जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा फिर डिनर में व्यस्त हो गया। दोनों इस वक्त बंगले में ही डिनर ले रहे थे। जगमोहन डिनर बाहर से पैक कराकर ले आया था। देवराज चौहान नहा-धोकर कपड़े बदल चुका था और खाने के दौरान ही उसने, जगमोहन को नसीमा वाली बातें बताई थीं।
कुछ देर की सोचों के बाद जगमोहन कह उठा।
"मेरे ख्याल में नसीमा की बात मान लेना कोई बुरा नहीं है।"
"इस सारे मामले में कुछ बातें ऐसी भी है कि जिन पर सोचना जरूरी है।" खाना खाते हुए देवराज चौहान ने कहा।
"कैसी बातें?"
"नसीमा खुद को युवराज पाटिल की खास बताती है और उससे इतनी बड़ी गद्दारी क्यों कर रही है।"
"इसलिए कि वो तुम्हारा एहसान उतारना चाहती है। तुमने दो बार उसकी जान बचाई है। ऐसे में उसने अगर युवराज पाटिल को धोखा देने का सोच लिया तो कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए।" जगमोहन ने कहा।
"मेरे ख्याल में नसीमा गलत कर रही है।"
"हमें क्या---।" जगमोहन मुस्कुराया--- "लेकिन वो जो कर रही है, वो हमारे लिए तो अच्छा ही है। युवराज पाटिल के पास कितनी दौलत हो सकती हैं, मैं ठीक तरह से इसका अनुमान भी नहीं लगा पा रहा हूं।"
"नसीमा का एकदम मुझ पर इतना मेहरबान होना...।"
"तुमने उसकी जान बचाई तो क्या वो तुम पर मेहरबान नहीं होगी।" जगमोहन ने जल्दी से कहा।
जगमोहन को देखते हुए देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभर आई।
"मेरे ख्याल में तुम इस वक्त सिर्फ उस दौलत के बारे में सोच रहे हो, जो युवराज पाटिल के पास है और जिसे वो आने वाले दिनों में अपने गुप्त ठिकाने पर ले जाने वाला है।" देवराज चौहान ने कहा।
"ठीक ही तो सोच रहा हूं।" जगमोहन कह उठा--- "नसीमा का कहना है कि चुप्पी के साथ उस अथाह दौलत को ले जाया जाएगा। कोई सिक्योरिटी नहीं होगी। हम बिना किसी परेशानी के कोई ठीक योजना बनाकर, आसानी से उस सारी दौलत पर कब्जा कर सकते हैं।"
"लेकिन मैं नसीमा की इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि उस बे-हिसाब दौलत पर कोई सिक्योरिटी नहीं होगी।"
"तुम्हारा क्या ख्याल है कि सिक्योरिटी होगी?"
"पक्का होगी। युवराज पाटिल पागल नहीं कि इतनी बड़ी दौलत को यूँ ही सड़क पर ले आए।"
"अगर मैं तुम्हारी बात को सच मानूं तो फिर नसीमा को झूठा कहना पड़ेगा कि---।"
"नहीं। नसीमा झूठी नहीं है। वैसे तो वो अभी बताएगी कि युवराज पाटिल क्या-क्या इंतजाम करता है। तब भी वो ये ही कहती है कि सिक्योरिटी नहीं है तो तब दो में से एक बात होगी कि या तो वो मुझे गलत बता रही है या फिर वो खुद नहीं जानती कि युवराज पाटिल ने अपनी दौलत को किस सिक्योरिटी के साथ खुली सड़क पर भेज रहा है।"
जगमोहन ने देवराज चौहान को देखते हुए हौले से सिर हिलाया।
"इस बारे में मैं पक्के तौर पर कोई राय नहीं दे सकता।" जगमोहन बोला--- "लेकिन ये बात सोचने पर मुझे मजबूर होना पड़ रहा है कि वास्तव में युवराज पाटिल इतनी बड़ी दौलत बिना सिक्योरिटी के सड़क पर नहीं लाएगा।"
"देखते हैं अभी कि नसीमा क्या बताती है।" देवराज चौहान ने कहा--- "तुम कल सुबह नसीमा के बारे में मालूम करना कि युवराज पाटिल के साथ उसका कैसा संबंध है। जब तक हम नसीमा के बारे में तसल्ली न कर ले, तब तक उसकी किसी भी बात को गंभीरता से लेना ठीक नहीं।"
"मैं मालूम करूंगा, नसीमा के बारे में।" जगमोहन ने सिर हिलाया।
■■■
युवराज पाटिल।
पचपन बरस का सामान्य कद-काठी का आकर्षक व्यक्ति था। स्मगलिंग से अपराधों की दुनिया में पांव रखा था कभी। पढ़ा-लिखा भी था। अपराध के शुरुआती दिनों में इतना खूंखार-खतरनाक नहीं था, जितना कि अब बन चुका था। अपराध की हर राह को पार करते हुए आज मुंबई अंडरवर्ल्ड की बड़ी कुर्सी पर मौजूद था। उसके नाम की ही दहशत इतनी थी कि सामने वाला हथियार नीचे कर लेता था, नाम सुनकर। जिससे भी एक बार दुश्मनी हो जाए फिर उसे वो जिंदा नहीं छोड़ता था। उसका हर आदमी वफादार और कामों को पूरा करने वाला था। वो भी अपने आदमियों की जरूरत का पूरा ध्यान रखता था।
मुंबई में आज भी स्मगलिंग, मटका, वसूली, अपहरण जैसे और भी कई बड़े धंधों पर अपना कब्जा जमाए हुए था। उसके सामने टिकने की बहुतों ने कोशिश की, परंतु युवराज पाटिल ने किसी के पांव नहीं जमने दिए और जो आज टिकने की चेष्टा में है, वो सफल नहीं हो पा रहे।
युवराज पाटिल का हर काम सलीके से, सिलसिलेवार हो रहा था। कहीं गड़बड़ होती तो उसके आदमी संभाल लेते। बड़ी गड़बड़ होती तो मामले के मुताबिक अपने आदमी भेज देता। उसे पसंद नहीं था कि कोई उसके मामले में दखल देकर बैठ जाए। बचा रह जाए। वो जानता था कि एक बार कमजोर पड़ा तो पड़ता ही चला जाएगा। दूसरे उस पर हावी होते चले जाएंगे।
पुलिस मजबूरी या वैसे ही, नोटों के दम पर युवराज पाटिल के हक में ही काम करती थी। पुलिस वाले भी जानते थे कि युवराज पाटिल के खिलाफ जाना ठीक नहीं है, परंतु उन्हें भी खाना-पूरी के लिए ये दिखाना होता था कि गैरकानूनी काम करने वालों का माल पकड़ा है तो, ऐसे माल का इंतजाम युवराज पाटिल ही कर देता था, जो पुलिस के हाथ लगे और खाना-पूरी हो जाए।
सब काम सिलसिलेवार चल रहे थे।
परंतु कुछ समय से उसे लगने लगा था कि उसके दुश्मन बढ़ते जा रहे हैं, उसे खत्म करने पर आमादा हो रहे हैं। पुलिस वालों की नजरें भी उसके लिए अब अच्छी नहीं रही थी। क्योंकि उसके आदमियों से दूसरे गैंग वालों की झड़पें अक्सर होने लगी थी। लाशों को संभालना पुलिस के लिए सिरदर्द बन गई थी। पुलिस के खास लोगों ने उसे इशारा भी दे दिया था कि ऊपर वालों को जवाब देना कठिन हो रहा है, लाशों के बारे में। लेकिन ये सब कुछ युवराज पाटिल के हाथ में भी नहीं था। दूसरे गैंग अगर उसके आदमियों पर जानलेवा हमला करें तो वो कैसे खामोश बैठ सकते थे। ऐसे में लाशें गिरना जरूरी था।
पुलिस वाले भी महसूस कर चुके थे कि जब तक युवराज पाटिल है, तब तक लाशों का मिलना या अंडरवर्ल्ड के झगड़े रुकने वाले नहीं। युवराज पाटिल खत्म हो जाए तो दो-चार साल के लिए अंडरवर्ल्ड में शांति हो जाएगी। परंतु युवराज पाटिल पर हाथ डाले कौन?
युवराज पाटिल अपने गिर्द बढ़ती मुसीबतों को महसूस कर चुका था। वो जानता था कि अंडरवर्ल्ड के लोगों का अंत कभी-कभी बहुत बुरा होता है। ऐसे में वो मन ही मन फैसला कर चुका था कि धीरे-धीरे अपने धंधों से पीछे हटता चला जाएगा और पीछे हटने को लेकर उसका ये पहला कदम था कि अपनी सारी दौलत चुपचाप इस ठिकाने से बाहर ले जाना, नसीमा-ठाकुर और वजीर शाह को इस मामले में इस वक्त राजदार बनाना जरूरी था। उनके बिना ये काम कर पाना संभव नहीं था। वैसे भी जिंदगी भर के खून-खराबे से वो थक चुका था। लेकिन इस धंधे से वो इज्जत से पीछे हटना चाहता था। उसे मालूम था कि हाथ की ताकत कम होते ही पुलिस वालों ने उसकी गर्दन थाम लेना है या फिर अंडरवर्ल्ड के किसी दादे ने उसे शूट कर देना है।
इसलिए वो तय कर चुका था कि किसी मुनासिब मौके पर, खामोशी के साथ, अपनी सारी दौलत को साथ लिए खिसक जाएगा कि कोई भी उसकी हवा ना पा सके।
अपने सुरक्षित ठिकाने पर युवराज पाटिल कुर्सी पर बैठा, सोचों में डूबा, किसी को आगे-पीछे झुला रहा था कि टेबल पर मौजूद इंटरकॉम का बजर बजा।
"हां।" युवराज पाटिल ने रिसीवर उठाया--- "आ जाओ।" कहकर रिसीवर रख दिया।
दो पलों में ही एक तरफ का दरवाजा खुला और पचास वर्षीय ठाकुर ने भीतर प्रवेश किया। चेहरे से ही वो कठोर किस्म का इंसान लग रहा था। सिर के बाल छोटे-छोटे थे। नाक सामान्य से कुछ छोटी। होंठ पतले, भिंचे से। हाथों को अक्सर मुट्ठियों के रूप में बंद रखता था।
"आओ ठाकुर।" उसके भीतर आते ही युवराज पाटिल शांत स्वर में कह उठा--- "ये मैं क्या सुन रहा हूं। नसीमा ने हीरों के साथ रुपया भी भिजवा दिया। वो खुद क्यों नहीं आई? क्या हुआ उसे?"
"मैं खुद नहीं जानता पाटिल साहब! फोन पर नसीमा ने इतना ही कहा कि आकर वो बताएगी।" ठाकुर पास आकर ठिठका--- "लेकिन जो भी हुआ, कुछ अजीब ही हुआ। सत्तर करोड़ के हीरे देकर, नसीमा तीस करोड़ नकद लेने गई थी, पूना की पार्टी से। समझ में नहीं आया कि क्या हुआ होगा?"
