बांकेलाल राठौर ने थापर के सामने पहुंचकर मूंछ को बल दिया और आदर भरे स्वर में बोला- “म्हारे को आप याद किये हो थापर साहब?" 


थापर ने फाईल पर से निगाहें उठाकर उसे देखा कि मुस्कराकर एक तरफ फाईल सरका दी।


"बैठो बांके - ।"


"हुक्म-।" बांकेलाल राठौर बैठता हुआ कह उठा । 


"तुमने मेरा आधे से ज्यादा बिजनेस संभाल रखा है बांके। इतना विश्वास मैं किसी पर नहीं-।"


"बांके तो थारे वास्ते जान भी दे दियो।” बांकेलाल राठौर मुस्कराया- "म्हारे को वो दिन न भूलो हो कि जबो अंम भूखों हौवे । म्हारे पास रहनो को ठिकानो न होवे। तब आपने ही म्हारे को सहारा दियो। ईब म्हारे पास बढ़िया घरो हौवे। गाड़ी होवे। बैंक में पैसा - ।"


“ये सब तुम्हारी ही मेहनत है बांके - ।" थापर कह उठा । 


“नेई थापर साहब।” अंम तो थारो मेहरबानी मानियो । तंम तो - । 


"एक इन्सान दूसरे इन्सान के लिये सीढ़ी का काम करता है। होता वही है, जो भगवान चाहता है।"


“यो बात तो अंम भी मानो।”


“मैंने तुम्हें ऐसे काम के लिये बुलाया है, जो हमारे बिजनेस से वास्ता नहीं रखता।"


बांकेलाल राठौर ने थापर को देखा। चेहरे पर गम्भीरता आ गई। "हुक्म – ?” 


“देवराज चौहान आपने बंगले पर नहीं है। जगमोहन भी नहीं।"


“तबो तो वो दोनों अपने कामों में बिजी हौवो - ।" 


“मुझे उनकी जरूरत है। फौरन । मालूम करो, वो कहां हैं। मैं देवराज चौहान से बात करना चाहता हूं।" 


बांकेलाल राठौर का हाथ अपनी मूंछ पर पहुंचा और उसने थापर की आंखों में झांका।


“थापर साहब!" म्हारे को मालूम होवे की मामलों का होवे। आपो को हुक्म नेई मिलो तो अंम चुप रहा। पण ईब तो पाणी सिरों से पार हो गये। म्हारो को हुक्म करो। अंम बंसीलाल की बंसी-।


“बांके - ।” थापर ने गम्भीर स्वर में कहा -“तुम हालातों को नहीं समझ रहे हो।" 


“हालांतों ठीको हौवे । तंम म्हारे को हुक्म दयो। शाम तक

बंसीलाल - ।


“बांके - ।" थापर के स्वर में हल्की सी सख्ती आ गई। 


“हुक्म -।"


“मैंने तुम्हें देवराज चौहान को तलाश करने को कहा है। " 


“यो हुक्म तो बज गयो। पण म्हारे को ये समझ न आवे कि म्हारे होते हुए, देवराज चौहान की क्या जरूरत हौवे।" वो छोरा भी तो हौवे अपणो साथ रुस्तम राव । अंम दोनों मिलकर बंसीलाल को 'वड' देंगे। कहते हुए बांकेलाल राठौर का चेहरा आवेश में सुलग उठा था। 


थापर ने गहरी सांस ली और फिर कह उठा। "मेरी पोजीशन समझने की कोशिश करो। वैसे सारे हालातों से तुम वाकिफ ही हो। शहर भर में मेरा नाम चढ़ते हुए उद्योगपतियों की गिनती में आ चुका है। इधर में जापान की कम्पनी के साथ मिलकर मुम्बई में प्रोजैक्ट लगा रहा हूं। लगभग काम पूरा हो चुका है। ऐसे में किसी उलटे मामले में मेरा नाम जुड़ना ठीक नहीं। तुम्हारा और रुस्तम राव का नाम भी मेरे से अलग नहीं है। बंसीलाल को लेकर मैं अपनी बरसों की मेहनत खराब नहीं करना चाहता। कितनी की कोशिश के बाद मैं शहर भर में अपनी शराफत की छवि बनाने में कामयाब हो पा रहा हूं।"


