मकड़ा चला गया।
सुचि हेमन्त की बगल में लेटी कमरे की छत को घूर रही थी, आंखों में नींद आए भी कहां से? दिलो-दिमाग में विचारों का तेज अंधड़ चल रहा था।
मकड़ा के दिए हुए फोटुओं की राख को वह फ्लश में बहा चुकी थी।
कल पूरी रात घर से बाहर रहने की तरकीब भी उसे मकड़ा ने ही सुझाई थी और उसमें मदद करने का आश्वासन दिया था, वह जानती थी कि जो जिम्मेदारी उसने अपने सिर पर ली है, उसे वह पूरा यकीनन करेगा—मगर उस वक्त वह ये सोच रही थी कि ऐसा आखिर कब तक चलेगा?
'मकड़ा ने पूरी रात के लिए मुझे होटल में क्यों बुलाया है?'
'क्या चाहता है वह?'
'कहीं मेरी लाज के साथ खिलवाड़ तो नहीं?' यह विचार दिमाग में आते ही सुचि सिहर उठी, उसका चेहरा पसीने से नहा गया, किन्तु अगले पल वही चेहरा कठोर होता चला गया—जबड़े सख्ती के साथ भिंच गए और भावावेश में वह बड़बड़ा उठी—''न...नहीं—मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगी, वह समझता क्या है मुझे? गुप्त शादी के बाद जो कुछ हुआ, वह केवल इसलिए हो गया था, क्योंकि मैं संदीप को अपना पति मानने लगी थी—अब मैं इज्जतदार घराने की बहू हूं—हेमन्त की अमानत हूं, यदि फोटुओं के बल पर वह मुझे ऐसी लड़की समझ रहा है तो मैं...।''
"हा—हा—हा।" उसके मस्तिष्क का एक कोना खिलखिलाकर हंस पड़ा, फिर उसने एक स्पष्ट आवाज सुनी—"तो तू कर ही क्या सकेगी?"
"म...मैं खून कर दूंगी उसका।" सुचि गुर्रा उठी।
"ख...खून—हा—हा—हा—खून करेगी तू—हा—हा—हा।" दिमाग का वह कोना खिल्ली उड़ाने वाले भाव से हंसता रहा, जब उसने हंसना बंद किया तो सुचि सोचती चली गई—"अगर मैं उसकी हत्या कर दूं तो क्या होगा?"
“ सारे झंझट एक ही झटके में खत्म।”
“ जीते जी वह कमीना मेरा पीछा छोड़ने वाला नहीं है, ऐसे ब्लैकमेलर अपने शिकार को सारी जिंदगी जोंक की तरह चूसते रहते हैं—पचास हजार तो क्या, पचास लाख में भी वह नेगेटिव देने वाला नहीं है।”
“ मकड़ा सारी जिंदगी नंगी तलवार बनकर मेरी गर्दन पर लटका रहेगा।”
“ वह मेरी लाज से खेलेगा।”
"केवल एक ही रास्ता है, कि मैं उसकी हत्या कर दूं।" सुचि जितना सोचती गई, अपना विचार उसे उतना ही ज्यादा जंचता गया।
वह कोई मनहूस क्षण था जब उसने निश्चय कर लिया कि मकड़ा की मौत ही उसके जीवन का सुकून लौटा सकती है और वह दृढ़तापूर्वक बुदबुदा उठी—"हां, मैं उस पाजी को मार डालूंगी—खून कर दूंगी जालिम का।"
दिमाग का वही कोना एक बार पुनः खिलखिला उठा—"खून करना क्या तू गाजर-मूली काटने जितना आसान समझ रही है, सुचि?"
"मैं अपनी इज्जत के लिए कुछ भी कर सकती हूं।"
"कैसे करेगी उस काले भैंसे की हत्या?"
"ब...बाबूजी के रिवॉल्वर से।" आवेश में वह बड़बड़ाती चली गई—"हां, बाबूजी के पास लाइसेंस का रिवॉल्वर है—साइलेंसर भी है उनके पास—वे उसे अपनी सेफ में रखते हैं, मैं आसानी से उसे हासिल कर सकती हूं और रिवॉल्वर की एक गोली में वह भैंसा लुढ़क जाएगा।"
"जरूर लुढ़क जाएगा, मगर उसके बाद क्या तू खुद बच सकेगी, बेवकूफ—हत्यारे को तलाश करने में पुलिस एड़ी से चोटी तक का जोर लगा देती है, एक दिन तू पकड़ी जाएगी।"
"पुलिस को ख्वाब नहीं चमकेगा।" सुचि ने सोचा—"मैं सेफ से बाबूजी का रिवॉल्वर चुराऊंगी—होटल में दाखिल होने से निकलने तक चेहरे पर इस तरह साड़ी का पल्ला रखूंगी कि कोई ठीक से मेरी शक्ल न देख सके—काउंटर पर अपना नाम भी गलत बताऊंगी—कमरा नम्बर दो सौ पांच में जाकर गोली मार दूंगा उस दैत्य को—साइलेंसर की वजह से कानों-कान किसी को भनक तक न लगेगी—तब मैं तसल्ली से उसके सामान और कमरे की तलाशी लूंगी—नेगेटिव के साथ ही वह हर चीज अपने कब्जे में कर लूंगी जिसके आधार पर पुलिस उसका संबंध मुझसे जोड़ सके—बस, वापस आकर बाबूजी का रिवॉल्वर यथा-स्थान रख दूंगी—होटल के लोग केवल यही बयान दे सकेंगे कि मकड़ा की हत्या से पहले एक औरत वहां आई थी—न ठीक से वे शक्ल बात सकेंगे, न नाम—पुलिस के पास यह पता लगाने के लिए कोई सूत्र नहीं होगां कि वह औरत कौन थी?"
सुचि सोचती चली गई।
और ज्यों-ज्यों उसने सोचा त्यों-त्यों इरादा दृढ़ होता चला गया—मजबूरियों की जंजीर से बंधी सम्भ्रांत परिवार की आदर्श बहू एक जालिम के मर्डर की स्कीम बनाती चली गई।
जो भी 'लूज प्वांइट' उसे नजर आए, उन्हें कसा—अपनी समझ में उसने मकड़ा के मर्डर की ऐसी सुदृढ़ स्कीम बना डाली थी कि जिसके तहत काम करने पर वह कभी पकड़ी जाने वाली नहीं थी।
¶¶
दस बजे तक हेमन्त फैक्टरी चला गया, रेखा और अमित कॉलेज।
घर में रह गए बिशम्बर गुप्ता, ललितादेवी और सुचि—वह विचारों में गुम रही, पता ही न चला कि ग्यारह कब बज गए—घड़ी पर नजर पड़ते ही वह एक झटके से उठी—यह विचार दिमाग में आते ही उसका दिल धाड़-धाड़ करके बजने लगा कि अब उसे रिवॉल्वर बरामद करना है।
बिशम्बर गुप्ता का कमरा ग्राउंड फ्लोर पर था।
वह यह सोचती हुई नीचे आई कि बाबूजी की सेफ से रिवॉल्वर किस तरह चुराना है—दरअसल, वह कोई निश्चित योजना न बना पा रही थी, क्योंकि बिशम्बर गुप्ता का कोई भी काम नियमित न था।
कभी वे सारे-सारे दिन अपने कमरे में ही बैठे रहते।
कभी सुबह चले जाते, शाम को लौटते—कभी सारा दिन धूप में बैठकर ही गुजार देते—फिलहाल वह यह सोचकर परेशान थी कि अगर आज उनका मूड सारा दिन कमरे में ही जमे रहने का हुआ तो वह क्या करेगी?
परन्तु नीचे पहुंचते ही उसे खुशी हुई।
चूड़ीदार पायजामें पर काली अचकन पहनने के बाद अब वे उसके बटन लगा रहे थे, सुचि देखते ही समझ गई कि वे कहीं जाने की तैयारी में हैं।
उसने पूछा—"कहीं जा रहे हैं, बाबूजी?"
"हां।"
"कहां?"
"अरे, जाएंगे कहां बहू, रिटायर होने के बाद तो समय गुजारना भारी हो रहा है।" पैरो, में जूते डालते हुए बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"जाकर बैठ जाएंगे अपने ही साथ के किसी रिटायर दोस्त के यहां—पुरानी बातें याद कर-करके अपने साथ उसका भी समय गुजारेंगे।"
सुचि के कान उनके शब्दों पर न थे।
उसका सारा ध्यान सेफ के 'की-होल' में फंसी चाबी पर था—छल्ले में पड़ी अन्य दो चाबियां धीरे-धीरे झूल रही थीं।
बिशम्बर गुप्ता ने अपनी छड़ी उठाई।
सुचि का दिल बल्लियों उछलने लगा—उसकी मनोकामना बड़ी आसानी से पूरी होने जा रही थी, लगा कि भाग्य और भगवान एक दुष्ट का संहार करने के लिए उसके साथ थे।
''मगर आज तुमने यह क्यों पूछा बहू कि हम कहां जा रहे हैं?"
"य...यूं ही।" उन्हें सेफ की तरफ बढ़ते हुए देख सुचि बौखला गई, जबकि सेफ में लगी चाबी घुमाते हुए बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"हमें आश्चर्य इसलिए हुआ; क्योंकि पहले तुमने हमसे कभी यह नहीं पूछा।"
"द...दरअसल मैं तो यह कहना चाहती थी कि खाना खाकर चले जाते।"
"खाना खा लिया है।" इस छोटे से वाक्य के साथ उन्होंने गुच्छा अचकन की जेब में डाल लिया—उस वक्त वह बुरी तरह कसमसा रही थी, जब बिशम्बर गुप्ता ने हैंडल को हिलाकर यह पुष्टि की कि सेफ बंद हो गई थी या नहीं?
छड़ी संभाले वह दरवाजे की तरफ बढ़े।
सुचि बुत बनी वहीं खड़ी रह गई।
दुनिया-जहान का होश न रहा था उसे, दरवाजे पर पहुंचकर बिशम्बर गुप्ता ठिठके, घूमकर बोले—"क्या सोच रही हो, बहू?"
सुचि इस तरह उछल पड़ी जैसे आस-पास बम फटा हो।
"क्या सोचना लगी थीं तुम?"
"क...कुछ भी तो नहीं, बाबूजी—आपको वहम हुआ है।"
"अरे, तुम्हारा चेहरा तो एकदम पीला पड़ा हुआ है, बहू—देखो कितने पसीने आ रहे हैं तुम्हें—अरे ललिता, ओ ललिता।" उन्होंने ऊंची आवाज में पुकारा।
"क्या हुआ जी, क्यों चीख रहे हो?"
ललिता देवी कमरे में आईं तो बिशम्बर जी ने उन्हें डांटा—“तुम्हें बहू की हालत नजर आती भी है या नहीं। देखो, इसका चेहरा पीला पड़ा हुआ है।”
“इसी को हर समय काम की सूझती रहती है। ये सुनती ही कहां है!” ललिता देवी ने लाड़ से सुचि को डांटा।
कुछ देर यूं ही उसे प्यार, भरी डांट पड़ती रही—जब छड़ी संभाल बिशम्बर गुप्ता ने मुख्य गेट पार किया, तब सुचि का दिल चाह रहा था कि वह झपटकर उनकी जेब से चाबियों का गुच्छा निकाल ले।
¶¶
"मैं शर्माजी के यहां महिला संगीत में जा रही हूं, बहू।" ड्राइंगरूम में कदम रखती हुई ललितादेवी ने कहा—"लक्ष्मी बर्तन साफ करने आएगी, उसका ख्याल रखना—आजकल किसी का कोई भरोसा नहीं है।"
"जी।" सुचि इतना ही कह सकी।
ललितादेवी चली गईं।
अब सारे घर में अकेली सुचि रह गई।
कितना अच्छा मौका था?
