औरत जूही चावला थी, यह मुझे कभी नहीं सूझा था । हरामजादी मुझे आंटी कहा करती थी जबकि वो मुश्किल से दो या तीन साल छोटी होगी मुझसे ।”
“तलाक तो आप भी चाहती थीं अपने पति से ?”
“कोई भी गैरतमंद औरत अपने बेवफा पति से तलाक चाह सकती है । लेकिन मेरे तलाक चाहने में और मेरे पति के तलाक चाहने में फर्क है ?”
“क्या फर्क है ?”
“मेरा पति फोकट में मुझसे पीछा छुड़ाना चाहता था ।”
“जबकि आप जायदाद में हिस्से की और हर्जे-खर्चे की ख्वाहिशमंद थीं ?”
“हां ।”
“आप चाहती थीं कि इससे पहले आपका पति किसी बहाने आपको दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर करें, आप उसकी किसी गैर औरत से आशनाई साबित कर सकें और उस बिना पर हर्जे-खचे के साथ उससे तलाक हासिल कर सकें । इसीलिये आपको एक प्राइवेट डिटेक्टिव की सेवाओं की जरूरत थी ?”
“हां ।”
“मेरा नाम कैसे सूझा आपको ?”
“किसी ने सुझाया था ।”
“किसने ?”
“बलराज सोनी ने ।”
“आई सी ।” - मैं गंभीरता से बोला ।
“ड्रिंक और हो जाए ।” - मेरा खाली गिलास देखकर वह बोली ।
“हो जाये !” - मैं बोला - क्या हर्ज है !”
मेरा और अपना गिलास लेकर वह बार पर गई । हैनेसी के नये जाम तैयार करके वह वापिस लौटी । हम दोनों एक सोफे पर अगल-बगल बैठ गए । बड़े अफसोस की बात थी कि हम दोनों के बीच एक निहायत इज्जतदार फासला था ।
“आपकी और आपके पति की उम्र में बहुत फर्क है ।” - मैं बोला- “ऐसा क्यों ?”
“क्योंकि” - वह बोली - “उसकी मां ने उसे मेरी मां के मुझे पैदा करने से बहुत पहले पैदा किया था ।”
“आप बात को मजाक में ले रही हैं । मैंने यह सवाल गंभीरता से किया था ।”
“मैं ओबराय साहब की दूसरी बीवी हूं ।”
“पहली को क्या हुआ ?”
“परलोक सिधार गई ।”
“कोई औलाद ?”
“कोई नहीं ।”
“आप पर नजरेइनायत कैसे हुई साहब की ?”
वह हिचकिचाई ।
“क्लायंट और प्राइवेट डिटेक्टिव का रिश्ता मरीज और डॉक्टर जैसा होता है । जैसे मरीज को डॉक्टर से कुछ नहीं छुपाना चाहिये, वैसे ही क्लायंट को भी प्राइवेट डिटेक्टिव से कुछ नहीं छुपाना चाहिये ।”
“मैं राजदूत में कैब्रे डांसर थी ।” - वह बोली - “ओबराय साहब वहां अक्सर आते थे । मुझ पर फिदा हो गए । शादी की ख्वाहिश जाहिर करने लगे जो कि मैंने कबूल कर ली ।”
“उनसे या उनकी दौलत से ?”
“अक्लमंद को इशारा काफी होता है ।”
“जब आपकी और उनकी रिश्तेदारी की बुनियाद मुहब्बत नहीं थी तो आपको उनके किसी गैर-औरत से ताल्लुकात से क्या फर्क पड़ता था ?”
“ताल्लुकात से फर्क नहीं पड़ता था लेकिन मेरा पत्ता काटकर किसी और से शादी कर लेने के उनके खतरनाक इरादे से फर्क पड़ता था ।”
“औरतों के बहुत रसिया थे ओबराय साहब ?”
“हां । बहुत ज्यादा ।”
“जूही चावला ने उनका कत्ल किया हो सकता है ?”
“वो किसलिए ?”
“शायद आपके पति ने उसे न बताया हो कि वे शादीशुदा थे और उसे शादी का झांसा देकर खराब किया हो !”
“मिस्टर !”
“फरमाइए ।”
“तुम्हें नशा हो गया है ।”
“कैसे जाना ?”
“तुम्हारी अक्ल तुम्हारा साथ नहीं दे रही । मैं अभी तो कहकर हटी हूं कि यहां आया करती थी और मुझे आंटी कहा करती थी ।”
“ओह, सॉरी ।”
मैंने डनहिल का अपना पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया । मैंने महसूस किया, मेरा दिमाग वाकई हवा में उड़ने लगा था । सिगरेट ने मुझे थोड़ी राहत पहुंचाई ।
“मैं मिलूंगा उस लड़की से ।”- मैंने घोषणा की ।
“जरूर मिलना लेकिन सावधान रहना ।”
“किस बात से ?”
“उसकी खूबसूरती से । बहुत खूबसूरत है वो ।”
“आपसे ज्यादा ?”
“हां । मुझसे ज्यादा ।”
“पहली बार किसी खूबसूरत औरत को किसी दूसरी खूबसूरत औरत को अपने से ज्यादा खूबसूरत तसलीम करते देख रहा हूं ।”
“हकीकत हकीकत है ।”
“मैं तो नहीं मान सकता ।”
“क्या ?”
“कि दुनिया में कोई औरत आपसे भी ज्यादा खूबसूरत हो सकती है ।”
वह खुश हो गई लेकिन प्रत्यक्षत: वह बोली - “अरे, मैं कुछ नहीं हूं ।”
“अपनी निगाहों में । मेरी निगाहों में नहीं । मैडम, हीरे की कद्र सिर्फ जौहरी को होती है ।”
“तुम जौहरी हो ?”
“हां ।”
वह हंसी ।
हंसी तो फंसी ।
मैंने अपना गिलास खाली कर के सामने के मेज पर रख दिया और उसकी तरफ सरका । वह उठकर खड़ी हो गई । मैंने उसकी नंगी बांहें थाम लीं । उसने बांहें छुड़ाने का उपक्रम न दिया । मैंने उसको तनिक अपनी तरफ खींचा तो वह मेरी गोद में आकर गिरी । उसके हाथ में थमे गिलास में से ब्रांडी छलकी और उसके छींटें उसके चेहरे पर जाकर पड़े । मैंने बड़ी नफासत से उसके गुलाब-से-गालों पर से हैनेसी की बूंदें चाटी । फिर उसने गिलास हाथ से फिसलकर नीचे कालीन पर गिर जाने दिया और अपनी लम्बी सुडौल बांहें मेरे गले में डाल दीं । उसका कठोर उन्नत वक्ष मेरे चेहरे से टकराने लगा । मैंने उसे कसकर, अपने साथ चिपटा लिया और अपना मुंह उसके उरोजों में धंसा दिया । उसके नौजवान जिस्म में से भड़की हुई आग जैसी तपिश पैदा होने लगी । उसने आंखें बन्द कर ली और निढाल होकर मेरी गोद में पसरी जाने लगी ।
इमारत में कहीं टेलीफोन की घण्टी बजने लगी ।
तुरन्त उसके जिस्म से मेरी पकड़ ढीली पड़ गई ।
“बजने दो ।” - वह मेरे कान में फुसफुसाई ।
“नहीं । फोन सुनकर आओ ।”
“लेकिन...”
“इसे इंटरवल समझो । इतनी रात गए कोई खामखाह फोन नहीं कर रहा होगा । फोन कॉल का कोई रिश्ता तुम्हारे पति की मौत से हो सकता है ।”
“अच्छा !”
बड़े अनिच्छापूर्ण ढंग से वह मेरी गोद में से उठी । अपने कपड़े और बाल व्यवस्थित करती हुई वह गलियारे दरवाजे के रास्ते से वहां से बाहर निकल गई ।
मैं सोचने लगा, टेलीफोन तो स्टडी में भी हो सकता था । इतनी बड़ी कोठी में तो कई टेलीफोन मुमकिन थे । मुझे लगा कि घंटी स्टडी में भी बजी थी ।
मैं उठ खड़ा हुआ ।
स्टडी का दरवाजा खोलकर मैं भीतर दाखिल हुआ । भीतर बत्ती नहीं जल रही थी लेकिन बाहर की जो थोड़ी-बहुत रोशनी वहां प्रतिबिम्ब हो रही थी, उसमें मुझे परे एक मेज पर पड़ा टेलीफोन दिखाई दिया । मैंने आगे बढ़कर उसका रिसीवर उठाकर अपने कान से लगा लिया ।
मेरे कानों में एक जनाना आवाज पड़ी लेकिन मुझे गारण्टी थी कि वह आवाज कमला की नहीं थी ।
तभी मेरी खोपड़ी पर जैसे कोई बम छूटा । फोन मेरे हाथ से छूट गया और मेरे घुटने मुड़ गए । मेरी आंखों के आगे लाल-पीले सितारे नाचने लगे । अंधेरे में मैंने अपने हाथ सामने को झपटाये तो वे किसी के जिस्म से टकराये । तभी एक और प्रहार मेरी कनपटी पर हुआ । मेरे हाथ में तब किसी की बांह आ गई थी जिसे मैंने पूरी शक्ति से पकड़कर अपनी तरफ घसीटा । कोई मेरे ऊपर आकर गिरा । मैंने फुर्ती से करवट बदली और उसके ऊपर सवार हो गया । अंधेरे में मैंने अपने दोनों हाथों के घूंसे ताबड़तोड़ अपने नीचे दबे व्यक्ति पर बरसाने आरम्भ कर दिए । मुझे नहीं पता था कि मैं उस पर कहां प्रहार कर रहा था लेकिन अब बदले में कम-से-कम मुझ पर कोई प्रहार नहीं हो रहा था ।
फिर पता नहीं कैसे वह मुझे अपने ऊपर से परे धकेलने में कामयाब हो गया ।
नीमअंधेरे में एक डण्डा मुझे अपने चेहरे की तरफ लहराता आता दिखाई दिया । मैंने तुरन्त करवट बदली । डण्डा जोर से फर्श से टकराया । वह आदमी उठकर दरवाजे की तरफ भागा । मैंने फर्श पर पड़े-पड़े ही जम्प लगाई । मेरी दोनों बांहें उसकी कमर से लिपट गई । हम दोनों धड़ाम से नीचे गिरे । मैं उससे पहले उछलकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया । मैंने अपने जूते की एक भरपूर ठोकर उसकी पसलियों में जमाई । वह गेंद की तरह परे उछला और फिर जहां जाकर गिरा, वहां से दोबारा न हिला ।
मैं हांफता हुआ उसके सिर पर जा खड़ा हुआ और उसके शरीर में कोई हरकत होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
तभी लगभग भागती हुई कमला स्टडी रूम में दाखिल हुई ।
“सुधीर !” - वह आतंकित भाव से बोली - “क्या हुआ ?”
“मुझे नहीं मालूम कि यहां की बिजली का स्विच कहां है !” - मैं बोला - “बत्ती जलाओ, फिर देखते हैं, क्या हुआ ।”
उसने बत्ती जलाई तो मैंने देखा कि मेरे सामने नीचे फर्श पर जो आदमी पड़ा था, मेरे अधिकतर घूंसे, लगता था, उसके चेहरे पर ही पड़े थे । उसकी नाक में से खून बह रहा था, ऊपर का होठ कट गया था, सामने के दो दांत टूट गए थे और चेहरा यूं लगता था जैसे स्टीम रोलर से टकराया था ।
उस वक्त उसकी चेतना लुप्त थी ।
खुद मेरी कनपटी और खोपड़ी पर दो गूमड़ सिर उठाने लगे थे और मेरी खोपड़ी में यूं सांय-सांय हो रही थी जैसे जैसे भीतर कोई बम विस्कोट होने वाला था । मेरा दिल धाड़-धाड़ मेरी पसलियों से टकरा रहा था ।
“कौन है यह ?” - कमला बद्हवास भाव से बोली ।
“तुम नहीं जानती ?” - मैंने पूछा ।
“इसकी सूरत आज से पहले मैंने कभी नहीं देखी ।”
“इसे होश में लाते हैं । फिर यह खुद ही बताएगा कि यह कौन है ! तुम थोड़ा पानी लेकर आओ ।”
वह वहां से चली गई ।
मैंने उस आदमी की बगलों में हाथ डालकर उसे उठाया और उसे एक कुर्सी पर डाल दिया । वह चालीसेक साल का काफी लम्बा-चौड़ा आदमी था । वह एक सूट पहने था जिसको टटोलकर मैंने उसके कोट की भीतरी जेब से एक रिवॉल्वर बरामद की ।
जिस डण्डे से दो बार मेरी खोपड़ी पर प्रहार किया गया था, वह परे लुढ़क गया था और गनीमत थी कि वह लकड़ी का था । लोहे का होता तो उसके पहले ही वार से मेरी खोपड़ी तरबूज बन चुकी होती ।
कमला पानी का एक जग लेकर वापिस लौटी ।
मैंने जग खुद थाम लिया और उसके मुंह पर पानी के छीटें मारने लगा ।
उसे होश आया । अपने सामने का नजारा देखते ही उसका हाथ अपने कोट की भीतरी जेब की तरफ झपटा ।
“इसे ढूंढ रहे हो ?” - मैंने उसकी रिवॉल्वर उसकी तरफ तानी ।
“साले !” - वह खून थूकता हुआ कहर भरे स्वर में बोला - “खून पी जाऊंगा । जान से मार डालूंगा ।”
“अच्छा ! कैसे करोगे इतने सारे काम ?”
उसने फिर गाली बकी तो अपने बायें हाथ में अभी भी थमे जग का सारा पानी मैंने उस पर पलट दिया ।
“कौन हो तुम ?” - मैं बोला ।
उसने जवाब न दिया । वह बड़े निडर भाव से अपलक मुझे देखता रहा ।
मैंने आगे बढ़कर रिवॉल्वर को नाल से उसकी पहले से लहुलुहान नाक पर दस्तक दी ।
वह पीड़ा से बुरी तरह बिलबिलाया ।
“हरामजादे !” - मैं कहरभरे स्वर में बोला - “मैंने तेरे से एक सवाल पूछा है ।”
वह परे देखने लगा ।
प्रहार के लिए मैंने फिर हाथ उठाया तो कमला बड़े व्याकुल भाव से बोल पड़ी - “इतनी मार-पीट मत करो । इसकी तलाशी लो । इसकी जेब में से ऐसा कुछ तो निकलेगा जिससे मालूम हो सकेगा कि यह कौन है ।”
“तुम्हें इस पर तरस आ रहा है ?”
“हां ।”
“यह जानते हुए कि यह एक चोर है और इतने अभी मुझ पर कातिलाना हमला किया था ? ऐसा हमला यह तुम पर भी कर सकता था ?”
वह खामोश रही ।
“मेरे ख्याल से यह तब भी यहां था जब तुम मेरे लिए चैक बनाने और इण्टरकॉम इस्तेमाल करने यहां आई थीं । यह हमारे यहां पहुंचने से पहले से यहां था ।”
“इसने मुझ पर हमला नहीं किया था ।”
“क्योंकि तुम औरत हो । तुमसे यह निपट सकता था । तब यह यहां कहीं छुप गया होगा । मुझसे निपटना इसे मुहाल लगा होगा इसलिए इसने छुपकर मुझ पर हमला कर दिया था ।”
वह खामोश रही ।
कुछ क्षण मैं भी खामोश रहा, फिर मैंने उसे रिवॉल्वर थमाई और बोला - “इसे इस पर तानकर रखना, मैं तलाशी लेता हूं इसकी ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
मैंने उसकी तलाशी ली ।
मैंने उसकी जब से एक ड्राइविंग लाइसेंस बरामद किया जिस पर उसकी तस्वीर लगी हुई थी और नाम की जगह आर पी चौधरी लिखा था ।
उसके बटुवे में कम-से-कम पांच हजार रुपये के नोट थे और कुछ विजिटिंग कार्ड थे जिन पर उसके नाम के नीचे पते के स्थान पर लिखा था जान पी एलैग्जैण्डर एण्टरप्राइसिज विक्रम टावर, राजेंद्रा प्लेस, नई दिल्ली -110060 ।
तो वह एलैग्जैण्डर का आदमी था ।
मैंने उसका सब सामान उसके कोट की जेब में वापिस डाल दिया और कमला से रिवॉल्वर वापिस ले ली ।
“कहीं से रस्सी तलाश करके लाओ ।” - मैं बोला - “इसके हाथ-पांव बांधने होंगे ।”
“वो किसलिए ?”
“ताकि पुलिस के यहां आने तक हमें रखवाली के लिए इसके सिर पर न खड़ा रहना पड़े ।”
“तुम इसे पुलिस के हवाले करोगे ?”
“और क्या करना चाहिए मुझे ? इसकी करतूत के लिए इसे शाबाशी देकर इसे घर भेज देना चाहिए ?”
वह बिना उत्तर दिए रस्सी की तलाश में वहां से निकल गई ।
मैंने 100 डायल किया और यादव के बारे में पूछा । मालूम हुआ कि यादव वहां से विदा होने ही वाला था । मैंने उसे चोर के बारे में बताया ।
“चोर !” - वह बोला - “कहां पकड़ा चोर ?”
“ओबराय की कोठी पर ।” - मैंने उत्तर दिया ।
“ओबराय की कोठी पर ! इतनी रात गए, वहां क्या कर रहे हो तुम ?”
“कुछ नहीं कर रहा । अफसोस है ।”
“कौन है चोर ?”
“नाम आर पी चौधरी है । एलैग्जैण्डर का आदमी है ।”
“कौन एलैग्जैण्डर ?”
“दिल्ली शहर में एक ही एलैग्जैण्डर है जिक्र के काबिल ।”
“जान पी ?”
“वही ।”
“वो वहां क्या चुराने आया था ?”
“मालूम नहीं । मुझसे बात करके राजी नहीं ।”
“हम राजी कर लेंगे उसे बात करने के लिए ।”
“गुड । तो आ रहे हो ?”
“पागल हुए हो ! चौदह घण्टे हो गए मुझे ड्यूटी भरते हुए । मैं घर जा रहा हूं । किसी और को भेजता हूं वहां ।”
मैंने फोन रख दिया और चौधरी की तरफ घूमा ।
“सरकारी सवारी आ रही है तुम्हारे लिए ।”
वह खामोश रहा ।
तभी कमला रस्सी लेकर लौटी ।
मैंने चौधरी को कुर्सी के साथ मजबूती से बांध दिया जिस पर कि वह बैठा था । उसने कोई विरोध नहीं किया लेकिन वह घूरता मुझे यूं रहा जैसे निगाहों से ही मेरा कत्ल कर देना चाहता हो ।
“कुछ पता लगा, कौन है यह ?” - कमला ने उत्सुक भाव से पूछा ।
“तुम किसी जान पी एलैग्जैण्डर से वाकिफ हो ?”