बांकेलाल राठौर ने हौले से सिर हिलाया और सोच में डूबा मूंछों पर हाथ फैरने लगा।


“ये वक्त मेरे बहुत ही संभल कर चलने का है। " 


“बात तो थारी जमे हो म्हारे को। अंम इस काम में हाथो डालो तो म्हारी इज्जत ही मिट्टी में मिलो हो ।” 


“हां और देवराज चौहान ये सारा मामला संभाल लेगा। किसी को मालूम भी नहीं होगा कि- " 


“अंम समझो। सबो ही समझ गये।"


“तो जल्दी से मालूम करो कि देवराज चौहान कहां है और-।" 


“अभ्भी मालूम करो हूं।" बांकेलाल राठौर उठता हुआ बोला- "यो म्हारे देवराज चौहान का कोई ठिकाणो भी तो न हौवो, उसे बंगलो के अलावा दूसरा। अंम छोरे को भी इसो काम पर लगाओ- ।” 


बांकेलाल राठौर, थापर के ऑफिस से निकला और गैलरी में चंद कदम आगे जाने के पश्चात् आया, दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया। ये सजा-सजाया, उसी का ऑफिस था। वो टेबल के पीछे मौजूद शानदार चेयर पर बैठा और रिसीवर उठाने के लिये हाथ बढ़ाया कि बेल बज उठी।


"हैलो।" बांकेलाल राठौर ने रिसीवर कान से लगाया। 


“बांके साहब - !"


“का, तिवारी हो । ”


“हां, बांके साहब।" दूसरी तरफ से आता स्वर उसके कानों में पड़ा - "मुझे लगता है, मुसीबत आ रही है।"


"थारे को कभी चैन भी हुओ क्या?" 


"ज्ञानचंद कहता है कि फैक्ट्री में वो हड़ताल करा देगा।" 


“क्यों- उसके बापो की फैक्ट्री होने का अंम उससे तनख्वाह पाओ का?”


वो कहता है, मेरी तीन हजार तनख्वाह बढ़ा दी जाये। ऐसा वो इसलिये कहता है कि लेबर-स्टाफ पर उसकी पकड़ है। वो ऐसा करवा भी सकता है बांके साहब- ।


"म्हारी सुनो तम।" बांकेलाल राठौर का हाथ अपनी मूंछ पर पहुंच गया- "ज्ञानचंद के साथ-साथ उसो की बीवी, साली और साली के आदमी को नौकरी से निकाल दो। पूरा हिसाब करा दियो हरामी का । लात मार कर फैक्ट्री के फाटक से बार को खड़ा कर उसे और बोल, नाचो ले, जितना मन चाहे । उसका चक्कर साली के साथ भी है। ये बातों उसो को बीवी के कानों में डाल दयो । पण पैले ज्ञानचंद के कानों में बात जरूर डालयो। म्हारे को पक्को पता हौवे कि वो ये सब सुनकर ही सीधो हो जायो।" कहने के साथ ही बांकेलाल राठौर ने लाईन काटी और नम्बर डायल किया। लाईन मिली। रुस्तम राव की आवाज कानों में पड़ी ।


"हैलो - ।"


“छोरे-!" बांकेलाल राठौर ने मूंछ उमेठी-“का मरो पड़ो हो तू? 