घर में कोई नहीं, अगर बाबूजी सेफ की चाबी छोड़ जाते तो इस वक्त रिवॉल्वर कितनी आसानी से हासिल किया जा सकता था।
वह मचल उठी।
लगभग भागती हुई बिशम्बर गुप्ता के कमरे में पहुंची—अच्छी तरह यह जानने के बावजूद कि सेफ बंद थी, उसने हैंडल पकड़कर दो-तीन झटके दिए।
झुंझलाहट में सेफ की चादर पर जोर से घूंसा मारा उसने।
बुरी तरह बेचैन वह पागलों की तरह कमरे में टहलने लगी—जी चाह रहा था कि हथौड़ी मारकर ताले को तोड़ डाले, परन्तु ऐसा करने से सारा खेल वक्त से पहले ही बिगड़ सकता था।
रिवॉल्वर के बेहद नजदीक होते हुए भी वह कितनी दूर थी!
एकाएक जाने उसके जेहन में क्या ख्याल आया कि दौड़कर कमरे से बाहर निकली—आंगन में पहुंची।
एक झटके से उसने सेफ खोली।
लॉकर के ऊपर पड़े कपड़ों को पागलों की तरह निकाल-निकालकर सेफ से बाहर फेंकने लगी और कपड़ों के नीचे शीघ्र ही पचासियों जंग खाई चाबियां पड़ी नजर आईं।
उसने चाबियां मुट्ठी में भर लीं।
इसके बावजूद काफी चाबियां लॉकर में पड़ी रह गईं—उसने तेजी से इधर-उधर नजर घुमाई, शायद वह स्वयं भी ठीक से यह नहीं जानती थी कि उसे किस चीज की तलाश थी—हां, जो कपड़े उसने सेफ से निकालकर फर्श पर डाले थे, उनके बीच पड़े एक टॉवल पर दृष्टि स्थिर हो गई।
सुचि ने झपटकर टॉवल उठाया।
तेजी से लॉकर के ऊपर पड़ीं चाबियां मुट्ठी में भर-भरकर टॉवल में रखने लगी और मुश्किल से दो मिनट बाद हाथों में टॉवल की एक पोटली दबाए नीचे की तरफ भागी।
बिशम्बर गुप्ता की सेफ के नजदीक पहुंचने तक उसकी सांस बुरी तरह फूली हुई थी—फर्श पर रखकर उसने पोटली खोल ली।
एक लम्बी चाबी उठाकर सेफ के 'की-होल' में डाली। चाबी 'की-होल' में घूम नहीं रही थी, जबकि सुचि उसे जबरदस्ती घुमाने के लिए जूझने लगी और उसकी इस धींगा-मुश्ती का नतीजा यह निकला कि चाबी 'होल' में फंस गई—जब उसके जेहन में यह विचार आया कि इस चाबी से लॉक नहीं खुल रहा है, अतः उसे कोई अन्य चाबी ट्राई करनी चाहिए तो उसने चाबी को निकालने का प्रयास किया।
पहली बार उसके छक्के छूट गए।
उसकी अपनी मूर्खता से चाबी इस कदर फंस चुकी थी कि टस से मस न हो रही थी—उत्तेजना के कारण उसका सम्पूर्ण जिस्म तो पहले ही पसीने से चिपचिपा हो रहा था, अब घबराहट के कारण सारे शरीर पर चींटियां-सी रेंगने लगीं।
अचानक उसे यह ख्याल सताने लगा कि अगर यह चाबी न निकली तो क्या होगा—परिवार के सभी सदस्यों को क्या जवाब देगी वह?
उस वक्त उसकी इच्छा दहाड़े मार-मारकर रो पड़ने की हुई, परन्तु रोने से उसकी किसी समस्या का हल निकलने वाला नहीं था—इस समय दिमाग में केवल एक ही विचार था—यह चाबी निकलनी चाहिए।
सेफ खुले या न खुले।
सारी कोशिशों के बाद भी जब चाबी टस से मस न हुई तो बौखलाई हिरनी के समान उसने चारों तरफ देखा, मदद के लिए कहीं कोई न था।
सारे मकान में सांय-सांय करता सन्नाटा।
अचानक उसके जेहन में कोई ख्याल आया और उसी के वशीभूत वह भागती हुई कमरे से बाहर चली गई, मुश्किल से एक मिनट बाद जब हांफती हुई लौटी, तब उसके हाथ में एक प्लास था।
अब वह 'प्लास' की मदद से चाबी को निकालने का प्रयास करने लगी।
थोड़ी कोशिश के बाद एक झटके से चाबी बाहर निकल आई—वह इस तरफ हांफ रही थी जैसे एक ही किश्त में दौड़कर अभी-अभी किसी ऊंची पहाड़ी के शीर्ष पर पहुंची हो।
चाबी एक तरफ डाली और वहीं, फर्श पर बैठकर अपनी उखड़ी हुई सांसों को ही नहीं, भागते हुए दिमाग को भी नियंत्रित करने की चेष्टा करने लगी।
दिमाग के किसी कोने ने कहा—'अगर तू इसी तरह बेवकूफियां करती रही, सुचि—तो अपने इरादों में कभी कामयाब न हो सकेगी, उल्टे किसी मुसीबत में फंस जाएगी—ऐसी मुसीबत में कि निकलना मुश्किल हो जाएगा।'
'तो फिर मैं क्या करूं?'
'सबसे पहले अपने दिमाग को नियंत्रित कर, जल्दबाजी को छोड़ और घबराहट से मुक्त हो—जो करना है सोच-समझकर विवेक से कर—होश में रह, दिमाग का इस्तेमाल करके पहले कोई स्कीम बना—तब, सारा काम उसके मुताबिक करेगी तो न केवल सफल होगी, बल्कि गलतियां भी न होंगी।'
'आखिर मैं क्या कर सकती हूं?'
'जंग खाई चाबियों के इस ढेर से कुछ नहीं होगा—जरा सोच, इस सेफ की चाबियों का एक दूसरा गुच्छा भी है—वह मांजी के पास रहता है, अगर वह मिल जाए तो तेरा काम बड़ी आसानी से हो सकता है।'
दिमाग में यह विचार आते ही सुचि एक झटके से उठ खड़ी हुई और एक बार पुनः बंदूक से छूटी गोली की भांति कमरे से बाहर निकल गई।
वह सीधी स्टोररूम में पहुंची।
वहां बड़े-छोटे कई संदूक रखे थे, सुचि भली-भांति जानती थी कि ललितादेवी का पर्सनल संदूक कौन-सा था—उसमें कोई लॉक न था।
नजदीक पहुंचकर सुचि ने तेजी से संदूक खोला।
संदूक की तलाशी लेने लगी वह—दिमाग में तेजी जरूर थी, किन्तु इस बात का अब पूरा ख्याल रख रही थी कि संदूक में रखे कपड़ों की तह न बिगड़े।
शीघ्र ही उसे संदूक के दाएं कोने में चाबियों का एक गुच्छा मिल गया और उसके मिलते ही सुचि का दिल बल्लियों उछलने लगा—ऐसी खुशी हुई उसे जैसे किसी गरीब को लॉटरी का पुरस्कार पाने पर हो सकता है।
संदूक को खुला छोड़कर वह गुच्छा संभाले पुनः बिशम्बर गुप्ता के कमरे में पहुंची—सेफ की चाबी 'की-होल' में डालकर घुमाते ही लॉक खुल गया।
धाड़-धाड़ करता दिल पसलियों पर चोट करने लगा।
अपने ही घर में चोरी करते वक्त उसकी हालत खराब थी, वह जानती थी कि बाबूजी रिवॉल्वर को लॉकर के अन्दर रखते हैं; अतः उसने उसी गुच्छे की दूसरी चाबी से लॉकर खोला और अभी लॉकर खुला ही था कि—
कमरे के बाहर गैलरी में पदचाप गूंजी।
रोंगटे खड़े हो गए सुचि के—नसों में दौड़ता रक्त जैसे पानी बन गया, चेहरे के जर्रे-जर्रे पर आतंक लिए एक झटके से उसने दरवाजे की तरफ देखा—इस क्षण उसे पहली बार ख्याल आया कि मुख्य गेट खुला पड़ा था।
“ कौन हो सकता है?”
“ हेमन्त, अमित, रेखा, मांजी या बाबूजी?”
बेहद डरे हुए अंदाज में वह चीख पड़ी—"क...कौन है?"
"मैं हूं, बहूरानी। कहां हो तुम?" लक्ष्मी दरवाजे के सामने आ खड़ी हुई बोली और सुचि के दिलो-दिमाग को एक जबरदस्त झटका लगा—उफ—वह तो भूल ही गई थी कि वह बर्तन साफ करने आने वाली थी।
सुचि बुत बनी रह गई।
चंचल लक्ष्मी ने पूछा—"क्या कर रही हैं, बहूरानी?"
अपनी घबराहट छुपाने के लिए वह झुंझलाहट भरे स्वर में गुर्राई—"देख रही हूं कि धुलने के लिए बाबूजी के कपड़े तो नहीं पड़े हैं?"
"क्या बाबूजी गंदे कपड़े भी सेफ में रखते हैं?"
"तुझे इन बातों से क्या मतलब, किचन में जाकर अपना काम कर—चूहों से बचाने के लिए धुलने वाले कपड़े भी बाबूजी सेफ में रख देते हैं।"
"कमाल है!" लक्ष्मी ने हाथ नचाकर कहा—"मैं भी पिछले एक साल से बर्तन साफ करने आ रही हूं—मैंने यहां कभी कोई चूहा नहीं देखा।"
"तू अपनी ये बेकार की चबड़-चबड़ करना बंद नहीं करेगी?"
"हाय दैया!" चाबियों के ढेर पर नजर पड़ते ही लक्ष्मी ने अपने मुंह पर हाथ रखकर कहा—"इतनी सारी चाबियां, क्या यह सेफ इतनी सारी चाबियों से खुलती है, बहूरानी?"
"श...शटअप।" बौखलाहट की ज्यादती के कारण सुचि दहाड़ उठी—"तू किचन में जाकर चुपचाप अपना काम करती है कि नहीं?"
"हद है बहूरानी—तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?"
"क...क्यों—क्या हुआ मेरी तबीयत को?"
"आज तो बात-बात पर तुम मुझे खाने को आ रही हो, जबकि पहले हमेशा मुझसे बड़े प्यार से बात किया करती थीं।"
सुचि अवाक् रह गई।
लक्ष्मी के साथ उसका व्यवहार सचमुच अन्य दिनों के बिल्कुल विपरीत था और वजह शायद उसकी अपनी असामान्य स्थिति ही थी, बात को संभालने के प्रयास में वह बोली—"आज तू भी तो बेवजह के सवालात किए जा रही है? क्या तुझे दिख नहीं रहा है कि यह सब जंग खाई हुई बेकार चाबियां हैं?"