"बैठ जाओ। आराम से बात करो।"
ठाकुर बैठ गया।
"जो आदमी हीरे और तीस करोड़ नकद लेकर आये हैं, पूछने पर उन्होंने बताया कि पेट्रोल पम्प के केबिन में नसीमा किसी व्यक्ति के साथ मौजूद थी। कुछ उलझन में लग रही थी।" ठाकुर बोला।
"तुम्हारे ख्याल से क्या हुआ होगा?" युवराज पाटिल ने पूछा।
"कह नहीं सकता। कुछ समझ नहीं आ रहा।"
"मैंने पूना फोन किया था। पार्टी कहती है कि लेनदेन ठीक हो गया। उसके आदमी आ रहे होंगे।"
ठाकुर की नजरें, युवराज पाटिल के चेहरे पर टिक गईं।
"पूना वाली पार्टी ने ऐसा कहा तो हैरानी है। लेन-देन कैसे ठीक हो सकता है।" ठाकुर के होंठों से निकला--- "जो हीरे उन लोगों को देने थे, वो हमारे पास पहुंच चुके हैं और तीस करोड़ जो हमें मिले थे वो भी तो हम तक पहुंच चुके हैं। पाटिल साहब, इस लेन-देन में गड़बड़ हो चुकी है।"
सिर हिलाया युवराज पाटिल ने।
"जो भी हुआ हो। नसीमा के आने पर मालूम हो जाएगा। इस बात का मुझे पूरा विश्वास है कि नसीमा ने कोई गड़बड़ नहीं की होगी, क्योंकि मैंने उसे ऐसा कोई इशारा नहीं दिया था। जो भी गड़बड़ हुई है, पूना वाली पार्टी की तरफ से हुई है। तुम धीरु भाई से बात करो। वो इन हीरों को खरीदने में दिलचस्पी दिखा रहा था। उससे सौदा कर लो। जो रकम तुम ठीक समझो वही ले लेना।"
"ठीक है। मैं---।"
तभी टेबल पर पड़े फोन की घंटी बजी।
ठाकुर ने तुरंत रिसीवर उठाया फिर युवराज पाटिल की तरफ बढ़ाकर बोला।
"वजीर, आपसे बात करना चाहता है।"
युवराज पाटिल ने रिसीवर लेकर बात की।
"कहो।"
"पाटिल साहब! वो कोठारी नहीं मानता। बोलता है पूरे बीस करोड़ लेकर जगह खाली करेगा। मैंने बहुत कहा कि पांच करोड़ जो दिए जा रहे हैं बहुत हैं। पाटिल साहब को तो वो भी देना पसंद नहीं।"
"मार दे साले को।" युवराज पाटिल की आवाज में मौत के सर्द भाव आ गए--- "आदमियों से बोल, चाकुओं से उसके शरीर का जर्रा-जर्रा लटका दें और लाश को, उसके घर वालों के सामने फेंक कर सौदा करना। इस बार पांच करोड़ नहीं। एक करोड़ कहना। वो फौरन मान जाएंगे। इस जगह के कागजात कल ही अपने किसी आदमी के नाम करा लेना। करोड़ उन्हें दे देना। उस जगह पर जब फ्लैट बनाकर बेचे जाएंगे तो सौ करोड़ से ज्यादा का फायदा होगा हमें। ये जगह हमें हर हाल में चाहिए।" कहने के साथ ही रिसीवर रख दिया, युवराज पाटिल ने। फिर ठाकुर को इशारा किया बैठने का, जो कि रिसीवर उठाने के लिए खड़ा हो गया था।
ठाकुर बैठा।
"नसीमा आए तो उसे मेरे पास भेजना।" युवराज पाटिल का स्वर अब सामान्य था।
"जी।"
"तभी मालूम हो पाएगा कि क्या हुआ है।" ये ठाकुर के लिए, जाने का इशारा था। युवराज पाटिल अपने कुछ मामलों पर सोच-विचार करना चाहता था।
ठाकुर फौरन उठा। तभी फोन की घंटी बजी। उसने रिसीवर उठाया।
"पटवा है।" ठाकुर माउथपीस पर हाथ रख कर बोला--- "बात करेंगे आप?"
"ये कोकीन खरीदना चाहता है। दो दिन पहले भी इसका फोन आया था। अपने फोन पर तुम खुद इससे बात कर लो। लेकिन दाम नकद लेने हैं। मालूम पड़ा है, देवाय से इसने पन्द्रह करोड़ का माल ले रखा है, परंतु पेमेंट अभी तक नहीं दी। मैं नहीं चाहता कि बाद में पटवा से रकम वसूलने के लिए, हमें अपने आदमी भेजने पड़े।"
"जी।" ठाकुर ने कहा और माउथपीस से हाथ हटाकर बोला--- "तुम मेरे फोन पर पांच मिनट बाद बात करना।" कहकर उसने रिसीवर रखा और वहां से बाहर निकल गया।
■■■
युवराज पाटिल ने नसीमा पर अपनी नजरें टिका दीं। ठाकुर और वजीर शाह भी वहां बैठे थे। तीनों अभी-अभी वहां पहुंचे थे। तभी नसीमा ने खामोशी तोड़ी।
"पाटिल साहब!" आवाज शांत और गंभीर थी--- "ओमी को किसी तरह पेट्रोल पम्प पर होने वाले लेनदेन के बारे में मालूम हो गया था। वो अपने तीन साथियों पर वहां पहुंचा और मुझे बंदी बनाकर---।" उसके बाद नसीमा ने ओमी के मरने तक की सारी बातों की जानकारी युवराज पाटिल को दी।
"अच्छा हुआ साला मर गया। मरना ही था इसे।" युवराज पाटिल की आवाज में सख्ती आ गई--- "हमारे कई मामलों में टांग फंसाने लगा था। वो कौन था, जिसने तुम्हारी सहायता की।"
"डकैती मास्टर देवराज चौहान।"
"क्या?" ठाकुर के होंठों से निकला।
"देवराज चौहान?" वजीर शाह ने तुरंत गर्दन घुमा कर नसीमा के गंभीर चेहरे पर निगाह मारी।
युवराज पाटिल दो पलों तक नसीमा को देखता रहा। फिर बोला।
"देवराज चौहान ही था वो?"
"हां।" मैंने उसकी तस्वीर अखबारों में कई बार देखी है।" नसीमा ने कहा।
"हूं।" युवराज पाटिल ने सिर हिलाया--- "पूना वाली पार्टी के साथ क्या हुआ?"
"पार्टी गद्दारी पर उतर आई थी।" नसीमा की आवाज कठोर हो गई--- "वो सत्तर करोड़ के हीरे भी लेना चाहती थी और तीस करोड़ भी नहीं देना चाहती थी। मेरा अपहरण कर लिया था उन लोगों ने वैन में मेरे साथ बलात्कार करके, मुझे खत्म करने का इरादा था उनका।"
युवराज पाटिल के चेहरे पर सख्ती भरा खिंचाव आ गया।
"तो तुम कैसे बच गई?"
"इस बार भी देवराज चौहान ने ही बचाया मुझे। इत्तेफाक से ही दोनों बार देवराज चौहान बीच में आ गया।"
"खुलकर बताओ।"
नसीमा ने सब कुछ बताया। जो हुआ था।
"बहुत गलत बात है। युवराज पाटिल गंभीर स्वर में तीनों को देखकर कह उठा--- "हम लोगों के धंधे में जुबान ही बहुत होती है। बेईमानी के कामों में, ईमानदारी का इस्तेमाल होता है, धोखेबाजी तो ले डूबती है।"
"पाटिल साहब!" ठाकुर ने मौत भरे स्वर में कहा--- "पूना वाली पार्टी के चीफ को खत्म करना होगा।"
युवराज पाटिल ने वजीर शाह को देखा।
"वजीर! पूना की पार्टी में हमारे कितने आदमी हैं?"
"छः हैं पाटिल साहब।"
"उन छः में से चीफ तक कितनों की पहुंच है?"
"दो की। उनमें से एक तो उस चीफ के काफी करीब हो चुका है।" वजीर सिंह ने कहा।
"उसे कहो चीफ को खत्म करे और भाग निकले। ये काम चौबीस घंटों के बीच हो जाना चाहिए।"
"जी।" वजीर शाह ने कहा और कुर्सी छोड़कर बाहर निकल गया।
दो पलों की चुप्पी के बाद ठाकुर बोला।
"पूना वालों को गड़बड़ करने से पहले आपके बारे में सोचना चाहिए था कि---।"
"बात को खत्म करो। युवराज पाटिल ने कहा--- "गड़बड़ का नतीजा अपनी जान देकर भुगतेगा। उन हीरों के बारे में धीरू भाई क्या बोला, बात हुई उससे?"
"हां। कहता है चोरी के हीरे हैं। ठिकाने लगाने में दिक्कत आएगी। देर तक पैसा फंसेगा। पच्चीस करोड़ देने की बात कर रहा था। लेकिन तैंतीस करोड़ पर बात बनी है। पेमेंट करने में चार दिन का वक्त मांगा है मैंने हां कर दी।"
"ठीक है और पटवा। वो क्या बोला?"
"कोकीन ही चाहता था। बोला, दस दिन बाद पेमेंट कर देगा। मैंने नकद की बात की। बाद में वो मान गया। कल पांच करोड़ का माल लेगा। मैंने अपने आदमियों को खबर भेज दी है कि वे पांच करोड़ का माल पैक कर दें।"
"इस लेन-देन में तुम साथ रहना। पटवा पर भरोसा करना ठीक नहीं।"
"जी।" ठाकुर ने सिर हिलाकर कहा--- "बैंकॉक वाली पार्टी का फोन आने वाला होगा। वक्त हो रहा है।"
"जाओ। मेरे पास तुम्हारा कोई काम नहीं।"
ठाकुर बाहर निकल गया।
युवराज पाटिल ने सोच भरे ढंग से नसीमा को देखा।
"तो देवराज चौहान ने आज दो बार तुम्हारी जान बचाई।" युवराज पाटील बोला।
"हां। देवराज चौहान में बहुत खूबियां हैं। जो कि सब में नहीं होती।" नसीमा मुस्कुरा उठी।
"तुम कहती हो तो उसमें अवश्य खास खूबियां होंगी। वैसे भी देवराज चौहान के बारे में मैंने बहुत सुन रखा है, लेकिन कभी मुलाकात नहीं हुई।" युवराज पाटील बोला--- "उसका शुक्रिया अदा कैसे किया?"
"मैं कई तरहों से उसका शुक्रिया अदा करना चाहती थी, लेकिन मेरी कोई बात उसे नहीं जंची।"
"कैश दे देना था उसे।"
"नहीं लिया।"
"तुम्हारे में भी उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई?"
"नहीं।"
"हैरानी की बात है।" युवराज पाटिल के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"आप ठीक कह रहे हैं पाटिल साहब! उसकी कई बातों पर मुझे हैरानी हुई।" नसीमा ने सिर हिलाकर कहा--- "मेरे पास सत्तर करोड़ के हीरे और तीस करोड़ नकद थे, वो जानता था। लेकिन उसने इतनी बड़ी रकम में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वो आम लोगों जैसा नहीं है।"
"तुम्हारी बातों से लग रहा है कि तुम उससे प्रभावित हुई हो।" युवराज पाटिल ने उसे देखा।
"हां। उसमें कुछ है। खास कुछ। वो जुदा है हम लोगों से। और इस बात का अंदाजा आसानी से नहीं लगाया जा सकता।"
युवराज पाटिल शांत बैठा नसीमा को देखता रहा।
"मेरे ख्याल में तुम्हें उसका धन्यवाद अदा करना चाहिए था।" युवराज पाटिल ने कहा।
"धन्यवाद अदा करने की शुरुआत मैंने कर दी है।" नसीमा मुस्कुरा कर कह उठी।
"वो कैसे?"
"देवराज चौहान को डकैतियों में दिलचस्पी है। उसे डकैती का रास्ता बताकर, उसका धन्यवाद कर रही हूं।"
"गुड। लेकिन उससे डकैती कहां करवा रही हो?" युवराज पाटिल मुस्कुराया।
"मैंने उसे बताया कि अगले कुछ दिनों में आप अपनी सारी दौलत किसी गुप्त जगह पर ले जा रहे हैं। और जब ऐसा होगा, मैं उसे बता दूंगी। देवराज चौहान आपकी दौलत लूटेगा पाटिल साहब।"
"क्या?" युवराज पाटिल हड़बड़ाकर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। फटी-फटी आंखों से नसीमा को देखने लगा। गहरी खामोशी छा गई वहां।
खामोशी में तीखापन आने लगा तो नसीमा मुस्कुरा कर कह उठी।
"क्या बात है पाटिल साहब। आप गंभीर हो गए?"
युवराज पाटिल के होंठ भिंचे हुए थे। कठोर निगाहें नसीमा पर थी। वो अभी भी खड़ा था।
"तुमने जो कहा, वो सच है नसीमा।" युवराज पाटिल शब्दों को चबाकर कह उठा।
"हां।"
"देवराज चौहान से तुमने कहा कि मैं अपनी सारी दौलत कहीं ले जा रहा हूं, वो लूट ले।"
"जी। ये मैंने देवराज चौहान से कहा।" नसीमा के चेहरे पर पुनः मुस्कुराहट उभरी।
"जानती हो तुम क्या कह रही हो?" युवराज पाटिल का स्वर चुभता हुआ था।
"आप जानते हैं पटेल साहब कि मैं कभी भी मजाक नहीं करती।" नसीमा गंभीर होते हुए कह उठी--- "और आप ये भी जानते हैं कि मैं कभी भी आपका नुकसान नहीं होने दूंगी।"
युवराज पाटिल के चेहरे के भावों में कोई फर्क नहीं आया। वो कुर्सी पर बैठ गया।
"सारी बात साफ-साफ बताओ कि तुमने क्या सोचकर ऐसा कहा?"