“हां । वह यहां अक्सर आया करता है ।”
“यानी कि ओबराय साहब भी वाकिफ थे उससे ?”
“हां ।”
“इसका” - मैंने चौधरी की तरफ इशारा किया - “नाम चौधरी है । यह उसी एलैग्जैण्डर का आदमी है ।”
“लेकिन एलैग्जैण्डर का किसी चोर से क्या वास्ता ?”
“वही जो चोरों के सरताज का किसी चोर से होता है ।”
“मतलब ?”
“लगता है, तुम एलैग्जैण्डर के नाम से ही वाकिफ हो यह नहीं जानती हो कि वह क्या करता-धरता है !”
“वह एक बिजनेसमैन है ।”
“वह एक गैंगस्टर है । दादा है । बड़ा दादा ।”
“अच्छा ! मुझे नहीं मालूम था ।”
“जाहिर है । ओबराय साहब की एलैग्जैण्डर से कभी कोई अदावत, कोई झक-झक, कोई तकरार हुई थी ?”
“मेरे सामने तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन आज सुबह मेरे पति ने एक बात की थी जिससे लगता था कि उनकी एलैग्जैण्डर से कोई अदावत थी जिसकी वजह से वे उससे सावधान रहना जरूरी समझते थे ।”
“क्या किया था उन्होंने ?”
“आज सुबह वे दो सशक्त बॉडीगार्डों के साथ घर से निकले थे । उनमें से एक आदमी के चेहरे पर चेचक के दाग थे । अगर तुम चेचक के दागों वाले आदमी को चितकबरा कहते हो तो वे जरूर वही आदमी थे जिनका जिक्र कदमसिंह ने किया था । मैंने उन आदमियों के बारे में अपने पति से सवाल किया था तो उसने बड़ी खोखली हंसी हंसते हुए कहा था कि वे एलैग्जैण्डर के खिलाफ इंश्योरेंस थे ।”
“यानी कि ओबराय साहब को एलैग्जैन्डर से खतरा था ?”
“लगता तो यही था ।” - वह एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “क्या उनके कत्ल में एलैग्जैन्डर का हाथ हो सकता है ?”
“कत्ल अगर तुमने नहीं किया तो क्यों नहीं हो सकता ?”
“तुम अभी भी मुझ पर शक कर रहे हो ?” - वह आहत भाव से बोली ।
“छोड़ो । मैंने तो महज एक बात कही थी ।”
“महज एक बात नहीं, दिल दुखाने वाली बात ।”
“क्या यह हैरानी की बात नहीं” - मैंने उसके दुखते दिल की परवाह नहीं की - “कि तुम्हारा पति सारा दिन तो सशस्त्र बॉडीगार्डों के साथ घूमता रहा और जब छतरपुर जैसी उजाड़, तनहा और शहर से दूर जगह पर जाने की बारी आई तो बॉडीगार्डां को उसने रुखसत कर दिया ।”
“है तो सही हैरानी की बात !”
“यह इस बात की तरफ इशारा है कि फार्म पर ओबराय अकेला नहीं गया था । उसके साथ उसका कोई विश्वासपात्र व्यक्ति था ।”
“कौन ?”
“जैसे तुम ?”
उसने फिर आहत भाव से मेरी तरफ देखा ।
“या कोई और ।” - उसे तसल्ली देने के तौर पर मैंने जल्दी से कहा ।
वह खामोश रही ।
तुम्हारी जानकारी के लिए तुम्हारा पति राजेंद्रा प्लेस एलैग्जैण्डर से ही मिलने गया था ।”
“अच्छा !”
“अब सवाल यह पैदा होता है कि यहां तुम्हारे पति की स्टडी में इस आदमी को किस चीज की तलाश थी ? जो भी चीज वह थी, यह तो जाहिर है कि वह इसे अभी हासिल नहीं हुई है । हुई होती तो वह इसके पास से बरामद होती । लेकिन वह चीज निश्चय ही एलैग्जैण्डर के लिए महत्चपूर्ण थी और उसी वजह से ही शायद उसकी तुम्हारे पति से ठन गई थी । ऐसी चीज क्या हो सकती है ?”
उसने अनभिज्ञता से कंधे उचकाये ।
मैंने स्टडी में चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
“अपनी कोई महत्त्वपूर्ण चीज अगर ओबराय साहब कहीं रखते तो कहां रखते ?”
“मेज की दराज में ।”
तब मुझे ध्यान आया कि अंधेरे में जब मैं टेलीफोन सुन रहा था तो चौधरी मेज के पास ही कहीं था । दरवाजे तक वह मेरे करीब से गुजरे बिना नहीं पहुंच सकता था, इसीलिए उसने मुझ पर आक्रमण किया था ।
मैं मेज की तरफ बढ़ा तो मेरी तवज्जो दीवार में जड़ी एक वाल-सेफ की तरफ गई ।
“इस सेफ में” - मैंने पूछा - “क्या रखते थे ओबराय साहब ?”
“कुछ भी नहीं” - वह बोली - “इसमें सिर्फ मेरे जेवरात हैं ।”
“आई सी ।”
मैंने मेज का मुआयना किया तो उसका ताला टूटा पाया ।
“चौधरी कोई मामूली चोर नहीं” - मैं बोला - “यह बात इससे भी साबित होती है कि इसने इस सेफ की तरफ तवज्जो नहीं दी जिसमें से इस जरूर लाखों का माल हासिल हो सकता था । इसका मेज का ताला तोड़ना साबित करता है कि जिस चीज की इसे तलाश थी, उसके मेज में होने की इसे ज्यादा उम्मीद थी ।” - मैं चौधरी की तरफ घूमा - “तुम तो बताओगे नहीं कि तुम्हें किस चीज की तलाश थी ?”
उसने मजबूती से दांत भींच लिए ।
मैं मेज के पीछे बैठ गया । मैंने उसका पहला दराज खोला और बारीकी से उसमें मौजूद सामान टटोलना आरम्भ किया ।
“फोन किसका था ?” - एकाएक मैंने बीच में सिर उठाकर पूछा ।
तब शायद उसे पहली बार सूझा कि उसने मुझे बाहर ड्राइंगरूम में नहीं भीतर स्टडी में पाया था ।
“ओह !” - वह तनिक तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली - “तो स्टडी में तुम्हारे कदम इसलिये पड़े थे ।”
“किसलिए पड़े थे ?”
“यहां लगे पैरेलल टेलीफोन पर होता वार्तालाप सुनने के लिए ।”
मैं खामोश रहा ।
“जब तुम फोन सुन ही रहे थे तो मुझसे क्या पूछते हो फोन के बारे में ?”
“बहरहाल मेरी उस हरकत का अंजाम तो अच्छा ही निकला । मैं स्टडी में न आता तो मुझे इस शख्स की खबर न लगती । फिर शायद यह वह चीज चुराने में कामयाब भी हो जाता जिसे चुराने के लिए वह यहां आया था । और फिर मैं फोन पर कोई अहम बात सुनने में कामयाब भी नहीं हो सका था । मैने तो अभी रिसीवर थामा ही था कि इस आदमी ने मुझ पर हमला कर दिया था । किसका फोन था ?”
“कोई औरत थी । अपना नाम नहीं बताया था उसने ।”
“क्या कह रही थी ?”
“ओबराय साहब को पूछ रही थी । मैंने कहा था वे कोठी पर नहीं है तो पूछने लगी, कब लौटेंगे । मैंने पूछा, वह कौन थी तो कहने लगी कि वह ओबराय साहब की सेक्रेटरी थी जो कि सफेद झूठ था । मैंने उसे ऐसा जताया तो उसने सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया ।”
“तुम्हारा कोई अंदाजा कि हकीकत वह कौन थी ?”
“अंदाजा है । किसी बुनियाद पर अंदाजा है । मुझे वह आवाज पहचानी हुई लगी थी ।”
“जूही चावला की ?”
“हां ।”
“इतनी रात गए क्यों फोन किया होगा उसने ओबराय साहब के लिये ?”
“क्या पता क्यों किया था ! मुमकिन है” - वह विषभरे स्वर में बोली - “उसे नींद न आ रही हो और वह उन्हें आकर साथ सोने के लिए बुला रही हो या फोन पर लोरी सुनना चाहती हो !”
पहले दराज में मुझे कोई दिलचस्पी के काबिल चीज न मिली तो मैंने दूसरा, बीच का दराज खोला और उसका पोस्टमार्टम आरम्भ किया ।
“ओबराय साहब” - एकाएक मैंने पूछा - “अपनी रिवॉल्वर कहां रखा करते थे ?”
“इसी मेज के किसी दराज में ।”
“कौन से दराज में ?”
“यह मुझे नहीं मालूम ।”
“यहां से रिवॉल्वर निकालते वक्त तो मालूम हो गया होगा ?”
“फिर आ गए एक आने वाली जगह पर । मिस्टर, इस मेज को हमेशा ताला लगा होता था और इसकी चाबी मेरे पति के पास, सिर्फ मेरे पति के पास, होती थी ।”
मैं खामोश रहा । मैंने सबसे नीचे का दराज खोला ।
उसमें से वह चीज बरामद हुई जिसकी निश्चित ही चौधरी को तलाश थी ।
वह एक लाल जिल्द वाली, डायरी के आकार की, लैजर थी जिस पर जान पी एलैग्जैण्डर एण्टरप्राइसिज छपा हुआ था । उसका मुआयना करने पर मुझे लगा कि वह लैजर ही गैंगस्टर सम्राट की कम्पनी की थी । उस पर लिखा हिसाब-खाता बहुत प्राइवेट था । तारीखों के साथ उसमें केवल आमदनी की प्रविष्टियां थी, खर्चे के कालम उसमें तमाम के तमाम खाली थे ।”
निश्चय ही वह एलैग्जैण्डर का कोई बहुत खुफिया हिसाब खाता था जो पता नहीं कैसे ओबराय के हाथ लग गया था ।
मैंने उसके कुछह पन्ने पलटे ।
एक स्थान पर एक प्रविष्टि के गिर्द मुझे एक लाल दायरा खिंचा दिखाई दिया । उसी दायरे में एक नाम था और एक रकम थी । नाम शैली भटनागर था और रकम बीस हजार रूपये की थी ।
मुझे उस लैजर में ब्लैकमेलिंग की बू आने लगी ।
और ओबराय शायद ब्लैकमेलर को ब्लैकमेल कर रहा था ।
मैंने लैजर अपने कोट की जेब में डाल ली ।
चौधरी बहुत गौर से मेरी हर हरकत का मुआयना कर रहा था ।
“यह क्या है ?” - कमला संदिग्ध भाव से बोली ।
“कोई खास चीज नहीं ।” - मैं लापरवाही से बोला - “मामूली लैजर बुक है । मैं घर जाकर बारीकी से इसका मुआयना करूंगा ।”
“लेकिन...”
“तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं ? इतनी मामूली चीज का भरोसा नहीं ?”
वह खामोश हो गई ।
“तुम अपने के किसी भटनागर नाम के वाकिफकार को जानती हो ?”
“एक शैली भटनागर को मैं जानती हूं ।”
“कौन है वो ?”
“पब्लिसिस्ट है । नगर की बहुत बड़ी एडवर्टाइजिंग एजेंसी का मालिक है । मूवी एन्ड फिल्म उसकी स्पेशलिटी है ।”
“तुम कैसे जानती हो उसे ?”
“अपने पति की वजह से ही । वह यहां अक्सर होने वाली पार्टियों मे जो लोग अक्सर आते थे, उनमें एक शैली भटनागर भी था ।”
“ओबराय साहब की अच्छी यारी थी उससे ?”
“हां । अच्छी यारी थी । दोनों घुड़दौड़ के शौकीन थे । एक घोड़ी में” - उसके स्वर में विष घुल गया - “खास तौर से उन दोनों की दिलचस्पी थी ।”
“कोई खास घोड़ी है वो ?”
“हां । बहुत खास ।”
“कौन ?”
“जूही चावला ।”
“ओह !”
तभी कॉल बैल बजी ।
“पुलिस आई होगी” - मैं बोला - “जाकर दरवाजा खोलो ।”
वह चली गई ।
मैंने अपने ताबूत की एक नई कील सुलगाई और सोचने लगा ।
अब मुझे गारंटी थी कि चौधरी वह लैजर बुक चुराने के लिए ही वहां भेजा गया था । इसका मतलब था कि एलैग्जैण्डर को मालूम था कि ओबराय मर चुका था ।
इतनी जल्दी इस बात की खबर उसे कैसे हो सकती थी ?
तभी हो सकती थी जबकि उसने कत्ल खुद किया हो या करवाया हो ।
लेकिन कत्ल का ढंग एलैग्जैण्डर जैसे गैंगस्टर की फितरत से मेल नहीं खाता था । अगर ओबराय की लाश गोलियों से छिदी किसी गली मे पड़ी पाई गई होती या उसका क्षत-विक्षत शरीर यमुना में से निकाला गया होता या वह हिट एंड रन का शिकार हुआ होता तो उसकी मौत में एलैग्जैण्डर का हाथ होना समझ में आ सकता था । हत्या यूं करना, कि वह मोटे तौर पर आत्महत्या लगे, एलैग्जेंडर की फितरत से मेल नहीं खाता था ।
यानी कि किसी और तरीके से, किसी संयोग से उसे मौत की खबर लग गई थी और उसने यह सोचकर चौधरी को उसकी कोठी पर भेजा था कि कहीं उसकी लैजर बुक पुलिस के हाथ न लग जाए । अब यह कहना मुहाल था कि उसको वह खबर इत्तफाक से लग गई थी या उसमें उसके अंडरवर्ल्ड बॉस होने का कोई चमत्कार था ।
एक ए एस आई और दो पुलिसियों के साथ कमला स्टडी में दाखिल हुई ।
ए एस आई ने वहां कदम रखते ही चौधरी को पहचान लिया ।
“ओहो !” - वह बोला - “यह तो अपना पुराना यार चौधरी फंसा बैठा है !”
चौधरी तब भी खामोश रहा ।
“क्या हुआ था ?” - ए एस आई ने मुझसे पूछा । मैंने बताया ।
“इसका थोबड़ा क्या रेल के इंजन से टकराया था ?”
मैं सिर्फ हंसा ।
उन्होंने चौधरी के बंधन खोले और उसे हथकड़ियां पहना दीं ।
मैंने चौधरी की रिवॉल्वर उन्हें सौंप दी ।
उसे अपने आगे लगभग धकेलते हुए वे वहां से विदा हो गए ।
पीछे फिर मैं और कमला रह गए ।
मैंने जोर से जम्हाई ली और अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
चार बज चुके थे ।
लोगों के जागने का वक्त हो रहा था और मैं अभी तक सो नहीं पाया था ।
“मैं चलता हूं ।”
“कहां चलते हो ?” - वह मादक स्वर में बोली ।
“घर ।”
“इस वक्त क्या जंगल में खड़े हो ?”
“मेरा मतलब है, अपने घर । बहुत थक गया हूं । जाकर सोऊंगा ।”
वह मेरे करीब आई । उसकी गरम सांसें फिर मेरे चेहरे को झुलसाने लगीं ।
“कितना थक गए हो ? बहुत ज्यादा ?”
“नहीं । बहुत ज्यादा तो मैं कभी नहीं थकता ।”
मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया । वह लता की तरह मुझसे लिपट गई । मेरी सांसें फिर भारी होने लगीं ।
तौबा ! औरत थी या आग का गोला था ।
“अभी तुम क्या कह रहे थे ?” - वह मेरे कान की लौ को दांतों से चुभलाती हुई बोली ।
“कुछ नहीं ।” - मैं बोला ।
“कुछ तो कह रहे थे ?”
“नहीं ।”
“तुम कह रहे थे कि तुम थक गए हो ?”
“अच्छा ! मैंने कहा था ऐसा ?”
“हां ।”
“कौन कमबख्त थक गया है !”
“सुनो ।”
“हां ।”
“मत जाओ । यहीं रह जाओ ।”
“नहीं । सुबह नौकर-चाकरों पर मेरी मौजूदगी का बुरा असर पड़ेगा । आखिर अभी ताजी-ताजी विधवा हुई हो ।”
मेरे उस एक फिकरे ने उसके भीतर जैसे कोई फ्यूज उड़ा दिया । पलक झपकते ही वह आग का गोला मेरी बांहों में बर्फ की सिल बन गया ।
वह मुझसे अलग हुई ।
“सुधीर कोहली !” - वह तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली ।
“एट यूअर सर्विस मैडम !”
“यू आर ए सन ऑफ बिच ।”
“नॉट “ए” सन ऑफ बिच । दि ओरिजिनल सन ऑफ बिच । इस जगत प्रसिद्ध बिच ने जितने सन पैदा किए थे, सब मेरे बाद किए थे ।”
वह कुछ क्षण मुझे घूरती रही और फिर एकाएक मुस्कराई ।
फिर पहले जैसी दहकती-झुलसती मुस्कराहट ।
क्या पतंगबाज औरत थी - मैं मन ही मन बुदबुदाया - पहले खींचा, फिर बांधा, फिर ताना, फिर तानकर छोड़ दिया कि बेटा और कुछ नहीं तो डोर बंधे-बंधे लटके जरूर रहो ।
“मैंने मजाक किया था ।” - वह बोली ।
“आई अंडरस्टैंड ।”
“मैं तुम्हें दिल से कोई अपशब्द नहीं कह सकती । दिल से मैं तुम्हें बहुत पसंद करती हूं ।”
“मुझे मालूम है । आठ घंटे की हद से ज्यादा लंबी और मुतवातार मुलाकात में मेरा आपको यूं पसंद आ जाना स्वाभाविक था ।”
“मैं तुम्हें पसंद नहीं ?”
“बहुत ज्यादा पसंद हो । ताजमहल के बाद एक आप ही को तो देखा है पसंद आने के काबिल ।”
“दिल से कह रहे हो ?”
“हां ।”
“फिर तो हमारी खूब निभेगी ।”
“जाहिर है ।”
“जरा हालात सुधर जाएं, फिर देखना क्या आता है जिंदगी का मजा !”
यानी कि उस अक्ल के अंधे की चिता की राख ठंडी पड़ जाए जो पति के नाम से जाना जाता था ।
वह मुझे कार तक छोडने आई ।
वहां, मेरे विदा होते-होते भी उसने मेरे गाल पर एक चुंबन जड़ दिया ।
उसकी मजबूरी थी, उसका पति मर कर उसके लिए असुविधा पैदा कर गया था, वरना वह शायद आखिरी क्षण पर भी मुझे कार में से वापिस बाहर घसीट लेती ।
***
टेलीफोन की निरंतर बजती घंटी की आवाज से मेरी नींद खुली ।
रिसीवर उठाने से पहले मैंने फोन के पहलू में रखी टाइमपीस में टाइम देखा ।
ग्यारह बज चुके थे ।
मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा ।
आंखें मिचमिचाते हुए मैंने फोन उठाकर कान से लगाया और बोला - “हैलो !”