“वाप! आपुन तो तेरे फोन की वेट करेला है। तू किधर को

है, नजर नेई आयेला बोत दिन से।”


“थारे को सैकड़ों बार बोलो हूं, तू म्हारे को बाप मत बोलो। म्हारा ब्याह नेई हौवो तो अंभ बाप कैसे बन गयो। वो हम्हारी गुरदासपुर वाली सुन लयो तो, बोत दुःखी हो जाये कि अम वाप बनो हो।"


“आपुन के तो सब बाप ही होएला बाप । तू बोल इधर कू फोन क्यों मारा ? बिजी हूं।"


“छोरे, म्हारे को अकड़ मतो दिखायो। अंम थारे को पुट्टठा लटका दयो। तम बिजी हौवो तो क्या अंम बैठो के माकखिया मारो हो।" बांके लाल राठौर का स्वर तीखा हो गया- “का पहाड़ खोदो हो तम-?"


“थापर साहब ने आपुन को वो प्लॉट खाली कराने को बोएला  है, जिधर अफजल भाई कबजा करेला है। फोन पे बैठा अफजल भाई का इन्तजार करेला है वाप। आज मामला नककी होएला। पक्का-।" 




“छोरे - ।" बांकेलाल राठौर ने गम्भीर स्वर में कहा -“थापर साहब का ही बोत जरूरी कामो हौवे है। अभ्भी करना है।" 


कुछ पलों की चुप्पी के बाद रुस्तम राव की आवाज आई। 


“वाप! बंसीलाल का मामला होएला क्या?"


“तू तो सब जानो हो छोरे- ।" बांकेलाल राठौर के गम्भीर चेहरे पर मुस्कान उभरी।


“इधर-उधर भी नजर रखना मांगेला बाप आपुन सीधा नेई देखेला।" रुस्तम राव के आने वाले स्वर में गम्भीरता थी-“बंसीलाल ने थापर साइब की जान लेने की कोशिश किएला। थापर साहब किस्मत से बचेला है। पूरी खबर पर आपुन का नजर होएला। आज ही उसे खल्लास करने का- ।" आखिरी शब्दों में, रुस्तम राव के खतरनाक भाव मचल उठे।


बांकेलाल राठौर जानता था कि वो बिल्लौरी आंखों वाला मासूम-गोरा-चिट्टा सा दिखने वाला छोकरा कितना जालिम है। वक्त आने पर हाथी तक को हरा देने का दम रखता है।


“छोरे: धारे को कुछ नेई करना। थापर साहब का हुक्म हौवे हो । थापर साहब की मजबूरी हौवे कि इस मामले में हाथ पे हाथ रखो कर बैठने का।” 


“आपुन नेई समझेला, बात को।”


“मन्ने तो मामला थारे कानों में डाले हो। ईब काम की बात भेजे में डालो आयो । थापर साहब को देवराज चौहान की सख्त जरूरत हौवे । वो चाहो हो कि ये मामलो देवराज चौहान ही निपटो हो। वो अपने बंगलो पर नेई हौवो। जगमोहन भी नेई हौवे तम देखो दोनों का हौवें । "


"देवराज चौहान को ढूंढना तो बोत प्रॉब्लम होएला बाप-।" रुस्तम राव की आवाज आई।


“म्हारे को कुछ पता नेई हौवे थारी प्रॉब्लम के बारे में। अंम तो देवराज चौहान को ढूंढनो वास्ते यहां से निकलो हो । तंम भी ये करो हो । जो भी खबर हो, वो थापर साहब को ही दयो हो, म्हारे को नहीं।" कहने के साथ ही बांकेलाल राठौर ने रिसीवर रखा और होंठ भींचे उठ खड़ा हुआ।


***

P6
गोवा के सी-व्यू होटल की पांचवीं मंजिल पर स्थित कमरे की खुली खिड़की पर खड़ा जगमोहन, समन्दर की शांत लहरों का नजारा देख रहा था। दिन के ग्यारह बज रहे थे। समन्दर की सतह से टकरा कर आती ठण्डी हवा, उन जोड़ों को बहुत भली लग रही थी, जो खुले में रेत पर लेटे, मौज-मस्ती का मजा ले रहे थे। कुछ जोड़े समन्दर में तैर रहे थे ।