"पाटिल साहब! देवराज चौहान ने मेरी जान अवश्य बचाई। लेकिन साथ में उसने ओमी को भी खत्म किया जो कि हम लोगों का काम था। पूना वाली पार्टी के आदमियों को खत्म किया, जो काम हमारा था। इसके अलावा हमें एक अरब रुपए की चपत पड़ रही थी, परंतु देवराज चौहान के कारण हमारा एक अरब रुपया बच गया। ये सब बातें मिलाकर सोचें कि देवराज चौहान कितने इनाम का हकदार बनता है तो आप क्या कहेंगे।"
युवराज पाटिल ने पल भर के लिए टेबल को देखा फिर कह उठा।
"इन सब बातों के साथ में इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वो देवराज चौहान जैसा मजबूत थम्ब है जो ठीक वक्त पर हमारे काम आया तो वो पूरे एक अरब के इनाम का ही हकदार बनता है।" युवराज पाटिल गंभीर था।
"बिल्कुल ठीक सोचा आपने। देवराज चौहान मोटे इनाम का हकदार है। एक अरब नहीं तो कम से कम वो पचास करोड़ का हकदार तो है ही।" नसीमा मुस्कुरा कर कह उठी--- "लेकिन वो इस तरह कोई भी रकम लेने को तैयार नहीं। उसका कहना है कि ये सब काम उसने यूं ही इत्तेफाक से किया है। लालच में नहीं। जबकि इन सब कामों के लिए मैं उसे कुछ देना चाहती थी। इसलिए मैंने उससे ये बात कही कि आप अपनी दौलत कहीं ले जाने वाले हैं। सब काम कैसे होगा? मैं उसको बता दूंगी। आपने दौलत किस पर ले जानी है?"
"मीडियम साइज की वैन पर।" युवराज पाटिल की निगाह उस पर थी।
"एक वैन पर?"
"हां।"
"तो ठीक है उस दिन दो वैन वहां से निकलेंगी। एक वैन में आपका पैसा होगा। दूसरी वैन में पचास करोड़ रुपये नकद होंगे। मैं देवराज चौहान से कहूंगी कि फलां वैन पर उसने हाथ डालना है। जिसमें पचास करोड़ रखे होंगे। इस तरह देवराज चौहान को हमारी तरफ से पचास करोड़ इनाम के तौर पर मिल जाएंगे। बाद में देवराज चौहान ने मुझसे पूछा कि वैन में सिर्फ पचास करोड़ ही थे तो मैं कह सकती हूं कि इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं। जो मुझे मालूम हुआ। वो मैंने बता दिया था।"
युवराज पाटिल ने अपने सख्त चेहरे पर हाथ फेरा।
"अगर मेरी किसी बात पर एतराज हो तो बता दीजिए। अभी तो सब-कुछ मेरे ही हाथ में है।" नसीमा बोली।
"बहुत बड़ा एतराज है। तुम बेशक जो भी करतीं। लेकिन इस मामले में मेरी दौलत को कहीं ले जाने वाली बात दूसरे के कान में नहीं जानी चाहिए थी।" शब्दों को चबाकर कह उठा पाटिल--- "बच्चों की तरह खतरनाक खेल खेल डाला है तुमने। देवराज चौहान जैसे डकैती मास्टर के कानों में मेरी अथाह दौलत के खुले में आने की बात, डाल दी। ये बेवकूफी नहीं तो और क्या है।"
"पाटिल साहब! इस मामले में देवराज चौहान मुझ पर निर्भर है।" नसीमा शांत स्वर में कह उठी--- "मैं उसे कुछ देना चाहती थी तो अचानक ही ये रास्ता सोच लिया। मैं अभी भी उसे इंकार कर सकती हूं। मामूली-सी बात है यहां से तो दिन में दस बार वैनें बाहर जाती हैं। इसी तरह जब भी आप चाहेंगे, आपकी दौलत वाली वैन भी बाहर चली जाएगी। देवराज चौहान को कुछ भी मालूम नहीं होगा।"
युवराज पाटिल, नसीमा को देखता रहा।
"कल लंच के बाद देवराज चौहान मुझे फोन करेगा सुरेंद्र पाल के नाम से। मैं उसे इंकार...।"
"एक काम तो जल्दी में कर दिया है। अब दूसरे काम में जल्दबाजी मत करो।"
नसीमा उसे देखने लगी।
"एक बात हमेशा याद रखो कि दांव पर वो चीज लगाते हैं कि अगर हाथ खाली भी हो जाएं तो ज्यादा तकलीफ ना हो। तुमने तो मेरी पूरी दौलत ही दांव पर लगा दी।" युवराज पाटिल सख्त स्वर में बोला।
नसीमा ने कुछ नहीं कहा।
"देवराज चौहान ने अपना ठिकाना बताया?"
"नहीं।"
"फोन नम्बर?"
"वो भी नहीं।"
युवराज पाटिल खड़ा हुआ और कमर पर हाथ बांधे कमरे में टहलने लगा।
नसीमा कुर्सी पर बैठी रही।
कुछ देर बाद युवराज पाटिल ठिठका और नसीमा को देखा।
"इस बारे में मैं कल बात करूंगा कि क्या करना है और क्या नहीं?"
"जी।" नसीमा फौरन उठ खड़ी हुई।
"कोठारी को खत्म कर दिया गया है। युवराज पाटिल कह उठा--- "वो मान नहीं रहा था। कोठारी को मरा देखकर उसके घर वाले एक करोड़ में ही वो जमीन हमारे नाम करने को तैयार हो गए हैं।"
"ये तो बहुत अच्छा हुआ।"
"वो जमीन कल अशोक पुरी के नाम करवा लेना। करोड़ रूपया उन्हें दे दिया गया है।"
"ठीक है।"
"बाकी बात ठाकुर से करो। तुम्हारे लिए उसने दो काम रखे हुए हैं।"
नसीमा जाने को मुड़ी कि युवराज पाटिल कह उठा।
"देवराज चौहान की बात ठाकुर या वजीर शाह से नहीं करना।"
नसीमा के चेहरे पर सवालिया भाव उभरे तो युवराज पाटिल मुस्कुराकर कह उठा।
"कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जिन्हें बिना वजह किसी को नहीं बताना चाहिए। वरना उन बातों का फायदा कभी भी दूसरा उठा सकता है। ये बात ठाकुर और वजीर शाह को बताने की जरूरत भी क्या है।"
"आप ठीक कहते हैं, पाटिल साहब।" कहने के साथ ही नसीमा बाहर निकल गई।
■■■
सुबह का गया जगमोहन शाम चार बजे वापस लौटा।
देवराज चौहान बंगले पर ही था।
"नसीमा के बारे में मालूम किया है।" जगमोहन बोला--- "वो वास्तव में युवराज पाटिल जैसे दादे की खास है। और खुद भी खतरनाक मानी जाती है। दस सालों से युवराज पाटिल के लिए काम कर रही है। पहले छोटे काम करती थी। लेकिन कई बार तगड़े कामों को सफलता से अंजाम देकर, युवराज पाटिल की नजरों में चढ़ गई। जब युवराज पाटिल को लगा कि नसीमा से बड़े काम भी लिए जा सकते हैं, तो अपने ढंग से उसे चैक किया कि उस पर बड़ा भरोसा किया जा सकता है कि नहीं। इस तरह नसीमा, युवराज पाटिल की खास बन गई।"
देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा ली।
"इसका मतलब नसीमा की बात का भरोसा किया जा सकता है कि वो जानती है कब युवराज पाटिल की बेहिसाब दौलत, सड़क के रास्ते एक जगह से दूसरी जगह जा रही है।"
"वो गलत भी कहे तो हमारा क्या जाता है।" जगमोहन कह उठा--- "सच कह रही है तो युवराज पाटिल का माल, हमारे कब्जे में। कोई खास मेहनत भी नहीं करनी।"
"दौलत को छोड़कर, मामले के आसपास के हालातों पर भी गौर कर लिया करो।"
"उसके लिए तुम जो हो।" जगमोहन मुस्कुराया।
देवराज चौहान गहरी सांस लेकर उठा और फोन के पास पहुंचकर नसीमा का दिया नम्बर मिलाया।
नसीमा ने रिसीवर उठाया था दूसरी तरफ से।
"हैलो!"
"मैं सुरेंद्र पाल।"
"ओह! कैसे हो? सोच रही थी शायद फोन करना भूल गए।" नसीमा का मुस्कुराता स्वर कानों में पड़ा।
"खास खबर?" देवराज चौहान की आवाज शांत थी।
"अभी तो नहीं। दो-चार दिन से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा। कल फोन करना।"
"ठीक है।"
"भूलना नहीं। मैं फोन का इंतजार करूंगी।" नसीमा की आवाज कानों में पड़ी।
देवराज चौहान ने रिसीवर रख दिया।
"तुम।" देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा--- "सोहनलाल को देखो, वो कहां है। इस काम में उसकी जरूरत पड़ सकती है। तालों को खोलने की जरूरत पड़ सकती है।"
"मैं आज ही मिलता हूं सोहनलाल से।"
■■■
नसीमा ने रिसीवर रखा। चेहरे पर सोचें नजर आ रही थीं। टेबल पर कागज बिखरे हुए थे। दो फाइलें खुली हुई थीं। कुछ देर बाद उसने कागजों को समेटा और इंटरकॉम पर बात की।
"ठाकुर! मैं थक गई हूं। घर जा रही हूं। कोई खास काम हो तो मुझे फोन कर देना।" नसीमा बोली।
"ऐसा कोई खास काम नहीं। कुछ हुआ भी तो मैं देख लूंगा।" ठाकुर की आवाज आई।
नसीमा ने इंटरकॉम बंद किया और उठ खड़ी हुई।
आधे घंटे बाद नसीमा ने खूबसूरत सजे-सजाए फ्लैट में प्रवेश किया। चेहरे पर थकान और सोच के भाव नजर आ रहे थे। ये उसका अपना फ्लैट था। इस दुनिया में उसका बूढ़ा बाप और छोटा भाई था। जिनका जिंदगी भर का खाने का इंतजाम करके अपने से दूर भेज दिया था कि किसी मौके पर कोई उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सके। वो जानती थी कि उसका काम ऐसा है कि पचासों दुश्मनों में से कभी भी कोई उस पर भारी हमला कर सकता है। उसके घर-परिवार को भी खत्म कर सकता है।
और तो और, युवराज पाटिल भी नहीं जानता था उसके बाप-भाई कहां हैं। ना तो उसने कभी नसीमा से इस बारे में पूछा था और ना ही नसीमा अपने बाप-भाई के बारे में किसी को बताना चाहती थी।
अब नसीमा अपनी जिंदगी जी रही थी। जीना है तो अपने लिए मरना है तो अपने लिए।
फ्लैट में प्रवेश करते ही उसने डोर लॉक किया और फोन की तरफ बढ़ गई। रिसीवर उठाकर उसने नंबर पुश किए फिर कुछ ही पलों में बात हुई।
"नसीर!" दूसरी तरफ से आवाज सुनते ही नसीमा कह उठी।
"तुम? वक्त मिल गया। याद आ गई मेरी।" नसीर की शिकायत भरी आवाज कानों में पड़ी।
"हां। वक्त भी मिल गया। याद भी आ गई।" नसीमा के होंठों पर मुस्कान उभरी--- "अभी फ्लैट पर आई हूं।"
"बड़ी मेहरबानी की, मुझे फोन करके।"
"अब शिकायत बंद भी करो।"
"तो क्या करूं?"