“गुड मॉर्निंग” - मुझे रजनी का मधुर स्वर सुनाई दिया - “सोचा, आपको खबर कर दूं कि कायनात स्टार्ट हो चुकी है और लोगों को अपना दिन शुरू किए कई-कई घंटे हो चुके हैं ।”
“यही बताने के लिए तुमने मुझे फोन किया है ?” - मैं भुनभुनाया ।
“हां ।”
“लानत है तुम पर ।”
“वो किसलिए ?”
“मैं साढ़े चार बजे सोया था ।”
“यह मेरी गलती है ?”
“नहीं-नहीं । गलती तो मेरी ही है मैंने तुम्हारे जैसी वाहियात सैक्रेट्री चुनी ।”
“सैक्रेट्री कोई बीवी तो नहीं होती जो कि एक बार गले का फंदा बन गई तो बन गई । निकाल बाहर कीजिये ऐसी वाहियात सैक्रेट्री को ।”
“यह तुम मुझे राय दे रही हो ?”
“जब तक मैं आपकी सैक्रेट्री हूं तब तक आपको सही और संजीदा राय देना मेरा फर्ज बंता है ।”
“अब तुम चाहती क्या हो ?”
“मैं यह चाहती हूं कि जो मेमसाहब आपके पहलू में लेटी हुई हैं और जिनकी वजह से आप साढ़े चार बजे तक सो नहीं पाये हैं, उन्हें रुखसत कीजिये और काम-धाम में लगिए और चार पैसे कमाइए ताकि आप मेरी तनखाह अदा करने के काबिल बन सकें, क्योंकि पहली तारीख करीब आ रही है ।”
“मेरे पहलू में कोई नहीं है ।”
“यानी कि जो थी वह पहले ही रुखसत हो चुकी है ?”
“कोई थी ही नहीं । मेरा पहलू फकीर की झोली की तरह खाली है । तुम चाहो तो उसे ओक्युपाई कर सकती हो ।”
“मैं चाहूंगी, क्यों नहीं चाहूंगी ?”
“कब चाहोगी ?”
“जब आपके साथ अग्नि के गिर्द सात फेरे ले चुकी होऊंगी ।”
“लानत ! लानत !”
वह हंसी ।
“अब यह तो बको कि फोन क्यों किया ?”
“इसलिए किया क्योंकि यहां ऑफिस में आपके फोन पर फोन आ रहे हैं ।”
“किसके ?”
“आपकी फैन क्लब के और किसके ? उन्हीं बहनजियों के जिन्हें आपसे कुछ खास तरह की उम्मीदें हैं और जिनसे आपको कुछ खास तरह की उम्मीदें हैं ।”
“मसलन ?”
“मसलन एक तो कोई मिस जूही चावला आपसे बात करने को मरी जा रही थीं । दूसरी बहन जी मरी तो नहीं जा रही थीं लेकिन बात करने की ख्वाहिशमंद काफी थीं ।”
“दूसरी कौन ?”
“दूसरी ने नाम नहीं बताया था लेकिन अपना फोन नंबर दिया है ।”
“नंबर बोलो ।”
उसने मुझे एक फोन नंबर बताया जो कि मैंने नोट कर लिया ।
“और ?” - मैं बोला ।
“और बस । अब सिर्फ इतना और बता दीजिए कि आज आपके ऑफिस में दर्शन होंगे ?”
“ऑफिस में बैठूंगा तो तुम्हारी तनखाह कैसे कमाकर लाऊंगा ?”
“यानी कि नहीं होंगे ?”
“कैसी कमबख्त औरत हो ? अपनी तनखाह की फिक्र है, मेरी दाल-रोटी की फिक्र नहीं ।”
“आपका काम कहीं चलता है दाल-रोटी से ! चलता है तो फिर मेरी तनखाह ही हम दोनों के लिए काफी है ।”
“एक नंबर की कमबख्त औरत हो ।”
“आपने यह बात कल भी कही थी और कल भी मैंने इसमें दो संशोधन किए थे । मैं एक नंबर की नहीं हूं और मैं औरत नहीं हूं ।”
“तुम जरूर आदमी हो, तभी तो...”
उसने लाइन काट दी ।
मैंने डायरैक्ट्री में जूही चावला का नंबर तलाश किया और उस पर फोन किया ।
वह लाइन पर आई तो मैंने उसे अपना परिचय दिया ।
“मैंने तुम्हारे ऑफिस में फोन किया था ।” - वह बोली ।
“मुझे मालूम हुआ है । तभी तो मैं फोन कर रहा हूं । फरमाइए, क्या खिदमत है है मेरे लिए ?”
“मैं तुमसे मिलना चाहती हूं ।”
“किस सिलसिले में ?”
“मिस्टर अमरजीत ओबराय की मौत के सिलसिले में । मुझे मालूम हुआ है कि ओबराय साहब की मौत के वक्त तुम उनकी पत्नी के साथ घटनास्थल पर थे ।”
“कैसे मालूम हुआ है ?”
“अखबार में छपा है ।”
“ओह ! आपका ओबराय की मौत से क्या रिश्ता है ?”
“यह मैं मुलाकात होने पर बताऊंगी । फिलहाल इतना जान लो कि मुझे तुम्हारी मदद दरकार है ।”
“मेरी कारोबारी मदद ?”
“इस बात से तुम्हारा इशारा अगर अपनी फीस की तरफ है तो तुम चिंता मत करो । तुम्हारी जो भी फीस होगी, मैं अदा कर दूंगी ।”
“वैरी गुड ।”
“तुम आ रहे हो ?”
“मैं शाम को आऊंगा ।”
“शाम को ? फौरन नहीं आ सकते ?”
“जी नहीं । फौरन तो आना मुमकिन न होगा । शाम पांच बजे मैं आपके दौलतखाने पर हाजिर हो जाऊंगा ।”
“अभी आ पाते तो अच्छा होता ।” - वह चिंतित भाव से बोली ।
“सॉरी !”
“ठीक है । पांच बजे ही सही । लेकिन पहुंच जाना पांच बजे ।”
“मैं जरूर पहुंचूंगा ।”
वह मुझे अपने घर का पता समझाने लगी जिसकी तरफ कान देने की मैंने कोशिश नहीं की ।
उसने संबंध विच्छेद किया तो मैंने दूसरा नंबर डायल किया ।
दूसरी ओर से तुरंत उत्तर मिला ।
“जान पी एलैग्जैण्डर एंटरप्राइसिज ।” - कोई महिला मधुर स्वर में बोली ।
मैं हैरान हुए बिना न रह सका । नंबर वहां का निकलेगा, इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी ।
“मेरा नाम सुधीर कोहली है” - मैं बोला - “मुझे इस नम्बर पर रिंग करने का संदेशा मिला था ।”
“यस, मिस्टर कोहली । प्लीज होल्ड ऑन । मिस्टर एलैग्जैण्डर वुड लाइक टू स्पीक टू यू ।”
“ओके ।”
थोड़ी देर बाद एलैग्जैण्डर का दबंग, तकरार पर उतारू स्वर मुझे सुनाई दिया ।
“कोहली” - वह बोला - “तेरे से मिलने का है ।”
“तो मैं क्या करूं ?” - मैं रुखाई से बोला ।
“आकर मिल और क्या करूं ?”
“कल तुम्हारे चौधरी नाम के एक चमचे से तो मिला था मैं । अभी खबर लगी या नहीं ?”
“लगी । तेरे को फौरन इधर पहुंचने का है ।”
“किसलिए ?”
“तेरे पास अपुन की एक चीज है जो अपुन को चाहिए ।”
“वही चीज जिसकी चौधरी को तलाश थी ?”
“हां ।”
“यूं ही फोकट में ?”
“हासिल तो अपुन फोकट में भी कर सकता है लेकिन पैसा देगा ।”
“कितना ?”
“तू खुद अपनी औकात बोल ।”
“एक लाख ।”
“भेजा फिरेला है ?
“पचास हजार ?”
“पांच । यह भी ज्यास्ती है ।”
“दस से एक पैसा कम नहीं ।”
“डन । अपुन का ऑफिस मालूम है ?”
“मालूम है ।”
“गुड । चीज लेकर इधर पहुंच । रोकड़ा मिल जायेगा ।”
“कोई धोखा तो नहीं होगा ?”
“अबे छोकरे ! तू एलैग्जैण्डर से बात कर रहा है, किसी जेबकतरे से नहीं ।”
“ठीक है । मैं शाम को आऊंगा ।”
“कितने बजे ?”
“साढ़े छ: बजे ।”
“मंजूर । अपुन इधर ही होयेंगा ।”
लाटन कट गई ।
तब मैं बिस्तर से निकला ।
नित्यक्रम से निवृत होकर और नया सूट पहनकर जब मैं तैयार हो गया तो मैंने लैजर बुक निकाली ।
अगर उस डायरी के बदले में मुझे दस हजार रुपये हासिल हो सकते थे तो मुझे उसकी ज्यादा हिफाजत करनी चाहिए थी ।
मैंने उसे टॉयलेट में पानी की टंकी के ढक्कन के भीतरी भाग के साथ टेप लगाकर फिक्स कर दिया ।
मैं बाहर की ओर बढा ।
बैठक में मैं ठिठका ।
मेरी निगाह उस दीवार पर पड़ी जहां से पलस्तर उखड़ा पड़ा था ।
हमेशा ही पड़ती थी ।
वह उखड़ा पलस्तर मेरी जिन्दगी की एक बहुत अहम घटना की यादगार था । कभी मैंने वहां दीवार पर एक विस्की की बोतल फेंककर मारी थी । वह उखड़ा पलस्तर मेरी निम्फोमैनियक बीवी मंजुला की यादगार थी जो अब इस दुनिया में नहीं थी ।
मैंने एक गहरी सांस ली और आगे बढ गया ।
फिर घर से निकलकर जो सबसे पहला काम मैंने किया, वह यह था कि मैंने कमला ओबराय का बीस हजार रुपये का चैक भुनवाया । नोट मेरे कोट की भीतरी जेब में पहुंच गए तो तब जाकर मुझे विश्वास हुआ कि चैक कैश हो गया था ।
मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा ।
वहां मैंने यादव को तलाश किया ।
“कैसे आये ?” - यादव तनिक रुखाई से पेश आया ।
“यही जानने आया था कि वह चौधरी नाम का जो चोर गिरफ्तार हुआ था, उससे तुमने क्या जाना ?”
“कुछ नहीं ।”
“कुछ नहीं ? मतलब ?”
“मतलब यह कि कुछ जानने की नौबत आने से पहले ही जान पी एलैग्जैण्डर उसे जमानत पर छुड़ा ले गया ।”
“ओह !” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “चौधरी कुछ तो बका होगा !”
“कुछ नहीं बका । वह कहता है कि वह तो अपने साहब का एक सन्देशा लेकर ओबराय की कोठी पर गया था जहां कि तुमने उसे पकड़कर खामखाह पीटना शुरू कर दिया था ।”
“वह कोठी के भीतर स्टडी में कैसे पहुंचा ?”
“उसे पहुंचाया गया था । एक नौकर उस वहां बिठाकर गया था ।”
“कोई नौकर ऐसा कहता है ?”
“नहीं कहता । इसलिए नहीं कहता क्योंकि मालकिन ने और उसके चमचे ने यानी कि तुमने ऐसा कहने के लिए मना किया है ।”
“उसके पास रिवॉल्वर थी ।”
“उसके पास कोई रिवॉल्वर नहीं थी । जो रिवॉल्वर तुम उसके पास से बरामद हुई बताते हो, वह नहीं जानता कि वह कहां से आई !”
“उसने डंडे के प्रहार से मेरी खोपड़ी खोलने की कोशिश की थी ।”
“की थी, लेकिन तब की थी जब तुम उसे जान से मार देने पर आमादा हो गए थे ।”
“कमाल है ! तुम्हें उसकी इस कहानी पर विश्वास है ?”
“नहीं ।”
“फिर भी तुमने उसे छोड़ दिया ?”
“मजबूरी थी । लेकिन मैंने उसकी निगरानी के लिए एक आदमी तैनात किया हुआ है । चौधरी दोबारा बमय सबूत हमारे हत्थे चढ़ सकता है ।”
वह मेरे लिए कोई सांत्वना न थी ।
मैं झण्डेवालान पहुंचा ।
वहां हत्प्राण के वकील बलराज सोनी का वह दफ्तर था जिसका पता मैंने डायरेक्ट्री में देखा था ।
बलराज सोनी वहां मौजूद था ।
मेरे आगमन से वह खुश हुआ हो, ऐसा मुझे न लगा ।
“कैसे आये ?” - वह बोला ।
“कोई खास वजह नहीं ।” - मैं लापरवाही से बोला - “इधर से गुजर रहा था । सोचा, मिलता चलूं ।”
“कुछ पियोगे ?”
“नहीं, शुक्रिया ।”
वह खामोश हो गया ।
“पुलिस ने आपसे कोई पूछताछ नहीं की ?” - मैंने सहज भाव से पूछा ।
“किस बाबत ?”
“ओबराय साहब के कत्ल की बाबत ।”
“मुझसे क्या पूछते वो ?”
“मसलन यही कि कत्ल के वक्त आप कहां थे ?”
“मैं कहां था ?” - वह अचकचाया - “ऐसे सवाल का मतलब ?”
“आप वकील हैं । कत्ल के मामले से ताल्लुक रखते इतने मामूली सवाल का मतलब नहीं समझते आप ?”
“तुम्हारा मतलब है कि पुलिस यह सोच सकती है कि कत्ल मैंने किया होगा ?”
“हत्प्राण के इर्द-गिर्द के लोगों से ऐसे सवाल पूछने का पुलिस में रिवाज होता है ।”
“मैंने ओबराय का कत्ल नहीं किया । मैं भला क्यों कत्ल करूंगा उसका ? अलबत्ता उस शख्स का कत्ल मैं कर सकता हूं जिसने कि यह जलील काम किया ।”
“वैसे कहां थे आप कत्ल के वक्त के इर्द-गिर्द ?”
“शाम को तो” - वह सोचता हुआ बोला - “मैं यहीं था । फिर एक फ्रैंड से मिलने मैं हौजखास गया था । वहां वह मिला नहीं था । फिर हौजखास के ही एक रेस्टोरेंट में मैंने खाना खाया था । वहां से मैं दोबारा अपने फ्रैंड के घर गया था । तब वह मुझे मिल गया था । वहीं से मैंने फार्म पर टेलीफोन किया था तो कमला से मुझे ओबराय साहब की मौत की खबर मिली थी ।”
“ओबराय साहब को फोन किया क्यों था आपने ?”
“कोई कानूनी नुक्ता था जिसकी बाबत दिन में उन्होंने मुझसे सवाल किया था । उन्होंने मुझसे कहा था कि जब भी मुझे उसका जवाब सूझे तो मैं फौरन फोन करूं उन्हें । हौजखास में जिस फ्रैंड के पास मैं गया था, वह पूर्व वकील है । मैंने उससे वह नुक्ता डिसकस किया था । वहीं बात क्लियर हुई थी इसलिये मैंने वहीं से ओबराय साहब को फोन खड़का दिया था ।”
“क्या नुक्ता था वो ?”
“नुक्ता लीज पर, पट्टे पर, हासिल हुई जमीन-जायदाद की कानूनी पेचीदगियों से ताल्लुक रखता था ।”
“आई सी । कल रात आपने ओबराय साहब की वसीयत का जिक्र किया था । उसके बारे में कुछ बतायेंगे आप ?”
“क्या ?”
“यही कि वे कितना छोड़ गये हैं, किसके लिये छोड़ गये हैं वगैरह !”
“उनका बिजनेस और गोल्फ लिंक वाली कोठी मिलाकर वे कोई पांच करोड़ की हस्ती थे ।”
मेरे मुंह से सीटी निकल गई ।
“और वारिस किसे बना गए वे इसका ?”
जवाब उसने यूं दिया जैसे वारिस का नाम वह अपनी जुबान पर न लाना चाहता हो ।
“जूही चावला को ।”
“मुकम्मल माल का ?” - मैं हैरानी से बोला - “उस लड़की को वे अपना इकलौता वारिस बना गये ?”
“इकलौता नहीं । लकिन उनकी सम्पत्ति का बड़ा भाग उसी को मिलना है ।”
“और बीवी को ?”
“वसीयत में कमला का भी जिक्र है ।”
“कैसा ? जैसा आम के साथ गुठली का होता है ?”
“इतना बुरा हाल तो नहीं हैं लेकिन मेजर शेयर जूही को ही मिलेगा ।”
“बीवी को इस बात की खबर है ?”
“नहीं । यह नई वसीयत ओबराय साहब ने अपनी मौत से कछ ही दिन पहले लिखवाई थी । उन्होंने मुझे इसे राज रखने की खासतौर से हिदायत दी थी ।” - आखिरी फिकरा उसने यूं कहा जैसे वह फिर भी वसीयत के बारे में मुझे बताकर मुझ पर भारी अहसान कर रहा हो ।
“ओबराय साहब के बिजनेस का क्या होगा ?” - मैंने नया सवाल किया - “उसे जूही चलायेगी अब ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“बिजनेस तो खत्म हो जायेगा ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मद्रास होटल में जिस जगह पर ओबराय मोटर्स का बिजनेस है, वह जगह लीज (पट्टे) की है जो कि उन्होंने कई साल पहले पचास साल की लीज पर किराये के नाम पर कौड़ियों के मोल हासिल की थी । लीज की एक शर्त यह भी थी कि उनकी मौत की सूरत में वह लीज भंग मानी जायेगी और जगह के मालिक को उसका खाली कब्जा हासिल करने का अधिकार होगा ।”
“मालिक कौन है जगह का ?”
“कस्तूरचंद नाम का एक आदमी ।”
“करता क्या है वो ?”
“प्रॉपर्टी डीलर है ।”
“कहां ?”
“गोल मार्केट में ।”
“मद्रास होटल वाली वह जगह तो बहुत कीमती है ।”
“आज कीमती है । पहले नहीं थी । इसीलिये वह जगह खाली कराने के लिये कस्तूरचंद कोई कोशिश उठा नहीं रख रहा था लेकिन लीज की लिखा-पढ़ी इतनी मजबूत है कि उसकी एक नहीं चलती थी” - वह एक क्षण ठिठका और बोला - “सिर्फ ओबराय साहब की मौत ही उस लीज को भंग कर सकती थी ।”
“ऐसे माहौल में तो दोनों में अनबन भी बहुत रही होगी !”