"तो फिर इन्हें घर में रख ही क्यों रखा है?"
"उनकी लॉक मैन्यूफैक्चरिंग की फैक्टरी है, आम आदमी के लिए चाबियां भले ही बेकार हों, मगर उनके काम की हैं। "
"तो इसमें इतना गुस्सा होने की क्या बात है?"
सुचि के दिमाग को झटका लगा—सचमुच इतना उफनने की कोई वजह न थी, दरअसल अपने ही मन के चोर और उत्तेजना के कारण वह लक्ष्मी के साथ सामान्य व्यवहार न कर सकी थी, अब संभलकर उसने कहा—"अच्छा दिमाग न चाट, किचन में जाकर काम कर।"
इस वाक्य के साथ ही उसने स्वयं को सेफ से टंगे कपड़ों में उलझी दर्शाया—अजीब ढंग से मुंह बिचकाकर लक्ष्मी वहां से चली गई।
सुचि ने जाने कब से रुकी सांस एक झटके से छोड़ी।
अपने जिस्म में दौड़ती सिहरन उसे अब भी महसूस हो रही थी—लक्ष्मी की उपस्थिति और उसके सवालों ने सुचि के प्राण खुश्क करके रख दिए थे।
लक्ष्मी के आतंक से मुक्त होकर उसने हाथ लॉकर के अन्दर डाल दिया—सख्त और ठंडे रिवॉल्वर पर हाथ पड़ते ही वह रोमांचित हो उठी।
रिवॉल्वर बाहर निकाला।
यूं बिशम्बर गुप्ता को रिवॉल्वर साफ करते उसने कई बार देखा था, तब उसे रिवॉल्वर कोई खास चीज न लगी थी, मगर इस वक्त उसे अपने हाथ में देखकर सुचि कांप उठी, दिमाग में विचार उठा कि क्या मैं सचमुच इससे दुष्ट मकड़ा का खात्मा कर सकूंगी—रोंगटे खड़े हो गए उसके।
सुचि को पहली बार महसूस हुआ कि वह एक खतरनाक काम करने जा रही थी।
इस पल अपना इरादा रद्द करने का विचार भी उसके जेहन में उठा, किन्तु ज्यादा देर तक स्थायी न रह सका, क्योंकि मकड़ा के जिस जाल में वह फंसी हुई थी, उससे निकलने का अन्य कोई रास्ता उसके दिमाग में न आ रहा था।
कांपते हाथों से चार गोलियां और साइलेंसर भी निकाल लिया।
¶¶
शाम के साढ़े पांच बजे।
डाइनिंग टेबल पर बैठा सारा परिवार डिनर ले रहा था कि हेमन्त ने कहा—"आज सारी रात मुझे फैक्टरी में रहना पड़ेगा।"
"क्यों?" बिशम्बर गुप्ता ने पूछा।
"आज सारी रात काम चलेगा, कल सुबह दस बजे तक एक पार्टी का माल अर्जेंन्ट देना है।"
"यह तुम्हारा दिन-रात काम करना हमें पसंद नहीं है, हेमन्त।"
"क्या करें बाबूजी, नए काम को जमाने के लिए पार्टी की उचित-अनुचित शर्तें भी माननी पड़ती हैं—और फिर रात को कोई रोज तो काम चलता नहीं है—साल छः महीने में कोई एक बार ऐसा मौका आ जाता है कि...।"
अचानक बजने वाली कॉलबेल की आवाज ने उसका वाक्य पूरा न होने दिया—सुचि का दिल किसी रबर की गेंद के समान उछलने लगा, जबकि ललितादेवी ने कहा—"इस वक्त कौन हो सकता है?"
कॉलबेल पुनः बजी।
"मैं देखती हूं।" कहने के साथ ही अमित उठा और कमरे से बाहर निकल गया। इस बीच ललितादेवी बोलीं—"यह तो सुन लिया हेमन्त कि तू रात भर फैक्टरी में रहेगा, मगर उससे पहले सुचि को जरा डॉक्टर के यहां दिखाकर ला।"
"क्यों, क्या हुआ है सुचि को?" हेमन्त ने चौंककर पूछा।
सुचि और ललितादेवी ने एक साथ कुछ कहने के लिए मुंह खोला, परन्तु दोनों ही को रुक जाना पड़ा—एक टेलीग्राम को खोलता हुआ अमित कमरे में दाखिल हुआ था।
बिशम्बर गुप्ता ने पूछा—"क्या है अमित?"
"टेलीग्राम।"
"कहां से?"
"देखता हूं।" कहते हुए अमित ने टेलीग्राम खोल लिया—सुचि का दिल उसकी पसलियों पर जोर-जोर से चोट कर रहा था, सभी की सवालियां नजरें अमित पर गड़ी थीं, जबकि टेलीग्राफ पर नजर गड़ाए अमित ने कहा—"भाभी के लिए खुशखबरी है।"
"क...क्या?" सुचि के साथ-साथ सभी के मुंह से निकल पड़ा।
अमित ने चंचल मुस्कान के साथ सुचि की तरफ देखकर कहा—"हापुड़ में अंजू नामक आपकी कोई सहेली है?"
"हां है—क्या हुआ उसे?"
"आज रात वह पराई होने जा रही है।" अमित ने शरारती अंदाज में कहा।
"क्या मतलब?"
"आज उसकी शादी है, लिखा है कि अगर आप नहीं पहुंचीं तो शादी नहीं कराएगी—और यह भी लिखा है कि शादी बड़ी जल्दी में अरेंज हुई है।"
"अ...अंजू की शादी?" सुचि उछल पड़ी—"आज ही?"
"जी हां।" कहकर टेलीग्राम अमित ने मेज पर डाल दिया।
"ओह!" खुशी से लगभग नाचती-सी सुचि बोली—"अंजू की शादी है और वह भी आज ही—मैं वहां जाना चाहती हूं, मांजी।"
"आज ही भला तुम कैसे जा सकती हो, बहू?"
सुचि ने एकदम मुर्झाने का अभिनय किया—"क्यों नहीं जा सकती?"
"अब कहीं जाने का समय बचा है?"
"पांच पैंतीस ही तो हुए हैं, मांजी, अगर छः बजे भी निकल जाऊँ तो आठ—साढ़े आठ तक वहां पहुंच जाऊंगी।"
"क्यों पागल हुई जा रही हो, बहू। तुम्हारी तबीयत भी ठीक नहीं है।"
"क...कुछ भी तो नहीं हुआ है मुझे—अंजू मेरी सबसे पक्की सहेली है मांजी। अगर मैं न पहुंची तो वह सचमुच फेरों पर नाटक कर सकती है—प्लीज, मुझे जाने की इजाजत दे दीजिए।"
ललितादेवी ने समझाने की भरसक चेष्टा की, परन्तु सुचि को न मानना था, न मानी। अतः अंत में हथियार डालती हुई ललितादेवी ने कहा—"अच्छा ठीक है, तुम बहू के साथ चले जाओ अमित।"
बड़ी ही जबरदस्त गर्जना के साथ बिजली ठीक सुचि के सिर पर गिरी।
सारे इरादों पर एक ही झटके में पानी फिर गया—जी चाहा कि चीख पड़े, कहे कि अमित के साथ जाने की भला क्या जरूरत है, वह अकेली चली जाएगी, परन्तु ऐसा कह न सकी—बड़ी मुश्किल से तो यह लोग भेजने के लिए तैयार हुए थे।
अमित के साथ चलने का भी विरोध किया तो व्यर्थ ही सब लोग संदेह करेंगे और फिर अमित को साथ ले जाने से इन्कार करने की कोई तर्क संगत वजह भी तो उसके पास नहीं थी। सुचि कसमसाकर रह गई।
बड़े ही दयनीय भाव से उसने इस उम्मीद से अमित की तरफ देखा था कि शायद वह स्वयं ही असमर्थता जाहिर करे, परन्तु अमित था कि कह रहा था—"चलो, इस बहाने कम-से-कम भाभी की सहेली के दीदार तो हो जाएंगे, जिसकी शादी में शामिल होने के लिए खबर मिलते ही यह इतनी बेचैन हो उठी हैं।"
¶¶
सवारियों से खचाखच भरी प्राइवेट बस जिस रफ्तार से अपने गंतव्य स्थल के नजदीक पहुंचती जा रही थी, उसी रफ्तार से सुचि अपने लक्ष्य से दूर होती जा रही थी—मुसीबत में फंसे व्यक्ति का दिमाग चाहे जितना छोटा हो, अपने हक में कुछ-न-कुछ सोच ही लेता है।
उसे इस बात से कोई मतलब न था कि जो कुछ वह करने जा रही है, बाद में उसके परिणाम क्या निकलेंगे, हां—तत्कालीन मुसीबत से निकलना हो उसका ध्येय था—यह भांपते ही कि बस कुछ देर में बराल नामक स्थान पर पहुंचने वाली थी, सुचि ने अपने दिमाग में जन्मी योजना को अंतिम रूप दिया और अचानक चौंकती हुई बोली—"अरे!"
"क्या हुआ, भाभी?" उसे चौंकते देखकर अमित का यह पूछना स्वाभाविक था।
"गड़बड़ हो गई अमित, जल्दी-जल्दी में मैं एक ऐसी भूल कर बैठी हूं कि हमारा अंजू की शादी में जाना ही बेकार हो जाएगा।"
"कैसी भूल, आखिर हुआ क्या है?"
"वे सोने के हेयर पिन तो मैं घर ही भूल आई, जो मुझे उपहार में अंजू को देने थे।"
"ओह!" अमित के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।
"हेमन्त ने खुद यह कहते हुए वे हेयर पिन मुझे दिए थे कि मैं उपहार स्वरूप उन्हें अंजू को दे दूं, किन्तु मैं उन्हें फ्रीज पर ही रखा भूल आई हूं।"
अमित चुप रहा।
यह देखकर सुचि की बेचैनी बढ़ने लगी कि बस बराल पहुंचने वाली थी, अतः बोली—"अब क्या करें, अमित?"
"किया ही क्या जा सकता है?" अमित बोला—"अब तो अंजू को उपहार में कैश ही देना पड़ेगा।"
"न...नहीं अमित।" सुचि चीख-सी पड़ी—"मैं उसे कैश नहीं दे सकती—एक बार कॉलेज में हम सभी सहेलियों के बीच यह तय हुआ था कि एक-दूसरे की शादी के अवसर पर कोई कैश नहीं देगा—हम सब सहेलियों के बीच प्रेजेंट ही चलते हैं।"
"ल...लेकिन अब आखिर प्रेजेंट दिया कैसे जा सकता है?"
कुछ देर के लिए सुचि शायद जानबूझकर चुप रह गई, फिर स्वयं ही इस तरह बोली, जैसे अचानक कोई ख्याल दिमाग में आया हो—"एक तरकीब है, अमित।"
"क्या?"
"बराल आने वाला है, तुम इस बस से यहीं उतर जाओ और तुरन्त वापस बुलंदशहर जाने वाली बस पकड़ लो—फ्रिज से हेयर पिन लेकर लौटती बस से हापुड़ आ जाओ।"
"और तुम?"
"मैं इस बस से हापुड़ पहुंच रही हूं।"
"अकेली?"