धूप भी उन जोड़ों के उत्साह को कम नहीं कर पा रही थी। जगमोहन ने बीच पर से निगाह उठाकर, दूर तक फैले समन्दर पर निगाह मारी। हर तरफ नीला-नीला पानी ही नजर आ रहा था। दूर, बहुत दूर एक जहाज और कई स्टीमर, छोटी नौकाएं दूर पानी में नजर आ रही थीं। उन पर मौजूद लोग समन्दर की सैर का मजा ले रहे थे ।

जगमोहन वहां से हटा और कमरे में टहलता हुआ दाईं तरफ की खुली खिड़की पर आ खड़ा हुआ। वहां से होटल का प्रवेश गेट और पोर्च स्पष्ट नजर आ रहा था।

उस खिड़की पर रुकते ही जगमोहन की आंखें सिकुड़ीं। माथे पर बल नजर आने लगे। उस के देखते ही देखते पोर्च में कार रुकी और कार से बाहर निकलने वाले को पहचानने में वो कभी भी धोखा नहीं खा सकता था। वो थापर था।

थापर ? जो कभी मामूली चोर, जेब कतरा हुआ करता था। लेकिन देवराज चौहान के साथ मंगोलिया से लौटा था तो पास में बेशुमार दौलत थी। उसी दौलत के दम पर उसने खुद को मुम्बई में स्थापित किया । पहले तो उसने ड्रग्स के काम में हाथ डाला, परन्तु देवराज चौहान के मना करने पर उसने ये काम छोड़ दिया और शरीफों की तरह फैक्ट्री खोल ली। चंद ही सालों में तरक्की की और अब वो जापानी कम्पनी के साथ मिलकर, हिन्दुस्तान में मिल लगा रहा था । और भी उसके कई बिजनेस थे। मुम्बई का जाना-पहचाना इज्जतदार नाम था थापर का ।

थापर, यहां इस होटल में। गोवा में और वो भी अकेला! थापर के अलावा उसने कार से किसी को बाहर निकलते नहीं देखा था। थापर के बाहर निकलते ही कार पार्किंग की तरफ बढ़ गई थी और थापर होटल के भीतर प्रवेश कर गया था।

जगमोहन सोच के भाव चेहरे पर समेटे कुछ पल खिड़की पर ही खड़ा रहा। फिर वहां से हटा और छोटी सी तिपाई पर मौजूद इन्टरकॉम का रिसीवर उठाकर बगल वाले कमरे का नम्बर दबाया।

तुरन्त ही रिसीवर उठाया गया। नगीना की आवाज उसके कानों में पड़ी । 

"हैलो - !"

“भाभी!" जगमोहन बोला- "देवराज चौहान से बात कराना।" 

( थापर और नगीना के बारे में जानने के लिये पढ़ें अनिल मोहन के देवराज चौहान सीरीज़ के पूर्व प्रकाशित दो उपन्यास, ज्वालामुखी एवं खूंखार ।)

दूसरे ही पल देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी। 
"कहो- ।"

“थापर अभी-अभी होटल में आया है।" 

“थापर - ?”

“हां। मेरे ख्याल में वो अकेला है। उसके साथ उसका कोई गनमैन नहीं है। जबकि उसके कई दुश्मन हैं। देवराज चौहान की तरफ से आवाज नहीं आई। 

“तुमने तो उसे यहां नहीं बुलाया होगा।" जगमोहन बोला। 

“नहीं। थापर से मेरी बात हुए दो महीने से ऊपर का वक्त हो चुका है।" देवराज चौहान की आवाज सुनाई दी।

“हो सकता है, वो अकेला ही किसी काम की खातिर यहां आया हो।" जगमोहन ने कहा।

“अवश्य हो सकता है। तुम कमरे से बाहर निकलकर थापर को देखो ।”

“ठीक है।” इसके साथ ही जगमोहन ने रिसीवर रखा और आगे बढ़कर, दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।