"आ जाओ। एक-दो दिन कहीं नहीं जाना है मुझे।"
"लेकिन मेरे पास काम है।" नसीमा की कानों में पड़ने वाली आवाज में गंभीरता आ गई--- "मैं नहीं आ सकता। जब भी फुर्सत मिलेगी पहुंच जाऊंगा।"
"प्लीज नसीर, मैं---।"
"तुम युवराज पाटिल के लिए काम करती हो, लेकिन मैं अपने लिए काम करता हूं। मेरा काम, मेरा है। अपने काम से छुट्टी लेनी आसान नहीं होती। वो भी अचानक। तुम---।"
"नसीर!" नसीमा ने गंभीरता से कहा--- "मैं तुमसे कुछ बात करना चाहती हूं।"
"जब आऊंगा। कर लेना।"
"ये देर करने वाली बात नहीं।"
कुछ पलों के लिए लाइन पर खामोशी छा गई।
"खास बात है?"
"हां। तभी तो---।"
"फोन पर थोड़ा सा बताओ, मसला क्या---।"
"ये फोन वाली बात नहीं है।"
"मुझे अपना काम किसी और के हवाले करके आना पड़ेगा।"
"आ जाओ। जरूरी न होता तो मैं तुम्हें इस तरह आने के लिए न कहती।"
"आता हूं।" उसके साथ ही नसीर ने रिसीवर रख दिया था।
नसीमा रिसीवर थामें सोच भरे अंदाज में खड़ी रही फ़िर ठाकुर को फोन किया।
"तुम।" नसीमा की आवाज सुनते ही ठाकुर का स्वर कानों में पड़ा--- "कोई खास काम है क्या?"
"सुरेंद्र पाल नाम के व्यक्ति का फोन आएगा मेरे लिए। जब भी उसका फोन आए, उसे मेरे फ्लैट का फोन नंबर दे देना। मैं फ्लैट पर हूं।" नसीमा ने कहा।
"ठीक है। कोई खास है वो?" ठाकुर की आवाज आई।
"मेरा खास है।"
"तुम्हारा खास तो कोई नसीर है। यही सुना है।"
"ठाकुर तुम शायद इस वक्त फालतू बात कर रहे हो।" नसीमा कह उठी।
"सॉरी। मैंने यूं ही पूछ लिया था। सुरेंद्र पाल का फोन आएगा तो उसे तुम्हारे फ्लैट का नंबर दे दूंगा।"
नसीमा ने रिसीवर रखा और बाथरूम की तरफ बढ़ गई।
■■■
नसीर।
तीस बरस का स्वस्थ्य युवक था। करीब छः फीट लम्बा। रंग सांवला, लेकिन युवतियों के लिए वो आकर्षक था। कुछ ऐसी कशिश थी उसमें। तीन साल पहले, नसीमा से उसकी मुलाकात हुई। दोनों ने एक-दूसरे को पसंद किया और नजदीकियां बढ़ गई। चंद महीनों में ही वो एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी बन गए। एक-दूसरे को वे जिंदगी का हमसफर मान चुके थे। सिर्फ शादी होनी ही बाकी थी।
डेढ़ घंटे बाद नसीर, नसीमा के पास पहुंचा।
तब तक नसीमा नहा-धोकर कपड़े चेंज कर चुकी थी।
"आज तो जंच रहे हो।" नसीमा के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"मैं हमेशा ही जँचता हूं। तभी तो तुमने मुझे फंसा लिया।" नसीर ने मुस्कुराकर कहा और बैठ गया। नजरें नसीमा के चेहरे पर जा टिकीं--- "क्या खास बात है। किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गई?"
नसीमा ने दरवाजा भीतर से बंद किया और नसीर के सामने आ बैठी।
"मुसीबत वाली बात तो अभी नहीं है। लेकिन भारी उलझन में हूं।" नसीमा के चेहरे पर पुनः सोच के भाव आ ठहरे थे।
"कहो।"
"पूरी बात बताऊं या मोटे तौर पर---?"
"अब मुझे कोई जल्दी नहीं है।" नसीर कह उठा--- "जिस तरह तुम ठीक समझो, उसी तरह बात बताओ।"
"आज दो बार मैं मरते-मरते बची। अगर देवराज चौहान न होता तो इस वक्त तक मैं जिंदा न होती।"
"देवराज चौहान?"
"हां। डकैती मास्टर देवराज चौहान। नाम तो सुना होगा तुमने?" नसीमा की निगाहें नसीर के चेहरे पर जा टिकीं।
"ओह!" नसीर ने जल्दी से पहलू बदला--- "वो खतरनाक इंसान देवराज चौहान। तुम्हें मिला क्या?"
नसीमा ने सहमति से सिर हिला दिया।
नसीर गंभीर और बेचैन सा दिखने लगा था।
"नसीमा! मैंने तुम्हें कितनी बार समझाया है कि इन बुरे और गैरकानूनी कामों में कुछ नहीं रखा। ये रास्ता मौत की दलदल है। इस रास्ते पर इंसान का जितना वक्त बीतता चला जाएगा, मौत उतना ही करीब होती चली जाएगी। क्यों करती हो ये सब।" नसीर का गंभीर स्वर, समझाने वाले भावों से भरा था--- "मुझे देखो। पहले मैं स्मगलिंग करता था। बहुत पैसा बनाया। लेकिन दो बार जेल जाना पड़ा। पकड़ा जो गया था। एक बार डेढ़ साल के लिए और एक बार एक साल के लिए। मुझे अक्ल आ गई कि कुछ नहीं रखा इन बुरे कामों में। इस रास्ते का अंत या तो मौत है, या फिर सारी जिंदगी जेल में। कमाया पैसा कुछ भी काम नहीं आने वाला। ऐसे में मैं स्मगलिंग के रास्ते से पीछे हटता चला गया। स्मगलिंग से जो पैसा बनाया था, उससे शानदार बड़ी दुकान खरीद ली और आज मैं बहुत अच्छे शो-रूम का मालिक हूं। इज्जतदार लोगों में मेरा नाम आता है। बहुत ही अच्छा पैसा कमाता हूं। मेरा कोई दुश्मन नहीं। किसी का डर नहीं मुझे। रात को चैन और आराम से नींद लेता हूं।"
नसीमा, नसीर को देखे जा रही थी।
"अभी भी वक्त है नसीमा। छोड़ दो इन कामों को। बहुत पैसा होगा तुम्हारे पास। और मेरे पास पैसे की कमी नहीं है। निकाह करके हम बहुत अच्छी जिंदगी जी सकते हैं।"
"तुम ठीक कहते हो।" नसीमा गंभीर थी।
नसीर की आंखें सिकुड़ी।
"मतलब कि तुम ये सब काम छोड़ने को तैयार हो?" नसीर के स्वर में अविश्वास के भाव थे।
"इन कामों को मैं छोड़ भी सकती हूं।" नसीमा के होंठ हिले--- "पहले मेरी पूरी बात सुन लो।"
"अभी बाकी है?"
"हां। वापस आकर युवराज पाटिल से मैंने सारी बात की। उसे बताया कि कैसे मैंने देवराज चौहान का एहसान उतारने के लिए उसे बताया कि वो इस तरह वैन पर डाका मारकर मोटी दौलत हासिल कर सकता है। पहले तो वो नाराज हुआ कि मैंने ये बातें देवराज चौहान को क्यों बताईं। बाद में कुछ ठंडा हुआ। बोला, इस बारे में सोच कर कल बात करूंगा। साथ ही उसने ये भी कहा कि इस बारे में ठाकुर या वजीर सिंह से कोई बात न करूं। उसका कहना है कि जरूरत नहीं तो बात आगे नहीं करनी चाहिए। वरना इसका फायदा कोई भी उठा सकता है, यानी कि ठाकुर या वजीर सिंह, उसकी दौलत पर हाथ डाल सकते हैं, या उसकी दौलत के बारे में किसी को बताकर गड़बड़ कर सकते हैं जबकि मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि मेरी तरह ठाकुर और वजीर सिंह भी ईमानदारी से युवराज पाटिल के साथ हैं।" गंभीर स्वर में कहते हुए नसीमा खामोश हुई।
नसीर की नजरें उस पर थीं।
"तुम कहना क्या चाहती हो?"
"ये कि युवराज पाटिल को ठाकुर और वजीर सिंह पर यकीन नहीं तो उसे मुझ पर भी यकीन नहीं होगा। ऐसी कई बातें होंगी, जो कई बार युवराज पाटिल ने मेरे से भी छिपाई होंगी। आज मुझे एहसास हुआ कि मैं एक इंसान के साथ वफादारी कर रहा हूं, जिसे मुझ पर पूरा भरोसा नहीं अपने साथियों पर यकीन नहीं। तो फिर ऐसे इंसान के साथ काम करने का क्या फायदा। जिस दौलत को वो अपना-अपना कहता-फिरता है, उसे मैं, ठाकुर और वजीर सिंह ने खुद को खतरे में डालकर इकट्ठा किया है। युवराज पाटिल की बात पर मन कुछ खट्टा सा हुआ।"
"वो तो ठीक है। मैं समझा तुम्हारी बात को।" नसीर ने गंभीर स्वर में कहा--- "लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं कि अगर युवराज पाटिल ठाकुर और वजीर सिंह को ये बात नहीं बताना चाहता तो, तुम्हें क्या परेशानी है?"
"बहुत बड़ी परेशानी है नसीर।" नसीमा अपने लंबे बालों को छूती हुई बोली--- "ठाकुर और वजीर सिंह को इस मामले से अंजान रखा गया तो वो दोनों दिलो-जान से, देवराज चौहान का मुकाबला करेंगे, जब वो वैन पर हाथ डालेगा, तब उनकी जान भी जा सकती है। आज ठाकुर--वजीर सिंह हालातों से अंजान हैं तो कल को किसी मामले में मुझे भी हालातों से अंजान रखकर, युवराज पाटिल मुझे खतरे में डाल सकता है। यानी कि उसके लिए हमारी जान की कोई खास कीमत नहीं है। ये एहसास हुआ है आज मुझे और ये एहसास बिल्कुल सच्चा है नसीर।"
नसीर, दांतों से होंठ काटते हुए, नसीमा को देखता रहा।
कुछ देर खामोशी रही।
नसीमा के चेहरे पर कठोरता सी नजर आने लगी थी।
"तुम्हारी सोचों का ताना-बाना गलत भी हो सकता है।" नसीर ने धीमे स्वर में कहा।
"क्या मतलब?"
"तुमने बताया कि युवराज पाटिल ने कहा कि इस बारे में वो तुमसे कल बात करेगा।"
"हां।"
"यानि कि वो इस मुद्दे पर सोचना चाहता है। सोचने से पहले कुछ नहीं कहना चाहता। ऐसे में उसने कहा कि अभी ठाकुर या वजीर सिंह से बात ना की जाए इस बारे में तो, इसमें उसने बुरा क्या कहा। देवराज चौहान को लेकर जब वो इस मामले में, अपनी सोचें किनारे पर पहुंचा लेगा तो, उन दोनों से इस बारे में बात करेगा।"
"मेरी बात तुम समझे नहीं नसीर।" नसीमा का लहजा उखड़ गया।
"क्या नहीं समझा---।"
"ये कि युवराज पाटिल इस बारे में ठाकुर और वजीर सिंह से बात नहीं करेगा।" नसीमा बोली।
"तुम ये बात इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो?"
"जिस ढंग से युवराज पाटिल ने उन दोनों को बताने से मना किया, उससे मुझे स्पष्ट हो चुका है कि वो उनमें इस बारे में कोई बात नहीं करेगा। युवराज पाटिल को मैं अच्छी तरह जानती हूं।"
"तुमसे भूल भी हो सकती---।"
"मेरा विश्वास है मुझसे इस मामले में कोई भूल नहीं हो रही।" नसीमा एक-एक शब्द चबाकर कह उठी--- "युवराज पाटिल अपने काम में हम लोगों का इस्तेमाल कर रहा है। इसके अलावा उसकी निगाहों में हमारी कोई कीमत नहीं है। और मैं ऐसे इंसान के लिए काम नहीं कर सकती, जो मतलबी हो। जिसे हमारी जान की परवाह न हो।"
"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि जल्दबाजी में अपने मन में अभी मैल न भरो।"
"क्या कहना चाहते हो तुम?"