"मजबूरी है अमित और फिर मां और बाबूजी की तरह क्या तुम भी वहमी होते जा रहे हो? मुझे अकेली देखकर भला क्या इस बस में मुझे कोई खा जाएगा?"
"व..वह सब तो ठीक है भाभी, मगर...।"
"मगर क्या?"
"मैं इस तरह तुम्हें अकेली नहीं छोड़ सकता।"
अपने इरादों को धराशाही होते देखकर सुचि ने लगभग वैसा ही शस्त्र इस्तेमाल किया, जैसा पंचवटी में सीता ने लक्ष्मण पर किया था, बोली—"तुम समझ नहीं रहे हो, अमित। अंजू को वे हेयर पिन ही देने कितने जरूरी हैं—अगर यहां से बुलंदशहर पहुंचने और वहां से पुनः हापुड़ आने में तुम्हें कोई दिक्कत है तो यह सब कुछ मुझे करना पड़ेगा, तुम इस बस से हापुड़ पहुंचो।"
"ऐसा कैसे हो सकता है, भाभी?"
"मजबूरी है, हममें से किसी एक को तो हेयर पिन लाने जाना ही पड़ेगा।"
कुछ देर तक अमित जाने क्या सोचता रहा, फिर बोला—"अगर ऐसी मजबूरी है तो फिर क्यों न हम दोनों ही लौटकर बुलंदशहर चलें?"
ऐसा महसूस करके सुचि तिलमिला उठी कि उसकी यह स्कीम भी नाकामयाब होने जा रही थी, बोली—"क्या बेवकूफाना बात कर रहे हो अमित, इतने लम्बे-चौड़े झमेले की जरूरत क्या है? तुमे अकेले जाकर आराम से हेयर पिन ला सकते हो।"
"ल...लेकिन...।"
"लेकिन—-वेकिन कुछ नहीं, अमित।" बराल पर गाड़ी को धीमी होते देख सुचि ने अपने स्वर में आदेश का पुट भर दिया—"तुम जानते हो मां-बाबूजी ने मुझे इस वक्त कितनी मुश्किल से भेजा है, अगर मैं अकेली या तुम्हारे साथ भी वापिस पहुंच गई तो वे मुझे किसी हालत में हापुड़ नहीं आने देंगे।"
अमित को जवाब न सूझा, अजीब उलझन में फंस गया था वह।
बस 'बराल बस स्टैड' पर रुक गई—कुछ सवारियां उतरने लगीं, कुछ नई चढ़ गईं, सुचि ने विनती करने के से अंदाज में कहा—''प...प्लीज अमित, मेरा यह काम कर दो—क्या तुम अपनी भाभी की इतनी-सी बात भी नहीं मान सकते?"
मजबूर अमित को अनिच्छापूर्वक बस से उतर जाना पड़ा।
¶¶
'बुलंदशहर बस स्टैंड' के टॉयलेट में जाकर सुचि ने चारों गोलियां रिवॉल्वर के चैम्बर में डालीं, नाल पर साइलेंसर फिट किया—रिवॉल्वर के बारे में इतना सब कुछ वह इसीलिए जान गई थी, क्योंकि अपने ससुर को इसकी सफाई करते कई बार देखा था, चैम्बर में गोलियां डालते और साइलेंसर फिट करते भी।
संतुष्ट होकर उसने रिवॉल्वर अपने पेट और साये के नाड़े के बीच फंसा लिया—अटैची संभाले वह बाहर निकली—रिक्शा पकड़कर सीधी होटल शॉर्प-वे।
काउंटर पर वह अपनी योजनानुसार ही पहुंची, नाम राधा बताया और रूम नम्बर दो सौ पांच की बेल दबाते ही दरवाजा खुला।
सामने उसके शिकार के रूप में मकड़ा खड़ा था।
उसे देखते ही वह गुर्राया—"इतनी लेट, टाइम सात बजे का फिक्स हुआ था और अब साढ़े आठ बज रहे हैं।"
सुचि चुपचाप अन्दर दाखिल हो गई।
कमरे में नाइट बल्ब का मद्धिम प्रकाश था, केवल इतना कि कमरे में मौजूद हर वस्तु को साए के रूप में देखा जा सके—अटैची को फर्श पर टिकाकर शायद यह भांपने हेतु सुचि मकड़ा की तरफ पलटी कि इस सीमित प्रकाश में वह ठीक से मकड़ा को निशाना बना भी पाएगी या नहीं?
अफीन के नशे में चूर अपनी आंखों से सुचि को घूरते हुए मकड़ा ने पूछा—"इतनी देर कैसे हो गई?"
"एक औरत की बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा किसी भरे-पूरे परिवार की बहू की मजबूरियों को बयान करने के बावजूद तुम जैसा जालिम समझ नहीं सकता।"
"दिमाग खराब हो गया है क्या?" मकड़ा गुर्रा उठा—"होश में बात करो, यह मत भूलो कि जिस क्षण मैं चाहूं, तुम्हें तबाह और बर्बाद कर सकता हूं।"
सुचि ने दांत पीसे।
मन-ही-मन सोचा कि मैं जिस क्षण चाहूं तुझे मौत के घाट उतार सकती हूं कुत्ते—मगर ऐसा उसने कहा नहीं, बोली—"इसीलिए तो रात के इस वक्त शहर के सबसे ज्यादा सम्भ्रांत आदमी की मजबूर बहू तुम्हारे सामने अकेली खड़ी है।"
"मैंने टेलीग्राम बिल्कुल सही समय पर पहुंचा दिया था, फिर तुम...।"
"टेलीग्राम पहुंचाना जितना आसान था, उतना मेरे लिए निकलना नहीं।" अपने क्रोध को दबाए सुचि ने फिलहाल यही दर्शाया कि वह उसकी उंगलियों पर नाचने वाली कठपुतली थी, बोली—"हापुड़ के लिए उन्होंने मेरे साथ अमित को लगा दिया।"
"ओह, फिर?"
अमित से छुटकारा पाने की घटना बयान करने के बाद सुचि ने कहा—"मैं उस बस से गुलावटी में उतरी—मेरठ से बुलंदशहर आने वाली बस पकड़कर यहां आई हूं।"
"सचमुच तुम्हें काफी दिक्कत का सामना करन पड़ा।"
"मजबूरी थी, अगर मैं न आती तो तुम...।"
सुचि ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया, जबकि मकड़ा एक सिगार सुलगाने के बाद चहलकदमी करता हुआ सोफे की तरफ बढ़ा, बोला—"क्या तुमने यह भी सोचा है कि सुबह लौटने पर उन हालातों से कैसे मुक्त होगी, जिनमें तुमने खुद को फंसा लिया है।"
"सब सोच चुकी हूं मैं।"
"जरा सुनें तो सही।" वह सोफे पर बैठ गया।
"अमित को फ्रिज पर कोई हेयर पन नहीं मिलेगी, क्योंकि वह मेरी अटैची में है, रेखा उसे बताएगी कि पिन उसने अटैची में रख दिया था—अब तक शायद वह वापिस हापुड़ के लिए रवाना हो चुका होगा—वह सीधा हमारे घर पहुंचेगा, मगर मैं उसे वहां नहीं मिलूंगी—वह खुद और उसकी बातें सुनकर शायद मेरे मम्मी-पापा और भाई भी चिंतित हो उठें, मगर कुछ कह नहीं सकेंगे, क्योंकि वह सब तो जानते हैं कि अंजू नामक मेरी एक सहेली है, परन्तु उसका घर नहीं जानते—सुबह तक किसी भी समय मैं हापुड़ अपने घर पहुंच जाऊंगी और कहूंगी कि चूंकि मुझे रास्ते ही में यह मालूम हो गया था कि हेयर पिन अटैची में है, इसलिए हापुड़ बस स्डैंड पर उतरते ही सीधी अंजू के यहां चली गई, वहां से शादी अटैंड करके सीधी आ रही हूं।"
"काफी तेज चलने लगा है तुम्हारा दिमाग।" मकड़ा ने सोफे पर लगभग पसरते हुए कहा—"मगर क्या तुम्हें यकीन है कि वे लोग तुम्हारी बातों पर यकीन कर लेंगे—क्या अमित यह पता लगाना नहीं चाहेगा कि वास्तव में तुम्हारी सहेली की शादी थी भी या नहीं?"
सुचि ने मन-ही-मन सोचा कि इस मुसीबत का सामना तो मुझे करना ही पड़ेगा निर्दयी—मगर उस मुसीबत से मैं नहीं निबट सकती थी, जो मेरे यहां न पहुंचने पर तुम्हारे से खड़ी की जाती है और यहां आना इसलिए भी जरूरी था कि अगर तू जिंदा रहा तो मुझे हर दिन, हर पल इस किस्म की न जाने कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा?
"जवाब नहीं दिया तुमने, क्या सोच रही हो?"
सुचि हल्के-से चौंकी, बोली—"कोई भी शख्स किसी पर अविश्वास तब करता है जब उसे सामने वाले के चरित्र पर शक हो और मेरे चरित्र पर न अमित को शक है, न मम्मी-पापा को—मैं उन्हें आसानी से संतुष्ट कर लूंगी और अमित तो मुझसे इतना प्यार करता है कि उसे मैं इस बात के लिए भी तैयार कर लूंगी कि बुलंदशहर में वह किसी से यह न कहे कि खुद वह अंजू की शादी में शरीक न हुआ था।"
"काफी कांफिडेंस हैं तुम्हें खुद पर।" मकड़ा ने व्यंग्य-भरी मुस्कान के साथ पूछा—"खैर, यह बताओ कि बॉल्कनी का दरवाजा अन्दर से खुला छोड़कर आई हो कि नहीं?"
"हां।" सुचि ने गहरी सांस ली—"अब शायद हमें काम की बातें करनी चाहिए।"
सिगार में एक तगड़ा कश लगाने के बाद मकड़ा ने कहा—"आज की सारी रात अपनी है, काम की बातों की ऐसी क्या जल्दी है—आराम से बैठो।"
"पाचस हजार हासिल करने के लिए तुम मुझे कौन-सा रास्ता बताने वाले थे?" उसकी बात पर ध्यान न देती हुई सुचि ने पूछा और जवाब मकड़ा ने बड़े ही कुटिल अंदाज में दिया—"हैरत की बात है कि तुम एक सुन्दर स्त्री होते हुए अभी तक नहीं समझी कि तुममें पचास हजार नहीं लाखों कमाने की क्षमता है?”
“क्या मतलब?” सुचि का सारा जिस्म सुलग उठा।
“एक स्त्री, खासतौर से तुम जैसी सुंदर स्त्री अगर रुढ़ीवादी और सड़ी-गली भारतीय परम्पराओं का भूत अपने सिर से उतार दे तो दरिया-दिल मर्द तुम्हारे वजन के बराबर सौ-सौ के नोट तोल दे।"
गुस्से की ज्यादती से सुचि का रोम-रोम कांपने लगा। जी चाहा कि उसी वक्त रिवॉल्वर निकाले और इस कमीने आदमी पर तब तक गोलियां बरसाती रहे, जब तक कि इसके जिस्म में गंदे खून की एक बूंद भी रहे—परन्तु सुचि ने ऐसा किया नहीं—उसने नियंत्रित किया खुद को, पहले यह पता लगाना जरूरी था कि नेगेटिव इस कमरे में थे भी या नहीं। अतः कल तक वाली सुचि का अभिनय करती हुई बोली—"न...नहीं मकड़ा, मुझ पर इतना जुल्म मत करो—ऐसा मैं नहीं कर सकती, मैं केवल अपने पति की अमानत हूं।"
"हा—हा—हा।" मकड़ा हल्के-से ठहाका लगा उठा।
डरने का खूबसूरत अभिनय किया सुचि ने—"त...तुम हंस क्यों रहे हो?"