“अनबन क्या, दुश्मनी थी । ओबराय साहब तो खुन्दक में कभी-कभार उसके प्रापर्टी के धंधे में भी घोटाला कर देते थे ।”
“वो कैसे ?”
“कस्तूरचन्द जब कोई बड़ा सौदा पटा रहा होता था तो वे ग्राहक का पता लगा लेते थे और उसे ऐसा भड़का देते थे कि वह सौदे से पीछे हट जाता था ।”
“यह तो बड़ी गलत बात है ।”
उसने लापरवाही से कंधे उचकाये ।
“ओबराय साहब के बिजनेस को फरोख्त करने का इन्तजाम भी आप ही करेंगे ?”
“हां । यह जिम्मेदारी भी मुझ पर ही है । तुम्हारी जानकारी के लिये उनके बिजनेस का एक खरीददार खुद कस्तूरचंद भी है ।”
“अच्छा !”
“हां । आज सुबह ही उसने मुझे फोन किया था इस बारे में ।”
“यानी कि आज की तारीख में अपने मौजूदा ठिकाने पर ओबराय मोटर्स का बिजनेस तभी चल सकता है, जबकि खरीददार कस्तूरचंद हो ?”
“हां । वरना ओबराय मोटर्स का तमाम तामझाम, टीन-टप्पर वहां से हटाया जाना पड़ेगा ।”
“वसीयत के बारे में आपकी जूही से बात हुई ?”
“हुई ।”
“और मिसेज ओबराय से ?”
“वो मैं अभी करूंगा ।”
“आप मुझे वसीयत दिखा सकते हैं ?”
वह हिचकिचाया । फिर उसकी मुंडी अपने-आप ही इनकार में हिलने लगी ।
“वकील साहब, अब यह क्या कोई राज रह गया है ? जो बात आप मुझे जुबानी वता चुके हैं, उसके दस्तावेज मुझे दिखाने में आपको क्या ऐतराज है ?”
“वसीयत देखकर तुम्हें क्या हासिल होगा ?”
“मेरे मन की मुराद पूरी होगी ।”
“क्या ?”
“बचपन से ही दो मुराद थीं मेरे मन की । एक ताजमहल देखने की और दूसरी किसी रईस आदमी की वसीयत देखने की । और ताजमहल मैं पिछले हफ्ते देख आया हूं ।”
“तुम्हारी बातें मेरी समझ से परे हैं ।”
“वसीयत दिखा रहे हैं आप ?”
“नहीं ।” - वह दृढ़ स्वर में बोला - “मैं वसीयत नहीं दिखा सकता ।”
“लेकिन...”
“नो ।” - वह बदस्तूर इनकार में सिर हिलाता रहा ।
“वसीयत की एक बेनिफिशियरी मेरी क्लायंट है ।”
“दैट डज नॉट मैटर । तुम्हें वसीयत दिखाने के लिये कमला का तुम्हारा क्लायंट होना काफी वजह नहीं ।”
“अच्छा इस बात की तसदीक कीजिये कि वसीयत में जो कुछ है वो सब आपने मुझे बता दिया है ।”
“सब अहम बातें मैंने तुम्हें बता दी हैं ।”
“कोई कम अहम बात हो ?”
वह फिर हिचकिचाया ।
“यानी कि है ?”
“वसीयत में एक क्लॉज” - वह पूर्ववत हिचकिचाता हुआ बोला - “यह भी है कि यदि कमला ओबराय की जिंदगी में जूही चावला की मौत हो जाती है तो ओबराय साहब की सम्पूर्ण संपत्ति की स्वामिनी कमला ओबराय होगी ।”
“अजीब क्लॉज है यह !”
“कुछ मामलों में थे ओबराय साहब अजीब आदमी ।”
“आप शैली भटनागर को जानते हैं ?”
“कौन शैली भटनागर ? वह पब्लिसिस्ट ! मैट्रो एडवरटाइजिंग वाला ?”
“वही ।”
“जानता हूं । ““
“ओबराय साहब से कैसे ताल्लुकात थे उसके ?”
“वैसे ही जो यार-दोस्तों, के आपस में होते हैं ।”
“कोई खास रिश्तेदारी नहीं ? कोई बिजनेस रिलेशंस नहीं ?”
“मेरी जानकारी में तो नहीं ।”
“सहयोग का शुक्रिया, सोनी साहब ।” - एकाएक मैंने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया ।
उसने हड़बड़ाकर मेरा हाथ थामा और छोड़ दिया ।
कस्तूरचंद का ऑफिस छोटा-सा था, लेकिन बड़ी खूबसूरती और नफासत से सजा हुआ था । बाहर बैठी सजावटी कन्या को मैंने यही बताया कि मैं एक डिटेक्टिव था और कस्तूरचंद से मिलना चाहता था ।
तुरन्त मुझे कस्तूरचन्द के पास भेज दिया गया ।
वह एक कोई पचास साल का, चुस्का हुआ-सा आदमी निकला ।
वह बड़े प्रेम-भाव से मेरे से मिला । उसने मेरे लिये कैम्पा कोला मंगाया और सिगरेट पेश किया । सिगरेट क्योंकि मेरे ही ब्रांड वाला था, इसलिये मैंने ले लिया । मैंने उसके साथ सिगरेट सुलगाया और कैम्पा कोला की चुस्की ली ।
“बोल्लो जी ।” - वह बोला - “क्या सेवा है म्हारे वास्ते ?”
वह मुझे पुलिसिया समझ रहा था और उसका भ्रम दूर करने का मेरा कोई इरादा नहीं था ।
“अमरजीत ओबराय के कत्ल की खबर तो लग गई होगी आपको ?” - मैं बोला ।
“लगी है, जी ।”
“किसने किया होगा उनका कत्ल ?”
“यह म्हारे को क्या मालूम जी ?”
“कल रात आप कहां थे ?”
“म्हारे पै शक कर रहे हो जी ?”
“यूं ही सवाल कर रहा हूं । सवाल करना मेरा काम है, मेरा पेशा है ।”
“वो तो है जी ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “कल शाम मैं रीगल पै इवनिंग शो देख रिया था, जी ।”
“अकेले ?”
“हां ।”
“यह बात आप साबित कर सकते हैं ?”
“कैसे कर सकूं हूं जी ? म्हारे को मालूम होता कि ओबराय टैं बोलने वाला था तो जाता कोई गवाह संग लेकर ।”
“मुझे आपकी लीज के बारे में मालूम हुआ है ।”
“किससे मालूम हुआ है ?”
“ओबराय के वकील से । उसकी मौत से आपको तो फायदा हो गया ।”
“इब झूठ क्या बोल्लूं ! घना फायदा हुई गया, जी । सच्च पूछो तो जिन्दगी मां पैल्ली बार किसी मानस को मरता देख के खुशी हुई है ।”
“आपने मरता देखा था उसे ?”
“न, जी । मैं तो एक बात कहूं सूं । देखकर से म्हारा मतलब है जानकर मरा जानकर । खबर सुनकर ।”
“बहुत अनबन थी आपकी उससे ?”
“घनी चोक्खी ।”
“लीज की वजह से ?”
“हां जी । लीज भी एक वजह थी ।”
“लीज क्या ओबराय ने आपसे जबरदस्ती कराई थी ?”
“नां जी । जबरदस्ती तो नां कराई थी ।”
“फिर जो बिजनेस आपने अपनी रजामन्दगी से उसके साथ किया, उससे शिकायत कैसी ? बिजनेस में ऊंच-नीच होती ही है । अगर आपने अपनी जमीन उसे सस्ते में दी और लंबी लीज पर दी तो इसमें ओबराय की क्या गलती थी ?”
“इस मां ओबराय की कोई गलती नां थी, जी । गलती वाली बल्कि धोखाधड़ी वाली बात कोई और है, जी ।”
“और क्या बात है ?”
“ओबराय आज घना रोकड़ वाला बनकर मरा है । पंद्रह साल पहले जब मैंने उसे लीज पर जमीन दी थी तो वह मामूली व्यापारी था । तब उसके मोटरों के धंधे मां म्हारी भी पार्टनरशिप तय हुई थी । लीज की सालाना रकम के अलावा उसने मुझे अपने धंधे में भी प्रॉफिट देने का वादा किया था । पट्ठा बाद मां मुकर गया ।”
“पार्टनरशिप की कोई लिखत-पढ़त नहीं थी ?”
“नां थी । बोल्यो वा की जरूरत नां थी । बोल्यो जुबान से बड़ी चीज कोई नां होवे थी । बेवकूफ बनाय दिया मने सुसरे ने ।”
“सुना है, वह आपका धंधा बिगाड़ने की भी कोशिश करता था ?”
“बहुत घनी कोशिश करे था । खुंदक खावे था वो म्हारे से । नफरत करे था । म्हारी मेहरबानियों का भी कोई मोल नां डाला सुसरे ने । मैंने वा का भला किया, वा म्हारे को बर्बाद करना चावे था ।”
“आपने क्या भला किया उसका ?”
“मैंने ही वा को या जुगाड़ करके दिया हो की वा दिल्ली मां अपनों पांव जमा सको । वा बंबई से कड़का हुई के हियां आवा रहा । बोल्यो बंबई में उसके साथ व्योपार में घना धोखा हुई गयो । वा का मैनेजर वा की इतनी रकम खायो गयो कि वा को दिवालिया घोषित होना पड़ सकयो । मैंने वा को सस्ती लीज की जमीन दियो, धंधा शुरू करने को रोकड़ा दियो । ससुरा अहसान तो को नां मान्यों । ऊपर सां म्हारा सत्यानाश करूं सूं ।”
“अजीब तरीका है यह अहसान चुकाने का ।”
“देक्खो तो !”
“सेठ जी, ओबराय के कत्ल का उद्देश्य तो आपके पास बहुत तगड़ा है । ऊपर से कत्ल के वक्त की आपके पास कोई एलीबाई भी नहीं ।”
“एली भाई ?” - वह सकपकाया ।
“एलीबाई ! शहादत ! गवाही !”
“मां रीगल मां बैट्ठा होड़ ।”
“लेकिन इस बात को आप साबित नहीं कर सकते ।”
“वो तो बरोबर है ।”
“आपने कत्ल किया है ओबराय का ?”
“नां, जी । म्हारे सां तो मक्खी न मारी जावे । और फिर ऐसा इरादा होता तां मन्ने इतने साल इंतजार थोड़े ही न किया होता !”
“आपके ख्याल से ओबराय का कत्ल किसने किया होगा ?”
“म्हारे को क्या मालूम जी ? वैसे कत्ल करने वाले को कोई मैडल-वैडल देना हो तो हम दे देंगे । सोने का । हीरे जड़वा के ।”
मैं हंसा ।
उसने बड़ी शालीनता से हंसी में मेरा साथ दिया ।
“बंबई में ओबराय का क्या बिजनेस था ?”
“फाइनान्स का थी । कोई चिट फंड कंपनी चलावे था वा वहां ।”
“मैंने तो सुना है कि ओबराय बहुत कांइयां आदमी था । दुनिया-जहान को धोखा देने में समर्थ आदमी बिजनेस में खुद कैसे धोखा खा गया बंबई में ?”
“म्हारे को के खबर ?”
“उसने कभी जिक्र नहीं किया ?”
“म्हारी तो अब सल्लों से ईब वा से मेल-मुलाकात नां है ।”
“सुना है आप उसका बिजनेस खरीदना चाहते हैं ?”
“हां । म्हारे से तो वा की बेवा को अच्छा रोकड़ा हासिल हो जावेगा । नीलामी लगेगी तो क्या पल्ले पड़ेगा ?”
“नीलामी लगेगी ?”
“जरूर लगेगी । एक तो तीस दिन मां वा जगह खाल्ली की जानी जरूरी है । दूसरे एस्टेट ड्यूटी भरने के लिए बेवा के पास रोकड़ा और किधर से आवेगा ?”
“यह आपको किसने बयाया कि ओबराय साहब के बिजनेस की खरीद के मामले में आपका वास्ता उसकी विधवा से पड़ेगा ?”
“और किससे पड़ेगा ? एक ही तो वारिस है सुसरे का ।”
“वह सुसरा काले चोर को अपना वारिस बना सकता था ।”
“बनाए गया के ?”
“हां । बनाए गया । आपने उसके वकील से बात की थी । उसने कुछ नहीं बताया आपको ?”
“नां, जी ।”
“मालूम हो जाएगा “ - मैं उठ खड़ा हुआ ।
“बैठो, जी । कॉफी मंगावें ?”
“नहीं, शुक्रिया । अब मैं रुखसत चाहता हूं । जाती बार आपको एक बात बता जाना चाहता हूं ।”
“वा का ?”
“मैं पुलिस नहीं हूं । मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं ।”
“पिराइवेट डिटेक्टिव ?” - वह बोला - “फिर तो हम थमें जान गए होड़ ।”
“अच्छा !”
“हां ! थम सुधीर कोहली हो ?”
“कैसे जाना ?”
“ओबराय की मौत की खबर के साथ थमारा नाम छापे में छपा होड़ ।”
“ओह !”
“वैसे जो बातां मैंने थमारे सां की, वा म्हारे को पिराइवेट डिटेक्टिव से भी करने से गुरेज न होवे था । म्हारा दिल साफ सूं ।”
“जानकार खुशी हुई ।”
मैं फिर से उसका शुक्रिया अदा करके वहां से विदा हो गया ।
टेलीफोन डायरेक्ट्री के मुताबिक शैली भटनागर की मैट्रो एडवरटाइजिंग एजेंसी एंड साउंड स्टूडियो जनपथ पर शॉपिंग सेंटर की भीड़-भाड़ से परे उसके कनाट प्लेस से लगभग दूसरे सिरे पर क्लेरिसीज होटल के करीब था ।
शैली भटनागर का व्यवसाय-स्थल मैंने अंग्रेजों के जमाने की बनी एक एकमंजिला कोठी में पाया । कोठी के गिर्द विशाल लान था और उसके लकड़ी के फाटक पर एक चौकीदार बैठा था ।
टैक्सी को भीतर दाखिल होने की ख्वाहिशमंद पाकर उसने बिना हुज्जत किए फाटक खोल दिया ।
कोठी की पोर्टिको में मैं टैक्सी से उतरा । मैंने टैक्सी का भाड़ा चुकाकर उसे विदा किया ।
भीतर मेरे कदम एक सजे रिसैप्शन पर पड़े ।
“मैं डिटेक्टिव हूं ।” - मैं जानबूझकर रूखे स्वर में वहां बैठी सुंदरी बाला से बोला - “मैं अमरजीत ओबराय के कत्ल की बाबत शैली भटनागर से मिलना चाहता हूं ।”
डिटेक्टिव शब्द का अनोखा रोब था । उसने फौरन शैली भटनागर को फोन किया । फिर उसने मुझे एक चपरासी के सुपुर्द कर दिया ।
जिस ऑफिस में चपरासी मुझे छोडकर गया, वह एडवरटाइजिंग के ग्लैमरस धंधे जैसा ही ग्लैमरस था । वहां की हर बात में रईसी की बू बसी थी । शैली भटनागर निश्चय ही बहुत पैसे कमाता था ।
वह एक अधेड़ावस्था का लेकिन फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत व्यक्ति था । उसके बाल तकरीबन सफेद थे लेकिन वह उनमें भी जंच रहा था । वह एक शानदार सूट पहने था ।
“हैलो !” - उसने उठकर मुझसे हाथ मिलाया - “मुझे शैली भटनागर कहते हैं ।”
“और बंदे को सुधीर कोहली ।” - मैं बोला ।
“तशरीफ रखिए ।”
मैं एक निहायत आरामदेह कुर्सी में ढेर हो गया ।
“तो आप डिटेक्टिव हैं ?” - वह बोला ।
“प्राइवेट ।” - मैंने बताया ।
“मुझे मालूम है ।”
“कैसे मालूम है ?”
“अभी-अभी मालूम हुआ है, जनाब ! आपके नाम से । पेपर में मैंने ओबराय के कत्ल के संदर्भ में सुधीर कोहली नामक एक प्राइवेट डिटेक्टिव का जिक्र पढ़ा था ।”
“आई सी !”
एक चपरासी नि:शब्द भीतर आया और कॉफी सर्व कर गया ।
मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाला और उसे सिगरेट ऑफर किया ।
“शुक्रिया” - वह बोला - “मैं सिगरेट नहीं पीता ।”
“अच्छा ! विज्ञापन के धंधे से ताल्लुक रखते आप पहले आदमी होंगे जो सिगरेट नहीं पीते ।”
वह हंसा ।
“लेकिन आप शौक से पीजिए ।” - वह बोला ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“ताबूत की कील कहिए इसे” - मैं ढेर सारा धुआं उगलता हुआ बोला - “लेकिन क्या करें, साहब ! छूटती नहीं है जालिम मुंह की लगी हुई ।”
वह बड़े शिष्ट भाव से हंसा ।
मैंने कॉफी की एक चुस्की ली ।
“तो” - मैं बोला - “ओबराय साहब से वाकिफ थे आप ?”
“हां ।”
“अच्छी, गहरी वाकफियत थी ?”
“हां, थी ही । मैं उनकी पार्टियों में जाया करता था । वे हमारी पार्टियों में आया करते थे । यही होती है अच्छी वाकफियत की पहचान ।”
“उनके कत्ल से आपको हैरानी नहीं हुई ?”
“हुई । सख्त हैरानी हुई । ऐसी तो कोई बात नहीं थी ओबराय साहब में जिसकी वजह से कोई उनका कत्ल कर डालता ।”
“क्या वो अपनी जान का खतरा महसूस करते थे ?”
“क्या पता, वो क्या महसूस करते थे ! ऐसे कोई नोट्स उन्होंने कभी मेरे से तो एक्सचेंज किए नहीं थे ।”
“आखिरी बार आप कब मिले थे ओबराय साहब से ?”
“कुछ ही दिन पहले ।”
“कहां ?”
“यहीं । मेरे ऑफिस में ।”
“कैसे आना हुआ था उनका ?”
“यूं ही कर्टसी कॉल ।”
“यानी कि” - मैं उसे अपलक देखता हुआ बोला - “जान पी एलैग्जैण्डर का जिक्र तक नहीं आया था ?”
“कौन जान पी एलैग्जैण्डर ?”
“आप इस नाम के किसी शख्स को नहीं जानते ?”
“न ।”
“हैरानी है ।”
“किस बात की ?”