"यही कि पहले युवराज पाटिल की फाइनल बात सुन लो। तुम गलती पर भी हो सकती हो।"
नसीमा के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान उभरी।
"मैं गलती नहीं कर रही। ये बात भी जल्दी ही सामने आ जाएगी।" नसीमा कह उठी।
नसीर, नसीमा के मुस्कान भरे चेहरे को देखता रहा।
"अगर।" नसीर कह उठा--- "युवराज पाटिल, ठाकुर और वजीर सिंह को इस बारे में वास्तव में कुछ नहीं बताता तो तुम क्या करोगी? तुम्हारे चेहरे की मुस्कान कुछ इशारा ठीक नहीं कर रही।"
"मैं बहुत कुछ सोच रही हूं। आगे की बात तभी करूंगी तुमसे, जब पाटिल की सोचें मेरे सामने स्पष्ट हो जाएंगी और मुझे इस बात का पूरा विश्वास हो जाएगा कि, युवराज पाटिल की निगाहों में उसके आदमी, काम करने वाली महज मशीनें हैं। हमारी जान की कोई कीमत नहीं, उसकी निगाहों में।"
"मेरे ख्याल में तब तुम ये बात ठाकुर और वजीर सिंह को बताओगी कि---।"
"पागल नहीं हूं मैं।" नसीमा ने अर्थ पूर्ण स्वर में कहा।
"तो क्या करोगी?"
"सब कुछ स्पष्ट हो लेने दो। फिर बताऊंगी।" वही मुस्कान फिर आ गई नसीमा के चेहरे पर।
नसीर देखता रहा नसीमा को। कहा कुछ नहीं।
"उसने कल इस मामले पर बात करने को कहा है। कल मैं नहीं जाऊंगी।" नसीमा बोली--- "युवराज पाटिल को जरूरत महसूस हुई तो कल वो फोन करके मुझे बुला सकता है। नहीं तो उससे परसों ही मुलाकात होगी।"
"मैं चाहता हूं। तुम युवराज पाटिल का काम छोड़ दो। गैरकानूनी काम छोड़ दो। मेरे साथ निकाह करके, शराफत से भरी जिंदगी बिताओ। हम दोनों बहुत खुश रहेंगे।" नसीर ने गंभीर स्वर में कहा।
"एक-दो दिन में इस बात का जवाब दूंगी।" नसीमा गंभीर थी।
■■■
बाकी का दिन और वो रात बीती, नसीमा की। नसीर साथ ही था। अगले दिन नसीमा ने नाश्ता बनाया। दोनों ने किया।
"मैं चलूंगा।" नसीर ने उसे देखा।
"काम है?" नसीमा कह उठी।
"हां।" नसीर ने नसीमा की आंखों में झांका--- "मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूं।"
"क्या?"
"यही कि युवराज पाटिल के मामले में, देवराज चौहान को लेकर, तुम कुछ गलत न कर दो।"
"मुझे नहीं मालूम कि मैं क्या करना चाहती हूं या क्या नहीं।" नसीमा का स्वर शांत था--- "दो-तीन सोचें हैं मन में। किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। तुम्हारा कहना सही है कि पहले युवराज पाटिल के बारे में जान लूं कि स्पष्ट तौर पर उसके मन में क्या है? शायद, मैं ही गलत होऊं।"
नसीर उसे देखता हुआ सिर्फ सिर हिलाकर रह गया।
चुप्पी रही उनके बीच।
"कोई गलत कदम मत उठा लेना।" नसीर ही बोला--- "उससे पहले मुझसे बात कर लेना।"
"तुमसे सलाह नहीं लूंगी, तो किससे लूंगी।" नसीमा ने गहरी सांस ली--- "तुम्हारे सिवाय मेरा है ही कौन।"
"मेरी मानो तो युवराज पाटिल को छोड़ दो। आराम से जिंदगी बिताते हैं।"
"इस तरह युवराज पाटिल से अलग भी नहीं हो सकती। ये बात तुम भी समझते हो कि उसके अधिकतर खास मामलों के बारे में मुझे जानकारी है। मेरे ख्याल से वो मुझे जाने नहीं देगा। जबर्दस्ती की तो शायद मेरी जान भी ले ले।" कहते हुए नसीमा मुस्कुरा पड़ी--- "ये जुदा बात है कि अगर मैंने उससे अलग होने के बारे में सोच लिया तो अलग होकर ही रहूंगी। तब जो भी होगा, उसका सामना करना पड़ेगा। खैर, ये बाद की बात है। अभी मैंने इस बारे में सोचा नहीं।"
नसीर के होंठों पर भी शांत मुस्कान उभरी। आगे बढ़कर उसने नसीमा को बांहों में ले लिया। उसे 'किस' किया। नसीमा ने भी उसे 'किस' किया और कह उठी।
"आज दिनभर फुर्सत में हूं। रुक जाते तो।"
"रुक नहीं सकता। शायद रात को आऊं।" विदा लेकर, नसीर चला गया।
शाम को पांच बजे फोन बजा।
"हैलो!" नसीमा ने रिसीवर उठाया।
"नसीमा!"
"हां।" नसीमा की आंखें सिकुड़ी। ये आवाज उसके लिए नई थी।
"सुरेंद्रपाल ने कहा है फोन करने को कि---।"
"उसका असली नाम...?" नसीमा ने टोका।
"देवराज चौहान।"
"तुम्हारा?"
"जगमोहन।"
"समझी। सुना है तुम्हारा नाम।" नसीमा की आवाज शांत थी--- "मेरा फोन नम्बर कैसे मिला?"
"जो नम्बर तुमने दिया था तो सुरेंद्र पाल का नाम सुनकर ये नंबर दिया गया कि तुम यहां मिलोगी।"
"हूं।" नसीमा ने सोच भरे स्वर में कहा--- "अभी एक-दो दिन लगेंगे, सब कुछ स्पष्ट होने में।"
"वो तो ठीक है।" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी--- "लेकिन ये बात तो सच है कि युवराज पाटिल अपनी सारी दौलत कहीं और ले जा रहा है। या तुमने मजाक किया था देवराज चौहान से?"
"मैं इस तरह के मजाक नहीं करती।"
"मतलब कि सच है।"
"हां।"
"और उस वक्त साथ में कोई खास सुरक्षा नहीं होगी?"
"देवराज चौहान को मैं बता चुकी हूं।"
"प्लीज। मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं।" जगमोहन के स्वर में व्याकुलता भर आई थी।
नसीमा मुस्कुरा पड़ी।
"बहुत बेचैन हो रहे हो।"
"इतनी बड़ी दौलत का मामला है। बेचैन तो होऊंगा ही। मैंने जो पूछा है, वो बताओ।"
"चिंता मत करो। उस वक्त ऐसी कोई सुरक्षा नहीं होगी, जिससे तुम लोगों को परेशानी हो।"
"फिर ठीक है। अब, कब फोन करूं?"
"हर रोज लंच के बाद करते रहना।"
"इस नंबर पर या पहले वाले नंबर पर?"
"दोनों नम्बर ट्राई कर लेना। मुझसे बात हो जाएगी। अपना नंबर दे दो तो ज्यादा ठीक रहेगा।"
"देवराज चौहान से नंबर मांगा था?"
"हां। लेकिन उसने दिया नहीं।" नसीमा ने कहा।
"फिर मैं अपना फोन नंबर नहीं बता सकता। मेरी मजबूरी समझो। मैं---।"
"समझती हूं। तुम कल फोन कर लेना।"
नसीमा ने रिसीवर रख दिया। सोच ही सोच नजर आ रही थी, उसके चेहरे पर।
■■■
रात के दस बज रहे थे।
सोहनलाल ऑटो पर अपने एक कमरे वाले घर के बाहर उतरा। ऑटो वाला पैसे लेकर चला गया तो वो कमरे के दरवाजे के पास पहुंचते ही ठिठक गया। वो ताला लगाकर गया था, परंतु अब वहां ताला नहीं था। स्पष्ट था कि कोई भीतर है। होंठ सिकोड़े सोहनलाल ने दरवाजे के पल्लों को धकेला तो वो खुलते चले गए। भीतर अंधेरा था। उसने निश्चित भाव से आगे बढ़कर लाइट ऑन की।
कुर्सी पर जगमोहन को बैठे पाया।
"तुम।" सोहनलाल ने गहरी सांस ली।
"हां। कल भी देर रात तक यहां था तुम्हारे इंतजार में।" जगमोहन ने कहा।
"लाईट ऑन कर ली होती।"
"उसमें खतरा था।" जगमोहन ने व्यंग्य से कहा।
"कैसा खतरा?"
"कोई तुमसे उधार का पैसा लेने आता और मुझे ठोककर चला जाता।" जगमोहन ने उसी लहजे में कहा।
सोहनलाल ने जगमोहन को घूरा।
"तुमसे ज्यादा इज्जत है मेरी।" सोहनलाल का स्वर तीखा हो गया।
"होगी। मैंने इस बारे में कभी सोचा नहीं।" जगमोहन ने अपनी आवाज में लापरवाही भर ली।
सोहनलाल ने मुंह बनाया और कमीज उतार कर एक तरफ रख दी। कमर पर दो चौड़ी बेल्टें बंधी थीं, जिनमें तरह-तरह के औजार फंसे पड़े थे। बेल्टें उतार कर एक तरफ मौजूद बैड पर रख दी।
"कहां से आ रहे हो?" उन बेल्टों पर नजर मारते हुए जगमोहन ने पूछा।
"काम था। शहर से बाहर।" कहते हुए सोहनलाल बाथरूम की तरफ बढ़ा।
"कोई मुसीबत तो मोल नहीं ले आए।" जगमोहन ने होंठ सिकोड़े।
सोहनलाल ने ठिठककर, उसे घूरा।
"मेरी मुसीबतों से तुम्हें क्या लेना-देना। मेरे कामों में दखल देने की कोशिश मत करो।"
"देवराज चौहान को तुमसे काम है, इसलिए पूछ रहा था।" जगमोहन मुस्कुराया।
"सब ठीक है। कोई मुसीबत मैंने मोल नहीं ली।" कहने के पश्चात सोहनलाल बाथरूम में चला गया।
पांच मिनट पश्चात सोहनलाल बाथरूम से निकला। हाथ-मुंह धो आया था वो। एक तरफ रखे, दूसरे कपड़े उसने पहने और गोली वाली सिग्रेट सुलगाकर कश लिया।
"क्या मामला है?" सोहनलाल कुर्सी पर बैठता हुआ बोला।
"अभी तो कोई खास मामला नहीं है।" जगमोहन ने कहा--- "दो-चार दिन लग सकते हैं।"
"बात क्या है?"
"युवराज पाटिल--- नाम तो सुना ही होगा।"
"सब कुछ सुन रखा है उसके बारे में। सोहनलाल की आंखें सिकुड़ी--- "आगे कहो।"
"वो अपनी सारी कमाई। सारी दौलत इस वक्त जहां है, वहां से कहीं और ले जाने वाला है। ये काम वो बिना किसी शोर-शराबे से कर रहा है। दौलत की सुरक्षा के इंतजाम इसलिए नहीं कर रहा कि किसी को भी उसकी हरकत के बारे में पता ना लगे, जिससे कि कोई उस दौलत को लूटने की सोच ले। यानि आसानी से उसकी अथाह दौलत पर हाथ डाला जा सकता है।"
"ये तो मुसीबत वाला काम हो गया।" सोहनलाल के होंठों से निकला।
"क्यों?"
"क्योंकि दौलत युवराज पाटिल जैसे खतरनाक इंसान की है। मत भूलो वो आज के वक्त में अंडरवर्ल्ड का सबसे बड़ा ताकतवर है। उसे छेड़ना क्या ठीक होगा?" सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा।
"उसे छेड़ने की बात छोड़।" जगमोहन मुस्कुराया--- "इतनी बड़ी दौलत को छोड़ा जा सकता है क्या?"
सोहनलाल ने कश लेकर पहलू बदला।
"जो काम युवराज पाटिल गुप्त रूप से कर रहा है। जिसे करने में तुम्हारे मुताबिक अभी दो-चार दिन बाकी हैं। हैरानी है कि ऐसी गुप्त बात, बाहर निकलकर तुम तक कैसे पहुंच गई?" सोहनलाल ने जगमोहन को देखा।
जगमोहन ने सारी बात उसे बताई। नसीमा वाली बात।
जगमोहन के खामोश होने पर, सोहनलाल ने कहा।
"ये मामला मेरे गले से नीचे नहीं उतर रहा।"
"क्यों?"