"हंसी तो खुद-ब-खुद आ रही है, सुचि डार्लिंग। सती-सावित्री होने का ये नाटक अगर तुम किसी और के सामने करतीं तो शायद वह प्रभावित हो सकता था, मगर मेरा नाम मकड़ा है, मेरे पास तुम्हारे करेक्टर को नंगा कर देने वाले फोटो हैं।"
"व...वह शादी से पहले की बात है, मकड़ा और फिर संदीप को अपना सब कुछ मैंने किसी बाजारू औरत की तरह नहीं सौंपा था—हमने मंदिर में शादी की थी, मैं उसे अपना पति मानती थी—संदीप की मौत के साथ वह अध्याय ही खत्म हो गया—हेमन्त से शादी कर लेने के अलावा मेरे पास रास्ता ही कोई न था, मगर शादी के बाद से मैं अपने तन-मन और आत्मा से पूरी तरह हेमन्त की हूं।"
"और उसी की बनी रहने के लिए तुम्हें उन मर्दों के साथ सोना होगा, जिनके साथ मैं कहूं, उस वक्त तक जब तक कि मैं पचास हजार न कमा लूं।"
"ऐसा जुल्म मत करो, मकड़ा—रहम करो—मैं यह सब नहीं सह सकूंगी।"
"तुम्हें सहना होगा।" एकाएक मकड़ा ही गुर्राहट सामान्य से कई गुना ज्यादा कर्कश हो गई—"अगर तुमने मेरी बात न मानी तो मैं ऐसे हालात बना दूंगा कि तुम्हारे सामने आत्महत्या कर लेने के अलावा कोई दूसरा चारा न होगा—और आत्महत्या करने का साहस तुममें है नहीं।"
"मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं, मकड़ा—पैर पकड़ती हूं तुम्हारे!"
मकड़ा ने अपने उसी खूंखार अंदाज में कहा—"तुम जानती हो कि इस किस्म की बेकार बातों से मेरे कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।"
मन-ही-मन वह सोचती हुई कि तेरे कानों पर कुछ देर बाद मेरे रिवॉल्वर की गोली रेंगेगी कुत्ते, सुचि ने हथियार डालने का खूबसूरत अभिनय किया—"ल...लेकिन क्या जरूरी है कि मेरे इतना सब कुछ करने पर भी तुम नेगेटिव मुझे दे ही दोगे।"
मकड़ा ने भद्दे होंठों पर सफलता की मुस्कान नृत्य कर उठी, बोला—"तुम तो जानती हो कि मकड़ा अपने वादे का पक्का है।"
"यह आश्वासन मेरे लिए काफी नहीं।"
"फिर क्या चाहती हो?"
"तुम्हें तय करना होगा कि नेगेटिव कब और किस तरह लौटाओगे?"
"किसी भी मर्द से मैं तुम्हारी एक रात की कीमत ज्यादा-से-ज्यादा दो हजार वसूल कर सकूंगा, इस तरह तुम्हें अपनी पूरी पच्चीस रातें देनी होंगी—मेरे पास पांच फोटो हैं, यानी हर पांचवीं रात के बाद मैं एक नेगेटिव तुम्हें देता रहूंगा।"
"मुझे मंजूर है।"
"वैरी गुड! यह हुई न हिम्मत के साथ हालातों का मुकाबला करने वाली बात। "
"मगर मैं पच्चीस रातें लगातार अपनी ससुराल से बाहर नहीं रह सकती—अपनी सुविधानुसार तुम्हारे साथ हुए समझौते का पालन करूंगी।"
"मंजूर है, मैं समझता हूं कि मुक्त होने के लिए तुम खुद ही जल्दी-से-जल्दी ये पच्चीस रातें मुझे देने की कोशिश करोगी।"
सुचि चुप रह गई।
वह कोई ऐसा जिक्र छेड़ने के बारे में सोच रही थी, जिससे पता लग सके कि उस कमरे में नेगेटिव थे या नहीं, अभी वह कुछ सोच भी न पाई थी कि मकड़ा ने कहा—"जब तुमने हालातों से फैसला कर ही लिया है, सुचि डार्लिंग—तो अभी तक इस तरह सकुचाई-सी क्यों खड़ी हो, आओ—मेरी यह रात रंगीन करो।"
"क्या मतलब?"
"फिक्र मत करो, मेरे साथ गुजारी गई तुम्हारी यह रात भी हिसाब में जोड़ दी जाएगी—यानी सुबह तक मेरे तुम पर अड़तालीस हजार बाकी रह जाएंगे।"
"ओह, यह मतलब था तुम्हारा, मगर...।"
"मगर?"
"यह तो मेरे साथ ज्यादती है कि मेरी पहली रात भी दो हजार की ही हो।"
"यानि?"
"यह पहली रात मैं तुम्हारे साथ इस शर्त पर गुजार सकती हूं कि तुम इस रात को दस हाजर की मानो और एक नेगेटिव आज ही मेरे हवाले करो।"
ठहाका लगाकर हंस पड़ा मकड़ा, सुचि उसके सोने के दांत को देखती हुई सोच रही थी कि इस कमीने से वह उस हर गाली का बदला लेगी, जितनी आज तक उसने दी हैं, जबकि दिल खोलकर हंसने के बाद मकड़ा ने कहा—"अचानक पूरी बिजनेस वुमैन बन गई हो तुम—मगर ठीक है, तुम भी कहोगी कि किसी रईस से पाला पड़ा था—मुझे मंजूर है, सुबह जब तुम यहां से जाओगी तो एक नेगेटिव मैं तुम्हें सौंप दूंगा।"
"केवल तुम्हारे कह देने भर से मैं यकीन नहीं कर सकती।"
"फिर?"
"वह नेगेटिव दिखाओ जो मेरी इस रात की कीमत होगी।"
"जरूर।" कहने के साथ ही मकड़ा ने ओवरकोट की दाईं जेब में हाथ डाला और इस क्षण सुचि का दिल धाड़-धाड़ करके बजने लगा—आखिर वह क्षण आ ही गया था, जब उसे इस जालिम से मुक्ति पा लेनी थी—उधर मकड़ा का हाथ जेब से बाहर निकला, इधर सुचि का हाथ अपने पेट पर दबे रिवॉल्वर की मूठ पर जम गया।
वह हाथ ही नहीं, बल्कि सुचि का समूचा जिस्म कांप रहा था। रोंगटे खुद-ब-खुद खड़े हो गए थे और अगले एक या दो मिनट बाद इस कमरे में जो कुछ होने जा रहा था, उसकी कल्पना मात्र से सुचि इतनी ज्यादा उत्तेजित और रोमांचित हो उठी थी कि सारा शरीर पसीने से चिपचिपा उठा।
कनपटियां बुरी तरह भभकने लगीं।
एक-दूसरे से जुड़े हुए पांच नेगेटिव की छोटी-सी फिल्म को खोलकर मकड़ा ने नाइट बल्ब की सीध में किया और बोला—"आज की रात की कीमत के रूप में तुम इनमें से किसी भी एक नेगेटिव को चुन सकती हो।"
सुचि के मुंह से कोई आवाज न निकली।
फिल्म के पार नाइट बल्ब था इसीलिए सुचि को नेगेटिव साफ चमके—वह उसके और संदीप के फोटुओं के ही नेगेटिव थे।
मकड़ा का पूरा ध्यान फिल्म पर ही केंद्रित था। उसे तो शायद स्वप्न में भी सुचि के उन इरादों की भनक न थी, जो वह करके आई थी। उधर गुस्से की ज्यादती से पागल हुई जा रही सुचि को लगा कि वही, बस वही मौका था जब वह हमेशा के लिए उस जल्लाद से मुक्त हो सकती थी। अतः उसने एक झटके रिवॉल्वर उसकी तरफ तान दिया, परन्तु मकड़ा की नजर अभी तक उस पर नहीं पड़ी थी, नेगेटिव पर नजर गड़ाए वह कह रहा था—"मेरे लिए यह फोटो खींच लेने कितने कारगर साबित हुए हैं!"
"बस!" सुचि के मुंह से निकलने वाली आवाज खुद-ब-खुद गुर्राहट बन गई—"तेरा खेल खत्म हो चुका है, कमीने।"
मकड़ा ने चौंककर नजर फिल्म से हटाई और सुचि के हाथ में दबे रिवॉल्वर को देखते ही वह उछल पड़ा।
देवता कूच कर गए उसके।
"य...यह क्या?" वह हकला गया।
बुरी तरह रोमांचित सुचि गुर्राई—"यह रिवॉल्वर है कुत्ते, दोनों हाथ ऊपर उठा ले, वरना भूनकर रख दूंगी, ट्रेगर दबाना मुझे खूब आता है।"
मकड़ा ने बौखलाकर हाथ ऊपर उठा दिए, अफीम के नशे से ग्रस्त उसकी सुर्ख आंखों में पहली बार मौत की थरथराहट नजर आ रही थी।
होश फाख्ता हो गए थे उसके।
सारी चालाकी, दरिंदगी और कुटिलता काफूर।
बोला—"य...ये क्या बेवकूफी है, सुचि?"
"यह बेवकूफी नहीं, वह अंजाम है जो भोली-भाली लड़कियों को अपनी कठपुतली बनकर नचाने वाले तुझ जैसे हर जालिम का होना चाहिए—मेरे साथ रात गुजारनी चाहता था, मुझे वेश्या बनाने के ख्वाब देख रहा था, कमीने—तू शायद यह भूल गया कि भारतीय संस्कारों का सिर फख्र से ऊंचा करने वाली नारी केवल पति पर समर्पित होती है, मांग से सिंदूर रहते वह वेश्या नहीं बन सकती—भले ही कातिल बनना पड़े।"
"त...तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, सुचि।"
"हां...हां—दिमाग खराब हो गया है मेरा, पागल हो गई हूं मैं।" सुचि सचमुच पागलों की भांति चीख पड़ी। उसके होंठों से झाग उफनने लगे थे—"तेरी मौत ही मेरी मुक्ति है, ला—नेगेटिव इधर फेंक दे।"
मकड़ा की सिट्टी-पिट्टी गुम थी।
हवा में चकराता हुआ दिमाग सांय-सांय कर रहा था। यह सच्चाई है कि वह बड़ी मुश्किल से कह सका—"म...मुझे मारकर तुम्हें क्या मिलेगा?"
"सुकून।"
"य...यह फिल्म और ऐसा हर सुबूत मैं तुम्हें सौंपने के लिए तैयार हूं, सुचि, जो तुम्हारे और संदीप के सम्बन्धों को प्रूव कर सके—म...मगर मुझे बख्श दो, मैं मरना नहीं चाहता।"
"ताकि किसी दूसरी सुचि को फंसाकर उसे अपनी कठपुतली बना सके—उसकी किसी भूल का फायदा उठाकर वेश्या बना सको उसे?"