***
डोरबेल बजने पर देवराज चौहान ने दरवाजा खोला तो सामने थापर को खड़े पाया ।

कुछ देर पहले ही जगमोहन ने थापर के बारे में खबर दी थी। देवराज चौहान को जरा भी आशा नहीं थी कि थापर होटल में सीधा उसके पास आयेगा। यकीनन कोई खास बात है। देवराज चौहान मन ही मन सतर्क होते हुए, चेहरे पर मुस्कान ले आया ।

“तुम्हें यहां देखकर हैरानी हुई थापर।" देवराज चौहान उसे रास्ता देते हुए कह उठा।

" हैरानी की कोई बात नहीं।” थापर शांत भाव में हंसा- "कल देर रात मुझे खबर मिली कि तुम यहां हो। मैं आ गया।" 

“खबर मिली ?” देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े। 

“मतलब कि मैंने अपने चंद खास आदमियों को तुम्हारे बारे में पता करने को कह रखा था। तुम पांच दिन से मुम्बई में नहीं हो। रात मुझे पता चला कि तुम यहां पर हो।” थापर के होंठों पर मुस्कान थी।

देवराज चौहान ने थापर की आंखों में झांका। “भीतर आओ। बाहर क्यों खड़े हो ?"

“नगीना भाभी भीतर है। अगर होटल के रेस्टोरेंट में चले तो- ।" 

“नगीना के सामने तुम कैसी भी बात कर सकते हो। वो तुम्हारे लिये अंजान नहीं है।"

थापर भीतर प्रवेश कर गया ।

देवराज चौहान ने दरवाजा बंद किया।

कमरे के बीचों-बीच ही चांद जैसी खूबसूरती के साथ नगीना खड़ी थी। कमर तक लहराते खुले लम्बे बाल। कमीज-सलवार पहन रखी थी। दुपट्टा बहुत ही अच्छे ढंग से ले रखा था। माथे पर बिंदिया। होठों पर गहरी लिपिस्टिक ।

लेकिन थापर जानता था कि जोधा सिंह जैसे इन्सान की बेटी नगीना कितनी खतरनाक लड़ाका है। मंगोलिया की धरती पर, नगीना के जौहर थापर अपनी आंखों से देख चुका था।

“नमस्कार भाभी- ।” थापर ने मुस्कराते हुए दोनों हाथ जोड़कर कहा।

“नमस्ते भैया।” नगीना ने भी हाथ जोड़े - “सालों के बाद आज हमारी मुलाकात हो रही है।”

“हां भाभी। मंगोलिया से निकलने के बाद हमारी कभी मुलाकात नहीं हुई।” थापर ने आदर भरे स्वर में कहा- "मुलाकात का ऐसा कभी इत्तफाक ही पैदा नहीं हुआ।"

“आपको देखते ही, मंगोलिया की यादें एक बार फिर मेरे मस्तिष्क में ताजा होने लगीं।" नगीना ने मुस्कराकर कहा- “बैठिये भैया आप खड़े क्यों हैं?”

धापर आगे बढ़कर सोफा चेयर पर बैठ गया। देवराज चौहान भी बैठा और नगीना से कहा । “रूम सर्विस में चाय-कॉफी के लिए...."

“जी- ।” कहते हुए नगीना इन्टरकॉम की तरफ बढ़ गयी। देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई। इस दौरान निगाहें थापर पर ही रहीं।

“इस तरह मुझे आया पाकर तुम्हें हैरानी अवश्य हो रही होगी देवराज चौहान- ।” थापर ने गम्भीर स्वर में कहा। 

“अब नहीं हो रही। लेकिन पहले हुई थी।" देवराज चौहान का स्वर शांत था- “तुम बता चुके हो कि तुमने मेरी तलाश करवाई तो तुम्हें मालूम हुआ, मैं यहा हूं। जाहिर है कि मेरे से कोई खास काम ही होगा।" 