"युवराज पाटिल जैसा इंसान, बिना किसी सुरक्षा के अपनी दौलत को सड़क पर ले आए।"
"नसीमा का कहना है कि---।"
"नसीमा कुछ भी कहे। लेकिन जो मैं कह रहा हूं, वो भी सोचने वाली बात है।" सोहनलाल गंभीर था।
जगमोहन ने उसकी आंखों में झांका फिर खड़े होते हुए कह उठा।
"कल आना। इस बारे में देवराज चौहान से बात कर लेंगे।"
सोहनलाल ने कश लिया। उसे देखता रहा।
"अब तो कोई काम हाथ में नहीं है?" जगमोहन ने पूछा।
"नहीं।"
"अब काम हाथ में लेना भी नहीं। इस मामले में तुम्हारी जरूरत पड़ेगी। क्या मालूम युवराज पाटिल अपनी दौलत को कैसे बाहर निकलता है? कोई ताला वगैरह खोलने के लिए तुम्हारी जरूरत अवश्य पड़ेगी।"
"कल आऊंगा मैं।" सोहनलाल होंठ सिकोड़कर बोला।
जगमोहन बाहर निकल गया।
■■■
सोहनलाल सुबह ग्यारह बजे बंगले पर पहुंचा।
देवराज चौहान और जगमोहन वहां मौजूद थे।
"जगमोहन ने बताया तुम बाहर गए थे।" देवराज चौहान ने उसे देखा।
"हां।" सोहनलाल बैठते हुए कह उठा--- "दो-चार ताले खोलने थे।"
"फिर तो करारे नोट लेकर आए होंगे।" जगमोहन मुस्कुरा पड़ा।
"हां।" सोहनलाल भी मुस्कुराया--- "लेकिन तेरे को देने के लिए नहीं है। नोटों का नाम सुनते ही दांत फाड़ने लगता है। कभी तो गंभीर हुआ कर।"
"मेरा काम नोट गिनना है। गड्डियां गिनना है।" जगमोहन बराबर मुस्कुराता रहा--- "या फिर जब तू मुसीबत में फंसता है। खासतौर से पुलिस के हाथों में चढ़ता है तो तब तुझे बचाता हूं। या फिर---।"
"फिर लगा फालतू की बात करने।" सोहनलाल ने मुंह बनाया।
"शुरुआत तूने ही की थी।" जगमोहन हौले से हंसा।
सोहनलाल ने बिना कुछ कहे सिग्रेट सुलगाई फिर देवराज चौहान को देखा।
"कल, जगमोहन ने युवराज पाटिल के बारे में बताया।"
"देवराज चौहान की निगाह, सोहनलाल पर जा टिकी।
"वो आज की तारीख पर अंडरवर्ल्ड की ताकत है। उसके रास्ते में आना ठीक रहेगा?"
"उसकी खास ओहदेदार ही हमें रास्ता दिखा रही है तो फिर कोई हर्ज नहीं।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "वैसे भी युवराज पाटिल की दौलत किसी खजाने से कम नहीं होगी।"
"ठीक है। माना।" सोहनलाल कश लेकर कह उठा--- "लेकिन जगमोहन ने बताया कि युवराज पाटिल अपनी दौलत गुप्त रूप से कहीं ले जा रहा है, तब दौलत की सुरक्षा का कोई खास इंतजाम नहीं होगा।"
"हां। जगमोहन ने ये इसलिए कहा कि नसीमा ने ऐसा कहा है।" देवराज चौहान की नजरें सोहनलाल पर थीं।
"लेकिन मैं ये बात कभी भी नहीं मान सकता कि युवराज पाटिल जैसा इंसान अपनी अंधी दौलत को बिना किसी सुरक्षा के खुले में ले आए। वो पागल नहीं, समझदार इंसान है।" सोहनलाल एक-एक शब्द पर जोर देकर कह रहा था--- "नसीमा की ऐसी बात पर विश्वास करना बेवकूफी के अलावा और कुछ नहीं है।"
"तुम्हें किसने कहा कि हमने विश्वास कर लिया है?" देवराज चौहान मुस्कुरा उठा।
सोहनलाल की आंखों में सवाल उभरा।
"जगमोहन की बातों से तो मुझे ऐसा ही लगा कि---।" सोहनलाल ने कहना चाहा।
"जगमोहन ने तुम्हें वो कहा है, जो नसीमा कह रही है। अभी हम नसीमा की सुन रहे हैं। जब वो अपनी बात पूरी कह लेगी। उसके बाद, उसकी बातों को सामने रखकर सारे मामले और हालातों पर गौर किया जाएगा। अभी मैंने इस मामले पर सोचने की जरूरत इसलिए नहीं समझी कि पहले नसीमा की सुन लें।"
सोहनलाल मुस्कुराया। कश लिया।
"समझ गया।" सोहनलाल ने सिर हिलाया--- "वैसे ये भी हो सकता है कि नसीमा कोई खेल खेल रही हो।"
"ऐसी कोई वजह नहीं है, जिसके तहत, नसीमा मेरे साथ कोई खेल खेले।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "अभी देखते हैं, इस मामले में नसीमा, आगे क्या करती है।"
■■■
युवराज पाटिल ने कश लेकर सामने बैठे ठाकुर और वजीर शाह को देखा।
दिन के ग्यारह बज रहे थे। वही कमरा था। गहरी खामोशी थी वहां। ठाकुर और वजीर शाह की गंभीर निगाहें युवराज पाटिल के शांत चेहरे पर थीं।
"नसीमा ने देवराज चौहान से, आपकी दौलत की बात करके समझदारी का काम नहीं किया।" ठाकुर कह उठा।
युवराज पाटिल ने वजीर शाह को देखा।
"आपकी दौलत का जिक्र किए बिना भी, देवराज चौहान को ऐसा कहकर, नसीमा उसके एहसान को उतार सकती थी।" वजीर शाह कह उठा--- "नसीमा ने वास्तव में गलती की।"
"देवराज चौहान जैसे डकैती मास्टर के सामने मेरी दौलत का जिक्र करना सिरे से ही गलत बात है। युवराज पाटिल ने सिर हिलाकर कहा--- "वो क्या मेरी अथाह दौलत को छोड़ेगा। मुझे नसीमा से ऐसी हरकत की आशा नहीं थी। एक बार उसने इतनी सारी गलती की है वो दोबारा भी कोई गलती कर सकती है, जिससे कि हम लोगों की बादशाहत को भारी नुकसान पहुंच सकता है। हम लोगों के धंधे में जरा सा भी गलत कदम सब कुछ खत्म करवा देता है। मौत के मुंह में पहुंचा देता है। दूसरे लोग ऐसी गलतियों का फायदा उठा ले जाते हैं।"
"मैं आपकी बात से सहमत हूं।" ठाकुर ने कहा।
"मैं भी।"
"लेकिन।" ठाकुर बोला--- "मेरे ख्याल में अभी कोई समस्या पैदा नहीं हुई है।"
"वो कैसे?" वजीर शाह ने उसे देखा।
"नसीमा से कहा जा सकता है कि वो देवराज चौहान की तरफ से अपना हाथ खींच ले। अभी देवराज चौहान के पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि वो दौलत पर हाथ मार सके। मामला यहीं खत्म हो सकता है। नसीमा उसे कह सकती है, दौलत को गुप्त जगह पर ले जाने का प्रोग्राम कैंसिल हो गया है।"
"हां।" वजीर सिंह ने सिर हिलाया--- "मैं भी यही सोच रहा था।"
दोनों की निगाहें पुनः युवराज पाटिल पर जा टिकीं।
युवराज पाटिल ने कश लिया फिर कुछ देर की चुप्पी के पश्चात कह उठा।
"हम लोगों के धंधे में किसी की पहली गलती को उसकी आखिरी गलती माना जाता है। और नसीमा भारी गलती कर चुकी है।" युवराज पाटिल की नजरें दोनों के चेहरों पर रही थीं--- "इस बारे में तुम दोनों क्या कहते हो?"
ठाकुर और वजीर शाह की निगाहें मिलीं।
"पाटिल साहब! नसीमा का ओहदा, भविष्य के लिए छोटा किया जा सकता है।" वजीर शाह ने कहा।
"मतलब की आस्तीन में सांप पालने को कह रहे हो।" युवराज पाटिल बोला।
"वो कैसे?"
"अपना ओहदा छोटा हो जाने पर नसीमा अपमान बर्दाश्त कर पाएगी। दूसरों के सामने वो अपने को कैसा महसूस करेगी। जिन्हें आज वो हुक्म देती है, उनके बीच बैठकर, तुम दोनों का हुक्म सुनना उससे कैसे सहन हो पाएगा।" युवराज पाटिल की आवाज बेहद शांत थी--- "बोलो, मैंने क्या गलत कहा है?"
"आपका कहना ठीक है।" वजीर शाह ने सिर हिलाया।
"उस स्थिति में वो हम लोगों के खिलाफ कोई भी कदम उठाकर, हमें बर्बाद करने की कोशिश कर सकती है। और मेरी कोशिश यही रही है कि आस्तीन में सांप कभी भी न पाला जाए।" युवराज पाटिल बोला।
"मैं सहमत हूं इस बात से।" वजीर शाह सोच से भरे, गंभीर स्वर में कह उठा--- "सब बातों पर गौर किया जाए तो यही रास्ता है कि नसीमा को अपने कामों से अलग कर दिया जाए।"
"तुम दिमाग से काम नहीं ले रहे वजीर।" युवराज पाटिल ने सिग्रेट एशट्रे में डालते हुए कहा--- "नसीमा को अपने से अलग करने का तो ये मतलब हुआ कि घर के भेदी को भेद खोलने के लिए खुला छोड़ देना। नसीमा के पास हम लोगों की कई बातें हैं वो हमें भारी नुकसान पहुंचा सकती है। हमारे दुश्मनों के साथ मिलकर, हमारी जड़ें खोखली कर सकती है। नसीमा से पुलिस भी फायदा उठा सकती है। नसीमा के मुंह खोलने से कानून हमारी गर्दनें पकड़ लेगा।"
खामोशी छा गई वहां पर।
वे एक-दूसरे का मुंह देखने लगे।
गंभीर थे वो दोनों। जबकि युवराज पाटिल शांत था।
खामोशी लम्बी होने लगी।
"तुम कुछ बोलो ठाकुर!" वजीर शाह ने कहा।
"मेरे ख्याल में बात ऐसी नहीं है, जितनी कि हम सोच रहे हैं।" ठाकुर ने कहा।
"साफ कहो।"
"नसीमा हम लोगों की साथी है। उसने अपनी जान पर खेलकर, पाटिल साहब के काम पूरे किए हैं। जब देवराज चौहान ने दो बार उसकी जान बचाई तो भावनाओं में बहकर उसने देवराज चौहान से ऐसी बात कह दी।" ठाकुर ने वजीर शाह फिर युवराज पाटिल को देख कर कहा--- "मैं इसे पर्सनल गलती कहूंगा। इस गलती का हमारे धंधे से कोई वास्ता नहीं है। नसीमा समझदार है, उसे वार्निंग देनी चाहिए कि फिर कभी वो ऐसी गलती न करे। यहीं पर ये सारी बात समाप्त हो जाएगी। भविष्य में सब ठीक रहेगा।"
"ये नसीमा द्वारा की गई पर्सनल गलती नहीं है।" युवराज पाटिल की नजरें ठाकुर के चेहरे पर जा टिकीं--- "उसने मेरी अथाह दौलत की जानकारी, बाहरी व्यक्ति को दी है। इस दौलत को कमाने के लिए हमने क्या-क्या नहीं किया। ठाकुर, आज तुम्हारे पास जितनी भी दौलत है, उसके बारे में मैं बाहरी व्यक्ति को खबर दे दूं कि दौलत को बिना किसी सुरक्षा के, सड़क के रास्ते कहीं ले जाया जा रहा है तो तुम्हें कैसा लगेगा?"