"ह...हरगिज नहीं, मैं कसम खाकर कहता हूं सुचि कि ऐसा गंदा काम फिर कभी नहीं करूंगा, बस—तुम बख्श दो मुझे।"
"मैं तेरी बातों में आने वाली नहीं हूं—मासूम लड़कियों की दलाली खाने वाले सूअर—सारे सुबूत तू मुझे क्या सौंपेगा, मैं खुद हासिल कर लूंगी।"
मकड़ा की ज़बान तालू में जा चिपकी।
सुचि के भभकते चेहरे पर उसे उसके इरादों की दृढ़ता बिल्कुल साफ नजर आ रही थी और इसी वजह से उसके होश गुम थे, जबकि ठीक सामने काल की प्रतिमूर्ति बनी खड़ी सुचि ने कहा—"नेगेटिव मेरी तरफ फेंकता है या नहीं?"
मकड़ा ने फिल्म जल्दी से उसकी तरफ फेंक दी।
सुचि ने झुककर अपने कदमों में पड़ी फिल्म को उठाने की बेवकूफी नहीं की—नजर मकड़ा ही पर गड़ाए चेतावनी दी—"किसी तरह की चालाकी दिखाने की जुर्रत न करना, वरना समय से पहले ही काम तमाम कर दूंगी।"
मकड़ा की रीढ़ की हड्डी में मौत की सिहरन रह-रहकर दौड़ रही थी, बोला—"क...क्या तुम यह समझती हो सुचि कि मुझे मारकर खुद बच सकोगी?"
"ऑफकोर्स!"
"हरगिज नहीं, हत्यारे को पुलिस पाताल से भी खोज निकालती है—अगर तुम यह सोच रही हो कि मुझे खत्म करके अपनी बाकी जिंदगी चैन से गुजार सकोगी तो यह तुम्हारी भूल है, पुलिस तुम तक पहुंच जाएगी।"
"श...शटअप!" सुचि हलक फाड़कर चिल्ला उठी—"अब एक लफ्ज भी नहीं बोलोगे तुम—फिलहाल मरने के लिए तैयार हो जाओ—तुम्हारी मौत के बाद जो भी होगा, उसे मैं भुगतूंगी, मगर तुम अपनी आंखों से नहीं देख सकोगे।"
इन शब्दों के साथ ही सुचि ने रिवॉल्वर वाला हाथ कुछ ऊपर उठा लिया, उसके चेहरे पर उभर आए हिंसक भावों को देखकर मकड़ा को यकीन हो गया कि वह फायर करने वाली थी—अगले ही पल होने वाली अपनी मौत की दहशत ने उसे आत्मा तक हिला डाला, बुत बना रह गया वह।
सुचि ने जबड़े भींचे, ट्रेगर पर उंगली का दबाव बढ़ाया।
मकड़ा ने आंखें जोर से भींच लीं।
'क्लिक।' ट्रेगर दबने पर हल्की-सी आवाज।
साइलेंसर के कारण धमाका तो होना ही नहीं चाहिए था, परन्तु क्लिक के बाद भी जब मकड़ा ने खुद को जीवित पाया तो चौंका, आवाज भी वैसी नहीं थी, जैसी साइलेंसर युक्त रिवॉल्वर से गोली चलने पर होनी चाहिए। अतः एक झटके से उसने आंखें खोल दीं।
इधर गोली न चलने से सुचि भौंचक्की थी!
घबरा भी गई थी वह। बौखलाकर पुनः ट्रेगर दबाया।
'क्लिक।'
फिर वैसी ही आवाज, गोली नहीं चली।
झुंझलाकर सुचि ने लगातार दो-तीन बार ट्रेगर दबाया—'क्लिक-'क्लिक।'
गोली कम्बख्त अब भी नहीं चली, उस वक्त वह चौंककर रिवॉल्वर की तरफ देख रही थी कि मकड़ा ने किसी गोरिल्ले की तरह उस पर जम्प लगा दी।
¶¶
"अरे, तू इस वक्त यहां अमित—क्या हुआ, बहू कहां है?" दरवाजा खोलते ही बिशम्बर गुप्ता चौंक पड़े।
"घबराने की कोई बात नहीं है, बाबूजी, भाभी का वह प्रेजेंट यहीं रह गया था जो वे उपहार स्वरूप अपनी सहेली को देना चाहती थीं, उसे लेने आया हूं।"
"कहां से लौटा है तू?"
"बराल से।"
"और बहू?"
"वे उसी बस से हापुड़ चली गई हैं।"
"अकेली?"
"मैंने बहुत मना किया बाबूजी। यह भी कहा कि कैश दे देना, मगर भाभी मानीं ही नहीं—जिद पकड़ ली उन्होंने।"
वहां पहुंचती हुई ललितादेवी ने कहा—"जाने क्या हो गया है, सुचि को। बहुत जिद्दी होती जा रही है।"
"पहले तो बहू ऐसी नहीं थी?"
"कुछ ही दिन से यह परिवर्तन है—पहले वह कभी जिद नहीं करती थी।"
"इस बार लौटने दो उसे, पहले हम प्यार से पूछेंगे कि इस परिवर्तन की क्या वजह है, फिर चेतावनी देंगे कि ऐसी जिद इस घर में नहीं चलेगी।"
अमित, हेमन्त और सुचि के 'कम्बाइंड टू-रूम सैट' में पहुंचा, फ्रिज पर नजर पड़ते ही उसके होश उड़ गए।
उसे कहीं कोई हेयर पिन नजर नहीं आया।
यह सोचकर कि शायद इधर-उधर गिर गया हो, फ्रिज के चारों तरफ देखने लगा—यहां तक कि सर्दियों के कारण बंद पड़े फ्रिज को अन्दर तक देख डाला अमित ने।
हेयर पिन न मिले।
अमित उस वक्त हैरान, परेशान और बुरी तरह झुंझलाया हुआ था—जब ललितादेवी के साथ कमरे में प्रविष्ट होते ही बिशम्बर गुप्ता ने सवाल ठोक दिया—"क्या हुआ, हेयर पिन मिले या नहीं?"
"नहीं।"
"क्या मतलब?"
"मुझे क्या मालूम, मुझसे तो भाभी ने इतना ही कहा था कि फ्रिज पर रखे हैं—हेयर पिनों की तो बात ही दूर, उसका बच्चा तक नहीं है यहां। अचीब मजाक हो रहा है।"
ललितादेवी ने कहा—"तुम परेशान मत हो बेटे, जाते समय बहू जल्दी में थी—मुमकिन है कि कहीं दूसरी जगह रखकर भूल गई हो, यहीं कहीं होंगे—तलाश करो।"
अकेले अमित ने नहीं, बल्कि ललितादेवी और बिशम्बर गुप्ता ने भी इस टू रूम सैट का चप्पा-चप्पा छान मारा, किन्तु मिलते तो तभी न जब कहीं होते, निराश होने पर ललितादेवी बोलीं—"मैं रेखा को बुलाती हूं, बहू का सामान उसी ने लगवाया था—शायद उसे कुछ मालूम हो।"
वे कमरे से बाहर चली गईं।
कुछ देर बाद ललिता के साथ कमरे में दाखिल होती हुई रेखा ने बताया—"हेयर पिन तो मैंने भाभी की अटैची में ही डाल दिए थे।"
"वाह, यह खूब रही!" बिशम्बर गुप्ता व्यंग्य कर उठे।
अमित ने पूछा—"क्या तुमने भाभी को बताया नहीं था?"
"मैंने कहा था कि सारे जेवर जेब में रखे हैं।"
वे चारों अजीब-सी तनावपूर्ण सवालियां नजरों से एक-दूसरे को देखते रह गए, सनसनी पैदा करने वाला सन्नाटा खिंच गया था उनके बीच और फिर इस सन्नाटे के गाल पर चांटा ललितादेवी ने मारा—"अब यहां खड़ा-खड़ा हमारा मुंह क्या देख रहा है, फौरन हापुड़ के लिए निकल जा।"
¶¶
कमरे में सुचि की चीख गूंज गई।
अचानक मकड़ा के अपने ऊपर आ गिरने से सुचि बौखला गई, मुंह से चीख निकालती हुए सोफे के साथ उलझी और लड़खड़ाकर फर्श पर जा गिरी—रिवॉल्वर उसके हाथ से निकल चुका था, जिसे झपटकर मकड़ा ने उठा लिया।
सुचि फर्श से उठ भी न पाई थी कि रिवॉल्वर के फंसे हुए चैम्बर को बाएं हाथ से घुमाते हुए मकड़ा ने कहा—"तुमने रिवॉल्वर चुरा तो लिया, गोलियां और साइलेंसर भी फिट कर लिया सुचि डार्लिंग, मगर यह न जान सकीं कि कभी-कभी रिवॉल्वर का चैम्बर फंस जाया करता है, अगर एक बार उसे हाथ से घुमाकर चालू कर लिया जाए तो 'डैड' नजर आने वाले इसी रिवॉल्वर से गोलियां चलने लगती हैं।''
सुचि को काटो तो खून नहीं।
चेहरा पीला जर्द, हक्की-बक्की रह गई थी वह।
मकड़ा खुलकर हंसा, उसके सोने के दांत को देखकर सुचि सिहर उठी, जबकि मकड़ा ने कहा—"किस्मत मेरे साथ है, सुचि डियर। तभी तो ऐन वक्त पर चैम्बर अटक गया—पासे पलट चुके हैं। रिवॉल्वर मेरे हाथ में है—इस भ्रम में न रहना कि अब भी इससे गोली नहीं चलेगी।"
सुचि की ज़ुबान तालू में जा चिपकी।
"मैं तुम्हें मारूंगा जरूर मगर इस रिवॉल्वर से नहीं, ठीक उसी ढंग से जैसी योजना मैंने तुम्हारे यहां आने से पहले बना रखी थी।"
"योजना?"
"हां डार्लिंग, तुम्हारी रातों के बारे में जो बातें मैं कर रहा था, वे तो सिर्फ यह आजमाने के लिए थीं कि तुम कहां तक गिर सकती हो—मेरी असल योजना तो कुछ और ही थी—मकड़ा के दिल में न तो खुद ही तुम्हारे साथ कोई रात गुजारने की तमन्ना है, न ही तुम्हारी रातों को बेचकर दलाली खाने की—असल में तो मैंने तुम्हें किसी दूसरे ही मकसद से यहां बुलाया था।"
"क...किस मकसद से?" सुचि के मुंह से स्वतः निकल पड़ा।
"तुम्हारा कत्ल करने के मकसद से।" कहते समय अफीम के नशे में चूर मकड़ा की आँखों में हिंसक भाव नजर आने लगे—"मगर यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि ठीक वैसी ही योजना लेकर तुम भी यहां आओगी—एक बार को तो तुमने मुझे भौंचक्का ही नहीं कर दिया, बल्कि डरा दिया—मौत के खौफ से थरथराने लगा मैं—शायद इस वजह से कुछ ज्यादा ही कि तुम्हारे इस पैंतरे की मैं कल्पना तक नहीं कर सका था।”
सुचि सांस रोके उसे देखती रही।
"तुम्हारे साथ रात गुजारने और दूसरों के साथ तुम्हारी रातें गुजरवाकर उनकी कमाई खाने की बातें तो मैं सिर्फ तुम्हें उस स्थिति तक लाने के लिए कर रहा था, जहां मैं आराम से, बिना किसी विघ्न-बाधा के फांसी लगा सकूं।"
"फांसी।"
"हां।" कहते हुए उसने मेज के नीचे से एक मजबूत रस्सी निकली, उस रस्सी के एक सिरे पर फंदा बना हुआ था, बोला—"जरा गौर से इस फंदे को देखो, ठीक तुम्हारी गर्दन के नाप का है।"
सुचि के चेहरे के जर्रे-जर्रे पर मौत के साए नाच रहे थे।
¶¶
अमित ने तीसरी बार सुचि के मकान की सांकल बजाई, तब कहीं जाकर दरवाजा खुला और उसे खोलने वाला था—बूढ़ा दीनदयाल।
अमित ने पूरे सम्मान के साथ हाथ जोड़कर उनसे नमस्कार की।
"अरे, तुम हो अमित!" दीनदयाल ने कहा—"इस वक्त यहां?"