"हां- ।” थापर ने गहरी सांस ली।

नगीना भी वहां पहुंचकर, कुर्सी पर बैठ चुकी थी। 

"जब तुम्हें मालूम हो गया था कि मैं इस होटल में हूँ तो फोन पर ही बात कर-।"

"ये फोन वाली बात नहीं है।" थापर की निगाहें देवराज चौहान के चेहरे पर जा टिकीं ।

“एक आदमी को खत्म करना है।" थापर के होंठ भिंचते चले गये ।

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं। नगीना गम्भीर नजर आने लगी।

“तुम्हारे लिये तो ये कोई बड़ा काम नहीं।" देवराज चौहान ने थापर की आंखों में देखा।

“इस मामले में मैं अब तक अपने चार आदमी गवां चुका हूं।" थापर ने उसी लहजे में कहा- "बांके या रुस्तम राव को में इस मामले में नहीं डालना चाहता कि कोई गड़बड़ हो जाये। क्योंकि इन दिनों जापान के लोगों के साथ मुम्बई में 'मिल' लगा रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि अखबारों में मेरा नाम किसी भी वजह से आये। मेरा 'मिल' वाला प्रोजेक्ट रुक गया तो मुझे बहुत बड़ा नुकसान होगा।"


“असल बात क्या है?" देवराज चौहान गम्भीर था। 

“बंसीलाल नाम के आदमी ने मेरे खास कर्मचारी की बेटी का अपहरण किया और कई दिनों तक उसके साथ बलात्कार करता रहा। एक दिन मौका पाकर वो बंसीलाल की कैद से भाग निकली। लेकिन ज्यादा दूर तक नहीं जा सकी और उसे गोलियों से भून दिया गया।" कहते हुए थापर का चेहरा गुस्से से भर उठा था - "पुलिस ने उसकी लाश को खास गम्भीरता से नहीं लिया। मामला रफा-दफा कर दिया। जब बात मुझ तक पहुंचती तो मैंने अपने तौर पर मामले की छानबीन कराई। बंसीलाल का नाम सामने आया। ऐसे में मैंने दिव्या के पिता से वायदा किया कि उसकी बेटी के हत्यारे को खत्म करवा दूंगा। इस काम के लिये मैंने अपने दो निशानेबाज लगा दिये, बंसीलाल को खत्म करने के लिये। दूसरे ही दिन उन दोनों निशानेबाजों की हत्या कर दी गई और अगले दिन मुझ पर जान लेवा हमला हुआ। कार में मौजूद दोनों व्यक्ति गोलियों से छलनी हो गये। लेकिन मैं बच गया, चार आदमियों को बंसीलाल ने खत्म कर दिया। ऐसे में मैं ! खुलकर सामने आता हूं तो, इस लड़ाई में मेरा नाम सामने आ सकता । है, जिससे कि मेरे प्रोजैक्ट को नुकसान पहुंच सकता है।" मेरे साथ

देवराज चौहान ने कश लिया।

"बंसीलाल की असलियत क्या है, आम आदमी यूं चार की हत्या नहीं कर सकता।" नगीना ने गम्भीर स्वर में कहा- “कोई इतनी हिम्मत नहीं रख सकता कि किसी लड़की का अपहरणबलात्कार और फिर उसकी हत्या कर दे।”

"बंसीलाल के बारे में मैंने मालूम किया है।" थापर भिंचे स्वर में बोला- "वो, वो शख्स है, जो चुनावों के वक्त नेताओं की सहायता करता है। हत्याएं करता है और उनसे मोटा पैसा लेता है। कई नेताओं का हाथ उसकी पीठ पर रहता है। बंसीलाल के पास हत्यारों और बदमाशों की फौज जमा रहती है। मतलब कि वो कुछ भी कर गुजरने की हिम्मत रखता है।”

तभी दरवाजे पर थपथपाहट हुई ।

***