“फिर भी आपका नाम उसकी लैजर बुक में दर्ज था । बीस हजार रुपए की रकम के साथ । हैरानी है कि बना एक ऐसे शख्स को बीस हजार रुपए दिये जिसके नाम से तो आप वाकिफ नहीं लेकिन जो आपके नाम से बाखूबी वाकिफ है ।”
वह खामोश रहा ।
वह कितनी ही देर खामोश रहा ।
मैं बड़े धैर्यपूर्ण ढंग से सिगरेट के कश लगता उसके दोबारा बोलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
“कैसे जाना ?” - अंत में वह धीरे से बोला ।
“एलैग्जैण्डर की लैजर बुक से जाना जो कि इस वक्त” - मैं तनिक ठिठका - “मेरे पास है ।”
“यह कैसे हो सकता है ?”
“हो ही गया है किसी न किसी तरह ।”
“फिर भी पता तो लगे कि एलैग्जैण्डर की लैजर बुक तुम्हारे पास कैसे पहुंच गई ?”
“बताता हूं । पहले आप कबूल कीजिये कि आप एलैग्जैण्डर को जानते हैं ।”
“किया कबूल ।”
“मुझे वह लेजर बुक ओबराय साहब की कोठी पर उनकी स्टडी में उसकी मेज के दराज में पड़ी मिली थी । उसमें आपके नाम वाली एंट्री के गिर्द लाल दायरा खिंचा हुआ था । ऐसा एलैग्जैण्डर ने तो किया नहीं होगा क्योंकि उसके लिए तो लैजर की सब एंट्रियां एक जैसी थी । ऐसा अगर ओबराय साहब ने किया था तो वे निश्चय ही आपके और एलैग्जैण्डर के किसी रिश्ते के बारे में कुछ जानते थे ।”
“ओबराय का कत्ल उस लैजर-बुक की वजह से हुआ हो सकता है ?”
“हो सकता है । उस लैजर बुक के तलबगार आप भी हो सकते हैं, इसलिये....”
मैंने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“कातिल मैं भी हो सकता हूं ।” - उसने फिकरा मुकम्मल किया ।
“ए वर्ड टु दि वाइज ।”
“मैंने कत्ल नहीं किया ।”
“दैट्स वैरी गुड ।”
“पहाड़गंज में मेरा एक सिनेमा है । वहां तोड़-फोड़ और गुण्डागर्दी की वारदात अकसर हुआ करती थी । फिल्म देखने आने वालों के मन में दहशत बैठती जा रही थी कि वह सिनेमा उनके लिये सेफ नहीं था । जब से मैंने एलैग्जैण्डर को बीस हजार रुपये दिये हैं तब से उस सिनेमा पर कभी कोई गड़बड़ नहीं हुई है ।”
“ब्लैकमेल ?”
“एलैग्जैण्डर ने इसे प्रोटेक्शन मनी कहा था ।”
“यह पेमंट फाइनल तो नहीं होगी ?”
“वह तो इसे फाइनल ही बताता था ।”
“लेकिन अगर यह फाइनल नहीं थी तो एलैग्जैण्डर की दुक्की पिट जाने से आपको फायदा पहुंच सकता था ।”
“मतलब ?”
“अगर ओबराय के कत्ल में एलैग्जैण्डर फंस जाये और जेल की हवा खा जाये तो आपके लिये तो यह भारी राहत की बात होगी ।”
“तुम जासूस हो । ऐसा कुछ करके दिखाओ तो मैं तुम्हें मुंहमांगी फीस दूंगा ।”
“इस बारे में अभी सोचेंगे । फिलहाल आप यह बताइये कि कत्ल के वक्त आप कहां थे ?”
“यहीं था ।”
“आपका दफ्तर रात तक खुलता है ?”
“नहीं । पांच बजे बन्द हो जाता है ।”
“फिर आप यहां क्या कर रहे थे ?”
“कुछ काम कर रहा था जो बहुत जरूरी था ।”
“और कौन था यहां ?”
“कोई भी नहीं । छ: बजे तक सब लोग चले गये थे ।”
“चपरासी भी ?”
“हां । सिर्फ गेट का चौकीदार यहां रह गया था । वह रात को भी यहीं होता है ।”
“आप कब तक यहां ठहरे थे ?”
“नौ बजे तक ।”
“तीन घंटे आप यहां अकेले बैठे काम करते रहे ?”
“हां ।”
“उस दौरान चौकीदार भी यहां नहीं आया ?”
“नहीं । मेरे बुलाए बिना उसके यहां आने का कोई मतलब नहीं था और मैंने उसे यहां बुलाया नहीं था ।”
“आप चौकीदार की जानकारी में आये बिना यहां से जा सकते हैं ?”
“नहीं । यहां से निकलने का एक ही दरवाजा है और उस पर वो बैठा होता है ।”
“फिर तो चौकीदार आपकी बेगुनाही का गवाह हुआ ।”
“हुआ ।”
“पिछवाड़े का क्या हाल है ?”
“पिछवाड़े में हमारा साउंड स्टूडियो है” - उसने खुली खिड़की से बाहर इशारा किया - “वह जो बहुत ऊंची छतवाली इमारत तुम्हें दिखाई दे रही है, वह साउंड स्टूडियो है । उससे आगे ऊंची बाउंड्री वाल है और उससे आगे एक पतली गली है ।”
“साउंड स्टूडियो से गली में कोई रास्ता है ?”
“नहीं । उसके पिछवाड़े में एक दरवाजा है लेकिन वह चारदीवारी के भीतर कम्पाउंड में ही है ।”
“पिछवाड़े की दीवार फांदी जा सकती है ?”
“मैं नहीं फांद सकता ।”
“लेकिन फांदी जा सकती है ?”
जवाब देने की जगह उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“आप पिछवाड़े के रास्ते चुपचाप यहां से खिसककर कत्ल करके लौट आये हो सकते हैं । कार पर छतरपुर यहां से आधे घण्टे से ज्यादा का रास्ता नहीं है ।”
“मैं यहीं था ।”
“लेकिन आप यह बात साबित नहीं कर सकते ।”
वह कुछ क्षण खामोश रहा ।
“मैंने बम्बई ट्रंक कॉल की थी ।” - एकाएक वह बोला ।
“किसे ?”
“अपने वहां के प्रतिनिधि को । आठ बजे के आसपास ही मेरी कॉल लगी थी और मैंने उससे बात की थी ।”
“आपने कॉल बुक कराई थी । सीधा डायल नहीं किया था बम्बई का नम्बर ?”
“नहीं किया था । यहां के किसी फोन में एस टी डी की सुविधा नहीं है । मिस्टर कोहली, टेलीफोन कम्पनी के रिकार्ड से यह जाना जा सकता है मेरे बम्बई प्रतिनिधि के बयान से यह साबित हो सकता है कि मेरा कत्ल से कोई वास्ता नहीं ।”
“ऊपर से आप चौकीदार को समझा सकते हैं कि पूछने पर वह यह कहे कि आठ बजे उसने आपको यहां बैठे देखा था ।”
“यह भी हकीकत है । मुझे अब याद आया है कि आठ बजे मैंने उससे क्लेरिसिज से खाना मंगवाया था ।”
“इतनी अहम बात आपको अब याद आई है ?”
“हां ।”
“मैं चौकीदार को बुलाकर इस बात की तसदीक कर सकता हूं ?”
“जो चौकीदार फाटक पर बैठा है, वह वो चौकीदार नहीं है । रात वाला चौकीदार शाम के छ: बजे आता है ।”
“और शाम होने में अभी बहुत वक्त है । तब तक आप उसे जो चाहे सिखा-पढ़ा लेंगे, आखिर वह आपका मुलाजिम है ।”
उसने आहत भाव से मेरी तरफ देखा ।
“एनी वे” - मैं उठ खड़ा हुआ - “जानकर खुशी हुई कि आप अपने दोस्त के कत्ल के लिए जिम्मेदार नहीं । इस केस में दरअसल मर्डर सस्पैक्ट्स की कोई कमी नहीं है । अच्छा है कि उनमें से एक तो कम हुआ ।”
उसने उठकर मुझसे हाथ मिलाया ।
“मैं कभी फिर हाजिर होऊं तो आपको कोई असुविधा तो नहीं होगी ?”
“नो । नैवर । ड्रॉप इन ऐनी टाइम ।”
“थैंक्यू ।”
ठीक पांच बजे मैं नारायण विहार में जूही चावला के बंगले में था । उसके मां-बाप जरूर अंतर्यामी थे जो उन्होंने अपनी बेटी का नाम फूल के नाम पर रखा था । वह वाकई फूल जैसी ही सुन्दर, कोमल और नाजुक थी । उम्र में वह बाइस-तेईस साल से ज्यादा हरगिज नहीं थी । कद उसका खूब लम्बा-ऊंचा था और उसकी चाल-ढाल से अन्धा भी पहचान सकता था कि वह तजुर्बेकार फैशन मॉडल थी । वह चलती थी तो उसकी केवल टांगें हरकत में आती थीं । उसके जिस्म का ऊपर का भाग एकदम स्थिर रहता था और ठोढ़ी हवा में तनी रहती थी । उसका रंग गोरा था और नयन-नक्श बहुत साफ-सुथरे थे । उस वक्त वह चूड़ीदार पाजामा और कुर्ता पहने थी जो कि उसके कमसिन जिस्म पर गजब ढा रहा था । अलबत्ता सूरत से वह परेशानहाल लग रही थी ।
मेरी तो उस पर एक निगाह पड़ते ही लार टपकने लगी थी ।
मालूम हुआ कि वइ वहां अकेली रहती थी ।
उसने मुझे एक छोटे से लेकिन खूबसूरत ड्राइंगरूम में बिठाया । वहां की हर चीज मॉडल थी और किसी फैशन मॉडल के ही व्यक्तित्व के अनुरूप थी ।
एक पूरी दीवार पर उसका 6x8 फुट का निहायत जानदार ब्लोअप लगा हुआ था ।
“वक्त के बहुत पाबन्द हैं आप कोहली साहब !” - वह बोली ।
“ऐसी कोई बीमारी मुझे नहीं है” - मैं बोला - “यहां मैं पूरे पांच बजे पहुंचा हूं यह महज इत्तफाक है ।”
“कुछ पियेंगे आप ?”
“कुछ नहीं पियूंगा । कोई खास चीज पिलाएं तो मना भी नहीं करूंगा ।”
“खास चीज, जैसे ड्रिंक ?”
“आप शौक रखती हैं ?”
“शौक नहीं रखती लेकिन ड्रिंक रखती हूं । ओबराय साहब को शौक था ड्रिंक का । उनके लिए...”
वह खामोश हो गई । उसने असहाय भाव से कन्धे झटकाए और एक बड़ी सर्द आह भरी ।
“अभी मैं ड्रिंक का खाहिशमन्द नहीं” - मैं जल्दी से बोला, अकेले पीने का क्या फायदा था ? मैं तो दरअसल शराब में घोलकर शबाब पीने की फिराक में था - “आप तकल्लुफ न करें । मैं जरूरत महसूस करूंगा तो कह दूंगा ।”
“श्योर ?”
“श्योर ।”
“ओके दैन ।”
“ओबराय साहब आपसे मुहब्बत करते थे ?”
“हां ।”
“आप भी उनसे ?”
“हां । बहुत ।”
“बहुत खुशकिस्मत थे ओबराय साहब जो उन्हें आप जैसी स्वर्ग की अप्सरा की मुहब्बत हासिल थी ।”
“मैं एक मामूली लड़की हूं । यह उनकी मेहरबानी थी कि मैं उन्हें पसन्द थी ।”
“आप दोनों में उम्र के लिहाज से कुछ ज्यादा ही फर्क नहीं था ?”
“सच्ची मुहब्बत ऐसा कोई फर्क नहीं मानती । यह दिल का सौदा है जो दिल से होता है ।”
“आपको तो फिल्म अभिनेत्री होना चाहिये था ।”
“वो कैसे ?”
“अभी इतना शानदार फिल्मी डायलॉग, इतने शानदार फिल्मी तरीके से जो बोला ।”
“मैं फिल्मों में आ रही हूं । यश चोपड़ा ने मुझे साइन कर भी लिया है ।”
“आप जरूर कामयाब होंगी । मुझे घर के भाग ड्योढी में ही दिखाई दे रहे हैं ।”
“शुक्रिया ।”
“अब यह बताइये कि आपने मुझे क्यों याद फरमाया ?”
“मुझे एक बॉडीगार्ड की जरूरत है ।”
“वो तो होनी ही चाहिये । इतनी खुबसूरत बॉडी को गार्ड की जरूरत नहीं होगी तो और किसे होगी ?”
“मिस्टर कोहली, फॉर गॉड सेक मजाक न कीजिये ।”
“क्यों बॉडीगार्ड की जरूरत महसूस कर रही हैं आप ?”
“मुझे डर है कि मेरा कत्ल हो सकता है ।”
अब वह साफ-साफ डरी हुई लग रही थी ।
“इस डर की कोई वजह ? कोई बुनियाद ?”
“मैं ऐसा कुछ जानती हूं जो कि कोई नहीं चाहता कि जिन्दगी में कभी मेरी जुबान पर आये ।”
“क्या जानती हैं आप ?”
“वह मैं आपको नहीं बता सकती ।”
“कैसे जानती हैं ?”
“यह भी मैं आपको नहीं बता सकती ।”
“फिर कैसे वात बनेगी ?”
“मिस्टर कोहली, मेरी हिफाजत का इन्तजाम करने के लिए आपका यह सब जानना जरूरी नहीं । आप बिना यह सब जाने भी मेरे बॉडीगार्ड बन सकते हैं । मैं आपकी कोई भी मुनासिब फीस भरने को तैयार हूं ।”
“अगर आपको उस शख्स से अपनी जान का खतरा है जिसने कि ओबराय साहब की हत्या की है तो बॉडीगार्ड एंगेज करने से बेहतर कदम यह होगा कि आप उसकी बाबत पुलिस को बताएं । वह जेल में पहुंच जाएगा तो वह किसी की जान के लिए खतरा बनने के काबिल नहीं रह जायेगा ।”
“नहीं । मुझे यह तरीका पसंद नहीं । कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी वजह से ऐसा कोई कदम फिलहाल मैं नहीं उठाना चाहती ।”
“आप मुझे अंधेरे में रखेंगी तो मैं आपकी क्या खिदमत कर सकूंगा ?”
“मेरे बॉडीगार्ड का काम आप अंधेरे में रहकर भी कर सकते हैं ।”
“अंधेरे में रहकर तो मैं और भी बहुत कुछ कर सकता हूं । खूबसूरत बॉडी को गार्ड करने का काम तो अंधेरे में और भी बढिया होता है ।”
वह खामोश रही ।
“आप जानती हैं, कत्ल के केस में पुलिस से कोई जानकारी छुपाकर रखना अपराध होता है । सामाजिक भी और नैतिक भी ।”
“जो जानकारी मुझे है उसकी पुलिस को भनक नहीं लगने वाली ।”
“आप तो पहेलियां बुझा रही हैं ।”
“आप इस बात का पीछा छोड़िए और यह वताइये कि आप मेरे बॉडीगार्ड बनने को तैयार हैं या नहीं ?”
“आपको ऐसी सेवा की जरूरत कब तक होगी ?”
“जब तक मेरा खौफ न मिट जाए ।”
“और ऐसा कब तक होगा ?”
“पता नहीं ।”
“यानी कि आपको अनिश्चित काल के लिए बॉडीगार्ड की जरूरत है ?”
“हां ।”
“हर वक्त के लिए ?”
“हां । फीस क्या है आपकी ?”
“तीन सौ रुपये रोज जमा खर्चे । कम-से-कम दो हजार रुपये एडवांस ।”
“कम-से-कम का क्या मतलब ?”
“मतलब कि अगर आपको एक ही दिन के बाद भी बॉडीगार्ड गैरजरूरी लगने लगा तो भी दो हजार रुपये लगेंगे ।”
“ओह ! आप फौरन काम शुरू कर सकते हैं ?”
“मैं फौरन आपके लिए बॉडीगार्ड भिजवा सकता हूं ।”
“यानी कि यह काम आप खुद नहीं करेंगे ?”
“कर सकने लायक वक्त मेरे पास होता तो मेरी खुशकिस्मती होती । ऐसी बॉडी, और वह भी दिन-रात गार्ड करने का काम....”
“यह आदमी” - वह मेरी बात काटकर बोली - “होशियार होगा ? काबिल होगा ? हथियारबन्द होगा ?”
“होगा ।”
“आप गारण्टी करते हैं ?”
“हां ।”
“कितनी देर में वह यहां पहुंच सकता है ?”
“एक-डेढ़ घण्टा तो लग ही जायेगा ।”
“फीस एडवांस देना जरूरी है ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि आपकी जान को खतरा है, आप फीस अदा किये बिना ऊपर वाले को प्यारी हो सकती हैं ।”
“जब आपका बॉडीगार्ड मेरे साथ होगा तो ऐसा कैसे होगा ?”
“वो जब होगा तब होगा । आपकी बातों से तो लगता है जैसे उसके यहां पहुंचने से पहले ही आपकी दुक्की पिट सकती है ।”
“दिस इज वैरी इनडींसेण्ट एण्ड अनचैरिटेबल ऑफ यू, मिस्टर कोहली !”
“दिस इज बिजनेस, मैडम ! जब क्लायंट का मुकम्मल सहयोग हासिल न हो तो ऐसी सावधानी बरतनी पड़ती है । आप यह तक तो बताना नहीं चाहती कि आपको कैसा खतरा है किससे खतरा है, कितना बड़ा खतरा है ! और आप इस बात को भी खातिर में नहीं ला रही हैं कि आपके साथ आपके बॉडीगार्ड का भी काम तमाम हो सकता है ।”
वह खामोश रही ।
“आप अभी भी मुझे सारी बात साफ-साफ बताएं तो हो सकता है, मैं एडवांस जरूरी न समझूं ।”
“नहीं” - वह उठती हुई बोली - “आप एडवांस जरूरी समझिए । मैं लाती हूं एडवांस ।”
वह वहां से विदा हो गई ।
मैंने ताबूत की एक कील सुलगाई और खुद अपनी पीठ थपथपाई - सुधीर कोहली, दि लक्की बास्टर्ड ।
चौबीस घंटे से भी कम समय में मैंने बाईस हजार रुपए कमा लिए थे । अब जो फीस मुझे हासिल होने जा रही थी, असल काम करने वाले को उसमें से मैंने सिर्फ सौ रुपए रोज देने थे । इतने पैसे पैसे पीट लिए थे मैंने और वह मेरी कमबख्त सैक्रेट्री मुझे उसकी तनखाह कमाने के काबिल नहीं समझती थी ।
मेज पर एक फिल्मी पत्रिका पड़ी थी । मैं उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा । एक पन्ने पर मुझे जूही चावला की एक बड़ी दिलकश रंगीन तस्वीर छ्पी दिखाई दी जो की किसी साड़ियों के विज्ञापन के साथ छ्पी थी । मैंने वह तस्वीर पत्रिका में से फाड़ ली और उसे तह करके अपनी जेब में रख लिया ।
वह वापिस लौटी ।
चैक की जगह उसने मुझे सौ-सौ के बीस नोट नकद दिये तो मेरी तबीयत और भी प्रसन्न हो गयी ।
“ओबराय साहब के कत्ल की बाबत” - मैंने पूछा - “पुलिस ने आपसे कोई पूछताछ नहीं की ?”