"जी।"
"आओ।"
अमित अन्दर दाखिल हो गया—घर का माहौल उसे अजीब लगा था, सारे घर में सन्नाटा—ऐसा कि उसके आने से पहले जैसे घर के सभी सदस्य सो रहे थे, जबकि उसकी कल्पनाओं के अनुसार सबको जागे होना चाहिए था, अमित को ऐसा लगा ही नहीं कि उस घर में उसकी भाभी थीं—बुरी आशंकाओं से ग्रस्त होकर उसका दिल धड़कने लगा और इस सम्बन्ध में अभी कुछ पूछने ही वाला था कि सांकल बंद करके पलटते हुए दीनदयाल ने पूछा—"रात के इस वक्त कहां से आ रहे हो, बेटे?"
"बुलंदशहर से—क्या भाभी अभी तक यहां नहीं पहुंचीं?"
बूढ़ा दीनदयाल एकदम चौंक पड़ा, उसके झुर्रियोंदार चेहरे पर सोचों के साथ ही तनाव के चिन्ह भी उभर आए। मुंह से केवल इतना ही निकला—"क्या मतलब?"
"भाभी मुझसे पहले यहां के लिए चली हुई हैं।"
"मगर यहां तो वह नहीं पहुंची।"
जो शंका थी, उसे यूं स्पष्ट सुनते ही अमित के पैरों तले से जमीन खिसक गई, हाथों के तोते उड़ गए—इस भावना से वह बुरी तरह ग्रस्त हो गया कि अगर भाभी को कुछ हो गया तो बाबूजी उस सबका जिम्मेदार मुझे ही ठहराएंगे। उधर बूढ़ी आंखों में अजीब शंका लिए दीनदयाल उसे घूर रहा था, बोला—"सोच क्या रहे हो, हमें भी तो बताओ कि आखिर बात क्या है?"
"अजीब बात है, मौसाजी! भाभी को मुझसे दो-ढाई घंटे पहले ही यहां पहुंच जाना चाहिए था, मगर अभी तक नहीं पहुंचीं, आखिर कहां रह गईं वे?"
दीनदयाल के सब्र का पैमाना छलक गया। वे हलक फाड़कर चिल्ला उठे—"क्या बकवास कर रहे हो तुम—कहां है सुचि?"
"य...यही तो मैं सोच रहा हूं, शायद सीधी अंजू के यहां चली गई हो?"
"अंजू के यहां?"
"जी।"
दीनदयाल हिस्टीरियाई अंदाज में चीख पड़ा—"कौन अंजू?"
"उनकी सहेली है, क्या आपको नहीं मालूम—आज उसकी शादी है?"
"हां, अंजू नामक उसकी एक सहेली है तो सही, मगर आज उसकी शादी—यह क्या बक रहे हो तुम—आज शाम ही तो वह यहां आई थी, पूछ रही थी कि सुचि कब आएगी—हमने कह दिया कि कल तो वह गई ही है।"
"यहां आई थी?" अमित के होश उड़ गए।
"हां।"
"और तब भी उसने अपनी शादी का जिक्र नहीं किया?"
"बिल्कुल नहीं—और ऐसा हो नहीं सकता कि उसकी शादी होने वाली हो और वह यहां जिक्र तक न करे!"
"आश्चर्य की बात है!" अमित का सिर चकरा रहा था—"आज शाम करीब साढ़े पांच बजे बुलंदशहर में हम लोगों को टेलीग्राम मिला कि आज ही उसकी शादी है और उसमें शामिल होने के लिए भाभी को बुलाया गया था।"
"झ...झूठ।" दीनदयाल चीख पड़ा—"यह एकदम बकवास है—जिसकी आज शादी है, वह लड़की शाम के वक्त आ ही कैसे सकती है और फिर यह बात तो एकदम असंभव है कि आज ही होने वाली अपनी शादी का वह जिक्र तक न करे।"
"य...यही सब तो सोचकर मैं हैरान हूं, मौसाजी!"
दीनदयाल खुद पर से नियंत्रण खो बैठा, झपटकर उसने दोनों हाथों से अमित का गिरेबान पकड़ा। उसके हाथ ही नहीं बल्कि सारा जिस्म कांप रहा था। वह पागलों की तरह चीखा—"क्या साजिश रच रहे हो तुम लोग, कहां है मेरी बेटी?"
"स...साजिश?" अमित के देवता कूच कर गए।
"हां साजिश—कोई बहुत बड़ा षड्यन्त्र रच रहे हो तुम, मेरी बेटी को खुद ही गायब करके उल्टे यहां पूछने चले आए कि वह कहां है?"
"अ...आप कैसी बात कर रहे हैं, मौसाजी?"
दीनदयाल के कुछ कहने से पहले ही वहां पार्वती और मनोज पहुंच गए। वह शायद बार-बार दीनदयाल के चीखने का परिणाम था—दीनदयाल को अमित पर इस तरह बरसते देख पार्वती जहां हजार शंकाओं से घिर गई, वहीं मनोज हक्का-बक्का रह गया, घबराए हुए दोनों ने एक साथ पूछा—"क्या हुआ, क्या हुआ?"
"व...वही हुआ पार्वती जिसका मुझे डर था।" कांपता हुआ दीनदयाल हलक फाड़ उठा—"इन दरिन्दों ने हमारी बेटी को मार डाला और अब इनकी हिम्मत तो देखो, हम ही से पूछने आया है कि सुचि कहां है?"
"हाय, मैं लुट गई, बर्बाद हो गई—मेरी बेटी को दहेज के भूखे भेड़ियों ने मार डाला—हाय सुचि, हाय मेरी बेटी—तुझसे कितना कहा था कि लौटकर उस जल्लाद-खाने में मत जा—तू नहीं मानी।" इस किस्म के जाने कितने वाक्यों के साथ पार्वती विलाप करने लगी।
साथ ही, हाथों से अपना माथा पीट रही थी वह।
अमित अवाक्!
हतप्रभ!
बुरी तरह बौखला गया वह।
अचानक ऐसी मुसीबत उसके सिर पर टूट पड़ी थी कि जिसके बारे में वह कुछ भी न समझ सका। उधर, पूरी तरह चकित और बौखलाया हुआ मनोज झपटकर दीनदयाल के पास पहुंचा, चीखा—"क्या हुआ पापा, बात क्या है—मुझे भी तो बताओ, क्या हुआ है सुचि को?"
"बताने के लिए बाकी क्या रह गया है, बेटे। ये लोग दहेज के भूखे थे—कल ही सुचि को बीस हजार देकर भेजा था, मगर उसमें इनका पेट न भरा होगा, आज इन्होंने उसकी हत्या कर दी।"
"यह झूठ है।" अमित चिल्ला उठा—"सरासर झूठ।"
"तुम अपनी जुबान बंद रखो।" मनोज ने झपटकर उसके बाल पकड़ लिए। अमित कराह उठा, बूढ़ा दीनदयाल दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपाकर फफक पड़ा।
मनोज का चेहरा कनपटियों तक भभककर सुर्ख पड़ गया था। गुस्से की ज्यादती के कारण सारा जिस्म कांप रहा था उसका और जबड़ों के मसल्स रह-रहकर फूल और पिचक रहे थे। आंखों में हिंसा। ऐसा लग रहा था कि जैसे अभी अमित को कच्चा चबा जाएगा—उसका यह रौद्र रूप देखकर अमित के छक्के छूट गए।
होश उड़ गए उसके।
बड़ी ही दयनीय अवस्था में बोला वह—"म...मेरी बात तो सुनो, तुम पढ़े-लिखे हो, मनोज—मेरी तरह युवक हो—मेरी बात मौसाजी की समझ में नहीं आ रही है—भगवान कसम, मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं, मेरी बात सुनो तो सही।"
"बक।" मनोज ने उसके बालों को बेरहमी से झटका दिया। पीड़ा के कारण बिलबिला उठा अमित—मगर फिर भी जल्दी-जल्दी बोला—"आज शाम हमें अंजू का टेलीग्राम मिला, उसमें लिखा था कि आज उसकी शादी है और उसमें शरीक होने के लिए भाभी को बुलाया था—अकेली न भेजने की वजह से बाबूजी ने उनके साथ मुझे भेजा—'बराल' पर आकर भाभी ने कहा कि वह प्रेजेंट बुलंदशहर में रह गया है, जो वे अंजू को देना चाहती थीं, अतः मैं वहीं से बुलंदशहर लौट जाऊं और उस प्रेजेंट को लेकर यहां पहुंचूं—वे उसी बस से यहां पहुंच रही हैं, जिसमें बैठी थी—वैसा ही किया गया, मैं अब बुलंदशहर से आया हूं तो भाभी यहां पहुंची नहीं हैं, बस—इतनी-सी ही तो बात है और मौसाजी हमें जाने क्या-क्या कहने लगे—यह भी कि हमने भाभी की हत्या की है।''
"क्या प्रेजेंट था वह?"
"सोने का हेयरपिन का पेयर।"
"कहां है वह?"
अमित हकलाकर बोला—"न...नहीं, भाभी को शायद गलतफहमी हो गई थी—सारे घर में ढूंढने पर भी पिन नहीं मिले, तब रेखा ने बताया कि पिन तो उसने भाभी की अटैची में रख दिए थे, क्योंकि अटैची उसी ने लगाई थी।"
मनोज की आंखों में खून उतर आया।
"ये सब झूठ है, बकवास।" दीनदयाल चीख पड़ा—"कोई साजिश रच रहे हैं ये—दहेज के इन भूखे भेड़ियों ने तेरी बहन को मार डाला है, मनोज और अब कानून से बचने की कोई चाल सोच रहे हैं।"
"इन्हें वहम हुआ है, मनोज। ऐसा भी तो हो सकता है कि बाद में उन्हें ध्यान आ गया हो कि पिन उनकी अटैची में ही हैं और बस अड्डे से वे सीधी अंजू के यहां चली गई हों।"
"हम जानते हैं कि आज अंजू की शादी नहीं है।"
"लेकिन आप हमें दहेज के लोभी भेड़िए और भाभी का हत्यारा भी कैसे कह सकते हैं, क्या आपके पास कोई सबूत है कि हमने कभी दहेज की मांग की?"
"स...सबूत?" शब्द के एक-एक अक्षर को चबाया दीनदयाल ने—"हमसे सबूत की बात करते हो जालिमों, क्या तुमने सुचि से बीस हजार रुपये नहीं मंगाए थे—क्या उन्हें तुम्हारे हलक में ठूंसने सुचि कल ही रुपये नहीं ले गई थी?"