ठाकुर कुछ न कह सका।
"तुम लोगों को ये बात इसलिए छोटी लग रही है, क्योंकि ये गलती तुम लोगों को लेकर नहीं की गई है। अगर ऐसा हुआ होता तो तुम लोग वास्तव में परेशान हुए होते।" युवराज पाटिल की आवाज में ठहराव था।
वजीर शाह कह उठा।
"मेरे ख्याल में दौलत को ले जाने की कोई भी जानकारी नसीमा को न लगने दी जाए।"
"ये तो और भी गलत होगा।" युवराज पाटिल कह उठा--- "ऐसा करने में नसीमा मन ही मन हमारे खिलाफ हो जाएगी। वो यही सोचेगी कि उस पर विश्वास नहीं किया जा रहा। तभी दौलत के जाने की बात उससे छिपाई गई। जबकि पहले हर बात उसकी जानकारी में थी। ऐसे में नसीमा मन ही मन हमारे लिए दुश्मनी रखने लगेगी।
ठाकुर ने गंभीर निगाहों से वजीर शाह को देखा कि फिर युवराज पाटिल से कह उठा।
"आप क्या चाहते हैं पाटिल साहब?"
"परसों यहां से तीन वैन चलेंगी। पीछे वाली वैन में मेरी पूरी दौलत तो नहीं लेकिन एक तिजोरी हीरे-जवाहरातों से भरी होगी। उस वैन को तुम दोनों में से कोई एक चला रहा होगा। तीसरी वैन को नसीमा ड्राइव कर रही होगी।" युवराज पाटिल ने सोच रखा था कि क्या करना है--- "तुम लोगों ने नसीमा को यही दिखावा करना है कि देवराज चौहान के मामले से तुम लोग अंजान हो। नसीमा से मैं बात कर लूंगा। नसीमा देवराज चौहान को बताएगी कि बीच वाली वैन में मेरी दौलत ठूंसी हुई है। और मैं नसीमा को यही बताऊंगा कि आगे वाली वैन में मेरी दौलत है। और हकीकत में हीरे-जवाहरातों से भरी तिजोरी वाली वैन में होगी। समझ रहे हो मेरी बात?"
दोनों ने सहमति से सिर हिला दिया।
"यानि कि उस वक्त नसीमा यही जानती होगी कि मेरी दौलत आगे वाली वैन में है। और बीच वाली वैन में देवराज चौहान को ईनाम के तौर पर दिए जाने वाले पचास करोड़ रखे हैं। वो देवराज चौहान को बीच वाली वैन के बारे में कहेगी कि उसमें मेरी दौलत है। देवराज चौहान बीच वाली वैन पर हाथ डालेगा। और नसीमा के ख्याल के मुताबिक इस तरह देवराज चौहान तक पचास करोड़ पहुंच जाएंगे। जबकि हकीकत में उस वैन में यूं ही कोई सामान रखा होगा, जिससे कि महसूस हो कि वैन में कुछ है।"
युवराज पाटिल दोनों के चेहरों को देख रहा था।
दोनों की निगाह उसके चेहरे पर थी।
"आप आगे भी कुछ कहना चाहते हैं।" ठाकुर ने गंभीर स्वर में कहा।
"हां।" युवराज पाटिल के होंठ हिले--- "जब देवराज चौहान बीच वाली वैन पर हाथ डाले तो उसे वैन ले जाने देनी है। और देवराज चौहान के जाते ही नसीमा को वहीं शूट कर देना है। इस तरह कि अगर कोई देख रहा हो तो उसे यही लगे वैन ले जाने वालों ने नसीमा को शूट किया है।"
माहौल में गंभीरता का गहरापन और भी गहरा गया।
ठाकुर और वजीर शाह की नजरें मिलीं।
युवराज पाटिल पैनी निगाहों से दोनों को देख रहा था।
"पाटिल साहब!" ठाकुर ने गंभीर स्वर में कहा--- "मेरे ख्याल में नसीमा के लिए, ये सजा ज्यादा है।"
"हमारे धंधे में गलती की सजा एक ही होती है। सिर्फ मौत...।" युवराज पाटिल के स्वर में सर्द भाव आ गए।
ठाकुर ने कुछ नहीं कहा।
"मेरी बात मानने पर ऐतराज हो तो कह दो।" युवराज पाटिल ने कहा।
"आपकी किसी बात पर हमें ऐतराज नहीं।" वजीर शाह कह उठा।
"तुम?" युवराज पाटिल ने ठाकुर को देखा।
"हमने आपका हुक्म कभी टाला है क्या।" ठाकुर के होंठों पर मुस्कान उभर आई।
युवराज पाटिल ने नसीमा से फोन पर बात की।
"आप।" उसकी आवाज सुनते ही नसीमा का स्वर आया।
"आराम कर रही हो?" युवराज पाटिल का लहजा सामान्य था।
"जी। कुछ थकान सी महसूस हो रही थी। कोई काम हो तो मैं अभी आ जाती हूं।"
"नहीं। काम कुछ भी नहीं है। मैंने तुम्हें ये बताने के लिए फोन किया है कि परसों मैं अपनी दौलत को गुप्त जगह पर पहुंचा रहा हूं। सारी योजना बना ली है। देवराज चौहान से अगर फोन पर बात हो तो तुमने उसे परसों का दिन बता देना है। बाकी बात कल होगी, जब तुम आओगी।" युवराज पाटिल ने कहा।
"जी। ठीक है। मैं देवराज चौहान से ऐसा ही कहूंगी।" नसीमा का स्वर कानों में पड़ा।
युवराज पाटिल ने रिसीवर रख दिया।
■■■
वहां से बाहर आकर ठाकुर और वजीर शाह में बात हुई।
"तुम्हारा क्या ख्याल है?" ठाकुर गंभीर था--- "नसीमा के लिए मौत की सजा ठीक है?"
"शायद ठीक नहीं है।" वजीर शाह भी गंभीर था।
"कभी हमसे भी अंजाने में गलती हो सकती है।" ठाकुर ने वजीर शाह को देखा।
वजीर शाह ने सहमति में सिर हिला दिया।
"तुम नसीमा को गोली मार सकोगे?" ठाकुर बोला।
"बहुत हिम्मत इकट्ठी करनी पड़ेगी। वो हमारी साथी है।" वजीर शाह दांतों से नीचे वाला होंठ काटने लगा।
"यही हाल मेरा है।" ठाकुर अपने दोनों हाथों को मलने लगा।
"पाटिल साहब अपना फैसला नहीं बदलेंगे।" वजीर शाह ने उसे देखा।
"वो फैसला नहीं बदलेगा। नसीमा को मारकर ही दम लेगा। जबकि उसने ऐसा कोई काम नहीं किया कि उसे मार दिया जाए।"
"मेरे ख्याल में अब हम नसीमा के लिए कुछ नहीं कर सकते...।" वजीर शाह ने गंभीर स्वर में कहा।
ठाकुर हौले से, सोच भरे अंदाज में सिर हिलाकर रह गया।
■■■
शाम को जगमोहन ने नसीमा से बात की।
"अभी कोई प्रोग्राम बना है या नहीं?" जगमोहन ने पूछा।
"परसों का तय हो गया है।" नसीमा ने शांत स्वर में कहा।
"परसों?" जगमोहन का खुशी से भरा स्वर, नसीमा के कानों में पड़ा।
"हां।"
"पक्का है ना?"
"अभी तक तो पक्का ही है। कल शाम को फोन करना। प्रोग्राम बदला तो बता दूंगी।"
"ठीक है। लेकिन युवराज पाटिल का प्लान क्या है? कैसे करेगा वो सब? किस रास्ते से वो माल को ले जाएगा और अंतिम ठोर-ठिकाना कहां है?"
"ये तो मैं भी अभी तक नहीं जानती कि युवराज पाटिल कि वो गुप्त जगह कहां पर है। कल दिन में युवराज पाटिल से इस बारे में बात होगी। सारी जानकारी तुम लोगों को कल शाम को दूंगी।"
"ठीक है। मैं कल फोन करता हूं। परसों के लिए तैयारी भी शुरू कर देता हूं। प्रोग्राम पक्का है ना?"
नसीमा के होंठों पर मुस्कान उभर आई।
"मेरे ख्याल से तो पक्का ही है।"
■■■
रात के ग्यारह बज रहे थे।
मुंबई की दौड़ जोरों पर थी। चमकती स्ट्रीट लाइटें। दौड़ते वाहनों की कतारें और दूर तक रोशनी मारती लाईटें। हॉर्न पर हॉर्न। सबको कहीं न कहीं पहुंचने की जल्दी हो जैसे। सड़क के कुछ फासले पर कहीं-कहीं दौड़ती लोकल ट्रेनों की खड़-खड़ा-खड़।
सब कुछ जैसे मशीनी अंदाज में होता लग रहा था।
नसीमा ने कार को मुंबई सेंट्रल के कार पार्किंग में रोका और उतरकर स्टेशन की तरफ बढ़ गई। वो कमीज-सलवार पहने थी। दुपट्टा सिर पर ले रखा था। जो कि माथे तक आ रहा था। एकबारगी सीधे-सीधे पहचान पाना आसान नहीं था कि वो नसीमा ही है। कानों की तरफ से बाल भी गालों पर कुछ-कुछ आ रहे थे। एक नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचकर वो मुड़ी और वेटिंग हॉल की तरफ बढ़ गई।
ट्रेनों की गड़गड़। यात्रियों और कुलियों का शोर।
कुछ समझ नहीं आ रहा था। हर कोई व्यस्त-परेशान, उलझा सा नजर आ रहा था।
वेटिंग हॉल में प्रवेश करके नसीमा पल भर के लिए ठिठकी। वहां कुर्सियों और बैंचों पर बहुत लोग बैठे हुए थे। पास ही सामानों को रखा हुआ था। बहुत कम जगह खाली थी।
नसीमा की निगाह दीवार के साथ सटा रखी कुर्सी पर बैठे एक व्यक्ति पर जा अटकी। उसकी सामान्य से कुछ ज्यादा ही लंबी और मोटी मूंछें थी। आंखों पर चश्मा था। ठोड़ी पर काला मस्सा स्पष्ट नजर आ रहा था। उसके बगल वाली कुर्सी खाली थी और उस पर अखबार रखा था।
नसीमा कुर्सियों की कतारों से निकलती, टांगों से बचती, नीचे पड़े सामानों से बचती आगे बढ़ने लगी। कोई कुर्सी पर बैठा नींद में था तो कोई अपनी ट्रेन के आने के इंतजार में बार-बार पहलू बदले जा रहा था। तो कोई बगल वाले के साथ बातों में लगा हुआ था।
नसीमा उस मूंछों वाले व्यक्ति के पास पहुंचकर ठिठकी और बगल की कुर्सी पर पड़ी अखबार को उठाकर कुर्सी पर जा बैठी। फिर अखबार को इस तरह खोल लिया, जैसे पढ़ रही हो।
"देर कर दी पहुंचने में।" मूंछों वाला व्यक्ति कह उठा। और कोई न होकर, वो ठाकुर ही था।
"ज्यादा देर नहीं हुई।" अखबार पर निगाहें टिकाए नसीमा बोली--- "बात क्या है? इस तरह मुलाकात क्यों तय की?"
"पाटिल ने तुम्हारी मौत का फरमान जारी कर दिया है।"
ये शब्द सुनते ही नसीमा एकाएक खामोशी हो गई थी। नजरें अखबार पर थीं। होंठ कुछ भिंच से गए थे। दूर से देखने पर कोई महसूस नहीं कर सकता था कि वे दोनों बात कर रहे हैं।
"कब हुआ ये सब?" नसीमा के होंठ हिले।
"आज दिन में।"
"कौन मारेगा मुझे?"
"मैं या वजीर शाह। तब, जब देवराज चौहान वैन को लूट रहा होगा।"
"मेरी गलती क्या है?" नसीमा के होंठ हिले।
"ये कि तुमने देवराज चौहान को पाटिल की दौलत कहीं ले जाने की बात, बता दी।"
"मेरे ख्याल में ये कोई ऐसी गलती नहीं है कि पाटिल को मेरी जान लेने की जरूरत महसूस हो।"
"मेरा और वजीर शाह का भी यही हाल है। लेकिन हमें युवराज पाटिल की बात माननी है। तुम्हें गोली मारनी पड़ेगी। ऐसे में तुम्हें सतर्क करना जरूरी समझा। खुद ही तय कर लेना कि उस वक्त कैसे बचना है।"
"पाटिल की योजना क्या है, देवराज चौहान को लेकर?"