“अभी नहीं की ।”
“पुलिस देर-सबेर पहुंचेगी जरूर आपके पास । उनसे आपकी रिश्तेदारी की बात पुलिस से छुपी नहीं रहने वाली । और किसी खामख्याली में न रहिएगा । पुलिस आप पर भी कत्ल का शक कर सकती है ।”
“मुझ पर ?” - वह अचकचाकर बोली ।
“हां ।”
“मैंने उनका कत्ल नहीं किया ।”
“आपसे और किसी जवाब की उम्मीद भी नहीं की जा सकती ।”
“मैं उनसे मुहब्बत करती थी ।”
“उनसे ज्यादा मुहब्बत शायद आप उनकी दौलत से करती हों ?”
“मतलब ?”
“अब यह न कहिएगा की आपको यह खबर नहीं कि ओबराय साहब की वसीयत के मुताबिक उनकी तीन-चौथाई संपत्ति की मालकिन आप हैं ।”
“नहीं कहूंगी लेकिन, मिस्टर कोहली, उस वसीयत की खबर मुझे आज ही लगी है । आज ही सुबह ओबराय साहब के वकील ने मुझे वसीयत की बाबत बताया था ।”
“पहले से आपको वसीयत के बारे में नहीं मालूम था ?”
“नहीं मालूम था ।”
“यह कैसे हो सकता है ? ओबराय साहब ने वसीयत करते ही आपको इस बाबत बताया होगा । आखिर आपकी खातिर वे अपनी ब्याहता बीवी को अपनी जायदाद से लगभग बेदखल कर रहे थे ।”
“मुझे नहीं बताया था ।”
“अब तो आप यही कहेंगी ।”
“मैं सच कह रही हूं” - एकाएक उसका स्वर भर्रा गया - “मैं ओबराय साहब से मुहब्बत करती थी । कत्ल तो दूर की बात है, मैं तो उनका बुरा भी नहीं चाह सकती थी ।”
आंसुओं की शक्ल में छलछलाती संजीदगी मुझे उसकी आंखों में दिखाई दी ।
लेकिन फिर मुझे याद आया कि वह औरत थी । किसी औरत के लिए बावक्तेजरूरत आंसू बहाने लगना क्या बड़ी बात थी ।
मैं अपने स्थान पर से उठकर उसके सोफे पर उसके पहलू में पहुंचा । मैंने एक बांह उसके कंधों के गिर्द लपेटी और दूसरे हाथ से बड़े प्यार से उसके गुलाबी कपोलों पर ढुलक आई आंसुओं की बूंदें पोंछी । करना तो मैं ऐसा अपने होंठों से चाहता था लेकिन उस वक्त मेरी अक्ल - नीयत नहीं, अक्ल - उतनी ही लिबर्टी की गवाही दे रही थी । बहरहाल उतने में ही जन्नत का मजा आ गया । मेरा जी चाहने लगा की वह रोती रहे और मैं उसके आंसू पोंछता रहूं ।
“छि: !” - मैं अपने स्वर में मिश्री घोलता हुआ बोला - “अच्छे, बच्चे कहीं रोते हैं !”
उसने सुबकना बंद किया और फिर मेरे से थोड़ा परे सरक गयी ।
मुझे लगा, जैसे मेरी बांहों से जन्नत निकल गई ।
“मुझे ओबराय साहब की मौत का बड़ा दुख है ।” - वह गमगीन स्वर में बोली ।
“वो तो मैं देख ही रहा हूं । विस्की कौन-सी पीते थे ओबराय साहब ?”
“डिम्पल !”
“जरा देखें तो कैसी होती है डिम्पल ?”
ऐसा मैंने विस्की पीने की नीयत से नहीं कहा था । मैं सिर्फ उसका ध्यान बंटाना चाहता था, उसे उसके गमजदा मूड से उबारना चाहता था ताकि मैं उससे कुछ जरूरी सवालात पूछ सकता ।
वह उठकर बाहर गई ।
मैंने नया सिगरेट सुलगा लिया ।
वह लौटी तो उसके साथ ट्रे उठाए उसकी नौकरानी थी । ट्रे में डिम्पल की बोतल, सोडा साइफन, काइमपा कोला और दो गिलास थे ।
नौकरानी ट्रे को सैंटर टेबल पर रखकर विदा हो गई तो जूही ने बड़ी दक्षता से मेरे लिए जाम तैयार किया । साफ जाहिर हो रहा था की ओबराय की जिंदगी में उसकी वह सेवा वहां हमेशा वही किया करती थी ।
अपने लिए उसने गिलास में कैम्पा कोला डाला ।
मैंने चीयर्स बोला, शानदार स्कॉच विस्की का रसास्वादन किया और बोला - “अब मैं चंद सवाल पूछूं ?”
“पूछो ।” - वह सुसंयत स्वर में बोली ।
“ओबराय साहब कल यहां किसलिए आए थे ?”
“कौन कहता है, वे कल शाम को यहां आए थे ?”
“मैं कहता हूं । कल शाम को वे यहां आए थे ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“मैं जासूस हूं । रिमैम्बर ?”
वह खामोश रही ।
“आपकी ओबराय साहब से आशनाई थी । आते तो वे यहां अक्सर होंगे । मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि कल भी वे तफरीहन ही आए थे या कोई और वजह भी थी ?”
“कल दरअसल वो बड़े फिक्रमंद मूड में थे और एक बड़े गंभीर मसले पर मुझसे बात करने आए थे ।”
“क्या था वह गंभीर मसला ?”
“हमारी शादी ।”
“इसमें मसले वाली क्या बात थी ?”
“एक तो ये बात थी की वे पहले से ही शादीशुदा थे । दूसरे वे चाहते थे कि उनसे शादी के बाद मैं मॉडलिंग छोड़ दूं और एक्ट्रेस बनने का ख्याल तो कतई छोड़ दूं ।”
“आपको इससे ऐतराज था ?”
“ऐतराज तो नहीं था लेकिन अपने कैरियर से फौरन किनारा कर लेना भी मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था । मैंने उन्हें यही कहा था कि पहले शादी तो हो, फिर अगर मेरा कैरियर हमारे विवाहित जीवन में अड़ंगा बनता दिखाई देगा तो मैं छोड़ दूंगी उसे ।”
“कबूल की थी उन्होंने यह बात ?”
“हां । बड़ी मुश्किल से की थी लेकिन की थी ।”
“इसके बाद और क्या बातें हुईं उनसे ?”
“और कुछ नहीं । इतने में सात बज गए थे और उन्होंने किसी से मिलने जाना था ।”
“किससे ?”
“मालूम नहीं ।”
“उन्होंने कोई नाम नहीं लिया था ?”
“नहीं ।”
“आपने पूछा भी नहीं था ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“उनकी ऐसी बातों में दखलंदाजी मुझे पसंद नहीं थी ।”
“आप जानती नहीं उन्होंने किससे मिलने जाना था या बताना नहीं चाहती ?”
“जानती नहीं ।”
“यह मालूम हो कि उस मुलाकात के लिए उन्होंने कहां जाना था ?”
“हां । यह मालूम है ।”
“कहां जाना था ?”
“छतरपुर । अपने फार्म हाउस में ।”
“आप समझती हैं न कि उसी आदमी ने उनका वहां कत्ल किया हो सकता है जिससे कि वो मिलने गए थे ?”
“समझती हूं ।”
“फिर भी उसका नाम नहीं बताना चाहतीं ?”
“जो बात मुझे मालूम ही नहीं, वो कैसे बता सकती हूं भला ?”
“नैवर माइंड । तो ओबराय साहब कल शाम सात बजे तक यहां थे ?”
“हां ।”
“गए कैसे थे वे यहां से ? अपनी कार पर ?”
“नहीं टैक्सी पर ।”
“अपनी कार पर क्यों नहीं ?”
“अपनी कार उन्होंने वापिस भेज दी थी । “
“क्यों ?”
“वजह मुझे नहीं मालूम ।”
“आदमी कारों का व्यापारी हो और टैक्सी पर सफर करे, यह बात अजीब नहीं लगती ?”
“लगती है ।”
“फिर भी इस बाबत आपने उनसे कोई सवाल नहीं किया ?”
“कल आधी रात के बाद” - “मैंने बम सा छोड़ा - “आपने ओबराय साहब की कोठी पर फोन क्यों किया था ?”
उस सवाल पर उसने हैरानी तो बहुत जाहिर की लेकिन जवाब देने में कोई हुज्जत न की ।
“मैं उनके लिए फिक्रमंद थी” - वह बोली - “और तसल्ली करना चाहती थी कि वे खैरियत से थे ।”
“क्यों चाहती थीं आप ऐसा ? और वह भी इतनी रात गए ?”
“मुझे बहुत बुरा सपना आया था । मेरा मन उनके किसी अनिष्ट की आशंका से कांप गया था ।”
“कमाल है !”
वह खामोश रही ।
“आप शैली भटनागर को जानती हैं ?”
तभी कॉल बैल बज उठी ।
“जानती हूं” - अकस्मात बजी घंटी की आवाज पर वह तनिक हड़बड़ाई - “बतौर फैशन मॉडल मैं शैली भटनागर से अनुबंधित हूं । उसी ने मुझे इतनी फेमस फैशन मॉडल बनाया है ।”
बाहर नौकरानी किसी से बात कर रही थी । जवाब में कोई जोर-जोर से बोल रहा था, उसकी आवाज मैंने फौरन पहचानी ।
मुझे वहां कोई हंगामा खड़ा होने का अंदेशा लगने लगा ।
जूही जरूर वह आवाज नहीं पहचान पाई थी इसीलिए वह अभी शांत बैठी थी ।
तभी नौकरानी वहां पहुंची ।
“मिसेज कमला ओबराय आई हैं ।” - उसने घोषणा की ।
जूही यूं हड़बड़ाकर उठकर खड़ी हुई, जैसे उसे कांटा चुभा हो । उसके चेहरे से रंग निचुड़ गया । उसने व्याकुल भाव से मेरी तरफ देखा ।
“तुम्हें उससे डर लगता है ?” - मैंने पूछा ।
उसने जल्दी-जल्दी सहमति में सिर हिलाया ।
“वो पहले कभी यहां आई है ?”
“नहीं, कभी नहीं ।”
“घबराओ नहीं और शान्ति से बैठो । उसे मैं संभाल लूंगा । मेरे होते वह कोई तमाशा नहीं खड़ा करेगी । करेगी तो मैं नहीं करने दूंगा ।”
“बुलाओ” - जूही खोखले स्वर में नौकरानी से बोली ।
वह वापिस सोफे पर ढेर हो गई ।
कुछ क्षण बाद बगोले की तरह कमला वहां दाखिल हुई । मुझे देखकर वह ठिठकी । उसके चेहरे पर आश्चर्य और तिरस्कार के मिले-जुले भाव प्रकट हुए ।
“तुम !” - वह बोली - “तुम यहां क्या कर रहे हो ?”
“बैठा हूं ।” - मैं सहज भाव से बोला - “और क्या कर रहा हूं !”
“क्यों बैठे हो ?” - फिर उसका ध्यान ड्रिंक्स की ट्रे की तरफ गया - “ओह, तो यह बात है !”
“क्या बात है ?”
“बड़े कमीने आदमी हो सुधीर कोहली !”
“वो तो मैं हूं लेकिन तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?”
“मैं पूछती हूं तुम किसकी तरफ हो ?”
“क्या मतलब ?”
“मैं तुम्हारी क्लायन्ट हूं या यह चुड़ैल?”
“तुम दोनों मेरी क्लायंट हो ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“हो सकता है । जूही को मेरी सेवायें जिस काम के लिए चाहिए वह तुम्हारे रास्ते में नहीं आता ।”
“इसका क्या काम है ?”
“इसे बॉडीगार्ड को जरूरत है ।”
“जो कि तुम हो ?”
“मैं नहीं । मेरा एक आदमी करेगा यह काम ।”
“इसके पीछे कौन से डाकू पड़ रहे हैं जो इसे बॉडीगार्ड की जरूरत है ?”
“इसे खतरा है कि कोई इसकी हत्या कर सकता है ।”
“चोर को चोर से कहीं खतरा होता है ! यह तो खुद हत्यारी है । इसकी कौन...”
“आंटी ।” - जूही रुआंसे स्वर में बोली - “मैं तो....”
“खबरदार, जो मुझे आंटी कहा” - कमला कड़ककर बोली - “आई बड़ी आण्टी की बच्ची ।”
“तुम वसीयत की वजह से यहां आई मालूम होती हो ।” - मैं बोला ।
“हां” - कमला बोली - “पूछो तो इस कमीनी कुतिया को, कैसे फंसाया इसने मेरे पति को वह वसीयत लिखवाने के लिये ! और कैसे फंसाया होगा ? एक ही तो तरीका है इसके पास । एक ही तो हथियार है इसके पास” - वह जूही की तरफ घूमी । उसकी आंखों से भाले बर्छियां बरस रहे थे - “लेकिन बावजूद वसीयत के तेरी चलने मैं भी नहीं दूंगी, छिनाल । मैं साबित करके दिखाऊंगी कि मरे पति का कत्ल तूने किया है । यह काम यह वनस्पति जासूस नहीं करेगा तो कोई और करेगा । फिर चढ़ना फांसी पर मेरे पति की दौलत के सपने देखते हुए ।”
“आण्टी, मैंने....”
“फिर आंटी ?”
“....कभी ओबराय साहब की दौलत के सपने नहीं देखे । आप कुछ भी सोचिए लेकिन मैं उनकी दौलत से नहीं सिर्फ उनसे प्यार करती थी और...”
“प्यार करने के लिए तुझे कोई और मर्द नहीं मिला ?”
“....मैंने उनका कत्ल नहीं किया है और....”
“कोई अपना हमउम्र नहीं मिला ?”
“...उनकी वसीयत की तो मुझे आज सुबह से पहल खबर तक नहीं थी ।”
“अब तो तू यही कहेगी ।”
कमला के हाथों की मुट्ठियां यूं खुल और बन्द हो रही थीं जैसे वे जूही की गर्दन दबोच लेने के लिए तड़प रही हों ।
“कमला !” - एकाएक मैं कर्कश स्वर में बोला - “बैठ जाओ ।”
“तुम कौन होते हो मुझ पर यूं हुक्म दनदनाने वाले ?” - वह आंखें निकालती बोली ।
“ठीक है । यूं ही फर्श को रौंदती रहो । जब थक जाओ तो बैठ जाना ।”
वह बात सुनकर वह फौरन धम्म से एक सोफे पर ढेर हो गई ।
“सुनो” - मैं नम्रता से बोला - “यूं लड़ने और गाली-गलौच करने से कोई फायदा नहीं । तुम्हारा पति शहर का एक मुआज्जिज आदमी था । इस वक्त तुम्हें उसकी मौत पर शोक प्रकट करने के लिए आने वाले उसके परिचितों की अगवानी के लिए अपनी कोठी पर होना चाहिए था या झांसी की रानी बनकर यहां इस मासूम लड़की पर चढ़ दौड़ना चाहिए था ?”
“यह कितनी मासूम है, यह तुम नहीं, मैं जानती हूं । यह कमीनी...”
“पहले मेरी पूरी बात सुन लो, फिर अपनी कहना ।”
वह खामोश हो गयी ।
“विश्वास जानो, जूही को वसीयत की खबर नहीं थी । उसके बारे में इसे जो कुछ मालूम हुआ है, आज वकील बलराज सोनी के बताये ही मालूम हुआ है । मैं गवाह हूं इस बात का कि आज ही बलराज सोनी ने इसे फोन करके वसीयत के बारे में बताया था । इससे पहले यह वसीयत के बारे में कुछ नहीं जानती थी । ओबराय साहब ने अगर इसकी मनुहार पर वह वसीयत लिखी होती तो यह उसके बारे में पहले से जानती होती लेकिन ऐसा नहीं था । मुझे नहीं पता कि यह ओबराय साहब से सच्चा प्यार करती थी या उनकी दौलत की दीवानी थी लेकिन इसकी बदनीयती कम-से-कम उस वसीयत से साबित नहीं होती जिसकी वजह से तुम इतना तड़प रही हो । दूध में धुली तो अगर यह नहीं है तो तुम भी नही हो । तुम इसे अपने हमउम्र मर्द से प्यार करने की राय दे रही हो जबकि खुद तुमने इस राय पर अमल नहीं किया । तुम्हारा पति क्या तुम्हारा हमउम्र था जब तुमने उससे शादी की थी ?”
“लकिन...
“सुनती रहो । और तसल्ली रखो, यह बात मैं तुम्हारे में कोई नुक्स निकालने के लिए नहीं कह रहा । इस वक्त तुम्हें सिर्फ वस्तुस्थिति समझाने की कोशिश कर रहा हूं । यह वक्त इस बात का फैसला करने का नहीं है कि मरने वाले के लिये तुम अच्छी, तसल्लीबख्श बीवी न थी या यह बहुत अच्छी अदर वूमन थी, तुम अपने पति का घर न बसा सकी या यह उसे उजाड़ने को आमादा थी । इस वक्त अहम बात यह है कि ओबराय साहब का कत्ल किसने किया ! अगर तुम दोनों उनकी खैरखाह हो तो पहले तुम्हारे में उस शख्स को सजा दिलवाने की ख्वाहिश होनी चाहिए जिसने तुम दोनों का चहेता मर्द तुमसे छीना, न कि तुम्हें वसीयत को लेकर एक-दूसरे का सिर फोड़ने पर आमादा हो जाना चाहिए ।”
“मैं ओबराय साहब की दौलत की तलबगार नहीं ।” - जूही क्षीण स्वर में बोली ।
“इसलिए नहीं है” - कमला बोली - “क्योंकि वह मुझे अपनी तलब जाहिर किये बिना ही हासिल हो रही है । लेकिन वो तुझे हासिल हुई नहीं होने वाली, मेरी बन्नो ।”
जूही के चेहरे पर बड़े दयनीय भाव आये ।
“कमला !” - मैं बोला - “यह मत भूलो कि कत्ल का जितना शक जूही पर किया का सकता है, उतना तुम्हारे पर भी किया जा सकता है । कत्ल के इल्लाम से अभी न तुम बरी हो, न जूही ।”
“मैंने कत्ल नहीं किया ।” - कमला बोली ।
“मैंने कत्ल नहीं किया ।” - जूही बोली ।
“लेकिन मुझे लगता है कि तुम्हें कातिल की बाबत कोई जानकारी है” - मैं जूही से बोला - “जो कि पता नहीं क्यों तुम जुबान पर नहीं लाना चाहतीं ।”
“क्यों जुबान पर नहीं लाना चाहती ?” - कमला ने पूछा ।
“यह कहती है कि अगर इसने ऐसा किया तो हत्यारा इसकी भी हत्या कर देगा । ओबराय साहब के हत्यारे से इसे भी अपनी जान का खतरा है । इसलिए बतौर बॉडीगार्ड इसे मेरी खिदमत दरकार है ।”
कमला खामोश रही ।
“इसलिए और कुछ नहीं तो उस आदमी की चिता को आग दिये जाने तक तो अमन शान्ति का माहौल रखो जो कि तुम दोनों का अजीज था ।”
“मैं कुछ नहीं कह रही ।” - कमला बोली ।
“अगर तुम कुछ नहीं कह रही तो यह तो कतई कुछ नहीं कह रही है । ऊपर से इस बात पर भी ध्यान दो कि हवाई घोड़े पर सवार तुम यहां आई हो ।”
कमला खामोश रही ।
“और तुम” - मैं जूही की तरफ घूमा - कैसी मेजबान हो जो घर आये मेहमान को ड्रिंक तक नहीं पेश कर सकतीं ?”