"क्या बात कर रहे हैं आप, हमने रुपये कब मंगाए?"
"ओह, अब देवता बन रहे हो—मगर तुम्हारी यह देवताई चलेगी नहीं—मैं एक-एक को फांसी के फंदे पर पहुंचाकर रहूंगा—सबूत के लिए बालिश्त भर लम्बा पत्र है मेरे पास—उसमें सुचि ने खुद लिखा है कि दहेज के लिए तुम उसे प्रताड़ित करते हो, एक-एक के बारे में खोलकर लिखा है उसने।"
"प...पत्र?" अमित का दिमाग नाच गया।
चौंकते हुए मनोज ने पूछा—"मगर पापा, ऐसे किसी पत्र का जिक्र तो आपने मुझसे भी नहीं किया और न ही बताया कि इनके मांगने पर कल सुचि बीस हजार रुपये लेकर गई है।"
"क्या वह पत्र आपके पास है?"
"हां, अभी दिखाता हूं।" कहने के बाद दीनदयाल लगभग भागता हुआ अन्दर चला गया—अमित का दिमाग जाम होकर रह गया।
उसकी समझ में कुछ न आ रहा था।
अभी वह ये सोच ही रहा था कि जब भाभी से कभी किसी ने दहेज मांगा ही नहीं तो इन लोगों के पास उनका पत्र कैसे हो सकता है कि पहले से कही ज्यादा बेरहमी के साथ उसके बालों को झंझोड़ता हुए मनोज गुर्राया—"अब तुम्हारी कोई चाल नहीं चलेगी, शऱाफत से बता दो कि सुचि कहां है?"
बेचारा अमित।
क्या जवाब देता, दर्द से तड़पकर रह गया।
दीनदयाल, सुचि का पत्र ले आया, मनोज ने पढ़ा और अंत तक पहुंचते-पहुंचते न केवल उसका चेहरा ही पत्थर की तरह सख्त हो गया, बल्कि भभकते हुए आंसू पलकों से कूदकर गालों पर बहने लगे।
जज्बात और जोश के भंवर में फंसा पत्र को अमित की आंखों के सामने करके वह गुर्राया उठा—"पढ़ो इसे और जवाब दो कि अगर तुम धर्मात्मा हो तो सुचि ने यह पत्र क्यों लिखा?"
अजीब चक्रव्यूह में फंसे अमित ने पत्र पढ़ना शुरू किया—पढ़ते-पढ़ते न केवल हैरत से आंखें फट पड़ीं, बल्कि रोंगटे भी खड़े हो गए, जबकि एक-एक अक्षर को चबाता हुआ मनोज गुर्राया—"तुम चाहे जो षड्यन्त्र रच लो, चाहे जैसी साजिश कर लो, कोई सफल नहीं होगी—सुचि का यह अकेला पत्र तुम सबको फांसी के फंदे पर पहुंचाकर रहेगा—इसमे तुम्हारे परिवार के एक-एक शख्स के कारनामें लिखे हैं—जिस शहर में तुम्हारे इज्जतदार होने के डंके बजते हैं, उस शहर के एक-एक शख्स के सामने यह पत्र तुम्हें नंगा कर देगा।"
खौफ और हैरत के कारण अमित को जैसे लकवा मार गया था।
मनोज ने पत्र दीनदयाल को पकड़ाया, बाल छोड़कर दोनों हाथों में अमित का गिरेबान पकड़ा और गुर्राया—"अब बोल, कहा है सुचि?"
"म...मुझे, नहीं मालूम।" दयनीय अंदाज में इसके अलावा अमित और कह भी क्या सकता था?
"सीधी तरह बताता है कि नहीं?"
"म...मैं सच कह रहा हूं मनोज कि मुझे नहीं...आह।"
अमित का वाक्य पूरा होने से पहले ही बिजली की-सी फुर्ती से मनोज ने अपने सिर की टक्कर उसकी नाक पर ऐसे भयानक अंदाज में मारी कि अमित के आगे के शब्द एक लम्बी और करुणापूर्ण चीख में बदल गए।
चेहरा लहूलुहान हो गया।
मनोज गर्जा—"बोल, कहां है मेरी बहन?"
"म...मैं कसम खाकर कहता हूं, मुझे...।"
"हरामजादे।" चीखते हुए मनोज ने उसके लहूलुहान चेहरे पर घूंसा जड़ दिया—अमित पुनः चीख पड़ा, खून उसके मुंह से भी बहने लगा था, मगर मनोज ने कोई रहम नहीं किया और यदि सच लिखा जाए तो वह यह है कि किसी तरह का रहम करने की मानसिक स्थिति में भी नहीं था मनोज—जज्बातों के भंवर में फंसकर वह पागल हो गया था। बहन के प्यार ने उसे दीवाना और इस कल्पना ने उसे वहशी बना दिया था कि इन्होंने सुचि को मार दिया था। तभी तो उसके चीखने में रोने की आवाज मिश्रित थी—जिन आंखों में खून नजर आ रहा था, उनसे आंसू भी बह रहे थे और खून के आंसू रोने वाला यह नौजवान रोता हुआ ही चीख-चीखकर अपनी बहन का पता पूछ रहा था।
दूसरी तरफ था अमित।
भोला-भाला, मासूम और निर्दोष।
मनोज के पूछने पर हर बार वह यही कहता था कि मुझे नहीं मालूम और इस वाक्य के बाद हर बार उसे मनोज का कहर भरा हमला सहना पड़ा।
निर्दोष अमित की चीखें वहां गूंजती चली गई।
मनोज उसे मारता चला गया।
घूंसे, लात, टक्कर और ठोकरें।
अमित के सारे कपड़े उसके अपने खून से सन गए—मकान के बाहर जमा मौहल्ले के लोगों की भीड़ दरवाजा पीटने लगी—अपने बेटे की दीवानगी और दरिन्दगी देखकर दीनदयाल भी कांप उठा—एकाएक उसे ख्याल आया कि अगर अमित को कुछ हो गया तो बेटा भी जेल की सलाखों के पीछे पहुंच जाएगा।
वह घबरा गया।
अमित को मनोज से मुक्त कराने के लिए वह लपका, किन्तु गुस्से से पागल हुए मनोज ने इतना तेज झटका दिया कि बूढ़ा और कमजोर दीनदयाल दीवार से जा टकराया, परन्तु उस तरफ कोई ध्यान दिए बिना अमित के बाल पकड़े मनोज गुर्राया—"जब तक तू सुचि का पता नहीं बताएगा, मैं तुझे छोङूंगा नहीं—जान से मार डालूंगा कमीने, बता—कहां है मेरी बहन?"
दोनों हाथों जोड़कर लहूलुहान अमित बड़े ही दयनीय स्वर में गिड़गिड़ा उठा—"म...मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं मनोज मुझे छोड़ दो—भाभी की ही कसम खाकर कहता हूं कि मुझे कुछ पता नहीं है—मैंने भाभी को उस बस में...। आह...आह...बचाओ।"
दीनदयाल को लगा कि मनोज को न रोका गया तो कुछ देर में वह अमित को सचमुच मार डालेगा और रोकना उसके वश में न था—एकाएक उसका ध्यान बुरी तरह भड़भड़ाए जा रहे दरवाजे की तरफ गया।
झपटकर दरवाजा खोल दिया।
"क्या हुआ—क्या हुआ?" चिल्लाती हुई भीड़ का रेला अन्दर दाखिल हो गया, दीनदयाल चिल्लाया—"अमित को बचाओ, मनोज मार डालेगा—अरे कोई रोको उसे।"
"कौन अमित?" किसी ने पूछा।
"हमारी सुचि का देवर है, कोई बचाओ उसे।"
"मनोज उसे क्यों मार रहा है?"
"दहेज के भूखे भेड़िए हैं वे, उन्होंने हमारी सुचि को मार डाला और यह खबर सुनकर पागल हुआ मनोज अब उसे मारने पर तुला है।"
मोहल्ले के कुछ लोगों ने मनोज को पकड़ा।
कुछ ने अमित को दबोच लिया।
भीड़ उसे घर के अन्दर से घसीटती हुई सड़क पर ले आई—हुजूम लगा गया उसके चारों तरफ—छज्जों पर लटकी महिलाएं उस तमाशे को देख रही थीं—यह सुनते ही भीड़ में रोष की लहर दौड़ गई कि अमित और उसके घर वालों ने दहेज के लिए सुचि को मार डाला था।
एक ही पल में खबर मौहल्ले में फैल गई।
कोई चीखा—"म...मारो साले को।"
"इसे पुलिस के हवाले कर दो।" किसी समझदार व्यक्ति ने कहा।
"नहीं—मारो साले को, दहेज के लोभियों की तो खाल नोंच लेनी चाहिए—शरीफ घर की बेटियों का जीना मुहाल कर रखा है इन कुत्तों ने।"
"अरे, पहले यह तो पूछ लो कि सुचि की लाश इन्होंने कहां डाली?"
"क्यों बे?" लम्बी और घनी काली मूछों वाले पहलवान सरीखे व्यक्ति ने अमित का गिरेबान पकड़कर उसे तिनके की भांति हिलाते हुए कहा—"इस मौहल्ले की बेटी की लाश कहां डाली?"
हाथ जोड़े अमित गिड़गिड़ा उठा—"म...मेरी बात जो सुनो, यह झूठ है—भाभी को किसी ने नहीं मारा है, हम दहेज के लोभी नहीं हैं।"
"यह इस तरह नहीं बताएगा, ठुकाई करो साले की।"
पहलवान सरीखे व्यक्ति ने एक घूंसे से उसे दूसरी तरफ उछाल दिया—उधर से किसी ने ठोकर मारी—उसके बाद यह क्रम जारी हो गया—उत्तेजित भीड़ उसे मारने लगी—वह हरेक के सामने अपनी जान—बख्शी के लिए गिड़गिड़ा रहा था, मगर कौन ध्यान देता है?"
भीड़ में ऐसे लोग भी थे जो विवेकशील थे, चीख-चीखकर वे उसे न मारने की बातें कह रहे थे, किन्तु उत्तेजित भीड़ कायदे की बात सुनती कब है?
अमित ने महसूस किया कि अगर उसने कोई विरोध किया तो ये लोग उसे मार डालेंगे, पहली बार उसके दिमाग में बचने के लिए प्रयत्न करने की बात आई।
और मरता क्या नहीं करता?
अमित तो वैसे भी अपने कॉलिज का सर्वश्रेष्ठ जम्पर और धावक था—लोगों के हाथ जोड़ना और गिड़गिड़ाना छोड़कर अचानक उसने एक ऊंची जम्प लगाई, ऐसा महसूस दिया जैसे उसके पैरों में स्प्रिंग लगे हों।
लोग चमत्कृत रह गए थे।
हवा में लहराता हुआ अमित भीड़ के बीच से निकलकर पार जा गिरा और किसी के कुछ समझने से पहले ही सिर पर पैर रखकर सरपट भागा।
"अरे, पकड़ो कोई।" एक साथ कई व्यक्ति चिल्लाए—"वह भाग रहा है।"
भीड़ दौड़ी।
परन्तु अब वह किसी के हाथ आने वाला न था।
¶¶
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