"तीन वैन रवाना होंगी। आगे वाली वैन खाली होगी। बीच की वैन के बारे में तुम्हें बताया जाएगा कि उसमें पचास करोड़ रुपया है, जबकि उसमें कुछ भी नहीं होगा। पाटिल के मुताबिक देवराज चौहान को तुम ये कहोगी कि बीच वाली वैन में पाटिल की दौलत है।
"मतलब कि दौलत पीछे वाली वैन में होगी?"
"हां। लेकिन उसमें भी पाटिल पूरी दौलत नहीं ले जा रहा। हीरे-जवाहरातों को ही भेज रहा है। उसे पूरा विश्वास है कि देवराज चौहान सोच भी नहीं सकेगा कि पीछे वाली वैन में माल होगा। मैं न बताता तो तुम भी नहीं सोच सकती कि पाटिल ऐसा कर रहा है।"
"पाटिल अपना माल कहां पहुंचा रहा है?"
"बताया नहीं। सतर्कता से काम ले रहा है।
नसीमा अखबार पर निगाहें टिकाए, सोचों में डूब गई।
उनके बीच खामोशी रही।
"पाटिल को मेरी जान लेने के बारे में नहीं सोचना चाहिए था ठाकुर...।"
"उसने गलत फैसला लिया है। तभी मैंने तुम्हें यहां बुलाकर सारी खबर दे दी। बिना वजह तुम्हारी जान जाए। ये मुझे पसंद नहीं।" ठाकुर का धीमा स्वर बड़बड़ाहट से भरा था।
"मैंने पाटिल के लिए बड़े-बड़े खतरे मोल लिए हैं। उसने इस बात का भी ध्यान नहीं रखा।"
ठाकुर कुछ नहीं बोला।
"तुमने ये सब मुझे बताकर खतरा लिया है। युवराज पाटिल को हमारी इस मुलाकात की हवा लग गई तो...।"
"हम बहुत सावधानी से मिले हैं। उसे मालूम नहीं होगा।"
"बहुत-बहुत शुक्रिया ठाकुर। मैं इस बात को हमेशा याद रखूंगी कि तुमने पहले ही मुझे सब कुछ बता कर मेरी जान बचाई। वरना मैं धोखे में मारी जाती। अब हम इकट्ठे तो काम नहीं कर सकेंगे। लेकिन मैं तुम्हें याद रखूंगी।"
"वजीर शाह को खबर नहीं है कि मैं तुमसे मिला हूं।" ठाकुर बोला।
"यूं समझो ठाकुर कि हम मिले ही नहीं। सब कुछ वैसे ही चलेगा, जैसे चल रहा है।"
"परसों खुद को बचा लेना। पाटिल इस बात का ऑर्डर दे चुका है कि मैं या वजीर शाह तुम्हें शूट कर दें। पाटिल के सामने ये बहाना भी नहीं बनाया जा सकेगा कि निशाना चूक गया।"
"मैं समझ रही हूं तुम्हारी बात। तुम दोनों अपने निशाने को चूकने मत देना।" कहते हुए नसीमा के स्वर में सख्ती आ गई थी--- "मैं, खुद को बचाने के लिए कोई रास्ता ढूंढ लूंगी।"
"ठीक है।"
"अब मैं चलूंगी। तुम बाद में उठना।" कहने के साथ ही नसीमा ने दोनों हाथों में थाम रखा अखबार फोल्ड किया और उठ खड़ी हुई। फिर अखबार को कुर्सी पर रखने के पश्चात सहज ढंग से वेटिंग हॉल के दरवाजे की तरफ बढ़ गई।
■■■
नसीर ने परेशान निगाहों से, सामने बैठी नसीमा को देखा। रात का एक बजने जा रहा था। ठाकुर से मिलने के पश्चात नसीमा सीधी नसीर के घर पहुंची थी।
नसीमा, नसीर को सब कुछ बता चुकी थी।
"तुम भारी खतरे में पड़ चुकी हो...।" नसीर के होंठों से निकला।
"ये सब युवराज पाटिल का पागलपन है। और कुछ नहीं है।" नसीमा ने शांत स्वर में कहा।
"वो तुम्हें कल भी मार सकता है, जब तुम उससे मिलने जाओगी।" नसीर ने उसे देखा।
"वो तो मुझे कभी भी मार सकता है, लेकिन इस तरह नहीं मारेगा। वो ठाकुर या वजीर शाह के हाथों मुझे शूट करवाकर इज्जत की मौत देना चाहता है। तभी वो बहुत शांति से काम ले रहा है।" नसीमा मुस्कुराई।
"तुम मुस्कुरा रही हो।"
"तो क्या करूं?"
"पाटिल तुम्हें खत्म करने का प्लान बना चुका है।" नसीर के होंठ भिंच गए--- "वो कितना खतरनाक आदमी है मेरे से ज्यादा इस बात को तुम जानती हो। और इस मामले में तुम गम्भीर नहीं लग रही---।"
"मैं बहुत गंभीर हूं। क्योंकि ये मेरी जान का सवाल है और...।"
"ठाकुर का शुक्रिया अदा करो कि, वक्त रहते उसने तुम्हें सतर्क कर दिया।"
"हां। ठाकुर ने अच्छा काम किया है। वरना धोखे में अवश्य मेरी जान चली जाती। मुझे मालूम भी न होता।"
"तुमने मुझे सब कुछ बताया।" नसीर गंभीर था--- "मैं तुम्हें कुछ राय देना चाहता हूं।"
नसीमा ने उसे देखा।
कई पलों तक उनके बीच चुप्पी रही।
"कहो।" नसीमा के होंठ खुले।
"युवराज पाटिल से खुद को बचाना तुम्हारे लिए, इस वक्त सबसे पहला काम है। अभी तुम्हारे पास बहुत वक्त है कि मुंबई से खिसक सको। पंजाब में मेरी खास पहचान के लोग रहते हैं। उनके पास पहुंच जाओ और खामोशी से बैठ जाओ। पाटिल तुम्हें कभी भी तलाश नहीं कर पाएगा। बाद में मैं अपना सब कुछ बेच कर पंजाब में तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा। तुम्हारी तलाश में पाटिल के आदमी मेरे पास पूछताछ के लिए आएंगे। पाटिल तुम्हारे और मेरे संबंधों को जानता है। तब पाटिल सख्ती से तुम्हारे बारे में, मेरे से पूछताछ करेगा। लेकिन मैं सब संभाल लूंगा। सब ठीक रहेगा। इस वक्त आधी रात हो रही है। कार पर अभी पंजाब के लिए निकल जाओ तो ठीक रहेगा। मैं तुम्हें वहां का पता दे देता हूं।"
नसीमा, नसीर के परेशान चेहरे को देख रही थी।
नसीर के खामोश होते ही वहां चुप्पी छा गई। नसीमा ने नसीर की बात का कोई जवाब नहीं दिया। उसे इस तरह खामोश पाकर नसीर ने अपनी परेशानी पर काबू पाते हुए सिग्रेट सुलगाई।
"मेरे ख्याल में तुम्हें मेरी बात पसंद नहीं आई...।" नसीर ने धीमे स्वर में कहा।
"नहीं।"
"मैंने तुम्हें बचने का बहुत अच्छा रास्ता बताया है।" नसीर ने कश लिया--- "शायद तुम कुछ और सोचे हुए हो।"
"हां...।"
"क्या?"
"मैं डरकर नहीं भागूंगी। युवराज पाटिल के पागलपन का जवाब अवश्य दूंगी।" नसीमा के दांत भिंच गए।
"क्या? पागल हो गई हो तुम। तुम...।"
"धीरे बोलो। आधी रात का वक्त है। और ये तुम्हारा घर है नसीर...।"
नसीर ने होंठ भींच लिए।
कुछ देर दोनों में से कोई भी न बोला।
"क्या है तुम्हारे दिमाग में?" नसीर ने धीमे स्वर में कहा--- "तुम पाटिल से नहीं टकरा सकती।"
"देवराज चौहान तो टकरा सकता है।"
"क्या मतलब?"
"देवराज चौहान अगर युवराज पाटिल की दौलत लूट ले, तो क्या पाटिल हाथ पर हाथ रखे बैठेगा? नहीं, वो देवराज चौहान को तलाश करके, उससे अपनी दौलत वापस लेने के लिए सब-कुछ कर देगा। ऐसे में देवराज चौहान खामोश नहीं बैठेगा। उसे मुकाबले पर उतरना पड़ेगा। दोनों में टकराव होगा ही। तब सोचो क्या होगा?"
नसीर होंठ भींचे नसीमा को देखता रहा।
"बेशक पाटिल अपनी सारी दौलत परसों गुप्त जगह पर नहीं पहुंचा रहा। वो सिर्फ एक तिजोरी में हीरे-जेवरातों को भरकर भेज रहा है और मेरे अनुमान के अनुसार उन हीरे-जेवरातों की कीमत बीस-पच्चीस अरब से कम की नहीं होगी। वो हीरे-जेवरात मामूली न होकर बेशकीमती होंगे। इतनी बड़ी दौलत पाटिल और देवराज चौहान, दोनों के लिए मायने रखती है। इस मामले में कोई भी हारना नहीं चाहेगा।"
"ये खतरनाक खेल है। इससे पीछे हट जाओ नसीमा।"
"खतरनाक खेल ही तो खेलती रही हूं अब तक। एक खेल और सही।" नसीमा की आवाज में खतरनाक भाव आ गए थे--- "पाटिल ने बहुत बड़ी गलती कर दी है, मेरी मौत को तय करके। जबकि मैं दिल से उसके प्रति वफादार थी। उसका ये फैसला अब, उसी के लिए ही मुसीबत खड़ी करेगा।"
नसीर, नसीमा के गुस्से से भरे चेहरे को देखता रहा।
"तुम्हारी सोचों से मैं सहमत नहीं हूं।" नसीर ने इंकार भरे ढंग में सिर हिलाया।
"मैं ठीक रास्ते पर चल रही हूं।"
"प्लीज नसीमा! मेरी बात मान लो। यहां से चुपचाप पंजाब चली जाओ। कुछ वक्त बाद मैं भी वहां...।"
"नसीर!" नसीमा उसकी बात काटकर कह उठी--- "ये काम मुझे कर लेने दो। उसके बाद तुम जहां भी जाने को कहोगे, मैं इंकार नहीं करूंगी। लेकिन अब जो करने जा रही हूं, वो करके ही रहूंगी।"
नसीर होंठ भींचे उसे देखता रहा।
"तुम जो भी करना चाहती हो। इससे तुम्हें फायदा क्या होगा? कुछ भी नहीं...।"
"दो फायदे होंगे।" नसीमा ने गंभीर स्वर में कहा--- "एक तो पाटिल को सबक मिलेगा कि उसे अपने साथियों की इज्जत करनी चाहिए। वे काम करने वाले मात्र खिलौने नहीं होते। दूसरा फायदा ये कि मैं देवराज चौहान से बात करूंगी कि पाटिल का जो भी माल उसके हाथ लगेगा, उसका दो प्रतिशत मेरा होगा। मेरे ख्याल में देवराज चौहान को दो प्रतिशत देने में कोई एतराज नहीं होगा। इस तरह मुझे डेढ़-दो अरब की दौलत मिल जाएगी। मैं देवराज चौहान के साथ होऊंगी तो पाटिल के हाथ मुझ तक आसानी से नहीं पहुंच सकेंगे।"
नसीर, नसीमा के क्रोध भरे चेहरे को देखता रहा। बोला कुछ नहीं।
"क्या देख रहे हो?" नसीमा ने पूछा।
"मैं चाहता हूं तुम मुंबई छोड़कर अभी पंजाब के लिए रवाना हो जाओ।" नसीर गंभीर था।
"जो करने जा रही हूं, वो करने के बाद।" नसीमा अजीब से अंदाज में मुस्कुरा पड़ी--- "इसके बाद तुम्हारी हर बात माना करूंगी। रात हो रही है। कुछ नींद ले लेते हैं। सुबह जाना है पाटिल से मिलना है।"
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