जूही हड़बड़ाई । उसने नौकरानी से एक गिलास और मंगाया और कमला और मेरे लिये ड्रिंक्स तैयार किये ।
“और तुम ?” - कमला बोली ।
“यह विस्की नहीं पीती ।” - उत्तर मैंने दिया ।
कमला के चेहरे पर विश्वास के भाव न आये ।
“ऑनेस्ट ।” - जूही अपने गले की घण्टी छूती हुई बोला ।
फिर भी कमला ने जब तक उसका कैम्पा कोला का गिलास सूंघकर न देख लिया उसने उसकी बात पर विश्वास न किया ।
“कमाल है !” - वह बोली - “बाकी तो सारे काम करती हो । यह कैसे छूट गया तुमसे ?”
जूही ने आहत भाव से कमला की तरफ देखा ।
“कमला !” - मैं बोला - “भगवान के लिए बाज आ जाओ ।”
“ओके ! ओके !”
मैंने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली । सवा छ: हो चुके थे । यानी कि अगर मैंने एलैग्जैण्डर से मुलाकात के लिये वक्त पर पहुंचना था तो मुझे वहां से विदा हो जाना चाहिए था ।
लेकिन कमला को पीछे जूही के पास छोड़ जाने की कोई सुखद कल्पना कर पाना कठिन काम था ।
“देखो” - मैं दोनों से सम्बोधित हुआ - “हत्यारे की तलाश की दिशा में अगर मैंने कोई तरक्की करनी है तो मुझे जाकर किसी काम-धाम पर लगना होगा । ठीक ?”
कोई कुछ न बोला ।
“तुम मेरे साथ चलती हो ?” - मैं कमला से बोला ।
“नहीं” - वह बोली - “मैं अपने आप आई हूं, अपने-आप चली जाऊंगी ।”
“तो फिर यह गारंटी करो कि मेरे पीठ फेरते ही यहां तुम दोनों एक-दूसरे का मुंह नहीं नोचने लगोगी । यहां तुम दोनों में से एक की लाश नहीं बिछी होगी ।”
“मुझे आण्टी से कोई डर नहीं ।” - जूही बोली - “ये जब तक चाहें, यहां ठहरें ।”
मैंने कमला की तरफ देखा ।
वह अपने लिए नया जाम तैयार करने लगी ।
उसके उस एक्शन से ही मुझे लगा कि अब वह अपना रौद्र रूप त्याग चुकी थी ।
“सी यू कमला !”
कमला ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
मैं जूही की तरफ घूमा और बोला - “मेरा आदमी बॉडीगार्ड की जिम्मेदारी निभाने के लिये एक डेढ़ घण्टे में यहां पहुंच जायगा ।”
जूही ने भी सहमति में सिर हिलाया ।
एक-दूसरे की सूरत से बेजार दो स्त्रियों को अगल-बगल बैठा छोड़कर मैं वहां से विदा हो गया ।
जिस वक्त मैं राजेन्द्र प्लेस के आगे से गुजरा, उस वक्त पौने सात बज रहे थे लेकिन वहां एलैग्जैण्डर के पास हाजिर होने से ज्यादा जरूरी मेरा करोलबाग पहुंचना था जहां कि वह शख्स रहता था जिसे मैं जूही चावला के बॉडीगार्ड की ड्यूटी पर लगाना चाहता था ।
मेरी तकदीर अच्छी थी, वह मुझे घर पर मिल गया ।
उस शख्स का नाम हरीश पांडे था । वह रिटायर्ड फौजी था और आजकल एक शराब के स्मगलर के पास काम करता था । मेरे फायदे के उसमें दो गुण थे । एक तो उसके पास वक्त बहुत होता था और वक्त को पैसे में तब्दील करने का कोई भी मौका छोड़ना वह हराम समझता था । दूसरे उसके पास लाइसेंसशुदा रिवॉल्वर थी । उम्र में वह पचास के पेटे में था और खूब हट्टा-कट्टा और तन्दुरुस्त था ।
जूही चावला की पत्रिका में से फाड़ी हुई तस्वीर मैंने उसे सौंपी और उसे समझाया कि उसने क्या करना था ।
सौ रुपये रोज की बात सुनकर वह जितना खुश हुआ उतना ही चौबीस घण्टे की ड्यूटी की बात सुनकर वह सकपकाया भी । बहरहाल उसने काम से इनकार न किया । मैंने उसे दो सौ रुपये एडवांस दिये और उसे जूही चावला की पता बताकर वहां से रवाना कर दिया ।
तब मैंने एलैग्जैण्डर के ऑफिस का रुख किया ।
वापिस राजेंद्रा प्लेस पहुंचने तक सात दस हो गये ।
लिफ्ट पर सवार होकर मैं उसके ऑफिस वाली इमारत की पांचवीं मंजिल पर पहुंचा ।
वहां फ्लोर केवल एलैग्जैण्डर के ऑफिस में ही रोशनी का आभास मुझे मिला । बाकी-सब ऑफिस बन्द हो चुके थे और अन्धकार में डूबे थे ।
मैंने उसे हौले से धक्का दिया तो उसे खुला पाया । बाहर खड़े-खड़े ही मैंने भीतर झांका तो पाया कि रिसैप्शन की कोई बत्ती नहीं जल रही थी । पिछले एक कमरे में रोशनी थी और वहां से वार्तालाप की आवाजें आ रही थीं ।
मैंने दबे पांव भीतर कदम रखा और पिछले दरवाजे के करीब पहुंचा ।
अब वार्तालाप मुझे स्पष्ट सुनाई देने लगा ।
“बॉस” - कोई कह रहा था - “अब इन्तजार करना बेकार है । सवा सात तो बज गए । अब क्या आयेगा वो ! मैं तो थक गया उसका इन्तजार करता-करता । मेरे ख्याल से तो...”
“शटअप !” - कोई गुस्से से गुर्राया - “अपुन कब बोला तेरे को अपना ख्याल जाहिर करने के वास्ते ?”
वह एलैग्जैण्डर की आवाज थी ।
“सॉरी, बॉस !”
“बाहर अपनी जगह पहुंच । बुलाये बिना तेरे यहां कदम न पड़ें ।”
“यस बॉस !”
दरवाजा खुला ।
एक आदमी ने बाहर कदम रखा ।
दरवाजा खुलने की वजह से थोड़ी देर के लिये बाहर का कमरा प्रकाशित हुआ लेकिन दरवाजा बंद होते ही वहां अंधेरा छा गया ।
उसकी परछाई से मैंने अंदाजा लगाया कि वह चौधरी हो सकता था ।
वह बाहरी दरवाजा भी खोलकर ऑफिस से बाहर निकल गया ।
मैं सोचने लगा ।
एलैग्जैण्डर ने मेरे लिए किस प्रकार के स्वागत का इन्तजाम किया हुआ था ?
पता नहीं क्यों मुझे हालात नॉर्मल नहीं लग रहे थे ।
थोड़ी देर सत्राटा छाया रहा ।
“नया पैग बनाऊं बॉस ?” - भीतर से आवाज आई ।
“बना ।”
“आपको अभी उम्मीद है कि वो आयेगा ?”
“हां ! आयेगा वो । क्यों नहीं आयेगा ?”
“सवा सात बज गये हैं ।”
“साढे सात तक इन्तजार करने का है । वह तब भी न आया तो निकलेंगे उसी की तलाश में ।”
“जरूरी थोड़े ही है, लैजर वो साथ लाये !”
“वो आये तो सही । लैजर साथ नहीं लाया होगा तो वो अपुन को वहां ले कर जायेगा जहां लैजर है ।”
“बॉस, मेरे ख्याल से तो वो लैजर इतनी अहम नहीं कि...”
“बेवकूफ हो तुम । वो लैजर अगर इंकम टैक्स वालों के हाथ पड़ गयी तो अपुन जेल में पहुंच जायेगा । जो एलैग्जैण्डर बड़े-बड़े केसों में नहीं फंसा, उस लैजर की वजह से वो इंकम टैक्स के फेर में आ जायेगा । समझे ?”
“मैं तो समझा लेकिन जरूरी थोड़े ही है कि वह जासूस भी उस लैजर की अहमियत समझे ?”
“अहमियत तो खूब समझता है । तभी साला हलकट लैजर के बदले में एक लाख रुपया मांग रहा था ।”
“ओह !”
फिर खामोशी छा गई ।
भीतर दो आदमी थे । एक आदमी बाहर था । शायद कोई चौथा आदमी कहीं और भी मौजूद हो और वे लोग लैजर बुक को मुझसे जबरन छीनने के खतरनाक इरादे के साथ वहां मौजूद थे ।
उस नाजुक घड़ी में मुझे वहां से खिसक चलने में ही अपना कल्याण लगा ।
मैं वापिस लौटने के लिये घूमा और आगे बढ़ा तो मेरा पांव किसी चीज से टकराया जो उस खामोश माहौल में बड़े जोर की आवाज के साथ नीचे नंगे फर्श पर गिरी ।
मैं एकदम जड़ हो गया ।
एक क्षण उस आवाज की कोई प्रतिक्रिया सामने न आई ।
लेकिने जब मैं निश्चिन्त होकर फिर आगे बढ़ने लगा तो एकाएक भड़ाक से दरवाजा खुला और उसका पल्ला मेरी कनपटी से आकर टकराया ।
उस कनपटी से आकर टकराया जिस पर पहले से चौधरी का डण्डा पड़ चुका था और जहां अंडे जितना बड़ा गूमड़ अभी भी मौजूद था ।
मैं वापिस दीवार से टकराया । मेरा सिर घूमने लगा । मैं अभी अपने आपको संभालने की ही कोशिश कर रहा था कि तीन काम लगभग एक साथ हुए ।
कोई बगोले के तरह बाहर निकला, रिसैप्शन की बत्ती जली और रिवॉल्वर मुझे अपनी तरफ तनी दिखाई दी ।
“हिलना नहीं ।” - मुझे राय दी गई ।
मैंने व्याकुल भाव से उसकी तरफ देखा । फिर मैंने नीचे देखा तो पाया कि मेरा पांव एक तीन टांगों वाले स्टूल में उलझा था ।
“बॉस ।” - रिवॉल्वर वाला उच्च स्वर में बोला - “अपना बकरा आ गया ।”
बीच के दरवाजे पर एलैग्जैण्डर प्रकट हुआ ।
वह एक कोई चालीस साल का दुबला-पतला आदमी था । उसने दाढ़ी रखी हुई थी और उसके बाल बड़े आधुनिक स्टाइल से कटे हुए थे । वह एक शानदार थ्री पीस सूट पहने था । उसके दांतों में पाइप दबा हुआ था ।
“तू कोहली ही है न ?” - वह बड़े सहज भाव से बोला ।
मैने सहमति में सिर हिलाया ।
“भीतर आ ।”
रिवॉल्वर की छत्रछाया में मैंने एलैग्जैण्डर के ऑफिस में कदम रखा ।
रिवॉल्वर वाले ने मेरे पीछे दरवाजा बंद कर दिया ।
एलैग्जैण्डर अपनी कुर्सी पर जा बैठा तो बोला - “बैठ ।”
मैं एक कुर्सी पर बैठ गया ।
रिवॉल्वर वाला मेरे से थोड़ा परे दरवाजे के करीब खड़ा रहा ।
“तू तो साढ़े छ: बजे आने का था ?”
“सॉरी ।” - मैं बोला - देर हो गई ।”
“थोमस !” - एलैग्जैण्डर रिवॉल्वर वाले से बोला - “रिवॉल्वर जेब में ।”
तुरन्त आज्ञा का पालन हुआ ।
“साहब के लिये ड्रिंक ।”
उसका भी । मेरे सामने जैसे जादू के जोर से विस्की का जाम प्रकट हुआ ।
एलैग्जैण्डर ने यूं मेरे साथ चियर्स बोला जैसे मैं उसका निहायत मुअज्जिज मेहमान था ।
“अपुन को नहीं मालूम था”- एलैग्जैण्डर बोला - “कि तू बाहर खड़ेला था । नहीं तो अपुन खुद तेरे स्वागत के लिए बाहर आता और तेरे कू यहां लेकर आता ।”
“जर्रानवाजी का शुक्रिया ।”
“चौधरी को बुला ले ।”- एलैग्जैण्डर थामस से बोला ।
थामस वहां से चला गया ।
उसके लौटने तक वहां खामोशी रही ।
उस दौरान मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
थामस चौधरी के साथ लौटा ।
चौधरी के थोबड़े का अभी भी बुरा हाल था और वह बड़ा डरावना लग रहा था । उसने मुझे यूं देखा जैसे निगाहों से मुझे भस्म कर देना चाहता हो ।
“साहब को पहचाना ?” - एलैग्जैण्डर बड़ी नर्मी से बोला ।
“हां ।” - चौधरी विषभरे स्वर में बोला - “पहचाना ।”
“यह भीतर कैसे पहुंच गया इसे तो तूने अपने साथ भीतर लाना था ?”
“यह मेरे सामने से तो नहीं गुजरा था ।”
“तो फिर यह जरूर छत फाड़कर यहां टपका होगा । क्यों छोकरे, तू छत फाड़कर यहां टपकेला है ?”
“नहीं ।” - मैं बड़े इत्मीनान से बोला - “फर्श उधेड़कर ।”
“बहुत खूब । लेकिन तू तब यहां आया होगा जब चौधरी यहां अपुन के सामने अपना ख्याल जाहिर कर रहा था ।”
“बॉस ।” - चौधरी ने मुट्ठियां भींचते हुए कदम बढ़ाया - “मुझे इसके साथ पांच मिनट, सिर्फ पांच, मिनट दीजिये ।”
“वहीं खड़ा रह ।”
वह ठिठक गया । लेकिन अपनी आंखों से उसने मेरी तरफ भाले बर्छियां बरसाने बन्द न किये ।
“अपुन का माल तेरे पास सलामत है ?”
“सलामत है ।” - मैं बोला ।
“शाबाश !”
उसने मेज का एक दराज खोला और उसमें से नोटों की एक मोटी गड्डी निकाली ।
फिर उसने वह गड्डी यूं मेरे सामने फेंकी जैसे किसी मंगते के सामने रोटी का टुकड़ा डाला हो ।
“लैजर निकाल ।” - एलैग्जैण्डर बोला ।
“ये दस हजार हैं ?” - मैं बोला ।
“हां ! गिन ले । कोई नोट फटा हो तो बदल ले ।”
“यह रकम कम है ।”
“टेलीफोन पर तेरे को यह रकम मंजूर थी ।”
“तब मुझे माल की मुकम्मल अहमियत नहीं मालूम थी ।”
“लैजर तेरे किसी काम की नहीं ।”
“लेकिन किसी और के बहुत काम की हो सकती है ।”
“किसी और से तेरे को रोकड़ा नहीं मिल सकता ।”
“यह साबित होना अभी बाकी है ।”
“तू अपनी जुबान से फिर रहा है, छोकरे ?”
मैं सिर्फ मुस्कुराया ।
“अपुन को जुबान से फिरने वाला भीड़ू पसन्द नहीं ।”
“मैं यहां तुम्हारी पसन्द-नापसन्द जानने नहीं आया ।”
“कुछ तो जानकर ही जायेगा यहां से । अगर जायेगा तो ।”
मैं खामोश रहा ।
“आखिरी बार तेरे को राय है । रोकड़ा उठा, उसकी जगह लैजर बुक रख और खुशी-खुशी घर जा ।”
“लैजर मेरे पास नहीं है ।”
“तो कहां है ?”
“वह किसी और के पास है ।”
“किसके पास ? जिसके पास है, उसका नाम बोल ।”
“उसकी जरूरत नहीं । लैजर तुम्हें मिल जायेगी लेकिन उसकी मुनासिब कीमत हासिल होने से पहले नहीं ।”
“मुनासिब कीमत क्या है ?”
“एक लाख ।”
उसने हाथ बढ़ाकर मेरे सामने से नोट उठा लिये और उन्हें वापिस दराज में डाल लिया ।
“बिजनेस में कच्चा है तू ।” - वह बोला - “तूने अभी-अभी दस हजार रुपये खो दिये ।”
“खोये नहीं है । उनकी उनसे ज्यादा बड़ी रकम की वसूली सिर्फ मुल्तवी की है ।”
“अब लैजर के बदले में तेरे को कोई रोकड़ा नसीब नहीं होने वाला । अगर तू शुरू में ही अपनी एक लाख की मांग पर अड़ा रहता तो बात कुछ और होती । तब अपुन तेरे को समझदार बिजनेसमैन समझता लेकिन वो मौका तूने खो दिया ।”
“अपना-अपना ख्याल है ।”
“पीना खत्म कर ।”
“क्यों ?”
“ताकि खाने का प्रोग्राम शुरू किया जाये ।”
“क्या खाने का ?”
“मार ।”
मैंने उसे अपने पीछे खड़े थामस और चौधरी को इशारा करते देखा । मैंने मेज के साथ अपने दोनों पांव सटाये और जोर से अपने-आपको पीछे को धकेला । मैं कुर्सी समेत पीछे उलट गया और पीछे से अपनी तरफ बढ़ते थामस और चौधरी से टकराया । वे दोनों, मैं और कुर्सी सब आपस में उलझे-उलझे फर्श पर गिरे मैं फुर्ती से अलग हुआ और मैंने परे पड़ी एक-तिपाई की तरफ डाईव मारी जिस पर कि एक पीतल का फूलदान पड़ा था । फूलदान मेरे हाथ में आ गया तो मैंने उसे कमरे के इकलौते प्रकाश के साधन, डबल ट्यूब लाइट पर खींचकर मारा । दोनों ट्यूबें टूट गईं और कमरे में एकाएक अंधेरा छा गया । मैंने तिपाई को एक टांग से पकड़ा और उसे एलैग्जैण्डर के पीछे की खिड़की पर फेंककर मारा ।
शीशा टूटने की भयंकर आवाज हुई ।
“खिड़की से बाहर जा रहा है ।” - थामस चिल्लाया ।
लेकिन मैं उठकर दरवाजे की तरफ लपका ।
मैंने टटोलकर दरवाजे का हैंडल थामा, उसे खोला और भड़ाक से वापिस बन्द कर दिया । खुद मैं दरवाजे से परे हटकर दीवार से चिपक गया ।
“दरवाजे से भागा है ।” - चौधरी की आवाज आई ।
दो जोड़ी कदम दरवाजे की दिशा में लपके ।
वे दरवाजा खोलकर बाहर निकल गये तो मैंने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और उसकी चिटखनी चढ़ा दी ।
अब मैं खिड़की की तरफ बढ़ा जिसके बाहर से गुजरती फायर एस्केप की लोहे की गोल सीढ़ियां मैंने वहां कदम रखते ही देखी थी ।
बाहर से दरवाजा भड़भड़ाया जाने लगा ।
तभी एक टॉर्च की तीखी-रोशनी मेरे चेहरे पर पड़ी ।
“गोली खाने का है तो आगे बढ़ ।” - एलैग्जैण्डर अपने पहले जैसे नर्म स्वर में बोला ।
मैं ठिठक गया । टॉर्च ने काम बिगाड़ दिया था वरना उसके हथियारबन्द होते हुए भी मैं वहां से खिसकने में कामयाब हो गया होता । लेकिन अब आपके खादिम का आत्महत्या का कोई इरादा नहीं था ।
उन्होंने मेरे हाथ-पांव बांधकर मुझे एक बोरे में बन्द किया और फिर बोरे को थामस और चौधरी उठाकर नीचे ले आये ।
मैंने एलैग्जैण्डर को उन्हें कहते सुना कि वे मुझे पंजाबी बाग में स्थित उसकी कोठी में ले जायें ।
मुझे एक एम्बैसेडर की पिछली सीट पर डाल दिया गया और फिर बोरा मेरे जिस्म से अलग कर दिया गया ।
थामस ड्राइविंग सीट पर बैठा और चौधरी उसकी बगल में ।
एलैग्जैण्डर पता नहीं पीछे रह गया था या अलग कार में आ रहा था ।
मुझे अपना भविष्य बड़ा अंधकारमय लग रहा था ।
मुश्कें कसी होने की वजह से मैं कोई आराम से पिछली सीट पर नहीं पड़ा था । गाड़ी बहुत झटके खा-खाकर चल रही थी और मैं पीछे पड़ा गेंद की तरह इधर-उधर उछल रहा था । पटेलनगर की वह सड़क तो खराब थी ही लेकिन मुझे लग रहा था कि थामस गाड़ी जानबूझ कर रफ चला रहा था ।
कोई दस मिनट बाद गाड़ी पंजाबी बाग की एक कोठी के कम्पाउन्ड में जाकर रुकी ।
वे दोनों बाहर निकले । उन्होने मुझे भी भी घसीटकर बाहर निकाला और मुझे मेरे बंधे हुए पैंरो पर खड़ा किया । दोनों मेरे दायें-बायें पहुंचे, उन्होंने मेरी बगलों में हाथ डाला और मुझे घसीटते, लुढ़काते, गिरते कोठी के भीतर ले चले ।
वे मुझे पिछवाड़े के एक कमरे में लाये जो शायद कोठी में इस्तेमाल में नहीं आ रहा था । वहां कुछ फालतू सामान भरा हुआ था और कमरे के बीचोंबीच एक बिलियर्ड की टेबल पड़ी थी । उन्होंने मुझे टेबल पर डाल दिया और कमरे के खिड़कियां-दरवाजे बन्द करके उन पर पर्दे सरका दिये ।
फिर वे आपस में डिसकस करने लगे कि टार्चर की शुरुआत कौन से फेमस तरीके से की जानी चाहिये थी ।
फिर चौधरी मेरे पास पहुंचा । उसने मुझे उठाकर मेज पर इस प्रकार बिठा दिया कि मेरी टांगें मेज से नीचे लटक गईं ।
अपना विकराल चेहरा वह मेरे चेहरे के एकदम करीब ले आया और बड़ी खतरनाक हंसी हंसता हुआ बोला - “अब बोल तेरे साथ कैसा सलूक किया जाए ?”
“ऐसा नहीं ।” - मैं बोला और मैंने सिर नीचा करके पूरी शक्ति से उसकी ठोकर उसके पहले से ही बुरे हाल चेहरे पर जमाई । उसके मुंह से एक तेज चीख निकली और वह लड़खड़ाता हुआ पीछे को हटा । तुरंत उसकी नाक से खून का फव्वारा छूट पड़ा । एकाध दांत भी और चटक गया हुआ होता तो कोई बड़ी बात नहीं थी ।
थामस लपक कर मेरे पास पहुंचा । उसने मेरी तरफ अपना घूंसा ताना तो चौधरी तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “ठहरो इस हरामजादे की खिदमत मुझे ही करने दो ।”
वह फिर मेरे करीब पहुंचा । खून से रंगा उसका चेहरा बड़ा वीभत्स लग रहा था ।
उसने ताबड़-तोड़ तीन-चार घूंसे मेरे चेहरे पर यूं जमाये जैसे वह अभी महज प्रैक्टिस कर रहा हो । हाथ-पांव बंधे होने की वजह से अपने सिर को इधर-उधर झटके देकर थोबड़ा बचाने की कोशिश करने के अलावा मैं कुछ भी तो नहीं कर सकता था ।
फिर उसके घूंसे मेरे सारे जिस्म पर बरसने लगे ।
फिर धीरे-धीरे मेरी चेतना लुप्त होने लगी ।
जब मुझे होश आया तो मैंने थामस को कहते सुना - “इसे यूं धुनने से कोई फायदा नहीं । यह मर भी सकता है । बॉस चाहता है, हम इसकी जुबान खुलवायें । तुम्हारे स्टाइल की मार से इसकी जुबान खुलती नहीं मालूम होती । ऐसी मार इसने बहुत खाई मालूम होती है ।”
“अब तुम अपना स्टाइल आजमा लो ।” - चौधरी बोला - “मैंने तो अपनी सारी कसर पूरी कर ली है ।”
“इसके हाथ-पांव खोल दो ।”
“वो किसलिये ?”
“मैं इसकी दो-चार उंगलिंयां तोड़ता हूं । एकाध बांह उखाड़ता हूं मैं इसकी । जरा लंबे दर्द का प्रोग्राम बनने दो । फिर खोलेगा यह अपनी जुबान ।”
“बेहतर ।”
मेरे हाथ-पांव खोल दिये गए ।
थामस ने मुझे अपने पैरों पर खड़ा किया ।
एकाएक उसने मेरी एक बांह थामी और उसे उमेठकर मेरी पीठ के पीछे ले गया । पीड़ा से मेरा जिस्म उकडू हुआ तो उसने मेरी पीठ में अपना भारी भरकम घुटना अड़ा दिया । वह लगातार मेरी बांह ज्यादा और ज्यादा उमेठता जा रहा था ।
“बोल, लैजर कहां है ?”
पीड़ा से बिलबिलाते स्वर में उसकी मां का हवाला देकर मैंने उसे लैजर की एक जगह बताई ।
“ठहर जा, हरामजादे ।” - वह क्रोध से आगबबूला होकर बोला ।
तभी एलैग्जैण्डर ने वहां कदम रखा ।
उसे आया देखकर थामस ने मुझे बंधनमुक्त कर दिया ।
“कुछ बका ?” - उसने पूछा ।
“नहीं ।” - थामस बोला ।
“इतनी मार चुपचाप खा गया ?”
“चुपचाप तो नहीं खा गया लेकिन बका नहीं । “
“हूं ।”
एलैग्जैण्डर मेरे करीब पहुंचा ।
मैंने उससे निगाह मिलाई ।
“कैसा है ?” - वह बोला ।
“अच्छा है ।” - मैंने बड़ी दिलेरी से कहा ।
“मिजाज ठिकाने आयेला है ?”
“अभी नहीं ।”
वास्तव में मैं पैंडुलम की तरह आगे-पीछे झूल रहा था और मेरी आंखें बन्द हुइ जा रही थीं ।
“आ जायेंगा । आ जायेंगा ।”
मैंने मेज का सहारा ले लिया ।
“अपुन को यह गलाटा पसन्द नहीं ।”
“वैरी गुड ।”
“छोकरे, जरूर तेरा भेजा फिरेला है जो खामखाह अपना इतना बुरा हाल करा रहा है । अक्ल से काम ले, अभी भी लैजर मेरे हवाले कर और खुशी-खुशी अपने घर जा ।”
“दस हजार में तो मैं....”
“रोकड़े को अब भूल जा । लैजर के बदले में रोकड़ा कमाने की स्टेज गई । रोकड़े के नाम पर तो अब तेरे को एक काला पैसा नहीं मिलने का । अब सिर्फ तेरी जानबख्शी की जा सकती है ।”
“यानी कि इतनी मार मैंने खामखाह खाई ?”
“उसका हिसाब तू उस मार से बराबर कर ले जो तूने चौधरी को लगाई है ।”
“मैंने ज्यादा मार खाई है ।”
एलैग्जैण्डर ने अपना चमड़े का पर्स निकाला । बड़ी नफासत से गिनकर उसने उनमें से सौ-सौ के दस नोट निकाले ।
“उसके बदले में यह ले ।” - उसने नोट जबरन मेरे कोट की ऊपरली जेब मैं ठूंस दिये - “जाकर अपनी मलहम-पट्टी करा बादाम खा । दूध पी ।”
“इस बात की क्या गारण्टी है कि लैजर हासिल होने के बाद मुझे छोड़ दिया जायेगा ?”
“एलैग्जैण्डर की जुबान गारंटी है ।”
“मुझे एलैग्जैण्डर की जुबान का कोई तर्जुबा नहीं ।”
“अब हो जायेगा ।” - वह एक क्षण ठिठका और बोला - “अब बोलो, लैजर कहां है ?”
“मेरे पास ।”
“वह तो बराबर है लेकिन तेरे पास कहां ?”
“मेरे पास । मेरे कोट में ।”
“तेरे कोट में ?”
“हां ।”
एलैग्जैण्डर ने कहरभरी निगाहों से अपने चमचों की तरफ देखा ।
“यह झूठ बोलता है ।” - थामस आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “मैंने खुद इसकी तलाशी ली है, लैजर इसके पास नहीं है ।”
“लैजर मेरे कोट के अस्तर में सिली हुई है ।” - मैं बोला - “एक ब्लेड मंगाओ, मैं निकालकर दिखाता हूं ।”
“लेकिन....”
“ज्यासती बात नहीं ।” - एलैग्जैण्डर घुड़ककर बोला - “ब्लेड लाने का है ।”
भुनभुनाता हुआ थामस ब्लेड लाने चला गया ।
मैंने कोट की दाईं बाहरली जेब में हाथ डाला और हाथ को जेब के भीतर इस प्रकार अकड़ाया कि कोट का भीतर का भाग वहां से तन गया ।
“यह देखो” - कोट का वह भाग मैं एलैग्जैण्डर के आगे करता हुआ बोला - “यहां है डायरी ।”
कोट का मुआयना करने की नीयत से एलैग्जैण्डर दो कदम आगे बढ़ा और तनिक आगे को झुका ।
मेरा बायां हाथ आगे को लपका । मैंने बड़ी सफाई से उसके शोल्डर होल्स्टर में से उसकी रिवॉल्वर खींच ली और उसे उसकी पसलियों से सटा दिया ।
“खबरदार !” - मैं कर्कश स्वर में बोला ।
एलैग्जैण्डर हड़बड़ाया लेकिन फौरन ही संभल गया । वह सीधा हुआ ।
मैंने कोट की जेब से दायां हाथ निकाला और रिवॉल्वर उस हाथ में स्थानान्तरित कर दी ।
“थामस के आने तक यूं ही खड़े रहो ।” - मैं बोला - “और चौधरी को समझा दो, उसे अपनी जगह से हिलना नहीं है ।”
“चौधरी ।” - एलैग्जैण्डर बोला ।
“यस बॉस ।”
“अपुन का रिवॉल्वर इस घड़ी कोहली के हाथ में है और यह अपुन को कवर कियेला है ।”
चौधरी के छक्के छूट गये ।
“तेरे को खड़ा रहने का है ।”
“यस बॉस ।”
एलैग्जैण्डर मेरी तरफ आकर्षित हुआ ।
“होशियार आदमी है ।” - वह बोला ।
“पहले नहीं था । अभी मार खाकर होशियार हुआ हूं । पहले से होशियार होता तो क्या तुम्हारे काबू में आता ?”
“तो लैजर तेरे कोट में नहीं है ?”
“नहीं है ।”
“तो कहां है ?”
“एक सुरक्षित जगह पर ।”
“तू उसका क्या करेगा ?”
“मैं उसको पुलिस को दूंगा ।”
“काहे को ?”
“ताकि ओबराय की हत्या का उद्देश्य उनकी समझ में आ सके । ताकि वे ओबराय की हत्या के इलजाम में दिल्ली शहर के सिकन्दर को गिरफ्तार कर सकें ।”
“अपुन का ओबराय के कत्ल से कोई वास्ता नहीं । अपुन ने अगर लैजर की खातिर ओबराय का कत्ल किया होता तो लैजर अपुन के पास वापिस होती । लैजर का ओबराय के कत्ल के बाद भी ओबराय के पास होना ही इस बात का सबूत है कि कत्ल एलैग्जैण्डर नहीं किएला है । एलैग्जैण्डर ऐसा झोल-झाल काम नहीं करता कि सांप तो मरे नहीं और लाठी टूट जाए ।”
वह ठीक कह रहा था ।
तभी थामस ने वहां कदम रखा ।
मैंने थोड़ा-सा पहलू बदला ताकि उसके साहब को कवर किये हुये मेरे हाथ में थमी रिवॉल्वर की झलक उसे मिल जाती और बोला - “खबरदार ।”
वह दरवाजे के पास ही थमककर खड़ा हो गया ।
“दरवाजे से परे हटो और चौधरी के पास जाकर खड़े होवो ।”
उसने आदेश का पालन किया ।
“चौधरी के हाथ-पांव बांधो ।”
“रस्सी !” - थामस बोला - “रस्सी कहां है ?”
“पर्दे की डोरियां निकालो ।”
उसने वैसा ही किया ।
मेंरे आदेश पर थामस ने चौधरी के और एलैग्जैण्डर ने थामस के हाथ-पांव बांधे ।
उस काम से निपटकर एलैग्जैण्डर ने उठकर सीधा होने का उपक्रम किया तो मैंने रिवॉल्वर को नाल की तरफ से पकड़कर उसकी मूठ का एक भीषण प्रहार उसकी कनपटी पर किया । वह निशब्द थामस के पहलू में ढ़ेर हो गया । तुरन्त उसकी चेतना लुप्त हो गयी ।
उसके दिये दस-दस के नोट मैंने उसके मुंह में ठूंस दिये ।
फिर मैंने सावधानी से कमरे के बाहर कदम रखा । वहां मुझे कोई शख्स दिखाई न दिया । पिछवाड़े से ही मैं कोठी से बाहर निकला और उसका घेरा पार कर सामने पहुंचा ।
सामने कम्पाउन्ड में दो कारें खड़ी थीं ।
एक इम्पाला कार के करीब एक वर्दीधारी शोफर खड़ा था । जरूर वह कार एलैग्जैण्डर की थी ।
मैं उसकी तरफ बढ़ा ।
मैं उसके काफी करीब पहुंच गया तो उसे मेरे उधड़े हुए चेहरे और खून से रंगे कपड़ों की झलक मिली ।
उसका हाथ फौरन वर्दी के भीतर की तरफ लपका ।
लेकिन तब तक मैं उसके सिर पर पहुंच चुका था । रिवॉल्वर वाला हाथ मैं अपने से आगे फैलाए हुए था ।
रिवॉल्वर पर निगाह पड़ते ही उसके कस-बल निकल गए ।
मैं उसके समीप जाकर ठिठका ।
“जेब में रिवॉल्वर है ?” - मैंने पूछा ।
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“उसके दस्ते को दो उंगलियों से थामकर रिवॉल्वर बाहर निकाल ।”
उसने ऐसा ही किया ।
मैंने उसकी रिवॉल्वर की गोलियां निकालकर कम्पाउन्ड से बाहर उछाल दीं और रिवॉल्वर को झाड़ियों में फेंक दिया ।
“कार की चाबियां कहां हैं ?” - मैंने पूछा ।
“इग्नीशन में ।” - उत्तर मिला ।
“जमीन पर औंधे मुंह लेट ।”
अपनी शानदार वर्दी के साथ कम्पाउंड की धूल में वह औंधा लेट गया ।
मैं कार में सवार हुआ ।
चाबियां इग्नीशन में मौजूद थीं ।
मैंने कार स्टार्ट की और निर्विघ्न कोठी से बाहर पहुंच गया ।
एक निगाह मैंने अपने पीछे डाली ।
पीछे कोई नहीं था ।
मैंने पूरी रफ्तार से कार वहां से भगा दी ।
पहले मेरा ख्याल एलैग्जैण्डर की कार राजेन्द्र प्लेस छोड़कर वहां से अपनी कार उठाने का था लेकिन राजेन्द्र प्लेस पहुंचते-पहुंचते मैंने वह ख्याल त्याग दिया । राजेन्द्र प्लेस एलैग्जैण्डर का अड्डा था ।
मेरे वहां पहुंचने से पहले वह इसीलिए अपने दादाओं को वहां फोन कर चुका हो सकता था कि मैं वहां अपनी कार लेने के लिए आ सकता था ।
फिलहाल दोबारा फौरन किसी झमेले में फंसने का मेरा कोई इरादा नहीं था ।
मैं कार को पूरी रफ्तार से राजेन्द्र प्लेस के आगे से दौड़ा ले गया ।
मैंने अपने घर का रुख किया ।
वहां पुलिस मेरा इन्तजार कर रही थी ।
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